जाने क्यों लोग- भाग 2: क्या हुआ था अनिमेष और तियाशा के साथ

औफिस आई तो उस के बौस को बुलावा था. तियाशा कैबिन में गई.  बौस अनिमेष, उम्र 45 के आसपास, चेहरे पर घनी काली दाढ़ी, बड़ीबड़ी आंखें, रंग गोरा, हाइट ऊंची… तियाशा ने उन्हें इतने ध्यान से देखा नहीं था कभी.

बौस ने अपने जन्मदिन पर उसे घर बुलाया था, छोटी सी पार्टी थी. औफिस से निकल कर उस ने एक बुके खरीदा और घर आ गई.

किंशुक के जाने के बाद अब तक जैसेतैसे जिंदगी काट रही थी वह. ऐसे भी समाज में कहीं किसी शुभ कार्य में सालभर जाना नहीं होता है. कहते हैं मृत्यु जैसे शाश्वत सत्य के कारण लोगों के मंगल कार्य में बांधा पड़ती है. और बाद के दिनों में? विधवा है. अश्पृश्य वैधव्य की शिकार. अमंगल की छाया है उस के माथे पर. पारंपरिक भारतीय समाज डरता है ऐसी स्त्री से कि क्या पता संगति से उन के घर भी अनहोनी हो जाए. उस पर दुखड़ा रो कर भीड़ जुटाने वाली स्त्री न हो और लोगों को सलाह देने, दया दिखाने का मौका न मिले तो वह तो और भी बहिष्कृत हो जाती है. पड़ोस में कई शुभ समारोह तो हुए, लेकिन तियाशा बुलाई न गई. अकेलापन उस का न चाहते हुए भी साथी हो गया है.

शादी से पहले तियाशा स्वाबलंबी थी. एक प्राइवेट कालेज में लैक्चरर थी. तब की बात कुछ अलग थी, मगर शादी के इन 7 सालों में जैसे वह किंशुक नाम के खूंटे से टंग कर रह गई थी. बाहर जाने के नाम पर किंशुक ने ही तो तनाव भरा था उस में. हमेशा कहता कि अब तुम कहां जाओगी, मैं ही जाता हूं. आखिरी दिनों के दर्दभरे एहसासों के बीच भी कहता कि दवा खत्म हो गई है, थोड़ी देर में मैं ही जाता हूं. काश, किंशुक समझ पाता कि इस तरह उसे आगे अकेले कितनी परेशानी होगी. दुविधा, भय और लोगों से मेलजोल में अपराध भावना हावी हो जाएगी उस की चेतना पर. अब देखो कितनी दूभर हो गई है रोजमर्रा की जिंदगी उस की. न तो खुल कर किसी से दिल का हाल कह पाती है और न ही अनापशनाप सवालों के तीखे जवाब दे पाती है.

नीली जौर्जट साड़ी और पर्ल के हलके सैट के साथ जब वह निकलने को तैयार हुई तो आइने के सामने एक पल को ठहर गई वह.

‘‘बहुत सुंदर तिया. जैसे रूमानी रात ने सितारों के कसीदे से सजा आसमान ओढ़ रखा हो,’’ उसे नीली साड़ी पहना देख किंशुक ने कहा था कभी. खुद के सौंदर्य पर खुश होने के बदले ?िझक सी गई वह.

अनिमेष के घर के, दफ्तर के लगभग सारा स्टाफ  ही जुटा था, जिस में नितिन भी था. बधाई दे कर वह एक किनारे बैठ गई. उम्मीद थी नितिन उसे अकेला देख कर उस के पास जरूर आएगा. लेकिन 30 साल का नौजवान नितिन उसे देख कर अनायास ही अनदेखा करता रहा.

तभी हायहैलो करते सुगंधा उस के पास आ बैठी. 34 के आसपास की सुगंधा अपने चौंधियाते शृंगार से सभी का ध्यान आकर्षित कर रही थी. आते ही सवाल दागे, ‘‘तियाशा नितिन आज कहां रह गया? दिखा नहीं आसपास?’’

पूछ रही थी या तंस कस रही थी? बड़ी कोफ्त हुई तियाशा को, लेकिन वह सहज रहने का अभिनय करती सी बोली, ‘‘हमेशा मेरे ही पास क्यों रहे?’’

कह तो दिया उस ने लेकिन क्या पता क्यों नितिन का व्यवहार उसे खटक गया था. आखिर उसे अनदेखा करने या तिरछी नजर देख कर मुंह फेर लेने जैसी क्या बात हुई होगी.

सुगंधा का अगला सवाल खुद उत्तर बन कर आ गया था, ‘‘और कौन घास डालता है उसे? वैसे अच्छा ही है, औफिस में तुम्हें साथ देने को कोई तो मिल जाता है.’’

इसे आखिर मुझ से चिढ़ किस बात की है. तियाशा मन ही मन दुखी होती हुई भी सहज रही.

तभी अंजलि दौड़ती हुई आ गई, ‘‘कहां छिप कर बैठी हो सुगंधा. कब से ढूंढ़ रही हूं तुम्हें,’’ अंजलि जोश में थी.

‘‘क्यों?’’

‘‘देखो मेरे इस हार को, हीरे का है, किस ने दिया पूछो?’’

‘‘और किस ने? तुम्हारे पतिदेव ने. कल हम लोग भी गए थे खरीदारी करने. उन्होंने बहुत कहा, पर मैं ने लिया नहीं, 2 तो पड़े हैं ऐसे ही. क्यों तियाशा तुम्हारा यह हार रियल पर्ल का है? वैसे पर्ल ही सही है आजकल. चोरउच्चक्कों का जमाना है, तुम बेचारी अकेली हो, क्यों भला गहने जमाओ.’’

‘‘अरे इसे क्यों पूछ रही हो, इस बेचारी को हीरे का हार ले कर देगा कौन?’’

‘‘अपने नितिन को कहना पड़ेगा, फ्री में बहुत घूम चुका,’’ सुगंधा ने रसभरी चुटकी ली.

सुगंधा और अंजलि हंसते हुए उठ कर चली गईं, लेकिन पीछे बैठी तियाशा की रगरग में दमघोंटू धुआं भर गईं.

अकेली चुप बैठी भी वह लोगों की नजर में

ज्यादा आ रही थी. औफिस के स्टाफ में से अधिकांश उस से ज्यादा घुलेमिले नहीं थे. अनिमेष गैस्ट संभालते हुए भी तियाशा को बीचबीच में देख लेते. वह कभी किसी को देख कर झेंप से भरी हुई मुसकराती, तो कभी अपने फोन पर जबरदस्ती व्यस्त होने का दिखावा करती. सब को खाने के बुफे की ओर भेज कर अनिमेष तियाशा के पास आ गए. दोनों को ही समझ नहीं आ रहा था कि बात कैसे शुरू की जाए. हौल अब लगभग खाली हो गया था. ज्यादातर लोग खापी कर घर निकल गए थे, कुछेक बचे लोग खाने की जगह इकट्ठा थे.

अनिमेष ने कहा, ‘‘चलिए आप भी, खाना खा ले.’’

वैसे अनिमेष ने कहा तो सही, लेकिन उन की इच्छा थी कि वे कुछ देर तियाशा के साथ अकेले बैठें, उस से बातें करें, उस के बारे में जानें.

उधर तियाशा को अनिमेष का साथ बुरा तो नहीं लग रहा था? लेकिन वह नितिन को ले कर परेशान सी थी. आखिर हंसताबोलता इंसान अचानक मुंह फेर कर बैठ जाए यह तो बेचैन करने वाली बात है न.

‘‘क्या हुआ, लगता है आप को मेरी पार्टी में आनंद नहीं आया? क्या मैं आप को परेशान कर रहा हूं?’’

यह अब दूसरी परेशानी. बौस है, कहीं खफा हो गया तो मुश्किलें और भी बढ़ जाएंगी. अत: अपनी उदासीनता छिपाते हुए उस ने कहा, ‘‘ऐसा नहीं है सर… वह आज तबीयत कुछ

ठीक नहीं.’’

‘‘तबीयत ठीक नहीं या नितिन को ले कर आप के बारे में लोग पीठ पीछे बातें बना रहे हैं इसलिए?’’

अब यह तो वाकई नई बात थी. तियाशा को तो मालूम नहीं था कि उस के पीछे नितिन के साथ उस का नाम जोड़ा जा रहा है.

तियाशा को अपना अकेलापन खलता था. कोई ऐसा नहीं था जो उस से खुले दिल से बात करे. इस समय नितिन से बातें करना, कभी उसे अपने घर बुलाकर साथ चाय पीना या कभी साथ कहीं शौपिंग पर चले जाना उसे मानसिक रूप से अच्छा महसूस कराता, मगर कभी यह बात दिल में नहीं आ पाई कि इस नितिन के साथ उस का नाम जोड़ कर पीठ पीछे बुराई की जाएगी. बेचारे मृत किंशुक को लोग किस नजर से देखेंगे… सभी तो यही सोच रहे होंगे कि किंशुक के मरते ही साल भर के अंदर कम उम्र के लड़के के साथ गुलछर्रे उड़ा रही है.

उस के चेहरे के उतरते रंग को अनिमेष कुछ देर देखते रहे, फिर कहा, ‘‘चलिए खाने पर चलते हैं… लोगों से डरना बंद करिए, आप अगर मेरी जिंदगी जानेंगी तो आप को अपनेआप ही रश्क हो आएगा. आइए…’’

सच, तियाशा को रहरह कर यह खयाल आ रहा था कि अनिमेष सर इस घर में अकेले क्यों दिखाईर् दे रहे हैं, इन की बीवी या बच्चे कहां हैं? पर संकोची स्वभाव की होने के कारण किसी से पूछ नहीं पाई.’’

जाने क्यों लोग- भाग 1: क्या हुआ था अनिमेष और तियाशा के साथ

लंबी,छरहरी, गोरी व मृदुभाषिणी 48 साल की तियाशा इस फ्लैट में अब अकेली रहती है, मतलब रह गई है.

आई तो थी सपनों के गुलदान में प्यारभरी गृहस्थी का भविष्य सजा कर, लेकिन एक रात गुलदान टूट गया, सो फूल तूफानी झेंकों में उड़ गए.

तियाशा के पिता ने 2 शादियां की थीं.

बड़ी मां के गुजरने के बाद उस की मां से ब्याह रचाया था उस के पिता ने. उस की मां ने उस के सौतेले बड़े भैया को भी उसी प्यार से पाला था जैसे उसे. लेकिन मातापिता की मृत्यु के बाद भाभी की तो जैसे कुदृष्टि ही पड़ गई थी उस पर. अच्छीभली प्राइवेट कालेज में वह लैक्चरर थी. मगर उस की 32 की उम्र का रोना रोरो कर उसे चुनाव का मौका दिए बगैर उस की शादी जैसेतैसे कर दी गई.

शादी के समय किंशुक उस से 8 साल बड़ा था, एक बीमार विधवा मां थी उस की, जिन की तीमारदारी के चलते इकलौते बेटे ने अब तक शादी नहीं की थी. मगर जाने क्या हुआ, सास के गुजरने के 2 साल के अंदर ही किंशुक को हार्ट की बीमारी का पता चला. फिर तो जैसे शादी के 5 साल यों पलक झपकते गुजर गए कि कभी किंशुक का होना सपना सा हो गया.

7 बजने को थे. औफिस जाने की तैयारी में लग गई. आसमानी चिकनकारी कुरती और नीली स्ट्रैचेबल डैनिम जींस में कहना न होगा बहुत स्मार्ट लग रही थी. किंशुक उस का स्मार्ट फैशनेबल लुक हमेशा पसंद करता था.

औफिस पहुंच कर थोड़ी देर पंखे के नीचे सुस्ता कर वह अपने काम पर ध्यान देने की कोशिश करती. कोशिश ही कर सकती है क्योंकि घोषाल बाबू, मल्लिक यहां तक कि अंजलि और सुगंधा भी उसे काम में मन लगाने का मौका दें तब तो.

यह राज्य सरकार का डिस्ट्रिक्ट ऐजुकेशन औफिस है. यहां किंशुक ने लगभग 19 साल नौकरी की. तियाशा को 10 महीने होने को

आए इस औफिस में किंशुक की जगह नौकरी करते हुए.

आज भी जैसे ही वह अपनी कुरसी पर आ कर बैठी मल्लिक और घोषाल बाबू ने एकदूसरे को देखा. मल्लिक की उम्र 45 और घोषाल की 48 के आसपास होगी. इन तीनों के अलावा इस औफिस में स्टाफ की संख्या 22 के आसपास होगी. मल्लिक ने तियाशा की ओर देखते हुए घोषाल से चुटकी ली कि कोलकाता के लोगों को बातबात पर बड़ी गरमी लगती है. भई, क्या जरूरत है बस में धक्के खाने की. हम और हमारी बाइक काम न आ सके तो लानत है.

पास से गुजरती अंजलि और सुगंधा मल्लिक आंख मारती हंसती निकल गईं.

तियाशा की रगरग में जहरीली जुगुप्सा सिहरती रही. वह अपने कंप्यूटर की स्क्रीन में धंसने की कोशिश करती रही, असहज महसूस करती रही.

ललिता ने तियासा को बताया था कि वह वहां वहीखाता, फाइल आदि टेबल तक पहुंचाने का काम करती थी. अन्य के मुकाबले किंशुक ललिता को उस की उम्र का लिहाज कर अतिरिक्त सम्मान देता था. आज किंशुक की विधवा के प्रति वह स्नेह सा महसूस करती. अकसर कहती, ‘‘बेटी यहां सारे लोग सामान्य शिक्षित, बड़े ही पारंपरिक पृष्ठभूमि के हैं, अगर तुम केश बांध कर, फीके रंग की साड़ी में आती, रोनी सी सूरत बनाए रखती, किसी से बिना हंसेमुसकराए सिर झका कर काम कर के निकल जाती तो शायद तुम्हें ऐसी बातें सुनने को नहीं मिलतीं. सब के साथ सामान्य औपचारिकता निभाती हो, मौडर्न तरीके की ड्रैसें पहनती हो… लोगों को खटकता है.’’

लब्बोलुआब यह कि पति की मृत्यु के बाद भारतीय समाज में स्त्री को अब भले ही जिंदा न जलना पड़े, पर जिंदा लाश बन कर रहना ही चाहिए. उस का सिर उठा कर जीना, दूसरे के सामने अपना दर्द छिपा कर मुसकराना, स्वयं के हाथों अपनी जिंदगी की बागडोर रखना लोगों को गवारा नहीं. वह हमेशा सफेद कफन ओढ़े रहे, निराश्रितपराश्रित जैसे व्यवहार अपनाए, तभी वह प्रमाणित कर पाएगी कि उस का चरित्र सच्चा है और वह पति के सिवा किसी अन्य को नहीं चाहती. और तो और गलत भी क्या है अगर पति के जाने के बाद कोई स्त्री अपने लिए खुशी ढूंढ़ती है. क्यों जरूरी है कि वह ताउम्र किसी का गम मनाती रहे?

तियाशा का मन विद्रोह कर उठता है. पत्नी की मृत्यु पर तो सारा समाज एक पुरुष को सहानुभूति के नाम पर खुली छूट दे देता है. तब वह बेचारा, सहारे का हकदार, मनोरंजन के लिए किसी भी स्त्री में दिलचस्पी लेने की स्वतंत्रता का विशेषाधिकार पाने वाला होता है. लेकिन एक स्त्री अपने जीवने को सामान्य ढर्रे पर भी चलाने की कोशिश करने की हकदार नहीं. उसे एक कदम पीछे चलना होगा. उसे हमेशा प्रमाणित करना होगा कि पति के बिना उस का अपना कोई वजूद नहीं है.

इन दिनों जाने क्यों उसे ज्यादा गुस्सा आने लगा है. इस वजह कुछ जिद भी. नितिन की यहां नई जौइनिंग से उन के मन ही मन अपना मन बहलाना शुरू किया है. अच्छा लड़का है, सुंदर है, स्मार्ट है… क्या हुआ यदि उस से 7-8 साल छोटा है. इन लोगों की तरह पूर्वाग्रह से ग्रस्त तो बिलकुल भी नहीं.

काफी है एक दोस्त की हैसियत से उस से थोड़ी बातचीत कर लेना. फिर और लोग भी क्या बात करेंगे उस से? न तो उस के पास पति या ससुराल वालों की निंदा के विषय हैं और न ही मायके वालों की धौंस और रुतबे का बखान. बच्चे के कैरियर को ले कर दिखावे की भी होड़ नहीं. फिर लोग उसे ही तो अपना विषय बनाए फिरते हैं. कौन है जिस से वह अपना दुखसुख बांटे?

दोपहर के ब्रेक में आजकल वह नितिन से कैंटीन जाने के लिए पूछती तो वह

भी यहां नया और अकेला होने के कारण सहर्ष राजी हो जाता. कुछ हैवी स्नैक्स के साथ 2 कप कौफी उन दोनों के बीच औपचारिकता की दीवार ढहा कर थोड़ाथोड़ा रोमांच और ठीठोली भर रही थी. एक इंसान होने के नाते तियाशा को अच्छा लगने का इतना तो अधिकार था, फिर भी वह खुद को हर वक्त सांत्वना देती रहती जैसेकि वह किंशुक को धोखा दे देने के बोझ से खुद को उबारना चाहती हो.

कुछ पल जो जिंदगी में नितिन के साथ के थे, क्योंकि इस साथ में आपसी दुराग्रह नहीं था, सामाजिक परंपरागत कुंठा नहीं थी, यद्यपि इस दोस्ती को ले कर भी चुटीली बातों का बाजार गरम ही रहता.

आज नितिन औफिस नहीं आया था, फिर भी रहरह तियाशा की नजर दरवाजे की तरफ घूम जातीं. दोपहर तक उस के दिल ने राह देखना जब बंद नहीं किया तो वह झल्ला पड़ी और ब्रेक होते ही कैंटीन की तरफ खुद ही चल दी. उम्मीद थी वह खुद को एक बेहतर ट्रीट दे कर साबित कर देगी कि वह नितिन के लिए उतावली नहीं है. दिल उदास था, जाने क्यों अकेलापन छाया रहा. मन मार कर सकुचाते हुए उस ने नितिन को कौल किया. कौल उस ने पहली बार किया था, लेकिन नितिन ने कौल नहीं उठाया. यह भले ही सामान्य सी बात रही हो, लेकिन तियाशा को खलता रहा. हो सकता है इस चिंता के पीछे लोगों का उस पर अतिरिक्त ध्यान देना रहा हो.

सीख: क्या मजबूरी थी संदीप के सामने

डोरवैल की आवाज सुनते ही मुझे झंझलाहट हुई. लो फिर आ गया कोई. लेकिन इस समय कौन हो सकता है? शायद प्रैस वाला या फिर दूध वाला होगा.

5-10 मिनट फिर जाएंगे. आज सुबह से ही काम में अनेक व्यवधान पड़ रहे हैं. संदीप को औफिस जाना है. 9 बज कर 5 मिनट हो गए हैं. 25 मिनट में आलू के परांठे, टमाटर की खट्टी चटनी तथा अंकुरित मूंग का सलाद बनाना ज्यादा काम तो नहीं है, लेकिन अगर इसी तरह डोरबैल बजती रही तो मैं शायद ही बना पाऊं. मेरे हाथ आटे में सने थे, इसलिए दरवाजा खोलने में देरी हो गई. डोरबैल एक बार फिर बज उठी. मैं हाथ धो कर दरवाजे के पास पहुंची और दरवाजा खोल कर देखा तो सामने काम वाली बाई खड़ी थी. मिसेज शर्मा से मैं ने चर्चा की थी. उन्होंने ही उसे भेजा था. मैं उसे थोड़ी देर बैठने को बोल कर अपने काम में लग गई. जल्दीजल्दी संदीप को नाश्ता दिया, संदीप औफिस गए, फिर मैं उस काम वाली बाई की तरफ मुखातिब हुई.

गहरा काला रंग, सामान्य कदकाठी, आंखें काली लेकिन छोटी, मुंह में सुपारीतंबाकू का बीड़ा, माथे पर गहरे लाल रंग का बड़ा सा टीका, कपड़े साधारण लेकिन सलीके से पहने हुए. कुल मिला कर सफाई पसंद लग रही थी. मैं मन ही मन खुश थी कि अगर काम में लग जाएगी तो अपने काम के अलावा सब्जी वगैरह काट दिया करेगी या फिर कभी जरूरत पड़ने पर किचन में भी मदद ले सकूंगी. फूहड़ तरीके से रहने वाली बाइयों से तो किचन का काम कराने का मन ही नहीं करता. फिर मैं किचन का काम निबटाती रही और वह हौल में ही एक कोने में बैठी रही. उस ने शायद मेरे पूरे हौल का निरीक्षण कर डाला था. तभी तो जब मैं किचन से हौल में आई तो वह बोली, ‘‘मैडम, घर तो आप ने बहुत अच्छे से सजाया है.’’

मैं हलके से मुसकराते हुए बोली, ‘‘अच्छा तो अब यह बोलो बाई कि मेरे घर का काम करोगी?’’

‘‘क्यों नहीं मैडम, अपुन का तो काम ही यही है. उसी के वास्ते तो आई हूं मैं. बस तुम काम बता दो.’’

‘‘बरतन, झड़ूपोंछा और कपड़ा.’’

‘‘करूंगी मैडम.’’

‘‘क्या लोगी और किस ‘टाइम’ आओगी यह सब पहले तय हो जाना चाहिए.’’

‘‘लेने का क्या मैडम, जो रेट चल रहा है वह तुम भी दे देना और रही बात टाइम की तो अगर तुम्हें बहुत जल्दी होगी तो सवेरे सब से पहले तुम्हारे घर आ जाऊंगी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा होगा. मुझे सुबह जल्दी ही काम चाहिए. 7 बजे आ सकोगी क्या?’’ मैं ने खुश होते हुए पूछा.

‘‘आ जाऊंगी मैडम, बस 1 कप चाय तुम को पिलानी पड़ेगी.’’

‘‘कोई बात नहीं, चाय का क्या है मैं 2 कप पिला दूंगी. लेकिन काम अच्छा करना पड़ेगा. अगर तुम्हारा काम साफ और सलीके का रहा तो कुछ देने में मैं भी पीछे नहीं रहूंगी.’’

‘‘तुम फिकर मत करो मैडम, मेरे काम में कोई कमी नहीं रहेगी. मैं अगर पैसा लेऊंगी तो काम में क्यों पीछे होऊंगी? पूरी कालोनी में पूछ के देखो मैडम, एक भी शिकायत नहीं मिलेगी. अरे, बंगले वाले तो इंतजार करते हैं कि कब सक्कू बाई मेरे घर लग जाए पर अपुन को जास्ती काम पसंद नहीं. अपुन को तो बस प्रेम की भूख है. तुम्हारा दिल हमारे लिए तो हमारी जान तुम्हारे लिए.’’

‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है बाई.’’

अब तक मैं उस के बातूनी स्वभाव को समझ चुकी थी. कोई और समय होता तो मैं

इतनी बड़बड़ करने की वजह से ही उसे लौटा देती, लेकिन पिछले 15 दिनों से घर में कोई काम वाली बाई नहीं थी, इसलिए मैं चुप रही.

उस के जाने के बाद मैं ने एक नजर पूरे घर पर डाली. सोफे के कुशन नीचे गिरे थे, पेपर दीवान पर बिखरा पड़ा था, सैंट्रल टेबल पर चाय के 2 कप अभी तक रखे थे. कोकिला और संदीप के स्लीपर हौल में इधरउधर उलटीसीधी अवस्था में पड़े थे. मुझे हंसी आई कि इतने बिखरे कमरे को देख कर सक्कू बाई बोल रही थी कि घर तो बड़े अच्छे से सजाया है. एक बार लगा कि शायद सक्कू बाई मेरी हंसी उड़ा रही थी कि मैडम तुम कितनी लापरवाह हो. वैसे बिखरे सामान, मुड़ीतुड़ी चादर, गिरे हुए कुशन मुझे पसंद नहीं है, लेकिन आज सुबह से कोई न कोई ऐसा काम आता गया कि मैं घर को व्यवस्थित करने का समय ही न निकाल पाई. जल्दीजल्दी हौल को ठीक कर मैं अंदर के कमरों में आई. वहां भी फैलाव का वैसा ही आलम. कोकिला की किताबें इधरउधर फैली हुईं, गीला तौलिया बिस्तर पर पड़ा हुआ. कितना समझती हूं कि कम से कम गीला तौलिया तो बाहर डाल दिया करो और अगर बाहर न डाल सको तो दरवाजे पर ही लटका दो, लेकिन बापबेटी दोनों में से किसी को इस की फिक्र नहीं रहती. मैं तो हूं ही बाद में सब समेटने के लिए.

तौलिया बाहर अलगनी पर डाल ड्रैसिंग टेबल की तरफ देखा तो वहां भी क्रीम, पाउडर, कंघी, सब कुछ फैला हुआ. पूरा घर समेटने के बाद अचानक मेरी नजर घड़ी पर गई. बाप रे, 11 बज गए. 1 बजे तक लंच भी तैयार कर लेना है. कोकिला डेढ़ बजे तक स्कूल से आ जाती है. संदीप भी उसी के आसपास दोपहर का भोजन करने घर आ जाते हैं. मैं फुरती से बाकी के काम निबटा लंच की तैयारी में जुट गई.

दूसरे दिन सुबह 7 बजे सक्कू बाई अपने को समय की सख्त पाबंद तथा दी गई जबान को पूरी तत्परता से निभाने वाली एक कर्मठ काम वाली साबित करते हुए आ पहुंची. मुझे आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई. खुशी इस बात की कि चलो आज से बरतन, कपड़े का काम कम हुआ. आश्चर्य इस बात का कि आज तक मुझे कोई ऐसी काम वाली नहीं मिली थी जो वादे के अनुरूप समय पर आती.

दिन बीतते गए. सक्कू बाई नियमित समय पर आती रही. मुझे बड़ा सुकून मिला. कोकिला तो उस से बहुत हिलमिल गई. सवेरे कोकिला से उस की मुलाकात नहीं होती थी, लेकिन दोपहर को वह कोकिला को कहानी सुनाती, कभीकभी उस के बाल ठीक कर देती. जब मैं कोकिला को पढ़ने के लिए डांटती तो वह ढाल बन कर सामने आ जाती, ‘‘क्या मैडम क्यों इत्ता डांटती हो तुम? अभी उम्र ही क्या है बेबी की. तुम देखना कोकिला बेबी खूब पढ़ेगी, बहुत बड़ी अफसर बनेगी. अभी तो उस को खेलने दो. तुम चौथी कक्षा की बेबी को हर समय पढ़ने को कहती हो.’’

एक दिन मैं ने कहा, ‘‘सक्कू बाई तुम नहीं समझती हो. अभी से पढ़ने की आदत नहीं पड़ेगी तो बाद में कुछ नहीं होगा. इतना कंपीटिशन है कि अगर कुछ करना है तो समय के साथ चलना पड़ेगा, नहीं तो बहुत पिछड़ जाएगी.’’

‘‘मेरे को सब समझ में आता है मैडम. तुम अपनी जगह ठीक हो पर मेरे को ये बताओ कि तुम अपने बचपन में खुद कितना पढ़ती थीं? क्या कमी है तुम को, सब सुख तो भोग रही हो न? ऐसे ही कोकिला बेबी भी बहुत सुखी होगी. और मैडम, आगे कितना सुख है कितना दुख है ये नहीं पता. कम से कम उस के बचपन का सुख तो उस से मत छीनो.’’

सक्कू बाई की यह बात मेरे दिल को छू गई. सच तो है. आगे का क्या पता.

अभी तो हंसखेल ले. वैसे भी सक्कू बाई की बातों के आगे चुप ही रह जाना पड़ता था. उसे सम?ाना कठिन था क्योंकि उस की सोच में उस से अधिक सम?ादार कोई क्या होगा. मेरे यह कहते ही कि सक्कू बाई तुम नहीं समझ रही हो. वह तपाक से जवाब देती कि मेरे को सब समझ में आता है मैडम. मैं कोई अनपढ़ नहीं. मेरी समझ पढ़ेलिखे लोगों से आगे है. मैं हार कर चुप हो जाती.

धीरेधीरे सक्कू बाई मेरे परिवार का हिस्सा बनती गई. पहले दिन से ले कर आज तक काम में कोई लापरवाही नहीं, बेवजह कोई छुट्टी नहीं. दूसरे के यहां भले ही न जाए, पर मेरा काम करने जरूर आती. न जाने कैसा लगाव हो गया था उस को मुझ से. जरूरत पड़ने पर मैं भी उस की पूरी मदद करती. धीरेधीरे सक्कू बाई काम वाली की निश्चित सीमा को तोड़ कर मेरे साथ समभाव से बात करने लगी. वह मुझे मेरे सादे ढंग से रहने की वजह से अकसर टोकती, ‘‘क्या मैडम, थोड़ा सा सजसंवर कर रहना चाहिए. मैं तुम्हारे वास्ते रोज गजरा लाती हूं, तुम उसे कोकिला बेबी को लगा देती हो.’’

मैं हंस कर पूछती, ‘‘क्या मैं ऐसे अच्छी नहीं लगती हूं?’’

‘‘वह बात नहीं मैडम, अच्छी तो लगती हो, पर थोड़ा सा मेकअप करने से ज्यादा अच्छी लगोगी. अब तुम्हीं देखो न, मेहरा मेम साब कितना सजती हैं. एकदम हीरोइन के माफिक लगती हैं.’’

‘‘उन के पास समय है सक्कू बाई, वे कर लेती हैं, मुझ से नहीं होता.’’

‘‘समय की बात छोड़ो, वे तो टीवी देखतेदेखते नेलपौलिश लगा लेती हैं बाल बना लेती हैं हाथपैर साफ कर लेती हैं. तुम तो टीवी देखती नहीं. पता नहीं क्या पढ़पढ़ कर समय बरबाद करती हो. टीवी से बहुत मनोरंजन होता है मैडम और फायदा यह कि देखतेदेखते दूसरा काम हो सकता है. किताबों में या फिर तुम्हारे अखबार में क्या है? रोज वही समाचार… उस नेता का उस नेता से मनमुटाव, महंगाई और बढ़ी, पैट्रोल और किरोसिन महंगा. फलां की बीवी फलां के साथ भाग गई. जमीन के लिए भाई ने भाई की हत्या की. रोज वही काहे को पढ़ना? अरे, थोड़ा समय अपने लिए भी निकालना चाहिए.’’

सक्कू बाई रोज मुझे कोई न कोई सीख दे जाती. अब मैं उसे कैसे समझती कि पढ़ने से मुझे सुकून मिलता है, इसलिए पढ़ती हूं.

एक दिन सक्कू बाई काम पर आई तो उस ने अपनी थैली में से मोगरे के 2 गजरे निकाले और बोली, ‘‘लो मैडम, आज मैं तुम्हारे लिए अलग और कोकिला बेबी के लिए अलग गजरा लाई हूं. आज तुम को भी लगाना पड़ेगा.’’

‘‘ठीक है सक्कू बाई, मैं जरूर लगाऊंगी.’’

‘‘मैडम, अगर तुम बुरा न मानो तो आज मैं तुम को अपने हाथों से तैयार कर देती हूं.’’ कुछ संकोच और लज्जा से बोली वह.

‘‘अरे नहीं, इस में बुरा मानने जैसी क्या बात है. पर क्या करोगी मेरे लिए?’’ मैं ने हंस कर पूछा.

‘‘बस मैडम, तुम देखती रहो,’’ कह कर वह जुट गई. मैं ने भी आज उस का मन रखने का निश्चय कर लिया.

सब से पहले उस ने मेरे हाथ देखे और अपनी बहुमुखी प्रतिभा व्यक्त करते हुए नेलपौलिश लगाना शुरू कर दिया. नेलपौलिश लगाने के बाद खुद ही मुग्ध हो कर मेरे हाथों को देखने लगी ओर बोली, ‘‘देखा मैडम, हाथ कित्ता अच्छा लग रहा है. आज साहबजी आप का हाथ देखते रह जाएंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘सक्कू बाई, साहब का ध्यान माथे की बिंदिया पर तो जाता नहीं, भला वे नाखून क्या देखेंगे? तुम्हारे साहब बहुत सादगी पसंद हैं.’’

मेरे इतना कहने पर वह बोली, ‘‘मैं ऐसा नहीं कहती मैडम कि साहबजी का ध्यान मेकअप पर ही रहता है. अरे, अपने साहबजी तो पूरे देवता हैं. इतने सालों से मैं काम में लगी पर साहबजी जैसा भला मानुस मैं कहीं नहीं देखी. मेरा कहना तो बस इतना था कि सजनासंवरना आदमी को बहुत भाता है. वह दिन भर थक कर घर आए और घर वाली मुचड़ी हुई साड़ी और बिखरे हुए बालों से उस का स्वागत करे तो उस की थकान और बढ़ जाती है. लेकिन यदि घर वाली तैयार हो कर उस के सामने आए तो दिन भर की सारी थकान दूर हो जाती है.’’

मैं अधिक बहस न करते हुए चुप हो कर उस का व्याख्यान सुन रही थी, क्योंकि मुझे मालूम था कि मेरे कुछ कहने पर वह तुरंत बोल देगी कि मैं कोई अनपढ़ नहीं मैडम…

इस बीच उस ने मेरी चूडि़यां बदलीं, कंघी की, गजरा लगाया, अच्छी सी बिंदी लगाई. जब वह पूरी तरह संतुष्ट हो गई तब उस ने मुझे छोड़ा. फिर अपना काम निबटा कर वह घर चली गई. मैं भी अपने कामों में लग गई और यह भूल गई कि आज मैं गजरा वगैरह लगा कर कुछ स्पैशल तैयार हुई हूं.

दरवाजे की घंटी बजी. संदीप आ गए थे. मैं उन से चाय के लिए पूछने गई तो वे बड़े गौर से मु?ो देखने लगे. मैं ने उन से पूछा कि चाय बना कर लाऊं क्या? तो वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘थोड़ी देर यहीं बैठो. आज तो तुम्हारे चेहरे पर इतनी ताजगी झलक रही है कि थकान दूर करने के लिए यही काफी है. इस के सामने चाय की क्या जरूरत?’’ मैं अवाक हो उन्हें देखती रह गई. मुझे लगा कि सक्कू बाई चिढ़ाचिढ़ा कर कह रही है, ‘‘देखा मैडम, मैं कहती थी न कि मैं कोई अनपढ़ नहीं.’’

औकात से ज्यादा: भाग 3- सपनों की रंगीन दुनिया के पीछे का सच जान पाई निशा

पापा तो निशा के जाने से पहले ही काम पर निकल जाते थे, इसलिए नए खरीदे कपड़े पहन कर औफिस जाती निशा का सामना उन से नहीं हुआ. मगर मम्मी तो उसे देख भड़क गईं, ‘‘तू ये कपड़े पहन कर औफिस जाएगी? कुछ शर्मोहया भी है कि नहीं?’’‘‘क्यों? इन कपड़ों में कौन सी बुराई है?’’ निशा ने तपाक से पूछा. ‘‘सारे जिस्म की नुमाइश हो रही है और तुम को इस में कोई बुराई नजर नहीं आ रही. उतारो इन्हें और ढंग के दूसरे कपड़े पहनो,’’ निशा की नौकरी को ले कर पहले से ही नाखुश मम्मी ने कहा. ‘‘मेरे पास इतना वक्त नहीं मम्मी कि दोबारा कपड़े बदलूं. इस समय मैं काम पर जा रही हूं. शाम को इस बारे में बात करेंगे,’’ मम्मी के विरोध की अनदेखी करते निशा घर से बाहर निकल आई. उस दिन घर से औफिस को जाते निशा को लगा कि उस को पहले से ज्यादा नजरें घूर रही हैं. ऐसा जरूर कपड़ों में से दिखाई पड़ने वाले उस के गोरे मांसल जिस्म की वजह से था. शर्म आने के बजाय निशा को इस में गर्व महसूस हुआ. उधर, अपने बदले रंगरूप की वजह से निशा को औफिस में भी खुद के प्रति सबकुछ बदलाबदला सा लगा. बिजलियां गिराती निशा के बदले रंगरूप को देख काम करने वाली दूसरी लड़कियों की आंखों में हैरानी के साथसाथ ईर्ष्या का भाव भी था. यह ईर्ष्या का भाव निशा को अच्छा लगा. यह ईर्ष्याभाव इस बात का प्रमाण था कि वह उन के लिए चुनौती बनने वाली थी.

निशा के अपना रंगरूप बदलते ही निशा के लिए औफिस में भी एकाएक सबकुछ बदलने लगा. अपने केबिन की तरफ जाते हुए संजय की नजर निशा पर पड़ी और इस के बाद पहली बार उस को अकेले केबिन में आने का इंटरकौम पर हुक्म भी तत्काल ही आ गया. केबिन में आने का और्डर मिलते ही निशा के बदन में सनसनाहट सी फैल गई. उस को इसी घड़ी का तो इंतजार था. केबिन में जाने से पहले निशा ने गर्वीले भाव से एक बार दूसरी लड़कियों को देखा. वह अपनी हीनभावना से उबर आई थी. अकेले केबिन में एक लड़की होने के नाते उस के साथ क्या हो सकता था, उस की कल्पना कर के निशा मानसिक रूप से इस के लिए तैयार थी. दूसरे शब्दों में, केबिन की तरफ जाते हुए निशा की सोच बौस के सामने खुद को प्रस्तुत करने की थी. निशा को इस बात से भी कोई घबराहट नहीं थी कि अपने बौस के केबिन में से बाहर आते समय उस के होंठों की लिपस्टिक का रंग फीका पड़ सकता था. वह बिखरी हुई हालत में नजर आ सकती थी. निशा मान रही थी कि बहुत जल्दी बहुतकुछ हासिल करना हो तो उस के लिए किसी न किसी शक्ल में कोई कीमत तो अदा करनी ही पड़ेगी.

निशा जब संजय के केबिन में दाखिल हुई तो उस की आंखों में खुले रूप से संजय के सामने समर्पण का भाव था. संजय की एक शिकारी वाली नजर थी. निशा के समर्पण के भाव को देख वह अर्थपूर्ण ढंग से मुसकराया और बोला, ‘‘तुम एक समझदार लड़की हो, इसलिए जानती हो कि कामयाबी की सीढ़ी पर तेजी से कैसे चढ़ा जाता है? अपने बौस और क्लाइंट को खुश रखो, यही तरक्की का पहला पाठ है. मेरा इशारा तुम समझ रही हो?’’

‘‘यस सर,’’ निशा ने बेबाक लहजे से कहा.

‘‘गुड, तुम वाकई समझदार हो. तुम्हारी इसी समझदारी को देखते हुए मैं इसी महीने से तुम्हारी सैलरी में 2 हजार रुपए की बढ़ोतरी कर रहा हूं,’’ निशा के गदराए जिस्म पर नजरें गड़ाते संजय ने कहा.

‘‘थैंक्यू सर, इस मेहरबानी के बदले में मैं आप को कभी भी और किसी भी मामले में निराश नहीं करूंगी,’’ उसी क्षण खुद को संजय के हवाले कर देने वाले अंदाज में निशा ने कहा. इस पर उस को अपने करीब आने का इशारा करते हुए संजय ने कहा, ‘‘तुम आज के जमाने की हकीकत को समझने वाली लड़की हो, इसलिए तेजी से तरक्की करोगी.’’ इस के बाद कुछ समय संजय के साथ केबिन में बिता कर  अपने होंठों की बिखरी लिपस्टिक को रुमाल से साफ करती निशा बाहर निकली तो वह नए आत्मविश्वास से भरी हुई थी. औकात से अधिक मिलने को ले कर मम्मी जिस आशंका से इतने दिनों से आशंकित थीं उस में से तो निशा गुजर भी गई थी. औकात कम होने पर तरक्की करने का यही तो सही रास्ता था. इसलिए संजय के केबिन के अंदर जो भी हुआ था उस के लिए निशा को कोई मलाल नहीं था.

सैलरी में 2 हजार रुपए की बढ़ोतरी हुई तो बिना देरी किए निशा ने सवारी के लिए स्कूटी भी किस्तों पर ले ली. अपनी स्कूटी पर सवार हो नौकरी पर जाते निशा का एक और बड़ा अरमान पूरा हो गया था. वह जैसे हवा में उड़ रही थी. इस के साथ ही निशा ने घर में यह ऐलान भी कर दिया कि अब से वह अपने काम से देरी से वापस आया करेगी. पापा कुछ नहीं बोले, किंतु मम्मी के माथे पर कई बल पड़ गए, पूछा, ‘‘इस देरी से आने का मतलब?’’

‘‘ओवरटाइम मम्मी, ओवरटाइम.’’

मम्मी ने दुनिया देखी थी, इसलिए उन्होंने कहा, ‘‘मुझ को तुम्हारा देर से घर आना अच्छा नहीं लगेगा.’’ ‘‘तुम को तो मेरा नौकरी पर जाना भी कहां अच्छा लगा था मम्मी, मगर मैं नौकरी पर गई. अब भी वैसा ही होगा. एक बात और, तुम को मुझे मेरी औकात से ज्यादा मिलने पर ऐतराज था. मगर मुझ को 2 महीने में ही मिलने वाली तरक्की ने साबित कर दिया कि मेरी कोई औकात थी.’’ बड़े अहंकार से कहे गए निशा के शब्दों पर मम्मी बोलीं, ‘‘हां, मैं देख रही हूं और समझ भी रही हूं. सचमुच बाहर तेरी औकात बढ़ गई है. मगर मेरी नजरों में तेरी औकात पहले से कम हो गई है.’’ मम्मी के शब्दों की गहराई में जाने की निशा ने जरूरत नहीं समझी. इस के बाद घर देर से आना निशा के लिए रोज की बात हो गई. काफी रात हुए घर आना अब निशा की मजबूरी थी. अपने बौस के साथसाथ क्लाइंट को भी खुश करना पड़ता था. औफिस में निशा की अहमियत बढ़ रही थी मगर घर में स्थिति दूसरी थी. मम्मी लगातार निशा से दूर हो रही थीं, किंतु निशा की कमाई के लालच में पापा अब भी उस के करीब बने हुए थे. निशा के देरसबेर घर आने को वे अनदेखा कर जाते थे. दिन बीतते गए. एक दिन निशा को ऐसा लगा कि अपनी लालसाओं के पीछे भागते हुए वह इतनी दूर निकल आई थी जहां से वापसी मुश्किल थी. अपने फायदे के लिए संजय ने निशा का खूब इस्तेमाल किया था. इस के बदले में उस को मोटी सैलरी भी दी थी. निशा ने बहुतकुछ हासिल किया था, किंतु एक औरत के रूप में बहुतकुछ गंवा कर.

कभीकभी यह चीज निशा को सालती भी थी. ऐसे में उस को मम्मी की कही हुई बातें भी याद आतीं. लेकिन जिस तड़कभड़क वाली जिंदगी जीने की निशा आदी हो चुकी थी उस को छोड़ना भी निशा के लिए अब मुश्किल था. वापसी के रास्ते बंद थे. औफिस की दूसरी लड़कियों के सीने में जलन और ईर्ष्या जगाती निशा काफी समय तक अपने बौस संजय की खास और चहेती बनी रही और सैलरी में बढ़ोतरी करवाती रही. फिर एक दिन अचानक ही निशा के लिए सबकुछ नाटकीय अंदाज में बदला. एक खूबसूरत सी दिखने वाली लीना नाम की लड़की नौकरी हासिल करने के लिए संजय के केबिन में दाखिल हुई और इस के बाद निशा के लिए केबिन में से बुलावा आना कम होने लगा. लीना ने सबकुछ समझने में निशा की तरह 2 महीने का लंबा समय नहीं लिया था और कुछ दिनों में ही संजय की खासमखास बन गई थी. लीना की संजय के केबिन में एंट्री के बाद उपेक्षित निशा को अपनी स्थिति किसी इस्तेमाल की हुई सैकंडहैंड चीज जैसी लगने लगी थी. लेकिन उस के पास इस के अलावा कोई चारा नहीं था कि वह अपनी सैकंडहैंड वाली सोच के साथ समझौता कर ले.

वे नौ मिनिट: लौकडाउन में निम्मी की कहानी

“निम्मो,  शाम के दीए जलाने की तैयारी कर लेना. याद है ना, आज 5 अप्रैल है.”– बुआ जी ने मम्मी को याद दिलाते हुए कहा.

” अरे दीदी ! तैयारी क्या करना .सिर्फ एक दिया ही तो जलाना है, बालकनी में. और अगर दिया ना भी हो तो मोमबत्ती, मोबाइल की फ्लैश लाइट या टॉर्च भी जला लेंगे.”

” अरे !तू चुप कर “– बुआ जी ने पापा को झिड़क दिया.

” मोदी जी ने कोई ऐसे ही थोड़ी ना कहा है दीए जलाने को. आज शाम को 5:00 बजे के बाद से प्रदोष काल प्रारंभ हो रहा है. ऐसे में यदि रात को खूब सारे घी के दीए जलाए जाए तो महादेव प्रसन्न होते हैं, और फिर घी के दीपक जलाने से आसपास के सारे कीटाणु भी मर जाते हैं. अगर मैं अपने घर में होती तो अवश्य ही 108 दीपों की माला से घर को रोशन करती और अपनी देशभक्ति दिखलाती.”– बुआ जी ने अनर्गल प्रलाप करते हुए अपना दुख बयान किया.

दिव्या ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि मम्मी ने उसे चुप रहने का इशारा किया और वह बेचारी बुआ जी के सवालों का जवाब दिए बिना ही कसमसा कर रह गई.

” अरे जीजी! क्या यह घर आपका नहीं है ? आप जितने चाहे उतने दिए जला लेना. मैं अभी सारा सामान ढूंढ कर ले आती हूं.” —मम्मी की इसी कमजोरी का फायदा तो वह बरसों से उठाती आई हैं.

बुआ पापा की बड़ी बहन हैं तथा विधवा हैं . उनके दो बेटे हैं जो अलग-अलग शहरों में अपने गृहस्थी बसाए हुए हैं. बुआ भी पेंडुलम की भांति बारी-बारी से दोनों के घर जाती रहती हैं. मगर उनके स्वभाव को सहन कर पाना सिर्फ मम्मी के बस की ही बात है, इसलिए वह साल के 6 महीने यहीं पर ही रहती हैं . वैसे तो किसी को कोई विशेष परेशानी नहीं होती क्योंकि मम्मी सब संभाल लेती हैं परंतु उनके पुरातनपंथी विचारधारा के कारण मुझे बड़ी कोफ्त होती है.

इधर कुछ दिनों से तो मुझे मम्मी पर भी बेहद गुस्सा आ रहा है. अभी सिर्फ 15- 20 दिन ही हुए थे हमारे शादी को ,मगर बुआ जी की उपस्थिति और नोएडा के इस छोटे से फ्लैट की भौगोलिक स्थिति में मैं और दिव्या जी भर के मिल भी नहीं पा रहे थे.

कोरोना वायरस के आतंक के कारण जैसे-तैसे शादी संपन्न हुई.हनीमून के सारे टिकट कैंसिल करवाने पड़े, क्योंकि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विमान सेवा बंद हो चुकी थी. बुआ को तो गाजियाबाद में ही जाना था मगर उन्होंने कोरोना माता के भय से पहले ही खुद को घर में बंद कर लिया. 22 मार्च के जनता कर्फ्यू के बाद स्थिति और भी चिंताजनक हो गई और  25 मार्च को लॉक डाउन का आह्वान किए जाने पर हम सबको कोरोना जैसी महामारी को हराने के लिए अपने-अपने घरों में कैद हो गए; और साथ ही कैद हो गई मेरी तथा दिव्या की वो सारी कोमल भावनाएं जो शादी के पहले हम दोनों ने एक दूसरे की आंखों में देखी थी.

दो कमरों के इस छोटे से फ्लैट में एक कमरे में बुआ और उनके अनगिनत भगवानों ने एकाधिकार कर रखा था.  मम्मी को तो वह हमेशा अपने साथ ही रखती हैं ,दूसरा कमरा मेरा और दिव्या का है ,मगर अब पिताजी और मैं उस कमरे में सोते हैं तथा दिव्या हॉल में, क्योंकि पिताजी को दमे की बीमारी है इसलिए वह अकेले नहीं सो सकते. बुआ की उपस्थिति में मम्मी कभी भी पापा के साथ नहीं सोतीं वरना बुआ की तीखी निगाहें  उन्हें जला कर भस्म कर देंगी. शायद यही सब देखकर दिव्या भी मुझसे दूर दूर ही रहती है क्योंकि बुआ की तीक्ष्ण निगाहें हर वक्त उसको तलाशती रहती हैं.

“बेटे ! हो सके तो बाजार से मोमबत्तियां ले आना”, मम्मी की आवाज सुनकर मैं अपने विचारों से बाहर निकला.

” क्या मम्मी ,तुम भी कहां इन सब बातों में उलझ रही हो? दिए जलाकर ही काम चला लो ना. बार-बार बाहर निकलना सही नहीं है. अभी जनता कर्फ्यू के दिन ताली थाली बजाकर मन नहीं भरा क्या जो यह दिए और मोमबत्ती का एक नया शिगूफा छोड़ दिया.”   मैंने धीरे से बुदबुताते हुए मम्मी को झिड़का, मगर इसके साथ ही बाजार जाने के लिए मास्क और गल्ब्स पहनने लगा. क्योंकि मुझे पता था कि मम्मी मानने वाली नहीं हैं .

किसी तरह कोरोना वारियर्स के डंडों से बचते बचाते  मोमबत्तियां तथा दिए ले आया. इन सारी चीजों को जलाने के लिए तो अभी 9:00 बजे रात्रि का इंतजार करना था, मगर मेरे दिमाग की बत्ती तो अभी से ही जलने लगी थी. और साथ ही इस दहकते दिल में एक सुलगता सा आईडिया भी आया था. मैंने झट से मोबाइल निकाला और व्हाट्सएप पर दिव्या को अपनी प्लानिंग समझाई, क्योंकि आजकल हम दोनों के बीच प्यार की बातें व्हाट्सएप पर ही बातें होती थी. बुआ के सामने तो हम दोनों नजरें मिलाने की भी नहीं सोच सकते.

” ऐसा कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि बुआ जी हमे बहू बहू की रट लगाई रहती हैं” दिव्या ने रिप्लाई किया.

” मैं जैसा कहता हूं वैसा ही करना डार्लिंग, बाकी सब मैं संभाल लूंगा. हां तुम कुछ गड़बड़ मत करना. अगर तुम मेरा साथ दो तो वह नौ मिनट हम दोनों के लिए यादगार बन जाएगा.”

” ओके. मैं देखती हूं.” दिव्या के इस जवाब से मेरे चेहरे पर चमक आ गई .

और मैं शाम के नौ मिनट की अपनी उस प्लानिंग के बारे में सोचने लगा. रात को जैसे ही 8:45 हुआ कि मम्मी ने मुझसे कहा कि घर की सारी बत्तियां बंद कर दो और सब लोग बालकनी में चलो. तब मैंने साफ-साफ कह दिया–

” मम्मी यह सब कुछ आप ही लोग कर लो. मुझे आफिस का बहुत सारा काम है, मैं नहीं आ सकता.”

” इनको रहने दीजिए मम्मी जी ,चलिए मैं चलती हूं.” दिव्या हमारी पूर्व नियोजित योजना के अनुसार मम्मी का हाथ पकड़कर कमरे से बाहर ले गई. दिव्या ने मम्मी और बुआ के साथ मिलकर 21 दिए जलाने की तैयारी करने लगी. बुआ का मानना था कि 21 दिनों के लॉक डाउन के लिए 21 दिए उपयुक्त हैं. उन्हें एक पंडित पर फोन पर बताया था.

“मम्मी जी मैंने सभी दियों में तेल डाल दिया है. मोमबत्ती और माचिस भी यहीं रख दिया है. आप लोग जलाईए, तब तक मैं घर की सारी बत्तियां बुझा कर आती हूं.”— दिव्या ने योजना के दूसरे चरण में प्रवेश किया.

वह सारे कमरे की बत्तियां बुझाने लगी. इसी बीच मैंने दिव्या के कमर में हाथ डाल कर उससे कमरे के अंदर खींच लिया और दिव्या ने भी अपने बाहों की वरमाला मेरे गले में डाल दी.

” अरे वाह !तुमने तो हमारी योजना को बिल्कुल कामयाब बना दिया .” मैंने दिव्या की कानों में फुसफुसाकर कहा .

“कैसे ना करती; मैं भी तो कब से तड़प रही थी तुम्हारे प्यार और सानिध्य को” दिव्या की इस मादक आवाज ने मेरे दिल के तारों में झंकार पैदा कर दी .

“सिर्फ 9 मिनट है हमारे पास…..”— दिव्या कुछ और बोलती इससे पहले मैंने उसके होठों को अपने होठों से बंद कर दिया. मोहब्बत की जो चिंगारी अब तक हम दोनों के दिलों में लग रही थी आज उसने अंगारों का रूप ले लिया था ,और फिर धौंकनी सी चलती हमारी सांसों के बीच 9 मिनट कब 15 मिनट में बदल गए पता ही नहीं चला.

जोर जोर से दरवाजा पीटने की आवाज सुनकर हम होश में आए.

” अरे बेटा !सो गया क्या तू ? जरा बाहर तो निकल…. आकर देख दिवाली जैसा माहौल है.”– मां की आवाज सुनकर मैंने खुद को समेटते हुए दरवाजा खोला. तब तक दिव्या बाथरूम में चली गई .

“अरे बेटा! दिव्या कहां है ?दिए जलाने के बाद पता नहीं कहां चली गई?”

” द…..दिव्या तो यहां नहीं आई . वह तो आपके साथ ही गई थी.”— मैंने हकलाते हुए कहा और  मां का हाथ पकड़ कर बाहर आ गया.

बाहर सचमुच दिवाली जैसा माहौल था. मानो बिन मौसम बरसात हो रही हो.तभी दिव्या भी खुद को संयत करते हुए बालकनी में आ खड़ी हुई.

” तुम कहां चली गई थी दिव्या ? देखो मैं और मम्मी तुम्हें कब से ढूंढ रहे हैं “— मैंने बनावटी गुस्सा दिखाते हुए कहा.

” मैं छत पर चली गई थी .दियों की रोशनी देखने.”— दिव्या ने मुझे घूरते हुए कहा “सुबूत चाहिए तो 9 महीने इंतजार कर लेना”. और मैंने एक शरारती मुस्कान के साथ अंधेरे का फायदा उठाकर और बुआ से नजरें बचाकर एक फ्लाइंग किस उसकी तरफ उछाल दिया.

औकात से ज्यादा: भाग 2- सपनों की रंगीन दुनिया के पीछे का सच जान पाई निशा

संजय के औफिस में केवल लड़कियां ही काम करती दिखती थीं. पूरे मेकअप में एकदम अपटूडेट लड़कियां, खूबसूरत और जवान. किसी की भी उम्र 22-23 वर्ष से अधिक नहीं. औफिस में संजय ने अपने बैठने के लिए एक अलग केबिन बना रखा था. केबिन का दरवाजा काले शीशों वाला था. किसी भी लड़की को अपने केबिन में बुलाने के लिए वह इंटरकौम का इस्तेमाल करता था. काफी ठाट में रहने वाला संजय चैनस्मोकर भी था. सिगरेट लगभग हर समय उस की उंगलियों में ही दबी रहती थी. नौकरी के पहले दिन सिगरेट का कश खींच संजय ने गहरी नजरों से निशा को ऊपर से नीचे तक देखा और बोला, ‘‘दिल लगा कर काम करना, इस से तरक्की जल्दी मिलेगी.’’ ‘‘यस सर,’’ संजय की नजरों से खुद को थोड़ा असहज महसूस करती हुई निशा ने कहा. कल के मुकाबले में संजय की नजरें कुछ बदलीबदली सी लगीं निशा को. फिर उसे लगा कि यह उस का वहम भी हो सकता था. तनख्वाह के मुकाबले में औफिस में काम उतना ज्यादा नहीं था. उस पर सुविधाएं कई थीं. औफिस टाइम के बाद काम करना पड़े तो उस को ओवरटाइम मान उस के पैसे दिए जाते थे. किसी न किसी लड़की का हफ्ते में ओवरटाइम लग ही जाता था. निशा नई थी, इसलिए अभी उसे ओवरटाइम करने की नौबत नहीं आती थी.

शायद इसलिए अभी उसे ओवरटाइम के लिए नहीं कहा गया था क्योंकि अभी वह काम को पूरी तरह से समझी नहीं थी. उस के बौस संजय ने भी अभी उसे किसी काम से अपने केबिन में नहीं बुलाया था. केबिन के दरवाजे के शीशे काले होने की वजह से यह पता नहीं चलता था कि केबिन में बुला कर संजय किसी लड़की से क्या काम लेता था. कई बार तो कोई लड़की काफी देर तक संजय के केबिन में ही रहती. जब वह बाहर आती तो उस में बहुतकुछ बदलाबदला सा नजर आता. किंतु निशा समझ नहीं पाती कि वह बदलाव किस किस्म का था. एक महीना बड़े मजे से, जैसे पंख लगा कर बीत गया. एक महीने के बाद तनख्वाह की 20 हजार रुपए की रकम निशा के हाथ में थमाई गई तो कुछ पल के लिए तो उसे यकीन ही नहीं आया कि इतने सारे पैसे उसी के हैं. पहली तनख्वाह को ले कर घर की तरफ जाते निशा के पांव जैसे जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे. निशा की तनख्वाह के पैसों से घर का माहौल काफी बदल गया था. 20 हजार रुपए की रकम कोई छोटी रकम नहीं थी. एक प्राइवेट फर्म में मुनीम के रूप में 20 वर्ष की नौकरी के बाद भी उस के पापा की तनख्वाह इस रकम से कुछ कम ही थी.

निशा की पहली तनख्वाह से उस की नौकरी का विरोध करने वाले पापा के तेवर काफी नरम पड़ गए. मम्मी पहले की तरह ही नाराज और नाखुश थीं. निशा की तनख्वाह के पैसे देख उन्होंने बड़ी ठंडी प्रतिक्रिया दी. जैसी कि पहली तनख्वाह के मिलने पर निशा का एक टच स्क्रीन मोबाइल लेने की ख्वाहिश थी, उस ने वह ख्वाहिश पूरी की. इस के बाद रोजमर्रा के खर्च के लिए कुछ पैसे अपने पास रख निशा ने बाकी बचे पैसे मम्मी को देने चाहे, मगर मम्मी ने उन्हें लेने से साफ इनकार करते हुए कहा, ‘‘घर का सारा खर्च तुम्हारे पापा चलाते हैं, इसलिए ये पैसे उन्हीं को देना.’’ ‘‘लगता है तुम अभी भी खुश नहीं हो, मम्मी?’’ निशा ने कहा.

‘‘एक मां की अपनी जवान बेटी के लिए दूसरी कई चिंताएं होती हैं, वह पैसों को देख उन चिंताओं से मुक्त नहीं हो सकती. मगर मेरी इन बातों का मतलब तुम अभी नहीं समझोगी. जब समझोगी तब तक बड़ी देर हो जाएगी. उस वक्त शायद मैं भी तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकूंगी.’’ मम्मी की बातों को निशा ने सुना अवश्य किंतु गंभीरता से नहीं लिया. पहली तनख्वाह के मिलने के बाद उत्साहित निशा के सपने जैसे आसमान को छूने लगे थे. सारी ख्वाहिशें भी मुट्ठी में बंद नजर आने लगी थीं. दूसरी तनख्वाह के पैसों से घर की हालत में साफ एक बदलाव आया. मम्मीपापा जिस पुराने पलंग पर सोते थे वह काफी जर्जर और कमजोर हो चुका था. पलंग मम्मी के दहेज में आया था और तब से लगातार इस्तेमाल हो रहा था. अब पलंग में जान नहीं रही थी. पापा लंबे समय से एक सिंगल बड़े साइज का बैड खरीदने की बात कह रहे थे मगर पैसों की वजह से वे ऐसा कर नहीं सके थे. अब जब निशा की तनख्वाह के रूप में घर में ऐक्स्ट्रा आमदनी आई थी तो पापा ने नया बैड खरीदने में जरा भी देरी नहीं की थी. नए बैड के साथ ही पापा उस पर बिछाने के लिए चादरों का एक जोड़ा भी खरीद लाए थे. नए बैड और उस पर बिछी नई चादर से पापा और मम्मी के सोने वाले कमरे का जैसे नक्शा ही बदल गया था. पापा खुश थे, किंतु मम्मी के चेहरे पर आशंकाओं के बादल थे. वे चाहती हुई भी हालात के साथ समझौता नहीं कर पा रही थीं.

इधर, निशा के सपनों का संसार और बड़ा हो रहा था. जो उस को मिल गया था वह उस से कहीं ज्यादा हासिल करने की ख्वाहिश पाल रही थी. अपनी ख्वाहिशों के बीच में निशा को कई बार ऐसा लगता था कि उस की भावी तरक्की का रास्ता उस के बौस के केबिन से हो कर ही गुजरेगा. मगर औफिस में काम करने वाली दूसरी लड़कियों की तरह अभी बौस ने उसे एक बार भी अकेले किसी काम से अपने केबिन में नहीं बुलाया था. हालांकि औफिस में काम करते हुए उस को 2 महीने से अधिक हो चुके थे. बौस के द्वारा एक बार भी केबिन में न बुलाए जाने के कारण निशा के अंदर एक तरह की हीनभावना जन्म लेने लगी थी. वह सोचती थी दूसरी लड़कियों में ऐसा क्या था जो उस में नहीं था? जब उक्त सवाल निशा के जेहन में उठा तो उस ने औफिस में काम करने वाली दूसरी लड़कियों पर गौर करना शुरू किया. गौर करने पर निशा ने महसूस किया कि औफिस में काम करने वाली और बौस के केबिन में आनेजाने वाली लड़कियां उस से कहीं अधिक बिंदास थीं. इतना ही नहीं, वे अपने रखरखाव और ड्रैस कोड में भी निशा से एकदम जुदा नजर आती थीं. औफिस की दूसरी लड़कियों को देख कर लगता था कि वे अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा अपने मेकअप और कपड़ों पर ही खर्च कर डालती थीं और ब्यूटीपार्लरों में जाना उन के लिए रोज की बात थी.

लड़कियां जिस तरह के कपड़े पहन औफिस में आती थीं, वैसे कपड़े पहनने पर तो शायद मम्मी निशा को घर से बाहर भी नहीं निकलने देतीं. उन वस्त्रों में कटाव व उन की पारदर्शिता में से जिस्म का एक बड़ा हिस्सा साफ नजर आता था. कई बार तो निशा को ऐसा भी लगता था कि बौस के कहने पर औफिस में काम करने वाली लड़कियां औफिस से बाहर भी क्लाइंट के पास जाती थीं. क्यों और किस मकसद से, यह अभी निशा को नहीं मालूम था. मगर तरक्की करने के लिए उसे खुद ही सबकुछ समझना था और उस के लिए खुद को तैयार भी करना था. वैसे बौस के केबिन में कुछ वक्त बिता कर बाहर आने वाली लड़कियों के अधरों की बिखरी हुई लिपस्टिक को देख निशा की समझ में कुछकुछ तो आने ही लगा था. निशा को उस की औकात और काबिलीयत से अधिक मिलने पर भी मम्मी की आशंका सच भी हो सकती थी, किंतु भौतिक सुखों की बढ़ती चाहत में निशा इस का सामना करने को तैयार थी. आगे बढ़ने की चाह में निशा की सोच भी बदल रही थी. उस को लगता था कि कुछ हासिल करने के लिए थोड़ी कीमत चुकानी पड़े तो इस में क्या बुराई है. शायद यही तो कामयाबी का शौर्टकट था. बौस के केबिन से बुलावा आने के इंतजार में निशा ने खुद को औफिस में काम करने वाली दूसरी लड़कियों के रंग में अपने को ढालने के लिए पहले ब्यूटीपार्लर का रुख किया और इस के बाद वैसे ही कपड़े खरीदे जैसे दूसरी लड़कियां पहन कर औफिस में आती थीं.

असमंजस: क्यों अचानक आस्था ने शादी का लिया फैसला

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उपलब्धि: ससुर के भावों को समझ गयी बहू

इतवार को सोचा था पर मेहमान आ गए तो उन्हीं में व्यस्त होना पड़ा. आज भी छुट्टी है और नाश्ता भी पकौडि़यों का भरपेट हो चुका है. खाना आराम से बनेगा. रसोई का हर कोना उस ने रगड़रगड़ कर अच्छी तरह चमकाया. फिर रैकों पर साफ अखबार, प्लास्टिक बिछाए.

अंदर जब कुछ सर्दी लगने लगी थी तो सोचा थोड़ी देर धूप में बैठ कर अखबार पढ़ लूं फिर खाने का काम शुरू होगा. तब तक रसोईघर भी सूख जाएगा.

अखबार ले कर शीला छत पर अभी आई ही थी कि पति विनोद की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे भई, कहां हो? आज खाना नहीं बनेगा क्या?’’ यह कहते हुए वह भी छत पर आ गए.

‘‘अभी तो भरपेट नाश्ता हुआ है सब का. आप ने भी तो किया है.’’

‘‘शीला, जानती हो मैं नाश्ता नहीं करता हूं. बच्चों का मन रखने के लिए 2-4 पकौडि़यां ले ली थीं. मुझे तो हर रोज 10 बजे खाने की आदत है. फिर भी बहस किए जा रही हो.’’

‘‘क्यों? आप इतवार को सब के साथ देर से खाना नहीं खाते हैं?’’

‘‘पर आज इतवार नहीं है. अब नहीं बना है तो और बात है. मुझे तो पहले ही पता है कि आजकल तुम्हारी हर काम को टालने की आदत हो गई है. अब यह समय अखबार पढ़ने का है या घर के काम का. दूसरी औरतों को देखा है, नौकरी भी करती हैं और घर भी कितनी कुशलता से संभालती हैं. यहां तो बच्चे भी बड़े हो गए हैं, काम करने को नौकरानी है फिर भी हर काम देरी से होता है.’’

विनोद के ऊंचे होते स्वर के साथ शीला का मूड बिगड़ता चला गया.

शीला अखबार वहीं पटक कर नीचे रसोईघर में गई. उबले आलू रखे थे वे छौंक दिए और फटाफट आटा गूंध कर परांठे बना दिए. पर खाना देख कर विनोद का पारा और चढ़ गया.

‘‘यह क्या? सिर्फ सब्जी, परांठे. तुम जानती ही हो कि लंच के समय मैं पूरी खुराक लेता हूं. जब नाश्ता बंद कर दिया है तो खाना तो कम से कम ढंग का होना चाहिए. पता नहीं तुम्हें क्या हो गया है. सारे ऊलजलूल कामों के लिए तुम्हारे पास समय है, बस, मेरे लिए नहीं.’’

गुस्से में विनोद ने थाली सरका दी थी. शीला का मन हुआ कि वह भी फट पडे़. एक तो दिन भर काम में जुटे रहो उस पर फटकार भी सुनो.  आखिर कुसूर क्या था, रसोई की सफाई ही तो की थी. चाय, नाश्ता, खाना, घर की संभाल, बच्चों की देखरेख में उस ने जिंदगी गुजार दी पर किसी को संतोष नहीं. बच्चों को लगता है मां आधुनिक, स्मार्ट नहीं हैं जैसी औरों की मम्मी हैं. विनोद को तो अब नौकरीपेशा औरतें अच्छी लगने लगी हैं. चार पैसे जो कमा कर लाती हैं. घरगृहस्थी संभा-लने वाली तो इन की नजरों में गंवार ही हैं.

विनोद तो बाहर निकल गए थे पर शीला ने बेमन से पूरा खाना बनाया. शुभा भी तब तक सहेली के घर से आ गई थी, और शुभम कोच्ंिग से. दोनों को खाना खिला कर वह अपने कमरे में आ गई.

और दिन तो शीला काम पूरा करने के बाद टीवी देखती, अधबुना स्वेटर पूरा करती या कोई पत्रिका पढ़ती पर आज कुछ भी करने का मन नहीं था. विनोद का यह बेरुखी भरा व्यवहार वह पिछले कई दिनों से देख रही थी. आखिर कहां गलत हो गई वह. क्या इन घरेलू कामों की कोई अहमियत नहीं है? अगर बाहर नौकरी करती होती तो क्या तभी तक शख्सियत थी उस की?

शादी हुए 18 साल हो गए. जब शादी हुई थी उसी साल एम.ए. फर्स्ट डिवीजन में पास किया था. चाहती तो तभी नौकरी कर सकती थी. इच्छा भी थी पर उस समय तो ससुराल वालों को नौकरी करती हुई बहू पसंद नहीं थी.

विनोद भी तब यही कहते थे कि बच्चों को अच्छे संस्कार दो, उन की पढ़ाई में मदद करो, घर संभाल लो, यही बहुत है मेरे लिए.

उस ने सबकुछ तो उन्हीं की इच्छानुसार किया था. देवर की शादी हो गई, देवरानी आ गई तब भी सासससुर उसी के पास रहे.

‘‘बड़ी बहू हम लोगों का जितना ध्यान रखती है छोटी नहीं रख पाती,’’ मांजी तो अकसर कह देती थीं.

बच्चों को संभालना, बूढ़े सासससुर की सेवा करना, घरगृहस्थी देखना, सबकुछ तो कुशलता से निभाया था उस ने. फिर ससुरजी की मौत के बाद यह सोच कर मांजी का खयाल वह और भी रखने लगी थी कि कहीं इन्हें अकेलापन महसूस न हो.

पर अब क्या हो गया? ठीक है, बच्चे अब बड़े हो गए हैं. उन्हें अब उस की उतनी जरूरत नहीं रही है. मांजी ने भी अपनेआप को सत्संग, भजन, पूजन में व्यस्त कर लिया है. विनोद का प्रमोशन हुआ है तब से उन की भी जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं. मकान का लोन लिया है तो खर्चे भी बढ़ गए हैं. बच्चों की भारी पढ़ाई है फिर शुभा की शादी भी 4-5 साल में करनी है. शायद इसी बात को ले कर विनोद को अब नौकरीपेशा औरतें अच्छी लगने लगी हैं. पर क्या देखते नहीं कि उस की भी तो व्यस्तता बढ़ गई है. सुबह 6 बजे से काम की जो दिनचर्या शुरू होती है तो रात को ही सिमटती है. फिर उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि वह फालतू है?

घर के सारे काम क्या अपनेआप हो जाते होंगे, और तो और शुभा जब से बाहर होस्टल में गई है और शुभम की कोचिंग शुरू हुई है, बाजार के भी सारे काम उसे ही करने पड़ रहे हैं. पर नहीं, सब को यही लगता है कि वह फालतू है. सब को उस से शिकायतें ही शिकायतें हैं. और तो और मांजी पहली बार 10-15 दिन को देवर के पास गईं तो वह भी जाते समय कहने में नहीं चूकीं, ‘‘बहू, तुम मेरी देखभाल करतेकरते थक जाती हो तो सोचा कि छोटी के पास कुछ दिन रह लूं.’’

अनमनी सी शीला फिर बाहर बरामदे में पड़े मूढ़े पर आ कर बैठ गई थी. शुभा पास ही बैठी सिर झुकाए डायरी में कुछ लिख रही थी.

‘‘क्या कर रही है?’’

‘‘मां, अब दिसंबर खत्म हो रहा है न, तो अपनी उपलब्धियां लिख रही हूं इस जाते हुए साल की और तय

कर रही हूं कि अगले साल मुझे

क्याक्या करना है. नए संकल्प भी तो करूंगी न…’’

‘‘अच्छा, क्या उपलब्धियां रहीं?’’

‘‘मां, विशेष उपलब्धि तो इस वर्ष की यह रही कि मेरा मेडिकल में चयन हो गया. अब मैं संकल्प करूंगी कि मेरा कैरियर इतना ही अच्छा रहे. अच्छे नंबर आते रहें हर परीक्षा में.’’

शुभा कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘ममा, मैं अपनी ही नहीं शुभम और पापा की भी उपलब्धियां लिखूंगी. देखो न, शुभम को इस साल स्कूल में बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिला है और पापा का तो प्रमोशन हुआ है न…’’

शीला ने भी उत्सुक हो कर शुभा की डायरी में झांका था तो वह बोली, ‘‘ममा, आप भी अपनी उपलब्धियां बताओ, मैं लिखूंगी. और आप अगले साल क्या करना चाहोगी. यह भी…’’

शीला का उत्साह फिर से ठंडा हो गया. क्या बताए, कुछ भी तो उपलब्धि नहीं है उस की. अब घर भर के लिए फालतू जो हो चली है वह…और एक ठंडी सांस न चाहते हुए भी उस के मुंह से निकल ही गई.

‘‘ओह मां, आप बहुत थक गई हो, आप को थोड़ा चेंज करना चाहिए…’’

शुभा कह ही रही थी कि फोन की घंटी बजने लगी. शुभा ने ही दौड़ कर फोन उठाया था.

‘‘मां, मामा का फोन है. पूछ रहे हैं कि शेफाली की शादी में हम लोग कब पहुंच रहे हैं. लो, बात कर लो.’’

‘‘हां, भैया, अभी तो कुछ तय नहीं हुआ है. बात यह है कि इन्हें तो फुरसत है नहीं क्योंकि बैंक की क्लोजिंग चल रही है. शुभम के अगले ही हफ्ते बोर्ड के इम्तहान हैं.’’

‘‘पर तू तो आ सकती है.’’

शीला क्या जवाब दे यह सोच ही रही थी कि शुभा ने आ कर दोबारा फोन ले लिया और बोली, ‘‘मामा, हम लोग भले ही न आ पाएं पर मम्मी जरूर आएंगी,’’ और शुभा ने फोन रख दिया था.

‘‘मां, आप हो आइए न,’’ शुभा आग्रह करते हुए बोली, ‘‘भोपाल है ही कितनी दूर. एक रात का ही तो सफर है. आप का चेंज भी हो जाएगा और नातेरिश्तेदारों से मुलाकात भी हो जाएगी. और फिर दोनों मौसियां भी तो आ रही हैं.

‘‘मां, आप यहां की चिंता न करें. मैं घर संभाल लूंगी. बस, पापा और शुभम का ही तो खाना बनाना है. फिर लीला बाई है ही मदद के लिए. बस, आप तो अपनी तैयारी करो.’’

जाने का खयाल तो अच्छा लगा था शीला को भी पर विनोद क्या तैयार हो पाएंगे? शीला अभी भी असमंजस में ही थी पर शुभा ने विनोद को राजी कर लिया था. फटाफट दूसरे दिन का आरक्षण भी हो गया और शुभा ने मां की सारी तैयारी करवा दी.

शादी की गहमागहमी में शीला को भी अच्छा लगा था. रातरात भर जाग कर बहनों में गपशप होती रहती. सब रिश्तेदारों के समाचार मिले. भैया ने बेटी की शादी खूब धूमधाम से की थी.

शेफाली के विदा होते ही घर सूना हो गया था. रिश्तेदार तो चल ही दिए थे, बहनों ने भी जाने की तैयारी कर ली थी.

‘‘भैया, मुझे भी अब लौटना है,’’ शीला ने याद दिलाया था.

‘‘अरे, तुझे क्या जल्दी है. शोभा और शशि तो नौकरीपेशा हैं. उन की छुट्टियां नहीं हैं इसलिए उन्हें लौटने की जल्दी है पर तू तो रुक सकती है.’’

भैया ने सहज स्वर में ही कहा था पर शीला को लगा जैसे किसी ने फिर कोमल मर्म पर चोट कर दी है. सब व्यस्त हैं वही एक फालतू है, वहां भी सब यही कहते हैं और यहां भी.

भैया के बहुत जोर देने पर वह 2 दिन रुक गई पर लौटना तो था ही. बेटी वापस जाएगी. शुभम पता नहीं ढंग से पढ़ाई कर भी रहा होगा या नहीं. सबकुछ भूल कर उसे भी अब घर की याद आने लगी थी.

स्टेशन पर सभी उसे लेने आए थे.

‘‘मां, बस, दादी नहीं आ पाईं आप को लेने क्योंकि वह अभी यहां नहीं हैं पर उन के 2 फोन आ गए हैं और वे जल्दी ही वापस आ रही हैं, कह रही थीं कि मन तो बड़ी बहू के पास ही लगता है.’’

शुभा ने पहली सूचना यही दी थी. उधर शुभम कहे जा रहा था, ‘‘आप ने इतने दिन क्यों लगा दिए लौटने में, 2 दिन ज्यादा क्यों रुकीं?’’

‘‘अच्छा, पहले घर तो पहुंचने दे.’’

शीला हंस कर रह गई थी. विनोद चुपचाप गाड़ी चला रहे थे. घर पहुंचते ही शुभा गरम चाय ले आई थी. शीला ने कमरे को देखा तो काफी कुछ अस्तव्यस्त सा लगा.

‘‘मां, अब यह मत कहना कि मैं ने घर की संभाल ठीक से नहीं की और रसोई को देख कर तो बिलकुल भी नहीं. आप तो बस, चाय पीओ…और फिर अपना घर संभालना…’’

शुभा ने मां के आगे एक डायरी बढ़ाई तो वह बोली, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘मां, आप तो अपनी इस साल की उपलब्धियां बता नहीं पाई थीं पर पापा ने खुद ही आप की तरफ से यह डायरी पूरी कर दी, और पता है सब से ज्यादा उपलब्धियां आप की ही हैं…लो, मैं पढ़ूं…’’

शुभा उत्साह से पढ़ती जा रही थी.

‘‘हम सब को बनाने में आप का ही योगदान रहा. मेरा मेडिकल में चयन हुआ आप की ही बदौलत. मैं एक बार मेडिकल में असफल हो गई थी तब आप ही थीं जिन्होंने मुझे दोबारा परीक्षा के लिए प्रेरित किया और शुभम को स्कूल के बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिलना आप की ही क्रेडिट है. सुबह जल्दी उठ कर बेटे को तैयार करना, नाश्ते, खाने से ले कर हर चीज का ध्यान रखना, उस का होेमवर्क देखना, और तो और यह आप की ही मेहनत और लगन थी कि पापा का प्रमोशन हुआ. पापा कह रहे थे कि जब कभी आफिस में किसी कारण से उन्हें लौटने में देर हो जाती तो आप ने कभी शिकायत नहीं की बल्कि उन की गैरमौजूदगी में दादी को डाक्टर के पास तक आप ही ले कर जाती रहीं…’’

‘‘बसबस…अब बस कर,’’ शीला ने शुभा को टोका था. उधर विनोद मंदमंद मुसकरा रहे थे.

‘‘अब नया संकल्प हम सब लोगों का यह है कि तुम इसी तरह हम सब का ध्यान रखती रहो…’’ विनोद के कहते ही सब हंस पड़े थे. उधर शीला को लग रहा था कि एक घना कोहरा, जो कुछ दिनों से मन पर छा गया था, अचानक हटने लगा है. द

झिलमिल सितारों का आंगन होगा

नील मस्ती में गुनगुना रहा था,”मेरे रंग में रंगने वाली, परी हो या हो परियों की रानी…” तभी पीछे से उस की छोटी बहन अनु ने आ कर कहा, “भैया, शादी के बाद भी किसी से प्यार हो गया है क्या?”

नील बोला,”नहीं तो… पर गाना तो गा ही सकता हूं.”

अनु मुसकराते हुए अंदर चाय बनाने चली गई. तभी घर के बाहर कार की आवाज सुनाई दी और अनु ने खिड़की से देखा, राजीव भैया और मधु भाभी आ गए थे.

अनु जब चाय ले कर कमरे में पहुंची तो राजीव भैया बोले,”अनु, मेघा भाभी नहीं आईं अब तक?”

अनु इस से पहले कुछ बोल पाती, मम्मी बोलीं,”अरे मेघा व्यस्त है. बैंक में बहुत काम चल रहा है. मुश्किल से ही रात में घर घुस पाती है, चेहरा एकदम से उतर गया है बेचारी का, काम के बोझ के कारण.”

नील बरबस बोल उठा,”अरे मम्मी, बहू ही तुम्हारी काले मेघ जैसी है, तुम बेकार में ही काम को दोष दे रही हो.”

तभी मेघा ने घर में कदम रखा और नील की बातें सुन कर वह एकदम से सकपका गई. नील खुद भी हंस पङा.

नील की मम्मी का माथा ठनका और बोलीं,”नील, हंसीमजाक करने का भी एक स्तर होता है.”

नील बोला,”मम्मी, मेघा मेरी जीवनसाथी है, मेरे साथसाथ मेरे मजाक को भी समझती है.”

कुछ देर बाद मेघा तैयार हो कर बाहर आ गई थी. गुलाबी सूट में वह बेहद ही सलोनी लग रही थी. पर नील बारबार मधु की तरफ देख रहा था.

राजीव नील का करीबी दोस्त था. अभी पिछले हफ्ते ही उन का विवाह हुआ था. मधु बेहद खूबसूरत थी पर
मेघा के तीखे नैननक्श भी कुछ कम नहीं थे.

डाइनिंग टेबल पर तरहतरह के पकवान सजे हुए थे. अनु बोली,”मधु भाभी, यह फ्रूट कस्टर्ड और शाही पनीर मेघा भाभी बेहद लजीज बनाती हैं.”

मधु चुपचाप थी तो अनु ने कहा,”भाभी, आप तो कुछ ले ही नहीं रही हैं.”

राजीव बोल उठा,”अरे अनु, मधु कुछ भी फ्राइड या औयली नहीं लेती है. चेहरे पर दाने आ जाते हैं.”

एकाएक नील प्रशंसात्मक स्वर में बोल उठा,”फिर गोरे रंग पर अलग से दिखता भी है. गहरे रंग में तो सब घुलमिल मिल जाता है.”

मेघा बोली,” हां, सिवाय प्यार के.”

उस के बाद मेघा वहां रुकी नहीं और दनदनाती हुई अंदर चली गई. उस के बाद महफिल जम न सकी. जब वे लोग जा रहे थे तो मेघा उन्हें छोड़ने बाहर भी नहीं आई थी.

कमरे में घुसते ही नील बोला,”मेघा, तुम बाहर क्यों नही आईं?”

मेघा ने कहा,”क्योंकि, मैं थक गई थी और तुम तो थे न वहां मधु का ध्यान रखने के लिए…”

नील गुस्से में बोला,”इतनी असुरक्षित क्यों रहती हो? अगर कोई सुंदर है तो क्या उसे सुंदर कहने से मैं बेवफा हो
जाऊंगा?”

मेघा बोली,”नील, मैं तुम्हारी तरह अपने पापा के साथ काम नहीं करती हूं कि जब मरजी हो तब जाओ और जब मरजी हो तब मत जाओ.”

नील गुस्से में बोला,”बहुत घमंड है तुम्हें अपनी नौकरी का, जो भी करती हो अपने लिए करती हो, मेरे लिए तो
तुम ने कभी कुछ नहीं किया है.”

सुबह मेघा के औफिस जाने के बाद मम्मी नील से बोलीं,”नील, कुछ तो बिजनैस पर ध्यान दो. शादी को 7 महीने हो गए हैं, कल को तुम्हारे खर्चे भी बढ़ेंगे.”

नील हमेशा की तरह मम्मी की बात को एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल कर चला गया.

रात को खाने पर पापा गुस्से में नील से बोले,”तुम्हारा ध्यान कहां है? आज पूरे दिन तुम औफिस में नहीं थे. ऐसा ही रहा तो मैं तुम्हें खर्चा देना बंद कर दूंगा.”

नील बेशर्मी से बोला,”पापा, आप कमाते हो और मम्मी घर पर रहती हैं और मेरे केस में मेरी बीवी कमाती है और मैं बाहर के काम देख लेता हूं.”

मेघा हक्कीबक्की सी रह गई.
अंदर कमरे में घुसते ही मेघा ने नील को आड़े हाथों ले लिया,”क्या तुम ने मुझ से शादी मेरी तनख्वाह के कारण करी है? मैं ने तो सोचा था कि तुम घर की जिम्मेदारियां उठाओगे और मैं पैसे बचा कर एक घर खरीद लूंगी. आखिर कब तक मम्मीपापा के सिर पर रहेंगे?”

नील भी गुस्से में बोला,”मैं ने भी सोचा था कि गोरीचिट्टी बीबी आएगी, जो मुझे समझेगी और मेरी मदद करेगी.तुम्हें तो पर अपनी नौकरी की बहुत अकड़ है.”

हालांकि नील ने यह बात दिल से नहीं कही थी पर यह मेघा के दिल में फांस की तरह चुभ गई थी. आज पूरा दिन बैंक में मेघा को नील का रहरह कर मधु को देखना याद आ रहा था. बारबार वह यही सोच रही थी
कि क्या वह बस नील की जिंदगी में नौकरी के कारण है?

एकाएक उसे अपनी दादी की बात याद आ गई. दादी कितना कहती थीं,” बिटटू यह गोरेपन की क्रीम लगा ले, आजकल काले को भी गोरी दुलहन चाहिए होती है.”

मेघा का जब नील से विवाह हो रहा था तो उस ने दादी से कहा था,”दादी, देखो, तुम्हारी बिटटू को गोरा
दूल्हा मिल गया है…”

पर आज मेघा को लग था कि नील ने तो उस की नौकरी के कारण उस के काले रंग से समझौता किया था.
मेघा की जिंदगी में वैसे तो सब कुछ सामान्य था, पर एक अनकहा तनाव था जो उस के और नील के बीच पसर गया था. नील को लगने लगा था कि मेघा को अपनी नौकरी का घमंड है तो मेघा को लगता था कि नील उस की दबी हुई रंगत के कारण अपने दोस्तों की पत्नियों से हेय समझता है. इसलिए नील उसे कभी भी अपने किसी दोस्त के घर ले कर नहीं जाता है.

मेघा को लगता था कि नील के सभी दोस्तों की पत्नियां गोरी हैं, इस कारण नील शर्माता है. उधर नील अपनी
नाकामयाबियों के जाल में इतना फंस गया था कि उस ने अपना सामाजिक दायरा बहुत छोटा कर दिया था.
नील कुछ करना चाहता था पर वह जो भी प्रयास करता सब विफल हो जाता. पिता के व्यपार में उस का दिल नहीं लगता था. वह अपने हिसाब से, अपनी तरह से काम करना चाहता था.

आज उसे एक बहुत अच्छा प्रस्ताव मिला था. काम ऐसा था जिस में नील अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई को भी इस्तेमाल कर सकता था. पर अपने काम के लिए उसे पूंजी की जरूरत थी. नील को पता था कि उस के पिता अपने पुराने अनुभवों के कारण उस की मदद नहीं करेंगे.
नील को लगा कि मेघा उस की जीवनसाथी है, शायद वह उस की बात समझ जाए.

जब नील ने मेघा से कहा तो मेघा
तुनक कर बोली,”अलग बिजनैस का इतना ही शौक है तो अपनी कमाई से कर लो. मुझे तो लगता है कि तुम ने मुझ से शादी ही इस कारण से करी है कि बीवी की कमाई से अपने सपने पूरे करोगे.”

फिर चलते हुए पलट कर बोली,”फ्री में सैक्स मुझ से मिल ही रहा है, जेबखर्च 30 की उम्र में भी अपने पापा से लेते हो और बाहर घुमाने के लिए पतली, सुंदर और गोरी लड़कियां तो तुम्हारे पास होंगी ही न…”

रात में खाने की मेज पर तनाव छाया रहा. अनु ने चुपके से पापा को सारी बात बता दी थी. पापा ने मेघा को
कहा,”बेटा, एक बार नील की बात को ठंडे दिमाग से सोचो, जब बच्चे हो जाएंगे तो वैसे ही कुछ सालों तक तुम
लोगों का हाथ तंग हो जाएगा.”

मेघा फुफकार उठी,”अच्छा बहाना ढूंढ़ा है पूरे परिवार ने पैसा उगाही का. जानती हूं एक काली लड़की का
उद्धार क्यों किया है इस परिवार ने, अब कीमत तो चुकानी ही होगी. है न?

“इतना ही अच्छा बिजनैस प्रपोजल है तो आप क्यों नहीं लगाते हो पैसा?”

नील एकदम से आपा खो बैठा और चिल्ला कर बोला,”काली तुम्हारी रंगत नहीं पर दिल का रंग जरूर काला है
मेघा. तुम से शादी मैं ने अपने दिल से करी थी पर लगता है कुछ गलती कर बैठा.”

नील बेहद रोष में खाना अधूरा छोड़ कर चला गया था. यह जरूर था कि वह मेघा को चिढ़ाने के लिए कुछ भी
बोल देता था पर उस के दिल में ऐसा कुछ नहीं था. आज मेघा उसे वास्तव में कुरूप लग रही थी.

न जाने क्या सोच कर नील ने कार राजीव के घर की तरफ मोड़ दी थी. 3 बार डोरबेल बजाने के बाद नील वापस जाने के लिए मुड़ ही रहा था कि मधु ने दरवाजा खोला. एक रंग उड़े गाउन में और चारों ओर छितरे हुए बालों में मधु बेहद फूहड़
लग रही थी. लग ही नहीं रहा था कि उस के विवाह को 1 माह ही हुआ है.
अंदर का हाल देख कर तो नील चकरा गया. चारों तरफ कपड़ों अंबार और धूल जमी हुई थी. राजीव झेंपते हुए बोला,”मधु को धूल से ऐलर्जी है. 2 दिन से कामवाली भी नहीं आ रही है.”

मधु फिर ट्रे में 2 कप चाय ले आई. चाय क्या दोहन सा ही था. अचानक से नील को लगा कि वह कितना खुशहाल है. मेघा कितनी सुघड़ है. नौकरी के साथसाथ घर भी कितना अच्छे से संभालती है और एक वह है नकारा…

अगर मेघा उसे कुछ कहती भी है तो उस के भले के लिए ही तो कहती है. आखिर कब तक वह जोंक की तरह अपने परिवार पर बोझ बना रहेगा?

चाय पीने के बाद नील ने झिझकते हुए कहा,”यार राजीव, कुछ पैसे मिल सकते हैं क्या? मैं बिजनैस शुरू करना चाहता हूं.”

राजीव बोला,”नील, पूरी बचत शादी में खर्च हो गई है और मधु के नखरे देख कर लगता है कि अब बचत हो भी नहीं पाएगी.”

रात में जब नील घर पहुंचा तो देखा मेघा जगी हुई थी. नील को देख कर बोली,”फोन क्यों स्विचौफ कर रखा है? नील, क्या हम शांति से बात कर सकते हैं?”

नील ने मेघा से कहा,”मेघा, मैं कोशिश कर रहा हूं पर मुझे तुम्हारे साथ की जरूरत है.”

मेघा भी भर्राए स्वर में बोली,”नील, मैं जानती हूं पर जब तुम मेरे रंग पर कटाक्ष करते हो, मुझे बहुत छोटा महसूस होता है.”

नील बोला,”तुम पर नहीं मेघा, अपनी नाकामयाबी पर हताश हो कर कटाक्ष कर देता हूं. आजतक किसी से नहीं कहा पर मेघा बहुत कोशिश कर के भी अपनी नाकामयाबी की परछाई से बाहर नहीं निकल पा रहा हूं. तुम अच्छी नौकरी में हो, तुम नहीं समझ सकतीं कि कितना मुश्किल है नाकामयाबी का बोझ ढोना.”

मेघा सुबकते हुए बोली,”जानती हूं नील, कैसा लगता है जब लोग आप को रिजैक्ट कर देते हैं. तुम से पहले 10 लड़के मेरे रंग के कारण मुझे नकार चुके थे. तुम से विवाह के बाद ऐसा लगा जैसे सब कुछ ठीक हो गया हो. पर रहरह कर तुम्हारे मजाक मेरे दिल में कड़वाहट भर देते हैं.”

नील बोला,”पगली, ऐसा कुछ नहीं है, मैं ज्यादा बोलता हूं न तो कुछ भी बोल जाता हूं. तुम से ज्यादा समझदार और प्यारी पत्नी मुझे नहीं मिल सकती है, यह मैं अच्छी तरह जानता हूं. हां, तुम्हारा मुझे हेयदृष्टि से देखना मुझे पागल कर देता था और इस कारण मैं कभीकभी जानबूझ कर तुम्हें नीचा दिखाने के लिए कभीकभी कटाक्ष कर देता था.”

मेघा बोली,”मैं तुम्हें नहीं, तुम्हारी लापरवाही को हेयदृष्टि से देखती हूं,” और यह कहते हुए उस ने नील के सामने लोन के कागज रख दिए.

“तुम्हें इतना भरोसा है तो मैं तुम्हारे बिजनैस के लिए कम ब्याज दरों पर लोन ले लूंगी, बस तुम्हें कामयाब
देखना चाहती हूं.”

ऐसा लग रहा था, दोनों के वैवाहिक जीवन पर जो गलतफहमियों के बादल छाए हुए थे वे छंट गए थे और पूरे आंगन में सितारे झिलमिला रहे थे.

मिलावट: क्यों रहस्यमय थी सुमन

कमलाजी के दोगलेपन को देख कर बीना चिढ़ उठती थी. वह उन के इस व्यवहार के पीछे छिपे मनोवैज्ञानिक तथ्य तक पहुंचना चाहती थी. और जिस दिन उसे वजह पता चली तो उस पर विश्वास करना बीना के लिए मुश्किल हो रहा था.

‘‘वाह बीनाजी, आज तो आप कमाल की सुंदर लग रही हैं. यह नीला सूट और सफेद शौल आप पर इतना फब रहा है कि क्या बताऊं. मेरे साहब को भी नीला रंग बहुत पसंद है. जब भी खरीदारी करने जाओ, यही नीला रंग सामने रखवा लेंगे.’’

कमलाजी के जानेपहचाने अंदाज पर उस दिन बीना न मुसकरा पाई और न ही अपनी प्रशंसा सुन कर पुलकित ही हो पाई. सदा की तरह हर बात के साथ अपने पति को जोड़ने की उन की इस अनोखी अदा पर भी उस दिन वह न तो चिढ़ पाई और न ही तुनक पाई.

‘‘कमलाजी हर बात में अपने पति को क्यों खींच लाती हैं?’’ बीना ने सुमन से पूछा.

‘‘अरे भई, बहुत प्यार होगा न उन्हें अपने पति से,’’ सुमन ने उत्तर दिया.

‘‘फिर भी, कालेज के स्टाफरूम में बैठ कर हर समय अपनी अति निजी बातों का पिटारा खोलना क्या ठीक है?’’ बीना ने एक दिन सुमन के आगे बात खोली, तब हंस पड़ी थी सुमन.

‘‘कई लोगों को अपने प्यार की नुमाइश करना अच्छा लगता है. लोगों में बैठ कर बारबार पति का नाम, उस की पसंदनापसंद का बखान करना भाता है. भई, अपनाअपना स्वभाव है. अब तुम्हीं को देखो, तुम तो पति का नाम ही नहीं लेती हो.’’

‘‘अरे, जरूरी है क्या यह सब?’’

बीना की बात सुन कर सुमन खिलखिला कर हंसने लगी थी. फिर उस के बदले तेवर देख कर सुमन ने उस का हाथ थपथपा कर पुचकार दिया था, ‘‘चलो, छोड़ो, प्रकृति ने अनेक तरह के प्राणी बनाए हैं. उन में एक कमलाजी भी हैं, सुन कर  झाड़ दिया करो, दिल से क्यों लगाती हो?’’

‘‘अरे, मैं भला दिल से क्यों लगाऊंगी. इतनी गंभीर नहीं हूं मैं, और न ही मेरा दिल इतना…’’

बीना की बात को बीच में ही काटते हुए सुमन बोली, ‘‘चलो, छोड़ो भी. लो, समोसा खाओ.’’

मस्त स्वभाव की सुमन स्थिति को सदा हलकाफुलका बना कर देखती थी. बीना को कालेज में आए अभी कुछ ही समय हुआ था और इस बीच सुमन से उस का दिल अच्छा मिल गया था.

कभीकभी उसे सुमन बड़ी रहस्यमयी लगती थी. ऐसा लगता था जैसे बहुतकुछ अपने भीतर वह छिपाए हुए है. सुमन किसी भी स्थिति की समीक्षा  झट से कर के दूध पानी अलगअलग कर सारा  झं झट ही समाप्त कर देती है.

‘‘देखो बीना, किसी बात को अधिक गंभीरता से सोचने की जरूरत नहीं है. रात गई बात गई, बस. समाप्त हुआ न सारा  झमेला,’’ सुमन ने बीना को सम झाया. वह बात को  झट से एक सुखद मोड़ दे देती, मानो कहीं कुछ घटा ही नहीं.

‘‘अरे, वाह नीमाजी, आज तो आप बहुत सुंदर लग रही हैं.’’

एक सुबह बीना के सामने ही कमलाजी ने उस की एक सहयोगी नीमा की जी खोल कर तारीफ की थी, मगर जैसे ही वह क्लास लेने गई, पीछे से मुंह बिचका कर यह कह कर हंसने लगीं, ‘‘कैसी गंदी लग रही है नीमा. एक तो कालीकलूटी सूरत और ऊपर से ऐसा रंग, मु झे तो मितली आने लगी थी.’’

कमलाजी के इस दोगले आचरण को देख कर बीना अवाक रह गई. एक पढ़ीलिखी, कालेज की प्रोफैसर से उसे इस तरह के आचरण की आशा न थी.

‘‘मेरे पति को भी इस तरह के चटक रंग पसंद नहीं हैं. शादी में मेरी मां की ओर से ऐसी साड़ी मिली थी, पर उन्होंने कभी मु झे पहनने ही नहीं दी. मैं तो कभी पति की नापसंद का रंग नहीं पहनती. क्या करें, जिस के साथ जीना हो उस की खुशी का खयाल तो रखना ही पड़ता है,’’ कमलाजी के मुंह से इस तरह की बातों को सुन कर तब बीना को अपनी प्रशंसा में कहे गए कमला के शब्द  झूठे लगे थे. उसे लगा था कि उस की तारीफ में कमलाजी जो कुछ कहती हैं उस का दूसरा रूप यही होता होगा जो उस ने अभीअभी नीमा के संदर्भ में देखा है. उस के बाद तो बीना कभी भी कमलाजी के शब्दों पर विश्वास कर ही नहीं पाई.

कमलाजी के शब्दों पर सदा  झल्ला ही पड़ती थी. एक दिन बोल पड़ी थी, ‘‘हांहां, कमलाजी, आते समय मैं ने भी शीशा देखा था. वास्तव में सुंदर लग रही थी.’’

‘‘आप को आतेआते शीशा देखना याद रहता है क्या? मु झे तो समय ही नहीं मिलता. सुबहसुबह कितना काम रहता है. सुबह के बाद कहीं देररात जा कर चारपाई नसीब होती है. दिनभर काम करतेकरते कमर टूट जाती है. ऊपर से पतिदेव का कहना न मानो, तो मुसीबत. हम औरतों की भी क्या जिंदगी है. मैं तो सोच रही हूं कि नौकरी छोड़ दूं. फिर मेरे पति भी कहते हैं कि यह क्या, 3 हजार रुपए की नौकरी के पीछे तुम मेरा घर भी बरबाद कर रही हो.’’

‘‘तो छोड़ दीजिए नौकरी. आप के पति की आमदनी अच्छी है और आप शाम तक इतना थक भी जाती हैं, तो जरूरत भी क्या है?’’ बीना ने तुनक कर उत्तर दिया था.

‘‘बीना, चलो, तुम्हारी क्लास है,’’ सुमन उस की बांह पकड़ कर उसे बाहर ले आई थी, ‘‘क्यों सुबहसुबह कमलाजी से उल झ रही हो?’’

‘‘मु झे ऐसे दोगले इंसान दोमुंहे सांप जैसे लगते हैं, सुमनजी. मुंह पर कुछ और पीठपीछे कुछ. और जब देखो, अपनी राय दूसरों को देती रहती हैं.’’

‘‘बीना, तुम वही कमजोरी दिखा रही हो. मैं ने कहा न, इस तरह के लोगों को सुनाअनसुना कर देना चाहिए.’’

‘‘सुमनजी, आप भी बस…’’

‘‘देखो बीना, यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए उसी कमजोरी के न होने का ढोंग बड़े जोरशोर से करता है. मन में किसी तरह की कोई कुंठा हो तो दूसरों का मजाक उड़ा कर उस कुंठा को शांत करता है. ऐसे लोग दया के पात्र होते हैं. उन पर हमें क्रोध नहीं करना चाहिए.’’

‘‘क्या कमजोरी है कमलाजी को? अच्छीखासी सुंदर हैं. अमीर घर से संबंध रखती हैं. पति उन पर जान छिड़कता है. इन के मन में क्या कुंठा है?’’

‘‘कोई तो होगी. हमें क्या लेनादेना. हम यहां नौकरी करने आते हैं, किसी की कुंडली जानने नहीं.’’

चुप रह गई थी बीना. सुमन उस से उम्र में बड़ी थी, इसलिए आगे बहस करना उसे अच्छा न लगा था.

एक शाम बीना परिवार समेत सुमन के घर गई थी. तब सुमन ने बड़े प्यार से, बड़ी बहन की तरह उसे सिरआंखों पर बिठाया था.

‘‘मेरे बेटे से मिलो. ये देखो, मेरे बच्चे के जीते हुए पुरस्कार,’’ फिर बेटे की तरफ देख कर बोली, ‘‘बेटे, ये बीना मौसी हैं. मेरे साथ कालेज में पढ़ाती हैं.’’

कालेज में शांत और संयम से रहने वाली सुमन बीना को कुछ दिखावा सा करती प्रतीत हुई थी. बारबार अपने बेटे की प्रशंसा और उस की उपलब्धियों का बखान करती हुई, उस के द्वारा जीते गए कप व अन्य पुरस्कार ही दिखाती रही.

‘‘मुझे अपने बेटे पर गर्व है,’’ सुमन फिर बोली, ‘‘क्या बताऊं, बीना, बहुत प्यार करता है. असीम को छोड़ कर कहीं चली जाऊं, तो इसे बुखार हो जाता है.’’

मां और बच्चे में प्यार और ममता तो सहज होती है. उसे बारबार अपने मुंह से कह कर प्रमाणित करने की जरूरत भला कहां होती है.

उस रात बीना ने अनायास पति के सामने अपने मन की बात कह दी, तो वे भी गरदन हिला कर बोले, ‘‘हां, अकसर ऐसा होता है. जहां जरा सी मिलावट हो वहां मनुष्य जोरशोर से यही साबित करने में लगा रहता है कि मिलावट है ही नहीं. जो पतिपत्नी घर पर अकसर कुत्तेबिल्ली की तरह लड़ते रहते हैं वे चार लोगों में ज्यादा चिपकेचिपके से रहते हैं. मानो, लैलामजनू के बाद इतिहास में इन्हीं का स्थान आने वाला है.’’

‘‘आप का मतलब सुमनजी को अपने बच्चे से प्यार नहीं है.’’

‘‘बच्चे से प्यार नहीं है, ऐसा तो नहीं हो सकता. मगर कुछ तो असामान्य अवश्य है जिसे तुम्हारी सुमन बहनजी सामान्य बनाने के चक्कर में स्वयं ही असामान्य व्यवहार कर रही थीं, क्योंकि जो सत्य है, उसे चीखचीख कर बताने की जरूरत नहीं होती. और फिर रिश्तों में तो दिखावे की जरूरत होनी ही नहीं चाहिए. अरे भई, पतिपत्नी, मांबेटे, सासबहू, भाईबहन, इन में अगर सब सामान्य है, तो है. प्यार होना चाहिए इन रिश्तों में जो कि प्राकृतिक भी है. उसे मुंह से कह कर बताने व दिखाने की जरूरत नहीं होती. अगर कोई चीखचीख कर कहता है कि उन में बहुत प्यार है, तो सम झो, कहीं कोई दरार अवश्य है.’’

पति के शब्दों पर विचार करतीकरती बीना फिर कमलाजी के बारे में सोचने लगी. मनुष्य लाख अपने आसपास से कट कर रहने का प्रयास करे, मगर एक सामाजिक जीव होने के नाते वह ऐसा नहीं कर सकता. उस का माहौल उसे प्रभावित किए बगैर रह ही नहीं सकता. सुमन कभी कालेज में अपने बेटे का नाम नहीं लेती थी, जबकि कमला बातबात में पति का बखान करती हैं. वह मन ही मन कमला और सुमन का व्यवहार मानसपटल पर लाती रही थी और उस मनोवैज्ञानिक तथ्य तक पहुंचना चाहती थी कि क्या वास्तव में कहीं कोई मिलावट है?

धीरेधीरे समय बीतने लगा था और वह कालेज के वातावरण में रह कर भी उस में पूरी तरह लिप्त न होने का प्रयास करने लगी थी.

एक दिन सब चाय पी रही थीं कि एकाएक कप की चाय छलक कर सुमन की शौल पर गिर गई.  झट से बाथरूम की ओर भागी थी वह.

‘‘नई शौल खराब हो गई,’’ नीमाजी ने कहा.

तब  झट से कमलाजी ने भी कहा था, ‘‘यह वही शौल है जो हम सब ने मिल कर सुमन की शादी पर उसे उपहार में दी थी.’’

उन की बातों को सुन कर बीना तब स्तब्ध रह गई थी. सुमन की शादी में शौल दी थी. यह शौल तो आजकल के फैशन की है, मतलब सुमन की शादी अभी हुई है.i]k8

बीना चुप थी. उसे बातोंबातों में पता चल गया था कि सुमन की शादी सालदोसाल पहले ही हुई है और वह 20 साल का जवान लड़का, अवश्य सुमन का सौतेला बेटा होगा. इसीलिए सुमन मेहमानों के सामने यही प्रमाणित करने में लगी रहती है कि उसे उस से बहुत प्यार है. मेरा बेटा, मेरा बच्चा कहतेकहते उस की जीभ नहीं थकती.

जीवन के इस दृष्टिकोण से बीना का पहली बार सामना हुआ था. वास्तव में इस जीवन के कई रंग हैं, यही कारण होगा जिस ने सुमन को इतना संजीदा व सम झदार बना दिया होगा.

इतनी अच्छी है सुमन, तभी तो सौतेले बेटे के सामने उस की इतनी प्रशंसा, इतना सम्मान कर रही थी. उस ने इसे दिखावा माना था. हो सकता है वहां दिखावे की ही जरूरत थी. कई बार मुंह से भी कहना पड़ता है कि किसी को किसी से प्यार है. जहां कुछ सहज न हो वहां असहज होना जरूरत बन जाती है.

सुमन से उस ने इस बारे में कोई बात नहीं की थी, परंतु उस के व्यवहार को वह बड़ी बारीकी से सम झने लगी थी. सुमन बेटे का स्वेटर बुन रही थी. जब पूरा हो गया तब अनायास उस के मुंह से निकल गया, ‘‘मैं नहीं चाहती, उसे कभी अपनी मां की कमी महसूस हो.’’

बीना उत्तर में कुछ नहीं कह पाई थी. आंखें भर आई थीं सुमन की.

‘‘सौतेली मां होना कोई अभिशाप नहीं होता. मेरा बच्चा आज मु झ पर जान छिड़कता है. यह डेढ़ साल की अथक मेहनत का ही फल है जो असीम सामान्य हो पाया है. बहुत मेहनत की है मैं ने इस बगैर मां के बच्चे पर, तब जा कर उसे वापस पा सकी हूं, वरना पागल ही हो गया था यह अपनी मां की मौत के बाद.’’

तब बीना ने सुमन का हाथ थपथपा दिया था.

‘‘बीना, हर इंसान का जीवन एक युद्ध है. हर पल स्वयं को प्रमाणित करना पड़ता है. यह जीवन सदा, सब के लिए आसान नहीं होता, किसी के लिए कम और किसी के लिए ज्यादा दुविधापूर्ण होता है. इस तरह कुछ न कुछ कहीं न कहीं लगा ही रहता है.’’

एक लंबी सांस ले कर सुमन बोली, ‘‘ये जो कमला हैं, जिन पर तुम सदा चिढ़ी सी रहती हो, इन के बारे में तुम क्या जानती हो?’’ सुमन की अर्थपूर्ण व धाराप्रवाह बातों को सुन कर बीना की सांस रुक गई थी.

‘‘6 साल का एक बच्चा है उन का. शादी के 4-5 महीने के बाद ही पति ने कमला को तलाक दे दिया, क्योंकि उस का संबंध किसी और युवती से था. कमला कितनी सुंदर हैं, अच्छे घर की हैं, पढ़ीलिखी हैं, मगर जीवन में सुख था ही नहीं.’’

बीना जैसे आसमान से नीचे गिरी. सुमन के शब्दों पर उसे विश्वास नहीं आया.

‘‘पति का नाम लेले कर अगर वे अपने मन का कोई कोना भर लेती हैं तो हमें भरने देना चाहिए. यहां हमारे कालेज में सभी जानते हैं कि कमलाजी तलाकशुदा हैं. मगर वे इस सचाई को नहीं जानतीं कि हम इस कड़वे सत्य को जानते हैं. अब क्यों उन का दिल दुखाएं, यही सोच कर उन की बातों को सुनाअनसुना कर देते हैं.’’

बीना रो पड़ी थी. सुमन के हिलते हुए होंठों को देखती रही थी. बातों के प्रवाह में समुन बहुतकुछ कहती रही थी, जिन्हें उस ने सुना ही नहीं था.

‘‘क्या सोच रही हो, बीना, मैं तुम्हारे सूट की तारीफ कर रही हूं और तुम…’’

कमलाजी के इसी अंदाज पर बीना कितनी पीछे चली गई थी. अपना व्यवहार  झटक दिया बीना ने. नई नजर से देखा उस ने कमलाजी को और मुसकरा कर उन का हाथ थपक दिया.

‘‘जी कमलाजी, आप ठीक कह रही हैं.’’

कभीकभी उसे सुमन बड़ी रहस्यमय लगती थी. ऐसा लगता था जैसे बहुतकुछ अपने भीतर वह छिपाए हुए है. सुमन किसी भी स्थिति की समीक्षा  झट से कर के दूध पानी अलगअलग कर सारा  झं झट ही समाप्त कर देती है.

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