मिलन: भाग 2- जयति के सच छिपाने की क्या थी मंशा

लेखक- माधव जोशी

मैं ने मांजी से यह भी मालूम कर लिया कि पिताजी की मुंबई में ही प्लास्टिक के डब्बे बनाने की फैक्टरी है. अब मैं ने उन से मिलने की ठानी. इस के लिए मैं ने टैलीफोन डायरैक्ट्री में जितने भी उमाकांत नाम से फोन नंबर थे, सभी लिख लिए. अपनी एक सहेली के घर से सभी नंबर मिलामिला कर देखने लगी. आखिरकार मुझे पिताजी का पता मालूम हो ही गया. दूसरे रोज मैं उन से मिलने उन के बंगले पर गई. मुझे उन से मिल कर बहुत अच्छा लगा. लेकिन यह देख कर दुख भी हुआ कि इतने ऐशोआराम के साधन होते हुए भी वे नितांत अकेले हैं. उस के बाद मैं जबतब पिताजी से मिलने चली जाती, घंटों उन से बातें करती. मुझ से बात कर के वे खुद को हलका महसूस करते क्योंकि मैं उन के एकाकी जीवन की नीरसता को कुछ पलों के लिए दूर कर देती. पिताजी मुझे बहुत भोले व भले लगते. उन के चेहरे पर मासूमियत व दर्द था तो आंखों में सूनापन व चिरप्रतीक्षा. वे मां व जयंत के बारे में छोटी से छोटी बात जानना चाहते थे. मैं मानती थी कि पिताजी ने बहुत बड़ी भूल की है और उस भूल की सजा निर्दोष मां व जयंत भुगत रहे हैं. पर अब मुझे लगने लगा था कि उन्हें प्रायश्चित्त का मौका न दे कर जयंत पिताजी, मां व खुद पर अत्याचार कर रहे हैं.

शीघ्र ही मैं ने एक कदम और उठाया. शाम को मैं मां के साथ पार्क में घूमने जाती थी. पार्क के सामने ही एक दुकान थी. एक दिन मैं कुछ जरूरी सामान लेने के बहाने वहां चली गई और मां वहीं बैंच पर बैठी रहीं.

‘‘विजया, विजया, तुम? तुम यहां कैसे?’’ तभी किसी ने मां को पुकारा. अपना नाम सुन कर मांजी एकदम चौंक उठीं. नजरें उठा कर देखा तो सामने पति खड़े थे. कुछ पल तो शायद उन्हें विश्वास नहीं हुआ, लेकिन फिर घबरा कर उठ खड़ी हुईं.

‘‘जयंत की पत्नी जयति के साथ आई हूं. वह सामने कुछ सामान लेने गई है,’’ वे बड़ी कठिनाई से इतना ही कह पाईं.

‘‘कब से यहां हो? तुम खड़ी क्यों हो गईं?’’ उन को जैसे कुछ याद आया, फिर अपनी ही धुन में कहने लगे, ‘‘इस लायक तो नहीं कि तुम मुझ से कुछ पल भी बात करो. मैं ने तुम पर क्याक्या जुल्म नहीं किए. कौन सा ऐसा दर्द है जो मैं ने तुम्हें नहीं दिया. प्रकृति ने तो मुझे नायाब हीरा दिया था, पर मैं ने ही उसे कांच का टुकड़ा जान कर ठुकरा दिया.’’ क्षणभर रुक कर आगे कहने लगे, ‘‘आज मेरे पास सबकुछ होते हुए भी कुछ नहीं है. नितांत एकाकी हूं. लेकिन यह जाल तो खुद मैं ने ही अपने लिए बुना है.’’ पुराने घाव फिर ताजा हो गए थे. आंखों में दर्द का सागर हिलोरें ले रहा था. दोनों एक ही मंजिल के मुसाफिर थे. तभी मां ने सामने से मुझे आता देख कर उन्हें भेज दिया. उस दिन के बाद मैं किसी न किसी बहाने से पार्क जाना टाल जाती. लेकिन मां को स्वास्थ्य का वास्ता दे कर जरूर भेज देती.

इसी तरह दिन निकलने लगे. मांजी रोज छिपछिप कर पति से मिलतीं. पिताजी ने कभी यह जाहिर नहीं किया कि वे मुझे जानते हैं. लेकिन मुझे अब आगे का रास्ता नहीं सूझ रहा था. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए? जब काफी सोचने पर भी उपाय न सूझा तो मैं ने सबकुछ वक्त पर छोड़ने का निश्चय कर डाला. लेकिन एक दिन पड़ोसिन नेहा ने टोका, ‘‘क्या बात है जयति, तुम आजकल पार्क नहीं आतीं. तुम्हारी सास भी किसी अजनबी के साथ अकसर बैठी रहती हैं.’’

‘‘बस नेहा, आजकल कालेज का काम कुछ ज्यादा है, इसलिए मांजी चाचाजी के साथ चली जाती हैं,’’ मैं ने जल्दी से बात संभाली. लेकिन नेहा की बात मुझे अंदर तक हिला गई. अब इसे टालना संभव नहीं था. इस तरह तो कभी न कभी जयंत के सामने बात आती ही और वे तूफान मचा देते. मैं ने निश्चय किया कि यह खेल मैं ने ही शुरू किया है, इसलिए मुझे ही खत्म भी करना होगा. लेकिन कैसे? यह मुझे समझ नहीं आ रहा था. उस रात मैं ठीक से सो न सकी. सुबह अनमनी सी कालेज चल दी. रास्ते में जयंत ने मेरी सुस्ती का कारण जानना चाहा तो मैं ने ‘कुछ खास नहीं’ कह कर टाल दिया. लेकिन मैं अंदर से विचलित थी. कालेज में पढ़ाने में मन न लगा तो अपने औफिस में चली आई. फिर न जाने मुझे क्या सूझा. मैं ने कागज, कलम उठाया और लिखने लगी…

‘‘प्रिय जय,

‘‘मेरा इस तरह अचानक पत्र लिखना शायद तुम्हें असमंजस में डाल रहा होगा याद है, एक बार पहले भी मैं ने तुम्हें प्रेमपत्र लिखा था, जिस में पहली बार अपने प्यार का इजहार किया था. उस दिन मैं असमंजस में थी कि तुम्हें मेरा प्यार कुबूल होगा या नहीं. ‘‘आज फिर मैं असमंजस में हूं कि तुम मेरे जज्बातों से इंसाफ कर पाओगे या नहीं. ‘‘जय, मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं लेकिन मैं मांजी से भी बहुत प्यार करने लगी हूं. यदि उन से न मिली होती तो शायद मेरे जीवन में कुछ अधूरापन रह जाता. ‘‘मांजी की उदासी मुझ से देखी नहीं गई, इसलिए पिताजी की खोजबीन करनी शुरू कर दी. अपने इस प्रयास में मैं सफल भी रही. मैं पार्क में उन की मुलाकातें करवाने लगी. लेकिन मां को मेरी भूमिका का जरा भी भान नहीं था.

‘‘अब वे दोनों बहुत खुश हैं. मांजी बेसब्री से शाम होने की प्रतीक्षा करती हैं. वे तो शायद उन मुलाकातों के सहारे जिंदगी भी काट देंगी. लेकिन तुम्हें याद है, जब 2 महीने पहले मैं सेमिनार में भाग लेने बेंगलुरु गई थी तब एक सप्ताह बाद लौटने पर तुम ने कितनी बेताबी से कहा था, ‘जयति, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता, तुम मुझे फिर कभी इस तरह छोड़ कर मत जाना. तुम्हारी उपस्थिति मेरा संबल है.’ ‘‘तब मैं ने मजाक में कहा था, ‘मांजी तो यहां ही थीं. वे तुम्हारा मुझ से ज्यादा खयाल रखती हैं.’ ‘‘‘वह तो ठीक है जयति, मांजी मेरे लिए पूजनीय हैं, लेकिन तुम मेरी पूजा हो,’ तुम भावुकता से कहते गए थे. ‘‘याद है न सब? फिर तुम यह क्यों भूल जाते हो किमांजी की जिंदगी में हम दोनों में से कोई भी पिताजी की जगह नहीं ले सकता. क्या पिताजी उन की पूजा नहीं, उन की धड़कन नहीं? ‘‘जब मांजी को उन से कोई शिकवा नहीं तो फिर तुम उन्हें माफ करने वाले या न करने वाले कौन होते हो? यह तो किसी समस्या का हल नहीं कि यदि आप के घाव न भरें तो आप दूसरों के घावों को भी हरा रखने की कोशिश करें. ‘‘जय, तुम यदि पिताजी से प्यार नहीं कर सकते तो कम से कम इतना तो कर सकते हो कि उन से नफरत न करो. मांजी तो सदैव तुम्हारे लिए जीती रहीं, हंसती रहीं, रोती रहीं. तुम सिर्फ एक बार, सिर्फ एक बार अपनी जयति की खातिर उन के साथ हंस लो. फिर देखना, जिंदगी कितनी सरल और हसीन हो जाएगी. ‘‘मेरे दिल की कोई बात तुम से छिपी नहीं. जिंदगी में पहली बार तुम से कुछ छिपाने की गुस्ताखी की. इस के लिए माफी चाहती हूं.

‘‘तुम जो भी फैसला करोगे, जो भी सजा दोगे, मुझे मंजूर होगी.

‘‘तुम्हारी हमदम,

जयति.’’

पत्र को दोबारा पढ़ा और फिर चपरासी के हाथों जयंत के दफ्तर भिजवा दिया. उस दिन मैं कालेज से सीधी अपनी सहेली के घर चली गई. शायद सचाई का सामना करने की हिम्मत मुझ में नहीं थी. रात को घर पहुंचतेपहुंचते 10 बज गए. घर पहुंच कर मैं दंग रह गई, क्योंकि वहां अंधकार छाया हुआ था. मेरा दिल बैठने लगा. मैं समझ गई कि भीतर जाते ही विस्फोट होगा, जो मुझे जला कर खाक कर देगा. मैं ने डरतेडरते भीतर कदम रखा ही था कि सभी बत्तियां एकसाथ जल उठीं. इस से पहले कि मैं कुछ समझ पाती, सामने सोफे पर जयंत को मातापिता के साथ बैठा देख कर चौंक गई. मुझे अपनी निगाहों पर विश्वास नहीं हो रहा था. मैं कुछ कहती, इस से पहले ही जयंत बोल उठे, ‘‘तो श्रीमती जयतिजी, आप ने हमें व मांजी को अब तक अंधेरे में रखा…इसलिए दंड भुगतने को तैयार हो जाओ.’’

‘‘क्या?’’

‘‘तुम पैकिंग शुरू करो.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘भई, जाना है.’’

‘‘कहां?’’

‘‘हमारे साथ मसूरी,’’ जयंत ने नाटकीय अंदाज से कहा तो सभी हंस पड़े.

‘‘यदि आप हम दोनों को खुश देखना चाहती हैं तो आप को चलना ही होगा,’’ मैं ने उन की आंखों में झांकते हुए दृढ़ता से कहा. उस दिन मेरी जिद के आगे मांजी को झुकना ही पड़ा. वे हमारे साथ मुंबई आ गईं. यहां आते ही सारे घर की जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली. वे हमारी छोटी से छोटी जरूरत का भी ध्यान रखतीं. जयंत और मैं सुबह साथसाथ ही निकलते. मेरा कालेज रास्ते में पड़ता था, सो जयंत मुझे कालेज छोड़ कर अपने दफ्तर चले जाते. मेरी कक्षाएं 3 बजे तक चलती थीं. साढ़े 3 बजे तक मैं घर लौट आती. जयंत को आतेआते 8 बज जाते. अब मेरा अधिकांश समय मांजी के साथ ही गुजरता. हमें एकदूसरे का साथ बहुत भाता. मैं ने महसूस किया कि हालांकि मांजी मेरी हर बात में दिलचस्पी लेती हैं, लेकिन वे उदास रहतीं. बातें करतेकरते न जाने कहां खो जातीं. उन की उदासी मुझे बहुत खलती. उन्हें खुश रखने का मैं भरसक प्रयत्न करती और वे भी ऊपर से खुश ही लगतीं लेकिन मैं समझती थी कि उन का खुश दिखना सिर्फ दिखावा है.

आगे पढ़ें- मैं ने मांजी से यह भी मालूम कर लिया कि…

 प्रमोशन: भाग 2- क्या बॉस ने सीमा का प्रमोशन किया?

प्रमोशन होने के कारण सीमा को लखनऊ जाना पड़ेगा, यह बात चंद मिनटों में ही घर के हर सदस्य को राजीव से मालूम पड़ गई. सब की आंखों में उत्साह व खुशी की चमक के बजाय तनाव और परेशानी के भाव नजर आने लगे.

रात का खाना सभी ने बु?ोबु?ो से अंदाज में खाया. उस के बाद सभी ड्राइंगरूम में आ कर बैठ गए. प्रमोशन को ले कर आपस में चर्चा का आरंभ रमाकांत ने किया.

‘‘शांति से सोचविचार करो, तो हर समस्या का हल मिल जाता है,’’ उन्होंने गंभीर लहजे में बोलना शुरू किया, ‘‘प्रमोशन का 2 साल को टलना सीमा के कैरियर के हित में नहीं होगा. दूसरी तरफ उस के लखनऊ जाने से कई समस्याएं पैदा होंगी. अब सवाल यह उठता है कि क्या हम उन समस्याओं का उचित समाधान ढूंढ सकते हैं या नहीं?’’

‘‘मेरे लिए अकेले लखनऊ जा कर रहना बिलकुल संभव नहीं है,’’ सीमा की आवाज में गहरी उदासी व निराशा के भाव साफ ?ालके.

‘‘भाभी, आप को यों हिम्मत नहीं हारनी चाहिए. शादी से पहले आप ने होस्टल में अकेले रह कर एमबीए भी तो किया था. लखनऊ में अकेले रहना कठिन तो होगा, पर इस काम को आप असंभव न सम?ों,’’ संजीव ने जोशीले अंदाज में सीमा का हौसला बढ़ाया.

‘‘सब से दूर रहने की बात सोचते ही मेरा मन कांपने लगता है. यहां सब का कितना सहारा है मु?ो. दफ्तर से लौटती हूं, तो खाना तैयार मिलता है. बीमार पड़ने पर देखभाल करने वालों की कमी नहीं है यहां. न कपड़े धोने की फिक्र है, न उन्हें प्रैस कराने की. औफिस में 10-12 घंटे काम करने के बाद वहां इन सभी कामों को करने की हिम्मत व ताकत मु?ा में कहां से आएगी?’’ सीमा की आंखों में आंसू ?िलमिला उठे.

‘‘जरूरत पड़ने पर हिम्मत और ताकत कुदरत देती है,’’ सुचित्रा ने प्यार भरे लहजे में अपनी बहू को सम?ाया, ‘‘बहू तुम सुबह का नाश्ता व दोपहर का खाना सुबह बना लेना और रात को टिफिन मंगवा लिया करना. शनिवारइतवार की छुट्टी में सप्ताहभर के कपड़े तैयार कर सकती हो. औफिस में तुम्हारे साथ काम करने वाले लोग किसी तरह की बीमारी में क्या तुम्हारा साथ नहीं निभाएंगे?’’

‘‘और रही बात अकेले रहने कि तो सप्ताह की 2 छुट्टियों में कभी तुम मिलने आ जाना, कभी मैं और रोहित लखनऊ आ जाया करेंगे. ऐसा करने से तुम्हें अकेलापन कभी ज्यादा महसूस नहीं देगा,’’ राजीव ने एक और समस्या का समाधान सु?ाया.

राजीव उस की तरफ से नहीं बोल रहा है, यह देख कर सीमा पहले हैरान हुई और फिर नाराज नजर आने लगी. उस की नाराजगी बाकी लोगों से छिपी नहीं रही.

‘‘भाभी, जिंदगी में तरक्की करने के लिए इंसान को तकलीफें उठानी ही पड़ती है,’’ सविता अचानक चिड़े से अंदाज में बओली, ‘‘प्रमोशन का मतलब है ज्यादा बड़ी पगार जब पास हो

तभी इंसान अपने सपने पूरे कर सकता है. आप क्या रोहित को अच्छे बोर्डिंग स्कूल में भेजने

की इच्छुक नहीं हैं. कल को आप अपना घर, कार, जेबर, कपड़े क्या अपने पास देखना नहीं चाहेंगी? अगर छोटीबड़ी तकलीफों के डर से आप यह प्रमोशन नहीं लेंगी तो कैसे पूरे होंगे आप के सपने?’’

‘‘रोहित की पढ़ाई को छोड़ कर बाकी सब चीजों के बिना मैं आसानी से रह सकती हूं,’’ सीमा ने धीमी आवाज में सफाई दी.

‘‘इंसान को ज्यादा स्वार्थी नहीं होना चाहिए. आज आप के द्वारा हमारी जरूरतें व शौक पूरे होंगे, तो कल हम भी आप के साथ हर जरूरत के समय अवश्य खड़े होंगे. इस वक्त घर में ज्यादा पैसा आने की जरूरत है. अपनी सब तकलीफों को नजरअंदाज कर आप को सिर्फ इसी वजह से लखनऊ जाना स्वीकार कर लेना चाहिए,’’ काफी उत्तेजित हो जाने के कारण संजीव का चेहरा लाल हो गया.

‘‘संजीव बिलकुल ठीक कह रहा है बहू पूरे परिवार के हित को ध्यान में रखोगी तो लखनऊ जाने का फैसला करना तुम्हारे लिए एकदम आसान होगा,’’ रमाकांत की इस बात से घर का हर सदस्य सहमत नजर आया.

‘‘प्रमोशन के इस मौके को हाथ से निकल जाने देना नादानी होगी,’’ राजीव अपनी पत्नी की तरफ देख कर मुसकराया, ‘‘अपने कैरियर के प्रति तुम पूरी तरह से समर्पित हो. छोटीमोटी परेशानियों के कारण आगे खूब तरक्की करने की राह में रुकावटें खड़ी मत करो, सीमा.’’

सीमा को अपने पति सहित सभी लोग स्वार्थी नजर आए. उस ने क्रोधित लहजे में सब को सुना कर कहा, ‘‘जिन परेशानियों का जिक्र मैं कर रही हूं. उन की फिक्र किसी को भी नहीं है. अपने पति और बेटे से दूर मैं क्यों रहूं? क्या मेरे मन की सुखशांति और खुशियों की कीमत और महत्त्व 40-50 हजार रुपयों से कम है? क्यों

मु?ो परदेश में अकेला भेजने को उतारू हैं आप सब के सब?’’

‘‘आप तो बेकार में इतनी ज्यादा भावुक और परेशान हो रही हो, भाभी. आजकल सिफारिश और पैसे से सबकुछ हो जाता है. आप भी जल्दी से जल्दी वापस यहीं तबादला करवाने की कोशिश करती रहना,’’ संजीव का स्वर रूखा व चिड़चिड़ा हो गया.

‘‘तुम ऐसा इसलिए कह रहे हो क्योंकि तुम्हें मेरी नहीं बल्कि अपनी मोटरसाइकिल पाने की चिंता ज्यादा है,’’ सीमा ने चुभते स्वर में जवाब दिया.

यहां से सारा माहौल बिगड़ गया. संजीव नाराजगी दर्शाता उसी पल वहां से उठ

कर अपने कमरे में चला गया. सुचित्रा रसोई में जा घुसी और रमाकांत व सविता सीमा की उपेक्षा करते हुए टीवी देखने लगे.

आंसू बहाने को तैयार सीमा उठ कर अपने शयनकक्ष में आ गई. उसे उम्मीद थी कि राजीव उस के पीछेपीछे आएगा, पर ऐसा नहीं हुआ.

पति भी उस का साथ नहीं दे रहा है, इस बात

की पीड़ा महसूस करती सीमा अकेले में आंसू बहाने लगी.

करीब घंटेभर बाद राजीव शयनकक्ष में आया. तब तक रोहित सो चुका था. सीमा ने लखनऊ जाने से जुड़ी अपनी परेशानियों को शांत लहजे में उसे फिर से एक बार सम?ाने का प्रयास आरंभ किया.

कुछ मिनटों के बाद ही राजीव ने उसे टोकते हुए कहा, ‘‘तुम ने प्रमोशन न लेने का एकतरफा फैसला कर ही लिया है तो अब इस विषय पर कुछ भी कहनेसुनने की क्या जरूरत है. खुद भी सो जाओ और मु?ो भी सोने दो.’’

‘‘तुम यों नाराज नजर आओगे तो मु?ो

कैसे नींद आएगी?’’ सीमा रोंआसी हो उठी.

‘‘तुम मेरी या किसी और की फिक्र मत करो.’’

‘‘मु?ा पर लखनऊ जाने का यों दबाव बनाना ठीक नहीं है.’’

‘‘सम?ादारी की बातें तुम्हें दबाव बनाना लग रही हैं तो कोई क्या कर सकता है?’’

‘‘मेरे दिल का हाल तुम भी नहीं सम?ोगे, मु?ो ऐसी उम्मीद नहीं थी,’’ सीमा का स्वर शिकायती हो गया.

‘‘अब बेकार में मेरा सिर मत खाओ,’’ राजीव ने अचानक उसे ?िड़का और फिर आंखें मूंद कर खामोश हो गया.

सीमा भी राजीव और उस के घर वालों के स्वार्थी व्यवहार को देख कर मन ही मन नाराज हो उठी. नींद आने से पहले वह सोमवार का प्रमोशन अस्वीकार करने का मन में पक्का फैसला कर चुकी थी.

छुट्टी वाले दिन बैड टी पीने के बाद सीमा कुछ देर और नींद की ?ापकी ले लेती थी. अगले दिन शनिवार को उसे बैड टी देने न सविता आई और न ही उस की सास.

सीमा कुछ देर बाद खुद ही चाय बना कर राजीव व अपने लिए ले आई. कालेज जाने की तैयारी कर रही सविता उसे देख कर न मुसकराई और न ही कुछ बोली. पैर छूने पर सुचित्रा ने उसे बु?ो से अंदाज में आशीर्वाद दिया.

उन दोनों के बदले व्यवहार की चर्चा सीमा राजीव से करना चाहती थी लेकिन उस के बारबार उठाने पर भी वह नहीं उठा. कुछ देर बाद गिलास की चाय भी डंडी हो गई.

‘‘क्यों तंग कर रही हो बारबार उठने को कह कर? मु?ो चैन से सोने दो, प्लीज,’’ राजीव ने गुस्से से उस का हाथ ?ाटका, तो सीमा सम?ा गई कि वह अभी भी उस से खफा है.

कपड़े धोने की मशीन लगाने में उस दिन उस की सास ने सीमा का जरा भी हाथ नहीं बंटाया. अपने व रमाकांत के लिए ब्रैडमक्खन का नाश्ता तैयार कर सुचित्रा वापस अपने शयनकक्ष में जा घुसी. जब रोहित अपने दादादादी के कमरे में घुसा तो उसे सुचित्रा ने ?िड़क कर भगा दिया.

सीमा को अपने पति व बेटे के लिए खुद नाश्ता तैयार करना पड़ा. जब वह नाश्ता तैयार कर रही थी तभी संजीव नौकरी पर जाने के लिए अपने कमरे से बाहर आया. सीमा उसे अवाज देती रह गई, पर वह नाश्ता करने के लिए नहीं रुका. उस के हावभाव साफ दर्शा रहे थे कि उस का मूड पूरी तरह से उखड़ा हुआ है.

राजीव ने भी बड़े अनमने भाव से नाश्ता किया. सीमा ने काफी कोशिश करी, पर वह अपने पति के साथ कैसा भी वार्त्तालाप आरंभ करने में असफल रही.

रमाकांत भी घर में मुंह फुला कर घूमे. फिर 11 बजे के आसपास बैंक में कुछ काम कराने चले गए. राजीव 12 बजे के करीब स्कूल में पढ़ाने चला गया.

सीमा ने उस के जाने के बाद उस का लंच बौक्स डाइनिंग टेबल पर ही रखा देखा. राजीव जानबू?ा कर लंच बौक्स नहीं ले गया है, यह देख कर सीमा का मन बहुत दुखा.

सुचित्रा ने ना सीमा से बात करी न रोहित से. उन का पोता जब भी उन के कमरे में घुसता वह उसे फौरन बाहर निकाल देती.

‘‘दादी मु?ो आज इतना क्यों ज्यादा डांट रही है?’’ अपने बेटे के इस सवाल के जवाब में सीमा ने रोहित को अपनी छाती से जोर से लगा लिया और आंसू न बहाने का प्रयास करने लगी.

दोपहर का खाना सास और बहू ने हमेशा की तरह साथसाथ न खा कर अपनेअपने कमरे में खाया. सीमा का कई बार मन हुआ कि सास के पास जा कर अपने मनोभावों को व्यक्त कर दे, पर उस के कदम सुचित्रा के कमरे तक नहीं बढ़े.

‘ये सब मेरे दुखदर्द व परेशानियों को सम?ा सकते होते, तो सम?ा ही लेते… मैं फैसला कर चुकी हूं और अब किसी को सम?ाने या मनाने की कोशिश कतई नहीं करूंगी,’ मन ही मन ऐसा निश्चिय कर परेशान सीमा अपने पलंग पर पूरी दोपहर करवटें बदलती रही.

जीवन लीला: भाग 2- क्या हुआ था अनिता के साथ

लेखकसंतोष सचदेव

पोते का ध्यान आते ही उन की आंखों में एक चमक सी आ जाती, पर वह मेरी तरह पत्थर के दिल वाली नहीं थीं. कुछ ही दिनों में चल बसीं. मेरे ससुर ने भी चारपाई पकड़ ली.

6-7 महीने बीते होंगे कि एक दिन उन्होंने पास बैठा कर कहा, ‘‘बेटा, तुम से एक खास बात करनी है. मैं ने अपने छोटे बेटे अरुण से बात कर ली है. मैं तुम्हारे नाम मकान की वसीयत करना चाहता था. उसे इस में कोई ऐतराज नहीं है. लेकिन उस का कहना है कि वसीयत में कभीकभी परेशानियां खड़ी हो जाती हैं, खास कर ऐसे मामलों में, जब दूसरे वारिस कहीं दूर दूसरे देश में रह रहे हों. उस की राय है कि वसीयत के बजाय यह संपत्ति अभी तुम्हारे नाम कर दूं.’

अरुण मेरे पति का छोटा भाई था, जो जर्मनी में रहता था. उस का कहना था कि यह संपत्ति मेरे नाम हो जाएगी तो मेरे मन में एक आर्थिक सुरक्षा की भावना बनी रहेगी. ससुर ने कोठी मेरे नाम पर कर दी. कुछ दिनों बाद ससुर भी अपने मन का बोझ कुछ हल्का कर के स्वर्ग सिधार गए. इस के बाद मैं अकेली रह गई. कहने को नौकर राजू था, लेकिन वह इतना छोटा था कि उस की सिर्फ गिनती ही की जा सकती थी.

जब वह 5 साल का था, तब उस की मां उसे साथ ले कर हमारे यहां काम करने आई थी. उस की मां की मौत हो गई तो राजू मेरे यहां ही रहने लगा था. कुछ दिनों तक वह स्कूल भी गया था, लेकिन पढ़ाई में उस का मन नहीं लगा तो उस ने स्कूल जाना बंद कर दिया. इस के बाद मैं ने ही उसे हिंदी पढ़नालिखना सिखा दिया था.

जिंदगी का एकएक दिन बीतने लगा. लेकिन अकेलेपन से डर जरूर लगता था. ससुरजी की मौत पर देवर अरुण जर्मनी से आया था. मेरे अकेले हो जाने की चिंता उसे भी थी. इसी वजह से कुछ दिनों बाद उस ने फोन कर के कहा था कि उस के एक मित्र के पिता सरदार नानक सिंह अपनी पत्नी के साथ दिल्ली रहने आ रहे हैं. अगर मुझे आपत्ति न हो तो मकान का निचला हिस्सा उन्हें किराए पर दे दूं. वह सज्जन पुरुष हैं. उन के रहने से हमें सुरक्षा भी मिलती रहेगी और कुछ आमदनी भी हो जाएगी.

मुझे क्या आपत्ति होती. मैं मकान के ऊपर वाले हिस्से में रहती थी, नीचे का हिस्सा खाली पड़ा था, इसलिए मैं ने नीचे वाला हिस्सा किराए पर दे दिया. सचमुच वह बहुत सज्जन पुरुष थे. अब मैं नानक सिंह की छत्रछाया में रहने लगी.

जितना स्नेह और अपनापन मुझे नानक सिंहजी से मिला, शायद इतना पिताजी से भी नहीं मिला था. पतिपत्नी अपने लंबे जीवनकाल के अनुभवों से मेरा परिचय कराते रहते थे. मैं मंत्रमुग्ध उन्हें निहारती रहती और अपनी टीस भरी स्मृतियों को उन के स्नेहभरे आवरण के नीचे ढांप कर रख लेती.

समय बीतता रहा. हमेशा की तरह उस रविवार की छुट्टी को भी वे मेरे पास आ बैठे. इधरउधर की थोड़ी बातें करने के बाद नानक सिंहजी ने कहा, ‘‘आज तुम से एक खास बात करना चाहता हूं. मेरा बेटा जर्मनी से यहां आ कर रहने के लिए कह रहा है. वैसे भी अब हम पके आम हैं, पता नहीं कब टपक जाएं. बस एक ही बात दिमाग में घूमती रहती है. तुम्हें बेटी माना है, इसलिए अब तुम्हें अकेली नहीं छोड़ सकता, इतने बड़े मकान में अकेली और वह भी यहां की लचर कानूनव्यवस्था के बीच. इसी उधेड़बुन में मैं कई दिनों से जूझ रहा हूं.

पलभर रुक कर वह आगे बोले, ‘‘अपने काम से मैं अकसर स्टेट बैंक जाया करता हूं. वहां के मैनेजर प्रेम कुमार से मेरी गहरी दोस्ती हो गई है. एक दिन बातोंबातों में पता चला कि उन की पत्नी का स्वर्गवास हो गया है. उस के बाद से उन्हें अकेलापन बहुत खल रहा है. कहने को उन के 3 बच्चे हैं, लेकिन सब अपनेअपने में मस्त हैं. बड़ी बेटी अपने पति के साथ जापान में रहती है. बेटा बैंक में नौकरी करता है. उस की शादी हो चुकी है. तीसरी बेटी संध्या थोड़ाबहुत खयाल रखती थी, लेकिन उस की भी शादी हो गई है. उस के जाने के बाद से वह अकेले पड़ गए हैं. एक दिन मैं ने कहा कि वह शादी क्यों नहीं कर लेते? लेकिन 3 जवान हो चुके बच्चों के बाप प्रेम कुमार को मेरा यह प्रस्ताव हास्यास्पद लगा.

मैं सुनती रही, नानक सिंहजी कहते रहे, ‘‘मैं विदेशों में रहा हूं. मेरे लिए यह कोई हैरानी की बात नहीं थी. पर भारतीय संस्कारों में पलेबढ़े प्रेमकुमार को मेरा यह प्रस्ताव अजीब लगा. मैं ने मन टटोला तो लगा कि अगर कोई हमउम्र मिल जाए तो शेष जीवन के लिए वह उसे संगिनी बनाने को तैयार हो जाएंगे. मैं ने उन से यह सब बातें तुम्हें ध्यान में रख कर कही थीं. क्योंकि मेरा सोचना था कि तुम बाकी का जीवन उन के साथ उन की पत्नी के रूप में गुजार लोगी. क्योंकि औरत का अकेली रह कर जीवन काटना कष्टकर तो है ही, डराने वाला भी है.’’

इस के बाद एक दिन नानक सिंहजी प्रेम कुमार को मुझ से मिलवाने के लिए घर ले आए. बातचीत में वह मुझे अच्छे आदमी लगे, इसलिए 2 बार मैं उन के साथ बाहर भी गई. काफी सोचने और देवर से सलाह कर के मैं ने नानक सिंहजी के प्रस्ताव को मौन स्वीकृति दे दी.

इस के बाद प्रेमकुमारजी ने अपने विवाह की बात बच्चों को बताई तो एकबारगी सभी सन्न रह गए. बड़ी बेटी रचना विदेशी सभ्यता संस्कृति से प्रभावित थी, इसलिए उसे कोई आपत्ति नहीं थी. संध्या अपने पिता की मन:स्थिति और घर के माहौल से परिचित थी, इसलिए उस ने भी सहमति दे दी. पर बेटा नवीन और बहू शालिनी बौखला उठे. लेकिन उन के विरोध के बावजूद हमारी शादी हो गई.

शादी के 3-4 दिनों बाद नवीन अपना सामान ले कर शालिनी के साथ किराए के मकान में रहने चला गया. मुझे यह अच्छा नहीं लगा. मैं सोच में पड़ गई, अपने अकेलेपन से छुटकारा पाने के लिए मैं ने एक बेटे को उस के पिता से अलग कर दिया. मुझे अपराधबोध सा सताने लगा. लगता, बहुत बड़ी गलती हो गई. इस बारे में मैं ने पहले क्यों नहीं सोचा? अपने स्वार्थ में दूसरे का अहित करने की बात सोच कर मैं मन मसोस कर रह जाती. भीतर एक टीस सी बनी रहती.

पर मैं ने आशा का दामन कभी नहीं छोड़ा था, फिर अब क्यों चैन से बैठ जाती. मैं ने एक नियम सा बना लिया. स्कूल से छुट्टी होने के बाद मैं शालिनी से मिलने उस के घर जाती. एक गाना है ना ‘हम यूं ही अगर रोज मिलते रहे तो देखिए एक दिन प्यार हो जाएगा…’ शालिनी एक सहज और समझदार लड़की थी. कुछ ही दिनों में उस ने मुझे अपनी सास के रूप में स्वीकार कर लिया.

मुझे ले कर उन पत्नी पति के बीच संवाद चलता रहा, नतीजतन धीरेधीरे नवीन ने भी मुझे अपनी मां का दर्जा दे दिया. एक भरेपूरे परिवार का मेरा सपना साकार हो गया. मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा. प्रेमकुमारजी के रिश्तेदारों की कानाफूसी से मुझे पता चला कि इतना अपनापन तो प्रेमकुमारजी की पहली पत्नी भी नहीं निभा पाई, जितना मैं ने निभाया है. मैं आत्मविभोर हो उठती.

अपनी हृदय चेतना से निकली आकांक्षाओं को मूर्तरूप में देख कर भला कौन आनंदित नहीं होता. जो कभी परिवार में नहीं रहे, वे इस पारिवारिक सुख आह्लाद की कल्पना भी नहीं कर सकते. हर दिन खुशियों की सतरंगी चुनरी ओढ़े मैं पूरे आकाश का चक्कर लगा लेती. दिनों को जैसे पंख लग गए, 3 साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला.

आगे पढें- एसटीडी पर फोन बुक किया. कई…

Valentine’s Day 2024: कायर- क्यों श्रेया ने श्रवण को छोड़ राजीव से विवाह कर लिया?

श्रेया के आगे खड़ी महिला जैसे ही अपना बोर्डिंग पास ले कर मुड़ी श्रेया चौंक पड़ी. बोली, ‘‘अरे तन्वी तू…तो तू भी दिल्ली जा रही है… मैं अभी बोर्डिंग पास ले कर आती हूं.’’

उन की बातें सुन कर काउंटर पर खड़ी लड़की मुसकराई, ‘‘आप दोनों को साथ की सीटें दे दी हैं. हैव ए नाइस टाइम.’’ धन्यवाद कह श्रेया इंतजार करती तन्वी के पास आई.

‘‘चल आराम से बैठ कर बातें करते हैं,’’ तन्वी ने कहा. हौल में बहुत भीड़ थी. कहींकहीं एक कुरसी खाली थी. उन दोनों को असहाय से एकसाथ 2 खाली कुरसियां ढूंढ़ते देख कर खाली कुरसी के बराबर बैठा एक भद्र पुरुष उठ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘बैठिए.’’

‘‘हाऊ शिवैलरस,’’ तन्वी बैठते हुए बोली, ‘‘लगता है शिवैलरी अभी लुप्त नहीं हुई है.’’

‘‘यह तो तुझे ही मालूम होगा श्रेया…तू ही हमेशा शिवैलरी के कसीदे पढ़ा करती थी,’’ तन्वी हंसी, ‘‘खैर, छोड़ ये सब, यह बता तू यहां कैसे?’’

‘‘क्योंकि मेरा घर यानी आशियाना यहीं है, दिल्ली तो एक शादी में जा रही हूं.’’

‘‘अजब इत्तफाक है. मैं एक शादी में यहां आई थी और अब अपने आशियाने में वापस दिल्ली जा रही हूं.’’

‘‘मगर जीजू तो सिंगापुर में सैटल्ड थे?’’

‘‘हां, सर्विस कौंट्रैक्ट खत्म होने पर वापस दिल्ली आ गए. नौकरी के लिए भले ही कहीं भी चले जाएं, दिल्ली वाले सैटल कहीं और नहीं हो सकते.’’

‘‘वैसे हूं तो मैं भी दिल्ली की, मगर अब भोपाल छेड़ कर कहीं और नहीं रह सकती.’’

‘‘लेकिन मेरी शादी के समय तो तेरा भी दिल्ली में सैटल होना पक्का ही था,’’ श्रेया ने उसांस भरी.

‘‘हां, था तो पक्का ही, मगर मैं ने ही पूरा नहीं होने दिया और उस का मुझे कोई अफसोस भी नहीं है. अफसोस है तो बस इतना कि मैं ने दिल्ली में सैटल होने का मूर्खतापूर्ण फैसला कैसे कर लिया था.’’

‘‘माना कि कई खामियां हैं दिल्ली में, लेकिन भई इतनी बुरी भी नहीं है हमारी दिल्ली कि वहां रहने की सोचने तक को बेवकूफी माना जाए,’’ तन्वी आहत स्वर में बोली.

‘‘मुझे दिल्ली से कोई शिकायत नहीं है तन्वी,’’ श्रेया खिसिया कर बोली, ‘‘दिल्ली तो मेरी भी उतनी ही है जितनी तेरी. मेरा मायका है. अत: अकसर जाती रहती हूं वहां. अफसोस है तो अपनी उस पसंद पर जिस के साथ दिल्ली में बसने जा रही थी.’’

तन्वी ने चौंक कर उस की ओर देखा. फिर कुछ हिचकते हुए बोली, ‘‘तू कहीं श्रवण की बात तो नहीं कर रही?’’

श्रेया ने उस की ओर उदास नजरों से देखा. फिर पूछा, ‘‘तुझे याद है उस का नाम?’’

‘‘नाम ही नहीं उस से जुड़े सब अफसाने भी जो तू सुनाया करती थी. उन से तो यह पक्का था कि श्रवण वाज ए जैंटलमैन, ए थौरो जैंटलमैन टु बी ऐग्जैक्ट. फिर उस ने ऐसा क्या कर दिया कि तुझे उस से प्यार करने का अफसोस हो रहा है? वैसे जितना मैं श्रवण को जानती हूं उस से मुझे यकीन है कि श्रवण ने कोई गलत काम नहीं किया होगा जैसे किसी और से प्यार या तेरे से जोरजबरदस्ती?’’

श्रेया ने मुंह बिचकाया, ‘‘अरे नहीं, ऐसा सोचने की तो उस में हिम्मत ही नहीं थी.’’

‘‘तो फिर क्या दहेज की मांग करी थी उस ने?’’

‘‘वहां तक तो बात ही नहीं पहुंची. उस से पहले ही उस का असली चेहरा दिख गया और मैं ने उस से किनारा कर लिया,’’ श्रेया ने फिर गहरी सांस खींची, ‘‘कुछ और उलटीसीधी अटकल लगाने से पहले पूरी बात सुनना चाहेगी?’’

‘‘जरूर, बशर्ते कोई ऐसी व्यक्तिगत बात न हो जिसे बताने में तुझे कोई संकोच हो.’’

‘‘संकोच वाली तो खैर कोई बात ही नहीं है, समझने की बात है जो तू ही समझ सकती है, क्योंकि तूने अभीअभी कहा कि मैं शिवैलरी के कसीदे पढ़ा करती थी…’’

इसी बीच फ्लाइट के आधा घंटा लेट होने की घोषणा हुई.

‘‘अब टुकड़ों में बात करने के बजाय श्रेया पूरी कहानी ही सुना दे.’’

‘‘मेरा श्रवण की तरफ झुकाव उस के शालीन व्यवहार से प्रभावित हो कर हुआ था. अकसर लाइबेरी में वह ऊंची शैल्फ से मेरी किताबें निकालने और रखने में बगैर कहे मदद करता था. प्यार कब और कैसे हो गया पता ही नहीं चला. चूंकि हम एक ही बिरादरी और स्तर के थे, इसलिए श्रवण का कहना था कि सही समय पर सही तरीके से घर वालों को बताएंगे तो शादी में कोई रुकावट नहीं आएगी. मगर किसी और ने चुगली कर दी तो मुश्किल होगी. हम संभल कर रहेंगे.

प्यार के जज्बे को दिल में समेटे रखना तो आसान नहीं होता. अत: मैं तुझे सब बताया करती थी. फाइनल परीक्षा के बाद श्रवण के कहने पर मैं ने उस के साथ फर्नीचर डिजाइनिंग का कोर्स जौइन किया था. साउथ इंस्टिट्यूट मेरे घर से ज्यादा दूर नहीं था.

श्रवण पहले मुझे पैदल मेरे घर छोड़ने आता था. फिर वापस जा कर अपनी बाइक ले कर अपने घर जाता था. मुझे छोड़ने घर से गाड़ी आती थी. लेने भी आ सकती थी लेकिन वन वे की वजह से उसे लंबा चक्कर लगाना पड़ता. अत: मैं ने कह दिया  था कि नजदीक रहने वाले सहपाठी के साथ पैदल आ जाती हूं. यह तो बस मुझे ही पता था कि बेचारा सहपाठी मेरी वजह से डबल पैदल चलता था. मगर बाइक पर वह मुझे मेरी बदनामी के डर से नहीं बैठाता था. मैं उस की इन्हीं बातों पर मुग्ध थी.

वैसे और सब भी अनुकूल ही था. हम दोनों ने ही इंटीरियर डैकोरेशन का कोर्स किया. श्रवण के पिता फरनिशिंग का बड़ा शोरूम खोलने वाले थे, जिसे हम दोनों को संभालना था. श्रवण का कहना था कि रिजल्ट निकलने के तुरंत बाद वह अपनी भाभी से मुझे मिलवाएगा और फिर भाभी मेरे घर वालों से मिल कर कैसे क्या करना है तय कर लेंगी.

लेकिन उस से पहले ही मेरी मामी मेरे लिए अपने भानजे राजीव का रिश्ता ले कर आ गईं. राजीव आर्किटैक्ट था और ऐसी लड़की चाहता था, जो उस के व्यवसाय में हाथ बंटा सके. मामी द्वारा दिया गया मेरा विवरण राजीव को बहुत पसंद आया और उस ने मामी से तुरंत रिश्ता करवाने को कहा.

‘‘मामी का कहना था कि नवाबों के शहर भोपाल में श्रेया को अपनी कला के पारखी मिलेंगे और वह खूब तरक्की करेगी. मामी के जाने के बाद मैं ने मां से कहा कि दिल्ली जितने कलापारखी और दिलवाले कहीं और नहीं मिलेंगे. अत: मेरे लिए तो दिल्ली में रहना ही ठीक होगा. मां बोलीं कि वह स्वयं भी मुझे दिल्ली में ही ब्याहना चाहेंगी, लेकिन दिल्ली में राजीव जैसा उपयुक्त वर भी तो मिलना चाहिए. तब मैं ने उन्हें श्रवण के बारे में सब बताया. मां ने कहा कि मैं श्रवण को उन से मिलवा दूं. अगर उन्हें लड़का जंचा तो वे पापा से बात करेंगी.

‘‘दोपहर में पड़ोस में एक फंक्शन था. वहां जाने से पहले मां ने मेरे गले में सोने की चेन पहना दी थी. मुझे भी पहननी अच्छी लगी और इंस्टिट्यूट जाते हुए मैं ने चेन उतारी नहीं. शाम को जब श्रवण रोज की तरह मुझे छोड़ने आ रहा था तो मैं ने उसे सारी बात बताई और अगले दिन अपने घर आने को कहा.

‘‘कल क्यों, अभी क्यों नहीं? अगर तुम्हारी मम्मी कहेंगी तो तुम्हारे पापा से मिलने के लिए भी रुक जाऊंगा,’’ श्रवण ने उतावली से कहा.

‘‘तुम्हारी बाइक तो डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट में खड़ी है.’’

‘‘खड़ी रहने दो, तुम्हारे घर वालों से मिलने के बाद जा कर उठा लूंगा.’’

‘‘तब तक अगर कोई और ले गया तो? अभी जा कर ले आओ न.’’

‘‘ले जाने दो, अभी तो मेरे लिए तुम्हारे मम्मीपापा से मिलना ज्यादा जरूरी है.’’

सुन कर मैं भावविभोर हो गई और मैं ने देखा नहीं कि बिलकुल करीब 2 गुंडे चल रहे थे, जिन्होंने मौका लगते ही मेरे गले से चेन खींच ली. इस छीनाझपटी में मैं चिल्लाई और नीचे गिर गई. लेकिन मेरे साथ चलते श्रवण ने मुझे बचाने की कोई कोशिश नहीं करी. मेरा चिल्लाना सुन कर जब लोग इकट्ठे हुए और किसी ने मुझे सहारा दे कर उठाया तब भी वह मूकदर्शक बना देखता रहा और जब लोगों ने पूछा कि क्या मैं अकेली हूं तो मैं ने बड़ी आस से श्रवण की ओर देखा, लेकिन उस के चेहरे पर पहचान का कोई भाव नहीं था.

एक प्रौढ दंपती के कहने पर कि चलो हम तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा दें, श्रवण तुरंत वहां से चलता बना. अब तू ही बता, एक कायर को शिवैलरस हीरो समझ कर उस की शिवैलरी के कसीदे पढ़ने के लिए मैं भला खुद को कैसे माफ कर सकती हूं? राजीव के साथ मैं बहुत खुश हूं. पूर्णतया संतुष्ट पर जबतब खासकर जब राजीव मेरी दूरदर्शिता और बुद्धिमता की तारीफ करते हैं, तो मुझे बहुत ग्लानि होती है और यह मूर्खता मुझे बुरी तरह कचोटती है.’’

‘‘इस हादसे के बाद श्रवण ने तुझ से संपर्क नहीं किया?’’

‘‘कैसे करता क्योंकि अगले दिन से मैं ने डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट जाना ही छोड़ दिया. उस जमाने में मोबाइल तो थे नहीं और घर का नंबर उस ने कभी लिया ही नहीं था. मां के पूछने पर कि मैं अपनी पसंद के लड़के से उन्हें कब मिलवाऊंगी, मैं ने कहा कि मैं तो मजाक कर रही थी. मां ने आश्वस्त हो कर पापा को राजीव से रिश्ता पक्का करने को कह दिया. राजीव के घर वालों को शादी की बहुत जल्दी थी. अत: रिजल्ट आने से पहले ही हमारी शादी भी हो गई. आज तुझ से बात कर के दिल से एक बोझ सा हट गया तन्वी. लगता है अब आगे की जिंदगी इतमीनान से जी सकूंगी वरना सब कुछ होते हुए भी, अपनी मूर्खता की फांस हमेशा कचोटती रहती थी.’’

तभी यात्रियों को सुरक्षा जांच के लिए बुला लिया गया. प्लेन में बैठ कर श्रेया ने कहा, ‘‘मेरा तो पूरा कच्चा चिट्ठा सुन लिया पर अपने बारे में तो तूने कुछ बताया ही नहीं.’’

‘‘दिल्ली से एक अखबार निकलता है दैनिक सुप्रभात…’’

‘‘दैनिक सुप्रभात तो दशकों से हमारे घर में आता है,’’ श्रेया बीच में ही बोली, ‘‘अभी भी दिल्ली जाने पर बड़े शौक से पढ़ती हूं खासकर ‘हस्तियां’ वाला पन्ना.’’

‘‘अच्छा. सुप्रभात मेरे दादा ससुर ने आरंभ किया था. अब मैं अपने पति के साथ उसे चलाती हूं. ‘हस्तियां’ स्तंभ मेरा ही विभाग है.’’

‘‘हस्तियों की तसवीर क्यों नहीं छापते आप लोग?’’

‘‘यह तो पापा को ही मालूम होगा जिन्होंने यह स्तंभ शुरू किया था. यह बता मेरे घर कब आएगी, तुझे हस्तियों के पुराने संकलन भी दे दूंगी.’’

‘‘शादी के बाद अगर फुरसत मिली तो जरूर आऊंगी वरना अगली बार तो पक्का… मेरा भोपाल का पता ले ले. संकलन वहां भेज देना.’’

‘‘मुझे तेरा यहां का घर मालूम है, तेरे जाने से पहले वहीं भिजवा दूंगी.’’

दिल्ली आ कर श्रेया बड़ी बहन के बेटे की शादी में व्यस्त हो गई. जिस शाम को उसे वापस जाना था, उस रोज सुबह उसे तन्वी का भेजा पैकेट मिला. तभी उस का छोटा भाई भी आ गया और बोला, ‘‘हम सभी दिल्ली में हैं, आप ही भोपाल जा बसी हैं. कितना अच्छा होता दीदी अगर पापा आप के लिए भी कोई दिल्ली वाला लड़का ही देखते या आप ने ही कोई पसंद कर लिया होता. आप तो सहशिक्षा में पढ़ी थीं.’’

सुनते ही श्रेया का मुंह कसैला सा हो गया. तन्वी से बात करने के बाद दूर हुआ अवसाद जैसे फिर लौट आया. उस ने ध्यान बंटाने के लिए तन्वी का भेजा लिफाफा खोला ‘हस्तियां’ वाले पहले पृष्ठ पर ही उस की नजर अटक गई, ‘श्रवण कुमार अपने शहर के जानेमाने सफल व्यवसायी और समाजसेवी हैं. जरूरतमंदों की सहायता करना इन का कर्तव्य है. अपनी आयु और जान की परवाह किए बगैर इन्होंने जवान मनचलों से एक युवती की रक्षा की जिस में गंभीर रूप से घायल होने पर अस्पताल में भी रहना पड़ा. लेकिन अहं और अभिमान से यह सर्वथा अछूते हैं.’

हमारे प्रतिनिधि के पूछने पर कि उन्होंने अपनी जान जोखिम में क्यों डाली, उन की एक आवाज पर मंदिर के पुजारी व अन्य लोग लड़नेमरने को तैयार हो जाते तो उन्होंने बड़ी सादगी से कहा, ‘‘इतना सोचने का समय ही कहां था और सच बताऊं तो यह करने के बाद मुझे बहुत शांति मिली है. कई दशक पहले एक ऐसा हादसा मेरी मित्र और सहपाठिन के साथ हुआ था. चाहते हुए भी मैं उस की मदद नहीं कर सका था. एक अनजान मूकदर्शक की तरह सब देखता रहा था. मैं नहीं चाहता था कि किसी को पता चले कि वह मेरे साथ थी और उस का नाम मेरे से जुडे़ और बेकार में उस की बदनामी हो.

‘‘मुझे चुपचाप वहां से खिसकते देख कर उस ने जिस तरह से होंठ सिकोड़े थे मैं समझ गया था कि वह कह रही थी कायर. तब मैं खुद की नजरों में ही गिर गया और सोचने लगा कि क्या मैं उसे बदनामी से बचाने के लिए चुप रहा या सच में ही मैं कायर हूं? जाहिर है उस के बाद उस ने मुझ से कभी संपर्क नहीं किया. मैं यह जानता हूं कि वह जीवन में बहुत सुखी और सफल है. सफल और संपन्न तो मैं भी हूं बस अपनी कायरता के बारे में सोच कर ही दुखी रहता था पर आज इस अनजान युवती को बचाने के बाद लग रहा है कि मैं कायर नहीं हूं…’’

श्रेया और नहीं पढ़ सकी. एक अजीब सी संतुष्टि की अनुभूति में वह यह भी भूल गई कि उसे सुकून देने को ही तन्वी ने ‘हस्तियां’ कालम के संकलन भेजे थे और एक मनगढ़ंत कहानी छापना तन्वी के लिए मुश्किल नहीं था.

स्वयं के साथ एक दिन: खुद को अकेला क्यों महसूस कर रही थी वह

घरऔर दफ्तर की भागतीदौड़ती जिंदगी में थोड़ा सा ठहरती हुई मैं, रिश्तों के जाल में फंसी हुई खुद से ही खुद का परिचय कराती हुई मैं, एक बेटी, एक बहू, एक पत्नी, एक मां और एक कर्मचारी की भूमिका निभाते हुए खुद को ही भूलती हुई मैं, इसलिए सोचा चलो आज खुद के साथ ही एक दिन बिताती हूं मैं, वह भी कोरोनाकाल में.

अब आप लोग सोच रहे होंगे कि कोरोनाकाल में भी अगर मुझे खुद के लिए समय नहीं मिला तो फिर उम्रभर नहीं मिलेगा.

मगर अगर सच बोलूं तो शायद कोरोनाकाल में हम लोगों की अपनी प्राइवेसी खत्म हो गई है. हम चाहें या न चाहें हम सब परिवाररूपी जाल में बंध गए हैं. घर में कोई भी एक ऐसा कोना नहीं है जहां खुद के साथ कुछ समय बिता सकूं.

सब से पहले अगर यह बात सीधी तरह किसी को बोली जाए तो अधिकतर लोगों को समझ ही नहीं आएगा कि खुद के साथ समय बिताने के लिए एक दिन की आवश्यकता ही क्या है?

आज का समय तो जब तक जरूरी न हो घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए पर क्या हर इंसान को भावनात्मक और मानसिक आजादी की आवश्यकता नहीं होती है? लोग मखौल उड़ाते हुए बोलेंगे कि यह नए जमाने की नई हवा है जिस के कारण यह फुतूर मेरे दिमाग में आया है.

कुछ लोग यह जुमला उछालेंगे कि जब कोई काम नहीं हो तो ऐसे ही खुद को पहचानने का कीड़ा दिमाग को काटता है. यह मैं इसलिए कह रही हूं क्योंकि शायद मैं भी उन लोगों में से ही हूं जो ऐसे ही प्रतिक्रिया करेगी अगर कोई मुझ से भी बोले कि आज मैं खुद के साथ समय बिताना चाहती या चाहता हूं.

ऐसे लोगों को हम स्वार्थी या बस अपने तक सीमित अथवा केवल अपनी खुशी देखने वाला और भी न जाने क्याक्या बोलते हैं. चलिए अब बात को और न खींचते हुए मैं अपने अनुभव को साझ करना चाहती हूं.

खैर, लौकडाउन खत्म हुआ और मेरा दफ्तर चालू हो गया परंतु बच्चों और पति का अभी भी घर से स्कूल और दफ्तर जारी था. छुट्टी का दिन मेरे लिए और अधिक व्यस्त होता है क्योंकि जिन कार्यों की अनदेखी मैं दफ्तर के कारण कर देती थी वे सब कार्य ठुनकते हुए कतार में सिर उठा कर खड़े रहते थे कि उन का नंबर कब आएगा? बच्चे अगर सामने से नहीं पर आंखों ही आंखों में यह जरूर जता देते हैं कि मैं हर दिन कितनी व्यस्त रहती हूं, उन को जब मेरी जरूरत होती है तो मैं दफ्तर के कार्यों में अपना सिर डाल कर बैठी रहती हूं. पति महोदय का बस यही वाक्य होता है, ‘‘तुम्हें ही सारा काम क्यों दिया जाता है? जरूर तुम ही भागभाग कर हर काम के लिए लपकती होगी.’’

‘‘अरे वर्क फ्रौम होम के लिए बात क्यों नहीं करती हो,’’ पर फिर हर माह की 5 तारीख को जब वेतन आता है तो वे ये सारी चीजें भूल जाते हैं और नारी मुक्ति या उत्थान के पुजारी बन जाते हैं.

ऐसे ही एक ठिठुरते हुए रविवार में सब के लिए खाना परोसते हुए मेरे दिमाग में यह खयाल आया क्यों न दफ्तर से छुट्टी ले ली जाए और बस लेटी रहूं. घर पर तो यह मुमकिन नहीं था. पहले तो बिना किसी कारण छुट्टी लेना किसी को हजमन ही होगा दूसरा अगर ले भी ली तो सारा समय घर के कामों में ही निकल जाना है. कहने को मेरे जीवन में बहुत सारे मित्र हैं पर ऐसा कोई नहीं है जिस के साथ मैं ये दिन साझ कर सकूं.

पर न जाने क्यों मन ने कुछ नया करने की ठानी थी, खुद के साथ समय बिताने की दिल ने की मनमानी थी.

जब से ये खयाल मन में जाग्रत हुआ तो कुछ जिंदगी में रोमांच सा आ गया, साथ ही

साथ एक अनजाना डर भी था कि कही मैं इस वायरस की चपेट में न आ जाऊं. पर फिर अंदर की औरत बोल उठीं, अरे तो रोज दफ्तर भी तो जाती हो. उस में भी तो इतना ही जोखिम है. मेरे पास भी कुछ ऐसा होना चाहिए है जो मेरा बेहद निजी हो. पूरा रविवार दुविधा में बीत गया. करूं या न करूं ऐसे सोचते हुए सांझ हो गई. मुझे कहीं घूमने नहीं जाना था न ही किसी दर्शनीय स्थल के दर्शन करने थे, कारण था कोरोना. मुझे तो अपने अंदर की औरत को पहचानना था कि क्या इस  कोरोना की आपाधापी में उस में थोड़ी सी चिनगारी अभी भी बाकी है.

दफ्तर में तो छुट्टी की सूचना दे दी थी पर अब सवाल यह था कि खुद को कहां पर ले जाऊं, क्या होटल में सेफ रहेगा या मौल के किसी कैफे में? तभी फेसबुक पर ओयो रूम दिखाई पड़े. यहां पर घंटों के हिसाब से कमरे उपलब्ध थे. किराया भी बस हजार रुपए था.

कोरोना के कारण घर से ही चैकइन करने की सुविधा थी पर फिर दिमाग में आया कि कहीं पुलिस की रेड न पड़ जाए क्योंकि ऐसे माहौल में कमरे घंटों के हिसाब से क्यों लिए जाते हैं यह सब को पता है तो ऐसे कमरों में ठहरना क्या सुरक्षित रहेगा?

इधरउधर होटल खंगाले तो कोई भी होटल 5 हजार से कम नहीं था. पति महोदय मेरी समस्या को चुटकी में ही हल कर सकते थे पर यह तो मेरी खुद के साथ की डेट थी, फिर उन से मदद कैसे ले सकती थी और अगर सच बोलूं तो मुझे अपने पति से कोई लैक्चर नहीं सुनना था.

यह बात नहीं सुननी थी कि मैं मिड ऐज क्राइसिस से गुजर रही हूं, इसलिए ऐसी

बचकानी हरकतें कर रही हूं. माह की 27 तारीख थी बहुत अधिक शाहखर्च नहीं हो सकती थी, इसलिए धड़कते दिल से एक ओयो रूम 900 रुपए में 8 घंटों के लिए बुक कर लिया.

वहां से कन्फर्मेशन में भी आ गया. फिर शाम के 5 बजे से मैं अपने मोबाइल को ले कर बेहद सजग हो गई जैसे मेरी कोई चोरीछिपी हो उस में. बेटे ने जैसे ही हमेशा की तरह मेरे मोबाइल को हाथ लगाया, मैं फट पड़ी कि मैं तुम्हारे मोबाइल को हाथ नहीं लगाती हूं तो तुम्हें क्या जरूरत पड़ी है?

बेटा खिसिया कर बोला, ‘‘मम्मी मेरे एक फ्रैंड ने मुझे ब्लौक कर रखा है या नहीं बस यही देखना चाहता था.’’

पति और घर के अन्य सदस्य मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देख रहे थे.

मैं बिना कोई उत्तर दिए रसोई में घुस गई. फिर रात को मैं ने अपने कार्ड्स और आईडी सब अपने पर्स में रख लिए. सुबह दफ्तर के समय ही घर से निकली और धड़कते दिल से कैब बुक करी. कैब ड्राइवर ने कैब उस गंतव्य की तरफ बढ़ा दी और फिर करीब आधे घंटे के बाद हम वहां पहुंच गए.

मेरे उतरते हुए कैब ड्राइवर ने पूछा, ‘‘मेम आप को यहीं जाना था न?’’

मुझे पता था वह बाहर ओयो रूम का बोर्ड देख कर पूछ रहा होगा, मैं कट कर रह गई पर ऊपर से खुद को संयत करते हुए बोली, ‘‘हां, परंतु तुम क्यों पूछ रहे हो?’’

वह कुछ न बोला पर उस के होंठों पर व्यंग्यात्मक मुसकान मुझ से छिपी न रही.

मैं अंदर पहुंची पर कोई रिसैप्शन नहीं दिखाई दिया, फिर भी मैं अंदर पहुंच गई तो एक ड्राइंगरूम दिखाई दिया, 2 बड़ेबड़े सोफे पड़े हुए थे और एक डाइनिंगटेबल भी थी. 2 लड़के सोए हुए थे, मुझे देखते हुए आंखें मलते हुए उठने वाले ही थे कि मैं तीर की गति से बाहर निकल गई.

खुद पर गुस्सा आ रहा था, एक भी ऐसा कोना नहीं है मेरा इस शहर में, शहर में ही क्यों, मेरा निजी कुछ भी नहीं है मेरे जीवन में, खुद के साथ समय बिताना भी मुश्किल हो गया था. जो फोन नंबर वहां पर अंकित था, वह मिलाया तो पता लगा कि वह नंबर आउट औफ सर्विस है. यह स्थान एक घनी आबादी में स्थित था, इसलिए सड़क पर आतेजाते लोगों में से कुछ मुझे आश्चर्य से और कुछ बेशर्मी से देख रहे थे. मैं बिना कुछ सोचे तेजतेज कदमों से बाहर निकल गई. नहीं समझ आ रहा था कि कहां जाऊं. ऐसे ही चलती रही. एक मन किया कि किसी मौल मैं चली जाऊं पर फिर वहां पर मैं क्या खुद से गुफ्तगू कर पाऊंगी. करीब 1 किलोमीटर चलतेचलते फिर से एक इमारत दिखाई दी, ओयो रूम का बोर्ड यहां भी मौजूद था. न जाने क्या सोचते हुए मैं उस इमारत की ओर बढ़ गई.

वहां पर देखा कि रिसैप्शन आरंभ में ही थी. उस पर बैठे हुए पुरुष को देख कर मैं ने बोला, ‘‘सर कमरा मिल जाएगा.’’

रिसैप्शनिस्ट बोला, ‘‘जरूर मैडम, कितने लोगों के लिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘बस मैं.’’

उस ने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा और फिर बोला, ‘‘मैडम कोई मेहमान या दोस्त आएगा आप से मिलने?’’

मैं बोली, ‘‘नहीं, दरअसल घर की चाबी नहीं मिल रही है.’’

न जाने क्यों एक झठ जबान पर आ गया खुद को सामान्य दिखाने के लिए. मुझे मालूम था कि अगर उसे पता चलेगा कि मैं ऐसे ही समय बिताने आई हूं, तो शायद वह मुझे पागल ही करार कर देता.

आज पहली बार मन ही मन कोरोना को धन्यवाद दिया, मास्क के पीछे मुझे बेहद सुरक्षित महसूस हो रहा था. रूम नंबर 202, रूम के अंदर घुसते ही मैं ने देखा एक छोटा सा बैड है, साफसुथरी रजाई भी रखी हुई थी. मेरे सामने ही रूम को दोबारा सैनिटाइज करा गया था. मैं ने  राहत की सांस ली और अपना मास्क निकाला और फिर दोबारा से हाथ सैनिटाइज कर लिए. टैलीविजन चलाने की कोशिश करी तो जाना मुझे तो पता ही नहीं ये नए जमाने के स्मार्ट टैलीविजन कैसे चलाते हैं. थोड़ीबहुत कोशिश करी और फिर नीचे से लड़का बुला कर टैलीविजन चलवाया गया. एक म्यूजिक चैनल औन किया तो जाना न जाने कितने वर्ष हाथों से फिसल गए. न कोई गाना पहचान पा रही थी और न ही किसी अभिनेता या अभिनेत्री को. फिर भी कुछ ?िझक के साथ रजाई ओढ़ते हुए मैं लेट गई मन में यह सोचते हुए कि न जाने कितने जोड़ों ने इसे ओढ़ कर प्रेम क्रीड़ा करी होगी. टनटन करते हुए व्हाट्सऐप के दफ्तर वाले गु्रप पर कार्यों की बौछार हो रही थी. मैं ने तुरंत डेटा बंद किया.

अंदर बैठी हुई महिला ने मुसकरा कर शुक्रिया किया. करीब आधे घंटे बाद एक असीम शांति महसूस हुई, ऐसी शांति जो कभी योगा में भी लाख कोशिशों के बाद नहीं हुई थी. लेटे हुए यह सोच रही थी कि कौनकौन से मोड़ से जिंदगी गुजर गई और मुझे पता भी नहीं चला. फिर गुसलखाने जा कर अपनेआप को निहारने लगी, घर पर न तो फुरसत थी और न ही इजाजत, जैसे ही देखना चाहती कि एकाएक एक जुमला उछाला जाता, ‘‘अब क्या देख रही हो, कौन सा 16 साल की हो?’’

जैसे सुंदर दिखना बस युवाओं का मौलिक अधिकार है. 40 वर्ष की महिला तो महिला नहीं एक मशीन है. आईना देखते हुए मेरी त्वचा ने चुगली करी कि कब से पार्लर का मुंह नहीं देखा?

शायद पहले तो फिर भी माह में 1 बार चली जाती थी पर अब तो 9 माह से भी अधिक समय हो गया था. बाल भी बेहद रूखे और बेजान लग रहे थे. ?िझकते हुए रूम से बाहर निकली तो देखा सामने ही पार्लर भी था. बिना कुछ सोचे कमरे का ताला लगाया और पार्लर चली गई. हेयरस्पा और फेशियल कराया. बहुत मजा आया.

ऐसा लगा जैसे खुद के लिए कुछ करना अंदर से असीम शांति और खुशी भर

देता है. जब 3 घंटे बाद कमरे में पहुंची तो कस कर भूख लग गई थी. इंटरकौम से खाना और्डर किया. बहुत दिनों बाद बिना किसी ग्लानि के अपनी पसंदीदा तंदूरी रोटी और बेहद तीखा कोल्हापुरी पनीर खाया. अब कोरोना का डर काफी हद तक दिमाग से निकल गया था.

जब पूरे 8 घंटे बिताने के बाद मैं घर पहुंची तो देखा चारों ओर घर में तूफान आया हुआ था. अभीअभी दोनों बच्चे लड़ाई कर के बैठे थे. पर यह क्या मुझे बिलकुल भी गुस्सा नहीं आया, गुनगुनाती हुई मैं रसोई में घुस गई और गरमगरम पोहे बनाने में जुट गई.

अंदर बैठी हुई खूबसूरत महिला फिर से दिल के दरवाजे पर दस्तख कर रही थी कि मैं अगली डेट पर कब जा रही हूं? शायद दूसरों को खुश करने से पहले खुद को खुश करना जरूरी है. इस कोरोनाकाल में मेरे अंदर जो चिड़चिड़ापन और तनाव बढ़ गया था वह आज काफी हद तक कम हो गया था.

एक दिन स्वयं के साथ बिता कर एक बात तो समझ आ गई कि खुद के साथ समय बिताना बेहद जरूरी है. लेकिन एक डेट के बाद यह भी समझ में अवश्य आ गया कि ऐसा कौंसैप्ट हमारे समाज में अभी प्रचिलित नहीं है. अभी यह रचना लिखते हुए भी मेरे दिमाग में यह बात आ रही है कि अगर उस दिन मुझे किसी जानपहचान वाले ने देख लिया होता तो शायद मैं भी उस के लिए एक अनसुलझी कहानी बन जाती. पर हम सब को तो मालूम है न कि हर प्रेम कहानी में थोड़ाबहुत जोखिम तो होता ही है और यह जोखिम मैं अब लेने के लिए तैयार हूं.

टूटा कप : सुनीता ने विनीता को क्यों दी टूटे कप में चाय

‘‘विनी, दिव्या का विवाह पास आ गया है, पहले सोच रही थी सब काम समय से निबट जाएंगे पर ऐसा नहीं हो पा रहा है. थोड़ा जल्दी आ सको तो अच्छा है. बहुत काम है, समझ नहीं पा रही हूं कहां से प्रारंभ करूं, कुछ शौपिंग कर ली है और कुछ बाकी है.’’

‘‘दीदी, आप चिंता न करें, मैं अवश्य पहुंच जाऊंगी. आखिर मेरी बेटी का भी तो विवाह है,’’ विनीता ने उत्तर दिया.

विनीता अपनी बड़ी बहन सुनीता की बात मान कर विवाह से लगभग 15 दिन पूर्व ही चली आई थी. उस की 7 वर्षीय बेटी पूर्वा भी उस के साथ आ गई थी. विशाल, विक्रांत की पढ़ाई के कारण बाद में आने वाले थे. विनीता को आया देख कर सुनीता ने चैन की सांस ली. चाय का प्याला उस के हाथ में देते हुए बोली, ‘‘पहले चाय पी ले, बाकी बातें बाद में करेंगे.’’

विनीता ने चाय का प्याला उठाया, टूटा हैंडिल देख कर वह आश्चर्य से भर उठी. ऐसे कप में किसी को चाय देना तो दूर वह उसे उठा कर फेंक दिया करती थी पर इतने शानोशौकत से रहने वाली दीदी के घर भला ऐसी क्या कमी है जो उन्होंने उसे ऐसे कप में चाय दी. मन किया वह चाय न पीए पर रिश्ते की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए खून का घूंट पी कर चाय सिप करने लगी पर उस की पुत्री पूर्वा से नहीं रहा गया. वह बोली, ‘‘मौसी, इस कप का हैंडिल टूटा हुआ है.’’

‘‘क्या, मैं ने ध्यान ही नहीं दिया. सारे कप गंदे पड़े हैं, मुनिया भी पता नहीं कहां चली गई. चाय की पत्ती लाने भेजा था, एक घंटे से ज्यादा हो गया, अभी तक नहीं आई. नौकरानियों से कप ही नहीं बचते. अभी कुछ दिन पहले ही तो खरीद कर लाई थी. दूसरा निकालूंगी तो उस का भी यही हाल होगा. वैसे भी विवाह से 3 दिन पहले होटल में शिफ्ट होना ही है. अभी तो हम लोग ही हैं, इन्हीं से काम चला लेते हैं,’’ सुनीता ने सफाई देते हुए कहा.

विनीता ने कुछ नहीं कहा. पूर्वा खेलने में लग गई. विनीता भी सुनीता के साथ विवाह के कार्यों की समीक्षा करने व उन्हें पूर्ण करने में जुट गई. कुछ दिन बाद नंदिता भी आ गई. उसे देखते ही सुनीता और विनीता की खुशी की सीमा न रही, दोनों एकसाथ बोल उठीं, ‘‘अरे, अचानक तुम कैसे, कोई सूचना भी नहीं दी.’’

‘‘मैं सरप्राइज देना चाहती थी, मुझे पता चला कि तुम दोनों अभी एकसाथ हो तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने सुजय से कहा कि विक्की की परीक्षा की सारी तैयारी करा दी है, आप बाद में आ जाना. मैं जा रही हूं. कम से कम हम तीनों बहनें दिव्या के विवाह के बहाने ही कुछ दिनों साथसाथ रह लेंगी.’’

‘‘बहुत अच्छा किया, हम दोनों तुम्हें ही याद कर रहे थे. मुनिया, 3 कप चाय बना देना और हां, नए कप में लाना,’’ सुनीता ने नौकरानी को आवाज लगाते हुए कहा, फिर नंदिता की ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘अगर पहले सूचना दी होती तो गाड़ी भिजवा देती.’’ सुनीता दीदी की बात सुन कर विनीता के मन में कुछ दरक गया. नन्ही पूर्वा के कान भी खड़े हो गए. नंदिता के आते ही दूसरे कप निकालने के आदेश के साथ गाड़ी भिजवाने की बात ने उस के शांत दिल में हलचल पैदा कर दी थी. जब वह आई थी तब तो दीदी को पता था, फिर भी उन्होंने किसी को नहीं भेजा. वह स्वयं ही आटो कर के घर पहुंची थी. बात साधारण थी पर विनीता को ऐसा महसूस हो रहा था कि अनचाहे ही सुनीता दीदी ने उस की हैसियत का एहसास करा दिया है. वह पिछले 8 दिनों से उसी टूटे कप में चाय पीती रही थी पर नंदिता के आते ही दूसरे कप निकालने के आदेश के साथ गाड़ी भिजवाने की बात को वह पचा नहीं पा रही थी. मन कर रहा था वह वहां से उठ कर चली जाए पर न जाने किस मजबूरी के कारण उस के शरीर ने उस के मन की बात मानने से इनकार कर दिया. विनीता तीनों बहनों में छोटी है. सुनीता और नंदिता के विवाह संपन्न परिवारों में हुए थे पर पिताजी की मृत्यु के बाद घर की स्थिति दयनीय हो गई थी.

भाई ने अपनी हैसियत के अनुसार घरवर ढूंढ़ा और विवाह कर दिया. यद्यपि विशाल की नौकरी उस के जीजाजी की तुलना में कम थी. संपत्ति भी उन के बराबर नहीं थी पर वह अत्यंत परिश्रमी, सुलझे हुए व स्वभाव के बहुत अच्छे इंसान हैं. उन्होंने उसे कभी किसी कमी का एहसास नहीं होने दिया था और उस ने भी अपने छोटे से घर को इतने सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा रखा है कि विशाल के सहकर्मी उस से ईर्ष्या करते थे. स्वयं काम करने के कारण उस के घर में कहीं भी गंदगी का नामोनिशान नहीं रहता था और न ही टूटेफूटे बरतनों का जमावड़ा. यह बात अलग है कि ऐसे ही पारिवारिक आयोजन उसे चाहेअनचाहे उस की हैसियत का एहसास करा जाते हैं पर अपनी सगी बहन को अपने साथ ऐसा व्यवहार करते देख कर वह स्तब्ध रह गई. क्या अब नया सैट खराब नहीं होगा? हमेशा की तरह इस बार भी सुनीता व नंदिता गप मारने लग जातीं और विनीता काम में लगी रहती थी. अगर वह समय निकाल कर उन के पास बैठती तो थोड़ी ही देर बाद कोई काम आने पर उसे ही उठना पड़ता था. पहले वह इन सब बातों पर इतना ध्यान नहीं दिया करती थी पर इस बार उसे काम में लगा देख कर एक दिन उस की पुत्री पूर्वा ने कहा, ‘‘ममा, दोनों मौसियां बातें करती रहती हैं और आप काम में लगी रहती हो, मुझे अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘बेटा, वे दोनों बड़ी हैं, मुझे उन का काम करने में खुशी मिलती है,’’ पूर्वा की बात सुन कर वह चौंकी पर संतुलित उत्तर दिया.

उस ने उत्तर तो दे दिया पर पूर्वा की बातें चाहेअनचाहे उस के दिमाग में गूंजने लगीं. पहले भी इस तरह की बातें उस के मन में उठा करती थीं पर यह सोच कर अपनी आवाज दबा दिया करती थी कि आखिर वे उस की बड़ी बहनें हैं, अगर वे उस से कोई काम करने के लिए कहती हैं तो इस में बुराई क्या है. पर इस बार बात कुछ और ही थी जो उसे बारबार चुभ रही थी. न चाहते हुए भी दीदी का नंदिता के आते ही नए कप में चाय लाने व गाड़ी भेजने का आग्रह उस के दिल और दिमाग में हथौड़े मारने लगता.

जबजब ऐसा होता वह यह सोच कर मन को समझाने का प्रयत्न करती कि हो सकता है वह सब दीदी से अनजाने में हुआ हो, उन का वह मंतव्य न हो जो वह सोच रही है. आखिर वह उन की छोटी बहन है, वे उस के साथ भेदभाव क्यों करेंगी. सच तो यह है कि दीदी का उस पर अत्यंत ही विश्वास है तभी तो अपनी सहायता के लिए दीदी ने उसे ही बुलाया. उन का उस के बिना कोई काम नहीं हो पाता है. चाहे वह दुलहन की ड्रैस की पैकिंग हो या बक्से को अरेंज करना हो, चाहे मिठाई के डब्बे रखने की व्यवस्था करनी हो. और तो और, विवाह के समय काम आने वाली सारी सामग्री की जिम्मेदारी भी उसी पर थी.

दिव्या भी अकसर उस से ही आ कर सलाह लेते हुए पूछती,

‘‘मौसी, इस ड्रैस के साथ कौन सी ज्वैलरी पहनूंगी या ये चूडि़यां, पर्स और सैंडिल मैच कर रही हैं या नहीं?’’

विवाह की लगभग आधी से अधिक शौपिंग तो दिव्या ने उस के साथ ही जा कर की थी. वह कहती, ‘मौसी, आप का ड्रैस सैंस बहुत अच्छा है वरना ममा और नंदिता मौसी को तो भारीभरकम कपड़े या हैवी ज्वैलरी ही पसंद आती हैं. अब भला मैं उन को पहन कर औफिस तो जा नहीं सकती, फिर लेने से क्या फायदा?’ कहते हैं मन अच्छा न हो तो छोटी से छोटी बात भी बुरी लगने लग जाती है. शायद यही कारण था कि आजकल वह हर बात का अलग ही अर्थ निकाल रही थी. यह सच है कि दिव्या का निश्छल व्यवहार उस के दिल पर लगे घावों पर मरहम का काम कर रहा था पर दीदी की टोकाटाकी असहनीय होती जा रही थी. उसे लग रहा था कि काम निकालना भी एक कला है. बस, थोड़ी सी प्रशंसा कर दो, और उस के जैसे बेवकूफ बेदाम के गुलाम बन जाते हैं. मन कह रहा था व्यर्थ ही जल्दी आ गई. काम तो सारे होते ही, कम से कम यह मानसिक यंत्रणा तो न झेलनी पड़ती.

‘‘विनीता, जरा इधर आना,’’ सुनीता ने आवाज लगाई.

‘‘देख, यह सैट, नंदिता लाई है दिव्या को देने के लिए,’’ विनीता के आते ही सुनीता ने नंदिता का लाया सैट उसे दिखाते हुए कहा.

‘‘बहुत खूबसूरत है,’’ विनीता ने उसे हाथ में ले कर देखते हुए निश्छल मन से कहा.

‘‘पूरे ढाई लाख रुपए का है,’’ नंदिता ने दर्प से सब को दिखाते हुए कहा.

‘‘मौसी, आप मेरे लिए क्या लाई हो?’’ वहीं खड़ी दिव्या ने विनीता की तरफ देख कर बच्चों सी मनुहार की.

नंदिता का यह वाक्य सुन कर विनीता का मन बुझ गया. अपना लाया गिफ्ट उस बहुमूल्य सैट की तुलना में नगण्य लगने लगा पर दिव्या के आग्रह को वह कैसे ठुकराती, उस ने सकुचाते हुए सूटकेस से अपना लाया उपहार निकाल कर दिखाया. उस का उपहार देख कर दिव्या खुशी से बोली, ‘‘वाउ, मौसी, आप का जवाब नहीं, यह पैंडेंट बहुत ही खूबसूरत है, साथ ही व्हाइट गोल्ड की चेन. ऐसा ही कुछ तो मैं चाहती थी. इसे तो मैं हमेशा पहन सकती हूं.’’ दिव्या की बात सुन कर विनीता के चेहरे पर रौनक लौट आई. लाखों के उस डायमंड सैट की जगह हजारों का उपहार दिव्या को पसंद आया. यही उस के लिए बहुत था.

विवाह खुशीखुशी संपन्न हो गया और सभी अपनेअपने घर चले गए, विनीता भी धीरेधीरे सब भूलने लगी. समय बड़े से बड़े घाव को भर देता है, वैसे भी दिव्या के विवाह के बाद मिलना भी नहीं हो पाया. न ही दीदी आईं और न ही उस ने प्रयत्न किया, बस फोन पर ही बातें हो जाया करती थीं. समय के साथ विक्की को आईआईटी कानपुर में दाखिला मिल गया और पूर्वा प्लस टू में आ गई, इस के साथ ही वह मैडिकल की तैयारी कर रही थी. समय के साथ विशाल के प्रमोशन होते गए और अब वे मैनेजर बन गए थे. एक दिन सुनीता दीदी का फोन आया कि तुम्हारे जीजाजी को वहां किसी प्रोजैक्ट के सिलसिले में आना है. मैं भी आ रही हूं, बहुत दिन हो गए तुम सब से मिले हुए.

दीदी पहली बार उस के घर आ रही हैं, सो पिछली सारी बातें भूल कर उत्सुकता से विनीता उन के आने का इंतजार करने के साथ तैयारियां भी करने लगी. सोने के कमरे को उन के अनुसार सैट कर लिया और दीदी की पसंद की खस्ता कचौड़ी बना लीं व रसगुल्ले मंगा लिए. खाने में जीजाजी की पसंद का मलाई कोफ्ता व पनीर भुर्जी भी बना ली थी. उस ने दीदी, जीजाजी की खातिरदारी का पूरा इंतजाम कर रखा था. पर न जाने क्यों पूर्वा को उस का इतना उत्साह पसंद नहीं आ रहा था. जीजाजी दीदी को ड्रौप कर यह कहते हुए चले गए, ‘‘मुझे देर हो रही है, विनीता, मैं निकलता हूं, आतेआते शाम हो जाएगी, तब तक तुम अपनी बहन से खूब बात कर लो. बहुत तरस रही थीं ये तुम से मिलने के लिए. शाम को आ कर तुम सब से मिलता हूं.’’

दीदी ने उस का घर देख कर कहा, ‘‘छोटे घर को भी तू ने बहुत ही करीने से सजा रखा है,’’ विशेषतया उन्हें पूर्वा का कमरा बहुत पसंद आया.

तब तक पूर्वा ने नाश्ता लगा दिया. नाश्ते के बाद पूर्वा चाय ले आई. चाय का कप मौसी को पकड़ाया. सुनीता उस कप को देख कर चौंकी, विनीता कुछ कहने के लिए मुंह खोलती उस से पहले ही पूर्वा ने कहा, ‘‘मौसी, इस कप को देख कर आप को आश्चर्य हो रहा होगा. पर दिव्या दीदी के विवाह में आप ने ममा को ऐसे ही कप में चाय दी थी. हफ्तेभर तक वे ऐसे ही कपों में चाय पीती रहीं जबकि नंदिता मौसी के आते ही आप ने नया टी सैट निकलवा दिया था.

‘‘तब से मेरे मन में यह बात रहरह कर टीस देती रहती थी. वैसे तो टूटे कप हम फेंक दिया करते हैं पर यह कप मैं ने बहुत सहेज कर रखा था, उस याद को जीवित रखने के लिए कि कैसे कुछ अमीर लोग अपनी करनी से लोगों को उन की हैसियत बता देते हैं, चाहे वे उन के अपने ही क्यों न हों और आज उस अपमान के साथ अपनी बात कहने का अवसर भी मिल गया.’’

सुनीता चुप रह गई. बाद में वह पूर्वा के कमरे में गई और बोली, ‘‘सौरी बेटा, आज तू ने मुझे आईना ही नहीं दिखाया, सबक भी सिखा दिया है. शायद मैं नासमझ थी, मैं यह सोच ही नहीं पाई थी कि हमारे हर क्रियाकलाप को बच्चे बहुत ध्यान से देखते हैं और हमारी हर छोटीबड़ी बात का वे अपनी बुद्धि के अनुसार अर्थ भी निकालते हैं. मुझे इस बात का एहसास ही नहीं था कि व्यक्ति चाहे छोटा हो या बड़ा, सब में आत्मसम्मान होता है. बड़े एक बार आत्मसम्मान पर लगी चोट को रिश्तों की परवा करते हुए भूलने का प्रयत्न कर भी लेते हैं किंतु बच्चे अपने या अपने घर वालों के प्रति होते अन्याय को सहन नहीं कर पाते और  अपना आक्रोश किसी न किसी रूप में निकालने की कोशिश करते हैं.

‘‘पूर्वा, तुम ने अपने मन की व्यथा को इतने दिनों तक स्वयं तक ही सीमित रखा और आज इतने वर्षों बाद अवसर मिलते ही प्रकट भी कर दिया. मुझे खुशी तो इस बात की है कि तुम ने अपनी बात इतने सहज और सरल ढंग से कह दी. आज तुम ने मुझे एहसास करा दिया बेटे कि उस समय मैं ने जो किया, गलत था. एक बार फिर से सौरी बेटा,’’ यह कह कर उन्होंने पूर्वा को गले से लगा लिया.

जहां सुनीता अपने पिछले व्यवहार पर शर्मिंदा थी वहीं विनीता पूर्वा के कटु वचनों को सुन कर उसे डांटना चाह कर भी नहीं डांट पा रही थी. संतोष था तो सिर्फ इतना कि दीदी ने अपना बड़प्पन दिखाते हुए अपनी गलती मान ली थी.

सच तो यह था कि आज उस के दिल से भी वर्षों पुराना बोझ उतर गया था, आखिर आत्मसम्मान तो हर एक में होता है. उस पर लगी चोट व्यक्ति के दिन का चैन और रात की नींद चुरा लेती है. शायद उस की पुत्री के साथ भी ऐसा ही हुआ था. आज उसे यह भी एहसास हो गया कि आज की पीढ़ी अन्याय का उत्तर देना जानती है, साथ ही बड़ों का सम्मान करना भी. अगर ऐसा न होता तो पूर्वा ‘सौरी मौसी’ कह कर उन के कदमों में न झुकती.

स्वीट सिक्सटीन: क्या कविता अच्छी मां बन पायी?

‘‘डाक्टरसाहब…’’ पीछे से किसी ने आवाज दी. मुड़ कर देखा तो 22-23 वर्ष की एक युवती हाथ के संकेत से किसी को बुला रही थी. भीड़ भरा रास्ता था. मैं यह जानने के लिए इधरउधर देखने लगा कि वह किसे बुला रही है.

‘‘अरे साहब, मैं आप को ही बुला रही हूं,’’ वह जरा तेज आवाज में बोली.

अगलबगल के लोग कभी उसे और कभी मु  झे घूरने लगे. उस के कटे बाल, बिना बांहे का ब्लाउज, शिफौन की साड़ी और दमकता हुआ इकहरा बदन किसी को भी आकर्षित करने के लिए काफी था. मेरे कदम उस की ओर बढ़ गए. करीब जा कर देखा तो पहचान गया. खुशी से बोला, ‘‘तो आप हैं?’’

‘‘तो आप क्या सम  झे थे?’’ वह हंस पड़ी. फिर बोली, ‘‘इतने दिनों बाद मिले हैं, छोड़ूंगी नहीं. चलिए, घर चल कर बातें करेंगे.’’

मैं खुद भी उस से बातें करने को उत्सुक था. कई बातें थीं जो उसे देखते ही मन में घुमड़ने लगी थीं.

‘‘बैठिए,’’ कार का दरवाजा खोल कर उस ने पहले मु  झे बैठाया, फिर खुद चालक की सीट पर बैठ कर बोली, ‘‘रास्ते में बातें न करना क्योंकि मैं ने हाल ही में कार चलानी सीखी है. कहीं ध्यान बंट गया तो दुर्घटना हो जाएगी.’’शद्मरू

उस से मेरी पहली मुलाकात पटना मैडिकल कालेज के अस्पताल में हुई थी. यह 16 साल पहले की बात है. मैं प्लास्टिक सर्जरी विभाग में हाउस सर्जन था. एक दिन वार्ड मेें प्रवेश करते ही मेरी निगाह पलंग नंबर 2 पर बैठी एक नई मरीज पर ठहर गई. वह कोई 12-13 साल की किशोरी थी. मैं सीधा उसी के पास पहुंचा.

‘‘क्या तकलीफ है तुम्हें,’’ मैं ने प्यार से पूछा.

‘‘कुछ भी नहीं,’’ वह मुसकराई.

मु  झे लगा शायद अभी उस के दूध के दांत भी नहीं टूटे हैं.

‘‘तो फिर यहां अस्पताल में क्यों आई हो?’’ मैं भी मुसकरा दिया.

‘‘यह देखने के लिए कि अस्पताल में कैसा लगता है,’’ उस ने तुरंत उत्तर दिया.

मैं पलंग के साथ लगा चार्ट देखने लगा. उस में मरीज की उम्र 16 वर्ष लिखी थी. मैं ने सोचा कि  शायद वह मरीज की छोटी बहन है. काफी दिनों से वार्ड में कोई अच्छी सूरत से अंदाज लगा कर इस की बड़ी बहन को देखने को उत्सुक हो उठा.

‘‘तुम्हारी बहन कहां है,’’ मैं ने व्यग्र हो कर पूछा.

‘‘कौन बहन?’’

‘‘जो यहां भरती है.’’

‘‘अच्छा वह… आप से मतलब…’’ वह शैतानी से बंद होंठों में मुसकराई.

‘‘मैं डाक्टर हूं, मरीजों का हाल देखने के वक्त मरीज को बिस्तर पर होना ही चाहिए,’’ मैं ने उस पर रोब   झाड़ते हुए कहा. मैं उस की बहन को जल्द से जल्द देखने को उत्सुक था.

‘‘आप डाक्टर हैं?’’

‘‘हां.’’

‘‘मैं ही मरीज हूं,’’ वह रहस्यमय ढंग से हंसी.

अब मु  झे खीज होने लगी, ‘‘तुम मरीज को बुलाती क्यों नहीं.’’

‘‘तुम डाक्टर को बुलाओ, मैं मरीज को बुला दूंगी.’’ वह नाक सिकोड़ कर मुसकराई.

वार्ड के अन्य मरीज बड़ी दिलचस्पी से हमारी बातें सुन रहे थे. पलंग नंबर एक के मरीज ने कुछ बोलना चाहा, पर इस लड़की ने उसे डांट दिया, ‘‘तुम चुप रहो.’’

मैं खिसियाया सा डाक्टर कक्ष में आ गया. राजम्मा मु  झे देख कर प्यार से मुसकराई, लेकिन  उस समय मु  झे उस की मुसकान भी अच्छी न लगी.

‘‘नर्स, पलंग नंबर 2 की मरीज कहां है. उसे बोलो कि पलंग पर रहे,’’ यह कहता हुआ मैं दूसरे कक्ष में चला गया.

थोड़ी देर बाद मरीजों की मरहमपट्टी के लिए वार्ड में गया. तब भी वही लड़की बिस्तर पर बैठी हुई थी. मु  झे देख कर उस ने नाक सिकोड़ी तो मैं और चिढ़ गया.

‘‘पलंग नंबर 2 की मरीज कहां है?’’ मैं ने राजम्मा से पूछा.

‘‘वहां बैठी तो है.’’ राजम्मा ने आश्चर्य से मु  झे देखा.

मैं ने फिर ध्यान से उस लड़की को देखा. छोटा सा गोल चेहरा. 2 बड़ीबड़ी शरारती आंखें, छोटी सी नाक और 2 लंबी चोटियां. बिना बांहों के फ्रौक में वह छोटी सी बच्ची लग रही थी.

मु  झे ध्यान से अपनी ओर देखते हुए पा कर उस ने होंठों को गोल कर धीरे से सीटी बजा दी. मु  झे उस की हर हरकत बचकानी लग रही थी. किसी भी तरह यकीन नहीं हो रहा था कि वह 16 वर्ष (चार्ट में लिखी उम्र) की होगी.

डैसिंग करने के बाद मैं फिर उस के पास गया. पूछा, ‘‘तुम 16 साल की हो?’’ मैं अपने आश्चर्य को दबा नहीं पा रहा था.

उस ने पलकें   झपका कर स्वीकृति दी.

‘‘क्या तकलीफ है?’’

‘‘यह तो देख लिया कि मैं 16 साल की हूं. यह नहीं देखा कि मु  झे क्या तकलीफ है,’’ जवाब देने में उस ने एक पल भी नहीं लगाया.

उस की बातों से   झुं  झला कर मैं ने पुन: चार्ट देखा. चार्ट के अनुसार उस का 1 पांव

जल गया था. उस के अंदर पस पड़ गई थी, जिस से उसे चलने में तकलीफ होती थी. मैं ने पांव दिखाने को कहा तो उस ने दिखा दिया. उंगलियों के बीच 1-2 छेद भी हो गए थे. दबाने पर उस में से मवाद निकल पड़ता था. मैं ने उस पर पट्टी बांध दी. उस की हाजिरजवाबी के कारण कुछ और पूछने की हिम्मत नहीं हुई.

पट्टी बांध कर लौटा तो फिर ध्यान बराबर उसी लड़की पर जा रहा था. खयालों में खो कर मैं कई बार अपनेआप मुसकरा उठा. बराबर एक ही वाक्य होंठों पर आता यह तो बिलकुल बच्ची है.

दूसरे दिन वह अस्पताल के बरामदे में ही दिख गई. उस ने स्कर्टब्लाउज पहन रखा था तथा वही 2 चोटियां कर रखी थीं. वह मेरी ओर ही देख रही थी.

‘‘कहो, कैसी हो?’’ मैं ने करीब जा

कर कहा.

‘‘ठीक हूं, डाक्टर.’’

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘पलंग नंबर 2, जैसे जेल में कैदी नंबर फलांफलां होता है वैसे ही अस्पताल में मेरा नाम पलंग नंबर 2 है.’’

‘‘अस्पताल के बाहर का नाम क्या है?’’

‘‘बाहर की बात बाहर ही छोड़ आई हूं.’’

मु  झे गुस्सा आ गया. सोचा कि अजीब लड़की है, कोई बात सीधे ढंग से करती ही नहीं.

‘‘अच्छा, अपने पलंग पर चलो. डाक्टर के आने का समय हो गया है.’’

वह एक पैर से कूदती हुई नजरों से ओ  झल हो गई. मु  झे लगा जैसे कोई छोटी सी चिडि़या फुदकती हुई गुजर गई है.

‘‘तुम एक पैर से कूद कर क्यों चलती हो?’’ बाद में उस के पांव पर पट्टी बांधते हुए मैं ने पूछा.

‘‘दोनों पैंरो से चलने में दर्द जो होता है.’’

‘‘तुम दोनों पैरों से धीरेधीरे चला करो, ज्यादा दर्द नहीं होगा.’’

‘‘न बाबा, मु झे बहुत दर्द होता है.’’

मेरे सम  झाने पर भी वह एक पैर से ही चलती रही. कुल मिला कर वह मु  झे अच्छी लगती थी. धीरेधीरे हम दोनों में लगाव बढ़ता गया. कभीकभी वह मेरे कंधे पर हाथ रख कर एक पांव से कूदती हुई सारे वार्ड का चक्कर भी लगा लेती. वह बड़े डाक्टर की खास मरीज थी. अब मेरी भी दोस्त बन जाने के कारण सभी उस का खूब ध्यान रखते थे. स्वभाव से अच्छी होने के कारण उस ने छोटेबड़े सभी का दिल जीत रखा था. उस से नाराज थी तो केवल राजम्मा, जो सोचती थी कि उस के आने से मैं उस का न रहा, हालांकि मैं पहले भी राजम्मा का न था.

एक दिन वह मु  झे कहीं न दिखी. पूरे वार्ड का चक्कर लगाने के बाद मैं बरामदे में गया तो देखा वह बैठी रो रही है.

‘‘अरे, क्या हुआ?’’ मैं ने उस के निकट आ कर पूछा.

‘‘देखते नहीं कि कितना खून निकल

रहा है.’’

उस के पैर में शायद चोट लग गई थी, घाव से खून निकल रहा था.

‘‘चोट कैसे लगी?’’

‘‘फिसल गई,’’ वह फिर सुबक पड़ी.

‘‘बहुत दर्द हो रहा है?’’ मैं ने हमदर्दी

से पूछा.

‘‘दर्द तो अधिक नहीं हो रहा है, पर खून बहुत निकल रहा है,’’ और वह और जोर से रोने लगी.

‘‘अच्छा उठो, मेरा सहारा ले कर चलो, पट्टी बांध देता हूं. ठीक हो जाएगा.’’

‘‘कैसे चलूं. दर्द होगा.’’

‘‘दूसरा पैर ठीक है न, उस से चलो.’’

‘‘नहीं, दर्द होगा.’’

‘‘अच्छा रुको, मैं पहिए वाली कुरसी मंगवाता हूं.’’

‘‘नहीं, आप मत जाओ,’’ उस ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया. रोरो कर उस की आंखें लाल हो रही थीं. न जाने कब से रो रही थी और कोई रास्ता न देख कर मैं ने उसे अपनी बांहों में उठा लिया और मरहमपट्टी करने वाले कमरे में ले जा कर बैंच पर बैठा दिया. बैठाते वक्त उस के गालों पर पहली बार मैं ने शर्म की लाली देखी. उस की आंखें   झुकी हुई थीं.

लड़कियों के 16वें साल के विषय में सुना तो बहुत कुछ था, पर भावनात्मक स्तर पर पहली बार कुछ महसूस कर रहा था. वह बहुत सुंदर लग रही थी. मैं खड़ा मुग्धभाव  से उसे देखता रहा और वह लजाती रही.

तभी राजम्मा आ गई. उस का चेहरा क्रोध से लाल हो रहा था. पट्टी बांधने में उस ने मदद की, पर पूरा समय वह नाराज दिखती रही. राजम्मा के गुस्से से कविता थोड़ा सहम गई. डाक्टर के डर से राजम्मा कविता को कुछ कहती न थी, पर उस का व्यवहार उस के प्रति रूखा ही रहा.

उस दिन के बाद कविता मु  झे देखते ही   झेंप जाती. उसे बांहों में उठाने की बात बड़े डाक्टर को भी पता चल गई थी. एक दिन उन्होंने पूछा भी, ‘‘क्यों डाक्टर सतीश, यह कविता वाली क्या बात है?’’

‘‘सर, कुछ परिस्थिति ही ऐसी बन गई थी,’’ शर्म से मेरा चेहरा लाल हो गया.

‘‘भई, तुम्हारे दिल में कोई बात हो तो कहो, मैं उस के पिताजी से बात करूंगा.’’

‘‘नहीं, वह तो बिलकुल बच्ची है, मैं ऐसी बात सोच भी नहीं सकता,’’ मैं हकलाया.

‘‘वह बच्ची है, पर तुम तो नहीं. यहां उस की जिम्मेदारी मु  झ पर है,’’ उन्होंने कुछ गंभीरता से कहा.

इस घटना के बाद से मैं कविता के करीब बहुत कम जाता. इस बीच मैं ने एक बात और महसूस की और वह यह कि उस से मिलने उस के मातापिता नहीं आते थे. एक दिन उस से पूछा भी था, पर वह चुप रही.

कुछ दिनों के बाद बड़े डाक्टर ने बताया कि उस की मां नहीं है और पिता अपने व्यापार में इतने व्यस्त रहते हैं कि बेटी के लिए समय ही नहीं निकाल पाते.

एक दिन अचानक ही उस के पिता आए और उसे ले गए. उस दिन मैं छुट्टी पर था. जाते समय उस से मेरे खयालों की तंद्रा टूटी. कार एक खूबसूरत बंगले के बाहर खड़ी थी.

बंगले के अंदर प्रवेश करते ही लगभग 14-15 वर्ष के एक लड़के और 11-12 वर्ष की एक लड़की पर दृष्टि पड़ी. दोनों दौड़ कर कविता से लिपट गए.

‘‘मां, मेरा सामान लाई हो,’’ दोनों ने लगभग एकसाथ पूछा.

‘‘हांहां, सब लाई हूं. पहले इन से मिलो, ये डाक्टर सतीश हैं. तुम्हारे नए चाचा,’’ फिर मु  झ से बोली, ‘‘ये मेरा बेटा मन और मेरी बेटी मीत हैं.’’

मैं चौंक पड़ा. वह अपने बेटे से कुछ ही वर्ष बड़ी लग रही थी. मन में सोचा शायद ये इस के सौतेले बच्चे हों.

दोनों बच्चे मु  झे नमस्ते कह कर वार्ड से चले गए.

‘‘ये दोनों बच्चे तुम्हारे पति की पहली पत्नी से हैं?’’

‘‘ओह नहीं… पहले मु  झे 16 साल की नहीं मानते थे और आज मेरे बच्चों को ही दूसरों का बता रहे हो श्रीमानजी… ये मेरे अपने बच्चे हैं.’’

मु  झे लगा वह फिर मु  झ से कोई शरारत कर रही है.

‘‘अच्छा बताओ तुम मेरी उम्र कितनी सम  झते हो?’’ मेरी निगाहों में भरे संदेह को पढ़ कर वह बोली.

‘‘अधिक से अधिक 22 वर्ष,’’ मैं ने अपना अनुमान बताया.

‘‘धत, मैं इन बातों से खुश नहीं होती. जनाब, मेरी उम्र 32 वर्ष है.’’

मैं ने ध्यान से हिसाब लगाया तो वह सचमुच 32 साल की थी. लेकिन लगता था जैसे वक्त ने उस के मासूम चेहरे पर कोई छाप ही न छोड़ी हो.

अचानक मु  झे अपनी मोटी पत्नी का ध्यान हो आया. वह अभी 28 वर्ष की ही है, लेकिन लोग उसे मेरी भाभी सम  झते हैं.

‘‘पटना से यहां आते ही पिताजी ने मेरी शादी कर दी. आज के युग में भी तमाम बालविवाह होते हैं. 18 वर्ष की उम्र में मैं मां बन गई. आज मेर बेटा 14 वर्ष का और बेटी 12 वर्ष की है,’’ कविता ने बताया.

‘‘तुम्हारे पति कहां हैं?’’

‘‘वे हमें छोड़ हैं,’’ उस के चेहरे पर उदासी तैर आई.

मैं ने कुछ और पूछ कर उस का दिल दुखाना उचित न सम  झा.

नौकर नाश्ता लगा गया. नाश्ते के बाद मैं लौटने लगा तो उस ने कहा कि मैं अपनी पत्नी के साथ उस के घर आता रहूं.

रात में घर वापस आने में थोड़ी देर हो गई, पत्नी के खर्राटों की आवाज बैठक तक आ रही थी. मन उस के प्रति क्रोध और उपेक्षा से भर गया. कपड़े बदल कर बिस्तर पर लेटा तो पुन: कविता के खयाल ने आ घेरा. सोचने लगा, ‘आज अचानक इतने दिनों बाद मिले भी तो किस रूप में. बेचारी को वैधव्य का जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है. 2 बच्चे हैं, उन्हीं के सहारे जीवन काट रही है. काश, मैं ने उस के साथ विवाह की बात से इनकार न किया होता तो आज वह भी सुखी होती और मैं भी. आज वह पति खो चुकी है और मु  झे पसंद की पत्नी नहीं मिली. क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मैं अपनी पत्नी से तलाक ले लूं और कविता के दुखों को समेट लूं? उस का और मेरा दोनों का जीवन सुखमय हो जाएगा. काश, ऐसा हो सकता. यदि कविता तैयार हो तो मैं उसे अवश्य अपना लूंगा.’

रात इन्हीं विचारों में गुजर गई. सुबह नहाधो कर सीधा कविता के बंगले पर पहुंचा. रास्ताभर सोचता रहा कि किस प्रकार बात आरंभ करूंगा.

बैठक से कैरम खेलने की आवाज आ रही थी, मु  झे देखते ही मन और मीत ने नमस्ते की.

‘‘चाचाजी, आज आप हमारे साथ खेल कर मां को मात दिला दें.’’

‘‘मैं हमेशा इन से जीतती हूं, ये दोनों शैतान मु  झ से जीतने के लिए खूब बेईमानी भी करते हैं,’’ कविता ने कहा.

बिना बांहों की गुलाबी मैक्सी में वह बहुत ही सुंदर लग रही थी. यह सम  झना मुश्किल था कि तीनों में   झूठ कौन बोल रहा है.

‘‘हाय,’’ अचानक कविता उठी और दरवाजे की ओर दौड़ी. वह दरवाजे पर खड़े एक खूबसूरत नौजवान से लिपट कर रोने लगी. वह नौजवान उस की पीठ थपथपा रहा था. दोनों बच्चे होंठों ही होंठों में मुसकरा रहे थे. चंद लमहों के बाद वह संभली.

‘‘पिताजी, यात्रा कैसी रही?’’ मन ने पूछा.

पिताजी यानी यह कविता का पति है. मैं आश्चर्य से उसे देख रहा था.

‘‘राकेश, ये डाक्टर सतीश हैं और सतीश ये मेरे पति राकेश हैं,’’ कविता ने हमारा परिचय कराया.

दोनों बच्चे और कविता सामान ले कर अंदर जा चुके थे. ‘‘आप कविता के पति हैं, लेकिन कविता तो कह रही थी…’’

‘‘कि मैं उसे छोड़ कर चला गया हूं,’’ राकेश ने ठहाका लगाया, ‘‘जब भी मैं बाहर जाता हूं वह हर किसी से यही कहती है. इस में उस का दोष नहीं है, वह मु  झ से एक पल भी अलग नहीं रह सकती. जब मैं बाहर जाता हूं तो वह यह महसूस करती है कि मैं हमेशा के लिए उसे छोड़ गया हूं.’’

मेरा खूबसूरत स्वप्न बीच में ही टूट गया था. लेकिन यह सोच कर मु  झे संतोष हो रहा था कि कविता के सम्मुख अपना प्रणय प्रस्ताव रखने से मैं बालबाल बच गया.

‘‘चलो, नहा लो. मु  झे मालूम था कि आज तुम आओगे. मैं ने तुम्हारी पसंद का खाना भी बनाया है,’’ कविता ने कहा. पति से मिलने के बाद वह और भी सुंदर लग रही थी.

‘‘क्षमा कीजिए.’’ कह कर राकेश अंदर

चले गए.

कविता बैठी मु  झ से बातें करती रही. कुछ देर बाद बोली, ‘‘खाना खा कर ही जाना. मैं तुम्हें आज ऐसे नहीं जाने दूंगी.’’

शायद जिंदगी में पहली बार मु  झे घर के से माहौल में स्वादिष्ठ भोजन मिला.

‘‘तुम्हारे खानसामा तो कमाल का खाना बनाया है,’’ मैं ने कहा.

‘‘खाना मैं ने बनाया है, जनाब, पति और बच्चों की हर सेवा मैं स्वयं कररती हूं,’’ कविता के होंठों पर प्यारभरी मुसकान थी.

घर लौटते समय मैं सोच रहा था कि कविता एक वफादार पत्नी और मां है. फिर भी कितना बचपना है उस में शतरंज के खेल में वह बच्चों से भी  झगड़ रही थी. शायद 16वां साल उस में स्थाई रूप से बस गया है. काश, हम सब भी अपनी किशोरावस्था को अपने साथ जीवनभर ले कर चलते. जीवन कितना खुशगवार होता न. 65 साल का मैं जब 12 साल की पोती के साथ शतरंज पर लड़ता, मुझे लगा कितना अच्छा रहता.

गर्भ की दुनिया: गर्भवती होने के बाद वृंदा के साथ क्या हुआ

‘‘वृंदा गर्भ में शिशु का आना अगर कुदरत की कृपा है तो उस की देखभाल करना मातापिता का परम कर्तव्य सम झी,’’ अहिल्या देवी ने सम झाते हुए अपनी बेटी वृंदा से कहा.

वृंदा अपने उभरे हुए पेट को आंचल से ढकते हुए प्रतिउत्तर में इतना ही कह पाई, ‘‘दरअसल, पेट के अंदर गर्भाशय के आसपास बड़ी आंत, छोटी आंत एवं

किडनियां होती हैं. ऐसे में मान के चलिए वे सभी आपस में पड़ोसियों की तरह रहते हैं एवं अपना दुखसुख बांटते हैं.’’

गर्भ में पल रहा शिशु मांबेटी की सारी बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था.

‘‘बड़ी आंत दीदी, यह वृंदा कौन है?’’ गर्भाशय में पल रहे शिशु ने अपनी पड़ोसिन बड़ी आंत से पूछा.

‘‘बुद्धू, वृंदा तुम्हारी मां का नाम है,’’ बड़ी आंत ने इठलाते हुए कहा.

‘‘अभी बुलाने से कुछ नहीं होगा ,जब तुम बाहर निकलोगी तब वह सुनेगी,’’ छोटी आंत ने बीच में ही टोका.

‘‘बाहर कब निकलूंगा?’’ शिशु ने फिर पूछा.

‘‘और 3 महीने के बाद,’’ दोनों आंतों ने एकसाथ कहा.

रसोई में मेथी का साग पक रहा

था जिस की महक से वृंदा को उलटी

आने लगी.

‘‘कोई मु झे ऊपर खींच रहा है… मु झे बचाओ छोटी आंत दीदी, बड़ी आंत दीदी बचाओ,’’ शिशु छटपटाने लगा.

‘‘लो कर लो बात हम तो खुद ही परेशान रहते हैं तुम्हारी वजह से. हम क्या बचाएं तुम्हें. तुम्हारी वजह से तुम्हारी मां कभी खट्टा खाती है तो कभी मीठा और

कभी तीखी मिर्ची.’’

‘‘खट्टामीठा तक तो ठीक लेकिन उफ यह मिर्ची तो दम निकल देती है,’’ बड़ी आंत ने शिकायत करते हुए कहा.

जैसे ही उलटियां खत्म हुईं, ‘‘अब जा कर कहीं जान में जान आई,’’ शिशु ने राहत की सांस ली.

‘‘दीदी, सुना आप लोगों ने… कुछ सुरीला सा सुनाई दे रहा है मु झे, बहुत अच्छा लग रहा है.’’

‘‘तुम सुनो हम तो यह सब सुनते ही रहते हैं हमेशा,’’ छोटी आंत ने इठलाते हुए कहा.

‘‘यह मंदिर की घंटी की आवाज है तुम्हारी मां तुम्हारे लिए भगवानजी से प्रार्थना कर रही होगी,’’ बड़ी आंत ने कहा.

‘‘प्रार्थना क्या होती है,’’ शिशु ने जानना चाहा.

‘‘बुद्धू, कुछ नहीं जानता,’’ शिशु द्वारा बारबार प्रश्न पूछे जाने से तंग आ कर किडनी ने कहा जिसे मुश्किल से आराम करने का मौका मिला था.

‘‘मैं जानता नहीं… जानती हूं,’’ शिशु ने गरदन टेढ़ी कर जवाब दिया.

‘‘तुम्हारी मां तुम्हारी सलामती के लिए भगवानजी से प्रार्थना कर रही होगी,’’ बड़ी आंत ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘मैं तो सही से ही हूं मु झे क्या हुआ है,’’ शिशु ने अंगड़ाई लेते हुए कहा.

तभी वृंदा ने डाक्टर द्वारा दी गई विटामिन की गोलियां खाईं.

‘‘आ छि:.. छि:… मां ने क्या खाया पता नहीं मु झे तो बहुत कड़वी लगी,’’ शिशु ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘दवाइयां खाई होंगी तभी तो तुम स्वस्थ और तंदुरुस्त रहोगे,’’ किडनी ने सफाई का काम करते हुए कहा.

‘‘उफ, मु झे सांस लेने में दिक्कत हो रही है,’’ शिशु ने शोर मचाया.

‘‘अरे बावले, वह कोई काम कर रही होगी जिस में उन को मेहनत लग रही होगी इसीलिए ऐसा हो रहा है तुम चिंता मत करो,’’ छोटी आंत ने अपना दिमाग

लगाया.

वृंदा रोज रात को केसर वाला दूध पीती थी ताकि उस का बच्चा सुंदर और स्वस्थ पैदा हो.

‘‘रोज रात को जो मां पीती है न वह मु झे बहुत अच्छा लगता है,’’ शिशु ने होंठों पर जीभ फेरते हुए कहा.

छोटी आंत बड़ी आंत दोनों हंसने लगीं.

‘‘हां, वह तो हमें भी अच्छा लगता है और हमें ही क्यों किडनी दोनों जुड़वां भाइयों को भी अच्छा लगता है. दूध पीने से शरीर स्वस्थ और पाचनतंत्र भी ठीकठाक

रहता है. तभी तो हम दूध को बैलेंस डाइट कहते हैं यानी संतुलित आहार.’’

‘‘वाह… वाह… आज तो मेरी पड़ोसिन बड़े ज्ञान की बातें कह रही हैं,’’ दाईं किडनी ने जो छोटी आंत की प्रशंसक थी ने मुसकराते हुए कहा.

रविवार का दिन था. वृंदा के पति मोहन ने टीवी पर डरावनी फिल्म चला रखी थी जिसे देख वृंदा बारबार डर रही थी, जिस का असर शिशु पर हो रहा था. बच्चा

सहम कर शांत हो गया.

थोड़ी देर बाद बड़बड़ाने लगा, ‘‘यह किस की हथेली का स्पर्श है… यह स्पर्श तो

थोड़ा अलग है मां जैसा कोमल नहीं है.’’

‘‘यह अवश्य तुम्हारे पिता होंगे.’’

‘‘अच्छा हां पहले भी कई बार इस स्पर्श को मैं ने महसूस किया है,’’ शिशू मुसकराने लगा है और हाथपैर चलाने लगा, जिसे महसूस कर वृंदा मोहन की हथेली

पकड़ कर पेट पर यहांवहां रखने लगी.

‘‘बेबी किकिंग, किकिंग,’’ बोल कर दोनों हंसने लगे.

थोड़ी देर बाद.

‘‘इतना शोर तो कभी नहीं होता है आज क्या हो गया है,’’ शिशु ने सहमते हुए कहा.

‘‘मु झे भूख लगी है. लगता है कई दिन से मां ने खाना नहीं खाया.’’

‘‘सही कह रहे हो शायद तुम्हारी मां किसी बात से दुखी है.’’

‘‘यह दुख क्या होता है दीदी?’’

‘‘दुख, दुख का मतलब अब इसे कैसे सम झाऊं,’’ छोटी आंत ने हैरान होते हुए कहा.

‘‘देखो जब तुम्हारी मां कड़वी दवाई पीती है तुम कैसा मुंह बना लेते हो, उदास हो जाते हो वही दुख है और जब तुम्हारी मां मीठा दूध पीती है तब तुम कितने

खुश हो जाते हो वही खुशी है. जब तुम बाहर निकलोगे तो और भी कई बातों का ज्ञान होगा तुम्हें,’’ बड़ी आंत ने बाखूबी मोरचा संभाला.

‘‘बाहर की दुनिया तो हम ने कभी नहीं देखी. हम तो हमेशा ही इस कोठरी में बंद रहते हैं लेकिन तुम तो नसीब वाला हो तुम्हें बाहर जाने का मौका मिलेगा…’’

‘‘हमें भूल मत जाना,’’ दोनों किडनियों ने एकसाथ कहा.

‘‘नहीं भूलूंगा,’’ शिशु ने आश्वासन दिया और सोने की कोशिश करने लगा.

‘‘मां इतनी तेज क्यों चल रही हो… मैं… मैं गिर जाऊंगा न.’’

और तभी बाहर में…

‘‘वृंदा, तुम्हें कई बार कहा है मु झे गंदे कपड़े पसंद नहीं. देखो मेरे सारे कपड़े गंदे पड़े हैं. क्या पहन कर मैं आफिस जाऊं बताओ?’’ मोहन ने चिल्लाते हुए

कहा.

‘‘कल तबीयत थोड़ी ठीक नहीं लग रही थी इसीलिए नहीं धो पाई लाइए आज धो देती हूं.’’

‘‘बस बस तुम्हें तो बहाना चाहिए, तुम औरतों को केवल बहाना चाहिए. बहाना काम से छुट्टी मिलने का वरना 4 कपड़े धोने में क्या जाता है? बच्चा तो अभी

पेट में है तब तुम्हारे इतने नखरे हैं. बाहर आ जाए तो पता नहीं,’’ मोहन ने गुस्से से लाल होते हुए कहा.

वृंदा रोतेरोते कपड़े उठा कर जाने लगी.

‘‘बसबस रहने दो,’’ कहते हुए मोहन ने धक्का दे दिया, वृंदा लड़खड़ा कर गिर पड़ी.

गिरते वक्त उस का पेट ड्रैसिंग टेबल के कोने से टकराया जोर से चीख निकल गई और वृंदा बेहोश हो गई.

वृंदा को इस हालत में देख मोहन का गुस्सा छूमंतर हो गया. गले में घिघी बंध गई.

ओह, ‘‘सौरी वृंदा सौरी.’’

‘‘मैं भी कितना बेवकूफ हूं, छोटी सी बात को इतना बड़ा कर दिया,’’ मोहन बेहोश वृंदा को होश में लाने की कोशिश करते हुए बोला.

‘‘मां, मां, देखो वृंदा को क्या हो गया?’’ मोहन लगभग रोते हुए बोला.

तब तक अंदर बच्ची निस्तब्ध हो चुकी थी.

‘‘बड़ी दीदी, देखो न इस में कितनी देर से कुछ हलचल नहीं हुई,’’ छोटी आंत ने परेशान होते हुए कहा.

‘‘कोई न, सो रही होगी.’’

‘‘नहीं जीजी सोती भी है न तो करवट बदलती रहती है. मैं ने कई बार देखा है. देखो न जीजी देखो न.’’

‘‘अरे हां, क्या हुआ इसे. किसी अनहोनी की आशंका से दोनों सहम जाती हैं. बेहोश वृंदा को हौस्पिटल ले जाया गया. वस्तुस्थिति जान कर डाक्टर ने गुस्सैल

निगाह से मोहन की ओर देखा.’’

‘‘सिस्टर, पेशेंट को इमरजेंसी वार्ड में ले चलो,’’ डाक्टर ने चीखते हुए कहा.

‘‘ठीक तो हो जाएगा न मेरा बच्चा सही सलामत तो होगा न,’’ मोहन ने गिड़गिड़ाते हुए डाक्टर से पूछा.

डाक्टर ने उस की एक न सुनी और भागते हुए इमरजेंसी वार्ड में पहुंची.

बच्चा अंदर में निस्तेज पड़ा हुआ था किसी प्रकार की कोई हलचल न थी. काफी कोशिश करने के बाद वृंदा को होश आया.

‘‘मेरे बच्चे को बचा लीजिए मेरे बच्चे को बचा…’’ वृंदा इतना बोल कर रोने लगी.

‘‘हम कोशिश कर रहे हैं. हम अपनी

पूरी कोशिश कर रहे हैं. तुम बस अच्छा सोचो, तुम्हारे अच्छा सोचने से बच्चे पर अच्छा असर पड़ेगा. तुम्हारे पेट में चोट लगने की वजह से बच्चा अपने जगह से

अलग हो चुका है, इनफैक्ट उल्टा हो चुका है,’’ डाक्टर ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा.

‘‘अब क्या होगा?’’ पतिपत्नी ने एकसाथ कहा.

‘‘देखती हूं कुछ सीनियर डाक्टर आ रहे हैं. हो सकता है हमें आज ही बच्चे को बाहर निकालना पड़े या हो सकता है स्थिति सामान्य

हो जाए.’’

अल्ट्रासाउंड कर बच्चे की स्थिति देखी गई. उचित

उपचार हुआ और बच्चे के दिल की धड़कने सुनाई देने लगी.

‘‘जीजी देखो न मुन्नी वापस आ गया गई,’’ छोटी आंत जो बारबार उसे निहार रही थी खुश हो कर बोली.

‘‘कुछ बोलती क्यों नहीं? क्या हुआ था तु झे,’’ बड़ी आंत ने दुलारते हुए कहा.

‘‘कुछ नहीं, किसी ने मु झे जोर से धक्का दे दिया और उस के बाद क्या हुआ मु झे पता नहीं,’’ शिशु ने रोआंसा होते हुए कहा.

‘‘आप को पता है उस के बाद क्या हुआ?’’ शिशु ने दोनों से पूछा.

‘‘ज्यादा कुछ तो नहीं लेकिन बस तुम एकदम शांत हो गई थी.’’

‘‘मु झे याद आ रहा है इन दिनों कई हाथों

ने मु झे अजीब तरीके से सहलाया और न जाने

मेरे ऊपर किस किस तरह की दवा लगाई गई,

तब जा कर सब ठीक हुआ,’’ शिशु ने आपबीती सुनाई.

इस घटना के बाद हर छोटेछोटे आहट पर वह सहम जाती थी, शांत हो जाती थीं और आखिर में वह दिन आया जब उसे गर्भ से बाहर निकलना था. छोटी आंत

और बड़ी आंत ने मुसकरा कर उसे विदा किया.

 

किडनी भाइयों ने, ‘‘अलविदा मेरे नन्हे दोस्त,’’ कह कर रुखसत किया.

मुन्नी अब एक नए संसार में आ चुकी थी. आज वह अपने मां के गोद में लेटी हुई थी जो चिरपरिचित थी, लेकिन जैसे ही मोहन के गोद में गई तो नैपी बदलवाने

की फरमाइश कर बैठी.

सभी ने एक साथ हंसते हुए कहा, ‘‘अब हुए असल में कपड़े गंदे.’’

कोशिशें जारी हैं: शिवानी और निया के बीच क्या था रिश्ता

‘‘पहलीबार पता चला कि निया तुम्हारी बहू है, बेटी नहीं…’’ मिथिला शिवानी से कह रही थी और शिवानी मंदमंद मुसकरा रही थी.

‘‘क्यों, ऐसा क्या फर्क होता है बेटी और बहू में? दोनों लड़कियां ही तो होती हैं. दोनों ही नौकरियां करती हैं. आधुनिक डै्रसेज पहनती हैं. आजकल यह फर्क कहां दिखता है कि बहू सिर पर पल्ला रखे और बेटी…’’

‘‘नहीं… फिर भी,’’ मिथिला उस की बात काटती हुई बोली, ‘‘बेटी, बेटी होती है और बहूबहू. हावभाव से ही पता चल जाता है. निया तुम से जैसा लाड़ लड़ाती है, छोटीछोटी बातें शेयर करती है, तुम्हारा ध्यान रखती है, वैसा तो सिर्फ बेटियां ही कर सकती हैं. तुम दोनों की ऐसी मजबूत बौंडिग देख कर तो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता कि तुम दोनों सासबहू हो. ऐसे हंसतीखिलखिलाती हो साथ में कि कालोनी में इतने दिन तक किसी ने यह पूछने की जहमत भी नहीं उठाई कि निया तुम्हारी कौन है. बेटी ही समझा उसे.’’

‘‘ऐसा नहीं है मिथिला. यह सब सोच की बातें हैं. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर लड़कियां ठीक ही होती हैं. लेकिन जिस दिन लड़की पहला कदम घर में बहू के रूप में रखती है, रिश्ते बनाने की कोशिश उसी पल से शुरू हो जानी चाहिए, क्योंकि हम बड़े हैं, इसलिए कोशिशों की शुरूआत हमें ही करनी चाहिए और अगर उन कोशिशों को जरा भी सम्मान मिले तो कोशिशें जारी रहनी चाहिए. कभी न कभी मंजिल मिल ही जाती है. हां, यह बात अलग है कि अगर तुम्हारी कोशिशों को दूसरा तुम्हारी कमजोरी समझ रहा है तो फिर सचेत रहने की आवश्यकता भी है,’’ शिवानी ने अपनी बात रखी.

‘‘यह तो तुम ठीक कह रही हो… पर तुम दोनों तो देखने में भी बहनों सी ही लगती है. ऐसी बौंडिग कैसे बनाई तुम ने? प्यार तो मैं भी करती हूं अपनी बहू से पर पता नहीं हमेशा ऐसा क्यों लगता है कि यह रिश्ता एक तलवार की धार की तरह है. जरा सी लापरवाही दिखाई तो या तो पैर कट जाएगा या फिसल जाएगा. तुम दोनों कितने सहज और बिंदास रहते हो,’’ मिथिला अपने मन के भावों को शब्द देती हुई बोली.

‘‘बहू तो तुम्हारी भी बहुत प्यारी है मिथिला.’’

‘‘है तो,’’ मिथिला एक लंबी सांस खींच कर बोली, ‘‘पर सासबहू के रिश्ते का धागा इतना पतला होता है शिवानी कि जरा सा खींचा तो टूटने का डर, ढीला छोड़ा तो उलझने का डर. संभलसंभल कर ही कदम रखने पड़ते हैं. निश्चिंत नहीं रह सकते इस रिश्ते में.’’

‘‘हो सकता है… सब के अपनेअपने अनुभव व अपनीअपनी सोच है… निया के साथ मुझे ऐसा नहीं लगता,’’ शिवानी बात खत्म करती हुई बोली.

‘‘ठीक है शिवानी, मैं चलती हूं… कोई जरूरत हो तो बता देना. निया भी औफिस से आती ही होगी,’’ कहती हुई मिथिला चली गई. शिवानी इतनी देर बैठ कर थक गई थी, इसलिए लेट गई.

शिवानी को 15 दिन पहले बुखार ने आ घेरा था. ऐसा बुखार था कि शिवानी टूट गई थी. पूरे बदन में दर्द, तेज बुखार, उलटियां और भूख नदारद. निया ने औफिस से छुट्टी ले कर दिनरात एक कर दिया था उस की देखभाल में. उस की हालत देख कर निया की आंखें जैसे हमेशा बरसने को तैयार रहतीं. शिवानी का बेटा सुयश मर्चेंट नेवी में था. 6 महीने पहले वह अपने परिवार को इस कालोनी में शिफ्ट कर दूसरे ही दिन शिप पर चला गया था. 4 साल होने वाले थे सुयश व निया के विवाह को.

शिवानी के इतना बीमार पड़ने पर निया खुद को बहुत अकेला व असहाय महसूस कर रही थी. पति को आने के लिए कह नहीं सकती थी. वह बदहवास सी डाक्टर, दवाई और शिवानी की देखरेख में रातदिन लगी थी. इसी दौरान पड़ोसियों का घर में ज्यादा आनाजाना हुआ, जिस से उन्हें इतने महीनों में पहली बार उन दोनों के वास्तविक रिश्ते का पला चला था, क्योंकि सुयश को किसी ने देखा ही नहीं था. निया जौब करती, शिवानी घर संभालती. दोनों मांबेटी की तरह रहतीं और देखने में बहनों सी लगतीं.

निया की उम्र इस समय 30 साल थी और शिवानी की 52 साल. हर समय प्रसन्नचित, शांत हंसतीखिलखिलाती शिवानी ने जैसे अपनी उम्र 7 तालों में बंद की हुई थी. लंबी, स्मार्ट, सुगठित काया की धनी शिवानी हर तरह के कपड़े पहनती. निया भी लंबी, छरहरी, सुंदर युवती थी. दोनों कभी जींसटौप पहन कर, कभी सलवारसूट, कभी चूड़ीदार तो कभी इंडोवैस्टर्न कपड़े पहन कर इधरउधर निकल जातीं. उन के बीच के तारतम्य को देख कर किसी ने यह पूछना तो गैरवाजिब ही समझा कि निया उस की कौन है.

शिवानी लेटी हुई सोच रही थी कि कई महिलाएं यह रोना रोती हैं कि उन की बहू उन्हें नहीं समझती. लेकिन न हर बहू खराब होती है, न हर सास. फिर भी अकसर पूरे परिवार की खुशी के आधार, इस प्यारे रिश्ते के समीकरण बिगड़ क्यों जाते हैं. जबकि दोनों की जान एक ही इंसान, बेटे व पति के पास ही अटकी रहती है और उस इंसान को भी ये दोनों ही रिश्ते प्यारे होते हैं. इस एक रिश्ते की खटास बेटे का सारा जीवन डांवाडोल कर देती है, न पत्नी उसे पूरी तरह पा पाती है और न मां.

बहू जब पहला कदम घर में रखती है तो शायद हर सास यह बात भूल जाती है कि वह अब हमेशा के लिए यहीं रहने आई है, थोड़े दिनों के लिए नहीं और एक दिन उसी की तरह पुरानी हो जाएगी. आज मन मार कर अच्छीबुरी, जायजनाजायज बातों, नियमों, परंपराओं को अपनाती बहू एक दिन अपने नएपन के खोल से बाहर आ कर तुम्हारे नियमकायदे, तुम्हें ही समझाने लगेगी, तब क्या करोगे?

बेटी को तुम्हारी जो बातें नहीं माननी हैं उन्हें वह धड़ल्ले से मना कर देती है, तो चुप रहना ही पड़ता है. लेकिन अधिकतर बहुएं आज भी शुरूशुरू में मन मार कर कई नापसंद बातों को भी मान लेती हैं. लेकिन धीरेधीरे बेटे की जिंदगी की आधार स्तंभ बनने वाली उस नवयौवना से तुम्हें हार का एहसास क्यों होने लगता है कुछ समय बाद. उसी समय समेट लेना चाहिए था न सबकुछ जब बहू ने अपना पहला कदम घर के अंदर रखा था.

दोनों बांहों में क्यों न समेट लिया उस खुशी की गठरी को? तब क्यों रिश्तेदारों व पड़ोसियों की खुशी बहू की खुशी से अधिक प्यारी लगने लगी थी. बेटी या बहू का फर्क आज के जमाने में कोई खानपान या काम में नहीं करता. फर्क विचारों में आ जाता है.

बेटी की नौकरी मेहनत और बहू की नौकरी मौजमस्ती या टाइमपास, बेटी छुट्टी के दिन देर तक सोए तो आराम करने दो, बहू देर तक सोए तो पड़ोसी, रिश्तेदार क्या कहेंगे? बेटी को डांस का शौक हो और घर में घुंघरू खनकें तो कलाप्रेमी और बहू के खनकें तो घर है या कोठा? बेटी की तरह ही बहू भी नन्हीं, कोमल कली है किसी के आंगन की, जो पंख पसारे इस आंगन तक उड़ कर आ गई है.

आज पढ़लिख कर टाइमपास नौकरी करना नहीं है लड़कियों के शौक. अब लड़कियों के जीवन का मकसद है अपनी मंजिल को हर हाल में पाना. चाहे फिर उन का वह कोई शौक हो या कोई ऊंचा पद. वे सबकुछ संभाल लेंगी यदि पति व घरवाले उन का बराबरी से साथ दें, खुले आकाश में उड़ने में उन की मदद करें.

ऐसा होगा तो क्यों न होगी इस रिश्ते की मजबूत बौंडिंग. सास या बहू कोई हव्वा नहीं हैं, दोनों ही इंसान हैं. मानवीय कमजोरियों व खूबियों से युक्त एवं संवेदनाओं से ओतप्रोत. शिवानी अपनी सोचों के तर्कवितर्क में गुम थी कि तभी बाहर का दरवाजा खुला, आहट से ही समझ गई शिवानी कि निया आ गई. एक अजीब तरह की खुशी बिखेर देती है यह लड़की भी घर के अंदर प्रवेश करते ही. निया लैपटौप बैग कुरसी पर पटक कर उस के कमरे में आ गई.

‘‘हाय ममा.. हाऊ यार यू…,’’ कह कर वह चहकती हुई उस से लिपट गई.

‘‘फाइन… हाऊ वाज युअर डे…’’

‘‘औसम… पर मैं ने आप को कई बार फोन किया, आप रिसीव नहीं कर रही थीं. फिर सुकरानी को फोन कर के पूछा तो उस ने बताया कि आप ठीक हैं. वह लंच दे कर चली गई थी.’’

‘‘ओह, फोन. शायद औफ हो गया है.’’ शिवानी मोबाइल उठाती हुई बोली, ‘‘चल तेरे लिए चाय बना देती हूं.’’

‘‘नहीं, चाय मैं बनाती हूं. आप अभी कमजोर हैं. थोड़े दिन और आराम कर लीजिए’’, कह कर निया 2 कप चाय बना लाई और चाय पीतेपीते दिन भर का पूरा हाल शिवानी को सुनाना शुरू कर दिया.

‘‘अच्छा अब तू फ्रैश हो जा बेटा. चेंज कर ले. सुकरानी भी आ गई. मनपसंद कुछ बनवा ले उस से.’’

‘‘ममा, सुकरानी के हाथ का खा कर तो ऊब गई हूं. आप एकदम ठीक हो जाओ. कुछ ढंग का खाना तो मिलेगा,’’ वह शिवानी की गोद में सिर रख कर लेट गई और शिवानी उस के बालों को सहलाती रही.

जब सुयश शिप पर होता था तो निया शिवानी के साथ ही सो जाती थी. खाना खा कर दिन भर की थकी हुई निया लेटते ही गहरी नींद सो गई. उस का चेहरा ममता से निहारती शिवानी फिर खयालों में डूब गई. ‘कौन कहता है कि इस रिश्ते में प्यार नहीं पनप सकता… उन दोनों का जुड़ाव तो ऐसा है कि प्यार में मांबेटी जैसा, समझदारी में सहेलियों जैसा और मानसम्मान में सासबहू जैसा.’

छत को घूरतेघूरते शिवानी अपने अतीत में उतर गई. पति की असमय मृत्यु के बाद छोटे से सुयश के साथ जिंदगी फूलों की सेज नहीं थी उस के लिए. कांटों से अपना दामन बचाते, संभालते जिंदगी अत्यंत दुष्कर लगती थी कभीकभी. वह ओएनजीसी में नौकरी करती थी. पति के रहते कई बार घर और सुयश के कारण नौकरी छोड़ देने का विचार आया. पर अब वही नौकरी उस के लिए सहारा बन गई थी. सुयश बड़ा हुआ. वह उसे मर्चेंट नेवी में नहीं भेजना चाहती थी पर सुयश को यह जौब बहुत रोमांचक लगता था. सुयश लंबे समय के लिए शिप पर चला जाता और वह अकेले दिन बिताती.

इसलिए वह सुयश पर शादी के लिए दबाव डालने लगी. तब सुयश ने निया के बारे में बताया. निया उस के दोस्त की बहन थी. निया मराठी परिवार से थी और वह हिमाचल के पहाड़ी परिवार से. सुन कर ही दिल टूट गया उस का. पता नहीं कैसी होगी? पर विद्रोह करने का मतलब इस रिश्ते में वैमनस्य का पहला बीज बोना.

उस ने कुछ भी बोलने से पहले लड़की से मिलने का मन बना लिया पर जब निया से मिली तो सारे पूर्वाग्रह जैसे समाप्त हो गए. लंबी, गोरी, छरहरी, खूबसूरत, सौम्य, चेहरे पर दिलकश मुसकान लिए निया को देख कर विवाह की जल्दी मचा डाली. निया अपने मम्मीपापा की इकलौती लाडली बेटी थी. अच्छे संस्कारों में पली लाडली बेटी को प्यार लेना और देना तो आता था पर जिम्मेदारी जैसी कोई चीज लेना आजकल की बच्चियों को नहीं आता. बिंदास तरह से पलती हैं और बिंदास तरह से रहती हैं.

और इस बात को बेटी न होते हुए भी, बेटी की मां जैसा अनुभव कर शिवानी ने निया के गृहप्रवेश करते समय ही गांठ बांध लिया. दोनों बांहों से उस ने ऐसा समेटा निया को कि उस का माइनस तो कुछ दिखा ही नहीं, बल्कि सबकुछ प्लसप्लस होता चला गया. निया देर से सो कर उठती, तो घर में काम करने वाली के पेट में भी मरोड़ होने लगती पर शिवानी के चेहरे पर शिकन न आती.

निया के कुछ कपड़े संस्कारी मन को पसंद न आते पर पड़ोसियों से ज्यादा परवाह बहूबेटे की खुशियों की रहती. उन दोनों को पसंद है, पड़ोसी दुखी होते हैं तो हो लें. कुछ महीने रह कर सुयश 6 महीने के लिए शिप पर चला गया. निया अपनी जौब छोड़ कर आई थी इसलिए वह अपने लिए नई जौब ढूंढ़ने में लगी थी. शिवानी ने सुयश के जौब में आने के बाद रिटायरमैंट ले लिया था. वह अब दौड़तीभागती जिंदगी से विराम चाहती थी. फिलहाल जो एक कोमल पौधा उस के आंगन में रोपा गया था, उसे मजबूती देना ही उस का मकसद था.

पर सुयश के शिप पर जाने के बाद निया मायके जाने के लिए कसमसाने लगी थी. शिवानी इसी सोच में थी कि अब उसे अकेले नहीं रहना पड़ेगा. पर जब निया ने कहा, ‘‘ममा, जब तक सुयश शिप में है, मैं मुंबई चली जाऊं? सुयश के आने से पहले आ जाऊंगी?’’

न चाहते हुए भी उस ने खुशीखुशी निया को मुंबई भेज दिया. यह महसूस कर कि अभी वह बिना पति के इतना लंबा वक्त उस के साथ कैसे बिताएगी. नए रिश्ते को, नए घर को अपना समझने में समय लगता है. सुयश के आने से कुछ दिन पहले ही निया वापस आई. हां, वह मुंबई से उसे फोन करती रहती और वह खुद भी उसी की तरह बिंदास हो कर बात करती. अपने जीवन में उस की खूबी को महसूस कराती. घर में उस की कमी को महसूस कराती पर अपनी तरफ से आने के लिए कभी नहीं कहती.

सुयश ने भी कुछ नहीं कहा. निया वापस आई तो शिवानी ने उसे बिछड़ी बेटी की तरह गले लगा लिया. सुयश कुछ महीने रह कर फिर शिप पर चला गया. पर इस बार निया में परिवर्तन अपनेआप ही आने लगा था. स्वभाव तो उस का प्यारा पहले से ही था पर अब वह उस के प्रति जिम्मेदारी भी महसूस करने लगी थी. इसी बीच निया को जौब मिल गई.

शिवानी खुद ही निया के रंग में रंग गई. निया ने जब पहली बार उस के लिए जींस खरीदने की पेशकश की तो उस ने ऐतराज किया, ‘‘ममा पहनिए, आप पर बहुत अच्छी लगेगी.’’

और उस के जोर देने पर वह मान गई कि बेटी भी होती तो ऐसा ही कर सकती थी. समय बीततेबीतते उन दोनों के बीच रिश्ता मजबूत होता चला गया. औपचारिकता के लिए कोई जगह ही नहीं रह गई. कोशिश तो किसी भी रिश्ते में सतत करनी पड़ती है. फिर एक समय ऐसा आता है जब उन कोशिशों को मुकाम हासिल हो जाता है.

जितना खुलापन, प्यार, अपनापन, विश्वास, उस ने शुरू में निया को दिया और उसे उसी की तरह जीने, रहने व पहनने की आजादी दी, उतना ही वह अब उस का खयाल रखने लगी थी. बेटी की तरह उस की छोटीछोटी बातें अकसर उस की आंखों में आंसू भर देती. कभी वह उस को शाल यह कह कर ओढ़ा देती, ‘‘ममा ठंड लग जाएगी.’’ कभी उस की ड्रैस बदला देती, ‘‘ममा यह पहनो. इस में आप बहुत सुंदर लगती हैं. मेरी फ्रैंड्स कहती हैं तेरी ममा तो बहुत सुंदर और स्मार्ट है.’’

निया ने ही उसे ड्राइविंग सिखाई. हर नई चीज सीखने का उत्साह जगाया. वह खुद ही पूरी तरह निया के रंग में रंग गई और अब ऐसी स्थिति आ गई थी कि दोनों एकदूसरे को पूछे बिना न कुछ करतीं, न पहनतीं. हर बात एकदूसरे को बतातीं. इतना अटूट रिश्ता तो मांबेटी के बीच भी नहीं बन पाता होगा. सोच कर शिवानी मुसकरा दी.

सोचतेसोचते शिवानी ने निया की तरफ देखा. वह गहरी नींद में थी. उस ने उस की चादर ठीक की और लाइट बंद कर खुद भी सोने का प्रयास करने लगी. दूसरे दिन रविवार था. दोनों देर से सो कर उठीं.

दैनिक कार्यक्रम से निबट कर दोनों बैडरूम में ही बैठ कर नाश्ता कर रही थीं कि उन की पड़ोसिनें मिथिला, वैशाली, मधु व सुमित्रा आ धमकीं. निया सब को नमस्ते कर के उठ गई.

‘‘अरे वाह, आओआओ… आज तो सुबहसुबह दर्शन हो गए. कहां जा रही हो चारों तैयार हो कर?’’ शिवानी मुसकरा कर नाश्ता खत्म करती हुई बोली.

‘‘हम सोच रहे थे शिवानी कि कालोनी का एक गु्रप बनाया जाए, जिस से साल में आने वाले त्योहार साथ में मनाएं मिलजुल कर,’’ मिथिला बोली.

‘‘इस से आपस में मिलनाजुलना होगा और जीवन की एकरसता भी दूर होगी,’’ वैशाली बात को आगे बढ़ाते हुए बोली.

‘‘हां और क्या… बेटेबहू तो चाहे साथ में रहें या दूर अपनेआप में ही मस्त रहते हैं. उन की जिंदगी में तो हमारे लिए कोई जगह है ही नहीं… बहू तो दूध में पड़ी मक्खी की तरह फेंकना चाहती है सासससुर को,’’ मधु खुद के दिल की भड़ास उगलती हुई बोली.

‘‘ऐसा नहीं है मधु… बहुएं भी आखिर बेटियां ही होती हैं. बेटियां अच्छी होती हैं फिर बहुएं होते ही वे बुरी कैसे बन जातीं हैं, मां अच्छी होती हैं फिर सास बनते ही खराब कैसे हो जाती हैं? जाहिर सी बात है कि यह रिश्ता नुक्ताचीनी से ही शुरू होता है. एकदूसरे की बुराइयों, कमियों और गलतियों पर उंगली रखने से ही शुरुआत होती है.

‘‘मांबेटी तो एकदूसरे की अच्छीबुरी आदतें व स्वभाव जानती हैं और उन्हें इस की आदत हो जाती है. वे एकदूसरे के स्वभाव को ले कर चलती हैं पर सासबहू के रूप में दोनों कुछ भी गलत सहन नहीं कर पाती हैं. आखिर इस रिश्ते को भी तो पनपने में, विकसित होने में समय लगता है. बेटी के साथ 25 साल रहे और बहू 25 साल की आई, तो कैसे बन पाएगा एक दिन में वैसा रिश्ता.’ उस रिश्ते को भी तो उतना ही समय देना पड़ेगा. कोशिशें निरंतर जारी रहनी चाहिए. एकदूसरे को सराहने की, प्यार करने की, खूबसूरत पहलुओं को देखने की,’’ शिवानी ने अपनी बात रखी.

‘‘तुम्हें अच्छी बहू मिल गई न… इसलिए कह रही हो. हमारे जैसी मिलती तो पता चलता,’’ सुमित्रा बोली.

‘‘लेकिन बेटे की पत्नी व बहू के रूप में देखने से पहले उसे उस के स्वतंत्र व्यक्तित्व के साथ क्यों नहीं स्वीकार करते? उस की पहचान को प्राथमिकता क्यों नहीं देते? उस पर अपने सपने थोपने के बजाए उस के सपनों को क्यों नहीं समझते? उस के उड़ने के लिए दायरे का निर्धारण तुम मत करो. उसे खुला आकाश दो जैसे अपनी खुद की बेटी के लिए चाहते हो, उस के लिए नियम बनाने के बजाए उसे अपने जीवन के नियम खुद बनाने दो, उसे अपने रंग में रंगने के बजाए उस के रंग में रंगने की कोशिश तो करो, तुम्हें पता नहीं चलेगा, कब वह तुम्हारे रंग में रंग गई.

‘‘आखिर सभी को अपना जीवन अपने हिसाब से जीने का पूरा हक है. फिर बहू से ही शिकायतें व अपेक्षा क्यों?’’ बड़े होने के नाते आज उस की गलतसही आदतों को समाओ तो सही, कल इस रिश्ते का सुख भी मिलेगा. कोशिश तो करो. हालांकि, देर हो गई है पर कोशिश तो की जा सकती है. रिश्तों को कमाने की कोशिशें सतत जारी रहनी चाहिए सभी की तरफ से,’’ शिवानी मुसकरा कर बोली.

‘‘मैं यह नहीं कहती कि इस से हर सासबहू का रिश्ता अच्छा हो जाएगा पर हां, इतना जरूर कह सकती हूं कि हर सासबहू का रिश्ता बिगड़ेगा नहीं,’’ उस ने आगे कहा.

चारों सहेलियां विचारमग्न सी शिवानी को देख रहीं थी और बाहर से उन की बातें सुनती निया मुसकराती हुई अपने कमरे की तरफ चली गई.

हार की जीत: कपिल ने पत्नी को कैसे समझाया

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