सबसे बड़ा गिफ्ट: क्या था नेहा का राहुल के लिए एक तोहफा?

राहुलर विवार के दिन सुबह जब नींद से जागा तो टैलीफोन की घंटी लगातार बज रही थी. अकसर ऐसी स्थिति में नेहा टैलीफोन अटैंड कर लेती थी. रोज जो बैड टी, बैड के पास के टेबल पर रख कर उसे जगाया जाता था, आज वह भी मिसिंग थी.

नेहा को आवाज लगाई तो भी कोई उत्तर न पा राहुल खुद बिस्तर से उठ कर टैलीफोन तक गया.

‘‘हैलो, मैं नेहा बोल रही हूं,’’ दूसरी तरफ से नेहा की ही आवाज थी.

‘‘कहां से बोल रही हो?’’ राहुल ने पूछा.

‘‘मैं ने एक अपार्टमैंट किराए पर ले लिया है. अब मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती.’’

‘‘देखो, तुम ऐसा नहीं कर सकतीं,’’ राहुल ने कहा.

‘‘मैं वैसा ही करूंगी जैसा मैं सोच चुकी हूं,’’ नेहा ने बड़े इतमीनान से कहा, ‘‘तुम चाहते हो कि तुम कोई काम न करो, मैं कमा कर लाऊं और घर मेरी कमाई से ही चले, ऐसा कब तक चलेगा? मैं तुम से तलाक नहीं लूंगी. बस तब तक अकेली रहूंगी, जब तक तुम कोई काम नहीं ढूंढ़ लोगे. मैं तुम्हें जीजान से चाहती हूं, मगर तुम्हें इस स्थिति में नहीं देखना चाहती कि तुम मेरे रहमोकरम पर ही रहो. मैं तुम्हारे नाम के साथ तभी जुड़ूंगी, जब तुम कुछ कर दिखाओगे.’’

‘‘तुम अपने मांबाप के घर भी तो रह सकती हो. वे बहुत अमीर हैं. वहां आराम से और सब सुखसुविधाओं के बीच रहोगी,’’ राहुल ने सलाह दी तो बगैर तैश में आए नेहा का उत्तर था, ‘‘मैं उन के पास तो बिलकुल नहीं जाऊंगी. मेरे आत्मसम्मान को यह मंजूर नहीं है. हां, मैं संपर्क सब के साथ रखूंगी, लेकिन तुम्हारे साथ रहना मुझे तभी मंजूर होगा जब तुम जिंदगी में किसी काबिल बन जाओगे.’’

क्षण भर के लिए राहुल किंकर्तव्यविमूढ हो  गया. उस ने ऐसा कभी सोचा भी न था कि नेहा इस तरह उसे अचानक छोड़ कर अकेले जीवन बिताने का कदम उठा लेगी. उस ने नेहा से कहा, ‘‘यदि तुम ने अलग रहने का फैसला कर ही लिया है तो अपने पापा को इस विषय में सूचना दे दो.’’

नेहा ने राहुल की सलाह मान ली. उस के पापा ने जब उसे मायके आने के लिए कहा तो नेहा ने कहा, ‘‘पापा, आप ने पढ़ालिखा कर मुझे इस काबिल बनाया है कि मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकूं. मैं राहुल को तलाक नहीं दे रही हूं. आप को पता है कि मैं राहुल को बहुत चाहती हूं. आप के और ममा के विरोध के बावजूद मैं ने राहुल से विवाह किया. मैं तो बस इतना चाहती हूं कि राहुल को उस मोड़ पर ला कर खड़ा कर दूं, जहां वह कुछ बन कर दिखाए.’’

नेहा की बात उस के पापा की समझ में आ गई. उन्होंने कहा, ‘‘नेहा, इस रचनात्मक कदम पर मैं तुम्हारे साथ हूं. फिर भी यदि कभी सहायता की जरूरत हो तो संकोच न करना, मुझे बता देना.’’

राहुल को इस तरह नेहा का अचानक उसे छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लगा, लेकिन उसे इस बात से बहुत राहत मिली कि नेहा ने यह स्पष्ट कर दिया कि यदि स्थिति बदली और राहुल ने या तो कोई व्यवसाय कर लिया या अपनी काबिलीयत के आधार पर कोई अच्छी नौकरी कर ली, तो वह उस की जिंदगी में फिर वापस आएगी. नेहा ने राहुल को यह भी स्पष्ट कर दिया कि उसे सारा ध्यान अपने बेहतर भविष्य और कैरियर पर लगाना चाहिए.

वह उस से मिलने की भी कोशिश न करे, न ही मोबाइल पर लंबीचौड़ी बातें करे. राहुल को तब बहुत बुरा लगा जब उस ने अपना पता तो बता दिया, लेकिन साथ में यह भी कह दिया कि वह उस के घर पर न आए. वह तब ही आ कर उस से मिल सकता है, जब आय के अच्छे साधन जुटा ले और जिंदगी में उस की उपलब्धियां बताने लायक हों.

नेहा को इस बात का बहुत संतोष था कि अब तक उस की कोई औलाद नहीं थी और वह स्वतंत्रतापूर्वक दफ्तर के कार्य पर पूरा ध्यान और समय दे सकती थी. नेहा के बौस उम्रदराज और इंसानियत में यकीन रखने वाले सरल स्वभाव के व्यक्ति थे, इसलिए नेहा को दफ्तर के वातावरण में पूरी सुरक्षा और सम्मान हासिल था. एक योग्य, स्मार्ट और आधुनिक महिला के रूप में उस की छवि बहुत अच्छी थी, दफ्तर के सहकर्मी उस का आदर करते थे.

कालेज की कैंटीन में राहुल ने नेहा को पहली बार देखा था. वह अपनी बहन सीमा का दाखिला बी.ए. में करवाने के लिए वहां गया था. पहली नजर में नेहा उसे बहुत सुंदर लगी. वह अपनी सहेलियों के साथ कैंटीन में थी. बाद में उसे देखने के लिए वह सीमा को कालेज छोड़ने के बहाने से जाने लगा. नेहा को भी बारबार दिखने पर राहुल का व्यक्तित्व, चालढाल, तौरतरीका आकर्षक लगा.

फिर सीमा से कह कर उस ने नेहा से परिचय कर ही लिया. बाद में जब उन्होंने शादी की तब राहुल पोस्ट ग्रैजुएट था लेकिन कोई नौकरी नहीं कर रहा था और नेहा एम.बी.ए. करने के बाद नौकरी करने लगी थी.

राहुल से अलग रहने में नेहा ने कोई कष्ट अनुभव नहीं किया, क्योंकि यह उस का अपना सोचासमझा फैसला था. दृढ़ निश्चय और स्पष्ट सोच के कारण अपने बौस की पर्सनल सैक्रेटरी का काम वह बखूबी कर रही थी. धीरेधीरे औफिस में बौस के साथ उस की नजदीकियां बढ़ रही थीं.

ऐसे में उन्हें कोई गलतफहमी न हो जाए, इस के लिए उस ने अपने संबंध के विषय में स्पष्ट करते हुए एक दिन उन से कहा, ‘‘सर, मैं अपने पति से अलग भले ही रह रही हूं किंतु मेरा पति के पास वापस जाना निश्चित है. फ्लर्टिंग में मैं यकीन नहीं रखती हूं. हां, महीने में 1-2 बार डिनर या लंच पर मैं आप के साथ किसी अच्छे रेस्तरां में जाना पसंद करूंगी.

वह भी इस खयाल से कि अगर इस बात की खबर राहुल को पहुंची या कभी आप के साथ आतेजाते उस ने देख लिया तो या तो उसे आप से ईर्ष्या होगी या इस बात का टैस्ट हो जाएगा कि वह मुझ पर कितना विश्वास करता है. दूर रहने पर संदेह पैदा होने में देर नहीं लगती.’’

उधर अपनी योग्यता के बल पर और कई इंटरव्यू दे कर राहुल एक अच्छी नौकरी पा चुका था. एक मल्टीनैशनल कंपनी में उसे पब्लिक रिलेशन औफिसर के पद पर काम करने का अवसर मिल चुका था.

नौकरी शुरू करने के 2 महीने बाद राहुल ने नेहा को फोन पर इस विषय में सूचना दी, ‘‘नेहा, मैं पिछले 2 महीने से नौकरी कर रहा हूं.’’

‘‘बधाई हो राहुल, मुझे पता था कि तुम्हारी अच्छाइयां एक दिन जरूर रंग लाएंगी.’’

राहुल को बहुत समय बाद नेहा से बात करने का मौका मिला था. उस की खुशी फोन पर बात करते समय नेहा को महसूस हो रही थी. वह भी बहुत खुश थी. राहुल ने कहा, ‘‘अभी फोन मत काटना, कुछ और भी कहना चाहता हूं. बातें और करनी हैं. नेहा, वापस मेरे पास आने के बारे में जल्दी फैसला करना…’’

राहुल अपने विषय में बहुत कुछ बताना चाहता था लेकिन नेहा बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘मेरे बौस अपने चैंबर में मेरा इंतजार कर रहे हैं. एक मीटिंग के लिए मुझे पेपर्स तैयार करने हैं. जो बातें तुम पूछ रहे हो, उस विषय में मैं बाद में बात करूंगी.’’

जिस तरह सोना आग में तपतप कर कुंदन बनता है, ठीक वैसे ही राहुल ने जीजान से मेहनत की. उसे कंपनी ने विदेशों में प्रशिक्षण के लिए भेजा और 1 वर्ष के भीतर ही पदोन्नति दी. राहुल, जिस में शुरुआत में आत्मविश्वास व इच्छाशक्ति की कमी थी, अब एक सफल अधिकारी बन चुका था. उस के पास आने की बात का नेहा से कोई उत्तर न मिलने पर उस में क्रोध जैसी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई. वह नेहा को उस के प्रति छिपे प्यार को पहचान रहा था.

मन से नेहा उस के पास आने को आतुर थी, मगर इस बात के लिए न तो वह पहल करना चाहती थी, न ही जल्दबाजी में कोई निर्णय लेना चाहती थी.

नेहा के पापा और ममा ने कभी ऐसी भूमिका नहीं अदा की कि वे नेहा और राहुल के आत्मसम्मान के खिलाफ कोई काम करें. नेहा को पता भी नहीं चला कि उस के पापा राहुल को फोन कर के उस का हालचाल जानते रहते हैं और अपनी तरफ से उसे उस के अच्छे कैरियर के लिए मार्गदर्शन देते रहते हैं. राहुल के पिता का देहांत उस के बचपन में ही हो चुका था. राहुल के घर पर उस की मां और बहन के अलावा और कोई नहीं था. बहुत छोटी फैमिली थी उस की.

नेहा के बौस ने एक दिन नेहा को बताया कि उसे उन के साथ एक मीटिंग में दिल्ली चलना है. लैपटौप पर कुछ रिपोर्ट्स बना कर साथ ले जानी हैं और कुछ काम दिल्ली के कार्यालय में भी करना होगा. वहां जाने पर कामकाज की बेहद व्यस्तता होने पर भी वे समय निकाल कर नेहा को डिनर के लिए कनाट प्लेस के एक अच्छे रेस्तरां में ले गए. डिनर तो एक बहाना था. दरअसल, वे संक्षेप में अपने जीवन के बारे में कुछ बातें नेहा के साथ शेयर करना चाहते थे.

‘‘नेहा, तुम ने एक दिन मुझ से स्पष्ट बात की थी कि तुम फ्लर्ट करने में विश्वास नहीं करती हो. लेकिन किसी को पसंद करना फ्लर्ट करना नहीं होता. मैं तुम्हारे निर्मल स्वभाव और अच्छे कामकाज की वजह से तुम्हें पसंद करता हूं. तुम स्मार्ट हो, हर काम लगन से समय पर करती हो, दफ्तर में सब सहकर्मी भी तुम्हारी बहुत तारीफ करते हैं.’’ बौस के ऐसा कहने पर नेहा ने बहुत आदर के साथ अपने विचार कुछ इस तरह व्यक्त किए, ‘‘सर, जो बातें आप बता रहे हैं उन्हें मैं महसूस करती हूं. आप को ले कर मुझे औफिस में कोई असुरक्षा की भावना नहीं है. आप ने मेरा पूरा खयाल रखा है.’’

वे आगे बोले, ‘‘मैं अपनी पर्सनल लाइफ किसी के साथ शेयर नहीं करता. लेकिन न जाने क्यों दिल में यह बात उठी कि तुम से अपने मन की बात कहूं. तुम में मुझे अपनापन महसूस होता है. अगर मेरा विवाह हुआ होता तो शायद तुम्हारी जैसी मेरी एक बेटी होती. बचपन में ही मांबाप का साया सिर से उठ गया था. तब से अब तक मैं बिलकुल अकेला हूं. घर पर जाता हूं तो घर काटने को दौड़ता है.

दोस्त हैं लेकिन कहने को. सब स्वार्थ से जुड़े हैं. कोई रिश्तेदार शहर में नहीं है. शायद तुम्हें मेरे हावभाव या व्यवहार से ऐसा लगा हो कि मेरी तरफ से फ्लर्ट करने जैसी कोई कोशिश जानेअनजाने में हो गई है. लेकिन ऐसा नहीं है. मैं ने मांबाप को खोने के बाद मन में कभी यह बात आने नहीं दी कि मैं विवाह करूंगा. मेरी जिंदगी में किसी भी चीज की कोई कमी नहीं है.’’

नेहा भी थोड़ी भावुक हो गई. उसे लगा कि जिंदगी में सच्चे मित्र की आवश्यकता सभी को होती है. उस ने अपने पति में भी एक सच्चे दोस्त की ही तलाश की थी.

मीटिंग के बाद नेहा अपने बौस के साथ चंडीगढ़ लौट आई. अपने बौस जैसे इंसान को करीब से देखने, परखने का यह अवसर उसे जीवन के अच्छे मूल्यों और अच्छाइयों के प्रति आश्वस्त करा गया. उन्होंने नेहा से यह भी कहा कि जहां तक संभव होगा वे उसे राहुल के जीवन में वापस पहुंचाने में पूरी मदद करेंगे. नेहा मन ही मन बहुत खुश थी. उसे ऐसा लग रहा था जैसे बौस के रूप में उसे एक सच्चा दोस्त मिल गया हो.

वे दिल्ली में मैनेजिंग डायरैक्टर से विचारविमर्श कर के नेहा को पदोन्नति देने के विषय में निर्णय ले चुके थे. लेकिन यह बात उन्होंने गुप्त ही रखी थी. सोचा था किसी अच्छे मौके पर वह प्रमोशन लैटर नेहा को दे देंगे.

कंपनी की ऐनुअल जनरल मीटिंग की तिथि निश्चित हो चुकी थी, जो सभी कर्मचारियों और शेयर होल्डर्स द्वारा अटैंड की जानी थी. भव्य प्रोग्राम के दौरान उन्होंने प्रमोटेड कर्मचारियों के नामों की घोषणा की, जिस में नेहा का नाम भी था. नेहा ने देखा कि उस का पति राहुल भी हौल में बैठा था.

नेहा की खुशी का ठिकाना न था. नेहा ने बौस से इस विषय में पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि राहुल को मैं ने आमंत्रित किया है. वैसे इस कंपनी के कुछ शेयर्स भी इस ने खरीदे हैं. आज का दिन तुम्हारे लिए आश्चर्य भरा है. जरा इंतजार करो. मैं वास्तव में तुम्हारे गार्जियन की तरह कुछ करने वाला हूं. नेहा कुछ समझ नहीं पाई. उस ने चुप रहना बेहतर समझा.

घोषणाओं का सिलसिला चलता रहा. फिर नेहा के बौस ने घोषणा की, ‘‘फ्रैंड्स, आप को जान कर खुशी होगी कि यहां आए राहुल की योग्यता और अनुभव के आधार पर उस का चयन हमारी कंपनी में असिस्टैंट जनरल मैनेजर पद के लिए हो चुका है. राहुल और उस की पत्नी नेहा को बधाई हो.’’

नेहा की आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बह निकली. सब आमंत्रित लोगों के जाने के बाद, राहुल और नेहा दोनों उन के पास गए और उन को धन्यवाद प्रकट किया. खुशनुमा माहौल था.

‘‘कैन आई हग यू?’’ उन्होंने नेहा से पूछा.

‘‘ओ श्योर, वाई नौट’’ कहते हुए नेहा उन से ऐसे लिपट गई, जैसे वह अपने पापा से लाड़प्यार में लिपट जाया करती थी. उन की आंखें भर आई थीं. उन्हें लगा जैसे एक पौधा जो मुरझा रहा था, उन्होंने उस की जड़ें सींच दी हैं.

आंसुओं के बीच उन्होंने नेहा से कहा, ‘‘आज की शाम का सब से बड़ा गिफ्ट मैं तुम्हें दे रहा हूं. राहुल के साथ आज ही अपने घर लौट जाओ. अब तुम दोनों की काबिलीयत प्रूव हो चुकी है.’’

दूसरी चोट: आखिर नेहा को क्यों लगता था कि बौस उससे शादी करेंगे

इस मल्टीनैशनल कंपनी पर यह दूसरी चोट है. इस से पहले भी एक बार यह कंपनी बिखर सी चुकी है. उस समय कंपनी की एक खूबसूरत कामगार स्नेहा ने अपने बौस पर आरोप लगाया था कि वे कई सालों से उस का यौन शोषण करते आ रहे हैं. उस के साथ सोने के लिए जबरदस्ती करते आ रहे हैं और यह सब बिना शादी की बात किए.

ऐसा नहीं था कि स्नेहा केवल खूबसूरत ही थी, काबिल नहीं. उस ने बीटैक के बाद एमटैक कर रखा था और वह अपने काम में भी माहिर थी. वह बहुत ही शोख, खुशमिजाज और बेबाक थी. उस ने अपनी कड़ी मेहनत से कंपनी को केवल देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी कामयाबी दिलवाई थी.

इस तरह स्नेहा खुद भी तरक्की करती गई थी. उस का पैकेज भी दिनोंदिन मोटा होता जा रहा था. वह बहुत खुश थी. चिडि़या की तरह हरदम चहचहाती रहती थी. उस के आगे अच्छेअच्छे टिक नहीं पाते थे.

पर अचानक स्नेहा बहुत उदास रहने लगी थी. इतनी उदास कि उस से अब छोटेछोटे टारगेट भी पूरे नहीं होते थे.

इसी डिप्रैशन में स्नेहा ने यह कदम उठाया था. वह शायद यह कदम उठाती नहीं, पर एक लड़की सबकुछ बरदाश्त कर सकती है, लेकिन अपने प्यार में साझेदारी कभी नहीं.

जी हां, स्नेहा की कंपनी में वैसे तो तमाम खूबसूरत लड़कियां थीं, पर हाल ही में एक नई भरती हुई थी. वह अच्छी पढ़ीलिखी और ट्रेंड लड़की थी. साथ ही, वह बहुत खूबसूरत भी थी. उस ने खूबसूरती और आकर्षण में स्नेहा को बहुत पीछे छोड़ दिया था.

इसी के चलते वह लड़की बौस की खास हो गई थी. बौस दिनरात उसे आगेपीछे लगाए रहते थे. स्नेहा यह सब देख कर कुढ़ रही थी. पलपल उस का खून जल रहा था.

आखिरकार स्नेहा ने एतराज किया, ‘‘सर, यह सब ठीक नहीं है.’’

‘‘क्या… क्या ठीक नहीं है?’’ बौस ने मुसकरा कर पूछा.

‘‘आप अपना वादा भूल बैठे हैं.’’

‘‘कौन सा वादा?’’

‘‘मुझ से शादी करने का…’’

‘‘पागल हो गई हो तुम… मैं ने तुम से ऐसा वादा कब किया…? आजकल तुम बहुत बहकीबहकी बातें कर रही हो.’’

‘‘मैं बहक गई हूं या आप? दिनरात उस के साथ रंगरलियां मनाते रहते…’’

बौस ने अपना तेवर बदला, ‘‘देखो स्नेहा, मैं तुम से आज भी उतनी ही मुहब्बत करता

हूं जितनी कल करता था… इतनी छोटीछोटी बातों पर ध्यान

मत दो… तुम कहां से कहां पहुंच

गई हो. अच्छा पैकेज मिल रहा है तुम्हें.’’

‘‘आज मैं जोकुछ भी हूं, अपनी मेहनत से हूं.’’

‘‘यही तो मैं कह रहा हूं… स्नेहा, तुम समझने की कोशिश करो… मैं किस से मिल रहा हूं… क्या कर रहा हूं, क्या नहीं, इस पर ध्यान मत दो… मैं जोकुछ भी करता हूं वह सब कंपनी की भलाई के लिए करता हूं… तुम्हारी तरक्की में कोई बाधा आए तो मुझ से शिकायत करो… खुद भी जिंदगी का मजा लो और दूसरों को भी लेने दो.’’

पर स्नेहा नहीं मानी. उस ने साफतौर पर बौस से कह दिया, ‘‘मुझे कुछ नहीं पता… मैं बस यही चाहती हूं कि आप वर्षा को अपने करीब न आने दें.’’

‘‘स्नेहा, तुम्हारी समझ पर मुझे अफसोस हो रहा है. तुम एक मौडर्न लड़की हो, अपने पैरों पर खड़ी हो. तुम्हें इस तरह की बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए.’’

‘‘आप मुझे 3 बार हिदायत दे चुके हैं कि मैं इन छोटीछोटी बातों पर ध्यान न दूं… मेरे लिए यह छोटी बात नहीं है… आप उस वर्षा को इतनी अहमियत न दें, नहीं तो…

‘‘नहीं तो क्या…?’’

‘‘नहीं तो मैं चीखचीख कर कहूंगी कि आप पिछले कई सालों से मेरी बोटीबोटी नोचते रहे हो…’’

बौस अपना सब्र खो बैठे, ‘‘जाओ, जो करना चाहती हो करो… चीखोचिल्लाओ, मीडिया को बुलाओ.’’

स्नेहा ने ऐसा ही किया. सुबह अखबार के पन्ने स्नेहा के बौस की करतूतों से रंगे पड़े थे. टैलीविजन चैनल मसाला लगालगा कर कवरेज को परोस रहे थे.

यह मामला बहुत आगे तक गया. कोर्टकचहरी से होता हुआ नारी संगठनों तक. इसी बीच कुछ ऐसा हुआ कि सभी सकते में आ गए. वह यह कि वर्षा का खून हो गया. वर्षा का खून क्यों हुआ? किस ने कराया? यह राज, राज ही रहा. हां, कानाफूसी होती रही कि वर्षा पेट से थी और यह बच्चा बौस का नहीं, कंपनी के बड़े मालिक का था.

इस सारे मामले से उबरने में कंपनी को एड़ीचोटी एक करनी पड़ी. किसी तरह स्नेहा शांत हुई. हां, स्नेहा के बौस की बरखास्तगी पहले ही हो चुकी थी.

कंपनी ने राहत की सांस ली. उसने एक नोटीफिकेशन जारी किया कि कंपनी में काम कर रही सारी लड़कियां और औरतें जींसटौप जैसे मौडर्न कपड़े न पहन कर आएं.

कंपनी के नोटीफिकेशन में मर्दों के लिए भी हिदायतें थीं. उन्हें भी मौडर्न कपड़े पहनने से गुरेज करने को कहा गया. जींसपैंट और टाइट टीशर्ट पहनने की मनाही की गई.

इन निर्देशों का पालन भी हुआ, फिर भी मर्दऔरतों के बीच पनप रहे प्यार के किस्सों की भनक ऊपर तक पहुंच गई.

एक बार फिर एक अजीबोगरीब फैसला लिया गया. वह यह कि धीरेधीरे कंपनी से लेडीज स्टाफ को हटाया जाने लगा. गुपचुप तरीके से 1-2 कर के जबतब उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाने लगा. किसीकिसी को कहीं और शिफ्ट किया जाने लगा.

दूसरी तरफ लड़कियों की जगह कंपनी में लड़कों की बहाली की जाने लगी. इस का एक अच्छा नतीजा यह रहा कि इस कंपनी में तमाम बेरोजगार लड़कों की बहाली हो गई.

इस कंपनी की देखादेखी दूसरी मल्टीनैशनल कंपनियों ने भी यही कदम उठाया. इस तरह देखते ही देखते नौजवान बेरोजगारों की तादाद कम होने लगी. उन्हें अच्छा इनसैंटिव मिलने लगा. बेरोजगारों के बेरौनक चेहरों पर रौनक आने लगी.

पहले इस कंपनी की किसी ब्रांच में जाते तो रिसैप्शन पर मुसकराती हुई, लुभाती हुई, आप का स्वागत करती हुई लड़कियां ही मिलती थीं. उन के जनाना सैंट और मेकअप से रोमरोम में सिहरन पैदा हो जाती थी. नजर दौड़ाते तो चारों तरफ लेडीज चेहरे ही नजर आते. कुछ कंप्यूटर और लैपटौप से चिपके, कुछ इधरउधर आतेजाते.

पर अब मामला उलटा था. अब रिसैप्शन पर मुसकराते हुए नौजवानों से सामना होता. ऐसेऐसे नौजवान जिन्हें देख कर लोग दंग रह जाते. कुछ तगड़े, कुछ सींक से पतले. कुछ के लंबेलंबे बाल बिलकुल लड़कियों जैसे और कुछ के बहुत ही छोटेछोटे, बेतरतीब बिखरे हुए.

इन नौजवानों की कड़ी मेहनत और हुनर से अब यह कंपनी अपने पिछले गम भुला कर धीरेधीरे तरक्की के रास्ते पर थी. नौजवानों ने दिनरात एक कर के, सुबह

10 बजे से ले कर रात 10 बजे तक कंप्यूटर में घुसघुस कर योजनाएं बनाबना कर और हवाईजहाज से उड़ानें भरभर कर एक बार फिर कंपनी में जान डाल दी थी.

इसी बीच एक बार फिर कंपनी को दूसरी चोट लगी. कंपनी के एक नौजवान ने अपने बौस पर आरोप लगाया कि वे पिछले 2 सालों से उस का यौन शोषण करते आ रहे हैं.

उस नौजवान के बौस भी खुल कर सामने आ गए. वे कहने लगे, ‘‘हां, हम दोनों के बीच ऐसा होता रहा है… पर यह सब हमारी रजामंदी से होता रहा?है.’’

बौस ने उस नौजवान को बुला कर समझाया भी, ‘‘यह कैसी नादानी है?’’

‘‘नादानी… नादानी तो आप कर रहे हैं सर.’’

‘‘मैं?’’

‘‘हां, और कौन? आप अपना वादा भूल रहे हैं.’’

‘‘कैसा वादा?’’

‘‘मेरे साथ जीनेमरने का… मुझ से शादी करने का.’’

‘‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या?’’

‘‘दिमाग तो आप का खराब हो गया है, जो आप मुझ से नहीं, एक लड़की से शादी करने जा रहे हैं.’’

अलविदा: आखिर क्या चाहती थी पूजा

पूजा सुबह से गुमसुम बैठी थी. आज उस की छोटी बहन आरती दिल्ली से वापस लौट रही थी. उस को आरती के वापस आने की सूचना रात को ही मिल चुकी थी. साथ ही इस बात की भनक भी मिल गई थी कि लड़के ने आरती को पसंद कर लिया है और आरती ने भी अपने विवाह की स्वीकृति दे दी है. उस को लगा था कि इस स्वीकृति ने न केवल उस के साथ अन्याय ही किया?है, बल्कि उस के भविष्य को भी तहसनहस कर डाला है.

पूजा आरती से 4 वर्ष बड़ी?थी लेकिन आरती अपने स्वभाव, रूप एवं गुणों के कारण उस से कहीं बढ़ कर थी. वह एक स्कूल में अध्यापिका थी. विवाह में देरी होने के कारण पूजा का स्वभाव काफी चिड़चिड़ा हो गया था. हर किसी से लड़ाईझगड़ा करना उस की आदत बन चुकी थी. उन के पिता दोनों पुत्रियों के विवाह को ले कर अत्यंत चिंतित थे. इसलिए बड़े बेटों को भी उन्होंने विवाह की आज्ञा नहीं दी थी. उन्हें भय था कि पुत्र अपने विवाह के पश्चात युवा बहनों के विवाह में दिलचस्पी ही नहीं लेंगे.

पितापुत्र आएदिन अखबारों में पूजा के विवाह के लिए विज्ञापन देते रहते. कभी पूजा के मातापिता, कभी पूजा स्वयं लड़के को और कभी पूजा को लड़के वाले नापसंद कर जाते और बात वहीं की वहीं रह जाती. वर्ष दर वर्ष बीतते चले गए, लेकिन पूजा का विवाह तय नहीं हो पाया. वह अब पड़ोस में जा कर आरती की बुराइयां करने लगी थी. एक दिन पूजा सामने वाली उषा दीदी के घर जा कर रोने लगी, ‘‘दीदी, मेरे लिए जितने भी अच्छे रिश्ते आते हैं वे सब मुझे ठुकरा कर आरती को पसंद कर लेते हैं. इसीलिए मुझे आरती की शक्ल से भी नफरत हो गई है. मैं ने भी पक्का फैसला कर रखा है कि जब तक मेरा विवाह नहीं होगा, मैं आरती का विवाह भी नहीं होने दूंगी.’’

उषा दीदी पूजा को समझाने लगीं, ‘‘यदि तुम्हारे विवाह से पहले आरती का विवाह हो भी जाए तो क्या हर्ज है? शायद आरती की ससुराल की रिश्तेदारी में तुम्हारे लिए भी कोई अच्छा वर मिल जाए. ऐसे जिद कर के आरती का जीवन बरबाद करना उचित नहीं.’’ लेकिन पूजा का एक ही तर्क था, ‘जब मैं बरबाद हो रही हूं तो दूसरों को क्यों आबाद होने दूं.’ 2 वर्ष तक लाख जतन करने के बाद भी जब पूजा का विवाह निश्चित नहीं हुआ तो वह काफी हद तक निराश हो गई थी.

आरती अध्यापन कार्य करने के पश्चात शाम को घर पर भी ट्यूशन पढ़ा कर अपनेआप को व्यस्त रखती. पूजा सुबह से शाम तक मां के साथ घरगृहस्थी के कार्यों में उलझी रहती. वह यह भी भूल गई थी कि अधिक पकवान, चाटपकौड़ी खाने से उस का शरीर बेडौल होता जा रहा?था. लोग पूजा को देख कर हंसते तो वह कुढ़ कर कहती, ‘‘बाप की कमाई खा रही हूं, जलते हो तो जलो लेकिन मेरी सेहत पर कुछ भी असर नहीं पड़ेगा.’’ पिता ने हार कर अपने दोनों बड़े पुत्रों की शादियां कर दी?थीं. बड़े बेटे का एक मित्र मनोज उन के परिवार का बड़ा ही हितैषी?था. उस ने आरती से शादी करने के लिए अपने एक अधीनस्थ सहयोगी को राजी कर लिया था.

मनोज ने आरती के पिता से कहा, ‘‘चाचाजी, आप चाहें तो आरती का रिश्ता आज ही तय कर देते हैं.’’ पिता ने उत्तर दिया, ‘‘बेटा, आरती तुम्हारी अपनी बहन है. मैं कल ही किसी बहाने आरती को तुम्हारे साथ अंबाला भेज दूंगा.’’ चूंकि मनोज का परिवार भी अंबाला में रहता था, इसलिए आरती के बड़े भाई तथा मनोज के परिवार के लोगों ने ज्यादा शोर किए बगैर आरती के शगुन की रस्म अदा कर दी. विवाह की तारीख भी निश्चित कर दी. चंडीगढ़ में पूजा को इस संबंध में कुछ नहीं बताया गया था. घर में सारे कार्य गुप्त रूप से किए जा रहे थे, ताकि पूजा किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर सके.

अचानक एक दिन पूजा को एक पत्र बरामदे में पड़ा हुआ मिला. वह उत्सुकतावश पत्र को एक सांस में ही पढ़ गई. पत्र के अंत में लिखा था, ‘आरती की गोदभराई की रस्म के लिए हम लोग रविवार को 4 बजे पहुंच रहे हैं.’ पढ़ते ही पूजा के मन में जैसे हजारों बिच्छू डंक मार गए. उस से झूठ बोला गया कि अंबाला में मनोज के बच्चे की तबीयत ज्यादा खराब होने की वजह से आरती को वहां भेजा गया था. उसे लगा कि इस घर के सब लोग बहुत ही स्वार्थी हैं. उस ने पत्र से अंबाला का पता डायरी में लिखा और पत्र को फाड़ कर कूड़ेदान में फेंक दिया.

2 दिन के पश्चात लड़के के पिता के हाथ में एक चिट्ठी थी, जिस में लिखा था, ‘आरती मंगली लड़की है. यदि इस से आप ने पुत्र का विवाह किया तो लड़का शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त होगा.’ पत्र पढ़ते ही उस परिवार में श्मशान जैसी खामोशी छा गई. वे लोग सीधे मनोज के घर पहुंच गए. लड़के के पिता गुस्से से बोले, ‘‘आप जानते थे कि लड़की मंगली है, फिर आप ने हमारे परिवार को ही बरबाद करने का क्यों निश्चय किया? मैं इस रिश्ते को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं कर सकता.’’

मनोज ने उन लोगों को समझाने का काफी प्रयत्न किया, लेकिन बिगड़ी बात संवर न सकी. चंडीगढ़ से पूजा के बड़े भाई को अंबाला बुला कर सारी स्थिति से अवगत कराया गया. पत्र देखने पर पता चला कि यह पूजा की लिखावट नहीं है. उस के पास तो अंबाला का पता ही नहीं था और न ही आरती के रिश्ते की बात की उसे कोई जानकारी थी. चंडीगढ़ आने पर बड़े भैया उदास एवं दुखी थे. पूजा से इस बात की चर्चा करना बेकार था. घर का वातावरण एक बार फिर खामोश हो चुका था.

उषा दीदी की बड़ी लड़की नीलू, पूजा से सिलाई सीखने आती थी. एक दिन कहने लगी, ‘‘पूजा दीदी, आप ने जो चिट्ठी किसी को बेवकूफ बनाने के लिए लिखवाई थी, उस का क्या हुआ?’’ आरती के कानों में इस बात की भनक पड़ गई और वह झटपट मां तथा?भाई को बताने भाग गई. 2 दिन पश्चात पूजा की मां ने उषा के घर जा कर नीलू से सारी बात उगलवा ली कि पूजा दीदी ने ही मनोज भाई साहब के रिश्तेदारों को तंग करने के लिए उस से चिट्ठी लिखवाई थी.

आरती और पूजा में बोलचाल बंद हो गई लेकिन फिर धीरेधीरे घर का वातावरण सामान्य हो गया. पूजा और आरती चुपचाप अपनेअपने कामों में लगी रहतीं. आरती स्कूल जाती और फिर शाम को ट्यूशन पढ़ाती. पूजा उसे अच्छ-अच्छे कपड़ोंजेवरों में देख कर कुढ़ती और फिर उस का गुस्सा उतरता अपनी भाभियों तथा बूढ़े पिता पर, ‘‘मैं पैदा ही तुम्हारी गुलामी करने के लिए हुई थी. क्यों नहीं रख लेते मेरे स्थान पर एक माई.’’ स्कूल की अध्यापिकाएं आरती को समझातीं, ‘‘अब भी समय है, यदि कोई लड़का तुम्हें पसंद कर ले तो तुम स्वयं ही कोशिश कर के विवाह कर लो.’’ आरती की एक सखी ने अपने ममेरे भाई के लिए उसे राजी कर लिया था और उस के साथ स्वयं दिल्ली जा कर उस का विवाह तय कर आई थी.

आरती की शादी की बात पूजा को बता दी गई थी. पूजा ने केवल एक ही शर्त रखी थी, ‘आरती की शादी में जितना खर्च होगा, उस से दोगुना धन मेरे नाम से बैंक में जमा कर दो ताकि मैं अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त हो जाऊं.’ विवाह का दिन नजदीक आता जा रहा था. बाहरी रूप से पूजा एकदम सामान्य दिखाई दे रही थी. पिता ने मोटी रकम पूजा के नाम बैंक में जमा करवा दी थी. आरती को उपहार देने के लिए पूजा ने अपने विवाह के लिए रखी हुई 2 बेहद सुंदर चादरें व गुड्डेगुडि़या का जोड़ा निकाल लिया था तथा छोटीमोटी अन्य कई कशीदाकारी की चीजें भी थीं. आरती के विवाह का दिन आ गया.

पूजा सुबह से ही भागदौड़ में लगी थी. घर मेहमानों से खचाखच भरा था, इसलिए दहेज के सामान का कमरा ऊपर की मंजिल पर निश्चित हुआ था और विदा से पूर्व दूल्हादुलहन उस में आराम भी कर सकते थे. उस कमरे की चाबी आरती की बड़ी भाभी को दे दी गई थी. पूजा ने सामान्य सा सूट पहन रखा था. उस की मां ने 2-3 बार गुस्से से उसे डांटा भी, ‘‘आज भी ढंग के कपड़े नहीं पहनने तो फिर 4 सूट बनवाने की जरूरत ही क्या थी?’’ पूजा ने पलट कर जवाब दिया, ‘‘अब सूट बदलने का क्या फायदा. मुझे कई काम निबटाने हैं.’’ मां बड़ी खुश हुईं कि इस के मन में कोई मलाल नहीं. बेचारी कितनी भागदौड़ कर रही?है.

पूजा अपने कमरे में बारबार आजा रही थी. भाभी समझ रही थीं कि शायद मां उसे ऊपर काम के लिए भेज रही हैं और आरती समझ रही थी कि शायद अधूरे काम पूरे कर रही है. दरअसल, पूजा अपने दहेज के लिए सहेज कर रखी हुई सब चीजों को छिपाछिपा कर बांध रही थी. यहां तक कि उस ने अपने जेवर भी डब्बों में बंद कर दिए थे. बरात आने में केवल 1 घंटा शेष रह गया था. आरती को मेकअप के लिए ब्यूटी पार्लर भेज दिया गया था और पूजा घर में ही अपनेआप को संवारने लगी थी. उस ने बढि़या सूट पहना और शृंगार इत्यादि कर के पंडाल में पहुंच गई. सब रिश्तेदारों से हंसहंस कर बतियाती रही. निश्चित समय पर बरात आई तो बड़े चाव से पूजा आरती को जयमाला के लिए मंच पर ले गई.

इस के पश्चात पूजा किसी बहाने से भाभी से चाबी ले कर पंडाल से खिसक गई. बरात ने खाना खा लिया तो घर के लोग भी खाना खाने में व्यस्त हो गए. अचानक बड़ी?भाभी को खयाल आया कि पूजा ने अभी खाना नहीं खाया. उसे बुलवाने किसी बच्चे को भेजा तो पता चला कि पूजा ऊपर वाला कमरा ठीक कर रही है. थोड़ी देर बाद आ जाएगी. काफी देर बाद भी पूजा नीचे नहीं उतरी तो मां स्वयं उसे बुलाने ऊपर पहुंच गईं. तब पूजा ने कहा, ‘‘मैं दूल्हा-दुल्हन का कमरा ठीक कर रही हूं. 5 मिनट का काम बाकी है.’’

मां और दूसरे लोग नीचे फेरों की तैयारी में व्यस्त हो गए. रात 1 बजे तक फेरे भी पूरे हो चुके थे, लेकिन पूजा नीचे नहीं आई थी. घर के लोग डर रहे थे कि बारबार बुलाने से शायद वह गुस्सा न कर बैठे और बात बाहर के लोगों में फैल जाए. इसलिए सभी अपनेआप को काबू में रखे हुए थे. दूल्हादुलहन को आराम करने के लिए भेजा जाने लगा तो भाभी ने सोचा कि पहले वह जा कर कमरा देख ले. जैसे ही भाभी ने दरवाजा खोला तो सामने बिस्तर पर फूल इत्यादि बिखरे पड़े थे. साथ ही एक लिफाफा भी रखा हुआ था. पत्र आरती के नाम था,

‘प्रिय आरती, मैं ने अपनी सभी प्यारी चीजें तुम्हारे विवाह के लिए बांध दी हैं. अपने पास कुछ भी नहीं रखा. पैसा भी पिताजी को लौटा रही हूं. केवल मैं अकेली ही जा रही हूं. पूजा.’ भाभी ने पत्र पढ़ लिया, लेकिन उसे किसी को भी नहीं दिखाया और वापस आ कर दूल्हादुलहन को आराम करने के लिए उस कमरे में ले गई. थोड़ी देर बाद अचानक ही आरती भाभी से पूछ बैठी, ‘‘भाभीजी, पूजा दिखाई नहीं दे रही. क्या सो गई है?’’ भाभी ने कहा, ‘‘हां, मैं ने ही सिरदर्द की गोली दे कर उसे अपने कमरे में भिजवा दिया है. थोड़ी देर बाद ऊपर आ जाएगी.’’

भाभी दौड़ कर पति के पास पहुंची और उन्हें छिपा कर पत्र दिखाया. पत्र पढ़ कर उन्हें पैरों तले की जमीन खिसकती नजर आने लगी. बड़े भैया सोचने लगे कि अगर मातापिता से बात की तो वे लोग घबरा कर कहीं शोर न मचा दें. अभी तो आरती की विदाई भी नहीं हुई. भैयाभाभी ने सलाह की कि विदा तक कोई बहाना बना कर इस बात को छिपाना ही होगा. विदाई की सभी रस्में पूरी की जा रही थीं कि मां ने 2-3 बार पूजा को आवाज लगाई, लेकिन भैया ने बात को संभाल लिया और मां चुप रह गईं. सुबह 8 बजे बरात विदा हो गई. आरती ने सब से गले मिलते हुए पूजा के बारे में पूछा तो भाभी ने कहा, ‘‘सो रही है. कल शाम को तेरे घर पार्टी में हम सब पहुंच ही रहे हैं. फिर मिल लेना.’’

बरात के विदा होने के बाद अधिकांश मेहमान भी जाने की तैयारी में व्यस्त हो गए. 10 बजे के लगभग बड़े भैया पिताजी को सही बात बताने का साहस जुटा ही रहे थे कि सामने वाली उषा दीदी का नौकर आया, ‘‘भाभीजी, मालकिन बुला रही हैं. जल्दी आइए.’’ भाभी तथा भैया दौड़ कर वहां पहुंचे. वहां उषा दीदी और उन के पति गुमसुम खड़े थे. पास ही जमीन पर कोई चीज ढकी पड़ी थी. उषा तो सदमे से बुत ही बनी खड़ी थी. उन के पति ने बताया कि नौकर छत पर कपड़े डालने आया तो पूजा को एक कोने में लेटा देख कर घबरा कर नीचे दौड़ा आया और उस ने बताया कि पूजा दीदी ऊपर सो रही?हैं लेकिन यहां आ कर कुछ और ही देखा.

बड़े भैया ने पूजा के ऊपर से चादर हटा दी. उस ने कोई जहरीली दवा खा कर आत्महत्या कर ली थी. समीप ही एक पत्र भी पड़ा हुआ था. लिखा था : ‘पिताजी जब तक आप के पास यह पत्र पहुंचेगा तब तक मैं बहुत दूर जा चुकी होंगी. आरती को तो आप ने केवल विदा ही किया है, लेकिन मैं आप को अलविदा कह रही हूं. मैं आरती के विवाह में सम्मिलित नहीं हुई, इसलिए मेरी विदाई में उसे न बुलाया जाए. आप की बेटी पूजा.’

मां-बाप और भाइयों को दुख था कि पूजा को पालने में उन से कहीं गलती हो गई थी, जिस से वह इतनी संवेदनशील और जिद्दी हो गई थी और अपनी छोटी बहन से ही जलने लगी थी. उन्हें लगा कि अगर वे कहीं सख्ती से पेश आते तो शायद बात इतनी न बिगड़ती. पूजा न केवल बहन से ही, बल्कि पूरे घर से ही कट गई थी. जिस लड़की ने जीते जी उन की शांति भंग कर रखी थी, उस ने मृत्यु के बाद भी कैसा अवसाद भर दिया था, उन सब के जीवन में.

बाढ़: क्या मीरा और रघु के संबंध लगे सुधरने

बौस ने जरूरी काम बता कर मीरा को दफ्तर में ही रोक लिया और खुद चले गए.

मीरा को घर लौटने की जल्दी थी. उसे शानू की चिंता सता रही थी. ट्यूशन पढ़ कर लौट आया होगा, खुद ब्रेड सेंक कर भी नहीं खा सकता, उस के इंतजार में बैठा होगा.

बाहर तेज बारिश हो रही थी…अचानक बिजली चली गई तो मीरा इनवर्टर की रोशनी में काम पूरा करने लगी. तभी फोन की घंटी बज उठी.

‘‘मां, तुम कितनी देर में आओगी?’’ फोन कर शानू ने जानना चाहा, ‘‘घर में कुछ खाने को नहीं है.’’

‘‘पड़ोस की निर्मला आंटी से ब्रेड ले लेना,’’ मीना ने बेटे को समझाया.

‘‘बिजली के बगैर घर में कितना अंधेरा हो गया है, मां. डर लग रहा है.’’

‘‘निर्मला आंटी के घर बैठे रहना.’’

‘‘कितनी देर में आओगी?’’

‘‘बस, आधा घंटा और लगेगा. देखो, मैं लौटते वक्त तुम्हारे लिए बर्गर, केले व आम ले कर आऊंगी, होटल से पनीर की सब्जी भी लेती आऊंगी.’’

बेटे को सांत्वना दे कर मीरा तेजी से काम पूरा करने लगी. वह सोच रही थी कि महानगर में इतनी देर तक बिजली नहीं जाती, शायद बरसात की वजह से खराबी हुई होगी.

काम पूरा कर के मीरा ने सिर उठाया तो 9 बज चुके थे. चौकीदार बैंच पर बैठा ऊंघ रहा था.

मीरा को इस वक्त एक प्याला चाय पीने की इच्छा हो रही थी, पर घर भी लौटने की जल्दी थी. चौकीदार से ताला बंद करने को कह कर मीरा ने पर्स उठाया और जीना उतरने लगी.

चारों तरफ घुप अंधेरा फैला हुआ था. क्या हुआ बिजली को, सोचती हुई मीरा अंदाज से टटोल कर सीढि़यां उतरने लगी. घोर अंधेरे में तीसरे माले से उतरना आसान नहीं होता.

सड़क पर खड़े हो कर उस ने रिकशा तलाश किया, जब नहीं मिला तो वह छाता लगा कर पैदल ही आगे बढ़ने लगी.

अब न तो कहीं रुक कर चाय पीने का समय रह गया था न कुछ खरीदारी करने का.

थोड़ा रुक कर मीरा ने बेटे को मोबाइल से फोन मिलाया तो टींटीं हो कर रह गई.

अंधेरे में अचानक मीरा को ऐसा लगा जैसे वह नदी में चली आई हो. सड़क पर इतना पानी कहां से आ गया…सुबह निकली थी तब तो थोड़ा सा ही पानी भरा हुआ था, फिर अचानक यह सब…

अभी वह यह सब सोच ही रही थी कि पानी गले तक पहुंचने लगा. वह घबरा कर कोई आश्रय स्थल खोजने लगी.

घने अंधेरे में उसे दूर कुछ बहुमंजिली इमारतें दिखाई पड़ीं. मीरा उसी तरफ बढ़ने लगी पर वहां पहुंचना उस के लिए आसान नहीं था.

जैसेतैसे मीरा एक बिल्ंिडग के नीचे बनी पार्किंग तक पहुंच पाई. पर उस वक्त वह थकान की अधिकता व भीगने की वजह से अपनेआप को कमजोर महसूस कर रही थी.

मीरा को यह स्थान कुछ जानापहचाना सा लगा. दिमाग पर जोर दिया तो याद आया, इसी इमारत की दूसरी मंजिल पर वह रघु के साथ रहती थी.

फिर रघु के गैरजिम्मेदाराना रवैये से परेशान हो कर उस ने उस के साथ संबंध विच्छेद कर लिया था. उस वक्त शानू सिर्फ ढाई वर्ष का था. अब तो कई वर्ष गुजर चुके हैं…शानू 10 वर्ष का हो चुका है.

क्या पता रघु अब भी यहां रहता है या चला गया, हो सकता है उस ने दूसरा विवाह कर लिया हो.

मीरा को लग रहा था कि वह अभी गिर पडे़गी. ठंड लगने से कंपकंपी शुरू हो गई थी.

एक बार ऊपर जाने में हर्ज ही क्या है. रघु न सही कोई दूसरा सही, उसे किसी का सहारा तो मिल ही जाएगा. उस ने सोचा और जीने की सीढि़यां चढ़ने लगी…फिर उस ने फ्लैट का दरवाजा जोर से खटखटा दिया.

किसी ने दरवाजा खोला और मोमबत्ती की रोशनी में उसे देखा, बोला, ‘‘मीरा, तुम?’’

रघु की आवाज पहचान कर मीरा को भारी राहत मिली…फिर वह रघु की बांहों में गिर कर बेसुध होती चली गई.

कंपकपाते हुए मीरा ने भीगे कपडे़ बदल कर, रघु के दिए कपडे़ पहने फिर चादर ओढ़ कर बिस्तर पर लेट गई.

कानूनी संबंध विच्छेद के वर्षों बाद फिर से उस घर में आना मीरा को बड़ा विचित्र लग रहा है, उस के  व रघु के बीच जैसे लाखों संकोच की दीवारें खड़ी हो गई हैं.

रघु चाय बना कर ले आया, ‘‘लो, चाय के साथ दवा खा लो, बुखार कम हो जाएगा.’’

दवा ने अच्छा काम किया…मीरा उठ कर बैठ गई.

रघु खाना बना रहा था.

‘‘तुम ने शादी नहीं की?’’ मीरा ने धीरे से प्रश्न किया.

‘‘मुझ से कौन औरत शादी करना पसंद करेगी, न सूरत है न अक्ल और न पैसा…तुम ने ही मुझे कब पसंद किया था, छोड़ कर चली गई थीं.’’

मीरा देख रही थी. पहले के रघु व इस रघु में बहुत बड़ा अंतर आ चुका है.

‘‘तुम ने खाना बनाना कब सीख लिया? सब्जी तो बहुत स्वादिष्ठ बनाई है.’’

‘‘तुम चली गईं तो मुझे खाना बना कर कौन खिलाता, सारा काम मुझे ही करना पड़ा, धीरेधीरे सारा कुछ सीख लिया, बरतन साफ करता हूं, कपड़े धोता हूं, इस्तिरी करता हूं.’’

‘‘आज बिजली को क्या हुआ, आ जाती तो मैं फोन चार्ज कर लेती.’’

‘‘तुम्हें शायद पता नहीं, पूरे शहर में बाढ़ का पानी फैल चुका है. बिजली, टेलीफोन सभी की लाइनें खराब हो चुकी हैं, ठीक करने में पता नहीं कितने दिन लग जाएं.’’

मीरा घबरा गई, ‘‘बाढ़ की वजह से मैं घर कैसे जा पाऊंगी…शानू घर में अकेला है.’’

‘‘शानू यानी हमारा बेटा,’’ रघु चिंतित हो उठा, ‘‘मैं वहां जाने का प्रयास करता हूं.’’

मीरा ने पता बताया तो रघु के चेहरे पर चिंता की लकीरें और अधिक बढ़ गईं. वह बोला, ‘‘मीरा, उस इलाके में 10 फुट तक पानी चढ़ चुका है. मैं उसी तरफ से आया था, मुझे तैरना आता है इसलिए निकल सका नहीं तो डूब जाता.’’

‘‘शानू, मेरा बेटा…किसी मुसीबत में न फंस गया हो,’’ कह कर मीरा रोने लगी.

‘‘चिंता करने से क्या हासिल होगा, अब तो सबकुछ समय पर छोड़ दो,’’ रघु उसे सांत्वना देने लगा. पर चिंता तो उसे भी हो रही थी.

दोनों ने जाग कर रात बिताई.

हलका सा उजाला हुआ तो रघु ने पाउडर वाले दूध से 2 कप चाय बनाई.

मीरा को चाय, बिस्कुट व दवा की गोली खिला कर बोला, ‘‘मैं जा कर देखता हूं, शानू को ले कर आऊंगा.’’

‘‘उसे पहचानोगे कैसे, वर्षों से तो तुम ने उसे देखा नहीं.’’

‘‘बाप के लिए अपना बेटा पहचानना कठिन नहीं होता, तुम ने कभी अपना पता नहीं बताया, कभी मुझ से मिलने नहीं आईं, जबकि मैं ने तुम्हें काफी तलाश किया था. एक ही शहर में रह कर हम दोनों अनजान बने रहे,’’ रघु के स्वर में शिकायत थी.

‘‘मैं ही गलती पर थी, तुम्हें पहचान नहीं पाई. मैं सोच भी नहीं सकती थी कि तुम इतना बदल सकते हो. शराब पीना और जुआ खेलना बंद कर के पूरी तरह से तुम जिम्मेदार इनसान बन चुके हो.’’

रघु ने बरसाती पहनी और छोटी सी टार्च जेब में रख ली.

मीरा, शानू का हुलिया बताती रही.

रघु चला गया, मीरा सीढि़यों पर खड़ी हो उसे जाते देखती रही.

आज दफ्तर जाने का तो सवाल ही नहीं था, बगैर बिजली के तो कुछ भी काम नहीं हो सकेगा.

मीरा ने पहले कमरे की फिर रसोई और बरतनों की सफाई का काम निबटा डाला. उस ने खाना बनाने के लिए दालचावल बीनने शुरू किए पर टंकी में पानी समाप्त हो चला था.

उसे याद आया कि नीचे एक हैंडपंप लगा था. वह बालटी भर कर ले आई और खाना बना कर रख दिया.

पर रघु अभी तक नहीं आया था. मीरा को चिंता सताने लगी…पता नहीं वह उस के कमरे तक पहुंचा भी है या नहीं. किस हाल में होगा शानू.

मीरा कुछ वक्त पड़ोसिन के साथ गुजारने के खयाल से जीना उतरी तो यह देख कर दंग रह गई कि सभी फ्लैट खाली थे. वहां रहने वाले बाढ़ के डर से कहीं चले गए थे.

बाहर सड़क पर अब भी पानी भरा हुआ था, बरसात भी हो रही थी. अकेलेपन के एहसास से डरी हुई मीरा फ्लैट का दरवाजा बंद कर के बैठ गई.

रघु काफी देरी से आया, उस के जिस्म पर चोटों के निशान थे.

मीरा घबरा गई, ‘‘चोटें कैसे लग गईं आप को, शानू कहां है?’’

उस ने रघु की चोटों पर दवा लगाई.

रघु ने बताया कि उस के घर में शानू नहीं था, पुलिस ने बाढ़ में फंसे लोगों को राहत शिविरों में पहुंचा दिया है, शानू भी वहीं गया होगा.

मीरा की आंखों में आंसू भर आए, ‘‘मैं ने कभी बेटे को अपने से अलग नहीं किया था. खैर, तुम ने यह तो बताया नहीं, चोटें कैसे लगी हैं.’’

‘‘फिसल कर गिर गया था…पैर की मोच के कारण कठिनाई से आ पाया हूं.’’

मीरा ने खाना लगाया, दोनों साथसाथ खाने लगे.

खाना खाने के तुरंत बाद रघु को नींद आने लगी और वह सो गया. जब उठा तो रात गहरा उठी थी.

मीरा खामोशी से कुरसी पर बैठी थी.

‘‘तुम ने मोमबत्ती नहीं जलाई,’’ रघु बोला और फिर ढूंढ़ कर मोमबत्ती ले आया और बोला, ‘‘मैं राहत शिविरों में जा कर शानू की खोज करता हूं.’’

‘‘इतनी रात को मत जाओ,’’ मीरा घबरा उठी.

‘‘तुम्हें अब भी मेरी चिंता है.’’

‘‘मैं ने तुम्हारे साथ वर्षों बिताए हैं.’’

रघु यह सुन कर बिस्तर पर बैठ गया, ‘‘जब सबकुछ सही है तो फिर गलत क्या है? क्या हम लोग फिर से एकसाथ नहीं रह सकते?’’

मीरा सोचने लगी.

‘‘हम दोनों दिन भर दफ्तरों में रहते हैं,’’ रघु बोला, ‘‘रात को कुछ घंटे एकसाथ बिता लें तो कितना अच्छा रहेगा, शानू की जिम्मेदारी हम दोनों मिल कर उठाएंगे.’’

मीरा मौन ही रही.

‘‘तुम बोलती क्यों नहीं, मीरा. मैं ने जिम्मेदारियां निभाना सीख लिया है. मैं घर के सभी काम कर लिया करूंगा,’’ रघु के स्वर मेें याचक जैसा भाव था.

मीरा का उत्तर हां में निकला.

रघु की मुसकान गहरी हो उठी.

सुबह एक प्याला चाय पी कर रघु घर से निकल पड़ा, फिर कुछ घंटे बाद ही उस का खुशी भरा स्वर फूटा, ‘‘मीरा, देखो तो कौन आया है.’’

मीरा ने दरवाजा खोल कर देखा तो सामने शानू खड़ा था.

‘‘मेरा बेटा,’’ मीरा ने शानू को सीने से चिपका लिया. फिर वह रघु की तरफ मुड़ी, ‘‘तुम ने आसानी से शानू को पहचान लिया या परेशानी हुई थी?’’

‘‘कैंप के रजिस्टर मेें तुम्हारा पता व नाम लिखा हुआ था.’’

रघु राहत शिविर से खाने का सामान ले कर आया था, सब्जियां, दूध का पैकेट, डबलरोटी, नमकीन आदि.

उस ने शानू के सामने प्लेटें लगा दीं.

‘‘बेटा, इन्हें जानते हो.’’

शानू ने मां की तरफ देखा और बोला, ‘‘यह मेरे डैडी हैं.’’

‘‘कैसे पहचाना?’’

‘‘इन्होंने बताया था.’’

‘‘शानू, तुम्हें पकौड़े, ब्रेड- मक्खन पसंद हैं न,’’ रघु बोला.

‘‘हां.’’

‘‘यह सब मुझे भी पसंद हैं. हम दोनों में अच्छी दोस्ती रहेगी.’’

‘‘हां, डैडी.’’

मुसकराती हुई मीरा बाप- बेटे की बातें सुनती रही, कितनी सरलता से रघु ने शानू के साथ पटरी बैठा ली.

‘‘शुक्र है इस बरसात के मौसम का कि हम दोनों मिल गए,’’ मीरा बोली और रसोई में जा कर पकौडे़ तलने लगी.

उसे लग रहा था कि उस का बोझ बहुत कुछ हलका हो गया है. सबकुछ रघु के साथ बंट जो चुका है.

बीच का लंबा फासला न जाने कहां गुम हो चुका था. जैसे कल की ही बात हो.

घर तो इनसानों से बनता है न कि दीवारों से. पशु भी तो मिल कर रहते हैं. मीरा न जाने क्याक्या सोचे जा रही थी. बापबेटे की संयुक्त हंसी उस के मन में खुशियां भर रही थी.

प्यार का तीन पहिया

‘‘जी मैडम, कहिए कहां चलना है?’’

‘‘कनाट प्लेस. कितने रुपए लोगे?’’

‘‘हम मीटर से चलते हैं मैडम. हम उन आटो वालों में से नहीं हैं जिन की नजरें सवारियों की जेबों पर होती हैं. जितने वाजिब होंगे, बस उतने ही लेंगे.’’

मैं आटो में बैठ गई. आटो वाला अपनी बकबक जारी रखे हुए था, ‘‘मैडम, दुनिया देखी है हम ने. बचपन का समय बहुत गरीबी में कटा है, पर कभी किसी सवारी से 1 रुपया भी ज्यादा नहीं लिया. आज देखो, हमारे पास अपना घर है, अपना आटो है.’’

‘‘आटो अपना है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘बिलकुल मैडम, किस्तों पर लिया था. साल भर में सारी किस्तें चुका दीं. अब जल्द ही टैक्सी लेने वाला हूं.’’

‘‘इतने रुपए कहां से आए तुम्हारे पास?’’

‘‘ईमानदारी की कमाई के हैं, मैडमजी. दरअसल, हम सिर्फ आटो ही नहीं चलाते विदेशी सैलानियों को भारत दर्शन भी कराते हैं. यह देखो, हर वक्त हमारे आटो में दिल्ली के 3-4 मैप तो रखे ही होते हैं. विदेशी सैलानी एक बार हमारे आटो में बैठते हैं, तो शाम से पहले नहीं छोड़ते. मैं सारी दिल्ली दिखा कर ही रुखसत करता हूं उन्हें. इस से मन तो खुश होता ही है, अच्छीखासी कमाई भी हो जाती है. कुछ तो 10-20 डौलर अतिरिक्त भी दे जाते हैं. लो मैडम, आ गई आप की मंजिल. पूरे 42 रुपए, 65 पैसे बनते हैं.’’

‘‘50  रुपए का नोट है मेरे पास. बाकी लौटा दो,’’ मैं ने कहा.

‘‘मैडम चेंज नहीं है हमारे पास? आप देखो अपने पर्स में.’’

‘‘नहीं है मेरे पास. बाकी 500-500 के नोट ही हैं.’’

‘‘तो फिर छोड़ो न मैडमजी, बाद में कभी बैठ जाना. तब हिसाब कर लेंगे और वैसे भी इतना तो चलता ही है,’’ वह बोला.

‘‘ऐसे कैसे चलता है? पैसे वापस करो.’’

‘‘क्या मैडम, 5-6 रुपयों के लिए इतनी चिकचिक? 5-6 रुपए छोड़ने पर कौन सा आप गरीब हो जाओगी?’’

‘‘बात रुपयों की नहीं, नीयत की है.’’

‘‘क्या बात करती हो मैडम? कोई और आटो वाला होता तो 60-70 रुपए से कम में बैठाता ही नहीं.’’

‘‘हद करते हो,’’ कह कर मैं गुस्से में आटो से उतर गई और वह खीखी कर हंसता रहा.

औफिस आ कर भी काफी देर तक मेरा मूड अजीब सा रहा. क्या करूं? औफिस आते वक्त हड़बड़ी में आटो लेना ही पड़ता है पर इस तरह का कोई अनुभव हो जाए तो सारा दिन ही खराब हो जाता है.

शाम को जब मैं औफिस से निकली तो काफी थक चुकी थी. तबीयत भी ठीक नहीं थी. चलने का बिलकुल मन नहीं कर रहा था. मैट्रो स्टेशन औफिस से दूर है, इसलिए आटो ही देखने लगी. पास ही एक खाली आटो वाला दिखा. मैं ने जल्दी से उसे हाथ दिया. पर यह क्या, सामने वही आटो वाला था, जिस ने सुबह मेरा दिमाग खराब किया था.

मजबूरी थी, इसलिए मैं ने उसे चलने को कहा तो वह रूखे अंदाज में बोला, ‘‘मुझे नहीं जाना मैडम. आप दूसरा आटो देख लो.’’

मेरा मन किया कि उस का सिर फोड़ दूं. पर किसी तरह खुद पर कंट्रोल कर मैट्रो स्टेशन की तरफ बढ़ चली.

तभी उस की तेज, भद्दी आवाज सुनाई दी, ‘‘ओ वसुधाजी, अरे ओ वसुधाजी, आओ बैठो, मैं आप को छोड़ दूं.’’

मेरा मन गुस्से से जल उठा कि मैं ने कहा तो साफ इनकार कर गया और अब किसी लड़की को आवाजें लगा रहा है. फिर मैं ने पलट कर देखा तो पाया कि वह आटो ले कर जिस लड़की की तरफ बढ़ रहा है, वह वसुधा थी, जो एक पैर से अपाहिज थी और धीरेधीरे मैट्रो की तरफ बढ़ रही थी. वसुधा और मेरा परिचय मैट्रो में ही हुआ था. वह आटो वाले को इनकार करते हुए मेरे साथ मैट्रो स्टेशन की तरफ बढ़ चली.

लगभग साल भर में हम कई बार मिले थे. वह बहुत बतियाती थी और घरबाहर की बहुत बातें हम लोग शेयर कर चुके थे. अपाहिज होने के बावजूद उस में गजब का आत्मविश्वास था. वह जौब करती थी और दिल्ली में अपनी बूआ के साथ अकेली रहती थी. सीपी में उस का औफिस और घर करोलबाग में था, जहां मैं भी रहती थी. सफर में ही हमारी अच्छी दोस्ती हो गई थी.

अगले दिन हम दोनों औफिस से एक ही वक्त पर निकले. वह आटो वाला लपक कर आगे बढ़ा और हमारे करीब आटो रोकते हुए बोला, ‘‘वसुधाजी, बैठिए न… छोड़ दूंगा आप को.’’

वसुधा ने नकारात्मक मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘नहीं. तुम जाओ, मैं चली जाऊंगी.’’

आटो वाला अड़ा रहा, ‘‘आप ऐसा क्यों कह रही हैं? मैं इतना बुरा इंसान नहीं. बैठ जाओ, घर तक सलामत पहुंचा दूंगा.’’

वसुधा ने प्रश्नवाचक नजरों से मेरी तरफ देखा. मैं समझ नहीं सकी कि आखिर माजरा क्या है? फिर बोली, ‘‘चलो बैठ जाते हैं प्रीति. वैसे भी देर हो रही है.’’

मैं ने इनकार किया, ‘‘तू बैठ, मैं किसी और में चली जाऊंगी.’’

‘‘तो फिर मैं तेरे साथ ही चलती हूं,’’ और वह मेरे साथ हो ली.

तभी आटो वाला मुझ से बड़ी नम्रता से बोला, ‘‘बहनजी, प्लीज आप भी बैठ जाओ, वसुधाजी तभी बैठेंगी. किराया भी जितना मन करे दे देना. न भी दोगी तो भी चलेगा,’’ और फिर मेरी तरफ मुसकरा कर देखा.

उस की मुसकान मुझे व्यंग्यात्मक नहीं, सहज सरल लगी अत: मैं आटो में बैठ गई. रास्ते भर तीनों खामोश रहे. मैं सोच रही थी, आज इस की बकबक कहां गई. उस ने सीधे वसुधा के घर के आगे आटो रोका.

वह उतर गई, तो मुझ से बोला, ‘‘अब बताइए, आप को कहां छोड़ूं?’’

‘‘मैं चली जाऊंगी. पास ही है मेरा घर,’’ कह मैं ने पर्स निकाला.

‘‘रहने दीजिए. आप लोगों से क्या किराया लेना?’’ वह बोला.

‘‘क्या मैं इस दरियादिली की वजह जान सकती हूं?’’

‘‘आप वसुधाजी की सहेली हैं, तो जाहिर है मेरे लिए भी खास हैं… खैर, मैं चलता हूं,’’ और वह चला गया.

‘इस आटो वाले को वसुधा में इतनी दिलचस्पी क्यों? कहीं दोनों पुराने प्रेमी तो नहीं?’ मैं सोच में पड़ गई.

अगले दिन जब मैं ने वसुधा से इस संदर्भ में बात की तो उस ने बताया, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है. हां, कुछ दिनों से वह मेरे पीछे जरूर पड़ा है, पर कभी गलत हरकत नहीं की.’’

‘‘क्या तू भी उसे मन ही मन पसंद करती है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मेरा और उस का क्या मेल? वह एक तो आटो वाला, ऊपर से न जाने किस जाति का है… हम लोग कुलीनवर्ग के हैं. मैं अपाहिज हूं, तो इस का मतलब यह तो नहीं कि कोई भी मुझे अपने लायक समझने लगे.’’

मैं बोली, ‘‘ये छोटे लोग तो बस ऐसे ही होते हैं.’’

अगले दिन जानबूझ कर हम दूसरे रास्ते से निकले पर उस आटो वाले ने हमें ढूंढ़ ही लिया और आटो बगल में रोक कर बोला, ‘‘चलिए.’’

‘‘नहीं जाना,’’ हम ने रुखाई से कहा.

‘‘गरीब हूं, पर बेईमान नहीं. वसुधाजी ज्यादा चल नहीं सकतीं, मैं आटो ले आता हूं, तो इस में बुरा क्या है?’’

मैं ने वसुधा की तरफ देखा तो वह भी पसीज गई. हम दोनों एक बार फिर आटो में खामोश बैठे थे. सच, कभीकभी जिंदगी कितनी अजनबी लगती है. कौन किस तरह और कब हमारे जीवन से जुड़ जाए, कुछ पता नहीं.

अब तो रोज का नियम बन गया था. आटो वाला मुझे और वसुधा को घर छोड़ता पर एक रुपया भी नहीं लेता. रास्ते भर वह अपने बारे में बताता रहता. उस का नाम अभिषेक था और वह बिहार का रहने वाला था. 2 कमरे के घर में किराए पर रहता था.

उस दिन औफिस से निकलते हुए मैं ने वसुधा से कहा, ‘‘शुक्रवार की छुट्टी है, यानी कुल मिला कर 3 दिन की छुट्टियां लगातार पड़ रही हैं. कितना मजा आएगा.’’

मैं खुश थी पर वसुधा परेशान सी थी. बोली, ‘‘क्या करूंगी 3 दिन… समय काटना मुश्किल हो जाएगा.’’

‘‘ऐसा क्यों कह रही है? हम घूमने चलेंगे. खूब ऐंजौय करेंगे.’’

‘‘सच,’’ वसुधा का चेहरा खिल उठा.

शुक्रवार को सुबह हम लोटस टैंपल देखने के लिए निकले. इस के बाद कुतुबमीनार जाने की प्लानिंग थी. तभी अभिषेक आटो ले कर सामने आ खड़ा हुआ, ‘‘आइए मैं ले चलता हूं. कहां जाना है?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘तुम आज सुबह ही आ गए हमारी खिदमत के लिए, माजरा क्या है?’’

‘‘क्या करूं मैडम, अपना मिजाज ही ऐसा है. आइए न.’’

उस ने फिर निवेदन किया तो मैं हंस पड़ी. बोली, ‘‘हम आज लोटस टैंपल और कुतुबमीनार जाने वाले थे.’’

‘‘तब तो आप दोनों को इस बंदे से बेहतर गाइड कोई मिल ही नहीं सकता. कुतुबमीनार ही क्यों, पूरी दिल्ली घुमाऊंगा. बैठिए तो सही.’’

हम दोनों बैठ गए.

‘‘आप को पता है कि कुतुबमीनार कब और किस के द्वारा बनवाई गई थी?’’ अभिषेक की बकबक शुरू हो गई.

‘‘जी नहीं, हमें नहीं पता पर क्या आप जानते हैं?’’ वसुधा ने पूछा.

‘‘बिलकुल. कुतुबमीनार का निर्माण दिल्ली के प्रथम मुसलिम शासक कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1193 में आरंभ कराया था. पर उस समय केवल इस का आधार ही बन पाया. फिर उस के उत्तराधिकारी इल्तुतमिश ने इस का निर्माण कार्य पूरा करवाया.’’

‘‘अच्छा, पर यह बताओ, इसे बनवाने के पीछे मकसद क्या था?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘दरअसल, मुगल अपनी जीत सैलिब्रेट करने के लिए विक्ट्री टावर बनवाते थे. कुतुबमीनार को भी ऐसा ही एक टावर माना जा सकता है. वैसे आप के लिए यह जानना रोचक होगा कि कुतुबमीनार को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर के रूप में स्वीकृत किया गया है.’’

वसुधा और मैं एकदूसरे की तरफ देख कर मुसकरा पड़े, क्योंकि एक आटो वाले से इतनी ज्यादा ऐतिहासिक और सामान्यज्ञान की जानकारी रखने की उम्मीद हमें नहीं थी.

‘‘1 मिनट, तुम ने यह तो बताया ही नहीं कि कुतुबमीनार की ऊंचाई कितनी है?’’ वसुधा ने फिर से सवाल उछाला और फिर मेरी तरफ देख कर मुसकराने लगी, क्योंकि उसे पूरा यकीन था कि यह सब अभिषेक नहीं जानता होगा.

‘‘5 मंजिला इस इमारत की ऊंचाई 234 फुट और व्यास 14.3 मीटर है, जो ऊपर जा कर 2.75 मीटर हो जाता है और इस में कुल 378 सीढि़यां हैं.’’ आटो वाला गर्व से बोला.

अब तक हम कुतुबमीनार पहुंच चुके थे. अभिषेक हमारे साथ परिसर में गया और रोचक जानकारियां देने लगा. हम चकित थे. इतनी गूढ़ता से तो कोई गाइड भी नहीं बता सकता था.

परिसर में घूमते हुए वसुधा कुछ आगे निकल गई, तो अभिषेक तुरंत बोला, ‘‘अरे मैडम, उधर ध्यान से जाना… कहीं चोट न लग जाए.’’

‘‘बहुत फिक्र करते हो उस की. जरा बताओ, ऐसा क्यों?’’ मैं ने पूछा.

‘‘क्योंकि वे मुझे बहुत अच्छी लगती हैं.’’

‘‘पर क्यों?’’

‘‘उन की झील सी आंखें… वह सादगी…’’

वह और कुछ कहता, मैं उसे बीच में ही टोकती हुई बोली, ‘‘कभी सोचा है, तुम ने कि तुम दोनों में क्या मेल है? तुम ठहरे आटो वाले और वह है बड़े घराने की.’’

‘‘मैडमजी, ठीक कहा आप ने. कहां वे महलों में रहने वाली और कहां मैं आटो वाला. पर क्या मैं इंसान नहीं? क्या मेरी पहचान सिर्फ इतनी है कि मैं आटो चलाता हूं. आप को नहीं पता, मैं भी अच्छे परिवार से हूं. इतिहास में एम.ए. किया है, परिस्थितियोंवश हाथों में आटो आ गया.’’

तभी वसुधा आ गई और हमारी बात बीच में ही रह गई. अगले दिन जब मैं वसुधा से मिली तो अभिषेक से हुई बातचीत सुनाते हुए उसे समझाया, ‘‘एक बार तुझे अभिषेक के लिए सोचना चाहिए. इतना बुरा भी नहीं है वह… और तुझे कितना प्यार करता है.’’

‘‘देख प्रीति, यह संभव नहीं. मेरे घर वाले ऐसे बेमेल रिश्ते के लिए कभी तैयार नहीं होंगे और मेरा दिल भी इस की गवाही नहीं देता. क्या कहूंगी उन्हें कि एक आटो वाले से प्यार करती हूं? नहीं यार, कभी नहीं. इतना नहीं गिर सकती मैं. वह चाहे कितना भी काबिल हो, है तो एक आटो वाला ही न?’’

वसुधा का जवाब मुझे पता था, पर वह यह सब इतनी बेरुखी से कहेगी, यह मैं ने नहीं सोचा था. मैं समझ गई, वसुधा कभी उसे स्वीकार नहीं करेगी. मुझे भी वसुधा का फैसला सही लगा.

एक दिन सुबहसुबह ही वसुधा ने मुझे फोन किया, ‘‘प्रीति प्लीज, अभी जल्दी से मेरे घर आ जा. एक बहुत जरूरी बात करनी है.’’

उस की बेसब्री देख कर मैं जिन कपड़ों में थी, उन्हीं में उस के घर पहुंच गई. फिर पूछा, ‘‘क्या बात है? सब ठीक तो है? बूआजी कहां हैं?’’

वह मुझ से लिपटती हुई बोली, ‘‘बूआजी 4 दिनों के लिए मामाजी के यहां गई हैं.’’

मैं ने देखा, उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. मैं ने पूछा, ‘‘वसुधा, बता क्या हुआ? रो क्यों रही है?’’

‘‘ये खुशी के आंसू हैं. मुझे मेरा हमसफर मिल गया प्रीति,’’ वह बोली.

‘‘अच्छा… पर है कौन वह?’’

‘‘वह और कोई नहीं, अभिषेक ही है.’’

‘‘क्या? इतना बड़ा फैसला तू ने अचानक कैसे ले लिया? कल तक तो तू उस के नाम पर भड़क जाती थी?’’ मैं ने चकित हो कर पूछा.

वह मुसकराई, ‘‘प्यार तो पल भर में ही हो जाता है प्रीति. कल शाम तू नहीं थी तो मैं अकेली ही अभिषेक के आटो में बैठ गई. मुझे एक बैग खरीदना था. उस ने कहा कि मैं जनपथ ले चलता हूं. वहां से खरीद लेना.

‘‘बैग खरीद कर मैं लौटने लगी, तो अंधेरा हो चुका था. ओडियन के पास वह बोला कि क्या फिल्म देखना पसंद करेंगी मेरे साथ? घर में तो मैं अकेली ही थी. अब हां करने में क्या हरज था. हमें 6 बजे के टिकट मिले. 9 बजे तक फिल्म खत्म हुई तो गहरा अंधेरा था. उस ने एक पल भी मेरा हाथ न छोड़ा. प्यार और दुलार का ऐसा एहसास मैं ने जीवन में कभी नहीं महसूस किया था.

‘‘रास्ते में याद आया कि बूआजी की दवा लेनी है. एक मैडिकल शौप नजर आई तो मैं ने हड़बड़ा कर आटो रुकवाया और तेजी से उतरने लगी तभी लड़खड़ा कर गिर पड़ी. सिर पर चोट लगी थी. अत: मैं बेहोश हो गई. फिर मुझे कुछ याद नहीं. जब होश आया तो देखा, कि मैं अपने कमरे में एक शाल ओढ़े लेटी थी और मेरे कपड़े उतरे हुए थे. घुटने पर पट्टी बंधी थी. एक पल को तो लगा जैसे मेरा सब कुछ लुट चुका है. मैं घबरा गई पर फिर तुरंत एहसास हुआ कि ऐसा कुछ नहीं है. किसी तरह उठ कर बाथरूम तक गई तो देखा कि अभिषेक कीचड़ लगे मेरे कपड़े धो रहा था.

‘‘मैं खुद को रोक न सकी और पीछे से जा कर उस से लिपट गई. उस के बदन के स्पर्श से मेरे भीतर लावा सा फूट पड़ा. अभिषेक भी खुद पर काबू नहीं रख सका और फिर वह सब हो गया, जो शायद शादी से पहले होना सही नहीं था. पर मैं एक बात जरूर कह सकती हूं कि अभिषेक ने मुझे वह खुशी दे दी, जिस की मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. अपाहिज होने के बावजूद मुझे ऐसा सुख मिलेगा, यह मेरी सोच से बाहर था.

‘‘उस का प्यार, उस की सादगी, उस की इंसानियत, उस के सारे व्यक्तित्व ने मुझ पर जैसे जादू कर दिया है. जरा सोच मैं जिस हालत में उस के पास थी, बिलकुल अकेली… किसी का भी दिल डोल जाता. पर उस ने अपनी तरफ से कोई गलत पहल नहीं की. क्या यह साबित नहीं करता कि वह नेकदिल और विश्वस्त साथी है? मैं अब एक पल भी उस से दूर रहना नहीं चाहती. प्लीज, कुछ करो कि हम एक हो जाएं. प्लीज प्रीति…’’

‘‘मैं थोड़ी देर अचंभित बैठी रही. वैसे मुझे वसुधा को खुश देख कर बहुत खुशी हो रही थी. फिर मैं ने वसुधा को समझाया, ‘‘सब से पहले तुम दोनों कोर्ट मैरिज के लिए कोर्ट में अर्जी दो. फिर मैं तुम्हारी बूआ व परिवार वालों को इस शादी के लिए तैयार करती हूं. थोड़े प्रतिरोध के बाद वसुधा के घर वाले मान गए.’’

हंसीखुशी के माहौल में अभिषेक और वसुधा का विवाह संपन्न हो गया. ‘मन’ फिल्म के आमिर खान की तरह अभिषेक ने वसुधा को गोद में उठाया कर फेरे निबटाए. बात यहीं खत्म नहीं हुई, शादी के बाद जब हनीमून से दोनों लौटे और मैं औफिस जाने के लिए अभिषेक की टैक्सी (अभिषेक ने नई टैक्सी ले ली थी) में बैठी तो अभिषेक ने चुटकी ली, ‘‘साली साहिबा, अब तो आप से मनचाहा किराया वसूल कर सकता हूं. हक बनता है मेरा.’’

मैं ने हंस कर कहा, ‘‘बिलकुल. पर साली होने के नाते मैं आधी घरवाली हूं. इसलिए तुम्हारी आधी कमाई पर मेरा हक होगा, यह मत भूलना.’’

मेरी बात सुन कर वह ठठा कर हंस पड़ा और फिर मैं ने भी हंसते हुए उस की पीठ पर धौल जमा दी.

मुट्ठी भर आसमान: सोमेश के घर जाते ही उसकी बहन को क्या हुआ?

भैया की शादी के बाद आज पहली बार भैया के पास जा रही हूं. मम्मीपापा 2 महीनों से वहीं हैं. मन आशंकाओं से भरा है कि पता नहीं उन का वहां क्या हाल होगा. अपने दोस्तोंमित्रों, सगेसंबंधियों से दूर मन लगा होगा या नहीं. पापा तो बाहर घूमफिर आते होंगे, पर मां वहां सारा दिन क्या करती होंगी. भैया की नईनई शादी हुई है. वे दोनों तो आपस में ही मस्त रहते होंगे.

फिर बरबस ही उस के होंठों पर मुसकराहट आ गई. क्या खूब होते हैं वे दिन भी. हर तरफ मस्ती का आलम, देर रात तक जागना और दिन में देर तक सोना. सब कुछ चलचित्र की तरह उस की आंखों के सामने घूमने लगा…

सोमेश देर तक सोते रहते और वह चुपचाप पास पड़ी उन्हें निहारती रहती, तनबदन सहलाती रहती. उस के पास तो सोने के लिए पूरा दिन रहता. सोमेश के बाथरूम से निकलते ही उन के साथ ही खाने की मेज पर पहुंच जाती.

नाश्ते के बाद सोमेश औफिस चले जाते और वह अपने कमरे में पहुंच जाती. दिन में 5-6 बार सोमेश से फोन पर बात करती. उन के पलपल की खबर रखती. लंच के लिए उन का फोन आते ही तुरंत तैयार हो कर खाने के लिए पहुंच जाती. सोमेश कुछ देर आराम कर चले जाते और वह दीनदुनिया से दूर न जाने किन खयालों में गुम कमरे में ही पड़ी रहती.

उन्हीं दिनों अंशु कोख में आ गया. फिर तो वह 7वें आसमान पर पहुंच गई. मन चाहता सोमेश हर पल साथ बने रहें. हलका सा सिरदर्द भी हो तो वे ही आ कर सहलाएं. तनमन में आने वाले बदलाव को सम झें,

महसूस करें. पर इन पुरुषों के लिए नारी के हर मर्ज की दवा उन की मां होती है. वे सम झते हैं एक मां ही भावी मां को सम झ सकती है, इसलिए चुपचाप पत्नी को मां के हवाले कर देते हैं.

एकाएक उस की सोच पर विराम लग गया. उन दिनों सोमेश के मम्मीपापा भी तो उन के साथ थे. उन के अकेलेपन का खयाल तो उसे कभी नहीं आया. वे दोनों भी शाम को सोमेश का बेचैनी से इंतजार करते और उन के आते ही उन से बात करने के लिए बेताब हो उठते. मम्मी दिन भर इधरउधर खटपट करती रहतीं, जिस से कभीकभी उसे बड़ी कोफ्त होती. असल में आपस में तालमेल हुए बिना हम शायद एकदूसरे की परेशानी को महसूस तो क्या सम झ भी नहीं सकते.

वह तो सारा दिन दरवाजा बंद कर के पड़ी रहती. अपने मम्मीपापा, सहेलियों से फोन पर लगी रहती. उस ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि वे सारा दिन कैसे गुजारते हैं. मम्मीजी दिन में कई बार आतीं, दरवाजा खटखटातीं और खानेपीने के लिए पूछतीं.

उसे याद आया उन दिनों तबीयत कुछ नासाज थी. वह किसी भी जरूरत के लिए नौकरानी को आवाज लगाती तो मम्मीजी भागीभागी चली आतीं. पर एक दिन आवाज लगाने पर नौकरानी ही आई. उस ने हैरान हो कर दरवाजे से  झांक कर देखा पापा मम्मी का हाथ पकड़ कर यह कह कर उन्हें अंदर आने से रोक रहे थे, ‘‘कोई तुम्हें इस तरह ‘फौर ग्रांटेड’ नहीं ले सकता.’’

मन एकाएक एक कदम और पीछे चला गया. एक दिन सोमेश ने उस का हाथ पकड़ कर बड़ी कोमलता से कहा, ‘‘शुरू से ही मेरा यह सपना रहा है कि मेरे मम्मीपापा हमेशा मेरे साथ रहें. बच्चे, मम्मीपापा, दादादादी घर कितना भराभरा लगता है.’’

‘‘हां, बच्चे संभालने के लिए हमें उन की जरूरत तो होगी.’’

‘‘बात जरूरत की नहीं, मेरी इच्छा की है,’’ सोमेश बोले.

वह कुछ नहीं सम झ पाई, पर यह जरूर जान गई कि ये लोग अब यहीं रहने वाले हैं उन के पास. पुरानी स्मृतियां थीं कि याद न आने का नाम ही नहीं ले रही थीं. वे अकसर एकदूसरे को अपने हाथों से खिलाते. कभीकभी एकाएक मम्मीपापा सामने पड़ जाने पर सोमेश सकपका जाते.

उसे बड़ा अजीब लगता कि हम पतिपत्नी हैं. एकदूसरे की कमर में हाथ डाल या गले में बांहें डाल कर घूमने में शर्म कैसी?

पर आज… आज यदि भैयाभाभी इसी प्रकार व्यवहार करते होंगे तो मम्मीपापा को कैसा लगता होगा, यह सोच कर ही वह शर्म से लजा गई. शर्म, लज्जा, हया सब व्यक्तिपरक होते हैं.

इन्हीं खयालों में डूबी उस को कब घर आ गया, पता ही नहीं चला. रात को खाना खा कर वह, मम्मी और पापा सोने का उपक्रम कर रहे थे. भैयाभाभी के कमरे से देर रात तक दबेदबे हंसी के स्वर आ रहे थे. वह भी जीवन के स्वप्निल क्षणों में पहुंच गई और फिर पता नहीं कब आंख लग गई. सुबह भाभी उठा रही थीं, ‘‘दीदी उठो, नाश्ता लग गया है.’’

मेज पर पहुंची तो मम्मीपापा, भैया सब उस का इंतजार कर रहे थे. सब को एकसाथ देख कर बड़ा अच्छा लगा. नाश्ते के बाद मम्मी ने भाभी को अपने कमरे में आराम करने भेज दिया. फिर मांबेटी दोनों बातों में लग गईं. 2 बजे भाभी ने आ कर कहा, ‘‘मम्मीजी, खाना लग गया है.’’

‘‘रघु कब आ रहा है?’’ मम्मी ने जानना चाहा.

‘‘उन का फोन आया था. लेट आएंगे… आप सब खाना खा लो,’’ भाभी ने आग्रह किया.

वह सोच में डूबी रही और चुपचाप भाभी की दिनचर्या देख रही थी. भाभी घर को व्यवस्थित करने के गुर, जैसे कपड़े संभालना, धोबी का हिसाब रखना, राशन, सब्जी मंगवाना, नौकरों पर निगरानी रखना आदि मम्मी से सम झने की कोशिश करतीं. उन के अनुसार चलतीं और बीचबीच में अपने फंडे मसलन, फ्राइड के साथ रोस्टेड या स्प्राउट खाना, परांठों के साथ ब्रैडबटर, समोसे, कचौरी, जलेबी के साथसाथ पेस्ट्री पैटीज डाल देतीं. मम्मीपापा भी इस छोटेमोटे बदलाव को सहर्ष स्वीकार कर रहे थे.

भाभी रात को अपने कमरे में जाने से पहले नौकर ने सब का बिस्तर ठीक किए हैं या नहीं, कमरे में पानी रख दिया है या नहीं जैसी छोटीछोटी बातों पर पूरी निगरानी रखतीं. कितनी जल्दी सब संभाल लिया है… वह सोचती रही.

‘‘आप तो बड़ी अच्छी गृहस्थी संभाल रही हैं,’’ एक दिन वह भाभी से बोली.

‘‘मु झे कहां कुछ आता था. सब मम्मीजी से सीखा है,’’ भाभी ने संकोच से जवाब दिया.

‘‘डिलिवरी के लिए आप मायके जाएंगी,’’ उस ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘नहीं, रघु कहते हैं उन्हें वहां कंफर्टेबल नहीं लगेगा. फिर मम्मीजी भी यही चाहती हैं. उन्होंने तो अभी से तैयारी भी शुरू कर दी है,’’ भाभी शरमाती हुई बोलीं.

वह सोच रही थी, ‘रघु कहते हैं’ ‘मम्मीजी चाहती हैं’ यह सब क्या है? सब दूसरों की मरजी पर. कितनी मूर्ख लड़की है. क्या इस का अपना कोई स्टैंड नहीं? पर मन में कुछ चुभन सी जरूर हुई.

वापसी वाले दिन सुबहसुबह भैया को देख कर चौंक गई, ‘‘भैया, आज

आप इतनी जल्दी…’’

‘‘तेरी ये भाभी मु झे सोने देंगी तब न? ‘दीदी जा रही हैं’ कह कर जबरन मु झे जगा दिया,’’ भैया ने एक प्यार भरी नजर भाभी पर डालते हुए कहा.

धीरगंभीर भैया के चेहरे पर अनोखी चमक थी. फिर आप ही कहते, ‘‘मु झे उठाया क्यों नहीं?’’ भाभी का उत्तर उसे अंदर तक कचोट गया. उसे याद आया उस की अपनी ननद जाने वाली थी. सोमेश गहरी नींद में सो रहे थे. उस ने दरवाजे पर पदचाप सुनी और चुपचाप पड़ी रही. जागने पर सोमेश ने भी ऐसा ही कुछ कहा था. सारा दिन उस का मूड उखड़ा रहा था. अगर वह भी इसी तरह निकल जाती तो? यहां यह बेवकूफ सी लगने वाली लड़की आगे निकल गई. जितनी नासम झ यह दिखती है उतनी है नहीं. वह सोच रही थी.

‘‘बहू खुशखबरी सुनाने वाली है. उन दिनों जरूर आना. थोड़ी मदद हो जाएगी, मु झे तो अभी से घबराहट हो रही है,’’ मम्मी ने मनुहार की. उन का चेहरा उल्लास से दमक रहा था.

पर चलते समय उस का मन बोझिल था. पता नहीं क्यों? उसे तो खुश होना चाहिए था. सारी आशंकाएं निराधार निकलीं. सब ठीकठाक है. मम्मीपापा, भैयाभाभी सब खुश हैं. फिर यह अन्यमनस्कता क्यों? शायद मां का हर बात में भाभी को उस से अधिक तरजीह देना या शायद उसे अब अपना मायका पराया लगने लगा था या फिर भैयाभाभी का आपसी प्यार… पर सोमेश भी तो उस पर जान छिड़कते हैं. फिर ऐसा क्या है, जो उसे कचोट रहा है. वह सम झ गई उस का अपना घरसंसार मात्र सोमेश तक ही सीमित रहा है. उस से आगे वह कभी सोच ही नहीं सकी. यहां तक कि उस के अपने मम्मीपापा के आने पर उस ने स्पष्ट कह दिया था, ‘‘ममा, सुबह

6 बजे ही जाने के लिए तैयार न हो जाना, कल सोमेश की छुट्टी है, हम देर तक सोते हैं.’’

सुन कर सोमेश, उस के मम्मीपापा सब उस का मुंह देखने लगे थे. पर विवाह 2 जिस्मों का 2 आत्माओं का ही नहीं 2 परिवारों का भी बंधन है और भाभी ने यह साबित भी कर दिया.

कहते हैं, इस असीम आकाश में सब का अपनाअपना हिस्सा है. उसे मुट्ठी भर आसमान ही मिल पाया. पर यह नादान सी लगने वाली भाभी बांहें पसार कर आसमान का एक बड़ा सा भाग समेट कर ले गई.

प्रतिबद्धता: क्या था पीयूष की अनजाने में हुई गलती का राज?

बारिश शुरू हुई तो उस की पहली फुहार ने पेड़पौधों के पत्तों पर जमी धूल को धो दिया. मिट्टी से सोंधीसोंधी गंध उठने लगी. ठंडी हवा चलने लगी. सारी प्रकृति, जो अब तक गरमी से बेहाल थी बारिश से तृप्त हो जाना चाहती थी. पेड़पौधे ही नहीं, पशुपक्षी भी बारिश का आनंद लेने आ गए. कहीं गड्ढे में जमा पानी में चिडि़यों का झुंड पंख फड़फड़ाता हुआ खेल रहा था, तो कहीं छोटेछोटे बच्चे घरों से कागजों की नावें ला कर उन्हें पानी में तैराते हुए खुद भी भीग रहे थे. छतों पर कुंआरी ननदें और सयानी भाभियां भी भीगने के लोभ से बच न पाईं और बड़ों की आंखें बचा कर फुहारों में अपना आंचल भिगो कर एकदूसरे पर पानी के छींटे उड़ाने लगीं. घरों के बरामदों और गैलरियों में बड़ेबुजुर्गों की कुरसियां लग गईं और वे बैठ कर बारिश का आनंद लेने लगे.

इन सारी खुशियों के बीच खिड़की के कांच से बाहर देखती पलक के चेहरे पर खुशी बिलकुल नहीं थी. उस के चेहरे पर तो उदासी और दुख की घनी बदली छाई हुई थी. वह उदास चेहरा ले कर दुखी मन से बाहर की खुशियों को देख रही थी. सामने चंपा

के पेड़ की पत्तियों से पानी की बूंदें फिसलफिसल कर नीचे गिर रही थीं. पलक निर्विकार भाव से बूंदों का थमथम कर नीचे गिरना देख रही थी.

पलक के मातापिता बरामदे में खड़े ठंडी हवा का मजा ले रहे थे.

‘‘भई, आज तो पकौड़े खाने का मौसम है. प्याज के बढि़या कुरकुरे पकौड़े और गरमगरम चाय हो जाए,’’ पलक के पिता ने कहा.

‘‘मैं अभी बना कर लाती हूं,’’ कह कर पलक की मां रसोईघर में चली गईं. प्याज काट कर उन्होंने पकौड़े तले और चाय भी बना ली. पकौड़े और चाय टेबल पर रख कर उन्होंने पलक को आवाज लगाई.

‘‘तुम ने पलक से बात की?’’ पलक के पिता आनंदजी ने पूछा.

‘‘अभी नहीं की. सोच रही हूं 1-2 दिन में पूछूंगी,’’ अरुणा ने उत्तर दिया.

‘‘जल्दी बात करो. जब से आई है उदास और बुझीबुझी लग रही है. अच्छा नहीं लग रहा,’’ आनंदजी ने चिंतित स्वर में कहा.

तभी पलक के आने की आहट पा कर दोनों चुप हो गए. साल भर पहले ही तो उन्होंने बड़ी धूमधाम से पलक का विवाह किया था. पलक उन की एकलौती बेटी थी, इसलिए पलक का विवाह कहीं दूर करने का उन का मन नहीं था. वे चाहते थे कि पलक का विवाह इसी शहर में हो और इत्तफाक से पिछले साल उन की इच्छा पूरी हो गई.

पलक के लिए इसी शहर से रिश्ता आया. शादी हुई तो पीयूष के रूप में उन्हें दामाद नहीं बेटा मिल गया. उस के मातापिता भी बहुत सुलझे हुए और सरल स्वभाव के थे. पलक को उन्होंने बहू की तरह नहीं, बल्कि बेटी की तरह रखा. पलक भी अपने घर में बहुत प्रसन्न थी. जब भी मायके आती चहकती रहती. उस की हंसी में उस के मन की खुशी छलकती थी.

लेकिन इस बार बात कुछ अलग ही है. एक तो पलक अचानक ही अकेली चली आई है और जब से आई है, तब से दुखी लग रही है. उन दोनों के सामने वह सामान्य और खुश रहने की भरसक कोशिश करती है, लेकिन मातापिता की अनुभवी नजरों ने ताड़ लिया है कि कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है.

पहले पलक 2 दिन के लिए भी मायके आती थी, तो पीयूष औफिस से सीधे यहीं आ जाता था और रात का खाना खा कर घर जाता था. दिन में भी कई बार पलक के पास उस का फोन आता था.

लेकिन इस बार 5 दिन हो गए पलक को घर आए, एक बार भी पीयूष उस से मिलने नहीं आया. यहां तक कि उस का फोन भी नहीं आया और पलक ने भी एक बार भी पीयूष को फोन नहीं किया. आनंद और अरुणा की चिंता स्वाभाविक थी. एकलौती बेटी का दुख से मुरझाया चेहरा उन से देखा नहीं जा रहा था.

रात का खाना खा कर पलक अपने कमरे में सोने चली गई. वह पलंग पर लेटी थी, लेकिन नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी.

8 दिन पहले जिंदगी क्या थी और अब कैसी हो गई. कितनी खुश थी वह पीयूष का प्यार पा कर. पूरी तरह उस के प्यार के रंग में रंग गई थी. सिर से पैर तक पीयूष के प्रेमरस में सराबोर थी. लेकिन पीयूष के जीवन के एक राज के खुलते ही उस की तो जैसे दुनिया ही बदल गई. कल तक जो पीयूष अपने दिल का एक टुकड़ा लगता था, अचानक ही इतना बेगाना, इतना अजनबी लगने लगा कि विश्वास ही नहीं होता था कि कभी दोनों की एक जान हुआ करती थी.

पीयूष, उस का पीयूष. कालेज के दिनों में दोस्तों ने एक पार्टी में उसे जबरदस्ती शराब पिला दी तो नशे में चूर हो कर उस ने रात में दोस्त के फार्महाउस पर एक लड़की को अपना एक कण दे दिया. उस का पीयूष पूरा नहीं है, खंडित हो चुका है. पलक को कभी पूरा पीयूष मिला ही नहीं था. उस का एक कण तो उस लड़की ने पहले ही ले लिया था. पलक के सामने सच बोल कर पीयूष ने अपने मन का बोझ हलका कर दिया, लेकिन तब से पलक का मन पीयूष के इस सच के बोझ तले छटपटा रहा है.

पीयूष के इस सच को वह सह नहीं पाई. उस सच ने उसे अचानक ही उस के पास से उठा कर बहुत दूर पटक दिया. पल भर में ही वह इतना पराया लगने लगा, मानो कभी अपना था ही नहीं. दोनों के बीच एक अजनबीपन पसर गया. अजनबी के अजनबीपन को सहना आसान होता है, लेकिन किसी बहुत अपने के अजनबीपन को सहना बहुत मुश्किल होता है. पलक जब अजनबीपन को बरदाश्त नहीं कर पाई तो यहां चली आई.

काश, पीयूष उसे कभी सच बताता ही नहीं. कितना सही कहा है किसी ने, सच अगर कड़वा बहुत है तो मीठे झूठ की छाया में जीना अच्छा लगता है. वह भी पीयूष के झूठ की छाया में सुख से जीवन बिता लेती. कम से कम उस के सच की आंच में जिंदगी यों झुलस तो न जाती.

उधर पीयूष पश्चात्ताप की आग में जल रहा था कि क्यों उस ने अपना यह राज अपने सीने से बाहर निकाला? क्यों नहीं छिपा कर रख पाया? दरअसल पलक का निश्छल प्यार, उस का समर्पण देख कर मन ही मन उसे ग्लानि होती थी. ऐसे में बरसों पहले की गई अपनी गलती को अपने मन में दबाए रखने पर एक अपराधबोध सा सालता रहता था हर समय. इसलिए अपने मन का बोझ उस ने भावुक क्षणों में पलक के सामने रख दिया.

मन में कहीं गहराई तक दृढ़ विश्वास था अपने प्यार पर कि वह उस की गलती को माफ कर देगी. अपने निर्मल और निश्छल प्रेम से उस के मन पर लगे दाग को धो डालेगी. उबार लेगी उसे इस ग्लानि से, जिस में वह बरसों से जल रहा है. क्षमा कर देगी उस अपराध को जो उस से अनजाने में हो गया था.

पीयूष का न तो उस घटना के पहले और न ही बाद में कभी किसी भी लड़की से कोई रिश्ता रहा है और उस लड़की के साथ भी रिश्ता कहां था. रिश्ते तो मन के होते हैं. वहां तो बस नशे की खुमारी में शरीर शामिल हो गए थे. मन से तो वह पूरी तौर पर बस पलक का ही था, है और रहेगा. लेकिन पलक के व्यवहार ने उसे अंदर तक हिला दिया. क्या वह पलक को अब तक पूरी तरह जान नहीं पाया था? क्या उस के मन की थाह पाना अभी बाकी था?

लेकिन तीर अब कमान से निकल चुका था, जिस ने उस की प्यार भरी जिंदगी को

एक ही पल में बरबाद कर के रख दिया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि पलक के आहत मन को कैसे सांत्वना दे. उसे लगा था कि अपने प्यार से कोई भी बात छिपाना गलत है. लेकिन उस के इस सच से पलक को इतनी अधिक पीड़ा पहुंचेगी, इस का अंदाजा उसे नहीं था. वह तो उस से बात तक नहीं कर रही. बेगानों जैसा बरताव हो गया है उस का.

इधर 8 दिनों में ही पीयूष वर्षों का बीमार लगने लगा है. उस का न काम में मन लगता है और न ही घर में.

दूसरे दिन अरुणाजी के पास पीयूष की मां का फोन आया, ‘‘अरुणाजी, आप ने पलक से कोई बात की क्या? मुझे तो कोई समझ में नहीं आ रहा है कि बच्चों को अचानक क्या हो गया. पलक बिना कुछ कहे अचानक चली गई. उस का फोन भी औफ है. यहां पीयूष भी गुमसुम सा कमरे में पड़ा रहता है. पूछने पर कुछ बताता ही नहीं है. पलक कैसी है, ठीक तो है न?’’ पीयूष की मां के स्वर में चिंता झलक रही थी.

‘‘पलक जब से आई है, तब से उदास और दुखी लग रही है. मैं ने 1-2 बार पूछना चाहा तो टाल गई, पर कुछ बात तो जरूर है. मैं आज उस से बात करूंगी. आप चिंता न करें, सब ठीक हो जाएगा,’’ अरुणाजी ने पीयूष की मां को आश्वासन दिया.

‘अब पलक से साफसाफ पूछना ही होगा. यहां पलक उदास है तो वहां पीयूष भी दुखी है. आखिर दोनों के बीच ऐसा क्या हो गया? यदि समय रहते बात को संभाला नहीं गया तो ऐसा न हो जाए कि बात और बिगड़ जाए. अब देर करना ठीक नहीं,’ अरुणाजी न तय किया.

दोपहर को पलक के पिता किसी काम से बाहर गए थे. पलक खाना खा कर अपने कमरे में लेटी थी. अरुणाजी को यही सही मौका लगा उस से बात करने का. अत: वे पलक के पास गईं.

‘‘पलक, क्या बात है बेटा, जब से आई हो परेशान लग रही हो? मुझे बताओ बेटा तुम्हारे और पीयूष के बीच सब ठीक तो है?’’ अरुणाजी ने प्यार से पलक का माथा सहलाते हुए पूछा.

मां का स्नेह भरा स्पर्श पाते ही पलक के अंतर्मन में जमा दुख पिघल कर आंखों के रास्ते बहने लगा. अरुणाजी ने उसे जी भर कर रोने दिया. वे जानती थीं कि रोने से जब मन में जमा दुख हलका हो जाएगा, तभी पलक कुछ बता पाएगी. वे चुपचाप उस की पीठ और केशों पर हाथ फेरती रहीं. जब पलक का मन हलका हुआ, तब उस ने अपनी व्यथा बताई. पीयूष की गलती कांटा बन कर उस के दिल में चुभ रही थी और अब वह यह दर्द बरदाश्त नहीं कर पा रही थी.

अरुणाजी पलक के सिर पर हाथ फेरती स्तब्ध सी बैठी रहीं. वे तो सोच रही थीं कि नई जगह में आपस में अभी पूरी तरह से सामंजस्य स्थापित नहीं हुआ है, तो छोटीमोटी तकरार हुई होगी, जिस के कारण दोनों दुखी होंगे. कुछ दिन में दोनों अपनेआप सामान्य हो जाएंगे. यही सोच कर आज तक उन्होंने पलक से जोर दे कर कुछ नहीं पूछा था. लेकिन यहां मामला थोड़ा पेचीदा है.

पलक के दिल में लगा कांटा निकालना मुश्किल होगा. समय के साथसाथ जब रिश्ते परिपक्व हो जाते हैं, तो उन में प्रगाढ़ता आ जाती है. दोनों के बीच विश्वास की नींव मजबूत हो जाती है, तब अतीत की गलतियों की आंधी रिश्ते को, विश्वास को डिगा नहीं पाती. लेकिन यहां रिश्ता अभी उतना परिपक्व नहीं हो पाया था. पीयूष ने अपने रिश्ते और पलक पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया था. उसे थोड़ा धीरज रखना चाहिए था.

अरुणाजी समझ रही थीं कि इस समय पलक को कुछ भी समझाना व्यर्थ है. पलक का घाव अभी ताजा है. अपने दर्द में डूबी वह अभी अरुणाजी की बात समझ नहीं पाएगी. इसलिए उन्होंने 2 दिन सब्र किया.

मां से अपनी व्यथा कह कर पलक को अब काफी हलका लग रहा था. 2 दिन बाद वह रात में गैलरी में खड़ी थी, तब अरुणाजी उस के पास जा कर खड़ी हुईं.

‘‘तुझे दुख होना स्वाभाविक है पलक, क्योंकि तू पीयूष से प्यार करती है और उसे केवल अपने से जोड़ कर देखती है. इसलिए सच सुन कर तू हिल गई और तेरा भरोसा टूट गया.

‘‘पीयूष ने जो कुछ किया वह भावनाओं और उत्तेजना के क्षणिक आवेग में बह कर किया. उस संबंध का कोई अस्तित्व नहीं है. बरसात में जब पानी अधिक बरसता है तो कई नाले बन जाते हैं, जो नदी से भी अधिक आवेग के साथ बहते हैं, उफनते हैं, लेकिन बरसात खत्म होते ही वे सूख जाते हैं.

उन का अस्तित्व समाप्त हो जाता है. परंतु नदी शाश्वत होती है. वह बरसात के पहले भी होती है और बरसात खत्म होने के बाद भी उस का अस्तित्व कायम रहता है. वासना और सच्चे प्यार में यही अंतर है.

‘‘वासना बरसाती नाले के समान होती है, जो भावनाओं के ज्वार में उफनने लगती है और ज्वार के ठंडा होते ही उस का चिह्न भी जीवन में कहीं बाकी नहीं रहता. लेकिन सच्चा प्यार नदी की तरह शाश्वत होता है वह कभी नहीं सूखता.

सूखे की प्रतिकूल परिस्थिति में भी जिस प्रकार नदी अपनेआप को सूखने नहीं देती, मिटने नहीं देती, ठीक उसी प्रकार सच्चा प्यार भी जीवन से मिटता नहीं है. जीवन भर उस की धारा दिलों में बहती रहती है. तेरे प्रति पीयूष का प्यार उसी नदी के समान है,’’ अरुणाजी ने समझाया.

‘‘लेकिन मां मैं कैसे…’’ पलक कह नहीं पाई कि पीयूष के जिन हाथों ने कभी किसी और लड़की को छुआ है, अब पलक उन्हें अपने शरीर पर कैसे सहे? लेकिन अरुणाजी एक मां ही नहीं एक परिपक्व और सुलझी हुई स्त्री भी थीं. वे पलक के दुख के हर पहलू को समझ रही थीं.

‘‘प्रेम एवं प्रतिबद्धता एकदूसरे से जुड़े हुए जरूर हैं, पर किसी संबंध में पड़ने के पहले उस व्यक्ति का किसी के साथ क्या रिश्ता रहा है, कोई माने नहीं रखता. यदि कोई व्यक्ति पूर्णरूप से किसी के प्रति प्रतिबद्ध हो गया हो, तो उस के लिए पिछले सारे अनुभव शून्य के समान होते हैं.

अब पीयूष पूरी तरह से तेरे प्रति समर्पित है, इसलिए बरसों पहले उस ने एक रात क्या गलती की थी, यह बात आज कोई माने नहीं रखती. माने रखती है यह बात कि तुझ से जुड़ने के बाद वह तेरे प्रति पूर्णरूप से प्रतिबद्ध रहे बस,’’ अरुणाजी ने समझाया तो पलक सोच में पड़ गई. सचमुच साल भर में उसे कभी नहीं लगा कि पीयूष के प्यार में कोई खोट या छल है. वह तो एकदम निर्मलनिश्छल झरने की तरह है.

‘‘पर मां उस का सच मेरी सहनशीलता से बाहर है. मेरी नजर में अचानक ही पीयूष की मूर्ति खंडित हो गई है. मैं प्रेम की टूटी हुई मूर्ति के साथ कैसे रहूं? पीयूष ने

मुझे धोखा दिया है,’’ पलक आंसू पोंछती हुई बोली.

‘‘उस के झूठ पर तुझे एतराज नहीं था. तब तू खुश थी. लेकिन उस की ईमानदारी

को तू धोखा कह रही है. अगर धोखा ही देना होता तो वह उम्र भर यह बात तुझ से

छिपा कर रखता. जरा सोच, वह तुझे हृदय की गहराइयों से प्यार करता है. तुझे पूरे सम्मान से रखता है. तुझे अपने जीवन के सारे अधिकार दे दिए हैं उस ने, पर आज तू एक तुच्छ बात के लिए उस के सारे अच्छे गुणों को नकार रही है.

‘‘जरा सोच, यदि उस ने जीवन में कोई गलती नहीं की होती, लेकिन तुझे प्यार करता, तेरी भावनाओं का सम्मान करता, तुझे तेरे अधिकार देता, तब तू ज्यादा खुश रहती या अब ज्यादा खुश है? जीवन में अहम बात किसी की गलती नहीं, अहम बात है उसका प्यार मिलना. पीयूष अपना एक कण अनजाने में कभी किसी को बांट चुका है,

इस के लिए तू उसे खंडित कह रही है. एक कण के लिए पूरे को ठुकरा कर अपनी और पीयूष की जिंदगी बरबाद मत करो. वह वर्तमान समय में पूरे समर्पण से बस तुझे ही चाहता है. एक छोटी सी घटना पर उम्र भर के लिए किसी के प्यार और रिश्तों को तोड़ देना अक्लमंदी नहीं है,’’ अरुणाजी ने पलक के कंधे पर हाथ रख कर उसे समझाया.

पलक की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे. आंखों  के सामने पीयूष का साल भर का प्यार, उस का सामंजस्य, उस की निश्छलता तैर रही थी.

उस से कोई गलती हो जाने पर वह कभी बुरा नहीं मानता था, उस की जिद पर कभी नाराज नहीं होता था. उस की छोटी से छोटी खुशी का भी कितना ध्यान रखता था. सचमुच मां ठीक कहती हैं. जीवन में बस किसी का सच्चा प्यार और प्रतिबद्धता ही महत्त्वपूर्ण है और कुछ नहीं. आज से वह भी पीयूष के प्रति पूर्णरूप से प्रतिबद्ध रहेगी.

‘‘तेरे चले जाने के बाद पीयूष ने खानापीना छोड़ दिया है. कल तेरे पिताजी उस से मिलने गए थे. वह वर्षों का बीमार लग रहा था. उस की वजह से तुझे जो दुख पहुंचा है उस का पश्चात्ताप है उसे. उसी की सजा दे रहा है वह अपनेआप को. तेरी पीड़ा का एहसास तुझ से भी अधिक उसे है. तेरा दर्द वह तुझ से ज्यादा महसूस कर रहा है. इसीलिए तड़प रहा है. अब भी कहेगी कि उस ने तुझे धोखा दिया है?’’ अरुणाजी ने पूछा तो पलक बिलख पड़ी.

‘‘मैं अभी इसी समय पीयूष के पास जाऊंगी मां, उस से माफी मांगूंगी.’’

‘‘कहीं जाने की जरूरत नहीं है. यहीं है पीयूष. मैं उसे भेजती हूं,’’ कह कर अरुणाजी चली गईं.

2 मिनट में ही पीयूष गैलरी में आ कर खड़ा हो गया. पलक कुछ कहना चाह रही थी पर गला रुंध गया. वह पीयूष के सीने से लग कर फफक पड़ी. उस के आंसुओं ने गलतियों के सारे चिह्न धो दिए. दोनों के दिलों और आंखों में सच्चे प्यार की निर्मल और शाश्वत नदी बह रही थी, एकदूसरे के प्रति अपनी पूरी प्रतिबद्धता के साथ.

प्रेम विवाह: अभिजित ने क्यों लिया तलाक का फैसला?

खूंटियों पर लटके हुए: भाग -3

आज तक पढ़ी जासूसी कहानियां याद आने लगीं. एक दिन दफ्तर में देर से पहुंच जाएंगे, उस ने सोचा. फिर सोचने लगा कि यह देश बड़ा पिछड़ा हुआ है. विदेशों की तरह यहां पर भी यदि जासूसी एजेंसी होती तो कुछ रुपए खर्च कर के वह पत्नी की गतिविधियों की साप्ताहिक रिपोर्ट लेता रहता. तत्काल सारी बातें साफ हो जातीं. पहचाने जाने का भय भी न रहता.

पत्नी सीधी सामान्य चाल से चलती रही. प्रतिक्षण वह कल्पना करता रहा, अब वह किसी दूसरी राह या गली में मुड़ेगी या कोई आदमी उस से राह में बाइक या कार में मिलेगा. कितु सभी अनुमान गलत साबित करती हुई वह सीधे स्कूल पहुंची. दरबान ने द्वार खोला, वह भीतर चली गई.

वह भी स्कूल पहुंचा. गार्ड ने बड़े रूखे शब्दों में पूछा, ‘‘व्हाट कैन आई डू फौर यू?’’

‘‘जरा एक काम था, एक टीचर से.’’

‘‘किस से?’’ गार्ड की आंखों में सतर्कता का भाव आ गया.

उस ने लापरवाही दिखाते हुए अपनी अक्षरा का ही नाम बताया और कहा, ‘‘इन्हें तो जानते

ही होंगे, उन से मिलने तो रोज कोई न कोई आता ही होगा.’’

‘‘कोई नहीं आता साहब,’’ गार्ड ने बताया, ‘‘आप को धोखा हुआ है. दूसरी टीचर्स से

मिलने वाले तो आते रहते हैं, पर उन से मिलने तो आज तक कोई नहीं आया यहां. कहें तो

बुला दूं?’’

‘‘नहीं, जरूर नाम में कुछ धोखा हो रहा है. मैं बाद में ठीक पता कर के आऊंगा.’’

वह दफ्तर चला गया. राह में और दफ्तर में भी दिमागी उलझन बनी रही.

दोपहर में एक कौफी शौप में कौफी पीते वक्त उस के दिमाग में एक नई बात कौंधी. वह दफ्तर से 6 बजे तक घर लौटता है. पत्नी स्कूल से 3 बजे तक लौट आती है. बीच के 2 घंटे.

इस बीच कोई आता होगा? नौकरानी 3 बजे तक काम कर के चली जाती है. घर में वही अकेली रहती है.

इस शंका ने उसे इतना उद्विग्न कर दिया कि चाय पीते हुए वह एक निश्चिय पर पहुंचा. उस ने सड़क पर एक दवा की दुकान पर जा कर लैंड लाइन से यूनिवर्सल गैराज को फोन किया. सुरेश वहीं काम करता है. फोन रिसैप्शनिस्ट ने उठाया. उस ने अपना नाम बताए बिना अपनी पत्नी का नाम ले कर कहा कि

सुरेश को इन्होंने 3 बजे घर बुलाया है और फोन रख दिया. खुद वह सिरदर्द के बहाने छुट्टी ले कर ढाई बजे ही घर लौट आया. सावधानी से इधरउधर देख कर अपने पास की चाबी से ताला खोला और भीतर जा कर पिछवाड़े का दरवाजा खोल कर बाहर निकला. चक्कर लगा कर बाहरी द्वार पर पहुंचा. ताला बाहर से पूर्ववत लगा कर फिर पिछवाड़े से भीतर आ पहुंचा. दरवाजा भीतर से बंद कर सोचने लगा कहां छिप कर बैठे. पलंग के नीचे. यह ठीक न रहेगा. वहां लंबे समय तक छिपे रहना पड़ सकता है.

अंत में सोचविचार कर कपड़ों के बड़े से रैक के पीछे जा खड़ा हुआ. यहां सोने के कमरे की ?ांकी भी मिलती है और रैक पर पड़े कपड़ों, परदों के भारी ढेर में से उसे बाहर से कोई देख भी नहीं सकेगा.

खड़ेखड़े थकने के बाद भी वह वहीं खड़ा रहा. धीरेधीरे 3 बजे, फिर 3 बज गए.

3-25 पर बाहरी ताले के खटकने की आवाज आई. उस की तमाम नसें तन गईं. दम साधे वह खड़ा रहा. पद्चाप सुनाई दी और पत्नी अक्षरा सीधी बैठक में आई और दरवाजा भीतर से बंद कर लिया.

उसे आश्चर्य हुआ कि सुरेश अभी तक क्यों नहीं पहुंचा. अक्षरा ने साड़ी खोल कर रैक पर उछाल दी.

पीछे से वह उस के सिर पर भी पड़ी, पर बिना हिलेडुले वहीं खड़ा रहा. दरार में से देखता रहा. ब्लाउज उतरा, ब्रा हटी. उस की पत्नी का यौवन पूर्ववत बरकरार था. ऐसी आकर्षक लगती है और कैसे कहे कि वह… पेटीकोट खोल कर उस की पत्नी ने रैक पर डाल दिया और स्नानगृह में जा घुसी.

वह अपनी उखड़ी तेज सांसों को व्यवस्थित करने लगा. पत्नी को यों चोरी से सर्वथा नग्न देख कर उसे ऐसा लगा कि जैसे पहली बार देख रहा हो. वह उसे बहुत दूर की अप्राप्य वस्तु लगी. वह भूल गया कि वह उस की पत्नी ही है.

जब वह नहा कर निकली तो उस के शीशे की तरह चमकते शरीर पर पानी की मोती जैसी बूंदें बड़ी भली लग रही थीं. उस ने एक बड़ा तौलिया ले कर शरीर सुखाया, बाल यथावत जूड़े में बंधे थे, उस ने उन्हें भिगोया नहीं था. वह दूसरे कपड़े पहनने लगी. ब्रा एवं टीशर्ट और पैंट पहन कर बाहर निकली. उस ने मन में खैर मनाई कि वह हिंदी फिल्मों की तरह कपड़ों की अलमारी में नहीं छिपा.

थोड़ी देर बाद बाहर से घंटी बजने की आवाज आई तो उस की धड़कनें तेज होने लगीं. उसे पत्नी की पद्चाप बैठक की ओर जाती सुनाई दी और उस की आवाज भी, ‘‘कौन है?’’

‘‘भाभी, मैं हूं, सुरेश,’’ उस की आवाज आई.

उस का मन उछल पड़ा. आखिर प्रतीक्षा रंग लाई. अब देखेगा वह उन्हें.

उस ने दरवाजा खुलने की आहट सुनी और पत्नी की तेज आवाज भी, ‘‘सुरेश, आज इस वक्त कैसे आए?’’

‘‘तुम्हीं ने तो फोन किया था 3 बजे के बाद आने के लिए.’’

‘‘फोन किया था मैं ने? तुम्हें कोई गलतफहमी हो रही है. मैं क्यों तुम्हें इस वक्त बुलाऊंगी?’’

‘‘वाह भाभी, पहले तो बुला लिया, अब ऐसा कह रही हो. भीतर तो आने दो जरा…’’

‘‘देखो भई, इस वक्त तुम जाओ. शाम को महेश के रहने पर आना तो बातें होंगी. मैं ने सचमुच कोई फोन नहीं किया है. उन की अनुपस्थिति में तुम्हारा यहां आना ठीक नहीं.

अभी तो मुझे स्कूल का बहुत काम करना है. जाओ शाम को आना.’’

पत्नी की आखिरी बात में कड़ाई थी. सुरेश के अच्छा कह कर लौटने की आहट उस ने स्पष्ट सुनी. द्वार फिर बंद हो गया और पत्नी वापस शयनकक्ष में लौट आई.

उसे जरा निराशा सी हुई पर मन में एक अजीब सा सुकून भी आने लगा. दिलदिमाग में खोखलेपन की जगह कैसे कुछ ठोस सा भर उठा. उस ने जरा झंक कर देखा वह पलंग पर लेटी खिड़की से आती धूप में तकिए पर बाल फैलाए उसी की लाई पत्रिका पढ़ रही थी.

मन हुआ जा कर उसे अपने से लिपटा ले पर उस का खिंचा बेरुखा सा चेहरा. वह दबे पांव स्नानगृह में गया, वहां से पीछे के दरवाजे से बाहर निकला और मुख्यद्वार पर आ कर घंटी बजा दी.

पत्नी ने आ कर दरवाजा खोला. उस के सख्त चेहरे से आंखें चुराता वह सफाईर् देने लगा, ‘‘क्या करूं, जरा सिरदर्द करने लगा तो जल्दी चल आया.’’

वह द्वार बंद कर चुपचाप चली आई. उस ने खुद चाय बना कर पी और कपड़े बदलने लगा.

अगले दिन शाम को उस ने हलके मूड में सोचा, आज पत्नी के लिए जरूर कोई उपहार देगा. बहुत दिनों से कुछ नहीं लिया है उस के लिए. मन में क्या कह रही होगी.

उस ने बाजार से एक अच्छा महंगा विदेशी परफ्यूम कौस्मैटिक बौक्स खरीदा. महीनों से खरीदना चाहता था, आज स्वयं को रोक न पाया. इस से उस की जेब लगभग खाली हो गई, पर उस ने परवाह न की. दूसरे दिन वेतन मिलेगा ही.

पैकेट में लपेटे वह उसे छिपा कर घर लाया और पत्नी की नजर बचा कर उसे शृंगारमेज के पास की खिड़की पर यों रख दिया कि सीधे नजर न पड़े.

वह मन में परेशान था कि कैसे यह उपहार देगा. बैठा ही था कि अक्षरा भीतर आई. उस ने आश्चर्य से देखा, वह बहुत प्रसन्न है. आंखें जैसे मधु में डूबी हों. आते ही वह बोली, ‘‘जरा, इधर तो आना.’’

वह मंत्रमुग्ध सा उस के पीछे चला. सोने के कमरे में आ कर पत्नी ने मुसकराते हुए

एक पैकेट खोल कर गहरे नीले रंग का एक पुलोवर निकाला और कहा, ‘‘देखो तो इसे पहन कर.’’

वह हैरान रह गया. नेवी ब्लू रंग का पुलोवर खरीदने की उस की बहुत दिनों से इच्छा थी.

मगर वह अपने टालू स्वभाव के कारण टालता जा रहा था.

उस ने पूछा, ‘‘यह क्यों ले आई?’’

‘‘आज स्कूल से तनख्वाह मिली है न. इसे पहनो तो,’’ उस ने प्यार से आदेश दिया और फिर स्वयं पहनाने लगी. पहना कर उसे शृंगारमेज के सामने लाई, ‘‘कैसा जंच रहा है?’’

उस ने मुग्ध भाव से खुद को शीशे में देखा. वह बड़ा चुस्त लग रहा था. उस ने पत्नी को बाहुपाश में लपेट कर एक चुंबन लिया. तभी कुछ याद कर के बोला, ‘‘एक मिनट को तुम आंखें तो मूंदो.’’

हैरान सी अक्षरा ने आंखें मूंद लीं. होंठ जरा खुले से मुसकराते ही रहे. उस ने झट खिड़की पर से परफ्यूम बौक्स निकाल कर उस के आगे किया और उल्लास से बोला, ‘‘आंखें खोलो.’’

आंखें खुलीं, प्रसन्नता की एक लहर के साथ उस की पत्नी उस से लिपट गई. परफ्यूम और उसे दोनों को संभाले वह पलंग तक आया. पत्नी पलंग पर बैठ कर परफ्यूम की पैकिंग उतारने लगी. वह चुपके से अपने कमरे में आ गया और मेज की दराज से डायरी निकाल कर लाल स्याही से लिखी वह पंक्ति कलम से घिसघिस कर काटने लगा. बीचबीच में पीछे मुड़ कर देख लेता कि कहीं अक्षरा तो नहीं आ रही है.

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