उपवास के जाल में उलझी नारी

धर्म के नाम पर रखे जाने वाले कोई भी व्रत या उपवास से आज तक किसी का भला नहीं हुआ है . हां व्रत , उपवास के दौरान होने वाली कथा पूजन से धर्म के दुकानदारों की मौज जरूर होती रही है . इन कथा पूजन से न केवल  उन्हे दान दक्षिणा मिलती है , बल्कि पकवान युक्त मुफ्त का खाना भी मिलता है . हर धर्म के  पंडित , मौलवी , पादरी यह बात अच्छी तरह समझ गये हैं कि महिलाओं को धर्म का भय आसानी से दिखाया जा सकता है .यही बजह है कि धर्म के ये ठेकेदार उन्हें पाप का भय दिखाकर व्रत या उपवास में उलझाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं . आशाराम , रामपाल और राम रहीम जैसे  धर्मगुरू महिलाओं को धार्मिक कर्मकांड , कथा प्रवचन , व्रत उपवास का झांसा देकर उनका यौन शोषण करने से भी नहीं हिचकते.

धार्मिक कथा पुराणों और पंडे पुजारियों की बातों का असर भारतीय नारी के दिलो दिमाग पर कुछ इस तरह हावी है कि वे साल के बारह महिने संतोषी माता का व्रत,महालक्ष्मी व्रत ,संतान सप्तमी ,हरछठ ,दुर्गा पूजाजैसेकई तरह के व्रत उपवास के जाल में फंसी रहती है .इन्ही व्रत उपवासों में से एक व्रत है करवा चौथ का व्रत . दकियानूसी परम्पराओं के नाम पर मनाया जाने वाला करवा चौथ का पर्व सुहागनों के लिये भले ही सार्वजनिक तौर पर अपने आप को महिमामंडित करने का हो ,लेकिन अविवाहित ,परित्यक्ता,तलाकशुदा और बिधवा महिलाओं को अपमानित करने वाला पर्व रहता है.

मध्यप्रदेश की पिछली भाजपा सरकार में मंत्री रही कुसुम महदेले की करवा चौथ पर्व पर सोशल मीडिया पर की गई एक टिप्पणी में उन्होने लिखा कि हिन्दुस्तान में हिन्दू महिलायें अपने पति या पुत्रों की सलामती या उनकी लंबी आयु के लिये ब्रतरखती हैं ,क्या सारे पुरूष इतने कमजोर हो गये हैं?. उन्होने इस टिप्पणी के माध्यम से समाज पर सबाल उठाते हुये कहा कि पुरूष सत्तात्मक समाज में यैसा कोई व्रत नहीं है जो पुरूष महिलाओं के भले के लिये करें .जितने व्रत उपवास बनाये गये हैं वे सब महिलाओं को पुरूष की सलामती के लिये रखने पड़ते हैं . हरितालिका व्रत से लेकर करवा चौथतक सब पति की लंबी आयु के लिये रखे जाते हैं .

करवा चौथ का वैसे तो ज्यादातर उत्तर भारत में प्रचलित है . शादी शुदा महिलायें अपने पति की लम्बी उम्र के लिए पूरे दिन व्रत रखती हैं. इस दिन वह सुबह से रात तक चाँद निकालने तक कुछ नहीं खाती और पानी भी नहीं पीती. रात को चाँद देखकर पति के हाथ से जल पीकर व्रत समाप्त करती हैं.हालाकि दक्षिण भारत में इस प्रकार के व्रत या त्यौहार को महत्व नहीं दिया जाता है .करवा चौथ के व्रत की कहानी अंधविश्वास के साथ एक भय भी उत्पन्न करती है कि करवाचौथ का व्रत न रखने अथवा व्रत के खंडित होने से पति के प्राण खतरे में पड़ सकते हैं.व्रत उपवास की ये परम्परायें महिलाओं को अधविश्वास की बेड़ियों में जकड़े रहने को प्रेरित करती हैं

क्या है करवा चौथ व्रत की कथा

फुटपाथों पर बीस बीस रूपयो में विकने वाली करवा चौथव्रत कथा की पुस्तक में बताया गया है कि एक साहूकार के सात बेटे और उनकी एक बहन करवा थी. सभी सातों भाई अपनीबहन से इतनाप्यार करते थे कि वे पहले उसे खाना खिलाते और बाद मेंस्वयं खाते थे एक बार उनकी बहन ससुराल से मायके आई हुई थी.शाम को भाई जब अपनाकाम धंधा बंद कर घर आए तो देखा उनकी बहन बहुत व्याकुल थी-सभी भाईखाना खाने बैठे और अपनी बहन से भी खाने का आग्रह करने लगे, लेकिन बहन नेबताया कि उसका आज करवा चौथ का निर्जल व्रत है और वह खाना सिर्फ चंद्रमा कोदेखकर उसे अर्घ्‍य देकर ही खा सकती है.
सबसेछोटे भाई को अपनी बहन की हालत देखी नहीं जाती और वह दूर पीपल के पेड़ पर एकदीपक जलाकर चलनी की ओट में रख देता है- दूर से देखने पर वह चतुर्थी का चांद जैसे प्रतीतहोता है .

बहनउसे चांद समझकर अर्घ्‍य देकरखाना खाने बैठ जाती है.वहपहला टुकड़ा मुंह में डालती है तो उसे छींक आ जाती है. दूसरा टुकड़ा डालतीहै तो उसमें बाल निकल आता है और जैसे ही तीसरा टुकड़ा मुंह में डालने कीकोशिश करती है तो पति की मृत्यु का समाचार उसे मिलता है.उसकीभाभी उसे बताती है कि करवा चौथ काव्रत गलत तरीके से टूटने के कारण देवता उससे नाराज हो गए हैं.

करवानिश्चय करती है कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने देगी और अपनेसतीत्व से उन्हें पुनर्जीवन दिलाकर रहेगी.वह पूरे एक साल तक अपने पति केशव के पास बैठी रहती है. एकसाल बाद फिर करवा चौथ का दिन आता है. उसकी सभी भाभियां करवा चौथ का व्रतरखती हैं. जब भाभियांउससे आशीर्वाद लेने आती हैं तो वह प्रत्येक भाभी सेअपनी जैसी सुहागिन बना दो’ ऐसाआग्रह करती है, लेकिन हर बार भाभी उसे अगली भाभी से आग्रह करने का कह चलीजाती है.इसप्रकार जब छठे नंबर की भाभी आती है तो करवा उससे भी यही बात दोहराती है.यह भाभी उसे बताती है कि सबसे छोटे भाई की वजह से उसका व्रत टूटा थाअतः उसकी पत्नी में ही शक्ति है कि वह तुम्हारे पति को दोबारा जीवित करसकती है, इसलिए जब वह आए तो तुम उसे पकड़ लेना और जब तक वह तुम्हारे पति कोजिंदा न कर दे, उसे नहीं छोड़ना.ऐसा कहकर वह चली जाती है.सबसे अंत में छोटी भाभी आती है. करवा उनसे भी सुहागिन बनने का आग्रह करती है, लेकिन वह टालमटोली करने लगती है.इसे देख कर वा उन्हें जोर से पकड़ लेती है और अपने सुहाग को जिंदा करने के लिए कहती है.यहदेख भाभी पसीज जाती है और अपनी छोटी अंगुली को चीरकर उसमें से अमृत उसके पति के मुंह में डाल देती है.करवा का पति तुरंत उठ बैठता है.

करवा चौथ की इस काल्पनिक कहानी को पढकर अंधभक्त समाज को कैसे भरोसा हो जाता है कि अंगुली चीरने से रक्त की जगह अमृत निकलता है या मरा हुआ आदमी एक साल बाद फिर से कैंसे जीवित हो सकता है ?अपने आपको आधुनिक मानने वाली महिलायें कैंसे इस प्रकार की दकियानूसी कथा कहानियां पर विश्वास कर लेती हैं यह समझ से परे है .

बैंक में काम करने वाली सोनाली शर्मा कहती हैं कि मुझे इस तरह के व्रत उपवास पसंद नहीं है ,लेकिन आफिस की अन्य सहकर्मी और कालोनी में रहने वाली महिलायें इस व्रत को रखती हैं तो मजबूरन मुझे भी व्रत  रखना पड़ता है .क्योंकि यैसा न करने पर लोग समझते हैं कि उन्हे अपने पति की फिक्र ही नहीं है . कुछ महिलायें इस प्रकार के व्रत को पति पत्नी के बीच प्यार के रिश्ते की बकालत करते हुये कहती हैं कि हमारे साथ पति भी यह व्रत रखते हैं ,उनका कहना है कि इस व्रत के बहाने पति से अच्छी साड़ी या ज्वेलरी का गिफट भी मिल जाता है . परन्तु गांव देहात की अधिकतर महीलायों ने इस व्रत को मजबूरी बताया हैं.गांव में रहने वाली सरकारी स्कूल की टीचर अनुराधा बताती हैं कि वो इस प्रकार के कोई व्रत नहीं रखती थी . दो साल पहले उनके पति का मोटर वाईक से स्लिप होने से एक पैर में फे्रक्चर हो गया था . उनकी सास ने उससे कहा कि पति की सलामती के लिये करवा चौथव्रत रखा कर तो मजबूरन उसे रखना पड़ा . उनका मानना हैं कि यहपारंपरिक और रूढ़िवादीव्रत हैं जिसे घर के बड़ो के कहने पर रखना पड़ता हैं क्योंकि कल को यदि उनके पति के साथ संयोग से कुछ हो गया तो उसे हर बात का शिकार बनाया जायेगा.

प्रश्न उठता है कि क्या पत्नी के भूखे प्यासे रहने से पति दीर्घायु या स्वस्थ्य हो सकता है ?यदि सच देखा जाये तो समाज में अनगिनत महिलायें यैसी हैं जो इन व्रत उपवासों को रखने के वावजूद भी अपने पति को खोकर विधवा हो चुकी हैं . सुहागनों के लिये बनाये गये जितने पर्व त्यौहार में महिलायें व्रत उपवास रखती हैं ,इसके बावजूद भी विधवा महिलाओं की संख्या हिन्दू धर्म में सबसे ज्यादा है .दिन भर बिना दाना ,पानी के रहना भी एक प्रकार का शारीरिक अत्याचार ही है . धर्म का मौज करने वाले दुकानदारों ने इस प्रकार के व्रतों की काल्पनिक कथायें गढकर इस देश की महिलाओं को भावनात्मक रूप से पाप पुण्य के जाल में फंसाकर यैसे पर्व त्यौहारों को बढ़ावा देने की कोशिश की है. वास्तव में इस पकार के व्रत त्यौहार आज के समय में निरर्थक ही है.

व्यवहारिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो पति की सलामती की चिंता उन्ही महिलाओं को ज्यादा रहती है जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं और पति के संरक्षण में रहती हैं . उन्हे हर वक्त यही डर रहता है कि पति के न रहने से वे अपना और बच्चों का पालन पोषण कैसे करेंगी . मु्फ्त की दक्षिणा वटोरने वाले पंडे इन महिलाओं को यही भय दिखाकर व्रत या उपवास के लिये उकसाते हैं . हमारी पौराणिक कथाये भी यही कहती हैं कि सती ,सीता ,उर्मिला,द्रोपदी और अहिल्या जैसी नारियां पति के संरक्षण में रहकर उनके हर एक आदेश को गुलाम बनकर स्वीकार करती रहीं . जबकि शूर्पणखा और हिडम्बा जैसी औरतें किसी के संरक्षण की बजाय अपने बलबूते पर जंगलों में अकेली रहती थी . आज भी देश विदेश में कामयाबी का परचम फहरा रही हजारों महिलायें वहीं हैं ,जिन्होने इन व्रत ,उपवासों के चोचलों से बाहर निकलकर अपनी योग्यता ,लगन और मेहनत से सफलता प्राप्त की है .

इन नये नये व्रत , पर्व और त्यौहारों को बढ़ावा देने में हमारे टीवी चैनलों के धारावाहकों की भी खास भूमिका है .महिलाओं के इन व्रत उपवासों पर आधारित सीरियलों ने निम्न मध्यम वर्ग की महिलाओं को अपने जाल में फांस लिया है.चिंता का विषय ये है कि उच्च वर्ग की महिलाओं का यह आधुनिक वर्ग करवा चौथ के बाजारीकरण से प्रभावित हो कर ज्यादा ढकोसले बाज हो गया है  .करवा चैथ के पूर्व की पार्टियां ,शापिंग ,और सजने संवरने के नाम पर व्यूटी पार्लरों में लंबी रकम खर्च कर दिन भर निर्जला उपवास कर अपने शरीर को कष्ट देकर सेहत के साथ खिलवाड़ ही है .

पुरूषवादी सोच आज भी महिलाओं के प्रति बदली नहीं है. निम्न मध्यम वर्ग के साथ पढ़े लिखे उच्च वर्ग मे भी महिलाओं के शोषण और उत्पीड़न की कहानियां आये दिन अखवारों की सुर्खियां बनती रहती हैं . समाज में महिलाओं को मानसिंक और शारीरिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है . वास्तव में इस तरह के उपवास से न तो कोई देवी देवता प्रसन्न होते हैं और न ही कोई दीर्घायु होता हैं .

महिलाओं को व्रत ,उपवास या कथा पुराण में पंडे पुजारियों को मौज का अवसर देने की बजाय अपने पति या परिवार के कामकाज में सहभागी बनकर अपने आपको आर्थिक रूप से सुदृढ बनाने पर जोर देना चाहिये . आर्थिक मजबूती से ही पति और पूरा परिवार सलामत रह सकता है .

लेखकों को भारतीय साहित्य और संस्कृति से जोड़ेगी प्रधानमंत्री युवा योजना

  युवराज मलिक

 डायरेक्टर, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया

युवा लेखकों को भारतीय साहित्य और संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने के लिए सक्षम बनाने की योजना नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया द्वारा शुरू की गई है. प्रधानमंत्री युवा योजना नाम से इस योजना की शुरुआत हो चुकी है. नेशनल बुक ट्रस्ट के डायरेक्टर श्री युवराज मलिक की कुशल देखरेख में यह योजना चलाई जा रही है. युवराज मलिक इससे पहले भारत सरकार के लिए विभिन्न पदों पर रहते हुए अपनी नेतृत्वक्षमता साबित कर चुके हैं. पेश हैं, प्रधानमंत्री युवा योजना के सिलसिले में उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश:

खास तौर पर केवल युवाओं के लिए योजना लाने के पीछे क्या वजह है?

बदलते वक्त के साथ हमारी संस्कृति कहीं खोती जा रही है तो आने वाली पीढ़ी का उसमें रूझान बढ़ाने के लिए यह योजना बनाई गई है. अगले वर्ष भारत की स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं, आजादी के अमृत महोत्सव के अंतर्गत इंडिया 75 प्रोजेक्ट में प्रधानमंत्री द्वारा लाई गई यह योजना आज के युवा लेखकों को देश के इतिहास से जोड़ने का काम करेगी.

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प्रधानमंत्री युवा योजना में हिस्सा लेने के लिए प्रतियोगियों को किनकिन बातों का ध्यान रखना होगा?

इस योजना का लाभ प्राप्त करने के लिए युवा लेखकों के द्वारा आयोजित की गई अखिल भारतीय प्रतियोगिता में हिस्सा लेना होगा जिसके तहत वे अपने लेखन की एक 5000 शब्दों की पांडुलिपी प्रस्तुत करेंगे. उस पांडुलिपी के आधार पर एनबीटी द्वारा गठित एक समिति 75 प्रतियोगियों का चयन करेगी जिन्हें फिर आगे प्रशिक्षण और मार्गदर्शन दिया जाएगा. कोई भी भारतीय नागरिक जिसकी उम्र 30 वर्ष या उस से कम है या पीआईओ व भारतीय पासपोर्ट रखने वाले एनआरआई इस प्रतियोगिता में भाग ले सकते हैं. सिर्फ उन्हीं प्रविष्टियों को चयन के लिए स्वीकारा जाएगा जिनके प्रमुख विषय होंगे अज्ञात नायक (अनसंग हीरो), राष्ट्रीय आंदोलन के बारे में अल्प ज्ञात तथ्य, राष्ट्रीय आंदोलन में विभिन्न स्थानों की भूमिका, राष्ट्रीय आंदोलन आदि के राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक या विज्ञान संबंधी पहलुओं  से संबंधित नए दृष्टिकोण.

योजना कब लागू की जाएगी और क्या होगा इसका  एक्शन प्लान?

यह प्रतियोगिता 1 जून से 31 जुलाई तक राष्ट्रीय स्तर पर शुरू की जा चुकी है. योजना 6 महीने की अवधि की होगी जिसमें प्रतियोगियों को मार्गदर्शित किया जाएगा और प्रशिक्षण भी दिया जाएगा. चयनित लेखकों के नामों की घोषणा 15 अगस्त, 2021 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर की जाएगी. योजना को 3-3 महीनों के 2 चरणों में बांटा गया है. पहला चरण प्रशिक्षण पर आधारित होगा और दूसरा प्रोत्साहन पर. योजना के आयोजन में इस बात का खास तौर पर ध्यान रखा गया है की प्रतियोगियों को प्रकाशन के  इको-सिस्टम की हर छोटी से छोटी जानकारी प्रदान की जाए. योजना की सारी जानकारी एनबीटी की वेबसाइट पर उपलब्ध है.

इस योजना में एनबीटी की क्या  भूमिका होगी?

इस योजना में एनबीटी कार्यान्वयन एजेंसी की भूमिका निभा रहा है. हम प्रतियोगियों के चयन से लेकर उनकी पुस्तकों के विमोचन तक, इस योजना के हर चरण से जुड़े रहेंगे. लेखकों को एनबीटी के निपुण लेखकों और रचनाकारों के पैनल से 2 प्रख्यात लेखकों/मार्गदर्शकों द्वारा प्रशिक्षित किया जाएगा. इसके अलावा, योजना के अंत में हम प्रतियोगियों की पुस्तकों का प्रकाशन, विमोचन और उनका अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी करेंगे.

योजना में भाग लेने वाले चयनित युवा लेखकों को क्या लाभ मिलेगा?

इस योजना के माध्यम से नवोदित लेखकों को अपनी लेखन कौशल को  सुधारने का एक सुनहरा अवसर प्रशिक्षण  के रूप में मिलेगा. मेंटरशिप प्रोग्राम सफलतापूर्वक पूरा होने पर लेखकों को  उनकी पुस्तकों के सफल प्रकाशन के बाद  10% रॉयल्टी भी दी जाएगी. योजना में  चयनित लेखकों के लिए छात्रवृति का भी प्रावधान है जिसमें प्रत्येक लेखक को  50,000 रु. प्रति माह 6 माह तक प्रदान  किये जाएंगे.

इस सबके अलावा चयनित लेखकों को विभिन्न प्रकार के अंतराष्ट्रीय कार्यक्रम जैसे कि साहित्य उत्सव, पुस्तक मेले, आभासी पुस्तक मेले, संस्कृत आदान प्रदान कार्यक्रम आदि के माध्यम से अपने ज्ञान का विस्तार करने का एवं कौशल विकास करने का अमूल्य अवसर प्राप्त होगा.

क्या इससे ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ को बढ़ावा मिलेगा?

यह योजना लेखकों का एक वर्ग विकसित करने में मदद करेगी जो भारतीय विरासत, संस्कृति और ज्ञान-प्रणाली को बढ़ावा देने के लिए विविध वर्णी विषयों पर लिख सकते हैं.

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पाठकों के लिए कोई खास संदेश?

यह युवा लेखकों के लिए एक बेहतरीन योजना है. एनबीटी ऐसी योजनाओं को  सामने लाने के लिए निरंतर काम कर रहा  है जिससे भारतीय संस्कृति और कला को बढ़ावा मिलेगा. जब देश के युवा नागरिक रीडिंग कल्चर को बढ़ावा देंगे तो जाहिर है  देश भी आगे बढ़ेगा. जैसा कि माननीय प्रधानमंत्रीजी कहते हैं, ‘‘पढ़ेगा भारत तभी तो बढ़ेगा भारत’’.

पत्नी हो तो ऐसी

पत्नी वह होती है जो पति के अधूरे काम जान जोखिम में डाल कर भी पूरे कर ले. जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो अबे की पत्नी एकी अबे ने शिंजो के प्रधानमंत्रीकाल में कोई लंबीचौड़ी हेराफेरी की थी. तोशियो अकागी जो एकी अबे के कारनामों को जानता था एक दस्तावेज तैयार कर रहा था, जिस में एकी अबे की एक स्कूल के पास की जमीन सस्ते दामों पर खरीद लेने के सुबूत थे. तोशियो अकागी पर दबाव पड़ा कि वे दस्तावेज गुप्त रखे जाएं और

2018 में दबाव न सह पाने पर उस ने आत्महत्या कर ली. अपनी पत्नी मसाको अकागी को यह बात तोशियो ने बता दी थी और तोशियो की मृत्यु के बाद मसाको उन दस्तावेजों को पब्लिक कराने की मुहिम में जुट गई. प्रधानमंत्री की पत्नी के खिलाफ सुबूतों को ढूंढ़ना और उस मुद्दे के पीछे पड़ना आसान नहीं है खासतौर पर तब जब शिंजो अबे सब से लंबे समय तक जापान का प्रधानमंत्री रहा हो. उस के हाथ कितने लंबे होंगे इस का अंदाजा लगाया जा सकता है.

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पति से प्रेम का मतलब है पति के अधूरे कामों को पूरा करना और मसाको ने यह कर दिखाया. वह अकेली इस लड़ाई में लगी रही और उस के दबाव में आखिर में जून, 2021 में सरकार ने तोशियो अकागी का तैयार किया डौजियर रिलीज किया, जिस में सैकड़ों ईमेल हैं जो पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी के कारनामों का परदाफाश करते हैं. तोशियो इस क्षेत्र के एक दफ्तर में अधिकारी था जहां की जमीन एकी ने खरीदी थी.

मसाको ने अपने पति की आत्महत्या के लिए सरकारी दबाव को जिम्मेदार ठहरा कर मुआवजा भी मांगा था. उस की इच्छा थी कि कोई भी सरकारी अफसर कागजी फाइलों में बंद गुप्त रहस्यों को छिपाने के लिए आत्महत्या करने को मजबूर न हो.

इस मामले ने वर्तमान प्रधानमंत्री पर दबाव बढ़ा दिया है कि मामले की फिर से जांच हो और अगर पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी ने कोई हेराफेरी की है तो सही कदम उठाया जाए.

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कहने को तो जापानी कानून की तरह हमारे यहां भी राइट टु इनफौर्मेशन कानून है पर आमतौर पर वहां से भी गोलमोल उत्तर मिलते हैं. प्रधानमंत्री केयर फंड के बारे में तो भारत सरकार ने बताने से इनकार कर दिया है, जबकि इस में जबरन पैसा डलवाया गया था पर अफसोस हमारे यहां मसाको अकागी कहां है?

यह कैसी नैतिकता

हम यह कहते नहीं अघाते कि हमारे ग्रंथों में महान भाईचारा, सदाचार, सत्य, धर्म, पूजा, यज्ञ, ज्ञान भरा पड़ा है. हर रोज सुबहसुबह से ही व्हाट्सऐप संदेश मिलने शुरू हो जाते हैं जो धर्म की खातिर कुछ भी करने का संदेश देते हैं पर धार्मिक कथाएं कैसी हैं, यह जरा सी परतें उधेड़ने पर पता चल जाता है. महाभारत में हिडिंबा की कहानी भी ऐसी ही है.

युधिष्ठिर जब जुए में दुर्योधन के हाथों राजपाट हार जाता है तो उसे मां कुंती और भाइयों के साथ वन में जाना पड़ता है. एक वन में जब वे विश्राम कर रहे होते हैं तो वन क्षेत्र के राजा हिडिंब को पता चलता है और वह अपनी बहन हिडिंबा को पता करने के लिए भेजता है कि वे लोग कितने हैं और कैसे हैं? हिडिंबा को पांडवों में से भीम बहुत पसंद आता है और उसे मारने की जगह वह भीम को ले कर भाई के पास जाती है. हिडिंब दोनों के प्रेम को स्वीकर नहीं करता तो भीम और हिडिंब में युद्ध होता है, जिस में हिडिंब मारा जाता है.

पांडवों की जान बचाने के लिए कुंती हिडिंबा को कुछ उपहार देने को कहती है तो हिडिंबा भीम को ही मांग लेती है. दोनों का विवाह हो जाता है और उन का पुत्र घटोत्कच होता है जो कुरुक्षेत्र के युद्ध में मारा जाता है.

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सवाल है, यह कैसी संस्कृति थी, जिस में भाई के हत्यारे को सहज रूप से खुद मांग कर पति बना लिया जाता है? हिडिंबा तो चलो जंगली कुल की थी पर पांडव तो धर्म के रक्षक थे. उन्हें तो मालूम होना चाहिए था कि जिस के भाई को मार डाला गया हो, उसे पत्नी कैसे बनाया जा सकता है?

यह संस्कृति आज भी हमारे यहां मौजूद है चाहे दूसरे रूपों में. औनर किलिंग में यदि घर वाले अपने बेटेबेटी की हत्या रीतिरिवाज तोड़ने पर कर देते हैं और बिना अपराबोध से रहते चले जाते हैं तो उस का कारण यही है. पौराणिक कथाओं पर आज भी समाज बुरी तरह फिदा है. प्रवचनों में भारी भीड़ जमा होती है. महाभारत धारावाही बारबार दोहराया जाता है और उसे फिर भी दर्शक मिलते हैं.

जब आप की शिक्षा में ही गलत पाठ पढ़ाया गया हो कि भाई के हत्यारे से विवाह कर लो और राज संभाल लो तो कैसी नैतिकता, कैसा रक्षाबंधन, कैसा संयुक्त परिवार और कैसी सुरक्षा?

हां, अगर तर्क के दरवाजे बंद कर के लकीर को पीटना ही महानता है तो दुनिया में हम से बढ़ कर कोई न होगा.

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धर्म और कानून की नहीं सूझबूझ की जरूरत

पतिपत्नी मतभेद होने पर कैसे अपना जीवन बरबाद करते हैं, सिर्फ दूसरे को नीचा दिखाने के लिए, उस का एक उदाहरण है जयदीप मजूमदार और भारती जायसवाल मजूमदार का. दोनों ने 2006 में विवाह किया और विवाह के बाद कुछ माह विशाखापट्टनम में रहे तो कुछ माह लुधियाना में. पति एमटैक और आर्मी औफिसर है और पत्नी उत्तराखंड के टिहरी में सरकारी कालेज में फैकल्टी मैंबर.

दोनों में 2007 से ही झगड़ा होने लगा. पति ने विशाखापट्टनम कोर्ट में तलाक की अर्जी लगाई तो पत्नी ने देहरादून कोर्ट में वैवाहिक रिश्तों की स्थापना के आदेश की. इस बीच पत्नी ने आर्मी के अफसरों को पत्र लिखने शुरू कर दिए कि उस का पति जयदीप उस के साथ बुरा व्यवहार करता है, तंग करता है, साथ नहीं रहता. पति का कहना था कि ये पत्र उस पर क्रूएल्टी की गिनती में आते हैं, क्योंकि इस से उस की प्रतिष्ठा पर आंच आई और उसे नीचा देखना पड़ा.

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अदालतों ने क्या कहा यह जाने बगैर बड़ा सवाल है कि 2007 से चल रहे तलाक के मामले यदि 2021 तक घसीटे जाएं तो गलती किस की है? कानून की या पतिपत्नी की शिक्षा की?

सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में निर्णय दिया कि पत्नी के लिखे पत्र क्रूएल्टी के दायरे में आते हैं और अगर किसी अदालत ने कहा कि ये पतिपत्नी के क्षणिक मतभेद हैं, गलत है. सवाल तो यह है कि क्या आर्मी औफिसर और यूनिवर्सिटी की फैकल्टी मैंबर बैठ कर फैसला नहीं कर सकते थे कि अब हमारी शादी निभ नहीं रही, हम अलग हो जाएं?

यह शादी निश्चित रूप से प्रेम विवाह होगा क्योंकि एक बंगाली है और दूसरी पंजाब या उत्तराखंड की. जब प्रेम खुद कर सकते हैं तो तलाक के लिए झगड़ने की क्या जरूरत खासतौर पर तब जब न बच्चों की कस्टडी का सवाल हो न अपार संपत्ति का? दोनों के बच्चे हुए नहीं और दोनों मध्यवर्ग के नौकरीपेशा हैं. दोनों उस तरह शिक्षा प्राप्त हैं जिसे हम शिक्षा कहते हैं.

उन्हें अगर कुछ नहीं आता तो वह है कि कैसे एकदूसरे के साथ जीएं और अगर नहीं जीना तो कैसे अलग हों? वे जीवन को समझ नहीं पा रहे. उन को जो कालेजीय शिक्षा मिली है उस में केवल यही है कि कैसे अपनी बात को ऊपर रखें और कैसे लकीर के फकीर बने रहें.

फूहड़ धार्मिक और विश्वविद्यालीय शिक्षा लोगों को रट्टू बनाती है. धर्म कहता है कि हर काम पंडित के कहे अनुसार करते चले जाओ, कालेज में पढ़ाया जाता है कि जितना लिखा है, उसे रट लो. न मौलिक ज्ञान सिखाया जा रहा है, न तर्क की पढ़ाई हो रही है, न जीवन के कालेसफेद व अन्य रंगों के बारे में कुछ बताया जा रहा है.

बेवकूफों की एक बड़ी कौम तैयार हो रही है और इस में पतिपत्नी भी शामिल हैं. क्या ये दोनों मन मार कर एकदूसरे के साथ कुढ़तेसड़ते जीते हैं या अलग होने की प्रक्रिया में वूमंस सैल, पुलिस, अदालतों के चक्कर काटते हैं?

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केरल में इसी जून के तीसरे सप्ताह में महिला आयोग की अध्यक्षा ने इस्तीफा दे दिया, क्योंकि एक खुले मंच पर फोन से आई डोमैस्टिक वायलैंस की शिकायत पर इस आयोग अध्यक्षा ने पूछा कि क्या पत्नी पुलिस या वूमंस सैल में गई और इनकार करने पर कहा कि फिर सहो. लोगों को न जाने क्यों इस पर आपत्ति हुई. यह सही था कि या तो शिकायत कर के अलग रहो या फिर साथ रहो. अगर पति हिंसक है तो दुनिया की कोई ताकत पति को डांटफटकार कर ठीक नहीं कर सकती.

जीवन कैसे जीया जाए, आज उस का ज्ञान सिर्फ व्हाट्सऐप के निरर्थक मैसेजों में या धार्मिक प्रवचनों में रह गया है, जिन में औरतों को हर हाल में सरैंडर करने की सलाह ही दी जाती है.

कोई भी जोड़ा बनता तब है जब दोनों को जरूरत होती है. शादी जबरन नहीं होती. यह पारस्परिक सहयोग की नींव पर टिकी होती है पर नींव बनाने में धर्म और कानून नहीं, तर्क, सूझबूझ, जीवन की उलझनों, वैवाहिक जीवन के चैलेंज, विवाहपूर्व प्रेम, बच्चों की समस्याओं के बारे में जानना भी हो तो कहीं कुछ नहीं मिल रहा या ढूंढ़ा ही नहीं जा रहा. नतीजा है जयदीप और भारती मजूमदार जैसे झगड़े, जिन में दोनों के 10-10 लाख रुपए तो खर्च हो ही गए होंगे.

दुनिया में कट्टरपंथी कानून

गुजराती खून में क्या आजादी छीनने की कोई कला होती है या यह केवल एक संयोग है कि भारत के गुजराती गृहमंत्री और इंग्लैंड में भारतीय मूल की गृहमंत्री प्रीति पटेल एक तरह से कट्टरपंथी कानूनों के समर्थक है. पश्चिमी देश अब तक दुनिया भर में सताए गए लोगों के लिए पनाह देने के लिए जाने जाते रहे हैं पर वे लोग जो खुद पनाह ले कर आए थे, नए को आने से रोकने के कानून बना रहे हैं, प्रीति पटेल एक कानून बनवा रही है कि इंग्लैंड में जो भी व्यक्ति इस कारण कदम रखता है कि उसे अपने देश के जुल्मों से बचना है, उसे अपराधी माना जाएगा अगर उस ने पहले से इजाजत नहीं थी.

इस का अर्थ है कि जो कही सताया जा रहा है वह पहले से पत्र लिखना शुरू करे कि हे प्रीति पटेल ये अपने देश में पीडि़त हूं मुझे शरण दे. कौन देश ऐसे व्यक्ति को आजाद घूमने देगा? लोग तरहतरह के बहाने बना कर पश्चिमी देशों में वैधअवैध तरीकों से घुसते हैं और फिर अपने देश के सिस्टम के पीडि़त होने की दुहाई दी है.

यह हर देश का फर्ज है कि कहीं भी सताए लोगों को अपने यहां पनाह दे. लोग कट्टर तानाशाहों से बचने के लिए ही कम कट्टर तानाशाही देशों में जाते रहे हैं. प्रीति पटेल भी उन में से है जिन का परिवार अपना मूल देश छोड़ कर गया था.

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यह ठीक है कि पनाह मांगने वालों में से बहुत से अपराधी भी होते हैं जो अपने मूल देश के कानूनों की गिरफ्त से बचने के लिए भागे थे. उन्हें भी पनाह दी जानी चाहिए. यदि उन के मूल देश का कानून अनैतिक है तो वहां से भाग कर पनाह लेना गलत नहीं है. भारत तो ऐसा है जो बिना गुनाह साबित हुए 84 साल के वृद्ध को जेलों में रखना है और गर्भवती को छूट तक नहीं देता. यदि यहां से भाग कर कोई प्रीति पटेल की शरण में जाए तो क्या उसे वहां का भी अपराधी मान लिया जाए?

दुनिया अभी ऐसी नहीं है कि लोग अपनों के बीच सुरक्षित हों, भारत में रहती औरतें सब से ज्यादा असुरक्षितों में से हैं. अगर किसी लडक़ी या परिवार को आस्ट्रेलिया और अमेरिका तो दूर साउथ अफ्रीका जाने का मौका भी मिलता है तो छोडऩा नहीं है. वहां लाख खराबियां हों, कुछ मामलों में हम बहुत तंगदिल हैं. लोग यहां रहते हैं तो इसलिए कि उन्हें अपने रिश्तेदारों से प्यार है, पड़ोसियों से प्यार है, गुजराती मूल की प्रीति पटेल समझने को तैयार नहीं है.

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कोरोना के मामले और सरकार से उम्मीद

स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन के हटाए जाने को सरकार का कोविड मैनेजमैंट में गलती मानो जैसा है. जिस तरह से स्वास्थ्य मंत्री अनापशनाप भाषण और क्लेश करते फिरे हैं और वक्त पर नदारद हो गए हो थे उस की असली जिम्मेदारी चाहे प्रधानमंत्री की खुद की हो, स्वास्थ्य मंत्री की भी थी. उन्हें उसी समय मान लेना चाहिए था कि मेरा आयुर्वेद वगैरा का क्लेम गलत है.

हर्षवर्धन एलोपैथिक डाक्टर हुए भी कभी लोगों में भरोसा नहीं दिला पाए कि कोविड की अपादा में सरकार आप के साथ है. जनता को खुद रेमेडेसिविर या डौक्सी की खोज, अस्पताल के आईसीयू बैड़ों, औक्सीजन सिलेंडरों ही नहीं शमशानों तक का इंतजाम नहीं कर पाए.

ट्विटर और सोशल मीडिया जून से ही हर्षवर्धन को हटाने की मांग कर रहा था पर ट्विटर के वीर यह सवाल उठा रहे थे कि एक अधपड़ा दूसरे अधपढ़े को कैसे हटा सकता है.

पहले लौकडाउन के दिनों में बजाए मंत्रालय का कााम देखने के हर्षवर्धन ने खुशीखुशी घर में भिंडी या मटर छीलते हुए फोटो खिचवाए थे. पक्की बात है कि नैशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथौरिटी ने जिस के चैयरमैंन नरेंद्र मोदी हैं, पहले दौर में हर्षवर्धन को इस लायक भी नहीं समझा कि उन के अस्पतालों को बनवाते हुए खड़े हुए दिखाया जाए. ….. के डाक्टर डा. हर्षवर्धन ने नाक भी बंद रखी कान भी और आंख पर तो पक्की भक्ति का चश्मा चढ़ा ही रखा था. देश की स्वास्थ्य व्यवस्था तो पूजापाठ के भरोसे थी कि बच गए तो ठीक वरना शमशान का ही सहारा है.

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बजाएं पूरे देश का ख्याल रखने के हर्षवर्धन की चिंता पार्टी पर थी और वह पिछलों दलों की सरकारों को कोविड पर उपदेश देते रहे. उन्हें मालूम ही नहीं था कि यह बिमारी कितनी भयंकर हो सकती है जबकि अमेरिका और इटली के उदाहरण सामने आ चुके  थे. वहां जिस तरह से अस्पतालों की कमी हुई थी वह मालूम थी पर हर्षवर्धन तो उस टीम के क्वीन थे जो अपने को कोविड विजयी 24 मार्च, 2021 में घोषित कर चुकी थी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि हम कोविड को 21 दिनों के लौकडाउन और तालीथाली बजा कर, दिया जला कर हरा देंगे.

देश में मंत्रियों का महत्व अब कुछ ज्यादा नहीं रह गया है और शायद तभी मनसुख मंडाविया जैसे को स्वास्थ्य मंत्री नियुक्त किया गया है जो 2015 में ट्वीट करते हैं कि एलौपैथी फेल्स आयुर्वेद उत्तर है. सब ने देखा कि कोविड की दूसरी लहर के दौरान कोई रामदेव सामने नहीं था. कोई होम्योपैथ समाने नहीं था. लोग एलौपैथी में इलाज करने वाले अस्पतालों की ओर भाग रहे थे, ऐलोपैथी दवाएं ढंूढ़ रहे थे.

भारत सरकार का संदेश हर घर को साफ है. सेहत के मामले में हम से ज्यादा उम्मीद न रखना. हम तो ऐसे ही स्वास्थ्य मंत्री रखेंगे. आप की मर्जी है तो अस्पतालों को ढूंढ़ों, नहीं है तो बनवाओं, दवाएं खरीदों, नहीं है तो मर जाओ पर शमशान में अगर जगह न मिले तो हम से न पूछें. हमने स्वास्थ्य मंत्री बदल दिया, काफी है. पिछला कम से कम ईएनटी डाक्टर था, यह तो डाक्टर भी नहीं.

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निजता के अधिकार पर सरकार

आप अपने घर की चारदीवारी में क्या हैं, कैसे रहते हैं, क्या पढ़ते हैं, क्या जमा करते हैं, क्या पहनते हैं, क्या खाते हैं, ये सब बातें समाज ही नहीं सदियों से सामाजिक वैज्ञानिक और कानूनी विशेषज्ञ कहते रहे कि आप का अधिकार है. एक घर चाहे जितना कमजोर हो, दरवाजा कितना ही पापड़ सा हो, छत कितनी ही पतली हो, सरकार कानून व समाज की दृष्टि से आपका किया है, एक अभेद किला.

अफसोस की बात है कि बहुत से लोग इस किले के राज को राज रखना नहीं जानते और आज यह आम है कि पुलिस वाले जब चाहे घरों में घुस कर कैसे रहते हैं, क्या करते हैं जानने का हक रखने की बात करते हैं.

अपने राज्यों के प्रति…..न रहने का एक कारण अपने निजी क्षणों, अपने कमरे, अपने रहनसहन के फोटो फेसबुक, व्हाट्सएप पर बांटना है. आज मैं ने पो……विद खास खाया दिखाने के लिए अपनी क्रोकरी दिखाते हैं और आज नई साड़ी पहनी दिखाने के लिए चोरी ड्रेस नायाब का फोटो डालते हैं. शौर्य वीडियो प्लेटफौर्सों पर तो घरों के दोनों दुनिया भर के लिए खोल दिए गए हैं. लोगों को अपनी निजता के अधिकार की लेथ भर की ङ्क्षचता नहीं रह गई. जराजरा सी बात पर वीडियो काल कर के लड़कियां अपने कमरे की पूरी ज्योग्रौफी दुनिया में बांट देती हैं. आप का किला शीशे का बन कर गया है जिस की सारी खिड़कियां परदे खुले हुए हैं.

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यही आदत आज निजता के अधिकार को खत्म कर रही है. उत्पादक ही नहीं सरकार भी हर नागरिक का पूरा प्रोफाइल बनाने में लगी हुई है. दुनिया भर में लोगों को चेहरों से पहचानने की तकनीक तो ढूंढी जा रही है, उन के बाथरूम तक कैमरों की नजरों में रिकार्ड हो रहे हैं और अमेरिका के विधन डेरा सेंटरों में जमा हो रहे हैं.

आप अगर कानूनबद्ध नागरिक हैं तो आप को किसी बात की ङ्क्षचता नहीं पर यदि किसी उत्पादक को मालूम हो जाए कि आप जनाडू शैंपू इस्तेमाल करती हैं तो आप की जान खा सकता है कि उस का फिनाडू थैंपू खरीदें, आप चाहे एक चीज को खरीद लेते हैं ताकि हल्ले से तो बच सकें. यह निजता का हल है.

इस अधिकार पर दुनिया भर की अदालतों ने लंबेलंबे फैसले दिए हैं और पुलिस यह जानकर कि आप खुद अपनी निजता के हक की ङ्क्षचता नहीं कर रहे, जरा सी बात पर आप का पूरा घर छान सकती है. सैंकड़ों छापों में से केवल इक्कादुक्का के घरों से कुछ आपत्ति जनक मिलता है पर चूंकि लोग अपनी निजता के हक को खो चुके हैं, वे चूं नहीं कर रहे.

एक सक्षम समाज वह है जिस में नागरिक अपने हकों के प्रति सचेत हैं. अपना व्हाट्सएप गु्रप बनाइए, अपने लिए एप डाउनलोड करिए पर अपने राज जाहिर न होने दें. याद रखिए ये लोग अपने ही हर बात जान लेंगे तो कभी भी आप के दुश्मन के हाथों में भी पड़ सकती है.

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टोक्यों ओलंपिक में देश की पहली अंतर्राष्ट्रीय महिला तलवारबाज़ बनी भवानी देवी

जब आपमें कुछ कर गुजरने की इच्छा हो, तो मुश्किलें कितनी भी हो, उसे पार कर मंजिल तक पहुँच जाते है, ऐसा ही कुछ कर दिखाया है भारत की अंतर्राष्ट्रीय महिला तलवारबाज चदलावदाअनंधा सुंधरारमनयानि C. A. भवानी देवी. वह 23 जुलाई 2021 को टोक्यो में शुरू होने वाले ओलंपिक के लिए क्वालीफाई करने वाली भारत की पहली अंतर्राष्ट्रीय महिला तलवारबाज बन चुकी है. 8 बार की नेशनल चैंपियन, कॉमनवेल्थ चैंपियनशिप टीम इवेंट्स में एक सिल्वर और एक ब्रोंज जीतने वाली भवानी देवी एक ऐसी महिला है, जिन्होंने मेहनत कर इस खेल को अपनी पहचान बनाई और लाखो युवाओं की प्रेरणा स्त्रोत बनी. चेन्नई के मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी भवानी देवी के पिता पुजारी और माँ हाउसवाईफ है. 5 भाई-बहनों में सबसे छोटी भवानी को स्कूल के समय से ही तलवार बाजी का शौक था. पैसे की तंगी होने के बावजूद भवानी के पेरेंट्स बच्चों को अच्छी शिक्षा देना चाहते थे. एक बार पैसे की कमी होने की वजह से भवानी की माँ ने अपने गहने तक गिरवी रख दिए थे. इसलिए भवानी अपनी सफलता का श्रेय अपने माता-पिता को देती है.

भवानी को छठी कक्षा में पढने के दौरान स्कूल के किसी खेल में भाग लेने के लिए नाम देना पड़ा. तलवारबाजी को छोड़ किसी भी खेल में जगह नहीं थी. भवानी को ये खेल नया और चैलेंजिंग लगा. उस समय तमिलनाडु ही नहीं, पूरे भारत के लिए ये खेल नया था. शुरू में उन्होंने बांस के उपकरणों से चेन्नई के जवाहरलाल नेहरु स्टेडियम के बैडमिंटन कोर्ट में प्रैक्टिस किया करती थी. आज भी सस्ती तलवारों से ही भवानी फेंसिंग की प्रैक्टिस करती है, क्योंकि अच्छी यूरोपियन तलवारों को वह मैच के लिए रखती है. नेशनल लेवल पर पहुँचने के बाद भवानी इलेक्ट्रिक तलवार से परिचित हुई थी.भवानी ने तलवारबाजी में 12 से अधिक मेडल जीते है. वर्ष 2008 में सीनियर एशियन चैम्पियनशिप में भाग लेने के लिए भवानी के पास पैसे नहीं थे, तब मुख्यमंत्री जयललिता ने भवानी को बुलाकर एक चेक दिया. इसके बाद से भवानी को पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ा.उनके इटालियन कोच निकोला ज़ेनोट्टी है, उन्हें भवानी की स्किल्स को देखने के बाद कोच करने की इच्छा हुई.स्पष्टभाषी और शांत भवानी से कैम्पेन के तहत वर्चुअली बात हुई पेश है कुछ खास अंश.

सवाल-चमकते रहना को आप कैसे एक्सप्लेन करना चाहती है?

रियल लाइफ में किसी व्यक्ति को अपने मुकाम तक पहुँचने में साहस और दृढ़ संकल्प के साथ-साथ चुनौतियों की जंग को जीतने की जरुरत होती है, जैसा मैंने हर कदम पर किया है. अपने सपने को मैंने कभी नहीं छोड़ा और आज देश को गर्वित महसूस करवाने में सफल हो पाई.आज पूरा देश मेरी प्रतिभा को मानता है.

सवाल-तलवारबाजी में जाने की प्रेरणा कैसे मिली?

मैं जब 6ठी कक्षा में थी, मुझे इस खेल में जाने का मौका मिला और मुझे ये गेम काफी यूनिक और चैलेंजिंग लगा. फिर मैंने प्रैक्टिस करना शुरू किया.

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सवाल-भारत में ये खेल अधिक प्रचलित नहीं है, ऐसे में आप कैसे आगे बढ़ी? माता-पिता का सहयोग कितना रहा? चुनौतियाँ क्या-क्या थी?

मेरी जर्नी पितृसत्तात्मक विचार के विरुद्ध जाकर ही शुरू हुई है और ये बचपन से लेकर आज एक सफल तलवारबाज बनने तक है. मेरी पहली फेंसिंग किट जो बहुत महँगी थी, उसे खरीदने के लिए मेरे पेरेंट्स के पास पैसे नहीं थे. मेरी माँ ने अपने गहने गिरवी रखकर मुझे पैसे दिए, ताकि मैं अपने सपनों को पूरा कर सकूँ. हर दिन मेरे लिए चुनौती है, जब मैं ट्रेनिंग के बाद गंदे और पसीने युक्त कपड़ों के साथ थककर घर पहुँचती हूं, तो मन में एक ख़ुशी महसूस होती है, फलस्वरूप मैं इस खेल छोड़ने की बात कभी नहीं सोच पाई. किसी भी सपने को पूरा करने के पीछे अनगिनत त्याग और चुनौती होती है, लेकिन शांत और दृढ़ संकल्प के साथ ही वह उस असंभव मंजिल को भी पाया जा सकता है.

सवाल-क्या महिला होने के नाते आपको किसी प्रकार के ताने आसपास या रिश्तेदारों से खेल को लेकर सुनने पड़े? अगर हाँ तो आपने उसे कैसे लिया ?

प्रोफेशनल फ्रंट में मुझे कई घंटे लगन और मेहनत के साथ प्रशिक्षण लेना पड़ता था, ताकि मुझे अच्छी रिजल्ट मिले.कई बार ये कठिन और टायरिंग होने पर भी मेरी फोकस खेल पर होता था, क्योंकि मेरी माँ को विश्वास था कि मैं एक दिन कामयाब अवश्य होऊँगी, इसलिए मुझे किसी भी प्रकार की तानों से निकलने में माँ का सहयोग सबसे अधिक है. मेरी इस जर्नी में मैंने हमेशा ऐसे लोगों को फेस किया है, जोमेरे तलवारबाजी के खेल को गलत ठहराकरकिसी अन्य खेल में जाने की सलाह दी है, क्योंकि ये महिलाओं की कैरियर के लिए सही खेल नहीं है. मैंने इसे अनसुना कर तलवारबाजी की पैशन पर नजर गढ़ाए रखी.अच्छी बात ये रही कि मेरे परिवारवालों ने उस समय भी मुझपर विश्वास रखा, जिससे मुझे अपनी जर्नी को आगे बढ़ाने में आसानी रही.

सवाल-टोक्यो ओलंपिक में आप किस पदक को लाना चाहती है? इसके लिए कितनी तैयारियां की है?

मेरे लिए यह पहली बार है, जब मैं अपने देश का प्रतिनिधित्व इंटरनेशनल स्पोर्ट इवेंट में करने वाली हूं. मुझे ये ‘ड्रीम कॉम ट्रू’ वाली स्थिति का अनुभव हो रहा है. मैं इस जर्नी की हर पल को एन्जॉय कर रही हूं और मैं देश, परिवार और लम्बे समय से पोषित ड्रीम के लिए गोल्ड मैडल लाना चाहती हूं.

मैंने घर से बाहर यूरोप में रहकर 5 सालों तक ओलंपिक के इस अवसर को पाने के लिए प्रशिक्षण लिया है. इस दौरान मैंने हर त्यौहार को मिस किया है, लेकिन मुझे अफ़सोस इस बात से है कि मेरे पिताजी इस पल में हमारे साथ नहीं है.

सवाल-फेंसिंग में किस तरह की फिटनेस जरुरी होता है?

तलवारबाजी की खेल में चुस्ती-फुर्ती और अनुशासन में रहना पड़ता है, जिसमें माइंड और पूरे शरीर की वर्कआउट करना जरुरी है. इस खेल में 3 स्किल्स पर ख़ास ध्यान देना पड़ता है, मसलन ब्लेड वर्क, फुटवर्क और युद्ध नीति. फेंसिंग मुकाबले का खेल है और बिना रुके खेलना पड़ता है. व्यक्ति को फ़ास्ट और चतुर होने के साथ-साथ अच्छी कोआर्डिनेशन और स्ट्रेंथ की आवश्यकता होती है. इसमें व्यक्ति को अच्छी बॉडी स्किल्स, फ्लेक्सिबिलिटी और रिएक्शन स्किल बहुत जरुरी है, ताकि आप इस खेल में माहिर हो सके.

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सवाल-आपकी आगे की योजनायें क्या है?

अभी मैं एक एथलीट हूं , लेकिनटूर्नामेंट में परफॉर्म करना मेरी सबसे अधिक प्रायोरिटी है, क्योंकि इससे मानसिक और शारीरिक दोनों को बल मिलता है.

सवाल-फेंसिंग सीखने वाले नए खिलाड़ियों के लिए मेसेज क्या है?

तलवारबाजी में अपना कैरियर बनाने के लिए व्यक्ति को साहसी, स्ट्रांग और खुद में विश्वास होने की जरुरत है. मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत होने पर व्यक्ति कठिन घड़ी को भी सम्हालकर जीत की ओर अग्रसर होता है.

सावधान ! बदल गई है जॉब मार्केट, खुद को काम का बनाए रखने की कोशिश करें  

यह कहने की जरूरत नहीं है कि कोरोना ने बहुत कुछ ही नहीं बल्कि सब कुछ ही बदल दिया है. पिछले लगभग दो सालों से जिस तरह से पूरी दुनिया कोरोना महामारी के शिकंजे में है, उसका ग्लोबल जॉब मार्केट में जबरदस्त असर हुआ है, इसका खुलासा एमआई यानी मैकिंजे इंटरनेशनल के एक हालिया सर्वे से हुआ है. दुनिया के आठ देशों में जहां धरती की 50 फीसदी से ज्यादा आबादी रहती है और जहां वैश्विक अर्थव्यवस्था का 62 फीसदी जीडीपी का उत्पादन होता है. ऐसे आठ देशों में मैकिंजे इंटरनेशनल ने पिछले दो सालों में बदले हुए जॉब ट्रेंड एक सर्वे किया है और कॅरियर शुरु करने के इंतजार में खड़ी पीढ़ी को सावधान किया है कि वे जल्द से जल्द अपने आपको नयी परिस्थितियों के मुताबिक ढालें वरना अप्रासंगिक हो जाएंगे.

मैकिंजे इंटरनेशनल ने जिन आठ देशों की अर्थव्यवस्था पर नजर रखी है और वहां के जॉब मार्केट में सर्वे किया है, उसमें चीन, भारत, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, जापान, यूनाइटेड किंगडम और यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमरीका शामिल हैं. इन सभी देशों में कम या ज्यादा मगर पिछले दो सालों में नौकरियां कम हुई हैं. कहीं 8 से 10 फीसदी तक तो कहीं 20 से 25 फीसदी तक और इन नौकरियों के कम होने में सबसे बड़ी भूमिका है आटोमेशन की. शोध अध्ययन से पता चला है कि बड़े पैमाने पर जॉब  कुछ विशेष क्षेत्रों में समाहित हो गये हैं. मैकिंजे के विस्तृत अध्ययन से पता चला है कि पिछले दो सालों में 800 से ज्यादा प्रोफेशन, 10 कार्यक्षेत्रों में समाहित हो गये हैं और खरीद-फरोख्त के मामले में तो ऐसा उलटफेर कर देने वाला परिवर्तन हुआ है कि कोरोना से पहले जहां ग्लोबल शोपिंग में ऑनलाइन  शोपिंग की हिस्सेदारी 35 से 40 फीसदी थी, वहीं पिछले दो सालों में यह बढ़कर 80 फीसदी तक हो गई है.

हालांकि यह स्थायी डाटा नहीं रहने वाला. क्योंकि इतने बड़े पैमाने पर ऑनलाइन, शोपिंग इसलिए भी इन दिनों हुई  से क्योंकि इस दौरान दुनिया के ज्यादातर देशों में लॉकडाउन लगा हुआ था. बावजूद इसके मैकिंजे इंटरनेशनल शोध अध्ययन की पहली किस्त का साफ तौरपर निष्कर्ष है कि खरीद-फरोख्त की दुनिया में कोरोना महामारी ने आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है. इस महामारी के खत्म होने के बाद भी यह परिवर्तन लौटकर पहली वाली स्थिति में नहीं आने वाला. आज की तारीख में राशन से लेकर सिरदर्द की टैबलेट तक लोग बड़ी सहजता से ऑनलाइन मंगवा रहे हैं. आश्चर्य तो इस बात का भी है कि बड़ी तेजी से इन लॉकडाउन के दिनों में अलग अलग शहरों के मशहूर स्नैक्स तक 24 से 48 घंटों के अंदर देश के एक कोने से दूसरे कोने में डिलीवर होने लगे हैं. इलाहाबाद के पेड़े (अमरूद) ही नहीं अब समोसे भी 24 घंटे के अंदर नागपुर, भोपाल, मुंबई, पुणे और विशाखापट्टनम में खाये जा सकते हैं.

वैसे कभी न कभी तो यह सब होना ही था. लेकिन कोरोना महामारी ने इसकी रफ्तार बहुत तेज कर दी है. पिछले दो सालों में ई-कॉमर्स  और आटोमेशन में जबरदस्त इजाफा हुआ है और इस इजाफे में कैटेलेटिक एजेंट की भूमिका कामकाजी लोगों का बड़े पैमाने पर घर में रहना यानी वर्क फ्राम होम की स्थिति ने निभाया है. पिछले दो सालों के भीतर औसतन पूरी दुनिया में करीब 25 फीसदी सेवा क्षेत्र की नौकरियों में इंसानों की उपस्थिति खत्म हो चुकी है,उनकी जगह या तो रोबोट ने ले ली है या कम स्टाफ ने. शायद इस महामारी के खत्म होने के कुछ सालों बाद ही दुनिया आश्चर्यजनक ढंग से इस महामारी के दौरान दुनिया में हुए रातोंरात तूफानी परिवर्तनों को महसूस करे, अभी तो यह सब कुछ बहुत तात्कालिक लगता है और कहीं न कहीं यह भी लगता है कि महामारी के जाते ही दुनिया शायद पुरानी जगह लौट आयेगी. लेकिन इतिहास इस अनुमान का, इस भरोसे का साथ नहीं देता.

इतिहास बताता है कि किसी भी क्षेत्र में हुआ कोई भी बदलाव आसानी से पहले की स्थिति में नहीं लौटता. यूरोप में और अमरीका में पिछले दो सालों के भीतर सफाई के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर मशीनों का आगमन हुआ है. आज की तारीख में अमरीका में 18 से 20 फीसदी तक और यूरोप में 12 से 15 फीसदी तक रोबोट सफाई कर्मचारियों के रूप में मोर्चा संभाले हुए हैं. कोरोना संकट खत्म होने के बाद विशेषज्ञों को नहीं लगता कि रोबोट वापस शो रूम में चले जाएंगे. मैकिंजे की मानें तो आने वाले सालों में रोबोट इंसानों को अनुमान से 50 फीसदी ज्यादा चुनौती देने जा रहे हैं. हां, कुछ क्षेत्र इस दौरान ऐसे भी उभरकर सामने आये हैं, जहां मैनपावर यानी इंसानों की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा महसूस हुई है. इसमें सबसे प्रमुख क्षेत्र निःसंदेह चिकित्सा का है . दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है जहां कोरोना त्रासदी के दौरान, डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ की कमी महसूस न हुई हो. भारत, चीन जैसे जनसंख्या प्रधान देशों में डॉक्टरों को सामान्य समय के मुकाबले कोरोनाकाल में करीब 2.5 से 3 गुना तक कमी महसूस कराई गई है.

यही हाल चिकित्सा क्षेत्र में देखरेख का मुख्य आधार नर्सों का भी है. दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है जो आज की तारीख में अपनी कुल जरूरत की 80 फीसदी तक नर्सें रखता हो. दुनिया के बहुत सारे देशों में भारत से ही नर्सें जाती हैं या उनकी बड़ी जरूरत को किसी हद तक पूरा करते हैं. लेकिन इस कोरोना महामारी के दौरान भारत में 300 फीसदी से ज्यादा नर्सों की कमी महसूस की गई. हालांकि नर्से उपलब्ध हो जाएं तो भी भारत के चिकित्सा क्षेत्र के पास इतने संसाधन नहीं है कि वह उन्हें नौकरी दे सके. लेकिन कोरोना की रह-रहकर आयी लहरों ने साबित किया है कि डॉक्टर, नर्स और इस क्षेत्र के दूसरे सहायकों की आज पहले से कहीं ज्यादा जरूरत है और आने वाले भविष्य में भी यह जरूरत बनी रहने वाली है.

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