फिल्म रिव्यू : फोटोग्राफ

रेटिंग: डेढ़ स्टार

‘‘लंच बाक्स’’ जैसी सफल फिल्म के सर्जक रितेश बत्रा इस बार रोमांटिक कौमेडी फिल्म ‘‘फोटोग्राफ’’ लेकर आए हैं.  जिसे देखने के बाद रितेश बत्रा पर ‘‘वन फिल्म वंडर’’ की ही कहावत सटीक बैठती है. इस रोमांटिक कौमेडी फिल्म में प्यार की भावनाएं तो कहीं उभरती ही नही है.

फिल्म की कहानी मुंबई की है. मुंबई के गेटवे आफ इंडिया पर घूमने आए लोगों के फोटो तुरंत खींचकर देकर कुछ फोटोग्राफर अपनी जीविका चलाते हैं. उन्हीं में से एक है मो.रफीक (नवाजुद्दीन सिद्दीकी). रफीक के माता पिता बचपन में ही खत्म हो गए थे. उनकी दादी ने उसे व उसकी दो बहनों को पाल पोसकर बड़ा किया. रफीक ने अपनी दोनों बहनों की शादी अच्छे ढंग से की. पर अब तक उनकी शादी नहीं हुई है. उसकी दादी चाहती हैं कि रफीक जल्द से जल्द शादी कर ले. दादी उसके पीछे पड़ी हुई हैं पर रफीक को कोई लड़की नहीं मिली. एक दिन वह गेटवे आफ इंडिया पर घूमने आयी गुजराती परिवार की लड़की मिलोनी (सान्या मल्होत्रा) की तस्वीर खींचता है. और यूं ही उसकी तस्वीर अपनी दादी (जफर) के पास भेज देता है कि वह चिंता न करें उसे एक अच्छी लड़की मिल गयी है. दादी को वह उसका नाम नूरी बता देता है क्योंकि उसने मिलोनी से नाम पूछा ही नहीं था. अब दादी का पत्र आ जाता है कि वह मुंबई नूरी से मिलने के लिए आ रही हैं तो रफीक परेशान हो जाता है. पर जल्द ही रफीक व मिलोनी की मुलाकात हो जाती है. रफीक,मिलोनी से निवेदन करता है कि वह उसकी दादी के मुंबई आने पर उनकी प्रेमिका बनकर मिल ले और वह बता देता है कि उसने दादी को उसका नाम नूरी बताया है. मिलोनी अमीर गुजराती परिवार की लड़की है, जो कि सी ए की तैयारी कर रही है. जब दादी मुंबई पहुंचती हैं तो रफीक मिलोनी को नूरी कहकर अपनी दादी से मिलवाता है. उसके बाद मिलोनी व रफी की मुलाकातें बढ़ती हैं. दोनों एक दूसरे के साथ एडजस्ट करने के लिए खुद को बदलने पर विचार करना शुरू करते हैं. पर एक दिन दादी रफीक से कह देती हैं कि उन्हे पता चल गया है कि नूरी का नाम कुछ और है और वह मुस्लिम नही है. उसके बाद रफीक, मिलोनी को लेकर फिल्म देखने जाता है. मिलोनी बीच में ही फिल्म छोडकर बाहर बैठ जाती है. रफीक भी उसके पीछे आता है और फिल्म की आगे की कहानी बताते हुए कहता है कि लड़की व लड़के के माता पिता को इनके प्यार पर एतराज होगा. और फिर दोनो चल पड़ते हैं.

nawazudin sidqui

पटकथा लेखन व कथा कथन की कमजोरी के चलते दस मिनट बाद ही दर्शक सोचने लगते हैं कि यह फिल्म कब खत्म होगी. फिल्म का अंत होने से पहले ही दर्शक कह उठता है कि ‘‘कहां फंसायो नाथ.’’ फिल्म बहुत ही धीमी गति से सरकती रहती है. इतना ही नहीं लेखक व निर्देशक ने बेवजह कोचिंग क्लास के अंदर का लंबा दृश्य, फिर कोचिंग क्लास के शिक्षक की सड़क पर मिलोनी से मुलाकात, अपने माता पिता के कहने पर एक गुजराती लड़के से होटल मे मिलोनी की मुलाकात के दृश्य गढ़कर कहानी को भटकाने का ही काम किया है. यह गैरजरुरी दृश्य कहानी में पैबंद लगाने का ही काम करते हैं. बतौर निर्देशक व लेखक रितेश बत्रा की यह सबसे कमजोर फिल्म कही जाएगी. एडीटिंग टेबल पर भी इस फिल्म को कसने की जरूरत थी. यह रोमांटिक कौमेडी फिल्म है पर दर्शक को एक बार भी हंसी नही आती. इतना ही नहीं मिलोनी या रफीक के चेहरे पर एक बार भी प्रेम की भावनाएं नजर नहीं आती.

जहां तक अभिनय का सवाल है तो नवाजुद्दीन सिद्दीकी और सान्या मल्होत्रा दोनों ने ही निराश किया है. दादी के किरदार में फारुख जफर जरूर कुछ छाप छोड़ती हैं.

एक घंटा 51 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘फोटोग्राफ’’ का निर्माण रितेश बत्रा, रौनी स्क्रूवाला, नील कोप, विंसेट सेनियो ने किया है. निर्देशक रितेश बत्रा, संगीतकार पीटर रैबुम, कैमरामैन टिम गिलिस व बेन कुचिन्स तथा कलाकार हैं- नवाजुद्दीन सिद्दिकी, सान्या मल्होत्रा, फारूख जफर, विजय राज, जिम सर्भ, आकाश सिन्हा, ब्रिंदा त्रिवेदी नायक, गीतांजली कुलकर्णी, सहर्ष कुमार शुक्ला व अन्य.

फिल्म रिव्यू : हामिद

रेटिंग : 4 स्टार

‘‘द व्हाइट एलीफेंट’’ और ‘‘बाके की क्रेजी बारात’’ जैसी फिल्मों के निर्देशक ऐजाज खान की तीसरी फिल्म‘‘हामिद’’एक सात वर्षीय बालक के नजरिए से कश्मीर घाटी में चल रहे खूनी संघर्ष, उथल पुथल, सीआरपीएफ जवानों पर पत्थर बाजी, लोगों के गुम होने आदि की कथा से ओतप्रोत आम बौलीवुड मसाला फिल्म नहीं है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराही जा चुकी फिल्म ‘‘हामिद’’ मूलतः अमीन भट्ट लिखित कश्मीरी नाटक‘‘फोन नंबर 786’’ पर आधारित है. जिसमें मासूम हामिद अपने भोलेपन के साथ ही अल्लाह व चमत्कार में यकीन करता है. मासूम हामिद जिस भोलेपन से अल्लाह व कश्मीर के मुद्दों को लेकर सवाल करता है, वह सवाल विचलित करते हैं. वह कश्मीर में चल रहे संघर्ष की पृष्ठभूमि में बचपन की मासूमियत और विश्वास की उपचार शक्ति का ‘‘हामिद’’ में बेहतरीन चित्रण है. मासूम हामिद उस पवित्रता का प्रतीक बनकर उभरता है, जो भय और मृत्यु के बीच एक आशा की किरण है.

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फिल्म की कहानी शुरू होती है एक कारखाने से, जहां रहमत (सुमित कौल) और रसूल चाचा (बशीर लोन) नाव बनाने में मग्न है. जब रात होने लगती है, तो रसूल चाचा, रहमत को घर जाने के लिए कहते हैं. रास्ते में रहमत को सीआरपीएफ के जवानों के सवालों के जवाब देने पड़ते हैं. इधर घर पर रहमत के लाडले सात साल के बेटे हामिद को अपने पिता के आने का इंतजार है. क्योंकि उसे मैच देखना है और टीवी चलाने के लिए बैटरी की जरुरत है. जब रहमत अपने घर पहुंचता है, तो रहमत का बेटा हामिद (ताल्हा अरशद) जिद करता है कि उसे मैच देखना है, इसलिए अभी बैटरी लेकर आएं. रहमत की पत्नी और हामिद की मां इशरत (रसिका दुग्गल) के मना करने के बावजूद रहमत अपने बेटे की मांग को पूरा करने के लिए रात में ही बैटरी लेने निकल जाता है, पर वह घर नहीं लौटता. उसके बाद पूरे एक वर्ष बाद कहानी शुरू होती है. जब इशरत अपने बेटे की अनदेखी करते हुए अपने पति की तलाश में भटक रही है. वह हर दिन पुलिस स्टेशन जाती रहती है. इधर हामिद की जिंदगी भी बदल चुकी है. एक दिन उसके दोस्त से ही उसे पता चलता है कि उसके अब्बू यानी कि पिता अल्लाह के पास गए हैं. तब वह अपने अब्बू के अल्लाह के पास से वापस लाने के लिए जुगत लगाने लगता है. एक दिन एक मौलवी से उसे पता चलता है कि अल्लाह का नंबर 786 है. तो वह 786 को अपनी बाल बुद्धि के बल पर दस नंबर में परिवर्तित कर अल्लाह को फोन लगाता है. यह नंबर लगता है कश्मीर घाटी में ही तैनात एक अति गुस्सैल सीआरपीएफ जवान अभय (विकास कुमार) को. अभय अपने परिवार से दूर कश्मीर में तैनात है और इस अपराध बोध से जूझ रहा है कि उसके हाथों अनजाने ही एक मासूम की हत्या हुई है. फोन पर एक मासूम बालक की आवाज सुनकर अभय उससे बात करने लगता है और हामिद का दिल रखने के लिए वह खुद को अल्लाह ही बताता है. अब हर दिन हामिद और अभय के बीच बातचीत होती है. हामिद के कई तरह के सवाल होते हैं, जिनका जवाब अभय देने का प्रयास करता है. उधर एक इंसान अपनी तरफ से हामिद को गलत राह पर ले जाने का प्रयास करता रहता है, पर अभय से बात करके हामिद सही राह पर ही चलता है. हामिद अपनी हर तकलीफ अल्लाह यानी कि अभय को बताता रहता है. अभय हर संभव उसकी मदद करता रहता है. वह हामिद के लिए अपनी तरफ से रहमत की खोजबनी शुरू करता है, जिसके लिए उसे अपने उच्च अधिकारी से डांट भी खानी पड़ती है. यह सिलसिला चलता रहता है.

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एक दिन गुस्से में अभय, हामिद से कह देता है कि वह तो क्या कोई भी इंसान उसके अब्बू रहमत को वापस नही ला सकता. वह मर चुके है. उसके बाद हामिद अपने पिता के गुम होने की फाइल व तस्वीर आदि को जमीन में दफन कर देता है. फिर अपनी मां को लेकर उसी कारखाने में जाता है, जहां उसने अपने पिता की ही तरह नाव बनायी है. वहां पहुंचने पर रसूल चाचा बताते हैं कि हामिद के नाम पार्सल आया है, हामिद उसे खोलता है तो उसमें से लाल रंग से भरे दो डिब्बे निकलते हैं. हामिद कहता है कि यह अल्लाह ने भिजवाया है, क्योंकि उसने अल्लाह से कहा था कि लाल रंग खरीदने के लिए उसके पास पैसे नहीं है, फिर नाव को लाल रंग से रंगकर वह अपनी मां को उसी नाव में बिठाकर डल झील में घूमाता है.

ऐजाज खान के निर्देशन में बनी पहली फिल्म ‘‘द व्हाइट एलीफेंट’’ अब तक रिलीज नहीं हो पायी है. जबकि उनकी दूसरी हास्य फिल्म ‘‘बांकेलाल की क्रेजी बारात’’ 2015 में प्रदर्शित हुई थी. अब अति गंभीर विषय वाली ‘‘हामिद’’ उनके निर्देशन में बनी तीसरी फिल्म है. इस फिल्म में ऐजाज खान ने एक सात वर्षीय बच्चे हामिद के माध्यम से कश्मीर घाटी के उन सभी मसलों को उठाया है, जो हमसे अछूते नहीं है. फिल्म में सेना और कश्मीरियों के बीच टकराव, अलगाववादियों द्वारा मासूम बच्चों व किशोरो को आजादी,  जन्नत व अल्लाह के नाम पर बरगलाना, घर के पुरुषों के गायब होने के बाद स्त्रियों के दर्द, सेना के जवान का एक मासूम बालक की वजह से कश्मीरी परिवार के लिए पैदा हुई सहानुभूति को गलत अर्थ में लेना, अपने परिवारो से कई सौ किलोमीटर दूर पत्थरबाजों के बीच रह रहे आरपीएफ जवानो की मनः स्थिति आदि का बेहतरीन चित्रण है. मगर लेखक व निर्देशक ने कहीं भी अति नाटकीयता या तीखी बयानबाजी को महत्व नही दिया है.

एक दिन गुस्से में अभय, हामिद से कह देता है कि वह तो क्या कोई भी इंसान उसके अब्बू रहमत को वापस नही ला सकता. वह मर चुके है. उसके बाद हामिद अपने पिता के गुम होने की फाइल व तस्वीर आदि को जमीन में दफन कर देता है. फिर अपनी मां को लेकर उसी कारखाने में जाता है, जहां उसने अपने पिता की ही तरह नाव बनायी है. वहां पहुंचने पर रसूल चाचा बताते हैं कि हामिद के नाम पार्सल आया है, हामिद उसे खोलता है तो उसमें से लाल रंग से भरे दो डिब्बे निकलते हैं. हामिद कहता है कि यह अल्लाह ने भिजवाया है, क्योंकि उसने अल्लाह से कहा था कि लाल रंग खरीदने के लिए उसके पास पैसे नहीं है, फिर नाव को लाल रंग से रंगकर वह अपनी मां को उसी नाव में बिठाकर डल झील में घूमाता है.

रवींद्र रंधावा और सुमित सक्सेना लिखित संवाद काफी अच्छे हैं और यह दिलों को झकझोरने के साथ ही सोचने पर मजबूर करते हैं. फिल्म की कमजोर कड़ी इसकी लंबाई है. इसे एडीटिंग टेबल पर कसने की जरुरत थी.

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो हामिद की शीर्ष भूमिका में बाल कलाकार ताल्हा अरशद की मासूमियत व अभिनय दिल तक पहुंचता है. ताल्हा ने अपने किरदार को जिस संजीदगी के साथ जिया है, वह अभिभूत करता है. अपने पति की खोज में भटकती इशरत के किरदार में रसिका दुग्गल ने अपने सशक्त अभिनय से लोहा मनवाया है. वह अपने अभिनय से दर्शकों की आत्मा को भेदती है. अभय के किरदार को विकास कुमार ने भी सजीव किया है. रहमत के छोटे किरदार में सुमित कौल अपनी छाप छोड़ जाते हैं. अन्य कलाकारों ने भी सधा हुआ अभिनय किया है. फिल्म के कैमरामैन भी बधाई के पात्र हैं.

फिल्म‘‘हामिद’’का निर्माण ‘‘यूडली फिल्मस’’ने किया है. फिल्म के निर्देशक ऐजाज खान, लेखक रविंद्र रंधावा व सुमित सक्सेना तथा कलाकार हैं- ताल्हा अरशद, विकास कुमार, रसिका दुग्गल, सुमित कौल, बशीर लोन, गुरवीर सिंह, अशरफ नागू, मीर सरवर, काजी फैज, उमर आदिल, गुलाम हुसेन, साजिद, साफिया व अन्य.

मैं स्टंटमैन बनकर ही यहां पहुंचा हूं : अक्षय कुमार

90 के दशक में हिट और एक्शन फिल्म देने वाले अभिनेता खिलाड़ी कुमार यानि अक्षय कुमार आज उस मुकाम पर पहुंच चुके हैं जहां हर निर्माता निर्देशक उन्हें अपनी फिल्मों में लेना पसंद करते हैं. कभी ऐसा वक्त था, जब अक्षय कुमार को काम के लिए हर प्रोडक्शन हाउस में घूमना पड़ता था, लेकिन ‘खिलाड़ी श्रृंखला’ ने उनके जीवन को एक अलग दिशा दी और आज वह हिंदी सिनेमा जगत में एक्शन हीरो के नाम से प्रसिद्ध हैं. उन्होंने केवल एक्शन ही नहीं, हर तरह के फिल्मों जैसे रोमकौम, कौमेडी, थ्रिलर आदि में काम किया है. मार्शल आर्ट के एक्सपर्ट अक्षय कुमार 29 साल से फिल्म इंडस्ट्री में काम कर रहे हैं. वे अपने अनुशासित दिनचर्या के लिए प्रसिद्द हैं. उनकी फिल्म ‘केसरी’ रिलीज पर है. उन्होंने इस फिल्म को ‘भारत के वीर’ के लिए समर्पित किया है, क्योंकि उन सभी वीरों को वे सलाम करते हैं, जिन्होंने अपनी जान देकर पूरे देशवासियों को चैन की नींद दी है. पेश है उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश.

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इस फिल्म को करने की खास वजह क्या है?

ये एक हिस्टोरिकल फिल्म है, जिसे बहुत कम लोग ही जानते हैं. किस तरह 21 सिक्ख 10 हजार आक्रमणकारी से लड़ते हैं. सारागढ़ी की ये लड़ाई बहुत ही अलग थी और इसे स्कूलों में बच्चों को दिखाए जाने की जरुरत है, क्योंकि इसमें साहस और उनकी बहादुरी की कहानी है. ये मेरे लिए प्रेरणादायक फिल्म है. पहले मुझे भी इसके बारें में कम जानकारी थी, लेकिन अब फिल्म करने के बाद काफी जानकारी हासिल हुई है और मैं खुश हूं कि इतनी बड़ी ऐतिहासिक  फिल्म का मैं एक हिस्सा हूं.

इस फिल्म के लिए आपने क्या तैयारियां की हैं?

अधिक तैयारियां नहीं करनी पड़ी. सोर्ड फाइटिंग थोड़ी सीखी थी. इस फिल्म में सबसे अच्छा लगा पगड़ी पहनना. एक बार जब आप पगड़ी पहन लेते हैं, तो आपकी बैकबोन सीधी हो जाती है, एक भार सिर पर आ जाता है, एक जिम्मेदारी बढ़ जाती है. उसका मजा कुछ और होता है. इसमें मैंने डेढ़ किलो की पगड़ी पहनी है और उसके साथ सारे स्टंट किये हैं.

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क्या इस फिल्म का कोई प्रेशर है, क्योंकि ऐसी फिल्में अधिक चल नहीं पाती?

जब से मैंने इस फिल्म में काम करना शुरू किया, मैंने सोच लिया है कि फिल्म चले या न चले मुझे ये बनानी है, क्योंकि इस कहानी को हमें सबको बताना है. मैं इस फिल्म में अभिनय कर  बहुत गर्वित हूं.

क्या अभी आपके जीवन में कोई संघर्ष है?

संघर्ष से सबको गुजरना पड़ता है और मेरे लिए भी है. रोज सुबह उठकर अच्छा काम करने की चाहत और न मिलने पर हताश होना, ये सारी बातें संघर्ष की ही पहचान है.

आप हमेशा खुद स्टंट करते हैं, इसे देखकर आज की युवा पीढ़ी भी कोशिश करती है, उनके लिए क्या संदेश देना चाहते हैं?

कोई भी स्टंट ऐसे नहीं होता, इसके लिए एक बड़ी टीम होती है, जो हर बात की निगरानी करती है, ऐसे में किसी को भी ये खुद घर पर देखकर करने की जरुरत नहीं है, क्योंकि बिना सावधानी के करने पर ये जानलेवा भी हो सकती है.

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आपने हमेशा स्टंट खुद किये हैं, क्या इसमें आपको कभी खतरा महसूस नहीं हुआ? परिवार ने कैसे साथ दिया?

मैंने बचपन से स्टंट किया है और मुझे कोई खतरा नहीं लगता, लेकिन हमेशा मैं ये कहता आया हूं कि घर पर कभी भी खुद कोशिश न करें, क्योंकि ये सम्हलकर, सावधानी के साथ करने वाली होती है. मेरे माता-पिता ने हमेशा मेरी हर बात में सहयोग दिया है. मैं पहले एक स्टंटमैन हूं, बाद में अभिनेता बना. फिल्म ‘मैं खिलाडी तू अनाड़ी’ के स्टंट के बाद ही मुझे काम मिला था. वरना यहां कोई मेरा गौडफादर नहीं था, जिसकी वजह से मुझे काम मिला हो. मैं स्टंटमैन बनकर ही आज यहां पर आया हूं.

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आपकी और ट्विंकल की बौन्डिंग सालों से अच्छी चल रही है, जबकि आज रिश्तों के मायने बदल चुके हैं, आप दोनों की इस गहरी बौन्डिंग के पीछे का राज क्या है? अपने टीनेज बच्चों की देखभाल कैसे करते हैं?

हम एक दूसरे के प्रोफेशन में कभी दखलंदाजी नहीं करते, एक दूसरे का सम्मान करते हैं, स्पेस देते हैं आदि. इससे हमारा रिश्ता गहरा रहता है. बच्चों के बारें में… तो हम दोनों ने ही गलत आदतों को समझाकर छोड़ दिया है. आज के बच्चे काफी होशियार हैं और वे गलत सही को समझ सकते हैं. मेरे पिता ने भी मुझे वह आजादी दी थी और किसी भी गलत बात को छुपकर करने से मना किया था. इसलिए मुझे उसका कभी भी क्रेज नहीं रहा और गलत आदत ही नहीं लगी.

असली चेहरा कुछ और होता है : प्रार्थना बेहेरे

हिंदी टीवी धारावाहिक ‘पवित्र रिश्ता’ में वैशाली धर्मेश जयपुरवाला की भूमिका निभाकर चर्चित हुई मराठी अभिनेत्री प्रार्थना बेहेरे मूलरूप से गुजरात की हैं. उन्होंने मराठी फिल्मों के अलावा कई मराठी टीवी शो में भी काम किया है. एक टीवी रिपोर्टर के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत करने वाली प्रार्थना को कभी लगा नहीं था कि वह एक अभिनेत्री बनेंगी. रिपोर्टिंग के काम के दौरान वह अभिनेत्री, निर्देशक और निर्माता रेणुका शहाणे से मिलीं और उनकी मराठी फिल्म ‘रीटा’ के लिए उन्हें एसिस्ट किया और वहां रेणुका ने उन्हें अभिनय करने की सलाह दी. उन्होंने हिंदी धारावाहिक ‘पवित्र रिश्ता’ के लिए औडिशन दिया और अंकिता लोखंडे की छोटी बहन के रूप में चुन ली गयीं. इसके बाद प्रार्थना को पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ा उन्होंने कई मराठी धारावाहिकों और फिल्मों में काम कर अपना नाम शीर्ष मराठी अभिनेत्रियों की सूंची में शामिल कर लिया है. काम के दौरान वे निर्माता निर्देशक अभिषेक जावकर से मिलीं और पारंपरिक तरीके से शादी की. अभी प्रार्थना की मराठी फिल्म ‘ती एंड ती’ रिलीज हो चुकी है, जिसमें उन्होंने अच्छा अभिनय किया है. उनसे बातचीत हुई, पेश है अंश.

इस फिल्म को करने की खास वजह क्या रही?

इस फिल्म के निर्माता पुष्कर जोग ने मुझे सबसे पहले बताया था कि एक अच्छी रोमकौम कौमेडी वाली कहानी है, जिसका निर्देशन मृणाल कुलकर्णी कर रही हैं. मैं करुंगी या नहीं. मुझे सालों से मृणाल कुलकर्णी के साथ अभिनय की इच्छा थी और जब ये मौका मुझे सामने से मिल रहा है, तो ना कहने की कोई गुंजाईश ही नहीं थी.

ये चरित्र आपसे कितना मेल खाता है?

ये चरित्र मुझसे काफी मिलता है, क्योंकि मेरी अभी थोड़े दिन पहले ही शादी हुई है. शादीशुदा जिंदगी के बारें में मेरा अनुभव है. इस फिल्म में पति-पत्नी हनीमून पर जाने के लिए क्या-क्या करते हैं. उसे ही दिखाया गया है. उस फीलिंग को समझना मेरे लिए आसान था.

एक्टिंग कैरियर में आना इत्तफाक था या आप पहले से ही अभिनय करना चाहती थीं?

ये एक इत्तेफाक ही था. मैं एक न्यूज चैनल में जर्नलिस्ट थी और अच्छा काम कर रही थी. उसी दौरान मुझे रेणुका शहाणे ने अपनी मराठी फिल्म ‘रीटा’ के लिए एसिस्टेंट डायरेक्टर के रूप में काम करने का मौका दिया. वहां उन्होंने मेरे काम को देखकर मुझे अभिनय करने की सलाह दी. मैंने कोशिश की कई औडिशन दिए और हिंदी धारावाहिक ‘पवित्र रिश्ता’ में अंकिता लोखंडे की छोटी बहन वैशाली की भूमिका मिली. इस के बाद मुझे मराठी फिल्मों में भी काम मिलने लगा और अब तक मैं 7 से 8 फिल्में कर चुकी हूं.

पत्रकार से अभिनेत्री बनने के बाद दोनों में अंतर क्या पाती हैं?

जब मैं पत्रकार थी, तब मुझे लगता था कि इंडस्ट्री मसाला लगाकर सब बातों को बाहर नहीं भेजती. यही सच्चाई है. अब मुझे समझ में आता है कि छोटी-छोटी खबरों को इंडस्ट्री ग्लैमराईज कर बड़ा कर देती है, जबकि असली चेहरा कुछ और होता है. इसके अलावा मुझे समझ में आया कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं.

आप अपनी जर्नी को कैसे लेती हैं?

मेरी जर्नी अभी बहुत छोटी है लेकिन इन 7 सालों में मैंने जितना काम किया है, मैं उससे बहुत खुश हूं, क्योंकि किसी ने कोई आरोप फिल्मों को लेकर नहीं लगाये हैं और दर्शकों का प्यार बहुत मिला है.

आपके पति भी इंडस्ट्री से हैं, क्या फायदा होता है और दोनों में क्या कौमन है?

एक क्षेत्र से होने पर बहुत फायदे होते हैं. जब कभी भी मैं अगर कंफ्यूज होती हूं तो उनकी राय लेती हूं. क्रिएटिवली हम दोनों की सोच एक है.

आपकी शादी एरेंज्ड थी या लव मैरिज? अभिषेक में आपने खास क्या देखा?

मेरी शादी एरेंज्ड थी. 10 दिन की मुलाकात में मेरी शादी हो गयी थी. मैंने शुरू में ही कह दिया था कि डेटिंग के लिए मेरे पास समय नहीं है.

मैं बहुत सारे लड़कों से मिली हूं, लेकिन अभिषेक से मिलते ही एक अलग एहसास हुआ था. उनकी सभी बातें मुझे अच्छी लगी थी. ये सही है कि हर रिश्ते में सामंजस्य बिठाने की जरूरत होती है, तभी रिश्ते बनते हैं और वह मैं करती हूं.

आपके यहां तक पहुंचने में परिवार की सहायता कितनी रही है?

शादी से पहले माता-पिता और बहन का बहुत सहयोग रहा है. शादी के बाद पति और सास ससुर भी मेरे काम से बहुत खुश हैं.

क्या कोई ड्रीम प्रोजेक्ट है?

मैं चाहती हूं कि मेरे पति एक हिंदी फिल्म की कहानी लिखे और उसे बनायें, जिसमें मुझे मुख्य भूमिका करने का मौका मिले.

एक्टिंग के क्षेत्र में किसे अपना आदर्श मानती हैं?

मुझे अभिनेत्री श्री देवी बहुत पसंद हैं. उन्हें बहुत मिस करती हूं, उनकी एक फिल्म या गाना मैं रोज देखती या सुनती हूं.

मीटू के बारें में आपकी राय क्या है?

मेरे हिसाब से ताली हमेशा दो हाथ से ही बजती है, लेकिन डर इस बात से लगता है कि ऐसा होने पर पहले कानून का सहारा लेकर सच्चाई की तह तक जाने की जरुरत होती है, नहीं तो ऐसे किसी भी व्यक्ति की जिन्दगी खराब हो जाती है. उसे काम मिलना बंद हो जाता है.

किस बात पर बहुत गुस्सा आता है?

मुझे गुस्सा बहुत कम आता है. वायलेंस मुझे बिल्कुल पसंद नहीं.

कोई सोशल वर्क करना चाहती हैं?

मैं स्ट्रीट किड्स के लिए काम करना चाहती हूं.

 

मैं कोई रईस बाप का बेटा नहीं : नवाजुद्दीन सिद्दीकी

हिंदी फिल्म ‘शूल’ और ‘सरफरोश’ से अभिनय कैरियर की शुरुआत करने वाले अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरपुर जिले के बुधाना कस्बे के एक किसान परिवार से हैं. अभिनय की इच्छा उन्हें बचपन से ही थी. यही वजह थी कि विज्ञान में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने दिल्ली के नेशनल स्कूल औफ ड्रामा से भी स्नातक की शिक्षा पूरी की और थिएटर में अभिनय करने लगे. शुरुआत में उन्होंने कई बड़े और छोटे फिल्मों में काम किया, पर वे अधिक सफल नहीं रहे. असली पहचान उन्हें फिल्म पिपली लाइव, कहानी, गैंग्स औफ वासेपुर, लंचबौक्स जैसी फिल्मों से मिली. साधारण कदकाठी के होते हुए भी उन्होंने फिल्मों में अपनी एक अलग पहचान बनायीं. अभी उनकी फिल्म ‘फोटोग्राफ’ रिलीज पर है. जिसे लेकर वे काफी उत्सुक हैं. पेश है कुछ अंश.

इस फिल्म में आपकी चुनौती क्या रही?

इसमें अपने आपको साधारण रखना ही चुनौती थी. निर्देशक रितेश बत्रा ने मुझे एक आम फोटोग्राफर की तरह लुक रखने को कहा, जो मेरे लिए आसान नहीं था, क्योंकि एक्शन बोलते ही एक्टिंग का सुर लग जाता है और उसी को निर्देशक ने दबाया है. एक्टिंग न करना ही इसमें चुनौती रही. जब हम कैजुअल होते थे, तभी निर्देशक उसे शूट करता था.

आपने इस चरित्र के लिए क्या-क्या तैयारियां की है?

गेट वे औफ इंडिया से कई फोटोग्राफर को बुलाया गया और उनके काम को मैंने नजदीक से देखा और पाया कि कैसे वे पूरा दिन काम करते हैं, दोपहर तक कैसे थक जाते हैं आदि सभी को फिल्म में दिखाने की कोशिश की गयी है.

आपने पहला पोर्टफोलियो कब बनाया था?

मैं साल 2000 में मुंबई आ गया था. उस समय मेरे पास पैसे नहीं थे, इसलिए वर्ष 2003 में मैंने पहला पोर्टफोलियो बनाया था.

इस फिल्म में दिखाए गए बेमेल रिलेशनशिप पर आप कितना विश्वास रखते हैं?

ऐसे रिश्ते बहुत होते हैं और इसमें मैं विश्वास रखता हूं. फिल्मों में उन्ही घटनाओं को दिखाया जाता है, जो रुचिकर और अलग हो. जिसमें ड्रामा होता है. इसमें एक पड़ाव है कोई ड्रामा नहीं है.

शादी का प्रेशर आप पर कितना था और अपने रिश्ते को परिवार तक कैसे ले गए?

मुझपर अधिक शादी का प्रेशर नहीं था. मैंने अपने रिश्ते को बताया और उन्होंने हां कर दी.

आपकी फिल्में लगातार आ रही हैं क्या आपको ओवर एक्सपोज होने का डर नहीं है?

मैंने अपने जीवन में थिएटर में 211 चरित्र निभाए हैं. 200 नाटक किये हैं और रियल लाइफ में मैंने तकरीबन 3 हजार लोगों को औब्जर्व किया है, क्योंकि जब मेरे पास काम नहीं था. आगे के सौ साल भी मेरे लिए कोई मुश्किल नहीं, क्योंकि मेरे पास मसाला बहुत है. मैंने हर तरह के लोगों के साथ मिलकर समय बिताया है, मैं कोई रईस बाप का बेटा नहीं हूं, जिसे आस-पास के बारें में पता न हो.

क्या आपको लगता है कि अभी फोटोग्राफ की कोई एल्बम नहीं बनती, जिसे देखकर पुरानी बातों की यादें ताजा की जा सके?

ये सही है कि अब यादें जल्दी धुंधली पड़ जाती है, क्योंकि मोबाइल और उसकी तस्वीरें अधिक दिनों तक नहीं रहती, पर जमाना ऐसा है और लोग इसे ही पसंद कर रहे हैं. तस्वीरों की एल्बम होना आवश्यक है, जिसे आप बाद में याद कर सकें.

आपने खेतिहर किसानों के लिए अपने गांव में काफी सारा काम किया है, अभी वह कैसा चल रहा है?

मैंने डेढ़ साल से गांव में जाना कम कर दिया है. मेरा किसान भाई आधुनिक तरीके से खेती कर रहा है, जिसमें कम पानी में अधिक फसल उगाई जा सकती है. इसके लिए अधिक से अधिक प्रयोग किसानों को करना जरुरी है, क्योंकि हमारे यहां ट्यूबवेल से जो पानी आता है. उसका लेवल कम हो रहा है. पहले जब मैं खेती करता था तो 80 फीट पर पानी आ जाता था. अब 400 फीट पर पानी आता है. मैं चाहता हूं कि किसानों में इस बारें में जागरूकता बढे. अभी हमारे गांव के आसपास के क्षेत्र में काम हो रहा है, आगे और अधिक काम करने की इच्छा है.

आप स्टारडम को कितना एन्जाय करते हैं?

मैं अभी काम कर रहा हूं, स्टारडम को एन्जाय करने का समय नहीं है.

क्या दूसरे भाषाओं की फिल्में करने की इच्छा है?

मैं अच्छी किसी भी भाषा की कहानी को करना पसंद करता हूं.

अभी आप अपने व्यक्तित्व में क्या परिवर्तन पाते हैं?

मेरी पर्सनालिटी कभी कुछ खास नहीं थी. मैंने सोच रखा था कि मुझे जो काम मिलेगा, उसे मैं करता रहूंगा. मेरा कोई ड्रीम नहीं था, उसकी कोई शुरुआत भी नहीं थी, पर अब मैं खुश हूं.

हिंदी की वो 10 फिल्में जिसे हर लड़की को देखनी चाहिए

‘सिनेमा समाज का आईना होता है’ ये एक प्रचलित कहावत है. अधिकतर फिल्मों में हिरोइन का अस्तित्व हीरो की वजह से होता है. यही सच्चाई है हमारे समाज की. पुरुष प्रधान इस समाज में महिलाओं के अस्तित्व को पुरुष ये इतर सोचा नहीं जाता. पर समय के साथ समाज बदला और फिल्में भी बदली. सही मायनो में कहे तो अब फिल्में समाज को राह दिखा रही हैं. समाज और फिल्मों का ये बदला हुआ ट्रेंड आज का नहीं है. इसकी शुरुआत को एक लंबा अरसा हो चुका है.

आज महिलाओं की जो बेहतर स्थिति है उसमें हमारी फिल्मों का भी अहम रोल है. कुछ फिल्मों  के सहारे हम आपको ये बताने की कोशिश करेंगे कि कैसे फिल्मों के बदलते संदेश, स्वरूप ने महिलाओं की स्थिति में बदलाव लाया. कैसे दशकों पुरानी फिल्मों के असर को आज समाज के बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है.

तो आइए जाने उन 10 बड़ी फिल्मों के बारे में जिन्होंने महिलाओं के प्रति समाज का नजरिया ही बदल दिया.

मदर इंडिया

10 must watch movies for girls

आजादी से ठीक 10 साल बाद 1957 में आई इस फिल्म ने देश की दशा को दुनिया के सामने ला दिया. फिल्म को औस्कर में नामांकन मिला. महमूद के निर्देशन में बनी इस फिल्म में नरगिस, राज कुमार, सुनील दत्त, राजेन्द्र कुमार ने मुख्य किरदार निभाया. पर फिल्म की कहानी नरगिस के इर्दगिर्द घूमती रही.  उनके उस किरदार ने महिला शक्ति को एक अलग ढंग से दुनिया के सामने परोसा. जिस दौर में महिला सशक्तिकरण की बहस तक मुख्यधारा में नहीं थी, उस बीच ऐसी फिल्म का बनना एक दूरदर्शी कदम समझा जा सकता है.

बैंडिट क्वीन

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1994 में शेखर कपूर ने निर्देश में बनी ये फिल्म अपने वक्त की सबसे विवादित फिल्म थी. डाकू फूलन देवी के जीवन पर बनी इस फिल्म ने गरीबी, शोषण, महिलाओं की दयनीय स्थिति, जातिवादी व्यवस्था का भद्दा रूप सबके सामने लाया. फिल्म में फूलन देवी के डाकू वाली छवि से इतर, पितृसत्तात्मक समाज से लड़ाई लड़ने वाली एक लड़ाके के रूप में दिखाया गया. फिल्म ने लंबे समय से चले आ रहे महिला उत्थान,  समाजिक सुधार के बहस को और गर्मा दिया. दुनिया के सामने भारतीय ग्रामीण महिलाओं की एक सच्ची छवि रख दी. फिल्म का जबरदस्त विरोध हुआ.

मैरी कौम

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दुनियाभर में बौक्सिंग में देश का नाम रौशन करने वाली बौक्सर मैरी कौम लड़कियों के लिए किसी रोल मौडल कम नहीं हैं. 2014 में उनके संघर्ष, लड़ाई, मेहनत को बड़े पर्दे पर लाया निर्देशक ओमंग कुमार ने. फिल्म का बौक्स औफिस पर ठीकठाक प्रदर्शन रहा पर इसके संदेश ने महिलाओं की लड़ाई का एक चेहरा समाज के सामने लाया. फिल्म ने दिखाया कि अगर आपके पास जज्बा है, अगर आप जुनूनी हैं तो आपको आपकी मंजिल तक पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता. महिला सश्क्तिकरण का मैरी कौम एक बेहतरीन उदाहरण हैं.

राजी

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2018 में आई इस फिल्म को स्पाई और इंटेलिजेंसी वाली फिक्शन फिल्मों से पुरुषों के एकाधिकार को खत्म करने वाली कुछ फिल्मों के तौर पर देखा जा सकता है. फिल्म में आलिया भट्ट के किरदार की खूब तारीफ हुई. फिल्म में विकी कैशल के बावजूद लीड रोल में आलिया रहीं, इसके बाद भी फिल्म को दर्शकों ने पसंद किया. ये दिखाता है कि वक्त बदल रहा है हीरो के बिना भी फिल्मों को स्वीकारा जाता है.

क्वीन

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हाल के कुछ वर्षों में महिला सशक्तिकरण के लिए क्वीन से बेहतर कोई फिल्म नहीं बनी. ऐसा बोल कर हम बाकी फिल्मों को नकार नहीं रहे. बल्कि हमारे ये कहने के पीछे एक कारण है जो आगे आपको समझ आएगा.

इस फिल्म में कंगना एक बेहद साधारण सी शहरी लड़की के किरदार में थी. किरदार ऐसा कि एक बड़ी आबादी इसे खुद से जोड़ सके. किसी भी फिल्म के लिए इससे बड़ी बात कुछ नहीं हो सकती कि वो एक बड़ी आबादी से जुड़ जाए. ‘पुरुष के बिना महिला का जीवन संभव नहीं’ इस बात पर एक तंमाचा है ये फिल्म. मिडिल क्लास लड़की जिसकी कोई कहानी नहीं होती, वो भी कैसे अपनी कहानी कह सकती है, इस फिल्म ने बताया. देश में महिला सशक्तिकरण पर बनी फिल्मों की लिस्ट क्वीन के बिना अधूरी है.

वाटर

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रूढ़ीयां, कुरीतियां, धार्मिक जंजाल, पर एक करारा तमाचा है वाटर. फिल्म को बैन कर दिया गया था. इसका कंटेंट इसना सच्चा था कि समाज इसको अपनाने को तैयार ना हो सका. फिल्म ने दो मुद्दे प्रमुख रहें. एक बाल विवाह और दूसरा विधवाओं का जीवन. कैसे समाजिक कुरीतियां एक विधवा से खुश रहने की सारी वजहों को छीन लेता है, फिल्म में जबरदस्त अंदाज में दिखाया गया है.

पिंक

10 must watch movies for girls

मौडर्न लाइफस्टाइल में, खास कर के मेट्रो शहरों में महिलाओं की क्या स्थिति है. फिल्म में दिखाया गया कि कैसे तथाकथित मौडर्न सोसाइटी आज भी महिलाओं को केवल एक भोग की वस्तु के रूप में देखती है. इस फिल्म के माध्यम से महिलाओं के प्रति समाज की नजर, रवैये, धारणाएं, पूर्वानुमान आदि चीजों को एक सलीके से बड़े पर्दे पर उतारा गया.

इंगलिश विंगलिश

10 must watch movies for girls

श्रीदेवी की कुछ बेहतरीन फिल्मों में से एक है इंगलिश विंग्लिश. लेट एज अफेयर जैसे महत्वपूर्ण बिंदू को भी फिल्म में जगह दी गई. फिल्म से बच्चों का अपने मां बाप के प्रति नजरिए को भी प्रमुखता से दिखाया गया.

मौम

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श्रीदेवी की फिल्म मौम एक सौतेली बेटी और मां के बीच की कहानी है. अपनी बेटी का रेप हो जाने के बाद कैसे एक मां आरोपी को सजा दिलाने के लिए कुछ भी कर सकती है फिल्म में बखूबी ढंग से दिखाया गया. समाज में महिलाओं के कमजोर छवि को दूर करने में फिल्म अहम योगदान निभाती है.

बेगम जान

10 must watch movies for girls

बेगम जान बंगाली फिल्म ‘राजकहिनी’ का हिंदी रीमेक है. फिल्म में विद्या बालन एक तवाफ के किरदार में हैं. फिल्म में औरतों के आत्मसम्मान की लड़ाई को बेहतरीन अंदाज में दिखाया गया है.

पीरियड्स: एंड औफ सेंटेंस

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इसी साल आई इस डौक्यूमेंट्री फिल्म ने दुनिया को हौरान कर दिया. 26 मिनट की इस डौक्यूमेंट्री ने हरियाणा के एक छोटे से गांव के हालात को पर्दे पर बयां कर औस्कर में ‘बेस्ट डौक्यूमेंट्री औवर्ड’ अपने नाम किया. पीरियड को ले कर लोगों के मन में जो धारणा है उसपर ये फिल्म एक व्यंग है. महिलाओं की सुधरती स्थिति और जागरुकता के तमाम दावों को धता बताते हुए फिल्म ने समाज की नंगी तस्वीर सामने लाई. ये फिल्म भारतीय नहीं है. चूंकि इसकी पृष्ठभूमि भारतीय है, हमने इसे अपनी लिस्ट में जगह दी.

फिल्म रिव्यू : लुका छुपी

रेटिंग : दो स्टार

‘‘लिव इन रिलेशनशिप’’ की आड़ में विवादास्पद ‘‘लव जेहाद’’ के मुद्दे पर कटाक्ष करने वाली रोमांटिक कौमेडी फिल्म ‘‘लुका छुपी’’ पूर्णतः निराश करने वाली फिल्म है. सामाजिक स्वीकृत रिश्तों व धार्मिक कट्टरता पर धार्मिक अनुष्ठानों पर हास्य व्यंगात्मक कटाक्ष करने वाली यह फिल्म कमजोर पटकथा व निर्देशन के चलते पूरी तरह से बिखरी व अति सतही फिल्म बनकर रह गयी है. हास्य के नाम पर फिल्म में अस्वाभाविक व अविश्वसनीय दृश्यों की भरमार है.

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फिल्म की कहानी उत्तर प्रदेश के छोटे शहर मथुरा से शुरू होती है. जहां विनोद उर्फ गुड्डू शुक्ला (कार्तिक आर्यन) अपने पिता व दो बड़े भाईयों के साथ रहता है. गुड्डू के पिता शुक्लाजी (अतुल श्रीवास्तव) की साड़ियों की दुकान है, जहां गुड्डू के दोनों बड़े भाई बैठते हैं. जबकि गुड्डू स्वयं एक स्थानीय केबल चैनल का टीवी रिपोर्टर है. उसका दोस्त अब्बास (अपारशक्ति खुराना) इसी चैनल में कैमरामैन हैं. जबकि मथुरा शहर के पूर्व सांसद और संस्कृति रक्षा मंच के नेता विष्णु प्रसाद त्रिवेदी (विनय पाठक) ने गुंडो की फौज पाल रखी है. विष्णु प्रसाद त्रिवेदी शहर में लिव इन रिलेशनशिप के खिलाफ मुहीम चलाते हुए अपने गुंडो के मार्फत प्रेमी जोड़ा को पकड़कर उनके मुंह पर कालिख पोतकर शहर में घुमवाते हैं. त्रिवेदी की संस्था ‘‘संस्कृति रक्षा मंच’’तो अभिनेता नाजिम खान के ‘लिव इन रिलेशनशिप में रहने का विरोध कर रहे हैं. त्रिवेदी की इकलौती बेटी रश्मी त्रिवेदी (कृति सैनन) दिल्ली से मास कम्यूनीकेशन की पढ़ाई कर मथुरा आती है, तो त्रिवेदी अपने प्रयासो से पांडे के इसी केबल चैनल में गुड्डू के साथ रिपोर्टर बनवा देते हैं. धीरे धीरे दोनों में प्यार हो जाता है.

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गुड्डू का मानना है कि यदि आप प्यार में हैं, तो प्यार को मजबूती प्रदान करने के लिए शादी क्यों न कर ली जाए? जबकि रश्मी का मानना है कि भले प्यार हो, पर शादी से पहले लिव इन में रहकर प्रेमी को समझना चाहिए. मगर रश्मी के पिता ने तो लिव इन के खिलाफ कहर बरपा रखा है. इसलिए अब्बास की सलाह पर रश्मी और गुड्डू चैनल के लिए एक स्टोरी करने के बहाने ग्वालियर जाते हैं, जहां वह एक किराए के मकान में लिव इन रिलेशनशिप में रहते हैं, मगर मोहल्ले के लोगों को बताते हैं कि वह दोनों शादीशुदा हैं. पर गुड्डू के भाई का साला बाबूलाल (पंकज त्रिपाठी) ग्वालियार आता है और वह गुड्डू के बारे में जानकर मथुरा से गुड्डू के पूरे परिवार को ले आता है. फिर वह सपरिवार मथुरा पहुंचते हैं.

मथुरा में गुड्डू के माता पिता रश्मी के पिता त्रिवेदी से मिलते हैं और अंत में त्रिवेदी जी अपने सम्मान के लिए एक छोटा सा समारोह कर चैनल के माध्यम से सूचना देते हैं कि उनकी बेटी की शादी गुड्डू से हो गयी. इधर रश्मी उदास रहती है कि गुड्डू के माता पिता उसे इज्जत दे रहे हैं और वह उन्हें धोखा दे रही है. इसलिए अब वह व गुड्डू दोनों शादी करना चाहते हैं. अब्बास की सलाह पर जब भी परिवार से छिपकर गुड्डू व रश्मी शादी करने मंदिर पहुंचते हैं, मामला बिगड़ जाता है. अंततः वह दोनों अग्रवाल सामूहिक विवाह में शादी करने पहुंचते हैं, जहां त्रिवेदी के पहुंचने से सच सामने आ जाता है. पर वहीं पर दोनों की शादी हो जाती है. पर उससे पहले गुड्डू, विष्णु प्रसाद त्रिवेदी को लंबा चौड़ा भाषण सुनाता है जो कि वर्तमान सरकार को फायदा पहुंचाने वाला राजनीतिक बयानबाजी के अलावा कुछ नहीं.

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कैमरामैन से निर्देशक बने लक्ष्मण उतेकर ने अपनी फिल्म के लिए एक बेहतरीन विषय उठाया, मगर इसे वह सिनेमा के परदे पर सही ढंग से उतारने में विफल रहे. यदि फिल्म की पटकथा पर ध्यान दिया गया होता, तो यह एक तेज तर्रार हास्यपूर्ण बेहतर फिल्म बन सकती थी. फिल्म में गुड्डू व रश्मी के बीच कुछ सुंदर सेंसुअल दृश्य भी हैं. पर कथानक व पटकथा लेखन के स्तर पर लेखक व निर्देशक इस कदर भटक गए कि मूल विषय पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय पड़ोसियों की चुहुलबाजी, प्रपंच आदि भर दिया, जिसके चलते एक गंभीर विषय महज लोगों के शोरगुल व ठहाकों के बीच गुम होकर रह गया. पंकज त्रिपाठी का बाबूलाल का किरदार सही रखा गया, मगर महज हास्य के लिए बाबूलाल को कुछ ऐसे संवाद दे दिए गए, जिससे फिल्म बहुत ही सस्ती व घटिया स्तर की बन कर रह गयी.

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो बाबूलाल के किरदार में पंकज त्रिपाठी ने अपनी तरफ से  सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयास किया, मगर लेखक की तरफ से उन्हें दिए गए संवादों ने सारा बेड़ा गर्क कर दिया. अब्बास के किरदार में अपारशक्ति खुराना जरुर अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब हुए हैं. कार्तिक आर्यन व कृति सैनन कुछ दृश्यों में जरुर अच्छे लगते हैं, मगर पूरी फिल्म के परिप्रेक्ष्य में निराशा होती है.

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दो घंटे छह मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘लुका छुपी’’ का निर्माण दिनेश वीजन ने ‘मैडौक फिल्मस’’ के बैनर तले किया है. फिल्म के निर्देशक लक्ष्मण उतेकर, लेखक रोहण शंकर, संगीतकार तनिष्क बागची, व्हाइट नौयजव अभिजीत वघाणी, कैमरामैन मिलिंद जोग तथा कलकार हैं- कार्तिक आर्यन, कृति सैनन, अपारशक्ति खुराना, पंकज त्रिपाठी, अतुल श्रीवास्तव, विनय पाठक, अरूण सिंह व अन्य.

फिल्म रिव्यू : सोन चिड़िया

रेटिंग : दो स्टार 

‘इश्किया’, ‘डेढ़ इश्किया’, ‘उड़ता पंजाब’ जैसी गाली गलौज और हिंसा प्रधान फिल्मों के निर्देशक अभिषेक चौबे इस बार सत्तर के दशक के चंबल के बीहड़ की पृष्ठभूमि पर डाकुओं की कहानी लेकर आए हैं, जिसमें उन्होंने श्राप, अंतर आत्मा की आवाज को सुनने से लेकर जातिवाद यानी कि गुर्जर बनाम ठाकुर की लड़ाई पेश की है. मगर पूरी फिल्म कहीं से भी प्रभावित नहीं करती.

फिल्म की कहानी के केंद्र में डाकू मान सिंह (मनोज बाजपेयी) का गिरोह है, जो कि ठाकुरों का गिरोह है. यह गिरोह औरतों पर हाथ नहीं उठाता. मगर इन पर गुर्जर जाति को समूल नष्ट करने के लिए एक पांच वर्ष की लड़की का श्राप है. इस गैंग में लखना (सुशांत सिंह राजपूत),वकील सिंह (रणवीर शौरी) जैसे कई डाकुओं का समावेश है. मगर इस डाकुओं के इस गिरोह को समूल नष्ट करने के लिए मध्य प्रदेश पुलिस के इंस्पेक्टर वीरेंद्र सिंह गुज्जर (आषुतोश राणा) ने कसम खा रखी है. इधर मान सिंह का गिरोह ईश्वर में आस्था रखने के साथ ही अपने वजूद को लेकर सवाल उठाने के अलावा अपने जीने की वजहें भी तलाशता रहता है. डाकू लखना सहित कुछ के मन में यह विचार आ रहा है कि वह सरकार के सामने आत्मसमर्पण करके नई जिंदगी जिए. बीहड़ के जंगलों में भटकते हुए एक दिन अचानक इस गिरोह को रास्ते में मरा हुआ सांप मिलता है, जिसके कुछ हिस्से गिद्ध नोंच चुके हैं, गिरोह के सदस्य चाहते हैं कि रास्ता बदल दिया जाए,मगर मान सिंह अपनी बंदूक से उस सांप को उठाकर एक किनारे पर रखकर गिरोह को आगे बढ़ने का आदेश देते हैं.उसके बाद लच्छू आकर उन्हे सूचना देता है कि ब्राम्हणपुरी के गांव में सुनार की बेटी की शादी है. इसे यह गिरोह लूटने जाता है, जबकि लच्छू ने मानसिंह को बताया था कि वह पुलिस के कहने पर ही सूचना देने आया है और लच्छू के पिता को पुलिस ने बंदी बना रखा है. मानसिंह अपने गिरोह के साथ सुनार के यहां पहुंचते हैं, जहां पुलिस इंस्पेक्टर वीरेंद्र सिंह गुज्जर अपने साथी पुलिस वालों की मदद से मान सिंह सहित कई डाकुओं को मौत के घाट उतार देते हैं. जबकि लखना व वकील सिंह जैसे कुछ डाकू सुरक्षित भागने में कामयाब हो जाते हैं. उधर रास्ते में मजबूर  इंदूमती तोमर (भूमि पेडणेकर) व बलात्कार की शिकार अछूत जाति की छोटी लड़की सोन चिड़िया मिलती है, जिसकी मदद करने के लिए लखना तैयार हो जाता है. मगर यहीं से लखना व वकील के बीच दूरी हो जाती है. अब यह गिरोह दो भागां में विभाजित हो जाता है. कहानी कई मोड़ों से गुजरती है. अंततः वकील सिंह व लखना सहित तमाम डाकू मारे जाते हैं. पर अंत में एक ठाकुर जाति का पुलिस सिपाही, पुलिस इंस्पेक्टर वीरेंद्र सिंह गुज्जर को मौत दे देता है.

movie review of son chidiya

फिल्म में प्रकृति के नियम का उल्लेख है कि ‘सांप, चूहे का शिकार करता है और बाज सांप का. यानी कि नियम है कि मारने वाला भी एक दिन मारा जाएगा. प्रकृति के इसी नियम को ढाल बनाकर फिल्मकार अभिषेक चौबे ने बीहड़ के डाकुओं की कहानी के साथ साथ जातिप्रथा, पितृसत्तात्मक सोच, लिंग भेद, अंधविश्वास का चित्रण करने के साथ ही न्याय करने और बदला लेने के बीच के अंतर का जिक्र करते हुए पूरी फिल्म को चूं चूं का मुरब्बा बनाकर रख दिया है. फिल्म में गंदी गालियों, बंदूकों की आवाज, खूनखराबे की ही भरमार है. फिल्म 70 के दशक कें डाकुओं के जीवन को सही परिप्रेक्ष्य में चित्रित करने में भी बुरी तरह से असफल रहती है. फिल्मकार पूरी तरह से भटके हुए नजर आते हैं. काश फिल्मकार अभिषेक चौबे ने 1996 की निर्देशक शेखर कपूर की फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ और 2012 में तिग्मांशु धुलिया की फिल्म ‘पान सिंह तोमर’ देखकर कुछ सीखा होता, तो वह तमाम गलतियां करने से बच जाते. बीहड़ में भटक रहे डाकुओं को अपने माथे पर तिलक लगाने की फुर्सत नही होती है. पूरी फिल्म यथार्थ से कोसों दूर है. फिल्म में संवादों की भरमार है.

फिल्म का नाम सोन चिड़िया है यानी कि सोने की चिड़िया की तलाश. मगर फिल्मकार इसके साथ भी न्याय नहीं कर पाए. फिल्म में एक अछूत बलात्कार की शिकार छोटी लड़की के हाथ पर उसका नाम सोन चिड़िया लिखा हुआ है, मगर इसे ठीक से फिल्म की कहानी का हिस्सा बना पाने में अभिषेक चौबे असफल रहे हैं.

इतना ही नहीं 21वीं सदी में यह फिल्म बनाते हुए अभिषेक चौबे ने फिल्म में दो महिला पात्र खास तौर पर रखे हैं और इन पात्रों को महज ‘संपत्ति’ के रूप में ही उपयोग किया है. जातिगत संघर्ष पर रोशनी डालते हुए फिल्म में एक संवाद है- ‘‘औरत की जाति अलग होती है’’ अपने आप में गाल पर तमाचा है. क्या इस तरह के संवाद होने चाहिए? यह सवाल तमाम दर्शक पूछते नजर आए.

movie review of son chidiya

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो मान सिंह के छोटे से किरदार में मनोज बाजपेयी को छोड़कर सभी कलाकार अपने किरदारों के साथ न्याय करने में पूरी तरह से विफल रहे हैं. भूमि पेडणेकर के करियर की यह चौथी, मगर सबसे कमतर अभिनय वाली फिल्म रही. गुर्जर जाति के पुलिस इंस्पेक्टर वीरेंद्र सिंह के किरदार में आशुतोष राणा जरुर याद रह जाते हैं.

फिल्म के कैमरामैन अनुज राकेश धवन की जितनी तारीफ की जाए, उतनी कम है. उन्होने अपने कैमरे के माध्यम से वीरान चंबल की घाटी को बहुत ही उत्कृष्ट तरीके से परदे पर उकेरा है. फिल्म का गीत संगीत भी प्रभावित नहीं करता.

दो घंटे 23 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘सोन चिड़ैया’’ का निर्माण रौनी स्क्रूवाला ने ‘‘आरएसवीपी मूवीज’’के बैनर तले किया गया है. फिल्म के निर्देशक अभिषेक चौबे, लेखक अभिषेक चौबे व सुदीप शर्मा, संगीतकार विशाल भारद्वाज, कैमरामैन अनुज राकेश धवन तथा कलाकार हैं- सुशांत सिंह राजपूत,भूमि पेडणेकर, मनोज बाजपेयी,रणवीर शौरी,आशुतोष राणा,अमित सियाल, महेश बलराज, श्रीधर दुबे, मंजोत सिंह, सुहेल नायर, शाहबाज खान, अंशुमन झा, जतिन समा, जितेन समीन, अब्दुल कादिर अमीन, भौमिक रंजन,देव उपाध्याय, नवदीप तोमर, विवेक सिंह, धीरज सिंह व अन्य.

केन्द्र सरकार ने इन दवाइयों पर लगा दिया है प्रतिबंध, देखें आप भी

केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने हाल ही में कई दवाइयों पर प्रतिबंध लगा दिया है. इन प्रतिबंधित दवाइयों में पेट दर्द, दस्त, ब्लड प्रेशर जोड़ो का दर्द, सर्दी जुकाम, बुखार समेत 80 जेनरिक एफडीसी दवाइयों पर रोक लगाई है. सूत्रों की माने तो स्वास्थ्य मंत्रालय ने 80 नए जेनरिक एफडीसी पर रोक लगाई है. अब इनके मौन्यूफैक्चरिंग और बिक्री नहीं हो पाएगी. अपने इस कदम के पीछे केंद्र का कहना है कि ये दवाएं प्रयोग के लिए सुरक्षित नहीं हैं. आपको बता दें कि इन दवाइयों का कारोबार करीब 900 करोड़ रुपये का है.

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने जिन 80 जेनरिक FDC दवाओं को प्रतिबंधित किया है उसमें पेट दर्द, उल्टी,बल्ड प्रेशर, जोड़ों के दर्द, बुखार, सर्दी जुकाम,बुखार की दवाइयां शामिल हैं. फिक्सड डोज कौम्बिनेशन वाली इन दवाओं में अधिकतर एंटीबायोटिक दवाइयां हैं. इससे पहले स्वास्थ्य मंत्रालय ने 300 से अधिक FDCs को प्रतिबंधित किया था.
पुरानी सूची की वजह से Alkem, Microlabs, Abbott सिप्ला , ग्लेनमार्क इंटास फार्मा फाइजर वाकहार्ड और Lupin जैसे कंपनियों के कई ब्रांड प्रतिबंधित हुए थे. गौरतलब है कि पुरानी सूची से 6000 से अधिक ब्रांड बंद हुए थे.

फिल्म रिव्यू : बौम्बैरिया

रेटिंग : एक स्टार

गवाह की सुरक्षा के अहम मुद्दे पर अति कमजोर पटकथा व घटिया दृष्यों के संयोजन के चलते ‘बौम्बैरिया’ एक घटिया फिल्म बनकर उभरती है. बिखरी हुई कहानी, कहानी का कोई ठोस प्लौट न होना व कमजोर पटकथा के चलते ढेर सारे किरदार और कई प्रतिभाशाली कलाकार भी फिल्म ‘‘बौम्बैरिया को बेहतर फिल्म नहीं बना पाए.

फिल्म की शुरूआत होती है टीवी पर आ रहे समाचारनुमा चर्चा से होती है. चर्चा पुलिस अफसर डिमैलो के गवाह को सुरक्षा मुहैया कराने और अदालत में महत्वपूर्ण गवाह के पहुंचने की हो रही है.फिर सड़क पर मेघना (राधिका आप्टे) एक रिक्शे से जाते हुए नजर आती हैं. सड़के के एक चौराहे पर एक स्कूटर की उनके रिक्शे से टक्कर होती है और झगड़ा शुरू हो जाता है. इसी झगड़े के दौरान एक अपराधी मेघना का मोबाइल फोन लेकर भाग जाता है. और फिर एक साथ कई किरदार आते हैं. पता चलता है कि मेघना मशहूर फिल्म अभिनेता करण (रवि किशन) की पीआर हैं. उधर जेल में वीआईपी सुविधा भोग रहा एक नेता (आदिल हुसैन )अपने मोबाइल फोन के माध्यम से कई लोगों के संपर्क में बना हुआ है. वह नहीं चाहता कि महत्वपूर्ण गवाह अदालत पहुंचे. पुलिस विभाग में उसके कुछ लोग हैं, जिन्होने कुछ लोगों के फोन टेप करने रिक्शे किए है और इन सभी मोबाइल फोन के बीच आपस में होने वाली बात नेता जी को अपने मोबाइल पर साफ सुनाई देती रहती है. पुलिस कमिश्नर रमेश वाड़िया (अजिंक्य देव) को ही नहीं पता कि फेन टेप करने की इजाजत किसने दे दी. नेता ने अपनी तरफ से गुजराल (अमित सियाल) को सीआईडी आफिसर बनाकर मेघना व अन्य लेगों के खिलाफ लगा रखा है. अचानक पता चलता है कि फिल्म अभिनेता  करण की पत्नी मंत्री ईरा (शिल्पा शुक्ला) हैं और वह पुनः चुनाव लड़ने जा रही हैं, तो वहीं एक प्लास्टिक में लिपटा हुआ पार्सल की तलाश नेता व गुजराल सहित कईयों को है, यह पार्सल स्कूटर वाले भ्रमित कूरियर प्रेम (सिद्धांत कपूर) के पास है.तो वहीं एक रेडियो स्टेशन पर दो विजेता अभिनेता करण कपूर से मिलने के लिए बैठे है, पर अभिनेता करण कपूर झील में नाव की सैर कर रहे हैं. तो एक पात्र अभिषेक (अक्षय ओबेराय) का है, वह मेघना के साथ क्यों रहना चाहता है, समझ से परे हैं. कहानी इतनी बेतरीब तरीके से चलती है कि पूरी फिल्म खत्म होने के बाद भी फिल्म की कहानी समझ से परे ही रह जाती है. यह सभी पात्र मुंबई की चमत्कारिक सड़क पर चमत्कारिक ढंग से मिलते रहते हैं.

जहां तक अभिनय का सवाल है,तो नेता के किरदार में आदिल हुसैन को छोड़कर बाकी सभी कलाकार खुद को देहराते हुए नजर आए हैं.

पिया सुकन्या निर्देशित फिल्म ‘बौम्बैरिया’ में संवाद है कि : ‘मुंबई शहर संपत्ति के बढ़ते दामों और बेवकूफों की सबसे  बड़ी तादात वाला शहर है.’’शायद इसी सोच के साथ उन्होने एक अति बोर करने वाली फिल्म का निर्माण कर डाला. पिया सुकन्या की सोच यह है कि मुंबई शहर के लोगां के दिलां में अराजकता बसती है. पिया सुकन्या ने दर्शकों को एक थकाउ व डरावने खेल यानी कि ‘पजल’ को हल करने के लिए छोड़कर अपने फिल्मकार कर्म की इतिश्री समझ ली है.

एक घंटा अड़तालिस मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘बौम्बेरिया’ का निर्माण माइकल ई वार्ड ने किया है. फिल्म की निर्देशक पिया सुकन्या, पटकथा लेखक पिया सुकन्या, माइकल ईवार्ड और आरती बागड़ी, संगीतकार अमजद नदीम व अरको प्रावो मुखर्जी,कैमरामैन कार्तिक गणेश तथा इसे अभिनय से संवारने वाले कलाकार हैं- राधिका आप्टे, आदिल हुसैन, सिद्धांत कपूर, अक्षय ओबेराय, अजिंक्य देव, शिल्पा शुक्ला,रवि किशन व अन्य.

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