मन के तहखाने-भाग 3: अवनी के साथ ससुराल वाले गलत व्यवहार क्यों करते थे

पूरब को उस की खामोशी अच्छी नहीं लग रही थी पर वह कुछ कह कर उस के मन को दुखी नहीं करना चाहता था. सारी स्थिति को स्वयं ही संभालते हुए उस ने कहा, ‘‘मौसी, आप का बेटा हमें भी बहुत पसंद है. अब आप आज्ञा दें तो शगुन दे कर इसे अपना बना लें.’’

मौसी ने तुरंत कहा, ‘‘यह तुम्हारा ही है पूरब.’’

प्रसन्नचित्त पूरब रसोई में जा कर श्रावणी से बोली, ‘‘श्रावी, चलो अपनी बेटी के शगुन की रस्म पूरी करो. तुम्हें ही मां और चाची का फर्ज निभाना है.’’

श्रावणी कुछ कहने जा रही थी पर उसी समय विविधा आ गई तो उस ने मन की बात बाहर नहीं निकाली. विविधा आते ही श्रावणी से लिपट गई. बोली, ‘‘हाय मम्मी, अवनी दी अब हमें छोड़ कर चली जाएंगी…’’

श्रावणी के मन में अचानक कुछ घनघना उठा. इतने वर्षों से इस घर का हर काम अवनी ने ही संभाला हुआ था. अब क्या होगा, कैसे होगा? श्रावणी ने विविधा और पूरब को देखा. वह बोला, ‘‘विवू ठीक कह रही है. बहुत थोड़ा समय है जिस में हमें अवि को जी भर कर लाड़ देना है.’’

पूरब जैसे ही घूमा देखा द्वार पर अवनी खड़ी थी और उस के आंसू झरने लगे थे.

‘‘बाहर क्यों खड़ी है, चल अंदर आ जा,’’ अचानक श्रावणी ने कहा. वह सुबकती हुई आई तो श्रावणी ने आंचल से उस के आंसू पोंछ डाले.

‘‘आज तो खुशी का दिन है, फिर रो क्यों रही है?’’

अवनी उन के गले से लग गई तो धीरेधीरे श्रावणी ने भी उसे बांहों में भर लिया.

‘‘चुप हो जा और विवू इसे अच्छी सी साड़ी पहना कर तैयार कर. हम अनिकेत के टीके की थाली बना रहे हैं.’’

पूरब जा चुका था. विविधा अवि को ले कर चली तो अचानक श्रावणी ने कहा, ‘‘बेटा अवि, मेरी किसी बात का दुख न मनाना. मैं तो हूं ही पगली. कभी यह भी नहीं सोचा, यह तो पराया धन है, इसे जी भर कर प्यार कर लूं.’’

‘‘नहीं चाची, आप तो हमें घरगृहस्थी के योग्य बनाना चाहती थीं. यह तो मातापिता ही सिखाते हैं.’’

श्रावणी ने भरी आंखों से उसे देखा. एकदम अपनी मां जैसी सादगी से भरी हुई. अवनी चली गई तो श्रावणी जल्दीजल्दी थाली सजाने लगी. उस के हाथ तीव्रता से चल रहे थे और उसी रफ्तार से वह सोच में डूब गई थी. आखिर वह इतने दिनों से किस से चिढ़ रही थी. उस जेठानी से, जिस ने सदा उसे छोटी बहन माना. यह क्रोध क्या उसे इसलिए सताता रहा कि सास क्यों जेठानी को अधिक प्यार करती थीं या इसलिए कि वह क्यों नहीं उन की तरह समर्थ थी? तो फिर क्यों अवनी को भी उसी क्रोध का शिकार बना डाला?

मन के बवंडर को संभालते हुए वह टीके की थाली ले कर बाहर आ गई. विविधा भी तब तक अवनी को ले कर आ गई थी. सुनहरे बौर्डर वाली लाल जरीदार साड़ी में अवनी एकदम राजकुमारी लग रही थी. मौसी ने उसे अपनी बगल में बैठा लिया और लाड़ से उसे देखते हुए शनील का डब्बा खोल कर सुंदर सा हार उस के गले में पहना दिया.

माथे पर रोली का टीका लगा कर बोलीं, ‘‘श्रावणी, तुम्हारी बेटी अब हमारी हुई.’’

श्रावणी का मन धक से रह गया. एक बार फिर वह किसी अपने को खोने जा रही थी तो क्यों नहीं उसे कभी जी भर कर प्यार कर पाई?

श्रावणी देर से जिस बवंडर से जूझ रही थी. वह आखिर बांध तोड़ कर बह निकला, ‘‘बहुत भोली है हमारी बेटी, इसे…’’

‘‘इसे हम बहू नहीं बेटी बना कर रखेंगे श्रावणी,’’ मौसी ने बीच में ही टोक दिया.

अवनी ने पलकें उठा कर रोती हुई चाची को देखा तो उस का मन भी भर आया. श्रावणी अनिकेत को टीका करने लगी तो उस ने कहा, ‘‘आप से वादा करता हूं, इन्हें कभी मायके की कमी महसूस नहीं होने देंगे.’’

अवनी को लग रहा था, जैसे वह कोई स्वप्न देख रही हो. आखिर इतना प्यार चाची ने कहां छुपा रखा था और क्यों छुपा रखा था?

जाने कितने द्वंद्व श्रावणी के अंतरमन में छुपे हुए थे, जो बूंदबूंद बन कर रिसने लगे थे. अवनी ने देखा और उन के गले से लग गई. एक कांपता सा रुदन उस के कंठ से भी फूट निकला था, ‘‘छोटी मां…’’

श्रावणी के स्वर गायब से हो चुके थे, फिर भी लरजती ध्वनि से कह गई, ‘‘क्षमा कर देना मेरी बच्ची.’’

अवनी के आंसुओं से उस का कंधा भीग गया था और अवनी अस्फुट स्वरों में फुसफुसा रही थी, ‘‘मां कभी क्षमा नहीं मांगती है, बस आशीर्वाद देती है.’’

अवनी के ये अस्फुट शब्द श्रावणी के अंतरमन को हुलसाते चले गए थे. यह कैसा मधुर सा एहसास था, किसी को अपना पूरी तरह बना लेने का. काश, मन के दरवाजे बहुत पहले ही खोल दिए होते. उस ने प्रफुल्लित मन से अवनी का माथा चूम लिया था.

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कासनी का फूल: भाग 3- अभिषेक चित्रा से बदला क्यों लेना चाहता था

एक बार इंस्टिट्यूट के फाउंडेशन डे पर क्लासिक सौंग्स के कंपीटिशन में जब दर्शकों की वाहवाही के बाद भी चित्रा को तीसरा स्थान मिला था तो ईशान ने कितने प्यार से कहा था, ‘‘तुम्हारी वजह से यहां के स्टूडैंट्स पुरानी फिल्मों के गीतों में रुचि दिखा रहे हैं. यही तुम्हारा इनाम है. दुनिया में तरहतरह के लोग होते हैं और उन की पसंद भी अलगअलग होती है. हमें खानेपीने के साथसाथ और बातों में भी सभी लोगों की पसंद का ध्यान रखना पड़ेगा क्योंकि हौस्पिटैलिटी इंडस्ट्री में जाना है.’’

यहां आने के बाद चित्रा को ईशान की कुछ ज्यादा ही याद आने लगी है. शिमला के आसपास ही तो बताता था वह अपना घर. जब से यहां आई है जहां निगाह पड़ती है ईशान की दृष्टि से सब देखने लगती है. ईशान के पास प्रतिदिन उस का बैठना और ईशान से पहाड़ों के बारे में सवाल करना उस की दिनचर्या का सब से सुखद पहलू था. ईशान भी बातें करते हुए खो जाता था चित्रा में. सच तो यह है कि ईशान का मन पढ़ते हुए वह जान गई थी कि एक मुलायम सा मखमली कोना ईशान के हृदय में बन चुका है उस के लिए. अपने दिल को कभी टटोला ही नहीं था उस ने क्योंकि चंदनदास वाली घटना के बाद उसे प्रेम संबंधों के विषय में सोच कर ही डर लगता था.

आज अपने मन के अंधेरे, उजाले के बीच झलती चित्रा घाटी में उतर रहे हलके उजाले और घाटी से पहाड़ पर चढ़ रहे अंधेरे में खोई थी. थोड़ी देर बाद दृष्टि वहां से हट कर सामने कुछ दूरी पर बने मकानों पर टिकी तो एक घर में प्रवेश करती आकृति उसे ईशान जैसी लगी.

‘ईशान इतना छा गया है मुझ पर कि दिखाई भी देने लगा,’ अशांत कहीं खोईखोई सी चित्रा मोबाइल में मैसेज देख अपना ध्यान उस ओर से हटाने के प्रयास में लग गई.

चित्रा का होटल घर से बहुत दूर नहीं था. सुबह जल्दी उठकर पैदल ही निकल जाती थी वह. उस दिन भी घर से निकली, सामने की छोटी पहाड़ी पर बने मकान पर निगाहें टिक गईं. जब से ईशान के प्रवेश का भ्रम हुआ है वहां से निकलते हुए एक चोर सा मोह उस के मन को जकड़ने लगता है. ऊंचाई अधिक न होने के कारण 2 मिनट रुक कर एक भरपूर दृष्टि उस मकान पर डाल सिर झट कर चल दी.

‘‘चित्रा…’’ अपने नाम की पुकार सुन एकाएक चित्रा विश्वास न कर सकी, ‘उफ, मुझे तो ईशान की आवाज भी सुनाई देने लगी,’ चित्रा ने अपना सिर उठा कर देखा तो आंखें खुली की खुली रह गईं. ईशान बालकनी में खड़ा हाथ हिला रहा था.

‘‘मैं नीचे आ रहा हूं, रुको,’’ ईशान झटपट सामने आ खड़ा हुआ.

‘‘तुम्हें देखा तो लगा कि तुम चित्रा ही हो, सोचा कि नाम पुकारता हूं कोई और हुई तो तुम्हारे नाम से रुक थोड़े ही जाएगी,’’ हांफते हुए ईशान एक सांस में सब बोल गया.

‘‘मुझे भी एक दिन तुम जैसा कोई मतलब तुम दिखे थे वहां से,’’ चित्रा अपने घर की ओर इशारा करते हुए बोली.

दोनों खिलखिला कर हंस पड़े. एकदूसरे को अपने वर्तमान की झलक दे कर शाम को मिलने की बात हुई. चित्रा चली ही थी कि ईशान ने पुकार कर कहा, ‘‘पता है अपने जिस रैस्टोरैंट की बात मैंने अभी की है वह तुम्हें डैडिकेटेड है. एक दिन वहां ले जाऊंगा फिर बताना कैसे जुड़ा है वह तुम से? देखता हूं तुम्हें दोस्ती की पुरानी बातें कितनी याद हैं?’’

‘‘मिलते ही उलझन में डाल दिया ईशान,’’ चित्रा मुसकरा दी.

दोनों ने हंसते हुए विदा ली और अपनी राह चल दिए. ईशान ने कसौली में एक ढाबानुमा रैस्टोरैंट खोला था. उस का अपना घर वहां से कोई 150 किलोमीटर दूर धरौट नाम के गांव में था. चित्रा को याद है कि पढ़ते हुए भी ईशान अकसर फूड शौप खोलने के सपने देखता था. गांव में ऐसे रैस्टोरैंट्स के चलने की संभावना कम ही थी. कसौली में इस व्यवसाय को शुरू करने का मुख्य कारण पर्यटकों का कसौली के प्रति बढ़ता आकर्षण था. चित्रा के सामने वाले मकान में वह उन 2 लड़कों के साथ किराए पर रह रहा था जिन्हें अपने साथ ही काम पर रखा हुआ था.

चित्रा ने थोड़ी दूर चलने के बाद पगडंडी छोड़ सड़क का रास्ता पकड़ लिया. वह सड़क उस ओर जाती थी, जहां ईशान ने अपना रैस्टोरैंट होने की बात कही थी. वह रैस्टोरैंट उसे कैसे समर्पित है, यह देखने की चाह उसे खींच रही थी.

रास्तेभर चित्रा सोचती आ रही थी कि शाम को अपने विषय में ईशान को क्या बताए, क्या छिपाए? अभी तो ईशान को उस ने केवल यही बताया कि उस का विवाह हो चुका और यहां वह अकेली रह कर जौब कर रही है. अपनी व्यथा और पीड़ा के सिवा बताने को है ही क्या उस के पास. क्या ईशान उस की जिंदगी की अंधेरी गलियों में जाना पसंद करेगा?

चित्रा की सोच एक झटके में थम गई. सामने दिख रही फूड शौप ईशान की थी, नाम था ‘कासनी फूड हट.’ बोर्ड पर बना लोगो (प्रतीक चिह्न) भी कासनी के फूल की बनावट लिए था.

चित्रा कैसे भूल सकती है कि एक बार पढ़ाई के दौरान उन को हल्द्वानी के एक संस्थान में ले कर गए थे, जहां कासनी के फूल प्रचुर मात्रा में उगाए जाते थे. होटल मैनेजमैंट के विद्यार्थियों को वहां कासनी के पौधों की सूखी जड़ें पीस कर पाउडर बनाने के बाद कौड़ी में मिलाना सिखाया गया था. सामान्य सी दिखने वाली जड़ों से सूखने पर चौकलेट जैसी गंध आती है, स्वाद भी चौकलेट से मिलताजुलता होता है, लेकिन कैफीन नहीं होता उस में. चित्रा उस मनभावन सुगंध में खो गई थी. कासनी का फूल उसे हमेशा से बहुत प्रिय था.

ईशान ने उस दिन कहा था, ‘‘चित्रा, तुम इन कासनी के फूलों जैसी ही हो. नीले रंग के फूल प्रकृति ने बहुत कम दिए हैं, तुम सी भी कम ही होंगी दुनिया में. कासनी न सिर्फ सुंदर है इस का प्रत्येक भाग किसी न किसी रूप में लाभकारी भी है. तुम भी खूबसूरती के साथ अपने में अनेक गुण समेटे हो. इस की मीठी खुशबू सा व्यवहार भी है तुम्हारा. कासनी को चिकोरी भी कहते हैं इसलिए आज से मैं तुम्हें चिकोरी कह कर बुलाऊंगा.’’

यह बात ईशान और चित्रा तक ही सीमित थी. कोई चिकोरी नाम के विषय में पूछता तो ईशान कह देता कि चित्रा की तुलना में चिकोरी बोलना आसान है, इसलिए बुलाता है वह इस नाम से.

‘ईशान को मैं न सिर्फ याद हूं उस के मन में मेरी अब भी वही खास जगह है. तभी तो उस ने कासनी रखा है अपने रैस्टोरैंट का नाम. मैं ईशान से कुछ नहीं छिपाऊंगी. अपनी जिंदगी खोल कर रख दूंगी उस के सामने. ऐसे दिल से चाहने वाले दोस्त कहां मिलते हैं? मुझे अपना राजदार बनाना ही है उसे,’ सोच चित्रा की आंखें नम हो गईं.

किसी तरह पलपल गिनते हुए उस का दिन बीता. सांझ को घर लौटी. ईशान की प्रतीक्षा में आकुल मन कुछ करने ही नहीं दे रहा था.

ईशान आते ही बोला, ‘‘सुबह हिम्मत नहीं जुटा सका था, क्या मैं तुम्हें अब भी चिकोरी कह कर बुला सकता हूं.’’

चित्रा खिल उठी. लौंग, इलायची डाल कर चाय बनाई. उसे याद था कि ईशान को चाय में इलायची और लौंग डाल कर पीना बहुत पसंद है. ईशान अपने रैस्टोरैंट के बने मोमोज ले कर आया था.

‘‘चिकोरी, तुम से बहुत सी बातें करनी हैं या यों कहूं कि बहुत कुछ सुनना है. मुझे तो जो कहना था सुबह ही कह दिया था मैं ने,’’ ईशान चित्रा के विषय में जानने को उत्सुक था.

दोनों बालकनी में बैठे तो बातों का सिलसिला शुरू हो गया.

‘‘चिकोरी, तुम ने बताया कि तुम्हारी शादी हो गई, लेकिन तुम तो पहले जैसी ही दिख रही हो, बल्कि चेहरा कुछ मुरझाया सा लग रहा है. यह बात दूसरी है कि सूखे हुए कासनी के फूल की तरह सुंदरता कम नहीं हुई तुम्हारी.’’

इतने अपनेपन में भीगे शब्द चित्रा ने न जाने कितने दिनों बाद सुने थे. अत: वह आपबीती सुनाने लगी. अभिषेक से विवाह और तलाक के विषय में तो उस ने सब बता दिया, लेकिन चंदनदास वाली घटना और अभिषेक के साथ संबंध बनाते हुए सहयोग न कर पाने की बात कहते हुए उसे झिझक आ रही थी. इतना ही कह सकी, ‘‘हम मिलते रहेंगे तो जीवन की अनकही परतें खोलती रहूंगी, जाने कब से मन के अंधेरे कुएं में बंद मेरा दम घोटती रहती हैं काली यादें.’’

‘‘ओह, तुम्हारी जिंदगी इतनी दुखभरी रही और मुझे पता तक नहीं चला,’’ ईशान के शब्दों में चित्रा को सहानुभूति और आंखों में जज्बात की वह झील दिख रही थी जो इतना समय बीत जाने पर भी नहीं सूखी थी. अनायास ही उस का सिर ईशान के कंधे पर जा टिका. ईशान ने प्यार से उस के बालों में हाथ फेरा तो चित्रा की पलकें मुंद गईं. दोनों देर तक यों ही शांत बैठे रहे.

रात को ईशान घर लौटा तो आंखों में नींद की जगह बेचैनी ने ले ली थी, ‘लगता है अभी भी बहुत कुछ दबा है चिकोरी के दिल में. मैं उस के मन की थाह लूंगा, उस के दुख में भागीदार बनूंगा.’

ईशान का काम अच्छा चलने लगा था. सहयोग के लिए 2 और लड़कों को रख लिया उस ने. इस का एक अन्य कारण चित्रा को समय देना भी था.

‘‘2 दिनों के लिए चैल चलोगी? यहां से ज्यादा दूर नहीं है, बहुत सुंदर हिल स्टेशन है,’’ एक दिन चित्रा के सामने ईशान ने प्रस्ताव रखा तो उस ने पूरे मन से हां कर दी.

ईशान को पहाड़ों पर ड्राइव करने का अच्छा अनुभव था, इसलिए अपनी कार से जाने का निश्चय किया. 2 घंटे की यात्रा थी लगभग. नियत दिन वे सुबह जल्दी घर से निकल पड़े. सर्दी के दिन बीत चुके थे, फिर भी हलकी सी धुंध फैली. कुछ देर बाद हलके कुहरे को चीरती सूर्य की किरणें बिखरने लगीं. ठंडी हवा के ?ांके हृदय को आह्लादित कर रहे थे.

बलखाती सड़क के एक ओर खाई तो दूसरी ओर ऊंचे पहाड़, चित्रा मन ही मन ईशान व अभिषेक की तुलना करने लगी, ‘खाई दूर से हरीभरी लग रही है लेकिन भूले से भी कोई फिसल जाए तो गिरता ही जाए नीचे, नीचे, कहां तक पता नहीं. अभिषेक का साथ मिला तो मेरी नौकरी भी छूटी, सुकून भी गया. इस के विपरीत पहाड़ पर चढ़ना मतलब ऊंचाइयों को छू लेना. अपने मन में तरल प्रेम सा पानी छिपाए हैं जो कभीकभी झरनों के रूप में फूट पड़ता है ठीक ईशान की तरह.’

‘‘जब कोई बात बिगड़ जाए, जब कोई मुश्किल पड़ जाए, तुम देना साथ मेरा ओ हमनवा…’’ कानों में गीत की आवाज आने से चित्रा अपने खयालों से बाहर निकल आई.

‘‘चिकोरी, कैसा है गाना? जहां तक मुझे याद है तुम्हें पुराने गाने पसंद हैं. जो कहोगी वही सौंग लगा दूंगा. बहुत बड़ा कलैक्शन है मेरे पास. रैस्टोरैंट में सारा दिन अलगअलग तरह के गाने लगाने पड़ते हैं.’’

‘‘इतना सुंदर गाना किस को पसंद नहीं आएगा,’’ चित्रा सचमुच गाने में खो गई.

‘‘गाने की दूसरी लाइन मेरे दिल सी निकली लगती है चिकोरी, न कोई है न कोई था जिंदगी में तुम्हारे सिवा…’’ ईशान ने गाने के बहाने मन की बात कह ही दी.

उन का कमरा पैलेस होटल में बुक था. कार वहां पहुंची तो होटल की भव्यता देख चित्रा ठगी सी रह गई.

‘‘जानती हो चिकोरी यह एक महल था जिसे 19वीं शताब्दी के अंत में पटियाला के महाराजा ने बनवाया था.’’

बातें करते हुए दोनों कमरे में पहुंच गए. कौफी और हलकेफुलके स्नैक्स लेने के बाद घूमने चल दिए.

मन के तहखाने-भाग 2: अवनी के साथ ससुराल वाले गलत व्यवहार क्यों करते थे

उसे जेठानी का चेहरा अकसर याद आता रहता. सोचती, इतने थोड़े समय का साथ था पर मैं नासमझ उन से चिढ़ने में ही लगी रही. धीरेधीरे मन को शांत कर सकी थी. जब सुध आई तो सामने पहाड़ की तरह एक उत्तरदायित्व उसे परेशान करने लगा. क्या होगा अवनी का? जैसे ही उसे सीने से लगाती तो अतीत के कई स्वर उसे आंदोलित करते और वह पुन: विक्षिप्त सी हो उठती. विवाह की पहली रात ही पूरब ने कहा था, ‘‘श्रावणी, हम चाहते हैं कि तुम्हारा मीठा स्वभाव उसी तरह मां के मन पर राज करे, जैसे भाभी का करता है.’’

प्रथम मिलन के समय अपने पति से मीठी प्यारी बातों के स्थान पर ऐसी बात उसे आश्चर्यचकित कर गई. वह कह रहा था, ‘‘भैया भाभी ने इस घर के लिए बहुत से त्याग किए हैं पर कभी भी उलाहना नहीं दिया.’’

पूरब ने उसे बताया कि कैसे बाबूजी के कम वेतन में इस घर में दरिद्रता का राज था. भैया ने अपनी पढ़ाई पूरी करने के साथ कुछ ट्यूशन ले रखी थीं ताकि घर की स्थिति में भी सुधार आए और वह पढ़ाई भी पूरी कर लें. भैया की लगन और परिश्रम से उन्हें एक अच्छी नौकरी भी मिल गई. घर में सुख के छोटे छोटे पौधे लहराने लगे. जब भाभी ब्याह कर आईं तो उन्होंने भी हर प्रकार से घर के हितों का ही ध्यान रखा. उन्हीं की जिद से मैं एम.बी.ए. कर सका और आज एक बड़ी कंपनी में नौकरी कर रहा हूं.

श्रावणी को याद है कि कैसे अपनी उबासियों को रोक कर उस ने सारी बातें सुनी थीं. उस रात की मर्यादा बनाए रखने के लिए उस ने मन का उफनता हुआ लावा सदा मन में दबाए रखा. जब जेठ जेठानी चले गए तो वह लावा समय असमय अवनी पर फूटने लगा.

अवनी के विवाह के नाम पर जेठ जेठानी ने बहुत पहले ही एक पौलिसी ली थी जिसे अब निश्चित समय पर आगे बढ़ाना पूरब के जिम्मे था. जब तक अवनी 20 वर्ष की होगी, उस के विवाह के लिए अच्छी रकम जमा हो चुकी होगी. फिर भी वह समयसमय पर अवनी के विवाह की चिंता दिखाने बैठ जाती. ‘इस महंगाई में अपनी बेटी का विवाह करना ही कठिन है, ऊपर से जेठजी की बेटी का भी सब कुछ हमें ही संभालना है.’

उस की बातों से आसपड़ोस की महिलाएं बहुत प्रभावित हो जातीं लेकिन पूरब खीज उठता, जो श्रावणी को सहन नहीं होता था.

पूरब कहता, ‘‘भैया सिर्फ अवनी के लिए ही नहीं अपनी विधू के लिए भी छोड़ गए हैं. दोनों उस में ब्याह जाएंगी.’’

श्रावणी खीज कर कहती, ‘‘मेरे पास बहुत काम है, तुम्हारी भैयाभाभी स्तुति सुनने का समय नहीं है.’’

अवनी पढ़ाई में बहुत तेज थी. घर के सारे काम निबटा कर अपनी पढ़ाई पूरी करती. कभी विविधा कुछ पूछती तो उसे भी पढ़ाने में समय देती.

एक दिन श्रावणी की दूर की मौसी का फोन आया कि वे अपने पुत्र के लिए लड़की देखने आ रही हैं. उन का एक ही पुत्र था.

2 बेटियों का विवाह कर चुकी थीं, अब पुत्र का शीघ्र विवाह करना चाहती थीं ताकि कनाडा जाने से पूर्व उस के पैरों में बेडि़यां डाल दें. श्रावणी ने अवनी से कहा, ‘‘मेरी दूर की मौसी आ रही हैं, पहली बार आएंगी, खूब खातिर करना.’’

विविधा ने तुरंत टोका, ‘‘फिर दीदी कालेज कब जाएंगी?’’

‘‘हम सब कर लेंगे चाची, आप चिंता न करिए…’’

श्रावणी ने विविधा को क्रोध से देख कर कहा, ‘‘तुम्हारी तरह आलसी नहीं है अवनी. सब कुछ मैनेज करना जानती है.’’

कहने को तो वह कह गई पर तुरंत उसे अपनी गलती का एहसास हो गया. अवनी से काम करवाने के चक्कर में अपनी बेटी पर कटाक्ष कर बैठी. वह मन ही मन में अपनी नासमझी पर विकल हो उठी.

न चाहते हुए भी बहुत कुछ हो जाता है और उस सब की जिम्मेदारी उसी पर है. अपना हाथ एकसाथ दोनों पर रख कर बोली, ‘‘हमारा मतलब है कि आज तुम भी अपनी दीदी का हाथ बटाओ और सीख लो कि कैसे वह सब बनाती है,’’ अपनी गलती सुधारती श्रावणी तीव्रता से बाहर चली गई.

मौसी आईं तो उन का पुत्र अनिकेत भी साथ आया. उस ने बहुत जल्दी हर एक का मन जीत लिया. भोजन करने बैठे सब तो मौसी ने खूब प्रशंसा आरंभ कर दी.

श्रावणी बोली, ‘‘दोनों बहनों ने मिल कर बनाया है.’’

‘‘नहीं आंटी,’’ विविधा तुरंत बोली, ‘‘यह सारा खाना दीदी ने बनाया है.’’

‘‘अरे वाह, तुम तो बहुत अच्छी गृहस्थन हो बेटा,’’ मौसी ने प्यार से अवनी को देखा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘जी, अवनी.’’

‘‘पढ़ती हो?’’ मौसी ने अगला प्रश्न उछाल दिया.

‘‘बी.ए. फाइनल में,’’ अवनी ने धीरे से कहा.

‘‘काश! वह लड़की भी तुम्हारी ही तरह गुणी हो, जिसे हम लोग अनिकेत के लिए देखने जा रहे हैं.’’

मौसी और अनिकेत के जाने के बाद अवनी कालेज चली गई. उस के 2 पीरियड छूट चुके थे.

शाम को जब घर पहुंची तो घर में बहुत सन्नाटा था. मौसी और चाची धीरेधीरे कुछ बोल कर चुप्पी साध लेती थीं. अनिकेत समाचारपत्र पकड़ कर लगातार कुछ सोच रहा था.

अवनी ने पुस्तकें रखीं और चाची के पास जा कर बोली, ‘‘चाय बनाऊं?’’

मौसी ने चौंक कर उसे देखा. उन की आंखों में जाने क्या था. श्रावणी ने कहा, ‘‘हां, साथ में कुछ गरमगरम पकौड़े भी बना लो.’’

अवनी लौटी तो उस ने सुना मौसी कह रही थीं, ‘‘कितनी प्यारी और शांत स्वभाव की है तुम्हारी अवनी.’’

रात तक अवनी को उन लोगों की चुप्पी का कारण पता चल गया था. इन लोगों को तो लड़की पसंद थी पर उस लड़की ने एकांत में अनिकेत से कहा कि वह किसी से प्यार करती है, मांबाप जबरन उस की शादी करवा रहे हैं. विविधा ने ये सारी बातें करते मौसी और मां को सुना था और अवनी को बताने चली आई थी.

अवनी के काम में हाथ बटाते हुए वह निरंतर कुछ न कुछ बोलती जा रही थी. अवनी मन ही मन में सोच रही थी कि वह लड़की कितनी बहादुर है, जिस ने सच को इस तरह सामने रख दिया.

खाने की मेज पर सब बैठे तो मौसी ने कहा, ‘‘अवनी बेटा, तुम भी हमारे साथ बैठो.’’

‘‘आप खाइए, हम गरम गरम फुलके सेंक रहे हैं.’’

मौसी ने उसे बहुत हसरत से देखा और अचानक बोलीं, ‘‘श्रावी, अपनी अवनी हमें दे दो,’’ फिर उन्होंने अनिकेत से कहा, ‘‘क्यों अनि, अवनी हमें बहुत पसंद है, तुम्हारे लिए मांग लें.’’

रसोई में कदम रखतेरखते अवनी ने सुना तो हठात ठहर गई. पूरा शरीर सिहर उठा. चाची से पहले चाचा ने कहा, ‘‘आप की ही बेटी है मौसी, जब चाहें अपना बना लें.’’

‘‘लेकिन अवनी से भी तो पूछिए,’’ अचानक उसे अनिकेत का यह स्वर सुनाई दिया.

इस असंभव सी बात पर वह आश्चर्यचकित भी थी और प्रसन्न भी. मन उत्तेजना से धड़क रहा था. क्या यह कोई सपना है? मौसी ने अगली बार उस के आते ही अपनी बगल में बैठा लिया.

‘‘बैठो बेटा, रोटी श्रावी बना लेगी,’’ उन की बात पर श्रावणी घबरा कर उठ गई और अवनी को बैठना पड़ा. मौसी ने प्यार से उस की पीठ पर हाथ फेरा और कहा, ‘‘बेटा,एक बात सचसच बताना, हमारा अनिकेत कैसा है?’’

अवनी ने धीरे से पलकें उठाईं. अनिकेत मुसकरा रहा था. उसे घबराहट सी होने लगी. अचानक आए ये अनोखे पल उसे अवाक कर रहे थे, पर स्थिति का सामना तो करना था. उस ने अपने चाचा की ओर देखा, फिर धीरे से बोली, ‘‘अच्छे हैं.’’

‘‘इस से शादी करोगी?’’ मौसी ने फिर पूछा. घबरा कर उस ने फिर चाचा की ओर देखा. उन्होंने ‘हां’ का संकेत दिया तो गरदन झुकाते हुए लजा कर उस ने ‘हां’ में हिला दी.

‘‘थैंक्यू अवनी,’’ अचानक अनिकेत का स्वर उस के कानों में गूंजा, ‘‘मुझे तो पहली ही नजर में आप पसंद आ गई थीं.’’

मौसी ने आश्चर्य से उसे देखा फिर बोलीं, ‘‘अरे, तो पहले ही क्यों नहीं कहा. हम वहां जाते ही नहीं.’’

अनिकेत ने संकोच से उधर देखा, ‘‘मां, मैं आप का वचन तोड़ कर कभी कुछ नहीं करना चाहता हूं. आप ने अपने वहां जाने की सूचना उन्हें दे रखी थी.’’

‘‘वाह बेटा वाह,’’ पूरब ने झट से कहा, ‘‘आजकल ऐसी अच्छी सोच कहां देखने को मिलती है.’’

श्रावणी मन ही मन में सोच रही थी कि जेठ जेठानी अकेली छोड़ गए बेटी को पर देखो तो, घर बैठे विदेश में बसा लड़का मिल गया. पता नहीं हमारी बेटी का क्या होगा.

कासनी का फूल: भाग 2- अभिषेक चित्रा से बदला क्यों लेना चाहता था

उस रात अभिषेक बेकाबू हो गया. चित्रा की न… न… करती गुहार को अनसुना कर अपनी पिपासा मिटाने को आतुर हो गया. भय से नीले पड़े चित्रा के अधरों को उस ने अपने दहकते होंठों से सिल दिया. अपनी बलिष्ठ भुजाओं में कांपती देह दबोच ली. एक शिकारी पक्षी निरीह जीव को पंजों में दबाए था. अभिषेक के निढाल हो कर लुढ़कने के बाद चित्रा सिसकियां ले कर लगातार आंसू बहाती रही, लेकिन उस के आंसू पोंछने वाला कोई नहीं था.

सिलसिला चल निकला. चित्रा अपने को अभिषेक द्वारा रौंदे जाने से पहले मन पक्का कर लेती, किसी तरह वे 10-15 मिनट बीतते और वह चैन की सांस लेती. धीरेधीरे वह इस की आदी हो गई. अब अभिषेक के छूने पर वह चुपचाप पड़ी रहती. न कोई पीड़ा, न दुख, न उत्साह, न रोमांच. प्रेम में उत्तेजित होना क्या होता है, यह तो वह कभी जान ही नहीं पाई.

चित्रा का शुष्क व ठंडा व्यवहार अभिषेक को रास नहीं आ रहा था, लेकिन पति के खोल से बाहर निकल उस ने एक मित्र या प्रेमी के समान कभी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि चित्रा के ऐसे व्यवहार का कारण आखिर है क्या? चित्रा को उस ने न कभी प्यार से सहलाया और न गले लगा कर आंसू पोंछे. चित्रा बेचैन और उदास रहने लगी थी. चेहरा मलिन, क्लांत हो गया था.

‘‘कल सुबह जल्दी उठ कर नहाधो लेना. हमारा परिवार एक स्वामीजी का बहुत सम्मान करता है. वे कुछ. महीनों से विदेश गए हुए थे. कल ही लौटे हैं, सुबह उन का आशीर्वाद लेने चलेंगे,’’ उस रात सोने से पहले अभिषेक बोला.

‘‘साधु बाबा टाइप के हैं क्या स्वामीजी?’’ चित्रा अनिष्ट से आशंकित हो रही थी.

‘‘तो और कैसे होते हैं स्वामीजी? फालतू बातें ही करनी आती हैं तुम्हें.’’

‘‘मुझे ऐसे लोगों पर विश्वास नहीं है. उन का आशीर्वाद तो दूर मैं तो पास भी नहीं फटकना चाहूंगी.’’

अभिषेक उठ कर बैठ गया. क्रोध में बढ़बढ़ाते हुए बोला, ‘‘तुम कैसी औरत हो? बिस्तर पर पति का साथ पसंद नहीं, बिन वजह रोज की यही समस्या. समाधान चाहा सिर्फ स्वामीजी के आशीर्वाद रूप में तो वह भी मंजूर नहीं. मैं तो पछता रहा हूं तुम से शादी कर के.’’

‘‘सौरी,’’ चित्रा रुंधे गले से बोली, ‘‘ऐसे लोगों से मुझे डर लगता है. एक बार जब मैं छोटी थी तो…’’

‘‘रहने दो बस. अब मेरी बात टालने के लिए बना लो कोई नई कहानी. मुझे परेशान देख कर बहुत मजा आता है न तुम्हें?’’ अभिषेक ने चित्रा को अपनी पूरी बात कहने का मौका ही नहीं दिया.

करवटें बदलती अगले दिन की भयावह कल्पनाओं में डूबी चित्रा रातभर सो न सकी. सुबह सिर भारी था. अभिषेक से चित्रा ने स्वामीजी के पास जाने में असमर्थता जताई तो उस ने घर वालों के साथ मिल कर आसमान सिर पर उठा लिया. चित्रा के सामने शर्त रखी गई कि उसे न केवल आज बल्कि माह में एक दिन स्वामीजी की सेवा में व्यतीत करना होगा वरना इस घर में उस के लिए कोई जगह नहीं होगी.

चित्रा के क्षमा मांगते हुए असहमति दर्शाने का कोई लाभ नहीं हुआ. हाथ जोड़ कर वह गिड़गिड़ाई भी, लेकिन कोई उस की बात सुनने को तैयार न था. अभिषेक उसी दिन चित्रा को यह कहते हुए मायके छोड़ आया कि स्वामीजी का अपमान वे लोग किसी कीमत पर नहीं सह सकते.

कुछ दिन यों ही बीत गए. चित्रा ने कई बार कौल कर बात करने का प्रयास किया, लेकिन अभिषेक ने फोन अटैंड नहीं किया. चित्रा के एक प्यार भरे मैसेज के जवाब में अभिषेक ने स्वामीजी से जुड़ने की शर्त को दोहरा दिया. अंतत: चित्रा को तलाक का रास्ता चुनना पड़ा. अभिषेक से रिश्ता रखने का अर्थ स्वामीजी से भी संबंध जोड़ना था.

‘‘जंगली जानवरों से भी डरावने चेहरे लिए चंदनदास जैसे ही किसी स्वामीजी के पास जाने के बारे में सोचते हुए भी मुझे डर लगता है,’’ अपनी मां से उस ने कहा था जब वे तलाश को ले कर फिर से सोचने की बात कह रही थीं.

‘‘तू बच्ची थी तब. मंत्र याद करने से बचना चाहती थी. अब तो सच स्वीकार कर ले चित्रा,’’ मां को बेटी से ज्यादा अभी भी चंदनदास पर भरोसा था.

‘‘नहीं आप को जो बताया था वही सच है कि चंदनदास ने अंधेरे में… मैं अब उस बारे में बात भी नहीं करना चाहती,’’ चित्रा के स्वर में घृणा उतर आई थी.

अभिषेक और चित्रा का वैवाहिक जीवन तलाक की भेंट चढ़ गया. जब चित्रा का परिवार ही उस का दुख नहीं समझ सका तो किसी से क्या आशा करती? मन पर बोझ लिए सब के बीच रहने से अच्छा विकल्प उसे दूर चले जाना ही लगा. कई होटलों में नौकरी के लिए अप्लाई किया. हिमाचल प्रदेश के छोटे से नगर कसौली से बुलावा आया तो उस ने तनिक देर नहीं की.

पहाड़ों पर बिखरे सौंदर्य को निहारते, आत्मसात करते हुए चित्रा अपने दुख को कम करने का प्रयास करती. उस दिन भी चाय ले कर बालकनी में खड़ा हो ढलती सांझ के झुटपुटे में खो रहे पेड़पौधों और रंगबिरंगे फूलों से कह रही थी कि अंधेरा हमेशा नहीं रहता, कल फिर धूप खिलेगी, फिर से रूपसौंदर्य दिखने लगेगा सब का. यही तो कहता था उसे ईशान जब कभी वह निराश होती थी. होटल मैनेजमैंट करते हुए ईशान के रूप में कितना बेहतरीन दोस्त पाया था उस ने. कोई डिश बनाते हुए चित्रा पीछे रह जाती तो ईशान चख कर स्वाद की प्रशंसा कर हौसला बढ़ाता.

 

मन के तहखाने-भाग 1: अवनी के साथ ससुराल वाले गलत व्यवहार क्यों करते थे

चाची बरामदा पार करने लगीं तो आंगन में गेहूं साफ करती अवनी पर दृष्टि ठहर गई. कमाल है यह लड़की भी. धूप में, पानी में कहीं भी बैठा दो, चुपचाप बैठी काम पूरा करती रहेगी.

सुबह उस के हाथों से गिर कर चायदानी टूट गई थी. उसी के दंडस्वरूप चाची ने अवनी को धूप में गेहूं बीनने का आदेश दिया था.

सुबह की धूप अब धीरेधीरे पूरे आंगन को अपनी बांहों में घेरती जा रही थी. चाची ने देखा, अवनी का गोरा रंग धूप की हलकी तपिश में और भी चमक रहा था. मन ने कहा, ‘श्रावणी, तू इतनी निर्दयी क्यों बन गई?’ पर उत्तर उस के पास नहीं था.

जब वह ब्याह कर इस घर में आई थी, तब जेठानी मानसी के रूपरंग को देख धक रह गई थी. वह उन के आसपास भी कहीं नहीं ठहरती थी. मानसी जीजी ने प्यार से उसे बांहों में भर लिया था और एकांत होते ही बोली थीं, ‘‘हमारी कोई छोटी बहन नहीं है, बस 2 भाई हैं, तुम हमारी बहन बनोगी न?’’

वह मुसकरा कर आश्वस्त हो गई थी. जिसे अपने रूप का तनिक भी गर्व नहीं उस से भला कैसा डरना? पर सब कुछ वैसा ही नहीं होता है, जैसा व्यक्ति सोचता है. प्राय: किसी भी काम से पहले सास का स्वर उसे आहत कर देता, ‘‘श्रावणी बेटा, जरा मानसी से भी पूछ लेना कि भरवां टिंडे कैसे बनेंगे. पूरब को अभी तक अपनी भाभी के हाथों के स्वाद की आदत पड़ी है.’’

उस का तनमन सुलग उठता. कैसे प्यार भरी चाशनी में लपेट कर सास ने उसे जता दिया था कि अभी तुम रसोई में कच्ची हो.

श्रावणी धीमे कदमों से आंगन में पहुंची और उसे झंझोड़ कर बोली, ‘‘इतनी देर में बस आधा कनस्तर गेहूं बीना है, चल उठ, रसोई में जा कर नाश्ता कर ले.’’

अवनी चुपचाप उठ गई. श्रावणी जब मन ही मन दयावान होती, तब भी क्रोध से ही उसे परेशानी से नजात दिलाती. धूप की ताप से परेशान अवनी को देख कर मन में तो दया उपज रही थी, पर दिखाने से तो मन के तहखाने का सच सामने आ जाता, अत: नाश्ते के बहाने उसे वहां से उठा दिया था.

अवनी ने स्टील की छोटी प्लेट हटा कर देखा, 2 रोटियों पर आलू को कुछ टुकड़े रखे थे. वह चुपचाप खाने लगी. छुट्टी का दिन था, वह परीक्षा की तैयारी के लिए पढ़ना चाहती थी, पर अब रसोई के काम का समय हो गया था. उस की आंखें नम होने लगीं.

उसी समय पानी लेने विविधा वहां आ गई. उसे खाते देख कर बोली, ‘‘यह क्या अवनी दीदी, आप रोटी क्यों खा रही हैं? हम ने तो ब्रैडपैटीज खाई हैं.’’

अवनी के मन में हलचल मची पर संभालने की आदत पड़ चुकी थी उसे. बोली, ‘‘आज हीरा काम पर नहीं आया है तो बासी रोटी कौन खाता. इस महंगाई में अनाज फेंकना नहीं चाहिए.’’

विविधा ने 2-3 डोंगे खोल डाले और ब्रैडपैटीज उस की प्लेट में रखते हुए बोली, ‘‘पता है, आप बहुत अच्छी गृहस्थन हैं पर चख कर तो देखिए.’’

वह पानी ले कर मटकती हुई बाहर चली गई. अवनी की आंखें सदा ऐसे प्रसंगों पर नम हो जाती हैं. विविधा उस से 7 वर्ष छोटी है. जब पूरब चाचा का विवाह हुआ तब अवनी 5 वर्ष की थी. नई चाची को हुलस हुलस कर देखती. वे टौफी देतीं तो झट उन की गोद में बैठ जाती. ‘‘चाची आप बहुत अच्छी हैं,’’ वह कहती.

श्रावणी तब उसे बहुत प्यार करती थी. 2 वर्ष पूरे होतेहोते ही विविधा आ गई तो अवनी फूली नहीं समाई. स्कूल से आते ही उस के साथ खेलने लगती. कभीकभी चाची उसे टोकतीं, ‘‘देख संभल कर, गिरा मत देना,’’ मां सामने होतीं तो आगे बढ़ कर उस का हाथ विविधा की गरदन के नीचे लगा कर कहतीं, ‘‘देख बेटा, छोटे बच्चों को ऐसे संभाल कर गोद में उठाते हैं.’’

अवनी को जब भी अतीत याद आता वह उदास हो जाती. दादी जब बहुत बीमार थीं,

तब वह उन से कहती, ‘‘दादी, आप कब ठीक हो जाएंगी?’’

‘‘पता नहीं रानी, ठीक हो जाऊंगी या जाने का समय आ गया है,’’ दादी खांसते हुए कहतीं.

‘‘कहां जाना है दादी?’’ वह भोलेपन से पूछती तो दादी की आंखों के कोर भीग जाते.

‘‘तुम्हारे दादाजी के पास,’’ दादी दुख से शून्य में देखते हुए बोलतीं. तब तक वह इतनी बड़ी हो चुकी थी कि जन्म और मृत्यु का अर्थ समझ सकती थी. उसे पता था कि दादाजी अब इस संसार में नहीं हैं.

 

नाश्ता कर के उस ने प्लेट धो कर रख दी. तभी चाची आ गईं. बोलीं, ‘‘अवनी, जितना आटा है, गूंध कर रोटी बना लेना. दाल हम ने बना दी है. गोभीआलू भी बना लेना.’’

‘‘जी चाची, सब हो जाएगा,’’ उस ने सादगी से कहा.

चाची कमरे में पहुंचीं तो विविधा ने घेर लिया, ‘‘मम्मी, आप ऐसा क्यों करती हैं?’’ उस ने कहा.

‘‘क्या कैसा करती हूं?’’ श्रावणी ने पसीना पोंछते हुए पूछा.

‘‘दीदी को बासी रोटी क्यों दी?’’

श्रावणी के चेहरे पर हलकी सी घबराहट उभर आई. वह विविधा के समक्ष लज्जित होना नहीं चाहती थी. अपने आप को संभालती हुई बोली, ‘‘कल को उस का विवाह होगा और वहां बासी भी खाना पड़ा तो उसे दुख तो नहीं होगा.’’

‘‘यह तो कोई बात नहीं हुई. ऐसे घर में क्यों करोगी उन की शादी. उन के लिए खूब अच्छा घर खोजना,’’ विविधा ने कहा तो वह खीजते हुए बोली, ‘‘इतना दहेज कहां से लाएंगे.’’

विविधा जातेजाते ठिठक कर बोली, ‘‘इतनी सुंदर हैं दीदी, उन्हें तो कोई बिना दहेज के भी ब्याह लेगा.’’

श्रावणी के मन पर किसी ने जैसे पत्थर मार दिया. वह जब से ब्याह कर आई, यही तो सुनती रही, ‘बड़ी बहू बहुत सुंदर है. उस की बेटी भी मां पर ही गई है.’ कभी पड़ोसिनें कहतीं, कभी रिश्तेदार. वह डूबते मन से सुनती रहतीं.

पूरब अकसर कहता रहता, ‘‘भाभी बहुत स्वादिष्ठ खाना बनाती हैं. उन के हाथों में तो जादू है जैसे.’’

मांजी तो खाने की मेज पर बैठते ही पूछतीं, ‘‘मानसी बेटा, आज क्या बनाया?’’

हालांकि यह सब जान कर नहीं होता था पर ये अप्रत्यक्ष सी टिप्पणियां उस का सर्वांग आहत कर जातीं. वह अपमानित सा महसूस करती स्वयं को. साड़ी वाला साडि़यां ले कर प्राय: घर पर ही आया करता था. मांजी स्वयं ही साडि़यां चुनतीं और कहतीं, ‘‘ये कत्थई रंग तो अपनी मानसी पर खूब खिलेगा. श्रावणी बेटा, तुम पर यह हलका नीला रंग फबेगा.’’

वह उदास हो जाती. लगता यह सीधा प्रहार है उस के साधारण रूपरंग पर. मन के अंदर ईर्ष्या की ज्वाला सी धधकने लगती.

जब एक दिन कार दुर्घटना में जेठ जेठानी की अचानक मृत्यु हो गई तो पूरे घर पर जैसे बिजली सी गिर पड़ी. कुछ वर्ष पहले ही मांजी की मृत्यु भी हो चुकी थी. लाख ईर्ष्या थी पर उस हादसे ने उसे किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया था. वह बिलखबिलख कर रो पड़ी थी.

 

कासनी का फूल: भाग 1- अभिषेक चित्रा से बदला क्यों लेना चाहता था

‘‘क्वैक, क्वैक,’’ चित्रा के कानों में मोनाल पक्षी की आवाज पड़ी. वह कमरे से निकल बालकनी में जा खड़ी हुई. सायंकाल आसपास के पेड़ों पर अनेक पक्षी आ कर बैठते. चित्रा को ओक के पेड़ पर बैठा मोनाल और उस की सुरीली आवाज बहुत भाती थी. चित्रा ऊंचे पहाड़ों, पेड़ों, पौधों, फूलों और पक्षियों से नाता जोड़ उन के साए में प्रसन्न रहने का पूरा प्रयास कर रही थी. उस के लिए पहाड़ों की जीवनशैली नई थी. 2 मास पहले ही वह कसौली आई थी.

नई जगह, नया घर, नई नौकरी. चित्रा जीवन को नई दिशा दे कर अपने दुख को कम करने के प्रयास में लगी थी. पुराना सब भूल जाए, इसलिए ही तो सुदूर हिमाचल प्रदेश के कसौली शहर में नौकरी करने आ गई, जहां कोई उस से पूछने वाला नहीं होगा कि शादी हुई या नहीं? हुई तो पति के साथ क्यों नहीं हो? वह तलाक शब्द सब के सामने बारबार दोहरा कर लोगों के चुभते सवालों का सामना नहीं करना चाहती थी.

कभी दिल्ली के एक फाइवस्टार होटल में जौब थी, इसलिए कसौली जैसे छोटे नगर के थ्रीस्टार में फ्रंट डैस्क की नौकरी पाना आसान रहा, लेकिन बीते समय से दूर हो पाना इतना आसान कहां?

दूर पगडंडी पर बस्ता उठाए 2 बच्चों को जाते देख उसे अपना बचपन याद आने लगा.

2 साल बड़े इकलौते भाई मोहित से हमेशा उसे कमतर आंका जाता था. बचपन में अध्यापक मातापिता से शिकायत करते कि मोहित जैसे प्रतिभावान भाई की बहन इतनी साधारण क्यों?

न परीक्षा में वाहवाही पाने योग्य प्रदर्शन कर पाती है और न ही किसी अन्य क्षेत्र में कोई कमाल कर सकी है. छठी, 7वीं कक्षा तक आतेआते यह भी स्पष्ट होने लगा कि गणित और साइंस में ट्यूशन टीचर की सिरखपाई के बावजूद वह साधारण अंक ले कर ही उत्तीर्ण हो पा रही है. पिता ने इस बात पर जब उसे फटकार लगाई तो सुबकती हुई चित्रा मां के पास पहुंच गई.

‘‘मोहित सब कर लेता है, तो फिर तू क्यों नहीं? जरूर तेरे भाग्य में कुछ अड़चन है. कल बाबा को बुला कर बात करती हूं.’’

मां की दृष्टि में प्रत्येक समस्या का समाधान बाबा चंदनदास ही थे. जबतब वे उन के घर आता और बड़े रोब से अपनी सेवा करवाते. चित्रा अनमनी हो जाती. मेवा डली खीर, पूरी, साग, भाजी बना कर परोसते हुए मां उसे एक दासी सरीखी लगती थीं.

चंदनदास सदैव भविष्य में किसी अनहोनी की ओर इशारा कर मां को आतंकित करते थे. इस का उपाय दानदक्षिणा बता कर खूब खर्चा करवाते. मां का उन पर अडिग विश्वास था. उन का मानना था कि बाबाजी के पावन चरण जब भी घर में पड़े हैं कुछ शुभ ही हुआ है. मां की इतनी श्रद्धा होने पर भी चित्रा को न जाने क्यों बाबा का मुसकरा कर देखना अच्छा नहीं लगता था. जब भी वह मां के कहने पर उन को प्रणाम करने जाती तो बाबा की आंखें उसे अपने शरीर पर फिसलती सी लगती थीं. चित्रा को उन की एक अन्य आदत बहुत खटकती थी. मोहित भैया के प्रणाम करने पर वे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद देते, जबकि उसे अपने सीने से लगा कर दुलार करते.

उस ने मां से एक बार यह कहा भी मां ने उलटा उसे ही लताड़ दिया, ‘‘पापा डांटें तब भी तुम्हें दिक्कत है और बाबाजी प्यार करें तो भी परेशानी है. दिमाग को एक तरफ रखा करो.’’

चित्रा की अनिच्छा के बाद भी मां ने फोन कर बाबाजी को उस की पढ़ाई वाली समस्या बताई और घर बुला लिया. इस बार चंदनदासजी ने उसे भी मोहित के समान सिर पर हाथ रख आशीष दिया तो चित्रा को कुछ राहत मिली, लेकिन अगले ही पल जब सुना कि वे उसे अपने मठ में बुलाएंगे वह अनमनी, बेचैन सी हो गई.

‘‘बाबाजी आप यहीं कह दें मुझे जो कहना है,’’ चित्रा हिम्मत जुटा कर बोली.

‘‘यह तो बिलकुल बेवकूफ है, आप बुरा न मानिएगा,’’ मां बाबाजी के समक्ष हाथ जोड़ कर खड़ी हो गईं.

वे कुछ और भी कहना चाह रही थीं कि चंदनदास ने मुसकराते हुए हाथ के इशारे से रुकने को कहा. चित्रा को संबोधित करते हुए वे बोले, ‘‘बेटा, तुम्हारी स्मरणशक्ति विकसित नहीं हो रही. मैं कुछ मंत्र वहां अपने सामने पढ़वा कर कंठस्थ करवाऊंगा. इस से 2 लाभ ये होंगे कि एक तो तुम कुछ भी पढ़ कर मस्तिष्क में रखना सीखोगी, दूसरा मंत्रशक्ति के प्रभाव से जीवन में सफलता प्राप्त करोगी.’’

अगले दिन चित्रा को मां के साथ बाबा के मठ जाना पड़ा. चंदनदास के एक शिष्य ने कुछ मंत्र लिख कर दिए और कहा कि इन को कंठस्थ करने का प्रयास करे. चित्रा को बारबार पढ़ कर भी 1-2 मंत्र ही याद हुए. चंदनदास ने सुन कर संतुष्टि दर्शाई और चित्रा को घर भेज दिया. यह सिलसिला 4 दिन चला. चित्रा का डर धीरेधीरे कम हो रहा था.

उस दिन अकेले ही मठ जाने को तैयार हो गई. इस बार शिष्य ने उसे सीधा चंदनदास के पास भेज दिया. चंदनदास मखमली बिस्तर पर तकिए का सहारा लिए बैठे थे. हाथ में कोई पेयपदार्थ लिए घूंटघूंट पीते हुए चित्रा की ओर एक लंबी मुसकान फेंकने के बाद चंदनदास ने उसे अपने पास बैठने का इशारा किया. कुटील मुसकराहट और चंदनदास के मुख पर आई वासना की भंगिमा चित्रा को असहज करने लगी. कमरे में सुनहरे बल्बों के चकाचौंध उजाले में चित्रा की धड़कनें असामान्य होने लगीं, कंठ सूख रहा था. वह संभलते हुए चंदनदास के निकट जा कर बैठी तो बाबा की आंखों में तैर रही लोलुपता स्पष्ट दिखने लगी.

‘‘मैं कल आऊंगी, सिर में दर्द हो गया अचानक,’’ चित्रा उठ कर जाने लगी.

मगर उस के कमरे के द्वार तक पहुंचने से पहले ही बत्तियां बुझ गईं. अकबका कर अंधेरे में दौड़ी तो दीवार से टकरा कर गिर पड़ी. चंदनदास ने उसे कस कर भींच लिया. कमरे में फैली अगरबत्ती की महक थी या चंदनदास ने कोई इत्र लगाया हुआ था, चित्रा को उबकाई आने लगी. कुछ. देर बाद उस के अनावृत शरीर के नीचे नर्म गद्देदार बिस्तर था और ऊपर कठोर, घृणित दानव. चित्रा का दम घुट रहा था. असहनीय पीड़ा से उस की चीख निकल गई. इस के बाद नहीं पता उसे कि क्या हुआ? जब चेतना लौटी तो वह मठ के एक कमरे में थी. मां सिरहाने बैठी थीं. सफेद कपड़े पहने एक महिला उस की तीमारदारी कर रही थी.

‘‘बिजली चली गई तो डर के मारे यह दौड़ पड़ी थी… थोड़ीबहुत चोट आई. कुछ दिनों बाद ठीक हो जाएगी,’’ उजले परिधान वाली मां से कह रही थी.

उस दिन घटी घटना ने चित्रा को भीतर तक तोड़ दिया. दिनरात उसे भय सताता था कि बाबा ने मां को फुसला कर यदि फिर उसे बुला लिया तो क्या करेगी. मगर चित्रा को चंदनदास का सामना दोबारा नहीं करना पड़ा. उस के पिता का ट्रांसफर लखनऊ हो गया.

चित्रा उस घटना को भूल तो नहीं सकती थी लेकिन प्रयास अवश्य करती थी. अपना ध्यान हटाने के लिए उस ने पढ़ाई को अधिक से अधिक समय देना शुरू किया तो खोया आत्मविश्वास फिर से लौटने लगा. 12वीं के बाद होटल मैनेजमैंट की प्रवेश परीक्षा में अच्छा रैंक आ गया. आईएचएम लखनऊ में दाखिला ले कर डिगरी पूरी करने के बाद दिल्ली के एक फाइवस्टार होटल में प्लेसमैंट भी हो गई.

एक ओर अपनी नई नौकरी को ले कर उत्साहित थी तो दूसरी ओर इस बात की शंका थी कि मां फिर से चंदनदास कांड न आरंभ कर दें. दिल्ली में मां के साथ उन की एक सहेली के घर ठहरी चित्रा की यह चिंता जल्द ही दूर हो गई. उसे पता लगा कि चंदनदास का डेरा वहां से उखड़ चुका है. एक दिन मां की सखी को यह कहते सुना, ‘‘जितने मुंह उतनी बातें. कोई कहता है बाबाजी तपस्या के लिए कहीं दूर निकल गए हैं तो कोई यह भी कह रहा था कि पुलिस के डर से कहीं छिप गए हैं.’’

मां यह सुन कर उदास हो गईं तो चित्रा ने चैन की सांस ली. जौब करते हुए चित्रा को 1 साल ही बीता था कि उस के लिए रिश्ता ढूंढ़ा जाने लगा. चित्रा इस बात को ले कर भयभीत रहती कि चंदनदास ने उस के साथ जबरन जो संबंध बनाया था, उस के विषय में पति को कुछ पता तो नहीं लग जाएगा? कहीं उसे ही चरित्रहीन न समझने लगे भावी पति. मातापिता जोरशोर से मैट्रिमोनियल साइट्स खंगाल रहे थे.

इंदौर का रहने वाला अभिषेक उन को पसंद आ गया. अभिषेक ने बीबीए के बाद एमबीए किया था और किसी कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्य कर रहा था. अभिषेक व उस के परिवार वाले चाहते थे कि चित्रा नौकरी छोड़ दे क्योंकि रुपएपैसों की कोई कमी नहीं थी. उन को समझदार, सुंदर लड़की की तलाश थी. चित्रा असमंजस में थी. अंत में उस ने विवाह करने के पक्ष में निर्णय ले लिया. सोच रही थी कि मातापिता को कब तक टालेगी? पति को प्रेम भी करेगी और दोस्त भी मानेगी. संभव है तब कोई समस्या न आए. वह चाहती थी कि अभिषेक के साथ विवाहपूर्व कुछ समय साथ बिता ले जिस से आपस में बनी झिझक की दीवार गिरने लगे.

चित्रा का यह प्रस्ताव न उस के मातापिता को पसंद आया और न ही अभिषेक ने शादी से पहले मिलने में रुचि दिखाई. चित्रा ने मन को सम?ा लिया कि नौकरी तो शादी के बाद करनी नहीं, ऐसे में अभिषेक के साथ समय बिताने का भरपूर अवसर मिलेगा. विवाह के बाद सर्वस्व लुटा दूंगी उस पर. मखमली सपने देखते हुए वह अभिषेक की पत्नी बन गई.

विवाह की पहली रात को कमरा सुगंधित पुष्पों से सजा था. शैंडलेयर्स का तीव्र प्रकाश, फूलों की महक और नर्म बिस्तर. चित्रा का अवचेतन मन बरसों पुरानी घटना को याद कर भय से कांप उठा. अभिषेक ने कमरे में आ कर

2 गिलासों में सौफ्ट ड्रिंक डाल एक गिलास चित्रा की ओर बढ़ा दिया. अभिषेक के हाथ में गिलास और तकिए के सहारे बैड पर उसे अधलेटा देख चित्रा को उस में चंदनदास की छवि दिखने लगी. घबराहट के कारण उसे चक्कर आने लगा. जब अभिषेक ने उसे अपने पास खींचा तो वह चिल्ला उठी. नाराजगी दिखा कर डांटते हुए अभिषेक ने उस के मुंह पर अपना हाथ रख नियंत्रण में रहने को कहा. चित्रा का दम फूलने लगा. अभिषेक उस रात चुपचाप सो गया.

3 रातें बीत गईं. अभिषेक नाराज ही रहा. दिन में चित्रा उस के साथ खुल कर बातें करने का प्रयास करती, प्यार जताती, लेकिन अभिषेक मुंह फेर लेता. रात को उस के पास लेटे हुए चित्रा चिंता में घुलती रहती. अभिषेक कभी क्रोध से बड़बड़ाते हुए तो कभी भावभंगिमाओं के सहारे अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करता.

संदेशवाहक: नीरज शिखा को क्यों भूल गया?

नीरज से शिखा की शादी के समय महक अमेरिका गई हुई थी. जब वह लौटी, तब तक उन की शादी को3 महीने बीत गए थे. अपनी सब से पक्की सहेली के आने की खुशी में शिखा ने अपने घर में एक छोटी सी पार्टी का आयोजन किया. शिखा ने पार्टी में नीरज के 3 खास दोस्तों और अपनी 3 पक्की सहेलियों को भी बुलाया.

जब करीब 9 बजे महक ने उन के ड्राइंगरूम में कदम रखा, तब तक सारे मेहमान आ चुके थे. शिखा और उस की सहेलियों के अलावा बाकी सब उस से पहली बार मिल रहे थे. उस पर पहली नजर डालते ही वे सब उस की सुंदरता देख कर मुग्ध हो उठे.

‘‘अति सुंदर’’, ये शब्द शिखा के पति नीरज के मुंह से निकले.

रवि, मोहित और विपिन की भी आंखें चमक उठीं और मुंह खुले के खुले रह गए.

‘‘शिखा, शादी कर के तो तू फिल्मी हीरोइन सी सुंदर हो गई है,’’ महक ने पहले शिखा को गले लगाया औैर फिर गोद में उठा कर 2 चक्कर भी लगा दिए.

फिर जब वह नीरज से भी गले लग कर मिली, तो शिखा ने उस के तीनों दोस्तों की आंखों में हैरानी के भावों को पैदा होते देखा.

‘‘जीजू, मसल्स तो बड़ी जबरदस्त बना रखी हैं,’’ महक ने बेहिचक नीरज के बाएं बाजू को दबाते हुए उस की तारीफ की, ‘‘लगता है तुम्हें भी मेरी तरह जिम जाने का शौक है. यू आर वैरी हैंडसम.’’

नीरज तो उसी पल से महक का फैन बन गया. उसे अपने सुंदर रंगरूप और मजबूत कदकाठी पर बहुत गुमान था.

फिर महक रितु, गुंजन औैर नीमा से गले लग कर मिली. मोहित, रवि और विपिन से उस ने दोस्ताना अंदाज में हाथ मिलाया.

महक के पहुंचते ही पार्टी में जान पड़ गई थी. नीरज और उस के दोस्त उस की अदाओं के दीवाने हो गए थे. महक उन से यों खुल कर हंसबोल रही थी मानो उन्हें वर्षों से जानती हो.

‘‘बिना डांस के पार्टी में मजा नहीं आता,’’ उस के मुंह से इन शब्दों के निकलने की देर थी कि उन चारों ने फटाफट सोफा औैर मेज एक तरफ खिसका कर ड्राइंगरूम के बीच में डांस करने की जगह बना दी.

डांस कर रही महक का उत्साह देखते ही बनता था. उस ने नीरज और उस के तीनों दोस्तों के साथ जम कर डांस किया.

‘‘अरे, हम चारों भी इस पार्टी में शामिल हैं. हमारे साथ भी कोईर् खुशीखुशी डांस कर ले, यार,’’ गुंजन के इस मजाक पर सब ठहाका मार कर हंसे जरूर, पर उन चारों के आकर्षण का केंद्र तब भी महक ही बनी रही.

महक को किसी भी पुरुष का दिल जीतने की कला आती थी. उस की बड़ीबड़ी चंचल आंखों की चमक और दिलकश मुसकान में खो कर नीरज औैर उस के दोस्तों को समय बीतने का एहसास ही नहीं हो रहा था.

‘‘आज जीजू के पास हमारे लिए वक्त नहीं है. वैसे जब मिलते थे तो भंवरे की तरह हमारे इर्दगिर्द ही मंडराते रहते थे,’’ रितु की इस बात पर चारों सहेलियां खूब हंसीं.

‘‘आज मौका है, तो नीरज के बाकी दोस्तों से गपशप क्यों नहीं कर रही हो? ये अच्छे और काबिल लड़के फंसाने लायक हैं, सहेलियो,’’ शिखा ने उन्हें मजाकिया अंदाज में छेड़ा.

‘‘आज इन सब के पास महक के अलावा किसी और की तरफ देखने की फुरसत नहीं है,’’ अपनी बात कह कर नीमा ने ऐसा मुंह बनाया कि हंसतेहंसते उन सब के पेट में बल पड़ गए.

‘‘यह है वैसे हैरान करने वाली बात,’’ गुंजन ने सीरियस दिखने का नाटक किया, ‘‘महक से इन्हें कुछ नहीं मिलने वाला है, क्योंकि वह आज के बाद इन्हें भूल जाएगी और…’’

‘‘किसी अगली पार्टी में होने वाली मुलाकात तक यह इन से कोई वास्ता नहीं रखेगी,’’ नीमा बोली.

‘‘हां, किसी अगली पार्टी में होने वाली मुलाकात में महक इन से फिर जम कर फ्लर्ट करेगी और पार्टी खत्म होते ही फिर इन्हें भुला देगी. लेकिन इन में से कोई भी इस के ऐसे व्यवहार से सबक नहीं सीखेगा. अगली मुलाकात होने पर ये फिर महक के इर्दगिर्द दुम हिलाते घूमने लगेंगे. है न यह हैरानी वाली बात?’’

‘‘और इधर हम इंतजार में खड़ी हैं,’’ नीमा ने नाटकीय अंदाज में गहरी सांस छोड़ी, ‘‘इन्हें अपना घर बसाना हो, तो हमारे पास आना चाहिए. इन के बच्चों की मम्मी बनने को हम तैयार हैं, पर इन बेवकूफों की दिलचस्पी हमेशा फ्लर्ट करने वाली महक जैसी औरतों में ही क्यों रहती है?’’

नीमा के अभिनय ने उस की सहेलियों को एक बार फिर जोर से हंसने पर मजबूर कर दिया.

‘‘शिखा, नीमा के इस सवाल का जवाब तू दे न. जीजू भी महक की तरह फ्लर्ट करने में ऐक्सपर्ट हैं. क्या तुझे उन की इस आदत पर कभी गुस्सा नहीं आता?’’ गुंजन ने मुसकराते हुए नीरज की शिकायत की.

‘‘मुझे तुम सब पर विश्वास है, इसीलिए मैं उन के तुम लोगों के साथ फ्लर्ट करने को अनदेखा करती हूं,’’ शिखा ने लापरवाही से कंधे उचकाते हुए जवाब दिया.

‘‘चल, हमारी बात तो अलग हो गई, लेकिन कल को जीजू किसी और फुलझड़ी के चक्कर में फंस गए, तब क्या करोगी?’’

‘‘मैं और नीरज उस फुलझड़ी का हुलिया बिगाड़ देंगे,’’ शिखा ने अपनी उंगलियां मोड़ कर पंजा बनाया और रितु का मुंह नोचने का अभिनय किया, तो उस बेचारी के मुंह से चीख ही निकल पड़़ी.

‘‘अब मैं चली खाना लगाने की तैयारी करने. तुम सब अपने जीजू और उन के दोस्तों को महक के रूपजाल से आजाद कराने की कोशिश करो,’’ शिखा हंसती हुई रसोईर्घर की तरफ बढ़ गई.

पार्र्टी का सारा खाना बाजार से आया था. सिर्फ बादामकिशमिश वाली खीर शिखा ने घर में बनाई थी.

नीरज और उस के दोस्त महक का बहुत ज्यादा ध्यान रखे हुए थे. उस की प्लेट में कोईर् चीज खत्म होने से पहले ही इन के द्वारा पहुंचा दी जाती थी.

‘‘मुझे खीर नहीं आइसक्रीम खानी है,’’ खाना खत्म होने के बाद जब महक ने किसी बच्चे की तरह से मचलते हुए यह फरमाइश की, तो नीरज फौरन आइसक्रीम लाने को तैयार हो गया.

‘‘मुझे शाहजी की स्पैशल चौकोचिप्स खाने हैं,’’ महक ने उसे अपनी पसंद भी बता दी.

‘‘यह शाहजी की दुकान कहां है?’’ नीरज बाहर जातेजाते ठिठक कर रुक गया.

‘‘मेरे फ्लैट के पास. किसी से भी पूछोगे, तो वह तुम्हें बता देगा.’’

‘‘साली साहिबा, बहुत दूर जाना पड़ेगा पर तुम्हारी खातिर जरूर जाऊंगा. वैसे तुम गाइड बन कर मेरे साथ क्यों नहीं चलती हो?’’

‘‘कैसे जाओगे?’’

‘‘मोटरसाइकिल से.’’

‘‘फास्ट ड्राइव करोगे?’’

‘‘हवा से बातें करते चलूंगा.’’

‘‘तो मैं चली जीजू के साथ बाइक राइड का आनंद लेने, दोस्तो,’’ महक खुशी से उछल कर खड़ी हुई और उन सब की तरफ हाथ हिलाने के बाद नीरज के साथ बाहर निकल गई.

रास्ते में नीरज ने ऊंची आवाज में महक से कहा, ‘‘मेरा मन कौफी पीने को कर रहा है.’’

‘‘यहां कहीं अच्छी कौफी नहीं मिलती है,’’ महक उस के कान के पास मुंह ला कर चिल्लाई.

‘‘तुम्हारे घर चलें?’’

‘‘कौफी के चक्कर में ज्यादा देर हो जाएगी.’’

‘‘तो हो जाने दो. कह देंगे कि पैट्रोल भरवाने चले गए थे और देर हो गई.’’

महक ने कोई जवाब नहीं दिया, तो नीरज ने उस पर दबाव बनाया, ‘‘महक, मैं भी तो तुम्हारी आइसक्रीम खाने की फरमाइश को पूरा करने के लिए फौरन उठा खड़ा हुआ था. अब तुम भी 1 कप बढि़या कौफी पिला ही दो.’’

‘‘ठीक है,’’ महक का यह जवाब सुन कर नीरज के दिल की धड़कनें बढ़ती चली गईं.

अपने फ्लैट में घुसते ही महक ने पहले किचन में जा कर कौफी के लिए पानी गरम होने को रखा और फिर बाथरूम में चली गई. उस के वहां से बाहर आने तक नीरज ने अपने मन की इच्छा पूरी करने की हिम्मत जुटा ली थी.

महक वापस रसोई घर में जाने लगी, तो नीरज उस का रास्ता रोक कर रोमांटिक लहजे में बोला, ‘‘तुम जैसी सुंदर और स्मार्ट लड़की के पीछे तो उस के चाहने वालों की लंबी लाइन होनी चाहिए. फिर मैं शिखा की इस बात को सच कैसे मान लूं कि तुम्हारा कोई प्रेमी नहीं है?’’

‘‘जीजू, मेरे प्रेमी आतेजाते रहते हैं. मुझे शादी कभी नहीं करनी है, इसलिए स्थायी प्रेमी रखने का झंझट मैं नहीं पालती,’’ महक ने बेझिझक उस के सवाल का जवाब दे दिया.

‘‘क्या कभी इस बात से चिंतित नहीं होती हो कि जीवनसाथी के बिना भविष्य में खुद को कभी बहुत अकेली पाओगी?’’

‘‘क्या अकेलेपन का एहसास जीवनसाथी पा लेने से खत्म हो जाता है, जीजू?’’

‘‘शायद नहीं, पर जीवन में प्रेम के महत्त्व को तो तुम नकार नहीं सकती हो.’’

‘‘मेरा काम अस्थायी प्रेमियों से अच्छी तरह चल रहा है,’’ हंसती हुई महक रसोई में जाने लगी.

नीरज ने अचानक उस का हाथ पकड़ कर पूछा, ‘‘और पहली मुलाकात में प्रेम हो जाने के बारे में क्या कहती हो?’’

‘‘यह खतरनाक बीमारी किसे लग गई है?’’ महक अजीब से अंदाज में मुसकराने लगी.

‘‘मुझे.’’

‘‘तब इस सवाल का जवाब तुम्हें शिखा देगी, जीजू.’’

‘‘उसे बीच में क्यों ला रही हो?’’

‘‘क्योंकि वह मेरी बैस्ट फ्रैंड है, सर,’’ महक ने उस की आंखों में देखते हुए कुछ भावुक हो कर जवाब दिया.

‘‘मैं भी तुम्हारा बैस्ट फ्रैंड बनना चाहता हूं,’’ नीरज ने अचानक उसे खींच कर अपनी बांहों के घेरे में कैद कर लिया.

‘‘क्या मुझे पाने के लिए तुम शिखा को धोखा देने को तैयार हो?’’

‘‘उसे हम कुछ पता ही नहीं लगने देंगे, स्वीटहार्ट.’’

‘‘पत्नियों को देरसवेर सब मालूम पड़ जाता है, जीजू.’’

‘‘हम ऐसा नहीं होने देंगे.’’

‘‘देखो, शिखा को पता लग ही गया न कि तुम उस की सहेली रितु के साथ 2 बार डिनर पर जा चुके हो और 1 फिल्म भी तुम दोनों ने साथसाथ देखी है. इस जानकारी को तो तुम शिखा तक पहुंचने से नहीं रोक पाए.’’

उस की बात सुन कर नीरज फौरन परेशान नजर आने लगा और उस ने महक को अपनी बांहों की कैद से आजाद कर दिया. उसे बिलकुल अंदाजा नहीं था कि शिखा को उस के और रितु के बीच चल रहे अफेयर की जानकारी थी.

‘‘न… न… सच को झुठलाने की

कोशिश मत करो, जीजू. जब तक मैं कौफी बना कर लाती हूं, तब तक ड्राइंगरूम में बैठ कर तुम इस नईजानकारी की रोशनी में पूरी स्थिति पर सोचविचार करो. अगर बाद में भी तुम्हारे मन में मेरा प्रेमी बनने की चाहत रही, तो हम इस बारे में चर्चा जरूर करेंगे,’’ महक ने मुसकराते हुए उसे ड्राइंगरूम की ओर धकेल दिया.

कुछ देर बाद महक ने थर्मस और ट्रे में रखे कपों के साथ ड्राइंगरूम में प्रवेश किया, तो सोचविचार में डूबा नीरज चौंक कर सीधा बैठ गया.

‘‘इतने सारे कप क्यों लाई हो?’’ उस के चेहरे का रंग उड़ गया.

‘‘कौफी सब पिएंगे न, जीजू,’’ महक शरारती अंदाज में मुसकरा पड़ी.

‘‘सब कौन?’’

‘‘तुम्हारे दोस्त, शिखा और हम सहेलियां.’’

‘‘वे यहां आ रहे हैं?’’

‘‘मुझे नीमा ने फोन किया और जब मैं ने उसे बताया कि हम कौफी पीने जा रहे हैं, तो उन सब ने भी यहां आने का कार्यक्रम बना लिया. वे बस पहुंचने ही वाले होंगे.’’

‘‘तुम ने मुझे फौरन क्यों नहीं बताई यह बात?’’ नीरज को गुस्सा आ गया.

‘‘उन सब का सामना करने से डर लग रहा है, जीजू? देखो, मैं तो बिलकुल सहज हूं,’’ महक की सहज मुसकान मानो नीरज का मजाक उड़ा रही थी.

‘‘तुम कुछ पागल हो क्या? तुम ने यह क्यों बताया कि हम यहां हैं? हम फौरन यहां से निकल कर आइसक्रीम लेते हुए घर लौट जाते. तुम ने बेकार के झंझट में फंसा दिया,’’ नीरज बहुत परेशान और चिंतित नजर आ रहा था.

‘‘मैं तुम्हारे डर को समझ सकती हूं, लेकिन मैं शिखा को समझा दूंगी कि…’’

‘‘तुम्हारे समझाने से वह कुछ नहीं समझेगी, औरतों से हंसनेबोलने की मेरी आदत के कारण वह तो वैसे ही मुझ पर शक करती है. तुम्हें बुद्धि का इस्तेमाल करना चाहिए था, महक.’’

‘‘इतना ज्यादा परेशान क्यों हो रहे हो, जीजू? हम जैसे फ्लर्ट करने के शौकीनों को ऐसी परिस्थितियों से नहीं डरना चाहिए. जाल फेंकते रहने से कभी न कभी तो शिकार फंसेगा ही. वह शिकार रितु हो, मैं होऊं या कोईर् और इस से क्या फर्क पड़ता है? शिखा तुम्हें छोड़ कर तो जाने से रही. जस्ट रिलैक्स, जीजू.’’

‘‘शटअप, मैं यहां से जा रहा हूं और मुझ से तुम भविष्य में कोई वास्ता मत रखना.’’

नीरज उठा और हैलमेट उठा कर दरवाजे की तरफ चल पड़ा.

‘‘जीजू, प्लीज रुको. मेरे हाथ की बनाई कौफी तो पीते जाओ.’’

‘‘भाड़ में जाए कौफी.’’

‘‘जीजू, मैं दोनों कप नहीं पी सकूंगी.’’

‘‘दोनों कप?’’ नीरज ठिठक कर पलटा तो उस ने महक को थर्मस उलटा कर के हिलाते देखा. सिर्फ 2 कपों में कौफी नजर आ रही थी. बाकी सब खाली रखे हुए थे.

‘‘तुम ने सिर्फ 2 कप कौफी बनाई है?’’ वह अचंभित नजर आ रहा था.

‘‘हां जीजू, इस लाडली साली ने अपने जीजू से जो छोटा सा मजाक किया है, उस का बुरा मत मानना,’’ महक शरारती अंदाज में मुसकरा रही थी.

‘‘यह छोटा मजाक था? मैं तुम्हारा गला घोंट दूंगा,’’ नीरज ने नाटकीय अंदाज में दांत पीसे.

‘‘वैसा करने से पहले एक वादा तो कर लो, जीजू.’’

‘‘कैसा वादा?’’

‘‘यही कि शिखा का सामना करने की बात सोच कर कुछ देर पहले तुम्हें जिस डर, चिंता और शर्मिंदगी के एहसास ने जकड़ा था, उसे तुम आजीवन याद रखोगे.’’

‘‘बिलकुल याद रखूंगा, साली साहिबा. तुम ने तो आज मेरी जान ही निकाल दी थी,’’ निढाल सा नीरज सोफे पर बैठ गया.

‘‘मेरी जिंदगी में तो कोई जीवनसाथी आएगा ही नहीं, पर जीवनसाथी के होते हुए भी उस के दिल से दूर होने की पीड़ा तुम कभी नहीं भोगना चाहते हो, तो आज की रात का सबक न भूलना.’’

‘‘शिखा की तरफ से एक संदेश मैं तुम्हें दे रही हूं. उसे पहले से अंदाजा था कि तुम मुझे अपने चक्कर में फंसाने की कोशिश जरूर करोगे. उस ने कहलवाया है कि वह तुम्हारी फ्लर्ट करने की आदत को तो बरदाश्त कर सकती है, लेकिन अगर तुम ने किसी दूसरी औरत से सचमुच संबंध बनाने की मूर्खता भविष्य में कभी की, तो तुम उसे हमेशा के लिए खो दोगे.’’

कुछ देर खामोश रहने के बाद नीरज ने संजीदा स्वर में पूछा, ‘‘क्या हमारे यहां आने की बात तुम शिखा को बताओगी?’’

‘‘तुम ही बताओ कि उसे बताऊं या नहीं?’’

‘‘बता ही देना, नहीं तो मेरा संदेश उस तक कैसे पहुंचेगा.’’

‘‘तुम भी मुझे अपना संदेशवाहक बना रहे हो? वाह,’’ महक हंस पड़ी.

‘‘शिखा से कह देना कि मैं उस के विश्वास को कभी नहीं तोड़ूंगा.’’

‘‘वैरी गुड, जीजू,’’ महक खुश हो गई, ‘‘तुम्हारे इस फैसले का स्वागत हम कौफी पी कर करते हैं,’’ महक ने नीरज के हाथ में कौफी का कप पकड़ा दिया.

‘‘चीयर्स फौर युअर हैप्पी होम,’’ महक की इस शुभकामना ने नीरज के चेहरे को फूल सा खिला दिया था.

सफर कुछ थम सा गया: क्या जया के पतझड़ रूपी जीवन में फिर बहारें आ पाईं

हाथों में पत्रों का पुलिंदा पकड़े बाबूजी बरामदे के एक छोर पर बिछे तख्त पर जा बैठे. यह उन की प्रिय जगह थी.

पास ही मोंढ़े पर बैठी मां बाबूजी के कुरतों के टूटे बटन टांक रही थीं. अभीअभी धोबी कपड़े दे कर गया था. ‘‘मुआ हर धुलाई में बटन तोड़ लाता है,’’ वे बुदबुदाईं.

फिर बाबूजी को पत्र पढ़ते देखा, तो आंखें कुरते पर टिकाए ही पूछ लिया, ‘‘बहुत चिट्ठियां आई हैं. कोई खास बात…?’’

एक चिट्ठी पढ़तेपढ़ते बाबूजी का चेहरा खिल उठा, ‘‘सुनती हो, लड़के वालों ने हां कर दी. उन्हें जया बहुत पसंद है.’’

मां बिजली की गति से हाथ का काम तिपाई पर पटक तख्त पर आ बैठीं, ‘‘फिर से तो कहो. नहीं, ऐसे नहीं, पूरा पढ़ कर सुनाओ.’’

पल भर में पूरे घर में खबर फैल गई कि लड़के वालों ने हां कर दी. जया दीदी की शादी होगी…

‘‘ओ जया, वहां क्यों छिपी खड़ी है? यहां आ,’’ भाईबहनों ने जया को घेर लिया.

मांबाबूजी की भरीपूरी गृहस्थी थी.

5 बेटियां, 3 बेटे. इन के अलावा उन के चचेरे, मौसेरे, फुफेरे भाईबहनों में से कोई न कोई आता ही रहता. यहां रह कर पढ़ने के लिए

2-3 बच्चे हमेशा रहते. बाबूजी की पुश्तैनी जमींदारी थी पर वे पढ़लिख कर नौकरी में लग गए थे. अंगरेजों के जमाने की अच्छी सरकारी नौकरी. इस से उन का समाज में रुतबा खुदबखुद बढ़ गया था. फिर अंगरेज चले गए पर सरकारी नौकरी तो थी और नौकरी की शान भी.

मांबाबूजी खुले विचारों के और बच्चों को ऊंची शिक्षा दिलाने के पक्ष में थे. बड़े बेटे और 2 बेटियों का तो विवाह हो चुका था. जया की एम.ए. की परीक्षा खत्म होते ही लड़के वाले देखने आ गए. सूरज फौज में कैप्टन पद पर डाक्टर था. ये वे दिन थे, जब विवाह के लिए वरदी वाले लड़कों की मांग सब से ज्यादा थी. कैप्टन सूरज, लंबा, स्मार्ट, प्रभावशाली व्यक्तित्व वाला था.

शादी से 2 महीने पहले ही घर में उस की तैयारियां जोरशोर से होने लगीं. मां ने दोनों ब्याही बेटियों को महीना भर पहले बुला लिया. बेटाबहू तो यहां थे ही. घर में रौनक बढ़ गई. 15 दिन पहले ढोलक रख दी गई. तब तक छोटी मामी, एक चाची, ताई की बड़ी बहू आ चुकी थीं. रात को खानापीना निबटते ही महल्ले की महिलाएं आ जुटतीं. ढोलक की थाप, गूंजती स्वरलहरियां, घुंघरुओं की छमछम, रात 1-2 बजे तक गानाबजाना, हंसीठिठोली चलती.

सप्ताह भर पहले सब मेहमान आ गए. बाबूजी ने बच्चों के लीडर छोटे भाई के बेटे विशाल को बुला कर कहा, ‘‘सड़क से हवेली तक पहुंचने का रास्ता, हवेली और मंडप सजाने का जिम्मा तुम्हारा. क्रेप पेपर, चमकीला पेपर, गोंद वगैरह सब चीजें बाजार से ले आओ. बच्चों को साथ ले लो. बस, काम ऐसा करो कि देखने वाले देखते रह जाएं.’’

विशाल ने सब बच्चों को इकट्ठा किया. निचले तल्ले का एक कमरा वर्कशौप बना. कोई कागज काटता, कोई गोंद लगाता, तो कोई सुतली पर चिपकाता. विवाह के 2 दिन पहले सारी हवेली झिलमिला उठी.

‘‘मां, हम तो वरमाला कराएंगे,’’ दोनों बड़ी बेटियों ने मां को घेर लिया.

‘‘बेटी, यह कोई नया रिवाज है क्या? हमारे घर में आज तक नहीं हुआ. तुम दोनों के वक्त कहां हुआ था?’’

‘‘अब तो सब बड़े घरों में इस का

चलन हो गया है. इस में बुराई क्या है?

रौनक बढ़ जाती है. हम तो कराएंगे,’’ बड़ी बेटी ने कहा.

फिर मां ने बेटियों की बात मान ली तो जयमाला की रस्म हुई, जिसे सब ने खूब ऐंजौय किया.

सूरज की पोस्टिंग पुणे में थी. छुट्टियां खत्म होने पर वह जया को ले कर पुणे आ गया. स्टेशन पर सूरज का एक दोस्त जीप ले कर हाजिर था. औफिसर्स कालोनी के गेट के अंदर एक सिपाही ने जीप को रोकने का इशारा किया. रुकने पर उस ने सैल्यूट कर के सूरज से कहा, ‘‘सर, साहब ने आप को याद किया है. घर जाने से पहले उन से मिल लें.’’

सूरज ने सवालिया नजर से दोस्त की तरफ देखा और बोला, ‘‘जया…?’’

‘‘तुम भाभी की चिंता मत करो. मैं इन्हें घर ले जाता हूं.’’

सूरज चला गया. फिर थोड़ी देर बाद  जीप सूरज के घर के सामने रुकी.

‘‘आओ भाभी, गृहप्रवेश करो. चलो,

मैं ताला खोलता हूं. अरे, दरवाजा तो अंदर से बंद है.’’

दोस्त ने घंटी बजाई. दरवाजा खुला तो 25-26 साल की एक स्मार्ट महिला गोद में कुछ महीने के एक बच्चे को लिए खड़ी दिखी.

‘‘कहिए, किस से मिलना है?’’

दोस्त हैरान, जया भी परेशान.

‘‘आप? आप कौन हैं और यहां क्या कर रही हैं?’’ दोस्त की आवाज में उलझन थी.

‘‘कमाल है,’’ स्त्री ने नाटकीय अंदाज में कहा, ‘‘मैं अपने घर में हूं. बाहर से आप आए और सवाल मुझ से कर रहे हैं?’’

‘‘पर यह तो कैप्टन सूरज का घर है.’’

‘‘बिलकुल ठीक. यह सूरज का ही घर है. मैं उन की पत्नी हूं और यह हमारा बेटा. पर आप यह सब क्यों पूछ रहे हैं?’’

दोस्त ने जया की तरफ देखा. लगा, वह बेहोश हो कर गिरने वाली है. उस ने लपक कर जया को संभाला, ‘‘भाभी, संभालिए खुद को,’’ फिर उस महिला से कहा, ‘‘मैडम, कहीं कोई गलतफहमी है. सूरज तो शादी कर के अभी लौटा है. ये उस की पत्नी…’’

दोस्त की बात खत्म होने से पहले ही वह चिल्ला उठी, ‘‘सूरज अपनी आदत से बाज नहीं आया. फिर एक और शादी कर डाली. मैं कब तक सहूं, तंग आ गई हूं उस की इस आदत से…’’

जया को लगा धरती घूम रही है, दिल बैठा जा रहा है. ‘यह सूरज की पत्नी और उस का बच्चा, फिर मुझ से शादी क्यों की? इतना बड़ा धोखा? यहां कैसे रहूंगी? बाबूजी को फोन करूं…’ वह सोच में पड़ गई.

तभी एक जीप वहां आ कर रुकी. सूरज कूद कर बाहर आया. दोस्त और जया को बाहर खड़ा देख वह हैरान हुआ, ‘‘तुम दोनों इतनी देर से बाहर क्यों खड़े हो?’’

तभी उस की नजर जया पर पड़ी. चेहरा एकदम सफेद जैसे किसी ने शरीर का सारा खून निचोड़ लिया हो. वह लपक कर जया के पास पहुंचा. जया दोस्त का सहारा लिए 2 कदम पीछे हट गई.

‘‘जया…?’’ इसी समय उस की नजर घर के दरवाजे पर खड़ी महिला पर पड़ी.

वह उछल कर दरवाजे पर जा पहुंचा,

‘‘आप? आप यहां क्या कर रही हैं? ओ नो… आप ने अपना वार जया पर भी चला दिया?’’

औरत खिलखिला उठी.

थोड़ी देर बाद सभी लोग सूरज के ड्राइंगरूम में बैठे हंसहंस कर बातें कर रहे थे. वही महिला चाय व नाश्ता ले कर आई, ‘‘क्यों जया, अब तो नाराज नहीं हो? सौरी, बहुत धक्का लगा होगा.’’

इस फौजी कालोनी में यह एक रिवाज सा बन गया था. किसी भी अफसर की शादी हो, लोग नई बहू की रैगिंग जरूर करते थे. सूरज की पत्नी बनी सरला दीक्षित और रीना प्रकाश ऐसे कामों में माहिर थीं. कहीं पहली पत्नी बन, तो किसी को नए पति के उलटेसीधे कारनामे सुना ऐसी रैगिंग करती थीं कि नई बहू सारी उम्र नहीं भूल पाती थी. इस का एक फायदा यह होता था कि नई बहू के मन में नई जगह की झिझक खत्म हो जाती थी.

जया जल्द ही यहां की जिंदगी की अभ्यस्त हो गई. शनिवार की शाम क्लब जाना, रविवार को किसी के घर गैटटुगैदर. सूरज ने जया को अंगरेजी धुनों पर नृत्य करना भी सिखा दिया. सूरज और जया की जोड़ी जब डांसफ्लोर पर उतरती तो लोग देखते रह जाते. 5-6 महीने बीततेबीतते जया वहां की सांस्कृतिक गतिविधियों की सर्वेसर्वा बन गई. घरों में जया का उदाहरण दिया जाने लगा.

खुशहाल थी जया की जिंदगी. बेहद प्यार करने वाला पति. ऐक्टिव रहने के लिए असीमित अवसर. बड़े अफसरों की वह लाडली बेटी बन गई. कभीकभी उसे वह पहला दिन याद आता. सरला दीक्षित ने कमाल का अभिनय किया था. उस की तो जान ही निकल गई थी.

2 साल बाद नन्हे उदय का जन्म हुआ तो उस की खुशियां दोगुनी हो गईं. उदय एकदम सूरज का प्रतिरूप. मातृत्व की संतुष्टि ने जया की खूबसूरती को और बढ़ा दिया. सूरज कभीकभी मजाक करता, ‘‘मेम साहब, क्लब के काम, घर के काम और उदय के अलावा एक बंदा यह भी है, जो घर में रहता है. कुछ हमारा भी ध्यान…’’

जया कह उठती, ‘‘बताओ तो, तुम्हारी अनदेखी कब की? सूरज, बाकी सब बाद  में… मेरे दिल में पहला स्थान तो सिर्फ तुम्हारा है.’’

सूरज उसे बांहों में भींच कह उठता, ‘‘क्या मैं यह जानता नहीं?’’

उदय 4 साल का होने को आया. सूरज अकसर कहने लगा, ‘‘घर में तुम्हारे जैसी गुडि़या आनी चाहिए अब तो.’’

एक दिन घर में घुसते ही सूरज चहका, ‘‘भेलपूरी,’’ फिर सूंघते हुए किचन में चला आया, ‘‘जल्दी से चखा दो.’’

भेलपूरी सूरज की बहुत बड़ी कमजोरी थी. सुबह, दोपहर, शाम, रात भेलपूरी खाने को वह हमेशा तैयार रहता.

सूरज की आतुरता देख जया हंस दी, ‘‘डाक्टर हो, औरों को तो कहते हो बाहर से आए हो, पहले हाथमुंह धो लो फिर कुछ खाना और खुद गंदे हाथ चले आए.’’

सूरज ने जया के सामने जा कर मुंह खोल दिया, ‘‘तुम्हारे हाथ तो साफ हैं. तुम खिला दो.’’

‘‘तुम बच्चों से बढ़ कर हो,’’ हंसती जया ने चम्मच भर भेलपूरी उस के मुंह में डाल दी.

‘‘कमाल की बनी है. मेज पर लगाओ. मैं हाथमुंह धो कर अभी हाजिर हुआ.’’

‘‘एक प्लेट से मेरा क्या होगा. और दो भई,’’ मेज पर आते ही सूरज ने एक प्लेट फटाफट चट कर ली.

तभी फोन की घंटी टनटना उठी. फोन सुन सूरज गंभीर हो गया, ‘‘मुझे अभी जाना होगा. हमारा एक ट्रक दुर्घटनाग्रस्त हो गया. हमारे कुछ अफसर, कुछ जवान घायल हैं.’’

जया भेलपूरी की एक और प्लेट ले आई और सूरज की प्लेट में डालने लगी तो ‘‘जानू, अब तो आ कर ही खाऊंगा. मेरे लिए बचा कर रखना,’’ कह सूरज बाहर जीप में जा बैठा.

ट्रक दुर्घटना जया की जिंदगी की भयंकर दुर्घटना बन गई. फुल स्पीड से जीप भगाता सूरज एक मोड़ के दूसरी तरफ से आते ट्रक को नहीं देख सका. हैड औन भिडंत. जीप के परखचे उड़ गए. जीप में सवार चारों लोगों ने मौके पर ही दम तोड़ दिया.

जया की पीड़ा शब्दों में बयां नहीं की जा सकती. वह 3 दिन बेहोश रही. घर मेहमानों से भर गया. पर चारों ओर मरघट सा सन्नाटा. घर ही क्यों, पूरी कालोनी स्तब्ध.

जया की ससुराल, मायके से लोग आए. उन्होंने जया से अपने साथ चलने की बात भी कही. लेकिन उस ने कहीं भी जाने से इनकार कर दिया. सासससुर कुछ दिन ठहर चले गए.

जया एकदम गुमसुम हो गई. बुत बन गई. बेटे उदय की बातों तक का जवाब नहीं. वह इस सचाई को बरदाश्त नहीं कर पा रही थी कि सूरज चला गया है, उसे अकेला छोड़. जीप की आवाज सुनते ही आंखें दरवाजे की ओर उठ जातीं.

इंसान चला जाता है पर पीछे कितने काम छोड़ जाता है. मृत्यु भी अपना हिसाब मांगती है. डैथ सर्टिफिकेट, पैंशन, बीमे का काम, दफ्तर के काम. जया ने सब कुछ ससुर पर छोड़ दिया. दफ्तर वालों ने पूरी मदद की. आननफानन सब फौर्मैलिटीज पूरी हो गईं.

इस वक्त 2 बातें एकसाथ हुईं, जिन्होंने जया को झंझोड़ कर चैतन्य कर दिया. सूरज के बीमे के क्व5 लाख का चैक जया के नाम से आया. जया ने अनमने भाव से दस्तखत कर ससुर को जमा कराने के लिए दे दिया.

एक दिन उस ने धीमी सी फुसफुसाहट सुनी, ‘‘बेटे को पालपोस कर हम ने बड़ा किया, ये 5 लाख बहू के कैसे हुए?’’ सास का स्वर था.

‘‘सरकारी नियम है. शादी के बाद हकदार पत्नी हो जाती है,’’ सास ने कहा.

‘‘बेटे की पत्नी हमारी बहू है. हम जैसा चाहेंगे, उसे वैसा करना होगा. जया हमारे साथ जाएगी. वहां देख लेंगे.’’

जया की सांस थम गई. एक झटके में उस की आंख खुल गई. ऐसी मन:स्थिति में उस ने उदय को अपने दोस्त से कहते सुना, ‘‘सब कहते हैं पापा मर गए. कभी नहीं आएंगे. मुझ से तो मेरी मम्मी भी छिन गईं… मुझ से बोलती नहीं, खेलती नहीं, प्यार भी नहीं करतीं. दादीजी कह रही थीं हमें अपने साथ ले जाएंगी. तब तो तू भी मुझ से छिन जाएगा…’’

पाषाण बनी जया फूटफूट कर रो पड़ी. उसे क्या हो गया था? अपने उदय के प्रति इतनी बेपरवाह कैसे हो गई? 4 साल के बच्चे पर क्या गुजर रही होगी? उस के पापा चले गए तो मुझे लगा मेरा दुख सब से बड़ा है. मैं बच्चे को भूल गई. यह तो मुरझा जाएगा.

उसी दिन एक बात और हुई. शाम को मेजर देशपांडे की मां जया से मिलने आईं. वे जया को बेटी समान मानती थीं. वे जया के कमरे में ही आ कर बैठीं. फिर इधरउधर की बातों के बाद बोलीं, ‘‘खबर है कि तुम सासससुर के साथ जा रही हो? मैं तुम्हारीकोई नहीं होती पर तुम से सगी बेटी सा स्नेह हो गया है, इसलिए कहती हूं वहां जा कर तुम और उदय क्या खुश रह सकोगे? सोच कर देखो, तुम्हारी जिंदगी की शक्ल क्या होगी? तुम खुल कर जी पाओगी? बच्चा भी मुरझा जाएगा.

‘‘तुम पढ़ीलिखी समझदार हो. पति चला गया, यह कड़वा सच है. पर क्या तुम में इतनी योग्यता नहीं है कि अपनी व बच्चे की जिंदगी संभाल सको? अभी पैसा तुम्हारा है, कल भी तुम्हारे पास रहेगा, यह भरोसा मत रखना. पैसा है तो कुछ काम भी शुरू कर सकती हो. काम करो, जिंदगी नए सिरे से शुरू करो.’’

जया ने सोचा, ‘दुख जीवन भर का है. उस से हार मान लेना कायरता है. सूरज ने हमेशा अपने फैसले खुद करने का मंत्र मुझे दिया. मुझे उदय की जिंदगी बनानी है. आज के बाद अपने फैसले मैं खुद करूंगी.’

4 साल बीत गए. जया खुश है. उस दिन उस ने हिम्मत से काम लिया. जया का नया आत्मविश्वासी रूप देख सासससुर दोनों हैरान थे. उन की मिन्नत, समझाना, उग्र रूप दिखाना सब बेकार गया. जया ने दोटूक फैसला सुना दिया कि वह यहीं रहेगी. सासससुर खूब भलाबुरा कह वहां से चले गए.

जया ने वहीं आर्मी स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया. इस से उसे घर भी नहीं छोड़ना पड़ा. जड़ों से उखड़ना न पड़े तो जीना आसान हो जाता है. अपने ही घर में रहते, अपने परिचित दोस्तों के साथ पढ़तेखेलते उदय पुराने चंचल रूप में लौट आया.

मेजर शांतनु देशपांडे ने उसे सूरज की कमी महसूस नहीं होने दी. स्कूल का होमवर्क, तैरना सिखाना, क्रिकेट के दांवपेच, शांतनु ने सब संभाला. उदय खिलने लगा. उदय को खुश देख जया के होंठों की हंसी भी लौटने लगी.

शाम का समय था. उदय खेलने चला गया था. जया बैठी जिंदगी के उतारचढ़ाव के बारे में सोच रही थी. जिंदगी में कब, कहां, क्या हो जाए, उसे क्या पहले जाना जा सकता है? मैं सूरज के बगैर जी पाऊंगी, सोच भी नहीं सकती थी. लेकिन जी तो रही हूं. छोटे उदय को मैं ने चलना सिखाया था. अब लगता है उस ने मुझे चलना सिखाया. देशपांडे ने सच कहा था जीवन को नष्ट करने का अधिकार मानव को नहीं है. इसे संभाल कर रखने में ही समझदारी है.

शुरू के दिनों को याद कर के जया आज भी सिहर उठी. वैधव्य का बोझ, कुछ करने का मन ही नहीं होता था. पर काम तो सभी करने थे. घर चलाना, उदय का स्कूल, स्कूल में पेरैंट टीचर मीटिंग, घर की छोटीबड़ी जिम्मेदारियां, कभी उदय बीमार तो कभी कोई और परेशानी. आई और शांतनु का सहारा न होता तो बहुत मुश्किल होती.

शांतनु का नाम याद आते ही मन में सवाल उठा, ‘पता नहीं उन्होंने अब तक शादी क्यों नहीं की? हो सकता है प्रेम में चोट खाई हो. आई से पूछूंगी.’

जया उठ कर अपने कमरे में चली आई पर उस का सोचना बंद नहीं हुआ. ‘मैं शांतनु पर कितनी निर्भर हो गई हूं, अनायास ही, बिना सोचेसमझे. वे भी आगे बढ़ सब संभाल लेते हैं. पिछले कुछ समय से उन के व्यवहार में हलकी सी मुलायमियत महसूस करने लगी हूं. ऐसा लगता है जैसे कोई मेरे जख्मों पर मरहम लगा रहा है. उदय का तो कोई काम अंकल के बिना पूरा नहीं होता. क्यों कर रहे हैं वे इतना सब?’

शाम को जया बगीचे में पानी दे रही थी. उदय साथसाथ सूखे पत्ते, सूखी घास निकालता जाता. अचानक वह जया की ओर देखने लगा.

‘‘ऐसे क्या देख रहा है? मेरे सिर पर क्या सींग उग आए हैं?’’

उदय उत्तेजित सा उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘मम्मी, मुझे पापा चाहिए.’’

जया स्तब्ध रह गई. उस के कुछ कहने से पहले ही उदय कह उठा, ‘‘अब मैं शांतनु अंकल को अंकल नहीं पापा कहूंगा,’’ और फिर वह घर के भीतर चला गया.

उस रात जया सो नहीं पाई. उदय के मन में आम बच्चों की तरह पापा की कमी कितनी खटक रही है, क्या वह जानती नहीं. जब सूरज को खोया था उदय छोटा था, तो भी जो छवि उस के नन्हे से दिल पर अंकित थी, वह प्यार करने, हर बात का ध्यान रखने वाले पुरुष की थी. उस की बढ़ती उम्र की हर जरूरत का ध्यान शांतनु रख रहे थे. उन की भी वैसी ही छवि उदय के मन में घर करती जा रही थी.

आई और शांतनु भी यही चाहते हैं. इशारों में अपनी बात कई बार कह चुके हैं. वही कोई फैसला करने से बचती रही है.

क्या करूं? नई जिंदगी शुरू करना गलत तो नहीं. शांतनु एक अच्छे व सुलझे इंसान हैं.

उदय को बेहद चाहते हैं. आई और शांतनु दोनों मेरा अतीत जानते हैं. शादी के बाद जब यहां आई थी, तब से जानते हैं. अभी दोनों परिवार बिखरे, अधूरेअधूरे से हैं. मिल जाएं तो पूर्ण हो जाएंगे.

वसंतपंचमी के दिन आई ने जया व उदय को खाने पर बुलाया. उदय जल्दी मचा कर शाम को ही जया को ले वहां पहुंच गया. जया ने सोचा, जल्दी पहुंच मैं आई का हाथ बंटा दूंगी.

आई सब काम पहले से ही निबटा चुकी थीं. दोनों महिलाएं बाहर बरामदे में आ बैठीं. सामने लौन में उदय व शांतनु बैडमिंटन खेल रहे थे. खेल खत्म हुआ तो उदय भागता

बरामदे में चला आया और आते ही बोला, ‘‘मैं अंकल को पापा कह सकता हूं? बोलो

न मम्मी, प्लीज?’’

जया शर्म से पानीपानी. उठ कर एकदम घर के भीतर चली आई. पीछेपीछे आई भी आ गईं. जया को अपने कमरे में ला बैठाया.

‘‘बिटिया, जो बात हम मां बेटा न कह सके, उदय ने कह दी. शांतनु तुम्हें बहुत

चाहता है. तुम्हारे सामने सारी जिंदगी पड़ी है. उदय को भी पिता की जरूरत है और मुझे भी तो बहू चाहिए,’’ आई ने जया के दोनों हाथ पकड़ लिए, ‘‘मना मत करना.’’

जया के सामने नया संसार बांहें पसारे खड़ा था. उस ने लजा कर सिर झुका लिया. आई को जवाब मिल गया. उन्होंने अलमारी खोल सुनहरी साड़ी निकाल जया को ओढ़ा दी और डब्बे में से कंगन निकाल पहना दिए. जया मोम की गुडि़या सी बैठी थी.

उसी समय उदय अंदर आया. वहां का नजारा देख वह चकित रह गया. आई ने कहा, ‘‘कौन, उदय है न? जा तो बेटा, अपने पापा को बुला ला.’’

‘‘पापा,’’ खुशी से चिल्लाता उदय बाहर भागा.

जया की आंखें लाज से उठ नहीं रही थीं. आई ने शांतनु से कहा, ‘‘मैं ने अपने

लिए बहू ढूंढ़ ली है. ले, बहू को अंगूठी पहना दे.’’

शांतनु पलक झपकते सब समझ गया. यही तो वह चाह रहा था. मां से अंगूठी ले उस ने जया की कांपती उंगली में पहना दी.

‘‘पापा, अब आप मेरे पापा हैं. मैं आप को पापा कहूंगा,’’ कहता उदय लपक कर शांतनु के सीने से जा लगा.

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