Best Story : सफेद जूते- बसंत ने नंदन को कैसे सही पाठ पढ़ाया?

Best Story :  ‘हा…हा…हा…इस का बाप नहीं है न, कौन लाएगा इस के लिए जूते?’ नंदन और संदीप के ठहाकों के शोर में बसंत की आह दब गई.  बसंत धीरेधीरे बरसात के धुले कंकड़ों की चुभन जसेतैसे सहता हुआ उन के पीछेपीछे चल रहा था.

‘काश, मेरे पिता जीवित होते,’ बसंत सोचने लगा.

‘बसंत भाई, तेरा वह जो पार्ट टाइम बाप है न, जूते ला कर नहीं देता, हा… हा…हा…’ उस के कंधे पर हाथ रख कर नंदन ने कहा.

‘उफ, यह बरसात क्यों इस तरह इन कंकड़ों को नुकीला बना जाती है,’ बसंत मन ही मन बुदबुदाया, ‘मैं इस पगडंडी में एक भी कंकड़ नहीं रहने दूंगा. मेरे घर के आंगन तक कोलतार वाली सड़क होगी. जब मैं कार से उतरूंगा तो कारपेट बिछी सीढि़यों पर चढ़ता हुआ सीधे अपने कमरे में घुस जाऊंगा. तब मेरे सफेद जूतों पर धूल भी नहीं लगेगी,’ एक जबरदस्त ठोकर लगी तो उस के अंगूठे का नाखून बिलकुल खड़ा हो गया. थोड़ी देर के लिए आंखें बंद हो गईं, चेहरा सिकुड़ गया. हाथ खड़े हुए नाखून पर लगा और एक झटके से उस ने नाखून उखाड़ कर दूर फेंक दिया. आंखें खुलीं तो वह अपने घर की टूटी सीढि़यों पर बैठा था.

देहरी पार करते ही देखा, जहांतहां रखे बरतनों में टपटप पानी टपक रहा था. मां गीली लकडि़यों को बारबार फूंक रही थीं.‘मां, आंखें लाल होने तक इन गीली लकडि़यों को क्यों सुलगाती रहती हो? ये नहीं जलेंगी,’’ बसंत झल्लाया.

तभी टप से एक बूंद चूल्हे में टपकी और राख भी गीली कर गई. मां फिर गीली लकडि़यों को सुलगाने लगीं.

‘‘रहने दो मां, ये गीली लकडि़यां नहीं जलेंगी,’’ वह फिर बोला.

‘‘बासी भात गरम कर दूंगी, बेटा,’’ मां चूल्हा फूंकते हुए बोलीं.

‘‘मैं ठंडा ही खा लूंगा, मां,’’ बसंत ने तश्तरी अपनी ओर खिसका ली.

मां टुकुरटुकुर बेटे को देखे जा रही थीं. ‘कितना सुख मिलता है बेटे को पास बैठा कर खिलाने में,’ वे सोचने लगीं.

अंधेरा घिरने लगा था. बसंत खिड़की के पास बैठा सोच रहा था, ‘काश, मेरे पिताजी भी जीवित होते, मैं सफेद जूते पहन कर स्कूल जाता, नंदन व संदीप के साथ खेलता…’

‘‘उदास क्यों बैठा है बेटा, आज पढ़ेगा नहीं क्या?’’

‘‘पढ़ंगा, मां,’’ बसंत ने 2 छिलगे (मशाल जलाने की लकड़ी) जला कर गीली लकडि़यां सुखाईं और छिलगों की रोशनी में पढ़ने लगा. परंतु उस का मन पढ़ने में नहीं लग रहा था. उस के पैरों के तलवों में जलन हो रही थी. वह एकाएक अपनी मां से सवाल कर बैठा, ‘‘वह ड्राइवर चाचा हमारे यहां क्यों आते हैं, मां?’’

‘‘हमारी देखभाल करने आते हैं, बेटा,’’ जवाब दे कर वे अपने काम में व्यस्त हो गईं.

थोड़ी देर तक बसंत अपनी मां की ओर ही ध्यान लगाए बैठा रहा. शायद उसे विस्तृत उत्तर की आशा थी. मां को व्यस्त देख कर वह पुस्तक के पन्नों को उलटपलट करने लगा, लेकिन उस का मन बिलकुल नहीं लग रहा था. मन में कई सवाल कुतूहल मचा रहे थे. नंदन की छींटाकशी उस के कानों में बज रही थी.

‘‘पिताजी को क्या हो गया था?’’ बसंत फिर सवाल कर बैठा.

‘‘तुझे आज क्या हो गया है, बेटा? तू यह सब क्यों पूछ रहा है?’’ मां बोलीं.

‘‘ऐसे ही, मुझे पता होना चाहिए न, मैं अब बड़ा हो गया हूं.’’

‘‘आया बहुत बड़ा…’’ मां उस के गाल पर थपकी देते हुए मुसकरा दीं.

‘‘बताओ न मां?’’

कुछ देर के लिए मौन छा गया और फिर अतीत के उस कभी न भर सकने वाले घाव से टीस सी उठने लगी…  ‘‘बरसात के दिन थे. शाम के वक्त बाहर जोरों से पानी बरस रहा था. नदीनाले सभी उफन रहे थे. मैं इसी खिड़की के पास खड़ी घबरा रही थी. तुम्हारे पिता मवेशियों को लेने गए हुए थे. मुझे उन पर पूरा भरोसा था. फिर भी न जाने क्यों जी घबरा रहा था. बारिश कम हुई तो मैं भी बोरी सिर पर ओढ़ कर निकल पड़ी.  ‘‘अभी नालों का उफान कम नहीं हुआ था. मैं नाले के इस ओर से तुम्हारे पिता को इशारों से बता रही थी कि अभी पानी तेज बह रहा है. थोड़ी देर वहीं रुके रहो, लेकिन वे फिर भी मवेशियों को नाला पार कराने की कोशिश कर रहे थे. एक बैल बहुत ताकतवर था. किसी तरह वे उस की पूंछ पकड़ कर आधे नाले तक पहुंच गए. बैल का केवल सिर ही पानी से बाहर था. वह आगे बढ़ना नहीं चाह रहा था, लेकिन तुम्हारे पिता उस की पूंछ पकड़ कर आगे धकेले जा रहे थे. वह पीछे की ओर बढ़ने लगा तो उन्होंने छाता आगे की ओर झटका. बैल ने बिदक कर छलांग मार दी और पानी में लुप्त हो गया. तुम्हारे पिता उस के पीछे ही थे. बस फिर मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा गया और मैं जमीन पर बैठ गई. थोड़ी देर बाद उन का छाता दूर पानी की हिलोरों के साथ दिखाई दिया और…’’ यह सब बताते हुए मां एकाएक रोआंसी हो गई थीं.

‘‘मां की गोद में सिर टिकाए बसंत की नजरें अतीत में खोई मां की आंसू भरी आंखों को निहार रही थीं. वह एक हाथ से पैरों के तलवों को खुजला रहा था. मां ने पल्लू से आंसू पोंछे और बेटे के सिर पर हाथ फेरने लगीं. कुछ देर के लिए मौन छा गया. बसंत को तलवे खुजलाते देख उन की नजरें बेटे के पैरों पर पड़ीं, ‘‘ओह, यह क्या हुआ, बेटा?’’

‘‘कुछ नहीं मां. जूते नहीं हैं न, बरसात में पैर मसक गए हैं.’’

‘‘जूते ला दूंगी, बेटा,’’ उन्होंने एक असहाय सा आश्वासन अपने बेटे को दे दिया.

‘‘कब ला दोगी, मां?’’ बसंत के माथे पर सलवटें आ गईं.

‘‘बेटा, अब सड़क का काम शुरू हो गया है न, तेरे ड्राइवर चाचा ने कंकड़ तोड़ने का काम दिला दिया है. पैसे मिलेंगे तब ला दूंगी,’’ बेटे के सिर पर थपकियां देदे कर वे अपनेआप को तसल्ली दे रही थीं.

‘‘तब तक तो बरसात खत्म ही हो जाएगी, मां.’’

‘‘बेटा, सर्दियां आ जाएंगी न, उन दिनों स्कूल जाने में पैरों में ठंड लगेगी, इसलिए जूते चाहिए. आजकल तो गरमी है, क्या जरूरत है जूतों की? चल, सो जा, बहुत रात हो गई है.’’

बिस्तर में करवटें लेते हुए उस का कभी मां की असहाय अवस्था के साथ समझौता करने का मन करता तो कभी नंदन व संदीप की ठिठोली पर विद्रोह करने का. वह करवटें बदलते हुए कुछ न कुछ निर्णय करने पर तत्पर था.

‘‘उठो बसंत, सुबह हो गई. स्कूल जाना है कि नहीं?’’ मां घर का काम निबटाते हुए बोले जा रही थीं.  वह उठ कर बैठ गया, उस की उनींदी आंखें भारी हो रही थीं.

‘‘आज मैं स्कूल नहीं जाऊंगा, मां,’’ वह जम्हाई लेते हुए बोला.

‘‘क्यों बेटा, क्या तबीयत ठीक नहीं?’’

‘‘तबीयत तो ठीक है मां, लेकिन मेरा मन नहीं कर रहा है.’’

‘‘ठीक है बेटा, जैसी तेरी इच्छा,’’ मां बसंत को नाश्ता दे कर खेतों की ओर चल दीं.  खेतों से लौट कर आईं तो चूल्हे के पास हुक्के से दबा हुआ एक कागज मिला, जिस में लिखा था :

‘‘मां,

मैं अब बड़ा हो गया हूं. तुम्हारा दुख देखा नहीं जाता. मैं नौकरी करूंगा. मैं नौकरी ढूंढ़ने जा रहा हूं्. मां, मेरी चिंता मत करना. हां, मैं ड्राइवर चाचा से 40 रुपए ले कर जा रहा हूं, घर आ कर लौटा दूंगा. मैं जल्दी लौट आऊंगा. मां, अपना खयाल रखना.
-तुम्हारा बेटा,
बसंत.’’

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मां परेशान हो गईं. 1 महीना बीतने पर भी बसंत की कोई खबर न आई. फिर करीब डेढ़ महीने बाद डाकिए को अपने घर की ओर आता देख कर हाथ का काम छोड़ कर वे आगे बढ़ीं, ‘‘किस की चिट्ठी है, मेरे बसंत की? पढ़ तो…क्या लिखा है?’’

‘‘चाची, पहले मुंह मीठा करवाओ,’’ डाकिया मुसकराते हुए बोला.

‘‘कराऊंगी, जरूर कराऊंगी, पहले चिट्ठी तो पढ़,’’ गीले हाथ पोंछती हुई वे बोलीं.

‘‘चिट्ठी ही नहीं चाची, मनीऔर्डर भी आया है,’’ डाकिया ऊंचे स्वर में बोला.

‘‘मनीऔर्डर?’’ उस के पांव जैसे जमीन पर ही नहीं थे.

बसंत ने 400 रुपए भेजे थे और लिखा था, ‘‘मां, प्रणाम. अपने पहले वेतन में से 400 रुपए भेज रहा हूं. मैं एक दफ्तर में चपरासी बन गया हूं. मुझे बहुत अच्छे साहब मिले हैं. शाम को स्कूल भी जाता हूं. मेरी चिंता मत करना, मैं जल्दी घर आऊंगा.
-बसंत.’’

साल दर साल बीतते गए. मां पास- पड़ोस, रिश्तेदारी में बसंत के मनीऔर्डर की ही बातें बताती रहतीं. वे बसंत की चिट्ठियां गले लगाए रखतीं और सोचती रहतीं, ‘मेरा बसंत घर आएगा तो कितना खुश होगा. गांव में मोटर आ गई, घर की छत भी पक्की बना दी, बिजली लग गई,’ और वे मन ही मन मुसकराती रहतीं.  बसंत 3 साल बाद 1 महीने की छुट्टी बिता कर के शहर जाने की तैयारी कर रहा था. रात भर बरसात होती रही थी.

‘‘मां, सामान उठाने के लिए किस से बोला था, अभी तक आया नहीं?’’ खीजते हुए वह बोला.

‘‘नंदन आता ही होगा बेटा, अभी तो समय है,’’ मां रसोई में खटरपटर करती हुई बोलीं.

‘‘नंदन…कौन नंदन?’’

‘‘अरे, भूल गया? शिकायत तो उस की खूब करता था, बचपन में,’’ मुसकराती हुई वे बोलीं.

‘हां, संदीप, कल्याण, अरुण, पंकज सभी तो मिले थे. बस, एक नंदन ही नहीं मिला. मैं भी कैसा पागल हूं, किसी से पूछा भी नहीं उस के बारे में,’ वह मन ही मन सोचता रहा.

‘‘बड़ी देर कर दी, नंदन बेटा…’’ अचानक कमरे से मां की आवाज सुनाई दी.

‘‘देर हो गई चाची, रात बहुत बारिश हुई न, घर में पानी घुस गया था. बस, इसी से देर हो गई,’’ वह सामान की ओर देखते हुए बोला.

‘‘अरे, नंदन भैया, तुम तो दिखाई ही नहीं दिए, कहां रहे? ठीक तो हो?’’ बसंत उस से गले मिलते हुए बोला.

‘‘ठीक हूं भैया, घरगृहस्थी का जंजाल जो ठहरा, कहीं आनाजाना ही नहीं होता… तुम सुनाओ, कैसे हो?’’

‘‘बस देख ही रहे हो…जा रहा हूं आज.’’

‘‘नंदन बेटा, नाश्ता कर ले, बातें रास्ते में करते रहना. समय हो रहा है, गाड़ी निकल न जाए,’’ मां बोलीं.

‘‘चाची, मैं पहले बसंत भैया को छोड़ कर आता हूं, फिर वापस आ कर नाश्ता कर लूंगा.’’

नंदन सामान उठाए आंगन में बसंत का इंतजार कर रहा था. बसंत ने देखा कि नंदन नंगे पांव है. उसे अपना बचपन याद आने लगा और वह कई वर्ष पीछे चला गया.

‘‘चलो बसंत भैया, समय हो रहा है,’’ नंदन की आवाज से उस की तंद्रा टूटी.

‘‘नहीं, नंदन भैया, बरसाती कंकड़ बहुत नुकीले होते हैं…यह बैग जरा मुझे देना,’’ बसंत गंभीरता से बोला. उस ने बैग से अपने सफेद जूते निकाले और नंदन को पहना दिए.  नंदन बस अड्डे पहुंच कर जूते उतारने लगा तो बसंत ने उस का हाथ रोक दिया, ‘‘नहीं, नंदन भैया, मैं ने उतारने के लिए नहीं दिए हैं, पहने रहो. मेरे पास दूसरी जोड़ी है.’’

नंदन उसे एकटक देखते हुए अतीत में खो गया, ‘इस का बाप नहीं है न, कौन लाएगा इस के लिए जूते…हा…हा…हा…’ उस के कानों में बहुत दूर से गूंज सी सुनाई दी.  बस धीरेधीरे आगे बढ़ने लगी और धूल उड़ाती हुई आंखों से ओझल हो गई. नंदन सफेद जूते पहने खड़ा हुआ शर्म महसूस कर रहा था. जूते उतार कर उस ने बगल में दबाए और घर की ओर चल दिया.

Short Story : मोहिनी – क्या उसकी सच्चाई ससुराल वालों के सामने आई?

Short Story :  मनोहरा की पत्नी मोहिनी बड़ी शोख और चुलबुली थी. अपनी अदाओं से वह मनोहरा को हमेशा मदहोश किए रहती थी. उस को पा कर मनोहरा को जैसे पंख लग गए थे और वह हमेशा आकाश में उड़ान भरने को तैयार हो उठता था. मोहिनी उस की इस उड़ान को हमेशा ही सहारा दे कर दुनिया जीतने का सपना देखती रहती थी.

अपने मायके में भी मोहिनी खुली हिरनी की तरह गांवभर में घूमती रहती थी. इस में उसे कोई हिचक नहीं होती थी, क्योंकि उस की मां बचपन में ही मर गई थी और सौतेली मां का उस पर कोई कंट्रोल न था.

मोहिनी छोटेबड़े किसी काम में अपनी सीमा लांघने से कभी भी नहीं हिचकती थी. शादी से पहले ही उस का नाम गांव के कई लड़कों से जोड़ा जाता था. वैसे, ब्याह कर अपने इस घर आने के बाद पहले तो मोहिनी ने अपनी बोली और बरताव से पूरे घर का दिल जीत लिया, पर जल्दी ही वह अपने रंग में आ गई.

मनोहरा के बड़े भाई गोखुला की सब से बड़ी औलाद एक बेटी थी, जो अब सयानी और शादी के लायक हो चली थी. उस का नाम सलोनी था. गोखुला के 2 बेटे अभी छोटे ही थे. गोखुला की पत्नी पिछले साल हैजे की वजह से मर गई थी.

मोहिनी के सासससुर और गोखुला अब कभीकभी सलोनी की शादी कर देने की चर्चा छेड़ देते थे, जिस से वह डर जाती थी. उस की शादी में अच्छाखासा खर्च होने की उम्मीद थी.

मोहिनी चाहती थी कि अगर किसी तरह उस का पति अपने भाई गोखुला से अलग होने को राजी हो जाए, तो होने वाले इस खर्च से वह बच निकलेगी.

मोहिनी ने माहौल देख कर मनोहरा को अपने मन की बात बताई. मनोहरा एक सीधासादा जवान था. वह घर के एक सामान्य सदस्य की तरह रहता और दिल खोल कर कमाता था. वह इन छलप्रपंचों से कोसों दूर था.मोहिनी की बातों को सुन कर पलभर के लिए तो मनोहरा को बहुत बुरा लगा, पर मोहिनी ने जब इन सारी बातों की जिम्मेदारी अपने ऊपर छोड़ देने की बात कही, तो वह चुप हो गया.

यही तो मोहिनी चाहती थी. अब वह आगे की चाल के बारे में सोचने लग गई. पहले कुछ दिनों तक तो उस ने सलोनी से खूब दोस्ती बढ़ाई और उसे घूमनेफिरने, खेलनेखिलाने वगैरह की पूरी आजादी दे दी, फिर खुद ही अपने सासससुर से उस की शिकायत भी करने लगी.

1-2 बार उस ने सलोनी को गुपचुप उसी गांव के रहने वाले अपने चहेते पड़ोसी रामखिलावन के साथ मेले में भेज दिया और पीछे से ससुर को भी भेज दिया.

सलोनी के रंगे हाथ पकड़े जाने पर मोहिनी ने उस घर में रहने से साफ इनकार कर दिया. सासससुर और गांव वाले उसे समझासमझा कर थक गए, पर उस ने तब तक कुछ नहीं खायापीया, जब तक कि पंचों ने अलग रहने का फैसला नहीं ले लिया.

अब तो मोहिनी की पौबारह थी. अकेले घर में उसे सभी तरह की छूट थी. न दिन में कोई देखने वाला, न रात में कोई उठाने वाला. अब तो वह अपनी नींद सोती और अपनी नींद जागती थी. मनोहरा तो उस के रूप और जवानी पर पहले से ही लट्टू था, बंटवारा होने के बाद से तो वह उस का और भी एहसानमंद हो गया था.

मनोहरा दिनभर अपने खेतों में काम करता और रात में खापी कर मोहिनी के रूपरस का पान कर जो सोता, तो 4 बजे भोर में ही पशुओं को चारापानी देने के लिए उठता.

इस बीच मोहिनी क्या करती है, क्या खातीपीती है, कहां उठतीबैठती है, इस का उसे बिलकुल भी एहसास न था और न ही चिंता थी.

मोहिनी ने एक मोबाइल फोन खरीद लिया. कुछ ही दिनों में उस ने अपने पुराने प्रेमी से फोन पर बात की, ‘‘सुनो कन्हैया, अब मैं यहां भी पूरी तरह से आजाद हूं. तुम जब चाहो समय निकाल कर यहां आ सकते हो, केवल इतना ध्यान रखना कि मेरे गांव के पास आ कर पहले मुझ से बातचीत कर के ही घर पर आना… समझे?’’

‘क्यों, अब मेरे रात में आने से तुझे अपनी नींद में खलल पड़ती है क्या? दिन में बारबार तुम्हारे यहां आने से नाहक लोगों को शक होगा,’ कन्हैया ने कहा.

‘‘रात के अंधेरे में तो सभी काला धंधा चलाते हैं, पर दिन के उजाले में भी कुछ दिन अपना काला धंधा चला कर मजा लेने में क्या हर्ज है. रात को पशुशाला में गोबर की बदबू के बीच वह मजा कहां, जो दिन के उजाले में अपने मर्द के बिछावन पर मिलेगा.’’

‘ठीक है, मोहिनी. तुम्हारी बातों को मैं ने कब काटा है. यह आदेश भी सिरआंखों पर, लेकिन जोश के साथ होश कभी नहीं खोना चाहिए… ठीक है, कल दोपहर बाद…’ कन्हैया बोला.

दूसरे दिन सवेरे ही मोहिनी ने मनोहरा को चायनाश्ता करा कर, दोपहर का खाना दे कर खेत पर काम करने इस तरह विदा किया, जैसे कोई मां अपने बच्चे को तैयार कर पढ़ने के लिए भेजती है.

ठीक साढ़े 12 बजे मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी. भीतरबाहर, अगलबगल देख कर मोहिनी ने कन्हैया को घर पर आने का सिगनल दे दिया.

कन्हैया सावधानी से उस के दरवाजे तक आ गया और वहां से उसे अपने आंगन तक ले जाने के लिए तो मोहिनी वहां मौजूद थी ही. तकरीबन 2 घंटे तक कन्हैया वहां रह कर मौजमजा लेता रहा, फिर जैसे आया था वैसे ही लौट गया.

ठीक उसी समय अलग हुए बराबर के घर में सलोनी अपने छोटे भाई रमुआ के साथ पशुओं को खूंटे से बांध रही थी. आज रमुआ अपने साथ दोपहर का खाना नहीं ले जा सका था, इसी वजह से वह सवेरे ही पशुओं को हांक लाया था.

सलोनी ने चाची के घर से निकल कर एक अजनबी को जाते देखा, तो उसे कुछ अटपटा सा लगा, पर वह चुप लगा गई.

दूसरे दिन भी जब सलोनी बैलों को पानी पिलाने के लिए दरवाजे पर आई, तो गांव के ही रामखिलावन को मोहिनी के घर से निकलते देखा. देखते ही वह पहचान गई कि यह वही रामखिलावन है, जिस के साथ चाची उसे बदनाम कर के दादादादी और उन से अलग हुई थी.

अब तो सलोनी के मन में कुछ उथलपुथल सी होने लगी. उस ने अपने मन को शांत कर एक फैसला लिया और मुसकराने लगी.

अब सलोनी बराबर चाचा के घर की निगरानी करने लगी. वह अपने आंगन से निकल कर चुपके से चाचाचाची के घर की ओर देख लेती और लौट जाती. एक दिन उसे फिर एक नया अजनबी उस आंगन से निकलते हुए दिखा.

अब सलोनी से रहा नहीं गया. उस ने अपनी दादी से सारी बातें बताईं. वह बूढ़ी अपनी एक खास जवान पड़ोसन से मदद ले कर इस बात की जांच में जुट गई.

तीनों मिल कर छिपछिप कर एक हफ्ते तक निगरानी करती रहीं. सलोनी की बात सोलह आने सच साबित हुई. फिर दादी ने अपने बड़े बेटे गोखुला और अपने पति से सहयोग ले कर एक नई योजना बनाई और 2-4 दिनों तक और इंतजार किया.

दूसरी ओर मोहिनी इन सभी बातों से अनजान मौजमस्ती में मशगूल रहती थी. वैसे, उस के घर में जो भी मर्द आता था, वह कोई कीमती चीज उसे दे जाता था.

कन्हैया को आए जब कई दिन हो गए, तो मोहिनी के मन की तड़प बढ़ गई, दिल जोरों से धड़कने लगा. उसे खयाल आया कि सिकंदर भी आने से मना कर चुका है, तो क्यों न आज फिर एक बार कन्हैया को ही बुला लिया जाए. उस ने झट से मोबाइल फोन उठा लिया.

दूसरी ओर से कन्हैया ने पूछा, ‘हां मोहिनी, क्या हालचाल है? तुम वहां खुश तो हो न?’

‘‘क्या खाक खुश रहूंगी. तुम तो इधर का जैसे रास्ता ही भूल बैठे. दिनभर बैठी रहती हूं मैं तुम्हारी याद में और तुम तो जैसे डुमरी का फूल बन गए हो आजकल.’’

‘बोलो क्या हुक्म है?’

‘‘आज तुम दोपहर के 12 बजे मेरे घर आ जाओ.’’

‘हुजूर का हुक्म सिरआंखों पर,’ कहते हुए कन्हैया ने फोन काट दिया.

मोहिनी ने तो अपनी योजना बना ली थी, पर उसे भनक तक नहीं थी कि कोई उस पर नजर रखे हुए है. कन्हैया पर नजर पड़ते ही सभी सावधान हो गए. वह एक ओर से आ कर मोहिनी के आंगन में घुस गया. लोगों ने देखा कि मोहिनी उसे दरवाजे से भीतर ले गई.

सलोनी ने दादी के कहने पर मनोहरा चाचा को भी बुला कर अपने दरवाजे पर बैठा लिया था. धीरेधीरे कुछ और लोग आ गए और जब तकरीबन आधा घंटा बीत गया होगा, तब मनोहरा को आगे कर सभी लोग उस के दरवाजे पर पहुंच गए.

दस्तक देने पर जब दरवाजा नहीं खुला, तब लोगों ने मनोहरा को ऊंची आवाज लगा कर मोहिनी को बुलाने को कहा. उस की आवाज को पहचान कर मोहिनी को कुछ शक हुआ, क्योंकि आज उसे धान के खेत की निराईगुड़ाई करनी थी. आज उसे शाम में भी देर से आने की उम्मीद थी. वह कन्हैया संग पलंग पर प्रेम की पेंगें भर रही थी.

ज्यों ही मोहिनी ने दरवाजा खोला, सामने मनोहरा के संग पासपड़ोस के लोगों को देख कर उस के होश उड़ गए. वह कुछ बोलती, इस से पहले ही पूरा हुजूम उस के आंगन में घुस गया और कन्हैया को भी धर दबोचा.

पत्नी मोहिनी के सामने हमेशा भीगी बिल्ली बना रहने वाला मनोहरा आज न जाने कैसे बब्बर शेर बन कर दहाड़ता हुआ उस पर पिल पड़ा और चिल्लाया, ‘‘आज मैं इस को जान से मार कर ही चैन की सांस लूंगा.’’

उस दिन के बाद से फिर न तो मोहिनी कभी वापस गांव में दिखी और न ही उस का प्रेमी. सुना था कि वह शहर जा कर कई घरों में बरतन मांज कर फटेहाल गुजारा कर रही है.

Online Hindi Story : बुद्धि का इस्तेमाल

Online Hindi Story : 2 साल स्कूल की पढ़ाई उस ने यहीं से की थी. एक दिन आनंद को उस समय के अपने सब से करीबी दोस्त रमाकांत मोरचकर यानी मोरू ने अपने घर बुलाया. वक्त मिलते ही आनंद भी अपना सामान बांध कर बिना बताए उस के पास पहुंच गया.

‘‘आओआओ… यह अपना ही घर है,’’ मोरू ने बहुत खुले दिल से आनंद का स्वागत किया, लेकिन उस के घर में एक अजीब तरह का सन्नाटा था.

‘‘क्या मोरू, सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, ऐसा ही सम झ लो.’’

‘‘बिना बताए आने से नाराज हो क्या?’’

तब तक भाभी पानी ले कर बाहर आईं. उन के चेहरे पर चिंता की रेखाएं साफ नजर आ रही थीं.

‘‘सविता भाभी कैसी हैं आप?’’

‘‘ठीक हूं,’’ कहते समय उन के चेहरे पर कोई भाव नहीं था.

‘‘आनंद के लिए जरा चाय रखो.’’

देवघर में चाची (मोरू की मां) पूजा कर रही थीं. उन्हें नमस्कार किया.

‘‘बैठो बेटा,’’?चेहरे से चाची भी खुश नहीं लग रही थीं.

बैठक में आनंद की नजर गई तो 14-15 साल की एक लड़की चुपचाप बैठी थी, जो उस की उम्र को शोभा नहीं दे रही थी. दुबलेपतले हाथपैर और चेहरा मुर झाया हुआ था. आनंद ने बड़े ध्यान से देखा.

‘‘यह सुरभि है न…? चौकलेट अंकल को पहचाना नहीं क्या? हां, सम झ में आया. चौकलेट नहीं दी, इसलिए तू गुस्सा है. यह ले चौकलेट, यहां आओ,’’ पर सुरभि ने चौकलेट नहीं ली और अचानक से रोने लगी.

‘‘आनंद, वह बोल नहीं सकती है,’’ चाचीजी ने चौंकने वाली बात कही.

‘‘क्या…? बचपन में टपाटप बोलने वाली लड़की आज बोल नहीं सकती, लेकिन क्यों?’’

चाय ले कर आई भाभी ने तो और चौंका दिया, ‘‘सालभर पहले एक दिन जब से यह स्कूल से आई है, तब से कुछ नहीं बोल रही है.’’

‘‘क्या हुआ था…? अब क्यों स्कूल नहीं जाती है?’’

‘‘स्कूल जा कर क्या करेगी? घर में बैठी है,’’ भाभी ने उदास लहजे में कहा.

आनंद इस सदमे से संभला और सुरभि का नाक, गला, कान वगैरह सब चैक किया.

स्पीच आडियो आनंद का सब्जैक्ट नहीं था, फिर भी एक डाक्टर होने के नाते जानकारी तो है.

‘‘मोरू मु झे बता, आखिर यह सब कब हुआ? मु झे तुम लोगों ने बताया क्यों नहीं?’’

‘‘बीते साल अगस्त महीने में अपनी सहेली के साथ यह स्कूल से आई. हम ने देखा, इस की आवाज जैसे बैठ गई थी, लेकिन कुछ दिन बाद तो हमेशा के लिए ही बंद हो गई.’’

‘‘अरे, यह उस पेड़ के नीचे गई थी, वह बता न…’’ चाचीजी ने कहा.

‘‘कौन से पेड़ के नीचे…? उस की टहनियां टूट कर इस के ऊपर गिर गई थीं क्या?’’

‘‘पीपल के नीचे… टहनी टूट कर कैसे लगेगी. उस पेड़ के नीचे अमावस्या के दिन ऐसे ही होता है. वह भी दोपहर 12 बजे.’’

‘‘यह अकेली थी क्या?’’

‘‘नहीं, 3-4 सहेलियां थीं. लेकिन इसी को पकड़ा न. अन्ना महाराज ने मु झे सबकुछ बताया,’’ काकी की बातें सुन कर अजीब सा लगा.

‘‘अब ये अन्ना महाराज कौन हैं?’’

‘‘पिछले एक साल से अन्ना बाबा गांव के बाहर मठ में अपने शिष्य के साथ रहते हैं और पूजापाठ करते हैं. भक्तों की कुछ भी समस्या हो, वे उन का निवारण करते हैं.’’

‘‘फिर, तुम उन के पास गए थे कि नहीं?’’

‘‘मां सुरभि को ले कर गई थीं. देखते ही उन्होंने कहा कि पीपल के नीचे की बाधा है… मंत्र पढ़ कर कोई धागा दिया और उपवास करने के लिए कहा, जो वे करती हैं.’’

‘‘वह तो दिख रहा है भाभी की तबीयत से. क्यों इन तंत्रमंत्र पर विश्वास करता है? यह सब अंधश्रद्धा नासम झी से आई है. विज्ञान के युग में हमारी सोच बदलनी चाहिए. इन बाबाओं की दवाओं से अगर हम अच्छे होने लगते तो मैडिकल साइंस किस काम की है. डाक्टर को दिखाया क्या?’’

‘‘दिखाया न. गोवा के एक डाक्टर को दिखाया. उन्होंने कहा कि आवाज आ सकती है, लेकिन आपरेशन करना पड़ेगा. एक तो काफी खर्चा, दूसरे कामयाब होने की गारंटी भी नहीं है.

‘‘ठीक है. इस की सहेलियां, जो उस समय इस के साथ थीं, मैं उन से मिलना चाहता हूं.’’

सुरभि की सहेलियों से बातचीत की. आनंद पीपल के नीचे गया और जांचा. यह देख कर मोरू, उस की मां और पत्नी सभी उल झन में थे.

‘‘मोरू, कल सुबह हम गोवा जाएंगे. मेरा दोस्त नाक, कान और गले का डाक्टर है. उस की सलाह ले कर आते हैं,’’ आनंद ने कहा.

‘‘गोवा का डाक्टर ही तो आपरेशन करने के लिए बोला है. फिर क्या यह कुछ अलग बोलेगा? जानेआने में तकलीफ और उस की फीस अलग से.’’

‘‘तुम उस की चिंता मत करो. वहां जाने के लिए मेरी गाड़ी है. आते वक्त तुम्हें बस में बैठा दूंगा. रात तक तुम लोग वापस आ जाओगे.’’

‘‘लेकिन, अन्ना महाराज ने कहा है कि डाक्टर कुछ नहीं कर सकता है?’’ चाचीजी ने टोका.

‘‘चाचीजी, उस के दिए हुए धागे इस के हाथ में हैं. अब देखते हैं कि डाक्टर क्या बोलता है.’’

न चाहते हुए भी मोरू जाने के लिए तैयार हुआ. घर के बाहर निकलने की वजह से सुरभि की उदासी कुछ कम हुई.

डाक्टर ने चैक करने के बाद दवाएं दीं. कैसे लेनी हैं, यह भी बताया. इस के बाद हम ने आगे की कार्यवाही शुरू की.

सुरभि की तबीयत को ले कर आनंद फोन पर कुछ पूछ रहा था और भाई को भी उस पर ध्यान देने के लिए कहा था. आनंद ने मोरू की बेटी सुरभि के साथ कुछ समय बिताने को कहा था. उपवास,  झाड़फूंक, धागा, अन्ना महाराज के पास आनाजाना सबकुछ शुरू था.

‘‘कैसी हो सुरभि, अब अच्छा लग रहा है न?’’

सिर हिलाते हुए उस ने हाथ से चौकलेट ली और हलके से मुसकराई.

‘‘मोरू, यह हंस रही है क्या? अब देख, उस डाक्टर ने सुरभि को 15 दिन के लिए गोवा बुलाया है, वहीं इस का इलाज होगा.’’

‘‘अरे बाप रे… यानी 15 दिन तक उसे अस्पताल में रहना होगा. मैं इतना खर्च नहीं उठा पाऊंगा,’’ मोरू ने कहा.

‘‘चुप बैठ. मेरा घर अस्पताल के नजदीक ही है. तेरी भाभी भी आई है. 2 दिन के लिए मैं सुरभि को ले कर जा रहा हूं. वह हर रोज इसे अस्पताल ले जाएगी. इलाज 15 दिन तक चलेगा. नतीजा देखने के बाद ट्रीटमैंट शुरू रखने के बारे में सोचेंगे.’’

‘‘ट्रीटमैंट क्या होगा?’’ भाभी ने घबराते हुए पूछा.

‘‘वह डाक्टर तय करेंगे. लेकिन आपरेशन बिलकुल नहीं.’’

सुरभि का ट्रीटमैंट तकरीबन 20 दिन चला. इस बीच मोरू और भाभी 2 बार गोवा आ कर गए. 20 दिन बाद आनंद और उस की पत्नी सुरभि को ले कर सावंतबाड़ी गए.

‘‘सुरभि बेटी, मां को बुलाओ,’’ आनंद ने कहा.

सुरभि ने आवाज लगाई ‘‘आ… आ…’’ उस की आवाज सुन कर भाभी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

‘‘सुरभि, अपने पापा को नहीं बुलाओगी?’’

फिर उस ने ‘पा… पा…’ कहा. यह सुन कर दोनों की आंखों में खुशी के आंसू आ गए.

‘‘भैयाजी, सुरभि बोलने लगी है, पर अभी ठीक से नहीं बोल पा रही है,’’ सुरभि की चाची ने कहा.

‘‘भाभी, इतने दिनों तक उस के गले से आवाज नहीं निकली. अभीअभी आई है तो प्रैक्टिस करने पर सुधर जाएगी.’’

‘‘लेकिन, यहां कैसे मुमकिन हो पाएगा यह सब?’’

‘‘यहां के सरकारी अस्पताल में शितोले नाम की एक औरत आती है. वह यही प्रैक्टिस कराती है. इसे स्पीच और आडियो थेरैपी कहते हैं. वह प्रैक्टिस कराएगी तो धीरेधीरे सुरभि बोलने लगेगी.’’

चाचीजी ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा, ‘‘अन्ना महाराज ने सालभर उपचार किया. बहू ने उपवास किए. यह सब उसी का फल है. आनंद, तेरा डाक्टर एक महीने में क्या करेगा.’’

‘‘चाचीजी, जो एक साल में नहीं हुआ, वह 15 दिन में हुआ है, और वह भी मैडिकल साइंस की वजह से. फिर भी सुरभि अभी भी पूरी तरह से ठीक नहीं हुई है.’’

‘‘लेकिन, उसे हुआ क्या था?’’

‘‘हम सब को अन्ना महाराज के पास जा कर यह जानकारी देनी चाहिए.’’

हम सभी लोग मठ में दाखिल हुए.

‘‘नमस्कार अन्ना महाराज. सुरभि, अन्ना महाराज को आवाज दो.’’

‘‘न… न…’’ ये शब्द सुन कर क्षणभर के लिए अन्ना चौंक गए.

‘‘अरे साहब, सालभर से हम ने कड़े प्रयास किए हैं. मां की तपस्या, भाभी की उपासना कामयाब हुई हैं.’’

‘‘अरे, वाह, पर इसे हुआ क्या था?’’

‘‘अरे, क्या बोलूं. पीपल से लटक कर एक लड़की ने खुदकुशी की थी, उसी के भूत ने इसे पकड़ लिया था, पर अब उस ने सुरभि को छोड़ दिया है.’’

‘‘मैं खुद उस पीपल से लटक गया था. उस समय मेरे साथ उस की सहेलियां भी थीं. लेकिन, उस ने हमें तो नहीं पकड़ा.’’

‘‘सब लोगों को नहीं पकड़ते हैं. इस लड़की के नसीब में ही ऐसा लिखा था.’’

‘‘और, आप के नसीब में इस के मातापिता का पैसा था.’’

‘‘यह क्या बोल रहे हो तुम? मु झ पर शक कर रहे हो?’’ अन्ना ने तमतमाते हुए पूछा.

‘‘चिल्लाने से  झूठ सच नहीं हो जाता. तुम अपनी ओछी सोच से लोगों को गलत रास्ते पर धकेल रहे हो. सच बात तो कुछ और है.’’

‘‘क्या है सच बात…?’’ अन्ना की आवाज नरम हो गई.

‘‘सुरभि जन्म से ही गूंगी नहीं है, वह बोलती थी, लेकिन तुतला कर, क्लास में लड़कियां उसे ‘तोतली’ कह कर चिढ़ाती थीं, इसलिए वह बोलने से बचने लगी और मन ही मन कुढ़ने लगी.’’

‘‘फिर, तुम ने उस पर क्या उपाय किया. सिर्फ ये दवाएं?’’

‘‘ये दवाएं उस के लिए एक टौनिक थीं, सही माने में उसे ऐसे टौनिक की जरूरत थी, जो उस के मन को ठीक कर सके, जिसे मेरे डाक्टर दोस्त ने पहचाना.

‘‘ये सारी बातें मु झे सुरभि की सहेलियों ने बताईं. गोवा ले जा कर मैं ने उस की काउंसलिंग कराई. उसे निराशा के अंधेरे से बाहर निकाला. इस के बाद बोलने की कोशिश करना सिखाया. अब वह धीरेधीरे 2 महीने में अच्छी तरह से बोलना सीख जाएगी.’’

‘‘यह सब अपनेआप होगा क्या?’’ भाभी की चिंता वाजिब थी.

‘‘अपनेआप कैसे होगा? उस के लिए यहां के सरकारी अस्पताल में उसे ले जाना पड़ेगा. यह सब आप को करना होगा.’’

‘‘मैं करूंगी भाईजी, आप हमारे लिए एक फरिश्ते से कम नहीं हो.’’

‘‘तो आप इस फरिश्ते को क्या खिलाओगी?’’ आनंद ने मजाक करते हुए पूछा.

‘‘कोंबडी बडे.’’

‘‘बहुत अच्छा. 2 दिन रहूंगा मैं यहां. पहले इस अन्ना महाराज को कौन सा नुसखा दें, क्यों महाराज?’’

‘‘मु झे कुछ नहीं चाहिए, अब मैं यहां से जा रहा हूं दूसरी जगह.’’

‘‘जाने से पहले सुरभि के हाथ से धागा निकालो. तुम्हें दूसरी जगह जाने की बिलकुल जरूरत नहीं है. वहां के लोगों के हाथ में भी धागा बांध कर उन्हें लूटोगे. इसलिए इसी मठ में रहना है. काम कर के खाना, मुफ्त का नहीं. यह गांव तुम छोड़ नहीं सकते. वह तुम्हें कहीं से भी खोज निकालेगा. सम झ

गया न.’’

‘‘डाक्टर साहब, आप जैसा बोलोगे, वैसा ही होगा.’’

घर आ कर मोरू को डांट लगाई,  ‘‘चाचीजी की बात अलग है, लेकिन, तू तो कम से कम सोच सकता था न. तंत्रमंत्र, धागा, धूपदान से किसी का भी भला नहीं होता है. श्रद्धा और अंधश्रद्धा दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. अंधश्रद्धा बुद्धि खराब कर के एक ही जगह पर जकड़ कर रखती है, इसलिए पहले सोचें कि अपनी बुद्धि का कैसे इस्तेमाल करें.’’

मोरू के दिमाग में आनंद की बात घर कर चुकी थी.

Best Hindi Story : सोने का झुमका – पूर्णिमा का झुमका खोते ही मच गया कोहराम

Best Hindi Story : जगदीश की मां रसोईघर से बाहर निकली ही थी कि कमरे से बहू के रोने की आवाज आई. वह सकते में आ गई. लपक कर बहू के कमरे में पहुंची.

‘‘क्या हुआ, बहू?’’

‘‘मांजी…’’ वह कमरे से बाहर निकलने ही वाली थी. मां का स्वर सुन वह एक हाथ दाहिने कान की तरफ ले जा कर घबराए स्वर में बोली, ‘‘कान का एक झुमका न जाने कहां गिर गया है.’’

‘‘क…क्या?’’

‘‘पूरे कमरे में देख डाला है, मांजी, पर न जाने कहां…’’ और वह सुबकसुबक कर रोने लगी.

‘‘यह तो बड़ा बुरा हुआ, बहू,’’ एक हाथ कमर पर रख कर वह बोलीं, ‘‘सोने का खोना बहुत अशुभ होता है.’’

‘‘अब क्या करूं, मांजी?’’

‘‘चिंता मत करो, बहू. पूरे घर में तलाश करो, शायद काम करते हुए कहीं गिर गया हो.’’

‘‘जी, रसोईघर में भी देख लेती हूं, वैसे सुबह नहाते वक्त तो था.’’ जगदीश की पत्नी पूर्णिमा ने आंचल से आंसू पोंछे और रसोईघर की तरफ बढ़ गई. सास ने भी बहू का अनुसरण किया.

रसोईघर के साथ ही कमरे की प्रत्येक अलमारी, मेज की दराज, शृंगार का डब्बा और न जाने कहां-कहां ढूंढ़ा गया, मगर कुछ पता नहीं चला.

अंत में हार कर पूर्णिमा रोने लगी. कितनी परेशानी, मुसीबतों को झेलने के पश्चात जगदीश सोने के झुमके बनवा कर लाया था.

तभी किसी ने बाहर से पुकारा. वह बंशी की मां थी. शायद रोनेधोने की आवाज सुन कर आई थी. जगदीश के पड़ोस में ही रहती थी. काफी बुजुर्ग होने की वजह से पासपड़ोस के लोग उस का आदर करते थे. महल्ले में कुछ भी होता, बंशी की मां का वहां होना अनिवार्य समझा जाता था. किसी के घर संतान उत्पन्न होती तो सोहर गाने के लिए, शादीब्याह होता तो मंगल गीत और गारी गाने के लिए उस को विशेष रूप से बुलाया जाता था. जटिल पारिवारिक समस्याएं, आपसी मतभेद एवं न जाने कितनी पहेलियां हल करने की क्षमता उस में थी.

‘‘अरे, क्या हुआ, जग्गी की मां? यह रोनाधोना कैसा? कुशल तो है न?’’ बंशी की मां ने एकसाथ कई सवाल कर डाले.

पड़ोस की सयानी औरतें जगदीश को अकसर जग्गी ही कहा करती थीं.

‘‘क्या बताऊं, जीजी…’’ जगदीश की मां रोंआसी आवाज में बोली, ‘‘बहू के एक कान का झुमका खो गया है. पूरा घर ढूंढ़ लिया पर कहीं नहीं मिला.’’

‘‘हाय राम,’’ एक उंगली ठुड्डी पर रख कर बंशी की मां बोली, ‘‘सोने का खोना तो बहुत ही अशुभ है.’’

‘‘बोलो, जीजी, क्या करूं? पूरे तोले भर का बनवाया था जगदीश ने.’’

‘‘एक काम करो, जग्गी की मां.’’

‘‘बोलो, जीजी.’’

‘‘अपने पंडित दयाराम शास्त्री हैं न, वह पोथीपत्रा विचारने में बड़े निपुण हैं. पिछले दिनों किसी की अंगूठी गुम हो गई थी तो पंडितजी की बताई दिशा पर मिल गई थी.’’

डूबते को तिनके का सहारा मिला. पूर्णिमा कातर दृष्टि से बंशी की मां की तरफ देख कर बोली, ‘‘उन्हें बुलवा दीजिए, अम्मांजी, मैं आप का एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगी.’’

‘‘धैर्य रखो, बहू, घबराने से काम नहीं चलेगा,’’ बंशी की मां ने हिम्मत बंधाते हुए कहा.

बंशी की मां ने आननफानन में पंडित दयाराम शास्त्री के घर संदेश भिजवाया. कुछ समय बाद ही पंडितजी जगदीश के घर पहुंच गए. अब तक पड़ोस की कुछ औरतें और भी आ गई थीं. पूर्णिमा आंखों में आंसू लिए यह जानने के लिए उत्सुक थी कि देखें पंडितजी क्या बतलाते हैं.

पूरी घटना जानने के बाद पंडितजी ने सरसरी निगाहों से सभी की तरफ देखा और अंत में उन की नजर पूर्णिमा पर केंद्रित हो गई, जो सिर झुकाए अपराधिन की भांति बैठी थी.

‘‘बहू का राशिफल क्या है?’’

‘‘कन्या राशि.’’

‘‘ठीक है.’’ पंडितजी ने अपने सिर को इधरउधर हिलाया और पंचांग के पृष्ठ पलटने लगे. आखिर एक पृष्ठ पर उन की निगाहें स्थिर हो गईं. पृष्ठ पर बनी वर्गाकार आकृति के प्रत्येक वर्ग में उंगली फिसलने लगी.

‘‘हे राम…’’ पंडितजी बड़बड़ा उठे, ‘‘घोर अनर्थ, अमंगल ही अमंगल…’’

सभी औरतें चौंक कर पंडितजी का मुंह ताकने लगीं. पूर्णिमा का दिल जोरों से धड़कने लगा था.

पंडितजी बोले, ‘‘आज सुबह से गुरु कमजोर पड़ गया है. शनि ने जोर पकड़ लिया है. ऐसे मौके पर सोने की चीज खो जाना अशुभ और अमंगलकारी है.’’

पूर्णिमा रो पड़ी. जगदीश की मां व्याकुल हो कर बंशी की मां से बोली, ‘‘हां, जीजी, अब क्या करूं? मुझ से बहू का दुख देखा नहीं जाता.’’

बंशी की मां पंडितजी से बोली, ‘‘दया कीजिए, पंडितजी, पहले ही दुख की मारी है. कष्ट निवारण का कोई उपाय भी तो होगा?’’

‘‘है क्यों नहीं?’’ पंडितजी आंख नचा कर बोले, ‘‘ग्रहों को शांत करने के लिए पूजापाठ, दानपुण्य, धर्मकर्म ऐसे कई उपाय हैं.’’

‘‘पंडितजी, आप जो पूजापाठ करवाने  को कहेंगे, सब कराऊंगी.’’ जगदीश की मां रोंआसे स्वर में बोली, ‘‘कृपा कर के बताइए, झुमका मिलने की आशा है या नहीं?’’

‘‘हूं…हूं…’’ लंबी हुंकार भरने के पश्चात पंडितजी की नजरें पुन: पंचांग पर जम गईं. उंगलियों की पोरों में कुछ हिसाब लगाया और नेत्र बंद कर लिए.

माहौल में पूर्ण नीरवता छा गई. धड़कते दिलों के साथ सभी की निगाहें पंडितजी की स्थूल काया पर स्थिर हो गईं.

पंडितजी आंख खोल कर बोले, ‘‘खोई चीज पूर्व दिशा को गई है. उस तक पहुंचना बहुत ही कठिन है. मिल जाए तो बहू का भाग्य है,’’ फिर पंचांग बंद कर के बोले, ‘‘जो था, सो बता दिया. अब हम चलेंगे, बाहर से कुछ जजमान आए हैं.’’

पूरे सवा 11 रुपए प्राप्त करने के पश्चात पंडित दयाराम शास्त्री सभी को आसीस देते हुए अपने घर बढ़ लिए. वहां का माहौल बोझिल हो उठा था. यदाकदा पूर्णिमा की हिचकियां सुनाई पड़ जाती थीं. थोड़ी ही देर में बंशीं की मां को छोड़ कर पड़ोस की शेष औरतें भी चली गईं.

‘‘पंडितजी ने पूरब दिशा बताई है,’’ बंशी की मां सोचने के अंदाज में बोली.

‘‘पूरब दिशा में रसोईघर और उस से लगा सरजू का घर है.’’ फिर खुद ही पश्चात्ताप करते हुए जगदीश की मां बोलीं, ‘‘राम…राम, बेचारा सरजू तो गऊ है, उस के संबंध में सोचना भी पाप है.’’

‘‘ठीक कहती हो, जग्गी की मां,’’ बंशी की मां बोली, ‘‘उस का पूरा परिवार ही सीधा है. आज तक किसी से लड़ाई-झगड़े की कोई बात सुनाई नहीं पड़ी है.’’

‘‘उस की बड़ी लड़की तो रोज ही समय पूछने आती है. सरजू तहसील में चपरासी है न,’’ फिर पूर्णिमा की तरफ देख कर बोली, ‘‘क्यों, बहू, सरजू की लड़की आई थी क्या?’’

‘‘आई तो थी, मांजी.’’

‘‘लोभ में आ कर शायद झुमका उस ने उठा लिया हो. क्यों जग्गी की मां, तू कहे तो बुला कर पूछूं?’’

‘‘मैं क्या कहूं, जीजी.’’

पूर्णिमा पसोपेश में पड़ गई. उसे लगा कि कहीं कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए. यह तो सरासर उस बेचारी पर शक करना है. वह बात के रुख को बदलने के लिए बोली, ‘‘क्यों, मांजी, रसोईघर में फिर से क्यों न देख लिया जाए,’’ इतना कह कर पूर्णिमा रसोईघर की तरफ बढ़ गई.

दोनों ने उस का अनुसरण किया. तीनों ने मिल कर ढूंढ़ना शुरू किया. अचानक बंशी की मां को एक गड्ढा दिखा, जो संभवत: चूहे का बिल था.

‘‘क्यों, जग्गी की मां, कहीं ऐसा तो नहीं कि चूहे खाने की चीज समझ कर…’’ बोलतेबोलते बंशी की मां छिटक कर दूर जा खड़ी हुई, क्योंकि उसी वक्त पतीली के पीछे छिपा एक चूहा बिल के अंदर समा गया था.

‘‘बात तो सही है, जीजी, चूहों के मारे नाक में दम है. एक बार मेरा ब्लाउज बिल के अंदर पड़ा मिला था. कमबख्तों ने ऐसा कुतरा, जैसे महीनों के भूखे रहे हों,’’ फिर गड्ढे के पास बैठते हुए बोली, ‘‘हाथ डाल कर देखती हूं.’’

‘‘ठहरिए, मांजी,’’ पूर्णिमा ने टोकते हुए कहा, ‘‘मैं अभी टार्च ले कर आती हूं.’’

चूंकि बिल दीवार में फर्श से थोड़ा ही ऊपर था, इसलिए जगदीश की मां ने मुंह को फर्श से लगा दिया. आसानी से देखने के लिए वह फर्श पर लेट सी गईं और बिल के अंदर झांकने का प्रयास करने लगीं.

‘‘अरे जीजी…’’ वह तेज स्वर में बोली, ‘‘कोई चीज अंदर दिख तो रही है. हाथ नहीं पहुंच पाएगा. अरे बहू, कोई लकड़ी तो दे.’’

जगदीश की मां निरंतर बिल में उस चीज को देख रही थी. वह पलकें झपकाना भूल गई थी. फिर वह लकड़ी डाल कर उस चीज को बाहर की तरफ लाने का प्रयास करने लगी. और जब वह चीज निकली तो सभी चौंक पड़े. वह आम का पीला छिलका था, जो सूख कर सख्त हो गया था और कोई दूसरा मौका होता तो हंसी आए बिना न रहती.

बंशी की मां समझाती रही और चलने को तैयार होते हुए बोली, ‘‘अब चलती हूं. मिल जाए तो मुझे खबर कर देना, वरना सारी रात सो नहीं पाऊंगी.’’

बंशी की मां के जाते ही पूर्णिमा फफक-फफक कर रो पड़ी.

‘‘रो मत, बहू, मैं जगदीश को समझा दूंगी.’’

‘‘नहीं, मांजी, आप उन से कुछ मत कहिएगा. मौका आने पर मैं उन्हें सबकुछ बता दूंगी.’’

शाम को जगदीश घर लौटा तो बहुत खुश था. खुशी का कारण जानने के लिए उस की मां ने पूछा, ‘‘क्या बात है, बेटा, आज बहुत खुश हो?’’

‘‘खुशी की बात ही है, मां,’’ जगदीश पूर्णिमा की तरफ देखते हुए बोला, ‘‘पूर्णिमा के बड़े भैया के 4 लड़कियों के बाद लड़का हुआ है.’’ खुशी तो पूर्णिमा को भी हुई, मगर प्रकट करने में वह पूर्णतया असफल रही.

कपड़े बदलने के बाद जगदीश हाथमुंह धोने चला गया और जाते-जाते कह गया, ‘‘पूर्णिमा, मेरी पैंट की जेब में तुम्हारे भैया का पत्र है, पढ़ लेना.’’

पूर्णिमा ने भारी मन लिए पैंट की जेब में हाथ डाल कर पत्र निकाला. पत्र के साथ ही कोई चीज खट से जमीन पर गिर पड़ी. पूर्णिमा ने नीचे देखा तो मुंह से चीख निकल गई. हर्ष से चीखते हुए बोली, ‘‘मांजी, यह रहा मेरा खोया हुआ सोने का झुमका.’’

‘‘सच, मिल गया झुमका,’’ जगदीश की मां ने प्रेमविह्वल हो कर बहू को गले से लगा लिया.

उसी वक्त कमरे में जगदीश आ गया. दिन भर की कहानी सुनतेसुनते वह हंस कर बिस्तर पर लेट गया. और जब कुछ हंसी थमी तो बोला, ‘‘दफ्तर जाते वक्त मुझे कमरे में पड़ा मिला था. मैं पैंट की जेब में रख कर ले गया. सोचा था, लौट कर थोड़ा डाटूंगा. लेकिन यहां तो…’’ और वह पुन: खिलखिला कर हंस पड़ा.

पूर्णिमा भी हंसे बिना न रही.

‘‘बहू, तू जगदीश को खाना खिला. मैं जरा बंशी की मां को खबर कर दूं. बेचारी को रात भर नींद नहीं आएगी,’’ जगदीश की मां लपक कर कमरे से बाहर निकल गई.

लेखक- राज किशोर श्रीवास्तव

Family Drama : ‘मां’ तो ‘मां’ है

Family Drama : बेटा पारुल 3 बजने को है खाना खाया कि नहीं ओह! माँ नही खाया आप चिंता ना करो अभी खा लेती हूँ, ठीक है 15 मिनट में फिर फोन करती हूँ सब काम छोड़ पहले खाना खा. कहने को तो निर्मला जी पारुल की सास हैं पर शादी के बाद उसकी हर इच्छा का ध्यान रखते हुए भरपूर प्यार दिया हर जरूरत का ख्याल रखा फटाफट टिफिन खोल खाना खाने बैठी ताकि माँ को तसल्ली हो जाए, खा-पी 10-15 मिनट आराम करने की सोच किसी को कमरे में ना आने के लिए चपरासी को बोल दिया.

आँख बंद कर बैठी ही थी कि एक साल पुरानी यादों ने आ घेरा, उसकी और साहिल की जोड़ी को जो कोई देखता यही कहता एक-दूसरे के लिए ही बने हैं परस्पर इतना आपसी प्रेम कि शादी के

24 साल बाद भी एक साथ घूमते-फिरते यही कोशिश रहती हर क्षण साथ ही रहें पल भर को भी अलग ना होना पड़े, बेहद प्यार करने वाले दो बेटे अंकुर व नवांकुर कहने का मतलब हंसता-मुस्कुराता सुखी परिवार. किंतु विधाता के मन की कोई नहीं जानता, पिछले साल नए साल की पार्टी का जश्न मना खुशी-खुशी सोए रात को अचानक साहिल की छाती में तेज़ दर्द उठा जब तक पारुल या घरवाले कुछ समझ हॉस्पिटल पहुंचाते तब तक साहिल का साथ छूट चुका था पारुल की दुनिया वीरान हो चुकी थी.

‌सुबह से ही लोगों का आना-जाना शुरू हो गया, साहिल थे ही इतने मिलनसार-ज़िंदादिल कि कोई विश्वास नहीं कर पा रहा था वो अब नहीं है अनंत यात्रा के लिए निकल चुके हैं. पारुल को समझ नहीं आ रहा था या यूं कहलें समझना नहीं चाह रही थी ये क्या हो रहा है? एकाएक जिंदगी में कैसा तूफान आ गया? जिससे सारा घर बिखर गया तहस-नहस हो गया, बच्चों का सास-ससुर का मुँह देख अपने को हिम्मत देने लगती फिर अगले ही पल साहिल की याद संभलने ना देती.

खैर! जाने वाला चला गया, अब तो रीति-रिवाज़ निभाने ही थे तीसरे दिन उठावनी की रस्म हुई
विधि-विधान से सब  होने के बाद निर्मला जी पारुल की तरफ देख बोलीं, जल्दी से अच्छी सी साड़ी पहन तैयार हो जा आज ऑफिस खोलने जाना है. पारुल क्या किसी को भी समझ नहीं आया निर्मला जी कह क्या रही हैं? कुछ देर से फिर बोलीं, जा पारुल तैयार होकर आ तुझे आज से ही साहिल का सपना पूरा करना है जो उसका मोटरपार्ट्स का काम है जिन ऊंचाइयों तक वो ले जाना चाहता था अब तुझे ही पूर्ण करना है, उठ! मेरी बिटिया देर ना कर अपने साहिल की इच्छा पूरी करने का प्रण कर.

‌पारुल जानती-समझती थी माँ जो कुछ भी कहेंगी या करेंगी उसमे कहीं ना कहीं भलाई होगी हित ही छुपा होगा, इसलिये सवाल-जवाब किए बिना तैयार हो शॉप के लिए चल दी साथ में ससुर और दोनों बेटे अंकुर-नवांकुर थे. शॉप खोल काम शुरू करने की रस्म निभाई किंतु घर आकर उसके सब्र का बांध फिर टूट गया, निर्मला जी ने तो अपना दिल पत्थर का बना लिया था क्योंकि उनकी आंखों को पारुल व बच्चों का भविष्य जो दिख रहा था.

निर्मला जी ने अपने पति की ओर देखा फिर दोनों जन पारुल के पास आए, सिर पर हाथ रख ढाढस बांधने लगे. निर्मला जी उसका सिर अपनी गोदी में रख पुचकारते हुए बोलीं, हमारा प्यारा साहिल हमसे बहुत दूर चला गया जीवन का कटु सत्य है अब कभी ना लौटकर आएगा, परंतु यह भी उतना ही कटु सत्य है कि जाने वाले के करीबी या जो पारिवारिक सदस्य होते हैं उनकी बाकी जिंदगी सिर्फ रो-रोकर शोक करते रहने से तो नहीं बीत सकती. जिंदा रहने के लिए खाना-पीना और घरेलू-बाहरी सभी काम करना अत्यंत जरूरी रहता है, यह तो जीवन है बेटा जिसके नियम-कायदे हम इंसानों को मानने ही पड़ते हैं हमारी इच्छा या अनिच्छा मायने नहीं रखती. बेटा अब साहिल तो नहीं है लेकिन तुझसे जुड़े दोनों बच्चे तथा हमारा परिवार है, हम सभी को एक-दूसरे का सहारा बन रहना होगा एक-दूजे के लिए ख़ुशीपूर्वक ज़िंदगानी बितानी होगी.

सबसे अहम बात जीने के लिए आत्मनिर्भर होना पड़ेगा बेटा पारुल जो भी तुझे समझा अथवा कह रही हूँ वो हमेशा अपनी माँ की सीख मान याद रखना, अब से मैं तेरी सासू माँ नहीं माँ हूँ और
माँ तो माँ होती है.

साहिल को गए अभी तीन दिन हुए हैं ऐसे ही 30 दिन फिर 3 महीने और साल दर साल होते जाएंगे, ये नाते-रिश्तों का तू सोच रही हो कि तेरा व तेरे बच्चों का संग-साथ देते रहेंगे तो अभी से इस भ्रम में ना रह, भूल जा कोई साथ देता रहेगा. वो तो जब तक हम माँ-पिता हैं तब तक तुझे किसी तरह की परेशानी ना होने देंगे लेकिन बाद में मेरी बिटिया को किसी पर भी निर्भर ना होना पड़े अभी से इस बारे में सोचना होगा, हम अपने अनुभवों व तज़ुर्बे से बता रहे हैं कोई जीवन में ज्यादा दिन साथ नहीं दे सकता एकाध दिन की बात अलग है. उठ! बेटा पारुल आगे की सोच, जो होना था हो गया हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते अब अपने और बच्चों के भविष्य की सोच बाकी का जीवन कैसे बिताना है ध्यान दे.

माँमाँ यह क्या कह रही हो आप, क्या करूं कैसे करूं? मुझे तो कुछ नहीं आता सब तो साहिल ही संभालते थे, आप सब मेरी चिंता ना करो मेरी जिंदगी कैसे ना कैसे बीत ही जाएगी.

कैसी बात कर रही है? सिर्फ भावनाओं के सहारे नहीं रहा जा सकता, समय के साथ-साथ प्रैक्टिकल होना पड़ता है जिंदगी बसर करने के लिए बहुत कुछ सहना और फिर करना भी पड़ता है. साहिल तो यादों में हम सबके साथ हमेशा रहेगा, अब तेरहवीं की रस्म के बाद ऑफिस जा व साहिल ने जो बिजनेस शुरू किया है उसको किसी के भी भरोसे ना छोड़ते हुए स्वयं के बलबूते आगे बुलंदियों तक ले जा, यह काम तुझे ही पूरा करना है बेटा. अब कुछ और ना सोच, कुछ दिनों बाद तू ऑफिस की जिम्मेदारी संभाल घर और बच्चों को मैं देख लिया करूंगी फिर कह रही हूँ, साहिल की यादों के संग आगे बढ़ अपनी जिंदगी हंसते-मुस्कुराते बच्चों व अपनों के साथ बिता.

किन्तु…पर कैसे माँ मुझे तो बिजनेस का कुछ भी अता-पता नहीं, अकेले नहीं संभाल सकती मैं.

कितनी बार हंसकर ही सही पर साहिल से कहती थी अपने साथ कभी तो मुझे भी ऑफिस ले चला करो जानना-समझना चाहती हूँ तो पता है माँ, साहिल बोला करते थे तू तो घर की रानी बनकर रह किसी बात की चिंता ना कर मैं हूं ना सब संभालने के लिए, अब तुम्हीं बताओ ऐसा कहकर फिर क्यूँ छोड़कर चले गए मुझे अब कैसे संभालूं?

कोई बात नहीं मेरी बच्ची, होनी का किसी को नहीं पता कब क्या हो जाए? कोई नही जानता यहां तक कि अगले पल की खैर-खबर नहीं रहती. तू समझदार हैं पढ़ी-लिखी है इसलिए काम के बारे में जल्दी सीख जाएगी, तेरे पापा को भी थोड़ी बहुत बिज़नेस की जानकारी व समझ है. वैसे तो साहिल अपने पापा को भी ऑफिस ना आने देता था यही कहता रहता था, घर पर रह आराम करो बहुत काम कर लिया किंतु फिर भी कुछेक जानकारी तो है जिससे काफी हद तक तुझे स्वनिर्भर होने में अपना योगदान दे सकेंगे.

हाँ बेटा! तू बिलकुल चिंता मत कर, अभी तेरा पापा जिंदा है नई राह पर हर कदम तेरे साथ है बस! मानसिक तौर पर खुद को मजबूत कर ले ज़रा हिम्मत ना हार, हम सबकी खुशियों का एकमात्र सहारा तू ही है. अंकुर तथा नवांकुर के जीवन की अभी शुरुआत हुई है उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए उन्हें खुशियों की सौगात देने का स्वयं से वादा करते हुए घर-बाहर की जिम्मेदारी निष्ठा से पूर्ण करने का निश्चय कर, तेरे मम्मी-पापा सिर्फ और सिर्फ तेरे संग हैं.

पारुल अब हम दोनों की बात का मान रखते हुए स्वाभिमान के साथ अपने उद्देश्य को हर हाल में पूरा करना, हिम्मत कर एक और बात मन की कहना चाहूँगी, बिटिया यदि जीवन के किसी मोड़ या रास्ते में दूसरा साहिल मिलने लगे तो इधर-उधर की परवाह किए बिना निःसंकोच उसका हाथ थाम लेना, इससे सफर जीवन का आसानी से कट जाएगा समय का ज्यादा मालुम ना पड़ेगा.

माँमाँ…..आगे के शब्द नही मुँह से निकल सके निःशब्द हो चुकी थी पारुल, सिर्फ अपने
माँ-पिताजी तुल्य सास-ससुर को निहार रही थी. तभी मैडम-मैडम की आवाज से पारुल का ध्यान भंग हुआ चेतना में वापिस लौटी, हाँ-हाँ बोलो क्या कहना चाहते हो? वो मीटिंग के लिए आपका सभी इंतज़ार कर रहे हैं बता दें कब शुरू करनी है? ओह! तुम सभी मेंबर्स को जाकर कह दो 10 मिनट से बातचीत करते हैं.

पारुल उठी, एक गिलास पानी पिया और अपनी सासू माँ यानी अपनी माँ को मन ही मन हाथ जोड़ तहे दिल से धन्यवाद दिया, क्योंकि उन्हीं के स्नेहपूर्ण मार्गदर्शन से प्रेरित हो कुछ ही समय में आत्मनिर्भर बन अपना आत्मसम्मान अपनी खुद की पहचान बनाने में कामयाब हो सकी थी.

Stories : छद्म वेश – मधुकर और रंजना की कहानी

Stories :  शाम धुंध में डूब चुकी थी. होटल की ड्यूटी खत्म कर तेजी से केमिस्ट की दुकान पर पहुंची. उसे देखते ही केमिस्ट सैनेटरी पैड को पेक करने लगा. रंजना ने उस से कहा कि इस की जगह मेंस्ट्रुअल कप दे दो. केमिस्ट ने एक पैकेट उस की तरफ बढ़ाया.

मधुकर सोच में पड़ गया कि यह युवक मेंस्ट्रुअल कप क्यों ले रहा है. ऐसा लगता तो नहीं कि शादी हो चुकी हो. शादी के बाद आदमियों की भी चालढाल बदल जाती है.

इस बात से बेखबर रंजना ने पैकेट अपने बैग में डाला और घर की तरफ कदम बढ़ा दिए. बीचबीच में रंजना अपने आजूबाजू देख लेती. सर्दियों की रात सड़क अकसर सुनसान हो जाती है. तभी रंजना को पीछे से पदचाप लगातार सुनाई दे रही थी, पर उस ने पीछे मुड़ कर देखना उचित नहीं समझा. उस ने अपनी चलने की रफ्तार बढ़ा दी. अब उस के पीछे ऐसा लग रहा था कि कई लोग चल रहे थे. दिल की धड़कन बढ़ गई थी. भय से चेहरा पीला पड़ गया था. घर का मोड़ आते ही वह मुड़ गई.

अब रंजना को पदचाप सुनाई नहीं दे रही थी. यह सिलसिला कई दिनों से चल रहा था. यह पदचाप गली के मोड़ पर आते ही गायब हो जाती थी. घर में भी वह किसी से इस बात का जिक्र नहीं कर सकती. नौकरी का बहुत शौक था. घर की माली हालत अच्छी थी. वह तो बस शौकिया नौकरी कर रही थी. स्त्री स्वतंत्रता की पक्षधर थी, पर खुद को छद्म वेश में छुपा कर ही रखती थी. स्त्रीयोचित सजनेसंवरने की जगह वह पुरुष वेशभूषा में रहती. रात में लौटती तो होंठों पर लिपस्टिक और आईब्रो पेंसिल से रेखाएं बना लेती. अंतरंग वस्त्र टाइट कर के पहनती, ताकि स्त्रियोचित उभार दिखाई न दे. इस से रात में जब वह लौटती तो भय नहीं लगता था.

लेकिन कुछ दिनों से पीछा करती पदचापों ने उस के अंदर की स्त्री को सोचने पर मजबूर कर दिया. रंजना ने घर के गेट पर पहुंच कर अपने होंठ पर बनी नकली मूंछें टिशू पेपर से साफ कीं और नौर्मल हो कर घर में मां के साथ भोजन किया और सो गई.

होटल जाते हुए उस ने सोचा कि आज वह जरूर देखेगी कि कौन उस का पीछा करता है. रात में जब रंजना की ड्यूटी खत्म हुई तो बैग उठा कर घर की ओर चल दी. अभी वह कुछ ही दूर चली थी कि पीछे फिर से पदचाप सुनाई दी.

रंजना ने हिम्मत कर के पीछे देखा. घने कोहरे की वजह से उसे कुछ दिखाई नहीं दिया. एक धुंधला सा साया दिखाई दिया. जैसे ही वह पलटी, काले ओवर कोट में एक अनजान पुरुष उस के सामने खड़ा था.

यह देख रंजना को इतनी सर्दी में पसीना आ गया. शरीर कांपने लगा. आज लगा, स्त्री कितना भी पुरुष का छद्म वेश धारण कर ले, शारीरिक तौर पर तो वह स्त्री ही है. फिर भी रंजना ने हिम्मत बटोर कर कहा, ‘‘मेरा रास्ता छोड़ो, मुझे जाने दो.’’

‘‘मैं मधुकर. तुम्हारे होटल के करीब एक आईटी कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर हूं.’’

‘‘तुम इस होटल में काम करते हो. यह तो मैं जानता हूं.’’

‘‘तुम शादीशुदा हो क्या?’’

रंजना ने नहीं में गरदन हिलाई. वह जरूरत से ज्यादा डर गई. उस का बैग हाथ से छूट गया और सारा सामान बिखर गया.

रंजना अपना सामान जल्दीजल्दी समेटने लगी, लेकिन मधुकर के पैरों के पास पड़ा केमिस्ट के यहां से खरीदा मेंस्ट्रुअल कप उस की पोल खोल चुका था. मधुकर ने पैकेट चुपचाप उठा कर उस के हाथ में रख दिया.

‘‘तुम इस छद्म में क्यों रहती हो? मेरी इस बात का जवाब दे दो, मैं रास्ता छोड़ दूंगा.’’

‘‘रात की ड्यूटी होने की वजह से ये सब करना पड़ा. स्त्री होने के नाते हमेशा भय ही बना रहता. इस छद्म वेश में किसी का ध्यान मेरी ओर नहीं गया, लेकिन आप ने कैसे जाना?’’

‘‘रंजना, मैं ने तुम्हें केमिस्ट की दुकान पर पैकेट लेते देख लिया था.’’

‘‘ओह… तो ये बात है.’’

‘‘रंजना चलो, मैं तुम्हें गली तक छोड़ देता हूं.’’

दोनों खामोश साथसाथ चलते हुए गली तक आ गए. मधुकर एक बात का जवाब दो कि तुम ही कुछ दिनों से मेरा पीछा कर रहे हो.

रहस्यमयी लड़के का राज आज पता चल ही गया. हाहाहा… क्या बात है?

चलतेचलते बातोंबातों में मोड़ आ गया. मधुकर रंजना से विदा ले कर चला गया.

रंजना कुछ देर वहीं खड़ी रास्ते को निहारती रही. दिल की तेज होती धड़कनों ने रंजना को आज सुखद एहसास का अनुभव हुआ.

घर पहुंच कर मां को आज हुई घटना के बारे में बताया. मां कुछ चिंतित सी हो गईं.

सुबह एक नया ख्वाब ले कर रंजना की जिंदगी में आई. तैयार हो कर होटल जाते हुए रंजना बहुत खुश थी. मधुकर की याद में सारा दिन खोई  रही. मन भ्रमर की तरह उड़उड़ कर उस के पास चला जाता था.

ड्यूटी खत्म कर रंजना उठने को हुई, तभी एक कस्टमर के आ जाने से बिजी हो गई. घड़ी पर निगाह गई तो 8 बज चुके थे. रंजना बैग उठा कर निकली, तो मधुकर बाहर ही खड़ा था.

‘‘रंजना आज देर कैसे हो गई?’’

‘‘वो क्या है मधुकर, जैसे ही निकलने को हुई, तभी एक कस्टमर आ गया. फौर्मेलिटी पूरी कर के उसे रूम की चाबी सौंप कर ही निकल पाई हूं.’’

रंजना और मधुकर साथसाथ चलते हुए गली के मोड़ पर पहुंच मधुकर ने विदा ली और चला गया.

यह सिलसिला चलते हुए समय तो जैसे पंखों पर सवार हो उड़ता चला जा रहा था. दोनों को मिले कब 3 महीने बीत गए, पता ही नहीं चला. आज मधुकर ने शाम को डेट पर एक रेस्तरां में बुलाया था.

ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी रंजना खुद को पहचान नहीं पा रही थी. मां की साड़ी में लिपटी रंजना मेकअप किए किसी अप्सरा सी लग रही थी. मां ने देखा, तो कान के पीछे काला टीका लगा दिया और मुसकरा दीं.

‘‘मां, मैं अपने दोस्त मधुकर से मिलने जा रही हूं,’’ रंजना ने मां से कहा, तो मां पूछ बैठी, ‘‘क्या यह वही दोस्त है, जो हर रोज तुम्हें गली के मोड़ तक छोड़ कर जाता है?’’

‘‘हां मां ,ये वही हैं.’’

‘‘कभी उसे घर पर भी बुला लो. हम भी मिल लेंगे तुम्हारे दोस्त से.’’‘‘हां मां, मैं जल्दी ही मिलवाती हूं आप से,’’ कंधे पर बैग झुलाती हुई रंजना निकल पड़ी.

गली के नुक्कड पर मधुकर बाइक पर बैठा उस का इंतजार कर रहा था.

बाइक पर सवार हो रैस्टोरैंट पहुंच गए. मधुकर ने रैस्टोरैंट में टेबल पहले ही से बुक करा रखी थी.

रैस्टोरैंट में अंदर जा कर देखा तो कौर्नर टेबल पर सुंदर सा हार्ट शेप बैलून रैड रोज का गुलदस्ता मौजूद था.

‘‘मधुकर, तुम ने तो मुझे बड़ा वाला सरप्राइज दे दिया आज. मुझे तो बिलकुल भी याद नहीं था कि आज वैलेंटाइन डे है. नाइस अरैंजमैंट मधुकर…

‘‘आज की शाम तुम ने यादगार बना दी…’’

‘‘रंजना बैठो तो सही, खड़ीखड़ी मेरे बारे में कसीदे पढ़े जा रही हो, मुझे भी तो इजहारेहाल कहने दो…’’ मुसकराते हुए मधुकर ने कहा.

‘‘नोटी बौय… कहो, क्या कहना है?’’ हंसते हुए रंजना बोली.

मधुकर ने घुटनों के बल बैठ रंजना का हाथ थाम कर चूम लिया और दिल के आकार की हीरे की रिंग रंजना की उंगली में पहना दी.

‘‘अरे वाह… रिंग तो  बहुत सुंदर है,’’ अंगूठी देख रंजना ने कहा.

डिनर के बाद रंजना और मधुकर बाइक पर सवार हो घर की ओर चले जा रहे थे, सामने से एक बाइक पर 2 लड़के मुंह पर कपड़ा बांधे उन की बाइक के सामने आ गए. मधुकर को ब्रेक लगा कर अपनी बाइक रोकनी पड़ी.

लड़कों ने फब्तियां कसनी शुरू कर दीं और मोटरसाइकिल को उन की बाइक के चारों तरफ घुमाने लगे. उस समय सड़क भी सुनसान थी. वहां कोई मदद के लिए नहीं था. रंजना को अचानक अपनी लिपिस्टिक गन का खयाल आया. उस ने धीरे से बैग में हाथ डाला और गन चला दी.

गन के चलते ही नजदीक के थाने  में ब्लूटूथ के जरीए खबर मिल गई. थानेदार 5 सिपाहियों को ले कर निकल पड़े. कुछ ही देर में पुलिस के सायरन की आवाज सुनाई देने लगी.

लड़कों ने तुरतफुरत बैग छीनने की कोशिश की. मधुकर ने एक लड़के के गाल पर जोरदार चांटा जड़ दिया. इस छीनाझपटी में रंजना का हाथ छिल गया, खून रिसने लगा.

बैग कस कर पकड़े होने की वजह से बच गया.

सामने से पुलिस की गाड़ी  आती देख लड़के दूसरी दिशा में अपनी बाइक घुमा कर भाग निकलने की कोशिश करें, उस से पहले थानेदार ने उन्हें धरदबोचा और पकड़ कर गाड़ी में बैठा लिया.

थानेदार ने एक सिपाही को आदेश दिया कि इस लड़के की बाइक आप चला कर इस के घर पहुंचा दें. इस लड़के और लड़की को हम जीप से इन के घर छोड़ देते हैं.

रंजना और मधुकर जीप में सवार हो गए.

‘‘आप का क्या नाम है?’’ थानेदार ने अपना सवाल रंजना से किया.

‘‘मेरा नाम रंजना है. मैं एक होटल में रिसेप्शनिस्ट हूं. ये मेरे दोस्त मधुकर हैं. ये आईटी कंपनी में इंजीनियर के पद पर हैं.’’

‘‘रंजना, आप बहुत ही बहादुर हैं. आप ने सही समय पर अपनी लिपिस्टिक गन का इस्तेमाल किया है.’’

‘‘सर, रंजना वाकई बहुत हिम्मत वाली है.’’

थानेदार ने मधुकर से पूछा, ‘‘तुम भी अपने घर का पता बताओ.’’

‘‘सर, त्रिवेणी आवास विकास में डी 22 नंबर मकान है. उस से पहले ही मोड़ पर रंजना का घर है.’’

‘‘ओके मधुकर, वह तो पास ही में है.’’

पुलिस की जीप रंजना के घर के सामने रुकी.

पुलिस की गाड़ी देख रंजना की मां घबरा गईं और रंजना के पापा को आवाज लगाई, ‘‘जल्दी आइए, रंजना पुलिस की गाड़ी से आई है.’’

रंजना के पापा तेजी से बाहर की ओर लपके. बेटी को सकुशल देख उन की जान में जान आई.

थानेदार जोगिंदर सिंह ने सारी बात रंजना के पापा को बताई और मधुकर को भी सकुशल घर पहुंचाने के लिए कहा.

थानेदार जोगिंदर सिंह मधुकर को अपने साथ ले कर जीप में आ बैठे, ‘‘चल भई जवान तुझे भी घर पहुंचा दूं, तभी चैन की सांस लूंगा.’’

मधुकर को घर के सामने छोड़ थानेदार जोगिंदर सिंह वापस थाने चले गए.

मधुकर ने घर के अंदर आ कर इस बात की चर्चा मम्मीपापा के साथ खाना खाते हुए डाइनिंग टेबल पर विस्तार से बताई.

मधुकर के पापा का कहना था कि बेटा, तुम ने जो भी किया उचित था. रंजना की समझदारी से तुम दोनों सकुशल घर आ गए. मधुकर रंजना जैसी लड़की तो वाकई बहू बनानेलायक है. मम्मी ने भी हां में हां मिलाई.

‘‘मधुकर, खाना खा कर रंजना को फोन कर लेना.’’ मां ने कहा.

‘‘जी मम्मी.’’

मधुकर ने खाना खाने के बाद वाशबेसिन पर हाथ धोए और वहां लटके तौलिए से हाथ पोंछ कर सीधा अपने कमरे की बालकनी में आ कर रंजना को फोन मिलाया. रिंग जा रही थी, पर फोन रिसीव नहीं किया.

मधुकर ने दोबारा फोन मिलाया ट्रिन… ट्रिन. उधर से आवाज आई, ‘‘हैलो, मैं रंजना की मम्मी बोल रही हूं…’’

‘‘जी, मैं… मैं मधुकर बोल रहा हूं. रंजना कैसी है?’’

‘‘बेटा, रंजना पहली बार साड़ी पहन कर एक स्त्री के रूप में तैयार हो कर गई थी और ये घटना घट गई. यह घटना उसे अंदर तक झकझोर गई है. मैं रंजना को फोन देती हूं. तुम ही बात कर लो.’’

‘‘रंजना, मैं मधुकर.‘‘

‘‘क्या हुआ रंजना? तुम ठीक तो हो ? तुम बोल क्यों नहीं रही हो?’’

‘‘मधुकर, मेरी ही गलती है कि मुझे इतना सजधज कर साड़ी पहन कर जाना ही नहीं चाहिए था.’’

‘‘देखो रंजना, एक न एक दिन तुम्हें इस रूप में आना ही था. घटनाएं तो जीवन में घटित होती रहती हैं. उन्हें कपड़ों से नहीं जोड़ा जा सकता है. संसार में सभी स्त्रियां स्त्रीयोचित परिधान में ही रहती हैं. पुरुष के छद्म वेश में कोई नहीं रहतीं. तुम तो जमाने से टक्कर लेने के लिए सक्षम हो… इसलिए संशय त्याग कर खुश रहो.’’

‘‘मधुकर, तुम ठीक कह रहे हो. मैं ही गलत सोच रही थी.’’

‘‘रंजना, मैं तुम्हें हमेशा के लिए अपना बनाना चाहता हूं.’’

‘‘लव यू… मधुकर.’’

‘‘लव यू टू रंजना… रात ज्यादा हो गई है. तुम आराम करो. कल मिलते हैं… गुड नाइट.’’

सुबह मधुकर घर से औफिस जाने के लिए निकल ही रहा था कि मम्मी की आवाज आई, ‘‘मधुकर सुनो, रंजना के घर चले  जाना. और हो सके तो शाम को मिलाने के लिए उसे घर ले आना.’’

‘‘ठीक है मम्मी, मैं चलता हूं,’’ मधुकर ने बाइक स्टार्ट की और निकल गया रंजना से मिलने.

रंजना के घर के आगे मधुकर बाइक पार्क कर ही रहा था कि सामने से रंजना आती दिखाई दी. साथ में उस की मां भी थी. रंजना के हाथ में पट्टी बंधी थी.

‘‘अरे रंजना, तुम्हें तो आराम करना चाहिए था.’’

‘‘मधुकर, मां के बढ़ावा देने पर लगा कि बुजदिल बन कर घर में पड़े रहने से तो अपना काम करना बेहतर है.’’

‘‘बहुत बढ़िया… गुड गर्ल.’’

‘‘आओ चलें. बैठो, तुम्हें होटल छोड़ देता हूं.’’

‘‘रंजना, मेरी मां तुम्हें याद कर रही थीं. वे कह रही थीं कि रंजना को शाम को घर लेते लाना… क्या तुम चलोगी मां से मिलने?’’

‘‘जरूर चलूंगी आंटी से मिलने. शाम 6 बजे तुम मुझे होटल से पिक कर लेना.’’

‘‘ओके रंजना, चलो तुम्हारी मंजिल आ गई.’’

बाइक से उतर कर रंजना ने मधुकर को बायबाय किया और होटल की सीढ़ियां चढ़ कर अंदर चली गई.

मधुकर बेचैनी से शाम का इंतजार कर रहा था. आज रंजना को मां से मिलवाना था.

मधुकर बारबार घड़ी की सूइयों को देख रहा था, जैसे ही घड़ी में 6 बजे वह उठ कर चल दिया, रंजना को पिक करने के लिए.

औफिस से निकल कर मधुकर होटल पहुंच कर बाइक पर बैठ कर इंतजार करने लगा. उसे एकएक पल भारी लग रहा था.

रंजना के आते ही सारी झुंझलाहट गायब हो गई और होंठों पर मुसकराहट तैर गई.

बाइक पर सवार हो कर दोनों मधुकर के घर पहुंच गए.

मधुकर ने रंजना को ड्राइंगरूम में बिठा कर कर मां को देखने अंदर गया. मां रसोई में आलू की कचौड़ी बना रही थीं.

‘‘मां, देखो कौन आया है आप से मिलने…’’ मां कावेरी जल्दीजल्दी हाथ पोछती हुई ड्राइंगरूम में पहुंचीं.

‘‘मां, ये रंजना है.’’

‘‘नमस्ते आंटीजी.’’

‘‘नमस्ते, कैसी हो  रंजना.’’

‘‘जी, मैं ठीक हूं.’’

मां कावेरी रंजना को ही निहारे जा रही थीं. सुंदर तीखे नाकनक्श की रंजना ने उन्हें इस कदर प्रभावित कर लिया था कि मन ही मन वे भावी पुत्रवधू के रूप में रंजना को देख रही थीं.

‘‘मां, तुम अपने हाथ की बनी गरमागरम कचौड़ियां नहीं खिलाओगी. मुझे तो बहुत भूख लगी है.’’

मां कावेरी वर्तमान में लौर्ट आई और बेटे की बात पर मुसकरा पड़ीं और उठ कर रसोई से प्लेट में कचौड़ी और चटनी रंजना के सामने रख कर खाने का आग्रह किया.

रंजना प्लेट उठा कर कचौड़ी खाने लगी. कचौड़ी वाकई बहुत स्वादिष्ठ बनी थी.

‘‘आंटी, कचौड़ी बहुत स्वादिष्ठ बनी हैं,’’ रंजना ने मां की तारीफ करते हुए कहा.

मधुकर खातेखाते बीच में बोल पड़ा, ‘‘रंजना, मां के हाथ में जादू है. वे खाना बहुत ही स्वादिष्ठ बनाती हैं.’’

‘‘धत… अब इतनी भी तारीफ मत कर मधुकर.’’

नाश्ता खत्म कर रंजना ने घड़ी की तरफ देखा तो 7 बजने वाले थे. रंजना उठ कर जाने के लिए खड़ी हुई.

‘‘मधुकर बेटा, रंजना को उस के घर तक पहुंचा आओ.’’

‘‘ठीक है मां, मैं अभी आया.’’

मां कावेरी ने सहज, सरल सी लड़की को अपने घर की शोभा बनाने की ठान ली. उन्होंने मन ही मन तय किया कि कल रंजना के घर जा कर उस के मांबाप से उस का हाथ मांग लेंगी. इस के बारे में मधुकर के पापा की भी सहमति मिल गई.

सुबह ही कावेरी ने अपने आने की सूचना रंजना की मम्मी को दे दी थी.

शाम के समय कावेरी और उन के पति के आने पर रंजना की मां ने उन्हें आदरपूर्वक ड्राइंगरूम में बिठाया.

‘‘रंजना के पापा आइए, यहां आइए, देखिए मधुकर के मम्मीपापा आ गए  हैं.’’

रंजना और मधुकर के पापा के बीच राजनीतिक उठापटक के बारे में बातें करने के साथ ही कौफी की चुसकी लेते हुए इधरउधर की बातें भी हुईं.

रंजना की मम्मी मधुकर की मां कावेरी के साथ बाहर लौन में झूले पर बैठ प्रकृति का आनंद लेते हुए कौफी पी रही थीं.

मधुकर की मां कावेरी बोलीं, ‘‘शारदाजी, मैं रंजना का हाथ अपने बेटे के लिए मांग रही हूं. आप ना मत कीजिएगा.’’

‘‘कावेरीजी, आप ने तो मेरे मन की बात कह दी. मैं भी यही सोच रही थी,’’ कहते हुए रंजना की मां शारदाजी मधुकर की मां कावेरी के गले लग गईं.

‘‘कावेरीजी चलिए, इस खुशखबरी को अंदर चल कर सब के साथ सैलिब्रेट करते हैं.’’

शारदा और कावेरी ने हंसते हुए ड्राइंगरूम में प्रवेश किया तो दोनों ने चौंक कर देखा.

‘‘क्या बात है, आप लोग किस बात पर इतना हंस रही हैं?’’ रंजना के पिता महेश बोले.

‘‘महेशजी, बात ही कुछ ऐसी है. कावेरीजी ने आप को  समधी के रूप में पसंद कर लिया है.’’

‘‘क्या… कहा… समधी… एक बार फिर से कहना?’’

‘‘हां… हां… समधी. कुछ समझे.’’

‘‘ओह… अब समझ आया आप लोगों के खिलखिलाने का राज.’’

‘‘अरे, पहले बच्चों से तो पूछ कर रजामंदी ले लो,’’ मधुकर के पाप हरीश ने मुसकरा कर कहा.

रंजना के पापा महेश सामने से बच्चों को आता देख बोले, ‘‘लो, इन का नाम लिया और ये लोग हाजिर. बहुत लंबी उम्र है इन दोनों की.’’

मधुकर ने आते ही मां से चलने के लिए कहा.

‘‘बेटा, हमें तुम से कुछ बात करनी है.”

“कहिए मां, क्या कहना चाहती हैं?’’

‘‘मधुकर, रंजना को हम ने तुम्हारे लिए मांग लिया है. तुम बताओ, तुम्हारी क्या मरजी है.’’

‘‘मां, मुझे कोई ओब्जैक्शन नहीं है. रंजना से भी पूछ लो कि वे क्या चाहती हैं?’’

मां कावेरी ने रंजना से पूछा, ‘‘क्या तुम मेरी बेटी बन कर मेरे घर आओगी.’’

रंजना ने शरमा कर गरदन झुकाए हुए हां कह दी.

यह देख रंजना के पापा महेशजी चहक उठे. अब तो कावेरीजी आप मेरी समधिन हुईं.

ऐसा सुन सभी एकसाथ हंस पड़े. तभी रंजना की मां शारदा मिठाई के साथ हाजिर हो गईं.

‘‘लीजिए कावेरीजी, पहले मिठाई खाइए,’’ और झट से एक पीस मिठाई का कावेरी के मुंह में खिला दिया.

कावेरी ने भी शारदा को मिठाई खिलाई. प्लेट हरीशजी की ओर बढ़ा दी. मधुकर ने रंजना को देखा, तो उस का चेहरा सुर्ख गुलाब सा लाल हो गया था. रंजना एक नजर मधुकर पर डाल झट से अंदर भाग गई.

‘‘शारदाजी, एक अच्छा सा सुविधाजनक दिन देख शादी की तैयारी कीजिए. चलने से पहले जरा आप रंजना को बुलाइए,’’ मधुकर की मां कावेरी ने कहा.

रंजना की मां शारदा उठीं और अंदर जा कर रंजना को बुला लाईं. कावेरी ने अपने हाथ से कंगन उतार कर रंजना को पहना दिए.

रंजना ने झुक कर उन के पैर छुए.

हरीश और कावेरी मधुकर के साथ शारदाजी और महेशजी से विदा ले कर घर आ गए.

2 महीने बाद शारदाजी के घर से आज शहनाई के स्वर गूंज रहे थे. रंजना दुलहन के रूप में सजी आईने के सामने बैठी खुद को पहचान नहीं पा रही थी. छद्म वेश हमेशा के लिए उतर चुका था.

‘‘सुनो रंजना दी…’’ रंजना की कजिन ने आवाज लगाई, ‘‘बरात आ गई…’’

रंजना मानो सपने से हकीकत में आ गई. रंजना के पैर शादी के मंडप की ओर बढ़ गए.

लेखक – अर्विना

Best Stories : बेरंग – अंधविश्वास पर भरोसा करती सजल की कहानी

Best Stories : मेरा गला सूख रहा था. मैं ने अपने छोटे भाई को आवाज दी लेकिन कोई जवाब न पा कर मैं समझ गई कि सोनू सो चुका है. उसे न जगा कर मैं ने स्वयं ही पानी ढूंढ़ने की कोशिश की थी, उस रात पानी तो नहीं मिला लेकिन ‘ठक’ की तेज आवाज हुई. ‘‘दीदी, आप ठीक हो न,’’ सोनू की घबराई आवाज सुन कर मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई. आखिर जगा ही दिया न मैं ने. ‘‘पूरा गिलास पानी पी लिया आप ने. इतनी प्यास थी फिर भी मुझे नहीं उठाया.

दीदी, मैं यहां आप का ध्यान रखने आता हूं. प्लीज, मेरी नींद का मत सोचा करो.’’ सोनू की मीठी सी हक भरी झिड़की सुनना मुझे अच्छा लग रहा था. ‘अब तो शायद जिंदगी भर केवल सुनना ही सुनना हो,’ मैं बुदबुदाई थी. अजीब सी हालत थी उस वक्त दिल की. कल क्या होगा यही सोचसोच कर मेरे पूरे शरीर में सिहरन सी दौड़ रही थी. रात के 3 बज रहे थे लेकिन नींद नहीं आ रही थी. रहरह कर श्रुति की याद आ रही थी. श्रुति, क्या अपनी आंखों से अब उस को कभी नहीं देख पाऊंगी? श्रुति मेरी स्कूल के समय की सहेली, मुझे अपनी जान से भी ज्यादा प्यारी थी.

लेकिन आज लग रहा है कि अपनों से कहीं ज्यादा प्यार श्रुति मुझे करती थी. कुदरत का यह कैसा नियम है कि इनसान को जब नींद नहीं आती तो वह अपने अतीत को ही बारबार याद करता रहता है. मैं ने सोचा, चलो यह भी अच्छा है, कम से कम समय तो आसानी से कट जाएगा, वरना पिछले 18 दिन तो पहाड़ जैसे कटे थे. क्या करती मैं उन 18 दिनों में? चुपचाप लेटे रहने के अलावा मेरे पास और चारा भी क्या था. सारा शरीर, यहां तक कि मेरी आत्मा भी घायल हो चुकी थी.

कुछ भी करने लायक नहीं थी उस समय. एक गिलास पानी तक के लिए तो मैं दूसरों पर निर्भर थी. लेकिन हां, मेरी सोच पर तो मेरा बस था. मैं एक उच्च मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुई. मम्मी और पापा मुझे और छोटे भाई को बहुत प्यार करते हैं. बूआ, जो भरी जवानी में ही विधवा हो गई थीं, अपनी कोई औलाद न होने का दर्द, वह मुझे भरपूर प्यार दे कर दूर करती हैं. बूआ, पापा से उम्र में काफी बड़ी हैं. मैं इसलिए भी बूआ के बहुत करीब रही हूं क्योंकि उन की बातें मुझे बहुत अच्छी लगती थीं.

यह सच है कि बच्चे की जिस तरह परवरिश होती है वैसा ही वह बन जाता है. मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. बूआ बहुत कम पढ़ीलिखी थीं. अंधविश्वासी भी बहुत थीं. बस, मुझ पर भी उन का अंधविश्वास हावी होता चला गया. बूआ का मानना था कि लड़की के लिए जो काम हैं वह हैं, सुंदर लगना, सजधज कर बैठना, पति की सेवा करना और बच्चे पालना. और भी जाने कितनी ही ऐसी बातें थीं जो बूआ ने मुझे बचपन में बताईं और मैं उन की सब बातें ग्रहण करती चली गई.

मैं स्कूल से लौटती तो बूआ को बताती, ‘बूआ, पता है आज वह सायरा मेरे साथ बैठी थी. वही काली सी.’ तब बूआ कहतीं, ‘अरे, हम ब्राह्मण लोग हैं, तू टीचर से नहीं कह सकती थी कि उस मलेच्छ के साथ न बैठाएं. एक तो काली, ऊपर से जाति की नीच.’ फिर बूआ मुझ पर गंगाजल छिड़कतीं और अच्छी तरह नहलातीं. श्रुति से मेरी मुलाकात छठी क क्षा में हुई थी. यों तो कक्षा में और भी लड़कियां थीं पर श्रुति सुंदर थी, शायद यही पहली खूबी थी जिस वजह से मैं ने उस की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया था. पहली बार श्रुति मेरे साथ घर आई थी तो मैं बोली थी, ‘बूआ, यह श्रुति है.

पढ़ने में बहुत तेज है.’ बूआ को पढ़ाईलिखाई से क्या लेनादेना था. वह बोलीं, ‘संजू, तेरी सहेली तो बहुत सुंदर और गोरी है.’ 12वीं कक्षा अच्छे नंबरों से पास कर के मैं ने कालिज में दाखिला लिया. श्रुति भी उसी कालिज में थी. हम ने सोचा हुआ था कि कभी भी अलग नहीं होंगे. समय के साथ हमारी दोस्ती बहुत मजबूत हो गई थी.

मैं कालिज में ‘ब्यूटी क्वीन’ क्या बनी कि सब मुझे ‘क्वीनी’ कह कर पुकारने लगे. बस, श्रुति ही मुझे ‘सजल’ कह कर पुकारती थी. सजल, तू क्या ले रही है, एन.सी.सी या एन.एस.एस. हमें इन दोनों में से किसी एक को चुनना था. मैं ने एन.सी.सी (नेशनल कैडेट कोर) ही चुना क्योंकि उस में कालिज के बाहर स्टेडियम आदि में ले जाया जाता था. लेकिन श्रुति ने एन.एस.एस (नेशनल सोशल सर्विस) लिया. उस के तहत उस ने ब्लाइंड स्टूडेंट प्रोजेक्ट लिया. उस का काम था खाली पीरियड में नेत्रहीन लड़कियों को पढ़ाना.

एक दिन उस ने मुझे कुछ बताया तो मैं खीज कर बोली थी, ‘देख श्रुति, तू उन्हें पढ़ाती है यह भलाई का काम है. लेकिन ये ‘डोनर कार्ड’ का क्या चक्कर डाल दिया है तू ने.’ ‘सजल, इन नेत्रहीन लड़कियों की तकलीफें देख कर मन बहुत भर आता है. इन से हम कुछ भी बात कर सकते हैं, लेकिन जानती है, मैं पूरापूरा ध्यान रखती हूं कि ‘देखो’ जैसे शब्द इन के आगे न बोलूं.’ ‘हां, श्रुति, मुझे भी इन्हें देख कर बहुत तरस आता है.’ ‘नहीं, सजल, इन के बारे में गलत धारणा बना बैठी है. ये दया के पात्र नहीं हैं.

बस, इन्हें हमारी मदद की थोड़ी जरूरत होती है, जो हम दे सकते हैं. ये लड़कियां बहुत मेहनती हैं. जानती है, हमें तो बने बनाए नोट्स गाइड के रूप में दुकानों पर मिल जाते हैं लेकिन ये लोग सारे उत्तर पहले बे्रल की मदद से लिखते हैं फिर उन्हें याद करते हैं.’ ‘तू डोनर कार्ड क्यों भर रही है?

मैं जानती हूं कि किसी के मरने के बाद उस की आंखें कुछ घंटों के भीतर दान करनी होती हैं. बस, ऐसा सोच कर ही तब मेरा मन दुखी हो गया था.’ श्रुति हंस पड़ी थी, ‘सजल, मरना तो सभी को है एक दिन. जीतेजी तो चल, हम अच्छे काम करते हैं और सब के काम आते हैं. लेकिन सोच, मरने के बाद भी अगर हम किसी के काम आएं तो मेरे खयाल में यह एक बहुत अच्छा काम है.’ ‘तुझे नहीं लगता कि ये डोनर कार्ड हर वक्त मौत का एहसास दिलाता रहेगा.?’ श्रुति कुछ बोली नहीं तो मैं गुस्से से वहां से चल पड़ी.

‘सुन, सजल, मेरी मान और तू भी कार्ड भर दे,’ वह हंसी तो मैं भुनभुनाती हुई वहां से चली आई. घर पहुंच कर बूआ को बताया तो वह हैरान थीं कि मेरी सहेली ऐसा कह सकती है. ‘इस में बुराई क्या है, दीदी?’ मम्मी के यह कहते ही बूआ भड़क उठी थीं, ‘बुराई की बात कर रही है, सुदेश? जानती भी है, अगर मौत के बाद कोई अंग निकल जाए तो अगले जन्म में उस अंग के बगैर जन्म होता है.’ बूआ की बात पर हमेशा की तरह मम्मी ने सिर हिलाया और चली गई थीं.

वैसे भी मम्मी की बूआ के आगे नहीं चलती थी. लेकिन बूआ के मुंह से पुनर्जन्म में अंगहीन होने की बात सुन कर मैं भयभीत हो गई थी. उम्र ही क्या थी मेरी, 18 साल. कालिज का पहला साल ही तो था. इस के बाद मैं ने श्रुति को बहुत समझाने की कोशिश की थी लेकिन वह टस से मस नहीं हुई थी और उस ने ‘डोनर कार्ड’ भर कर ही दम लिया था. श्रुति ने कालिज के पहले और दूसरे साल में 260 घंटे पढ़ाया था. वह अपनेआप में एक रिकार्ड था. मुझे एन.सी.सी. में कोई सर्टिफिकेट नहीं मिला था.

दरअसल परेड आदि से मेरी गोरी त्वचा झुलस जाती. बूआ ने जब मेरा रंग सांवला होते देखा तो मुझे परेड आदि में जाने से रोकने लगीं. मन से मैं भी यही चाहती थी. एक दिन श्रुति कालिज आई तो उसे देख कर मुझे हंसी आ गई. फिर 3 दिन बाद मैं उसे एक दुकान पर ले गई. ‘यह कहां ले आई मुझे?’ श्रुति ने हैरानी से पूछा. दुकान पर लगे बोर्ड की तरफ इशारा करते हुए मैं बोली, ‘पढ़, कहां खड़े हैं?’ वह कांटेक्ट लैंस की दुकान थी. दरअसल श्रुति को चश्मा लग गया था और मुझे उस का चश्मा लगाना पसंद नहीं आ रहा था.

मेरी बहुत जिद करने पर भी श्रुति लैंस लगवाने के लिए राजी नहीं हुई. तब मैं ने गुस्से में आ कर उस से बोलना बंद कर दिया. आखिर एक दिन उस ने हार मान अपने लिए लैंस बनवा लिए. मैं जानती थी वह मुझ से बात किए बगैर नहीं रह सकती थी.

तीसरे साल भी उस ने ब्लाइंड स्टूडेंट प्रोजेक्ट जारी रखा था. श्रुति कार चलाना सीख रही थी. जब वह अच्छी तरह सीख गई तब मैं यदाकदा उस के साथ कालिज आनेजाने लगी. एक दिन श्रुति घर आई हुई थी. बातोंबातों में पापा ने उसे बताया कि उन के एक दोस्त की बेटी की शादी है. वह तो आफिस से सीधे चले जाएंगे लेकिन हम सब को भी पहुंचना था.

अब समस्या यह थी कि शादी शहर से बाहर थी और टैक्सी से जाने के लिए बूआ तैयार नहीं थीं. तब श्रुति ने हम को सपरिवार छोड़ने की बात पापा से कही थी. उस दिन श्रुति दोपहर को ही हमारे घर आ गई थी पर वह कुछ थकीथकी सी लग रही थी. उस की आंखें भी सूजी हुई थीं, सो वह देर शाम तक सोती रही. जब मैं ने उसे जगाया और बताया कि उठ, अंधेरा होने लगा है तो वह हड़बड़ा कर उठी और जल्दील्दी तैयार होने लगी. तैयार होते समय श्रुति ने अपना बैग मुझे पकड़ा दिया था, जिसे मैं ने अपने पलंग पर रख दिया.

मैं, मम्मी व बूआ के साथ बाहर आई तो देखा श्रुति कार की पिछली सीट पर पड़े सामान को हटा रही थी. मैं श्रुति के साथ आगे बैठ गई. मम्मी, बूआ और सोनू पीछे बैठे हुए थे. कुछ देर बाद श्रुति ने मुझ से अपना बैग मांगा. ‘सौरी श्रुति, वह तो शायद घर पर ही रह गया.’ ‘सजल, मैं ने कहा था न कि बैग को कार में रख दो.’ ‘श्रुति बेटे, अगर बहुत जरूरी है तो अभी बहुत आगे नहीं आए हैं, वापस चलते हैं,’ मम्मी ने कहा तो बूआ भड़क गईं. ‘सुदेश, ऐसे आधे रास्ते मुड़ना बहुत बड़ा अपशकुन होता है,’ बूआजी लगातार बोले जा रही थीं. मम्मी का उतरा चेहरा श्रुति ने शीशे में देख लिया था.

वह शांत भाव से मम्मी से बोली, ‘नहीं, आंटी, ठीक है, वापसी में ले लूंगी.’ अभी हम रास्ते में ही थे कि पापा का मोबाइल पर फोन आ गया. बूआ ने उन से बात की. ‘श्रुति तेज चला न, क्या बैलगाड़ी चला रही है. आनंद हैरान हो रहा है कि हम अभी तक नहीं पहुंचे हैं.’ ‘जी बूआ,’ श्रुति तेज गाड़ी चलाने लगी. कार की रफ्तार अच्छीखासी थी पर बूआ को कुछ न कुछ कहना था सो बोलीं, ‘कल तक तो पहुंच ही जाएंगे न श्रुति, गाड़ी चलानी तो आती है न?’ बूआ का यों बोलना सोनू को अच्छा नहीं लगा.

सो वह बूआ को चुप होने के लिए बोलने लगा. बस, बूआ भड़क गईं. इधर मम्मी दोनों का बीचबचाव करने लगीं. तभी मैं चिल्लाई, ‘श्रुति, देख सामने….’ और फिर तेज धमाका हुआ, दर्द की लहर पूरे शरीर में फैल गई और फिर चारों ओर अंधेरा छा गया. मेरे पूरे बदन में दर्द हो रहा था. सिर में भी भारीपन महसूस हो रहा था. हाथ उठाने की कोशिश की तो उठा नहीं. आंखें खोलनी चाहीं तो खुलीं नहीं. अचानक मुझे याद आया कि हमारा तो एक्सीडेंट हुआ है. मैं जोर से चिल्लाई. ‘सोनू, सोनू, मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा, मेरा हाथ नहीं उठ रहा?’ मैं हांफने लगी थी.

फिर ध्यान आया कि सोनू भी तो पीछे ही बैठा था. पूछा, ‘हम कहां हैं सोनू, हमारी तो ट्रक से टक्कर हुई थी न? क्या हम अभी भी कार में ही हैं और तू ठीक है न?’ उस के हां कहने पर मुझे कुछ तसल्ली हुई. फिर मैं ने बाकी का पूछा. अचानक एक आवाज आई, ‘सिस्टर, इन्हें इंजेक्शन लगा दिया?’ ‘यह आवाज किस की थी, सोनू? कोई सिस्टर कह रहा था. हम कहां हैं?’ ‘दीदी,’ सोनू ने धीरे से कहा, ‘हम अस्पताल में हैं.’ ‘और मम्मी, बूआ और श्रुति?’ ‘वे सब अलगअलग कमरों में हैं.’

तभी माथे पर स्पर्श महसूस हुआ, ‘सजल, कैसी हो बेटा.’ ‘पापा, मैं ठीक नहीं हूं. मुझे बहुत दर्द हो रहा है. मैं आप को नहीं देख सकती. पापा, मुझे क्या हुआ है?’ मैं तेजतेज चिल्लाने लगी. तब 2 हाथों ने मुझे तेजी से पकड़ा और बांह पर इंजेक्शन लगाने का दर्द महसूस हुआ. इस के बाद मेरा दिमाग सुन्न हो गया. फिर ऐसे ही कई दिनों तक चलता रहा.

मैं अपनी आंखों के बारे में पूछती तो कोई संतोषजनक जवाब न मिलता. मेरी दुनिया तो केवल पीड़ा व आवाजों तक ही सीमित रह गई थी. कौन आ रहा है, जा रहा है, मुझे कुछ भी नहीं पता होता. बस, कदमों की आहट बता देती कि कोई है मेरे आसपास. कुछ दिनों बाद मम्मी मिलने आईं. मेरी आंखों पर बंधी पट्टी को धीरे से उन्होंने छुआ था. उन के कांपते हाथ उन की कमजोरी और दुख बता रहे थे. फिर 12 दिनों बाद बूआ भी मिलने आईं.

खिड़की के पास बैठे होने की वजह से शीशे के टुकड़े उन की कनपटी में घुस गए थे. वह मुझ से मिलते ही रोने लगी थीं. ‘दीदी, सजल ठीक है.’ मम्मी इतना ही बोल पाई थीं, ‘सोनू, बूआ को ले जाओ.’ ‘मम्मी, श्रुति कैसी है? वह अभी तक मिलने नहीं आई मुझ से.’ ‘जैसे तुम्हें बहुत चोटें आई हैं वैसे ही श्रुति को भी बहुत चोटें लगी थीं. बस, ठीक होते ही वह अवश्य आएगी,’ मम्मी का कांपता स्वर गूंजा था. इस के बाद मैं प्रतीक्षा कर रही थी उस दिन की, जब मेरी आंखों से पट्टी हटनी थी.

मम्मीपापा ने मुझे धीरेधीरे बताया था कि मैं 4 दिनों तक बेहोश रही थी. सामने से तेजी से आते ट्रक को श्रुति देख न सकी की. जब देखा तब तक संभलना बहुत मुश्किल था. हमारी और ट्रक की बहुत तेज टक्कर हुई थी. हमें अस्पताल में 3 घंटे लग गए थे. कांच के बारीक टुकडे़ मेरे चेहरे में घुस गए थे. घड़ी में 5 का घंटा बजा. सुबह होने वाली थी. पिछले कई दिनों से मेरे लिए दिनरात एक समान थे. सिर्फ घंटे की आवाज से ही दिन या रात होने का आभास होता था. उन दिनों एक ही सवाल मन में आता था, कैसे होती होगी उन लोगों की जिंदगी जो जन्मजात नेत्रहीन हैं.

मुझे तो फिर भी आस दिलाई गई है कि कल मेरी पट्टी खुलेगी और मैं फिर से देख सकूंगी. लेकिन वे लोग किस उम्मीद में जीते होंगे. क्या श्रुति जैसे लोगों के नेत्रदान की आस में? हां, वरना वे लोग कै से हंसते होंगे. मैं तब कितनी छटपटाई थी जब कुछ देख नहीं पा रही थी. आंखों से भले ही न रोई लेकिन दिल तो मेरा हर पल रोता रहा था. कितनी बेबस हो गई थी मैं. हो सकता है कुछ घंटों बाद जब पट्टी खुलेगी, मैं देख पाऊं और हो सकता है…. न भी देख पाऊं.

एक बार फिर से मेरा समूचा शरीर कांप उठा था. कुछ दिनों का अंधेरा मुझे बहुत कुछ सिखा गया था. सोचने लगी थी कि उस अंधेरे से यदि मैं उजाले की ओर न भी पहुंच सकी तो भी कुछ गम नहीं. कम से कम इस रंगीन दुनिया के कई रंग तो मैं देख पाई. अब तो मुझे यही रंग उन खास लोगों को भी दिखाने होंगे जो अब तक इन्हें देखने से वंचित रहे हैं. सोनू उठा और प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरा तो मेरी तंद्रा भंग हुई. वह बोला, ‘‘दीदी, सुबह हो गई है. आप बैठना चाहेंगी.’’

मैं ने इशारे से कहा तो सोनू ने मुझे सहारा दे कर बैठा दिया. मेरी पट्टी खोली गई तो हलकी सी रोशनी भी चुभ रही थी. सामने मम्मी, पापा, मेरा भाई धुंधले से ही सही, लेकिन दिख रहे थे. मैं ने दोबारा आंखें बंद कर लीं. कुछ दिनों बाद मैं घर पर आराम कर रही थी. अभी मुझे बाहर निकलना मना था. मुझे श्रुति की बहुत याद आ रही थी. मैं ने उस के घर फोन मिलाया. फोन उस के नौकर ने उठाया था.

श्रुति को बुलाने के लिए कहा तो उस ने ऐसी बात कह दी कि मुझे सारा कमरा घूमता नजर आया. इतना बड़ा धोखा. मुझ से इतना बड़ा सच छिपाया गया था. श्रुति, मेरी सब से प्यारी सहेली, इस दुनिया में न थी. वह मुझ से बहुत दूर जा चुकी थी. मैं फूटफूट कर रो रही थी. ‘‘पापा, आप लोगों ने मुझ से झूठ क्यों बोला?’’ कुछ देर बाद मम्मी ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए सारी बात बताई. मुझे उस की मौत की खबर ने अंदर तक तोड़ दिया था.

इन दिनों मम्मी, बूआ को मेरे पास नहीं आने देती थीं. क्यों, मैं अच्छी तरह जानती थी. मेरा पूरा चेहरा चोटों की वजह से कुरूप हो गया था. मगर मुझे अब इस की परवा नहीं थी. असली सुंदरता क्या होती है, यह मैं अब जान चुकी थी. मेरी आंखों पर पट्टी क्या चढ़ी, बूआ की पढ़ाई हुई हर पट्टी उतर गई. एक दिन बूआ मेरे कमरे में आईं. उन का मुंह कुछ उतरा हुआ था. मैं चुपचाप बैठी रही. वह मेरे पास आईं और मेरे हाथ में कुछ रख दिया. जैसे ही मेरी नजर उस चीज पर पड़ी, मेरी रुलाई फूट पड़ी.

‘‘यह तो श्रुति का वही बैग है न बूआ, जिसे मैं जल्दी में घर पर ही भूल गई थी.’’ मैं ने कांपते हाथों से बैग खोला और अंदर हाथ डाला तो मेरे हाथ में कुछ चीजें आईं. उन चीजों को देख कर मुझे लगा कि धरती फटे और मैं उस में समा जाऊं. मेरे सामने उस का आई डोनर कार्ड, चश्मा, कांटेक्ट लैंस और किसी नेत्र विशेषज्ञ का पर्चा था. श्रुति को आंखों में इन्फैक्शन हो गया था. मुझे याद आया कि उस दिन उस की आंखें लाल हो रही थीं. इसीलिए उस ने लैंस नहीं पहने होंगे. मैं उस का बैग घर पर ही भूल गई थी. काश, मैं यह बैग लेना न भूली होती. उफ, यह मैं ने क्या किया, हमारी दोस्ती, उस का मुझे नाराज न करना ही उस की मौत का कारण बन गया. मैं तड़पती रही.

अगले दिन बूआ, मम्मी और पापा मेरे पास बैठे हुए थे. मेरी आंखों से अभी भी आंसू बह रहे थे. मम्मी ने धीरे से मेरे हाथ में कुछ रखा. आंसू पोंछ कर ध्यान से देखा तो मेरी आंखें फिर छलछला गईं. वह और कुछ नहीं उन तीनों के कार्ड थे. बूआ की आंखों में पश्चात्ताप के आंसू थे. मैं उन के गले लग गई. यह अंत नहीं है. श्रुति का डोनर कार्ड मेरे घर रहने के कारण उस की आंखें दान करने की इच्छा तो पूरी नहीं हो पाई थी, लेकिन कहना नहीं होगा कि मेरा डोनर कार्ड तो उस की नेत्रदान की इच्छा पूर्ण कर सकता है. मैं खुद को उस के मातापिता की गुनाहगार मानती हूं. जबतब मैं उन से मिलती रहती हूं. श्रुति की जगह तो नहीं ले सकती लेकिन उस की कमी का एहसास मैं एक प्रतिशत भी कर सकूं, यह मेरी कोशिश रहती है.

मेरी जानपहचान वालों में से अब कई लोगों ने नेत्रदान का फैसला ले लिया है. मैं उसी कालिज से एम.ए. कर रही हूं और ब्लाइंड स्टूडेंट प्रोजेक्ट, जो श्रुति की जिंदगी का एक अटूट हिस्सा रहा है, से भी जुड़ी हुई हूं. जी चाहता है कि सारी दुनिया को बता दूं कि अंधविश्वास में डूबे लोग, मौत के बाद भी उजाले की आस रखते हैं, शायद इसीलिए नेत्रदान करने के खयाल मात्र से ही कांप जाते हैं. लेकिन एक बार, सिर्फ एक बार, केवल 1 घंटे के लिए अपनी आंखों पर पट्टी बांध कर देखें. तब मेरी तरह शायद उन्हें भी पता चलेगा कि रंगों से दूर रह वह काली, अंधेरी दुनिया कैसी बेरंग होती है

Kahaniyan : किराए की कोख – सुनीता ने कैसे दी ममता को खुशी

Kahaniyan : पूरे महल्ले में सब से खराब माली हालत महेंद्र की ही थी. इस शहर से कोसों दूर एक गांव से 2 साल पहले ही महेंद्र अपनी बीवी सुनीता और 2 बच्चों के साथ इस जगह आ कर बसा था. वह गरीबी दूर करने के लिए गांव से शहर आया था, लेकिन यहां तो उन का खानापीना भी ठीक से नहीं हो पाता था.

महेंद्र एक फैक्टरी में काम करता था और सुनीता घर पर रह कर बच्चों की देखभाल करती थी. बड़ा बेटा 5 साल से ऊपर का हो गया था, लेकिन अभी स्कूल जाना शुरू नहीं हो पाया था.

सुनीता काफी सोचती थी कि बच्चे को किसी अगलबगल के छोटे स्कूल में पढ़ने भेजने लगे, लेकिन चाह कर भी न भेज सकती थी. जिस महल्ले में सुनीता रहती थी, उस महल्ले में सब मजदूर और कामगार लोग ही रहते थे. ठीक बगल के मकान में रहने वाली एक औरत के साथ सुनीता का उठनाबैठना था.

जब उस को सुनीता की मजबूरी पता लगी, तो उस ने सुनीता को खुद भी काम करने की सलाह दे डाली. उस ने एक घर में उस के लिए काम भी ढूंढ़ दिया.

सुनीता ने जब यह बात महेंद्र को बताई, तो वह थोड़ा हिचकिचाया, लेकिन सुनीता का सोचना ठीक था, इसलिए वह कुछ कह नहीं सका. सुनीता उस औरत द्वारा बताए गए घर में काम करने जाने लगी. वह काफी बड़ा घर था. घर में केवल 2 लोग ममता और रमन पतिपत्नी ही थे, जो किसी बड़ी कंपनी में काम करते थे.

दोनों का स्वभाव सुनीता के प्रति बहुत नरम था. ममता तो आएदिन सुनीता को तनख्वाह के अलावा भी कुछ न कुछ चीजें देती ही रहती थी. रमन और ममता के पास किसी चीज की कोई कमी नहीं थी, लेकिन घर में एक भी बच्चा नहीं था.

रविवार के दिन ममता और रमन छुट्टी पर थे. काम खत्म कर सुनीता जाने को हुई, तो ममता ने उसे बुला कर अपने पास बिठा लिया. वह सुनीता से उस के परिवार के बारे में पूछती रही. सुनीता को ममता की बातों में बड़ा अपनापन लगा, तो वह अचानक ही उस से पूछ बैठी, ‘‘जीजी, आप के कोई बच्चा नहीं हुआ क्या?’’

ममता ने मुसकरा कर सुनीता की तरफ देखा और धीरे से बोली, ‘‘नहीं, लेकिन तुम यह क्यों पूछ रही हो?’’ सुनीता ने ममता की आवाज को भांप लिया था. वह बोली, ‘‘बस जीजी, ऐसे ही पूछ रही थी. घर में कोई बच्चा न हो, तो अच्छा नहीं लगता न. शायद आप को ऐसा महसूस होता हो.’’

ममता की आंखें उसी पर टिक गई थीं. वह भी शायद इस बात को शिद्दत से महसूस कर रही थी.

ममता बोली, ‘‘तुम सही कहती हो सुनीता. मैं भी इस बात को ले कर चिंता में रहती हूं, लेकिन कर भी क्या सकती हूं? मैं मां नहीं बन सकती, ऐसा डाक्टर कहते हैं…’’

यह कहतेकहते ममता का गला भर्रा गया था. सुनीता भी आगे कुछ कहने की हिम्मत न कर सकी थी. उस के पास शायद इस बात का कोई हल नहीं था.

ममता और रमन शादी से पहले एक ही कंपनी में काम करते थे, जहां दोनों में मुहब्बत हुई और उस के बाद दोनों ने शादी कर ली. कई साल तक दोनों ने बच्चा पैदा नहीं होने दिया, लेकिन बाद में ममता मां बनने के काबिल ही न रही. इस बात को ले कर दोनों परेशान थे.

सुनीता को ममता के घर काम करते हुए काफी दिन हो गए थे. ममता का मन जब भी होता, वह सुनीता को अपने पास बिठा कर बातें कर लेती थी. पर अब सुनीता ममता से बच्चा न होने या होने को ले कर कोई बात नहीं करती थी. दिन ऐसे ही गुजर रहे थे. एक दिन ममता ने सुनीता को आवाज दी और उसे साथ ले कर अपने कमरे में पहुंच गई. उस ने सुनीता को अपने पास ही बिठा लिया.

सुनीता अपनी मालकिन ममता के बराबर में बैठने से हिचकती थी, लेकिन ममता ने उसे हाथ पकड़ कर जबरदस्ती बिठा ही लिया.

ममता ने सुनीता का हाथ अपने हाथ में लिया और बोली, ‘‘सुनीता, तुम से एक काम आ पड़ा है, अगर तुम कर सको तो कहूं?’’

ममता के लिए सुनीता के दिल में बहुत इज्जत थी, भला वह उस के किसी काम के लिए क्यों मना कर देती. वह बोली, ‘‘जीजी, कैसी बात करती हो? आप कहो तो सही, न करूं तो कहना.’’

ममता ने थोड़ा झिझकते हुए कहा, ‘‘सुनीता, डाक्टर कहता है कि मैं मां तो बन सकती हूं, लेकिन इस के लिए मुझे किसी दूसरी औरत का सहारा लेना पड़ेगा… अगर तुम चाहो, तो इस काम में मेरी मदद कर सकती हो.’’

ममता की बात सुन कर सुनीता का मुंह खुला का खुला रह गया. उस को यकीन न होता था कि ममता उस से इतने बड़े व्यभिचार के बारे में कह सकती है.

सुनीता साफ मना करते हुए बोली, ‘‘जीजी, मैं बेशक गरीब हूं, लेकिन अपने पति के होते किसी मर्द की परछाईं तक को न छुऊंगी. आप इस काम के लिए किसी और को देख लो.’’

ममता हैरत से बोली, ‘‘अरे बावली, तुम से पराया मर्द छूने को कौन कहता है… यह सब वैसा नहीं है, जैसा तुम सोच रही हो. इस में सिर्फ लेडी डाक्टर के अलावा तुम्हें कोई नहीं छुएगा. यह समझो कि तुम सिर्फ अपनी कोख में बच्चे को पालोगी, जबकि सबकुछ मैं और मेरे पति करेंगे.’’

सुनीता की समझ में कुछ न आया था. सोचा कि भला ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई आदमी औरत को छुए भी नहीं और वह मां बन जाए.

सुनीता को हैरान देख कर ममता बोल पड़ी, ‘‘क्या सोच रही हो सुनीता? तुम चाहो तो मैं सीधे डाक्टर से भी बात करा सकती हूं. जब तुम पूरी तरह संतुष्ट हो जाओ, तब ही तैयार होना.’’

सुनीता हिचकिचाते हुए बोली, ‘‘जीजी, मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूं… अगर मैं तैयार हो भी जाऊं, तो मेरे पति इस बात के लिए नहीं मानेंगे.’’

ममता हार नहीं मानना चाहती थी. आखिर उस के मन में न जाने कब से मां बनने की चाहत पल रही थी. वह बोली, ‘‘तुम इस बात की चिंता बिलकुल मत करो. मैं खुद घर आ कर तुम्हारे पति से बात करूंगी और इस काम के लिए तुम्हें इतना पैसा दूंगी कि तुम 2 साल भी काम करोगी, तब भी कमा नहीं पाओगी.’’ सुनीता यह सब तो नहीं चाहती थी, लेकिन ममता से मना करने का मन भी नहीं हो रहा था.

काम से लौटने के बाद सुनीता ने अपने पति से सारी बात कह दी. महेंद्र इस बात को सिरे से खारिज करता हुआ बोला, ‘‘नहीं, कोई जरूरत नहीं है इन लोगों की बातों में आने की. कल से काम पर भी मत जाना ऐसे लोगों के यहां. ये अमीर लोग होते ही ऐसे हैं.

‘‘मैं तो पहले ही तुम्हें मना करने वाला था, लेकिन तुम ने जिद की तो कुछ न कह सका.’’

सुनीता को ऐसा नहीं लगता था कि ममता दूसरे अमीर लोगों की तरह है. वह उस के स्वभाव को पहले भी परख चुकी थी. वह बोली, ‘‘नहीं, मैं यह बात नहीं मान सकती. ऐसी मालकिन मिलना आज के समय में बहुत मुश्किल काम है. आप उन को सब लोगों की लाइन में खड़ा मत करो.’’ महेंद्र कुछ कहता, उस से पहले ही कमरे के दरवाजे पर किसी के आने की आहट हुई, फिर दरवाजा बजाया गया.

सुनीता को ममता के आने का एहसास था. उस ने झट से उठ कर दरवाजा खोला, तो देखा कि सामने ममता खड़ी थी.

सुनीता के हाथपैर फूल गए, खुशी के मारे मुंह से बात न निकली, वह अभी पागलों की तरह ममता को देख ही रही थी कि ममता मुसकराते हुए बोल पड़ी, ‘‘अंदर नहीं बुलाओगी सुनीता?’’ सुनीता तो जैसे नींद से जागी थी.

वह हड़बड़ा कर बोली, ‘‘हांहां जीजी, आओ…’’ यह कहते हुए वह दरवाजे से एक तरफ हटी और महेंद्र से बोली, ‘‘देखोजी, अपने घर आज कौन आया है… ये जीजी हैं, जिन के घर पर मैं काम करने जाती हूं.’’

महेंद्र ने ममता को पहले कभी देखा तो नहीं था, लेकिन अमीर पहनावे और शक्लसूरत को देख कर उसे समझते देर न लगी. उस ने ममता से दुआसलाम की और उठ कर बाहर चल दिया.

ममता ने उसे जाते देखा, तो बोल पड़ी, ‘‘भैया, आप कहां चल दिए? क्या मेरा आना आप को अच्छा नहीं लगा?’’

महेंद्र यह बात सुन कर हड़बड़ा गया. वह बोला, ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. मैं तो इसलिए जा रहा था कि आप दोनों आराम से बात कर सको.’’

ममता हंसते हुए बोली, ‘‘लेकिन भैया, मैं तो आप से ही बात करने आई हूं. आप भी हमारे साथ बैठो न.’’

महेंद्र न चाहते हुए भी बैठ गया. ममता का इतना मीठा लहजा देख वह उस का मुरीद हो गया था. उस के दिमाग में अमीरों को ले कर जो सोच थी, वह जाती रही.

सुनीता सामने खड़ी ममता को वहीं बिछी एक चारपाई पर बैठने का इशारा करते हुए बोली, ‘‘जीजी, मेरे घर में तो आप को बिठाने के लिए ठीक जगह भी नहीं, आप को आज इस चारपाई पर ही बैठना पड़ेगा.’’

ममता मुसकराते हुए बोली, ‘‘सुनीता, प्यार और आदर से बड़ा कोई सम्मान नहीं होता, फिर क्या चारपाई और क्या बैड. आज तो मैं तुम्हारे साथ जमीन पर ही बैठूंगी.’’

इतना कह कर ममता जमीन पर पड़ी एक टाट की बोरी पर ही बैठ गई.

सुनीता ने लाख कहा, लेकिन ममता चारपाई पर न बैठी. हार मान कर सुनीता और महेंद्र भी जमीन पर ही बैठ गए. सुनीता ने नजर तिरछी कर महेंद्र को देखा, फिर इशारों में बोली, ‘‘देख लो, तुम कहते थे कि हर अमीर एकजैसा होता है. अब देख लिया.’’

महेंद्र से आदमी पहचानने में गलती हुई थी. तभी ममता अचानक बोल पड़ी, ‘‘सुनीता, क्या तुम मुझे चाय नहीं पिलाओगी अपने घर की?’’

सुनीता के साथसाथ महेंद्र भी खुश हो गया. एक करोड़पति औरत गरीब के घर आ कर जमीन पर बैठ चाय पिलाने की गुजारिश कर रही थी.

सुनीता तो यह सोच कर चाय न बनाती थी कि ममता उस के घर की चाय पीना नहीं चाहेंगी. जब खुद ममता ने कहा, तो वह खुशी से पागल हो उठी, महेंद्र और सुनीता की इस वक्त ऐसी हालत थी कि ममता इन दोनों से इन की जान भी मांग लेती, तो भी ये लोग मना न करते.

चाय बनी, तो सब लोग चाय पीने लगे. इतने में सुनीता का छोटा बेटा जाग गया. ममता ने उसे देखा तो खुशी से गोद में उठा लिया और उस से बातें करने में मशगूल हो गई.

महेंद्र और सुनीता यह सब देख कर बावले हुए जा रहे थे. उन्हें ममता में एक अमीर औरत की जगह अपने घर की कोई औरत नजर आ रही थी.

थोड़ी देर बाद ममता ने बच्चे को सुनीता के हाथों में दे दिया और महेंद्र की तरफ देख कर बोली, ‘‘भैया, मैं कुछ बात करने आई थी आप से. वैसे, सुनीता ने आप को सबकुछ बता दिया होगा.

‘‘भैया, मैं आप को यकीन दिलाती हूं कि सुनीता को सिर्फ लेडी डाक्टर के अलावा कोई और नहीं छुएगा. यह इस तरह होगा, जैसे कोयल अपने अंडे कौए के घोंसले में रख देती है और बच्चे अंडों से निकल कर फिर से कोयल के हो जाते हैं, अगर आप…’’

महेंद्र ममता की बात पूरी होने से पहले ही बोल पड़ा, ‘‘बहनजी, आप जैसा ठीक समझें वैसा करें. जब सुनीता को आप अपना समझती हैं, तो फिर मुझे किसी बात से कोई डर नहीं. इस का बुरा थोड़े ही न सोचेंगी आप.’’

ममता खुशी से उछल पड़ी. सुनीता महेंद्र को मुंह फाड़े देखे जा रही थी. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि महेंद्र इतनी जल्दी हां कह सकता है. लेकिन महेंद्र तो इस वक्त किसी और ही फिजा में घूम रहा था. कोई करोड़पति औरत उस के घर आ कर झोली फैला कर उस से कुछ मांग रही थी, फिर भला वह कैसे मना कर देता.

ममता हाथ जोड़ कर महेंद्र से बोली, ‘‘भैया, मैं आप का यह एहसान जिंदगीभर नहीं भूलूंगी,’’ यह कहते हुए ममता ने अपने मिनी बैग से नोटों की एक बड़ी सी गड्डी निकाल कर सुनीता के हाथों में पकड़ा दी और बोली, ‘‘सुनीता, ये पैसे रख लो. अभी और दूंगी. जो इस वक्त मेरे पास थे, वे मैं ले आई.’’

सुनीता ने हाथ में पकड़े नोटों की तरफ देखा और फिर महेंद्र की तरफ देखा. महेंद्र पहले से ही सुनीता के हाथ में रखे नोटों को देख रहा था.

आज से पहले इन दोनों ने कभी इतने रुपए नहीं देखे थे, लेकिन महेंद्र कम से कम ममता से रुपए नहीं लेना चाहता था, वह बोला, ‘‘बहनजी, ये रुपए हम लोग नहीं ले सकते. जब आप हमें इतना मानती हैं, तो ये रुपए किस बात के लिए?’’

ममता ने सधा हुआ जवाब दिया, ‘‘नहीं भैया, ये तो आप को लेने ही पड़ेंगे. भला कोई और यह काम करता, तो वह भी तो रुपए लेता, फिर आप को क्यों न दूं?

‘‘और ये रुपए दे कर मैं कोई एहसान थोड़े ही न कर रही हूं.’’

इस के बाद ममता वहां से चली गई. महेंद्र ने ममता के जाने के बाद रुपए गिने. पूरे एक लाख रुपए थे. महेंद्र और सुनीता दोनों ही आज ममता के अच्छे बरताव से बहुत खुश थे. ऊपर से वे एक लाख रुपए भी दे गईं. ये इतने रुपए थे कि 2 साल तक दोनों काम करते, तो भी इतना पैसा जोड़ न पाते.

दोनों के अंदर आज एक नया जोश था. अब न किसी बात से एतराज था और न किसी बात पर कोई सवाल.

जल्द ही सुनीता को ममता ने डाक्टर के पास ले जा कर सारा काम निबटवा दिया. वह सुनीता के साथ उस के पति महेंद्र को भी ले गई थी, जिस से उस के मन में कोई शक न रहे.

ममता ने अब सुनीता से घर का काम कराना बंद कर दिया था. घर के काम के लिए उस ने एक दूसरी औरत को रख लिया था. सुनीता को खाने के लिए ममता ने मेवा से ले कर हर जरूरी चीज अपने पैसों से ला कर दे दी थी. साथ ही, एक लाख रुपए और भी नकद दे दिए थे.

ममता नियमित रूप से सुनीता को देखने भी आती थी. उस ने महेंद्र और सुनीता से उस के घर चल कर रहने के लिए भी कहा था, लेकिन महेंद्र ने वहां रहने के बजाय अपने घर में ही रहना ठीक समझा.

जिस समय सुनीता अपने पेट में बच्चे को महसूस करने लगी थी, तब से न जाने क्यों उसे वह अपना लगने लगा था. वह उसे सबकुछ जानते हुए भी अपना मान बैठी थी.

जब बच्चा होने को था, तब एक हफ्ता पहले ही सुनीता को अस्पताल में भरती करा दिया गया था. जिस दिन बच्चा हुआ, उस दिन तो ममता सुनीता को छोड़ कर कहीं गई ही न थी. सुनीता को बेटा हुआ था.

ममता ने सुनीता को खुशी से चूम लिया था. उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. लेकिन सुनीता को मन में अजीब सा लग रहा था. उस का मन उस बच्चे को अपना मान रहा था.

अस्पताल से निकलने के बाद ममता ने सुनीता को कुछ दिन अपने पास भी रखा था. उस के बाद उस ने सुनीता को और 50 हजार रुपए भी दिए. सुनीता अपने घर आ गई, लेकिन उस का मन न लगता था. जो बच्चा उस ने अपनी कोख में 9 महीने रखा, आज वह किसी और का हो चुका था. पैसा तो मिला था, लेकिन बच्चा चला गया था.

सुनीता का मन होता था कि बच्चा फिर से उस के पास आ जाए, लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकता था. उस की कोख किसी और के बच्चे के लिए किराए पर जो थी.

Kahani 2025 : हिम्मती गुलाबो

Kahani 2025 :  गांव में रह कर राजेंद्र खेतीबारी का काम करता था. उस के परिवार में पत्नी शैलजा, बेटा रोहित व बेटी गुलाबो थी. रोहित गांव के ही प्राइमरी स्कूल में चौथी जमात में पढ़ता था, जबकि उस की बहन गुलाबो इंटरमीडिएट स्कूल में 10वीं जमात की छात्रा थी. परिवार का गुजारा ठीक ढंग से हो जाता था, इसलिए राजेंद्र की इच्छा थी कि उस के दोनों बच्चे अच्छी तरह से पढ़लिख जाएं. गुलाबो अपने नाम के मुताबिक सुंदर व चंचल थी. ऐसा लगता था कि वह संगमरमर की तराशी हुई कोई जीतीजागती मूर्ति हो. वह जब भी साइकिल से स्कूल आतीजाती थी, तो गांव के आवारा, मनचले लड़के उसे देख कर फब्तियां कसते और बेहूदा इशारे करते थे.

गुलाबो इन बातों की जरा भी परवाह नहीं करती थी. वह न केवल हसीन थी, बल्कि पढ़ने में भी हमेशा अव्वल रहती थी. वह स्कूल की सभी सांस्कृतिक व खेलकूद प्रतियोगिताओं में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती थी. वह स्कूल की कबड्डी व जूडोकराटे टीम की भी कप्तान थी. एक दिन जब गुलाबो स्कूल से घर लौट रही थी, तो गांव के जमींदार प्रेमलाल के दबंग बेटे राजू ने जानबूझ कर उस की साइकिल को टक्कर मार दी और उसे नीचे गिरा दिया, फिर उसे खुद ही उठाते हुए बोलने लगा, ‘‘जानेमन, न जाने कब से मैं तुम्हें पकड़ने की…’’ इतना कह कर राजू ने उस के उभारों को छू लिया था.

उस समय राजू की इस हरकत का गुलाबो ने कोई जवाब नहीं दिया था. राजू ने उस की कलाई पकड़ते हुए उस के हाथ में सौ रुपए का एक नोट रखते हुए कहा, ‘‘यह मेरी ओर से हमारे पहले मिलन का उपहार है.’’ गुलाबो घर पहुंच गई. उस ने इस बात का जिक्र किसी से नहीं किया. उसे पता था कि अगर उस ने इस घटना के बारे में किसी को बताया, तो घर में कुहराम मच जाएगा और फिर उस की मां उस की पढ़ाईलिखाई छुड़वा कर उसे घर पर बिठा देंगी. गुलाबो पूरी रात सो नहीं पाई थी. उसे जमींदार के लड़के पर रहरह कर गुस्सा आ रहा था कि कैसे वह उस के शरीर को छू गया था और उसे सौ रुपए का नोट देते हुए बदतमीजी पर उतर आया था, मानो वह कोई देह धंधेवाली हो.

अब गुलाबो ने मन ही मन यह सोच लिया था कि राजू से हर हाल में बदला लेना है. सुबह जब गुलाबो उठी, तो उस की सुर्ख लाल आंखें देख उस के पिता राजेंद्र कह उठे, ‘‘अरे बेटी, क्या तुम रात को सोई नहीं? देखो कैसी लाललाल आंखें हो रही हैं तुम्हारी.’’

‘‘नहीं पिताजी, ऐसी कोई बात नहीं है. मैं तो स्कूल के एक टैस्ट की तैयारी कर रही थी, इसलिए रात को देर से सोई थी.’’ स्कूल पहुंचते ही गुलाबो ने खाली समय में अपनी मैडम सरला को चुपके से कल वाली घटना बताई और उन को अपना मकसद बताया कि वह राजू को सबक सिखाना चाहती है कि लड़कियां किसी से कम नहीं हैं.

मैडम सरला ने कहा, ‘‘गुलाबो, तू डर मत. मैं तुम्हारे इस इरादे से बहुत खुश हूं. क्या राजू जैसों ने लड़कियों को अपनी हवस मिटाने का जरीया समझ रखा है कि जब दिल आए, तब अपना दिल बहला लो?’’ अगले दिन रविवार था. गुलाबो ने अपनी मां को बताया था कि वह अपनी मैडम सरला के साथ सुबह शहर जा रही है और शाम तक गांव लौट आएगी. शहर पहुंचते ही मैडम सरला गुलाबो को अपने भाई सौरभ के पास ले गईं. वह पुलिस महकमे में हैडक्लर्क था. उस ने गुलाबो से सारी घटना की जानकारी ली और उस से कहा कि एक दिन वह राजू को खुद बुलाए, फिर उसी दिन उसे फोन कर देना. उस के बाद गांव का कोई भी मनचला किसी लड़की की तरफ आंख भी नहीं उठा पाएगा.

इधर राजू गुलाबो के ही सपनों में खोया रहता था. जब 5-6 दिनों तक उस ने गुलाबो की ओर से उस के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं देखी, तो उस की बांछें खिल गईं. उसे लगा कि चिडि़या शिकारी के जाल में फंस गई है. अगले दिन गुलाबो स्कूल से घर लौट रही थी, तो उस ने राजू को अपना पीछा करते हुए पाया. जब राजू की साइकिल उस के करीब आई, तो वह कह उठी, ‘‘अरे राजू, कैसे हो?’’

राजू यह बात सुन कर खुश हो गया. उस ने कहा, ‘‘गुलाबो, मैं ठीक हूं. हां, तू बता कि तू ने उस दिन के बारे में क्या सोचा?’’

‘‘राजू, अपनों से ऐसी बातें नहीं पूछा करते हैं. तुम परसों 4 बजे पार्क में मुझे मिलना. मैं तुम से अपने मन की बहुत सारी बातें करना चाहती हूं.’’

‘‘सच?’’ राजू खुश हो कर बोल उठा था, ‘‘गुलाबो, चल अब इसी बात पर तू एक प्यारी सी पप्पी दे दे.’’

‘‘नहीं राजू, आज नहीं, क्योंकि पिताजी आज स्कूल की मीटिंग में गए हैं. वे आते ही होंगे. फिर जहां तुम ने इतना इंतजार किया है, वहां चंद घंटे और सही…’’ गुलाबो बनावटी गुस्सा जताते हुए बोल उठी. घर पहुंच कर उस ने पुलिस वाले को सारी बात बता दी थी. राजू पार्क के इर्दगिर्द घूम रहा था. आखिर गुलाबो ने ही तो उसे यहां बुलाया था. उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. जैसे ही गुलाबो पार्क के पास पहुंची, राजू एक शिकारी की तरह उस पर झपट पड़ा. पर गुलाबो ने भी अपनी चप्पल उतार कर उस मजनू की पिटाई करते हुए कहा, ‘‘तेरे घर में मांबहन नहीं है. सौ रुपए दे कर तू गांव की बहूबेटियों की इज्जत से खेलना चाहता है. तू ने मुझे भी ऐसी ही समझ लिया था.’’

‘‘धोखेबाज, पहले तो तुम खुद ही मुझे बुलाती हो, फिर मुकरती हो,’’ लेकिन तभी राजू की घिग्घी बंध गई. सामने कई फोटो पत्रकार व पुलिस वालों को देख कर वह कांप उठा था.

‘‘हां, तो गुलाबो, तुम अब पूरी बात बताओ कि इस गुंडे ने तुम से कैसे गलत बरताव किया था?’’ डीएसपी राधेश्याम ने गुलाबो से पूछा. लोगों की भीड़ बढ़ गई थी. उन्होंने भी लातघूंसों से राजू की खूब पिटाई की. पुलिस वालों ने राजू को कोर्ट में पेश किया और पुलिस रिमांड ले कर उसे छठी का दूध याद दिला दिया. अगले दिन सभी अखबारों में गुलाबो की हिम्मत के ही चर्चे थे. जिला प्रशासन ने गुलाबो को न केवल 10 हजार रुपए का नकद इनाम दिया था, बल्कि उसे कालेज तक मुफ्त पढ़ाई देने की भी सिफारिश की थी. राजू के पिता की पूरे गांव में थूथू हो गई थी. उस ने अपने बेटे की जमानत करवाने में खूब हाथपैर मारे, पर उसे अभी तक कोई कामयाबी नहीं मिली थी.

गांव के मनचले अब उस को देखते ही रफूचक्कर हो जाते थे. उस का कहना था कि अगर वह इन दरिंदों से डर जाती, तो आज कहीं भी मुंह दिखाने लायक नहीं रहती.

लेखक- प्रदीप गुप्ता

Online Hindi Story : राजन ने कैसे बचाया बहन का घर

Online Hindi Story : पिछले दिनों से थकेहारे घर के सभी सदस्य जैसे घोड़े बेच कर सो रहे थे. राशी की शादी में डौली ने भी खूब इंज्वाय किया लेकिन राजन की पत्नी बन कर नहीं बल्कि उस की मित्र बन कर.

अमेरिका में स्थायी रूप से रह रहे राजन के ताऊ धर्म प्रकाश को जब खबर मिली कि उन के भतीजे राजन ने आई.टी. परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया है तो उन्होंने फौरन फोन से अपने छोटे भाई चंद्र प्रकाश को कहा कि वह राजन को अमेरिका भेज दे…यहां प्रौद्योगिकी में प्रशिक्षण के बाद नौकरी का बहुत अच्छा स्कोप है.

चंद्र्र प्रकाश भी तैयार हो गए और बेटे को अमेरिका के लिए पासपोर्ट, वीजा आदि बनवाने में लग गए. लेकिन उन की पत्नी सरोजनी के मन को कुछ बहुत अच्छा नहीं लगा. कुल 2 बच्चे राजन और उस से 5 साल छोटी 8वीं में पढ़ रही राशी. अब बेटा सात समुंदर पार चला जाएगा तो मां को कैसे अच्छा लगेगा. उस ने तो पति से साफ शब्दों में मना भी किया.

चंद्र प्रकाश ने पत्नी को समझाया, ‘‘बच्चे के अच्छे भविष्य के  लिए अमेरिका की शिक्षा बहुत उपयोगी साबित होगी और मांबाप होने के नाते कुछ त्याग हमें भी तो करना ही पड़ेगा. रही बात आंखों से दूर जाने की, तो साल में एक बार तो आएगा न.’’

राशी भी भाई के अमेरिका जाने से दुखी थी. आंखों में आंसू भर कर बोली, ‘‘भैया, तुम इतनी दूर चले जाओगे तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा. मैं रक्षाबंधन के दिन किसे राखी बांधूंगी? नहीं, तुम मत जाओ, भैया,’’ कहने के साथ ही राशी रो पड़ी.

राजन ने बहन को धैर्य बंधाया, ‘‘रोते नहीं राशी. मैं जल्दी आऊंगा और तेरे लिए खूब सारी चीजें अमेरिका से लाऊंगा. रही राखी की बात, तो वह थोड़ा पहले भेज दिया करना…मैं ताऊ की लड़की से बंधवा लूंगा…फिर उस दिन अपनी प्यारीप्यारी बहन से फोन पर बात भी करूंगा.’’

बहरहाल, सब को समझाबुझा कर, खास लोगों से मिल कर राजन निर्धारित समय पर अमेरिका चला गया. वहां उस को ताऊजी के पास अच्छा लगा. परिवार के सभी सदस्यों का बातव्यवहार उस के साथ बिलकुल अपनों जैसा ही था.

मां का पत्र अकसर आ जाता…कभीकभी राशी का पत्र भी उस में रहता. मां तो बारबार यही लिखतीं कि तुम्हारे बिना अच्छा नहीं लगता. घर सब तरफ से सूनासूना लगता है.

अमेरिका में प्रशिक्षण पूरा होते ही एक कंपनी ने राजन का चयन कर लिया. तो ताऊजी ने खुशीखुशी अपने छोटे भाई चंद्र प्रकाश और सरोजनी को राजन के नौकरी पर लगने की सूचना भेजी. साथ में यह भी बताया कि जल्द ही वह 1 माह का अवकाश ले कर भारत जाएगा.

राजन को अमेरिका में नौकरी मिलने का समाचार सुन कर सरोजनी को तनिक भी अच्छा नहीं लगा. क्या अपने देश में उसे नौकरी नहीं मिलती? क्या हर भारतीय युवक का भविष्य विदेश में ही जा कर संवरता है? राशी भी दुखी हुई. बड़ी उम्मीद लगा रखी थी कि अब भैया के आने के दिन आ रहे हैं.

राजन जिस आफिस में काम करता था उस में इटली की डौली नाम की एक लड़की रिसेप्शनिस्ट के रूप में काम करती थी. डौली शक्लसूरत से बेहद आकर्षक थी. डौली की एक खासियत यह भी थी कि यदि वह पाश्चात्य पहनावे में न हो तो चेहरे से बिलकुल भारतीय लगती थी.

एक ही आफिस में साथसाथ काम करने, आनेजाने पर आपस में बातचीत से राजन और डौली एकदूसरे से काफी प्रभावित हुए. बाद में वे एकदूसरे की चाहत व पसंद बन गए, लेकिन बिना बड़ों की आज्ञा के राजन ऐसा कोई कदम उठाने के पक्ष में नहीं था जिस से उस के व परिवार के सम्मान को ठेस पहुंचे.

डौली के साथ अपनी दोस्ती के बारे में ताऊजी को बताने के साथ ही राजन ने यह भी कहा कि हम एकदूसरे को पसंद करते हैं और विवाह भी करना चाहते हैं.

भतीजे की इच्छा को खुशीखुशी स्वीकार करते हुए धर्म प्रकाश ने कहा, ‘‘तुम्हारे पिताजी को सूचित करता हूं और उन से कहूंगा कि शादी की कोई तारीख तय कर लें.’’

चंद्र प्रकाश और सरोजनी को जब राजन के प्रेम और शादी का पता चला तो दोनों को बेटे का यह कदम अखर गया. उन्होंने बड़े भाई से साफ शब्दों में कह दिया कि राजन वहां किसी लड़की से विवाह करने का विचार छोड़ दे, क्योंकि उस के इस तरह विवाह करने से उस की बहन की शादी में अड़ंगा खड़ा हो सकता है. और यदि वह नहीं मानता है तो कम से कम अपनी शादी की खबर भारत में किसी को न दे.

मातापिता की बात से राजन को अपनी गलती का एहसास हुआ. अभी तक उस के दिमाग में यह बात क्यों नहीं आई कि अंतर्जातीय विवाह, वह भी ईसाई लड़की से करने के कारण बहन की शादी में रुकावट आ सकती है.

इस के बाद राजन ने फोन पर कई बार घर पर सब से बात की, उन का हालचाल पूछा लेकिन अपने विवाह से संबंधित कोई बात न तो उस ने छेड़ी और न मातापिता की तरफ से कोई प्रतिक्रिया हुई.

राजन की नौकरी लगे अब 1 साल हो गया था. उस के मन में भारत आने और मातापिता से मिलने की बड़ी इच्छा हो रही थी. वह दफ्तर में 1 माह के अवकाश का आवेदन कर भारत जाने के प्रबंध में लग गया. एअरटिकट मिलते ही राजन ने भारत फोन कर के मां को बताया कि वह फलां तारीख को भारत आ रहा है.

राजन घर पहुंचा तो दबे मन से ही सही पर सब ने उस का स्वागत किया. राजन को कुछ ही सालों में सबकुछ बदलाबदला सा लग रहा था. मां पहले से कुछ कमजोर दिख रही थीं. पिताजी के बाल आधे सफेद हो गए थे और राशी? वह तो कितनी बड़ी लग रही थी. उस के सिर पर हाथ रख कर राजन ने स्नेह से कहा, ‘‘कितनी बड़ी हो गई, राशी तू? तेरे लिए ढेरों चीजें ले आया हूं.’’

राशी कुछ नहीं बोली लेकिन मां ने कहा, ‘‘अब इस के विवाह की चिंता है. जल्दी कहीं बात बन जाती तो कर के हम जिम्मेदारी से मुक्त हो लेते.’’

मां की बात सुन कर राजन को लगा कि मां उस पर कटाक्ष कर रही हैं, फिर भी राजन ने हंस कर राशी से कहा, ‘‘कहीं पसंद किया हो तो बता दे, राशी… पिताजी का ढूंढ़नेभागने का समय बच जाएगा.’’

राशी ने पलट का जवाब दिया, ‘‘मैं तुम्हारी तरह नहीं हूं, भैया, जो घर वालों की इच्छा के खिलाफ जा कर विवाह रचा लूं.’’

बहस बढ़ती देख कर मां ने दोनों को रोका और राशी से बोलीं, ‘‘बहस बंद कर और जा भाई के लिये चायनाश्ते का प्रबंध कर.’’

सरोजनी और चंद्र प्रकाश ने राजन से उस की अमेरिका में की हुई शादी के बारे में कोई बात नहीं की. वे लोग बिलकुल नहीं चाहते थे कि इतने सालों बाद बेटा घर आया है तो कोई तकरार हो. लेकिन राजन ने खुद ही बात छेड़ कर मातापिता को अपने द्वारा लिए निर्णय से अवगत कराते हुए कहा, ‘‘मां, आप कैसे सोचती हैं कि आप लोगों की इजाजत लिए बिना मैं अपनी शादी रचा लेने का साहस कर लेता…इस से तो आप लोगों की प्रतिष्ठा और ममता का अपमान होता. मैं ने निश्चय कर लिया है कि बहन की शादी के बाद ही मैं अपने विवाह के बारे में विचार करूंगा.’’

सरोजनी और चंद्र प्रकाश को बेटे की बात से बड़ी राहत मिली. उन्हें ऐसा लगा जैसे सिर पर लदा कोई बहुत बड़ा बोझ हट गया हो.

1 माह भारत में रह कर राजन अमेरिका वापस आ गया और पहले की तरह जीवन में भागदौड़ फिर शुरू हो गई. देखते ही देखते डेढ़ वर्ष कैसे गुजर गया पता ही न चला. एक दिन मां का फोन आया कि राशी की शादी तय हो गई है. लड़के का परिवार बेहद संभ्रांत है. विवाह की तारीख तय नहीं हुई है…जैसे ही तय होगी. मैं दोबारा तुझे सूचित करूंगी. तुम कम से कम 15 दिन पहले भारत जरूर आ जाना…सारा प्रबंध तुम्हें ही करना है.

शादी की तारीख का पता चलते ही राजन भारत आने की तैयारी में लग गया. राजन ने पहले ही डौली को अपनी परिवारिक समस्याओं से अवगत करा दिया था. डौली ने भी सोचा कि जब राजन के परिवार की समस्या हल हो जाएगी तभी वह विवाह बंधन में बंधेगी.

अब जब राशी की शादी तय होने की सूचना डौली को मिली तो उस ने राजन के साथ जा कर अपनी पसंद का मेकअप का सामान, कई सुंदर साडि़यां और कुछ स्वर्णाभूषण राशी के लिए खरीदे. डौली की इच्छा थी कि वह भी भारत जाए…राशी की शादी देखे. राजन ने उस की इस इच्छा को सहज भाव से मान भी लिया.

विवाह तय होने के बाद से ही सरोजनी को बेटी के बातव्यवहार में बदलाव सा महसूस होने लगा था. हमेशा खुश रहने वाली राशी अब चुपचाप व खोईखोई सी लगती थी. शादी की बात चलते ही वह नाकभौं सिकोड़ कर चली जाती तो सरोजनी ने इसे लड़कियों का स्वाभाविक संकोच मान लिया.

राशी सगाई की रस्म के लिए भी बड़ी मुश्किल से तैयार हुई थी, जबकि इस रस्म के समय जिस ने भी राशी और विशाल को एकसाथ देखा, भूरिभूरि प्रशंसा की.

गोद भराई की रस्म के दूसरे दिन सरोजनी और चंद्र प्रकाश ने राजन को सूचना भेज दी और उस के आने की प्रतीक्षा के साथसाथ विवाह की छिटपुट तैयारी में भी लग गए.

इधर बराबर राशी को परेशान और चिंतित देख कर सरोजनी ने उस से पूछा, ‘‘क्या बात है, बेटी, आजकल तुम बहुत परेशान सी दिखती हो…तबीयत तो ठीक है?’’

मां की बात सुन कर राशी चाैंक सी गई…जैसे उस की कोई चोरी पकड़ ली गई हो, फिर भी अपने को संयत कर सहज आवाज में बोली, ‘‘नहीं, मां…कोई ऐसी बात नहीं है. बस, आजकल सिर में हलकाहलका दर्द बना रहता है…’’

‘‘तो चलो, किसी डाक्टर को दिखा कर दवा ले आते हैं,’’ मां बोली थीं, ‘‘अधिक दिनों तक सिरदर्द का बना रहना ठीक नहीं है.’’

‘‘नहीं, मां…इतना तेज दर्द नहीं है कि डाक्टर के यहां जाने या दवा लेने की जरूरत पडे़…अपनेआप ठीक हो जाएगा,’’ राशी ने मां की बात को टालते हुए कहा.

यद्यपि कई बार राशी के मन में आया कि वह अपनी समस्या से मां को अवगत करा दे, लेकिन तभी दूसरी तरफ मन विरोध भी जाहिर करता, ‘तुम्हारा सोचना तो ठीक है लेकिन यह निश्चित है कि उस के बाद तुम्हारी आकांक्षा पूर्ण न हो सकेगी,’ और मन के इस दोहरे तर्क पर राशी जहां की तहां थम जाती.

विवाह के  कुल 15 दिन शेष बचे थे. उस दिन शाम तक राजन को भी आना था. राशी को लगा कि राजन के आने से पहले उसे अपना काम कर लेना चाहिए अन्यथा भैया के आ जाने पर रुकावट पड़ सकती है. भयग्रस्त मन से ही पर दूसरे दिन दोपहर तक अपना काम पूरा कर लेने का प्रबंध राशी ने कर लिया था.

कोर्ट मैरिज के लिए उस दिन साढे़ 10 बजे के आसपास पूरे इंतजाम के साथ राशी और अरशद  अपने दोस्तों के साथ कोर्ट में पहुंचे पर संयोग कुछ ऐसा बना कि उस दिन अदालत में हड़ताल हो गई और हड़ताल कब तक चलेगी यह भी पता न चल सका. राशी निराश हो कर घर लौट आई और दुखी मन से अपने कमरे में जा कर औंधे मुंह पलंग पर पड़ गई.

राजन की फ्लाइट 9 बजे ही आ गई थी पर वह डौली का इंतजाम करने में लग गया. सब से पहले तो उस ने डौली को एक अच्छे से होटल में ठहराया क्योंकि उस ने पहले ही सोच रखा था कि डौली के भारत आने की खबर वह राशी की शादी से पहले किसी को नहीं देगा. उस के रहने और  सुरक्षा का पूर्ण प्रबंध कर राजन घर आया.

बंगले के दरवाजे के अंदर अभी वह अपना सामान रखवा ही रहा था कि राशी की सहेली ताहिरा आ गई. ताहिरा ने उसे पहचान कर आदाब किया फिर घबराई आवाज में बोली, ‘‘भाईजान, आप से कुछ जरूरी बात करनी है,’’ और इसी के साथ राजन को खींच कर आड़ में ले गई तथा बिना किसी भूमिका के उस ने वह सब राजन को बता दिया, जिसे अब तक राशी घर वालों से छिपाती आ रही थी. ताहिरा ने राजन को बताया कि मेरी सहेली होने के नाते राशी अकसर मेरे घर आती रहती थी. मेरे बडे़ भाई अरशद, जो डाक्टर हैं, से राशी का प्रेम काफी दिनों से चल रहा था…यह बात तो मुझे पता थी. लेकिन वे दोनों शादी करने पर आ जाएंगे…यह मुझे आज ही पता चला है जब दोनों कोर्ट से निराश हो कर लौटे हैं.

थोड़ा सा रुक कर ताहिरा ने साफ कहा, ‘‘यकीन मानिए भाई साहब, उन दोनों के शादी करने की बात का पता मुझे अभी चला है. अत: आप सभी को बता कर आगाह करना मैं ने अपना कर्तव्य समझा है. इतना अच्छा दूल्हा और इतने हौसले से किया जा रहा सारा इंतजाम, अगर आज उन की शादी कोर्ट में हो गई होती तो सब मटियामेट हो जाता. यह तो अच्छा हुआ कि अदालत में हड़ताल हो गई. आप सब बदनामी से अपने को बचा लें यही सोच कर मैं इस समय आप को सूचित करने आई हूं. अब आप को ही सब कुछ संभालना होगा, राजन भाई. हां, इतना जरूर ध्यान रखिएगा कि मेरा कहीं नाम न आए.’’

इतना बताने के बाद ताहिरा जिस तेजी के साथ आई थी उसी तेजी के साथ वापस चली गई.

ताहिरा से मिली सूचना से राजन को जैसे काठ मार गया. वह सोचने लगा कि आज यदि सचमुच वह सब हो गया होता जो ताहिरा ने बताया है तो मांपिताजी की क्या हालत होती. शायद उन्हें संभाल पाना मुश्किल हो जाता. शायद दोनों आत्मसम्मान के लिए आत्महत्या भी कर लेते पर शुक्र है कि यह अनहोनी होने से पहले ही टल गई. अब मैं राशी को समझा लूंगा, इस विश्वास के साथ राजन ने घर के अंदर प्रवेश किया.

सरोजनी और चंद्र प्रकाश ने मुसकरा कर बेटे का स्वागत किया. मां ने अधिकार के साथ सहेजा, ‘‘बेटा, आ गया तू, अब सबकुछ तुझे ही संभालना है.’’

‘‘हां…हां…मां. अब आप लोग निश्ंिचत रहिए, मैं सब संभाल लूंगा. पर मां, राशी कहां है…दिखाई नहीं पड़ रही.’’ राजन ने चारों तरफ नजर घुमाते हुए पूछा.

‘‘अपने कमरे में होगी…आवाज दूं?’’

‘‘रहने दो, मां,’’ राजन बोला, ‘‘बहुत दिन से उस का कान नहीं उमेठा है,’’ कहते हुए राजन राशी के कमरे में पहुंचा. भाई को आया देख कर चेहरे पर बनावटी हंसी बिखेरती राशी उठ खड़ी हुई.

राजन ने गर्मजोशी के साथ पूछा, ‘‘ठीक है, राशी? अच्छा बता, तू ने हमारे होने वाले जीजाजी से इस दौरान बात की थी या नहीं?’’

राजन यह कहते हुए वहीं राशी के करीब बैठ गया. अनेक प्रकार की इधरउधर की बातें करने के बाद उस ने राशी से पूछा, ‘‘सच बताना राशी, यह शादी तेरी पसंद की तो है?’’

राशी चाैंकी…राजन भैया ऐसा क्यों पूछ रहे हैं… क्या उन्हें मेरे बारे में कुछ पता चल गया है? राशी सावधानी से अपने को सहज बनाती हुई धीमी आवाज में बोली, ‘‘हां, भैया, पसंद है…लेकिन आप यह क्यों पूछ रहे हैं?’’

‘‘मुझ से झूठ मत बोल, राशी. यदि यह शादी तुझे पसंद है तो तू आज दोपहर में कहां गई थी?’’ राजन की आवाज में तल्खी थी.

राशी को तो मानो काटो तो खून नहीं…जरूर भैया को सब बातों की जानकारी हो गई है…लेकिन वह कुछ बोली नहीं. राजन ने फिर कहा, ‘‘खुद सोच कर देख राशी कि मुसलमान लड़के से शादी…’’

भाई की बात को बीच में काट कर राशी व्यंग्यात्मक आवाज में बोली, ‘‘भैया, क्या आप ने ईसाई लड़की से शादी नहीं की, जो आप मुझे सबक दे रहे हैं?’’

‘‘तुझे मेरे बारे में गलत पता है राशी. मैं ने शादी नहीं की है. मां ने शायद तुझे बताया नहीं. तुम्हारी शादी में कोई रुकावट खड़ी न हो इस के लिए मैं ने अपनी मनचाही शादी रोक दी. और अब तुम्हारे विवाह के बाद भी जो कुछ करूंगा मांपिताजी की आज्ञा व इच्छा के अनुसार ही करूंगा,’’ इतना कह कर राजन चुप हो गया और फिर नाश्ता करने व घर में काम देखने के लिए चला गया.

राशी को यह जान कर आश्चर्य हुआ कि राजन भैया ने अभी तक विवाह नहीं किया सिर्फ उस के लिए, लेकिन मां ने तो उस से कभी इस बारे में कोई जिक्र ही नहीं किया. वह अपने बड़े भाई से कहे शब्दों की आत्मग्लानि से छटपटाने लगी.

रात में राजन फिर उसे समझाने उस के कमरे में आया तो राशी ने सबसे पहले अपने दिन के व्यवहार के लिए भाई से माफी मांगी फिर दुखी मन से भारी आवाज में बोली, ‘‘भैया, मैं और अरशद एकदूसरे को बहुत चाहते हैं…इस हालत  में तुम्हीं बताओ, शादी न करने  की बात कैसे मेरी समझ में आए.’’

‘‘तेरी बात अपनी जगह ठीक  है, राशी. लेकिन ऐसा कदम उठाते समय तुझे यह ध्यान नहीं आया कि मम्मीपापा को तेरे इस कदम से कितना बड़ा सदमा पहुंचेगा?’’

‘‘भैया,’’ आंसू भरी नजरों से भर्राए स्वर में राशी बोली, ‘‘मुझे सबकुछ पता था और मैं इस बारे में सोचती भी थी पर पता नहीं अरशद को देखने के बाद मुझे क्या हो गया कि मैं प्यार भी कर बैठी और घर से विद्रोह करने पर उतारू हो गई…’’

राशी की बात बीच में ही काटते हुए राजन बोला, ‘‘होता है, राशी…प्यार में ऐसा ही सबकुछ होता है. पर देख मेरी बहना, अभी समय है.. मांपिताजी को इतना बड़ा सदमा न दे कि वे झेल ही न पाएं. अपने मन पर तू नियंत्रण रख कर डाक्टर अरशद को भुलाने की कोशिश कर जो सपना मांपिताजी ने तुझे तेरी शादी को ले कर देखा है उसे पूरा होने दे…बहन, इसी में इस परिवार व हम सब की भलाई है,’’ इतना कहतेकहते राजन की आंखें भी भर आईं.

‘‘एक बात और है राशी,’’ राजन बहन के प्रति आशान्वित हो कर बोला, ‘‘जैसे सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो वह भूला नहीं कहलाता, बस, यही कहावत मुझे प्यारी बहन पर भी लागू हो जाए. मेरी बस, तुझ से यही उम्मीद है. यह भी तुझे ध्यान में रखना होगा राशी कि यह राज की बात हमेशा राज ही बनी रहे.’’

राशी ने स्वीकृति में गरदन हिला दी, जैसे भाई की बात उस की समझ में अच्छी तरह से आ गई है. अभी तक राशी ने इतनी गहराई से बिलकुल नहीं सोचा था…सचमुच मां इतना बड़ा सदमा शायद ही झेल पातीं और इस के आगे राशी कुछ न सोच सकी. और अगले ही पल भाई की गोद में आंसुओं से तर चेहरा छिपा लिया.

राजन ने भी झुक कर तृप्तमन से बहन का सिर चूम लिया. राजन को लगा कि वह समय से आ गया… तो सबकुछ ठीक हो गया, यदि 1-2 दिन की भी देरी हो जाती तो सबकुछ बिगड़ कर कोई बहुत बड़ा अनर्थ हो जाएगा.

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