मिथिलेश के एक झन्नाटेदार थप्पड़ ने उस के होश उड़ा दिए. त्योरियां चढ़ गईं मिथिलेश की. बोला, ‘‘सीधी बात समझ नहीं आती. बिस्तर पर आते ही तुरंत मेरी सेवा में लग जाया करो,’’ अब तक मिथिलेश ने उस की साड़ी निकाल किनारे फेंक दी थी और उस की संगमरमरी देह पर निर्ममता के हजारों घोड़े दौड़ा दिए थे.
अपनी जानकारी में या अपनी बिरादरी में अब तक ऐसी ही स्त्रियों को वह देखता आया था जो पति के दुर्व्यवहार को हंस कर टाल जाया करती थीं.
मिट्टी कितनी ही एक सी हो, मूर्तियां तो अलग होती ही हैं. सिद्धी भी मिथिलेश की उम्मीद से परे थी. वह न तो उठी और न ही चाय बनाई. मिथिलेश भी मिथिलेश था. वह रसोई से चाय के खाली कप उठा लाया और बैडरूम की जमीन पर पटक दिए. उसे बालों से पकड़ कर खींचा और चीखा, ‘‘बाप का राज समझती है? औरत हो कर मर्द पर गुस्सा दिखाती है? मांबाप ने पति की इज्जत करना नहीं सिखाया? मुंह उठा कर चली आई,’’ और बस तब से हर दिन रोबदार, इज्जतदार पति के प्रति समर्पण का कुहरा छटता गया. उस की लगभग प्रतिदिन ऐसे इज्जतदार पति से मुलाकात होती जो उस का गर्व नहीं बल्कि खुद में अहंकार का विस्फोट था. उसे पास बैठा कर कभी उस की मनुहार नहीं करता, बल्कि अपराधी की तरह सिद्धी को सामने खड़ा कर उसे फटकरता था.
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ऐसे कठिन दिन बिताए. फिर भी 5 साल गुजर गए. सिद्धी को अपने जीवन में कुछ अच्छा होने की उम्मीद अब भी बाकी लगती थी, यद्यपि अब तक न तो बच्चे हो पाए थे और न ही कैरियर बन पाया था.
इतना जरूर था कि उस की निराशा बगावत पर आ गई थी और डर की दीवार टूटने पर आमादा थी.
एक दिन अचानक उस के पिता की मृत्यु की सूचना आई. सिद्धी खबर मिलते ही मां के पास चली गई. लेकिन मिथिलेश तो श्राद्ध के दिन अपना चेहरा दिखाने पहुंचा.
चिन्मय अब बैंक में मैनेजर था. सूटबूट में उस की रौनक देखते ही बनती थी. सिद्धी के पिता की मृत्यु के बाद मां के घर में पसरे सूनेपन को चिन्मय भरसक भरने की कोशिश करता. सिद्धी के साथ ठिठोली करता, उसे चिढ़ाता, उस से मानमनौबल करता. सिद्धी की जो बातें कभी उस का बचपना लगती थीं आज मिथिलेश के व्यक्तित्व से दोचार होने के बाद एक पुरुष साथी में जरूरी गुण लगने लगी थी. इज्जत देने के लिए प्रेम होना जरूरी है और पतिपत्नी के बीच प्रेम समानता के बिना कहां संभव है?
चिन्मय की मदद से उस ने एक प्राइवेट नर्सिंगहोम में साइकोलौजिस्ट की नौकरी ढूंढ़ ली थी. तनख्वाह अच्छी थी. सुबह 9 बजे से दोपहर 1 बजे तक वहां बैठने की बात थी जो सिद्धी को सहज स्वीकार्य था.
खोए हुए आत्मविश्वास का मंत्रपाठ जो चिन्मय ने दिया उस के भरोसे अब मिथिलेश की नाजायज चीखों के आगे डटे रहने की उस में फिर से शक्ति आने लगी. अलबत्ता, मिथिलेश धीरेधीरे उस की तरफ से लापरवाह होता गया. कुछ हद तक अनसुने, अनदेखे का भाव. हां बिस्तर की चाकरी सिद्धी को हर हाल में करनी पड़ती.
चिन्मय की जिंदगी निराली थी. बड़े भाईभाभी उस के साथ रहते तो थे, लेकिन आंगन के बीच एक दीवार खड़ी थी जो भाभी कोशिशों का नतीजा थी. सिद्धी के प्रति लगाव और भाभी का व्यवहार कुल मिला कर उस ने शादी के खयाल को परे ही कर रखा था.
एक तरफ के दोमंजिले मकान में चिन्मय ऊपर और नीचे उस के मम्मीपापा रहते थे. मातापिता की उम्र अधिक थी और ज्यादातर वे कामवाली के भरोसे रहते. चिन्मय उन का बराबर खयाल रखता. छुट्टी के दिन उन्हें घुमाने भी ले जाता.
वापस आ कर सिद्धी मिथिलेश के गुस्से को और झेल पाने में खुद को लाचार पा रही थी. कुछ मन लगे, कुछ ध्यान बंटे इसलिए रिद्धी को वह अपने पास बुलाने लगी थी. यों साल गुजरा. आज सिद्धी की तबीयत ठीक नहीं थी. सोचा कि नर्सिंगहोम न जाए, फिर कुछ मरीजों का सोच कर वह चली गई. वापस जब आई तब दिन के 11 बज रहे थे. सोचा था जल्दी आ कर थोड़ा आराम कर लेगी.
सीढि़यों से दूसरी मंजिल पर आतेआते उस ने कई ऐसी आवाजें सूनीं जिन से विश्वास की चूलें हिल गईं. आंखें पथरा गईं. बैडरूम से आती आवाजें साफ होती गईं जो सीने में सौसौ हथौड़ों के बराबर थीं.
रिद्धी की आवाज आ रही थी, ‘‘जीजू बस अब और नहीं,’’ खिलखिलाहट के साथ कहती हुई वह शायद जीजू पर लोट गई थी.
सिद्धी की अनुभवी आंखें अंदर का सारा दृश्य देख रही थीं.
‘‘जीजू… दीदी आ जाएगी,’’ छोड़ो अब और नहीं.
‘‘अभी देर है, वैसे आ भी जाएगी तो क्या, मैं परवाह नहीं करता.’’
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सिद्धी दूसरे कमरे तक किसी तरह खुद को ढकलते हुए ले गई और बिस्तर पर फेंक दिया अपनेआप को. घृणा से भर गई वह अपने जीवन के प्रति. एक पत्नी होने का उसे इतना दुखद सिला क्यों मिल रहा है?
मिथिलेश बदमिजाज था, पत्नी को पैरों की जूती समझता था. परंपरावादी सोच को शास्त्रवाक्य मान कर पत्नी को अपने से नीच जीव समझता था. सहने की हद होती है और इस हद की रेखा सिद्धी को ही खींचनी थी.
रात को सोते वक्त सिद्धी की सपनों से लवरेज आंखें अफसोस के आंसुओं से दोहरी हो गईं.
मिथिलेश उसे देखते ही मशीन की तरह अपने शिकंजे में कसने लगा. वह परे हट कर चीखी, ‘‘आप ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा
क्यों किया?’’
ढीठ की तरह मिथिलेश ने जवाब दिया, ‘‘मुझ पर उंगली उठाने का तुम्हें कोई हक नहीं. पहले मेरा वंश बढ़ाओ, फिर सवाल करना, समझ.’’
यही एक नश्तर था जो सिद्धी को हर आड़े वक्त पर चुभता था. क्या वह वाकई मां बनने लायक नहीं थी? क्या वह इतने सालों से बिना चैकअप कराए बैठी है? वह नहीं, मिथिलेश पिता बनने के काबिल नहीं. लेकिन वह चुप है ताकि मिथिलेश को बुरा न लगे.
इधर मिथिलेश इस खुशी में उसे धोखे और मक्कारी से नवाज रहा है कि वह औरत है. उस के पैरों की जूती है. क्यों शरीर की किसी कमी के जाहिर होने पर मर्द की इज्जत चली जाएगी? क्यों मर्द की इज्जत अहंकार की प्रत्यंचा पर चढ़ा तीर होती है? क्या मिथिलेश जैसा पति दोस्त नहीं. पत्नी का मालिक होता है? सैकड़ों अनसुलझे सवाल सिद्धी को परेशान करने लगे थे.
मिथिलेश के दिल में क्यों इतनी खुन्नस है? क्या सिद्धी का पढ़ालिखा समझदार होना मिथिलेश के अंह को चोट पहुंचाता है? क्या यही इज्जतदार होने की निशानी है?
अगले दिन दोपहर तक सिद्धी का कोई अतापता नहीं था. खानेपीने का इंतजाम कर वह निकल गई थी. शाम को मिथिलेश के हाथों में उस का डाक्टरी परीक्षण था. यह उस के स्त्रीत्व का प्रमाणपत्र था जैसे.
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रिपोर्ट को नौर्मल देख मिथिलेश की त्योरियां चढ़ गईं. रिपोर्ट को टेबल पर फेंक उस ने कहा, ‘‘यह अपनी किसी पहचानवाली से करवा लाई हो, आपस की मिलीभगत होगी.’’
‘‘आप ने खुद की जांच कर ली है या नहीं… कुछ नहीं तो कम से कम मेरी बहन के साथ मेरे पीछे गलत रिश्ता तो न बनाते,’’ सिद्धी ने तीखे शब्दों में कहा.
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