दोस्त ही भले: प्रतिभा ने शादी के लिए क्यूं मना किया

‘‘तुम गंभीरतापूर्वक हमारे रिलेशन के बारे में नहीं सोच रहे,’’ प्रतिभा ने सोहन से बड़े नाजोअंदाज से कहा.

‘‘तुम किसी बात को गंभीरतापूर्वक लेती हो क्या?’’ सोहन ने भी हंस कर जवाब दिया.

दोनों ने आज छुट्टी के दिन साथ बिताने का निर्णय लिया था और अभी कैफे में बैठे कौफी पी रहे थे. दोनों कई दिनों से दोस्त थे और बड़े अच्छे दोस्त थे.

‘‘लेती क्यों नहीं, जो बात गंभीरतापूर्वक लेने की हो. तुम मेरे सब से प्यारे दोस्त हो, मैं तुम से प्यार करती हूं, तुम्हारे साथ जीवन बिताना चाहती हूं. यह बात बिलकुल गंभीरतापूर्वक बोल रही हूं और चाहती हूं कि तुम भी गंभीर हो जाओ,’’ प्रतिभा ने आंखें नचाते हुए जवाब दिया. सोहन को उस की हर अदा बड़ी प्यारी लगती थी और इस अदा ने भी उस के दिल पर जादू कर दिया पर उस ने एक बात नोट की थी प्रतिभा के बारे में कि उस ने कई पुरुष मित्रों से मित्रता की थी पर किसी से उस की मित्रता ज्यादा दिनों तक टिकी

नहीं थी.

‘‘देखो प्रतिभा, जहां तक दोस्ती का सवाल है तो तुम मेरी सब से अच्छी दोस्त हो. तुम्हारे साथ समय बिताना मुझे बहुत पसंद है. इसीलिए मैं तुम से समय बिताने के लिए अनुरोध करता हूं और जब कभी तुम साथ में समय बिताने का कार्यक्रम बनाती हो तो झट से तैयार हो जाता हूं. पर शादी अलग चीज है. दोस्त कोई जरूरी नहीं पतिपत्नी बनें ही. मेरी कई महिलाएं दोस्त हैं. तुम्हारे भी कई पुरुष दोस्त हैं. सभी से शादी तो नहीं हो सकती. हम दोस्त ही भले हैं,’’ सोहन ने समझया.

‘‘देखो, शादी तो किसी से करनी ही है, तो क्यों न उस से करें जिस से सब से ज्यादा विचार मिलते हों. मुझे लगता है कि इस मामले में हमारी सब से अच्छी जोड़ी है,’’ प्रतिभा ने उत्तर दिया.

‘‘प्रतिभा, मैं तुम्हें वर्षों से जानता हूं और यह भी जानता हूं कि कई पुरुषों से तुम्हारी दोस्ती हुई है पर किसी के साथ तुम्हारी बहुत दिनों तक नहीं निभी. फिर मु?ा से कैसे निभा पाओगी? शायद कुछ दिनों बाद तुम्हारा दिल किसी और पर आ जाए. फिर तुम्हारी गंभीरता धरी की धरी रह जाएगी,’’ सोहन ने हंसते हुए कहा.

‘‘ऐसा नहीं होगा. दूसरों की बात और है, तुम्हारी बात और है. मैं तुम्हें दिल से चाहती हूं. अन्य लोगों से बस परिचय है, दोस्ती है,’’ प्रतिभा ने गंभीरतापूर्वक कहा.

‘‘थोड़ा समय दो मुझे सोचने के लिए. और हां, तुम भी गंभीरतापूर्वक सोचो. शादी एक गंभीर मसला है और इसे गंभीरतापूर्वक ही सोचना चाहिए,’’ सोहन ने कौफी का अंतिम घूंट लिया और कप रखते हुए खड़ा हो गया. प्रतिभा पहले ही अपनी कौफी खत्म कर चुकी थी.

‘‘चलो, पार्क में टहलते हैं,’’ सोह

खूंटियों पर लटके हुए: भाग -2

अपनी पत्नी को उस ने समझया भी कि सुरेश जरा घटिया आदमी है. उस से अधिक हंसनाबोलना अच्छा नहीं. पर उस की अक्षरा उसी को बेवकूफ कहने लगी, ‘‘वह जो भी हो, मेरा क्या ले लेता है. तुम्हारा ही तो दोस्त है, हमारा परिवार तो वही है. घर में और कौन है, जिस से हंसूंबोलूं? देवर से जरा बात कर लेती हूं तो जलने लगे हो.’’

वह अक्षरा पर किसी बात के लिए दबाव या जोर डालना पसंद नहीं करता. केवल सलाह दे देता. यह सुन कर वह चुप ही रहा.

आज सुरेश 10 बजे ही आ टपका. आते ही फरमाइश की, ‘‘भाभी, आज केक खाने का मूड है.’’

भाभी ने झट ओवन चलाया और केक बनाना शुरू कर दिया. छोटी कड़ाही चढ़ाई और हलवे की तैयारी शुरू हो गई. वह अपने कमरे में बैठा देवरभाभी के संवाद सुन कर गुस्से से भुन रहा था कि यही देवीजी हैं, उस दिन कहा कि आज जरा कटलेट तो तलना तो तुरंत नाकभौं चढ़ा कर कहने लगीं कि अभी स्कूल की कौपियां जांचनी हैं. कल उन्हें वापस करना है. पर यह लफंगा सुरेश उस से अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया.

केक को ले कर अपनी नाराजगी प्रकट करने के लिए वह एक नई पत्रिका उठा कर रसोई की तरफ चला. एक बालटी को उलटा कर रसोई में ही जमे बैठे सुरेश को अनदेखा करता वह पत्नी से बोला, ‘‘लो, इस की पहली कहानी बहुत अच्छी है, जरा पढ़ कर देखना. अरे, यह क्या बना रही हो?’’

पत्नी ने केक पर ध्यान लगाए हुए कहा, ‘‘केक खाने का मूड है सुरेश देवरजी का.’’

‘‘केक भारी होता है बहुत फैट होता है इस में, वैसे भी आज मेरा पेट ठीक नहीं है.’’

‘‘तुम मत खाना, भई. तुम्हें कौन कह रहा है. इस मैगजीन को मेरे पलंग पर रख देना. बाद में पढ़ लूंगी.’’

पत्रिका लिए वह तनतनाता लौट गया. अपने कमरे में आ कर डायरी खोली और उस में लाल स्याही से स्पष्ट अक्षरों में लिखा कि आज की तारीख से मेरा अक्षर के साथ कोई संबंध नहीं. उस के बाद वह पार्क  में चला आया.

सामने से एक गाय चरती हुई उधर ही आने लगी. उस ने घड़ी देखी, 3 बज रहे थे. अब चलना चाहिए, भूखी बैठी होगी.

घर आने पर महरी ने दरवाजा खोला. वह रसोई में बरतन साफ कर रही थी. उस ने अपना भोजन खाने की मेज पर ढका रखा देखा. कमरे में झंका, पत्नी पलंग पर लेटी पत्रिका पढ़ रही थी.

‘यह बात है,’ कड़वाहट के साथ उस ने सोचा, ‘खुद मजे से खा लिया, मेरा खाना ढका रखा है.’

उसे याद आया. विवाह के बाद शुरू के वर्षों में खुद उसी ने कई बार पत्नी को सम?ाया था कि उसे जब बहुत देर हो जाया करे तो वह भोजन कर लिया करे. बेकार की रस्मों का वह कायल नहीं है कि  पति को खिला कर ही पत्नी खाए. उस की पत्नी ने तो उस की आज्ञा का पालन ही किया है.

उसे थोड़ा संतोष हुआ. भोजन कर वह चुपके से बैठक में जा कर सोफे पर पड़ गया. एक बात खटकती रही कि कम से कम उठ कर खाना तो परोस देती, पानी दे देती.

सुरेश के रहने तक घर में अक्षरा की खिलखिलाहट गूंजती रही. अब कैसा सन्नाटा है. वह टीवी रिमोट से चैनल बदलते हुए सोचने लगा, ऐसी स्त्री के साथ अब वह जीवन बरबाद नहीं कर सकता. बीचबीच में इस पर न जाने क्या भूत चढ़ता है कि हफ्तों के लिए घर में ही अपरिचित सी हो जाती है. पर दूसरे के सामने कैसी चहकती है.

वह कितना चाहता है कि कभी फुरसत में उस की अक्षरा उस के साथ बैठे, प्यार की बातें करे. वह उस के बालों को सहलाता हुआ कहे कि तुम तो आज भी पहले दिन की तरह ही सुंदर एवं नईनवेली हो.

मगर लगता है कि अक्षरा को इन बातों को सुनने की आवश्यकता ही नहीं रही है. क्या कारण हो सकता है? संसार में कुछ भी बिना कारण के नहीं होता. उसे अकस्मात संदेह हुआ कि कोई ऐसीवैसी बात तो नहीं है. इन औरतों को समझ पाना वैसे ही टेढ़ी खीर है. उस पर नौकरीपेशा स्त्रियां तो खूब मौका पाती हैं. स्कूल में ही कितने मेल टीचर हैं. फिर शास्त्रों

में यो ही नहीं कहा गया है, ‘‘स्त्रियांश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं…’’

जरूर कोई ऐसी ही बात है, तभी आजकल उस की पत्नी को उस की जरूरत नहीं रही है. इस निश्चय पर पहुंच कर जैसे उस का मन हलका हुआ. आखिर कारण तो मिला. अब वह सावधानी से इस बात का पता लगाएगा.

अगर कोई बात पकड़ में आएगी तो वह तत्काल उसे तलाक दे देगा, किंतु हिंदू तलाक कानून तो बड़ा जटिल और झंझट वाला है. वह उठ कर किताबों की अलमारी से एक किताब निकाल लाया. ‘तलाक का कानूनी ज्ञान.’ इसे उस ने एक दिन एक बुक शौप में 400 रुपए में खरीदा था. तलाक पर लंबी व्याख्या है इस में.

वह बाहर बरामदे में बैठ कर पढ़ने लगा. इतनी बात समझ में आई कि तलाक से पहले प्राय: सालभर अलग रहने की व्यवस्था है. इस बीच में यदि दंपती का मूड बदले और मेल हो जाए तो कोई बात नहीं वरना तलाक मिल सकता है. अब डोमैस्टिक वायलैंस और संपत्ति में हिस्से की बात भी बहुत ज्यादा होने लगी है. जेल जाने की नौबत मिनटों में आ सकती है.

उस ने सोचा मान लो यह अक्षरा सुरेश या किसी ऐसे ही लोफर के साथ चल देती है तो ही छुटकारा मिलेगा. एक दिन उसे लौट कर यहीं आना पड़ेगा. तब वह क्या करेगा?

उसी वक्त लात मार कर निकाल देगा. फिर उस ने शहीदों के भाव से सोचा कि जब वह आ कर मेरे कदमों पर गिरेगी तो सारी भूल क्षमा कर मैं उसे उठा कर गले से लगा लूंगा.

तब वह समझेगी, मेरा दिल कितना बड़ा है. तब तो हर बात में मेरा मुंह देखेगी, जो कहूंगा तुरंत मानेगी. तब घर में वास्तविक सुखशांति छा जाएगी.

लोग क्या कहेंगे, उस ने फिर सोचा. वह लोगों के कहने पर ध्यान न देगा. वह समाज का गुलाम नहीं है. न अब हुक्कापानी, नाई, धोबी बंद करने का जमाना है. नई पीढ़ी उसे कितनी श्रद्धा से देखेगी. वह उस का आदर्श बन जाएगा. संभव है, अखबारों में भी चर्चा हो, देश के बड़े लोग उसे आशीर्वाद देंगे.

रसोई में खटपट की आवाज आ रही थी. उस ने घड़ी देखी, 4 बज रहे थे. तभी परदा हटा कर उस की पत्नी ने बैठक में प्रवेश किया. उस ने उस की तरफ स्नेह, ममता एवं क्षमाभाव से देखा. पर पत्नी का चेहरा तो वैसे ही खिंचा रहा. वह सामने की तिपाई कर चाय का कप रख कर लौट गई.

उस ने सोचा कि ये औरतें नाक के नीचे के हीरे को न पहचान कर दूर की कौड़ी के चक्कर में खुद तो तबाह होती ही हैं, दूसरों को भी तनाव में रखती हैं.

दूसरे दिन वह ठीक 10 बजे दफ्तर के लिए निकला तो चौराहे पर रेस्तरां के सामने बाइक रोकी. भीतर जा कर एक चाय मंगवा कर यों बैठा कि सामने की सड़क पर छिपी दृष्टि डालता रहे. उस की पत्नी स्कूल के लिए 10 बजे चलती है. पैदल ही जाती है, अधिक दूर नहीं है स्कूल. तभी वह सामने सड़क पर दिख पड़ी.

हाथ में कौपियों का एक बंडल और कंधे पर बैग संभाले. वह बिल चुका कर उठ खड़ा हुआ. काफी दूर से बाइक हाथ में संभाले पीछा करते हुए उसे जासूसी का मजा आ रहा था.

छोड़ो कल की बातें: कृति के अतीत के बारे में क्या जान गया था विशाल?

विशाल को सूरज के व्यवहार पर बड़ा क्रोध आया. माना कि वह उस का काफी करीबी मित्र है पर इस का यह मतलब तो नहीं कि वह जब चाहे जैसा चाहे व्यवहार करे. आज किसी बात पर बौस ने जब उसे झिड़का तो सामने तो वह चुप रहा पर बाद में मजाक उड़ाने लगा. वह उसे समझता रहा पर वह उसे चिढ़ाता ही रहा. अंत में उस ने उसे काफी खरीखोटी सुना दी. जवाब में उस ने जो कहा वह सुन उस का माथा चकरा गया. उस ने कहा, ‘‘तुम्हारी गर्लफ्रैंड कृति ने तुम से पहले मुझे प्रोपौज किया था. जिसे तुम अपनी गर्लफ्रैंड समझ रहे हो वह सैकंड हैंड गर्लफ्रैंड है.’’

पहले तो यह सुन कर सन्न रह गया था वह पर उसे लगा उस की डांट के जवाब में उस ने गुस्से में यह बात कह दी है. वह सिर्फ उसे दुखी करने के लिए ऐसा कह रहा है. विश्वास उसे नहीं हुआ था उस की बात पर परंतु संदेह तो हो ही गया था. लोगों ने बीचबचाव कर उन्हें अलग कर दिया.

विशाल के मन में संदेह का बीज उपज चुका था. उस ने पहले तो सोचा कि कौल कर कृति से पूछ लिया जाए. पर कुछ सोच कर वह व्यक्तिगत रूप से मिल कर ही उस से बात करना चाहता था. दिनरात उस के मन में यही विचार आ रहे थे कि कृति जिसे वह अपनी गर्लफ्रैंड, अपनी प्रेमिका समझता है वह किसी और को चाहती है.

दोनों प्राय: हर छुट्टी के दिन मिलते थे और घंटों साथ बिताते थे. अगली छुट्टी के दिन जब विशाल की मुलाकात कृति से हुई तो वह कुछ अनमना सा था. कृति को उस का व्यवहार कुछ अटपटा सा लगा.

‘‘क्या बात है विशाल, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’ कृति ने पूछा.

‘‘तबीयत तो ठीक है पर एक प्रश्न है जो मुझे परेशान कर रहा है. मुझे तुम से उस का जवाब चाहिए,’’ विशाल ने कहा.

‘‘मुझ से? ऐसा कौन सा प्रश्न है जिस का जवाब मुझ से चाहिए? मैं कोई प्रोफैसर हूं क्या?’’ कृति ने बात को हलके में लिया और हंसती हुई बोली.

‘‘यह प्रश्न तुम से ही संबंधित है अत: जवाब भी तुम्हीं से चाहिए,’’ विशाल ने कहा.

कृति अब गंभीर हो गई. वह विशाल के लहजे से समझ गई कि जरूर कोई गंभीर मुद्दा है. बोली, ‘‘पूछो.’’

‘‘क्या यह सही है कि तुम सूरज से प्यार करती हो?’’ विशाल ने पूछा.

कृति सकपका गई. उसे तुरंत कोई जवाब नहीं सुझा. वह थोड़ी देर विशाल को देखती रही. फिर बोली, ‘‘ऐसा क्यों पूछ रहे हो?’’

‘‘मुझ से सूरज ने कहा है कि तुम मुझ से पहले उस से प्यार करती थी,’’ विशाल ने कहा.

कृति तुरंत कुछ न कह सकी. पर बात झूठी भी नहीं थी और सूरज ने जब विशाल

से यह बात बता ही दी है तो वह लाख मना करे विशाल शायद न माने. पर उस ने कहा, ‘‘मैं अभी भी सूरज को पसंद करती हूं. पहले भी मैं उस के साथ ही बार बाहर कौफी पीने जा चुकी हूं. लेकिन मैं उस से ज्यादा तुम से प्यार करती हूं. यही कारण है कि मैं तुम्हारे साथ हूं,’’ कृति ने कहा.

विशाल बस उसे देखता रहा. शायद वह कृति की बात पर विश्वास नहीं कर पा रहा था. उसे संदेह था कि कृति आज भी सूरज को चाहती है और उसे धोखा दे रही है. वह अनमना सा कृति के साथ घूमता रहा. कृति हमेशा की तरह उस के हाथ को अपने हाथ में ले कर चलती तो वह अपना हाथ खींच लेता. कृति उस के कंधे पर सिर रखती तो वह कोई प्रतिक्रिया नहीं करता.

पहले दिन तो कृति ने कुछ नहीं कहा पर बाद में भी जब विधाता का व्यवहार ऐसा ही रहा तो उस ने उसे सम?ाया, ‘‘किसी को पसंद करना और किसी से प्यार करना अलगअलग बात है. मैं सूरज को और कई लोगों को पसंद करती हूं. उन के साथ कभीकभार कौफी पीने, मूवी देखने भी जाती हूं पर प्यार मैं तुम से करती हूं इसलिए हर छुट्टी का दिन तुम्हारे साथ ही बिताती हूं.’’

मगर उस की बातों का विशाल पर कोई असर नहीं पड़ता और कृति धीरेधीरे नाराज रहने लगी. विशाल भी उस से दूरी बना कर रहने लगा. इस बीच सूरज ने विशाल से माफी मांग ली और दोनों फिर से पहले की तरह ही रहने लगे. पर कृति के प्रति विशाल के मन में अभी भी वही नाराजगी की भावना थी. उस के मन में उस के साथ ब्रेकअप करने का विचार आने लगा. वैसे एक मन यह भी कहता था कि कृति की बात को वह मान ले और उस के साथ पहले की तरह जीवन बिताए. पर पता नहीं क्यों वह इस बात के लिए कुछ ही देर तक तैयार होता था.

कुछ ही देर में संदेहरूपी सांप अपना फन उठा लेता था. सूरज भी उन के बीच आई दरार के लिए खुद को दोषी मानता था पर कृति के प्रति विशाल के मन में आए विचार के लिए वह कर ही क्या सकता था. जो बात जबान से निकाल गई उसे वापस तो लिया नहीं जा सकता था.

घर में भी विशाल का व्यवहार बदलाबदला सा रहने लगा. उस की मां इस बदलाव को महसूस कर रही थीं. उन्होंने 2 बार उस से पूछ भी कि माजरा क्या है. पर विशाल उन की बातों को टाल जाता.

एक दिन उस की मां ने पूछ ही लिया, ‘‘पहले तो कृति से बातें किया करता था. मैं कई बार मना भी करती थी कि वक्तबेवक्त क्यों बातें करता रहता है फोन पर. किसी बात को ले कर तुम्हारे बीच झगड़ा हो गया है क्या? इसी कारण तुम असामान्य व्यक्ति की तरह हरकत करते हो?’’

‘‘कुछ नहीं मां. तुम तो बिना बात संदेह करती हो,’’ विशाल ने टालना चाहा. पर मां के बारबार जिद करने पर उसे बताना ही पड़ा कि माजरा क्या है.

इस पर उस की मां ने उसे समझया, ‘‘वह जो कह रही है तुम्हें मानना चाहिए. आखिर

क्या वजह है तुम्हारे पास उस की बात नहीं मानने की? वह तुम्हारे दोस्त के बारे में क्या विचार रखती है इस से क्या मतलब है. इस बात से मतलब रखो कि वह तुम्हारे बारे में क्या विचार रखती है और फिर एक बार और सोचो कि जब तुम अपने दोस्त को माफ कर के उस के साथ सामान्य संबंध रख सकते हो तो फिर अपनी प्रेमिका के साथ सामान्य संबंध क्यों नहीं रख सकते?

आखिर वह तुम्हारे साथ है तो किसी कारण से ही है और दूसरा कारण क्या हो सकता है इस के अलावा कि वह तुम से प्यार करती है. वह पढ़ीलिखी है, आत्मनिर्भर है तुम्हारे ऊपर आश्रित नहीं है, फिर भी तुम्हारे साथ क्यों है तुम्हारी उदासीनता को सहते हुए भी. तुम दोनों वयस्क हो. मिलबैठ कर बातें करो, एकदूसरे को समझ.’’

विशाल अपनी मां को देखे जा रहा था. कितनी सुलझी हुई बात कह रही थीं वे विशाल की मां ने कहना जारी रखा, ‘‘कैसे अपने संबंध को मजबूत बनाना है इस पर विचार करो.’’

विशाल के मन में कृति के प्रति जो कड़़वे विचार थे वे धीरेधीरे मधुर होते गए. उस ने फैसला किया कि वह इस बात पर ध्यान देगा कि अभी दोनों का एकदूसरे के प्रति क्या नजरिया है. भूतकाल की बातों को अपने बीच नहीं आने देगा.

खूंटियों पर लटके हुए: भाग -1

वह झल्लाता हुआ अपने कमरे में वापस आया और पत्रिका जोर से मेज पर पटक दी, ‘‘क्या पड़ी थी मुझे जो पत्रिका देने चला गया था. अपनी तरफ से कुछ करो तो यह नखरे करने लगती है. सुरेश के सामने ही बुराभला कह डाला. मेरी बला से जहन्नुम में जाए.’’

फिर कुछ संयत हो कर उस ने दराज में रखी डायरी उठाई और उस में कुछ लिखने के बाद 2-4 बार उलटीसीधी कंघी बालों में चलाई और फिर कौलर को सीधा करता हुआ बाहर चल दिया कि आज खाने का वक्त गुजार कर ही घर लौटूंगा. देखूं, मैडम क्या करती हैं. अभी तो कई जोरदार पत्ते मेरे हाथ में हैं.

ड्राइंगरूम से बाहर निकलते हुए उसे सुरेश के जोरदार ठहाके की आवाज सुनाई पड़ी. वह पलभर को ठिठका. गुस्से की एक लहर सी दिमाग में उठी, पर फिर सिर झटक कर तेज कदमों से बाहर निकल आया.

जाड़ों के दिन थे. 11 बजे भी ऐसा लग रहा था, जैसे अभी थोड़ी देर पहले ही सूरज निकला हो. वैसे भी रविवार का दिन होने से सड़क पर ट्रैफिक कम था. उसे छुट्टी की खुशी के बदले कोफ्त हुई. औफिस खुला रहता तो वहीं जा बैठता.

बाइक पर बैठ कर कुछ दूर जा कर फिर दाएं मुड़ गया. इस समय लोधी गार्डन ही अच्छी जगह है बैठने की, वहीं आराम किया जाए. फिर वह एक बैंच पर जा लेटा. सामने का नजारा देख उसे अक्षरा की याद आने लगी. जिधर देखो जोड़े गुटरगूं में लगे थे.

वह सोचने लगा कि सभी तो कामदेव के हाथों पराजित हैं. मैं ने भी यदि शादी न की होती तो चैन रहता. आज छुट्टी होते हुए भी यों पार्क में तो न लेटना पड़ता. दोस्तों के साथ कहीं घूमता. अब अक्षरा से शादी के बाद किसी के यहां अकेले भी नहीं जा सकता.

अतिरिक्त आवेग में वह अमेरिका जाने के बारे में विचार करने लगा. फिर सोचने लगा कि पहले जैसी बात तो अब है नहीं, अमेरिका में नौकरियां कौन सी आसानी से मिलती हैं. नहीं मैं अमेरिका नहीं जा सकता. फिर बबलू को कैसे देखूंगा?

फिर कड़वाहट से बुदबुदाया कि मैं अमेरिका ही चला जाता हूं. बेटे से मेरा क्या मतलब… दुनिया की नजर में मैं बाप हूं, पर

घर में कोई घास नहीं डालता. जहन्नुम में जाएं सब. इस बात से उसे हमेशा हैरानी हुई है कि क्या सभी लड़कियां ऐसी ही होती हैं? जहां अपने पति को देखा कि नाकभौंहें के चढ़ जाती हैं. लेकिन बाहरी लोगों के आगे कैसी मधुरता और विनम्रता की अवतार बन जाती हैं.

इधर सालभर से तो मैडम कभी झल्लाए और चिढ़े बिना बात ही नहीं करतीं. ये तेवर तो तब हैं, जब मैं कमा रहा हूं. यदि बेकार होता और सिर्फ बीवी की कमाई से ही घर चल रहा होता, तब तो मेरी स्थिति गुलामों से भी बदतर होती.

वह अपनी कमाई से साडि़यां लाती है, बच्चों के कपड़ों पर खर्र्च करती है, बैंक में डालती है. घर का सारा खर्च तो मैं ही चलाता हूं. इतना घमंड किस बात का है.

उस ने उंगलियों पर हिसाब किया. यह छठा दिन है. आज से 6 दिन पहले वह उसे रेस्तरां ले गया था. खाना बहुत अच्छा था और मूड भी अच्छा था. लौटते वक्त रास्ते में उस ने चमेली के फूलों का गजरा खरीदा. मन बहुत खुश था. वह एक पुराना गीत गुनगुनाता रहा था, ‘‘गोरी मो से जमना के पार मिलना…’’

घर आ कर कपड़े बदलने के बाद वह फिर ड्रैसिंगटेबल के आगे खड़ी हो कर गालों पर क्लींजिंग क्रीम लगाने लगी. उस ने मूड में आ कर पीछे से उस की गरदन चूमते हुए कुछ कहना चाहा. तभी अक्षरा ने गरदन ?ाटक दी. एक हाथ से गरदन को झड़ कर उस की तरफ यों घूर कर देखा जैसे वह कोई अपरिचित हो और अनधिकार वहां घुसा हो. वह फिर शीशे में देख कर क्रीम लगाने लगी.

उस का बनाबनाया मूड पलभर में बिखर गया. नशा टूटने पर अफीमची को जैसा अनुभव होता है, वैसा ही लगा. मन में खिलते गुलाब, चमेली, चंपा के तमाम फूल तत्काल मुर?ा गए. इन औरतों को बैठेबैठे यों ही क्या हो जाता है, समझना कठिन है.

चेहरा सख्त बनाए हुए उस ने भी कपड़े बदले. स्टडीरूम में आ कर टेबललैंप जलाया और यों ही एक मोबाइल उठा कर देखने लगा. उस की आंखें जरूर मोबाइल पर थीं, पर कान पत्नी की जरा सी भी आहट को लपकने को तैयार थे.

जब बैडरूम की बत्ती बुझ तो वह धीरे से उठा. बाहरी कमरों के चक्कर लगा कर दरवाजे सब देख लिए. बैडरूम का दरवाजा बंद हैं या नहीं धीरे से बंद कर वह भी पलंग पर आ लेटा. सिरहाने चमेली का गजरा रख दिया. खिड़की से आ रही हलकी लाइट पलंग पर पड़ रही थी. सिरहाने रखे गजरे की सुगंध फैलने लगी.

अक्षरा उस की तरफ पीठ फेरे दूसरे किनारे पर सो रही थी. चांदनी के हलके आभास में वह उस की समान गति से उठतीगिरती पीठ और कंधे देख रहा था.

यों ही थोड़ी देर देखते रहने के बाद उस ने जरा लापरवाही के साथ एक हाथ अक्षरा की कमर पर रख दिया. श्वास में थोड़ा सा अंतर पड़ा. उस ने अक्षरा की पीठ को थोड़ा सहलाया और उसे धीरे से अपनी तरफ खींचना चाहा.

तभी वह झटके के साथ उठ बैठी. झनझन कर बोली, ‘‘क्यों तंग कर रहे हो? दिनभर की थकी हूं, रात में भी चैन नहीं लेने देते.’’

हलके अंधेरे में उस की आंखें बिल्ली की तरह चमक रही थीं. उस ने कुछ कहने का प्रयास किया, पर तब तक वह और परे खिसक कर पीठ फेर कर लेट गईर् थी. शादी से पहले

तो जब भी मौका मिलता था वह लपक कर बांहों में समा जाती थी, शादी हुई नहीं कि तेवर बदल गए.

वह कमरे की छत को घूरता रहा. मन कर रहा था, अक्षरा को खींच कर उठाए, कस कर दो ?ापड़ लगाए और पीठ फेर कर लेट जाए. पर आज का आदमी या तो बड़ा कायर है या आवश्यकता से अधिक सभ्य हो गया है. उसे अंगरेजी की एक पत्रिका में छपा कार्टून याद आया, जिस में आदिम युग का एक जंगली सा पुरुष कंधे पर मोटे से तने की अनगढ़ गदा रखे, चमड़ा कमर में लपेटे एक स्त्री के बाल पकड़ कर उसे खींचे लिए जा रहा है. स्त्री की कमर में भी चमड़े का वस्त्र लिपटा है, वह जमीन पर पड़ी घिसटती जा रही है.

एक वह जमाना था. आज हम सभ्य हो गए हैं. आपसी संबंधों में सरलता की जगह जटिलताएं आ गई हैं. वह सोचने लगा कि मैं उस जमाने में हुआ होता तो अच्छा रहता. रात में पता नहीं उसे कब नींद आई.

उस दिन से यही दिनचर्या है. बहुत सोचने पर भी वह इस तरह के व्यवहार का कारण सम?ा नहीं पाया. दिनभर पत्नी सामान्य कामकाजी बातों के अलावा उस से कुछ नहीं कहतीसुनती. रात में दोनों एक पलंग पर यों सोते हैं जैसे बीच में कोसों की दूरी हो.

आज सुरेश आया तो उस ने पत्नी को हफ्ते भर में पहली बार जरा हंसतेबोलते सुना. सुरेश उस के साथ स्कूल और कालेज में पढ़ा था. अब वह उसे जरा भी नहीं सुहाता. उस के तौरतरीके घटिया, बाजारू से लगते. खासतौर पर उस की हमेशा माउथ फ्रैश खाते रहने की आदत से वह बहुत चिढ़ता. पर उस की पत्नी उसे बड़े प्यार से ‘देवरजी’ और वह ‘भाभी’ कहता. उसे तो उस का आना ही नहीं सुहाता.

साथ: भाग 3- पति से दूर होने के बाद कौन आया शिवानी की जिंदगी में

भारी मन से मैं घर से साहिल के घर पहुंच गई. वहां काफी भीड़ थी. शाम को मन न होते हुए भी पार्टी में जाना पड़ा, पर सारा वक्त मन साहिल के खयाल में ही डूबा रहा. मांजी को गुजरे हुए 13 दिन हो गए तो साहिल ने औफिस आना शुरू कर दिया. हमारा मिलनाजुलना फिर शुरू हो गया. मैं ने

महसूस किया कि अब हम पहले से ज्यादा करीब आ चुके थे. जो प्यार व सम्मान मुझे अमन से नहीं मिला था वह साहिल ने मुझे दिया था.

एक दिन साहिल ने मुझ से कहा, ‘‘शिवी, मां के जाने के बाद मैं बिलकुल अकेला हो गया हूं. तुम मेरे पास आ जाओ तो हम अपनी दुनिया बसाएंगे.’’

मैं बहुत खुश हो गई. मुझे उस वक्त अमन का खयाल तक नहीं आया. मैं ने साहिल से कुछ वक्त मांगा. उस शाम मैं जब घर पहुंची तो अमन पहले ही घर आ चुके थे. उन्होंने मुझे बताया कि अगले दिन मम्मीपापा कुछ दिनों के लिए हमारे पास आ रहे हैं. मैं ने साहिल से फोन पर कहा कि मैं कुछ दिन नहीं मिल पाऊंगी.

सासससुर के घर में आते ही मेरा सारा ध्यान घर पर लग गया. अमन भी अब जल्दी घर आ जाते थे. मैं साहिल से फोन पर भी ठीक से बात नहीं कर पा रही थी. एक दिन मौका पा कर मैं ने साहित से बात की.

फोन उठाते ही वह बोला, ‘‘शिवी, प्लीज मेरे साथ ऐसा मत करो. तुम जानती हो कि मैं तुम्हारे बिना अब नहीं रह सकता.’’

‘‘साहिल तुम समझने कोशिश करो. घर पर मम्मीपापा हैं, उन को वापस जाने दो फिर हम मिलेंगे,’’ मैं ने उसे समझया.

‘‘शिवी, मां के जाने के बाद तुम ही मेरा सहारा हो. प्लीज, एक बार मिलने आ जाओ,’’ उस ने मुझ से कहा.

‘‘मैं कोशिश करती हूं. बाय, मांजी बुला रही हैं,’’ मैं ने जल्दी से फोन काट दिया.

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आज जब मांपापा के घर होने के कारण मैं साहिल से ठीक से बात तक नहीं कर पा रही हूं तो अमन से तलाक की बात मैं कैसे करूंगी? फिर जब मेरे मम्मीपापा, भैयाभाभी यहां आएंगे तो उन को क्या कहूंगी? अमन को मुझ में जो कमियां दिखती थीं वे तो मैं ने दूर कर ली थीं. अब हमारे बीच कोई लड़ाई नहीं होती थी. क्या कहूंगी सब को कि एक सहकर्मी से प्यार हो गया?

मैं सारी रात परेशान रही. सुबह बिस्तर से उठी तो चक्कर खा कर गिर पड़ी. अमन ने मुझे संभाला. आंख खुली तो बिस्तर पर निढाल पड़ी थी और अमन मेरा सिर दबा रहे थे. सासूमां चाय का कप ले कर हमारे कमरे में दाखिल हुईं.

‘‘बहू, अब से तू बस आराम कर,’’ उन्होंने मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुझे कुछ करने की जरूरत नहीं है. मैं ने तेरे पापा से कह दिया कि अब जब तक पोते का मुंह नहीं देख लेती मैं वापस नहीं जाने वाली,’’ उन का चेहरा यह कहतेकहते चमक रहा था.

‘‘पोता?’’ मैं ने हैरानी से पूछा.

‘‘हां मैडमजी पोता, पर मां मुझे बेटी चाहिए बिलकुल शिवानी जैसी,’’ अमन ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा. उन के चेहरे पर ऐसी खुशी मैं ने पहले कभी नहीं देखी थी. मेरी समझ में अब सारी बात आ चुकी थी. मैं मां बनने जा रही थी.

‘‘मेरी सासूमां ने मेरी नजर उतारी. उस दिन तो फोन पर फोन आते रहे. कभी मम्मी का, कभी दीदी का, कभी बूआ का तो कभी भाभी का. सब मुझ पर स्नेह और शुभकामनाओं की बौछार कर रहे थे और ढेर सारी नसीहतें भी दे रहे थे. सारा दिन कैसे गुजरा पता ही नहीं चला. मुझे साहिल का खयाल भी नहीं आया. रात को जब साहिल का फोन आया तो मैं फिर परेशान हो गई. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं? मैं बहक गई थी पर भटकी नहीं थी. मुझे साहिल से मिलना जरूरी हो गया था.’’

अगले दिन मैं ने अमन से कहा कि मुझे  जौब से इस्तीफा देना है, तो उन्होंने भी साथ चलने को कहा. पर उन्हें समझबुझकर मैं अकेली ही निकली और सीधे साहिल के पास पहुंच गई.

‘‘शिवी तुम… तुम नहीं जानतीं मैं कितना खुश हूं तुम को देख कर,’’ साहिल ने दरवाजे पर ही मुझे गले लगा लिया.

‘‘साहिल, मैं तुम से कुछ कहने आई हूं,’’ मैं ने उसे अपने से दूर करते हुए कहा.

‘‘क्या बात है शिवी, तुम परेशान लग रही हो?’’ साहिल ने शायद मेरे चेहरे को पढ़ लिया था, ‘‘अंदर आओ पहले तुम.’’

हम दोनों अब घर के अंदर थे. मैं ने एक ही सांस में साहिल को अपने मां बनने की बात कह दी और अपनी परेशानी भी.

‘‘देखो शिवी, तुम को परेशान होने की जरूरत नहीं है. मैं थोड़ा भटक गया था, भूल गया था कि तुम पर मुझ से पहले किसी

और का हक है. तुम बिलकुल परेशान मत होना शिवी, मैं तुम से बहुत दूर चला जाऊंगा. बस तुम खुश रहो,’’ साहिल की आंखें भर चुकी थीं.

मैं ने साहिल का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘साहिल, हमारा रिश्ता साथ रहने से ही बनता? तुम मेरी जिंदगी की सब से बड़ी हिम्मत हो और मैं चाहती हूं कि तुम हमेशा मेरी हिम्मत बने रहो. हम साथ रह नहीं सकते तो क्या हुआ, साथ निभा तो सकते हैं. एकदूसरे का सहारा तो बन सकते हैं. तुम चाहो तो शादी कर सकते हो, पर मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगी. हम दोस्त बन कर रहेंगे. सुखदुख में एकदूसरे का सहारा बनेंगे.

‘‘मैं मानती हूं कि समाज इस रिश्ते को सही नहीं मानेगा पर चंद लोगों की सोच के लिए हम अपनी खुशियों को नहीं मारेंगे. बोलो तुम मेरा साथ दोगे?’’

‘‘शिवी, मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं, एक साए की तरह,’’ साहिल के चेहरे पर चमक आ गई.

आज 5 वर्षों के बाद भी मैं और साहिल साथ हैं. एकदूसरे के सहारे की तरह. साहिल की शादी हो चुकी है. हम दोनों अपने परिवार में खुश हैं, क्योंकि हम एकदूसरे के साथ हैं. अगर हम एकदूसरे के साथ नहीं होते तो शायद हम अपने घर में भी खुश नहीं होते.

बरसों की साध: जब सालों बाद से मि भाभी रूपमती की मुलाकात ने क्या लिया मोड़?

प्रशांत को जब अपने मित्र आशीष की बेटी सुधा के साथ हुए हादसे के बारे में पता चला तो एकाएक उसे अपनी भाभी की याद आ गई. जिस तरह शहर में ठीकठाक नौकरी करने वाले मित्र के दामाद ने सुधा को छोड़ दिया था, उसी तरह डिप्टी कलेक्टर बनने के बाद प्रशांत के ताऊ के बेटे ईश्वर ने भी अपनी पत्नी को छोड़ दिया था. अंतर सिर्फ इतना था कि ईश्वर ने विदाई के तुरंत बाद पत्नी को छोड़ा था, जबकि सुधा को एक बच्चा होने के बाद छोड़ा गया था.

आशीष के दामाद ने उन की भोलीभाली बेटी सुधा को बहलाफुसला कर उस से तलाक के कागजों पर दस्तखत भी करा लिए थे. सुधा के साथ जो हुआ था, वह दुखी करने और चिंता में डालने वाला था, लेकिन इस में राहत देने वाली बात यह थी कि सुधा की सास ने उस का पक्ष ले कर अदालत में बेटे के खिलाफ गुजारेभत्ते का मुकदमा दायर कर दिया था.

अदालत में तारीख पर तारीख पड़ रही थी. हर तारीख पर उस का बेटा आता, लेकिन वह मां से मुंह छिपाता फिरता. कोर्टरूम में वह अपने वकील के पीछे खड़ा होता था.

लगातार तारीखें पड़ते रहने से न्याय मिलने में देर हो रही थी. एक तारीख पर पुकार होने पर सुधा की सास सीधे कानून के कठघरे में जा कर खड़ी हो गई. दोनों ओर के वकील कुछ कहतेसुनते उस के पहले ही उस ने कहा, ‘‘हुजूर, आदेश दें, मैं कुछ कहूं, इस मामले में मैं कुछ कहना चाहती हूं.’’

अचानक घटी इस घटना से न्याय की कुरसी पर बैठे न्यायाधीश ने कठघरे में खड़ी औरत को चश्मे से ऊपर से ताकते हुए पूछा, ‘‘आप कौन?’’

वकील की आड़ में मुंह छिपाए खडे़ बेटे की ओर इशारा कर के सुधा की सास ने कहा, ‘‘हुजूर मैं इस कुपुत्र की मां हूं.’’

‘‘ठीक है, समय आने पर आप को अपनी बात कहने का मौका दिया जाएगा. तब आप को जो कहना हो, कहिएगा.’’ जज ने कहा.

‘‘हुजूर, मुझे जो कहना है, वह मैं आज ही कहूंगी, आप की अदालत में यह क्या हो रहा है.’’ बहू की ओर इशारा करते हुए उस ने कहा, ‘‘आप इस की ओर देखिए, डेढ़ साल हो गए. इस गरीब बेसहारा औरत को आप की ड्योढ़ी के धक्के खाते हुए. यह अपने मासूम बच्चे को ले कर आप की ड्योढ़ी पर न्याय की आस लिए आती है और निराश हो कर लौट जाती है. दूसरों की छोडि़ए साहब, आप तो न्याय की कुरसी पर बैठे हैं, आप को भी इस निरीह औरत पर दया नहीं आती.’’

न्याय देने वाले न्यायाधीश, अदालत में मौजूद कर्मचारी, वकील और वहां खडे़ अन्य लोग अवाक सुधा की सास का मुंह ताकते रह गए. लेकिन सुधा की सास को जो कहना था. उस ने कह दिया था.

उस ने आगे कहा, ‘‘हुजूर, इस कुपुत्र ने मेरे खून का अपमान किया है. इस के इस कृत्य से मैं बहुत शर्मिंदा हूं. हुजूर, अगर मैं ने कुछ गलत कह दिया हो तो गंवार समझ कर माफ कर दीजिएगा. मूर्ख औरत हूं, पर इतना निवेदन जरूर करूंगी कि इस गरीब औरत पर दया कीजिए और जल्दी से इसे न्याय दे दीजिए, वरना कानून और न्याय से मेरा भरोसा उठ जाएगा.’’

सुधा की सास को गौर से ताकते हुए जज साहब ने कहा, ‘‘आप तो इस लड़के की मां हैं, फिर भी बेटे का पक्ष लेने के बजाए बहू का पक्ष ले रही हैं. आप क्या चाहती हैं इसे गुजारे के लिए कितनी रकम देना उचित होगा?’’

‘‘इस लड़की की उम्र मात्र 24 साल है. इस का बेटा ठीक से पढ़लिख कर जब तक नौकरी करने लायक न हो जाए, तब तक के लिए इस के खर्चे की व्यवस्था करा दीजिए.’’

जज साहब कोई निर्णय लेते. लड़के के वकील ने एक बार फिर तारीख लेने की कोशिश की. पर जज ने उसी दिन सुनवाई पूरी कर फैसले की तारीख दे दी. कोर्ट का फैसला आता, उस के पहले ही आशीष सुधा की सास को समझाबुझा कर विदा कराने के लिए उस की ससुराल जा पहुंचा. मदद के लिए वह अपने मित्र प्रशांत को भी साथ ले गया था कि शायद उसी के कहने से सुधा की सास मान जाए.

उन के घर पहुंचने पर सुधा की सास ने उन का हालचाल पूछ कर कहा, ‘‘आप लोग किसलिए आए हैं, मुझे यह पूछने की जरूरत नहीं है. क्योंकि मुझे पता है कि आप लोग सुधा को ले जाने आए हैं. मुझे इस बात का अफसोस है कि मेरे समधी और समधिन को मेरे ऊपर भरोसा नहीं है. शायद इसीलिए बिटिया को ले जाने के लिए दोनों इतना परेशान हैं.’’

‘‘ऐसी बात नहीं हैं समधिन जी. आप के उपकार के बोझ से मैं और ज्यादा नहीं दबना चाहता. आप ने जो भलमनसाहत दिखाई है वह एक मिसाल है. इस के लिए मैं आप का एहसान कभी नहीं भूल पाऊंगा.’’ आशीष ने कहा.

सुधा की सास कुछ कहती. उस के पहले ही प्रशांत ने कहा, ‘‘दरअसल यह नहीं चाहते कि इन की वजह से मांबेटे में दुश्मनी हो. इन की बेटी ने तलाक के कागजों पर दस्तखत कर दिए हैं. उस हिसाब से देखा जाए तो अब उसे यहां रहने का कोई हक नहीं है. सुधा इन की एकलौती बेटी है.’’

‘‘मैं सब समझती हूं. मेरे पास जो जमीन है उस में से आधी जमीन मैं सुधा के नाम कर दूंगी. जब तक मैं जिंदा हूं, अपने उस नालायक आवारा बेटे को इस घर में कदम नहीं रखने दूंगी. सुधा अगर आप लोगों के साथ जाना चाहती है तो मैं मना भी नहीं करूंगी.’’ इस के बाद उस ने सुधा की ओर मुंह कर के कहा, ‘‘बताओ सुधा, तुम क्या चाहती हो.’’

‘‘चाचाजी, आप ही बताइए, मां से भी ज्यादा प्यार करने वाली अपनी इन सास को छोड़ कर मैं आप लोगों के साथ कैसे चल सकती हूं.’’ सुधा ने कहा.

सुधा के इस जवाब से प्रशांत और आशीष असमंजस में पड़ गए. प्रशांत ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘मां से भी ज्यादा प्यार करने वाली सास को छोड़ कर अपने साथ चलने के लिए कैसे कह सकता हूं.’’

‘‘तो फिर आप मेरी मम्मी को समझा दीजिएगा.’’ आंसू पोंछते हुए सुधा ने कहा.

‘‘ऐसी बात है तो अब हम चलेंगे. जब कभी हमारी जरूरत पड़े, आप हमें याद कर लीजिएगा. हम हाजिर हो जाएंगे.’’ कह कर प्रशांत उठने लगे तो सुधा की सास ने कहा, ‘‘हम आप को भूले ही कब थे, जो याद करेंगे. कितने दिनों बाद तो आप मिले हैं. अब ऐसे ही कैसे चले जाएंगे. मैं तो कब से आप की राह देख रही थी कि आप मिले तो सामने बैठा कर खिलाऊं. लेकिन मौका ही नहीं मिला. आज मौका मिला है. तो उसे कैसे हाथ से जाने दूंगी.’’

‘‘आप कह क्या रही हैं. मेरी समझ में नहीं आ रहा है?’’ हैरानी से प्रशांत ने कहा.

‘‘भई, आप साहब बन गए, आंखों पर चश्मा लग गया. लेकिन चश्मे के पार चेहरा नहीं पढ़ पाए. जरा गौर से मेरी ओर देखो, कुछ पहचान में आ रहा है?’’

प्रशांत के असमंजस को परख कर सुधा की सास ने हंसते हुए कहा, ‘‘आप तो ज्ञानू बनना चाहते थे. मुझ से अपने बडे़ होने तक राह देखने को भी कहा था. लेकिन ऐसा भुलाया कि कभी याद ही नहीं आई.’’

अचानक प्रशांत की आंखों के सामने 35-36 साल पहले की रूपमती भाभी का चेहरा नाचने लगा. उस के मुंह से एकदम से निकला, ‘‘भाभी आप…?’’

‘‘आखिर पहचान ही लिया अपनी भाभी को.’’

गहरे विस्मय से प्रशांत अपनी रूपमती भाभी को ताकता रहा. सुधा का रक्षाकवच बनने की उन की हिम्मत अब प्रशांत की समझ में आ गई थी. उन का मन उस नारी का चरणरज लेने को हुआ. उन की आंखें भर आईं.

रूपमती यानी सुधा की सास ने कहा, ‘‘देवरजी, तुम कितने दिनों बाद मिले. तुम्हारा नाम तो सुनती रही, पर वह तुम्हीं हो, यह विश्वास नहीं कर पाई आज आंखों से देखा, तो विश्वास हुआ. प्यासी, आतुर नजरों से तुम्हारी राह देखती रही. तुम्हारे छोड़ कर जाने के बरसों बाद यह घर मिला. जीवन में शायद पति का सुख नहीं लिखा था. इसलिए 2 बेटे पैदा होने के बाद आठवें साल वह हमें छोड़ कर चले गए.

‘‘बेटों को पालपोस कर बड़ा किया. शादीब्याह किया. इस घर को घर बनाया, लेकिन छोटा बेटा कुपुत्र निकला. शायद उसे पालते समय संस्कार देने में कमी रह गई. भगवान से यही विनती है कि मेरे ऊपर जो बीती, वह किसी और पर न बीते. इसीलिए सुधा को ले कर परेशान हूं.’’

प्रशांत अपलक उम्र के ढलान पर पहुंच चुकी रूपमती को ताकता रहा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे. रूपमती भाभी के अतीत की पूरी कहानी उस की आंखों के सामने नाचने लगी.

बचपन में प्रशांत की बड़ी लालसा थी कि उस की भी एक भाभी होती तो कितना अच्छा होता. लेकिन उस का ऐसा दुर्भाग्य था कि उस का अपना कोई सगा बड़ा भाई नहीं था. गांव और परिवार में तमाम भाभियां थीं, लेकिन वे सिर्फ कहने भर को थीं.

संयोग से दिल्ली में रहने वाले प्रशांत के ताऊ यानी बड़े पिताजी के बेटे ईश्वर प्रसाद की पत्नी को विदा कराने का संदेश आया. ताऊजी ही नहीं, ताईजी की भी मौत हो चुकी थी. इसलिए अब वह जिम्मेदारी प्रशांत के पिताजी की थी. मांबाप की मौत के बाद ईश्वर ने घर वालों से रिश्ता लगभग तोड़ सा लिया था. फिर भी प्रशांत के पिता को अपना फर्ज तो अदा करना ही था.

ईश्वर प्रसाद प्रशांत के ताऊ का एकलौता बेटा था. उस की शादी ताऊजी ने गांव में तब कर दी थी. जब वह दसवीं में पढ़ता था. तब गांव में बच्चों की शादी लगभग इसी उम्र में हो जाती थी. उस की शादी उस के पिता ने अपने ननिहाली गांव में तभी तय कर दी थी, जब वह गर्भ में था.

देवनाथ के ताऊजी को अपनी नानी से बड़ा लगाव था, इसीलिए मौका मिलते ही वह नानी के यहां भाग जाते थे. ऐसे में ही उन की दोस्ती वहां ईश्वर के ससुर से हो गई थी.

अपनी इसी दोस्ती को बनाए रखने के लिए उन्होंने ईश्वर के ससुर से कहा था कि अगर उन्हें बेटा होता है तो वह उस की शादी उन के यहां पैदा होने वाली बेटी से कर लेंगे.

उन्होंने जब यह बात कही थी, उस समय दोनों लोगों की पत्नियां गर्भवती थीं. संयोग से ताऊजी के यहां ईश्वर पैदा हुआ तो दोस्त के यहां बेटी, जिस का नाम उन्होंने रूपमती रखा था.

प्रशांत के ताऊ ने वचन दे रखा था, इसलिए ईश्वर के लाख मना करने पर उन्होंने उस का विवाह रूपमती से उस समय कर दिया, जब वह 10वीं में पढ़ रहा था. उस समय ईश्वर की उम्र कम थी और उस की पत्नी भी छोटी थी. इसलिए विदाई नहीं हुई थी. ईश्वर की शादी हुए सप्ताह भी नहीं बीता था कि उस के ससुर चल बसे थे. इस के बाद जब भी विदाई की बात चलती, ईश्वर पढ़ाई की बात कर के मना कर देता. वह पढ़ने में काफी तेज था. उस का संघ लोक सेवा आयोग द्वारा प्रशासनिक नौकरी में चयन हो गया और वह डिप्टी कलेक्टर बन गया. ईश्वर ट्रेनिंग कर रहा था तभी उस के पिता का देहांत हो गया था.

संयोग देखो, उन्हें मरे महीना भी नहीं बीता था कि ईश्वर की मां भी चल बसीं. मांबाप के गुजर जाने के बाद एक बहन बची थी, उस की शादी हो चुकी थी. इसलिए अब उस की सारी जिम्मेदारी प्रशांत के पिता पर आ गई थी.

लेकिन मांबाप की मौत के बाद ईश्वर ने घरपरिवार से नाता लगभग खत्म सा कर लिया था. आनेजाने की कौन कहे, कभी कोई चिट्ठीपत्री भी नहीं आती थी. उन दिनों शहरों में भी कम ही लोगों के यहां फोन होते थे. अपना फर्ज निभाने के लिए प्रशांत के पिता ने विदाई की तारीख तय कर के बहन से ईश्वर को संदेश भिजवा दिया था.

जब इस बात की जानकारी प्रशांत को हुई तो वह खुशी से फूला नहीं समाया. विदाई से पहले ईश्वर की बहन को दुलहन के स्वागत के लिए बुला लिया गया था. जिस दिन दुलहन को आना था, सुबह से ही घर में तैयारियां चल रही थीं.

प्रशांत के पिता सुबह 11 बजे वाली टे्रन से दुलहन को ले कर आने वाले थे. रेलवे स्टेशन प्रशांत के घर से 6-7 किलोमीटर दूर था. उन दिनों बैलगाड़ी के अलावा कोई दूसरा साधन नहीं होता था. इसलिए प्रशांत बहन के साथ 2 बैलगाडि़यां ले कर समय से स्टेशन पर पहुंच गया था.

ट्रेन के आतेआते सूरज सिर पर आ गया था. ट्रेन आई तो पहले प्रशांत के पिता सामान के साथ उतरे. उन के पीछे रेशमी साड़ी में लिपटी, पूरा मुंह ढापे मजबूत कदकाठी वाली ईश्वर की पत्नी यानी प्रशांत की भाभी छम्म से उतरीं. दुलहन के उतरते ही बहन ने उस की बांह थाम ली.

दुलहन के साथ जो सामान था, देवनाथ के साथ आए लोगों ने उठा लिया. बैलगाड़ी स्टेशन के बाहर पेड़ के नीचे खड़ी थी. एक बैलगाड़ी पर सामान रख दिया गया. दूसरी बैलगाड़ी पर दुलहन को बैठाया गया. बैलगाड़ी पर धूप से बचने के लिए चादर तान दी गई थी.

दुलहन को बैलगाड़ी पर बैठा कर बहन ने प्रशांत की ओर इशारा कर के कहा, ‘‘यह आप का एकलौता देवर और मैं आप की एकलौती ननद.’’

मेहंदी लगे चूडि़यों से भरे गोरेगोरे हाथ ऊपर उठे और कोमल अंगुलियों ने घूंघट का किनारा थाम लिया. पट खुला तो प्रशांत का छोटा सा हृदय आह्लादित हो उठा. क्योंकि उस की भाभी सौंदर्य का भंडार थी.

कजरारी आंखों वाला उस का चंदन के रंग जैसा गोलमटोल मुखड़ा असली सोने जैसा लग रहा था. उस ने दशहरे के मेले में होने वाली रामलीला में उस तरह की औरतें देखी थीं. उस की भाभी तो उन औरतों से भी ज्यादा सुंदर थी.

प्रशांत भाभी का मुंह उत्सुकता से ताकता रहा. वह मन ही मन खुश था कि उस की भाभी गांव में सब से सुंदर है. मजे की बात वह दसवीं तक पढ़ी थी. बैलगाड़ी गांव की ओर चल पड़ी. गांव में प्रशांत की भाभी पहली ऐसी औरत थीं. जो विदा हो कर ससुराल आ गई थीं. लेकिन उस का वर तेलफुलेल लगाए उस की राह नहीं देख रहा था.

इस से प्रशांत को एक बात याद आ गई. कुछ दिनों पहले मानिकलाल अपनी बहू को विदा करा कर लाया था. जिस दिन बहू को आना था, उसी दिन उस का बेटा एक चिट्ठी छोड़ कर न जाने कहां चला गया था.

उस ने चिट्ठी में लिखा था, ‘मैं घर छोड़ कर जा रहा हूं. यह पता लगाने या तलाश करने की कोशिश मत करना कि मैं कहां हूं. मैं ईश्वर की खोज में संन्यासियों के साथ जा रहा हूं. अगर मुझ से मिलने की कोशिश की तो मैं डूब मरूंगा, लेकिन वापस नहीं आऊंगा.’

इस के बाद सवाल उठा कि अब बहू का क्या किया जाए. अगर विदा कराने से पहले ही उस ने मन की बात बता दी होती तो यह दिन देखना न पड़ता. ससुराल आने पर उस के माथे पर जो कलंक लग गया है. वह तो न लगता. सब सोच रहे थे कि अब क्या किया जाए. तभी मानिकलाल के बडे़ भाई के बेटे ज्ञानू यानी ज्ञानेश ने आ कर कहा, ‘‘दुलहन से पूछो, अगर उसे ऐतराज नहीं हो तो मैं उसे अपनाने को तैयार हूं.’’

मैं मायके चली जाऊंगी

उधर डोरबैल बजाने के बाद भी जब श्रीमतीजी ने दरवाजा नहीं खोला, तो हम ने गुस्से में आ कर दरवाजे को जोर से धकेल दिया. देखा तो वह खुला पड़ा था. सोचा कि श्रीमतीजी अंदर से बंद करना भूल गई होंगी. घर में घुसते ही हम ने इधरउधर नजर दौड़ाई. हमारी श्रीमतीजी हमें कहीं नजर नहीं आईं.

हम घबराए हुए सीधे बैडरूम में जा पहुंचे. वहां श्रीमतीजी अंधेरा किए बैड पर ऐसे फैली पड़ी थीं, जैसे किसी ने उन के कीमती जेवरों पर हाथ साफ कर दिए हों और अब उसी का गम मना रही हों.

हम ने जैसे ही कमरे की बत्ती जलाई, तो श्रीमतीजी ने गुस्से में मोटीमोटी लाललाल आंखें हमें दिखाईं, तो हम तुरंत समझ गए कि आज हमारी शामत आई है.

हम ने धीरे से श्रीमती से पूछा, ‘‘क्या तबीयत खराब है या मायके में कोई बीमार है?’’

वे गुस्से में फट पड़ीं, ‘‘खबरदार, जो मेरी या मेरे मायके वालों की तबीयत खराब होने की बात मुंह से निकाली.’’

श्रीमतीजी बालों को बांधते हुए बैडरूम से निकल कर ड्राइंगरूम में आ कर सोफे पर पसर गईं. हम भी अपने कपड़े बदल कर उन के पास आ कर बैठ गए. फिर उन के शब्दों के बाणों की बौछारें शुरू हो गईं, ‘‘शादी को अभी सालभर भी नहीं हुआ है और तुम ने मुझे इस फ्लैट की चारदीवारी में कैद कर दिया है. तुम न तो मुझे कभी फिल्म दिखाने ले जाते हो, न कहीं घुमाते हो और न ही किसी अच्छे से रैस्टोरैंट में खाना खिलाते हो.

‘‘आज तो तुम को मुझे कहीं न कहीं घुमाने ले जाना पड़ेगा और मेरे नाजनखरों को उठाना पड़ेगा, वरना मैं मायके चली जाऊंगी और फिर कभी वापस नहीं आऊंगी.’’

श्रीमतीजी के मायके जाने की धमकी ने हमारी आंखों को उन के पहलवान पिताजी कल्लू के साक्षात दर्शन करा दिए थे, जिन्होंने अपनी बेटी को विदा करते समय हमें चेतावनी दी थी कि अगर कभी हमारी बेटी यहां रोतीबिलखती आई, तो हम से बुरा कोई न होगा. बेटी राधिका को परेशान करने के एवज में तुम्हें हमारे बेटे भूरा से गांव के वार्षिक दंगल में लड़ना होगा.

भूरा की कदकाठी कुछ ऐसी ही थी कि हाथी भी सामने आ जाए, तो उस सांड़ को देख कर अपना रास्ता बदल ले.

हम ने तुरंत श्रीमतीजी के पैर पकड़ लिए और उन के नाजनखरों को उठाने को तैयार हो गए.

अगले दिन दफ्तर में श्रीमतीजी का फोन आया. वे बोलीं, ‘‘आज हमारा सलमान खान की फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’ देखने का मन कर रहा है. उस के बाद डिनर भी हम बाहर ही करेंगे.’’

सो, इंटरनैट के जरीए हम ने ‘बजरंगी भाईजान’ के 2 टिकट बुक करा दिए. शाम को जब हम घर पहुंचे, तो श्रीमतीजी दरवाजे पर तैयार खड़ी गुस्से से कलाई घड़ी की तरफ देख रही थीं. उधर गरमी के मारे हमारी हालत बुरी थी.

सकपकाते हुए हम धीरे से घर के अंदर घुसे. फिर फ्रिज से हम ने ठंडा पानी निकाला और 2-4 घूंट पानी गले में डाला, जल्दी से कपड़े बदले और श्रीमतीजी के साथ स्कूटर पर निकल पड़े.

मगर रास्ते में ही स्कूटर ने धोखा दे दिया. उधर श्रीमतीजी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया. स्कूटर का पिछला पहिया पंक्चर हो गया.

हम ने श्रीमतीजी के तमतमाए चेहरे की तरफ देखा और फिर घड़ी में समय देखा, तो शाम के 7 बज चुके थे. एक घंटे का शो पहले ही निकल चुका था. जब तक हम पंक्चर लगवा कर सिनेमाघर तक पहुंचे, तब तक रात के 9 बज चुके थे. लोग सिनेमाघर से बाहर निकल रहे थे.

अब हमारा दिल डर के मारे बुरी तरह धड़क रहा था.

हम ने श्रीमतीजी को समझाया, ‘‘कल हम तुम्हें मौर्निंग शो में फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’ दिखा लाएंगे. इस के एवज में हम कल ड्यूटी पर भी नहीं जाएंगे.’’

यह सुन कर श्रीमतीजी के चेहरे पर गुस्से की लकीरें थोड़ी कम होने लगी थीं. फिर वहीं पास ही के एक अच्छे से रैस्टोरैंट में श्रीमतीजी को ले गए. वहां हम दोनों ने लजीज खाने का लुत्फ उठाया. जब पैसे देने का समय आया, तो हमारी जेब से पर्स गायब था.

हम ने रैस्टोरैंट के मालिक को बहुत समझाया. आखिरकार हमें अपना स्कूटर उन के पास बतौर गिरवी छोड़ना पड़ा और पैदल ही घर जाना पड़ा.

अभी हमारी मुसीबत कम नहीं हुई थी, क्योंकि सुनसान सड़क पर चलती हुई हमारी श्रीमतीजी सोने के जेवरों से दमक रही थीं. जब हम ने उन्हें समझाया कि पल्लू से अपने गहनों को ढक लो, तो

वे अकड़ते हुए बोलीं, ‘‘मैं कल्लू पहलवान की बेटी हूं. चोरउचक्कों से डर तुम जैसे शहरियों को लगता होगा. मैं एक धोबीपछाड़ दांव में अच्छेअच्छों को पटक दूंगी और अपनी हिफाजत मैं खुद कर लूंगी.’’

श्रीमतीजी की बहादुरी से हमारे हौसले भी बढ़ चुके थे कि तभी वही हो गया, जिस का हमें डर था. 2 लुटेरों ने हमें धरदबोचा. चाकूपिस्तौल देख हमारी हालत पतली हुई जा रही थी, तभी एक लुटेरा हमारी श्रीमतीजी के गहनों पर झपट पड़ा. इस के बाद श्रीमतीजी ने उन दोनों की जो हालत बनाई, वह नजारा हम अपनी जिंदगी में कभी भूल नहीं सकते हैं.

कुछ ही देर में पुलिस की एक गाड़ी वहां आ पहुंची. उन दोनों इनामी बदमाशों को पकड़वाने के एवज में श्रीमतीजी को 50 हजार रुपए का चैक बतौर इनाम मिला.

हम ने उन रुपयों से एक सैकंडहैंड कार ले ली है. अब तो हम हर शाम श्रीमतीजी के साथ कार में घूमने जाते हैं. इस बात की उम्मीद करते हैं कि दोबारा किसी लुटेरे गैंग से हमारी श्रीमतीजी की भिड़ंत हो जाए और उसे पकड़वाने के एवज में इनाम के तौर पर फिर कोई चैक मिल जाए.

पिया बावरा: उस धुंधली छाया में बस एक छवि अटकी थी

घंटी बजते ही दरवाजे खोल दिए गए थे. डा. सुभाष गर्ग चुपचाप बाहर निकल गए. सब की तरह उन के हाथों में भी फावड़ाटोकरी थमा दिए गए थे.

सुभाष ने हैरत से अपने हाथों को देखा कि जिन में कल तक सिरिंज और आपरेशन के पतले नाजुक औजार होते थे अब उन में फावड़ा और कुदाल थमा दी गई.

‘‘क्यों डाक्टर, उठा तो पा रहे हो न?’’ एक कैदी ने मसखरी की, ‘‘अब यहां कोई नर्स तो मिलेगी नहीं जो अपने नाजुकनाजुक हाथों से आप को कैंचीछुरी थमाएगी.’’

सभी कैदियों को एक बड़ी चट्टान पर पहुंचा दिया गया और कहा गया कि यहां की चट्टानों को तोड़ना शुरू करो.

यह सुन कर सुभाष के पूरे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई थी.

‘यह क्या हो गया मुझ से. कुछ भी बुरा करते समय आखिर ऐसे अंजाम के बारे में हम क्यों नहीं सोच पाते हैं?’ सुभाष मन ही मन अपने उस अतीत के लिए तड़प उठे जिस की वजह से आज वे जेल की सजा काट रहे हैं और अब कुछ हो भी नहीं सकता था. इतनी भारी कुदाल उठा कर पत्थर तोड़ना आसान नहीं था. डा. सुभाष गर्ग बहुत जल्दी थक गए. पहले पत्थर तोड़ना फिर उन्हें फावड़े की मदद से तसले में डालना. कुदाल की चार चोटों में ही उन की सांस फूल गई थी. काम रोक कर वहीं पत्थर पर बैठ कर वे सुस्ताने लगे. हीरालाल ने दूर से देखा और अपना काम रोक कर वहीं आ गया.

‘‘थक गए, डाक्टर?’’

सुभाष चुप रहे.

हीरालाल ने पूछा, ‘‘क्यों मारा था पत्नी को?’’

‘‘मैं ने नहीं मारा.’’

‘‘तो मरवाया होगा?’’ हीरालाल ने व्यंग्य से कहा.

डाक्टर चुप रहे.

‘‘बहुत सुंदर होगी वह जिस के लिए तुम ने पत्नी को मरवाया?’’ हीरा शरारत से बोला.

तभी एक सिपाही का कड़कदार स्वर गूंज उठा, ‘‘क्या हो रहा है. एक दिन आए हुआ नहीं कि कामचोरी शुरू हो गई,’’ और दोनों पर एकएक बेंत बरसा कर तुरंत काम करने का आदेश दिया.

बेंत लगते ही दर्द से तड़प उठे डाक्टर. अपनी हैसियत और हालात पर सोच कर उन की आंखें भर आईं. चुपचाप डाक्टर ने कुदाल उठा ली और काम में जुट गए.

जैसेतैसे शाम हुई. सभी कैदी अपनीअपनी कोठरी में पहुंचा दिए गए.

अपनी कोठरी में लेटेलेटे डा. सुभाष बारबार आंखें झपकाने की कोशिश कर रहे थे पर गंदी सीलन भरी जगह और नीची छत देख कर लग रहा था जैसे वह अभी सिर पर टपकने ही वाली है. 2 दिन पहले एक रिपोर्टर उन का इंटरव्यू लेने आई थी. उस ने प्रश्न किया था :

‘अपने प्यार को पाने के लिए क्या पत्नी का कत्ल जरूरी था? आप तलाक भी तो ले सकते थे?’

डाक्टर की यादों के मलबे में जाने कितने कांच और पत्थर दबे हुए थे. रात भर खयालों की हथेलियां उन पत्थरों और कांच के टुकड़ों को उन के जज्बातों पर फेंकती रहती हैं. काश, वे उत्तर दे पाते कि इतने बड़ेबड़े बच्चों की मां और अमीर बाप की उस बेटी को तलाक देना कितना कठिन था.

सुभाष गर्ग जिस साल डाक्टरी की डिगरी ले कर घर पहुंचे थे उसी साल 6 माह के भीतर ही वीणा पत्नी बन कर उन के जीवन में आ गई थी.

वीणा बहुत सुंदर तो नहीं पर आकर्षक जरूर थी. बड़े बाप की इकलौती संतान थी वह. उस के पिता ने सुभाष के लिए नर्सिंग होम बनवाने का केवल वादा ही नहीं किया, बल्कि टीके की रस्म होते ही वह हकीकत में बनने भी लगा था.

मातापिता बहत गद्गद थे. सुभाष भी नए जीवन के रोमांचक पलों को भरपूर सहेज रहे थे. जैसेजैसे डा. सुभाष अपने नर्सिंग होम में व्यस्त होने लगे और वीणा अपने बच्चों में तो पतिपत्नी के बीच की मधुरता धूमिल हो चली.

वीणा के तेवर बदले तो मुंह से अब कर्कश स्वर निकलने लगे. उसे हर पल याद रहने लगा कि वह एक अमीर पिता की संतान है और वारिस भी. इसलिए घर में उस की पूछ कुछ अधिक होनी चाहिए. इसीलिए उस की शिकायतें भी बढ़ने लगीं. सुभाष जैसेजैसे पत्नी वीणा से दूर हो रहे वैसेवैसे वे नर्सिंग होम और अपने मरीजों में खोते जा रहे थे. जीवन में तनिक भी मिठास नहीं बची थी. दवाओं की गंध में फूलों से प्यारे जीवन के क्षण खो गए थे. याद करतेकरते जाने कब डा. सुभाष को नींद ने आ घेरा.

खाने की थाली ले कर जब डा. सुभाष कैदियों की लाइन में लगते तो अपने नर्सिंग होम पर लगी मरीजों की लाइन उन्हें याद आने लगती. वह लाइन शहर में उन की लोकप्रियता का एहसास कराती थी जबकि यह लाइन किसी भिखारी का एहसास दिलाती है. डा. सुभाष को उस पत्रकार महिला का प्रश्न याद आ गया, ‘क्या सचमुच समस्या इतनी बड़ी थी, क्या और कोई राह नहीं थी?’

खाना खाते समय लगभग वे रोते रहते. अपने घर की वह शानदार डाइनिंग टेबल उन्हें याद आने लगती. बस, वही तो कुछ पल थे जिस में पूरा परिवार एकसाथ बैठ कर खाना खाता था. हालांकि यह नियम भी वीणा ने ही बनाया था.

वीणा का नाम व चेहरा दिमाग में आते ही डा. सुभाष फिर पुरानी यादों में खो से गए.

उस साल बड़ा बेटा पुनीत इंजीनियरिंग पढ़ने आई.आई.टी. रुड़की गया था और छोटा भी मेडिकल के लिए चुन लिया गया था. इधर नर्सिंग होम में पहले से और अधिक काम बढ़ गया तो डा. सुभाष दोपहर में घर कम आने लगे. रोज की तरह उस दिन भी घर से उन का टिफिन नर्सिंग होम आ गया था और उन के सामने प्लेट रख कर चपरासी ने सलाद निकाला था. तभी तीव्र सुगंध का झोंका लिए 30 वर्ष की एक युवती ने कमरे में प्रवेश किया.

‘सौरी सर, आप को डिस्टर्ब किया.’

डा. सुभाष ने गर्दन उठाई तो आंखें खुली की खुली रह गईं. मन में खयाल आया कि इतना सौंदर्य कहां से मिल जाता है किसीकिसी को.

‘सर, मैं डा. सुहानी, मुझे आप के पास डा. रावत ने भेजा है कि तुरंत आप से मिलूं.’

एक सांस में बोल कर युवती अपना पसीना पोंछने लगी.

सुभाष मुसकरा दिए.

‘आइए, बैठिए.’

‘नो सर. आप कहें तो मैं थोड़ी देर में आती हूं.’

‘नर्वस क्यों हो रही हैं डाक्टर, आप बैठिए,’ सुभाष ने खड़े हो कर सामने वाली कुरसी की ओर संकेत किया.

सुहानी डरती हुई कुरसी पर बैठ गई. डा. सुभाष ने चपरासी को इशारा किया तो उस ने दूसरी प्लेट सुहानी की तरफ रख दी.

‘नो सर, मैं दोपहर में पूरा खाना नहीं खाती हूं.’

‘आप सलाद लीजिए.’

उन के इतने अनुरोध की मर्यादा रखते हुए सुहानी ने थोड़ा सा सलाद अपनी प्लेट में रख लिया.

डा. सुभाष उस के सौंदर्य को देखते हुए मुसकरा कर बोले, ‘आज मेरी समझ में आया है कि कैसे लड़कियां केवल सलाद खा कर सुंदरता बनाए रखती हैं.’

सुहानी ने संकोच से देखा और बोली, ‘ओके, डाक्टर.’

डा. सुभाष ने कांटे में पनीर का एक टुकड़ा फंसा कर मुख में रख लिया और बोले, ‘आप यहां मेरी सहायक के रूप में काम करेंगी. अभी थोड़ी देर में सुंदर आप को केबिन दिखा देगा.’

उस दिन के बाद डा. सुभाष का हर दिन सुहाना होता गया. सुहानी केवल सौंदर्य की ही नहीं, मन की भी सुंदरी थी. उस के मीठे बोल डा. सुभाष में स्फूर्ति भर देते. यह काम की नजदीकियां कब प्यार में बदल गईं, दोनों को पता ही नहीं चला.

तब घर का पूरा उत्तरदायित्व वे अच्छी तरह पूरा कर रहे थे. पर पहले की तरह अब घर पर दुखी भी होते तो सुहानी की यादें उन की आंखों में घुलीमिली रहतीं.

उन दिनों वीणा कुछ अधिक ही चिड़चिड़ी होती जा रही थी. शायद इस की वजह यह थी कि बच्चों के जाने के बाद सुभाष भी उस से दूर हो गए थे और बढ़ती दूरी के चलते उस को अपने पति सुभाष पर शक हो गया था. एक रात वीणा ने पूछ ही लिया, ‘आजकल कुछ ज्यादा ही महकने लगे हो, क्या बात है?’

डा. सुभाष चौंक पड़े, ‘ये क्या बेसिरपैर की बातें कर रही हो. अब उम्र महकने की तो रही नहीं. मेरी तकदीर में तो आयोडीन और…’

‘बसबस. आदमियों की उम्र महकने के लिए हमेशा 16 की होती है.’

‘देखो वीणा, रातदिन दवाओं की खुशबू सूंघतेसूंघते जी खराब होने लगता है तो कभीकभार सेंट छिड़क लेता हूं. बहुत संभव है कि कभी ज्यादा सेंट छिड़क लिया होगा,’ सुभाष ने सफाई दी, लेकिन धीरेधीरे वीणा की शिकायतों और डा. सुभाष की सफाइयों का सिलसिला बढ़ गया.

नर्सिंग होम में वीणा के बहुत सारे अपने आदमी भी थे जो तरहतरह की रिपोर्ट देते रहते थे.

‘तुम्हारे इतने बड़ेबड़े बच्चे हो गए हैं. कल को उन की शादी होगी. बुढ़ापे में इश्क फरमाते कुछ तो शर्म करो,’ वीणा क्रोध में उन्हें सुनाती.

सुभाष ने उन दिनों चुप रहने की ठान ली थी. इसीलिए वीणा का पारा अधिक गरम होता जा रहा था.

रोजरोज की चिकचिक से तंग आ कर आखिर एक दिन सुभाष के मुख से निकल ही गया कि हां, मैं सुहानी से प्यार करता हूं और उस से शादी भी करना चाहता हूं.

डा. सुभाष को जेल की यातना सहते महीनों बीत चुके थे, लेकिन घर से मिलने कोई नहीं आया था. वे बच्चे भी नहीं जो उन के ही अंश हैं और जिन को उन्होंने अपना नाम दिया है. ऐसा नहीं कि बच्चे उन्हें प्यार नहीं करते थे पर मां तो मां ही होती है. मां की हत्या ने उन्हें बच्चों की नजरों में एक अपराधी, मां का हत्यारा साबित कर दिया था, पर क्या इस हादसे के लिए वे अकेले ही उत्तरदायी हैं?

बच्चे क्या जानें कि वीणा सुहानी को ले कर कितनी हिंसक हो उठी थी. एक दिन गुस्से में  उस ने कहा भी था, ‘आप अगर सोचते हैं कि मैं आप से तलाक ले लूंगी और आप मजे से उस से शादी कर लेंगे तो मैं आप को याद दिला दूं कि मैं उस बाप की बेटी हूं जो अपनी जिद के लिए कुछ भी कर सकती है. मेरे एक इशारे पर आप की वह प्रेमिका कहां गायब हो जाएगी पता भी नहीं चलेगा.’

वीणा की धमकियां जैसेजैसे बढ़ रही थीं वैसेवैसे सुभाष की घबराहट भी बढ़ रही थी…वे अच्छी तरह जानते थे कि इस आयु में बड़ेबड़े बच्चों के सामने पत्नी को तलाक देना या दूसरा विवाह करना उन के लिए सरल न होगा. पर सुहानी को वीणा सताए यह भी उन्हें स्वीकार नहीं था. इसलिए ही उन्होंने सुहानी से कहा था कि वह जितनी जल्दी हो सके यहां से लंबे समय के लिए कहीं दूर चली जाए.

अगले दिन सुहानी को नर्सिंग होम में न देख कर वीणा बोली थी, ‘उसे भगा दिया न. क्या मैं उसे खोज नहीं सकती. पाताल से भी खोज कर उसे अपनी राह से हटाऊंगी. तुम समझते क्या हो अपनेआप को.’

‘इतनी नफरत किस काम की,’ गुस्से से डा. सुभाष ने कहा था, ‘क्या इस उम्र में मैं दूसरी शादी कर सकता हूं.’

‘प्यार तो कर रहे हो इस उम्र में.’

‘नहीं, किसी ने गलत खबर दी है.’

‘किसी ने गलत खबर नहीं दी,’ वीणा फुफकारती हुई बोली, ‘मैं ने स्वयं आप का पीछा कर के अपनी आंखों से आप दोनों को एकदूसरे की बांहों में सिमटते देखा है.’

डा. सुभाष स्तब्ध थे, कितनी तेज है यह औरत. घबरा कर कहा, ‘अपने बच्चों को भी तो हम किसी अच्छी बात पर प्यार कर लेते हैं.’

‘शर्म नहीं आती तुम को इतना झूठ बोलते हुए,’ वीणा के अंदर का झंझावात बुरी तरह उफन रहा था.

उस दिन पत्थर तोड़ते हुए हीरा ने कहा, ‘‘डाक्टर आप चाहते तो बच सकते थे. आप ने बीवी की कार का पीछा क्यों किया. अच्छेभले नर्सिंग होम में बैठे रहते तो बच जाते.’’

‘‘मैं बहुत डरा हुआ था, क्योंकि वीणा के पिता के आदमी उस की सुरक्षा में लगे हुए थे. शायद हत्या की सुपारी लेने वाला अपना काम न कर पाता,’’ हीरालाल की सहानुभूति पा कर डा. सुभाष ने भी बोल दिया.

‘‘उस के आदमी चारों तरफ सुरक्षा में फैले रहते हैं. तभी तो आप आसानी से अंदर हैं.’’

शायद हीरालाल ठीक कह रहा था, वे क्या करते, जो कुछ भी हुआ वह सोचीसमझी योजना का हिस्सा नहीं था. वह सबकुछ केवल सुहानी को बचाने की जिद से हो गया. शायद उन से बचकानी हरकत हो गई. इतनी बड़ी बात को गंभीरता से नहीं लिया और नतीजे के बारे में भी नहीं सोचा था.

उन्हें लगा कि वीणा सुहानी के घर की तरफ ही जा रही है और बिना समय गंवाए उन्होंने वीणा पर गोली चला दी. सुहानी तो बच गई मगर वीणा के पिता का कुछ भरोसा नहीं. केवल उन्हें सलाखों के पीछे भेज कर वे संतुष्ट होने वाले नहीं हैं. सुभाष के जीवन से तो सबकुछ छिन गया, पत्नी भी और प्रेमिका भी.

वह 15 अगस्त का दिन था. सभी कैदियों को सुबह झंडा फहराते समय राष्ट्रगान गाना था. फिर सब को बूंदी के लड्डू दिए गए थे. सुभाष अपना लड्डू खाने का प्रयत्न कर ही रहे थे कि हीरालाल ने जल्दी से आ कर उन के कान से मुख सटा दिया और कहा, ‘‘अभीअभी इंस्पेक्टर के कमरे से सुन कर आया हूं, कह रहे थे कि डाक्टर की प्रेमिका का पता चल गया है. बहुत जल्द उसे भी गिरफ्तार कर लिया जाएगा.’’

‘‘क्या?’’ उन के हाथ से लड्डू छिटक गया. हीरालाल ने झट से लड्डू उठा लिया और बोला, ‘‘डाक्टर, मुझे पता है कि अब तुम इस लड्डू को नहीं खाओेगे. डाक्टर हो न, जमीन पर गिरा लड्डू कैसे खा सकते हो.’’

उस ने वह लड्डू भी खा लिया.

सुभाष बहुत व्याकुल हो उठे थे. वे समझ गए थे कि यह सब वीणा के पिता ने ही करवाया है. उन की आंखों से आंसू बहने लगे.

हीरा ने कहा, ‘‘यह क्या, डाक्टर साहब. आप इतने कमजोर दिल के हैं, फिर भला दूसरों के दिल का आपरेशन कैसे करते थे?’’

डाक्टर ने अपने आंसू पोंछे और कहा, ‘‘हीरा, सब को अपने अंत का पता होता है, फिर भी हम जैसों से इतनी भूल कैसे हो जाती है.’’

‘‘आप शरीफ इनसान हैं इसलिए सबकुछ शराफत के दायरे में करने की कोशिश की. काश, आप भी शातिर खिलाड़ी होते तो आज पकड़ा कोई और जाता और आप अपनी सुहानी के साथ हनीमून मना रहे होते.’’

सुभाष ने चौंक कर हीरालाल को देखा और बोले, ‘‘क्या कह रहे हो?’’

‘‘ठीक कह रहा हूं, डाक्टर. आज मैं जिस कत्ल की सजा भोग रहा हूं उस व्यक्ति को मैं ने कभी देखा ही नहीं. उस का हत्यारा बहुत शातिर और धनवान था. मुझे उलझा कर खुद मजे से घूम रहा है.’’

डाक्टर ठगे से खड़े रह गए.

‘‘डाक्टर, सच यह है कि इतने वर्षों में इस जेल के अंदर रह कर मैं ने दांवपेंच सीख लिए हैं. एक बार यहां से भागने का अवसर मिला तो उस शातिर की हत्या कर के सचमुच का हत्यारा बन जाऊंगा.’’

डा. सुभाष अपनी सोच में डूबे हुए थे, धीरे से बुदबुदाए, ‘इस से तो अच्छा था कि मुझे फांसी हो जाती.’’

इतना कहने के साथ ही उन्होंने कस कर अपनी छाती को दबाया और कराह उठे. उन का हृदय दर्द से तड़प रहा था.

‘‘डाक्टर,’’ हीरा चिल्ला उठा.

डाक्टर धीरेधीरे धरती पर गिर कर तड़पने लगे. हलचल मचते ही कई अधिकारी वहां आ गए थे. डाक्टर को स्ट्रेचर पर लिटाया गया और सिपाही चल पड़े. हीरा भाग कर वहां पहुंचा और झुक कर डाक्टर के कान में कहने की चेष्टा की कि वहां से भाग जाना पर सुभाष बेसुध हो चुके थे.

हीरा मन मसोस कर उन्हें जाता देखता रहा. सुभाष की बंद आंखों के सामने बहुत से चेहरे घूम रहे थे.

‘तुम पागल हो गए हो उस बेटी समान लड़की के लिए,’ वीणा के पुराने स्वर डाक्टर को नीमबेहोशी में सुनाई दे रहे थे. फिर सबकुछ डूबने लगा. आवाज, सांस और धुंधलाती सी पुरानी यादें. उस धुंधली छाया में बस एक छवि अटकी थी सुहानी…सुहानी.

प्रेम विवाह: भाग 3- अभिजित ने क्यों लिया तलाक का फैसला?

‘यह सब क्या है?’ अभिजित ने पूछा. ‘अभि,’ उस की आंखों से आंसू बह निकले, ‘मैं ने तुम्हें बताया तो था कि मेरा बौस बेहूदा हरकतें करता रहता है. आज वह सारी हदें पार कर गया.’

‘यह खबर और तुम्हारी शक्ल आज सैकड़ों लोगों ने टीवी पर देखी होगी. मेरी तो इज्जत उतर गई. मैं किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहा. कल कालेज में लोग तुम्हारे बारे में उलटेसीधे सवाल करेंगे तो मैं क्या जवाब दूंगा?’ अभि ने अपना सिर थाम लिया.

कुछ देर बाद उस ने कहा, ‘जाहिर है, मैं अब यहां नौकरी नहीं कर सकता. मुझे अमेरिका से एक औफर आया है विजिटिंग प्रोफैसर की जौब के लिए,  हम वहीं चलेंगे.’

‘और तुम्हारा परिवार?’

‘मैं उन्हें हर महीने पैसे भेजता रहूंगा और साल में एक बार आ कर उन की खोजखबर लेता रहूंगा.’

प्लेन में बैठी कैथरीन बहुत खुश हो रही थी. उस ने अपने मन की मुराद पा ली थी. वह अपनी ससुराल के घुटन भरे माहौल से निकल आई थी. उस ने अभि को देखा, जो मुंह लटकाए बैठा था. उसे अपने घर वालों से बिछड़ने का बहुत दुख था. कैथरीन ने उस के कंधों को घेरते हुए उस की दिलजोई की, ‘उदास क्यों होते हो

डार्लिंग. तुम अपने परिवार के भले के लिए ही तो विदेश जा रहे हो. अमेरिका में मैं भी कोई नौकरी कर लूंगी. हम दोनों जन मिल कर कमाएंगे. मेरे पैसों से घर चलेगा और तुम अपने पैसे घर वालों के लिए जमा करते रहना.’

अभि ने उसे स्नेहसिक्त आंखों से देखा. फिर बोला, ‘तुम मेरे लिए यह सब करोगी?’

‘क्यों नहीं, बीवी हूं तुम्हारी. तुम्हारे सुखदुख की साथी.’

अभि ने उस का हाथ अपने हाथों में ले कर सहलाया, उसे चूमा. वह भावविभोर हो गया था, ‘ओह कैथरीन, आई रियली लव यू. तुम कितनी भली हो. तुम्हें पत्नी के रूप में पा कर मुझे सब कुछ मिल गया.’

कैथरीन खुशी से भर उठी. वह अभि के ऊपर सिर्फ अपना अधिकार चाहती थी. अभि उस के रूप का दीवाना तो था ही पर वह चाहती थी कि उस का पति सिर्फ उसी का हो कर रहे. वह अपने घर वालों को भुला कर केवल उस की ही माला जपे.

अमेरिका में आ कर उसे ऐसा लगा जैसे वह एक निराली दुनिया में आ गई है. उसे और अभि को रहने के लिए एक सुंदर सा बंगला मिल गया. कैथरीन ने एक डिपार्टमैंटल स्टोर में सेल्स गर्ल की नौकरी कर ली और वहीं उस की कुछ गहरी दोस्त बन गईं. वे लंच टाइम में साथ बैठ कर गपशप करतीं.

अभि अपनी नौकरी में व्यस्त रहता पर जब भी अपने घर वालों से फोन पर बात करता तो बहुत उदास हो जाता.

एक दिन कैथरीन ने उसे बियर का गिलास थमाया.

‘यह क्या? तुम तो जानती हो कि मैं शराब नहीं पीता.’

‘लेकिन यह शराब नहीं है. इस से नशा बिलकुल नहीं होता. कम औन डियर. मुझे कंपनी देने के लिए ही सही, एकआध घूंट तो पियो.’

गम भुलाने के लिए अभि ने बियर पी तो ली मगर धीरेधीरे उसे इस की लत पड़

गई. बियर से नशा चढ़ना कम हुआ तो शराब का सहारा लिया. कैथरीन भी उस का साथ देती.

समय बीतता गया. कुछ ही साल में अभि ने अपनी बहनों की शादी कर दी. उस की दादी, नानी व पिता एक के बाद एक चल बसे. बूआ के बेटों की नौकरी लग गई और वे अपनी मां को ले कर चले गए.

अभि को मां की चिंता लगी. मां का अमेरिका आने का बिलकुल मन न था. कुछ साल वे बेटियों के घर पर रहीं. जब बहुत अशक्त हो गईं तो उन्होंने बेटे को पत्र लिखा कि अब खानाबदोशों की तरह इधरउधर भटका नहीं जा रहा, शरीर बहुत कमजोर हो गया है. मुझे लगता है कि मेरा अंतिम समय आ पहुंचा है. मेरी हार्दिक इच्छा है कि मैं अपने बेटे की गोद में सिर रख कर मरूं. इसलिए मैं ने अमेरिका आने का फैसला कर लिया है.

अभि खुशी से नाच उठा. पर कैथरीन चिंतित हो गई. उस ने अपनी सहेलियों को यह समाचार दिया तो वे सब एक सुर में बोलीं, ‘अरी कैथरीन, अपनी सास को बुलाने की गलती न करना वरना पछताएगी. तू अपनी नौकरी करेगी, घर संभालेगी या बीमार सास की सेवाटहल करेगी?’

कैथरीन ने मन ही मन तय कर लिया कि यदि अभि की मां यहां आ धमकीं तो वह उन से साफ शब्दों में कह देगी कि अम्मां, यह मेरा घर है और यहां सिर्फ मेरी मरजी चलेगी. मैं अपने घर में जो चाहे करूं, जो चाहे पकाऊंखाऊं, जो चाहे पहनूं मिनी ड्रैस या टौपलैस, मुझे पूरा हक है.

पर इस की नौबत ही नहीं आई. कुछ ही दिनों में अभि को समाचार मिला कि उस की मां का अचानक दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया.

फूटफूट कर रोता अभि अपनेआप को कोसता रहा. ‘अब मेरा यहां बिलकुल मन नहीं लगता. बहुत अकेलापन महसूस होता है,’ वह बोला.

‘ऐसा मत कहो डार्लिंग,’ कैथरीन ने उस से लिपट कर कहा.

‘हम ने यहां आ कर कौन सी जायदाद खड़ी कर ली. अपने परिवार से दूर बेगानों

की तरह पड़े हैं. दिन भर जानवरों की तरह खटते हैं. क्यों करते हैं हम इतनी दौड़धूप, इतनी मेहनतमशक्कत? किस के लिए करते हैं? मुझे तो लगता है कि अब हमारा एक बच्चा होना चाहिए. बिना बच्चे के घर सूना लगता है.

‘तुम ठीक कहते हो.’

दूसरे दिन कैथरीन ने अपनी सहेलियों से कहा, ‘मेरा पति चाहता है कि हमारा एक बच्चा हो.’

‘और तू क्या चाहती है?’ डोरिस ने पूछा.

‘मैं अभी से यह जंजाल पालना नहीं चाहती.’

‘बिलकुल ठीक. बच्चा होने के बाद औरत घर से बंध कर रह जाती है. उस का बदन ढीला पड़ जाता है. मर्दों का क्या जाता है. बस हुक्म चला दिया कि एक बच्चा होना चाहिए. आफत तो हम औरतों की होती है.

जरा सोचो, शिशु को 9 महीने कोख में रखो, प्रसव पीड़ा सहो, मरमर कर उसे पालो और जब वह बड़ा हो जाए और मुंह फेर कर चल दे तो कुछ न कर सको. ‘होता तो यही है. बच्चे पीछे मुड़ कर देखते भी नहीं कि मांबाप जी रहे हैं कि मर गए. मांबाप बूढ़े और लाचार हो जाएं तो उन्हें वृद्धाश्रम में डाल कर सोचते हैं कि उन का कर्तव्य पूरा हो गया. ऐसी औलाद होने से तो बेऔलाद ही भले.’

‘हां,’ रूबी ने डोरिस की हां में हां मिलाई, ‘घरघर की यही कहानी है, लेकिन वे भी क्या करें. यहां एक आदमी की तनख्वाह से गुजारा होता नहीं.’ मियांबीवी दोनों को नौकरी करनी पड़ती है. मांबाप की देखभाल करना उन के लिए मुमकिन नहीं, इसीलिए वृद्धाश्रम की शरण लेते हैं. इस देश की यही प्रथा है.

‘हमारी युवा पीढ़ी तो हम से भी एक कदम आगे है. उन की तो शादी की संस्था में भी आस्था नहीं है. किसी से प्रेम हुआ तो साथ रहने लगे. तकरार हुई तो अलग हो गए. बच्चों की चाह हुई तो ही शादी करते हैं नहीं तो वे सिर्फ अपने लिए ही जीते हैं. भरपूर ऐश करते हैं. खूब मौजमस्ती करते हैं. जिंदगी का पूरा लुत्फ उठाते हैं.’

‘यही तो सही अंदाज है जीने का.

लेकिन इधर मेरा पति बच्चे के लिए मेरे पीछे हाथ धो कर पड़ा है,’ कैथरीन मुंह बना कर बोली.

‘उसे बहलाना कौन सी बड़ी बात है. तू चुपचाप गर्भनिरोधक गोलियां खाती रह.

उसे पता भी न चलेगा. अब तुझे इतनी सी बात भी समझानी पड़ेगी क्या?’ डोरिस बोली.

‘मेरी मान, तू अपने पति को एक कुत्ते का पिल्ला भेंट कर दे. उस का दिल लग जाएगा. किस्सा खत्म,’ रूबी बोली तो सभी ठहाका लगा कर हंस पड़े.

दिन अच्छेभले गुजरते जा रहे थे. कैथरीन अपनी ही दुनिया में मस्त थी. तंद्रा भंग होते ही कैथरीन अभि और सुहानी के बीच जो खिचड़ी पक रही थी उस के बारे में सोचने लगी. उसे बिलकुल भी इस स्थिति का अंदाजा न था. अभि ने सहसा तलाक का नाम उछाल कर उसे सकते में डाल दिया था.

अभि का हाथ थाम कर वह अपने परिवार से दूर, अपने देश को छोड़ इतनी दूर चली आई थी. उसी अभि ने उसे बीच भंवर में ला कर उस से किनारा कर लिया था. कहां गए उस के लंबेचौड़े वादे. आजन्म साथ निभाने की कसमें. एक क्षण में उस का प्यार काफूर हो गया था.

उसे अपने हाल पर रोना आया. उस ने किसी का क्या बिगाड़ा था, जो उसे यहसजा मिली? उस ने सोचा. उस के मन ने उस की भर्त्सना की. क्या उस ने चौधरी पर झूठा इलजाम लगा कर उसे बेइज्जत नहीं किया? उसे नौकरी छोड़ने पर मजबूर नहीं किया? उस का पारिवारिक सुखचैन नष्ट नहीं किया? उस ने सुना था कि चौधरी की पत्नी ने उसे तलाक दे दिया था. यह सब मेरी वजह से हुआ, उस ने अपनेआप को धिक्कारा.

उसे बाद में जा कर पता लगा था कि दफ्तर में कुछ लोगों की चौधरी से दुश्मनी थी. उन्होंने जानबूझ कर उसे सरेआम बेइज्जत करने का प्लान बनाया था और इस काम के लिए कैथरीन को मुहरा बनाया गया था.

चंद रुपयों की खातिर मैं ने ऐसा किया, उस ने सोचा. आज मेरे पास पैसा है पर मन की शांति नहीं. मैं ने किसी और का घर उजाड़ कर अपना आशियाना बसाना चाहा था, आज मेरे पास घर है पर घर वाला जा चुका है.

कैथरीन ने चारों तरफ नजरें घुमाईं. शाम के झुटपुटे में उस का घर उजड़ा हुआ लग रहा था और उस के अंतरमन में एक गहन सन्नाटा पसरा हुआ था. उस के मन से एक हूक निकली, उस का इतनी लगन से सजाया घर आज सूना पड़ा था. अब उसे इस घर में अकेले रहना था. बिलकुल अकेले.

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