नास्तिक बहू: भाग 3- नैंसी के प्रति क्या बदली लोगों की सोच

नैंसी का बस इतना कहना था कि नलिनी ने प्रचंड रूप धारण कर लिया और कहने लगी,”प्रौब्लम यह है कि तुम चाहती ही नहीं हो कि हम तुम्हारे साथ रहें, मैं तुम्हें किसी बात पर रोकटोक करूं, तुम्हें साड़ी पहनने को कहूं, तुम्हें अपने संग भजनकीर्तन में भाग लेने को कहूं, तुम्हें कालोनी की दूसरी बहुओं की तरह संस्कारी बनाने की कोशिश करूं.”

नैंसी आवाक नलिनी को सुनती रही फिर बीच में ही उसे रोकती हुई बोली,”मम्मीजी, यह सब बेबुनियाद बेकार की बातें आप क्यों कह रही हैं?”

“अच्छा… बेबुनियाद बेकार की बातें? तुम कुछ दिन पहले ओल्ड‌ऐज होम ग‌ई थी और वहां से फौर्म भी ले कर आई हो, तुम हमें वृद्धाश्राम भेजना चाहती हो लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगी. हम अपने पुराने मकान में शिफ्ट हो जाएंगे. मैं ने किराएदार से मकान भी खाली करवा लिया है. हम वहीं जा रहे हैं यह उसी की तैयारी है,” नलिनी तमतमाती हुई बोली.

इतना सब सुनने के बाद नलिनी के पति सौरभ चिढ़ते हुए बोले,”यह क्या बकवास कर रही हो. नैंसी ओल्ड‌ऐज होम जरूर गई थी, वहां से वह फौर्म भी ले कर आई है लेकिन हमें ओल्ड‌ऐज होम भेजने के लिए नहीं. नैंसी हर महीने कुछ सेविंग करती है और जब उस के पास अच्छीखासी सेविंग हो जाती है तो वह उन रूपयों से जरूरतमंदों की मदद करती है. कभी किसी गरीब मजदूर बच्चे के स्कूल का फीस भर देती है तो कभी किसी अनाथालय में जा कर उन की सहायता करती है.

“इस बार मैं ने ही उस से कहा कि मेरे दोस्त को सहायता की जरूरत है. मेरे दोस्त के बच्चे उसे वृद्धाश्रम में छोड़ कर, उस से सारे नाते तोड़ कर चले ग‌ए हैं. वह बहुत बीमार है. उस के इलाज के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं इसलिए नैंसी वृद्धाश्रम गई थी और किसी संस्था में रूपए जमा करने के लिए उन की अपनी कुछ औपचारिकताएं होती हैं, उसी का फौर्म ले कर आई है नैंसी, जो तुम ने देखा होगा.”

यह सुनते ही नलिनी गुस्से में बोली,”अगर ऐसी ही बात है तो आप सब ने मुझे क्यों नहीं बताया?”

नलिनी के इस सवाल का जबाव नैंसी ने बड़े प्यार दिया, वह बोली,”मम्मीजी, क्योंकि मैं यह जानती थी कि अगर मैं आप से कहूंगी कि मेरे पास कुछ रूपए हैं और मैं उन्हें किसी अच्छे कामों में लगाना चाहती हूं तो आप कहतीं कि उसे हम मंदिर के किसी ट्रस्ट को दान दे देते हैं, भव्य भजन संध्या का आयोजन करते हैं या किसी मंदिर में अनुष्ठान करा लेते हैं लेकिन मैं ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहती थी, क्योंकि मैं उन पैसों से केवल जरूरतमंदों की सहायता करना चाहती थी और आगे भी यही करना चाहूंगी. और रही बात आप लोगों को वृद्धाश्रम भेजने की तो मैं यह अपने सपने में भी कभी नहीं सोच सकती. आप और पापाजी तो इस घर की शान हैं, इस घर की रौनक हैं. छोटों के सिर पर अपने बड़ों का हाथ होना ही दुनिया की सब से बड़ी दौलत होती है जिसे मैं किसी भी हाल में खोना नहीं चाहती हूं.”

तभी नलिनी का मोबाइल बजा और उस के फोन उठाते ही उस के चेहरे का उड़ता रंग इस बात की पुष्टि कर रहा था कि अवश्य कोई गंभीर बात है. नलिनी के फोन रखते ही सभी ने एक स्वर में कहा,”क्या हुआ?”

नलिनी ने कोई उत्तर नहीं दिया, बस वह नैंसी का हाथ पकड़ कर खींचती हुई बोली,”तू चल मेरे साथ मैं सब बताती हूं,” कहती हुई नलिनी अपनी सहेली सुषमा के घर नैंसी को ले कर पहुंची.

वहां पहुंच कर नैंसी ने जो दृश्य देखा उसे देख कर वह स्तब्ध रह गई. सुषमा और उस के पति का कुछ सामान जमीन पर बिखरे हुए थे. सुषमा रो रही थी, उन के पति खिड़की से बाहर की ओर देखते हुए मौन खड़े थे. बेटा हाथ में हाथ धरे यह सब देख रहा था और सुषमा की सुसंस्कारी बहू उन पर जोरजोर से चिल्ला रही थी.

नलिनी को देखते ही सुषमा भाग कर उस के पास आ गई और उसे गले लगा कर रोती हुई बोली,”नलिनी, देख न रमा क्या कह रही है. यह कह रही है कि हम इस घर को छोड़ कर कहीं और चले जाएं क्योंकि यह घर उस के पति के नाम पर है. इस घर को बनाने के लिए उस के पति ने लोन लिया है. अब तुम ही बताओ इस उम्र में हम अपना घर छोड़ कर कहां जाएंगे?”

यह सुन कर नलिनी ने रमा को बहुत समझाने की कोशिश की कि सासससुर मातापिता के समान होते हैं. यह घर जरूर तुम्हारे पति के नाम पर है लेकिन तुम्हारा पति इन का इकलौता बेटा है. लोन जरूर तुम्हारे पति ने ली है लेकिन इन्होंने भी अपना पुराना घर बेच कर कर इस घर में पैसे लगाया है. अपनी जमापूंजी भी इस घर में लगाई है लेकिन रमा कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी, उलटा वह नलिनी से बदतमीजी पर उतर आई. यह देख नैंसी की आंखें लाल हो गईं और वह रमा पर तनती हुई बोली,”तुम्हें बड़ों से बात करने की तमीज नहीं है यही है तुम्हारे संस्कार.”

नैंसी का इतना कहना था रमा अकड़ती हुई बोली,”तुम संस्कारों के बारे में कुछ जानती भी हो, तुम तो खुद अपने सासससुर को वृद्धाश्रम भेज रही हो और यहां मुझे संस्कारों के पाठ पढ़ाने आई हो.”

“तुम से किस ने कहा कि मैं अपने मम्मीपापा को वृद्धाश्रम भेज रही हूं. तुम जैसी छोटी सोच वाले ही ऐसा सोच सकते हैं और ऐसा कर सकते हैं. मातापिता तो बच्चों के लिए सुरक्षा कवच की तरह होते हैं और अपने सुरक्षा कवच को अपने से अलग नहीं किया जाता, लेकिन तुम्हें यह बात कहां से समझ आएगी, तुम्हारी आंखों पर तो पट्टी बंधी है. तुम एक बात अच्छी तरह से समझ लो कि तुम अंकलआंटी को इस घर से नहीं निकाल सकतीं,” नैंसी ने जोर डालते हुए कहा.

“क्यों? क्यों नहीं निकाल सकती और तुम कौन होती हो मुझे रोकने वाली…” रमा गुर्राती हुई बोली.

“मैं कोई नहीं होती तुम्हें रोकने वाली लेकिन कानून तुम्हें रोक सकता है. बस, एक पुलिस कंप्लैंट की जरूरत है, बेहतर होगा कि तुम अंकलआंटी को ऊपर वाले हिस्से में आराम से रहने दो और तुम अलग रहना चाहती हो तो नीचे के हिस्से में सुकून से रहो और इन्हें भी रहने दो,” नैंसी रमा की ओर उंगली दिखाती हुई बोली.

पुलिस कंप्लैंट की बात सुन कर रमा डर गई और सुषमा और उस के पति का मकान के ऊपरी हिस्से में रहने के लिए मान गई. रमा के मानते ही नैंसी जमीन पर बिखरे सुषमा और उस के पति का सामान उठा कर जमाने लगी. यह देख नलिनी और सुषमा को अपनी सोच पर आज पछतावा हो रहा था. नलिनी को हमेशा इस बात का मलाल था कि उस की बहू नैंसी संस्कारी नहीं है और न तो वह किसी पूजापाठ या भजनकीर्तन में शरीक होती और न ही कोई धर्मकर्म या पुण्य का कार्य करती है लेकिन आज वह समझ गई थी कि असली धर्मकर्म और पुण्य क्या होता है.

सुषमा नलिनी को गले लगाती हुई बोली,”तेरी बहू सच में सुसंस्कारी है, उसे समझने में भूल हम से ही हुई है.”

नास्तिक बहू: भाग 2- नैंसी के प्रति क्या बदली लोगों की सोच

“अब क्या बताऊं सुषमा, तुम तो जानती ही हो नैंसी को, उस का मन कहां लगता है इन सब में, उस से तो बस फैशन करवा लो, बिना मिर्चमसाला के खाना बनवा लो या फिर इधरउधर घूमने को कह दो, एक पैर में खड़ी रहती है,” नलिनी दुखी और शिकायती अंदाज में बोली “अच्छा छोड़ इन सब बातों को, ठीक ही है जो वह नहीं आ रही है. वैसे भी मुझे तुम्हें बहुत जरूरी बात बतानी है, जो मैं उस के सामने तुम्हें बता नहीं पाऊंगी. अब तुम जल्दी बाहर मिलो मैं फोन रखती हूं,” अपनी सारी बातें रहस्यमय तरीके से कहने के बाद सुषमा ने फोन रख दिया.

सोसाइटी के मंदिर प्रांगण में मेला सा लगा हुआ था. खूब धूम मची हुई थी, यह एक प्रकार का साप्ताहिक मेला का आयोजन जैसा ही था. हफ्ते में 1 दिन भजनकीर्तन सभी महिलाओं के मनोरंजन के साथ ही साथ सुसंस्कारी होने का परिचायक भी था.

आसपास के सोसाइटी की औरतें भी पूरे मेकअप में इतना सजधज कर आई थीं जैसे शादीब्याह में आई हों या फिर कोई फैशन शो चल रहा हो. छोटेछोटे समूह बना कर सभी औरतें एकदूसरे से गुफ्तगू करने में लगी हुई थीं. उन में से कोई अपने कान का न‌या झुमका दिखा रही थी, तो कोई अपनी साड़ी पर इतरा रही थी, कोई अपनी सास की दुष्टता के कर्मकांड बयां कर रही थी. कोई अपनी बहू के आतंक पर रो रही थी, तो कोई अपने ही घर की कहानी सुना रही थी. सभी अपनीअपनी गाथाएं सुनाने में लगी हुई थीं.

नलिनी भी अपनी संगी सुषमा और उस की बहू के संग प्रांगण में पहुंची. वहां पहुंचते ही सुषमा की बहू रमा अपनी सास को छोड़ कर कर अपनी हमउम्र और अपनी सहेलियों के पास खिसक ली. खूब ढोल, ताशे और मंजीरे बजे, भक्ति गीतों से पूरा परिसर गुंजायमान हो उठा. कुछ बुजुर्ग महिलाएं वहां पर उपस्थित महिलाओं को भजनकीर्तन, पूजाअर्चना का जीवन में महत्त्व समझा कर अपनेअपने घरों का पोथापुराण ले कर बैठ गईं और फिर बाकी महिलाएं भी इधरउधर की बेकार की बातें ले कर शुरू हो गईं. यह सब हर सप्ताह का दृश्य था.

नलिनी और सुषमा दोनों भजन के बाद अलगथलग एक कोने में जा बैठीं तब नलिनी ने कहा,”तुम फोन पर कह रही न कि तुम मुझे कुछ बताना चाहती हो तो अब बताओ तुम क्या बताना चाहती हो.”

सुषमा ठंडी सांसें भरती हुई बोली,”देखो नलिनी, मैं तुम से जो कहने जा रही हूं उसे धैर्य और ध्यान से सुनना. तुम्हारी बहू नैंसी संस्कारी नहीं है यह बात तो तुम जानती ही हो लेकिन यह नहीं जानतीं कि अब वह इस बात को पूरी तरह से सिद्ध करने जा रही है. जिस बहू के पास भजनकीर्तन के लिए समय नहीं है, उस के पास अपने सासससुर और परिवार के लिए समय कहां से होगा,” यह सुन नलिनी आश्चर्य से सुषमा का हाथ थामती हुई बोली,”तुम क्या कह रही हो मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा, तुम साफसाफ कहो न तुम्हें जो भी कहना है.”

तभी सुषमा धीरे से बोली,”नैंसी, तुम्हें और तुम्हारे पति को वृद्धाश्रम भेजने की तैयारी कर रही है, मेरी बहू रमा ने उसे वृद्धाश्रम से बाहर निकलते हुए देखा था और उस के हाथों में कुछ कागज भी थे, शायद वृद्धाश्रम के फौर्म होंगे…”

सुषमा का इतना कहना था कि नलिनी की आंखें भर आईं, उस के और नैंसी के बीच विचारों का मदभेद अवश्य था लेकिन इतना भी नहीं था कि नैंसी उन्हें ओल्ड‌ऐज होम भेजने की सोचे. नलिनी की आंखों में पानी देख सुषमा बोली,”मैं ने तो तुझे पहले ही कहा था कि नैंसी को सत्संग और भजनकीर्तन में अपने साथ जबरदस्ती ले कर आया कर तभी तो वह संस्कारी बन पाएगी लेकिन तुम ऐसा कर नहीं पाई, यह उसी का नतीजा है. मेरी बहू को देख सुबहशाम ईश्वर आराधना करती है, मन लगा कर भजनकीर्तन करती है तभी तो संस्कारी है, धर्मकर्म, पापपुण्य सब जानती है इसलिए परिवार को साथ ले कर चलती है.”

सुषमा और नलिनी की बातें अभी समाप्त नही हुई थीं लेकिन धीरेधीरे अब मंदिर परिसर खाली होने लगा था. सब अपनेअपने घर की ओर जाने लगे थे. तभी सिर पर पल्लू ओढ़े रमा भी वहां आ गई और सुषमा से बोली,”मम्मीजी, चलिए अब हम भी चलते हैं.”

सुषमा उठ खड़ी हुई और नलिनी से बोली,”चलो नलिनी.”

नलिनी शांत रही फिर बोली,”तुम दोनों चलो मैं थोड़ी देर रुक कर जाऊंगी.”

नलिनी के ऐसा कहने पर सुषमा और उस की बहू चले गए. नलिनी काफी देर तक अकेली बैठी रही फिर मन में कुछ निश्चय कर घर लौट आई. नलिनी देर से लौटी है यह देख नैंसी दौड़ कर उस के करीब आ कर बोली,”मम्मीजी, आज आप को आने में बहुत देर हो गई, मैं कब से आप की राह देख रही थी.”

नलिनी ने कोई जवाब नहीं दिया और अपने कमरे की ओर मुड़ गई. तभी उस की नजर टेबल पर रखे कागज पर पड़ी जिस में बड़ीबड़ी अक्षरों में वृद्धाश्रम लिखा था, जिसे पढ़ने के लिए नलनी को चश्मे की जरूरत नहीं थी. नलिनी समझ गई कि सुषमा जो कह रही थी वह सही है.

नलिनी की आंखों से लुढ़कते हुए आंसू उस के गालों पर आ गए और वह फौरन अपने कमरे में चली गई और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. नैंसी ने बहुत आवाज लगाई लेकिन नलिनी ने दरवाजा नहीं खोला, बस इतना कहा कि कुछ देर के लिए मैं अकेले रहना चाहती हूं. नैंसी चुपचाप दरवाजे से लौट ग‌ई, उसे कुछ समझ नहीं आया.

उस रात नलिनी ने किसी से कोई बात नहीं की. नैंसी के लाख मनुहार के बाद भी नलिनी ने खाना भी नहीं खाया. नलिनी के पति सौरभ ने पूरी कोशिश की कि नलिनी कुछ बोले लेकिन वह कुछ नहीं बोली जैसे उस ने न बोलने का प्रण कर लिया हो इस प्रकार मौन रही. इसी प्रकार 4 दिन बीत ग‌ए 5वें दिन नलिनी अपना और अपने पति का सामान पैक करने लगी. यह देख सौरभ बोले,”यह सब तुम क्या कर रही हो?”

नलिनी बिना जवाब दिए पैकिंग में लगी रही तभी वहां नैंसी और उस के पति अमन भी आ गए. नलिनी को इस प्रकार सामान पैक करता देख नैंसी से रहा नहीं गया और वह जोर से बोली,”मम्मीजी, यह सब क्या है, न आप ठीक से खाना खा रही हैं, न किसी से कुछ बोल रही हैं और अब यह पैकिंग… जब तक आप हमें बताएंगी नहीं कि प्रौब्लम क्या है हमें पता कैसे चलेगा… आप बताइए तो सही कि आखिर बात क्या है?”

सजा: रिया ने क्या किया

‘विश्वासघातवहीं होता है जहां विश्वास होता है,’ यह सुनीसुनाई बात रिया को आज पूरी तरह सच लग रही थी. आधुनिक, सुशिक्षित, मातापिता की इकलौती सुंदर, मेधावी संतान रिया रोरो कर थक चुकी थी. अब वास्तविकता महसूस कर होश आया तो किसी तरह चैन नहीं आ रहा था. अपने मातापिता विक्रम और मालती से वह अपना सारा दुख छिपा गई थी. तनमन की सारी पीड़ा खुद अकेले सहन करने की कोशिश कर रही थी. पिछले महीने ही विक्रम को हार्टअटैक हुआ था. रिया अब अपने मातापिता को 15 दिन पहले अपने साथ हुए हादसे के बारे में बता कर दुख नहीं पहुंचाना चाहती थी.

रात के 2 बज रहे थे. आजकल उसे नींद नहीं आ रही थी. रातभर अपने कमरे में सुबकती, फुफकारती घूमती रहती थी. बारबार वह काला दिन याद आता जब वह संडे को अपनी बचपन की सहेली सुमन के घर एक बुक वापस करने गई थी.

रिया को बाद में अपनी गलती का एहसास हुआ था कि उसे सुमन से फोन पर बात करने के बाद ही उस के घर जाना चाहिए था. पर कितनी ही बार दोनों एकदूसरे के घर ऐसे ही आतीजाती रहती थीं. सहारनपुर में पास की गलियों में ही दोनों के घर थे. स्कूल से कालेज तक का साथ चला आ रहा था. सुमन से 2 साल बड़े भाई रजत को रिया भी बचपन से भैया ही बोलती आ रही थी. उस दिन जब वह सुमन के घर गई तो दरवाजा रजत ने ही खोला. वह सुमनसुमन करती अंदर चली गई. उस के घर के अंदर जाते ही रजत ने मेन गेट बंद कर ड्राइंगरूम का दरवाजा भी लौक कर लिया.

रिया ने पूछा, ‘‘सुमन कहां है, भैया?’’

रजत उसे घूर कर देखता हुआ मुसकराया, ‘‘सब शौपिंग पर गए हैं… घर पर कोई नहीं है.’’

‘‘ओह, आप ने बाहर बताया ही नहीं, चलती हूं. फिर आऊंगी.’’

रजत ने आगे बढ़ कर उसे बांहों में भर लिया, ‘‘चली जाना, जल्दी क्या है?’’

रिया को करंट सा लगा, ‘‘भैया, यह क्या हरकत है?’’

‘‘यह हरकत तो मैं कई सालों से करना चाह रहा था, पर मौका ही नहीं मिला रहा था.’’

‘‘भैया, शर्म कीजिए.’’

‘‘यह भैयाभैया मत करो…भाई नहीं हूं मैं तुम्हारा, सम4ां?’’

रिया को एहसास हो गया कि वह खतरे में है. उस ने अपनी जींस की जेब से मोबाइल फोन निकालने की कोशिश की तो रजत ने उसे छीन कर दूर फेंक दिया और फिर उसे जबरदस्ती उठा कर अपने बैडरूम में ले गया. रिया ने बहुत हाथपैर मारे, रोईगिड़गिड़ाई पर रजत की हैवानियत से खुद को नहीं बचा पाई. बैड पर रोतीचिल्लाती रह गई.

रजत ने धूर्ततापूर्वक कहा, ‘‘मैं बाहर जा रहा हूं, तुम भी अपने घर चली जाओ, किसी से कुछ कहने की बेवकूफी मत करना वरना मैं सारा इलजाम तुम पर ही लगा दूंगा… वैसे भी तुम इतनी मौडर्न फैमिली से हो और हम परंपरावादी परिवार से हैं, सब जानते हैं… कोई तुम पर यकीन नहीं करेगा. चलो, अब अपने घर जाओ. और रजत कमरे में चला गया.

रिया को अपनी बरबादी पर यकीन ही नहीं हो रहा था. जोरजोर से रोए जा रही थी. फिर अपने अस्तव्यस्त कपड़े संभाले और बेहद टूटेथके कदमों से अपने घर चली गई.

दोपहर का समय था. विक्रम और मालती दोनों सो रहे थे. रिया चुपचाप अपने कमरे में जा कर औंधे मुंह पड़ी रोतीसिसकती रही.

शाम हो गई. मालती उस के कमरे में आईं तो वह सोई हुई होने का नाटक कर

चुपचाप लेटी रही. एक कयामत सी थी जो उस पर गुजर गई थी. तनमन सबकुछ टूटा व बिखरा हुआ था. रात को वह अपने मम्मीपापा के कहने पर बड़ी मुश्किल से खुद को संभाल कर उठी. थोड़ा सा खाना खाया, फिर सिरदर्द बता कर जल्दी सोने चली गई.

बारबार उस का मन हो रहा था कि वह अपने मम्मीपापा को अपने साथ हुए हादसे के बारे में बता दे पर डाक्टर ने उस के पापा विक्रम को किसी भी टैंशन से दूर रहने के लिए कहा था. मां मालती को बताती तो वे शायद पापा से छिपा न पाएंगी, यह सोच कर रिया चुप रह गई थी. अगले दिन सुमन कालेज साथ चलने के लिए आई तो रिया ने खराब तबीयत का बहाना बना दिया. वह अभी कहां संभाल पा रही थी खुद को.

रिया मन ही मन कु्रद्ध नागिन की तरह फुफकार रही थी. उसे रजत की यह बात तो सच लगी थी कि समाज की दूषित सोच उसे ही अपराधी ठहरा देगी. वैसे भी उस के परिवार की आधुनिक सोच आसपास के रहने वालों को खलती थी. विक्रम और मालती दोनों एक कालेज में प्रोफैसर थे. आंखें बंद कर के न किसी रीतिरिवाज का पालन करते थे, न किसी धार्मिक आडंबर का उन के जीवन में कोई स्थान था. 3 लोगों का परिवार मेहनत, ईमानदारी और अच्छी सोच ले कर ही चलता था. रिया को उन्होंने बहुत नए, आधुनिक, सकारात्मक व साहसी विचारों के साथ पाला था.

रिया मन ही मन खुद को तैयार कर रही थी कि वह अपने साथ हुए रेप के अपराधी को ऐसे नहीं छोड़ेगी. वह अपने हिसाब से उस अपराधी को ऐसी सजा जरूर देगी कि उस के जलते दिल को कुछ चैन आए. मगर क्या और कैसी सजा दे, यह सोच नहीं पा रही थी. कभी अपनी बेबसी पर तड़प कर रो उठती थी, तो कभी अपना मनोबल ऊंचा रखने के लिए सौ जतन करती थी.

रजत को सबक सिखाने के रातदिन उपाय सोच रहती थी. कभी मन होता कि रजत को इतना मारे कि उस के हाथपैर तोड़ कर रख दे पर शरीर से कहां एक मजबूत जवान लड़के से निबट सकती थी. फिर अचानक इस विचार ने सिर उठाया कि क्यों नहीं निबट सकती? आजकल तो हमारे देश की लड़कियां लड़कों को पहलवानी में मात दे रही हैं. फिर पिछले दिनों देखी ‘सुलतान’ मूवी याद आ गई. क्यों? वह क्यों नहीं शारीरिक रूप से इतनी मजबूत हो सकती कि अपने अपराधी को मारपीट कर अधमरा कर दे. हां, मैं हिम्मत नहीं हारूंगी.

मैं कोई सदियों पुरानी कमजोर लड़की नहीं कि सारी उम्र यह जहर अकेली ही पीती रहूंगी. रजत को उस के किए की सजा मैं जरूर दूंगी. यह एक फैसला क्या किया कि हिम्मत से भर उठी. शीशे में खुद को देखा. उस दिन के बाद आज पहली बार किसी बात पर दिल से मुसकराई थी. उस रात बहुत दिनों बाद आराम से सोई थी.

सुबह डाइनिंगटेबल पर उसे हंसतेबोलते देख विक्रम और मालती भी खुश हुए. विक्रम ने कहा भी, ‘‘आज बहुत दिनों बाद मेरी बच्ची खुश दिख रही है.’’

‘‘हां पापा, कालेज के काम थे…एक प्रोजैक्ट चल रहा था.’’

मन ही मन रिया अपने नए प्रोजैक्ट की तैयारी कर चुकी थी. पूरी प्लैनिंग कर चुकी थी कि उसे अब क्याक्या करना है. उस ने बहुत ही हलकेफुलके ढंग से कहा, ‘‘मम्मी, मु4ो जिम जौइन करना है.’’

‘‘अरे, क्यों? तुम्हें क्या जरूरत है? इतनी स्लिमट्रिम तो हो?’’

‘‘हां, स्लिम तो हूं पर शरीर अंदर से भी तो मजबूत होना चाहिए और मम्मी जूडोकराटे की क्लास भी जौइन करनी है.’’

विक्रम और मालती ने हैरानी से एकदूसरे को देखा. फिर विक्रम ने कहा, ‘‘ठीक है, जूडोकराटे तो आजकल हर लड़की को आने ही चाहिए… ठीक है, जिम भी जाओ और जूडोकराटे भी सीख लो.’’

अगला 1 महीना रिया सारा आराम, चिंता, दुख भूल कर अपनी योजना को

साकार करने की कोशिश में जुटी रही. सुबह कालेज जाने से पहले हैल्थ क्लब जाती. प्रशिक्षित टे्रनर की देखरेख में जम कर ऐक्सरसाइज करती. शाम को जूडोकराटे की क्लास होती. शुरू में ऐक्सरसाइज करकर के जब शरीर टूटता, मनोबल मुसकरा कर हाथ थाम लेता. क्लास से आ कर पढ़ने बैठती. अब उस पर एक ही धुन सवार थी कि रजत को सबक सिखाना है. पर जब हिम्मत टूटने लगती, उस दुर्घटना के वे पल याद कर फिर उठ खड़ी होती.

2 महीने में रिया को अपने अंदर अनोखी स्फूर्ति महसूस होने लगी. अब खूब फ्रैश रह कर अपने रूटीन में व्यस्त रहती. सुमन से वह पहले की ही तरह मित्रवत व्यवहार कर रही थी पर उस दिन के बाद वह सुमन के घर नहीं गई थी.

एक दिन सुमन ने बताया, ‘‘संडे को भैया की सगाई है. तुम जरूर आना, खूब मजा करेंगे… भैया भी बहुत खुश हैं. होने वाली भाभी बहुत अच्छी हैं.’’

‘‘अरे वाह, जरूर आऊंगी,’’ रिचा ने कह कर मन ही मन बहुत सारी बातों का हिसाब लगाया. फिर सुमन से कहा, ‘‘अपने भैया का फोन नंबर देना. मैं उन्हें पर्सनली भी बधाई दे देती हूं.’’

‘‘हांहां, देती हूं.’’

शुक्रवार को रिया ने रजत को फोन किया, रजत हैरान हुआ. रिया ने कहा, ‘‘मैं आप से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘जो हुआ सो हुआ, अब इस बात के लिए सुमन और अपनी दोस्ती में कोई बाधा खड़ी नहीं करना चाहती.’’

‘‘हां, तो ठीक है, मिलने की क्या जरूरत है?’’

‘‘परसों आप की सगाई है, इस बात को खत्म करते हुए मैं पहले आप से मिलना चाहती हूं. आप जानते हैं सुमन मेरी बैस्ट फ्रैंड है. वह मु4ो बारबार बुलाती है, आप की सगाई, शादी में भी उसे मेरे साथ ऐंजौय करना है तो पहले एक बार मिलने का मन है, थोड़ा सहज होने के लिए.’’

‘‘ठीक है, कहां मिलना है?’’

‘‘कंपनी गार्डन के पिछले हिस्से में.’’

‘‘पर वहां तो कम ही लोग जाते हैं?’’

‘‘आप डर रहे हैं?’’

‘‘नहींनहीं, ठीक है, आता हूं.’’

‘‘तो कल शाम 6 बजे.’’

‘‘ठीक है.’’

रिया ने चैन की सांस ली. चलो आने के लिए तैयार तो हुआ. मना कर देता तो इतने दिनों की मेहनत खराब हो जाती. वैसे उस ने सोच लिया था अगर मिलने के लिए ऐसे न मानता तो वह सगाई वाले दिन उस की हरकत सब को बताने की धमकी देती. आना तो उसे पड़ता ही. रिया ने सुमन से भी फोन पर बातें कीं.

सुमन बहुत खुश थी. बोली, ‘‘तुम थोड़ा पहले ही आ जाना. बहुत ऐंजौय करेंगे… भैया भी आजकल बहुत अच्छे मूड में हैं.’’

‘‘हां, जरूर आऊंगी.’’

शनिवार शाम को जब रिया अपनी स्कूटी से कंपनी गार्डन पहुंची तो वहां

रजत पहले से ही था. उसे देख कर बेशर्मी से मुसकराया, ‘‘मु4ा से मिलने का इतना ही मन था तो घर आ जाती… सुमन और मम्मीपापा तो अकसर शौपिंग पर जाते हैं.’’

रिया ने नफरत की आग सी महसूस की अपने मन में. फिर बोली, ‘‘जो मन में था, उस के लिए ऐसी ही जगह चाहिए थी.’’

‘‘अच्छा, बोलो क्या है मन में?’’ कहते हुए रजत ने रिया की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि रिया ने आव देखा न ताव और शुरू हो गई. कई दिनों का लावा फूटफूट कर अंगअंग से बह निकला. उस के अंदर एक बिजली सी भर गई. उस ने रजत के प्राइवेट पार्ट पर जम कर एक लात मारी. रजत के मुंह से तेज चीख निकली. इसी बीच रिया ने रजत को नीचे पटक दिया था.

वह चिल्लाया, ‘‘क्या है यह… रुक बताता हूं तु4ो अभी.’’

मगर वह फिर कुछ बताने की स्थिति में कहां रहा. पिछले दिनों सीखे सारे दांवपेंच आजमा डाले रिया ने. रजत रिया का कोई मुकाबला नहीं कर पाया. रिया ने उसे इतना मारा कि उसे अपनी पसलियां साफसाफ टूटती महसूस हुईं. उस के चेहरे से खून बह चला था, होंठ फट गए थे, चेहरे पर मार के कई निशान पड़ गए थे.

वह जमीन पर पड़ा कराह उठा, ‘‘सौरी, रिया, माफ कर दो मु4ो.’’

उसे पीटपीट कर जब रिया थक गई, तब वह रुकी. फिर अपनी चप्पल निकाल कर उस के सिर पर मारी और फिर अपनी स्कूटी स्टार्ट कर वहां से निकल गई. विजयी कदमों से घर वापस आ गई.

विक्रम और मालती शाम की सैर पर गए थे. बहुत दिनों बाद रिया के मन को आज इतनी शांति मिली कि भावनाओं के आवेश में उस की आंखों से आंसू भी बह निकले. इतने दिनों से शारीरिक और मानसिक रूप से खुद को मजबूत बनाने के लिए उस ने जीतोड़ मेहनत की थी जो आज रंग लाई थी. वह बहुत देर यों ही लेटी रही. कभी खुशी से रो पड़ती, तो कभी खुद पर हंस पड़ती.

मालती आईं, बेटी का चमकता चेहरा देख कर खुश हुईं. बोलीं, ‘‘आज बहुत खुश हो?’’

‘‘हां मम्मी, एक प्रोजैक्ट पर काम कर रही थी. आज पूरा हो गया.’’

‘‘वाह, गुड,’’ कहते हुए मालती ने उसे प्यार किया.

रिया फिर आराम से घर के कामों में मालती का हाथ बंटाने लगी.

रात को 10 बजे सुमन का फोन आया, ‘‘रिया, बहुत गड़बड़ हो गई.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘सगाई स्थगित करनी पड़ी. शाम को कई गुंडों ने मिल कर भैया पर हमला कर दिया… पता नहीं कौन थे. उन के हाथ और पसलियों में फ्रैक्चर है. चेहरे पर भी बहुत चोटें लगी हैं… भैया हौस्पिटल में एडमिट हैं… उन्हें बहुत दर्द है,’’ कह कर सुमन सुबकने लगी.

‘‘ओह, यह तो बहुत बुरा हुआ… मेरी कोई जरूरत हो तो बताना?’’

‘‘हां, अब रखती हूं,’’ सुबकते हुए सुमन ने फोन रख दिया.

अपने कमरे में अकेली खड़ी रिया सुन कर हंस पड़ी. ड्रैसिंग टेबल के सामने

खड़ी हो कर खुद से बोली कि कई गुंडों ने मिल कर? नहीं, एक बहादुर लड़की ही काफी है ऐसे इंसान से निबटने के लिए.

रिया अपने कमरे में उत्साहित सी घूम रही थी, अपने किए पर खुद अपनेआप को शाबाशी दे रही थी… काम भी तो ऐसा ही किया था. शाबाशी तो बनती ही थी.

‘‘रिया मन ही मन खुद को तैयार कर रही थी कि वह अपने साथ हुए रेप के अपराधी को ऐसे नहीं छोड़ेगी…’’

‘‘अब उस पर एक ही धुन सवार थी कि रजत को सबक सिखाना है. पर जब हिम्मत टूटने लगती, उस दुर्घटना के वे पल याद कर फिर उठ खड़ी होती…’’

नास्तिक बहू: भाग 1- नैंसी के प्रति क्या बदली लोगों की सोच

नलिनी शीशे के सामने खड़ी हो स्वयं को निहारने लगी. खुले गले का ब्लाउज, ढीला जुड़ा, खुला पल्लू, माथे पर अपनी साड़ी के रंग से मिलता हुआ बड़ी सा बिंदी, पिंक कलर की लिपिस्टिक और गले में लंबा सा मंगलसूत्र… इन सब में नलिनी बेहद ही आकर्षक लग रही थी. कल रात ही उस ने तय कर लिया था कि उसे क्या पहनना है और कीर्तन में जाने के लिए किस तरह से तैयार होना है.

सुबह होते ही उस ने अपनी बहू नैंसी से कहा, “नैंसी, जरा बेसन, हलदी और गुलाबजल मिला कर कर लेप तैयार कर लेना, बहुत दिनों से मैं ने लगाया नहीं है. पूजापाठ, भजनकीर्तन और प्रभु चरणों में मैं कुछ इस तरह से लीन हो जाती हूं कि मुझे अपनी ओर ध्यान देने का वक्त ही नहीं मिल पाता.”

नलिनी की बातें सुन नैंसी मंदमंद यह सोच कर मुसकराने लगी कि हर सोमवार मम्मीजी यही सारी बातें दोहराती हैं जबकि वह सप्ताह में 2-3 बार अपने चेहरे पर निखार के लिए लेप लगाती ही हैं और भजनकीर्तन से ज्यादा वह खुद के लुक पर ध्यान देती हैं.

नैंसी होंठों पर मुसकान लिए हुए बोली,”मम्मीजी, इस बार आप यह इंस्टैंट ग्लो वाला पील औफ ट्राई कर के देखिए.”

नैंसी के ऐसा कहते ही नलिनी आश्चर्य से बोली,”क्या सचमुच इंस्टैंट ग्लो आता है?”

“आप ट्राई कर के तो देखिए मम्मीजी…” नैंसी ने प्यार से कहा. वैसे दोनों सासबहू के बीच कोई तालमेल नहीं था. एक पूरब की ओर जाती, तो दूसरी पश्चिम की ओर. नलिनी को खाने में जहां चटपटा, मसालेदार पसंद था, वहीं नैंसी डाइट फूड पर जोर देती. नलिनी चाहती थी कि कालोनी की बाकी बहुओं की तरह नैंसी भी घर पर साड़ी ही पहने लेकिन वह ऐसा नहीं करती क्योंकि उसे काम करते वक्त साड़ी में असुविधा महसूस होती इसलिए वह घर पर सलवार सूट पहन लेती ताकि घर पर शांति बनी रहे और बात ज्यादा न बढ़े लेकिन यह भी नलिनी को नागवार ही गुजरता.

नैंसी की एक और बात नलिनी की आंखों में चुभती और वह थी नैंसी का भजनकीर्तन से दूर भागना. इस बात को ले कर कालोनी की सभी औरतें नलिनी को तानें भी दिया करती थीं कि कैसी बहू ब्याह कर लाई हो, जो पूजापाठ और भजनकीर्तन में भाग लेने के बजाय वहां से भाग लेती है. नलिनी की घनिष्ठ सहेली सुषमा तो उस से क‌ई बार यह कहने से भी नहीं चूकती कि तेरी बहू तो बिलकुल भी संस्कारी नहीं है. यह सुन कर नलिनी का पारा चढ़ जाता और वह नैंसी पर दबाव डालती कि वह भी बाकी बहुओं की तरह सजधज कर पूजाअर्चना में अपनी सक्रिय भूमिका निभाए लेकिन नैंसी साफ मना कर देती क्योंकि वह किसी के भी दबाव में आ कर ऐसा कोई काम नहीं करना चाहती थी जिसे करने का उस का अपना मन न हो. इसी वजह से क‌ई बार दोनों के मध्य कहासुनी भी हो जाती.

नैंसी का मानना था कि कर्म ही पूजा है और हर इंसान को अपना काम पूरी ईमानदारी से करना चाहिए. नैंसी की इसी सोच की वजह से वह अपना समय औरों की तरह पूजापाठ में नहीं गंवाती, जो कालोनी की महिलाओं को बुरा लगने का एक बहुत ही बड़ा कारण था.

नलिनी और नैंसी के बीच लाख अनबन हो लेकिन जहां फैशन की बात आती दोनों एक हो जातीं और नलिनी, नैंसी के फैशन टिप्स जरूर फौलो करती क्योंकि नैंसी का फैशन सैंस कमाल का था. उस के ड्रैससैंस, मेकअप और हेयरस्टाइल के आगे सब फीका लगता.

नलिनी फेस पैक का डब्बा नैंसी से लेते हुई बोली,”आज कालोनी की सभी औरतें कीर्तन में आएंगी न, इसलिए मुझे भी थोड़ा ठीकठाक तैयार हो कर तो जाना ही पड़ेगा. वैसे तो मैं बाहरी सुंदरता पर विश्वास नहीं रखती, मन की सुंदरता ही मनुष्य की असली सुंदरता होती है लेकिन तुम तो जानती ही हो कि यहां की औरतों को खासकर वह शालिनी न जाने अपनेआप को क्या समझती है. उसे तो ऐसे लगता है जैसे उस से ज्यादा सुंदर इस कालोनी में कोई है ही नहीं और जब से दादी बनी है इतराती फिरती है. हर किसी से कहते नहीं थकती है कि मेरी त्वचा से किसी को मेरी उम्र का पता ही नहीं चलता. जब तक मैं किसी को न बताऊं कि दादी बन गई हूं, कोई जान ही नहीं पाता. भला कोई जान भी कैसे पाएगा… चेहरे पर इतना मेकअप जो पोत कर आती है. भजन में आती है या फैशन शो में कौन जाने…

नैंसी बिना कुछ कहे नलिनी की बातें सुन कर केवल मुसकरा कर वहां से चली गई क्योंकि नैंसी भलीभांति जानती है कि स्वयं नलिनी भी कालोनी की उन्हीं औरतों में से एक है जो लोगों के सामने खुद को खूबसूरत दिखाने में कोई भी कसर नहीं छोड़ती. भजनकीर्तन, पूजापाठ, व्रतअनुष्ठान यह सब इस सोसाइटी की ज्यादातर महिलाओं के लिए एक मनोरंजन और टाइमपास का साधन मात्र ही है जिस में दिखावा और ढोंग से ज्यादा कुछ नहीं है. असल में यहां की ज्यादातर महिलाएं केवल सजसंवर कर मंदिर प्रांगण में खुद को सुसंस्कृत साबित करने में लगी रहती हैं. अपनी भव्यता महंगी साड़ियों और गहनों का प्रर्दशन करना ही उन का मुख्य उद्देश्य होता है. आस्था, श्रद्धा जैसे बड़ेबड़े शब्द तो सिर्फ दिखावा व स्वांग मात्र ही है. इस बात से नैंसी पूर्ण रूप से अवगत थी.

हर सोमवार की तरह आज भी दुर्ग शहर के पौश कालोनी साईं परिसर में शाम को सोसाइटी कंपाउंड के मंदिर प्रांगण में भजनकीर्तन का आयोजन रखा गया था. इसलिए नलिनी सुबह होते ही अपने चेहरे पर निखार लाने में जुट गई थी और सारा दिन शाम की तैयारी में ही लगी रही. निर्धारित समय पर पूरी तरह से सजसंवर कर इतराती हुई बुदबुदाई,’आज कीर्तन में सब की नजरें सिर्फ मुझ पर और मुझ पर ही होंगी,’ तभी नलिनी का फोन बजा,”हैलो… नलिनी, भजन संध्या के लिए तैयार हुई या नहीं? मैं और मेरी बहू निकल रहे हैं,” नलिनी की खास सहेली सुषमा बोली जो उसी सोसाइटी की रहने वाली थी.

“हां, बस निकल ही रही हूं. तुम दोनों सासबहू निकलो मैं तुम्हें गेट पर ही मिलती हूं,” नलिनी अपने मेकअप का टच‌अप करती हुई बोली.

“अरे…क्या तुम अकेले ही कीर्तन में आ रही हो, नैंसी क्यों नहीं आ रही है?”

मां- भाग 3 : क्या बच्चों के लिए ममता का सुख जान पाई गुड्डी

‘‘हां, छोड़ रखा है क्योंकि आप का यह आश्रम है ही गरीब और निराश्रित बच्चों के लिए.’’

‘‘नहीं, यह तुम जैसों के बच्चों के लिए नहीं है, समझीं. अब या तो बच्चों को ले जाओ या वापस जाओ,’’ सुमनलता ने भन्ना कर कहा था.

‘‘अरे वाह, इतनी हेकड़ी, आप सीधे से मेरे बच्चों को दिखाइए, उन्हें देखे बिना मैं यहां से नहीं जाने वाली. चौकीदार, मेरे बच्चों को लाओ.’’

‘‘कहा न, बच्चे यहां नहीं आएंगे. चौकीदार, बाहर करो इसे,’’ सुमनलता का तेज स्वर सुन कर गुड्डी और भड़क गई.

‘‘अच्छा, तो आप मुझे धमकी दे रही हैं. देख लूंगी, अखबार में छपवा दूंगी कि आप ने मेरे बच्चे छीन लिए, क्या दादागीरी मचा रखी है, आश्रम बंद करा दूंगी.’’

चौकीदार ने गुड्डी को धमकाया और गेट के बाहर कर दिया.

सुमनलता का और खून खौल गया था. क्याक्या रूप बदल लेती हैं ये औरतें. उधर होहल्ला सुन कर जमुना भी आ गई थी.

‘‘मम्मीजी, आप को इस औरत को उसी दिन भगा देना था. आप ने इस के बच्चे रखे ही क्यों…अब कहीं अखबार में…’’

‘‘अरे, कुछ नहीं होगा, तुम लोग भी अपनाअपना काम करो.’’

सुमनलता ने जैसेतैसे बात खत्म की, पर उन का सिरदर्द शुरू हो गया था.

पिछली घटना को अभी महीना भर भी नहीं बीता होगा कि गुड्डी फिर आ गई. इस बार पहले की अपेक्षा कुछ शांत थी. चौकीदार से ही धीरे से पूछा था उस ने कि मम्मीजी के पास कौन है.

‘‘पापाजी आए हुए हैं,’’ चौकीदार ने दूर से ही सुबोध को देख कर कहा था.

गुड्डी कुछ देर तो चुप रही फिर कुछ अनुनय भरे स्वर में बोली, ‘‘चौकीदार, मुझे बच्चे देखने हैं.’’

‘‘कहा था कि तू मम्मीजी से बिना पूछे नहीं देख सकती बच्चे, फिर क्यों आ गई.’’

‘‘तुम मुझे मम्मीजी के पास ही ले चलो या जा कर उन से कह दो कि गुड्डी आई है…’’

कुछ सोच कर चौकीदार ने सुमनलता के पास जा कर धीरे से कहा, ‘‘मम्मीजी, गुड्डी फिर आ गई है. कह रही है कि बच्चे देखने हैं.’’

‘‘तुम ने उसे गेट के अंदर आने क्यों दिया…’’ सुमनलता ने तेज स्वर में कहा.

‘‘क्या हुआ? कौन है?’’ सुबोध भी चौंक  कर बोले.

‘‘अरे, एक पागल औरत है. पहले अपने बच्चे यहां छोड़ गई, अब कहती है कि बच्चों को दिखाओ मुझे.’’

‘‘तो दिखा दो, हर्ज क्या है…’’

‘‘नहीं…’’ सुमनलता ने दृढ़ स्वर में कहा फिर चौकीदार से बोलीं, ‘‘उसे बाहर कर दो.’’

सुबोध फिर चुप रह गए थे.

इधर, आश्रम में रहने वाली कुछ युवतियों के लिए एक सामाजिक संस्था कार्य कर रही थी, उसी के अधिकारी आए हुए थे. 3 युवतियों का विवाह संबंध तय हुआ और एक सादे समारोह में विवाह सम्पन्न भी हो गया.

सुमनलता को फिर किसी कार्य के सिलसिले में डेढ़ माह के लिए बाहर जाना पड़ गया था.

लौटीं तो उस दिन सुबोध ही उन्हें छोड़ने आश्रम तक आए हुए थे. अंदर आते ही चौकीदार ने खबर दी.

‘‘मम्मीजी, पिछले 3 दिनों से गुड्डी रोज यहां आ रही है कि बच्चे देखने हैं. आज तो अंदर घुस कर सुबह से ही धरना दिए बैठी है…कि बच्चे देख कर ही जाऊंगी.’’

‘‘अरे, तो तुम लोग हो किसलिए, आने क्यों दिया उसे अंदर,’’ सुमनलता की तेज आवाज सुन कर सुबोध भी पीछेपीछे आए.

बाहर बरामदे में गुड्डी बैठी थी. सुमनलता को देखते ही बोली, ‘‘मम्मीजी, मुझे अपने बच्चे देखने हैं.’’

उस की आवाज को अनसुना करते हुए सुमन तेजी से शिशुगृह में चली गई थीं.

रघु खिलौने से खेल रहा था, राधा एक किताब देख रही थी. सुमनलता ने दोनों बच्चों को दुलराया.

‘‘मम्मीजी, आज तो आप बच्चों को उसे दिखा ही दो,’’ कहते हुए जमुना और चौकीदार भी अंदर आ गए थे, ‘‘ताकि उस का भी मन शांत हो. हम ने उस से कह दिया था कि जब मम्मीजी आएं तब उन से प्रार्थना करना…’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं, बाहर करो उसे,’’ सुमनलता बोलीं.

सहम कर चौकीदार बाहर चला गया और पीछेपीछे जमुना भी. बाहर से गुड्डी के रोने और चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं. चौकीदार उसे डपट कर फाटक बंद करने में लगा था.

‘‘सुम्मी, बच्चों को दिखा दो न, दिखाने भर को ही तो कह रही है, फिर वह भी एक मां है और एक मां की ममता को तुम से अधिक कौन समझ सकता है…’’

सुबोध कुछ और कहते कि सुमनलता ने ही बात काट दी थी.

‘‘नहीं, उस औरत को बच्चे बिलकुल नहीं दिखाने हैं.’’

आज पहली बार सुबोध ने सुमनलता का इतना कड़ा रुख देखा था. फिर जब सुमनलता की भरी आंखें और उन्हें धीरे से रूमाल निकालते देखा तो सुबोध को और भी विस्मय हुआ.

‘‘अच्छा चलूं, मैं तो बस, तुम्हें छोड़ने ही आया था,’’ कहते हुए सुबोध चले गए.

सुमनलता उसी तरह कुछ देर सोच में डूबी रहीं फिर मुड़ीं और दूसरे कमरों का मुआयना करने चल दीं.

2 दिन बाद एक दंपती किसी बच्चे को गोद लेने आए थे. उन्हें शिशुगृह में घुमाया जा रहा था. सुमन दूसरे कमरे में एक बीमार महिला का हाल पूछ रही थीं.

तभी गुड्डी एकदम बदहवास सी बरामदे में आई. आज बाहर चौकीदार नहीं था और फाटक खुला था तो सीधी अंदर ही आ गई. जमुना को वहां खड़ा देख कर गिड़गिड़ाते स्वर में बोली थी, ‘‘बाई, मुझे बच्चे देखने हैं…’’

उस की हालत देख कर जमुना को भी कुछ दया आ गई. वह धीरे से बोली, ‘‘देख, अभी मम्मीजी अंदर हैं, तू उस खिड़की के पास खड़ी हो कर बाहर से ही अपने बच्चों को देख ले. बिटिया तो स्लेट पर कुछ लिख रही है और बेटा पालने में सो रहा है.’’

‘‘पर, वहां ये लोग कौन हैं जो मेरे बच्चे के पालने के पास आ कर खडे़ हो गए हैं और कुछ कह रहे हैं?’’

जमुना ने अंदर झांक कर कहा, ‘‘ये बच्चे को गोद लेने आए हैं. शायद तेरा बेटा पसंद आ गया है इन्हें तभी तो उसे उठा रही है वह महिला.’’

‘‘क्या?’’ गुड्डी तो जैसे चीख पड़ी थी, ‘‘मेरा बच्चा…नहीं मैं अपना बेटा किसी को नहीं दूंगी,’’ रोती हुई पागल सी वह जमुना को पीछे धकेलती सीधे अंदर कमरे में घुस गई थी.

सभी अवाक् थे. होहल्ला सुन कर सुमनलता भी उधर आ गईं कि हुआ क्या है.

उधर गुड्डी जोरजोर से चिल्ला रही थी कि यह मेरा बेटा है…मैं इसे किसी को नहीं दूंगी.

झपट कर गुड्डी ने बच्चे को पालने से उठा लिया था. बच्चा रो रहा था. बच्ची भी पास सहमी सी खड़ी थी. गुड्डी ने उसे भी और पास खींच लिया.

‘‘मेरे बच्चे कहीं नहीं जाएंगे. मैं पालूंगी इन्हें…मैं…मैं मां हूं इन की.’’

‘‘मम्मीजी…’’ सुमनलता को देख कर जमुना डर गई.

‘‘कोई बात नहीं, बच्चे दे दो इसे,’’ सुमनलता ने धीरे से कहा था और उन की आंखें नम हो आई थीं, गला भी कुछ भर्रा गया था.

जमुना चकित थी, एक मां ने शायद आज एक दूसरी मां की सोई हुई ममता को जगा दिया था.

मां- भाग 2 : क्या बच्चों के लिए ममता का सुख जान पाई गुड्डी

‘‘ऐसा कर, बच्चों के साथ तू भी यहां रह ले. तुझे भी काम मिल जाएगा और बच्चे भी पल जाएंगे,’’ सुमनलता ने कहा.

‘‘मैं कहां आप लोगों पर बोझ बन कर रहूं, मम्मीजी. काम भी जानती नहीं और मुझ अकेली का क्या, कहीं भी दो रोटी का जुगाड़ हो जाएगा. अब आप तो इन बच्चों का भविष्य बना दो.’’

‘‘अच्छा, तो तू उस ट्रक ड्राइवर से शादी करने के लिए अपने बच्चों से पीछा छुड़ाना चाह रही है,’’ सुमनलता की आवाज तेज हो गई, ‘‘देख, या तो तू इन बच्चोें के साथ यहां पर रह, तुझे मैं नौकरी दे दूंगी या बच्चों को छोड़ जा पर शर्त यह है कि तू फिर कभी इन बच्चों से मिलने नहीं आएगी.’’

सुमनलता ने सोचा कि यह शर्त एक मां कभी नहीं मानेगी पर आशा के विपरीत गुड्डी बोली, ‘‘ठीक है, मम्मीजी, आप की शरण में हैं तो मुझे क्या फिक्र, आप ने तो मुझ पर एहसान कर दिया…’’

आंसू पोंछती हुई वह जमुना को दोनों बच्चे थमा कर तेजी से अंधेरे में विलीन हो गई थी.

‘‘अब मैं कैसे संभालूं इतने छोटे बच्चों को,’’ हैरान जमुना बोली.

गोदी का बच्चा तो अब जोरजोर से रोने लगा था और बच्ची कोने में सहमी खड़ी थी.

कुछ देर सोच में पड़ी रहीं सुमनलता फिर बोलीं, ‘‘देखो, ऐसा है, अंदर थोड़ा दूध होगा. छोटे बच्चे को दूध पिला कर पालने में सुला देना. बच्ची को भी कुछ खिलापिला देना. बाकी सुबह आ कर देखूंगी.’’

‘‘ठीक है, मम्मीजी,’’ कह कर जमुना बच्चों को ले कर अंदर चली गई. सुमनलता बाहर खड़ी गाड़ी में बैठ गईं. उन के मन में एक अजीब अंतर्द्वंद्व शुरू हो गया कि क्या ऐसी भी मां होती है जो जानबूझ कर दूध पीते बच्चों को छोड़ गई.

‘‘अरे, इतनी देर कैसे लग गई, पता है तुम्हारा इंतजार करतेकरते पिंकू सो भी गया,’’ कहते हुए पति सुबोध ने दरवाजा खोला था.

‘‘हां, पता है पर क्या करूं, कभीकभी काम ही ऐसा आ जाता है कि मजबूर हो जाती हूं.’’

तब तक बहू दीप्ति भी अंदर से उठ कर आ गई.

‘‘मां, खाना लगा दूं.’’

‘‘नहीं, तुम भी आराम करो, मैं कुछ थोड़ाबहुत खुद ही निकाल कर खा लूंगी.’’

ड्राइंगरूम में गुब्बारे, खिलौने सब बिखरे पडे़ थे. उन्हें देख कर सुमनलता का मन भर आया कि पोते ने उन का कितना इंतजार किया होगा.

सुमनलता ने थोड़ाबहुत खाया पर मन का अंतर्द्वंद्व अभी भी खत्म नहीं हुआ था, इसलिए उन्हें देर रात तक नींद नहीं आई थी.

सुमनलता बारबार गुड्डी के ही व्यवहार के बारे में सोच रही थीं जिस ने मन को झकझोर दिया था.

मां की ममता…मां का त्याग आदि कितने ही नाम से जानी जाती है मां…पर क्या यह सब झूठ है? क्या एक स्वार्थ की खातिर मां कहलाना भी छोड़ देती है मां…शायद….

सुबोध को तो सुबह ही कहीं जाना था सो उठते ही जाने की तैयारी में लग गए.

पिंकू अभी भी अपनी दादी से नाराज था. सुमनलता ने अपने हाथ से उसे मिठाई खिला कर प्रसन्न किया, फिर मनपसंद खिलौना दिलाने का वादा भी किया. पिंकू अपने जन्मदिन की पार्टी की बातें करता रहा था.

दोपहर 12 बजे वह आश्रम गईं, तो आते ही सारे कमरों का मुआयना शुरू कर दिया.

शिशु गृह में छोटे बच्चे थे, उन के लिए 2 आया नियुक्त थीं. एक दिन में रहती थी तो दूसरी रात में. पर कल रात तो जमुना भी रुकी थी. उस ने दोनों बच्चों को नहलाधुला कर साफ कपडे़ पहना दिए थे. छोटा पालने में सो रहा था और जमुना बच्ची के बालों में कंघी कर रही थी.

‘‘मम्मीजी, मैं ने इन दोनों बच्चों के नाम भी रख दिए हैं. इस छोटे बच्चे का नाम रघु और बच्ची का नाम राधा…हैं न दोनों प्यारे नाम,’’ जमुना ने अब तक अपना अपनत्व भी उन बच्चों पर उडे़ल दिया था.

सुमनलता ने अब बच्चों को ध्यान से देखा. सचमुच दोनों बच्चे गोरे और सुंदर थे. बच्ची की आंखें नीली और बाल भूरे थे.

अब तक दूसरे छोटे बच्चे भी मम्मीजीमम्मीजी कहते हुए सुमनलता के इर्दगिर्द जमा हो गए थे.

सब बच्चों के लिए आज वह पिंकू के जन्मदिन की टाफियां लाई थीं, वही थमा दीं. फिर आगे जहां कुछ बडे़ बच्चे थे उन के कमरे में जा कर उन की पढ़ाईलिखाई व पुस्तकों की बाबत बात की.

इस तरह आश्रम में आते ही बस, कामों का अंबार लगना शुरू हो जाता था. कार्यों के प्रति सुमनलता के उत्साह और लगन के कारण ही आश्रम के काम सुचारु रूप से चल रहे थे.

3 माह बाद एक दिन चौकीदार ने आ कर खबर दी, ‘‘मम्मीजी, वह औरत जो उस रात बच्चों को छोड़ गई थी, आई है और आप से मिलना चाहती है.’’

‘‘कौन, वह गुड्डी? अब क्या करने आई है? ठीक है, भेज दो.’’

मेज की फाइलें एक ओर सरका कर सुमनलता ने अखबार उठाया.

‘‘मम्मीजी…’’ आवाज की तरफ नजर उठी तो दरवाजे पर खड़ी गुड्डी को देखते ही वह चौंक गईं. आज तो जैसे वह पहचान में ही नहीं आ रही है. 3 महीने में ही शरीर भर गया था, रंगरूप और निखर गया था. कानोें में लंबेलंबे चांदी के झुमके, शरीर पर काला चमकीला सूट, गले में बड़ी सी मोतियों की माला…होंठों पर गहरी लिपस्टिक लगाई थी. और किसी सस्ते परफ्यूम की महक भी वातावरण में फैल रही थी.

‘‘मम्मीजी, बच्चों को देखने आई हूं.’’

‘‘बच्चों को…’’ यह कहते हुए सुमनलता की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘मैं ने तुम से कहा तो था कि तुम अब बच्चों से कभी नहीं मिलोगी और तुम ने मान भी लिया था.’’

‘‘अरे, वाह…एक मां से आप यह कैसे कह सकती हैं कि वह बच्चों से नहीं मिले. मेरा हक है यह तो, बुलवाइए बच्चों को,’’ गुड्डी अकड़ कर बोली.

‘‘ठीक है, अधिकार है तो ले जाओ अपने बच्चों को. उन्हें यहां क्यों छोड़ गई थीं तुम,’’ सुमनलता को भी अब गुस्सा आ गया था.

वारिस: सुरजीत के घर कौन थी वो औरत

सुरजीत के घर में अनजान औरत को देख नरेंद्र चौंक गया. पूछने पर मालूम हुआ कि वह ‘कुदेसन’ है. रहरह कर उसे अपने घर में रह रही उस औरत का खयाल आने लगा. कहीं वह भी ‘कुदेसन’ तो नहीं.

होश संभालने के साथ ही नरेंद्र उस औरत को अपने घर में देखता आ रहा था. वह कौन थी, उसे नहीं पता था.

बचपन में जब भी वह किसी से उस औरत के बारे में पूछता था तो वह उस को डांट कर चुप करा देता था.

घर के बाईं ओर जहां गायभैंस बांधे जाते थे उस के करीब ही एक छोटी सी कोठरी बनी हुई थी और वह औरत उसी कोठरी में सोती थी.

मां का व्यवहार उस औरत के प्रति अच्छा नहीं था जबकि उस का बाप  बलवंत और बूआ सिमरन उस औरत के साथ कुछ हमदर्दी से पेश आते थे.

नरेंद्र की मां बलजीत का सलूक तो उस औरत के साथ इतना खराब था कि वह सारा दिन उस से जानवरों की तरह काम लेती थी और फिर उस के सामने बचाखुचा और बासी खाना डाल देती थी. कई बार तो लोगों का जूठन भी उस के सामने डालने में बलवंत परहेज नहीं करती थी. लेकिन जैसा भी, जो भी मिलता था वह औरत चुपचाप खा लेती थी.

होश संभालने के बाद नरेंद्र ने घर में रह रही उस औरत को ले कर एक और भी अजीब चीज महसूस की थी. वह हमेशा नरेंद्र की तरफ दुलार और हसरत भरी नजरों से देखती थी. वह उसे छूना और सहलाना चाहती थी. पर घर के किसी सदस्य के होने पर उस औरत की नरेंद्र के करीब आने की हिम्मत नहीं होती थी. लेकिन जब कभी नरेंद्र उस के सामने अकेले पड़ जाता और आसपास कोई दूसरा नहीं होता तो वह उस को सीने से लगा लेती और पागलों की तरह चूमती.

ऐसा करते हुए उस की आंखों में आंसुओं के साथसाथ एक ऐसा दर्द भी होता था जिस को शब्दों में जाहिर करना मुश्किल था.

‘कुदेसन’ शब्द को नरेंद्र ने पहली बार तब सुना था जब उस की उम्र 14-15 साल की थी.

गांव के कुछ दूसरे लड़कों के साथ नरेंद्र जिस सरकारी स्कूल में पढ़ने जाता था वह गांव से कम से कम 2 किलोमीटर की दूरी पर था.

नरेंद्र के साथ गांव के 7-8 लड़कों का समूह एकसाथ स्कूल के लिए जाता था और रास्ते में अगर कोई झगड़ा न हुआ तो एकसाथ ही वे स्कूल से वापस भी आते थे.

सुबह स्कूल जाने से पहले सारे लड़के गांव की चौपाल पर जमा होते थे. एकसाथ मस्ती करते हुए स्कूल जाने में रास्ते की दूरी का पता ही नहीं चलता था और जब कभी समूह का कोई लड़का वक्त पर चौपाल नहीं पहुंचता था तो उस की खोजखबर लेने के लिए किसी लड़के को उस के घर दौड़ाया जाता था. हमारे साथ स्कूल जाने वाले लड़कों में एक सुरजीत भी था जिस के साथ नरेंद्र की खूब पटती थी. दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे. नरेंद्र कई बार सुरजीत के घर भी जा चुका था.

एक दिन जब स्कूल जाते समय  सुरजीत गांव की चौपाल पर नहीं पहुंचा तो उस की खोजखबर लेने के लिए नरेंद्र उस के घर पहुंच गया.

पहले तो घर में दाखिल हो कर नरेंद्र ने देखा कि सुरजीत को बुखार है. वह वापस मुड़ा तो उस की नजर सुरजीत के घर में एक औरत पर पड़ी जो उस के लिए अनजान थी.

वह जवान औरत गांव में रहने वाली औरतों से एकदम अलग थी, बिलकुल उसी तरह जैसे उस के अपने घर में रह रही औरत उसे नजर आती थी. चूंकि नरेंद्र को स्कूल जाने की जल्दी थी इसलिए उस ने इस बारे में सुरजीत से कोई बात नहीं की.

2 दिन बाद सुरजीत स्कूल जाने वाले लड़कों में फिर से शामिल हो गया तो छुट्टी के बाद गांव वापस लौटते हुए नरेंद्र ने उस से उस अजनबी औरत के बारे में पूछा था. इस पर सुरजीत ने कहा, ‘बापू ने ‘कुदेसन’ रख ली है.’

‘‘कुदेसन, वह क्या होती है?’’ नरेंद्र ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं नहीं जानता. लेकिन ‘कुदेसन’ के कारण मां और बापू में रोज झगड़ा होने लगा है. मां कुदेसन को घर में एक मिनट भी रखने को तैयार नहीं, लेकिन बापू कहता है कि भले ही लाशें बिछ जाएं, कुदेसन यहीं रहेगी,’’ सुरजीत ने बताया.

‘‘मगर तेरा बापू इस कुदेसन को लाया कहां से है?’’

‘‘क्या पता, तुम को तो मालूम ही है कि मेरा बापू ड्राइवर है. कंपनी का ट्रक ले कर दूरदूर के शहरों तक जाता है. कहीं से खरीद लाया होगा,’’ सुरजीत ने कहा.

सुरजीत की इस बात से नरेंद्र को और ज्यादा हैरानी हुई थी. उस ने जानवरों की खरीदफरोख्त की बात तो सुनी थी मगर इनसानों को भी खरीदा या बेचा जा सकता है यह बात वह पहली बार सुरजीत के मुख से सुन रहा था.

‘कुदेसन’ शब्द एक सवाल बन कर नरेंद्र के जेहन में लगातार चक्कर काटने लगा था. उस को इतना तो एहसास था कि ‘कुदेसन’ शब्द में कुछ बुरा और गलत था. किंतु वह बुरा और गलत क्या था? यह उस को नहीं पता था.

‘कुदेसन’ शब्द को ले कर घर में किसी से कोई सवाल करने की हिम्मत उस में नहीं थी. बाहर किस से पूछे यह नरेंद्र की समझ में नहीं आ रहा था.

असमंजस की उस स्थिति में अचानक ही नरेंद्र के दिमाग में अमली चाचा का नाम कौंधा था.

अमली चाचा का असली नाम गुरबख्श था. अफीम के नशे का आदी (अमली) होने के कारण ही गुरबख्श का नाम अमली चाचा पड़ गया था. गांव के बच्चे तो बच्चे जवान और बड़ेबूढे़ तक गुरबख्श को अमली चाचा कह कर बुलाते थे. दूसरे शब्दों में, गुरबख्श सारे गांव का चाचा था.

गांव की चौपाल के पास ही अमली चाचा पीपल के नीचे जूतों को गांठने की दुकानदारी सजा कर बैठता था. वह अकेला था, क्योंकि उस की शादी नहीं हुई थी. एकएक कर के उस के अपने सारे मर गए थे. आगेपीछे कोई रोने वाला नहीं था अमली चाचा के. गांव के हर शख्स से अमली चाचा का मजाक चलता था.

बड़े तो बड़े, नरेंद्र की उम्र के लड़कों के साथ भी उस का हंसीमजाक चलता था. आतेजाते लड़के अमली चाचा से छेड़खानी करते थे और वह इस का बुरा नहीं मानता था. हां, कभीकभी छेड़खानी करने वाले लड़कों को भद्दीभद्दी गालियां जरूर दे देता था.

शरारती लड़के तो अमली चाचा की गालियां सुनने के लिए ही उस को छेड़ते थे.

नरेंद्र ने जब से होश संभाला था उस का भी अमली चाचा से वास्ता पड़ता रहा था. जब भी उस के पांव की चप्पल कहीं से टूटती थी तो उस की मरम्मत अमली चाचा ही करता था. चप्पल की मरम्मत और पालिश कर के एकदम उस को नया जैसा बना देता था अमली चाचा.

काम करते हुए बातें करने की अमली चाचा की आदत थी. बातों की झोंक में कई बार बड़ी काम की बातें भी कह जाता था अमली चाचा.

‘कुदेसन’ के बारे में अमली चाचा से वह पूछेगा, ऐसा मन बनाया था नरेंद्र ने.

एक दिन जब स्कूल से वापस आ कर सब लड़के अपनेअपने घर की तरफ रुख कर गए तो नरेंद्र घर जाने के बजाय चौपाल के करीब पीपल के नीचे जूतों की मरम्मत में जुटे अमली चाचा के पास पहुंच गया.

नरेंद्र को देख अमली चाचा ने कहा, ‘‘क्यों रे, फिर टूट गई तेरी चप्पल? तेरी चप्पल में अब जान नहीं रही. अपने कंजूस बाप से कह अब नई ले दें.’’

‘‘मैं चप्पल बनवाने नहीं आया, चाचा.’’

‘‘तब इस चाचा से और क्या काम पड़ गया, बोल?’’ अमली ने पूछा.

नरेंद्र अमली चाचा के पास बैठ गया. फिर थोड़ी सी ऊहापोह के बाद उस ने पूछा, ‘‘एक बात बतलाओ चाचा, यह ‘कुदेसन’ क्या होती है?’’

नरेंद्र के सवाल पर जूता गांठ रहे अमली चाचा का हाथ अचानक रुक गया. चेहरे पर हैरानी का भाव लिए वह बोले, ‘‘ तू यह सब क्यों पूछ रहा है?’’

‘‘मैं ने सुरजीत के घर में एक औरत को देखा था चाचा, सुरजीत कहता है कि वह औरत ‘कुदेसन’ है जिस को उस का बापू बाहर से लाया है. बतलाओ न चाचा कौन होती है ‘कुदेसन’?’’

‘‘क्या करेगा जान कर? अभी तेरी उम्र नहीं है ऐसी बातों को जानने की. थोड़ा बड़ा होगा तो सब अपनेआप मालूम हो जाएगा. जा, घर जा.’’ नरेंद्र को टालने की कोशिश करते हुए अमली चाचा ने कहा.

लेकिन नरेंद्र जिद पर अड़ गया.

तब अमली चाचा ने कहा,

‘‘ ‘कुदेसन’ वह होती है बेटा, जिस को मर्द लोग बिना शादी के घर में ले आते हैं और उस को बीवी की तरह रखते हैं.’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं चाचा.’’

‘‘थोड़े और बड़े हो जाओ बेटा तो सब समझ जाओगे. कुदेसनें तो इस गांव में आती ही रही हैं. आज सुरजीत का बाप ‘कुदेसन’ लाया है. एक दिन तेरा बाप भी तो ‘कुदेसन’ लाया था. पर उस ने यह सब तेरी मां की रजामंदी से किया था. तभी तो वह वर्षों बाद भी तेरे घर में टिकी हुई है. बातें तो बहुत सी हैं पर मेरी जबानी उन को सुनना शायद तुम को अच्छा नहीं लगेगा, बेहतर होगा तुम खुद ही उन को जानो,’’ अमली चाचा ने कहा.

अमली चाचा की बातों से नरेंद्र हक्काबक्का था. उस ने सोचा नहीं था कि उस का एक सवाल कई दूसरे सवालों को जन्म दे देगा.

सवाल भी ऐसे जो उस की अपनी जिंदगी से जुडे़ थे. अमली चाचा की बातों से यह भी लगता था कि वह बहुत कुछ उस से छिपा भी गया था.

अब नरेंद्र की समझ में आने लगा था कि होश संभालने के बाद वह जिस खामोश औरत को अपने घर में देखता आ रहा है वह कौन है?

वह भी ‘कुदेसन’ है, लेकिन सवाल तो कई थे.

यदि मेरा बापू कभी मां की रजामंदी से ‘कुदेसन’ लाया था तो आज मां उस से इतना बुरा सलूक क्यों करती है? अगर वह ‘कुदेसन’ है तो मुझ को देख कर रोती क्यों है? जरा सा मौका मिलते ही मुझ को अपने सीने से चिपका कर चूमनेचाटने क्यों लगती थी वह? मां की मौजूदगी में वह ऐसा क्यों नहीं करती थी? क्यों डरीडरी और सहमी सी रहती थी वह मां के वजूद से?

फिर अमली चाचा की इस बात का क्या मतलब था कि अपने घर की कुछ बातें खुद ही जानो तो बेहतर होगा?

ऐसी कौन सी बात थी जो अमली चाचा जानता तो था किंतु अपने मुंह से उस को नहीं बतलाना चाहता?

एक सवाल को सुलझाने निकला नरेंद्र का किशोर मन कई सवालों में उलझ गया.

उस को लगने लगा कि उस के अपने जीवन से जुड़ी हुई ऐसी बहुत सी बातें हैं जिन के बारे में वह कुछ नहीं जानता.

अमली चाचा से नई जानकारियां मिलने के बाद नरेंद्र ने मन में इतना जरूर ठान लिया कि वह एक बार मां से घर में रह रही ‘कुदेसन’ के बारे में जरूर पूछेगा.

‘कुदेसन’ के कारण अब सुरजीत के घर में बवाल बढ़ गया था. सुरजीत की मां ‘कुदेसन’ को घर से निकालना चाहती थी मगर उस का बाप इस के लिए तैयार नहीं था.

इस झगड़े में सुरजीत की मां के दबंग भाइयों के कूदने से बात और भी बिगड़ गई थी. किसी वक्त भी तलवारें खिंच सकती थीं. सारा गांव इस तमाशे को देख रहा था.

वैसे भी यह गांव में इस तरह की कोई नई या पहली घटना नहीं थी.

जब सारे गांव में सुरजीत के घर आई ‘कुदेसन’ की चर्चा थी तो नरेंद्र का घर इस चर्चा से अछूता कैसे रह सकता था?

नरेंद्र ने भी मां और सिमरन बूआ को इस की चर्चा करते सुना था लेकिन काफी दबी और संतुलित जबान में.

इस चर्चा को सुन कर नरेंद्र को लगा था कि उस के मां से कु छ पूछने का वक्त आ गया है.

एक दिन जब नरेंद्र स्कूल से वापस घर लौटा तो मां अपने कमरे में अकेली थीं. सिमरन बूआ किसी रिश्तेदार के यहां गई हुई थीं और बापू खेतों में था.

नरेंद्र ने अपना स्कूल का बस्ता एक तरफ रखा और मां से बोला, ‘‘एक बात बतला मां, गायभैंस बांधने वाली जगह के पास बनी कोठरी में जो औरत रहती है वह कौन है?’’

नरेंद्र के इस सवाल पर उस की मां बुरी तरह से चौंक गईं और पल भर में ही मां का चेहरा आशंकाओें के बादलों में घिरा नजर आने लगा.

‘‘तू यह सब क्यों पूछ रहा है?’’ नरेंद्र को बांह से पकड़ झंझोड़ते हुए मां ने पूछा.

‘‘सुरजीत के घर में उस का बापू  एक कुदेसन ले आया है. लोग कहते हैं हमारे घर में रहने वाली यह औरत भी एक ‘कुदेसन’ है. क्या लोग ठीक कहते हैं, मां?’’

नरेंद्र का यह सवाल पूछना था कि एकाएक आवेश में मां ने उस के गाल पर चांटा जड़ दिया और उस को अपने से परे धकेलती हुई बोलीं, ‘‘तेरे इन बेकार के सवालों का मेरे पास कोई जवाब नहीं है. वैसे भी तू स्कूल पढ़ने के लिए जाता है या लोगों से ऐसीवैसी बातें सुनने? तेरी ऐसी बातों में पड़ने की उम्र नहीं. इसलिए खबरदार, जो दोबारा इस तरह की  बातें कभी घर में कीं तो मैं तेरे बापू से तेरी शिकायत कर दूंगी.’’

नरेंद्र को अपने सवाल का जवाब तो नहीं मिला मगर अपने सवाल पर मां का इस प्रकार आपे से बाहर होना भी उस की समझ में नहीं आया.

ऐसा लगता था कि उस के सवाल से मां किसी कारण डर गईं और यह डर मां की आखों में उसे साफ नजर आता था.

नरेंद्र के मां से पूछे इस सवाल ने घर के शांत वातावरण में एक ज्वारभाटा ला दिया. मां और बापू के परस्पर व्यवहार में तलखी बढ़ गई थी और सिमरन बूआ तलख होते मां और बापू के रिश्ते में बीचबचाव की कोशिश करती थीं.

मां और बापू के रिश्ते में बढ़ती तलखी की वजह कोने में बनी कोठरी में रहने वाली वह औरत ही थी जिस के बारे में अमली चाचा का कहना था कि वह एक ‘कुदेसन’ है.https://audiodelhipress.s3.ap-south-1.amazonaws.com/Audible/ch_a105_000001/0923_ch_a105_000006in_rev1_s1b_waaris_sl.mp3

मां अब उस औरत को घर से निकालना चाहती हैं. नरेंद्र ने मां को इस बारे में बापू से कहते भी सुना. नरेंद्र को ऐसा लगा कि मां को कोई डर सताने लगा है.

बापू मां के कहने पर उस औरत को घर से निकालने को तैयार नहीं हैं.

नरेंद्र ने बापू को मां से कहते सुना था, ‘‘इतनी निर्मम और स्वार्थी मत बनो, इनसानियत भी कोई चीज होती है. वह लाचार और बेसहारा है. कहां जाएगी?’’

‘‘कहीं भी जाए मगर मैं अब उस को इस घर में एक पल भी देखना नहीं चाहती हूं. नरेंद्र भी इस के बारे में सवाल पूछने लगा है. उस के सवालों से मुझ को डर लगने लगा है. कहीं उस को असलियत मालूम हो गई तो क्या होगा?’’ मां की बेचैन आवाज में साफ कोई डर था.

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा. तुम बेकार में किसी वहम का शिकार हो गई हो. हमें इतना कठोर और एहसानफरामोश नहीं होना चाहिए. इस को घर से निकालने से पहले जरा सोचो कि इस ने हमें क्या दिया और बदले में हम से क्या लिया? सिर छिपाने के लिए एक छत और दो वक्त की रोटी. क्या इतने में भी हमें यह महंगी लगने लगी है? जरा कल्पना करो, इस घर को एक वारिस नहीं मिलता तो क्या होता? एक औरत हो कर भी तुम ने दूसरी औरत का दर्द कभी नहीं समझा. तुम को डर है उस औलाद के छिनने का, जिस ने तुम्हारी कोख से जन्म नहीं लिया. जरा इस औरत के बारे में सोचो जो अपनी कोख से जन्म देने वाली औलाद को भी अपने सीने से लगाने को तरसती रही. जन्म देते ही उस के बच्चे को इसलिए उस से जुदा कर दिया गया ताकि लोगों को यह लगे कि उस की मां तुम हो, तुम ने ही उस को जन्म दिया है. इस बेचारी ने हमेशा अपनी जबान बंद रखी है. तुम्हारे डर से यह कभी अपने बच्चे को भी जी भर के देख तक नहीं सकी.

‘‘इस घर में वह तुम्हारी रजामंदी से ही आई थी. हम दोनों का स्वार्थ था इस को लाने में. मुझ को अपने बाप की जमीनजायदाद में से अपना हिस्सा लेने के लिए एक वारिस चाहिए था और तुम को एक बच्चा. इस ने हम दोनों की ही इच्छा पूरी की. इस घर की चारदीवारी में क्या हुआ था यह कोई बाहरी व्यक्ति नहीं जानता. बच्चे को जन्म इस ने दिया, मगर लोगों ने समझा तुम मां बनी हो. कितना नाटक करना पड़ा था, एक झूठ को सच बनाने के लिए. जो औरत केवल दो वक्त की रोटी और एक छत के लालच में अपने सारे रिश्तों को छोड़ मेरा दामन थाम इस अनजान जगह पर चली आई, जिस को हम ने अपने मतलब के लिए इस्तेमाल किया, पर उस ने न कभी कोई शिकायत की और न ही कुछ मांगा. ऐसी बेजबान, बेसहारा और मजबूर को घर से निकालने का अपराध न तो मैं कर सकता हूं और न ही चाहूंगा कि तुम करो. किसी की बद्दुआ लेना ठीक नहीं.’’

नरेंद्र को लगा था कि बापू के समझाने से बिफरी हुई मां शांत पड़ गई थीं. लेकिन नरेंद्र उन की बातों को सुनने के बाद अशांत हो गया था. जानेअनजाने में उस के अपने जन्म के साथ जुड़ा एक रहस्य भी उजागर हो गया था.

अमली चाचा जो बतलाने में झिझक गया था वह भी शायद इसी रहस्य से जुड़ा था.

अब नरेंद्र की समझ में आने लगा था कि घर में रह रही वह औरत जोकि अमली चाचा के अनुसार एक ‘कुदेसन’ थी, दूर से क्यों उस को प्यार और हसरत की नजरों से देखती थी? क्यों जरा सा मौका मिलते ही वह उस को अपने सीने से चिपका कर चूमती और रोती थी? वह उस को जन्म देने वाली उस की असली मां थी.

नरेंद्र बेचैन हो उठा. उस के कदम बरबस उस कोठरी की तरफ बढ़ चले, जिस के अंदर जाने की इजाजत उस को कभी नहीं दी गई थी. उस कोठरी के अंदर वर्षों से बेजबान और मजबूर ममता कैद थी. उस ममता की मुक्ति का समय अब आ गया था. आखिर उस का बेटा अब किशोर से जवान हो गया था.

मां- भाग 1 : क्या बच्चों के लिए ममता का सुख जान पाई गुड्डी

‘‘मम्मीजी, पिंकू केक काटने के लिए कब से आप का इंतजार कर रहा है.’’

बहू दीप्ति का फोन था.

‘‘दीप्ति, ऐसा करो…तुम पिंकू से मेरी बात करा दो.’’

‘‘जी अच्छा,’’ उधर से आवाज सुनाई दी.

‘‘हैलो,’’ स्वर को थोड़ा धीमा रखते हुए सुमनलता बोलीं, ‘‘पिंकू बेटे, मैं अभी यहां व्यस्त हूं. तुम्हारे सारे दोस्त तो आ गए होंगे. तुम केक काट लो. कल का पूरा दिन तुम्हारे नाम है…अच्छे बच्चे जिद नहीं करते. अच्छा, हैप्पी बर्थ डे, खूब खुश रहो,’’ अपने पोते को बहलाते हुए सुमनलता ने फोन रख दिया.

दोनों पत्रकार ध्यान से उन की बातें सुन रहे थे.

‘‘बड़ा कठिन दायित्व है आप का. यहां ‘मानसायन’ की सारी जिम्मेदारी संभालें तो घर छूटता है…’’

‘‘और घर संभालें तो आफिस,’’ अखिलेश की बात दूसरे पत्रकार रमेश ने पूरी की.

‘‘हां, पर आप लोग कहां मेरी परेशानियां समझ पा रहे हैं. चलिए, पहले चाय पीजिए…’’ सुमनलता ने हंस कर कहा था.

नौकरानी जमुना तब तक चाय की ट्रे रख गई थी.

‘‘अब तो आप लोग समझ गए होंगे कि कल रात को उन दोनों बुजुर्गों को क्यों मैं ने यहां वृद्धाश्रम में रहने से मना किया था. मैं ने उन से सिर्फ यही कहा था कि बाबा, यहां हौल में बीड़ी पीने की मनाही है, क्योंकि दूसरे कई वृद्ध अस्थमा के रोगी हैं, उन्हें परेशानी होती है. अगर आप को  इतनी ही तलब है तो बाहर जा कर पिएं. बस, इसी बात पर वे दोनों यहां से चल दिए और आप लोगों से पता नहीं क्या कहा कि आप के अखबार ने छाप दिया कि आधी रात को कड़कती सर्दी में 2 वृद्धों को ‘मानसायन’ से बाहर निकाल दिया गया.’’

‘‘नहीं, नहीं…अब हम आप की परेशानी समझ गए हैं,’’ अखिलेशजी यह कहते हुए उठ खडे़ हुए.

‘‘मैडम, अब आप भी घर जाइए, घर पर आप का इंतजार हो रहा है,’’ राकेश ने कहा.

सुमनलता उठ खड़ी हुईं और जमुना से बोलीं, ‘‘ये फाइलें अब मैं कल देखूंगी, इन्हें अलमारी में रखवा देना और हां, ड्राइवर से गाड़ी निकालने को कहना…’’

तभी चौकीदार ने दरवाजा खटखटाया था.

‘‘मम्मीजी, बाहर गेट पर कोई औरत आप से मिलने को खड़ी है…’’

‘‘जमुना, देख तो कौन है,’’ यह कहते हुए सुमनलता बाहर जाने को निकलीं.

गेट पर कोई 24-25 साल की युवती खड़ी थी. मलिन कपडे़ और बिखरे बालों से उस की गरीबी झांक रही थी. उस के साथ एक ढाई साल की बच्ची थी, जिस का हाथ उस ने थाम रखा था और दूसरा छोटा बच्चा गोदी में था.

सुमनलता को देखते ही वह औरत रोती हुई बोली, ‘‘मम्मीजी, मैं गुड्डी हूं, गरीब और बेसहारा, मेरी खुद की रोटी का जुगाड़ नहीं तो बच्चों को क्या खिलाऊं. दया कर के आप इन दोनों बच्चों को अपने आश्रम में रख लो मम्मीजी, इतना रहम कर दो मुझ पर.’’

बच्चों को थामे ही गुड्डी, सुमनलता के पैर पकड़ने के लिए आगे बढ़ी थी तो यह कहते हुए सुमनलता ने उसे रोका, ‘‘अरे, क्या कर रही है, बच्चों को संभाल, गिर जाएंगे…’’

‘‘मम्मीजी, इन बच्चों का बाप तो चोरी के आरोप में जेल में है, घर में अब दानापानी का जुगाड़ नहीं, मैं अबला औरत…’’

उस की बात बीच में काटते हुए सुमनलता बोलीं, ‘‘कोई अबला नहीं हो तुम, काम कर सकती हो, मेहनत करो, बच्चोें को पालो…समझीं…’’ और सुमनलता बाहर जाने के लिए आगे बढ़ी थीं.

‘‘नहीं…नहीं, मम्मीजी, आप रहम कर देंगी तो कई जिंदगियां संवर जाएंगी, आप इन बच्चों को रख लो, एक ट्रक ड्राइवर मुझ से शादी करने को तैयार है, पर बच्चों को नहीं रखना चाहता.’’

‘‘कैसी मां है तू…अपने सुख की खातिर बच्चों को छोड़ रही है,’’ सुमनलता हैरान हो कर बोलीं.

‘‘नहीं, मम्मीजी, अपने सुख की खातिर नहीं, इन बच्चों के भविष्य की खातिर मैं इन्हें यहां छोड़ रही हूं. आप के पास पढ़लिख जाएंगे, नहीं तो अपने बाप की तरह चोरीचकारी करेंगे. मुझ अबला की अगर उस ड्राइवर से शादी हो गई तो मैं इज्जत के साथ किसी के घर में महफूज रहूंगी…मम्मीजी, आप तो खुद औरत हैं, औरत का दर्द जानती हैं…’’ इतना कह गुड्डी जोरजोर से रोने लगी थी.

‘‘क्यों नाटक किए जा रही है, जाने दे मम्मीजी को, देर हो रही है…’’ जमुना ने आगे बढ़ कर उसे फटकार लगाई.

नशा: भाग 2- क्या रेखा अपना जीवन संवार पाई

क्लब का अंदर का दृश्य देख कर वह दंग रह गई थी. रंगीन जोड़े फर्श पर थिरक रहे थे. लोग जाम पर जाम लगा रहे थे यानी शराब पी रहे थे. सब नशे में चूर थे. ऐसा तो उस ने फिल्मों में ही देखा था. वह एकटक सब देख रही थी. दीपा के कहने पर उस ने शराब पी थी और वह भी पहली दफा. फिर तो हर दिन उस का औफिस में बीतता, तो शाम क्लब में बीतती.

दीपा शुरू में तो उस को अपने पैसे से पिलाती थी, बाद में उसी के पैसे से पीती थी. शनिवार और इतवार को वे दोनों रेखा के घर में ही पीतीं. रेखा जानती है कि वह गलत कर रही है, वहीं वह यह भी जानती है कि उस को अपने को रोक पाना अब उस के वश में नहीं है. शाम होते ही हलक सूखने लगता है उस का.

कई बार फूफी कह चुकी है- ‘इस दीपा का अपना घरबार नहीं है, यह दूसरों का घर बरबाद कर के ही दम लेगी. अरे, रेखा बीबी, इस औरत का साथ छोड़ो. बड़ी बुरी लत है शराब की. मेरा पति तो शराब पीपी के दूसरी दुनिया में चला गया. तभी तो मुझ फूफी ने इस घर में उम्र गुजार दी. बड़ी बुरी चीज है शराब और शराबी से दोस्ती.’

फूफी के ताने रेखा को न भाते. जी करता धक्के मार कर घर से बाहर निकाल दे. लेकिन नहीं कर सकती ऐसा. यह चली गई तो घर कौन संभालेगा.

आज उसे घबराहट हो रही है, जब से अम्माजी ने सब बताया कि वे रिटायर होने वाली हैं. व्याकुल मन के साथ बड़ी देर तक बिस्तर पर करवटें बदलती रही. न जाने कब सोई, पता ही नहीं लगा. उधर, देवेश को जब से रेखा के बारे में पता लगा है, उस की व्याकुलता का अंत नहीं है. वहां जरमनी में स्त्रीपुरुष सब शराब पीते हैं, ठंडा मुल्क है. पर हिंदुस्तान में लोग इसे शौकिया पीते हैं. स्त्रियों का यों क्लबरैस्त्रां में पीना दुश्चरित्र माना जाता है.

देवेश को अम्मा ने जब से रेखा के बारे में बताया है, जरमनी में हर स्त्री उसे रेखा सी दिखती है. वह रैस्त्रां के आगे से गुजरता है तो लगता है, रेखा इस रैस्त्रां में शराब पी रही होगी. दूसरे ही क्षण सोचता- यहां रेखा कैसे आ सकती है?

औफिस में भी देवेश बेचैन रहता है. दिनरात सोतेजागते ‘रेखा शराबी’ का खयाल उस से जुड़ा रहता है. देवेश का जी करता है, अभी इंडिया के लिए फ्लाइट पकड़े और पत्नी के पास पहुंच जाए, बांहों में भर कर पूछे, ‘रेखा, तुम्हें जीवन में कौन सा दुख है जो शराब का सहारा ले लिया.’ देवेश कितनी खुशियां ले कर आया था जरमनी में. इंडिया में घर खरीदेंगे, मियांबीवी ठाट से रहेंगे. फिर बच्चे के बारे में सोचेंगे. मां भी साथ रहेंगी. किंतु क्यों? ये सब क्या हुआ, कैसे हुआ? किस से पूछे वह? जरमनी में तो उस का अपना कोई सगा नहीं है जिस से मन की बात कह भी सके.

वह इतना मजबूर है कि न तो रेखा से कुछ पूछ सकता है और न ही अम्मा से. बस, मन की घायल दशा से फड़फड़ा कर रह जाता है. उसे लग रहा है कि वह डिप्रैशन में जा रहा है. दोस्तों ने उस की शारीरिक अस्वस्थता देख उसे अस्पताल में भरती करा दिया था.

कुछ स्वस्थ हुआ तो हर समय उसे पत्नी का लड़खड़ाता अक्स ही दिखाई देता. घबरा कर आंखें बंद कर लेता. और, अम्माजी, उस दिन बेटे से बात करने के बाद ऊपर से तो सामान्य सी दिख रही थीं किंतु अंदर से उन को पता था वे कितनी दुखी हैं. पूरी रात सो न सकी थीं. बेचारी क्या करतीं. आज सुबह वे हमेशा की तरह जल्दी न उठीं.

रेखा जब औफिस चली गई तो बेमन से उठीं और स्टोर में घुस गईं. स्टोर कबाड़ से अटा पड़ा था. किताबें, कौपियां, न्यूजपेपर्स और न जाने क्याक्या पुराना सामान था. कबाड़ी को बुला कर सारा सामान बेच दिया सिर्फ एक बंडल को छोड़ कर. इसे फुरसत में देखूंगी क्या है.

सब काम खत्म कर के बंडल को झाड़झूड़ कर खोला. उन्हें लगता था किसी ने हाथ से कविताएं लिखी हैं. शायद यह रेखा की राइटिंग है. कविताएं ही थीं. देखा एक नहीं, 30-35 कविताएं थीं. उन्हें पढ़ कर वे स्तब्ध थीं.

सुंदर शब्दों के साथ ज्वलंत विषयों पर लिखी कविताएं अद्वितीय थीं. यानी, बहू कविताएं भी लिखती है. इस बंडल मे 2-3 पुस्तकें भी थीं. सभी रेखा की कृतियों का संग्रह थीं. अम्माजी कभी कविता संग्रह पढ़तीं, तो कभी हस्तलिखित रचनाओं को. इतनी गुणी है उन की बहू और वे इस से अब तक अनजान रहीं.

झाड़पोंछ कर उन्हें कोने में टेबल पर रख दिया. सोचा, शाम को बात करूंगी. क्यों बहू ने इस गुण की बात हम से छिपाई? कभीकभी हम अपने टेलैंट को छोड़ कर इधरउधर भटकते हैं. दुर्गुणों में फंस कर जीवन को दुश्वार बना लेते हैं.

रेखा के घर आने से पहले उन्होंने कई जगह फोन किए. दोपहर को बेटे देवेश का फोन आ गया, ‘‘कैसी हो अम्मा?’’

‘‘ठीक हूं.’’

‘‘और रेखा?’’

‘‘वह अभी औफिस से लौटने वाली है. आएगी तो बता दूंगी. तू परेशान है उस को ले कर, यह मैं जानती हूं.’’

‘‘नहीं अम्मा, मैं ठीक हूं. बस, आने के दिन गिन रहा हूं.’’

‘‘नहीं, मैं जानती हूं, तू झूठ बोल रहा है. पर वादा करती हूं तेरे आने तक घर को संभालने की पूरी कोशिश करूंगी.’’ अम्मा की आंखों में आंसू आ गए थे.

‘‘अम्मा, ऐसा तो मैं ने कभी नहीं सोचा था कि धन कमाने की होड़ में परिवार को ही खो बैठूंगा.’’

‘‘नहीं बेटा, ऐसा मत सोचो, सब ठीक हो जाएगा, धीरज रखो.’’ इस से आगे बात करना संभव न था. अम्माजी का गला आवेग से भर्रा गया था.

काम से रेखा लौट आई थी. चेहरे पर चिंता व परेशानी झलक रही थी. अम्माजी को रेखा की चिंता का विषयकारण पता था. अम्माजी ने बड़ी हिम्मत कर के कहा, ‘‘आज बहुत थक गई हो, काम ज्यादा था क्या?’’

‘‘नहीं अम्माजी, बस, वैसे ही थोड़ा सिरदर्द था. आराम करूंगी, ठीक हो जाएगा.’’

ऐसे में वे भला कैसे कहतीं कि आज इरा खन्ना से उन्होंने समय लिया है. वे हमारी राह देख रही होंगी.

‘‘अम्माजी, आप कहीं जाने के लिए तैयार हो रही हैं?’’

‘‘रेखा, आज मैं एक सहेली के पास जा रही थी, चाहती थी कि तुम भी साथ चलो.’’

‘‘नहीं, फिर कभी.’’

‘‘ठीक है जब तुम्हारा मन करे. पर वे तुम से ही मिलना चाहती थीं.’’

‘‘अच्छा? आप ने बताया होगा मेरे बारे में, तभी?’’

‘‘हां, मैं ने यही कहा था कि मेरी बहू लाखों में एक है. नेक, समझदार व दूसरों को सम्मान देने वाली स्त्री है. मेरी बहू से मिलोगी तो सब भूल जाओगी. है न बहू?’’ वह सास की बात पर मुसकरा रही थी, मन ही मन कहने लगी, यानी, अम्माजी को पता नहीं कि मैं दुश्चरित्रा हूं, मैं शराब पीती हूं, बुरी स्त्री हूं. यदि वे जान गईं तो घर से निकाल सकती हैं.

वैसे जो बात अभी अम्माजी ने अपनी सहेली से की थी, सुन कर उसे बहुत अच्छा लगा. मैं जरूर उन से मिलूंगी. पता नहीं, कब वह सो गई और अम्माजी, सोफे पर उसे सोया देख सोच रही थीं कि ये उठे तो मैं इस को साथ ले चलूं. फिर वे भी अंदर जा कर लेट गईं.

‘‘एक कप चाय बना दो, फूफी. सिरदर्द से फटा जा रहा है,’’ रेखा सोफे पर बैठी सोच रह थी कि उस की नजर कोने की मेज पर रखे एक बंडल पर पड़ी. बिजली सी चमक की तरह वह उछली, ‘‘फूफी, यह बंडल यहां क्यों रखा है? इसे मैं ने स्टोर में डाला था, क्यों निकाला?’’ वह लगभग चीख पड़ी.

‘‘क्या हुआ, बेटा? यह बंडल स्टोर में था. मैं ने आज स्टोर की सफाई की तो निकाल कर देखा, इस में कविताएं व कुछ और भी था…सारा झाड़कबाड़ बेच दिया, इस को फेंकने का मन न किया. सोचा, तुम आओगी तो तुम से पूछ कर ही कुछ सोचूंगी.’’

‘‘पूछना क्या है, इसे भी कबाड़ में फेंक देतीं. क्या करूंगी इन सब का? अब सब खत्म हो गया.’’

उस के स्वर में वितृष्ण से अम्माजी को समझते देर न लगी कि इस बंडल से जुड़ा कोई हादसा अवश्य है जिसे मैं नहीं जानती, पर जानना जरूरी है.

‘‘बेटा, बोलो, क्या बात है जो इतनी सुंदर रचनाओं को तुम ने रद्दी में फेंक दिया?’’ अम्मा ने फिर पुलिंदा मेज पर ला रखा.

‘‘छोड़ो अम्माजी, इस पुलिंदे को ले कर आप क्यों परेशान हैं? छोड़ो ये सब रचनावचना,’’ कहतेकहते उस की आंखें भर आई थीं.

‘‘बेटा, मैं तेरी सासूमां हूं. क्या बात है जो तू इतनी दुखी है और मुझे कुछ भी नहीं पता? क्या सबकुछ खुल कर नहीं बताओगी?’’

‘‘क्या कहूं अम्माजी. आप को यह तो पता ही है कि मेरे पापा बहुत बड़े साहित्यकार थे. परिवार में साहित्यिक माहौल था. मुझे पढ़ने व लिखने का जनून था. कितने ही साहित्यकारों से मेरे पिता व रचनाओं के जरिए परिचय था. मेरी शादी से पहले मेरे 3 कविता संग्रह व एक कहानी संग्रह छप चुके थे. मेरे काम को काफी सराहा गया था. एक पुस्तक पर मुझे अकादमी पुरस्कार भी मिला था. बहुत खुश थी मैं.’’

नशा: भाग 3- क्या रेखा अपना जीवन संवार पाई

रेखा ने बात जारी रखी, ‘‘सोचती थी देवेश को दिखाऊंगी तो गर्व करेंगे पत्नी पर. शादी के बाद जब मैं ने अपनी रचनाओं तथा पुस्तकों का उन से जिक्र किया तो वे बोले, ‘छोड़ो ये सब, मुझे तो तुम में रुचि है. ये आंखें, ये गुलाबी कपोल, खूबसूरत देह मेरे लिए यही कुदरत की रचना है.’

‘‘‘छोड़ो सब बेकार के काम, तुम्हारे लिए एक अच्छी सी नौकरी ढूंढ़ता हूं. समय भी कट जाएगा और बैंक बैलेंस भी बढ़ेगा.’

‘‘मैं समझ गई कि देवेश की सोच का दायरा बहुत सीमित है. उस वक्त मैं चुप रह गई. हालांकि उन की बात मेरे लिए बहुत बड़ा आघात थी. लेकिन अपने को रोक पाना मेरे लिए मुश्किल था. मेरा अंदर का लेखक तड़पता था.

‘‘छिपछिप कर कुछ रचनाएं लिखीं, भेजीं और छपी भी थीं. छपी हुई रचनाएं जब देवेश को दिखाईं तो वे मुझी पर बरस पड़े, ‘यह क्या पूरी लाइब्रेरी बनाई हुई है. लो, अब पढ़ोलिखो…’ इन्होंने मेरी किताबों को आग के हवाले कर दिया.

‘‘मेरी आंखों में खून उतर आया लेकिन चुप रही. आप बताइए जो व्यक्ति जनून की हद तक किसी टेलैंट को प्यार करता हो, उस का जीवनसाथी ऐसा व्यवहार करे तो परिणाम क्या होगा?

‘‘सपना था मेरा प्रथम श्रेणी की लेखिका बनने का, पर वह बिखर गया. हताश हो मैं ने इस बंडल को इस स्टोर में डाल फेंका.

‘‘पति के जरमनी जाने के बाद कई बार सोचा कि फिर से शुरू करूं, अकेलापन दूर करने का यही एक साधन था मेरे पास. लेकिन इसी बीच दीपा से मेरा संपर्क हुआ. और मैं नशे में डूबती चली गई. अब तो पढ़नेलिखने का जी ही नहीं करता. अम्माजी, यह है इस बंडल की कहानी.’’ रेखा की आंखें डबडबा गई थीं.

अम्माजी को लगा कि आज पहली बार उस ने नशे की बात को स्वीकारा है. निश्चय ही जो यह कह रही है, वह सच है. जरा भी मिलावट नहीं है. और बेटे देवेश के लिए जो इस ने कहा, वह भी सच ही होगा. सुन कर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि शुरू से देवेश को सिर्फ पैसे से प्यार है. पैसे के अभाव में उस ने मुश्किल के दिन देखे हैं, सो, उस के जीवन का मकसद सिर्फ पैसा कमाना है.

इस के अलावा यह हो सकता है कि आघात पाने के बाद, रेखा ने सोचा हो, शराब में अपने को डुबो कर वह पति से बदला लेगी. या शायद अकेलेपन से घबरा कर उस ने यह रास्ता अपनाया हो.

यह तो अम्माजी को पता था कि एक बार बच्चे को ले कर दोनों में काफी खींचातानी हुई थी. देवेश बच्चा नहीं चाहता था, ‘जब तक घर अपना नहीं होगा मैं बच्चा नहीं चाहता.’ जबकि रेखा का कहना था, ‘बच्चा घर में होगा तो मैं व्यस्त रहूंगी, खालीपन मुझे काटने को दौड़ता है.’ जो भी हो, इस वक्त तो कोई रास्ता निकालना ही पड़ेगा कि जिस से रेखा के पीने की आदत पर रोक लग सके.

यहां मैं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पति की उस के टेलैंट के प्रति उपेक्षा सब से बड़ा कारण है. उत्साह व बढ़ावा देने की जगह देवेश ने उस की मानसिक जरूरत पर ध्यान नहीं दिया है, बस उसी का परिणाम ‘पीना’ लगता है. यह सोचतेसोचते अम्माजी ने एक बार फिर बड़े प्यार से उस से कहा, ‘‘बेटा, तुम मेरे साथ इरा के घर चलोगी? बड़ी समझदार महिला हैं, साथ ही मेरी बचपन की सहेली भी. वे तुम से मिलने को उत्सुक हैं.’’

‘‘ठीक है, चलती हूं.’’

कुछ देर बाद दोनों इरा के सामने थीं. वह इरा को देख कर अवाक थी. ये तो इतनी जबरदस्त लेखिका हैं, इन से तो लोग मिलने के लिए लाइन लगा कर खड़े होते हैं. ये मुझ से मिलना चाहती थीं. लोग अपनी पुस्तक के लिए इन से दो लाइनें लिखाने को घंटों इंतजार करते हैं. अम्माजी ने रेखा का परिचय कराया तो रेखा कहे बिना न रह सकी, ‘‘इराजी को कौन नहीं जानता, सारे साहित्य जगत में इन के लेखन की धूम है.’’ तभी अम्माजी ने वह बंडल इरा की मेज पर रखा, ‘‘इरा, मैं ने तुझे बताया था कि मेरी बहू भी लिखती है.’’

‘‘हां, बताया था.’’

‘‘ये हैं इस की कुछ रचनाएं और कुछ पुस्तकें.’’

रेखा लगातार इरा को देख रही थी. इरा रेखा की रचनाओं को पढ़ रही थीं. पढ़ने के बाद मुसकरा कर बोलीं, ‘‘अद्भुत. मैं हैरान हूं इतनी सी उम्र में, इतना सुंदर शब्द चयन, विषय चयन, और प्रस्तुति. मैं ने तो कितनी ही किताबें छपवाई हैं पर ऐसी रचनाएं… वाह.

‘‘बेटा, इस को आप मेरे पास छोड़ जाओ. कल तुम्हें फोन पर डिटेल बताऊंगी. फिर भी अल्पना, मैं यह भविष्यवाणी करती हूं कि ऐसे ही ये लिखती रही तो एक दिन ये उभरती हुई रचनाकारों की श्रेणी में उच्चतम स्तर पर होगी.’’

इरा से मुलाकात के बाद सासूमां के साथ रेखा लौट आई. रेखा को रास्ते भर यही लगा कि इराजी अभी भी वही वाक्य दोहरा रही हैं, ‘ऐसे ही ये लिखती रही…’

घर पहुंच कर वह अपने मन को टटोलती रही थी. यह कैसी भविष्यवाणी थी जिस ने उस के मन में खुशियां और उत्साह के फूल बरसाए थे. इतनी बड़ी लेखिका के मुंह से ऐसी तारीफ. सपने में भी वह आज की मुलाकात के मीठे सपने देखती रही थी.

सुबहसवेरे, आज उस ने अटैची में रखी कुछ और रचनाओं को निकाला था. उन्हें भी ठीकठाक कर के मेज पर छोड़ा था. तभी फोन की घंटी बज उठी-

‘‘मैं इरा बोल रही हूं. कल आप जिन रचनाओं को छोड़ गई थीं उन्हें मैं ने एक पुस्तक के रूप में सुनियोजित करने को दे दी हैं. पुस्तक का नाम मैं अपने अनुसार रखूं तो आप को आपत्ति तो नहीं होगी?’’

‘‘नहीं मैम, नहीं, कभी नहीं.’’

‘‘हां, एक बात और, साहित्यकार मीनल राज और प्रिया से इन कविताओं के लिए दो शब्द लिखवाने का निश्चय हम ने किया है. बाकी मिलोगी, तो बताऊंगी.’’

उसे लगा वह सपना देख रही है- मीनल राज और प्रिया, इतने दिग्गज लेखक हैं दोनों. खुशी उस के अंगअंग से फूट रही थी. वह बैठेबैठे मुसकरा रही थी.

‘‘अरे, क्या हुआ? किस का फोन था?’’ अम्माजी ने पूछ ही लिया, ‘‘इतनी क्यों खुश है?’’

‘‘वो, इरा मैम का फोन था. वे कह रही थीं…’’ उस ने सारी बात सासूमां को बताई.

उस के चेहरे पर थिरकती प्रसन्नता इस बात का सुबूत थी कि वह इसी की तलाश में थी. और उस ने रास्ता पा लिया है अपने खोए जनून और टेलैंट के लिए.

इस के बाद वह कई बार इरा मैम के पास गई. कभीकभी सारा दिन उन की लाइब्रेरी में पढ़ती रहती. पुस्तकों व रचनाओं को ले कर इरा मैम से विचारविमर्श करती.

इस बीच, दीपा कई बार उस के घर आई पर रेखा की सासू मां ने कहा, ‘‘बेटा, वह अब तुम्हारे चंगुल में कभी नहीं फंसेगी, जाओ…’’

2 महीने बाद, रेखा को एक लिफाफा मिला. उस में 20 हजार रुपए का एक ड्राफ्ट था और एक पत्र भी. पत्र में लिखा था-

‘‘प्रिय रेखा,

‘‘तुम्हारी 2 पुस्तकों के प्रकाशन कौपीराइट की कीमत है, स्वीकार लो. अगले महीने हम और तुम जयपुर पुस्तक मेले में जा रहे हैं.

‘‘एक और खुशखबरी है, समीक्षा हेतु तुम्हारी दोनों

पुस्तकों को कुछ पत्रपत्रिकाओं में भेजी है. ये पत्रिकाएं भी तुम्हारे पास जल्द ही पहुंचेंगी.

‘‘शुभकामनाओं सहित

इरा.’’

ड्राफ्ट देख उस की बाछें खिल गईं. ‘अम्माजी के हाथ में दूंगी, यह उन की मेहनत का फल है.’ यह सोच कर रेखा पीछे मुड़ी तो पाया, उस के हाथ में ड्राफ्ट देख अम्माजी मुसकरा रही थीं, ‘‘मिल गया ड्राफ्ट?’’

‘‘आप को कैसे पता?’’

‘‘कल शाम को इरा का फोन आया था. उस ने मुझे इस ड्राफ्ट के बारे में बताया था.’’

वे अभी भी मुसकरा रही थीं, शायद अपनी जीत पर.

‘‘लेट्स सैलीब्रेट, अम्माजी,’’ रेखा की खुशी देखते ही बनती थी.

‘‘अरे, आज तो खुल जाए बोतल,’’ अम्माजी ने चुटकी ली.

‘‘छोड़ो अम्माजी, जितना नशा मुझे आज चढ़ा है इस ड्राफ्ट से, उतना बोतल में कहां? आज हम दोनों डिनर बाहर करेंगे, आप की प्रिय मक्की की रोटी और सरसों का साग. साथ में…’’ वह अम्माजी की ओर देख रही थी. ‘‘मक्खन मार के लस्सी…’’ अम्माजी ने उस की बात पूरी की और खुशी से बहू को सीने से लगा लिया.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें