मेरे अपने: कितना सार्थक जीवन जी रही थी विवेक की माँ?

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अमूल्य धरोहर : क्या बच पाई रवि बाबू की कुर्सी

रामआसरेजी जब से विधायक बने थे किसी न किसी कारण हाईकमान से खिंचे रहते थे. खुद को जनता का सर्वश्रेष्ठ सेवक समझने वाले रामआसरे के घर आज उन्हीं जैसे 5 और असंतुष्टों की बैठक थी. भीमा, राजा भैया, प्रताप सिंह, सिद्दीकी और गायत्री देवी एक के बाद एक कर जनतांत्रिक दल के अध्यक्ष रवि और मुख्यमंत्री के खिलाफ आग उगल रहे थे.

‘‘बहुत हो गया, अब हम और चुप नहीं रहेंगे. हम ने तो तनमनधन से दल की सेवा की पर उन्होंने हमें दूध में गिरी मक्खी की भांति निकाल फेंका.’’ राजा भैया बहुत क्रोध में थे.

‘‘वही तो, मंत्रिमंडल का 3 बार विस्तार हो गया, पर हम लोगों के नाम का कहीं अतापता ही नहीं. मैं ने रवि बाबू से शिकायत की तो हंसने लगे और बोले कि तुम आजकल के छोकरों की यही समस्या है कि सेवा से पहले ही मेवा खाना चाहते हो,’’ प्रताप सिंह बोले थे.

‘‘40 वसंत देख चुके नेता उन्हें कल के छोकरे नजर आते हैं तो उस में हमारा नहीं उन का दुर्भाग्य है. जब तक दल में नए खून को महत्त्व नहीं देंगे, दल कभी तरक्की के रास्ते पर अग्रसर नहीं हो सकता,’’ रामआसरे खिन्न स्वर में बोेले थे.

‘‘दल की उन्नति और अवनति की किसे चिंता है, सब को अपनी पड़ी है. सच पूछो तो मेरा तो राजनीति से पूरी तरह मोहभंग हो गया है. महिलाओं की दशा तो और भी अधिक दयनीय है,’’ गायत्री देवी रोंआसे स्वर में बोली थीं.

तभी टेलीफोन की घंटी के तेज स्वर ने इस वार्त्तालाप में बाधा डाल दी.

‘‘नमस्ते, नमस्ते सर,’’ दूसरी ओर से दल के अध्यक्ष रवि बाबू का स्वर सुन कर रामआसरेजी सम्मान में उठ खड़े हुए थे.

‘‘रामआसरेजी, आप के लिए शुभ समाचार है,’’ रवि बाबू अपने चिरपरिचित अंदाज में हंसते हुए बोले थे.

‘‘विधायकों का एक शिष्टमंडल एड्स की रोकथाम और चिकित्सा के अध्ययन के लिए मलयेशिया जा रहा है. उस में आप का नाम भी है.’’

‘‘क्या कह रहे हैं आप? मुझे तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा है.’’

‘‘कानों पर विश्वास करना सीखिए, रामआसरेजी. कुछ वरिष्ठ नेतागण आप के नाम को नहीं मान रहे थे, पर मैं अड़ गया कि रामआसरेजी जाएंगे तभी शिष्टमंडल मलयेशिया जाएगा नहीं तो नहीं. अंतत: उन्हें मानना ही पड़ा.’’

वार्त्तालाप के बीच में ही रामआसरेजी ने अपनी नजर वहां बैठे अपने अन्य साथी विधायकों पर डाली थी, जो उन का वार्त्तालाप सुनने की चाहत में बेचैन हो उठे थे. तब मोबाइल कानों से लगाए रामआसरेजी धीरे से डग भरते कक्ष के बाहर बरामदे में आ गए थे.

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‘‘और कौनकौन है शिष्टमंडल में?’’

‘‘आप को आम खाने हैं या पेड़ गिनने हैं,’’ रवि बाबू संयमित स्वर में बोले थे.

‘‘वही समझ लीजिए, हमारे और भी साथी हैं रवि बाबू. वे नहीं गए और मैं चला गया तो बुरा मान जाएंगे.’’

‘‘कौनकौन हैं वहां पर?’’ रवि बाबू ने तनिक गंभीर स्वर में पूछ लिया था.

‘‘कौन? कहां? रवि बाबू?’’ रामआसरेजी हड़बड़ा गए थे.

‘‘घबराइए मत, रामआसरेजी, राजनीति में आंखकान खुले रखने पड़ते हैं,’’ रवि बाबू ने ठहाका लगाया था.

‘‘हम लोग तो यों ही चायपार्टी के लिए जमा हुए हैं. आप ने शायद गलत समझ लिया.’’

‘‘देखो, मैं ने गलतसही कुछ भी नहीं समझा है. मैं ने तो बस यह बताने के लिए फोन किया था कि हाईकमान को आप की कितनी चिंता है. आप के अन्य मित्रों को भी शिष्टमंडल में शामिल कर लिया गया है,’’ रवि बाबू बोले थे.

‘‘यानी भीमा, राजा भैया, प्रतापसिंह और सिद्दीकी भी शिष्टमंडल में हैं.’’

‘‘जी हां, और गायत्री देवी भी.’’

‘‘गायत्री देवी…यह आप ने क्या किया रवि बाबू. वह भला एड्स संबंधित अध्ययन में क्या भूमिका निभाएंगी. उन्हें तो किसी महिला सम्मेलन में भेजते.’’

‘‘ऐसा मत कहिए. गायत्री देवी ने सुन लिया तो आप की खैर नहीं. स्त्री शक्ति का सम्मान करना सीखिए, रामआसरेजी.’’

‘‘मैं तो उन का बहुत सम्मान करता हूं, रवि बाबू, पर शायद हम लोगों के साथ वह सहज अनुभव नहीं कर पाएंगी.’’

‘‘उस की चिंता आप छोडि़ए और जाने की तैयारी कीजिए,’’ कहते हुए रवि बाबू ने फोन काट दिया था.

बातचीत खत्म कर रामआसरेजी किसी विजेता की मुद्रा में कमरे में घुसे और अपने खास अंदाज में सोफे पर पसर गए.

‘‘क्या हुआ, रामआसरेजी?’’ उन के दूसरे साथी उन्हें घेर कर खडे़ हो गए थे.

‘‘एक शुभ समाचार है बंधुओ,’’ रामआसरे ने अपने साथियों की उत्सुकता शांत करने का प्रयत्न किया था.

‘‘आप मंत्री बन गए क्या?’’ समवेत स्वरों में प्रश्न पूछा गया था.

‘‘अपनी ऐसी तकदीर कहां,’’ रामआसरेजी का मुंह लटक गया था.

‘‘तो फिर क्या शुभ समाचार है?’’ राजा बाबू ने पुन: प्रश्न किया था.

‘‘एक शिष्टमंडल मलयेशिया जा रहा है. एड्स की चिकित्सा और रोकथाम के अध्ययन के लिए.’’

‘‘तो?’’

‘‘हम सब उस शिष्टमंडल के सदस्य हैं.’’

‘‘अच्छा,’’ भीमा, राजा भैया, प्रताप सिंह और सिद्दीकी के चेहरे खिल उठे पर गायत्री देवी के चेहरे पर नाराजगी स्पष्ट थी.

‘‘क्या हुआ, गायत्री बहन?’’ रामआसरे ने पूछ ही लिया.

‘‘इस में इतना खुश होने के लिए क्या है? आप लोग अब तक नहीं समझे कि हाथ में विदेश भ्रमण का झुनझुना थमा कर आप को चुप किया जा रहा है. पिछले माह महिलाओं की सुरक्षा व्यवस्था के अध्ययन के लिए भी एक शिष्टमंडल आस्टे्रलिया गया था. तब तो किसी को हमारी याद नहीं आई,’’ गायत्री देवी के क्रोध की कोई सीमा न थी, ‘‘अगले माह एक और शिष्टमंडल यातायात प्रणाली के अध्ययन के लिए अमेरिका जा रहा है.’’

‘‘शांत देवी, शांत,’’ प्रकट में रामआसरेजी अत्यंत नाटकीय स्वर में बोले थे.

‘‘मुझे शांत करने से क्या होगा भाई साहब. शांत ही करने की बात है तो हाईकमान से कहिए कि आग में घी डालने के स्थान पर पानी डालें जिस से आग नियंत्रण में रह सके,’’ वह तीखे स्वर में बोली थीं.

‘‘मेरे विचार से तो हर समय आक्रामक रुख बनाए रखने से हमारा ही अहित होगा. वैसे भी भागते भूत की लंगोटी भली,’’ राजा भैया ने अपना मत जाहिर किया था.

‘‘जैसी आप लोगों की इच्छा. आप ही तो नेता बने थे असंतुष्टों के. आरपार की लड़ाई की बात करते थे. वैसे भी मैं कहां अपने लिए कुछ मांग रही हूं पर मेरे क्षेत्र के कार्यकर्ता कहते हैं कि जब तक मैं मंत्री नहीं बनूंगी क्षेत्र का विकास नहीं होगा,’’ गायत्री देवी के स्वर में निराशा थी.

‘‘हमारे क्षेत्र के कार्यकर्ता भी यही चाहते हैं. उन्होंने तो धमकी तक दे डाली है कि मंत्रिमंडल के विस्तार की सूची में मेरा नाम नहीं हुआ तो धरनेप्रदर्शनों का ऐसा दौर चलेगा कि मुख्यमंत्री तक का सिंहासन हिल जाएगा,’’ सिद्दीकी साहब कब पीछे रहने वाले थे.

‘‘मान ली आप दोनों की बात. आप और आप के कार्यकर्ता आप को मंत्री पद पर बैठा देखना चाहते हैं पर व्यावहारिक बात तो यही है कि हम सब को तो मंत्री पद मिल नहीं सकता. फिर जो मिल रहा है उसे क्यों ठुकराएं,’’ राजा भैया के विशिष्ट अंदाज ने सब की बोलती बंद कर दी थी.

‘‘मुझे लगता है कि गायत्री बहन हमारे साथ जाने में असहज अनुभव कर रही हैं,’’ रामआसरेजी ने मौन तोड़ा था.

‘‘जी नहीं, मेरी बातों को अन्यथा न लें. मुझे इस शिष्टमंडल में जाने में कोई आपत्ति नहीं है. मैं तो खुद एड्स की चिकित्सा व रोकथाम का अध्ययन कर अपने देश के एड्स पीडि़तों की सहायता करना चाहती हूं,’’ गायत्री देवी ने एक ही क्षण में सब की बोलती बंद कर दी थी और वह तुरंत ही वहां से उठ कर चल दी थीं.

‘‘देखा भैया, उड़ती चिडि़या के पर गिनने सीखो वरना राजनीति से संन्यास ले लो. इतनी आग उगलने के बाद यह गायत्री देवी मलयेशिया जाने को झट तैयार हो गईं,’’ गायत्री के जाते ही राजा भैया व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोले थे.

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‘‘इसी को त्रिया चरित्र कहते हैं. वह अच्छी तरह समझती हैं कि उन्हें कब, कहां और कैसे अपनी नई चाल चलनी है,’’ सिद्दीकी ने अपना मत प्रकट किया था.

‘‘वही तो रोना है,’’ रामआसरेजी बोले, ‘‘सोचा था कि सब एकसाथ शिष्टमंडल में जा कर मौजमस्ती करेंगे. मुझे तो लगा था कि वह स्वयं ही मना कर देंगी पर वह तो तुरंत तैयार हो गईं. दालभात में मूसलचंद साथ जाएंगे तो हम क्या मस्ती करेंगे,’’ राजा भैया अपना क्रोध छिपा नहीं पा रहे थे.

‘‘इस तरह दिल छोटा करने की जरूरत नहीं है. केवल हम 5 ही नहीं 15 विधायक जा रहे हैं. हम इस अध्ययन के लिए अपना कार्यक्रम बनाएंगे,’’ रामआसरेजी ने अपने मित्रों को शांत करना चाहा था.

अगले दिन से ही शिष्टमंडल के सभी सदस्यों की जोरदार तैयारी शुरू हो गई. समय को मानो पंख लग गए थे. एड्स के रोगियों के स्थान पर सुंदर समुद्र तट, मसाज पार्लर और जहाज पर कू्रज में नाचनेगाने के सपनों ने हर दिन उन के रोमांच को और भी रंगीन बना दिया था. मलयेशिया में पहला दिन तो कुआलालम्पुर के बड़े से सभागार में व्यतीत हुआ था. सभागार ठसाठस भरा हुआ था पर दोपहर के भोजन के बाद

2 4 कुरसियों पर ऊंघते से लोगों को छोड़ कर पूरा सभागार खाली था. भारत से आए शिष्टमंडल में से केवल गायत्री देवी ही बैठी रह गई थीं.

अगले दिन शिष्टमंडल के लगभग सभी सदस्यों ने घूमनेफिरने का कार्यक्रम बनाया था पर गायत्रीजी ने साफ कह दिया कि वह गोष्ठी का कोई भी व्याख्यान छोड़ना नहीं चाहती थीं.

‘‘ठीक है, जैसी आप की इच्छा. हम आप को बाध्य तो नहीं कर रहे पर हमारा तो कार्यक्रम बन चुका है. यों भी इस गोष्ठी में रखा क्या है. एड्स से संबंधित जो भी जानकारी चाहिए सब इंटरनेट पर उपलब्ध है,’’ रामआसरेजी ने अपना पक्ष स्पष्ट किया था.

‘‘तब तो गोष्ठी के लिए यहां तक आने की जरूरत ही नहीं थी. इंटरनेट पर सारी जानकारी तो भारत में भी उपलब्ध थी,’’ गायत्रीजी ने नहले पर दहला जड़ा था.

‘‘चलिए महोदय, देर हो रही है. गाड़ी आ गई है,’’ राजा भैया बोले.

‘‘ठीक है, फिर हम लोग चलते हैं… आप गोष्ठी का आनंद लीजिए,’’ रामआसरेजी ने विदा ली थी.

मलयेशिया में 4 दिन पलक झपकते ही बीत गए. लगे हाथों सिंगापुर में भी घूमने का कार्यक्रम बन गया था. गोष्ठी के आयोजकों ने भी अतिथियों के स्वागत- सत्कार के साथसाथ घुमानेफिराने का प्रबंध किया था.

लौटते समय राजा भैया ने चुटकी ली, ‘‘गायत्रीजी, आप तो गोष्ठी में ही उलझी रही हैं. हमें भी कुछ बताइए न, क्या विचारविमर्श हुए… वैसे छपी हुई सामग्री हम ने भी ले ली है.’’

‘‘यों भी होता क्या है इन गोष्ठियों में. उद्घाटन और अंतिम सत्र के अलावा इन में किसी की रुचि नहीं होती,’’ प्रताप सिंह ने भी अपने दिल की बात कह दी.

स्वदेश पहुंचते ही सभी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए. मित्रोंसंबंधियों को विदेश से लाए उपहार देना भी इसी दिनचर्या का हिस्सा था. वहां से लाए हुए छायाचित्र और वीडियो भी सब के आकर्षण का केंद्र बने हुए थे.

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एक दिन अचानक ही मुख्यमंत्रीजी ने वक्तव्य दे दिया कि वह अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल करने वाले हैं. फिर क्या था राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ गईं. विधायकगण अपने तरीके से अपनी बात हाईकमान तक पहुंचाने लगे. साम दाम, दंड भेद का सहारा लिया जाने लगा और उन की बात न सुने जाने पर दबी जबान धमकियां भी दी जाने लगीं. रामआसरेजी अपने असंतुष्ट विधायकों के साथ कई बार रवि बाबू से मिल आए थे और अपनी मांगें पूरी करवाने के लिए मांगों की पूरी सूची भी उन्हें थमा दी थी.

2 महीने इसी ऊहापोह में बीत गए थे. अधिकतर विधायक मंत्रिमंडल विस्तार की बात अब लगभग भूल ही गए थे कि एक दिन सुबह की चाय की चुस्कियों के साथ आने वाले समाचार ने हड़कंप मचा दिया था.

रामआसरेजी के असंतुष्ट विधायकों में से केवल गायत्री देवी को ही मंत्रिमंडल में स्थान मिल सका था. वह महिला एवं समाज कल्याण मंत्री बन गई थीं.

आननफानन में सभी विधायक रामआसरे के घर आ जुटे थे. मुख्यमंत्री पार्टी अध्यक्ष रवि बाबू के अलावा गायत्री देवी उन की विशेष कोपभाजन थीं. मुख्यमंत्रीजी तो मंत्रिमंडल का विस्तार करते ही विदेश दौरे पर चले गए थे. आखिर असंतुष्ट विधायकों के दल ने रवि बाबू के यहां धरना देने की योजना बनाई थी.

‘‘आइए मित्रो, बड़ी लंबी आयु है आप की, अभीअभी मैं आप लोगों को ही याद कर रहा था. देखिए न, कितने मनोहारी दृश्य हैं,’’ उन्होंने टीवी पर आते दृश्यों की ओर इशारा किया था.

रामआसरेजी, राजा भैया, प्रताप सिंह, सिद्दीकी, भीमाजी यानी पांचों के विस्फारित नेत्र पलकें झपकना भूल गए थे. मलयेशिया के मनोहारी समुद्र तटों पर आनंद विहार करते, जहाज पर कू्रज में नाचतेगाते उन के दृश्य किसी ने बड़ी चतुराई से सीडी में उतार कर रवि बाबू तक पहुंचाए थे.

‘‘राजा भैया आप नृत्य बड़ा अच्छा करते हैं, साथ में वह लड़की कौन है? और सिद्दीकीजी व रामआसरे बाबू, आप लोग भी छिपे रुस्तम निकले. मुख्यमंत्रीजी कह रहे थे कि जनतांत्रिक दल के विधायक बड़े रसिक हैं,’’ रवि बाबू ने अपने विशेष अंदाज में ठहाका लगाया था.

‘‘तो आप ने सीडी मुख्यमंत्री तक भी पहुंचा दी?’’ प्रताप सिंह और भीमा बाबू ने प्रश्न किया था.

‘‘नहीं रे, यह सीडी मुख्यमंत्री निवास से हम तक आई है,’’ रवि बाबू की मुसकान छिपाए नहीं छिप रही थी.

‘‘समझ गया, मैं सब समझ गया,’’ रामआसरेजी क्रोधित स्वर में बोले थे.

‘‘क्या समझ गए आप?’’

‘‘यही कि यह सब गायत्री देवी का कियाधरा है. इसीलिए उन्हें मंत्री बना कर पुरस्कृत किया गया है,’’ वह बोले थे.

‘‘आप गायत्री देवी को जरूरत से ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं. बेचारी सीधीसादी सी घरेलू महिला है, जो अपने ससुर की महत्त्वाकांक्षाओं के चलते राजनीति में चली आई है. जासूसी करना उस के वश का रोग नहीं है,’’ रवि बाबू मानो पहेली बुझा रहे थे.

‘‘तो यह सीडी आप के पास कैसे पहुंची?’’

‘‘अनेक पत्रकार मित्र हैं हमारे, अनेक चैनलों के लिए भी काम करते हैं. वे तो सीधे जनता को दिखाना चाहते थे कि कैसे उन के विधायक एड्स जैसी गंभीर बीमारी के निराकरण के लिए खूनपसीना एक कर रहे हैं. आप के क्षेत्र कार्यकर्ता तो देखते ही वाहवाह कर उठते पर मुख्यमंत्रीजी ने सीडी खरीद ली. कहने लगे, दल की नाक का प्रश्न है. कोई जनतांत्रिक दल के विधायकों पर उंगली उठाए यह उन से सहन नहीं होगा,’’ रवि बाबू का स्वर भीग गया था, आवाज भर्रा गई थी.

कमरे में कुछ देर के लिए खामोशी छाई रही, मानो वहां कोई था ही नहीं, पर शीघ्र ही असंतुष्ट विधायकों की टोली रवि बाबू को नमस्कार कर बाहर निकल गई थी.

‘‘मान गए सर, आप को, क्या चाल चली है. सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे,’’ रवि बाबू के सचिव श्रीरंगाचारी बोले थे.

‘‘क्या करें, राजनीति में रहना है तो सब करना पड़ता है. आंखकान खुले रखने ही पड़ते हैं,’’ रवि बाबू ने ठहाका लगाया था और सीडी संभाल कर रख ली थी.

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तोरण: गोयनकाजी की क्या थी कहानी

पाखी मुरगे की तरह गरदन ऊंची कर के विहंगम दृष्टि से पूरे परिवेश को निहारती है. होटल राजहंस का बाहरी प्रांगण कोलाहल के समंदर में गले तक डूबा हुआ है. बरातीगण आकर्षक व भव्य परिधान में बनठन कर एकएक कर के इकट्ठे हो रहे हैं. गोयनकाजी जरा शौकीन तबीयत के इंसान हैं. इलाके के किंग माने जाते हैं. पास के मिलिटरी कैंट से आई बढि़या नस्ल की घोड़ी को सलमासितारों व झालरलडि़यों के अलंकरण से सजाया जा रहा है. बाईं ओर सलीम बैंड के मुलाजिम खड़े हैं गोटाकिनारी लगी इंद्रधनुषी वरदियों में सज्जित अपनेअपने वाद्यों को फिटफाट करते. मकबूल की सिफारिश पर पाखी को सलीम बैंड में लाइट ढोने का काम मिल जाता है. इस के लाइट तंत्र में 2 फुट बाई 1 फुट के 20 बक्से रहते हैं. हर बक्से पर 5 ट्यूबलाइटों से उगते सूर्य की प्रतीकात्मक आकृति, दोनों ओर 10-10 बक्सों की कतारें. सभी बक्से लंबे तार द्वारा पीछे पहियों पर चल रहे जनरेटर से जुड़े रहते हैं.

मकबूल, इसलाम और शहारत तो पाखी की बस्ती में ही रहते हैं. मकबूल ड्रम को पीठ पर लटकाता है तो अचानक उस की कराह निकल जाती है. ‘‘क्या हुआ, मकबूल भाई?’’ पाखी पूछ बैठती है, ‘‘यह कराह कैसी?’’

‘‘हा…हा…हा…’’ मकबूल हंस पड़ता है, ‘‘बाएं कंधे पर एक फुंसी हो गई है. महीन हरी फुंसी…आसपास की जगह फूल कर पिरा रही है. ड्रम का फीता कम्बख्त उस से रगड़ा गया.’’

‘‘ओह,’’ पाखी बोलती है, ‘‘अब ड्रम कैसे उठाओगे? फीता फुंसी से रगड़ तो खाएगा.’’

‘‘दर्द सहने की आदत हो गई है रे अब तो. कोई उपाय भी तो नहीं है,’’ मकबूल फिर हंस पड़ता है, ‘‘तू बता, तेरी तबीयत कैसी है?’’

‘‘बुखार पूरी तरह नहीं उतरा है, भैया. कमजोरी भी लग रही है. पर हाजरी के सौ टका के लालच में आना पड़ा,’’ पाखी भी मुसकरा पड़ती है.

‘‘तेरा हीरो कहां है रे, दिखाई नहीं पड़ रहा?’’ मकबूल ने पाखी की आंखों में झांकते हुए ठिठोली की.

हीरो की बात पर पाखी के चेहरे पर लज्जा प्रकट हो जाती है और मुंह से निकल पड़ता है, ‘‘धत्…’’ होटल से थोड़ी दूर पर ही झंडा चौक है, नगर का व्यस्ततम चौराहा. बाईं ओर बरगद के पेड़ के पास लखन की चायपान की गुमटी है. गुमटी की बाहरी दीवार पर एक पुराना आईना छिपकली की तरह चिपका हुआ है. आईने में आड़ेतिरछे 2-3 तरेड़ पड़े हैं. इसी तरेड़ वाले आईने के सामने खड़ा है गोबरा. गोबरा यानी पाखी का हीरो. वह खीज से भर उठता है, ‘‘ये लखन भी न… हुंह. नया आईना नहीं ले सकता?’’ फिर पैंट की पिछली पौकेट से कंघी निकाल कर देर तक बाल झाड़ता रहता है. कंघी के 2-3 दांते टूटे हुए हैं. आखिर जब उसे इत्मीनान हो जाता है कि बाल रणबीर कपूर स्टाइल में सैट हो गए तो कंघी को पिछवाड़े की जेब में ठूंसता हुआ तेजतेज कदमों से होटल राजहंस की ओर लपक जाता है.

गोयनकाजी की लड़की की शादी है. बरात को होटल राजहंस में ठहराया गया है. बींद यानी दूल्हे को घोड़ी पर बैठा कर व सभी बरातियों को रोशनियों के घेरे में नगर का परिभ्रमण कराते हुए ‘तोरण’ के लिए गोयनकाजी की कोठी पर ले जाया जाएगा. पूरा होटल किसी नवेली दुलहन की तरह मुसकरा रहा है. गोबरा पाखी के करीब आ जाता है. गोबरा बाईं आंख दबा कर पाखी को कनखी मारता हुआ मुसकरा देता है. गोबरा को देखते ही पाखी के चेहरे पर भी खिली धूप सी उजास फैल जाती है. गोबरा के और उस के बप्पा दोस्त हैं. गोबरा पास की बस्ती में रहता है. घरेलू संबंध रहने से एकदूसरे के घर आनाजाना लगा रहता है. मन ही मन दोनों का टांका भिड़ गया है. नगर के उत्तरी छोर पर जंगल के पास मिट्टी का एक टीला है. दोनों अकसर घनी झाडि़यों के बीच शाम के झुटपुटे में मिला करते हैं. गोबरा उसे बांहों में भर कर फुसफुसाता है, ‘तेरे सामने तो बंबई वाली सोनाक्षी भी पानी भरती है रे…’

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‘‘अरे भाई मास्टर…जब तक बींद राजा बाहर नहीं आ जाते, एकाध गाने का धमाका ही क्यों न हो जाए,’’ बींद के पिता दूर से फटे बांस के सुर में चीख पड़ते हैं, ‘‘इस जानलेवा उमस का एहसास कुछ तो कम हो.’’ सलीम मास्टर एक नजर साथियों की ओर देखते हैं. सभी अपनेअपने वाद्यों के साथ चाकचौबंद हैं. आंखों में संतुष्टि के भाव लिए वे दायां हाथ ऊपर उठा कर चुटकी बजाते हुए पूरे लश्कर के पीछे खड़े जनरेटर वाले को संकेत देते हैं तो दूसरे ही पल जनरेटर चालक पूंछ फटकारता हरकत में आ जाता है. देखते ही देखते प्रकाश तंत्र का हर स्तंभ रोशनी से जगमगाने लगता है. पाखी भी आंचल कमर में खोंसती गमछे को सिर पर रखती है और ट्यूब वाले बक्से को ऊपर उठा लेती है. अन्य औरतें भी ऐसा ही करती हैं. सतह से ऊपर उठते ही ट्यूबों की दूधिया रोशनी में होटल राजहंस का प्रांगण जगमगा उठता है.

मास्टर के संकेत पर सुलेमान बेंजो पर ‘तू चीज बड़ी है मस्त…’ की धुन छेड़ देते हैं. मास्टर की उंगलियां क्लेरिनेट पर थिरकने लगती हैं. धुन की लय पर बरातियों के पावों में अदृश्य थिरकन शुरू हो जाती है. कुछ उत्साही युवक लोगों को ठेलठाल कर गोलवृत्त बना लेते हैं और वृत्त के भीतर गाने की धुन पर डांस शुरू कर देते हैं. उन के बदन का हर अंग कमर, बांह, कूल्हे, टांगें वगैरा बेतरतीब झटकों से हवा में मटकने लगते हैं. गोबरा हंस पड़ता है, बुदबुदाने लगता है, ‘ले हलुवा, ई भी कोई डांस है. इस से अच्छा डांस तो हम कर सकता है. डांस सीखने के लिए ही तो परभूदेवा का फिलिम वह 15 बार देखा था. पर मुसीबत है कि डांस करें कहां? घेरे के भीतर घुसना मुमकिन नहीं. शक्लसूरत और कपड़ालत्ता है ही ऐसा कि दूर से ही चीह्न लिया जाएगा.’ पर उस का उत्साही मन नहीं मानता. होटल की दाईं ओर पतली गली है, अंधेरी और सुनसान. अधिक आवाजाही नहीं है उधर. ‘तू चीज बड़ी है मस्तमस्त’ की धुन हलकी हो कर मंडरा रही है उस जगह. गोबरा वहां आ जाता है और पूरी तन्मयता के संग धुन पर बदन थिरकाने लगता है. आत्ममुग्ध, ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना…’ जैसा ही उन्माद. नीम अंधेरे में नाचता हुआ वह ऐसा लग रहा था जैसे कोई पागल हवा में हाथपांव मार रहा हो. तभी गाना खत्म हो गया. बैंड की चीख एक झटके के साथ थम जाती है. चेहरे पर संतुष्टि की आभा लिए इठलाता हुआ गोबरा फिर पाखी के पास आ जाता है. पाखी उस के नाच के प्रति उन्माद को खूब समझ रही है. मुसकरा कर उस को प्रशंसात्मक बधाई देती है. थोड़ी देर में ही मुख्यद्वार पर दोस्तों से घिरा बींद यानी दूल्हा प्रकट होता है. बरातियों समेत सभी लोगों की नजरें उत्सुकता से बींद की ओर उठ जाती हैं. जरी की कामदार शेरवानी और रेशमी चूड़ीदार, माथे पर कलगी लगा साफा, कमर में लाल रेशम की कमरबंद, गले में मोतियों की कंठमाला, पीछे जरी की नक्काशी वाला बड़ा सा छत्र उठाए हुए है सांवर नाई. एक पल के लिए गोबरा की आंखें चुंधिया गईं, ई कौन है बाप, दूल्हा है…या रणबीर कपूर…या फिर श्रीमान गोबरा मुंडा. एकदूसरे को अतिक्रमित करते 3 साए गोबरा के जेहन में गड्डमड्ड होने लगते हैं.

इधर, पाखी की हसरतभरी नजरें भी बींद की ओर उठ जाती हैं. आह, प्रकृति ने कैसा लाललाल भराभरा चेहरा दिया सेठ लोगों को. दिमाग में एक चुहल कौंधती है. अगर इस दूल्हे के संयोग से उसे बच्चा हो जाए तो कैसा होगा उस का रूपरंग और नाकनक्श? उन के आदिवासियों में तो अधिकांश लोग सांवले होते हैं. उपलों जैसे होंठ और पकौड़े जैसी नाक वाले. गोबरा भी वैसा ही है. मन ही मन हंस पड़ती है वह. ट्रम्पेट थामे सुलेमान चचा बींद को देखते हैं तो एक झपाके से खुली आंखों में कुछ कोलाज कौंधने लगते हैं. रजिया 30वें वर्ष को छूने वाली है. काफी भागदौड़ के बावजूद कोई ढंग का लड़का नहीं मिल सका अब तक. एकाध जगह बात आगे बढ़ी तो मामला दहेज की ऊटपटांग मांग पर आ कर खारिज हो गया. चचा की तबीयत भी ठीक नहीं रहती इन दिनों. ट्रम्पेट में थोड़ी देर हवा फूंकते ही सांस उखड़ने लगती है. सलीम साहब कई बार उन्हें रिटायर कर देने की चेतावनी दे चुके हैं. चचा ने उन से वादा कर रखा है कि किसी तरह रजिया के हाथ पीले कर दें, फिर वे स्वयं बैंड से छुट्टी ले लेंगे. दहेज के लिए पैसे जुट जाएं, बस. बींद धीरेधीरे हाथी की चाल से चलता हुआ घोड़ी के पास आता है. घोड़ी उसे ‘टाइगर हिल्स’ की तरह लगती है, जिस पर चढ़ पाना टेढ़ी खीर है उस के लिए. बींद के पिता घोड़ी वाले साईस के कान में कुछ फुसफुसाते हैं. साईस घुटनों के बल नीचे झुक जाता है और फिर उस के कंधे पर पांव रखते हुए 3-4 प्रयासों के बाद आखिरकार बींद घोड़ी पर सवार हो जाने में सफल हो जाता है. उस के घोड़ी पर बैठते ही पिता, जिन के हाथ में सिक्कों से भरी थैली झूल रही थी, ने थैली से मुट्ठी भर सिक्के निकाले और बींद पर उछाल दिए.

जा…जिस पल का इतनी देर से इंतजार था, वह अचानक इस तरह आ जाएगा, यह बात गोबरा ने सोची भी न थी. वह उछाल भर कर सिक्कों पर चील की तरह झपट्टा मारता है. इसी बीच, पैसा लूटने वालों की छोटी सी भीड़ जमा हो जाती है वहां. टेपला, गोबिन, नरेन, सुक्खू इन सब को तो वह पहचानता है. और भी दूसरी बस्ती के कई नए चेहरे. एक हड़कंप सा मच जाता है घोड़ी के इर्दगिर्द. एकदूसरे को धकियातेठेलते सिक्कों को लूटने के लिए आतुर लड़के. फिर सबकुछ शांत हो जाता है. गोबरा पाखी के करीब आ कर मुट्ठी खोलता है. आंखों में चमक भर जाती है. 22 रुपए. छोटे सिक्के एक भी नहीं, सब 2 और 5 के सिक्के. बींद का पूरा लावलश्कर मंथर गति से आगे सरकने लगता है. पैसे लूटने वालों की भीड़ भी बरातियों के बीच में छिप जाती है.

झंडा चौक के पास आ कर बरात ठहर जाती है. बैंड पर इस समय ‘मेरा यार बना है दूल्हा…’ की धुन बज रही है. नीचे घेरे के बीच नाचते युवकों की लोलुप नजरें अनायास ही घरों के कोटरों से निकल कर बरात देखने निकली युवतियों पर आ गिरती हैं. एक युवक सलीम मास्टर के कान के पास जा कर कुछ अबूझा सा संकेत देता है. आननफानन ‘मेरा यार बना है दूल्हा…’ की धुन बीच में तोड़ दी जाती है और ‘सरकाय लो खटिया…’ पूरे धमाके के साथ बैंड पर थिरकने लगती है. गाने की सनसनाती लय पर घेरे के बीच खड़े युवकों का तथाकथित ब्रेक डांस शुरू हो जाता है. बेतरतीब लटकेझटके, हिचकोले खाते अंगप्रत्यंग. लगता है अभी सेठ को पैसा उछालने में देर है. गोबरा मुरगे की तरह गरदन ऊंची कर के सामने के पूरे नजारे का सिंहावलोकन करता है. लाइट ढोती औरतों के ब्लाउज पसीने से पारदर्शी हो उठे हैं. लगातार 2 घंटों से हाथ उठा कर लाइट के बक्सों को थामे रखने की पीड़ा उन के चेहरों पर छलकने लगी है. गोल घेरे के बीच जहां युवक उछलकूद मचाए हुए हैं, फनाफन कपड़े पहने एक बराती प्रकट होता है. शायद बींद का करीबी रिश्तेदार है. 10-10 रुपए के 5 नोट जेब से निकालता है और नाचते युवकों के सिर पर से उतारते हुए सलीम मास्टर को थमा देता है. क्षणांश में अन्य रिश्तेदारों में होड़ मच जाती है और वे भी एकएक कर के घेरे में आआ कर 10 व 20 रुपए के दसियों नोट हवा में लहरालहरा कर सलीम मास्टर को थमाने लगते हैं. इस तरह सलीम मास्टर पर नोट बरसते देख कर सुलेमान चचा का कलेजा मुंह को आने लगता है. अपने बेसुरे ट्रम्पेट को देखते उन की आंखें क्रोध से सुलगने लगती हैं. काश, कुछ रकम बतौर इनाम उन्हें भी मिल जाती.

तभी गोबरा की नजर उठती है, बींद का पिता थैली में हाथ डाल रहा है. वह चौकन्ना हो जाता है. भीतर गया हाथ मुट्ठी बन कर बाहर निकलता है और बींद के ऊपर झटके से खुल जाता है. गोबरा बिजली की फुरती से जमीन पर लोट कर हाथपांव चलाने लगता है. थैली में हाथ के घुसने और बाहर आ कर खुल जाने की यह क्रिया कई बार होती है. अचानक 5 रुपए का एक सिक्का घोड़ी की पिछली टांग के एकदम करीब आ कर गिरता है. गोबरा की आंखों में एकमुश्त जुगनुओं की चमक भर जाती है. सिक्के पर नजर गड़ाए वह कलाबाजी खाते हुए उछाल भरता है. सिक्का बेशक कब्जे में आ जाता है, पर उस के घुटने व कोहनी बुरी तरह छिल जाते हैं. लहरा कर तेजी से गिरने से असंतुलित बदन रोकतेरोकते भी घोड़ी की पिछली टांग से टकरा ही जाता है. कैंट की कद्दावर घोड़ी को भला यह अपमान कैसे बरदाश्त हो? एक ‘गधा’ तो पहले से ही उस पर लदा हुआ है, दूसरे ने टांग पर धक्का मार दिया. भड़क कर हिनहिनाती हुई पिछली टांग से वह जो दुलत्ती झाड़ती है तो सीधी गोबरा की आंख के पास लगती है. एक बारगी बदन सुन्न हो जाता है पीड़ा से. धमाचौकड़ी और होहल्ले के बीच किसी का ध्यान ही नहीं जाता उस की ओर. पूरी बरात ऊपर से गुजर जाती है और वह प्रसादजी के ‘विराम चिह्न’ की मानिंद पड़ा रहता. लेकिन थोड़ी देर में ही फिजिक्स की तरह स्वयं को संयत करता खड़ा हो जाता है वह. दर्द की लहर से बाईं आंख खुल नहीं रही. टटोल कर देखता है, आंख के पास गूमड़ उभर आया है, जिस की वजह से आंख सूज कर सिकुड़ जाती है. मुंह से भद्दी गाली बकता तेजी से वह बरात के पीछे लपक पड़ता है.

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इसी बीच, बरात मंदिर चौक के पास पहुंच जाती है. गोबरा भीड़ में जगह बनाता पाखी के करीब आ जाता है. पाखी उस के गूमड़ को देख कर चिहुंक ही तो पड़ती है, ‘‘उफ, तू पईसा लूटने का काम काहे करता है रे? बस स्टैंड पर अच्छाखासा कमा तो रहा है.’ गोबरा हंस पड़ता है, ‘‘अरे, देश के नेता और अफसर लोग सरकारी खजाने से करोड़ोंकरोड़ लूट रहे हैं कि नहीं, अयं? हम फेंका हुआ 10-20 टका लूट लिए तो क्या हो गया?’’ पाखी सकपका जाती है, ‘‘ऊ बात तय है. हमरा मतलब, पईसा लूटने में केतना जोखिम है, सो देखते, एक सूत भी ऊपर लग जाता तो?’’ गोबरा छोटी आंख को और छोटी कर के कनखी मारता मुसकरा देता है, ‘‘जोखिम तो हर काम में है. तेरे लिए हम हर जोखिम उठा सकते हैं न.’’ बैंजो और क्लेरिनेट पर इस समय ‘चोली के पीछे…’ की धुन थिरक रही है और इस के मारक स्वर के सम्मोहन में बंधा हर छोटाबड़ा बराती अपनेअपने जेहन के खंडहरी एकांत में चोलियों की चीड़फाड़ में लग पड़ता है. लगातार श्रम की वजह से पाखी के चेहरे पर स्वेद कण उभर आए हैं. दोनों हाथ ऊपर उठे हैं, लाइट का बक्सा थामे हुए. दायां हाथ उतार कर पसीना पोंछना ही चाहती है कि बक्सा असंतुलित हो कर डगमगाने लगता है. पाखी झटके से हाथ ऊपर उठा लेती है. इस कवायद में बगल के पास ब्लाउज उधड़ जाता है. पाखी अकबका जाती है. चेहरा लज्जा से लाल हो उठता है. सांसें तेजतेज चलने लगती हैं.

‘‘लो यार,’’ उस के पीछे चल रहे युवा बरातियों की नजरें इस हादसे को कैच की तरह लपक लेती हैं, ‘‘चोली के पीछे के राज को दिखाने का इंतजाम भी कर रखा है गोयनका साहब ने. वाह…’’ इस टिप्पणी पर गोबरा के भीतर बैठा रणबीर कपूर पिनक कर खड़ा हो जाता है, ‘अभी इन ससुरों को हवा में उछाल कर ‘किरिस’ (कृष) वाला ऐक्शन दिखाते हैं, हूंह.’ पर पाखी आंखों के संकेत से उसे संयत रहने का अनुरोध करती है. वह सोचती है, ‘दू साल पहले जब मालती मैडम के यहां झाड़ूपोंछा का काम करती थी, यह ब्लाउज मिला था बख्शिश में. घिसा हुआ तो तभी था. कई बार सोचा कि नया ब्लाउज ले लेगी हाट से. पर ऐनवक्त पर कोई न कोई अड़चन आ खड़ी होती.’ युवकों की उत्तेजना आंच पर चढ़े दूध की तरह उफनती चली जाती है. एक के बाद दूसरा, अश्लील फिकरे गुगली से उछलते रहते हैं. बरात जगहजगह रुकती, नाचती, जश्न मनाती हुई नगर परिभ्रमण करने के बाद आखिरकार गोयनकाजी की कोठी पर आ पहुंचती है. सारी औरतें पंडाल के सुदूर बाएं कोने के नेपथ्य में अपनेअपने लाइटबौक्स जमा करा देती हैं. बैंड का मैनेजर सभी को हाजिरी थमा देता है. पाखी पैसे ले कर गेट की ओर बढ़ने को उद्यत होती ही है कि अचानक वे ही युवक जो सारी राह पाखी पर फिकरे कसते आए थे, वहां जिन्न की तरह प्रकट हो जाते हैं, ‘वाह फ्रैंड्स, लुक, दैट चोली गर्ल कमिंग.’ नशे के वरक में लिपटी उन की लरजती आवाज.

‘‘गर्ल?’’ सम्मिलित लिजलिजा ठहाका, ‘‘अरे विमेन बोलो यार, अ फुल फ्लैशी विमेन…’’ फिर एक ‘हवाई किस’ पाखी की ओर गुगली की तरह उछल आता है. पाखी के भीतर जैसे एक भट्ठी सी सुलग उठती है. आंखें हिंसक क्रोध से रक्ताभ हो जाती हैं. सधे कदमों से चल कर वह युवकों तक आती है, ‘‘तुम दिकू लोगों में यही तो खासीयत है. आते हो एगो धोती और एगो लोटा ले कर. पर देखतेदेखते खदान वाला और कोठी वाला बन जाते हो. अच्छा तनी बोलो तो. आज का जो एतना बड़ा जलसा कामयाब हुआ, इस कामयाबी का असली हीरो कौन है? तुमरा वह भड़ुवा दूल्हा? नहीं…नहीं? इस कामयाबी का असली हीरो हैं सांसों की मशक्कत करते बैंड पार्टी के मुलाजिम, 10-10 किलो वाला लाइट बक्सा ढोने वाली हम औरतें, सारी राह दूल्हा का चौकसी रखने वाला घोड़ी का बूढ़ा साईस, पैसा लूटने वाले ई लौंडे, बरातियों की खातिरदारी में लगे गरीब बैरे, जोकर शक्तिमान का मेकअप सजाए हमारी बिरादरी के मासूम कलाकार, हुंह. अगर ये हीरो न होते तो…तो साहेब, कैसा जश्न और कैसा जलसा? सबकुछ कफन की तरह सादा और बेनूर हो जाता. आप सेठ लोग सिरिफ दौलत खा सकते हैं सिरिफ दौलत ही बाहर कर सकते हैं. ये शोरशराबा और ये खुशियाली तो, विश्वास करें, इन्हीं हीरो लोगों की वजह से संभव हो सकी है.’’

पाखी की सांसें उत्तेजना से फूल जाती हैं. युवक ऐसे अपमान से तिलमिला उठते हैं, ‘‘दो कौड़ी की लेबर, जबान चलाती है. आउट. वी से, गैटआउट.’’ इस के पहले कि बात बिगड़ती, कुछ बुजुर्ग बराती बीचबचाव कर के मामला शांत करवा देते हैं. पाखी संयत कदमों से गेट की ओर बढ़ने लगती है कि अचानक भीतर से अजीब सी अफरातफरी और भयाकुल कोलाहल के छोटेछोटे टुकड़े रुई के फाहों की शक्ल में उड़उड़ कर गेट के आकाश तक चले आते हैं. जश्न का सारा कोलाहल थम गया है. पाखी के पांव भी थम जाते हैं. चौकन्नी निगाहें मुड़ कर स्थिति का जायजा लेना चाहती हैं. तभी पता चलता है, गोयनका साहब का ढाई वर्ष का दोहिता चिंटू काफी देर से लापता है. बेटीदामाद मुंबई से आए हैं. अपरिचित जगह, पूरे पंडाल में और कोठी के भीतर तलाश लिया गया. मामला संगीन हो उठा है. चिंटू की मां का रोरो कर बुरा हाल है. इस आकस्मिक हादसे की वजह से सारा उत्सव और सारा उत्साह तली जा चुकी साबुत मछली की तरह स्पंदनहीन हो गया है. सामने बने भव्य स्टेज पर वरवधू हाथों में माला लिए चुप खड़े हैं. आतिशबाजियों की रौनक और बैंड वालों की धमक भी हवा हो चुकती है.

पाखी मुंह बिचका देती है, उस की बला से. अब उसे न तो सेठ से ही कोई मतलब है, न उन के दोहिते से. ‘‘तेरा चेहरा इतना तमतमाया हुआ काहे है?’’ बाहर उस के इंतजार में खड़ा गोबरा बोलता है.

‘‘भीतर फिर वैसा ही गंदा बोल बोल रहा था ऊ लोग…’’ पाखी फनफनाती है.

‘‘तू न रोकती तो यहां बवाल पहले ही खड़ा कर देते हम, हुंह,’’ गोबरा भुने चने की तरह भड़क उठता है.

‘‘हम भी कम नहीं हैं,’’ पाखी अब संयत हो चुकती है, ‘‘ऐसा झाड़ पिलाए हैं कि वे जिनगी भर नहीं भूलेंगे.’’ पाखी के आंचल के छोर में गोबरा अपनी दोनों जेबों का सामान उलट देता है. 80 रुपए की रेजगारी, पानपराग के 2 पाउच और मुट्ठीभर काजूकिशमिश के दाने. देख कर पाखी हंस पड़ती है, ‘‘और ई सब में मेरे ये सौ टका.’’ धीरेधीरे चलते दोनों पहले मंदिर चौक, फिर झंडा चौक और फिर सुदूर इंद्रपुरी चौक के पास आ जाते हैं. ‘‘कल सब से पहले एक नया ब्लाउज खरीदना, ठीक? इसी के वजह से न एतना ताना और फिकरा सुनना पड़ा है,’’ गोबरा आदेशात्मक लहजे में कहता है. लहजे में मिश्रित प्यार की अदृश्य तासीर से पाखी रोमांच से सराबोर हो उठती है.

इंद्रपुरी चौक पर काफी चहलपहल है. पास ही इंद्रपुरी टाकीज जो है. अंतिम शो छूटने में अभी देर है. बस्ती की ओर जाने वाली गली के मुहाने पर चायपान की गुमटी है, गुमटी के बाहर ग्राहकों के लिए बैंच पड़ी है. दोनों वहां बैठ जाते हैं, ‘‘साहूजी…दु गिलास चा इधर भी.’’ तभी पाखी की नजरें कोने वाली बैंच की छोर पर गुमसुम बैठे एक बच्चे पर जाती हैं. गोरा, गदबदा बच्चा. तीखे नाकनक्श, आधुनिक फैशन के वस्त्र, लगातार रोते रहने से सूजीसूजी ललछौंह आंखें. पाखी का दिमाग ठनक जाता है. इस तरह के चेहरेमोहरे वाला बच्चा इस बस्ती का तो हो ही नहीं सकता.

‘‘बाबू, का नाम है आप का?’’ पाखी झट से बच्चे के पास आ जाती है. बच्चा सहमी आंखों से पाखी को निहारने लगता है. पाखी फिर पुचकारती है तो किसी तरह कंठ से फंसीफंसी किंकियाहट बाहर आती है, ‘‘चिंटू.’’

‘चिंटू?’ पंडाल से निकल रही थी तो यही नाम हवा में उड़ते हुए कान की खोह में उतरा था. पाखी चिंटू को गोद में उठा लेती है, ‘‘बाबू, कहां रहते हो आप?’’ औरत की गोद तो गोद ही होती है. चाहे कोई भी औरत हो. गोद की कैसी जाति और कैसा मजहब. गोद की वात्सल्यमयी ऊष्मा पा कर चिंटू के पस्त चेहरे पर आश्वस्ति की पुखराजी चमक खिल आती है.

‘‘सू…कर के प्लेन से आए हैं हम,’’ चिंटू नन्ही बांह हवा में लहरा कर उड़ते प्लेन की आकृति बनाने की चेष्टा करता है. अब शक की तनिक भी गुंजाइश नहीं. बेशक, यह वही बच्चा है जिस की तलाश वहां शादी वाले घर में हो रही है और जिस के न मिल पाने से सारा जलसा और जश्न थम सा गया है. पाखी चिंटू की पूरी रामकहानी गोबरा को बताती है.

‘‘ऊ सेठ लोग तेरे साथ इतना गंदा सुलूक किया…’’ गोबरा खीज उठता है, ‘‘फिर भी उन लोगों से हमदर्दी?’’

‘‘नहीं,’’ पाखी मासूमियत परंतु दृढ़ता से जवाब देती है, ‘‘हमदर्दी उन लोगों से नहीं, हमदर्दी इस मासूम बच्चे से है. गोबरा रे…औरत कोई भी हो, उस के लिए बच्चा तो बस बच्चा ही होता है. बच्चा का कैसा तो जात और कैसा तो मजहब?’’ गोबरा निरुत्तर हो जाता है, ‘‘तुम औरतों के दिल को तो कोई भी नहीं बूझ सकता. हमारा गोड़हाथ बहुते पिरा रहा है. पैदल चलना अब मुश्किल है,’’ गोबरा के बंद होंठों से छन कर हलका परिहास बाहर रिस आता है.

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‘‘तो रिकशा कर लेंगे रे, मोरे राजा…’’ पाखी भी ठुनक पड़ती है.

‘‘यानी कि 20 टका का फुजूल का चूना. यानी कि ऊ कहावत है न, ‘फ्री में हाथ जलाना’…’’ गोबरा खीखी कर के खिलखिला पड़ता है. दोनों चिंटू को ले कर रिकशा पकड़ते हैं और रिकशा तेज गति से गोयनका साहब की कोठी की ओर दौड़ने लगता है. करीब 15 मिनट की बेचैन यात्रा. कोठी का माहौल अब पहले से भी ज्यादा गमगीन हो गया है. विवाह की सारी कार्यवाहियां स्थगित हैं. सारे लोगों के चित्त अशांत हैं. स्टेज पर वरवधू का वरमाला वाला कार्यक्रम भी रुका हुआ है. सिर्फ आतुर चहलकदमियों और चिंतातुर कानाफूसियों के टुकड़े कबूतर के नुचे पंखों की मानिंद पंडाल के आकाश में छितराए उड़ रहे हैं.पंडाल के गेट के पास अफरातफरी मची है, जैसे ही रिकशा दृष्टिक्षेत्र में आता है, सब से पहले चिंटू के पिता और गोयनका साहब की नजरें उस पर जाती हैं. दोनों बदहवास से उस ओर दौड़ पड़ते हैं. चिंटू को देखते ही दोनों की बेजान देह में नई जान भर आती है.

‘‘चिंटू, मेरे बेटे…’’ पाखी की गोद से चिंटू को झपट कर उस का पिता पागलों की तरह चूमने लगता है. पाखी चिंटू के पिता को देखती है तो हड़क जाती है, ‘अरे, यह तो वही मरदूद है जो अश्लील फिकरे कसने में सब से आगे था.’ पाखी से नजरें मिलते ही युवक का चेहरा भी सफेद पड़ जाता है. उस के जेहन में कुछ कोलाज चक्रवात की तरह घुमेरी घोलने लगते हैं…हवा में हाथ फटकारते हुए पाखी ललकार रही है- ‘आज के इस जलसे का असली हीरो कौन है? कौन? ये दूल्हा? गोयनका साहब की दौलत? नहीं. असली हीरो हैं ये बैंड वाले, ये लाइट वाले, पैसा लूटने वाले, साईस, बैरे, जोकर, शक्तिमान बने कलाकार…’ पाखी गोबरा की बांह थाम कर लौटने के लिए मुड़ जाती है. युवक हतप्रभ सा फटीफटी आंखों से उन्हें जाते हुए देखता रहता है. पर जेहन में अभिजात्य और संपन्नता का घमंड इतना सघन है कि चाह कर भी वह उन्हें रोक कर आभार के दो शब्द भी नहीं कह पाता.

पहला निवाला

लेखक- रोहित

घनश्याम शुक्ला बिहार के छपरा जिले में शिवनगरी गांव का रहने वाला 45 वर्षीय अधेड़ उम्र का आदमी था. 15 साल पहले घनश्याम गांव में पंडिताई का काम करता था. रुकरुक कर उस की थोड़ीबहुत कमाई हो जाया करती थी, लेकिन बंधा हुआ पैसा हाथ नहीं रहता था.

जैसेजैसे परिवार बढ़ता गया, वैसेवैसे घनश्याम को पंडिताई के पेशे की कमाई नाकाफी लगने लगी. इस मारे घनश्याम गांव से दिल्ली शहर काम के लिए रवाना हो गया. लेकिन शहर आने के बाद भी घनश्याम ने पंडिताई का काम नहीं छोड़ा.

दिल्ली के आनंद पर्वत इंडस्ट्रियल इलाके में लोहे की फैक्टरी में घनश्याम की नौकरी लगी थी. वह दिन में फैक्टरी में काम करता और जब भी पंडिताई का काम आता तो शाम का प्लान बना लगे हाथ उसे भी कर लिया करता.

आसपास के रहने वाले लोगों को भी घनश्याम सस्ता पंडित पड़ता था, तो मुंडन, बरसी, गृह प्रवेश इत्यादि में बुला लिया करते थे. और फिर घनश्याम के लिए यह काम मानो रेगिस्तान में पानी के जैसे था तो अच्छा तो लगना ही था, और अच्छा लगेगा भी क्यों नहीं, इस में साइड से पैसे भी बनने लग गए थे.

घनश्याम का पूरा परिवार गांव में रहता था. 5-6 साल पहले तक तो घनश्याम की पत्नी उस के कहने पर बीचबीच में शहर आ जाया करती थी, लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं थी.

जो किराए का कमरा पहले पत्नी के आने से हिलौरे पैदा करता था और बड़ा लगता था, अब ढलती जवानी के साथ कमरे का आकार भी छोटा लगने लगा था. ऊपर से बूढ़े मांबाप के कारण घनश्याम की नैतिकता पत्नी को शहर लाने से रोक रही थी.

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शहर में काम करते घनश्याम ने खुद के लिए कुछ उसूल बनाए थे. वह न तो किसी का दिया हुआ खाना खाता, न बाकी मजदूरों की तरह रात को ढाबे से खाना लाता, बल्कि जितनी थकान क्यों न हो, वह खुद कमरे में अपने हाथों से खाना बनाता था चाहे फैक्टरी से आने में रात के 9 ही क्यों न बज जाएं.

घनश्याम की दिनचर्या काफी टाइट थी. वह आदतन शौचालय जाने से पहले जनेऊ कान में लपेट लेता, सर्दी हो या गरमी सुबह ही नहा लेता. विशेष तौर पर गांव से चंदन का प्रबंध किया रहता था तो धूपबत्ती जला पूजा करने के बाद टीका जरूर लगाता.

हांलाकि गरमी और पसीने से टीका एक समय के बाद माथे पर टिकता नहीं था. लेकिन टीका लगाने की आदत घनघोर थी. आमतौर पर चंदन का टीका लोगों को आकर्षित करता था, जिस से लगे हाथ उन के पंडित होने का ही प्रचार होता और उसे इस का फायदा हो जाया करता.

एक दिन धनश्याम को अचानक सुनने में आया कि पूरे देश में कोरोना महामारी के कारण प्रधानमंत्री ने 21 दिन की तालाबंदी कर दी है. वह थोड़ा हैरान तो हुआ, लेकिन 21 दिन तक अपने खानेपीने का खर्चा उठा सकता था, तो उसे खास चिंता नहीं हुई. और फिर घनश्याम ने राष्ट्र समर्पण की भावना से खुद को तालाबंदी के लिए तैयार कर लिया था. लेकिन इस तालाबंदी में उस के बहुत से उसूल बिगड़ने लगे थे.

पूरा दिन घर में खाली होने के कारण वह पहले सूर्योदय से पहले नहा लिया करता था, पर अब 8 बजे तक सो कर उठने लगा था. तब तक सूर्य आंखों के सामने चमकने लगता था.

हां, पूजापाठ नियमित तौर पर किया करता, लेकिन धूपबत्ती जलाने से परहेज करने लगा. जो चंदन का टीका घनश्याम के माथे की शान हुआ करता था, पर उसे अब इस की जरूरत नहीं महसूस हुई. ऊपर से चंदन महंगा था तो लगाने से वह बचता भी रहा.

तालाबंदी  खत्म होने के साथसाथ घनश्याम की जमापूंजी खत्म होने लगी थी. लेकिन वह इस बात को ले कर निश्चिंत था कि तालाबंदी खुलते ही उस की रुकी हुई गाड़ी फिर से पटरी पर आने लगेगी. लेकिन यह क्या, प्रधानमंत्री ने फिर से 3 हफ्ते की तालाबंदी पूरे देश में कर दी.

अब तो घनश्याम के माथे पर शिकन आने लगी थी. उस की हालत पतली होने लगी थी. घरगांव में रोज फोन पर बात होती तो थी, लेकिन अब घनश्याम को दूसरे तालाबंदी के कारण इतने दिनों बाद पहली बार लगा कि वह यहां फंस चुका है. उस के दिमाग में दिनरात परिवार और घरगांव की बातें घूमने लगी थीं.

घनश्याम इस तालाबंदी से परेशान हो चला था. सरकार के इस फैसले से मन ही मन गाली देने का जी तो करता, लेकिन फैसले को देशहित में समझ द्वंद्व की स्थिति में रहता. उस ने कच्चे राशन के लिए सरकारी ई कूपन का फार्म भरा था, उसे थोड़ाबहुत कच्चा राशन मिल गया.

हां, राशन के लिए उसे कई दिनों तक पहले कूपन के लिए, फिर राशन के लिए 8-9 दिन रोज घंटों लाइन में लगना पड़ा था, लेकिन जैसेतैसे कड़ी मशक्कत के बाद राशन पा लिया.

भूख से तो घनश्याम जंग जीत गया, लेकिन समस्या उसे इस बात की थी कि अगर यही हालत रही तो फैक्टरी न जाने कब तक खुलेगी और ऊपर से कमरे के किराए का बोझ भी सिर पर पड़ रहा था. वह इतना जानता था कि सरकार ऊपर हवाहवाई जो कहे नीचे जमीन पर हकीकत अलग ही रहती है. इसलिए वह समझता था कि अब उस की अपने गांव जाने में ही भलाई है.

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जैसेतैसे दूसरे तालाबंदी के दिन बीतने को आए थे. एक दिन पड़ोस के मदन ने आवाज़ लगाई, “शुक्लाजी तुम्हें पता चला कि सरकार गांव जाने के लिए ट्रेन चला रही है? तो क्या सोच रहे हो जी, चलोगे गांव?”

मदन घनश्याम की जानपहचान का था. मदन वही था, जिस के भरोसे घनश्याम गांव से शहर आया था. मदन घनश्याम को शुक्लाजी कह कर पुकारता था. यहां तक कि गांव में भी घनश्याम को शुक्लाजी के नाम से ही पुकारा जाता था.

“हां, चलना तो है. यहां शहर में रहने का अब कोई मतलब नहीं है. न काम बचा है, न कमाई. ऊपर से किराया भरो अलग से. मैं ने तो अपने गांव में प्रधान से बात कर के गांव जाने के लिए सरकारी फार्म भी भर दिया है. कुछ दिनों बाद मैं चलता बनूंगा यहां से,” घनश्याम ने जवाब दिया.

कुछ दिन बाद घनश्याम सरकार के द्वारा चलाई गई स्पेशल ट्रेन से अपने गांव छपरा को निकल पड़ा. सरकारी आदेशानुसार गांव पहुंचते ही उसे क्वारंटाइन कर दिया गया.

गांव आ कर उसे पता चला कि बाहर से आने वालों को गांव के पंचायत हाल में क्वारंटाइन किया गया था, जिस में रहने और खानेपीने की भी व्यवस्था की गई थी.

घनश्याम पंचायत हाल में पहुंचते ही सामान रख पाखाने की ओर भागता है. वह जैसे वहां पहुंचता है, तो उसे सामने पाखाने से भोलाराम निकलते हुए दिखता है.

भोलाराम शिवनगरी गांव में चमार जाति से था. गांव में लोग टोले के हिसाब से बंटे हुए थे. घनश्याम गांव के जिस तरफ था, उसे बामन टोला कहा जाता था और भोलाराम का घर गांव के जिस तरफ था, वह गांव के अंत में चमार टोले में पड़ता था. वह घनश्याम से कुछ दिन पहले ही मुंबई से साइकिल चला कर लौटा था.

घनश्याम का माथा घूम जाता है. “यह डोमबा यहां क्या कर रहा है?” वह पास खड़े एक आदमी से पूछता है.

“यह भी हमारे साथ यहीं क्वारंटाइन हुआ है.”

“तो क्या यहां साथ में ही खानापीना होता है?” घनश्याम पूछता है.

“हां, कुछ ऐसा ही समझ लो.”

घनश्याम फिर कहता है, “यहां तो हमारा धर्म भ्रष्ट हो जाएगा. हम एक पल भी यहां नहीं ठहर सकते, या तो हमें इस डोम से अलग कर दे या उसे हम से दूर.”

घनश्याम किसी व्यक्ति को कह कर गांव के प्रधानजी को उन से मिलने आने को कहते हैं.

गांव के प्रधानजी बुद्धि से चतुर और जाति के ब्राह्मण थे. उन का 15 साल लगातार प्रधान बने रहने का रिकॉर्ड था. लेकिन पिछले साल शिवनगरी गांव की प्रधान सीट महिला आरक्षित कर दी गई थी. इस के कारण प्रधानजी चुनाव नहीं लड़ पाए थे. उन्होंने अपनी चतुर बुद्धि का प्रयोग कर इस सीट पर अपनी पत्नी को चुनाव के लिए खड़ा कर दिया. बस फिर क्या था, प्रधानजी की पत्नी चुनाव जीत गईं और प्रधानजी बन गए प्रधानपति.

वैसे तो प्रधानजी बड़े ही घपलेबाज़ आदमी थे, लेकिन इस बार घपले के बारे में सोच भी नहीं सकते थे.

प्रधानजी अगले भोर घनश्याम से मिलने आए और बोले, “बताओ शुक्लाजी का आफत आन पड़ी?”

“प्रधानजी ई सब का चल रहा है?”

प्रधानजी सोचते हुए बोले, “का चल रहा है?”

“मतलब, हमें काहे उस डोमबा भोलाराम के साथ रखे हैं?”

“का बताएं शुक्लाजी, यह तो आगे से और्डर आया है तो बस वही कर रहे हैं.”

“लेकिन, हमरा तो धर्म भ्रष्ट हो जाएगा, प्रधानजी आप तो जानते ही हैं.”

“देखो शुक्लाजी ई सब हमरा बस में नाही हैं और अगर ई बात बाहर फैली तो समझो बवाल हो जाई. डीएम साहेब खुदे नजर रखे हुए हैं क्वारंटाइन सेंटर पर.”

“प्रधानजी आप तो खुदई ब्राह्मण हैं. भला आप ही जरा सोची कि हम यहां कैसे रही? पूरा दिन हमरे आसपास उ डोमबा मंडरात रही, ऊपर से एकई बरतन में खाना बनी. एकई साथ बैठ के खाई. आज ऊ बरतन मा डोमबा खावत रही कल हम. अब ई घोर पाप करिएगा हमरे साथ?”

“बात के समझा. ई तोहर घर नाहि के जो तू जइसे चाही वइसे होई. एक तो सरकार पईसा कम देत है ऊपर से तोहरा अलग रखी, हम तोहरा के पागल दिखेत बाणी?” इतना कह कर प्रधानजी वहां से निकल जाते हैं.

घनश्याम निश्चय कर चुका था कि वह जब तक इस झंझट से निकल नहीं जाता, तब तक अन्न का एक दाना नहीं खाएगा.

वैसे तो धनश्याम शहर में अकसर फैक्टरी के भीतर साथ में काम करने वाले बाकी मजदूरों के साथ बिना जाति पूछे बैठ कर खाना खा लिया करता था, किंतु गांव की हवा में जादू ही कुछ और होता है, एकदम से अर्श से फर्श ले ही आता है. शहर में जो आदमी कबूतरखाने में रह कर खुद को लाचार महसूस कर रहा था, वह एकाएक अपनी चालढाल बदल लेता है. गांव आते ही आदमी जातियों में बंटने ही लगता है.

घनश्याम बचपन से भोलाराम से दूरी बनाए रखा था. लगभग हमउम्र होने के बावजूद कभी भी दोनों ने साथ में खेला नहीं था. खाना, पीना, रहना सब दूरदूर था. तो अब साथ कैसे रह सकता था. गांव में घनश्याम अकसर भोलाराम को जाति के पाठ पढ़ाया करता था कि, “बामन टोला के आसपास न भटका करो, वरना कूट दिए जाओगे.”

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इसी अहम में पहले दिन घनश्याम भूखे पेट ही सो जाता है. अगले दिन की सुबह उसे जोर की भूख लगती है. लेकिन जैसे ही उस के सामने से भोलाराम दिखता है, उसे देख वह अपनी भूख को काबू में रख संकल्प मजबूत कर लेता है.

दोपहर में खाने का समय होने वाला ही था कि घनश्याम के पेट में गैस बननी शुरू हो गई. वह जोरजोर से पादे जा रहा था. पेट में धीरेधीरे दर्द शुरू हो रहा था. एक पल के लिए लगा कि घनश्याम का संकल्प टूट जाएगा. लेकिन भोलाराम के बारे में सोचते ही दोपहर का खाना भी नहीं खाया.

रात के भोजन में भी घनश्याम खाने के लिए खड़ा नहीं हुआ. लेकिन उस का पेट जवाब दे रहा था. पेट में जोरजोर की गुड़गुड़ की आवाज आने लगी थी और भूख भीतर कुचोड़ने लगी थी मानो चूहे पेट के भीतर कुश्ती कर रहे हों.

आधी रात हो चली थी. घनश्याम को मारे भूख के नींद नहीं आ रही थी. पेट में भूख से दर्द उठने लगा था. उस की नजर उस के लिए बचाए खाने पर पड़ी.

भूख का चुम्बक उसे खाने की तरफ मानो खींच रहा था. जैसे ही घनश्याम बिस्तर से उठा, धीरे से खाने की तरफ बढ़ा और अपने लिए रखा खाने का डोंगा ज्यों ही वहाथ में लिया, तभी एक आवाज पीछे से आती है.

“और दिन के मुकाबले आज खाना ठीकठाक है, खा लीजिए.”

यह सुनते ही घनश्याम की आंखों में आंसू आने लगते हैं और वह पहला निवाला अपने मुंह में डाल देता है.

जलते अलाव: भाग 2- क्यों हिम्मत नही जुटा सका नलिन

पूरे 30 सालों तक अनगिनत हादसों ने मेरी, नैना और जरी की जिंदगी को कई दर्दीले पड़ावों तक पहुंचा दिया.

2 बच्चों के बाद मेरी बेहद अहंकारी और खर्चीली पत्नी कमर से धनुष की तरह मुड़ कर पलंग के साथ पैबस्त हो गई. नैना के पति को लकवा मार गया और वह नौकरी करने के लिए मजबूर हो गई. जरी के पति भोपाल गैस कांड के शिकार हो गए. 2 मासूम बच्चों के साथ रोजीरोटी की जुगाड़ ने उसे भी दहलीज के बाहर कदम रखने को मजबूर कर दिया.

जरी के अम्मीअब्बू जिंदा थे. हर गरमी की छुट्टियों में बच्चों के साथ अपने शहर आती तो नैना अपने दुखदर्द में, शिकवेशिकायतें करने में जरी के अलावा किसी को शामिल नहीं करती.

मेरी पत्नी धनुषवात रोग को लंबे समय तक झेल नहीं सकी. दोनों बच्चों के पालनपोषण की जिम्मेदारी नौकरी के अतिरिक्त मुझे ही संभालनी पड़ती. पूरा दिन भागदौड़, व्यस्तता में कट तो जाता मगर रात, जैसे कयामत की तरह आग बरसाती. पनीली आंखों में जरी का चेहरा तैरने लगता. उस की नरम, नाजुक हथेली का हलकाहलका दबाव अकसर अपने माथे पर महसूस करता. रोज रात आंखें बरसतीं. तकिया भिगोतीं और तीसरे पहर कहीं आंख लगती तो जरी ख्वाब में आ जाती. मैं शादी के बाद भी एक पल के लिए उसे भूला नहीं.

6 कमरों की कोठी खाने को दौड़ती थी, इसलिए नैना को अपने पास बुला लिया. बच्चे बूआ से हिलमिल गए. गोया नैना ने मेरी गृहस्थी संभाल ली.

दूसरे दिन नाश्ते की टेबल पर मैं ने नैना के हाथों में जरी का कार्ड थमा दिया था.

‘‘दादा, कब मिली थी जरी आप से? कैसी है वह?’’ नैना ने बेचैन हो कर सवालों की झड़ी लगा दी, ‘‘दादा, अभी चलिए, प्लीज उठिए न.’’ नैना की जरी के प्रति आतुरता ने मुझे भी भावविह्वल कर दिया पर मैं ऊपर से शांत बना रहा.

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‘‘पहले फोन तो कर लो,’’ मैं ने कहा.

‘‘नहीं, कोई जरूरत नहीं फोन की. क्या आप जानते नहीं कि वह 1 महीने से यहां है, फिर भी उस ने कोई खबर नहीं दी. इस का मतलब क्या है? हमेशा की तरह वह कोई न कोई जहर चुपचाप पी रही होगी.’’

नैना मुझ से भी ज्यादा जरी की खामोशी की जबान को समझती है. यह देख कर मैं उस की दोस्ती को सलाम करने लगा और जरी के घर चल दिया.

कौलबैल बजते ही जरी के छोटे बेटे ने दरवाजा खोला, नैना और मैं अंदर गए. जरी भी ड्राइंगरूम में आ गई. उदास आंखें, निस्तेज चेहरा और पतलेपतले होंठों पर जमी चुप्पी की मोटी पपड़ी. नैना ने उस के गले लगते ही शिकायत की, ‘‘यहां 1 महीने से कैसे? क्या इतनी लंबी छुट्टी मिल गई?’’

‘‘मैं ने वीआरएस ले लिया है,’’ चट्टान से व्यक्तित्व की कमजोर आवाज गूंजी.

‘‘व्हाट? वीआरएस लेने की क्या जरूरत पड़ गई?’’ नैना ने जरी का हाथ अपने हाथों में ले कर उतावलेपन से पूछा.

जरी हमेशा की तरह सूनी दीवार को घूरने लगी.

‘‘बच्चों की जिम्मेदारी अभी पूरी कहां हुई है. ऐसी कौन सी मजबूरी थी जरी जो तुम जैसी दूरदर्शिता और समझदार ने ऐसा बचकाना फैसला ले लिया?’’ नैना के सब्र का बांध टूटने लगा था.

‘‘यह मेरा फैसला नहीं था? मेरी मजबूरी थी,’’ जरी की भर्राई आवाज का शूल मेरे कलेजे में धंस गया. मैं पत्थर की तरह बैठा, सन्न सा उसे अपलक देखता रहा. उस की दर्दीली आवाज का एकएक शब्द मुझ पर हथौड़े की चोट करता रहा.

1 साल पहले जरी का प्रमोशन उत्तर प्रदेश के ऐसे शहर में हो गया, जो अपनी मिट्टी को सांप्रदायिकता के खून की होली से रंगता रहा और देश के धर्मनिरपेक्ष संविधान को कलंकित करता रहा. जरी उस शहर की बलिदानी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से बहुत प्रभावित थी लेकिन रैस्टहाउस में कुछ दिन बिताने के बाद जब अपने लिए मकान तलाशने निकली तो लोग उस के चुंबकीय व्यवहार से प्रभावित हो कर किराया और अन्य औपचारिकताएं तय कर लेते. लेकिन जैसे ही उन्हें उस के धर्म का पता चलता, वे कोई न कोई बहाना बना कर टाल जाते. पूरे 1 महीने की कोशिश के बावजूद किराए का मकान नहीं मिला.

स्टाफ मैंबर कोरी हमदर्दी जताते हुए व्यंग्य से पूछते, ‘मिल गया मकान मैडम?’

‘जी नहीं,’ जरी का संक्षिप्त जवाब उसे खुद को बुरी तरह आहत कर देता.

‘मुसलिम इलाके में क्यों नहीं ट्राइ करतीं?’

‘ऐक्चुअली वह काफी दूर है. बच्चों का काफी वक्त आनेजाने में ही बरबाद हो जाएगा.’

‘यह क्यों नहीं कहतीं मैडम कि मुसलमान बस्ती की गंदगी और परदेदारी की पाबंदी को आप खुद ही नहीं झेल पाएंगी,’ मिसेज खुराना ठहाका लगाते हुए व्यंग्य करतीं. हिंदू बहुसंख्यक स्टाफ, अल्पसंख्यक एक अदद महिला कर्मचारी पर, कभी लंच टाइम में, कभी कैंटीन में कोई न कोई कठोर उपहास भरा जुमला उछाल कर आहत करने का अवसर हाथ से न जाने देता.

वतन के लिए शहीद होने वाले मंगल पांडे जैसे जांबाज सिपाही का साथ सिर्फ हिंदुओं ने ही नहीं, मुसलमानों ने भी दिया था. तब कहीं तिरंगा शान से लालकिले पर लहराया था. लेकिन आज कौमपरस्ती की तंगदिली ने उस शहर के गलीकूचों में नफरत की आग जला कर देश के इतिहास को रक्तरंजित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. सांप्रदायिक दंगों में कितने बेगुनाहों के घर जले, कितने बेकुसूरों को नाहक मौत के घाट उतारा गया, कितनी बेवाएं, कितने यतीमों की चीखें शहर का कलेजाहिलाती रहीं. इस का हिसाब तो खुद उस शहर की जमीन, हवाओं और आसमान के पास भी नहीं है. नफरत की आग में नाहक वे लोग भी झुलसने लगे जो रोजीरोटी की आस में मजबूरन उस शहर के बाश्ंिदे बने थे.

जरी की परेशानी देख कर जल्द ही रिटायर्ड होने वाली महिला प्राचार्या ने अपने क्वार्टर में शेयरिंग में रहने की लिखित इजाजत दे कर अपनी सहृदयता दिखाई.

जरी ने साइलैंट वर्कर के रूप में प्राचार्या के दिल में जल्द ही जगह बना ली. उन्होंने जरी को ऐडमिशन इंचार्ज बना दिया. इस बदलाव ने स्टाफ में आग में घी का काम किया. प्राचार्या के विरोधियों को उन की आलोचना करने का एक शिगूफा मिल गया.

जरी की कर्मठता और अनुशासन ने आर्ट्स 11वीं, 12वीं के बिगड़े बच्चों को आपराधिक और उद्दंड जीवनशैली त्याग कर शिक्षा के प्रति समर्पित एवं अनुशासित जीवन जीने और महत्त्वाकांक्षी विद्यार्थी बनने की प्रेरणा दी. विद्यालय में होने वाले नित नए अर्थपूर्ण बदलावों ने, अकर्मण्य शिक्षकों के मन में, जरी के प्रति ईर्ष्या और द्वेष की भावना भर दी.

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विद्यालय का बदलता रूप और विद्यार्थियों के मन में उपजी शिक्षा व पुस्तकप्रेम की भावना को जगा कर भविष्य की आशाओं के नए अंकुर प्रस्फुटित करने में जरी कामयाब रही.

प्राचार्या की रिटायरमैंट पार्टी में शामिल नए प्राचार्य के कानों में जरी को प्राचार्या का दायां हाथ बताने वाले स्तुतिभरे वाक्य पड़े तो उस के प्रति उपजी सहज उत्सुकता ने स्टाफ के कुछ धूर्त एवं मक्कार शिक्षकों को अपनी कुंठा की भड़ास निकालने का मौका दे दिया. 2 दिन में ही प्राचार्य ने जरी की पर्सनल फाइल का एकएक शब्द बांच लिया. 28 साल के सेवाकाल में प्राथमिक शिक्षिका के 2 प्रमोशन, इन सर्विस कोर्स की रिसोर्स पर्सन, पिछले स्कूलों में 10 सालों से ऐडमिशन इंचार्ज, ऐक्टिव, पजेसिव, रिसोर्सफुल, प्रोगैसिव शब्द, प्राचार्य की आंखों के कैनवास पर छप कर खटकने लगे. ‘तमाम मुसलमान, एक तरफ देश की जडे़ं खोद रहे हैं अपनी असामाजिक और गैरकानूनी गतिविधियों से, दूसरी तरफ अपनी ईमानदारी और कर्मठता का ढोल पीट कर खुद को देशभक्त साबित करने का ढोंग करते हैं,’ रात को अंगूरी के नशे के झोंक में प्राचार्य के मुंह से निकले इन शब्दों ने जरी के विरोधियों को उस के खिलाफ जहर उगलने के सारे मौके अता कर दिए.

चौथे दिन ही प्राचार्य क्वार्टर छोड़ने और उस के पद से नीचे का क्वार्टर का एलौटमैंट लेटर चपरासी ने जरी को थमा दिया. जरी ने कोई प्रतिरोध नहीं किया.

शांत, कर्मठ जरी का कोई भी कमजोर पहलू प्राचार्य के हाथ नहीं लगा तो इंस्पैक्शन के बहाने अकसर उस की कक्षा में आ कर बैठने लगे. बच्चों को अलगअलग बुला कर ‘जरी के टीचिंग मैथड से सैटिस्फाइड हैं या नहीं?’ लिखित में जवाब मांगने लगे.

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जलते अलाव: क्यों हिम्मत नही जुटा सका नलिन

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चरित्रहीन नहीं हूं मैं: क्यों मीनू पर लगा इल्जाम

सुबह के 7 बजे थे, पर उठने का मन नहीं कर रहा था. ज्यों ही विकास ने करवट बदली तभी पत्नी मीनू बोल उठी  “उठ जाइए, कब तक ऐसे लेटे रहेंगे.”

यह सुन कर गुड मॉर्निंग कहता हुआ विकास मुस्कराहट बिखेरते हुए बोला, ” यार मीनू, अब तो अच्छी तरह सो लेने दो. कहीं जाना थोड़े ही न है. ऑफिस बंद है. घर में भी बंद हैं. तुम घर से बाहर निकलने दे नहीं रही हो. बताओ, क्या करूं मैं?”

“करोगे क्या, पहले फ्रेश हो जाओ. चाय पी लो. उस के बाद थोड़ा साफसफाई कर दो, कुछ नहीं है तो छत पर ही टहल लो,” मीनू ने अपनी बात रखी और सलाह देते हुए कहा कि सुबह समय पर उठने से पूरे दिन  एनर्जी बनी रहती है.

पति विकास बोला, “एनर्जी तो तुम ही लो, मुझे बख्शो. साफसफाई तो हो रखी है. फिर क्या जबरदस्ती साफसफाई करूं?”

इस पर मीनू तुनकते हुए बोली,”अच्छा आया कोरोना…? इस ने तो घर में ही कुहराम मचा रखा है.”

“क्या कुहराम…?” पति झल्लाहट भरी आवाज में बोला.

“सुबहसुबह झल्लाने की जरूरत नहीं है, ” मीनू भी अपने तेवर दिखाते हुए बोली तो विकास नरम पड़ गया.

जैसे ही विकास फ्रेश हो कर आया, मीनू से गरमागरम चाय की मांग कर डाली. इस पर मीनू बोली, “जितना यह घर मेरा है उतना ही तुम्हारा भी है. क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आज चाय तुम बनाओ और मैं भी तुम्हारे साथ छुट्टियों का मजा लूं.”

यह सुन कर विकास के ऊपर घड़ों पानी पड़ गया. वह नरमी से बोला,”यदि ऐसी बात है तो आज तो बना देता हूं, पर हर रोज नहीं.”

“हर रोज की कह कौन रहा है,” मीनू भी नहले पर दहला मारते हुए बोली.

विकास किचन में चाय बनाने चला गया, पर न चीनी का पता था और न चाय की पत्ती का. जब पानी उबल गया तो किचन से ही आवाज लगाई,”मीनू, ओ मीनू, चाय की पत्ती कहां है?”

अब तो मीनू को भी बिस्तर से उठ कर किचन तक आना पड़ा. वह मुस्कराते हुए बोली,”रहने दो आप…? मैं बनाती ह

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चाय की महक से विकास के चेहरे पर मुस्कान तैर गई.

घर में टेलीविजन खोल कर देखा तो वहां भी कोरोना… कोरोना… को ले कर ही खबरें आ रही थीं.

ऐसी खबरें सुन विकास गुमसुम सा रहने लगा था, वहीं शराब की तलब भी उसे बेचैन कर रही थी.

अनजान बनते हुए मीनू बारबार हाल पूछती, पर वह टाल देता क्योंकि जब से लॉकडाउन हुआ है तब से उसे पीने को शराब नहीं मिल रही थी और न ही वे दोस्त मिल पा रहे थे जो शराब पीने के तलबगार थे.

दिन यों ही गुजरते जा रहे थे. शराब न पीने से विकास की बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

तभी दरवाजे पर किसी की दस्तक हुई. कालबेल बजी. विकास ने उठ कर दरवाजा खोला. सामने उस का पड़ोसी राकेश खड़ा था.

कमरे में आते ही राकेश ने विकास की चालढाल देख कर पूछ लिया तो पता चला कि शराब न मिलने से तबीयत खराब हो रही है.

मीनू राकेश के लिए चाय बना कर लाई, तभी उस की नजर विकास की खूबसूरत पत्नी मीनू पर पड़ी. वह मन ही मन उस को पाने के ख्वाब देखने लगा.

राकेश और विकास ने चाय ली. कुछ देर इधरउधर की बात करने के बाद राकेश वहां से चला गया.

अगले दिन राकेश ने विकास को फोन किया और पूछ बैठा,”आज शाम क्या कर रहा है? क्या आज छत पर आ सकता है, कुछ प्रोग्राम करते हैं.”

विकास बोला,”चल ठीक है, पर किसी को बताना नहीं.”

राकेश भी मजाक करते हुए बोला,” भाभी को भी नहीं?”

“नहीं, नहीं, उसे भी नहीं,” विकास ने जवाब दिया.

“चल ठीक है, फिर शाम को मिलते हैं,” इतना कहने के बाद राकेश ने फोन काट दिया.

शाम को राकेश किसी जरूरी काम में फंस गया और छत पर नहीं पहुंचा. न ही विकास को खबर दी.

शाम को विकास छत पर आ गया. काफी देर राकेश का इंतजार भी किया, पर वह नहीं आया तो उस ने कई बार राकेश को फोन लगाए, पर उस ने उठाया ही नहीं. मन मार कर वह नीचे उतर आया.

रात में विकास की तबीयत बिगड़ने लगी. वह बारबार राकेश से बात करने की कह रहा था. मीनू ने रात में ही राकेश को फोन किया.

फोन सुन कर राकेश तभी शराब ले कर वहां पहुंच गया. राकेश को आया देख विकास खुश हो गया.

2 घूंट गले के नीचे उतरते ही विकास की बेचैनी कम हो गई, पर राकेश के ज्यादा जोर देने पर विकास ने उस रात जम कर शराब पी. कुछ देर बाद विकास बेसुध हो गया.

जब विकास को होश न रहा, तब मौका देख कर राकेश मीनू के पास आया और उसे अपनी बांहों में जकड़ लिया और मनमानी कर के छोड़ा.

फिर चुपचाप मुंहअंधेरे अपने घर चला गया.

अब जब भी विकास को शराब पीने की तलब लगती, राकेश को फोन कर देता. राकेश शराब ले कर आ जाता और दोनों ही मिल कर पीते.

विकास तो पी कर नशे में धुत्त हो जाता, वहीं राकेश लिमिट में ही पीता और मीनू से अपनी जिस्मानी भूख शांत करता.

पर, एक दिन तो हद हो गई. मीनू और विकास के बीच जबरदस्त झगड़ा हुआ. झगड़े की वजह राकेश ही था, क्योंकि वह हर दूसरेतीसरे दिन घर पर आ धमकता था और मीनू पर संबंध बनाने के लिए जोर डालता, इस से मीनू उकता चुकी थी.

राकेश का शराब ले कर इस तरह आना मीनू को बिलकुल भी पसंद नहीं था. मीनू नहीं चाहती थी कि राकेश घर आए, पर विकास चाहता था.

इस बात को ले कर मीनू और विकास  में जम कर झगड़ा भी हुआ. मीनू अब राकेश के सामने भी झगड़ने लगी थी.

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एक दिन राकेश शराब लाया. नशे में धुत्त होने के बाद राकेश ने विकास को मीनू और अपने संबंध के बारे में बता दिया.

यह सुन कर विकास के पैरों तले जमीन खिसक गई. कभी वह मीनू की ओर देखता तो कभी राकेश की ओर. मीनू भी चुपचाप राकेश की बातें सुन रही थी. पर कुछ बोल नहीं पाई.

राकेश के सामने ही विकास ने मीनू की जम कर पिटाई की.

मौका देख राकेश ने वहां से जाने में ही अपनी भलाई समझी.

उस के जाते ही मीनू और विकास में फिर जम कर झगड़ा हुआ. विकास ने मीनू को चरित्रहीन कहा तो मीनू यह सुनते ही बिफर गई और चिल्ला कर बोली,” चरित्रहीन नहीं हूं मैं, चरित्रहीन तो तुम हो, जो लॉकडाउन में भी गलत तरीके से शराब मंगवा कर पी रहे हो. मैं तो सिर्फ तुम्हारे द्वारा किए गए नाजायज सौदे की नाजायज कीमत अदा कर रही हूं.”

मेरा प्रेरणा स्रोत- मर्कट!

मेरा एक प्रेरणास्रोत है.

आप कहेंगे- सभी के अपने-अपने प्रेरणास्रोत होते हैं, इसमें नयी क्या बात है ?
आपकी बात सही है, मगर सुनिए तो, मेरा प्रेरणास्रोत एक ईमानदार बंदर है, मर्कट है .
पड़ गए न आश्चार्य में ? दोस्तों ! अब मनुष्य, मानव, महामानव कहां रहे, कहिए, क्या मैं गलत कहता हूं .अब तो प्रेरणा लेने का समय उल्लू, मच्छर, चूहे, श्वान इत्यादि आदि से लेने का आ गया है.
जी हां! मेरी बात बड़ी गंभीर है. मैं ईमानदारी से कहना चाहता हूं कि पशु- पक्षी हमारे बेहतरीन प्रेरणास्रोत हो सकते हैं . और हमसे ईमानदारी का पुट हो जाए तो फिर बात ही क्या ?
तो, आइये आपको अपने प्रेरणास्रोत ईमानदार बंदर जी से मुलाकात करवाऊ…आइये, मेरे साथ हमारे शहर के पुष्पलता वन में जहां बंदर जी ईमानदारी पूर्वक एक वृक्ष पर बैठे हुए हैं . दोस्तों, यह आम का वृक्ष है . देखिए ऊपर एक डाल पर दूर कहीं एक बंदर बैठा है . मगर बंदर तो बहुतेरे बैठे हैं . पेड़ पर चंहु और बंदर ही बंदर बैठे हैं .देखो ! निराश न हो… देखो! दूर एक मोटा तगड़ा नाटे कद का बंदर बैठा है न ! मैं अभी उसे बुलाता हूं -” नेताजी…”

-” नेताजी .” मैंने जोर की आवाज दी .

वृक्ष की ऊंची डाल पर आम्रकुंज में पके आम खाता और नीचे फेंकता एक बंदर मुस्कुराता नीचे उतर आया- “अरे आप हैं बहुत दिनों बाद दिखे, कहां थे . उन्होंने आत्मीयता से गले लगाते हुए कहा ।
‘ नेताजी ।’ मैंने उदिग्नता से कहा- ‘मैं आप से बड़ा प्रेरणास्रोत ढूंढ रहा था. मगर नहीं मिला .अंततः एक दिन आपके बारे में मित्रों को बताया तो सभी आपसे मिलने को उत्सुक हुए देखिए इन्हें भी ले आया हूं .”

बंदर के चेहरे पर मुस्कुराहट घनी हो उठी-” मैं नाचीज क्या हूं .यह तो आप की महानता है जो मुझसे इंप्रेस होते हो, मैं तो अपने स्वभाव के अनुरूप इस डाल से उस डाल इस पेड़ से उस पेड़ उछलता, गीत गाता रहता हूं . भई! हमारी इतनी प्रशंसा कर जाते हो कि मैं शर्म से पानी-पानी हो जाता हूं . बंदर ने सहज भाव से अपना पक्ष रखा.

-“यही तो गुण हैं जो हमें प्रेरित करता है .”

-” सच ईमान से कहता हूं मैं आज जिस मुकाम पर हूं वह नेता जी, आपकी कृपा दृष्टि अर्थात प्रेरणा का प्रताप है .’
बंदर जी मुस्कुराए-” आप मुझे नेताजी ! क्यों कहते हैं.”

-“देखिए ! यह सम्मानसूचक संबोधन है । हम आप में नेतृत्व का गुण धर्म देखते हैं और इसके पीछे कोई गलत भावना नहीं है .’ मैंने दीर्घ नि:श्वास लेकर सफाई में कहा .
‘ -अच्छा, आपके तो बहुतेरे संगी साथी हो गए हैं . नए नए चेहरे पुराने नहीं दिख रहे हैं .’

‘ मैं आपकी तरह मुड़कर नहीं देखता.’ मैंने हंस कर कहा.
‘अच्छा इनका परिचय .’ बंदर जी बोले
‘ ओह माफ करिए नेताजी. ये है हमारे पूज्यनीय महाराज राजेंद्र भैय्या अभी हमारी पार्टी के अध्यक्ष हैं और यह हैं भैय्या लखनानंद शहर के पूर्व मेयर . और और पीछे खड़ी है हमारी बहन उमा देवी . आप पार्टी की महिला विंग की अध्यक्ष है, बाकी कार्यकर्ता हैं जिनका परिचय मैंने चिरपरिचित शैली में हंसते-हंसते कहा .’
‘ मगर आपने यह तो बताया नहीं अभी किस पार्टी में है .” बंदर जी ने सकुचाते आंखों को गोल घुमाते हुए पूछा.
‘ अरे मैं यह तो बताना भूल ही गया . क्षमा… नेताजी… क्षमा मैं इन दिनों एक राष्ट्रीय पार्टी का वरिष्ठ नेता हूं .”
‘अरे वाह ! क्या गजब ढातें हो… क्या सचमुच नेता हो .’
‘ जी हां नेताजी, आपसे क्या छुपाना .

‘ ‘क्या बात है… अभी प्रदेश में यही पार्टी ही सत्तासीन है न ? बंदर जी ने कहा .

‘ ‘हां, नेताजी, हमारी ही पार्टी की सरकार है .’ मैंने सकुचाकर कहा.

‘ वाह ! तुम सचमुच मुझसे इंप्रेस हो, यह मैं आज मान गया. समय की नजाकत को ताड़ना और निर्णय लेना कोई छोटी मोटी बात नहीं . मनुष्य का भविष्य इसी पर निर्भर करता है . छोटी सी भूल और जीवन अंधकारमय .’ बंदर जी ने उत्साहित भाव से ज्ञान प्रदर्शित किया.

‘ नेताजी ! आपने पीठ ठोंकी है तो मैं आश्वस्त हुआ कि मैंने सही निर्णय लिया है.’ मैंने साहस कर कहा.
‘ मगर सतर्क भी रहना, ऐसा नहीं की इसी में रम गये .’
‘अजी नहीं .मैं स्थिति को सूंघने की क्षमता भी रखता हूं . जैसे ही मुझे अहसास होगा पार्टी का समय अंधकारमय है मैं कुद कर दूसरी पार्टी ज्वाइन कर लूंगा .’

‘ ठीक मेरी तरह .” बंदर जी ने हंसकर कहा और उछलकर वृक्ष की एक मजबूत फलदार डाल पर बैठ गया और मीठा आम तोड़ खाने लगा.

‘ लेकिन नेताजी ! मैं कब तक पार्टियां बदलता रहूंगा. कभी विद्याचरण कभी श्यामाचरण कभी भाजपा कभी समाजवादी आखिर कब तक….’
बंदर ने पेड़ से मीठे फल तोड़कर मेरी और उछाले मैंने कैच कर दोस्तों को बांटे और स्वयं भी रस लेकर खाने लगा मेरे प्रेरणा पुरुष बंदर जी… ओह नेता जी के श्रीमुख से स्वर गूंजा- ‘जब तक कुर्सी न मिले तब तक .
‘ मैं मित्रों सहित बंदर को नमन कर लौट आया .

मेरे अपने: भाग 3- क्यों परिवार से दूर हो गई थी सुरभि

उधर से गुजरती एक नर्स की दृष्टि उस पर पड़ी तो वह पास आ कर सुरभि को सांत्वना देने लगी. जब उस ने देखा कि बिना पूरे गरम कपड़ों के वह ठंड से कांप रही है तो उस ने तुरंत वार्ड बौय को आवाज लगाई और एक कंबल मंगवाया. उस के लिए एक कप कौफी मंगवा कर जबरदस्ती पिलाई. फिर धीरे से बोली, ‘‘मैडम, सर ठीक हो जाएंगे. आप चिंता मत करो. मैं देख रही हूं कि आप कब से अकेले ही भागदौड़ कर रही हैं. आप अपने बच्चों और रिश्तेदारों को फोन कर दो. फोन है न आप के पास. नहीं तो मैं दूं.’’

नर्स द्वारा पहुंचाई गई बाह्य उपकरणों की गरमी और उस की स्नेहमयी सांत्वना की गरमाई ने पत्थर बनी सुरभि को पिघला दिया. उस की आंखों में आंसू आ गए. कानपुर में होते तो एक फोन करने की देर थी, सारा शहर एकत्र हो जाता पर मास्टरजी के इस ‘अपने’ अनजान शहर में उसे एक भी व्यक्ति याद न आया जिस को संकट की इस घड़ी में वह सहायतार्थ बुला सके. 8 महीने हो गए थे यहां आए. पर अड़ोसपड़ोस से सामान्य परिचय से अधिक संबंध बनाने का अवसर ही न मिला था. बस्ती के कई व्यक्तियों, मीडिया व नाट्य अकादमी के कई छात्रों के फोन नंबर थे उस के पास. पर वह निश्चय न कर पा रही थी कि क्या कार्य संबंधी कुछ मुलाकातों में उन लोगों से इतना रिश्ता जुड़ गया है कि अपनी निजी आवश्यकताओं के समय उन्हें सहायता के लिए बुलाया जा सके.

सुरभि को एक बार फिर से उन अपनों की कमी खलने लगी थी जिन का अस्तित्व कभी था ही नहीं. मास्टरजी के मातापिता उन्हें किशोरावस्था में ही अकेला छोड़ कर इस दुनिया से चले गए थे. मास्टरजी अपने मातापिता के इकलौते पुत्र थे. मातृपितृविहीन बालक से धीरेधीरे सभी सगेसंबंधियों ने दूरी बना ली थी. सभी को डर था

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कि कहीं अनाथ हो गए बालक का उत्तरदायित्व उन पर न आ पड़े. दूसरी ओर सुरभि ने अपने मातापिता को कभी देखा

ही न था. उस का पालनपोषण उस के चाचाचाची ने किया था. मास्टरजी के साथ ब्याह कर उन्होंने फिर कभी उन की ओर पलट कर भी न देखा था. इन दोनों ने विवाह के बाद जब अपना छोटा सा नीड़ बसाया तो उसे प्रेम, मधुरता, स्नेह और आपसी समर्पण से ऐसे सजाया कि किसी अन्य रिश्ते के अभाव की ओर उन का ध्यान ही न गया. 10 साल यों ही बीत गए थे. फिर धीरेधीरे उन्हें अपने आंगन में किलकारियों की कमी सताने लगी.

शादी के इतने बरस बाद भी वे इस सुख से वंचित थे. सारे चिकित्सकीय प्रयास भी जब निष्फल रहे तो सुरभि ने मास्टरजी के विरोध और अपनी स्वयं की अवधारणाओं के विपरीत जा कर पूजापाठ, व्रत, मन्नत, पंडित, मौलवी कुछ भी न छोड़ा लेकिन सब व्यर्थ के पाखंड सिद्ध हुए. धीरेधीरे सुरभि की मां बनने की संभावना क्षीण होती जा रही थी. अब वह बच्चा गोद लेने का मन बना रही थी पर मास्टरजी के आदर्श कुछ और ही थे. उन के अनुसार, एक बच्चे को गोद ले कर उसे अपना वारिस बनाने से उत्तम है उस हर बच्चे में प्रेम बांटना, जो उन के पास पढ़ने आता है. एक बालक को अपना नाम देने से बेहतर है सब को ज्ञान देना. एक को ‘मेरा’ कहने से बेहतर है सब को अपना कहना. सुरभि ने सदा की भांति इस विषय में भी मास्टरजी का विरोध न किया था और अपने मातृत्व की धारा को उसी ओर मोड़ दिया था जिस ओर मास्टरजी चाहते थे. पर आज… आज कहां हैं वे सब अपने? कहां हैं वे?

अचानक रिसैप्शन की ओर कुछ हलचल सी हुई. 15-20 लोग हड़बड़ाए हुए तेजी से भीतर घुसे और रिसैप्शन को घेर कर कुछ पूछताछ करने लगे. रिसैप्शनिस्ट ने उन्हें इशारे से कुछ बताया और भीड़ तेजी से औपरेशन थिएटर की ओर लपक पड़ी. कुछ पास आने पर सुरभि ने देखा कि भीड़ में सब से आगे मीडिया केंद्र के कुछ लड़केलड़कियां थे. कुछ लोग नाट्य अकादमी के थे. उन के साथ पड़ोस में रहने वाले राजीवजी और उन की पत्नी थीं. कुछ और लोग भी थे जिन्हें सुरभि ने अकसर बस्ती में नुक्कड़ पर अड्डेबाजी करते देखा था.

‘‘अम्मा…’’ कहते हुए वृंदा दौड़ कर सुरभि के पास पहुंची और उस से लिपट गई. वे लोग पता नहीं क्याक्या कहनेपूछने लगे. सुरभि को बस एक ही आवाज सुनाई दे रही थी. क्या कहा था उस लड़की ने, ‘अम्मा…’

सुरभि को अम्मा कहा था उस लड़की ने.

ये सब विद्यार्थी अकसर उस के घर आते थे. कभीकभी किचन में भी घुस जाते थे चायकौफी या नाश्ता बनाने. मास्टरजी स्वयं बच्चों के साथ बच्चा हो जाते थे. पर सुरभि के साथ वे सब कभी अनौपचारिक न हो पाए थे. उस के गुरुगंभीर चेहरे को और भी गुरुता प्रदान करती बालों में

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चांदी की चंद तारें और आंखों पर चढ़ा मोटे शीशों वाला चश्मा, कलफ लगी सिलवटविहीन सूती साड़ी और सदा कसे रहने वाले होंठों के कोर, ये सबकुछ मिला कर उस का व्यक्तित्व जैसे एक अदृश्य प्रभामंडल से घिरा रहता था जिस पर मानो प्रवेश निषेध की तख्ती लगी रहती थी. इन सब के साथ सुरभि की आत्मीयता थी, पर वह उद्दंड बरसाती झरने सी न हो कर शांत गंभीर मानसरोवर सी थी.

ऐसे में वह आदर और सम्मान की औपचारिकता में बंधे विद्यार्थियों व अन्य बस्ती वालों के लिए ‘मैम’ ही थी. पर आज यह क्या हुआ. शुष्क वर्जनाओं को ध्वस्त करता यह कौन सा झोंका था जो सुरभि को विभोर कर गया या वह स्वयं ही कोई और थी इस समय. बीती रात्रि का एकएक पल उस के चेहरे पर चिंता की झुर्रियां बन कर बिछा हुआ था. झुकी कमर और दुख से कातर आंखों में न जाने वह कौन सा खिंचाव था जो वृंदा उस के गले आ लगी थी. विकास, तरुण, तारा, सुबोध, रुचि सब ने उसे घेर लिया.

‘‘अम्मा, आप ने हमें फोन क्यों नहीं किया?’’ अरुण बोला.

‘‘वह तो अच्छा हुआ कि भूरा चाचा को मेज पर रखा मास्टरजी का फोन मिल गया. आप दरवाजे जो खुले छोड़ आई थीं. तब भूरा चाचा ने हमें ढूंढ़ कर सबकुछ बताया,’’ रुचि बोलतेबोलते रोंआसी हो आई थी.

उस के बाद किसी ने डाक्टरों और नर्सों से मास्टरजी के औपरेशन के विषय में जानकारी लेनी आरंभ कर दी, तो कोई नर्स द्वारा थमाया गया दवाओं का परचा ले कर कैमिस्ट की दुकान की ओर भागा. रुचि ने उस की पीठ के पीछे एक तकिया लगाया और उस के पांव बैंच के ऊपर कर दिए. फिर ठीक से कंबल ओढ़ा दिया. मालती शर्मा ने तुरंत थर्मस में से चाय निकाल कर उन्हें स्नेहपगी जिद के साथ पिलाई. अधिक खून की आवश्यकता न पड़ जाए, इसलिए सब बच्चों ने तुरंत अपने खून के सैंपल दिए जांच के लिए. बस्ती के टैक्सी ड्राइवर ने अपनी गाड़ी अस्पताल के बाहर ही खड़ी कर दी थी कि कहीं भागदौड़ की आवश्यकता न पड़ जाए. भूरा ने बताया कि वह दुलारी और अपनी घरवाली को मास्टरजी के घर बिठा कर आया है, इसलिए सुरभि को घर की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है.

सुरभि भौचक्की सी कभी एक की सूरत देखती कभी दूसरे की. कितने प्यारे, कितने अपने लग रहे थे आज ये सब. सुरभि ने पहली बार अपने भीतर मातृत्व को अंगड़ाई लेते महसूस किया था. उस ने बांहें फैला कर बच्चों को सीने से लगा लिया.

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