Mother’s Day Special: मदर्स डे- भाग 3

आहिस्ताआहिस्ता सीढि़यां चढ़ कर अम्मां भी ऊपर आ गईं. बोलीं, ‘‘मुझे तो छत पर चढ़े महीनों हो गए होंगे. शांति ही आ कर छत पर झाड़ू लगा देती है.’’ ‘‘अम्मां मीरा बूआ कैसी हैं?’’

‘‘अच्छी हैं, बेटा. फूफाजी के जाने के बाद उन्हें संभलने में वक्त लगा, परंतु उन्होंने हार नहीं मानी. दोनों बच्चे पढ़लिख कर नौकरी पर लग गए हैं.’’

‘‘रजत की बीवी कैसी है? बूआ से तो बहुत पटती होगी. हम लोगों से ही इतना लाड़ करती थीं, तो अपनी बहू को तो और भी ज्यादा प्यार करती होंगी.’’ ‘‘3-4 साल तो बहू की तारीफ करती रहीं… कुछ दिन पहले फोन आया था. अब सजल के साथ दूसरे फ्लैट में अलग रह रही हैं.’’

‘‘अच्छा.’’ ‘‘पहले जब बूआ छुट्टियों में रहने आती थीं तो क्या मस्ती होती थी. एक दिन खुसरो बाग, फिर एक दिन कंपनी बाग, फिर पिक्चर बस मजा ही मजा.’’

‘‘छोटी तुम बिलकुल चुप हो, क्या हुआ? सो गईं क्या?’’ ‘‘नहीं अम्मां, बातों में भला नींद कहां.’’

इरा कहने लगी, ‘‘दीदी आज तुम ताई को देख कर रो रही थीं. भूल गईं तुम्हारे बीटैक में दाखिले के समय इन्होंने कितना हंगामा किया था कि देवरजी पैसा कहां से लाएंगे. पहले क्व10 लाख पढ़ाई में खर्च करो, फिर क्व10 लाख शादी में. एक थोड़े ही है, 3-3 लड़कियां हैं.’’ ‘‘मीरा बूआ चिल्ला पड़ी थीं कि भाभी आप क्या परेशान हो रही हैं. ईशा मैरिट से पास हुई है. सरकारी कालेज में इतना पैसा नहीं लगता है. हर होशियार बच्चे को स्कौलरशिप भी मिलती है. अभी तक ईशा को हमेशा वजीफा मिला है. देखना उसे यहां भी मिलेगा.

‘‘खिसिया कर ताई बोली थी कि बीवीजी आप तो नाहक नाराज हो गईं. हम तो बेटियों की भलाई की ही बात कर रहे हैं. 1-1 कर तीनों ब्याह जाएं… कच्ची उम्र में बिटिया ससुराल में दब कर रह लेती है.’’ अब सुषमाजी भी मुखर हो उठी थीं, ‘‘हां, भाभी की सोच पुरानी थी, लेकिन मैं तो स्तंभ की तरह अपनी बेटियों के साथ खड़ी थी.

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‘‘शुरूशुरू की बात है. ईशा छोटी थी. सैंट मैरी स्कूल में नाम लिखाने के समय बहुत बवाल हुआ था. भाई साहब और भाभी ने बहुत शोर मचाया था कि ईशा का नाम वहीं लिखवाओ जहां भरत और लखन पढ़ते हैं. लेकिन मैं अकेले ईशा को साथ ले कर सैंट मेरी स्कूल गई. वहां उस का दाखिला करवा दिया. फिर तो रास्ता निकल पड़ा. तुम तीनों वहीं पढ़ीं. भाभी अकसर व्यंग्यबाण चलाती थीं. शुरूशुरू में तो तुम्हारे पापा भी मुझ से नाराज थे, लेकिन बाद में जब इस की अहमियत समझी तो तारीफ करने लगे. ‘‘इसी पढ़ाई की बदौलत तुम तीनों का जीवन बन गया. अच्छी नौकरी और अच्छा जीवनसाथी मिल गया. तुम तीनों अपनेअपने परिवार में सदा खुश रहो.’’

इरा कहने लगी, ‘‘मम्मी, आप हमेशा चुप रहती थीं. ताई शुरू से ही गरममिजाज थीं क्या? कुछ पुरानी बातें बताइए न?’’ ‘‘तुम्हारी ताई को बेटे होने का बहुत घमंड था. तुम्हारे दादीबाबा पापा के बचपन में ही चल बसे थे. ताऊजी ने ही पापा को पालपोस कर बड़ा किया. उन्हें पढ़ायालिखाया. दुकान करने के लिए भी पैसों से मदद की थी. इसीलिए पापा हमेशा ताईताऊजी की इज्जत करते थे.

‘‘तुम्हारे ताऊजी इंजीनियर थे, तुम ने देखा ही है. उन की अफसरी का और घूस की आमदनी का ताई को बहुत गुमान था. कभी छोटे शहर तो कभी बड़े शहर में उन की पोस्टिंग होती रहती थी. 2-4 नौकर उन को सरकार की ओर से मिला करते थे. इन सब कारणों से उन्होंने हमेशा मुझे और तुम तीनों को नीची निगाहों से देखा. ‘‘कभीकभी उन की बातें मेरे दिल में चुभ जाती थीं. पापा की आमदनी इतनी तो थी नहीं. सो अकसर सुनासुना कर दूसरों से कहतीं कि

3-3 पैदा कर ली हैं. छोटी सी दुकान से दालरोटी का जुगाड़ हो जाए वही बहुत है. ब्याह तो दूर की कौड़ी है, पास में पैसा है नहीं, ब्याह करते समय न हाथ फैलाएं तो कहना. मैं तो कुछ न दूंगी. मुझे भी तो अपने लड़कों के लिए और बुढ़ापे के लिए सोचना है. इरा छोटी थी तो इसे रात में दूध पीए बिना नींद नहीं आती थी, तो ताई कहतीं कि देवरजी तो सांप पाल रहे हैं. ‘‘मैं अपने कमरे में जा कर जी भर कर रो लेती थी, परंतु पापा की खुशी के लिए चुप रहती थी. बस हाथ जोड़ कर मन ही मन यही कामना करती थी कि तेरे पापा को कभी किसी के सामने हाथ न फैलाने पड़े.

‘‘धीरेधीरे तीनों बड़ी होती गईं तो झगड़ेझमेले कम होते गए. भरत और लखन पढ़ने के लिए बाहर चले गए. तुम दोनों भी ताई के स्वभाव को समझने लगी थीं. फिर ताऊजी का ट्रांसफर हो गया तो इन लोगों का आना भी होलीदीवाली पर ही होने लगा. ताऊजी ने लखनऊ में ही मकान बनवा लिया.’’ अम्मां के बारे में जान कर छोटी की आंखों से नींद कोसों दूर हो गई थी. वह सोच में पड़ गई कि अम्मां ताईजी की इतनी कड़वी बातों और व्यवहार के बावजूद आज भी कितने प्यार और इज्जत के साथ उन की देखभाल कर रही हैं और एक वह है कि शादी के 8 वर्ष होने को आए, लेकिन वह आज तक मम्मीजी (सासूमां) को प्यार और सम्मान नहीं दे पाई. उस में और दीपा भाभी में क्या अंतर है. वह भी तो मम्मीजी के साथ ऐसा ही व्यवहार करती आई है. उस ने तो दीपा भाभी से एक कदम आगे बढ़ कर नैट पर वृद्धाश्रम ढूंढ़ढूंढ़ कर लिस्ट तैयार कर आनंद को दे डाली है.

आज तो उस ने सारी सीमाएं तोड़ कर आनंद को अल्टीमेटम भी दे दिया कि इस घर में या तो मम्मीजी रहेंगी या वह.

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उस ने मम्मीजी को नौकरानी से ज्यादा कभी कुछ नहीं समझा. उन्होंने अकेले अपने कंधों पर सारे घर की जिम्मेदारी संभाल रखी है. आरुष को उन्होंने ही इतना बड़ा किया है. वह भी दादी की रट लगाए रहता है. उन्हीं का पल्लू पकड़ कर खातापीता है. आज भी उस के साथ नहीं आया. दादी से चिपक गया कि वह मम्मी के साथ नहीं जाएगा. बस इसी बात पर उस ने गुस्से में उसे 2 थप्पड़ मार दिए.

फिर तो बात बढ़ गई और फिर वह गुस्से में गाड़ी ले कर दीदी लोगों के पास एअरपोर्ट पहुंच गई. अब वह मन ही मन पछता रही थी कि वह यह क्यों नहीं सोच पाई कि जैसे उसे अपनी मम्मी प्यारी है वैसे ही आनंद को भी अपनी मम्मी प्यारी होगी. काश पहले उसे यह बुद्धि आई होती. सुबह होते ही सुषमाजी उठीं तो छोटी तैयार खड़ी थी. वह अपना बैग बंद कर जूते पहन रही थी.

सुषमाजी अचकचा कर बोली, ‘‘छोटी, सब ठीक तो है?’’ ‘‘अम्मां अभी तक तो ठीक नहीं था, लेकिन अब मैं सब ठीक कर लूंगी. आज आप ने अनजाने में ताई और दीपा भाभी की बातें बता कर मेरे मन को झकझोर दिया. अब मुझे तुरंत निकलना होगा वरना बात बिगड़ जाएगी. मैं मम्मीजी की गुनहगार हूं.

अम्मां इस बार आप ने मुझे मदर्स डे का ऐसा अनूठा उपहार दिया है कि यह जीवन को सही दिशा देगा.’’ जब तक सुषमाजी कुछ कहतीं, उस की गाड़ी रफ्तार पकड़ कर आंखों से ओझल हो चुकी थी.

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Mother’s Day Special: मदर्स डे- भाग 2

सुषमाजी ने छोटी के मुंह पर अपना हाथ रख दिया, ‘‘चुप हो जाओ छोटी… भाभीजी सुन लेंगी तो उन्हें कितना बुरा लगेगा.’’ ‘‘अम्मां, आप ने हमेशा हम तीनों को ही चुप कराया है.’’

अभी तक ईशा भी आ गई थी, ‘‘जब ताईजी पापा के सामने रो रही थीं तो बताओ भला पापा कैसे उन्हें यहां न लाते.’’ वह बोली. ‘‘ईशा दीदी, तुम तो सब भूल गई हो, लेकिन मैं ताईजी की बातें जिंदगी भर नहीं भूल सकती. याद नहीं है, जब भरत भैया ने तुम्हारी कौपी पानी में फेंक दी थी, तो तुम फूटफूट कर घंटों रोई थीं. तब ताई कैसे डांट कर बोली थीं कि कौपी ही तो भीगी है, फिर से लिख लेना. ऐसे दहाड़ें मार कर रो रही हो जैसे तेरा कोई सगा मर गया हो.’’

इरा बात संभालने के लिए बोली, ‘‘छोटी, भूल जाओ यार, जो बीत गया उसे भूलना ही पड़ता है.’’ ‘‘अम्मां आज डिनर में क्या खिला रही हो?’’

‘‘तुम तीनों जो कहेंगी बना दूंगी.’’ छोटी तुरंत चिल्ला पड़ी, ‘‘अम्मां मेरे लिए दही वाले आलू और परांठे बनाना.’’

‘‘ठीक है, सब के लिए यही बना दो,’’ ईशा और इरा ने भी छोटी की बात का समर्थन किया. ‘‘तुम तीनों अपने बच्चों को छोड़ कर आई यह बहुत गलत किया. बच्चों के बिना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा है.’’

‘‘अम्मां, आजकल बच्चे हम लोगों की तरह अपनी मम्मी का पल्लू पकड़ कर नहीं रहते. उन की बहुत व्यस्त दिनचर्या होती है. किसी की क्लास, किसी की कोचिंग, किसी की पार्टी, तो किसी का कैंप. उन के पास इतना समय नहीं होता कि वे अपनी मम्मी के साथ 2-4 दिन इस तरह खराब करें.’’ सुषमा के साथ तीनों बेटियां अपने कमरे में आ गईं. शोे केस में लगी बार्बी डौल पर निगाह पड़ते ही इरा बोल पड़ी, ‘‘छोटी, देख तेरी पहली वाली बार्बी डौल आज तक अम्मां ने संभाल कर रख रखी है.’’

‘‘अम्मां की तो पुरानी आदत है… कूड़े को भी सहेज कर रखेंगी.’’

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ईशा भी कुछ याद कर के बोली, ‘‘याद है हम लोगों ने जब इस की शादी की थी. शादी अच्छी तरह निबट गई. खानापीना भी हो गया था. विदा करने के समय छोटी अपनी डौल को ले कर भाग गई थी. राधिका से लड़ाई कर के बोली थी कि मुझे नहीं देनी अपनी गुडि़या. तुम से मेरी आज से कुट्टी, किसी के समझाने से भी यह नहीं मानी थी.’’

तभी अम्मां की आहट से उन का ध्यान बंट गया.

‘‘अम्मां खाना बन गया?’’ इरा ने पूछा. ‘‘कब का. मैं ताई को खिला भी चुकी. तेरे पापा भी खा चुके हैं. मैं इंतजार करतीकरती थक गई तो तुम लोगों के पास आ गई कि देखूं मेरी रचनाएं कमरे में बैठी क्या बातें कर रही हैं.’’

ईशा प्यार से मां से लिपट कर बोली, ‘‘पहले की तरह किचन से डांट कर पुकारतीं तो मजा आ जाता.’’ ‘‘बेटा तब बात और थी. अब कहां रहे

वे दिन.’’ ‘‘अम्मा आप ने परांठे नहीं सेंके?’’

‘‘2 दिनों के लिए आई हो… गरमगरम खिलाऊंगी कि ठंडे परोसूंगी.’’ प्यार से अम्मां से लिपटते हुए छोटी बोली, ‘‘आज अम्मां के लिए मैं परांठे सेंकूंगी… पहले आप खाएंगी, फिर हम तीनों.’’

सुषमाजी की आंखें भर आईं. इस तरह प्यार से तो उन्होंने अपने बचपन में अपनी मां के हाथों ही खाया था. फिर डबडबाई आंखों से बोलीं, ‘‘छोटी अब बड़ी और जिम्मेदार बन गई है. लगता है अपनी मम्मीजी को ऐसे ही प्यार से खिलाती है.’’ यह सुनते ही छोटी के चेहरे का रंग उड़ गया.

सुरेशजी को बैठा देख ईशा बोली, ‘‘अरे पापा, आज आप भी अभी तक जाग रहे हैं.’’ ‘‘अपनी लाडलियों के साथ बैठने की चाह में आज इन्हें नींद कहां?’’

‘‘अम्मां आज हम लोग पहले की तरह जमीन पर बैठ कर खाएंगे. कितना मजा आता था जब हम तीनों बहनें एक परांठे के 3 टुकड़े कर के साथसाथ खाती थीं.’’ इरा कुहनी मारते हुए बोली, ‘‘दीदी, पापा को अच्छा नहीं लगेगा.’’

‘‘नहींनहीं, तुम तीनों को एकसाथ वैसे ही खाते देख कर खुशी होगी मुझे, क्योंकि पहले तो इसलिए डांटता था कि तुम लोग टेबल मैनर्स अच्छी तरह सीख सको.’’ ‘‘हां पापा, आप ने ही तो हम लोगों को हाथ में कांटा पकड़ना सिखाया था,’’ कह तीनों खाना खा कर अपने कमरे में पलंग पर पसर गईं. पीछेपीछे सुषमाजी भी आ गईं.

‘‘आप लेटो अम्मां. आज थक गई होंगी.’’ ‘‘तुम लोग लेटो… मैं तो देखने आई थी कि देख लूं कुछ जरूरत तो नहीं है.’’

‘‘पापा सो गए क्या?’’ हां, पापा तो लेटते ही खर्राटे भरने लगते हैं. उन की तो पुरानी आदत है. मुझे ही नींद नहीं आती. घंटों करवटें बदलती रहती हूं. ‘‘अम्मां आप कुछ कमजोर दिख रही हैं… चेहरे पर परेशानी सी झलक रही है. किसी भी तरह की कोई दिक्कत हो तो बताओ न.’’

‘‘नहीं बेटा, तुम्हारे पापा मेरा बहुत खयाल रखते हैं. अभी तो हम दोनों बिलकुल ठीक हैं… कल किसी को कोई तकलीफ हुई तो क्या होगा, बस यही चिंता सताती है.’’ तीनों बहनें उठ कर सुषमाजी से लिपट कर बोलीं, ‘‘हम किस मर्ज की दवा हैं… यह कैसे सोच लिया आप ने कि आप दोनों अकेले हैं… हम लोग दिन भर में 2-3 बार आप को क्यों फोन करते हैं? इसीलिए न?’’

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‘‘आओ आज हमारे साथ ही लेटो, कह तीनों बहनों ने उन्हें पकड़ कर अपने साथ लिटा लिया.’’ ‘‘तभी बिजली चली गईं. गरमी से सभी पसीनापसीना हो गईं.’’

‘‘बिजली का क्या भरोसा कब आए. चलो छत पर लेटते हैं,’’ ईशा बोली तो तीनों बहनें छत पर आ गईं.

एक अरसे बाद छत पर लेटने का आनंद ही अनूठा था. सिर पर चमकता पूर्णिमा का चांद, ठंडी बयार जैसे अमृत बरसा रही हो. अनगिनत चमकते तारे देख तीनों बहनें अपने बचपन में खो गईं…

ईशा कहने लगी, ‘‘न्यूयौर्क और लंदन के फ्लैट और होटल वाली व्यस्त जिंदगी में इस स्वर्णिम अनूठे आनंद की अनुभूति करना संभव ही नहीं है. काश, बच्चे भी हम लोगों के साथ आते.’’ इरा कुछ याद करते हुए बोली, ‘‘हम लोग छोटे थे तब कैसे पूरी छत पर बिस्तर लगते थे. अम्मां मिट्टी की सुराही ले कर ऊपर आती थीं. सुराही के पानी में मिट्टी की कितनी सोंधीसोंधी महक आती थी.’’

पुरानी यादों के साए में सब की आंखों की नींद उड़ी हुई थी. ‘‘भरत भैया और लखन भी हम लोगों के साथ ही सोने की जिद करते थे, लेकिन ताईजी हमेशा उन्हें डांट कर बुला लेती थीं,’’ छोटी बोली.

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Mother’s Day Special: मदर्स डे- भाग 1

‘‘अम्मां,हैप्पी मदर्स डे.’’ ‘‘थैंक्स बेटा.’’

‘‘कौन था?’’ ‘‘ईशा थी.’’

‘‘तुम्हारी बेटियां भी न उठते ही फोन पर शुरू हो जाती हैं.’’ ‘‘आप से बात नहीं करतीं क्या?’’

‘‘मुझे इतनी बातें आती ही कहां?’’ तभी फिर फोन बज उठा. उधर इरा थी. उस का तो रोज का समय तय है. सुबह औफिस के लिए निकलते हुए जरूर फोन करती है.

‘‘अम्मां हैप्पी मदर्स डे’’ ‘‘थैंक्स बेटा’’

इरा ने हंसते हुए पूछा, ‘‘अम्मां, इस बार क्या गिफ्ट लोगी?’’ ‘‘कुछ भी नहीं बेटा. मैं ने पहले भी कहा था कि तुम तीनों एकसाथ आओ और 2-4 दिन रह जाओ.’’

‘‘आप भी अम्मां… अभी तो मुझे आए साल भी नहीं हुआ है.’’ ‘‘वह भी कोई आना था. सुबह आई थीं और अगली सुबह चली गई थीं.’’

‘‘ठीक है अम्मां प्रोग्राम बनाते हैं.’’

अगले दिन शाम के 7 बज रहे थे. सुषमाजी पति सुरेश के साथ बैठी चाय पी रही थीं. तभी दरवाजे की घंटी बजी. वे पति से बोलीं, ‘‘आज दूध वाला बहुत जल्दी आ गया.’’

‘‘दरवाजा भी खोलोगी कि बातें ही बनाती रहोगी,’’ सुरेशजी बोले. वे खिसिया कर बोलीं, ‘‘क्या दरवाजा आप नहीं खोल सकते? सारे कामों का ठेका क्या मेरा ही है?’’

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फिर दरवाजा खोलते ही सुषमाजी चौंक उठीं. दरवाजे पर छोटी खड़ी थी. वह मम्मी से एकदम से लिपट कर बोली, ‘‘हैप्पी मदर्स डे मौम.’’ ‘‘तुम ने बताया क्यों नहीं? पापा स्टेशन लेने आ जाते.’’

‘‘लेकिन मैं तो गाड़ी से आई हूं.’’ ‘‘गोलू और आदित्य कहां हैं?’’

‘‘अम्मा मैं अकेले आई हूं, गोलू समर कैंप में और आदित्य टूअर पर.’’ बेटी की आवाज सुनते ही सुरेशजी भी बाहर आ गए और फिर छोटी को बांहों में भर कर बोले, ‘‘आओ अंदर चलें. तुम्हारी मम्मी की तो बातें ही कभी खत्म नहीं होंगी.’’

पीछे से ईशा और इरा दोनों ने आवाज लगाई, ‘‘पापा हम दोनों भी हैं.’’ सुषमाजी और सुरेशजी तीनों बेटियों को एकसाथ अचानक आया देख आश्चर्यचकित हो उठे. वे खुशी से फूले नहीं समा रहे थे.

सुषमाजी का दिमाग किचन में क्याक्या है, इस में उलझ गया था. इरा बोली, ‘‘मां परेशान क्यों दिख रही हो? आप ही कब से कह रही थीं कि तीनों साथ आओ तो हम तीनों साथ आ गईं.’’

‘‘सोच रही हूं, तुम लोगों के लिए जल्दी से क्या नाश्ता बनाऊं.’’ ‘‘बस सब से पहले अपने हाथों की अदरक वाली गरमगरम चाय पिलाओ. हम सब के लिए गरमगरम जलेबियां और कचौडि़यां लाई हैं,’’

इरा बोली. ‘‘सुषमा… सुषमा… मुझे बताओ तो कौन आया है?’’

छोटी बोली, ‘‘यह तो ताईजी की आवाज लग रही है.’’ ‘‘अम्मां, आप ने बताया नहीं कि ताई यहां हैं?’’ ईशा बोली.

‘‘क्या करती, तुम लोगों को बताती, तो तुम तीनों नाराज होतीं. इसीलिए मैं ने किसी को नहीं बताया.’’

‘‘भरत और लखन ने मिल कर अपना मकान बेच दिया. जेठानीजी को अपने साथ ले गए. दोनों हैदराबाद में रहते हैं. 15 दिन एक के घर 15 दिन दूसरे के घर. रोधो कर यह व्यवस्था 7-8 महीने चली. ‘‘भरत और उस की बहू अवनी की व्यस्त दिनचर्या में भाभी के लिए किसी के पास समय ही नहीं था. सुखसुविधा के सारे साधन मौजूद थे, परंतु मशीनी जिंदगी में वह हर क्षण खुद को अकेली और उपेक्षित महसूस करती थीं. मुंह अंधेरे अवनी अपनी गाड़ी निकाल कर औफिस के लिए निकल जाती थी. 8 बजे तक भरत भी बाय मौम कह कर चल देता था.

‘‘घर में दिन भर नौकरानी रहती, जो समयसमय पर खाना, नाश्ता बना कर देती रहती थी. दोनों देर रात घर आते. डाइनिंगटेबल पर बैठ कर अंगरेजी में गिटरपिटर करते हुए उलटापुलटा खाते और फिर कमरे में घुस जाते. शनिवार व रविवार को उन्हें आउटिंग और पार्टियों से ही फुरसत नहीं रहती. ‘‘लखन के यहां की दूसरी कहानी थी. भाभी को देखते ही नौकरानी की छुट्टी कर दी जाती. सुबह बच्चों के टिफिन से ले कर रात के दूध तक का काम भाभी को करना पड़ता. भाभी काम करकर के परेशान हो जातीं, क्योंकि दीपा खुद तो कोई काम नहीं करती पर भाभी के हर काम में मीनमेख निकाल कर उन्हें शर्मिंदा करने से कभी नहीं चूकती.

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‘‘लखन बीवी के सामने जबान खोलने से डरता था और भाभी को भी चुपचाप काम करने की सलाह देता था, क्योंकि वह औफिस में दीपा से काफी जूनियर पोस्ट पर था. इसीलिए बीवी से बहुत डर कर रहता था. दीपा परीक्षाएं पास करती हुई मैनेजर बन गई थी. लखन एक भी परीक्षा पास नहीं कर सका था. ‘‘भाभी लखन के यहां ही बाथरूम में फिसल गई थीं और पैर की हड्डी टूट गई थी, भरत ने प्लास्टर बंधवा दिया था, लेकिन इन्होंने यहां आने की जिद पकड़ ली. फोन पर पापा से रोरो कर बोलीं कि भैयाजी, मुझे जीवित देखना चाहते हो, तो आ कर अपने साथ ले जाओ.’’

‘‘तुम्हारे पापा ने एक क्षण की भी देर नहीं की. टैक्सी कर के गए और भाभी को ले कर आ गए. अब तो भाभी काफी ठीक हो गई हैं. छड़ी ले कर चलने लगी हैं.’’ ताई के विषय में सारी बातें सुन कर ईशा तो सिसकती हुई अंदर चली गई और ताई का हाथ पकड़ कर बैठ गई.

इरा कहने लगी, ‘‘भरत भैया तो ऐसे नहीं थे… लखन तो शुरू से ही ऐसा था.’’

सुषमाजी चाय बना कर ताई के पास ही ले कर आ गई थीं. ताई फूटफूट कर रो रही थीं, ‘‘ईशा हम ने सुषमा को कभी चैन से नहीं रहने दिया. यह ब्याह कर

आई तो तुम्हारे ताऊजी और पापा के कान भर दिए कि पढ़ीलिखी बहू ला रहे हो सब को अपनी उंगलियों पर नचाएगी,’’ फिर अपने आंसू पोंछते हुए इरा से बोली, ‘‘तुम लोग बताओ कैसी हो? तीनों को एकसाथ देख कर मेरा कलेजा ठंडा हो गया.’’

‘‘ताईजी आप कैसी हैं?’’ ‘‘बिटिया हम तो अपने कर्मों का फल भुगत रहे हैं… सुषमा से हमेशा दुश्मनी करते रहे… आज वही मेरी खिदमत कर रही है.’’

तभी छोटी ताई से धीमी आवाज में यह कह कर कि अभी आई अम्मां के पास किचन में आ कर खड़ी हो गई. वह बचपन से गुस्सैल और मुंहफट थी. अम्मां से फुसफुसा कर बोली, ‘‘बहुत अच्छा हुआ… हम तीनों की नाक में दम किए रहती थी… ईशा दीदी को तो कभी चैन ही नहीं लेने देती थीं. बातबात में डांटती रहती थीं. इरा दीदी को तो काला जिराफ कह कर पुकारती थीं… बेटों का बड़ा घमंड था न.’’ फिर कुछ देर चुप रहने के बाद फिर वह क्रोधित हो कर पापा से बोली, ‘‘पापा, आप भी कम थोड़े ही हो. क्या जरूरत थी ताईजी को यहां लाने की? अम्मां के लिए आप ने एक मुसीबत खड़ी कर दी है.’’

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लौट आओ मौली: भाग 4- एक गलतफहमी के कारण जब आई तलाक की नौबत

लेखक- नीरजा श्रीवास्तव

स्वरा का नंबर तो मिला, पर वह अब प्रयाग में नहीं दिल्ली में थी. उस ने सीधे कहा, ‘‘अब क्या फायदा उन का डिवोर्स भी हो गया. उस समय तो कोई आया भी नहीं. मलय ने तो उस की जिंदगी ही तबाह कर दी थी. उस की मम्मी भी उस के गम से चल बसीं. अब तो अपने पति शशांक के साथ कनाडा में बहुत खुश है. आप लोग उस की फिक्र न करें तो बेहतर होगा.’’

‘‘ऐसा नहीं हो सकता स्वरा.’’

‘‘डिवोर्स हो गया और क्या नहीं हो सकता?’’

‘‘वही तो, मैं हैरान हूं. मुझे मालूम है कि वह बहुत प्यार करती थी मलय से,

इस घर से, हम सब से. मेरी भाभी ही नहीं, वह मेरी सहेली भी थी. यकीन नहीं होता कि उस ने बिना कुछ बताए डिवोर्स भी ले लिया और दूसरी

शादी भी कर ली. दिल नहीं मानता. कह दो स्वरा यह झूठ है. मैं पति के साथ सालभर के लिए न्यूजीलैंड क्या गई इतना कुछ हो गया.तुम उस का नंबर तो दो, मैं उस से पूछूंगी

तभी विश्वास होगा. प्लीज स्वरा,’’ हिमानी ने रिक्वैस्ट की.

‘‘नहीं, उस ने किसी को भी नंबर देने के लिए मना किया है.

‘‘क्या करेंगी दी, मौली बस हड्डियों का ढांचा बन कर रह गई है. उस की हालत देखी नहीं जाती. उसी ने… कोई उस के बारे में पूछे तो यही सब कहने के लिए कहा था,’’ स्वरा फूटफूट कर रो पड़ी. हार कर दे ही दिया मौली का नया नंबर स्वरा ने.

‘‘यह तो इंडिया का ही है,’’ हिमानी आश्चर्यचकित थी.

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‘‘दी, न वह कनाडा गई न ही शशांक से शादी हुई है उस की. शशांक तो मेरी बुआजी का ही लड़का है. 4 महीने कोमा में पड़ा था, भयानक दुर्घटना की चपेट में आ गया था, कुछ दिनों बाद पता चला था. बच ही गया. होश आने पर भी बहुत सारी प्रौब्लम थी उसे. दिल्ली ले कर आई थीं बुआ जी. एम्स में इलाज के बाद एक महीने पहले ही तो प्रयाग लौटा है. वही मौली का हालचाल देता रहता है.’’

हिमानी ने फटाफट नंबर डायल किया.

‘‘हैलो…’’ वही प्यारी पर आज बेजान सी आवाज मौली की ही थी.

‘‘मौली, मैं तुम्हारी हिमानी दी. एक पलमें पराया बना दिया… किसी को कुछ बताया क्यों नहीं? यह क्या कर डाला तुम दोनों ने, दोनों पागल हो?’’

‘‘उधर से बस सिसकी की आवाज आती रही.’’

‘‘मैं जानती हूं तुम दोनों को… जो हाल तुम्हारा है वही मलय का है. दोनों ने ही खाट पकड़ ली है. इतना प्यार पर इतना ईगो… उस ने गलत तो बहुत किया, सारे अपनों के चले जाने से वह बावला हो गया था. उसी बावलेपन में तुम्हें भी खो बैठा. अपने किए पर बहुत शर्मिंदगी महसूस कर रहा है. पश्चाताप में बस घुला ही जा रहा है. आज भी बहुत प्यार करता है तुम से. तुम्हें खोने के बाद उसे अपनी जिंदगी में तुम्हारे दर्जे का एहसास हुआ.’’

मौली की सिसकी फिर उभरी थी

‘‘ऐसे तो दोनों ही जीवित नहीं बचोगे.ऐसे डिवोर्स का क्या फायदा? तुम ने तो पूरी कोशिश की छिपाने की, पर स्वरा ने सब सच बता दिया.

‘‘लौट आओ मौली. मैं आ रही हूं. कान उमेठ कर लाऊंगी इसे. पहले माफी मांगेगा तुम से. अब कभी जो इस ने तुम्हारा दिल दुखाया, तुम्हें रुलाया तो मेरा मरा… पलंग से उठ कर जाने कैसे मलय ने हाथ से हिमानी को आगे बोलने से रोक लिया.

‘‘दी, ऐसा फिर कभी मत बोलना.’’

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‘‘दोनों कान पकड़ अपने फिर,’’ हिमानी ने प्यार भरी फटकार लगाई.

‘‘एक लड़की जो सारे घर से सामंजस्य बैठा लेती है, सब को अपना बना लेती है

तू उस के साथ ऐडजस्ट नहीं कर पा रहा था. कुछ तेरी पसंद, आदतें हैं, संस्कार हैं माना, तो कुछ उस के भी होंगे… नहीं क्या? क्या ऐडजस्ट करने का सारा ठेका उसी ने ले रखा है? मैं ऐसी ही थी क्या पहले… कुछ बदली न खुद पति देवेन के लिए? देवेन ने भी मेरे लिए अपने को काफी चेंज किया, तभी हम आज अच्छे कपल हैं. तुझे भी तो कुछ त्याग करना पड़ेगा, बदलना पड़ेगा उस के लिए. अब करेगा? बदल सकेगा खुद को उस के लिए?’’

‘‘हां दी, आप जैसा कहोगी वैसा करूंगा,’’ हिमानी उस के चेहरे पर उभर आई आशा की किरण स्पष्ट देख पा रही थी.

‘‘ले बात कर, माफी मांग पहले उस से…’’ हिमानी जानबूझ कर दूसरे कमरे में चली गई.

‘‘किस मुंह से कहूं मौली मैं तुम्हारा गुनहगार हूं, मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम्हारे साथ बहुत गलत किया. शादी के बाद से ही तुम घर की जिम्मेदारियां

ही संभालती रहीं. हनीमून क्या कहीं और भी तो ले नहीं गया कभी घुमाने. अपनी ही इच्छाएं थोपता रहा तुम पर. अपने पिता का शोक तुम

ने कितने दिन मनाया था. हंसने ही तो लगी थी हमारे लिए और मैं अपने गम, अपने खुद के उसूलों में ही डूबा रहा. तुम्हारे साथ 2 कदम भी न चल सका.

‘‘बच्चा गोद लेना चाहती थी तुम, पर मैं ने सिरे से बात खारिज कर दी. तुम ने ट्यूशन पढ़ाना चाहा पर वह भी मुझे सख्त नागवार गुजरा. सख्ती से मना कर दिया. तुम्हारे दोस्त के लिए बुराभला कहा, तुम पर कीचड़ उछाला… कितना गिर गया था मैं. सब गलत किया, बहुत गलत किया मैं ने… तुम क्या कोई भी नहीं सहन करता… कुछ बोलोगी नहीं तुम, मैं जानता हूं मुझे माफ करना आसान न होगा…

‘‘बहुत ज्यादती की है तुम्हारे साथ. मुझे कस के झिड़को, डांटो न… कुछ बोलोगी नहीं, तो मैं आ जाऊंगा मौली.’’

पहले सिसकी उभरी फिर फूटफूट कर मौली के रुदन का स्वर मलय को अंदर तक झिंझोड़ गया.

‘‘मैं आ रहा हूं तुम्हारे पास. मुझे जी भर के मार लेना पर मेरी जिंदगी तुम हो, उसे लौटा दो मौली. मैं दी को देता हूं फोन.’’

‘‘चुप हो जा मौली अब. बस बहुत रो चुके तुम दोनों. मैं दोनों की हालत समझ रही हूं. तुम आने की तैयारी करना, कुछ दिनों में तुम्हारे मलय को फिट कर के लाती हूं.’’

सिसकियां आनी बंद हो गई थीं. वह मुसकरा उठी.

‘‘कुछ बोलोगी नहीं मौली…?’’

‘‘जी…’’ महीन स्वर उभरा था.

‘‘जल्दी सेहत सुधार लो अपनी, हम आ रहे हैं. फिर से ब्याह कर के तुम्हें वापस लाने के लिए… तैयार रहना… इस बार दीवाली साथ में मनाएंगे… तुम्हारे देवेन जीजू पहले जैसे तैयार मिलेंगे… तुम लोगों का बचकाना कांड सुन कर बहुत मायूस थे. मैं अभी उन्हें खुशखबरी सुनाती हूं. एक बार अपनी इस हिमानी दी का विश्वास करो. तुम्हारा घर तुम्हारी ही प्रतिक्षा कर रहा है. बस अपने घर लौट जाओ मौली…’’

‘‘ठीक है दी, जैसी आप सब की मरजी…’’ मौली की आवाज में जैसे जान आ गई थी. हिमानी ने सही ही महसूस किया था.

‘‘जल्दी तबियत ठीक कर ले, फिर चलते हैं प्रयाग. एक नए संगम के लिए,’’ हिमानी ने मुसकरा कर मलय के गाल थपथपाए और उस के माथे की गीली पट्टी बदल दी.

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मौली का फोन कटते ही हिमानी ने खुशीखुशी पति देवेन को सूचना देने के लिए नंबर डायल कर दिया.

‘‘मौली को अच्छी तरह समझाबुझा कर शशांक निकला ही था कि रास्ते में तेज आती ट्रक से इतनी जबरदस्त टक्कर हुई कि वह उड़ता हुआ दूर जा गिरा…’’

एक नई पहल: भाग 3- जब बुढा़पे में हुई एक नए रिश्ते की शुरुआत

अब तक मैं जूही के साथ एक दोस्त की तरह काफी खुल चुकी थी, ‘‘जो काम बच्चों के लिए मांबाप करते हैं, वही काम बच्चों को आज उन के लिए करना होगा, यानी आप पहले अपने पति को मनाएं फिर रिश्ता ले कर शर्माजी के बेटेबहुओं से मिलें…हो सकता है पहली बार में वे लोग मान जाएं…हो सकता है न भी मानें. स्वाभाविक है उन्हें शाक तो लगेगा ही…आप को कोशिश करनी होगी…आखिर आप की ‘ममा’ की खुशियों का सवाल है.’’

एक सप्ताह तक मैं जूही के फोन का इंतजार करती रही. धीरेधीरे इंतजार करना छोड़ दिया. मैं ने पार्क जाना भी छोड़ दिया…पता नहीं सुमेधा आंटी या अंकल का क्या रिएक्शन हो. शायद बात नहीं बनी होगी. पार्क में सैर करने जाने का उद्देश्य ही दम तोड़ चुका था. मन में एक टीस सी थी जिस का इलाज मेरे पास नहीं था. अपनी तरफ से जो मैं कर सकती थी किया, अब इस से ज्यादा मेरे हाथ में नहीं था.

एक दोपहर, बेटी के स्कूल से आने का समय हो रहा था. टेलीविजन देख कर समय पास कर रही थी कि फोन की घंटी बज उठी.

‘‘क्या मालिनीजी से बात हो सकती है?’’ उधर से आवाज आई.

‘‘जी, बोल रही हूं,’’ मैं ने दिमाग पर जोर डालते हुए आवाज पहचानने की कोशिश की पर नाकाम रही, ‘‘आप कौन?’’ आखिर मुझे पूछना ही पड़ा.

‘‘देखिए, मैं सुमेधाजी का बेटा अजय बोल रहा हूं. आप मेरी पत्नी से क्याक्या कह कर गई थीं…मैं और मेरी ममा आप से एक बार मिलना चाहते हैं…क्या आप शाम को हमारे घर आ सकेंगी?’’

अजय की तल्खी भरी आवाज सुन कर एक बार को मैं सकपका गई, फिर जैसेतैसे हिम्मत कर के कहा, ‘‘देखिए, यह आप के घर का मसला है…’’

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बीच में ही बात काट कर वह बोला, ‘‘जब जूही से आप बात करने आई थीं तब आप को नहीं पता था कि यह हमारे घर का मसला है. खैर, आप यह बताइए कि आप आएंगी या मैं जूही और ममा के साथ आप के घर आ जाऊं? पार्क के सामने वाले फ्लैट में आप का नाम ले कर पूछ लेंगे…तो घर का पता चल ही जाएगा.’’

मैं ने सोचा अगर कहीं ये लोग सचमुच घर आ गए तो बेवजह का यहां तमाशा बन जाएगा. मेरे पति मुझे दस बातें सुनाएंगे. उन से तो मुझे इस मामले में किसी सहयोग की उम्मीद नहीं थी. अब क्या करूं.

‘‘अच्छा, ठीक है…मैं आ जाऊंगी…कितने बजे आना है?’’ हार कर मैं ने पूछ ही लिया.

‘‘7 बजे तक आप आ जाइए.’’

मैं ने अपने पति को इस बारे में बताया तो था लेकिन विस्तार से नहीं. शाम 5 बजे मैं ने पति को फोन किया, ‘‘मुझे सुमेधा आंटी के घर जाना है.’’

‘‘अभी खत्म नहीं हुई तुम्हारी सुमेधा आंटी की कहानी,’’ पति बोले, ‘‘खैर, कितने बजे जाना है?’’

‘‘7 बजे, आतेआते थोड़ी देर हो जाएगी.’’

रास्ते भर मेरे दिमाग में उथलपुथल मची हुई थी. मन में तरहतरह के सवाल उठ रहे थे…अगर उन्होंने मुझे ऐसा कहा तो मैं यह कहूंगी…वह कहूंगी पर क्या मैं ने उन लोगों को गलत समझा…क्या वे ऐसा नहीं चाहते थे…नहीं चाहते होंगे तभी आंटी भी मुझ से बात करना चाहती हैं…

दरवाजा जूही ने खोला था. ‘हैलो’ कर के मुझे सोफे पर बैठा कर वह अंदर चली गई.

उस के पति ने बाहर आते ही नमस्ते का जवाब दे कर बैठते ही बिना किसी भूमिका के बात शुरू कर दी, ‘‘दिखने में तो आप ठीकठाक लगती हैं, लेकिन लगता है समाज सेविका बनने का शौक रखती हैं. समाजसेवा के लिए आप को सब से पहले हमारा ही घर मिला था?’’

मैं डर गई. मौन रही, लेकिन फिर पता नहीं कहां से मुझ में बोलने की हिम्मत आ गई, ‘‘मि. अजय, इस में समाजसेवा की बात नहीं है. मुझे जो महसूस हुआ मैं ने वह कहा और मेरे दिल ने जो कहा मैं ने वही किया. जब दो प्यार करने वाले लड़कालड़की को उन के मांबाप एक बंधन में खुशीखुशी बांध देते हैं तो बच्चे अपने मांबाप के प्यार को एक होते क्यों नहीं देख पाते? समाज क्यों इसे असामाजिक मानता है? क्या बड़ी उम्र में प्यार नहीं हो सकता? और हो जाए तो कोई क्या करे? प्यार करना क्या पाप है…नहीं…प्यार किसी भी उम्र में पाप नहीं है…वैसे भी इस उम्र का प्यार तो बिलकुल निश्छल और सात्विक होता है, इस में वासना नहीं, स्नेह होता है…शुद्ध स्नेह…

‘‘इतने अनुभवी 2 लोग दूसरे की भावनाओं को समझते हुए संभोग के लिए नहीं, सहयोग के लिए मिलन की इच्छा रखते हैं. इस में क्या गलत है, अगर हम उन की इच्छाओं को समझते हुए उन के मिलन के साक्षी बनें. बच्चों की हर इच्छा पूरी करना यदि मांबाप का फर्ज है तो क्या बच्चों का कोई फर्ज नहीं है? क्या बच्चे हमेशा स्वार्थी ही रहेंगे…बाकी आप की मां हैं, आप जानें और वह…मुझे तो उन से एक अनजाना सा स्नेह हो गया है, एक अजीब सा रिश्ता बन गया है, उसी के नाते मैं ने उन के दिल की बात समझ ली थी…शायद मैं अपनी हद से आगे बढ़ गई थी…’’

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इतना कह कर मैं वहां से चलने को तत्पर हुई तभी अंदर से तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई दी. सामने कमरे के दरवाजे से 3 दंपती तालियां बजाते हुए ड्राइंगरूम में प्रवेश कर रहे थे. सभी के चेहरे पर हंसी थी. अब तक जूही और अजय भी उन में शामिल हो गए थे. मैं समझ नहीं पाई कि माजरा क्या है. तभी उन के पीछे 3-4 छोटेछोटे हाथों का सहारा ले कर सुमेधा आंटी और शर्मा अंकल चले आ रहे थे.

जूही ने मेरे पास आ कर मेरा सब से परिचय करवाया, ‘‘ये शर्मा अंकल के दोनों बेटेबहुएं और ये मेरी प्यारी सी ननद और उन के पति हैं और वह जो तुम देख रही हो न नन्हे शैतान, जो ‘ममा’ के साथ खडे़ हैं, वे शर्मा अंकल के दोनों पोते और पोती हैं और अंकल के साथ मेरी ननद का बेटा और मेरा बेटा है. बच्चों ने कितनी जल्दी अपने नए दादादादी और नानानानी को स्वीकार कर लिया. ये तो हम बडे़ ही हैं जो हर काम में देर करते हैं.

‘‘मालिनी, आज से मेरी एक नहीं दो ननदें हैं,’’ जूही भावुक हो कर बोली, ‘‘उस दिन तुम्हारी बातों ने मुझ पर गहरा असर डाला, लेकिन सब को तैयार करने में मुझे इतने दिन लग गए. शायद तुम्हारी तरह सच्ची भावना की कमी थी या फिर एक ही मुलाकात में अपनी बात समझा पाने की कला का अभाव…खैर, अंत भला तो सब भला.’’

मैं बहुत खुश थी. तभी जूही मेरे हाथ में 2 अंगूठियां दे कर बोली, ‘‘मालिनी दी, यह शुभ काम आप के ही हाथों अच्छा लगेगा.’’

मैं हतप्रभ सी अंगूठियां हाथ में ले कर अंकलआंटी की ओर बढ़ चली. मैं स्वयं को रोक नहीं पाई. मैं दोनों के गले लग गई…उन दोनों के स्नेहिल हाथ मेरे सिर पर आशीर्वाद दे रहे थे.

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Mother’s Day Special: जिद- मां के लाड़दुलार के लिए तरसी थी रेवा

Mother’s Day Special: जिद- भाग 1- क्यों मां के लाड़दुलार के लिए तरसी थी रेवा

रेवा अपनी मां की मृत्यु का समाचार पा कर ही हिंदुस्तान लौटी. वह तो भारत को लगभग भूल ही चुकी थी और पिछले कई वर्षों से लास एंजिल्स में रह रही थी. उस ने वहीं की नागरिकता ले ली थी. पिता के न रहने पर करीब 15 वर्ष पूर्व रेवा भारत आई थी. यह तो अच्छा हुआ कि छोटी बहन रेवती ने उसे तत्काल मोबाइल पर मां के न रहने का समाचार दे दिया था. इस से उसे अगली ही फ्लाइट का टिकट मिल गया और वह अपने सुपरबौस की मेज पर 15 दिन की छुट्टी की अप्लीकेशन रख कर, तत्काल फ्लाइट पकड़ने निकल गई. मां का अंतिम संस्कार उसी की वजह से रुका हुआ था. सख्त जाड़े के दिन थे. घाट पर रेवा, रेवती और उस के पति तथा परिवार के अन्य दूरपास के सभी नातेरिश्तेदार भी पहुंचे हुए थे. यद्यपि घाट पर छोटे चाचा और मौसी का बड़ा लड़का भी मौजूद थे लेकिन इस का समाधान घाट के पंडितों द्वारा ढूंढ़ा जा रहा था कि दोनों बहनों में से किस के पास मां को मुखाग्नि देने का अधिकार अधिक सुरक्षित है, तभी रेवती ने प्रस्तावित किया, ‘‘पंडितजी, मां को मुखाग्नि देने का काम बड़ी बेटी होने के कारण रेवा दीदी करेंगी. उन्होंने ही हमेशा मां के बड़े बेटे होने का फर्ज निभाया है.’’

काफी देर बहस होती रही. आखिर में बड़ी जद्दोजेहद के बाद यह निर्णय हुआ कि यह कार्य रेवा के हाथों ही संपन्न करवाया जाए. हमेशा जींसटौप पहनने वाली रेवा, आज घाट पर पता नहीं कहां से मां की साड़ी पहन कर आई थी और एकदम मां जैसी ही लग रही थी. ऐसा लग रहा था कि मां से हमेशा खफाखफा रहने वाली रेवा के मन पर मां के चले जाने का कुछ तो असर जरूर हुआ है. अगले 3-4 दिन बड़ी व्यस्तता में बीते. मां की मृत्यु के बाद के सभी संस्कार विधिविधान से संपन्न किए गए. पंडितों के अनुसार, बरसी का हवनयज्ञ आदि 10 दिन से पहले करना संभव नहीं होगा. रेवा के वापस जाने से 2 दिन पूर्व की तिथि नियत की गई. अगले दिन रेवती ने घर की साफसफाई की जिम्मेदारी संभाल ली. रेवा ने पहले ही कह दिया, ‘‘तू मां की लाड़ली बिटिया थी, इसलिए मां का ये घर, सामान, जमीनजायजाद व धनसंपत्ति, अब तू ही संभाल. न तो मेरे पास इतनी फुरसत है, न ही मुझे इस की जरूरत. और सुन, अब मैं इंडिया नहीं आ सकूंगी, इसलिए अपने पति शरद से पूछ कर, अगर कहीं मेरे हस्ताक्षर की जरूरत हो तो अभी करा ले.

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आखिर तू ही तो मां की असली वारिस है. मैं तो वर्षों पहले यहां से विदेश चली गई और वहीं की ही हो कर रह गई. तू ने ही मां और पापा की देखभाल की है, उन्हें संभाला है. समझी कि नहीं, रेवती की बच्ची.’’ रेवा दीदी के मुंह से काफी दिनों बाद ‘रेवती की बच्ची’ सुन कर रेवती को बड़ा अच्छा लगा जैसे बचपन के कुछ क्षण फिर से वापस आने को आतुर हों. घर की साफसफाई के बाद मां का सामान ठीक करने का नंबर आया. उन के कपड़े करीने से, बड़े सलीके से और तरतीबवार उन के वार्डरोब में हैंगर पर लटके हुए थे. शेष साडि़यां, ब्लाउज व पेटीकोट का सैट बना कर पौलिथीन में पैक कर के रखे हुए थे. मां ऐसी ही थीं, हर चीज उन्हें कायदे से रखने की आदत या यह कहो मीनिया था और वे यह चाहती थीं कि उन की बेटियां भी अपना घर उसी तरह सजासंवरा व सुव्यवस्थित रखें. बचपन में अगर नहाने के बाद तौलिया एक मिनट के लिए सही जगह फैलाने से रह जाता, तो समझो हम लोगों की शामत आ जाती थी. पापा थोड़े लापरवाह किस्म के इंसान थे और रेवा भी उन पर ही गई थी. सो, वे दोनों अकसर मां की डांट खाते रहते थे.

आखिर में, मां की बुकशैल्फ ठीक करने का नंबर आया. मां की रुचि साहित्यिक थी और जहां कहीं भी कोई अच्छी किताब उन्हें नजर आ जाती, वे उसे खरीदने में तनिक भी देर न लगातीं. इस प्रकार धीरेधीरे मां के पास दुर्लभ साहित्य का खजाना एकत्र हो गया था. बुकशैल्फ झाड़पोंछ कर किताबों को लगातेलगाते रेवती को किताबों के पीछे एक काले रंग की डायरी दिखाई दी जिस पर लिखा था, ‘सिर्फ प्रिय रेवा के लिए.’ रेवती कुछ देर उस डायरी को उलटपलट कर देखती रही. डायरी इस तरह सील थी कि उसे खोलना आसान नहीं था. रेवती ने डायरी झाड़पोंछ कर रेवा दीदी को पकड़ा दी.

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रेवा सोफे पर पसरी हुई थी, उस ने उचक कर पूछा, ‘‘यह क्या है?’’ ‘‘मां तेरे लिए एक डायरी छोड़ गई हैं, रख ले,’’ रेवती ने कहा. रेवा थोड़ी देर उस डायरी को उलटपलट कर देखती रही, फिर उस ने उसे वैसा ही रख दिया. उसे चाय की तलब लगी थी, उस ने रेवती से चाय पीने के लिए पूछा तो चाय बनाने किचन में चली गई. सोचने लगी कि मां ने पता नहीं, डायरी में क्या लिखा होगा. मां को तो जो कुछ लिखना था, रेवती को लिखना चाहिए था, आखिर वह उस की ‘ब्लूआइड’ बेटी जो थी.

रेवा सोचने लगी, ‘मां तो वैसे भी रेवती को ही चाहती थीं, मुझे तो उन्होंने हमेशा अपने से दूर ही रखा. पता नहीं मैं उन की सगी बेटी हूं भी या नहीं.’ फिर सोचने लगी कि चलो, अब तो मां चली ही गई, अब उन से क्या शिकवाशिकायत करना. उसे आज तक, बल्कि अभी तक, समझ में नहीं आया कि मां सब से तो अच्छी तरह बोलतीबतियाती थीं, पर उस के साथ हमेशा कठोर क्यों बन जाती थीं. रेवा शुरू से पढ़ने में बड़ी तेज थी और अपनी क्लास में हमेशा टौप करती, जबकि रेवती औसत दर्जे की स्टूडैंट थी. मां रेवती को रोज जबरदस्ती पढ़ाने बैठतीं और उस पर मेहनत करतीं, तब जा कर वह किसी तरह क्लास में पास होती थी. उधर, रेवा ने अपने स्कूलकालेज में मार्क्स लाने के कितने ही कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए और ऐसे नए मानक गढ़ दिए जिन का टूटना असंभव सा था. स्कूलकालेज में रेवा पिं्रसिपल व टीचर के प्यार से ज्यादा, इज्जत की हकदार बन बैठी थी. उस के क्लासमेट उस की ज्ञान की वजह से उस से एक तरह से डरते थे और एक दूरी बना कर ही रखते थे और इन्हीं कारणों से उस की कोई अच्छी सहेली भी नहीं बन सकी.

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Mother’s Day Special: जिद- भाग 3- क्यों मां के लाड़दुलार के लिए तरसी थी रेवा

‘‘दीदी, चाय बना रही हूं, पियोगी.’’ रेवती की आवाज सुन कर रेवा वापस वर्तमान में लौट आई. उसे लगा कि बचपन की कड़वाहट फिर से मुंह को कसैला कर गई. कई बार रेवा मन को समझा चुकी है कि मां के जाने के बाद उसे अब सबकुछ भूल जाना चाहिए. परंतु वह क्या करे, मन के बेलगाम घोड़े अब भी उसी जानीपहचानी व अनचाही राह पर निकल पड़ते हैं. मां की बरसी के बाद रेवा ने जाने की तैयारी शुरू कर दी. रेवती के बहुत कहने के बाद, उस ने मां के कपड़ों में से 1-2 साडि़यां रख लीं और मां की 1-2 छोटीबड़ी तसवीरें. आखिर नियत तिथि पर रेवा चली गई. यद्यपि उस ने लाख मना किया, पर रेवती व उस का पति राकेश उसे एअरपोर्ट तक छोड़ने आए. उस का छोटा बच्चा रेवा मौसी की गोद में ही बैठा रहा और लगातार उस से पूछता रहा, ‘‘मौसी, आप फिर कब आओगी?’’ रेवा उस नन्हे से, फिर से आने का वादा कर के सिक्योरिटी चैक से अंदर चली गई. उसे लगा कि जितना वह इन बंधनों को भूलना चाहती है, एक नया मोहपाश उसे बांधने को तैयार खड़ा मिलता है.

वैब चौइस से उसे प्लेन में अच्छी सीट मिल गई थी और वह सामान रख कर सोने के लिए पसर गई. 1-2 घंटे की गहरी नींद के बाद रेवा की आंख खुल गई. पहले सीट के सामने वाली टीवी स्क्रीन पर मन बहलाने की कोशिश करती रही, फिर बैग से च्युंगम निकालने के लिए हाथ डाला तो साथ में मां की वह डायरी भी निकल आई. मन में आया कि देखूं, आखिर मां मुझ से क्या कहना चाहती थीं जो उन्हें इस डायरी को लिखना पड़ गया. कुछ देर सोचने के बाद उस ने उस पर लगी सील को खोल डाला और समय काटने के लिए पन्ने पलटने शुरू किए. एक बार पढ़ने का सिलसिला जब शुरू हुआ तो अंत तक रुका ही नहीं. पहले पेज पर लिखा, ‘‘सिर्फ अपनी प्रिय रेवा के लिए,’’ दूसरे पन्ने पर मोती के जैसे दाने बिखरे पड़े थे. लिखा था, ‘‘मेरी प्रिय छोटी सी लाडो बिटिया, मेरी जान, मेरी रेवू, जब तुम यह डायरी पढ़ रही होगी, मैं तुम्हारे पास नहीं हूंगी. इसीलिए मैं तुम्हें वह सबकुछ बताना चाहती हूं जिस की तुम जानने की हकदार हो.

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‘‘मैं अपने मन पर कोई बोझ ले कर जाना नहीं चाहती और तुम मेरी बात समझने तो क्या, सुनने के लिए भी तैयार नहीं थी. सो, जातेजाते अपनी वसीयत के तौर पर यह डायरी दे कर जा रही हूं क्योंकि तुम हमारी पहली संतान हो तुम, जैसी नन्ही सी परी पा कर मैं और तुम्हारे पापा निहाल हो उठे थे.

‘‘धीरेधीरे मैं तुम में अपना बचपन तलाशने लगी. छोटी होने के नाते मैं जिस प्यार व चीजों से महरूम रही, वे खिलौने, वे गेम मैं ढूंढ़ढूंढ़ कर तेरे लिए लाती थी. जब तुम्हारे पापा कहते, ‘तुम भी बच्चे के साथ बच्चा बन जाती हो,’ सुन कर ऐसा लगता कि मेरा अपना बचपन फिर से जी उठा है. धीरेधीरे मैं तुम में अपना रूप देखने लगी और तुम्हारे साथ अपना बचपन जीने लगी. जो कुछ भी मैं बचपन में नहीं हासिल कर पाई थी, अब तलाश करने की कोशिश करने लगी. ‘‘समय के साथ तुम बड़ी होने लगी और मेरी फिर से अपना बचपन सुधारने की ख्वाहिश बढ़ने लगी. तुम पढ़ने में बहुत तेज थी. प्रकृति ने तुम्हें विलक्षण बुद्धि से नवाजा था. तुम हमेशा क्लास में प्रथम आती और मुझे लगता कि मैं प्रथम आई हूं. यहां तुम्हें यह बताना चाहती हूं कि मैं बचपन से ही पढ़ाई में काफी कमजोर थी, पर तुम्हें यह बताती रही कि मैं भी हमेशा तुम्हारी तरह कक्षा में प्रथम आती थी. इसीलिए मेरे मन में एक ग्रंथि बैठ गई थी कि मैं तुम्हारे द्वारा अपनी उस कमी को पूरा करूंगी.

‘‘समय के साथसाथ मेरी यह चाहत सनक बनती चली गई और मैं तुम पर पढ़ाई के लिए अधिक से अधिक जोर डालने लगी. जब मुझे लगा कि घर पर तुम्हारी पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाएगी, तो मैं ने तुम्हारे पापा के लाख समझाने को दरकिनार कर छोटी उम्र में ही तुम्हें होस्टल में डाल दिया. इस तरह मैं ने तुम्हारा बचपन छीन लिया और तुम भी धीरेधीरे मशीन बनती चली गई. दूसरी तरफ रेवती पढ़ने में कमजोर थी और मैं उसे खुद ले कर पढ़ाने बैठने लगी. जरा सी डांट पर रो देने वाली रेवती, हमारे प्यारदुलार का ज्यादा से ज्यादा हकदार बनती चली गई और मुझे पता ही नहीं चला. और तो और, मुझे पता नहीं चला कि कब तुम्हारे हिस्से का प्यार भी रेवती के हिस्से में जाने लगा. ‘‘तुम्हारे लिए अपना प्यार जताने का हमारा तरीका थोड़ा अलग था. मैं सब के सामने तुम्हारी तारीफों के कसीदे पढ़ कर, उस पर गर्व करने को ही प्यार देना समझती रही. पर सच जानो रेवू, मैं तुम्हें उस से भी ज्यादा प्यार करती थी जितना कि रेवती को करती थी. पर क्या करूं, यह कभी बताने या दिखाने का मौका ही नहीं मिल सका या हो सकता है कि मेरा प्यार दिखाने या जताने का तरीका ही गलत था.

‘‘जैसेजैसे तुम बड़ी होती गई, तुम्हारे मन में धीरेधीरे विद्रोह के स्वर उभरने लगे. मैं तुम्हें आईएएस बनाना चाहती थी जिस से अपनी हनक अपने जानपहचान, नातेरिश्तेदारों व दोस्तों पर डाल सकूं. पर तुम ने इस के लिए साफ इनकार कर दिया और प्रतियोगिता के कुछ प्रश्न जानबूझ कर छोड़ दिए. तुम्हारी या कहो मेरी सफलता में कोई बाधा न आए, इसलिए मैं ने तुम्हें किसी लड़के से प्यारमुहब्बत की इजाजत भी नहीं दी थी. पर तुम ने उस में भी सेंध लगा दी और विद्रोह के स्वर तेज कर दिए और सरस से चुपचाप विवाह कर लिया.

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‘‘तुम तो विलक्षण प्रतिभा की धनी थी, इसलिए एक मल्टीनैशनल कंपनी ने तुम्हें हाथोंहाथ ले लिया. पर तुम ने अपनी मां के एक बड़े सपने को चकनाचूर कर दिया. इस के बाद तो तेरी मां ने सपना ही देखना बंद कर दिया. समय के साथ, मैं ने तुम्हारे पति को भी स्वीकार कर लिया और सबकुछ भूल कर तुम्हारे कम मिले प्यार की भरपाई करने में जुट गई. पर अब तुम इस के लिए तैयार नहीं थी, तुम्हारे मन में पड़ी गांठ, जिसे मैं खोलने या कम से कम ढीला करने की कोशिश कर रही थी, उसे तूने पत्थर सा कठोर बना लिया था. हां, अपने पापा के साथ तुम्हारा व्यवहार सदैव मीठा, स्नेहपूर्ण व बचपन जैसा ही बना रहा. ‘‘तुम्हारी यह बेरुखी या अनजानेपन वाला व्यवहार मेरे लिए सजा बनता गया, जिसे लगता है मैं अपने मरने के बाद भी साथ ले कर जाऊंगी. पर रेवू, कभी तूने सोचा कि मैं भी तो एक मां हूं और हर मां की तरह मेरा दिल भी अपने बच्चों के प्यार के लिए तरसता होगा. तुम और रेवती दोनों मेरी भुजाओं की तरह हो और मुझे पता ही नहीं चला कि कब मैं ने अपने दाएं हाथ, अपनी रेवी पर ज्यादा भरोसा कर लिया. हर मां की तरह मेरे मन में भी कुछ अरमान थे, कुछ सपने थे जिन्हें मैं ने तुम्हारी आंखों से देखने की कोशिश की. अगर इस के लिए मैं गुनाहगार हूं, तो मैं अपना गुनाह स्वीकार करती हूं. पर अफसोस तूने तो बिना कुछ मेरी सफाई सुने, मेरे लिए मेरी सजा भी मुकर्रर कर दी और उस की मियाद भी मेरे मरने तक सीमित कर दी.

‘‘मैं ने यह डायरी इस आशय से तुम्हें लिखी है कि शायद आज तुम मेरी बात को समझ सको और अपनी मां को अब माफ कर सको. अंत में ढेर सारे आशीर्वाद व उस स्नेह के साथ जो मैं तुम्हें जीतेजी न दे सकी…तेरी मां.’’

डायरी का आखिरी पन्ना पलट कर, रेवा ने उसे बंद कर दिया. कभी न रोने वाली रेवा का चेहरा आंसुओं से तरबतर होता चला गया और इतने दिनों की वो जिद, वो गांठ भी साथ ही घुलने लगी. पर आज उस ने भी उन आंसुओं को न तो पोंछा, न ही रोका. उसे लगा सर्दी बढ़ गई है और उस ने कंबल को सिर तक ढक लिया. वह ऐसे सो गई जैसे कोई बच्चा अपनी मां की खोई हुई गोद में इतमीनान से सो जाता है. आज रेवा को भी लगा कि मां कहीं गई नहीं है और पूरी शिद्दत से आज भी उस के पास है. मां की गोद में सोई रेवा की आंखों से आंसू मोती बन कर बह रहे थे. तभी उसे लगा, मां ने उस के आंसू पोंछ कर कहा, ‘अब क्यों रोती है मेरी लाड़ो, अब तो तेरी मां हमेशा तेरे पास है.’ …और रेवा करवट बदल कर फिर गहरी नींद में चली गई.

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Mother’s Day Special: जिद- भाग 2- क्यों मां के लाड़दुलार के लिए तरसी थी रेवा

मां ने तो वैसे भी उसे तीसरी क्लास से ही होस्टल में डाल दिया था. कई बार रोने के बाद भी उन का दिल नहीं पसीजा. खैर, पापा हर शनिवार की शाम को उसे घर ले जाने के लिए आ जाते और सोमवार की सुबह उसे स्कूल छोड़ जाते. रेवा के लिए वह एक दिन बड़ा सुकूनभरा होता, दिनभर वह अपने पापा के साथ मस्ती करती. मां कई बार पूछतीं कि कोर्स की कोई कौपीकिताब लाई कि नहीं, और वह इन प्रश्नों से बचने के लिए पापा के पीछे दुबक जाती. उस के 8वीं पास करने के साथ ही पापा का ट्रांसफर दूसरी जगह हो गया. सो, सप्ताह में एक दिन घर आनेलाने का चक्कर भी खत्म हो गया.

इस शहर से जाने के बाद भी पापा, हर महीने एक बार छुट्टी वाले दिन जरूर मिलने आते और कभीकभार मम्मी भी साथ में आतीं. मां आते ही उस के हालचाल जानने से पहले ही पढ़ाई के बारे में पूछने बैठ जातीं. सो, पापा का अकेले आना, उसे हमेशा बड़ा भाता था. वह जो भी फरमाइश करती, पापा तुरंत पूरी करते, तरहतरह की ड्रैसेस दिलाते, लंच व डिनर बाहर ही होता व उस की मनपसंद आइसक्रीम दिन में कई बार खाने को मिलती. इस तरह धीरेधीरे रेवा अपनी मां से दूर होने लगी और अकसर एक रटारटाया मुहावरा उस के मुंह पर आने लगता, ‘‘मां तो बस, रेवती की ही मां हैं. सारा प्यार मां ने उस के लिए ही रख छोड़ा है, मुझ से तो वे प्यार करती ही नहीं.’’ इंटर तक रेवा उसी कालेज में पढ़ती रही और उस ने हाईस्कूल व इंटरमीडिएट में पूरे प्रदेश में मैरिट में प्रथम स्थान प्राप्त कर कीर्तिमान स्थापित कर दिया. उस कालेज की पिं्रसिपल ने तो फेयरवैल पार्टी वाली स्पीच में यहां तक कह दिया कि इस लड़की रेवा का चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा में होेने से कोई नहीं रोक सकता और इस कालेज को उस पर बहुत गर्व है.

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छोटे से शहर लखनऊ के उस छोटे कालेज से निकल कर रेवा को लेडी श्रीराम कालेज, दिल्ली में दाखिला हाथोंहाथ मिल गया. साथ ही, मां ने उसे आईएएस के ऐंट्रैंस की कोचिंग भी जौइन करा दी. फिर तो रेवा अपनी पढ़ाई की भागदौड़ में इस तरह मसरूफ हो गई कि उसे मां के पास रहने और उन का प्यारदुलार पाने का मौका ही नहीं मिला जिस के लिए वह हमेशा तरसती रही थी.

पता नहीं कैसे, एक दिन अचानक रेवा को लगने लगा कि वह तो एकदम मशीन बनती जा रही है और इस के लिए अब उस का मन कतई तैयार नहीं था. रहरह कर उसे अब बचपन के वे दिन याद आ रहे थे, जब वह मांबाप के प्यार से वंचित रही. धीरेधीरे उस में विद्रोह के मूकस्वर उठने लगे. सब से पहले उस ने कालेज में टौप करने के लक्ष्य को ढीला छोड़ना शुरू कर दिया. उस के मन में एकाएक खयाल आया कि अगर वह दूसरे स्थान पर आ जाती है, तो किसी को क्या फर्क पड़ने वाला है. इस के बाद उस ने आईएएस कोचिंग में भी ढील देनी शुरू कर दी. इन बातों से रेवा की एक अजीब सी जिद हो गई. इस कारण वह क्लास में पहले द्वितीय, फिर तृतीय स्थान पर आ गई जिस से उस के सभी साथी आश्चर्यचकित रह गए. इसी तरह आईएएस कोचिंग के साप्ताहिक टैस्टों में उस के नंबर कमतर आने शुरू हो गए. जैसे ही मां को इस का पता चला, वे दिल्ली पहुंच गईं और उसे लगातार डांटती रहीं. रेवा को यह देख कर बड़ा सदमा लगा कि रेवती को हर साल नंबर कम आने पर प्यार से समझाने वाली मां, आज कहां खो गई हैं. मां तो डांट कर चली गईं, पर रेवा के मन में एक विद्रोह की चिनगारी को अनजाने में और भड़का गईं. रेवा सोचती रही कि मां अगर प्यार के दो बोल बोल कर समझा देतीं तो कौन सा आसमान छूना उस के लिए संभव न था.

इसी बीच एक और बात हो गई. मां की खास सहेली मंदिरा का लड़का और उस का बालपन का सखा सरस भी दिल्ली आ गया. एक दिन सरस से उस की मुलाकात एक मौल में हो गई. दोनों ने वहां कौफी पी और एकदूसरे का मोबाइल नंबर एक्सचेंज किया. फिर तो आपस में बातों का सिलसिला ऐसा चला कि बचपन की दोस्ती प्यार में कब बदल गई, पता ही न चला. सरस ने अपनी मां से जब इस बारे में बात की तो उन की खुशी का ठिकाना न रहा. अगला अवसर मिलते ही, सरस की मां मंदिरा आंटी, मां के पास पहुंच गई. जैसे ही उन्होंने मां को बताया कि सरस व रेवा आपस में प्यार करते हैं और शादी करना चाहते हैं, मां का चेहरा उतर गया. जब उन्हें पता चला कि सरस ने इंजीनियरिंग की है और वह जौब पाने के लिए प्लेसमैंट फौर्म भर रहा है, तो मां ने इस शादी के लिए यह कह कर इनकार कर दिया कि रेवा को तो अभी आईएएस बनना है. एक इंजीनियर व आईएएस में शादी कैसे हो सकती है.

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जैसे ही रेवा को इस बात का पता चला, विद्रोह की वह छोटी सी चिनगारी एकदम ज्वाला बन गई. परिणामस्वरूप, उस ने प्रतियोगिता परीक्षा का एक पेपर ही छोड़ दिया. मां को जब इस का पता चला तो वे बहुत चीखीचिल्लाईं. कितनी ही बार पूछने पर भी कि उस ने ऐसा क्यों किया, रेवा खामोश बनी रही. कुछ असर न होता देख, मां रेवा को समझाने बैठ गई. काफी देर बाद, रेवा ने जो पहला वाक्य कहा, वह यह था कि वे उसे सरस से विवाह करने देंगी या नहीं, अन्यथा दोनों कोर्टमैरिज कर लेंगे. अब तो मां रोने बैठ गईं, परंतु इन बातों का रेवा पर कोई असर नहीं हुआ. कुछ दिन रुक कर वह दिल्ली लौट गई और उस ने पत्रकारिता के कोर्स में प्रवेश ले लिया. धीरेधीरे रेवा ने घर आना भी कम कर दिया. इधर, सरस को एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पैकेज पर जौब मिल गई और उधर रेवा को दूरदर्शन के न्यूज चैनल में काम मिल गया. मां ने लाख समझाया, पर रेवा ने भी जिद पकड़ ली और इस के बाद फिर आईएएस की प्रतियोगिता में बैठी ही नहीं. बाद में सरस और रेवा ने विवाह कर लिया जिस में मां शामिल तो हुईं पर बड़े ही बेमन से. इस के कुछ सालों बाद, रेवा सरस के साथ लास एंजिल्स चली गई और वहीं की नागरिकता ले ली.

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लौट आओ मौली: भाग 3- एक गलतफहमी के कारण जब आई तलाक की नौबत

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लेखक- नीरजा श्रीवास्तव

एक दिन काम से लौटा तो मौली बच्चों के साथ हैप्पी बर्थडे गीत गा कर क्लैपिंग करवा रही थी. किसी बच्चे का जन्मदिन था. चौकलेट ले कर बच्चे बस घर जा ही रहे थे. उन को गेट तक छोड़ कर वह अंदर आ गई.

मलय बरस पड़ा, ‘‘मालूम है न मुझे काम से लौट कर आने पर शांति चाहिए.

ये सब ड्रामे पसंद नहीं. कल से बच्चे मेरे घर में पढ़ने नहीं आएंगे. ज्यादा शौक है तो कहीं और किराए पर रूम ले कर पढ़ाओ, मेरी खुशियों से तो तुम्हें कोई मतलब नहीं, बस अपने में ही लगी रहो…’’ वह बच्चों के सामने झल्लाता हुए अपने रूम में चला गया. मौली के दिल में खंजर की तरह बात घुस गई, मोटेमोटे आंसू गाल पर ढुलकने लगे. सब्र का बांध जैसे टूट चला था.

‘‘मेरा घर… मेरी खुशी… मैं तो अपना घर समझ ब्याह कर आई थी. मुफ्त की ड्यूटी बजाने के लिए नहीं. न ही नौकर की तरह बस तुम्हारे हुक्म की तामील करने. अपनी खुशी की बात करते हो, कभी पत्नी की खुशी सोची तुम ने?

‘‘नाजों से पली बेटी, अपना ऐशोआराम सब कुछ छोड़ पराए घर को अपना लेती है, सब की सेवा में जीजान से लगी रहती है, अपनी आदतों को दूसरों की आदतों में खुशीखुशी ढालने में हर पल प्रयासरत रहती है, खानपान, पहनावा, व्यवहार, खुशी, गम, मजबूरी सब को ही अपना लेती है और एक सैकंड में तुम ने बाहर का रास्ता दिखा दिया. ऐसी ही पत्नी चाहिए थी तो किसी गरीब, बेसहारा, अनपढ़ को ब्याह लाने की हिम्मत करते, जो तुम्हारी खैरात का एहसान मान कर हाथ जोड़े बैठी रहती. लेकिन नहीं. खानदानी और संस्कारी भी चाहिए और पढ़ीलिखी, रूपसी, इज्जतदार व अच्छे घर की भी…’’ गुस्से में कांपती मौली पहली बार एक सांस में इतना कुछ बोल गई, मलय भौंचक्का सा देखता रह गया.

मगर उस की मर्दानगी ललकार उठी, पलटवार से न चूका था.

‘‘तो तुम ने क्यों नहीं किसी भिखारी से शादी कर ली? इतनी काबिल थी तो किसी अमीर से शादी करती उस पर आराम से रोब झाड़ती और उस की मुफ्त में परवरिश भी कर देती. तुम्हें भी तो…

‘‘अपने टटपूंजिए दोस्त शशांक से क्यों नहीं कर ली थी शादी, जिस का सानिध्य पाने को आज तक लालायित फिरती हो. उस के पास पहले अच्छी जौब नहीं थी इसीलिए न?’’

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‘‘अब एक लफ्ज भी मत बोलना मलय, तुम्हारी घटिया सोच पहले ही जाहिर हो चुकी है. ठीक है, मैं उसी के पास चली जाती हूं. तुम्हारे जैसी छोटी सोच का आदमी नहीं है वह. बहुत खुश रहूंगी,’’ उस ने गुस्से में शशांक को कौल मिला दी थी.

काम से लौटा तो शशांक मौली से किए प्रौमिस के अनुसार सीधा वहीं आया था. मौली को लाख समझाने की कोशिश की पर उस ने एक न सुनी. मलय से अनुनयविनय की पर वह भी टस से मस न हुआ.

‘‘अच्छा रुको, आंटी का नंबर दो उन से बात करता हूं, फिर उन के पास पहुंच जाना. प्रयाग की टिकट बुक करवा देता हूं. धीरज रखो,’’ शशांक ने समझाया.

‘‘नहीं, कुछ हो जाएगा उन्हें. सह नहीं पाएंगी,’’ मौली की आंखों से लगातार आंसू बहे जा रहे थे.

‘‘कुछ नहीं होगा. मैं बोलूंगा कुछ दिन के लिए मन बदलने जा रही हो. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. दोनों का गुस्सा भी शांत हो जाएगा,’’ उस ने त्योरियां चढ़ाए बैठे मलय की ओर देखा, तो वहां से उठ कर वह दूसरे कमरे में जा लेटा.

‘‘जाओ मौली, तुम भी आराम कर लो. अच्छे से सोच लो पहले. ठंडा पानी पीयो, मुझे भी पिलाओ. मैं वोल्वो बस की टिकट का इंतजाम कर के कल मिलता हूं तुम से.’’

‘‘ठीक है, प्रौमिस,’’ शशांक ने उस के हाथ पर हाथ रख दिया था. मौली जानती

थी वह झूठा प्रौमिस कभी नहीं करता.

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मौली को अच्छी तरह समझाबुझा कर शशांक निकला ही था कि रास्ते में तेज आती ट्रक से इतनी जबरदस्त टक्कर हुई कि वह उड़ता हुआ दूर जा गिरा. सिर पर गहरी चोट लगी थी, पैर में भी फ्रैक्चर महसूस हुआ, मोबाइल सड़क पर टुकड़ों में पड़ा था.

‘‘अच्छा हुआ एक पाप करने से बच गया,’’ पीड़ा में भी राहत की मुसकान उस के खून रिसे होंठों पर आ गई, फिर पूरे होश गुम हो गए. लोगों और पुलिस ने उसे अस्पताल पहुंचाया. तब तक वह कोमा में जा चुका था.

जब दूसरे दिन भी न शशांक आया न उस का फोन तो मलय ने मजाक बनाना शुरू कर दिया, ‘‘इसी दोस्त के प्रौमिस का गुणगान कर रही थी, भाग गया पतली गली से,’’ वह व्यंग्य से हंसा था.

‘‘वह करे या कोई और तुम को क्या? कहीं इसी डर से तो तलाक नहीं दे रहे, सारा किस्सा ही खत्म हो जाता.’’

‘‘कौन डरता है, कल चलो.’’

‘‘ठीक है… मुकर मत जाना,’’ मौली रोष में आश्वस्त होना चाहती थी.

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और सच में बात कहां से कहां पहुंच गई. अदालत में अर्जी फिर तलाक के बाद मौली हिम्मत कर के मायके पहुंची तो मां सदमे में थीं, पर मौली ने उन्हें संभाल लिया. लेकिन खुद को न संभाल सकी. महीने में ही दोनों का तलाक हो गया था. पर शरीर क्षीण होता ही जा रहा था उस का. उधर मलय भी इगो में भर कर तलाक लेने के बाद अब पछता रहा था. हर वक्त उस का दिल कचोटता रहता. उसे सब याद आता कि कितने दिलोजान से मौली ने मेरे बूढ़े, बीमार मांबाप की तीमारदारी की थी. इतना तो वह भी नहीं कर सका था. सभी का बातों से दिल जीत लेती, सभी उस से पूछते क्यों चली गई मौली, पर उसे कोई जवाब देते न बनता.

सब ने आना कम कर दिया. सूना सा घर सांयसांय करता. वही मलय जो जरा से शोर पर चिल्ला उठता वही आज एक आवाज को तरसता. पछतावे में खाट पकड़ ली थी उस ने. दिल कोसता हर वक्त पर ‘अब पछताए होत क्या जब चिडि़या चुग गई खेत.’ अब तो कोई पानी पूछने वाला भी नहीं था. अगर हिमानी दी को किसी ने खबर न दी होती तो यों ही दम तोड़ देता.

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