विश्वास के घातक टुकड़े- भाग 1 : इंद्र को जब आई पहली पत्नी पूर्णिमा की याद

रात का सन्नाटा पसरा हुआ था. घर के सभी लोग गहरी नींद सोए थे, लेकिन पूर्णिमा की आंखों में नींद का नामोनिशान तक नहीं था. बगल में लेटा उस का पति इंद्र निश्चिंत हो कर सो रहा था, जबकि पूर्णिमा अंदर ही अंदर घुट रही थी. पूर्णिमा को इंद्र के व्यवहार में आए परिवर्तन ने बेचैन कर रखा था.

पूर्णिमा की शादी को 5 साल गुजर गए थे, लेकिन वह मां नहीं बन पाई थीं. इलाज जरूर चल रहा था, लेकिन परिणाम की हालफिलहाल कोई आशा नहीं थी. रात के तीसरे पहर इंद्र की नींद खुली. बिस्तर टटोला तो उसे पूर्णिमा नजर नहीं आई. उस ने उठ कर बल्ब का स्विच औन किया. देखा, पूर्णिमा बिस्तर के एक कोने पर घुटनों में मुंह छिपाए बैठी थी. उसे इस हालत में देख कर इंद्र ने पूछा, ‘‘पूर्णिमा, तुम अभी तक सोई नहीं?’’

‘‘मुझे नींद नहीं आ रही,’’ पूर्णिमा का स्वर बुझा हुआ था.

‘‘क्यों?’’ इंद्र ने पूछा.

‘‘बस, यूं ही.’’ पूर्णिमा ने टालने वाले अंदाज में जवाब दिया.

‘‘पूर्णिमा, मैं जानता हूं कि तुम्हें नींद क्यों नहीं आ रही है. मैं तुम्हारा दुख समझ सकता हूं. थोड़ा इंतजार करो, सब ठीक हो जाएगा.’’ इंद्र का इतना कहना भर था कि पूर्णिमा उस के सीने से लग कर सुबकने लगी.

‘‘इंद्र, तुम मुझे छोड़ तो नहीं दोगे?’’ पूर्णिमा ने अनायास पूछा. पत्नी के इस सवाल पर इंद्र गंभीर हो गया. वह कुछ सोच कर बोला, ‘‘कैसी पागलों वाली बातें कर रही हो?’’

बीते दिन की ही बात थी. पूर्णिमा हमेशा की तरह इंद्र की अलमारी के कपड़ों को हैंगर में लगा रही थी, तभी गलती से एक शर्ट नीचे गिर गई. शर्ट की जेब से एक फोटो निकल कर जमीन पर जा गिरा. पूर्णिमा ने सहज भाव से फोटो को उठाया, किसी लड़की का फोटो था. लड़की देखने में आकर्षक लग रही थी. उस की उम्र 25 के आसपास रही होगी. वह इंद्र के पास जा पहुंची, वह अखबार पढ़ रहा था.

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जैसे ही पूर्णिमा ने फोटो दिखाई, वह अखबार छोड़ कर उस के हाथ से फोटो लेते हुए बोला, ‘‘यह फोटो तुम्हें कहां से मिली? ‘‘तुम औरतों की यही खामी है, टटोलना नहीं छोड़ सकतीं.’’ कहते हुए इंद्र ने फोटो अपनी जेब में रख ली.

‘‘तुम्हारे कपड़े ठीक कर रही थी. मुझे क्यापता था कि तुम जेब में इतने महत्त्वपूर्ण दस्तावेज रखते हो.’’ पूर्णिमा ने चुहलबाजी की.

इंद्र मुसकरा कर बोला, ‘‘मेरे ही विभाग की है.’’

‘‘तो जेब में क्या कर रही थी?’’

‘‘फिर वही सवाल. एक फार्म पर लगानी थी, गलती से मेरे साथ चली आई.’’ वह बोला.

पूर्णिमा इधर कुछ महीनों से महसूस कर रही थी कि भले ही इंद्र उस के साथ बिस्तर पर सोता है, लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं थी. पतिपत्नी का संबंध महज औपचारिकता बन कर रह गया था. एक दिन उस से न रहा गया तो पूछ बैठी, ‘‘इंद्र, तुम बदल गए हो.’’

‘‘यह तुम कैसे कह सकती हो?’’ वह सकपकाते हुए बोला.

‘‘तुम्हारे व्यवहार से महसूस कर रही हूं.’’ पूर्णिमा ने कहा.

‘‘ऐसी बात नहीं है. औफिस में काम का बोझ बढ़ गया है.’’ उस ने सफाई दी तो पूर्णिमा ने मामले को ज्यादा तूल नहीं दिया.

दिन के 10 बज रहे होंगे. इंद्र का औफिस से फोन आया, ‘‘पूर्णिमा, आज मेरा मोबाइल चार्जिंग पर ही लगा रह गया. क्या तुम उसे मुझ तक पहुंचा सकती हो?’’

‘‘जरूर, तुम औफिस से बाहर आ कर ले लेना.’’ कह कर पूर्णिमा ने जैसे ही फोन चार्जर से निकाला एक लड़की का फोन आ गया, ‘‘इंद्र सर, आज मैं औफिस नहीं आ सकूंगी.’’

पूर्णिमा ने कोई जवाब नहीं दिया तो वह बोली, ‘‘आप कुछ बोल नहीं रहे. क्या नाराज हो मुझ से. माफी मांगती हूं, कल मेरा मूड नहीं था. घर पर कुछ रिश्तेदार आए थे, मम्मी ने जल्दी आने के लिए कहा, इसलिए आप के साथ कौफी पीने नहीं जा सकी.’’

पूर्णिमा को समझते देर नहीं लगी कि इंद्र शाम को देर से क्यों आता है. सोच कर पूर्णिमा का दिल बैठने लगा. वह खुद पर नियंत्रण करते हुए बोली, ‘‘मैं उन की बीवी बोल रही हूं. आज वह अपना मोबाइल घर पर ही छोड़ गए हैं.’’

पूर्णिमा का इतना कहना भर था कि उस ने फोन काट दिया.

पूर्णिमा का मन आशंकाओं से भर गया. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इंद्र से कैसे पेश आए. वह सोचने लगी कि इस लड़की से इंद्र का क्या संबंध है. ऐसे ही विचारों में डूबी पूर्णिमा पति को मोबाइल देने के लिए निकल गई. इंद्र के औफिस पहुंच कर उस ने फोन कर दिया, इंद्र औफिस के बाहर आ गया. फोन देते समय पूर्णिमा ने उस लड़की का जिक्र किया तो वह बोला, ‘‘मैं बात कर लूंगा.’’

शाम को इंद्र घर आया तो आते ही पूर्णिमा से बोला, ‘‘मैं 2 दिनों के लिए औफिस के काम से लखनऊ जा रहा हूं. मेरा सामान पैक कर देना.’’

‘‘अकेले जा रहे हो?’’ पूर्णिमा के इस सवाल पर वह असहज हो गया.

‘‘क्या पूरा औफिस जाएगा?’’

‘‘मेरे कहने का मतलब यह नहीं था.’’ पूर्णिमा ने कहा तो अचानक इंद्र को न जाने क्या सूझा कि एकाएक सामान्य हो गया. वह पूर्णिमा को बाहों में भरते हुए बोला, ‘‘मुझे क्षमा कर दो.’’

इस के बाद पूर्णिमा भी सामान्य हो गई. उस ने पति के कपड़े वगैरह बैग में रख दिए. पति के जाने के बाद वह अकेली रह गई. घर में बूढ़ी सास के अलावा कोई नहीं था. वह किसी से ज्यादा नहीं बोलती थी. इसीलिए वह चाह कर भी अपने मन की बात किसी से शेयर नहीं कर पाती थी.

रात को आंगन में चांदनी बिखरी थी, जो पूर्णिमा को शीतलता देने की जगह शूल की तरह चुभ रही थी. मन में असंख्य सवाल उठ रहे थे. कभी लगता यह सब झूठ है तो कभी लगता उस का वैवाहिक जीवन खतरे में है. तभी अचानक सास की नजर पूर्णिमा पर पड़ी.

‘‘यहां क्यों बैठी हो?’’

‘‘नींद नहीं आ रही है.’’ कह कर पूर्णिमा उठने लगी.

‘‘इंद्र चला गया इसलिए?’’ इस सवाल का पूर्णिमा ने कोई जवाब नहीं दिया.

इंद्र को ले कर उस के मन में जो चल रहा था, वह उस की निजी सोच थी. उसे सास से साझा करने का कोई औचित्य नहीं था. अनायास उस का मन अतीत की ओर चला गया. पूर्णिमा अपने मांबाप की एकलौती संतान थी. आर्थिक रूप से कमजोर होने के बावजूद उस के पिता ने सिर्फ इंद्र की अच्छी नौकरी देखी और कर दी शादी. काफी दहेज दिया था उन्होंने उस की शादी में. एक ही रात में इंद्र की सामाजिक हैसियत का ग्राफ ऊपर उठ गया था.

तब उसे क्या पता था कि ऐसा भी वक्त आएगा, जब रुपयापैसा सब गौण हो जाएगा. हर महीने सैकड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद उस के मां बनने की संभावना क्षीण नजर आती थी. कभीकभी इंद्र खीझ जाता, तो पूर्णिमा अपनी मम्मी से दवा पर होने वाले खर्चे की बात करती. संपन्न मांबाप उस के खाते में तत्काल हजारों रुपए डाल देते थे.

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इधर कुछ महीने से इंद्र उखड़ाउखड़ा सा रहने लगा था. दोनों में बात कम ही हो पाती थी. उसे भावनात्मक सहारे की जरूरत थी. सोचतेसोचते उस का मन भर आया. अगले दिन अचानक पूर्णिमा के मम्मीपापा आ गए. उन्हें देखते ही वह फफक कर रो पड़ी. बेटी का दुख उन्हें पता था. बोले, ‘‘मायके चलो.’’

पूर्णिमा के लिए यह राहत की बात थी. लेकिन उसे इंद्र की मां का खयाल था. इसलिए मातापिता से कहा, ‘‘सास अकेली रह जाएंगी. इंद्र औफिस के काम से बाहर गए हुए हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं, मैं 2 दिन उस का इंतजार कर लूंगा.’’ पूर्णिमा के पापा बोले.

तीसरे दिन इंद्र आया तो पूर्णिमा ने कहा, ‘‘मैं मायके जाना चाहती हूं.’’

‘‘बिलकुल जाओ,’’ इंद्र निर्विकार भाव से बोला, ‘‘तुम कुछ दिनों के लिए मायके चली जाओगी तो माहौल चेंज हो जाएगा. एक ही माहौल में रहतेरहते ऊब होने लगी है.’’

‘‘पति के साथ रहने में कैसी ऊब? कहीं तुम मुझ से ऊब तो नहीं गए?’’ लेकिन इंद्र ने एक शातिर खिलाड़ी की तरह चुप्पी साध ली. पूर्णिमा बेमन से मायके चली गई.

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जीवनज्योति- भाग 1: क्या पूरा हुआ ज्योति का आई.पी.एस. बनने का सपना

लेखक- मनोज सिन्हा

‘‘इस घर में रुपए के पेड़ नहीं लगा रखे हैं मैं ने कि जब चाहूं नोट तोड़तोड़ कर तुम सब की हर इच्छा पूरी करता रहूं. जूतियों के नीचे दब कर मुनीमगीरी करता हूं उस सेठ की बारह घंटे, तब जा कर एक दिन का अनाज इस परिवार के पेट में डाल पाता हूं.

वर्षों से दरक रही किसी वेदना का बांध अचानक आज ध्वस्त हो गया था. चोट खाए सिंह की भांति दहाड़ उठे थे मुंशी रामप्यारे सहाय.

आंखों से चिंगारियां बरसने लगी थीं. मन के अंदर फूट पड़े ज्वालामुखी का खौलता लावा शब्दों के रूप में बाहर आ कर सब को झुलसानेजलाने लगा था.

सुमित्रा इस घटना से हतप्रभ थी. उस ने आत्मीयता के शीतल जल से इस धधकती ज्वाला को शांत करने की भरसक कोशिश की थी.

‘‘सब जानते हैं जी और समझते भी हैं कि किस मुसीबत से आप इस घर का…’’

‘‘खाक समझते हैं. एक साधारण मुनीम की औलाद होने का उन्हें जरा भी एहसास है? नखरे तो ऐसे हैं इन के जैसे इन का बाप मैं नहीं, कोई कलक्टर, गवर्नर है.’’

‘‘छि:छि:, अब इन बच्चों के साथसाथ आप मुझे भी गाली दे रहे हैं जी, कहां जाएंगे ये? अब आप से अपनी जरूरतों को नहीं कहेंगे तो क्या दूसरे से कहेंगे?’’

‘‘तो क्या करूं मैं? चोरी करूं, डाका डालूं या आत्महत्या कर लूं इन की जरूरतों की खातिर…और यह सब तुम्हारी शह का नतीजा है. बच्चे अच्छे स्कूल- कालिज में पढ़ेंगे, बड़े आदमी बनेंगे, सिर ऊंचा कर के जिएंगे? कुछ नहीं करेंगे ये तीनों. बस, मुझे बेमौत मारेंगे.’’

एक पल को पसर आए सन्नाटे के बाद दूसरे ही पल यह बवंडर ज्योति की ओर बढ़ चला था, ‘‘और तू, किस ने कहा था तुझ से हर महीने फार्म भरने, परीक्षा देने के नाम पर पैसे उड़ाने को? कभी रिटेन, कभी पीटी तो कभी इंटरव्यू, हर महीने मेमसाहब की सवारी तैयार. कभी दिल्ली, कभी पटना, कभी कोलकाता…’’

तिरस्कार का यह अपदंश बिलकुल नया था ज्योति के लिए. बाबूजी का यह विकराल रूप उसे पहले कभी देखने को नहीं मिला था. बड़ीबड़ी आंखों में पानी की एक परत उमड़ आई थी जिसे पलकों पर ही संभाल लिया था ज्योति ने.

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भावनाओं की यह उमड़घुमड़ सुमित्रा की नजरों से छिप न सकी थी. कचोट उठा था मां का दिल, ‘‘देखिए, जो कहना है आप मुझ से कहिए न…ज्योति अब बच्ची नहीं रही, बड़ी हो गई है. एक जवान बेटी को भला इस तरह दुत्कारना…’’

‘‘हां… हां, जवान हो गई है तभी तो कह रहा हूं कि क्यों बोझ बन कर जिंदा है ये मेरी जिंदगी में. किसी नदी, तालाब में जा कर डूब क्यों नहीं मरती. कम से कम एक दायित्व से तो मुझे मुक्ति मिलती.’’

सर्वस्व झनझना उठा था ज्योति का. आहत भावनाएं इस से पहले कि रुदन बन कर बाहर आतीं, दुपट्टे से भींच कर दबा दिया था उस ने अपने मुंह को.

स्वयं को रोकतेथामते सुमित्रा भी बिफर उठी थीं, ‘‘कुछ होश भी है आप को?’’

‘‘होश है, तभी तो बोल रहा हूं कि आज अगर इस की जगह घर में बेटा होता तो कमा कर लाता. परिवार का सहारा होता. मगर यह लड़की तो अभिशाप है, एक अभिशाप.’’

‘‘हद करते हैं आप भी, अगर यह लड़की है तो क्या यह इस का दोष है?’’

‘‘हां, यह लड़की है. यही दोष है इस का. मुझ गरीब की कुटिया में सांसें ले कर इतनी जल्दी जवान हो गई, यह दोष है इस का. और इस घर में 3-3 लड़कियां ही पैदा कीं तुम ने. यह दोष है तुम्हारा,’’ कहतेकहते मुंशीजी का स्वर रुंधने लगा था.

‘‘आज पता नहीं क्या हो गया है आप को. आप जैसा धैर्यवान और समझदार इनसान भी ऐसी घटिया बात सोच सकता है. इस मानसिकता के साथ बोल सकता है, मैं ने तो कभी कल्पना तक नहीं की थी.’’

‘‘तो मैं ने कब कल्पना की थी कि सीमित आय की जरूरतें इतनी असीमित हो जाएंगी. तुम्हीं बताओ कि खानेदाने के लिए अपनी पगार खर्च करूं या पेट पर पत्थर बांध कर इस के ब्याह के लिए रोकड़े जमा करूं. उस पर से इस लड़की के यह चोंचले कि बड़ा आफीसर ही बनना है. कंगले की ड्योढ़ी पर बैठ कर आसमान झुकाने चली है. जब तक जिंदा रहेगी इस बाप की छाती पर बैठ कर मूंग ही तो दलेगी…’’ और इसी के साथ फफक पड़े थे स्वयं मुंशीजी भी.

मुंशीजी की यह हुंकार आर्तनाद बन इस कमरे में पसर गई थी और वहां खड़ा हर व्यक्ति सन्नाटे की चादर को ओढ़ कर खुद को इस हादसे का कारण मान बैठा था.

ज्योति इस बार दिल्ली से सिविल सर्विसेज का साक्षात्कार दे आई थी. संतुष्ट तो थी ही इस परीक्षा से, मगर उस के भरोसे ही बैठ जाना, संघर्षों की इतिश्री करना न तो बुद्धिमानी थी न ही उस की मानसिकता. बैंक प्रोबेशनरी आफीसर का फार्म भरना था, कल 150 रुपए का ड्राफ्ट बनवाना है उसे, बस, इतना ही तो मां से बाबूजी को कहलवाया था कि वह हत्थे से उखड़ गए थे. क्याक्या नहीं कह डाला उन्होंने.

नीतू और पिंकी ने भी बाबूजी का ऐसा रौद्र रूप पहले कभी नहीं देखा था. दोनों अब तक भीतर ही भीतर कांप रही थीं.

इस हादसे ने ज्योति की हर आकांक्षा, हर उम्मीद का गला घोंट दिया था. सकते का आवरण ढीला पड़ते ही मनोबल और धैर्य भी साथ छोड़ गए थे. अचानक टीसने लगा उस का अंतर्मन. सुबकती, सिसकती ज्योति एक चीत्कार के साथ रो पड़ी थी. और इन असह्य परिस्थितियों का बोझ उठाए सरपट वह अपने कमरे की ओर भागी थी.

‘‘चैन मिल गया आप को. दूर हो गया सारा पागलपन, क्याक्या नहीं कह डाला आप ने ज्योति को?

‘‘एक छोटी सी बात पर इतना बड़ा कुहराम…जवान बेटी है, इतना भी नहीं सोचा आप ने. यदि उस ने कुछ ऊंचनीच कर लिया तो कहीं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहेंगे हम…’’ सुमित्रा के रुंधते गले ने शब्दों का दामन छोड़ दिया था. टपकते आंसुओं को पोंछती हुई वह भी कमरे से निकल गई थी. नीतू और पिंकी भी मां के पीछेपीछे चल पड़ी थीं.

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इस कमरे में अकेले मुंशीजी ठगे से रह गए थे. एक ऐसा दावानल जिस की तपिश में झुलस कर सभी अपने उन से दूर हो गए थे. आंखें अब भी नम थीं. मुंशीजी खुद ब खुद ही बुदबुदा उठे थे, ‘ताना मारेगी, दुनिया मुझ पर थूकेगी. एक मैं ही तो बचा हूं सारी दुनिया में अकेला. सब का दोषी है ये मुंशी रामप्यारे सहाय. ढाई हजार पगार पाने वाला, 3-3 लड़कियों का गरीब, लाचार बाप.’

उधर कमरे में कुहनियों के बीच मुंह छिपा कर ज्योति रोती ही जा रही थी. मां का स्नेहिल स्पर्श भी आज उसे ममता- विहीन लग रहा था. उसे लग रहा था जैसे वह सचमुच एक लाश है, एक चेतना -शून्य देह. कोई बाहरी स्पर्श, कोई अनुभूति, कोई संवेदना, कोई सांत्वना उसे अर्थहीन लग रही थी. बस, कलेजे में रहरह कर एक हूक सी उठती थी और अविरल अश्रुधार निकल पड़ती थी.

सुमित्रा ने खूब सहलायासमझाया था उसे. वस्तुस्थिति के इस पीड़ादायक धरातल पर बाबूजी की मनोदशा विश्लेषित करती हुई सुमित्रा ने यह जताने की कोशिश की थी कि किसी भी व्यक्ति के लिए इस तरह अचानक बरस पड़ना कोई असामान्य बात नहीं थी. नीतू और पिंकी ने भी दीदी को बहलाने, गुदगुदाने, रिझाने की बहुत कोशिश की थी, मगर सब व्यर्थ.

जिज्ञासावश नीतू ने मां से एक संजीदा सा सवाल पूछ ही लिया, ‘‘मां, लड़की होना क्या सच में एक सामाजिक अभिशाप है?’’

‘‘नहीं, बेटी, इस संसार में लड़की हो कर पैदा होना बड़े सौभाग्य की बात है, गर्व की बात है. हां, ‘औरत’ जाति नहीं नीतू, ‘गरीबी’ अभिशाप है… गरीबी?’’ यह वाक्य सुमित्रा का सिर्फ उत्तर ही नहीं, बल्कि भोगा हुआ यथार्थ था.

शरद की सर्द रात. घर में एक अजीब सी खामोशी थी. नीतू और पिंकी तो गहरी नींद में थीं मगर ज्योति, सुमित्रा और मुंशीजी की बंद आंखों में शाम की घटना का असर अब तक भरा था. मुंशीजी बारबार करवट बदल रहे थे. सुमित्रा ने जानबूझ कर उन्हें छेड़ना उचित नहीं समझा था.

कहने को तो मुंशीजी सबकुछ कह गए थे मगर अब अवसादों ने उन्हें धिक्कारना शुरू कर दिया था. उन के मुंह से निकला एकएक शब्द उन्हें नागफनी के बड़ेबड़े झाड़ में तब्दील हो कर उन की आत्मा तक को छलनी कर रहा था.

मुंशीजी की आंखों के सामने ज्योति का रोताबिलखता चेहरा जितनी बार घूम जाता उतनी बार वह कलप उठते थे.

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लौकडाउन- भाग 2 : जब बिछड़े प्यार को मिलवाया तपेश के दोस्त ने

लेखिका- सावित्री रानी

सभी दोस्त वापस होस्टल चले गए.

सुबह जब पीयूष की आंख खुली तो देखा कि तपेश भी वहीं बराबर वाले बैड पर सो रहा था.

‘‘अरे, तू यहां क्या कर रहा है? तु  झे तो रात भर पढ़ना था न?’’ पीयूष ने हैरानी से पूछा

‘‘अरे नहीं यार. सोना ही था, तो यहीं सो गया.’’

तभी कंपाउंडर और डाक्टर दोनों साथ में दाखिल हुए. कंपाउंडर डाक्टर से बोला, ‘‘सौरी डाक्टर साहब रात को नींद लग गई तो

हर घंटे पर बुखार चैक नहीं कर सका, लेकिन मैं ने इंजैक्शन दे दिया था.’’

डाक्टर ने पीयूष के बैड साइड से चार्ट उठाते हुए कहा, ‘‘लेकिन चार्ट में तो हर घंटे की रीडिंग है.’’

इस के साथ ही पीयूष की निगाहें तपेश की ओर घूमीं तो वह आंखें मिचका कर मुसकरा दिया.

थोड़ी देर में पीयूष की मां का फोन आया, ‘‘बेटा अब कैसी तबीयत है?’’

‘‘ठीक है मां.’’

‘‘तपेश तेरे पास ही था न?’’

‘‘हां मां, लेकिन आप को कैसे पता?’’

‘‘मैं ने ही उसे तेरा ध्यान रखने को बोला था, जब वह हमारे घर आया था. बहुत प्यारा लड़का है. आज तु  झे भी बोल रही हूं. हमेशा उस का ध्यान रखना. प्रौब्लम में उसे कभी अकेला मत छोड़ना.’’

‘‘कभी नहीं मां.’’

वक्त की रफ्तार यूनिवर्सिटी में कुछ ज्यादा ही तेज होती है. 4 साल पलक   झपकते ही बीत गये. कालेज के इन 4 सालों ने सभी दोस्तों को इंजीनियरिंग की डिगरी दे कर उन के पंखों को नई उड़ान के लिए मजबूत कर दिया था और उन्हें एक नए आकाश पर अपने नाम लिखने के लिए खुला छोड़ दिया था.

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पीयूष और रिया की खूबसूरत जोड़ी के प्यार का पौधा भी अब तक एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था.

फिर हरकोई अपने कैरियर के चलते कहांकहां जा बसा, हिसाब रखना भी मुश्किल हो गया. इन की उड़ान देश के हर शहर से ले कर विदेशों तक उड़ चली थी.

धीरेधीरे सब की शादियां होने लगीं. तपेश की शादी एक मध्यवर्गीय  परिवार की पढ़ीलिखी लड़की शालू से हो गई. जाहिर है अरेंज्ड मैरिज थी, लेकिन दोनों की अच्छी निभ रही थी. 1 साल बाद शालू ने बेटे को जन्म दिया तो ऐसा लगा कि घर खुशियों से भर गया.

उधर पीयूष और रिया दोनों को भी अच्छी नौकरी मिल गई थीं. लेकिन वे दोनों अभी शादी नहीं करना चाहते थे. कुछ और दिन अपनी बैचलर लाइफ ऐंजौय करना चाहते थे. कभीकभी तपेश को लगता कि पीयूष यहां भी बाजी मार गया. जहां वह घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां निभा रहा था वहीं पीयूष अभी भी बैचलर लाइफ की मस्ती ले रहा था.

लेकिन अपने प्यारे से बेटे को गोद में ले कर जब तपेश उसे प्यार करता तो उस के सामने दुनिया की हर नेमत छोटी लगती थी. जब उस ने अपना पहला शब्द ‘पप्पा’ बोला तो तपेश उसे गोद में उठा कर खुशी से   झूम उठा और जैसे खुद से ही बोला कि इस एक पल पर सारी मस्तियां वारी जा सकती हैं.

अगले साल बड़ी धूमधाम से पीयूष और रिया की भी शादी हो गई. शादी के कुछ दिन बाद ही पीयूष को किसी असाइनमैंट के लिए विदेश जाना पड़ा. फिर पता नहीं क्यों और कैसे, लेकिन वापस आते ही रिया ने उस के सामने तलाक की मांग रख दी.

पीयूष का प्यार आज तक उस की किसी मांग को नकार नहीं सका था लिहाजा, इस मांग को भी उस की खुशी मान कर न नहीं कर पाया. म्युचुअल कंसर्न से तलाक हो गया. यह शादी उतने दिन भी नहीं चली जितने दिन उस की तैयारियां चली थीं. गलती किस की थी या क्या थी, इन सब बातों की फैसले के बाद कोई अहमियत नहीं रह जाती. कुछ दिन बाद उड़ती सी खबर सुनी कि रिया ने उस से शादी कर ली, जिस के लिए उस ने पीयूष को छोड़ा था.

इधर तपेश की पत्नी शालू ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया. परिवार में इस इजाफे के साथ ही उन का परिवार भी पूरा हो गया और हर अरमान भी.

उधर पीयूष का तलाक हुए काफी वक्त बीत चुका था. सभी के सम  झानेबु  झाने के बाद भी फिर उस का मन किसी की ओर नहीं   झुका. रिया से टूटे हुए रिश्ते ने उस को इस कद्र तोड़ दिया कि फिर वह किसी से जुड़ ही नहीं सका.

अब तपेश को साफ दिखाई दे रहा था कि पीयूष के नंबर कहां कटे हैं. अब वह सौ नंबर वाली फिलौसफी उसे पूरी तरह कन्विनसिंग लग रही थी.

पीयूष की उम्र पैसा कमाने और दोस्तों से मिलनेमिलाने में ही बीत रही थी. उस का मिलनसार व्यवहार और गाने का शौक हर महफिल में जान डाल देता था. अपने हर दोस्त के घर उस का स्वागत प्यार से होता था. हर परिवार में उस के दिए गए तोहफे न सिर्फ यूजर मैनुअल के साथ आते, बल्कि इस इंस्ट्रक्शन के साथ भी आते कि घर में उन को कहां रखना है.

अपने कलात्मक सु  झाव और मस्तमौला अंदाज के कारण वह दोस्तों की पत्नियों के बीच भी उतना ही पौपुलर था जितना दोस्तों के बीच. दुनिया के न जाने कितने देशों में अपने काम के सिलसिले में पीयूष का जाना हुआ, लेकिन हर बार अपने नीड़ में पंछी अकेला ही लौटा.

अब 45 साल की उम्र में गुरुग्राम के एक लग्जरी अपार्टमैंट में वह अकेला रह रहा था.

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सारी रात तपेश इन्हीं यादों में डूबतातैरता रहा. तभी सूरज की एक किरण ने उस के बैडरूम की खिड़की पर दस्तक दी. शालू की आंख खुली तो वह तपेश की ओर देख कर बोली, ‘‘अरे आज तो बड़ी जल्दी उठ गए.’’

‘‘नहीं, असल में मैं सोया ही नहीं,’’ कह कर उस ने शालू को पीयूष के बारे में सब बताया.

‘‘उफ, सो सैड…’’ तो चलो फिर हम अस्पताल चलते हैं.

‘‘नहीं, तुम घर पर बच्चों के पास रुको, मैं जाता हूं.’’

तपेश तैयार हो कर वक्त से कुछ पहले ही अस्पताल पहुंच गया और आईसीयू की विंडो से पीयूष को देखता रहा. डाक्टर ने उसे बताया, बात कर के उसे पता चला कि रात को करीब 1 बजे उसे अस्पताल लाया गया था. हार्टअटैक सीवियर था, लेकिन कुदरत का शुक्र है कि समय पर सहायता मिल गई. अब स्थिति काबू में है. बाकी अपडेट्स शाम को दे पाऊंगा,’’ कह कर डाक्टर जल्दी से चला गया.

तपेश पूछता ही रह गया. अरे, लेकिन डाक्टर उसे अस्पताल लाया कौन था?

तभी उस ने देखा कि एक औरत उसी डाक्टर को आवाज लगाती हुई आई और उस  से पीयूष के बारे में पूछताछ करने लगी. तपेश हैरानी से उस की ओर देख रहा था. वह करीब 35-40 साल की खूबसूरत औरत थी, जो इंडियन तो नहीं थी. वह फ्रैंच एकसैंट में इंग्लिश बोल रही थी, उस से साफ जाहिर था कि वह किसी इंग्लिश स्पीकिंग देश से भी नहीं है.

पहनावे से तो वह काफी कुछ आजकल की मौडर्न औरतों जैसी ही लग रही थी, लेकिन नैननक्श से कुछकुछ अरबी लग रही थी. लेकिन उस की फ्रैंच एकसैंट में इंग्लिश सुन कर तपेश को लगा कि शायद वह लैबनान या ईजिप्ट से हो सकती है.

आगे पढ़ें- तपेश खुद काम के सिलसिले में…

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दोहरे मापदंड

विश्वास के घातक टुकड़े- भाग 2 : इंद्र को जब आई पहली पत्नी पूर्णिमा की याद

पूर्णिमा मायके चली जरूर गई थी, लेकिन उस का मन इंद्र पर ही टिका रहा. सोच रही थी कि अब तो वह आजाद पंछी की तरह रहेगा. पता नहीं वह क्या करता होगा. मन नहीं माना तो उस ने इंद्र को फोन लगाया.

‘‘कौन?’’ उधर से आवाज आई.

‘‘अब तुम्हें मेरी आवाज भी पहचान में नहीं आ रही.’’ पूर्णिमा ने उखड़े स्वर में कहा.

‘‘पूर्णिमा, तुम से बाद में बात करूंगा.’’ कह कर इंद्र ने काल डिसकनेक्ट कर दी.

इस दरमियान उस के कानों में कुछ ऐसी आवाजें आईं मानो कोई पिक्चर चल रही हो. घड़ी की तरफ देखा, शाम के 5 बज रहे थे. शक के कीड़े फिर कुलबुलाए. इंद्र कहीं अपनी उसी सहकर्मी के साथ पिक्चर तो नहीं देख रहा. सोच कर पूर्णिमा की बेचैनी बढ़ गई. पूर्णिमा की मां की नजर उस पर पड़ी, तो वह बोलीं, ‘‘यहां अकेले क्यों बैठी हो?’’

‘‘तो कहां जाऊं?’’ पूर्णिमा झल्लाई.

‘‘जब से आई हो परेशान दिख रही हो. इंद्र से कुछ कहासुनी तो नहीं हो गई.’’ मां ने पूछा.

‘‘हांहां, मैं ही बुरी हूं. झगड़ालू हूं.’’ पूर्णिमा रुआंसी हो गई. मां ने करीब आ कर स्नेह से उस के सिर पर हाथ फेरा तो वह शांत हो गई.

पूर्णिमा को मायके में रहते 15 दिन हो गए. इस बीच एक दो बार इंद्र का फोन आया लेकिन मात्र औपचारिकता के लिए. एक दिन पूर्णिमा की सास का फोन आया, ‘‘पूर्णिमा, कब आ रही हो?’’

‘‘मम्मीजी, मैं जानती हूं आप को मेरी फिक्र है, लेकिन इंद्र ने एक बार भी नहीं कहा कि आ जाओ. जब उसे मेरी जरूरत ही नहीं है तो मैं आ कर क्या करूंगी.’’ पूर्णिमा ने कहा.

‘‘ऐसे कैसे हो सकता है, उस ने तो तुम्हें कई बार फोन किए.’’ सास बोलीं.

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‘‘वह तो कह रहा था कि तुम आने के लिए तैयार नहीं हो.’’

सास की बात सुन कर पूर्णिमा तिलमिला गई. अब इंद्र झूठ भी बोलने लगा था. काफी सोचविचार कर पूर्णिमा ने वापस ससुराल जाने का मन बनाया. इंद्र के मन में क्या चल रहा है, यह जानना उस के लिए बेहद जरूरी था. वह अपनी ससुराल चली गई.

इंद्र ने अचानक आई पूर्णिमा को देखा तो अचकचा गया. बोला, ‘‘बताया होता तो मैं लेने आ जाता.’’

‘‘तुम्हें फुरसत हो तब न?’’ पूर्णिमा के चेहरे पर व्यंग्य की रेखाएं खिंच गईं.

इंद्र ने पूर्णिमा को मनाने की कोशिश की, ‘‘आज शाम को पिक्चर चलते हैं.’’

‘‘नहीं जाना मुझे पिक्चर.’’ वह बोली.

‘‘जैसी तुम्हारी मरजी.’’ कह कर इंद्र अपने दूसरे कामों में लग गया.

एक रात इंद्र गंभीर था. पूर्णिमा को अहसास हो गया था कि उस के मस्तिष्क में कुछ चल रहा है. उस वक्त पूर्णिमा कोई किताब पढ़ रही थी. लेकिन बीचबीच में इंद्र के चेहरे पर आतेजाते भावों को चोर नजरों से देख लेती थी.

‘‘पूर्णिमा, मैं अंजलि से शादी करना चाहता हूं.’’ इंद्र का इतना कहना भर था कि पूर्णिमा की जिंदगी में भूचाल सा आ गया. उस ने किताब एक तरफ रखी, ‘‘मेरा शक ठीक निकला. अंजलि नाम है न उस का. बहुत खूब.’’ पूर्णिमा हंसी.

इस हंसी में रोष भी था तो बेवफाई की एक गहरी पीड़ा भी, जिस का अहसास सिर्फ उस स्त्री को ही हो सकता है, जिस ने पति को देवता मान कर अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया हो.

‘‘तुम ऐसा सोच भी कैसे सकते हो? अभी मैं जिंदा हूं.’’ वह बोली.

‘‘काफी सोचविचार कर मैं ने यह फैसला लिया है.’’ इंद्र ने कहा, ‘‘डाक्टर ने साफ कह दिया है कि तुम्हारे मां बनने की संभावना क्षीण है.’’

‘‘नहीं बनूंगी. मगर इस घर में सौतन कभी नहीं आएगी. कैसी बेगैरत लड़की है. एक शादीशुदा मर्द को फंसाया और तुम कैसे पुरुष हो जिस ने लाज, शरम, सब को ताक पर रख कर एक लड़की को जाल में फांस लिया.’’

‘‘वह स्वयं तैयार है.’’

‘‘मैं तुम से बहस नहीं करना चाहता. बात काफी बढ़ चुकी है. वह पेट से है.’’

‘‘बगैर शादी के?’’ वह चौंकी.

‘‘उस की इजाजत तुम से चाहता हूं.’’

‘‘न दूं तो?’’

‘‘तुम्हारी मरजी. अगर तुम मां बन सकती तो यह नौबत ही नहीं आती.’’

‘‘सोचो, अगर तुम बाप नहीं बन पाते और मैं यही रास्ता अपनाती, तब क्या तुम मुझे ऐसी ही इजाजत देते?’’ इंद्र के पास इस का कोई जवाब नहीं था.

पूर्णिमा की मनोदशा अब एक परकटे परिंदे की तरह हो गई. जब कुछ नहीं सूझा तो वह गुस्से में बोली, ‘‘बताओ, तुम ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा क्यों किया? क्यों मेरे अस्तित्व को गाली दी? क्या सोचा था कि मेरी नाक के नीचे व्यभिचार करोगे और मैं चुप बैठी रहूंगी.’’

‘‘तो जाओ चिल्लाओ. कुछ मिलने वाला नहीं है.’’ इंद्र भी ढिठाई पर उतर आया.

‘‘अगर न चिल्लाऊं तो?’’

‘‘बड़ी मां का दरजा मिलेगा.’’ इंद्र ने कहा.

‘‘तुम्हारी उस रखैल के बच्चे की बड़ी मां का दरजा घिन आती है मुझे उस के नाम से.’’ इंद्र ने गुस्से में पूर्णिमा को मारने के लिए हाथ उठाया.

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‘‘खबरदार, जो मुझे हाथ भी लगाया.’’ पूर्णिमा के तेवर देख कर इंद्र ने हाथ पीछे खींच लिया. उस रात जो कुछ हुआ, उस से पूर्णिमा का मन व्यथित था. सुबह उस का किसी काम में मन नहीं लगा. वह बीमारी का बहाना बना कर लेटी रही. इंद्र औफिस चला गया तब उठी. सास ने पूर्णिमा का हाल पूछा.

डायनिंग कुरसी पर बैठी पूर्णिमा बोली, ‘‘मांजी, इंद्र दूसरी शादी करना चाहता है. क्या आप इस के लिए तैयार हैं?’’

कुछ पल सोच कर वह बोलीं, ‘‘यह इंद्र का निजी मामला है, इस में मैं कुछ नहीं कर सकती.’’

‘‘इस का मतलब इंद्र के इस फैसले पर आप को कोई आपत्ति नहीं है?’’ पूर्णिमा ने पूछा.

‘‘देखो पूर्णिमा, हर आदमी बाप बनना चाहता है. उस ने भरसक प्रयास किया. जब डाक्टरों ने तुम्हारे बारे में साफसाफ कह दिया. तो वह जो कर रहा है उस में मैं कुछ भी नहीं कर सकती.’’

‘‘ऐसे कैसे हो सकता है कि एक छत के नीचे मेरी सौत रहे?’’

‘‘यह तुम्हें सोचना होगा. रही मानसम्मान की बात, तो मैं जब तक रहूंगी तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी.’’

‘‘न रही तब?’’ पूर्णिमा ने कहा तो सास ने कोई जवाब नहीं दिया.

इंद्र औफिस से देर से आया. आने के बाद कपड़े उतार कर बिना खाएपीए बिस्तर पर पड़ गया. पूर्णिमा सोच रही थी कि किस हक से इंद्र से मनुहार करे. पर मन नहीं माना.

‘‘खाना लगा दूं?’’

‘‘मैं खा कर आया हूं.’’ सुनते ही पूर्णिमा का पारा चढ़ गया. क्योंकि वह जानती थी कि खाना किस के साथ खाया होगा. गुस्से में पूर्णिमा भी बिना खाएपीए अलग बिस्तर लगा कर सोने चली गई.

नींद आने का सवाल ही नहीं था. बारबार मन एक ही बात पर आ टिकता. इंद्र के बारे में उस ने जैसा सोचा था, वह उस से अलग निकला. उसे सपने में भी भान नहीं था कि वह ऐसा कदम भी उठा सकता है.

‘‘क्या सोचा है तुम ने?’’ इंद्र का स्वर अपेक्षाकृत धीमा था.

‘‘जब तुम ने फैसला ले ही लिया है तो मैं कुछ नहीं कर सकती. पर इतना जरूर बता दो कि मेरी इस घर में क्या स्थिति होगी? स्वामिनी या नौकरानी. अर्द्धांगिनी तो अब कोई और कहलाएगी.’’ पूर्णिमा भरे मन से बोली.

‘‘तुम्हारा दरजा बरकरार रहेगा?’’ इंद्र का चेहरा खिल गया.

‘‘रात का बंटवारा कैसे करोगे?’’ पूर्णिमा के इस अप्रत्याशित सवाल पर वह सकपका गया. जब कुछ नहीं सूझा तो उलटे उसी पर थोप दिया.

पूर्णिमा गुस्से में बोली, ‘‘अंजलि से प्यार मुझ से राय ले कर किया था?’’

इंद्र पूर्णिमा के कथन पर झल्ला गया, ‘‘पुराने पन्ने पलटने से कोई फायदा नहीं.’’

पूर्णिमा ने यह खबर अपने मायके पहुंचा दी. उस के मम्मीपापा, भाईबहन सभी रोष से भर गए. पापा तल्ख स्वर में बोले, ‘‘पूर्णिमा, तुम यहीं चली आओ. कोई जरूरत नहीं है, उस के पास रहने की.’’

‘‘वहां आ कर क्या मिलेगा? एक नीरस उबाऊ जिंदगी. सब का अपनाअपना लक्ष्य रहेगा, वही मेरे लिए एक बांझ स्त्री का अभिशप्त जीवन. बहुत होगा किसी स्कूल में नौकरी कर लूंगी. क्या इस से मेरा दुख कम हो जाएगा?’’ कहतेकहते पूर्णिमा की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘मैं तुम्हारी दूसरी शादी करवा दूंगा.’’ पापा बोले.

‘‘कोई जरूरत नहीं है. वहां भी दूसरे के बच्चे पालने होंगे. इस से अच्छा सौतन के ही खिलाऊं.’’

‘‘मैं उसे जेल भिजवा दूंगा.’’ पिता ने कहा.

‘‘उस से मिलेगा क्या? बेहतर है कि समय का इंतजार करूं. हो सकता है मेरी गोद भर जाए.’’ पूर्णिमा ने आशा नहीं छोड़ी थी. अंतत: इंद्र से अपनी मर्जी से अंजलि के साथ शादी कर ली. उस की पत्नी बन कर वह घर में आ गई.

औफिस से आ कर इंद्र सब से पहले पूर्णिमा के कमरे में आता था. पर जल्द ही उसे पूर्णिमा से ऊब होने लगी थी. अंजलि की खुशबू वह पूर्णिमा के कमरे तक महसूस करता. फिर तेजी से चल कर उस के पास जाता. अंजलि उसी के इंतजार में सजधज कर तैयार बैठी रहती. गोरीचिट्टी अंजलि जब होंठों पर लिपस्टिक लगाती तो उस के होंठ गुलाब की पंखुडि़यां जैसे लगते थे.

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एक हफ्ते बाद पहली बार इंद्र रात बिताने पूर्णिमा के पास आया.

पूर्णिमा को कहीं न कहीं विश्वास था कि वह मां अवश्य बनेगी. बेमन से उस के पास 2 घंटे बिता कर वह अंजलि के पास चला गया. पूर्णिमा अपने अरमानों का कत्ल होते देखती रही. इंद्र उस की भावनाओं को रौंद रहा था. सोचतेसोचते उस की आंखें भीग गईं.

एक दिन वह भी आया, जब अंजलि मां बनने वाली थी. इंद्र काफी परेशान था. पूर्णिमा से बोला, ‘‘हो सके तो अस्पताल में तुम रह जाओ. पता नहीं किस चीज की जरूरत हो.’’

यह सुन कर पूर्णिमा का दिल भर आया. वह सोचने लगी कि आज इंद्र, अंजलि के लिए कितना परेशान है. अगर वह सक्षम होती तो उस की परेशानी पर उस का हक होता. पूर्णिमा की आंखों में आंसू छलक आए. इंद्र की नजर उस पर पड़ी, ‘‘रोनेधोने से क्या मिलने वाला है. खुशियां मनाओ कि इस घर में एक चिराग जलने वाला है. जिस की रोशनी में हम सब नहाएंगे.’’

‘‘सिर्फ तुम दोनों.’’ वह बोली.

‘‘वह तुम्हें बड़ी मां कहेगा.’’ इंद्र ने खुश हो कर कहा.

‘‘नहीं बनना है मुझे किसी की बड़ी मां.’’ पूर्णिमा गुस्से में बोली.

इंद्र जाने लगा तो कुछ सोच कर पूर्णिमा ने कहा, ‘‘किस नर्सिंगहोम में जाना होगा?’’

आगे पढें- कुछ घंटे के इंतजार के बाद अंजलि को…

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जीवनज्योति- भाग 2: क्या पूरा हुआ ज्योति का आई.पी.एस. बनने का सपना

लेखक- मनोज सिन्हा

ज्योति तो उन के दिल का टुकड़ा थी, उसे मर जाने तक को कह दिया उन्होंने. कैसे निकली यह बात उन की जबान से. खुद को धिक्कारते हुए बिस्तर से उतर कर विक्षिप्तों की तरह टहलने लगे थे मुंशीजी. बारबार एक ही यक्षप्रश्न, आखिर कैसे हुआ यह हादसा?

आत्मग्लानि की आग से पसीज उठा था उन का सर्वस्व. यह सोच कर अपने कमरे से निकल गए थे कि ज्योति बिटिया को सारा अंतर्द्वंद्व, सारी व्यथा सुना कर पश्चात्ताप कर लेंगे.

…इस बार मुंशीजी की व्यथा सुमित्रा नहीं सह सकी. लौट कर बिस्तर पर उन के लेटते ही धीरे से उन के सीने पर हाथ रखा था सुमित्रा ने. करवट बदल कर मुंशीजी ने भी देखा था सुमित्रा की बंद पलकों से सहानुभूति की बूंदें अब भी लुढ़क रही थीं.

आंख लगी ही थी कि अचानक चिहुंक कर जाग गई ज्योति.

बाबूजी का क्रोध एवं आवेश में फुंफकारता चेहरा अवचेतन से निकल कर बारबार उसे डरा रहा था. प्रतिध्वनित हो रही थी वही सारी दिल दरकाती बातें जो उस के अंतस में बहुत दूर जा कर धंस गई थीं. इस असह्य पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए ज्योति कईकई प्रयास कर चुकी थी, पर सब बेकार.

अचानक ही उस का चेहरा सख्त हो गया. आंखों में बेगानेपन का एक ऐसा मरुस्थल उतर आया था जहां मोहमाया, वेदनासंवेदना, मानअपमान के न तो झाड़झंखाड़ थे और न ही आंसूअवसाद का कोई अस्तित्व. एक निर्णय ने उस के भय के सारे अंतर्द्वंद्वों को धो डाला था और दरवाजे का सांकल खोल, अमावस की इस काली निशा में वह गुम हो गई थी.

वह अपने घर से जितनी दूर होती जा रही थी, बाबूजी का स्वर अनुगूंज अंतस में और अधिक शोर मचाने लगा था. वह जल्द से जल्द उस पुल पर पहुंच जाना चाहती थी जहां नदी का अथाह पानी उसे इन तमाम पीड़ाओं से मुक्ति दिला कर अपने आगोश में बहा ले जाता. दूर, बहुत दूर.

इस धुन में उस की चाल तेज, और तेज होती जा रही थी. बाहर में गूंजते बाबूजी के शब्द ‘मरती क्यों नहीं…नदी, तालाब में डूब क्यों नहीं जाती…बोझ है…अभिशाप है…’ और अंदर में जान दे देने की, खुद को मिटा देने की एक खीझभरी जिद.

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अचानक ज्योति को लगा कि बाबूजी की आवाज के साथसाथ कहीं से कोई दूसरा स्वर भी घुलमिल कर आ रहा है. उस ने थोड़ा थम कर उस आवाज को गौर से सुननेसमझने की चेष्टा की थी. हां, कोई तो था जो दबे स्वर में उसे बारबार पुकार रहा था, ‘ज्योति…ज्योति…ज्योति…’

एक पल को ठिठक गई ज्योति. पलट कर उस ने चारों ओर देखा तो कोई नहीं था दूरदूर तक. तो फिर कौन है इस निर्जन वन में जो उसे आवाज दे रहा था.

‘‘आत्महत्या करने जा रही हो ज्योति,’’ करीब आता स्वर सुनाई दिया ज्योति को.

ज्योति ने खीज कर पूछा था, ‘‘देखो, तुम जो भी हो मेरे सामने आ कर बात करो. मुझे डराने की कोशिश मत करो. आखिर कौन हो तुम?’’ ज्योति ने अपना मन कड़ा किया था.

‘‘मौत के जिस रास्ते पर तुम जा रही हो उसी रास्ते में मैं तुम्हारे सामने हूं, ज्योति.’’

कानों पर तो यकीन हो रहा था, मगर कहीं आंखें तो धोखा नहीं दे रही हैं उसे. पलकों को कस कर भींचा और झपकाया था ज्योति ने. विस्फारित नेत्रों से इस अंधेरे की खाक छान रही थी वह. कुछ भी तो नहीं था आसपास.

‘‘सामने? खड़े हो तो दिखाई क्यों नहीं देते?’’

‘‘इसलिए कि तुम मुझे देखना नहीं चाहतीं. देखो, मैं ठीक तुम्हारे सामने आ कर खड़ा हो गया हूं देख रही हो मुझे?’’

‘‘नहीं…मगर तुम चाहते क्या हो, कौन हो तुम?’’ गहराते रहस्य ने ज्योति की व्यग्रता को और उत्प्रेरित किया था.

‘‘मुझे अनदेखा कर रही हो तुम. जरा दिल की गहराइयों में मन की आंखों से देखो, ज्योति…मैं जीवन हूं.’’

‘‘जीवन, कौन जीवन? मैं किसी जीवन को नहीं जानती…’’

‘‘तुम जैसी समझदार लड़की के मुंह से इस तरह की बातें अच्छी नहीं लगतीं. मुझे पहचानो. मैं जीवन हूं, तुम्हारा जीवन.’’

‘‘बकवास बंद करो और हट जाओ मेरे रास्ते से.’’

अदृश्य तत्त्व का स्वर फिर ज्योति के कानों से टकराया था, ‘‘ठीक है, तुम्हारे रास्ते से हट जाऊंगा, मगर मुझे बता दो कि क्या तुम सचमुच आत्महत्या करने जा रही हो या…’’

‘‘जी हां, मैं सच में आत्महत्या ही करने जा रही हूं. पुल से नदी में कूद कर जान दे दूंगी, और कुछ?’’

एक क्षण की खामोशी और फिर, ‘‘अरे हां, सुनो? ज्योति, जब तक तुम मर नहीं जातीं, तब तक क्या मैं तुम्हारे साथ चल सकता हूं? इस बीच बातें करते हुए तुम्हारा यह अंतिम सफर भी अच्छे से कट जाएगा…तो चलूं तुम्हारे साथ?’’

‘‘तुम आओ या जाओ, मेरी बला से,’’ एकदम से भन्ना कर बोली ज्योति.

और एक झटके के साथ आगे बढ़ी तो अनजान रास्ता और उस पर से किसी अदृश्य रहस्य की उपस्थिति का आभास. इसी घबराहट में किसी कटे पेड़ के ठूंठ से जा टकराई और दर्द से बिलबिला उठी थी.

फिर वही आवाज, ‘‘चोट लग गई न. बिना सोचेसमझे तुम कितने दुर्गम रास्ते पर निकल पड़ी हो, ज्योति.’’

‘मर नहीं जाऊंगी इन छोटीमोटी ठोकरों से,’ क्रोध के मनोवेग से चीखती हुई बड़बड़ाने लगी थी, ‘…बहुत चोटें सही हैं मैं ने अपने कलेजे पर…मर तो नहीं गई मैं. हां, मरूंगी…आत्महत्या करूंगी. मुझे चोट लगे, तुम्हें इस से क्या मतलब?’

‘‘नहीं, कोई मतलब नहीं. मगर मैं नहीं चाहता कि मरने से पहले तुम्हारे शरीर पर कोई चोट लगे. क्योंकि तुम्हारी चोट से मैं भी आहत होता हूं. जानती हो ज्योति, आत्महत्या में ऐसा भी होता है कि कई बार आदमी मर नहीं पाता. टूटफूट कर एक लंगड़ेलूले, अपंगता की जिंदगी जीता है. तब वह दोबारा आत्महत्या का प्रयास भी नहीं करता. क्योंकि एक बार के प्रयास का कठोर एहसास जो उसे होता है.’’

खामोश रहना ही उचित समझा था उस ने. कदम और तेज हो गए थे उस के संकल्पित लक्ष्य की ओर. तभी जीवन ने फिर पूछा, ‘‘तुम आत्महत्या क्यों करना चाहती हो?’’

इस तरह चुप रह कर आखिर कब तक वह इस आफत को टालती. गरज उठी थी, ‘‘क्या बताऊं मैं, क्या दुखड़ा रोऊं मैं, तुम जैसे अनजान, अदृश्य, गैर के सामने? यह बताऊं कि एक गरीब मुनीम के घर हम 3 बेटियां अभिशाप हैं, एक बोझ हैं हम. सब से बड़ी बोझ मैं, ज्योति सहाय, एम.ए. फर्स्ट क्लास. फर्स्ट… मगर नौकरी के लिए मोहताज…’’

‘‘मगर बेरोजगारी की समस्या तो सिर्फ तुम्हारे अकेले की समस्या नहीं है. यह तो एक आम सामाजिक बीमारी है जिस से हर कोई जूझ रहा है.’’

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‘‘हां, बेरोजगारी मेरे अकेले की समस्या नहीं. मगर मैं एक समस्या हूं, गरीब बाप के सर पर पड़ी एक बोझ, क्या तुम नहीं जानते कि समाज में मध्य वर्गीय लड़कियों के लिए कई वर्जनाएं हैं. बातबात में मातापिता की पगडि़यां उछलती हैं. हर वक्त खानदान की इज्जत और भविष्य के सामने बदनामी, लोकलज्जा, मुंह चिढ़ाता समाज नजर आता है और वैसे भी लोग एक मजबूर, जरूरतमंद, गरीब और जवान लड़की को सिर्फ देखते ही नहीं, बल्कि निर्वस्त्र कर के महसूस भी करते रहते हैं. लेकिन तुम हो कौन, जो परत दर परत मुझ से सब कुछ जान लेना चाहते हो?’’

‘‘मैं ने कहा न, मैं जीवन हूं, तुम्हारा जीवन. बिलकुल सत्य और संघर्षों से भरा हूं. कोई मुझे प्यार का गीत समझ कर गुनगुनाता है तो कोई पहेली, कोई जंग समझता है. मैं तो एक सच हूं, ज्योति, मगर इतना कमजोर कि स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकता. मौत के कू्रर पंजे एक झटके में मुझे शरीर से अलग कर देते हैं. मेरी भौतिकता ही खत्म कर देते हैं. और जबजब अपने अस्तित्व पर मुझे खतरा महसूस होता है, लोगों के सामने आता हूं, बातें करता हूं, खुद को तसल्ली देता हूं. आज भी तो इसीलिए आया हूं तुम्हारे पास, मेरी रक्षा करोगी न.’’

विचारों की इस उमड़घुमड़ में ज्योति इतना गुम हो गई कि जंगल कब खत्म हो गया पता तक नहीं चला. सड़क पर और तेज कदमों से उस पुल की दिशा में बढ़ गई थी वह जो अब ज्यादा दूर नहीं था. अचानक एक झटका सा लगा ज्योति को कि इतनी देर से जीवन ने कुछ कहा नहीं, कहां गया वह? इतना चुप तो रहने वाला नहीं था वह. कहीं चला तो नहीं गया अचानक.

सुनसान रात में जिस भय की उपस्थिति से भी नहीं घबराई थी ज्योति, अचानक उस के न होने की कल्पना मात्र से कांप गई थी वह. एक हांक लगाई थी ज्योति ने, ‘‘ज…ज…जीवन?…मिस्टर जीवन, चले गए क्या?’’

‘‘गलत सोच रही हो, ज्योति. मैं तो तुम्हारा जीवन हूं और तुम्हारी खातिर मौत से भी लड़ने को तैयार हूं. अगर तुम मेरा साथ दो तो मैं तो तुम्हें तभी छोड़ं ूगा जब मुझे यह विश्वास हो जाएगा कि मौत की गोद में तुम गहरी नींद सो गई हो.’’

‘‘अच्छा, फिर तुम गायब कहां हो गए थे?’’

‘‘गायब तो नहीं, हां चुप जरूर हो गया था. क्यों मेरा चुप हो जाना तुम्हें अच्छा नहीं लगा?’’

अब क्या जवाब दे ज्योति इस प्रश्न का. एकदम से कोई बहाना नहीं सूझ रहा था उसे.

‘‘ऐ ज्योति, सच क्यों नहीं कहतीं कि तुम्हें मुझ से यानी अपने इस जीवन से पे्रम हो गया है.’’

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लौकडाउन- भाग 3 : जब बिछड़े प्यार को मिलवाया तपेश के दोस्त ने

लेखिका- सावित्री रानी

तपेश खुद काम के सिलसिले में कई देशों में रह चुका था. इसलिए उसे इंग्लिश के भिन्नभिन्न एकसैंट्स की पहचान थी. उसे पता था कि लैबनान और ईजिप्ट जैसे देशों में पैसे वाले लोग अपनी पढ़ाई फ्रैंच माध्यम में भी करते हैं. तभी तपेश को कुछ दिन पहले पीयूष से फोन पर हुई बात याद आई. जब तपेश के घर पार्टी थी और पीयूष भी आमंत्रित था. लेकिन पार्टी वाले दिन पीयूष का फोन आया था, ‘‘आज मैं तेरे यहां पार्टी में नहीं आ सकूंगा. सारी यार.’’

‘‘क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है?’’

‘‘तबीयत बिलकुल ठीक है. दरअसल, आज ईजिप्ट से मेरा एक दोस्त आ रहा है तो उसे रिसीव करने जाना है.’’

‘‘ ठीक है.’’

‘‘उफ, तो यही दोस्त था जो ईजिप्ट से आया था,’’ तपेश अकेले ही बैठाबैठा बुदबुदा रहा था.

तभी नर्स ने आ कर सूचना दी कि आप पीयूष से मिल सकते हैं. उसे रूम में शिफ्ट कर दिया गया है.

तपेश रूम में पहुंचा तो वह महिला पहले से पीयूष के बैड के पास पड़ी कुरसी पर बैठी थी. पीयूष की हालत ठीक लग रही थी. उस ने उस महिला से मिलवाते हुए कहा, ‘‘तपेश, यह मेरी दोस्त नाहिद है. ईजिप्ट से आई है और नाहिद यह मेरा दोस्त तपेश.’’

‘‘हाई नाहिद.’’

‘‘हाई तपेश.’’

नाहिद की आंखों में पीयूष के लिए   झलकता चिंता का भाव काफी कुछ कह रहा था. पीयूष की हालत अब ठीक लग रही थी. तपेश उन दोनों को अकेला छोड़ कर डाक्टर से बात करने के बहाने वहां से चला गया. पता चला कि डाक्टर तो अभी व्यस्त हैं, तो वह रूम के बाहर बैंच पर बैठ गया.

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अब तपेश की कल्पना की उड़ान इस कहानी के सिरे ढूंढ़ने  लगी. उसे यह तो पता था कि पीयूष करीब 4 साल पहले किसी फौरेन असाइनमैंट पर ईजिप्ट गया था और वहां 2 साल रहा था. पर यह नाहिद की क्या कहानी है, इस बारे में उसे बिलकुल भी भनक नहीं थी.

तभी सामने से डाक्टर को आते देख कर तपेश उन से पीयूष के अपडेट्स लेने लगा.

डाक्टर ने बताया, ‘‘हम करोना के चलते पीयूष को यहां और ज्यादा दिन नहीं रखना चाहते. उस की हालत अब ठीक है. आप उसे घर ले जा सकते हैं. कुछ समय बाद उन को ऐंजिओप्लास्टी की जरूरत पड़ सकती है. हो सकता है न भी पड़े. फिर दवाइयों और इंस्ट्रक्शंस की लंबी लिस्ट दे कर डाक्टर चले गए.

तपेश ने पीयूष को अपने घर ले जाने की पेशकश करते हुए कहा, ‘‘मैं तु  झे अकेले नहीं छोड़ सकता यार. तू मेरे घर चल, वहां मैं और शालू मिल कर तेरी अच्छी देखभाल कर सकेंगे.’’

पीयूष ने सवालिया निगाहों से नाहिद की ओर देखा तो वह अपनी फ्रैंच इंग्लिश में बोली, ‘‘तपेश आप पीयूष की चिंता बिलकुल भी न करें. मैं उस का ध्यान रखूंगी. कोई जरूरत हुई तो आप को कौल कर लूंगी.’’

तपेश ने हैरानी और परेशानी से पीयूष की ओर देखा, ‘‘यार यह कैसे संभालेगी? न तो यह यहां की भाषा जानती है न ही इसे यहां का सिस्टम सम  झ आएगा.’’

नाहिद उन की हिंदी में हो रही बातचीत को न सम  झ पाने के कारण कुछ असमंजस में थी, सो बोली, ‘‘तपेश आप पीयूष के पास बैठो तब तक मैं डाक्टर से मिल कर आती हूं.’’

उस के जाते ही तपेश ने अपनी प्रश्नों से भरी निगाहें पीयूष की तरफ मोड़ी.

पीयूष अपनी सफाई देता सा बोला, ‘‘वह तु  झे पता है न कि मैं कुछ साल पहले ईजिप्ट गया था और वहां 2 साल रहा था?’’ पीयूष ने नजरें   झुका कर थोड़ा शरमाते हुए कहा.

‘‘हां, तो?’’

‘‘तो नाहिद वहां मेरी ही कंपनी में काम करती थी. यह ईजिप्ट के काफी जानेमाने परिवार की लड़की है, लेकिन जरा मनमौजी है. उसी दौरान इस का तलाक हुआ था. इसीलिए इस का नौकरी से भी मन उचट गया था. यह काफी परेशान रहने लगी थी.’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर इस ने नौकरी भी छोड़ दी थी.’’

‘‘तो फिर करती क्या है?’’

‘‘फिर इस ने वहीं ईजिप्ट के ऐलैक्जैंडरिया शहर में अपनी एक सोविनियर की शौप खोल ली थी. कला और कलाकृतियों की इसे काफी परख थी और यही उस का शौक भी था. तु  झे तो पता ही है कि मु  झे भी कला से काफी लगाव है.’’

‘‘हांहां, यह कौन नहीं जानता?’’

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‘‘तो बस इस के नौकरी छोड़ने के बाद भी हमारे शौक समान होने के कारण हमारी दोस्ती बरकरार रही. फिर मेरी सलाह पर इस ने इंडियन सोविनियर्स भी रखने शुरू कर दिए.’’

‘‘हां, पर तु  झे तो इंडिया वापस आए 2 साल हो गए, फिर अब यह यहां कैसे?’’

‘‘वह क्या है न मैं यहां से सोविनियर्स भेजता रहता हूं, जिन की वहां अब काफी मांग बढ़ गई है. तो इस बार नाहिद ने सोचा कि क्यों न इस बार अपनी पसंद से और ज्यादा मात्रा में सोविनियर खरीदे जाएं.’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर बस यह इसीलिए यहां आई थी, लेकिन 2 दिन बाद ही कोरोना की वजह से लौकडाउन हो गया और यह यहीं फंस गई.

‘‘लेकिन फंसी अच्छी,’’ मैं ने मजाक करते हुए एक आंख दबाई.

‘‘अरे नहीं यार, ऐसा कुछ भी नहीं है,’’ पीयूष नजरें   झुका कर बोला.

पीयूष और नाहिद पीयूष के घर लौट गए. 1-2 बार तपेश उस से मिलने पीयूष के घर गया और उस के चेहरे की लौटती रौनक देख कर नाहिद द्वारा की जा रही देखभाल से आश्वस्त हो कर लौट आया.

एक दिन तपेश के पास सुबहसुबह पीयूष का फोन आया, ‘‘क्या तू कल सुबह 9 बजे मेरे घर आ सकता है? मु  झे अस्पताल जाना है.’’

‘‘क्या हुआ? सब ठीक तो है न?’’

‘‘हांहां सब ठीक है. चैकअप के लिए बुलाया है.’’

‘‘ठीक है.’’

जब तपेश अगले दिन उस के घर पहुंचा तो उसे नाहिद और पीयूष दोनों कुछ ज्यादा ही ड्रैसअप से लगे. वह सम  झ न पाया कि

अस्पताल जाने के लिए इतना तैयार होने की भला क्या जरूरत थी. फिर सोचा छोड़ो यार जैसी उन की मरजी.

बाहर निकले तो पीयूष बोला, ‘‘गाड़ी मैं चलाऊंगा.’’

‘‘अरे लेकिन मैं हूं न.’’

‘‘नहीं मैं ही चलाऊंगा. अब तो मैं ठीक हूं,’’ वह जिद करने लगा.

हार कर तपेश ने उसे गाड़ी की चाबी देते हुए कहा, ‘‘ओके.’’

मगर थोड़ी देर में गाड़ी को अस्पताल की तरफ न मुड़ते देख तपेश बोला, ‘‘अरे यार, अस्पताल का कट तो पीछे रह गया. तेरा ध्यान कहां है?’’

पीयूष मुसकराते हुए बोला, ‘‘ध्यान सीधा मंजिल पर है.’’

‘‘मंजिल, कौन सी…’’ तपेश का वाक्य पूरा भी नहीं हो पाया था कि उस ने देखा गाड़ी मैरिज रजिस्ट्रार के औफिस के सामने जा रुकी.

‘‘पीयूष यार यहां क्यों, कैसे…’’

‘‘अरे यार मैरिज के लिए और कहां जाते हैं, मु  झे नहीं पता,’’ पीयूष ने गाड़ी से निकलते हुए ठहाका लगाया.

‘‘मैरिज, किस की, कैसे?’’

गाड़ी से निकल कर पीयूष और नाहिद ने एकदूसरे की बांहों में बांहें डालते हुए  एकसाथ कहा, ‘‘ऐसे,’’ और दोनों खिलखिला उठे.

तपेश ने नाहिद की ओर देखा तो उस के शर्म से लाल चेहरे से नईनवेली दुलहन   झलक रही थी.

‘‘अच्छा तो यह बात है. तो फिर यह भी बता दो कि इस गरीब की दौड़ क्यों लगवाई सुबहसुबह?’’

‘‘तो क्या गवाह हम खुद ही बन जाते?’’ अदा से मुसकराते हुए पीयूष बोला.

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तपेश खफा हुआ सोच रहा था, कितनी अजीब बात है मेरे दोस्त की भी. जिस की किश्ती किनारे पर डूब गई थी, उसे पार भी लगाया तो किस ने? तूफानों ने?

जिस करोना ने सारी दुनिया को हिला दिया, सब को घरों में बैठा दिया, सब की बड़ीबड़ी योजनाओं पर पानी फेर दिया, मिले हुओं को हमेशा के लिए बिछड़वा दिया, उस ने मेरे दोस्त की वह योजना भी सफल करवा दी, जो उस ने बनाई भी नहीं थी और उन्हें मिलवा दिया जिन्हें पता ही नहीं था कि उन्हें मिलना भी है. वाह रे करोना. वाह रे लौकडाउन.

विश्वास के घातक टुकड़े- भाग 3 : इंद्र को जब आई पहली पत्नी पूर्णिमा की याद

इंद्र ने नर्सिंगहोम का नाम बता दिया तो वह वहां चली गई. अंजलि ने एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया, सब के चेहरे खिल उठे. सास जल्द से जल्द नवजात शिशु को गोद में ले कर दादी बनने की हसरत पूरी करना चाहती थी.

कुछ घंटे के इंतजार के बाद अंजलि को उस के केबिन में लाया गया. साथ में नर्स की गोद में बच्चा भी था. नर्स ने कुछ नेग के साथ बच्चा सास की गोद में रख दिया. बच्चे को देख इंद्र का मन पुलकित हो उठा.

‘‘बिलकुल इंद्र पर गया है,’’ सास पुचकारते हुए बोली. इंद्र दौड़ कर बाजार से मिठाई लाया. अस्पताल के सारे स्टाफ का मुंह मीठा कराया. एक तरफ खड़ी पूर्णिमा अंदर ही अंदर रो रही थी. किसी का ध्यान उस पर नहीं गया. सब को बच्चे और अंजलि की फिक्र थी.

जो खुशी उसे देनी चाहिए थी वह अंजलि से मिल रही थी. जो मानसम्मान उसे मिलना चाहिए था, वह अंजलि को मिल रहा था. यह सब उस के लिए असहज स्थिति पैदा कर रहा थी. मौका देख कर वह बिना बताए घर लौट आई. बिस्तर पर पड़ते ही वह फूटफूट कर रोने लगी. क्योंकि यहां उस का रुदन सुनने वाला कोई नहीं था. तभी मां का फोन आया. वह फोन पर ही रोने लगी.

‘‘पूर्णिमा, चुप हो जा मेरी बच्ची. मैं अभी तेरे भाई को तुझे लेने के लिए भेज रही हूं. परेशान मत हो.’’ मां ने ढांढस बंधाया.

‘‘क्यों न होऊं परेशान, अंजलि मां बन गई. एक मैं हूं जो बांझ के कलंक के साथ जी रही हूं.’’ पूर्णिमा का क्षोभ, गुस्सा, झलक गया. वह सिसकती रही.

मां ने उसे समझाया, ‘‘कोई नहीं जानता कि कल क्या होगा? हो सकता है तू भी मां बन जाए.’’

‘‘नहीं बनना है मुझे मां.’’ कह कर पूर्णिमा ने फोन काट दिया.

वह सुबक रही थी, तभी इंद्र का फोन आया, ‘‘पूर्णिमा, कहां हो तुम? सब तुम को पूछ रहे हैं.’’

‘‘बच्चा कैसा है?’’ पूर्णिमा स्वर साध कर बोली.

‘‘एकदम ठीक है,’’ इंद्र खुश हो कर बोला.

कुछ दिन अस्पताल में रह कर अंजलि घर आ गई. इंद्र को तो बहाना मिल गया अंजलि के साथ रहने का. बच्चा खिलाने के नाम पर अब वह पूर्णिमा की खबर भी लेना भूल गया. यह सब असह्य था पूर्णिमा के लिए. सो एक दिन मन बना कर इंद्र से बोली, ‘‘इंद्र, मैं हमेशा के लिए मायके में रहना चाहूंगी.’’

‘‘क्यों?’’

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‘‘यहां मेरा मन नहीं लगता. वहां मेरा सुखदुख बांटने वाले मांबाप तो हैं.’’

‘‘तुम्हें यहां किस बात की कमी है,’’ सुन कर एक बार फिर से उस का मन भीग गया. पर जाहिर नहीं होने दिया.

‘‘परसों मेरा भाई आ रहा है. मुझे नहीं लगता कि अब यहां मेरी जरूरत है. मैं एक कामवाली बाई बन रह गई हूं.’’

‘‘तुम ऐसा क्यों कह रही हो?’’

‘‘ऐसा ही है.’’ बात को तूल न देते हुए वह अपने कमरे में आई और सामान पैक करना शुरू कर दिया.

जैसेजैसे सामान पैक करती उस की रुलाई फूटती रही. कभी सोचा तक नहीं था कि एक दिन ऐसी स्थिति आएगी, जब इस घर की दीवारें उस के लिए बेगानी हो जाएंगी. कभी यही दीवारें उस के नईनवेली दुलहन बनने की गवाह थीं. जब वह पहली बार आई थी तो लगता था कि ये सब उस पर फूल बरसा रही हैं. मगर आज कालकोठरी सरीखी लग रही थीं. सास ने महज औपचारिकता निभाई. बेटे के खिलाफ न तब खड़ी हुई, न अब.

पूर्णिमा को मायके में रहते हुए एक महीना हो गया था. उस ने एक संस्थान में नौकरी कर ली. शुरू में कभीकभार इंद्र का फोन आ जाता था. उस ने उसे खर्च के लिए रुपए देने की पेशकश की मगर पूर्णिमा ने मना कर दिया. देखतेदेखते 6 महीने गुजर गए. इंद्र अपनी नई पत्नी के साथ खुश था.

अचानक एक दिन उस के औफिस में एक युवक उस से मिलने के लिए आया. इंद्र उसे ले कर एक रेस्टोरेंट में चला गया. जैसेजैसे वह युवक इंद्र से अपनी बात कहता, वैसेवैसे इंद्र के माथे पर चिंता की लकीरें बढ़ती जातीं.

‘‘तुम्हारे पास सबूत क्या है?’’ इंद्र बोला.

उस ने अदालत के कागजात इंद्र को दिखाए, जिस में गवाह के रूप में उन लोगों के हस्ताक्षर थे, जिस के बारे में वह सोच भी नहीं सकता था.

‘‘अब तुम चाहते क्या हो?’’ इंद्र ने उस से पूछा.

‘‘वह आज भी मेरी पत्नी है. बाकी आप जो भी फैसला लें.’’ कह कर उस युवक ने इंद्र को ऐसे भंवरजाल में फंसा दिया कि उस से न हंसते बन रहा था न ही रोते. उस का मोबाइल नंबर लेने के बाद वह घर आया.

उस समय अंजलि अपने बच्चे के साथ लेटी हुई थी. एकहरे बदन की अंजलि मां बनने के बाद और भी निखर गई थी, जिस से सिवाय प्यार जताने के उसे कुछ नहीं सूझ रहा था. मगर हकीकत तो आखिर हकीकत होती है. वह बिना कपड़े उतारे चिंताग्रस्त हो कर सोफे पर बैठ गया.

‘‘ऐसे क्यों बैठा है. अंजलि क्या कर रही है?’’ इंद्र की मां ने पूछा.

सास की आवाज पर अंजलि की तंद्रा टूटी.

‘‘आप? आप कब आए?’’ वह अचकचा उठी.

‘‘ये क्या हालत बना रखी है? औफिस में ज्यादा काम था क्या? देर क्यों हो गई?’’ अंजलि के सवालों से वह खिसिया गया.

‘‘क्या आते ही सवालों की झड़ी लगा दी. खुद तो दिन भर बच्चे का बहाना बना कर लेटी रहती हो. पति मरे या जीए, तुम्हें जरा भी चिंता नहीं रहती.’’ इंद्र के बदले तेवर ने अंजलि को असहज बना दिया. ऐसा पहली बार हुआ, जब इंद्र के बात करने का लहजा उस के प्रति असम्मानजनक था.

‘‘मैं ने ऐसा क्या कर दिया. यह तो रोज ही होता है. अब बच्चे को समय न दूं तो क्या उसे अकेला छोड़ दूं.’’ अंजलि ने भी उसी टोन में जवाब दिया. उस समय तो इंद्र ने अपने आप पर नियंत्रण रखा, मगर जब परिस्थिति बदली तो मूल विषय पर आ गया.

‘‘क्या तुम्हारी पहले भी शादी हो चुकी है?’’ इंद्र के इस सवाल पर अंजलि अंदर ही अंदर डर गई. डर स्वाभाविक था. पहले तो उस ने नानुकुर किया. मगर जब इंद्र ने उस के पहले पति का नाम बताया तो वह अपने बचाव में बोली, ‘‘हां, 3 साल पहले मैं ने अपने औफिस में काम करने वाले प्रियांशु से शादी की थी.’’

‘‘क्या तुम्हारा उस से तलाक हुआ था?’’ इंद्र के इस सवाल पर उस ने चुप्पी साध ली.

‘‘बोलती क्यों नहीं? अगर यह मामला पुलिस के सामने गया तो जेल मुझे होगी. क्योंकि मैं ने किसी की ब्याहता को घर में रखा है.’’ इंद्र ने अपनी कमजोरी स्वत: जाहिर कर दी.

‘‘नहीं लिया था,’’ अंजलि बोली.

‘‘वजह?’’ इंद्र ने पूछा.

‘‘शादी के बाद पता चला कि उस का चालचलन अच्छा नहीं है. वह न केवल शराबी था बल्कि उस के दूसरी औरतों से भी संबंध थे.’’

‘‘इसलिए साथ छोड़ दिया?’’

‘‘हां.’’

‘‘शादी क्या गुड्डेगुडि़यों का खेल है, जो आज किसी से कर ली और कल किसी और के साथ.’’

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‘‘यह सवाल आप मुझ से पूछ रहे हैं? आप ने खुद शादी को मजाक बना रखा है.’’ अंजलि अपने मूल स्वभाव पर आ गई. इंद्र सन्न रह गया. जिसे उस ने फूल सी कोमल समझा था, वह कांटों सरीखी निकली.

‘‘क्या बक रही हो?’’ वह चीखा.

‘‘गलत क्या कहा. आप ने पूर्णिमा के साथ जो किया, क्या वह खेल नहीं था?’’ इंद्र को अब अपनी भूल का अहसास हुआ. अनायास उस का ध्यान पूर्णिमा पर चला गया. उसे अफसोस होने लगा कि उस ने पूर्णिमा का विश्वास क्यों तोड़ा. पर अब क्या किया जा सकता था.

‘‘इंद्र, मैं जानती हूं कि मुझ से गलती हुई. मुझे उसे तलाक दे देना चाहिए था.’’

‘‘तुम ने इस सच को मुझ से क्यों छिपाया?’’ इंद्र ने पूछा.

‘‘मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. मैं ने जब प्रियांशु से शादी की, तब मेरे मातापिता दोनों की रजामंदी थी. वे दोनों इस शादी के गवाह भी थे. मगर बाद में हालात कुछ ऐसे बने कि मैं ने प्रियांशु का घर हमेशा के लिए छोड़ दिया.

‘‘3 साल तक उस ने मेरी कोई खबर नहीं ली. न ही मैं ने उस के बारे में जानने का प्रयास किया. यह सोच कर कि मामला खत्म हो चुका है. नौकरी के दौरान वह शहर में अकेला रहता था. बाद में पता चला कि उस ने नौकरी छोड़ दी. मैं ने सोचा या तो वह कहीं और नौकरी कर रहा होगा या अपने शहर उन्नाव चला गया होगा.’’

‘‘तुम्हें पूरा विश्वास है कि वह उन्नाव का ही रहने वाला था?’’ इंद्र के इस सवाल पर वह किंचित परेशान दिखी.

‘‘उस ने बताया था तो मैं ने मान लिया.’’ अंजलि से बात करने पर इंद्र को लगा कि या तो अंजलि पूरी तरह बेकसूर है या फिर वह खुद साजिश का शिकार हो चुका है.

‘‘क्या तुम उस के साथ जाना पसंद करोगी?’’ इंद्र के इस सवाल पर वह विचलित हो गई.

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‘‘आप कैसे सोच सकते हैं कि मैं उस के साथ रहना पसंद करूंगी? मैं आप के बच्चे की मां बन चुकी हूं.’’

‘‘कानूनन हमारा विवाह अवैध है. तुम भले ही न फंसो, लेकिन तुम्हारे उस पति की शिकायत पर मुझे जेल हो सकती है.’’ इस पर अंजलि ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई.

अगले दिन उस युवक का फोन आया तो इंद्र ने बाद में बात करने को कहा. इस बीच उस ने वकील के माध्यम से इस विवाह की हकीकत को जानने का प्रयास किया. वकील ने बताया कि उन दोनों ने अदालत में शादी की है. यह जान कर इंद्र और भी परेशान हो उठा.

अगले दिन उस युवक का दोबारा फोन आया, ‘‘आप ने क्या सोचा है?’’

‘‘तुम अब तक कहां थे?’’ इंद्र गुस्से में बोला.

‘‘जहां भी था, इस का मतलब यह तो नहीं है कि आप मेरी बीवी को अपनी बना लें.’’ वह बोला.

‘‘तुम चाहते क्या हो?’’ इंद्र मूल मुद्दे पर आया.

‘‘अंजलि मुझे चाहिए.’’ कुछ सोच कर इंद्र बोला, ‘‘वह तुम्हारे साथ जाना नहीं चाहती.’’

यह सुन कर वह हंसने लगा.

‘‘इस का मतलब यह तो नहीं कि आप उसे अपने घर में रख लें.’’ उस का कहना ठीक था.

‘‘मैं चाहता हूं कि एक बार तुम उस से मिल लो. अगर वह तुम्हारे साथ जाना चाहेगी तो ले जाना वरना तलाक दे कर अपना रास्ता बदल लो.’’ इंद्र ने कहा.

‘‘ठीक है,’’ इंद्र ने अंजलि को इस वार्तालाप से अवगत कराया.

‘‘मैं उस का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करूंगी. आप ने कैसे सोच लिया कि मैं उस के साथ जाऊंगी.’’ अंजलि की त्यौरियां चढ़ गईं.

‘‘बिना तलाक दिए मैं भी तुम्हें अपने पास रखना नहीं चाहूंगा.’’ इंद्र ने साफ कह दिया.

‘‘आप होश में तो हैं. आप की हिम्मत कैसे हुई ऐसा सोचने की?’’ इस बार अंजलि के तेवर बिलकुल अलग थे. कल तक जिसे वह छुईमुई समझता था वह नागिन सी फुफकारने लगी थी.

‘‘ऐसा रहा तो मुझे जहर खा कर मरना पडे़गा. इस भंवनजाल से निकलने के लिए बस एक ही रास्ता बचा है मेरे लिए.’’ इंद्र रुआंसा हो गया.

‘‘वह तुम्हें तलाक देगा. क्या इस के लिए तैयार हो?’’ उस के चेहरे पर खुशी के भाव तैर गए.

‘‘बिलकुल,’’ अंजलि के कथन से उसे तसल्ली हुई. इंद्र ने उस युवक को एक गोपनीय जगह बुलाया.

‘‘वह तुम्हारे साथ जाने के लिए तैयार है.’’ कह कर इंद्र ने प्रियांशु के साथ चाल चली.

‘‘क्या?’’ वह आश्चर्य से बोला.

‘‘मैं उस कमीनी के साथ बिलकुल नहीं रहूंगा.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘इस से पहले भी उस ने एक लड़के से शादी कर के मुझे धोखा दिया था. वह शादी महज 6 महीने चली थी.’’

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‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’ इंद्र ने पूछा.

‘‘ऐसी बातें छिपाए नहीं छिपती. तभी तो मैं ने उस का साथ छोड़ा.’’

‘‘यह सब जानने के बावजूद भी तुम उसे अपनी पत्नी बता रहे हो?’’

‘‘बताना ही पड़ेगा. उस ने काफी पैसे ऐंठे हैं मुझ से. लगभग 5 लाख रुपए. अब अगर सूद समेत मुझे नहीं मिलेगा तो जाहिर सी बात है, मैं आप दोनों को नहीं छोड़ूंगा.’’

‘‘कितने चाहिए?’’

‘‘10 लाख.’’ उस युवक ने कहा.

‘‘मैं इतना नहीं दे सकता. 6 पर तैयार हो जाओ तो मैं तुम्हें दे सकता हूं.’’ वह तैयार हो गया.

इस तरह अंजलि उस युवक से आजाद हो गई. अब यह इंद्र को तय करना था कि अंजलि को किस रूप में ले. क्या ऐसी औरत विश्वास लायक है? वह खुद भी तो बेवफाई के कटघरे में खड़ा था. अनायास उस का ध्यान पूर्णिमा पर चला गया और वह पश्चाताप के गहरे सागर में डूब गया.

जीवनज्योति- भाग 3: क्या पूरा हुआ ज्योति का आई.पी.एस. बनने का सपना

लेखक- मनोज सिन्हा

अचानक ठठा कर हंस पड़ी ज्योति. कुछ ऐसा कि एक क्षण तक कुछ बोल नहीं पाई. किसी तरह खिलखिलाते हुए एकएक शब्द जोड़जोड़ कर बोल पड़ी वह, ‘‘तुम्हारा मतलब प्यार,’’ और इसी के साथ हंसती हुई वह दोहरी होती जा रही थी.

‘‘हंसो ज्योति, इतना हंसो कि अवसाद का अंधेरा छंट जाए, निराशा भरी इस निशा का अंत हो जाए. आशा की एक नई सुबह आए, उम्मीदों की किरणें फूटें, उमंग और उत्साह के पक्षी चहचहाने लगें.’’

हांफती हुई ज्योति ने स्वयं को कुछ नियंत्रित किया और आंखों की नमी को पोंछती हुई कह उठी थी, ‘‘पता नहीं मैं इतना क्यों हंसने लगी?’’

‘‘इसलिए कि तुम्हारा जीवन बहुत प्यारा है. वह तुम्हें हंसाना चाहता है. जिंदा देखना चाहता है क्योंकि जीवन ही हंसी है, खुशी है, आशा है, प्रेम है और मौत निराशा है, खामोशी है.’’

ज्योति ने गंभीरता ओढ़ ली थी. लेकिन जीवन गंभीर नहीं था. उस ने एक के बाद एक कई सवाल कर डाले.

‘‘अच्छा ज्योति, यह तो बता दो कि तुम ने अपने घर वालों के नाम कोई संदेश, कोई चिट्ठी छोड़ी है या नहीं? तुम्हारे इस तरह चले जाने से क्या बीतेगी तुम्हारे मांबाप पर, बहनें क्या सोचेंगी, इस बारे में भी तुम ने कुछ सोचा है? वह बेचारा मुनीम, क्या तुम्हारी मौत और समाज की उठती उंगलियों को एकसाथ झेल पाएगा?’’

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सच के एकएक बड़े पत्थर बारबार जीवन व्यावहारिकता के उस तालाब में फेंक रहा था जिस की ऊपरी परत पर बर्फ का एक बड़ा आवरण पसर गया था. ऐसा भी नहीं था कि बर्फ के नीचे का पानी हिलोरे नहीं ले रहा था. क्षोभ की तरंगें उठ रही थीं ज्योति के अंतस में भी. पर सोच लिया था उस ने कि अब किसी बात की कोई सफाई नहीं देगी वह.

‘‘वाह, ज्योति वाह, जिंदगी भर तुम्हारी खुशी के लिए जीतेमरते तुम्हारे बाप ने अपने दिल का बोझ कम करने के लिए दो कड़वे बोल बोल दिए जो तुम्हें इतने चुभ गए कि अब आत्महत्या कर के यह जताना चाहती हो कि बेटी के बाप को हर वक्त पश्चात्ताप की आग में ही जलते रहना चाहिए. अरे, वह तो एडि़यां घिसघिस कर तुम तीनों बहनों की शादी करने और गृहस्थी बसा देने के बाद ही मरेगा मगर तुम अभी से ही उसे जीतेजी क्यों मारना चाहती हो?

‘‘सोच लो ज्योति, तुम्हारी मौत की खबर पा कर जमाने के ताने सुन कर तो तुम्हारे पिताजी किसी सेठ की ड्योढ़ी पर मुनीमगीरी के लायक भी नहीं रहेंगे. फिर क्या तुम्हारा बाप, मुंशी रामप्यारे सहाय, किसी मंदिर या रेलवे स्टेशन की सीढि़यों पर बैठ कर भीख मांगेगा? क्या तुम्हारी मां, सुमित्रा देवी इस बुढ़ापे में पेट के लिए घरघर जा कर झाड़ूबर्तन, चूल्हेचौके का काम करेंगी? नीतू और पिंकी अपनी तमन्नाओं का गला घोंट कर किसी नाचनेगाने वाली गली के कोठे की जीनत बनेंगी?’’

ऐसे सख्त पत्थरों की वार से दरक गया था ज्योति का मन. बर्फ का आवरण था, कोई लोहे की चादर नहीं. बिलबिला कर बाहर आ गया था भीतर का सारा गुबार, झल्ला कर चीख पड़ी थी ज्योति अपना फैसला सुनाते हुए, ‘‘तो जहन्नुम में जाएं? कोई जिए या मरे मुझे क्या? मैं सिर्फ इतना जानती हूं कि लड़की होना अभिशाप है और मैं अपनी जीवनलीला समाप्त कर खुद को इस अभिशाप से मुक्त करना चाहती हूं, सुन रहे हो तुम? मैं खुद को मार देना चाहती हूं.’’

और इसी झल्लाहट में पुल के आखिरी किनारे पर अपना कदम बढ़ा गई थी ज्योति.

जीवन भी चुप नहीं था. जताना चाहता था कि सचमुच जिंदगी की आखिरी सांस तक वह उस के साथ है. उस की आवाज अब भी गूंज रही थी, ‘‘ज्योति, जीवन एक जंग है. इस से भागने वाले कायर कहलाते हैं. जिन में विश्वास, उत्साह, साहस और लगन होती है वह मौत को धत्ता बता कर जीवन को गले लगाते हैं. निराशा को नहीं आशा को गले लगाते हैं. वैसे तुम आत्महत्या कर रही हो तो करो, मगर मुझे यकीन है कि अनिश्चितताओं और हताशा के अंधेरे में भी राह दिखाने के लिए एक ज्योति जरूर जगमगाती रहेगी. याद रखना इस रात की भी एक सुबह जरूर होगी, इस निशा का अंत होगा, ज्योति.’’

हर रात की सुबह होती है. उस रात की भी सुबह हुई और सूर्य भी कब सिर पर चढ़ आया. पता नहीं चला. मुंशीजी के घर में व्याप्त खामोशी को किसी ने झंझोड़ा था, सांकल पीटपीट कर खटखट खट्टाक…खट…

आंखों पर चश्मा चढ़ाते मुंशीजी ने थके कदमों से चल कर दरवाजा खोला था. पोस्टमैन लिफाफा थामे बड़बड़ाया, ‘‘रजिस्ट्री डाक है, लीजिए और यहां दस्तखत कर दीजिए.’’

लिफाफे में से कागज निकाल कर पढ़ते ही मुंशी रामप्यारे सहाय की आंखें आश्चर्य से फैलती चली गईं. सहसा विश्वास नहीं हो पा रहा था कि मुंशीजी को, उस आशय पर जो इस पत्र में लिखा था. झुरझुरी ले कर स्वयं को सामान्य किया तो आंखें बरस पड़ीं. रुंधे गले से भावातिरेक में उन्होंने पुकारा, ‘‘अजी सुनती हो, सुमित्रा… नीतू, पिंकी…जानता था मैं कि ज्योति एक न एक दिन जरूर कुछ न कुछ ऐसा करेगी. अरे, सुनती हो…सुमित्रा…’’

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बाबूजी का इस तरह सुबहसुबह चिल्लाना सब को एक घबराहट दे गया था. बदहवासी के कुछ ऐसे ही आलम में सभी दौड़तेकूदते बाबूजी के पास आ गए थे. सुमित्रा, नीतू, पिंकी सब की आंखों में एक सवालिया निशान और मन में बेचैनी कि आखिर हुआ क्या?

बाबूजी, बच्चों की भांति बिलखते हुए बोले, ‘‘कितना गलत कहा था मैं ने सुमित्रा, काश, इतनी कड़वी बातें उसे कल न कहता तो इतनी आत्मग्लानि, इतना पछतावा तो मुझे न होता, ज्योति… ज्योति…कहां हो ज्योति?’’

‘‘जी, मैं यहां हूं, बाबूजी…’’ कमरे के अंदर, दरवाजे की ओट से लगी, ज्योति सामने आ कर खड़ी हो गई थी. बाबूजी के बचेखुचे शब्द ज्योति के करीब आते ही तरलता में परिवर्तित हो कर मुंह के अंदर ही उमड़ने लगे थे. क्या कहें, कैसे कहें, बाबूजी की इस भावविह्वलता को देख कर ज्योति की आंखें अपनेआप छलक आई थीं.

‘‘मैं ने सब सुन लिया है, बाबूजी. आप मन में ग्लानि क्यों लाते हैं. आप की जगह कोई भी होता तो वही कहता जो आप ने कहा था. दरअसल, गलती हमें समझने में हुई, बाबूजी.’’

खुशी से चहक उठे थे मुंशीजी, ‘‘अरे, गोली मार अलतीगलती को. सुमित्रा…3-3 बेटियों का बाप, यह मुनीम रामप्यारे सहाय ग्लानि क्यों करेगा? सीना ठोक कर चलेगा जमाने के सामने…सीना ठोक कर.’’

पत्र दिखाते हुए ज्योति के ठीक सामने तन कर खड़े हो गए थे बाबूजी, ‘‘ये देख, तेरा नियुक्तिपत्र. पढ़ न? पुलिस की सब से बड़ी आफीसर की नौकरी मिल गई है तुझे, ज्योति सहाय, आई.पी.एस. जयहिंद, मैडम.’’

जमीन पर पांव धमका कर एक जोरदार सैल्यूट दिया था मुंशीजी ने अपनी ज्योति बिटिया को.

पुलक उठी थी सुमित्रा, नीतू और पिंकी भी. सचमुच कंगले की ड्योढ़ी पर आसमान भी झुक गया था आज. और इस आसमान को झुका लाई थी एक बेटी, ज्योति.

कुछ खुशियां ऐसी भी होती हैं जिन्हें सब के साथ बांटा तो जा सकता है, मगर उन्हें महसूस करने, आत्मसात करने के लिए किसी एकांत की आवश्यकता होती है. एक ऐसा एकांत जहां आंखें मूंद कर गुजरे वक्त के एकएक क्षण का हिसाबकिताब तो होता ही है, आने वाले समय के गर्भ में छिपे कई पहलुओं को सजायासंवारा भी जाता है.

ज्योति भाग कर अपने कमरे में चली गई. कभी हंसतेहंसते रोई, तो कभी रोतेरोते हंसती रही. मनोभावों का प्रवाह कम हुआ तो वह आईने के पास आ खड़ी हुई जहां अब ज्योति नहीं, बल्कि आई.पी.एस. ज्योति सहाय का अक्स उभर आया था. भरेपूरे गोरे बदन पर कसी खाकी वरदी, कंधे पर चमचमाता अशोक स्तंभ, सिर पर आई.पी.एस. बैज लगा हैट, चौड़े लाल बेल्ट में लटका रिवाल्वर, लाल बूट और चेहरे पर शालीनता से भरा एक अद्वितीय रौब.

शायद इसी अक्स को देख कर किसी ने बहुत करीब आ कर कहा था उसे, ‘‘बधाई हो, ज्योति.’’

मनप्राण में रचबस गई इस आवाज को अंतस में महसूस किया था ज्योति ने. आंखें बंद कर के वह अपने मन के अंदर झांक आई थी. जहां सचमुच मुसकराता हुआ उस का प्यारा जीवन था और जहां जल रही थी एक जीवनज्योति.

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दोहरे मापदंड- भाग 2 : खुद पर बीती तो क्या सचिन को अपनी गलती का एहसास हुआ

निकिता की बात को राज ने आगे बढ़ाया, ‘‘भोपाल में हमारी बैंक की शाखा में महीने में एक बार काम के बाद सब का एकसाथ डिनर पर जाने का अच्छा चलन था. ऐसे ही एक डिनर के बाद मैं ने निकिता से कहा था, ‘निकिता तुम दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेती? अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? ऐसे अकेले कहां तक जिंदगी ढोओगी? शादी कर लोगी तो तुम्हारे बेटे को अगर पिता का नहीं, तो किसी पिता जैसे का प्यार तो मिलेगा.’

‘‘इस पर निकिता ने अपनी शून्य में ताकती निगाहों के साथ मुझ से पूछा था, ‘ये सब कहने में जितना आसान होता है, करने में उतना ही मुश्किल. कौन बिताना चाहेगा मुझ विधवा के साथ जिंदगी? कौन अपनाएगा मुझे मेरे बेटे के साथ? क्या तुम ऐसा करोगे राज, अपनाओगे किसी विधवा को एक बच्चे के साथ?’

‘‘निकिता के शब्दों ने मेरे होश उड़ा दिए थे और उस वक्त मैं सिर्फ ‘सोचूंगा, और तुम्हारे सवाल का जवाब ले कर ही तुम्हारे पास आऊंगा,’ कह कर वहां से चला आया था.

‘‘मैं चला तो आया था मगर निकिता के शब्द मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे थे. मेरे मन में एक अजब सी उथलपुथल मची हुई थी. मेरे मन की उलझन मां से छिपी न रह सकी. उन के पूछने पर मैं ने निकिता के साथ डिनर के दौरान हुए वार्त्तालाप का पूरा ब्योरा उन्हें दे दिया.

‘‘सब सुनने के बाद मां ने कहा, ‘सीधे रास्तों पर तो बहुत लोग हमराही बन जाते है मगर सच्चा पुरुष वह है जो दुर्गम सफर में हमसफर बन कर निभाए. बेटा, एक विधवा हो कर अगर मैं ने दूसरी विधवा स्त्री के दर्द को न समझा तो धिक्कार है मुझ पर. यह मैं ही जानती हूं कि तुम्हारे पिता की मृत्यु के बाद तुम्हें कैसेकैसे कष्ट उठा कर पाला था. कहने को तो मैं संयुक्त परिवार में रहती थी पर तुम्हारे पिता के दुनिया से जाते ही मुझे जीवन की हर खुशी से बेदखल कर दिया गया था.

‘‘‘घर और घर के लोग मेरे होते हुए भी बेगाने हो चुके थे. तुम्हारी परवरिश भी तुम्हारे चाचाताऊ के बच्चों की तरह न थी. जहां उन के बच्चे अच्छे कौन्वैंट स्कूल में जाते थे वहीं तुम्हें मुफ्त के सरकारी स्कूल में भेज दिया गया. जिन कपड़ों को पहन कर उन के बच्चे उकता जाते, वे तुम्हारे लिए दे दिए जाते.

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‘‘‘राज बेटा, उस माहौल में मेरा तुम्हारा जीना, जीना नहीं था, सिर्फ जीवन का निर्वाह करना था. बेटा, मुझे तुम पर गर्व होगा अगर तुम निकिता और उस के बच्चे को अपना कर, उन की जिंदगी के पतझड़ को खुशगवार बहार में बदल दो.’ मां ने छलकते हुए आंसुओं के बीच आपबीती बयां की थी.

‘‘दूसरे दिन जब मैं ने निकिता को लंचटाइम में अपनी मां के साथ हुई सारी बातचीत बताई और कहा कि मैं उस से शादी करना चाहता हूं, तब निकिता बोली, ‘मैं किसी की दया की मुहताज नहीं हूं, कमाती हूं, जैसे 4 साल काटे हैं वैसे ही बची जिंदगी भी काट लूंगी.’

‘‘‘निकिता पैसा कमाना ही अगर सबकुछ होता तो संसार में परिवार और घर की परिकल्पना ही न होती. जिंदगी में बहुत से पड़ाव आते हैं जब हमसब को एकसाथी की जरूरत होती है.’

‘‘‘और अगर मुझे अपनाने के कुछ सालों बाद तुम्हें अपने निर्णय पर पछतावा होने लगा तो मैं कहीं की नहीं रहूंगी. पहले ही वक्त का क्रूर प्रहार झेल चुकी हूं. इसलिए किसी से भी मन जोड़ने से घबराती हूं, न मैं किसी से बंधन जोडूं, न वक्त के सितम ये बंधन तोड़ें.’

‘‘‘निकिता, डूबने के डर से किनारे पर खड़े रह कर उम्र बिता देने में कहां की बुद्धिमानी है? ऐसे ही खौफ के अंधेरों को दिल में बसा कर जिओगी तो उम्मीदों का उजाला तो तुम से खुदबखुद रूठा रहेगा.’

‘‘ऐसी ही कुछ और मुलाकातों, कुछ और तकरारों व वादविवादों के बाद अंत में निकिता और मैं शादी के बंधन में बंध गए.’’

राज की माताजी ने अब दिग्गज को अपना नातीपोता ही मान लिया था. वे नहीं चाहती थीं कि निकिता और राज के कोई दूसरी संतान पैदा हो और दिग्गज के प्यार का बंटवारा हो.

उन सब की बातें सुन कर मेरी आंखें छलछला गईं. मैं ने ऐसे महान लोगों के बारे में कहानियों में ही पढ़ा था, आज आमनेसामने बैठ कर देख रही थी.

‘‘क्या बेवकूफ आदमी है,’’ राज के घर से दस कदम दूर आते ही सचिन का पहला वाक्य था.

‘‘कौन?’’

‘‘राज, और कौन.’’

‘‘क्यों, ऐसा क्या कर दिया उस ने. इतने अच्छे से हम दोनों का स्वागत किया, अच्छे से अच्छा बना कर खिलाया, और कैसे होते हैं भले लोग? तुम्हें इस सब में बेवकूफी कहां नजर आ रही है?’’

‘‘जो एक बालबच्चेदार सैकंडहैंड औरत के साथ बंध कर बैठा है, वह बेवकूफ नहीं तो और क्या है? देखने में अच्छाखासा है, बैंक में मैनेजर है, अच्छी से अच्छी कुंआरी लड़की से उस की शादी हो सकती थी.’’

‘‘मगर सचिन…’’

‘‘जैसा राज खुद, वैसी ही उस की वह मदर इंडिया. कह रही थीं कि उन्हें खुद का कोई नातीपोता भी नहीं चाहिए, और दिग्गज ही उन के लिए सबकुछ है. भारत सरकार को उन्हें तो मदर इंडिया के खिताब से नवाजना चाहिए.’’

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सचिन राज और उस की मां की बुरी तरह से खिंचाई कर रहे थे. मैं ने चुप रहना ही ठीक समझा.

वक्त के साथ मेरी और निकिता की दोस्ती पक्की होती जा रही थी. वैसे, मैं निकिता से ज्यादा वक्त उस की सास के साथ बिताती, क्योंकि निकिता तो अपनी नौकरी के कारण ज्यादातर घर में होती ही नहीं थी.

इधर, सचिन के विचारों में कोई परिवर्तन नहीं था. जब कभी भी मेरे घर में राज का जिक्र आता तो सचिन उस को उस के नाम से न बुला कर सैकंडहैंड बीवी वाला कह कर बुलाते. मैं ने उन्हें कई बार समझाने की कोशिश की कि किसी के लिए भी ऐसे शब्द बोलना अच्छी बात नहीं. मगर मेरा उन्हें समझाना चिकने घड़े पर पानी डालने जैसे था.

दिनचर्या अपने ढर्रे पर चल रही थी. सचिन की हाल ही में पदोन्नति हुई थी. काम में उन की व्यस्तता दिनबदिन बढ़ती जा रही थी, इसलिए दीवाली पर भी हम धौलपुर न जा पाए. एक दिन सचिन ने औफिस से आते ही बताया कि उन के पापा का फोन आया था और तत्काल ही हम दोनों को धौलपुर बुलाया है. मेरी ननद पद्मजा के पति अस्पताल में भरती थे.

‘‘इस में इतना सोचना क्या? जब घर में कोई बीमार है तो हमें जाना ही चाहिए. वैसे भी हम दीवाली पर भी जा नहीं पाए,’’ बुलावे की खबर सुनते ही मैं ने धौलपुर जाने की तत्परता जताई.

आगे पढ़ें- फ्लाइट बुक होतेहोते और धौलपुर तक…

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