विमोहिता: कैसे बदल गई अनिता की जिंदगी

बनफूल: भोग की वस्तु बन गयी सुनयना

अपने बारे में बताने में मुझे क्या आपत्ति हो सकती है? जेलर से आप के बारे में सुना है. 8-10 महिला कैदियों से मुलाकात कर उन के अनुभव आप जमा कर एक किताब प्रकाशित कर रहे हैं न? मैं चाहूं तो आप मेरा नाम पता गोपनीय भी रखेंगे, यही न? मुझे अपना असली नाम व पता बताने में कोई आपत्ति नहीं.

आप शायद सिगरेट पी कर आए हैं. उस की गंध यहां तक आ रही है. नो…नो…माफी किस बात की? मुझे इस की गंध से परहेज नहीं बल्कि मैं पसंद करती हूं. शंकर के पास भी यही गंध रचीबसी रहती थी.

अरे हां, मैं ने बताया ही नहीं कि शंकर कौन है? चलिए, आप को शुरू से अपनी रामकहानी सुनाती हूं. खुली किताब की तरह सबकुछ कहूंगी, तभी तो आप मुझे समझ सकेंगे. मेरे नाम से तो आप परिचित हैं ही सुनयना…जमाने में कई अपवाद…उसी तरह मेरा नाम भी…

बचपन में मेरे गुलाबी गालों पर मां चुंबनों की झड़ी लगा देतीं, मुझे भींच लेतीं. उन के उस प्यार के पीछे छिपे भय, चिंता से मैं तब कितनी अनजान थी.

सुनयना मुझे देख कर पलटती क्यों नहीं है? खिलौनों की तरफ क्यों नहीं देखती? हाथ बढ़ा कर किसी चीज को लेने के लिए क्यों नहीं लपकती? जैसे कई प्रश्न मां के मन में उठे होंगे, जिस का जवाब उन्हें डाक्टर से मिल गया होगा.

‘‘आप की बेटी जन्म से ही दृष्टिहीन है. इस का देख पाना असंभव है.’’

उस दिन मां के चुंबन में पहली वाली मिठास नहीं थीं. वह मिठास जाने कहां रह गई?

‘‘यह क्या हुआ कि बच्ची पेट में थी तो इस के पिता नहीं रहे. फिर इस के जन्म लेते ही इस की आंखे भी चली गईं,’’ यह कह कर मां फूटफूट कर रो पड़ी थीं.

बचपन से मैं देख नहीं पा रही हूं, ऐसा डाक्टर ने कहा था. देखना, मतलब क्या? मैं आज तक उन अनुभवों से वंचित हूं.

मुझे कभी कोई परेशानी आड़े नहीं आई. मां कमरे में हैं या नहीं, मैं जान सकती थी. किस तरफ हैं ये भी झट पहचान सकती थी. आप ही बताइए, मां से कोई शिशु अनजान रह सकता है भला? मैं घुटनों के बल मां के पास पहुंच जाती थी. बड़े होने पर मां ने कई बार मुझ से यह बात कही है. एक बार मां मुझे उठा कर बाहर घुमाने ले आई थीं. अनेक आवाजों को सुन मैं घबरा गई थी. मैं ने मां को कस कर पकड़ लिया था.

अरे, घबरा मत. कुत्ता भौंक रहा है. यह आटो जा रहा है. उस की आवाज है. वह सुन, सड़क पर बस का भोंपू बज रहा है. वहां पक्षियों की चहचहाहट…सुनो, चीक…चीक की आवाज…और कौवे की कांव…कांव…

तब से ध्वनि ने मेरे नेत्रों का स्थान ले लिया था.

चपक…चपक, मामाजी की चप्पल की आवाज. टन…टन घंटी की आवाज. टप…टप नल में पानी…

मेरी एक आंख ध्वनि तो दूसरी उंगलियों के पोर…स्पर्श से वस्तुओं की बनावट पहचानने लगी. अपनी मां को भी छू कर मैं देख पाती. उन के लंबे बाल, उन की भौंहें, उन का ललाट…उन की नाक उन की गरमगरम सांसें…मामाजी की मूंछों से भी उसी तरह परिचित थी. मैं  मामी के कदमों की आहट, उन के जोरजोर से बात करने के अंदाज से समझ जाती कि मामी पास में ही हैं. अक्षरों को भी मैं छू कर पहचान लेती.

मां मुझे रिकशे में बैठा कर स्कूल ले जातीं. स्कूल उत्साह व उमंग का स्थान, मेरे लिए ध्वनि स्थली थी. मैं खुश थी बेहद खुश…दृष्टिहीन को उस के न होने का एहसास आप कैसे दिला सकोगे कहिए?

एक दिन घर के आंगन में अजीब सी आवाजों का जमघट था. उन आवाजों को चीरते हुए मैं भीतर गई. पांव किसी से टकराया तो मैं गिर पड़ी. मैं एक शरीर के ऊपर गिरी थी. हाथ लगते ही पहचान गई.

‘‘मां…मां, आज क्यों कमरे के बीचोंबीच जमीन पर लेटी हैं? मैं आप पर गिर पड़ी. चोट तो नहीं लगी न मां?’’

घबराहट में मैं ने उन के चेहरे पर उंगलियां फेरी, उन का माथा, बंद पलकें, नाक पर वह गरम सांसें जो मैं महसूस करती थी आज न थीं. मेरी उंगलियां वहीं स्थिर हो गईं.

मां…मां. मैं ने उन के गालों को थपथपाया. कान पकड़ कर खींचे. पर मां की तरफ से कोई प्रत्युत्तर न पा कर मैं ने मामी को पुकारा.

मामी मुझे पकड़ कर झकझोरते हुए बोलीं, ‘‘अभागन, मां को भी गंवा

बैठी है.’’

मामाजी ने मुझे गले लगाया और फूटफूट कर रोने लगे.

मैं ने मामाजी से पूछा, ‘‘मां क्यों जमीन पर लेटी थीं? मां को क्या हुआ? उन का चेहरा ठंडा क्यों पड़ गया था? उठ कर उन्होंने मुझे गले क्यों नहीं लगाया?’’

मामाजी की रुलाई फूट पड़ी, ‘‘हे राम, मैं इसे क्या समझाऊं? बेटा, मां मर चुकी हैं.’’

मरना क्या होता है, मैं तब जानती

न थी.

दृष्टिहीन ही नहीं, शरीरविहीन हो कर किसी दूसरे लोक का भ्रमण ही मृत्यु कहलाता है, यह मुझे बाद में पला चला.

मैं करीब 12 साल की थी. मेरे शरीर के अंगों में बदलाव होने लगे.

मामी ने एक दिन तीखे स्वर में मामा से कहा, ‘‘वह अब छोटी बच्ची नहीं रही. आप उसे मत नहलाना.’’

मैं स्वयं नहाने लगी. अच्छा लगा. नया अनुभव, पानी का मेरे शरीर को स्पर्श कर पांव की तरफ बहना. उस की ठंडक मुझ में गुदगुदाहट भर देती.

एक दिन मैं कपड़े बदल रही थी. मामाजी के पांव की आहट…वे जल्दी में हैं, यह उन की सांसें बता रही थीं.

‘‘क्या बात है मामाजी?’’

वे मेरे सामने घुटनों के बल बैठे.

‘‘सुनयना,’’ उन की आवाज में घबराहट थी. कंपन था. उन्होंने मेरी छाती पर अपना मुंह टिकाया और मुझे भींच लिया. मेरी पीठ पर उन के हाथ फिर रहे थे. उंगलियों में कंपन था.

‘‘मामाजी क्या बात है?’’ उन के बालों को सहलाते हुए मैं ने पूछा. उन का स्पर्श मुझे भी द्रवित कर रहा था मानो चाशनी हो.

‘‘ओफ, कितनी खूबसूरत हो तुम,’’ कहते हुए उन्होंने मेरे होंठों को चूमा. उन्होंने अनेक बार पहले भी मुझे चूमा था पर न जाने क्यों उन के इस स्पर्श में एक आवेग था.

‘‘हाय…हाय,’’ मामी के चीखने की आवाज सुनाई दी. मामाजी छिटक कर मुझ से दूर हुए. मामी ने मुझे परे ढकेला.

‘‘कितने दिनों से यह सब चल रहा है?’’

‘‘पारो, चीखो मत, मुझे माफ करो. ऐसी हरकत दोबारा नहीं होगी.’’

मामा की आवाज क्यों कांप रही है? अब क्या हुआ जो माफी मांग रहे हैं? मेरी समझ में कुछ नहीं आया था.

‘‘चलो, मेरे साथ,’’ कहते हुए मामी मुझे खींच कर बाहर ले गईं. मुझे उसी दिन मदर मेरी गृह में भेज दिया गया.

खुला मैदान… हवादार कमरे, अकसर प्रार्थनाएं और गीत सुनाई पड़ते थे. फादर तो करुणा की कविता थे. स्नेह…स्नेह और स्नेह… इस के सिवा कुछ जानते ही नहीं थे. वे सिर पर उंगलियों का स्पर्श करते तो लगता फादर के  रूप में मुझे मेरी मां मिल गई हैं.

वहां के कर्म-चारी मेरे कमरे में आते तो कह उठते, ‘‘तुम कितनी खूब-सूरत हो,’’ मैं संकोच से घिर जाती थी.

आप भी शायद मुझे देख यही सोचते होंगे, है न? पर खूबरसूरती तो मेरे लिए आवाज, रोशनी व गहन अंधकार का पर्याय है. ध्वनि खूबसूरत वस्तु है पर सभी कहते हैं पहाड़, झरने, फूल, तितली, पेड़पौधे खूबसूरत होते हैं, उस का मुझे क्या अनुभव हो सकता है भला.

बिना देखे, बिना जाने मुझे खूबसूरत कहना क्या दर्शाता है? स्नेह को…है न?

जरा अपना हाथ तो बढ़ाइए. कस कर हाथ पकड़ने से क्या आप को महसूस नहीं होता कि हम दोनों अलगअलग नहीं एक ही हैं. कुछ प्रवाह सा मेरे शरीर से आप के भीतर व आप के शरीर से मेरे भीतर आता हुआ महसूस होता है न? मेरी आंखों से आंसू बहने लगते हैं. लगता है सांसें थम जाएंगी. देख रहे हैं न मेरी आवाज लड़खड़ा रही है? इस से खूबसूरत और कौन सी चीज हो सकती है मेरे लिए भला?

वहां के शांत और स्नेह भरे वातावरण में पलीबढ़ी मैं. कुछ लड़कियां मेरी खास सहेलियां बन गई थीं. वे अकसर कहतीं, ‘‘ओफ, तू बला की खूबसूरत है, तुम्हारी त्वचा चमकती रहती है, कितनी कोमल हो तुम. और होंठों के पास यह काले तिल…’’ वे सभी मुझे छूछू कर देखतीं और तृप्त होतीं.

मेरे पास कुछ है जो इन्हें संतुष्टि प्रदान कर रहा है, इस से बढ़ कर खुशी और क्या हो सकती है?

मैं जिसे अपनी उंगलियों से, ध्वनि, गंध से महसूस नहीं कर पा रही हूं वही दृष्टि नामक किसी चीज से ये जान लेते हैं, यह विचार मुझे तड़पा गया.

मैं ने अपनी तड़प का इजहार फादर से किया तो उन्होंने बड़े प्यार से मेरे बालों को सहलाते हुए समझाया, ‘‘माय चाइल्ड, जान लो कि दुनिया में रोशनी से बेहतर अंधेरा ही है. रोशनी में सब अलगथलग होते हैं, गोरी चमड़ी अलग नजर आएगी, इस की चमक अलग से दिखेगी, तिल की सुंदरता अलग, क्या इस में अहंकार नहीं? अंधेरे में सभी एकाकार हो जाते हैं. वहां चेहरा खूबसूरत, गोरी चमड़ी माने नहीं रखती. व्यक्ति का स्नेह ही सबकुछ होता है. सच्चा प्यार भी वैसा ही होता है सुनयना. वह खूबसूरत, चमकदमक का गुलाम नहीं होता. आंखों के होते हुए भी सच्चे प्रेम व प्रीत को लोग देख नहीं पाते, कितने अभागे होंगे वे? तुम्हारी दृष्टिहीनता कुदरत का दिया वरदान है.’’

माफ कीजिएगा, फादर के बारे में कहते समय मैं चाह कर भी अपने आंसू नहीं रोक पाती. उसी दिन समझ सकी स्नेह भेदरहित होता है और ये खुले हाथ बांटने की चीज हैं.

कालिज का आखिरी दिन था. फादर ने मुझे बुला भेजा.

‘‘सुनयना, इन से मिलो. मिस्टर शंकर…’’

शंकर का कद मुझ से अधिक है यह मैं उस की सांसों से पहचान गई. मेरे दोनों हाथों को पकड़ कर उस ने दबाया, उस दबाव में कुछ भिन्नता थी.

‘‘शंकर इलेक्ट्रानिक्स इंजीनियर है सुनयना, इस का बचपन गरीबी व तंगहाली में बीता था. अपनी मेहनत के बलबूते पर वह आज इस मुकाम पर पहुंचा है. उस ने अकसर तुम्हें देखा है. वह तुम्हें पसंद करता है, शादी करना चाहता है,’’ फादर ने बिना लागलपेट के पूरी बात साफसाफ कह दी.

शादी अर्थात शंकर मेरा जीवनसाथी बनेगा, जीवन भर मुझे सहारा देगा. मैं ने अभी तक स्नेह लुटाया है…शंकर का पहला स्पर्श कितनी ऊष्णता लिए हुए था. मुझे वह स्पर्श भा गया था.

मैं ने एकांत में शंकर से बातचीत करने की इच्छा जाहिर की. मुझे यह जानने की उत्सुकता थी कि इस ने मुझ दृष्टिहीन को क्यों अपनी जीवनसंगिनी चुना? शंकर की आवाज मधुरता लिए हुए थी. उस ने अपने जीवन का ध्येय बताया. खुद कष्टों को सहने के कारण किसी के काम आना, तकलीफ उठाने वालों की वह मदद करना चाहता था. मैं ने उसे छू कर देखने की इच्छा जाहिर की. उस ने मेरे हाथों को अपने चेहरे पर रख लिया.

शंकर का उन्नत ललाट, घनी भौंहें, लंबी नाक, घनी मूंछें और वे होंठ…मैं इन होंठों को चूम लूं?

शंकर ने मना कर दिया. कहने लगा, ‘‘सभी देख रहे हैं.’’

फादर से मैं ने अपनी सहमति प्रकट की. फादर ने अपनी तरफ से शंकर के बारे में जांचपड़ताल कर ली थी. ‘‘माई चाइल्ड, भले घर का बेटा है. तुम बहुत खुशकिस्मत हो,’’ उन्होंने कहा था.

हमारी शादी फादर के सामने हो गई.

‘‘शंकर, सुनयना बेहद भोली व नादान है. इसे संभालना. इस का ध्यान रखना,’’ फादर ने कहा, फिर मेरी तरफ मुड़ कर मेरे माथे को उन्होंने चूमा. मैं उन के कदमों पर गिर पड़ी. मां के बिछुड़ने पर जिस अवसाद से मैं अनजान थी, उस का अनुभव मुझे हो गया था.

शंकर के साथ मेरी जिंदगी सुचारु रूप से चल रही थी. सांझ ढले एक दिन मैं बिस्तर पर बैठी बुनाई कर रही थी. समीप पदध्वनि… यह शंकर नहीं कोई और है.

‘‘कौन है?’’ चेहरे को उस तरफ घुमा कर मैं ने पूछा.

‘‘सुनयना, मेरा मित्र है जय…जय आओ बैठो न.’’

जय बिस्तर पर मेरे पास आ कर बैठा. उस की सांसें तेजी से चल रही थीं.

‘‘सुनयना, जय का इस दुनिया में कोई नहीं है. मैं इसे अपने साथ ले आया हूं. कुछ समय तुम्हारे पास रहेगा तो अपने अकेलेपन को भूल जाएगा,’’ शंकर ने कहा और मेरा हाथ उठा कर उस के कंधे पर रखा.

मैं ने उस के कंधों को पकड़ा. तभी शंकर यह कह कर बाहर चला गया कि मैं एक जरूरी काम से जा रहा हूं.

जय के चेहरे को मैं ने अपने कंधे पर टिका लिया. उस ने मुझे सहलाया, प्यार पाने की कसक…अकेलेपन की वेदना. बेचारे इस जय का दुनिया में कोई नहीं, दुखी, पीडि़त, उपेक्षित है यह. मैं ने उसे गोदी में डाल सहलाया. कुत्ते व बिल्लियों को गोदी में डाल कर सहलाने में जो तृप्ति मुझे मिलती थी वही तृप्ति मुझे तब भी मिली थी. जय ने चुंबनों की झड़ी लगा दी.

जय कैसा दिखता होगा यह जानने की उत्सुकता हुई. मैं ने उस के चेहरे को सहलाया. होंठों को छूते समय मेरी उंगलियों को उस ने धीमे से काट लिया. मेरे उभारों पर उस के हाथ फिसलने लगे.

समीप आ कर उस ने मुझे कस कर भींच लिया. शादी होते ही शंकर ने भी मुझे ऐसे ही भींचा था न. वस्त्रविहीन शरीर पर उस ने हाथ फेरा था. कहा था कि स्नेह जाहिर करने का यह भी एक तरीका है. शायद शंकर की ही तरह जय भी है.

सिर से पांव तक एक विद्युत की लहर दौड़ पड़ी. क्या अजीब अनुभव था वह. वह भी मुझ में समा जाने के लिए बेकरार था.

शंकर के अलावा किसी और को मैं आज देख सकूंगी, यह विचार काफी रसदायक लगा.

अंधेरे में अहंकार नहीं होता. मैं का स्थान नहीं, सभी एकाकार हो जाते हैं. इन बातों को मैं ने केवल सुना था, अब इस का अनुभव भी प्राप्त हो गया. पहले शंकर से यह अनुभव मिला, अब जय से.

2 घंटे बाद शंकर लौटा.

‘‘मुझ से नाराज हो सुनयना?’’

‘‘नहीं तो, क्यों?’’

‘‘जय आ कर गया.’’

‘‘छी…छी…कैसी बातें करते हैं. मुझे संसार के सभी स्त्रीपुरुषों को देखने की इच्छा है. कितनी खुश हूं जानते हो, आज मैं ने जय को देखा…जाना.’’

फिर शंकर अकसर अपने नएनए मित्रों के साथ आने लगा. हर बार एक नए मित्र से मेरा परिचय होता.

‘तुम कितनी खूबसूरत हो,’ कह कर कुछ जनून भरा स्पर्श भी मैं ने महसूस किया. कुछ स्पर्श शरीर को चुभ जाते. कुत्ते या बिल्ली के साथ खेलते समय एकाध बार उस का पंजा या दांत चुभ ही जाता है न, उसी तरह का अनुभव हर एक बार एक नया अनुभव.

एक दिन मैं वैसा ही कुछ नया अनुभव प्राप्त कर रही थी तब वह घटना घटी. दरवाजे के उस तरफ जूतों की ध्वनि…दरवाजा खटखटाने की आवाज, ‘‘पुलिस,’’ दरवाजा खोलो.

‘‘राजू, जा कर दरवाजा खोलो न, पुलिस आई है,’’ मैं ने अंगरेजी में कहा. वह बंगाली था.

राजू गुस्से में मुझे परे ढकेल कर खड़ा हो गया. मैं ने ही जा कर दरवाजा खोला.

‘‘तुम शंकर की कीप हो न? तुम्हारा पति तुम्हें रख कर धंधा करता है, यह सूचना हमें मिली है. तुम्हें गिरफ्तार किया जाता है.’’

बाद में पता चला शंकर अपनी फैक्टरी का लाइसेंस पाने के लिए, अपने उत्पादों को बड़ीबड़ी कंपनियों में बेचने का आर्डर प्राप्त करने के लिए मेरा इस्तेमाल कर रहा था. लोगों की बातों से मैं ने जाना.

न जाने कौनकौन से सेक्शन मुझ पर लगे. मुझे दोषी करार दिया गया. शंकर ने अपनी गलती स्वीकार कर ली थी यह भी मुझे बाद में मालूम पड़ा.

‘‘भविष्य में सुधर कर इज्जत की जिंदगी बसर करोगी?’’ न्यायाधीश ने पूछा?

‘‘मुझे आजाद करोगे तो फिर से स्नेह को ही खोजूंगी,’’ मेरा उत्तर सुन न्यायाधीश ने अपना निर्णय स्थगित कर रखा है.

नहीं…नहीं जेल के भीतर मुझे कोई कष्ट नहीं. मैं यहां भी खुश हूं. अंधेरे में कहीं भी रहूं क्या फर्क पड़ता है या किसी के साथ भी रहूं क्या फर्क

पड़ता है?

बताइए तो आप मेरे बारे में क्या लिखने वाले हैं? आप का नाम? मैं तो भूल ही गई कुछ अनोखा नाम था आप का…हां, याद आया प्रजनेश…यस…कहिए आप की आवाज क्यों भर्रा रही है? आप की आंखों में आंसू?

प्लीज…मत रोइएगा. रोने के लिए थोड़ी न हम पैदा हुए हैं. आप के आंसुओं को रोकने के लिए मैं क्या करूं? आप को चूमूं?

पराया लहू- भाग 4: मायके आकर क्यों खुश नहीं थी वर्षा

अब दोनों के बीच में अदृश्य दीवार खड़ी हो गई. वर्षा मन ही मन कुढ़ती रहती. उस का मन अब सुधीर से बोलने को भी नहीं होता था. वह उस के प्रश्नों का उत्तर हां या न में दे कर सामने से हट जाती व अपनी तरफ से कोई बात नहीं करती.

भरत भी उस की आंखों में चुभने लगा था. उस का मन विद्रोह कर बैठता, ‘जब सुधीर उस के लव को नहीं स्वीकारता तो वही क्यों भरत को छाती से लगाती रहे? पराए जाए अपने तो नहीं बन सकते, भरत से कौन सा उस का लहू का रिश्ता है? बड़ा हो कर भरत भी उसे आंखें दिखाने लगेगा. फिर वह उसे अपना क्यों समझे?’

दोनों के मध्य पनपता अवरोध मांजी की पैनी निगाहों से नहीं छिप सका. वह बारबार पूछने लगीं, ‘‘बहू, जब से तुम मायके से लौटी हो तुम ने हंसना बंद कर दिया है. यह उदासी तुम्हारे होने वाले बच्चे के लिए अच्छी नहीं.’’

वर्षा खुद को सामान्य दिखाने का प्रयास करती रहती पर मांजी संतुष्ट नहीं हो पाती थीं.

कभी वह कुरेदतीं, ‘‘सुधीर ने कुछ कहा है क्या? वह भी आजकल खामोश रहता है. तुम दोनों में कोई अनबन तो नहीं हो गई?’’

वर्षा ने उन्हें इस डर से सबकुछ नहीं बताया कि मांजी ही कौन सी उस की सगी हैं. जब सुधीर ही उस का दर्द नहीं समझा तो मांजी कैसे समझेंगी.

वह मांजी से भी दूर रह कर अंतर्मुखी बनने लगी. एक सुबह उठ कर मांजी ने घर में ऐलान किया कि वे हरिद्वार गंगा स्नान को जाएंगी. प्रौढ़ावस्था में उन्हें मोहमाया के बंधन तोड़ कर आत्मिक शांति पाने के प्रयास शुरू करने हैं. मांजी का यह कथन सभी को अटपटा लगा क्योंकि वे अब तक धर्म, कर्म तथा पंडेपुजारियों को पाखंड की संज्ञा देती आई थीं पर हरिद्वार जाने पर आपत्ति किसी ने नहीं दिखाई. सुधीर ने भी कह दिया, ‘‘इसी बहाने प्राकृतिक दृश्यों को देख कर तुम्हारा स्वास्थ्य उत्तम हो जाएगा.’’

मांजी कार में बैठ कर अकेली ही हरिद्वार रवाना हो गईं. इस के बाद तो हरिद्वार जाना उन का नियम सा बन गया. वह महीने में 2-4 चक्कर हरिद्वार के लगाने लगीं.

वर्षा यह सोच कर अब और अधिक क्षुब्ध रहने लगी कि कैसे मांबेटे हैं जिन्हें सिर्फ अपने शौैकसिंगार व स्वास्थ्य का ही खयाल है, किसी और की जरा सी भी चिंता नहीं है. कम से कम मांजी को तो लव के बारे में कुछ पूछना चाहिए था, पर मांजी भी स्वार्थी ठहरीं. एक दिन उस ने फिर से मेरठ जाने का निश्चय किया. सुधीर से छिपा कर कुछ रुपए भी पर्स में रख लिए, सोचा कि लव की दवाइयां खरीदने में काम आ जाएंगे.

थोड़ी नानुकुर के बाद सुधीर ने उसे मेरठ जाने की इजाजत दे दी पर ड्राइवर को खूब समझा दिया कि उसे आज ही वर्षा को साथ ले कर लौटना है.

भरत को इस बार सुधीर ने नहीं जाने दिया. बहला दिया कि मां रात तक तो वापस लौट ही आएगी. सुधीर के कठोर व्यवहार से आहत वर्षा, रास्ते भर आंसू पोंछती रही.

मां और भाभी उसे देखते ही स्वागत के लिए लपकीं, लेकिन वर्षा तो अपने लव को हृदय से लगाने को व्याकुल थी, इसलिए घर में घुसते ही उतावलेपन से सीढि़यों की तरफ दौड़ पड़ी. परंतु छत पर पहुंचते ही जैसे उसे काठ मार गया, क्योंकि लव का कमरा खाली था. उस का बिस्तर व कोई सामान भी दिखाई नहीं दे रहा था. वह चकित सी खड़ी सोचती रही, कहां गया लव?

उस के मन में सैकड़ों आशंकाएं तैर उठीं, कहीं लव को कुछ हो तो नहीं गया?

मां व भाभी दोनों, उस के पीछेपीछे सीढि़यां चढ़ कर ऊपर आ पहुंचीं. वर्षा उन की तरफ मुड़ी व बदहवासी में चिल्लाने लगी, ‘‘मां, बताओ मेरे लव को क्या हुआ? वह कहां चला गया? तुम ने मुझे उस के बारे में कभी पत्र में भी कुछ नहीं लिखा. क्या हुआ मेरे बेटे को…’’ वह रो पड़ी.

‘‘दीदी, हमारी भी तो सुनो,’’ भाभी उस के आंसू पोंछने लगीं.

‘‘क्या तुम्हारी सास ने कभी कुछ नहीं बताया?’’

‘‘नहीं, वह क्यों बताएंगी? उन्हें लव से क्या लेनादेना? कहां है लव…’’

‘‘तुम्हारी सास ने उसे उचित देखभाल के लिए अस्पताल में भर्ती करा दिया है. वह कई बार यहां आ चुकी हैं व लव के इलाज पर पानी की तरह पैसा बहा रही हैं.’’

वर्षा घोर आश्चर्य से जकड़ गई कि क्या ऐसा होना संभव है? पर मांजी को लव की बीमारी के बारे में कैसे पता लगा? कहीं उन्होंने छिप कर तो नहीं सुन लिया था?

वह उसी वक्त अस्पताल जाने के लिए उतावली हो उठी, पर मां ने जबरदस्ती उसे एक प्याला चाय पिला दी. फिर उस के साथ सभी लोग अस्पताल पहुंच गए.

लव साफसुथरे वस्त्र पहने स्वच्छ सफेद शैया पर लेटा हुआ था, मां को देखते ही उठने का प्रयास करने लगा. वर्षा ने उसे सहारा दे कर बिठाया व स्नेह से उस का मुंह चूमने लगी, ‘‘मेरा राजा बेटा, ठीक तो है न?’’

वह लव को पहले की अपेक्षा स्वस्थ देख कर संतुष्टि का आभास कर रही थी.

‘‘दादीमां नहीं आईं?’’ लव इधरउधर देख कर पूछ बैठा.

‘‘वह आएंगी, बेटे,’’ वर्षा उसे प्रसन्न देख कर खुशी से गद्गद हुई जा रही थी.

‘‘देखो, दादी मां ने मुझे कितने पैसे दिए हैं, खिलौने व मिठाइयां भी दिलवाई हैं,’’ लव सारा सामान दिखाने लगा.

कुछ वक्त लव के साथ बिता कर वर्षा अस्पताल से मायके लौट आई. फिर दिल्ली लौटी तो आते ही सास के पैर पकड़ कर कृतज्ञता के बोझ से दब कर रो पड़ी, ‘‘मांजी, आप महान हैं, हरिद्वार जाने के बहाने मेरे लव पर प्यार लुटाती रहीं…पराए लहू पर…’’

‘‘लव पराया कहां है, मेरा पोता है. जब तुम हमारी हो गईं तो लव भी तो अपना हुआ,’’ मांजी ने उसे उठा कर छाती से लगा लिया.

‘‘लेकिन सुधीर उस से नफरत करते हैं,’’ कह कर वर्षा चिंतित हो उठी, ‘‘वह सुनेंगे तो नाराज हो उठेंगे.’’

‘‘सुधीर ने लव को घर में रखने से ही तो इनकार किया है, उस का खर्च उठाने से तो नहीं? मैं लव को छात्रावास में रख कर पढ़ाऊंगी, उसे अच्छा इनसान बनाने में कोई कमी नहीं छोडूंगी.’’

वर्षा जानती थी कि सुधीर में मांजी का कोई भी आदेश टालने की हिम्मत नहीं है. उस का मन सुखसंतोष से भर उठा था कि अब उस का लव अनाथ नहीं रहा. उस के सिर पर मांजी की सबल छत्रछाया मौजूद है.

बिखरते बिखरते : माया क्या सोच कर भावुक हो रही थी

महेश ने कहा, ‘‘माया, आज शाम को गाड़ी से मुझे मुंबई जाना है. मेरा सूटकेस तैयार कर देना.’’ ‘‘शाम को जाना है और अब बता रहे हैं, कल रात भी तो बता सकते थे,’’ माया को पति की लापरवाही पर क्रोध आ रहा था.

‘‘ऐसी कौन सी नई बात है. हमेशा ही तो मुझे बाहर आनाजाना पड़ता है,’’ महेश ने कुरसी से उठते हुए कहा.

‘‘कब तक लौटोगे?’’ आने वाले दिनों के अकेलेपन की कल्पना से माया भावुक हो गई.

‘‘यही कोई 10 दिन लग जाएंगे. तुम चाहो तो अपनी मौसी के यहां चली जाना. नहीं तो आया से रात को यहीं सो जाने को कहना,’’ कह कर महेश अपना ब्रीफकेस ले कर निकल पड़ा.

दरवाजा बंद कर माया सोफे पर आ बैठी तो उस का दिल भर आया. माया कुछ क्षण घुटनों में सिर छिपाए बैठी रही. अपनी कारोबारी दुनिया में खोए रहने वाले महेश के पास माया के लिए दोचार पल भी नहीं रह गए हैं. कम से कम सुषमा साथ होती तो यह दुख वह भूल जाती. इतने बड़े मकान में घंटों अकेले पड़े रहना कितना खलता है. माया के 12 वर्षों के दांपत्य जीवन में न कोई महकता क्षण है, न कोई मधुर स्मृति.

महेश शाम को औफिस से लौट कर झटपट तैयार हो कर निकल पड़ा. रसोई की बत्ती बुझा कर माया कमरे में चली आई. माया लेट चुकी थी. नींद तो आने से रही. अलमारी से यों ही एक किताब ले कर पलंग पर बैठ गई. पहला पन्ना उलटते ही माया की नजर वहीं ठहर गई : ‘प्यार सहित– सौरभ.’ माया के 20वें जन्मदिवस के अवसर पर सौरभ ने यह किताब उसे भेंट की थी. माया का मन अतीत की स्मृतियों में खो गया…

‘माया, मेरे सौरभ भैया अपनी पढ़ाई खत्म कर के कोलकाता से आ गए हैं. भैया भी तुम्हारी तरह बहुत अच्छा वायलिन बजाते हैं. शाम को आना,’ रिंकू कालेज जाते समय उसे न्योता दे गई. माया का संगीतप्रेम उसे शाम को रिंकू के घर खींच ले गया. सौरभ ने वायलिन बजाना शुरू किया और माया वायलिन की धुनों में खो गई. सौरभ की नौकरी, उस के पिता की फैक्टरी में ही लग गई. माया नईनई धुनें सीखने के लिए सौरभ के पास जाने लगी थी. सौरभ उस की खूबसूरती व मासूमियत पर फिदा हो गया था. एक दिन सौरभ ने अचानक ही पूछ डाला, ‘माया, अपने पापा से बात क्यों नहीं करती?’

‘किस बारे में?’

‘हम दोनों के विवाह के बारे में.’

माया वायलिन एक ओर रख कर खिड़की के पास जा खड़ी हुई. लौन में लाल गुलाब खिले हुए थे. वह उन फूलों को कुछ पल निहारती रही. आज तक वह पापा के सामने खड़ी हो बेझिझक कोई बात नहीं कह पाई है. फिर इतनी बड़ी बात भला कैसे कह पाएगी? किंतु आखिर कब तक टाला जा सकता है? देखतेदेखते 3 वर्ष बीत गए थे. उस ने एमएससी कर लिया था. अब तक तो पढ़ाई का बहाना कर के वह सौरभ को रुकने के लिए कहती आई थी.

अचानक उसे एक बात सूझ गई. वह बोली, ‘सौरभ, तुम स्वयं ही आ कर पापा से कह दो न, मुझे बड़ी झिझक हो रही है.’

‘माया, झिझक नहीं. डर कहो. समस्या से दूर भागने की यह सोच ही तुम्हारी कमजोरी है. खैर, ठीक है. मैं कल शाम को आऊंगा,’ सौरभ ने हंसते हुए माया से विदा ली. पापा ने दफ्तर से आ कर चाय पी और अखबार ले कर आरामकुरसी पर बैठ गए. माया का दिल यह सोच कर धकधक कर रहा था कि बस, अब सौरभ आता ही होगा.

थोड़ी देर बाद सौरभ आया. हाथ जोड़ कर उस ने कहा, ‘नमस्ते, अंकल.’ कुछ देर तक इधरउधर की आम बातें हुईं. फिर सौरभ ने अपने स्वभाव के मुताबिक सीधे प्रस्ताव रख दिया, ‘अंकल, मैं और माया एकदूसरे को पसंद करते हैं. मैं आप से माया का हाथ मांगने आया हूं.’ ‘क्या?’ उन के हाथ से अखबार गिर गया. उन्हें अपनी सरलसंकोची बेटी के इस फैसले पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. कुछ पलों बाद उन्होंने स्वयं को संयत करते हुए कठोर आवाज में कहा, ‘देखो सौरभ, मुझे यह बचकाना तरीका बरदाश्त नहीं है. तुम लोग खुद विवाह का निर्णय करो, यह गलत है. अच्छा, तुम अपने पापा को भेजना.’

अच्छी बात है. मैं अपने पापा को भेज दूंगा,’ सौरभ उठ कर नमस्ते कर के चल पड़ा.

रविवार को वृद्घ ज्योतिषी आ पहुंचे. कमरे में मौन छाया था. माया और सौरभ की कुंडली सामने बिछा कर लंबे समय तक गणना करने के बाद ज्योतिषी ने सिर उठाया, ‘रमाकांत, दोनों कुंडलियां तनिक मेल नहीं खातीं. कन्या पर गंभीर मंगलदोष है. लड़के की कुंडली तो गंगाजल की तरह दोषहीन है. मंगलदोष वाली कन्या का विवाह उसी दोष वाले वर के साथ होना ही श्रेष्ठ होता है. तुम्हारी कन्या का विवाह इस वर के साथ होने पर 4-5 बरसों में ही वर की मृत्यु हो जाएगी.’ पंडितजी के शब्द सब को दहला गए.

सौरभ के पापा सिर झुकाए चले गए. परदे की ओट में बैठी माया जड़ हो गई. पंडितजी के शब्द मानो कोई माने नहीं रखते. नहीं, वह कुछ नहीं सुन रही थी. यह तो कोई बुरा सपना है. माया खयालों में खो गई.

‘दीदी, बैठेबैठे सो रही हो क्या? पापा कब से बुला रहे हैं तुम्हें.’ छोटी बहन ने माया को झकझोर कर उठाया.

माया बोझिल कदमों से पापा के सामने जा खड़ी हुई थी. कमरे में उन की आवाज गूंज उठी, ‘माया, ज्योतिषी ने साफ कह दिया है. दोनों जन्मकुंडलियां तनिक भी मेल नहीं खातीं. यह विवाह हो ही नहीं सकता. अनिष्ट के लक्षण स्पष्ट हैं. भूल जाओ सबकुछ.’

मां का दबा गुस्सा फूट पड़ा था, ‘लड़की मांबाप का लिहाज न कर स्वयं वर ढूंढ़ने निकलेगी तो अनर्थ नहीं तो और क्या होगा? कान खोल कर सुन लो, उस से मेलजोल बिलकुल बंद कर दो. कोई गलत कदम उठा कर उस भले लड़के की जान मत ले लेना.’ कहनेसुनने को अब रह ही क्या गया था. माया चुपचाप अपने कमरे की ओर लौट आई थी. माया लौन में बैठी पत्रिका पढ़ रही थी. मन पढ़ने में लग ही नहीं रहा था. माया अपने अंदर ही घुटती जा रही थी. देखतेदेखते 3 माह गुजर गए. न सौरभ का कोई फोन आया, न मिलने की कोशिश ही की. क्या करे वह. सौरभ कोलकाता में नई नौकरी के लिए जा चुका था. वह कशमकश में थी. वह नहीं विश्वास करती थी ज्योतिषी की भविष्यवाणी पर. ज्योतिषी की बात पत्थर की लकीर है क्या? वह सौरभ से विवाह जरूर करेगी. लेकिन अगर पंडितजी की वाणी सही निकल गई तो?

अशोक भैया ने पंडितजी का विरोध कर विवाह किया था. आज विधुर हुए बैठे हैं नन्हीं पुत्री को लिए. ज्योतिषी का लोहा पूरा परिवार मानता है. क्या उस के प्यार में स्वार्थ की ही प्रधानता है? सौरभ के जीवन से बढ़ कर क्या उस का निजी सुख है? नहीं, नहीं, सौरभ के अहित की बात तो वह सपने में भी नहीं सोच सकती. सौरभ से हमेशा के लिए बिछुड़ने की बात सोच कर उस का दिल बैठा जा रहा है.

खटाक…कोई गेट खोल कर आ रहा था. अरे, 3 महीने बाद आज रिंकू  आ रही है. रिंकू  उस के पास आ कर कुछ पल मौन खड़ी रही.

चुप्पी तोड़ते हुए रिंकू  ने कहा, ‘माया, कल मेरा जन्मदिन है. छोटी सी पार्टी रखी है. घर आओगी न?’

माया ने डबडबाती आंखों से रिंकू  को देखा, ‘पता नहीं मां तुम्हारे घर जाने की अनुमति देंगी कि नहीं?’ रिंकू वापस चली गई तो माया ने किसी तरह मां को मना कर रिंकू के घर जाने की अनुमति ले ली. माया की उदासी ने शायद मां का दिल पिघला दिया था. अगले दिन रिंकू के घर जा कर वह बेमन से ही पार्टी में भाग ले रही थी. तभी उसे लगा कोई उस के निकट आ बैठा है, पलट कर देखा तो हैरान रह गई थी.

‘सौरभ ़ ़ ़’ माया खुशी के मारे लगभग चीख पड़ी थी. फिर सोचने लगी कि कब आया सौरभ कोलकाता से? रिंकू ने कल कुछ भी नहीं बताया था. सौरभ और माया लौन में एक ओर जा कर बैठ गए. माया का जी बुरी तरह घबरा रहा था. सौरभ से इस तरह अचानक मुलाकात के लिए वह बिलकुल तैयार न थी. ‘माया, आखिर क्या निर्णय किया तुम ने? मैं ज्योतिषियों की बात में विश्वास नहीं करता. भविष्य के किसी अनिश्चित अनिष्ट की कल्पना मात्र से वर्तमान को नष्ट करना भला कहां की अक्लमंदी है? छोड़ो अपना डर. हम विवाह जरूर करेंगे,’ सौरभ का स्वर दृढ़ था. ‘ओह सौरभ, बात मेरे अनिष्ट की होती तो मैं जरा भी नहीं सोचती. लेकिन तुम्हारे अनिष्ट की बात सोच कर मेरा दिल कांप उठता है,’ बोलते हुए माया की सिसकियां नहीं रुक रही थीं.

‘माया, तुम सारा भार मुझ पर डाल कर हां कर दो. विवाह के लिए मन का मेल ग्रहों व कुंडलियों के बेतुके मेल से अधिक महत्त्वपूर्ण है,’ सौरभ के स्वर में उस का आत्मविश्वास झलक रहा था.

‘नहीं सौरभ, नहीं. मैं किसी भी तरह मन को समझा नहीं पा रही हूं. यह अपराधभाव लिए मैं तुम्हारे साथ जी ही नहीं सकती,’ माया ने आंसू पोंछ लिए.

‘तो मैं समझूं कि हमारे बीच जो कुछ था वह समाप्त हो गया. ठीक है, माया, सिर्फ यादों के सहारे हम जीवन की लंबी राह काट नहीं सकेंगे. जल्दी ही दूसरी जगह विवाह कर प्रसन्नता से रहना.’ सौरभ चला गया था. अकेली बैठी माया बुत बनी उसे देखती रही थी. माया अपने ही कालेज में पढ़ाने लगी थी. सौरभ वापस कोलकाता चला गया, अपनी नौकरी में रम गया था. रिंकू लखनऊ चली गई थी. सप्ताह, माह में बदल कर अतीत की कभी न खुलने वाली गुहा में फिसल कर बंद हुए जा रहे थे. माया दिनभर कालेज में व्यस्त रहती थी, शाम को घर लौटते ही उदासी के घेरे में घिर जाती थी. देखतेदेखते सौरभ से बिछुड़े पूरा 1 वर्ष बीत गया था.

एक दिन शाम को कालेज से लौट कर सामने रिंकू को बैठी देख माया को बड़ा आश्चर्य हुआ. रिंकू  अचानक लखनऊ से कैसे आ गई? चाय पीते हुए दोनों इधरउधर की बातें करती रहीं. फिर रिंकू ने अपना पर्स खोल कर एक सुंदर सा शादी का कार्ड माया की ओर बढ़ाया.

‘माया, अगले रविवार को सौरभ भैया की शादी है. भैया का अव्यवस्थित जीवन और अंदर ही अंदर घुलते जाना मुझ से देखा नहीं गया. मैं ने बड़ी मुश्किल से उन को शादी के लिए तैयार किया है. तुम तो अपनी जिद पर अड़ी हुई हो, दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है,’ रिंकू का चेहरा गंभीर हो गया था. मूर्तिवत बैठी माया को करुण नेत्रों से देखती हुई रिंकू चली गई थी.

माया कार्ड को भावहीन नेत्रों से देखती रही. दिल में कई बातें उठने लगीं, क्या उस का सौरभ पराया हो गया, मात्र 1 वर्ष में? सुमिता जैसी सुशील सुकन्या को पा कर सौरभ का जीवन खिल उठेगा. एक वह है जो सौरभ की याद में घुलती जा रही है. लेकिन उसे क्रोध क्यों आ रहा है? क्या सौरभ जीवनभर कुंआरा रह कर उस के गम में बैठा रहता? ठीक ही तो किया उस ने. पर उसे इतनी जल्दी क्या थी? जब तक मेरी शादी कहीं तय नहीं होती तब तक तो इंतजार कर ही सकता था? अभिमानी सौरभ, यह मत समझना कि सुमिता के साथ तुम ही मधुर जीवन जी सकोगे. मैं भी आऊंगी तुम्हारे घर अपने विवाह का न्योता देने. तुम से अधिक सुंदर, स्मार्ट लड़के की खोज कर के. माया ने हाथ में लिए हुए कार्ड के टुकड़ेटुकड़े कर डाले.

माया के लिए उस के पापा ने वर ढूंढ़ने शुरू कर दिए लेकिन माया की नजरों में वे खरे नहीं उतरते थे. उस की जोड़ का एक भी तो नहीं था. मां और पापा कितना ही समझाने की कोशिश करते, लेकिन माया नहीं झुकी. अंत में पापा ने माया के लिए वर ढूंढ़ना छोड़ दिया था.

समय अपनी गति से घूमता रहा.

10 वर्ष जाने कैसे सपने से बीत गए. छोटी बहन और भाई की शादी हो चुकी थी. माया उम्र के एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ी थी जहां आदर्श टूट जाते हैं, कल्पनाएं धुएं की तरह उड़ जाती हैं और जीवन अपने कटु यथार्थ के धरातल पर आ जाता है. प्यार, गुस्सा, बदला, सौरभ सबकुछ मन के किसी अवचेतन कोने में जा कर दुबक गए थे. माया ने अनुभव किया कि अब उसे पुरुष की बलिष्ठ, संरक्षक बांहों की आवश्यकता है.

छोटी बहन की ससुराल से महेश आए थे. महेश ने माया से ब्याह करने का प्रस्ताव रखा था. महेश का व्यक्तित्व अति सामान्य और अनाकर्षक था. उन की अपनी एक छोटी फैक्टरी थी. क्या इस अनाकर्षक 42 वर्षीय प्रौढ़ के लिए ही उस ने इतनी लंबी प्रतीक्षा की थी? लेकिन अपने मन की ख्वाहिशों को दबा कर माया ने महेश का हाथ थाम लिया.

विवाह के अगले वर्ष सुषमा का जन्म हुआ था. माया अपनी पिछली कड़वाहट भूल कर बेटी में खो गई थी. पर माया के शांत जीवन में अचानक आंधी आ गई. महेश सुषमा को होस्टल में भेजना चाहते थे. माया ने लाख मिन्नतें कीं पर महेश ने अपना निर्णय नहीं बदला. सुषमा के होस्टल में चले जाने के बाद माया गुमसुम सी हो गई थी. न ही वह महेश के साथ उस की पार्टियों में जा कर घंटों बैठ पाती थी, न महेश की नीरस बातें सहन कर पाती थी. उसे सब से अधिक खलती थी, महेश की संगीत के प्रति अरुचि. न महेश को उस का वायलिन बजाना भाता था, न ही वह संगीत कार्यक्रमों में जाता था. माया का नौकरी करना भी उसे पसंद नहीं था. न कोई रोमांस, न रोमांच. माया दुख और अलगाव में जीतेजीते पत्थर सी हो गई थी.

‘‘बीबीजी, चाय बना लाऊं? दूध आ गया है,’’ नौकरानी की आवाज से माया की तंद्रा टूटी और वह वर्तमान में लौट आई.

सिर भारी हो आया है. ओह, अकेले 10 दिन वह नहीं रहेगी घर में. मौसी के यहां चली जाएगी. नौकरानी से चाय बनाने के लिए कह कर माया हाथमुंह धोने चली गई.

माया ने अपनी गाड़ी एक ओर खड़ी की और मौसी के लिए फल खरीदने स्टोर में घुस गई.

‘‘कार्ड पेमैंट है?’’ पेमैंट के लिए लाइन में खड़ी माया यह आवाज सुन कर चौंक उठी. लाइन में आगे खड़ी रिंकू को देखा.

‘‘रिंकू,’’ माया खुश हो जोर से बोली.

रिंकू ने माया को बांहों में भर लिया. पेमैंट कर रिंकू माया की गाड़ी में आ बैठी.

रिंकू अपना किस्सा सुनाने लगी. उस ने रिसर्च पूरा कर लिया था. उसी दौरान उस की शादी हो गई थी. उस की भी इकलौती बेटी है जिस की पिछले अक्तूबर में शादी हो गई है. वह यहां पति के साथ आई थी, कुछ काम था उन का.

रिंकू ने माया को नहीं छोड़ा. खोदखोद कर उस की निजी जिंदगी के संबंध में पूछने लगी. कईर् वर्षों बाद किसी अपने ने उस की दुखती रग पर हाथ रखा था. सो, माया का मन मर्यादा त्याग कर उमड़ पड़ा, ‘‘रिंकू, मैं पूरा जीवन भटकती ही रह गई. मुझे कुछ भी न मिला. आखिरकार मेरा अपना बन कर कोई भी तो न रहा. मेरे चारों ओर है केवल उदासी, उलझन, तनाव. मैं जाने कब टूट कर बिखर जाऊं,’’ माया सिसक रही थी.

रिंकू सिसकती माया को चुपचाप देखती रही. रोने दो जीभर. बरसों की घुटन आंखों की राह बह जाए तो माया का तनाव कुछ कम हो जाएगा. कक्षा में सब से आगे रहने वाली माया की कुशाग्र बुद्धि उसे जीवनसंग्राम में विजयी बनने की राह नहीं दिखा सकी.

‘‘माया,’’ रिंकू ने माया के कंधे पर हाथ रखा. माया सिर उठा कर भरे नेत्रों से रिंकू की ओर देख रही थी.

‘‘माया, क्या इस सारे बिखराव का कारण तुम स्वयं नहीं हो? तुम में निर्णय करने और जोखिम मोल लेने की हिम्मत ही नहीं थी. किसी ज्योतिषी की ग्रहगणना में तो तुम्हें विश्वास था, लेकिन सौरभ के आश्वासनों पर, उस के दृढ़ संकल्पों पर तुम विश्वास नहीं कर सकीं. हम ने न सौरभ के ब्याह में जन्मपत्रियां मिलवाईं, न मेरे ब्याह में ही. मैं ने अपनी बेटी के ब्याह में भी पत्रियां नहीं मिलवाईं. फिर भी हम सब सुखी दांपत्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं.

‘‘माया, सचाई यह है कि तुम्हारे अंतर्मन में सौरभ निराकार रूप में आज भी व्याप्त है. मन की यही गांठ महेश के साथ सुखद और आनंदमय जीवन जीने से तुम्हें निरंतर रोक रही है.’’

रिंकू कुछ देर मौन बैठी रही, फिर माया के माथे पर आए पसीने की बूंदों को पोंछते हुए बोली, ‘‘माया, जरा सोचो तो, आखिर महेश में ऐसी क्या कमी है? वे व्यस्त व्यवसायी हैं. उन के व्यवहार में उन का अपना संस्कार छाया हुआ है. संस्कारों को आसानी से बदला भी तो नहीं जा सकता. सुषमा को उन्होंने होस्टल तुम से छीनने के लिए तो नहीं भेजा है, बल्कि उस के अच्छे भविष्य के लिए ही भेजा है. माया, जरा सोचो? क्या तुम ने अपने पति के साथ न्याय किया है. न कभी उन के व्यवसाय में दिलचस्पी ली, न उन के दोस्तों में. तुम्हारा सान्निध्य तो महेश को कभी मिला ही नहीं. माया, न तो तुम में सौरभ से ब्याह करने की हिम्मत थी, न ही उस की स्मृति में अकेले दृढ़ जीवन बिताने का साहस. तुम स्वयं को भी समझ नहीं पाईं,’’ रिंकू एक सांस में ही इतना कुछ कह कर हांफने लगी थी.

कुछ पल तक दोनों मौन बैठी सजल नयनों से सड़क की ओर देखती रहीं. रिंकू ने घड़ी की ओर देखा. फिर झट गाड़ी से उतर पड़ी और उस के कंधे पर हाथ रख कर बोली, ‘‘माया, देर हो रही है, मैं चलूं. कम से कम जीवन के बचे चंद दिनों को अब महेश के साथ प्रसन्नता से जी लो.’’ माया ने रूमाल निकाल कर अच्छी तरह चेहरा पोंछ लिया. आकाश से छंटे बादलों की तरह उसे अपना मन साफ लगा. महेश, सुषमा, महेश का व्यवसाय सबकुछ तो उस का अपना है. अब वह नहीं बिखरेगी, नहीं भटकेगी. उसे तो अभी बहुतकुछ करना है पति के लिए, बेटी के लिए.

मुझे न पुकारना

बस में बहुत भीड़ थी, दम घुटा जा रहा था. मैं ने खिड़की से बाहर मुंह निकाल कर 2-3 गहरीगहरी सांसें लीं. चंद लमहे धूप की तपिश बरदाश्त की, फिर सिर को अंदर कर लिया. छोटे बच्चे ने फिर ‘पानीपानी’ की रट लगा दी. थर्मस में पानी कब का खत्म हो चुका था और इस भीड़ से गुजर कर बाहर जा कर पानी लाना बहुत मुश्किल काम था. मैं ने उस को बहुत बहलाया, डराया, धमकाया, तंग आ कर उस के फूल से गाल पर चुटकी भी ली, मगर वह न माना.

मैं ने बेबसी से इधरउधर देखा. मेरी निगाह सामने की सीट पर बैठी हुई एक अधेड़ उम्र की औरत पर पड़ी और जैसे जम कर ही रह गई, ‘इसे कहीं देखा है, कहां देखा है, कब देखा है?’

मैं अपने दिमाग पर जोर दे रही थी. उसी वक्त उस औरत ने भी मेरी तरफ देखा और उस की आंखों में जो चमक उभरी, वह साफ बता गई कि उस ने मुझे पहचान लिया है. लेकिन दूसरे ही पल वह चमक बुझ गई. औरत ने अजीब बेरुखी से अपना चेहरा दूसरी तरफ मोड़ लिया और हाथ उठा कर अपना आंचल ठीक करने लगी. ऐसा करते हुए उस के हाथ में पड़ी हुई सोने की मोटीमोटी चूडि़यां आपस में टकराईं और उन से जो झंकार निकली, उस ने गोया मेरे दिमाग के पट खोल दिए.

उन खुले पटों से चांदी की चूडि़यां टकरा रही थीं…सलीमन बूआ…सलीमन बूआ…हां, वे सलीमन बूआ ही थीं. बरसों बाद उन्हें देखा था, लेकिन फिर भी पहचान लिया था. वे बहुत बदल चुकी थीं. अगर मैं ने उन को बहुत करीब से न देखा होता तो कभी न पहचान पाती.

दुबलीपतली, काली सलीमन बूआ चिकने स्याह गोश्त का ढेर बन गई थीं. मिस्कीन चेहरे पर ऐसा रोबदार इतमीनान और घमंड झलक रहा था जो बेहद पैसे वालों के चेहरों पर हुआ करता है. अपने ऊपर वह हजारों का सोना लादे हुए थीं. कान, हाथ, नाक कुछ भी तो खाली नहीं था. साड़ी भी बड़ी कीमती थी और वह पर्स भी, जो उन की गोद में रखा हुआ था. मेरा बच्चा रो रहा था और मैं उस को थपकते हुए कहीं दूर, बहुत दूर, बरसों पीछे भागी चली जा रही थी. मैं जब बच्ची थी तो यही सलीमन बूआ सिर्फ मेरी देखभाल के लिए रखी गई थीं. उन दिनों वे बहुत दुखी थीं. उन के तीसरे मियां ने उन को तलाक दे दिया था और लड़के को भी उन से छीन लिया था. सलीमन बूआ ने अपनी सारी ममता मुझ पर निछावर कर दी. मैं अपनी मां की ममता इसलिए कम पा रही थी क्योंकि मुझ से छोटे 2 और बच्चे भी थे.

अम्मा बेचारी क्या करतीं, मुझे संभालतीं या मेरे नन्हे भाइयों को देखतीं. सलीमन बूआ की मैं ऐसी आशिक हुई कि रात को भी उन के पास रहती. अब्बाजान सोते में मुझे अपने बिस्तर पर उठा ले जाते, लेकिन रात को जब भी मेरी आंख खुलती, फिर भाग कर सलीमन बूआ के पास पहुंच जाती. वे जाग कर, हंस कर मुझे चिपटा लेतीं, ‘आ गई मेरी बिटिया रानी…’ और फिर अपनी बारीक आवाज में वे लोरी गाने लगतीं, जिस को सुन कर मैं फौरन सो जाती. मुझे नहलाना, मेरे कपड़े बदलना, कंघी करना, काजल लगाना, खिलानापिलाना, सुलाना, कहानियां सुनाना, बाहर टहलाने ले जाना, यह सब बूआ के जिम्मे था. अम्मा मेरी तरफ से बेफिक्र हो कर दूसरे बच्चों में लग गई थीं.

बड़े भाई और आपा मुझे चिढ़ाते, ‘देखो, परवीन की बूआ क्या काली डरावनी सी है. अंधेरे में देखो तो डर जाओ. अरे, भैंस है पूरी, शैतान की खाला.’ मैं रोरो मरती, दोनों को काटने दौड़ती, चप्पल खींचखींच मारती. सलीमन बूआ यह सब सुन कर बस मुसकरा दिया करतीं और मुझ से दोगुना लाड़ करने लगतीं. मैं काफी बड़ी हो गई थी, लेकिन फिर भी उन की गोद में लदी रहती. मुहर्रम में मातम या 7 तारीख का कुदरती आलम देखने के लिए मैं इतनी दूर से खुरदपुरा और सय्यदवाड़ा महल्लों में उन की गोद में ही लद कर जाया करती. वह हांफ जातीं, थक कर चूर हो जातीं, मगर न मैं उन की गोद से उतरती न वे उतारतीं.

कोई औरत टोकती, ‘ऐ सलीमन बूआ, इस मोटी को लादे घूम रही हो, फेफड़ा फट जाएगा.’

तब वे बहुत बुरा मानतीं, ‘फटने दो मेरा फेफड़ा, तुम काहे को फिक्र करती हो, बड़ी आई मेरी बिटिया को नजर लगाने वाली.’ घर आ कर वे मेरी नजर उतारतीं तो मैं बड़े घमंड से गरदन अकड़ाअकड़ा कर बड़े भाई और आपा को देखती. तब वे दोनों जलभुन कर रह जाते. सचमुच मुझे अपनी काली डरावनी सी सलीमन बूआ से कितना प्यार था. बचपन छूटा, जवानी ने गले लगाया, फिर भी सलीमन बूआ मेरे उतने ही करीब रहीं. मैं अकसर उन के साथ ही सोती. तब मुझे कभी रात में नींद न आती तो वे मुझे लोरी सुनाने लगतीं, ‘चंदन का है पालना, रेशम की है डोर…जीवे मेरी रानी बिटिया…’

मैं हंस देती, ‘बूआ, अब तो लोरी न सुनाया करो, मैं बड़ी हो गई हूं.’

‘लाख बड़ी हो जाओ, मेरे लिए तो वही छटांक भर की हो.’

सलीमन बूआ ने 3 शादियां की थीं, 2 से कोई बच्चा नहीं हुआ तो तलाक हो गया कि वे बांझ हैं.

मगर तीसरी शादी हुई तो 9वें महीने ही बूआ की गोद भर गई. यह शादी 5 साल चली. लेकिन यहां भी दुखों ने बूआ का पीछा न छोड़ा. उन के मियां का दूसरी औरत से दिल लग गया. बूआ यह बरदाश्त न कर सकीं. झगड़ा बढ़ा तो मर्द ने तलाक दे दिया और घर से निकाल दिया. साथ ही उस ने बच्चा भी छीन लिया. हारी, दुत्कारी सलीमन बूआ घरघर का कामकाज कर के पेट की आग बुझा रही थीं कि चाचा ने उन को अम्मा के पास पहुंचा दिया और उन्होंने उन को मेरे लिए रख लिया. खाना, कपड़ा, तनख्वाह, पान, दवा, बिछौना, बस और क्या चाहिए था उन्हें. बूआ हमारे घर में जम कर पूरे 16 बरस रहीं. बच्चे बड़े हो गए. बड़े अधेड़ हो गए, बूआ हमारे घर का एक जरूरी पुरजा बन गई थीं.

मगर एक दिन 21 बरस का ऊंचा, तगड़ा, गहरा सांवला नौजवान हमारे दरवाजे पर आ कर खड़ा हुआ. उस ने पुकारा, ‘अम्मा.’

बूआ, जो मेरे लिए उबटन पीस रही थीं, आवाज को सुनते ही दरवाजे की तरफ देखने लगीं. उन का हाथ रुका तो चांदी की चूडि़यों का खनकना बंद हो गया.

‘कौन है?’ बड़े भाई ने डपट कर पूछा, क्योंकि वह नौजवान सीधा अंदर घुसा आ रहा था. नीली पैंट, सफेद कमीज, हाथ में शानदार बैग, चमकते जूते और कलाई में सोने की घड़ी देख सब ठिठक कर रह गए.

‘मैं हूं…कलीम…अम्मा को लेने आया हूं,’ उस ने कहा.

बूआ ने 21 बरस के उस नौजवान में अपने 5 साल के कल्लू को बिलबिलाता देख लिया था. वे चीख मार कर दौड़ीं, ‘कलुवा.’

‘अम्मा,’ और दोनों एकदूसरे से लिपट गए.

उफ, बेमुरव्वत, बेवफा सलीमन बूआ एकदम सब कुछ भूल गईं. अपनी जिंदगी के 16 बरस उन्होंने एक पल में झटक कर दूर फेंक दिए. उन्होंने तो उस बिखरे उबटन को भी न उठाया, जो चक्की के इर्दगिर्द पड़ा था और जिस को पीसते हुए वे लहकलहक कर गा रही थीं, ‘गंगाजमनी तेरी ससुराल से आया सेहरा… अब्बा मियां ने खड़े हो के बंधाया सेहरा…’

मैं सन्न बैठी रह गई, अचानक पत्थर की मूरत बन गई. बस, टुकुरटुकुर बूआ को देखती रह गई. यह बड़ी खुशी की बात थी कि उन का बेटा उन को लेने आया था. रोता, बिलखता कलुवा अब हंसतामुसकराता कलीम अहमद बन गया था. उस का बाप मर गया था और अपने पीछे ढेर सी दौलत छोड़ गया था, जिस का कलीम अकेला वारिस था क्योंकि उस की सौतेली मां बहुत बरस पहले ही उस के बाप को छोड़ कर भाग गई थी. बाप की बेड़ी कटी तो वह अपनी मां का पता लगातेलगाते हमारे यहां आ पहुंचा और 2 घंटे के बाद ही बूआ को ले कर चलता बना. 2 घंटों में बूआ सिर्फ एक बार मेरे पास आई थीं, वह भी जाते वक्त, ‘जा रही हूं बीबी…हमेशा सुखी रहो…’ मैं ने सोचा था कि बूआ बिलख उठेंगी, मुझे किसी नन्ही बच्ची की तरह गोद में भर लेंगी, कलीम से लड़ेंगी, कहेंगी, ‘वाह, मैं क्यों जाऊं अपनी बेटी को छोड़ कर…’

मगर नहीं, बूआ की तो बाछें खिल उठी थीं. कालाकलूटा चेहरा, जो मुझ को सलोना नजर आता था, खुशी के मारे और खून की तमतमाहट से और स्याह हो गया था. ‘जा रही हो बूआ?’ मेरी आवाज थरथरा गई.

‘हां, बेटी…मेरा कलुवा अब बहुत बड़ा आदमी बन गया है. कह रहा है, मेरी बड़ी बेइज्जती होती है, तुम क्यों दूसरों के दर पर पड़ी हो? ठीक भी है…ऐसे कब तक जिंदगी गुजारती. अच्छा, चलता हूं…’

यह कह कर उन्होंने मेरा सिर थपका और बगल में दबी हुई अपने कपड़ों की पोटली ठीक करने लगीं. फिर यह जा, वह जा. फिर उड़तीपड़ती खबरें मैं सुनती रही कि बूआ कलकत्ता में हैं, बड़े मजे कर रही हैं. कलीम की एक नहीं, कई दुकानें खुल गई हैं. कार भी खरीद ली है और मकान भी बन गया है. आज बरसों बाद मैं सलीमन बूआ को फिर देख रही थी. नजर थी कि उन पर से हटने का नाम नहीं ले रही थी. बच्चा मेरी गोद में रोतेरोते निढाल हो चुका था और अब सिसकियां भर रहा था. मैं सोचने लगी कि बूआ कितनी बेवफा और संगदिल निकलीं. कभी किस चाव से कहा करती थीं, ‘इतनी उम्र यहां गुजरी, अब जो रह गई है, वह भी रानी बिटिया के साथ इस के ससुराल में गुजर जाएगी. बिटिया को पाला है, इस के बच्चे भी पालूंगी, आंखों के तारे बना कर रखूंगी…’

लेकिन इस वक्त मैं भी सामने थी और मेरे दोनों बच्चे भी मेरे साथ थे. मेरा छोटा बच्चा प्यास के मारे रो रहा था. और सलीमन बूआ ने चंद मिनट पहले ही किस मजे से अपने खूबसूरत थर्मस से पानी पिया था. फिर बड़ी नफासत से रूमाल से मुंह पोंछा, थर्मस बंद कर के बराबर में रखी हुई टोकरी के अंदर रखते हुए भी उन्होंने मेरी या मेरे बच्चों की तरफ नहीं देखा.

मेरा जी चाह रहा था कि पुकारूं, ‘सलीमन बूआ’, मगर उन की ठंडीठंडी बेरुखी ने मेरे होंठ सीं दिए.

‘‘लो बहन, बच्चे को पानी पिला दो,’’ एक औरत भीड़ को चीर कर बड़ी मुश्किल से मेरे पास पहुंची तो मेरी जान में जान आ गई.

‘‘बहन, बहुतबहुत शुक्रिया,’’ मैं इतना ही कह पाई.

‘‘शुक्रिया कैसा बहनजी, बच्चा जान दिए दे रहा था…मैं ने नरेश के पिता से पानी मंगवाया, कोई साथ में नहीं है क्या?’’

‘‘नहीं, मेरे पति मुझे स्टेशन पर मिल जाएंगे. मैं अपने मायके से आ रही हूं.’’

यह बात मैं ने सिर्फ सलीमन बूआ को सुनाने के लिए जरा ऊंची आवाज में कही. मगर वे उसी तरह ठस बनी बैठी खिड़की से बाहर देखती रहीं. बच्चे ने जी भर पानी पिया और मेरी ओर देख कर हंसने लगा.

इतने में ड्राइवर आ गया और उस ने हौर्न बजाया. खुश हो कर बच्चे ने पूछा, ‘‘अम्मा, अब बस चलेगी?’’

‘‘हां, बेटा…अब चलने ही वाली है.’’

‘‘आहा…बस चल रही है,’’ उस ने अपने नन्हेमुन्ने हाथों से ताली बजाई. 2-3 आदमी उस की मासूम खुशी देख कर हंसने लगे. मैं ने बड़ी उम्मीद से सलीमन बूआ की तरफ देखा कि शायद वे भी देखें, शायद उन के चेहरे पर भी मुसकराहट उभरे और शायद वे अपनी बेमुरव्वती अब न निभा सकें. मगर बूआ का चेहरा सपाट था, चिकना स्याह पत्थर, जिस पर हलकीहलकी झुर्रियों का जाल सा बंधा हुआ था. मैं ने सोचा, शायद बराबर में बैठा हुआ 8-9 बरस का लड़का उन का पोता होगा. वे उस से बातें कर रही थीं. वही आवाज, वही अंदाज, वही होंठों का खास खिंचाव…

मेरा नन्हा बाबी ऊंघने लगा था. मैं ने उस को गोद में लिटा लिया और उस के नर्म बालों में उंगलियां फेरते हुए बिना इरादा ही गुनगुनाने लगी, ‘‘चंदन का है पालना, रेशम की डोर, जीवे मेरा राजा बेटा…’’

एकाएक एक अजीब, बहुत अजीब सी बात हुई. सलीमन बूआ के चेहरे पर एक चमक सी आई, उन की नजरें मेरे चेहरे से होती हुई बाबी पर जम गईं. मेरा दिल जोरजोर से धड़क उठा, लव कांप रहे थे. मैं ने सोचा, अब सलीमन बूआ उठीं और अब उन्होंने मेरी गोद से बाबी को ले कर कलेजे से लगाया और अपनी उसी मीठी, सुरीली आवाज में गुनगुनाने लगीं, ‘चंदन का है पालना…’

वह उठीं और बीच की सीट पर मेरी तरफ पीठ किए बैठे आदमी से कहने लगीं, ‘‘ओ बच्चे, तू इधर मेरी सीट पर बैठ जा, मैं उधर बैठ जाऊंगी.’’ वह जरा कसमसाया, मगर सोने की चूडि़यों की चमक और खनक के रोब में आ गया. वह उठ कर बूआ की जगह जा बैठा और बूआ अपना भारी जिस्म समेट कर उस की जगह पर धंस गईं. अब मेरी तरफ उन की पीठ थी.

सबकुछ बदल गया था, मगर उन का जूड़ा नहीं बदला था. वही पहाड़ी आलू जैसा उजड़ा, सूखा जूड़ा और उस के गिर्द लाल फीता. मेरे दिल में गुदगुदी सी उठी, मैं सब कुछ भूल गई. मैं तो बस वही शोख और खिलंदरी परवीन बन गई थी जो दिन में कम से कम 15 बार बूआ का जूड़ा हिला कर ढीला कर दिया करती थी. तब बूआ मुहब्बत भरी झिड़कियां दे कर अपनी नन्ही सी चोटी खोल कर लाल फीता दांतों में दबाए नए सिरे से जूड़ा बनाने लगती थीं. मैं ने हाथ बढ़ा कर उन का नन्हा सा जूड़ा छू लिया तो उन के बदन में बिजली सी दौड़ गई. वे मुड़ीं और घूर कर मेरी तरफ देखा. मैं मुसकराई, फिर हंस पड़ी, ‘‘बूआ…’’ मैं ने आगे कुछ कहना चाहा, लेकिन बड़ी सर्द आवाज में और बड़ी नागवारी से उन्होंने तेज सरगोशी की, ‘‘मुझे बूआ न पुकारना… इस तरह तो मेरी बेइज्जती होगी, कहना हो तो आंटीजी कहो.’’ सहसा मेरे होंठों पर आई हंसी एक खिंचाव की सूरत में जम कर रह गई.

पराया लहू- भाग 3: मायके आकर क्यों खुश नहीं थी वर्षा

लव अकेला पड़ा था. वर्षा का मन फिर से भीगने लगा. वह उस के नजदीक बैठ कर प्यार से उसे खिलाने लगी. फिर उठ कर चली तो लव ने उस की साड़ी का पल्लू थाम लिया और बोला, ‘‘कुछ देर और बैठो, मां.’’

वर्षा रुक कर उस के सिर पर हाथ फेरती रही. लव ने सुख का आभास कर के आंखें बंद कर लीं, पर भरत की पुकार पर वर्षा को नीचे आना पड़ा.

अगले दिन सुबह नाश्ते से निबट कर उस ने लव की चारपाई छत पर डाल दी और जाले साफ कर के कमरा रगड़रगड़ कर धोया, अगरबत्तियां जला कर बदबू दूर की फिर उस के मैले वस्त्रों को धो कर चमकाया. तत्पश्चात वह लव की मालिश करने बैठ गई.

मां कहती रहीं, ‘‘मैं कर दूंगी, तू फालतू की मेहनत क्यों कर रही है. इस कमरे में अकेला लव थोड़े ही सोता है, मैं भी तो सोती हूं.’’

मगर वर्षा के हाथ नहीं रुके, वह लव के सारे काम खुद ही निबटाती रही.

दोपहर ढलते ही अचानक ड्राइवर वर्षा व भरत को लेने आ पहुंचा तो सब को आश्चर्य हुआ. मां ने टोक दिया, ‘‘अभी 2 दिन कहां पूरे हुए हैं?’’

ड्राइवर बोला, ‘‘मुझे साहब ने दोनों को तुरंत लाने को कहा है. साहब भरत को बहुत प्यार करते हैं. भरत के बिना एक दिन भी नहीं रह सकते. इस के अलावा सब लोगों को एक शादी पर भी जाना है.’’

बेटी पराए घर की अमानत ठहरी सो मां भी कहां रोक सकती थीं. वह वर्षा की विदाई की तैयारी करने लगीं, पर सुधीर का न आना सब को खल रहा था.

पिताजी आर्द्र स्वर में कह उठे, ‘‘हम चाहे कितने भी गरीब सही पर दामाद का स्वागत करने में तो समर्थ हैं ही. विवाह के बाद दामाद एक बार भी हमारे घर नहीं आए.’’

‘‘मां, तुम लोग भी तो दिल्ली आया करो, आनाजाना तो दोनों तरफ से होता है.’’

‘‘ठीक है, हम भी आएंगे,’’ मां आंचल से आंखें पोंछती हुई बोलीं.

वर्षा ने भरत की नजर बचा कर 500 रुपए का एक नोट भाभी को थमा दिया और बोली, ‘‘भाभी, लव का इलाज अच्छी तरह से कराती रहना.’’

भाभी ने लपक कर नोट को अपने ब्लाउज में खोंस लिया और मुसकरा कर बोलीं, ‘‘लव की चिंता मत करो, दीदी, वह हमारा भी तो बेटा है.’’

आखिर में वर्षा ऊपर जा कर लव से मिल कर भारी मन से ससुराल के लिए विदा हुई. कार आंखों से ओझल होने तक घर के सभी लोग सड़क पर खड़े रहे.

वर्षा रास्ते भर सोचती रही कि उस ने साल भर तक मेरठ न आ कर लव के साथ सचमुच बहुत अन्याय किया है. अपनी जिम्मेदारियां दूसरों के गले मढ़ने से क्या लाभ, लव की देखभाल उसे खुद ही करनी चाहिए.

वह इस बारे में सुधीर से बात करने के लिए अपना मन तैयार करने लगी. सुधीर को न तो दौलत का अभाव है न वह कंजूस है. वह थोड़ी नानुकुर के बाद उस की बात अवश्य मान लेगा व लव को अपना लेगा. फिर तो कोई समस्या ही नहीं रहेगी.

सुधीर घर में बैठा उन दोनों की प्रतीक्षा कर रहा था. भरत कार से उतर कर पिता की तरफ दौड़ पड़ा. सुधीर ने उसे गोद में उठा लिया, ‘‘मेरा राजा बेटा आ गया.’’

‘‘हां, देखो पिताजी, मैं क्या लाया हूं?’’ भरत, ननिहाल में मिले खिलौने दिखाने लगा. मांजी ने चाय बना कर सब को प्याले थमा दिए. सब पीने बैठ गए.

मांजी व सुधीर भरत से मेरठ की बातें पूछने लगे, ‘‘तुम्हारे नानानानी, मामामामी सब कुशल तो हैं न?’’

भरत उत्साहित हो कर छोटीछोटी बातें भी बताने लगा, फिर एकाएक कह उठा, ‘‘वहां बहुत गंदा एक लड़का भी देखा. उस के दांत भी बहुत गंदे थे. उस ने ब्रश भी नहीं किया था.’’

‘‘बहू, यह किस के बारे में कह रहा है?’’ मांजी पूछ बैठीं तो वर्षा को लव के बारे में सबकुछ बताना पड़ा.

सुधीर सबकुछ सुनता रहा, पर उस ने एक शब्द भी लव के बारे में नहीं कहा. वर्षा को उस की यह चुप्पी नागवार गुजरी. वह उस से कुछ कहना ही चाहती थी कि मांजी ने टोक दिया, ‘‘बहू, बातें फिर कभी हो जाएंगी, इस वक्त शादी में चलने की तैयारी करो, नहीं तो देरी हो जाएगी.’’

मांजी के मायके में किसी रिश्तेदार की शादी थी. वर्षा ने भरत को तैयार किया, फिर खुद भी तैयार होने लगी. रास्ते भर खामोश रही पर वर्षा भी इतनी जल्दी हार मानने वाली नहीं थी, वह सुधीर से बात करने के पक्के मनसूबे बना चुकी थी.

आखिर एक दिन वर्षा को मौका मिल ही गया. मांजी भरत को ले कर पड़ोस में गई हुई थीं. वर्षा ने बात शुरू कर दी, ‘‘लव को भैयाभाभी के आश्रित बना कर अधिक दिनों तक वहां नहीं रखा जा सकता.’’

‘‘फिर वह कहां जाएगा?’’

‘‘उसे हम अपने साथ ही रख लें, तभी उचित रहेगा.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है?’’ कहते हुए सुधीर के चेहरे पर कठोरता छा गई, ‘‘मैं ने तुम से शादी ही इस शर्त पर की थी कि…’’

‘‘मेरी बात समझने की कोशिश करो. जिस प्रकार भरत मेरा बेटा है उसी प्रकार लव भी तुम्हारा बेटा है. फिर उसे साथ रखने में कैसी आपत्ति,’’ वर्षा ने उस की बात काटते हुए कहा.

‘‘मैं तुम्हारे लव को अपना बेटा कैसे मान सकता हूं? सपोज करो, मैं ने उसे बेटा मान भी लिया तो भी क्या मैं उसे घर में रखने की इजाजत दे दूंगा? क्या मेरा भरत, लव को अपना सकेगा? मां अपना सकेंगी?’’

यह सुन कर वर्षा चुप बैठी सोचती रही.

सुधीर उसे समझाने के अंदाज में फिर बोला, ‘‘अपनी भावुकता पर नियंत्रण रखो वर्षा, लव को भूल जाने में ही तुम्हारी भलाई है. उसे उस के हाल पर ही छोड़ दो.’’

‘‘मैं मां हूं, सुधीर,’’ वर्षा सिसक पड़ी, ‘‘अपनी संतान को तिलतिल कर मरते हुए कैसे देख सकती हूं? लव अब पहले से आधा भी नहीं रह गया. वह न ढंग से खा पाता है न पढ़ पाता है. भैयाभाभी के साथ और अधिक रह लिया तो उस का भविष्य खराब हो जाएगा.’’

‘‘मैं इस मामले में कुछ नहीं कर सकता, वर्षा. किसी अन्य को घर में आश्रय दे कर मैं अपने भरत के रास्ते में कांटे नहीं बो सकता,’’ सुधीर ने दोटूक जवाब दे दिया.

वर्षा को चुप्पी लगानी पड़ गई, साथ ही उस के हृदय में बनी सुधीर की छवि भी बिगड़ती चली गई कि कितना महान समझा था उस ने सुधीर को, लेकिन वह तो मात्र पत्थर निकला.

नया रिश्ता: पार्वती को जब बुढ़ापे में मिला प्यार

अमित की मम्मी पार्वती ने शरमाते हुए विशाल कुमार को अंगूठी पहनाई तो अमित की पत्नी शिवानी और उन के बच्चे अनूप व अतुल ने अपनी दादी पर फूलों की बरसात करनी शुरू कर दी. बाद में विशाल कुमार ने भी पार्वती को अंगूठी पहना दी. माहौल खुशनुमा हो गया, सभी के चेहरे खिल उठे, खुशी से झूमते बच्चे तो अपने नए दादा की गोद में जा कर बैठ गए.

यह नज़ारा देख कर अमित की आंखें नम हो गईं. वह अतीत की यादों में खो गया. अमित 5 वर्षों से शहर की सब से पौश कालोनी सनराइज सोसाइटी में रह रहा था. शिवानी अपने मिलनसार स्वभाव के कारण पूरी कालोनी की चहेती बनी हुई थी. कालोनी के सभी कार्यक्रमों में शिवानी की मौजूदगी अकसर अनिवार्य होती थी.

अमित के मातापिता गांव में रहते थे. अमित चाहता था कि वे दोनों उस के साथ मुंबई में रहने के लिए आ जाएं मगर उन्होंने गांव में ही रहना ज्यादा पसंद किया. वे साल में एकदो बार 15-20 दिनों के लिए जरूर अमित के पास रहने के लिए मुंबई आते थे. मगर मुंबई आने के 8-10 दिनों बाद ही गांव लौटने का राग आलापने लग जाते थे.

वक्त बीत रहा था. एक दिन रात को 2 बजे अमित का मोबाइल बजा.

‘हैलो, अमित बेटा, मैं तुम्हारे पिता का पड़ोसी रामप्रसाद बोल रहा हूं. बहुत बुरी खबर है, तुम्हारे पिता शांत हो गए है. अभी घंटेभर पहले उन्हें हार्ट अटैक आया था. हम उन्हें अस्पताल ले कर जा रहे थे, रास्ते में ही उन्होंने दम तोड़ दिया.’

अपने पिता की मृत्यु के बाद अमित अपनी मम्मी को अपने साथ मुंबई ले कर आ गया. बतौर अध्यापिका सेवानिवृत्त हुई पार्वती अपने पति के निधन के बाद बहुत अकेली हो गई थी. पार्वती को पुस्तकें पढ़ने का बहुत शौक था. अमित और शिवानी के नौकरी पर जाने के बाद वह अपने पोते अनूप और अतुल को पढ़ाती थी. उन के होमवर्क में मदद भी करती थी.

पार्वती को अमित के पास आए 2 साल हो गए थे. अमित के पड़ोस में विशाल कुमार रहते थे. वे विधुर थे, नेवी से 2 साल पहले ही रिटायर हो कर रहने के लिए आए थे. उन का एक ही बेटा था जो यूएस में सैटल हो गया था. एक दिन शिवानी ने पार्वती की पहचान विशाल कुमार से करवाई. दोपहर में जब बच्चे स्कूल चले जाते थे तब दोनों मिलते थे. कुछ दिनों तक दोनों के बीच औपचारिक बातें होती थीं. धीरेधीरे औपचारिकता की दीवार कब ढह गई, उन्हें पता न चला. अब दोनों के बीच घनिष्ठता बढ़ गई. पार्वती और विशाल कुमार का अकेलापन दूर हो गया.

एक दिन शिवानी ने अमित से कहा- ‘अमित, पिछले कुछ दिनों से मम्मी में आ रहे बदलाव को तुम ने महसूस किया क्या?’

अमित की समझ में कुछ नहीं आ रहा था, उस ने विस्मय से पूछा- ‘मैं कुछ समझा नहीं, शिवानी, तुम क्या कह रही हो?’

‘अरे अमित, मम्मी अब पहले से ज्यादा खुश नज़र आ रही हैं, उन के रहनसहन में भी अंतर आया है. पहले मम्मी अपने पहनावे पर इतना अधिक ध्यान नहीं देती थीं, आजकल वे बहुत ही करीने से रह रही हैं. उन्होंने अपने संदूक से अच्छीअच्छी साड़ियां निकाल कर वार्डरोब में लटका दी हैं. आजकल वे शाम को नियमितरूप से घूमने के लिए जाती हैं…’

अमित ने शिवानी की बात बीच में काटते हुए पूछा- ‘शिवानी, मैं कुछ समझा नहीं, तुम क्या कह रही हो?’

‘अरे भई, मम्मी को एक दोस्त मिल गया है. देखते नहीं, आजकल उन का चेहरा खिला हुआ नज़र आ रहा है.’

‘व्हाट…कैसा दोस्त, कौन दोस्त, शिवानी. प्लीज पहेली मत बुझाओ, खुल कर बताओ.’

‘अरे अमित, आजकल हमारे पड़ोसी विशाल अंकल और मम्मी के बीच याराना बढ़ रहा है,’ यह कहती हुई शिवानी खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘वाह, यह तो बहुत अच्छी बात है. मम्मी वैसे भी अकेली पड़ गई थीं. वे हमेशा किताबों में ही खोई रहती थीं. कोई आदमी दिनभर किताबें पढ़ कर या टीवी देख कर अपना वक्त भला कैसे गुजार सकता है. कोई तो बोलने वाला चाहिए न. चलो, अच्छा हुआ मगर यह सब कब से हो रहा है, मैं ने तो कभी महसूस नहीं किया. तुम्हारी पारखी नज़रों ने यह सब कब भांप लिया? शिवानी, यू आर ग्रेट…’ अमित ने विस्मय से कहा.

‘अरे अमित, तुम्हें अपने औफिस के काम, मीटिंग, प्रोजैक्ट्स आदि से फुरसत ही कहां है, मम्मी अकसर मुझ से तुम्हारी शिकायत भी करती हैं कि अमित को तो मुझ से बात करने का वक्त भी नहीं मिलता है,’ शिवानी ने शिकायत की तो अमित तुरंत बोला, ‘हां शिवानी, तुम सही कह रही हो, आजकल औफिस में इतना काम बढ़ गया है कि सांस लेने की फुरसत तक नहीं मिलती है. मगर मुझे यह सुन कर अच्छा लगा कि अब मम्मी बोर नहीं होंगी. साथ ही, हमें कभी बच्चों को ले कर एकदो दिन के लिए बाहर जाना पड़ा तो मम्मी घर पर अकेली भी रह सकती हैं.’ अमित ने अपने दिल की बात कह दी.

‘मगर अमित, मैं कुछ और सोच रही हूं,’ शिवानी ने धीरे से रहस्यमयी आवाज में कहा तो अमित ने विस्मयभरी आंखों से शिवानी की सूरत को घूरते हुए कहा- ‘हां, बोलो, बोलो, तुम क्या सोच रही हो?’

‘मैं सोच रही हूं कि तुम विशाल अंकल को अपना पापा बना लो,’ शिवानी ने तुरुप का पता फेंक दिया.

‘क्या…तुम्हारा दिमाग तो नहीं खिसक गया,’ अमित लगभग चिल्लाते हुए बोला.

‘अरे भई, शांत हो जाओ, पहले मेरी बात ध्यान से सुनो. मम्मी अकेली हैं, उन के पति नहीं हैं. और विशाल अंकल भी अकेले हैं व उन की पत्नी नहीं हैं. जवानी की बनिस्पत बुढ़ापे में जीवनसाथी की जरूरत ज्यादा होती है. मम्मी और विशाल अंकल दोनों सुलझे हुए विचारों के इंसान हैं, दोनों सीनियर सिटिजन हैं और अपनी पारिवारिक व सामाजिक जिम्मेदारियों से मुक्त हैं.

‘विशाल अंकल का इकलौता बेटा है जो यूएस में सैटल है. विशाल अंकल के बेटे सुमित और उस की पत्नी तान्या से मेरी अकसर बातचीत भी होती रहती है. वे दोनों भी चाहते हैं कि उन के पिता यूएस में हमेशा के लिए आ जाएं मगर उन्हें तो अपने वतन से असीम प्यार है, वे किसी भी कीमत पर वहां जाने को राजी नहीं, सेना के आदमी जो ठहरे. फिर उन का तो कहना है कि वे आखरी सांस तक अपने बेटे और बहू को भारत लाने की कोशिश करते रहेंगे. मगर वे अपनी मातृभूमि मरते दम तक नहीं छोडेंगे.’ अमित बड़े ध्यान से शिवानी की बात सुन रहा था.

शिवानी ने किंचित विश्राम के बाद कहा, ‘अमित, अब मैं मुख्य विषय पर आती हूं. तुम ने ‘लिवइन रिलेशनशिप’ का नाम तो सुना ही होगा.’

शिवानी की बात सुन कर अमित के चेहरे पर अनभिज्ञता के भाव तेजी से उभरने लगे जिन्हें शिवानी ने क्षणभर में पढ़ लिया और अमित को समझाते हुए बोली- ‘अमित, आजकल हमारे देश में विशेषकर युवाओं और बुजुर्गों के बीच एक नए रिश्ते का ट्रैंड चल रहा है जिसे ‘लिवइन रिलेशनशिप’ कहते हैं. इस में महिला और पुरूष शादी के बिना अपनी सहमति के साथ एक ही घर में पतिपत्नी की तरह रह सकते हैं. आजकल शिक्षित और आर्थिक रूप से स्वतंत्र लोग इस तरह की रिलेशनशिप को अधिक पसंद करते है क्योंकि इस में विवाह की तरह कानूनी प्रक्रिया से गुजरना नहीं पड़ता है. भारतीय कानून में भी इसे स्वीकृति दी गई है.

‘शादी के टूटने के बाद आप को कई तरह की कानूनी प्रक्रियाओं से गुजरना पडता है मगर इस रिश्ते में इतनी मुश्किलें नहीं आती हैं. लिवइन रिलेशनशिप में रहने का फैसला आप को सामाजिक व पारिवारिक दायित्वों से मुक्ति देता है. इस रिश्ते में सामाजिक व पारिवारिक नियम आप पर लागू नहीं होते हैं. अगर यह रिश्ता टूट भी जाता है तो आप इस में से आसानी बाहर आ सकते हैं. इस में कोई कानूनी अड़चन भी नहीं आती है. इसलिए मैं चाहती हूं कि…’ बोलती हुई शिवानी फिर रुक गई तो अमित अधीर हो गया और झल्लाते हुए बोला- ‘अरे बाबा, लगता है तुम ने ‘लिवइन रिलेशनशिप’ विषय में पीएच डी कर रखी है. पते की बात तो बता नहीं रही हो, लैक्चर दिए जा रही हो.’

‘अरे यार, बता तो रही हूं, थोड़ा धीरज रखो न,’ शिवानी ने मुसकराते हुए कहा.

‘ठीक है, बताओ,’ अमित ने बात न बढ़ाने की मंशा से कहा.

‘अमित, मैं चाहती हूं कि हम मम्मी और विशाल अंकल को ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहने के लिए राजी कर लेते हैं ताकि दोनों निश्चिंत और स्वच्छंद हो कर साथसाथ घूमफिर सकें,’ शिवानी ने अपने मन की बात कह दी.

‘मगर शिवानी, क्या मम्मी इस के लिए तैयार होंगी?’ अमित ने संदेह व्यक्त किया.

‘क्यों नहीं होंगी, वैसे भी आजकल दोनों छिपछिप एकदूसरे से मिल रहे हैं, मोबाइल पर घंटों बात करते हैं. लिव इन रिलेशनशिप के लिए दोनों तैयार हो जाएंगे तो वे दुनिया से डरे बगैर खुल कर मिल सकेंगे, साथ में भी रह सकेंगे,’ शिवानी ने अमित को आश्वस्त करते हुए कहा.

‘इस के लिए मम्मी या विशाल अंकल से बात करने की मुझ में तो हिम्मत नहीं है बाबा,’ अमित ने हथियार डालते हुए कहा.

‘इस की चिंता तुम न करो, अमित. अपनी ही कालोनी में रहने वाली मेरी एक खास सहेली रेणू इस मामले में मेरी सहायता करेगी. वह इस प्रेमकहानी से भलीभांति वाकिफ भी है. हम दोनों मिल कर इस शुभकार्य को जल्दी ही अंजाम दे देंगे. हमें, बस, तुम्हारी सहमति का इंतजार है,’ शिवानी ने विश्वास के साथ यह कहा तो अमित की व्यग्रता कुछ कम हुई.

उस ने शांत स्वर में कहा, ‘अगर मम्मी इस के लिए तैयार हो जाती हैं तो भला मुझे क्यों एतराज होगा. उन्हें अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने का हक तो है न.’

अमित की सहमति मिलते ही शिवानी और रेणु अपने मिशन को अंजाम देने में जुट गईं. शिवानी को यह विश्वास था कि पार्वती और विशाल अंकल पुराने जमाने के जरूर हैं मगर उन्हें आधुनिक विचारधारा से कोई परहेज नहीं है. दोनों बहुत ही फ्लैग्जिबल है और परिवर्तन में यकीन रखते हैं. एक संडे को शिवानी और रेणू गुलाब के फूलों के एक सुंदर गुलदस्ते के साथ विशाल अंकल के घर पहुंच गईं.

विशाल कुमार ने अपने चिरपरिचित मजाकिया स्वभाव में उन का स्वागत करते हुए कहा- ‘वाह, आज सूरज किस दिशा में उदय हुआ है, आज तो आप दोनों के चरण कमल से इस गरीब की कुटिया पवित्र हो गई है.’

शिवानी और रेणू ने औपचारिक बातें समाप्त करने के बाद मुख्य बात की ओर रुख किया. रेणू ने कहना शुरू किया-

‘अंकल, आप की और पार्वती मैडम की दोस्ती से हम ही नहीं, पूरी कालोनी वाकिफ है. इस दोस्ती ने आप दोनों का अकेलापन और एकांतवास खत्म कर दिया है. कालोनी के लोग क्या कहेंगे, यह सोच कर अकसर आप दोनों छिपछिप कर मिलते हैं. अंकल, हम चाहते हैं कि आप दोनों ‘औफिशियली’ एकदूसरे से एक नया रिश्ता बना लो और दोनों खुल कर दुनिया के सामने आ जाओ…’

कुछ गंभीर बने विशाल कुमार ने बीच में ही पूछा, ‘मैं समझा नहीं, रेणू. तुम कहना क्या चाहती हो?’

‘अंकल, आप और पार्वती मैडम ‘लिवइन रिलेशनशिप’ बना लो, फिर आप को दुनिया का कोई डर नहीं रहेगा. आप कानूनीरूप से दोनों साथसाथ रह सकते हैं और घूमफिर सकते हैं,’ यह कहती हुई शिवानी ने ‘लिव इन रिलेशनशिप’ के बारे में विस्तृत जानकारी विशाल अंकल दे दी.

विशाल अंकल इस के लिए तुरंत राजी होते हुए बोले-

‘यह तो बहुत अच्छी बात है. दरअसल, मेरे और पार्वती के बीच अब तो अच्छी कैमिस्ट्री बन गई है. हमारे विचारों में भी बहुत समानता है. हम जब भी मिलते हैं तो घंटों बाते करते हैं. पार्वती को हिंदी साहित्य की अकूत जानकारी है. उस ने अब तक मुझे हिंदी की कई प्रसिद्ध कहानियां सुनाई हैं.’

‘अंकल, अब पार्वती मैडम को लिवइन रिलेशनशिप के लिए तैयार करने की जिम्मेदारी आप की होगी.’

‘यस, डोन्ट वरी, आई विल डू इट. मगर जैसे आप दोनों ने मुझ से बात की है, वैसे एक बार पार्वती से भी बात कर लो तो ज्यादा ठीक होगा, बाकी मैं संभाल लूंगा.’

विशाल अंकल को धन्यवाद दे कर शिवानी और रेणू खुशीखुशी वहां से विदा हुईं. अगले संडे दोनों ने पार्वती से बात की. पहले तो उन्होंने ना नू, ना नू किया, मगर शिवानी और रेणू जानती थीं कि पार्वती दिल से विशाल कुमार को चाहती हैं और वे इस रिश्ते के लिए न नहीं कहेंगी, फिर उन दोनों की बेहतर कन्विन्सिंग स्किल के सामने पार्वती की ‘ना’ कुछ ही समय के बाद ‘हां’ में बदल गई.

शिवानी ने दोनों की ‘लिव इन रिलेशनशिप’ की औपचारिक घोषणा के लिए एक दिन अपने घर  पर एक छोटी पार्टी रखी थी, जिस में अमित, शिवानी और विशाल कुमार के बहुत करीबी दोस्त ही आमंत्रित थे. विशाल और पार्वती ने एकदूसरे को अंगूठियां पहना कर इस नए रिश्ते को सहर्ष स्वीकर कर लिया.

“अरे अमित, कहां खो गए हो, अपनी मम्मी और नए पापा को केक तो खिलाओ,” शिवानी ने चिल्ला कर यह कहा तो अमित अतीत से वर्तमान में लौटा.

इस नए रिश्ते को देख अमित की नम आंखों में भी हंसी चमक उठी.

पराया लहू- भाग 2: मायके आकर क्यों खुश नहीं थी वर्षा

दोनों कार में बैठ कर मेरठ चल पड़े. रास्ते भर भरत उस की गोद में बैठ कर भांतिभांति के प्रश्न पूछता रहा.

वर्षा मायके पहुंच देर तक मां, भाभी के गले से लिपटी रोती रही. भाभी बारबार पूछती रहीं, ‘‘ठीक तो हो, दीदी? सुधीर ने आदित्य का गम भुला दिया या नहीं? सुधीर का व्यवहार तो ठीक है न?’’

वर्षा के मन में अपने लव का गम समाया हुआ था. वह क्या उत्तर देती, जैसेतैसे चाय के घूंट गले से नीचे उतारती रही.

फिर भाभी खुद ही उसे लव के कमरे में ले गईं. नीचे जगह कम होने के कारण लव छत पर बने कमरे में रहता था.

मूंज की ढीली चारपाई पर सिकुड़ी हुई मैली दरी पर अपाहिज बना पड़ा था लव. पहली नजर में वर्षा उसे पहचान नहीं पाई, फिर लिपट कर रोने लगी, ‘‘यह क्या दशा हो गई लव की?’’

लव काला, सूखा, कंकाल जैसा लग रहा था, वह भी मां को कठिनाई से पहचान पाया. फिर आश्चर्य से वर्षा की कीमती साड़ी व आभूषणों को देखता रह गया.

‘‘तू ठीक तो है न, लव?’’ वर्षा ने स्नेह से उस के सिर पर हाथ फिराया, पर लव को उस से बात करते संकोच हो रहा था. वह नए वस्त्र व जूतेमोजे पहने, गोलमटोल भरत को भी घूर रहा था.

‘‘मां, यह कौन है?’’ भरत ने लव को देख कर नाकभौं सिकोड़ते हुए पूछा.

वर्षा कहना चाहती थी कि लव तुम्हारा भाई है, पर यह सोच कर शब्द उस के होंठों तक आतेआते रह गए, क्या भरत लव को भाई के रूप में स्वीकार कर पाएगा? नहीं, फिर लव को भाई बता कर उस के बालमन पर ठेस पहुंचाने से क्या लाभ?

तभी भरत अगला प्रश्न कर बैठा, ‘‘मां, यह कितना गंदा है, जैसे कई दिनों से नहाया ही न हो, चलो यहां से, नीचे चलते हैं.’’

भाभी भरत को बहलाने लगीं, ‘‘दीदी, तुम लव से बातें करो न?’’

वर्षा की निगाहें पूरे कमरे का अवलोकन कर रही थीं. कमरा काफी गंदा था. छतों तथा दीवारों पर मकडि़यों के बड़ेबड़े जाले और धूल की परतें जमी हुई थीं. उसे याद आया कि इस कमरे में तो घर का कबाड़ रखा जाता था.

भाभी जैसे उस के मन के भाव ताड़ गईं सो मजबूरी जताते हुई बोलीं, ‘‘दीदी, क्या करें, घर में कोई नौकर तो है नहीं, मांजी ने ही इस कमरे का सामान निकाल कर इस की सफाई की थी. वही लव की देखभाल करती हैं. मुझे तो रसोई से ही फुरसत नहीं मिल पाती, फिर छोटे बच्चे भी ठहरे…’’

‘‘ठीक कहती हो, भाभी,’’ कहती हुई वर्षा लव के सिरहाने बैठ गई, क्योंकि कमरे में कोई कुरसी नहीं थी और स्टूल पर दवाइयां व पीने का पानी रखा हुआ था.

‘‘लव, मुझे मां कहो न,’’ कहती हुई वर्षा उस के बालों में हाथ फेरने लगी.

‘‘मां,’’ बड़ी कठिनाई से लव कह सका, जैसे कोई अपराध कर रहा हो. तुम कहां चली गई थीं?’’

‘‘मैं…’’ वर्षा का स्वर गले में ही अटक गया. कैसे कहे कि उस ने पुनर्विवाह कर लिया. आदित्य की यादें मिटाने की खातिर वह सुधीर का दामन थाम चुकी है. फिर लव को वह सब पता भी तो नहीं है. जिस वक्त सुधीर से उस की शादी मंदिर में हुई थी, लव को घर में छिपा कर रखा गया था.

‘‘मां, मेरे लिए नए कपड़े नहीं लातीं?’’ एकाएक लव की आंखों में आकांक्षाओं की चमक तैर उठी.

वर्षा को याद आया, वह लव से यही कह कर घर से निकली थी कि वह उस के लिए नए कपड़े खरीदने बाजार जा रही है, फिर 1 वर्ष पश्चात आज ही लौट कर आई है. वर्षा की पलकें भीग उठीं कि कितनी पुरानी बात याद रखी है लव ने. वह उस के पुराने, घिसेफटे, कपड़े देखती रही, भाभी कहां नए कपड़े दिलवा पाती होंगीं?

‘‘मां, मेरे नए कपड़े दे दो न?’’ लव जिद करने लगा.

वर्षा के मन में आया कि वह भरत के नए कपड़े ला कर लव को पहना दे. नाप ठीक आएगा क्योंकि दोनों हैं भी एक आयु के पर वह ऐसा नहीं कर सकी. मन में डर की लहर सी उठी कि अगर भरत ने कपड़ों की बाबत सुधीर व मांजी को बता दिया तो?

तभी भाभी ने टोका, ‘‘चलो दीदी, पहले भोजन कर लो, बाद में ऊपर आ जाना.’’

वर्षा सीढि़यों की तरफ बढ़ गई. बीच में ही भाभी ने पूछना शुरूकर दिया, ‘‘दीदी, तुम लव के लिए कपड़े, खिलौने वगैरह कुछ ले कर नहीं आईं?’’

वर्षा उत्तर नहीं दे पाई तो भाभी के चेहरे पर रूखापन छा गया. वह कुछ कड़वेपन से कहने लगीं, ‘‘लव है तो तुम्हारी कोख जाया ही, तुम्हें उस का ध्यान रखना चाहिए. सुधीर की आमदनी भी तो कम नहीं है, घर में सभी कुछ मौजूद है. रुपए तुम्हारे हाथ में भी तो रहते होंगे?’’

वर्षा को लगा कि भाभी ने जानबूझ कर उसे इस तरह का पत्र लिखा था, जिस से वह मेरठ आ कर उन्हें कुछ दे जाए. भाभी शुरू की लालची जो ठहरीं, दूसरों पर खर्च करना इन्होंने कहां सीखा है.

मां ने खाना परोस दिया पर वर्षा के मुंह में यह सोच कर निवाला नहीं चल पाया कि बेचारा लव, पेट भर कहां खाता होगा.

मां समझाती रहीं, ‘‘तुम्हें ऐसी स्थिति में खूब खानापीना चाहिए. बच्चा अच्छा पैदा होगा तो सुधीर भी तुम्हें अधिक पसंद करेगा.’’

पिता और भैया भरत को लाड़प्यार करते रहे, भैया उसे स्कूटर पर बिठा कर दुकान पर ले गए. वहां से उसे टाफियां व फल दिलवा कर लाए.

मां और भाभी उस से सुधीर, भरत व ससुराल की ही बातें करती रहीं तो ऊब कर उस ने खुद ही लव की चर्चा छेड़ी, ‘‘लव कैसा पढ़ रहा है? कैसे नंबर आए?’’

‘‘ठीक है, अधिक पढ़ कर भी उसे क्या करना है. थोड़ा बड़ा होगा तो मामा के साथ, उस की दुकान पर काम करने लगेगा,’’ मां बोलीं.

वर्षा सोचने लगी, फिर तो लव पूरे घर के लिए मुफ्त का नौकर बन कर रह जाएगा. सभी लोग उस पर भांतिभांति के हुक्म चलाते रहेंगे.

सब ने भोजन कर लिया तो भाभी बरतन समेटने लगीं, पर लव के भूखे रहने का किसी को आभास तक नहीं रहा. तब वर्षा अपने साथ लाए फल व मिठाई तस्तरी में रख कर लव को देने चली गई.

विमोहिता: भाग 3-कैसे बदल गई अनिता की जिंदगी

बहुत देर उस के पास मैं चुप बैठा रहा. वह इसे समझ रही थी. बाद में शायद दूसरी बार उस के हाथों को अपने हाथों में ले कर मैं ने कहा, ‘नहीं, कुछ ऐसा मत सोचो. सब ठीक हो जाएगा.’

पर वह फिर फफकफफक कर रोने लगी. मैं उसे देखता रहा और मैं कुछ कह नहीं सका. इस तरह बैठेबैठे जब बहुत रात हो गई तो उस ने ही कहा, ‘जाओ. घर पर रमा चिंता कर रही होगी. बहुत रात हो गई है.’

और जब घर आया तो रात के 2 बज रहे थे. रमा इंतजार कर रही थी. उस ने कहा, ‘बहुत देर कर दी. सब ठीक तो है न?’

मैं ने कहा, ‘अनिता से मिल कर आने में देरी हो गई.’

और फिर रमा को मैं ने अनिता के बारे में सब कुछ बताया. उस रात हम दोनों बिना कुछ खाए ही लेट गए. रात भर हमें नींद नहीं आई. मैं अनिता के बारे में ही सोचता रहा. उस के जीवन का अंत इस तरह होगा, इस की कभी मैं ने कल्पना तक नहीं की थी.

2 दिन बाद कुछ मित्रों की सहायता से उसे निर्मला अस्पताल में ऐडमिट करा जब चलने को हुआ तो उस ने मेरी ओर बड़ी करुणा से देखा. बहुत दर्द था उस में. मैं ने कहा, ‘इस ऐडवांस स्टेज में तुम जानती हो कुछ नहीं हो सकता. यहां रहोगी तो कोई पास तो होगा, कम से कम छोटीमोटी जरूरतों के लिए.’

उस ने कुछ नहीं कहा. धीरे से उस ने अपनी पलकें उठाईं. पलकें उठाते ही वहां से आंसू ढलकते देख मेरी आंखें भर आईं. मैं कुछ देर बैठा रहा. चलने को हुआ तो उस ने कहा, ‘अमित कैसा है?’

‘अच्छा है, बहुत चाहती हो उसे? अगली बार आऊंगा तो उसे लेता आऊंगा,’ मैं ने कहा.

‘नहीं, उसे मत लाना. वह बहुत छोटा है. यहां लाना ठीक नहीं होगा,’ कह कर उस ने अपनी आंखें दूसरी तरफ कर लीं.

‘ठीक है. अपना खयाल रखना. 1-2 दिन के अंतर पर मैं आता रहूंगा,’ कह कर मैं चलने के लिए दरवाजे की ओर बढ़ा. उस ने कुछ नहीं कहा.

वह मुझे ही देख रही थी. वह नजर बहुत कातर थी. मैं आगे नहीं बढ़ सका. लौट कर कुछ देर उस के हाथों को अपने हाथों में ले सहलाता रहा और फिर बिना कुछ कहे चला आया.

और आज जब हम आए तो वह जा चुकी थी सदा के लिए. सब कुछ छोड़ कर. नर्स ने कहा, ‘‘रात में वह आप लोगों के बारे में बारबार पूछ रही थी. ऐसा लगता है जैसे वह अपने जाने के बारे में जानती थी.’’

उस का सामने पड़ा चेहरा सरल था. वहां कोई विषाद या तनाव का चिह्न नहीं था और अपने हाथों में उस ने लाल चूडि़यां पहन रखी थीं. उसे देखते हुए मैं ने नर्स की ओर देखा.

उस ने कहा, ‘‘ये लाल चूडि़यां रोज पर्स से निकाल कर वह घंटों देखा करती थी और फिर पर्स में रख लेती थी. कल उस के आग्रह करने पर मैं ने इसे उस के हाथों में पहनाया था. रात मेरे कहने पर उस ने निकालने से मना कर दिया और कहा, ‘नहीं, आज की रात इसे पहन कर सोऊंगी.’’’

दाह संस्कार कर घर लौटने पर परेशान देख रमा ने कहा, ‘‘चलो, सो जाओ. वह चली गई अच्छा हुआ. वह बहुत दुख में थी.’’

मैं मौन रहा. वह कुछ देर सामने खड़ी रही और बाद मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘उन चूडि़यों से तुम्हारा क्या संबंध था?’’

मैं ने कहा, ‘‘उस दिन जब हम हिल्टन के करीब बांद्रा में घूम रहे थे, उसे वे लाल चूडि़यां पसंद आ गई थीं. उस ने मुझ से कहा था, ‘अखिल, ये चूडि़यां तुम मुझे खरीद दो. आई प्रौमिस यू, उस रात इसे पहन कर तुम्हारा इंतजार करूंगी.’’’

‘‘और?’’

‘‘और कुछ नहीं. जीवन के अंतिम पलों में कदाचित वह अपनी व्यथा में भावुक हो गई थी हमारे उन संबंधों को ले कर.’’

दूसरे दिन एक रजिस्टर्ड पत्र मिला. पत्र अनिता के सौलिसिटर का था. वह अपनी सारी संपत्ति, जिस में 3 रूम का उस का कार्टर रोड का फ्लैट और करीब 1 करोड़ रुपए बैंक डिपौजिट था, अमित के नाम कर गई थी. साथ में उस का एक पत्र था. पत्र में उस ने लिखा था-

अखिल,

दुख के गहरे पलों से गुजर रही हूं इन दिनों और यह दुख समय के साथ कम नहीं हो रहा. बढ़ता ही जा रहा है.

मेरा किया हुआ सदा मेरे सामने होता है. मैं सदा उसे अपलक देखती रहती हूं. उस किए हुए में तुम भी होते हो और जब वहां तुम होते हो, तुम्हें पाने के लिए मन बेचैन हो उठता है. ये सब कुछ मैं ने कभी नहीं कहा तुम से. किस मुंह से कहती?

उस दिन तुम ने पूछा था, क्या मैं अमित को बहुत चाहती हूं? सच, बहुत चाहती हूं. जब भी मैं ने उस के बारे में सोचा है इस अवस्था में भी मेरी छाती में दूध उमड़ने लगा है. आज सोचती हूं, काश तुम्हारी दुलहन बनती. तुम्हारे लिए घंटों सजती और अमित मेरी छाती पर खेलता. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. और देखो, कहां जा फंसी. कहीं की नहीं रही और जाने का समय भी आ गया. असहनीय पीड़ा होती है आखिल. मन में, सब सोच कर.

वह मेरा जीवन के प्रति अज्ञान था. उस के नियमों के प्रति कोई विद्रोह नहीं. आज सोचती हूं हरसिंगार बन यों न फैलती और तुम्हारी निर्दोष दृष्टि को समझ पाती तो यह दुख तो आज नहीं भोगती.

तुम्हें दुख पहुंचाया है मैं ने, उस के लिए मेरा स्वयं मुझे कोसता रहता है. पर ऐसा कहना आज अर्थहीन होगा. जिंदगी का एक पल भी तुम्हें नहीं दे सकी और देखो आज लाश ढोने के लिए कह रही हूं.

इस जन्म में तो नहीं, मगर अगले जन्म में मुझे अवश्य साथ ले लेना. तुम जो भी कहोगे आई प्रौमिस यू, वही करूंगी. उस के सिवा कुछ नहीं करूंगी.

– तुम्हारी अनिता

और आज सुबह रमा को तैयार होते देख मैं ने कहा, ‘‘कहां जा रही हो सुबह सुबह?’’

‘‘मैं अनिता के सौलिसिटर के पास जा रही हूं. मैं सब कुछ निर्मला अस्पताल को गिफ्ट कर देना चाहती हूं.’’

और उस दिन निर्मला को गिफ्ट कर जब मैं घर लौट रहा था तो लगा, रमा नहीं अनिता साथ में है लौंग ड्राइव पर.

पराया लहू: भाग 1- मायके आकर क्यों खुश नहीं थी वर्षा

वर्षा के हाथों में थमा मायके से आया भाभी का पत्र हवा से फड़फड़ा रहा था. वह सोच रही थी न जाने कैसा होगा लव, भाभी उस की सही देखभाल भी कर पा रही होंगी या नहीं.

भाभी ने लिखा था कि लव जब छत पर बच्चों के साथ पतंग उड़ा रहा था, नीचे गिर गया. उस के पैर की हड्डी टूट गई, पर उस की हालत गंभीर नहीं है, जल्दी ठीक हो जाएगा. शरीर के अन्य हिस्सों पर भी मामूली चोटें आई थीं. हम उस का उचित इलाज करा रहे हैं.

‘‘मां, तुम रो रही हो?’’ भरत ने पुकारा तो वर्षा की तंद्रा भंग हुई. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. उस ने झटपट आंखें पोंछीं और भरत को गोद में बैठा कर मुसकराने का यत्न कर पूछने लगी, ‘‘स्कूल से कब आया, भरत?’’

‘‘कब का खड़ा हूं, पर तुम ने देखा ही नहीं. बहुत जोरों से भूख लगी है,’’ भरत ने कंधे पर टंगा किताबों का बोझा उतारते हुए कहा.

‘‘अभी खाना परोसती हूं,’’ कहती हुई वर्षा रसोईघर में गई. फौरन दालचावल गरम कर लाई और भरत को खाना परोस दिया.

‘‘मां, तुम भी खाओ न,’’ भरत ने आग्रह किया.

उस का आग्रह उचित भी था क्योंकि प्रतिदिन वर्षा उस के साथ ही भोजन करती थी, लेकिन आज वर्षा के मुंह में निवाला चल नहीं पा रहा था. बारबार आंखों में आंसू आ रहे थे. मन लव के आसपास ही दौड़ रहा था.

भरत शायद उस के मन के भाव समझ गया था सो खाना खातेखाते रुक कर बोला, ‘‘किस की चिट्ठी आई है?’’

‘‘किसी की नहीं, देखो, मैं खा रही हूं,’’ वर्षा बोली. वह घर में बखेड़ा खड़ा करना नहीं चाहती थी, सो होंठों पर नकली मुसकान ला कर बेमन से खाने लगी.

भरत संतुष्ट हो कर चुप हो गया, फिर वह खाना खा कर अपने कमरे में बिस्तर पर लेट गया.

वर्षा उस के सिरहाने बैठ कर थोड़ी देर उस का सिर सहलाती रही. फिर जब भरत ऊंघने लगा तो वह अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर पड़ गई, पर मन फिर से मायके की दहलीज पर जा पहुंचा. कैसा होगा लव? इस दुर्घटना के क्षणों में उस ने मां को अवश्य याद किया होगा, वह उसे याद कर के रोया भी बहुत होगा, इतने छोटे बच्चे मां से दूर रह भी कैसे सकते हैं? हो सकता है लव ने आदित्य को भी याद किया हो, आदित्य का कितना दुलारा था लव. वह दफ्तर से आते ही लव को गोद में ले कर बैठ जाते, उस के लिए भांतिभांति के बिस्कुट, टाफियां व खिलौने ले कर आते.

उस वक्त लव था भी कितना प्यारा, गोराचिट्टा, गोलमटोल. जो देखता प्यार किए बिना नहीं रह पाता. जब लव डेढ़ वर्ष का हुआ तो उस ने नन्हेनन्हे बच्चों की फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीता था. नन्हा सा दूल्हा बन कर कितना जंच रहा था लव.

यही सब सोच कर वर्षा की आंखों से फिर आंसू बहने लगे. रक्त कैंसर से आदित्य की मृत्यु न हुई होती तो उस का भरापूरा परिवार क्यों बिखरता. आदित्य जीवित होता तो उस का प्यारा लव इस तरह क्यों भटकता.

आदित्य को खो कर वर्षा 3 वर्ष के लव को सीने से चिपकाए मायके लौटी तो वहां उन दोनों मांबेटों को दिन बिताने कठिन हो गए. आदित्य के जीवित रहते जो भैयाभाभी उसे बारबार मायके आने को पत्र लिखते, वे ही एकाएक बेगाने बन गए. उन्हें उन दोनों का खर्च संभालना भारी लगा था.

तब दुखी हो कर पिता ने उस के पुनर्विवाह की कोशिशें शुरू कर दीं और एक अखबार में वैवाहिक विज्ञापन पढ़ कर सुधीर के घर वालों से पत्र व्यवहार शुरू किया तो सुधीर से उस का रिश्ता पक्का हो गया, पर सुधीर व उस के घर वालों की एक ही शर्त थी कि वे बच्चे को स्वीकार नहीं करेंगे. उन्हें सिर्फ बिना बच्चे की विधवा ही स्वीकार्य थी, जबकि सुधीर भी एक बेटे का बाप था. विधुर था और अपने बेटे की खातिर ही पुनर्विवाह कर रहा था, पर वह उस के बेटे का दर्द नहीं समझ पाया और उसे अस्वीकार कर दिया.

अपने जिगर के टुकड़े को मांबाप की गोद में छोड़ कर वर्षा, सुधीर से ब्याह कर ससुराल आ पहुंची थी, तब से सिर्फ पत्र ही लव की जानकारी पाने का साधन मात्र रह गए थे. पर उन पत्रों में यह भी लिखा होता कि वह अब हमेशा को लव को भूल कर अपने भविष्य को संवारे व सुधीर और भरत को किसी अभाव का आभास न होने दे. भरत को पूरी ममता दे.

मेरठ से आए हुए उसे पूरा वर्ष बीत गया, तब से एक बार भी वह मायके नहीं गई. सुधीर ने ही नहीं जाने दिया. हमेशा यही कहा कि अब मायके से कैसा मोह. घर में किसी वस्तु का अभाव है क्या. लेकिन अभाव तो वर्षा के मन में बसा था, वह एक दिन के लिए भी अपने लव को नहीं भूल पाती थी और अब भाभी के पत्र ने उस के मन की बेचैनी कई गुना बढ़ा दी थी. मन लव को बांहों में लेने और हृदय से लगाने को बेचैन हो उठा था.

सुधीर घर लौटा तो वर्षा खुद को रोक न पाई और कह उठी, ‘‘मैं 2 दिन के वास्ते मेरठ जाना चाहती हूं.’’

सुधीर ने वही रटारटाया उत्तर दे डाला, ‘‘क्या करोगी जा कर, वैसे भी आजकल तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं रहती, तीसरा महीना चल रहा है, वहां आराम कहां मिल पाएगा…’’

‘‘क्यों नहीं मिलेगा? भैयाभाभी क्या मुझे हल में जोतेंगे? मैं वहां पूरे दिन बिस्तर तोड़ने के अलावा और करूंगी भी क्या?’’ वर्षा जैसे विद्रोह पर उतर आई थी.

उस ने सास से भी जिद की, ‘‘बहुत दिन हो गए मुझे मायके वालों को देखे. दिल्ली से मेरठ का रास्ता ही कितना है. सिर्फ 2 घंटे का, फिर भी मैं साल भर से मायके नहीं जा पाई हूं और न कभी उन लोगों ने ही आने का साहस किया. फिर आनाजाना दोनों तरफ से होता है, एक तरफ से नहीं.’’

इस पर सास ने जाने की इजाजत  यह कहते हुए दे दी कि इस का मायके आनाजाना भी जरूरी है.

वर्षा अटैची में कपड़े रखने लगी तो भरत भी जिद कर उठा, ‘‘मैं भी तुम्हारे साथ जाऊंगा, मां. तुम्हारे बिना कैसे मन लगेगा?’’

साल भर में ही भरत उस से काफी हिलमिल चुका था और उसे ही अपनी सगी मां समझने लगा था.

भरत को रोतेबिसूरते देख सास ने उसे भी साथ ले जाने को कह दिया, ‘‘क्या हुआ, यह भी कुछ दिन को घूम आएगा. बेचारे को असली ननिहाल तो कभी मिला ही नहीं, सौतेला ही सही.’’

वर्षा ने भरत के कपड़े भी रख लिए. भरत के कपड़ों की अटैची अलग से तैयार हो गई. भले ही 2 दिनों को जाना हो, भरत को कई जोड़ी कपड़ों की आवश्यकता पड़ती थी. वह बारबार कपड़े मैले कर लेता था.

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