कहीं यह प्यार तो नहीं- भाग 2 : विहान को किससे था प्यार

विहान का मन विरक्त हो रहा था. उसे कल सुगंधा की कही हुई बातें याद आने लगीं. विहान की तारीफ कर उसे तरहतरह से खुश करते हुए वह काम निबटाने में उस की मदद लेना चाह रही थी. सुगंधा पर एक हिकारत भरी नजर डाल वह मन ही मन खिन्न हो उठा.

घर आ कर भी वह स्वयं को उपेक्षित सा महसूस करता रहा. रात को जूही से वीडियो कौल करने का मन हुआ. उस समय जूही सोने की तैयारी कर रही थी. कौल कनैक्ट हुई तो जूही को अपने कमरे में स्किन कलर की औफ शोल्डर नाइट ड्रैस में बैठे देख विहान की सांस ठहर गई. जूही का गोरा तन ऐसा लग रहा था जैसे संगमरमर की कोई प्रतिमा हो. विहान ने सुगंधा वाली घटना बताने के लिए वीडियो चैट करने का निर्णय लिया, लेकिन मंत्रमुग्ध सा वह कुछ बोल ही नहीं पा रहा था, ‘‘आज तुम बोलती रहो, मैं सिर्फ सुनूंगा,’’ कहते हुए वह अपलक उस के रूपलावण्य को निहारता ही रहा.

चैट के बाद सोते हुए वह सोच रहा था कि जिस निगाह से सुगंधा को देखा था, उस नजर से शायद मैं ने जूही को कभी देखा ही नहीं था. जूही तुम कितनी खूबसूरत हो.

उधर जूही विहान के चले जाने से अकेली पड़ गई थी. मन लगाने के लिए एक दिन उस ने सहेलियों के साथ घूमने का कार्यक्रम बना लिया. मौल में घूमते हुए खूब मस्ती हो रही थी, फिर भी विहान उसे याद आ ही जाता था. किसी शौप में कोई भी आकर्षक सामान देख विहान को बताने की इच्छा होती.

कपड़ों के शोरूम में एक डमी को वायलेट शर्ट और ब्लैक ट्राउजर्स में देख अपनी उंगली से इशारा करते हुए वह सहेलियों से बोल पड़ी कि उस मैनेकिन की जगह विहान होता तो इन कपड़ों की वैल्यू बढ़ जाती… इस पुतले पर तो ये बिलकुल जम ही नहीं रहे. सहेलियों ने एक बार नजर घुमा कर उधर देखा और फिर बातों में लग गईं. जूही का मन उदास हो गया.

सभी सहेलियों ने अपने लिए कुछ न कुछ खरीदा, लेकिन जूही को विहान की पसंदनापसंद जाने बिना जैसे शौपिंग करने की आदत ही नहीं थी.

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खरीदारी पूरी कर वे सब खाना खाने फूड कोर्ट में पहुंच गए. इस से पहले कि जूही अपनी पसंद बताती, गु्रप की सभी सहेलियों ने एकमत हो पिज्जा और कोल्डड्रिंक का और्डर दे दिया. जूही को वहां के चाट कौर्नर की आलूटिक्की और लच्छा टोकरी बहुत स्वादिष्ठ लगती थी. विहान के साथ जब भी वह उस मौल में आती, विहान उस की पसंद को ध्यान में रख सब से पहले चाट की दुकान पर जाता था.

जब तक वे सब मौल में रहे, जूही को उदासी ने घेरे रखा. उस का जी चाह रहा था कि अभी विहान को कौल कर ले, लेकिन औफिस में उसे डिस्टर्ब करना ठीक नहीं यह सोच कर मोबाइल नहीं निकाला. उसे क्या पता था कि बैंगलुरु में बैठा विहान भी उस समय जूही को याद कर उस से बात करने को अधीर हो रहा है.

विहान जब बीटैक कर रहा था तब जूही और वह दिन में कई बार एकदूसरे के पास पहुंच कर बातें शेयर किया करते थे. कालेज पासपास होने से कोई असुविधा भी नहीं होती थी उन्हें, लेकिन उन का यह मिलनाजुलना जूही के साथ पढ़ने वाले राहुल को बहुत खटकता था. जूही की सुंदरता पर मुग्ध राहुल को विहान के रहते हुए जूही के निकट आने का कभी अवसर नहीं मिला था. विहान के जाते ही धीरेधीरे वह जूही से मित्रता बढ़ाने लगा. जूही तो पहले ही एक करीबी दोस्त की कमी महसूस कर रही थी.

अपने जन्मदिन पर राहुल ने दोस्तों को क्नाट प्लेस के एक महंगे रैस्टोरैंट में ट्रीट देने का प्रोग्राम बनाया. जूही भी आमंत्रित थी. बहुत दिनों बाद आज अपने भीतर वह एक उमंग का अनुभव कर रही थी. वार्डरोब से उस ने वही मिनी स्कर्ट निकाली जिसे एक बार तब पहना था जब विहान के साथ आर्ट गैलरी में लगी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी देखने गई थी. प्रदर्शनी में उन की भेंट राहुल से हो गयी थी. राहुल ने ही आज उसे वही एग्जीबिशन वाली ड्रैस पहनने को कहा था.

जूही जब घर से निकल रही थी तो राहुल का मैसेज आ गया कि वह राजीव चौक मैट्रो स्टेशन के बाहर उस की प्रतीक्षा करेगा. जूही मैट्रो में चढ़ी तो सैकड़ों घूरती आंखों से बचने का असफल प्रयास करती रही. उसे याद आ रहा था जब पहले उस ने वह ड्रैस पहनी थी तो विहान उसे देखते ही बोला था, ‘‘आज तो हमें कैब करनी पड़ेगी.’’

‘‘क्यों?’’ पूछ बैठी थी जूही.

‘‘मिनी स्कर्ट में इतनी क्यूट लग रही हो कि मैट्रो में सब तुम्हें घूरघूर कर देखेंगे, मु झे अच्छा नहीं लगेगा.’’

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तब जूही की हंसी रोके नहीं रुकी थी, लेकिन आज सचमुच कुछ लोगों की लोलुप दृष्टि उसे निरंतर उद्विग्न किए थी. वह बेसब्री से राजीव चौक आने की प्रतीक्षा कर रही थी. जानती थी कि वहां राहुल मिल जाएगा. अच्छा दोस्त कवच के समान होता है, यही कहता था उस का अनुभव. स्टेशन आया तो उस की जान में जान आ गई. बाहर निकली तो राहुल खड़ा था. साथ में कुछ अन्य युवक भी थे. उन में से कोई भी उन के कालेज का नहीं था.

‘‘अपने गु्रप के बाकी लोग कहां हैं?’’ जूही ने घबराते हुए पूछा.

‘‘उन्हें नहीं बुलाया. आज अपने पुराने साथियों को तुम से मिलवाना था,’’ कहते हुए राहुल ने जूही का हाथ पकड़ लिया.

जब जूही ने कसमसा कर हाथ छुड़ाना चाहा तो उन में से एक दोस्त हंसते हुए बोला, ‘‘शाय गर्ल.’’

राहुल सब के सामने उस से ऐसे बात कर रहा था जैसे वह उस की गर्लफ्रैंड हो. जूही ने बातोंबातों में सब को एहसास दिलाना चाहा कि वे दोनों किसी रिलेशनशिप में नहीं हैं, लेकिन राहुल निर्लज्जता से उस पर अधिकार जमाने का प्रयास कर रहा था.

रैस्टोरैंट में अपनी चेयर से जूही की चेयर सटा कर बैठा राहुल बारबार उस का स्पर्श कर रहा था. उस के दोस्त जूही की सुंदरता की प्रशंसा करते हुए एक ओर राहुल की पसंद की दाद दे रहे थे तो दूसरी ओर मिनीस्कर्ट में दिख रहे उस के पैरों को बेहूदगी से ताक रहे थे. राहुल सब सम झते हुए भी अनजान बना बैठा था.

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बंदिनी- भाग 3 : रेखा ने कौनसी चुकाई थी कीमत

औरतों के लिए कू्ररता करने में स्वयं औरतें पुरुषों से कहीं आगे हैं. वे शायद यह नहीं जानतीं कि इसी वजह से पुरुषों के लिए उन की नाकदरी और उन का शोषण करना इतना आसान हो जाता है. औरतों का शोषण करने के लिए पुरुषों को साथ भी औरतों का ही मिलता है.

रेखा का शारीरिक शोषण घर के पुरुष करते थे, परंतु घर की स्त्रियां भी उस का जीवन नारकीय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं. वे सभी घर के पुरुषों के अत्याचार के खिलाफ तो कभी एकजुट नहीं हो पाईं, परंतु एक निरपराधी को सजा देने में एकजुट हो गई थीं. पुरुषों की शारीरिक भूख रात में शांत कर, दिन में उसे घर के बाकी काम भी निबटाने पड़ते थे.

10 वर्षों के अमानुषिक शोषण के बाद एक दिन एकाएक अनुबंध समाप्त होने का हवाला देते हुए रेखा को वापस उस के परिवार के पास छोड़ दिया गया था. इन 10 सालों में उस के 8 गर्भपात भी हुए थे. कारण जो भी बताया गया हो परंतु रेखा शायद अनुबंध समाप्त करने की सही वजह समझ रही थी.

जब रेखा मोहनलाल के घर पर थी, उस समय एक एनजीओ की मैडम ने एकदो बार उस से संपर्क करने का प्रयास किया था. परंतु उन्हें बुरी तरह प्रताडि़त कर निकाल दिया गया था. बड़ी मुश्किलों से अपने प्राण बचा कर निकल पाई थी बेचारी, परंतु जातेजाते भी न जाने कैसे अपना फोन नंबर कागज पर लिख कर फेंक गई थी. 5वीं तक की गई पढ़ाई काम आई थी उस के, रेखा ने नंबर कंठस्थ करने के बाद कागज को जला दिया था.

ग्वालियर एक शहर था और वहां इस के बाद बात का छिपना आसान नहीं था. सो, रेखा को वापस भेज दिया गया था, वैसे भी, अब तक रेखा का पूर्ण इस्तेमाल हो चुका था.

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10 सालों में रेखा का परिवार भी बदल चुका था. उन की आर्थिक स्थिति अच्छी हो गई थी. कल्पना भी अपने 5वें अनुबंध के खत्म होने के बाद घर आ गई थी. उस की अब एक बेटी भी थी, पूजा.

दोनों ही बहनें जानती थीं कि कुछ ही दिनों में उन्हें उन के नए सहचरों के साथ चले जाना होगा. इसलिए अब अपना पूरा समय दोनों पूजा पर मातृत्व लुटाने में व्यतीत करने लगीं थीं. किंतु अति शीघ्र ही रेखा ने आने वाली विपत्तियों को भांप लिया था, जब उस ने अशोक को अपने द्वार पर खड़ा पाया था, ‘‘तुम हो मेरे नए ग्राहक?’’

अशोक ने रेखा की विदाई के कुछ दिनों बाद ही विवाह कर लिया था. सो, आज वह फिर यहां क्यों आया था, यह समझने में रेखा को थोड़ी देर लगी थी.

‘‘मैं यहां तेरे लिए नहीं आया हूं. वैसे भी तेरे पास बचा क्या है,’’ उस ने बड़ी ही हिकारत से उत्तर दिया था.

‘‘फिर किस लिए आए हो?’’

‘‘मैं पूजा के लिए आया हूं.’’

रेखा सब समझ गई थी. प्रतिदिन की वे गोष्ठियां कल्पना और रेखा के लिए नहीं, बल्कि पूजा के लिए हो रही थीं. अशोक से लड़ना मूर्खता थी. वह सीधा अपने भाइयों के पास गई और बड़े भाई की गरदन दबोच ली.

‘‘9 साल की बच्ची है पूजा, मामा है तू उस का. लज्जा न आई तुझे?’’

एक झटके में उस के भाई ने अपनी गरदन से रेखा का हाथ हटा लिया था. लड़खड़ा गई थी रेखा, कल्पना ने संभाला नहीं होता तो गिर ही जाती.

‘‘दोबारा हिम्मत मत करना, वरना हाथ उठाने के लायक नहीं रहेगी.’’

भाई से इंसानियत की अपेक्षा उस की भूल थी. उस ने कल्पना से बात करनी चाही, ‘‘दीदी, तुम ने सुना, ये लोग पूजा के साथ क्या करने वाले हैं?’’

उत्तर में कल्पना ने मात्र सिर झुका दिया था.

हमारे समाज की ज्यादातर स्त्रियां अपनी कमजोरी को मजबूरी का नाम दे देती हैं. बिना कोशिश किए अपनी हार स्वीकार करने की सीख तो उन्हें जैसे घुट्टी में मिला कर पिलाई जाती है. परजीवी की तरह जीवन गुजारती हैं और फिर एक दिन वैसे ही मृत्यु का वरण कर लेती हैं. हमेशा एक चमत्कार की उम्मीद करती रहती हैं, जैसे कोई आएगा और उन के कष्टों का समाधान हो जाएगा. आत्मनिर्भरता तो वे खुद भीतर कभी जागृत नहीं कर पातीं. कल्पना भी अपवाद नहीं थी.

रेखा और कल्पना के विरोध के बावजूद पूजा का विवाह मोहनलाल के छोटे बेटे से तय कर दिया गया था. वह मंदबुद्धि था. किसी महान पंडित ने उन्हें बताया था कि यदि उस का विवाह एक नाबालिग कुंआरी कन्या से हो जाए तो वह बिलकुल स्वस्थ हो जाएगा. शादी जैसे संजीवनी बूटी हो, खाया और एकदम फिट. रेखा यह भी जानती थी कि उस घर के बंद दरवाजों के पीछे कितना भयावह सत्य छिपा था.

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शादी का मुहूर्त 3 महीने बाद का निकला था. इसी बीच रेखा और कल्पना को भी बेचने की तैयारियां चल रही थीं. रेखा जानती थी कि उस के पास समय कम है, जो करना है जल्द ही करना होगा.

परंतु इस बार रेखा किसी भी तरह का विरोध झेलने के लिए मजबूती के साथ तैयार थी. पिछली बार खुद के लिए लड़ी गई जंग वह हार गई थी, परंतु इस बार उस ने अंतिम सांस तक प्रयत्न करने का निश्चय कर लिया था. पुलिस और पंचायत से तो रेखा ने उसी समय उम्मीद छोड़ दी थी जब उसे जबरदस्ती प्रथा के नाम पर बलि चढ़ा दिया गया था. सभी प्रथाओं की लाश स्त्रियों के कंधों पर ही तो ढोई जाती है.

अपने भाइयों की नजर बचा कर उस ने अपने भाई के मोबाइल से आरतीजी को फोन किया. उस की आपबीती सुन कर आरती ने भी मदद ले कर शीघ्र आने का आश्वासन दिया था. परंतु नियति उस की चौखट पर खड़ी अलग ही कहानी रच रही थी.

वह रात पूनम की थी जो उस घर में अमावस ले कर आई थी. जिस प्रथा को छिपा कर रखने के लिए पूरा गांव कुछ भी करने को तैयार था, उस एक घटना ने इस प्रथा की कलई पूरे देश के सामने खोल कर रख दी थी. इस एक घटना से यह प्रथा समाप्त तो नहीं हुई थी, परंतु वह भारत जो ऐसी किसी प्रथा के अस्तित्व के बारे में अनभिज्ञ था, इस के बारे में बात करने लगा था.

उस रात जब रेखा सोने के लिए अपने कमरे में गई थी, सबकुछ स्वाभाविक ही था. परंतु खुद सुप्त ज्वालामुखी को नहीं पता होता कि उस के किसी हिस्से में आग अभी भी बाकी है. असहनीय पीड़ा की परिणति कभीकभी भयावह होती है. ऐसी बात तो सभी करते हैं, परंतु अगली सुबह जब लोगों ने उस घर में 6 लाशें देखीं, तो मान भी गए थे.

रेखा के अलावा घर के सभी लोग मौत की स्याह चादर ओढ़ कर सो गए थे. उन के वजूद की मृत्यु तो बहुत पहले हो चुकी थी, आज शरीर खत्म हुआ था. एकएक कर पुलिस शिनाख्त कर रही थी.

पहली चादर उस मां के चेहरे पर डाली गई जिस ने अपनी बेटियों को जन्म देने की कीमत उन के शरीर की बोली लगा कर वसूल की थी. कल्पना को मारे गए कई थप्पड़ आज जीवंत हो कर उसी के चेहरे को स्याह कर रहे थे.

अगली चादर उस पिता के ऊपर डाली गई जिस ने पिता होने का कर्तव्य तो कभी नहीं निभाया, परंतु पुत्री के शरीर को भेडि़यों के बीच फेंक कर उस की कीमत वसूलने को अपना अधिकार अवश्य माना था.

फिर चादर उन 2 भाइयों के चेहरों पर डाली गई जो खुद अपनी बहनों के दलाल बने घूमते थे.

चादर उस भाभी के चेहरे पर भी डाली गई जो एक स्त्री थी और मां बनने के लिए न जाने कितने तांत्रिकों व पंडितों के चक्कर लगा रही थी. परंतु जब एक छोटी बच्ची की बोली उस का पति लगा रहा था, वह न केवल मौन थी बल्कि आने वाले धन के मधुर स्वप्नों में खोई हुई थी.

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लड़की- भाग 2 : क्या परिवार की मर्जी ने बर्बाद कर दी बेटी वीणा की जिंदगी

लेखक- रमणी मोटाना

सुधाकर पहले ही ज्योतिषी से मिल चुके थे और उस की मुट्ठी गरम कर दी थी. ‘महाराज, कन्या एक गलत सोहबत में पड़ गई है और उस से शादी करने का हठ कर रही है. कुछ ऐसा कीजिए कि उस का मन उस लड़के की ओर से फिर जाए.

‘आप चिंता न करें यजमान,’ ज्योतिषाचार्य ने कहा.

ज्योतिषी ने वीणा की जन्मपत्री देख कर बताया कि उस का विदेश जाना अवश्यंभावी है. ‘तुम्हारी कुंडली अति उत्तम है. तुम पढ़लिख कर अच्छा नाम कमाओगी. रही तुम्हारी शादी की बात, सो, कुंडली के अनुसार तुम मांगलिक हो और यह तुम्हारे भावी पति के लिए घातक सिद्ध हो सकता है. तुम्हारी शादी एक मांगलिक लड़के से ही होनी चाहिए वरना जोड़ी फलेगीफूलेगी नहीं. एक  बात और, तुम्हारे ग्रह बताते हैं कि तुम्हारी एक शादी ऐनवक्त पर टूट गई थी?’

‘जी, हां.’

‘भविष्य में इस तरह की बाधा को टालने के लिए एक अनुष्ठान कराना होगा, ग्रहशांति करानी होगी, तभी कुछ बात बनेगी.’ ज्योतिषी ने अपनी गोलमोल बातों से वीणा के मन में ऐसी दुविधा पैदा कर दी कि वह भारी असमंजस में पड़ गई. वह अपनी शादी के बारे में कोई निर्णय न ले सकी.

शीघ्र ही उसे अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी से वजीफे के साथ वहां दाखिला मिल गया. उसे अमेरिका के लिए रवाना कर के उस के मातापिता ने सुकून की सांस ली.

‘अब सब ठीक हो जाएगा,’ सुधाकर ने कहा, ‘लड़की का पढ़ाई में मन लगेगा और उस की प्रवीण से भी दूरी बन जाएगी. बाद की बाद में देखी जाएगी.’

इत्तफाक से वीणा के दोनों भाई भी अपनेअपने परिवार समेत अमेरिका जा बसे थे और वहीं के हो कर रह गए थे. उन का अपने मातापिता के साथ नाममात्र का संपर्क रह गया था. शुरूशुरू में वे हर हफ्ते फोन कर के मांबाप की खोजखबर लेते रहते थे, लेकिन धीरेधीरे उन का फोन आना कम होता गया. वे दोनों अपने कामकाज और घरसंसार में इतने व्यस्त हो गए कि महीनों बीत जाते, उन का फोन न आता. मांबाप ने उन से जो आस लगाई थी वह धूलधूसरित होती जा रही थी.

समय बीतता रहा. वीणा ने पढ़ाई पूरी कर अमेरिका में ही नौकरी कर ली थी. पूरे 8 वर्षों बाद वह भारत लौट कर आई. उस में भारी परिवर्तन हो गया था. उस का बदन भर गया था. आंखों पर चश्मा लग गया था. बालों में दोचार रुपहले तार झांकने लगे थे. उसे देख कर सुधाकर व अहल्या धक से रह गए. पर कुछ बोल न सके.

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‘अब तुम्हारा क्या करने का इरादा है, बेटी?’ उन्होंने पूछा.

‘मेरा नौकरी कर के जी भर गया है. मैं अब शादी करना चाहती हूं. यदि मेरे लायक कोई लड़का है तो आप लोग बात चलाइए,’ उस ने कहा.

अहल्या और सुधाकर फिर से वर खोजने के काम में लग गए. पर अब स्थिति बदल चुकी थी. वीणा अब उतनी आकर्षक नहीं थी. समय ने उस पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी थी. उस ने समय से पहले ही प्रौढ़ता का जामा ओढ़ लिया था. वह अब नटखट, चुलबुली नहीं, धीरगंभीर हो गई थी.

उस के मातापिता जहां भी बात चलाते, उन्हें मायूसी ही हासिल होती थी. तभी एक दिन एक मित्र ने उन्हें भास्कर के बारे में बताया, ‘है तो वह विधुर. उस की पहली पत्नी की अचानक असमय मृत्यु हो गई. भास्कर नाम है उस का. वह इंजीनियर है. अच्छा कमाता है. खातेपीते घर का है.’

मांबाप ने वीणा पर दबाव डाल कर उसे शादी के लिए मना लिया. नवविवाहिता वीणा की सुप्त भावनाएं जाग उठीं. उस के दिल में हिलोरें उठने लगीं. वह दिवास्वप्नों में खो गई. वह अपने हिस्से की खुशियां बटोरने के लिए लालायित हो गई.

लेकिन भास्कर से उस का जरा भी तालमेल नहीं बैठा. उन में शुरू से ही पटती नहीं थी. दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर था. भास्कर बहुत ही मितभाषी लेकिन हमेशा गुमसुम रहता. अपने में सीमित रहता.

वीणा ने बहुत कोशिश की कि उन में नजदीकियां बढ़ें पर यह इकतरफा प्रयास था. भास्कर का हृदय मानो एक दुर्भेध्य किला था. वह उस के मन की थाह न पा सकी थी. उसे समझ पाना मुश्किल था. पति और पत्नी में जो अंतरंगता व आत्मीयता होनी चाहिए, वह उन दोनों में नहीं थी. दोनों में दैहिक संबंध भी नाममात्र का था. दोनों एक ही घर में रहते पर अजनबियों की तरह. दोनों अपनीअपनी दुनिया में मस्त रहते, अपनीअपनी राह चलते.

दिनोंदिन वीणा और उस के बीच खाई बढ़ती गई. कभीकभी वीणा भविष्य के बारे में सोच कर चिंतित हो उठती. इस शुष्क स्वभाव वाले मनुष्य के साथ सारी जिंदगी कैसे कटेगी. इस ऊबभरे जीवन से वह कैसे नजात पाएगी, यह सोच निरंतर उस के मन को मथते रहती.

एक दिन वह अपने मातापिता के पास जा पहुंची. ‘मांपिताजी, मुझे इस आदमी से छुटकारा चाहिए,’ उस ने दोटूक कहा. अहल्या और सुधाकर स्तंभित रह गए, ‘यह क्या कह रही है तू? अचानक यह कैसा फैसला ले लिया तू ने? आखिर भास्कर में क्या बुराई है. अच्छे चालचलन का है. अच्छा कमाताधमाता है. तुझ से अच्छी तरह पेश आता है. कोई दहेजवहेज का लफड़ा तो नहीं है न?’

‘नहीं. सौ बात की एक बात है, मेरी उन से नहीं पटती. हमारे विचार नहीं मिलते. मैं अब एक दिन भी उन के साथ नहीं बिताना चाहती. हमारा अलग हो जाना ही बेहतर है.’

‘पागल न बन, बेटी. जराजरा सी बातों के लिए क्या शादी के बंधन को तोड़ना उचित है? बेटी शादी में समझौता करना पड़ता है. तालमेल बिठाना पड़ता है. अपने अहं को त्यागना पड़ता है.’

‘वह सब मैं जानती हूं. मैं ने अपनी तरफ से पूरा प्रयत्न कर के देख लिया पर हमेशा नाकाम रही. बस, मैं ने फैसला कर लिया है. आप लोगों को बताना जरूरी समझा, सो बता दिया.’

‘जल्दबाजी में कोई निर्णय न ले, वीणा. मैं तो सोचती हूं कि एक बच्चा हो जाएगा तो तेरी मुश्किलें दूर हो जाएंगी,’ मां अहल्या ने कहा.

वीणा विद्रूपता से हंसी. ‘जहां परस्पर चाहत और आकर्षण न हो, जहां मन न मिले वहां एक बच्चा कैसे पतिपत्नी के बीच की कड़ी बन सकता है? वह कैसे उन दोनों को एकदूसरे के करीब ला सकता है?’

अहल्या और सुधाकर गहरी सोच में पड़ गए. ‘इस लड़की ने तो एक भारी समस्या खड़ी कर दी,’ अहल्या बोली, ‘जरा सोचो, इतनी कोशिश से तो लड़की को पार लगाया. अब यह पति को छोड़छाड़ कर वापस घर आ बैठी, तो हम इसे सारा जीवन कैसे संभाल पाएंगे? हमारी भी तो उम्र हो रही है. इस लड़की ने तो बैठेबिठाए एक मुसीबत खड़ी कर दी.’

‘उसे किसी तरह समझाबुझा कर ऐसा पागलपन करने से रोको. हमारे परिवार में कभी किसी का तलाक नहीं हुआ. यह हमारे लिए डूब मरने की बात होगी. शादीब्याह कोई हंसीखेल है क्या. और फिर इसे यह भी तो सोचना चाहिए कि इस उम्र में एक तलाकशुदा लड़की की दोबारा शादी कैसे हो पाएगी. लड़के क्या सड़कों पर पड़े मिलते हैं? और इस में कौन से सुरखाब के पर लगे हैं जो इसे कोई मांग कर ले जाएगा,’ सुधाकर बोले.

‘देखो, मैं कोशिश कर के देखती हूं. पर मुझे नहीं लगता कि वीणा मानेगी. वह बड़ी जिद्दी होती जा रही है,’ अहल्या ने कहा.

‘‘तभी तो भुगत रही है. हमारा बस चलता तो इस की शादी कभी की हो गई होती. हमारे बेटों ने हमारी पसंद की लड़कियों से शादी की और अपनेअपने घर में खुश हैं, पर इस लड़की के ढंग ही निराले हैं. पहले प्रेमविवाह का खुमार सिर पर सवार हुआ, फिर विदेश जा कर पढ़ने का शौक चर्राया. खैर छोड़ो, जो होना है सो हो कर रहेगा.’’ बूढ़े दंपती ने बेटी को समझाबुझा कर वापस उस के घर भेज दिया.

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एक दिन अचानक हृदयगति रुक जाने से सुधाकर की मौत हो गई. दोनों बेटे विदेश से आए और औपचारिक दुख प्रकट कर वापस चले गए. वे मां को साथ ले जाना चाहते थे पर अहल्या इस के लिए तैयार नहीं हुई.

अहल्या किसी तरह अकेली अपने दिन काट रही थी कि सहसा बेटी के हादसे के बारे में सुन कर उस के हाथों के तोते उड़ गए. वह अपना सिर धुनने लगी. इस लड़की को यह क्या सूझी? अरे, शादी से खुश नहीं थी तो पति को तलाक दे देती और अकेले चैन से रहती. भला अपनी जान देने की क्या जरूरत थी? अब देखो, जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है. अपनी मां को इस बुढ़ापे में ऐसा गम दे दिया.

बंदिनी- भाग 2 : रेखा ने कौनसी चुकाई थी कीमत

लाखों में एक न होने पर भी रेखा के चेहरे का अपना आकर्षण था. लंबी, छरहरी देह, गेहुआं रंग, सुतवां नाक, और ऊंचे उठे कपोल. बड़ी आंखें जिन में चौबीसों घंटे एक उज्ज्वल हंसी चमकती रहती, काले रेशम जैसे बाल और दोनों गालों पर पड़ने वाले गड्ढे जिस में पलभर का पाहुना भी सदा के लिए गिरने स्वयं ही चला आए. अशोक तो पहली नजर में ही दिल हार बैठा था.

अशोक एक व्यापारी मोहनलाल के घर में काम करता था. मोहनलाल ग्वालियर का एक बहुत बड़ा व्यापारी था. गांव में उस की बहुत जमीनें थीं जिन की देखभाल के लिए उस ने अशोक और उस के बड़े भाई को लगा रखा था. वह साल में कई बार गांव आता था. मंडी में आई अकसर हर कुंआरी लड़की का खरीदार वही होता था. शादीशुदा, अधेड़ उम्र का आदमी और 4 बच्चों का पिता, परंतु पुरुष की उम्र और वैवाहिक स्थिति उस की इच्छाओं के आड़े नहीं आती.

समाज के नियम बनाने वालों के ऊपर कोई नियम लागू नहीं होता. जाति से ब्राह्मण और व्यवसाय से बनिया मोहनलाल बहुत ही कामी और धूर्त पुरुष था. वह अपना व्यवसाय तो बदल चुका था परंतु जातीय वर्चस्व का झूठा अहंकार आज भी कायम था. बहुत जल्द ही वह राजनीतिक मंच पर पदार्पण करने वाला था. इसी व्यस्तता के कारण पिछले कुछ वर्षों में उस का गांव आना थोड़ा कम हो गया था.

अशोक इसी बात से निश्ंिचत था. उस ने रेखा को खरीद कर कहीं दूर भाग जाने की साहसी योजना भी बना रखी थी. शुरू में रेखा केवल अशोक के प्रेम से अवगत थी, वह न तो उस के अस्तित्व के बारे में जानती थी और न ही उस की योजना के बारे में. परंतु कल्पना की  विदाई ने उसे वास्तविकता से अवगत करा दिया था. रेखा को यह भी मालूम हो गया था कि उस के धनलोलुप परिवार के मुंह में खून लग चुका है.

शीघ्र ही रेखा को अपने परिवार की नई योजना की भनक भी लग गई थी. अशोक सदा रेखा से किसी बड़े काम के लिए पैसे बचाने की बात करता था. उस समय रेखा को लगा करता था, वह शायद किसी व्यवसाय हेतु बचत कर रहा है. परंतु अब वह इस बचत के पीछे का मतलब समझ गई थी. किंतु अब रेखा के परिवार वालों के पास एक नया और प्रभावशाली ग्राहक आ गया था. इस में कोई शक नहीं था कि वे रेखा का सौदा उस के साथ तय करने वाले थे.

इस प्रथा की बात छिपाने की वजह से रेखा अशोक से नाराज थी, परंतु अशोक ने उसे समझाबुझा कर शांत कर दिया था. रेखा इस गांव से पहले ही भाग जाना चाहती थी, अशोक के तर्कों से हार गई थी. बदली हुई परिस्थितियों ने उसे भयभीत कर दिया था और उस ने अपना गुस्सा अशोक पर जाहिर किया था कि, ‘‘जिस बहुमूल्य को खरीदने के लिए तू इतने महीनों से धन जोड़ रहा था, उस के कई और खरीदार आ गए हैं.’’

एकाएक हुए इस आघात के लिए अशोक तैयार नहीं था, वह लड़खड़ा गया. न जाने कितने महीनों से पाईपाई जोड़ कर उस ने 2 लाख रुपए जमा किए थे. रेखा की यही बोली उस के भाई ने लगाई थी. अशोक जानता था कि रेखा को अपना बनाने के लिए उस का प्रेम थोड़ा कम पड़ेगा, इसलिए वह धन जोड़ रहा था. परंतु आज रेखा के इस खुलासे ने जाहिर कर दिया था कि विक्रेता अपनी वस्तु के दाम में परिस्थिति के अनुसार बदलाव कर सकता है.

थोड़ी देर पहले रेखा को उस पर गुस्सा आ रहा था, परंतु अब अशोक की दशा देख कर उसे दुख हो रहा था. उस ने करीब जा कर अशोक को अपनी बांहों में भर लिया, ‘‘तूने कैसे भरोसा कर लिया उस भेडि़ए पर. अरे पगले, जो अपनी बहन का व्यापार कर सकता है, वह क्या कभी सौदे में लाभ से परे कुछ सोच सकता है?’’

‘‘जान से मार दूंगा मैं, उन सब को भी और तेरे भाई को भी,’’ रेखा के बाजुओं को जोर से पकड़ कर उसे अपनी ओर खींचते हुए चिल्ला पड़ा था अशोक.

‘‘अच्छा, मोहनलाल को भी?’’ रेखा ने उस की आंखों में झांकते हुए पूछा था.

वह एक ही पल में छिटक कर दूर हो गया,

‘‘क्य्याआआ?’’

एक दर्दभरी मुसकान खिल गई थी रेखा के चेहरे पर, ‘‘बस, प्यार का ज्वार उतर गया लगता है.’’

काफी समय तक दोनों निशब्द बैठे रहे थे. फिर अशोक ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘रेखा, तू अपने भाई की बात मान ले. हां, परंतु मोहनलाल से पहले तू मेरी बन जा.’’

‘‘पागल हो गया है क्या? मैं…’’ रेखा को अपनी बात पूरी भी नहीं करने दी उस ने और दोबारा बोल पड़ा था, ‘‘रेखा, सारा चक्कर तेरे कौमार्य का है. एक बार तेरा कौमार्य भंग हो गया तो तेरा दाम भी कम हो जाएगा. मोहनलाल ज्यादा से ज्यादा तुझे एक साल रखेगा. चल, हो सकता है तेरी सुंदरता के कारण अवधि को एकदो साल के लिए बढ़ा दे परंतु उस के बाद तो तुझे छोड़ ही देगा. फिर तुझे मैं खरीद लूंगा. लेकिन…’’

‘‘लेकिन?’’

‘‘मैं मोहनलाल को जीतने नहीं दूंगा. कुंआरी लड़कियों का कौमार्य उसे आकर्षित करता है न, तू उसे मिलेगी तो जरूर, पर मैली…’’

रेखा अशोक के ऐसे आचरण के लिए तैयार नहीं थी. पुरुष चाहे कितनी ही लड़कियों के साथ संबंध रखे, वह हमेशा पाक, परंतु स्त्री मैली. वह यह भूल जाता है मैला करने वाला स्वयं पाक कैसे हो सकता है. परंतु कोई भी निर्णय लेने से पहले वह कुछ और प्रश्नों का उत्तर चाहती थी, ‘‘यदि मेरा कोई बच्चा हो गया तो?’’

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‘‘न, न. तुझे गर्भवती नहीं होना है. किसी और का पाप मैं नहीं पालूंगा.’’

एक आह निकल गई थी रेखा के मुख से. इस पुरुष की कायरता से ज्यादा उसे स्वयं की मूर्खता पर क्रोध आ रहा था. उस की वासना को प्रेम समझने की भूल उस ने स्वयं की थी. रेखा ने एक थप्पड़ के साथ अशोक के साथ अपने संबंधों पर विराम लगा दिया था. परंतु अब अपने परिवार द्वारा रचित व्यूह में वह अकेली रह गई थी.

चक्रव्यूह की रचना तो हो गई थी, उसे भेदने के लिए महाभारत काल में अभिमन्यु भी अकेला था और आज रेखा भी अकेली ही थी. तब भी केशव नहीं आए थे और आज भी कोई दैवी चमत्कार नहीं हुआ था. पराजित दोनों ही हुए थे.

पराजित रेखा मोहनलाल की रक्षिता बन ग्वालियर चली गई थी. दूर से ही जिस के जिस्म की सुगंध राह चलते को भी मोह कर पलभर को ठिठका देती थी, वही रेखा अब सूखी झाडि़यों के झंकार के समान मोहनलाल के घर में धूल खा रही थी.

केवल शरीर ही नहीं, वजूद भी छलनी हो गया था उस का. मोहनलाल के घर में बीते वो 10 साल अमानुषिक यातनाओं से भरे हुए थे. उस का शरीर जैसे एक लीज पर ली हुई जमीन थी, जिसे लौटाने से पहले मालिक उस का पूरी तरह से दोहन कर लेना चाहता था. कभी मालिक खुद रौंदता था, कभी उस के रिश्तेदार, तो कभी उस के मेहमान. घर की स्त्रियों से भी सहानुभूति की उम्मीद बेकार थी.

आगे पढें- रेखा का शारीरिक शोषण घर के पुरुष करते थे

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Serial Story: कीर्तन, किट्टी पार्टी और बारिश- भाग 2

अलका का भी कुछ ही दिन पहले पूना ट्रांसफर हुआ था. इन सब का साथ सुनंदा को अच्छा लगता था, लेकिन वह तब परेशान हो जाती जब ये तीनों उसे किसी न किसी कीर्तन या सत्संग में ले जाने के लिए तैयार रहतीं और उस की इन सब चीजों में कोई रुचि नहीं थी.

वह इन लोगों का अपमान भी नहीं करना चाहती थी, क्योंकि नीलेश की मृत्यु के समय इन सब ने उसे बहुत भावनात्मक सहारा दिया था, जिसे वह भूली नहीं थी.

सुनंदा लेटेलेटे सोच रही थी कि वह अपना जीवन पुण्य कमाने के लिए किसी धार्मिक आयोजन में नहीं बिता सकती, वह वही करेगी जो उसे अच्छा लगता है, जिस से उस के मन को खुशी मिलती है.

नीलेश भी तो अंतिम समय तक उस से यही कहते रहे कि वह हमेशा खुश रहे, अपनी जिंदादिली कभी नहीं छोड़े. वह थी भी तो शुरू से ऐसी ही हंसमुख, मिलनसार, बेहद सुंदर, अपने कोमल व्यवहार से सब के दिल में जगह बनाने वाली.

सुभद्रा बूआ का तो उसे सम  झ आता था. पुराने जमाने की बुजुर्ग महिला थीं. उन के पति की मृत्यु हो चुकी थी. अपने बहूबेटे के साथ रहती थीं. उन की बहू को उन की कितनी भी जरूरत हो वे हमेशा किसी न किसी प्रवचन या सत्संग में अपना समय बिताती थी.

सुनंदा से वे कभीकभी नाराज हो जाती थीं. कहतीं, ‘‘सुनंदा, क्यों अपना परलोक खराब कर रही हो? नीलेश तो चला गया, अब तुम्हें धर्मकर्म में ही मन लगाना चाहिए. मन शांत रहेगा.’’

सुनंदा कभी तो उन की उम्र और रिश्ते का लिहाज कर के चुप रह जाती. कभी प्यार से कहती, ‘‘बूआजी, मन की शांति के लिए मु  झे किसी के प्रवचन की जरूरत नहीं है.’’

सुनंदा को रमा और अलका पर मन ही मन गुस्सा आता, इस जमाने की पढ़ीलिखी औरतें हो कर कैसे अपना समय किसी बाबाजी के लिए खराब करती हैं, लेकिन वह यही कोशिश करती ये तीनों उसे न ले जाने पाएं.

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अगले दिन वह नाश्ता कर के फ्री हुई. रोज की तरह उस ने वेबकैम सैट किया और गौरव और कविता से बात करने लगी. आस्ट्रेलिया के समय के अनुसार गौरव लंच करने इस समय घर आता था तो सुनंदा से जरूर बात करता था. दोनों से बात कर के सुनंदा का मन पूरा दिन खुश रहता था.

गौरव ने पूछा, ‘‘मां, कैसा रहा कल बर्थडे?’’

सुनंदा ने प्रवचन और किट्टी का किस्सा सुनाया, तो गौरव बहुत हंसा. बोला, ‘‘मां, आप का जवाब नहीं. आप हमेशा ऐसी रहना.’’

और थोड़ीबहुत बातचीत के बाद सुनंदा रोज के काम निबटाने लगी. शारीरिक रूप से वह बहुत चुस्तदुरुस्त, स्मार्ट थी, किसी को अंदाजा नहीं होता था कि वह 50 की हो गई है. वह एमए, बीएड थी.

उस ने काफी साल तक एक स्कूल में अध्यापिका के पद पर काम किया था, लेकिन गौरव ने अपनी नौकरी लगते ही बहुत जिद कर के मां से रिजाइन करवा दिया था. अब वह मनचाहा जीवन जी रही थी और खुश थी. पासपड़ोस की किसी भी स्त्री को उस की जरूरत होती, वह हमेशा हाजिर रहती. पूरी कालौनी में उस ने अपने मधुर व्यवहार और जिंदादिली से अपनी विशेष जगह बनाई हुई थी.

बस कभीकभी पड़ोस की कुछ महिलाएं उस के धार्मिक आयोजनों से दूर भागने पर मुंह बनाती थीं, जिसे वह हंस कर नजरअंदाज कर देती थी. उस का मानना था कि यह जीवन उस का है और वह इसे अपनी इच्छा से जीएगी, हमेशा खुश रहना उसे अच्छा लगता था.

एक दिन नेहा शाम को आई. कहने लगी, ‘‘संडे को हमारी पहली मैरिज ऐनिवर्सरी की ‘वैस्ट इन’ में पार्टी है, आप को जरूर आना है.’’

सुनंदा ने सहर्ष निमंत्रण स्वीकार किया. थोड़ी देर इधरउधर की गप्पें मार कर नेहा चली गई. संडे को पूरा गु्रप ‘वैस्ट इन’ पहुंचा. पार्टी अपने पूरे शबाब पर थी. लौन में चारों ओर पेड़ों और सलीके से कटी   झाडि़यों पर टंगी छोटेछोटे बल्बों की   झालरें बहुत सुंदर लग रही थी.

जुलाई का महीना था, बारिश की वजह से प्रोग्राम अंदर हौल में ही था, जो  बहुत अच्छी तरह सजा हुआ था. सब ने नेहा और उस के पति विपिन को बहुत सी शुभकामनाएं और गिफ्ट्स दिए. सब से मिलनेमिलाने का सिलसिला चलता रहा.

नेहा ने सब को अपने मातापिता, सासससुर से मिलवाया और अंत में एक सौम्य, स्मार्ट और आकर्षक व्यक्ति को अपने साथ ले कर आई और सब से मिलवाने लगी, ‘‘ये मेरे देव मामा हैं, अभी इन का ट्रांसफर पूना में ही हो गया है. बाकी सब तो कल ही चले जाएंगे, ये हमारे साथ ही रहेंगे.’’

देव ने सब को हाथ जोड़ कर नमस्ते की, अपनी आकर्षक मुसकराहट और बातों से उन्होंने सब को प्रभावित किया.

डिनर हो गया. सुनंदा घर जाना चाहती थी. 12 बज रहे थे. किसी को घर जाने की जल्दी नहीं थी. सुनंदा ने नेहा और विपिन से विदा ली और बाहर निकल आई. थोड़ी दूर ही पहुंची थी कि अचानक उस की कार रुक गई. बारिश बहुत तेज थी. उस ने बहुत कोशिश की, लेकिन कार स्टार्ट नहीं हुई. वह परेशान हो गई. पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था. कुछ सम  झ नहीं आया तो उस ने नेहा को अपनी परेशानी बताई.

नेहा ने फौरन कहा, ‘‘आप वहीं रुकिए, मैं अभी मामा को भेजती हूं.’’

‘‘अरे, नहीं, उन्हें क्यों तकलीफ देती हो?’’

‘‘कोई तकलीफ नहीं होगी उन्हें. बाकी सब डांस फ्लोर पर हैं. मामा ही अकेले बैठे है. वे आ जाएंगे. मैं आप का नंबर भी उन्हें दे देती हूं.’’

थोड़ी देर में देव पहुंच गए, उन्होंने फोन पर कहा, ‘‘आप अपनी गाड़ी वहीं लौक  कर के मेरी गाड़ी में आ जाइए. बारिश बहुत तेज है. ध्यान से आइएगा. मैं सामने खड़ी ब्लैक गाड़ी में हूं.’’

सुनंदा ने गाड़ी में हमेशा रहने वाला छाता उठाया, गाड़ी लौक की और फिर देव की गाड़ी में बैठते ही बोली, ‘‘सौरी, मेरी वजह से आप को परेशानी उठानी पड़ी.’’

देव हंसते हुए बोले, ‘‘मैं तो वहां अकेले बेकार ही बैठा था. मु  झे बरिश में ड्राइविंग करना अच्छा लगता है.’’

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सुनंदा उन्हें अपने घर का रास्ता बताती रही. घर आ गया, तो देव ने कहा, ‘‘अगर आप चाहें तो अपनी कार की चाबी मु  झे दे दें, मैं ठीक करवा दूंगा या घर पर कोई है तो ठीक है.’’

‘‘ओह, थैंक्स अ लौट,’’ कहते हुए सुनंदा ने कार की चाबी देव को दे दी.

देव ‘गुडनाइट’ बोल कर चले गए.

अगले दिन शाम को नेहा देव के साथ सुनंदा से मिलने चली आई. सुनंदा दोनों को देख कर खुश हुई. नेहा देव को सुनंदा के बारे में सब बता चुकी थी. बातचीत के साथ चायनाश्ता होता रहा, रात की पार्टी की बातें होती रहीं.

नेहा ने कहा, ‘‘कितना मना कर रहे हैं हम लोग मामा को अलग फ्लैट ले कर शिफ्ट करने से, लेकिन मामा तो हैं ही शुरू से जिद्दी.’’

देव मुसकराते हुए बोले, ‘‘तुम लोगों को प्राइवेसी चाहिए या नहीं?’’

सुनंदा हंस पड़ी, तो देव उठ खड़े हुए. बोले, ‘‘मैं चलता हूं. मु  झे अपनी नई गृहस्थी की शौपिंग करनी है.’’

नेहा ने कहा, ‘‘विपिन आने वाले होंगे, मैं भी चलती हूं.’’

सुनंदा बोली,’’ मैं भी थोड़ा घर का सामान लेने जा रही हूं.’’

नेहा ने कहा, ‘‘तो आप मामा के साथ ही चली जाइए न. कार तो अभी है नहीं आप के पास.’’

सुनंदा ने औपचारिकतावश मना किया तो देव बोले, ‘‘चलिए न, मु  झे कंपनी मिल जाएगी.’’

सुनंदा ने सहमति में सिर हिला दिया. कहा, ‘‘आप बैठिए, मैं तैयार हो जाती हूं.’’

नेहा चली गई. देव सुनंदा का इंतजार करने लगे. सुनंदा तैयार हो कर आई तो देव ने उसे तारीफ भरी नजरों से देखा तो वह थोड़ा सकुचाई. फिर दोनों घर से निकले ही थे कि बहुत तेज बारिश होने लगी. दोनों ने एकदूसरे को देखा. देव ने कहा, ‘‘क्या हमेशा हम दोनों के साथ होने पर तेज बारिश होगी?’’

सुनंदा खुल कर हंस दी. दोनों ने शौपिंग की. फिर कौफी पी और देव ने सुनंदा को उस के घर छोड़ दिया. देव की बातों से उस ने इतना जरूर अंदाजा लगाया था कि देव अकेले हैं. ज्यादा कुछ उस ने पूछा नहीं था.

वह सोच रही थी वह माने या न माने, देव ने उस के मन में कुछ हलचल सी जरूर पैदा कर दी है. यदि ऐसा नहीं है तो उस का मन देव के इर्दगिर्द ही क्यों भटक रहा है, बाहर बारिश, कार के अंदर चलता एक पुराना कर्णप्रिय गीत, देव का बात करने का मनमोहक ढंग सुनंदा को बहुत अच्छा लगा था. नीलेश के बाद आज पहली बार किसी पुरुष के साथ ने उस के मन में इस तरह हलचल मचाई थी.

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कहीं यह प्यार तो नहीं- भाग 3 : विहान को किससे था प्यार

जूही के लिए वहां एक मिनट भी ठहरना मुश्किल हो रहा था. सूप पीने के बाद उस ने अपनी तबीयत ठीक न होने का बहाना बनाया और बिना खाना खाए वापस लौट आई.

घर पहुंच कर उसे लग रहा था जैसे किसी शिकारी के जाल से बच कर आई हो. जूही का जी चाह रहा था कि अभी विहान के पास पहुंच जाए और उस के सीने में अपना मुंह छिपा ले. विहान फिर उसे खूब प्यार करे. स्वयं पर आश्चर्यचकित हो जूही सोच रही थी कि राहुल के हाथ पकड़ने पर उस का मन घृणा से भर उठा था, लेकिन विहान के बाहुपाश में समाने को वह व्याकुल हो रही है. अचानक उस का दिल पूछ बैठा कि कहीं यह प्यार तो नहीं?

रात को सोने से पहले जूही ने व्हाट्सऐप पर विहान को लिखा, ‘‘बहुत याद आ रहो आज, मन कर रहा है मिलने का, साथ में उदास चेहरे वाला इमोजी भी लगा दी.’’

विहान का तुरंत जवाब आ गया कि मोबाइल से हाथ बाहर निकालो. अभी खींच लूंगा.

‘‘मैं मजाक नहीं कर रही हूं. आ जाऊंगी किसी दिन मिलने. आमनेसामने बैठ कर बातें किए कितने दिन हो गए.’’

‘‘मु झे भी अच्छा ही लगेगा तुम्हारा आना, लेकिन एक प्रौब्लम है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘यहां 4 कमरे हैं और दोस्त भी 4. सब के कमरे में अपनाअपना सिंगल बैड है. तुम कहां सोओगी रात में?’’

‘‘क्या विहान, मु झे अपने पास नहीं सुला सकते? इतना भी एडजस्ट नहीं करोगे मेरे लिए? तुम बदल गए हो,’’ इस मैसेज के साथ जूही ने रोते चेहरे वाले 2 इमोजी लगा दी.

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‘‘अरे, नहींनहीं… बदला नहीं हूं. आ जाना जब चाहो. मैं इंतजार करूंगा. नाराज मत होना, मेरी जान निकल जाएगी,’’ मैसेज के अंत में लगाने के लिए इमोजी ढूंढ़ते हुए विहान का मन किस करती इमोजी पर जा कर ठहर गया. मन में हलचल होने लगी. जीवन में पहली बार किसी को वह चुंबन करते चेहरे वाला इमोजी भेज रहा था.

विहान की ओर से किसिंग फेस इमोजी और वह भी उस दिन जब जूही कल्पना में विहान के गले लगी हुई थी. जूही के गाल तपने लगे. सोच में पड़ गई कि अब क्या टाइप करे?

जब कुछ देर तक जवाब नहीं आया तो बातचीत का रुख बदलते हुए विहान ने लिखा, ‘‘कल मैं अपने औफिस न जा कर एमजी रोड जाऊंगा, वहां के एक औफिस में काम है. 4 फ्रैंड्स भी जा रहे हैं साथ. तीन दिन रुक कर वापस आएंगे हम सब… और हां… उन चारों फ्रैंड्स में एक लड़की भी है.’’

जवाब में जूही ने लिखा, ‘‘सो व्हाट…? लड़की ही तो जा रही है न या फिर वह कोई भूतनी है कि स्पैश्ली बता रहे हो?’’ मैसेज भेजते ही अपने डाउनलोड किए स्टिकर्स में से  झाड़ू पर बैठी विच का स्टिकर लगाना नहीं भूली जूही.

विहान की हंसी छूट गई. उस ने लिखा, ‘‘भूतनी हो या हूर की परी, मु झे किसी और से क्या लेनादेना अब?’’

जूही के मन की वीणा के तार  झंकृत होने लगे. पूछना तो चाहती थी कि फिर अब किस से लेनादेना है यह तो बता दो, लेकिन संकोचवश लिख नहीं पाई. जवाब में एक गुलाब का फूल पोस्ट कर दिया.

कुछ देर बाद विहान का मैसेज आ गया, ‘‘अब सोना है मु झे क्योंकि कल जल्दी उठना है. आज से ही आधे बैड पर सोने की प्रैक्टिस शुरू कर दूंगा, तुम प्रोग्राम बना ही लो आने का… गुड नाइट.’’

जूही ने इस बार जवाब दिया,’’ गुड नाइट… मैं भी सो जाती हूं. सपनों में मिलेंगे.’’

विहान जूही को याद कर बेचैन हो सोने का प्रयास करने लगा. लग रहा था जैसे जूही आ कर उस के पास बिस्तर पर लेटी है. वीडियो चैटिंग वाले दिन देखा जूही का रूप उस के मनमस्तिष्क पर छा रहा था. कल्पना में महकती जूही उसे कुछ और सोचने ही नहीं दे रही थी. ‘कहीं यह प्यार तो नहीं?’ सोच कर वह मुसकरा दिया.

एमजी रोड बैंगलुरु का एक व्यस्त इलाका है, जहां विभिन्न कंपनियों के कार्यालय भी हैं और घूमनेफिरने के लिए सुंदर स्थल भी. पहले दिन का काम निबटा कर विहान मित्रों के साथ यूबी सिटी मौल चला गया. दिल्ली में उस ने इस प्रकार के मौल नहीं देखे थे. लक्जरी मौल होने के कारण सभी प्रमुख इंटरनैशनल ब्रैंड्स के उत्पाद उपलब्ध थे वहां.

विहान मौल में घुसा तो लगा जैसे विदेश में आ गया हो. जगमगाता ऊंचा चौका ऐस्कलेटर, चकाचौंध कर देने वाली गुंबदनुमा छत, खूबसूरत इंटीरियर वर्क और बड़ेबड़े स्टोर्स. इतना भव्य स्थान और जूही का साथ न होना, विहान जैसे भीड़ में अकेला सा हो गया. दोस्त अपनी बातों में मस्त थे और विहान यादों में उल झा हुआ था.

अगले दिन उन सभी ने देर तक रुक कर काम निबटा लिया और अंतिम दिन घूमनेफिरने के नाम कर दिया. सुबह होते ही वे नाश्ता कर कब्बन पार्क पहुंच गए. सुंदरसुंदर फूलों से लदे छायादार पेड़ों के नीचे लगे बैंच, मूर्तियां, ब्रिटिश काल के पुस्तकालय की सुंदर लाल बिल्डिंग व रंगबिरंगे फुहारे वातावरण को सुखद बना रहे थे. हाथों में हाथ डाले प्रेमी युगल विहान को जूही और अपना प्रतिरूप लग रहे थे, एक ऐसा रूप जो उस के दिल में कहीं छिपा बैठा था, लेकिन दिमाग तक पहुंचने में बहुत समय लग गया.

पार्क से निकल पास के एक होटल में लंच कर सभी मित्र उल्सूर  झील देखने निकल पड़े. वहां बोटिंग करते हुए नाव जब एक टापू पर रुकी तो विहान को बचपन याद आ गया. जूही और वह जब गुड्डेगुडि़या का खेल खेलते थे तो विहान टब में पानी ले कर उसे  झील कहता था. छोटेछोटे डब्बों पर मिट्टी और घास रख वह जब  झील में टापू बनाता तो जूही उछल पड़ती थी.

जूही को खुश करने के लिए बारबार वह भिन्नभिन्न प्रकार से टापुओं को सजाता. विहान सोच रहा था कि जूही आज यहां होती तो  झील में बने छोटेछोटे टापुओं को देख कर कितनी प्रसन्न होती कि कल्पना साकार हो गई है.

शाम हुई तो सभी चाय पीने बैठ गए. चाय वाले की टपरी पर हिंदी गाने बज रहे थे. अचानक किशोर कुमार की आवाज में ‘कुदरत’ फिल्म का गाना सुन विहान ने जूही को फोन मिला दिया और उस से हैलो कहते ही बोल पड़ा, ‘‘पता है कौन सा गाना सुन रहा हूं मैं अभी?’’

‘‘अचानक इस समय फोन और ऐसी बहकी सी बात, ठीक हो न?’’ जूही अचरज में पड़ गई.

सब छोड़ो और सुनो न गाने के बोल, ‘‘‘हमें तुम से प्यार कितना ये हम नहीं जानते, मगर जी नहीं सकते तुम्हारे बिना…’’’

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जूही को ऐसा लगा जैसे गुलाब की सैकड़ों पंखुडि़यां उस पर लगातार गिरती जा रही हैं. अभिभूत हो वह बोल उठी, ‘‘मेरे मन में तो इसी फिल्म का कोई और गाना गूंज रहा है, लता मंगेशकर का गाया हुआ.’’

‘‘कौन सा?’’ विहान भी प्यार में डूबा था.

‘‘‘तूने ओ रंगीले कैसा जादू किया, पियापिया बोले मतवाला जिया…’’’

‘‘जूही मु झे नहीं पता प्यार कैसा होता है, पर मैं रह नहीं सकता तुम्हारे बिना… यही सच है,’’ विहान अब चुप नहीं रह सका.

‘‘जो जादू तुम ने मु झ पर किया शायद उसे ही कहते हैं प्यार… कितना खूबसूरत है यह एहसास,’’ जूही की आवाज में नमी थी,

प्रेम था और लज्जा भी.

‘‘जल्दी आऊंगा दिल्ली. मम्मीपापा से आज ही बात करता हूं,’’ विहान कह उठा.

जूही की खनकती हंसी सुन विहान ने ‘बाय’ कह फोन काट दिया. ‘हमें तुम से प्यार कितना…’

गाना  झील से टकरा कर उसे अभी भी तरंगित कर रहा था.

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जीवनज्योति

लड़की- भाग 3 : क्या परिवार की मर्जी ने बर्बाद कर दी बेटी वीणा की जिंदगी

लेखक- रमणी मोटाना

आज उसे लग रहा था कि उस ने व उस के पति ने बेटी के प्रति न्याय नहीं किया. क्या हमारी सोच गलत थी? उस ने अपनेआप से सवाल किया. शायद हां, उस के मन ने कहा. हम जमाने के साथ नहीं चले. हम अपनी परिपाटी से चिपके रहे.

पहली गलती हम से यह हुई कि बेटी के परिपक्व होने के पहले ही उस की शादी कर देनी चाही. अल्हड़ अवस्था में उस के कंधों पर गृहस्थी का बोझ डालना चाहा. हम जल्द से जल्द अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे. और दूसरी भूल हम से तब हुई जब वीणा ने अपनी पसंद का लड़का चुना और हम ने उस की मरजी को नकार कर उस की शादी में हजार रोडे़ अटकाए. अब जब वह अपनी शादी से खुश नहीं थी और पति से तलाक लेना चाह रही थी तो हम दोनों पतिपत्नी ने इस बात का जम कर विरोध किया.

बेटी की खुशी से ज्यादा उन्हें समाज की चिंता थी. लोग क्या कहेंगे, यही बात उन्हें दिनरात खाए जाती थी. उन्हें अपनी मानमर्यादा का खयाल ज्यादा था. वे समाज में अपनी साख बनाए रखना चाहते थे, पर बेटी पर क्या बीत रही है, इस बात की उन्हें फिक्र नहीं थी. बेटी के प्रति वे तनिक भी संवेदनशील न थे. उस के दर्द का उन्हें जरा भी एहसास न था. उन्होंने कभी अपनी बेटी के मन में पैठने की कोशिश नहीं की. कभी उस की अंतरंग भावनाओें को नहीं जानना चाहा. उस के जन्मदाता हो कर भी वे उस के प्रति निष्ठुर रहे, उदासीन रहे.

अहल्या को पिछली बीसियों घटनाएं याद आ गईं जब उस ने वीणा को परे कर बेटों को कलेजे से लगाया था. उस ने हमेशा बेटों को अहमियत दी जबकि बेटी की अवहेलना की. बेटों को परवान चढ़ाया पर बेटी जैसेतैसे पल गई. बेटों को अपनी मनमानी करने की छूट दी पर बेटी पर हजार अंकुश लगाए. बेटों की उपलब्धियों पर हर्षित हुई पर बेटी की खूबियों को नजरअंदाज किया. बेटों की हर इच्छा पूरी की पर बेटी की हर अभिलाषा पर तुषारापात किया. बेटे उस की गोद में चढ़े रहते या उस की बांहों में झूलते पर वीणा के लिए न उस की गोद में जगह थी न उस के हृदय में. बेटे और बेटी में उस ने पक्षपात क्यों किया था? एक औरत हो कर उस ने औरत का मर्म क्यों नहीं जाना? वह क्यों इतनी हृदयहीन हो गई थी?

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बेटी के विवर्ण मुख को याद कर उस के आंसू बह चले. वह मन ही मन रो कर बोली, ‘बेटी, तू जल्दी होश में आ जा. मुझे तुझ से बहुतकुछ कहनासुनना है. तुझ से क्षमा मांगनी है. मैं ने तेरे साथ घोर अन्याय किया. तेरी सारी खुशियां तुझ से छीन लीं. मुझे अपनी गलतियों का पश्चात्ताप करने दे.’

आज उसे इस बात का शिद्दत से एहसास हो रहा था कि जानेअनजाने उस ने और उस के पति ने बेटी के प्रति पक्षपात किया. उस के हिस्से के प्यार में कटौती की. उस की खुशियों के आड़े आए. उस से जरूरत से ज्यादा सख्ती की. उस पर बचपन से बंदिशें लगाईं. उस पर अपनी मरजी लादी.

वीणा ने भी कठपुतली के समान अपने पिता के सामंती फरमानों का पालन किया. अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं का दमन कर उन के इशारों पर चली. ढकोसलों, कुरीतियों और कुसंस्कारों से जकड़े समाज के नियमों के प्रति सिर झुकाया. फिर एक पुरुष के अधीन हो कर उस के आगे घुटने टेक दिए. अपने अस्तित्व को मिटा कर अपना तनमन उसे सौंप दिया. फिर भी उस की पूछ नहीं थी. उस की कद्र नहीं थी. उस की कोई मान्यता न थी.

प्रतीक्षाकक्ष में बैठेबैठे अहल्या की आंख लग गई थी. तभी भास्कर आया. वह उस के लिए घर से चायनाश्ता ले कर आया था. ‘‘मांजी, आप जरा रैस्टरूम में जा कर फ्रैश हो लो, तब तक मैं यहां बैठता हूं.’’

अहल्या नीचे की मंजिल पर गई. वह बाथरूम से हाथमुंह धो कर निकली थी कि एक अनजान औरत उस के पास आई और बोली, ‘‘बहनजी, अंदर जो आईसीयू में मरीज भरती है, क्या वह आप की बेटी है और क्या वह भास्करजी की पत्नी है?’’

‘‘हां, लेकिन आप यह बात क्यों पूछ रही हैं?’’

‘‘एक जमाना था जब मेरी बेटी शोभा भी इसी भास्कर से ब्याही थी.’’

‘‘अरे?’’ अहल्या मुंहबाए उसे एकटक ताकने लगी.

‘‘हां, बहनजी, मेरी बेटी इसी शख्स की पत्नी थी. वह इस के साथ कालेज में पढ़ती थी. दोनों ने भाग कर प्रेमविवाह किया, पर शादी के 2 वर्षों बाद ही उस की मौत हो गई.’’

‘‘ओह, यह सुन कर बहुत अफसोस हुआ.’’

‘‘हां, अगर उस की मौत किसी बीमारी की वजह से होती तो हम अपने कलेजे पर पत्थर रख कर उस का वियोग सह लेते. उस की मौत किसी हादसे में भी नहीं हुई कि हम इसे आकस्मिक दुर्घटना समझ कर मन को समझा लेते. उस ने आत्महत्या की थी.

‘अब आप से क्या बताऊं. यह एक अबूझ पहेली है. मेरी हंसतीखेलती बेटी जो जिजीविषा से भरी थी, जो अपनी जिंदगी भरपूर जीना चाहती थी, जिस के जीवन में कोई गम नहीं था उस ने अचानक अपनी जान क्यों देनी चाही, यह हम मांबाप कभी जान नहीं पाएंगे. मरने के पहले दिन वह हम से फोन पर बातें कर रही थी, खूब हंसबोल रही थी और दूसरे दिन हमें खबर मिली कि वह इस दुनिया से जा चुकी है. उस के बिस्तर पर नींद की गोलियों की खाली शीशी मिली. न कोई चिट्ठी न पत्री, न सुसाइड नोट.’’

‘‘और भास्कर का इस बारे में क्या कहना था?’’

‘‘यही तो रोना है कि भास्कर इस बारे में कुछ भी बता न सका. ‘हम में कोई झगड़ा नहीं हुआ,’ उस ने कहा, ‘छोटीमोटी खिटपिट तो मियांबीवी में होती रहती है पर हमारे बीच ऐसी कोई भीषण समस्या नहीं थी कि जिस की वजह से शोभा को जान देने की नौबत आ पड़े.’ लेकिन हमारे मन में हमेशा यह शक बना रहा कि शोभा को आत्महत्या करने को उकसाया गया.

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‘‘बहनजी, हम ने तो पुलिस में भी शिकायत की कि हमें भास्कर पर या उस के घर वालों पर शक है पर कोई नतीजा नहीं निकला. हम ने बहुत भागदौड़ की कि मामले की तह तक पहुंचें पर फिर हार कर, रोधो कर चुप बैठ गए. पतिपत्नी के बीच क्या गुजरती थी, यह कौन जाने. उन के बीच क्या घटा, यह किसी को नहीं पता.

‘‘हमारी बेटी को कौन सा गम खाए जा रहा था, यह भी हम जान न पाए. हम जवान बेटी की असमय मौत के दुख को सहते हुए जीने को बाध्य हैं. पता नहीं वह कौन सी कुघड़ी थी जब भास्कर से मेरी बेटी की मित्रता हुई.’’

अहल्या के मन में खलबली मच गई. कितना अजीब संयोग था कि भास्कर की पहली पत्नी ने आत्महत्या की. और अब उस की दूसरी पत्नी ने भी अपने प्राण देने चाहे. क्या यह महज इत्तफाक था या भास्कर वास्तव में एक खलनायक था? अहल्या ने मन ही मन तय किया कि अगर वीणा की जान बच गई तो पहला काम वह यह करेगी कि अपनी बेटी को फौरन तलाक दिला कर उसे इस दरिंदे के चंगुल से छुड़ाएगी.

वह अपनी साख बचाने के लिए अपनी बेटी की आहुति नहीं देगी. वीणा अपनी शादी को ले कर जो भी कदम उठाए, उसे मान्य होगा. इस कठिन घड़ी में उस की बेटी को उस का साथ चाहिए. उस का संबल चाहिए. देरसवेर ही सही, वह अपनी बेटी का सहारा बनेगी. उस की ढाल बनेगी. हर तरह की आपदा से उस की रक्षा करेगी.

एक मां होने के नाते वह अपना फर्ज निभाएगी. और वह इस अनजान महिला के साथ मिल कर उस की बेटी की मौत की गुत्थी भी सुलझाने का प्रयास करेगी.

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भास्कर जैसे कई भेडि़ये सज्जनता का मुखौटा ओढ़े अपनी पत्नी को प्रताडि़त करते रहते हैं, उसे तिलतिल कर जलाते हैं और उसे अपने प्राण त्यागने को मजबूर करते हैं. लेकिन वे खुद बेदाग बच जाते हैं क्योंकि बाहर से वे भले बने रहते हैं. घर की चारदीवारी के भीतर उन की करतूतें छिपीढकी रहती हैं.

Serial Story: कीर्तन, किट्टी पार्टी और बारिश- भाग 3

अगली किट्टी पार्टी का दिन आ गया. पार्टी सुरेखा के यहां थी. इस बार नेहा सब को उत्साहित हो कर बता रही थी, ‘‘मामा की शादी के 1 साल बाद ही उन का डाइवोर्स हो गया था. मामी अपने किसी प्रेमी के साथ शादी करना चाहती थी.

वह मामा के साथ एक दिन भी नहीं चाहती थी, मामा को उन्होंने बहुत तंग किया. मामी की इच्छा को देखते हुए मामा ने उन्हें चुपचाप डाइवोर्स दे दिया, उन्होंने तो अपने प्रेमी से शादी कर ली, लेकिन मामा ने उस के बाद गृहस्थी नहीं बसाई. मामा एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छी पोस्ट पर हैं. बस, उन्होंने काम में ही हमेशा खुद को व्यस्त रखा.’’

सुनंदा चुपचाप देव की कहानी सुन रही थी. नेहा ने अचानक पूछा, ‘‘सुनंदाजी, आप की और मामा की शौपिंग कैसी रही?’’

‘‘बहुत अच्छी,’’ कह कर सुनंदा और बाकी महिलाएं बातों में व्यस्त हो गईं.

अगले दिन औफिस से लौट कर देव सुनंदा के घर आए, उन्हें कार की चाबी दी. कहा, ‘‘आप की गाड़ी ले आया हूं.’’

सुनंदा ने कहा, ‘‘थैंक्स, आप बैठिए. मैं चाय लाती हूं.’’

थोड़ी देर में सुनंदा चाय ले आई. बातों के दौरान पूछा, ‘‘आप कैसे जाएंगे अब?’’

देव हंसे, ‘‘आप छोड़ आइए.’’

सुनंदा ने भी कहा, ‘‘ठीक है,’’ और खिलखिला दी.

तभी सुनंदा के मोबाइल की घंटी बजी. अलका थी. हालचाल पूछने के बाद वह कह रही थी, ‘‘सुनंदा, तुम फ्री हो न?’’

सुनंदा के कान खड़े हुए, ‘‘क्यों, कुछ काम है क्या?’’

‘‘अभी से बता रही हूं, मेरी सहेली ने घर पर कीर्तन रखा है. उस ने तुम्हें भी बुलाया है. कल आ जाना, साथ चलेंगे.’’

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‘‘ओह दीदी, कल नहीं आ पाऊंगी, मेरी गाड़ी खराब है. मु  झे कल तो समय नहीं मिलेगा. कल डाक्टर के यहां भी जाना है. रैग्युलर चैकअप के लिए और गाड़ी लेने भी जाना है. बहुत काम है दीदी कल.’’

थोड़ीबहुत नाराजगी दिखा कर अलका ने फोन रख दिया. सुनंदा भी फोन रख कर मुसकराने लगी, तो देव ने कहा, ‘‘लेकिन आप की गाड़ी तो ठीक है.’’

सुनंदा ने हंसते हुए अपनी कीर्तन, प्रवचनों से दूर रहने की आदत के बारे में बताया तो देव ने भरपूर ठहाका लगाया. बोले, ‘‘  झूठ तो बहुत अच्छा बोल लेती हैं आप.’’

देव अलग फ्लैट में शिफ्ट हो चुके थे. सुनंदा उन्हें उन की कालोनी तक छोड़ आई. अब तक दोनों में अच्छी दोस्ती हो चुकी थी. कोई औपचारिकता नहीं बची थी. अब दोनों मिलते रहते, अंतरंगता बढ़ रही थी. कई जगह साथ आतेजाते. सबकुछ अपनेआप होता जा रहा था. देव कभी नेहा के यहां भी चले जाते थे. उन्होंने एक नौकर रख लिया था, जो घर का सब काम करता था.

सुनंदा ने गौरव को देव के बारे में सब कुछ बता दिया था. उन के साथ उठनाबैठना, आनाजाना सब. सुनंदा विमुग्ध थी, अपनेआप पर, देव पर, अपनी नियति पर. अब लगने लगा था शरीर की भी कुछ इच्छाएं, आकांक्षाएं हैं. उसे भी किसी के स्निग्ध स्पर्श की कामना थी. आजकल सुनंदा को लग रहा था कि जैसे जीवन का यही सब से सुंदर, सब से रोमांचकारी समय है. वह पता नहीं क्याक्या सोच कर सचमुच रोमांचित हो उठती.

देव और सुनंदा की नजदीकियां बढ़ रही थीं. देव औफिस से भी सुनंदा से फोन पर हालचाल पूछते. अकसर मिलने चले आते. सुनंदा की पसंदनापसंद काफी जान चुके थे. अत: अकसर सुनंदा की पसंद का कुछ लेते आते तो सुनंदा हैरान सी कुछ बोल भी न पाती.

एक दिन विपिन से विचारविमर्श के बाद नेहा ने सुनंदा को छोड़ कर किट्टी पार्टी की  बाकी सब सदस्याओं को अपने घर बुलाया.

सब हैरान सी पहुंच गईं.

मंजू ने कहा, ‘‘क्या हुआ नेहा? फोन पर कुछ बताया भी नहीं और सुनंदा जी को बताने के लिए क्यों मना किया?’’

नेहा ने कहा, ‘‘पहले सब सांस तो ले लो. मेरे मन में बहुत दिन से कोई बात चल रही है. मु  झे आप सब का साथ चाहिए.’’

अनीता ने कहा, ‘‘जल्दी कहो, नेहा.’’

नेहा ने गंभीरतापूर्वक बात शुरू की, ‘‘सुनंदाजी और मेरे देव मामा को आप ने कभी साथ देखा है?’’

सब ने कहा, ‘‘हां, कई बार.’’

‘‘आप ने महसूस नहीं किया कि दोनों एकदूसरे के साथ कितने अच्छे लगते हैं, कितने खुश रहते हैं एकसाथ.’’

अनीता ने कहा, ‘‘तो क्या हुआ? सुनंदाजी तो हमेशा खुश रहती हैं.’’

‘‘मैं सोच रही हूं कि सुनंदाजी मेरी मामी बन जाएं तो कैसा रहेगा?’’

पूजा बोली, ‘‘पागल हो गई हो क्या नेहा? सुनंदाजी सुनेंगी तो कितना नाराज होंगी.’’

‘‘क्यों, नाराज क्यों होंगी? अगर वे देव मामा के साथ खुश रहती हैं तो हम आगे का कुछ क्यों नहीं सोच सकते? आज तक वे हमारी हर जरूरत के लिए हमेशा तैयार रहती हैं. हम उन के लिए कुछ नहीं कर सकते क्या?’’

अनीता ने कहा, ‘‘तुम्हें अंदाजा है उन की सुभद्रा बूआ, जेठानी और बहन यह सुन कर भी उन का क्या हाल करेंगी?’’

‘‘क्यों, इस में बुरा क्या है? मैं आप सब से छोटी हूं. आप से रिक्वैस्ट ही कर सकती हूं कि आप लोग मेरा साथ दो प्लीज, समय बहुत बदल चुका है और सुनंदाजी तो किसी की परवाह न करते हुए जीना जानती हैं.’’

पूजा ने कहा, ‘‘गौरव के बारे में सोचा है?’’

बहुत देर से चुप बैठी सुनीता ने कहा, ‘‘जानती हूं मैं अच्छी तरह गौरव को, वह बहुत सम  झदार लड़का है, वह अपनी मां को हमेशा खुश देखना चाहता है.’’

बहुत देर तक विचारविमर्श चलता रहा. फिर तय हुआ सुनीता ही इस बारे में सुनंदा से बात करेगी.

अगले दिन सुनीता सुनंदा के घर पहुंच गई. इधरउधर की बातों के बाद सुनीता ने  पूछा, ‘‘और देव कैसे हैं? मिलना होता है या नहीं?’’

सुनंदा के गोरे चेहरे पर देव के नाम से ही एक लालिमा छा गई और वह बड़े उत्साह से देव की बातें करने लगी.

सुनीता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘इतने अच्छे हैं मि. देव तो कुछ आगे के लिए भी सोच लो.’’

सुनंदा ने प्यार भरी डांट लगाई, ‘‘पागल हो गई हो क्या? दिमाग तो ठीक है न?’’

‘‘हम सब की यही अच्छा है. अभी मैं जा रही हूं, अच्छी तरह सोच लो, लेकिन जरा जल्दी. हम लोग जल्दी आएंगी.’’

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सुनंदा कितने ही विचारों में डूबतीउतराती रही कि क्या करें. मन तो यही चाहता है देव को अपने जीवन में शामिल कर ले सदा के लिए, पर अब? गौरव क्या कहेगा? सुभद्रा बूआ, रमा और अलका क्या कहेंगी? वह रातभर करवटें बदलती रही. बीचबीच में आंख लगी भी तो देव का चेहरा दिखाई देता रहा.

उधर विपिन और नेहा ने देव से बात की. उम्र के इस मोड़ पर उन्हें भी किसी साथी की जरूरत महसूस होने लगी थी. देव के मन में भी जीवन के सारे संघर्ष   झेल कर भी हंसतीमुसकराती सुनंदा अपनी जगह बना चुकी थी. कुछ देर सोच कर देव ने अपनी स्वीकृति दे दी.

सुबह जब सुनंदा का गौरव से बात करने का समय हो रहा था, सब पहुंच गईं और विपिन और देव के साथ. देव और सुनंदा एकदूसरे से आंखें बचातेशरमाते रहे.

सुनीता ने कहा, ‘‘सुनंदा, तुम हटो, मैं गौरव से बात करती हूं,’’ और फिर वेबकैम पर सुनीता ने गौरव को सबकुछ बताया.

सुनंदा बहुत संकोच के साथ गौरव के सामने आई तो गौरव ने कहा, ‘‘यह क्या मां, इतनी अच्छी बात, मु  झे ही सब से बाद में पता चल रही है.’’

सुनंदा की आंखों से भावातिरेक में अश्रुधारा बह निकली. वह कुछ बोल ही नहीं पाई.

सुनीता ने ही गौरव का परिचय देव से करवाया. देव की आकर्षक, सौम्य सी मुसकान गौरव को भी छू गई और उस ने इस बात में अपनी सहर्ष सहमति दे दी तो सुनंदा के दिल पर रखा बो  झ हट गया.

गौरव ने कहा, ‘‘मां, आप दादी, ताईजी और मौसी की चिंता मत करना, उन सब को मैं आ कर संभाल लूंगा. आप किसी की चिंता मत करना मां. आप अपना जीवन अपने ढंग से जीने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं. मु  झे तो अभी छुट्टी नहीं मिल पाएगी, लेकिन आप मेरे लिए देर मत करना.’’

गौरव की बातें सुनंदा को और मजबूत बना गईं.

थोड़ी देर चायनाश्ता कर सब सुनंदा को गले लगा कर प्यार करती हुईं अपनेअपने घर चली गईं.

नेहा, विपिन और देव रह गए. विपिन ने कहा, ‘‘अब देर नहीं करेंगे, कल ही मैरिज रजिस्ट्रार के औफिस में चलते हैं.’’

अगले दिन सुनंदा तैयार हो रही थी. सालों पहले नीलेश की दी हुई लाल साड़ी निकाल कर पहनने का मन हुआ. फिर सोचा नहीं, कोई लाइट कलर पहनना चाहिए. मन को न सही, शरीर को उम्र का लिहाज करना ही चाहिए. वह कुछ सिहर गई, क्या देव को उस के शरीर से भी उम्मीदें होंगी? स्त्री को ले कर पता नहीं क्यों लोग हमेशा नकारात्मक भ्रांतियां रखते हैं, कभी किसी ने यह क्यों नहीं सोचा कि उम्रदराज स्त्री भी…

आगे कुछ सोचने से पहले ही वह खुद ही हंस दी, उम्रदराज? उम्र से क्या होता है, फिर नीलेश का चेहरा अचानक आंखों को धुंधला कर गया. नीलेश उसे हमेशा खुश देखना चाहते थे और बस वह अब खुश थी, सारे संदेहों, तर्कवितर्कों में डूबतेउतराते वह जैसे ही तैयार हुई, डोरबैल बजी. सुनंदा ने गेट खोला. देव उसे ले जाने आ गए थे.

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