तुषार कपूर के इंडस्ट्री में हुए 20 साल पूरे, सिंगल फादर का निभा रहे हैं फर्ज

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में 20 साल पूरे कर चुके अभिनेता और निर्माता तुषार कपूर को ख़ुशी इस बात से है कि उन्होंने एक अच्छी जर्नी इंडस्ट्री में तय किया है. हालांकि इस दौरान उनकी कुछ फिल्में सफल तो कुछ असफल भी रही, पर उन्होंने कभी इसे असहज नहीं समझा, क्योंकि सफलता और असफलता नदी के दो किनारे है. सफलता से ख़ुशी मिलती है और असफलता से बहुत कुछ सीखने को मिलता है.

फिल्म ‘मुझे कुछ कहना है’ से उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में प्रवेश किया, जिसमें उनके साथ अभिनेत्री करीना कपूर थी. पहली फिल्म सफल रही, उन्हें सर्वश्रेष्ठ डेब्यू कलाकार का ख़िताब मिला. इसके बाद उन्होंने कई फिल्में की, जो असफल साबित हुई. करीब दो वर्षों तक उन्हें असफलता मिलती रही, लेकिन फिल्म ‘खाकी’ से उनका कैरियर ग्राफ फिर चढ़ा और उन्होंने कई सफल फिल्में मसलन, ‘क्या कूल है हम’, गोलमाल, गोलमाल 3, ‘शूट आउट एट लोखंडवाला’ ‘द डर्टी पिक्चर’ ‘गोलमाल रिटर्न्स’,आदि फिल्में की.तुषार की कोशिश हमेशा अलग-अलग फिल्मों में अलग किरदार निभाने की रही,लेकिन उन्हें कई बार टाइपकास्ट का शिकार होना पड़ा, क्योंकि कॉमेडी में वे अधिक सफल रहे और वैसी ही भूमिका उन्हें बार-बार मिलने लगी थी, जिससे निकलना मुश्किल हो रहा था. तब तुषार ने इसे चुनौती समझ,सफलता के बारें में न सोचकर अलग भूमिका करने लगे, क्योंकि वे फिल्म मेकिंग प्रोसेस को एन्जॉय करते है. शांत और विनम्र तुषार फ़िल्मी परिवार से होने के बावजूद उन्हें लोग कैरियर की शुरुआत में खुलकर बात करने की सलाह देते थे, जो उन्हें पसंद नहीं था.

कैरियर के दौरान एक समय ऐसा आया, जब तुषार कपूर अपने जीवन में कुछ परिवर्तन चाहते थे, जिसमें उनकी इच्छा एक बच्चे की थी. सरोगेसी का सहारा लेकर वे सिंगल फादर बने.उनका बेटालक्ष्य कपूर अभी 5 साल के हो चुके है. तुषार बेटे को भी वही आज़ादी देना चाहते है, जितना उन्हें अपनी माँ शोभा कपूर,पिता जीतेन्द्र और बहन एकता कपूर से मिला है. 20 साल पूरे होने के उपलक्ष्य पर उन्होंने बात की,जो बहुत रोचक थी पेश है कुछ खास अंश.

सवाल-आपको सिंगल फादर होने की वजह से किस तरह के फायदे मिले?

टाइम मेनेजमेंट अच्छी तरह से हो जाता है. छोटी-छोटी बातों पर ध्यान न देकर जरुरी चीजों पर अधिक ध्यान देने लगा हूं. अब अच्छी ऑर्गनाइज्ड, फोकस्ड,कॉन्फिडेंस और पर्पजफुल लाइफ हो चुकी है, जो मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था.

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सवाल-इतने सालों में इंडस्ट्री में किस प्रकार का बदलाव देखते है?

मोटे तौर पर कहा जाय तो इंडस्ट्री के नियम सालों से एक जैसे ही होती है, केवल पैकेजिंग बदल जाती है. ओटीटी माध्यम जुड़ गया है, पहले सिंगल स्क्रीन था, अब मल्टीप्लेक्स का समय आ गया है. इसके अलावा लोगों तक पहुँचने का जरिया, फिल्म मेकिंग का तरीका बदला है, लेकिन कहानियां वही बनायीं जाती है, जो दर्शकों को पसंद आये और कलाकारों के अभिनय का दायरा वही रहता है. मनोरंजन के साथ अच्छी कहानी की मांग कभी कम नहीं होती.

सवाल-आज से 21 साल पहले दिन की शूटिंग के अनुभव क्या थे?

पहला शॉट मैंने जून साल 2000 को फिल्म ‘मुझे कुछ कहना है’ के लिए दिया था, जिसे करते हुए 21 साल हो गए. शूटिंग के पहले दिन मेरा पहला शॉट एक छड़ी पकड़कर करीना के घर आना था और करीना को प्यार का इजहार कर देना था. वह गुस्सा हो जाती है और मैं शॉक्ड होकर नींद से उठ जाता हूं और समझ में आता है कि ये एक सपना था, हकीकत नहीं और मैंने सोच लिया था कि उसे मैं कभी भी प्रपोज नहीं करूँगा. एक नाईटमेयर वाला सीक्वेंस था. उसे करने से पहले मैं बहुत खुश था, लेकिन अंदर से नर्वस भी था. सेट का वातावरण बड़ा फ़िल्मी लग रहा था. ये बहुत गलत कहा जाता है कि स्टार किड को रेड कारपेट दिया जाता है,जबकि सभी को जीरो से ही शुरू करना पड़ता है. जब समस्या आती है तो कोई सामने नहीं आता और मुझे वहां खड़े होकर सब कुछ सम्हालना पड़ा था. पहला दिन बहुत ख़राब गया, लेकिन धीरे-धीरे ये ठीक होता गया.

सवाल-आपने फिल्म ‘लक्ष्मी’ को प्रोड्यूस किया है, क्या अभिनय में आना नहीं चाहते?

मैं अभिनय अवश्य करूँगा,लेकिन लक्ष्मी की कहानी मुझे अच्छी लगी थीऔर अक्षय कुमार इसे करने के लिए राज़ी हुए इसलिए मैंने प्रोड्यूस किया. रिलीज में समस्या कोविड की वजह से आ गयी थी, लेकिन मुझे रिलीज करना था और मैंने ओटीटी पर रिलीज कर दिया और लोगों ने लॉकडाउन में इस फिल्म को देखकर हिट बना दिया.फिल्म को लेकर जितनी कमाई हुई, उससे मैं संतुष्ट हूं. मैं प्रोड्यूस अभिनय छोड़कर नहीं करना चाहता. अभी फिल्म ‘मारीच’  का काम मैंने ख़त्म किया है, जिसमें मैं अभिनय और प्रोड्यूस दोनों कर रहा हूं. अभिनय मेरे खून में है, जो कभी जा नहीं सकता. मैं अधिकतर साल में एक फिल्म या दो साल में एक फिल्म ही करता हूं. फिल्म प्रोड्यूस करना भी मुझे पसंद है, क्योंकि इसमें मैं कई तरह की फिल्मों का निर्माण कर सकता हूं. इस पेंडेमिक में ओटीटी और सेटेलाइट ही फिल्मों को रिलीज करने में वरदान सिद्ध हो रही है.

सवाल-आप विदेश में पढने गए और आकर फिल्में की, वहां की पढ़ाई से आपको अभिनय में किस प्रकार सहायता मिली और फिल्मों में अभिनय करने का फैसला कैसे लिया?

मैं वहां चार्टेड एकाउंटेंट बनने गया था, मेनेजमेंट किया और चार्टेड एकाउंटेंसी पढ़ा, जिसका फायदा मुझे बहुत मिला है. मैं अपनी एकाउंट, पिता और माँ की एकाउंट को सम्हालता हूं. फिल्म प्रोड्यूस करने में भी बजट के पूरा ख्याल, मैंने इस शिक्षा की वजह से कर पाया, क्योंकि किसी भी काम में पैसा सही जगह लग रहा है कि नहीं, देखना जरुरी होता है. केवल हस्ताक्षर कर देने से कई बार समस्या भी आती है. एजुकेशन हमेशा ही किसी न किसी रूप में काम आती है.

डिग्री लेने के बाद मैंने एक जॉब अमेरिका में लिया, उसे करने के बाद लगा कि कोर्पोरेट वर्ल्ड में काम करना संभव नहीं. कुछ क्रिएटिव काम करने की इच्छा होती थी. फिर मैं इंडिया आकर डेविड धवन के साथ एसिस्टेंट डायरेक्टर का काम किया. उस दौरान ‘मुझे कुछ कहना है’ में मुझे अभिनय का अवसर मिला. मैंने उसे जॉब के रूप में लिया और अभिनय को समझा.

सवाल-आपके पिता ने आपको अभिनय में किस तरह का सहयोग दिया?

मेरे पिता ने मेरी पहले काम की प्रसंशा की और आगे और अच्छा करने की सलाह दी. फिर एक्टिंग क्लासेस, फाइट क्लासेस की शुरुआत कर दी और थोड़े दिनों बाद मैंने एक्टिंग शुरू किया. उनका कहना है कि मुझे खुद काम करके ही खुद की कमी को समझकर ठीक कर सकता हूं.उन्होंने हमेशा मेहनत से काम किया है और मुझे भी करने की सलाह दी.

सवाल-कब शादी करने वाले है?

मैं आज अपने बेटे के लिए काफी हूं और वैसे ही जीना चाहता हूं, क्योंकि शादी कर मैं अपने बेटे को किसी के साथ शेयर नहीं कर सकता. मुझे शादी करना है या नहीं,अभी इस बारें में सोचा नहीं है. मैंने कभी नहीं कहा है कि मैं शादी नहीं करूँगा. हर कोई अपना लाइफ पार्टनर चाहता है, फिर मैं क्यों नहीं चाहूंगा.

सवाल-आपके अभिनय को लेकर क्या किसी ने कुछ सलाह दी?

हाँ कुछ ने कहा था कि मैं थोडा शांत हूं, मुझे फिल्मी हो जाना चाहिए,क्योंकि शांत इंसान हीरो नहीं बन सकता, जो शरारती, शैतान टाइप के होते है, वे ही हीरो बनते है, लेकिन मुझे ये बात समझ में कभी नहीं आई. वे शायद मुझे पहले के हीरो के जैसे देखना चाहते थे, जो अकेला होकर भी कईयों को पीट सकता है. उसकी लम्बाई 6 फीट की हो और मीडिया में हमेशा उसके अफेयर की चर्चा हो आदि. उस समय हीरो मटेरियल होना जरुरी होता था. आज लोग हर तरह की कहानियों की एक्सपेरिमेंट कर रहे है. अभी दर्शकों की पसंद के आधार पर कोई हीरो बनता है.

सवाल-लॉकडाउन में अपने परिवार और बेटे के साथ समय कैसे बिताया?

मैंने लक्ष्य के साथ काफी समय बिताया, उसके स्कूल की पढाई पर ध्यान दिया. मेरे माता- पिता के साथ लक्ष्य दिन में रहता है, इसलिए मैं वहां जाकर समय बिता लेता हूं. जिम जाता हूं, स्क्रिप्ट पढता हूं, डबिंग करता हूं. इस तरह कुछ न कुछ चलता रहता है, लेकिन मुझे हमेशा लगता है कि मैं बेटे के साथ कम समय बिता रहा हूं.

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सवाल-अभी कोविड कि तीसरी लहर आने वाली है, जो बच्चों के लिए खतरनाक है,लोग डरे हुए है, आपने लक्ष्य के लिए क्या तैयारी की है?

मैंने कोविड को खतरनाक हमेशा से ही माना है और सावधानी से बच्चे को दोस्त या दादी के घर ले जाते है. अधिक दूर मैं उसे लेकर नहीं जाता, जहाँ हायजिन और वैक्सीन लगाये लोग है, वहां ले जाता हूं.ऐसी कोई पक्की सबूत नहीं है कि तीसरा वेव आएगा और बच्चों के लिए खतरनाक है. सभी को सावधान रहने की जरुरत है. हमारे व्यवहार से ही वायरस को बढ़ने का मौका मिलता है. डर लगना जरुरी है, ताकि लोग घर से न निकले.

सवाल-आपकी पहली फिल्म की कुछ यादगार पल जिसे आप शेयर करना चाहे?

मेरी करीना के साथ कई यादें है, वह एक खुबसूरत अभिनेत्री है,मेरे साथ उसकी भी पहली फिल्म थी. उसकी फ्रेशनेस और ग्लैमर बहुत ही अलग थी. फिल्म के सफल होने में उसका काम दर्शकों को पसंद आना था. तब अधिक बात मैंने नहीं की थी. गोलमाल फिल्म के बाद हमारी अच्छी दोस्तीहो गयी थी.लॉकडाउन से पहले तैमूर और मेरा बेटा लक्ष्य साथ-साथ खेलते थे,लेकिन अभी कोरोना की वजह से जाना नहीं होता.

सवाल-फिल्मों की असफलता को आपने कैसे लिया?

कुछ फिल्मों के असफल होने पर मैंने परिवार से मोरल सपोर्ट लिया.असल में खुद को ही किसी असफलता की कर्व से गुजर कर आगे बढ़ना पड़ता है. सबसे बड़े स्टार भी कई बार गलत फिल्म ले लेते है और उससे निकलकर एक अच्छी फिल्म करते है और खुद को स्थापित करते है. मुझे थोडा समय लगा, क्योंकिमैं भी वैसी ही एक फिल्म चाहता था, ताकि लोग मुझे पसंद करने लगे और वह मेरी फिल्म ‘खाकी’ से हुआ.

सवाल-इन 20 सालों में फ़िल्मी कहानियों में कितना बदलाव देखते है?

कमर्शियल कहानियों में बदलाव आया है. पैकेजिंग पहले से अलग हो गयी है.आज किसी एक्शन फिल्म के लिए टीम को विदेश ले जाया जाता है, लेकिन हमारे देश के दर्शक इमोशनल है, इसलिए उन्हें इमोशन वाली कहानियां, जो मिट्टी से जुडी हुई हो, आज भी चलती है और कहानियों में जो ग्लैमर है, उसे भी नहीं जाना चाहिए. आज भी हीरो रोमांस, एक्शन और कॉमेडी करता है. ये भी सही है कि अभी ऑफ़बीट, रीयलिस्टिक फिल्मों को भी दर्शक पसंद करने लगे है, जिसे पहले लोग देखना पसंद नहीं करते थे.

कोरोना की नई लहर बदहाली में फंसे सिनेमाघर

कोरोना संक्रमण के डर से 2-3 माह सिनेमाघर खुले रहे पर उन के अंदर देखने के लिए दर्शक नहीं आ रहे थे. उम्मीद थी कि ‘राधे,’ ‘चेहरे,’ ‘सूर्यवंशी’ जैसी बड़ी फिल्मों के प्रदर्शन से दर्शक सिनेमाघर की तरफ लौटेंगे और इस से सिनेमाघर की रौनक लौटने के साथ ही फिल्म इंडस्ट्री को भी कुछ राहत मिलेगी, मगर कोरोना की नई लहर के चलते महाराष्ट्र सहित कई राज्यों के सिनेमाघर 25 मार्च से बंद कर दिए गए. परिणामत: अब ‘चेहरे,’ ‘सूर्यवंशी,’ ‘थलाइवी’ जैसी बड़े बजट की फिल्मों का प्रदर्शन अनिश्चित काल के लिए टल गया है.

सिर्फ हिंदी ही नहीं बल्कि मराठी भाषा की ‘जोंमीवली,’ ‘फ्री हिट डंका,’ ‘झिम्मा,’ ‘बली,’ ‘गोदावरी’ फिल्मों का प्रदर्शन भी अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया.

सलमान खान ने अपनी फिल्म ‘राधे’ को ले कर यहां तक कह दिया है कि इस ईद पर हालात बेहतर नहीं रहे तो इसे अगली ईद पर सिनेमाघरों में ही रिलीज किया जाएगा. ‘सूर्यवंशी’ और ‘चेहरे’ के निर्माता भी कह रहे हैं कि मई से हालात बेहतर हो जाएंगे तब फिल्में सिनेमाघरों में ही प्रदर्शित करेंगे.

यों तो ‘ओटीटी’ प्लेटफौर्म इन बड़े बजट वाली फिल्मों को ओटीटी प्लेटफौर्म पर प्रदर्शित करने का अपने हिसाब से निर्माताओं पर जोरदार दबाव बना रहे हैं. मगर एक कड़वा सच यह है कि ओटीटी पर बड़े बजट की फिल्म के आने से फिल्म इंडस्ट्री का भला कदापि नहीं हो सकता.

फिल्म इंडस्ट्री को खत्म करने की साजिश

वास्तव में इस वक्त बरबादी के कगार पर पहुंच चुकी फिल्म इंडस्ट्री को हमेशा के लिए खत्म करने की साजिश के तहत कुछ लोगों द्वारा मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने का एक खतरनाक प्रयास किया जा रहा है. यह फिल्म इंडस्ट्री के लिए अति नाजुक मोड़ है.

निर्माता को यकीनन अपनी फिल्म को बड़े परदे यानी सिनेमाघरों में प्रदर्शन पर ही दांव लगाना चाहिए. अगर बड़ी फिल्में सिनेमाघरों में प्रदर्शन के लिए नहीं बचीं तो सिंगल थिएटर्स और मल्टीप्लैक्स को तबाह होने से कोई नहीं बचा पाएगा. यदि थिएटर्स और मल्टीप्लैक्स खत्म होना शुरू हुए तो फिल्म उद्योग की कमर टूटने से कोई नहीं बचा सकता. इस से फिल्म इंडस्ट्री हमेशा के लिए तबाह हो जाएगी और इस का पुन: उठना शायद संभव न हो पाए. ओटीटी प्लेटफौर्म का मकसद फिल्म इंडस्ट्री को बचाना कदापि नहीं है. इन्हें भारतीय फिल्म इंडस्ट्री से कोई सराकोर ही नहीं है. ये तो हौलीवुड के नक्शेकदम पर काम कर रहे हैं. हौलीवुड ने अपनी कार्यशैली से पूरे यूरोप के सिनेमा को खत्म कर हर जगह अपनी पैठ बना ली.

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एक कड़वा सच

यह एक कड़वा सच है. फिल्मों के ओटीटी पर आने से निर्माता को भी कोई खास लाभ नहीं मिल रहा है. अब तक अपनी फिल्मों को ओटीटी प्लेटफौर्म ‘हौटस्टार प्लस डिजनी’ पर आनंद पंडित की फिल्म ‘बिग बुल’ आई थी. मगर अब आनंद पंडित अपनी अमिताभ बच्चन व इमरान हाशमी के अभिनय से सजी फिल्म ‘चेहरे’ को किसी भी सूरत में ओटीटी प्लेटफौर्म को देने को तैयार नहीं हैं, जबकि ओटीटी प्लेटफौर्म की तरफ से उन पर काफी दबाव बनाया जा रहा है.

खुद आनंद पंडित कहते हैं, ‘‘यह सच है कि हम पर फिल्म ‘चेहरे’ को ओटीटी पर लाने का जबरदस्त दबाव है. इस की मूल वजह यह है कि हमारे देश मे 5-6 बड़ी ओटीटी कंपनियां हैं. इन्हें बड़ी फिल्में ही चाहिए. खासकर रोमांच थ्रिलर की और जिन में उत्तर भारत की पहाडि़यों का एहसास हो.

मगर ‘द बिग बुल’ से हमें कटु अनुभव हुए. फिल्म ‘बिग बुल’ से हमें टेबल प्रौफिट हुआ है, मगर इस का उतना फायदा नहीं हुआ जितना सिनेमाघर के बौक्स औफिस से मिल सकता था. इसलिए हम ने ‘चेहरे’ को सिनेमाघरों में ही प्रदर्शित करने के लिए रोका है. वैसे हमें भरोसा है कि मई के अंतिम सप्ताह तक सिनेमाघर खुल जाएंगे तो हम जून या जुलाई तक फिल्म को सिनेमाघर में ले कर जाएंगे.’’

आनंद पंडित की बातों में काफी सचाई है. माना कि ओटीटी प्लेटफौर्म पर फिल्म को देने से निर्माता को तुरंत लाभ मिल जाता है, मगर किसी भी फिल्म के लिए ओटीटी प्लेटफौर्म उतना लाभ नहीं दे सकता जितना सिनेमाघरों के बौक्स औफिस से मिल सकता है.

इस का सब से बड़ा उदाहरण राजकुमार राव की फिल्म ‘स्त्री’ है. इस फिल्म की निर्माण लागत 2 करोड़ रुपए थी और इस ने सिनेमाघर के बौक्स औफिस पर 150 करोड़ रुपए कमाए थे. जबकि ओटीटी पर इसे अधिकाधिक 15 करोड़ रुपए ही मिलते. सूत्रों के अनुसार फिल्म इंडस्ट्री के अंदरूनी सूत्र यह मान कर चल रहे हैं कि

यदि ‘सूर्यवंशी’ ओटीटी पर आई तो 50 करोड़ रुपए और अगर सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई तो 100 करोड़ रुपए का फायदा होगा.

हमें यहां यह भी याद रखना होगा कि फिल्म इंडस्ट्री को बंद होने के खतरे से बचाने के लिए आवश्यक है कि फिल्में सिनेमाघरों में प्रदर्शित हों और अपनी गुणवत्ता के आधार पर अधिकाधिक कमाई करें.

बेदम फिल्म इंडस्ट्री

यों तो कोरोना की वजह से पिछले 1 साल से जिस तरह के हालात बने हुए हैं उन्हें देखते हुए इस बात की कल्पना करना कि 2021 में फिल्मों को बौक्स औफिस पर बड़ी सफलता मिलेगी सपने देखने के समान ही है. ‘राधे’ या ‘सूर्यवंशी’ जैसी बड़ी फिल्मों के सिनेमाघरों में प्रदर्शन की खबरों से कुछ उम्मीदें जरूर बंधी थीं पर उस पर कोरोना की नई लहर ने कुठाराघात कर दिया.

सिनेमाघर भी तबाह

कोरोना महामारी के चलते 17 मार्च से पूरी तरह से बंद हो चुके मल्टीप्लैक्स व सिंगल थिएटर के मालिकों व इन से जुड़े कर्मचारियों पर दोहरी मार पड़ी है. मल्टीप्लैक्स चला रहे लोगों की कमाई व इन के कर्मचारियों के वेतन ठप्प हुए और ऊपर से कर्ज भी हो गया.

नवंबर माह से सरकार द्वारा सब कुछ खोल देने व सिनेमाघरों में 50% दर्शकों की उपस्थिति की शर्त से सिनेमाघर मालिकों की कमाई बढ़ने के बजाय उन का संकट बढ़ गया. ऐसे में कोई भी सिनेमाघरों के हालात पूरी तरह से सुधरने तक उन्हें नहीं खोलना चाहता था. कई शहरों के कई मल्टीप्लैक्स व सिंगल थिएटर नवंबर या फरवरी 2021 में भी नहीं खुले.

तो फिर सवाल उठता है कि जो मल्टीप्लैक्स खुले हैं वे क्यों खुले हैं और इन की स्थिति क्या है? देखिए, पूरे देश में पीवीआर के सर्वाधिक मल्टीप्लैक्स हैं और ये मल्टीप्लैक्स किसी न किसी शौपिंग मौल में हैं और किराए पर लिए गए हैं. जब शौपिंग मौल्स खुल गए तो इन पर मल्टीप्लैक्स खोलने का दबाव बढ़ा.

शौपिंग मौल के मालिक को किराया चाहिए. अब पूरे माह मल्टीप्लैक्स में भले ही 1-2 शो हो रहे हों पर उन्हें कोरोना की एसओपी के तहत सैनीटाइजर से ले कर साफसफाई पर पैसा खर्च करना पड़ रहा है. कर्मचारियों को पूरे माह की तनख्वाह देनी पड़ रही है.

बिजली का लंबाचौड़ा बिल भरना पड़ रहा है, जबकि हर शो में 3-4 ज्यादा दर्शक नहीं आ रहे हैं. परिणामत: सिनेमाघर वालों को अपनी जेब से सारे खर्च वहन करने पड़ रहे हैं. तो यह इन के लिए पूर्णरूपेण का सौदा है. इस का असर फिल्म इंडस्ट्री पर भी पड़ रहा है. सिनेमाघर फायदे में तब होंगे जब उन के सभी शो चलें और हर शो में काफी दर्शक हों.

सिनेमाघर में इन दिनों दर्शक न पहुंचने की कई वजहें हैं. पहली वजह तो दर्शक के मन में कोरोना का डार. दूसरी वजह कोरोना महामारी व लौकडाउन के चलते सभी की आर्थिक हालत का खराब होना है. ऐसे में दर्शक सिनेमाघर जा कर फिल्म देखने के लिए पैसे खर्च करने से पहले दस बार सोचता है. तीसरी वजह अच्छी फिल्मों का अभाव.

कुछ फिल्में लौकडाउन के वक्त निर्माताओं की जल्दबाजी के चलते पहले ही ओटीटी पर आ गईं. ‘राधे,’ ‘सूर्यवंशी’ जैसी फिल्में सिनेमाघर में आने से पहले हालात बेहतर होने का इंतजार कर रही थीं, तो वहीं पूरे 6 माह तक एक भी शूटिंग न हो पाने के चलते भी फिल्मों का अभाव हो गया है.

कुछ फिल्मों की शूटिंग चल रही थी तो अनुमान था कि ‘राधे’ व ‘सूर्यवंशी’ के प्रदर्शन से एक माहौल बनेगा, दर्शक सिनेमाघरों की तरफ मुड़ेंगे और फिर जूनजुलाई 2021 से नई फिल्में प्रदर्शन के लिए तैयार हो जाएंगी. मगर अब यह उम्मीद भी खत्म हो चुकी है, क्योंकि कोरोना की नई लहर के चलते फिल्मों की शूटिंग में काफी बड़ा अड़ंगा लग चुका है.

अब तो कुछ जगह सिनेमाघर पूर्णरूपेण बंद हो चुके हैं. कुछ जगह पर नाइट कर्फ्यू है तो दिन में मुश्किल से ही 2 शो हो सकते हैं पर उन शो के लिए फिल्में नहीं हैं.

सिनेमाघरों की माली हालत तभी सुधरेगी और सभी सिनेमाघर तब खुल सकते हैं जब बड़े बजट या अच्छी कहानी वाली बेहतरीन फिल्में लगातार कई हफ्तों तक सिनेमाघरों मे प्रदर्शित होने के लिए उपलब्ध होंगी जोकि वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए 2021 में तो नामुमकिन ही लग रहा है. इस से भी फिल्म इंडस्ट्री की नैया डूबी है.

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यहां इस बात पर भी विचार करना होगा कि जो सिनेमाघर बंद हैं क्या उन से फिल्म इंडस्ट्री को नुकसान नहीं हो रहा है? ऐसा नहीं है. जो सिनेमाघर किराए पर नहीं हैं उन के मालिकों ने फिलहाल बंद रखा हुआ है, क्योंकि उन्हें किराया तो देना नहीं है.

सिनेमाघर जब तक बंद रहेंगे तब तक उन्हें बिजली का बिल भी न्यूनतम यानी यदि सिनेमाघर खुले रहने पर हजार रुपए देने पड़ते थे तो अब बंद रहने पर सिर्फ 100 रुपए देने पड़ते होंगे.

इस के अलावा इन्हें अपने कर्मचारियों को तनख्वाह भी नहीं देनी है. इस तरह ये खुद कम नुकसान में हैं, मगर इन की कमाई पूरी तरह बंद है. इस से फिल्म वितरक भी नुकसान में हैं. इस से घूमफिर कर फिल्म इंडस्ट्री को ही नुकसान पहुंच रहा है.

बड़े कलाकारों की भूमिका

कोरोना महामारी की वजह से फिल्मों व टीवी सीरियल के बजट में भी कटौती की गई है. जुलाई, 2020 माह में तय किया गया था कि कलाकार और वर्कर हर किसी की फीस में कटौती की जाएगी, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री के सूत्रों की मानें तो ऐसा सिर्फ वर्कर व तकनीशियन के साथ हुआ है.

फिल्म हो या टीवी सीरियल हर जगह कोरोना लहर की वापसी के बाद भी दिग्गज कलाकार अपनी मनमानी कीमत ही निर्माता से वसूल रहे हैं और निर्माता भी इन बड़े कलाकारों के सामने नतमस्तक हैं.

कोरोना लहर के दौरान फिल्मकार पहले की तरह अपनी फिल्म का प्रचार नहीं कर रहे हैं. फिल्म के विज्ञापन नहीं दे रहे हैं. मगर वे फिल्म के सिनेमाघर में प्रदर्शन के बाद अपने पीआरओ के माध्यम से जुटाए गए स्टार की सूची का विज्ञापन सोशल मीडिया के हर प्लेटफौर्म के अलावा चंद अंगरेजी के अखबारों में जरूर दे रहे हैं. जबकि दर्शक खुद को ठगा हुआ महसूस करता है.

हाल ही में जब हम ने एक ऐसे ही पत्रकार के यूट्यूब चैनल पर जा कर उस की फिल्म ‘बिग बुल’ की समीक्षा देखी जिसे उस ने साढ़े तीन स्टार दिए थे तो पाया कि कई दर्शकों ने उस के कमैंट बौक्स में सवाल पूछा था कि क्या आप बता सकते हैं कि आप ने किस फिल्म को तीन से कम स्टार दिए हैं? यानी खराब से खराब फिल्म की समीक्षा में अच्छे स्टार दिलाने का भी एक नया व्यापार शुरू हो गया है. मगर इस संस्कृति से भी फिल्म इंडस्ट्री को नुकसान हो रहा है.

फिल्म इंडस्ट्री तभी संकट से उबर सकेगी जब उस से जुड़े हर तबके, वर्कर, तकनीशियन, निर्माता, निर्देशक व कलाकार के साथसाथ फिल्म वितरक, ऐग्जिविटर व सिनेमाघर मालिकों के हितों का भी ध्यान रखा जाए. मगर कोरोना की नई लहर के साथ जिस तरह का माहौल बना है उस से यही आभास होता है कि शायद अब फिल्म इंडस्ट्री कभी उबर नहीं पाएगी.

‘दिया तले अंधेरा’ को सच करती एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री 

धारावाहिक ‘आदत से मजबूर’ टीवी शो के चर्चित स्टार मनमीत ग्रेवाल का सुइसाइड करना और अब ‘क्राइम पेट्रोल’ फेम 25 वर्षीय अभिनेत्री प्रेक्षा मेहता का इंदौर स्थित अपने घर पर आत्महत्या करना,  पूरी एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री सदमे में है. 32 साल के मनमीत के सुइसाइड की वजह पैसे की तंगी और बिल का न चुका पाना है. इधर एक्टर आशीष रॉय भी हॉस्पिटल में डायलिसिस के लिए एडमिट हुए और मोनिटरी हेल्प के लिए सोशल मीडिया से सहयोग मांग रहे है, ताकि उनको डिस्चार्ज मिले.

लॉक डाउन का लगातार बढ़ना, आम नागरिकों से लेकर सेलिब्रिटी सभी के लिए काफी संकट भरा होता जा रहा है, यहां तक कि जहां भी थोड़ी सी ढील लॉक डाउन मिल रही है, लोग कोरोना संक्रमण की परवाह किये बिना काम पर जाने के लिए मजबूर है, क्योंकि काम कर पैसे कमाने है, नहीं तो भूखों मरने की हालात पैदा हो रही है. असल में लॉक डाउन की वजह से बहुत सारे लोग आज जॉब लेस हो गए है. एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री की हालत तो और भी गंभीर है. जिन लोगों ने पेंडेमिक से पहले काम किया है, उनके भी पैसे नहीं मिले है. असल में टीवी इंडस्ट्री आम दिनों में पैसे शूटिंग करने के 60 या 90 दिनों बाद देती है. लॉक डाउन की वजह से कुछ प्रोडक्शन हाउस ने पैसे कलाकारों के चुका दिए है, लेकिन कुछ निर्माताओं को बहाने मिल गए है और वे पैसे देने के विषय को टालते जा रहे है. साथ ही कलाकारों को ये भी डर सताने लगा है कि आगे काम मिलने पर भी ऐसे लोग सही पारिश्रमिक देंगे या नहीं. सभी कलाकार समस्या ग्रस्त है. फाइनेंसियल क्राइसिस के बारें में क्या कहते है, ये टीवी सितारें आइये जाने उन्हीं से,

विजयेन्द्र कुमेरिया 

पिछले 2 महीने से कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन चल रहा है, ऐसे में बहुत सारें ऐसे प्रोडक्शन हाउस है जो बकाया राशि देने के बारें में लगातार बहाने बनाते जा रहे है, उनका कहना है कि उनके पास पैसे की सोर्स नहीं है, जबकि पेंडेमिक से काफी पहले कई शो ऑफ एयर हो चुके है, उन्हें उसके पैसे मिल चुके है, पर पेमेंट अभी तक नहीं मिले. जबकि कुछ अच्छे प्रोडक्शन हाउस इस हालात में भी सबके बकाये राशि का भुगतान कर रही है. काम करवाने के बाद नियम से पेमेंट देना बहुत सारे निर्माता नहीं जानते, ऐसे में वहां काम करने वालों के लिए दुःख की बात है. लॉक डाउन ने इंडस्ट्री को बुरी तरह से प्रभावित किया है. चैनल से लेकर स्पॉट बॉय सभी लोग आज पैसे के लिए मोहताज है. कुछ लोग तो इससे निकल जायेंगे, पर डेली वेज वर्कर्स के लिए अपना जीवन गुजरना मुश्किल होगा.

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विकास सेठी  

इस तरह के आपदा के लिए कोई भी तैयार नहीं था, लेकिन इससे हम सबको सीख मिली है कि हमेशा ऐसे हालात से उबरने के लिए तैयार रहना चाहिए. अभी इस समय पैसे आ नहीं रहे है.ऐसे में हमें जरुरत के अलावा किसी भी चीज पर पैसे खर्च करने के बारें में नहीं सोचना चाहिए. हालाँकि कलाकारों को एक अलग तरीके की लाइफस्टाइल मेन्टेन करने की जरुरत होती है, पर अभी उस बारें में न सोचकर जो है उसी में गुजारा करने की आवश्यकता है, क्योंकि फाइनेंसियल क्राइसिस का असर मानसिक अवस्था पड़ता है, ऐसे में अपने आसपास के दोस्त और परिवार के साथ लगातार संपर्क बनाये रखने की जरुरत है.

केतन सिंह 

अभिनेता केतन सिंह का कहना है कि लॉक डाउन और कोरोना वायरस की वजह से इंडस्ट्री की हालत गंभीर हो चुकी है. कुछ निर्माता अपने कास्ट और क्रू को पेमेंट करने के बारें में सोच रहे है, जबकि कुछ नहीं कर रहे है, उन्हें दोषी ठहराना भी ठीक नहीं होगा, क्योंकि उन्हें चैनल ने पैसे नहीं दिए है और वे आगे हमें नहीं दे पा रहे है. मुश्किल घड़ी है, जिससे सभी को मिलकर आगे निकलना है. अभिनेता मनमीत ने बहुत कड़ा कदम उठा लिया है और मैं समझ सकता हूँ कि उसने किस मानसिक दशा में ऐसा कदम उठाने पर विवश हुआ होगा. एक्टर आशीष रॉय भी ऐसा ही कलाकार है, जिसके साथ मैंने कई शो में काम किया है, आज वह भी पैसे के लिए मोहताज है. मेरा सभी से ये कहना है कि इंडस्ट्री के सारे कलाकार जो जितना भी सहायता कर सकते है आशीष के लिए करें. इसके अलावा एसोसिएशन भी आगे आकर उन कलाकारों को सहयोग दे, जो मानसिक और वित्तीय रूप से टूट चुके है, उन्हें सहारा दें और इस विपत्ति से उन्हें उबारें.

अरुण मंडोला 

मेरे एक दोस्त के पास इतने भी पैसे नहीं थे, जिससे वह कुछ दिन लॉक डाउन में खा सकें, क्योंकि प्रोडक्शन हाउस ने उसके पैसे दिए ही नहीं थे. कलाकार हमेशा सही समय पर पैसे न मिलने की वजह से परेशान रहते है और प्रोडक्शन हाउस कभी भी समय पर पैसे का भुगतान नहीं करती. शूटिंग के बाद हमें 60 से 90 दिनों बाद पैसे मिलते है, जो एक बड़ी समस्या होती है. मुंबई के खर्चे बाकी शहरों की तुलना में अधिक है. बिना कमाई के पैसे खर्च करना बहुत बड़ी मुसीबत है. एक्टर्स के लिए भी CINTAA  को कुछ नियम बनाए जाने की जरुरत है. अगर एक एक्टर देर से सेट पर पहुंचता है तो उसे निर्माता, निर्देशक अनप्रोफेशनल कहते है, लेकिन जब प्रोडक्शन हाउस देर से पैसों का भुगतान करते है तो उन्हें कोई कुछ नहीं कहता. असल में कलाकारों में एकजुटता नहीं है. पहले मनमीत, फिर प्रेक्षा ने आत्महत्या की और अब आशीष रॉय अस्पताल में है, जिसे देखने वाला कोई नहीं. हम सबको एक प्रतिनिधि रखने की जरुरत है, जो मुश्किल घड़ी में कलाकारों का साथ दे सकें.

शरद मल्होत्रा 

अभिनेता शरद मल्होत्रा का कहना है कि ये निश्चित ही मुश्किल घड़ी है. कहा जाता है कठिन समय चला जाता है, पर टफ लोग हमारे बीच रह जाते है. ये कहना मुश्किल है कि ये लॉक डाउन कब ख़त्म होगा और कब सबकुछ पटरी पर लौटेगी. सभी इस समस्या से परेशान है. किसी भी कलाकार का वित्तीय समस्या या काम न मिलने की वजह से डिप्रेशन में जाकर आत्महत्या कर लेना इंडस्ट्री के लिए अच्छी बात नहीं.

जैस्मिन भसीन 

फाइनेंस को हमेशा सही तरह से मैनेज करना जरुरी होता है. लाइफ के बारें में कुछ भी पहले से कहना संभव नहीं होता. किसी ने लॉक डाउन के बारें में सालों से सोचा नहीं होगा. कोरोना काल समाप्त होगा और काम भी शुरू होगा. तब तक सबको संयम और धीरज से रहने की जरुरत है. पैसे आपके जीवन के लिए जरुरी है, पर किसी भी कलाकार का सुइसाइड कर लेना दुखदायी है.

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रिशिना कंधारी

जीवन में उतार-चढ़ाव आते जाते रहते है. ये कुछ दिनों के लिए ही होता है. हर किसी को अपने मेंटल हेल्थ के बारें में ध्यान रखने की जरुरत है. आत्महत्या किसी भी चीज का समाधान नहीं है. पैसों की तंगी मुश्किल घड़ी होती है और ये कलाकारों के साथ घटने वाली कड़वी सच्चाई है. उम्मीद है लॉकडाउन के बाद सब कुछ थोड़े दिनों में नार्मल हो जायेगा.

ऐंटरटेनमैंट

‘‘क्यातुम ने प्रैस के कपड़ों में अंडरवियर भी डाल दिया था?’’ शिखा ने पति शेखर से पूछा.

‘‘शायद… गलती से कपड़ों के साथ चला गया होगा,’’ शेखर बोला.

‘‘प्रैस वाले ने उस के भी क्व5 लगा लिए

हैं. अब ऐसा करना कि कल अंडरवियर पहनो

तो उस पर पैंट मत पहनना क्व5 जो लगे हैं,’’

शिखा बोली.

‘‘तुम भी बस… हर समय मजाक के मूड में रहती हो. कभीकभी सीरियस भी हो जाया करो.’’

‘‘अरे, हम तो हैं ही ऐसे… इसीलिए तो आज भी 50 की उम्र में भी हम से कोई शादी

कर ले.’’

बेटी नेहा बोली, ‘‘तो पापा आप मेरे लिए बेकार में लड़का ढूंढ़ रहे हो… मम्मी की शादी करवा दो. वैसे भी मु झे शादी नहीं करनी.’’

शेखर ने पूछा, ‘‘क्यों बेटा?’’

‘‘पापा, मैं ने अब तक की जो जिंदगी जी है उस में ऐसा महसूस किया है… मैं शादी कर के अपनी आजादी को खो दूंगी… शादी एक बंधन है और मैं बंधन में नहीं बंध सकती. इस बारे में मैं मम्मी से सारी बात शेयरकर लूंगी,’’ नेहा ने स्पष्ट सा जवाब दिया.

तभी शेखर की नजर दरवाजे पर पड़ी. एक कुत्ता घुस आया था. शेखर ने शिखा से कहा, ‘‘तुम ने बाहर का दरवाजा भी ठीक से बंद नहीं किया. देखो कुत्ता घुस आया.’’

‘‘अरे, ठीक से तो देख लिया करो. यह कुत्ता नहीं कुतिया है. शायद तुम से मिलने आई है. मिल लो. फिर इसे बाहर का रास्ता दिखा देना,’’ शिखा बोली.

‘‘तुम तो हर समय मेरे पीछे ही पड़ी रहती हो,’’ शेखर ने तुनक कर कहा.

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‘‘तुम्हारे पीछे नहीं तो क्या पड़ोसी के पीछे पड़ूंगी? वह भी तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा और ऐसा तो होता ही आया है कि पति आगेआगे और पत्नी पीछेपीछे,’’ शिखा ने झट जवाब दिया.

‘‘खैर, छोड़ो मै तुम से जीत नहीं सकता.’’

‘‘शादी भी एक जंग है. उस में जीत कर ही तो तुम मु झे लाए हो. यही सब से बड़ी जीत है…ऐसी पत्नी ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगी,’’ शिखा बोली.

‘‘अच्छा छोड़ो, अपने गुण बहुत बखान कर लिए तुम ने. अब मेरी सुनो,’’ शेखर ने कहा.

‘‘तुम्हारी ही तो सुन रही हूं अब तक.’’

‘‘अपनी नेहा के लिए रिश्ता आया है… नेहा ने मु झ से कहा था कि वह शादी नहीं करना चाहती. तुम जरा उस से बात कर लेना.’’

‘‘ठीक है श्रीमानजी जो आप की आज्ञा… शादी की इस जंग में पत्नी को जीत लाए थे. तब से अब तक आप के ही इशारों पर नाच रही हूं,’’ शिखा बोली.

‘‘अच्छा बहुत जोर की भूख लगी है. अब कुछ खिलाओपिलाओ,’’ शेखर ने कहा.

‘‘देखोजी, खिलानेपिलाने की नौकरी मैं ने नहीं बजाई. अब तुम नन्हे बच्चे तो हो नहीं… लड़की के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हो. वह उम्र तो तुम्हारी निकल चुकी.’’

‘‘ठीक है मेरी मां तू दे तो सही.’’

‘‘देखो मां शब्द का इस्तेमाल मत करो. घाटे में रहोगे. सोच लो फिर कुछ मिलने वाला नहीं. बस मां के प्यार पर ही आश्रित रहोगे.’’

‘‘अरे यार तेरे मांबाप ने तु झे क्या खा कर जना था?’’ शेखर के मुंह से निकला.

‘‘पूछूंगी जा कर उन से कि आप के दामाद को आप का राज पता करना है… इतने सालों बाद आज कुरेदन हो रही है उन को.’’

‘‘ठीक है, ठीक है. बस अब बहुत हो गया,’’ शेखर बोला.

‘‘अरे नेहा, बेटी मेरा चश्मा कहां है?’’ शेखर ने बेटी को आवाज दी.

‘‘अरे पापा, चश्मा आप के सिर पर ही

रखा है. इधरउधर क्यों ढूंढ़ रहे हो?’’ नेहा हंसते हुए बोली.

‘‘इन का हिसाब तो यह है कि बगल में छोरा शहर में ढिंढोरा,’’ शिखा बोली.

‘‘पूछूंगा बच्चू…’’ शेखर ने मुंह बनाते

हुए कहा.

‘‘वाहवाह, कभी बच्चू, कभी अम्मां, कभी मां. अरे जो रिश्ता है, उसी में रहो न?’’

‘‘तुम नहीं सम झोगी… वैसे भी चिराग तले अंधेरा… पूरी दुनिया में भी ढूंढ़ती, तो ऐसा पति नहीं मिलता. कल की ही बात लो. चीनी का डब्बा फ्रिज में रख दिया और जमाने में ढूंढ़ते हुए परेशान हो रही थी… बात करती है कि मैं जवान हूं…ये बुढ़ापे के लक्षण नहीं हैं तो और क्या है?’’

‘‘चलो, छोड़ो अब. बहुत हो गया. 1 कप चाय मिलेगी?’’

‘‘1 कप नहीं, एक बालटी भर लो,’’ शिखा ने कहा.

‘‘बस बहुत हो गया. शेर जब जख्मी हो जाता है न, तो ज्यादा खूंख्वार हो जाता है,’’ मेरी सहनशक्ति का इम्तिहान मत लो. जबान में मिस्री है ही नहीं.’’

‘‘हांहां, मेरी जबान में तो जहर घुला है.

कुएं के मेढक की तरह टर्रटर्र किए जाएंगे,’’ शिखा बोली.

‘‘कभी नहीं सम झोगी तुम… ये शब्द ही हैं, जो जिंदगी  में उल झन पैदा करते हैं. मुसकराहट जिंदगी को सुल झाती है, सम झी?’’

‘‘अरे बेटी नेहा 1 कप चाय बना दे. 1 कप चाय मांगना गुनाह हो गया.’’

‘‘हांहां, चाय तो नेहा ही बनाएगी… सारी जिंदगी छाती पर बैठा कर रखना इसे… मेरे हाथों में तो जहर है,’’ शिखा हाथ नचाते हुए बोली.

‘‘न… न… तुम्हारे हाथों में नहीं, तुम्हारी जवान में जहर है,’’ शेखर ने कहा.

‘‘मेरे लिए तो प्यार के 2 बोल भी नहीं… अब क्या मैं इतनी बुरी हो गई?’’

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‘‘मैं ने कब कहा? अरे पगली, तेरे से अच्छी तो दुनिया में कोई हो ही नहीं सकती… बस थोड़ा सा ज्यादा नहीं चुप रहना सीख ले. हर बात पर पलट कर वार मत किया कर… पगली अब इस उम्र में मैं कहां जाऊंगा?’’ शेखर बोला.

‘‘चाय पीयोगे?’’ शिखा ने दबे शब्दों में पूछा.

‘‘अरे, मैं तो कब से चाय के लिए तरस

रहा हूं.’’

‘‘अरे बेटी नेहा जरा आलू छीलना… सोच रही हूं चाय के साथ पकौड़े भी बना लेती. क्योंजी?’’ शिखा ने पूछा.

‘‘देर आए दुरुस्त आए,’’ शेखर ने हंसते

हुए कहा.

जेठ की बर्थडे पार्टी में इस बोल्ड लुक में दिखीं प्रियंका चोपड़ा

फिल्मों से दूर प्रियंका चोपड़ा इन दिनों अपने पति निक जोनस के साथ टाइम स्पेंड कर रही हैं. हाल ही में प्रियंका के जेठ जोनस का बर्थडे था जिसमें प्रियंका का ग्लैमरस अंदाज दिखा. इस पार्टी की तस्वीरें सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रही हैं. ये पार्टी जेम्स बौन्ड थीम पर बेस्ड थी. जिसमें प्रियंका किसी बौंड गर्ल से कम नहीं लग रही थी.

ऐसा था प्रियंका और निक का लुक…

जो जोनस की बर्थडे पार्टी में प्रियंका अपने पति निक जोनस संग पहुंचीं. लेकिन यहां उन्हें देखकर सब चौंक गए. पार्टी में प्रियंका ब्लैक कलर की शौर्ट ड्रेस में पहुंचीं थी. हाई हील्स और ओपन हेयर प्रियंका के लुक को कौम्पलिमेंट कर रहे थे. प्रियंका पार्टी में पति निक जोनस का हाथ थामे पहुंची थीं. ब्लैक टक्सिडो में निक जोनस भी काफी हैंडसम दिखे.


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इस बौलीवुड फिल्म में आएंगी नजर…

प्रियंका की प्रोफ़ेशनल लाइफ की बात करें तो 3 साल बाद वो बौलीवुड में कमबैक करने जा रही हैं. वो फिल्म ‘द स्काई इज पिंक’ में नजर आएंगी. फिल्म में प्रियंका के साथ फरहान अख्तर और जायरा वसीम लीड रोल में हैं.

प्रियंका की फिल्म को मिला नेशनल अवौर्ड…

हाल ही में प्रियंका चोपड़ा की मराठी प्रौडक्शन फिल्म ‘पाणी’ ने इन्वाइरनमेंट कंजरवेशन कैटगरी में नेशनल अवौर्ड जीता है. बता दें कि पर्पल पेबल पिक्चर्स की शुरुआत प्रियंका चोपड़ा ने की थी. उन्होंने इस प्रौडक्शन हाउस के बैनर तले ‘वेंटिलेटर’, ‘सरवन’, ‘पहुना: द लिटिल विजिटर्स’ और ‘फायरब्रैंड’ जैसी फिल्में प्रोड्यूस की हैं.

 

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I’m so proud to have produced a special film like #Paani. Congratulations to the entire team at @purplepebblepictures @madhumalati @siddharthchopra89 for our second National Award. Big congratulations to @adinathkothare and the entire creative team for bringing this challenging and relevant film to its fruition. My sincere gratitude to the jury for recognising our hard work and awarding #Paani with the ‘Best Feature Film on Environment Conservation’. It has given us further impetus to continue on the path of telling the stories we strongly believe in. #Paani was our humble attempt at using entertainment to bring focus to the seriousness of the water crisis, which is of grave concern the world over. We are so honoured that the film had an impact and that our efforts have been recognised.

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प्रियंका को अवौर्ड मिलने पर निक ने लिखा था ये मैसेज…

निक ने ट्विटर पर प्रियंका को बधाई देते हुए एक प्यारा-सा मेसेज लिखा. निक ने ट्वीट किया, ‘प्रियंका मुझे तुम पर और पूरी @PurplePebblePic टीम पर बहुत गर्व है. ‘पाणी’ फिल्म में शामिल सभी लोगों को बहुत-बहुत बधाई.’

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एडिट बाय- निशा राय

जजमेंटल है क्या रिव्यू: कंगना या राज कुमार राव, आखिर कौन है मेंटल?

निर्माताः एकता कपूर, शोभा कपूर, शैलेंद्र सिंह

निर्देशक: प्रकाश कोवेलामुदी

कलाकार: कंगना रनौत, राज कुमार राव, जिम्मी शेरगिल, अमायरा दस्तूर, अमृता पुरी और अन्य

अवधिः दो घंटे एक मिनट

रेटिंग: तीन स्टार

कहानी
बचपन में घटी घटनाओं के कारण बौबी (कंगना रानौत) वयस्क होने तक सायकोसिस जैसे गंभीर मनोरोग की शिकार हो जाती हैं. बौबी एक वौइस ओवर आर्टिस्ट हैं और वह जिन किरदारों को अपनी आवाज देती हैं, खुद को उन्हीं किरदारों जैसा समझने लगती हैं. अपने साथ काम करने वाले पर हमला करने के लिए उसे मेंटल हौस्पिटल भेज दिया जाता है. तीन महीने बाद उसे दवाएं लेने की सलाह के साथ वहां से वापस घर भेज दिया जाता है. बौबी को बार-बार काकरोच नजर आते हैं, जिनसे उसे डर लगता है. पर काकरोच की उपस्थिति उसका भ्रम है.

बहरहाल, बौबी के ही बंगले में नए किराएदार बनकर एक दंपति केशव (राज कुमार राव) और रीमा (अमायरा दस्तूर) रहने आते हैं. केशव की कंपनी पेस्टीसाइड बनाती है. बौबी इस दंपति की रोजमर्रा की जिंदगी और उनकी प्रेम कहानी में खो जाती हैं. केशव के घर में पेस्टीसाइड के डिब्बे देखकर बौबी सवाल करती है, तो केशव कहता है कि इससे काकरोच जल्दी मर जाते हैं. दूसरे दिन बौबी, केशव की ही फैक्टरी से पेस्टीसाइड का एक डिब्बा उठा लाती है.

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तभी एक दिन रीमा की हत्या हो जाती है. इसके लिए बौबी, केशव को अपराधी समझती हैं. जबकि केशव का दावा है कि रसोईघर मे अंधेरा था और पेस्टीसाइड का डिब्बा खुला था, जिसकी गैस फैली होगी और जैसे ही रीमा ने गैस चूल्हा जलाने की कोशिश की, कमरे में फैली पेस्टीसाइड के चलते वह जलकर मर गयी. पुलिस इंस्पेक्टर (सतीश कौशिक) और हवलदार (ब्रजेंद्र काला) जांच करने के बाद दुर्घटना बताकर केस को बंद कर देते हैं. पर बौबी अभी भी केशव को हत्यारा मानती है. इससे केशव त्रस्त होने का दिखावाकर बौबी पर परेशान करने का आरोप लगाते है. तब बौबी के दादा (ललित बहल) उसे एक बार फिर इलाज के लिए भेज देते हैं.

दो साल बाद कहानी लंदन पहुंच जाती है. जहां केशव श्रवण बनकर बौबी की कजिन मेघा (अमृता पुरी) से शादी करके रह रहा है. मेघा एक थिएटर कलाकार है. वह गर्भवती होती है तो उसकी देखभाल के लिए बौबी के दादाजी उसे लंदन भेजते हैं. मेघा, बौबी को ‘‘फ्यूचरिस्टिक रामायण’’ नाटक में सीता का किरदार निभाने के लिए कहती है और नाटक के निर्देशक (जिम्मी शेरगिल) से मिलवाती है. मेघा के पति के रूप में केशव को देखकर बौबी मेघा को सच बताती है कि वह रीमा का हत्यारा केशव है. जिसने नाम बदलकर उससे शादी की है. पर केशव अपना नाम केशव कुमार श्रवण बताकर उसे चुप कराने का असफल प्रयास करता है. उसके बाद बौबी अपनी बात को साबित करने के लिए सबूत जुटाने लगती है, तो वहीं केशव इस कोशिश में लग जाता है कि किस तरह बौबी को भारत वापस भेजा जाए. पर सवाल ये है कि केशव हत्यारा है या बौबी का भ्रम है. इस राज को जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी.

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पटकथा लेखन व निर्देशन…

एक पुराने अंग्रेजी नाटक ‘‘गैस लाइट’’ के साथ रामायण की कथा को मिलाते हुए मनोरोगी की मनःस्थिति की बात करने वाली ब्लैक कौमेडी की पटकथा लिखते समय लेखक का प्रयास पूरी तरह से सफल नही रहा. अंग्रेजी नाटक की कहानी के अनुसार एक पुरुष अपनी पत्नी के इस संदेह को दूर करने के लिए कि वह हत्यारा है, कुछ मनोवैज्ञनिक हेर फेर करता है और फिर ‘गैस लाइटिंग’ शब्द का ईजाद हो गया. रहस्य प्रधान फिल्म ‘‘जजमेंटल है क्या’’ के शुरू होने के कुछ समय बाद ही यह साफ हो जाता है कि फिल्म की नायिका बौबी ग्रेवाल उस मानसिकता की शिकार है, जो औरतें पुरुष की पवित्रता पर सवाल उठाकर उनके सामने खड़ी हो जाती हैं.

फिल्म की गति काफी धीमी है. इंटरवल से पहले फिल्म रहस्य, रोमांच व डरावने अंदाज में बांधकर रखती है. रोमांच को बचाने के लिए निर्देशक ने रंगों का बाखूबी इस्तेमाल कर सेट बनाए हैं. निर्देशक प्रकाश कोवेलामुदी ने स्टाइलिश निर्देशन कर फिल्म को अपनी तरफ से सशक्त बनाने की कोशिश की है.

उन्होने फिल्म के अंदर खेले जा रहे रामायण नाटक के पात्रों की अवाज का भी अच्छा इस्तेमाल किया हे. इंटरवल के बाद निर्देशक की फिल्म पर से पकड़ ढीली हो जाती है. फिल्म का क्लायमेक्स यानी कि अंत क्या होगा, इसकी भनक दर्शक को फिल्म के शुरूआती सीन्स के साथ ही लग जाती है.

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अभिनयः
जहां तक अभिनय का सवाल है,तो फिल्म के दोनो कलाकारों कंगना रनौत और राज कुमार राव ने बेहतरीन परफार्मेंस दी है. बौबी के किरदार में पागल और दुःखी होने के बीच वह सहज रहती है. पूरी फिल्म में कंगना की अभिनय क्षमता का ही कमाल है कि उसने बौबी को कैरीकेचर नहीं बनने दिया. वह एक मनोरोगियों का हाल बयां करने में पूरी तरह से सफल रही हैं. केशव के किरदार में राज कुमार राव ने भी जबरदस्त अभिनय किया है. बौबी के प्रेमी के रूप में हुसैन दलाल को अच्छा स्कोप मिला है और वह लोगों का मनोरंजन करने में कुछ हद तक सफल रहे हैं. छोटी भूमिका में जिम्मी शेरगिल अपनी छाप छोड़ ही जाते हैं. अमायरा दस्तूर व अमृता पुरी भी ठीक ठाक ही हैं.

मलाल रिव्यू: शानदार अभिनय के साथ कमजोर फिल्म

रेटिंगः दो स्टार
निर्माताः संजय लीला भंसाली, महावीर जैन,भूषण कुमार व किशन कुमार
निर्देशकः मंगेश हड़वले
कलाकारः शरमिन सहगल, मीजान जाफरी, समीर धर्माधिकारी,अंकुर बिस्ट व अन्य
अवधिः दो घंटे, 17 मिनट

2004 की सफल तमिल फिल्म ‘‘ सेवन जी रेनबो कालोनी’’ की हिंदी रीमेक फिल्म ‘‘मलाल’’ नब्बे के दशक की प्रेम कहानी है, मगर फिल्मकार ने इस प्रेम कहानी में नब्बे के दशक में मुंबई में महाराष्ट्रियन बनाम उत्तर भारतीय का जो मुद्दा था, उसे जबरन ठूंसने का प्रयास कर फिल्म को तबाह कर डाला. लेखक व निर्देशक ने अपनी गलती से फिल्म को इतना तबाह किया कि इस फिल्म से करियर की शुरूआत कर रहे शरमिन सहगल और मीजान जाफरी भी अपने बेहतरीन अभिनय से फिल्म को नहीं बचा सके.

इतना ही नहीं फिल्म ‘‘मलाल’’ के निर्माता, सह पटकथा लेखक व संगीतकार संजय लीला भंसाली हैं. मगर ‘मलाल’से भंसाली की प्रेम कहानी प्रधान फिल्मों में मौजूद रहने वाला गहरा व जटिल प्यार तथा भव्यता गायब है. प्यार इंसान को तबाही या उंचाई पर ले जा सकता है, इस मुद्दे को भी फिल्मकार गंभीरता से पेश नहीं कर पाएं.

कहानीः
फिल्म की कहानी नब्बे के दशक में मुंबई के महाराष्ट्रियन बाहुल्य इलाके में क्रिकेट मैच से शुरू होती है. इस क्रिकेट मैच में राजनेता सावंत (समीर धर्माधिकारी) की टीम जब हार के कगार पर पहुंच जाती है, तो सावंत के इशारे पर उनके सहयोगी जाधव अम्पायर को इशारा करते हैं और सावंत की टीम एक रन से मैच जीत जाती है, मगर विरोधी टीम की तरफ के खिलाड़ी शिवा मोरे (मीजान जाफरी) को अम्पायर के गलत निर्णय पर गुस्सा आता है और वह अम्पायर की जमकर पिटाई करता है. जिसे देख सावंत अपनी टीम की हार स्वीकार कर ट्राफी शिवा मोरे को दिलाते हैं. सावंत, जाधव से कहते हैं कि शिवा को आफिस में मिलने के लिए बुलाया जाए, क्योंकि यह उनके काम का है. शिवा ट्राफी लेकर जब चाल के अपने घर में जाता है, तो सीढ़ियों पर उसकी मुठभेड़ आस्था त्रिपाठी (शरमिन सहगल) से होती है, जो कि उसी चाल में प्रोफेसर भोसले के मकान में किराए पर अपने माता-पिता व छोटे भाई के साथ रहने आयी है. आस्था के पिता अमीर थे और शेयर बाजार में बहुत बड़े दलाल थे. मगर शेयर बाजार में ऐसा नुकसान हुआ कि उन्हे चाल में किराए पर रहने के लिए मजबूर होना पड़ा. स्टौक शिवा मोरे चाल में रहने वाला टपोरी किस्म का बदमाश महाराष्ट्रियन लड़का है, जिससे उसके माता पिता भी परेशान रहते हैं. मगर सावंत, शिवा से कहता है कि उसे तो अपने मराठी माणुस की मदद करनी चाहिए और उत्तर भारतीयों को भगाना चाहिए. इससे शिवा को जोश आ जाता है और वह फोन करके प्रोफेसर भोसले से कहता है कि वह एक उत्तर भारतीय को अपना चाल का घर किराए पर देकर अच्छा नही कर रहा हैं. इस पर प्रोफेसर भोसले उसे डांट देता है. शिवा की मां सहित चाल में रह रहे सभी निवासी आस्था व उसके परिवार के साथ अच्छे संबंध जोड़ लेते हैं, मगर शिवा उसे पसंद नहीं करता. सीए की पढ़ाई कर रही आस्था चाल में रह रहे सभी बच्चो को छत पर ट्यूशन पढ़ाने लगती है, ट्यूशन पढ़ने वालों मे शिवा की बहन भी है.

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एक दिन शिवा अपने बदमाश दोस्तों के साथ शराब की बोटलों के साथ छत पर पहुंचते हैं. आस्था के साथ उसका विवाद होता है. आस्था कहती है कि वह इंडियन है और मुंबई भी इंडिया है,  इसलिए यहां हर इंडियन को रहने का हक है. उसके बाद आस्था मराठी भाषा में शिवा को जवाब देती हैं, जिससे शिवा सारा टपोरीपना गायब हो जाता है और वह आस्था को दिल दे बैठता है. अब शिवा, सावंत से भी दूरी बना लेता है. इधर आस्था के माता पिता उसकी शादी विदेश से पढ़ाई करके लौटे अमीर लड़के आदित्य से तय कर देते हैं. जबकि शिवा, आस्था को टूटकर चाहने लगता है और शिवा की जिस बुराई को आस्था पसंद नही करती, वह सारी बुराइयां वह छोड़ने लगता है. धीरे-धीरे शिवा मारा-मारी करना, शराब पीना, सिगरेट पीना छोड़ देता है.

आस्था के प्यार में शिवा अपनी जिंदगी की दिशा व दशा दोनों बदल देता है. एक दिन आस्था अपने माता-पिता के सामने शिवा से स्वीकार करती है कि वह शिवा से बहुत प्यार करती है, मगर उससे ज्यादा प्यार वह अपने पिता से करती है. पिता के आदेश के चलते वह शादी सिर्फ आदित्य से करेगी. यानी कि प्यार पर कर्तव्य भारी पड़ जाता है. आस्था एक मशहूर शेयर ब्रोकर के यहां शिवा को नौकरी दिलवा देती है, बैंक में उसका खाता खुलवा देती है, उसके बाद वह शिवा के साथ अपनी सहेली के घर में कुछ समय बिताती है. वापसी में शिवा कहता है कि वह आस्था के पिता को मनाने का प्रयास करेगा. मगर कहानी कुछ अलग ही रूप ले लेती है.

लेखन व निर्देशनः
फिल्म ‘‘मलाल’ देखकर इस बात का अहसास ही नहीं होता कि इसका निर्देशन 11 वर्ष पहले राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त दिल को छू लेने वाली मराठी भाषा की फिल्म ‘‘टिंग्या’’ का निर्देशन करने वाले निर्देशक मंगेश हडवले ने किया है. फिल्मकार ने कहानी 1998 में शुरू करते हुए उस वक्त मुंबई में उत्तर भारतीयों के खिलाफ शिवसेना का जो रूख था, उसे चित्रित किया, मगर पांच मिनट बाद ही फिल्मकार यह मुद्दा पूरी तरह से भूल गए. पांच मिनट पूरी फिल्म में कहीं भी नेता सावंत नजर नहीं आए. इंटरवल से पहले फिल्म बहुत बेकार है. इंटरवल से पहले फिल्मकार ने बेवजह ही डांस व एक्शन सीन्स भरे हैं. मगर इंटरवल के बाद सही मायनों में प्रेम कहानी शुरू होती है. पर जरुरत से ज्यादा मेलोड्रामा है.

फिल्मकार महाराष्ट्रियन परिवेश और चाल के जीवन का यथार्थ चित्रण करने में जरुर सफल रहे हैं. यूं तो यह एक तमिल फिल्म का रीमेक है, मगर दर्शक को फिल्म देखते हुए ‘‘तेरे नाम’’ सहित कुछ पुरानी फिल्मों की याद आ जाती है. फिल्म के कुछ संवाद हालिया रिलीज फिल्म ‘‘कबीर सिंह’’ की याद दिला देते हैं.

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अभिनयः

महाराष्ट्रियन टपोरी किस्म के बदमाश या यूं कहें कि गुंडे किस्म के शिवा के किरदार को परदे पर जीवंत करने में मीजान काफी हद तक सफल रहे हैं. उनके चेहरे पर गम, दर्द व प्यार के भाव भी बाखूबी उभरते हैं. एक्शन सीन हो या इमोशनल या फिर रोमांस का मसला हो हर जगह मीजान प्रभावित करते हैं. डांस में उन्हे अभी थोड़ी और मेहनत करने की जरुरत है. आस्था के किरदार के साथ शरमिन सहगल ने भी न्याय किया है. वह मासूम व सुंदर नजर आयी हैं. लेकिन कमजोर पटकथा व कमजोर चरित्र चित्रण के चलते इन दोनों की प्रतिभा भी ठीक से उभर नहीं पाती. समीर धर्माधिकारी ने यह फिल्म क्यों की, यह बात समझ से परे हैं.

फिल्म खत्म होने के बाद दर्शक खुद को ठगा हुआ महसूस करता है, उसकी समझ में नहीं आता कि आखिर फिल्म बनाई ही क्यो गयी?

सिनेमा में न्यूडिटी पर रितिका ने क्या कहा?

बाल कलाकार के रूप में अपने कैरियर को शुरू करने वाली रितिका श्रोत्री महाराष्ट्र के पुणे की हैं. बचपन से ही उन्हें अभिनय की इच्छा थी और इसमें साथ दिया उनके माता-पिता ने. 6 साल की उम्र से उन्होंने मराठी नाटकों में काम करना शुरू कर दिया था. इसके अलावा उन्होंने मराठी धारावाहिक और फिल्मों में काम किया है. अभिनय के साथ-साथ वो अपनी पढ़ाई भी कर रही हैं. उन्हें हर नया काम प्रेरित करता है और हर नयी भूमिका में वह अपना सौ प्रतिशत वचनबद्धता रखती हैं. यही वजह है कि उन्हें कई बड़े कलाकारों के साथ काम करने का मौका मिला हैस, इनमें मृणाल कुलकर्णी और माधुरी दीक्षित भी हैं. रितिका अपनी नई फिल्म ‘हृदयी वसंत फुलताना’ क साथ बड़े पर्दे पर आने वाली हैं. जिसके प्रमोशन को लेकर वो काफी उत्सुक हैं. फिल्म में वो गांव की एक एक मौडर्न लड़की की भूमिका में नजर आएंगी. हमने उनसे बात चीत की. पेश है हमारी बातचीत का कुछ अंश.

प्र. इस फिल्म में आपकी भूमिका क्या है?

इस फिल्म में मेरा नाम मीनाक्षी है, जो एक गांव की लड़की है. वह गांव की तरह बैकवार्ड विचारों की नहीं है. शहर की लड़की की तरह मौडर्न विचार रखती है. असल में आज के यूथ सोशल मीडिया पर अधिक जागरूक है, कई बार वे इसका गलत इस्तेमाल कर लेते है, जिसका प्रभाव उनपर पड़ता है. ये एक मनोरंजक फिल्म है. इस फिल्म के जरिये आज की युवाओं को संदेश देने की कोशिश की गयी है.

प्र. ये भूमिका आपके पिछले किरदार से कितना अलग है?

अब तक मैंने सिर्फ ग्लैमरस भूमिका निभाई थी, जिसमें इंग्लिश में बात करना, वैसे पोशाक पहनना था. इसमें मैंने टिपिकल गांव की लड़की की भूमिका नहीं निभाई, इसलिए ये चरित्र मेरे लिए चटपटा और चुनौतीपूर्ण रही है. असल में आज के यूथ किसी संदेश को सुनना नहीं चाहता. ऐसे में इसे मजेदार ढंग से दिखाने की कोशिश की गयी है, ताकि दर्शक इसे देखने आएं.

प्र. आपको अभिनय क्षेत्र में आने की प्रेरणा कहां से मिली?

मुझे बचपन से अभिनय का शौक था. मैंने 6 साल की उम्र से मराठी नाटकों में काम करना शुरू कर दिया था. इसके बाद मराठी धारावाहिक में काम करने का मौका मिला. उससे मेरी पहचान बनी और फिल्मों में काम मिलने लगा.

प्र. पहली फिल्म का मिलना कैसे संभव हुआ?

मेरी पहली मराठी फिल्म ‘स्लैम बुक’ थी, जिसमें मैंने मुख्य भूमिका निभाई थी. उस समय मैं मराठी धारावाहिक में काम कर रही थी. जिसमें मेरे अभिनय को फिल्म के निर्देशक ऋतुराज ढालगरे ने देखा और उन्हें मेरा काम बहुत पसंद आया. कई बार औडिशन हुए और अंत में मैं चुनी गयी और फिल्म सफल रही. इसके बाद मुझे फिल्म ‘बकेट लिस्ट’ भी मिली जिसमें मैंने माधुरी दीक्षित की बेटी की भूमिका निभाई थी. मुझे हर तरह की भूमिका निभाना पसंद है.

प्र. काम के साथ-साथ पढ़ाई को कैसे पूरा करती हैं?

मुझे अभिनय के अलावा स्क्रिप्ट राइटिंग और निर्देशक बनना पसंद है और उसी तरह से मैंने विषय भी लिए है. मैं एग्जाम से पहले पढ़ती हूं. अभी मैं कौलेज में पढ़ रही हूं. मैं पुणे में रहती हूं और शूटिंग के समय मुंबई आती हूं.

प्र. अब तक का सबसे बेस्ट कोम्प्लिमेट्स क्या मिला?

मैंने पुणे में एक नाटक ‘द लाइट कैचर’ में 9 अलग-अलग भूमिका निभाई है जिसे सभी ने पसंद किया है. ये नाटक कई फेस्टिवल में अवार्ड भी जीत चुकी है. इसमें मेरे काम को सभी ने सराहा है. इस नाटक का राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मंचन हो रहा है.

प्र. क्या कभी कास्टिंग काउच का सामना करना पड़ा?

नहीं, मुझे हमेशा काम का अच्छा माहौल मिला है. छोटी-छोटी कुछ घटनाओं के अलावा मुझे कुछ समस्या नहीं आई. मैं भी क्या सही या क्या गलत है, उसकी परख करना जानती हूं.

प्र. समय मिलने पर क्या करना पसंद करती हैं?

समय मिलने पर लिखती हूं.मैं एक डांसर भी हूं. मैंने भरतनाट्यम, लैटिन और सालसा सिखा है.

प्र. आपके यहां तक पहुंचने में माता-पिता का कितना सहयोग रहा है?

उन्होंने हमेशा ही सहयोग दिया है. जब मैं 6 साल की थी ,तबसे अभिनय कर रही हूं. उन्होंने हमेशा मेरे काम की सराहना की है और प्रोत्साहन दिया है. मुझे मुंबई छोड़ने हमेशा मेरे पिता आते थे और मेरी मां मेरे साथ शूटिंग तक रहती है. बड़ा भाई निहार भी मेरे काम से बहुत खुश है.

प्र. कितना संघर्ष रहा है?

मुझे धारावाहिक में काम आसानी से मिल गया था. इससे मुझे मराठी अच्छी फिल्में मिली और एक पहचान बनी. मैं सिर्फ मराठी ही नहीं,  अलग-अलग भाषा की फिल्मों, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय लेवल पर करना चाहती हूं. इसमें संघर्ष कई प्रकार के है, पर मैं इसे एन्जौय करती हूं.

प्र. फिल्म में अन्तरंग दृश्यों को करने में कितनी सहज हैं?

मुझे न्यूडिटी बिल्कुल पसंद नहीं. कभी ‘वल्गर’ दिखना नहीं चाहती. मुझे अच्छी और मनोरंजक फिल्म करने की इच्छा है, लेकिन अगर स्क्रिप्ट की डिमांड है, तो रोमांटिक दृश्य करने में कोई असहजता नहीं.

प्र. आप कितनी फैशनेबल और फूडी हैं?

फैशन मेरे लिए आरामदायक कपड़ों से है. मुझे अधिक कपड़े खरीदने का शौक नहीं. मेरी एक स्टाइलिस्ट है, उसके अनुसार कपड़े पहनती हूं.

मैं बहुत फूडी हूं. नौनवेज बहुत पसंद है. मेरे पिता और भाई दोनों ही बहुत अच्छा नौनवेज बनाते हैं.

हाथियों के अवैध शिकार पर बनी फिल्म ‘जंगली’

हर 15 मिनट में एक हाथी का शिकार उसके दांतों के लिए होता है, इसलिए हाथी दांत से बने सामानों का प्रयोग न करने की सलाह देती फिल्म ‘जंगली’ को अमेरिकन फिल्म मेकर और निर्देशक चक रसेल ने ‘जंगली प्रोडक्शन हाउस’ के तहत एक्शन पैक्ड मनोरंजक फिल्म बनायी. ये सही भी है कि जानवरों का अवैधशिकार विश्व में सभी स्थानों पर होता आया है और इसमें सुरक्षा अधिकारी से लेकर सभी शामिल होते हैं और ऐसे में उन्हें पकड़ना किसी भी सरकार या संस्था के लिए मुमकिन नहीं. ये कहानी कोई नयी नहीं, पर इसमें हाथियों की सुरक्षा जरुरी है, इसे स्पष्ट रूप से दिखाने के लिए अभिनेता विद्युत् जामवाल ने अपने उम्दा और भावनात्मक अभिनय को जानवरों की भावना से जोड़ने की कोशिश की है. जो काबिले तारीफ है. विद्युत जामवाल से अधिक कोई भी अभिनेता इस किरदार में फिट नहीं बैठ सकता था.

ये फिल्म वाकई पारिवारिक फिल्म है. इसमें बच्चों को जानवरों के प्रति सहानुभूति, स्नेह और संवेदनशीलता को बनाये रखने की दिशा में सीख देती है. इसके अलावा फिल्म में पत्रकार के रूप में आशा भट्ट, महावती के रूप में मराठी एक्ट्रेस पूजा सावंत, मकरंद देशपांडे और अतुल कुलकर्णी ने काफी अच्छा काम किया है. कहानी इस प्रकार है,

राज नायर (विद्युत् जामवाल) मुंबई का रहने वाला एक वेटेनरी डौक्टर है और वह जानवरों की  मानसिकता को अच्छी तरह समझता है. अपनी मां की मौत के बाद वह शहर आ जाता है और 10 साल बाद वह ओड़िसा के ‘चन्द्रिका एलीफैंट सेंचुअरी’ जाता है. जहां उसका पिता और महावती के रूप में शंकरा (पूजा सावंत) हाथियों की देखभाल करते है. वहां टीवी जर्नलिस्ट मीरा ( आशा भट्ट) भी पहुंचती हैं, जो जंगल की पूरी कहानी को लोगों तक पहुंचाने का प्रयास कर रही हैं. राज वहां आने पर कुछ शिकारियों द्वारा हाथी दांत के लिए हाथियों के अवैध शिकार को देखकर मर्माहत होता है और उन्हें सजा देने की कसम खाता है. इसी तरह कहानी कई परिस्थितियों से गुजर कर अंजाम तक पहुंचती है.

इस फिल्म की शूटिंग थाईलैंड में की गयी है, जिसे सिनेमेटोग्राफर मार्क इरविन ने बहुत ही शानदार तरीके से जानवरों और कलाकारों के तालमेल, साथ ही कलरीपट्टू की भव्यता को अंजाम दिया है, पर फिल्म में एक्शन को थोड़ा कम कर जानवरों के भावनात्मक जुड़ाव को थोड़ा अधिक दिखाया जाता तो फिल्म शायद थोड़ी और अच्छी लगती. इसके अलावा निर्देशक ने हिंदी फिल्म को पहली बार भारतीय परिवेश में बनाते हुए आत्मशक्ति को बढाने के लिए गणपति का अचानक प्रकट होना,ऐसी फिल्म के लिए अजीब लगा. फिल्मके संगीत काहानी के अनुरूप है. बहरहाल फिल्म परिवार के साथ देखने योग्य है. इसे थ्री स्टार दिया जा सकता है.

फिल्म रिव्यू : रिस्कनामा

रेटिंग : दो स्टार

गांव के पुरुष के अत्याचार से अकाल मृत्यु प्राप्त लड़की भूतनी बनकर किस तरह पूरे गांव के मर्दों से बदला लेती है, उसी की कहानी है फिल्म ‘‘रिस्कनामा’’. पर पूरे परिवार के साथ देखने योग्य नही है.

फिल्म की कहानी राजस्थान के एक गांव की है, जहां के सरपंच शेरसिंह गुर्जर (सचिन गुर्जर) का हुकुम ही सर्वोपरी है. कोई भी इंसान उनके खिलाफ जाने की जुर्रत नही करता. पंचायत के सभी सदस्य शेरसिंह की ही बात का समर्थन करते हैं. शेरसिंह का दावा है कि वह हर काम देश व समाज की संस्कृति को बचाने व गांव की भलाई के लिए ही करते हैं. शेरसिंह के गांव में प्यार करना अपराध है. जो युवक व युवती प्यार करते हुए पकड़े जाते हैं, उन दोनों को शेरसिंह मौत की नींद सुला देता है. गांव के काका (प्रमोद माउथो) की लड़की दामिनी जब एक लड़के राजू के प्यार में पड़कर गांव से बाहर जा रही होती है, तो काका पंचायत पहुंचते हैं, जहां प्रेम की सजा मौत सुनाई जाती है. सरपंच शेरसिंह का मानना है कि दामिनी अपनी मनमर्जी से राजू के साथ गयी है. दोनो को ढूंढकर मौत की सजा दी जाए. गांव के लोग दामिनी व राजू को ढूंढकर लाते हैं, और दोनों को मौत की नींद सुला दिया जाता है. पर दामिनी भूतनी बनकर एक पेड़ पर रहने लगती है. उसके बाद आए दिन किसी न किसी गांव के युवक का शव गांव के उसी पेड़ पर लटकते हुए मिलता है, जिस पर दामिनी के भूत ने कब्जा जमा रखा है.

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सरपंच शेरसिंह जितने नेक दिल इंसान हैं, उनका भाई वीर सिंह (सचिन गुर्जर) उतना ही बदचलन है. हर दिन गांव की किसी न किसी लड़की की इज्जत लूटना उसका पेशा सा बन गया है. दिन भर शराब में डूबा रहता है या जुआ खेलता है. मगर शेरसिंह कि ख्याति दूर दूर तक फैली हुई है. पड़ोसी गांव के चौधरी (शहबाज खान) अपनी बेटी मोहिनी (अनुपमा) की शादी शेरसिंह के भाई वीर सिंह से करने का प्रस्ताव यह सोचकर रखते हैं कि शेरसिंह की ही तरह वीर सिंह भी अच्छा आदमी होगा. शादी के बाद पहली रात ही मोहिनी को पता चल जाता है कि उसकी शादी गलत इंसान से हुई है. वीर सिंह हर दिन रात में शराब पीकर किसी तरह कमरे में पहुंचता है. कुछ दिन बाद चौधरी अपनी बेटी मोहिनी को बिदा कराने आते हैं. जब वह मोहिनी को बिदा कराकर जा रहे होते हैं, तो कुछ पलों के लिए उसकी गाड़ी उसी पेड़ के नीचे रूकती है और दामिनी का भूत मोहिनी में समा जाता है. घर पहुंचने पर मोहिनी बीमार हो जाती है. बेसुध रहती है. डाक्टरों को बीमारी की वजह समझ नही आती. डाक्टर कहते हैं कि यह किसी सदमे में है. इसे खुश रखने की कोशिश की जाए. समय गुजरता है. पर वीर सिंह अपनी पत्नी मोहिनी को बिदा कराने नही जाता. तब शेरसिंह की पत्नी सरला (कल्पना अग्रवाल), शेरसिंह को घर की इज्जत बचाने के लिए मोहिनी को बिदा कराने भेजती है. पर चौधरी गांव की पंचायत बुलाकर शेरसिह पर आरोप लगाते हुए मोहिनी को भेजने से मना कर देते हैं.

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शेरसिंह अपनी गलती कबूल करते हुए कहते हैं कि वह एक बार मोहिनी से मिलना चाहेंगे. शेरसिंह, मोहिनी से मिलने घर के अंदर जाता है. मोहिनी इस शर्त पर जाने के लिए राजी होती हैं कि वह उसके साथ पत्नी जैसा व्यवहार करेंगे. क्योंकि उसके पिता ने उसकी शादी उन्ही को देखकर की थी ना कि वीरसिंह को. अपने गांव व घर में अपनी इज्जत बचाने के लिए शर्त मान लेते हैं. मोहिनी बिदा होकर आ जाती है. अब मोहिनी हर रात शराब में डूबे वीरसिंह को कमरे से बाहर कर शेरसिंह के साथ रात गुजारती है. एक दिन रात में मोहिनी के कमरे से शेरसिंह को निकलते हुए शेरसिंह की बहन ज्योति देख लेती है. शेरसिंह कहता है कि वह मोहिनी को समझाने गया था. फिर ज्योति की सलाह पर शेरसिंह, वीर व मोहिनी को पिकनिक मनाने भेजते हैं. जहां वीर सिंह सुधर जाता है. फिर कहानी तेजी से बदलती है. फिर हालात ऐसे बनते हैं कि वीरसिंह, शेरसिंह और मोहिनी को रंगेहाथों पकड़ता है. वीरसिंह के हाथों गोली चलती है. शेरसिंह व मोहिनी मारे जाते हैं, पर फिर मोहिनी खड़ी हो जाती है, पता चलता है कि उसके अंदर तो दामिनी का भूत है, जिसने बदला लेने के लिए  शेरसिंह से यह सब करवाया. अंततः वीरसिंह भी मारा जाता है और सरला को गांव का सरपंच बना दिया जाता है.

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बदला लेने की कहानी ‘‘रिस्कनामा’’ एक बोझिल फिल्म है. इसमें मनोरंजन का घोर अभाव है. फिल्म में गंदी गालियों की भरमार है, जिसके चलते पूरे परिवार के साथ बैठकर फिल्म नहीं देखी जा सकती. जबकि इस विषय पर यह बेहतरीन फिल्म बन सकती थी. मगर अपरिपक्व लेखन व निर्देशन के चलते फिल्म एकदम सतही बनकर रह गयी. कई जगह लगता है कि पटकथा लिखते समय लेखक खुद स्पष्ट नही रहें कि उन्हें अपनी फिल्म को वास्तव में किस दिशा की तरफ ले जाना है.

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो फिल्म में एक भी कलाकार अपने किरदार के साथ न्याय करने में पूर्णतः सफल नही है. दोहरी भूमिका में सचिन गुर्जर है, मगर शेरसिंह के किरदार में वह कुछ हद तक सफल रहे हैं, पर वीर सिंह के किरदार में वह बेवजह लाउड हो गए हैं. अनुपमा तो सुंदर लगी हैं. कल्पना अग्रवाल ठीक ठाक हैं. प्रमोद माउथो एक गरीब व मजबूर गांव वाले के छोटे किरदार में अपनी छाप छोड़ जाते हैं.

लगभग पौने दो घंटे की फिल्म ‘रिस्कनामा’ का निर्माण अर्जुन सिंह ने किया है. फिल्म के निर्देशक गुर्जर अर्जन नागर हैं.

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