जीवनज्योति

लड़की- भाग 3 : क्या परिवार की मर्जी ने बर्बाद कर दी बेटी वीणा की जिंदगी

लेखक- रमणी मोटाना

आज उसे लग रहा था कि उस ने व उस के पति ने बेटी के प्रति न्याय नहीं किया. क्या हमारी सोच गलत थी? उस ने अपनेआप से सवाल किया. शायद हां, उस के मन ने कहा. हम जमाने के साथ नहीं चले. हम अपनी परिपाटी से चिपके रहे.

पहली गलती हम से यह हुई कि बेटी के परिपक्व होने के पहले ही उस की शादी कर देनी चाही. अल्हड़ अवस्था में उस के कंधों पर गृहस्थी का बोझ डालना चाहा. हम जल्द से जल्द अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे. और दूसरी भूल हम से तब हुई जब वीणा ने अपनी पसंद का लड़का चुना और हम ने उस की मरजी को नकार कर उस की शादी में हजार रोडे़ अटकाए. अब जब वह अपनी शादी से खुश नहीं थी और पति से तलाक लेना चाह रही थी तो हम दोनों पतिपत्नी ने इस बात का जम कर विरोध किया.

बेटी की खुशी से ज्यादा उन्हें समाज की चिंता थी. लोग क्या कहेंगे, यही बात उन्हें दिनरात खाए जाती थी. उन्हें अपनी मानमर्यादा का खयाल ज्यादा था. वे समाज में अपनी साख बनाए रखना चाहते थे, पर बेटी पर क्या बीत रही है, इस बात की उन्हें फिक्र नहीं थी. बेटी के प्रति वे तनिक भी संवेदनशील न थे. उस के दर्द का उन्हें जरा भी एहसास न था. उन्होंने कभी अपनी बेटी के मन में पैठने की कोशिश नहीं की. कभी उस की अंतरंग भावनाओें को नहीं जानना चाहा. उस के जन्मदाता हो कर भी वे उस के प्रति निष्ठुर रहे, उदासीन रहे.

अहल्या को पिछली बीसियों घटनाएं याद आ गईं जब उस ने वीणा को परे कर बेटों को कलेजे से लगाया था. उस ने हमेशा बेटों को अहमियत दी जबकि बेटी की अवहेलना की. बेटों को परवान चढ़ाया पर बेटी जैसेतैसे पल गई. बेटों को अपनी मनमानी करने की छूट दी पर बेटी पर हजार अंकुश लगाए. बेटों की उपलब्धियों पर हर्षित हुई पर बेटी की खूबियों को नजरअंदाज किया. बेटों की हर इच्छा पूरी की पर बेटी की हर अभिलाषा पर तुषारापात किया. बेटे उस की गोद में चढ़े रहते या उस की बांहों में झूलते पर वीणा के लिए न उस की गोद में जगह थी न उस के हृदय में. बेटे और बेटी में उस ने पक्षपात क्यों किया था? एक औरत हो कर उस ने औरत का मर्म क्यों नहीं जाना? वह क्यों इतनी हृदयहीन हो गई थी?

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बेटी के विवर्ण मुख को याद कर उस के आंसू बह चले. वह मन ही मन रो कर बोली, ‘बेटी, तू जल्दी होश में आ जा. मुझे तुझ से बहुतकुछ कहनासुनना है. तुझ से क्षमा मांगनी है. मैं ने तेरे साथ घोर अन्याय किया. तेरी सारी खुशियां तुझ से छीन लीं. मुझे अपनी गलतियों का पश्चात्ताप करने दे.’

आज उसे इस बात का शिद्दत से एहसास हो रहा था कि जानेअनजाने उस ने और उस के पति ने बेटी के प्रति पक्षपात किया. उस के हिस्से के प्यार में कटौती की. उस की खुशियों के आड़े आए. उस से जरूरत से ज्यादा सख्ती की. उस पर बचपन से बंदिशें लगाईं. उस पर अपनी मरजी लादी.

वीणा ने भी कठपुतली के समान अपने पिता के सामंती फरमानों का पालन किया. अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं का दमन कर उन के इशारों पर चली. ढकोसलों, कुरीतियों और कुसंस्कारों से जकड़े समाज के नियमों के प्रति सिर झुकाया. फिर एक पुरुष के अधीन हो कर उस के आगे घुटने टेक दिए. अपने अस्तित्व को मिटा कर अपना तनमन उसे सौंप दिया. फिर भी उस की पूछ नहीं थी. उस की कद्र नहीं थी. उस की कोई मान्यता न थी.

प्रतीक्षाकक्ष में बैठेबैठे अहल्या की आंख लग गई थी. तभी भास्कर आया. वह उस के लिए घर से चायनाश्ता ले कर आया था. ‘‘मांजी, आप जरा रैस्टरूम में जा कर फ्रैश हो लो, तब तक मैं यहां बैठता हूं.’’

अहल्या नीचे की मंजिल पर गई. वह बाथरूम से हाथमुंह धो कर निकली थी कि एक अनजान औरत उस के पास आई और बोली, ‘‘बहनजी, अंदर जो आईसीयू में मरीज भरती है, क्या वह आप की बेटी है और क्या वह भास्करजी की पत्नी है?’’

‘‘हां, लेकिन आप यह बात क्यों पूछ रही हैं?’’

‘‘एक जमाना था जब मेरी बेटी शोभा भी इसी भास्कर से ब्याही थी.’’

‘‘अरे?’’ अहल्या मुंहबाए उसे एकटक ताकने लगी.

‘‘हां, बहनजी, मेरी बेटी इसी शख्स की पत्नी थी. वह इस के साथ कालेज में पढ़ती थी. दोनों ने भाग कर प्रेमविवाह किया, पर शादी के 2 वर्षों बाद ही उस की मौत हो गई.’’

‘‘ओह, यह सुन कर बहुत अफसोस हुआ.’’

‘‘हां, अगर उस की मौत किसी बीमारी की वजह से होती तो हम अपने कलेजे पर पत्थर रख कर उस का वियोग सह लेते. उस की मौत किसी हादसे में भी नहीं हुई कि हम इसे आकस्मिक दुर्घटना समझ कर मन को समझा लेते. उस ने आत्महत्या की थी.

‘अब आप से क्या बताऊं. यह एक अबूझ पहेली है. मेरी हंसतीखेलती बेटी जो जिजीविषा से भरी थी, जो अपनी जिंदगी भरपूर जीना चाहती थी, जिस के जीवन में कोई गम नहीं था उस ने अचानक अपनी जान क्यों देनी चाही, यह हम मांबाप कभी जान नहीं पाएंगे. मरने के पहले दिन वह हम से फोन पर बातें कर रही थी, खूब हंसबोल रही थी और दूसरे दिन हमें खबर मिली कि वह इस दुनिया से जा चुकी है. उस के बिस्तर पर नींद की गोलियों की खाली शीशी मिली. न कोई चिट्ठी न पत्री, न सुसाइड नोट.’’

‘‘और भास्कर का इस बारे में क्या कहना था?’’

‘‘यही तो रोना है कि भास्कर इस बारे में कुछ भी बता न सका. ‘हम में कोई झगड़ा नहीं हुआ,’ उस ने कहा, ‘छोटीमोटी खिटपिट तो मियांबीवी में होती रहती है पर हमारे बीच ऐसी कोई भीषण समस्या नहीं थी कि जिस की वजह से शोभा को जान देने की नौबत आ पड़े.’ लेकिन हमारे मन में हमेशा यह शक बना रहा कि शोभा को आत्महत्या करने को उकसाया गया.

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‘‘बहनजी, हम ने तो पुलिस में भी शिकायत की कि हमें भास्कर पर या उस के घर वालों पर शक है पर कोई नतीजा नहीं निकला. हम ने बहुत भागदौड़ की कि मामले की तह तक पहुंचें पर फिर हार कर, रोधो कर चुप बैठ गए. पतिपत्नी के बीच क्या गुजरती थी, यह कौन जाने. उन के बीच क्या घटा, यह किसी को नहीं पता.

‘‘हमारी बेटी को कौन सा गम खाए जा रहा था, यह भी हम जान न पाए. हम जवान बेटी की असमय मौत के दुख को सहते हुए जीने को बाध्य हैं. पता नहीं वह कौन सी कुघड़ी थी जब भास्कर से मेरी बेटी की मित्रता हुई.’’

अहल्या के मन में खलबली मच गई. कितना अजीब संयोग था कि भास्कर की पहली पत्नी ने आत्महत्या की. और अब उस की दूसरी पत्नी ने भी अपने प्राण देने चाहे. क्या यह महज इत्तफाक था या भास्कर वास्तव में एक खलनायक था? अहल्या ने मन ही मन तय किया कि अगर वीणा की जान बच गई तो पहला काम वह यह करेगी कि अपनी बेटी को फौरन तलाक दिला कर उसे इस दरिंदे के चंगुल से छुड़ाएगी.

वह अपनी साख बचाने के लिए अपनी बेटी की आहुति नहीं देगी. वीणा अपनी शादी को ले कर जो भी कदम उठाए, उसे मान्य होगा. इस कठिन घड़ी में उस की बेटी को उस का साथ चाहिए. उस का संबल चाहिए. देरसवेर ही सही, वह अपनी बेटी का सहारा बनेगी. उस की ढाल बनेगी. हर तरह की आपदा से उस की रक्षा करेगी.

एक मां होने के नाते वह अपना फर्ज निभाएगी. और वह इस अनजान महिला के साथ मिल कर उस की बेटी की मौत की गुत्थी भी सुलझाने का प्रयास करेगी.

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भास्कर जैसे कई भेडि़ये सज्जनता का मुखौटा ओढ़े अपनी पत्नी को प्रताडि़त करते रहते हैं, उसे तिलतिल कर जलाते हैं और उसे अपने प्राण त्यागने को मजबूर करते हैं. लेकिन वे खुद बेदाग बच जाते हैं क्योंकि बाहर से वे भले बने रहते हैं. घर की चारदीवारी के भीतर उन की करतूतें छिपीढकी रहती हैं.

Serial Story: कीर्तन, किट्टी पार्टी और बारिश- भाग 3

अगली किट्टी पार्टी का दिन आ गया. पार्टी सुरेखा के यहां थी. इस बार नेहा सब को उत्साहित हो कर बता रही थी, ‘‘मामा की शादी के 1 साल बाद ही उन का डाइवोर्स हो गया था. मामी अपने किसी प्रेमी के साथ शादी करना चाहती थी.

वह मामा के साथ एक दिन भी नहीं चाहती थी, मामा को उन्होंने बहुत तंग किया. मामी की इच्छा को देखते हुए मामा ने उन्हें चुपचाप डाइवोर्स दे दिया, उन्होंने तो अपने प्रेमी से शादी कर ली, लेकिन मामा ने उस के बाद गृहस्थी नहीं बसाई. मामा एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छी पोस्ट पर हैं. बस, उन्होंने काम में ही हमेशा खुद को व्यस्त रखा.’’

सुनंदा चुपचाप देव की कहानी सुन रही थी. नेहा ने अचानक पूछा, ‘‘सुनंदाजी, आप की और मामा की शौपिंग कैसी रही?’’

‘‘बहुत अच्छी,’’ कह कर सुनंदा और बाकी महिलाएं बातों में व्यस्त हो गईं.

अगले दिन औफिस से लौट कर देव सुनंदा के घर आए, उन्हें कार की चाबी दी. कहा, ‘‘आप की गाड़ी ले आया हूं.’’

सुनंदा ने कहा, ‘‘थैंक्स, आप बैठिए. मैं चाय लाती हूं.’’

थोड़ी देर में सुनंदा चाय ले आई. बातों के दौरान पूछा, ‘‘आप कैसे जाएंगे अब?’’

देव हंसे, ‘‘आप छोड़ आइए.’’

सुनंदा ने भी कहा, ‘‘ठीक है,’’ और खिलखिला दी.

तभी सुनंदा के मोबाइल की घंटी बजी. अलका थी. हालचाल पूछने के बाद वह कह रही थी, ‘‘सुनंदा, तुम फ्री हो न?’’

सुनंदा के कान खड़े हुए, ‘‘क्यों, कुछ काम है क्या?’’

‘‘अभी से बता रही हूं, मेरी सहेली ने घर पर कीर्तन रखा है. उस ने तुम्हें भी बुलाया है. कल आ जाना, साथ चलेंगे.’’

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‘‘ओह दीदी, कल नहीं आ पाऊंगी, मेरी गाड़ी खराब है. मु  झे कल तो समय नहीं मिलेगा. कल डाक्टर के यहां भी जाना है. रैग्युलर चैकअप के लिए और गाड़ी लेने भी जाना है. बहुत काम है दीदी कल.’’

थोड़ीबहुत नाराजगी दिखा कर अलका ने फोन रख दिया. सुनंदा भी फोन रख कर मुसकराने लगी, तो देव ने कहा, ‘‘लेकिन आप की गाड़ी तो ठीक है.’’

सुनंदा ने हंसते हुए अपनी कीर्तन, प्रवचनों से दूर रहने की आदत के बारे में बताया तो देव ने भरपूर ठहाका लगाया. बोले, ‘‘  झूठ तो बहुत अच्छा बोल लेती हैं आप.’’

देव अलग फ्लैट में शिफ्ट हो चुके थे. सुनंदा उन्हें उन की कालोनी तक छोड़ आई. अब तक दोनों में अच्छी दोस्ती हो चुकी थी. कोई औपचारिकता नहीं बची थी. अब दोनों मिलते रहते, अंतरंगता बढ़ रही थी. कई जगह साथ आतेजाते. सबकुछ अपनेआप होता जा रहा था. देव कभी नेहा के यहां भी चले जाते थे. उन्होंने एक नौकर रख लिया था, जो घर का सब काम करता था.

सुनंदा ने गौरव को देव के बारे में सब कुछ बता दिया था. उन के साथ उठनाबैठना, आनाजाना सब. सुनंदा विमुग्ध थी, अपनेआप पर, देव पर, अपनी नियति पर. अब लगने लगा था शरीर की भी कुछ इच्छाएं, आकांक्षाएं हैं. उसे भी किसी के स्निग्ध स्पर्श की कामना थी. आजकल सुनंदा को लग रहा था कि जैसे जीवन का यही सब से सुंदर, सब से रोमांचकारी समय है. वह पता नहीं क्याक्या सोच कर सचमुच रोमांचित हो उठती.

देव और सुनंदा की नजदीकियां बढ़ रही थीं. देव औफिस से भी सुनंदा से फोन पर हालचाल पूछते. अकसर मिलने चले आते. सुनंदा की पसंदनापसंद काफी जान चुके थे. अत: अकसर सुनंदा की पसंद का कुछ लेते आते तो सुनंदा हैरान सी कुछ बोल भी न पाती.

एक दिन विपिन से विचारविमर्श के बाद नेहा ने सुनंदा को छोड़ कर किट्टी पार्टी की  बाकी सब सदस्याओं को अपने घर बुलाया.

सब हैरान सी पहुंच गईं.

मंजू ने कहा, ‘‘क्या हुआ नेहा? फोन पर कुछ बताया भी नहीं और सुनंदा जी को बताने के लिए क्यों मना किया?’’

नेहा ने कहा, ‘‘पहले सब सांस तो ले लो. मेरे मन में बहुत दिन से कोई बात चल रही है. मु  झे आप सब का साथ चाहिए.’’

अनीता ने कहा, ‘‘जल्दी कहो, नेहा.’’

नेहा ने गंभीरतापूर्वक बात शुरू की, ‘‘सुनंदाजी और मेरे देव मामा को आप ने कभी साथ देखा है?’’

सब ने कहा, ‘‘हां, कई बार.’’

‘‘आप ने महसूस नहीं किया कि दोनों एकदूसरे के साथ कितने अच्छे लगते हैं, कितने खुश रहते हैं एकसाथ.’’

अनीता ने कहा, ‘‘तो क्या हुआ? सुनंदाजी तो हमेशा खुश रहती हैं.’’

‘‘मैं सोच रही हूं कि सुनंदाजी मेरी मामी बन जाएं तो कैसा रहेगा?’’

पूजा बोली, ‘‘पागल हो गई हो क्या नेहा? सुनंदाजी सुनेंगी तो कितना नाराज होंगी.’’

‘‘क्यों, नाराज क्यों होंगी? अगर वे देव मामा के साथ खुश रहती हैं तो हम आगे का कुछ क्यों नहीं सोच सकते? आज तक वे हमारी हर जरूरत के लिए हमेशा तैयार रहती हैं. हम उन के लिए कुछ नहीं कर सकते क्या?’’

अनीता ने कहा, ‘‘तुम्हें अंदाजा है उन की सुभद्रा बूआ, जेठानी और बहन यह सुन कर भी उन का क्या हाल करेंगी?’’

‘‘क्यों, इस में बुरा क्या है? मैं आप सब से छोटी हूं. आप से रिक्वैस्ट ही कर सकती हूं कि आप लोग मेरा साथ दो प्लीज, समय बहुत बदल चुका है और सुनंदाजी तो किसी की परवाह न करते हुए जीना जानती हैं.’’

पूजा ने कहा, ‘‘गौरव के बारे में सोचा है?’’

बहुत देर से चुप बैठी सुनीता ने कहा, ‘‘जानती हूं मैं अच्छी तरह गौरव को, वह बहुत सम  झदार लड़का है, वह अपनी मां को हमेशा खुश देखना चाहता है.’’

बहुत देर तक विचारविमर्श चलता रहा. फिर तय हुआ सुनीता ही इस बारे में सुनंदा से बात करेगी.

अगले दिन सुनीता सुनंदा के घर पहुंच गई. इधरउधर की बातों के बाद सुनीता ने  पूछा, ‘‘और देव कैसे हैं? मिलना होता है या नहीं?’’

सुनंदा के गोरे चेहरे पर देव के नाम से ही एक लालिमा छा गई और वह बड़े उत्साह से देव की बातें करने लगी.

सुनीता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘इतने अच्छे हैं मि. देव तो कुछ आगे के लिए भी सोच लो.’’

सुनंदा ने प्यार भरी डांट लगाई, ‘‘पागल हो गई हो क्या? दिमाग तो ठीक है न?’’

‘‘हम सब की यही अच्छा है. अभी मैं जा रही हूं, अच्छी तरह सोच लो, लेकिन जरा जल्दी. हम लोग जल्दी आएंगी.’’

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सुनंदा कितने ही विचारों में डूबतीउतराती रही कि क्या करें. मन तो यही चाहता है देव को अपने जीवन में शामिल कर ले सदा के लिए, पर अब? गौरव क्या कहेगा? सुभद्रा बूआ, रमा और अलका क्या कहेंगी? वह रातभर करवटें बदलती रही. बीचबीच में आंख लगी भी तो देव का चेहरा दिखाई देता रहा.

उधर विपिन और नेहा ने देव से बात की. उम्र के इस मोड़ पर उन्हें भी किसी साथी की जरूरत महसूस होने लगी थी. देव के मन में भी जीवन के सारे संघर्ष   झेल कर भी हंसतीमुसकराती सुनंदा अपनी जगह बना चुकी थी. कुछ देर सोच कर देव ने अपनी स्वीकृति दे दी.

सुबह जब सुनंदा का गौरव से बात करने का समय हो रहा था, सब पहुंच गईं और विपिन और देव के साथ. देव और सुनंदा एकदूसरे से आंखें बचातेशरमाते रहे.

सुनीता ने कहा, ‘‘सुनंदा, तुम हटो, मैं गौरव से बात करती हूं,’’ और फिर वेबकैम पर सुनीता ने गौरव को सबकुछ बताया.

सुनंदा बहुत संकोच के साथ गौरव के सामने आई तो गौरव ने कहा, ‘‘यह क्या मां, इतनी अच्छी बात, मु  झे ही सब से बाद में पता चल रही है.’’

सुनंदा की आंखों से भावातिरेक में अश्रुधारा बह निकली. वह कुछ बोल ही नहीं पाई.

सुनीता ने ही गौरव का परिचय देव से करवाया. देव की आकर्षक, सौम्य सी मुसकान गौरव को भी छू गई और उस ने इस बात में अपनी सहर्ष सहमति दे दी तो सुनंदा के दिल पर रखा बो  झ हट गया.

गौरव ने कहा, ‘‘मां, आप दादी, ताईजी और मौसी की चिंता मत करना, उन सब को मैं आ कर संभाल लूंगा. आप किसी की चिंता मत करना मां. आप अपना जीवन अपने ढंग से जीने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं. मु  झे तो अभी छुट्टी नहीं मिल पाएगी, लेकिन आप मेरे लिए देर मत करना.’’

गौरव की बातें सुनंदा को और मजबूत बना गईं.

थोड़ी देर चायनाश्ता कर सब सुनंदा को गले लगा कर प्यार करती हुईं अपनेअपने घर चली गईं.

नेहा, विपिन और देव रह गए. विपिन ने कहा, ‘‘अब देर नहीं करेंगे, कल ही मैरिज रजिस्ट्रार के औफिस में चलते हैं.’’

अगले दिन सुनंदा तैयार हो रही थी. सालों पहले नीलेश की दी हुई लाल साड़ी निकाल कर पहनने का मन हुआ. फिर सोचा नहीं, कोई लाइट कलर पहनना चाहिए. मन को न सही, शरीर को उम्र का लिहाज करना ही चाहिए. वह कुछ सिहर गई, क्या देव को उस के शरीर से भी उम्मीदें होंगी? स्त्री को ले कर पता नहीं क्यों लोग हमेशा नकारात्मक भ्रांतियां रखते हैं, कभी किसी ने यह क्यों नहीं सोचा कि उम्रदराज स्त्री भी…

आगे कुछ सोचने से पहले ही वह खुद ही हंस दी, उम्रदराज? उम्र से क्या होता है, फिर नीलेश का चेहरा अचानक आंखों को धुंधला कर गया. नीलेश उसे हमेशा खुश देखना चाहते थे और बस वह अब खुश थी, सारे संदेहों, तर्कवितर्कों में डूबतेउतराते वह जैसे ही तैयार हुई, डोरबैल बजी. सुनंदा ने गेट खोला. देव उसे ले जाने आ गए थे.

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विश्वास के घातक टुकड़े: इंद्र को जब आई पहली पत्नी पूर्णिमा की याद

विश्वास के घातक टुकड़े- भाग 1 : इंद्र को जब आई पहली पत्नी पूर्णिमा की याद

रात का सन्नाटा पसरा हुआ था. घर के सभी लोग गहरी नींद सोए थे, लेकिन पूर्णिमा की आंखों में नींद का नामोनिशान तक नहीं था. बगल में लेटा उस का पति इंद्र निश्चिंत हो कर सो रहा था, जबकि पूर्णिमा अंदर ही अंदर घुट रही थी. पूर्णिमा को इंद्र के व्यवहार में आए परिवर्तन ने बेचैन कर रखा था.

पूर्णिमा की शादी को 5 साल गुजर गए थे, लेकिन वह मां नहीं बन पाई थीं. इलाज जरूर चल रहा था, लेकिन परिणाम की हालफिलहाल कोई आशा नहीं थी. रात के तीसरे पहर इंद्र की नींद खुली. बिस्तर टटोला तो उसे पूर्णिमा नजर नहीं आई. उस ने उठ कर बल्ब का स्विच औन किया. देखा, पूर्णिमा बिस्तर के एक कोने पर घुटनों में मुंह छिपाए बैठी थी. उसे इस हालत में देख कर इंद्र ने पूछा, ‘‘पूर्णिमा, तुम अभी तक सोई नहीं?’’

‘‘मुझे नींद नहीं आ रही,’’ पूर्णिमा का स्वर बुझा हुआ था.

‘‘क्यों?’’ इंद्र ने पूछा.

‘‘बस, यूं ही.’’ पूर्णिमा ने टालने वाले अंदाज में जवाब दिया.

‘‘पूर्णिमा, मैं जानता हूं कि तुम्हें नींद क्यों नहीं आ रही है. मैं तुम्हारा दुख समझ सकता हूं. थोड़ा इंतजार करो, सब ठीक हो जाएगा.’’ इंद्र का इतना कहना भर था कि पूर्णिमा उस के सीने से लग कर सुबकने लगी.

‘‘इंद्र, तुम मुझे छोड़ तो नहीं दोगे?’’ पूर्णिमा ने अनायास पूछा. पत्नी के इस सवाल पर इंद्र गंभीर हो गया. वह कुछ सोच कर बोला, ‘‘कैसी पागलों वाली बातें कर रही हो?’’

बीते दिन की ही बात थी. पूर्णिमा हमेशा की तरह इंद्र की अलमारी के कपड़ों को हैंगर में लगा रही थी, तभी गलती से एक शर्ट नीचे गिर गई. शर्ट की जेब से एक फोटो निकल कर जमीन पर जा गिरा. पूर्णिमा ने सहज भाव से फोटो को उठाया, किसी लड़की का फोटो था. लड़की देखने में आकर्षक लग रही थी. उस की उम्र 25 के आसपास रही होगी. वह इंद्र के पास जा पहुंची, वह अखबार पढ़ रहा था.

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जैसे ही पूर्णिमा ने फोटो दिखाई, वह अखबार छोड़ कर उस के हाथ से फोटो लेते हुए बोला, ‘‘यह फोटो तुम्हें कहां से मिली? ‘‘तुम औरतों की यही खामी है, टटोलना नहीं छोड़ सकतीं.’’ कहते हुए इंद्र ने फोटो अपनी जेब में रख ली.

‘‘तुम्हारे कपड़े ठीक कर रही थी. मुझे क्यापता था कि तुम जेब में इतने महत्त्वपूर्ण दस्तावेज रखते हो.’’ पूर्णिमा ने चुहलबाजी की.

इंद्र मुसकरा कर बोला, ‘‘मेरे ही विभाग की है.’’

‘‘तो जेब में क्या कर रही थी?’’

‘‘फिर वही सवाल. एक फार्म पर लगानी थी, गलती से मेरे साथ चली आई.’’ वह बोला.

पूर्णिमा इधर कुछ महीनों से महसूस कर रही थी कि भले ही इंद्र उस के साथ बिस्तर पर सोता है, लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं थी. पतिपत्नी का संबंध महज औपचारिकता बन कर रह गया था. एक दिन उस से न रहा गया तो पूछ बैठी, ‘‘इंद्र, तुम बदल गए हो.’’

‘‘यह तुम कैसे कह सकती हो?’’ वह सकपकाते हुए बोला.

‘‘तुम्हारे व्यवहार से महसूस कर रही हूं.’’ पूर्णिमा ने कहा.

‘‘ऐसी बात नहीं है. औफिस में काम का बोझ बढ़ गया है.’’ उस ने सफाई दी तो पूर्णिमा ने मामले को ज्यादा तूल नहीं दिया.

दिन के 10 बज रहे होंगे. इंद्र का औफिस से फोन आया, ‘‘पूर्णिमा, आज मेरा मोबाइल चार्जिंग पर ही लगा रह गया. क्या तुम उसे मुझ तक पहुंचा सकती हो?’’

‘‘जरूर, तुम औफिस से बाहर आ कर ले लेना.’’ कह कर पूर्णिमा ने जैसे ही फोन चार्जर से निकाला एक लड़की का फोन आ गया, ‘‘इंद्र सर, आज मैं औफिस नहीं आ सकूंगी.’’

पूर्णिमा ने कोई जवाब नहीं दिया तो वह बोली, ‘‘आप कुछ बोल नहीं रहे. क्या नाराज हो मुझ से. माफी मांगती हूं, कल मेरा मूड नहीं था. घर पर कुछ रिश्तेदार आए थे, मम्मी ने जल्दी आने के लिए कहा, इसलिए आप के साथ कौफी पीने नहीं जा सकी.’’

पूर्णिमा को समझते देर नहीं लगी कि इंद्र शाम को देर से क्यों आता है. सोच कर पूर्णिमा का दिल बैठने लगा. वह खुद पर नियंत्रण करते हुए बोली, ‘‘मैं उन की बीवी बोल रही हूं. आज वह अपना मोबाइल घर पर ही छोड़ गए हैं.’’

पूर्णिमा का इतना कहना भर था कि उस ने फोन काट दिया.

पूर्णिमा का मन आशंकाओं से भर गया. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इंद्र से कैसे पेश आए. वह सोचने लगी कि इस लड़की से इंद्र का क्या संबंध है. ऐसे ही विचारों में डूबी पूर्णिमा पति को मोबाइल देने के लिए निकल गई. इंद्र के औफिस पहुंच कर उस ने फोन कर दिया, इंद्र औफिस के बाहर आ गया. फोन देते समय पूर्णिमा ने उस लड़की का जिक्र किया तो वह बोला, ‘‘मैं बात कर लूंगा.’’

शाम को इंद्र घर आया तो आते ही पूर्णिमा से बोला, ‘‘मैं 2 दिनों के लिए औफिस के काम से लखनऊ जा रहा हूं. मेरा सामान पैक कर देना.’’

‘‘अकेले जा रहे हो?’’ पूर्णिमा के इस सवाल पर वह असहज हो गया.

‘‘क्या पूरा औफिस जाएगा?’’

‘‘मेरे कहने का मतलब यह नहीं था.’’ पूर्णिमा ने कहा तो अचानक इंद्र को न जाने क्या सूझा कि एकाएक सामान्य हो गया. वह पूर्णिमा को बाहों में भरते हुए बोला, ‘‘मुझे क्षमा कर दो.’’

इस के बाद पूर्णिमा भी सामान्य हो गई. उस ने पति के कपड़े वगैरह बैग में रख दिए. पति के जाने के बाद वह अकेली रह गई. घर में बूढ़ी सास के अलावा कोई नहीं था. वह किसी से ज्यादा नहीं बोलती थी. इसीलिए वह चाह कर भी अपने मन की बात किसी से शेयर नहीं कर पाती थी.

रात को आंगन में चांदनी बिखरी थी, जो पूर्णिमा को शीतलता देने की जगह शूल की तरह चुभ रही थी. मन में असंख्य सवाल उठ रहे थे. कभी लगता यह सब झूठ है तो कभी लगता उस का वैवाहिक जीवन खतरे में है. तभी अचानक सास की नजर पूर्णिमा पर पड़ी.

‘‘यहां क्यों बैठी हो?’’

‘‘नींद नहीं आ रही है.’’ कह कर पूर्णिमा उठने लगी.

‘‘इंद्र चला गया इसलिए?’’ इस सवाल का पूर्णिमा ने कोई जवाब नहीं दिया.

इंद्र को ले कर उस के मन में जो चल रहा था, वह उस की निजी सोच थी. उसे सास से साझा करने का कोई औचित्य नहीं था. अनायास उस का मन अतीत की ओर चला गया. पूर्णिमा अपने मांबाप की एकलौती संतान थी. आर्थिक रूप से कमजोर होने के बावजूद उस के पिता ने सिर्फ इंद्र की अच्छी नौकरी देखी और कर दी शादी. काफी दहेज दिया था उन्होंने उस की शादी में. एक ही रात में इंद्र की सामाजिक हैसियत का ग्राफ ऊपर उठ गया था.

तब उसे क्या पता था कि ऐसा भी वक्त आएगा, जब रुपयापैसा सब गौण हो जाएगा. हर महीने सैकड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद उस के मां बनने की संभावना क्षीण नजर आती थी. कभीकभी इंद्र खीझ जाता, तो पूर्णिमा अपनी मम्मी से दवा पर होने वाले खर्चे की बात करती. संपन्न मांबाप उस के खाते में तत्काल हजारों रुपए डाल देते थे.

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इधर कुछ महीने से इंद्र उखड़ाउखड़ा सा रहने लगा था. दोनों में बात कम ही हो पाती थी. उसे भावनात्मक सहारे की जरूरत थी. सोचतेसोचते उस का मन भर आया. अगले दिन अचानक पूर्णिमा के मम्मीपापा आ गए. उन्हें देखते ही वह फफक कर रो पड़ी. बेटी का दुख उन्हें पता था. बोले, ‘‘मायके चलो.’’

पूर्णिमा के लिए यह राहत की बात थी. लेकिन उसे इंद्र की मां का खयाल था. इसलिए मातापिता से कहा, ‘‘सास अकेली रह जाएंगी. इंद्र औफिस के काम से बाहर गए हुए हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं, मैं 2 दिन उस का इंतजार कर लूंगा.’’ पूर्णिमा के पापा बोले.

तीसरे दिन इंद्र आया तो पूर्णिमा ने कहा, ‘‘मैं मायके जाना चाहती हूं.’’

‘‘बिलकुल जाओ,’’ इंद्र निर्विकार भाव से बोला, ‘‘तुम कुछ दिनों के लिए मायके चली जाओगी तो माहौल चेंज हो जाएगा. एक ही माहौल में रहतेरहते ऊब होने लगी है.’’

‘‘पति के साथ रहने में कैसी ऊब? कहीं तुम मुझ से ऊब तो नहीं गए?’’ लेकिन इंद्र ने एक शातिर खिलाड़ी की तरह चुप्पी साध ली. पूर्णिमा बेमन से मायके चली गई.

आगे पढ़ें- पूर्णिमा मायके चली जरूर गई थी, लेकिन…

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जीवनज्योति- भाग 1: क्या पूरा हुआ ज्योति का आई.पी.एस. बनने का सपना

लेखक- मनोज सिन्हा

‘‘इस घर में रुपए के पेड़ नहीं लगा रखे हैं मैं ने कि जब चाहूं नोट तोड़तोड़ कर तुम सब की हर इच्छा पूरी करता रहूं. जूतियों के नीचे दब कर मुनीमगीरी करता हूं उस सेठ की बारह घंटे, तब जा कर एक दिन का अनाज इस परिवार के पेट में डाल पाता हूं.

वर्षों से दरक रही किसी वेदना का बांध अचानक आज ध्वस्त हो गया था. चोट खाए सिंह की भांति दहाड़ उठे थे मुंशी रामप्यारे सहाय.

आंखों से चिंगारियां बरसने लगी थीं. मन के अंदर फूट पड़े ज्वालामुखी का खौलता लावा शब्दों के रूप में बाहर आ कर सब को झुलसानेजलाने लगा था.

सुमित्रा इस घटना से हतप्रभ थी. उस ने आत्मीयता के शीतल जल से इस धधकती ज्वाला को शांत करने की भरसक कोशिश की थी.

‘‘सब जानते हैं जी और समझते भी हैं कि किस मुसीबत से आप इस घर का…’’

‘‘खाक समझते हैं. एक साधारण मुनीम की औलाद होने का उन्हें जरा भी एहसास है? नखरे तो ऐसे हैं इन के जैसे इन का बाप मैं नहीं, कोई कलक्टर, गवर्नर है.’’

‘‘छि:छि:, अब इन बच्चों के साथसाथ आप मुझे भी गाली दे रहे हैं जी, कहां जाएंगे ये? अब आप से अपनी जरूरतों को नहीं कहेंगे तो क्या दूसरे से कहेंगे?’’

‘‘तो क्या करूं मैं? चोरी करूं, डाका डालूं या आत्महत्या कर लूं इन की जरूरतों की खातिर…और यह सब तुम्हारी शह का नतीजा है. बच्चे अच्छे स्कूल- कालिज में पढ़ेंगे, बड़े आदमी बनेंगे, सिर ऊंचा कर के जिएंगे? कुछ नहीं करेंगे ये तीनों. बस, मुझे बेमौत मारेंगे.’’

एक पल को पसर आए सन्नाटे के बाद दूसरे ही पल यह बवंडर ज्योति की ओर बढ़ चला था, ‘‘और तू, किस ने कहा था तुझ से हर महीने फार्म भरने, परीक्षा देने के नाम पर पैसे उड़ाने को? कभी रिटेन, कभी पीटी तो कभी इंटरव्यू, हर महीने मेमसाहब की सवारी तैयार. कभी दिल्ली, कभी पटना, कभी कोलकाता…’’

तिरस्कार का यह अपदंश बिलकुल नया था ज्योति के लिए. बाबूजी का यह विकराल रूप उसे पहले कभी देखने को नहीं मिला था. बड़ीबड़ी आंखों में पानी की एक परत उमड़ आई थी जिसे पलकों पर ही संभाल लिया था ज्योति ने.

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भावनाओं की यह उमड़घुमड़ सुमित्रा की नजरों से छिप न सकी थी. कचोट उठा था मां का दिल, ‘‘देखिए, जो कहना है आप मुझ से कहिए न…ज्योति अब बच्ची नहीं रही, बड़ी हो गई है. एक जवान बेटी को भला इस तरह दुत्कारना…’’

‘‘हां… हां, जवान हो गई है तभी तो कह रहा हूं कि क्यों बोझ बन कर जिंदा है ये मेरी जिंदगी में. किसी नदी, तालाब में जा कर डूब क्यों नहीं मरती. कम से कम एक दायित्व से तो मुझे मुक्ति मिलती.’’

सर्वस्व झनझना उठा था ज्योति का. आहत भावनाएं इस से पहले कि रुदन बन कर बाहर आतीं, दुपट्टे से भींच कर दबा दिया था उस ने अपने मुंह को.

स्वयं को रोकतेथामते सुमित्रा भी बिफर उठी थीं, ‘‘कुछ होश भी है आप को?’’

‘‘होश है, तभी तो बोल रहा हूं कि आज अगर इस की जगह घर में बेटा होता तो कमा कर लाता. परिवार का सहारा होता. मगर यह लड़की तो अभिशाप है, एक अभिशाप.’’

‘‘हद करते हैं आप भी, अगर यह लड़की है तो क्या यह इस का दोष है?’’

‘‘हां, यह लड़की है. यही दोष है इस का. मुझ गरीब की कुटिया में सांसें ले कर इतनी जल्दी जवान हो गई, यह दोष है इस का. और इस घर में 3-3 लड़कियां ही पैदा कीं तुम ने. यह दोष है तुम्हारा,’’ कहतेकहते मुंशीजी का स्वर रुंधने लगा था.

‘‘आज पता नहीं क्या हो गया है आप को. आप जैसा धैर्यवान और समझदार इनसान भी ऐसी घटिया बात सोच सकता है. इस मानसिकता के साथ बोल सकता है, मैं ने तो कभी कल्पना तक नहीं की थी.’’

‘‘तो मैं ने कब कल्पना की थी कि सीमित आय की जरूरतें इतनी असीमित हो जाएंगी. तुम्हीं बताओ कि खानेदाने के लिए अपनी पगार खर्च करूं या पेट पर पत्थर बांध कर इस के ब्याह के लिए रोकड़े जमा करूं. उस पर से इस लड़की के यह चोंचले कि बड़ा आफीसर ही बनना है. कंगले की ड्योढ़ी पर बैठ कर आसमान झुकाने चली है. जब तक जिंदा रहेगी इस बाप की छाती पर बैठ कर मूंग ही तो दलेगी…’’ और इसी के साथ फफक पड़े थे स्वयं मुंशीजी भी.

मुंशीजी की यह हुंकार आर्तनाद बन इस कमरे में पसर गई थी और वहां खड़ा हर व्यक्ति सन्नाटे की चादर को ओढ़ कर खुद को इस हादसे का कारण मान बैठा था.

ज्योति इस बार दिल्ली से सिविल सर्विसेज का साक्षात्कार दे आई थी. संतुष्ट तो थी ही इस परीक्षा से, मगर उस के भरोसे ही बैठ जाना, संघर्षों की इतिश्री करना न तो बुद्धिमानी थी न ही उस की मानसिकता. बैंक प्रोबेशनरी आफीसर का फार्म भरना था, कल 150 रुपए का ड्राफ्ट बनवाना है उसे, बस, इतना ही तो मां से बाबूजी को कहलवाया था कि वह हत्थे से उखड़ गए थे. क्याक्या नहीं कह डाला उन्होंने.

नीतू और पिंकी ने भी बाबूजी का ऐसा रौद्र रूप पहले कभी नहीं देखा था. दोनों अब तक भीतर ही भीतर कांप रही थीं.

इस हादसे ने ज्योति की हर आकांक्षा, हर उम्मीद का गला घोंट दिया था. सकते का आवरण ढीला पड़ते ही मनोबल और धैर्य भी साथ छोड़ गए थे. अचानक टीसने लगा उस का अंतर्मन. सुबकती, सिसकती ज्योति एक चीत्कार के साथ रो पड़ी थी. और इन असह्य परिस्थितियों का बोझ उठाए सरपट वह अपने कमरे की ओर भागी थी.

‘‘चैन मिल गया आप को. दूर हो गया सारा पागलपन, क्याक्या नहीं कह डाला आप ने ज्योति को?

‘‘एक छोटी सी बात पर इतना बड़ा कुहराम…जवान बेटी है, इतना भी नहीं सोचा आप ने. यदि उस ने कुछ ऊंचनीच कर लिया तो कहीं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहेंगे हम…’’ सुमित्रा के रुंधते गले ने शब्दों का दामन छोड़ दिया था. टपकते आंसुओं को पोंछती हुई वह भी कमरे से निकल गई थी. नीतू और पिंकी भी मां के पीछेपीछे चल पड़ी थीं.

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इस कमरे में अकेले मुंशीजी ठगे से रह गए थे. एक ऐसा दावानल जिस की तपिश में झुलस कर सभी अपने उन से दूर हो गए थे. आंखें अब भी नम थीं. मुंशीजी खुद ब खुद ही बुदबुदा उठे थे, ‘ताना मारेगी, दुनिया मुझ पर थूकेगी. एक मैं ही तो बचा हूं सारी दुनिया में अकेला. सब का दोषी है ये मुंशी रामप्यारे सहाय. ढाई हजार पगार पाने वाला, 3-3 लड़कियों का गरीब, लाचार बाप.’

उधर कमरे में कुहनियों के बीच मुंह छिपा कर ज्योति रोती ही जा रही थी. मां का स्नेहिल स्पर्श भी आज उसे ममता- विहीन लग रहा था. उसे लग रहा था जैसे वह सचमुच एक लाश है, एक चेतना -शून्य देह. कोई बाहरी स्पर्श, कोई अनुभूति, कोई संवेदना, कोई सांत्वना उसे अर्थहीन लग रही थी. बस, कलेजे में रहरह कर एक हूक सी उठती थी और अविरल अश्रुधार निकल पड़ती थी.

सुमित्रा ने खूब सहलायासमझाया था उसे. वस्तुस्थिति के इस पीड़ादायक धरातल पर बाबूजी की मनोदशा विश्लेषित करती हुई सुमित्रा ने यह जताने की कोशिश की थी कि किसी भी व्यक्ति के लिए इस तरह अचानक बरस पड़ना कोई असामान्य बात नहीं थी. नीतू और पिंकी ने भी दीदी को बहलाने, गुदगुदाने, रिझाने की बहुत कोशिश की थी, मगर सब व्यर्थ.

जिज्ञासावश नीतू ने मां से एक संजीदा सा सवाल पूछ ही लिया, ‘‘मां, लड़की होना क्या सच में एक सामाजिक अभिशाप है?’’

‘‘नहीं, बेटी, इस संसार में लड़की हो कर पैदा होना बड़े सौभाग्य की बात है, गर्व की बात है. हां, ‘औरत’ जाति नहीं नीतू, ‘गरीबी’ अभिशाप है… गरीबी?’’ यह वाक्य सुमित्रा का सिर्फ उत्तर ही नहीं, बल्कि भोगा हुआ यथार्थ था.

शरद की सर्द रात. घर में एक अजीब सी खामोशी थी. नीतू और पिंकी तो गहरी नींद में थीं मगर ज्योति, सुमित्रा और मुंशीजी की बंद आंखों में शाम की घटना का असर अब तक भरा था. मुंशीजी बारबार करवट बदल रहे थे. सुमित्रा ने जानबूझ कर उन्हें छेड़ना उचित नहीं समझा था.

कहने को तो मुंशीजी सबकुछ कह गए थे मगर अब अवसादों ने उन्हें धिक्कारना शुरू कर दिया था. उन के मुंह से निकला एकएक शब्द उन्हें नागफनी के बड़ेबड़े झाड़ में तब्दील हो कर उन की आत्मा तक को छलनी कर रहा था.

मुंशीजी की आंखों के सामने ज्योति का रोताबिलखता चेहरा जितनी बार घूम जाता उतनी बार वह कलप उठते थे.

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लौकडाउन- भाग 2 : जब बिछड़े प्यार को मिलवाया तपेश के दोस्त ने

लेखिका- सावित्री रानी

सभी दोस्त वापस होस्टल चले गए.

सुबह जब पीयूष की आंख खुली तो देखा कि तपेश भी वहीं बराबर वाले बैड पर सो रहा था.

‘‘अरे, तू यहां क्या कर रहा है? तु  झे तो रात भर पढ़ना था न?’’ पीयूष ने हैरानी से पूछा

‘‘अरे नहीं यार. सोना ही था, तो यहीं सो गया.’’

तभी कंपाउंडर और डाक्टर दोनों साथ में दाखिल हुए. कंपाउंडर डाक्टर से बोला, ‘‘सौरी डाक्टर साहब रात को नींद लग गई तो

हर घंटे पर बुखार चैक नहीं कर सका, लेकिन मैं ने इंजैक्शन दे दिया था.’’

डाक्टर ने पीयूष के बैड साइड से चार्ट उठाते हुए कहा, ‘‘लेकिन चार्ट में तो हर घंटे की रीडिंग है.’’

इस के साथ ही पीयूष की निगाहें तपेश की ओर घूमीं तो वह आंखें मिचका कर मुसकरा दिया.

थोड़ी देर में पीयूष की मां का फोन आया, ‘‘बेटा अब कैसी तबीयत है?’’

‘‘ठीक है मां.’’

‘‘तपेश तेरे पास ही था न?’’

‘‘हां मां, लेकिन आप को कैसे पता?’’

‘‘मैं ने ही उसे तेरा ध्यान रखने को बोला था, जब वह हमारे घर आया था. बहुत प्यारा लड़का है. आज तु  झे भी बोल रही हूं. हमेशा उस का ध्यान रखना. प्रौब्लम में उसे कभी अकेला मत छोड़ना.’’

‘‘कभी नहीं मां.’’

वक्त की रफ्तार यूनिवर्सिटी में कुछ ज्यादा ही तेज होती है. 4 साल पलक   झपकते ही बीत गये. कालेज के इन 4 सालों ने सभी दोस्तों को इंजीनियरिंग की डिगरी दे कर उन के पंखों को नई उड़ान के लिए मजबूत कर दिया था और उन्हें एक नए आकाश पर अपने नाम लिखने के लिए खुला छोड़ दिया था.

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पीयूष और रिया की खूबसूरत जोड़ी के प्यार का पौधा भी अब तक एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था.

फिर हरकोई अपने कैरियर के चलते कहांकहां जा बसा, हिसाब रखना भी मुश्किल हो गया. इन की उड़ान देश के हर शहर से ले कर विदेशों तक उड़ चली थी.

धीरेधीरे सब की शादियां होने लगीं. तपेश की शादी एक मध्यवर्गीय  परिवार की पढ़ीलिखी लड़की शालू से हो गई. जाहिर है अरेंज्ड मैरिज थी, लेकिन दोनों की अच्छी निभ रही थी. 1 साल बाद शालू ने बेटे को जन्म दिया तो ऐसा लगा कि घर खुशियों से भर गया.

उधर पीयूष और रिया दोनों को भी अच्छी नौकरी मिल गई थीं. लेकिन वे दोनों अभी शादी नहीं करना चाहते थे. कुछ और दिन अपनी बैचलर लाइफ ऐंजौय करना चाहते थे. कभीकभी तपेश को लगता कि पीयूष यहां भी बाजी मार गया. जहां वह घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां निभा रहा था वहीं पीयूष अभी भी बैचलर लाइफ की मस्ती ले रहा था.

लेकिन अपने प्यारे से बेटे को गोद में ले कर जब तपेश उसे प्यार करता तो उस के सामने दुनिया की हर नेमत छोटी लगती थी. जब उस ने अपना पहला शब्द ‘पप्पा’ बोला तो तपेश उसे गोद में उठा कर खुशी से   झूम उठा और जैसे खुद से ही बोला कि इस एक पल पर सारी मस्तियां वारी जा सकती हैं.

अगले साल बड़ी धूमधाम से पीयूष और रिया की भी शादी हो गई. शादी के कुछ दिन बाद ही पीयूष को किसी असाइनमैंट के लिए विदेश जाना पड़ा. फिर पता नहीं क्यों और कैसे, लेकिन वापस आते ही रिया ने उस के सामने तलाक की मांग रख दी.

पीयूष का प्यार आज तक उस की किसी मांग को नकार नहीं सका था लिहाजा, इस मांग को भी उस की खुशी मान कर न नहीं कर पाया. म्युचुअल कंसर्न से तलाक हो गया. यह शादी उतने दिन भी नहीं चली जितने दिन उस की तैयारियां चली थीं. गलती किस की थी या क्या थी, इन सब बातों की फैसले के बाद कोई अहमियत नहीं रह जाती. कुछ दिन बाद उड़ती सी खबर सुनी कि रिया ने उस से शादी कर ली, जिस के लिए उस ने पीयूष को छोड़ा था.

इधर तपेश की पत्नी शालू ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया. परिवार में इस इजाफे के साथ ही उन का परिवार भी पूरा हो गया और हर अरमान भी.

उधर पीयूष का तलाक हुए काफी वक्त बीत चुका था. सभी के सम  झानेबु  झाने के बाद भी फिर उस का मन किसी की ओर नहीं   झुका. रिया से टूटे हुए रिश्ते ने उस को इस कद्र तोड़ दिया कि फिर वह किसी से जुड़ ही नहीं सका.

अब तपेश को साफ दिखाई दे रहा था कि पीयूष के नंबर कहां कटे हैं. अब वह सौ नंबर वाली फिलौसफी उसे पूरी तरह कन्विनसिंग लग रही थी.

पीयूष की उम्र पैसा कमाने और दोस्तों से मिलनेमिलाने में ही बीत रही थी. उस का मिलनसार व्यवहार और गाने का शौक हर महफिल में जान डाल देता था. अपने हर दोस्त के घर उस का स्वागत प्यार से होता था. हर परिवार में उस के दिए गए तोहफे न सिर्फ यूजर मैनुअल के साथ आते, बल्कि इस इंस्ट्रक्शन के साथ भी आते कि घर में उन को कहां रखना है.

अपने कलात्मक सु  झाव और मस्तमौला अंदाज के कारण वह दोस्तों की पत्नियों के बीच भी उतना ही पौपुलर था जितना दोस्तों के बीच. दुनिया के न जाने कितने देशों में अपने काम के सिलसिले में पीयूष का जाना हुआ, लेकिन हर बार अपने नीड़ में पंछी अकेला ही लौटा.

अब 45 साल की उम्र में गुरुग्राम के एक लग्जरी अपार्टमैंट में वह अकेला रह रहा था.

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सारी रात तपेश इन्हीं यादों में डूबतातैरता रहा. तभी सूरज की एक किरण ने उस के बैडरूम की खिड़की पर दस्तक दी. शालू की आंख खुली तो वह तपेश की ओर देख कर बोली, ‘‘अरे आज तो बड़ी जल्दी उठ गए.’’

‘‘नहीं, असल में मैं सोया ही नहीं,’’ कह कर उस ने शालू को पीयूष के बारे में सब बताया.

‘‘उफ, सो सैड…’’ तो चलो फिर हम अस्पताल चलते हैं.

‘‘नहीं, तुम घर पर बच्चों के पास रुको, मैं जाता हूं.’’

तपेश तैयार हो कर वक्त से कुछ पहले ही अस्पताल पहुंच गया और आईसीयू की विंडो से पीयूष को देखता रहा. डाक्टर ने उसे बताया, बात कर के उसे पता चला कि रात को करीब 1 बजे उसे अस्पताल लाया गया था. हार्टअटैक सीवियर था, लेकिन कुदरत का शुक्र है कि समय पर सहायता मिल गई. अब स्थिति काबू में है. बाकी अपडेट्स शाम को दे पाऊंगा,’’ कह कर डाक्टर जल्दी से चला गया.

तपेश पूछता ही रह गया. अरे, लेकिन डाक्टर उसे अस्पताल लाया कौन था?

तभी उस ने देखा कि एक औरत उसी डाक्टर को आवाज लगाती हुई आई और उस  से पीयूष के बारे में पूछताछ करने लगी. तपेश हैरानी से उस की ओर देख रहा था. वह करीब 35-40 साल की खूबसूरत औरत थी, जो इंडियन तो नहीं थी. वह फ्रैंच एकसैंट में इंग्लिश बोल रही थी, उस से साफ जाहिर था कि वह किसी इंग्लिश स्पीकिंग देश से भी नहीं है.

पहनावे से तो वह काफी कुछ आजकल की मौडर्न औरतों जैसी ही लग रही थी, लेकिन नैननक्श से कुछकुछ अरबी लग रही थी. लेकिन उस की फ्रैंच एकसैंट में इंग्लिश सुन कर तपेश को लगा कि शायद वह लैबनान या ईजिप्ट से हो सकती है.

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दोहरे मापदंड

विश्वास के घातक टुकड़े- भाग 2 : इंद्र को जब आई पहली पत्नी पूर्णिमा की याद

पूर्णिमा मायके चली जरूर गई थी, लेकिन उस का मन इंद्र पर ही टिका रहा. सोच रही थी कि अब तो वह आजाद पंछी की तरह रहेगा. पता नहीं वह क्या करता होगा. मन नहीं माना तो उस ने इंद्र को फोन लगाया.

‘‘कौन?’’ उधर से आवाज आई.

‘‘अब तुम्हें मेरी आवाज भी पहचान में नहीं आ रही.’’ पूर्णिमा ने उखड़े स्वर में कहा.

‘‘पूर्णिमा, तुम से बाद में बात करूंगा.’’ कह कर इंद्र ने काल डिसकनेक्ट कर दी.

इस दरमियान उस के कानों में कुछ ऐसी आवाजें आईं मानो कोई पिक्चर चल रही हो. घड़ी की तरफ देखा, शाम के 5 बज रहे थे. शक के कीड़े फिर कुलबुलाए. इंद्र कहीं अपनी उसी सहकर्मी के साथ पिक्चर तो नहीं देख रहा. सोच कर पूर्णिमा की बेचैनी बढ़ गई. पूर्णिमा की मां की नजर उस पर पड़ी, तो वह बोलीं, ‘‘यहां अकेले क्यों बैठी हो?’’

‘‘तो कहां जाऊं?’’ पूर्णिमा झल्लाई.

‘‘जब से आई हो परेशान दिख रही हो. इंद्र से कुछ कहासुनी तो नहीं हो गई.’’ मां ने पूछा.

‘‘हांहां, मैं ही बुरी हूं. झगड़ालू हूं.’’ पूर्णिमा रुआंसी हो गई. मां ने करीब आ कर स्नेह से उस के सिर पर हाथ फेरा तो वह शांत हो गई.

पूर्णिमा को मायके में रहते 15 दिन हो गए. इस बीच एक दो बार इंद्र का फोन आया लेकिन मात्र औपचारिकता के लिए. एक दिन पूर्णिमा की सास का फोन आया, ‘‘पूर्णिमा, कब आ रही हो?’’

‘‘मम्मीजी, मैं जानती हूं आप को मेरी फिक्र है, लेकिन इंद्र ने एक बार भी नहीं कहा कि आ जाओ. जब उसे मेरी जरूरत ही नहीं है तो मैं आ कर क्या करूंगी.’’ पूर्णिमा ने कहा.

‘‘ऐसे कैसे हो सकता है, उस ने तो तुम्हें कई बार फोन किए.’’ सास बोलीं.

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‘‘वह तो कह रहा था कि तुम आने के लिए तैयार नहीं हो.’’

सास की बात सुन कर पूर्णिमा तिलमिला गई. अब इंद्र झूठ भी बोलने लगा था. काफी सोचविचार कर पूर्णिमा ने वापस ससुराल जाने का मन बनाया. इंद्र के मन में क्या चल रहा है, यह जानना उस के लिए बेहद जरूरी था. वह अपनी ससुराल चली गई.

इंद्र ने अचानक आई पूर्णिमा को देखा तो अचकचा गया. बोला, ‘‘बताया होता तो मैं लेने आ जाता.’’

‘‘तुम्हें फुरसत हो तब न?’’ पूर्णिमा के चेहरे पर व्यंग्य की रेखाएं खिंच गईं.

इंद्र ने पूर्णिमा को मनाने की कोशिश की, ‘‘आज शाम को पिक्चर चलते हैं.’’

‘‘नहीं जाना मुझे पिक्चर.’’ वह बोली.

‘‘जैसी तुम्हारी मरजी.’’ कह कर इंद्र अपने दूसरे कामों में लग गया.

एक रात इंद्र गंभीर था. पूर्णिमा को अहसास हो गया था कि उस के मस्तिष्क में कुछ चल रहा है. उस वक्त पूर्णिमा कोई किताब पढ़ रही थी. लेकिन बीचबीच में इंद्र के चेहरे पर आतेजाते भावों को चोर नजरों से देख लेती थी.

‘‘पूर्णिमा, मैं अंजलि से शादी करना चाहता हूं.’’ इंद्र का इतना कहना भर था कि पूर्णिमा की जिंदगी में भूचाल सा आ गया. उस ने किताब एक तरफ रखी, ‘‘मेरा शक ठीक निकला. अंजलि नाम है न उस का. बहुत खूब.’’ पूर्णिमा हंसी.

इस हंसी में रोष भी था तो बेवफाई की एक गहरी पीड़ा भी, जिस का अहसास सिर्फ उस स्त्री को ही हो सकता है, जिस ने पति को देवता मान कर अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया हो.

‘‘तुम ऐसा सोच भी कैसे सकते हो? अभी मैं जिंदा हूं.’’ वह बोली.

‘‘काफी सोचविचार कर मैं ने यह फैसला लिया है.’’ इंद्र ने कहा, ‘‘डाक्टर ने साफ कह दिया है कि तुम्हारे मां बनने की संभावना क्षीण है.’’

‘‘नहीं बनूंगी. मगर इस घर में सौतन कभी नहीं आएगी. कैसी बेगैरत लड़की है. एक शादीशुदा मर्द को फंसाया और तुम कैसे पुरुष हो जिस ने लाज, शरम, सब को ताक पर रख कर एक लड़की को जाल में फांस लिया.’’

‘‘वह स्वयं तैयार है.’’

‘‘मैं तुम से बहस नहीं करना चाहता. बात काफी बढ़ चुकी है. वह पेट से है.’’

‘‘बगैर शादी के?’’ वह चौंकी.

‘‘उस की इजाजत तुम से चाहता हूं.’’

‘‘न दूं तो?’’

‘‘तुम्हारी मरजी. अगर तुम मां बन सकती तो यह नौबत ही नहीं आती.’’

‘‘सोचो, अगर तुम बाप नहीं बन पाते और मैं यही रास्ता अपनाती, तब क्या तुम मुझे ऐसी ही इजाजत देते?’’ इंद्र के पास इस का कोई जवाब नहीं था.

पूर्णिमा की मनोदशा अब एक परकटे परिंदे की तरह हो गई. जब कुछ नहीं सूझा तो वह गुस्से में बोली, ‘‘बताओ, तुम ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा क्यों किया? क्यों मेरे अस्तित्व को गाली दी? क्या सोचा था कि मेरी नाक के नीचे व्यभिचार करोगे और मैं चुप बैठी रहूंगी.’’

‘‘तो जाओ चिल्लाओ. कुछ मिलने वाला नहीं है.’’ इंद्र भी ढिठाई पर उतर आया.

‘‘अगर न चिल्लाऊं तो?’’

‘‘बड़ी मां का दरजा मिलेगा.’’ इंद्र ने कहा.

‘‘तुम्हारी उस रखैल के बच्चे की बड़ी मां का दरजा घिन आती है मुझे उस के नाम से.’’ इंद्र ने गुस्से में पूर्णिमा को मारने के लिए हाथ उठाया.

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‘‘खबरदार, जो मुझे हाथ भी लगाया.’’ पूर्णिमा के तेवर देख कर इंद्र ने हाथ पीछे खींच लिया. उस रात जो कुछ हुआ, उस से पूर्णिमा का मन व्यथित था. सुबह उस का किसी काम में मन नहीं लगा. वह बीमारी का बहाना बना कर लेटी रही. इंद्र औफिस चला गया तब उठी. सास ने पूर्णिमा का हाल पूछा.

डायनिंग कुरसी पर बैठी पूर्णिमा बोली, ‘‘मांजी, इंद्र दूसरी शादी करना चाहता है. क्या आप इस के लिए तैयार हैं?’’

कुछ पल सोच कर वह बोलीं, ‘‘यह इंद्र का निजी मामला है, इस में मैं कुछ नहीं कर सकती.’’

‘‘इस का मतलब इंद्र के इस फैसले पर आप को कोई आपत्ति नहीं है?’’ पूर्णिमा ने पूछा.

‘‘देखो पूर्णिमा, हर आदमी बाप बनना चाहता है. उस ने भरसक प्रयास किया. जब डाक्टरों ने तुम्हारे बारे में साफसाफ कह दिया. तो वह जो कर रहा है उस में मैं कुछ भी नहीं कर सकती.’’

‘‘ऐसे कैसे हो सकता है कि एक छत के नीचे मेरी सौत रहे?’’

‘‘यह तुम्हें सोचना होगा. रही मानसम्मान की बात, तो मैं जब तक रहूंगी तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी.’’

‘‘न रही तब?’’ पूर्णिमा ने कहा तो सास ने कोई जवाब नहीं दिया.

इंद्र औफिस से देर से आया. आने के बाद कपड़े उतार कर बिना खाएपीए बिस्तर पर पड़ गया. पूर्णिमा सोच रही थी कि किस हक से इंद्र से मनुहार करे. पर मन नहीं माना.

‘‘खाना लगा दूं?’’

‘‘मैं खा कर आया हूं.’’ सुनते ही पूर्णिमा का पारा चढ़ गया. क्योंकि वह जानती थी कि खाना किस के साथ खाया होगा. गुस्से में पूर्णिमा भी बिना खाएपीए अलग बिस्तर लगा कर सोने चली गई.

नींद आने का सवाल ही नहीं था. बारबार मन एक ही बात पर आ टिकता. इंद्र के बारे में उस ने जैसा सोचा था, वह उस से अलग निकला. उसे सपने में भी भान नहीं था कि वह ऐसा कदम भी उठा सकता है.

‘‘क्या सोचा है तुम ने?’’ इंद्र का स्वर अपेक्षाकृत धीमा था.

‘‘जब तुम ने फैसला ले ही लिया है तो मैं कुछ नहीं कर सकती. पर इतना जरूर बता दो कि मेरी इस घर में क्या स्थिति होगी? स्वामिनी या नौकरानी. अर्द्धांगिनी तो अब कोई और कहलाएगी.’’ पूर्णिमा भरे मन से बोली.

‘‘तुम्हारा दरजा बरकरार रहेगा?’’ इंद्र का चेहरा खिल गया.

‘‘रात का बंटवारा कैसे करोगे?’’ पूर्णिमा के इस अप्रत्याशित सवाल पर वह सकपका गया. जब कुछ नहीं सूझा तो उलटे उसी पर थोप दिया.

पूर्णिमा गुस्से में बोली, ‘‘अंजलि से प्यार मुझ से राय ले कर किया था?’’

इंद्र पूर्णिमा के कथन पर झल्ला गया, ‘‘पुराने पन्ने पलटने से कोई फायदा नहीं.’’

पूर्णिमा ने यह खबर अपने मायके पहुंचा दी. उस के मम्मीपापा, भाईबहन सभी रोष से भर गए. पापा तल्ख स्वर में बोले, ‘‘पूर्णिमा, तुम यहीं चली आओ. कोई जरूरत नहीं है, उस के पास रहने की.’’

‘‘वहां आ कर क्या मिलेगा? एक नीरस उबाऊ जिंदगी. सब का अपनाअपना लक्ष्य रहेगा, वही मेरे लिए एक बांझ स्त्री का अभिशप्त जीवन. बहुत होगा किसी स्कूल में नौकरी कर लूंगी. क्या इस से मेरा दुख कम हो जाएगा?’’ कहतेकहते पूर्णिमा की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘मैं तुम्हारी दूसरी शादी करवा दूंगा.’’ पापा बोले.

‘‘कोई जरूरत नहीं है. वहां भी दूसरे के बच्चे पालने होंगे. इस से अच्छा सौतन के ही खिलाऊं.’’

‘‘मैं उसे जेल भिजवा दूंगा.’’ पिता ने कहा.

‘‘उस से मिलेगा क्या? बेहतर है कि समय का इंतजार करूं. हो सकता है मेरी गोद भर जाए.’’ पूर्णिमा ने आशा नहीं छोड़ी थी. अंतत: इंद्र से अपनी मर्जी से अंजलि के साथ शादी कर ली. उस की पत्नी बन कर वह घर में आ गई.

औफिस से आ कर इंद्र सब से पहले पूर्णिमा के कमरे में आता था. पर जल्द ही उसे पूर्णिमा से ऊब होने लगी थी. अंजलि की खुशबू वह पूर्णिमा के कमरे तक महसूस करता. फिर तेजी से चल कर उस के पास जाता. अंजलि उसी के इंतजार में सजधज कर तैयार बैठी रहती. गोरीचिट्टी अंजलि जब होंठों पर लिपस्टिक लगाती तो उस के होंठ गुलाब की पंखुडि़यां जैसे लगते थे.

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एक हफ्ते बाद पहली बार इंद्र रात बिताने पूर्णिमा के पास आया.

पूर्णिमा को कहीं न कहीं विश्वास था कि वह मां अवश्य बनेगी. बेमन से उस के पास 2 घंटे बिता कर वह अंजलि के पास चला गया. पूर्णिमा अपने अरमानों का कत्ल होते देखती रही. इंद्र उस की भावनाओं को रौंद रहा था. सोचतेसोचते उस की आंखें भीग गईं.

एक दिन वह भी आया, जब अंजलि मां बनने वाली थी. इंद्र काफी परेशान था. पूर्णिमा से बोला, ‘‘हो सके तो अस्पताल में तुम रह जाओ. पता नहीं किस चीज की जरूरत हो.’’

यह सुन कर पूर्णिमा का दिल भर आया. वह सोचने लगी कि आज इंद्र, अंजलि के लिए कितना परेशान है. अगर वह सक्षम होती तो उस की परेशानी पर उस का हक होता. पूर्णिमा की आंखों में आंसू छलक आए. इंद्र की नजर उस पर पड़ी, ‘‘रोनेधोने से क्या मिलने वाला है. खुशियां मनाओ कि इस घर में एक चिराग जलने वाला है. जिस की रोशनी में हम सब नहाएंगे.’’

‘‘सिर्फ तुम दोनों.’’ वह बोली.

‘‘वह तुम्हें बड़ी मां कहेगा.’’ इंद्र ने खुश हो कर कहा.

‘‘नहीं बनना है मुझे किसी की बड़ी मां.’’ पूर्णिमा गुस्से में बोली.

इंद्र जाने लगा तो कुछ सोच कर पूर्णिमा ने कहा, ‘‘किस नर्सिंगहोम में जाना होगा?’’

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जीवनज्योति- भाग 2: क्या पूरा हुआ ज्योति का आई.पी.एस. बनने का सपना

लेखक- मनोज सिन्हा

ज्योति तो उन के दिल का टुकड़ा थी, उसे मर जाने तक को कह दिया उन्होंने. कैसे निकली यह बात उन की जबान से. खुद को धिक्कारते हुए बिस्तर से उतर कर विक्षिप्तों की तरह टहलने लगे थे मुंशीजी. बारबार एक ही यक्षप्रश्न, आखिर कैसे हुआ यह हादसा?

आत्मग्लानि की आग से पसीज उठा था उन का सर्वस्व. यह सोच कर अपने कमरे से निकल गए थे कि ज्योति बिटिया को सारा अंतर्द्वंद्व, सारी व्यथा सुना कर पश्चात्ताप कर लेंगे.

…इस बार मुंशीजी की व्यथा सुमित्रा नहीं सह सकी. लौट कर बिस्तर पर उन के लेटते ही धीरे से उन के सीने पर हाथ रखा था सुमित्रा ने. करवट बदल कर मुंशीजी ने भी देखा था सुमित्रा की बंद पलकों से सहानुभूति की बूंदें अब भी लुढ़क रही थीं.

आंख लगी ही थी कि अचानक चिहुंक कर जाग गई ज्योति.

बाबूजी का क्रोध एवं आवेश में फुंफकारता चेहरा अवचेतन से निकल कर बारबार उसे डरा रहा था. प्रतिध्वनित हो रही थी वही सारी दिल दरकाती बातें जो उस के अंतस में बहुत दूर जा कर धंस गई थीं. इस असह्य पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए ज्योति कईकई प्रयास कर चुकी थी, पर सब बेकार.

अचानक ही उस का चेहरा सख्त हो गया. आंखों में बेगानेपन का एक ऐसा मरुस्थल उतर आया था जहां मोहमाया, वेदनासंवेदना, मानअपमान के न तो झाड़झंखाड़ थे और न ही आंसूअवसाद का कोई अस्तित्व. एक निर्णय ने उस के भय के सारे अंतर्द्वंद्वों को धो डाला था और दरवाजे का सांकल खोल, अमावस की इस काली निशा में वह गुम हो गई थी.

वह अपने घर से जितनी दूर होती जा रही थी, बाबूजी का स्वर अनुगूंज अंतस में और अधिक शोर मचाने लगा था. वह जल्द से जल्द उस पुल पर पहुंच जाना चाहती थी जहां नदी का अथाह पानी उसे इन तमाम पीड़ाओं से मुक्ति दिला कर अपने आगोश में बहा ले जाता. दूर, बहुत दूर.

इस धुन में उस की चाल तेज, और तेज होती जा रही थी. बाहर में गूंजते बाबूजी के शब्द ‘मरती क्यों नहीं…नदी, तालाब में डूब क्यों नहीं जाती…बोझ है…अभिशाप है…’ और अंदर में जान दे देने की, खुद को मिटा देने की एक खीझभरी जिद.

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अचानक ज्योति को लगा कि बाबूजी की आवाज के साथसाथ कहीं से कोई दूसरा स्वर भी घुलमिल कर आ रहा है. उस ने थोड़ा थम कर उस आवाज को गौर से सुननेसमझने की चेष्टा की थी. हां, कोई तो था जो दबे स्वर में उसे बारबार पुकार रहा था, ‘ज्योति…ज्योति…ज्योति…’

एक पल को ठिठक गई ज्योति. पलट कर उस ने चारों ओर देखा तो कोई नहीं था दूरदूर तक. तो फिर कौन है इस निर्जन वन में जो उसे आवाज दे रहा था.

‘‘आत्महत्या करने जा रही हो ज्योति,’’ करीब आता स्वर सुनाई दिया ज्योति को.

ज्योति ने खीज कर पूछा था, ‘‘देखो, तुम जो भी हो मेरे सामने आ कर बात करो. मुझे डराने की कोशिश मत करो. आखिर कौन हो तुम?’’ ज्योति ने अपना मन कड़ा किया था.

‘‘मौत के जिस रास्ते पर तुम जा रही हो उसी रास्ते में मैं तुम्हारे सामने हूं, ज्योति.’’

कानों पर तो यकीन हो रहा था, मगर कहीं आंखें तो धोखा नहीं दे रही हैं उसे. पलकों को कस कर भींचा और झपकाया था ज्योति ने. विस्फारित नेत्रों से इस अंधेरे की खाक छान रही थी वह. कुछ भी तो नहीं था आसपास.

‘‘सामने? खड़े हो तो दिखाई क्यों नहीं देते?’’

‘‘इसलिए कि तुम मुझे देखना नहीं चाहतीं. देखो, मैं ठीक तुम्हारे सामने आ कर खड़ा हो गया हूं देख रही हो मुझे?’’

‘‘नहीं…मगर तुम चाहते क्या हो, कौन हो तुम?’’ गहराते रहस्य ने ज्योति की व्यग्रता को और उत्प्रेरित किया था.

‘‘मुझे अनदेखा कर रही हो तुम. जरा दिल की गहराइयों में मन की आंखों से देखो, ज्योति…मैं जीवन हूं.’’

‘‘जीवन, कौन जीवन? मैं किसी जीवन को नहीं जानती…’’

‘‘तुम जैसी समझदार लड़की के मुंह से इस तरह की बातें अच्छी नहीं लगतीं. मुझे पहचानो. मैं जीवन हूं, तुम्हारा जीवन.’’

‘‘बकवास बंद करो और हट जाओ मेरे रास्ते से.’’

अदृश्य तत्त्व का स्वर फिर ज्योति के कानों से टकराया था, ‘‘ठीक है, तुम्हारे रास्ते से हट जाऊंगा, मगर मुझे बता दो कि क्या तुम सचमुच आत्महत्या करने जा रही हो या…’’

‘‘जी हां, मैं सच में आत्महत्या ही करने जा रही हूं. पुल से नदी में कूद कर जान दे दूंगी, और कुछ?’’

एक क्षण की खामोशी और फिर, ‘‘अरे हां, सुनो? ज्योति, जब तक तुम मर नहीं जातीं, तब तक क्या मैं तुम्हारे साथ चल सकता हूं? इस बीच बातें करते हुए तुम्हारा यह अंतिम सफर भी अच्छे से कट जाएगा…तो चलूं तुम्हारे साथ?’’

‘‘तुम आओ या जाओ, मेरी बला से,’’ एकदम से भन्ना कर बोली ज्योति.

और एक झटके के साथ आगे बढ़ी तो अनजान रास्ता और उस पर से किसी अदृश्य रहस्य की उपस्थिति का आभास. इसी घबराहट में किसी कटे पेड़ के ठूंठ से जा टकराई और दर्द से बिलबिला उठी थी.

फिर वही आवाज, ‘‘चोट लग गई न. बिना सोचेसमझे तुम कितने दुर्गम रास्ते पर निकल पड़ी हो, ज्योति.’’

‘मर नहीं जाऊंगी इन छोटीमोटी ठोकरों से,’ क्रोध के मनोवेग से चीखती हुई बड़बड़ाने लगी थी, ‘…बहुत चोटें सही हैं मैं ने अपने कलेजे पर…मर तो नहीं गई मैं. हां, मरूंगी…आत्महत्या करूंगी. मुझे चोट लगे, तुम्हें इस से क्या मतलब?’

‘‘नहीं, कोई मतलब नहीं. मगर मैं नहीं चाहता कि मरने से पहले तुम्हारे शरीर पर कोई चोट लगे. क्योंकि तुम्हारी चोट से मैं भी आहत होता हूं. जानती हो ज्योति, आत्महत्या में ऐसा भी होता है कि कई बार आदमी मर नहीं पाता. टूटफूट कर एक लंगड़ेलूले, अपंगता की जिंदगी जीता है. तब वह दोबारा आत्महत्या का प्रयास भी नहीं करता. क्योंकि एक बार के प्रयास का कठोर एहसास जो उसे होता है.’’

खामोश रहना ही उचित समझा था उस ने. कदम और तेज हो गए थे उस के संकल्पित लक्ष्य की ओर. तभी जीवन ने फिर पूछा, ‘‘तुम आत्महत्या क्यों करना चाहती हो?’’

इस तरह चुप रह कर आखिर कब तक वह इस आफत को टालती. गरज उठी थी, ‘‘क्या बताऊं मैं, क्या दुखड़ा रोऊं मैं, तुम जैसे अनजान, अदृश्य, गैर के सामने? यह बताऊं कि एक गरीब मुनीम के घर हम 3 बेटियां अभिशाप हैं, एक बोझ हैं हम. सब से बड़ी बोझ मैं, ज्योति सहाय, एम.ए. फर्स्ट क्लास. फर्स्ट… मगर नौकरी के लिए मोहताज…’’

‘‘मगर बेरोजगारी की समस्या तो सिर्फ तुम्हारे अकेले की समस्या नहीं है. यह तो एक आम सामाजिक बीमारी है जिस से हर कोई जूझ रहा है.’’

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‘‘हां, बेरोजगारी मेरे अकेले की समस्या नहीं. मगर मैं एक समस्या हूं, गरीब बाप के सर पर पड़ी एक बोझ, क्या तुम नहीं जानते कि समाज में मध्य वर्गीय लड़कियों के लिए कई वर्जनाएं हैं. बातबात में मातापिता की पगडि़यां उछलती हैं. हर वक्त खानदान की इज्जत और भविष्य के सामने बदनामी, लोकलज्जा, मुंह चिढ़ाता समाज नजर आता है और वैसे भी लोग एक मजबूर, जरूरतमंद, गरीब और जवान लड़की को सिर्फ देखते ही नहीं, बल्कि निर्वस्त्र कर के महसूस भी करते रहते हैं. लेकिन तुम हो कौन, जो परत दर परत मुझ से सब कुछ जान लेना चाहते हो?’’

‘‘मैं ने कहा न, मैं जीवन हूं, तुम्हारा जीवन. बिलकुल सत्य और संघर्षों से भरा हूं. कोई मुझे प्यार का गीत समझ कर गुनगुनाता है तो कोई पहेली, कोई जंग समझता है. मैं तो एक सच हूं, ज्योति, मगर इतना कमजोर कि स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकता. मौत के कू्रर पंजे एक झटके में मुझे शरीर से अलग कर देते हैं. मेरी भौतिकता ही खत्म कर देते हैं. और जबजब अपने अस्तित्व पर मुझे खतरा महसूस होता है, लोगों के सामने आता हूं, बातें करता हूं, खुद को तसल्ली देता हूं. आज भी तो इसीलिए आया हूं तुम्हारे पास, मेरी रक्षा करोगी न.’’

विचारों की इस उमड़घुमड़ में ज्योति इतना गुम हो गई कि जंगल कब खत्म हो गया पता तक नहीं चला. सड़क पर और तेज कदमों से उस पुल की दिशा में बढ़ गई थी वह जो अब ज्यादा दूर नहीं था. अचानक एक झटका सा लगा ज्योति को कि इतनी देर से जीवन ने कुछ कहा नहीं, कहां गया वह? इतना चुप तो रहने वाला नहीं था वह. कहीं चला तो नहीं गया अचानक.

सुनसान रात में जिस भय की उपस्थिति से भी नहीं घबराई थी ज्योति, अचानक उस के न होने की कल्पना मात्र से कांप गई थी वह. एक हांक लगाई थी ज्योति ने, ‘‘ज…ज…जीवन?…मिस्टर जीवन, चले गए क्या?’’

‘‘गलत सोच रही हो, ज्योति. मैं तो तुम्हारा जीवन हूं और तुम्हारी खातिर मौत से भी लड़ने को तैयार हूं. अगर तुम मेरा साथ दो तो मैं तो तुम्हें तभी छोड़ं ूगा जब मुझे यह विश्वास हो जाएगा कि मौत की गोद में तुम गहरी नींद सो गई हो.’’

‘‘अच्छा, फिर तुम गायब कहां हो गए थे?’’

‘‘गायब तो नहीं, हां चुप जरूर हो गया था. क्यों मेरा चुप हो जाना तुम्हें अच्छा नहीं लगा?’’

अब क्या जवाब दे ज्योति इस प्रश्न का. एकदम से कोई बहाना नहीं सूझ रहा था उसे.

‘‘ऐ ज्योति, सच क्यों नहीं कहतीं कि तुम्हें मुझ से यानी अपने इस जीवन से पे्रम हो गया है.’’

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