मेरे पति की स्मोकिंग से क्या फेफड़ों को खतरा है?

सवाल-

मेरे पति चेन स्मोकर थे, लेकिन अब उन्होंने स्मोकिंग काफी कम कर दी है. क्या उन के लिए फेफड़ों के कैंसर का खतरा अभी भी है?

जवाब-

स्मोकिंग, लंग कैंसर का सब से प्रमुख रिस्क फैक्टर है. सिगरेट से निकलने वाले धुएं में कार्सिनोजन यानी कैंसर का कारण बनने वाले तत्त्व होते हैं जो फेफड़ों की सब से अंदरूनी परत बनाने वाली कोशिकाओं को क्षतिग्रस्त कर देते हैं. आप के पति लगातार कई वर्षों तक धूम्रपान करते रहे हैं. इस से उन के फेफड़ों को काफी नुकसान पहुंच चुका होगा. इसलिए उन के लिए फेफड़ों के कैंसर की चपेट में आने का खतरा धूम्रपान न करने वालों की तुलना में काफी अधिक है. जोखिम को कम करने के लिए उन्हें स्मोकिंग पूरी तरह छोड़ने और ऐसी आदतें अपनाने के लिए प्रेरित करें जिन से उन के फेफड़े स्वस्थ रहें.

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वैसे तो सिगरेट से कैंसर होने का पता 4 दशक पहले चल गया था पर फिर भी आज भी सिगरेट्स इस कदर पी जा रही हैं कि हर साल 70 लाख लोग केवल धूएं के

कारण मरते हैं. फ्रांस में 34% लोग सिगरेट पीते हैं और भारत में 14% सिगरेटबीड़ी के आदी हैं. भारत का आंकड़ा कम इसलिए है कि यहां पानमसाले और खैनी में मिला कर तंबाकू ज्यादा खाया जाने लगा है.

वर्ल्ड हैल्थ और्गेनाइजेशन का कहना है कि सीमा में भी तंबाकू सेवन उसी तरह की गलतफहमी है जैसी कि शराब के बारे में है. थोड़े से सेवन से कुछ नहीं होता, नितांत गलत है. सिगरेट बीमारियां तो पैदा करेगी चाहे एक पीओ या 20. हां, कम पीने वालों के पास पैसे हों तो वे इलाज करा लेते हैं.

वैसे भी कम पीने का दावा करने वाले जब तनाव में होते हैं तो धड़ाधड़ पीने लगते हैं. उन्हें फिर कोई रोक नहीं पाता. दुनिया भर में 28 हजार अरब रुपए सिगरेट से होने वाले रोगों के इलाजों पर खर्च करे जाते हैं और टोबैको कंपनियां और व्यावसायिक अस्पताल इस लत का जम कर लाभ उठाते हैं.

घर में सिगरेट न घुसे यह जिम्मेदारी औरतों की है. उन्हें प्रेम करते समय ही इस पर पाबंदी लगा देनी चाहिए. जो सिगरेट पीए वह भरोसे का नहीं क्योंकि न जाने कब वह धोखा दे जाए. फिर घर में सिगरेट पीएगा तो बाकियों यानी छोटे बच्चों तक को दुष्प्रभाव झेलना पड़ेगा.

खांसी और साइनस से जुड़ी प्रौब्लम का इलाज बताएं?

सवाल-

मुझे पिछले कुछ दिनों से लगातार खांसी आ रही है. मैं यह जानना चाहती हूं क्या यह किसी गंभीर स्वास्थ्य समस्या का खतरा तो नहीं है?

जवाब-

खांसी दरअसल कोई स्वास्थ्य समस्या नहीं है बल्कि शरीर का एक मैकेनिज्म है गले को साफ करने का. चिंता की बात तब होती है जब बारबार खांसी आए या लंबे समय तक छुटकारा न मिले. दिन की शुरुआत कुनकुना पानी पीने से करें. खांसी की समस्या गंभीर है तो कफ सिरप लें. अगर यह उपाय करने के बाद भी खांसी ठीक न हो और लगातार 8 सप्ताह तक बनी रहे तो यह एक मैडिकल इमरजैंसी है जिस का उपचार कराना जरूरी है.

सवाल-

मु झे साइनस की समस्या है. मैं ने सुना है वसंत ऋतु में साइनस के लक्षण गंभीर हो जाते हैं. क्या इन्हें नियंत्रित रखने के लिए कुछ घरेलू उपाय किए जा सकते हैं?

जवाब-

वसंत ऋतु में फूल खिलने से उन लोगों की साइनस से संबंधित समस्या बढ़ जाती है जिन्हें पराग कणों से ऐलर्जी होती है. सर्दियों की तुलना में इस मौसम में वातावरण के दबाव में भी गिरावट आती है जिस से नेजल पैसेज की सब से अंदरूनी परत सूज जाती है. इस के कारण साइनस हैडेक ट्रिगर हो सकता है. शरीर में जल का स्तर बनाए रखने के लिए प्रतिदिन कम से कम 7-8 गिलास पानी पीएं. इस के अलावा ताजे और रसीले फलों तथा दूसरे तरल पदार्थों का भी सेवन करें. अगर मौसम में बदलाव के समय आप अकसर सर्दीजुकाम की शिकार हो जाती हैं तो ऐलर्जनों, संक्रमणों और प्रदूषकों से बचने के लिए जब भी बाहर निकलें नाक को ढक लें.

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ऐलर्जी इनसान के इम्यून सिस्टम की एक असामान्य प्रतिक्रिया है. परागकण, धूलकण, फफूंद, जानवरों के रोएं, कीटों के डंक, कुछ खाद्यपदार्थ, कैमिकल, दवाइयों आदि से ऐलर्जी हो सकती है.

1. ऐलर्जिक राहिनाइटिस (रनिंग नोज)

कारण:

ऐलर्जी राहिनाइटिस जिसे आमतौर पर हे फीवर भी कहते हैं, यह तब होता है जब हमारी रोग प्रतिरोधक प्रणाली हवा में मौजूद तत्त्वों के प्रति ओवररिऐक्ट करती है. हमारी रोग प्रतिरोधक प्रणाली को इस से छींकने और बहती नाक जैसे लक्षणों का सामना करना पड़ता है. इन तत्त्वों को ऐलर्जन यानी ऐलर्जी पैदा करने वाले तत्त्व कहा जाता है, जिस का अर्थ यह है कि ये ऐलर्जिक रिऐक्शन का कारण बनते हैं. कई तरह के ऐलर्जन जैसे परागकण, मिट्टी, धूलकण, पशुओं के रेशे और कौकरोच आदि ऐलर्जिक राहिनाइटिस का कारण बनते हैं. हालांकि प्रदूषित वायु ऐलर्जन नहीं होती, पर यह नाक और फेफड़ों को इरिटेट (उत्तेजित) कर सकती है. जब आप ऐलर्जन में सांस लेते हैं तब इरिटेट नाक या फेफड़ों द्वारा ऐलर्जिक रिऐक्शन का खतरा ज्यादा हो सकता है.

रोकथाम:

विशेषज्ञ ऐलर्जिक राहिनाइटिस की रोकथाम कैसे की जाए इस के बारे में अभी पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि व्यक्ति कई तरह के ऐलर्जन के संपर्क में आता है. धुआं और वायु प्रदूषण भी व्यक्ति को ऐलर्जी की चपेट में लाने में सहायक होते हैं.

उपचार:

इस का मुख्य उपचार ऐलर्जन से दूर रहना, लक्षणों को नियंत्रित करना और दवा के साथसाथ घरेलू उपचार और कुछ मामलों में इम्यूनोथेरैपी है. आप को कितनी बार ट्रीटमैंट करवाना है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप में कितनी बार इस के लक्षण नजर आए.

मेरे बेटे को बारबार निमोनिया क्यों हो रहा है?

सवाल-

मेरे बेटे की उम्र 4 साल है. उसे 3 बार निमोनिया हो चुका है. उसे बारबार निमोनिया क्यों हो रहा है और यह कितना खतरनाक है?

जवाब-

5 साल से छोटे बच्चों की इम्यूनिटी कम होती है. इसलिए उन के संक्रमण का शिकार होने की आशंका अधिक होती है. बच्चों में वायरस से होने वाले निमोनिया के मामले अधिक सामने आते हैं. बच्चों को निमोनिया से बचाने के लिए पीसीवी वैक्सीन लगाया जाता है. अगर आप ने अपने बच्चे को नहीं लगवाया तो जरूर लगवाएं. बच्चे की साफसफाई का ध्यान रखें. जब भी जरूरी हो उस के हाथ धुलवाएं. अपने बेटे को ऐसे लोगों से दूर रखें जो बीमार हों या जिन्हें श्वसन मार्ग का संक्रमण हो. आप इन बातों का ध्यान रखेंगी तो आप के बच्चे के लिए निमोनिया की चपेट में आने का खतरा कम हो जाएगा. आप किसी अच्छे बालरोग विशेषज्ञ से भी इस बारे में सलाह ले सकती हैं.

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मां का दूध शुरुआत से ही इम्यूनिटी को बूस्ट करने वाली ऐंटीबौडीज से भरपूर होता है. कोलोस्ट्रम, जो ब्रैस्ट मिल्क की पहली स्टेज कहा जाता है, ऐंटीबौडीज से भरा होता है. यह गाढ़ा व पीले रंग का होने के साथसाथ प्रौटीन, फैट सोलुबल विटामिंस, मिनरल्स व इम्मुनोग्लोबुलिंस में रिच होता है. यह बच्चे की नाक, गले व डाइजेशन सिस्टम पर प्रोटैक्टिव लेयर बनाने का काम करता है, जिसे अपने बच्चे की इम्यूनिटी को बूस्ट करने के लिए जरूर देना चाहिए.

फौर्मूला मिल्क में ब्रैस्ट मिल्क की तरह पर्यावरण विशिष्ट ऐंटीबौडीज नहीं होती हैं और न ही इस में शिशु की नाक, गले व आंतों के मार्ग को ढकने के लिए ऐंटीबौडीज यानी फौर्मूला मिल्क बेबी को कोई खास प्रोटैक्शन देने का काम नहीं करता है. इसलिए शिशु के लिए मां का दूध ही है सब से उत्तम व हैल्दी.

वर्ल्ड ब्रैस्ट फीडिंग वीक

वर्ल्ड ब्रैस्ट फीडिंग वीक दुनियाभर में 1 से 7 अगस्त तक मनाया जाता है, जिस का उद्देश्य ब्रैस्ट फीडिंग के प्रति मां व परिवार में जागरूकता पैदा करना होता है. साथ ही मां के पहले गाढ़े दूध के प्रति भ्रांतियों को भी दूर किया जाता है. इस में बताया जाता है कि जन्म के पहले घंटे से ही शिशु को मां का दूध दिया जाना चाहिए क्योंकि यह बच्चे के लिए संपूर्ण आहार होता है.

मां को दूध पिलाने में उस के परिवार, डाक्टर, नर्स को भी अहम योगदान देना चाहिए क्योंकि ब्रैस्ट फीड न सिर्फ बच्चे को बल्कि मां को भी बीमारियों से बचाने में मदद करता है. रिसर्च के अनुसार अब ब्रैस्ट फीडिंग के प्रति महिलाएं भी इस के महत्त्व को समझते हुए जागरूक हो रही हैं.

पूरी खबर पढ़ने के लिए- सुरक्षा कवच है मां का दूध

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समझें थायराइड के संकेत

था यराइड ग्रंथि शरीर की एक छोटी सी, लेकिन महत्त्वपूर्ण ग्रंथि है. इस के द्वारा स्रावित हारमोन शरीर की कई प्रमुख गतिविधियों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. जब इस ग्रंथि द्वारा स्रावित हारमोन असंतुलित हो जाते हैं तो उस का प्रभाव पूरे शरीर पर पड़ता है. जब ऐसा होता है तो शरीर कुछ संकेत देता है, लेकिन अकसर लोग इन्हें नजरअंदाज कर देते हैं क्योंकि इस तरह के संकेत कई और स्वास्थ्य समस्याओं में भी दिखाई देते हैं.

खानपान की गलत आदतों और खराब जीवनशैली के कारण युवा महिलाएं भी बड़ी तेजी से थायराइड से संबंधित गड़बडि़यों की शिकार हो रही हैं. थायराइड ग्रंथि से संबंधित समस्याएं महिलाओं और पुरुषों दोनों को हो सकती हैं. लेकिन इस के 60-70% मामले महिलाओं में ही सामने आते हैं. मीनोपौज की स्थिति में पहुंची महिलाओं में थायराइड की गड़बड़ी से ग्रस्त होने का खतरा युवा महिलाओं की तुलना में दोगुना हो जाता है.

थायराइड ग्रंथि

थायराइड एक तितली के आकार की छोटी सी ग्लैंड है जो गरदन के निचले हिस्से में पाई जाती है. इस का वजन तो औसतन 30 ग्राम होता है, लेकिन इस के कार्य बहुत महत्त्वपूर्ण हैं. थायराइड ग्रंथि को मस्तिष्क में स्थित पिट्युटरी ग्रंथि नियंत्रित करती है. यह थौरौक्सिन (टी3), ट्राईडोथौयरोनिन (टी4) और टीएसएच हारमोंस का स्राव करती है.

ये हारमोन शरीर की मैटाबोलिक क्रियाओं को नियंत्रित करते हैं. इसलिए इसे ‘मैटाबौलिज्म मैनेजर’ की संज्ञा दी जाती है. मैटाबौलिज्म की दर को स्थिर बनाए रखने के लिए इन हारमोंस का उचित मात्रा में स्रावित होना आवश्यक है. शरीर में इन हारमोंस के स्तर के कारण मैटाबौलिज्म की ‘दर तेज’ या ‘धीमी’ हो सकती है.

थायराइड ग्रंथि से संबंधित समस्याएं

थायराइड ग्रंथि से स्रावित हारमोंस में असंतुलन आने पर 2 तरह की समस्याएं हो जाती हैं:

हाइपरथायरोइडिज्म

हाइपरथायरोइडिज्म यानी थायराइड ग्रंथि की कार्यप्रणाली कम हो जाना. इस में थायराइड ग्रंथि इतनी सक्रिय नहीं रहती कि वह शरीर की आवश्यकता जितने हारमोंस स्रावित कर पाए. इन हारमोंस के कम स्राव से शरीर की मैटाबौलिक क्रियाएं धीमी पड़ जाती हैं.

लक्षण

– वजन बढ़ना.

– बाल झड़ना.

– नींद ज्यादा, दिनभर सुस्ती महसूस करना.

– ठंड ज्यादा लगना.

– शरीर फूल जाना.

– त्वचा रूखी हो जाना.

– पैरों में सूजन आना.

– मासिकधर्म के दौरान हैवी ब्लीडिंग होना

– कब्ज होना.

आप में ये सब लक्षण दिखें जरूरी नहीं है. इन में से 2-3 या फिर सभी लक्षण भी दिखाई दे सकते हैं.

उपचार

हाइपरथायरोइडिज्म का उपचार केवल दवाइयों से ही संभव है. इस के लिए रोज कृत्रिम थायराइड हारमोन लेना होता है. मुंह से ली जाने वाली यह दवा शरीर में हारमोंस के स्तर को पर्याप्त बनाए रखती है और लक्षणों में भी सुधार आने लगता है.

उपचार न कराने से होने वाली जटिलताएं

अगर हाइपरथायरोइडिज्म का उपचार न कराया जाए तो कोलैस्ट्रौल का स्तर और रक्तदाब बढ़ जाता है, जिस से कार्डियोवैस्क्युलर डिज होने का खतरा बढ़ जाता है. गर्भधारण करने में परेशानी आती है. मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है और अवसाद की चपेट में आने का खतरा बढ़ जाता है.

हाइपरथायरोइडिज्म

हाइपर थायराइडिज्म में थायराइड ग्रंथि बहुत सक्रिय हो जाती है जिस से हारमोंस का स्राव सामान्य से अधिक मात्रा में होने लगता है. ये हारमोंस रक्त में घुल जाते हैं और कोशिकाओं के मैटाबौलिज्म को स्टिम्युलेट करते हैं.

लक्षण

– भूख अधिक लगने के बावजूद वजन कम होना.

– गरमी अधिक लगना और पसीना आना.

– दिल की धड़कनें तेज हो जाना.

– घबराहट होना.

– नींद आने में परेशानी होना.

– लूज मोशन होना.

– गर्भधारण करने में परेशानी होना.

– अगर गर्भधारण कर लिया है तो गर्भपात का खतरा होना.

– आंखों का उभर आना.

उपचार

उपचार इस पर निर्भर करता है कि समस्या कितनी गंभीर है, मरीज का स्वास्थ्य कैसा है और उसे कोई दूसरी बीमारी तो नहीं है. हाइपरथायरोइडिज्म केलिए 3 तरह के उपचार उपलब्ध हैं. रेडियोएक्टिव आयोडीन थेरैपी, ऐंटीथायराइड मैडिकेशंस और सर्जरी.

रेडियोऐक्टिव आयोडीन थेरैपी

रेडियोऐक्टिव आयोडीन थेरैपी में ओवरऐक्टिव थायराइड की कार्यप्रणाली को धीमा करने के लिए रेडियोऐक्टिव आयोडीन दी जाती है. रेडियोऐक्टिव आयोडीन थायराइड ग्रंथि द्वारा अवशोषित हो जाती है, जिस से थायराइड ग्रंथि थोड़ी सिकुड़ जाती है और हारमोंस का स्राव कम मात्रा में करने लगती है.

ऐंटीथायराइड मैडिकेशंस

ये दवाइयां थायराइड ग्रंथि को अधिक मात्रा में हारमोंस के स्राव से रोकती हैं. इस से धीरेधीरे लक्षणों में सुधार आने लगता है.

सर्जरी

सर्जरी के द्वारा थायराइड ग्रंथि को

निकाल दिया जाता है. आमतौर पर हाइपरथायरोइडिज्म के उपचार के लिए डाक्टर सर्जरी नहीं करते हैं. सर्जरी तभी की जाती है जब महिला गर्भवती हो और ऐंटीथायराइड मैडिसिन नहीं ले सकती है या मरीज को कैंसरयुक्त नोड्यूल है.

थायराइड टैस्ट

थायराइड फंक्शनिंग टैस्ट एक ब्लड टैस्ट है. इस के द्वारा यह पता लगाया जाता है कि आप की थायराइड ग्रंथि कितने बेहतर तरीके से काम कर रही है. इस में टी3, टी3आरयू, टी4 और टीएसएच टैस्ट शामिल हैं.

कब शुरू करें: 35 वर्ष के बाद

कितने अंतराल के बाद: साल में 1 बार, मगर कई डाक्टरों के अनुसार प्रतिवर्ष थायराइड की जांच कराना जरूरी नहीं है जब तक कि थायराइड से जुड़े कुछ सामान्य लक्षण दिखाई न दें.

-डा. सुंदरी श्रीकांत

निदेशक, इंटरनल मैडिसिन, क्यूआरजी सुपर

स्पैश्यलिटी हौस्पिटल, फरीदाबाद –

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Diabetes में कैसी हो डाइट

आधुनिक जीवनशैली और खानपान की बदलती आदतों ने महिलाओं को जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों का आसान शिकार बना दिया है. डायबिटीज उन में से एक है. आंकड़ों के अनुसार वर्तमान में विश्वभर में 19-20 करोड़ महिलाएं डायबिटीज से पीडि़त हैं. अनुमान है कि 2040 तक यह संख्या बढ़ कर 31 करोड़ हो जाएगी.

डायबिटीज एक लाइलाज बीमारी है, इसे पूरी तरह ठीक नहीं किया जा सकता, लेकिन अनुशासित जीवनशैली, खानपान में सुधार, नियमित वर्कआउट, तनाव से बच कर और उचित दवाइयों का सेवन कर रक्त में शुगर के स्तर को नियंत्रित रख कर सामान्य जीवन जीया जा सकता है.

महिलाएं और डायबिटीज

बढ़ती आधुनिक सुखसुविधाओं ने महिलाओं की जीवनशैली में काफी परिवर्तन ला दिया है. इस के अलावा कामकाजी महिलाओं की लगातार बढ़ती संख्या के कारण जीवनशैली से जुड़ी हुई बीमारियों की शिकार महिलाओं के आंकड़े तेजी से बढ़ रहे हैं.

पिछले 2 दशकों में महिलाओं में डायबिटीज के मामलों में भी काफी वृद्धि हुई है. बढ़ता तनाव और घटती शारीरिक सक्रियता महिलाओं को डायबिटीज का आसान शिकार बना रही है. बदलती जीवनशैली के कारण उन की रोगप्रतिरोधक क्षमता भी कमजोर हो रही है, जिस से वे बीमारियों की आसान शिकार बन रही हैं. डायबिटीज पुरुषों और महिलाओं को समान रूप से ही प्रभावित करती है, लेकिन महिलाओं में इस के कारण जटिलताएं अधिक हो सकती हैं.

डाइट

डायबिटीज को नियंत्रित करने में खानपान सब से प्रमुख भूमिका निभाता है. दरअसल, डायबिटीज के मरीजों के लिए डायबिटिक डाइट जैसा कुछ नहीं होता है. उन्हें बैलेंस्ड डाइट का सेवन करना चाहिए. अपनी डाइट में ताजे फलों, सब्जियों, फलियों, दालों, साबूत अनाज, सूखे मेवों, बीजों सभी को शामिल करें. लेकिन डायबिटीज के मरीजों को सिर्फ इतना ध्यान रखना है कि उन्हें किस खाद्यपदार्थ को कितनी मात्रा में और कैसे खाना है.

आप गेहूं की रोटी खा सकती हैं, लेकिन ध्यान रखें वह चोकरयुक्त आटे से बनी हो. आटे में थोड़ा बेसन मिला लें तो ज्यादा बेहतर रहेगा. मल्टीग्रेन आटा भी चुन सकती हैं. आप दिन में एक बार उबले हुए और मांड निकले हुए एक छोटी कटोरी चावल भी खा सकती हैं.

रोज 200 ग्राम फल खाएं:

डायबिटीज के मरीजों के लिए सेब, संतरा, मौसमी, अंगूर, नाशपाती, पपीता जैसे फल अच्छे रहते हैं. उन्हें केले, चीकू, आम, पाइनऐप्पल जैसे फलों को खाने से बचना चाहिए. वैसे कभीकभी थोड़ी मात्रा में इन फलों का सेवन भी कर सकती हैं. रोज थोड़ी मात्रा में ड्राई फ्रूट्स का सेवन भी करें. दिन में 2 बार स्नैक्स भी लें. स्नैक्स में अंकुरित अनाज, सलाद, सूप आदि का सेवन करें. फाइबर युक्त खाद्यपदार्थों का इनटेक बढ़ा दें. फाइबर ग्लूकोस के अवशोषण को बेहतर बनाता है. रोजाना कम से कम 8 गिलास पानी पीना चाहिए.

जंक और प्रोसैस्ड फूड्स के सेवन से बचें क्योंकि इन में कैलोरी की मात्रा काफी अधिक होती है और पोषकता बिलकुल नहीं होती. इन का ग्लाइसेमिक इंडैक्स भी अधिक होता है, जिस से इन्हें खाने के बाद रक्त में शुगर का स्तर तेजी से बढ़ सकता है. चीनी, तलीभुनी चीजों, लाल मांस, चायकौफी, तंबाकू, शराब आदि के सेवन से बचें.

लाइफस्टाइल

अगर आप को डायबिटीज हो गई है तो अपने जीने के अंदाज में थोड़ा सा बदलाव लाएं. ये छोटेछोटे बदलाव आप के रक्त में शुगर के स्तर को नियंत्रित रखने में काफी सहायता कर सकते हैं.

अनुशासित जीवनशैली अपनाएं

अनुशासित जीवनशैली का पालन करें. नियत समय पर सोएं, जागें और खाएं. पेशेवर और पारिवारिक जीवन में संतुलन बनाए रखें. गैजेट्स के अत्यधिक इस्तेमाल से बचें. 7-8 घंटे की नींद लें. दिन में 3 बार मेगा मील खाने के बजाय 6 बार मिनी मील खाएं.

टीवी के सामने बैठ कर कभी न खाएं. इस से आप ओवर ईटिंग का शिकार हो सकती हैं. रात को सोने से 2 घंटे पहले खाना खा लें. रात को खाना खाने के बाद 15 मिनट टहलें. इस से पाचन भी अच्छा होगा और सुबह शुगर का स्तर भी सामान्य रहेगा.

नियमित रूप से वर्कआउट करें

अपनी शारीरिक सक्रियता बढ़ा दें. रोज 40-45 मिनिट अपना मनपसंद वर्कआउट करें. आप ऐरोबिक्स, साइक्लिंग, स्विमिंग, रनिंग, जौगिंग, वाकिंग आदि कर सकती हैं. नियमितरूप से वर्कआउट करने से वजन भी नहीं बढ़ेगा और रक्त में शुगर के स्तर को नियंत्रित करने में भी मदद मिलेगी. वर्कआउट का रक्त में शुगर के स्तर पर 12 घंटे तक प्रभाव रहता है.

तनाव से दूर रहें

मानसिक तनाव से बचें. तनाव के कारण रक्त में शुगर का स्तर बढ़ जाता है. कुछ महिलाएं मानसिक तनाव के कारण इमोशनल ईटिंग की शिकार हो जाती हैं, जो वजन और रक्त में शुगर का स्तर बढ़ने का कारण बन जाता है. मस्तिष्क को शांत रखने के लिए मनपसंद संगीत सुनें, किताबें पढ़ें या अपना कोई और शौक पूरा करें.

वजन न बढ़ने दें

मोटापे के कारण इंसुलिन की कार्यक्षमता कम हो जाती है. मोटी महिलाओं के शरीर में इंसुलिन होता तो है, लेकिन काम नहीं कर पाता, जिस से शुगर का स्तर बढ़ जाता है. वजन कम होने से इंसुलिन की कार्यक्षमता बढ़ती है. अपना स्वस्थ वजन बनाए रखें. अगर वजन अधिक है तो उसे कम करने का प्रयास करें.

अगर रोजाना आप अपनी जरूरत से 100-150 कैलोरी का इनटेक कम करेंगी तो 1 साल में बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के अपना वजन 9-10 किलोग्राम तक कम कर लेंगी.

दवा समय पर लें

अगर डाक्टर ने कोई दवा या इंसुलिन का इंजैक्शन लेने की सलाह दी है तो उसे नियमित समय पर लें. अपने डाक्टर के संपर्क में रहें.

ध्यान रहे

डायबिटीज के मरीजों के लिए डेल्ही डायबिटीज रिसर्च सैंटर द्वारा जारी दिशानिर्देशों के अनुसार, सभी मरीज जिन्हें डायबिटीज है उन्हें अपना ब्लड प्रैशर 130/80 से कम रखना चाहिए और खाली पेट रक्त में शुगर की मात्रा 110 मिलीग्राम और खाना खाने के 2 घंटे बाद 150 मिलीग्राम से कम रखें.

सब से जरूरी है महिलाएं अपनी कमर का घेरा 32 इंच से कम रखें. बुरे कोलैस्ट्रौल (एलडीएल) को 100 से कम और अच्छे कोलैस्ट्रौल (एचडीएल) 50 से अधिक रखें. ये सभी सावधानियां डायबिटीज के मरीजों को लंबा और सामान्य जीवन जीने में सहायक होती हैं.

-डा. ए.के.  झिंगन

चेयरमैन, डेल्ही डायबिटीज रिसर्च सैंटर, नई दिल्ली. 

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मेरे TB होने से बेटी को कोई खतरा तो नहीं?

सवाल-

मैं 26 वर्षीय एक घरेलू महिला हूं. मु झे किशोरावस्था में टीबी हो गई थी जो ठीक हो गई थी. मेरी 1 माह की बेटी है. कहीं उस के इस बीमारी की चपेट में आने का खतरा तो नहीं है?

जवाब-

अगर गर्भवती महिला को टीबी है और वह अपना सही उपचार करा रही है तो बहुत ही कम मामलों में ऐसा देखा जाता है कि गर्भस्थ शिशु इस का शिकार हो. खतरा तब बढ़ जाता है जब गर्भवती महिला अपना उपचार ठीक तरह से नहीं कराती. आप को घबराने की बिलकुल जरूरत नहीं है क्योंकि आप का टीबी का उपचार आप के मां बनने से बहुत पहले ही हो चुका था. अपने शिशु को बीसीजी वैक्सीन लगवाएं, यह बच्चों को माइकोबैक्टीरियम ट्यूबर्कुलोसिस के संक्रमण से बचाता है.

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ट्यूबरक्लोसिस यानी कि टीबी एक बैक्टीरियल इन्फेक्शन है जो कि सामान्यतः हमारे फेफड़ों को प्रभावित करती है. इस घातक बीमारी का सही समय पर सही इलाज ना करने पर जान भी जा सकती है. टीबी केवल फेफड़ों को ही नहीं हमारे दिमाग को भी प्रभावित कर सकती है. ऐसे में दिमाग के ऊतकों में सूजन आ जाती है. जिसे मेनिनजाइटिस ट्यूबरक्लोसिस, मेनिनजाइटिस या ब्रेन टीबी भी कहा जा सकता है.

आपके लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि यह बिमारी बच्चों और हर वर्ग के वयस्कों को हो सकती है. डाक्टर्स का कहना है कि भारत में टीबी के हर 70 मामलों में से बीस मरीज ब्रेन टीबी के होते हैं. आज हम आपको ब्रेन टीबी के लक्षणों और उसके उपचार के बारे में बताने जा रहे हैं.

ब्रेन टीबी के रिस्क फैक्टर्स

ज्यादा मात्रा में एल्कोहल का सेवन करने, एचआईवी एड्स, कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता और डायबिटीज मेलिटस ब्रेन टीबी के प्रमुख रिस्क फैक्टर्स हैं.

ब्रेन टीबी के लक्षण

ब्रेन टीबी के लक्षण शरीर में धीरे-धीरे उबरते हैं. शुरुआत में थकान, कम तीव्रता का बुखार, हमेशा बीमार बने रहना, मिचली, उल्टी, चिड़चिडापन और आलस जैसी समस्याएं सामने आती हैं. दिन-ब-दिन ये लक्षण और भी सख्त और खतरनाक होते जाते हैं.

सही डाइट से संभव है इलाज

आपकी सही डाइट ब्रेन टीबी के इलाज में अहम भूमिका निभा सकती है. इसके लिए रोगी को अपने डाइट में ताजे फल, सब्जियां और काफी मात्रा में प्रोटीन आदि खास तरह के पोषक तत्वों को जरूर शामिल करें. इनसे इम्यून सिस्टम मजबूत होता है और बीमारी से लड़ने में मदद मिलती है.

पूरी खबर पढ़ने के लिए- ब्रेन टीबी एक खतरनाक बीमारी, जानें इसके लक्षण और उपचार

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz   सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

कुछ महीनों से सीढि़यां चढ़ने में मेरी सांस बहुत फूलने लगती है, मैं क्या करूं?

सवाल-

मैं 42 वर्षीय कामकाजी महिला हूं. पिछले कुछ महीनों से सीढि़यां चढ़ने में मेरी सांस बहुत फूलने लगती है. मैं क्या करूं?

जवाब-

सांस फूलने का मतलब है कि शरीर को पर्याप्त मात्रा में औक्सीजन नहीं मिल पा रही है, जिस से फेफड़ों पर दबाव पड़ता है और वे औक्सीजन पाने के लिए सांस की गति को बढ़ा देते हैं. सांस फूलने की समस्या कई कारणों से हो सकती है जिन में मोटापा, हृदयरोग, शरीर में पानी की कमी, श्वसनतंत्र से संबंधित समस्याएं जैसे छाती का संक्रमण, ब्रोंकाइटिस, सांस की नली में रुकावट, अस्थमा, फेफड़ों का कैंसर आदि. इस के उपचार के लिए इस का कारण जानना बहुत जरूरी है. आप किसी डाक्टर को दिखाएं. अगर समय रहते इस समस्या का उपचार नहीं किया जाए तो यह घातक हो सकती है.

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पहले तो हार्ट अटैक बड़ी उम्र के लोगों में देखा जाता था पर पिछले 2 सालों से कम उम्र के युवा इसका शिकार होने लगे हैं. स्टडी है कि हर मिनिट में 3 से 4 भारतीय जिनकी उम्र 30 से 50 के मध्य है वो एक सीवियर हार्ट अटैक से गुजरते हैं .साउथ एशिया के लोग अन्य किसी भी जगह के लोगों की अपेक्षा ज्यादा हार्ट अटैक झेलते हैं .क्योंकि ये हाई ब्लड प्रेशर, टाइप टू डायबिटीज और बढ़े कोलेस्ट्रॉल से पीड़ित होते हैं.आखिर क्या कारण है कि युवा इतनी कम उम्र में दिल के मरीज़ हो जा रहे हैं तो आइए इसके कारण जानते हैं.

मानसिक तनाव –

आजकल युवा मानसिक रूप से अधिक परेशान होते हैं .धैर्य की कमी और काम के दौरान य्या उसकी वजह से होने वाले तनाव के कारण एंग्जायटी डिसऑर्डर होंना एक आम समस्या हो गई है .एंग्जायटी के कारण स्ट्रेस के लिए जिम्मेदार हार्मोन कार्टिसोल का स्तर बढ़ जाता है जिस से हार्ट अटैक की संभावना बढ़ जाती है.

लाइफ स्टाइल –

आजकल के युवाओं की जीवन शैली बहुत ही अलग हो गई है जिसके कारण उन्हें कईं बीमारियों का सामना करना पड़ता है जिनमे हार्ट अटैक भी एक है. देर रात तक जागना और काम करना सुबह सुबह सोना ये सब हाइपरटेंशन को बढ़ा देता है जिस से हार्ट अटैक की संभावना को बढ़ जाती है.बहुत देर तक फिजिकल वर्क नहीं करना भी सेहत पर विपरीत प्रभाव डालता है.आजकल समय की कमी के कारण चलना फिरना न के बराबर हो गया है.एक्सरसाइज नहीं करने से डायबिटीज और ओबेसिटी का खतरा बढ़ जाता है.जब ब्लड में शुगर का स्तर बढ़ता है तो क्लॉट होने के चांस बढ़ जाते हैं जिस से हार्ट अटैक आ सकता है.ये आर्टरीज की दीवारों में सूजन का कारण बनता है जिस से हार्ट अटैक हो सकता है. घर से आफिस गाड़ी में जाना और वहाँ भी बैठे हुए काम करना भी सेहत के लिए हानिकारक है.वैसे ही हमारे देश को डायबिटीज कैपिटल के रूप में जाना जाता है.

पूरी खबर पढ़ने के लिए- क्यों होते हैं कम उम्र में हार्ट अटैक

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बढ़ते वजन पर रखें नजर

दिल्ली की 32 वर्षीय गृहिणी शुचिका चौहान अपने बढ़ते वजन को अपनी शारीरिक सुंदरता में एक बड़ी कमी मानते हुए कहती है, ‘‘खाने की अधिकता और शारीरिक श्रम की कमी के कारण बढ़ता मोटापा ही मेरी परेशानी की वजह है और मु झे डर है

कि कहीं आगे यह और न बढ़ जाए, इसलिए मैं ने इसे नियंत्रित करने पर ध्यान देना शुरू कर दिया है.’’

मगर उच्च रक्तचाप, कैंसर, मधुमेह, हृदय संबंधी रोग आदि भयंकर बीमारियों को बुलावा देने वाले इस मोटापे की चपेट में आने के कई कारण हो सकते हैं जिन्हें नजरअंदाज कर लोग बढ़ते वजन की समस्या का शिकार होते चले जाते हैं.

इस की असल वजह है अस्वास्थ्यकर खुराक भरी स्टार्चयुक्त भोजन, फलों तथा सब्जियां रहित खाना और शारीरिक श्रम का अभाव. महिलाओं के लिए भी खतरा कम नहीं है. देश में पुरुषों से ज्यादा स्त्रियां खासकर 35 से ज्यादाकी आयु वाली अधिक वजन की है.

कारण

महिलाओं में मोटापे के कारणों पर गौर किया जाए तो इस के प्रमुख कारणों में सब से अहम कारण है आरामतलबी होना और परिश्रम न करना जिसे इस परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है कि घरों में रहने वाली साधनसंपन्न महिलाएं अधिकतर कामों के लिए नौकरों पर निर्भर रहती हैं तथा घर में ही बैठेबैठे मनोरंजन के साधनों टीवी, मोबाइल और इंटरनैट आदि से दिनभर का टाइम पास करती हैं और इसी के साथ ही जब चाहें खाने का मन होने पर अपने मनपसंद भोजन का लुत्फ  उठाना भी उन की रोजमर्रा की आदतों में शुमार हो जाता है जिस का नतीजा होता कि मोटापा शरीर के कुछ अंगों- पेट, जांघों, नितंबों, कमर आदि को अनावश्यक रूप से फुलाते हुए अपने आसपास के अंगों को दबाता चला जाता है और पूरे शरीर को अपने कब्जे में ले लेता है.

स्वास्थ्य के लिए शारीरिक श्रम को महत्त्वपूर्ण बताते हुए ‘केयर’ की डाइटीशियनों का कहना है जितनी मात्रा में प्रतिदिन भोजन से कैलोरी प्राप्त की जाती है उस का उतनी मात्रा में उपयोग न हो पाने के कारण शरीर में कैलोरी की मात्रा बढ़ती चली जाती है और फैट जमा होने लगता है. यही कारण है कि एक ही जगह बैठे रह कर काम करते रहने वाले ऐसे लोग जो ज्यादा वर्कआउट नहीं करते मोटे होते चले जाते हैं.

मौडर्न लाइफस्टाइल

समय की कमी होने की वजह से जहां नौकरीपेशा व पढ़ाई में व्यस्त युवकयुवतियों को मजबूरी में ज्यादातर जंकफूड या बाहर के खाने का सहारा लेना पड़ता है तो कुछ लोगों जैसे कालेज स्टूडैंट्स आदि के लिए भूख लगने पर उन के पसंदीदा भोजन के रूम में पिज्जा, बर्गर चाउमीन आदि फास्ट फूड ही लेना होता है.

इस के अतिरिक्त ज्यादा से ज्यादा घर से बाहर रैस्टोरैंट आदि और फूड डिलिवरी पर निर्भर रहने वालों में खाना खाने का शौक रखने वाली महिलाएं स्वाद लेने के चक्कर में उस औयली खाने के दुष्प्रभावों की ओर भी ध्यान नहीं देतीं जिस का परिणाम यह होता है कि कुछ समय बाद स्टेटस सिंबल समझते हुए रैस्टोरैंट में लंच या डिनर करने का यह शौक अथवा मौडर्न लाइफस्टाइल मोटापे के रूप में बहुत महंगा पड़ता है. कोविड के दिनों में रैस्टोरैंटों का खाना घर पर पहुंचने लगा है और एक तरह से अब या फैशन हो गया है. डिलिवरी ऐप्स के खाने को पोर्शन बड़ा होता है और ज्यादा खाया जाता है.

खानपान से परहेज

हमारे यहां गर्भवती होने पर स्त्रियों को गर्भवती के नाम पर अनावश्यक खिलाते रहना एक नियम सा बना हुआ है. प्रसव के बाद भी मेवों का अधिक सेवन कराना और शारीरिक श्रम कम करना व कहीं बाहर जाने के बजाय घर में ही बने रहने आदि से भी मोटापा बढ़ने लगता है.

स्त्रियों में 3 बार बड़े शारीरिक बदलाव होते हैं- मासिकधर्म पर, गर्भधारण पर और मासिकधर्म बंद होने पर. इन तीनों मौकों पर उन के शरीर का वजन आमतौर पर बढ़ता ही है. इस विषय में हमें जानकारी देते हुए डाक्टर कहते हैं कि यदि कोई महिला डिलिवरी के बाद अधिक रैस्ट करती है या फिर उस समय संतुलित मात्रा में सही भोजन का सेवन नहीं करती तो उसे वजन बढ़ने की समस्या का सामना करना पड़ सकता है.

इसी तरह मासिकधर्म होने के समय हारमोनल डिस्टरबैंस की वजह से पीरिएड्स लेट होने या अनियमित होने व मेनोपौज के बाद भी वजन बढ़ सकता है. ऐसी स्थिति में जब तक ऐक्सरसाइज न की जाए तब तक मोटापा कम नहीं होता.

वैसे इस के अतिरिक्त भी अगर वजन बढ़ने के कारणों पर ध्यान दिया जाए तो मोटापे का एक कारण जेनेटिक भी हो सकता है. मांबाप से आने वाले डीएनए के वे छोटेछोटे हिस्से ही जो बालों या आंखों का रंग निर्धारित करते हैं वजन बढ़ाने में भी अहम भूमिका निभा सकते हैं.

आजकल और्गेनिक फूड के नाम पर कुछ भी खा लेना एक और खतरा बनता जा रहा है. और्गेनिक फूड नुकसान नहीं करेगा, यह सोच खाने की मात्रा को भी प्रभावित कर डालती है.

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Periods में क्लौट्स आने से हीमोग्लोबिन कम हो गया है, मैं क्या करुं?

सवाल-

मैं 31 साल की विवाहिता हूं. 7 महीने पहले कंडोम फट जाने से मेरा गर्भ ठहर गया था. लेकिन हम बच्चा नहीं चाहते थे, इसलिए मैं ने डी ऐंड सी करवा ली थी. सफाई के बाद मुझे अगले 15 दिन रक्तस्राव होता रहा. समस्या यह है कि तभी से मुझे मासिकधर्म के समय अधिक खून जाने लगा है, जिस में क्लौट्स भी आते हैं. मेरा हीमोग्लोबिन घट गया है और मुझे बहुत कमजोरी लगने लगी है. मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब-

मासिकधर्म के समय अधिक खून जाने के कई कारण हो सकते हैं. इन में पेड़ू की सूजन, गर्भाशय की रसौली, डिंब ग्रंथि की रसौली, एंडोमिट्रियासिस और कौपर टी वगैरह आम कारण हैं. कई शारीरिक विकार जैसे थायराइड, ऐनीमिया, रक्त कैंसर और ब्लड क्लौटिंग तत्त्वों की कमी होने से भी अधिक रक्त जा सकता है. आप की समस्या किस वजह से है, इस का पता लगाने के लिए आप किसी कुशल स्त्रीरोग विशेषज्ञा से चैकअप करवाएं. शरीर में आई खून की कमी को दूर करने के लिए अपने आहार पर विशेष ध्यान दें. कुछ महीनों के लिए आयरन और विटामिनों की पूर्ति के लिए गोली या कैप्सूल भी ले सकती हैं.

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क्या आप आपके शरीर में हीमोग्लोबिन की पर्याप्त और सही मात्रा के बारे में जानते हैं. पुरुषों में हीमोग्लोबिन की सही मात्रा 14 से 17 ग्राम/100 मिली. रक्त होती है, वहीं स्त्रियों में ये मात्रा 13 से 15 ग्राम/100 मिली. रक्त होती है. शिशुओं के शरीर में हीमोग्लोबिन की मात्रा लगभग 14 से 20 ग्राम/100 मिली. रक्त होनी चाहिए.

यहां हम आपको एक बहुत ही साधारण सी बात बता देना चाहते हैं कि दिन में एक सेब अवश्य खाकर आप आपके शरीर में हीमोग्लोबिन स्तर को सामान्य बनाए रख सकते हैं. इसके अलावा इन बातों का ध्यान रख कर भी आप अपने शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी होने से रोक सकते हैं.

स्वास्थ्यवर्ध्क गुणों से भरपूर लीची, रक्त कोशिकाओं के निर्माण और पाचन-प्रक्रिया में सहायक होती है. लीची में बीटा कैरोटीन, राइबोफ्लेबिन, नियासिन और फोलेट जैसे विटामिन बी उचित मात्रा में पाया जाता है. इसमें मौजूद विटामिन लाल रक्त कोशिकाओं के निर्माण के लिए आवश्यक है.

शरीर में हीमोग्लोबिन का स्तर बढ़ाने के लिए चुकंदर सबसे अच्छा खाद्य प्रदार्थ है. चुकंदर पोषक तत्वों की खान है. इसमें आयरन, फोलिक एसिड, फाइबर, और पोटेशियम ये सभी सही मात्रा में पाया जाता है. ये शरीर की लाल रक्त कोशिकाओं की संख्या में तेजी से वृद्धि करता है.

इनके अलावा अनार हीमोग्लोबिन बढ़ाने में बहुत लाभकारी होता है. अनार में आयरन और कैल्शियम के साथ-साथ प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और फाइबर जैसे तत्व होता हैं, जिनसे शरीर में हीमोग्लोबिन की मात्रा बढ़ाने में मदद मिलती है.

गुड़ का सेवन करना भी एक बेहद उत्तम तरीका है. गुड़ में आयरन फोलेट और कई विटामिन बी शामिल हैं जो हीमोग्लोबिन स्तर को बढ़ाने के लिए और लाल रक्त कोशिकाओं के उत्पादन में मददगार होते हैं.

पूरी खबर पढ़ने के लिए- हीमोग्लोबिन की कमी को ऐसे पूरा करें

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बादाम तेल के 11 फायदे

बादाम सेहत और खूबसूरती दोनों के लिए फायदेमंद होता है. बादाम का तेल भी कई तरह से फायदे पहुंचाता है. बादाम में 44% तेल होता है, जिसे कोल्ड प्रैस कर के निकाला जाता है. बादाम के तेल में ऐंटीइनफ्लैमेटरी, इम्यूनिटी बूस्टिंग सहित कई गुण होते हैं. इस में विटामिन और मिनरल्स की भरपूर मात्रा होती है. पोषक तत्त्वों से भरपूर बादाम का तेल कई बीमारियों से दूर रखता है. बादाम तेल से बच्चों की मालिश की जाए तो उन का शारीरिक विकास तेजी से होता है.

बादाम तेल के कुछ ऐसे गुणों के बारे में जानिए जो खूबसूरती बरकरार रखने के साथसाथ आप को हैल्दी रखने में भी मदद करते हैं:

1. त्वचा के लिए फायदेमंद:

बादाम तेल का खूबसूरती निखारने में जवाब नहीं. यह चेहरे की रंगत निखारने के साथसाथ उसे ग्लो देने में भी बहुत असरदार होता है. इस से त्वचा को सही मात्रा में पोषण मिलता है, जिस से वह पहले से ज्यादा चमकदार और मुलायम हो जाती है. बादाम तेल में ग्लाइकोसाइड ऐमिगडेलिन होता है जो रफ त्वचा, झाइयों, अल्ट्रावायलेट किरणों से हुए स्किन को नुकसान आदि में फायदेमंद होता है. जिन लड़कियों को बाहर रहना पड़ता हो और स्किन सांवली या काली हो गई हो, उन के लिए बादाम तेल के निर्माता इसे फायदेमंद बताते हैं.

2. डार्क सर्कल्स के लिए फायदेमंद:

डार्क सर्कल्स जैसे समस्या से भी नजात पाने के लिए आप बादाम तेल का इस्तेमाल कर सकती हैं. रात को सोने से पहले आंखों के नीचे इस तेल से मालिश करें. इस तेल से हलकी मालिश करने से बहुत फायदा मिलता है.

3. जब हो जाए टैनिंग:

विभिन्न गुणों से भरपूर है यह तेल नैचुरल सनस्क्रीन की तरह भी काम करता है. टैनिंग से बचने या टैनिंग रिमूव करने के लिए बादाम तेल का इस्तेमाल कर सकती हैं. यह सूर्य की अल्ट्रावायलैट किरणों से त्वचा की रक्षा करने में मदद करता है. सेल्स गर्ल, फिजिकल क्लासें लेने वाली टीचर्स, खेलों में काम करने वाली लड़कियों को इस तेल का इस्तेमाल करना फायदेमंद हो सकता है.

4. डैंड्रफ से छुटकारा:

बादाम तेल डैड सैल्स को हटा कर डैंड्रफ से छुटकारा दिलाता है. बालों को डैंड्रफ फ्री और हैल्दी रखने के लिए इस तेल की मसाज के बाद हेयर स्टीम जरूर लें. इस से बालों की सौफ्टनैस और वौल्यूम दोनों में फर्क नजर आएगा.

5. स्प्लिट एंड्स से छुटकारा:

बालों को स्प्लिट एंड्स से छुटकारा दिलाना है तो समय पर ट्रिमिंग कराने के साथसाथ हलके गरम बादाम तेज को बालों के जड़ों और बालों के लंबाई के आखिर में लगाएं. इस से बालों का रूखापन खत्म होगा और स्प्लिट एंड्स से छुटकारा मिलेगा.

6. हृदय रोगों से सुरक्षा:

बादाम तेल में मौजूद मोनोअनसैचुरेटेड फैट एलडीएल यानी खराब कोलैस्ट्रौल को कम करता है और एचडीएल यानी अच्छे कोलैस्ट्रौल को बढ़ाता है जो रक्तचाप व हृदय की समस्याओं को कम करते हैं.

7. डायबिटीज:

बादाम का तेल ब्लड शुगर को कम करने में मदद कर सकता है.

8. वजन कम करने में सहायक:

बादाम के तेल के फायदों में वजन कम करना भी शामिल है. बादाम में मौजूद मोनोअनसैचुरेटेड फैट वजन घटाने में मदद सकता है.

9. आंखों के लिए फायदेमंद:

बादाम के तेल में मिलने वाला विटामिन ई आंखों को स्वस्थ बनाने का काम करता है. बादाम के तेल में अल्फाटोकोफेरोल नामक विटामिन ई मौजूद होता है जो बूढ़ी होती आंखों की रोशनी को भी बढ़ा सकता है.

10. पाचन की समस्याओं में लाभकारी:

बादाम का तेल कब्ज, डायरिया, पेट दर्द आदि को दूर करता है.

11. बच्चों के लिए फायदेमंद:

शिशु के त्वचा के लिए बादाम तेल बहुत फायदेमंद होता है क्योंकि इस में विटामिन ए, बी-1, बी-2, बी-6 विटामिन ई और आवश्यक फैटी ऐसिड होते हैं, जो शिशु की त्वचा को पोषित करने के साथसाथ उस की रंगत निखारने में भी मदद करते हैं. इस से शिशु की त्वचा मुलायम रहती है.

शिशु के शारीरिक विकास के लिए बादाम तेल से नियमित मालिश करें. इस से शिशु के शरीर के मांसपेशियों को मजबूती मिलती है. सर्दियों के मौसम में तो यह और भी फायदेमंद होता है.

बादाम तेल में मौजूद औमेगा-6 फेटी ऐसिड फायदेमंद होता है. इसे आप दूध में मिला कर बच्चों को दे सकती हैं.

गर्भावती महिलाओं के लिए:

गर्भावस्था में बादाम तेल का सेवन करना बहुत फायदेमंद होता है. गर्भावस्था में बादाम तेल के सेवन से डिलिवरी के नौर्मल होने की संभावना बढ़ जाती है. इस में मौजूद फौलिक ऐसिड, आयरन, कैल्सियम और दूसरे पोषक तत्त्व मां और बच्चा दोनों को फायदा पहुंचाते हैं. इस में भरपूर मात्रा में आयरन होता है, जो हीमोग्लोबिन के स्तर को बढ़ाने का काम करता है. इस में मौजूद कैल्सियम और मैग्नीशियम दोनों शरीर की कई आवश्यकताओं को पूरा करते हैं.

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