फीनिक्स: भाग-2

पिछला भाग- फीनिक्स: भाग-1

 कहानी- मेहा गुप्ता

मुझे, इसलिए नहीं कि वह सुंदर नहीं था, बल्कि मेरी नजर में पर्फैक्ट मैच नहीं था वह मेरी सलोनी के लिए.

करीब 20 मिनट बाद मेरी भेजी रिक्वैस्ट पर उस का रिप्लाई आया ‘ऐक्सैप्टेड.’ उस ने कीबोर्ड पर खटखट कर चैट करने के बजाय तुरंत मुझे वीडियो कौल की.

‘‘कहां खो गई थी मेरी स्वीटी, कितना ढूंढ़ा मैं ने तुझे?’’

‘‘मैं फेसबुक पर नहीं थी और मेरा मोबाइल खो जाने के कारण सारे कौंटैक्ट्स डिलीट हो गए थे,’’ मैं जानती थी कि मैं ने बड़ा घिसापिटा सा बहाना बनाया है.

‘‘तू अभी मुंबई में ही है औरकभी मुझ से संपर्क करने की कोशिश नहीं की. इतना पराया कर दिया अपनी सलोनी को?’’ उस की बातें जारी थीं. वही अदाएं, चेहरे पर वही नूर, शब्दों को जल्दीजल्दी बोलने की उस की आदत, उत्साह से लबरेज.

‘‘मैं अगले हफ्ते जयपुर आ रही हूं. मिल के बात करते हैं,’’ बस इतना कह पाई मैं. आंसुओं ने मेरे स्वर को अवरुद्ध कर दिया था.

फोन रखने के बाद भी मेरा मन उस में ही अटका रहा. शाम को भी मैं फिर उस के अकाउंट पर गई. उस ने ढेरों फोटो अपलोड कर रखे थे. उस के घूमने के, पार्टियों के, शादी समारोहों के. कुल मिला कर ये सब फोटो उस की संपन्नता और खुशी को बयां कर रहे थे.

‘‘कहां अटकी हुई है आज तू? कितनी देर से गाड़ी में तेरा इंतजार कर रही हूं,’’ मेरी कुलीग जो मेरी पूल पार्टनर भी है की आवाज ने मेरी तंद्रा को भंग किया.

‘‘तू निकल जा… मैं मार्केट से थोड़ा काम निबटाते हुए आऊंगी,’’ कह मैं ने घड़ी की तरफ नजर डाली. 5 बज रहे थे. मैं ने सलोनी के बच्चों के लिए चौकलेट्स, उस के लिए पर्स आदि लिया. घर लौटते हुए मैं ने एक थैला सब्जी भी खरीद ली, क्योंकि मुझे 2 दिनों के लिए बाहर जाना था. ऐसे में मैं कई ग्रेवी वाली सब्जियां बना कर जाती थी. रोटी अमन बना लेते थे. इस से मेरे पति और बेटे का मेरे पीछे से काम निकल जाता था.

अगले दिन मैं सुबह की फ्लाइट से जयपुर के लिए निकल गई. जयपुर एअरपोर्ट से बाहर निकलते ही अपने वादे के अनुसार सलोनी एक बड़े से गुलदस्ते के साथ खड़ी थी, जिस में मेरी पसंद के सफेद गुलाब थे. जब भी हम दोनों में अनबन हो जाती थी तो हम दोनों में से कोई भी बिना दंभ के दूसरी को सफेद गुलाब उपहार में दे अपनी लड़ाई का अंत करती थी.

‘‘सोनाली मेरी जानेमन… बिलकुल नहीं बदली है तू,’’ उस ने लगभग चिल्ला कर कहा. आसपास खड़े सभी लोग उस की तरफ देखने लगे पर दुनिया की उस ने कभी परवाह नहीं की थी. जो उसे जंचता वही करती.

वही गरमाहट थी आज भी उस के व्यवहार में. जब वह बोलती थी तो उस की जबान ही नहीं हर अंग बोल उठता था.

‘‘बिलकुल नहीं बदली सैक्सी तू तो,’’ हमेशा इस तरह के उपनामों से बुलाती थी वह मुझे. मुझ से यह कहते हुए वह मुझ से लिपट गई. अपने कंधों पर उस के आंसुओं को महसूस कर रही थी मैं.

उस ने अपनी काली चमचमाती गाड़ी निकाली, एअरपोर्ट की पार्किंग की भीड़ को चीरती हुई गाड़ी मालवीय रोड पर आगे बढ़ने लगी. जयपुर के चप्पेचप्पे से परिचित थी मैं. समय के साथ कितना कुछ बदल गया था.

गाड़ी एक बड़े बंगले के एहाते में आ कर रुकी. सफेद रंग के लैदर के आरामदायक सोफे, चमकते पीतल और कांसे के बड़ेबड़े आर्टइफैक्ट्स, दीवारों पर लगी पेंटिंग्स और परदों का चयन उस के वैभव का बखान तो कर ही रहा था, साथ में मकानमालिक की कला के प्रति रुचि और हुनर को भी दर्शा रहा था.

‘‘तूने अपने घर को बहुत ही मन से सजाया है. मुझे खुशी है कि तुझ में यह हुनर अभी भी जिंदा है.’’

सलोनी ने अपने चिरपरिचित अंदाज में अपना कौलर ऊपर कर कंधे उचका दिए. शायद वह मेरे कहने का मंतव्य नहीं समझ पाई थी.

चायनाश्ते के बाद उस ने अपनी मेड को खाने का मेन्यू बताया और उस के बाद हम उस के घर के बाहर बगीचे में लगी कुरसियों पर

बैठ गए.

हमारी बातों का सिलसिला शुरू हो गया. उस ने कानों और हाथों में बड़े से सौलिटेर और हाथों में अपेक्षाकृत छोटे आकार के डायमंड के कंगन पहन रखे थे.

ये भी पढ़ें- प्यार का एहसास

‘‘तू तो जैसे किसी डायमंड की ब्रैंड ऐंबैसेडर हो… कितना चमक रही है… मैं बहुत खुश हूं तुझे देख कर. जो तूने अपनी जिंदगी से चाहा था तुझे सब

मिल गया.’’

‘‘तूने भी तो अपने सपनों को जीया है. आज अपनी मेहनत के दम पर तू इस मुकाम पर पहुंची है. एक प्रतिष्ठित बैंक में इतने उच्च पद पर कार्यरत है तू.’’

‘‘मुझे भी बहुत खुशी है तेरा यह रूप देख कर. वही आत्मविश्वास से दीप्त मुखमंडल, देहयष्टि में वही कमनीयता… कोई बोलेगा तुझे देख कर

कि एक जवान बेटे की

मां हो.’’

‘‘पर तू इतनी बेडौल क्यों हो गई है?’’

‘‘लगना चाहिए न कि खातेपीते घर के हैं. अरे भई यह तो हम मारवाडि़यों की शान है. लाखों की भीड़ में भी पहचान लिए जाते हैं,’’ उस ने अपने पेट पर हाथ फिराते हुए ऐसे नाटकीय अंदाज में कहा कि मैं खुद को हंसने से न रोक पाई.

‘‘चल अंदर चल कर बैठते हैं. अंधेरा गहराने को है और फिर सुनील भी आते ही होंगे… एसी औन कर दूं. इन्हें आने से पहले हौल चिल्ड चाहिए नहीं तो गरमी के मारे दिमाग का तापमान बढ़ जाता है.’’

कुछ ही पलों में सुनील भी घर आ गया. हम लोगों के बीच कुछ औपचारिक बातचीत हुई. डिनर के दौरान भी उस के हाथ में महंगा मोबाइल सैट था और उस की फोन कौल्स लगातार चालू थीं. वह खाना खाते हुए भी तेज आवाज में फोन पर बातें कर रहा था. मैं मन ही मन अमन की तुलना सुनील से करने लगी. अमन की आवाज इतनी धीमी होती कि पास बैठा व्यक्ति भी न सुन पाए. यही तो फर्क है कम पढ़े और पढ़ेलिखे व्यक्ति में… जाने क्या देखा सलोनी ने इस में और जाने कैसे वह इस की हरकतों को बरदाश्त करती है. मैं मन ही मन खीज उठी.

मगर मैं ने महसूस किया कि सलोनी बहुत खुश थी. उस ने मीठे में गुलाबजामुन मंगवा रखे थे. सुनील के नानुकुर करने पर भी एक गुलाबजामुन अपने हाथ से उस के मुंह में डाल दिया. शायद पैसा इंसान की सारी कमियों को ढक देता है.

सलोनी ने आज स्वयं के सोने की व्यवस्था भी गैस्टरूम में कर ली थी. करीब 9 बजे वह

2 कप कौफी के लिए कमरे में आई. कपों में कौफी और शक्कर डली थी, ‘‘चल फेंटी हुए कौफी बना कर पीते हैं. जब से तेरा साथ छूटा है मैं तो जैसे कौफी का स्वाद ही भूल गई हूं,’’ हम चम्मच से कौफी घोलते हुए पुराने दिनों को याद करने लगे.

‘‘तेरी पसंद तो बहुत लाजवाब हो गई है,’’ मैं ने उस के सुंदर मगों को देखते हुए कहा,  ‘‘तू सारा समय शौपिंग में ही लगी रहती है क्या?’’

‘‘कहां यार… बुटीक से समय ही नहीं मिल पाता है.’’

‘‘तेरा बुटीक भी है?’’ मैं उछल पड़ी.

‘‘हां, और सच पूछो तो अभी तो उस का ही सहारा है,’’ मैं ने पूरे दिन में पहली बार उस के चेहरे पर हलकी सी उदासी देखी.

‘‘मैं कुछ समझी नहीं सलोनी?’’

‘‘हाल ही में चल रही टी-20 सीरीज में लगाए गए सट्टे में सुनील को करोड़ों का घाटा हो गया है.’’

‘‘पर तू सुनील को सट्टा क्यों खेलने देती है? तू जानती है न सट्टा खेलने वालों का क्या हाल होता है? जानबूझ कर अपना और अपने बच्चों का भविष्य दांव पर लगा रही हो. यह तो जुआ है. इस से तो इज्जत की दो सूखी रोटियां खानी ज्यादा बेहतर है.’’

आगे पढ़ें- दौलत भी एक नशा ही तो है डियर. एक….

फीनिक्स: भाग-1

 कहानी- मेहा गुप्ता

सूर्यकी पीली रेशमी किरणों ने पेड़ों के पत्तों के बीच से छनछन कर मेरी बालकनी में आना शुरू कर दिया है. यह मेरे लिए दिन का सब से खूबसूरत वक्त होता है. बालकनी में खड़ी हो सामने पार्क में देखती हूं तो कोई वहां बने जौगिंग पाथ पर दौड़ लगा कर पिछले दिन खाए जंक फूड से पाई कैलोरी को जलाने में जुटा है तो कोई सांसों को अंदरबाहर ले अपने जीवन की तमाम विसंगतियों से झूझने के लिए खुद को सक्षम बनाने में.

मेरी मां ने इन गतिविधियों को अमीरों के चोंचले नाम दे रखा है. कहती हैं छोटीछोटी जरूरतों के लिए अगर नौकरों पर निर्भर न रहें तो ये सब करने की नौबत ही न आए. हम लोग जब कुएं से पानी खींच कर लाया करती थीं तो वही हमारे लिए जौगिंग होती थी और चूल्हे की लौ को तेज करने के लिए जोर से फूंक देतीं तो वही प्राणायाम.

अब मां को कैसे समझाऊं कि जमाना बदल गया है, जमाने की सोच बदल गई है.जबकि मैं खुद कई मामलों में जमाने से बहुत पीछे हूं. मसलन, खाने के मामले में मैं रैस्टोरैंट जा कर पिज्जाबर्गर खाने से बेहतर घर की दालरोटी खाना पसंद करती हूं. बाहर का खाना मुझे सेहत और पैसे की बरबादी लगता है.

वैस्टर्न आउटफिट्स न पहन कर सलवारकमीज वह भी दुपट्टे के साथ पहनती हूं और सब से मुख्य बात सोशल मीडिया से गुरेज करती हूं. अब तक मुझे यह निहायत दिखावा, छलावा और समय की बरबादी लगता था पर इस बार अपनी सोलमेट से मिलने के लालच ने मुझे फेसबुक के गलियारों में भटकने को मजबूर कर ही दिया.

ये भी पढ़ें-बंद खिड़की

मैं ने फेसबुक पर अपना अच्छा सा फोटो लगा अपना प्रोफाइल डाल दिया और सलोनी, जयपुर टाइप कर के क्लिक कर दिया. क्लिक करते ही सलोनी नाम से लगभग 50 प्रोफाइल स्क्रीन पर आ गए. मैं 1-1 कर के सारे फोटो जूम कर देखने लगी. लगभग 15वां प्रोफाइल मेरी सलोनी का था.

मैं ने बिना समय गंवाए फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज दी और उस के जवाब का इंतजार करने लगी. जब से मेरा जयपुर जाने का प्लान बना था मेरा मन सलोनी से मिलने को तड़प उठा था.

जयपुर का पर्याय है मेरे लिए सलोनी… सिर्फ सहेली ही नहीं सोलमेट थीं हम दोनों. जयपुर के महारानी कालेज में मेरा ऐडमिशन

हुआ था और मैं सुमेरपुर जैसे छोटे कसबे की देशी गर्ल वहां आ गई. अजनबियों की भीड़ में सलोनी ने ही मेरा संबल बन मेरा हाथ थामा था. उस की मम्मी ने कई रूम, पेइंगगैस्ट के तौर पर लड़कियों को दे रखे थे, इसलिए मैं भी होस्टल

के अत्याधुनिक माहौल को अलविदा कह वहीं रहने चली गई थी. वहीं पर सलोनी द्वारा मेरी ग्रूमिंग भी हुई थी.

सादी नहीं बोलो शादी, मैडम नहीं मैम, इस दुपट्टे को दोनो कंधों पर के दोनों तरफ नहीं, बल्कि एक पर डालो, और भी न जाने क्याक्या…

मुझ में बहुत जल्दी इतना बदलाव आया कि मेरे इस नए रूप को देख कर मुझ से ज्यादा वह प्रसन्न थी. गुरुदक्षिणा में मैं उसे फुजूलखर्ची से परहेज कर थोड़ा सेविंग करने के लिए कहती थी पर वह मेरी कही हर बात हवा में उड़ा देती थी. मुझे नहीं लगता उस ने मुझे कभी सीरियसली लिया हो. सदा एकदूसरे का साथ देने को तत्पर थीं हम, पर कोई गलत कदम उठाने पर एकदूसरे को समझाने या डांटने का पूरा हक भी दे रखा था हम ने एकदूसरे को.

नाम के अनुरूप ही वह रूप और गुणों की स्वामिनी थी. हर वक्त चहकती फिरती. फिर हम दोनों के बीच दूरी आ गई. शायद मैं ने स्वयं ही सलोनी से खुद को दूर कर लिया था. उस के लिए एक बहुत ही संभ्रांत परिवार से रिश्ता आया था. वह थी ही इतनी सुंदर कि कोई भी उस पर फिदा हो जाए. लड़का सिर्फ 12वीं कक्षा तक पढ़ा था और श्यामवर्णी होने के साथसाथ बेडौल भी था.

कितना समझाया था मैं ने उसे, ‘‘कहां गए तेरे सारे सपने? तू अपनी इंटीरियर डिजाइनर की डिगरी उस के पीछे लगाई अपनी अपार मेहनत सब यों ही बरबाद कर देगी? वहां तेरे टेलैंट की कोई कद्र नहीं होगी.’’

मगर तब शायद सुनील की चकाचौंध ने, उस की महंगी गाडि़यों ने, उस के ठाटबाट ने सलोनी और उस के परिवार वालों की अकल पर परदा डाल दिया था. हम दोनों ही साधारण परिवार से थीं पर मेरे और उस के जिंदगी के

प्रति दृष्टिकोण, खुशियों की परिभाषा में बहुत अंतर था.

‘‘सलोनी तुझे लगता है तू शादी के बाद नौकरी कर पाएगी? कितने अरमान थे तेरे अपने भविष्य को ले कर,’’ एक दिन शादी की तैयारियों के बीच उस की साडि़यों की पैकिंग करते हुए मैं ने उस से पूछा था.

‘‘इसे नौकरी करने की जरूरत क्यों पड़ेगी भला… लाखों में खेलेगी मेरी लाडो…

नौकरी तो मध्य परिवार के लोग अपनी बहुओं से करवाते हैं. ये तो खानदानी लोग हैं. शहर में नाम है इन के परिवार का. भला ये लोग अपनी नाक क्यों कटवाएंगे अपने घर की बहूबेटियों से नौकरी करवा कर.’’

मैं आंटी से कहना चाहती थी कि जरूरी नहीं है औरत आर्थिक जरूरतों के चलते कमाए. उसे अपने आत्मसम्मान के लिए, आत्मविश्वास को बनाए रखने के लिए, समाज में अपना वजूद बनाए रखने के लिए भी आत्मनिर्भर बनना चाहिए पर मुझे पता था आंटी के लिए इन बातों का कोई अर्थ नहीं… और सलोनी वह तो जैसे स्वप्नलोक में विचरण कर रही थी.

ये भी पढ़ें- लिवइन रिलेशनशिप: भाग-3

मेरी शादी अपनी पसंद के इनकम टैक्स औफिसर से हुई थी. पर मेरे पति अमन अपने उसूलों के बहुत पक्के और सादा जीवन उच्च विचारों के साथ जीने में विश्वास रखते थे. हमारी शादी भी बहुत साधारण तरीके से हुई थी. शादी में आई सलोनी ने अमन से मिल कर मुझे छेड़ा भी था कि वाह, क्या जोड़ी है… अच्छा है दोनों की खूब जमेगी.

मैं विचारों में खोई स्क्रीन को स्क्रोल कर उस के नएपुराने सभी फोटो देखने में जुटी थी. उस के स्टेटस पर कपल फोटो लगा था. मुझे उस के कंधे पर हाथ रखे हुए सुनील कांटे सा चुभा था कि हु बंदर के गले में मोतियों की माला, बड़बड़ाते हुए मैं ने अपना मुंह बिचकाया. वह आदमी पहली नजर में ही बेहद नापसंद था.

आगे पढ़ें- मेरी नजर में पर्फैक्ट मैच नहीं था वह मेरी सलोनी के लिए….

अटूट बंधन: भाग-4

विशू ने देखा, छत पर अनगिनत दरारें, कहींकहीं तो दरार इतनी चौड़ी कि धूप का कतरा नीचे आ रहा है. साथ वाले कमरे की तो आधी छत ही गिर गई है. उस के ऊपर खुला आकाश. सिहर उठा वह, वहां बैठ बाबा अध्ययन किया करते थे, दूसरे कोने में उस के पढ़ने की मेज थी.

‘‘अम्मा, छत तो कभी भी गिर सकती है.’’

‘‘हां बेटा, पर करें क्या? दीनू को लाला की चीनी मिल में काम मिला था. 10वीं भी पास न कर पाया. बल्कि मुन्नी की बुद्धि अच्छी है, 10वां पास कर लिया. सोचा था, थोड़ाथोड़ा जोड़ छत की मरम्मत करवा लेंगे पर एक ट्रक ने टक्कर मार दी, आधा पैर काटना पड़ा. बैसाखी पर चलता है वह अब. नौकरी चली गई तो दानेदाने को तरस गए. तब बहू और मुन्नी ने सलाह कर चाय की दुकान खोली. उस से रूखासूखा ही सही, दो रोटी शाम को मिल जाती हैं.’’

स्तब्ध हो गया. उस किशोरी सी बहू के प्रति मन में आदर भर उठा. इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद पति को दुत्कार उस से पल्ला नहीं झाड़ा, उस के साथ रही, उस को, उस के परिवार को सहारा दिया.

अपनी छोटी सी सीमित क्षमता के अनुसार और रीमा? इतनी बड़ी नौकरी, इतनी संपन्नता, उसी का ही दिया इतना सुख, आराम, संपन्नता में जरा सा अंतराल आएगा, सोच कर ही इतनी गुस्से में आ गई कि पति को ताने देते नहीं हिचकी. और यह छोटी सी निर्धन अनपढ़ लड़की.

मुन्नी पानी ले आई. नल का ताजा पानी. वर्षों से मिनरल वाटर छोड़ सादा पानी नहीं पीता है विशू. पर आज निश्चिंत हो कर नल का पानी पी गया और लगा बहुत देर से प्यासा था.

‘‘दीनू है कहां?’’

‘‘चौधरी के बेटे ने सड़क पर पैट्रोल पंप खोला है, तेल भराने जो गाडि़यां आती हैं उन में से कोईकोई सफाई भी करवाते हैं तो उस ने दीनू को लगा दिया है. कभीकभी 30-40 रुपए कमा लेता है, कभीकभी एकदम खाली हाथ. बेटा, तू हाथमुंह धो ले. मुन्नी ताजे पानी से बालटी भर दे. धुला तौलिया निकाल दे.’’

ये भी पढ़ें- पीयूषा- क्या विधवा मिताली की गृहस्थी दोबारा बस पाई?

‘‘अम्मा, सड़क पर गाड़ी खड़ी है. मैं अंदर ले आता हूं.’’

निर्मला की आंखें फटी की फटी रह गईं, ‘‘तू गाड़ी लाया है.’’

‘‘हां, अम्मा.’’

आत्मग्लानि और अपराधबोध से विशू का मन भारी हो रहा था. आज लग रहा है कि उस दिन वह गलत था, बाबा कहते थे, ‘धनवान बनो या न बनो पर बच्चा, इंसान बनो, आदमी धन नहीं मन से बड़ा होना चाहिए.’ पर उन के दिए सारे संस्कारों को ठेंगा दिखा कर उस ने उस उपदेश को कभी न अपनाया. अपना स्वार्थ तो पूरा हो ही गया.

तभी वह सजग हुआ, सोचा, अरे, उस के पास अपना बचा ही क्या है, एक नाम और नाम के पीछे जुड़ा सरनेम ‘तिवारी’ छोड़ सारे अभ्यास, आत्मजन, घरद्वार, यहां तक कि सोच भी तो रीमा की है. उस के मम्मीपापा, उन के उपदेश, रीमा के भाईबहन, उस की आदतें, उठनाबैठना, समाज में परिचय तक रीमा का दिया है, रीमा का पति, मिस्टर सिन्हा का दामाद, गौतम साहब का जीजा.

पंडित केशवदास तिवारी का तो कोई अस्तित्व ही नहीं रहा क्योंकि अपने सुपुत्र विश्वनाथ तिवारी ने स्वयं अपना अस्तित्व खो दिया. मिस्टर सिन्हा का दामाद, रीमा का पति नाम से ही तो जाना जाता है तो फिर पंडितजी का नाम चलेगा कैसे?

विशू ने गाड़ी ला कर खड़ी की. निर्मला ने आ कर गाड़ी को बड़ी ही सावधानी से छुआ, मुख पर गर्व का उजाला, ‘‘तेरे बाबा देख कर कितना खुश होते रे, मुन्ना.’’

अचानक ही विशू को लगा कि क्या होता अगर वह कैरियर के पीछे ऐसे सांस बंद कर न दौड़ता. बाबा सदा कहते थे सहज, सरल व आदरणीय बने रहने के लिए. पर उस ने तो स्वयं ही अपने जीवन को जटिल, इतना तनावपूर्ण बना लिया. वह मेधावी था, शिक्षा पूरी कर कोई नौकरी कर लेता, काम पर जाता फिर अपने आंगन में अपने प्रियजनों के बीच लौट खापी कर चैन की नींद सो जाता, खेतों की हरियाली, कोयल की कूक और माटी की सुगंध की चादर ओढ़. पर नहीं, उस ने जो दौड़ शुरू की है दूसरों को पीछे छोड़ आगे और आगे जा कर आकाश छूने की, उस में कोई विरामचिह्न है ही नहीं. बस, सांस रोक कर दौड़ते रहो, दौड़ते रहो, गिर गए तो मर गए. दूसरे लोग तुम को रौंद आगे निकल जाएंगे.

आज इस निर्धन, थकेहारे परिवार को देख एक नए संसार की खोज मिली उस को. यहां पलपल जीवित रहने की लड़ाई लड़ते हुए भी ये लोग कितने सुखी हैं, कितनी शांति है आम की घनी छाया के नीचे, एकदूसरे के प्रति कितना लगाव है. कोई भी बुरा समय आए तो कैसे सब मिलजुल कर उस को मार भगाने को एकजुट हो जाते हैं. उस के जीवन में संपन्नता के साथ वह सबकुछ, सारी सफलताएं हैं जो आज के तथाकथित उच्चाकांक्षी लोगों का सपना हैं पर आज रीमा ने आंखों में उंगली डाल दिखा दिया कि उस के प्रति समर्पण किसी का भी नहीं.

‘‘चल बेटा, खाना खा ले. थोड़ा आराम कर के जाना. दिन रहते ही घर लौटना, समय ठीक नहीं. दीनू लौट कर दुखी होगा कि भैया से भेंट नहीं हुई.’’

एकएक शब्दों में उस मां, जिसे वह सौतेली मानता था, का स्नेह, ममता और संतान की चिंता देख विशू अंदर तक भीग उठा.

‘‘मैं नहीं जा रहा. कई दिनों की छुट्टी ले कर आया हूं. घर में रहूंगा.’’

बुरी तरह चौंकी निर्मला, ‘‘क्या, अरे रहेगा कहां? देख रहा है घरद्वार की दशा, कहां सोएगा, कहां उठेगाबैठेगा और नहानाधोना?’’

‘‘तुम लोग कैसे करते हो?’’

‘‘पागल मत बन. हमारी बात मान और…’’

‘‘क्यों? क्या मैं कोई आसमान से उतर कर आया हूं?’’

हंस पड़ी निर्मला. विशू ने देखा इतना आंधीतूफान झेल कर भी निर्मला की हंसी में आज भी वही शुद्ध पवित्र हृदय झांकता है, वही मीठी सहज सरल हंसी, ‘‘कर लो बात. तेरा घरद्वार है, रहेगा क्यों नहीं? पर तेरे रहने लायक भी तो हो.’’

‘‘तभी तो रहना है मुझे…इस को रहने लायक बनाने के लिए.’’

‘‘क्या कह रहा है तू?’’

‘‘अम्मा, नासमझ था जो अपनी जड़ अपने हाथों काट गया था. पर मजबूत जड़ काट कर भी नहीं कटती. एक टुकड़ा भी रह जाए तो पेड़ फिर से लहलहा उठता है. अम्मा, मैं समझ गया हूं कि मैं आज तक सोने के हिरन के पीछे दौड़ता रहा जो लुभाता जरूर है पर किसी का भी अपना नहीं होता. बस, तुम मुझे वह करने दो जो मुझे करना है.’’

‘‘वह क्या है, लल्ला?’’

ये भी पढ़ें- तीसरी कौन: क्या पछतावे के बाद अपना फैसला बदल पाई दिशा?

‘‘इस मकान को मजबूत, पक्का घर बनाना है, 3 कमरे, 1 हाल, बिजली, पानी की व्यवस्था, रसोई, बाथरूम की सुविधा और आज से चाय की दुकान बंद. पंडितजी की बहूबेटी सड़क चलते लोगों को चाय बेचेंगी, यह तो बड़ी लज्जा की बात है. वहां एक बहुत बड़ी परचून की दुकान होगी. एक नौकर होगा, दीनू उस में बैठेगा.’’

‘‘पर वह तो… बहुत पैसों का…’’

‘‘अम्मा, याद है तुम बचपन में कहती थीं कि तेरा बेटा लाखों का नहीं करोड़ों का है. तुम पैसों की चिंता क्यों करती हो. मैं हूं तो.’’

रो पड़ी निर्मला, ‘‘मेरे बच्चे…’’

‘‘चलो अम्मा, रोटी खिलाओ, भूख लगी है.’’

मन एकदम नीले आकाश में जलहीन छोटेछोटे बादलों के टुकड़ों जैसा हलका हो गया. उसे चिंता नहीं इस समय पर्स में 35 हजार रुपए पड़े ही हैं, काम शुरू करने में परेशानी नहीं होगी. बीमा के 20 लाख रुपए हैं ही. उसे पता है कि वह 1 हफ्ता भी खाली नहीं बैठेगा. दूसरे लोगों की नजर वर्षों से उस पर है. उस की योग्यता और काम की निष्ठा से सब ललचाए बैठे हैं.

देश और विदेश की कंपनियों के कर्णधार, कई औफर इस समय भी उस के हाथ में हैं. बस, स्वीकार करने की देर है और वह करेगा भी. पर इस बार देश नहीं विदेश में ही जाने का मन बना लिया है. जहां रीमा की परछाईं भी नहीं हो. घर के ऊपर अपने लिए एक बड़ा सा पोर्शन बना लेगा जहां से हरेहरे खेत, गाती कोयल, आम के बाग और गांव के किनारेकिनारे बहती यमुना नदी दिखाई पड़ेगी.

एक बार जिस पेड़ की जड़ काट कर गया था, उस की जड़ के बचे हुए टुकड़े से पेड़ फिर लहलहाता वटवृक्ष बन गया है. अब दोबारा से उस जड़ को नहीं काटेगा. वर्ष में एक बार मां, भाईबहन के पास अवश्य आएगा.

बहुत दिनों बाद लौकी की सब्जी, चूल्हे की आंच में सिंकी गोलमटोल करारीकरारी रोटी पेट भर खा कर वह मूंज की बनी चारपाई पर दरी और साफ धुली चादर के बिछौने पर पड़ते ही सो गया. बहुत दिनों बाद गहरी, मीठी नींद आई है उसे.

ये भी पढ़ें- अंशिका: क्या दोबारा अपने बचपन का प्यार छोड़ पाएगी वो?

अटूट बंधन: भाग-2

‘‘माफी मांगूंगा, मैं?’’

‘‘अरे, यह बस फौर्मेलिटी है. दो शब्द कह देने में क्या जाता है? उम्र में पिता समान हैं और मालिक हैं.’’

‘‘कभी नहीं…’’

पंडितजी का खून जाग उठा विशू की धमनियों में. वह पंडितजी जो आज भी न्याय, निष्ठा, सदाचार, सपाटबयानी व सत्यवचन के लिए जाने जाते हैं, उन की प्रथम संतान, इतना नहीं गिर सकती.

‘‘प्रश्न ही नहीं उठता माफी मांगने का. गलत वे हैं, मैं नहीं. माफी उन को मुझ से मांगनी चाहिए.’’

फिर से जल उठी रीमा, ‘‘तो तुम त्यागपत्र वापस नहीं लोगे, माफी नहीं मांगोगे?’’

‘‘नहीं, कभी नहीं…’’

‘‘ठीक,’’ अनपढ़ गंवार महिलाओं की तरह मुंह बिदका कर रीमा चीखी, ‘‘तो अब मजे करो, बीवी की रोटी तोड़ो, उस की कमाई पर मौजमस्ती करो.’’

विशू का मुंह खुला का खुला रह गया. क्या स्वार्थ का नग्न रूप देख रहा है वह. पहले तो यही रीमा प्रेम में समर्पण, त्याग और मधुरता की बात करती थी पर उस के स्वार्थ पर चोट लगते ही क्या रूपांतरण हो गया. विशू की नजरों में सब से सुंदर मुख आज कितना भयंकर और कुरूप हो उठा है. वह अपलक उसे देखता रहा.

क्रोध में भुनभुनाती रीमा तैयार हुई. डट कर नाश्ता किया, गैराज से अपनी गाड़ी निकाल औफिस चली गई. अब लंच में लौटेगी बच्चों को स्कूल से ले कर 2 बजे. 3 बजे फिर जा कर फिर लौटेगी 5 बजे. रोज का यही रुटीन है उस का.

ये भी पढ़ें- रुक जाओ शबनम-क्या शबनम के दर्द को कम कर पाया डॉक्टर अविनाश?

रीमा के जाने के बाद एक अलसाई अंगड़ाई ले विशू उठ बैठा. घड़ी ठीक 10 बजा रही थी. चलो, अब पूरे 4 घंटे हैं उस के हाथ में सोचविचार कर निर्णय लेने को. फ्रैश हो कर आते ही संतो ने ताजी चाय ला कर स्टूल पर रखी. उस ने चाय पी. रीमा से पूरी तरह मोहभंग हो चुका है. आज वह स्वयं समझा गई उस का रिश्ता बस स्वार्थ का रिश्ता है. इन्हीं सब उलझनों में फंसा वह अतीत में खो गया.

अपने पिता को वह कभीकभी आर्थिक चिंता करते देखता था तब निर्मला यानी सौतेली मां कभी डांट कभी प्यार जता उन को साहस जुटाती थी कि चिंता क्यों करते हो जी, सब समस्या का हल हो जाएगा. कभी भी आर्थिक दुर्बलता को ले कर पिता को ताने देते या व्यंग्य करते नहीं सुना. न ही कभी अपने लिए कुछ मांग करते.

अपनी मां की तो स्मृति भी नहीं है मन में, डेढ़ वर्ष की उम्र से ही उस ने निर्मला को अपनी मां ही जाना है और निर्मला ने भी उसे पलकों पर पाला है. दीनू से बढ़ कर प्यार किया है. उस का भी तो बाबा से वही रिश्ता था जो रीमा का उस के साथ है. फिर निर्मला हर संकट में बाबा के साथ रही, साहस जुटाया, मेहनत कर के सहयोग दिया और रीमा ने आज…उस की रोटी का एक कौर भी नहीं खाया अभी, फिर भी अपनी कमाई का ताना दे गई.

पति के मानसम्मान का कोई मूल्य नहीं, जो उसे पूरी तरह मिट्टी में मिलाने, माफी मंगवाने ले जा रही थी, उस झूठे और बेईमान जालान के पास. उस ने उस के आत्मसम्मान की प्रशंसा नहीं की. एक बार भी साहस नहीं बढ़ाया कि ठीक किया, चिंता क्यों करते हो, मेरी नौकरी तो है ही. दूसरी नौकरी मिलने तक मैं सब संभाल लूंगी. वाह, क्या कहने उच्च समाज की अति उच्च पद पर कार्यरत पत्नी की.

आज रीमा ने 13 वर्ष से पति से सारे सुख, सामाजिक प्रतिष्ठा, सम्मान, अपने हर शौक की पूर्ति, आराम, विलास का जीवन सबकुछ एक झटके में उठा कर फेंक दिया, अपनी जरा सी असुविधा की कल्पना मात्र से. एक बार भी नहीं सोचा कि पति के पास कितनी योग्यता है, कितना अनुभव है, और अपने क्षेत्र में कितना नाम है. वह दो दिन भी नहीं बैठेगा. दसियों कंपनी मालिक हाथ फैलाए बैठे हैं उसे खींच लेने के लिए, देश ही नहीं विदेशों में भी. और उस की सब से प्रिय पत्नी उस की तुलना कर गई डोनेशन वाले सड़कछाप एमबीए लोगों के साथ. बस, अब और नहीं. पार्लर ने जो सुंदर मुख दिया है रीमा को वह मुखौटा हटा कर उस के अंदर का भयानक स्वार्थी, क्रूर मुख स्वयं ही दिखा गई है वह आज. उस का सारा मोह भंग हो चुका है.

अपने ही प्रोफैसर की बेटी रीमा को पाने के लिए वह स्वयं कितना स्वार्थी बन गया था, आज उस बात का उसे अनुभव हुआ. एमबीए के खर्चे के लिए उस निर्धन परिवार के मुंह की रोटी 5 बीघा खेत तक बिकवा दिया.

पिता पर दबाव डाला. अपने 2 छोटेछोटे बच्चों की चिंता कर के भी सौतेली मां निर्मला ने एक बार भी बाबा को नहीं रोका. और उस ने इन 13 वर्षों में उधर पलट कर भी नहीं देखा क्योंकि उसे बहाना मिल गया था. जब नौकरी पा कर बाबा को सहायता करने का समय आया तब सब से पहले रीमा से शादी कर के अपने परिवार से पल्ला झाड़ने का बहाना खोजने लगा और मिल भी गया.

निष्ठावान स्वात्तिक ब्राह्मण पंडितजी ने ठाकुर की बेटी को अपने घर की बहू के रूप में नहीं स्वीकारा और वह खुश हो रिश्ता तोड़ आया. असल में उस के अंतरमन में भय था, आशंका थी कि इस निर्धन परिवार से जुड़ा रहा तो कमाई का कुछ हिस्सा अवश्य ही चला जाएगा इस परिवार के हिस्से. जब कि पिता छोड़ औरों से उस का खून का रिश्ता है ही नहीं. और पिता के प्रति भी क्या दायित्व निभाया.

ये भी पढ़ें- 19 दिन 19 कहानियां: मैं जलती हूं तुम से-विपिन का कौन सा राज जानना चाहती थी नीरा?

दिल्ली से 40 मिनट या 1 घंटे का रास्ता है फूलपुर गांव का. ‘फूलपुर’ वह भी हाईवे के किनारे. गांव के चौधरी का बेटा महेंद्र मोटर साइकिल ले कर आया था उसे लेने. गेट पर ही मिल गया. एक जरूरी मीटिंग थी, इस के बाद ही प्रमोशन की घोषणा होने वाली थी. रीमा औफिस न जा कर घर में ही सांस रोके बैठी थी. वह औफिस ही निकल रहा था कि महेंद्र ने पकड़ा.

‘विशू, जल्दी चल पंडितजी नहीं रहे. अभी अरथी नहीं उठी, तू जाएगा तब उठेगी.’

उस के दिमाग में प्रमोशन की मीटिंग चल रही थी. इस समय यह झूठझमेला. खीज कर बोला, ‘दीनू है तो.’

मुंह खुल गया था महेंद्र का, ‘क्या कह रहा है, तू बड़ा बेटा है और तेरे पिता थे वे…’

‘देख, मेरे जीवन का प्रश्न है. आज मैं नहीं जा सकता, जरूरी काम है. आ जाऊंगा. तू जा.’

महेंद्र के खुले हुए मुंह के सामने वह औफिस चला गया था. 8 वर्ष पुरानी बात हो गई.

आगे पढ़ें- विशू ने निर्णय ले लिया और…

तालमेल: भाग-2

आप मेरे रहने न रहने की परवाह मत करिए जीजाजी, बस जब फुरसत मिले ऋतु को कंपनीदे दिया करिए.’’

घर में वैसी ही महक थी जैसी कभी रचना की रसोई से आया करती थी. ऋतु डब्बा ले कर आई ही थी कि तभी घंटी बजी.

‘‘लगता है ड्राइवर आ गया.’’

गोपाल ने बढ़ कर दरवाजा खोला और ऋतु से डब्बा ले कर ड्राइवर को पकड़ा दिया.

‘‘खाने की खुशबू से मुझे भी भूख लग आई है ऋतु.’’

‘‘आप डाइनिंगटेबल के पास बैठिए, मैं अभी खाना ला रही हूं,’’ कह ऋतु ने फुरती से मेज पर खाना रख दिया. राई और जीरे से

बघारी अरहर की दाल और भुनवा आलू, लौकी का रायता.

‘‘आप परोसना शुरू करिए जीजाजी,’’ उस ने रसोई में से कहा, ‘‘मैं गरमगरम चपातियां ले कर आ रही हूं.’’

‘‘तुम भी आओ न,’’ गोपाल ने चपातियां रख कर वापस जाती ऋतु से कहा.

‘‘बस 1 और आप के लिए और 1 अपने लिए और चपाती बना कर अभी आई. मगर आप खाना ठंडा मत कीजिए.’’

‘‘तुम्हें यह कैसे मालूम कि मैं बस 2 ही चपातियां खाऊंगा?’’ गोपाल ने ऋतु के आने के बाद पूछा, ‘‘और भी तो मांग सकता हूं?’’

‘‘सवाल ही नहीं उठता. चावल के साथ आप 2 से ज्यादा चपातियां नहीं खाते और अरहर की दाल के साथ चावल खाने का मोह भी नहीं छोड़ सकते. मुझे सब पता है जीजाजी,’’ ऋतु ने कुछ इस अंदाज से कहा कि गोपालसिहर उठा. वाकई उस की पसंद के बारे में ऋतु को पता था. खाने में बिलकुल वही स्वाद था जैसा रचना के बनाए खाने में होता था. खाने के बाद रचना की ही तरह ऋतु ने अधभुनी सौंफ भी दी.

गोपाल ने कहना चाहा कि रचना के जाने के बाद पहली बार लगा है कि खाना खाया है, रोज तो जैसे जीने के लिए पेट भरता है. और जीना तो खैर है ही मनु के लिए, पर कह न पाया.

‘‘टीवी देखेंगे जीजाजी?’’

तो ऋतु को मेरी खाना खाने के बाद थोड़ी देर टीवी देखने की आदत का भी पता है, सोच गोपाल बोला, ‘‘अभी तो घर जाऊंगा साली साहिबा. स्वाद में ज्यादा खा लिया है. अत: नींद आ रही है.’’ हालांकि खाते ही चल पड़ना शिष्टाचार के विरुद्ध था, लेकिन न जाने क्यों उस ने ज्यादा ठहरना मुनासिब नहीं समझा.

‘‘आप अपनी नियमित खुराक से कभी ज्यादा कहां खाते हैं जीजाजी, मगर नींद आने वाली बात मानती हूं. कल भी आधी रात तक रोके रखा था हम ने आप को.’’

ये भी पढ़ें- Short Story: परछाईं- मायका या ससुराल, क्या था माही का फैसला?

‘‘तो फिर आज जाने की इजाजत है?’’

‘‘इस शर्त पर कि कल फिर आएंगे.’’

‘‘कल तो हैड औफिस यानी दिल्ली जा रहा हूं.’’

‘‘कितने दिनों के लिए?’’

‘‘1 सप्ताह तो लग ही जाएगा… आ कर फोन करूंगा.’’

‘‘फोन क्या करना स्टेशन से सीधे यहीं आ जाइएगा. सफर से आने के बाद पेट भर घर का खाना खा कर आप कुछ देर सोते हैं और फिर औफिस जाते हैं. आप बिना संकोच आ जाना. मैं तो हमेशा घर पर ही रहती हूं गोलू जीजाजी.’’

गोपाल चौंक पड़ा. रचना उसे गोलू कहती थी यह ऋतु को कैसे मालूम, लेकिन प्रत्यक्ष में उस की बात को अनसुना कर के वह विदा ले कर आ गया. घर आ कर भी वह इस बारे में सोचता रहा. रचना कभी भी कुंआरी ऋतु से अपने

पति के बारे में बात करने वाली नहीं थी. उस का और ऋतु का परिवार एक सरकारी आवासीय कालोनी के मकान में ऊपरनीचे रहता था. मनु तो ज्यादातर ऋतु की मम्मी के पास ही रहता था. रचना भी उस के औफिस जाने के बाद नीचे चली जाती थी और जिस रोज ऋतु के पापा उस के औफिस से लौटने के पहले आ जाते थे तो उसे अपने पास ही बरामदे में बैठा लेते थे, ‘‘यहीं बैठ जाओ न गोपाल बेटे, तुम्हारे बहाने हमें भी एक बार फिर चाय मिल जाएगी.’’

छुट्टी के रोज अकसर सब लोग पिकनिक पर या कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने जाते थे. कई बार रचना के यह कहने पर कि आंटीजी और ऋतु फलां फिल्म देखना चाह रही हैं, वह किराए पर वीसीआर ले आता था और ऋतु के घर वाले फिल्म देखने ऊपर आ जाते थे. ऋतु का आनाजाना तो खैर लगा ही रहता था. दोनों में थोड़ीबहुत नोकझोंक भी हो जाती थी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं था जिसे देख कर लगे कि

ऋतु उस में हद से ज्यादा दिलचस्पी ले रही है. तो फिर अब और वह भी शादी के बाद ऋतु ऐसा व्यवहार क्यों कर रही है? माना कि राहुल व्यस्त है और नवविवाहिता ऋतु के साथ उतना समय नहीं बिता पा रहा जितना उसे बिताना चाहिए, लेकिन वह ऋतु की अवहेलना भी तो नहीं कर रहा? ऋतु को समझना होगा और वह भी बगैर उस से मिले.

गोपाल दिल्ली से 2 दिन बाद ही लौट आया, मगर उस ने ऋतु से संपर्क नहीं किया. 1 सप्ताह के बाद ऋतु को फोन किया.

‘‘आप कब आए जीजाजी?’’

‘‘कल रात को.’’

‘‘तो फिर आप घर क्यों नहीं आए? मैं ने कहा था न,’’ ऋतु ठुनकी.

‘‘रात के 11 बजे मैं सिवा अपने घर के कहीं और नहीं जाता,’’ उस ने रुखाई से कहा.

‘‘यह भी तो आप ही का घर है. अभी आप कहां हैं?’’

‘‘औफिस में.’’

‘‘वह क्यों? टूर से आने के बाद आराम नहीं किया?’’

‘‘रात भर कर तो लिया. अभी मैं एक मीटिंग में जा रहा हूं ऋतु. तुम से फिर बात करूंगा,’’ कह कर फोन बंद कर दिया.

शाम को ऋतु का फोन आया, मगर उस ने मोबाइल बजने दिया. कुछ देर के बाद फिर ऋतु ने फोन किया, तब भी उस ने बात नहीं की.मगर घर आने पर उस ने बात कर ली.

‘‘आप कौल क्यों रिसीव नहीं कर रहे थे जीजाजी?’’ ऋतु ने झुंझलाए स्वर में पूछा.

‘‘औफिस में काम छोड़ कर पर्सनल कौल रिसीव करना मुझे पसंद नहीं है.’’

‘‘आप अभी तक औफिस में हैं?’’

‘‘हां, दिल्ली जाने की वजह से काफी काम जमा हो गया है. उसे खत्म करने के लिए कई दिनों तक देर तक रुकना पड़ेगा.’’

‘‘खाने का क्या करेंगे?’’

‘‘भूख लगेगी तो यहीं मंगवा लेंगे नहीं तो घर जाते हुए कहीं खा लेंगे.’’

‘‘कहीं क्यों यहां आ जाओ न जीजाजी.’’

‘‘मेरे साथ और भी लोग रुके हुए हैं ऋतु और हम जब इकट्ठे काम करते हैं तो खाना भी इकट्ठे ही खाते हैं. अच्छा, अब मुझे काम करने दो, शुभ रात्रि.’’

ये भी पढ़ें- Short Story: दो टकिया दी नौकरी

उस के बाद कई दिनों तक यही क्रम चला और फिर ऋतु का फोन आया कि चंडीगढ़ से पापा आए हुए हैं और आप से मिलना चाहते हैं. अंकल से मिलने का लोभ गोपाल संवरण न कर सका और शाम को उन से मिलने ऋतु के घर गया. कुछ देर के बाद ऋतु खाना बनाने रसोई में चली गई.

आगे पढ़ें- अंकल ने आग्रह किया, ‘‘ऋतु का खयाल…

मां जल्दी आना: भाग-2

इसे पता भी है कि कितने बलिदानों के बाद हम ने इसे पाया है. क्याक्या सपने संजोए थे बहू को ले कर, इस ने एक बार भी नहीं सोचा हमारे बारे में. बाबूजी शायद मामले की गंभीरता को भांप नहीं पाए थे या अपने बेटे पर अतिविश्वास को सो वे मां को दिलासा देते हुए बोले, ‘‘मैं समझाऊंगा उसे, बच्चा है, समझ जाएगा. सब ठीक हो जाएगा. यह सब क्षणिक आवेश है. मेरा बेटा है अपने पिता की बात अवश्य मानेगा.’’

मां को भी बाबूजी की बातों पर और उस से भी ज्यादा अपने बेटे पर भरोसा था. सो बोलीं, ‘‘हां तुम सही कह रहे हो मुझे लगता है मजाक कर रहा होगा. ऐसा नहीं कर सकता वह. हमारे अरमानों पर पानी नहीं फेरेगा हमारा बेटा.’’

चूंकि अगले दिन अनंत वापस दिल्ली चला गया था सो बात आईगई हो गई पर अगली बार जब अनंत आया तो बाबूजी ने एक लड़की वाले को भी आने का समय दे दिया. अनंत ने उन के सामने बड़ा ही रूखा और तटस्थ व्यवहार किया और लड़की वालों के जाते ही मांबाबूजी पर बिफर पड़ा.

ये भी पढ़ें- Short Story: चौकलेट चाचा- आखिर फूटा रूपल का गुस्सा?

‘‘ये क्या तमाशा लगा रखा है आप लोगों ने, जब मैं ने आप को बता दिया कि मैं एक लड़की से प्यार करता हूं और शादी भी उसी से करूंगा फिर इन लोगों को क्यों बुलाया. वह मेरे साथ मेरे ही औफिस में काम करती है. और यह रही उस की फोटो,’’ कहते हुए अनंत ने एक पोस्टकार्ड साइज की फोटो टेबल पर पटक दी.

अपने बेटे की बातों को किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी सुन रहीं मां ने लपक कर टेबल से फोटो उठा ली. सामान्य से नैननक्श और सांवले रंग की लड़की को देख कर उन की त्यौरियां चढ़ गईं और बोलीं, ‘‘बेटा ये तो हमारे घर में पैबंद जैसी लगेगी. तुझे इस में क्या दिखा जो लट्टू हो गया.’’

‘‘मां मेरे लिए नैननक्श और रंग नहीं बल्कि गुण और योग्यता मायने रखते हैं और यामिनी बहुत योग्य है. हां एक बात और बता दूं कि यामिनी हमारी जाति की नहीं है,’’ अनंत ने कुछ सहमते हुए कहा.

‘‘अपनी जाति की नहीं है मतलब???’’ बाबूजी गरजते स्वर में बोले.

‘‘मतलब वह जाति से वर्मा हैं’’ अनंत ने दबे से स्वर में कहा.

‘‘वर्मा!!! मतलब!! सुनार!!! यही दिन और देखने को रह गया था. ब्राह्मण परिवार में एक सुनार की बेटी बहू बन कर आएगी… वाहवाह इसी दिन के लिए तो पैदा किया था तुझे. यह सब देखने से पहले मैं मर क्यों न गया. मुझे यह शादी कतई मंजूर नहीं,’’ बाबूजी आवेश और क्रोध से कांपने लगे थे. किसी तरह मां ने उन्हें संभाला.

‘‘तो ठीक है यह नहीं तो कोई नहीं. मैं आप लोगों की खुशी के लिए आजीवन कुंआरा रहूंगा.’’ अनंत अपना फैसला सुना कर घर से बाहर चला गया था. उस दिन न घर में खाना बना और न ही किसी ने कुछ खाया. प्रतिपल हंसीखुशी से गुंजायमान रहने वाले हमारे घर में ऐसी मनहूसियत छाई कि सब के जीवन से उल्लास और खुशी ने मानो अपना मुंह ही फेर लिया हो. विवाहित होने के बावजूद हम बहनों को भी इस घटना ने कुछ कम प्रभावित नहीं किया. मांबाबूजी का दुख हम से देखा नहीं जाता था और भाई अपने पर अटल था पर शायद समय सब से बड़ा मरहम होता है. कुछ ही माह में पुत्रमोह में डूबे मांबाबूजी को समझ आ गया था कि अब उन के पास बेटे की बात मानने के अलावा कोई चारा नहीं है. जिस घर की बेटियों को उन की मर्जी पूछे बगैर ससुराल के लिए विदा कर दिया गया था उस घर में बेटे की इच्छा का मान रखते हुए अंतर्जातीय विवाह के लिए भी जोरशोर से तैयारियां की गईं.

अनंत मांबाबूजी की कमजोर नस थी सो उन के पास और कोई चारा भी तो नहीं था. खैर गाजेबाजे के साथ हम सब यामिनी को हमारे घर की बहू बना कर ले आए थे. सांवली रंगत और बेहद साधारण नैननक्श वाली यामिनी गोरेचिट्टे, लंबे कदकाठी और बेहद सुंदर व्यक्तित्व के स्वामी अनंत के आसपास जरा भी नहीं ठहरती थी पर कहते हैं न कि ‘‘दिल आया गधी पे तो परी क्या चीज है?’’

एक तो बड़ा जैनरेशन गैप दूसरे प्रेम विवाह तीसरे मांबाबूजी की बहू से आवश्यकता

से अधिक अपेक्षा, इन सब के कारण परिवार के समीकरण धीरेधीरे गड़बड़ाने लगे थे. बहू के आते ही जब मांबाबूजी ने ही अपनी जिंदगी से अपनी ही पेटजायी बेटियों को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका था तो बेटेबहू के लिए तो वे स्वत: ही महत्वहीन हो गई थी. कुछ ही समय में बहू ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए थे.

अनंत और उस की पत्नी यामिनी को परिवार के किसी भी सदस्य से कोई मतलब नहीं था. कुछ समय पूर्व ही यामिनी की डिलीवरी होने वाली थी तब मांबाबूजी गए थे अनंत के पास. नवजात पोते के मोह में बड़ी मुश्किल से एक माह तक रहे थे दोनों तभी अनंत ने मुझ से उन्हें वापस भोपाल आने का उपाय पूछा था. मैं ने भी येनकेन प्रकारेण उन्हें दिल्ली से भोपाल वापस आने के लिए राजी कर लिया था.

अभी उन्हें आए कुछ माह ही हुए थे कि अचानक एक दिन बाबूजी को दिल का दौरा पड़ा और वे इस दुनिया से ही कूच कर गए पीछे रह गई मां अकेली. लोकलाज निभाते हुए अनंत मां को अपने साथ ले तो गया परंतु वहां के दमघोंटू वातावरण और यामिनी के कटु व्यवहार के कारण वे वापस भोपाल आ गईं और अब तो पुन: दिल्ली जाने से साफ इंकार कर दिया. सोने पे सुहागा यह कि अनंत और यामिनी ने भी मां को अपने साथ ले जाने में कोई रुचि नहीं दिखाई. मनुष्य का जीवन ही ऐसा होता है कि एक समस्या का अंत होता है तो दूसरी उठ खड़ी होती है.

ये भी पढ़ें- Mother’s Day 2020: और प्यार जीत गया

अचानक एक दिन मां बाथरूम में गिर गईं और अपना हाथ तोड़ बैठीं. अनंत ने इतनी छोटी सी बात के लिए भोपाल आना उचित नहीं समझा बस फोन पर ही हालचाल पूछ कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली. दोनों बड़ी बहनें तो विदेश में होने के कारण यूं भी सारी जिम्मेदारियों से मुक्त थीं. बची मैं सो अनंत का रुख देख कर मेरे अंदर बेटी का कर्त्तव्य भाव जाग उठा. फ्रैक्चर के बाद जब मां को देखने गई तो उन्हें अकेला एक नौकरानी के भरोसे छोड़ कर आने की मेरी अंतआर्त्मा ने गवाही नहीं दी और मैं मां को अपने साथ मुंबई ले कर आ गई. मैं कुछ और आगे की यादों में विचरण कर पाती तभी मेरे कानों में अमन का स्वर गूंजा.

आगे पढ़ें- मैं ने अपने खुले बालों का जूड़ा बनाया और…

तालमेल: भाग-3

‘‘तुम ने क्या नौकरी बदल ली है गोपाल?’’ अंकल ने पूछा.

‘‘नहीं अंकल.’’

‘‘ऋतु बता रही थी कि अब तुम बहुत व्यस्त रहते हो. पहले तो तुम समय पर घर आ जाते थे.’’

‘‘तरक्की होने के बाद काम और जिम्मेदारियां तो बढ़ती ही हैं अंकल.’’

‘‘तुम्हारी बढ़ी हुई जिम्मेदारियों में मैं एक और जिम्मेदारी बढ़ा रहा हूं गोपाल,’’ अंकल ने आग्रह किया, ‘‘ऋतु का खयाल भी रख लिया करो. राहुल बता रहा था कि तुम्हारे मिलने पर उसे थोड़ी राहत महसूस हुई थी, लेकिन तुम भी एक बार आने के बाद व्यस्त हो गए और ऋतु ने अपने को एकदम नकारा समझना शुरू कर दिया है. असल में मैं राहुल के फोन करने पर ही यहां आया हूं. अगले कुछ महीनों तक उस पर काम का बहुत ही ज्यादा दबाव है और ऐसे में ऋतु का उदास होना उस के तनाव को और भी ज्यादा बढ़ा देता है. अत: वह चाहता था कि मैं कुछ अरसे के लिए ऋतु को अपने साथ ले जाऊं, लेकिन मैं और तुम्हारी आंटी यह मुनासिब नहीं समझते. राहुल के मातापिता ने साफ कहा था कि राहुल की शादी इसलिए जल्दी कर रहे हैं कि पत्नी उस के खानेपहनने का खयाल रख सके. ऐसे में तुम्हीं बताओ हमारा उसे ले जाना क्या उचित होगा? मगर बेचारी ऋतु भी कब तक टीवी देख कर या पत्रिकाएं पढ़ कर समय काटे? पासपड़ोस में कोई हमउम्र भी नहीं है.’’

‘‘वह तो है अंकल, लेकिन मेरा आना भी अकसर तो नहीं हो सकता,’’ उस ने असहाय भाव से कहा.

‘‘फिर भी उस से फोन पर तो बात कर ही सकते हो.’’

‘‘वह तो रोज कर सकता हूं.’’

‘‘तो जरूर किया करो बेटा, उस का अकेलापन कुछ तो कम होगा,’’ अंकल ने मनुहार के स्वर में कहा.

ये भी पढ़ें- Short Story: दो टकिया दी नौकरी

घर लौटने के बाद गोपाल को भी अकेलापन खलता था. अत: वह ऋतु को रोज रात को फोन करने लगा. वह जानबूझ कर व्यक्तिगत बातें न कर के इधरउधर की बातें करता था, चुटकुले सुनाता था, किव्ज पूछता था. एक दिन जब किसी बात पर ऋतु ने उसे फिर गोलू जीजाजी कहा तो वह पूछे बगैर न रह सका, ‘‘तुम्हें यह नाम कैसे मालूम है ऋतु, रचना के बताने का तो सवाल ही नहीं उठता?’’

ऋतु सकपका गई, ‘‘एक बार आप दोनों को बातें करते सुन लिया था.’’

‘‘छिप कर?’’

‘‘जी,’’ फिर कुछ रुक कर बोली, ‘‘उस रोज छिप कर आप की और पापा की बातें भी सुनी थीं जीजाजी. आप कह रहे थे कि आप शादी करेंगे, मगर तब जब मनु भी अपनी अलग दुनिया बसा लेगा. उस में तो अभी कई साल हैं जीजाजी, तब तक आप अकेलापन क्यों झेलते हैं? मैं ने तो जब से आप को देखा है तब से चाहा है, तभी तो आप की हर पसंदनापसंद मालूम है. अब जब आप भी अकेले हैं और मैं भी तो क्यों नहीं चले आते आप मेरे पास?’’

‘‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है ऋतु,’’ गोपाल चिल्लाया, ‘‘6 फुट के पति के रहते खुद को अकेली कह रही हो?’’

‘‘6 फुट के पति के पास मेरे लिए 6 पल भी नहीं हैं जीजाजी. घर बस नहाने, सोने को आते हैं, आपसी संबंध कब बने थे, याद नहीं. अब तो बात भी हांहूं में ही होती है. शिकायत करती हूं, तो कहते हैं कि अभी 1-2 महीने तक या तो मुझे यों ही बरदाश्त करो या मम्मीपापा के पास चली जाओ. आप ही बताओ यह कोई बात हुई?’’

‘‘बात तो खैर नहीं हुई, लेकिन इस के सिवा समस्या का कोई और हल भी तो नहीं है.’’

‘‘है तो जो मैं ने अभी आप को सुझाया.’’

‘‘एकदम अनैतिक…’’

‘‘जिस से किसी पर मानसिक अथवा आर्थिक दुष्प्रभाव न पड़े और जिस से किसी को सुख मिले वह काम अनैतिक कैसे हो गया?’’ ऋतु ने बात काटी, ‘‘आप सोचिए मेरे सुझाव पर जीजाजी.’’

गोपाल ने सोचा तो जरूर, लेकिन यह कि ऋतु को भटकने से कैसे रोका जाए? राहुल जानबूझ कर तो उस की अवहेलना नहीं कर

रहा था और फिर यह सब उस ने शादी से पहले भी बता दिया था, लेकिन ऋतु से यह अपेक्षा करना कि वह संन्यासिनी का जीवन व्यतीत

करे उस के प्रति ज्यादती होगी. ऋतु को नौकरी करने या कोई कोर्स करने को कहना भी

मुनासिब नहीं था, क्योंकि मनचले तो हर जगह होते हैं और अल्हड़ ऋतु भटक सकती थी. इस से पहले कि वह कोई हल निकाल पाता, उस की मुलाकात अचानक राहुल से हो गई. राहुल उस के औफिस में फैक्टरी के लिए सरकार से कुछ अतिरिक्त सुविधाएं मांगने आया था.

गोपाल उसे संबंधित अधिकारी के पास ले गया और परस्पर परिचय करवाने के बाद बोला, ‘‘जब तक उमेश साहब तुम्हारी याचिका पर निर्णय लेते हैं, तुम मेरे कमरे में चलो राहुल, कुछ जरूरी बातें करनी हैं.’’

राहुल को असमंजस की स्थिति में देख कर उमेश हंसा, ‘‘बेफिक्र हो कर जाइए. गोपाल बाबू के साथ आए हैं, तो आप का काम तो सब से पहले करना होगा. कुछ

देर के बाद मंजूरी के कागज गोपाल बाबू के कमरे में पहुंचवा दूंगा.’’

राहुल के चेहरे पर राहत के भाव उभरे.

‘‘अगर वैस्ट वाटर पाइप को लंबा करने की अनुमति मिल जाती है तो मेरी कई परेशानियां खत्म हो जाएंगी जीजाजी और मैं काम समय से कुछ पहले ही पूरा कर दूंगा. अगर मैं ने यह प्रोजैक्ट समय पर चालू करवा दिया न तो मेरी तो समझिए लाइफ बन गई. कंपनी के मालिक दिनेश साहब हरेक को उस के योगदान का श्रेय देते हैं. वे मेरी तारीफ भी जरूर करेंगे जिसे सुन कर कई और बड़ी कंपनियां भी मुझे अच्छा औफर दे सकती हैं,’’ राहुल ने गोपाल के साथ चलते हुए बड़े उत्साह से बताया.

‘‘यानी तुम फिर इतने ही व्यस्त हो जाओगे?’’

‘‘एकदम तो नहीं. इस प्रोजैक्ट को सही समय पर चालू करने के इनाम में दिनेश साहब 1 महीने की छुट्टी और सिंगापुर, मलयेशिया वगैरह के टिकट देने का वादा कर चुके हैं. जब तक किसी भी नए प्रोजैक्ट की कागजी काररवाई चलती है तब तक मुझे थोड़ी राहत रहती है. फिर प्रोजैक्ट समय पर पूरा करने का काम चालू.’’

‘‘लेकिन इस व्यस्तता में ऋतु को कैसे खुश रखोगे?’’

‘‘वही तो समस्या है जीजाजी. नौकरी वह करना नहीं चाहती और मुझे भी पसंद नहीं है. खैर, किसी ऐसी जगह घर लेने जहां पासपड़ौस अच्छा हो और फिर साल 2 साल में बच्चा हो जाने के बाद तो इतनी परेशानी नहीं रहेगी. मगर समझ में नहीं

आ रहा कि फिलहाल क्या करूं? इस पाइप लाइन की समस्या को ले कर पिछले कुछ दिनों से इतने तनाव में था कि उस से ठीक से बात भी नहीं कर पा रहा. ऋतु स्वयं को उपेक्षित फील करने लगी है.’’

‘‘पाइप लाइन की समस्या तो समझो हल हो ही गई. तुम अब ऋतु को क्वालिटी टाइम दो यानी जितनी देर उस के पास रहो उसे महसूस करवाओ कि तुम सिर्फ उसी के हो, उस की बेमतलब की समस्याओं या बातों को भी अहमियत दो.’’

‘‘यह क्वालिटी टाइम वाली बात आप ने खूब सुझाई जीजाजी, यानी सौ बरस की जिंदगी से अच्छे हैं प्यार के दोचार दिन.’’

‘‘लेकिन एक एहसास तुम्हें उसे और करवाना होगा राहुल कि उस की शख्सीयत फालतू नहीं है, उस की तुम्हारी जिंदगी में बहुत अहमियत है.’’

‘‘वह तो है ही जीजाजी और यह मैं उसे बताता भी रहता हूं, लेकिन वह समझती ही नहीं.’’

‘‘ऐसे नहीं समझेगी. तुम कह रहे थे न कि दिनेश साहब सार्वजनिक रूप से तुम्हारे योगदान की सराहना करेंगे. तब तुम इस सब का श्रेय अपनी पत्नी को दे देना. बात उस तक भी पहुंच ही जाएगी…’’

ये भी पढें- Serial Story: मैं जहां हूं वहीं अच्छा हूं

‘‘उद्घाटन समारोह में तो वह होगी ही. अत: स्वयं सुन लेगी और बात झूठ भी नहीं

होगी, क्योंकि जब से ऋतु मेरी जिंदगी में आई है मैं चाहता हूं कि मैं खूब तरक्की करूं और उसे सर्वसुख संपन्न गृहस्थी दे सकूं.’’

गोपाल ने राहत की सांस ली. उस ने राहुल को व्यस्तता और पत्नी के प्रति दायित्व निभाने का तालमेल जो समझा दिया था.

मां जल्दी आना: भाग-3

‘‘कहां हो भाई खानावाना मिलेगा… 9 बजने जा रहे हैं.’’ मैं ने अपने खुले बालों का जूड़ा बनाया और फटाफट किचन में जा पहुंची. देखा तो मां ने रात के डिनर की पूरी तैयारी कर ही दी थी बस केवल परांठे बनाने शेष थे. मैं ने फुर्ती से गैस जलाई और सब को गरमागरम परांठे खिलाए. सारे काम समाप्त कर के मैं अपने बैडरूम में आ गई. अमन तो लेटते ही खर्राटे लेने लगे थे पर मैं तो अभी अपने विगत से ही बाहर नहीं आ पाई थी. आज भी वह दिन मुझे याद है जब मां को देखने गई मैं वापस मां को अपने साथ ले कर लौटी थी. मुझे एअरपोर्ट पर लेने आए अमन ने मां के आने पर उत्साह नहीं दिखाया था बल्कि घर आ कर तल्ख स्वर में बोले,’’ ये सब क्या है विनू मुझ से बिना पूछे इतना बड़ा निर्णय तुम ने कैसे ले लिया.

‘‘कैसे मतलब… अपनी मां को अपने साथ लाने के लिए मुझे तुम से परमीशन लेनी पड़ेगी.’’ मैं ने भी कुछ व्यंग्यात्मक स्वर में उतर दिया था.

‘‘क्यों अब क्यों नहीं ले गया इन का सगा बेटा इन्हें अपने साथ जिस के लिए इन्होंने बेटी तो क्या दामादों तक को सदैव नजरंदाज किया.’’

‘‘अमन आखिर वे मेरी मां हैं… वह नहीं ले गया तभी तो मैं ले कर आई हूं. मां हैं वो मेरी ऐसे ही तो नहीं छोड़ दूंगी.’’ मेरी बात सुन कर अमन चुप तो हो गए पर कहीं न कहीं अपनी बातों से मुझे जता गए कि मां का यहां लाना उन्हें जंचा नहीं. इस के बाद मेरी असली परीक्षा प्रारंभ हो गई थी. अपने 20 साल के वैवाहिक जीवन में मैं ने अमन का जो रूप आज तक नहीं देखा था वह अब मेरे सामने आ रहा था.

ये भी पढ़ें- हाट बाजार: दो सरहदों पर जन्मी प्यार की कहानी

घर आ कर सब से बड़ा यक्षप्रश्न था हमारे 2 बैडरूम के घर में मां को ठहराने का. 10 वर्षीय बेटी अवनि के रूम में मां का सामान रखा तो अवनि एकदम बिदक गई. अपने कमरे में साम्राज्ञी की भांति अब तक एकछत्र राज करती आई अवनि नानी के साथ कमरा शेयर करने को तैयार नहीं थी. बड़ी मुश्किल से मैं ने उसे समझाया तब कहीं मानी पर रात को तो अपना तकिया और चादर ले कर उस ने हमारे बैड पर ही अपने पैर पसार लिए कि ‘‘आज तो मैं आप लोगों के साथ सोउंगी भले ही कल से नानी के साथ सो जाउंगी.’’

पर जैसे ही अमन सोने के लिए कमरे में आए तो अवनि को बैडरूम में देख कर चौंक गए.

‘‘लो अब प्राइवेसी भी नहीं रही.’’

‘‘आज के लिए थोड़ा एडजस्ट कर लो कल से तो अवनि नानी के साथ ही सोएगी.’’ मैं ने दबी आवाज में कहा कि कहीं मां न सुन लें.

‘‘एडजस्ट ही तो करना है, और कर भी क्या सकते हैं.’’ अमन ने कुछ इस अंदाज में कहा मानो जो हो रहा है वह उन्हें लेशमात्र भी पसंद नहीं आ रहा पर उन्हें इग्नोर करने के अलावा मेरे पास कोई चारा भी नहीं था. मां को सुबह जल्दी उठने की आदत रही है सो सुबह 5 बजे उठ कर उन्होंने किचन में बर्तन खड़खड़ाने प्रारंभ कर दिए थे. मैं मुंह के ऊपर से चादर तान कर सब कुछ अनसुना करने का प्रयास करने लगी. अभी मेरी फिर से आंख लगी ही थी कि अमन की आवाज मेरे कानों में पड़ी.

‘‘विनू ये मम्मी की घंटी की आवाज बंद कराओ मैं सो नहीं पा रहा हूं.’’ मैं ने लपक कर मुंह से चादर हटाई तो मां की मंदिर की घंटी की आवाज मेरे कानों में भी शोर मचाने लगी. सुबह के सर्दी भरे दिनों में भी मैं रजाई में से बाहर आई और किसी तरह मां की घंटी की आवाज को शांत किया. जब से मां आईं मेरे लिए हर दिन एक नई चुनौती ले कर आता. 2 दिन बाद रात को जैसे ही मैं सोने की तैयारी कर रही थी कि अवनि ने पिनपिनाते हुए बैडरूम में प्रवेश किया.

‘‘मम्मी मैं नानी के पास तो नहीं सो सकती, वे इतने खर्राटे लेती हैं कि

मैं सो ही नहीं पाती.’’ और वह रजाई तान कर सो गई. अमन का रात का कुछ प्लान था जो पूरी तरह चौपट हो गया था और वे मुझे घूरते हुए करवट ले कर सो गए थे बस मेरी आंखों में नींद नहीं थी. अगले दिन अमन को जल्दी औफिस जाना था पर जैसे ही वे सुबह उठे तो बाथरूम पर मां का कब्जा था उन्हें सुबह जल्दी नहाने का आदत जो थी. बाथरूम बंद देख कर अमन अपना आपा खो बैठे.

‘‘विनू मैं लेट हो जाऊंगा मम्मी से कहो हमारे औफिस जाने के बाद नहाया करें उन्हें कौन सा औफिस जाना है.’’

‘‘अरे औफिस नहीं जाना है तो क्या हुआ बेटा चाय तो पीनी है न और तुम जानते हो कि मैं बिना नहाए चाय भी नहीं पीती.’’ मां ने बाथरूम से बाहर निकल कर सफाई देते हुए कहा. जिंदगीभर अपनी शर्तों पर जीतीं आईं मां के लिए स्वयं को बदलना बहुत मुश्किल था और अमन मेरे साथ कोऔपरेट करने को तैयार नहीं थे. इस सब के बीच मैं खुद को तो भूल ही गई थी. किसी तरह तैयार हो कर लेटलतीफ बैंक पहुंचती और शाम को बैंक से निकलते समय दिमाग में बस घर की समस्याएं ही घूमतीं. इस से मेरा काम भी प्रभावित होने लगा था. मेरी हालत ज्यादा दिनों तक बैंक मैनेजर से छुपी नहीं रह सकी और एक दिन मैनेजर ने मुझे अपने केबिन में बुला ही भेजा.

ये भी पढ़ें- Mother’s Day 2020: सैल्फी- आखिर क्या था बेटी के लिए निशि का डर?

‘‘बैठो विनीता क्या बात है पिछले कुछ दिनों से देख रही हूं तुम कुछ परेशान सी लग रही हो. यदि कोई ऐसी समस्या है जिस में मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं तो बताओ. अपने काम में सदैव परफैक्शन को इंपोर्टैंस देने वाली विनीता के काम में अब खामियां आ रही हैं इसीलिए मैं ने तुम्हें बुलाया.’’

‘‘नहीं मैम ऐसी कोई बात नहीं है बस कुछ दिनों से तबियत ठीक नहीं चल रही है. सौरी अब मैं आगे से ध्यान रखूंगी.’’ कह कर मैं मैडम के केबिन से बाहर आ गई. क्या कहूं मैडम से कि बेटियां कितनी भी पढ़ लिख लें, आत्मनिर्भर हो जाएं पर अपने मातापिता को अपने साथ रखने या उन की जिम्मेदारी उठाने के लिए पति का मुंह ही देखना पड़ता है.

आगे पढ़ें- एक पति अपनी पत्नी से अपने मातापिता की सेवा करवाना…

Romantic Story In Hindi: प्रेम लहर की मौत- भाग 4

ये भी पढ़ें- प्रेम लहर की मौत: भाग-3

लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह 

असीम ने तो स्माइल की, पर मेरी आंखों से आंसू टपक पड़े. आंसू गिरते देख उस ने कहा, ‘‘प्लीज अनु, रोना मत.’’

  ‘‘नहीं, मैं बिलकुल नहीं रोऊंगी.’’ मैं ने कहा.

  ‘‘तुम्हें तो पता है अनु, तुम मेरे सामने बिलकुल झूठ नहीं बोल सकती, तो फिर क्यों बेकार की कोशिश कर रही हो. मैं तुम्हें अच्छी तरह से जानता हूं अनु. मुझे पता है कि तुम रोओगी, खूब रोओगी और मुझे यह हर्ट करेगा. जबकि मैं नहीं चाहता कि तुम मेरी वजह से रोओ, जी जलाओ.’’

तभी निकी का फोन आ गया कि ट्रेन के आने का एनाउंसमेंट हो गया है. हम दोनों एकदूसरे को देखते रहे. थोड़ी देर तक हमारे बीच मौन छाया रहा. अचानक असीम ने पूछा, ‘‘अनु, तुम कम से कम यह तो बता दो कि तुम जा कहां रही हो?’’

  ‘‘नहीं, अब मैं कुछ नहीं बताऊंगी. मेरा यह मोबाइल नंबर भी कल सुबह से बंद हो जाएगा. जहां भी जाऊंगी, नया नंबर ले लूंगी. अब अंत में सिर्फ इतना ही कहूंगी कि तुम खुश रहना, सुखी रहना और प्रियम को भी खुश और सुखी रखना, उसे खूब प्रेम करना और हमारी मुलाकात को एक सुंदर सपना समझ कर भूल जाना. इस के बाद हम स्टेशन पर आ गए. हमारे स्टेशन आतेआते टे्रन आ गई थी. उस के बाद जो हुआ, उसे आप ने देखा ही है.’’ कह कर अनु चुप हो गई.

मैं मन ही मन अनु के प्रेम, उस की संवेदनशीलता, उस की समर्पण भावना को सलाम करते हुए सोच रहा था कि काश! इसी तरह प्रेम करने वाली सुंदर लड़की मुझे भी मिल जाती तो मेरे लिए स्वर्ग इसी धरती पर उतर आता. सच बात तो यह थी कि अनु से मुझे प्यार हो गया था. मन कर रहा था, क्यों न मैं उस से अपने दिल की बात कह कर देखूं.

मैं मन की बात कहने का विचार कर ही रहा था कि उस ने एक ऐसी बात कह दी, जिस से मेरे मन में जो प्रेम पैदा हुआ था, उस की अकाल मौत हो गई थी. एक तरह से मेरा प्रेम पैदा होते ही मर गया था. उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मैं यह नौकरी छोड़ने की जो बात कर रही हूं, यह सब नाटक है. मैं ने न नौकरी छोड़ी है और न यह शहर छोड़ कर जा रही हूं.’’

  ‘‘क्या?’’ मैं एकदम से चौंका, ‘‘आप ने यह नाटक क्यों किया, आप ने इतना बड़ा झूठ क्यों बोला?’’

  ‘‘क्योंकि असीम और निकी ने सलाह कर के प्रियम नाम के झूठे करेक्टर को खड़ा कर के मेरे साथ नाटक किया, शायद उन्हें पता नहीं कि मैं उन दोनों से बड़ी नाटकबाज हूं.

  ‘‘अगर असीम मेरे बारे में सब जानता है, तो मैं भी बेवकूफ नहीं हूं कि उस के बारे में सब कुछ न जानती. मैं उस से प्रेम करने लगी थी तो उस के बारे में एकएक चीज का पता लगा कर ही प्रेम किया था. जिस दिन निकी ने मेरे सामने प्रियम का नाम ले कर मुझे चिढ़ाने और परेशान करने के लिए नाटक शुरू किया, उसी के अगले दिन ही मैं ने सच्चाई का पता लगा लिया था, क्योंकि मुझे तुरंत शक हो गया था.’’

  ‘‘कैसे?’’ मैं ने पूछा.

क्योंकि अगर प्रियम से असीम का प्यार चल रहा होता तो निकी इतने दिनों तक इंतजर न करती. क्योंकि उसे मेरे और असीम के प्रेम संबंध की एकएक बात पता थी. अगर असीम के जीवन में कोई प्रियम होती तो वह मुझे पहले ही बता कर असीम के साथ इतना आगे न बढ़ने देती.

अगले दिन मुझे इस का सबूत भी मिल गया था. निकी सुबह नहा रही थी तो उस का मोबाइल मेरे हाथ लग गया, उस में कुछ मैसेज थे, जिस से मेरा शक यकीन में बदल गया. बस, फिर मैं ने भी नाटक शुरू कर दिया.

ये भी पढ़ें- क्लब: भाग-3

मैं ने ऐसा नाटक किया कि उन्हें लगा मैं सचमुच बहुत दुखी हूं. मुझे तो सच्चाई पता थी. पर उन्हें पता नहीं था कि मैं भी नाटक कर रही हूं. इस खेल में मैं उन से ज्यादा होशियार निकली. क्योंकि वे दोनों मेरे आते वक्त तक सच्चाई उजागर नहीं कर पाए. अब उन्हें डर सता रहा है कि सच्चाई उजागर करने पर मैं उन पर खफा हो जाऊंगी?’

मैं ने अनु को बीच में रोक कर पूछा, ‘‘इस का मतलब आप ने नौकरी छोड़ी नहीं है, सिर्फ उन लोगों से कहा कि नौकरी छोड़ कर जा रही हो.’’

  ‘‘पागल हूं, जो नौकरी छोड़ देती. केवल एक सप्ताह की छुट्टी ले कर घर जा रही हूं. घर पहुंच कर फोन का सिम निकाल दूंगी. औफिस वालों को दूसरा नंबर दे आई हूं्. असीम मुझे परेशान करना चाहता था. बदले में मैं ने उसे सबक सिखाया. मैं उसे इतना प्यार करती हूं कि उस के बिना जी नहीं सकती. अगर सचमुच में प्रियम होती तो मैं आप को अपनी यह कहानी बताने के लिए न होती. किसी मानसिक रोगी अस्पताल में अपना इलाज करा रही होती.’’

  ‘‘सलाम है आप के प्रेम को, जब लौट कर  आओगी तो…’’

मेरी बात बीच में ही काट कर अनु ने कहा, ‘‘यही तो सरप्राइज होगा असीम के लिए.’’

अनु के बारे में सोचते हुए कब आंख लग गई, मुझे पता ही नहीं चला. मुझे असीम से ईर्ष्या हो रही थी. ट्रेन स्टेशन पर रुकी तो मेरी आंख खुली. पता चला ट्रेन कानपुर में खड़ी थी. अनु खड़ी हुई, अपना बैग और पर्स लिया और उतर कर निकास गेट की ओर बढ़ गई. वह जैसेजैसे दूर जा रही थी, मैं यही सोच रहा था, काश! सचमुच प्रियम होती, तो आज मेरे प्यार की अकाल बाल मौत न होती.

ये भी पढ़ें- प्रेम लहर की मौत: भाग-2

Romantic Story In Hindi: प्रेम लहर की मौत- भाग 3

पिछला भाग पढ़ने के लिए- प्रेम लहर की मौत: भाग-2

लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह 

  ‘‘ऐसा क्यों?’’

  ‘‘बिकाज…बिकाज… आई लव यू. अनु एंड आई नो दैट यू आलसो लव मी. इसी बात से डर लग रहा था कि प्रियम के बारे में पता चलने पर कहीं तुम्हें खो न दूं.’’

असीम की बात सुन कर मैं फफकफफक कर रो पड़ी. रोते हुए मैं ने कहा, ‘‘असीम तुम्हें पता है कि प्रियम तुम्हें कितना चाहती है और तुम भी उसे कितना चाहते हो. मात्र 4 महीने के अपने इस संबंध में तुम अपने और प्रियम के 4 सालों के प्यार को कैसे भुला सकोगे? और हमारे बीच संबंध ही क्या है?

  ‘‘असीम, आज भी तुम मात्र प्रियम को ही प्यार करते हो. जितना पहले करते थे, उतना ही, शायद उस से भी ज्यादा. वह अभी तुम्हारे पास यानी तुम्हारे साथ नहीं है. तुम उसे खूब मिस कर रहे हो.

  ‘‘ऐसे में मेरे प्रेम की वजह से तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम मुझे प्रेम करते हो. जबकि सच्चाई यह है कि तुम ने मुझे कभी प्रेम किया ही नहीं. तुम मुझ में प्रियम को खोजते हो. मेरा तुम्हारा केयर करना, तुम्हारी छोटीछोटी बातों का ध्यान रखना, तुम्हें लगता है तुम्हारे लिए यह सब प्रियम कर रही है. तुम्हें ऐसा लगा, इसीलिए तुम मेरे प्रति आकर्षित हुए. बट इट्स नाट लव. असीम, यू नाट लव मी.’’

  ‘‘पर अनु तुम…’’

  ‘‘मैं… यस औफकोर्स आई लव यू. आई लव यू सो मच.’’

  ‘‘तो क्या यह काफी नहीं है.’’

  ‘‘नहीं असीम, यह काफी नहीं है. प्रियम और तुम एकदूसरे को बहुत प्यार करते हो. हां, यह बात भी सच है कि मैं भी तुम्हें बहुत प्यार करती हूं. पर मैं इतनी स्वार्थी नहीं हूं कि अपने प्यार के लिए प्रियम के साथ धोखा करूं या धोखा होने दूं. नहीं असीम, मैं अपने सपनों का महल प्रियम की हाय पर नहीं खड़ा करना चाहती. इसीलिए मैं ने तय किया है कि मैं यहां से दूर चली जाऊंगी, तुम से बहुत ही दूर.’’

ये भी पढ़ें- Family Story: ममा मेरा घर यही है : रिश्ते के नाजुक धागों को क्या पारुल

  ‘‘अरे, तुम कहां और क्यों जाओगी? जरूरत ही क्या है यहां से कहीं जाने की?’’

  ‘‘क्यों जाऊंगी, कहां जाऊंगी, यह तय नहीं है. पर जाऊंगी जरूर, यह तय है.’’

  ‘‘प्लीज अनु, डोंट डू दिस यू मी. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.’’

  ‘‘असीम, मैं भी तुम से यही कहती हूं, डोंट डू दिस टू प्रियम, मात्र 4 महीने के प्रेम के लिए तुम 4 साल के प्रियम के प्रेम को कैसे भूल सकते हो. उस के प्रेम की कुर्बानी मत लो असीम.’’

  ‘‘अनु, तुम ने जो निर्णय लिया है, बहुत सही लिया है.’’ निकी ने कहा.

मैं निकी के गले लग कर खूब रोई. उस ने भी मुझे रोने दिया. रोने से दिल हलका हो गया. उस रात मैं ने कुछ नहीं खाया. निकी ने मुझे बहुत समझाया, पर कौर गले के नीचे नहीं उतरा. मैं सो गई. सुबह उठी तो काफी ठीक थी. फ्रैश हो कर मैं औफिस गई.

मैं ने व्यक्तिगत कारणों से नौकरी छोड़ने की बात लिख कर एक महीने का नोटिस दे कर नौकरी से इस्तीफा दे दिया. बौस और सहकर्मियों ने पूछा कि बात क्या है, बताओ तो सही, सब मिल कर उस का हल निकालेंगे, पर मैं अपने निर्णय पर अडिग रही.

उस के बाद मैं कैसे जी रही हूं, मैं ही जानती हूं. जीवन जैसे यंत्रवत हो गया है. हंसना बोलना तो जैसे भूल ही गई हूं. कलेजा अंदर ही अंदर फटता है. मेरी व्यथा या तो मैं जानती हूं या फिर निकी, हां कुछ हद तक असीम भी. किसी तरह 20 दिन बीत गए. इस बीच मैं ने न तो असीम को फोन किया और न मैसेज.

उस के फोन भी आ रहे थे अैर मैसेज भी. पर मैं न फोन उठा रही थी और न मैसेज के जवाब दे रही थी. मैं जानती थी कि उस की भी मेरी जैसी ही व्यथा है. इसलिए मैं ने निकी से कहा कि वह उस के कांटैक्ट में रहे. मेरे साथ तो निकी थी. लेकिन वह तो एकदम अकेला था.

एक दिन उस ने निकी से बहुत रिक्वेस्ट की तो निकी ने मुझ से कहा कि असीम से बात कर लो. मैं ने बात की तो असीम ने कहा, ‘‘अनु, मैं ने जब गंभीरता से विचार किया तो तुम्हारी बात सच निकली, सचमुच मैं आज भी प्रियम को उतना ही प्यारर करता हूं. उस की कमी मुझे खूब खलती है. पर अनु तुम…? हमने इतना समय साथ बिताया, तुम मुझ से काफी जुड़ गई थीं, मुझे तुम्हारी बहुत चिंता हो रही है.’’

ये भी पढ़ें- एक नारी ब्रह्मचारी: पति वरुण की हरकतों पर क्या था स्नेहा का फैसला

  ‘‘इट्स ओके असीम, आई एम फाइन. तुम मेरी जरा भी चिंता मत करो. मैं इतनी डरपोक या कमजोर नहीं कि खुद को किसी तरह का नुकसान पहुंचाऊं या आत्महत्या जैसी कायराना हरकत के बारे में सोचूं. असीम, मुझे मरना नहीं जीना है, तुम्हारे प्रेम में. और मैं जीऊंगी भी. मैं जानती हूं कि ऐसी स्थिति में मरना बहुत आसान है, जीना बहुत मुश्किल. पर तुम्हारी चाहत और प्रेम को मैं अपने हृदय में संभाल कर जीऊंगी. मैं भले ही तुम्हारा प्रेम नहीं पा सकी, पर तुम्हें, मात्र तुम्हें प्रेम करती हूं और इसी प्रेम के साथ जी सकती हूं.’’ कह कर मैं ने फोन काट दिया.

नोटिस के दौरान मैं ने अपने लिए दूसरे शहर में नौकरी तलाश ली थी. रहने के लिए जगह की भी व्यवस्था कर ली थी. दो दिन पहले असीम का फोन फिर आया. उस ने मुझ से मिलने की इच्छा प्रकट की. मैं मना नहीं कर सकी. मैं ने कहा कि हम स्टेशन पर मिलेंगे. उस की ट्रेन साढ़े 10 बजे आती थी और मेरी टे्रन साढ़े 12 बजे की थी. हमारे पास 2 घंटे का समय था. अंतिम मुलाकात के लिए इतना समय पर्याप्त था.

अनु ये बातें कर रही थी, तभी न जाने क्यों मुझे लगा कि मैं उस के प्रेम, उस की संवेदनशीलता की ओर आकर्षित होने लगा हूं. शायद उसे प्रेम करने लगा हूं. पर उस समय चुपचाप उस की बातें सुनने के अलावा मैं कुछ नहीं कर सकता था. मेरा मूक श्रोता बने रहना ही उचित था. मैं सिर्फ उस की बातें सुनता रहा. उस ने अपनी और असीम की अंतिम मुलाकात की बातें बतानी शुरू कीं.

असीम की ट्रेन 15 मिनट लेट थी. इसलिए उस की ट्रेन पौने 11 बजे आई. मैं अपना सामान ले कर निकी के साथ 10 बजे ही स्टेशन पर पहुंच गई थी. असीम आया, मैं ने उस से हाथ मिलाया. हम स्टेशन के सामने वाले रेस्टोरेंट में कोने की मेज पर आमनेसामने बैठे. सुबह का समय था इसलिए ज्यादा चहलपहल नहीं थी.

हम दोनों की स्थिति ऐसी थी कि दोनों एक शब्द भी नहीं बोल पा रहे थे. फिर भी बात शुरू हुई. उस ने मेरा हाथ हलके से हथेली में ले कर कहा, ‘‘अनु, आई एम वेरी सौरी, मेरी वजह से तुम्हें यह तकलीफ सहन करनी पड़ रही है.’’

  ‘‘प्लीज असीम, डू नाट से सौरी. मेरे नसीब में तुम्हारा बस इतना ही प्यार था. और हां, हम ने साथ बिताए समय के दौरान अगर कभी तुम्हें मेरे लिए, मात्र मेरे लिए सहज भी प्रेम महसूस हुआ हो तो उसी प्रेम की कसम, तुम कभी भी मेरे लिए गिल्टी कांसेस फील मत करना. प्रियम को खूब प्रेम करना. प्रियम को खुश होते देख, समझना मैं खुश हो रही हूं. मुझे पूरा विश्वास है कि तुम मेरी कसम नहीं तोड़ोगे. अब एक बढि़या सी स्माइल कर दो.’’

आगे पढ़ें- असीम ने तो स्माइल की, पर…

ये भी पढ़ें- Romantic Story: ड्रीम डेट- आरव ने कैसे किया अपने प्यार का इजहार

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें