जनसंख्या विस्फोट से अधिक खतरनाक है क्लाइमेट चेंज, जानें यहां

मुंबई हर मानसून में पानी-पानी हो जाती है और ये धीरे-धीरे हर साल बढती जा रही है, कितना भी कोशिश प्रसाशन कर ले, इसे रोक नहीं पाती. कई लो लाइंग एरिया को ऊपर किया गया, रास्ते और सीवर लाइन बदले गए, लेकिन मानसून में पानी जमा होने को रोक नहीं पाये, जिससे हर साल यहाँ के निवासियों को बाढ़ जैसे हालात का सामना मानसून में करना पड़ता है. असल में इस महानगरका तापमान पिछले एक दशक में काफी बढ़ी है. एक दशक पहले 35 डिग्री सेल्सियस तक,अक्तूबर और नवम्बर में रहने वाला तापमान अब 35 से 40 डिग्री तक होने लगा है. इसकी वजह जंगल काटकर शहरीकरण करना, पर्यावरण पर अधिक दबाव का पड़ना है,जिससे ग्रीन जोन लगातार कम हो रहा है. यहाँ की जनसँख्या भी अधिक है, जिससे गाड़ियों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है. मुंबई में रहनेवालों के पास भले ही 350 स्कवायर फीट का घर हो, पर गाड़ी वे बड़ी खरीदते है, ऐसे कई विषम परिस्थितियों की वजह से पूरे विश्व में पर्यावरण प्रदूषण बहुतबढ़ चुकी है, जिससे जलवायु में परिवर्तन भी जल्दी दिख रहा है और ये समस्या जनसंख्या विस्फोट से भी अधिक भयावह हो गयी है, लेकिन विश्व इसे अनसुना कर रही है, ऐसे में अगर इसे रोकने की व्यवस्था नही की गई, तो आने वाली कुछ सालों में मुंबई और समुद्र के पास स्थित बड़ी-बड़ी शहरों को डूबने से कोई बचा नहीं सकेगा.

बदल रही है जलवायु

जलवायु परिवर्तन की समस्या से पूरा विश्व गुजर रहा है, जिसमें आर्कटिक में तीसरी बड़ी ग्लेसियर के पिघलने की वजह से इस साल वहां और कनाडा में भयंकर गर्मी पड़ना,जर्मनी में अचानक बाढ़ आना,अमेरिका की जंगलों में बिना मौसम के आग लगना, आदि न जाने कितने ही आपदा इस जलवायु परिवर्तन की वजह से हो रहा है, इसे गिन पाना संभव नहीं. एक नए शोध में यह बात सामने आई है कि आने वाली कुछ सालों में भारतीय मानसून और अधिकतीव्र हो जायेगा, इसकी वजह पिघलती बर्फ और बढ़ते कार्बन डाई आक्साइड है, जिससे समुद्र के निकवर्ती एरिया डूब जाने की आशंका है.

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किया अनदेखा क्लाइमेट चेंज को

इस बारें में एनवायरनमेंटलिस्ट भारती चतुर्वेदी कहती है कि क्लाइमेट चेंज का प्रभाव काफी सालों से दिख रहा था पर अमीर बड़े-बड़े देशों में नहीं दिख रहा था, सिर्फ हमारे देश में दिख रहा था. हमारे देश में इसका प्रभाव बहुत अधिक दिख रहा है, मसलन तापमान का बढ़ना, बारिश कम होना, सूखा पड़ना, भयंकर बाढ़ आना, अकाल पड़ना आदि कई समस्याएं दिखाई पड़ रही है. विश्व इस पर अधिक ध्यान भी नहीं देती थी, न इसे सच मानती थी. अब अमेरिका में हरिकेन तो कनाडा की वेस्ट कोस्ट में भीषण गर्मी होने और ग्रीनलैंड में तीसरी ग्लेसियर के पिघलने के बाद अब वे इस दिशा में सोच रहे है, जबकि क्लाइमेट चेंज पूरे विश्व के लिए बहुत बड़ा खतरा, सेहत और लाइफ के लिए है. जलवायु परिवर्तन से कई जानवर और पक्षी के समूह आज विलुप्त हो चुके है. ये बहुत ही खतरनाक है, इसलिए इसे अब समझना चाहिए.

चल रहा है आरोप-प्रत्यारोप

इसके लिए हर एक देश एक दूसरे पर आरोप लगाती है कि ये किसी देश की वजह से हुआ है, जबकि देखा जाय तो सारे अमीर देशों का अमीर होने में इंडस्ट्रियलाइजेशन और कोलोनियालिज्म खास महत्व रखता है.इंग्लॅण्ड और अमेरिका ने व्यवसाय की वजह से इतने पैसे कमाए और अमीर बने. इसमें बहुत सारे कोयला जलाया, पेट्रोल जलाया, क्योंकि कैलिफोर्निया जैसे शहर में किसी को भी कही जाने में गाडी लेनी पड़ती है, नहीं तोकहीं नहीं जा सकते, जबकि हमारे देश में बस, ट्रेन, मेट्रो को बहुत अच्छी सुविधा है. गाड़ी, कोयले और इंडस्ट्रियलाइजेशन का कल्चर होने की वजह से इनकी खपत बहुत अधिक है,इससे इन देशों ने अपनी इकॉनमी बढाई है. इसी से क्लाइमेट चेंज हुआ है और मेरा मानना है कि अमीर देशों ने गरीब देशों को इसका गिफ्ट दिया है. गरीब देश जिसमें भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालद्वीप आदि है, उन्हें भुगतना पड़ रहा है. अम्फान तूफान भी इस दिशा में बहुत भयंकर साइक्लोन था, इससे जो आर्थिक नुकसान हुआ, उसकी भरपाई इन अमीर देशों ने नहीं की. इतना ही नहीं हमारे देश में भी रहने वाले अमीर भी जलवायु परिवर्तन में अपना योगदान देने में पीछे नहीं है. मोटेतौर पर देखने से ये पता चलता है कि अमीरों के दिए गए इस भेंट को पाकर सारे गरीब देश और अधिक गरीब हो रहे है.

नहीं समझते जलवायु प्रभाव के दुष्परिणाम 

असल में ये बताना मुश्किल है कि कितने साल पहले से लोगों ने पर्यावरण पर ध्यान देना छोड़ चुके है, लेकिन कई ऐसे देश यहाँ और बाहर है, जो प्रकृति के साथ रहते है. आदिवासी और हिमालय की पहाड़ियों में रहने वाले गाँवों में रहने वाले लोग, जो वहां प्रकृति के साथ रहते है. उन्हें अपने भरण-पोषण के लिए जरुरत की सारी चीजें जैसे खान-पान, दवाई, आग जलाना आदि सब उन्हें उन जंगलों में मिलती है, इसलिए वे जंगल, नदी, पर्वत को अपना जीवन मान उसकी रखवाली करते है. देखा जाय तो पता चलता है कि विश्व में कुछ लोग ऐसे है, जबकि कुछ को ये तक पता नहीं होता है कि उनकी मोबाइल को बनाने में कितने खानों की खुदाई, पेड़ों की कटाई की जाती है और उससे पर्यावरण का प्रदूषणकितना होता है, क्योंकि इससे उन्हें कुछ लेना देना नहीं होता. इस प्रकार कुछ लोगों ने प्रकृति की संरक्षण को नहीं छोड़ा, जबकि उनकी नई पीढ़ी पर्यावरण पर ध्यान देना छोड़ रही है. दूसरे लोग जो पर्यावरण के बारें में कभी सोचा ही नहीं.

डूबने लगेंगे कई देश

डॉ भारती आगे कहती है कि उत्तरपूर्वी ग्रीनलैंड की हिमखंड जल्दी-जल्दी पिघल रही है. अगर ये ग्लेसियर पूरी तरह पिघल जाती है, तो पूरे फ्लोरिडा में 2 इंच पानी आने का खतरा होता. मेरा इसमें ये कहना है कि अब क्लाइमेट चेंज का प्रभाव धीरे-धीरे नहीं जल्दी-जल्दी हो रहा है. साल 2020 में पूरे विश्व में टिड्डियों का आक्रमण अफ्रीका, मिडिल ईस्ट, राजस्थान, दिल्ली, कोलकाता आदि कई शहरों में हुई. इसके अलावा जलवायु परिवर्तन की वजह से राजस्थान, पश्चिमी बंगाल उत्तराखंड, महाराष्ट्र आदि कई शहरों में बिजली कड़कने की संख्या और इसकी घनत्व बढ़ रही है, जिससे लोगों की मृत्यु होने का आंकड़ा भी पहले से काफी बढ़ चुका है. ये परिवर्तन अचानक कुछ सालों से हो रही है. हालाँकि ग्रीनलैंड हमसे काफी दूर है, लेकिन बंगाल, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि जगहों पर बिजली केकड़कने को हल्के में नहीं लेना चाहिए.

जनसंख्या विस्फोट से अधिक खतरनाक, जलवायु परिवर्तन

जलवायु परिवर्तन से जनजीवन पर प्रभाव कितना पड़ेगा? पूछने पर भारती कहती है कि हर देश पर इसका अलग-अलग प्रभाव होगा. मसलन इस साल कनाडा की वेस्ट कोस्ट में 49 डीग्री तापमान हो गयी थी. जबकि दिल्ली में 46 डीग्री तापमान होने पर लोग बीमार पड़ने लगते है, लेकिन इसमें अंतर इतना है कि यहाँ के लोग गर्मी की वजह से मरे है, आग लग गयी और एक शहर पूरा आग से भस्म हो गया, पर वे धीरे-धीरे सामान्य हो गए. इसका अर्थ यह है कि अमीर देशों के पास पैसे है, वे क्षतिग्रस्त लोगों को पैसा मुवावजे के रूप में दे सकते है, फिर से उस जले हुए शहर को बसा सकते है, लेकिन गरीब देश जैसे द्वीपों का समूह, जहाँ काफी लोग निवास करते है. जैसे-जैसे बर्फ पिघलेगा समुद्र का जल स्तर बढेगा और ये द्वीप समूह सागर में डूब जायेंगे, फिर ऐसे लोगों को किसी दूसरे स्थान पर ले जाना पड़ेगा, लेकिन वे जायेंगे कहाँ, फिर से कैसे अपना जीवन शुरू करेंगे? विद्रोह और रोष वहां के लोगों में होगा. उन्हें इस कठिन परिस्थिति में जीवन निर्वाह करना पड़ेगा, ऐसे देश मालद्वीप, श्रीलंका जैसेकई है. वेस्टर्न कंट्रीज में पैसा अधिक होने की वजह से वे फिर से सब पा लेते है और कुछ दिनों में नार्मल जिंदगी बिताना शुरू कर देते है, पर गरीब देशों के लिए संभव नहीं.यहाँ ये भी समझना आवश्यक है कि धनी देशों में भी सबके साथ वर्ताव एक जैसा नहीं होता. ब्लैक लोगों के साथ व्हाइट की तरह अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता. उन्हें हर तरह की सुविधाएं नहीं मिलती, समाज उनके लिए इतना प्रेम नहीं रखती, जितना रखना चाहिए. इसलिए उन्हें बहुत अधिक दुःख पहुँचता है, क्योंकि जब अमेरिका में कुछ साल पहले कैटरीना चक्रवात आया था, तो इन गरीबों के पास  न तो पैसे होते है और न ही इनके लिए पैसे कहीं से आये थे.

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है क्या समाधान

समाधान के बारें में पर्यावरणविद भारती कहती है कि पैरिस अग्रीमेंट एक अच्छी समझौता है, जिसमें विश्व की सभी सरकार की प्रतिनिधियों ने मिलकर जलवायु परिवर्तन पर चर्चा की थी. इसके बाद अब नवम्बर में क्लाइमेट चेंज के बारें में बातचीत होगी और ये निर्णय लिया जाएगा कि इस बिंदु से क्या करना जरुरी होगा, एक तरफ लोग ग्रीन एनवायरनमेंट के साथ या इको-फ्रेंडली के साथ जीना सीखे, लेकिन आबादी यहाँ बहुत अधिक होने की वजह से हम इकोफ्रेंडली तरीके से नहीं जी सकते. इसके लिए देश की जनता को अपनी खपत कम करनी होगी. सोलर पैनल से बिजली मिलने पर भी बिजली की उपयोगिता कम करना पड़ेगा. इसके अलावा खदानों की खुदाई को इको-फ्रेंडली बनाने की जरुरत है, जो मेरे अंदाज से ऐसी खुदाई कभी नहीं हो सकती,  ऐसे में सभी को अपनी जरूरतों को थोडा कम करना है. फॉसिल फ्यूल और कोयले के जलने से कार्बनडाईआक्साइड निकलता है, जो बहुत घातक तरीके से क्लाइमेट चेंज को बढ़ा रहे है. फॉसिल फ्यूल में पेट्रोलियम आता है, इसकी खपत को विकसित और अमीर देशों में कम करने की आवश्यकता है,ताकि इसके कार्बन एमिशन्स को धरती सह सकें. तभी क्लाइमेट इक्विटी हो सकती है और विकासशील देशों को विकसित होने का न्याय मिलेगा और वे आगे बढ़ पायेगे, क्योंकि विकास के लिए थोड़े कोयले और पेट्रोलियम की जरुरत होती है. विकसित देशों का प्रदूषण पोस्ट डेवलपमेंट है, जो वे एंजोयमेंट के लिए करते है,जबकि विकासशील देशों का प्री डेवलपमेंट प्रदूषण है.

इस प्रकार विकसित देशों को फिजूल की शौक को कम करने से ही क्लाइमेट चेंज को रोका जा सकेगा, नहीं तो वो दिनदूर नहीं जब जलवायु परिवर्तन से दुनिया भर की झीलों के ऑक्सीजन लेवल में व्यापक गिरावट का कारण बन जायेगी,जिससे वन्यजीवों का दम घुटने लगेगा और पीने के पानी की आपूर्ति का खतरा पैदा हो जायेगा. महासागर में ऑक्सीजन के गिरते लेवल की पहले ही पहचान हो चुकी है,लेकिन नई रिसर्च के मुताबिक, झीलों में इसकी गिरावट पिछले 40 वर्षों में तीन और नौ गुना के बीच तेजी से बढ़ी है,जो आगे और अधिक बढ़ने की संभावना है.

आज भी बहुत मुश्किल है तलाक लेना

रैप गायक हनी सिंह और उस की पत्नी शालिनी में अब झगड़ा वकीलों की देखरेख में अदालत में पहुंच गया है. मजेदार बाद है हनी सिंह की वकील बेहद सुलझी हुई और हयूमन राइटस के लिए लडऩे वाली रैकोका जान है और उसने भी अदालत की राय से सहमति दिखाने कि मामले को ज्यादा खुली अदालत में नहीं उछलने दिया जाए.

शालिनी अपने पति (अभी तक तो डाइवोर्स नहीं हुआ न) से 20 करोड़ का कंपनलेशन, दक्षिणी दिल्ली में एक अच्छा मकान और 5 लाख रुपए हर माह खर्च के लिए मांगा है. जैसा सभी तलाक मामलों में होता है. शालिनी ने हनी सिंह पर शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक अत्याचार का आरोप लगाया है और जज के कमरे में लंबी समझाहट के बाद भी बात नहीं बनी शालिनी को अपना सामान हनी सिंह के घर से समेट लाने की इजाजत मिली है.

तलाक लेना आज भी बहुत मुश्किल है जैसे भारतीय संस्कृति में नियम है. औरतों पर अत्याचार न हो इसलिए जो कानून बने हैं वे अब तलाक की प्रक्रिया को और बढ़ा देते है और मतभेदों के साथ कौंपलैक्स फैक्टर भी आ जाते हैं जिन से निपटने में वकीलों और जजों को वर्षों लग सकते हैं.

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अब वैसे तो विवाह संस्कार नहीं रह गया क्योंकि तोड़ा जा सकता है पर फिर भी हमारी अदालतें, पुलिस, परिवार सब मिल कर अलग होने वाले युगल इस तरह चक्की में पीसते हैं कि विवाह की कल्पना एक नाईट शेयर, बुरा सपना, बनने लगी है. बहुत से युवा इसीलिए विवाह नहीं कर रहे कि अगर तलाक हो गया तो क्या होगा.

विवाह 2 युवाओं का प्रेम पर मोहर लगाने की प्रक्रिया है. अब मेरा तुम्हारा नहीं, सब हमारा है. मेरी ङ्क्षजदगी तुम्हारी है और तुम्हारे बिना में अधूरी हूं. तुम साथ नहीं हो तो मैं न जाने क्या हो जाता हूं. जैसे भाव न जाने विवाह के बाद कब छूमंतर हो जाते हैं और तुम ऐसे, तुम वैसी हो, तुमने ऐसा क्यों किया, मुझ से पूछा नहीं, यह बात करने का तरीका है, अपनी जबान बंद रखो जैसी बातें जबरन डाली रहती है.

अफसोस यह है कि थोड़े से ही प्रयास के बाद दोनों के मांबाप, मित्र, सलाहकार हथियार डाल कर एक का पक्ष लेना शुरू कर देते हैं. एक बगुला भगत बन जाता है. दूसरा खूंखार बाज, गिद्ध. सहज संतोष की गुंजाइश ही नहीं रहती. जिस के साथ एक बिस्तर पर दिनों बिता वह दुश्मन हो जाता है. बच्चे हो गए हों तो भी फर्क नहीं पड़ता. वकीलों की मौजूदगी भी कोई राहत नहीं दिलाती क्योंकि वकील हर मामले अपने क्लाइंट को दूसरे की खामियां बढ़ाचढ़ा कर बताने की कोशिश करता है.

यह अफसोस है कि जैसे क्लाइमेंट कंट्रोल की जिम्मेदारी हर नागरिक, हर देश, हर उद्योग दूसरे पर डाल रहा, मानव जीवन की इस सब से बड़ी अहम ट्रेन के पटरी पर उतरने के मामले में सब उदासीन हैं. अदालतों में मामलों 10-15 साल तक चल सकते हैं. नरेंद्र मोदी जैसे पूरी ङ्क्षजदगी अकेले रह कर पत्नी को अकेली रहने को मजबूर कर सकते हैं. दुनिया भर में करोड़ स्त्री पुरुष तलाक के पहले की त्रासदी से जूझ रहे हैं.

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तलाक के बाद दूसरी शादी आसानी नहीं है. एक खरोंच खाए जाने से लंबी पारी, जीवन के अंत तक, खेलने का भरोसा कम रहता है. कोई भी दुनिया भर में पतिपत्नी संबंधों में नए सिरे से सोचने के बारे में प्रयास तक नहीं कर रहा. विवाह से मोटी कमाई करने वाले धर्म इस उलझन का मजा ले रहे हैं क्योंकि ज्यादातर मामलों पहले मध्यस्थ वे ही होते हैं और वकीलों की तरह वे भी कमाई कर रहे हैं.

समाज में ऊंची जातियां

पिछड़ी जातियों की जनगणना अब एक बड़ा मामला बनता जा रहा है और नरेंद्र मोदी की सरकार और उस के सपनों को चुनौती दे रहा है. देश में सिर्फ पढ़ेलिखे जनेऊधारी, सरकारी या निजी नौकरी व व्यापार वाले नहीं रखे, देश की आबादी के 90 प्रतिशत लोग आज भी छोटीछोटी जातियों में बंटे हुए हैं.

इसका असर औरतों पर कैसे पड़ता है, यह आमतौर पर समझ नहीं आता. नीची जातियों की आबादी सिर्फ गरीब और मैली कुचली हो जरूरी नहीं उन में जो 4 कदम आगे आ जाती है उन की औरतों को पगपग पर शॄमदा किया जाता है.

कामकाजी औरतों में ज्यादा ऊंची जातियों की हैं और उन के बीच अगर पिछड़ी या निचली जातियों की औरतें आ जाएं तो लकीरें दफ्तरों, स्कूलोंकालेजों की कैंटीनों और स्टाफ रूमों में खिंचने लगती हैं. जो अच्छी लगती है उन में भी खटास पैदा होते देर नहीं लगती क्योंकि ऊंचे जातियों की औरतें अपनी जमात में से किसी एक का भी बिदकना सहन नहीं कर पातीं.

गरीबीअमीरी आज सब जगह, पूरे समाज में बराबर सी है, पर जाति श्रेष्ठता हो तो गर्दन अपनेआप में फस जाती है जो दूसरी को बुरी लग सकती है. खुले या छिपे कटाक्ष या मजाक उड़ाए जाते हैं, घरेलू फंक्शनों में बुलाने में भेदभाव किया जाने लगता है.

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यह खतरनाक है, समाज का कर्तव्य है कि केवल जन्म के कारण किसी भी बच्चे, आदमी, औरत पर जीवनभर ठप्पा लगा रहे. आज की औरतें अपना मनचाहा जीवन साथी नहीं चुन सकतीं क्योंकि जन्म से दी गई जाति का सवाल प्रेम प्रसंगों में भी खड़ा हो जाता है, ब्राहमण, बनिए, श्रत्रियों और कायस्थों में आपसी विवादों को ले कर बहुत सी औरतें कहती हैं कि अब जाति कहां रह गई. सवाल है कि ये जन्म की कितनी हैं? 5 प्रतिशत, 10 प्रतिशत या 50 प्रतिशत.

जाति जनगणना जो 1931 तक कराई जाती थी, 1951 के बाद बंद कर दी गई कि अब जो संविधान है उस से जाति तो बचेगी ही नहीं. पर ऐसा नहीं हुआ. 1947 की तो छोडि़ए 2021 के अक्तूबर के किसी अखबार के वैवाहिक विज्ञापन उठा कर देख लीजिए. तरहतरह की जातियों के नाम दिख जाएंगे. लड़कियों को अपनी ही जाति में शादी करनी पड़ रही है. पढ़ाई, कमाई, रंगरूप के अलावा किस घर में पैदा हुए, किस मांबाप से हुए यह आज भी जरूरी है.

औरतों की किट्टियों जाति के आधार पर बनती हैं, पैसे या शिक्षा के आधार पर नहीं. नौकरियों में मिले छोटेमोटे अवसरो से सरकारी कालोनियों में हर जाति के परिवार बगलबगल में रह रहे हैं पर वहां अगर एक किट्टी हो तो उस में गुट बन जाते हैं. बैक्वर्ड, एससीएसटी को तो छोडि़ए ……… कस्टों के भी भेद किट्टियों को बांटे रखते हैं.

ऊंची जातियों के लोग अपने से नीचे जाति के लोगों के बुलावे शादी और दूसरे आयोजनों में नहीं जाते, उन से दूर  की दोस्ती रखते है, कास्ट के आधार पर गिनती होगी तो पता चल सकेगा कि किस स्कूल में कौन कितने हैं. यह कंपल्सरी किया जा सकता है कि स्कूल प्राइवेट हो या सरकारी कास्ट का प्रतिशत आबादी के बराबर हो. आज ब्राह्मïण बनिए को अलग कास्टों का आपस में मिलने को कास्ट का खत्म होना कह कर मामला बंद कर दिया जाता है. जातिगत जनगणना एक कदम पीछे नहीं तो जाएगा, यह वह आर्कोलोजिक्ल खुदाई है जिस से 2000 या 4000 साल पहले की संस्कृति का इतिहास पता चलता है.

चूंचूं करने की जरूरत नहीं. हां जिन्हें अपनी जातिगत श्रेष्ठता पर आंच आती दिखेगी, वे तो शोर मंचाएंगे.

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रिजर्च बैक और सोना

सोना गृहिणियों को सजने के लिए नहीं होता, यह आप के समय काम में आने वाली बचत भी है. इस साल जब सरकार तरहतरह की प्रगति के ढिढ़ोरे पीट रही है और नागरिक संशोधन कानून, तीन तलाक कानून, धारा 370 कानून का हल्ला मचा रही है, देशभर में औरतें अपना सोना गिरवी रख कर पैसा कर्ज पर ले रही हैं. आप ने अंधूरे आंकड़ों के अनुसार बैंकों में ही सोने को रख कर लिए कर्ज में 77′ की वृद्धि हो गई है.

यही नहीं बैंकों के जारी क्रेडिट कार्डों पर उधारी भी 10,000 करोड़ से बढ़ गर्ई है. आज लोगों द्वारा लिया गया कर्ज जिसे बैंकिंग की भाषा में रिटेल कर्ज कहते हैं पिछले साल 10 से ज्यादा प्रतिशब बढ़ गया है. इस के मुकाबले उद्योगों और व्यापारों क कर्ज मुश्किल से 2 प्रतिशत बढ़ा है.

यह असल में टिप औफ आईस वर्ग है. समुद्र के पानी में तैरतीं बर्फ की चट्टानें जितनी बड़ी पानी के बाहर दिखती हैं, उस से कई गुना बड़ी पानी के नीचे होती है और इस बात को टिप औफ आईस वर्ग कहा जाता है और घरेलू या निजी वर्गों के थे आंकड़े कितने पूरे हैं, इस का सिर्फ अंदाजा देते हैं.

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देश की अधिकांश जनता उधार अपने संबंधियों या छोटे महाजनों से लेती है जो बैंकों से कई गुना ज्यादा ब्याज लेते हैं. सोना गिरवी रखा गया है वह वापिस लिया जाएगा इस की संभावना इसी से नहीं है कि मुथुड गोल्ड लोन और मनापुरम फाइनेंस गिरवी रखे गए सोने की निकाली के पूरेपूरे पेज के विज्ञापन अखबारों में छपवाती रहती है.

रिजर्च बैक के एक स्रोत के अनुसार तो लोगों का 600 अरब रुपए का सोना बैंकों के पास है जो जनवरी 2020 में 185 अरब रुपए था. यह देश की प्रगति और विकास की निशानी है कि घरों की औरतों को अपना सोना बेच कर खाना जुटाना पड़ रहा है या इलाज कराना पड़ रहा है और सरकार चारों ओर मंदिर मठ बनवा रही है जो अधिकांश समय बेकार ही पड़े रहते हैं.

सोना शृंगार से ज्यादा जीवन का अंग है और जब यही बिक जाए तो घरों का आत्मविश्वास चकनाचूर हो जाता है. देश नारों से नहीं चलते. औरतों पर अत्याचार तालिबानियों राइफलों से ही नहीं होता है, चूल्हे की गैस महंगी कर के और बेकारी बढ़ा कर भी किया जा सकता है.

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अफगान औरतें और तालिबानी राज

अफगान औरतों की बुरी गत के लिए काफी हद तक दुनिया भर में रोना रोया जा रहा है. उस के लिए जिम्मेदार असल में दुनियाभर की औरतें ही हैं जिन्होंने अपनी थोड़ीबहुत मिली स्वतंत्रता का कभी उपयोग उन अफगान औरतों के लिए नहीं किया जो काबुल या कंधार में नहीं रहती हैं, अफगानिस्तान के पहाड़ों में छिपे गांवों में रहती हैं जहां उन पर धर्म का रौब इतना ज्यादा है कि वे उसे कुदरत की देन ही समझती हैं. आम औरतें दुनिया भर में कहीं हो, अपने को भगवान की पापी मानती हैं और जो सुख मिल जाए उसे कृपा मानती हैं और जो दुख मिले, उसे गलत काम की सही सजा मानती हैं.

इन्हीं औरतों के बल पर अफगानी तालिबानी शरिया कानूनों को लागू कर रहे हैं, ङ्क्षहदू या ईसाई कानून शरिया कानूनों से ज्यादा अच्छे नहीं हैं. अगर इच्छा है तो उन्नत देशों में शिक्षा का माहौल जिस ने धर्म की कट्टरता के पीछे धकेल दिया.

अफगान औरतें तालिबानी राज से पहले भी कुछ शहरों को छोड़ कर उसी तरह रह रही हैं जैसे 1200 साल पहले रह रही थीं. उन के जीवन पर जरा सा तकनीक के कारण असर पड़ा है, लोगों की सोच बदलने का नहीं आदमी और औरत हर मामले में बराबर है, यह तो आज अमेरिका और यूरोप में भी नहीं माना जाता. डोमोस्टिक वायलैंस को बोलबाला वहां भी उतना ही है जितना शायद अफगानिस्तान में है. अफगान औरतें उलटे भार से बच जाती हों क्योंकि वे किसी तरह का विरोध करती ही नहीं है.

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यही की शिक्षा दुनियाभर की औरतों को चर्चों, मंदिरों, मठो, आश्रमों में दी जाती है. विवाह की परंपरा ही पुरुष के संपत्ति की तरह एक औरत सौंप देना है. कहींकहीं एक ही औरत पर सीमा है तो वही एक से ज्यादा की छूट. 1956 से पहले ङ्क्षहदू पुरुष चाहे जितनी विधिवा पत्नियां रख सकता था पर एक पत्नी क दूसरे पुरुष से हुई संतान अवैध मानी जाती थी.

अफगान औरतों ने शरिया कानून को मान रखा है. वे घरों में उसे लागू करनी हैं. शरियत कानून के अनुसार औरतों को गोली मार देने वाले आदमी की मां, पत्नी, बेटी उस आदमी को अपराधी नहीं मानतीं, समाज का रक्षक मानती हैं. जब तक दुनिया भर की औरतें अपने घरों में यह गंदी सोच कूढ़े के ढेर में नहीं फेकतीं, वे कैसे अफगान औरतों के लिए आंसू बहा सकती हैं, और वे भी केवल कुछ शहरी अफगान औरतों के लिए.

प्रगति के लिए जरूरी है कि आदमी और औरत कंधे से कंधा मिला कर अपना घर बसाएं, बच्चे पालें, दफ्तरों, कारखानों, खेतों में काम करें. वैवाहिक दासता को निकाल फेंके ताकि प्रकृति का कहर झेला जा सके. औरतों पर दया कर के उन्हें हक नहीं दें, वे समाज के विकास के लिए जरूरी हैं, यह सोच कर किया जाए जो भी करना है.

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जिम्मेदार कौन: कानून या धर्म

अच्छे खातेपीते घरों के पुरुषों की लार किस तरह मजदूरों की छोटी लड़कियां देखतेदेखते टपकने लगती है, इसका एक उदाहरण दिल्ली में देखने को मिला. यह 13 साल की लडक़ी अपने मातापिता और 3 भाईबहनों के साथ एक किराए के कमरे में रहती थी. उस के मकान मालिक उस के पिता को बहका कर अपने एक रिश्तेदार के साथ गुडग़ांव भेज दिया कि रिश्तेदार के यहां हमउम्र बेटी के साथ खेल सकेगी.

एक माह बाद पिता को खबर किया कि फूड पायजङ्क्षनग की वजह से लडक़ी की मृत्यु हो गई है और वे बौडी को एंबूलेंस में दिल्ली ला रहे हैं ताकि परिवार उस का हाद कर सकें. पिता तैयार भी था पर पड़ोसियों के कहने पर उस ने बेटी का शरीर जांचा तो खरोंचे दिखीं. एक अस्पताल में जांच करने पर पता चला कि उसे बेरहमी से रेप किया गया था और गला घोंट कर मार डाला गया था.

ऐसी घटना हजारों की गिनती में देश में हर माह दोहराई जाती है. कुछ अखबारों और पुलिस थानों तक पहुंचती हैं. ज्यादातर दवा दी जाती हैं. जहां मृत्यु नहीं हुर्ई हो, वहां तो लडक़ी वर्षों तक उस मानसिक व शारीरिक जख्म को ले कर तड़पती रहती है.

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कानून कैसा भी हो, बलात्कारी को कैसा भी दंड मिले, यह तो पक्का है कि जो अपराध हो गया उस का सामाजिक व भौतिक असर कानूनी मरहम से ठीक नहीं हो सकता. अपराधी को सजा मिलने का अर्थ यह भी होता है कि वास्तव में लडक़ी का रेप हुआ था और बातें बनाने वाले कहना शुरू कर देते हैं यह तो सहमति से हुआ सेक्स था जिस में बाद में लेनदेन पर झगड़ा हो गया. रेप की शिकार को वेश्या के से रंग में पोत दिया जाता है.

रेल का अपराध एक शारीरिक अपराध के साथ एक सामाजिक अपंगता बन जाता है, यह इस अपराध को करने देने की सब से ज्यादा जिम्मेदारी कहां जा सकता है. अगर रेप को महज मारपीट की तरह माना जाता तो हर रेप पर खुल कर शिकायत होती और हर बलात्कारी डरा रहता कि पकड़ा जाएगा तो न जाने क्या होगा. अब हर बलात्कारी जानता है कि लडक़ी चुप रहेगी क्योंकि बात खोलने पर बदनामी लडक़ी और उस के परिवार की ज्यादा होगी, लडक़ी के भाईबहन तक उस से घृणा करेंगे, मातापिता हर समय अपराध भाव लिए घूमेंगे. जब विवाहित अहिल्या का अपने पति गौतम वेषधारी इंदु के साथ संबंध में दोषी अहिल्या मानी गई हो और जहां बलात्कारों से बचने के लिए का जौहर को महिमामंडित किया जाता हो और विधवा का पुनॢववाह तक मंजूर न हो, वहां यह मानसिकता होना बड़ी बात नहीं है.

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रेप पर दोषी के दंड अवश्य मिलना चाहिए पर यह संभव तो तभी है न जब रेप की शिकार शिकायत करे और फिर उस घटना का पलपल पुलिस, डाक्टर, काउंसलर, अदालत, वकील को बताएं. जब उसे हर घटना को बारबार दोहरा कर फिर जीना होगा तो चुप रहना ही ज्यादा अच्छा रहेगा. कमी कानूनों में नहीं, कमी व्यवस्था की नहीं. कमी उस धाॢमक सामाजिक व्यवस्था की है जिस में हर मंदिर को तो आदमी देखते ही सिर झुका देता है पर तुरंत बाद में लडक़ी को लपकने की इच्छा से ताकने लगता है. क्या अपनेआप का सृष्टि……भगवान की एजेंसी कहने वाला धर्म अपने भक्तों को रेप करने से नहीं रोक सकता?

तो फिर जिम्मेदार कानून नहीं धर्म है, समाज है.

बच कर रहें ऐसे सैलूनों से

कल सोहा को अपनी हर महीने होने वाली किट्टी पार्टी में जाना है, इसलिए अपने घर के काम निबटा कर सैलून रवाना हो गई. वैसे तो वह हर महीने वैक्स, हेयर कट, आइब्रोज करवाती ही है, किंतु इस बार किट्टी रैट्रो थीम पर आयोजित की जा रही है, इसलिए वह 70-80 के दशक की अभिनेत्रियों की तरह कुछ खास तैयार हो कर जाना चाहती है. उस जमाने में हेयरस्टाइल पर ही खास जोर दिया जाता था. अत: सैलून जा कर उस ने जब हेयरस्टाइल की बात की तो उन्होंने तरहतरह के स्टाइल दिखा अगले दिन आने का समय तय किया.

मैंबरशिप और डिस्काउंट का लालच

‘‘मैडम जब आप किट्टी पार्टी की तैयारी कर ही रही हैं तो फिर आप हमारा नया डायमंड फेशियल क्यों नहीं करवातीं? एक बार में ही खूब ग्लो आ जाएगा,’’ सैलून में कार्यरत लड़की ने कहा. ‘‘क्या खास बात है इस फेशियल की?’’ सोहा ने पूछा. ‘‘मैडम यह टैन रिमूवल फेशियल है. इस से आप के चेहरे से टैन के साथसाथ डैड स्किन भी निकल जाएगी जिस से चेहरे के दागदब्बे भी कम हो जाएंगे. इस से चेहरे पर गजब का निखार आएगा. एक बार करवा कर तो देखें.’’ ‘‘क्या रेट है इस फेशियल का?’’

‘‘मैडम कुछ खास नहीं केवल क्व2,200.’’

‘‘यह तो बहुत महंगा है?’’

‘‘मैडम क्या आप के पास सैलून की मैंबरशिप है?’’

‘‘नहीं, पर क्यों?’’

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‘‘मैडम आप मैंबरशिप ले लीजिए. मैंबर्स को हम डिस्काउंट देते हैं. आप की पूरी फैमिली का कोई भी मैंबर जब भी हमारे यहां से कोई सर्विस लेगा तो उसे हम डिस्काउंट देंगे और आज के फेशियल में भी आप को 20% डिस्काउंट मिलेगा.’’

सोहा दुविधा की स्थिति में थी कि क्या करे. तभी सामने लगे शीशे में अपना चेहरा देखा. झांइयां दिनबदिन बढ़ती जा रही थीं. अत: उस ने पूछा, ‘‘क्या ये दाग भी कम होंगे इस फेशियल से?’’

‘‘हां मैडम, पर इन्हें हटाने के लिए आप को 3-4 सिटिंग्स लेनी पड़ेंगी, क्योंकि दाग पुराने हैं.’’

सोहा ने खुद को सुंदर दिखाने के लिए फेशियल करवाने हेतु हामी भर दी.

1 घंटे बाद जब उस ने अपना चेहरा देखा तो सचमुच वह चमक उठी थी.

किंतु सोचने वाली बात यह है कि झांइयां क्या कभी फेशियल से जा सकती हैं?

हां, अस्थाई फर्क जरूर आएगा, क्योंकि चेहरे की मालिश से रक्तसंचार बढ़ने से चेहरे की कुछ सफाई हो जाती है. लेकिन डैड स्किन हटने से झांइयों वाली त्वचा अल्ट्रावायलेट किरणों के लिए पहले से अधिक ऐक्सपोज हो गईं. अत: ज्यादा अच्छा होता कि सोहा अपने चेहरे की झांइयों का इलाज करवाने के लिए किसी डर्मैटोलौजिस्ट के पास जाती.

नए प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल और खर्च

इसी तरह नेहा भी एक दिन सैलून गई. वहां जा कर उस ने बताया कि वह बिकिनी की शेव करकर के परेशान हो गई है. मासिक के समय तो खास परेशानी होती है. फिर जब दोबारा बाल निकलने लगते हैं तो बहुत मोटे निकलते हैं, जो चुभते हैं. अब ऐसी जगह बारबार स्क्रैच करो तो देखने में अच्छा नहीं लगता. तब सैलून में काम करने वाली लड़की बोली कि मैडम, बिकिनी वैक्स करवा लीजिए. पूरा महीना आराम रहेगा.

एक बार तो नेहा हिचकिचाई, फिर सोचा कि ट्राई करने में कोई हरज नहीं. फिर जब सैलून वाली लड़की ने पूछा कि मैडम वैक्स कौन सा नौर्मल या फिर फ्लेवर्ड तो नेहा ने कहा कि नौर्मल ही करो.

इस पर लड़की ने कहा कि वह फ्लेवर्ड वैक्स ही करेगी, क्योंकि उस से बिकिनी के बाल आसानी से निकल जाते हैं. अब चूंकि नेहा पहली बार बिकिनी वैक्स करवा रही थी सो बोली ठीक है. लेकिन जब बिल देखा तो 2 हजार रुपए का. साधारण वैक्स से दोगुना. उफ, उस के मुंह से निकला. घर आ कर जब नेहा ने अपनी मां को बताया तो मां बोली कि वैक्स तो वैक्स है जिस का काम है बालों पर चिपकना ताकि उस पर वैक्सिंग स्ट्रिप चिपका कर बालों को खींच लिया जाए. उस में फ्लेवर से क्या फर्क पड़ेगा? यह रुपए ऐंठने का तरीका है.

औफर्स की चकाचौंध

अकसर सैलून में किसी न किसी बहाने औफर्स रखे जाते हैं, जैसे नए वर्ष पर डिस्काउंट या दीपावली पर यह नया पैकेज. इन पैकेज में वैक्स, आईब्रो, मैनीक्योर, पैडीक्योर, हेयर कट आदि के साथ हेयर कलर फ्री.

इस तरह के पैकेज में हेयर कलर के रुपए पहले से ही जोड़ दिए जाते हैं. फिर यदि एक बार कलर किए बाल आप पर जंच गए, दूसरे लोगों ने आप की तारीफ कर दी तो आप उन के हर माह के क्लाइंट बन गए. कुल मिला कर सैलून को मुनाफा ही हुआ और आप भी खुश. लेकिन इस में आप यह भूल जाते हैं हेयर कलर में कैमिकल्स होते हैं जो आप के बालों को नुकसान पहुंचाते हैं.

कलर्ड हेयर को ऐक्स्ट्रा केयर की जरूरत होती है, जो आप नहीं कर पाते हैं. अब जब  आप के बाल डैमेज होते हैं तो आप फिर सैलून वालों से पूछते हैं, ‘‘क्या करूं बहुत हेयर फौल हो रहा है और बाल रफ भी हो गए हैं.’’ तब वे अपने सैलून में रखे जाने वाले कई बड़ी कंपनियों के उत्पाद इस्तेमाल करने को कहते हैं. उन का कमीशन तय होता है. कुल मिला कर फिर सैलून वालों का फायदा और आप का बुद्धू बनना.

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पैकेज की बहार और आप का बंधन

इसी तरह से आजकल सैलून में एक और नया पैकेज तैयार है. यदि आप 3 माह लगातार 3 हजार रुपए हमारे सर्विसेज पर खर्च करें तो चौथे माह आप का हेयर कट फ्री. अब ग्राहक चाहे हर महीने डेढ़ या 2 हजार का खर्च सैलून में करता है, लेकिन उस फ्री हेयर कट के लिए हर माह ऐक्सट्रा सर्विसेज ले कर 3 हजार का खर्च करता है. वह सोचता है कि ये 3 हजार तो सर्विसेज के हैं. बाद में हेयर कट तो फ्री है ही. यहां यह समझने की कोशिश कीजिए कि दुनिया में कुछ भी फ्री नहीं होता है. कहीं न कहीं तो आप को कीमत देनी ही होती है. इस तरह से हर ग्राहक से 3 हजार कमा कर उन की आय फिक्स हो गई और आप 4-5 माह तो वहां जाएंगे ही, क्योंकि आप को फ्री हेयर कट जो करवाना है. आप रुपए दे कर उस एक ही सैलून से बंध जाते हैं अन्यत्र कहीं जाने की सोच भी नहीं सकते, भले ही आप को उन का काम पसंद आए या नहीं.

पैकेज की ऐडवांस पेमैंट

इसी तरह से निहारिका ने एक पैकेज ले लिया जिस की सर्विसेज 2 दिन में पूरी करने की बात थी. पहले दिन उस ने हेयर कलर करवाया. उसे स्कैल्प में बहुत इचिंग होने लगी. घर पहुंचने पर उस के सिर में लाललाल चकत्ते हो गए. उन के कारण उसे डाक्टर के पास जाना पड़ा. मालूम हुआ जो हेयर कलर उस के बालों में इस्तेमाल किया गया है उस से उस के सिर में ऐलर्जिक रिएक्शन हो गया है. उसे बहुत गुस्सा आया. वह अगले ही दिन सैलून जा कर बोली कि पैकेज के रुपए वापस कर दें, उसे वहां से कोई सर्विसेज नहीं लेनी है. लेकिन सैलून वाले रुपए वापस देने को तैयार नहीं थे.

उन का कहना था कि मैडम ये सब औनलाइन सिस्टम में पहले से फीड किया होता है. आप ने पैकेज लिया है और उस के लिए पे किया है अब आप को सर्विसेज तो लेनी ही होंगी. यदि आप आधी सर्विसेज ले कर छोड़ देना चाहें तो हमारी क्या गलती? फिर आप ने भी तो नहीं बताया था कि आप को किस प्रोडक्ट से ऐलर्जी है. किसी और ग्राहक को तो इस प्रोडक्ट से कोई नुकसान नहीं हुआ. आप ही पहली हैं जो यहां ऐसी शिकायत ले कर आई हैं.

फिर क्या था निहारिका अपना सा मुंह ले कर घर लौट आई.

नकली प्रोडक्ट्स की पहचान

आजकल बाजार में सभी बड़े ब्रैंड के नकली प्रोडक्ट्स बिक रहे हैं. यहां तक कि नकली सामान की बिक्री औनलाइन भी हो रही है. यही नकली प्रोडक्ट्स कई सैलून में इस्तेमाल होते हैं. ग्राहकों को इस की जानकारी नहीं होती और वे बड़ी कीमत दे कर वहां की सर्विसेज लेते हैं, जबकि सैलून को वे नकली प्रोडक्ट्स कम कीमत पर मिलते हैं. इस से सैलून को काफी मुनाफा होता है.

अब बात आती है कि ग्राहक इन नकली प्रोडक्ट्स की पहचान कैसे करे? तो सब से पहले जब ग्राहक सैलून में सर्विसेज लेता है तो इस्तेमाल किए गए प्रोडक्ट्स की पैकिंग की मैन्युफैक्चरिंग डेट व बैच नंबर देखे, क्योंकि बाजार में रिपैकिंग किए गए प्रोडक्ट्स उपलब्ध होते हैं यानी पैकिंग मैटीरियल असली और उन में पैक किया गया सामान नकली.हम इस्तेमाल किए गए असली प्रोडक्ट्स की खाली शीशियां, डब्बे रद्दी वाले को बेच देते हैं या फिर कूड़ेदान में डाल देते हैं. इन शीशियों व डब्बों का इस्तेमाल नकली सामान की पैकिंग में किया जाता है. नकली प्रोडक्ट के इस्तेमाल से जलन भी हो सकती है, यह भी उस के नकली होने का एक प्रमाण है.

सैलून में बिकने वाले प्रोडक्ट्स

इसी तरह एक बार निहारिका हेयर कट के लिए एक बड़े सैलून में गई और अपनी बेटी को भी साथ ले गई. वहां हेयर कट से पहले हेयर वाश जरूरी होता है. सैलून की स्टाफ हेयर वाश कर हेयर कट कर बिलिंग के समय बोली, ‘‘मैडम, आप की बेटी के बाल बहुत रफ हो रहे हैं. हेयर कट के समय कंघी चलाने में भी मुझे परेशानी हो रही थी. आप उस के लिए हमारे सैलून में रखे प्रोडक्ट्स क्यों नहीं इस्तेमाल करतीं? ये देखिए…’’ ऐसा कह उस ने अपने सैलून के शोकेश में सजे कई महंगे प्रोडक्ट्स दिखाए.

निहारिका समझ गई थी कि यह उस से रुपए ऐंठने की चाल है. अत: उस ने प्रोडक्ट्स को देख कर कहा कि मैं बाद में सोचूंगी. मगर स्टाफ कहां आसानी से टलने वाला था. उस प्रोडक्ट को बेच कर उसे कमीशन जो मिलने वाला था, सो बोली कि मैडम और्गेनिक प्रोडक्ट्स हैं. आप की बेटी के बाल अच्छे रहेंगे इन से. वरना बहुत खराब हो जाएंगे.’’

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निहारिका उन की बातों में आने वाली नहीं थी, सो बोली, ‘‘मैं घर में उस के बाल धोने के लिए आंवला, रीठा, शिकाकाई का इस्तेमाल करती हूं और उस से बहुत खुश हूं.’’

इसी तरह जब सत्या हेयर कट के लिए गई तो बाल धोते ही उस के बालों से मेहंदी की खुशबू आने लगी, क्योंकि वह मेहंदी का इस्तेमाल करती थी. सैलून का स्टाफ बाल काटते समय उस से बोला कि मैडम आप के बालों से गंध आ रही है. मेहंदी की जगह हेयर कलर क्यों नहीं इस्तेमाल करतीं?

स्टाफ की बात सुन सत्या बोली, ‘‘आप जिसे बैड स्मैल कह रहे हैं हमें वह खुशबू लगती है, आप बाल काटें उस के सिवा कुछ न करें.’’

युद्ध में औरतें होतीं हैं जीत का पुरुस्कार

आज हर जगह अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्जे की कहानियाँ हैं. सोशल मीडिया पर लगातार ख़ौफ़नाक वीडियो वायरल हो रहे हैं. खून खराबे से लबरेज़ ये सच बेहद डरावना सा लगता है. इसी बीच जब महिलाओं की बोली लगने वाले या घरों से खींचकर ले जाने वाले वीडियो सामने आए तो मन दहशत से भर उठता है. इस बार तालिबानियों ने महिलाओं की सुरक्षा करने का दावा भले ही किया हो पर महज़ बीस साल पुराना तालिबानी शासन का जो इतिहास रहा है उस से इन दावों पर विश्वास किया जाना बहुत ही मुश्किल है.

सच तो ये है कि चाहे किसी भी देश पर किसी सेना का कब्ज़ा हो या कोई भी छोटा बड़ा युद्ध औरत हमेशा या तो जीत का ईनाम होती है या फिर एक हार की टूटी फूटी अपमानित तस्वीर. किसी भी युद्ध में अगर धरती के बाद किसी को पैरों तले रौंदा जाता है तो वो औरत ही होती है. युद्ध की विभीषिका हो या दंगों का दौर उसके सबसे बुरे परिणाम हमेशा से औरत ही भोगती आई है. अगर किसी तरह औरत की जान बच भी जाये तो उसकी आत्मा सदियों के लिए छलनी हो जाती है.

जब 1996 से 2001 तक अफगानिस्तान में तालिबानी शासन था तब वहाँ के किस्से सुनकर कमज़ोर दिल वाले अपने कानों को कसकर बंद कर लिया करते थे. शरिया कानून लागू होने के कारण वहाँ कोई औरत काम पर नही जा सकती थी बिना किसी मर्द के साथ कोई बाहर नहीं निकल सकती थी. मोटी चादर में लिपटी औरतें ही घर से बाहर निकल सकती थीं वो भी किसी मर्द के साथ. एक लड़की को सिर्फ इसलिए गोली मार दी गयी कि उसने इत्र लगाया था. एक औरत को खचाखच भरे स्टेडियम में सबके सामने गोली मार दी जाती है. आज अफगानिस्तान में औरतों की हालत पर रोष जताने वाले अमेरिका की दास्तान भी कुछ अलग नहीं है वियतनाम से युद्ध के दौरान अमेरिकी सेना ने भी वहाँ की औरतों पर कम कहर नहीं ढाया था. घर के पुरुषों को मारकर उस घर की लड़कियाँ और औरतें उठा ली जाती थीं. कम उम्र की कई वियतनामी लड़कियों को हार्मोन्स के इंजेक्शन्स लगाए गए जिस से उनका बदन भर जाए और वो अमेरिकी सैनिकों का मन अच्छे से बहला सकें.

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खूबसूरत वियतनामी लड़कियों के पास दो ही विकल्प थे या तो खुद को अमेरिकी सैनिकों के हवाले कर दें या फिर बलात्कार के लिए तैयार रहें. अमेरिकी सैनिकों के लिए यहाँ एक पूरी सेक्स इंडस्ट्री खड़ी हो गयी थी.  यही नहीं इस युद्ध के समाप्त होने के कुछ महीनों बाद लगभग 50000 अमेरिकन वियतनामी बच्चे पैदा हुए जो युद्ध के दौरान हुए बलात्कार का परिणाम थे.  इनकी माएँ भी इन बच्चों की आँखों में आंसू देखकर रोती थीं पर इन बच्चों के लिए नहीं बल्कि उस बलात्कार को याद करके जिसका परिणाम ये बच्चे थे. इन बच्चों को बुई दोई कहकर पुकारा जाता था जिसका मतलब होता है जीवन की गंदगी.  इसी तरह सन 1919 में हुआ आयरिश युद्ध भी इन अत्याचारों की एक कड़ी था. ये लगभग ढाई साल चला था. यहाँ सैनिकों ने एक नया तरीका खोज लिया था वो ये कि दुश्मन औरत को गंजी कर दिया जाता था और सिर ढँकने की मनाही होने के कारण जब भी कोई सिर मुढाई औरत कही से भी निकलती तो उसे देखकर अश्लील फब्तियाँ कसी जाती उसे न जाने कितने लोग दबोचते.

कई बार तो उसे पकड़कर अपने साथ ले जाया जाता. कई बार घर की जरूरत का सामान खरीदने निकली औरत घर ही नहीं लौटती थी. पुरुष लेबर केम्प में होते थे घर मे बच्चे अपनी माँ और दीदी का इंतजार ही करते रह जाते पर वो नहीं लौटती. द्वितीय विश्व युद्ध का इतिहास पलट के देखें तो जर्मनों द्वारा गर्भवतीं औरतों तक को इतनी क्रूरता से मारा कि अच्छे अच्छे मजबूत दिल वाले का भी दिल दहल जाए. वैसे इतिहास में नाजियों को सबसे क्रूर माना जाता है पर जर्मन औरतें भी सुरक्षित नहीं रह पाई. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सोवियत की सेना ने पूर्वी प्रूशिया पर अपना कब्जा कर लिया. घरों के अंदर से जर्मन लड़कियाँ बाहर निकाली गईं और एक एक जर्मन लड़की से दस दस सैनिकों ने बलात्कार किया. इस बलात्कार का यौन संतुष्टि से कोई लेना देना नहीं होता ये केवल पुरुष के गर्व को तोड़ने का एक तरीका मात्र है. किसी पुरुष का दम्भ तोड़ने का इस से बेहतर कोई तरीका नही होता कि उसकी औरत से बलात्कार कर लिया जाए. इस तरह के बलात्कार बहुत ही बर्बर होते हैं.

सोवियत सेना के युवा कैप्टन की लिखी एक किताब में उसने ये स्वीकार किया कि जर्मन पर फतेह के बाद जर्मन औरतें रूस के लिए किसी बड़े ईनाम से कम नहीं थीं. युद्ध के बहुत बाद तक हजारों जर्मन औरतें साइबेरिया में कैद रहीं. वहाँ थके रूसी सैनिक आते और इन जर्मन औरतों की नग्न परेड करवाते. अगर इनमें से कोई औरत किसी सैनिक को पसन्द आ जाती तो वो उसे अपने साथ ले जाता और मन भरने के बाद फिर वहीं छोड़ जाता. कुछ ही महीनों में वहाँ की सारी औरतें खत्म हो गईं. इसी तरह कट्टरपन की मिसाल इस्लामिक स्टेट के लड़ाके यजीदी लड़कियों के नाम लिखकर एक कटोरदान में डाल देते फिर जिस लड़ाके के पास जिस के नाम की पर्ची आती वो लड़की उसे तोहफे के रूप में दी जाती चाहे वो उस से यौन सुख भोगे या हल में उसे जोते. पूर्वी बोस्निया में एक रिसोर्ट है जो घने जंगलों में है यहाँ एक समय चीड़ के पत्तों के साये में प्रेमी जोड़े विहार करते थे. इसे हेल्थ रिसोर्ट भी कहा जाता था लेकिन वोल्कन युद्ध के बाद इस जगह का रूप ही बदल गया.

ये एक तरह से बलात्कार का केम्प बन गया. यहाँ बोस्निया की औरतों का सर्बियन सैनिकों ने महीनों तक सामूहिक बलात्कार किया जिसके बाद कुछ तो संक्रमित होकर मर गईं कुछ बलात्कार के सदमे से ही मर गईं और कुछ ने छत के कूद कर आत्महत्या कर ली. बाद में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में ये सच सामने आया लेकिन तब तक बलात्कारी भीड़ में गुम हो चुके थे और मरी हुई औरतें गवाही नहीं दे सकीं सो न्याय का कोई रास्ता न था. इस से भी क्रूरतम सच ये है कि जिंदा औरतें तो युद्ध के दौरान बलात्कार की शिकार होती ही हैं उनके शव भी सुरक्षित नहीं रहते.  कई लड़ाके नेक्रोफीलिया नामक बीमारी से ग्रसित होते हैं जो शव के साथ भी बलात्कार करने से बाज़ नहीं आते. आखिर क्या कारण था कि इजिप्ट की राजकुमारी क्लियोपेट्रा ने शत्रु से लड़ने के बजाय नग्न अवस्था में एक जहरीले साँप से खुद को डसवाना और मर जाना बेहतर समझा इसका सीधा सा जवाब है कि उसको ये अंदेशा था कि दुश्मन उसकी मृत देह के साथ कुछ भी कर सकता है पर संक्रमण के डर से ऐसा कुछ नहीं होगा परंतु ऐसा कहा जाता है कि इस सबके बावज़ूद उसकी मृत देह के साथ 3000 बार बलात्कार किया गया इसमें कुछ अतिशयोक्ति हो सकती है पर फिर भी औरतों की स्थिति बताने के लिए इतना काफी है.

युद्ध के दौरान यौन हिंसा एक कड़वा सच है. आप ये कल्पना कीजिये कि आपके घर मे हथियारबंद लोग घुसकर आपके घर के सदस्यों को उठा कर ले जाते हैं बच्चों और औरतों को सेक्स गुलाम बना लिया जाता है आप ये सब झेलने के लिए विवश हैं. या आप के आस पास कई औरतों को वैश्यावृत्ति में धकेल दिया जाता है आप बंदूकों की नोक के बीच जीवन जी रहे हैं और इस मानसिक त्रास में जीवन जी रहे हैं. ये सोचकर भी आपकी रूह कांप जाएगी कि बलात्कारी आपके आस पास खुले घूम रहे हैं परंतु युद्ध क्षेत्र में रहने वाले यौन हिंसा झेलने वालों का यही सच है. बार बार हर बार हर बड़े छोटे युद्ध मे बलात्कार को युद्ध मे एक हथियार की तरह प्रयोग किया गया जिसका एकमात्र उद्देश्य मानसिक आघात पहुँचाना और दुश्मन को नीचा दिखाना होता है. इसके लिए औरतें और कम उम्र की बच्चियाँ सबसे सरल निशाना होती हैं.  ये इस तरह का अपराध होता है कि इसे झेलने वाला शारीरिक और मानसिक तौर  पर खत्म हो जाता है. इस से पीड़ित जीवन भर बहिष्कार का अपमान झेलने को अभिशप्त होती हैं. इसका दंश एक पूरी पीढ़ी को भुगतना होता है. कुछ देशों में तो ऐसे बलात्कार पीड़ितों को वैश्या की तरह देखा जाता है इनसे पैदा हुए बच्चे भी जीवन भर अपमान झेलते हैं.

इन बच्चों का भविष्य पूरी तरह खराब हो जाता है. आप सोचिए कि हमने युद्ध मे शहीद होने वालों के या लड़ने वालों के तो बड़े बड़े स्मारक बनाये हैं फिर इन पीड़ितों के लिए यदि कोई स्मारक बनाया जाए तो जगह कम पड़ जाएगी. लेकिन इनके साथ अलग तरह का व्यवहार किया जाता है. अपने इस दुख से उबरने के लिए इन्हें कोई मदद नहीं मिलती है. इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास होने चाहिए कि युद्ध के दौरान होने वाली यौन हिंसा रोकी जा सके. कोई भी राष्ट्र जो ये दावा करता है कि वो मानवाधिकारों के लिए जागरूक है और इसमें उसका विश्वास है वो कभी भी युद्ध के दौरान होने वाली यौन हिंसा पर चुप नही रह सकता. जब इन अपराधियों को कोई दंड नहीं मिलता तो स्वतः ही ये धारणा बन जाती है कि इसके लिए कोई सज़ा नही है चाहे वो यौन हिंसा नाइजीरिया की स्कूली छात्राओं पर हो या सीरिया के शरणार्थियों पर. इस के लिए विलियम हेग और एंजेलिना जोली ने काफी काम किया है.

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उन्होंने युद्ध के दौरान यौन हिंसा की जाँच और डॉक्यूमेंशन के लिए पहला अंतर्राष्ट्रीय प्रोटोकॉल शुरू किया. सैकड़ों विशेषज्ञों की साल भर की मेहनत और कार्य से तैयार ये प्रोटोकॉल युद्ध के बाद जाँचकर्ताओं को सूचना और साक्ष्य संरक्षित करने में मदद करता है. उन्होंने अपील की कि बलात्कार और यौन हिंसा सबंधी अपने कानूनों को अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार बनाएँ. सैनिकों और शांतिरक्षकों को उचित प्रशिक्षण दिया जाए कि वो युद्धक्षेत्र में इस तरह के कृत्यों की रोकथाम कर सकें. यौन हिंसा के अपराधियों को खुला न छोड़ा जाए उन्हें दंडित किया जाना चाहिए. आखिर कब तक औरतें युद्ध के भयावह परिणाम झेलने को अभिशप्त रहेंगी.

बहरहाल अभी तो खूबसूरत अफगानी लड़कियों को किसी खजाने की तरह घरों में छुपाया जा रहा है कि कहीं कोई तालिबानी उन्हें उठा कर न ले जाये. जब से तालिबानियों ने 14 से 40 साल तक कि औरतों की फेहरिस्त माँगी है तब से अफगानी ख़ौफ़ज़दा हैं खासकर औरतें दहशत में हैं. अफगानिस्तान एक बार फिर बीस साल पीछे चला गया है. ये दौर भी ख़त्म होगा कुछ इस सबके बाद बच भी निकलेंगी पर उनकी आँखों में एक सवाल होगा होठों पर चुप्पी होगी. सुनाने को उनके पास परियों की कहानियाँ नहीं होंगी होगा बस एक भयावह सच जो दुनिया के बड़े से बड़े खून खराबे को भी शर्मसार कर देगा. कभी तो ये परिदृश्य बदलेगा कभी तो औरत को अपने औरत होने की कीमत नहीं चुकानी होगी. इनके साथ साहसी सैनिकों जैसा बर्ताव किया जाएगा. वो सुबह कभी तो आएगी.

अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो

आज हर जगह अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्जे की कहानियाँ हैं . सोशल मीडिया पर लगातार ख़ौफ़नाक वीडियो वायरल हो रहे हैं . खून खराबे से लबरेज़ ये सच बेहद डरावना सा लगता है . इसी बीच जब महिलाओं की बोली लगने वाले या घरों से खींचकर ले जाने वाले वीडियो सामने आए तो मन दहशत से भर उठता है . इस बार तालिबानियों ने महिलाओं की सुरक्षा करने का दावा भले ही किया हो पर महज़ बीस साल पुराना तालिबानी शासन का जो इतिहास रहा है उस से इन दावों पर विश्वास किया जाना बहुत ही मुश्किल है . सच तो ये है कि चाहे किसी भी देश पर किसी सेना का कब्ज़ा हो या कोई भी छोटा बड़ा युद्ध औरत हमेशा या तो जीत का ईनाम होती है या फिर एक हार की टूटी फूटी अपमानित तस्वीर. किसी भी युद्ध में अगर धरती के बाद किसी को पैरों तले रौंदा जाता है तो वो औरत ही होती है . युद्ध की विभीषिका हो या दंगों का दौर उसके सबसे बुरे परिणाम हमेशा से औरत ही भोगती आई है .

अगर किसी तरह औरत की जान बच भी जाये तो उसकी आत्मा सदियों के लिए छलनी हो जाती है.  जब 1996 से 2001 तक अफगानिस्तान में तालिबानी शासन था तब वहाँ के किस्से सुनकर कमज़ोर दिल वाले अपने कानों को कसकर बंद कर लिया करते थे. शरिया कानून लागू होने के कारण वहाँ कोई औरत काम पर नही जा सकती थी बिना किसी मर्द के साथ कोई बाहर नहीं निकल सकती थी. मोटी चादर में लिपटी औरतें ही घर से बाहर निकल सकती थीं वो भी किसी मर्द के साथ. एक लड़की को सिर्फ इसलिए गोली मार दी गयी कि उसने इत्र लगाया था . एक औरत को खचाखच भरे स्टेडियम में सबके सामने गोली मार दी जाती है . आज अफगानिस्तान में औरतों की हालत पर रोष जताने वाले अमेरिका की दास्तान भी कुछ अलग नहीं है वियतनाम से युद्ध के दौरान अमेरिकी सेना ने भी वहाँ की औरतों पर कम कहर नहीं ढाया था . घर के पुरुषों को मारकर उस घर की लड़कियाँ और औरतें उठा ली जाती थीं. कम उम्र की कई वियतनामी लड़कियों को हार्मोन्स के इंजेक्शन्स लगाए गए जिस से उनका बदन भर जाए और वो अमेरिकी सैनिकों का मन अच्छे से बहला सकें. खूबसूरत वियतनामी लड़कियों के पास दो ही विकल्प थे या तो खुद को अमेरिकी सैनिकों के हवाले कर दें या फिर बलात्कार के लिए तैयार रहें. अमेरिकी सैनिकों के लिए यहाँ एक पूरी सेक्स इंडस्ट्री खड़ी हो गयी थी.

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यही नहीं इस युद्ध के समाप्त होने के कुछ महीनों बाद लगभग 50000 अमेरिकन वियतनामी बच्चे पैदा हुए जो युद्ध के दौरान हुए बलात्कार का परिणाम थे.  इनकी माएँ भी इन बच्चों की आँखों में आंसू देखकर रोती थीं पर इन बच्चों के लिए नहीं बल्कि उस बलात्कार को याद करके जिसका परिणाम ये बच्चे थे. इन बच्चों को बुई दोई कहकर पुकारा जाता था जिसका मतलब होता है जीवन की गंदगी.  इसी तरह सन 1919 में हुआ आयरिश युद्ध भी इन अत्याचारों की एक कड़ी था. ये लगभग ढाई साल चला था. यहाँ सैनिकों ने एक नया तरीका खोज लिया था वो ये कि दुश्मन औरत को गंजी कर दिया जाता था और सिर ढँकने की मनाही होने के कारण जब भी कोई सिर मुढाई औरत कही से भी निकलती तो उसे देखकर अश्लील फब्तियाँ कसी जाती उसे न जाने कितने लोग दबोचते . कई बार तो उसे पकड़कर अपने साथ ले जाया जाता. कई बार घर की जरूरत का सामान खरीदने निकली औरत घर ही नहीं लौटती थी. पुरुष लेबर केम्प में होते थे घर मे बच्चे अपनी माँ और दीदी का इंतजार ही करते रह जाते पर वो नहीं लौटती. द्वितीय विश्व युद्ध का इतिहास पलट के देखें तो जर्मनों द्वारा गर्भवतीं औरतों तक को इतनी क्रूरता से मारा कि अच्छे अच्छे मजबूत दिल वाले का भी दिल दहल जाए. वैसे इतिहास में नाजियों को सबसे क्रूर माना जाता है पर जर्मन औरतें भी सुरक्षित नहीं रह पाई.

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सोवियत की सेना ने पूर्वी प्रूशिया पर अपना कब्जा कर लिया . घरों के अंदर से जर्मन लड़कियाँ बाहर निकाली गईं और एक एक जर्मन लड़की से दस दस सैनिकों ने बलात्कार किया. इस बलात्कार का यौन संतुष्टि से कोई लेना देना नहीं होता ये केवल पुरुष के गर्व को तोड़ने का एक तरीका मात्र है. किसी पुरुष का दम्भ तोड़ने का इस से बेहतर कोई तरीका नही होता कि उसकी औरत से बलात्कार कर लिया जाए. इस तरह के बलात्कार बहुत ही बर्बर होते हैं. सोवियत सेना के युवा कैप्टन की लिखी एक किताब में उसने ये स्वीकार किया कि जर्मन पर फतेह के बाद जर्मन औरतें रूस के लिए किसी बड़े ईनाम से कम नहीं थीं. युद्ध के बहुत बाद तक हजारों जर्मन औरतें साइबेरिया में कैद रहीं. वहाँ थके रूसी सैनिक आते और इन जर्मन औरतों की नग्न परेड करवाते . अगर इनमें से कोई औरत किसी सैनिक को पसन्द आ जाती तो वो उसे अपने साथ ले जाता और मन भरने के बाद फिर वहीं छोड़ जाता. कुछ ही महीनों में वहाँ की सारी औरतें खत्म हो गईं. इसी तरह कट्टरपन की मिसाल इस्लामिक स्टेट के लड़ाके यजीदी लड़कियों के नाम लिखकर एक कटोरदान में डाल देते फिर जिस लड़ाके के पास जिस के नाम की पर्ची आती वो लड़की उसे तोहफे के रूप में दी जाती चाहे वो उस से यौन सुख भोगे या हल में उसे जोते.

पूर्वी बोस्निया में एक रिसोर्ट है जो घने जंगलों में है यहाँ एक समय चीड़ के पत्तों के साये में प्रेमी जोड़े विहार करते थे . इसे हेल्थ रिसोर्ट भी कहा जाता था लेकिन वोल्कन युद्ध के बाद इस जगह का रूप ही बदल गया. ये एक तरह से बलात्कार का केम्प बन गया. यहाँ बोस्निया की औरतों का सर्बियन सैनिकों ने महीनों तक सामूहिक बलात्कार किया जिसके बाद कुछ तो संक्रमित होकर मर गईं कुछ बलात्कार के सदमे से ही मर गईं और कुछ ने छत के कूद कर आत्महत्या कर ली. बाद में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में ये सच सामने आया लेकिन तब तक बलात्कारी भीड़ में गुम हो चुके थे और मरी हुई औरतें गवाही नहीं दे सकीं सो न्याय का कोई रास्ता न था. इस से भी क्रूरतम सच ये है कि जिंदा औरतें तो युद्ध के दौरान बलात्कार की शिकार होती ही हैं उनके शव भी सुरक्षित नहीं रहते .

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कई लड़ाके नेक्रोफीलिया नामक बीमारी से ग्रसित होते हैं जो शव के साथ भी बलात्कार करने से बाज़ नहीं आते . आखिर क्या कारण था कि इजिप्ट की राजकुमारी क्लियोपेट्रा ने शत्रु से लड़ने के बजाय नग्न अवस्था में एक जहरीले साँप से खुद को डसवाना और मर जाना बेहतर समझा इसका सीधा सा जवाब है कि उसको ये अंदेशा था कि दुश्मन उसकी मृत देह के साथ कुछ भी कर सकता है पर संक्रमण के डर से ऐसा कुछ नहीं होगा परंतु ऐसा कहा जाता है कि इस सबके बावज़ूद उसकी मृत देह के साथ 3000 बार बलात्कार किया गया इसमें कुछ अतिशयोक्ति हो सकती है पर फिर भी औरतों की स्थिति बताने के लिए इतना काफी है. युद्ध के दौरान यौन हिंसा एक कड़वा सच है. आप ये कल्पना कीजिये कि आपके घर मे हथियारबंद लोग घुसकर आपके घर के सदस्यों को उठा कर ले जाते हैं बच्चों और औरतों को सेक्स गुलाम बना लिया जाता है आप ये सब झेलने के लिए विवश हैं.

या आप के आस पास कई औरतों को वैश्यावृत्ति में धकेल दिया जाता है आप बंदूकों की नोक के बीच जीवन जी रहे हैं और इस मानसिक त्रास में जीवन जी रहे हैं. ये सोचकर भी आपकी रूह कांप जाएगी कि बलात्कारी आपके आस पास खुले घूम रहे हैं परंतु युद्ध क्षेत्र में रहने वाले यौन हिंसा झेलने वालों का यही सच है. बार बार हर बार हर बड़े छोटे युद्ध मे बलात्कार को युद्ध मे एक हथियार की तरह प्रयोग किया गया जिसका एकमात्र उद्देश्य मानसिक आघात पहुँचाना और दुश्मन को नीचा दिखाना होता है. इसके लिए औरतें और कम उम्र की बच्चियाँ सबसे सरल निशाना होती हैं.  ये इस तरह का अपराध होता है कि इसे झेलने वाला शारीरिक और मानसिक तौर  पर खत्म हो जाता है. इस से पीड़ित जीवन भर बहिष्कार का अपमान झेलने को अभिशप्त होती हैं. इसका दंश एक पूरी पीढ़ी को भुगतना होता है. कुछ देशों में तो ऐसे बलात्कार पीड़ितों को वैश्या की तरह देखा जाता है इनसे पैदा हुए बच्चे भी जीवन भर अपमान झेलते हैं . इन बच्चों का भविष्य पूरी तरह खराब हो जाता है.

आप सोचिए कि हमने युद्ध मे शहीद होने वालों के या लड़ने वालों के तो बड़े बड़े स्मारक बनाये हैं फिर इन पीड़ितों के लिए यदि कोई स्मारक बनाया जाए तो जगह कम पड़ जाएगी. लेकिन इनके साथ अलग तरह का व्यवहार किया जाता है. अपने इस दुख से उबरने के लिए इन्हें कोई मदद नहीं मिलती है. इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास होने चाहिए कि युद्ध के दौरान होने वाली यौन हिंसा रोकी जा सके. कोई भी राष्ट्र जो ये दावा करता है कि वो मानवाधिकारों के लिए जागरूक है और इसमें उसका विश्वास है वो कभी भी युद्ध के दौरान होने वाली यौन हिंसा पर चुप नही रह सकता. जब इन अपराधियों को कोई दंड नहीं मिलता तो स्वतः ही ये धारणा बन जाती है कि इसके लिए कोई सज़ा नही है चाहे वो यौन हिंसा नाइजीरिया की स्कूली छात्राओं पर हो या सीरिया के शरणार्थियों पर. इस के लिए विलियम हेग और एंजेलिना जोली ने काफी काम किया है . उन्होंने युद्ध के दौरान यौन हिंसा की जाँच और डॉक्यूमेंशन के लिए पहला अंतर्राष्ट्रीय प्रोटोकॉल शुरू किया . सैकड़ों विशेषज्ञों की साल भर की मेहनत और कार्य से तैयार ये प्रोटोकॉल युद्ध के बाद जाँचकर्ताओं को सूचना और साक्ष्य संरक्षित करने में मदद करता है. उन्होंने अपील की कि बलात्कार और यौन हिंसा सबंधी अपने कानूनों को अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार बनाएँ. सैनिकों और शांतिरक्षकों को उचित प्रशिक्षण दिया जाए कि वो युद्धक्षेत्र में इस तरह के कृत्यों की रोकथाम कर सकें. यौन हिंसा के अपराधियों को खुला न छोड़ा जाए उन्हें दंडित किया जाना चाहिए. आखिर कब तक औरतें युद्ध के भयावह परिणाम झेलने को अभिशप्त रहेंगी.

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बहरहाल अभी तो खूबसूरत अफगानी लड़कियों को किसी खजाने की तरह घरों में छुपाया जा रहा है कि कहीं कोई तालिबानी उन्हें उठा कर न ले जाये. जब से तालिबानियों ने 14 से 40 साल तक कि औरतों की फेहरिस्त माँगी है तब से अफगानी ख़ौफ़ज़दा हैं खासकर औरतें दहशत में हैं. अफगानिस्तान एक बार फिर बीस साल पीछे चला गया है. ये दौर भी ख़त्म होगा कुछ इस सबके बाद बच भी निकलेंगी पर उनकी आँखों में एक सवाल होगा होठों पर चुप्पी होगी. सुनाने को उनके पास परियों की कहानियाँ नहीं होंगी होगा बस एक भयावह सच जो दुनिया के बड़े से बड़े खून खराबे को भी शर्मसार कर देगा. कभी तो ये परिदृश्य बदलेगा कभी तो औरत को अपने औरत होने की कीमत नहीं चुकानी होगी. इनके साथ साहसी सैनिकों जैसा बर्ताव किया जाएगा. वो सुबह कभी तो आएगी.

विवाह एक कानूनी समझौता

औरतों के हकों के बारे में आज भी देश का एक बड़ा वर्ग जिस में जज भी शामिल हैं, औरतों को विवाह की गुलामी करने को सामाजिक जरूरत समझता है. बुलंदशहर की एक औरत अपने पति को छोड़ कर अपने एक प्रेमी के साथ रह रही है. उस का पति जबरन उस के घर में घुस कर दंगा करता था तो और ने अदालत के दरवाजा खटखटाया.

इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीशों जस्टिस …..कौशल जयेंद्र ठाकर और जस्टिस ने सुभाष चंद ने औरत को छूट देने से इंकार करते हुए कहा कि अदालत का दखल समाज में संदेश देगा कि अदालत इस अनैतिक संबंध को बढ़ावा दे रही है. अपनी बात की लीपापोती करते हुए अदालत ने यह अवश्य जोड़ा कि वह लिवइन संबंधों के खिलाफ नहीं है और धर्म और सैक्स के भेदभाव के बावजूद हरेक को अपने मनमर्जी के साथ रहने का हक है पर एक विवाहता अदालत से संरक्षण की मांग करेगी तो लगेगा कि अदालत समाज का तानाबाने तोड़ रही है.

विवाह एक कानूनी समझौता है जिस पर धर्म सवार हो गया है. असल में तो यह 2 जनों का ग्रेजी समझौता है और जब तक दोनों चाहें तभी तक ङ्क्षजदा रह सकता है. तो जैसे 2 भाई एक कमरे में मन मारकर रहने को मजबूर हो सकी है या 2 आफिस सहकर्मी झगड़े के बावजूद एक दूसरे के निकट बैठने को मजबूर किए जा सकते हैं, कानून उन्हें तब तक साथ रहने की इजाजत दे सकता है जब वे चाहें. विवाह या साथ रहना नितांत निजी मामला है, पौराणिक ग्रंथ भरे पड़े हैं जिन में आदमी और औरतों ने धाॢमक विवाह होने के बाद दूसरों से विवाह किया. आमतौर पर यह हक पुरुषों को ही था पर आज तब भी और आज भी औरतों के हजारों के साथ जबरन या सहमति से संबंध बनते रहे हैं.

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समाज ने तो नहीं पर धर्म और शासकों ने इसे अपराध मात्र है क्योंकि उन्हें डर रहता है कि औरतें आजाद हो जाएंगी तो उन्हें मुफ्त के गुलाम मिलने बंद हो जाएंगे. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यही किया है क्योंकि उस ने बारबार औरतों हकों की बात की है पर विवाहित औरतों के हकों को नकारा है.

विवाह औरत अकेली पर बंधन हो यह गलत है. तलाक का हक पति को है और यदि पत्नी किसी दूसरे के घर रह रही है तो अदालत को सालों नहीं, घंटों में तलाक दे देना चाहिए, चाहे बच्चे हो या नहीं, संपत्ति का बंटवारा हो या न हों. ये बातें बाद में हो सकती हैं.

अगर एक औरत हाई कोर्ट तक पहुंचती है और सुरक्षा मांगती है तो निश्चि बात है कि उसे पति जरूरत से ज्यादा परेशान कर रहा है उस को संरक्षण देना कानून का काम है और समाज के 2 फैब्रिक का नाम ले कर उसे गुलाम बने रहने या मारपीट सहने को मजबूर नहीं किया जा सकता.

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