आखिर दिल का मामला है

हमारा छोटा सा दिल हमारे शरीर का ऊर्जा स्रोत है. दिल काम कर रहा है तो हम जिंदगी जी रहे हैं. हमारा दिल प्रतिदिन करीब 1 लाख 15 हजार बार धड़कता है और करीब 2 हजार गैलन रक्त पंप करता है. जिस दिन इस दिल में तकलीफ शुरू हुई तो परेशानी आप को ही होगी.

हमारे देश में होने वाली मौतों का प्रमु ख कारण हृदय से जुड़ी बीमारियां ही हैं. हृदयरोगों के कारण मात्र 26 वर्ष की आयु में मृत्यु के आंकड़ों में 34% की वृद्धि हुई है. इसलिए इस का खास खयाल रखना जरूरी है.

दिल की तंदुरुस्ती जुड़ी होती है आप के दिमाग से, आप के खानपान और जीवनशैली से. आप क्या सोचते हैं, क्या खाते हैं और कैसे जीते हैं इस सब का सीधा असर दिल की सेहत पर पड़ता है.

आइए, जानते हैं दिल को स्वस्थ कैसे रख सकते हैं:

सक्रियता जरूरी

एक निष्क्रिय जीवनशैली जीने का अर्थ है अपने दिल की सेहत को खतरे में डालना, इसलिए आलस त्याग कर दौड़ लगाएं, वाक करें, साइक्लिंग और स्विमिंग करें. जिम जाना जरूरी नहीं पर शरीर को थकाना और पसीना लाना जरूरी है. कोई भी ऐसी ऐक्टिविटी कीजिए जिस में आप के पूरे शरीर का व्यायाम हो जाए. नियमित व्यायाम करने से दिल की बीमारियों का जोखिम कम रहता है.

न करें धूम्रपान

यदि आप अपनेआप को हृदयरोगों से दूर रखना चाहते हैं तो जरूरी यह भी है कि आज ही धूम्रपान बंद कर दें. धूम्रपान और तंबाकू का सेवन कोरोनरी हृदयरोगों के होने के सब से बड़े कारणों में से एक है. तंबाकू रक्तवाहिकाओं और हृदय को बड़ा नुकसान पहुंचाता है, इसलिए यदि आप हृदय को स्वस्थ रखना चाहते हैं तो आज ही धूम्रपान छोड़ दें.

रखें वजन को नियंत्रित

अधिक वजन होना हृदयरोग के लिए एक जोखिम कारक माना जाता है, इसलिए रोज कसरत करना और संतुलित आहार लेना बेहद जरूरी हो जाता है. मोटापे के कारण हृदय की समस्याएं अधिक होती हैं.

जीएं जिंदगी जीभर कर

जिंदगी से शिकायतें कम करें और खुल कर जीने का प्रयास अधिक करें. रोजमर्रा की जिंदगी में छोटीछोटी चीजों का आनंद लें. इस से दिल भी खुश रहेगा और आप भी. जितना हो सके मुसकराएं और ठहाके लगाएं. संगीत सुनें, किताबें पढ़ें, दोस्तों और बच्चों के साथ समय बिताएं.

शरीर में औक्सीजन की ज्यादा मात्रा पहुंचे इस के लिए गहरी सांसें लें. ये सभी आदतें तनाव और दबाव को कम करने में मदद करेंगी और आप को दिल की बीमारी से दूर रखेंगी.

अधिक फाइबर वाला खाना खाएं

हृदयरोग के खतरे को कम करने के लिए पर्याप्त मात्रा में फाइबर खाएं. दिन में कम से कम 30 ग्राम फाइबर खाने का लक्ष्य रखें. साबूत दालें अनाज, सब्जियां जैसे गाजर, टमाटर आदि में न घुलने वाला फाइबर होता है. दलिया, सेम, लोबिया, सूखे मेवे और फल जैसे सेब, नीबू, नाशपाती, अनानास आदि में घुलनशील फाइबर होता है.

फाइबर युक्त भोजन अधिक समय तक पेट में रहता है जिस के कारण पेट भरा हुआ महसूस होता है और खाना भी कम खाया जाता है. इसी कारण वजन भी कम होता है. फाइबर युक्त भोजन पाचन के समय शरीर से वसा निकाल देता है, जिस के कारण कोलैस्ट्रौल कम होता है व हृदय अधिक तंदुरुस्त होता है.

भोजन में बढ़ाएं फायदेमंद चिकनाई

अधिक वसा वाले ज्यादा खाद्यपदार्थ खाने से रक्त में कोलैस्ट्रौल की मात्रा बढ़ सकती है. यह हृदयरोग होने के खतरे को बढ़ा सकता है. वसा की जगह फायदेमंद चिकनाई खाएं. तेल, दूध एवं दूध से बनी वस्तुएं और लाल मांस में नुकसानदेह चिकनाई होती है जो बुरा कोलैस्ट्रौल बढ़ा कर हृदय को अस्वस्थ करती है.

लेकिन मछली, अंडा, दालें, टोफू, किनोआ इत्यादि से पौष्टिक प्रोटीन एवं फायदेमंद चिकनाई दोनों मिलते हैं. बाजार में मिलने वाली अधिकतर खाने की वस्तुओं में अच्छा पौष्टिक तेल नहीं होता. इस कारण इन का उपयोग कम से कम करना चाहिए. चीनी एवं मैदे का इस्तेमाल कम से कम करना चाहिए और भोजन में पौष्टिक तत्त्व जैसे सूखे मेवे, हरी सब्जियां इत्यादि का इस्तेमाल बढ़ा देना चाहिए.

करें नमक में कटौती

सही रक्तचाप और दिल की सेहत के लिए टेबल पर रखे नमक का इस्तेमाल करने से बचें और अपने खाने में अधिक प्रयोग करने से भी बचें. एक बार जब आप बिना अतिरिक्त नमक के खाद्यपदार्थ खाने के आदी हो जाते हैं तो आप इसे पूर्णरूप से छोड़ सकते हैं. भोजन में अधिक नमक की मात्रा होने से रक्तचाप बढ़ जाता है.

इस कारण हृदय में कई बीमारियां होने की संभावना भी बढ़ जाती है. खाने को अधिक स्वादिष्ठ बनाने के लिए मसाले, हरा धनिया, पुदीना आदि डालिए. इस तरह नमक की मात्रा भी कम हो जाएगी. खरीदे गए खाद्यपदार्थ के लेबल को देखें. यदि 100 ग्राम में 1.5 ग्राम नमक या 0.6 ग्राम सोडियम से अधिक होता तो उस खाद्यपदार्थ में नमक की मात्रा अधिक है. एक वयस्क को दिनभर में 6 ग्राम से कम नमक खाना चाहिए.

घर के खाने को दें प्राथमिकता

घर में बना भोजन अधिक पौष्टिक होता है क्योंकि आप स्वयं सब्जी, मसाले, तेल एवं पकाने की विधि का चयन करते हैं. आप खाने को ज्यादा स्वादिष्ठ बनाने के लिए उस में विभिन्न प्रकार के मसाले डाल सकते हैं और नमक एवं चीनी जैसे हानिकारक तत्त्वों की मात्रा कम कर सकते हैं और फिर घर में बना खाना सस्ता भी पड़ता है.

रक्तचाप और कोलैस्ट्रौल पर नजर

हृदय की सेहत के लिए उच्च रक्तचाप और उच्च कोलैस्ट्रौल दोनों हानिकारक होते हैं. रक्तचाप और कोलैस्ट्रौल की जांच को ट्रैक करना और निगरानी करना महत्त्वपूर्ण होता है. उच्च रक्तचाप और उच्च रक्त कोलैस्ट्रौल के स्तर से दिल का दौरा पड़ सकता है.

कोलैस्ट्रौल 2 रूपों में शरीर में मौजूद होता है- पहला एचडीएल और दूसरा एलडीएल.

एचडीएल या गुड कोलैस्ट्रौल का ज्यादातर हिस्सा प्रोटीन से बना होता है, इसलिए शरीर की विभिन्न कोशिकाओं से कोलैस्ट्रौल को लेना और उसे नष्ट करने के लिए लिवर के पास ले जाने का मुख्य कार्य गुड कोलैस्ट्रौल करता है. अगर शरीर में गुड कोलैस्ट्रौल का उच्च स्तर बना रहे तो शरीर को हृदयरोग से सुरक्षा मिलती है और अगर गुड कोलैस्ट्रौल का स्तर कम हो जाए तो कोरोनरी आर्टरी डिजीज होने का खतरा बढ़ जाता है.

दूसरी तरफ एलडीएल या बैड कोलैस्ट्रौल का सिर्फ एकचौथाई हिस्सा ही प्रोटीन होता है और बाकी सारा फैट. वैसे तो यह क्षतिग्रस्त कोशिकाओं की मरम्मत में मदद करता है, लेकिन अगर शरीर में इस का स्तर बढ़ जाए तो यह रक्तधमनियों की अंदरूनी दीवारों में जमा होने लगता है जिस से धमनियां संकुचित होने लगती हैं और पर्याप्त रक्तप्रवाह में मुश्किल पैदा होती है जिस से हृदयरोग और स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है.

कोलैस्ट्रौल बढ़ने का कारण

गलत भोजन: अगर आप ऐसे आहार का सेवन करें जिस में सैचुरेटेड फैट की मात्रा अधिक हो तो खून में एलडीएल या बैड कोलैस्ट्रौल की मात्रा बढ़ जाती है. मीट, डेयरी उत्पाद, अंडा, नारियल तेल, पाम औयल, मक्खन, चौकलेट्स, बहुत ज्यादा तलीभुनी चीजें, प्रोसैस्ड फूड और बेकरी उत्पाद इसी श्रेणी में आते हैं.

असक्रिय जीवनशैली: अगर कोई व्यक्ति अपने रोजाना की जीवनशैली में किसी तरह की शारीरिक गतिविधि न करे, हर वक्त बैठा रहे तो इस से भी खून में एलडीएल या बैड कोलैस्ट्रौल की मात्रा बढ़ जाती है और गुड कोलैस्ट्रौल यानी एचडीएल का सुरक्षात्मक प्रभाव कम होने लगता है.

बीमारियां: पीसीओएस, हाइपरथायरोइडिज्म, डायबिटीज, किडनी डिजीज, एचआईवी और औटोइम्यून बीमारियां जैसे रूमैटौइड आर्थ्राइटिस, सोरायसिस आदि की वजह से भी कोलैस्ट्रौल का लैवल बढ़ने लगता है.

कोलैस्ट्रौल कम करने के उपाय

खून में कोलैस्ट्रोल के लैवल को बढ़ने से रोकने में सब से अहम भूमिका होती है आप के भोजन की. अपने भोजन में सैचुरेटेड फैट से भरपूर चीजों का बहुत अधिक सेवन न करें. मीट, अंडा, प्रोसैस्ड फूड, डेयरी प्रोडक्ट्स आदि चीजें बहुत ज्यादा न खाएं.

डाइट से जुड़ी आदतों में बदलाव करें. फुल फैट क्रीम वाले दूध की जगह स्किम्ड मिल्क का इस्तेमाल करें, खाना पकाने के लिए वैजिटेबल औयल का इस्तेमाल करें. अपने भोजन में साबूत अनाज, मछली, नट्स, फल, सब्जियां, चिकन आदि शामिल करें. फाइबर से भरपूर चीजें खाएं और बहुत ज्यादा चीनी वाले खाद्यपदार्थों और पेयपदार्थों का सेवन न करें.

सक्रियता बनाए रखें

अगर आप दिनभर कोई शारीरिक गतिविधि नहीं करते हैं तो इस से आप के खून में एचडीएल या गुड कोलैस्ट्रौल की मात्रा कम होने लगती है. हफ्ते में 3-4 बार 45 मिनट के लिए ऐरोबिक ऐक्सरसाइज करें. इस से बैड कोलैस्ट्रौल को कंट्रोल में रखने में मदद मिलती है. इस के अलावा वाक करें, रनिंग करें, जौगिंग करें, स्विमिंग, डांसिंग आदि भी आप को सक्रिय बनाए रखने और कोलैस्ट्रौल लैवल को कंट्रोल करने में मदद करेंगे.

अगर आप का वजन अधिक है या आप मोटापे का शिकार हैं तो इस से भी बैड कोलैस्ट्रौल या एलडीएल का लैवल बढ़ने लगता है और गुड कोलैस्ट्रौल या एचडीएल कम होने लगता है. ऐसे में अगर आप वजन कम कर लें तो इस से भी आप को काफी मदद मिल सकती है.

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नमक कितना ज्यादा चीनी कितनी कम

जरा सी बारिश होते ही हमारा मन गरमगरम चाय के साथ तले व मसाला बुरके हुए पकौड़ों के लिए ललचा उठता है. नमकीन पकौड़ों पर बुरके मसाले का तीखापन जब चाय के मीठे से टकराता है, तो मीठी चाय भी तीखी, मगर फीकी लगने लगती है और हम बिना सोचेसमझे चाय का स्वाद बढ़ाने के लिए चाय में एक शुगर क्यूब या फिर 1 चम्मच चीनी और डाल देते हैं. यही नहीं, गरमी के मौसम में पता नहीं कितनी बार मीठीनमकीन मसालेदार शिकंजी पी लेते हैं. कोल्ड ड्रिंक और आइसक्रीम में तो जैसे हम सब की जान बसती है.

इस तरह हमें पता ही नहीं चलता कि वक्तबेवक्त खानेपीने की उठती तलब को शांत करने और अपनी जीभ का स्वाद बढ़ाने के लिए हम अनजाने में अपने खानपान में नमक, मिर्चमसालों और चीनी की मात्रा बेवजह ही बढ़ाते रहते हैं. चीनी, नमक और मसाले डालने से उस समय तो व्यंजन का स्वाद निश्चित रूप से कई गुना बढ़ जाता है, लेकिन इन के दुष्प्रभाव बाद में पता चलते हैं, जो बहुत ही कष्टप्रद होते हैं, क्योंकि ये गंभीर शारीरिक और मानसिक रोगों का कारण बनते हैं. वैसे शारीरिक और मानसिक विकास के लिए चीनी, नमक और मसालों का विशेष महत्त्व है. लेकिन एक सीमित मात्रा तक प्रयोग करने पर ही ये लाभ पहुंचाते हैं. इन का जरूरत से ज्यादा प्रयोग हमारे शरीर को फायदे के बजाय नुकसान पहुंचाता है. अध्ययन बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों से हमारे खानपान में चीनी, नमक और मसालों का सेवन कई गुना बढ़ा है.

आज हमारी दिनचर्या ही कुछ ऐसी हो गई है कि अपने खानपान में इन तीनों को कम करना सचमुच एक कठिन काम बन चुका है. इस का एक कारण डब्बाबंद खानपान है. 3-4 दशक पहले तक डब्बाबंद खानपान का चलन न के बराबर था, इसलिए समस्याएं इतनी नहीं थीं. दरअसल, डब्बाबंद खाने को लंबे समय तक सुरक्षित और फ्रैश रखने के लिए उस में सोडियम और चीनी अधिक मात्रा में डाली जाती है. पर आजकल डब्बाबंद खानपान का चलन जिस तरह से बढ़ा है, उसी का परिणाम हैं- उच्च रक्तचाप, अस्थमा, बढ़ता मोटापा और फैलती कमर जैसी परेशानियां.

आइए, हम आप को बताते हैं कि हमें नमक, चीनी और मसाले कितने और कैसे खाने चाहिए :

ज्यादा चीनी खतरे की घंटी

मीठा हमारे शरीर के लिए बहुत जरूरी है. इस से हमें शक्ति व ऊर्जा प्राप्त होती है. लेकिन जरूरत से ज्यादा मीठा खाने से वजन बढ़ सकता है. चीनी में कैलोरी की मात्रा अधिक होती है. वैसे चीनी में कोई विटामिन, मिनरल या  पौष्टिक तत्त्व नहीं होता. यह मानव शरीर को सिर्फ ऊर्जा व शक्ति प्रदान करती है और वह भी 1 ग्राम में 4 कैलोरी की दर से. इस तरह अधिक मिठाइयां, ठंडे पेय, बिस्कुट व चाकलेट लेने से आहार का संतुलन बिगड़ जाता है और आहार की पौष्टिकता नष्ट हो जाती है. विशेषज्ञों के अनुसार प्रतिदिन 1,600 कैलोरीयुक्त आहार लेने वाला युवा व स्वस्थ व्यक्ति प्राकृतिक पदार्थों से प्राप्त होने वाली चीनी के अतिरिक्त 6 छोटे चम्मच यानी 24 ग्राम चीनी बिना किसी जोखिम के ले सकता है. इसी तरह 2,200 कैलोरीयुक्त आहार लेने वाला व्यक्ति 12 चम्मच यानी 48 ग्राम चीनी ले सकता है. मीठे के नाम पर हम ज्यादा कोल्ड ड्रिंक्स और आइसक्रीम आदि लेते हैं, जो सिर्फ कैलोरीज बढ़ाते हैं, शरीर को किसी भी प्रकार का पोषण नहीं देते. कोल्ड ड्रिंक्स की जगह सादा ठंडा पानी, डब्बाबंद फू्रट जूस की जगह आधा कप 100% ताजे फलों का रस और खाने के बाद मीठे की जरूरत महसूस हो तो खीर या हलवे की जगह ताजे फल लेने चाहिए.

शरीर में जरूरत से कम या ज्यादा चीनी होने पर आप के शरीर में खतरे की घंटी बजने लगती है. रक्त में चीनी की मात्रा बढ़ने पर प्यास और भूख बहुत लगती है और पेशाब भी बारबार आता है. दूसरी तरफ अगर आप खाने के समय में जरूरत से ज्यादा गैप रखते हैं, कम खाते हैं, व्यायाम ज्यादा करते हैं या फिर खाली पेट अलकोहल का सेवन करते हैं, तो रक्त में चीनी का स्तर गिरने से आप बेजान सा महसूस करते हैं.

नमक का प्रयोग

नमक हमारे आहार का एक अनिवार्य हिस्सा है. भारत में प्रति व्यक्ति नमक का खर्च 15 ग्राम प्रतिदिन है. ‘द साइंटिफिक कमेटी औन न्यूट्रीशियंस’ हर व्यक्ति को प्रतिदिन 4 ग्राम नमक लेने की सलाह देती है. सोडियम हमारे शरीर के विकास के लिए अत्यंत जरूरी तत्त्व है, लेकिन सोडियम का जरूरत से ज्यादा प्रयोग एक नहीं अनेक समस्याओं को जन्म देता है. जैसे, अस्थमा, छाती में जलन, अस्थि रोग, सूजन, उच्च रक्तचाप आदि. इन सब रोगों से बचने के लिए हमें नमक का प्रयोग बहुत सोचसमझ कर करना चाहिए. शरीर में नमक की कमी की वजह से मांसपेशियों में ऐंठन, सिर चकराना और पैरों आदि में सूजन जैसी परेशानियां हो सकती हैं, जो आगे चल कर गंभीर स्नायु रोग का रूप धारण कर सकती हैं. आहार विशेषज्ञा शायस्ता आरजू बताती हैं कि कम नमक खाने वाला व्यक्ति बहुत ज्यादा पानी पी लेता है, तो वह वाटर इंटौक्सिकेशन का शिकार हो सकता है. नमक कई प्रकार का होता है, लेकिन आमतौर पर घरों में पैक्ड आयोडाइज्ड नमक ही प्रयोग होता है. बाजार में कई प्रकार के नमक उपलब्ध हैं, लेकिन किसी भी प्रकार के नमक के प्रयोग से पहले उस की विशेषताओं के बारे में जान लेना चाहिए.

नमक नमक में अंतर

समुद्री नमक : यह आम नमक की तरह ही पोषक होता है. इस नमक में पोटैशियम, मैग्नीशियम और आयोडीन जैसे तत्त्व प्राकृतिक रूप से मौजूद रहते हैं. यह देखने और स्वाद में दूसरे नमक से भिन्न होता है. समुद्री नमक में आम नमक के मुकाबले खनिजों की मात्रा अधिक होती है और इस में समुद्र की महक महसूस की जा सकती है. 

अपरिष्कृत पहाड़ी नमक : इस नमक में विभिन्न प्रकार के 84 से अधिक खनिज पाए जाते हैं, लेकिन इस का प्रयोग खाद्यपदार्थों में स्वाद या महक के लिए नहीं किया जाता. आमतौर पर भुने आलू, मीट, सी फूड या पोल्ट्री फूड से बने व्यंजनों में इस का प्रयोग किया जाता है.

काला नमक : इस का प्रयोग विशेष रूप से स्वाद और महक के लिए किया जाता है, लेकिन ध्यान रहे इस के अधिक प्रयोग से जोड़ों में दर्द, खून की कमी, थकान और रक्त नलिकाओं में अवरोध की शिकायत हो सकती है. एक अध्ययन से पता चला है कि जो महिलाएं गर्भावस्था के दौरान काले नमक का प्रयोग अधिक करती हैं, उन के बच्चे कमजोर पैदा होते हैं और बीमारियों से लड़ने की उन की क्षमता दूसरे बच्चों के मुकाबले कम होती है.

मसालों का प्रयोग

मसाले भोजन को सुगंधित और स्वादिष्ठ बनाने के साथसाथ खाने को रिच लुक प्रदान करते हैं. चीनी, नमक और फैट का आदर्श विकल्प हैं- जड़ीबूटियां और मसाले. मसालों के महत्त्व को रेखांकित करते हुए आहार विशेषज्ञा विजयलक्ष्मी आयंगर बताती हैं, ‘‘मसालों में फाइटो न्यूट्रीऐंट्स होते हैं, जो हमारे शरीर के हैल्दी सैल्स को कैंसर सैल्स में परिवर्तित होने से रोकते हैं.’’ नमक की तरह ही कोई भी पैमाना मसालों के सुरक्षित प्रयोग और विषाक्त तत्त्वों के बारे में सही और पूरी जानकारी नहीं देता. यह बात 100% सही है कि कम मात्रा में और नियमित अंतराल से उपयोग किए गए मसाले हमें सुरक्षा प्रदान करते हैं. मसाले हमें छाती में जलन, आंखों में चुभन, बढ़ते कोलैस्ट्रौल, कैंसर, मधुमेह, जोड़ों के दर्द और अलसर जैसी बीमारियों से राहत पहुंचाते हैं. कई वर्षों से मसालों का प्रयोग बुखार, पेट दर्द, त्वचा रोग, बदहजमी, गले के संक्रमण, सर्दीजुकाम आदि के उपचार के लिए होता आ रहा है. आहार विशेषज्ञा कंचन सग्गी का कहना है, ‘‘मसाले किसी भी बीमारी को पूरी तरह से ठीक तो नहीं कर सकते, लेकिन उस बीमारी की गंभीरता को काफी हद तक कम कर सकते हैं और अस्थाई रूप से आराम भी पहुंचाते हैं.’’

मसालों की खूबियां

लौंग : दांत दर्द से लौंग तुरंत राहत प्रदान करती है. यह एक बहुत अच्छे माउथ फ्रैशनर का काम भी करती है.

अदरक या सोंठ : कोलैस्ट्रौल कम करने से ले कर रक्तचाप नियंत्रित करने और थकान दूर करने तक में सहायक है.

हलदी : हलदी स्वाद में कड़वी और प्रभाव में गरम होती है. यह कफ और पित्त के दोषों को दूर करती है. कटने, छिलने और जलने पर हलदी का प्रयोग ऐंटीसेप्टिक की तरह भी किया जाता है. इसी गुण के कारण हलदी का प्रयोग स्वास्थ्य और सौंदर्यवर्धन के लिए भी होता है.

दालचीनी : यह एक पेड़ की छाल होती है. यह बलगम, गैस, खुजली, हृदय रोग, मूत्राशय रोग, बवासीर, पेट के कीड़े, सायनस दूर करने और वीर्य बढ़ाने में सहायक है.

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पंडितों ने 4 सालों तक मां नहीं बनने की बात कही है, मैं क्या करुं?

सवाल- 

मैं 27 साल की हूं. मेरे विवाह को 5 महीने हो चुके हैं, लेकिन अभी तक प्रैगनैंट नहीं हुई हूं. क्या यह मेरे भीतर किसी कमी या गड़बड़ी का लक्षण है? कई पंडितों ने मुझ से कहा है कि मैं कम से कम अगले 4 सालों तक मां नहीं बन पाऊंगी. मैं इस बात से बहुत डरी हुई हूं. बताएं, मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब-

यह निश्चित तौर पर बता पाना कि आप कब मां बनेंगी, किसी के वश की बात नहीं है. अगर पतिपत्नी दोनों की फर्टिलिटी नौर्मल है यानी दोनों की प्रजननशक्ति अच्छी है और सारे हालात प्रैगनैंसी के अनुकूल हैं तब भी प्रैगनैंट होने के लिए यह जरूरी है कि पतिपत्नी दोनों का शारीरिक मेल उन दिनों में हो जिन दिनों में पुरुष शुक्राणु और स्त्री डिंब के मेलमिलाप का संयोग बनता है. स्त्री के मासिकचक्र में हर महीने कुछ ही दिन ऐसे होते हैं जिन में प्रैंगनैंसी का संयोग बनता है. फर्टिलिटी स्टडीज में देखा गया है कि जो दंपती हर तरह से सामान्य होते हैं उन में भी स्त्री के प्रैंगनैंट होने के चांसेज किसी 1 महीने में 20-25% ही होते हैं. 3 महीने लगातार जतन करने पर चांसेज 50%, 6 महीने में 72% और 12 महीने में 85% पाए गए हैं. अभी आप के विवाह को मात्र 5 महीने ही बीते हैं, इसलिए इस तरह निराश होना कतई ठीक नहीं है. अगर आप का मासिकचक्र 28 दिनों का है, तो आप दोनों का 11वें से 17वें दिन के बीच मिलन फलदायी हो सकता है. मसलन अगर आप का मासिक धर्म 8 अगस्त को शुरू होता है, तो इस हिसाब से 19 से 25 अगस्त के बीच का शारीरिक मेल आप को प्रैगनैंट बना सकता है. दरअसल, यही वे दिन होंगे जब आप की ओवरी से एग रिलीज होने के सब से ज्यादा चांसेज बनेंगे. किसी पंडित, ज्योतिषी या हस्तरेखा वाचक की बातों में आ कर बिना वजह अपने जीवन को संशय, चिंता या भय में न डालें.

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लेखिका- दीप्ति गुप्ता

ज्यादातर भारतीय लोगों को सुबह और शाम चाय पीने की आदत  होती  है. इसे पीने के बाद वे ताजा महसूस करते हैं. वैसे देखा जाए, तो चाय गर्भवती महिलाओं सहित दुनियाभर के लोगों द्वारा सबसे ज्यादा पीऐ जाने वाले खाद्य पदार्थों में से एक  है. प्रैग्नेंसी में खासतौर से सीमित मात्रा में चाय का सेवन बहुत अच्छा माना जाता है. दरअसल, चाय की पत्तियों में पॉलीफेनॉल और एंटीऑक्सीडेंट होते हैं., जो न केवल आपके ह्दय स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं बल्कि आपकी प्रतिरक्षा को भी बढ़ाते हैं. हालांकि,  इनमें कैफीन भी होता है, इसलिए इनका सेवन आपको एक दिन में 200 मिग्रा से ज्यादा नहीं करना चाहिए. वैसे विशेषज्ञ प्रैग्नेंसी में कुछ खास तरह की चाय का सेवन करने की सलाह देते हैं. उनके अनुसार, आमतौर पर ब्लैक टी, मिल्क टी, ग्रीन टी में 40 से 50 मिग्रा कैफीन होता है, जबकि हर्बल टी में कैफीन की मात्रा न के बराबर होती है. इसलिए प्रैग्नेंसी के दौरान हर्बल टी को एक स्वस्थ और बेहतरीन विकल्प माना गया है. यहां 6 तरह की हर्बल चाय हैं, जिनका प्रैग्नेंसी के दौरान सेवन करना पूरी तरह से सुरक्षित है.

1. अदरक की चाय-

अदरक की चाय में जो स्वाद है, वो किसी आम चाय में नहीं. इसे खासतौर से सर्दियों में पीया जाए, तो गर्माहट तो आती ही है ,साथ ही ताजगी का अहसास भी होता है. लेकिन किसी भी गर्भवती महिला को अपने रूटीन में अदरक की चाय जरूर शामिल करनी चाहिए. क्योंकि यह मॉर्निंग सिकनेस को कम करती है. इसे अपने रूटीन में शामिल करने के बाद सर्दी, गले की खराश और कंजेशन की समस्या से भी छुटकारा पाया जा सकता है. इसके लिए अदरक के कुछ टुकड़ों को गर्म पानी में उबाल  लें और दूध, शहद के साथ लाकर पी जाएं.

Eye Sight का गुपचुप चोर ‘ग्लूकोमा’

क्या आपने कभी अपनी आंखों में ऐसा दबाव महसूस किया है, जिससे तेज सिरदर्द हुआ हो और आंखें लाल हो उठी हो?आपने किसी वस्तु को देखते समय उसके चारों ओर इंद्रधनुषी रंग बिखरे देखे है?क्या आँखों पर जोर के साथ आपको मिचली भी आती है? ये ग्लूकोमा के लक्षण हो सकते है,जो दुनिया में अंधेपन का दूसरा सबसे आम कारण है, ऐसा अंधापन जिसे रोका जा सकता है. यह एक ऐसी बीमारी है, जो आईज ऑप्टिक नर्व यानि आंखों की एक ऐसी तंत्रिका को नुकसान पहुंचाती है, जो मस्तिष्क से जुड़ती है और जिससे हमें देखने में मदद मिलती है. ग्लूकोमा आंख में बढ़े हुए दबाव से संबंधित हो सकता है, जिसे इंट्राओकुलर प्रेशर के रूप में जाना जाता है.

ग्लूकोमा के रोगी अधिक

इस बारें में भोपाल के एएसजी आई हॉस्पिटल प्राइवेट लिमिटेड के नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉ.नेहा चतुर्वेदी कहती है कि बढ़ती उम्र के साथ ये रोग बढ़ता है और 40 वर्ष से अधिक उम्र के लोग ग्लूकोमा के लिए सबसे अधिक संवेदनशील होते है. यह अनुमान है कि भारत में 40 वर्ष से अधिक आयु के लगभग 1.1 करोड़ रोगी है, जिसमें वृद्ध लोगों में ग्लूकोमा अधिक दिखाई पड़ा है, वहीं अलग-अलग आयु वालों के लिए इस बीमारी का नाम भी अलग ही है.

  • नवजात शिशु में इस बीमारी के होने पर इसे ’जन्मजात ग्लूकोमा’ कहा जाता है,
  • कम उम्र (3-10 वर्ष) में इसे ’विकासात्मक ग्लूकोमा’ कहा जाता है,
  • ‘किशोर ग्लूकोमा’ 10-40 वर्ष की आयु के बीच के समूह को होने वाले ग्लूकोमा को कहा जाता है. .

होती है कई बार वंशानुगत

डॉ. नेहा आगे कहती है कि कई अन्य बीमारियों की तरह, ग्लूकोमा भी वंशानुगत हो सकता है, सिर या आंख के क्षेत्र में आघात, आंखों में बूंदों या मौखिक दवा के रूप में लंबे समय तक स्टेरॉयड का इस्तेमाल करना भी इस नेत्र विकार का कारण बन सकता है. ग्लूकोमा आमतौर पर कोई चेतावनी वाले लक्षण नहीं दिखाता, यह धीरे-धीरे विकसित होता है और हल्के-हल्के दृष्टि कमजोर करता जाता है. इसलिए, इसे ’आँखों का गुपचुप चोर’ या ‘साइलेंट थीफ ऑफ साइट’ भी कहा जाता है. ग्लूकोमा की वजह से दृष्टि के नुकसान की भरपाई नहीं हो सकती, ऐसे में हाई रिस्क वाले लोगों के लिए नेत्र रोग विशेषज्ञ से नियमित जांच करवाना बहुत जरूरी हो जाता है. नियमित जांच में ऑप्टिक नर्व स्ट्रक्चर और आई प्रेशर की जांच की जाती है और जरूरी हुआ तो नर्व की टेस्टिंग के लिए कुछ परीक्षणों का सुझाव दिया जाता है. इनमेंविजुअल फील्ड टेस्टिंग,कॉर्नियल मोटाई और ऑप्टिक नर्व की ओसीटी स्कैन शामिल है. ये परीक्षण न केवल ग्लूकोमा के निदान की पुष्टि करने में मदद करते है, बल्कि रोग से होने वाले आँखों की नुकसान की मात्रा निर्धारित करते हुए स्थिति को संभालने में मदद करते है.

एनाटोमिकली अलग संरचना 

हालाँकि प्रत्येक आंख की एनाटोमिकलस्ट्रक्चर अलग होती है, ऐसे में दो प्राथमिक प्रकार के ग्लूकोमा खास तौर पर होते है, ओपन-एंगल ग्लूकोमा (ओएजी), जिसमें धीमी और स्पर्शोन्मुख शुरुआत होती है और एंगल-क्लोजर ग्लूकोमा (एसीजी), जो ओकुलर दबाव में तीव्र वृद्धि का कारण बनता है.

अपनाएं प्रिवेंटिव तरीका

डॉ मानती है कि वर्तमान में ग्लूकोमा का कोई इलाज उपलब्ध नहीं है लेकिन रोगी में विजन और फील्ड के अधिक नुकसान को रोकने के लिए विभिन्न उपचारों और थिरेपी के द्वारा नेत्र विकार का प्रबंधन किया जा सकता है. आंखों के दबाव को वांछित स्तर तक कम करने के लिए कई विकल्प उपलब्ध है. रोग शुरुआती चरण में है, तो नियमित रूप से उपयोग करने के लिए कोई आई ड्रॉप निर्धारित कररोग को नियंत्रित किया जा सकता है. जिन्हें इससे भी लाभ नहीं होता है उन रोगियों में आई सर्जरी भी एक विकल्प है, जो रोग के विकास को धीमा करने या रोकने में मदद करती है. ओलोजन इम्प्लांट, वाल्व सर्जरी, मिनिमली इनवेसिव ग्लूकोमा सर्जरी (एमआईजीएस), लेजर सर्जरी के उपयोग के साथ स्टैंडर्ड फिल्टरिंग सर्जरी जैसे सर्जरी के विभिन्न उपचार विकल्प हैं जिन्हें डॉक्टर की सलाह के बाद करवाया जा सकता है.

सुने डॉक्टर की

रोगी और डॉक्टर मिलकर ही ग्लूकोमा का सही इलाज तय कर सकते है.जरुरत के आधार पर उपचार निर्धारित करने के बाद नेत्र रोग विशेषज्ञ आपको जो भी निर्देश दें, उनका लगातार पालन करने की जरूरत होगी. नियमित जांच, सालाना या छह महीने में आंखों की पूरी जांच, एंटीऑक्सीडेंट खाद्य पदार्थों से भरपूर संतुलित आहार खाकर स्वस्थ वजन बनाए रखना, मधुमेह को नियंत्रण में रखना, कैफीन के अधिक सेवन से बचना और धूम्रपान विकार से लड़ने में मदद करने जैसे कुछ एहतियाती उपाय बरतने पड़ते है. इसके अलावाकुछ केसेज में रोगी से शीर्षासन व्यायाम न करने की सलाह दी जाती है और अचानक ज्यादा मात्रा में पानी न पीने की सलाह भी दी जाती है, क्योंकि इससे आंखों पर दबाव बढ़ सकता है.

अंत में यह कहना सही होगा कि आपको जरा सा भी ग्लूकोमा के लक्षण दिखाई पड़ने पर, तुरंत उपचार की कोशिश करें, ताकि आप दृष्टि हानि से बच सकें. इसके लिए नेत्र रोग विशेषज्ञ के साथ नियमित जांच, निर्धारित दवा को लेना जैसे उपाय आजमाने ही होंगे.इससे  रोगी को स्वस्थ जीवन जीने में मदद मिलेगी. इसके अलावा, स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता भी ग्लूकोमा को नियंत्रित करने की एक कुंजी है.

Anemia से ऐसे पाएं छुटकारा

खून की थोड़ी सी भी कमी व्यक्ति की कार्यक्षमता पर खासा प्रभाव डालती है और रोग की जितनी गंभीर स्थिति होती है उसी अनुपात में मरीज की कार्यक्षमता भी घट जाती है.  प्रयोगों द्वारा यह पता चला है कि रक्त में केवल 1.5 ग्राम हीमोग्लोबिन कम होने से रोगी की शारीरिक श्रम करने की शक्ति काफी घट जाती है.

कार्यक्षमता में कमी

खून की कमी जिसे अंगरेजी में एनीमिया कहते हैं, खून में लाल रक्त कणिकाओं की कमी के कारण होती है. कणिकाओं के एक महत्त्वपूर्ण घटक हीमोग्लोबिन की मात्रा भी इस स्थिति में कम हो जाती है. हीमोग्लोबिन लौह तत्त्व को मिला कर बना एक जटिल यौगिक होता है और इसी के कारण रक्त और रक्त कणिकाओं का रंग लाल रहता है.

हीमोग्लोबिन रक्त द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों को आक्सीजन पहुंचाने का खास कार्य करता है लेकिन खून में जब इस की मात्रा कम हो जाती है तो शरीर के विभिन्न अंगों को आक्सीजन भी कम मिलती है. इस कारण जैविक आक्सीकरण की क्रिया घट जाने से ऊर्जा भी कम उत्पन्न हो पाती है. यही वजह है कि रोगी की शारीरिक श्रम करने की क्षमता घट जाती है और वह जरा सा शारीरिक श्रम करने के बाद हांफने लगता है.

एनीमिया और कुपोषण

आंतों द्वारा भोजन को अवशोषित करने की शक्ति का प्रमुख कारण कुपोषण अथवा अल्प पोषण है. कुपोषण के कारण ही शरीर को पर्याप्त मात्रा में लौह तत्त्व अथवा विटामिन बी-12 और फौलिक एसिड की मात्रा नहीं मिल पाती और वह खून की कमी का शिकार हो जाता है. हमारे यहां लौह तत्त्व की कमी के कारण होने वाली रक्ताल्पता सामान्य है. सर्वेक्षणों के अनुसार 56.8 प्रतिशत गर्भवती स्त्रियां और 35.6 प्रतिशत अन्य युवा स्त्रियों के शरीर में लौह तत्त्व की मात्रा कम होने के कारण खून की कमी पाई जाती है. भारत में 20 से 50 प्रतिशत स्त्रियों में फौलिक एसिड की कमी भी पाई जाती है. रक्ताल्पता का एक प्रमुख कारण यह भी है.

खून की कमी के कुछ अन्य कारण भी हैं, जैसे, मलेरिया, पेट में कृमियों की शिकायत होना आदि. इस तरह से शरीर में खून की कमी बीमारी दूर होने पर स्वयं ठीक हो जाती है. कुछ दवाइयों जैसे क्लोरेफेनीकाल आदि को बगैर चिकित्सक के परामर्श के लंबे समय तक लेने से भी खून की कमी की स्थिति बन सकती है.

रक्त की कमी का दुष्प्रभाव मानसिक दशा पर भी पड़ता है. रोगी खून की कमी के चलते चिड़चिड़ा हो सकता है. उसे सिरदर्द की भी शिकायत रहती है. कभीकभी सीने में दर्द और हलका बुखार भी रह सकता है. अन्य लक्षण जैसे, नाखूनों, हथेलियों और चेहरे का सफेद होना एवं आखों की निचली पलक के अंदरूनी भाग की लालिमा घट जाना आदि भी मिलते हैं. खून की कमी के सही निदान के लिए इन लक्षणों के दिखाई देने पर रोगी को तुरंत चिकित्सक से संपर्क कर जांच करवानी चाहिए. आमतौर पर खून की जांचों में लाल रक्त कणिकाओं की खून में संख्या और हीमोग्लोबिन की मात्रा का पता करते हैं. एक स्वस्थ पुरुष में हीमोग्लोबिन की मात्रा 13.5 से 18 ग्राम प्रति डेसीलीटर और एक स्वस्थ स्त्री में 12 से 16 ग्राम प्रति डेसीलीटर होती है. हीमोग्लोबिन की मात्रा 10 ग्राम के आसपास होने पर उसे साधारण कमी की श्रेणी में रखते हैं और जब हीमोग्लोबिन 7 ग्राम प्रति डेसीलीटर के आसपास हो जाता है तो इसे गंभीर स्थिति माना जाता है.

यहां एक बात का उल्लेख करना जरूरी है कि कई बार खून की कमी शरीर में बगैर कोई लक्षण या परेशानी उत्पन्न किए भी हो जाती है, तब इस की पहचान केवल प्रयोगशाला में ही संभव हो पाती है. लेकिन आमतौर पर मिलने वाले लक्षणों जैसे थोड़े से श्रम पर थकान अथवा सांस फूलना, सिरदर्द आदि होने पर शीघ्र ही व्यक्ति को किसी अच्छे चिकित्सक को दिखाना चाहिए. गर्भवती माताओं एवं श्रमिकों को तो जरा सी शिकायत होने पर अपने हीमोग्लोबिन की जांच अवश्य करवा लेनी चाहिए. याद रखें खून की कमी का निदान जितनी शीघ्रता से होगा उस का इलाज भी उतना ही सरल होगा.

चिकित्सा

अब सवाल उठता है खून की कमी की समस्या को कैसे कम किया जाए तो इस से निबटने का एक प्रमुख तरीका यह है कि लोग अपने खानपान की आदतें बदलें और संतुलित आहार की ओर पर्याप्त ध्यान दें. वे प्रोटीन, विटामिन और आयरन युक्त आहार जैसे, दूध, अंडे, सोयाबीन, गुड़ पालक की भाजी एवं अन्य हरी सब्जियां तथा फल भरपूर मात्रा में खाएं. पेट में कीड़ों की शिकायत होने पर बच्चों को चिकित्सक के परामर्श पर शीघ्र दवाइयां दें. खून की कमी पैदा करने वाली बीमारियां जैसे मलेरिया आदि का इलाज भी अतिशीघ्र करवाएं. गर्भवती महिलाएं लौह और फालिक एसिड युक्त गोलियां तब तक लेती रहें जब तक उन के खून में हीमोग्लोबिन की मात्रा पर्याप्त न हो जाए. खून की कमी से पीडि़त बच्चों को भी यही दवाइयां चिकित्सक की सलाह पर कम मात्रा में देनी चाहिए.

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Cancer से सुरक्षि‍त रखेंगे ये सुपरफूड

कैंसर एक जानलेवा बीमारी है. दावे तो बहुत से किए जा चुके हैं लेकिन सच्चाई यही है कि अभी तक इसकी कोई सच्ची और अचूक दवा नहीं बनायी जा सकी है. हालांकि शुरुआती चरण में इसका पता चल जाए तो इसकी रोकथाम की जा सकती है लेकिन एक स्टेज के बाद इसका इलाज संभव नहीं है.

कुछ उपाय हैं लेकिन वो इतने महंगे हैं कि हर कोई उन्हें अफोर्ड नहीं कर सकता. कैंसर भी कई प्रकार के होते हैं और हर तरह के कैंसर के अपने खतरे होते हैं. वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार, आने वाले 10-15 सालों में कैंसर मौजूदा समय से 70 फीसदी तक बढ़ जाएगा.

कैंसर होने के बहुत से कारण होते हैं लेकिन आप चाहें तो अपनी डाइट में कुछ सुधार और बदलाव करके कैंसर के खतरे को काफी कम कर सकते हैं.

1. ब्रोकली

ब्रोकली खाने से कैंसर होने का खतरा कम हो जाता है. इसे माउथ कैंसर, ब्रेस्ट कैंसर, लीवर कैंसर होने का खतरा काफी कम हो जाता है. सप्ताह में दो से तीन बार ब्रोकली खाना फायदेमंद होता है. यूं तो ब्रोकली को सब्जी के रूप में या फिर सूप के रूप में लिया जा सकता है लेकिन ब्रोकली को उबालकर हल्के नमक के साथ लेना सबसे अधि‍क फायदेमंद है.

2. ग्रीन टी

ग्रीन टी पीने से कैंसर का खतरा कम होता है. ये ब्रेस्ट कैंसर और प्रोस्टेट कैंसर से सुरक्षित रखने में मददगार है. नियमित रूप से 2-3 कप ग्रीन टी पीना फायदेमंद है.

3. टमाटर

टमाटर में भरपूर मात्रा में एंटी-ऑक्सीडेंट पाए जाते हैं, जो इम्यून सिस्टम को बूस्ट करने का काम करते हैं. टमाटर, विटामिन A, C और E का भी बेहतरीन स्त्रोत है. इसके साथ ही ये ब्रेस्ट कैंसर से भी बचाव का अच्छा उपाय है. टमाटर का जूस पीने या फिर इसे सलाद के रूप में लेना फायदेमंद होता है.

4. ब्लू बैरी

ब्लू बैरी कैंसर से बचाव का अचूक उपाय है. ब्लू बैरी स्किन, ब्रेस्ट और लीवर कैंसर से सुरक्षित रखने में मददगार है. ब्लू बेरी का रस पीना सबसे ज्यादा फायदेमंद होता है.

5. अदरक

अदरक भी कई तरह के कैंसर से बचाव में सहायक है. अदरक शरीर में मौजूद टॉक्स‍िन्स को दूर करने का काम करता है. इसके सेवन से स्किन, ब्रेस्ट कैंसर होने की आशंका बहुत कम हो जाती है.

6. लहसुन

लहसुन में कई ऐसे तत्व पाए जाते हैं जो कैंसर से सुरक्षित रखते हैं. रोजाना एक या दो कली कच्चा लहसुन खाने से कैंसर का खतरा काफी कम हो जाता है.

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क्या दवा के बिना PCOS का इलाज करने का कोई अन्य तरीका है?

सवाल- 

मैं 28 साल की शादीशुदा महिला हूं, मेरे पति मुझे बहुत प्यार करते हैं और हम बच्चे की योजना बना रहे हैं, लेकिन अपने पीकौस के कारण मैं गर्भधारण नहीं कर पा रही हूं. मैं दवा या कोई सर्जिकल उपचार नहीं लेना चाहती. क्या दवा के बिना PCOS का इलाज करने का कोई अन्य तरीका है?

जवाब-

पौलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम एक सामान्य स्वास्थ्य समस्या है, जिस का अनुभव गर्भधारण की उम्र की हर 10 में से 1 महिला करती है. 2 आम तरीके जो डाइट पीकौस को प्रभावित करते हैं वे हैं वजन प्रबंधन और इंसुलिन का उत्पादन व प्रतिरोध.

आप के आहार में साबुत अनाज, फलियां, नट्स, बीज, फल, स्टार्च युक्त सब्जियां और कम कार्बोहाइड्रेट वाले फूड, ऐंटीइनफ्लैमेटरी फूड जैसे कि जामुन, वसायुक्त मछली, पत्तेदार साग और ऐक्स्ट्रा वर्जिन औलिव औयल, असंसाधित फूड, हाई फाइबर फूड, वसायुक्त मछली, गहरे लाल फल जैसे लाल अंगूर, ब्लूबेरी, ब्लैकबेरी और चेरी, ब्रोकली दऔर फूलगोभी, सूखी बींस, दाल और अन्य फलियां, स्वास्थ्यबर्धक फैट जैसे जैतून का तेल, ऐवाकाडो और नारियल, नट्स, जिन में पाइन नट्स, अखरोट, बादाम और पिस्ता शामिल हैं.

हेल्थ के लिए भी फायदेमंद हैं ये 5 तेल

तेल स्वस्थ जीवन जीने के लिए एक बुनियादी घटक है. हमारे दैनिक जीवन में इस का नियमित इस्तेमाल किया जाता है और इस के लाभदायक तत्त्व हमारे जीवन में गहरा प्रभाव डालते हैं. तेल न सिर्फ हमारी त्वचा को सुंदर बनाता है, बल्कि इंसोमनिया, हृदय रोगों, मधुमेह, याददाश्त में कमजोरी, गुर्दे के रोग, कोलेस्ट्रौल और कैंसर जैसी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से भी लड़ता है.

नारियल का तेल

नारियल तेल के ओस्टियोपोरोसिस, गुर्दे और यकृत की बीमारियों, दांतों के क्षय रोग, मधुमेह, हृदय रोगों, त्वचा संक्रमण, प्रोस्टेट के बढ़ने, पुरानी सूजन, पेट के अल्सर, कब्ज,सिस्टिक फाइब्रोसिस, डर्माटाइटिस और एग्जिमा जैसी घातक बीमारियों से सुरक्षा प्रदान करने में असाधारण लाभ देखे गए हैं. नारियल तेल की सूजन रोकने और रोग प्रतिरक्षण के नियमन की क्षमता को मधुमेह, उच्च रक्तचाप, कैंसर, आटोइम्यून बीमारी और हृदय रोगों के नियंत्रण में उल्लेखनीय रूप से प्रभावकारी पाया गया है. राजीव गांधी कैंसर इंस्टिट्यूट ऐंड रिसर्च सेंटर के सीनियर मैडिकल ओंकोलौजिस्ट डा. विनीत तलवार कहते हैं, ‘‘नारियल तेल के एंटीऔक्सीडेंट गुणों के साथ एंटीइंफ्लामेटरी और रोग प्रतिरोधक नियामक कार्य कैंसर को रोकने में प्रभावी हैं. हालांकि तथ्य यह है कि इस से इस का कोई सीधा संबंध नहीं है.’’नारियल तेल के लाभों की सूची का कोई अंत नहीं है. यह हेपेटाइटिस सी, दाद, खसरा और निमोनिया जैसे बैक्टीरिया, मूत्र मार्ग के संक्रमण और कवक जैसे विषाणुओं को मारने की बेशुमार शक्ति के साथ डाक्टरों को चकित करता रहा है. नारियल तेल जिन समस्याओं में कारगर है, वे सभी एंटीबायोटिक और दवाओं के प्रति प्रतिरोधी हैं. इन समस्याओं में नारियल तेल काफी प्रभावकारी पाया गया है. तेल में मौजूद मीडियम चेन फैटी एसिड (एमसीएफए) को महत्त्व दिया गया है, क्योंकि वे आप के प्रतिरोधक तंत्र को मूलत: मजबूत करते हैं, साथ ही वे हमारे चारों ओर मौजूद बैक्टीरिया, विषाणुओं, कवक और परजीवियों को मारते हैं. यह निश्चित रूप से अविश्वसनीय लगता है, लेकिन कुछ चिकित्सकों ने रोगी के अच्छे स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए उन के इलाज में नारियल तेल को शामिल करना शुरू कर दिया है. नारियल तेल इन घातक बीमारियों के खिलाफ लड़ने के अलावा वजन को कम करने में भी सहायता करता है, जो विश्व में हर दूसरे मनुष्य की सब से सामान्य समस्या है. हालांकि नारियल तेल एक वसा है लेकिन यह वजन नहीं बढ़ाता है, बल्कि यह वजन को कम करने में आप की मदद करता है.

जब नारियल तेल आप के शरीर में एक बार पच जाता है तो इस के तुरंत बाद कार्बोहाइड्रेट की तरह यह ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है. यह आप के थायरायड के कार्यकलाप में सुधार करता है, आप के चयापचय को नियंत्रित करने वाली ग्रंथि में सुधार करता है और अंत में, प्रचुर मात्रा में एमसीएफए के कारण आप के चयापचय को आश्चर्यजनक रूप से बढ़ाता है. एमसीएफए थर्मोजेनिक (कैलोरी को जलाने वाला) प्रभाव पैदा करता है, जहां यह अधिक गरमी पैदा करने के लिए त्वरित दर पर अधिक कैलोरी को जलाता है. इसलिए आप अपनी उम्मीद से अधिक तेजी से अवांछित वसा को हटा सकते हैं. थर्मोजेनिक प्रभाव वास्तव में आप को अधिक गरम महसूस कराता है और दिन भर ऊर्जावान बनाए रखता है.

नारियल के तेल के लाभ

मसाज बंद करने के बाद भी यह लंबे समय तक आप की त्वचा को नमी युक्त रखता है.

आप की त्वचा के विषाक्त पदार्थों को हटाने का कार्य करता है.

यह एंटीऔक्सीडेंट से भरपूर है.

समय से पहले उम्र बढ़ने को कम करता है.

यह सुखदायक होता है और तनाव को कम करने में सहायता करता है.

धमनियों में चोट की घटना को कम करता है और इस तरह एथरोस्क्लेरोसिस को रोकने में सहायता करता है.

यह वजन कम करने का बहुत अच्छा टौनिक है.

पैंक्रियाटाइटिस के उपचार में इसे लाभदायक माना जाता है.

पाचनतंत्र में सुधार में सहायता करता है.

आप की ऊर्जा और प्रतिरोधकता बढ़ाता है.

संक्रमण होने पर इस का इस्तेमाल करने पर यह चोट से सुरक्षा प्रदान करता है और इसे ठीक होने में मदद करता है.

गुर्दे और पित्त की थैली की बीमारी को  रोकने में सहायता करता है.

रक्त शर्करा को नियंत्रित करता है और इंसुलिन के स्राव में सुधार करता है.

एचआईवी और कैंसर के रोगियों की विषाणु के प्रति संवेदनशीलता को कम करने में भूमिका निभाता है.

जैतून का तेल

जैतून का तेल तरल सोना (लिक्विड गोल्ड) के रूप में जाना जाता है. इस का इस्तेमाल न सिर्फ खाना पकाने के लिए बल्कि सुंदरता बढ़ाने, घरेलू उपचार और सफाई के लिए हर जगह किया जाता है. जैतून का तेल एक प्राकृतिक रस है जो स्वाद, सुगंध, विटामिन और जैतून के फल के गुणों को संरक्षित रखता है. यह एकमात्र वनस्पति तेल है जिसे फल से ताजा निकालने के बाद आसानी से इसी रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. जैतून के तेल को ‘सुपर आहार’ माना जाता है, क्योंकि इस में बीमारियों से लड़ने वाले एंटीऔक्सीडेंट, विटामिन ई, ओलिक अम्ल, पौलीफिनौल,  मोनो संतृप्त वसा और अच्छी स्वास्थ्यवर्द्धक वसा जैसे प्राकृतिक घटक होते हैं.

दरअसल, जैतून के असीमित स्वास्थ्य फायदों का संबंध कोलेस्ट्रौल को कम करने, दर्द को कम करने, मधुमेह को रोकने, आर्थराइटिस के दर्द को कम करने, कैंसर से सुरक्षा प्रदान करने और हृदय को सुरक्षा प्रदान करने से रहा है. जैतून तेल के लाभकारी स्वास्थ्य प्रभाव एकल संतृप्त फैटी अम्ल की अधिक मात्रा और एंटीऔक्सीडेंट पदार्थों की अधिक मात्रा दोनों के कारण होते हैं. अध्ययनों में देखा गया है कि जैतून तेल एलडीएल (खराब) कोलेस्ट्रौल के स्तर को नियंत्रित कर और एचडीएल (अच्छा) कोलेस्ट्रौल के स्तर को बढ़ा कर हृदय रोगों से सुरक्षा प्रदान करता है. जैतून का तेल हमारे पेट में बहुत अच्छी तरह पच जाता है. वास्तव में, जैतून के तेल के सुरक्षात्मक कार्य अल्सर और गैस्ट्राइटिस पर लाभदायक प्रभाव डालते हैं. जैतून का तेल पित्त की पथरी के बनने की आशंका को कम करता है.

कैंसर में सहायक

स्पेन के शोधकर्ताओं का सुझाव है कि अपने आहार में जैतून के तेल को शामिल करने पर कैंसर की रोकथाम में लाभ मिलता है. डा. तलवार कहते हैं, ‘‘जैतून तेल से से वृहदांत्र (कोलोन), स्तन और त्वचा कैंसर की घटना के कम होने की पुष्टि हुई है. यह अन्य लाभों के साथसाथ स्तन कैंसर के इलाज के बाद रोगी के ठीक होने का अच्छा स्रोत भी है.’’

जैतून के तेल के लाभ

कोलेस्ट्रौल को कम करने में सहायता करता है.

दर्द को कम करता है.

कैंसर और हृदय रोगियों की बहुत सहायता करता है.

आर्थराइटिस के दर्द में आराम पहुंचाता है.

मधुमेह की रोकथाम करता है.

स्ट्रेच मार्क्स को कम करता है.

आप की त्वचा को पोषण देता है.

बाल गिरने को कम करता है.

सरसों का तेल

सरसों तेल की आंतरिक खपत पर कई देशों में प्रतिबंध लगाया जा रहा है, जबकि यह सर्दियों के दौरान मालिश के लिए सब से अच्छा तेल है. इस में खाना पकाने के अन्य तेलों की तुलना में कम संतृप्त वसा होती है. सरसों के तेल में मूलत: ओलिक अम्ल, फैटी अम्ल, लिनोलिक अम्ल और इरूसिक अम्ल होते हैं. इस में पर्याप्त मात्रा में विटामिन, एंटीऔक्सीडेंट के अलावा कोलेस्ट्रौल को कम करने के गुण होते हैं. सरसों के तेल को आप के हृदय को स्वस्थ रखने के लिए अच्छा माना जाता है. डा. मेहता कहते हैं, ‘‘सरसों का तेल सब से स्वास्थ्यप्रद खाद्य तेलों में से एक है, क्योंकि इस में संतृप्त फैटी अम्ल की न्यूनतम मात्रा और एकल संतृप्त और बहु असंतृप्त फैटी अम्ल की अधिक मात्रा होती है, जो स्वास्थ्य के लिए अच्छा है.’’

सरसों के तेल के लाभ

कोरोनरी हृदय रोग से पीडि़त होने से बचाव करता है.

मानव शरीर को विषाक्त रहित करता है.

सिर में मालिश करने पर बाल गिरने को रोकता है.

पाचन और उत्सर्जन तंत्र उत्तेजित करता है.

कवक रोधी के रूप में इस्तेमाल होता है.

प्रतिरोधकता को बनाने में सहायता करता है.

खांसी और ठंड के इलाज में लाभदायक है.

दांतों को कीटाणुओं से सुरक्षा प्रदान करता है.

बादाम का तेल

बादाम ऐसे काष्ठ फल के लिए जाना जाता है, जो मानव शरीर के लिए आवश्यक है. बादाम का तेल स्वास्थ्यप्रद पाचन तंत्र और कोलेस्ट्रौल को कम करने का एक उत्कृष्ट उपाय है. यह मैग्नीशियम और कैल्सियम जैसे आवश्यक खनिजों का खजाना है. आर्टेमिस हास्पिटल के न्यूरोलोजी विभाग के प्रमुख और वरिष्ठ कंसल्टेंट डा. प्रवीण गुप्ता कहते हैं, ‘‘बादाम मानव तंत्रिका तंत्र को बढ़ाने वाले विटामिन ई और डी के साथसाथ वसा और अन्य पोषक घटकों का भरपूर स्रोत है.’’ अनुसंधानकर्ताओं ने पुष्टि की है कि रोजाना कुछ बादाम खाने से आप की याददाश्त बढ़ती है. इस के स्वास्थ्यवर्द्धक लाभों के अलावा, बादाम तेल त्वचा को पोषण और बालों को स्वस्थ रखने में काफी सहायता करता है. ताजे क्रीम में मिला कर या इसे फेस स्क्रब के रूप में इस्तेमाल करने से यह त्वचा की मृत कोशिकाओं को हटाता है.

बादाम तेल के लाभ

रंगरूप में सुधार करता है और चमक बरकरार रखता है.

त्वचा की जलन और सूजन कम करता है.

काले घेरे को हलका करता है.

फटे हुए होंठ और शरीर के रैशेज को ठीक करता है.

बालों को लंबा, मजबूत, मोटा और चमकदार बनाता है.

मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र को पोषण देता है.

बुद्धि क्षमता और सहनशीलता को बढ़ाता है.

बादाम के तेल का इस्तेमाल तनावपूर्ण मांसपेशियों को आराम पहुंचाता है.

खजूर का तेल

खजूर का तेल इलेइस गीनीनसुइस पेड़ के फल से प्राप्त होता है, जिसे अफ्रीकन औयल पाम ट्री भी कहा जाता है. 50% संतृप्त वसा और 50% असंतृप्त वसा युक्त यह तेल वनस्पति तेल में सर्वाधिक बहुउपयोगी तेलों में से है. खजूर के तेल का फैटी अम्ल नारियल तेल की तरह वास्तव में उतना ही हानिकारक नहीं है जितना लोग विश्वास करते हैं, बल्कि इस के कई स्वास्थ्य लाभ हैं. यह मीडियम चेन ट्राइग्लिसराइड (एमसीटी) है जो माता के दूध, उष्णकटिबंधीय तेल और दुग्ध वसा में पाया जाता है. शरीर के लिए इस का पाचन बहुत आसान होता है और यह ऊर्जा के प्रभाव को बढ़ाता है. एमसीटी वैसे लोगों के पोषण का मूल्यवान स्रोत है जो अन्य वसा को आसानी से पचा नहीं सकते हैं, साथ ही एथलीट जिन्हें अत्यधिक प्रभावी ऊर्जा की जरूरत होती है. वनस्पति तेल के रूप में, खजूर का तेल कोलेस्ट्रौल रहित भोजन है. यह 39% ओलिक अम्ल (ओमेगा-9) और 10% लिनोलिक अम्ल (ओमेगा-6) के साथ एक पूरी तरह संतुलित वसा है. यह आवश्यक फैटी अम्ल आप के शरीर में रक्त कोलेस्ट्रौल के स्तर को कम करने में सहायता करता है.स्वादरहित और गंधरहित इस तेल के त्वचा, जोड़, हड्डी में और अन्य स्वास्थ्य लाभ हैं, जो हमारे दैनिक दिनचर्या के लिए जरूरी हैं.

खजूर के तेल के लाभ

बीटा कैरोटिंस से परिपूर्ण है और कैरोटिनौयड्स का सब से परिपूर्ण प्राकृतिक स्रोत है जो एक प्रभावकारी एंटीऔक्सीडेंट होने के लिए जाना जाता है.

खजूर के तेल में पाया जाने वाला टोकोट्रिनोल्स कैरोटिड धमनी के रुकावट को खत्म करने और साथ ही प्लेटलेट एकत्रीकरण में समर्थ हो सकता है और इस तरह स्ट्रोक, आर्टेरियोस्क्लेरोसिस और हृदय रोग से संबंधित अन्य घटनाओं को कम करता है.

खजूर के तेल से परिपूर्ण आहार रक्त के थक्के बनने की प्रवृत्ति को कम करते हैं.

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क्या आप को हैरानी हुई है कि छरहरी महिलाएं भी कमजोर और अस्वस्थ क्यों हो जाती हैं?

क्या आप ने कभी सोचा है कि सब का खयाल रखने वाली परिवार की कोई सदस्य अकसर बीमार क्यों पड़ जाती है?

एक दशक पहले तक हैजा, टीबी और गर्भाशय का कैंसर महिलाओं को होने वाली सेहत से जुड़ी मुख्य समस्याएं थीं. इन दिनों नई बीमारियां, जैसे कार्डियो वैस्क्यूलर डिजीज, डायबिटीज और आस्टियोआर्थराइटिस जैसे रोग 30 वर्ष से अधिक आयुवर्ग की युवा महिलाओं में फैले हुए हैं.

आर्थराइटिस फाउंडेशन की ओर से हाल ही में हुए अध्ययन के अनुसार, यह अनुमान लगाया गया है कि 2013 तक देश में लगभग 3.6 करोड़ लोग आस्टियोआर्थराइटिस रोग से प्रभावित हो जाएंगे. कम आमदनी वाले वर्ग की 30-60 वर्ष की भारतीय महिलाओं के बीच हुए एक अध्ययन में अस्थि संरचना के सभी महत्त्वपूर्ण जगहों पर बीएमडी (अस्थि सघनता) विकसित देशों में दर्ज किए गए आंकड़ों से काफी कम थी, जिस के साथ अपर्याप्त पोषण से होने वाले आस्टियोपेनिया (52%) और आस्टियोपोरोसिस (29%) की मौजूदगी ज्यादा थी. अनुमान है कि 50 वर्ष से अधिक की 3 में से 1 महिला को आस्टियोपोरोटिक फ्रैक्चर का अनुभव होगा.

इन दिनों कम शारीरिक सक्रियता वाली जीवनशैली की वजह से दबाव संबंधी कारक और मोटापा जोखिम पैदा करने वाले कुछ ऐसे कारक हैं जिन का संबंध आस्टियोआर्थराइटिस जैसी समस्याओं से माना जाता है. इसलिए, यदि कोई स्वस्थ जीवन जीना चाहता है तो जरूरी है कि वह अपनी हड्डियों की देखभाल पर विशेष ध्यान दे. आस्टियोआर्थराइटिस की रोकथाम और काम व जीवन के बीच स्वस्थ संतुलन कायम करने के लिए यहां ऐसे टिप्स बताए जा रहे हैं, जिन पर महिलाओं को ध्यान देना चाहिए.

1. भोजन के सही विकल्प

सब्जियों, जैसे लहसुन, प्याज और हरे प्याज से भरपूर आहार तकलीफदेह आस्टियोआर्थराइटिस के उपचार में मदद कर सकता है. ऐसा भोजन लें जो विटामिन ई से भरपूर हो, जैसे स्ट्राबैरी, बैगन, गोभी, पालक, बंदगोभी और खट्टे फल संतरा, मौसमी आदि.

2. जीवनशैली में बदलाव

कई बार महिलाएं ऊंची एड़ी के या गलत किस्म के सैंडल पहनती हैं, जिस के नतीजे के तौर पर घुटनों के जोड़ पर दबाव पड़ता है. घुटने के आस्टियोआर्थराइटिस से बचने के लिए, डाक्टरों द्वारा अंदरूनी सोल वाले विशेष जूते पहनने की सलाह दी जाती है, जो जल्दीजल्दी चलनेफिरने के  लिए शरीर को जरूरी सहारा दे सकते हैं.

3. सुडौल शरीर

यह देखा गया है कि महिलाओं में आस्टियोआर्थराइटिस का प्रमुख कारण मोटापा और अस्वस्थ जीवनशैली है. इसलिए महिलाओं के लिए यह बेहद जरूरी है कि वे गंभीरता से वजन घटाने के उपाय अपनाएं और उन्हें अपनी दैनिक जीवनशैली में शमिल करें. योग, हलके व्यायाम, जैसे पैदल चलना और बोलिंग (एक खेल) करना आदि बेहतर विकल्प हो सकते हैं. रोगग्रस्त महिला को बागबानी, सीढि़यां चढ़ने आदि जैसे कामों से दूर रहना चाहिए, क्योंकि ये काम घुटनोें के जोड़ों पर भार डालते हैं.

4. घरेलू उपाय

कोई भी महिला खुद की देखभाल के तरीकों को भी अपना सकती है, जैसे गरम सिंकाई वाला पैड इस्तेमाल करना, गरम पानी से स्नान या जोड़ों के दर्द से राहत के लिए बर्फ के टुकड़ों से सिंकाई करना.

5. उपचार के वैकल्पिक तरीके

कई लोग रोग से जुडे़ दर्द, अकड़न, दबाव और बेचैनी से राहत पाने के लिए उपचार के वैकल्पिक तरीके, जैसे 5 इंजैक्शन का उपचार या विस्को सप्लीमैंटेशन अपनाते हैं. आस्टियोआर्थराइटिस के विरुद्ध भी हाएलगन जोड़ों के बीच घुटने में इंजैक्शन देना एक ऐसा तरीका है, जो रोगियों में आस्टियोआर्थराइटिस की शुरुआत और प्रगति को रोकता है. यह आस्टियोआर्थराइटस के उपचार के लिए दर्दमुक्त, गुणवत्ताशाली निदान विधि है. हाएलगन थेरैपी में 1 सप्ताह के अंतराल में 5 इंजैक्शन शामिल होते हैं, जिन्हें जोड़ों में सामान्य द्रव का लचीलापन व लुब्रिकेशन जैसी खूबियां दोबारा पैदा करने के लिए सीधे घुटने के जोड़ों में लगाया जाता है. हाएलगन आस्टियोआर्थराइटिस की 1-3 अवस्था के रोगियों के लिए एक आदर्श उपचार है.

6. अंतिम विकल्प

जब दर्द सहन से बाहर हो जाए और जब अवस्था में घुटने काम करने लायक न रहें तो पीडि़त व्यक्ति को घुटना बदलवाने की शल्यचिकित्सा करवानी पड़ती है. यह तब की जाती है जब दूसरे उपचार काम नहीं करते हैं. इस अवस्था में जोड़ों में हुई टूटफूट को एक्सरे में देखा जा सकता है.

– डा. ए.वी. शर्मा, प्रमुख आर्थोपैडिक सर्जन, आर. के. हौस्पिटल

आर्थ्राइटिस के कारण मैं परेशान हो गई हूं, मैं क्या करुं?

सवाल-

मेरी उम्र 38 साल है. मैं टीबी का मरीज हूं. दरअसल, 6 महीनों से मेरी पीठ के निचले हिस्से में बहुत तेज दर्द होता है. एक्सरे कराने पर आर्थ्राइटिस का पता चला, लेकिन दवा के बाद भी बिलकुल राहत नहीं है. बैड पर लेटे हुए दर्द और तेज हो जाता है. बुखार भी जल्दीजल्दी आता है. बहुत परेशान हूं. कृपया कोई समाधान बताएं?

जवाब-

आप ने जिस प्रकार अपनी समस्या का जिक्र किया है उस के वास्तविक कारण की पुष्टि केवल सीटी स्कैन या एमआरआई से ही संभव है. हालांकि आप के द्वारा बताए गए लक्षणों से यह साफ पता चलता है कि यह सिर्फ आर्थ्राइटिस तो नहीं है, क्योंकि इस समस्या में सोते वक्त मरीज को दर्द में राहत मिलती है, जबकि आप के साथ उलटा है. इस के अनुसार आप को रीढ़ की टीबी हो सकती है, जो शरीर के अन्य हिस्सों में फैल कर उन्हें प्रभावित करती है. संभवतया आप के साथ भी यही हुआ है. जल्द से जल्द एमआरआई करा के उचित इलाज लेना आवश्यक है. हड्डी की टीबी के मामले में आराम, स्वस्थ आहार, दवा और फिजियोथेरैपी आदि मरीज को ठीक करने में सहायक हो सकते हैं. इलाज में देरी आप को लकवा का शिकार बना सकती है.

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रह्यूमेटाइड आर्थ्राइटिस एक जटिल बीमारी है, जिस में जोड़ों में सूजन और जलन की समस्या हो जाती है. यह सूजन और जलन इतनी ज्यादा हो सकती है कि इस से हाथों और शरीर के अन्य अंगों के काम और बाह्य आकृति भी प्रभावित हो सकती है. रह्यूमेटाइड आर्थ्राइटिस पैरों को भी प्रभावित कर सकती है और यह पंजों के जोड़ों को विकृत कर सकती है.

इस बीमारी के लक्षण का पता लगाना थोड़ा मुश्किल होता है. रह्यूमेटाइड आर्थ्राइटिस में सूजन, जोड़ों में तेज दर्द जैसे लक्षण होते हैं. पुरुषों की तुलना में यह बीमारी महिलाओं को अधिक देखने को मिलती है. वैसे तो यह समस्या बढ़ती उम्र के साथसाथ होती है, लेकिन अनियमित दिनचर्या और गलत खानपान के कारण कम उम्र की महिलाओं में भी यह बीमारी देखने को मिल रही है.

रोग के लक्षण

वास्तव में रह्यूमेटाइड आर्थ्राइटिस से पीडि़त 90% लोगों के पैरों और टखनों में रोग के लक्षण सब से पहले दिखाई देने लगते हैं. इस स्थिति का आसानी से उपचार किया जा सकता है, क्योंकि मैडिकल साइंस ने अब काफी प्रगति कर ली है और विकलांगता से आसानी से बचा जा सकता है.

रह्यूमेटाइड आर्थ्राइटिस से ज्यादातर हाथों, कलाइयों, पैरों, टखनों, घुटनों, कंधों और कुहनियों के जोड़ प्रभावित होते हैं. इस रोग में शरीर के दोनों तरफ के एकजैसे हिस्सों में सूजन व जलन हो सकती है. रह्यूमेटाइड आर्थ्राइटिस के लक्षण समय के साथ अचानक या फिर धीरेधीरे नजर आ सकते हैं. पैरों और हाथों में विकृति आना रह्यूमेटाइड आर्थ्राइटिस का सब से सामान्य लक्षण है.

पूरी खबर पढ़ने के लिए- महिलाओं में बढ़ती रह्यूमेटाइड आर्थ्राइटिस की समस्या

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