एक नई पहल: भाग 3- जब बुढा़पे में हुई एक नए रिश्ते की शुरुआत

अब तक मैं जूही के साथ एक दोस्त की तरह काफी खुल चुकी थी, ‘‘जो काम बच्चों के लिए मांबाप करते हैं, वही काम बच्चों को आज उन के लिए करना होगा, यानी आप पहले अपने पति को मनाएं फिर रिश्ता ले कर शर्माजी के बेटेबहुओं से मिलें…हो सकता है पहली बार में वे लोग मान जाएं…हो सकता है न भी मानें. स्वाभाविक है उन्हें शाक तो लगेगा ही…आप को कोशिश करनी होगी…आखिर आप की ‘ममा’ की खुशियों का सवाल है.’’

एक सप्ताह तक मैं जूही के फोन का इंतजार करती रही. धीरेधीरे इंतजार करना छोड़ दिया. मैं ने पार्क जाना भी छोड़ दिया…पता नहीं सुमेधा आंटी या अंकल का क्या रिएक्शन हो. शायद बात नहीं बनी होगी. पार्क में सैर करने जाने का उद्देश्य ही दम तोड़ चुका था. मन में एक टीस सी थी जिस का इलाज मेरे पास नहीं था. अपनी तरफ से जो मैं कर सकती थी किया, अब इस से ज्यादा मेरे हाथ में नहीं था.

एक दोपहर, बेटी के स्कूल से आने का समय हो रहा था. टेलीविजन देख कर समय पास कर रही थी कि फोन की घंटी बज उठी.

‘‘क्या मालिनीजी से बात हो सकती है?’’ उधर से आवाज आई.

‘‘जी, बोल रही हूं,’’ मैं ने दिमाग पर जोर डालते हुए आवाज पहचानने की कोशिश की पर नाकाम रही, ‘‘आप कौन?’’ आखिर मुझे पूछना ही पड़ा.

‘‘देखिए, मैं सुमेधाजी का बेटा अजय बोल रहा हूं. आप मेरी पत्नी से क्याक्या कह कर गई थीं…मैं और मेरी ममा आप से एक बार मिलना चाहते हैं…क्या आप शाम को हमारे घर आ सकेंगी?’’

अजय की तल्खी भरी आवाज सुन कर एक बार को मैं सकपका गई, फिर जैसेतैसे हिम्मत कर के कहा, ‘‘देखिए, यह आप के घर का मसला है…’’

ये भी पढे़ं- Short Story: लिफाफाबंद चिट्ठी

बीच में ही बात काट कर वह बोला, ‘‘जब जूही से आप बात करने आई थीं तब आप को नहीं पता था कि यह हमारे घर का मसला है. खैर, आप यह बताइए कि आप आएंगी या मैं जूही और ममा के साथ आप के घर आ जाऊं? पार्क के सामने वाले फ्लैट में आप का नाम ले कर पूछ लेंगे…तो घर का पता चल ही जाएगा.’’

मैं ने सोचा अगर कहीं ये लोग सचमुच घर आ गए तो बेवजह का यहां तमाशा बन जाएगा. मेरे पति मुझे दस बातें सुनाएंगे. उन से तो मुझे इस मामले में किसी सहयोग की उम्मीद नहीं थी. अब क्या करूं.

‘‘अच्छा, ठीक है…मैं आ जाऊंगी…कितने बजे आना है?’’ हार कर मैं ने पूछ ही लिया.

‘‘7 बजे तक आप आ जाइए.’’

मैं ने अपने पति को इस बारे में बताया तो था लेकिन विस्तार से नहीं. शाम 5 बजे मैं ने पति को फोन किया, ‘‘मुझे सुमेधा आंटी के घर जाना है.’’

‘‘अभी खत्म नहीं हुई तुम्हारी सुमेधा आंटी की कहानी,’’ पति बोले, ‘‘खैर, कितने बजे जाना है?’’

‘‘7 बजे, आतेआते थोड़ी देर हो जाएगी.’’

रास्ते भर मेरे दिमाग में उथलपुथल मची हुई थी. मन में तरहतरह के सवाल उठ रहे थे…अगर उन्होंने मुझे ऐसा कहा तो मैं यह कहूंगी…वह कहूंगी पर क्या मैं ने उन लोगों को गलत समझा…क्या वे ऐसा नहीं चाहते थे…नहीं चाहते होंगे तभी आंटी भी मुझ से बात करना चाहती हैं…

दरवाजा जूही ने खोला था. ‘हैलो’ कर के मुझे सोफे पर बैठा कर वह अंदर चली गई.

उस के पति ने बाहर आते ही नमस्ते का जवाब दे कर बैठते ही बिना किसी भूमिका के बात शुरू कर दी, ‘‘दिखने में तो आप ठीकठाक लगती हैं, लेकिन लगता है समाज सेविका बनने का शौक रखती हैं. समाजसेवा के लिए आप को सब से पहले हमारा ही घर मिला था?’’

मैं डर गई. मौन रही, लेकिन फिर पता नहीं कहां से मुझ में बोलने की हिम्मत आ गई, ‘‘मि. अजय, इस में समाजसेवा की बात नहीं है. मुझे जो महसूस हुआ मैं ने वह कहा और मेरे दिल ने जो कहा मैं ने वही किया. जब दो प्यार करने वाले लड़कालड़की को उन के मांबाप एक बंधन में खुशीखुशी बांध देते हैं तो बच्चे अपने मांबाप के प्यार को एक होते क्यों नहीं देख पाते? समाज क्यों इसे असामाजिक मानता है? क्या बड़ी उम्र में प्यार नहीं हो सकता? और हो जाए तो कोई क्या करे? प्यार करना क्या पाप है…नहीं…प्यार किसी भी उम्र में पाप नहीं है…वैसे भी इस उम्र का प्यार तो बिलकुल निश्छल और सात्विक होता है, इस में वासना नहीं, स्नेह होता है…शुद्ध स्नेह…

‘‘इतने अनुभवी 2 लोग दूसरे की भावनाओं को समझते हुए संभोग के लिए नहीं, सहयोग के लिए मिलन की इच्छा रखते हैं. इस में क्या गलत है, अगर हम उन की इच्छाओं को समझते हुए उन के मिलन के साक्षी बनें. बच्चों की हर इच्छा पूरी करना यदि मांबाप का फर्ज है तो क्या बच्चों का कोई फर्ज नहीं है? क्या बच्चे हमेशा स्वार्थी ही रहेंगे…बाकी आप की मां हैं, आप जानें और वह…मुझे तो उन से एक अनजाना सा स्नेह हो गया है, एक अजीब सा रिश्ता बन गया है, उसी के नाते मैं ने उन के दिल की बात समझ ली थी…शायद मैं अपनी हद से आगे बढ़ गई थी…’’

ये भी पढ़ें- फुल टाइम मेड: क्या काजोल के नखरे झेलने में कामयाब हुई सुमी ?

इतना कह कर मैं वहां से चलने को तत्पर हुई तभी अंदर से तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई दी. सामने कमरे के दरवाजे से 3 दंपती तालियां बजाते हुए ड्राइंगरूम में प्रवेश कर रहे थे. सभी के चेहरे पर हंसी थी. अब तक जूही और अजय भी उन में शामिल हो गए थे. मैं समझ नहीं पाई कि माजरा क्या है. तभी उन के पीछे 3-4 छोटेछोटे हाथों का सहारा ले कर सुमेधा आंटी और शर्मा अंकल चले आ रहे थे.

जूही ने मेरे पास आ कर मेरा सब से परिचय करवाया, ‘‘ये शर्मा अंकल के दोनों बेटेबहुएं और ये मेरी प्यारी सी ननद और उन के पति हैं और वह जो तुम देख रही हो न नन्हे शैतान, जो ‘ममा’ के साथ खडे़ हैं, वे शर्मा अंकल के दोनों पोते और पोती हैं और अंकल के साथ मेरी ननद का बेटा और मेरा बेटा है. बच्चों ने कितनी जल्दी अपने नए दादादादी और नानानानी को स्वीकार कर लिया. ये तो हम बडे़ ही हैं जो हर काम में देर करते हैं.

‘‘मालिनी, आज से मेरी एक नहीं दो ननदें हैं,’’ जूही भावुक हो कर बोली, ‘‘उस दिन तुम्हारी बातों ने मुझ पर गहरा असर डाला, लेकिन सब को तैयार करने में मुझे इतने दिन लग गए. शायद तुम्हारी तरह सच्ची भावना की कमी थी या फिर एक ही मुलाकात में अपनी बात समझा पाने की कला का अभाव…खैर, अंत भला तो सब भला.’’

मैं बहुत खुश थी. तभी जूही मेरे हाथ में 2 अंगूठियां दे कर बोली, ‘‘मालिनी दी, यह शुभ काम आप के ही हाथों अच्छा लगेगा.’’

मैं हतप्रभ सी अंगूठियां हाथ में ले कर अंकलआंटी की ओर बढ़ चली. मैं स्वयं को रोक नहीं पाई. मैं दोनों के गले लग गई…उन दोनों के स्नेहिल हाथ मेरे सिर पर आशीर्वाद दे रहे थे.

ये भी पढ़ें- संपूर्णा: पत्नी को पैर की जूती समझने वाले मिथिलेश का क्या हुआ अंजाम

Mother’s Day Special: जिद- मां के लाड़दुलार के लिए तरसी थी रेवा

Mother’s Day Special: जिद- भाग 1- क्यों मां के लाड़दुलार के लिए तरसी थी रेवा

रेवा अपनी मां की मृत्यु का समाचार पा कर ही हिंदुस्तान लौटी. वह तो भारत को लगभग भूल ही चुकी थी और पिछले कई वर्षों से लास एंजिल्स में रह रही थी. उस ने वहीं की नागरिकता ले ली थी. पिता के न रहने पर करीब 15 वर्ष पूर्व रेवा भारत आई थी. यह तो अच्छा हुआ कि छोटी बहन रेवती ने उसे तत्काल मोबाइल पर मां के न रहने का समाचार दे दिया था. इस से उसे अगली ही फ्लाइट का टिकट मिल गया और वह अपने सुपरबौस की मेज पर 15 दिन की छुट्टी की अप्लीकेशन रख कर, तत्काल फ्लाइट पकड़ने निकल गई. मां का अंतिम संस्कार उसी की वजह से रुका हुआ था. सख्त जाड़े के दिन थे. घाट पर रेवा, रेवती और उस के पति तथा परिवार के अन्य दूरपास के सभी नातेरिश्तेदार भी पहुंचे हुए थे. यद्यपि घाट पर छोटे चाचा और मौसी का बड़ा लड़का भी मौजूद थे लेकिन इस का समाधान घाट के पंडितों द्वारा ढूंढ़ा जा रहा था कि दोनों बहनों में से किस के पास मां को मुखाग्नि देने का अधिकार अधिक सुरक्षित है, तभी रेवती ने प्रस्तावित किया, ‘‘पंडितजी, मां को मुखाग्नि देने का काम बड़ी बेटी होने के कारण रेवा दीदी करेंगी. उन्होंने ही हमेशा मां के बड़े बेटे होने का फर्ज निभाया है.’’

काफी देर बहस होती रही. आखिर में बड़ी जद्दोजेहद के बाद यह निर्णय हुआ कि यह कार्य रेवा के हाथों ही संपन्न करवाया जाए. हमेशा जींसटौप पहनने वाली रेवा, आज घाट पर पता नहीं कहां से मां की साड़ी पहन कर आई थी और एकदम मां जैसी ही लग रही थी. ऐसा लग रहा था कि मां से हमेशा खफाखफा रहने वाली रेवा के मन पर मां के चले जाने का कुछ तो असर जरूर हुआ है. अगले 3-4 दिन बड़ी व्यस्तता में बीते. मां की मृत्यु के बाद के सभी संस्कार विधिविधान से संपन्न किए गए. पंडितों के अनुसार, बरसी का हवनयज्ञ आदि 10 दिन से पहले करना संभव नहीं होगा. रेवा के वापस जाने से 2 दिन पूर्व की तिथि नियत की गई. अगले दिन रेवती ने घर की साफसफाई की जिम्मेदारी संभाल ली. रेवा ने पहले ही कह दिया, ‘‘तू मां की लाड़ली बिटिया थी, इसलिए मां का ये घर, सामान, जमीनजायजाद व धनसंपत्ति, अब तू ही संभाल. न तो मेरे पास इतनी फुरसत है, न ही मुझे इस की जरूरत. और सुन, अब मैं इंडिया नहीं आ सकूंगी, इसलिए अपने पति शरद से पूछ कर, अगर कहीं मेरे हस्ताक्षर की जरूरत हो तो अभी करा ले.

ये भी पढ़ें- अविश्वास: बहन रश्मि के मां बनने पर शिखा क्यों जलने लगी

आखिर तू ही तो मां की असली वारिस है. मैं तो वर्षों पहले यहां से विदेश चली गई और वहीं की ही हो कर रह गई. तू ने ही मां और पापा की देखभाल की है, उन्हें संभाला है. समझी कि नहीं, रेवती की बच्ची.’’ रेवा दीदी के मुंह से काफी दिनों बाद ‘रेवती की बच्ची’ सुन कर रेवती को बड़ा अच्छा लगा जैसे बचपन के कुछ क्षण फिर से वापस आने को आतुर हों. घर की साफसफाई के बाद मां का सामान ठीक करने का नंबर आया. उन के कपड़े करीने से, बड़े सलीके से और तरतीबवार उन के वार्डरोब में हैंगर पर लटके हुए थे. शेष साडि़यां, ब्लाउज व पेटीकोट का सैट बना कर पौलिथीन में पैक कर के रखे हुए थे. मां ऐसी ही थीं, हर चीज उन्हें कायदे से रखने की आदत या यह कहो मीनिया था और वे यह चाहती थीं कि उन की बेटियां भी अपना घर उसी तरह सजासंवरा व सुव्यवस्थित रखें. बचपन में अगर नहाने के बाद तौलिया एक मिनट के लिए सही जगह फैलाने से रह जाता, तो समझो हम लोगों की शामत आ जाती थी. पापा थोड़े लापरवाह किस्म के इंसान थे और रेवा भी उन पर ही गई थी. सो, वे दोनों अकसर मां की डांट खाते रहते थे.

आखिर में, मां की बुकशैल्फ ठीक करने का नंबर आया. मां की रुचि साहित्यिक थी और जहां कहीं भी कोई अच्छी किताब उन्हें नजर आ जाती, वे उसे खरीदने में तनिक भी देर न लगातीं. इस प्रकार धीरेधीरे मां के पास दुर्लभ साहित्य का खजाना एकत्र हो गया था. बुकशैल्फ झाड़पोंछ कर किताबों को लगातेलगाते रेवती को किताबों के पीछे एक काले रंग की डायरी दिखाई दी जिस पर लिखा था, ‘सिर्फ प्रिय रेवा के लिए.’ रेवती कुछ देर उस डायरी को उलटपलट कर देखती रही. डायरी इस तरह सील थी कि उसे खोलना आसान नहीं था. रेवती ने डायरी झाड़पोंछ कर रेवा दीदी को पकड़ा दी.

ये भी पढ़ें- सोने की चिड़िया: पीयूष की मौत के बाद सुहासिनी की जिंदगी में क्या हुआ

रेवा सोफे पर पसरी हुई थी, उस ने उचक कर पूछा, ‘‘यह क्या है?’’ ‘‘मां तेरे लिए एक डायरी छोड़ गई हैं, रख ले,’’ रेवती ने कहा. रेवा थोड़ी देर उस डायरी को उलटपलट कर देखती रही, फिर उस ने उसे वैसा ही रख दिया. उसे चाय की तलब लगी थी, उस ने रेवती से चाय पीने के लिए पूछा तो चाय बनाने किचन में चली गई. सोचने लगी कि मां ने पता नहीं, डायरी में क्या लिखा होगा. मां को तो जो कुछ लिखना था, रेवती को लिखना चाहिए था, आखिर वह उस की ‘ब्लूआइड’ बेटी जो थी.

रेवा सोचने लगी, ‘मां तो वैसे भी रेवती को ही चाहती थीं, मुझे तो उन्होंने हमेशा अपने से दूर ही रखा. पता नहीं मैं उन की सगी बेटी हूं भी या नहीं.’ फिर सोचने लगी कि चलो, अब तो मां चली ही गई, अब उन से क्या शिकवाशिकायत करना. उसे आज तक, बल्कि अभी तक, समझ में नहीं आया कि मां सब से तो अच्छी तरह बोलतीबतियाती थीं, पर उस के साथ हमेशा कठोर क्यों बन जाती थीं. रेवा शुरू से पढ़ने में बड़ी तेज थी और अपनी क्लास में हमेशा टौप करती, जबकि रेवती औसत दर्जे की स्टूडैंट थी. मां रेवती को रोज जबरदस्ती पढ़ाने बैठतीं और उस पर मेहनत करतीं, तब जा कर वह किसी तरह क्लास में पास होती थी. उधर, रेवा ने अपने स्कूलकालेज में मार्क्स लाने के कितने ही कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए और ऐसे नए मानक गढ़ दिए जिन का टूटना असंभव सा था. स्कूलकालेज में रेवा पिं्रसिपल व टीचर के प्यार से ज्यादा, इज्जत की हकदार बन बैठी थी. उस के क्लासमेट उस की ज्ञान की वजह से उस से एक तरह से डरते थे और एक दूरी बना कर ही रखते थे और इन्हीं कारणों से उस की कोई अच्छी सहेली भी नहीं बन सकी.

आगे पढ़ें- कई बार रोने के बाद भी…

ये भी पढ़ें- Mother’s Day Special: मां की खुशबू

Mother’s Day Special: जिद- भाग 3- क्यों मां के लाड़दुलार के लिए तरसी थी रेवा

‘‘दीदी, चाय बना रही हूं, पियोगी.’’ रेवती की आवाज सुन कर रेवा वापस वर्तमान में लौट आई. उसे लगा कि बचपन की कड़वाहट फिर से मुंह को कसैला कर गई. कई बार रेवा मन को समझा चुकी है कि मां के जाने के बाद उसे अब सबकुछ भूल जाना चाहिए. परंतु वह क्या करे, मन के बेलगाम घोड़े अब भी उसी जानीपहचानी व अनचाही राह पर निकल पड़ते हैं. मां की बरसी के बाद रेवा ने जाने की तैयारी शुरू कर दी. रेवती के बहुत कहने के बाद, उस ने मां के कपड़ों में से 1-2 साडि़यां रख लीं और मां की 1-2 छोटीबड़ी तसवीरें. आखिर नियत तिथि पर रेवा चली गई. यद्यपि उस ने लाख मना किया, पर रेवती व उस का पति राकेश उसे एअरपोर्ट तक छोड़ने आए. उस का छोटा बच्चा रेवा मौसी की गोद में ही बैठा रहा और लगातार उस से पूछता रहा, ‘‘मौसी, आप फिर कब आओगी?’’ रेवा उस नन्हे से, फिर से आने का वादा कर के सिक्योरिटी चैक से अंदर चली गई. उसे लगा कि जितना वह इन बंधनों को भूलना चाहती है, एक नया मोहपाश उसे बांधने को तैयार खड़ा मिलता है.

वैब चौइस से उसे प्लेन में अच्छी सीट मिल गई थी और वह सामान रख कर सोने के लिए पसर गई. 1-2 घंटे की गहरी नींद के बाद रेवा की आंख खुल गई. पहले सीट के सामने वाली टीवी स्क्रीन पर मन बहलाने की कोशिश करती रही, फिर बैग से च्युंगम निकालने के लिए हाथ डाला तो साथ में मां की वह डायरी भी निकल आई. मन में आया कि देखूं, आखिर मां मुझ से क्या कहना चाहती थीं जो उन्हें इस डायरी को लिखना पड़ गया. कुछ देर सोचने के बाद उस ने उस पर लगी सील को खोल डाला और समय काटने के लिए पन्ने पलटने शुरू किए. एक बार पढ़ने का सिलसिला जब शुरू हुआ तो अंत तक रुका ही नहीं. पहले पेज पर लिखा, ‘‘सिर्फ अपनी प्रिय रेवा के लिए,’’ दूसरे पन्ने पर मोती के जैसे दाने बिखरे पड़े थे. लिखा था, ‘‘मेरी प्रिय छोटी सी लाडो बिटिया, मेरी जान, मेरी रेवू, जब तुम यह डायरी पढ़ रही होगी, मैं तुम्हारे पास नहीं हूंगी. इसीलिए मैं तुम्हें वह सबकुछ बताना चाहती हूं जिस की तुम जानने की हकदार हो.

ये भी पढ़ें- सुगंध: धनदौलत के घमंड में डूबे राजीव को क्या पता चली रिश्तों की अहमियत

‘‘मैं अपने मन पर कोई बोझ ले कर जाना नहीं चाहती और तुम मेरी बात समझने तो क्या, सुनने के लिए भी तैयार नहीं थी. सो, जातेजाते अपनी वसीयत के तौर पर यह डायरी दे कर जा रही हूं क्योंकि तुम हमारी पहली संतान हो तुम, जैसी नन्ही सी परी पा कर मैं और तुम्हारे पापा निहाल हो उठे थे.

‘‘धीरेधीरे मैं तुम में अपना बचपन तलाशने लगी. छोटी होने के नाते मैं जिस प्यार व चीजों से महरूम रही, वे खिलौने, वे गेम मैं ढूंढ़ढूंढ़ कर तेरे लिए लाती थी. जब तुम्हारे पापा कहते, ‘तुम भी बच्चे के साथ बच्चा बन जाती हो,’ सुन कर ऐसा लगता कि मेरा अपना बचपन फिर से जी उठा है. धीरेधीरे मैं तुम में अपना रूप देखने लगी और तुम्हारे साथ अपना बचपन जीने लगी. जो कुछ भी मैं बचपन में नहीं हासिल कर पाई थी, अब तलाश करने की कोशिश करने लगी. ‘‘समय के साथ तुम बड़ी होने लगी और मेरी फिर से अपना बचपन सुधारने की ख्वाहिश बढ़ने लगी. तुम पढ़ने में बहुत तेज थी. प्रकृति ने तुम्हें विलक्षण बुद्धि से नवाजा था. तुम हमेशा क्लास में प्रथम आती और मुझे लगता कि मैं प्रथम आई हूं. यहां तुम्हें यह बताना चाहती हूं कि मैं बचपन से ही पढ़ाई में काफी कमजोर थी, पर तुम्हें यह बताती रही कि मैं भी हमेशा तुम्हारी तरह कक्षा में प्रथम आती थी. इसीलिए मेरे मन में एक ग्रंथि बैठ गई थी कि मैं तुम्हारे द्वारा अपनी उस कमी को पूरा करूंगी.

‘‘समय के साथसाथ मेरी यह चाहत सनक बनती चली गई और मैं तुम पर पढ़ाई के लिए अधिक से अधिक जोर डालने लगी. जब मुझे लगा कि घर पर तुम्हारी पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाएगी, तो मैं ने तुम्हारे पापा के लाख समझाने को दरकिनार कर छोटी उम्र में ही तुम्हें होस्टल में डाल दिया. इस तरह मैं ने तुम्हारा बचपन छीन लिया और तुम भी धीरेधीरे मशीन बनती चली गई. दूसरी तरफ रेवती पढ़ने में कमजोर थी और मैं उसे खुद ले कर पढ़ाने बैठने लगी. जरा सी डांट पर रो देने वाली रेवती, हमारे प्यारदुलार का ज्यादा से ज्यादा हकदार बनती चली गई और मुझे पता ही नहीं चला. और तो और, मुझे पता नहीं चला कि कब तुम्हारे हिस्से का प्यार भी रेवती के हिस्से में जाने लगा. ‘‘तुम्हारे लिए अपना प्यार जताने का हमारा तरीका थोड़ा अलग था. मैं सब के सामने तुम्हारी तारीफों के कसीदे पढ़ कर, उस पर गर्व करने को ही प्यार देना समझती रही. पर सच जानो रेवू, मैं तुम्हें उस से भी ज्यादा प्यार करती थी जितना कि रेवती को करती थी. पर क्या करूं, यह कभी बताने या दिखाने का मौका ही नहीं मिल सका या हो सकता है कि मेरा प्यार दिखाने या जताने का तरीका ही गलत था.

‘‘जैसेजैसे तुम बड़ी होती गई, तुम्हारे मन में धीरेधीरे विद्रोह के स्वर उभरने लगे. मैं तुम्हें आईएएस बनाना चाहती थी जिस से अपनी हनक अपने जानपहचान, नातेरिश्तेदारों व दोस्तों पर डाल सकूं. पर तुम ने इस के लिए साफ इनकार कर दिया और प्रतियोगिता के कुछ प्रश्न जानबूझ कर छोड़ दिए. तुम्हारी या कहो मेरी सफलता में कोई बाधा न आए, इसलिए मैं ने तुम्हें किसी लड़के से प्यारमुहब्बत की इजाजत भी नहीं दी थी. पर तुम ने उस में भी सेंध लगा दी और विद्रोह के स्वर तेज कर दिए और सरस से चुपचाप विवाह कर लिया.

ये भी पढ़ें- पलभर का सच: क्या था शुभा के वैवाहिक जीवन का कड़वा सच

‘‘तुम तो विलक्षण प्रतिभा की धनी थी, इसलिए एक मल्टीनैशनल कंपनी ने तुम्हें हाथोंहाथ ले लिया. पर तुम ने अपनी मां के एक बड़े सपने को चकनाचूर कर दिया. इस के बाद तो तेरी मां ने सपना ही देखना बंद कर दिया. समय के साथ, मैं ने तुम्हारे पति को भी स्वीकार कर लिया और सबकुछ भूल कर तुम्हारे कम मिले प्यार की भरपाई करने में जुट गई. पर अब तुम इस के लिए तैयार नहीं थी, तुम्हारे मन में पड़ी गांठ, जिसे मैं खोलने या कम से कम ढीला करने की कोशिश कर रही थी, उसे तूने पत्थर सा कठोर बना लिया था. हां, अपने पापा के साथ तुम्हारा व्यवहार सदैव मीठा, स्नेहपूर्ण व बचपन जैसा ही बना रहा. ‘‘तुम्हारी यह बेरुखी या अनजानेपन वाला व्यवहार मेरे लिए सजा बनता गया, जिसे लगता है मैं अपने मरने के बाद भी साथ ले कर जाऊंगी. पर रेवू, कभी तूने सोचा कि मैं भी तो एक मां हूं और हर मां की तरह मेरा दिल भी अपने बच्चों के प्यार के लिए तरसता होगा. तुम और रेवती दोनों मेरी भुजाओं की तरह हो और मुझे पता ही नहीं चला कि कब मैं ने अपने दाएं हाथ, अपनी रेवी पर ज्यादा भरोसा कर लिया. हर मां की तरह मेरे मन में भी कुछ अरमान थे, कुछ सपने थे जिन्हें मैं ने तुम्हारी आंखों से देखने की कोशिश की. अगर इस के लिए मैं गुनाहगार हूं, तो मैं अपना गुनाह स्वीकार करती हूं. पर अफसोस तूने तो बिना कुछ मेरी सफाई सुने, मेरे लिए मेरी सजा भी मुकर्रर कर दी और उस की मियाद भी मेरे मरने तक सीमित कर दी.

‘‘मैं ने यह डायरी इस आशय से तुम्हें लिखी है कि शायद आज तुम मेरी बात को समझ सको और अपनी मां को अब माफ कर सको. अंत में ढेर सारे आशीर्वाद व उस स्नेह के साथ जो मैं तुम्हें जीतेजी न दे सकी…तेरी मां.’’

डायरी का आखिरी पन्ना पलट कर, रेवा ने उसे बंद कर दिया. कभी न रोने वाली रेवा का चेहरा आंसुओं से तरबतर होता चला गया और इतने दिनों की वो जिद, वो गांठ भी साथ ही घुलने लगी. पर आज उस ने भी उन आंसुओं को न तो पोंछा, न ही रोका. उसे लगा सर्दी बढ़ गई है और उस ने कंबल को सिर तक ढक लिया. वह ऐसे सो गई जैसे कोई बच्चा अपनी मां की खोई हुई गोद में इतमीनान से सो जाता है. आज रेवा को भी लगा कि मां कहीं गई नहीं है और पूरी शिद्दत से आज भी उस के पास है. मां की गोद में सोई रेवा की आंखों से आंसू मोती बन कर बह रहे थे. तभी उसे लगा, मां ने उस के आंसू पोंछ कर कहा, ‘अब क्यों रोती है मेरी लाड़ो, अब तो तेरी मां हमेशा तेरे पास है.’ …और रेवा करवट बदल कर फिर गहरी नींद में चली गई.

ये भी पढ़ें- नया सफर: ससुराल के पाखंड और अंधविश्वास के माहौल में क्या बस पाई मंजू

Mother’s Day Special: जिद- भाग 2- क्यों मां के लाड़दुलार के लिए तरसी थी रेवा

मां ने तो वैसे भी उसे तीसरी क्लास से ही होस्टल में डाल दिया था. कई बार रोने के बाद भी उन का दिल नहीं पसीजा. खैर, पापा हर शनिवार की शाम को उसे घर ले जाने के लिए आ जाते और सोमवार की सुबह उसे स्कूल छोड़ जाते. रेवा के लिए वह एक दिन बड़ा सुकूनभरा होता, दिनभर वह अपने पापा के साथ मस्ती करती. मां कई बार पूछतीं कि कोर्स की कोई कौपीकिताब लाई कि नहीं, और वह इन प्रश्नों से बचने के लिए पापा के पीछे दुबक जाती. उस के 8वीं पास करने के साथ ही पापा का ट्रांसफर दूसरी जगह हो गया. सो, सप्ताह में एक दिन घर आनेलाने का चक्कर भी खत्म हो गया.

इस शहर से जाने के बाद भी पापा, हर महीने एक बार छुट्टी वाले दिन जरूर मिलने आते और कभीकभार मम्मी भी साथ में आतीं. मां आते ही उस के हालचाल जानने से पहले ही पढ़ाई के बारे में पूछने बैठ जातीं. सो, पापा का अकेले आना, उसे हमेशा बड़ा भाता था. वह जो भी फरमाइश करती, पापा तुरंत पूरी करते, तरहतरह की ड्रैसेस दिलाते, लंच व डिनर बाहर ही होता व उस की मनपसंद आइसक्रीम दिन में कई बार खाने को मिलती. इस तरह धीरेधीरे रेवा अपनी मां से दूर होने लगी और अकसर एक रटारटाया मुहावरा उस के मुंह पर आने लगता, ‘‘मां तो बस, रेवती की ही मां हैं. सारा प्यार मां ने उस के लिए ही रख छोड़ा है, मुझ से तो वे प्यार करती ही नहीं.’’ इंटर तक रेवा उसी कालेज में पढ़ती रही और उस ने हाईस्कूल व इंटरमीडिएट में पूरे प्रदेश में मैरिट में प्रथम स्थान प्राप्त कर कीर्तिमान स्थापित कर दिया. उस कालेज की पिं्रसिपल ने तो फेयरवैल पार्टी वाली स्पीच में यहां तक कह दिया कि इस लड़की रेवा का चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा में होेने से कोई नहीं रोक सकता और इस कालेज को उस पर बहुत गर्व है.

ये भी पढ़ें- Serial Story: मध्यांतर भी नहीं हुआ अभी 

छोटे से शहर लखनऊ के उस छोटे कालेज से निकल कर रेवा को लेडी श्रीराम कालेज, दिल्ली में दाखिला हाथोंहाथ मिल गया. साथ ही, मां ने उसे आईएएस के ऐंट्रैंस की कोचिंग भी जौइन करा दी. फिर तो रेवा अपनी पढ़ाई की भागदौड़ में इस तरह मसरूफ हो गई कि उसे मां के पास रहने और उन का प्यारदुलार पाने का मौका ही नहीं मिला जिस के लिए वह हमेशा तरसती रही थी.

पता नहीं कैसे, एक दिन अचानक रेवा को लगने लगा कि वह तो एकदम मशीन बनती जा रही है और इस के लिए अब उस का मन कतई तैयार नहीं था. रहरह कर उसे अब बचपन के वे दिन याद आ रहे थे, जब वह मांबाप के प्यार से वंचित रही. धीरेधीरे उस में विद्रोह के मूकस्वर उठने लगे. सब से पहले उस ने कालेज में टौप करने के लक्ष्य को ढीला छोड़ना शुरू कर दिया. उस के मन में एकाएक खयाल आया कि अगर वह दूसरे स्थान पर आ जाती है, तो किसी को क्या फर्क पड़ने वाला है. इस के बाद उस ने आईएएस कोचिंग में भी ढील देनी शुरू कर दी. इन बातों से रेवा की एक अजीब सी जिद हो गई. इस कारण वह क्लास में पहले द्वितीय, फिर तृतीय स्थान पर आ गई जिस से उस के सभी साथी आश्चर्यचकित रह गए. इसी तरह आईएएस कोचिंग के साप्ताहिक टैस्टों में उस के नंबर कमतर आने शुरू हो गए. जैसे ही मां को इस का पता चला, वे दिल्ली पहुंच गईं और उसे लगातार डांटती रहीं. रेवा को यह देख कर बड़ा सदमा लगा कि रेवती को हर साल नंबर कम आने पर प्यार से समझाने वाली मां, आज कहां खो गई हैं. मां तो डांट कर चली गईं, पर रेवा के मन में एक विद्रोह की चिनगारी को अनजाने में और भड़का गईं. रेवा सोचती रही कि मां अगर प्यार के दो बोल बोल कर समझा देतीं तो कौन सा आसमान छूना उस के लिए संभव न था.

इसी बीच एक और बात हो गई. मां की खास सहेली मंदिरा का लड़का और उस का बालपन का सखा सरस भी दिल्ली आ गया. एक दिन सरस से उस की मुलाकात एक मौल में हो गई. दोनों ने वहां कौफी पी और एकदूसरे का मोबाइल नंबर एक्सचेंज किया. फिर तो आपस में बातों का सिलसिला ऐसा चला कि बचपन की दोस्ती प्यार में कब बदल गई, पता ही न चला. सरस ने अपनी मां से जब इस बारे में बात की तो उन की खुशी का ठिकाना न रहा. अगला अवसर मिलते ही, सरस की मां मंदिरा आंटी, मां के पास पहुंच गई. जैसे ही उन्होंने मां को बताया कि सरस व रेवा आपस में प्यार करते हैं और शादी करना चाहते हैं, मां का चेहरा उतर गया. जब उन्हें पता चला कि सरस ने इंजीनियरिंग की है और वह जौब पाने के लिए प्लेसमैंट फौर्म भर रहा है, तो मां ने इस शादी के लिए यह कह कर इनकार कर दिया कि रेवा को तो अभी आईएएस बनना है. एक इंजीनियर व आईएएस में शादी कैसे हो सकती है.

ये भी पढ़ें- Short Story: रिश्तों का तानाबाना

जैसे ही रेवा को इस बात का पता चला, विद्रोह की वह छोटी सी चिनगारी एकदम ज्वाला बन गई. परिणामस्वरूप, उस ने प्रतियोगिता परीक्षा का एक पेपर ही छोड़ दिया. मां को जब इस का पता चला तो वे बहुत चीखीचिल्लाईं. कितनी ही बार पूछने पर भी कि उस ने ऐसा क्यों किया, रेवा खामोश बनी रही. कुछ असर न होता देख, मां रेवा को समझाने बैठ गई. काफी देर बाद, रेवा ने जो पहला वाक्य कहा, वह यह था कि वे उसे सरस से विवाह करने देंगी या नहीं, अन्यथा दोनों कोर्टमैरिज कर लेंगे. अब तो मां रोने बैठ गईं, परंतु इन बातों का रेवा पर कोई असर नहीं हुआ. कुछ दिन रुक कर वह दिल्ली लौट गई और उस ने पत्रकारिता के कोर्स में प्रवेश ले लिया. धीरेधीरे रेवा ने घर आना भी कम कर दिया. इधर, सरस को एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पैकेज पर जौब मिल गई और उधर रेवा को दूरदर्शन के न्यूज चैनल में काम मिल गया. मां ने लाख समझाया, पर रेवा ने भी जिद पकड़ ली और इस के बाद फिर आईएएस की प्रतियोगिता में बैठी ही नहीं. बाद में सरस और रेवा ने विवाह कर लिया जिस में मां शामिल तो हुईं पर बड़े ही बेमन से. इस के कुछ सालों बाद, रेवा सरस के साथ लास एंजिल्स चली गई और वहीं की नागरिकता ले ली.

आगे पढ़ें- रेवती की आवाज सुन कर रेवा…

ये भी पढ़ें- Mother’s Day Special: मां-एक मां के रूप में क्या था मालिनी का फैसला?

लौट आओ मौली: भाग 3- एक गलतफहमी के कारण जब आई तलाक की नौबत

ये भी पढ़ें- लौट आओ मौली: भाग-2

लेखक- नीरजा श्रीवास्तव

एक दिन काम से लौटा तो मौली बच्चों के साथ हैप्पी बर्थडे गीत गा कर क्लैपिंग करवा रही थी. किसी बच्चे का जन्मदिन था. चौकलेट ले कर बच्चे बस घर जा ही रहे थे. उन को गेट तक छोड़ कर वह अंदर आ गई.

मलय बरस पड़ा, ‘‘मालूम है न मुझे काम से लौट कर आने पर शांति चाहिए.

ये सब ड्रामे पसंद नहीं. कल से बच्चे मेरे घर में पढ़ने नहीं आएंगे. ज्यादा शौक है तो कहीं और किराए पर रूम ले कर पढ़ाओ, मेरी खुशियों से तो तुम्हें कोई मतलब नहीं, बस अपने में ही लगी रहो…’’ वह बच्चों के सामने झल्लाता हुए अपने रूम में चला गया. मौली के दिल में खंजर की तरह बात घुस गई, मोटेमोटे आंसू गाल पर ढुलकने लगे. सब्र का बांध जैसे टूट चला था.

‘‘मेरा घर… मेरी खुशी… मैं तो अपना घर समझ ब्याह कर आई थी. मुफ्त की ड्यूटी बजाने के लिए नहीं. न ही नौकर की तरह बस तुम्हारे हुक्म की तामील करने. अपनी खुशी की बात करते हो, कभी पत्नी की खुशी सोची तुम ने?

‘‘नाजों से पली बेटी, अपना ऐशोआराम सब कुछ छोड़ पराए घर को अपना लेती है, सब की सेवा में जीजान से लगी रहती है, अपनी आदतों को दूसरों की आदतों में खुशीखुशी ढालने में हर पल प्रयासरत रहती है, खानपान, पहनावा, व्यवहार, खुशी, गम, मजबूरी सब को ही अपना लेती है और एक सैकंड में तुम ने बाहर का रास्ता दिखा दिया. ऐसी ही पत्नी चाहिए थी तो किसी गरीब, बेसहारा, अनपढ़ को ब्याह लाने की हिम्मत करते, जो तुम्हारी खैरात का एहसान मान कर हाथ जोड़े बैठी रहती. लेकिन नहीं. खानदानी और संस्कारी भी चाहिए और पढ़ीलिखी, रूपसी, इज्जतदार व अच्छे घर की भी…’’ गुस्से में कांपती मौली पहली बार एक सांस में इतना कुछ बोल गई, मलय भौंचक्का सा देखता रह गया.

मगर उस की मर्दानगी ललकार उठी, पलटवार से न चूका था.

‘‘तो तुम ने क्यों नहीं किसी भिखारी से शादी कर ली? इतनी काबिल थी तो किसी अमीर से शादी करती उस पर आराम से रोब झाड़ती और उस की मुफ्त में परवरिश भी कर देती. तुम्हें भी तो…

‘‘अपने टटपूंजिए दोस्त शशांक से क्यों नहीं कर ली थी शादी, जिस का सानिध्य पाने को आज तक लालायित फिरती हो. उस के पास पहले अच्छी जौब नहीं थी इसीलिए न?’’

ये भी पढ़ें- सफेद परदे के पीछे: सुजीत से मिलकर जब मिताली की जिंदगी बनी नर्क

‘‘अब एक लफ्ज भी मत बोलना मलय, तुम्हारी घटिया सोच पहले ही जाहिर हो चुकी है. ठीक है, मैं उसी के पास चली जाती हूं. तुम्हारे जैसी छोटी सोच का आदमी नहीं है वह. बहुत खुश रहूंगी,’’ उस ने गुस्से में शशांक को कौल मिला दी थी.

काम से लौटा तो शशांक मौली से किए प्रौमिस के अनुसार सीधा वहीं आया था. मौली को लाख समझाने की कोशिश की पर उस ने एक न सुनी. मलय से अनुनयविनय की पर वह भी टस से मस न हुआ.

‘‘अच्छा रुको, आंटी का नंबर दो उन से बात करता हूं, फिर उन के पास पहुंच जाना. प्रयाग की टिकट बुक करवा देता हूं. धीरज रखो,’’ शशांक ने समझाया.

‘‘नहीं, कुछ हो जाएगा उन्हें. सह नहीं पाएंगी,’’ मौली की आंखों से लगातार आंसू बहे जा रहे थे.

‘‘कुछ नहीं होगा. मैं बोलूंगा कुछ दिन के लिए मन बदलने जा रही हो. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. दोनों का गुस्सा भी शांत हो जाएगा,’’ उस ने त्योरियां चढ़ाए बैठे मलय की ओर देखा, तो वहां से उठ कर वह दूसरे कमरे में जा लेटा.

‘‘जाओ मौली, तुम भी आराम कर लो. अच्छे से सोच लो पहले. ठंडा पानी पीयो, मुझे भी पिलाओ. मैं वोल्वो बस की टिकट का इंतजाम कर के कल मिलता हूं तुम से.’’

‘‘ठीक है, प्रौमिस,’’ शशांक ने उस के हाथ पर हाथ रख दिया था. मौली जानती

थी वह झूठा प्रौमिस कभी नहीं करता.

ये भी पढ़ें- Short Story: हिल स्टेशन पर तबादला

मौली को अच्छी तरह समझाबुझा कर शशांक निकला ही था कि रास्ते में तेज आती ट्रक से इतनी जबरदस्त टक्कर हुई कि वह उड़ता हुआ दूर जा गिरा. सिर पर गहरी चोट लगी थी, पैर में भी फ्रैक्चर महसूस हुआ, मोबाइल सड़क पर टुकड़ों में पड़ा था.

‘‘अच्छा हुआ एक पाप करने से बच गया,’’ पीड़ा में भी राहत की मुसकान उस के खून रिसे होंठों पर आ गई, फिर पूरे होश गुम हो गए. लोगों और पुलिस ने उसे अस्पताल पहुंचाया. तब तक वह कोमा में जा चुका था.

जब दूसरे दिन भी न शशांक आया न उस का फोन तो मलय ने मजाक बनाना शुरू कर दिया, ‘‘इसी दोस्त के प्रौमिस का गुणगान कर रही थी, भाग गया पतली गली से,’’ वह व्यंग्य से हंसा था.

‘‘वह करे या कोई और तुम को क्या? कहीं इसी डर से तो तलाक नहीं दे रहे, सारा किस्सा ही खत्म हो जाता.’’

‘‘कौन डरता है, कल चलो.’’

‘‘ठीक है… मुकर मत जाना,’’ मौली रोष में आश्वस्त होना चाहती थी.

ये भी पढ़ें- Mother’s Day Special: मुक्ति : मां के मनोभावों से अनभिज्ञ नहीं था सुनील

और सच में बात कहां से कहां पहुंच गई. अदालत में अर्जी फिर तलाक के बाद मौली हिम्मत कर के मायके पहुंची तो मां सदमे में थीं, पर मौली ने उन्हें संभाल लिया. लेकिन खुद को न संभाल सकी. महीने में ही दोनों का तलाक हो गया था. पर शरीर क्षीण होता ही जा रहा था उस का. उधर मलय भी इगो में भर कर तलाक लेने के बाद अब पछता रहा था. हर वक्त उस का दिल कचोटता रहता. उसे सब याद आता कि कितने दिलोजान से मौली ने मेरे बूढ़े, बीमार मांबाप की तीमारदारी की थी. इतना तो वह भी नहीं कर सका था. सभी का बातों से दिल जीत लेती, सभी उस से पूछते क्यों चली गई मौली, पर उसे कोई जवाब देते न बनता.

सब ने आना कम कर दिया. सूना सा घर सांयसांय करता. वही मलय जो जरा से शोर पर चिल्ला उठता वही आज एक आवाज को तरसता. पछतावे में खाट पकड़ ली थी उस ने. दिल कोसता हर वक्त पर ‘अब पछताए होत क्या जब चिडि़या चुग गई खेत.’ अब तो कोई पानी पूछने वाला भी नहीं था. अगर हिमानी दी को किसी ने खबर न दी होती तो यों ही दम तोड़ देता.

आगे पढ़ें- स्वरा का नंबर तो मिला, पर वह…

संपूर्णा: भाग 3- पत्नी को पैर की जूती समझने वाले मिथिलेश का क्या हुआ अंजाम

सिद्धी ने उसी वक्त अपने मन के सारे दरवाजे मिथिलेश के लिए बंद कर दिए. मन के रीते कोने में सुकून की छोटी सी एक सांस बची थी और वह था चिन्मय.

आज सारे बंधन उस ने इस देहरी पर तोड़े और कुछ जरूरी सामान के साथ वह बाहर आ गई. टैक्सी कर यूनिवर्सिटी गेट के पास पहुंची. चिन्मय को उस ने पहले ही फोन कर दिया था. चिन्मय का घर यहां से करीब था, आज रविवार था, वह घर पर ही था, सो जल्दी वह यूनिवर्सिटी गेट पहुंच गया. सिद्धी को अपनी कार में बैठा कर वह अपने घर ले आया.

एक मूक वार्त्तालाप ने सिद्धी के दर्द का पूरा खुलासा कर दिया था.

चिन्मय के घर पहुंच कर वह फ्रैश हुई, कपड़े बदले और फिर फोन की सिम नष्ट कर दी और चिन्मय के  मम्मीपापा से मिलने पहुंच गई. चिन्मय ने याद दिलाया जरूरी कौंटैक्ट के बारे में. सिद्धी ने निश्चित किया कि डायरी में जरूरी नंबर उस के पास नोट हैं.

चिन्मय ने मम्मी से कहा, ‘‘देखो एक पुरानी लड़की आई है, अब कुछ दिन इसे यही रहना है.’’

मम्मी स्मृति पर बल देते हुए उसे कुछ देर देखती रही, फिर कहा, ‘‘अरे सिद्धी हो क्या?’’

सिद्धी ने उन के पैर छुए, तो मम्मी ने कहा, ‘‘बेटी ब्राह्मण हो कर हमारे पैर न छुओ.’’

ये भी पढ़ें- सुगंध: धनदौलत के घमंड में डूबे राजीव को क्या पता चली रिश्तों की अहमियत

‘‘ऐसा अब कभी न कहना आंटी. मैं ने जाति के अंहकार का चाबुक पोरपोर में सहा है. जिंदगी और रिश्ते दंभ से नहीं सरलता और प्रेम से चलते हैं.’’

मम्मी ने उसे गले लगाते हुए कहा, ‘‘बिटिया तो बड़े पते की बात करती है. जा इसे ऊपर अपनी बगल वाला कमरा दे दे. जब तक चाहो रहो बेटी, हमारी दुनिया आबाद हो जाएगी.’’

सालों से अनास्था, अपमान और निराशा के तूफान में जो उलझ थी, आज इस सही किनारे पर लगने की उम्मीद ने उसे बड़ा धैर्य बंधाया.

रात को सोने से पहले चिन्मय सिद्धी का बिछावन आदि सही करने के लिए उस के कमरे में गया.

वह सो रही थी. चिन्मय ने उस के माथे पर हाथ रखा तो चौंक पड़ा, ‘‘सिद्धी तुम्हें तो बुखार है.’’

‘‘कुछ देर तुम मेरे पास रहो,’’ सिद्धी के स्वर में अनुनय था.

चिन्मय ?झिझका, ‘‘क्या हुआ? नहीं बैठोगे?’’

‘‘मैं डर रहा हूं.’’

‘‘मैं तुम्हें डराउंगी नहीं,’’ सिद्धी ने निराशा में भी परिहास किया.

‘‘मैं खुद से डर रहा हूं, कहीं पुरानी मनोदशा के भंवर में न फंस जाऊं.’’

‘‘मैं ने मना कब किया?’’

‘‘नहीं, अब मैं तुम पर कोई हक नहीं जमा सकता. तुम किसी और की हो.’’

सिद्धी ने उसे अपने पास जोर से खींच कर कहा, ‘‘जाति, परंपरा और शास्त्र से भी ऊपर होता है मनुष्य का चरित्र और उस का मन. मैं ने ऊंचनीच, परंपरा, उम्र, आदि कई आधारहीन सोचों के चलते तुम जैसे नर्मदिल, हंसमुख, सरल और जिम्मेदार इंसान को खो दिया था. मगर अब आंडबरों के बोझ से मैं ने खुद को मुक्त कर लिया है. जाति के दिखावे में मैं अपने मन से और छल नहीं कर सकती. रही बात समाज की तो कागज पर एक हस्ताक्षर और सबकुछ खत्म.’’

चिन्मय ने उठना चाहा. बोला, ‘‘कल सुबह बातें करेंगे. तुम आवेश में हो. गलती की गुंजाइश बढ़ती जा रही.’’

चिन्मय के हाथ को सिद्धी ने कस लिया था. बोली, ‘‘चिन्मय, उन लोगों ने मुझे बांझ कह कर घर से निकाला, जबकि यह सच नहीं था. मिथिलेश ने मेरी बहन के साथ रिश्ता बना कर मुझे सड़क पर फेंकने की पूरी तैयारी की. अब चाहे समाज मेरे बारे में कुछ भी राय बनाए मैं यह साबित कर के रहूंगी कि मैं नहीं थी बांझ.’’

चिन्मय दूर हटते हुए बोला, ‘‘तुम बदहवास हो रही हो, मैं अपनेआप को शायद रोक न पाऊं. यह प्यार बचपन का है सिद्धी, मेरी परीक्षा मत लो. तुम नहीं जानती तुम मेरे लिए क्या हो.’’

‘‘चिन्मय, मैं नहीं जानती तुम मुझ से क्या पाओगे, मगर मैं तुम से याचना करती हूं मुझे साबित कर दो… मुझे हीनता की बेडि़यों से मुक्त करो… यह पूरी जिम्मेदारी मेरी होगी.’’

प्रेम और आंकाक्षा, ने दोनों को एक सूत्र में पिरो दिया. रात की चांदनी खिड़की से

आ कर उन की इस मधुयामिनी को स्नेहिल स्पर्श देती रही.

कुछ दिन बाद उस ने तलाक की मांग कर ली. मिथिलेश ने भी हां कर दी. 8 महीने बीत चुके थे. मिथिलेश से डिवोर्स जल्दी मिल गया. कुछ जानपहचान के वकीलों ने दोनों को अलग करा ही दिया.

सिद्धी मां बनने वाली थी. कुछ समय इंतजार फिर वह चिन्मय की अर्द्धांगिनी बनेगी. सिद्धी अपनी मां का आशीर्वाद ले चुकी थी.

ये भी पढ़ें- पलभर का सच: क्या था शुभा के वैवाहिक जीवन का कड़वा सच

रिद्धी को भी जब मिथिलेश के अहंकार के हाथों खूब जिल्लतें उठानी पड़ीं तो वह भी उस से तोबा कर हमेशा के लिए गोवा चली गई.

बेटे के जन्म के बाद सिद्धी कुछ ठान कर चिन्मय और बेटे लावण्य को ले मिथिलेश के घर पहुंची. अच्छा ही था कि सिद्धी को पहले से पता हो गया था कि किसी लड़की वाले को उस दिन बातचीत के लिए मिथिलेश के घर वालों ने बुलाया था.

बैठक में उन तीनों को अचानक देख सब चौंक गए.

मिथिलेश ने तीव्र क्रोध में कहा, ‘‘तुम यहां क्यों आई?’’

‘‘कुछ बातें बाकी रह गई थीं उन्हें कहे बिना हिसाब का गणित मिल ही नहीं रहा था, मिथिलेश,’’ शांत और दृढ़ सिद्धी ने धीरेधीरे कहा.

मिथिलेश अपना नाम उस के मुंह से सुन अवाक रह गया.

सिद्धी ने कहा, ‘‘तुम क्या हो मिथिलेश? अंहकार में सने एक धोखेबाज व्यक्ति. अफसर की कुरसी एक पल में छिन जाए तो रह जाएगा क्या? एक दुश्चरित्र बदमिजाज आदमी?’’

‘‘तुम्हें इज्जत देना इतना भी आसान नहीं मिथिलेश… और पत्नी तो सुखदुख की सहचरी होती है. कामना के बीज से प्रेम का संसार रचने वाली. उसे क्या छोटेबड़े के जाल में उलझते हो? ‘पति का नाम लेना पाप है’ इस सोच से अब निकल जाओ आगे की राह तुम्हारी सरल नहीं होगी.’’

मिथिलेश के अंहकार और आडंबर ने कभी सिद्धी को जानने का मौका ही नहीं दिया. वह हैरान था.

सिद्धी ने लड़की वालों की ओर देखते हुए कहा, ‘‘आप एक बहन को इस के हवाले करने से पहले सोचिएगा जरूर. आज मेरी गोद में मेरा बच्चा है जबकि मैं इस घर में बांझ होने के कलंक से दूषित कर धोखे का शिकार हुई और अपमानित कर निकाली गई. फिर आप की बेटी की बारी है. यह मर्द होने के अहंकार से इतना त्रस्त है कि अपनी कमी को कभी स्वीकारेगा नहीं और पत्नी पर दोष मढ़ कर स्वयं को तृप्त महसूस करेगा.’’

मिथिलेश क्रोध में तमतमाया पहले की तरह सिद्धी की ओर हाथ उठाने को दौड़ा. तुरंत चिन्मय ने सख्त हाथों से उसे रोक लिया.

मिथिलेश तड़प रहा था. बोला, ‘‘खुद के चरित्र का ठिकाना नहीं…’’

ये भी पढ़ें- नया सफर: ससुराल के पाखंड और अंधविश्वास के माहौल में क्या बस पाई मंजू

चिन्मय तुरंत उस की बात को पकड़ते हुए बोल पड़ा, ‘‘चिन्मय प्रसाद उस का ठिकाना है. वह मेरे घर की लक्ष्मी है, मेरे मन का हार है, हम ने रजिस्टर्ड मैरिज के लिए कोर्ट में अर्जी डाल दी है. कुछ दिनों में यह मेरे सिर का ताज बन जाएगी. गलती से भी अब कभी सिद्धी के बारे में गलत बातें न कहना.’’

नए बनने वाले रिश्तेदार मिथिलेश के घर से मौका पाते ही खिसक लिए.

सिद्धी पूर्ण संतुष्ट हो गई थी. मित्रता, विश्वास और प्रेम का जो समर्पण उस के पास था उस के स्पर्श से अब वह संपूर्णा थी… सिद्ध संपूर्णा.

लौट आओ मौली: भाग 2- एक गलतफहमी के कारण जब आई तलाक की नौबत

पहला भाग पढ़ने के लिए- लौट आओ मौली: भाग-1

लेखक- नीरजा श्रीवास्तव

‘‘क्यों तुम्हारे मियां को ताजा हवा अखरती है?’’ शशांक के प्रश्न पर एक उदास मलिन सी रेखा मौली के चेहरे पर उभर आई, जिसे उस ने बनावटी मुसकान से तुरंत छिपा लिया.

‘‘अब यहीं खड़ेखड़े सब जान लोगे या कहीं बैठोगे भी?’’

‘‘अरे तो तुम बाइक पर बैठो तभी तो… या वहां तक पैदल घसीटता हुआ अपनी ब्रैंड न्यू बाइक की तौहीन करूं… हा हा…’’

‘‘कुछ ही देर में शशांक के जोक्स से हंसतेहंसते मौली के पेट में बल पड़ गए. बहुत दिनों बाद वह खुल कर हंसी थी.’’

‘‘अब बस शशांक…’’ उस ने पेट पकड़ते हुए कहा, ‘‘सो रैग्युलेटेड, हाऊ

बोरिंग… न साथ में घूमना, न मूवी, न बाहर खाना, न किसी पार्टीफंक्शन में जाना. हद है यार, शादी करने की जरूरत ही क्या थी… अच्छा उन के लिए समोसे ले चलते हैं, कैसे नहीं खाएंगे देखता हूं. तुम झट अदरकइलायची वाली चाय बनाना, कौफी नहीं…’’ वह बिना संकोच किए मौली को घर छोड़ने को क्या मलय के साथ चाय भी पीने को तैयार था. मौली कैसे मना करे उसे, पता नहीं मलय क्या सोचे इसी उलझन में थी.

‘‘सोच क्या रही हो, बैठो मेरे इस घोड़े पर… अब देर नहीं हो रही?’’ अपनी बाइक की ओर इशारा कर के वह समोसे का थैला रख मुसकराते हुए फटाफट बाइक पर सवार हो गया.

घबरातेसकुचाते मौली को मलय से शशांक को मिलाना ही पड़ा. शशांक के बहुत जिद करने पर मलय ने समोसे का एक टुकड़ा तोड़ लिया था. चाय का एक सिप ले कर एक ओर रख दिया तो मौली झट उस के लिए कौफी बना लाई. शशांक ने कितनी ही मजेदार घटनाएं, जोक्स सुनाए पर मलय के गंभीर चेहरे पर कोई असर न हुआ. उस के लिए सब बचकानी बातें थीं. उस के अनुसार तो एक उम्र के बाद आदमी को धीरगंभीर हो जाना चाहिए. बड़ों को बड़ों जैसे ही बर्ताव करना चाहिए… कितनी बार मौली को उस से झाड़ पड़ चुकी थी इस बात के लिए.

ये भी पढ़ें- कामयाब: पंडित की भविष्यवाणी ने क्यों बदल दी चंचल-अभिनव की जिंदगी

मलय उकता कर उठने को हुआ तो शशांक भी उठ खड़ा हुआ, ‘‘मैं चलता हूं. काफी बोर किया आप को, मगर जल्दी ही फिर आऊंगा, तैयार रहिएगा.’’

गेट तक आ कर मौली को धीरे से बोला, ‘‘जल्दी हार मानने वाला नहीं. इन्हें इंसान बना कर ही रहूंगा. कैसे आदमी से ब्याह कर लिया तुम ने. मिलता हूं कल शाम को… बाय.’’

इस से पहले मौली कुछ कहती वह किक मार फटाफट निकल गया.

दूसरे दिन 5 ही बजे शशांक मौली के घर उपस्थित था, ‘‘जल्दी तैयार हो जाओ, खड़ूसजी कहां हैं? उन्हें भी कहो गैट रैडी फास्ट,’’ मौली को हैरानी से अपनी ओर देखते हुए देख उस ने हंसते हुए हवा में आसमानी रंग के मूवी टिकट लहराए, जैसे कोई जादू दिखा रहा हो.़

‘‘रोहित शेट्टी की नई फिल्म की 3 टिकटें हैं.’’

‘‘तुम्हें बताया था न, नहीं जाते हैं मूवीशूवी और ऐसी कौमेडी टाइप तो बिलकुल भी नहीं.’’

‘‘अरे बुलाओ तो उन्हें, ब्लैक कौफी वहीं पिलवा दूंगा और रात का डिनर भी

मेरी तरफ से. उन के जैसा सादा शुद्ध भोजन. ऐसे मत देखो, मैं यहां नया हूं यार. मेरा यहां कोई रिश्तेदार भी नहीं. वह तो अच्छा हुआ जो तुम मिल गईं…. चलोचलो जल्दी करो. कैब बुक कर दी है 20 मिनट में पहुंच जाएगी,’’ शशांक बेचैन हो रहा था.

मलय मना ही करता रह गया पर शशांक की जिद के आगे उस की एक न चली. जबरदस्ती मूवी देखनी पड़ी थी उसे. लौट कर हत्थे से उखड़ गया, खूब बरसा था मौली पर.

‘‘अपने दोस्त को समझा लो वरना मैं ही कुछ उलटा बोल दूंगा तो रोती फिरोगी कि मेरे दोस्त को ऐसावैसा बोल दिया. तुम को जाना है तो जाओ, उस के बेवकूफी भरे जोक्स तुम ही ऐंजौय करो. बहुत टाइम है न तुम्हारे पास फालतू…’’

ये भी पढ़ें- बेवजह

मांपापा के जाने का दुख मौली को भी था पर मलय जितना नहीं होगा यह भी सही है पर जिंदगी तो चलानी ही है. कब तक यों ही मुंह लटकाए रहा जा सकता है. मौली याद करती जब अपने पापा को खोया था तो उस की उम्र 20 साल की रही होगी… कुछ दिनों तक लगता था कि सब खत्म हो गया पर जल्द ही खुद को संभाल लिया. फिर पूरे घर का माहौल खुशनुमा बना दिया था. अपनी पढ़ाई भी पूरी की. टीचिंग शुरू कर मां की घर चलाने में मदद भी करने लगी थी.

यहां मलय को खुश करने की सारी कोशिश बेकार थी. 2 साल हो गए थे मगर हर समय मायूसी छाई रहती. टीवी में भी उस की कोई दिलचस्पी न थी. मौली के पसंद के शोज को वह बकवास, बच्चों वाले, मैंटल के खिताब भी दे डालता. हार कर मौली ने पास ही में स्कूल जौइन कर लिया कि कुछ तो दिल लगेगा, घर पर भी ट्यूशंस लेने लगी. अब कुछ अच्छा लगने लगा था उसे. समय कैसे गुजर जाता पता ही नहीं चलता. काम के साथसाथ सब से हंसनाबोलना भी हो जाता. पर शनिवार को मलय घर होता, बच्चों का शोरगुल उसे कतई रास न आता. भुनभुन करता ही रहता. मौली कोशिश करती कि शनिवार को बच्चों को न बुलाए पर परीक्षा हो तो बुलाना ही पड़ता.

उस के व्यस्त रहने और कुछ मलय की बेरुखी समझने के कारण शशांक का घर आना कम हो गया था. पर शनिवार को वे अवश्य मिल लेते. मौली पेट भर हंस लेती जैसे हफ्ते भर का कोटा पूरा कर रही हो. इधर स्कूल का भी काम बढ़ने लगा था. बच्चों की परीक्षाएं आ गई थीं, मौली को अधिक समय देना पड़ता.

मौली ने खाना बनाने के लिए कामवाली रख ली. लाख कोशिशों के बाद भी मौली सास के बने खाने जैसा स्वाद नहीं ला सकी थी… मलय को चिड़चिड़ तो करनी ही थी, हो सकता है कामवाली के हाथ का खाना पसंद आ जाए.

ये भी पढ़ें- जिम्मेदारी बनती है कि नहीं: क्यों प्यार की कद्र ना कर पाई बुआ

मौली हरदम खुद को संवार के रखती कि इसी बहाने कभी तो प्यार के 2 मीठे बोल बोले, कुछ प्यारी सी टिप्पणी कर दे, पर वह कभी कुछ न बोलता. बात वह पहले भी कहां करता था. हंसीठिठोली उसे पसंद नहीं थी, यह सब उसे बचकानी हरकतें लगतीं. उस के खट्टेमीठे अनुभव में उस की कोई दिलचस्पी न थी.

आगे पढ़ें- मौली बच्चों के साथ हैप्पी बर्थडे गीत गा कर…

Serial Story: मध्यांतर भी नहीं हुआ अभी

Serial Story: मध्यांतर भी नहीं हुआ अभी- भाग 2

चंद्रा खड़ी थी सामने. तो क्या श्रीमती गोयल अपनी चंद्रा ही हैं जिस के लेख अकसर देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपते हैं?

‘‘जरा किस्मत देखो, पति शादी के 5 साल बाद अपने से आधी उम्र की लड़की के साथ भाग गया. औलाद कोई है नहीं. अफसोस होता है मुझे श्रीमती गोयल के लिए.’’

काटो तो रक्त नहीं रहा मेरी शिराओं में. आंखें फाड़फाड़ कर मैं अपने सहयोगी का चेहरा देखने लगा जो बड़बड़ा भी रहा था और बड़ी रुचि ले कर चंद्रा को सुन भी रहा था. इस सत्य का इतना बड़ा धक्का लगेगा मुझे मैं नहीं जानता था. ब्लड प्रेशर का मरीज तो हूं ही मैं, उसी का दबाव इतना बढ़ गया कि लंच बे्रेक तक पहुंच ही नहीं पाया मैं. तबीयत इतनी ज्यादा खराब हो गई कि अस्पताल में जा कर ही मेरी आंख खुली.

‘‘सोम, क्या हो गया तुम्हें? क्या सुबह कुछ परेशानी थी?’’

चंद्रा ही तो थी मेरे पास. इतने लोगों की भीड़ में बस चंद्रा. शायद 22 वर्ष पुरानी दोस्ती का ही नाता था जिस का प्रभाव चंद्रा की आंखों में था. माथे पर उस का हाथ और शब्दों में ढेर सारी चिंता.

‘‘अब कैसे हो, सोम?’’

50 के आसपास पहुंच चुका हूं मैं. वर्माजी, वर्मा साहब सुनसुन कर कान इतने पथरा गए हैं कि अपना नाम याद ही नहीं था मुझे. मांबाप अब जिंदा नहीं हैं और छोटी बहन भाई कह कर पुकारती है. बरसों बाद कोई नाम से पुकार रहा है. कल से यही आवाज है जो कानों में रस घोल रही है और आज भी यही आवाज है जो संजीवनी सी घुल रही है कानों में.

यह भी पढ़ें- सुगंध

‘‘सोम, क्या हुआ? तुम्हारे घर में सब ठीक तो हैं न…क्या परेशानी है…मुझ से बात करो.’’

क्या बात करूं मैं चंद्रा से? समझ नहीं पा रहा हूं क्या कहूं. डाक्टर ने आ कर मेरी पूरी जांच की और बताया… अभी भी मैं पूरी तरह सामान्य नहीं हूं. सुबह तक यहीं रुकना होगा.

‘‘तुम्हारे घर से बुला लूं किसी को, तुम्हारी पत्नी को, बच्चों को, अपने घर का नंबर दो.’’

अधिकार के साथ आज भी चंद्रा ने मेरा सामान टटोला और मेरा कार्ड निकाल कर घर का नंबर मिलाया. एक बार 2 बार, 10 बार.

‘‘कोई फोन नहीं उठा रहा. घर पर कोई नहीं है क्या?’’

मैं ने इशारे से चंद्रा को पास बुलाया. बड़ी हिम्मत की मुसकराने में.

‘‘ऐसा कुछ नहीं है. सब ठीक है…’’

‘‘तो कोई फोन क्यों नहीं उठाता. तुम भी परेशान हो और मुझ से कुछ छिपा रहे हो?’’

‘‘हमारे पास छिपाने को है ही क्या, चंद्रा? तुम भी खाली हाथ हो और मैं भी. मेरे घर पर जब कोई है ही नहीं तो फोन का रिसीवर कौन उठाएगा.’’

‘‘क्या मतलब?’’

अब चौंकने की बारी चंद्रा की थी. हंसने लगा मैं. तभी हमारे कुछ सहयोगी मुझे देखने चले आए. मुझे हंसते देखा तो आंखें तरेरने लगे.

‘‘वर्माजी, यह क्या तमाशा है. हमें दौड़ादौड़ा कर मार दिया और आप यहां तमाशा करने में लगे हैं.’’

‘‘इन के परिवार का पता है क्या आप के पास? कृपया मुझे दीजिए. मैं इन की पत्नी को बुला लेना चाहती हूं. ऐसी हालत में उन का यहां होना बहुत जरूरी है.’’

पलट कर चंद्रा ने उन आने वालों से सारी बात करना उचित समझा. कुछ पल को चुप हो गए सब के सब. बारीबारी से एकदूसरे का चेहरा देखा और सहसा सब सच सुना दिया.

‘‘इन की तो शादी ही नहीं हुई… पत्नी का पता कहां से लाएंगे…वर्माजी, आप ने इन्हें बताया नहीं है क्या?’’

‘‘अपनी सहपाठी से इतने सालों बाद मिले, कल रात देर तक पुरानी बातें भी करते रहे तो क्या आप ने अपने बारे में इतना सा भी नहीं बताया?’’

‘‘इन्होंने पूछा ही नहीं, मैं बताता कैसे?’’

‘‘श्रीमती गोयल, आप वर्माजी के साथ पढ़ती थीं. ऐसी कौन लड़की थी जिस की वजह से वर्माजी ने शादी ही नहीं की. क्या आप को जानकारी है?’’

‘‘नहीं तो, ऐसी तो कोई नहीं थी. मुझे तो याद नहीं है…क्यों सोम? कौन थी वह?’’

‘‘सब के सामने क्यों पूछती हो. कुछ तो मेरी उम्र का खयाल करो. तुम्हारी यह आदत मुझे आज भी अच्छी नहीं लगती.’’

यह भी पढ़ें-मैं तो कुछ नहीं खाती

‘‘कौन थी वह, सोम? जिस का मुझे ही पता नहीं चला.’’

‘‘बस, हो गया न मजाक,’’ मैं जरा सा चिढ़ गया.

‘‘तुम जाओ चंद्रा. मैं अब ठीक हूं. यह लोग रहेंगे मेरे पास.’’

‘‘कोई बात नहीं. मैं भी रहूंगी यहां. कुछ मुझे भी तो पता चले, आखिर इस उच्च रक्तचाप का कारण क्या है. कोई चिंता नहीं, कोई तनाव नहीं, कल ठीक थे न तुम, आज सुबहसुबह ऐसा क्या हो गया कि सीधे यहीं आ पहुंचे.’’

मैं ने चंद्रा को बहुत समझाना चाहा लेकिन वह गई नहीं. सच यह भी है कि मन से मैं भी नहीं चाहता था कि वह चली जाए. उथलपुथल का सैलाब जितना मेरे अंदर था शायद उस से भी कुछ ज्यादा अब उस के मन में होगा.

सब चले गए तो हम दोनों रह गए. वार्ड ब्वाय मेरा खाना दे गया तो उसे चंद्रा ने मेरे सामने परोस दिया.

‘‘आज सुबह ही मुझे तुम्हारे बारे में पता चला कि श्रीमती गोयल तुम हो…तुम्हारे साथ इतना सब बीत गया. उसी से दम इतना घुटने लगा था कि समझ ही नहीं पाया, क्या करूं.’’

अवाक् सी चंद्रा मेरा चेहरा देखने लगी.

‘‘तुम्हारे सुखी भविष्य की कल्पना की थी मैं ने. तुम मेरी एक अच्छी मित्र रही हो. जब भी तुम्हें याद किया सदा हंसती मुद्रा में नजर आती रही हो. तुम्हारे साथ जो हो गया तुम उस लायक नहीं थीं.

‘‘मैं तुम्हारा सिर थपथपाया करता था और तुम मुझे ‘पापा’ कह कर चिढ़ाती थीं. आज ऐसा ही लगा मुझे जैसे मेरे किसी बच्चे का जीवन नर्क हो गया और मैं जान ही नहीं पाया.’’

‘‘वे सब पुरानी बातें हैं, सोम, लगभग 17-18 साल पुरानी. इतनी पुरानी कि अब उन का मुझ पर कोई असर नहीं होता तो तुम ने उन्हें अपने दिल पर क्यों ले लिया? वह इनसान मेरे लायक नहीं था. इसीलिए वहीं चला गया जहां उस की जगह थी.’’

उबला दलिया अपने हाथों से खिलातेखिलाते गरदन टेढ़ी कर चंद्रा हंस दी.

‘‘तुम छोटे बच्चे हो क्या सोम, जो इतनी सी बात पर इतने परेशान हो गए. जीवन में कई बार गलत लोग मिल जाते हैं, कुछ देर साथ रह कर पता चलता है हम तो ठीक दिशा में नहीं जा रहे… सो रास्ता बदल लेने में क्या बुराई है.’’

‘‘रास्ता ही खो जाए तो?’’

‘‘तो वहीं खडे़ रहो, कोई सही इनसान आएगा… सही रास्ता दिखा देगा.’’

‘‘दुखी नहीं होती हो, चंद्रा.’’

‘‘कम से कम अपने लिए तो कभी नहीं होती. खुशनसीब हूं…मेरे पास कुछ तो है. दालरोटी मिल रही है…समाज में मानसम्मान है…ढेरों पत्र आते हैं जो मुझे अपने बच्चों जैसे प्यारे लगते हैं. इतने साल कट गए हैं सोम, आगे भी कट ही जाएंगे. जो होगा देख लेंगे.’’

‘‘बस चंद्रा, और खाया नहीं जाएगा,’’ पतला दलिया मेरे गले में सूखे कौर जैसा अटकने लगा था. उस का हाथ रोक लिया मैं ने.

‘‘शुगर के मरीज हो न, भूखे रहोगे तो शुगर कम हो जाएगी…अच्छा, एक और चीज है मेरे पास तुम्हारे लिए…सुबह होस्टल में ढोकला बना था तो मैं ने तुम्हारे लिए पैक करवा लिया था…सोचा, क्या पता आज फिर से सेमिनार लंबा ख्ंिच जाए और तुम भूख से परेशान हो कर कुछ खाने को बाहर भागो.’’

ये भी पढ़ें- दोस्ती: अनिकेत के समझौते के खिलाफ क्या था आकांक्षा का फैसला

‘‘मेरी इतनी चिंता रही तुम्हें?’’

‘‘अब अपना है कौन जिस की चिंता करूं? कल बरसों बाद अपना नाम तुम्हारे होंठों से सुना तो ऐसा लगा जैसे कोई आज भी ऐसा है जो मुझे नाम से पुकार सकता है. कोई आज भी ऐसा है जो बिना किसी बनावट के बात शुरू भी कर सकता है और समाप्त भी. बहुत चैन मिला था कल तुम से मिल कर. सुबह नाश्ते में भी तुम्हारा खयाल आया.’’

आगे पढ़ें- मेरा प्याला तो पहले ही छलकने के कगार पर था….