सम्मान वापसी : क्या उसे मिल पाया उसका सम्मान

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अधूरा समर्पण: क्यों सुष्मिता ने छोड़ दिया सागर का साथ

सुष्मिता के मांबाप के चेहरे पर संतोष था कि उन की बेटी का रिश्ता एक अच्छे घर में होने जा रहा है. सुष्मिता और सागर ने एकदूसरे की आंखों में देखा और मुसकराए. इस के बाद वे सुंदर सपनों के दरिया में डूबते चले गए.

सुष्मिता अपने महल्ले के सरकारी इंटर स्कूल में गैस्ट टीचर थी और उस के पिता सिविल इंजीनियर. उन्होंने अपने एक परिचित ठेकेदार के बेटे सागर

से, जो एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पद पर था, सुष्मिता का रिश्ता तय कर दिया.

सुष्मिता और सागर जब मिले तो उन्हें आपसी विचारों में बहुत मेल लगा, सो उन्होंने भी खुशीखुशी रिश्ते के लिए हामी भर दी.

सगाई के साथ ही उन दोनों के रिश्ते को एक सामाजिक बंधन मिल चुका था. कंपनी के काम से सागर को सालभर के लिए विदेश जाना था, इसलिए शादी की तारीख अगले साल तय होनी थी.

सुष्मिता से काम खत्म होते ही लौटने की बात कह कर सागर परदेश को उड़ चला. सुष्मिता ने सागर का रुमाल यह कहते हुए अपने पास रख लिया कि इस में तुम्हारी खुशबू बसी है.

एक शाम सुष्मिता अपनी छत पर टहल रही थी और हमेशा की तरह सागर वीडियो काल पर उस से बातें कर रहा था. जब बातों का सिलसिला ज्यादा हो गया तो सुष्मिता ने सागर को अगले दिन बात करने के लिए कहा. इस के थोड़ी देर बाद सुष्मिता ने काल काट दी.

इस के बाद जब सुष्मिता नीचे जाने के लिए पलटी तो अचानक उस की आंखें अपने पड़ोसी लड़के निशांत से मिल गईं जो अपनी छत पर खड़ा उन दोनों को बातें करता हुआ न जाने कब से देख रहा था.

सुष्मिता निशांत को पड़ोस के रिश्ते से राखी बांध चुकी थी, इसलिए वह थोड़ा सकुचा गई और बोली, ‘‘अरे निशांत भैया, आप कब आए? मैं ने तो ध्यान ही नहीं दिया.’’

‘‘जब से तुम यहां आई हो, मैं भी तब से छत पर ही हूं,’’ निशांत ने अपनी परतदार हंसी के साथ कहा.

सुष्मिता ने आंखें नीची कर लीं और सीढि़यों की ओर चल पड़ी. वह निशांत की नजर को अकसर भांपती थी कि उस में उस के लिए कुछ और ही भाव आते हैं.

एक और शाम जब सुष्मिता अकेली ही छत पर टहल रही थी कि तभी निशांत भी अपनी छत पर आया.

‘‘निशांत भैया, कैसे हैं आप? कम दिखते हैं…’’ निशांत उस के मुंह से ऐसी बात सुन कर थोड़ा चौंका लेकिन फिर उस के मन में भी लड्डू फूटने लगे.

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निशांत तो खुद सुष्मिता से बात

करने को बेचैन रहता था. सो, वह छत की बाउंड्री के पास सुष्मिता के करीब आ गया और बोला, ‘‘मैं तो रोज इस समय यहां आता हूं… तुम ही बिजी

रहती हो.’’

‘‘वह तो है…’’ सुष्मिता मस्ती भरी आवाज में बोली, ‘‘क्या करूं भैया, अब जब से पढ़ाने जाने लगी हूं, समय और भी कम मिलता है.’’

इस के बाद उन दोनों के बीच इधरउधर की बातें होने लगीं.

कुछ दिनों बाद एक रोज सुष्मिता घर में अकेली थी. सारे लोग किसी रिश्तेदार के यहां गए हुए थे. सुष्मिता की चचेरी बहन सुनीति उस के साथ सोने के

लिए आने वाली थी. शाम के गहराते साए सुष्मिता को डरा रहे थे. उस ने कई बार सुनीति को मैसेज कर दिया था कि जल्दी आना.

खाना बनाने की तैयारी कर रही सुष्मिता को छत पर सूख रहे कपड़ों का खयाल आया तो वह भाग कर ऊपर आई. कपड़ों को समेटने के बाद उसे अपनी एक समीज गायब मिली. उस

ने आसपास देखा तो पाया कि वह समीज निशांत की छत पर कोने में पड़ी थी.

सुष्मिता पहले तो हिचकी लेकिन फिर आसपास देख कर निशांत की छत पर कूद गई. वह निशांत के आने से पहले वहां से भाग जाना चाहती थी मगर जैसे ही वह अपनी समीज उठा कर मुड़ी, निशांत उसे मुसकराता खड़ा मिला. सुष्मिता ने एक असहज मुसकराहट उस की ओर फेंकी.

निशांत बोला, ‘‘उड़ कर आ गई होगी यहां यह…’’

‘‘हां भैया, हवा तेज थी आज…’’ सुष्मिता वहां से निकलने के मूड में थी लेकिन निशांत उस के आगे दीवार से लग कर खड़ा हो गया और बतियाने लगा. तब तक शाम पूरी तरह चारों ओर छा चुकी थी.

सुष्मिता ने कहा, ‘‘भैया, अब मैं चलती हूं.’’

‘‘हां, मच्छर काट रहे मुझे भी यहां…’’ निशांत ने अपने पैरों पर थपकी देते हुए कहा, ‘‘अच्छा जरा 2 मिनट नीचे आओ न… मैं ने एक नया सौफ्टवेयर डाउनलोड किया है… बहुत मजेदार चीजें हैं उस में… तुम को भी दिखाता हूं.’’

न चाहते हुए भी सुष्मिता निशांत के साथ सीढि़यों से उतर आई. उस के मन में एक अजीब सा डर समाया हुआ था.

निशांत ने लैपटौप औन किया और उसे दिखाने लगा. सुष्मिता का ध्यान जल्दी से वहां से निकलने पर था. तभी उस ने गौर किया कि निशांत के घर में बहुत शांति है.

‘‘सब लोग कहां गए हैं?’’ सुष्मिता ने निशांत से पूछा.

निशांत ने जवाब दिया, ‘‘यहां भी सारे लोग शहर से गए हुए हैं… कल तक आएंगे.’’

सुष्मिता का दिल धक से रह गया. उस ने कहा, ‘‘भैया, अब मैं निकलती हूं… मुझे खाना भी बनाना है.’’

सुष्मिता का इतना कहना था कि निशांत ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘यह क्या कर रहे हैं भैया?’’ सुष्मिता ने निशांत से पूछा. उसे निशांत से किसी ऐसी हरकत का डर तो बरसों से थी लेकिन आज उसे करते देख कर

वह अपनी आंखों पर भरोसा नहीं कर पा रही थी.

निशांत ने सुष्मिता की कमर में हाथ डाल कर उसे अपनी ओर खींचा और उस के हाथों में थमी समीज उस से ले कर टेबल पर रखते हुए बोला, ‘‘सागर की तसवीरों में रोज नईनई लड़की होती… तो तुम उस को एकदम पैकेट वाला खाना खिलाने के चक्कर में क्यों हो? तुम भी थोड़ी जूठी हो जाओ. किसी को पता नहीं चलेगा.’’

सुष्मिता का दिल जोर से धड़कने लगा. निशांत ने उस के मन में दबे उसी शक के बिंदु को छू दिया था जिस के बारे में वह दिनरात सोचसोच कर चिंतित होती थी.

क्या सही है और क्या गलत, यह सोचतेसोचते बहुत देर हो गई. तूफान कमरे में आ चुका था. बिस्तर पर देह

की जरूरत और मन की घबराहटों के नीचे दबी सुष्मिता एकटक दरवाजे के पास पड़े अपने और निशांत के कपड़ों को देखती रही. निशांत की गरम, तेज सांसें सुष्मिता की बेचैन सांसों में मिलती चली गईं.

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सबकुछ शांत होने के बाद सुष्मिता ने अपनी आंखों के कोरों के गीलेपन को पोंछा और अपने कपड़ों और खुद को समेट कर वहां से चल पड़ी. निशांत ने भी उस से नजरें मिलाने की कोशिश

नहीं की.

कलैंडर के पन्ने आगे पलटते रहे. सुष्मिता और निशांत के बीच भाईबहन का रिश्ता अब केवल सामाजिक मुखौटा मात्र ही रह गया था. ऊपर अपने कमरे में अकेला सोने वाला निशांत आराम से सुष्मिता को रात में बुला लेता और वह भी खुशीखुशी अपनी छत फांद कर उस के पास चली जाती.

आएदिन सुष्मिता के अंदर जाने वाला इच्छाओं का रस आखिरकार एक रोज अपनी भीतरी कारगुजारियों का संकेत देने के लिए उस के मुंह से उलटी के रूप में बाहर आ कर सब को संदेशा भेज बैठा.

सुष्मिता के मांबाप सन्न रह गए. घर में जोरदार हंगामा हुआ. इस के बाद सुष्मिता की हाइमनोप्लास्टी करा कर सागर के आते ही उसे ब्याह कर विदा कर दिया गया.

सुहागरात में चादर पर सुष्मिता से छिटके लाल छींटों ने सागर को भी पूरी तरह आश्वस्त कर दिया. दोनों की जिंदगी शुरू हो गई. सुष्मिता का भी मन सागर के साथ संतुष्ट था क्योंकि निशांत के पास तो वह खुद को शारीरिक सुख देने और सागर से अनचाहा बदला लेने के लिए जाती थी.

धीरेधीरे 2 साल बीत गए लेकिन सुष्मिता और सागर के घर नया सदस्य नहीं आया. उन्होंने डाक्टर से जांच कराई. सागर में किसी तरह की कोई कमी नहीं निकली. इस के बाद बारी सुष्मिता की रिपोर्ट की थी.

डाक्टर ने दोनों को अपने केबिन में बुलाया और उलाहना सा देते हुए कहा, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता मिस्टर सागर कि जब आप लोगों को बच्चा चाहिए

था तो आखिर आप ने अपना पहला बच्चा गिराया क्यों? बच्चा गिराना कोई खेल नहीं है.

‘‘अगर ऐसा कराने वाला डाक्टर अनुभवी नहीं हो तो आगे चल कर पेट से होने में दिक्कत आती ही है. आप की पत्नी के साथ भी यही हुआ है.’’

सागर हैरान रह गया और सुष्मिता को तो ऐसा लगा मानो उसे किसी ने अंदर से खाली कर दिया हो. सागर ने टूटी सी नजर उस पर डाली और डाक्टर की बातें सुनता रहा.

वहां से लौट कर आने के बाद सागर चुपचाप पलंग पर बैठ गया. अब तक की जिंदगी में सागर से बेहिसाब प्यार पा कर उस के प्रति श्रद्धा से लबालब हो चुकी सुष्मिता ने उस के पैर पकड़ लिए और रोरो कर सारी बात बताई. सागर के चेहरे पर हारी सी मुसकान खेल उठी. वह उठ कर दूसरे कमरे में चला गया.

उन दोनों को वहीं बैठेबैठे रात हो गई. सुष्मिता जानती थी कि इस सब

की जड़ वही है इसलिए पहल भी उसे ही करनी होगी. थोड़ी देर बाद वह सागर

के पास गई. वह दीवार की ओर मुंह किए बैठा था. अपने आंसुओं को किसी तरह रोक कर सुष्मिता ने उस के कंधे पर हाथ रखा.

सागर ने उस की ओर देखा और भरी आंखें लिए बोल उठा, ‘‘तुम भरोसा करो या न करो लेकिन तुम्हारे लिए मैं ने काजल की कोठरी में भी खुद को बेदाग रखा और तुम केवल शक के बहकावे

में आ कर खुद को कीचड़ में धकेल बैठी.’’

सुष्मिता फूटफूट कर रोए जा रही थी. सागर कहता रहा, ‘‘यह मत समझना कि मैं तुम्हारी देह को अनछुआ न पा कर तुम्हें ताना मार रहा हूं, बल्कि सच तो यह है कि पतिपत्नी का संबंध तन के साथसाथ मन का भी होता है और तन को मन से अलग रखना हर किसी के बस में नहीं होता.

‘‘तुम्हारा मन अगर तन से खुद को बचा पाया है तो मेरा दिल आज भी तुम्हारे लिए दरवाजे खोल कर बैठा है, वरना मुझे तुम्हारा अधूरा समर्पण नहीं चाहिए. फैसला तुम्हारे हाथ में है सुष्मिता. अगर तुम्हें मुझ से कभी भी प्यार मिला हो तो तुम को उसी प्यार का वास्ता, अब दोबारा मुझे किसी भुलावे में मत रखना.’’

सुष्मिता ने सागर के सिर पर हाथ फेरा और वापस अपने कमरे में आ गई. उस की आंखों के सामने सागर के साथ बिताई रातें घूमने लगीं जब वह निशांत को महसूस करते हुए सागर को अपने सीने से लगाती थी. उस के मन ने उसे धिक्कारना शुरू कर दिया.

विचारों के ज्वारभाटा में वह सारी रात ऊपरनीचे होती रही. भोर खिलने लगी थी, इसलिए उस ने अपने आंसू पोंछे और फैसला कर लिया.

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सुष्मिता ने अपना सामान बांधा और सागर के पास पहुंची. सागर ने सवालिया निगाहों से उस की ओर देखा.

सुष्मिता ने सागर का माथा चूमा और सागर की जेब से उस का वही रुमाल निकाल लिया जो उस ने शादी से पहले उस के परदेश जाते समय निशानी के रूप में अपने पास रखा था.

सुष्मिता ने वह रूमाल अपने बैग में डाला और बोली, ‘‘मुझे माफ मत करना सागर… मैं तुम्हारी गुनाहगार हूं… मैं तुम्हारे लायक नहीं थी… मैं जा रही हूं… अपनी नई जिंदगी शुरू करो… और हां, इतना भरोसा दिलाती हूं कि अब तुम्हारे इस रुमाल को अपनी बची जिंदगी में दोबारा बदनाम नहीं होने दूंगी.’’

सागर ने अपनी पलकें तो बंद कर लीं लेकिन उन से आंसू नहीं रुक पाए. सुष्मिता भी अपनी आंखों के बहाव को रोकते हुए तेजी से मुड़ी और दरवाजे की ओर चल पड़ी.

अधूरी कहानी

बात उन दिनों की है, जब राघव 12वीं जमात पास कर के कालेज में पढ़ने गया था. माली हालत अच्छी न होने की वजह से उसे पापा के पास बेंगलुरु जाना पड़ा और इसी बीच वह वहीं काम भी करने लगा. समय मिलते ही राघव अपने सारे दोस्तों को मैसेज करता था. वह शायरी का तो शौकीन था ही, हर रोज नईनई शायरी दोस्तों को भेजता और बदले में वे तारीफ भेजते. वे ज्यादातर बातें मैसेज के जरीए ही करते थे. दोस्तों के अलावा राघव अपनी चचेरी भाभी सोनी को भी मैसेज करता था. वे खड़गपुर में राघव के भाई के साथ रहती थीं. राघव और सोनी दोनों जब भी बातें करते तो ऐसा नहीं लगता था कि कोई देवरभाभी बातें कर रहे हैं. ऐसा लगता था, मानो 2 जिगरी दोस्त बातें कर रहे हों.

एक दिन अचानक राघव के फोन पर एक नंबर से एक प्यारा सा मैसेज आया. वह पढ़ कर बहुत खुश हो गया. लेकिन अगले ही पल वह हैरान रह गया, क्योंकि जब उस नए नंबर पर उस ने फोन किया, तो फोन का जवाब नहीं मिल सका.

राघव ने उसी नंबर पर मैसेज किया, ‘कौन हो तुम?’

उधर से जवाब आया, ‘आप की अपनी दोस्त.’

राघव ने नाम पूछा, तो उस ने बताया नहीं. ‘फिर कभी…’ का मैसेज लिख दिया.

राघव ने सोचा, ‘शायद मेरा ही कोई दोस्त मुझे नए फोन नंबर से परेशान कर रहा है.’

रात को राघव ने उस नंबर पर फोन किया. एक लड़की ने फोन उठाया… और जैसे ही वह ‘हैलो’ बोली, राघव के रोंगटे खड़े हो गए.

राघव ने हकलाते हुए पूछा, ‘‘कौन हो तुम? मेरा नंबर तुम्हें किस ने दिया? तुम कहां से बोल रही हो?’’

उस लड़की ने बताया, ‘मेरा नाम पूजा है?’

इस के बाद उस ने राघव से कहा कि वह उसे पहले से जानती है. उस के बारे में बहुत सारी बातें भी बताईं. वह देखने में कैसा है, उस का कद कितना है वगैरह.

राघव ने पूछा, ‘‘मुझे कहां देखा आप ने?’’

उस लड़की ने कहा, ‘4 महीने पहले मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन पर देखा था, तभी से नंबर ढूंढ़ रही हूं.’

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राघव चौंक गया, क्योंकि ठीक 4 महीने पहले वह अपनी मौसी को छोड़ने वहां गया था. वह खयालीपुलाव पकाते हुए सोचने लगा कि एक अनजान लड़की ने अनजान जगह पर उसे देखा और तब से उस का फोन नंबर ढूंढ़ रही है.

पहले तो वह अनजान था, पर अब राघव दोस्ती के नाते उस से बातें करने लगा. कुछ ही दिन हुए थे राघव और उस लड़की की दोस्ती को कि इसी बीच उस का एक मैसेज आया, जिस में लिखा था, ‘मुझे माफ कर देना. मैं नहीं चाहती कि हमारी दोस्ती की शुरुआत झूठ से हो. सच तो यह है कि मैं ने आप को कभी देखा ही नहीं. बस, सोनी भाभी के फोन पर आप का मैसेज पढ़ा, जो मुझे बहुत पसंद आया. इस के बाद भाभी से आप का नंबर ले कर मैसेज कर दिया.

‘मैं ने सोचा कि अगर आप को पहले ही सब बता देती, तो आप के बारे में इतना कुछ जानने का मौका न मिलता. इस झूठ के लिए मुझे माफ कर देना और मेरी दोस्ती को स्वीकार करना.’

यह मैसेज पढ़ कर राघव को थोड़ा गुस्सा तो आया, पर दोस्तों से इस बारे में जब उस ने बात की, तो वे भी उस की तारीफ के पुल बांधने लगे. उसे सलाह दी कि लड़की अच्छी है, तभी तो उस ने सब सचसच बता दिया. और तो और वह दोस्ती भी करना चाहती है. ऐसे सच्चे दोस्त कम ही मिलते हैं. उसे फोन कर और दोस्ती की नई शुरुआत कर. फिर क्या था, राघव का दिल बागबाग हो उठा.

अगली सुबह राघव ने मैसेज किया, ‘गुड मौर्निंग दोस्त.’

उधर से भी मैसेज आया, जिस में पूछा गया था, ‘मुझे माफ तो कर दिया न? फिर से सौरी ऐंड थैंक्यू… दोस्ती को आगे बढ़ाने के लिए.’

राघव ने भी फिल्मी अंदाज में लिख भेजा, ‘दोस्ती में नो थैंक्स, नो सौरी.’

उन दोनों की दोस्ती परवान चढ़ती गई. पहली बार घर जाते समय राघव उस से खड़गपुर रेलवे स्टेशन पर मिला. ट्रेन वहां ज्यादा देर नहीं रुकी, इसलिए बातें भी न हो सकीं. सिर्फ ‘हायहैलो’ ही हो पाई.

उस समय छठ पूजा की तैयारियां चल रही थीं. राघव घर पर ही था. सोनी भाभी हर साल छठ पूजा के समय गांव आ जातीं. इस बार भी वे आईं, पर अकेली नहीं, पूजा भी साथ थी.

राघव इतना खुश था कि बयां नहीं कर सकता था. उस ने पूजा को अपनी मां और बहनों से मिलवाया. वह पूरा दिन उसी के साथ रहा.

सोनी भाभी कहां चूकने वाली थीं. वे भी ताने कसतीं, ‘‘क्यों देवरजी, क्या इसे यहीं छोड़ दूं हमेशा के लिए?’’

भाभी की ऐसी बातें सुन कर राघव के मन में लड्डू फूटने लगते. काश, ऐसा ही होता.

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पूजा थी ही ऐसी. गोरा रंग, लंबी नाक, लंबा कद, पतली कमर, मानो कोई अप्सरा हो. राघव मन ही मन उसे चाहने लगा था. उस के फोन की बैटरी और पैसे खत्म हो जाते, पर बातें नहीं. हर साल छठ पूजा पर पूजा भी सोनी भाभी के साथ उस से मिलने चली आती, लेकिन राघव की कभी हिम्मत नहीं हुई कि वह भी कभी उस के घर जाए. राघव जब भी गांव आता, उस से स्टेशन पर ही मिल कर चला जाता. प्यार वह भी उस से करती थी, पर बोलती नहीं थी. राघव उस से प्यार का इजहार करवा कर ही रहा. अब दोस्ती भूल कर प्यारमुहब्बत की बातें होने लगीं. बात शादी तक पहुंच गई. राघव ने हिम्मत कर के पड़ोसियों के जरीए अपने प्यार और शादी की बात मां तक पहुंचा दी. मां ने इस रिश्ते को एक बार में ही खारिज कर दिया. इस की वजह यह थी कि लड़की उन की बिरादरी की नहीं थी. पढ़ीलिखी है. शहर की रहने वाली है. गांव के बारे में क्या जानती है  मां के खयाल से शायद पूजा घरपरिवार न संभाल सके. उन को ऐसी लड़की चाहिए थी, जो घर को संभाल सके. घर तो पूजा संभाल ही लेती, पर मां को कौन समझाए. पुराने खयालों वाली मां जो एक बार बोल देती हैं, वही राघव के लिए पत्थर की लकीर हो जाता था. समय का पहिया अपनी रफ्तार से चलता रहा. राघव के दोस्तों, पड़ोसियों सभी ने उसे सलाह दी कि वह पूजा को भगा ले जाए. मां कुछ दिन नाराज रहेंगी, पर समय के साथ सब ठीक हो जाएगा.

राघव आगेपीछे की सोचने लगा, ‘जैसे हर मां के सपने होते हैं, वैसे ही मेरी मां के भी सपने होंगे. वे सोचती होंगी कि उन के बेटे की शादी होगी. बैंडबाजा बजेगा, वे खुशी के मारे नाचेंगी…’

राघव ने भी सोच लिया था कि पूरे परिवार के सामने उस की शादी होगी. वह अपनी मां के सपनों को नहीं तोड़ सकता. एक दिन राघव ने पूजा को अपने मन की बात बता दी. वह सुन कर रोने लगी. रोया तो वह भी था.

कुछ सोच कर पूजा ने कहा, ‘‘आप की शादी किसी से भी हो, पर आप हमेशा खुश रहना. मां का दिल कभी मत तोड़ना. आप वहीं शादी कीजिएगा, जहां आप की मां चाहती हैं. जब तक हम दोनों में से किसी एक की शादी नहीं होती, तब तक हम दोस्ती के नाते बातें तो कर ही सकते हैं.’’ फिर पूजा छठ पूजा पर गांव नहीं आई. राघव भी उदास रहने लगा. उन दोनों ने क्याक्या सपने देखे थे कि शादी होगी, शादी के बाद घर पर ही वह कोई काम करेगा, पूजा बच्चों को ट्यूशन पढ़ाएगी और वह दुकान चलाएगा. कहते हैं न कि आदमी जो सोचता है, वह हमेशा पूरा होता है, बल्कि सच में सोचा हुआ काम कभी पूरा नहीं होता. जो राघव ने सोचा था, वह सब तो अधूरा ही रह गया.

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सामने वाला फ्लैट: जोया और शिवा की कहानी

ठाणे के भिवंडी एरिया में नई बनी सोसाइटी ‘फ्लौवर वैली’ की एक बिल्डिंग के तीसरे फ्लोर के एक फ्लैट में 28 वर्षीय शिव त्रिपाठी सुबह अपनी पूजा में लीन था. तभी डोरबैल बजी. किचन में काम करती उस की पत्नी आरती ने दरवाजा खोला.

सामने वाले फ्लैट की नैना ने चहकते हुए कहा, ”गुडमौर्निंग आरती, दही जमाने के लिए खट्टा देना, प्लीज. रात को मैं और ज़ोया सारी दही खा गए, खट्टा बचाना याद ही नहीं रहा,” फिर गहरी सांस अंदर की तरफ खींचती हुई बोली, ”क्या बना रही हो, बड़ी खुशबू आ रही है. अरे, डोसा बना रही हो क्या?”

आरती ने कहा, ”हां, आ जाओ, दही ले लो.”

”बस, जल्दी से दे दो, एक मीटिंग है, लैपटौप खोल कर आई हूं. और हां, दोतीन डोसे हमारे लिए भी बना लेना, घर के डोसे की बात ही अलग है.”

आरती ने मुसकरा कर कहा, ”हां, तुम दोनों के लिए भी बनाने वाली ही थी.”

फिर अंदर झांकते हुए नैना हंसी, ”तुम्हारे शिव ‘जी’ पूजा में बैठे हैं क्या?”

”हां,” आरती को उस के कहने के ढंग पर हंसी आ गई.

नैना चली गई. शिव वैसे तो पूजा कर रहा था पर उस ने दरवाजे पर हुई पूरी बात सुनी थी. पूजा कर के उठा तो नैना ने अपना और उस का नाश्ता लगा लिया. शिव ने पूछा, ”यह सामने वाले फ्लैट से अब कौन सी लड़की क्या मांगने आई थी? इसे खुद किसी चीज का होश नहीं रहता क्या?”

”अरे, तो क्या हुआ, अकेली लड़कियां हैं, कितनी प्यारी हैं दोनों, मुझे तो बहुत ही अच्छी लगती हैं दोनों.”

शिव ने अचानक पूछा, ”अरे, तुम बिना नहाए नाश्ता कर रही हो आज?”

”हां, आराम से नहा लूंगी, थोड़ी सफाई करनी है.”

”खूब मनमानी करती हो मुंबई आ कर. मेरे मांपिताजी देख लें कि बनारस के इतने बड़े ब्राह्मण परिवार की बहू बिना नहाए खाने बैठ जाती है तो बेचारे यह धक्का कैसे सहन करेंगे,” कह कर शिव व्यंग्य से मुसकराया.

आरती ने हंस कर कहा, ”मैं तो जी ही रही हूं यहां आ कर, वहां पहले अपना परिवार, फिर तुम्हारा कट्टर परिवार, ऐसे अपनी मरजी से जीना तो वहां बड़ा मुश्किल था. बहुत सही समय पर शादी होते ही तुम्हारा ट्रांसफर यहां हो गया, मजा आ गया.” यह कहते हुए उठ कर आरती ने शिव के गले में बांहें डाल दीं.

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दोनों के विवाह को सालभर ही हुआ था और शादी होते ही शिव का ट्रांसफर बनारस से मुंबई हो गया था. शिव ने भी उसे अपने करीब कर लिया. नए विवाह का रोमांस जोरों पर था. इतने में डोरबैल बजी. इस बार सामने वाले फ्लैट से ज़ोया थी. शिव ने उठ कर दरवाजा खोला था.

ज़ोया ने गुडमौर्निंग कह जल्दी से पूछा, ”अरे आरती, तुम हमें डोसे देने वाली थी न. भाई, जल्दी दो. नैना ने बताया तो सुनते ही भूख लग आई है.”

आरती ने हंसते हुए कहा, ”हांहां, बस दो मिनट, बना रही हूं.”

”ठीक है, हमारा दरवाजा खुला ही है, जरा पकड़ा देना.’’ शिव अब तक दरवाजे पर ही खड़ा था, ज़ोया जाते हुए बोली, ”भई शिवजी, आप की पत्नी बड़ी सुघड़ है.”

वह चली गई तो शिव ने किचन में आरती के पास जा कर ज़ोया की नक़ल लगाई,”भई, शिवजी, आपकी पत्नी बड़ी सुघड़ है. हुंह, तुम दोनों क्यों नहीं सीख लेतीं कुछ फिर मेरी सुघड़ पत्नी से. बस, बातें बनवा लो इन से. नाक में दम कर के रखती हैं दोनों, पता नहीं कहां से आ गईं यहां रहने.”

आरती मुसकराती रही और नैना व ज़ोया के लिए डोसे बनाती रही. 6 डोसे और नारियल की चटनी ले कर उन के पास गई, प्यार से कहा, ”लो, दोनों गरमगरम खा लो.”

नैना और ज़ोया फौरन अपने लैपटौप को स्लीप मोड पर डाल नाश्ता करने बैठ गईं. आरती से कहा, ”तुम भी बैठो, अपने शिव जी के साथ नाश्ता तो कर ही लिया तुम ने, अब चाय हमारे साथ पी कर जाना या ऐसा करो, तब तक चाय चढ़ा ही दो, साथ पीते हैं,” कह कर दोनों नाश्ते पर टूट सी पड़ीं. आरती ने उन्हें स्नेह से देखा और उन के ही किचन में चाय चढ़ा दी और फिर चौंकते हुए वापस आई, ”यह क्या, चाय की पत्ती ख़त्म है क्या?”

दोनों ने एकदूसरे को घूर कर देखा. फिर दोनों हंस पड़ीं. ज़ोया ने कहा, ”आरती, कौफ़ी ही बना लो फिर. हम मंगाना भूल गए. एक तो यह नई सोसाइटी है, ठीक से अभी दुकानें भी नहीं हैं, दूर जाने का मन नहीं करता, कल औनलाइन और्डर दे रहे थे तो चाय की पत्ती भूल गए. तुम्हारे शिवजी कुछ सामान लेने निकलें तो हमारी भी चाय की पत्ती मंगा देना.”

तीनों ने हंसीठहाके के बीच कौफ़ी पी. नैना और ज़ोया ने आरती को बारबार थैंक्स कहा. फिर नैना के औफिस से कौल आ गई तो वह व्यस्त हो गई. आरती जानती थी कि ज़ोया भी अब औफिस के काम करेगी, वह जल्दी ही अपने फ्लैट में लौट आई.

‘फ्लौवर वैली’ अभी नई ही बनी थी, यहां अभी बहुत कम दुकानें थीं. अभी तो बिल्डिंग्स में सारे फ्लैट्स में लोग रहने भी नहीं आए थे. आरती के फ्लोर पर 4 फ्लैट थे, जिन में से 2 अभी बंद ही थे. इस सामने वाले फ्लैट में 27 साल की नैना और ज़ोया कुछ महीने पहले ही रहने आई थीं. दोनों अभी अविवाहित थीं. ज़ोया लखनऊ की थी. नैना दिल्ली से आई थी. दोनों ही खूब सुंदर, हंसमुख और बेहद मिलनसार स्वभाव की थीं. आते ही उन की दोस्ती आरती से हो गई थी. आरती उन दोनों से मिल कर बहुत खुश थी. बाकी लोग अभी इस बिल्डिंग में महाराष्ट्रियन थे. भाषा की समस्या और अलग तरह के स्वभाव, व्यवहार के कारण आरती और किसी से खुल नहीं पाई थी. वह यहां अकेलापन महसूस कर रही थी कि ये दोनों लड़कियां जैसे ही रहने आईं, आरती का मन खिल उठा था.

दोनों ही किरायदार थीं और एक ही औफिस में काम करती थीं. दोनों के धर्म अलग थे. लेकिन दोनों ऐसे रहतीं जैसी सगी बहनें हों. अब आरती के साथ भी उन की खूब पटने लगी थी. शिव बनारस के एक कट्टर परिवार का पुरातनपंथी सोच वाला लड़का था. उसे मुंबई में अकेले रहने वाली इन लड़कियों पर अकसर झुंझलाहट ही होती रहती. वह एक पढ़ालिखा, अच्छे पद पर काम जरूर करता था पर मन से बहुत पुरानी सोच का लड़का था. उस की भी कोई गलती नहीं थी क्योंकि वह जिस परिवार में पलाबढ़ा था, वहां हर चीज अलग कसौटी पर परखी जाती. उस के परिवार ने आरती को पसंद ही इसलिए किया था क्योंकि आरती का परिवार भी घर की औरतों को धर्म और आस्था के नाम पर पुरानी जंजीरों में बांध कर रखने वाला था. आज़ादी देने के पक्ष में बिलकुल नहीं था.

आरती तो जब से इन दोनों लड़कियों से मिली थी, उस के सोचने का, जीने का नजरिया ही बदल गया था. नैना और ज़ोया के जीवन के ढंग को देख कर आरती रोज हैरान होती. एक दिन तो वह सामने वाले फ्लैट में गई तो लिविंगरूम में ही एक कोने की टेबल पर ज़ोया की औफिस की वीडियोकौल चल रही थी. ज़ोया ने बहुत ही अच्छी वाइट शर्ट पहन रखी थी. नैना किचन में थी. नैना ने बताया, ‘आज इस की अपने बौस से मीटिंग चल रही है.’

पर आरती को बहुत हंसी आ रही थी. ज़ोया ने शर्ट के नीचे बहुत ही छोटी शौर्ट्स पहनी हुई थी, बोली, ‘यह बताओ, तुम लोग नीचे क्याक्या पहन कर बैठी रहती हो, किसी काम से उठना पड़ जाए सब के सामने तो?’

नैना खुल कर हंसी, ‘तो क्या? औफिस वाले भी देख लेंगे कि कितनी हौट लड़की है उन के औफिस में.’ इस के बाद तो आरती उन के स्वभाव, व्यवहार, खुल कर जीने की अदा पर निसार होती रहती.

शिव और आरती ने अपने घरों में एक अलग माहौल देखा था. शिव तो फिर भी औफिस में मुंबई की वर्किंग लड़कियों के संपर्क में था. आरती के लिए नैना और ज़ोया जैसे 2 परियां सी थीं, अलग ही दुनिया में रहतीं, बड़े मजे से दोनों स्वीकार करतीं, ‘देखो भाई, आरती, घर के कामवाम तो हमें इतने आते नहीं, जो बनता है, खा लेते हैं. बस, तुम्हारे जैसे पड़ोसी मिलते रहें, अच्छी गुजर जाएगी.’

शिव ने यह बात सुन ली थी, अंदर आ कर बड़बड़ाता रहा, ‘बस बातें करवा लो इन से, कुछ नहीं आता, यह भी बड़ी शान से बताती हैं. पता नहीं, क्या लड़कियां हैं ये, इन के मांबाप ने इन्हें सिखाया क्या है? बस, छोड़ दिया पढ़ालिखा कर पैसे कमाने के लिए.’

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आरती शांतिप्रिय थी. शिव की हर बात को मुसकरा कर टाल देती. यह सोचती कि शिव की अपनी सोच है. उसे भी अपनी बात कहने का पूरा हक़ है. दरवाजे की घंटी बजी, तो शिव ने ही दरवाजा खोला, कोरोना के चक्कर में सब घर से ही काम कर रहे थे, नैना थी, ‘अरे, शिवजी, आप? आरती कहां है?’

”वाशरूम में.”

शिव को उन के शिवजी कहने पर बड़ी चिढ़ होती, पर कुछ कह भी नहीं सकता था. उस ने पूछा, ”कुछ काम था?” फिर मन में सोचा, काम ही होगा, सारा दिन काम से ही तो आती रहती हैं. नैना ने मुसकराते हुए कहा, ”हां शिव जी, काम ही है, हम तो काम से ही आते हैं. अभी आप यही सोच रहे थे न? फिर खुद ही हंस पड़ी, ”कुछ सामान लेने जाएंगे तो हमारी भी ये एकदो चीजें ले आना.” इतने में पीछे से ज़ोया की आवाज आई, “नैना, हैंडवाश भी लिख दे लिस्ट में, ख़त्म हो रहा है.”

इतने में आरती भी आ गई, ”अरे, अंदर आओ न, अब तो औफिस का पैकअप हो गया होगा न?”

”अरे, कहां, पैकअप! वर्क फ्रौम होम में तो काम ख़त्म ही नहीं होता. अभी एक मीटिंग है हम दोनों की, आरती. बस, इस लिस्ट में हमारा हैंडवाश लिख लेना, थैंक यू,शिव जी. आप को हम बड़ी तकलीफ देते हैं, क्या करें, इस समय दुकान वाला होम डिलीवरी कर नहीं रहा है, कल औनलाइन सामान मंगवाने में कुछ चीजें भूल गए हैं. चलो, बाय, मीटिंग है हमारी.” फिर जातेजाते पलटी, ”अरे आरती, एक बात बताओ, दूध बहुत रखा है हमारा, पनीर कैसे बनाएं उस का?”

शिव ने जवाब दिया, ”आजकल तो गूगल और यूट्यूब पर सब पता चल जाता है न, अकेले रहने वालों के लिए यह बड़ी हैल्प है.”

नैना हंसी, ”आरती ही गूगल है हमारी, हमें तो आरती से पूछना अच्छा लगता है. ऐसा लगता है जैसे किसी घर के मैंबर से बात करते हैं.”

उस के जाने के बाद शिव अंदर आ कर बोला, “क्या लड़कियां हैं, बस बातें करवा लो इन से.”

आरती ने उस के सीने से लगते हुए कहा, ”कुछ मत कहा करो उन्हें, अच्छी हैं दोनों.”

”हां, मुझे लिस्ट पकड़ा कर चली जाती हैं. आजकल अपना सामान लाने का टाइम नहीं है, इन का और ले कर दूं.”

और यह ज़ोया तो है भी दूसरे धर्म की, नैना तो फिर भी चलो, पंजाबी है, पर यह ज़ोया से मैं कम्फर्टेबल नहीं हो पाता.”

आरती का चेहरा उतर गया तो शिव चुपचाप सामान लेने चला गया. आरती की ज़ोया और नैना से दोस्ती दिन पर दिन पक्की होती जा रही थी पर शिव को उन दोनों की लाइफस्टाइल से बड़ी दिक्कत थी. उस का मन होता था कि आरती से कहे कि कोई जरूरत नहीं इतना मिक्स होने की, पर आरती को उन के साथ खुश, हंसतेबोलते देख वह चुप रह जाता.

अब कोरोना की दूसरी वेव शुरू हो गई थी. इस नई सोसाइटी में पहले से ही अभी लोग कम थे. जो थे वे अब घरों में बंद होते जा रहे थे. हर तरफ एक डर का माहौल था. नैना और ज़ोया भी अब कम दिखने लगी थीं. शिव लैपटौप में व्यस्त रहता. आरती का चेहरा कुछ बुझा सा रहता. अचानक शिव कोरोना की चपेट में आ गया. बुखार और गले के दर्द से जब वह सुबह जागा तो समझ गया कि कोरोना के लक्षण हैं. उस की तबीयत काफी खराब होने लगी.

आरती घबरा गई. उस ने इंटरकौम से नैना को सूचना दी और रोने लगी.

नैना ने कहा, ”जरा भी परेशान न होना, हम हैं न. बोलो, किस डाक्टर को दिखाना है?”

”अभी तक तो जरूरत ही नहीं पड़ी थी कभी किसी डाक्टर की. सुना है, सोसाइटी के आसपास अभी कोई डाक्टर है भी नहीं, क्या करूं?”

”तुम हम पर छोड़ दो सबकुछ, हम सब कर लेंगे.”

नैना ने ज़ोया से बात की. सब से पहले शिव का टैस्ट करवाना जरूरी था. नैना ने दिल्ली में अपने डाक्टर कजिन रवि से सलाह ली और फिर आरती की डोरबैल बजा दी. आरती की आंखें रोरो कर लाल थीं. ज़ोया भी नैना के साथ ही दरवाजे पर खड़ी थी, कहा, ”यह इतना रोने की क्या जरूरत है, तुम्हारे शिव जी अभी ठीक हो जाएंगे. चिंता मत करो. उन्हें तैयार करो. हम उन का टैस्ट करवाने ले जा रहे हैं. हम ने सब समझ लिया है कि क्या करना है.”

नैना और ज़ोया ने अपनेआप को पूरी तरह से कवर कर रखा था. आरती ने कहा, ”कैसे ले कर जाओगी?”

”मुझे तो ड्राइविंग नहीं आती, पर ज़ोया के पास कार चलने का लाइसैंस है. अपने शिवजी की कार की चाबी दो. ज़ोया कार चला लेगी. तुम घर में रुको. हम सब करवा लेंगे.” फिर अचानक नैना ने कहा, ”तुम तो ठीक हो न?”

आरती ने कहा, ”मेरा गला तो दिन से दुख रहा है और शरीर में दर्द है.”

”ओह्ह, तुम भी चलो, टैस्ट जरूरी हैं.”

आरती और शिव को पीछे बिठा कर नैना और ज़ोया आगे बैठ गईं. नैना के हाथ में ही सैनिटाइज़र था. शिव ने कमजोर आवाज में कहा, ”आप दोनों को हमारे साथ रहने का रिस्क नहीं लेना चाहिए.”

नैना ने कहा, ‘’अभी आप यह सब न सोचें, आप दोनों के लिए रिस्क लेने से हमें कोई डर नहीं लग रहा है.”

टैस्ट हो गए, दोनों पौजिटिव थे. हौस्पिटल्स में जगह नहीं थी. नैना ने किसी तरह एक डाक्टर से वीडियोकौल करवा कर आरती और शिव से बात करवाई. डाक्टर ने दवाई और बाकी चीजों के निर्देश दे दिए. नगरपालिका वाले आ कर शिव और आरती के फ्लैट के दरवाजे पर आ कर स्टीकर लगा कर चले गए. दोनों से फ्लैट के बाहर ही नैना ने कहा, ”आरती, खाने की चिंता मत करना. हम अभी पेपर प्लेट्स का इंतज़ाम कर लेंगे. हमें जो भी आता है, हम खाना बना कर देते रहेंगे. किसी भी टाइम किसी भी चीज की जरूरत हो, हम हैं. तुम लोग, बस, आराम करो. अपने खानेपीने की चिंता बिलकुल न करना. एक डस्टबिन बैग में पेपर प्लेट्स इकट्ठा करती रहना. फिर हमें दे देना. हम कचरे में डाल देंगे.”

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नैना और ज़ोया सुबह से ले कर चाय, नाश्ता, लंच, डिनर सबकुछ शिव और आरती के लिए बना रही थीं. उन के फ्लैट के बाहर एक छोटा सा स्टूल रख दिया था. उस पर ही दूर से वे खाना रख देतीं. आरती या शिव कोई भी आ कर उठा लेता. इंटरकौम था ही, उस पर हालचाल जान कर, कोई जरूरत पूछ कर नैना और ज़ोया अपनी किसी भी चीज की चिंता किए बिना आरती और शिव की सेवा में लगी थीं. करीब 10 दिनों बाद दोनों को कुछ बेहतर लगा. कुछ रुक कर ज़ोया फिर दोनों को टैस्टिंग के लिए ले गई. दोनों की रिपोर्ट नैगेटिव आई. चारों बहुत खुश हुए. आरती को बहुत कमजोरी थी. शिव को खांसी अभी भी बहुत थी. दोनों काफी कमजोर हो गए थे. ज़ोया ने कहा, ”अभी कुछ दिन और आराम कर लो, आरती. हम चारों का खाना बनाते रहेंगे अभी. अब तो शायद हमारा हाथ कुकिंग में कुछ ठीक हो गया है न. तुम्हारे चक्कर में पहली बार यूट्यूब पर देखदेख कर अच्छी तरह बनाने की कोशिश कर रहे थे. ये कुकिंग तो हमें हमारे पेरैंट्स भी नहीं सिखा पाए जो तुम दोनों ने सिखा दी.”

शिव इस बात पर खुल कर हंसा तो नैना ने कहा, ”अरे, आप हंसते भी हैं!”

शिव झेंप गया. आरती की आंखें भीग गई थीं. वह बोली, ”तुम लोगों ने जो किया, हम उसे कभी भुला नहीं पाएंगे.”

ज़ोया ने प्यार से झिड़का, ”एनर्जी अभी नहीं है तो ये बेकार की बातें मत करो. अभी कुछ दिन और आराम कर लो. कमजोरी अभी काफी दिन रहेगी.”

लगभग एक महीना ज़ोया और नैना ने दोनों की बहुत सेवा की, खूब ध्यान रखा. दोनों अब ठीक हो रहे थे. एक दिन संडे को आरती की डोरबैल बजी. शिव ने दरवाजा खोला. ज़ोया थी. शिव ने स्नेह से कहा, ”आओ, ज़ोया.”

”नहीं, जरा जल्दी है, कुछ सब्जी लेने जा रही हूं, आरती, कुछ चाहिए?”

शिव ने कहा, ”अरे, मैं अब ठीक हूं, मैं ले आऊंगा. तुम्हें भी कुछ चाहिए तो बता दो.”

”पक्का? आप इतने ठीक हैं कि बाहर जा कर कुछ लाएंगे?”

”हां, काफी ठीक लग रहा है. आजकल दुकानें थोड़ी देर के लिए ही खुलती हैं, भीड़ हो सकती है, तुम लोग अभी मत जाओ, मैं ले आऊंगा. तुम लोगों को भी कोरोना से बचना है.”

”तो ठीक है, यह लिस्ट है और अपने पास रख लेना सामान. मैं थोड़ा और सो लेती हूं फिर. उठ कर ले लेंगे सामान. नैना भी सोई हुई है,’’ फिर अंदर झांकते हुए बोली, ”अरे आरती, तुम क्या बनाने लगी आज?”

”पोहा बना रही हूं, तुम लोगों के लिए भी.”

”वाह, बढ़िया, सुनो, गरमगरम ही दे देना फिर, खा कर ही सो जाऊंगी,’’ कह कर ज़ोया जोर से हंसी.

ज़ोया सामने वाले अपने फ्लैट में चली गई. शिव के होंठों पर आज आरती को देख कर जो मुसकान उभरी, उसे देख आरती का दिल आज अनोखी ख़ुशी से भर उठा था.

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वह फांकी वाला : सुनसान गलियों की कहानी

लेखक- खुशवीर मोठसरा

वह एक उमस भरी दोपहर थी. नरेंद्र बैठक में कूलर चला कर लेटा हुआ था. इस समय गलियों में लोगों का आनाजाना काफी कम हो जाता था और कभीकभार तो गलियां सुनसान भी हो जाती थीं.

उस दिन भी गलियां सुनसान थीं. तभी गली से एक फेरी वाली गुजरते हुए आवाज लगा रही थी, ‘‘फांकी ले लो फांकी…’’

जैसे ही आवाज नरेंद्र की बैठक के नजदीक आई तो उसे वह आवाज कुछ जानीपहचानी सी लगी. वह जल्दी से चारपाई से उठा और गली की तरफ लपका. तब तक वह फेरी वाली थोड़ा आगे निकल गई थी.

नरेंद्र ने पीछे से आवाज लगाई, ‘‘लच्छो, ऐ लच्छो, सुन तो.’’

उस फेरी वाली ने मुड़ कर देखा तो नरेंद्र ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया. वह फेरी वाली फांकी और मुलतानी मिट्टी बेचने के लिए उस के पास आई और बोली, ‘‘जी बाबूजी, फांकी लोगे या मुलतानी मिट्टी?’’

नरेंद्र ने उसे देखा तो देखता ही रह गया. दोबारा जब उस लड़की ने पूछा, ‘‘क्या लोगे बाबूजी?’’ तब उस की तंद्रा टूटी.

नरेंद्र ने पूछा, ‘‘तुम लच्छो को जानती हो, वह भी यही काम करती है?’’

उस लड़की ने मुसकरा कर कहा, ‘‘लच्छो मेरी मां है.’’

नरेंद्र ने कहा, ‘‘वह कहां रहती है?’’

उस लड़की ने कहा, ‘‘वह यहीं मेरे साथ रहती है. आप के गांव के स्कूल के पास ही हमारा डेरा है. हम वहीं रहते हैं. आज मां पास वाले गांव में फेरी लगाने गई है.’’

नरेंद्र ने उस लड़की को बैठक में बिठाया, ठंडा पानी पिलाया और उस से कहा कि कल वह अपनी मां को साथ ले कर आए. तब उन का सामान भी खरीदेंगे और बातचीत भी करेंगे.

अगले दिन वे मांबेटी फेरी लगाते हुए नरेंद्र के घर पहुंचीं. उस ने दोनों को बैठक में बिठाया, चायपानी पिलाया. इस के बाद नरेंद्र ने लच्छो से पूछा, ‘‘क्या हालचाल है तुम्हारा?’’

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लच्छो ने कहा, ‘‘तुम देख ही रहे हो. जैसी हूं बस ऐसी ही हूं. तुम सुनाओ?’’

नरेंद्र ने कहा, ‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं. अभी 2 साल पहले रिटायर हुआ हूं. 2 बेटे हैं. दोनों सर्विस करते हैं. बेटीदामाद भी भी सर्विस में हैं.

‘‘पत्नी छोटे बेटे के पास चंडीगढ़ गई है. मैं यहां इस घर की देखभाल करने के लिए. तुम अपने परिवार के बारे में बताओ,’’ नरेंद्र ने कहा.

लच्छो बोली, ‘‘तुम से बाबा की नानुकर के बाद हमारी जात में एक लड़का देख कर बाबा ने मेरी शादी करा दी थी. पति तो क्या था, नशे ने उस को खत्म कर रखा था.

‘‘यह मेरी एकलौती बेटी है सन्नो. इस के जन्म के 2 साल बाद ही इस के पिता की मौत हो गई थी. तब से ले कर आज तक अपनी किस्मत को मैं इस फांकी की टोकरी के साथ ढो रही हूं.’’

उन दोनों के जाने के बाद नरेंद्र यादों में खो गया. बात उन दिनों की थी जब वह ग्राम सचिव था. उस की पोस्टिंग राजस्थानहरियाणा के एक बौर्डर के गांव में थी. वह वहीं गांव में एक कमरा किराए पर ले कर रहता था.

वह कमरा गली के ऊपर था. उस के आगे 4-5 फुट चौड़ा व 8-10 फुट लंबा एक चबूतरा बना हुआ था. उस चबूतरे पर गली के लोग ताश खेलते रहते थे. दोपहर में फेरी वाले वहां बैठ कर आराम करते थे यानी चबूतरे पर रात तक चहलपहल बनी रहती थी.

राजस्थान से फांकी, मुलतानी मिट्टी, जीरा, लहसुन व दूसरी चीजें बेचने वाले वहां बहुत आते थे. कड़तुंबा, काला नमक, जीरा वगैरह के मिश्रण से वे लोग फांकी तैयार करते थे जो पेटदर्द, गैस, बदहजमी जैसी बीमारियों के लिए इनसानों व पशुओं के लिए बेहद गुणकारी साबित होती है.

उस दिन भी गरमी की दोपहर थी. फेरी वाली गांव में फेरी लगा कर कमरे के बाहर चबूतरे पर आ कर आराम कर रही थी. उस ने किवाड़ की सांकल खड़काई.

नरेंद्र ने दरवाजा खोल कर देखा कि 18-20 साल की एक लड़की राजस्थानी लिबास में चबूतरे पर बैठी थी.

नरेंद्र ने पूछा था, ‘क्या बात है?’

उस ने मुसकरा कर कहा था, ‘बाबूजी, प्यास लगी है. पानी है तो दे देना.’

नरेंद्र ने मटके से उस को पानी पिलाया था. पानी पी कर वह कुछ देर वहीं बैठी रही. नरेंद्र उस के गठीले बदन के उभारों को देखता रहा. वह लड़की उसे बहुत खूबसूरत लगी थी.

नरेंद्र ने उस से पूछ लिया, ‘तुम्हारा नाम क्या है?’

उस ने कहा था, ‘लच्छो.’

‘तुम लोग रहते कहां हो?’ नरेंद्र के यह पूछने पर उस ने कहा था, ‘बाबूजी,  हम खानाबदोश हैं. घूमघूम कर अपनी गुजरबसर करते हैं. अब कई दिनों से यहीं गांव के बाहर डेरा है. पता नहीं, कब तक यहां रह पाएंगे,’ समय बिताने के बहाने नरेंद्र लच्छो के साथ काफी देर तक बातें करता रहा था.

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अगले दिन फिर लच्छो चबूतरे पर आ गई. वे फिर बातचीत में मसरूफ हो गए. धीरेधीरे बातें मुलाकातों में बदलने लगीं. लच्छो ने बाहर चबूतरे से कमरे के अंदर की चारपाई तक का सफर पूरा कर लिया था.

दोपहर के वीरानेपन का उन दोनों ने भरपूर फायदा उठाया था. अब तो उन का एकदूसरे के बिना दिल ही नहीं लगता था.

नरेंद्र अभी तक कुंआरा था और लच्छो भी. वह कभीकभार लच्छो के साथ बाहर घूमने चला जाता था. लच्छो उसे प्यारी लगने लगी थी. वह उस से दूर नहीं होना चाहता था. उधर लच्छो की भी यही हालत थी.

लच्छो ने अपने मातापिता से रिश्ते के बारे में बात की. वे लगातार समाज की दुहाई देते रहे और टस से मस नहीं हुए. गांव के सरपंच से भी दबाव बनाने को कहा.

सरपंच ने उन को बहुत समझाया और लच्छो का रिश्ता नरेंद्र के साथ करने की बात कही लेकिन लच्छो के पिताजी नहीं माने. ज्यादा दबाव देने पर वे अपने डेरे को वहां से उठा कर रातोंरात कहीं चले गए.

नरेंद्र पागलों की तरह मोटरसाइकिल ले कर उन्हें एक गांव से दूसरे गांव ढूंढ़ता रहा लेकिन वे नहीं मिले.

नरेंद्र की भूखप्यास सब मर गई. सरपंच ने बहुत समझाया, लेकिन कोई फायदा नहीं. बस हर समय लच्छो की ही तसवीर उन की आंखों के सामने छाई रहती. सरपंच ने हालत भांपते हुए नरेंद्र की बदली दूसरी जगह करा दी और उस के पिताजी को बुला कर सबकुछ बता दिया.

पिताजी नरेंद्र को गांव ले आए. वहां गांव के साथियों के साथ बातचीत कर के लच्छो से ध्यान हटा तो उन की सेहत में सुधार होने लगा. पिताजी ने मौका देख कर उस का रिश्ता तय कर दिया और कुछ समय बाद शादी भी करा दी.

पत्नी के आने के बाद लच्छो का बचाखुचा नशा भी काफूर हो गया था. फिर बच्चे हुए तो उन की परवरिश में वह ऐसा उलझा कि कुछ भी याद नहीं रहा.

आज 35 साल बाद सन्नो की आवाज ने, उस के रंगरूप ने नरेंद्र के मन में एक बार फिर लच्छो की याद ताजा कर दी.

आज लच्छो से मिल कर नरेंद्र ने आंखोंआंखों में कितने गिलेशिकवे किए.  लच्छो व सन्नो चलने लगीं तो नरेंद्र ने कुछ रुपए लच्छो की मुट्ठी में टोकरी उठाते वक्त दबा दिए और जातेजाते ताकीद भी कर दी कि कभी भी किसी चीज की जरूरत हो तो बेधड़क आ कर ले जाना या बता देना, वह चीज तुम तक पहुंच जाएगी.

लच्छो का भी दिल भर आया था. आवाज निकल नहीं पा रही थी. उस ने उसी प्यारभरी नजर से देखा, जैसे वह पहले देखा करती थी. उस की आंखें भर आई थीं. उस ने जैसे ही हां में सिर हिलाया, नरेंद्र की आंखों से भी आंसू बह निकले. वह अपने पहले की जिंदगी को दूर जाता देख रहा था और वह जा रही थी.

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प्यार की खातिर: मोहन और गीता की कहानी

लेखिका- सीमा असीम सक्सेना

प्यार कभी भी और कहीं भी हो सकता है. प्यार एक ऐसा अहसास है, जो बिन कहे भी सबकुछ कह जाता है. जब किसी को प्यार होता है तो वह यह नहीं सोचता कि इस का अंजाम क्या होगा और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वह इनसान किसी के प्यार में इतना खो जाता है कि बस प्यार के अलावा उसे कुछ दिखाई नहीं देता है. तभी तो कहते हैं कि प्यार अंधा होता है. सबकुछ लुटा कर बरबाद हो कर भी नहीं चेतता और गलती पर गलती करता चला जाता है.

मोहन हाईस्कूल में पढ़ने वाला एक 16 साल का लड़का था. वह एक लड़की गीता से बहुत प्यार करने लगा. वह उस के लिए कुछ भी कर सकता था, लेकिन परेशानी की बात यह थी कि वह उसे पा नहीं सकता था, क्योंकि मोहन के पापा गीता के पापा की कंपनी में एक मामूली सी नौकरी करते थे. मोहन बहुत ज्यादा गरीब घर से था, जबकि गीता बहुत ज्यादा अमीर थी. वह सरकारी स्कूल में पढ़ता था और गीता शहर के नामी स्कूल में पढ़ती थी.

लेकिन उन में प्यार होना था और प्यार हो गया. मोहन गीता से कहता, ‘‘तुम मुझ से कभी दूर मत जाना क्योंकि मैं तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह पाऊंगा.’’ ‘‘हां नहीं जाऊंगी, लेकिन मेरे घर वाले कभी हमें एक नहीं होने देंगे,’’ गीता ने कहा.

‘‘क्यों?’’ मोहन ने पूछा. ‘‘क्योंकि तुम सब जानते हो. हमारा समाज हमें कभी एक नहीं होने देगा,’’ गीता बोली.

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‘‘हम इस दुनिया, समाज सब को छोड़ कर दूर चले जाएंगे,’’ मोहन ने कहा. ‘‘नहींनहीं, मैं यह कदम नहीं उठा सकती. मैं अपने परिवार को समाज के सामने शर्मिंदा होते नहीं देख सकती,’’ गीता ने अपने मन की बात कही.

‘‘ठीक है, तो तुम मेरा तब तक इंतजार करना, जब तक मैं इस लायक न हो जाऊं और तुम्हारे पापा के सामने जा कर उन से तुम्हारा हाथ मांग सकूं. बोलो मंजूर है?’’ मोहन ने कहा. गीता हंसी और बोली, ‘‘क्या होगा, अगर मैं तुम से शादी कर के एकसाथ न रह सकी? हम चाहें दूर रहें या पास, मेरे दिल में तुम्हारा प्यार कभी कम नहीं होगा. तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगे.’’

यह सुन कर मोहन दिल ही दिल में रो पड़ा और सोच में पड़ गया. ‘‘क्या तुम मुझे छोड़ कर किसी और से शादी कर लोगी? मुझे भूल जाओगी? मुझ से दूर चली जाओगी?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘ऐसा तो मैं सोच भी नहीं सकती कि तुम्हें भूल जाऊं. मैं मरते दम तक तुम्हें नहीं भूल पाऊंगी,’’ गीता बोली. ‘‘फिर मेरा दिल दुखाने वाली बात क्यों करती हो? कह दो कि तुम मेरी हो कर ही रहोगी?’’ मोहन ने कहा.

समय अपनी रफ्तार से चल रहा था. मोहन दिनरात मेहनत कर के खुद को गीता के काबिल बनाने में लगा था, ताकि एक दिन उस के पिता के पास जा कर गीता का हाथ मांग सके. इधर गीता यह सोचने लगी, ‘मोहन मेरी अमीरी की खातिर मुझ से दूर जा रहा है. वह मुझे पा नहीं सकता इसलिए दूरी बना रहा है.’

इधर गीता के घर वाले उस के लिए लड़का देखने लगे और उधर मोहन जीजान से पढ़ाई में लगा हुआ था. उसे पता भी नहीं चला और गीता की शादी तय हो गई. जब यह बात मोहन को पता चली तो वह गीता की खुशी की खातिर चुप लगा गया, क्योंकि उस की शादी शहर के बहुत बड़े खानदान में हो रही थी. उस का होने वाला पति एक बड़ी कंपनी का मालिक था.

यह सब जानने और सुनने के बाद मोहन अपने प्यार की खुशी की खातिर उस से दूर जाने की कोशिश करने लगा, लेकिन यह तो नामुमकिन था. वह किसी भी कीमत पर जीतेजी उस से दूर नहीं हो सकता था. सचाई जाने बगैर ही उस ने एक गलत कदम उठाने की सोच ली. गीता अंदर ही अंदर बहुत दुखी थी और परेशान थी क्योंकि वह भी तो मोहन को बहुत प्यार करती थी.

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जिस दिन गीता की शादी थी उसी दिन मोहन ने एक सुसाइड नोट लिखा और फांसी लगा ली. ठीक उसी समय गीता ने भी एक सुसाइड नोट लिखा और जब सब लोग बरात का स्वागत करने में लगे थे उस ने खुद को फांसी लगा कर खत्म कर लिया.

प्यार की खातिर 2 परिवार दुख के समंदर में डूब गए. बस उन दोनों की जरा सी गलतफहमी की खातिर. हम मिटा देंगे खुद को प्यार की खातिर जी नहीं पाएंगे पलभर तुम से दूर रह कर. कर के सबकुछ समर्पित प्यार के लिए बिखरते हैं कितना हम टूटटूट कर. विश्वास बहुत बड़ी चीज होती है. हमें अपनों पर और खुद पर भरोसा करना चाहिए, ताकि जो उन दोनों के साथ हुआ वैसा किसी के साथ न हो. अगर प्यार करो तो निभाना भी चाहिए और बात कर के गलतफहमियों को मिटाना भी चाहिए, क्योंकि प्यार वह अहसास है जो हमें जीने की वजह देता है.

अगर इस दुनिया में प्यार नहीं तो कुछ भी नहीं. प्यार अमीरीगरीबी, ऊंचनीच, धर्म, जातपांत कुछ भी नहीं देखता. अगर किसी को एक बार प्यार हो जाए तो वह उस की खुशी की खातिर अपनी जिंदगी की भी परवाह नहीं करता. प्यार तो कभी भी कहीं भी किसी से भी हो सकता है, पर सच्चा प्यार होना और मिलना बहुत मुश्किल होता है. खुद पर और अपने प्यार पर हमेशा भरोसा बनाए रखना चाहिए, क्योंकि इस फरेबी दुनिया में सच्चा प्यार बहुत मुश्किल से मिलता है.

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नया जमाना: क्या बदल गई थी सुरभि

लेखक- मिश्रीलाल पंवार

डरबन की चमचमाती सड़कों पर सरपट दौड़ती इम्पाला तेजी से आगे बढ़ी जा रही थी. कुलवंत गाड़ी ड्राइविंग करते हिंदी फिल्म का एक गीत गुनगुनाने में मस्त थे. सुरभि उन के पास वाली सीट पर चुपचाप बैठी कनखियों से उन्हें निहारे जा रही थी. इम्पाला जब शहर के भीड़भाड़ वाले बाजार से गुजरने लगी तो सुरभि ने एक चुभती नजर कुलवंत पर डाली और बोली, ‘‘अंकल, कहीं मैडिकल की शौप नजर आए तो गाड़ी साइड में कर के रोक देना, मुझे दवा लेनी है.’’

कुलवंत के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आए. सुरभि की तरफ देख कर बोले, ‘‘क्यों, क्या हुआ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, तबीयत तो ठीक है.’’

‘‘फिर दवा किस के लिए लेनी है?’’

‘‘आप के लिए.’’

‘‘मेरे लिए, क्यों? मुझे क्या हुआ है? एकदम भलाचंगा तो हूं.’’

‘‘आप बड़े नादान हैं. नहीं समझेंगे. अब आप अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाना बंद कीजिए. मैडिकल शौप नजर आए तो वहां गाड़ी रोक देना. मैं 1 मिनट में वापस आ जाऊंगी.’’

कुलवंत को बात समझ में नहीं आई तो चुप्पी साध ली. उन की नजरें स्क्रीन विंडो से हो कर बाजार के दोनों तरफ दौड़ने लगीं. कुछ देर बाद एक मैडिकल शौप नजर आई, तो गाड़ी को साइड में ले कर शौप के आगे रोक दी.

‘‘लो, दवाइयों की दुकान आ गई. जल्दी से दवा ले कर आओ.’’

सुरभि ने फुरती से दरवाजा खोला और मैडिकल शौप पर पहुंच गई. कुलवंत गाड़ी में बैठेबैठे ही सुरभि को देखते रहे. उस ने क्या दवा ली, वे चाह कर भी नहीं जान पाए. सुरभि ने दवा को पर्स में डाला और पैसे दे कर फौरन वापस आ कर गाड़ी में बैठ गई. वह कुलवंत की तरफ देख कर बोली, ‘‘हो गया काम, घर चलिए.’’

कुलवंत को कुछ भी समझ में न आया. उन्होंने गाड़ी को गियर में डाला और ऐक्सिलरेटर पर दबाव बढ़ा दिया. गाड़ी अगले ही पल हवा से बातें करने लगी. ड्राइविंग करतेकरते उन्होंने सुरभि पर एक नजर डाली. न जाने क्यों आज उन्हें सुरभि में एक बदलाव सा नजर आ रहा था.

1 महीने पहले जब वे डरबन आए थे, तब की सुरभि और आज की सुरभि में जमीनआसमान का फर्क था. पिछले 2 दिनों में तो उस का हावभाव एकदम बदल सा गया था. यह सब सोचतेसोचते वे विचारों में खो गए.

कल सुबह वे धड़धड़ाते हुए स्नानघर में घुसे तो उन के पांवों के नीचे की जमीन खिसक गई थी. वहां पर सुरभि पहले से ही स्नान कर रही थी. उस के तन पर एक भी कपड़ा नहीं था. कुलवंत फौरन बाहर आ गए. सुरभि की पीठ दरवाजे की तरफ थी. शायद उस ने कुलवंत को नहीं देखा था. कुलवंत की सांसें धोंकनी की तरह चलने लगीं. वे सोफे पर गिर पड़े. सोचने लगे कि अच्छा हुआ जो सुरभि को कुछ भी मालूम नहीं चला. मगर इस में गलती तो सुरभि की ही थी. सुरभि को अंदर से दरवाजा बंद करना चाहिए था.

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उस घटना को गुजरे 24 घंटे से ज्यादा का समय बीत चुका था, मगर कुलवंत की आंखों में स्नानघर वाला दृश्य बारबार घूम जाता था. यौवन की दहलीज पर खड़ी सुरभि के उस रूप ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था. उन्हें खुद से ज्यादा गुस्सा सुरभि पर आ रहा था. उस ने भीतर से दरवाजा बंद क्यों नहीं किया? यह लापरवाही थी या जानबूझ कर की गई कारस्तानी. नहीं, नहीं, यह लापरवाही नहीं हो सकती, यह सब सुरभि ने जानबूझ कर किया है. अच्छा होगा कि निशांत जल्दी से वापस आ जाए.

इन विचारों के साथ वे बचपन की यादों में खो गए. कुलवंत और निशांत बचपन के मित्र थे. दोनों के घर आसपास ही थे. साथ ही खेलतेकूदते बचपन गुजरा. एक ही स्कूल में शिक्षा पाई. यूनिवर्सिटी में साथ ही दाखिला लिया. बाद में निशांत ने सीए की परीक्षा उत्तीर्ण कर के चार्टर्ड अकाउंटैंट का कार्य शुरू कर दिया.

कुलवंत ने अपने पिता का खेतीबाड़ी का काम संभाल लिया. एक दिन अच्छा रिश्ता आया तो प्रभुदयालजी ने अपने बेटे निशांत का विवाह सृजना के साथ धूमधाम से कर दिया. कुलवंत ब्याह के कार्यों में 1 महीने तक जुटा रहा. निशांत के सभी सूट उस ने अपनी पसंद से सिलवाए. बरातियों की लिस्ट बनाने से ले कर प्रीतिभोज का मेन्यू तय करने तक में उस ने प्रभुदयालजी की मदद की. लोग भी कहने लगे कि निशांत और कुलवंत दोस्त नहीं, बल्कि भाई हैं.

कुछ समय बाद कुलवंत की भी शादी हो गई. उस की शादी में निशांत तो आया, मगर उस की पत्नी सृजना नहीं आई थी. कुलवंत को बुरा लगा. उस ने अपने दोस्त को खूब खरीखोटी सुनाईं. निशांत उस दिन कुछ भी नहीं बोला. कुलवंत की हर बात को उस ने सहजता से लिया. घरगृहस्थी में बंधने के बाद दोनों अपनीअपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए. कभीकभार दोनों दोस्त मिलते तो एकदूसरे से शिकवाशिकायत करने में ही समय गंवा देते. कुलवंत को कई बार लगा कि निशांत की गृहस्थी में सबकुछ ठीक नहीं है. उन्हीं दिनों खबर लगी कि निशांत के लड़की हुई है. मिठाई और उपहार दे कर दोनों पतिपत्नी वापस आ गए.

कुछ दिनों बाद एक अन्य मित्र के द्वारा मालूम पड़ा कि निशांत और सृजना की आपस में नहीं बनती. दोनों में रोज ही झगड़े होते रहते हैं. पुत्र और बहू के झगड़ों से दुखी प्रभुदयालजी की एक दिन हार्ट अटैक से मौत हो गई. उन की मौत के बाद तो निशांत और सृजना का मामला बिगड़ता ही चला गया.

मित्र के घर के बुरे समाचारों के बाद कुलवंत भी चिंतित हो उठा. एक दिन वह अपनी निशा को ले कर निशांत के घर गया. वहां दोनों को खूब समझाया. यहां कुलवंत को पहली बार लगा कि सृजना बहुत ही आक्रामक स्वभाव की थी. निशांत ने तो उन की बात को धैर्य के साथ सुना, मगर सृजना ने उन्हें दोटूक शब्दों में कह दिया, ‘देखिए, कुलवंतजी, आप अपने घर को संभालें. हमारे घर के मामलों में आप को पंचायत करने की जरूरत नहीं है.’

उस दिन कुलवंत भारी मन से वापस घर आया तो रो पड़ा था. आज उस के मित्र का घर बिखराव पर है अैर वह कुछ भी नहीं कर पा रहा था. कुछ समय बाद समाचार मिला कि निशांत और सृजना में तलाक हो गया. कोर्ट के आदेश से सुरभि निशांत को मिल गई थी. एक दिन निशांत ने कुलवंत और निशा को अपने घर बुलाया और बताया कि वह सुरभि को ले कर डरबन जा रहा है. वहां एक मल्टीनैशनल कंपनी में अकाउंटैंट की नौकरी मिल गई है. उस ने कुलवंत को अपने घर की चाबी देते हुए कहा कि मकान किराए पर उठा देना या जैसा तुम्हें उचित लगे, करना. समयसमय पर सफाई जरूर करवा देना. उस समय सुरभि मात्र 8 वर्ष की थी.

वक्त की रफ्तार धीरेधीरे आगे बढ़ती रही. कुलवंत की जिंदगी में सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. लेकिन एक दिन निशा ने स्तन में दर्द होने की बात बताई. डाक्टर को दिखाया तो उस ने जांच के बाद बताया कि उस को कैंसर है. बीमारी लास्ट स्टेज पर थी. कैंसर ने ऐसी जड़ें जमाईं कि निशा कभी ठीक ही नहीं हो पाई. कुलवंत को घर का चिराग दिए बिना ही निशा चल बसी. मातापिता का तो पहले ही देहांत हो गया था. वह दुनिया में अकेला हो गया. कभीकभी उस का मिलना सृजना भाभी से हो जाता था. वह अपने किए पर बहुत रोती थी. देखतेदेखते 12 वर्ष बीत गए. एक दिन निशांत ने वीजा व हवाई जहाज का टिकट भेज कर कुलवंत को डरबन बुला लिया.

मित्र के बुलावे पर वह 1 महीने पहले डरबन आया था. जब उस ने डरबन की धरती पर पांव रखा तो निशांत खुद गाड़ी ले कर एअरपोर्ट आया था. वर्षों बाद एकदूसरे को देख कर दोनों के आंसू निकल आए थे. घर पहुंचे तो सुरभि को देख कर कुलवंत का मुंह खुला का खुला रह गया. 12 वर्ष पूर्व जिस सुरभि को उस ने भारत से विदा किया था, उस में व इस सुरभि में जमीनआसमान का फर्क था. आज तो वह बिलकुल अपनी मां जैसी लग रही थी. उस के  नैननक्श बिलकुल सृजना के जैसे थे.

निशांत और सुरभि के साथ रहने से कुलवंत में जीने की तमन्ना जाग उठी थी. उन दोनों के साथ रहते 1 महीना कब बीता, पता ही नहीं चला.

2 दिन पहले निशांत को किसी जरूरी कार्य से दुबई जाना पड़ा. उस ने रवाना होते समय कुलवंत से कहा था, ‘मैं 1 हफ्ते के बाद ही आ पाऊंगा. तुम्हारी देखभाल

के लिए सुरभि को कह दिया है. कोई विशेष कार्य हो तो मोबाइल पर बता देना.’

अचानक विचारतंद्रा टूटी तो कुलवंत ने देखा कि बंगला आ गया है. उन्होंने गाड़ी पार्किंग में खड़ी की. दोनों दरवाजे के पास पहुंचे तो यह देख कर दंग रह गए कि दरवाजा खुला हुआ है. दोनों ने एकदूसरे की तरफ प्रश्नवाचक नजरों से देखा. सुरभि ने आश्चर्य से कहा, ‘‘मैं ने जाते वक्त ताला लगाया था. पीछे से यह दरवाजा किस ने खोला?’’

दोनों तेजी से दौड़ते हुए भीतर गए तो वहां के हालात देख कर भौचक्के रह गए. पूरे बंगले का सामान इधरउधर बिखरा पड़ा था. सुरभि ने कुलवंत की तरफ देख कर कहा, ‘‘लगता है चोरों ने यहां अपना हाथ दिखा दिया है. मैं पुलिस को फोन करती हूं.’’

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सूचना मिलते ही पुलिस की टीम वहां जा पहुंची. अधिकारी पूछताछ के बाद छानबीन में लग गए. लूट की रिपोर्ट लिखने के बाद पुलिस वापस लौट गई. सुरभि ने कुलवंत की तरफ देख कर कहा, ‘‘यार अंकल, यों मुंह लटकाए क्यों बैठे हो? यहां तो यह आम बात है. यह तो अच्छा हुआ हम दोनों घर पर नहीं थे, वरना लुटेरे हमें जान से मार भी सकते थे. मैं पापा को फोन कर के बता देती हूं. आप चाय तो बना कर पिला दीजिए.’’

कुलवंत सुरभि की बेतकल्लुफी पर हैरान था. वह चुपचाप उठा और रसोईघर की तरफ चल दिया. सुरभि ने मोबाइल फोन से घर में हुई लूट की बात अपने पापा को बता दी. उस ने यह भी बता दिया कि चिंता की बात नहीं है. कुलवंत अंकल और वह कुशलमंगल से हैं. कुलवंत ने तब तक चाय बना ली.

रात को दोनों ने मिल कर खाना बना लिया. खाना खाते समय दोनों चुपचुप रहे. खापी कर दोनों फ्री हुए तो कुलवंत अपने कमरे में आ कर पलंग पर लेट गए. उन्हें नींद नहीं आ रही थी. टीवी चालू कर के वे चैनल बदलने लगे. एक चैनल पर कोई संत कथा का वाचन कर रहे थे. उन्होंने मन में विचार किया कि चलो, आज कथा का ही आनंद ले लिया जाए.

इतने में सुरभि दूध का गिलास ले आई. कुलवंत को धार्मिक चैनल पर कथा सुनते देख आश्चर्यचकित हो उठी. उस ने दूध का गिलास टेबल पर रखते हुए कनखियों से कुलवंत की तरफ देखा और बोली, ‘‘वाह, आप को भी कथाओं का शौक है?’’

सुरभि की बात पर कुलवंत की  हंसी छूट गई. वे सुरभि की  तरफ देखे बगैर ही बोल पड़े, ‘‘सब अपनी रोजीरोटी के लिए दौड़ रहे हैं. अपने भारत में तो आजकल कथाकारों की बाढ़ आई हुई है. इन कथाओं में धन बरस रहा है. धर्म के नाम पर न तो लूटने वालों की कमी है और न ही लुटाने वालों की. मैं भी कभीकभी सोचता हूं कि सबकुछ छोड़ कर कथावाचक बन जाऊं. धन और शोहरत के साथ सुंदरसुंदर चेहरे वाली हसीनाओं के दर्शन का लाभ भी मिलता रहेगा.’’

‘‘अरे, रहने भी दो. हसीनाओं को देखना आप को आता ही कहां है? हां, साधु बन कर माला फेरनी हो तो बात दूसरी है.’’

कुलवंत सुरभि की बात सुन कर सन्न रह गए. वे समझ गए कि सुरभि का मूड आज बड़ा रोमांटिक है. उस की द्विअर्थी बातों में कुछ छिपा है. उन्होंने सुरभि की तरफ देख कर कहा, ‘‘ठीक है, तुम जाओ यहां से, रात काफी हो गई है, मैं सोना चाहता हूं. तुम भी अब अपने कमरे में जा कर सो जाओ.’’ सुरभि अपने कमरे में चली गई. उस के चेहरे पर मदमस्त कर देने वाली मुसकान थी. कुलवंत ने दूध के गिलास की तरफ देखा. आज दूध पीने की इच्छा नहीं हो रही थी. मन में विचार किया कि निशांत जल्दी से वापस आ जाए. वे टीवी का स्विच बंद कर के सो गए. कुछ देर बाद नींद ने डेरा डालना शुरू कर दिया. अभी पूरी आंख लगी भी नहीं थी कि अचानक चौंक कर उठ बैठे. आंखें खुलीं तो देखा पलंग के पास कोई खड़ा है.

‘‘कौन है?’’ घबराहट में मुंह से निकल गया.

‘‘मैं हूं.’’

‘‘मैं कौन?’’

‘‘सुरभि.’’

‘‘इस समय यहां क्या करने आई हो?’’

‘‘मुझे नींद नहीं आ रही. अपने कमरे में डर लग रहा है, मैं अकेली वहां नहीं सो सकती.’’

‘‘पागल मत बनो. जाओ, अपने कमरे में. अपनेआप नींद आ जाएगी.’’

‘‘नहीं, डर लगता है. मैं तो यहीं पर सोऊंगी.’’

‘‘समझा करो. तुम अब छोटी बच्ची नहीं रहीं.’’

‘‘इसीलिए तो यहां सोने आई हूं.’’

इतना कहते ही सुरभि कुलवंत के पास लेट गई. कुलवंत की सांसें एकाएक फूलने लगीं. वे पलंग पर एक कोने पर सरक गए. घबराहट के मारे बुरा हाल हो रहा था. उन्होंने सुरभि की तरफ देख कर कहा, ‘‘प्लीज, यह गलत है. हमारी संस्कृति इस की इजाजत नहीं देती. कम से कम हम दोनों की उम्र का फर्क तो देखो. मैं तुम्हारे पापा की उम्र का हूं.’’

सुरभि ने भी करवट बदली और कुलवंत से एकदम सट कर बोली, ‘‘मुझे बेकार की बातें मत समझाइए. आप को समझ में नहीं आता तो मैं बता देती हूं. अब जमाना बदल गया है. जो भूख लगने पर भोजन नहीं करता वह पागल है.’’

‘‘प्लीज, कहना मानो. कल तुम्हारे पापा को मालूम होगा तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगा.’’

‘‘डरिए मत, किसी को कुछ भी पता नहीं चलेगा. हो जाने दीजिए, जो कुछ होता है. जहां प्यार पनपता है वहां उम्र का हिसाब गौण हो जाता है. आजकल जमाना बदल गया है. प्यासी तृप्त होगी तो उस का परिणाम मिलेगा. यह व्यभिचार नहीं, उपकार होगा.’’

अचानक उस ने अपनी बंद मुट्ठी कुलवंत की तरफ बढ़ा दी.

‘‘क्या है?’’

‘‘तुम्हारी दवा. आज सुबह मैडिकल शौप से खरीदी थी.’’

इतना कहते हुए उस ने अपनी बंद मुट्ठी खोली. उस में एक ‘पैकेट’ था. यह देख कुलवंत की आंखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गईं. वह समझ गया कि वास्तव में जमाना बदल गया है. नए जमाने के सामने उस ने घुटने टेक दिए. अगले ही पल उस ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया.

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अपरिमित: अमित और उसकी पत्नी के बीच क्या हुई थी गलतफहमी

लेखिका-Meha gupta

” दरवाज़ा खुलने की आवाज़ के साथ ही हवा के तेज़ झोंके के संग बरबैरी पर्फ़्यूम की परिचित ख़ुशबू के भभके ने मुझे नींद से जगा दिया .” तुम ऑफ़िस जाने के लिए तैयार भी हो गए और मुझे जगाया तक नहीं .” मैने मींची आँखों से अधलेटे ही अमित से कहा .” तुम्हें बंद आँखों से भी भनक लग गई की मैं तैयार हो गया हूँ .” अमित ने चाय का कप मेरी और बढ़ाते हुए कहा . भनक कैसे ना लगती ..यह ख़ुशबू मेरे दिलो दिमाग़ पर छा मेरे वजूद का हिस्सा बन गई है . मैंने मन ही मन कहा.

” थैंक्स डीयर !”
” अरे , इसमें थैंक्स की क्या बात है . रोज़ तुम मुझे बेड टी देती हो , एक दिन तो मैं भी अपनी परी की ख़िदमत में मॉर्निंग टी पेश कर ही सकता . “उसके इस अन्दाज़ से मेरे लबों पर मुस्कुराहट आ गई .
” बुद्धू चाय के लिए नहीं कह रही .. थैंक्स फ़ॉर एवरीथिंग .. जो कुछ आज तक तुमने मेरे लिए किया है .” कहते हुए सजल आँखों से मैं अमित के गले लग गई . चाय पीकर वो मुझे गुड बाय किस कर ऑफ़िस के लिए निकल गया . उसके जाने के बाद भी मैं उसकी ख़ुशबू को महसूस कर पा रही थी . मैंने एक मीठी सी अंगड़ाई ली और खिड़की से बाहर की ओंर देखने लगी .कल रात देर तक काम करते हुए मुझे अपने स्टडी रूम में ही नींद लग गई .

अगले हफ़्ते राजस्थान एम्पोरीयम में मेरी पैंटिंग्स और मेरे द्वारा बने हैंडीक्राफ़्ट्स की एग्ज़िबिशन थी . साथ में मैं अपनी पहली किताब भी लॉंच करने जा रही थी . कल रात देर तक काम करते हुए मुझे अपने स्टडी रूम में ही नींद लग गई .अमित ने मेरे स्टडी रूम के तौर पर गार्डन फ़ेसिंग रूम को चुना था . उसे पता है मुझे खिड़कियों से कितना लगाव है . ये खिड़कियाँ ही हैं जिनके द्वारा मैं अपनी दुनिया में सिमटी हुए भी बाहर की दुनिया से और मेरी प्रिय सखी प्रकृति से जुड़ी रहती हूँ . बादलों के झुरमुट से , डेट पाम की झूलती टहनियों से , अरावली की हरीभरी पहाड़ियों से मेरा एक अनजाना सा रिश्ता हो गया है .
‘अपरिमित ‘ ये ही तो नाम रखा है , मैंने अपनी पहली किताब का . अतीत की वो पगली सी स्मृतियाँ आज अरसे बाद मेरे ज़ेहन में सजीव होने लगी .

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हम तीन भाई बहन है . अन्वेशा दीदी , अनुराग भैया और फिर सबसे छोटी मैं यानि परी . दीदी और भैया शाम को स्कूल से लौटने के बाद अपना बैग पटक आस – पड़ौस के बच्चों के साथ खेलने के लिए निकल जाते वहीं मुझे अपने रूम की खिड़की से उन सबको खेलते हुए निहारने में ही ख़ुशी मिलती . मैं हम तीनों का ख़याल रखने के लिए रखी गई लक्ष्मी दीदी के आगे – पीछे घूमती रहती . कभी वो मेरे साथ लूडो , स्नेक्स एंड लैडर्स खेलती तो कभी हम दोनों मिलकर मेरी बार्बी को सजाते . अन्वेशा दीदी बहुत ही चुलबुली स्वभाव की थी और उसका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर भी कमाल का था जिससे वह किसी को भी अपनी तरफ़ आकर्षित कर लेती थी . स्कूल , घर और आस – पड़ौस में सबकी चहेती थी . अनुराग भैया और मैं ट्विन्स थे . वे खेल – कूद , पढ़ाई सब में अव्वल रहते . उन्होंने कभी नम्बर दो रहना नहीं सीखा था . उन्होंने जन्म के समय भी मुझसे बीस मिनट पहले इस दुनिया में क़दम रख मेरे बड़े भाई होने का ख़िताब हासिल कर लिया था . मैं उन दोनों के बीच मिस्मैच सी लगती . मैं उन्हें देखकर अक्सर सोचती मैं ऐसी क्यों नहीं हो सकती . मम्मी – डैडी मुझे भी उन दोनों के जैसा बनाने के लिए विशेष रूप से प्रयत्नशील रहते .” आज तो मेरी छोटी गुड़िया ही अंकल को वो नई वाली पोयम सुनाएगी .” डैडी आने वाले मेहमानों के सामने प्रस्तुति के लिए मुझे ही आगे करते . पर मेरा सॉफ़्टवेर विंडो ६ था जिससे मेरी प्रोग्रैमिंग बहुत स्लो थी .जबकि मेरे दोनों भाई – बहन विंडो टैन थे , बहुत ही फ़ास्ट आउट्पुट और मैं कुछ सोच पाती उससे पहले पोयम हाज़िर होती और मैं मुँह नीचा किए अपने नाख़ून कुरेदती रह जाती .

एक दिन मैंने मम्मा को टीचर से फ़ोन पर बात करते सुना ,” मैम इस बार इंडेपेंडेन्स डे की स्पीच अनामिका से बुलवाइए , मैं चाहती हूँ उसका स्टेज फीयर ख़त्म हो .” टीचर के डर से मैंने स्पीच तो तैयार कर ली पर स्पीच देने से एक रात पहले मैं अपनी दोनों बग़ल में प्याज का टुकड़ा दबाए सो गई ( मैंने कहीं पर पढ़ रखा था कि प्याज़ को बग़ल में डालने से फ़ीवर हो जाता है .) जिससे दूसरे दिन मैं स्कूल ना जा पाऊँ .पर मेरी युक्ति असफल रही और दूसरे दिन ना चाहते हुए भी मुझे स्कूल जाना पड़ा . जिस समय मैंने स्पीच बोल रही थी वातावरण में सर्दियों की गुलाबी धूप खिल रही थी . स्टेज पर चढ़ते ही मेरे हाथ – पैर काँपने लगे थे , सर्दी की वजह से नहीं भय और घबराहट के मारे .

शाम को टीचर का फ़ोन आया था , कह रही थी आपकी बेटी ने कमाल कर दिया .”सुनकर मम्मा ने मुझे गले से लगा लिया . प्याज़ के असर से तो नहीं पर स्टेज फीयर से मुझे तेज़ फ़ीवर ज़रूर हो गया था .
मम्मा लैक्चरार थी . दोपहर को घर आकर थोड़ी देर आराम कर दूसरे दिन के लैक्चर की तैयारी में लग जाती .रात में अक्सर मैंने डैडी को मम्मा से कहते सुना था ,” अनामिका दिन ब दिन डम्बो होती जा रही है जब देखो गुमसुम सी घर में घुसी रहती है . उन दोनों को देखो घर , स्कूल दोनों में नम्बर वन .”
मैं उन लोगों से कहना चाहती थी मैं गुमसुम नहीं रहती हूँ … मैं अपने आप में बहुत ख़ुश हूँ . बस मेरी दुनिया आप लोगों से थोड़ी अलग है .धीरे – धीरे मुझ पर ‘डम्बो ‘ का हैश टैग लगने लगा था . जाने अनजाने मेरी तुलना दीदी और भैया से हो ही जाती थी . पर डैडी भी हार मानने वालों में से नहीं थे . उन्होंने मुझे हॉस्टल भेजने का फ़ैसला कर लिया .माउंट आबू के सोफ़िया बोर्डिंग स्कूल में मेरा अड्मिशन करवा दिया गया . वहाँ मैं सबसे ज़्यादा लक्ष्मी दीदी को मिस करती थी पर अब मैंने छिपकर रोना भी सीख लिया था . अब वह लाल छत वाला हॉस्टल ही मेरा नया आशियाना बन गया था . मुझे एक बात की तसल्ली भी थी की अब मैं गाहे बगाहे दीदी भैया से मेरी तुलना से तो बची .

वहाँ रहते हुए मुझे पाँच साल हो गए थे . मुझमें अंतर सिर्फ़ इतना आया था कि अब मेरा हैश टैग डंबो से बदलकर घमंडी और नकचढ़ी हो गया . जहाँ पहले मेरी अंगुलियाँ एकांत में किसी टेबल , किताब या अन्य किसी सतह पर टैप करती रहती थी वो अंगुलियाँ घंटों पीयानो पर चलने लगी . आराधना सिस्टर ने ही मुझे पीयानो बजाना सिखाया था . मुझे वो बहुत अच्छी लगती थी . जब कभी मै अकेले में बैठी अपने विचारों में डूबी रहती तो वे एक किताब मेरे आगे कर देती . उन्होंने ही मुझमे विश्वास जगाया था तुम जैसी हो , अपने आप को स्वीकार करो . मुझे अपनी ज़िंदगी में ‘कुछ’ करना था .. पर उस कुछ की क्या और कैसे शुरुआत करूँ और कैसे अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाऊँ यह पहेली सुलझ ही नहीं पाती थी .

मेरे अंतर्मुखी स्वभाव के चलते मैं अपने द्वारा बुने कोकुन से बाहर आने की हिम्मत ही नहीं कर पा रही थी । यही नहीं औरों के सामने स्वयं को अभिव्यक्त करना और अपनी बात रखना मेरे लिए लोहे के चने चबाने के बराबर था . इसी कश्मकश में मै स्कूल पूरी कर कॉलेज में आ गई . आगे की पढ़ाई के लिए मुझे बाहर जाना था पर मैं माउंट आबू छोड़कर नहीं जाना चाहती थी . सिस्टर की प्रेरणा से ही ,मैंने कॉरसपॉन्डन्स से ग्रैजूएशन कर लिया और स्कूल में ही लायब्रेरीयन की जॉब करने लगी थी .

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इसी दरमियान मेरी मुलाक़ात अमित से हो गई . हमारी स्कूल में कन्सट्रक्शन का काम चल रहा था वह सिविल इन्जिनियर था . इसी सिलसिले में अक्सर उसका हॉस्टल आना होता था . उसने आज तक कसकर बंद किए मेरे दिल के झरोखों को खोलकर उसके एक कोने में अपने लिए कब जगह बना ली मुझे पता ही नहीं चला .
” क्या आप मेरे साथ कॉफ़ी शॉप चलेंगी ?” वीकेंड पर वह अक्सर मुझसे पूछता . उसकी आँखों में मासूम सा अनुनय होता जिसे मैं ठुकरा नहीं पाती थी . हम दोनों एक – दूसरे के साथ होते हुए भी अकेले ही होते क्योंकि उस समय भी मैं ख़ुद में ही सिमटी होती बिल्कूल ख़ामोश .. कभी टेबल पर अंगुली से आड़ी – टेडी लकीरें खींचते हुए तो कभी मेन्यू कार्ड में पढ़ने की असफल कोशिश करते हुए .
“तुम अमित से शादी कर लो ,अच्छा लड़का हैं तुम्हें हमेशा ख़ुश रखेगा .” एक शाम सिस्टर ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा . सारी रात मैं सो नहीं पाई थी . बाहर तेज़ हवाओं के साथ बारिश हो रही थी और एक तूफ़ान सारी रात मेरे मन के भीतर भी घुमड़ता रहा था . मैंने सुबह होते ही अमित को वॉट्सैप कर दिया ,” मैं धीमी , मंथर गति से चलती सिमटी हुई सी नदी के समान हूँ और तुम अलमस्त बहते वो दरिया जिसका अनंत विस्तार हैं . हम दोनों बिलकुल अलग है . तुम मेरे साथ ख़ुश नहीं रह पाओगे . ”
” नदी की तो नियति ही दरिया में मिल जाना है और दरिया का धर्म है नदी को अपने में समाहित कर लेना . बस तुम्हारी हाँ की ज़रूरत है बाक़ी सब मेरे ऊपर छोड़ दो .” तुरंत अमित का मैसेज आया . जैसे वो मेरे मेसिज का ही इंतज़ार कर रहा था . मम्मा पापा को भी इस रिश्ते से कोई ऐतराज़ नहीं था . सादगीपूर्ण तरीक़े से हमारी शादी करवा दी गई .
मे के महीने में गरमी और क्रिकेट फ़ीवर अपने शबाब पर थे . अमित सोफ़े पर औंधे लेटे हुए चेन्नई सुपर किंग्स और मुंबई इंडीयंज़ की मैच का मज़ा ले रहे थे . इतने में मोबाइल बजने लगा . रंग में भंग पड़ जाने से अमित ने कुछ झुँझलाते हुए कुशन के नीचे दबा फ़ोन निकाला पर मैंने स्पष्ट रूप से महसूस किया कि स्क्रीन पर नज़र पड़ते ही उसके चेहरे के भाव बदल गए और वह बात करने दूसरे रूम में चला गया . मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतना ज़रूरी फ़ोन किसका है कि वो धोनी की बैटिंग छोड़कर दूसरे बात करने चला गया वो भी अकेले में .
“ किसका फ़ोन था ?” उसके आते ही मैंने उत्सुकता से पूछा .
“ ऐसे ही .. बिन ज़रूरी फ़ोन था .” संक्षिप्त सा उत्तर दे वो फिर से टीवी में मगन हो गया . मैंने फ़ोन उठाकर रीसेंट कॉल्ज़ लिस्ट देखी , उस पर मनन नाम लिखा हुआ था . स्क्रीन पर कई सारे अन्सीन वॉट्सैप मेसजेज़ भी थे . मैंने वाँट्सैप अकाउंट खोला वो सब मेसजेज़ ‘ पार्टी परिंदे ग्रूप ‘ पर थे . मुझे बड़ा रोचक नाम लगा .
“ अमित ये पार्टी परिंदे क्या है ? “
“ कुछ नही .. हमारा फ़्रेंड्ज़ ग्रूप है जो वीकेंड पर क्लब में मिलते है .”
“ मनन का फ़ोन क्यों आया था ? “
“ मै लास्ट संडे नहीं गया था तो पूछ रहा था कि शाम को आऊँगा की नहीं .”
“ तो तुमने क्या जवाब दिया ?”
“ मैंने मना कर दिया . अब प्लीज़ मुझे मैच देखने दो .”
“ तुमने मना क्यों कर दिया ? तुम मुझे अपने दोस्तों से नहीं मिलवाना चाहते ..”
“ वहाँ सब लोग तेज म्यूज़िक पर डान्स फ़्लोर पर होते हैं .. मुझे लगा तुम्हें ये सब अच्छा नहीं लगेगा . “ इतनी देर में पहली बार अमित ने टीवी पर से नज़रें हटाकर मुझपर टिकाई थी . मैं भावुक हो गई . और मन ही मन सोचने लगी मैं तो आजतक यही सुनती आई हूँ कि शादी के बाद लड़की को अपनी पसंद – नापसंद , शौक़ , अरमान ताक पर रखने पड़ते हैं पर यहाँ तो फ़िज़ाओं का रुख़ बदला हुआ सा था .
“ कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है , और जब इतना क़ीमती तोहफ़ा हो तो जान भी हाज़िर है . एनीथिंग फ़ॉर यू .. जाना ,”कहते हुए उसने मेरी आँखों से ढुलकते आँसूओं को अपनी हथेली में भर लिया .
शाम छः बजे तैयार होकर मैं अमित के सामने खड़ी हो गई . ब्लैक ईव्निंग गाउन में ग्लैमरस लुक में वो मुझे अपलक देखता ही रह गया .
“ मै पूछ सकता हूँ , बेमौसम कहाँ बिजली गिराने का इरादा है ? कहते हुए वह मुझे अपनी बाँहों में भरने लगा तो मैंने हँसते हुए उसे पीछे धकेल दिया .
“ रात को मैं करूँ शर्मिंदा .. मैं हूँ पार्टी परिंदा ..” मैंने अदा से डान्स करते हुए कहा . मेरे इस नए अन्दाज़ से वो बहुत ख़ुश लग रहा था .
राजपूताना क्लब हाउस में बनाव श्रिंगार से तो मैं अमित के दोस्तों से मैच कर रही थी जिसमें कई लड़कियाँ भी थी ,पर मन को कैसे बदलती . वहाँ सब लोग लाउड म्यूज़िक के साथ डान्सिंग फ़्लोर पर थिरक रहे थे . कुछ देर तो मैं भी उन जैसा बनने की कोशिश करती रही . फिर थोड़ी देर बाद खिड़की के पास लगी कुर्सी पर जाकर बैठ गई और अपने स्लिंग की चैन को अपनी अंगुलियों पर घुमाने लगी . उस दिन के बाद मुझे दुबारा उस क्लब में जाने की हिम्मत नहीं कर पाई ना कभी अमित ने मुझे चलने के लिए कहा .
शादी के कुछ दिनों बाद ही अमित की बर्थडे थी . मैं बहुत दिनों से उसकी एक पेंटिंग बनाने में लगी हुई थी । मैंने वह पेंटिंग और एक छोटी सी कविता बना उसके सिरहाने रख दी .सुबह उठकर मै किचन में अमित की पसंद का ब्रेकफ़ास्ट बनाने में जुटी हुई थी .
“ ये पेंटिंग तुमने बनाई है ?” अमित ने पीछे से आकर मुझे बाँहों में भरते हुए पूछा .
“ हाँ .. कोई शक ? “
“ नहीं तुम्हारी क़ाबिलियत पर कोई शक नहीं , पर स्वीटी मुझे लगता है तुम्हारे हाथ ये चाकू नहीं बल्कि पैन और ब्रश पकड़ने के लिए बने है . उसने मेरे हाथ से चाकू लेते हुए कहा .
” मम्मा का फ़ोन आया था वो दो – तीन दिन के लिए मुझे अपने पास बुला रही हैं .” एक दिन उसके ऑफ़िस से आते ही मैंने कहा .
“ मेरी जान के चले जाने से मेरी तो जान ही निकल जाएगी .
” ज़्यादा रोमांटिक होने की ज़रूरत नहीं है . टीवी , लैपटॉप और वेबसिरीज़ .. इतनी सौतन है तो मेरी तुम्हारा दिल लगाने के लिए .” मैंने बनावटी ग़ुस्सा दिखाते हुए कहा .
” ओके! पर प्रॉमिस मी , अपने बर्थ्डे के दिन ज़रूर आ जाओगी . .” उसकी बर्थडे के अगले हफ़्ते ही मेरी बर्थडे थी . शादी के बाद अमित से बिछुड़ने का ये पहला मौक़ा था . किसी ने सही कहा है इंसान की क़ीमत उससे दूर रहकर ही होती है . तीन दिन मम्मा के पास बिता मैं मेरे बर्थडे वाली शाम को वापिस आ गई . मेरे घर पहुँचने से पहले ही अमित मुझे रिसीव करने के लिए बड़ा सा लाल गुलाब का गुलदस्ता लिए लॉन में खड़ा था . मुझे देखते ही मुझे बाँहों में भर लिया और फिर गोदी में उठा मुझे गेस्ट रूम तक लेकर गए . वहाँ का नज़ारा देखकर मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था .. वहाँ होम थीएटर की जगह स्टडी टेबल ने और अमित के मिनी बार की जगह बुक शेल्व्स ने ले ली थी . मैं इन सब बदलावों को छूकर देखने लगी कि कहीं मैं सपना तो नहीं देख रही .

“ सरप्राइज़ कैसा लगा ?”
मैं निशब्द थी . समझ नहीं आ रहा था कैसे रीऐक्ट करूँ . जब कभी भावनाओं को अभिव्यक्ति देने में ज़ुबान असक्षम हो जाती है तो आँखें इस काम को बखूबी अंजाम देती है . मेरी आँखें अविरल बहने लगी .
“ तो ये तुम्हारी और मम्मी की मिली भगत थी ना ? बट ऐनीवेज़ …! आई ऐम फ़ीलिंग ब्लेस्ड़ …”
बस उस दिन के बाद मैंने कभी मुड़कर नहीं देखा . मैंने अपनी कला को अपने जुनून और करीयर में बदल दिया . मैंने हॉबी क्लासेस शुरू कर दी . मेरी शुरुआत दो तीन बच्चों से हुई थी , बढ़ते – बढ़ते यह संख्या सौ के पास आ गई . ख़ाली समय में मैं पैंटिंग्स बनाने लगी और बरसों से घुमड़ती मेरी भावनाओं को शब्दों का रूप देने के लिए मैंने एक किताब लिखनी भी शुरू कर दी .

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अगर आज मैं आत्मनिर्भर बन पाई ख़ुद की एक पहचान बना पाई तो उसका पूरा श्रेय अमित को जाता है . नहीं तो मैं ख़ुद अपने अंदर की खूबियों को कभी जान ही नहीं पाती .
हम दोनो नितांत अलग व्यतित्व थे . वह आईफ़ोन टेन की तरह , स्मार्ट और फ़ास्ट जिसका कवरेज एरिया अनंत में फैला था . और मैं नब्बे के दशक का कॉर्डलेस फ़ोन जिसका सिमटा हुआ सा कवरेज एरिया है . मैं स्वयं ही अपनी डिजिटल उपमा पर मुस्कुरा उठी . यह अमित की सौहबत और मौहब्बत का ही तो असर था .
मैं जैसी भी थी उसने मुझे स्वीकार किया . हमेशा मेरी भावनाओं को समझा , ख़ुद को मुझमें ढालने की कोशिश की कभी मुझे बदलने की कोशिश नहीं की . बल्किं मेरी कमियों को मेरी ताक़त बनाया .
हवा के तेज झोंके से विंड चाइम की घंटियों की आवाज़ से मैं विचारों की दुनिया से बाहर लौट आई . एग्ज़िबिशन की सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी थी . सारी आइटम्स को फ़िनिशिंग टच देने में मुझे समय का पता ही नहीं चला .
शाम घिरने को आई थी और अमित ऑफ़िस से लौटकर आ चुके थे . मैं बहुत खुश थी . उसे देखते ही मैं उसके गले से लग गई .
“ ये सब तुम्हारी वजह से ही मुमकिन हुआ है . तुम्हारे बिना मैं बिलकुल अधूरी हूँ . अब हम अमित और परी नहीं रह गए हैं . एक दूसरे में गुँथ कर ‘अपरिमित’ बन गए हैं .” मैंने उसके कान में फुसफुसाते हुए कहा .
अमित ने अपनी बाँहों के घेरे को थोड़ा ओंर मज़बूत कर लिया . मुझे लग रहा था मैं उसमें , उसके अहसासों में , उसके प्यार में सरोबार हो उसमें समाती चली जा रही हूँ .
किसी ने सच ही तो कहा है ,विवाह की सफलता इसी में है कि शादी के बाद पति – पत्नी एक दूसरे की कमज़ोरियों को परे रख और एक – दूसरे के लिए अपने – अपने कम्फ़र्ट ज़ोन से निकलकर ही तो मैं और तुम से हम बन जाते हैं .

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