आखिर क्या है अंतर हार्ट अटैक और कार्डिएक अरेस्ट में, जानें यहां

53 साल के मशहूर सिंगर केके यानि कृष्णकुमार कुन्नथअब हमारे बीच नहीं है. कोलकाता कॉन्सर्ट के दौरान वे थोड़ी असहज महसूस कर रहे थे. इसके बावजूद उन्होंने करीब घंटे भर के अपने शो को पूरा किया और कॉन्सर्ट से होटल जाते हुए उनकी तबियत बिगड़ी और वे गिर पड़े. अस्पताल जाने के बाद उन्हें मृत घोषित कर दिया. पुलिस को इंतजाम में किसी गड़बड़ी का शक था, तो किसी को ये हार्ट अटैक की संभावना बताई गयी, जबकि अंतिम पोस्टमार्टम और ऑटोप्सी के अनुसार गायक की मौत के कारण के रूप में ‘मायोकार्डियल इंफाक्र्शन’बताया गया.

ऐसी ही एक घटना मुंबई की पॉश एरिया में 38 साल के एक व्यक्ति की हुई. ऑफिस से घर लौटने पर उसकी पत्नी और बेटी ने उसकी घबराहट को देखा, उन्हें हवा के नीचे बैठाकर पानी दिया, व्यक्ति पानी पीने से पहले उसका गिलास हाथ से गिर गया और वह बेहोश हो गया. तुरंत डॉक्टर को भी बुलाया गया, लेकिन तब तक उसकी मौत हो चुकी थी. इस व्यक्ति के पीछे घरेलू हाउसवाइफ और 2 छोटी-छोटी बेटियां बिना किसी सहारे के रह गई.

मायोकार्डियल इंफार्क्शन (एमआई) को साधारणत: हार्ट अटैक कहा जाता है, जब हार्ट में ब्लड फ्लो कम होने लगता है या हार्ट की कोरोनरी आर्टरी बंद हो जाती है, तब ऐसी अवस्था होती है. इस रोग में हृदय की धमनियों के भीतर एक प्लेक सा पदार्थ जमने लगता है, जिसकी वजह से ये धमनियां सिकुड़ने लगती है और हृदय तक खून का पहुंचना बंद हो जाता है.

क्या है अंतर

बहुत से लोग अक्सर हार्ट अटैक और कार्डियक अरेस्ट को समानार्थी समझ लेते है, लेकिन इन दोनों स्थितियों में काफी अंतर होता है. कुछ लोग कार्डियक अरेस्ट का मतलब दिल का दौरा समझ लेते है, परन्तु दिल का दौरा पड़ने का मतलब होता है हार्ट अटैक आना. दिल का दौरा तब होता है, जब हृदय में रक्त का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता हैऔर कार्डियक अरेस्ट तब होता है जब मनुष्य का हृदय अचानक कार्य करना बन्द कर देता है, जिससे दिल का धड़कना भीअचानक बंद हो जाता है.कार्डियक अरेस्ट, हार्ट अटैक की तुलना में अधिक घातक होता है, क्योंकि कार्डिएक अरेस्ट में व्यक्ति को बचाने का समय बहुत कम मिल पाता है.

बने जागरूक

इस बारें मेंमुंबई की कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी हॉस्पिटल की कार्डियोलोजिस्ट डॉ. प्रवीण कहाले कहते है कि दिल का दौरा (हार्ट अटैक) तब होता है, जब हृदय की धमनियों, यानि रक्त वाहिकाएं, जो हृदय की मांसपेशियों को पंप करने के लिए ऑक्सीजन युक्त रक्त की आपूर्ति करती है उनमे से एक ब्लॉक हो जाती है. ह्रदय मांसपेशी को उसका कार्य सुचारु रूप से कर पाने के लिए सबसे ज़रूरी होता है रक्त, लेकिन धमनी के ब्लॉक हो जाने पर वह नहीं मिल पाता हैऔर अगर इसका इलाज समय पर नहीं किया गया, तो पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन न मिल पाने की वजह से ह्रदय मांसपेशी का कार्य बंद पड़ने लगता है. जब किसी व्यक्ति का हृदय रक्त पंप करना बंद कर देता है तब ह्रदय की गति रुक जाती है, जिसे कार्डियक अरेस्ट कहते है.यह व्यक्ति सामान्य रूप से सांस नहीं ले पाता है. वयस्कों में कार्डियक अरेस्ट बहुत बार दिल के दौरे की वजह से होता है.जब दिल का दौरा पड़ता है, तब ह्रदय की धड़कन में खतरनाक अनियमितता आ जाती है, जिससे कार्डियक अरेस्ट हो सकता है. कमज़ोर ह्रदय वाले लोगों को यह तकलीफ होती है, यानि उनके ह्रदय की पंपिंग क्षमता (इजेक्शन फ्रैक्शन) बड़े पैमाने पर कम हो जाती है (35% से कम) इसे अचानक होने वाली ‘कार्डियक डेथ’ भी कहा जाता है.

दिल के दौरे के लक्षण

चेस्ट में बेचैनी

दिल के दौरों की ज़्यादातर केसेस मेंचेस्ट के बीचोबीच बेचैनी महसूस होती है, जो कई मिनटों तक रहती है, फिर दूर होती है और फिर से होने लगती है. बेचैन कर देने वाला दबाव, छाती को निचोड़ा जा रहा हो, ऐसा दर्द, छाती भरी भरी सी महसूस होना या छाती में दर्द होना, इनमें से कुछ भी हो सकता है.

शरीर के दूसरे हिस्सों में बेचैनी

दोनों या किसी एक हाथ में, पीठ, गर्दन, जबड़े या पेट में दर्द या बेचैनी होना.

सांस लेने में तकलीफ

छाती में बेचैनी के साथ-साथ सांस लेने में तकलीफ होना दिल के दौरे का एक लक्षण हो सकता है.कई दूसरे लक्षण जिसे अधिकतर व्यक्ति समझ नहीं पाते, जिसमें बहुत सारा पसीना निकलना, मतली या चक्कर आना.

पुरुषों और महिलाओं में लक्षण कई बार अलगअलग हो सकते है, इसलिए इसे भी जान लेना जरुरी है.
पुरुषों की तरह महिलाओं में भी दिल के दौरे का सबसे प्रमुख लक्षण, छाती में दर्द या बेचैनी होना, लेकिन इसके दूसरे लक्षण पुरुषों से अधिक महिलाओं में दिखाई पड़ते है,जिसमे खास कर सांस लेने में तकलीफ, मतली, उल्टी होना, पीठ और जबड़े में दर्द आदि.

कार्डियक अरेस्टे (cardiac arrest) में अचानक दिल का काम करना बंद हो जाता है. कार्डियक अरेस्टेकिसी लंबी या पुरानी बीमारी का हिस्साक नहीं है, इसलिए कार्डियक अरेस्टा को दिल से जुड़ी बीमारियों में सबसे खतरनाक माना जाता है. लोग अकसर इसे दिल का दौरा पड़ना (heart attack) समझते है. इस बारें में डॉ.प्रवीण कहते है कि इसके लक्षण को जानना बहुत जरुरी है.

कार्डियक अरेस्ट के लक्षण

• अचानक होश खो देना और उसे हिलाने पर भी वह कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दे पाता है,

• सामान्य रूप से सांस न ले पाना,

• अगर कार्डिएक अरेस्ट के व्यक्ति का सिर उठाकर कम से कम पांच सेकंड्स तक देखते है, तो पता चलेगा कि वह सामान्य तरीके से सांस नहीं ले पा रहे है. अगर किसी व्यक्ति को कार्डियक अरेस्ट पड़ रहा है, तो तुरंत कुछ उपाय कर सकते है, जो निम्न है.

क्या करें अचानक उपाय

• कार्डियक अरेस्ट होते ही उस व्यक्ति को सुरक्षित स्थिति में रखें, उसकी प्रतिक्रिया की जांच करे,

• अगर उसकी प्रतिक्रियां महसूस नहीं कर पा रहे है, तो तुरंत मदद के लिए चिल्लाएं, अपने आस-पास के किसी व्यक्ति को अपने इमरजेंसी नंबर पर कॉल करने के लिए कहे,इसके अलावा उस व्यक्ति को एईडी (ऑटोमेटेड एक्सटर्नल डिफाइब्रिलेटर) लेकर आने को कहे, उन्हें जल्दी करने के लिए कहे, क्योंकि इसमें समय बहुत महत्वपूर्ण होता है. यदि आप किसी ऐसे वयस्क के साथ अकेले है,जिन्हें कार्डियक अरेस्ट के लक्षण दिखाई दे रहे है,तो इमरजेंसी नंबर पर कॉल करन सबसे जरुरी होता है.

• उस व्यक्ति को सांस लेने में तकलीफ, सिर्फ हांफ रहा है , सांस नहीं ले पा रहा है, तो कम्प्रेशन के साथ सीपीआर देना शुरू करें.

• हाई क्वालिटी सीपीआर देना शुरू करे, अपने हाथों को मिलाकर छाती को बीचोबीच रखें और छाती कम से कम दो इंच भीतर जाए, इस प्रकार दबाएं. एक मिनट में 100 से 120 बार दबाया जाना चाहिए. हर बार दबाए जाने के बाद छाती को उसकी सामान्य स्थिति में आने दें.

• एईडी का इस्तेमाल करें, जैसे ही एईडी आता है, उसे शुरू करें और संकेतों का पालन करें.

• सीपीआर देना जारी रखें. जब तक वह व्यक्ति सांस लेना या हिलना शुरू न कर दे, या ईएमएस टीम सदस्य जैसा अधिक उन्नत प्रशिक्षण लिया हुआ कोई व्यक्ति जब तक वहां न पहुंचे, तब तक सीपीआर को जारी रखना पड़ता है.

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साइनोसाइटिस के सही इलाज का तरीका बताएं?

सवाल-

मैं 22 वर्षीय युवती हूं. बी.एससी. कर रही हूं. काफी समय से साइनोसाइटिस से परेशान हूं. मेरी नाक अकसर बंद रहती है, जिस का असर मेरे कानों पर भी होने लगा है. मुझे कम सुनाई देने लगा है. एक डाक्टर की देखरेख में काफी समय से दवा चल रही है पर आराम नहीं आ रहा. कृपया बताएं मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब-

हमारी नाक के पीछे के हिस्से और कानों के बीच एक लंबी नली होती है, जिसे यूसटेशियन ट्यूब कहते हैं. संक्रमण, ऐलर्जी, बारबार सर्दीजुकाम या फिर साइनोसाइटिस होने पर यह नली कभीकभी बंद हो जाती है. इस से कानों के भीतर हवा का संतुलन बिगड़ जाता है और सुनने की क्षमता कमजोर पड़ जाती है.

साइनोसाइटिस के समुचित इलाज और कान के एक छोटे से औपरेशन से इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है. अच्छा होगा कि आप इस संबंध में किसी योग्य ई.एन.टी. विशेषज्ञ से संपर्क करें.

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बड़े और बच्चों, सभी में साइनस के लक्षण एक जैसे ही होते हैं. इसके अलावा, सर्दी-जुकाम, फ्लू, अस्थमा, क्रौनिक औबस्ट्रक्टिव पल्मनरी डिजीज़ (COPD) और साइनस के काफी लक्षण करीब-करीब एक जैसे होते हैं. हालांकि इन सभी बीमारियों में कुछ फर्क भी होता है:

किसी को साइनस की प्रौब्लम अगर कुछ बरसों तक रहे तो वह आगे चलकर अस्थमा में बदल सकती है. हालांकि बच्चों में यह समय 8 से 10 साल का होता है.

ऐसे करें बचाव

1- एलर्जी से बचने के लिए बहुत ज्यादा भारी-भरकम और गद्देदार फर्नीचर से परहेज करें. अपने तकियों, बिस्तरों और कारपेट की नियमित सफाई करें. गलीचों और पायदानों की सफाई का भी ध्यान रखें. परफ्यूम आदि की गंध से दूर रहें. एयर पलूशन से बचें.

2-अपने घर के वेंटिलेशन सिस्टम को सुधारें. जहां तक हो सके, घर की खिड़कियां खोलकर हवा को आर-पार जाने दें.

3-जिन लोगों को जुकाम या कोई दूसरा वायरल इंफेक्शन हो, उनके संपर्क में जाने से बचें.

4-बहुत ज्यादा या बहुत कम तापमान में न रहें. तापमान में अचानक आने वाले बदलाव से बचें.

5-तनाव से दूर रहें. तनाव के कारण शरीर की रक्षा करनेवाले सफेद सेल कमजोर पड़ जाते हैं.

6-स्वीमिंग से बचें. अगर स्वीमिंग करनी ही हो तो नाक को ढक लें. ध्यान रखें कि स्वीमिंग के पानी में क्लोरीन जरूर हो.

7-नमक के पानी से अपनी नाक की सफाई करें.

8-सफाई का खास ख्याल रखें. बैक्टीरियल और वायरल इन्फेक्शन से बचें. अपने हाथों को हमेशा साबुन से साफ करें.

9-रोजाना 8-10 गिलास पानी पिएं.

10-सुबह उठते ही चाय या गर्म पानी पिएं. गर्म चीजें पीने से नाक या गले में बलगम जमा नहीं होता.

पूरी खबर पढ़ने के लिए- ऐसे करें साइनोसाइटिस का इलाज

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz   सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

डायबिटीज कंट्रोल है मुमकिन

अनुमान है कि 2030 तक डायबिटीज मैलिटस भारत के 7.94 करोड़ लोगों को प्रभावित कर सकता है तो चीन के 4.23 करोड़ और अमेरिका के 3.03 करोड़ लोग इस रोग से पीडि़त होंगे. कई ऐसे फैक्टर्स हैं, जो देश भर में इस रोग की मौजूदगी के लिए जिम्मेदार हैं. मसलन, आबादी, शहरीकरण, मोटापा, श्रमरहित लाइफस्टाइल आदि.

डायबिटीज पीडि़त इन आशंकाओं के साथ जीने लगते हैं कि उन की आंखों की रोशनी चली जाएगी या उन की टांग अथवा पैर काटना पड़ सकता है या फिर किडनी फेल्यर के कारण उन की मौत हो जाएगी.

युवाओं में बढ़ते मामले

भारत में 22 से 30 साल की आयु वाले युवाओं की आबादी सब से अधिक है, जो ऊर्जावान एवं रचनाशील हैं, लेकिन इन युवाओं ने जिंदगी जीने के जिन तौरतरीकों को अपना लिया है, उन से कई तरह के रोगों का इन पर बुरा असर पड़ने लगा है.

भारत को डायबिटीज की राजधानी कहा जाने लगा है. दरअसल युवा अस्वास्थ्यकर खानपान की आदतों के कारण मोटापे का शिकार हो रहे हैं, जो डायबिटीज और अन्य कार्डियोवैस्क्युलर समस्याओं का मुख्य कारण है. पहले जहां ये रोग 40 से 45 साल की उम्र वाले लोगों को होते थे वहीं अब 22 से 25 साल के युवा भी इन की चपेट में आने लगे हैं और इस का कारण है आज की पीढ़ी द्वारा पश्चिमी लाइफस्टाइल अपनाना.

संक्रमण का खतरा

थोड़ा सा कटने से ही त्वचा में होने वाले खतरनाक संक्रमण को सैल्युलाइटिस कहा जाता है. यदि आप को डायबिटीज है, तो अपनी त्वचा के प्रति ज्यादा सावधान रहें, क्योंकि ब्लड ग्लूकोस लैवल अधिक रहने पर संक्रमण का अधिक खतरा रहता है.

सैल्युलाइटिस एक गंभीर संक्रमण है, जो त्वचा के अंदर फैलता है और त्वचा तथा उस के अंदर की चरबी को प्रभावित करता है.

लोग अकसर सैल्युलाइटिस को सैल्युलाइट मान बैठते हैं. दरअसल, दोनों बिलकुल अलग चीजें हैं. सैल्युलाइटिस चरबी की अंदरूनी परत डर्मीज और त्वचा के अंदर के टिशू का एक बैक्टीरियल संक्रमण होता है जबकि सैल्युलाइट त्वचा के अंदर चरबी जमने के कारण होता है, जो संतरे के छिलके की तरह दिखता है. सैल्युलाइटिस की सब से बड़ी खराबी यह है कि सही समय पर उचित इलाज न होने पर यह बड़ी तेजी से फैलता है. इस वजह से टिशू क्षतिग्रस्त होने लगते हैं और इस का बैक्टीरिया रक्तनलिकाओं के जरीए फैल जाता है.

सैल्युलाइटिस से सुरक्षा

– त्वचा को नुकसान पहुंचाने वाले कठिन

और अधिक कार्य करने से बचें. वही कार्य चुनें, जिन से आप को जल्दी थकान महसूस न हो. सब से महत्त्वपूर्ण बात यह कि ब्लड शुगर का संतुलित स्तर बनाए रखें. ब्लड शुगर लैवल बढ़ने का मतलब है कि शरीर का इम्यून सिस्टम निश्चित रूप से कमजोर होगा और जख्म को भरने में यह असमर्थ हो जाएगा.

– कम कार्बोहाइडे्रट वाला भोजन करें और फाइबरयुक्त फलों का भरपूर सेवन करें. अपने साथ ग्लूकोस टैस्ट मीटर रखने से आप को इस की वृद्धि पर नजर रखने में मदद मिलेगी.

– यदि आप सैल्युलाइटिस के ज्ञात छोटे से छोटे रिस्क फैक्टर की चपेट में हैं तो प्रतिदिन अपनी टांगों पर नजर रखें. जख्म पर भी पूरा ध्यान रखें. त्वचा की सूजन, लाली जैसे लक्षणों पर नजर रखें.

– जख्मों को ठीक करने के लिए डाक्टर से ही परामर्श लें. याद रखें कि नियमित जांच के अभाव में छोटा सा जख्म भी सैल्युलाइटिस का कारण बन सकता है. जख्म वाले हिस्से को अच्छी तरह साफ रखें ताकि उस में पानी न लगने पाए. कुछ समय के लिए उसे खुली हवा में सुखा लें. डाक्टर की सलाह के अनुसार ही जख्म को ड्रैसिंग से ढक कर रखें और स्वच्छ ड्रैसिंग ही इस्तेमाल करें.

ऐसा करने पर आप डायबिटीज होने के बावजूद स्वस्थ व्यक्ति जैसा जीवन जी सकते हैं. लाइफस्टाइल में मामूली बदलाव से आप अपना ब्लड शुगर लैवल भी नियंत्रित रख सकते हैं और बेहतर महसूस कर सकते हैं.

(डा. मीना छाबड़ा, डायबिटीज क्लीनिक, नई दिल्ली)

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ब्रेस्ट कैंसर (स्तन कैंसर) हॉर्मोन, व्यवहार और पर्यावरण संबंधी अलग-अलग तरह के घटकों से जुड़ा रहा है. ब्रेस्ट कैंसर होने का सबसे संभावित कारण है व्यक्ति के जेनेटिक कोड और उनके आस-पास के परिवेश के बीच जटिल अंतःक्रिया. ब्रेस्ट कैंसर भारतीय महिलाओं को प्रभावित करने वाले सबसे प्रमुख कैंसर में से एक है. भारतीय महिलाओं को होने वाले सभी प्रकार के कैंसर में ब्रेस्ट कैंसर का अनुपात 14% है. भारत में ब्रेस्ट कैंसर के मरीजों में से 60% कैंसर के बाद जीवित रहते हैं.

डॉ. मंजू गुप्ता, सीनियर कंसलटेंट और प्रसूति विशेषज्ञ बता रहीं है ब्रेस्ट कैंसर के लक्षण और उपचार.

ब्रेस्ट कैंसर के लक्षण

1. लिंग के आधार पर अलग-अलग हो सकते हैं, पुरुषों की तुलना में महिलाओं को ब्रेस्ट कैंसर की आशंका अधिक रहती है.

2. हमारी आयु की अवस्था से हमारे शरीर में ब्रेस्ट कैंसर के जोखिम का काफी कुछ पता चलता है.

3. परिवार में ब्रेस्ट कैंसर होने का इतिहास या कोई वंशानुगत जीन जिससे कैंसर का खतरा बढ़ता है.

4. बहुत ज्यादा विकिरण (रेडिएशन) के संपर्क में रहने से ब्रेस्ट कैंसर का जोखिम बढ़ सकता है.

5. अपनी सेहत का ध्यान नहीं रखना और मोटा होने से ब्रेस्ट कैंसर का आपका खतरा बढ़ जाता है.

6. अधिक उम्र में रजोनिवृत्ति (मेनोपॉज़) से ब्रेस्ट कैंसर का आपका जोखिम बढ़ जाता है.

7. रजोनिवृत्ति पश्चात हॉर्मोन थेरेपी. रजोनिवृत्ति के संकेतों और लक्षणों के उपचार के लिए एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन के संयोजन के साथ हॉर्मोन थेरेपी चिकित्सा कराने वाली महिलाओं को ब्रेस्ट कैंसर होने का जोखिम अधिक रहता है.

ब्रेस्ट कैंसर के अनेक रूप होते हैं, लेकिन डक्टल कार्सिनोमा सबसे अधिक बार-बार होने वाला कैंसर है. ब्रेस्ट के निकट मिल्क डक्ट्स में उत्पन्न होने वाले ट्यूमर (गाँठ) को डक्टल कार्सिनोमा कहा जाता है. वे इनवेसिव या नॉन-इन्वासिव हो सकते हैं और उनमें शरीर के दूसरे हिस्सों में फ़ैल जाने की शक्ति होती है. कोई गाँठ, स्तन के आकार में बदलाव, या निप्पल के स्वरूप में बदलाव, ये सभी ब्रेस्ट कैंसर के प्रथम चरण के संकेत हैं, जो सबसे अधिक होता है. ट्यूमर निकालने की सर्जरी के बाद कैंसर की बची-खुची कोशिकाओं को मारने के लिए आम तौर पर रेडिएशन थेरेपी (विकिरण चिकित्सा) की जाती है.

दूसरे चरण में ब्रेस्ट कैंसर इतना बढ़ गया होता है कि यह शरीर के अन्य हिस्सों में फ़ैल जाता है. इस स्थिति में ट्यूमर को जितना संभव हो उतना काट कर निकालने के लिए सर्जरी, कैंसर के बची-खुची कोशिकाओं को मारने के लिए कीमोथेरेपी, और कैंसरग्रस्त उतकों को मारने के लिए रेडिएशन थेरेपी, ये सभी उपचार योजना के हिस्से हैं.

तीसरे चरण का ब्रेस्ट कैंसर प्राथमिक ट्यूमर के स्थान से बाहर जा चुका होता है और परम्परागत उपचार से इसके ठीक होने की संभावना कम होती है.

आस-पास के कुछ उतकों को निकालने के लिए सर्जरी, किसी बचे-खुचे कैंसर कोशिकाओं को समाप्त करने के लिए रेडिएशन थेरेपी, और कोई अन्य विकल्प न होने पर कीमोथेरेपी, ये सभी संभावित उपचार हो सकते हैं.

उपचार

ब्रेस्ट कैंसर के हर मामले के लिए एक समान उपचार काम नहीं आता है, क्योंकि यह रोग की अवस्था, रोगी की उम्र, स्वास्थ्य का इतिहास, और अन्य घटकों के आधार पर अलग-अलग होता है. ब्रेस्ट कैंसर का पता चलने पर सम्बंधित रोगी के उपचार के लिए सर्जरी एक विकल्प है. उपचार के आधार पर अनेक प्रकार के ऑपरेशन उपलब्ध हैं. कुछ प्रकार की सर्जिकल प्रक्रिया में ब्रेस्ट को काट कर हटा दिया जाया है.

रेडिएशन थेरेपी (विकिरण चिकित्सा) – ट्यूमर की कोशिकाओं को रेडिएशन से मार दिया जाता है.

कैंसर की कोशिकाओं के लिए कीमोथेरेपी एक औषधीय उपचार है जो उन्हें मार देता है. हालांकि, यह उपचार आम तौर पर अन्य उपचारों के साथ-साथ किया जाता है.

हॉर्मोन थेरेपी – हॉर्मोन थेरेपी की अनुशंसा उन लोगों के लिए की जाती है जिन्हें हॉर्मोन को लेकर संवेदनशील ब्रेस्ट कैंसर है. यह उपचार ख़ास हॉर्मोनों के संश्लेषण को रोक कर क्रिया करता है, जो कैंसर की वृद्धि को धीमा कर देता है.

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बचपन में ही हो जाता है मिरगी का रोग

मिरगी एक आम मस्तिष्क संबंधी विकार है, जिसका इलाज संभव है. कुल मिला कर प्रति 1000 लोगों में 7-8 लोगों को मिरगी का रोग बचपन में हो जाता है. अनुमान तो यह भी लगाया गया है कि दुनिया भर में 50 लाख लोग मिरगी के रोग से पीडि़त हैं.

मिरगी की अभिव्यक्ति के अलग अलग तरीके होते हैं, जिनमें से कुछ नाम नीचे दिए गए हैं:

शरीर के पूरे या आधे भाग में मरोड़ और अकड़न.

दिन में सपने देखना.

असामान्य अनुभूतियां जैसे डरना, अजीब सा स्वाद महसूस करना, गंध और पेट में झनझनाहट महसूस करना

अत्यधिक चौंकना

फिट आने के बाद रोगी नींद या उलझन महसूस करने लगता है, साथ उसे सिरदर्द की शिकायत भी हो सकती है

क्या हैं मिरगी के कारण?

मस्तिष्क कई तंत्रिका कोशिकाओं से मिल कर बना हुआ है, जो शरीर के विभिन्न कार्यों को विद्युत संकेतों द्वारा नियंत्रित करता है. यदि ये संकेत बाधित होते हैं, तो व्यक्ति मिरगी के रोग से पीडि़त हो जाता है (इसे ‘फिट’ या ‘आक्षेप’ कहा जा सकता है.) मिरगी के जैसे कई अन्य रोग भी होते हैं. मसलन, बेहोश (बेहोशी), सांस रोग और ज्वर आक्षेप.

मगर इन सभी को मिरगी का दौरा नहीं कहा जा सकता. क्योंकि ये मस्तिष्क की गतिविधियों को बाधित नहीं करते हैं. यह महत्त्वपूर्ण है कि इन की सही पहचान हो और इन की अलग प्रबंधन रणनीति का ज्ञान हो.

कई रोगियों को मस्तिष्क में निशान होने की वजह से मिरगी के दौरे आते हैं. ये निशान उन्हें बचपन में सिर पर चोट लगने या फिर मस्तिष्क में संक्रमण के कारण हो जाते हैं. कुछ लोगों को मस्तिष्क विकृतियों के कारण मिरगी के दौरे पड़ने लगते हैं. कुछ बच्चों की मिरगी के पीछे आनुवंशिक कारण होते हैं. कह सकते हैं कि मिरगी के दौरे पड़ने का सही कारण जान पाना अभी भी आसान नहीं है.

क्या है मिरगी का निदान?

इलैक्ट्रोइंसेफ्लोग्राफी और मस्तिष्क का एमआरआई जैसे टैस्ट करवा कर भी मिरगी के रोग की पुष्टि की जा सकती है.

कैसे हो सकता है मिरगी का इलाज?

मिरगी का इलाज जीवनशैली में परिवर्तन ला कर और दवाओं से ठीक हो सकता है. एक सिंगल एंटीपिलैक्टिक दवा लगभग 70% मामलों में दौरे पर नियंत्रण कर लेती हैं हालांकि कोई भी दवा मिरगी के कारण को पूरी तरह सुधार नहीं सकती है.

यदि एक दवा विफल हो जाती है तो दूसरी और तीसरी दवा का मिश्रण दिया जाता है. सभी दवाओं की तरह एईडीएस के भी दुष्प्रभाव होते हैं. मसलन इस से उनींदापन, व्यग्रता, सक्रियता और वजन बढ़ने जैसी परेशानियां हो जाती हैं.

कुछ मामलों में दवा रोगियों पर असर नहीं दिखा पाती तो उन्हें कैटोजेनिक डाइट के लिए कहा जाता है, मगर चिकित्सक से बिना पूछे दवा अपने मन से बदलना घातक हो सकता है. दवाओं के अलावा इस बीमारी में अच्छी नींद लेना भी बहुत जरूरी है.

एपिलैप्सी के कुछ रिफ्रैक्टरी केसेज में बच्चे के जीवन को बचाने के लिए सर्जरी भी करनी पड़ सकती है. यह अति विश्ष्टि सेवा केवल कुछ ही अस्पतालों में उपलब्ध है. हिंदुजा अस्पताल पैडियट्रिक एपिलैप्सी सर्जरी में माहिर है.  इस सर्जरी के लिए हिंदुजा अस्पताल का नाम सभी बड़े अस्पतालों में सब से अव्वल है.

मिरगी रोग से पीड़ित बच्चे आम बच्चों जैसे ही होते हैं, वे उन की तरह ही खेलकूद सकते हैं.

दीर्घकालिक परिणाम क्या हैं?

अधिकांश बच्चे जिन्हें सही इलाज और दवा मिल रही होती है, वे 3-4 साल बाद मिरगी के रोग से आजाद हो जाते हैं, वहीं मुश्किल मामलों में चिकित्सक मिरगी विशेषज्ञ को केस रैफर कर देते हैं.

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जानें अस्थमा के कारणों को

ग्लोबल बर्डन औफ डिजीज स्टडी के अनुसार, दुनिया भर में 334 मिलियन लोग अस्थमा से पीडि़त हैं. चैस्ट स्पैशलिस्ट डा. सुशील मुंजाल कहते हैं, ‘‘अस्थमा में सांस की नलियों में सूजन आ जाती है. इस के लक्षण प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न हो सकते हैं. लेकिन एक कारक आम होता है वह यह कि जब भी सांस की नलियां किसी भी तरह की ऐलर्जी के संपर्क में आती हैं तो उन में सूजन हो जाती है, जिस से वे सिकुड़ कर चिपचिपा पदार्थ बनाती हैं. उस से सांस की नलियां बाधित होती हैं और सांस लेने में तकलीफ होती है. इस के साथसाथ खांसी भी होती है.’’

हालांकि अस्थमा होने के कारण स्पष्ट नहीं हैं, फिर भी माना जाता है कि यह ऐलर्जी और पारिवारिक इतिहास से जुड़ा होता है.

विशेषज्ञ मानते हैं कि अस्थमा से पीडि़त लोगों या उन्हें मैनेज करने वालों के लिए यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि रोगी को किन कारणों से अस्थमा की समस्या तेज होती है. इस से न सिर्फ अस्थमा को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी. वरन अस्थमा अटैक में भी कमी आएगी. पर्यावरणीय कारकों भोजन और सांस लेते समय किसी चीज से ऐलर्जी होने का पता चलने पर रोगी गंभीर अस्थमा अटैक को रोक सकता है. अस्थमा रोगियों को निम्नलिखित ट्रिगर के बारे में जानना महत्त्वपूर्ण है:

पराग: ये पेड़, खास तरह की घास या अन्य पर्यावरणीय कारकों से पैदा होने वाले बहुत छोटे कण होते हैं. पराग के इन कणों को खासतौर से वसंत के मौसम में एअर कंडीशनर के इस्तेमाल से रोका जा सकता है. वसंत ऋतु के दौरान हवा में पराग की मात्रा काफी होती है. दोपहर में जब पराग का स्तर ज्यादा होता है तब बाहर निकलते समय नाक और मुंह पर मास्क लगा लें. सोने से पहले बालों को धोएं. अगर दिन में आप पराग के संपर्क में आए हैं तो रात में बाल धोना फायदेमंद रहेगा.

प्रदूषक और अस्थमा बढ़ाने वाले पदार्थ:ये पदार्थ अंदर व बाहर दोनों जगह हो सकते हैं. स्टोव, परफ्यूम, स्प्रे इत्यादि से अस्थमा रोगियों को समस्या हो सकती है. नए फर्नीचर, फर्श, दीवारों, छत इत्यादि से आने वाली गंध भी ट्रिगर का काम कर सकती है. बालों वाले जानवर: कुत्ते, बिल्ली, पक्षी, चूहे, गिलहरी इत्यादि से हवा में अस्थमा के ट्रिगर हो सकते हैं. इन पक्षियों के बालों, त्वचा, पंखों, लार, मूत्र इत्यादि से अस्थमा रोगी को घरघराहट, खांसी हो सकती है या फिर आंखों से पानी आ सकता है. इस तरह के ट्रिगर से बचने के लिए अस्थमा के रोगियों को घने बालों वाले जानवरों या पंखों वाले पक्षियों से दूर रहना चाहिए. इस के अलावा पालतू जानवरों को हफ्ते में 1 बार जरूर नहलाना चाहिए.

धूम्रपान: यह सांस की नलियों को अवरुद्ध कर के फेफड़ों को स्थाई रूप से क्षतिग्रस्त कर सकता है. जब तंबाकूयुक्त धूम्रपान को सांस द्वारा अंदर किया जाता है तो यह अस्थमा अटैक का ट्रिगर हो सकता है. इस समस्या को नियंत्रित करने के लिए अस्थमा रोगियों को न सिर्फ धूम्रपान छोड़ना होगा, बल्कि ऐसे स्थानों पर भी जाने से परहेज करना होगा जहां धूम्रपान हो रहा हो या धुंआ हो. अगर घर में कोई सदस्य धूम्रपान करता है तो उसे इसे छोड़ने को कहें.

स्पे्र और प्रसाधन सामग्री: अस्थमा अटैक कई बार गीले पेंट, ऐरोसोल स्प्रे या किसी भी साफसफाई करने वाले उत्पाद से हो सकता है. कई बार परफ्यूम या डियो भी अस्थमा के ट्रिगर का काम कर सकता है, इसलिए अस्थमा के रोगी ऐसी जगहों पर जाने से परहेज करें जहां नया पेंट हुआ हो. पेंट सूखने के बाद ही उस स्थान पर जाएं. घर में बिना गंध वाले सफाई उत्पादों का प्रयोग करें.

व्यायाम: व्यायाम करना सेहत के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है, लेकिन अस्थमा के रोगियों को डाक्टर से परामर्श ले कर ही सही तरीके से व्यायाम करना चाहिए. विशेषज्ञ मानते हैं कि हालांकि अस्थमा को पूरी तरह से ठीक नहीं किया जा सकता, लेकिन लक्षणों को रोक कर इसे नियंत्रित जरूर किया जा सकता है. इन्हेलेशन थेरैपी में कोरटिकोस्टेराइड से अस्थमा को मैनेज किया जाता है. इस के अलावा ओरल दवाओं के मुकाबले इन्हेल्ड कोरटिकोस्टेराइड बहुत कम मात्रा में फेफड़ों में सीधे पहुंच कर काम करता है. यह चिपचिपे पदार्थ को बनने से रोकता है और सूजन कम करता है, जिस से सांस की नलियां अधिक संवेदनशील नहीं रहतीं और अस्थमा अटैक कम होता है.

डा सुशील मुंजाल कहते हैं, ‘‘अस्थमा को नियंत्रित करने में इन्हेलेशन थेरैपी बेहतरीन विकल्प है. इस के बावजूद लोगों में इस की प्रभावशीलता को ले कर कई तरह के संदेह हैं. मैं ने कई मामलों में देखा है कि अभिभावक अपनी अविवाहित लड़की को थेरैपी देने से रोकते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इस से लोगों को पता चल जाएगा कि उन की बेटी को अस्थमा की समस्या है, जिस से विवाह करने में दिक्कत होगी. मगर कारगर तकनीकों से अस्थमा को बेहतरीन तरीके से मैनेज किया जा सकता हो तो सामाजिक शंकाओं को परे कर जिंदगी को खुली हवा में जीना चाहिए.’’

-डा. सुशील मुंजाल नैशनल इंस्टिट्यूट औफ ट्यूबरक्लोसिस

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ब्रेन ट्यूमर के 10 सामान्य लक्षण

क्या आपको लगातार सिरदर्द, मितली, धुंधला दिखाई देना और शारीरिक संतुलन में परेशानी हो रही है? इन लक्षणों को नजर अंदाज ना करें, यह ब्रेन ट्यूमर जैसी बड़ी समस्या हो सकती है. ब्रेन ट्यूमर में दिमाग में कोई बहुत सी कोशिकाएं या कोई एक कोशिका असामान्य रूप से बढ़ती है. सामान्यतः दो तरह के ब्रेन ट्यूमर होते हैं कैंसर वाला (घातक) या बिना कैंसर वाला (सामान्य) ट्यूमर.

दोनों ही मामलों में दिमाग की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त होती हैं, जो कि कई बार घातक सिद्ध होता है. इसके साथ सबसे बड़ी परेशानी है कि इसके कोई विशेष कारण नहीं हैं, केवल कुछ शोधकर्ताओं ने इसके कुछ रिस्क फैक्टर्स का पता लगाया है.

ब्रेन ट्यूमर किसी भी उम्र में हो सकता है, लेकिन बढ़ते उम्र के साथ इसका जोखिम भी बढ़ जाता है. कई मामलों में तो यह आनुवांशिक कारण हो सकता है और कई बार किसी केमिकल के ज्यादा इस्तेमाल या रेडिएशन से हो सकता है. बहुत से लोगों को पता ही नहीं चलता है कि उन्हें ब्रेन ट्यूमर है क्यों कि उनमें कोई लक्षण दिखाई ही नहीं देते हैं.

जब ये ट्यूमर बड़ा हो जाता है और स्वास्थ्य पूरी तरह बिगड़ जाता है तब लोग चैक-अप करवाते हैं और तब इसका पता चलता है. हम आपको इसके 10 लक्षणों से अवगत करा रहे हैं, जिनको जानने की आवश्यकता है.

1. सिरदर्द

यह ब्रेन ट्यूमर का सबसे बड़ा लक्षण है. यह दर्द मुख्यतः सुबह होता है और बाद में यह लगातार होने लगता है, यह दर्द तेज होता है. यदि ऐसा लक्षण दिखाई दे तो जांच कराएं.

2. उबाक या उल्टी का मन होना

सिरदर्द की तरह यह भी सुबह होता है, खास तौर पर जब व्यक्ति एक जगह से दूसरी जगह जाता है तब यह ज्यादा होता है.

3. कम दिखना

जब किसी को आक्सिपिटल के आस पास ट्यूमर होता है तो चीजें कम दिखाई देती हैं. उन्हें धुंधला दिखाई देने लगता है और रंगों व चीजों को पहचानने में परेशानी होती है.

4. संवेदना कम महसूस होना

जब किसी व्यक्ति के दिमाग के पराइअटल लोब पे ट्यूमर होता है तो उसे अपनी बाजुओं और पैरों पर संवेदना कम महसूस होती है, क्यों कि ट्यूमर से कोशिकाएं प्रभावित होती हैं.

5. शरीर का संतुलन बनाने में परेशानी

जब किसी को ट्यूमर होता है तो उसके शरीर का संतुलन नहीं बन पाता है, क्यों कि यदि सेरिबैलम में ट्यूमर है तो वह मूवमेंट को प्रभावित करता है.

6. बोलने में परेशानी

यदि किसी को टैंपोरल लोब में ट्यूमर होता है तो बोलने में परेशानी होती है, सही तरह बोला नहीं जाता है.

7. रोजाना के कामों में गड़बड़ी करना

पराइअटल लोब में ट्यूमर होने पर संवेदना प्रभावित होती है, इससे व्यक्ति को दैनिक क्रियाओं में परेशानी होती है.

8. व्यक्तिगत और व्यवहारिक बदलाव

जिन्हें फ्रन्टल लोब में ट्यूमर होता है वे अपने व्यवहार पर नियंत्रण नहीं रख पाते हैं. इन्हें नई चीजें सीखने में परेशानी होती है.

9. दौरे पड़ना

ब्रेन ट्यूमर में दौरे पड़ना एक आम समस्या है. जब भी दौरा पड़ता है तो व्यक्ति बेहोश हो जाता है.

10. सुनने में समस्या

जिन लोगों को दिमाग के टैंपोरल लोब में ट्यूमर होता है उन्हें सुनने में परेशानी होती है, कभी कभी सुनना पूरी तरह प्रभावित हो जाता है.

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प्रैगनैंसी रोकने के लिए गर्भनिरोधक कितना फायदेमंद है?

सवाल-

मैं 24 साल की हूं. मेरे विवाह को 2 महीने हुए हैं. प्रैगनैंसी से बचे रहने के लिए कौपर टी, कंडोम और डायाफ्राम में से कौन सा गर्भनिरोधक मेरे लिए सब से अच्छा रहेगा और ये गर्भनिरोधक कितनेकितने साल तक प्रैगनैंसी रोकने के लिए अपनाए जा सकते हैं, कृपया विस्तार से जानकारी दें?

जवाब-

प्रत्येक गर्भनिरोधक विधि के अपने लाभ और अपनी सीमाएं हैं, जिन के बारे में पूरी जानकारी पा कर आप सही फैसला ले सकती हैं. कौपर टी उन स्त्रियों के लिए उपयुक्त गर्भनिरोधक है, जो कम से कम 1 बार संतान धारण कर चुकी होती हैं. नवविवाहिताओं के लिए कौपर टी ठीक नहीं, क्योंकि इसे लगाने पर पैल्विस में सूजन होने का डर रहता है और आगे चल कर प्रैगनैंट होने में भी परेशानी हो सकती है. इस का इस्तेमाल 2 बच्चों के बीच फासला रखने के लिए ही किया जाना चाहिए.

नवविवाहिताओं के अलावा ऐसी स्त्रियां, जिन्हें पहले से पैल्विस का इन्फैक्शन हो, मासिकस्राव ज्यादा या अनियमित हो, पेड़ू में दर्द रहता हो, गर्भाशय की रसौली हो, गर्भाशयग्रीवा की सूजन हो, ऐनीमिया हो या पहले कभी ऐक्टोपिक प्रैगनैंसी हुई हो, उन के लिए भी कौपर टी का इस्तेमाल ठीक नहीं. कंडोम गर्भनिरोध का आसान और सुलभ तरीका है. इस के इस्तेमाल से पहले डाक्टर की सलाह लेना भी जरूरी नहीं. इस के कामयाब बने रहने के लिए सिर्फ इस का सही इस्तेमाल आना जरूरी है. असावधानी बरतने पर सैक्स के दौरान कंडोम के फिसल जाने या फट जाने पर परेशानी खड़ी हो सकती है. डायाफ्राम के साथ भी कंडोम जैसी ही समस्याएं हैं और इस का फेल्यर रेट भी काफी है.

नवविवाहिताओं के लिए सुरक्षा का एक और अच्छा उपाय ओरल कौंट्रासैप्टिक पिल्स हैं. इन्हें लेने से कामसुख में किसी तरह का विघ्न नहीं पड़ता और पूरीपूरी सुरक्षा भी मिलती है. लेकिन इन्हें शुरू करने से पहले डाक्टर से सलाह लेना जरूरी है. यदि डाक्टर इजाजत दे, तो इन्हें लगातार 3 साल तक ले सकती हैं. रोज 1 गोली लेनी होती है. प्रैगनैंसी का मन बने तो गोली लेना बंद करने के 1 से 3 महीनों के बाद दोबारा प्रजनन क्षमता पहले जैसी हो जाती है और प्रैगनैंसी में कोई दिक्कत नहीं आती.

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अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz   सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

जानें क्यों होता है गर्भाशय कैंसर

गर्भाशय का कैंसर भारत में तेजी से पांव पसार रहा है. दुनिया में इस मामले में भारत का पहला नंबर है. औरतों के इसे ले कर लापरवाही बरतने की वजह से यह तेजी से फैल रहा है. दक्षिणपूर्व एशिया, भारत और इंडोनेशिशा में कुल कैंसर मरीजों का एकतिहाई हिस्सा गर्भाशय के कैंसर से पीडि़त है. 30 से 45 साल की उम्र की औरतों में इस कैंसर का ज्यादा खतरा होता है, इसलिए इस आयु की औरतों को लापरवाही छोड़ कर सचेत होने की जरूरत है.

महिलाओं में बढ़ते गर्भाशय कैंसर के बारे में दिल्ली के एम्स के डाक्टर नीरज भटला ने पिछले दिनों पटना में महिला डाक्टरों के सम्मेलन में साफतौर पर कहा कि कैंसर को पूरी तरह डैवलप होने में 10 साल का समय लगता है. अगर पेशाब में इन्फैक्शन हो या पेशाब के साथ खून आए तो उसे नजरअंदाज न करें. अगर औरतें हर 2-3 साल पर नियमित जांच कराती रहें तो इस बीमारी से बचा जा सकता है. गर्भाशय के कैंसर से बचाव के लिए हर 3 साल पर पैपस्मियर टैस्ट और स्तन कैंसर से बचाव के लिए हर 1 साल पर मैगोग्राफी करानी चाहिए. शुरुआती समय में इस का पता चलने पर आसानी से इलाज हो जाता है.

बच सकती है जिंदगी

गौरतलब है कि देश में हर साल सवा लाख महिलाओं को बच्चेदानी का कैंसर होता है और इन में से 62 हजार की मौत हो जाती है. सर्दीजुकाम होने पर एचपीवी (ह्यूमन पौपीलोमा वायरस) औरतों के शरीर में प्रवेश कर जाता है.

सही समय पर सही इलाज हो तो दवाओं से इस वायरस को खत्म किया जा सकता है. अगर इस की अनदेखी की जाए तो यह पेट में रह कर बच्चेदानी के कैंसर की वजह बनता है. इस बीमारी के होने पर भूख कम लगती है और हमेशा भारीपन महसूस होता है.

आमतौर पर औरतों में एचपीवी (ह्यूमन पौपीलोमा वायरस) के इन्फैक्शन की वजह से भारत में गर्भाशय का कैंसर ज्यादा होता है. समयसमय पर इस वायरस की जांच करा कर इस कैंसर का पता लगाया जा सकता है. फैडरेशन औफ औब्सटेट्रिक्स ऐंड गायनोकोलौजी सोसाइटी औफ इंडिया की सचिव डाक्टर मीना सामंत कहती हैं कि इस से बचाव का सब से बेहतर और आसान तरीका यही है कि 30 साल के बाद हर औरत को एचपीवी की जांच नियमित रूप से करवानी चाहिए. इस के अलावा कैंसर से बचाव के लिए बनाया गया टीका लगवाने से भी इस से काफी हद तक बचा जा सकता है.

समय रहते हो जाएं सचेत

गर्भाशय के कैंसर का पता अगर शुरुआती स्टेज में ही चल जाए तो औपरेशन कर इस का इलाज किया जा सकता है. डाक्टर प्रज्ञा मिश्रा ने बताया कि 12 से 14 साल की लड़कियों को डाक्टर की सलाह पर वैक्सिन की 3 डोज दे कर इस खतरे से बचाया जा सकता है.

कैंसर रोग स्पैशलिस्ट डाक्टर मनीषा सिंह बताती हैं कि महिलाओं में बच्चेदानी के कैंसर के मामले देश भर में तेजी से बढ़ रहे हैं. इस से बचने के लिए बच्चेदानी की नियमित जांच जरूरी है. अगर महिलाओं को शरीर के किसी भी हिस्से में किसी भी तरह के बदलाव का पता चले या कोई परेशानी बारबार होने लगे तो तुरंत डाक्टर से जांच करानी चाहिए.

कम उम्र में शादी नहीं

गर्भाशय का कैंसर होने की और भी कई वजहें हैं. कम उम्र में लड़कियों का विवाह कर देना इस बीमारी को न्योता देने जैसा है. कच्ची आयु की लड़कियों से जबरन यौन संबंध बनाना उन्हें गर्भाशय कैंसर के कुएं में धकेलने जैसा है. ज्यादा उम्र की औरतों के गर्भधारण से भी इस कैंसर का खतरा बढ़ जाता है. 35 से ज्यादा उम्र की औरतों का मां बनना मां और बच्चे दोनों के लिए खतरनाक हो सकता है.

कई लोगों से जिस्मानी रिश्ता बनाने और एचपीवी वायरस के इन्फैक्शन से भी गर्भाशय के कैंसर की चपेट में औरतों आ जाती हैं. जननांगों की साफसफाई के प्रति लापरवाही बरतने से भी इस बीमारी के चंगुल में फंसने का खतरा कई गुना ज्यादा बढ़ जाता है.

साफसफाई पर दें ध्यान

डाक्टर शांति राय कहती हैं कि ज्यादातर औरतें जननांगों की साफसफाई पर खास ध्यान नहीं देती हैं. डाक्टरों के बारबार सलाह देने के बाद भी वे साफसफाई को ले कर लापरवाह रहती हैं, जो उन के लिए जानलेवा साबित होता है.

गायनोकोलौजिस्ट डाक्टर अनिता सिंह बताती हैं कि गर्भाशय से असामान्य रूप से पानी या खून निकले या फिर जिस्मानी संबंध बनाने पर खून आए तो महिलाओं को सतर्क हो जाना चाहिए. ज्यादातर महिलाओं के साथ सब से बड़ी दिक्कत यह होती है कि वे अपनी हैल्थ को ले कर सचेत नहीं रहती हैं. काम के बोझ का बहाना बना कर डाक्टर के पास जाने को टालती हैं, जिस से उन की बीमारी खतरनाक रूप ले लेती है. पूरी दुनिया में हर साल जितनी महिलाएं इस की शिकार हो रही हैं उन में 25 फीसदी भारत की हैं. इस के बाद भी अगर महिलाएं अपनी हैल्थ को ले कर सचेत नहीं होती हैं तो गर्भाशय का कैंसर विकराल रूप ले सकता है.

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नौर्मल डिलीवरी के लिए क्या करना चाहिए?

सवाल-

मेरी उम्र 35 साल है. मैं अभी भी अविवाहित हूं. यदि बाद में मैं गर्भधारण करती हूं तो क्या मेरी सामान्य डिलिवरी हो सकती है और एक सामान्य बच्चा हो सकता है?

जवाब-

जैसेजैसे उम्र बढ़ती है वैसेवैसे ओवेरियन रिजर्व कम हो जाता है, आरोपण दर कम हो जाती है और इसलिए आनुवंशिक रूप से असामान्य शिशुओं का जोखिम बढ़ जाता है. आज के समय में एग फ्रीजिंग एक बहुत ही अच्छा विकल्प है और दुनियाभर के लोग इस का लाभ ले रहे हैं. मेरी सलाह है कि अंडे को फ्रीज करें तब आप अपनी गर्भावस्था में देरी कर सकती हैं. सामान्य डिलिवरी संभव है, लेकिन उम्र के साथ जोखिम बढ़ता जाता है. इसलिए कुछ मामलों में सीसैक्शन डिलिवरी की सलाह दी जा सकती है.

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स्ट्रैंथनिंग

कमर के लिए : पैरों को एकसाथ मिला कर कमर के आगे की तरफ लाते हुए आसन पर बैठ जाएं, फिर घुटनों को धीरेधीरे जमीन से छुआने की कोशिश करें. इस क्रिया को भी कई बार करें.

गले के लिए : इसे करने के लिए सीधे बैठें, फिर एक हाथ को मोड़ कर सिर के पीछे की तरफ का हिस्सा पकड़ें और कुहनियों को ऊपर की ओर उठाएं. यही क्रिया दूसरे हाथ से भी दोहराएं. आसन पर बैठ कर दोनों हाथों को आगे की ओर ले जाएं. फिर धीमी गति से सांस लेते हुए हाथों को दोनों ओर फैलाएं. इस क्रिया को 10-12 बार दोहराएं.

 पीठ के लिए : पैरों को जमीन पर टिकाते हुए कुरसी पर सीधी बैठ जाएं. फिर दोनों हाथों से कमर को पकड़ें. आसन पर धीरे से हाथों और घुटनों के बल टेक लगाते हुए झुकें, फिर धीरेधीरे पीछे के मध्य भाग को ऊपर और नीचे की ओर ले जाएं.

गले की पीछे की पेशियों के लिए : इस क्रिया को करने के लिए घर की किसी दीवार के पास खड़ी हो जाएं. कंधों के बराबर दोनों हथेलियों को जोड़ कर रखें. दोनों पैरों के बीच थोड़ी दूरी बना कर रखें यानी पैर मिलें नहीं. फिर दीवार से 30 सैंटीमीटर की दूरी पर खड़े हो कर कुहनियों को मोड़ कर धीरेधीरे नाक से दीवार छूने की कोशिश करें. यह क्रिया फिर दोहराएं. यह व्यायाम प्रसव को भी आसान बनाता है.

जांघों की पेशियों के लिए : इसे करने के लिए सीधी लेट जाएं और फिर एक मोटे तकिए को बारीबारी से घुटनों के बीच 10 मिनट तक दबाए रखें. ऐसा कई बार करें.

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