आउटसोर्सिंग: क्या माता-पिता ढूंढ पाए मुग्धा का वर

मुग्धा के लिए गरमागरम दूध का गिलास ले कर मानिनी उस के कमरे में पहुंची तो देखा, सारा सामान फैला पड़ा था.

‘‘यह क्या है, मुग्धा? लग रहा है, कमरे से तूफान गुजरा है?’’

‘‘मम्मी बेकार का तनाव मत पालो. सूटकेस निकाले हैं, पैकिंग करनी है,’’ मुग्धा गरमागरम दूध का आनंद उठाते हुए बोली.

‘‘कहां जा रही हो? तुम ने तो अभी तक कुछ बताया नहीं,’’ मानिनी ने प्रश्न किया.

‘‘मैं आप को बताने ही वाली थी. आज ही मुझे पत्र मिला है. मेरी कंपनी मुझे 1 वर्ष के लिए आयरलैंड भेज रही है.’’

‘‘1 वर्ष के लिए?’’

‘‘हां, और यह समय बढ़ भी सकता है,’’ मुग्धा मुसकराई.

‘‘नहीं, यह नहीं हो सकता. विवाह किए बिना तुम कहीं नहीं जाओगी.’’

‘‘क्या कह रही हो मां? यह मेरे कैरियर का प्रश्न है.’’

‘‘इधर, यह तुम्हारे जीवन का प्रश्न है. अगले मास तुम 30 की हो जाओगी. कोई न कोई बहाना बना कर तुम इस विषय को टालती रही हो.’’

‘‘मैं ने कब मना किया है? आप जब कहें तब मैं विवाह के लिए तैयार हूं. पर अब प्लीज मेरी आयु के वर्ष गिनाने बंद कीजिए, मुझे टैंशन होने लगती है.

मुझे पता है कि अगले माह मैं 30 की हो जाऊंगी.’’

‘‘मैं तो तुझे यह समझा रही थी कि हर काम समय पर हो जाना चाहिए. यह जान कर अच्छा लगा कि तुम शादी के लिए तैयार हो. सूरज मान गया क्या?’’

‘‘सूरज के मानने न मानने से क्या फर्क पड़ता है?’’ मुग्धा मुसकराई.

‘‘तो विवाह किस से करोगी?’’

‘‘यह आप की समस्या है, मेरी नहीं.’’

‘‘क्या? तुम हमारे चुने वर से विवाह करोगी? अरे तो पहले क्यों नहीं बताया? हम तो चांद से दूल्हों की लाइन लगा देते.’’

‘‘क्यों उपहास करती हो, मां. चांद सा दूल्हा तुम्हारी नाटी, मोटी, चश्मा लगाने वाली बेटी से विवाह क्यों करने लगा?’’

‘‘क्या कहा? नाटी, मोटी चशमिश? किसी और ने कहा होता तो मैं उस का मुंह नोच लेती. मेरी नजरों से देखो, लाखों में एक हो तुम. ऐसी बातें आईं कहां से तुम्हारे मन में? कुछ तो सोचसमझ कर बोला करो,’’ मानिनी ने आक्रोश व्यक्त किया.

मानिनी सोने चली गई थीं पर मुग्धा शून्य में ताकती बैठी रह गई थी. वह मां को कैसे बताती कि अपने लिए उपयुक्त वर की खोज करना उस के बस की बात नहीं थी. मां तो केवल सूरज के संबंध में जानती हैं. सुबोध, विशाल और रंजन के बारे में उन्हें कुछ नहीं पता. चाह कर भी वह मां को अपने इन मित्रों के संबंध में नहीं बता पाई. यही सब सोचती हुई वह अतीत के भंवर में घिरने लगी.

सुबोध उस का अच्छा मित्र था. कालेज में वे दोनों सहपाठी थे. अद्भुत व्यक्तित्व था उस का. पर मुग्धा को उस के गुणों ने आकर्षित किया था. सुबोध उस के लिए आसमान से चांदतारे तोड़ कर लाने की बात करता तो वह अभिभूत हो जाती.

पर जब वह मां और अपने पिता राजवंशी से इस संबंध में बात करने ही वाली थी कि सुबोध ने अपनी शादी तय होने का समाचार दे कर उसे आकाश से धरती पर ला पटका. सुबोध बातें तो उस के बाद भी बहुत मीठी करता था. उस के अनुसार प्यार तो अजरअमर होता है. वह चाहे तो वे जीवनभर प्रेमीप्रेमिका बने रह सकते हैं. सुबोध तो अपने परिवार से छिप कर उस से विवाह करने को भी तैयार था पर वह प्रस्ताव उस ने ही ठुकरा दिया था.

उस प्रकरण के बाद वह लंबे समय तक अस्वस्थ रही थी. फिर उस ने स्वयं को संभाल लिया था. मुग्धा चारों भाईबहनों में सब से छोटी थी. सब ने अपने जीवनसाथी का चुनाव स्वयं ही किया था. अब अपने ढंग से वे अपने जीवन के उतारचढ़ाव से समझौता कर रहे थे. भाईबहनों के पास न उस के लिए समय था न ही उस से घुलनेमिलने की इच्छा. तो भला उस के जीवन में कैसे झांक पाते. मां भी सोच बैठी थीं कि वह भी अपने लिए वर स्वयं ही ढूंढ़ लेगी.

विशाल और रंजन उस के जीवन में दुस्वप्न बन कर आए. दोनों ही स्वच्छंद विचरण में विश्वास करते थे. रंजन की दृष्टि तो उस के ऊंचे वेतन पर थी. उस ने अनेक बार अपनी दुखभरी झूठी कहानियां सुना कर उस से काफी पैसे भी ऐंठ लिए थे. तंग आ कर मुग्धा ने ही उस से किनारा कर लिया था.

सूरज उस के जीवन में ताजी हवा के झोंके की तरह आया था. सुदर्शन, स्मार्ट सूरज को जो देखता, देखता ही रह जाता. सूरज ने स्वयं ही अपने मातापिता से मिलवाया. उसे भी विवश कर दिया कि वह उस का अपने मातापिता से परिचय करवाए. कुछ ही दिनों में उस से ऐसी घनिष्ठता हो गई, मानो सदियों की जानपहचान हो. अकसर सूरज उस के औफिस में आ धमकता और वह सब से नजरें चुराती नजर आती.

मुग्धा अपने व्यक्तिगत जीवन को स्वयं तक ही सीमित रखने में विश्वास करती थी. अपनी भावनाओं का सरेआम प्रदर्शन उसे अच्छा नहीं लगता था.

‘मेरे परिचितों से घनिष्ठता बढ़ा कर तुम सिद्ध क्या करना चाहते हो?’

‘कुछ नहीं, तुम्हें अच्छी तरह जाननेसमझने के लिए तुम्हारे मित्रों, संबंधियों को जानना भी तो आवश्यक है न प्रिय,’ सूरज नाटकीय अंदाज में उत्तर देता.

‘2 वर्ष हो गए हमें साथ घूमतेफिरते, एकदूसरे को जानतेसमझते. चलो, अब विवाह कर लें. मेरे मातापिता बहुत जोर डाल रहे हैं,’ एक दिन मुग्धा ने साहस कर के कह ही डाला था.

‘क्या? विवाह? मैं ने तो सोचा था कि तुम आधुनिक युग की खुले विचारों वाली युवती हो. एकदूसरे को अच्छी तरह जानेसमझे बिना भला कोई विवाहबंधन में बंधता है?’ सूरज ने अट्टहास किया था.

‘कहना क्या चाहते हो तुम?’ मुग्धा बिफर उठी थी.

‘यही कि विवाह का निर्णय लेने से पहले हमें कुछ दिन साथ रह कर देखना चाहिए. साथ रहने से ही एकदूसरे की कमजोरियां और खूबियां समझ में आती हैं. तुम ने वह कहावत तो सुनी ही होगी, सोना जानिए कसे, मनुष्य जानिए बसे,’ सूरज कुटिलता से मुसकराया था.

‘तुम्हारा साहस कैसे हुआ मुझ से ऐसी बात कहने का? मैं कोई ऐसीवैसी लड़की नहीं हूं. 2 वर्षों में भी यदि तुम मेरी कमजोरियों और खूबियों को नहीं जान पाए तो भाड़ में जाओ, मेरी बला से,’ मुग्धा पूरी शक्ति लगा कर चीखी थी.

‘इस में इतना नाराज होने की क्या बात है, मुझे कोई जल्दी नहीं है, सोचसमझ लो. अपने मातापिता से सलाहमशविरा कर लो. मैं चोरीछिपे कोई काम करने में विश्वास नहीं करता. आज के अत्याधुनिक मातापिता भी इस में कोई बुराई नहीं देखते. वे भी तो अपने बच्चों को सुखी देखना चाहते हैं.’

‘किसी से विचारविनिमय करने की आवश्यकता नहीं है. मैं स्वयं इस तरह साथ रहने को तैयार नहीं हूं,’ मुग्धा पैर पटकती चली गई थी.

उधर, काम में उस की व्यस्तता बढ़ती ही जा रही थी. किसी और से मेलजोल बढ़ाने का न तो उस के पास समय था और न ही इच्छा. इसलिए जब मां ने उस के विवाह की बात उठाई तो उस ने सारा भार मातापिता के कंधों पर डालने में ही अपनी भलाई समझी.

मुग्धा करवटें बदलतेबदलते कब सो गई, पता भी न चला. प्रात: जब वह उठी तो मन से स्वस्थ थी.

मुग्धा ने अपनी ओर से तुरुप का पत्ता चल दिया था. उस ने सोचा था कि अब कोई उसे विवाह से संबंधित प्रश्न कर के परेशान नहीं करेगा.

पर शीघ्र ही उसे पता चल गया कि उस का विचार कितना गलत था.

मानिनी और राजवंशीजी भला कब चुप बैठने वाले थे. उन्होंने युद्धस्तर पर वर खोजो अभियान प्रारंभ कर दिया था. दोनों पतिपत्नी में मानो नवीन ऊर्जा का संचार हो गया था.

मित्रों, संबंधियों, परिचितों से संपर्क साधा गया. समाचारपत्रों, इंटरनैट का सहारा लिया गया और आननफानन विवाह प्रस्तावों का अंबार लग गया.

वर खोजो अभियान का पता चलते ही मुग्धा के बड़े भाईबहन दौड़े आए.

‘‘क्यों आप अपना पैसा और समय दोनों बरबाद कर रहे हैं. मुग्धा जैसी लड़की आप के द्वारा चुने गए वर से कभी विवाह नहीं करेगी,’’ मुग्धा के सब से बड़े भाई मानस ने तर्क दिया था.

‘‘इस समस्या का समाधान तो तुम मुग्धा से मिल कर ही कर सकते हो. हम ने उस की सहमति से ही यह कार्य प्रारंभ किया है,’’ राजवंशीजी का उत्तर था.

मुग्धा के औफिस से आते ही तीनों भाईबहनों ने उसे घेर लिया था, ‘‘यह क्या मजाक है? तुम अपने लिए एक वर भी स्वयं नहीं ढूंढ़ सकतीं?’’ मुग्धा की बहन मानवी ने प्रश्न किया था.

‘‘मैं बहुत व्यस्त हूं, दीदी. वर खोजो अभियान के लिए समय नहीं है. मम्मीपापा शीघ्र विवाह करने पर जोर दे रहे थे तो मैं ने यह कार्य उन्हीं के कंधों पर डाल दिया. कुछ गलत किया क्या मैं ने?’’

‘‘बिलकुल पूरी तरह गलत किया है तुम ने. बिना किसी को जानेसमझे केवल मांपापा के कहने से तुम विवाह कर लोगी? यह एक दिन का नहीं, पूरे जीवन का प्रश्न है यह भी सोचा है तुम ने,’’ उस के बड़े भैया मानस बोले थे.

‘‘मुझे लगा मम्मीपापा हमारे हितैषी हैं. जिस प्रकार वे इस प्रकरण में सारी छानबीन कर रहे हैं, मैं तो कभी नहीं कर पाती.’’

‘‘क्या छानबीन करेंगे वे, धनदौलत पढ़ाईलिखाई, शक्लसूरत, पारिवारिक पृष्ठभूमि इस से अधिक क्या देखेंगे वे. इस से भी बड़ी कुछ बातें होती हैं,’’ छोटे भैया, जो अब तक चुप थे, गुरुगंभीर वाणी में बोले थे.

‘‘आप शायद ठीक कह रहे हैं पर आप तीनों के वैवाहिक जीवन की भी कुछ जानकारी है मुझे. मानस भैया को नियम से हर माह प्लेटें, प्याले खरीदने पड़ते हैं. नीरजा भाभी को उन्हें फेंकने और तोड़ने का ज्यादा ही शौक है. तन्वी भाभी और अवनीश जीजाजी…’’

‘‘रहने दो, हम यहां अपने वैवाहिक जीवन की कमजोरियां सुनने नहीं, तुम्हें सावधान करने आए हैं. अपने जीवन के साथ यह जुआ क्यों खेल रही हो तुम?’’  मानवी थोड़े ऊंचे स्वर में बोली.

‘‘यह जीवन जुआ ही तो है. हमारा कोई भी निर्णय गलत या सही हो सकता है, इसीलिए मैं ने अपने विवाह की आउटसोर्सिंग करने का निर्णय लिया है,’’ मुग्धा ने मानो अंतिम निर्णय सुना दिया था.

‘‘जैसी तुम्हारी मरजी. जब विवाह निश्चित हो जाए तो हमें बुलाना मत भूलना,’’ तीनों व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोल कर अपनी दुनिया में लौट गए थे.

इधर, मानिनी और राजवंशीजी की चिंता बढ़ती ही जा रही थी. 3 माह बाद ही मुग्धा को आयरलैंड जाना था और एक माह बीतने पर भी कहीं बात बनती नजर नहीं आ रही थी.

यों उन के पास प्रस्तावों का अंबार लग गया था पर उन में से उन के काम के 4-5 ही थे. लड़के वालों को मुग्धा से मिलवाने और अन्य औपचारिकताओं का प्रबंध करते हुए उन के पसीने छूटने लगे थे पर बात कहीं बनती नजर नहीं आ रही थी.

उस दिन प्रतिदिन की तरह मुग्धा अपने औफिस गई हुई थी. राजवंशीजी जाड़े की धूप में समाचारपत्र में डूबे हुए थे कि द्वार की घंटी बजी.

राजवंशीजी ने द्वार खोला तो सामने एक सुदर्शन युवक खड़ा था. वे तो उसे देखते ही चकरा गए.

‘‘अरे बेटे तुम? अचानक इस तरह न कोई चिट्ठी न समाचार? अपने मातापिता को नहीं लाए तुम?’’

‘‘जी उन के आने का तो कोई कार्यक्रम ही नहीं था. मां ने आप के लिए कुछ मिठाई आदि भेजी है.’’

‘‘इस की क्या आवश्यकता थी, बेटा? तुम्हारी माताजी भी कमाल करती हैं. आओ, बैठो, मैं अभी आया,’’ युवक को वहीं बिठा कर वे लपक कर अंदर गए थे.

‘‘जल्दी आओ, जनार्दन आया है,’’ वे मानिनी से हड़बड़ा कर बोले थे.

‘‘कौन जनार्दन?’’ मानिनी ने प्रश्न किया था.

‘‘लो, अब यह भी मुझे बताना पड़ेगा? याद नहीं मुग्धा के लिए प्रस्ताव आया था. विदेशी तेल कंपनी में बड़ा अफसर है. याद आया? उन्होंने फोटो भी भेजा था,’’ राजवंशी ने याद दिलाया.

मानिनी ने राजवंशीजी की बात पर विशेष ध्यान नहीं दिया. वे लपक कर ड्राइंगरूम में पहुंचीं, सौम्यसुदर्शन युवक को देख कर उन की बाछें खिल गईं.

युवक ने उन्हें देखते ही अभिवादन किया. उत्तर में मानिनी ने प्रश्नों की बौछार ही कर डाली, ‘‘कैसे आए? घर ढूंढ़ने में कष्ट तो नहीं हुआ? तुम्हारे मातापिता क्यों नहीं आए? वे भी आ जाते तो अच्छा होता, आदिआदि.’’

युवक ने बड़ी शालीनता से हर प्रश्न का उत्तर दिया. मानिनी उस की हर भावभंगिमा का बड़ी बारीकी से निरीक्षण कर रही थीं. मन ही मन वे उसे मुग्धा के साथ बिठा कर जोड़ी की जांचपरख भी कर चुकी थीं.

इसी बीच राजवंशीजी जा कर ढेर सारी मिठाईनमकीन आदि खरीद लाए थे. मानिनी ने शीघ्र ही चायनाश्ते का प्रबंध कर दिया था.

‘इतना सबकुछ? अंकल, आप को इतनी औपचारिकता की क्या आवश्यकता थी,’ युवक मेज पर फैली सामग्री को देख कर चौंक गया था.

‘‘बेटे, ये सब हमारे शहर की विशेष मिठाइयां हैं. ये खास कचौडि़यां हमारे शहर की विशेषता है,’’ मानिनी प्लेट में ढेर सी सामग्री डालते हुए बोली थीं.

‘‘मेरी मां ठीक ही कहती हैं, हम दोनों परिवारों के बीच जो प्यार है वह शायद ही कहीं देखने को मिले,’’ युवक प्लेट थामते हुए बोला. मानिनी उलझन में पड़ गईं पर शीघ्र ही उन्होंने संशय को दूर झटका और घर आए अतिथि पर ध्यान केंद्रित कर दिया.

‘‘अच्छा, आंटी, अब मैं चलूंगा. आप दोनों से मिल कर बहुत अच्छा लगा.’’

‘‘अरे, हम ने मुग्धा को फोन किया है, वह आती ही होगी. उस से मिले बिना तुम कैसे जा सकते हो?’’

‘‘उस की क्या आवश्यकता थी? आप ने व्यर्थ ही मुग्धाजी को परेशान किया.’’

‘‘इस में कैसी परेशानी? तुम कौन सा रोज आते हो,’’ राजवंशीजी मुसकराए.

तभी मुग्धा की कार आ कर रुकी. मानिनी और राजवंशीजी लपक कर बाहर पहुंचे. मानिनी उसे पीछे के द्वार से अंदर ले गईं.

‘‘जल्दी से तैयार हो जा. यह जींस टौप बदल कर अच्छा सा सूट पहन ले, बाल खुले छोड़ दे.’’

‘‘क्या कह रही हो मम्मी. किसी से मिलने के लिए इतना सजनेसंवरने की क्या आवश्यकता है?’’

‘‘किसी से नहीं जनार्दन से मिलना है. तू क्या सोचती है बिना बताए वह तुझ से मिलने क्यों आया है?’’

‘‘मुझे क्या पता, मम्मी. मैं आप का फोन मिलते ही दौड़ी चली आई. मुझे लगा किसी की तबीयत अचानक बिगड़ गई है.’’

‘‘तबीयत बिगड़े हमारे दुश्मनों की. मैं जनार्दन के पास जा रही हूं. तुम जल्दी तैयार हो कर आ जाओ,’’ मानिनी फिर ड्राइंगरूम में जा बैठीं.

मुग्धा तैयार हो कर आई तो दोनों पतिपत्नी बाहर चले गए. दोनों एकदूसरे को जानसमझ लें तो बात आगे बढ़े. वे इस तरह घबराए हुए थे मानो साक्षात्कार देने जा रहे हों.

मुग्धा ड्राइंगरूम में बैठे युवक को अपलक ताकती रह गई.

‘‘आप का चेहरा बड़ा जानापहचाना सा लग रहा है. क्या हम पहले कभी मिल चुके हैं?’’ चायनाश्ते की मेज पर रखी केतली से कप में चाय डालते हुए मुग्धा ने प्रश्न किया.

‘‘जी हां, मैं रूपनगर से आया हूं, कुणाल बाबू मेरे पिता हैं,’’ चाय का कप थामते हुए वह युवक बोला.

‘‘कुणाल बाबू यानी दया इंटर कालेज के पिं्रसिपल?’’

‘‘जी हां, मैं उन का बेटा राजीव हूं. यहां अपने वीसा आदि के लिए आया हूं. मां ने आप लोगों के लिए कुछ मिठाई अपने हाथ से बना कर भेजी है.’’

‘‘अर्थात तुम जनार्दन नहीं राजीव हो. मम्मीपापा तुम्हें न जाने क्या समझ बैठे,’’ मुग्धा खिलखिला कर हंसी तो हंसती ही चली गई. राजीव भी उस की हंसी में उस का साथ दे रहा था.

‘‘मैं सब समझ गया. इसीलिए मेरी इतनी खातिरदारी हुई है.’’

‘‘तुम जनार्दन नहीं हो न सही, खातिर तो राजीव की भी होनी चाहिए. तुम ने हमारे यहां आने का समय निकाला यही क्या कम है?’’ कुछ देर में हंसी थमी तो मुग्धा ने कृतज्ञता व्यक्त की.

‘‘आप और मानस मेरी दीदी के विवाह में आए थे. हम ने खूब मस्ती की थी. उस बात को 7-8 वर्ष बीत गए.’’

‘‘तुम से मिल कर अच्छा लगा, आजकल क्या कर रहे हो. तब तो तुम आईआईटी से इंजीनियरिंग कर रहे थे?’’

‘‘जी, उस के बाद एमबीए किया. अब एक मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी मिल गई है. बीच में 3-4 वर्ष एक प्राइवेट कंपनी में था.’’

‘‘क्या बात है. तुम ने तो कुणाल सर का सिर ऊंचा कर दिया,’’ मुग्धा प्रशंसात्मक स्वर में बोली.

‘‘आप से एक बात कहनी थी मुग्धाजी.’’

‘‘कहो न, क्या बात है?’’

‘‘क्या मैं आप के जीवन का जनार्दन नहीं बन सकता? मैं ने तो जब से अपनी दीदी के विवाह में आप को देखा है, केवल आप के ही स्वप्न देखता रहा हूं.’’

मुग्धा राजीव को अपलक निहारती रह गई.

पलभर में ही न जाने कितनी आकृतियां बनीं और बिगड़ गईं. दोनों ने आंखों ही आंखों में मानो मौन स्वीकृति दे दी थी.

मानिनी और राजवंशीजी तो सबकुछ जान कर हैरान रह गए. उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ा कि वह जनार्दन नहीं राजीव था. दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया था, यही बहुत था.

अगले ही दिन कुणाल बाबू सपत्नीक आ पहुंचे थे. राजवंशीजी और मानिनी सभी आमंत्रित अतिथियों को रस लेले कर सुना रहे थे कि कैसे मुग्धा का भावी वर स्वयं ही उन के दर पर आ खड़ा हुआ था.

परख: कैसे बदली एक परिवार की कहानी

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माटी का प्यार: सरहदों को तोड़ता मां-बेटी का रिश्ता

फोन की घंटी की आवाज सुन कर मिथिला ने हाथ का काम छोड़ कर चोगा कान से लगाया.

‘मम्मा’ शब्द सुनते ही समझ गईं कि भूमि का फोन है. वह कुछ प्यार से, कुछ खीज से बोलीं, ‘‘हां, बता, अब और क्या चाहिए?’’

‘‘मम्मा, पहले हालचाल तो पूछ लिया करो, इतनी दूर से फोन कर रही हूं. आप की आवाज सुनने की इच्छा थी. आप घंटी की आवाज सुनते ही मेरे मन की बात समझ जाती हैं. कितनी अच्छी मम्मा हैं आप.’’

‘‘अब मक्खनबाजी छोड़, मतलब की बात बता.’’

‘‘मम्मा, ललित के यहां से थोड़ी मूंगफली मंगवा लेना,’’ कह कर भूमि ने फोन काट दिया.

मिथिला ने अपने माथे पर हाथ मारा. सामने होती तो कान खींच कर एक चपत जरूर लगा देतीं. यह लड़की फ्लाइट पकड़तेपकड़ते भी फरमाइश खत्म नहीं करेगी. फरमाइश करते समय भूल जाती है कि मां की उम्र क्या है. मां तो बस, अलादीन का चिराग है, जो चाहे मांग लो. भैयाभाभी दोनों नौकरी करते हैं. कोई और बाजार दौड़ नहीं सकता. अकेली मां कहांकहां दौडे़? गोकुल की गजक चाहिए, प्यारेलाल का सोहनहलवा, सिकंदराबाद की रेवड़ी, जवे, कचरी, कूटू का आटा, मूंग की बडि़यां, पापड़, कटहल का अचार और अब मूंगफली भी. कभी कहती, ‘मम्मा, आप बाजरे की खिचड़ी बनाती हैं गुड़ वाली?’

सुन कर उन की आंखें भर आतीं, ‘तू अभी तक स्वाद नहीं भूली?’

‘मम्मा, जिस दिन स्वाद भूल जाऊंगी अपनी मम्मा को और अपने देश को भूल जाऊंगी. ये यादें ही तो मेरा जीवन हैं,’ भूमि कहती.

‘ठीक है, ज्यादा भावुक न बन. अब आऊंगी तो बाजरागुड़ भी साथ लेती आऊंगी. वहीं खिचड़ी बना कर खिला दूंगी.’

और इस बार आधा किलोग्राम बाजरा भी मिथिला ने कूटछान कर पैक कर लिया है.

कई बार रेवड़ीगजक खाते समय भूमि खयालों में सामने आ खड़ी होती.

‘मम्मी, सबकुछ अकेलेअकेले ही खाओगी, मुझे नहीं खिलाओगी?’

‘हांहां, क्यों नहीं, ले पहले तू खा ले,’ और हाथ में पकड़ी गजक हाथ में ही रह जाती. खयालों से बाहर निकलतीं तो खुद को अकेला पातीं. झट भूमि को फोन मिलातीं.

‘भूमि, तू हमेशा मेरी यादों में रहती है और तेरी याद में मैं. बहुत हो चुका बेटी, अब अपने देश लौट आ. तेरी बूढ़ी मां कब तक तेरे पास आती रहेगी,’ कहतेकहते वह सुबक उठतीं.

‘मम्मा, आप जानती हैं कि मैं वहां नहीं आ सकती, फिर क्यों याद दिला कर अपने साथ मुझे भी दुखी करती हो.’

‘अच्छा बाबा, अब नहीं कहूंगी. ले, कान पकड़ती हूं. अब अपने आंसू पोंछ ले.’

‘मम्मा, आप को मेरी आंखें दिखाई दीं?’

‘बेटी के आंसू ही तो मां की आंखों में आते हैं. तेरी आवाज सब कह देती है.’

‘मम्मा, आंसू पोंछ लिए मैं ने, लेकिन इस बार जब तुम आओगी तो जाने नहीं दूंगी. यहीं मेरे पास रहना. बहुत रह लीं वहां.’

‘ठीक है, पर तेरे देश की सौगातें तुझे कैसे मिलेंगी?’

‘हां, यह तो सोचना पडे़गा. अब आप को तंग नहीं होना पडे़गा. हम भारत से आनलाइन खरीदारी करेंगे. थोड़ा महंगा जरूर पडे़गा पर कोई बात नहीं. आप की बेटी कमा किस के लिए रही है. पता है मम्मा, यहां एक इंडियन रेस्तरां है, करीब 150 किलोमीटर दूर. जिस दिन भारतीय खाना खाने का मन होता है वहीं चली जाती हूं और वहीं एक भारतीय शाप से महीने भर का सामान भी ले आती हूं.’

बेटी की बातें सुन कर मिथिला की आंखें छलछला आईं. उन्हें लगा कि बिटिया भारतीय व्यंजनों के लिए कितना तरसती है. पिज्जाबर्गर की संस्कृति में उसे आलू और मूली का परांठा याद आता है. काश, वह उस के पास रह पातीं और रोज अपने हाथ से बनाबना कर खिला पातीं.

5 साल हो गए यहां से गए हुए, लौट कर नहीं आई. वह ही 2 बार हो आई हैं और अब फिर जा रही हैं. भूमि के विदेश जाने में वह कहीं न कहीं स्वयं को अपराधी मानती हैं. यदि भूमि के विवाह को ले कर वह इतनी जल्दबाजी न करतीं तो ये सब न होता. भूमि ने दबे स्वर में कहा भी था कि मम्मा, थोड़ा सोचने का वक्त दो.

वह तब उबल पड़ी थीं कि तू सोचती रहना, वक्त हाथ से निकल जाएगा. सोचतेसोचते तेरे पापा चले गए. मैं भी चली जाऊंगी. अब नौकरी करते भी 2 साल निकल गए. रिश्ता खुद चल कर आया है. लड़का स्वयं साफ्टवेयर इंजीनियर है. तुम दोनों पढ़ाई में समान हो और परिवार भी ठीकठाक है, अब और क्या चाहिए?

उत्तर में मां की इच्छा के आगे भूमि ने हथियार डाल दिए क्योंकि  वह हमेशा यही कहती थीं कि तू ने किसी को पसंद कर रखा हो तो बता, हम वहीं बात चलाते हैं. भूमि बारबार यही कहती कि मम्मा, ऐसा कुछ भी नहीं है. आप जहां कहोगी चुपचाप शादी कर लूंगी.

भूमि ने मां की इच्छा को सिरआंखों पर रख, जो दरवाजा दिखाया उसी में प्रवेश कर गई, लेकिन विवाह को अभी 2 महीने भी ठीक से नहीं गुजरे थे कि भूमि पर नौकरी छोड़ कर घर बैठने का दबाव बनने लगा और जब भूमि ने नौकरी छोड़ने से इनकार कर दिया तो उस का चारित्रिक हनन कर मानसिक रूप से उसे प्रताडि़त करना शुरू कर दिया गया.

6 महीने मुश्किल से निकल पाए. भूमि ने बहुत कोशिश की शादी को बचाए रखने की, पर नहीं बचा सकी. इसी बीच कंपनी की ओर से उसे 6 माह के लिए टोरंटो (कनाडा) जाने का अवसर मिला. वह टोरंटो क्या गई बस, वहीं की हो कर रह गई और उस ने तलाक के पेपर हस्ताक्षर कर के भेज दिए.

‘मम्मा, अब कोई प्रयास मत करना,’ भूमि ने कहा था,  ‘इस मृत रिश्ते को व्यर्थ ढोने से उतार कर एक तरफ रख देना ज्यादा ठीक लगा. बहुत जगहंसाई हो ली. मैं यहां आराम से हूं. सारा दिन काम में व्यस्त रह कर रात को बिस्तर पर पड़ कर होश ही नहीं रहता. मैं ने सबकुछ एक दुस्वप्न की तरह भुला दिया है. आप भी भूल जाओ.’

कुछ नहीं कह पाईं बेटी से वह क्योंकि उस की मानसिक यंत्रणा की वह स्वयं गवाह रही थीं. सोचा कि थोडे़ दिन बाद घाव भर जाएंगे, फिर सबकुछ ठीक हो जाएगा. इसी उम्मीद को ले कर वह 2 बार भूमि के पास गईं. प्यार से समझाया भी, ‘सब मर्द एक से नहीं होते बेटी. अपनी पसंद का कोई यहीं देख ले. जीवन में एक साथी तो चाहिए ही, जिस से अपना सुखदुख बांटा जा सके. यहां विदेश में तू अकेली पड़ी है. मुझे हरदम तेरी चिंता लगी रहती है.’

‘मम्मा, अब मुझे इस रिश्ते से घृणा हो गई है. आप मुझ से इस बारे में कुछ न कहें.’

विचारों को झटक कर मिथिला ने घड़ी की ओर देखा. 6 बजने वाले हैं. कल की फ्लाइट है. पैकिंग थोड़ी देर बाद कर लेगी. घर को बाहर से ताला लगा और झट रिकशा पकड़ कर ललित की दुकान से 1 किलो मूंगफली, मूंगफली की गजक, गुड़धानी और गोलगप्पे का मसाला भी पैक करा लाईं.

बहू और विनय के आने में अभी 1 घंटा बाकी है. तब तक रसोई में जा सब्जी काट कर और आटा गूंध कर रख दिया. थकान होने लगी. मन हुआ पहले 1 कप चाय बना कर पी लें, फिर ध्यान आया कि विनय और बहू ये सामान देखेंगे तो हंसेंगे. पहले उस सामान को बैग में सब से नीचे रख लें. चाय उन दोनों के साथ पी लेंगी.

बहूबेटे खा पी कर सो गए. उन की आंखों से नींद कोसों दूर थी. वह बेटी के लिए ले जाने वाले सामान को रखने लगीं. ज्यादातर सामान उन्होंने किलो, आधा किलो के पारदर्शी प्लास्टिक बैगों में पैक कराए हैं ताकि कस्टम में परेशानी न हो और वह आराम से सामान चैक करा सकें. भूमि के लिए कुछ ड्रेस और आर्टी- फिशियल ज्वैलरी भी खरीदी थी. उसे बड़ा शौक है.

सारा सामान 2 बैगों में आया. अपना सूटकेस अलग. मन में संकोच हुआ कि विनय और बहू क्या कहेंगे? इतना सारा सामान कैसे जाएगा. जब से आतंक- वादियों ने धमकी दी है चैकिंग भी सख्त हो गई है. भूमि ने तो कह दिया है कि मम्मा, चिंता न करना. अतिरिक्त भार का पेमेंट कर देना. और यदि खोल कर देखा तो…?

उन की इस सोच को अचानक ब्रेक लगा जब विनय ने पूछा, ‘‘मम्मा, आप की पैकिंग पूरी है, कुछ छूटा तो नहीं, वीजा, टिकट और फौरेन करेंसी सहेज कर रख ली?’’

संकोचवश नीची निगाह किए उन्होंने हां में गरदन हिलाई.

अगले दिन गाड़ी में सामान रख सब शाम 5 बजे ही एअरपोर्ट की ओर चल पड़े. रात 8 बजे की फ्लाइट है. डेढ़ घंटा एअरपोर्ट पहुंचने में ही लग जाएगा. फिर काफी समय सामान की चैकिंग और औपचारिकताएं पूरी करने में निकल जाता है. मिथिला रास्ते भर दुआ करती रहीं कि उन के सामान की गहन तलाशी न हो.

लेकिन सोचने के अनुसार सबकुछ कहां होता है. वही हुआ जिस का मिथिला को डर था. बैग खोले गए और रेवड़ी, गजक व दलिए के पैकेट देख कर कस्टम अधिकारी ने पूछा,  ‘‘मैडम, यह सब क्या है?’’

अचानक मिथिला के मुंह से निकला, ‘‘ये जो आप देख रहे हैं, इस देश का प्यार है, यादें हैं, सौगातें हैं. कोई इन के बिना विदेश में कैसे जी सकता है. मेरी बेटी 5 साल में भी इन का स्वाद नहीं भूली है. यदि मेरे सामान का वजन ज्यादा है तो आप कस्टम ड्यूटी ले सकते हैं.’’

मिथिला का उत्तर सुन कर कस्टम अधिकारी ने आंखों से इशारा किया और वह अपने बैगों को ले कर बाहर निकलने लगीं. तभी मन में विचार कौंधा कि कस्टम अधिकारी भी मेरी बेटी की तरह अपने देश को प्यार करता है, तभी मुझे यों जाने दिया.

हालांकि न तो भार अधिक था और न उन के पास ऐसा कोई आपत्तिजनक सामान था जिस पर कस्टम अधिकारी को एतराज होता. उन्होंने स्वयं सारा सामान माप के अनुसार पैक किया था. बैग खोल कर एक रेवड़ी का पैकेट निकाला और दरवाजे से ही अंदर मुड़ीं. बोलीं, ‘‘सर, एक मां का प्यार आप के लिए भी. इनकार मत करिएगा,’’ कहते हुए पैकेट कस्टम अधिकारी की ओर बढ़ाया.

‘‘थैंक्यू, मैडम,’’ कह कर अधिकारी ने पैकेट पकड़ा, आंखों से लगाया और चूम लिया. मिथिला मुसकरा पड़ीं.

एक नई दिशा: क्या वसुंधरा अपने फैसले पर अडिग रह सकी?

पोस्टमैन के जाते ही वसुंधरा ने जैसे ही लिफाफा खोला वह खुशी से उछल पड़ी और जोर से आवाज लगा कर मां को बुलाने लगी.

मां गायत्री ने कमरे में प्रवेश करते हुए घबरा कर पूछा, ‘‘क्यों, क्या

हो गया?’’

‘‘मां, आप की बेटी बैंक में अफसर बन गई. यह देखो, मेरा नियुक्तिपत्र आया है,’’ और इसी के साथ वसुंधरा मां से लिपट गई.

‘‘क्या…’’ कहने के साथ गायत्री का मुंह विस्मय से खुला का खुला रह गया.

‘‘मां, मैं न कहती थी कि मैं एक दिन अपने पैरों पर खड़े हो कर दिखाऊंगी. बस, आप मुझे सहयोग दो. देखो, मां, आज वह दिन आ गया,’’ वसुंधरा भावुक हो कर बोली.

मां की आंखों से खुशी के छलकते आंसू पोंछते हुए उस ने गले में चुन्नी डाली और बैग उठाते हुए बोली, ‘‘मां, मैं ममता मैडम के घर जा रही हूं, उन्हें अपना नियुक्तिपत्र दिखाने. मैडम कालिज से अब वापस आ चुकी होंगी.’’

वसुंधरा का बस चलता तो वह उड़ कर ममता मैडम के पास चली जाती, जो बी.एससी. में पहले साल से ले कर तीसरे साल तक उस को फिजिक्स पढ़ाती रहीं और उस का मार्गदर्शन भी करती रहीं. आज खुशी का यह दिन उन के मार्गदर्शन का ही नतीजा है.

वसुंधरा को याद हैं अतीत के वे दिन जब प्राइमरी स्कूल के अध्यापक और 4 बेटियों के पिता दीनानाथ को अपनी बेटी वसुंधरा का सदैव अपनी कक्षा में प्रथम आना भी कोई तसल्ली नहीं दे पा रहा था. उन्होंने हड़बड़ाहट में उस का विवाह वहां तय कर दिया जहां के बारे में वसुंधरा कभी सोच भी नहीं सकती थी. वह भी उस समय जब वह बी.एससी. द्वितीय वर्ष में थी.

राजू उस की सहेली मंजू की मौसी का लड़का था. मंजू ने उस के बारे में सबकुछ बता दिया था. अपार संपत्ति ने राजू को गैरजिम्मेदार ही नहीं विवेकहीन भी बना दिया था. कोई ऐसा व्यसन न था जिस का वह आदी न हो. बड़ों का सम्मान करना तो वह जानता ही न था.

वसुंधरा को यह जान कर घोर आश्चर्य और दुख हुआ कि राजू के बारे में सबकुछ जानने के बाद भी उस के पिता वहां उस के रिश्ते की बात चला रहे हैं.

‘पिताजी, मैं अभी शादी नहीं करना चाहती और उस लड़के से तो हरगिज नहीं जिस से आप मेरा रिश्ता करना चाहते हैं,’ वसुंधरा ने पिता से स्पष्ट शब्दों में अपने विचार रखते हुए कहा.

‘तुम कौन होती हो यह फैसला लेने वाली? मैं पिता हूं और यह मेरा अधिकार व जिम्मेदारी है कि मैं तुम्हारा विवाह समय से कर दूं,’ दीनानाथ गरजते हुए बोले.

‘पिताजी, मैं अभी पढ़ना चाहती हूं, जिंदगी में कुछ बनना चाहती हूं,’ वसुंधरा गिड़गिड़ाते हुए बोली.

‘तुम्हारी 3 बहनें और भी हैं. मुझे उन के बारे में भी सोचना है.’

‘वसु, तू तो हमारी स्थिति जानती है बेटी, वह एक संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार है, फिर उन्होंने खुद ही तेरा हाथ मांगा है. तू खुद सोच, हम कैसे मना कर दें,’ मां ने वसुंधरा को प्यार से समझाते हुए कहा.

‘अरे, जवानी में थोड़ी नासमझी तो सभी दिखाते हैं लेकिन परिवार की जिम्मेदारी पड़ते ही सब ठीक हो जाते हैं,’ दीनानाथ ने लड़के का बचाव करते हुए कहा.

‘पिताजी, वह  खुद अपनी जिम्मे- दारी उठाने के काबिल तो है नहीं, फिर परिवार की जिम्मेदारी क्या उठाएगा?’ वसुंधरा ने आवेश में आ कर कहा.

‘खामोश…अपने पिता से बात करने की तमीज भी भूल गई. मैं ने फैसला ले लिया है, तुम्हारा विवाह वहीं होगा,’ दीनानाथ चिल्लाते हुए बोले.

वसुंधरा समझ गई कि उस के विरोध का कोई फायदा नहीं है. वह सोचने लगी कि वादविवाद प्रतियोगिताओं में निर्णायकगण और अपार जन समूह को अपने प्रभावशाली वक्तव्यों से प्रभावित करने वाली लड़की आज अपने विचारों से अपने ही मातापिता को सहमत नहीं करा पा रही है.

घर पर उस के पिताजी ने सगाई की सभी तैयारियां शुरू कर दी थीं. वसुंधरा का मन बहुत बेचैन रहने लगा. किसी भी काम में उस का मन नहीं लग रहा था.

‘वसुंधरा, तुम्हारी फाइल पूरी हो गई?’ ममता मैडम ने ऊंची आवाज में पूछा.

‘मैडम, बस थोड़ा सा काम रह गया है,’ वसुंधरा ने झेंपते हुए कहा.

‘क्या हो गया है तुम्हें आजकल? प्रैक्टिकल की डेट आने वाली है और अभी तक तुम्हारी फाइल पूरी नहीं हुई. अभी फाइल पूरी कर के स्टाफ रूम में ले आना,’ मैडम ने जातेजाते आदेश दिया.

वसुंधरा ने जल्दीजल्दी फाइल पूरी की और सीधे स्टाफरूम की ओर भागी. संयोग से ममता मैडम उस समय वहां पर अकेली बैठी फाइलें चेक कर रही थीं. जैसे ही वसुंधरा ने अपनी फाइल मैडम को दी उन्होंने उस की परेशानी को भांपते हुए कहा, ‘क्या बात है, वसुंधरा, आजकल तुम कुछ परेशान लग रही हो. टेस्ट में भी तुम्हारे नंबर अच्छे नहीं आए. तुम तो बहुत होशियार लड़की हो और हमें तुम से बहुत उम्मीदें हैं.’

मैडम की बातें सुन कर वसुंधरा, जो इतने दिनों से घुट रही थी, फफक कर रो पड़ी. उसे रोते देख कर मैडम ने घबरा कर कहा, ‘क्यों, क्या हुआ? घर पर सब ठीक तो है?’

वसुंधरा ने रोतेरोते सारी बात मैडम को बता दी. उस की बातें सुन कर मैडम स्तब्ध रह गईं. इनसान की मजबूरी उसे कैसेकैसे कदम उठाने पर मजबूर कर देती है. काफी देर तक वह विचार करती रहीं. सहसा उन का मन उस के पिता से मिलने को करने लगा. हालांकि उस के पिता से मिलना उन्हें खुद बड़ा अटपटा लग रहा था लेकिन वसुंधरा को बरबादी से बचाने के लिए उन का मन बेचैन हो उठा.

‘तुम चिंता मत करो. मैं तुम्हारे पिताजी से इस विषय में बात करूंगी. कल रविवार है, उन से कहना कि मैं उन से मिलना चाहती हूं. बस, तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो,’ मैडम ने वसुंधरा की पीठ थपथपाते हुए कहा.

वसुंधरा खुश हो कर सहमति से सिर हिलाते हुए चली गई.

दीनानाथ रविवार के दिन ममता मैडम के घर मिलने आ गए. उन के पति नीरज भी वहां पर मौजूद थे. चाय के बाद उन्होंने वसुंधरा के लिए आए रिश्ते के बारे में बातचीत शुरू की, ‘यह तो हमारा अहोभाग्य है कि ऐसा बड़ा घर हमें अपनी लड़की के लिए मिल रहा है.’

मैडम ने तमक कर कहा, ‘घर तो आप की बेटी के लिए अवश्य अच्छा मिल रहा है लेकिन आप ने वर के बारे में कुछ सोचा कि वह क्या करता है? कितना पढ़ा लिखा है? उस की आदतें कैसी हैं?’

तब वह अति दयनीय स्वर में बोले, ‘मैडम, आप तो हमारे समाज के चलन को जानती हैं. अच्छेअच्छे घरों के रिश्ते भी दहेज के कारण नहीं हो पाते. फिर मैं अभागा 4 बेटियों का बाप कैसे यह दायित्व निभा पाऊंगा? वह परिवार मुझ से कुछ दहेज भी नहीं मांग रहा है. बस, लड़का थोड़ा बिगड़ा हुआ है. पर मुझे भरोसा है कि वसुंधरा उसे संभाल लेगी.’

‘उसे जब उस के मातापिता नहीं संभाल पाए तो एक 20 साल की लड़की कैसे संभाल लेगी?’ अचानक मैडम कड़क आवाज में बोलीं, ‘आप वसुंधरा की शादी हरगिज वहां नहीं करेंगे. वह उसे दुख के सिवा और कुछ नहीं दे सकता. आप उस परिवार की ऊपरी चमकदमक पर मत जाएं.’

वह लाचारी से खामोश बैठे रहे. मैडम अपने स्वर को संयत करते हुए उन्हें समझाने लगीं, ‘वसुंधरा एक मेधावी छात्रा है. उम्र भी कम है. शादी एक आवश्यकता है मगर मंजिल तो नहीं. उसे पढ़ने दीजिए. प्रतियोगिताओं में बैठने का अवसर दीजिए. एक अच्छी नौकरी लगते ही रिश्तों की कोई कमी उस के जैसी सुंदर लड़की के लिए न रह जाएगी. नौकरी न केवल उसे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाएगी वरन उस के आत्मविश्वास और आत्मसम्मान को भी बढ़ाएगी.’

मैडम की बातों से सहमत हुए बगैर वसुंधरा के पिता एकाएक उठ गए और रुखाई से बोले, ‘चलता हूं, मैडमजी, देर हो रही है. वसुंधरा की सगाई की तैयारी करनी है.’

वसुंधरा बेताबी से पिता के लौटने का इंतजार कर रही थी. उसे पूरा विश्वास था कि मैडम ने जरूर पिताजी को सही फैसला लेने के लिए मना लिया होगा. जैसे ही दीनानाथ ने घर में प्रवेश किया वसुंधरा चौकन्नी हो गई.

‘सुनती हो, तुम्हारी बेटी घर की बातें अपनी मैडमों को बताने लगी है,’ पिताजी ने गरजते हुए घर में प्रवेश किया.

‘क्या हुआ? क्यों गुस्सा हो रहे हो?’ मां रसोईघर से निकलते हुए बोलीं.

‘अपनी बेटी से पूछो. साथ ही यह भी पूछना कि क्या उस की मैडम आएगी यहां इन चारों का विवाह करने?’ पिता पूरी ताकत से चिल्लाते हुए बोले.

वसुंधरा सहम कर पढ़ाई करने लगी. तीनों बहनें भी पिताजी का गुस्सा देख कर घबरा गईं.

वसुंधरा को यह साफ दिखाई  देने लगा था कि पिताजी को समझा पाना बेहद मुश्किल है. उसे खुद ही कोई कदम उठाना पड़ेगा. उस ने फैसला ले लिया कि वह किसी भी कीमत पर राजू से विवाह नहीं करेगी. भले ही इस के लिए उसे मातापिता के कितने भी खिलाफ क्यों न जाना पड़े.

मैडम की बातों से वसुंधरा उस समय एक नए जोश से भर गई जब दूसरे दिन कालिज में उन्होंने कहा, ‘यह लड़ाई तुम्हें स्वयं लड़नी होगी, वसुंधरा. बिना किसी दबाव में आए शादी करने के लिए एकदम मना कर दो. तुम्हारी योग्यता, तुम्हारी मंजिल के हर रास्ते को खोलेगी. मैं तुम्हें वचन देती हूं कि मैं तुम्हारा मार्गदर्शन करूंगी.’

उस ने सारी बातों को एक तरफ झटक कर अपनेआप को पूरी तरह अपनी आने वाली परीक्षा की तैयारी में डुबा दिया.

‘बेटी, आज कालिज मत जाना. लड़के वाले आने वाले हैं. पसंद तू सब को है, बस, वह सब तुम से मिलना चाहते हैं. साथ ही अंगूठी का नाप भी लेना चाहते हैं,’ मां ने अनुरोध करते हुए कहा.

‘मां, मैं पहले भी कह चुकी हूं कि मैं यह विवाह नहीं करूंगी,’ वसुंधरा ने किताबें समेटते हुए कहा.

‘क्या कह रही है? हम जबान दे चुके हैं और सगाई की तैयारी भी कर चुके हैं. अब तो मना करने का प्रश्न ही नहीं उठता,’ मां ने वसुंधरा को समझाने की कोशिश करते हए कहा, ‘फिर मुझे पूरा विश्वास है कि तू उसे अवश्य अपने अनुसार ढाल लेगी.’

‘मां, मैं अपनी जिंदगी और शक्ति एक बिगड़े लड़के को सुधारने में बरबाद नहीं करूंगी,’ वसुंधरा ने दृढ़ता से कहा. फिर मां की ओर मुड़ते हुए बोली, ‘आप के सामने तो घर में ही एक उदाहरण हैं चाचीजी, क्या चाचाजी को सुधार पाईं? चाचाजी रोज रात को नशे में धुत हो कर घर लौटते हैं और चाचीजी अपनी तकदीर को कोसती हुई रोती रहती हैं. उन के तीनों बच्चे सहमे से एक कोने में दुबक जाते हैं.

‘मैं न तो अपने भाग्य को कोसना चाहती हूं न उस पर रोना चाहती हूं. मैं उस का निर्माण करना चाहती हूं,’ वसुंधरा ने एकएक शब्द पर जोर देते हुए कहा, ‘फिर मां, मैं आज वैसे भी नहीं रुक सकती. आज मेरा प्रवेशपत्र मिलने वाला है.’

‘2 बजे तक आ जाना. लड़के वाले 3 बजे तक आ जाएंगे.’

मां की बात को अनसुना कर वसुंधरा घर से निकल गई.

अपने देवर के बारे में सोच गायत्री भी विचलित हो गईं और अपनी बेटी का एक संपन्न परिवार में रिश्ता कराने का उन का नशा धीरेधीरे उतरने लगा.

‘कहीं हम कुछ गलत तो नहीं कर रहे हैं अपनी वसु के साथ,’ गायत्री देवी ने शंका जाहिर करते हुए पति से कहा.

‘मैं उसका पिता हूं, कोई दुश्मन नहीं. मुझे पता है, क्या सही और क्या गलत है. तुम बेकार की बातें छोड़ो और उन के स्वागत की तैयारी करो,’ दीनानाथ ने आदेश देते हुए कहा.

वसुंधरा ने कालिज से अपना प्रवेशपत्र लिया और उसे बैग में डाल कर सोचने लगी, कहां जाए. घर जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था. सहसा उस के कदम मैडम के घर की ओर मुड़ गए.

‘अरे, तुम,’ वसुंधरा को देख मैडम चौंकते हुए बोलीं, ‘आओआओ, इस समय घर पर मेरे सिवा कोई नहीं है,’ वसुंधरा को संकोच करते देख मैडम ने कहा.

लक्ष्मी को पानी लाने का आदेश दे वह सोफे पर बैठते हुए बोलीं, ‘कहो, कैसी चल रही है, पढ़ाई?’

‘मैडम, आज लड़के वाले आ रहे हैं,’ वसुंधरा ने बिना मैडम की बात सुने खोएखोए से स्वर में कहा.

मैडम ने ध्यान से वसुंधरा को देखा. बिखरे बाल, सूखे होंठ, सुंदर सा चेहरा मुरझाया हुआ था. उसे देख कर उन्हें एकाएक बहुत दया आई. जहां आजकल मातापिता अपने बच्चों के कैरियर को ले कर इतने सजग हैं वहां इतनी प्रतिभावान लड़की किस प्रकार की उलझनों में फंसी हुई है.

‘तुम ने कुछ खाया भी है?’ सहसा मैडम ने पूछा और तुरंत लक्ष्मी को खाना लगाने को कहा.

खाना खाने के बाद वसुंधरा थोड़ा सामान्य हुई.

‘तुम्हारी कोई  समस्या हो तो पूछ सकती हो,’ मैडम ने उस का ध्यान बंटाने के लिए कहा.

‘जी, मैडम, है.’

वसुंधरा के ऐसा कहते ही मैडम उस के प्रश्नों के हल बताने लगीं और फिर उन्हें समय का पता ही न चला. अचानक घड़ी पर नजर पड़ी तो पौने 6 बज रहे थे. हड़बड़ाते हुए वसुंधरा ने अपना बैग उठाया और बोली, ‘मैडम, चलती हूं.’

‘घबराना मत, सब ठीक हो जाएगा,’ मैडम ने आश्वासन देते हुए कहा.

दीनानाथ चिंता से चहलकदमी कर रहे थे. वसुंधरा को देख गुस्से में पांव पटकते हुए अंदर चले गए. आज वसुंधरा को न कोई डर था और न ही कोई अफसोस था अपने मातापिता की आज्ञा की अवहेलना करने का.

कहते हैं दृढ़ निश्चय हो, बुलंद इरादे हों और सच्ची लगन हो तो मंजिल के रास्ते खुद ब खुद खुलते चलते जाते हैं. ऐसा ही वसुंधरा के साथ हुआ. मैडम की सहेली के पति एक कोचिंग इंस्टीट्यूट चला रहे थे. वहां पर मैडम ने वसुंधरा को बैंक की प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी के लिए निशुल्क प्रवेश दिलवाया. मैडम ने उन से कहा कि भले ही उन्हें वसुंधरा से फीस न मिले लेकिन वह उन के कोचिंग सेंटर का नाम जरूर रोशन करेगी. यह बात वसुंधरा के उत्कृष्ट एकेडमिक रिकार्ड से स्पष्ट थी.

समय अपनी रफ्तार से बीत रहा था. बी.एससी. में वसुंधरा ने कालिज में सर्वाधिक अंक प्राप्त किए और आगे की पढ़ाई के लिए गणित में एम.एससी. में एडमिशन ले लिया. कोचिंग लगातार जारी रही. मैडम पगपग पर उस के साथ थीं. वसुंधरा को इतनी मेहनत करते देख दीनानाथ, जिन की नाराजगी पूरी तरह से गई नहीं थी, पिघलने लगे. 2 साल की कड़ी मेहनत के बाद जब वसुंधरा स्टेट बैंक की प्रतियोगी परीक्षा में बैठी तो पहले लिखित परीक्षा फिर साक्षात्कार आदि प्रत्येक चरण को निर्बाध रूप से पार करती चली गई.

वसुंधरा श्रद्धा से मैडम के सामने नतमस्तक हो गई. बैग से नियुक्तिपत्र निकाल कर मैडम के हाथों में दे दिया. नियुक्तिपत्र देख कर मैडम मारे खुशी के धम से सोफे पर बैठ गईं.

‘‘तू ने मेरे शब्दों को सार्थक किया,’’ बोलतेबोलते वह भावविह्वल हो गईं. उन्हें लगा मानो उन्होंने स्वयं कोई मंजिल पा ली है.

‘‘मैडम, यह सब आप की ही वजह से संभव हो पाया है. अगर आप मेरा मार्गदर्शन नहीं करतीं तो मैं इस मुकाम पर न पहुंच पाती,’’ कहतेकहते उस की सुंदर आंखों से आंसू ढुलक पड़े.

‘‘अरे, यह तो तेरी प्रतिभा व मेहनत का नतीजा है. मैं ने तो बस, एक दिशा दी,’’ मैडम ने खुशी से ओतप्रोत हो उसे थपथपाते हुए कहा.

वसुंधरा फिर उत्साहित होते हुए मैडम को बताने लगी कि उस की पहले मुंबई में टे्रेनिंग चलेगी उस के बाद 2 साल का प्रोबेशन पीरियड फिर स्थायी रूप से आफिसर के रूप में बैंक की किसी शाखा में नियुक्ति होगी. मैडम प्यार से उस के खुशी से दमकते चेहरे को देखती रह गईं.

उस शाम मैडम को तब बेहद खुशी हुई जब दीनानाथ मिठाई का डब्बा ले कर अपनी खुशी बांटने उन के पास आए. उन्होंने और उन के पति ने आदर के साथ उन्हें ड्राइंग रूम में बैठाया.

दीनानाथ गर्व से बोले, ‘‘मेरी बेटी बैंक में आफिसर बन गई,’’ फिर भावुक हो कर कहने लगे, ‘‘यह सब आप की वजह से हुआ है. मैं तो बेटी होने का अर्थ सिर्फ विवाह व दहेज ही समझता था. आप ने मेरा दृष्टिकोण ही बदल डाला. मैं व मेरा परिवार हमेशा आप का आभारी रहेगा.’’

ममता विनम्र स्वर में दीनानाथ से बोलीं, ‘‘मैं ने तो मात्र मार्गदर्शन किया है. यह तो आप की बेटी की प्रतिभा और मेहनत का नतीजा है.’’

‘‘जिस प्रतिभा को मैं दायित्वों के बोझ तले एक पिता हो कर न पहचान पाया, न उस का मोल समझ पाया, उसी प्रतिभा का सही मूल्यांकन आप ने किया,’’ बोलतेबोलते दीनानाथ का गला रुंध गया.

‘‘यह जरूरी नहीं कि सिर्फ पढ़ाई में होशियार बच्चा ही जीवन में सफल हो सकता है. प्रत्येक बच्चे में कोई न कोई प्रतिभा अवश्य होती है. हमें उसी प्रतिभा का सम्मान करते हुए उसे उसी ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए.’’

दीनानाथ उत्साहित होते हुए बोले, ‘‘मेरी दूसरी बेटी आर्मी में जाना चाहती है. मैं अपनी सभी बेटियों को पढ़ाऊंगा, आत्मनिर्भर बनाऊंगा, तब जा कर उन के विवाह के बारे में सोचूंगा. मैं तो भाग्यशाली हूं जो मुझे ऐसी प्रतिभावान बेटियां मिली है.

निर्मल: क्या नई दुनिया में खुश थी गोमती

आजकी सुबह भी कुछ उदासी भरी थी. मन बेहद बोझोल था. ऐसा लग रहा था कि उसे निकाल कर कहीं फेंक दूं और सब कुछ भुला कर निश्चिंत हो कर पड़ी रहूं. पूरी जिंदगी संघर्ष करते गुजर गई. एक समस्या खत्म होतेहोते दूसरी समस्या आ खड़ी होती थी. नौकरी पाने के लिए की गई भागदौड़, शेखर के साथ भाग कर शादी करना और उस के बाद शुरू हुए खत्म न होने वाले सवाल, कोर्टकचहरी की भागदौड़ और

आज मेरे ही घर में बुद्धिराज का मुझो फटकारना ये सारी बातें एकएक कर के आंखों के आगे तैरने लगी थीं.

‘‘तुम्हारा और करण का क्या रिश्ता है?

वह चंडाल चौकड़ी मेरे घर क्यों आई थी? उस करण के साथ कैसे चिपक रही थीं तुम…’’ शेखर के मुंह से आग बरस रही थी. पर उस से भी भयानक काम उस के हाथ कर रहे थे.

गोमती की लिखी कविताओं के पन्नों को वह एकएक कर जला रहा था. हर पन्ना जलाते वक्त वह कू्रर हंसी हंस रहा था.

गोमती यह देख कर तिलमिला उठी थी. वह उस के हाथपांव जोड़ने लगी थी. पर अपने पैरों पर गिरी गोमती को शेखर ने जोर से झोटक दिया.

‘‘मेरी बीवी पर नजर डालते हैं. एकएक की आंखें नोच लूंगा. कविता करने के लिए क्या मेरा ही घर नजर आता है?’’ देर तक गालीगलौज करने के बाद शेखर पांव पटकते हुए बैडरूम

में चला गया और फिर थोड़ी ही देर में खर्राटे भरने लगा.

पर उन्हें घर तक लाने वाला भी तो वही था. फिर ऐसा क्यों? उसे अच्छी तरह याद है जब उस के गांव में साहित्य मंच की शाखा खुलने वाली थी. तब मुंबई से साहित्य मंच के संस्थापक कवि माधव मानविंदे वहां स्वयं आने वाले थे. वहां उसे भी आमंत्रित किया गया था. उस वक्त साहित्य मंच की स्थापना की मीटिंग कहां की जाए, इस बाबत चर्चा चल रही थी. करण और पोटे साहब ने 1-2 नाम लिए पर उन की कुछ अपनी समस्याएं थीं.

‘‘गोमती दीदी, आप के घर में की जाए क्या?’’ करण के इस सवाल पर शेखर ने काफी उत्साह दिखाया.

‘‘हांहां, जरूरजरूर, हमें भी साहित्यिक लोगों के दर्शन हो जाएंगे…’’

यह सुन सभी ने खुशी से तालियां बजाईं. पर मेरे तो होंठ ही सिल गए थे.

‘‘पर हम दोनों भी तो नौकरी करते हैं. आप कहीं और मीटिंग रख लेंगे तो ज्यादा अच्छा होगा,’’ मैं ने बहुत ही रूखेपन से जवाब दिया.

‘‘पर आप के पति तो काफी उत्साहित नजर आ रहे हैं,’’ विजया बोली.

‘‘मैं बिस्कुट के पैकेट्स ले आऊंगा. चाय बाहर से मंगा लेंगे,’’ करण बोला.

‘‘बिलकुल नहीं. आप घर में मेहमान बन कर आ रहे हो… कोई कुछ नहीं लाएगा. हम ही घर में गरमगरम पकौड़े बना देंगे. खा कर देखिएगा, उंगलियां चाटते रह जाएंगे. मैं कविता भले ही नहीं करता हूं, पर बीवी की कविताएं तो सुनता ही हूं,’’ शेखर बोला.

उस वक्त हर कोई शेखर की प्रशंसा कर रहा था. उस के बाद तो हर कार्यक्रम हमारे

ही घर होने लगा. मेरा विरोध खत्म हुआ और धीरेधीरे मेरी भी इस में रुचि बढ़ने लगी. पर शेखर नीरस होने लगा. उसे उन लोगों पर गुस्सा आने लगा. मेरी कविताओं की सभी प्रशंसा करने लगे. बाहर से भी मुझो कविताओं के औफर्स आने लगे. मैं भी औफिस से छुट्टी ले कर सम्मेलनों में भाग लेने लगी. शेखर का गुस्सा अब शक में बदलने लगा था. वह अब उन लोगों के साथ मेरा नाम जोड़ने लगा था. शराब पी कर गालीगलौज करना और मुझो से मारपीट करना उस की आदत बन गई थी. कभीकभी तो वह इतनी मारपीट करता कि पिटाई के निशान भी शरीर पर दिखाई देते.

रोजरोज के झोगड़े से तंग आ कर आखिर मैं ने शेखर से तलाक लेने का फैसला कर लिया. पर मेरी तनख्वाह इतनी ज्यादा नहीं थी. शेखर बैंक में अफसर था. मेरे 17 और 15 साल के बेटे बुद्धिराज और युवराज भी उस के साथ रहना पसंद कर रहे थे. वजह सिर्फ एक थी. जो शानशौकत और पैसा वह दे सकता था, वह मैं नहीं दे सकती थी. आज सचमुच रिश्तेनातों के कोई माने नहीं रह गए हैं. भावनात्मक तौर से भी उन्हें मेरी कोई कद्र नहीं थी. कोर्ट ने भी उन्हें शेखर के साथ ही भेज दिया. मैं 1 कमरे के छोटे से मकान में रहने आ गई. कुछ दिनों बाद मैं ने अपील कर के कोर्ट से बच्चों की कस्टडी मांगी तो 1 बेटे बुद्धिराज की कस्टडी मुझो सौंप दी गई. पर मैं उस की जरूरतें पूरी करने में असमर्थ थी. परिणामस्वरूप उस का चिड़चिड़ापन बढ़ता गया और एक दिन वह खुद ही मुझो छोड़ कर अपने पिता के पास चला गया.

एक दिन मेरा मार्केटिंग विभाग में ट्रांसफर हो गया. इस डिपार्टमैंट में जाने के लिए लोग क्याक्या कोशिशें नहीं करते, क्योंकि यहां की दहलीज लांघते ही पैसों की बरसात होती थी. पर इस विभाग में कमर कस कर काम करना पड़ता था, इसलिए मैं यह विभाग नहीं चाहती थी. पर मन के किसी कोने में मुझो भी पैसों की चाह थी. बड़ा घर चाहिए था. फिर शेखर को दुत्कार कर मेरे बच्चे मेरे पास वापस आएं, ऐसी चाह भी थी. इसलिए मैं कुछ भी करने को तैयार थी. पहले टैंडर को मंजूरी देते वक्त मुझको1 लाख का औफर मिला था. औफिस के बाहर एक पेड़ के नीचे रुपयों का वह बंडल लेते वक्त मेरे हाथ थरथरा रहे थे. फिर उस के बाद मैं ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. मैं ने नया घर खरीद लिया.

उधर शेखर के कुकर्मों का घड़ा भर गया था. उस के खिलाफ शिकायत हुई और उस की जांचपड़ताल शुरू हुई. उसे सस्पैंड कर दिया गया और उस के घर को सील कर दिया गया. दोनों बच्चे मेरे पास आ गए और फिर कभी उन्होंने मेरे आलीशान मकान से जाने का नाम नहीं लिया. एक बात तो समझो आ गई कि आज की पीढ़ी को रिश्तेनातों और भावनाओं की परवाह नहीं. केवल पैसा ही सब कुछ होता है.

बी.एससी. करते ही बुद्धिराज की अच्छी नौकरी लग गई. मैं अब भी शेखर को याद करती थी. अब भी मेरा मन उस से मिलने को करता था. एक बैंक मामले के बाद उस ने मुझो फोन किया था, ‘‘बैंक वाले शायद तुम्हारी जांच कर सकते हैं,’’ वकील की सलाह ले लो.’’

उस वक्त अपने किए पर पछतावा होने की बात भी उस ने कही थी और मुझो भी यह सलाह दी कि मैं ऐसे गैरकानूनी काम छोड़ दूं.

पर तब मैं ने कहा था, ‘‘मुझो तुम्हारी सलाह नहीं चाहिए,’’ और फोन पटक दिया था.

फिर मैं ने बुद्धिराज की उस की पसंद की लड़की निकिता से शादी करा दी. मेरे

घर में पैसों की बरसात हो रही थी. सुबह 9 से रात के 9 बजे तक मैं औफिस में ही पिसती रहती थी पर मेरे घर का कायाकल्प हो चुका था. रोज शाम को बुद्धिराज और निकिता की उन के दोस्तों के साथ शराब की पार्टियां चलने लगी थीं. इधर मुझो पर एक जांच कमेटी बैठा दी गई थी और मेरे एमडी ने 1 महीना घर बैठने की सलाह दी थी. पर बुद्धिराज के कहने पर मैं घर नहीं बैठी और मैं ने फिर से औफिस जौइन कर लिया. तब एमडी ने सीधे मेरा सस्पैंड और्डर निकाल दिया.

घर बैठने के बाद घर का सारा नजारा मेरे सामने आया. घर पर खाली बैठना मुझो मंजूर नहीं था और बच्चों की हरकतें मुझो से देखी नहीं जाती थीं, इसलिए मैं ने विनया के घर जाना शुरू कर दिया. वहां पर हम ने फिर से कविताएं पढ़नालिखना शुरू कर दिया. विनया ने मुझो नौकरी से रिजाइन कर देने की सलाह दी, क्योंकि रिजाइन करने के बाद प्रौविडैंट फंड के क्व35 लाख मुझो मिलते. उन्हें बैंक में जमा करने पर उन से मिलने वाले ब्याज से आराम से मेरा घर खर्च चलता. उस के बाद मैं आजादी से कहीं भी घूमफिर सकती थी. वर्ल्ड टूर कर सकती थी. मुझो काम की चिंता नहीं होती. न ही कोई बंधन होता. मैं अपनी सारी ख्वाहिशें पूरी कर सकती थी.

फिर मैं ने फैसला कर लिया. बैंक में मेरा और बुद्धिराज का जौइंट अकाउंट था. वहां जा कर मैं ने सारे पैसे निकालने चाहे तो मैनेजर ने बताया कि बुद्धिराज ने कब के सारे पैसे निकाल लिए हैं. इस बारे में बुद्धिराज से पूछने पर वह मुझो पर ही बिफर पड़ा और चिल्ला कर मुझो से कहने लगा कि बैंक जाने से पहले एक बार मुझो से क्यों नहीं पूछा? मैनेजर न जाने क्या सोचेगा.

उस की इस हरकत ने मुझो सोचने पर मजबूर कर दिया और एक ठोस निर्णय लेते हुए मैं ने बुद्धिराज, निकिता और युवराज को कमरे में बुला कर अपना फैसला सुना दिया कि मैं नौकरी से त्यागपत्र दे रही हूं. प्रौविडैंट फंड के जो रुपए मिलेगे उन्हें बैंक में जमा करा दूंगी. उन से मिलने वाले ब्याज से अपना खर्चा चलाऊंगी. आज के बाद न मैं किसी को कुछ दूंगी और न किसी से कुछ लूंगी. यह मेरा घर है. आज के बाद यहां शराब की पार्टियां नहीं चलेंगी. तुम सब को मेरी मरजी से रहना होगा. अगर मंजूर हो तो ठीक वरना तुम सब अपनी राह चुन सकते हो.

मेरी बात सुन कर तीनों सकते में आ गए और मैं मौर्निंग वाक के लिए निकल पड़ी.

असमंजस: भाग 3- क्यों अचानक आस्था ने शादी का लिया फैसला

आस्था एक दिन ऐसे ही विचारों में गुम थी कि काफी अरसे बाद एक बार फिर रंजना मैडम का खत आया. यह खत पिछले सारे खतों से अलग था. अब तक जितनी गर्द उन आंधियों ने आस्था के मन पर बिछाई थी, जो पिछले खतों के साथ आई थी, सारी की सारी इस खत के साथ आई तूफानी सुनामी ने धो दी.

आस्था बारबार उस खत को पढ़ रही थी :

‘प्रिय बेटी आस्था,

‘मुझे क्षमा करो, बेटी. मैं समझ नहीं पा रही हूं कि किस हक से मैं तुम्हें यह खत लिख रही हूं. आज तक मैं ने तुम्हें जो भी शिक्षा दी, जाने क्या असर हुआ होगा तुम पर, जाने कितनी खुशियों को तुम से छीन लिया है मैं ने. लेकिन सच मानो, आज तक मैं ने तुम्हें जो भी कहा, वह मेरे जीवन का यथार्थ था. मैं ने वही कहा जो मैं ने अनुभव किया था, जिया था. मुझे सच में, स्त्री की स्वतंत्रता ही उस के जीवन की सब से महत्त्वपूर्ण उपलब्धि लगती थी, जिसे मैं ने विवाह न कर के, परिवार न बसा कर पाया था. लेकिन पिछले 4 सालों में मैं ने स्वयं को जिस तरह अकेला, तनहा, टूटा हुआ महसूस किया है उसे मैं बयां नहीं कर सकती.

‘रिटायरमैंट से पहले तक समय की व्यस्तता के कारण मुझे एकाकी जीवन रास आता था लेकिन बाद में जब भी अपनी उम्र की महिलाओं को अपने नातीपोतों के साथ देखती तो मन में टीस सी उठती. यदि मैं ने सही समय पर अपना परिवार बसाया होता तो आज मैं भी इस तरह अकेली, नीरस जिंदगी नहीं जी रही होती. यही कारण है कि पिछले कुछ सालों से तुम्हारे खतों का जवाब देने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाती थी.

‘आखिर क्या कहती तुम्हें कि जिस रंजना मैडम को तुम अपना आदर्श मानती हो आज उस के लिए दिन के 24 घंटे काटना भी मुश्किल हो गया है. पिछले कुछ सालों ने मुझे एहसास दिला दिया है कि एक इंसान की जिंदगी में परिवार की क्या अहमियत होती है. आज जिंदगी के बयाबान में मैं नितांत अकेली भटक रही हूं, पर ऐसा कोई नहीं है जिस के साथ मैं अपना सुखदुख बांट सकूं. यह बहुत ही भयंकर और डरावनी स्थिति है, आस्था. मैं नहीं चाहती कि जीवन की संध्या में तुम भी मेरी तरह ही तनहा और निराश अनुभव करो. हो सके तो अब भी अपनी राह बदल दो.

‘जिस अस्तित्व को कायम रखने के लिए मैं ने यह राह चुनी थी अब वह अस्तित्व ही अर्थहीन लगता है. जिस समाज की भलाई और उन्नति के लिए हम ने यह एकाकीपन स्वीकार किया है उस समाज की सब से बड़ी भलाई इसी में है कि अनंतकाल से चली आ रही परिवार नाम की संस्था बरकरार रहे, सभी बेटी, बहन, पत्नी, मां, नानीदादी के सभी रूपों को जीएं. तुम यदि चाहो तो अब भी अपने शेष जीवन को इस अंधेरे गर्त में भटकने से रोक सकती हो.

‘जाने क्यों ऐसा लग रहा है कि स्त्री स्वतंत्रता के मेरे विचारों ने अब तक तुम्हारा अच्छा नहीं, बुरा चाहा था लेकिन आज मैं पहली बार तुम्हारा अच्छा चाहती हूं. चाहती हूं कि तुम अपने व्यक्तित्व के हर पहलू को जीओ. आशा है तुम निहितार्थ समझ गई होगी.

‘एक हताश, निराश, एकाकी, वृद्ध महिला जिस का कोई नहीं है.’

बारबार उस खत को पढ़ कर उस के सामने अतीत की सारी गलतियां उभर कर आ गईं. कैसे उस ने विवान का प्रस्ताव कड़े शब्दों में मना कर दिया था, किस प्रकार उस ने मांबाप को कई बार रूखे शब्दों में लताड़ दिया था, किस प्रकार उस ने अपनी बीमार, मृत्युशैया पर लेटी दादी की अंतिम इच्छा का भी सम्मान नहीं किया था. आज क्या है उस के पास, चापलूसों की टोली जो शायद पीठ पीछे उस के बारे में उलटीसीधी बातें करती होगी.

क्या वह जानती नहीं कि किस समाज का हिस्सा है वह. क्या वह जानती नहीं कि अकेली औरत के बारे में किस तरह की

बातें करते होंगे लोग. उस को जन्म देने वाले मांबाप ने अपनी विषम आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद बेटी की पढ़ाई- लिखाई पर कोई आंच नहीं आने दी, कभी भी किसी बात के लिए दबाव नहीं डाला, सलाह दी लेकिन निर्णय नहीं सुनाया. यदि उस के मांबाप इतनी उदार सोच रख सकते हैं तो क्या उस का हमवय पुरुष मित्र उस की स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करता.

आस्था ने निर्णय किया कि वह अपनी गलतियां सुधारेगी. उस ने मां को फोन मिलाया, ‘हैलो मां, कैसी हो?’

‘ठीक हूं. तू कैसी है, आशु. आज वक्त कैसे मिल गया?’ हताश मां ने कहा.

‘मां शर्मिंदा मत करो. मैं घर आ रही हूं. मुझे मेरी सारी गलतियों के लिए माफ कर दो. क्या हाथ पीले नहीं करोगी अपनी बेटी के?’

मां को अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ, ‘तू सच कह रही है न, आशु. मजाक तो नहीं कर रही है. तुझे नहीं पता तेरे पापा यह सुन कर कितने खुश होंगे. हर समय तेरी ही चिंता लगी रहती है.’

‘हां मां. मैं सच कह रही हूं. मैं ने देर जरूर की है लेकिन अंधेरा घिरने से पहले सही राह पर पहुंच गई हूं. अब तुम शादी की तैयारियां करो.’

कुछ ही महीनों में आस्था के लिए एक कालेज प्रोफैसर का रिश्ता आया जिस के लिए उस ने हां कह दी. आज बरसों बाद ही सही, आस्था के मांपापा की इच्छा पूरी होने जा रही थी.

‘‘बेटी आस्था.’’ किसी ने आस्था को पीछे से पुकारा और वह अपने वर्तमान में लौटी. वह पलटी, पीछे रंजना मैडम खड़ी थीं. उन के चेहरे पर खुशी की चमक थी, जिसे देख कर आस्था एक अजीब से भय में जकड़ गई क्योंकि मैडम ने तो खत में कुछ और ही लिखा था, लेकिन तभी भय की वह लहर शांत हो गई जब उस ने उन की मांग में सिंदूर, गले में मंगलसूत्र, हाथों में लाल चूडि़यां देखीं.

‘‘बेटी आस्था, इन से मिलो, ये हैं ब्रिगेडियर राजेश. कुछ दिनों पहले ही मैं ने एक मैट्रिमोनियल एजेंट से अपना जीवनसाथी ढूंढ़ने की बात की थी और फिर क्या था, उस ने मेरी मुलाकात राजेश से करवा दी जोकि आर्मी से रिटायर्ड विधुर थे और अपनी जिंदगी में एकाकी थे. हम ने साथ चलने का फैसला किया और पिछले हफ्ते ही

कोर्ट में रजिस्टर्ड शादी कर ली. इन सब में इतनी व्यस्त थी कि तुम्हें बता भी नहीं पाई.’’

मैडम को ब्रिगेडियर के हाथों में हाथ थामे इतना खुश देख कर आस्था की खुशी का ठिकाना नहीं था. वह खुश थी क्योंकि शादी करने का निर्णय ले कर आखिरकार उस के सारे असमंजस खत्म हो चुके थे.

बरसी मन गई : कैसे मनाई शीला ने बरसी

इधर कई दिनों से मैं बड़ी उलझन में थी. मेरे ससुर की बरसी आने वाली थी. मन में जब सोचती तो इसी नतीजे पर पहुंचती कि बरसी के नाम पर पंडितों को बुला कर ठूंसठूंस कर खिलाना, सैकड़ों रुपयों की वस्तुएं दान करना, उन का फिर से बाजार में बिकना, न केवल गलत बल्कि अनुचित कार्य है. इस से तो कहीं अच्छा यह है कि मृत व्यक्ति के नाम से किसी गरीब विद्यार्थी को छात्रवृत्ति दे दी जाए या किसी अस्पताल को दान दे दिया जाए.

यों तो बचपन से ही मैं अपने दादादादी का श्राद्ध करने का पाखंड देखती आई थी. मैं भी उस में मजबूरन भाग लेती थी. खाना भी बनाती थी. पिताजी तो श्राद्ध का तर्पण कर छुट्टी पा जाते थे. पर पंडित व पंडितानी को दौड़दौड़ कर मैं ही खाना खिलाती थी. जब से थोड़ा सा होश संभाला था तब से तो श्राद्ध के दिन पंडितजी को खिलाए बिना मैं कुछ खाती तक नहीं थी. पर जब बड़ी हुई तो हर वस्तु को तर्क की कसौटी पर कसने की आदत सी पड़ गई. तब मन में कई बार यह प्रश्न उठ खड़ा होता, ‘क्या पंडितों को खिलाना, दानदक्षिणा देना ही पूर्वजों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने का सर्वश्रेष्ठ तरीका है?’

हमारे यहां दादाजी के श्राद्ध के दिन पंडितजी आया करते थे. दादीजी के श्राद्ध के दिन अपनी पंडितानी को भी साथ ले आते थे. देखने में दोनों की उम्र में काफी फर्क लगता था. एक  दिन महरी ने बताया कि  यह तो पंडितजी की बहू है. बड़ी पंडितानी मर चुकी है. कुछ समय बाद पंडितजी का लड़का भी चल बसा और पंडितजी ने बहू को ही पत्नी बना कर घर में रख लिया.

मन एक वितृष्णा से भर उठा था. तब लगा विधवा विवाह समाज की सचमुच एक बहुत बड़ी आवश्यकता है. पंडितजी को चाहिए था कि बहू के योग्य कोई व्यक्ति ढूंढ़ कर उस का विवाह कर देते और तब वे सचमुच एक आदर्श व्यक्ति माने जाते. पर उन्होंने जो कुछ किया, वह अनैतिक ही नहीं, अनुचित भी था. बाद में सुना, उन की बहू किसी और के साथ भाग गई.

मन में विचारों का एक अजीब सा बवंडर उठ खड़ा होता. जिस व्यक्ति के प्रति मन में मानसम्मान न हो, उसे अपने पूर्वज बना कर सम्मानित करना कहां की बुद्धिमानी है. वैसे बुढ़ापे में पंडितजी दया के पात्र तो थे. कमर भी झुक गई थी, देखभाल करने वाला कोई न था. कभीकभी चौराहे की पुलिया पर सिर झुकाए घंटों बैठे रहते थे. उन की इस हालत पर तरस खा कर उन की कुछ सहायता कर देना भिन्न बात थी, पर उन की पूजा करना किसी भी प्रकार मेरे गले न उतरता था.

अपने विद्यार्थी जीवन में तो इन बातों की बहुत परवा न थी, पर अब मेरा मन एक तीव्र संघर्ष में जकड़ा हुआ था. इधर जब से मैं ने एक महिला रिश्तेदार की बरसी पर दी गई वस्तुओं के लिए पंडितानियों को लड़तेझगड़ते देखा तो मेरा मन और भी खट्टा हो गया था. पर क्या करूं ससुरजी की मृत्यु के बाद से हर महीने उसी तिथि पर एक ब्राह्मण को तो खाना खिलाया ही जा रहा था.

मैं ने एक बार दबी जबान से इस का विरोध करते हुए अपनी सास से कहा कि बाबूजी के नाम पर कहीं और पैसा दिया जा सकता है पर उन्होंने यह कह कर मेरा मुंह बंद कर दिया कि सभी करते हैं. हम कैसे अपने रीतिरिवाज छोड़ दें.

मेरी सास वैसे ही बहुत दुखी थीं. जब से ससुरजी की मृत्यु हुई थी, वे बहुत उदास रहती थीं, अकसर रोने लगती थीं. कहीं आनाजाना भी उन्होंने छोड़ दिया था. सो, उन्हें अपनी बातों से और दुखी करने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी. पर दूसरी ओर मन अपनी इसी बात पर डटा हुआ था कि जब हम चली आ रही परंपराओं की निस्सारता समझते हैं और फिर भी आंखें मूंद कर उन का पालन किए जाते हैं तो हमारे यह कहने का अर्थ ही क्या रह जाता है कि हम जो कुछ भी करते हैं, सोचसमझ कर और गुणदोष पर विचार कर के करते हैं.

मैं ने अपने पति से कहा कि वे अम्माजी से बात करें और उन्हें समझाने का प्रयत्न करें. पर उन की तरफ से टका सा जवाब मिल गया, ‘‘भई, यह सब तुम्हारा काम है.’’

वास्तव में मेरे पति इस विषय में उदासीन थे. उन्हें बरसी मनाने या न मनाने में कोई एतराज न था. अब तो सबकुछ मुझे ही करना था. मेरे मन में संघर्ष होता रहा. अंत में मुझे लगा कि अपनी सास से इस विषय में और बात करना, उन से किसी प्रकार की जिद कर के उन के दुखी मन को और दुखी करना मेरे वश की बात नहीं. सो, मैं ने अपनेआप को जैसेतैसे बरसी मनाने के लिए तैयार कर लिया.

हम लोग आदर्शों की, सुधार की कितनी बड़ीबड़ी बातें करते हैं. दुनियाभर को भाषण देते फिरते हैं. लेकिन जब अपनी बारी आती है तो विवश हो वही करने लगते हैं जो दूसरे करते हैं और जिसे हम हृदय से गलत मानते हैं. मेरे स्कूल में वादविवाद प्रतियोगिता हो रही थी. उस में 5वीं कक्षा से ले कर 10वीं कक्षा तक की छात्राएं भाग ले रही थीं. प्रश्न उठा कि मुख्य अतिथि के रूप में किसे आमंत्रित किया जाए. मैं ने प्रधानाध्यापिका के सामने अपनी सास को बुलाने का प्रस्ताव रखा, वे सहर्ष तैयार हो गईं.

पर मैं ने अम्माजी को नहीं बताया. ठीक कार्यक्रम से एक दिन पहले ही बताया. अगर पहले बताती तो वे चलने को बिलकुल राजी न होतीं. अब अंतिम दिन तो समय न रह जाने की बात कह कर मैं जोर भी डाल सकती थी.

अम्माजी रामचरितमानस पढ़ रही थीं. मैं ने उन के पास जा कर कहा, ‘‘अम्माजी, कल आप को मेरे स्कूल चलना है, मुख्य अतिथि बन कर.’’

‘‘मुझे?’’ अम्माजी बुरी तरह चौंक पड़ीं, ‘‘मैं कैसे जाऊंगी? मैं नहीं जा सकती.’’

‘‘क्यों नहीं जा सकतीं?’’

‘‘नहीं बहू, नहीं? अभी तुम्हारे बाबूजी की बरसी भी नहीं हुई है. उस के बाद ही मैं कहीं जाने की सोच सकती हूं. उस से पहले तो बिलकुल नहीं.’’

‘‘अम्माजी, मैं आप को कहीं विवाहमुंडन आदि में तो नहीं ले जा रही. छोटीछोटी बच्चियां मंच पर आ कर कुछ बोलेंगी. जब आप उन की मधुर आवाज सुनेंगी तो आप को अच्छा लगेगा.’’

‘‘यह तो ठीक है. पर मेरी हालत तो देख. कहीं अच्छी लगूंगी ऐसे जाती हुई?’’

‘‘हालत को क्या हुआ है आप की? बिलकुल ठीक है. बच्चों के कार्यक्रम में किसी बुजुर्ग के आ जाने से कार्यक्रम की रौनक और बढ़ जाती है.’’

‘‘मुझे तो तू रहने ही दे तो अच्छा है. किसी और को बुला ले.’’

‘‘नहीं, अम्माजी, नहीं. आप को चलना ही होगा,’’ मैं ने बच्चों की तरह मचलते हुए कहा, ‘‘अब तो मैं प्रधानाध्यापिका से भी कह चुकी हूं. वे क्या सोचेंगी मेरे बारे में?’’

‘‘तुझे पहले मुझ से पूछ तो लेना चाहिए था.’’

‘‘मुझे मालूम था. मेरी अच्छी अम्माजी मेरी बात को नहीं टालेंगी. बस, इसीलिए नहीं पूछा था.’’

‘‘अच्छा बाबा, तू मानने वाली थोड़े ही है. खैर, चली चलूंगी. अब तो खुश है न?’’

‘‘हां अम्माजी, बहुत खुश हूं,’’ और आवेश में आ कर अम्माजी से लिपट गई. दूसरे दिन मैं तो सुबह ही स्कूल आ गई थी. अम्माजी को बाद में ये नियत समय पर स्कूल छोड़ गए थे. एकदम श्वेत साड़ी से लिपटी अम्माजी बड़ी अच्छी लग रही थीं.

ठीक समय पर हमारा कार्यक्रम शुरू हो गया. प्रधानाध्यापिका ने मुख्य अतिथि का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘आज मुझे श्रीमती कस्तूरी देवी का मुख्य अतिथि के रूप में स्वागत करते हुए बड़ा हर्ष हो रहा है. उन्होंनेअपने दिवंगत पति की स्मृति में स्कूल को

2 ट्रौफियां व 10 हजार रुपए प्रदान किए हैं. ट्रौफियां 15 वर्षों तक चलेंगी और वादविवाद व कविता प्रतियोगिता में सब से अधिक अंक प्राप्त करने वाली छात्राओं को दी भी जाएंगी. 10 हजार रुपयों से 25-25 सौ रुपए 4 वषोें तक हिंदी में सब से अधिक अंक प्राप्त करने वाली छात्राओं को दिए जाएंगे. मैं अपनी व स्कूल की ओर से आग्रह करती हूं कि श्रीमती कस्तूरीजी अपना आसन ग्रहण करें.’’

तालियों की गड़गड़ाहट से हौल गूंज उठा. मैं कनखियों से देख रही थी कि सारी बातें सुन कर अम्माजी चौंक पड़ी थीं. उन्होंने मेरी ओर देखा और चुपचाप मुख्य अतिथि के आसन पर जा बैठी थीं. मैं ने देखा, उन की आंखें छलछला आई हैं, जिन्हें धीरे से उन्होंने पोंछ लिया.

सारा कार्यक्रम बड़ा अच्छा रहा. छात्राओं ने बड़े उत्साह से भाग लिया. अंत में विजयी छात्राओं को अम्माजी के हाथों पुरस्कार बांटे गए. मैं ने देखा, पुरस्कार बांटते समय उन की आंखें फिर छलछला आई थीं. उन के चेहरे से एक अद्भुत सौम्यता टपक रही थी. मुझे उन के चेहरे से ही लग रहा था कि उन्हें यह कार्यक्रम अच्छा लगा.

अब तक तो मैं स्कूल में बहुत व्यस्त थी. लेकिन कार्यक्रम समाप्त हो जाने पर मुझे फिर से बरसी की याद आ गई.

दूसरे दिन मैं ने अम्माजी से कहा, ‘‘अम्माजी, बाबूजी की बरसी को 15 दिन रह गए हैं. मुझे बता दीजिए, क्याक्या सामान आएगा. जिस से मैं सब सामान समय रहते ही ले आऊं.’’

‘‘बहू, बरसी तो मना ली गई है.’’

‘‘बरसी मना ली गई है,’’ मैं एकदम चौंक पड़ी, ‘‘अम्माजी, आप यह क्या कह रही हैं?’’

‘‘हां, शीला, कल तुम्हारे स्कूल में ही तो मनाईर् गई थी. कल से मैं बराबर इस बारे में सोच रही हूं. मेरे मन में बहुत संघर्ष होता रहा है. मेरी आंखों के सामने रहरह कर 2 चित्र उभरे हैं. एक पंडितों को ठूंसठूंस कर खाते हुए, ढेर सारी चीजें ले जाते हुए. फिर भी बुराई देते हुए, झगड़ते हुए. मैं ने बहुत ढूंढ़ा पर उन में तुम्हारे बाबूजी कहीं भी न दिखे.’’

‘‘दूसरा चित्र है   उन नन्हींनन्हीं चहकती बच्चियों का, जिन के चेहरों से अमित संतोष, भोलापन टपक रहा है, जो तुम्हारे बाबूजी के नाम से दिए गए पुरस्कार पा कर और भी खिल उठी हैं, जिन के बीच जा कर तुम्हारे बाबूजी का नाम अमर हो गया है.’’

मैं ने देखा अम्माजी बहुत भावुक हो उठी हैं.

‘‘शीला, तू ने कितने रुपए खर्च किए?’’

‘‘अम्माजी, 11 हजार रुपए. 5-5 सौ रुपए की ट्रौफी और 10 हजार रुपए नकद.’’

‘‘तू ने ठीक समय पर इतने सुंदर व अर्थपूर्ण ढंग से उन की बरसी मना कर मेरी आंखें खोल दीं.’’

‘‘ओह, अम्माजी.’’ मैं हर्षातिरेक में उन से लिपट गई. तभी ये आ गए, बोले, ‘‘अच्छा, आज तो सासबहू में बड़ा प्रेमप्रदर्शन हो रहा है.’’

‘‘अच्छाजी, जैसे हम लड़ते ही रहते हैं,’’ मैं उठते हुए बनावटी नाराजगी दिखाते हुए बोली.

ये धीरे से मेरे कान में बोले, ‘‘लगता है तुम्हें अपने मन का करने में सफलता मिल गई है.’’

‘‘हां.’’

‘‘जिद्दी तो तुम हमेशा से हो,’’ ये मुसकरा पड़े, ‘‘ऐसे ही जिद कर के तुम ने मुझे भी फंसा लिया था.’’

‘‘धत्,’’ मैं ने कहा और मेरी आंखें एक बार फिर अम्माजी के चमकते चेहरे की ओर उठ गईं.

परख : भाग 3- कैसे बदली एक परिवार की कहानी

‘‘मां, मैं आप के चेहरे से आप की पीड़ा सम झ सकती हूं. आप पापा के पास क्यों नहीं लौट जातीं,’’ एक दिन गौरिका ने मां श्यामला से साफ कह दिया. ‘‘कहना क्या चाहती हो तुम?’’ श्यामला ने प्रश्न किया. ‘‘यही कि इस आयु में मु झ से अधिक पापा को आप की आवश्यकता है.’’

‘‘उस की चिंता तुम न ही करो तो अच्छा है. तुम्हारे पापा ने ही मु झे यहां भेजा है पर यहां आ कर मु झे भी उन की बात सम झ में आने लगी है. तुम्हारे लक्षण ठीक नहीं नजर आ रहे हैं.’’

‘‘ऐसा क्या देख लिया आप ने जो मेरे लक्षण बिगड़ते दिखने लगे? अपने बेटे गुंजन के लक्षणों की कभी चिंता नहीं की आप ने?’’ गौरिका बेहद कटु स्वर में बोली.

‘‘अपने भाई पर इस तरह आरोप लगाते तुम्हें शर्म नहीं आती? मैं जब भी उस से मिलने जाती हूं आसपास के लोग उस की प्रशंसा करते नहीं थकते. जबकि यहां तुम श्याम भैया और नीता भाभी से लड़ झगड़ कर अकेले रहने चली आईं. तुम ही बताओ कि क्लब से नशे में धुत्त लौट कर तुम किस का सम्मान बढ़ा रही हो?’’

‘‘मामाजी और मामीजी से तो आप भी लड़ झगड़ आई हैं. मेरे ऊपर उंगली उठाने से पहले यह तो सोच लिया होता.’’

‘इसी मूर्खता पर तो मैं स्वयं को कोस रही हूं. वे तो तुम्हारे बारे में और कुछ भी बताना चाहते थे पर मैं ही अपनी मूर्खता से उन की बोलती बंद कर आई.’’

‘‘उस के लिए दुखी होने की आवश्यकता नहीं है. मेरे संबंध में कोई बात आप को किसी और से पता चले, उस से अच्छा तो यही होगा कि मैं स्वयं बता दूं. मैं और मेरा सहकर्मी अर्णव साथ रहते हैं. आप आ रही थीं इसलिए वह कुछ दिनों के लिए घर छोड़ कर चला गया है,’’ गौरिका बिना किसी लागलपेट के बोली.

‘‘उफ, यह मैं क्या सुन रही हूं? संस्कारी परिवार है हमारा. ऐसी बातें बिरादरी में फैल गईं तो तुम से कौन विवाह करेगा?’’ श्यामला बदहवास हो उठीं.

‘‘आप उस की चिंता न करो. मैं बिरादरी में विवाह नहीं करने वाली.’’

‘‘ठीक है, साथ ही रहना है तो विवाह क्यों नहीं कर लेते तुम दोनों?’’

‘‘अभी हम एकदूसरे को परख रहे हैं. कुछ समय साथ रहने के बाद यदि हमें लगा कि हम एकदूसरे के लिए बने हैं, तो विवाह की सोचेंगे. वैसे भी विवाह नाम की संस्था में मेरा या अर्णव का कोई विश्वास नहीं है. इस के बिना भी समाज का काम चल सकता है,’’ गौरिका अपनी ही रौ में बहे जा रही थी.

‘‘सम झ में नहीं आ रहा कि मैं रोऊं या हंसूं. तुम्हारे पापा को पता चला तो पता नहीं वे इस सदमे को सह पाएंगे या नहीं,’’ श्यामला रो पड़ीं.

‘‘मम्मी, यह रोनापीटना रहने दो. आप कहो तो अर्णव को यहीं बुला लूं. आप भी उसे जांचपरख लेंगी,’’ गौरिका ने प्रस्ताव रखा.

‘‘तुम्हारा साहस कैसे हुआ मेरे सामने ऐसा बेहूदा प्रस्ताव रखने का?’’ श्यामला की आंखों से चिनगारियां निकलने लगीं.

‘‘ठीक है, आप नाराज मत होइए. भविष्य में कभी ऐसी बात नहीं कहूंगी,’’ श्यामला का क्रोध देख कर गौरिका ने तुरंत पैतरा बदला.

पर श्यामला को चैन कहां था. वे रात भर करवटें बदलती रहीं. कभी बेचैनी से टहलने लगतीं तो कभी प्रलाप करने लगतीं. वे नभेश से बात करने का साहस भी नहीं जुटा पा रही थीं.

रात भर सोचविचार कर वे इस निर्णय पर पहुंचीं कि गौरिका की बात मान लेने में कोई बुराई नहीं है. अर्णव साथ आ कर रहेगा तो वे उस पर दबाव डाल कर उसे विवाह के लिए राजी कर लेंगी. अंतत: उन्होंने अर्णव को साथ रहने की अनुमति दे दी. वह दूसरे ही दिन साथ रहने के लिए आ धमका.

श्यामला को जब भी अवसर मिलता वे दोनों को विवाहबंधन के लाभ गिनातीं पर गौरिका और अर्णव अपने तर्कों द्वारा उन के हर तर्क को काट देते. इतनी मानसिक यातना उन्होंने कभी नहीं झेली थी.

वे मन ही मन इतनी डरी हुई थीं कि सारे प्रकरण की जानकारी नभेश को देने में मन कांप उठता था.

इसी ऊहापोह में कब 3 माह बीत गए, उन्हें पता ही नहीं चला. अपने सभी प्रयत्नों को असफल होते देख कर उन्होंने सारी जानकारी अपने पति को देने का निर्णय लिया. फिर उन्होंने फोन उठाया ही था कि गौरिका का फोन आ गया, ‘‘मम्मी, हम 8-10 सहेलियों ने रात्रि उत्सव का आयोजन किया है. मैं आज रात घर नहीं आऊंगी. कल सुबह मिलेंगे. शुभरात्रि,’’ कह गौरिका ने उन्हें सूचित किया और फोन काट दिया. उन की प्रतिक्रिया जानने का प्रयत्न भी नहीं किया.

‘‘कौन हैं ये सहेलियां जिन के साथ इस पार्टी का आयोजन किया जा रहा है?’’ उन्होंने अर्णव के आते ही प्रश्न किया.

‘‘फेसबुक पर गौरिका की सैकड़ों सहेलियां हैं. मैं कैसे जान सकता हूं कि वह किन के साथ पार्टी कर रही है? सच पूछिए तो हम एकदूसरे के व्यक्तिगत मामलों में दखल नहीं देते,’’ अर्णव ने हाथ खड़े कर दिए तो श्यामला विस्फारित नेत्रों से उसे ताकती रह गईं फिर उन्होंने तुरंत ही फोन पर पूरी जानकारी नभेश को दे दी.

सारी बात सुन कर वे देर तक उन्हें बुराभला कहते रहे. फिर वे काफी देर तक आंसू बहाती रहीं. पर उस दिन उन्हें बहुत दिनों बाद चैन की नींद आई. उन्हें लगा कि शीघ्र ही नभेश आ कर उन्हें इस यंत्रणा से मुक्ति दिला देंगे. वे बहुत गहरी नींद में थीं जब फोन की घंटी बजी, ‘‘हैलो, कौन?’’ उन्होंने उनींदे स्वर में पूछा. ‘‘जी मैं सुषमा, गौरिका की सहेली. हम लोग खापी कर मस्ती करने सड़क पर निकले थे.

गौरिका कार पर नियंत्रण नहीं रख सकी. उस की कार कुछ राह चलते लोगों पर चढ़ गई. हम मानसी पुलिस स्टेशन में हैं. आप अर्णव के साथ तुरंत वहां पहुंचिए.’’ बदहवास श्यामला ने अर्णव के कमरे का दरवाजा पीट डाला. अर्णव के दरवाजा खोलते ही उन्होंने पूरी बात बता दी. ‘‘ठीक है, मैं तैयार हो कर आता हूं,’’ और फिर दरवाजा बंद कर लिया. कुछ देर बाद दरवाजा खुला तो अर्णव अपने दोनों हाथों में सूटकेस थामे खड़ा था. ‘‘अरे बेटा, इस सब की क्या जरूरत है?’’ श्यामला ने प्रश्न किया.

‘‘आंटी, क्षमा कीजए. मैं आप के साथ नहीं जा रहा. मेरा एक सम्मानित परिवार है. मैं पुलिस, कचहरी के चक्कर में पड़ कर उन्हें ठेस नहीं पहुंचा सकता. मैं यह घर छोड़ कर जा रहा हूं. आप जानें और आप की सिरफिरी बेटी,’’ क्रोधित स्वर में बोल अर्णव बाहर निकल गया. जब तक श्यामला कुछ बोल पातीं वह कार स्टार्ट कर जा चुका था. उस अंधकार में उन्हें श्याम की ही याद आई. फोन पर ही उन्होंने क्षमायाचना की और सहायता करने का आग्रह किया. श्याम ने उन्हें धीरज बंधाया. आश्वासन दिया कि वे तुरंत पहुंच रहे हैं. रिसीवर रख श्यामला वहीं बैठ गईं. उन के आंसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे. द्य

असमंजस: भाग 2- क्यों अचानक आस्था ने शादी का लिया फैसला

‘यदि मेरी बात एक हितैषी मित्र के रूप में मानती हो तो अपनी राह स्वयं तैयार करो. हिमालय की भांति ऊंचा लक्ष्य रखो. समंदर की तरह गहरे आदर्श. आशा करती हूं कि तुम अपनी जिंदगी के लिए वह राह चुनोगी जो तुम्हारे जैसी अन्य कई लड़कियों की जिंदगी में बदलाव ला सके. उन्हें यह एहसास करा सके कि एक औरत की जिंदगी में शादी ही सबकुछ नहीं है. सच तो यह है कि शादी के मोहपाश से बच कर ही एक औरत सफल, संतुष्ट जिंदगी जी सकती है.

‘एक बार फिर जन्मदिन मुबारक हो.

‘तुम्हारी शुभाकांक्षी,

रंजना.’

रंजना मैडम का हर खत आस्था के इस निश्चय को और भी दृढ़ कर देता कि उसे विवाह नहीं करना है. विवान और आस्था दोनों इसी उद्देश्य को ले कर बड़े हुए थे कि दोनों को अपनेअपने पिता की तरह सिविल सेवक बनना है. लेकिन विवान जहां परिवार और उस की अहमियत का पूरा सम्मान करता था वहीं आस्था की परिवार नाम की संस्था में कोई आस्था बाकी नहीं थी. उसे घर के मंदिर में पूजा करती दादी या रसोई में काम करती मां सब औरत जाति पर सदियों से हो रहे अत्याचार का प्रतीक दिखाई देतीं.

अपने पहले ही प्रयास में दोनों ने सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी. आस्था का चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा में हुआ था तो विवान का भारतीय राजस्व सेवा में. बस, अब क्या था, दोनों के परिवार वाले उन की शादी के सपने संजोने लगे. विवान के परिजनों के पूछने पर उस ने शादी के लिए हां कह दी किंतु वह आस्था की राय जानना चाहता था. विवान ने जब आस्था के सामने शादी की बात रखी तो एकबारगी आस्था के दिमाग में रंजना मैडम की दी हुई सीख जैसे गायब ही हो गई. बचपन के दोस्त विवान को वह बहुत अच्छे तरीके से जानती थी. उस से ज्यादा नेक, सज्जन, सौम्य स्वभाव वाले किसी पुरुष को वह नहीं जानती थी. और फिर उस की एक आजाद, आत्मनिर्भर जीवन जीने की चाहत से भी वह अवगत थी. लेकिन इस से पहले कि वह हां कहती, उस ने विवान से सोचने के लिए कुछ समय देने को कहा जिस के लिए उस ने खुशीखुशी हां कह दी.

वह विवान के बारे में सोच ही रही थी कि रंजना मैडम का एक खत उस के नाम आया. अपने सिलैक्शन के बाद वह उन के खत की आस भी लगाए थी. मैडम जाने क्यों मोबाइल और इंटरनैट के जमाने में भी खत लिखने को प्राथमिकता देती थीं, शायद इसलिए कि कलम और कागज के मेल से जो विचार व्यक्त होते हैं वे तकनीकी जंजाल में उलझ कर खो जाते हैं. उन्होंने लिखा था :

‘प्रिय मित्र,

‘तुम्हारी आईएएस में चयन की खबर पढ़ी. बहुत खुशी हुई. आखिर तुम उस मुकाम पर पहुंच ही गईं जिस की तुम ने चाहत की थी लेकिन मंजिल पर पहुंचना ही काफी नहीं है. इस कामयाबी को संभालना और इसे बहुत सारी लड़कियों और औरतों की कामयाबी में बदलना तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिए. और फिर मंजिल एक ही नहीं होती. हर मंजिल हमारी सफलता के सफर में एक पड़ाव बन जाती है एक नई मंजिल तक पहुंचने का. कामयाबी का कोई अंतिम चरण नहीं होता, इस का सफर अनंत है और उस पर चलते रहने की चाह ही तुम्हें औरों से अलग एक पहचान दिला पाएगी.

‘निसंदेह अब तुम्हारे विवाह की चर्चाएं चरम पर होंगी. तुम भी असमंजस में होगी कि किसे चुनूं, किस के साथ जीवन की नैया खेऊं, वगैरहवगैरह. तुम्हें भी शायद लगता होगा कि अब तो मंजिल मिल गई है, वैवाहिक जीवन का आनंद लेने में संशय कैसा? किंतु आस्था, मैं एक बार फिर तुम्हें याद दिलाना चाहती हूं कि जो तुम ने पाया है वह मंजिल नहीं है बल्कि किसी और मंजिल का पड़ाव मात्र है. इस पड़ाव पर तुम ने शादी जैसे मार्ग को चुन लिया तो आगे की सारी मंजिलें तुम से रूठ जाएंगी क्योंकि पति और बच्चों की झिकझिक में सारी उम्र निकल जाएगी.

‘यह मैं इसलिए कहती हूं कि मैं ने इसे अपनी जिंदगी में अनुभव किया है. तुम्हें यह जान कर हर्ष होगा कि मुझे राष्ट्रपति द्वारा प्रतिवर्ष शिक्षकदिवस पर दिए जाने वाले शिक्षक सम्मान के लिए चुना गया है. क्या तुम्हें लगता है कि घरगृहस्थी के पचड़ों में फंसी तुम्हारी अन्य कोई भी शिक्षिका यह मुकाम हासिल कर सकती थी?

‘शेष तुम्हें तय करना है.

‘हमेशा तुम्हारी शुभाकांक्षी,

रंजना.’

इस खत को पढ़ने के बाद आस्था के दिमाग से विवान से शादी की बात को ले कर जो भी असमंजस था, काफूर हो गया. उस ने सभी को कभी भी शादी न करने का अपना निर्णय सुना दिया. मांपापा और दादी पर तो जैसे पहाड़ टूट गया. उस के जन्म से ले कर उस की शादी के सपने संजोए थे मां ने. होलीदीवाली थोड़ेबहुत गहने बनवा लेती थीं ताकि शादी तक अपनी बेटी के लिए काफी गहने जुटा सकें लेकिन आज आस्था ने उन से बेटी के ब्याह की सब से बड़ी ख्वाहिश छीन ली थी. उन्हें अफसोस होने लगा कि आखिर क्यों उन्होंने एक निम्नमध्य परिवार के होने के बावजूद अपनी बेटी को आसमान के सपने देखने दिए. आज जब वह अर्श पर पहुंच गई है तो मांबाप की मुरादें, इच्छाओं की उसे परवा तक नहीं.

विवान ने भी कुछ वर्षों तक आस्था का इंतजार किया लेकिन हर इंतजार की हद होती है. उस ने शादी कर ली और अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गया. दूसरी ओर आस्था अपनी स्वतंत्र, स्वैच्छिक जिंदगी का आनंद ले रही थी. सुबहशाम उठतेबैठते सिर्फ काम में व्यस्त रहती थी. दादी तो कुछ ही सालों में गुजर गईं और मांपापा से वह इसलिए बात कम करने लगी क्योंकि वे जब भी बात करते तो उस से शादी की बात छेड़ देते. साल दर साल उस का मांपापा से संबंध भी कमजोर होता गया.

वह घरेलू स्त्रियों की जिंदगी के बारे में सोच कर प्रफुल्लित हो जाती कि उस ने अपनी जिंदगी के लिए सही निर्णय लिया है. वह कितनी स्वतंत्र, आत्मनिर्भर है. उस का अपना व्यक्तित्व है, अपनी पहचान है. बतौर आईएएस, उस के काम की सारे देश में चर्चा हो रही है. उस के द्वारा शुरू किए गए प्रोजैक्ट हमेशा सफल हुए हैं. हों भी क्यों न, वह अपने काम में जीजान से जो जुटी हुई थी.

परख : भाग 2- कैसे बदली एक परिवार की कहानी

‘‘तुम ने पूछा नहीं कि गौरिका यहां से क्यों चली गई?’’

‘‘पूछा था, पर वह तो आप को ही बुराभला कहने लगी, कहती है कि आप के कठोर अनुशासन में उस का दम घुटने लगा था.’’

‘‘स्वयं को सही साबित करने के लिए कुछ तो कहेगी ही. पर मैं तुम से कुछ नहीं छिपाऊंगा. आगे तुम्हें जो उचित लगे करना. हम बीच में नहीं पड़ेंगे,’’ श्याम बोले.

‘‘ऐसी क्या बात है भैया? मेरा दिल बैठा जा रहा है,’’ श्यामला घबरा उठी.

‘‘इस तरह कमजोर पड़ने की जरूरत नहीं है. तुम्हें युक्ति से काम लेना पड़ेगा.’’

‘‘पर बात क्या है भैया?’’

‘‘गौरिका यहां आई तो 2-3 सप्ताह तो सब ठीक रहा, पर फिर उस के ढेरों मित्र आने लगे. रात के 12-12, 1-1 बजे तक पार्टियां चलतीं, कानफोड़ू संगीत बजता. पहले तो हम ने कुछ नहीं कहा, पर जब पड़ोसी भी शिकायत करने लगे तो कहना पड़ा कि हमारी भी कोई मर्यादा है,’’ श्याम ने विस्तार से बताया.

‘‘आप से क्या छिपाना श्यामला दीदी. मैं ने स्वयं गौरिका के मित्रों को नशीली दवा तथा शराब लेते देखा है. इन युवाओं के व्यवहार के संबंध में क्या कहूं… उन्हें खुलेआम शालीनता की सभी सीमाएं लांघते देखा जा सकता था,’’ नीता ने भी अपनी बात कह डाली.

श्यामला को कुछ क्षण ऐसा लगा जैसे हवा भी थम गई हो. श्याम बाबू और नीता ने उन के चेहरे का रंग उड़ते और बदलते देखा.

‘‘श्यामला क्या हुआ? इस तरह चुप क्यों हो? कुछ तो कहो,’’ श्याम घबरा गए.

‘‘बोलूंगी भैया, अवश्य बोलूंगी, पर सब से पहले तो आप दोनों यह भलीभांति सम झ लीजिए कि मु झे गौरिका पर अटूट विश्वास है. आप को अपना सम झ कर उसे आप के साथ रहने को मनाया था. वह तो किसी संबंधी के साथ रहना ही नहीं चाहती थी,’’ श्यामला हर शब्द चबाचबा कर बोलीं.

‘‘क्या कह रही हो दीदी? गौरिका हमारी बेटी जैसी है. हम क्या उस पर  झूठे आरोप लगा रहे हैं?’’ नीता ने कहा.

‘‘बेटी जैसी है न पर बेटी तो नहीं है. इसीलिए तो आप लोग जलते हैं उस से. है कोई लड़की मेरी गौरिका जैसी पूरी बिरादरी में? हर कक्षा में सर्वप्रथम रही है वह. आज इतनी सी आयु में इतनी ऊंची नौकरी कर रही है, इसीलिए सब बौखला गए हैं,’’ और फिर श्यामला रो पड़ीं.

श्याम बाबू सन्न रह गए. उन की छोटी बहन उन पर ऐसा आरोप लगाएगी,

उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था.

‘‘नीता, जाओ चायनाश्ते का प्रबंध करो. अब इस संबंध में हम कोई बात नहीं करेंगे,’’ किसी प्रकार श्याम के मुंह से निकला.

‘‘नहीं खूब बात कीजिए. मेरी गौरिका को बदनाम किए बिना आप को चैन नहीं मिलेगा. आप ने हमारी बहुत सहायता की है. पूरा हिसाबकिताब कर लीजिए हम पाईपाई चुका देंगे. गौरिका का विवाह इतनी धूमधाम से करूंगी कि सब की आंखें खुली की खुली रह जाएंगी,’’ श्यामला अब भी स्वयं को शांत नहीं कर पा रही थीं.

‘‘चलो, मान लिया तुम्हारी गौरिका जैसी कोई नहीं है. हमारी शुभकामनाएं हैं कि वह दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति करे. तुम्हारा बड़ा भाई हूं. अब क्षमा भी कर दो,’’ श्याम बाबू ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की तो श्यामला ने किसी प्रकार स्वयं को संभाला.

चायनाश्ते और इधरउधर की बातों के बीच कब शाम हो गई और गौरिका श्यामला को लेने आ गई, पता ही नहीं चला.

‘‘अब क्या होगा श्याम? असली बात तो श्यामला दीदी को बताई ही नहीं,’’ श्यामला के जाते ही नीता ने चिंता जताई.

‘‘क्यों, अभी कुछ और सुनना बाकी है क्या? गांधीजी की शिक्षा का पालन करो. बुरा न देखो, न सुनो, न बोलो. हम कुछ कहें भी तो वह कब सुनने वाली है. उसे पुत्री मोह के आगे कुछ नहीं सू झेगा,’’ श्याम ने पत्नी को दोटूक शब्दों में बताया.

‘‘मिल आईं अपने भाईभाभी से?’’ घर पहुंचते ही गौरिका ने प्रश्न किया.

‘‘मिल आई और खरीखरी भी सुना आई. वे होते कौन हैं मेरी बेटी पर आरोप लगाने वाले?’’ श्यामला गुस्से से भरे स्वर में बोलीं.

‘‘मैं कहती तो थी कि वे हम से ईर्ष्या करते हैं,’’ गौरिका को मां श्यामला की बात सुन कर बड़ी खुशी हुई.

‘‘चिंता न कर बेटी. ऐसा जवाब दे कर आई हूं कि भविष्य में कभी तेरी बुराई करने का साहस नहीं जुटा सकेंगे.’’

‘‘ऐसा क्या कह आईं आप?’’

‘‘जो मन में आया सुना दिया. भैया तो लगे हाथ जोड़ कर माफी मांगने. मैं तो यह सोच कर चुप रह जाती थी कि बड़े भाई हैं और कई बार सहायता करते रहे हैं पर हर बात की एक सीमा होती है.’’

‘‘मम्मी, अब गुस्सा थूक भी दो और तैयार हो जाओ. आज डिनर बाहर ही करेंगे,’’ गौरिका की खुशी उस के चेहरे पर साफ  झलक रही थी.

‘‘अब तो बस एक ही इच्छा है कि तेरे लिए ऐसा घरवर ढूंढ़ूं कि सभी मित्रों, संबंधियों की आंखें चौंधियां जाएं.’’

‘‘आप ऐसा कुछ नहीं करेंगी मां. अपने जीवनसाथी का चुनाव मैं स्वयं करूंगी और वह भी पूरी तरह जांचनेपरखने के बाद.’’

‘‘क्या कह रही है? कहीं किसी को पसंद तो नहीं कर लिया?’’ मन की बात तुरंत ही शब्दों में ढल गई.

‘‘नहीं मां ऐसा कुछ नहीं है. जांचनेपरखने में समय लगता है. अभी तो खोज शुरू हुई है,’’ गौरिका ने हंसी में बात टालनी चाही पर श्यामला का दिल दहल गया.

गौरिका डिनर के लिए उन्हें एक क्लब में ले गई. वहां उपस्थित युवकयुवतियों से वह ऐसे घुलमिल रही थी मानो उन्हें सदियों से जानती हो. गौरिका उन्हें जूस का गिलास थमा कर अपने मित्रों के साथ व्यस्त हो गई, जो तेज संगीत की धुन पर एकदूसरे में डूबे थिरक रहे थे.

खापी कर घर लौटते रात के 12 बज रहे

थे. तभी कार में अजीब गंध ने श्यामला को

चौंका दिया, ‘‘यह क्या है गौरिका? तुम ने पी रखी है क्या?’’

‘‘उफ मां, अपनी मध्यवर्गीय मानसिकता से बाहर निकलो. उच्चवर्ग में साथ देने के लिए थोड़ीबहुत पीने को बुरा नहीं मानते… यह तो आधुनिकता की निशानी है.’’

‘‘भाड़ में जाए ऐसी आधुनिकता… हमारे समाज में तो लड़कों का भी पीना अच्छा नहीं सम झा जाता लड़कियों की बात तो दूर रही.’’

‘‘आप तो श्याम मामा और मामीजी की तरह बात करने लगीं. थोड़ी सी पीने से कोई शराबी नहीं हो जाता. अगली बार मैं आप को क्लब के पब में ले जाऊंगी. वहां देखिएगा कितनी लड़कियां बैठी रहती हैं.’’

‘‘मु झे नहीं देखना कुछ भी. अच्छा हुआ कि तुम्हारा असली चेहरा सामने आ गया. मैं भी कितनी मूर्ख हूं. तुम्हारी बातों में आ कर मैं श्याम भैया से भी  झगड़ा कर बैठी,’’ और श्यामला रो पड़ीं.

अगले कुछ दिन श्यामला ने अपने अकेलेपन से जू झते हुए बिताए. वे गौरिका का एक नया ही रूप देख रही थीं. उस के काम पर जाने के बाद नभेश से बात कर के वे मन हलका कर लेती थीं.

सप्ताहांत में गौरिका अकसर आधी रात को घर लौटती. वे कुछ कहतीं

तो उस का यही घिसापिटा उत्तर होता कि वह उन की तरह चौकेचूल्हे में अपना जीवन नहीं गंवा सकती.

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