धर्म है या धंधा

बाततब की है जब मेरा विवाह हुआ था. मेरे पति एक दिन सुबह कहीं जा रहे थे. उन्हें जाते हुए देखा तो भागीभागी आई और पीछे से आवाज लगा दी, ‘‘आप कहीं जा रहे हो क्या?’’

बस इतना ही कहते वे क्रोधित हो गए और गुस्से में बोले, ‘‘इस तरह क्यों पीछे से आवाज लगा रही हो?’’

मैं बेवकूफ तब भी नहीं सम झी और सामने जा कर खड़ी हो गई. फिर कहा, ‘‘चलो अब बता दो कहां जा रहे हो?’’

उन्होंने मु झे घूर कर ऐसे देखा जैसे मैं ने किसी का कत्ल कर दिया हो, पर घूरने का कारण नहीं सम झ पाई.

2 घंटे बाद जब वापस आए तो बहुत ही आगबबूला होते हुए बोले, ‘‘बड़ी बेवकूफ हो. इतना भी नहीं मालूम कि काम पर जाते समय पीछे से आवाज नहीं लगाते. तुम्हारे टोकने की वजह से मेरा काम नहीं बना.’’

मेरा तो माथा ठनक गया कि यह कैसा अंधविश्वास है भला? मेरे आवाज लगाने से इन का काम कैसे रुक गया? फिर तो इस से अच्छी चाबी और कोई हो ही नहीं सकती. अगर किसी का कोई काम न बनने देना हो तो बस पीछे से आवाज लगा दो. दिन की शुरुआत अपनी दोनों हथेलियों को देख कर करते हैं.

पूजापाठी तो इतने हैं, बस जब देखो, कभी हाथ में हनुमान चालीसा मिलेगा तो कभी शिव चालीसा. 2 घंटे सुबह पूजा, 2 घंटे रात को पूजा. बस पूजा ही पूजा और कोई न दूजा. खुशीखुशी महीने की आधी कमाई पंडितों को दान में दे आएंगे. वैसे कोई गरीब क्व1 भी मांगेगा तो उसे दुत्कार देंगे. जब देखो सासूजी और पतिदेव पंडितों का पेट भरते रहते हैं.

लंबा उपदेश

रोकने पर एक लंबा सा उपदेश, ‘‘ब्राह्मण को दान शास्त्रों में लिखा हुआ है. जितना ब्राह्मणों को दान करोगी उतना फल मिलेगा. अब कोई और फूलेफले या नहीं, लेकिन पंडित जरूर फूलफल रहा है. इतने सालों से पंडितजी को और उन की तोंद को देख रही हूं. फूल कर मोटी होती जा रही है. क्यों न फूले लोगों को बेवकूफ बना कर माल जो खाते हैं.

कितना अजीब सा लगा है ये सब देखना. पर यह बिलकुल सच है कि इस आधुनिक युग में हम आधुनिकीकरण का सिर्फ जामा पहने हुए हैं, परंतु हमारी मानसिकता अब भी वही है. हमारी सोच बदलते वक्त के साथ वही पुरानी है और शायद इस का पूरा श्रेय आजकल के मीडिया चैनलों को जाता है, जो सारा दिन ऐसे अंधविश्वास फैलाते रहते हैं.’’

हर चैनल पर ऐसे कार्यक्रमों की भीड़ है और ऐसे कार्यक्रमों को देखने के लिए दर्शकों की कमी नहीं. एक दिन मेरी सासूमां को सपने में गाय सींग मारते हुए दिखी. बस मानो भूकंप आ गया. पंडितजी को बुलावा भेज दिया.

पंडितों का मायाजाल

पंडितजी ने आते ही कहा, ‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है. गाय का सींग मारना तो शुभ संकेत है. अरे, गाय की सेवा करीए. अपने भार बराबर दान दीजिए. आप की सब चिंताएं खत्म होने वाली हैं,’’

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वाह पंडितजी, सपना गाय का और फायदा पंडित का. अब इन पंडितजी की भी सुनिए. एक दिन पंडितजी घर आए. देखने में परेशान लग रहे थे. पतिदेव से मिलने आए थे. पंडितजी के जाने के बाद मैं ने पूछा, ‘‘क्या हो गया पंडितजी को क्यों इतने परेशान हैं?’’

पतिदेव ने बताया, ‘‘पंडितजी इसलिए परेशान हैं क्योंकि उन का काम मंदा चल रहा है. उन के 2 बेटे हैं. लेकिन कोई भी पंडिताई नहीं करना चाहता.’’

मैं अपनी हंसी नहीं रोक पाई. हंसते हुए बोली, ‘‘हां… हां… पंडितजी के बेटों द्वारा पंडिताई न करने की बात तो उन के लिए दुखदाई है, क्योंकि खानदानी पेशा जो बंद हो रहा है. लगता है पंडितजी ने अपनी पत्रिका नहीं देखी. शायद उपाय करने से उन के कष्ट दूर हो जाते,’’ आदतन मेरे मुंह से निकल गया. और मैं कहते ही हंस पड़ी.

इधर मेरा हंसना था और उधर बम विस्फोट होना लाजिम था. गुस्से में पतिदेव बोले, ‘‘जब भी बोलोगी, उलटा ही बोलोगी… चुप नहीं रह सकती क्या?’’

अंधविश्वास के बहाने

अब आप ही बताएं यह पत्रिका देखना, हाथ देखना आदि सब बातें अंधविश्वास के दायरे में आती हैं न? इस वैज्ञानिक युग में काफी लोगों की मानसिकता वही दकियानूसी है… आज भी काफी लोग बिना पंडित की मरजी के पत्ता नहीं हिलाना चाहते. कोई भी कार्य करने से पहले पंडित या तांत्रिक से सलाह लेते हैं. बच्चा कब पैदा होना है? कब नामकरण होना है? ये सब पंडित तय करते हैं. उसी के लिए मुहूर्त के हिसाब से यह कार्य होते हैं. यही नहीं लड़की होनी है या लड़का, यह भी पंडित ही तय करता है.

अगर लड़का चाहिए तो, पंडितजी कुछ दवाइयों की पुडि़यां बना कर हाथ में दे देंगे, इस कथन के साथ कि तीसरे महीने में खिला देना. लड़का ही होगा और यकीन मानिए लोग आंख बंद कर के इस पर विश्वास करते हैं और अपनी बहू या बेटियों को तीसरे महीने में सुबहसुबह खाली पेट यह दवाई खिलाते हैं.

भले ही लड़का हो या लड़की. लड़का हो गया, तो पंडितजी की चांदी और अगर लड़की हुई तो पंडितजी कह देते हैं कि आप ने दवाई खाते टाइम लापरवाही करी होगी.

मतलब हर हाल में पंडितजी सही… निम्नवर्ग के ही नहीं उच्चवर्ग के लोग भी इन अंधविश्वासों में फंसे हुए हैं.

कर्म ही प्रधान है

एक बार मैं ने पतिदेव से कहा, ‘‘आप विश्वास करो, लेकिन अंधविश्वास नहीं. ये पंडित, तांत्रिक, मौलवी सिर्फ अपनी जेबें भरते हैं. कोई कुछ नहीं करता. कर्म ही प्रधान है.’’

इस पर पतिदेव ने कहा, ‘‘अपने विचारऔर अपनी सोच अपने पास रखो… हमें शिक्षा मत दो. तुम्हारे हिसाब से तो यह टाटा, बिरला, अंबानी सभी नास्तिक हैं. क्या तुम ने देखा नहीं ये सब कितना पूजापाठ करते हैं. तुम्हारी सुनूंगा, तो डूब जाऊंगा.’’

मु झे भी जिद चढ़ गई तो मैं ने भी कह दिया, ‘‘डूबिए तो सही. तब हम न उबारें तो कहना.’’

इन के हाथ में इतने कलावे बंधे हैं कि कभीकभी तो ऐसा लगता है, जैसे कोई मन्नत मांगने का खंभा हो. एक दिन मैं ने कहा, ‘‘भूल गए क्या पंडित के कहने पर गाय को बेसन, मुनक्का और घी से बनी लोई खिलाने गए थे? तब गाय ने ऐसा पटका कि 7 दिन लगे थे ठीक होने में.’’

‘‘बस करो, जब देखो तब टेप चालू रहता है,’’ पतिदेव चिड़चिड़ाते हुए बोले.

‘‘मैं क्या गलत कह रही हूं? क्यों रहूं चुप? भूल गए, जब नया औफिस बनवा रहे थे, नींव खुद रही थी, तो पंडितजी ने कहा कि औफिस तैयार होने से पहले पूरे औफिस की नजर उतार दो और पश्चिम दिशा में लाल कपड़े में बांध कर चावल चढ़ा दो. आप ने तो करना ही था. पंडितजी ने जो कहा था, क्योंकि सारी दुनिया की नजर तो आप ही को लगी हुई है न. हुआ क्या चावल चढ़ाने के चक्कर में 7 फुट गहरे गड्ढे में गिर गए थे. वह तो भला हो मजदूरों का, वहां पर मौजूद थे. जैसेतैसे कर के आप को निकाला,’’ मैं ने कटाक्ष करते हुए कहा.

‘‘हां तो क्या हुआ? तुम्हें नहीं लगता है कि मैं पंडितजी की वजह से मैं बच गया?’’ इतने गहरे गड्ढे में गिर कर भी चोट नहीं आई.

‘‘तोबा. आप और आप के पंडित. यह विश्वास नहीं, अंधविश्वास है… पूरा पागलपन है.’’

अंधविश्वास का खेल

सारा साल यही अंधविश्वास का खेल चलता रहता है. सलाह देने वाले पंडितजी और मानने वाले पतिदेव और उन की माताजी, घर

2 खेमों में बंटा हुआ है… एक तरफ सासूजी और पतिदेव, दूसरी ओर मैं और मेरे बच्चे. हर टाइम वाक् युद्ध की स्थिति रहती है.

कभी माघ का महीना है, तो दान करना है. कभी वसंतपंचमी है तो कथा होनी है. नवरात्रे हैं तो हवन करना है. सावन चल रहा है तो रुद्राभिषेक करना है. श्राद्ध हैं, तो पंडितों को खाना खिलाना है और दान करना है. शरद नवरात्रे हैं तो ब्रह्मभोज. कभी सत्यनारायण की कथा तो कभी महामृत्युंजय जाप होने हैं.

‘‘पंडितजी पारिवारिक परेशानी है. खत्म नहीं हो रही. क्या करूं?’’ सासूजी ने पूछा.

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‘‘ऐसा करो एक हवन करवा लो. हवन के आखिर में सवा पांच किलो सूखी लालमिर्च से सब की नजर उतार कर अग्नि कुंड में आहुति दे दी जाएगी. नजर भी उतर जाएगी और पता भी चल जाएगा कि कितनी नजर है तो उपाय हो जाएगा,’’ पंडितजी ने अपना उल्लू सीधा किया.

बहुत से लोग अपने आगे से कोई बिल्ली गुजर जाए, तो वापस आ जाएंगे. सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण लगने पर भोजन नहीं करेंगे और ग्रहण खत्म होते ही सब से पहले नहाएंगे.

यही नहीं फिर पूरे घर में गंगाजल का छिड़काव करेंगे और ब्रह्माण को दान देंगे. अगर कोई गर्भवती है, तो जब तक ग्रहण है उसे गोद में नारियल रख रामायण पढ़ने को कहा जाएगा. दिन के मुताबिक रंगीन कपड़ों को पहनना. कोई छींक दे तो अशुभ मान कर रुक जाना.

हर छोटी सी छोटी बात के लिए पंडित या तांत्रिक. पता नहीं कैसा विश्वास है? शायद इस गहरे विश्वास को ही अंधविश्वास कहा जाता है. बचपन में सुनी और विश्वास की गई ऐसी ही कितनी चीजें कई सालों तक अंधविश्वास बन कर आज भी बहुतों के साथ चल रही हैं. लेकिन ऐसे लोगों में इस अंधविश्वास की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि हम चाह कर भी बदल नहीं पाते.

फैले अंधविश्वास

–  भारत में लोग विश्वास करते हैं कि चेचकदेवी माता का प्रकोप है और दवा इत्यादि से आप इस का कुछ नहीं कर सकते. केवल प्रार्थना और कर्मकांड करीए देवी माता की शांति के लिए.

–  भारत में अकसर डाक्टर के क्लीनिक के मुख्य दरवाजे पर बुरी नजर से बचने का प्रतीकचिह्न देखेंगे. अस्पताल में आप बोर्ड देखेंगे ‘हम सेवा करते हैं, वह ठीक करता है.’ कितने ही डाक्टर गुरुवार को काम नहीं करते, क्योंकि वे मानते हैं कि यह अच्छा दिन नहीं होता और आप को फिर से डाक्टर के पास जाना पड़ेगा.

–  भारत में वैज्ञानिक विज्ञान पर भरोसा नहीं करते, बल्कि सफलता के लिए ईश्वर का मुंह ताकते हैं.

–  अशुभ नंबरों को त्याग दिया जाता है. डाक्टरों को नजर लगने से डर लगता है. ये लोग साक्षर तो हैं, परंतु शिक्षित नहीं.

–  अंधविश्वासी लोग दवा और इलाज को भी अंधविश्वास के घेरे में ले आते हैं. पीपल के पेड़ पर भूतों का निवास होता है.

–  बुरी नजर से बचाने के लिए माथे पर बच्चों के टीका लगाते हैं.

–  घर से बाहर निकलते वक्त विधवा औरत दिखे तो अशुभ माना जाता है

–  गले में काला धागा या तावीज पहनने से बुरी आत्माएं दूर रहती हैं.

–  अगर आप के जूते खो जाएं तो आप भाग्यशाली हैं इस से बुरी चीजें चली जाती हैं.

–  कुत्ते का रोना किसी की मृत्यु का पूर्वाभास माना जाता है. रात को नाखून नहीं काटने चाहिए.

–  पतीले या हांडी में पैंदे तक चाटने से उस इंसान की शादी पर बरसात होती है.

–  अगर बिल्ली रास्ता काट जाए तो इसे अशुभ माना जाता है.

–  अगर हिचकी आए तो कोई आप को याद कर रहा है.

–  मंगलवार, गुरुवार और शनिवार को बाल कटिंग या शेविंग नहीं करवानी चाहिए.

–  अरे हां, एक और शामिल है इस लिस्ट में. आंख का फड़कना.

लेकिन धीरेधीरे जब हम चीजों के ऊपर सोचने की प्रक्रिया से गुजरने लगें, तो लगेगा अरे यह तो निरी मूर्खता है. कोई छींक दे तो क्या हम अपना महत्त्वपूर्ण काम टाल देंगे? बिल्ली रास्ता काट देगी तो क्या हम पेपर देने नहीं जाएंगे?

ऐसी बहुत सी बातों की लंबी लिस्ट है, जो अंधविश्वास के दायरे में आती हैं. लेकिन अंधविश्वासियों के हिसाब से वे धर्म का पालन कर रहे हैं. आप ही बताएं यह कैसा धर्म का पालन है?

इस वैज्ञानिक युग में ऐसी सोच के साथ कोई कैसे तरक्की कर सकता है? अगर तांत्रिकों की पूजा में इतना ही दम है, तो फिर बौर्डर पर सेना की क्या जरूरत है? घर बैठे ही ये पंडित, तांत्रिक हर युद्ध को रोक सकते हैं. असलियत तो यह है आज ये पंडित, पुजारी सब चलतीफिरती दुकानें हैं, जिन्हें सिर्फ अपनी जेब भरने से मतलब है और हमारा समाज धार्मिक, ढोंग, पाखंड, अंधविश्वास, लोभी और गुमराह मुल्लाओं, पंडितों की बेडि़यों द्वारा जकड़ा हुआ समाज है. ऐसा नहीं कि सिर्फ कम पढ़ेलिखे, गरीब ही इन का शिकार होते हैं. धर्म और आस्था के नाम पर बड़बड़े अमीर और पढ़ेलिखे भी इस लिस्ट में शामिल हैं.

महिलाओं का शोषण

चमत्कारी बाबाओं और तांत्रिकों द्वारा महिलाओं के शोषण की बातें हमेशा से प्रकाश में आती रही हैं और धन तो इन के पास दान का इतना आता है कि जिसे ये खुद भी नहीं गिन सकते.

इस के दोषी केवल ये बाबा, मुल्ला या पंडे नहीं, बल्कि हमारा यह भटका हुआ समाज है, जो चमत्कारों से भगवान को पहचानने की गलती करता है. अंधविश्वास की सामाजिक जकड़न का विश्वास ही अंधविश्वास में तबदील होता है.

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अंधविश्वासी लोग स्वयं अपनी स्वतंत्रता नष्ट कर लेते हैं. वे अपनी मरजी से कोई निर्णय नहीं ले सकते, क्योंकि उन्होंने अपने दिमाग को अंधविश्वास की जेल में बंद कर रखा होता है. उन्होंने अपनी बुद्धि को अंधविश्वास के हाथों बेच दिया है नहीं तो वे अपनी जिंदगी अंधविश्वास के बिना और प्रसन्नता से गुजार सकते हैं.

दिल से एक बार इस अंधविश्वास के डर को निकालें, तो फिर अमंगल का खयाल कभी आएगा ही नहीं. सोच कर तो देखें.

पुरुषों को शुक्र मनाना चाहिए कि महिलाएं उन्हें धक्का देकर दूर रहने को नहीं कहतीं !

हालांकि यह स्टडी तो करीब 9 साल पुरानी है,लेकिन इन 9 सालों में कई अलग अलग देशों में भी नए सिरे से इसकी जांच परख की गयी है और पाया गया है कि यह बिलकुल सही है  कि महिलाओं के मुकाबले पुरुष कई गुना ज्यादा गंदा रहते हैं.हालांकि जब तक लाइफस्टाइल विषयों पर रिसर्च अध्ययनों को तरजीह देने वाली वेबसाईट ‘प्लोस वन’ [PLOS ONE] ने यह स्टडी नहीं छापी थी, तब भी दुनियाभर में औरतें विशेषकर पत्नियां अपने पतियों को गंदे रहने के उलाहने देती रही हैं और  दुनिया भरके पुरुषों ने कभी इसका खंडन करना भी जरूरी नहीं समझा बल्कि चुपचाप इस सबकी अनदेखी करते रहे हैं.शायद एक दूसरे के लिए यह साझा भ्रम बनाने के लिए कि औरतें तो होती ही सनकी हैं,इसलिए क्या उनके मुंह लगना.लेकिन अब पिछले कुछ सालों में सफाई को लेकर हुए कई शोध सर्वेक्षणों ने साबित कर दिया है कि महिलाएं कभी गलत नहीं थीं,पुरुष महिलाओं के मुकाबले गंदे ही रहते हैं.

हालांकि प्लस वन की यह रिसर्च स्टडी पुरुषों के गंदे रहने के लिए उनको आलसी होना नहीं मानती जैसा कि दुनिया की ज्यादातर औरतें अपने पतियों के बारे में राय रखती हैं.इस स्टडी में खुलासा हुआ है कि इसके पीछे परवरिश का विज्ञान और लिंगभेद का मनोविज्ञान शामिल है.सवाल है आखिर महिलाएं पुरुषों के मुकाबले ज्यादा साफ कैसे रहती हैं? इस सवाल का जवाब जानने के पहले आइये जान लें कि इस स्टडी के तथ्य क्या कहते हैं ? स्टडी के मुताबिक़ 93 फीसदी महिलाएं एक बार पहनने के बाद अंडरवियर को धो देती हैं, लेकिन 18 फीसदी पुरुष बिना धोए एक ही अंडरवियर कई कई बार पहन लेते हैं.

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सवाल है ऐसा क्यूँ ?  इस क्यूँ का जवाब मनोवैज्ञानिक देते हैं उनके मुताबिक़ इसके लिए बचपन में लड़कों और लड़कियों के साथ घर वालों का किया जाने वाला अलग-अलग किस्म का व्यवहार जिम्मेदार है. वास्तव में बचपन के दिनों में लड़कों की तुलना में लड़कियों के कपड़े ज्यादा और जल्दी-जल्दी बदले जाते हैं. इससे लड़कियों में साफ कपड़े पहनने की आदत पड़ जाती है और ऐसी आदतें उम्र बढ़ने के साथ भी बनी रहती हैं. सर्वे में तमाम पुरुषों ने इस बात को कबूला है कि वो एक ही अंडरवियर कई दिन तक पहने रहते हैं और महिलाओं ने पुरुषों की स्वीकारोक्ति पर आश्चर्य दर्शाने के साथ यही कहा है, ‘मर्दों की यह बात जानकार उनसे घिन आती है.’

हालाँकि सफाई का यह मामला सिर्फ चड्डी तक ही नहीं सीमित.कई और भी सर्वे हैं जो यह भी दावा करते हैं कि पुरुष करीब-करीब हर मामले में महिलाओं के मुकाबले गंदे रहते हैं.मसलन पुरुष एक ही बेडशीट को बिना धोए चार हफ्तों तक बड़ी सहजता से इस्तेमाल करते हैं. महिलाएं तीन हफ्तों तक भी एक ही बेडशीट उपयोग में नहीं लाती हैं . इसी तरह मर्दों के वर्किंग डेस्क पर महिलाओं के मुकघबले 10 फीसदी ज्यादा बैक्टीरिया पाए जाते हैं. 78 फीसदी महिलाएं हाथ धोने के लिए साबुन का इस्तेमाल करती हैं, लेकिन 50 फीसदी पुरुष ऐसे ही धो लेते हैं. लेकिन पुरुषों की इन तमाम आदतों में माँ-बाप की भी विशेषकर माँ की भी भूमिका होती है.

दरअसल लड़कियां आमतौर पर पूरी दुनिया में लड़कों की तरह घर के बाहर के खेलों में हिस्सा कम लेती हैं. वे ज्यादातर समय माँ के साथ घर में बिताती हैं, इसलिए उन्हें माँ की तरह ही सफाई की आदत पड़ जाती है साथ ही उनके ज्यादातर समय घर में रहने के कारण वे गंदी भी कम हुआ करती हैं. इसके पीछे एक और बात भी है. वास्तव में लडकियां बचपन से ही अच्छा दिखने की चाहत से भरी होती हैं इसलिए भी बचपन से साफ रहने की कोशिश करती हैं,जबकि पुरुष बचपन से ही लापरवाह होते हैं. उन्हें इस लापरवाही की छूट समाज भी देता है. क्योंकि समाज में लड़कों की ख़ूबसूरती पर ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती जबकि वही समाज सुंदर दिखने वाली लड़कियों को ज्यादा तरजीह देता है.

यह सामाजिक मनोविज्ञान ही है कि महिलाएं यदि शॉर्ट स्कर्ट, टाइट फिटिंग ड्रेस और लो कट टॉप पहनती हैं तो उन्हें अधिक गंभीरता से लिया जाता है ; क्योंकि वे इन ड्रेस में ज्यादा जवान दिखती हैं. बेडफोर्डशायर यूनिवर्सिटी के डॉ. एल्फ्रेडो गाइटन ने 21 से 64 साल की महिलाओं के बीच यह रिसर्च किया और इसे ऐसे ही पाया है. लो कट टॉप, मिनी स्कर्ट और जैकेट पहनी हुई लडकियां और महिलायें सबको भाती हैं.रिसर्च में ये भी सामने आया कि कपड़े बदलते ही महिलाओं का एटीट्यूट बदल जाता है. दरअसल, जब लोग पॉजिटिव लेने लगते हैं तो एटीट्यूट में बदलाव आ जाता है.

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कहने का मतलब साफ रहना और उसे आदत में ढाल लेना जिससे सुंदर भी दिखा जाए इस सबके लिए कोई कुदरती स्वभाव नहीं जिम्मेदार होता बल्कि बहुत सी चीजें मायने रखती हैं. सवाल है फिर महिलाएं पुरुषों के थोड़ा सा गंदा रहने पर आखिर इतना नाक भौं क्यों सिकोड़ती हैं ? सच तो यह है कि महिलाएं अपने पतियों से इस बात पर भी झगड़ा कर बैठती हैं कि उन्होंने अपने गंदे कपड़े वॉशिंग मशीन में डालने की बजाय सोफे पर क्यों रख दिए ? पुरुषों के लिए यह बहुत छोटा मसला है,लेकिन महिलाएं इस बात को भी दिल पर ले लेती हैं.

मनोवैज्ञानिक कहते हैं इसे ऐसे नहीं देखना चाहिए.वास्तव में महिलाएं गंदे कपड़े मशीन में न डालने से नाराज नहीं होतीं, वे तो इस बात से नाराज हो जाती हैं कि आपने उनकी बात नहीं मानी.मतलब यह कि आप उन्हें प्यार नहीं करते. उन्हें पूरी अटेंशन नहीं देते.जी हाँ,सुनकर हैरानी हुई न ! लेकिन सच यही है. कि वे आपकी छोटी सी छोटी बात को भी आपके प्यार न करने से जोड़ लेती हैं.कहने का मतलब दोनों तरफ मामला आदत का नहीं मनोविज्ञान का है.

भूल जाएं कि सरकार आंसू पोंछेगी

देशभर में कोरोना के कारण एक नैगेटिव माहौल है, एक डर है.  मौत से ज्यादा डर मौत से पहले की तड़पन का है, चिकित्सा सुविधाओं के अभावों का है. आमतौर पर जब डर का माहौल होता है, आशा होती है कि सरकार कुछ करेगी, खाली हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठी रहेगी. मगर यहां तो साफ दिख रहा है कि जो सरकार 2014 में जनता की उम्मीदों के बड़े पंखों पर सवार हो कर आई थी वह तो गिद्ध निकली है और मौका ढूंढ़ती है कि जनता की लाशों से कैसे राजनीति की जाए, कैसे उन्हें भुनाया जाए, डर का कैसे लाभ उठाया जाए.

आज हर घर में जो परेशानी है उस का बड़ा बो झ औरतों पर है. वैसे भी दुनिया में जब भी जंग या राजनीतिक उठापटक हुई अंतिम भुगतान औरतों ने किया है. आदमी तो शहीद होते हैं पर अपने पीछे अपने छोड़े खंडहरों को संभालने के लिए औरतों को छोड़ जाते हैं, जो बच्चों की देखभाल और अपने शरीर की अकेले देखभाल के लिए रह जाती हैं.

सोचा गया था कि औरतों को वोट का बराबर का अधिकार मिलेगा तो सरकारें औरतों के बारे में सोचेंगी पर सरकारों ने, शासकों ने, इस तरह का खेल खेला है कि आज कोरोना जैसी आपदा में भी सरकार आंसू पोंछने के लिए कहीं नहीं दिख रही.

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कोरोना के दिनों में सरकार ने अपने हकों या अपनी सुविधाओं में कहीं कोई कमी नहीं की है. देशभर में टैक्स उसी गति से लग रहे हैं और सरकार बारबार बड़े गर्व से कहती है कि लो इस बार फिर जीएसटी का पैसा ज्यादा आया है.

जीएसटी का पैसा ज्यादा आने का अर्थ है लोगों ने उसी कीमत का सामान खरीदने में ज्यादा कर चुकाया, क्योंकि इस देश में कुल उत्पादन तो बढ़ नहीं रहा है. यह अतिरिक्त पैसा किस ने दिया? औरतों ने जिन्होंने और कटौती की.

कोविड के भय के कारण औरतों को घरों में कैद ज्यादा किया गया है. वे ज्यादा नुकसान में हैं जो कमा कर लाती थीं. वे भी जो नहीं लाती थीं. वे भी चारदीवारी में बंद हो कर रह गई हैं और न रिश्तेदारों से मिलबैठ सकती हैं न पड़ोसिनों से.

अगर घर में किसी को कोविड-19 हो जाए तो औरतें ही सब से ज्यादा बो झ ढो रही हैं और वह सरकार जो उन का यह जन्म व अगला सुधारने या मृत्यु के बाद स्वर्ग में स्थान सुरक्षित करने के नाम पर आई थी कहीं नजर नहीं आ रही.

जब दूसरे देशों की सरकारों ने राहत के लिए लोगों के अकाउंटों में पैसा डाला, भारत में पैट्रोल, घरेलू गैस के दाम बढ़े हैं, रोजमर्रा की चीजों पर मिलने वाली छूट कम हुई है, दवाएं महंगी हुई हैं, आय कम हुई है और ये सब सरकार ने किया है.

यह वह सरकार है, जिस ने पश्चिम बंगाल में ताबड़तोड़ चुनावी सभाएं कीं, जिन में प्रधानमंत्री कहते थकते नहीं थे कि जहां तक मेरी नजर जाती है वहां तक लोग ही लोग हैं.

दूसरी जगहों पर 4 जने इकट्ठे हो जाने पर डंडे मारने वाली सरकार ने इस भारी भीड़ को बिना मास्क, गाल से गाल मिला कर बैठने की इजाजत दी जबकि देशभर में कितनी ही जगह पुलिस वालों ने औरतों को भी बाजार से सामान लानेलेजाने के समय मास्क न पहनने पर बुरी तरह लाठियों से पीटा है जो बहुत से वीडियों में कैप्चर किया गया.

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आमतौर पर ‘जनता’ शब्द का इस्तेमाल कर के यह मान लिया जाता है कि सरकारी आतंक को आदमी ही  झेल रहे हैं पर यहां ‘जनता’ का अर्थ अब औरतें ही रह गया है जो अपनी बात केवल रटीरटाई आरती या भजन से कह सकती हैं और किसी काल्पनिक भगवान की प्रार्थना करकर मर जाती हैं.

सदियों से सीताएं और द्रौपदियां दंड  झेलती रही हैं ताकि राम और युधिष्ठिर के अहम की तुष्टि होती रहे. आज हमें इस का बीभत्स रूप दिखने को मिल रहा है और महान शासक अपनी छवि निखारने के लिए नए महल को बनवाने में लगे हैं मानों महल के बाहर कहीं कुछ खराब हो ही नहीं रहा.

सरकारी अंकुश का असली सच

जब से ट्विटर और व्हाट्सऐप पर सरकारी अंकुश की बात  हुई है, लोगों की जो भी मरजी हो इन सोशल मीडिया प्लेटफौर्मों पर बकवास डालने की आदतों पर थोड़ा ठंडा पानी पड़ गया है. हमारे यहां ऐसे भक्तों की कमी नहीं जो अपनी जातिगत श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी को आंख मूंद कर समर्थन कर रहे थे और विरोधियों के बारे में हर तरह की अनापशनाप पोस्ट क्रिएट करने या फौरवर्ड करने में लगे थे. अब यह आधार ठंडा पड़ने लगा है.

सरकारी अंकुश इसलिए लगा है कि अब सरकारी प्रचार की पोल खोली जाने लगी है. कोविड से मरने वालों की गिनती जिस तरह से बढ़ी थी उस से भयभीत हो कर लोगों को पता लगने लगा कि मंदिर और हिंदूमुसलिम करने में जानें जाती हैं क्योंकि सरकार की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं. भक्त तो कम बदले पर जो सम झदार थे उन की पूछ बढ़ने लगी है और उन्हें जवाबी गालियां मिलनी बिलकुल बंद हो गई हैं.

जैसे पहले  झूठ के बोलबाले ने सच को दबा दिया था वैसे ही सच का बोलबाला  झूठ को दबा रहा है और सरकार को यह मंजूर नहीं.

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हमारे धर्मग्रंथ और धार्मिक मान्यताएं  झूठ के महलों पर खड़ी हैं. कोईर् भी धार्मिक कहानी पढ़ लो  झूठ से शुरू होती है और  झूठ पर खत्म होती है और उसे ही आदर्श मान कर सरकार ने  झूठ पर  झूठ बोला जो अब ट्विटर और व्हाट्सऐप पर जम कर परोसा जा रहा है.

ट्विटर ने भाजपा के संबित पात्रा के ट्विट्स को मैनिपुलेटेड कह डाला तो सरकार अब महल्ले की सासों की सरदार बन कर उतर आई है और पढ़ीलिखी बहुओं का मुंह बंद करने की ठान ली है.

‘हमारे रीतिरिवाज तो यही हैं और यही चलेंगे’ की तर्ज पर सरकार भी यही संविधान है और हम ही तय करेंगे कि यह संविधान किस तरह पढ़ा जाएगा. सासें तय करेंगी कि कौन क्या पहनेगा क्योंकि संस्कृति की रक्षा तो उन्हीं के हाथों में है चाहे वे सारे महल्ले में सब के बारे में सच बताने के नाम पर अफवाहें फैलाती रहती हों.

अब देश में एक तरफ कट्टरपंथी सासनुमा सरकार है, तो दूसरी तरफ बहुएं हैं, जो आजादी भी मांग रही हैं और तर्क भी पेश कर रही हैं और दोनों का युद्ध ट्विटर और व्हाट्सऐप की गली के आरपार हो रहा है. आप घूंघट वालियों के साथ हैं या जींस वालियों के साथ?

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ताकि पत्नियों की हैसियत बनी रहे

एक समाजसेवी संस्था के दिल्ली के संभ्रांत इलाके में सर्वे से पता  चला है कि 63% घरेलू कामगारों की नौकरी चली गई है क्योंकि अब मालकिनें कोविड-19 के घर में घुसने के भय से किसी को नहीं आने दे रही हैं. कई जगह तो पूरी सोसायटियों ने बाहरवालियों पर ब्रेक लगा दिया है. सिर्फ बिजली वाले और प्लंबर ही बाहर से इमरजैंसी में बुलाए जा रहे हैं.

इन कामवालियों के लिए ये आफत के दिन हैं, क्योंकि उन का वेतन चाहे जितना भी कम क्यों न हो परिवार के पेट भरने के लिए जरूरी था. इसी वेतन के सहारे लोगों ने बचत कर के छोटा टीवी खरीद लिया, मोबाइल ले लिया, 3 अच्छे कपड़े सिला लिए और बच्चे हैं तो उन्हें साफसुथरे कपड़े पहना कर स्कूल भेज दिया. अब यह आय गायब हो गई है.

मालकिनें बहुत लालची हैं, ऐसा नहीं है. अधिकांश मालकिनों की खुद की इनकम कम हो गई है और उन्हें पिछली बचत से काम चलाना पड़ रहा है. काफी लोगों के व्यापार ठप्प हो गए, नौकरियों की बाढ़ खत्म हो गई और वर्क फ्रौम होम के बावजूद कटौतियां हो गईं क्योंकि व्यवसायों को भारी नुकसान हो रहा है. मालकिनों को खुद घर का काम करना पड़ रहा है और उन्हें कामवालियों की कमी खल रही है.

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एक तरह से इन घरेलू कामवालियों ने घरों की औरतों को निकम्मा बनाया है. 1970 के बाद जब से एकल परिवार ज्यादा बढ़ने लगे घरेलू कामवालियों की जरूरत बेतहाशा बढ़ गई क्योंकि एकल परिवारों में आय का स्तर कुछ ज्यादा बढ़ने लगा. निठल्लों को एकल परिवारों में पनाह नहीं मिलती है. औरतें खुद भी कमाने लगीं और रसोई,  झाड़ूपोंछा कम पढ़ीलिखी कामवालियों पर आ गया पर इस से औरतों की अपनी मांसपेशियां ढुलमुल होने लगीं.

जो औरतें कमाऊ नहीं थीं वे कामवालियों के वेतन के लिए पतियों पर और ज्यादा निर्भर हो गईं. जिस मौजमस्ती के समय को वे आजादी मानती हैं असल में वह उन की सोने की जंजीर है क्योंकि जो भी पैसा कमाऊ पति हाथ पर रखता है, बदले में पूरी आजादी ले लेता है. अगर औरतें ज्यादा धार्मिक बनीं तो इसलिए कि वे मानसिक गुलामी से छटपटाने लगीं और उन्हें लगा कि धर्म प्रवचन उन्हें रास्ता दिखाएंगे.

धर्म के ठेकेदारों ने इस आपदा का लाभ उठाया और औरतों को पतियों के प्रति और ज्यादा समर्पित होने का निर्देश दिया.

पारिवारिक राजनीति में औरत की जगह उस सुषमा स्वराज की तरह हो गई जिस ने मोदी के रहम पर अंतिम साल गुजारे थे और वे विदेश मंत्री की जगह सिर्फ वीजा मंत्री बन कर रह गई थीं.

घरों में पत्नियां बराबरी का स्तर खो कर केवल सिल्क की साड़ी पहने ड्राइंगरूम की सजावटी गुडि़या बन कर रह गईं, जो न हाथपैर चलातीं न मुंह खोलतीं.

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घरेलू कामवालियों ने चूंकि रसोई मुस्तैदी से संभाल ली थी, पतियों को अच्छे खाने, साफ कपड़ों और साफसुथरे घर के लिए भी पत्नी का मुंह नहीं देखना पड़ रहा था. जो राजा की स्थिति पहले रजवाड़ों में रानियों और ठकुराइनों की होती थी वह हर मध्यवर्ग के घर में होने लगी. घरेलू कामवालियों ने एक तरह से पत्नियों की आवश्यकता 50-60% कम कर डाली और घरवालियां घरों में फालतू की चीज बन कर रह गईं.

कोविड-19 ने अगर पाठ पढ़ा दिया कि घर का काम औरतों को ही नहीं, आदमियों व बच्चों को भी मिल कर करना चाहिए और दिन में 1 घंटा यदि इस में लगाना पड़े तो इसे आफत नहीं आनंद सम झा जाए.

पत्नियों की हैसियत तभी रहेगी जब पति को एहसास हो कि उस के बिना जिंदगी अधूरी है, 4 दिन भी नहीं चलेगी. जो पति यह सम झते हैं कि वे पत्नियों को अधिकार भी देते हैं, बराबर का भी सम झते हैं वे ज्यादा सुखी भी रहते हैं. इस सुख में कामवालियों का न होना ज्यादा जरूरी है बशर्ते कि पति भी रसोई में काम करता नजर आए.

कारोबार का हिस्सा बन गई हैं Celebrities को लेकर अफवाहें

– लेडी डाॅक्टर की क्लीनिक से बाहर स्पाॅट हुई मलाईका अरोड़ा, साथ में थे अर्जुन कपूर. शादी के पहले ही खुशखबरी की तैयारी.

– भाजपा के बंगाल में बुरी तरह से हारने के बाद, मिथुन चक्रवती जा रहे हैं ममता बनर्जी के खेमे में.

– भारतीय सिनेमा के महान अभिनेता दिलीप कुमार का निधन. कोरोना से संक्रमित होने पर सांस लेने में हो रही थी तकलीफ.

सोशल मीडिया में वायरल हुईं इन तीन सुर्खियों में आखिर क्या समानता है? बस यही कि ये तीनों अफवाहें हैं, हकीकत नहीं. जी हां, 7 जून 2021 को सायरा बानो को 24 घंटे के अंदर दूसरी बार ट्वीट करके बताना पड़ा कि उनके पति यूसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार की तबीयत स्थिर है, डाॅक्टरों का कहना है एक-दो दिन में अस्पताल से छुट्टी मिल जायेगी. लेकिन फेसबुक से लेकर ट्वीटर और यूट्यूब में तो दिलीप कुमार को श्रद्धांजलियां देने की होड़ लगी थी. यहां तक कि लोगों ने तो कंधों में जाती हुई उस अर्थी का फोटो भी डाला था, जिसे दिलीप कुमार की बतायी जा रही थी.

ये सचमुच बेशर्मी की हद है. पिछले चार पांच सालों मं दर्जनों बार रह रहकर इस तरह की अफवाहें दिलीप कुमार की मौत को लेकर उड़ चुकी हैं. दिलीप कुमार की पत्नी सायरा बानो कहती हैं, ‘अब तो साहब की मौत को लेकर अफवाह एक रूटीन का हिस्सा बन गई है.’ हर बार इस तरह की अफवाह के बाद सायरा बानो को दिलीप कुमार के पर्सनल ट्वीटर हैंडल से इसका खंडन करना पड़ता है. लेकिन इन खंडनों के बाद आजतक एक भी अफवाह वीर सामने आकर शर्मिंदा होने और माफी मांगने की हिम्मत नहीं कर सका. बार बार दिलीप कुमार की मौत की अफवाह उड़ाने वालों में इतनी गैरत नहीं है कि वो कभी सामने आकर कहें कि उनसे गलती हो गई. जरा कल्पना करिये एक ऐसे वक्त में जब हर तरफ कोरोना महामारी का तांडव व्याप्त हो, हर कोई दहशत मंे हो, उस समय एक ऐसे व्यक्ति के मरने की अफवाह जो पहले ही 99 साल का हो और सालों से बिस्तर में हों कितनी बड़ी अमानवीयता है. क्योंकि दिलीप कुमार की सेहत जिस मोड़ पर है, उसमें वह कभी भी इस त्रासदी का शिकार तो हो ही सकते हैं, लेकिन बार बार जिस तरह उनकी मौत के अफवाह उड़ायी जा रही है, उससे जिस दिन वह वाकई नहीं रहेंगे, उनके चाहने वालों को काफी समय तक इसका यकीन ही नहीं होगा.

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लेकिन अफवाह उड़ाने वालों को इससे क्या फर्क पड़ता है? वे न तो अपनी इन हरकतों पर कभी शर्माते हैं और न ही इन हरकतों से तौबा ही करते हैं. …और वे ऐसा किसी कमअक्ली या बेवकूफी के कारण नहीं करते, वे बार बार ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि इससे उनके कई उल्लू सीधे होते हैं. जी हां, इस लाइक और वाॅच आवर के दबाव वाले दौर में ये हरकतें महज मजा लेने की हरकतें भर नहीं है. इनके पीछे भरपूर मकसद है. वास्तव में आज की तारीख मंे अफवाहें भी कारोबार बन गई हैं. सोशल मीडिया ऐसी ही सनसनियों को भुनाने का कारोबार करता है. इसलिए ये अफवाहें नटखट हरकतें नहीं होतीं, इन्हें बकायदा सोच विचारकर उड़ाया जाता है, फैलाया जाता है. अफवाह उड़ाने वाले बहुत चालाक लोग हैं. वे जानते हैं हिंदुस्तान में लोग जिसे प्यार करते हैं, खास तौरपर अपने हीरों से वे उन्हें सामान्य नहीं मानते. खास मानते हैं. इसलिए वे उन्हें लेकर हमेशा एक्स्ट्रीम पर सोचते हैं. जो लोग दिलीप कुमार, धर्मेंद्र, मनोज कुमार या अमिताभ बच्चन की रह रहकर मौत की झूठी खबरें उड़ाते हैं, वे ऐसे लोग नहीं हैं, जो इन महान कलाकारों की मौत से कभी वाकई बहुत दुखी हों. सचमुच मंे जब इन कलाकारों की मौत होगी तो इन अफवाह उड़ाने वालों को इससे कतई सदमा नहीं लगेगा.

सच्चाई यह है कि अफवाहें उड़ाने वाले ये तीन किस्म के लोग होते हैं, एक वे जो मानसिक रोगी होते हैं. दूसरे वे जो जुगुप्स है और यह देखना चाहते हैं कि वाकई किसी बड़ी सेलिब्रिटी के न रहने पर लोग किस तरह दुखी होते हैं और तीसरे वे लोग हैं, जो बड़ी चालाकी से आम भारतीयों में सेलिब्रिटीज को लेकर मौजूद दीवानगी को अपने लाइक और वाॅच आवर के लिए भुनाना चाहते हैं यानी ये तीसरे लोग इन अफवाहों का कारोबार करते हैं. ये सचमुच खौफनाक है. क्योंकि ये अफवाहें उड़ाने वाले चाहते हैं कि उनकी इन अफवाहों के चक्रव्यूह में फंसकर सेलिब्रिटीज के फैन उनके कारोबारी दिमाग की सफलता बन जाए. ये चाहते हैं कि इनके द्वारा इन सेलिब्रिटीज के प्रस्तुत दुख को सैकड़ों लोग देखें, सुनें, लाइक करें और उनके व्यूवर और वाॅच टाइम को बढ़ाएं.

जो व्यक्ति वास्तव में इन सेलिब्रिटीज का सचमुच फैन होगा, वह उनके दुख, मौत या उनके साथ घटे किसी हादसे को सनसनी की चाश्नी में लपेटकर कारोबार नहीं करेगा. ऐसा तो वही लोग कर सकते हैं, जो किसी की मौत से दुखी नहीं होते, जिन्हें किसी पर टूटे दुखों के पहाड़ से कोई फर्क नहीं पड़ता. आज की तारीख में इनमें ज्यादातर कच्चे पक्के यूट्यूबर हैं. ये इन अफवाहों की भरपूर फसल काटना चाहते हैं. वास्तव में आज के दौर मंे अफवाहें चाहे बाॅलीवुड के सेलिब्रिटीज को लेकर की जाएं या किसी बड़े नेता के बारे में झूठी खबरें फैलायी जाएं, इन सबके पीछे कहीं न कहीं कमायी का लालच होता है. ऐसे लोग किसी सेलिब्रिटीज के फैन तो हो नहीं सकते, हत्यारे होते हैं. भले ये किसी जीते जी इंसान की हत्या न करते हों, लेकिन अपनी इस हरकत के जरिये ये इनकी छवि हत्या तो करते ही हैं.

दरअसल आज की तारीख में हर कोई मौके का फायदा उठाना चाहता है. चाहे इसके लिए उसे झूठी अफवाह ही क्यों न उड़ानी पड़े. जिन लोगों की सेलिब्रिटी वैल्यू है, चाहे जिस वजह से उन्हें अर्जित किया हो, ऐसे काईंया लोग इनकी सेलिब्रिटी को अपने कारोबार में भुनाना चाहते हैं. इस वजह से ये कभी किसी नजायज संबंध की अफवाह उड़ा देंगे, तो कभी मरने या कभी कोई ऐसी बात जो चैंकाने वाली होते हुए भी असली लगेगी, उसके जरिये लोगों का ध्यान खींच लेते हैं. कुछ साल पहले अमिताभ बच्चन की एक कार दुर्घटना मंे मौत की अफवाह उड़ायी गई. ये अफवाह उड़ाने वालों ने बकायदा एक जबरदस्त एक्सीडेंट की फोटो भी सोशल मीडिया मंे वायरल कर दी, जिसमें कार को चकनाचूर हुआ दिखाया गया. इस अफवाह को सुनकर अमिताभ के करोड़ों फैंस सोशल मीडिया में अमिताभ बच्चन को श्रंद्धाजलि अर्पित करने लगे थे. कुछ घंटों में ही कई लाख श्रंद्धाजलियां अर्पित कर दी गईं, तब तक अमिताभ खुद सार्वजनिक रूप से सामने आकर इसका खंडन किया था.

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इसी तरह पिछले दिनों इलियाना डिक्रूज के पहले प्रेग्नेट और फिर अर्बोेशन की अफवाह उड़ायी गई. इससे इलियाना इतने डिप्रेशन में चली गईं कि वो कई दिनों तक यही नहीं समझ पायी कि इसका विरोध कैसे करे? अंततः वे सोशल मीडिया में यह कहते हुए सामने आयीं कि अफवाह उड़ाने वालों के लिए अफसोस कि मैं जिंदा हूं. बाॅलीवुड मंे जिस किसी सेलिब्रिटी को बहुत ज्यादा अफवाहों का सामना करना पड़ा है, उनमें एक कटरीना कैफ भी हैं. उन्हें लेकर एक से एक रचनात्मक अफवाहें उड़ती रहती हैं. कोई कहता है कि वो पहले लड़का थीं, किसी ने यह अफवाह उड़ायी कि पहला उनका सरनेम टुरकुट्टे था और एक अफवाह ये भी कि कटरीना भारत में नकली पासपोर्ट के साथ छुपकर रह रही हैं. अब भला बताइये कटरीना किस किस का और कैसे जवाब दें. अजय देवगन और काजोल की जोड़ी तमाम लोगों बेमेल लगती है. इनमें किसी किस्म का झगड़ा नहीं होता. लेकिन पिछले साल अफवाहबाजों ने यहां तक खबर उड़ा दी कि काजोल ने अजय से तलाक ले लिया है और वह बच्चों के साथ अलग रह रही हैं. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अफवाहबाज क्या नहीं करते.

क्या बच्चों का भविष्य खतरे में है, जानें एक्सपर्ट की राय

मुंबई की एक पॉश एरिया की बिल्डिंग में रहने वाला 10 साल का सूरज, जो कक्षा 4 में पढता है, दिन-भर खेलना चाहता है, उसे ऑनलाइन पढाई पसंद नहीं. उसकी माँ नीता हमेशा सूरज को लेकर परेशान रहती है और स्कूल खुलने के बारें में सोचती है, क्योंकि वह टीवी के आगे या कम्प्यूटर के आगे बैठना पसंद करता है और तब केवल गेम खेलना या कार्टून देखना चाहता है. उसकी माँ नीता का कहना है कि जब से कोरोना संक्रमण शुरू हुआ है. तब से लेकर आजतक स्कूल नहीं खुले, बच्चे को स्कूल जाने की आदत ख़त्म हो गयी है और ऑनलाइन परीक्षा जैसा भी दे, उन्हें पास कर दिया जाता है. ये बात सूरज को भी पता है और वह इसका फायदा उठा रहा है.

सूरज ही नहीं कॉलेज जाने वाले मिहिर की भी ऐसी ही हालत है. बी,कॉम फाइनल इयर का  छात्र मिहिर पढाई ख़त्म होने के बाद कैंपस प्लेसमेंट से कोई नौकरी कर, कुछ पैसे जोड़कर, एम बी ए की एजुकेशन के लिए विदेश जाना चाहता था, लेकिन कोरोना ने उसकी इच्छा पर पानी फेर दिया है. उसका डेढ़ साल पूरा ख़राब हो गया. परीक्षा भी ऑनलाइन हो रहा है, जिसमें सभी को अच्छे अंक मिल रहे है. प्रतियोगिता की भावना अब किसी में नहीं है. घर पर रहकर उसे पढने में मन नहीं लगता और जब वह इस अनिश्चित लॉकडाउन और महामारी से देश की लोगों की हालत देखता है, तो वह सबकुछ ठीक होने के बारें में सोचता रहता है, क्योंकि इस महामारी के बाद क्या उसे नौकरी मिलेगी? क्या ऑनलाइन परीक्षा का परिणाम विदेश में मान्य होगा? ऐसी कई बातें वह अपने दोस्तों से बिल्डिंग के बेसमेंट में खड़े होकर चर्चा करता रहता है.

अनिश्चित भविष्य  

असल में कोविड 19 महामारी ने पूरे विश्व में कोहराम मचा दिया है, खासकर हमारे देश में इसका प्रभाव लोगों के सावधान न रहने, टीकाकरण की समुचित व्यवस्था का न होने और संक्रमित लोगों की सही आंकड़ों के न मिलने से बहुत अधिक है.  संक्रमितों कि संख्या और मृत्यु दर के बढ़ने की वजह से सभी डरे हुए है, ऐसे में बच्चों की शिक्षा या भविष्य के बारें में सोच पाना संभव नहीं.  कोविड महामारी की वजह से पिछले डेढ़ साल से जितनी क्षति छात्रों की शिक्षा को लेकर हुई है, उसका अंदाजा लगाना मुश्किल है. यूनिसेफ के अनुसार महामारी और गरीबी अधिक होने की वजह से पूरी एक पीढ़ी का भविष्य खतरे में है. ऐसे में इस दिशा में सही कदम उठाने की जरुरत हर देश को है, क्योंकि कोविड 19 दुनिया भर में बच्चों के स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा के लिए अपरिवर्तनीय नुकसान का कारण बन सकती है. इस बारें में ‘विब्ग्योर ग्रुप ऑफ़ स्कूल’ की ‘वाईस चेयरपर्सन’ ‘कविता सहाय केरावाला’ कहती है कि केवल शिक्षा ही नहीं हर क्षेत्र में कोविड महामारी का प्रभाव पड़ा है. भविष्य के बारें में आज किसी को कुछ पता नहीं है, क्योंकि ऐसी महामारी 100 साल बाद ही आती है. अभी सब स्थिर सा हो गया है, ऐसे में बच्चों की शिक्षा, कैरियर, सेटलमेंट आदि के बारें में पेरेंट्स का सोचना सही है.

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लायक बनने की सलाह 

इसके आगे कविता सहाय कहती है कि अधिकतर पेरेंट्स बच्चों को पढाई कर लायक बनने की सलाह देते आये है. अब इस लायक शब्द पर प्रश्न चिह्न लग चुका है. आगे क्या होगा, इसकी चिंता सभी को है. इसमें अच्छी बात यह है कि आज के बच्चे तकनीक को जल्दी समझते है. ऑनलाइन क्लासेस भी कमोवेश कर, परीक्षा दे देते है. मैं आज भी बच्चों से तकनीक की जानकारी लेती रहती हूँ. तकनीक की ये जानकारी आज बच्चों में है और ये एक प्लस पॉइंट है. ये जानकारी इन्हें किसी भी परिस्थिति में इन्हें आगे ले जायेगी. ये सही है कि स्कूल में शिक्षा के अलावा सामाजिक, नैतिक आदि बच्चों को सिखाई जाती है. इसमें रिश्तों की अहमियत, अनुशासन में रहना, लीडरशिप क्वालिटी का विकसित होना आदि ऐसी कई सारी बातें ग्रुप में सीखते है, जो घर पर नहीं हो सकता. उसका प्रभाव बच्चों पर हो रहा है.

बच्चों में है अधिक तकनीकी ज्ञान 

हर जगह बच्चों में तकनिकी ज्ञान अधिक है, क्योंकि आज सबके पास स्मार्ट मोबाइल है. कविता का आगे कहना है कि अगले 3 या 4 महीने में स्कूल अवश्य खुलेगा, तब तक पेरेंट्स की जिम्मेदारी अधिक रहेगी. हमारे स्कूल में करिकुलम हम तैयार कर देते है, टीचर्स को कुछ करना नहीं पड़ता, इसलिए जितने भी स्कूल इस ग्रुप में है, सब स्कूल और कक्षाओं में पढाई एक जैसी होती है. ऑनलाइन शिक्षा होने पर सभी स्कूल टीचर्स को रातों-रात खुद को तैयार करना पड़ा है, जबकि टीचर्स की आदत बच्चों को अपने सामने बैठाकर पढ़ाने की होती है. पिछले साल लॉकडाउन के समय गर्मी की छुट्टी में पूरा करिकुलम तैयार कर बच्चों को पढ़ाने का मौका मिला. ऑनलाइन पढाई के लिए बच्चों से अधिक टीचर्स को मेहनत करनी पड़ती है. छोटे बच्चों के लिए पेरेंट्स को साथ लेना पड़ता है, क्योंकि बच्चे थोड़ी देर बैठकर उठ जाते है, ऐसे में पेरेंट्स को गाइड करना पड़ता है. ये सही है कि मेरे स्कूल में एक खास वर्ग के बच्चे पढ़ते है, लेकिन सरकारी स्कूलों और गांव में पढने वाले बच्चों को काफी समस्या हो रही है. वहां चुनौती है, पर अगले 6 महीने में सब अच्छा हो जाएगा. किसी भी बच्चे का नुकसान नहीं होगा, क्योंकि आज के बच्चे 4 कदम आगे है.

पहली बार स्कूल जाने वाले बच्चों के माता-पिता को वैसे ही काम अधिक होता है, इस महामारी में पेरेंट्स का योगदान बच्चों के विकास में बहुत अधिक है और आज के बच्चे भी प्रतिभावान है, चिंता की कोई बात नहीं है. स्कूल खुलते ही कुछ दिनों में सभी बच्चे फिर से पढाई शुरू कर देंगे.

प्रभाव परीक्षा रद्द करने का 

कक्षा 10 और कक्षा 12 की परीक्षा रुक गयी है, इसका प्रभाव बच्चों के भविष्य पर कैसा होगा?पूछे जाने पर कविता सहाय बताती है कि अभी किसी को पता नहीं, क्योंकि परीक्षा दिए बिना उनको पास करना और आगे कॉलेज में एडमिशन का मिलना कैसे होगा. ये चिंता का विषय है. असल में  बच्चों के परफोर्मेंस की बात माने, तो पिछले 3 साल में टीचर्स ने हमेशा कम मार्क्स दिया है, ताकि उनका बोर्ड अच्छा हो और बच्चे पढ़े. ये एक तरीके का मनोवैज्ञानिक दबाव छात्रों पर दिया जाता रहा है, इसलिए जो भी नंबर मिले है, वह कम ही होते है, ऐसे में बच्चे का नंबर बोर्ड में देने से उन्हें कम नंबर मिलेगा. बच्चे भी इसे लेकर बहुत कंफ्यूज्ड है. मेरा सुझाव है कि कॉलेज में एडमिशन के लिए हर एक बच्चे की प्रवेश परीक्षा और इंटरव्यू होना जरुरी है, ताकि सही बच्चे एडमिशन ले सकें. किसी स्ट्रीम को पकड़ने के लिए हमेशा प्रवेश परीक्षा होती है. वैसा ही नार्मल स्नातक के लिए भी शुरू होना चाहिए.

वोकेशनल ट्रेनिंग है जरुरी 

महामारी की वजह से सभी बच्चों को पास करवा दिया जाएगा और कुछ बच्चे इस बात से खुश है, क्योंकि उन्हें परीक्षा दिए बिना ही उत्तीर्ण होने का मौका मिल रहा है. जबकि कुछ बच्चों के परीक्षा की तैयारी काम नहीं आई. कविता आगे कहती है कि कक्षा 12 की पढाई पूरी करने के बाद किसी भी छात्र को आगे की पढाई का पता चल जाता है. कोरोना उनके कैरियर पर अधिक प्रभाव नहीं डाल सकता, क्योंकि कैरियर केवल डिग्री के अलावा बहुत सारी चीजों को शामिल कर होता है. न्यू एजुकेशन पालिसी आने पर शिक्षा के साथ-साथ अब वोकेशनल ट्रेनिंग को भी शामिल किया जायेगा, जिससे बच्चों को नौकरी मिलना आसान होगा. इसके अलावा बिना परीक्षा के मार्क्स देने पर एक ही मार्क्स के कई बच्चे होंगे और मुश्किल नार्मल स्नातक के लिए एडमिशन में होगी.

एडमिशन की होगी होड़

कोचिंग क्लासेस में जाने वाले कक्षा 12 के बच्चे स्कूल नहीं जाते, उनका नाम केवल रजिस्टर में होता है, ऐसे छात्र स्कूल की किसी भी परीक्षा में शामिल नहीं होते,  ऐसे छात्रों को आगे कुछ समस्या होगी या नहीं,  पूछने पर कविता कहती है कि जो बच्चे मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रतियोगी परीक्षा के लिए पढ़ रहे है, उनकी प्रवेश परीक्षा होगी और उन्हें कक्षा 12 के अंक का खास प्रभाव नहीं पड़ेगा. केवल स्नातक करने वाले बच्चे को ही एडमिशन में अधिक परेशानी होगी. मेरा सुझाव ये भी है कि अगर किसी को कॉलेज में किसी छात्र को एडमिशन नहीं मिलता है, तो वह वोकेशनल ट्रेनिंग के लिए जा सकता है. इससे उन्हें आगे मंजिल मिल जाएगी.

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प्रभाव ऑनलाइन स्टडी का 

कोविड महामारी में ऑनलाइन स्टडी का बच्चों के मानसिक विकास पर बहुत प्रभाव पड़ा है, क्योंकि पिछले साल से स्कूल, कॉलेज खुले नहीं है, ऐसे में बच्चे घर में कैद है. इस बारें में मुंबई की सैफी हॉस्पिटल के मनोचिकित्सक डॉ. होज़ेफा भिंडरवाला कहते है कि पिछले साल की तरह इस बार का एकेडेमिक सेशन जून 2021 से मार्च 2022 तक ऐसे ही बंद रहने की उम्मीद है, क्योंकि कोविड महामारी में बढ़त 3 गुना हुई है. दादागिरी कर इससे निजात नहीं पाया जा सकता. इसे काबू में लाने के लिए  समय देना पड़ेगा. सबको वैक्सीन लगाना पड़ेगा. पढाई की प्राथमिकता माता-पिता के लिए होती है, बच्चों को नहीं. इसे पूरे विश्व में मनोवैज्ञानिक मानते है. रिसर्च में भी इसी बात की पुष्टि हुई है.

दरअसल 17 बर्ष तक बच्चों में 3 प्राथमिकताएं होती है.

  • खेलना, जिसमें वे जल्दी सब सीख जाते है और इस लॉक डाउन में स्कूल में जाकर नैचुरल खेल, दोस्तों के साथ मिलना, घर से स्कूल जाना और स्कूल से घर आना आदि से उन्हें जो अनुभव मिलते है, उससे वे वंचित हो रहे है और उसका असर बच्चों पर हो रहा है.
  • इसके अलावा पेरेंट्स को पूरा दिन उन्हें देखना पड़ रहा है. पहले माँ बच्चे के पीछे दूध का गिलास लेकर सुबह और शाम को दौड़ती थी, अब दोपहर को भी दौड़ती है. इससे बच्चे का घर में रहना कठिन हो रहा है. इससे बच्चे से लेकर बड़े हर कोई परेशान है. इसे समस्या या मौका कुछ भी समझा जा सकता है.
  • कुछ लोगों ने पहले लॉकडाउन में इसे मुश्किल समझा, लेकिन अभी वही लोग इस लॉकडाउन को अच्छा समझ रहे है और पेरेंट्स का अपने बच्चे के प्रति व्यवहार में परिवर्तन देखने को मिल रहा है, बच्चे भी पेरेंट्स को सही समझ रहे है.

नहीं मिल रही आज़ादी   

इसके आगे डॉक्टर होज़ेफा कहते है कि बच्चों को फ्रीडम नहीं मिल रहा है , जिससे वे चिडचिडे हो रहे है, इसका मानसिक के अलावा फिजिकल अवस्था पर भी बहुत प्रभाव पड़ रहा है. वे मोटापे के शिकार हो रहे है. इसके अलावा बच्चे टेक्नोसेवी भी अधिक हो रहे है. जिसे वे 3 साल की उम्र में सीखते थे, उससे अभी ही परिचित हो जा रहे है. पूरी दुनिया भी तकनीक की तरफ ही जा रही थी, पेंडेमिक ने इसे और उसके अधीन बना दिया है. इससे बच्चों को सामाजिक गतिविधियों में रहना कम हो चुका है. मानसिक विकास के लिए सामाजिक व्यवहार की जानकारी होना बहुत जरुरी है.

प्रभाव इनिशिएटिव और इंडस्ट्री पर 

ऐसा देखा गया है कि एक साल से कम उम्र के बच्चा पेरेंट्स पर भरोषा करना सीखता है, उन्हें पता है कि भूख लगने पर खाना, मल और पिशाब होने पर नैपी बदले जायेंगे. एक साल के बाद बच्चे में ऑटोनोमी आती है, वे थोड़ी इंडिपेंडेंट हो जाते है. यहाँ तक बच्चे घर में रहे तो मुश्किल नहीं, लेकिन 4 से 8 साल में उनके अंदर इनिशिएटिव का विकास होता है, जिससे उनके अंदर गिल्ट होता है, 8 से 12 साल में इंडस्ट्री का विकास यानि खुद कुछ करने के बारें में बच्चा सोचने लगता है. इनिशिएटिव और इंडस्ट्री पर पेंड़ेमिक का प्रभाव अधिक पड़ रहा है. बाहर जाकर पढने और घर से पढाई करने में बहुत अंतर होता है.

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इलास्टिक की तरह युवा पीढ़ी  

डॉक्टर चिंतित होकर कहते है कि बढती युवा पीढ़ी इलास्टिक की तरह है और वे आसानी से सब सम्हाल लेती है, लेकिन मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढाई करने वाले छात्र, जिन्हें लैब की जरुरत होती है, उन्हें एक्सपेरिमेंट सबके साथ करना जरुरी होता है, उन बच्चों का एक साल व्यर्थ हो गया. अध्यापक ऑनलाइन कितनी भी पढाई कराये, लेकिन मेडिकल के छात्रों को सेकंड इयर में रोगी के साथ बात कर निरिक्षण करना होता है और ये उसे खो रहे है. मैं उन बच्चों के लिए अधिक फिक्रमंद हूँ. कोविड अगर 3 से 4 साल चला और लोग वर्क फ्रॉम होम या ‘टीच फ्रॉम होम’ कर रहे है, तो अगला बेचारा डॉक्टर बिना प्रैक्टिकल ज्ञान के अंधे व्यक्ति की तरह होगा.

पेरेंट्स के लिए कुछ सुझाव निम्न है,

  • इस समय को वरदान समझे, क्योंकि परिवार के साथ रहने और बच्चों के साथ समय बिताने का इससे सुनहरा मौका नहीं मिलेगा,
  • खुद विहैवियर के द्वारा बच्चों के लिए उदहारण सेट करें,
  • बच्चे की परेशानी को सुनने का प्रयास अवश्य करें,   .
  • पेरेंट्स खुद हेल्दी हैबिट्स को विकसित करें.

मैं अपने सपने को नहीं छोड़ सकता – राजीव मित्रा

 (संगीतकार, गायक, प्रोड्यूसर)

धीरज और लगन ये अगर किसी में हो तो वह व्यक्ति अपनी मंजिल को पा लेता है, ऐसा ही कुछ कर दिखाया है, म्यूजिक कंपोजर, गायक और प्रोड्यूसर राजीव मित्रा ने, जिन्होंने 20 साल की अथक प्रयास के बाद हिंदी वेब सीरीज7 कदम के लिए संगीत दिया, जिसे श्रेया घोषाल, जावेद अली और शफाकत अमानत अली ने गाया है. वेब सीरीज रिलीज हो चुकी है और राजीव को काफी तारीफे मिल रही है. उत्तरी बंगाल के शहर कूचबिहार के राजीव की  संघर्षपूर्ण जीवन में साथ दिया है, उनकी पत्नी रोनिता मित्रा, बेटा आकाश मित्रा और बेटी मोहना मित्रा ने.

मिली प्रेरणा

संगीत की प्रेरणा के बारें में पूछे जाने पर राजीवकहते है कि मैं नार्थ बंगाल के कूचबिहार का शहर दिनहाटा से हूं. मेरी पढाई कूचबिहार में हुई, लेकिन मुझे शुरू से ही हिंदी गानों और फिल्में देखने का शौक था. हालाँकि बंगाल में हिंदी गाना सुनने पर लोग मुझे बांग्ला संस्कृति की कम जानकार कहकर ताना भी मारते थे,पर मेरे पेरेंट्स ने मुझे हर काम की आज़ादी दी है. कूचबिहार में मैंने लता मंगेशकर, आशा भोसले, किशोर कुमार, अमित कुमार आदि सभी की लाइव शो देखा है. पहली बार मंच पर भी मैं महेंद्र कपूर का हाथ पकड़कर ही पहुंचा था. कलाकार को सम्मान हर जगह मिलता है और मैं उसे पाने के लिए आर्टिस्ट बनना चाहता था. इसके अलावा मेरे पिता संगीत के शौक़ीन थे और कई जगह गाया भी करते थे.  84 साल की उम्र में आज भी गाते है. वही से मुझे संगीत की प्रेरणा मिली. पहले छोटा मंच और बाद में बड़े मंच पर गाना गाकर मैं पोपुलर हुआ. मैंने अपना म्यूजिक बैण्ड भी बनाया था और जलपाईगुड़ी से गौहाटी तक शो करने लगा. बप्पी लहड़ी के साथ मैंने एक शो किया था और उन्होंने मुझसे मिलकर मुंबई आने की सलाह दी, पर वे मुझे किसी प्रकार सहायता नहीं कर पायेंगे, ये भी साफ़ कर दिया.

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आसान नहीं थे रास्ते

राजीव बंगाल में लाइव शो करते-करते थक चुके थे और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अपनी साख जमाना चाहते थे. वे कहते है कि मैं आज से लगभग 21 साल पहले मैं परिवार के साथ मुंबई आया.यहाँ आने पर संगीत के रास्ते आसान नहीं दिखे. यहाँ मुझे बहुत कुछ सीखना है और उसे सीखकर ही मैं आगे बढ़ सकता हूं. इस दौरान पत्नी का साथ हमेशा रहा.शुरू में मुंबई आकर मैं लाइव शो करना चाहता था, लेकिन यहाँ पार्टीज में ही गानों के शो हुआ करता है, जिसकी जानकारी मुझे नहीं थी. मैं पार्टी में गाना नहीं गा सकता. कुछ क्रिएट करने की इच्छा हुई और मैंने धुन बनाने की दिशा में काम करना शुरू कर दिया और साथ में विज्ञापनों के जिंगल्स किये. कई गानों के रिमिक्स भी गाया. दुर्गा पूजा पर बंगाल जाकर  स्टेज शो कर पैसा लेकर आता था, इससे घर गृहस्थी चलती रही. हर बार मेरा संघर्ष मुंबई आकर फिर से शुरू हो जाता था. मेरी पत्नी ने कोशिश करमुंबई की एक बांग्ला चैनेल में प्रोग्रामिंग हेड का काम शुरू किया. मैंने भी कई सालों तक सीरियल में बैकग्राउंड म्यूजिक दिया, लेकिन इसमें रातभर जागकर काम करना पड़ता था और उस पैसे से परिवार चलता था. इसके अलावा एड फिल्मों के गाने भी तैयार किये. आज से 5 साल पहले मैंने संगीत की धुन बनाना शुरू किया.

आखिर मिला मौका

जहाँ भी राजीव जाते काम नहीं बन पाता था. सीरियल के बैकग्राउंड संगीत देने की वजह से टीवी में अच्छी पहचान हो गयी थी, पर उनका सपना फिल्मों में संगीत देने का रहा. राजीव कहते है कि एक दिन मेरे एक दोस्त ने मुझे वेब सीरीज 7 कदम की म्यूजिक देने के लिए फोन किया. मैं उसी रात इरोज के ऑफिस पहुंचा और3 गानों का कॉन्ट्रैक्ट मिला. उसे मैंने अगले दिन ही दे दिया. उनको मेरा काम पसंद आया, क्योंकि इस फिल्म में मैंने स्क्रिप्ट के आधार पर गाने दिए है, जो पहले होता था. मैं हमेशा एक अच्छी धुन बनाने की कोशिश करता हूं.मुझे ख़ुशी है कि 7 कदमवेब सीरीज में संगीत कोसभी ने पसंद किया.

मिला सहयोग परिवार का

राजीव को निराशा तब हुई जब उनकी वेब सीरीज कई वजह से रिलीज नहीं हो पायी. उस समय परिवार का सहयोग ही उनके काम आया. धीरज धरने के बाद आखिरकार वेब सीरीज ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज हो गयी.राजीव का बेटा भी उनके साथ संगीत की दुनिया में काम कर रहा है. राजीव हँसते हुए कहते है कि मेरा गाना किसी दिन मैं रास्ते पर जाते हुए रेडियो पर बजता हुआ सुन सकूँ और यह अभी तक नहीं हुआ है. मैं संघर्ष इसके लिए करता रहूंगा, क्योंकि कठिन समय में भी मैंने अपने सपनों को नहीं छोड़ा, जिसे कूचबिहार से मुंबई ले आया हूं. मुश्किल समय में मैं अपने परिवार का सहयोग लेता हूं.

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रियलिस्टिक फिल्मों का है दौर

राजीव आगे कहते है कि संगीत अस्पताल से लेकर हर जगह पर चाहिए. रियलिस्टिक फिल्मों में भी भाव होते है और उसे दिखाने के लिए संगीत जरुरी होता है.  फिल्म ‘विकी डोनर’ रियलिस्टिक फिल्म होते हुए भी भाव को सजीव करने के लिए संगीत डाले गए.इसके अलावा पहले किसी गाने में 3 से 4 अंतरा होता था, अब एक या दो अंतरे में ही गाना ख़त्म हो जाता है. गानों में पुराना और नया कुछ नहीं होता. लोग अभी भी मोहम्मद रफ़ी, किशोर कुमार के गाने सुनते है. हर व्यक्ति अपने हिसाब से गाना सुनता है. कोविड महामारी और लॉकडाउन में मैं परिवार के साथ समय बिता रहा हूं. समय के अभाव में पहले गिटार 2 घंटे बजा रहा था,अब खुद की प्रोग्रेस  के लिए 4 घंटे बजाऊंगा. आज सभी लोग डिप्रेशन में है, कोई खुश नहीं है, सभी डरे हुए है. मैं अब एक अच्छी धुन बना रहा हूं, जिसे सभी घर पर बैठकर सुने और तनावमुक्त हो जाएँ.

धर्म से ही है लैंगिक असमानता

हमारा समाज दोहरे मानदंड का चैंपियन है. यहां कभी औरत को छलकपट से मर्द को अपने वश में करने वाली बना दिया जाता है तो कभी एक मजबूत, बलवान, खुशमिजाज मर्द को अवसादग्रस्त, कमजोर शख्स बना कर दिखाने वाली. सदियों से चली आ रही विचहंट की प्रक्रिया, जिस में हर बुराई, हर आघात, यहां तक कि प्राकृतिक आपदा के लिए भी किसी न किसी औरत को दोषी ठहरा कर उस की बली दे दी जाती रही है, कभी उसे नंगा कर के पूरे गांव में घुमाया जाता है, तो कभी चुड़ैल बता कर पीटपीट कर उस की हत्या कर दी जाती है.

क्या आप ने कभी समाज में किसी पुरुष को ऐसे कारणों के लिए इस तरह प्रताडि़त होते सुना है? गलती किसी की भी हो, दोष औरत के सिर ही क्यों?

हमारा समाज जैंडर लिंगभेद में बहुत पिछड़ा हुआ है. विकसित देश स्त्रियों को केवल औरत न मान कर, मर्द की तरह एक इंसान मानते हैं. यही कारण है कि महिलाओं को काफी हद तक वे सभी अधिकार मिले हुए हैं, जो वहां के समाज में पुरुषों को मिले हुए हैं. रेप हो जाने पर वहां औरत को एक पीडि़ता की तरह देखा जाता है, न कि उसी की गलती निकालने की कोशिश की जाती है. हमारा समाज और उस में गुंथा हुआ धर्म अकसर औरत को ही उस के ऊपर बीती व्यथा का जिम्मेदार ठहराता है.

क्या यह सही है

कितनी बार खाप पंचायतें, नेतागण, महल्ले के लोग, यहां तक कि औरतें खुद पीडि़ता के कपड़े, उस के अंधेरा होने पर अकेले बाहर जाने, सुनसान रास्ते पर जाने या फिर उस के चालचलन को अपराध का कारण सिद्ध करने लगती हैं. रेप जैसे घिनौने अपराध पर हम अपराधियों की गलती के पीछे पीडि़ता की तरफ से हुई लापरवाही को ढूंढ़ने लगते हैं. क्या यह सही है?

पहली बात तो यह कि लड़कों की तरह लड़कियों को भी बाहर आनेजाने, देर रात घर से बाहर होने, नौकरी करने, पार्टी करने या फिर दोस्तों के साथ आनंद उठाने का अधिकार होना चाहिए, क्योंकि लड़कियां भी इस समाज का उतना ही हिस्सा हैं जितना लड़के. लेकिन इस तरह का दोहरा मानदंड, हमारे समाज में बहुत पुराना है और काफी गहरी पैठ लिए हुए है.

एक बहुत पुरानी और लिजलिजी कहावत है, छुरी खूरबूजे पर गिरे या खरबूजा छुरी पर, कटता खरबूजा ही है. इस चिढ़ा देने वाली कहावत को अकसर लोग लड़कियों की सुरक्षा को ले कर उपयोग करते हैं. क्या उन की दृष्टि में जीतीजागती लड़कियों और फलसब्जी में कोई अंतर नहीं?

लड़कियों को एक सुरक्षित समाज देने  की जगह हमारा समाज उन्हें ही घर के अंदर  बंद कर के अपनी जिम्मेदारी की पुष्टि कर  देता है. क्या हमें अपने गांवोंकसबोंशहरों को लड़कियों के लिए सुरक्षा की दृष्टि से बेहतर  नहीं बनाना चाहिए?

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गलत की जिम्मेदारी औरत की

जब सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की खबर सामने आई, तो सब से पहले मीडिया उस की गर्लफ्रैंड रिया चक्रवर्ती के पीछे लग गया कि रिया ने सुशांत को पूरी तरह कंट्रोल कर रखा था, रिया हर मेहमान के आनेजाने पर नजर रखती थी, रिया ने सुशांत को पूरी तरह अपने ऊपर आश्रित कर लिया था. ऐसी अनेक बातें उठाई जा रही थीं. बाद में जब यह बात सामने आई कि सुशांत सिंह ड्रग्स लेता था तो इस का जिम्मेदार भी रिया को ठहराया जाने लगा.

अब इस स्थिति को उलट कर सोचिए. यदि एक ड्रग्स लेने वाली लड़की ने आत्महत्या की होती, जिस का बायफ्रैंड उस के लिए वही सब करता था जो रिया ने सुशांत के लिए किया तब हमारे समाज की क्या प्रतिक्रिया होती. क्या तब लोग उस लड़की पर ड्रग्स लेने की बात को ले कर उंगली नहीं उठाते? क्या उसे अपनी स्थिति के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराते? बल्कि मुझे लगता है कि लोग उस के बायफ्रैंड को केयरिंग, उस से प्यार करने वाला और उस का ध्यान रखने वाला मानते.

सुशांत सिंह राजपूत के परिवार के वकील ने तो यहां तक कहा, ‘‘रिया का वीडियो उन के बयान नहीं, उन के कपड़ों के बारे में है, मुझे नहीं लगता उन्होंने जिंदगी में कभी ऐसे कपड़े पहने होंगे, उन का मकसद बस खुद को एक सीधीसादी औरत जैसा पेश करना था.’’

उन के इस कथन को वरिष्ठ वकील  करुणा नंदी ने कानून के दायरे में औरतों को नीचा देखना, करार दिया. उन्होंने लिखा कि कम कपड़े मतलब अपराधी, सलवारकमीज मतलब अपराध छिपाने की कोशिश.

कुछ समय पूर्व सुनील गावस्कर ने एक  बार विराट कोहली के अपने खेल में खराब प्रदर्शन के लिए अनुष्का शर्मा को जिम्मेदार ठहराया था. सोचिए, यदि अनुष्का शर्मा की  कोई फिल्म पिट जाए तो क्या उस के लिए  विराट कोहली को जिम्मेदार माना जाएगा?  शायद नहीं.

तब समाज यह कहेगा कि शादी के बाद अनुष्का शर्मा ने अपने काम के प्रति गैरजिम्मेदारी दिखाई, शादी के बाद वह अपने काम को ले कर उतनी मेहनत नहीं करती, उतनी संजीदा नहीं  रही. अर्थ साफ है कि गलती चाहे औरत खुद करे या उस का मर्द पार्टनर, ठीकरा औरत के सिर पर ही फूटेगा.

सुंदरता का आत्मिक बोझ

हमारे चारों ओर हर वक्त सुंदर चेहरों की तारीफ, सुंदर न होने की हीनभावना और सुंदरता निखारने के तरीकों की नुमाइश की वजह से सुंदरता एक बोझ सरीखी लगने लगती है. औरत कितनी भी पढ़ीलिखी हो, अपने काम में निपुण हो, पर थोड़ा सुंदर भी हो जाती तो बेहतर होता वाली विचाराधारा औरतों को पीछे धकेलने का काम करती है.

एक बहुप्रचलित विचारधारा और है कि यदि औरत चेहरे से सुंदर है तो दिमाग से जरूर बंदर होगी. उसे मौका केवल उस की सुंदरता के कारण मिलता है. वह कुछ खास काम नहीं कर सकती, क्योंकि काबिलीयत के नाम पर सुंदरता ही तो है, जबकि किसी भी पुरुष के आगे बढ़ने के पीछे केवल उस की काबिलीयत को ही श्रेय दिया जाता है.

औरतों के ऊपर सुंदर रहने, खूबसूरत दिखने, सही फिगर मैंटेन करने आदि का इतना बोझ बना रहता है कि उन्हें अकसर हीनभावना अपना शिकार बनाए रखती है.

औरतें बच्चों को जन्म देती हैं तब भी उन का बढ़ा हुआ पेट शर्मिंदगी का कारण होता है. आप अकसर लोगों, खासकर औरतों को कहते सुनेंगे कि बढ़े पेट के साथ यह ड्रैस उन पर फबती नहीं है, जबकि बिना ऐसे किसी कारण के जब आदमियों की तोंद बढ़ी रहती है और वे तंग शर्ट या टीशर्ट पहने रहते हैं, तब उन्हें कोई भी ऐसी बात नहीं कहता.

राजनीति में अडिग औरतें

औरतों के प्रति दोहरे मानदंड तब भी देखने को मिलते हैं जब औरतें राजनीति में अपनी पकड़ बनाने का प्रयास करती हैं. जब प्रियंका गांधी को कांग्रेस का महासचिव बनाया गया तब भारतीय जनता पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं की टिप्पणियां इस प्रकार थीं-

‘‘लोक सभा चुनाव में कांग्रेस चौकलेट जैसे चेहरे सामने ला रही है.’’

‘‘इस से उत्तर प्रदेश में बस यह फायदा होगा कि कांग्रेस की चुनाव सभाओं में कुरसियां खाली नहीं दिखेंगी.’’

‘‘वोट चेहरों की सुंदरता के बल पर नहीं जीते जा सकते.’’

किंतु ऐसा भी नहीं कि महिला नेता ‘सुंदर’ की परिभाषा में फिट न होती हो तो इज्जत मिल जाएगी. समाजवादी पार्टी (सपा) नेता मुलायम सिंह यादव ने राजस्थान में कहा था कि पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया मोटी हो गई हैं, उन्हें आराम करने देना चाहिए. यानी कोई फर्क नहीं पड़ता कि पार्टी कौन सी है या फिर राजनेता कौन है. बात बस इतनी सी है कि ऐसे पुरुषों की कमी नहीं जो यह मानते हैं कि राजनीति में औरतें पुरुषों से कमतर हैं और उस के लिए वे कोई भी तर्क रख सकते हैं.

किसी जगह आप को इतना बेइज्जत किया जाए, आप के शरीर पर बेहिचक भद्दी बात हो और आप के काम को इसी बल पर नीचा दिखाए जाए तो क्या आप वहां का रुख करना चाहेंगे? शायद नहीं. पर इन औरतों को देखो, ये उस राह पर चल ही नहीं रहीं, डटी हुई हैं. चमड़ी गोरी हो या सांवली, मोटी जरूर कर ली है. तादाद में अभी काफी कम हैं. पहली लोक सभा में 4 फीसदी से बढ़ कर 17वीं लोक सभा में करीब 14 फीसदी महिला सांसद हैं.

अब जरा अपने आसपास के छोटे देशों में झांकते हैं- नेपाल की संसद में 38 फीसदी, बंगलादेश और पाकिस्तान में 20 फीसदी महिलाएं हैं. यहां तक कि अफ्रीकी देश रवांडा की संसद में 63 फीसदी महिलाएं हैं. तो क्यों न हम अपनी चाहत की उड़ान को और पंख देने को मचल जाएं.

आर्थिक दौड़ में पिछड़ती औरत

आर्थिक दौड़ में औरतों की स्थिति इतनी कमजोर क्यों है? इस का सीधा सा कारण है कि गृहस्थी के कार्यों को हमारा समाज आर्थिक नजरिए से नहीं तोलता. पुरुष नौकरी करता है, कमा कर लाता है. स्त्री घर संभालती है, घर के काम, बाजार के काम, बच्चों को पालना, पढ़ाना, वृद्धों की देखभाल, खाना पकाना, साफसफाई, घर की देखरेख, कपड़ों की धुलाई प्रैस और न जाने ऐसे कितने काम होंगे जो इस लिस्ट में शामिल हो सकते हैं.

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक औरत रोज करीब 4 घंटे 25 मिनट अवैतनिक कार्य करती हैं जबकि पुरुष केवल 1 घंटा 23 मिनट. इन सभी कार्यों को यदि बाहर से करवाया जाए तो इन में कितने पैसे खर्च होंगे, इस का हिसाब लगाना मुश्किल नहीं.

लेकिन जब एक गृहिणी इन सभी कार्यों  को बिना शिकन के संभालती है तो उस के  हिस्से में केवल जिम्मेदारियां आती हैं. यदि वह घर खर्च से कुछ पैसे बचा कर अपने पास रख लेती है तो उसे भी हमारा समाज हंस कर चोरी का उपनाम दे देता है. मोदीजी के विमुद्रीकरण ने इन बेचारी औरतों से यह जरा सा संबल भी छीन लिया था.

कोरोना के चलते बहुत सी महिलाओं की नौकरियां छिन गईं, क्योंकि करीब 60% महिलाएं अनौपचारिक क्षेत्रों में नौकरियां करती हैं जहां वर्क फ्रौम होम करना संभव नहीं. ऐसे में तनाव और आर्थिक परेशानियों से घिरी, घर पर बैठने को मजबूर ये महिलएं फिर घरेलू हिंसा का शिकार नहीं होंगी तो क्या होगा?

धर्म और समाज की मारी औरत

धर्म के अनुसार वही स्त्री ‘अच्छी’ है जो अपने पति, पिता और बेटे के कहे अनुसार  अपना जीवन जीए. ऐसी स्त्री का गुणगान करते  न जाने कितने किस्सेकहानियां मिल जाते हैं. लगभग हर धार्मिक कथा केवल महिलाओं को ज्ञान और शिक्षा देती है. घर के मर्दों के लिए व्रतउपवास करो, घरेलू कार्य करो, बचे हुए

समय को धर्म में लगाओ, प्रश्न मत करो, केवल आज्ञा मानो, यही सब औरत की नियति में लिख दिया गया है और जब घरेलू कामकाज केवल औरत का कर्तव्य है तो उस में न तो कोई उस  की प्रशंसा का प्रश्न उठता है और न ही वाहवाही का, उलटा यदि कोई औरत घरेलू कामों में  निपुण नहीं है तो उस की भद्द जरूर उड़ती है, क्योंकि वह औरत ही क्या जो घर के, रसोई के, धर्म के और रीतिरिवाजों के सभी कार्यों में होशियार न हो. धर्म ने औरत को आगे बढ़ने  से रोक कर, केवल चारदीवारी में निहित कर छोड़ा है.

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गीता में एक उपदेश में उक्त है कि

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यंती कुलस्त्रीय:

स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकर:

अर्थात हे कृष्ण, पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां अत्यंत दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय, स्त्रीयोन के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है.

एक अन्य श्लोक कहता है इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं. अर्थ स्पष्ट है कि कुल की शुद्धता, मर्यादा और गुण को नष्ट करने की पूरी जिम्मेदारी केवल और केवल स्त्री को सौंप दी गई. पुरुषों की भटकन से इस का कोई लेनादेना नहीं. बस, स्त्री को स्वयं को बनीबनाई सीधी लकीर पर आंख मूंदे चलते  रहना होगा.

गालियां हमेशा महिलाओं को ले कर

इसी तरह गालियां भी हमारे पितृसत्तात्मक समाज की देन हैं, इसलिए अमूमन हर गाली महिला को टार्गेट करते हुए होती है. जिस समाज में महिलाओं को देवी की तरह पूजने की बात होती हो, वहीं पुरुषों को दी जाने वाली गालियों  में घर की माताबहनों को निशाना बनाना उचित  है क्या?

जैसे हिंदी भाषा में कुलटाकुलक्षिणी जैसे उपनाम पुरुषों के लिए हैं ही नहीं, वैसे ही तमिलनाडु स्थित केरला विश्वविद्यालय में असोसिएट प्रोफैसर टी विजयलक्ष्मी का कहना है कि वेश्या शब्द का कोई पुल्लिंग नहीं.

इन्होंने 2017 में कुछ कविताएं लिखीं  और प्रकाशित कीं जिन में इन्होंने वेसी  (वेश्या) के लिए वेसन (पुल्लिंग) तथा मूली (उपशगुनी औरत) के लिए मूलन शब्दों का आविष्कार किया.

हेमंग दत्ता, भाषा विज्ञान में समाजशास्त्री ने भी इसी तरह मलयालम व असमिया भाषाओं में यह जाना कि कुछ शब्द जैसे ओक्सोटी यानी व्यभिचारिणी या फिर ‘बोनोरी’ यानी चरित्रहीन महिला जैसे शब्दों का कोई पुल्लिंग नहीं है.

2016 में अभिनेत्री श्रुति हसन ने एक वीडियो निकाला, ‘बी द बिच’ जिस में उन्होंने बिच यानी कुतिया जोकि एक गाली की तरह उपयोग किया जाता है को एक नई परिभाषा दी, वह औरत जो अपनी जिंदगी को अपनी शर्तों पर जीने की हिम्मत रखती हो.

मदुरै के समाजशास्त्री चित्राराज जोसफ कहते हैं कि केवल पुरुष ही नहीं, महिलाएं भी औरतों के लिए गालियों को प्रयोग करती हैं, क्योंकि वे भी तो इसी पितृसत्तात्मक समाज का हिस्सा हैं. इन का मत है कि जो महिलाएं अपनी स्वाधीनता व अपने वजूद में विश्वास नहीं रखतीं, वे दूसरे पुरुषों या महिलाओं से लड़ते समय ऐसी गालियां बेझिझक देती हैं जो औरत के चरित्र, उस की जननक्षमता, उस की शारीरिक बनावट आदि को निशाना बनाती हैं.

पीपल्स लिंगुइस्टिक सर्वे औफ इंडिया के चेयरमैन गणेश डेवी एक बहुत रोचक तथ्य को सामने रखते हुए कहते हैं कि कई भारतीय भाषाओं में ‘गुण’ को पुल्लिंग और ‘गलती’ को स्त्रीलिंग के रूप में बोला व लिखा जाता है.

अनमोल पहलू को नकारता

कब तक समाज में आगे बढ़ती हिम्मती महिला को मर्दानी कह कर उस के स्त्रीत्व के इस अनमोल पहलू को नकारा जाएगा? बेटी ने अच्छी नौकरी प्राप्त कर ली तो वह बेटों सी लायक हो गई, बेटी ने घर की जिम्मेदारी उठाई तो वह बेटे की तरह सक्षम निकली, लेकिन वहीं यदि कोई बेटा भावुक प्रवृत्ति का निकला तो उसे औरत की तरह कमजोर कह कर गाली दी जाती है. औरतों के लिए ‘मर्दानी’ एक मैडल है, लेकिन ‘हाथों में चूडि़यां पहनना’ पुरुषों के लिए गाली और फिर भी हमारे समाज में औरतों के लिए चूडि़यां व अन्य शृंगार बेहद आवश्यक माना जाता है, उन के पूरे व्यक्तित्व का अहम हिस्सा समझा जाता है. विधवा का मुंह देखना अपशकुन माना जाता है, जबकि विधुर पुरुषों के लिए ऐसी कोई बाधा नहीं है.

जैंडर असमानता क्यों

जैंडर असमानता पर अपने अध्ययन में मारथा फोशी कहती हैं कि दफ्तरों में अच्छे पदासीन पुरुष की आक्रामक कार्यप्रणाली को निर्णयात्मक रूप में सराहा जाता है, किंतु एक स्त्री यदि ऐसा ही रवैया अपनाए तो उसे हावी होने वाली, गुस्सैल और नकारात्मक ढंग से देखा जाता है. महिलाओं से अधिक संवेदनशीलता की अपेक्षा की जाती है. साथ ही उन से एक आदर्श व्यवहार, सम्मानजनक दूरी बनाए रखना और चुपचाप काम करने की उम्मीद भी की जाती है.

जब किसी औरत के कपड़ों की, उस के राजनीतिक विकल्पों की, उस की नौकरी की, उस  के मनोरंजन की आलोचना की जाती है तो यह आलोचना दरअसल उस के निर्णय लेने की क्षमता की होती है. समाज यह दर्शाना चाहता है कि तुम में इतनी अक्ल नहीं कि तुम अपने फैसले खुद ले सके. तुम सदियों पुरानी घिसीपिटी मान्यताओं को तोड़ कर आगे नहीं बढ़ सकती. तुम वही करो जो करती आई हो. कुछ नया सोचना या करने की तुम्हें इजाजत नहीं है. मगर ऐसा कब तक चलता रहेगा?

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आज हमें अपने घरों में पत्नी बन कर, मां बन कर और गृहिणी बन कर बदलाव लाना होगा. आज हमें अपनी बेटियों को गाय सी सीधी नहीं, शेरनी सी तेज बनाना होगा. धर्म और समाज का यह दोगलापन खत्म करने का समय हमें ही तय करना होगा.

आखिर पिछले बुरे अनुभव से सरकार कुछ सीख क्यों नहीं रहीं?

भले अभी साल 2020 जैसी स्थितियां न पैदा हुई हों, सड़कों, बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों में भले अभी पिछले साल जैसी अफरा तफरी न दिख रही हो. लेकिन प्रवासी मजदूरों को न सिर्फ लाॅकडाउन की दोबारा से लगने की शंका ने परेशान कर रखा है बल्कि मुंबई और दिल्ली से देश के दूसरे हिस्सों की तरफ जाने वाली ट्रेनों में देखें तो तमाम कोविड प्रोटोकाॅल को तोड़ते हुए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी है. पिछले एक हफ्ते के अंदर गुड़गांव, दिल्ली, गाजियाबाद से ही करीब 20 हजार से ज्यादा मजदूर फिर से लाॅकडाउन लग जाने की आशंका के चलते अपने गांवों की तरफ कूच कर गये हैं. मुंबई, पुणे, लुधियाना और भोपाल से भी बड़े पैमाने पर मजदूरों का फिर से पलायन शुरु हो गया है. माना जा रहा है कि अभी तक यानी 1 अप्रैल से 10 अप्रैल 2021 के बीच मंुबई से बाहर करीब 3200 लोग गये हैं, जो कोरोना के पहले से सामान्य दिनों से कम, लेकिन कोरोना के बाद के दिनों से करीब 20 फीसदी ज्यादा है. इससे साफ पता चल रहा है कि मुंबई से पलायन शुरु हो गया है. सूरत, बड़ौदा और अहमदाबाद में आशंकाएं इससे कहीं ज्यादा गहरी हैं.

सवाल है जब पिछले साल का बेहद हृदयविदारक अनुभव सरकार के पास है तो फिर उस रोशनी में कोई सबक क्यों सीख रही? इस बार भी वैसी ही स्थितियां क्यों बनायी जा रही हैं? क्यों आगे आकर प्रधानमंत्री स्पष्टता के साथ यह नहीं कह रहे कि लाॅकडाउन नहीं लगेगा, चाहे प्रतिबंध और कितने ही कड़े क्यों न करने पड़ंे? लोगों को लगता है कि अब लाॅकडाउन लगना मुश्किल है, लेकिन जब महाराष्ट्र और दिल्ली के खुद मुख्यमंत्री कह रहे हों कि स्थितियां बिगड़ी तो इसके अलावा और कोई चारा नहीं हैं, तो फिर लोगों में दहशत क्यों न पैदा हो? जिस तरह पिछले साल लाॅकडाउन में प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा हुई थी, उसको देखते हुए क्यों न प्रवासी मजदूर डरें ?

पिछले साल इन दिनों लाखों की तादाद में प्रवासी मजदूर तपती धूप व गर्मी में भूखे-प्यासे पैदल ही अपने गांवों की तरफ भागे जा रहे थे, इनके हृदयविदारक पलायन की ये तस्वीरें अभी भी जहन से निकली नहीं हैं. पिछले साल मजदूरों ने लाॅकडाउन में क्या क्या नहीं झेला. ट्रेन की पटरियों में ही थककर सो जाने की निराशा से लेकर गाजर मूली की तरह कट जाने की हृदयविदारक हादसों का वह हिस्सा बनीं. हालांकि लग रहा था जिस तरह उन्होंने यह सब भुगता है, शायद कई सालों तक वापस शहर न आएं, लेकिन मजदूरों के पास इस तरह की सुविधा नहीं होती. यही वजह है कि दिसम्बर 2020 व जनवरी 2021 में शहरों में एक बार फिर से प्रवासी मजदूर लौटने लगे या इसके लिए विवश हो गये. लेकिन इतना जल्दी उन्हें अपना फैसला गलत लगने लगा है. एक बार फिर से वे पलायन के लिए विवश हो रहे हैं.

प्रवासी मजदूरों के इस पलायन को हर हाल में रोकना होगा. अगर हम ऐसा नहीं कर पाये किसी भी वजह से तो चकनाचूर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना सालों के लिए मुश्किल हो जायेगा. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के अनुसार लगातार छह सप्ताह से कोविड-19 संक्रमण व मौतों में ग्लोबल वृद्धि हो रही है, पिछले 11 दिनों में पहले के मुकाबले 11 से 12 फीसदी मौतों में इजाफा हुआ है. नये कोरोना वायरस के नये स्ट्रेन से विश्व का कोई क्षेत्र नहीं बचा, जो इसकी चपेट में न आ गया हो. पहली लहर में जो कई देश इससे आंशिक रूप से बचे हुए थे, अब वहां भी इसका प्रकोप जबरदस्त रूप से बढ़ गया है, मसलन थाईलैंड और न्यूजीलैंड. भारत में भी केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के डाटा के अनुसार संक्रमण के एक्टिव केस लगभग 13 लाख हो गये हैं और कुछ दिनों से तो रोजाना ही संक्रमण के एक लाख से अधिक नये मामले सामने आ रहे हैं.

जिन देशों में टीकाकरण ने कुछ गति पकड़ी है, उनमें भी संक्रमण, अस्पतालों में भर्ती होने और मौतों का ग्राफ निरंतर ऊपर जा रहा है, इसलिए उन देशों में स्थितियां और चिंताजनक हैं जिनमें टीकाकरण अभी दूर का स्वप्न है. कोविड-19 संक्रमितों से अस्पताल इतने भर गये हैं कि अन्य रोगियों को जगह नहीं मिल पा रही है. साथ ही हिंदुस्तान में कई प्रांतों दुर्भाग्य से जो कि गैर भाजपा शासित हैं, वैक्सीन किल्लत झेल रहे हैं. हालांकि सरकार इस बात को मानने को तैयार नहीं. लेकिन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उधव ठाकरे तक सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि उनके यहां महज दो दिन के लिए वैक्सीन बची है और नया कोटा 15 के बाद जारी होगा.

हालांकि सरकार ने इस बीच न सिर्फ कोरोना वैक्सीनों के फिलहाल निर्यात पर रोक लगा दी है बल्कि कई ऐसी दूसरी सहायक दवाईयों पर भी निर्यात पर प्रतिबंध लग रहा है, जिनके बारे में समझा जाता है कि वे कोरोना से इलाज में सहायक हैं. हालांकि भारत में टीकाकरण शुरुआत के पहले 85 दिनों में 10 करोड़ लोगों को कोविड-19 के टीके लगाये गये हैं. लेकिन अभी भी 80 फीसदी भारतीयों को टीके की जद में लाने के लिए अगले साल जुलाई, अगस्त तक यह कवायद बिना रोक टोक के जारी रखनी पड़ेगी. हालांकि हमारे यहां कोरोना वैक्सीनों को लेकर चिंता की बात यह भी है कि टीकाकरण के बाद भी लोग न केवल संक्रमित हुए हैं बल्कि मर भी रहे हैं.

31 मार्च को नेशनल एईएफआई (एडवर्स इवेंट फोलोइंग इम्यूनाइजेश्न) कमेटी के समक्ष दिए गये प्रेजेंटेशन में कहा गया है कि उस समय तक टीकाकरण के बाद 180 मौतें हुईं, जिनमें से तीन-चैथाई मौतें शॉट लेने के तीन दिन के भीतर हुईं. बहरहाल, इस बढ़ती लहर को रोकने के लिए तीन टी (टेस्ट, ट्रैक, ट्रीट), सावधानी (मास्क, देह से दूरी व नियमित हाथ धोने) और टीकाकरण के अतिरिक्त जो तरीके अपनाये जा रहे हैं, उनमें धारा 144 (सार्वजनिक स्थलों पर चार या उससे अधिक व्यक्तियों का एकत्र न होना), नाईट कफर््यू, सप्ताहांत पर लॉकडाउन, विवाह व मय्यतों में निर्धारित संख्या में लोगों की उपस्थिति, स्कूल व कॉलेजों को बंद करना आदि शामिल हैं. लेकिन खुद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन का बयान है कि नाईट कफर््यू से कोरोनावायरस नियंत्रित नहीं होता है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे ‘कोरोना कफर््यू’ का नाम दे रहे हैं ताकि लोग कोरोना से डरें व लापरवाह होना बंद करें (यह खैर अलग बहस है कि यही बात चुनावी रैलियों व रोड शो पर लागू नहीं है).

महाराष्ट्र के स्वास्थ्य मंत्री राजेश टोपे का कहना है कि राज्य का स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर बेहतर करने के लिए दो या तीन सप्ताह का ‘पूर्ण लॉकडाउन’ बहुत आवश्यक है. जबकि डब्लूएचओ की प्रवक्ता डा. मार्गरेट हैरिस का कहना है कि कोविड-19 के नये वैरिएंटस और देशों व लोगों के लॉकडाउन से जल्द निकल आने की वजह से संक्रमण दर में वृद्धि हो रही है. दरअसल, नाईट कफर््यू व लॉकडाउन का भय ही प्रवासी मजदूरों को फिर से पलायन करने के लिए मजबूर कर रहा है. नया कोरोनावायरस महामारी को बेहतर स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर और मंत्रियों से लेकर आम नागरिक तक कोविड प्रोटोकॉल्स का पालन करने से ही नियंत्रित किया जा सकता है.

लेकिन सरकारें लोगों के मूवमेंट पर पाबंदी लगाकर इसे रोकना चाहती हैं, जोकि संभव नहीं है जैसा कि पिछले साल के असफल अनुभव से जाहिर है. अतार्किक पाबंदियों से कोविड तो नियंत्रित होता नहीं है, उल्टे गंभीर आर्थिक संकट उत्पन्न हो जाते हैं, खासकर गरीब व मध्यवर्ग के लिए. लॉकडाउन के पाखंड तो प्रवासी मजदूरों के लिए जुल्म हैं, क्रूर हैं. कार्यस्थलों के बंद हो जाने से गरीब प्रवासी मजदूरों का शहरों में रहना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाता है, खासकर इसलिए कि उनकी आय के स्रोत बंद हो जाते हैं और जिन ढाबों पर वह भोजन करते हैं उनके बंद होने से वह दाल-रोटी के लिए भी तरसने लगते हैं.

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