Hindi Story Telling : कुजात

Hindi Story Telling  : लोचन को गांव वालों ने अपनी बिरादरी से निकाल दिया था, क्योंकि उस ने नीची जाति की एक लड़की से शादी कर अपनी बिरादरी की बेइज्जती की थी.

गांव के मुखिया की अगुआई में सभी लोगों ने तय किया था कि लोचन के घर कोई नहीं जाएगा और न ही उस के यहां कोई खाना खाएगा.

लोचन अपनी बस्ती में हजारों लोगों के बीच रह कर भी अकेला था. उस का कोई हमदर्द नहीं था. एक दिन अचानक उस के पेट में तेज दर्द होने लगा, तो उस की बीवी घबरा कर रोने लगी. जो पैर शादी के बाद चौखट से बाहर नहीं निकले थे, वे आज गलियों में घूम कर गांव के लोगों से लोचन को अस्पताल पहुंचाने के लिए गिड़गिड़ा रहे थे. लेकिन हर दरवाजे पर उसे एक ही जवाब मिलता था, ‘गांव के लोगों से तुम्हारा कैसा रिश्ता?’

जब वह लोचन के पास लौट कर आई, तब तक लोचन का दर्द काफी कम हो चुका था. उसे देखते ही वह बोला, ‘‘गांव वालों से मदद की उम्मीद मत करो, लेकिन जरूरत पड़े तो तुम उन की मदद जरूर कर देना.’’ इस के बाद लोचन ने खुद जा कर डाक्टर से दवा ली और थोड़ी देर बाद उसे आराम हो गया.

दूसरे दिन दोपहर के 12 बजे हरखू के कुएं पर गांव की सभी औरतें जमा हो कर चिल्ला रही थीं, पर महल्ले में कोई आदमी नहीं था, जो उन की आवाज सुनता. सभी लोग खेतों में काम करने जा चुके थे.

लोचन सिर पर घास की गठरी लिए उधर से गुजरा, तो औरतों की भीड़ देख कर वह ठिठक गया. औरतों ने उसे बताया कि बैजू चाचा का एकलौता बेटा कुएं में गिर गया है.

लोचन घास की गठरी वहीं छोड़ कुएं के नजदीक गया और देखते ही देखते कुएं में कूद गया. किसी पत्थर से टकरा कर उस का सिर लहूलुहान हो गया, फिर भी उस ने एक हाथ से बैजू चाचा के बेटे को कंधे पर उठा लिया और कुएं की दीवार में बनी एक छोटी सी दरार में दूसरे हाथ की उंगलियां फंसा कर लटक गया.

लोचन तकरीबन आधा घंटे तक उसी तरह लटका रहा, क्योंकि बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था. तब तक लोगों की भीड़ बढ़ने लगी थी. गांव वालों ने लोहे की मोटी चेन कुएं में लटकाई, तो मुखियाजी बोले, ‘‘लोचन, अपने हाथों से चेन पकड़ लो, हम सब तुझे ऊपर खींच लेंगे.’’

लेकिन तब तक घायल लोचन तो बेहोश हो चुका था. मुखियाजी बोले, ‘‘तुम सब एकदूसरे को देख क्या रहे हो? इन दोनों को बचाने का कोई तो उपाय सोचो.’’

सब बुरी तरह घबरा रहे थे कि कुएं से उन दोनों को कैसे निकाला जाए? तभी एक नौजवान आगे बढ़ा और उस ने कुएं में छलांग लगा दी. उस ने लोचन और बैजू चाचा के बेटे को अपनी कमर में रस्सी से बांध दिया और चेन पकड़ कर वह बाहर आ गया.

लोचन और वह लड़का बेहोश थे. गांव वालों ने उन दोनों को तुरंत अस्पताल पहुंचाया और 2 दिन बाद वे सहीसलामत वापस आ गए.

आज सुबह से ही मुखियाजी के दरवाजे पर लोगों का आनाजाना लगा हुआ था. लेकिन लोचन को इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी. सचाई जानने के लिए लोचन यह सोच कर मुखियाजी के दरवाजे की तरफ बढ़ा कि शायद मुखियाजी का बरताव अब बदल चुका होगा.

लेकिन अपने दरवाजे पर लोचन को देख मुखियाजी बोले, ‘‘तू ने अपनी जान की बाजी लगा कर बैजू के बेटे को बचा लिया, तो इस का मतलब यह नहीं है कि हमारी बिरादरी ने तेरी गलतियां माफ कर दीं. आज मेरी बेटी की शादी है और तुझे यहां देख कर बिरादरी वालों के कान खड़े हो जाएंगे, इसलिए यहां से जल्दी भाग जा.’’

यह सुनते ही लोचन की आंखों से आंसू निकल पड़े. वह सिसकते हुए बोला, ‘‘मुखियाजी, मैं आप के बेटे के बराबर हूं. अगर मेरी वजह से आप की इज्जत बिगड़ती है, तो मैं खुदकुशी कर लूंगा. इस गांव में जिंदा रहने से क्या फायदा, जब मेरी सूरत देखने से ही लोग नफरत करते हैं.’’

‘‘तुम कुछ भी करो, उस के लिए आजाद हो,’’ मुखियाजी बड़बड़ाते हुए आगे बढ़ गए. लोचन आज फिर काफी दुखी हुआ. वह भारी मन से अपने घर आ गया.

शाम होते ही मुखियाजी के दरवाजे की रौनक बढ़ गई. चारों तरफ रंगबिरंगी लाइटें जगमगा रही थीं और बैंडबाजा बज रहा था.

देर रात तक शादी की रस्म चलती रही. सुबह 4 बजे बेटी की विदाई के लिए गांव की औरतें जमा हो गईं. बिरादरी वाले भी दरवाजे पर खड़े थे. अचानक घर के अंदर हल्ला मचा, तो सभी लोग दरवाजे की ओर दौड़े. पता चला कि बेटी के सारे गहने चोरी हो गए हैं और लड़की खुद बेहोश है.

मुखियाजी चिल्ला पड़े, ‘‘तुम सब यहां क्या देख रहे हो? जल्दी पता करो कि किस ने हमारे घर में चोरी की है. मैं उस को जिंदा नहीं छोड़ूंगा.’’

सभी लोगों ने घर से बाहर निकल बस्ती को घेर लिया, लेकिन चोर का कहीं पता नहीं चला.

एक घंटे बाद लड़की को होश आया, तो मुखियाजी ने उस से पूछा, ‘‘यह सब किस ने किया बेटी?’’

‘‘मुझे कुछ पता नहीं है पिताजी. किसी ने मुझे बेहोश कर दिया था,’’ इतना कह कर वह सिसकने लगी.

यह बात जब दूल्हे के पिता को पता चली, तो वे आंगन में घुसते ही मुखियाजी से बोले, ‘‘जो बीत चुका, उसे भूल जाइए समधी साहब. अब बहू को विदा कीजिए. जिस गांव में एकता नहीं होती, वहां यही सब होता है.’’

मुखियाजी आंसू पोंछते हुए बोले, ‘‘आप महान हैं समधी साहब. आज अगर कोई दूसरा होता, तो बरात लौट जाती. बस, मुझे अफसोस इस बात का है कि मेरी बेटी सोने की जगह धागे का मंगलसूत्र पहन कर जाएगी.’’

बरात विदा हो गई. बेटी के साथ सभी रोने लगे थे. सब का चेहरा मुरझाया हुआ था. गाड़ी आगे बढ़ी, तो बढ़ती ही चली गई.

लेकिन यह क्या? गांव के बाहर गाड़ी अचानक रुक गई. सामने सड़क पर कोई घायल हो कर पड़ा था. दूर से देखने पर यह पता नहीं चल रहा था कि वह कौन है.

दूल्हे के पिता ने मुखियाजी और तमाम गांव वालों को अपने हाथ के इशारे से बुलाया, तो सभी लोग दौड़े चले आए.

‘‘अरे, यह तो लोचन है,’’ पास पहुंचते ही मुखियाजी बोले, ‘‘तुम्हारी ऐसी हालत किस ने की है लोचन? तुम्हारा तो सिर फट चुका है और पैर पर भी काफी चोट लगी है.’’

‘‘मुझे माफ करना मुखियाजी. मैं उन चोरों को पकड़ नहीं सका. लेकिन अपनी बहन का मंगलसूत्र उन लोगों से जरूर छीन लिया. उन लोगों ने मारमार कर मुझे बेहोश कर दिया था.

‘‘जब मुझे होश आया, तो मैं ने सोचा कि विदाई से पहले आप के पास जा कर अपनी बहन का मंगलसूत्र दे दूं. लेकिन मैं इसलिए नहीं गया कि कहीं आप की बिरादरी वालों के कान न खड़े हो जाएं,’’ सिसकते हुए लोचन ने कहा.

‘‘लोचन, अब मुझे और शर्मिंदा मत करो बेटा. आज तुम ने साबित कर दिया कि समाज की सीमाओं को तोड़ कर भी इनसानियत को बरकरार रखा जा सकता है. आज से तुम इस गांव का एक हिस्सा ही नहीं, बल्कि एक आदर्श भी हो. तुम ने इस गांव के साथसाथ मेरी इज्जत को और भी बढ़ा दिया है,’’ कहते हुए मुखियाजी की आंखें भर आईं.

इस के बाद मुखियाजी घायल लोचन को ले कर गांव वालों के साथ अस्पताल की ओर जाने लगे. लोचन अपनी बहन की उस गाड़ी को देखता रहा, जो धीरेधीरे उस की आंखों से ओझल हो रही थी.

लेखक- संजय सिंह

Best Online Story : लमहों को आजाद रहने दो

Best Online Story :  भूमिका आज बेहद खुश नजर आ रही थी. अभीअभी तो उस ने फेसबुक पर अपनी डीपी अपलोड करी थी और 1 घंटे में ही सौ लाइक आ गए थे. गुनगुनाते हुए खुद को आईने के सामने निहारते हुए भूमिका मन ही मन सोच रही थी. पहले मैं कितनी गंवार लगती थी. न कोई फैशन सैंस थी और ना ही मेकअप की तमीज और अब देखो 50 वर्ष की उम्र में भी कितने पुरुष और लड़के उस के ऊपर मोहित हो रहे हैं. काश, कुछ वर्ष पहले यह सोशल मीडिया आ जाता तो उस की जिंदगी कुछ और ही होती.

तभी रोहित डकार मारता हुआ भूमिका के सामने आ गया. भूमिका बेजारी से रोहित को देखने लगी कि क्या रोहित ही मिला था उस के मातापिता को इस दुनिया में उस के लिए… रोहित का बढ़ता वजन, झड़ते बाल, बेतरतीबी से पहने कपड़े, जोरजोर से डकार लेना सभी कुछ तो उसे रोहित से और दूर कर देता था.

रोहित भूमिका को देखते हुए बोला, ‘‘आज खाना नहीं मिलेगा क्या?’’

भूमिका फेसबुक पर नजर गड़ाते हुए बोली, ‘‘अभी बनाती हूं.’’

खाना बनातेबनाते भूमिका बारबार आज शाम के फंक्शन में कैसे रील बनाएगी सोच रही थी. बालों को खुला छोड़े या कोई हेयर स्टाइल बनाए.

ये सब सोचतेसोचते उस की तंद्रा तब टूटी जब कुकर से जलने की महक आने लगी. जल्दीजल्दी कुकर की सीटी निकाली और जल्दी खाना खा कर पार्लर की भाग गई.

जब मेकअप खत्म हुआ तो भूमिका ने एक नजर आईने पर डाली और मन ही मन इतराते हुए सोचने लगी कि आज तो मेरे फौलोअर्स की खैर नहीं. शाम के फंक्शन में भूमिका ने जम कर रील बनाई. भूमिका के भाईभाभी, रोहित और उस की बेटी आर्या सभी भूमिका के इस व्यवहार से आहत थे.

आज भूमिका के भाई के बेटे का जन्मदिन था. भूमिका की भाभी को लगा कि भूमिका के आने से उस की कुछ मदद हो जाएगी मगर भूमिका तो अपने में ही व्यस्त थी. बारबार रील बनाते हुए टेक और रीटेक करते हुए भूमिका ने अपना सारा समय बिता दिया. जन्मदिन में कौनकौन मेहमान आए, कब केक कटा उसे कुछ भी नहीं पता. वह तो बस अपनी ही दुनिया में खोई हुई थी. घर पहुंच कर भी भूमिका अपनी रील की एडिटिंग में ही व्यस्त रही. आर्या ने ही उलटासीधा खाना बना लिया था. आर्या को किचन में काम करता देख कर रोहित को गुस्सा आ गया. भूमिका के हाथ से मोबाइल छीनते हुए रोहित बोला, ‘‘आर्या को इस साल 12वीं कक्षा के ऐग्जाम के साथसाथ ऐंट्रैंस ऐग्जाम भी देने हैं और वह तुम्हारे हिस्से का काम कर रही है.

भूमिका तुनकते हुए बोली, ‘‘मैं रातदिन किचन में लगी रहती हूं तो कभी दर्द नहीं हुआ. आज बेटी ने एक टाइम का खाना क्या बना लिया कि पूरा घर सिर पर उठा दिया.’’

रोहित के हाथ से अपना मोबाइल छीनते हुए भूमिका ने अपनेआप कमरे में बंद कर लिया. भूमिका अपनी रील के व्यूज को देखने में व्यस्त थी. बस 250 व्यूज ही आए थे. मन ही मन मनन कर रही थी कि क्या करे कि व्यूज बढ़ जाएं.

तभी भूमिका ने सोचा क्यों न डांस करते हुए अपनी एक रील बनाए. सोशल मीडिया पर वैलिडेशन की भूमिका का सिर पर इतना भूत सवार था कि उस ने बिना कुछ सोचेसमझे एक रील बना ली और फेसबूक पर अपलोड कर दी. भूमिका उस रील में बेहद भद्दी लग रही थी. साफ नजर आ रहा था कि उस ने किसी और के शौर्ट्स और टीशर्ट पहन रखे थे. खटाखट लाइक्स आ रहे थे और साथ ही साथ भूमिका की खुशी भी बढ़ती जा रही थी.

कितने सारे पुरुषों के मैसेंजर पर मैसेज आए हुए थे. हरकोई उस से दोस्ती करने को आतुर था. और तो और कुछ लड़के तो भूमिका से 10 से 15 साल छोटे थे मगर सब को वो हौट लग रही थी. तभी भूमिका के घर से उस की मम्मी का फोन आया, ‘‘लाली यह क्या कर रही है तू सारे लोग महल्ले में तेरा मजाक उड़ा रहे हैं.’’

‘‘ऐसे कैसा वीडियो बन कर तूने डाल दिया है. कम से कम देख तो लेती कि तू उस में कैसी लग रही है.’’

भूमिका ने कहा, ‘‘लगता है भैयाभाभी ने तुम्हारे कान भरे हैं. मम्मी मैं कभी भी तुम्हारी फैवरिट नहीं थी. तुम्हें तो हमेशा दीदी और भाभी की सुंदरता के आगे मैं फीकी ही लगी. इतनी फीकी कि तुम ने रोहित जैसे नीरस आदमी के साथ मुझे बांध दिया.

‘‘आज अगर लोग मुझे पहचान रहे हैं, मेरे काम की तारीफ कर रहे हैं तो तुम्हारी बहू को आग लग गई क्योंकि वह अपने बढ़ते वजन के कारण ये सब नहीं कर सकती है जो मैं अब कर पा रही हूं.’’

भूमिका की मम्मी ने फोन रखने से पहले बस यह कहा, ‘‘लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए क्याक्या करेगी तू,’’ और खटाक से फोन रख दिया.

घर के काम निबटाने के बाद भूमिका अपनी रील पर आए कमैंट्स को पढ़ने लगी कमैंट्स पढ़ कर उस का मन करा कि वह जल्द ही एक और डांस करते हुए रील बना ले. अगले दिन सब के जाते ही भूमिका ने फिर से डांस करते हुए रील बनाने की तैयारी करीए. मगर हर बार उसे संतुष्टि नहीं मिल रही थी. जब तीसरी बार भूमिका घूमघूम कर नाचने लगी उस का पैर फिसल गया और उस का सिर पास ही रखी शीशे की मेज से टकरा गया. शुक्र था कि सिर बच गया मगर पैर में मोच आ गई. किसी तरह गिरतेपड़ते डाक्टर के पास पहुंची और तमाम प्रोसीजर्स के बाद जब बाहर निकली तो 5 हजार की चपत लग चुकी थी.

जब तक भूमिका का पैर पूरी तरह से ठीक नहीं हुआ उस ने बैठेबैठे ही कुछ रील बनाईं और अपलोड कर दी थीं. हर रील पर भूमिका को कुछ न कुछ कमैंट्स आते ही थे और धीरेधीरे ऐसा होने लगा कि भूमिका अपनी वर्चुअल दुनिया से इतनी जुड़ गई कि वह अपनी असल दुनिया से डिस्कनैक्ट हो गई.

भूमिका को यह लगने लगा था कि स्क्रीन के उस पार के लोग ही हैं जो उस के अपने हैं, जो उस की कद्र करते हैं. हर रील के साथ यह पागलपन बढ़ता ही जा रहा था.

अब तो यह हाल हो गया था कि मार्केट जाते हुए, चाट खाते हुए हर समय भूमिका रील बनाती रहती. हद तो तब हो गई जब भूमिका की हास्यास्पद रीलों के कारण आर्य अपने दोस्तों के बीच मजाक बन कर रह गई.

सीधेसीधे नहीं मगर इशारों से सभी लड़के आर्या के आते ही हौट आंटी, मस्त आंटी कह कर के कटाक्ष करने लगते थे. आर्या को सब समझ में आ रहा था मगर वह कैसे अपनी मम्मी को सम?ाए. इन्हीं सब कारणों से आर्या और भूमिका में दूरी बढ़ती जा रही थी. मगर भूमिका इन सब बातों से बेखबर अपनी ही दुनिया में मस्त थी. उधर रोहित भूमिका का घर के प्रति लापरवाह रवैया देख कर मन ही मन कुढ़ता रहता था.

भूमिका का यह सोशल मीडिया का बुखार बढ़ता ही जा रहा था. वह अपने जीवन के हर लमहे को कैद कर के अपलोड कर देती थी. भूमिका को जीने से अधिक अपलोडिंग में मजा आता था. उस का पहनना, खानापीना सबकुछ सोशल मीडिया तय करता था. क्या ट्रैडिंग कर रहा है क्या नहीं इस बात पर भूमिका की जिंदगी निर्भर हो गई थी.

आर्या के ऐग्जाम के बाद पूरा परिवार जब घूमने गया तो हर 1 घंटे में एक नई रील बनाने के कारण भूमिका साथ होकर भी साथ नहीं थी. उस का सारा ध्यान उस रमणीय स्थल को देखने में नहीं वहां पर फोटो खिंचवाने और रील बनाने में था. भूमिका हर हाल में अपने सब्स्क्राइबर बढ़ाना चाहती थी.

रोहित ने एक दिन गुस्से में कह भी दिया, ‘‘भूमिका, तुम हमारे साथ आई ही क्यों हो. लगता ही नहीं तुम हमारे साथ आई हो.’’

मगर भूमिका सारी बातें अनसुनी कर देती थी. 12वीं कक्षा के रिजल्ट के बाद आर्या पढ़ने के लिए बाहर चली गई. उस की एडमिशन से ले कर प्रवेश परीक्षा तक सब चीजों में उस के पापा रोहित का ही योगदान था. भूमिका का योगदान बस अपनी बेटी के प्रति बस उस की तसवीरों और हैशटैग को सोशल मीडिया पर पोस्ट करने में ही सिमट गया था.

आर्या के कुछ बोलने से पहले ही भूमिका कहती, ‘‘तुम्हें सबकुछ वर्षों बाद भी याद रहेगा इसलिए मैं ये सब कर रही हूं.’’

आर्या व्यंग्य करते हुए बोली, ‘‘हां, महसूस तो कुछ हुआ ही नहीं है बस तसवीरों में ही याद रहेगा.’’

भूमिका इतनी अधिक इस नशे की शिकार हो गई थी कि उसे भनक भी नहीं लगी कि कब और कैसे रोहित अपनी खुशी अपनी एक तलाकशुदा सहकर्मी में ढूंढ़ने लगा था. उस महिला का नाम भावना था. रोहित अकसर दफ्तर के बाद भावना के घर ही चला जाता था. वैसे भी उसे अपना घर, घर कम स्टूडियो ज्यादा लगता था. कहीं रिंग लाइट, कहीं मेकअप का बिखरा समान… हर जगह बस दिखावा था. भावनाएं कहीं नहीं थीं.

जब से आर्या होस्टल चली गई थी तब से अधिकतर खाना या तो बाहर से आता या फिर रोहित बनाता था. भूमिका ने यह भी ध्यान नहीं दिया कि कब और कैसे रोहित रात के 9 बजे दफ्तर से घर आने लगा है.

रोहित को अब भूमिका से कोई फर्क नहीं पड़ता था. भूमिका रील बनाने में व्यस्त रहती और रोहित भावना के साथ चैटिंग करने में. जब आर्या छुट्टियों में घर आई तब भी भूमिका अपने सोशल मीडिया पर ही व्यस्त रही. रोहित आर्या को भावना के घर ले कर गया और भावना ने आर्या के साथ खूब सारी बातें और शौपिंग करी. दोनों बापबेटी को भावना में अपना नया घर मिल गया था.

भूमिका को तब होश आया जब रोहित रात को भी घर से गायब रहने लगा. आखिर एक दिन भूमिका ने रोहित को रंगे हाथ पकड़ लिया. जब भूमिका रोहित को लानतसलामत भेज रही थी तब रोहित बोला, ‘‘तुम इस बात पर रील बना कर अपने व्यूज बढ़ाओ. तुम्हारे सब्स्क्राइबर्स बढ़ाने का यह सुनहरा मौका है. तुम्हारा पति हूं कुछ तो ऐसा करूंगा जिस से मेरी पत्नी को फायदा हो,’’ यह बोल कर रोहित तीर की तरह घर से बाहर निकल गया.

भूमिका को समझ नहीं आ रहा था कि रोहित क्या सच में ऐसा उस के व्यूज बढ़ाने के लिए कर रहा है या वाकई में उस का अफेयर चल रहा है.

भूमिका इस मायावी दुनिया के सफर में इतना आगे बढ़ गई थी कि उसे वास्तविकता और वर्चुअल दुनिया में कोई फर्क ही नजर नहीं आता था. बरसों से भूमिका अपने किसी भी दोस्त से नहीं मिली थी. औनलाइन दोस्त ही उस की दुनिया बन कर रह गए थे.

भूमिका अपनी इस समस्या के लिए नए हैशटैग और अपनी एक दुखी तसवीर को क्लिक करने में व्यस्त हो गई थी. शायद जिंदगी के हर लमहे को कैद करतेकरते भूमिका कब और कैसे इस मायावी दुनिया में कैद हो गई थी उसे पता नहीं था.

Hidden Truth : पत्नी और वो

Hidden Truth : एक नाव में सवार व्यक्ति पतवार खेता हुआ झंझटों और संकटों से जू?ाता यदि कोई भयानक दुर्घटना न हो तो अंतत: किनारे पर पहुंच ही जाता है. मगर उस का क्या जो 2 नावों में सवार हो? कहीं न कहीं, कभी न कभी उस के जीवन का संतुलन बिगड़ना तय है. वह कभी एक नाव को संभालता है, कभी दूसरी को. इसी कशमकश में कभी न कभी धोखा लगता है और संतुलन बिगड़ जाता है. नावें तो बह जाती हैं लेकिन ऐसे आदमी को किनारा नहीं मिलता, उस की नियति पानी में डूब जाना है.

रामप्रसाद कोई बहुत बड़ा नहीं तो छोटा आदमी भी नहीं था. उस का काम बहुत बढि़या नहीं तो खराब भी नहीं कहा जा सकता था. कभीकभार दोस्तों की महफिल जमती तो 2 पैग भी लगा लेता. मन हुआ तो सिगरेट के कश भी लगा लेता, लेकिन मीटमच्छी से दूर ही रहता. मनमौजी. अपने काम की परवाह करने वाला. अपने परिवार की चिंता करने वाला. 2 बेटियों का अच्छा पिता. एक छोटे से गिफ्ट सैंटर, ‘सलोनी गिफ्ट सैंटर’ का अच्छा मालिक और संचालक. अपनी पत्नी देवयानी का खूब खयाल रखने वाला पति. इस से अच्छा एक आम आदमी और क्या हो सकता है?

एक भारतीय नारी की तरह देवयानी घर को संभालती. घर का सारा काम खुद करती. रामप्रसाद ने कई बार कहा, ‘‘देवयानी, तुम घर का सारा काम करतेकरते थक जाती होगी, कोई झाड़ूपोंछा करने वाली लगा ही लो.’’

‘‘नहीं, जब तक इन हाथपैरों में जान है मैं कामवाली को पैसे न देने वाली. तुम्हारे पास पैसे ज्यादा आ रहे हों तो मुझे ही कामवाली समझ कर दे दिया करो.’’

‘‘देवयानी, कैसीकैसी बातें करती हो? तुम घर की मालकिन हो, तुम्हें कामवाली क्यों समझूंगा भला? ऐसी बातें कभी मुंह से गलती से भी मत निकालना.’’

‘‘अच्छा, गलती हो गई. क्षमा करो देवताजी. मैं ने तो बस 4 पैसे बचाने की सोच कर यह बात कह दी थी.’’

इस तरह से रामप्रसाद का परिवार खुशहाल था. दोनों बेटियां बड़ी मलोनी 12वीं कक्षा में और छोटी सलोनी 10वीं कक्षा में पढ़ रही थी. दोनों अपने मम्मीपापा की आज्ञाकारी बेटियां थीं.

फिर एक दिन, ‘‘क्या 15 साल के बेटे के जन्मदिन के लिए कोई अच्छा सा गिफ्ट होगा?’’ एक आकर्षक महिला ने बड़ी मधुर आवाज में रामप्रसाद से पूछा.

रामप्रसाद एक पल उसे निहारता रह गया. फिर बोला, ‘‘हां, है न. बैठिए, अभी दिखाता हूं,’’ कहते हुए रामप्रसाद ने 3-4 गिफ्ट उस महिला को दिखा दिए.

‘‘और दिखा सकते हैं, प्लीज?’’ उस महिला ने बड़े प्यार से निवेदन किया.

रामप्रसाद छोटी सीढ़ी लगा कर छत से लगी सैल्फ से कुछ और गिफ्ट के पैकेट उतार कर उस महिला को दिखाने लगा. वह महिला गिफ्ट देख रही थी और रामप्रसाद उस महिला के आकर्षक चेहरे को. वह महिला रामप्रसाद की इस कमजोरी को ताड़ गई. उस ने एक गिफ्ट पसंद कर लिया.

‘‘क्या कीमत है इस की? ’’ उस महिला ने बेवजह मुसकराते हुए पूछा.

रामप्रसाद तो जैसे उस की मुसकान पर मोहित हो गया हो. उस ने भी उसी अंदाज में मुसकराते हुए कहा, ‘‘वैसे तो इस की कीमत 1,500 रुपए है लेकिन आप के लिए 1,400 रुपए का.’’

अपने नयनों से वार करते हुए उस महिला ने मादक अंदाज में कहा, ‘‘ऐसी मेहरबानी क्यों जनाब और मैं तो इस के 1,200 रुपए से ज्यादा देने वाली नहीं?’’

‘‘अरे मैडम, आप फ्री में ले जाएं, सब आप का ही तो है, ‘‘रामप्रसाद ने उस महिला के सामने लगभग समर्पण करते हुए कहा.

कुदरत ने महिलाओं का दिल और दिमाग ऐसा बनाया है कि वे मर्दों की महिलाओं के प्रति इश्क की कमजोरी को सरलता से ताड़ लेती हैं. वह महिला जान गई कि रामप्रसाद फिसल रहा है. उस ने अपने गुलाबी पर्स में से 1,200 रुपए निकाले और काउंटर पर रख दिए.

रामप्रसाद का मन तो उस महिला से एक पैसा लेने को भी नहीं हो रहा था लेकिन पैसे तो उठाने ही थे. उस ने पैसे उठाते हुए और उस महिला को गिफ्ट पकड़ाते हुए नशीले अंदाज में धीमे से कहा, ‘‘फिर आना.’’

‘‘अब तो आनाजाना लगा ही रहेगा. आप हो ही इतने दिलकश जनाब,’’ उस महिला ने ऐसे अंदाज में कहा कि रामप्रसाद के दिल पर इश्क की तेज छुरी चल गई. वह उस महिला को एकटक तब तक जाते देखता रहा जब तक वह आंखों से ओ?ाल नहीं हो गई.

उस दिन रामप्रसाद अलग ही दुनिया में चला गया. उस रोमानी दुनिया में जो वास्तविकता से बिलकुल अलग होती है. उस के पैर आज जमीं पर नहीं थे. उस का दिल आज उस के काबू में नहीं था. उस का दिल कबूतर की तरह गुटरगूं कर रहा था. रामप्रसाद बेवजह मुसकरा रहा था. यह कमबख्त इश्क होता ही ऐसा है जो इंसान को बदल कर रख देता है.

अगली ही मुलाकात में रामप्रसाद ने उस महिला के परिचय का बहीखाता तैयार कर लिया. उस का नाम अरुणा था. वह पारस लोक कालोनी में रहती थी. वह शादीशुदा थी. उस का पति बैंक में क्लर्क था. उस की बेटी बीए द्वितीय वर्ष की छात्रा थी जबकि बेटा 9वीं क्लास में पढ़ता था.

अरुणा को यह विश्वास नहीं था कि रामप्रसाद इश्क के दरिया में इतनी जल्दी फिसल जाएगा. वह इस क्षेत्र की माहिर खिलाड़ी थी. उस ने परिवार वाले मर्दों को कम ही और मुश्किल से ही इश्क के दरिया में फिसलते देखा था. आवास, अनाड़ी और लफंगे नवयुवक तो एक ही इशारे में इश्क के दरिया में छलांग लगाने को तैयार हो जाते थे. लेकिन इन अनाडि़यों से संबंध बनाने में हमेशा खतरा रहता है. एक तो ये अपनी मित्रमंडली में सारी बात खोल देते हैं जिस से बदनामी का डर हमेशा रहता है, दूसरे इन में उतावलापन ज्यादा रहता है. इन से बदले में कुछ ज्यादा मिलता भी नहीं.

परिवार वाला शादीशुदा आदमी अपने इश्क का ढिंढोरा पीटता नहीं घूमता. उसे खुद भी अपनी बदनामी का डर होता है और पोल खुलने पर परिवार के टूटने का भी. वह संयम से काम लेता है, उतावलेपन से नहीं. उस से गिफ्ट लेने और शौपिंग के बहाने कमाई भी अच्छी हो जाती है.

यही सब सोच कर अरुणा ने जल्द ही रामप्रसाद से जिस्मानी संबंध बना लिए.

उस ने गिफ्ट आदि के नाम पर रामप्रसाद से उगाही भी शुरू कर दी. वह अच्छी तरह जानती थी मर्दों से उगाही कैसे की जाती है. कभी रामप्रसाद ने उस के चंगुल से निकलने की कोशिश की तो अरुणा ने उसे भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल कर के संबंधों को और प्रगाढ़ बना लिया.

एक बानगी-

‘‘रामप्रसाद, मैं ने तुम्हारे इश्क में अंधी हो कर अपना सबकुछ लुटा दिया. अपनी इज्जतआबरू सब तुम्हें सौंप दी. अब तुम मुझे मंझधार में छोड़ना चाह रहे हो. मैंने तो तुम्हें ऐसा न समझ था. तुम तो उस बेवफा भौंरे की तरह निकले जो कली का रस पी कर उड़ जाता है.’’

अरुणा की आंखों में आंसू देखते ही रामप्रसाद पिघल जाता और अपने सच्चे इश्क के वादे करने लगता. उस का पहले से ज्यादा खयाल रखने लगता.

अरुणा उस से और ज्यादा उगाही करने लगती. दूसरी नाव की सवारी ऐसी हो गई कि रामप्रसाद उसे छोड़ नहीं पा रहा था. पहली नाव में तो वह सवार था ही, उसे तो वह छोड़ ही नहीं सकता था.

रामप्रसाद अरुणा के फेंके दांव में ऐसा फंसा कि उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. अरुणा नागिन की तरह उस के दिलोदिमाग को जकड़ती जा रही थी. वह रामप्रसाद को बारबार यही जताती कि वह उस के लिए उस की बीवी से कम नहीं है. इसलिए रामप्रसाद की आमदनी में उस का बराबर का हिस्सा बनता है. यदि वह इसे नहीं देता तो उस के साथ नाइंसाफी होगी. ऐसा होने पर वह हंगामा करेगी और रामप्रसाद के बीवीबच्चों को सब बात बता देगी.

अरुणा रामप्रसाद के लिए गले में फंसी ऐसी हड्डी बन गई जो न निगलते बनती थी और न उगलते.

उधर देवयानी को यह बात समझ में नहीं आ रही थी कि रामप्रसाद को क्या होता जा रहा है. वह हर समय परेशान क्यों रहता है? परिवार से भी कटाकटा क्यों रहता है?

एक दिन देवयानी ने उस से पूछा, ‘‘क्योंजी, क्या बात है आप मुझे परेशान से दिखाई

पड़ते हो? कोई बात हो गई है क्या?’’

‘‘नहींनहीं देवयानी, कोई बात नहीं हुई.

बस कभीकभी मूड ऐसा ही हो जाता है. सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘नहींजी, कोई बात तो है. आप का मूड तो रोज ही खराब सा रहता है. चलो, किसी डाक्टर को दिखाएं.’’

‘‘नहीं, देवयानी. इस में डाक्टर क्या करेगा? जाओ तुम, मुझे ज्यादा परेशान मत करो,’’ कह कर रामप्रसाद ने चादर ओढ़ ली.

देवयानी को लगा कोई तो बात है जो रामप्रसाद उस से छिपा रहा है. दाल में तो कुछ काला है. गिफ्ट सैंटर की आमदनी भी कम होती जा रही है? कहीं उधारी में पैसा तो नहीं डूब गया या फिर कहीं किसी औरतवौरत का चक्कर तो नहीं? नहींनहीं, मेरा रामप्रसाद ऐसा नहीं. ऐसे ही कई सवाल देवयानी के मन में उमड़घुमड़ रहे थे. वह इन सब के जवाब चाहती थी. इसलिए समय निकाल कर गिफ्ट सैंटर पर बैठने लगी.

देवयानी के गिफ्ट सैंटर पर बैठने से रामप्रसाद और अरुणा दोनों को परेशानी थी. फिर भी दोनों ने इस बात को मैनेज किया. अब रामप्रसाद देवयानी से कोई न कोई बहाना बना कर अरुणा से मिलने चला जाता. पहले अरुणा उस से मिलने आया करती थी. लेकिन इस का एक फायदा यह हुआ कि गिफ्ट सैंटर पर बैठने से देवयानी को दुकानदारी आ गई.

हर संभव कोशिश करने पर भी देवयानी को रामप्रसाद की परेशानी का कारण सम?ा में नहीं आया. फिर एक दिन अलग ही कहानी हो गई.

अरुणा की बेटी ऊषा एक दिन कालेज से अचानक घर आ गई. उस ने घर से बाहर रामप्रसाद की मोटरसाइकिल खड़ी देखी. रामप्रसाद पहले भी उन के घर आया था और इसलिए वह उस को पहचानती भी थी. वह कोई छोटी बच्ची नहीं थी जो कुछ न समझती हो. उसे पहले से ही रामप्रसाद और अपनी मां के संबंधों पर शक था. उन्हें आज रंगे हाथ पकड़ने का ऊषा को मौका मिल गया.

उस ने उन्हें रंगे हाथ पकड़ने की एक युक्ति सोची. उस ने अपने घर की डोरबैल नहीं बजाई बल्कि पड़ोसी के घर से अपने घर में दाखिल हुई. उस समय तक वे दोनों अपना काम निबटा कर फारिग हो चुके थे.

ऊषा को सामने देख कर दोनों चौंक गए. चोर की दाढ़ी में तिनका. ऊषा को देखते ही रामप्रसाद वहां से भागा. ऊषा ने उसे पकड़ने की बहुत कोशिश की लेकिन वह ऊषा को धक्का दे कर गेट की तरफ भागा.

ऊषा फर्श पर गिर पड़ी. उसे उठ कर संभलने में 2 पल लगे. ये 2 पल रामप्रसाद के लिए काफी थे. वह गेट से बाहर आया और अपनी मोटरसाइकिल स्टार्ट कर वहां से भाग खड़ा हुआ.

ऊषा शिकार को हाथ से निकलते देख गुस्से से हांफ रही थी. उस ने अपने गुस्से को पहले तो अपनी मां को खरीखोटी सुना कर उस पर उतारा लेकिन अभी भी उस के अंदर गुस्से का ज्वालामुखी फूट रहा था. वह पैदल ही झपटते हुए रामप्रसाद की दुकान की तरफ बढ़ चली. दुकान मात्र 500 मीटर दूर थी.

रामप्रसाद हड़बड़ाता हुआ अपने गिफ्ट सैंटर पहुंचा था. उस की ऐसी हालत देख कर देवयानी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, इतने हांफ क्यों रहे हो? ’’

रामप्रसाद को एकदम से कुछ समझ में नहीं आया कि क्या कहे? फिर वह कुछ सोच कर बोला, ‘‘ऐक्सीडैंट, देवयानी, ऐक्सीडैंट. मैं बालबाल बचा. पानी… पानी पिलाओ.’’

देवयानी ने फुरती से पानी की बोतल उठा कर रामप्रसाद को दी. रामप्रसाद अभी बोतल से पानी पी ही रहा था तभी उस की नजर गुस्से से लालपीली और तेजी से झपटती आ रही ऊषा पर पड़ी.

ऊषा को देख कर वह लगभग चीख पड़ा, ‘‘देवयानी… ऐक्सीडैंट.’’

देवयानी भौचक्की सी इधरउधर देखने लगी. उसे लगा कि रामप्रसाद अभीअभी ऐक्सीडैंट से बच कर आ रहा है. इसलिए उस के दिमाग में ऐक्सीडैंट का फुतुर अभी भी घुसा हुआ है. रामप्रसाद की हालत तो ऐसी हो गई थी जैसे काटो तो खून नहीं, बिलकुल बेजान.

ऊषा ने आते ही रामप्रसाद की खोपड़ी पर तड़ातड़ चप्पलों की बरसात शुरू कर दी. वह चप्पल बरसा रही थी और जबानी आग उगल रही थी, ‘‘हरामजादे, मैं उतारूंगी तेरे बुढ़ापे का इश्क. बहुत आग उठ रही तुझे बुढ़ापे में, हरामखोर.’’

ऊषा उस पर तब तक चप्पलें बरसाती रही जब तक देवयानी और पासपड़ोस के दुकानदारों ने उसे काबू नहीं कर लिया. रामप्रसाद चुपचाप चप्पलें खा कर निढाल हो कर काउंटर के पीछे गश खा कर गिर गया.

ऊषा समुद्र के ज्वार की तरह आई थी और तबाही मचा कर भाटे की तरह यह कहती हुई चली गई, ‘‘हरामजादे, घर की तरफ फटक मत जाना, नहीं तो खून पी जाऊंगी, खून तेरा…’’

ऊषा को कुछ लोग पहचानते थे. कुछ को रामप्रसाद और अरुणा के संबंधों की भनक भी थी. अब उस के आखिरी शब्दों ने सबकुछ खोल कर रख दिया था, छिपाने को कुछ बचा नहीं था. आपस में खुसरफुसर शुरू हुई तो सब सबकुछ जान गए.

रामप्रसाद की ऐसी घनघोर बेइज्जती कभी नहीं हुई थी. यह जलालत उस की बरदाश्त से बाहर थी. वह बाहर वालों को तो छोडि़ए अपनी पत्नी और बच्चों को भी मुंह दिखाने लायक नहीं बचा था.

सुबह उस की लाश को पुलिस वाले पंखे से लटके फंदे से नीचे उतार रहे थे. जब उस की लाश बिजनौर के जिला अस्पताल को पोस्टमार्टम के लिए भेजी जा रही थी तो उस के बच्चे ‘पापा, पापा’ कर के दहाड़ें मार कर रो रहे थे लेकिन देवयानी की आंखें शुष्क हो चुकी थी.

कुछ दिनों के बाद दुनिया वैसी की वैसी हो गई. फर्क बस इतना था ‘सलोनी गिफ्ट सैंटर’ के काउंटर पर रामप्रसाद की जगह देवयानी बैठी थी. सच है, किसी के आनेजाने से इस दुनिया पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

Meri Bitiya : प्यारी सी बिटिया केशवी

Meri Bitiya : केशवी… यथा नाम तथा रूप… कमर तक लहराते बाल. गेहुआं रंग, तीखे नैननक्श. छरहरी काया और आवाज तो मानो वीणा झंकृत होती हो. मंदिम स्वर कुछ सांचे तो कुदरत तराश कर ही बनाती है.

‘‘मैं आई कम इन सर,’’ धीमा सा, डरा सा स्वर, सहसा कक्षा में गूंजा.

‘‘यस कम इन… लेकिन तुम लेट कैसे हो गई और तुम्हें पहले कभी देखा भी नहीं?’’ सर की आवाज के साथ सारी कक्षा का ध्यान उस मनमोहक चेहरे पर था.

‘‘वह सर मेरा न्यू एडमिशन है और मुझे सही समय का पता नहीं था इसलिए आने में देरी हो गई,’’ केशवी का कंपित स्वर सुन कर बच्चों की दबी हंसी मानो गुंजित हो रही हो.

‘‘बैठ जाओ आगे से समय का ध्यान रखना,’’ सर ने सीट की तरफ इशारा करते हुए कहा और उपस्थिति लेने में मशगूल हो गए.

बच्चों को तो मानो कुतूहल का विषय मिल गया हो. मानो उस का ऐक्स रे ही निकाल रहे हो. उपस्थिति के बाद जब सर ने पढ़ाना शुरू किया तो भला आज कहां किसी को समझ में आने वाला था. एक नया अध्याय जो क्लास में आ गया था. जब तक उस की तहकीकात नहीं हो जाती कहां चैन आने वाला था? किशोर मन बड़ा जिज्ञासु होता. अधूरा ज्ञान अधूरा मन. जिस में संभावनाओं की अनंत डगर… ऐसा लग रहा था आज पीरियड खत्म ही नहीं हो रहा. शायद चपरासी घंटी बजाना भूल गया? जैसे ही घंटी बजे और केशवी का नाम तो पूछ ही लें.

इंतजार की घडि़यां समाप्त हुईं और सर ने प्रस्थान किया. इस से पहले कि दूसरे सर का आगमन हो कुछ तहकीकात तो कर ही लेते हैं. कुछ किशोर चंचलाएं फुरती से उठ कर उस के पास पहुंचीं और पता होने के बाद भी उस का नाम पूछने लगीं.

‘‘कहां से आई हो तुम?’’ एक लड़की ने पूछा.

‘‘मैं… मैं गुना से आई हूं, मेरे पापा का ट्रांसफर हुआ है.’’

मानो केशवी की पुलिस पूछताछ हो रही हो, ‘‘कल से समय से आना. स्कूल का समय 7 बजे का है,’’ कुछ और हिदायतें भी सुनाई दे रही थीं.

इतने में कक्षा में नए सर का आगमन हो गया और किशोर मन का कुतूहल शांत नहीं हो पाया.

ऐसे ही पीरियड पूरी हो गई और कुछ ज्यादा जिज्ञासु बच्चों की कुछ जिज्ञासा भी शांत हो गई. धीरेधीरे दिन निकलने लगे और केशवी भी क्लास के रंग में ढल गई.

एक दिन अचानक केशवी मेरी सीट पर बैठ गई और धीरे से उस ने मेरा नाम पूछा.

चूंकि मुझे पता था कि सब उस से नाम ही पूछते हैं इसलिए मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारा नाम बहुत प्यारा है, क्या मैं तुम्हें केशू पुकार सकती हूं?’’

उस ने कहा, ‘‘हां… हां क्यों नहीं. मुझे घर में केशू ही बुलाते हैं.’’

अच्छा… तुम्हारे घर में कौनकौन हैं?’’ मैं ने उस से पूछा.

‘‘मेरी मम्मी, पापा 2 बहनें और 1 भाई है.’’

उस की मधुर आवाज मानो कोयल कूहूक रही हो. लेकिन स्वर इतना धीमा कि अपने कानों पर ही संदेह होने लगे. खैर, बातचीत आगे बढ़ाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हारे पापा क्या करते हैं?’’

‘‘मेरे पापा बैंक में हैं. उन का ट्रांसफर हुआ है,’’ केशू ने कहा.

‘‘पता है इस क्लास में मुझे तुम सब से अच्छी लगीं. मैं तुम्हें ही देखती रहती हूं और तुम से दोस्ती करने की कब से इच्छुक हूं.’’

उस के धीमे स्वर से मुझे अपनी तारीफ के शब्द बहुत स्पष्ट सुनाई दे रहे थे. पता नहीं प्रशंसा हम सब की जन्मजात क्यों कमजोरी होती है. प्रशंसा से हमारी इंद्रियां भी सचेत हो जाती हैं.

‘‘अच्छा,’’ मैं ने गर्वित मुसकान के साथ कहा, ‘‘अरे ऐसा कुछ नहीं तुम भी बहुत प्यारी हो.’’

‘‘बोर्ड का ऐग्जाम है तुम्हें कोई परेशानी आए तो मुझ से पूछ सकती हो,’’ मैं ने दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए उस से कहा.

अब नित्य का यह क्रम बन गया और हम दोनों की दोस्ती प्रगाढ़ होती गई.

दोस्ती का आलिंगन भी तब ही होता है जब कुछ समानताएं होती हैं और धीरेधीरे हम दोनों कब एकदूसरी से सारी बातें करने लगे पता ही नहीं चला. कैरियर … फिर विवाह और जाने कितने भविष्य के कैनवास. जिन पर मन मुताबिक रंग भरने लगे. ऐसे ही बातों में मैं ने उस से कहा, ‘‘तुम लव मैरिज करोगी या अरेंज्ड मैरिज?’’

‘‘लव मैरिज? न बाबा यह मेरे बस का रोग नहीं. मैं तो अपने पापा के राजकुमार के साथ ही खुश हूं,’’ केशू ने कहा.

‘‘सही कह रही है. तेरी हिम्मत तो नाम बताने की भी नहीं. लव भी कैसे करेगी… हां बाल के केश और चेहरा जरूर किसी को दीवाना बना सकता है. लेकिन जब वह तुम्हारी आवाज सुनेगा न तो उसे संदेह ही हो जाएगा. लड़की बोलती भी है या नहीं,’’ मैं ने उस की चुटकी लेते हुए कहा.

‘‘हठ पगली लववव मैं नहीं करने वाली,’’ केशू ने कहा.

एक संकोची स्वभाव की सौंदर्य से भरपूर किशोरी है जिस के पापा का हाल ही में स्थानांतरण हुआ है, उस की नए विद्यालय में एक सखी बनती है जिस से वह अपना सब साझा करती है. अब आगे मार्च का महीना है. पूरे सहपाठी जोश से पढ़ाई में लगे हुए हैं. पढ़ाई में सामान्य केशू भी अपनी पूरी ताकत से जुटी हुई है. चूंकि 12वीं कक्षा का ऐग्जाम है इसलिए अथक प्रयास है कि अच्छे अंक अर्जित किए जाएं.

मैं और केशू अकसर साथ पढ़ाई करते थे. साथ ही भावी योजनाएं भी बनाते थे. बोर्ड की परीक्षा में हम दोनों ने ही अच्छे अंक अर्जित किए और भविष्य की ऊंची उड़ानों के साथ महाविद्यालय में दाखिला लिया.

महाविद्यालय, शैक्षणिक जीवन का दूसरा व अंतिम पड़ाव. जहां भविष्य की उड़ान के साथसाथ आंखों में रंगीन सपने भी तैरते हैं. सब की एक अंतरंग ख्वाहिश कि काश कोई सपनोंका सौदागर मिल जाए. प्यार, एक एहसास जिस को सब महसूस तो करना ही चाहते हैं, प्यार की कशिश ही ऐसी होती है. यह बात अलग है कि प्यार हर किसी के हिस्से में नहीं होता.

कालेज में हम गर्ल्स का गु्रप अकसर हंसीठिठोली करता रहता था. उसी में केशू जो हंसने में माहिर थी और उस की उस निश्छल हंसी पर कब समीर फिदा हो गया, पता ही नहीं चला.

कहते हैं इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. लैब में एक दिन समीर ने केशू से मिलने को कहा. केशू में मानो काटो तो खून नहीं. बिना जवाब दिए केशू का चेहरा गुलाबी हो गया. उस के बाद दोनों में कोई बात नहीं हुई.

मूक मिलन का सिलसिला कक्षा में चलता रहा और हम द्वितीय वर्ष में प्रवेश कर गए. एक दिन मैं और केशू कालेज जा रहे थे तो समीर रास्ते में दिखा.

मैं ने केशू की चुटकी लेते हुए कहा कि तुम दोनों की लव स्टोरी कहां तक पहुंची? गानेबाने हुए कि नहीं. उस ने कहा कि कौन सी लव स्टोरी. कोई प्यार नहीं है मेरा तो…

मैं ने कहा कि झूठ मत बोलो. तुम न कहो तो क्या है तुम्हारा गुलाबी चेहरा सब कह रहा है. सचसच बताओ तुम्हें भी पसंद है न समीर?

उस ने मुसकराते हुए कहा कि हां बुरा भी नहीं. लेकिन मैं प्यार के चक्कर में पड़ने वाली नहीं. मेरे लिए तो मेरे पापा ही राजकुमार ढूंढ़ेंगे.

धीरेधीरे समीर का आकर्षण बढ़ता जा रहा था और केशू का संकोची स्वभाव दोनों के मिलने में बाध्य बन रहा था.

एक दिन समीर ने मु?ो एक कागज केशू को देने को कहा. जानते हुए भी मेरा किशोर मन कहां उसे पढ़े बिना रह सकता था. फिर मैं ने वह केशू को दे दिया. मैं ने केशू से कहा, ‘‘अब तो हां कर दे.’’

वह शरमाते हुए बोली, ‘‘नहीं, मुझे नहीं मिलना.’’

मगर उस के चेहरे का रंग बता रहा था कि वह भी समीर को पसंद करने लगी है.

प्यार पाना हर किसी को अच्छा लगता है लेकिन उस में आगे बढ़ना साहस का ही काम है. पहली बात तो प्यार के खरेपन को पहचानना, फिर जमाने से रूबरू होना. केशू जैसी अनेक लड़कियों की चाहतें पलकों में ही दफन हो जाती हैं, उन्हें लफ्ज ही नहीं मिल पाते.

समीर पढ़ने में तेज था, साथ ही अच्छे घर का लड़का भी था. केशू की सौम्यता उस को भा गई थी. चूंकि केशू शरमीले स्वभाव की थी इसलिए समीर भी आगे नहीं बढ़ पा रहा था. वह पढ़ाई में भी केशू की सहायता करता था और दोनों में थोड़ी नजदीकी हो गई.

एक दिन समीर ने केशू से कह ही दिया कि मैं तुम्हें पसंद करता हूं और जीवनभर इस रिश्ते को कायम रखना चाहता हूं.

केशू जवाब तो नहीं दे पाई लेकिन उस रात नींद उस की आंखों से कोसों दूर रही. रातभर इस कशमकश में रही कि समीर को क्या जवाब दे. दिल तो हां कहना चाहता था लेकिन संस्कार विवश कर रहे थे कि घर में कैसे बताएगी.

कहते हैं कुछ फैसले अपनेआप हो जाते हैं. हम अपनेआप को उलझाए रखते हैं और उन का हल स्वत: निकल आता है.

ऐसा ही हुआ. प्यार के रंग में रंगी केशू सुबह उठी तो पापा के स्थानांतरण ने मानो सारे प्रश्नपत्र ही हल कर दिए हों… जिंदगी हमारे सामने प्रश्नपत्र तो रखती ही है. कुछ प्रश्न अनिवार्य भी होते हैं लेकिन उन के हल भी स्वत: उत्तरित होते हैं. लेकिन जब फैसला लेना होता है तो हम अपनी पूरी योग्यता लगा देते हैं. ऐसे ही सुनहरी सपनों और संस्कारों के बीच पलती केशवी को अपने झंझावात से मुक्ति मिल गई और इश्क का सूफियाना रंग एक पल में फीका पड़ गया.

परिवर्तन संसार का नियम हैं… इस परिवर्तनशील संसार में स्थैत्व बनाना हमारी नियति. केशू के पापा के स्थानांतरण के साथ केशू की भी नई जिंदगी शुरू हो गई.

ग्वालियर शहर में नया महाविद्यालय, नए लोग. नए चेहरों में केशू की निगाहें अकसर समीर को ढूंढ़ती रहती थीं.

केशू के पापा ने केशू की बहन का विवाह निर्धारित कर दिया. विवाह की तैयारियों में पूरा परिवार जुट गया. केशू भी अपने जीजू से मिलने के लिए बेहद उत्साहित थी.

समीर अपने कैरियर को ले कर गंभीर हो गया था. वह कई प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की तैयारी में जुट गया. विवाह की खरीदारी में व्यस्त केशू को एक दिन समीर जैसा चेहरा दिखाई दिया. उस के कदम ठिठक गए और वह उस के नजदीक आने का प्रयास करने लगी. अचानक उस के मुंह से निकल गया, ‘‘समीर तुम?’’

‘‘हां केशू… तुम कैसी हो?’’

समीर की आवाज सुन कर केशू मानो उसे रिकौर्ड करना चाहती हो.

‘‘मगर तुम कैसे हो?’’ बस वह इतना ही पूछ पाई.

तभी उस के पापा उसे बुलाने आ गए.

रात भर केशू की आंखों में समीर का चेहरा घूमता रहा. मन को रक्स के लिए आजाद छोड़ते हुए केशू बहन के विवाह की तैयारियों में जुट गई.

विवाह होते ही बहन अपनी ससुराल में रम गई और नवविवाह की अठखेलियों का लुत्फ केशू अपनी बहन से बड़े चाव से सुनती और मन ही मन अपने भावी राजकुमार को भी देखती.

समय तो ठहरता ही नहीं. अपनी गति से चलता है और धीरेधीरे केशू को अपने विवाह के चर्चे भी घर में सुनाई देने लगे.

पता नहीं क्यों विवाह का स्वप्न आंखों में चमक ला ही देता है. जीवन का एक रंगीन ख्वाब जो बिना तालीम के ही महसूस होने लगता है. ऐसे ही राजकुमार के सपने देखती केशू ने अपने पिता को उस की मां से बात करते हुए सुना था. एक पल को केशू की आंखों में समीर का भी चेहरा सामने आ रहा था. लेकिन सारी चाहतें कहां पूरी होती हैं, यह सोचते हुए केशू अपने पापा की बातों को ध्यान से सुन रही थी. पास ही के शहर ?ांसी का रहने वाला परिवार था.

‘‘2 भाई और 1 बहन है. लंबीचौड़ी जमीनजायदाद है, नौकरी की तो उन को जरूरत ही नहीं. हमारी केशू राज करेगी. लड़का देखने में भी अच्छा है, पढ़ालिखा भी अच्छा है,’’ पापा को कहते सुना केशू ने, ‘‘रईस लोग हैं इसलिए हमें थोड़ा पैसा अच्छा लगाना पड़ेगा पर हमारी केशू अच्छे घर में चली जाएगी.’’

केशू के पापा फिर पैसों की जुगाड़ बताने लगे. केशू की मां भी अपनी बेटी को रानी बनते देखने लगी और धीरेधीरे बात आगे बढ़ने लगी.

‘‘सोमवार को केशू को देखने आ रहे हैं,’’ एक दिन केशू को पापा की आवाज सुनाई दी.

कंपित हृदय से केशू अपने भावी राजकुमार का डीलडौल सोचने लगी और अपनेआप को तैयार भी करने लगी.

मेरा और केशू का संबंध सिर्फ खतों का रह गया था तो कभीकभी हम दोनों एकदूसरे की कुशलता पूछ लिया करते थे.

धीरेधीरे सोमवार आ गया और सुबह से ही केशू को दिखाने की तैयारियां जोरों पर थीं.

घर का कोनाकोना करीने से व्यवस्थित था. रसोई से अनेक व्यंजनों की महक आ रही थी.

घंटी बजी और प्रतीक्षित मेहमान आ गए. पूरा घर उन की खिदमत में लग गया, फिर केशू को भी बुलाया गया. सहमी सी केशू सब के सामने आ कर बैठ गई. औपचारिक प्रश्नों के बाद केशू और भावी राजकुमार को साथ समय बिताने को कहा.

कंपित हृदय से केशू ने जब लड़के से बात की तो केशू को उस की बातों में प्यार की महक न आ कर दंभ की बूआ रही थी. लेकिन वह छोटी सी मुलाकात से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाई.

मेहमानों के जाने के बाद सब ने एकदूसरे की राय जाननी चाही और सब से अहम केशू की राय, जिस में केशू, कशमकश में थी.

‘‘पापा ने देखा है तो अच्छा ही होगा और मैं कहां किसी को समझ पाती हूं,’’ खयालों में डूबी केशू के मन में विचारों का मंथन चल रहा था. एक खयाल आ रहा था दौलत अपनी जगह है और जीवनसाथी अपनी जगह…हां के लिए अपनेआप को तैयार तो कर रही थी लेकिन पूर्णतया हां भी नहीं कर पा रही थी. अनकही चाहत की कशिश लिए केशू ने अपने मन को समझाया कि जिंदगी लंबी है, क्या पता फिर मुलाकात हो जाए.

कालेज में हौट न्यूज बना केशू का स्थानांतरण समीर के कानो तक भी पहुंच गया और अपनी बेबसी का इजहार न कर सका.

देखते ही देखते केशू के जाने का समय नजदीक आ गया और उस के लिए हम सब ने एक विदाई पार्टी भी दी, जिस में समीर भी आया मानो उस के चेहरे का नूर ही चला गया हो. भारी मन से सब ने फोटो लिए गिफ्ट भी दिए और केशू को विदाई दी.

समीर ने बस इतना कहां, ‘‘जहां भी रहो खुश रहो, याद करती रहना,’’ छलकती आंखों से समीर ने केशू को विदा किया.

एक हां से जीवन का फैसला बहुत मुश्किल ही होता है, इसीलिए कहा जाता है विवाह तो लौटरी है. ऐसी ही जद्दोजहद में उलझ केशू का मन. एक तरफ तो भविष्य की उड़ान भर रहा था तो दूसरी ओर लड़के के व्यवहार से थोड़ा आशंकित भी था. लेकिन कुछ फैसले हमारे नहीं होते. हम तो निमित्त मात्र होते हैं और पूरी इबारत लिखी होती है.

केशू ने पापा के चुनाव को निस्संदेह देखते हुए विवाह के लिए हां कर दी. दबा सा एक मलाल जबतब समीर  के लिए आंखों में तैर जाता था. लेकिन हम मध्यवर्गीय लोगों के ख्वाब कहां मुकम्मल होते हैं. यह सोचते हुए केशू भविष्य के रंगीन सपनों में खो गई.

समीर ने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगा दिया था. ग्रैजुएशन के बाद उस ने कंपीटिटिव ऐग्जाम की तैयारी में अपनी जान लगा दी. उस की मेहनत रंग लाई और उस ने उच्च पद हासिल कर लिया. लंबे अरसे के बाद केशू के पास खत आया मानो उस को उस का राजकुमार मिल गया हो. उस ने लिखा देख में अपने पापा के ढूंढे़ राजकुमार के साथ ही विवाह करने जा रही हूं और साथ ही उस ने विवाह के लिए आमंत्रणपत्र भी भेजा था.

रंगीन भावी योजनाओं के बीच केशू को अपने मंगेतर का व्यवहार कभीकभी व्यथित कर देता था लेकिन वह सोचती मैं अपने प्यार से सब सही कर दूंगी.

बेशक प्यार में बहुत ताकत होती है. वह इंसान को बदल भी देता है. मगर प्रेम का बीज होता है जब. जिस हृदय की मिट्टी गीली होगी प्रेम का अंकुर वहीं स्फुटित होगा. कुछ हृदय बंजर ही होते हैं वहां प्रेम की आशा ही निरर्थक है.

धीरेधीरे विवाह की तिथि भी नजदीक आती जा रही थी और केशू और उस का परिवार अपनी चादर से ज्यादा पैर फैला रहा था. बिटिया के सुनहरे भविष्य के लिए केशू के पापा ने लोन भी लिया कि बड़े लोगों से रिश्ता जोड़ा है तो विवाह उन के अनुरूप ही होना चाहिए.

अपनी प्रिय सखी के विवाह आमंत्रण को मैं भी नहीं ठुकरा पाई और बिना बताए ही ग्वालियर पहुंच गई. केशू की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उस ने कहा कि मुझे पूरी उम्मीद थी तुम जरूर आओगी. धीरेधीरे अपनी ससुराल के ऐशोआराम का भी बखान करने लगी. हम भारतीय नारी होती ही ऐसी हैं. उन्हें मायके मैं ससुराल के गुणगान और ससुराल में मायके के गुणगान करना अच्छा लगता है.

मेहंदी की रस्म हुई जिस में केशू के हाथों पर उस के भावी पति का नाम सुनील भी लिखा गया. सूर्ख रंग मेहंदी का देख कर मैं ने केशू से कहा कि जीजू तो बहुत प्यार करेंगे तुम्हें… तुम्हारी मेहंदी का रंग बता रहा है. करेंगे क्यों नहीं हमारी सखी है ही इतनी प्यारी. और विवाह की खुशियां गूंजने लगीं. शादी बहुत भव्य स्तर की लग रही थी और उतनी ही खूबसूरत दुलहन. अच्छा खानापीना, सबकुछ उच्चस्तरीय और 7 फेरों के बंधन में बंध गई केशू.

डोली में बैठी केशू अपने मांबाप से विदा होते हुए बहुत रोई और अपने भाई को तो छोड़ना ही नहीं चाह रही थी. नई गाड़ी में साजन के साथ हम सब को छोड़ कर विदा हो गई केशू.

बहुत पैसे वाले लोग हैं. केशू राज करेगी. रिश्तेदारों का विश्लेषण शुरू हो गया. मैं ने भी अपनी सखी के जाने के बाद विदा होना उचित समझ.

आलिशान बंगला और सुंदर सजावट मानो खूबसूरती माहौल के कणकण में व्याप्त हो.

दैहिक सौंदर्य बेशक नैसर्गिक होता है और समय से वह धूमिल भी होता है लेकिन विवाह के समय तो सौंदर्य न केवल एक पैमाना होता है वरन खूबसूरत दूल्हा या दुलहन एक आकर्षण का केंद्र तो होते ही हैं. ऐसी ही खूबसूरत वधू सब की नजरों का केंद्र बनी हुई थी.

रस्मोरिवाज के बाद अंतत: वह घड़ी भी आ गई जब स्त्री अपना संपूर्ण अस्तित्व एक अजनबी को सौंप देती है. जिस अस्मत की हिफाजत वह सालों से करती है विवाह उसी समर्पण की स्वीकृति है.

शर्म से लाल केशू और उस के लंबे केश मानो उस के सौंदर्य में चार चांद लगा रहे हों और फिर दोनों के मिलन की बेला थकी हुई केशू प्यार की प्रतीक्षा में शर्म से छुईमुई हो रही थी.

सुहाग सेज पर बैठी केशू… मध्यम रोशनी. कमरे की भव्य सजावट मानो वातावरण में असीम सुकून घुला हो. बैठेबैठे यों ही इस सुकून में मन को रक्स के लिए आजाद छोड़ते हुए कब आंख लग गई पता ही नहीं चला.

‘‘समीर तुम?’’

‘‘हां, मैं केशू…’’ समीर की आवाज से केशू चौंक गई.

‘‘जिस को शिद्दत से चाहो वह मिल ही जाता है,’’ कहते हुए समीर ने केशू को बांहों में भर लिया. छुईमुई सी केशू मानो पिघल ही जाएगी.

समीर ने केशू के बालों को सहलाते हुए प्यार की निशानी गुलाब उस के सुंदर बालों में लगा दिए. दोनों एकदूसरे की बांहों में खो गए.

अपने अस्तित्व का समर्पण आसान नहीं होता और समर्पण के बिना स्त्री की पूर्णता भी नहीं होती. जैसे नदिया सागर में जा कर मिलती है वैसे ही स्त्री भी पुरुष के समागम में ही पूर्ण होती है. पुरुष जो प्रकृति से ही बलिष्ठ है और स्त्री प्रकृति से कोमल. तो वह एक सशक्त बाहुबल चाहती है जिस को वह अपना वजूद सौंप सके. ऐसे ही बाहुबल की चाहत में केशवी की तंद्रा टूटी और वह तन और मन दोनों से तरबतर हो गई. मैं यह क्या सोच रही हूं. मुझे समीर के बारे में खयाल में भी नहीं सोचना चाहिए. मुझे सुनील को अपनेआप को समर्पित करना है और अचानक उस की नजर घड़ी पर पड़ी. रात्रि के 3 बज चुके थे सुनील अब तक नहीं आए? आशंकाओं से घिरा उस का मन अचानक आहट सुनता है तो अपनेआप को संभालती केशू जैसे धड़कनों को भी सुना देगी.

रात के अंधेरे में ही मन की तहें खुलती हैं. कायनात के रोशन उजाले तो दिमाग को रोशन करते हैं. रात्रि यों तो स्याह होती है लेकिन जीवन पल्लवन इस स्याह रात्रि में ही होता है, मन मिले या न मिले तन के मिलन की यही बेला है. ऐसी बेला की आस में बैठी केशू को जब सुनील की गंध महसूस हुई तो भयभीत केशु मानो चीख पड़ेगी.

सुनील ने शराब पी रखी थी और उस ने केशू के मन को पढ़ना उचित नहीं सम?ा और सिर्फ तन को अनावरत कर वह केशू का पति बन गया.

बेसुध केशू की कब नींद लग गई उसे होश ही नहीं रहा.

बदहवास केशू सुबह उठी तो अपनेआप को व्यवस्थित करने लगी. अपनेआप पर गुस्सा आ रहा था कि ससुराल में पहला दिन और इतनी लेट? नींद को भी आज ही लगना था, सोच रही थी और जल्दबाजी में उस के हाथ से पानी का गिलास फैल गया. बेसुध पड़े सुनील को कुछ पता ही नहीं चला लेकिन डरीसहमी केशू ने पहले पानी समेटा फिर कमरे से बाहर जाने लगी. इतने में एक फ्लौवर पौट गिर गया और तेज आवाज हुई. सकपकाई कैशू ने पौट को सही किया और सुनील की ओर देखा. लेकिन सुनील तो गहरी नींद में था.

केशू ने घड़ी की ओर देखा सुबह के 9 बज चुके थे. केशू अपनी साड़ी और बाल संवार रही थी. इतने में दरवाजे की ठकठक ने केशू की सांसों को और तेज कर दिया. सोच रही थी, सब लोग मेरे लिए क्या सोच रहे होंगे. नवविवाहिता का ससुराल वालों से सामंजय वैवाहिक जीवन की महत्त्वपूर्ण कड़ी होता है और ऐसे में यदि शुरुआत ही सही नहीं हो तो स्थिति मुश्किल हो जाती है.

संस्कारी केशू रिश्तों को दिलों से बांधना चाहती थी लेकिन न चाहते हुए भी उस से गलती हो रही थी. उस ने जल्दी से अपना आंचल संभाला और केश बांधते हुए दरवाजे की ओर बढ़ने लगी सोच रही थी काश, सुनील उसे आ कर बांहों में भर ले और वह उस के आगोश में खो जाए. लेकिन सारी चाहते कहां पूरी होती हैं और बढ़ती सांस और बढ़ते कदम से केशू ने दरवाजा खोला.

नवविवाहिता केशवी देर से सोने के कारण सुबह उठने में भी लेट हो गई. ससुराल में पहला दिन और देर से उठना उस को अपनेआप में लज्जित कर रहा था. उस के कमरे का दरवाजा बजा तो वह बौखलाई सी बाहर आई. बाहर ननद सीमा को खड़े देख कर कुछ बोलती उस के पहले ही सीमा का व्यंग्यात्मक स्वर सुनाई दिया, ‘‘भाभी सुबह हो गई है. क्या भैया ने रातभर सोने नहीं दिया जो अब तक नहीं उठीं?’’

‘‘नहींनहीं वे मुझे,’’ लज्जा से गठरी बनी केशु संयत कंठ से मृदुता से बोली. फिर उस ने नई ससुराल में चुप रहना ही उचित समझो.

कमरे से आगे आई तो सासूमां ने थोड़े सख्त स्वर में कहा, ‘‘हम लोग जल्दी उठते हैं.’’

‘‘जी मम्मीजी,’’ केशू ने कंपित स्वर में कहा.

‘‘अरे बहू का आज पहला ही दिन है उसे चाय तो पिला देते,’’ ससुरजी के स्नेहसिंचित स्वर ने केशू की धड़कनों को कुछ राहत दी.

कहते हैं स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है. पता नहीं क्यों वह उन कसौटियों पर अपनी बहू को भी परखना चाहती है जो उस ने स्वयं पास की होती हैं.

केशू ने अपनेआप को संयत करते हुए घर के लोग व कुछ मेहमानों से बातचीत की. वह बारबार अपने कमरे के द्वार की ओर देख रही थी कि सुनील उठ कर आ जाए.

करीब 12 बजे सुनील उठ कर कमरे से बाहर आया. आते ही उसे चाय दी गई. मां ने बड़े प्यार से बेटे को नाश्ता कराया. नवविवाहिता केशू कनखियों से अपने पति को देख रही थी. एक आस मन में कि सुनील उस के पास आएगा लेकिन कहते हैं न प्रेम नम हृदय में ही अंकुरित होता है. रिश्तों की बुनियाद हमेशा प्रेम ही होती है चाहे वह कैसा ही पाषाण हृदय हो जब प्रेम का अंकुरण हृदय में स्फुटित होता है तो जीवन को नए आयाम देता है. ऐसी नववधू प्रेम की आस लिए अपने घर वालों और पति के प्रेम में सिंचित हो जाना चाहती है.

मेहमानों के आवागमन में दिन बीता और हर किसी ने केशू के रूपसौंदर्य की प्रशंसा की. सभी ने नवदंपती को भरभर के आशीर्वाद दिए. ऐसे ही पहर बीतते गए और रात्रि भोजन का समय आ गया. केशू रात्रि भोजन के समय सुनील को तलाश रही थी लेकिन वह नजर नहीं आया.

नवविवाहिता केशू अपने पति के इंतजार में पलक पावड़े बिछा कर बैठी थी. जैसे ही सुनील के आने की आहट हुई वह चौकस हो गई. इंतजार की घडियां समाप्त हुईं और सुनील उस के शयनकक्ष में आया. वह अपना तन और मन दोनों समर्पित करना चाहती थी. सुनील के मन को भी पढ़ना चाहती थी लेकिन उस की सोच के विपरीत सुनील उस से औपचारिक बात कर के उस का पति बन जाता है. मानो केशवी के सारे सपनों पर पानी फिर गया हो. केशू जीवनसाथी के रूप में ऐसा साथी चाहती थी जो कुछ अपनी कहे और कुछ केशू की सुने. रात्रि के अंधकार में दोनों के मन की परतें खुलें लेकिन सारी चाहतें कहां मुकम्मल होती हैं.

केशू उच्च घराने की वधू तो बन गई थी लेकिन उस के ख्वाबों का शहजादा शायद नहीं मिला था. प्रात: जल्दी स्नान कर के वह कमरे से बाहर आ गई थी. वह कल की गलती को दोहराना नहीं चाहती थी. करीब सभी मेहमान घर से विदा हो गए थे. उस की ननद को उस का समान जमवाने की जिम्मेदारी दी गई थी. ननद ने जब भाभी की साड़ी देखी तो मुंह बना बर बोली, ‘‘भाभी, इतने लाइट शेड हम नहीं पहनते. आगे से शोख रंग खरीदना.’’

केशू मानो अपनेआप को दोष दे रही हो. फिर उस ने सासूमां को उस की मां के यहां से आई साड़ी दी तो सास का मुंह देख कर केशू तो पानीपानी हो गई,

‘‘अपनी मां को कहना ऐसी साड़ी मैं नहीं पहनती हूं.’’

केशू ने वह साड़ी तुरंत अपने समान में रख ली.

विवाह स्त्री के जीवन की नई शुरुआत होता है. यदि दोनों पक्षों का मेल न हो तो विवाहिता के लिए एक चुनौती हो जाती है. ऐसे में यदि पति का प्यार मिल जाए तो वह एक बूटी का काम करता है लेकिन इस प्यार से महरूम केशू का दम घुटने लगा था और वह जल्द से जल्द अपने मायके जाना चाहती थी.

अगले दिन उस का भाई और उस के मामा, बूआ के लड़के उसे लेने आ गए. केशू का मन मानो उड़ान भर रहा हो और वह जल्द से जल्द यहां से जाना चाहती थी.

आलीशान घर में अपनी बहन को देख कर उस के भाई भी खूब खुश नजर आ रहे थे. केशू के मायके जाने का समय भी आ गया और वह सुनील को देख रही थी. फिर सुनील नजर आया और उस ने हलकी सी मुसकान के साथ सुनील को देखा और फिर चल दी अपने भाइयों के साथ.

मायके जा कर केशू अपनी मां के गले मिली और उस की बेतहाशा रुलाई फूट पड़ी.

‘‘अरे पगली आज के समय में कोई ऐसे रोता है क्या?’’ उस के पापा ने उस के सिर पर स्नेहसिंचित हाथ फेरा.

मां की अनुभवी आंखें कुछ भांप गई थीं. भाई ने दीदी के आलीशान बंगले की तारीफ करते हुए कुछ माहौल को हलका करने की कोशिश की.

सांझ पड़े केशू कि सखियां उस से मिलने आईं और उस से मसखरी करते हुए उस के और जीजाजी के मध्य हुई बातचीत पूछने लगीं. लेकिन केशू और सुनील के बीच गिनेचुने ही संवाद हुए थे इसलिए केशू ने बात को टाल दिया.

केशू की बहन ने भी केशू से पूछा, ‘‘कैसी लगी हमारी बहना को ससुराल और पतिदेव?’’

केशू ने कहा, ‘‘सब अच्छा है.’’

मगर केशू का उदास चेहरा किसी से भी छिपा नहीं था.

‘‘दामादजी कल लेने आ रहे हैं,’’ केशू के पापा ने केशू की मम्मी से कहा और केशू की विदाई की तैयारी के साथ ही दामादजी के स्वागत की तैयारी भी जोरों से घर में होने लगी.

केशू का चेहरा सफेद पड़ रहा था. मां की अनुभवी आंखें समझ गई थीं कि दामादजी के आने का समाचार सुन कर केशू के चेहरे की तो रौनक बढ़नी चाहिए लेकिन केशू का चेहरा उदास क्यों? उन्होंने बेटी को कलेजे से लगा कर पूछा, ‘‘बिटिया सब ठीक तो है?’’

केशू की रुलाई फूट पड़ी, ‘‘हां मां, सब ठीक है.’’

‘‘बेटी थोड़ीबहुत उन्नीसबीस तो हर घर में होती है तुझे ही दोनों कुलों की लाज रखनी है. ससुराल और मायके दोनों का सेतू है तू,’’ मां ने हिदायत भरे स्वर में कहा.

सुनील आ गया और उस का ससुराल में भव्य स्वागत किया गया. महंगे तोहफों के साथ केशू और सुनील को विदा किया गया.

केशवी मायके से विदा हो कर ससुराल में आ गई. सुनील का अजीब व्यवहार उसे परेशान कर रहा था. ससुराल में आ कर सासूमां भी उस के मायके से आए हुए समान में मीनमेख निकालने लगी तो केशू और  सहमी सी हो जाती है. ससुरजी का स्नेहसिंचित हाथ मानो रेगिस्तान में पानी की बूंद सा प्रतीत होता. ननद भी केशू की हमउम्र हो कर भी एक दूरी ही बनाए रखती थी.

रात्रि के नीरव पहर में केशू, निशिकर की ज्योत्सना में सुनील से घंटों बतियाना चाहती थी लेकिन सुनील का देर रात तक आना और कम बात करना केशू को बेचैन कर देता था.

विवाह सौंदर्य को निखार देता है लेकिन केशू दिनबदिन सूखती जा रही थी. एक दिन केशू सुबह उठने का प्रयास कर रही थी लेकिन उस का शरीर साथ नहीं दे रहा था, उसे बुखार महसूस हुआ. थर्मामीटर से नापा तो उसे तेज बुखार था, उस ने सुनील को जगाया लेकिन सुनील की बेरुखी बुखार से ज्यादा उस के मन की तपन बढ़ा गई. कुछ मरहम प्यार का, बीमार तन और मन दोनों को ठीक कर देता है लेकिन उपेक्षा ज्वर की तीव्रता को बढ़ा भी देती है.

कुछ समय बाद सासूमां केशू के कमरे में आई. थोड़ी देर रुक कर बोली, ‘‘सुनील इसे इस के मायके भेज दो. इस के मायके वाले ही इस का इलाज करवाएंगे.’’

सासूमां के शब्द सुन कर केशू के पैरों तले की जमीन खिसक गई. अविरल अश्रुधारा बहने लगी. रोतेरोते कब उस की आंख लग गई पता ही नहीं चला.

रात में सुनील कमरे में आया और बोला, ‘‘कल तुम्हें तुम्हारी मां के यहां छोड़ आता हूं.’’

सुन कर केशू ने कहा, ‘‘क्यों?’’

सुनील ने कहा, ‘‘वहीं तुम्हारा इलाज हो जाएगा और वहीं देखभाल भी हो जाएगी.’’

तीर की तरह लगने वाले शब्द केशू के अंतर्मन को भेद गए. वह सोच रही थी इस घर में वापस कदम रखना ही नहीं. वह रातभर सो नहीं सकी.

देर तक सोने वाला सुनील अल सुबह उठ गया और केशू को साथ ले जाने की तैयारी करने लगा. सासूमां के उलहानो से आहत केशू का मन सुनील के व्यवहार से तारतार हो गया.

केशू को यों अचानक आया देख केशू की मां आश्चर्यचकित हो गई. केशू की बेतहाशा रुलाई फूट पड़ी. सुनील की उपस्थिति ने संवादों को रोक रखा था लेकिन भावों का अविरल प्रवाह बह चुका था. भावहीन सुनील कुछ समय पश्चात वहां से रवाना हो गया.

केशू ने अपने मन का ज्वार हलका किया. तन के ज्वर से ज्यादा उस के मन का ज्वार ज्यादा उफान ले रहा था. पूरे घर में मानो सन्नाटा पसर गया होे.

हम भारतीय बेशक संस्कारों को आत्मसात किए हुए हैं लेकिन कहींकहीं हम इन्हें थोपना भी चाहते हैं खासकर समाज का डर हमारे लिए हमारे अपनो से बढ़ कर है. हम अपनी बेशकीमती वस्तु भी समाज की खातिर दांव पर लगा देते हैं.

केशू को उस के मांबाप ने यही सम?ाया, ‘‘बेटा, कुछ कमी हर घर में होती है. हम

तुम्हारा इलाज करवाएंगे. तुम ठीक हो जाओगी

तो वहीं जाना.’’

डाक्टर को दिखाया. केशू को बुखार के साथ पता चला वह गर्भ से है.

कहते हैं कुछ बंधन हम छोड़ भी नहीं सकते और उन्हें निभा भी नहीं सकते. केशू स्वयं के अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी. ऐसे में दूसरी जान का आ जाना उसे बेहद पीड़ादायक लग रहा था.

केशू स्वस्थ हुई तो उसे उस के भाई के साथ उस की ससुराल में भेजा गया. उम्मीद पर कायनात कायम है. केशू ने सोचा मेरा नहीं तो नए मेहमान के आगमन से मुझे इस घर में स्थान मिल जाएगा.

भावहीन सुनील को नए मेहमान के आगमन की कोई खुशी नहीं हुई. सिसकियां लेता केशू का मन उस बच्चे को ही दुनिया में नहीं लाना चाहता था लेकिन जन्म और मृत्यु तो जीवन के अटल सत्य हैं. धीरेधीरे सासूमां का शासन बढ़ता ही जा रहा था. सुनील की उपेक्षा भी केशू से छिपी नहीं थी. केशू का इस घर में दम घुटने लगा था. वह किसी भी कीमत में मायके जाना चाहती थी. वह अपना और अपने आने वाले बच्चे को भविष्य दांव पर नहीं लगाना चाहती थी.

गर्भवती केशू अपने भाई के साथ अपनी ससुराल आ गई. वहां जब अपने पति सुनील को यह खबर सुनाई तो सुनील की बेरुखी केशू को और आहत कर देती है. उस की सास ने उस के आने के बाद कामवाली को भी हटा दिया. केशू की गर्भावस्था ऊपर से घर का काम और सब की बेरुखी केशू को अंदर तक ?ाक?ोर देती है. उस के सारे सपने कहीं खो गए. वह यहां रहना ही नहीं चाहती थी. घर का सारा काम करतेकरते वह थक जाती थी, वह सोचती थी सुनील एक आवरण ले कर जन्मा है. भावहीन आवरण जिस में प्यार का कोई स्थान नहीं. हम दोनों संग रहित साथी हैं जिस में दोनों निर्निमेष नत नयनों से साथ रात्रि बिता देते हैं.

एक दिन बरसात में रात्रि को बारिश हुई और निशीकर ने दर्शन दिए. उस यामिनी को देखने केशू ?ारोखे के पास जा बैठी. बारिश की सुगंध और ?ांगुरों की ध्वनि ने उस के मनोराज्य में एक प्रकार की अराजकता व्याप्त कर दी. वह सोच रही थी आज सुनील से फैसला करवा कर रहेगी. उस ने सुनील को उठाया उस समय सुनील निद्रालोक की सैर कर रहा था.

केशू ने कहा, ‘‘मैं यहां अब और नहीं रह सकती मेरा दम घुटता है यहां. आप मु?ो अपने होने वाले बच्चे की खातिर ही मुझे मेरे मायके छोड़ आओ.’’

सुनील ने कहा, ‘‘सुबह मां से बात करेंगे,’’ और वह सो गया.

चिरगमन के लिए प्रतीक्षित केशु भोर होने की प्रतीक्षा में रातभर सो नहीं पाई केशू सुबह के नित्यप्रति कार्य कर रही थी लेकिन उसे अपनी तबीयत सही नहीं लग रही थी. उस ने अपनी सासूमां से कहा तो उन्होंने कहा, ‘‘ऐसी तबीयत तो इस समय में यों ही चलती रहती है.’’

थोड़ी देर बाद केशु का बदन बुखार से तपने लगा तो उस ने सुनील से कहा. फिर केशु की सासूमां आई और बोली, ‘‘इस के इलाज के पैसे इस के मायके से मंगवा लो और कहो कि वे अपनी बेटी को ले जाएं. यहां कौन इस की सेवा करेगा.’’

केशू मानो चीख दे कर कहने को आतुर कि मायके से मेरे इलाज के पैसे क्यों आएंगे? लेकिन वह कुछ विद्रोह न कर सकी. सुनील की मूक सहमती उस का दर्द दोगुना कर रही थी.

फिर सुनील ने अपनी मां से केशु के जाने की बात की तो मां ने कहा, ‘‘इस को अभी छोड़ आओ. इस के मायके वाले ही इस का इलाज करवा लेंगे और वे ही इस की डिलिवरी करवा देंगे.’’

सुनील तो मानो रिमोट कंट्रोल रोबोट हो जिस का रिमोट मां के हाथ था. वह केशु को छेड़ने जाने की तैयारी करने लगा.

बुखार से तपन और तारतार हुआ केशू का मन अपनेआप को पूरा टूटा हुआ महसूस हो रहा था. उस का दिमाग शून्य हो गया और वह सुनील के साथ चल पड़ी.

मायके पहुंचते ही केशू को यों अचानक आया देख केशू की मां का मन आशंकाओं से घिर गया. वह कुछ न बोलते हुए स्थिति को भांप गई थी.

सुनील के जाने के बाद केशु ने सारा हाल कह सुनाया और कहा, ‘‘मैं उस घर में नहीं जाना चाहती.’’

मां ने आलिंगन कर के बेटी को समझाया कि कोई राह निकालेंगे.

समय अपनी गति से जा रहा था केशू का अधीर मन एक प्रतीक्षा में कि सुनील लेने आएगा. लेकिन वह नहीं आया और केशु के मां बनने का समय भी आ गया.

कुछ एहसास दिलों के होते हैं. नि:शब्द का नाद होता है जिसे हम सांसारिक सुख कहते हैं. इसीलिए ब्रह्मांड में संतानोत्पत्ति का कार्य स्त्रीपुरुष के संयोजन से ही किया है लेकिन जब केशु ने अपने समीप सुनील को नहीं पाया तो उस की मां बनने की सारी खुशी काफूर हो गई.

‘‘बेटा हुआ है,’’ दर्द की अनंत गहराई को महसूस कर के जब उस ने सुना तो केशू के चेहरे पर सौंदर्यमयी मुसकान आ गई.

नवजात का आलिंगन सूखी भूमि पर अमृत की मानिंद प्रतीत होता है.

सुनील और उस की मां बेटे को देखने आए. केशु उन के साथ जाना चाहती थी लेकिन जब दूरियां होती हैं संवादहीनता भी आ जाती है और कहनेसुनने का जरीया भी खत्म हो जाता है.

बेटे का नाम सृजन रखा था केशू ने. वह उस के साथ ही अपनी जिंदगी सृजित करना चाहती थी. 2 महीने का हो गया था सृजन तो केशू के मांबाप ने केशु को ससुराल भेजना मुनासिब सम?ा. हालांकि केशू वहां नहीं जाना चाहती थी. लेकिन वह वहां भी नहीं रहना चाहती थी.

फोन करने पर भी जब सुनील  नहीं आया तो केशू ने सुनील से अलग हो जाना बेहतर समझ लेकिन उस के पापा एक आखिरी सुलह करवाने के लिए अपनी बेटी को साथ ले गए.

केशू बोझिल मन से अपने पापा के साथ अपनी ससुराल चली गई. अपने बेटे की खातिर वह जीवन से समझौता करना चाहती थी. वह अपने शुष्क हृदय को ममता से तृप्त करना चाहती थी. उस के पापा उसे ससुराल छोड़ आए.

इतने बड़े घर में शादी होने के बावजूद केशू सारा काम हाथ से करती. नन्हा सृजन रोता रहता सासननद दोनोें केशू के काम में हाथ नहीं बंटातीं न ही नन्हे सृजन को लेतीं. सुनील की उदासीनता केशू की तकलीफ को असहनीय कर देती थी.

एक दिन सृजन की तबीयत खराब हो गई. केशू ने अपनी सासूमां को बताया तो बोली, ‘‘सृजन के इलाज के लिए अपने मायके चली जाओ वो ही इस का खर्चा भी उठा लेंगे.’’

आहत केशू का मन सिसकियां भर रहा था. उस ने कहा, ‘‘यह इस घर का वारिस है तो इस का इलाज भी यहीं होना चाहिए.’’

इस पर उस की सासूमां ने कहा, ‘‘बहुत जवान चलती है सुनील इस को अभी इस के घर छोड़ कर आओ.’’

केशू ने कहा, ‘‘मेरा घर तो यही है.’’

सुनील बोला, ‘‘नहीं तुम अपने घर ही रहो. अभी चलो,’’ और सुनील केशू को ले गया.

मायके पहुंच कर केशू ने अपने मांबाप से कहा, ‘‘मैं कभी उस घर में कदम नहीं रखूंगी. मेरा तलाक करवा दो.’’ केशू के पापा ने अब यही  बेहतर समझा और वकील से बात की.

जिंदगी कभी ऐसे मोड़ पर ले आती है कि हमें कड़े फैसले लेने ही पड़ते हैं. ऐसे ही मंझधार में खड़ी केशू को समाज की अवहेलना के साथ यहां भी सुनील की बेरुखी से भुगतना पड़ा. सुनील तलाक देने को भी तैयार नहीं था और रहना उस के साथ संभव नहीं था.

संकोची केशवी ने हिम्मत से काम लेते हुए तलाक का फैसला अटल रखा. केस लड़ती रही और उस ने एक स्कूल में नौकरी भी जौइन कर ली. नन्हा सृजन अपनी नानी के पास रह जाता. केशू स्कूल चली जाती.

करीब 1 साल केशू का केस चला और अंतत: फैसला केशू के पक्ष में हुआ और सुनील का तलाक हो गया.

केशवी अपने बेटे के सहारे जीवन जीना चाहती थी. उस की नीरस जिंदगी में वही आशा की किरण था. कहते हैं यह समाज भी हमें जीने न देता. केशू के पास अभी भी कोई भी रिश्ता ले कर आ जाता मानो केशू कोई बेनाम चिट्ठी हो जिसे हरकोई पढ़ना चाहता हो. केशू ने साफ इनकार कर दिया कि वह अकेले ही जीवन जीना चाहती है. उसे दोबारा शादी नहीं करनी.

एक दिन केशवी बाजार गई. वहां उसे एक चेहरा परिचित सा लगा लेकिन उस ने नजरअंदाज कर दिया. फिर एक परिचित आवाज आई, ‘‘केशु तुम?’’

अचानक समीर की आवाज सुन कर केशू की धड़कनें तेज हो गईं वह उस से बचना चाहती थी लेकिन उस की आवाज ने उस के दिल के तारों को ?ांकृत कर दिया. वह सहमी सी बोली, ‘‘हां में केशू.’’

‘‘तुम बहुत बदल गई हो सब ठीक तो है?’’ समीर ने पूछा तो केशू मानो वहां से भाग ही जाना चाहती थी. लेकिन उस ने औपचारिकता दिखाते हुए कहा कि हां सब ठीक है और वह जाने लगी तो समीर ने उस का फोन नंबर मांगा. नंबर दे कर केशू वहां से चल दी. उस ने समीर की खैरियत भी नहीं पूछी और वहां से भाग ली. घर आ कर वह सामान्य होने का प्रयास कर रही थी लेकिन रहरह कर उस के जेहन में समीर का चेहरा घूम रहा था.

समय का पहिया घूम रहा था. केशू का सुबह का समय स्कूल में और शाम सृजन के साथ व्यतीत हो जाती थी लेकिन एक खामोशी सी जिंदगी में पसार गई थी. वह सृजन के भविष्य को सुरक्षित करना चाहती थी.

एक दिन शाम को फोन की घंटी बजी. उधर से आवाज आई, ‘‘हेलो केशू, मैं समीर. तुम से मिलना चाहता हूं. प्लीज मना मत कहना. संडे को किसी कैफे में मिलते हैं.’’

केशू ने कहा, ‘‘मुझे नहीं मिलना किसी से.’’

समीर ने कहा, ‘‘एक बार मिल लो. मैं इंतजार करूंगा.’’

केशू ने फोन रख दिया. लेकिन कुछ लमहे ऐसे होते हैं जिंदगी के जो जब भी मिलते हैं हलचल पैदा कर देते हैं.

केशू उस फूल के समान हो गई जिस पर भ्रमर आ बैठा हो, वह उस भ्रमर को बुलाना भी चाहती है और उसे ही वह उड़ा भी रही है.

रविवार का दिन था सुबह फोन की घंटी बजी तो जैसे केशू के दिल की वीणा झंकृत हो गई हो. एक प्रतीक्षित फोन जिस की केशू उम्मीद कर ही रही थी.

‘‘मैं समीर, तुम शाम को आ रही हो न कैफे में.’’

केशू ने कहा, ‘‘हां.’’

कभीकभी दिल के जज्बात दिमाग पर प्रभावी हो जाते हैं. अत: बिना समय गंवाय केशू ने स्वीकृति दे दी.

जख्म कितना भी गहरा हो. दिल कब तक अपने अंतस की अंतर्मुखी बातें खुद में छिपाए रहता? केशू ने समीर से मिलना ही बेहतर समझा.

एक अरसे के बाद केशू ने अपनेआप को दर्पण में निहारा. फिर करीने से तैयार हो कर बेटे को अपनी मां को देते हुए कहा, ‘‘मां, मुझे अपनी फ्रैंड से मिलने जाना है.’’

‘‘ठीक है बेटा,’’ मां ने कहा.

दोनों नियत समय पर आ गए. समीर ने कौफी और्डर की. फिर पूछा, ‘‘कैसी चल रही है तुम्हारी मैरिड लाइफ?’’

केशू ने कहा, ‘‘सब खत्म हो गया. मेरी लाइफ में तो एक बेटा है. अब सबकुछ वही है.’’

‘‘कुछ डिटेल में बताओगी? मैं जानना चाहता हूं?’’ समीर ने कहा.

‘‘मैं अतीत को भूल जाना चाहती हूं. वर्तमान मैं ने तुम्हें बता दिया है. तुम बताओ अपनी लाइफ के बारे में?’’

‘‘शादी नहीं की,’’ समीर ने संक्षिप्त उत्तर दिया.

‘‘क्यों?’’ केशू ने हैरानी से पूछा.

‘‘प्यार अनंत है. फिर दिल जिसे चाहे, दिल को जो भा जाए, फिर चाहे लाख समरंगी, समरूपी चीजें हों पर दिल किसी अन्य को चाहता ही नहीं है.

‘‘लंबे समय से अकेलेपन की आज जा कर समाधि टूटी जब तुम्हारे द्वार पर आज दिल ने दस्तक दी है. मैं तुम से विवाह करना चाहता हूं. तुम स्वीकार करो या अस्वीकार. मरजी तुम्हारी है.’’

‘‘कैसी बात करते हो समीर. मैं तलाकशुदा, समाज से अवहेलित तुम इतने बड़े अफसर और कुंआरे… तुम्हारे लिए तो लड़कियों की कतार लग जाएगी,’’ फिर मैं ने कहा न कि मेरा भविष्य तो मेरा बेटा है. तुम्हें नए सिरे से अपनी वैवाहिक जिंदगी शुरू करनी चाहिए. तुम मेरे साथ अपना भविष्य क्यों खराब करना चाहते हो?’’ केशू ने लंबी सांस भरते हुए कहा.

‘‘बात दिलों की है, नि:शब्द के नाद की है, अनंत की अनंत से पुकार है. इस में मैं कर भी क्या सकता हूं?

‘‘मानता हूं और सम?ाता भी हूं कि तुम्हारा शादी का अनुभव अच्छा नहीं रहा. लेकिन जिंदगी रुकने का नाम तो नहीं. एक नई शुरुआत करनी ही पड़ती है. हर काली रात के बाद उजली सुबह आती है. एक नूतन सवेरा तुम्हारे सामने बांहें फैला कर खड़ा है. मेरे दिल के दरवाजे तुम्हारे लिए सदैव प्रतीक्षारत रहेंगे,’’ समीर ने कहा.

‘‘मुझे समय चाहिए. मैं अतीत, वर्तमान और भविष्य में सामंजस्य नहीं बैठा पा रही हूं. मैं सृजन का भविष्य दांव पर नहीं लगा सकती,’’ केशू ने कहा.

‘‘सृजन आज से मेरा बेटा है. मैं उसे किसी तरह की परेशानी नहीं होने दूंगा. तुम विश्वस्त रहो केशू.’’ समीर ने केशू का हाथ पकड़ लिया. वह उन हाथों को हमेशा के लिए अपने हाथों में लेना चाहता था.

‘‘मुझे कुछ समय चाहिए,’’ कह कर केशवी ने समीर से विदा ले ली.

समीर आंखों से ओझल होने तक उसे देखता रहा.

घर आ कर केशू ने सब से पहले नन्हे सृजन को गले से लगाया और वह बहुत जोरजार से रोने लगी. वह सोच रही थी कि ममता बेमानी नहीं हो सकती. वह अपनी खुशी की खातिर सृजन का भविष्य दांव पर नहीं लगा सकती. कशमकश में पलता केशू का मन और मन के कई हिस्से हुए जा रहे थे. एक तरफ ममता का आंचल, एक तरफ समाज और एक तरफ मृदु समीर का आर्द्र स्पर्श जो उसे पुकारता है. समीर का अनंत प्यार. अनंत इंतजार. छू लेता है केशू का मन. इसी ऊहापोह में उस की नींद लग जाती है.

सुबह जब नींद खुलती है तो फिर वही कुरुक्षेत्र बना उस का मन. सब पहलुओं को विचारने लगा. उस के अंतस की आवाज आई कि समाज को तो मुझे दरकिनार कर ही देना चाहिए बल्कि मुझे एक सुरक्षाकवच मिलेगा. सृजन को भी एक पूर्णता मिलेगी. सुनील जैसे व्यक्ति के लिए क्या अफसोस जैसे अपनी कटी पूंछ के लिए नहीं रोती गोधिका, जानती है नियत है उस का पुन: बढ़ जाना. ऐसे ही मुझे सारे असमंजस त्याग कर समीर को हां कह देनी चाहिए.

नित्यप्रति के काम निबटा कर केशू स्कूल चली गई. वहां भी उस का मन एक बेचैनी महसूस करता रहा. शाम को जब घर लौट कर आई तो उस ने सोचा अपने मांपिताजी से बात कर ली जाए.

संकोची केशू ने हिम्मत जुटा कर सारी बात अपने मांपिताजी को बताई तो मां ने कहा, ‘‘बेटा, समीर हमारी बिरादरी का भी नहीं तो लोग क्या कहेंगे. तुम्हारा एक फैसला हमारे परिवार की इज्जत धूमिल कर देगा.’’

मगर केशू के पिता केशू का अकेलापन महसूस कर रहे रहे. वे केशू की आंखों में समीर के लिए प्यार भी देख रहे थे. अत: उन्होंने कहा, ‘‘जो लड़का केशू को इतना प्यार करता है, जिस ने शादी ही नहीं कि वह हमारी केशू को जान से ज्यादा प्यार करेगा.’’

फिर थोड़ी देर रुक कर उन्होंने केशू की मां से कहा, ‘‘रही बिरादरी की बात तो सुनील हमारे समाज का ही लड़का है फिर भी उस ने रिश्तों को नहीं समझा रिश्ते और प्यार किसी जाति से नहीं बंधे. वे तो हर इंसान का अपना व्यक्तित्व है. हमें देर न करते हुए अपनी केशवी का हाथ समीर के हाथों में सौंप देना चाहिए.’’

केशवी की मां को भी यह बात कुछ सही लगी. फिर कहा, ‘‘सृजन का क्या होगा?’’

तब केशू नू कहा, ‘‘समीर ने कहा है सृजन आज से उस का ही बेटा है.’’

सुन कर केशवी की मां का मन खुशी से प्रफुल्लित हो गया. वो अपनी बेटी की वीरान जिंदगी में बहार देखना चाहती थी.

अगले दिल सुबह केशवी के पापा समीर से मिलने गए. समीर की सौम्यता और व्यावहारिकता केशू के पिता के दिल को छू गई. उन्होंने कहा, ‘‘समीर, मैं अपनी केशू का हाथ आप के हाथों में सौंपना चाहता हूं.’’

समीर ने कहा, ‘‘आज मेरी चिर प्रतीक्षा खत्म हुई. केशू और सृजन आज से मेरे जीवन का हिस्सा हैं.’’

केशू के पापा ने घर लौट कर सब को खुशखबरी सुनाई. लंबी उदासी के बाद एक बार फिर घर में खुशी की लहर दौड़ गई.

सादगीपूर्ण तरीके से दोनों का विवाह हुआ. नन्हा सृजन भी विवाह का हिस्सा था.

सुहाग सेज पर बैठी केशू समीर को अपने पास पा कर छुईमुई हुई जा रही थी.

समीर ने कहा, ‘‘अपने नाम के अक्षर पहन में तुम्हारा आलिंगन करता हूं. तुम्हारे बिना मेरा जीवन क्षितिज की भांति था जिस का कोई अस्तित्व नहीं. तुम्हें पा कर आज मुकम्मल हुआ हूं मैं.’’

केशवी ने कहा, ‘‘काश, हम पहले मिल पाते.’’

समीर ने कहा, ‘‘अतीत का कोई मलाल न करो. कब किस को मिलना है यह हम तय नहीं करते. कुछ कम कुदरत अपने हाथ में ही रखती है.’’

केशवी जैसे अपनी पूर्णता को प्राप्त कर गई हो.

Dilchasp Kahani 2025 : सान्निध्य

Dilchasp Kahani 2025 : अभी शाम के 4 ही बजे थे, लेकिन आसमान में घिर आए गहरे काले बादलों ने कुछ अंधेरा सा कर दिया था. तेज बारिश के साथ जोरों की आंधी भी चल रही थी. सामने के पार्क में पेड़ झूमतेलहराते अपनी प्रसन्नता का इजहार कर रहे थे. रमाकांत का मन हुआ कि कमरे के सामने की बालकनी में कुरसी लगा कर मौसम का आनंद उठाएं, लेकिन फिर उन्हें लगा कि रोहिणी का कमजोर शरीर तेज हवा सहन नहीं कर पाएगा.

उन्होंने रोहिणी की ओर देखा. वह पलंग पर आंखें मूंदे लेटी हुई थी. रमाकांत ने पूछा, ‘‘अदरक वाली चाय बनाऊं, पिओगी?’’

अदरक वाली चाय रोहिणी को बहुत पसंद थी. उस ने धीरे से आंखें खोलीं और मुसकराई, ‘‘मोहन से…कहिए… वह…बना देगा,’’ उखड़ती सांसों से वह बड़ी मुश्किल से इतना कह पाई.

‘‘अरे, मोहन से क्यों कहूं? वह क्या मुझ से ज्यादा अच्छी चाय बनाएगा? तुम्हारे लिए तो चाय मैं ही बनाऊंगा,’’ कह कर रमाकांत किचन में चले गए.

जब वह वापस आए तो टे्र में 2 कप चाय के साथ कुछ बिस्कुट भी रख लाए. उन्होंने सहारा दे कर रोहिणी को उठाया और हाथ में चाय का कप पकड़ा कर बिस्कुट आगे कर दिए.

‘‘नहीं जी…कुछ नहीं खाना,’’ कह कर रोहिणी ने बिस्कुट की प्लेट सरका दी.

‘‘बिस्कुट चाय में डुबो कर…’’ उन की बात पूरी होने से पहले ही रोहिणी ने सिर हिला कर मना कर दिया.

रोहिणी की हालत देख कर रमाकांत का दिल भर आया. उस का खानापीना लगभग न के बराबर ही हो गया था. आंखों के नीचे गहरे गड्ढे पड़ गए थे. वजन एकदम घट गया था. वह इतनी कमजोर हो गई थी कि देखा नहीं जाता था. स्वयं को अत्यंत विवश महसूस कर रहे थे रमाकांत. कैसी विडंबना थी कि डाक्टर हो कर उन्होंने कितने ही मरीजों को स्वस्थ किया था, किंतु खुद अपनी पत्नी के लिए कुछ नहीं कर सके. बस, धीरेधीरे रोहिणी को मौत की ओर अग्रसर होते देख रहे थे.

उन के जेहन में वह दिन उतर आया जब वह रोहिणी को ब्याह कर घर ले आए थे. अम्मा अपनी सारी जिम्मेदारियां उसे सौंप कर निश्ंिचत हो गई थीं. कोमल सी दिखने वाली रोहिणी ने भी खुले दिल से अपनी हर जिम्मेदारी को स्वीकारा और किसी को शिकायत का मौका नहीं दिया. उस के सौम्य और सरल स्वभाव ने परिवार के हर सदस्य को उस का कायल बना दिया था.

रमाकांत उन दिनों मेडिकल कालेज में लेक्चरर के पद पर थे. साथ ही घर के अहाते में एक छोटा सा क्लिनिक भी खोल रखा था. स्वयं को एक स्थापित और नामी डाक्टर के रूप में देखने की उन की बड़ी तमन्ना थी. घर का मोरचा रोहिणी पर डाल वह सुबह से रात तक अपने काम में व्यस्त रहते. नईनवेली पत्नी के साथ प्यार के मीठे क्षण गुजारने की फुरसत उन्हें न थी…या फिर शायद जरूरत ही न समझी.

उन्हें लगता कि रोहिणी को तमाम सुखसुविधा मुहैया करा कर वह पति होने का अपना फर्ज बखूबी निभा रहे हैं, लेकिन उस की भावनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति से उन्हें कोई मतलब न था. रोहिणी का मन तो करता कि रमाकांत उस के साथ कुछ देर बैठें, बातें करें, लेकिन वह कभी उन से यह कह नहीं पाई. जब कहा भी, तब वे समझ नहीं पाए और जब समझे तब बहुत देर हो चुकी थी.

वक्त के साथसाथ रमाकांत की महत्त्वाकांक्षा भी बढ़ी. अपनी पुश्तैनी जायदाद बेच कर और सारी जमापूंजी लगा कर उन्होंने एक सर्वसुविधायुक्त नर्सिंगहोम खोल लिया. रोहिणी ने तब अपने सारे गहने उन के आगे रख दिए थे. हर कदम पर वह उन का मौन संबल बनी रही. उन के जीवन में एक घने वृक्ष सी शीतल छाया देती रही.

रमाकांत की मेहनत रंग लाई और सफलता उन के कदम चूमने लगी. कुछ ही समय में उन के नर्सिंगहोम का बड़ा नाम हो गया. वहां उन की मसरूफियत इतनी बढ़ गई कि उन्होंने नौकरी छोड़ दी और सिर्फ नर्सिंगहोम पर ही ध्यान देने लगे.

इस बीच रोहिणी ने भी रवि और सुनयना को जन्म दिया और वह उन की परवरिश में ही अपनी खुशी तलाशने लगी. जीवन एक बंधेबंधाए ढर्रे पर चल रहा था. रमाकांत के लिए उन का काम था और रोहिणी के लिए बच्चे और सामाजिकता का निर्वाह.

अम्मांबाबूजी के देहांत और ननद के विवाह के बाद रोहिणी और भी अकेलापन महसूस करने लगी. बच्चे भी बड़े हो रहे थे और अपनी पढ़ाई में व्यस्त थे. रमाकांत के लिए पत्नी का अस्तित्व बस, इतना भर था कि वह समयसमय पर उसे गहनेकपड़े भेंट कर देते थे. उस का मन किस बात के लिए लालायित था, यह जानने की उन्होंने कभी कोशिश नहीं की.

जिंदगी ने रमाकांत को एक मौका दिया था. कभी कोई मांग न करने वाली उन की पत्नी रोहिणी ने एक बार उन्हें अपने दिल की गहराइयों से परिचित कराया था, लेकिन वे ही उस की बातों का दर्द और आंखों के सूनेपन को अनदेखा कर गए थे. उस दिन रोहिणी का जन्मदिन था. उन्होंने उसे कुछ प्यार दिखाते हुए पूछा था, ‘बताओ तो, मैं तुम्हारे लिए क्या तोहफा लाया हूं?’

तब रोहिणी के चेहरे पर फीकी सी मुसकान आ गई थी. उस ने धीमी आवाज में बस इतना ही कहा था, ‘तोहफे तो आप मुझे बहुत दे चुके हैं. अब तो बस आप का सान्निध्य मिल जाए…’

‘वह भी मिल जाएगा. बस, कुछ साल मेहनत से काम कर लें, अपनी और बच्चों की जिंदगी सेटल कर लें, फिर तो तुम्हारे साथ ही समय गुजारना है,’ कहते हुए उसे एक कीमती साड़ी का पैकेट थमा रमाकांत काम पर निकल गए थे. रोहिणी ने फिर कभी उन से कुछ नहीं कहा था.

रवि भी पिता के नक्शेकदम पर चल कर डाक्टर ही बना. उस ने अपनी सहपाठिन गीता से विवाह की इच्छा जाहिर की, जिस की उसे सहर्ष अनुमति भी मिल गई. अब रमाकांत को बेटेबहू का भी अच्छा साथ मिलने लगा. फिर सुनयना का विवाह भी हो गया. रमाकांत व रोहिणी अपनी जिम्मेदारियों से निवृत्त हो गए, लेकिन स्थिति अब भी पहले की तरह ही थी. रोहिणी अब भी उन के सान्निध्य को तरस रही थी और रमाकांत कुछ और वर्ष काम करना चाहते थे, अभी और सेटल होना चाहते थे.

शायद सबकुछ इसी तरह चलता रहता अगर रोहिणी बीमार न पड़ती. एक दिन जब सब लोग नर्सिंगहोम गए थे, तब वह चक्कर खा कर गिर पड़ी. घर के नौकर मोहन ने जब फोन पर बताया, तो सब भागे हुए आए. फिर शुरू हुआ टेस्ट कराने का सिलसिला. जब रिपोर्ट आई तो पता चला कि रोहिणी को ओवेरियन कैंसर है.

रमाकांत सुन कर घबरा से गए. उन्होंने अपने मित्र कैंसर स्पेशलिस्ट डा. भागवत को रिपोर्ट दिखाई. उन्होंने देखते ही साफ कह दिया, ‘रमाकांत, तुम्हारी पत्नी को ओवेरियन कैंसर ही हुआ है. इस में कुछ तो बीमारी के लक्षणों का पता ही देर से चलता है और कुछ इन्होंने अपनी तकलीफ घर में छिपाई होगी. अब तो कैंसर चौथी स्टेज पर है. यह शरीर के दूसरे अंगों तक भी फैल चुका है. चाहो तो सर्जरी और कीमोथैरेपी कर सकते हैं, लेकिन कुछ खास फायदा नहीं होने वाला. अब तो जो शेष समय है उस में इन्हें खुश रखो.’

सुन कर रमाकांत को लगा कि जैसे उन के हाथपैरों से दम निकल गया है. उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि रोहिणी इस तरह उन्हें छोड़ कर चली जाएगी. वह तो हर वक्त एक खामोश साए की तरह उन के साथ रहती थी. उन की हर जरूरत को उन के कहने से पहले ही पूरा कर देती थी. फिर यों अचानक उस के बिना…

अब जा कर रमाकांत को लगा कि उन्होंने कितनी बड़ी गलती कर दी थी. रोहिणी के अस्तित्व की कभी कोई कद्र नहीं की उन्होंने. उन के लिए तो वह बस उन की मूक सहचरी थी, जो उन की हर जरूरत के लिए हर वक्त उपलब्ध थी. इस से ज्यादा कोई अहमियत नहीं दी उन्होंने उसे. आज प्रकृति ने न्याय किया था. उन्हें इस गलती की कड़ी सजा दी थी. जिस महत्त्वाकांक्षा के पीछे भागते उन की जिंदगी बीती, जिस का उन्हें बड़ा दंभ था, आज वह सारा ज्ञान उन के किसी काम न आया.

अब जब उन्हें पता चला कि रोहिणी के जीवन का बस थोड़ा ही समय शेष रह गया था, तब उन्हें एहसास हुआ कि वह उन के जीवन का कितना बड़ा हिस्सा थी. उस के बिना जीने की कल्पना मात्र से वे सिहर उठे. महत्त्वाकांक्षाओं के पीछे भागने में वे हमेशा रोहिणी को उपेक्षित करते रहे, लेकिन अपनी सारी उपलब्धियां अब उन्हें बेमानी लगने लगी थीं.

‘पापा, आप चिंता मत कीजिए. मैं अब नर्सिंगहोम नहीं आऊंगी. घर पर ही रह कर मम्मी का ध्यान रखूंगी,’ उन की बहू गीता कह रही थी.

रमाकांत ने एक गहरी सांस ली और उस के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, ‘नहीं, बेटा, नर्सिंगहोम अब तुम्हीं लोग संभालो. तुम्हारी मम्मी को इस वक्त सब से ज्यादा मेरी ही जरूरत है. उस ने मेरे लिए बहुत कुछ किया है. उस का ऋण तो मैं किसी भी हाल में नहीं चुका पाऊंगा, लेकिन कम से कम अब तो उस का साथ निभाऊं.’

उस के बाद से रमाकांत ने नर्सिंगहोम जाना छोड़ दिया. वे घर पर ही रह कर रोहिणी की देखभाल करते, उस से दुनियाजहान की बातें करते. कभी कोई किताब पढ़ कर सुनाते, तो कभी साथ टीवी देखते. वे किसी तरह रोहिणी के जाने से पहले बीते वक्त की भरपाई करना चाहते थे.

मगर वक्त उन के साथ नहीं था. धीरेधीरे रोहिणी की तबीयत और बिगड़ने लगी थी. रमाकांत उस के सामने तो संयत रहते, मगर अकेले में उन की पीड़ा आंसुओं की धारा बन कर बह निकलती. रोहिणी की कमजोर काया और सूनी आंखें उन के हृदय में शूल की तरह चुभती रहतीं. वे स्वयं को रोहिणी की इस हालत का दोषी मानने लगे थे. इस के साथसाथ उन के मन में हर वक्त रोहिणी को खो देने का डर होता. वे जानते थे कि यह दुर्भाग्य तो उन की नियति में लिखा जा चुका था, लेकिन उस क्षण की कल्पना करते हुए हमेशा भयभीत रहते.

‘‘अंधेरा…हो गया जी,’’ रोहिणी की आवाज से रमाकांत की तंद्रा टूटी. उन्होंने उठ कर लाइट जला दी. देखा, रोहिणी का चाय का कप आधा भरा हुआ रखा था और वह फिर से आंखें मूंदे टेक लगा कर बैठी थी. चाय ठंडी हो चुकी थी. रमाकांत ने चुपचाप कप उठाया और किचन में जा कर सिंक में चाय फैला दी. उन्होंने खिड़की से बाहर देखा, बाहर अभी भी तेज बारिश हो रही थी. हवा का ठंडा झोंका आ कर उन्हें छू गया, लेकिन अब उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. उन्होंने अपनी आंखों के कोरों को पोंछा और मोहन को आवाज लगा कर खिचड़ी बनाने के लिए कहा.

खिचड़ी बिलकुल पतली थी, फिर भी रोहिणी बमुश्किल 2 चम्मच ही खा पाई. आखिर रमाकांत उस की प्लेट उठा कर किचन में रख आए. तब तक रवि और गीता भी नर्सिंगहोम से वापस आ गए थे.

‘‘कैसी हो, मम्मा?’’ रवि लाड़ से रोहिणी की गोद में लेटते हुए बोला.

‘‘ठीक हूं, मेरे बच्चे,’’ रोहिणी मुसकराते हुए उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए धीमी आवाज में बोली.

रमाकांत ने देखा कि रोहिणी के चेहरे पर असीम संतोष था. अपने पूरे परिवार के साथ होने की खुशी थी उसे. वह अपनी बीमारी से अनभिज्ञ नहीं थी, परंतु फिर भी प्रसन्न ही रहती थी. जिस सान्निध्य की आस ले कर वह वर्षों से जी रही थी, वह अब उसे बिना मांगे ही मिल रहा था. अब वह तृप्त थी, इसलिए आने वाली मौत के लिए कोई डर या अफसोस उस के चेहरे पर दिखाई नहीं देता था.

बच्चे काफी देर तक मां का हालचाल पूछते रहे, उसे अपने दिन भर के काम के बारे में बताते रहे. फिर रोहिणी का रुख देख कर रमाकांत ने उन से कहा, ‘‘अब खाना खा कर आराम करो. दिनभर काम कर के थक गए होगे.’’

‘‘पापा, आप भी खाना खा लीजिए,’’ गीता ने कहा.

‘‘मुझे अभी भूख नहीं, बेटा. आप लोग खा लो. मैं बाद में खा लूंगा.’’

बच्चों के जाने के बाद रोहिणी फिर आंखें मूंद कर लेट गई. रमाकांत ने धीमी आवाज में टीवी चला दिया, लेकिन थोड़ी देर में ही उन का मन ऊब गया. अब उन्हें थोड़ी भूख लग आई थी, लेकिन खाना खाने का मन नहीं किया. उन्होंने सोचा रोहिणी और अपने लिए दूध ले आएं. किचन में जा कर उन्होंने 2 गिलास दूध गरम किया. तब तक रवि और गीता खाना खा कर अपने कमरे में सो चुके थे.

‘‘रोहिणी, दूध लाया हूं,’’ कमरे में आ कर रमाकांत ने धीरे से आवाज लगाई, लेकिन रोहिणी ने कोई जवाब नहीं दिया. उन्हें लगा कि वह सो रही है. उन्होंने उस के गिलास को ढंक कर रख दिया और खुद पलंग के दूसरी ओर बैठ कर दूध पीने लगे.

उन्होंने रोहिणी की तरफ देखा. सोते हुए उस के चेहरे पर कितनी शांति थी. उन का हाथ बरबस ही उस का माथा सहलाने के लिए आगे बढ़ा. फिर वह चौंक पड़े. दोबारा माथे और गालों पर हाथ लगाया. तब उन्हें एहसास हुआ कि रोहिणी का शरीर ठंडा था. वह सो नहीं रही थी बल्कि सदा के लिए चिरनिद्रा में विलीन हो चुकी थी.

उन्हें जो डर इतने महीनों से जकड़े था, आज वे उस के वास्तविक रूप का सामना कर रहे थे. कुछ समय के लिए एकदम सुन्न से हो गए. उन्हें समझ ही न आया कि क्या करें. फिर धीरेधीरे चेतना जागी. पहले सोचा कि जा कर बच्चों को खबर कर दें, लेकिन फिर कुछ सोच कर रुक गए.

सारी उम्र रोहिणी को उन के सान्निध्य की जरूरत थी, लेकिन आज उन्हें उस का साथ चाहिए था. वे उस की उपस्थिति को अपने पास महसूस करना चाहते थे, इस एहसास को अपने अंदर समेट लेना चाहते थे क्योंकि बाकी की एकाकी जिंदगी उन्हें अपने इसी एहसास के साथ गुजारनी थी. उन के पास केवल एक रात थी. अपने और अपनी पत्नी के सान्निध्य के इन आखिरी पलों में वे किसी और की उपस्थिति नहीं चाहते थे. उन्होंने लाइट बुझा दी और रोहिणी को धीरे से अपने हृदय से लगा लिया. पानी बरसना अब बंद हो गया था.

Short Story 2025 : वकील का नोटिस

Short Story 2025 :  हरीश पिछले कुछ दिनों से काफी परेशान था. वैसे तो उस की दुकान ठीक ही चल रही थी परंतु उस दुकान को खरीदने के लिए 3 साल पहले उस ने जो 40 हजार डालर का कर्ज लिया था, उस के भुगतान का समय आ गया था. उस ने एक कर्ज देने वाली कंपनी से 25 प्रतिशत सालाना ब्याज की दर से रुपया उधार लिया था. वे लोग उस को कर्जे की रकम अदा करने के लिए मुहलत देने को तैयार नहीं थे. उसे मालूम था कि अगर वह समय पर रकम अदा नहीं कर पाया तो वे उस की दुकान को हड़प कर लेंगे.

ऐसा तो नहीं था कि उस की दुकान अच्छी न चलती हो, परंतु 10 हजार डालर तो हर साल कर्जे के ब्याज के ही हो जाते थे. ऊपर से उस की परेशानियों को बढ़ाने के लिए 2 साल पहले एक बेटी भी पैदा हो गई थी जिस के कारण रमा ने भी दुकान पर काम करना बंद कर दिया था. उस के काम को करने के लिए अब उसे 2 लड़कियों को रखना पड़ रहा था. वे लड़कियां मौका मिलते ही दुकान से चोरी करने में तनिक भी नहीं चूकती थीं.

हरीश ने कई बैंकों और उधार देने वाली कंपनियों से बातचीत भी की पर कोई भी उसे उधार देने को तैयार नहीं हुआ. हार कर उसे अपने दोस्त सुधीर की शरण में ही जाना पड़ा.

सुधीर से उस ने 3 साल पहले भी उधार देने को कहा था परंतु उस ने साफ मना कर दिया था. सुधीर का दोटूक जवाब सुन कर ही वह उस उधार देने वाली कंपनी के पास गया था.

हरीश की कहानी सुन कर सुधीर यह तो जान गया कि वह ही हरीश का एकमात्र सहारा बन सकता है. उस ने हरीश से अपनी दुकान के हिसाबकिताब के कागजात अगले दिन लाने को कहा. हरीश अगले दिन ठीक समय पर सुधीर के घर हिसाबकिताब की फाइलें ले कर पहुंच गया. सुधीर लगभग 1 घंटे तक उन का अध्ययन करता रहा और हरीश से प्रश्न पूछता रहा.

‘‘भाई, तुम्हारी दुकान अच्छी हालत में नहीं है. कोई भी कर्ज देने वाला इस हिसाबकिताब के आधार पर कभी भी तुम को उधार नहीं देगा. मेरी राय में तुम्हारे पास एक ही रास्ता है, अपना मकान और जेवर गिरवी रख दो,’’ सुधीर ने सुझाव दिया.

‘‘मकान तो पहले से ही उधार पर खरीदा हुआ है. अभी उस पर 1 लाख डालर का कर्ज बाकी है,’’ हरीश धीरे से बोला.

‘‘तुम्हारे मकान की कीमत इस समय 1 लाख 30 हजार डालर होगी. अगर उस को एक बार फिर गिरवी रख दो तो तुम्हें 15 हजार और मिल सकते हैं. फिर भी 5 हजार कम पड़ेंगे. दुकान पर तो कोई मुश्किल से 20 हजार ही देगा. इन 5 हजार के लिए तुम्हारे पास जेवर गिरवी रखने के अलावा कोई चारा नहीं है,’’ सुधीर ने अपनी भेदती आंखों से हरीश को देखा. हरीश मन ही मन कांप रहा था. हरीश को सुधीर से ऐसी उम्मीद न थी.

‘‘मैं सोच रहा था कि घर को अपने पास गिरवी रख कर तुम 20 हजार दे दो. 20 हजार से मेरा काम चल जाएगा. रमा के जेवर गिरवी रखने की क्या जरूरत है? तुम्हारे पास भी तो बैंक के लौकर में रहेंगे. कम से कम रमा के सामने मेरी इज्जत तो बनी रहेगी,’’ हरीश गिड़गिड़ाया.

‘‘देखो भाई, मैं ने तुम से पहले भी कहा था, दोस्तों से मैं कारोबार इसीलिए नहीं करता. बीच में दोस्ती ले आते हैं. फिर न तो दोस्ती ही रहती है और न ही कारोबार हो पाता है. एक बात और मैं उधार की रकम का 20 प्रतिशत प्रशासन फीस के तौर पर पहले ही ले लेता हूं. तुम्हीं को कागज तैयार करने की फीस भी नोटरी को देनी होगी, जो लगभग 500 डालर तो होगी ही.’’

‘‘इस का मतलब 40 हजार की रकम पाने के लिए 41,300 उधार लेने होंगे, क्यों सुधीर?’’

‘‘हां, हरीश.’’

‘‘ठीक है, मैं तैयार हूं.’’

सुधीर ने अपनी डायरी से एक पता लिखा और हरीश को दिया, ‘‘यह मेरे नोटरी का पता है. सस्ते में ही काम कर देगा. मैं इस को फोन कर दूंगा. तुम अपने मकान और दुकान के सारे कागज उस के यहां छोड़ आना. साथ ही जो जेवर गिरवी रखने हों, उन की फोटो और कीमत का विवरण भी उस को दे आना. जेवरों की कीमत कम से कम 10 हजार डालर तो होनी ही चाहिए, उन पर 5 हजार उधार लेने के लिए,’’ सुधीर ने हरीश को साफ- साफ इस तरह कह दिया जैसे कि वह उस का मित्र नहीं कोई अजनबी हो.

‘‘ठीक है, मैं कल ही दे आऊंगा,’’ यह कह कर हरीश चला गया.

सारे रास्ते हरीश सोचता रहा कि सुधीर को उस की दोस्ती का तनिक भी लिहाज नहीं है. पिछले 12 साल से वे एकदूसरे को जानते हैं. लगभग एकसाथ ही टोरंटो आए थे. सुधीर ने खूब पैसा कमाया और बचाया. एक बड़ा घर बनवा कर ठाट से अपने परिवार के साथ रह रहा है. पैसा कमाने के मामले में हरीश बहुत सफल नहीं रहा. बड़ी मुश्किल से किसी तरह पैसे बचा कर और कर्जे में डूब कर यह दुकान खरीदी और वह भी ठीक से नहीं चल रही.

जेवरों को गिरवी रखने की बात उस ने रमा को नहीं बताई. यह तो अच्छा ही हुआ कि उस ने अपना बैंक का लौकर रमा के नाम नहीं करवाया. आराम से जेवर निकाल कर गिरवी रख देगा. रमा को पता भी नहीं चलेगा.

सुधीर के नोटरी ने हरीश से सब जरूरी कागजात पाने के बाद 2 दिन में ही कर्जे के कागज तैयार कर दिए. उन कागजों पर हस्ताक्षर करने के लिए शाम को 8 बजे नोटरी के दफ्तर में जाना था. हरीश तो साढ़े 7 बजे ही पहुंच गया. सुधीर ठीक समय पर ही पहुंचा, साहूकार जो ठहरा.

सुधीर हरीश से इस तरह मिला जैसे कि बरसों का बिछड़ा दोस्त हो, ‘कितना बहुरुपिया है यह. 4 दिन पहले अपने घर में किस तरह से पेश आ रहा था और अब ऐसे मिल रहा है जैसे कर्ज नहीं सौगात देने जा रहा हो,’ हरीश ने सोचा.

नोटरी ने उन दोनों को अपने दफ्तर में भीतर बुला लिया.

नोटरी के सामने सुधीर और हरीश बैठ गए. नोटरी कर्जे की सारी शर्तें पढ़ कर सुना रहा था. कर्जे की रकम पूरी 42 हजार डालर होगी. उस पर 27 प्रतिशत की दर से ब्याज लगेगा जो हर महीने की पहली तारीख को देना होगा.

हरीश ने नोटरी को बीच में ही रोक दिया, ‘‘27 प्रतिशत, आजकल बाजार की दर तो 24 प्रतिशत है.’’

‘‘तब बाजार से क्यों नहीं ले लिया. भई, इतनी बड़ी रकम का जोखिम भी तो मैं ही उठा रहा हूं,’’ सुधीर बोला.

‘‘मिस्टर हरीश, सुधीर ठीक ही कहते हैं. मैं ने आप के कारोबार के सारे कागजात देखे हैं. मैं खुद भी आप को अगर उधार देता तो 30 प्रतिशत से कम ब्याज नहीं लेता. सुधीर आप से दोस्ती के लिहाज में कम ब्याज ले रहे हैं,’’ नोटरी ने सुधीर की तरफदारी की. वह हरीश की ओर देखने लगा.

‘‘अच्छा, ठीक है,’’ हरीश बोला.

‘‘ब्याज की रकम ठीक 1 तारीख को न मिलने पर हरीश को कानूनी नोटिस दिया जा सकता है और उस की दुकान और मकान जब्त किए जा सकते हैं.’’

इस से पहले कि हरीश कुछ आना- कानी करे, नोटरी ने ही समझाया कि ये सब सामान्य शर्तें हैं.

हरीश को याद आया कि पहले कर्ज देने वाली कंपनी ने भी उस से कुछ इस तरह की शर्तों पर ही हस्ताक्षर करवाए थे. हरीश सिगरेट पर सिगरेट फूंके जा रहा था. उस की सिगरेट के धुएं से नोटरी के दफ्तर में धुआं ही धुआं भर गया.

‘‘अगर मिस्टर हरीश तुम कुछ देर और ठहरे तो सिगरेट के धुएं के कारण अंधेरा ही हो जाएगा. आप जैसे ग्राहक मुझ को कैंसर करवा कर ही छोड़ेंगे,’’ नोटरी ने पहले सुधीर से हस्ताक्षर करवाए. फिर हरीश से. इस के बाद खुद किए, ‘‘कल यह कागज रजिस्ट्रार के यहां ले जा कर इन की रजिस्ट्री करा दूंगा.’’

नोटरी ने एक चैक हरीश को दे दिया. हरीश ने नोटरी को उस की फीस के 500 डालर नकद दे दिए. चैक से फीस देने पर तो नोटरी 800 डालर मांग रहा था. चैक पा कर हरीश ने नोटरी से हाथ मिलाया. फिर सुधीर ने हरीश से हाथ मिलाया.

सुधीर ने महसूस किया कि हरीश पसीनेपसीने हो रहा था. उस का हाथ हरीश के पसीने से गीला हो गया. हरीश चैक ले कर तुरंत चला गया. सुधीर को नोटरी से कुछ जरूरी बातें करनी थीं इसलिए वह रुक गया. उस ने जेब से रूमाल निकाल कर अपनी गीली हथेली को पोंछा.

‘‘देखना कहीं पसीने की जगह हरीश का खून ही न हो,’’ नोटरी ने मजाक किया.

‘‘इस से पहले कि मैं भूल जाऊं, मेरी दलाली के 100 डालर निकालो, हरीश से ली गई फीस में से.’’

नोटरी ने 100 डालर का नोट सुधीर को देते हुए कहा, ‘‘मैं उम्मीद कर रहा था कि तुम शायद भूल जाओगे पर तुम हो पक्के साहूकार.’’

सुधीर ने नोटरी का दिया 100 डालर का नोट जेब में रख लिया, ‘‘इस तरह भूल जाऊं तो आज इतना फैला हुआ कारोबार कैसे चला पाऊंगा.’’

कुछ देर बात कर के सुधीर चला गया.

हरीश और सुधीर के बीच की दोस्ती लगभग समाप्त ही हो गई थी. हर महीने की पहली तारीख को हरीश ब्याज की किस्त सुधीर के यहां पहुंचा देता था. रमा भी अब दुकान पर आने लगी थी. बच्ची के कारण पहले की तरह तो नहीं आ पाती थी, इसी वजह से एक लड़की को अभी भी दुकान पर रखा हुआ था.

हरीश का जीवन काफी तनावपूर्ण था. रमा के लाख लड़नेझगड़ने पर भी वह अपनी सिगरेट पीना कम नहीं कर रहा था. शराब तो वह पहले से ही काफी पीता था. हर रात जब तक 2-3 पैग स्कौच के नहीं पी लेता था तब तक उसे नींद ही नहीं आती थी.

आखिर हरीश का शरीर कब तक अपने ऊपर की हुई ज्यादतियां बरदाश्त करता. उस के दिल ने बगावत कर दी थी. यह तो अच्छा हुआ कि उस को दिल का दौरा दुकान में रमा और नौकरानी के सामने ही पड़ा, इस कारण से उस को डाक्टरी सहायता जल्दी ही मिल गई. रमा के तो हाथपांव फूल गए थे. परंतु उस लड़की ने धैर्य से काम ले कर ऐंबुलेंस को बुलवा लिया था. अस्पताल में उस को इमरजैंसी वार्ड में तुरंत भरती करवा दिया गया. डाक्टरों के अनुसार अगर हरीश को अस्पताल आने में 15 मिनट की और देरी हो जाती तो वे कुछ भी नहीं कर पाते.

रमा के ऊपर हरीश की बीमारी से बहुत बोझ आ पड़ा. दुकान की जिम्मेदारी, बच्चे की देखरेख और अस्पताल के सुबहशाम के चक्कर. हरीश को बातचीत करने की सख्त मनाही थी. ऐसी हालत में जरा सी दिमागी परेशानी होने से जान को खतरा हो सकता था. दिल के दौरे ने हरीश की सिगरेट छुड़वा दी. अगर पहले ही सिगरेट छोड़ देता तो शायद दिल का दौरा पड़ता ही नहीं.

दिल का दौरा पड़ने से ठीक 1 महीने के बाद हरीश को अस्पताल से घर जाने की इजाजत मिल गई. रमा उस को अस्पताल से घर छोड़ गई. आज तक तो दुकान उस ने उस काम करने वाली लड़की की देखरेख में ही छोड़ रखी थी.

अचानक सुधीर का ध्यान आया, ‘‘अरे, आज 20 तारीख हो गई. रमा तुम ने सुधीर को उस की ब्याज की किस्त का चैक भिजवाया था पहली तारीख को?

रमा उस समय रसोई में थी. हरीश की आवाज सुन कर ऊपर शयनकक्ष में दौड़ी आई.

‘‘अरे, भूल गई मैं तो. उन को क्या मालूम नहीं कि आप को दिल का दौरा पड़ा है. कम से कम एक बार तो आ कर अस्पताल में देख जाते. बस, एक बार बीवी से फोन करवा दिया. हम कोई भागे थोड़े ही जाते हैं. मैं कल ही चैक खुद दे आऊंगी उन के घर,’’ इतना कह कर रमा चली गई.

हरीश से फिर भी रहा नहीं गया. उस ने सुधीर के घर का टैलीफोन नंबर घुमाया. फोन सुधीर के लड़के ने उठाया, ‘‘अरे चाचाजी, आप? कैसी तबीयत है? पिताजी आप के लिए बहुत चिंता करते हैं. इस समय तो पिताजी घर पर नहीं हैं. उन के आने पर उन से कह कर फोन करवा दूंगा.’’

‘इस का बेटा भी बिलकुल बाप पर गया है,’ हरीश ने मन ही मन सोचा.

सवेरे जब रमा दुकान पर जाने लगी तो हरीश ने अपनी गैरहाजिरी में आई हुई डाक लाने को कहा. रमा सारे पत्र ऊपर ले आई.

रमा जाने लगी तो हरीश ने उस को एक बार फिर से याद दिलाया कि सुधीर को चैक अवश्य भिजवाना है.

रमा चली गई. हरीश ने एक नजर उन पत्रों के ढेर पर डाली. फिर धीरेधीरे उन पत्रों को खोलने लगा.

रमा का कहना सच ही था. पहले 5 पत्र तो बिजली, गैस, टैलीफोन, अखबार और टैलीविजन के किराए के ही बिल थे. उन पत्रों के ढेर में एक बड़ा सा सफेद लंबा लिफाफा था. हरीश ने उसे खोला. उस को पढ़ते ही हरीश की आंखों के सामने अंधेरा छा गया. पत्र सुधीर के वकील की तरफ से था. सुधीर ने समय पर ब्याज की किस्त न अदा करने के कारण दुकान और मकान पर कब्जा करने की कानूनी कार्यवाही का नोटिस दिया था.

हरीश के पसीना छूटने लगा. उस को समझने में देर न लगी कि उसे क्या हो रहा है. उस ने बिस्तर से उठने की नाकामयाब कोशिश की. कुछ क्षणों पश्चात उस की आंखें मुंदने लगीं. उस की आंखें पथरा गईं और वकील का नोटिस उस की बेजान उंगलियों के बीच उलझ कर रह गया ताकि शाम को रमा उस को पढ़ ले.

Online Kahani : शादी के बाद

Online Kahani : रजनी को विकास जब देखने के लिए गया तो वह कमरे में मुश्किल से 15 मिनट भी नहीं बैठी. उस ने चाय का प्याला गटागट पिया और बाहर चली गई. रजनी के मातापिता उस के व्यवहार से अवाक् रह गए. मां उस के पीछेपीछे आईं और पिता विकास का ध्यान बंटाने के लिए कनाडा के बारे में बातें करने लगे. यह तो अच्छा ही हुआ कि विकास कानपुर से अकेला ही दिल्ली आया था. अगर उस के घर का कोई बड़ाबूढ़ा उस के साथ होता तो रजनी का अभद्र व्यवहार उस से छिपा नहीं रहता. विकास तो रजनी को देख कर ऐसा मुग्ध हो गया था कि उसे इस व्यवहार से कुछ भी अटपटा नहीं लगा.

रजनी की मां ने उसे फटकारा, ‘‘इस तरह क्यों चली आई? वह बुरा मान गया तो? लगता है, लड़के को तू बहुत पसंद आई है.’’ ‘‘मुझे नहीं करनी उस से शादी. बंदर सा चेहरा है. कितना साधारण व्यक्तित्व है. उस के साथ तो घूमनेफिरने में भी मुझे शर्म आएगी,’’ रजनी ने तुनक कर कहा.

‘‘मुझे तो उस में कोई खराबी नहीं दिखती. लड़कों का रूपरंग थोड़े ही देखा जाता है. उन की पढ़ाईलिखाई और नौकरी देखी जाती है. तुझे सारा जीवन कैनेडा में ऐश कराएगा. अच्छा खातापीता घरबार है,’’ मां ने समझाया, ‘‘चल, कुछ देर बैठ कर चली आना.’’ रजनी मान गई और वापस बैठक में आ गई.

‘‘इस की आंख में कीड़ा घुस गया था,’’ विकास की ओर रजनी की मां ने बरफी की प्लेट बढ़ाते हुए कहा. रजनी ने भी मां की बात रख ली. वह दाएं हाथ की उंगली से अपनी आंख सहलाने लगी.

विकास ने दोपहर का खाना नहीं खाया. शाम की गाड़ी से उसे कानपुर जाना था. स्टेशन पर उसे छोड़ने रजनी के पिताजी गए. विकास ने उन्हें बताया कि उसे रजनी बेहद पसंद आई है. उस की ओर से वे हां ही समझें. शादी 15 दिन के अंदर ही करनी पड़ेगी, क्योंकि उस की छुट्टी के बस 3 हफ्ते ही शेष रह गए थे और दहेज की तनिक भी मांग नहीं होगी. रजनी के पिता विकास को विदा कर के लौटे तो मन ही मन प्रसन्न तो बहुत थे परंतु उन्हें अपनी आजाद खयाल बेटी से डर भी लग रहा था कि पता नहीं वह मानेगी या नहीं.

पिछले 3 सालों में न जाने कितने लड़कों को उसे दिखाया. वह अत्यंत सुंदर थी, इसलिए पसंद तो वह हर लड़के को आई लेकिन बात हर जगह या तो दहेज के कारण नहीं बन पाई या फिर रजनी को ही लड़का पसंद नहीं आता था. उसे आकर्षक और अच्छी आय वाला पति चाहिए था. मातापिता समझा कर हार जाते थे, पर वह टस से मस न होती. उस रात वे काफी देर तक जागते रहे और रजनी के विषय में ही सोचते रहे कि अपनी जिद्दी बेटी को किस तरह सही रास्ते पर लाएं. अगले दिन रात को तार वाले ने जगा दिया. रजनी के पिता तार ले कर अंदर आए. तार विकास के पिताजी का था. वे रिश्ते के लिए राजी थे. 2 दिन बाद परिवार के साथ ‘रोकने’ की रस्म करने के लिए दिल्ली आ रहे थे. रजनी ने सुन कर मुंह बिचका दिया. छोटे बच्चों को हाथ के इशारे से कमरे से जाने को कहा गया. अब कमरे में केवल रजनी और उस के मातापिता ही थे.

‘‘बेटी, मैं मानता हूं कि विकास बहुत सुंदर नहीं है पर देखो, कनाडा में कितनी अच्छी तरह बसा हुआ है. अच्छी नौकरी है. वहां उस का खुद का घर है. हम इतने सालों से परेशान हो रहे हैं, कहीं बात भी नहीं बन पाई अब तक. तू तो बहुत समझदार है. विकास के कपड़े देखे थे, कितने मामूली से थे. कनाडा में रह कर भी बिलकुल नहीं बदला. तू उस के लिए ढंग के कपड़े खरीदेगी तो आकर्षक लगने लगेगा,’’ पिता ने समझाया. ‘‘देख, आजकल के लड़के चाहते हैं सुंदर और कमाऊ लड़की. तेरे पास कोई ढंग की नौकरी होती तो शायद दहेज की मांग इतनी अधिक न होती. हम दहेज कहां से लाएं, तू अपने घर की माली हालत जानती ही है. लड़कों को मालूम है कि सुंदर लड़की की सुंदरता तो कुछ साल ही रहती है और कमाऊ लड़की तो सारा जीवन कमा कर घर भरती है,’’ मां ने भी बेटी को समझाने का भरसक प्रयास किया.

रजनी ने मातापिता की बात सुनी, पर कुछ बोली नहीं. 3 साल पहले उस ने एम.ए. तृतीय श्रेणी में पास किया था. कभी कोई ढंग की नौकरी ही नहीं मिल पाई थी. उस के साथ की 2-3 होशियार लड़कियां तो कालेजों में व्याख्याता के पद पर लगी हुई थीं. जिन आकर्षक युवकों को अपना जीवनसाथी बनाने का रजनी का विचार था वे नौकरीपेशा लड़कियों के साथ घर बसा चुके थे. शादी और नौकरी, दोनों ही दौड़ में वह पीछे रह गई थी.

‘‘देख, कनाडा में बसने की किस की इच्छा नहीं होती. सारे लोग तुझ को देख कर यहां ईर्ष्या करेंगे. तुम छोटे भाईबहनों के लिए भी कुछ कर पाओगी,’’ पिता ने कहा.

रजनी को अपने छोटे भाईबहनों से बहुत लगाव था. पिताजी अपनी सीमित आय में उन के लिए कुछ भी नहीं कर सकते थे. वह सोचने लगी, ‘अगर वह कनाडा चली गई तो उन के लिए बहुतकुछ कर सकती है, साथ ही विकास को भी बदल देगी. उस की वेशभूषा में तो परिवर्तन कर ही देगी.’ रजनी मां के गले लग गई, ‘‘मां, जैसी आप दोनों की इच्छा है, वैसा ही होगा.’’ रजनी के पिता तो खुशी से उछल ही पड़े. उन्होंने बेटी का माथा चूम लिया. आवाज दे कर छोटे बच्चों को बुला लिया. उस रात खुशी से कोई न सो पाया.

2 सप्ताह बाद रजनी और विकास की धूमधाम से शादी हो गई. 3-4 दिन बाद रजनी जब कानपुर से विकास के साथ दिल्ली वापस आई तब विकास उसे कनाडा के उच्चायोग ले गया और उस के कनाडा के आप्रवास की सारी काररवाई पूरी करवाई. कनाडा जाने के 2 हफ्ते बाद ही विकास ने रजनी के पास 1 हजार डालर का चेक भेज दिया. बैंक में जब रजनी चेक के भुगतान के लिए गई तो उस ने अपने नाम का खाता खोल लिया. बैंक के क्लर्क ने जब बताया कि उस के खाते में 10 हजार रुपए से अधिक धन जमा हो जाएगा तो रजनी की खुशी की सीमा न रही.

रजनी शादी के बाद भारत में 10 महीने रही. इस दौरान कई बार कानपुर गई. ससुराल वाले उसे बहुत अच्छे लगे. वे बहुत ही खुशहाल और अमीर थे. कभी भी उन्होंने रजनी को इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि उस के मातापिता साधारण स्थिति वाले हैं. रजनी का हवाई टिकट विकास ने भेज दिया था. उसे विदा करने के लिए मायके वाले भी कानपुर से दिल्ली आए थे.

लंदन हवाई अड्डे पर रजनी को हवाई जहाज बदलना था. उस ने विकास से फोन पर बात की. विकास तो उस के आने का हर पल गिन रहा था. मांट्रियल के हवाई अड्डे पर रजनी को विकास बहुत बदला हुआ लग रहा था. उस ने कीमती सूट पहना हुआ था. बाल भी ढंग से संवारे हुए थे. उस ने सामान की ट्राली रजनी के हाथ से ले ली. कारपार्किंग में लंबी सी सुंदर कार खड़ी थी. रजनी को पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि यह कार उस की है. वह सोचने लगी कि जल्दी ही कार चलाना सीख लेगी तो शान से इसे चलाएगी. एक फोटो खिंचवा कर मातापिता को भेजेगी तो वे कितने खुश होंगे.

कार में रजनी विकास के साथ वाली सीट पर बैठे हुए अत्यंत गर्व का अनुभव कर रही थी. विकास ने कर्कलैंड में घर खरीद लिया था. वह जगह मांट्रियल हवाई अड्डे से 55 किलोमीटर की दूरी पर थी. कार बड़ी तेजी से चली जा रही थी. रजनी को सब चीजें सपने की तरह लग रही थीं. 40-45 मिनट बाद घर आ गया. विकास ने कार के अंदर से ही गैराज का दरवाजा खोल लिया. रजनी हैरानी से सबकुछ देखती रही. कार से उतर कर रजनी घर में आ गई. विकास सामान उतार कर भीतर ले आया. रजनी को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि इतना आलीशान घर उसी का है. उस की कल्पना में तो घर बस 2 कमरों का ही होता था, जो वह बचपन से देखती आई थी. विकास ने घर को बहुत अच्छी तरह से सजा रखा था. सब तरह की आधुनिक सुखसुविधाएं वहां थीं. रजनी इधरउधर घूम कर घर का हर कोना देख रही थी और मन ही मन झूम रही थी.

विकास ने उस के पास आ कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘आज की शाम हम बाहर मनाएंगे परंतु इस से पहले तुम कुछ सुस्ता लो. कुछ ठंडा या गरम पीओगी?’’ विकास ने पूछा. रजनी विकास के करीब आ गई और उस के गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘आज की शाम बाहर गंवाने के लिए नहीं है, विकास. मुझे शयनकक्ष में ले चलो.’’

विकास ने रजनी को बांहों के घेरे में ले लिया और ऊपरी मंजिल पर स्थित शयनकक्ष की ओर चल दिया.

Best Kahani 2025 : अवगुण चित न धरो

Best Kahani 2025 :  समुद्र के किनारे बैठ कर वह घंटों आकाश और सागर को निहारता रहता. मन के गलियारे में घुटन की आंधी सरसराती रहती. ऐसा बारबार क्यों होता है. वह चाहता तो नहीं है अपना नियंत्रण खोना पर जाने कौन से पल उस की यादों से बाहर निकल कर चुपके- चुपके मस्तिष्क की संकरी गली में मचलने लगते हैं. कदाचित इसीलिए उस से वह सब हो जाता है जो होना नहीं चाहिए. सुबह से 5 बार उसे फोन कर चुका है पर फौरन काट देती है. 2 बार गेट तक गया पर गेटकीपर ने कहा कि छोटी मेम साहिबा ने मना किया है गेट खोलने को.

वह हताश हो समुद्र के किनारे चल पड़ा था. अपनी मंगेतर का ऐसा व्यवहार उसे तोड़ रहा था. घर पहुंच कर बड़बड़ाने लगा, ‘क्या समझती है अपनेआप को. जरा सी सुंदर है और बैंक में आफिसर बन गई है तो हवा में उड़ी जा रही है.’ मयंक के कारण ही अब उन का ऊंचे घराने से नाता जुड़ा था. जब विवाह तय हुआ था तब तो साक्षी ऐसी न थी. सीधीसादी सी हंसमुख साक्षी एकाएक इतनी बदल क्यों गई है?

मां ने मयंक की बड़बड़ाहट पर कुछ देर तो चुप्पी साधे रखी फिर उस के सामने चाय का प्याला रख कर कहा, ‘‘तुम हर बात को गलत ढंग से समझते हो.’’ ‘‘आप क्या कहना चाह रही हैं,’’ वह झुंझला उठा था.

मम्मी उस के माथे पर प्यार से हाथ फेरती हुई बोलीं, ‘‘पिछले हफ्ते चिरंजीव के विवाह में तुम्हारे बुलाने पर साक्षी भी आई थी. जब तक वह तुम से चिपकी रही तुम बहुत खुश थे पर जैसे ही उस ने अपने कुछ दूसरे मित्रों से बात करना शुरू किया तुम उस पर फालतू में बिगड़ उठे. वह छोटी बच्ची नहीं है. तुम्हारा यह शक्की स्वभाव उसे दुखी कर गया होगा तभी वह बात नहीं कर रही है.’’ मयंक सोच में पड़ गया. क्या मम्मी ठीक कह रही हैं? क्या सचमुच मैं शक्की स्वभाव का हूं?

दफ्तर से निकल कर साक्षी धीरेधीरे गाड़ी चला रही थी. फरवरी की शाम ठंडी हो चली थी. वह इधरउधर देखने लगी. उस का मन बहुत बेचैन था. शायद मयंक को याद कर रहा था. पापा ने कितने शौक से यह विवाह तय किया था. मयंक पढ़ालिखा नौजवान था. एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छे पद पर था. कंपनी ने उसे रहने के लिए बड़ा फ्लैट, गाड़ी आदि की सुविधा दे रखी थी. बहुत खुश थी साक्षी. पर घड़ीघड़ी उस का चिड़चिड़ापन, शक्की स्वभाव उस के मन को बहुत उद्वेलित कर रहा था. मयंक के अलगअलग स्वभाव के रंगों में कैसे घुलेमिले वह. लाल बत्ती पर कार रोकी तो इधरउधर देखती आंखें एक जगह जा कर ठहर गईं. ठंडी हवा से सिकुड़ते हुए एक वृद्ध को मयंक अपना कोट उतार कर पहना रहा था.

कुछ देर अपलक साक्षी उधर ही देखती रही. फिर अचानक ही मुसकरा उठी. अब इसे देख कर कौन कहेगा कि यह कितना चिड़चिड़ा और शक्की इनसान है. इस का क्रोध जाने किधर गायब हो गया. वह कार सड़क के किनारे पार्क कर के धीरेधीरे वहां जा पहुंची. मयंक जाने को मुड़ा तो उस ने अपने सामने साक्षी को खड़ा मुसकराता पाया. इस समय साक्षी को उस पर क्रोध नहीं बल्कि मीठा सा प्यार आ रहा था. मयंक का हाथ पकड़ कर साक्षी बोली, ‘‘मैं ने सोचा फोन पर क्यों मनाना- रूठना, आमनेसामने ही दोनों काम कर डालते हैं.’’

पहले मनाने का कार्य मयंक कर रहा था पर अब साक्षी को देखते ही उस ने रूठने की ओढ़नी ओढ़ ली और बोला, ‘‘अभी से बातबेबात नाराज होने का इतना शौक है तो आगे क्या करोगी?’’ साक्षी मन को शांत रखते हुए बोली, ‘‘चलो, कहां ले जाना चाहते थे. 2 घंटे आप के साथ ही बिताने वाली हूं.’’

मयंक अकड़ कर चलते हुए अपनी कार तक पहुंचा और अंदर बैठ कर दरवाजा खोल साक्षी के आने की प्रतीक्षा करने लगा. साक्षी बगल में बैठते हुए बोली, ‘‘वापसी में आप को मुझे यहीं छोड़ना होगा क्योंकि अपनी गाड़ी मैं ने यहीं पार्क की है. ’’ कार चलाते हुए मयंक ने पूछा, ‘‘साक्षी, क्या तुम्हें लगता है कि मैं अच्छा इनसान नहीं हूं?’’

‘‘ऐसा तो मैं ने कभी नहीं कहा.’’ ‘‘पर तुम्हारी बेरुखी से मुझे ऐसा ही लगता है.’’

‘‘देखो मयंक,’’ साक्षी बोली, ‘‘हमें गलतफहमियों से दूर रहना चाहिए.’’ मयंक एक अस्पताल के सामने रुका तो साक्षी अचरज से उस के साथ चल दी. कुछ दूर जा कर पूछ बैठी, ‘‘क्या कोई अस्वस्थ है?’’

मयंक ने धीरे से कहा, ‘‘नहीं,’’ और वह सीधा अस्पताल के इंचार्ज डाक्टर के कमरे में पहुंच गया. उन्होंने देखते ही प्यार से उसे बैठने को कहा. लगा जैसे वह मयंक को भलीभांति पहचानते हैं. मयंक ने एक चेक जेब से निकाल कर डाक्टर के सामने रख दिया. ‘‘आप लोगों की यह सहृदयता हमारे मरीजों के बहुत से दुख दूर करती है,’’ डाक्टर ने मयंक से कहा, ‘‘आप को देख कर कुछ और लोग भी हमारी सहायता को आगे आए हैं. बहुत जल्द हम कैंसर पीडि़तों के लिए एक नया और सुविधाजनक वार्ड आरंभ करने जा रहे हैं.’’

मयंक ने चलने की आज्ञा ली और साक्षी को चलने का संकेत किया. कार में बैठ कर बोला, ‘‘तुम परेशान हो कि मैं यहां क्यों आता हूं.’’ ‘‘नहीं. एक नेक कार्य के लिए आते हो यह तुरंत समझ में आ गया,’’ साक्षी मुसकरा दी.

मयंक चुपचाप गाड़ी चलातेचलाते अचानक बोल पड़ा, ‘‘साक्षी, क्या तुम्हें मैं शक्की स्वभाव का लगता हूं?’’ साक्षी चौंक कर सोच में पड़ गई कि यह व्यक्ति एक ही समय में विचारों के कितने गलियारे पार कर लेता है. पर प्रत्यक्ष में बोली, ‘‘क्या मैं ने कभी कहा?’’

‘‘यही तो बुरी बात है. कहती नहीं हो…बस, नाराज हो कर बैठ जाती हो.’’ ‘‘ठीक है. अब नाराज होने से पहले तुम्हें बता दिया करूंगी.’’

‘‘मजाक कर रही हो.’’ ‘‘नहीं.’’

‘‘मुझे तुम्हारे रूठने से बहुत कष्ट होता है.’’ साक्षी को उस की गाड़ी तक छोड़ कर मयंक बोला, ‘‘क्लब जा रहा हूं, चलोगी?’’

‘‘आज नहीं, फिर कभी,’’ साक्षी बाय कर के चल दी. विवाह की तारीख तय हो चुकी थी. दोनों तरफ विवाह की तैयारियां जोरशोर से चल रही थीं. एक दिन साक्षी की सास का फोन आया कि नलिनी यानी साक्षी की होने वाली ननद ने अपने घर पर पार्टी रखी है और उसे भी वहां आना है. यह भी कहा कि मयंक उसे लेने आ जाएगा. उस दिन नलिनी के पति विराट की वर्षगांठ थी.

साक्षी खूब जतन से तैयार हुई. ननद की ससुराल जाना था अत: सजधज कर तो जाना ही था. मयंक ने देखा तो खुश हो कर बोला, ‘‘आज तो बिजली गिरा रही हो जानम.’’ पार्टी आरंभ हुई तो साक्षी को नलिनी ने सब से मिलवाया. बहुत से लोग उस की शालीनता और सौंदर्य से प्रभावित थे. विराट के एक मित्र ने उस से कहा, ‘‘बहुत अच्छी बहू ला रहे हो अपने साले की.’’

‘‘मेरा साला भी तो कुछ कम नहीं है,’’ विराट ने हंस कर कहा. मयंक ने दूर से सुना और मुसकरा दिया. मां ने कहा था कि पार्टी में कोई तमाशा न करना और उन की यह नसीहत उसे याद थी. इसलिए भी मयंक की कोशिश थी कि अधिक से अधिक वह साक्षी के निकट रहे. डांस फ्लोर पर जैसे ही लोग थिरकने लगे तो मयंक ने झट से साक्षी को थाम लिया. साक्षी भी प्रसन्न थी. काफी समय से मयंक उसे खुश रखने के लिए कुछ न कुछ नया करता रहा था. कभी उपहार ला कर, कभी सिनेमा या क्लब ले जा कर. एक दिन साक्षी ने अपनी होने वाली सासू मां से कहा, ‘‘मम्मीजी, मयंक बचपन से ही ऐसे हैं क्या? एकदम मूडी?’’

मम्मी ने सुनते ही एक गहरी सांस भरी थी. कुछ पल अतीत में डूबतेउतराते व्यतीत कर दिए फिर बोलीं, ‘‘यह हमेशा से ऐसा नहीं था.’’ ‘‘फिर?’’

‘‘क्या बताऊं साक्षी…सब को अपना मानने व प्यार करने के स्वभाव ने इसे ऐसा बना दिया.’’ साक्षी ने उत्सुकता से सासू मां को देखा…वह धीरेधीरे अतीत में पूरी तरह डूब गईं.

पहले वे लोग इतने बड़े घर व इतनी हाई सोसायटी वाली कालोनी में नहीं रहते थे. मयंक को शानदार घर मिला तो वे यहां आए.

उस कालोनी में हर प्रकार के लोग थे और आपस में सभी का बहुत गहरा प्यार था. मयंक बंगाली बाबू मकरंद राय के यहां बहुत खेलता था. उन का बेटा पवन और बेटी वैदेही पढ़ते भी इस के साथ ही थे. वैदेही कत्थक सीखा करती थी. कभीकभी मयंक भी उस का नृत्य देखता और खुश होता रहता. उस दिन राय साहब ने वैदेही की वर्षगांठ की एक छोटी सी पार्टी रखी थी. आम घरेलू पार्टी जैसी थी. महल्ले की औरतों ने मिलजुल कर कुछ न कुछ बनाया था और बच्चों ने गुब्बारे टांग दिए थे. इतने में ही वहां खुशी की मधुर बयार फैल गई थी.

राय साहब बंगाली गीत गाने लगे तो माहौल बहुत मोहक हो गया. तभी किसी ने कहा, ‘वैदेही का डांस तो होना ही चाहिए. आज उस की वर्षगांठ है.’ सभी ने हां कही तो वैदेही भी तैयार हो गई. वह तुरंत चूड़ीदार पायजामा और फ्राक पहन कर आ गई. उसे देखते ही उस के चाचा के बच्चे मुंह पर हाथ रख कर हंसने लगे. मयंक बोला, ‘क्यों हंस रहे हो?’

‘कैसी दिख रही है बड़ी दीदी.’ ‘इतनी प्यारी तो लग रही है,’ मयंक ने खुश हो कर कहा.

नृत्य आरंभ हुआ तो उस के बालों में गुंथे गजरे से फूल टूट कर बिखरने लगे. वे दोनों बच्चे फिर ताली बजाने लगे. ‘अभी वैदेही दीदी भी गिरेंगी.’

मयंक को उन का मजाक उड़ाना अच्छा नहीं लगा. इसीलिए वह दोनों बच्चों को बराबर चुप रहने को कह रहा था. अचानक वैदेही सचमुच फिसल कर गिर गई और उस के माथे पर चोट लग गई जिस में से खून बहने लगा था. मयंक को पता नहीं क्या सूझा कि उठ कर उन दोनों बच्चों को पीट दिया.

‘तुम्हारे हंसने से वह गिर गई और उसे चोट लग गई.’ मयंक का यह कोहराम शायद कुछ लोगों को पसंद नहीं आया… खासकर वैदेही को. वह संभल कर उठी और मयंक को चांटा मार दिया. साथ में यह भी बोली, ‘क्यों मारा हमारे भाई को.’

सबकुछ इतनी तीव्रता से हुआ था कि सभी अचंभित से थे. वातावरण को शीघ्र संभालना आवश्यक था. अत: मैं ने ही मयंक से कहा, ‘माफी मांगो.’ मेरे कई बार कहने पर उस ने बुझे मन से माफी मांग ली पर शीघ्र ही वह चुपके से घर चला गया. हम बड़ों ने स्थिति संभाली तो पार्टी पूरी हो गई. उस छोटी सी घटना ने मयंक को बहुत बदल दिया था पर वैदेही ने मित्रता को रिश्तेदारी के सामने नकार दिया था. शायद तब से ही मयंक का दृष्टिकोण भरोसे को ले कर टूट गया और वह शक्की…

‘‘मैं समझ गई, मम्मीजी,’’ साक्षी के बीच में बोलते ही मम्मी अतीत से निकल कर वर्तमान में आ गईं. विराट हमेशा बहुत बड़े पैमाने पर पार्टी देता था. उस दिन भी उस की काकटेल पार्टी जोरशोर से चल रही थी. साक्षी उस दिन पूरी तरह से सतर्क थी कि मयंक का मन किसी भी कारण से न दुखे.

जैसे ही शराब का दौर चला वह पार्टी से हट कर एक कोने में चली गई ताकि कोई उसे मजबूर न करे एक पैग लेने को. मयंक वहीं पहुंच गया और बोला, ‘‘क्या हुआ? यहां क्यों आ गईं?’’ ‘‘कुछ नहीं, मयंक, शराब से मुझे घबराहट हो रही है.’’

‘‘ठीक है. कुछ देर आराम कर लो,’’ कह कर वह प्रसन्नचित्त पार्टी में सम्मिलित हो गया. विराट के आफिस की एक महिला कर्मचारी के साथ वह फ्लोर पर नृत्य करने लगा. उस कर्मचारी का पति शराब का गिलास थाम कर साक्षी की बगल में आ बैठा और बोला, ‘‘आप डांस नहीं करतीं?’’

‘‘मुझे इस का खास शौक नहीं है,’’ साक्षी ने जवाब में कहा. ‘‘मेरी पत्नी तो ऐसी पार्टीज की बहुत शौकीन है. देखिए, कैसे वह मयंकजी के साथ डांस कर रही है.’’

प्रतिउत्तर में साक्षी केवल मुसकरा दी. ‘‘आप ने कुछ लिया नहीं. यह गिलास मैं आप के लिए ही लाया हूं.’’

‘‘अगर यह सब मुझे पसंद होता तो मयंक सब से पहले मेरा गिलास ले आते,’’ साक्षी को कुछ गुस्सा सा आने लगा. ‘‘लेकिन भाभीजी, यह तो काकटेल पार्टी का चलन है. यहां आ कर आप इन चीजों से बच नहीं सकतीं,’’ वह जबरन साक्षी को शराब पिलाने की कोशिश करने लगा.

साक्षी निरंतर बच रही थी. मयंक ने दूर से देख लिया और पलक झपकते ही उस व्यक्ति के गाल पर एक झन्नाटेदार तमाचा जड़ दिया. ‘‘अरे, वाह, ऐसा क्या किया मैं ने. अकेली बैठी थीं आप की मंगेतर तो उन्हें कंपनी दे रहा था.’’

‘‘अगर उसे साथ चाहिए होगा तो वह स्वयं मेरे पास आ जाएगी,’’ मयंक क्रोध से बोला. ‘‘वाह साहब, खुद दूसरों की पत्नी के साथ डांस कर रहे हैं. मैं जरा पास में बैठ गया तो आप को इतना बुरा लग गया. कैसे दोगले इनसान हैं आप.’’

‘‘चुप रहिए श्रीमान,’’ अचानक साक्षी उठ कर चिल्ला पड़ी, ‘‘मेरे मयंक को मुसीबतों से मुझे बचाना अच्छी तरह आता है और अपनी पत्नी से मेरी तुलना करने की कोशिश भी मत करिएगा.’’ वह तुरंत हौल से बाहर निकल गई. पार्टी में सन्नाटा छा गया था.

मयंक भी स्तब्ध हो उठा था. धीरेधीरे उसे खोजते हुए बाहर गया तो साक्षी गाड़ी में बैठी उस की प्रतीक्षा कर रही थी. वह चुपचाप उस की बगल में बैठ गया तो साक्षी ने उस के कंधे पर सिर टिका दिया. उस की हिचकी ने अचानक मयंक को बहुत द्रवित कर दिया था. उस का सिर थपकते हुए बोला, ‘‘चलें.’’ साक्षी ने आंसू पोंछ अपनी गरदन हिला दी. कार स्टार्ट करते मयंक ने सोचा, ‘शुक्र है, साक्षी मुझे समझ गई है.’

Short Social Story : विविध परंपरा

Short Social Story : नगरनिगम के विभिन्न विभागों में काम कर के रिटायर होने के बाद दीनदयाल आज 6 माह बाद आफिस में आए थे. उन के सिखाए सभी कर्मचारी अपनीअपनी जगहों पर थे. इसलिए सभी ने दीनदयाल का स्वागत किया. उन्होंने हर एक सीट पर 10-10 मिनट बैठ कर चायनाश्ता किया. सीट और काम का जायजा लिया और फिर घर आ कर निश्चिंत हो गए कि कभी उन का कोई काम नगरनिगम का होगा तो उस में कोई दिक्कत नहीं आएगी.

एक दिन दीनदयाल बैठे अखबार पढ़ रहे थे, तभी उन की पत्नी सावित्री ने कहा, ‘‘सुनते हो, अब जल्द बेटे रामदीन की शादी होने वाली है. नीचे तो बड़े बेटे का परिवार रह रहा है. ऐसा करो, छोटे के लिए ऊपर मकान बनवा दो.’’

दीनदयाल ने एक लंबी सांस ले कर सावित्री से कहा, ‘‘अरे, चिंता काहे को करती हो, अपने सिखाएपढ़ाए गुरगे नगर निगम में हैं…हमारे लिए परेशानी क्या आएगी. बस, हाथोंहाथ काम हो जाएगा. वे सब ठेकेदार, लेबर जिन के काम मैं ने किए हैं, जल्दी ही हमारा पूरा काम कर देंगे.’’

‘‘देखा, सोचने और काम होने में बहुत अंतर है,’’ सावित्री बोली, ‘‘मैं चाहती हूं कि आज ही आप नगर निवेशक शर्माजी से बात कर के नक्शा बनवा लीजिए और पास करवा लीजिए. इस बीच सामान भी खरीदते जाइए. देखिए, दिनोंदिन कीमतें बढ़ती ही जा रही हैं.’’

‘‘सावित्री, तुम्हारी जल्दबाजी करने की आदत अभी भी गई नहीं है,’’ दीनदयाल बोले, ‘‘अब देखो न, कल ही तो मैं आफिस गया था. सब ने कितना स्वागत किया, अब इस के बाद भी तुम शंका कर रही हो. अरे, सब हो जाएगा, मैं ने भी कोई कसर थोड़ी न छोड़ी थी. आयुक्त से ले कर चपरासी तक सब मुझ से खुश थे. अरे, उन सभी का हिस्सा जो मैं बंटवाता था. इस तरह सब को कस कर रखा था कि बिना लेनदेन के किसी का काम होता ही नहीं था और जब पैसा आता था तो बंटता भी था. उस में अपना हिस्सा रख कर मैं सब को बंटवाता था.’’

दीनदयाल की बातों से सावित्री खुश हो गई. उसे  लगा कि उस के पति सही कह रहे हैं. तभी तो दीनदयाल की रिटायरमेंट पार्टी में आयुक्त, इंजीनियर से ले कर चपरासी तक शामिल हुए थे और एक जुलूस के साथ फूलमालाओं से लाद कर उन्हें घर छोड़ कर गए थे.

दीनदयाल ने सोचा, एकदम ऊपर स्तर पर जाने के बजाय नीचे स्तर से काम करवा लेना चाहिए. इसलिए उन्होंने नक्शा बनवाने का काम बाहर से करवाया और उसे पास करवाने के लिए सीधे नक्शा विभाग में काम करने वाले हरीशंकर के पास गए.

हरीशंकर ने पहले तो दीनदयालजी के पैर छू कर उन का स्वागत किया, लेकिन जब उसे मालूम हुआ कि उन के गुरु अपना नक्शा पास करवाने आए हैं तब उस के व्यवहार में अंतर आ गया. एक निगाह हरीशंकर ने नक्शे पर डाली फिर उसे लापरवाही से दराज में डालते हुए बोला, ‘‘ठीक है सर, मैं समय मिलते ही देख लूंगा,. ऐसा है कि कल मैं छुट्टी पर रहूंगा. इस के बाद दशहरा और दीवाली त्योहार पर दूसरे लोग छुट्टी पर चले जाते हैं. आप ऐसा कीजिए, 2 माह बाद आइए.’’

दीनदयाल उस की मेज के पास खडे़ रहे और वह दूसरे लोगों से नक्शा पास करवाने पर पैसे के लेनदेन की बात करने लगा. 5 मिनट वहां खड़ा रहने के बाद दीनदयाल वापस लौट आए. उन्होंने सोचा नक्शा तो पास हो ही जाएगा. चलो, अब बाकी लोगों को टटोला जाए. इसलिए वह टेंडर विभाग में गए और उन ठेकेदारों के नाम लेने चाहे जो काम कर रहे थे या जिन्हें टेंडर मिलने वाले थे.

वहां काम करने वाले रमेश ने कहा, ‘‘सर, आजकल यहां बहुत सख्ती हो गई है और गोपनीयता बरती जा रही है, इसलिए उन के नाम तो नहीं मिल पाएंगे लेकिन यह जो ठेकेदार करीम मियां खडे़ हैं, इन से आप बात कर लीजिए.’’

रमेश ने करीम को आंख मार कर इशारा कर दिया और करीम मियां ने दीनदयाल के काम को सुन कर दोगुना एस्टीमेट बता दिया.

आखिर थकहार कर दीनदयालजी घर लौट आए और टेलीविजन देखने लगे. उन की पत्नी सावित्री ने जब काम के बारे में पूछा तो गिरे मन से बोले, ‘‘अरे, ऐसी जल्दी भी क्या है, सब हो जाएगा.’’

अब दीनदयाल का मुख्य उद्देश्य नक्शा पास कराना था. वह यह भी जानते थे कि यदि एक बार नीचे से बात बिगड़ जाए तो ऊपर वाले उसे और भी उलझा देते हैं. यही सब करतेकराते उन की पूरी नौकरी बीती थी. इसलिए 2 महीने इंतजार करने के बाद वह फिर हरीशंकर के पास गए. अब की बार थोडे़ रूखेपन से हरीशंकर बोला, ‘‘सर, काम बहुत ज्यादा था, इसलिए आप का नक्शा तो मैं देख ही नहीं पाया हूं. एकदो बार सहायक इंजीनियर शर्माजी के पास ले गया था, लेकिन उन्हें भी समय नहीं मिल पाया. अब आप ऐसा करना, 15 दिन बाद आना, तब तक मैं कुछ न कुछ तो कर ही लूंगा, वैसे सर आप तो जानते ही हैं, आप ले आना, काम कर दूंगा.’’

दीनदयाल ने सोचा कि बच्चे हैं. पहले भी अकसर वह इन्हें चायसमोसे खिलापिला दिया करते थे. इसलिए अगली बार जब आए तो एक पैकेट में गरमागरम समोसे ले कर आए और हरीशंकर के सामने रख दिए.

हरीशंकर ने बाकी लोगों को भी बुलाया और सब ने समोसे खाए. इस के बाद हरीशंकर बोला, ‘‘सर, मैं ने फाइल तो बना ली है लेकिन शर्माजी के पास अभी समय नहीं है. वह पहले आप के पुराने मकान का निरीक्षण भी करेंगे और जब रिपोर्ट देंगे तब मैं फाइल आगे बढ़ा दूंगा. ऐसा करिए, आप 1 माह बाद आना.’’

हारेथके दीनदयाल फिर घर आ कर लेट गए. सावित्री के पूछने पर वह उखड़ कर बोले, ‘‘देखो, इन की हिम्मत, मेरे से ही सीखा और मुझे ही सिखा रहे हैं, वह नक्शा विभाग का हरीशंकर, जिसे मैं ने उंगली पकड़ कर चलाया था, 4 महीने से मुझे झुला रहा है. अरे, जब विभाग में आया था तब उस के मुंह से मक्खी नहीं उड़ती थी और आज मेरी बदौलत वह लखपति हो गया है और मुझे ही…’’

सावित्री ने कहा, ‘‘देखोजी, आजकल ‘बाप बड़ा न भइया, सब से बड़ा रुपइया,’ और जो परंपराएं आप ने विभाग मेें डाली हैं, वही तो वे भी आगे बढ़ा रहे हैं.’’

परंपरा की याद आते ही दीनदयाल चिंता मुक्त हो गए. अगले दिन 5000 रुपए की एक गड्डी ले कर वह हरीशंकर के पास गए और उस की दराज में चुपचाप रख दी.

हरीशंकर ने खुश हो कर दीनदयाल की फाइल निकाली और चपरासी से कहा, ‘‘अरे, सर के लिए चायसमोसे ले आओ.’’

फिर दीनदयाल से वह बोला, ‘‘सर, कल आप को पास किया हुआ नक्शा मिल जाएगा.’’

Short Stories 2025 : तेरी मेरी जिंदगी

Short Stories 2025 : रामस्वरूप तल्लीन हो कर किचन में चाय बनाते हुए सोच रहे हैं कि अब जीवन के 75 साल पूरे होने को आए. कितना कुछ जाना, देखा और जिया इतने सालों में, सबकुछ आनंददायी रहा. अच्छेबुरे का क्या है, जीवन में दोनों का होना जरूरी है. इस से आनंद की अनुभूति और गहरी होती है. लेकिन सब से गहरा तो है रूपा का प्यार. यह खयाल आते ही रामस्वरूप के शांत चेहरे पर प्यारी सी मुसकान बिखर गई. उन्होंने बहुत सफाई से ट्रे में चाय के साथ थोड़े बिस्कुट और नमकीन टोस्ट भी रख लिए. हाथ में ट्रे ले कर अपने कमरे की तरफ जाते हुए रेडियो पर बजते गाने के साथसाथ वे गुनगुना भी रहे हैं ‘…हो चांदनी जब तक रात, देता है हर कोई साथ…तुम मगर अंधेरे में न छोड़ना मेरा हाथ …’

कमरे में पहुंचते ही बोले, ‘‘लीजिए, रूपा, आप की चाय तैयार है और याद है न, आज डाक्टर आने वाला है आप की खिदमत में.’

दोनों की उम्र में 5 साल का फर्क है यानी रामस्वरूप से रूपा 5 साल छोटी हैं पर फिर भी पूरी जिंदगी उन्होंने कभी तू कह कर बात नहीं की हमेशा आप कह कर ही बुलाया.

दोस्त कई बार मजाक बनाते कि पत्नी को आप कहने वाला तो यह अलग ही प्राणी है, ज्यादा सिर मत चढ़ाओ वरना बाद में पछताना पड़ेगा. लेकिन रामस्वरूप को कोई फर्क नहीं पड़ा. वे पढ़ेलिखे समझदार इंसान थे और सरकारी नौकरी भी अच्छी पोस्ट वाली थी. रिटायर होने के बाद दोनों पतिपत्नी अपने जीवन का आनंद ले रहे थे.

अचानक एक दिन सुबह बाथरूम में रूपा का पैर फिसल गया और उन के पैर की हड्डी टूट गई. इस उम्र में हड्डी टूटने पर रिकवरी होना मुश्किल हो जाता है. 4 महीनों से रामस्वरूप अपनी रूपा का पूरी तरह खयाल रख रहे हैं.

रूपा ने रामस्वरूप से कहा, ‘‘मुझे बहुत बुरा लगता है आप को मेरी इतनी सेवा करनी पड़ रही है, यों आप रोज सुबह मेरे लिए चायनाश्ता लाते हैं और बैठेबैठे पीने में मुझे शर्म आती है.’’

‘‘यह क्या कह रही हैं आप? इतने सालों तक आप ने मुझे हमेशा बैड टी पिलाई है और मेरा हर काम बड़ी कुशलता और प्यार के साथ किया है. मुझे तो कभी बुरा नहीं लगा कि आप मेरा काम कर रही हैं. फिर मेरा और आप का ओहदा बराबरी का है. मैं पति हूं तो आप पत्नी हैं. हम दोनों का काम हमारा काम है, आप का या मेरा नहीं. चलिए, अब फालतू बातें सोचना बंद कीजिए और चाय पीजिए,’’ रामस्वरूप ने प्यार से उन्हें समझाया.

4 महीनों में इन दोनों की दुनिया एकदूसरे तक सिमट कर रह गई है. रामस्वरूप ने दोस्तों के पास आनाजाना छोड़ दिया और रूपा का आसपड़ोस की सखीसहेलियों के पास बैठनाउठना बंद सा हो गया. अब कोई आ कर मिल जाता है तो ठीक है नहीं तो दोनों अपनी दुनिया में मस्त रहते हैं.

रामस्वरूप का काम सिर्फ रूपा का खयाल रखना है और रूपा भी यही चाहती हैं कि रामस्वरूप उन के पास बैठे रहें.

कामवाली कमला घर की साफसफाई और खाना बना जाती है जिस से घर का काम सही तरीके से हो जाता है. बस, कमला की ज्यादा बोलने की आदत है. हमेशा आसपड़ोस की बातें करने बैठ जाती है रूपा के पास. कभी पड़ोस वाले गुप्ताजी की बुराई तो कभी सामने वाले शुक्लाजी की कंजूसी की बातें और खूब मजाक बनाती है.

रामस्वरूप यदि आसपास ही होते तो कमला को टोक देते थे, ‘‘ये क्या तुम बेसिरपैर की बातें करती रहती हो. अच्छी बातें किया करो. थोड़ा रूपा के पास बैठ कर संगीत वगैरह सुना करो. पूरा जीवन क्या यों ही लोगों के घर के काम करते ही बीतेगा?’’ इस पर कमला जवाब देती, ‘‘अरे साबजी, अब हम को क्या करना है, यही तो हमारी रोजीरोटी है और आप जैसे लोगों के घर में काम करने से ही मुझे तो सुकून मिल जाता है.

‘‘आप दोनों की सेवा कर के मुझे सुख मिल गया है. अब आप बताएं और क्या चाहिए इस जीवन में?’’

रामस्वरूप बोले, ‘‘कमला, बातें बनाने में तो तुम माहिर हो, बातों में कोई नहीं जीत सकता तुम से. जाओ, अब खाना बना लो, काफी बातें हो गई हैं. कहीं आगे के काम करने में तुम्हें देर न हो जाए.’’

पूरा जीवन भागदौड़ में गुजार देने के बाद अब भी दोनों एकदूसरे के लिए जी रहे हैं और हरदम यही सोचते हैं कि कुदरत ने प्यार, पैसा, संपन्नता सब दिया है पर फिर भी बेऔलाद क्यों रखा?

काफी सालों तक इस बात का अफसोस था दोनों को लेकिन 2-4 साल पहले जब पड़ोस के वर्माजी का दर्द देखा तो यह तकलीफ भी कम हो गई क्योंकि अपने इकलौते बेटे को बड़े अरमानों के साथ विदेश पढ़ने भेजा था वर्माजी ने. सोचा था जो सपने उन की जवानी में घर की जिम्मेदारियों की बीच दफन हो गए थे, अपने बेटे की आंखों से देख कर पूरे करेंगे. पर बेटा तो वहीं का हो कर रह गया. वहीं शादी भी कर ली और अपने बूढ़े मांबाप की कोई खबर भी नहीं ली. तब दोनों ने सोचा, ‘इस से तो हम बेऔलाद ही अच्छे, कम से कम यह दुख तो नहीं है कि बेटा हमें छोड़ कर चला गया है.’

आज सुबह की चाय के साथ दोनों अपने जीवन के पुराने दौर में चले गए. जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही परंपरागत तरीके से लड़कालड़की देखना और फिर सगाई व शादी कर के किस तरह से दोनों के जीवन की डोर बंधी.

जीवन की शुरुआत में घरपरिवार के प्रति सब की जिम्मेदारी होने के बावजूद रिश्तेनाते, रीतिरिवाज घरपरिवार से दूर हमारी दिलों की अलग दुनिया थी, जिसे हम अपने तरीके से जीते थे और हमारी बातें सिर्फ हमारे लिए होती थीं. अनगिनत खुशनुमा लमहे जो हम ने अपने लिए जीए वे आज भी हमारी जिंदगी की यादगार सौगात हैं और आज भी हम सिर्फ अपने लिए जी रहे हैं.

तभी रामस्वरूप बोले, ‘‘वैसे रूपा, अगर मैं बीमार होता तो आप को मेरी सेवा करने में कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि आप औरत हो और हर काम करने की आप की आदत और क्षमता है लेकिन मुझे भी कोई तकलीफ नहीं है आप की सेवा करने में, बल्कि यही तो वक्त है उन वचनों को पूरा करने का जो अग्नि को साक्षी मान कर फेरे लेते समय लिए थे.

‘‘वैसे रूपा, जिंदगी की धूप से दूर अपने प्यारे छोटे से आशियाने में हर छोटीबड़ी खुशी को जीते हुए इतने साल कब निकल गए, पता ही नहीं चला. ऐसा नहीं है कि जीवन में कभी कोई दुख आया ही नहीं. अगर लोगों की नजरों से सोचें तो बेऔलाद होना सब से बड़ा दुख है पर हम संतुष्ट हैं उन लोगों को देख कर जो औलाद होते हुए भी ओल्डएज होम या वृद्धाश्रमों में रह रहे हैं या दुखी हो कर पलपल अपने बच्चों के आने का इंतजार कर रहे हैं, जो उन्हें छोड़ कर कहीं और बस गए हैं.

‘‘उम्र के इस मोड़ पर आज भी हम एकदूसरे के साथ हैं, यह क्या कम खुशी की बात है. लीजिए, आज मैं ने आप के लिए एक खत लिखा है. 4 दिन बाद हमारी शादी की सालगिरह है पर तब तक मैं इंतजार नहीं कर सका :

हजारों पल खुशियों के दिए,

लाखों पल मुसकराहट के,

दिल की गहराइयों में छिपे

वे लमहे प्यार के,

जिस पल हर छोटीबड़ी

ख्वाहिश पूरी हुई,

हर पल मेरे दिल को

शीशे सी हिफाजत मिली

पर इन सब से बड़ा एक पल,

एक वह लमहा…

जहां मैं और आप नहीं,

हम बन जाते हैं.’’

रूपा उस खत को ले कर अपनी आंखों से लगाती है, तभी डाक्टर आते हैं. आज उन का प्लास्टर खुलने वाला है. दोनों को मन ही मन यह चिंता है कि पता नहीं अब डाक्टर चलनेफिरने की अनुमति देगा या नहीं.

डाक्टर कहता है, ‘‘माताजी, अब आप घर में थोड़ाथोड़ा चलना शुरू कर सकती हैं. मैं आप को कैल्शियम की दवा लिख देता हूं जिस से इस उम्र में हड्डियों में थोड़ी मजबूती बनी रहेगी.

‘‘बहुत अच्छी और आश्चर्य की बात यह है कि इस उम्र में आप ने काफी अच्छी रिकवरी कर ली है. मैं जानता हूं यह रामस्वरूपजी के सकारात्मक विचार और प्यार का कमाल है. आप लोगों का प्यार और साथ हमेशा बना रहे, भावी पीढ़ी को त्याग, पे्रम और समर्पण की सीख देता रहे. अब मैं चलता हूं, कभीकभी मिलने आता रहूंगा.’’

आज दोनों ने जीवन की एक बड़ी परीक्षा पास कर ली थी, अपने अमर प्रेम के बूते पर और सहनशीलता के साथ.

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