अनाम रिश्ता: भाग 1- क्या मानसी को मिला नीरस का साथ

एयरपोर्ट के अंदर जाने से पहले बकुल ने मां मानसी के पैर छुए तो वे भावुक हो उठीं.

उन्होंने देखा ही नहीं था कि अपनी बाइक से पीछेपीछे नीरज भी बकुल को सी औफ करने के लिए आए हैं. वे उन्हें देख कर चौंक पड़ीं.

बकुल ने नीरज के भी पैर छुए और बोला, ‘‘सर मौम का खयाल रखिएगा.’’

‘‘नीरज तुम?’’ वे आश्चर्य से बोलीं.

‘‘बकुल जा रहा था, तो मुझे उसे छोड़ने तो आना ही था.’’

‘‘आ जाओ मेरे साथ गाड़ी में चलना.’’

‘‘नहीं, मैं अपनी बाइक से आया हूं.’’

उन की निगाहें काफी देर तक बकुल का पीछा करती रहीं, फिर जब वह अंदर चला गया तो अपने युवा बेटे की सफलता की खुशी के साथसाथ उस के बिछोह का सोच कर आंखें छलछला उठीं. वे गाड़ी के अंदर गुमसुम हो कर बैठ गईं. सूनी आंखों से खिड़की के बाहर देखने लगीं.

घर पहुंचीं तो रूपा से कौफी बनाने को कह कर बालकनी में खड़ी हो गई थीं. वह अपने में ही खोई हुई सी थीं.

तभी रूपा बोली, ‘‘मैडम कौफी.’’

वे भूल गई थीं कि उन्होंने रूपा से कौफी के लिए कहा था. वे कप उठा ही रही थीं कि डोरबैल बज उठी. वे समझ गई थीं कि नीरज के सिवा इस समय भला कौन हो सकता है.

‘‘रूपा एक कौफी और बना दो,’’ मानसी बोली.

नीरज जिस ने उन के अकेलेपन में, उन के कठिन समय में, कहा जाए तो हर कदम पर उन का साथ दिया था.

‘‘अकेलेअकेले कौफी पी जा रही है… एयरपोर्ट पर आप का उदास चेहरा देख कर अपने को नहीं रोक पाया और बाइक अपनेआप इधर मुड़ गई.’’

‘‘आज स्कूल नहीं गए?’’

‘‘कहां खोई हुई हैं आप? आज तो संडे है,’’ कह कर आदत के अनुसार हंस पड़ा.

‘‘आज बकुल गया है तो मन भर आया.’

चलो, तुम्हारी इतने दिनों की तपस्या सफल हो गई. तुम्हारा बेटा पढ़ लिख कर लायक बन गया, अब कुछ दिनों में अपनी किसी गर्लफ्रैंड के साथ शादी करने को बोलेगा, फिर अपनी दुनिया में रम जाएगा. यही तो दुनिया की रीति है.’’

‘‘हां वह तो तुम ठीक कह रहे हो, लेकिन जो मेरे जीवन का ध्येय था कि बेटे को कामयाब बनाऊं, वह तो तुम्हारी मदद से पूरा कर ही लिया.’’

‘‘मानसी कभी अपनी खुशी के बारे में भी तो सोचा करो.’’

‘‘तुम मेरे दोस्त हो तो, जो हर समय मेरी खुशी के बारे में ही सोचते रहते हो. अभी देखो बकुल गया इसलिए मन उदास हो रहा था, तो मुझे सहारा देने के लिए आ गए.’’

‘‘हां दोस्ती की है तो जिंदगीभर निभाऊंगा,’’ कह कर वे जोर से हंस पड़े.

नीरज की हंसी उन्हें बहुत मोहक लगती थी. वे भी हंस पड़ी थीं.

‘‘फिर पकड़ो मेरा हाथ,’’ कहते हुए उन्होंने अपना हाथ उन की तरफ बढ़ा दिया.

मानसी ने झिझकते हुए उन के हाथ पर अपना हाथ रख दिया. पुरुष के स्पर्श से उन का सर्वांग कंपकंपा उठा और वे उठ खड़ी हो गईं.

‘‘मानसी, चलो आज हम दोनों लंच के लिए कहीं बाहर चलते हैं… अभी 10 बजे हैं मैं 1 बजे तक आऊंगा.’’

‘‘बैठो. क्यों जा रहे हो?’’

‘‘अरे यार समझ करो अभी नहाया भी नहीं हूं, फिर आप के साथ लंच पर जाना है तो जरा ढंग से कपड़े वगैरह पहन कर आऊंगा. अभी तो बस बाइक उठाई और आ गया था.’’

नीरज चले गए थे. रूपा गाने की शौकीन थी. उस के मोबाइल पर गाना बज रहा था…

‘‘महलों का राजा मिला कि रानी बेटी

राज करे…’’

इस गीत के शब्दों नें उन्हें उन के अतीत में पहुंचा दिया और उन के अतीत का 1-1 पन्ना खुलता चला गया.

कितने सुनहरे सपनों को अपने मन में संजो कर वे अपने घर की देहरी से बाहर निकली थीं. 19 वर्ष की मानसी करोड़पति पिता की लाड़ली थीं. उन्होंने बीए में एडमिशन लिया ही था कि पिता मनोहर लाल ने उन की शादी तय कर दी. पैसे को मुट्ठी में पकड़ने वाले पापा ने बेटी की खुशियों के लिए अपनी तिजोरी का मुंह खोल दिया था. वे भी राजकुमार से स्वप्निल के सपनों में खो गई थीं. जब हाथी पर सवार हो कर स्वप्निल दूल्हे के वेष में आए तो बांके से सलोने युवक की तिरछी सी मुसकान पर वे मर मिटी थीं.

‘‘वाह मानसी, जीजू तो बिलकुल फिल्मी हीरो हैं,’’ जब उन की सहेलियों ने कहा तो वे शरमा उठी थीं.

तभी शीला मौसी आ गई और कहने लगी, ‘कुंवरजी को नजर मत लगा देना छोरियों.’

‘‘जीजाजी ने दामाद तो हीरा जैसा ढूंढ़ा है, राज करेगी मेरी मानसी.’’

सिर से पैर तक जेवरों से लदी हुईं, भारी लहंगे में सजीधजी मानसी ने ससुराल में कदम रखा था, तो वहां पर उन का भव्य स्वागत हुआ. सास मालतीजी और ननदों ने मिल कर उन के सपने साकार कर दिए थे. उन लोगों का लाड़प्यार पा कर वे अभिभूत हो उठी थीं.

स्वप्निल की बांहों में उन्हें जीवन की सारी खुशियां मिल गई थीं. कश्मीर में गुलमर्ग और पहलगाम की वादियों में बर्फ के गोलों से खेलती हुई वहां के सौंदर्य में खो गई थीं. स्वप्निल को घूमने का शौक था, कभी मुंबई के जुहू चौपाटी तो कभी महाबलीपुरम का बीच. कितने खुशनुमा दिन और रातें थीं.

फिर जब उन की जिंदगी में जुड़वां गोलूमोलू आ गए तो उन की जिम्मेदारियां बढ़ गईं और स्वप्निल भी पापा के साथ बिजनैस में बिजी हो गए.

गोलूमोलू 3 साल के थे तब एक दिन स्वप्निल घबराए हुए आए और बोले, ‘‘मानसी अपना बैग पैक कर लेना, सुबह हम लोगों को आगरा पहुंचना है. वन्या दी हौस्पिटल में एडमिट हैं, उन की हालत खराब है.’’

‘‘स्वप्निल, प्लीज सुबह चलिएगा, रात में यदि ड्राइवर को नींद का झंका आ गया.’’

‘‘फालतू बात मत करो. रात में 11-12 बजे निकलेंगे सुबह पहुंच जाएंगे. रात में रोड खाली मिलता है.’’

वे सहम कर चुप हो गई थीं. उन्होंने जल्दीजल्दी कुछ कपड़े बच्चों के और अपने व स्वप्निल के रखे और निकल पड़ी थीं. स्वप्निल की आंखें थकान के मारे नींद से बो?िल हो रही थीं. वे बारबार आंखों पर पानी डाल रहे थे. नियति को दोष दे कर हम सब अपने को दोषमुक्त कर लेते हैं परंतु दुर्घटना के लिए दोषी तो हम भी होते ही हैं.

जीवन में सुख और दुख उसी तरह से सुनिश्चित और संभाव्य हैं जैसे दिन

और रात. खुशियों के झले में झलने वाली मानसी नहीं जानती थीं कि भविष्य उन्हें जीवन के दुखद क्षणों की ओर खींच कर ले जा रहा है. गाड़ी में बैठते ही दोनों बच्चे और वे गहरी नींद में सो गए थे. शायद थके हुए स्वप्निल को भी नींद आ गई. कुछ ही देर में जोर का धमाका हुआ और उन्हें लगा कि कोई पिघला शीशा उन के ऊपर डाल रहा है. फिर कुछ पलों में ही वे मूर्छित हो गई थीं. अफरातफरी का माहौल, रात के गहरे अंधेरे में एक ट्रक ने जोर की टक्कर मार दी थी. सारे सपने तहसनहस हो गए. स्वप्निल उन्हें अकेला छोड़ गए. मोलू भी उन के साथ विदा हो गया.

गोलू को खरोंच भी नहीं आई थी, लेकिन उन का एक हाथ और एक पैर बुरी तरह कुचल गया था इसलिए वे 2 महीने तक नर्सिंगहोम में एडमिट रहीं. पापा आया करते और जरूरी कागजों पर साइन करवाते. न ही वे कहते कि कागज पढ़ लो और न ही वे कोई रुचि दिखातीं. अब तो यही लोग उन के जीवनदाता थे. कभी ईशा दी, कभी मम्मीजी गोलू को ले कर आया करतीं, लेकिन उन्हें बैड पर लेटे देख कर मम्मीजी की गोद में छिप जाता. उन की आंखों से अविरल आंसू बहते रहते. उन के दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया था.

गोलू का नाम स्वप्निल ने बकुल रखा था, इसलिए अब सब लोग उसे बकुल ही पुकारा करते थे. उन के मम्मीपापा उन्हें अपने साथ आगरा ले जाना चाहते थे, लेकिन यहां पापाजी का कहना था कि जब तक औफिशियल काम न पूरे हों, तब तक यहीं रहो. बारबार कौन जाएगा साइन करवाने.

उन की अपनी मां दिनरात उन के साथ बनी रहतीं और पापा डाक्टरों से संपर्क में रहते. उन की कई बार प्लास्टिक सर्जरी भी होती रही. जब तक ये सब चलता रहा मम्मीजी खूब प्यार से बोलतीं और उन का ध्यान रखा करतीं.

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दिल के रिश्ते- भाग 1: कैसा था पुष्पा और किशोर का प्यार

फूलपुर गांव के एक तरफ तालाब के किनारे मंदिर था तो दूसरी तरफ ऐसा स्थल जहां साल में एक बार 9 दिनों का मेला लगता था. मंदिर के आगे गांव वालों के खेत शुरू हो जाते थे. खेतों की सीमा जहां खत्म होती थी वहां से शुरू होता था एक विशाल बाग. इस बाग के दूसरी तरफ एक पतली सी नदी बहती थी. आमतौर पर बाग के बीच के खाली मैदान का प्रयोग गांव वाले खलिहान के लिए किया करते थे पर साल में एक बार यहां बहुत बड़ा मेला लगता था. मेले की तैयारी महीनों पहले से होने लगती. मेला घूमने लोग बहुत दूरदूर से आते थे.

आज बरसों बाद पुष्पा मेले में कदम रख रही थी. तब में और आज में बहुत फर्क आ गया था. तब वह खेतों की मेंड़ पर कोसों पैदल चल के सखियों के साथ मेले में घूमती थी. आज तो मेले तक पहुंचने के लिए गाड़ी की सुविधा है. पुष्पा पति व बच्चों के साथ मेला घूमने लगी. थोड़ी देर घूमने के बाद वह बरगद के एक पेड़ के नीचे बैठ गई. पति व बच्चे पहली बार मेला देख रहे थे, सो, वे घूमते रहे.

पुष्पा आराम से पेड़ से पीठ टिका कर जमीन की मुलायम घास पर बैठी थी कि उस की नजर ऊपर पेड़ पर पड़ी. उस ने देखा, पेड़ ने और भी फैलाव ले लिया था, उस की जटाएं जमीन को छू रही थीं. बरगद की कुछ डालें आपस में ऐसी लिपटी हुई थीं जैसे बरसों के बिछड़े प्रेमीयुगल आलिंगनबद्ध हों. पक्षियों के झुंड उन पर आराम कर रहे थे. उस ने अपनी आंखें बंद करनी चाहीं, तभी सामने के पेड़ पर उस की नजर पड़ी जो सूख कर ठूंठ हो गया था. उस की खोह में कबूतरों का एक जोड़ा प्रेम में मशगूल था. उस ने एक लंबी सांस ले कर आंखें बंद कर लीं.

आंखें बंद करते ही उस के सामने एक तसवीर उभरने लगी जो वक्त के साथ धुंधली पड़ गई थी. वह तसवीर किशोर की थी जिस से उस की पहली मुलाकात इसी मेले में हुई थी और आखिरी भी. किशोर की याद आते ही उस से जुड़ी हर बात पुष्पा को याद आने लगी.

उस दिन वह 4 सहेलियों के साथ सुबह ही घर से निकल पड़ी थी ताकि तेज धूप होने से पहले ही सभी मेले में पहुंच जाएं. सुबह के समय मंदमंद चलती ठंडी हवा, आसपास पके हुए गेंहू के खेत और मेला देखने की ललक, बातें करती, हंसतीखिलखिलाती वे कब मेले में पहुंच गईं, उन्हें पता ही न चला.

वे मेला घूमने लगीं. मेले में घूमतेघूमते पुष्पा को लगा कि कोई उस का पीछा कर रहा है. थोड़ी देर तक तो उस ने सोचा कि उस का वहम है पर जब काफी समय गुजर जाने के बाद भी पीछा जारी रहा तब उस ने पीछे मुड़ कर देखा. एक पतलादुबला, गोरा, सुंदर सा युवक उस के पीछेपीछे चल रहा था. उस ने किशोर को कड़ी नजरों से देखा था लेकिन जवाब में किशोर ने हलके से मुसकरा आंखों ही आंखों से अभिवादन किया था. उस का मासूम चेहरा देख कर क्षणभर में ही पुष्पा का गुस्सा जाता रहा. किशोर की आंखों की भाषा पुष्पा के दिल तक पहुंच गई थी. एक अजीब सा एहसास उस के दिल को धड़का गया था. शाम तक किशोर पुष्पा के साथसाथ घूमता रहा बिना किसी बातचीत किए हुए.

पुष्पा जहां जाती, वह उस के पीछेपीछे जाता. पुष्पा को अच्छे से एहसास था इस बात का पर उसे भी न जाने क्यों उस का साथ अच्छा लग रहा था. पूरा दिन घूमने के बाद शाम को वापसी के समय वह अपनी सहेलियों से थोड़ा अलग हट कर चूडि़यों की दुकान पर खड़ी हो गई. इतने में उस ने आ कर भीड़ का फायदा उठाते हुए एक कागज का टुकड़ा पुष्पा की हथेली में पकड़ा दिया. पुष्पा का दिल जोर से धड़क उठा. उस ने उस की आंखों में देखते हुए अपनी मुट्ठी बंद कर ली. दोनों ने आंखों ही आंखों में एकदूसरे से विदा ली और वापस अपनेअपने घर की तरफ चल दिए. पर अकेला कोई भी नहीं था, दोनों ही एकदूसरे के एहसास में बंध गए थे. एकदूसरे के खयालों में खोए दोनों अपनी मंजिल की तरफ बढ़े जा रहे थे.

घर पहुंचतेपहुंचते अंधेरा हो चुका था. सभी सहेलियां अपनेअपने घर चली गईं. मां ने हलकी सी डांट लगाई, ‘कितनी देर कर दी पुष्पी, मेले से थोड़ा पहले नहीं निकल सकती थी? पर तुझे समय का खयाल कहां रहता है, सहेलियों के साथ घूमने को मिल जाए, बस.’ अब पुष्पा कैसे बताती मां को कि सच में उसे समय का खयाल नहीं रहा. उसे तो लग रहा था कि थोड़ी देर और रह जाए मेले में उस अजनबी के साथ. मां कमरे के बाहर चली गईं. पुष्पा ने दरवाजा बंद किया और वह मुड़ातुड़ा कागज का टुकड़ा निकाल कर पढ़ने लगी जिस में लिखा था :

‘मुझे नहीं पता आप का नाम क्या है, जानने की जरूरत भी नहीं समझता, क्योंकि शायद ही हम दोबारा मिल पाएं. पर हां, अगर परिस्थितियों ने साथ दिया तो अगले साल इसी दिन मैं मेले में आप का इंतजार करूंगा. किशोर.’

पत्र पढ़ कर पुष्पा की आंखें न जाने क्यों भीग गईं. उस से तो उस की बात भी नहीं हुई, सिर्फ कुछ घंटों का साथभर था. पर उस के एहसास से वह भीतर तक भर गई थी. ऊपर से उस के शब्दों में एक कशिश थी जिस में वह बंधी जा रही थी. उसे तो यह भी नहीं पता था कि वह किस गांव का है? कौन है? उसी के खयालों में डूबी हुई वह न जाने कब सो गई. सुबह उठ कर उस ने सब से पहले वह पर्चा अपनी डायरी में दबा कर डायरी को बक्से में छिपा दिया.

धीरेधीरे समय बीतने लगा. पर्चा डायरी में दबा रहा और किशोर का एहसास दिल में दबाए पुष्पा अपनी 12वीं की पढ़ाई पूरी करने लगी.

कभीकभी अकेले में डायरी निकाल कर वह पर्चा पढ़ लेती. अब तक न जाने कितनी बार पढ़ चुकी थी. 12वीं के बाद घर में उस की शादी की चर्चा चलने लगी थी. जब भी वह मांबाबूजी को बात करते सुनती, उसे किशोर की याद आ जाती और उस का दिल रो पड़ता. तब वह खुद ही खुद को समझाती कि  किशोर से उस का क्या नाता है? मेले में ही तो मिला था. न जाने कितने लोग मिलते हैं मेले में. न जाने कौन है. अब वह जाने कहां होगा. मैं क्यों सोचती हूं उस के बारे में. उसे मैं याद हूं भी कि नहीं? उस का एक पर्चा ले कर बैठी हूं मैं. नहीं, अब नहीं सोचूंगी उस के बारे में, कभी नहीं सोचूंगी.

पुष्पा ने अपने मन में सोचा पर यह सब इतना भी आसान न था. उस ने अनजाने में ही अपने दिल के कोरे कागज पर किशोर का नाम लिख लिया था. अब यह नाम मिटाना आसान नहीं था उस के लिए.

देखतेदेखते साल बीत गया और मेले का समय नजदीक आ गया. जैसेजैसे वह दिन नजदीक आ रहा था, पुष्पा के दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थी. उसे किशोर से मिलने की ललक मेले की ओर खींच रही थी.

मेले में जाने की तैयारी हो गईर् थी पुष्पा की. इस साल उस के साथ सिर्फ

2 ही सहेलियां थी, क्योंकि 2 सहेलियों की शादी हो गई थी. इन दोनों की भी शादी तय हो चुकी थी. घर वालों ने भी इजाजत दे दी कि न जाने शादी के बाद फिर कब मेला घूमना नसीब हो इन्हें. तीनों सुबह ही निकल पड़ीं मेले के लिए.

मेले में पहुंचने के बाद दोनों तो अपनी शादी के लिए शृंगार का सामान खरीदने में लग गईं जबकि पुष्पा की निगाहें किसी को ढूंढ़ रही थीं. उस का मेला घूमने में मन नहीं लग रहा था. मन बेचैन था. वह सोचने लगी, ‘पता नहीं उसे याद भी है कि नहीं. बेकार ही मैं परेशान हो रही हूं. इतनी छोटी सी बात उसे क्यों याद होगी? उसे तो मेरा नाम भी नहीं पता.’ पुष्पा को अपनी बेबसी पर रोना आ गया. उसे लगा कि  वह अभी रो देगी.

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विध्वंस के अवशेष से: क्या हुआ था ईला के साथ

‘‘घरके बाहर का दरवाजा खुला हुआ है पर किसी को इस का ध्यान नहीं, सभी मां के कमरे में बैठ कर गप्पें मार रहे होंगे. आजकल कालोनी में दिनदहाड़े ही कितनी चोरियां हो रही हैं… इन्हें पता हो तब न,’’ औफिस से लौटी ईला बड़बड़ाते हुए अपनी मां के कमरे के दरवाजे को खोलने ही जा रही थी कि अंदर से आती हुई आवाजों ने उस के पैरों को वहीं रोक दिया.

उस का छोटा भाई शिबु गुस्से से मां से कह रहा था ‘‘देखो मां, आगे से मैं यहां आने वाला नहीं हूं, क्योंकि कालोनी में दीदी के बारे में फैली बातों को सुन कर मैं शर्म से गड़ा जा रहा हूं… किसी भी दोस्त से आंख उठा कर बात नहीं कर सकता.

‘‘क्या जरूरत है दीदी को सुरेश साहब के साथ टूर पर जाने की? अपनी नहीं तो हमारी मर्यादा का तो कुछ खयाल हो.’’

मां कुछ देर तक चुपचाप शिबु को निहारती रहीं, फिर अपनी भीगी आंखों को अपने आंचलसे पोंछते हुए बोलीं, ‘‘करूं भी तो क्या करूं? घर की सारी जिम्मेदारियां उठा कर उस ने मेरे मुंह पर ताला ही लगा दिया है… जब भी कुछ कहो तो ज्वालामुखी बन जाती है. मेरा तो इस घर में दम घुट रहा है. आत्महत्या कर लेने की धमकी देती है. इस बार मैं तुम्हारे साथ ही यहां से चल दूंगी. रहे अकेली इस घर में. माना कि बाप की सारी जिम्मेदारियों को उठा लिया तो क्या सिर चढ़ कर इस तरह नाचेगी कि सभी के मुंह पर कालिख पुत जाए? यही सब गुल खिलाने के लिए पैदा हुई थी?

‘‘कितने रिश्ते आए, लेकिन उसे कोई पसंद नहीं आया… अब इतनी उम्र में किसी कुंआरे लड़के का रिश्ता आने से रहा… उस पर बदनामियों का पिटारा साथ है.’’

मां और भाई के वार्त्तालाप से ईला को क्षणभर के लिए ऐसा लगा कि किसी ने उस के कानों में जैसे पिघला सीसा डाल दिया हो. ईला बड़ी मुश्किल से अपनी रुलाई रोकने की कोशिश कर रही थी कि तभी छोटी बहन नीला बोलना शुरू हो गई, ‘‘दीदी और सुरेश के संबंधों की कहानी मेरी ससुराल की देहरी पर भी पहुंच गई है. सास ताना देती है कि कैसी बेशर्म है… देवर सुनील हमेशा मेरी खिंचाई करते कहता रहता है कि अरे भाभी उस फैक्टरी में आप की दीदी की बड़ी चलती है. उस से कहा कि सुरेश साहब से कह कर मेरी नौकरी लगवा दे. अनिल भी चुटकियां लेने से बाज नहीं आता. सच में उन की बातें सुन शर्म से गड़ जाती हूं.’’

‘‘समधियाना में भी कोई इज्जत नहीं रह गई है किसी की… ऐसी बातें तो हजारों पंख लगा कर उड़ती हैं. मजाल है कि कोई उसे कुछ समझ सके,’’ नहले पर दहला जड़ते हुए मां की बातों ने तो जैसे ईला को दहका कर ही रख दिया.

‘‘क्यों हमें बहुत सीख देती थी… ऐसे रहो, ऐसा करो, यह पहनो, वह नहीं पहनो… लड़कों से ज्यादा बात नहीं करते… खुद पर इन बातों को क्यों लागू नहीं करतीं?’’

नीला के शब्द ईला के कलेजे के आरपार हो रहे थे.

‘कृतघ्नों की दुनिया संवारने में सच में मैं ने अपने जीवन के सुनहरे पलों को गंवा दिया,’ सोच ईला रो पड़ी. फिर सभी के प्रत्यारोपों के उत्तर देने के लिए कमरे में जाने लगी ही थी कि सब से छोटी बहन मिली की बातों ने उस के बढ़ते कदम रोक दिए.

‘‘मेरी ससुराल वाले भी इन बातों से अनजान नहीं हैं… प्रत्यक्ष में तो कुछ नहीं कहते, लेकिन पीठ पीछे छिछले जुमले उछाल ही देते हैं.

‘‘अमित कह रहे थे कि अब तुम सभी को मिल कर अपनी दीदी का घर बसा देना चाहिए… तुम लोगों के लिए उन्होंने जो किया उस के समक्ष इन सब बेकार बातों का कोई अर्थ नहीं है… शिबु को बोलो कि बहन की शादी करे और मां को अपने पास ले जाए. अब हम सभी को मिल कर जल्द से जल्द कुछ कर लेना चाहिए अन्यथा यह समय भी रेत की तरह हाथों से फिसल जाएगा.’’

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‘‘तो कहो न अमित से कि वही कोई अच्छा रिश्ता ढूंढ़ दे… बड़ा लैक्चर देता है,’’ शिबु और नीला की गरजना से पूरा कमरा गूंज उठा.

‘चलो कोई तो ऐसा है जो उस के त्याग, उस की तपस्या को समझ सका,’ सोच ईला दरवाजा खोल अंदर चली गई.

अचानक ईला को सामने देख कर सब अचंभित हो गए… सब की बोलती बंद हो गई.

अपनेआप पर किसी तरह काबू पाते हुए मां ने कहा, ‘‘अरे ईला

तुम अंदर कैसे आई? बाहर का दरवाजा किस ने खोला? क्यों रे नीला बाहर का दरवाजा खुला ही छोड़ दिया था क्या?’’

‘‘शायद नियति को मुझ पर तरस आ गया हो… उसी ने दरवाजा खोल कर मेरे सभी अपनों के चेहरों पर पड़े नकाब को नोच कर मुझे उन की वास्तविकता को दिखा दिया… इतना जहर भरा है मेरे अपनों में मेरे लिए… तुम सभी को मेरे कारण शर्मिंदगी उठानी पड़ रही है… अच्छा ही हुआ जो आज सबकुछ अपने कानों से सुन लिया,’’ अपनी रुलाई पर काबू पाते हुए उस ने कहा, ‘‘तो क्यों न मैं पहले अपनी मां के आरोपों के उत्तर दूं… तो हां मां आप ने उस विगत को कैसी भुला दिया जब पापा की मृत्यु के बाद आप के सभी सगेसंबंधियों ने रिश्ता तोड़ लिया था? अनेकानेक जिम्मेदारियां आप के समक्ष खड़ी हुई थीं… आप ही हैं न मां वे जो अपने 4 बच्चों सहित मरने के लिए नदीनाले तलाश कर रही थीं… तब आप चारों की चीख ने न जाने मेरी कितनी रातों की नींद छीन ली थी.

‘‘तीनों छोटे भाईबहनों के भविष्य का प्रश्न मेरे समक्ष आ कर खड़ा हो गया तो मैं ने अपने सभी सपनों का गला घोट दिया… अपनी पढ़ाई को बीच में छोड़ कर पापा की जगह अनुकंपा बहाली को स्वीकार कर चल पड़ी अंगारों पर कर्तव्यपूर्ति के लिए… आईएएस बनने का मेरा सपना टूट गया… सारी जिम्मेदारियों को निभाने में मेरा जीवन बदरंग हो गया… मेरे कुंआरे सपनों के वसंत मुझे आवाज देते गुजर गए…

‘‘मेरे जीवन में भी कोई रंग बिखेरे… मेरा अपना घरपरिवार हो… आम लड़कियों की तरह मेरी आंखों में भी ढेर सारे सपने तैर रहे थे. मेरे वे इंद्रधनुषी सपने आप को दिखे नहीं? अपने पति की सारी जिम्मेदारियां मुझे सौंप कर आप चैन की नींद सोती रहीं. आप का बेटा शिबु, नीला और मिली आप की बेटियां सभी अपने जीवन में बस कर सुरक्षित हो गए तो आप को मुझ में बुराइयां ही नजर आ रही हैं… क्या मैं आप की बेटी नहीं हूं? कैसी मां हैं आप जिस ने अपने 3 बच्चों का जीवन सुंदर बनाने के लिए अपनी बड़ी बेटी को जीतेजी शूली पर चढ़ा दिया?’’

मां के पथराए चेहरे को देख कर ईला कुछ क्षणों के लिए चुप तो हो गई, लेकिन क्रोध के मारे कांपती रही. फिर भाई को आग्नेय दृष्टि से निहारते हुए बोली, ‘‘हां तो शिबु आज तुम्हें शर्मिंदगी महसूस हो रही है… उस समय शर्म नाम की यह चीज कहां थी जब मैडिकल का ऐंट्रैंस ऐग्जाम एक बार नहीं 3 बार क्लियर नहीं कर पाए थे. डोनेशन दे कर नाम लिखाने के लिएक्व50 लाख कहां से आए थे? इस के लिए मुझे कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी… तुम्हें डाक्टर बनाने के लिए मुझे अपने कुंआरे सपनों को बेचना पड़ा था. तब तुम सब इतने नादान भी नहीं थे कि समझ नहीं सको कि मैं ने अपने कौमार्य का सौदा कर के इतने रुपयों का इंतजाम किया था… तो आज मैं तुम लोगों के लिए इतनी पतित कैसे हो गई?’’

सिर झकाए शिबु के मुंह में जबान ही कहां थी कि वह ईला के प्रश्नों के उत्तर दे सके. फिर भी किसी तरह हकलाते हुए बोला, ‘‘तुम गलत समझ रही हो दीदी… मेरे कहने का मतलब यह नहीं था.’’

जवाब में ईला किसी घायल शेरनी की तरह दहाड़ उठी, ‘‘चुप हो जाओ… तुम सब ने अपनी आंखों को लज्जाहीन कर लिया है… मैं ने सारे आक्षेप सुन लिए हैं… और तुम नीला भूल गई उस दिन को जब कालोनी के सब से बदनाम व्यक्ति रमेश के साथ तुम भाग रही थी तो सुरेश साहब के ड्राइवर ने तुम्हें उस के साथ जाते देख लिया था और तत्काल उन्हें खबर कर दी थी. साहब ने ही तुम्हें बचाया था… सुरेश साहब ने मुझे बताने के साथसाथ आधी रात को पुलिस स्टेशन जाने के लिए अपनी गाड़ी तक भेज दी थी…

‘‘जीवन में तुम्हें व्यवस्थित करने के लिए मुझे न जाने कितनी जहमत उठानी पड़ी थी… तुम्हारी शादी का दहेज जुटाने के लिए, तुम्हारे होने वाले पति की डिमांड को पूरा करने के लिए अपनी कौन सी धरोहर को गिरवी रखना पड़ा था मुझे… तुम लोगों ने कभी पूछा था कि एकसाथ इतने रुपयों का इंतजाम मैं ने कैसे

किया? आज ससुराल में तुम्हें मेरे कारण लज्जित और अपमानित होना पड़ रहा है… भेज देना अपने देवर को कुछ न कुछ उस के लिए भी कर ही दूंगी.’’

ईला ने उस की बातें सुन ली थीं. इस पर नीला को बड़ा क्षोभ हुआ… 1-1 कर के स्मृतियों के सारे पन्ने खुल गए. असहनीय वेदना की ऊंची लहरों को उछालते हुए विगत का समंदर उस के समक्ष लहरा उठा तो वह अपनी दीनहीन प्रौढ़ बहन के लिए तड़प उठी और फिर रोते हुए बोली, ‘‘भाग जाने देतीं मुझे उस बदनाम रमेश के साथ… कोई जरूरत नहीं थी मेरी शादी के लिए तुम्हें इतनी बड़ी कीमत चुकाने की… पढ़ालिखा कर मुझे सब तरह से योग्य बनाया. दोनों बहनें मिल कर घर की जिम्मेदारियां बांट लेतीं. हम सभी को अमृत पिला कर खुद विषपान करती रहीं… दीदी, तुम्हारे स्वार्थरहित प्यार को यह कैसा प्रतिदान मिला हम सभी से? क्यों मिटती रहीं हम सब के लिए? जलती रहीं तिलतिल कर. लेकिन हम सब पर कोई आंच नहीं आने दी,’’ और फिर नीला जोरजोर से रो पड़ी.

इतनी देर से चुप मां ने कहा, ‘‘कैसे निर्दयी बन गए थे हम. बेटी के त्याग को मान देने के बदले इतनी ओछी मानसिकता पर उतर आए हैं हम…

जा मिली अपनी दीदी के लिए चाय बना ला.’’

सकुचाते, लजाते मिली को उठते देख ईला ने

कहा, ‘‘मिली चायवाय बनाने की कोई जरूरत नहीं है… तुम्हें अपनी सहेलियों से आंखें मिलाने में शर्म आ रही है तो तुम लौट जाओ अपनी ससुराल… उन दिनों को भूल गई जब 1-1 जरूरत की पूर्ति के लिए मुझे निहारा करती थी. अरे, तुम से अच्छा और समझदार तुम्हारा पति है जिस से मेरा खून का कोई रिश्ता नहीं है, फिर भी मेरे लिए कुछ सोचता तो है. यही मेरे अपने हैं जिन की इच्छाओं को पूरा करने के लिए कुरबान होती रही… तमाम जिंदगी भागती रही,’’ कह ईला अपने कमरे में घुस गई और दरवाजा बंद कर लिया.

बिस्तर पर लेटते ही आंखों के समक्ष विस्मृत अतीत की स्मृतियों के पृष्ठ खुलने लगे. इन्हीं अपनों की खुशी के लिए क्या नहीं किया उस ने… माना कि सुरेश साहब की मुझ पर बेशुमार मेहरबानियां रही हैं, पर क्या उन्होंने भी उस की भरपूर कीमत उस की देह से नहीं वसूली है? उस के हिस्से की सारी धूप ही को परिवार ने ताप लिया है. फिर भी उसे उस का कभी कोई गम नहीं हुआ था. सपनों को ही चुरा लिया…

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परिवार की खुशियों में सबकुछ भूल कर जीती रही… सारी जिल्लतों को सहती रही. मगर यह कोई नई बात थोड़े थी. पारिवारिक बोझ को झेलने के लिए, दायित्वों को निभाने के लिए जब भी बड़ी बेटियां सामने आती हैं तो उन्हें इन बेशुमार मेहरबानियों के लिए, कर्तव्यों के लिए अपने कौमार्य की कीमत देनी ही पड़ती है… जालिम मर्द समाज ऐसे ही किसी असहाय लड़की की मदद तो करने से रहा.

कितने रंगीन सपने भरे थे उस की आंखों में, पर सभी के सपनों को साकार करने में उस ने अपने सारे इंद्रधनुषी सपनों को खो दिया. मगर सिवा रुसवाई के कुछ भी तो नहीं मिला उसे.

अतीत के उमड़ते घने काले बादलों के बीच चमकती बिजली में ईला के समक्ष अचानक शिखर का चेहरा उभर गया जो उसे दीवानगी की हद तक प्यार करता था.

कितना प्यार था, कितना मान… सबकुछ भूल कर उस की बांहों में सिमटना चाहा था उस ने. कितना सम्मान था शिखर की आंखों में उस के लिए… पारिवारिक जिम्मेदारियों के दावानल ने उस की चाहतों को जला कर रख दिया, उसे यों मिटते वह देख नहीं सका.

शिखर के प्रति छलकते अथाह सागर को ही उदरस्त कर लिया. मायूस हो

कर उस ने सिर्फ उसे ही नहीं, बल्कि दुनिया को ही हमेशा के लिए छोड़ दिया. शिखर को याद कर वह देर तक रोती रही.

मुझे यों तड़पता छोड़ कर तुम क्यों चले गए शिखर? तुम्हें क्या पता कि अपने दिल की गहराइयों से तुम्हारे प्यार को… तुम्हारी यादों को निकालने के लिए मुझे अपने मन को कितना मथना पड़ा था? रातों की तनहाइयों में मैं तुम्हें टूट कर पुकारती रही, लेकिन तुम 7 समंदर का फासला तय नहीं कर पाए? तुम्हारा भी क्या दोष. तुम ने तो मेरे साथ मिल कर मेरे कंधों पर पड़ी जिम्मेदारियों को भी बांट लेना चाहा था… मैं ही विचारों के कठोर कवच में कैद हो कर रह गई थी.

आवेश में आ कर ईला कुछ उलटासीधा कदम न उठा ले, सोच कर सभी घबराए से उस के कमरे के सामने खड़े हो कर पश्चात्ताप की अग्नि में झलसते हुए आवाजें दे रहे थे…

ईला से दरवाजा खोलने की विनती कर रहे थे पर उस ने दरवाजा नहीं खोला. सब की निर्मम सोच ने उसे पत्थर सा बना दिया था.

घबरा कर ईला का भाई उस के साथ कार्यरत जावेद के घर की ओर दौड़ पड़ा. बिना देर किए वह दौड़ा चला आया और ईला से दरवाजा खोलने की गुहार करने लगा. फिर ‘कहीं ईला ने ऐसावैसा तो नहीं कर लिया,’ सोच वह दरवाजा तोड़ने के लिए व्याकुल हो उठा.

वर्षों दौड़तीभागती ईला को आज बड़ी थकान महसूस हो रही थी. नींद से बो?िल पलकें मुंदने ही वाली थीं कि कहीं दूर से आती पहचानी सी आवाज ने उसे झकझेर कर उठा दिया. किसी दीवानी की तरह दौड़ कर उस ने दरवाजा खोल दिया. बाहर जिसे प्रतीक्षा करते पाया उस पर यकीन नहीं कर सकी. अपलक कुछ पलों तक उसे निहारती रही. फिर थरथराते कदमों से आगे बढ़ी तो जावेद ने उसे अपनी बांहों में थाम लिया.

वह उस की आंखों में असीम प्यार के लहराते सागर में डूब गई. विध्वंस के अवशेष से ही जीवन की नई इबारत लिखने को वह तत्पर हो उठी. सारे गिलेशिकवे जाते रहे. फिर महीने के भीतर ही ईला ने जावेद से कोर्ट मैरिज कर ली, जिस की पत्नी अपने दूसरे बच्चे के प्रसव के दौरान चल बसी थी. उस की मां फातिमा बेगम की बूढ़ी, कमजोर बांहें घर और जावेद के

2 बच्चों की जिम्मेदारियों को उठाने में असमर्थ सिद्ध हो रही थीं. कालेज के दिनों से ही जावेद की पलकों पर ईला छाई हुई थी.

जाहिदा से शादी कर लेने के उपरांत भी जावेद ईला को अपने मन से नहीं निकाल सका था. जाहिदा के गुजर जाने के बाद ईला के प्रति उस की चाहत नए सिरे से उभर आई थी. ईला ने भी उस की आंखों में अपने प्रति प्यार की लौ पहचान ली थी. जबतब उस के कदम जावेद के क्वार्टर की ओर उठ जाते थे. वहां जा कर वह उस के बच्चों से खेल कर अपने अतृप्त मातृत्व का सुखद आनंद लिया करती थी. जावेद के साथ फातिमा बेगम भी उस के आने की राह में आंखें बिछाए रहती थीं. कितनी बार ईला ने उन से जावेद की दूसरी शादी के लिए कहा, पर वे बच्चों के लिए सौतेली मां की कल्पना करते ही सिहर जाती थीं.

ईला भी बच्चों से जुड़ तो गई थी परधर्म की ऊंची दीवार को फांदने की हिम्मतनहीं जुटा पाती थी. लेकिन अब उस ने धर्म

की कंटीली बाड़ को पार कर ही लिया. कौन क्या कहेगा, पारिवारिक और सामाजिक प्रतिक्रियाएं क्या होंगी, उस ने रत्तीभर भी परवाह नहीं की. जावेद की सबल बांहों में अपने थके, बुझे शरीर को सौंप दिया. इधर जावेद ने भी वर्षों से छिपी चाहत को हजारों हाथों से थाम लिया. फातिमा बेगम ने सलमासितारों से जड़ी अपनी शादी की ?िलमिलाती चुन्नी ईला को ओढ़ा कर अपने कलेजे से लगा लिया. फिर तो जैसे खुशियों का आकाश धरती पर उतर आया.

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औफिस की ओर से ईला और जावेद के उठाए गए इस कदम की आलोचना कम सराहना ज्यादा हुई. फिर एक पार्टी का आयोजन किया गया, जिसे आयोजित करने में सुरेश साहब ने भी बढ़चढ़ कर भाग लिया. सितारों से जड़े सुर्ख जोड़े एवं बड़ी नथ व जड़ाऊ झमर में सजी ईला और सिल्क के कुरते और धोती में सजे जावेद ने विध्वंस के अवशेष से नए जीवन की शुरुआत कर ली जहां नई रोशनी, नई खुशियां उन का स्वागत कर रही थीं.

‘‘जाहिदा से शादी हो जाने के बाद भी जावेद ईला को अपने मन से निकाल नहीं सका था. ईला ने भी उस की आंखों में अपने लिए प्यार महसूस कर लिया था…’’

अजंता: भाग 5- आखिर क्या हुआ पूजा के साथ

लेखक- सुधीर मौर्य

प्रशांत की बात सुन कर अजंता को तेज धक्का लगा. अजंता कुछ कह पाती उस से पहले ही प्रशांत फिर बोल उठा, ‘‘और यह लड़का क्या उलटी बात कर रहा है. अरे जो हुआ सो हुआ. अब इस लड़की की इज्जत इसी में है कि चुप रहे.’’

‘‘और इस के साथ जो अपराध हुआ उस का क्या और अपराधियों को क्या खुला छोड़ दिया जाए?’’

‘‘अरे नेता तुम हो या मैं, यह क्या नेताओं सी बातें कर रही हो,’’ प्रशांत का लहजा तल्ख हो गया.

‘‘अरे हां याद आया, आप तो नेता हैं, तो क्या आप इस पीडि़त लड़की को न्याय दिलाने में मदद नहीं करेंगे?’’ अजंता ने भी तल्ख लहजे में पूछा.

‘‘देखो अजंता, मैं आज की शाम तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूं, इस के लिए तुम्हें ढूंढ़ता हुआ यहां तक आया. चलो कहीं बैठ कर डिनर करते हैं.’’

‘‘प्रशांत यह तो संवेदनहीनता है. हमें यहां रुकना चाहिए और पूजा के साथ पुलिस स्टेशन भी चलना चाहिए.’’

‘‘हमारे घर की औरतें पुलिस स्टेशन नहीं जातीं, इसलिए इस लड़की के साथ मैं तुम्हें पुलिस स्टेशन जाने की इजाजत नहीं दूंगा.

‘‘पर प्रशांत?’’

‘‘परवर कुछ नहीं अजंता, तुम मेरे साथ चलो.’’

अजंता और प्रशांत की बहस चल ही रही थी कि तभी शशांक, पूजा को वरदान सर की गाड़ी में बैठा कर 2-3 अन्य लोगों के साथ पुलिस स्टेशन निकल गया.

‘‘मुहतरमा वे लोग गए हैं पुलिस स्टेशन. वे मामला हैंडल कर लेंगे. चलो हम लोग चलते हैं,’’ प्रशांत ने कोमल अंदाज में कहा.

अजंता थकी चाल चल कार में बैठ गई. पूरा रास्ता प्रशांत बोलता रहा. उस ने कहा कलपरसों में दोनों फैमिली वाले मिल कर शादी की डेट फिक्स करने वाले हैं. अजंता पूरा रास्ता चुप रही या फिर हां हूं करती रही.

एक शानदार रैस्टोरैंट के सामने प्रशांत ने गाड़ी रोकी. अंदर आ कर उस ने खाने का और्डर दिया. अजंता क्या खाना पसंद करेगी, उस ने यह तक न पूछा. सब अपनी पसंद की डिश मंगवा लीं.

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वेटर खाना सर्व कर गया.

पहला कौर खाते हुए अजंता ने कहा, ‘‘बेचारी लड़की के साथ बड़ा अपराध हुआ है.’’

‘‘अपराध तो उस लड़के के साथ होगा जिस से इस लड़की की शादी होगी और जब उसे पता चलेगा कि कभी उस की बीवी का बलात्कार हुआ था.’’

प्रशांत की यह बात सुन कर अजंता को ऐसा लगा जैसे उस के मुंह में खाना नहीं, बल्कि कीचड़ रखा हो और उसे अभी उलटी हो जाएगी.

दूसरी घटना…

अजंता और प्रशांत की शादी की डेट फिक्स हो गई थी. दोनों परिवारों में

शादी की तैयारियां शुरू हो गई थीं. इन्विटेशन कार्ड छपने चले गए थे. प्रशांत, अजंता पर और ज्यादा अधिकार जताने लगा था. अजंता के मन में न जाने क्यों अपनी शादी को ले कर उल्लास की कोई भावना जन्म नहीं ले पा रही थी.

अपनी शादी के कार्ड अजंता ने कालेज में बांटे पर न जाने क्या सोच कर उस ने शशांक को कार्ड नहीं दिया. अजंता की शादी की डेट जानने के बाद भी शशांक पर कोई असर नहीं हुआ. वह मस्तमौला बना रहा. उसे यों मस्तमौला देख कर अजंता ने सोचा उस के प्रति शशांक के प्यार का दावा केवल आकर्षण और टाइमपास भर था.

शशांक ने पूजा की हैल्प की. उस की लड़ाई में सहायक बना. उस की कोशिशों से कालेज में ही पढ़ने वाला एक लड़का हेमंत और उस का एक दोस्त पूजा के बलात्कार के जुर्म में पकड़े गए.

एक दिन शशांक कालेज कैंटीन में अजंता को मिला तो उस ने पूछा, ‘‘क्यों मुझ से शादी करने का खयाल दिल से बायबाय हो गया?’’ अजंता ने भीतर से गंभीर हो कर किंतु बाहर से ठिठोली के अंदाज में उस से पूछा.

‘‘आप से शादी करने का खयाल तो तब भी दिल में रहेगा जब आप की शादी हो चुकी होगी मैम,’’ शशांक ने चाय मंगवाने के बाद अजंता के सवाल का जवाब दिया.

‘‘ओह, इतना प्यार करते हो मुझ से, तो मेरे बिना कैसे रह पाओगे?’’ अजंता ने चाय का घूंट भर कर पूछा.

‘‘रह लेंगे?’’ शशांक ने संक्षिप्त जवाब दिया.

‘‘बिना सहारे के?’’ अजंता ने फिर सवाल किया.

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‘‘बिना सहारे के तो मुश्किल होगा.’’

‘‘फिर किस के सहारे?’’

‘‘पूजा से शादी कर लूंगा,’’ शशांक ने गंभीरता से कहा. अजंता ने शशांक को पहली बार इतना गंभीर देखा था.

‘‘ये जानते हुए भी कि उस की इज्जत लुट चुकी है?’’ शशांक की आंखों में देखते हुए अजंता ने पूछा, ‘‘क्या ऐसी लड़की से शादी कर के तुम्हें तकलीफ नहीं होगी जो वर्जिन न हो.’’

‘‘तकलीफ कैसी? यह तो गर्व की बात होगी मैम कि एक ऐसी बहादुर लड़की मेरी बीवी है जिस ने एक सामाजिक अपराध के खिलाफ आवाज बुलंद की.’’

शशांक की बात सुन कर अजंता की आंखें शशांक के सम्मान में झुक गईं.

यह वह दौर था जब बस मोबाइल फोन लौंच ही हुए थे. प्रशांत ने शादी से एक दिन पहले ही अजंता को फोन गिफ्ट किया था. शादी लखनऊ में होने वाली थी. अजंता की फैमिली और रिश्तेदार लखनऊ आ चुके थे. दोनों फैमिली एक ही होटल में रुकी हुई थीं. शादी के लिए पूरा होटल बुक किया गया था.

शादी वाले दिन जैसेजैसे शादी की घड़ी नजदीक आ रही थी अजंता के मन में

एक कसक उठती जा रही थी. अचानक उसे खयाल आया कि उसे कम से शशांक को शादी का इन्विटेशन कार्ड तो देना ही चाहिए था.

शशांक को कार्ड न देना असल में अब अजंता को कचोट रहा था. उसे लग रहा था उस ने गलती की है. फिर अचानक उस ने अपनी गलती सुधारने का फैसला किया. अपने लेडीज पर्स में एक इन्विटेशन कार्ड रखा और होटल से बाहर निकल कर टैक्सी में बैठ गई.

प्रशांत यों ही अजंता से मिलने के लिए उस के रूम में गया. वह वहां नहीं थी. उस के मम्मीपापा से पूछा. उन्हें भी पता नहीं था. होटल में अजंता को न पा कर प्रशांत ने अजंता को

फोन किया.

पर्स से निकाल कर अजंता ने ज्यों ही फोन रिसीव किया दूसरी ओर से प्रशांत ने अधिकारपूर्वक पूछा, ‘‘कहां हो तुम?’’

‘‘एक जानने वाले को इन्विटेशन कार्ड देने जा रही हूं.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं, वापस आ जाओ,’’ प्रशांत बोला.

‘‘अरे उसे नहीं बुलाया तो उसे बुरा लगेगा,’’ अजंता ने समझाना चाहा.

‘‘लगता है बुरा तो लगे… मैं कह रहा हूं तुम लौट आओ.’’

‘‘उसे कार्ड दे कर तुरंत आती हूं.’’

‘‘नो… जहां हो वहीं से वापस आ जाओ.’’

‘‘अरे मैं बस पहुंचने ही वाली हूं वहां.’’

‘‘यू बिच… मैं ने तुम्हारी बहुत हरकतें बरदाश्त कर लीं… अब शादी के बाद ऐसी हरकतें नहीं चलेंगी. चलो, तुरंत वापस आओ.’’

प्रशांत की गाली सुन कर अजंता को ऐसे लगा जैसे उस के कानों में किसी ने पिघला शीशा डाल दिया हो. लाइफ में पहली बार उसे किसी ने गाली दी थी और वह भी उस के होने वाले पति ने. ग्लानि से अजंता का दिल बैठ गया. उस ने बिना कुछ कहे फोन काट दिया. प्रशांत ने फोन किया तो अजंता ने फिर काट दिया. उस ने फिर फोन किया तो अजंता ने फोन स्विचऔफ कर दिया. अजंता ने सोचा अगर उस ने अब एक भी शब्द इस शख्श का और सुना तो उस का वजूद ही खत्म हो जाएगा. धड़कते दिल के साथ अजंता शशांक के रूममें पहुंची.

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‘‘अरे मैम आप यहां? आज तो आप की शादी है,’’ अजंता को अपने यहां आया देख कर शशांक ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘आप के बिना मेरी शादी कैसे हो सकती है,’’ कह कर अजंता उस के रूम के भीतर आ गई.

‘‘आज सरकार कुछ बदलेबदले नजर आ रहे हैं,’’ शशांक ने शरारत से कहा तो अजंता ने पूछ लिया, ‘‘कैसे बदलेबदले?’’

‘‘आज मुझे ‘तुम’ की जगह ‘आप’ कह रही हैं आप?’’

‘‘और अगर मैं कहूं कि मैं आप को ताउम्र ‘आप’ कहना चाहती हूं तो?’’ कह अजंता ने शशांक की गहरी आंखों में झांका.

‘‘इस के लिए तमाम उम्र साथ रहना पड़ेगा मैम. क्या आप के होने वाले पति रहने देंगे?’’ शशांक की शरारत जाग उठी.

‘‘यकीनन रहने देंगे.’’

‘‘इतना यकीन?’’ शशांक ने अजंता की आंखों में झांकते हुए पूछा, ‘‘ठीक है उन से पूछ लो फिर.’’

शशांक की बात सुन कर कुछ देर के लिए खामोश रह गई अजंता. फिर उस के करीब आते हुए बोली, ‘‘क्या मुझे अपने शशांक के पास रहने देंगे आप?’’

अजंता की बात कुछ समझते, कुछ न समझते हुए शशांक ने पूछा, ‘‘मतलब मैम?’’

‘‘मतलब मैं सबकुछ छोड़ कर आई हूं आप के पास…  आज आप

की कोशिश कामयाब हो गई है, शशांक. आज मैं आप को अपने इश्क में गिरफ्तार करने आई हूं.’’

‘‘मैं तो कब से आप के इश्क में गिरफ्तार हूं मैम,’’ शशांक ने अजंता को कंधों से पकड़ कर तनिक करीब खींचा.

‘‘मैम नहीं अजंता कहो,’’ अजंता ने शशांक के सीने में मुंह छिपा कर कहा.

‘‘अजंता,’’ शशांक ने जब एक लंबी सांस ले कर कहा तो अजंता पूरी तरह से उस के गले लग गई और फिर उस के होंठों से मद्धिम स्वर में निकला, ‘‘लव यू शशांक.’’

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बदला व्यवहार: क्या हुआ था जूही के साथ

लेखक- विनय कुमार पाठक

‘‘मुझेयही एसयूवी लेने का मन है. आखिर गाड़ी लो तो एसयूवी. इस में रोड का बेहतर व्यू होता है. आदमी आराम से बैठ सकता है. सेडान में तो काफी नीचे बैठना पड़ता है. थोड़ा माइलेज भले ही कम रहता है पर ड्राइव करने का मजा इस में ही होता है,’’ संदीप ने शोरूम में लगी गाड़ी की ओर देखते हुए कहा.

‘‘बिलकुल सही कहा सर,’’ सेल्स ऐग्जीक्यूटिव ने दांत निपोरते हुए कहा. उस की आंखों में संदीप के प्रति परमभक्ति नजर आ रही थी. आती भी क्यों नहीं आखिर गाड़ी बिकेगी तो उसे कमीशन का लाभ होना ही है.

जूही को यह बात बिलकुल पसंद नहीं आई. वह अपने पति संदीप को सेडान लेने के लिए कह रही थी जबकि संदीप एसयूवी लेने की जिद पर अड़ा था. वहां उस ने कुछ भी कहना मुनासिब नहीं समझा. वह कहना तो बहुत कुछ चाह रही थी पर सब के सामने तमाशा नहीं खड़ा करना चाह रही थी. अत: इतना ही कहा, ‘‘ठीक है, थोड़ा और विचार कर लेते हैं.’’

संदीप पूरा मन बना चुका था एसयूवी बुक करने का. टैस्ट ड्राइव करने के बाद तो उस का मन बिलकुल पक्का हो आया था. जूही के जवाब से उस का मन क्षुब्ध हो उठा. वह शोरूम से बाहर तो आ गया पर मन ही मन गुस्सा था जूही पर. उधर जूही भी गुस्से में थी कि उस की पसंद का खयाल रखे बिना संदीप अपनी ही रट लगाए हुए है. पर उसे यह अंदाज नहीं था कि अभी संदीप भी क्षुब्ध है.

‘‘क्यों बारबार एसयूवी की रट लगाए हुए हो. तुम्हें पता है कि मैं भी गाड़ी ड्राइव करना चाहती हूं. एसयूवी मुझे बड़ी गाड़ी लगती है और साड़ी पहन कर तो बहुत ही कठिन काम लगेगा मुझे एसयूवी ड्राइव करना,’’ बाहर आते ही वह बिफर पड़ी.

‘‘तुम्हें तो मेरी पसंद की हर चीज नापसंद होती है और कौन कहता है तुम्हें साड़ी पहन कर ड्राइव करने के लिए. और भी कपड़े होते हैं पहनने के लिए?’’

सामान्य तौर पर संदीप जूही पर नाराज नहीं होता था पर अभी उस का मूड बिलकुल औफ था. कहां वह मन बनाए हुए था कि एसयूवी से

ही बाहर निकलेगा कहां जूही उसे खरीखोटी सुना रही थी.

बात बढ़तेबढ़ते काफी बढ़ गई. कुछ इतनी कि आपस में बोलचाल बंद हो गई.

जूही को महसूस हुआ कि शायद मामला बिगड़ गया है. कैसे इसे सुधारा जाए वह सोच रही थी.

उस दिन रात को संदीप लैपटौप बंद कर बैडरूम में आया. कमरे में लाइट औन थी. जूही बिस्तर पर चुपचाप लेटी हुई थी.

‘‘हो गया काम?’’ उस ने सहमते हुए पूछा.

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‘‘हां. वैसा भी कोई काम नहीं था. बस समय बिताने के लिए कुछकुछ कर रहा था,’’ संदीप ने अनमना हो जवाब दिया.

आदतन उस ने अपनी बनियान उतारी और तकिए के नीचे रख दी.

‘‘बत्ती बंद कर दूं या जलने दूं?’’ उस ने रूखे स्वर में पूछा.

‘‘बंद कर दो,’’ जूही ने उदास स्वर में कहा.

बत्ती बंद कर संदीप जूही की बगल में लेट गया. उस का बैडरूम सोसाइटी के पार्क के सामने पड़ता था. पार्क में रातभर बत्तियां जलती रहती थीं. अत: झीनीझीनी रोशनी आती रहती थी. उस रोशनी में उस ने बगल में लेटी जूही को देखा. हलकी रोशनी में उस का शरीर काफी आकर्षक लग रहा था. उस का शरीर आकर्षक तो था ही पर अभी कुछ ज्यादा ही आकर्षक लग रहा था और इस का कारण यह था कि विगत 1 सप्ताह से संदीप ने जूही के साथ सैक्स का आनंद नहीं लिया था और अभी वह इस की आवश्यकता महसूस कर रहा था. पर आज गाड़ी को ले कर जो विवाद हुआ था उस के कारण वह पहल करने के मूड में कतई नहीं था. पर जूही मतभेद को दूर करना चाहती थी. उसे लगा कि वह तो कभीकभार ही गाड़ी चलाती है. ज्यादातर संदीप ही गाड़ी चलाता है और जिस दिन गाड़ी चलाने की इच्छा होगी उस दिन साड़ी न पहन कोई और ड्रैस पहन लेगी और क्या. पहले 1-2 दिन अटपटा लगेगा धीरेधीरे अभ्यास हो जाने पर एसयूवी उसी सहजता से चला पाएगी जैसे अभी सेडान या अन्य छोटी गाड़ी चलाती है.

तिरछी निगाहों से संदीप ने जूही के पूरे शरीर का मुआयना किया. कल्पना में वह उस के साथ की सैक्स क्रियाओं को याद करने लगा. काफी सहयोग करती थी जूही इस मामले में. 12 वर्षों के दांपत्य जीवन में शायद ही कोई मौका हो जब उस ने उसे मना किया हो. पर एक बात उसे खटकती थी कि पहल हमेशा उसे ही करनी पड़ती है. ऐसा कभी नहीं हुआ कि जूही ने पहल कर के उसे कभी किस भी किया हो. हां, उस की पहल के बाद वह पूरा सहयोग करती थी.

संदीप की शारीरिक आवश्यकता ऐसी थी कि उसे प्राय: हर दूसरे दिन सैक्स की इच्छा होती थी. अगर 2-4 दिनों का अंतर हो भी जाए तो चल सकता था. पर आज 1 सप्ताह हो गए था. न जाने क्यों उस की इच्छा होती थी कि जूही पहल करे. वह उस के शरीर पर चुंबन अंकित करे, उस के शरीर से लिपटे. पर जूही ऐसा नहीं करती थी और आज तो वह बिलकुल भी पहल करने के मूड में नहीं था.

सैक्स के बारे में सोच कर संदीप के शरीर में रोमांच हो आया. उस ने अपने शरीर में तनाव महसूस किया. तनाव तो वह 2-3 दिनों से महसूस कर रहा था. पर वह चाह रहा था कि जूही पहल करे. बीचबीच में जूही गृहस्थी की बातें कर रही थी. उसे लगा इस तरह की बातों से शायद संदीप की नाराजगी दूर हो जाएगी. पर अभी संदीप को इन बातों से खीज ही हो रही थी. अत: वह लेटा हुआ चुपचाप हांहूं कर रहा था.

मगर आज संदीप को ज्यादा देर इंतजार नहीं करना पड़ा. जूही ने उस के करीब आ कर पूछा, ‘‘नाराज हो?’’

संदीप कुछ नहीं बोला. जूही ने करवट बदल उस के चेहरे पर चुंबन अंकित कर दिया और बोली, ‘‘अरे बाबा एसयूवी ही ले लेना, नाराज क्यों हो रहे हो?’’

संदीप पिघल गया और खुद को रोक नहीं पाया. जब खुद को रोक नहीं पाया तो उस ने अपना हाथ जूही के शरीर पर रख दिया. जूही उस के करीब आ गई. उस ने जूही के गाल पर चुंबन अंकित कर दिया और बोला, ‘‘जो तुम कहोगी वही गाड़ी आएगी.’’

जूही भी उस के शरीर पर हाथ फेरने लगी. इस तरह संदीप 1 सप्ताह के बाद सैक्स का

आनंद मिला. आज जूही संदीप की नाराजगी को दूर करना चाहती थी. अत: सैक्सी बातें भी कर रही थी.

क्रिया समाप्त होते ही वह निढाल हो कर

सो गया. आज उस के मन से यह मलाल जाता रहा कि जूही कभी पहल क्यों नहीं करती. इस से वह समझ नहीं पाता था कि जूही की क्या आवश्यकता है. क्या उस का हर दूसरे दिन सैक्स करना उसे अच्छा नहीं लगता? क्या वह उस

का साथ सिर्फ इसलिए देती है कि वह उस का पति है.

दूसरे दिन जब वह औफिस पहुंचा तो उस के सहकर्मी, बल्कि सहकर्मी से ज्यादा

दोस्त अनूप ने टोका, ‘‘आज तो बड़े फ्रैश लग रहे हो. क्या बात है?’’

‘‘वही बात है और क्या. फुल सैटिसफैक्शन?’’ उस ने मुसकराते हुए अनूप

से कहा.

दोनों स्कूल और कालेज में साथ पढ़े थे, वर्षों की दोस्ती थी. अत: हर तरह की बातें

होती थीं.

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‘‘आज पहली बार उधर से पहल हुई तो मजा आ गया,’’ संदीप की आवाज में बड़ा

उत्साह था.

‘‘क्या बात करते हो मेरे मामले में तो उधर से ही पहल होती है. मैं तो जल्दी सोने का अभ्यस्त हूं जबकि दीपा टीवी देख कर देर से सोती है. जब भी बिस्तर पर आती है मुझे जगाती है. अगर मैं जग गया तो गेम शुरू होता है. अगर नहीं जगा तो गेम कैंसल हो जाता है,’’ अनूप ने हंसते हुए कहा.

‘‘इस बारे में तो कल पहली बार खुल कर हम पतिपत्नी ने कल अपनी इच्छा और आवश्यकता के बारे में बातें कीं. इस के पहले ऐसा नहीं हुआ था. पहले तो मैं ही बोलता था,’’ संदीप ने कहा.

‘‘पर यह कमाल हुआ कैसे? तुम तो

बताते थे कि भाभीजी इस मामले में बहुत

शरमाती हैं?’’ अनूप ने आश्चर्य व्यक्त करते

हुए कहा.

‘‘हां, इस बारे में कोई विशेष बात तो होती नहीं थी. कल गाड़ी लेने की बात को ले कर हम में अनबन हो गई थी. मैं बिलकुल एक ओर चुपचाप था. जूही ने शायद मुझे मनाने के लिए पहल की,’’ संदीप ने अनूप से एसयूवी और सेडान का चक्कर बताया.

‘‘यार, एसयूवी तो बड़ी यूजफुल निकाली तुम्हारे लिए,’’ अनूप ने ठहाका लगाते हुए कहा.

‘‘हां यार. पर अब घर आएगी सेडान ही,’’ संदीप ने कहा और अपने डैस्कटौप पर व्यस्त हो गया.

काम के बीचबीच में संदीप के मन में एक विचार कभीकभी कौंध जाता था कि घटनाएं भी अजीब मोड़ ले लेती हैं. एक घटना ने जूही के व्यवहार को बदल दिया जो उसे बड़ा अच्छा लगा.

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कोई फर्क नहीं है: श्वेता के पति का क्या था फैसला

लेखिका- संध्या शर्मा

मेरेसहयोगी नरेश ने अपनी प्रमोशन की खुशी में औफिस के सब लोगों को लंच पार्टी में बुलाया था. वहां से लौटते हुए मुझे एकाएक एहसास हुआ कि श्वेता का मूड खराब है.

‘‘तुम ने क्यों मुंह सुजाया हुआ है? क्या पार्टी में किसी से कुछ कहासुनी हो गई है?’’ मैं ने चिंतित लहजे में पूछा.

‘‘नहीं,’’ उस का इनकार करने का खिंचावभरा तरीका इस बात की पुष्टि कर गया कि जरूर पार्टी के दौरान कुछ ऐसा गलत घटा है जो उसे परेशान कर रहा है.

श्वेता की आदत है कि वह हमेशा अपने मन की बात देरसबेर मुझे बता देती है. इसलिए मैं उसी वक्त सबकुछ जानने के लिए उस के पीछे नहीं पड़ा है.

हुआ भी कुछ ऐसा ही. जब घर पहुंच कर मैं ने ड्राइंगरूम में उसे बांहों में भरने की कोशिश करी तो उस ने मेरे हाथ झटक दिए.

‘‘क्या आज मुझ से जोरजबरदस्ती कराने के मूड में हो?’’ मैं ने हंसते हुए पूछा पर वह रत्तीभर नहीं मुसकराई.

कुछ पलों तक उस ने मुझे नाराजगी से घूरा और फिर गुस्से से पूछा, ‘‘औफिस वाली बालकटी नीरजा के साथ आजकल तुम्हारा क्या चक्कर चल रहा है?’’

‘‘ओह, तो पार्र्टी में किसी ने नीरजा को ले कर तुम्हारे कान भरे हैं. भई, मेरा उस के साथ कोई चक्कर नहीं…’’

‘‘मुझ से झठ बोलने की कोशिश मत करिए,’’ वह शेरनी की तरह गुर्रा उठी.

‘‘तो फिर मैं तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊं कि हम दोनों सहयोगी होने के साथसाथ अच्छे दोस्त भी हैं और हमारे बीच कोई इश्क नहीं चल रहा है?’’ मेरे लिए अपनी हंसी रोकना मुश्किल हो रहा है, यह बात उसे बिलकुल समझ नहीं आ रही थी.

‘‘मैं आज तुम्हारी किसी झठी बात पर विश्वास नहीं करूंगी. हंसना बंद कर के आप मेरे सवालों के सीधेसीधे जवाब दो.’’

‘‘पूछो, मेरी झंसी की रानी,’’ मैं बड़े स्टाइल से उस के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया पर उस ने तो जैसे न मुसकराने का पक्का फैसला कर रखा था.

‘‘वह जिस फ्लैट में अकेली रहती है,

आप उस से मिलने वहां जाते रहते हो न?’’

‘‘कभीकभी.’’

‘‘उस के साथ होटल में खाना खाने

जाते हो?’’

‘‘बहुत बार गया हूं.’’

‘‘वह शराब पीती है न?’’

‘‘हां अकसर वाइन पीती है.’’

‘‘अब मुझे यह बताओ कि मैं कैसे विश्वास कर लूं कि इस शराब पीने वाली व होटलों में तुम्हारे साथ घूमने वाली चालू औरत के साथ तुम्हारा कोई चक्कर नहीं चल रहा है?’’ उस ने चुभते लहजे में पूछा.

‘‘तुम्हें विश्वास करना ही चाहिए क्योंकि तुम्हारे पतिपरमेश्वर ऐसा कह रहे हैं.’’

‘‘भाड़ में गए पतिपरमेश्वर. देखो या तो तुम इसी वक्त मेरे सिर पर हाथ रख कर

सच बताओ कि आज के बाद औफिस के अलावा उस चुड़ैल से कहीं नहीं मिलोगे या फिर मुझे इसी वक्त मायके छोड़ आओ.’’

‘‘अपनी जबान से किसी के लिए अपशब्द मत  निकालो.’’

‘‘तुम्हारी प्रेमिका को मैं ने चुड़ैल कहा तो तुम्हें बुरा लगा है?’’

‘‘हां.’’

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‘‘आप उस से मिलना छोड़ दोगे तो मुझे उस के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल करने की कोई जरूरत ही नहीं रहेगी.’’

‘‘तुम ने इस बात पर ध्यान दिया कि ऐसी गलत फरमाइश कर के तुम एक तरह से यह जाहिर कर रही हो कि तुम्हें मेरे ऊपर विश्वास नहीं है,’’ मैं ने अपना चेहरा यों लटका लिया मानो मेरे दिल को गहरा धक्का लगा हो.

‘‘आप बेकार की बात कर के मुझे

उलझओ मत.’’

‘‘तो मैं बेकार की बातें करना खत्म करता हूं और तुम मेरा सीधासीधा जवाब सुन लो. मैं तुम्हारे दबाव में आ कर उस से मिलना नहीं छोड़ूंगा. अगर मैं ने ऐसा किया तो उस की व अपनी नजरों में गिर जाऊंगा,’’ मैं ने ये सख्त शब्द भी अपने मुंह से मुसकराते हुए निकाले थे.

मेरा जवाब सुन कर उस की आंखों में आंसू ?िलमिला उठे तो मैं जल्दी से आगे बोला, ‘‘पर मैं तुम्हारे मन का शक दूर करने को एक और काम कर सकता हूं?’’

‘‘कौन सा काम?’’ उस ने रुंधे गले से पूछा.

जवाब में मैं ने जेब से अपना मोबाइल निकाला और नीरजा से उसी वक्त बात करी.

‘‘हैलो नीरजा… इस वक्त तुम कहां हो… नहीं, अपने घर मत जाओ… तुम से मेरी वाइफ श्वेता अभी मिलने को बहुत उतावली हो रही है… पार्टी में मुलाकात नहीं हुई, इसीलिए ही तो मिलना चाह रही है… मिलने की ऐसी इमरजैंसी क्यों है, यह वे ही तुम्हें बताएगी… हां, तुम मेरा पता नोट करो…’’ उसे अपने घर का पता नोट कराने के बाद मैं ने फोन काट दिया.

मुझे शरारती अंदाज में मुसकराते देख श्वेता चिड़े लहजे में बोली, ‘‘उसे इस वक्त घर क्यों बुलाया? हमारे बीच सुलहसफाई कराने कोई दूसरा आए, यह मैं बिलकुल बरदाश्त नहीं करूंगी.’’

‘‘तुम अपनेआप को बहुत होशियार समझती हो, तो अब उस के हावभाव देख कर पहचानना कि वह मुझ से फंसी हुई है कि नहीं,’’ लापरवाही से मैं ने यह जवाब दिया और उसे परेशान हालत में छोड़ कर कपड़े बदलने बैडरूम की तरफ चल पड़ा.

श्वेता मुझ से नीरजा को यों घर बुलाने के लिए बहुत झगड़ी. जब मैं जवाब में सिर्फ मुसकराता रहा तो उस ने झगड़ना छोड़ा और टैंशन से भरी नीरजा के घर पहुंचने का इंतजार करने लगी.

करीब आधे घंटे बाद नीरजा हमारे घर आ पहुंची. श्वेता का आज पहली बार उस से आमनासामना हुआ. उन दोनों का परिचय कराने के बाद मैं तो आगे का तमाशा देखने के लिए आराम से सोफे पर बैठ गया.

उस के सामने श्वेता ने अपना आत्मविश्वास खो सा दिया था. सच ही उस के जैसे अजीबोगरीब व्यक्तित्व वाली युवती से पहले उस का सामना हुआ भी नहीं था.

नीरजा लंबे कद और आकर्षक फिगर वाली युवती थी. उस ने बदन से चिपकी नीली जींस और लाल रंग की छोटी कुरती पहनी हुई थी. देखने में बहुत मौडर्न नजर आने वाली नीरजा के चेहरे पर नाममात्र का मेकअप था. उस ने कोई ज्वैलरी भी नहीं पहन रखी थी. कलाई में पहनने के लिए उस ने घड़ी भी वैसी बड़े डायल वाली चुनी थी जैसी आमतौर पर आदमी पहनते हैं.

नीरजा ने खुद ही वार्त्तालाप शुरू करते हुए श्वेता से पूछा, ‘‘तुम मुझ से कोई खास बात करना चाह रही हो श्वेता?’’

‘‘नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है,’’ श्वेता की आवाज में बेचैनी साफ झलक रही थी.

‘‘फिर कैसी बात है?’’

‘‘आज पार्टी में मुझे कई लोगों से सुनने को मिला कि तुम्हारे और समीर के बीच चक्कर चल रहा है.’’

‘‘रियली?’’ नीरजा ठहाका मार कर हंसी तो श्वेता जबरदस्त उलझन का शिकार बन गईर्.

‘‘यह नादान समझती है कि हमारे बीच इश्क चल रहा है. व्हाट ए जोक,’’ मेरी बात सुन कर नीरजा पर हंसने का ऐसा दौरा पड़ा कि वह सोफे पर लुढ़क गई.

‘‘इस में इतना हंसने की क्या बात है?’’ श्वेता खीज उठी.

‘‘तुम्हारी नाराजगी मैं बाद में दूरकर दूंगी. पहले तुम मेरे साथ किचन में आओ. मैं ने पार्टी में ढंग से खाया नहीं है. मुझे पहले कुछ खिलाओ,’’ नीरजा ने श्वेता का हाथ बड़े अपनेपन से पकड़ा और उसे ले कर किचन की तरफ चल दी.

मैं भी उन के पीछेपीछे वहीं पहुंच गया. नीरजा ने फ्रिज में अंडे रखे देखे तो आमलेट खाने

की इच्छा प्रकट कर दी. मजे की बात यह थी कि उस ने आमलेट श्वेता को नहीं बनाने दिया और सारी तैयारी खुद शुरू कर दी.

आमलेट बनाते हुए उस ने बहुत सुरीली आवाज में एक लोकप्रिय गीत गुनगुनाना शुरू कर दिया तो रसोई का माहौल बहुत संगीतमय हो गया.

‘‘तुम तो बहुत अच्छा गाती हो,’’ जब उस का गाना रुका तो श्वेता उस की आवाज की तारीफ करने से खुद को रोक नहीं पाई थी.

‘‘मैं तो गुणों की खान हूं,’’ नीरजा ने हंसते हुए खुद ही अपनी प्रशंसा करनी शुरू कर दी, ‘‘मैं नाचती भी बहुत अच्छा हूं. कुकिंग के भी कई कोर्स कर रखे हैं. मेरे फ्लैट में मेरी बनाई पेंटिंग्स देखोगी तो दांतों तले उंगली दवा लोगी.’’

‘‘इस की पेंटिंग्स देख कर चूंकि तुम्हें कुछ समझ में नहीं आएगा, इसलिए हैरान तो तुम हो ही जाओगी. यह मौडर्न पेंटिंग्स बनाती है, जिन्हें इस के अलावा शायद ही कोई दूसरा समझता हो,’’ मैं ने नीरजा को यों छेड़ा तो उस ने पास में रखा रसोई का कपड़ा मेरे ऊपर फेंक  मारा.

‘‘तुम इस की बकवास पर ध्यान मत दो और मेरे घर मेरी पेंटिंग्स देखने जरूर आना, श्वेता,’’ नीरजा ने मुसकराते हुए श्वेता को अपने घर आने का निमंत्रण दे दिया.

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‘‘मैं आऊंगी,’’ हमारी नोकझोंक देख कर श्वेता अपनी नाराजगी फिलहाल भूल गई.

‘‘अकेली मत जाना इस के घर,’’ मैं ने श्वेता को यह सलाह दी तो नीरजा ने मुझे नकली नारजगी से घूरा.

‘‘आप जा सकते हो तो क्या मैं नहीं जा सकती हूं?’’ श्वेता का यह जवाब सुन कर जब नीरजा और मैं फिर जोर से हंस पड़े तो वह बेचारी फिर से उलझ कर रह गई.

जब नीरजा फेंटे हुए अंडों को तवे पर डाल रही थी तब श्वेता ने अचानक उस से

पूछा, ‘‘तुम ने अभी तक शादी क्यों नहीं करी है?’’

‘‘कोई जीवनसाथी बनाने लायक उचित वंदा नहीं मिला,’’ नीरजा ने नाटकीय अंदाज में गहरी सांस छोड़ कर जवाब दिया.

‘‘ऐसे क्या गुण तुम उस में ढूंढ़ रही हो जो अब तक किसी में भी नहीं मिले?’’

‘‘वह इतना समझदार होना चाहिए कि मुझे अपने ढंग से जीने की आजादी दे, जिसे दुनिया के कुछ भी कहने की परवाह न हो, जो खुद को मेरे ऊपर थोपने की कोशिश न करे, जिस के सामने मुझे कभी बनावटी मुखौटा न ओढ़ना पड़े.’’

‘‘ऐसा पति मिलना तो सचमुच मुश्किल है.’’

‘‘मेरे मामले में तो नामुमकिन ही है. बहुत कम मर्द हैं, जिन्हें मैं अच्छा इंसान होने के नाते दिल से इज्जत देती हूं और तुम्हारे पति उन में से एक हैं. हमारे बीच जो बहुत अच्छी दोस्ती है, उसे मैं इस के साथ इश्क का चक्कर चलाने की मूर्खता कर के कभी नहीं खोना चाहूंगी, श्वेता.’’

‘‘समझदार लोग कहते हैं कि आग और घी को पासपास रखना मूर्खतापूर्ण और खतरनाक होता है,’’ श्वेता ने संजीदा हो कर अपने पक्ष में दलील दी.

‘‘श्वेता, यों शक कर के अपने पति का और मेरा दिमाग खराब मत करो. समीर के साथ मैं अपनी दोस्ती को बहुत खास मानती हूं. तुम ने इसे तोड़ने की जिद जारी रखी तो यह बहुत गलत होगा. अब मैं चलूंगी और इसे कार में खाने के लिए ले जा रही हूं,’’ कह नीरजा ने मुझे गले से लगाया और फुरती से आमलेट को 2 ब्रैडस्लाइस के बीच रख कर दरवाजे की तरफ  चल पड़ी.

उसे जाने की जल्दी क्यों थी, यह हमें बाहर आने के बाद समझ आया. हम ने बाहर आ कर देखा कि नीरजा की कार में एक बहुत सुंदर लड़की बैठी उस का इंतजार कर रही थी.

‘‘सौरी, स्वीटहार्ट,’’ नीरजा ने कार में घुंसते ही उस लड़की के गाल पर माफी मांगने वाले अंदाज में चुंबन अंकित किया और एक बार हम दोनों की तरफ हाथ हिलाने के बाद कार स्टार्ट कर के चली गई.

‘‘सुनोजी, नीरजा के साथ यह लड़की कौन थी?’’ श्वेता बहुत हैरानपरेशान सी नजर आ रही थी.

‘‘वह नीरजा की प्रेमिका है,’’ मैं ने शरारती अंदाज में मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘क्या नीरजा उस टाइप की लड़की है जिन्हें लड़के नहीं बल्कि लड़कियां…’’ श्वेता अपना वाक्य शर्म के मारे पूरा नहीं कर सकी.

‘‘हां, और अब तुम समझ सकती हो कि हमारे बीच इश्क का चक्कर चलने की बात सुन कर नीरजा और मैं क्यों पागलों की तरह हंस रहे थे.’’

श्वेता ने खिसियानी सी हंसी हंस कर पूछा, ‘‘क्या आप को झेंप नहीं आती है उस से मिलनेजुलने में?’’

‘‘अरे, झेंप क्यों? वह दिल की अच्छी होने के साथसाथ अपने काम में बहुत निपुण और कला के क्षेत्र में भी बहुत टेलैंटेड है. हमारे काम की तारीफ सारे सीनियर औफिसर करते हैं. वह मेरी बहुत अच्छी दोस्त है पर जो उसे समझ नहीं सकते, उन लोगों के साथ बहुत रिजर्व रहती है. इस कारण किसी की हिम्मत नहीं होती उस के साथ फालतू की बात करने की.

‘‘इस मामले में मैं अपनी सोच तुम्हें बताता हूं. मुझे इस बात से क्या लेनादेना कि वह किसी लड़के के साथ अपना जीवन गुजारना पसंद करेगी या किसी लड़की के साथ. उसे इस बारे में फैसला करने का अधिकार तो अब कानून भी देता है,’’ मैं ने संजीदा लहजे में उसे अपने नजरिए से अवगत करा दिया.

‘‘आज का भटका हुआ एक युवावर्ग जो गुल खिला दे, सो कम है,’’ श्वेता की आवाज में उस खास तरह के युवावर्ग की आलोचना के भाव मौजूद थे.

मैं पिछले दिनों उस के घर ज्यादा जा रहा था क्योंकि दोनों कोविड-19 के दिनों कई दिन

अस्पताल रही थीं और लौटनेके बाद मैं उन्हें लौकडाउन खुलने के बाद खाना पहुंचाता रहा था. दोनों से पहले थोड़ी दोस्ती थी पर फिर कुछ ज्यादा हो गई. तुम्हें इसलिए बताया नहीं बताया क्योंकि मुझे मालूम था कि तुम समझेगी. मैं तो ऐसा ही मौका ढूंढ़ रहा था जब मामला गर्म हो तो उस पर पानी के छींटे मारे जा सकें. कोविड-19 के बाद औफिस की पहली ही पार्टी में तुम ने मुझे वह मौका दे दिया.

‘‘अब बदले वक्त के साथ चलते हुए तुम इस अंदाज से सोचना बंद कर दो, जानेमन. उस खास युवावर्ग और हम में कोई फर्क नहीं है. बात अपनीअपनी रुचि की है और हमें न्यायाधीश बन कर उन की तरफ उंगली उठाने का कोई अधिकार नहीं है. उन्हें भी खुश और सुखी रहने का उतना ही अधिकार है, जितना तुम्हें और मुझे.’’

‘‘यस सर,’’ श्वेता ने फौरन मुझे जोरदार सलाम किया, ‘‘आप नीरजा के साथ अपनी दोस्ती को खूब निभाइए… मुझ मूर्ख को माफ कर दो. मुझे आप के प्रेम पर शक करने के बीज को पनपने के लिए अपने मन में जगह देनी ही नहीं चाहिए थी.’’

‘‘जानेमन, इस जुर्म की माफी इतनी आसानी से नहीं मिलेगी.’’

‘‘तब मुझे माफी पाने के लिए क्या करना होगा?’’ उस ने आंखें मटकाते हुए पूछा.

‘‘तुम मुझे इतना प्यार करो कि… कि…’’

‘‘मैं समझ गई, मेरे सरताज,’’ कह उस ने आगे बढ़ कर मुझे अपनी बांहों में भरा और अपने रसीले होंठों को मेरे होंठों के साथ जोड़ दिया.

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शीतल फुहार: आखिर क्यों चीख पड़ी दिव्या

कहानी- वंदना आर्य

चारों तरफ रोशनी थी. सारा माहौल जगमगा रहा था. वह आलीशान कोठी खुशबू और टिमटिमाते बल्बों से दमक रही थी. विशाल लौन करीने से सजाया गया था. चारों तरफ मेजें सजी थीं. बैरे फुरती से मेहमानों की खातिरदारी में लगे थे. लकदक करते जेवर, कपड़ों से सजी औरतें और मर्द मुसकराते, कहकहे लगाते इधरउधर फिर रहे थे. फूलों से सजे स्टेज पर दूल्हादुलहन भी हंसतेमुसकराते फोटो के लिए पोज दे रहे थे. सब हंसीमजाक में मस्त थे.

आज मिस्टर स्वरूप के बड़े बेटे सतीश की शादी थी. पैसा जम कर बहाया गया था. वे शहर के जानेमाने रईस और रुतबे वाले व्यक्ति थे. उन की पत्नी सरोजिनी इस उम्र में भी काफी फिट और आकर्षक लग रही थीं. आज वे खुद भी दुलहन की तरह सजी थीं.

लौन के एक कोने में एक कुरसी में गुमसुम सी बैठी दिव्या सोच रही थी कि इस माहौल में वह कहां फिट होती है. कितनी ही देर से वह अकेली बैठी है पर किसी को भी उस का खयाल तक नहीं आया. अपनी उपेक्षा से उस का मन भर आया. उस का ग्रामीण परिवेश में पलाबढ़ा मानस इस चकाचौंधभरी दुनिया को देख कर सहम जाता था. अब तो उसे लगने लगा था कि इस परिवार के लोग इस बात को भुला ही चुके हैं कि वह इस परिवार की छोटी बहू बनने वाली है, अनुज की मंगेतर है. 7 महीने पहले ही धूमधाम से उन की सगाई हुई थी. अगर आज मम्मीपापा जीवित होते तो शायद परिस्थिति ही दूसरी होती. मातापिता की स्मृति से उस की आंखें भर आईं.

धुंधलाती आंखों से उस ने अनुज को अपनी तरफ आते देखा. तभी एक आधुनिक सी लड़की अनुज के करीब आ कर हंसहंस कर कुछ कहने लगी. अनुज भी हंसने लगा. फिर दोनों कार पार्किंग एरिया की तरफ चल दिए.

दिव्या ने निशब्द सिसकी ली. आंखें झपकाईं तो 2 बूंदें आंसू की पलकों से टपक पड़ीं. आंसू पोंछ कर वह यों ही इधरउधर देखने लगी. तभी कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर वह चौंक पड़ी.

‘‘भाभी तुम,’’ वह खुशी से चहकी. वे मीरा भाभी थीं, गांव में उस की पड़ोसी और सहेली.

‘‘अकेली क्यों बैठी हो? अनुजजी कहां हैं?’’ मीरा पास बैठते हुए बोलीं.

वह, जो अपनी उपेक्षा से आहत बैठी थी, क्या बताती उन्हें. दादी के कहने पर गांव से उन के साथ आ तो गई थी पर यहां उस से किसी ने सीधेमुंह बात तक न की थी. अनुज से तो अकेले में मुलाकात तक नहीं हुई थी.

एक दुर्घटना में मातापिता को गंवा कर वह वैसे भी दुखी थी. अब इस नए आघात ने तो उसे भीतर तक तोड़ डाला था. उसे अपना भविष्य अंधकारमय दिखने लगा था.

स्वरूप दिव्या के पिता के बचपन के मित्र थे. गांव में दोनों पड़ोसी थे. स्वरूप की मां दिव्या के पिता को बेटे की तरह प्यार करती थीं. दोनों परिवारों का प्यार अपनेआप में एक मिसाल था.

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स्वरूप पढ़ने में तेज थे. शहर में उच्च शिक्षा ले कर वहीं व्यवसाय शुरू किया और देखतेदेखते उन की गिनती करोड़पतियों में होने लगी. दिव्या के पिता गांव में ही रह गए. पुरखों की काफी जमीनजायदाद थी तो वही संभालने लगे. एक ही बेटी थी दिव्या. स्वरूप की मां ने बचपन में ही दिव्या को छोटे पोते के लिए मांग लिया था. तब दोनों ही परिवार सहमत हो गए पर समय के साथसाथ जीवन स्तर का अंतर होने लगा था.

अब दादी चाहती थीं कि बड़े पोते सतीश के साथ ही अनुज की शादी भीकर दी जाए. अब न तो अनुज और न ही उस के मांबाप गांव की लड़की ब्याह कर लाना चाहते थे. पर दादी जिद पर अड़ गई थीं. स्वरूप मां को नाराज नहीं करना चाहते थे, सो, पत्नी और बेटे को समझाया गया कि अभी सगाई कर लेते हैं, शादी बाद के लिए टाल देंगे. कम से कम सतीश की शादी तो शांति से हो जाए.

दादी ने धमकी दी थी कि अगर अनुज और दिव्या की शादी न हुई तो वे सतीश की शादी में शामिल नहीं होंगी. अनुज को समझाया कि एक बार दिव्या को देख तो लो. सगाई कर लो. और सगाई का क्या, सगाइयां तो टूटती रहती हैं.

अनुज गांव गया दादी से मिलने. इस बार मकसद दिव्या को देखना था. दिव्या उसे दादी के घर में ही मिल गई. अनुज ने कभी बचपन में उसे देखा था. आज देखा तो नजरें नहीं हटा पाया. गोरा गुलाबी चेहरा बिना किसी मेकअप के दमक रहा था. बड़ीबड़ी आंखें, लंबी पलकों की झालरें, गुलाबी होंठ, कमर के नीचे तक झूलती मोटी सी चोटी, सांचे में ढला बदन. जाने क्यों अनुज का जी चाहा कि उन नाजुक होंठों को छू कर देखे कि वह सचमुच गुलाबी हैं या लिपस्टिक का रंग है. उसी दिलकश रूप को आंखों में बसाए वह वापस आ गया और सगाई के लिए हां कर दी. एक हफ्ते बाद ही सगाई भी हो गई.

सगाई के लगभग एक महीने बाद ही एक ऐक्सिडैंट में दिव्या के मम्मीपापा की मौत हो गई. दिव्या तो दुख से अधमरी ही हो गई पर दादी ने उसे समेट लिया. अनुज और उस के मांबाप भी आए पर कुछ घंटे बाद ही लौट गए.

शहरों की अपेक्षा गांव में अभी भी मानवीय संवेदना बची है. दिव्या को यह एहसास ही नहीं होता कि वह अकेली है, अनाथ है. गांव की औरतें, सहेलियां दिनभर आतीजाती रहतीं. जाड़ों में आंगन में धूप में बैठती तो कितनी औरतें और लड़कियां उस के पास जुट जातीं. कोई चाय बना लाती तो कोई जबरदस्ती खाना खिला देती. रात को अनुज की दादी उस के साथ सोतीं.

धीरेधीरे उसे अकेले जीने की हिम्मत और आदत पड़ने लगी थी. घरबाहर मम्मीपापा की यादें बिखरी थीं, पर अब वह हर वक्त आंसू नहीं बहाती थी. मीरा भाभी के ही सुझाव पर वह गांव के बच्चों को निशुल्क ट्यूशन पढ़ाने लगी थी. पर, एक सवाल था जो अब भी उसे रात को सोने नहीं देता था.

दिव्या के चाचा दूर रहते थे. वे जब गांव आए तो दादी से मिलने गए थे और उन से साफसाफ बात की थी, ‘अब तो भाईसाहब को गए भी 6 महीने से ज्यादा हो गए हैं. एक ही लड़की है. रिश्तेदारी के नाम पर सिर्फ मैं ही हूं. घर से काफी दूर रहता हूं. भाईसाहब की मौत पर आए थे स्वरूप साहब, फिर पलट कर कभी होने वाली बहू की सुध न ली. अकेली लड़की कैसे रह रही है, यह उन की भी तो जिम्मेदारी है. अब तो सुना है बड़े बेटे की शादी है अगले महीने. फिर छोटे की कब करेंगे?

‘विचार बदल गया है तो वह भी साफसाफ बता दें. अब तो गांव वाले भी बातें बनाते हैं कि सगाई टूट गई. बाप मर गया तो क्या, सबकुछ बेटी का ही तो है. अगर शादी न करनी हो तो वह भी बता दें. हमारी लड़की कोई कानीलूली न है. लाखों में एक है. लड़कों की कोई कमी न है.’

‘चिंता न कर गिरधारी, मैं अब की बार जा कर बात करती हूं. दिव्या को भी सुधीर की शादी में ले जा रही हूं. सब ठीक होगा,’ दादी ने कह तो दिया पर गहरी सोच में डूब गईं.

दिव्या का बहुत ठंडा स्वागत हुआ था. मिस्टर स्वरूप और सरोजिनी तो चौंक ही गए थे उसे घर पर आया देख कर. दिव्या ने उन के पैर छुए तो सिर पर हाथ रख कर इधरउधर हो लिए. वह दादी के पीछेपीछे लगी रहती. इतने बड़े घर में रहने वाले तो नहीं दिखते, पर नौकरनौकरानियां जरूर इधरउधर दौड़तेभागते दिखते थे. उसे अनुज कहीं न दिखा. लगा ही नहीं कि शादी का घर है. किसी को न तो दिव्या में दिलचस्पी थी और न समय था किसी के पास. वह दादी के साथ शाम को सीधे इस बंगले में पहुंच गई थी जहां आयोजन था और अब यहां आ कर पछता रही थी.

‘‘कहां खो गई दिव्या?’’ मीरा ने उस का कंधा हिलाया, उस का हाथ थाम कर बोली, ‘‘सुनो, परेशान न हो. शादी के बाद तुम धीरेधीरे इस लाइफस्टाइल में एडजस्ट कर लोगी. चलो, अब उठो, खाना खाते हैं.’’

दिव्या उठी, तभी खयाल आया, ‘‘भाभी, दीपू और मुन्नी कहां हैं? तुम क्या अकेली आई हो गांव से?’’

‘‘अरेअरे, इतने सवाल,’’ मीरा हंस पड़ी. ‘‘शादी का कार्ड मिला तो सोचा हम भी बड़े लोगों की शादी देख आएं. तुम्हारे भैया तो दिल्ली गए हैं. मैं कल बच्चों के साथ बस से आ गई. यहां मायका है न मेरा. मेरा भाई आया है साथ. बच्चे उसी के साथ हैं.’’

‘‘मैडमजी,’’ 2 प्यारे बच्चे आ कर दिव्या से लिपट गए. वे मीरा के बच्चे थे. दिव्या से पढ़ते थे, इसलिए मैडमजी ही कहते थे. दिव्या से प्यार भी बहुत था. हर समय वे उसी के घर रहते थे.

‘‘वाह रे, मतलबी बच्चो. आइसक्रीम खिलाई मामा ने और प्यारदुलार मैडमजी को,’’ हंसता हुआ संदीप आ गया.

‘‘दिव्या, यह संदीप है, मेरा भाई और यह दिव्या है मेरी पड़ोसिन और सहेली,’’ मीरा ने दोनों का परिचय कराया.

दिव्या ने हाथ जोड़ दिए पर संदीप तो शायद अपने होशहवास ही खो बैठा था. उस के यों घूरने पर दिव्या बच्चों को थामे आगे बढ़ गई. मीरा ने संदीप की आंखों के आगे हाथ लहराया. ‘‘भाई, ये जलवे पराए हैं, वह देख रहे हो नीले सूट वाला, उसी की मंगेतर है.’’

हक्काबक्का सा संदीप मन ही मन सोचने लगा, ‘काश, यह मंगनी टूट जाए.’ संदीप ने आसमान की ओर देखा फिर मीरा से पूछा, ‘‘वैसे अगर यह उस की मंगेतर है तो यों अलगथलग क्यों बैठी है और वह अमीरजादा उस मेमसाहब के साथ क्यों चिपक रहा है भला?’’

मीरा ने गहरी सांस ली और दिव्या की कहानी खोल कर सुना दी.

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सुबह दिव्या की आंख देर से खुली. दादी कमरे में नहीं थीं. वह वाशरूम में चली गई. उसे कमरे में कुछ लोगों के बोलने की आवाजें आने लगीं. नल बंद कर के वह सुनने लगी.

‘‘मैं ने कब कहा कि वह अच्छी नहीं है पर मेरे साथ नहीं चल सकती. दादी, मैं ने रिचा को प्रपोज किया है और वह मान गई है. मेरे बाहर जाने से पहले हम शादी कर रहे हैं,’’ अनुज कह रहा था.

‘‘मांजी, आप को पता है कि रिचा के डैड ने अनुज की कितनी हैल्प की है विदेश जाने में. फिर सतीश की वाइफ पूजा कितनी मौडर्न है. दिव्या हमारे सर्कल में कैसे फिट बैठेगी…’’ बहू की बात काट कर दादी तमक कर बोलीं, ‘‘हांहां सरोज, तू तो सीधी लंदन से आई है न. वह दिन भूल गई जब नदी पर कपड़े धोवन जाती थी और गोबर के उपले थापती थी. तुझे देखने गए थे तो कुरसी भी न थी घर में बैठने को, टूटी चारपाई पर बैठे थे. तू थी गंवार, दिव्या एमए पास है, समझी. बड़ी आई मौडर्न वाली.’’ अनुज और मिस्टर स्वरूप हंसने लगे तो सरोजनी ठकठक करते हुए कमरे से निकल गईं.

‘‘मां,’’ मिस्टर स्परूप का गंभीर स्वर गूंजा था, ‘‘कमी दिव्या में नहीं है. वह मेरे दोस्त की निशानी है, मेरी बेटी समान. पर अब यह रिश्ता संभव नहीं है. रिचा के पिता बहुत पहुंच वाले बड़े आदमी हैं. उन से रिश्ता जोड़ कर अनुज का भविष्य अच्छा ही होगा. मैं नहीं चाहता कि दिव्या से शादी कर के यह खुद दुखी रहे और उसे भी दुखी रखे. यह जीवनभर का सवाल है.’’

मिस्टर स्वरूप का आखिरी वाक्य दिव्या के अंतर्मन को छू गया. आंसू पोंछ कर वह बाहर आई. स्वरूप साहब के पैर छू कर उंगली से अंगूठी उतार कर उन को दे दी. हक्कीबक्की दादी कुछ कहतीं, इस से पहले ही उस ने हाथ जोड़ दिए, ‘‘प्लीज दादी, मुझे घर भिजवा दीजिए.’’

फिर कोई कुछ न बोला. दादी ने ही शायद मीरा को फोन किया था. वह आई और दिव्या का सामान पैक करवाती रही. फिर दादी से विदा ले कर दोनों बाहर आईं.

‘‘दिव्या,’’ किसी ने पुकारा था. दिव्या रुक गई. अनुज ने उसे अंगूठी लौटाई और भी बहुत कुछ कह रहा था, पर वह रुकी नहीं.

अंगूठी मुट्ठी में बंद कर जा कर कार में बैठ गई. सीट पर सिर को टिकाते हुए आंखें बंद कीं तो आंखों से 2 मोती टपक पड़े. बगल में बैठे संदीप ने हैरत से यह नजारा देखा.

‘‘मैडमजी, जरा दरवाजा बंद कर दीजिए.’’ उस ने आंखें खोलीं तो ड्राइविंग सीट पर घूरने वाला वही आदमी बैठा था. दरवाजा बंद कर के वह मुंह फेर कर बाहर देखने लगी. संदीप ने अपने दिल को लताड़ा, ‘बेचारी दुखी है, रो रही है और तू इस की सगाई टूटने पर खुश है.’ पर दिल का क्या करे. जब से दिव्या से मिला था उस का दिल उस के काबू में न था. जी चाहता था कि दिव्या के आंसू अपने हाथ से पोंछ कर उस के सारे गम दूर कर दे. उस के चेहरे से उदासी नोंच फेंके, वह हंसती रहे और वह उस के गालों के भंवर में डूबताउतराता रहे.

दिव्या चुपचाप गांव लौट आई थी. संदीप दिव्या से जबतब मिलने की कोशिश करता लेकिन वह जबजब उस से बात करने की कोशिश करता वह कतरा कर निकल जाती. एक ऐसी ही शाम वह नीम के पेड़ के साए तले पड़े झूले पर बैठी थी. गोद में मुन्नी थी. लंबे घने बाल खुले थे. धीरेधीरे कुछ गुनगुना रही थी.

‘‘यों सरेआम पेड़ के नीचे बाल खोल कर नहीं बैठते, जिन्न आशिक हो जाते हैं,’’ पीछे से आवाज आई तो वह चौंक कर चीख पड़ी. झूले से अचकचा कर उठी तो मुन्नी भी रोने लगी. संदीप तो हवा में लहराते बाल देखता रह गया, जैसे काली घटा ने चांद को घेर रखा हो. मुन्नी को थपकती हुई दिव्या भीतर जाने को मुड़ी. जातेजाते एक नाराजगीभरी नजर संदीप पर डाली तो उसे एहसास हुआ कि वह एकटक उसे घूरे जा रहा था.

‘‘मैडमजी, मैं मुन्नी को लेने आया था,’’ वह उस के पीछे लपका. दिव्या रुक गई. ‘‘मैं कुछ देर में खुद ही उसे छोड़ आऊंगी,’’ और फिर वह अंदर चली गई. संदीप हिलते परदे को देखता रह गया. मन ही मन शर्मिंदा हुआ. वह शरीफ बंदा था पर दिव्या के सामने न जाने क्यों दिल और आंखें बेकाबू हो जाते थे और वह नाराज हो जाती थी.

एक रोज वह सुबह स्कूल के लिए निकल ही रही थी कि कार का हौर्न सुनाई दिया. बाहर निकली तो कार में दीपू और मुन्नी बैठे थे. ‘‘मैडम, आइए न, आज हम कार से जाएंगे.’’ दोनों जिद करने लगे तो उसे बैठना ही पड़ा.

‘‘मैडम आज आप ने रैड साड़ी पहनी है न, तो आप के लिए यह रैड गुलाब.’’ मुन्नी ने उस की ओर एक गुलाब बढ़ाया, फिर दीपू ने भी. आखिर में खामोशी से एक गुलाब ड्राइविंग सीट पर बैठे संदीप ने भी बढ़ाया. कुछ सोच कर उस ने थाम लिया. संदीप ने खुश हो कर गाड़ी स्टार्ट की. दिव्या यह समझी कि उस शाम के लिए सौरी कहने का तरीका है शायद.

स्कूल में साथी टीचर्स उसे देख कर मुसकराईं. ‘‘क्यों भई, इतने गुलाब किस ने दे दिए सुबहसुबह?’’ वह कुछ जवाब देती, इस से पहले ही मोबाइल पर एसएमएस आया, ‘हैप्पी वेलैंटाइन डे, संदीप.’ वह कुढ़ कर रह गई. पर जाने क्यों एक मुसकान भी होंठों पर आ गई. सारे दिन वह अनमनी सी रही. खुद से ही सवाल करती. क्या पुराने जख्म भर गए हैं? क्या वह फिर नए फरेब के लिए तैयार है? क्या वह कठोरता का खोल चढ़ाएचढ़ाए थक चुकी है? इतनी सावधानी के बाद भी क्या कोई झरोखा खुला रह गया है मन का?

इस तरह के सवाल उस के मन में उमड़तेघुमड़ते रहे. शाम को यों ही अनमनी सी छत पर खड़ी थी कि मीरा भाभी वहीं चली आईं. ‘‘दिव्या, तुम तो हमें भूल ही गईं. घर क्यों नहीं आती हो? क्या तबीयत खराब है?’’

‘‘नहीं भाभी, ऐसी बात नहीं है. बस, थोड़ा थक जाती हूं. आप रुकिए न. मैं चाय बना लाती हूं,’’ दिव्या बोली. ‘‘चाय के लिए मैं काकी को कह कर आई हूं. एक खास बात करने आई थी,’’ मीरा ने आगे बढ़ कर उस के दोनों हाथ थाम लिए.

‘‘दिव्या, जो बीत गया उसे भुला कर नई जिंदगी शुरू करो. संदीप तुम्हें बहुत खुश रखेगा. वह बहुत प्यार करता है तुम से, शादी करना चाहता है,’’ मीरा ने कहा. दिव्या ने धीरे से हाथ छुड़ा लिए. जाने क्यों मन भर आया और आवाज गले में फंस गई. बचपन से जिस बंधन में बंधी थी वह कैसे एक पल में टूट गया और कोई दूसरा इंसान कैसे उसे हाथ बढ़ा कर मांग रहा है, सबकुछ जानते हुए भी. वह तो अनाथ है, कौन है जो उस के लिए रिश्ते ढूंढ़ रहा हो. पर जाने कैसी वीरानी सी मन में छा गई है. खुशियों से डर सा लगता है.

‘‘भाभी, मैं शादी नहीं करना चाहती. तुम्हारा भाई तो यों ही मनचला सा है. तुम्हीं ने शादी की बात की होगी. मैं जानती हूं तुम्हें मुझ से प्यार है, हमदर्दी है,’’ कहतेकहते वह पलटी तो मीरा के पीछे खड़े संदीप को देख कर चुप हो गई. मीरा चाय लाने के बहाने नीचे चली गई. वह भी सीढि़यों की तरफ बढ़ी, तभी संदीप ने उस की कलाई थाम ली.

एक सरसराहट सी खून के साथ दिव्या के सारे शरीर में दौड़ गई. ‘‘छोडि़ए मेरा हाथ,’’ उस ने कमजोर सी आवाज में कहा.

‘‘दिव्या, मेरी तरफ देखो. क्या तुम पहली नजर के प्यार पर विश्वास करती हो? मैं पहले नहीं करता था पर जब तुम्हें पहली बार देखा तो यकीन आ गया. दिल ने तुम्हें देखते ही कहा कि तुम मेरी हो. तुम्हारे सामने आ कर खुशी के मारे मेरा दिल बावला हो जाता और मैं हमेशा ही ऐसी हरकत कर बैठता कि तुम नाराज हो जातीं. मुझ पर यकीन करो दिव्या, मैं तुम्हारे सुखदुख सभी के साथ तुम्हें अपनाऊंगा और अब कभी भी तुम्हारी आंखों में आंसू न आएंगे, यह वादा रहा.’’ संदीप ने अब उस का हाथ छोड़ दिया था. अपनी बेतरतीब धड़कनों को समेटती वह तुरंत वहां से चली गई.

रातभर वह करवटें बदलती रही. अनुज ही वह शख्स था जिस के साथ उस ने कभी खुशहाल जीवन के ख्वाब देखे थे. शुरूशुरू में अनुज गांव आता तो उस से मिलने आ जाता था. दिव्या की सुंदरता उसे अपनी तरफ खींचती थी. कभी घूमने को कहता तो दिव्या अकेली साथ न जाती, न ही वह खुल कर हंसतीबोलती, न अकेले में मिलती. एकाध बार अनुज ने उसे अपने निकट करना चाहा तो वह बिदक कर भाग निकलती. हाथ पकड़ता तो शर्म से लाल हो जाती. वह बोलता जाता और वह हांहूं करती.

धीरेधीरे अनुज उस पत्थर की गुडि़या से ऊब गया था, फिर तो गांव आ कर भी उस से नहीं मिलता. वह उस की झलक पाने को तरस जाती. शहर में भी वह उस की उपेक्षा ही झेलती रही थी. अचानक ये संदीप कहां से आ गया. हरदम उस के पीछे, मुग्ध नजरों से उसे निहारता हुआ, उस की झलक पाने को बेताब.

उस की आंखों में झलकते प्यार को एक नारी होने के नाते वह साफ देखती थी. पर अब रिश्तों के छलावे से डर लगता था. क्या करे, ऐसे में मातापिता की याद आती पर क्या कर सकते थे. रोतेरोते सिर भारी हो गया. सवेरे तक बुखार में तप रही थी.

खबर पाते ही मीरा दौड़ी आई. उसे जबरदस्ती चाय और ब्रैड खिलाई. फिर माथे पर ठंडी पट्टियां रखती रही. कुछ ही देर में संदीप डाक्टर को ले कर चला आया. डाक्टर ने बुखार चैक कर के दवा दी. मीरा खाना बनाने किचन में चली गई.

संदीप ने उसे गोली और पानी का गिलास थमाया. ‘‘मैडमजी, आप तो बहुत नाजुक हैं, भई, हाथ पकड़ा तो बुखार आ गया. पता नहीं…’’

दिव्या ने उसे घूर कर देखा तो उस ने दोनों कान पकड़ लिए. दिव्या ने लेट कर आंखें मूंद लीं. संदीप माथे की पट्टियां बदलता रहा.

दूसरे दिन दिव्या का बुखार उतर गया, पर कमजोरी महसूस हो रही थी. वह लौन में धूप में बैठी थी, जब दीपू मुन्नी चले आए. ‘‘मैडमजी, आप ठीक हो गईं.’’ दोनों उस के लिए गुलाब के फूल लाए थे. उस ने फूल थामे तो कुछ याद आया. ‘‘ये फूल तुम्हें किस ने दिए हैं?’’ तभी प्रश्न का उत्तर सशरीर हाजिर हो गया. उस के हाथों में सुर्ख गुलाबों का गुलदस्ता था. ‘‘मैडमजी, आप के स्वस्थ होने पर,’’ उस ने हाथ बढ़ाया. ‘जाने इस आदमी की मुसकराहट इतनी शरारतभरी क्यों हैं?’ दिव्या सोचने लगी.

‘‘थैंक्यू, आप ने मेरा इतना ध्यान रखा,’’ दिव्या बोली.

‘‘मैं ने आप का नहीं, अपनी जान का ध्यान रखा, समझीं मैडमजी.’’ अब तो दिव्या का वहां रुकना मुश्किल हो गया.

गांव में मेला लगा था. बच्चे दिव्या से बड़े झूले (पवन चक्के) में बैठने की जिद कर रहे थे. पर वह ठहरी सदा की डरपोक. आखिर मां के साथ बैठ गए. एक ही सीट खाली थी. दूर खड़ी दिव्या का ध्यान कहीं और था. तभी किसी ने उस का हाथ पकड़ा और ले जा कर झूले पर साथ बैठा लिया. दिव्या पानी में बहते तिनके सी उड़ती चली गई जैसे खुद पर उस का अपना वश न हो.

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घर्रघर्र की कर्कश आवाज के साथ झूला ऊपरनीचे जाना शुरू हुआ तो दिव्या जैसे स्वप्न से जागी. अब उसे भान हुआ कि वह कहां बैठी है. उस ने संदीप का बाजू दोनों हाथों से दबोच लिया और डर के मारे मुंह से एक चीख निकल गई. संदीप ने उसे थपथपाया और उस के कंधे के चारों ओर बाजू डाल उसे करीब किया. दिव्या का सिर उस के कंधे पर था.

‘‘आई लव यू, दिव्या,’’ दिव्या के कानों में जैसे शीतल फुहारें पड़ी हों. ‘‘आई लव यू टू,’’ उस के नाजुक लब हिले. बाकी के स्वर झूले और झूलने वालों के शोरगुल में खो गए.

अजंता: भाग-1- आखिर क्या हुआ पूजा के साथ

लेखक- सुधीर मौर्य

अजंता को इस बात की बिलकुल भी उम्मीद नहीं रही होगी कि शशांक उस के फ्लैट पर आ जाएगा. डोरबैल बजने पर अजंता ने जब दरवाजा खोला तो सामने शशांक खड़ा था. उसे यों वहां आया देख कर अजंता सोच ही रही थी कि वह कैसे रिएक्ट करे तभी शशांक मुसकराते हुए बोला, ‘‘नमस्ते मैम, यहां से गुजर रहा था तो याद आया इस एरिया में आप रहती हैं. बस दिल में खयाल आया कि आप के साथ चाय पी लूं.’’

‘‘बट अभी मैं कल क्लास में देने वाले लैक्चर की तैयारी कर रही हूं, चाय पीने के लिए नहीं आ सकती,’’ अजंता ने शशांक को दरवाजे से लौटा देने की गरज से कहा.

‘‘अरे मैम, इतनी धूप में आप बाहर आ कर चाय पीएं यह तो हम बिलकुल न चाहेंगे. चाय तो हम यहां फ्लैट में बैठ कर पी सकते हैं. चाय मैं बनाऊंगा आप लैक्चर की तैयारी करते रहना और हां एक बात बता दूं हम चाय बहुत अच्छी बनाते हैं,’’ शशांक ने दरवाजे से फ्लैट के अंदर देखने की कोशिश करते हुए कहा मानो वह यह तहकीकात कर रहा हो कि इस वक्त अजंता फ्लैट में अकेली है या कोई और भी वहां है.

शशांक की कही बात का अजंता कोई जवाब न दे सकी. एक पल चुप रहने के बाद वह बिना कुछ कहे फ्लैट के भीतर आ गई. शशांक भी उस के पीछेपीछे अंदर आ गया. शशांक ने दरवाजा बंद किया तो उस की आवाज से अजंता ने पलट कर जब उसे देखा तो शशांक ने झट से पूछा, ‘‘मैम, किचन किधर है?’’

‘‘इट्स ओके,’’ अजंता सोफे की ओर इशारा कर के शशांक से बोली, ‘‘तुम वहां बैठो चाय मैं बना कर लाती हूं.’’

‘‘एज यू विश,’’ शशांक ने मुसकरा कर कहा और फिर सोफे पर यों बैठ गया जैसे वह वहां मेहमान न हो, बल्कि यह फ्लैट उसी का हो.

शशांक को वहां बैठा देख कर अजंता किचन में चली गई. शशांक जाती हुई अजंता की लचकती कमर और रोमहीन पिंडलियां देखता रहा. अजंता नौर्मली जब घर पर होती है ढीलाढाला कुरता और हाफ पाजामा पहनती है. यही उस की स्लीपिंग ड्रैस भी है. इस में वह काफी कंफर्ट महसूस करती है.

‘‘मैम, क्या एक गिलास ठंडा पानी मिल सकता है,’’ गैस जला कर अजंता ने चाय बनाने के लिए पानी चढ़ाया ही था कि अपने बेहद करीब शशांक की आवाज सुन कर चौंक पड़ी. हाथ में पकड़ा चायपत्ती वाला डब्बा हाथ से गिरतेगिरते बचा.

अपनी आवाज से अजंता को यों चौंकते देख कर शशांक ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मैम, बाहर बहुत धूप है… प्यास से गला सूख गया है.’’

अजंता ने हाथ में पकड़ा चायपत्ती वाला डब्बा एक ओर रख फ्रिज से पानी की बोतल निकाल शशांक को पकड़ा दी. हाथ में पानी की बोतल लिए शशांक ने खुद गिलास लिया. गिलास लेते समय शशांक का जिस्म अजंता के जिस्म से तनिक छू गया. अजंता ने इस टच पर कोई रिएक्शन नहीं दिया. गिलास में पानी डाल कर पीने के बाद शशांक ने कहा, ‘‘मां कहती हैं कि पानी हमेशा गिलास से पीना चाहिए, सीधे बोतल से कभी नहीं.’’

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तुम्हारी मां यह नहीं कहतीं कि एक अकेली लड़की से मिलने उस के घर नहीं जाना चाहिए, अजंता यह कहने ही वाली थी कि उस से पहले ही शशांक ड्राइंगरूम में चला गया. चाय पीते हुए शशांक ने अजंता से ढेरों बातें करने की कोशिश की, लेकिन अजंता उन के जवाब में सिर्फ हां, हूं, नहीं आदि बोल उसे इग्नोर करने का प्रयास करती रही. चाय खत्म होने के बाद शशांक को टालने की गरज से अजंता ने कुछ पेपर उठा लिए और उन्हें मन ही मन पढ़ने का बहाना करने लगी. अजंता को यों अपनेआप में बिजी देख सोफे पर से उठते हुए शशांक ने कहा, ‘‘तो फिर मैं चलता हूं मैम.’’

‘‘हांहां ठीक है. तुम्हें ऐग्जाम की तैयारी भी करनी होगी,’’ कह वह सोच में पड़ गई कि छुट्टी का दिन है और उस से मिलने के लिए प्रशांत कभी भी आ सकता है. एक लड़के को मेरे फ्लैट में देख कर न जाने वह कौन सा सवाल कर बैठे. अजंता खुद चाहती थी कि शशांक जल्दी से जल्दी वहां से चला जाए. इसीलिए उस ने शशांक से पढ़ने की बात कह कर उसे जाने को कहा था पर उसे क्या पता था कि उस की कही बात उस के गले पड़ जाएगी.

‘‘मैम वह सच तो यह है कि मैं इसीलिए यहां आप के पास आया था कि आप से स्टडी में कुछ हैल्प ले सकूं,’’ सोफे पर वापस बैठते हुए शशांक बोला, ‘‘मैम, आप करेंगी न मेरी मदद?’’

‘‘हांहां ठीक है, पर आज नहीं. अभी तुम जाओ. मुझे अभी अपने लैक्चर की तैयारी करनी है,’’ कहतेकहते अजंता की बात में रिक्वैस्ट का पुट आ गया था.

अजंता को रिक्वैस्ट के अंदाज में बोलते देख शशांक को अच्छा लगा और फिर सोफे से उठ कर एहसान करने वाले अंदाज में बोला, ‘‘ओके मैम, आप कह रही हैं तो हम चले जाते हैं पर आप अपना वादा याद रखना.’’

‘‘कैसा वादा?’’ अजंता ने घबराते हुए पूछा.

‘यही कि आप स्टडी में मेरी हैल्प करेंगी,’ शशांक ने हंस कर कहा और फिर दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया.

अजंता दरवाजा बंद करने ही वाली थी कि शशांक पलट कर बोल पड़ा, ‘‘मैम, आप के पैर बहुत खूबसूरत हैं. जी करता है इन्हें देखता ही रहूं. क्या मेरे लिए आप किसी ओपन लैग्स वाली ड्रैस में आ सकती हैं?’’

शशांक की इस बेहूदा बात पर अजंता चुप रह गई. शशांक ने एक गहरी नजर अजंता की रोमहीन चमकती पिंडलियों पर डाली और फिर मुसकराते हुए चला गया. उस के जाते ही अजंता ने झट से दरवाजा बंद कर के सुकून की सांस ली.

अजंता 23-24 साल की बेहद खूबसूरत युवती थी. इतनी खूबसूरत कि उस के चेहरे को देख कर दुनिया की सब से हसीन लड़की भी शरमा जाए, उस के जिस्म के रंग के आगे सोने का रंग मटमैला लगे. कंधे तक बिखरी जुल्फों का जलवा ऐसा मानो वह जुल्फियां नाम की मुहब्बत की कोई अदीब हो. उस के उन्नत उरोज, पतली कमर, भरेभरे नितंब और मस्तानी चाल यकीनन अजंता की खूबसूरती बेमिसाल थी और आज शशांक के कमैंट ने उसे यह भी बता दिया था कि उस की पिंडलियां भी किसी को आकर्षित कर सकने का दम रखती हैं.

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अजंता न सिर्फ जिस्मानी रूप से बेहद खूबसूरत थी, बल्कि बहुत ही कुशाग्रबुद्धि भी थी. बैंगलुरु के एक मशहूर इंजीनियरिंग कालेज से उस ने मैकैनिकल इंजीनियरिंग में बीटैक की डिग्री ली थी और लखनऊ के एक पौलिटैक्निक कालेज में अस्थाई रूप से जौब कर रही थी. रहने वाली कानुपर की थी. लखनऊ के इंदिरानगर में किराए के फ्लैट में रहती थी.

प्रशांत, अजंता के पापा के दोस्त का लड़का है. उस के पापा राजनीति में हैं, विधायक रह चुके हैं. अब प्रशांत उन का उत्तराधिकार संभाल रहा है. अजंता की उस के साथ इंगेजमैंट हो चुकी है. प्रशांत की मदद से उसे एक अच्छा फ्लैट किराए पर मिल गया था. प्रशांत की फैमिली लखनऊ में रहती थी, इसलिए अजंता के लखनऊ में अकेले रहने से उस की फैमिली उस की तरफ से बेफिक्र थी.

आगे पढ़ें- अजंता और प्रशांत की शादी का फैसला…

अजंता: भाग 3- आखिर क्या हुआ पूजा के साथ

लेखक- सुधीर मौर्य

भले ही अजंता के दिल में अब भी प्रशांत के लिए मुहब्बत के जज्बात न जगे हों पर वह उस का होने वाला पति था, इसलिए उस का मुसकरा कर स्वागत करना लाजिम था. भीतर आ कर प्रशांत उसी सोफे पर बैठ गया जहां कुछ देर पहले शशांक बैठा था. प्रशांत के लिए फ्रिज से पानी निकालते हुए अजंता सोच में पड़ गई कि अगर प्रशांत कुछ देर पहले आ जाता और शशांक के बारे में पूछता तो वह क्या जवाब देती.

‘‘बाहर तो काफी धूप है?’’ अजंता ने पानी देते हुए प्रशांत से जानना चाहा.

पानी पीते हुए प्रशांत ने अजंता को ऊपर से नीचे तक देखा और फिर गिलास उस के हाथ में देते हुए बोला, ‘‘मैं ने तुम्हें मना किया था न ये शौर्ट कपड़े पहनने के लिए.’’

‘‘ओह हां, बट घर में पहनने को तो मना नहीं किया था,’’ अजंता ने कहा और फिर बात बदलने की गरज से झट से बोली, ‘‘आप चाय लेंगे या कौफी?’’

‘‘चाय,’’ प्रशांत सोफे पर पसर और्डर देने के अंदाज में बोला. अजंता किचन की ओर जाने लगी तो प्रशांत ने कहा, ‘‘अजंता मैं चाहता हूं तुम इस तरह के कपड़े घर पर भी मत पहनो.’’

‘‘अरे, घर में इस ड्रैसिंग में क्या प्रौब्लम है और फिर आजकल यह नौर्मल ड्रैसिंग है. ज्यादातर लड़कियां पहनना पसंद करती हैं,’’ चाय बनाने जा रही अजंता ने रुक कर प्रशांत की बात का जवाब दिया.

‘‘नौर्मल ड्रैसिंग है, लड़कियां पसंद करती हैं इस का मतलब यह नहीं कि तुम भी पहनोगी?’’ प्रशांत के स्वर में थोड़ी सख्ती थी.

‘‘अरे, इस तरह की ड्रैसिंग में मैं कंफर्ट फील करती हूं और मुझे भी पसंद है ये सब पहनना,’’ अजंता ने अपनी बात रखी.

‘‘पर मुझे पसंद नहीं अजंता… तुम नहीं पहनोगी आज के बाद यह ड्रैस, अब जाओ चाय बना कर लाओ,’’ और्डर देने वाले अंदाज में प्रशांत के स्वर में सख्ती और बढ़ गई थी.

‘‘तुम्हारी पसंद… क्या मेरी कोई पसंद नहीं?’’ प्रशांत की सख्त बात सुन कर अजंता की आवाज भी थोड़ी तेज हो गई.

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अजंता की तेज आवाज ने प्रशांत के गुस्से को बढ़ा दिया. वह चिल्लाते हुए बोला, ‘‘मैं ने जो कह दिया वह कह दिया और तुम इतने भी मैनर नहीं जानती कि जब पति बाहर से थक कर आता है तो पत्नी उस के साथ बहस नहीं करती.’’

अजंता स्वभाव से सीधीसादी थी. वह समझती थी पति से तालमेल बैठाने के लिए उसे अपनी कुछ इच्छाएं कुरबान करनी ही पडे़ंगी. मगर आज जो प्रशांत कह रहा था वह उसे बुरा लगा. वह पढ़ीलिखी सैल्फ डिपैंडैंट लड़की थी. अत: प्रशांत की बात का विरोध करते हुए बोली, ‘‘प्रशांत, यह तो कोई बात नहीं कि मैं आप की बैसिरपैर की बात मानूं… मुझे इस ड्रैसिंग में कोई दिक्कत नजर नहीं आती और हां आप मेरे होने वाले पति हैं, पति नहीं.’’

अजंता की बात सुन प्रशांत का गुस्सा 7वें आसमान पर जा पहुंचा. लगभग दहाड़ते हुए बोला, ‘‘अजंता, मेरे घर में आने के बाद ये सब नहीं चलेगा. तुम्हें मेरे अनुसार खुद को ढालना ही पड़ेगा. वरना…’’ प्रशांत ने अजंता को थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठाया पर फिर रुक गया.

प्रशांत का यह रूप अंजता के लिए एकदम नया था. कुछ देर वह हैरानी खड़ी रही, फिर बोली, ‘‘वरनावरना क्या करोगे… मुझे पीटोगे?’’

प्रशांत को लगा उस से गलती हो गई है. अत: अपनी आवाज को ठंडा करते हुए बोला, ‘‘सौरी अजंता वह बाहर धूप है शायद उस की वजह से मेरे सिर में पागलपन भर गया था… मैं गुस्से में बोल गया. चलो अब तो अपने नर्मनर्म हाथों से चाय बना कर लाओ डियर.’’

‘‘धूप से घर आने वाले व्यक्ति को क्या इस बात का सर्टिफिकेट मिल जाता है कि वह अपनी पत्नी को डांटे, उसे पीटे?’’ अजंता की बात में भी अब गुस्सा था.

प्रशांत कुछ देर अजंता को देखता रहा. फिर मन ही मन कुछ सोच कर बोला, ‘‘अच्छा ठीक है जो मेरी होने वाली बीवी मेरी थकान उतारने के लिए मुझे अपने कोमल हाथों से बना कर चाय नहीं पिला सकती तो मैं अपनी प्यारी खूबसूरत पत्नी का गुस्सा उतारने के लिए उसे चाय बना कर पिलाता हूं,’’ कह कर प्रशांत किचन की ओर बढ़ गया.

वह भले ही उच्च शिक्षा प्राप्त लड़की थी पर थी तो फीमेल, नौर्मल फीमेल, अचानक उस के मन में खयाल जागा कि कहीं सही में बाहर की धूप और थकान की वजह से प्रशांत ने गुस्से में तो उस पर हाथ उठाना नहीं चाहा… केवल हाथ ही तो उठाया, मारा तो नहीं… और अब

वह जब गुस्से में है तो उसे मनाने के लिए खुद किचन में चाय बनाने गया है… उस की खुद भी तो गलती है जब प्रशांत ने उस से कहा था वह थक कर आया है उसे 1 कप चाय बना के पिला दो तो वह क्यों उस से बहस करने लगी?

ये सब सोचते हुए अजंता किचन में आ गई. प्रशांत हाथ में लाइटर ले कर गैस जलाने जा रहा था.

‘‘आप चल कर पंखे में बैठिए मैं चाय बना लाती हूं,’’ अजंता प्रशांत से लाइटर लेने की कोशश करते हुए बोली.

‘‘नहीं अब तो मैं ही चाय बनाऊंगा,’’

प्रशांत ने अजंता का हाथ हटा कर गैस जलाने की कोशिश की. अजंता ने फिर लाइटर लेने की कोशिश की. पर प्रशांत ने फिर मना किया. अजंता ने गैस जला रहे प्रशांत का हाथ पकड़ लिया. प्रशांत ने अजंता का हाथ छुड़ाने की कोशिश की. इस छीनाझपटी में अजंता फिसल कर प्रशांत की बांहों में गिर गई. प्रशांत ने उसे बांहों में भर लिया.

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‘‘छोडि़ए चाय बनाने दीजिए,’’ अजंता कसमसाई.

‘‘नहीं अब तो तुम्हारे होंठों को पीने के बाद ही चाय पी जाएगी,’’ कह प्रशांत ने अजंता के होंठों पर होंठ रख दिए. एक लंबे किस ने अजंता को निढाल कर दिया. इतना निढाल कि प्रशांत ने बिना किसी विरोध के उसे ला कर बिस्तर पर लिटा दिया.

कुछ देर बाद जब प्रशांत ने अजंता की कमर से पाजामा खिसकाने की कोशिश की तो अजंता ने विरोध करते हुए कहा, ‘‘नहीं प्रशांत ये सब शादी के बाद.’’

प्रशांत अजंता की बात सुन कर कुछ देर इस अवस्था में रहा जैसे खुद को संयत करने की कोशिश कर रहा हो और फिर अजंता के ऊपर से उठते हुए बोला, ‘‘ओके डियर ऐज यू विश.’’

अजंता ने उठ कर अपने कपड़े सही किए और फिर चाय बनाने के लिए किचन में आ गई.

‘‘जानती हो अजंता तुम्हारी इसी अदा का

तो मैं दीवाना हूं,’’ प्रशांत ने किचन में आ कर कहा.

‘‘कौन सी?’’ अजंता ने बरतन में पानी डाल कर गैस पर चढ़ाते हुए पूछा.

‘‘यही कि ये सब शादी के बाद,’’ प्रशांत ने मुसकरा कर कहा.

प्रशांत की इस बात पर अजंता भी मुसकरा कर रह गई.

‘‘मैं भी यही चाहता हूं कि मैं तुम्हारे

जिस्म को अपनी सुहागरात में पाऊं,’’

प्रशांत ने अजंता के पीछे आ कर उस के गले में बांहें डाल कर कहा.

अजंता कुछ नहीं बोली. उबलते पानी में चायपत्ती और शक्कर डालती रही.

‘‘हर व्यक्ति अपने मन में यह अरमान पालता है,’’ प्रशांत अपनी उंगलियों से अजंता के गालों को धीरेधीरे सहलाते हुए बोला.

‘‘कैसा अरमान?’’ अजंता ने पूछा.

‘‘यही कि उस की बीवी वर्जिन हो और सुहागरात को अपनी वर्जिनिटी अपने पति को तोहफे में दे.’’

कह कर प्रशांत प्लेट से बिस्कुट उठा कर खाने लगा.

प्रशांत की बात सुन कर अजंता को धक्का लगा कि और अगर लड़की ने शादी से पहले अपनी वर्जिनिटी लूज कर दी हो और फिर प्रशांत पर नजरें गड़ा दीं.

‘‘अगर लड़की वर्जिन न हो एक इंसान कैसे उसे प्यार कर सकता है. तुम्हीं बताओ अजंता, कोई व्यक्ति किसी ऐसी लड़की के साथ पूरी जिंदगी कैसे रह पाएगा जिस ने शादी से पहले ही अपनी वर्जिनिटी लूज कर दी हो?

क्या उस का दिल ऐसी लड़की को कभी कबूल कर पाएगा? और सोचो तब क्या होगा जब किसी दिन वह इंसान सामने आ जाए जो उस लड़की का प्रेमी रहा हो. बोलो अजंता उस व्यक्ति पर यह सोच कर क्या गुजरेगी कि यही वह आदमी है जिस की वजह से उस की बीवी ने शादी से पहले ही अपनी वर्जिनिटी खो दी. ऐसी लड़की से शादी के बाद तो जिंदगी नर्क बन जाएगी, नर्क.’’

प्रशांत बोले जा रहा था, अजंता पत्थर की मूर्त बने सुनते जा रही थी. चाय उबल कर नीचे फैलती जा रही थी…

आगे पढ़ें- अजंता की जिंदगी से ज्योंज्यों दिन…

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अजंता: भाग 2- आखिर क्या हुआ पूजा के साथ

लेखक- सुधीर मौर्य

अजंता के और प्रशांत के पापा आपस में दोस्त थे. अत: अजंता और प्रशांत भी एकदूसरे को बचपन से जानते थे. हालांकि दोनों के परिवार अलगअलग शहरों में रहते थे फिर भी साल में 1-2 बार जब भी एकदूसरे के शहर जाते तो मुलाकात हो जाती थी. वैसे भी कानपुर और लखनऊ शहर के बीच की दूरी कोई बहुत ज्यादा नहीं है.

अजंता और प्रशांत की शादी का फैसला जब उन के मां और पिता ने लिया तो प्रशांत और अजंता ने कोई ऐतराज नहीं जताया. अजंता जैसी बेहद सुंदर और उच्च शिक्षा प्राप्त लड़की से तो कोई भी लड़का शादी करने को उतावला हो सकता था, इसलिए प्रशांत ने फौरन हामी भर दी. अजंता ने प्रशांत से शादी करने के लिए अपनी सहमति देने में 1 दिन का वक्त लिया था. शादी के लिए सहमति देने के लिए अजंता ने जो समय लिया उसे दोनों परिवारों ने लड़की सुलभ लज्जा समझा.

अजंता द्वारा लिए गए समय को भले ही दोनों परिवारों ने उस की लज्जा समझा हो पर अजंता सच में शादी जैसे मुद्दे पर सोचने के लिए थोड़ा वक्त चाहती थी. अजंता का यह वक्त लेना लाजिम भी था. भले ही अजंता प्रशांत को बचपन से जानती हो पर उस के मन में कभी प्रशांत के लिए प्यार जैसी किसी भावना ने अंगड़ाई नहीं ली थी.

प्रशांत क्लोज फ्रैंड भी नहीं था. मतलब वह प्रशांत से अपनी निजी बातें शेयर करने में कंफर्ट फील नहीं करती थी न ही उस ने कभी प्रशांत से अंतरंग बातें की थीं. हालांकि जब से उन की इंगेजमैंट हुई थी तब से प्रशांत उस से कभीकभी अंतरंग बातें करता था, जिन का अजंता इस अंदाज में जवाब देती थी जैसे वह इस तरह की बातें करने में ईजी फील नहीं कर रही हो.

प्रशांत न सिर्फ एक नेता का बेटा था, बल्कि खुद भी युवा नेता था, बावजूद इस के उस में कोई खास बुरी आदतें नहीं थीं. कभीकभार किसी फंक्शन के अलावा प्रशांत ड्रिंक भी नहीं लेता था न ही लड़कियों के पीछे भागने वाला लड़का था.

हालांकि कुछ लड़कियां प्रशांत की दोस्त रही थीं. 1-2 लड़कियों से उस के अफेयर के चर्चे भी रहे थे, पर अजंता ने इसे एक सामान्य बात के तौर पर लिया. आजकल के जमाने में लड़कों और लड़कियों का अफेयर होना सामान्य सी बात हो गई है.

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अजंता खुद एक बार एक लड़के के प्रति आकर्षित हुई थी. जब वह बैंगलुरु में बीटैक फर्स्ट ईयर की पढ़ाई कर रही थी तो फाइनल ईयर के स्टूडैंट राजीव की ओर आकर्षित हो गई थी. राजीव हैंडसम और खुशमिजाज लड़का था. वह कानपुर का रहने वाला था. शायद इसीलिए अजंता जल्द ही उस के ओर आकर्षित हो गई. जल्दी ही दोनों दोस्त बन गए और फिर क्लोज फ्रैंड.

अजंता उस समय समझ नहीं पाती थी कि वह सिर्फ राजीव की ओर आकर्षित भर है या फिर उसे प्यार करने लगी है. राजीव लास्ट ईयर का स्टूडैंट था. कालेज कैंपस से उसे एक बड़ी कंपनी में जौब मिल गई और वह ऐग्जाम देते ही दिल्ली चला गया.

कुछ दिनों तक तो राजीव को अजंता ने याद किया और फिर धीरेधीरे उस की स्मृतियां दिल के किसी कोने में खो गईं. राजीव ने भी कभी अजंता को कौंटैक्ट नहीं किया. अब अजंता को समझ में आ गया कि वह राजीव की ओर सिर्फ आकर्षित भर थी, उसे उस से प्यार नहीं हुआ था.

अजंता की जिंदगी में कोई लड़का नहीं था. उस की उम्र भी 23-24 साल की हो रही थी. प्रशांत में कोई कमी भी नहीं थी, इसलिए एक दिन सोचने के बाद उस ने प्रशांत से शादी करने की स्वीकृति दे दी. अजंता के स्वीकृति देते ही दोनों परिवारों ने दोनों की मंगनी कर दी.

अब अजंता अपनी जौब के सिलसिले में लखनऊ में रहती थी, इसलिए प्रशांत और वह एकदूसरे से अकसर मिल लेते थे. हालांकि अजंता कई बार प्रशांत से तनहाई में मिली थी पर अब तक उस ने शारीरिक संबंध नहीं बनाया था. ऐसा नहीं कि प्रशांत ने शारीरिक संबंध बनाने का प्रयास न किया हो पर अजंता ‘प्लीज ये सब शादी के बाद’ कह कर मना करती आई.

अजंता के मना करने के बाद प्रशांत भी उसे ज्यादा फोर्स नहीं करता था. भले ही अजंता और प्रशांत के बीच शारीरिक संबंध नहीं बने थे पर उन दोनों ने एकदूसरे के शरीर को छुआ था, एकदूसरे को किस किया था. वे लड़केलड़की जिन की इंगेजमैंट हो चुकी हो उन के बीच ऐसा होना लाजिम भी है. अजंता को प्रशांत ने कई बार अपने सीने में भी भींचा था, उस का चुंबन लिया था पर न जाने क्यों अजंता को ये सब सतरंगी दुनिया में नहीं ले जा पाते.

करीब 20 साल का शशांक कोई बहुत कुशाग्रबुद्धि का नहीं था. इंटरमीडिएट की पढ़ाई के बाद उस ने बीटैक में एडमिशन के लिए कोचिंग ली पर 2 साल तैयारी करने के बाद उसे किसी भी कालेज में दाखिला नहीं मिला. शशांक अपनी क्षमताओं को अच्छी तरह जानता था, इसलिए उस ने दूसरे साल पौलिटैक्निक का भी ऐंट्रैंस ऐग्जाम दिया और उसे राजकीय पौलिटैक्निक, लखनऊ में मैकैनिकल इंजीनियरिंग में दाखिला मिल गया.

कालेज में पढ़ाई से ज्यादा शशांक अन्य ऐक्टिविटीज में ज्यादा दिलचस्पी लेता. खेलकूद में आगे रहता. हमेशा अलमस्त रहने वाला शशांक न जाने क्यों पहले दिन से ही अजंता पर कुछ न कुछ कमैंट करता. अजंता ऐलिमैंट औफ मैकैनिकल इंजीनियरिंग जैसे सब्जैक्ट पढ़ाती थी. इन विषयों से संबंधित सवालों के जवाब शशांक भलीभांति नहीं दे पाता पर वह अजंता से बड़ी डेयरिंग से अन्य बातें कर लेता.

शशांक की कुछ बातें तो ऐसी होतीं कि जिन्हें सुन कर कोई भी लड़की भड़क जाए. बातें अजंता को भी अच्छी नहीं लगतीं पर वह न जाने क्यों वह कभी शशांक पर भड़की नहीं न ही उस की कालेज मैनेजमैंट से कोई शिकायत की. यहां तक कि जब शशांक एक दिन बातों ही बातों में उस के उरोजों और नितंबों की तारीफ कर बैठा तब भी उस ने कोई शिकायत नहीं की पर यह बात सुन कर उस ने रिएक्ट जरूर ऐसे किया जैसे उसे यह बात बेहद नागवार गुजरी हो.

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शशांक ने जब एक दिन हंस कर शादी के लिए प्रपोज किया तब भी उस ने ऐसे ही रिएक्ट किया पर उस रात जब उस की आंख अचानक खुल गई तो शशांक की कही बात सुन कर वह मन ही मन मुसकरा पड़ी.

न जाने क्या था शशांक की आंखों और उस की बातों में कि अजंता ने अपने से करीब 3-4 साल छोटे अपने स्टूडैंट की उन बातों को, जिन्हें लोग अश्लील कहते हैं, पुरजोर विरोध नहीं किया. कभीकभी तो जब अजंता तनहाई में होती तो शशांक उस के खयालों में आ जाता और कोई न कोई ऐसी बात कहता जिसे सुन कर अजंता बाहर से तो गुस्सा दिखाती पर मन में एक गुदगुदी सी महसूस करती.

उस दिन जब शशांक डेयरिंग करते हुए अजंता से मिलने उस के फ्लैट पर आ गया तो अजंता उस के जाने तक सिर्फ यही सोचती रही कि कहीं उसे अकेली देख वह उस के साथ गलत हरकत न करे दे. पर शशांक ने ऐसा कुछ नहीं किया. हालांकि उस ने 1-2 अशिष्ट बातें जरूर कीं. शशांक के जाने के बाद अजंता दरवाजा बंद कर के सुकून की सांस ले ही रही थी कि वापस डोरबैल बज उठी.

अजंता ने धड़कते दिल से दरवाजा खोला तो समाने प्रशांत खड़ा था. बोली, ‘‘आइए, भीतर आ जाइए.’’

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