अधूरे प्यार की टीस: क्यों बिखर गई सीमा की गृहस्थी

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धक्का: मनीषा का दिल क्यों टूट गया?

‘‘खैर, खुशी तो हमें तुम्हारी हर सफलता पर होती रही है और यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन) द्वारा तुम्हारे चुने जाने पर अब हमें गर्व भी हो रहा है मगर एक बात रहरह कर खटक रही है,’’ उदयशंकर अपनी बात को प्रभावशाली बनाने के लिए बीच में थोड़ा रुक गए, ‘‘तुम्हारे इतने दूर जाने के बाद तुम्हारी मम्मी एकदम अकेली रह जाएंगी.’’

‘‘छोडि़ए भी, उदय भैया, अकेली रह जाऊंगी? आप सब जो हैं यहां,’’ मनीषा जल्दी से बोली. अपने मन की बात उदयशंकर की जबान पर आती देख कर वह विह्वल हो उठी थी.

‘‘हम तो खैर मरते दम तक यहीं रहेंगे. लेकिन हम में और जितेन में बहुत फर्क है.’’

‘‘वह फर्क तो आप की नजरों में होगा, चाचाजी. पापा के गुजरने के बाद मैं ने आप को ही उन की जगह समझा है. आप को अपना बुजुर्ग और मम्मी का संरक्षक समझता हूं,’’ जितेन बोला.

‘‘लीजिए, उदय भैया. अब आप केवल राजन के मित्र ही नहीं, जितेन द्वारा बनाए गए मेरे संरक्षक भी हो गए हैं,’’ मनीषा हंसी.

‘‘उस में मुझे कोई एतराज नहीं है, मनीषा. मुझ से जो भी हो सकेगा तुम्हारे लिए करूंगा. मगर, मनीषा, मैं या मेरे बच्चे हमेशा गैर रहेंगे. सोचता हूं अगर जितेन यूनेस्को की नौकरी का विचार छोड़ दे तो कैसा रहे?’’

‘‘क्या बात कर रहे हैं, चाचाजी? लोग तो ऐसी नौकरी का सपना देखते रहते हैं, इस के लिए नाक रगड़ने को तैयार रहते हैं और मुझे तो फिर इस नौकरी के लिए खास बुलाया गया है और आप कहते हैं कि मैं न जाऊं. कमाल है,’’ जितेन चिढ़ कर बोला.

‘‘लेकिन, तुम्हारी यह नौकरी भी क्या बुरी है? यहां भी तुम्हें खास बुलाया गया था और आगे तरक्की के मौके भी बहुत हैं. भविष्य तो तुम्हारा यहां भी उज्ज्वल है.’’

‘‘चाचाजी, आप ने अपने क्लब का स्विमिंग पूल भी देखा है और समुद्र भी. सो, दोनों का फर्क भी आप समझते ही होंगे,’’ जितेन मुसकराया.

‘‘मैं तो समझता हूं, बरखुरदार, लेकिन लगता है तुम नहीं समझते. क्लब के स्विमिंग पूल का पानी अकसर बदला जाता है, सो साफसुथरा रहता है. मगर समुद्र में तो दुनियाजहान का कचरा बह कर जाता है. फिर उस में तूफान भी हैं, चट्टानें भी और खतरनाक समुद्री जीव भी. यूनेस्को की नौकरी का मतलब है पिछड़े देशों में जा कर अविकसित चीजों का विकास करना, पिछड़ी जातियों का आधुनिकीकरण करना. काफी टेढ़ा काम होगा.’’

‘‘जिंदगी में तरक्की करने के लिए टेढ़े और मुश्किल काम तो करने ही पड़ते हैं, चाचाजी. और फिर जिन्हें समुद्र में तैरने का शौक पड़ जाए वे स्विमिंग पूल में नहीं तैर पाते.’’

‘‘यही सोच कर तो कह रहा हूं, बेटे, कि तुम समुद्र के शौक में मत पड़ो. उस में फंस कर तुम मनीषा से बहुत दूर हो जाओगे. माना कि अब संपर्क साधनों की कमी नहीं, लगता है मानो आमनेसामने बैठ कर बातें कर रहे हैं. फिर भी, दूरी तो दूरी ही है. राजन के गुजरने के बाद मनीषा सिर्फ तुम्हारे लिए ही जी रही है. तुम्हारा क्या खयाल है? सिर्फ आपसी बातचीत के सहारे वह जी सकेगी, टूट नहीं जाएगी?’’

‘‘जानता हूं, चाचाजी. तभी तो मम्मी को आप के सुपुर्द कर के जा रहा हूं. मैं कोशिश करूंगा कि जल्दी ही इन्हें वहां बुला लूं.’’

‘‘और भी ज्यादा परेशान होने को. यहां की इतने साल की प्रभुत्व की नौकरी, पुराने दोस्त और रिश्ते छोड़ कर नए माहौल को अपनाना मनीषा के लिए आसान होगा? अगर कोई अच्छी जगह होती तो भी ठीक था, लेकिन तुम तो अफ्रीकी या अरब इलाकों में ही जाओगे. वहां खुश रहना मनीषा के लिए मुमकिन न होगा.’’

‘‘फिर भी हालात से समझौता तो करना ही पड़ेगा, चाचाजी. महज इस वजह से कि मेरे जाने से मम्मी अकेली रह जाएंगी, इत्तफाक से मिला यह सुनहरा अवसर मैं छोड़ने वाला नहीं हूं.’’

‘‘बहुत अच्छा हुआ, यह बात तू ने मम्मी के जाने के बाद कही,’’ उदयशंकर ने एक गहरी सांस खींच कर कहा.

‘‘क्यों? मम्मी तो स्वयं ही यह नहीं चाहेंगी कि उन की वजह से मेरा कैरियर खराब हो या मैं जिंदगी में आगे न बढ़ सकूं.’’

‘‘बेशक, लेकिन जो बात तुम ने अभी कही थी न, वही तुम्हारे पापा ने उन्हें आज से 25 वर्षों पहले बताई थी.’’

उसे सुन कर उन्हें राजन की याद आ जाना स्वाभाविक ही था. दरवाजे के पीछे खड़ी मनीषा का दिल धक्क से हो गया.

‘‘क्या बताया था पापा ने मम्मी को?’’ जितेन आश्चर्य से पूछ रहा था.

नीषा ने चाहा कि वह जा कर उदयशंकर को रोक दे. उस ने जो बात उदयशंकर को अपना घनिष्ठ मित्र समझ कर बताई थी उसे जितेन को बताने का उदय को कोई हक नहीं था. वह नहीं चाहती थी कि यह बात सुन कर जितेन उदारता अथवा एहसान के बोझ से दब जाए और मनीषा के प्रति उतना कृतज्ञ न हो पाने की वजह से उस के दिल में अपराधभावना आ जाए, मगर मनीषा के पैर जैसे जमीन से चिपक कर रह गए.

उदयशंकर बता रहे थे, ‘‘तुम्हारी मम्मी कितनी मेधावी थीं, शायद इस का तुम्हें अंदाजा भी नहीं होगा. उन जैसी प्रतिभाशाली लड़की को इतनी जल्दी प्यार और शादी के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए था और अगर शादी कर भी ली थी तो कम से कम घर और बच्चों के मोह से तो बचे ही रहना चाहिए था. पर मनीषा ने घर और बच्चों के चक्कर में अपनी प्रतिभा आम घरेलू औरतों की तरह नष्ट कर दी.’’

‘‘खैर, यह तो आप ज्यादती कर रहे हैं, चाचाजी. मम्मी आम घरेलू औरत एकदम नहीं हैं,’’ जितेन ने प्रतिवाद किया, ‘‘मगर पापा ने क्या कहा था, वह बताइए न?’’

‘‘वही बता रहा हूं. तुम्हारी मम्मी ने कभी तुम से जिक्र भी नहीं किया होगा कि उन्हें एक बार हाइडलबर्ग के इंस्टिट्यूट औफ एडवांस्ड साइंसैज ऐंड टैक्नोलौजी में पीएचडी के लिए चुना गया था. तुम्हारी दादी और राजन ने तुम्हारी पूरी देखभाल करने का आश्वासन दिया था.  फिर भी मनीषा जाने को तैयार नहीं हुईं, महज तुम्हारी वजह से.’’

‘‘मैं उस समय कितना बड़ा था?’’

‘‘यही कोई 5-6 महीने के यानी जिस उम्र में मां ही होती है जो दूध पिला दे. और दूध तुम बोतल से पीते थे. सो, तुम्हारी दादी और पापा तुम्हारी देखभाल मजे से कर सकते थे. लेकिन तुम्हारी मम्मी को तसल्ली नहीं हो रही थी. उन के अपने शब्दों में कहूं तो ‘इतने छोटे बच्चे को छोड़ने को मन नहीं मानता. वह मुझे पहचानने लग गया है. मेरे जाने के बाद वह मुझे जरूर ढूंढ़ेगा. बोल तो सकता नहीं कि कुछ पूछ सके या बताए जाने पर समझ सके. उस के दिल पर न जाने इस का क्या असर पड़ेगा? हो सकता है इस से उस के दिल में कोई हीनभावना उत्पन्न हो जाए और मैं नहीं चाहती कि मेरा बेटा किसी हीनभावना के साथ बड़ा हो. मैं, डा. मनीषा, एक जानीमानी औयल टैक्नोलौजिस्ट की जगह एक स्वस्थ, होनहार बच्चे की मां कहलाना ज्यादा पसंद करूंगी.’’’

मनीषा और ज्यादा नहीं सुन सकी. उसे उस शाम की अपनी और राजन की बातचीत याद हो आई.

‘तुम्हारा बच्चा अभी तुम्हें ढूंढ़ने, कुछ सोचने और ग्रंथि बनाने की उम्र में नहीं है. पर जब वह कुछ सोचनेसमझने की उम्र में पहुंचेगा तब वह अपनी ही जिंदगी जीना चाहेगा और तुम्हारी खुशी के लिए अपनी किसी भी खुशी का गला नहीं घोंटेगा. यह समझ लो, मनीषा,’ राजन ने उसे समझाना चाहा था.

‘उस की नौबत ही नहीं आएगी, राजन. मेरी और मेरे बेटे की खुशियां अलगअलग नहीं होंगी. बेटे की खुशी ही मेरी खुशी होगी,’ उस ने बड़े दर्द से कहा था.

‘यानी तुम अपना अस्तित्व अपने बेटे के लिए ऐसे ही लुप्त कर दोगी. याद रखो, मनीषा, चंद सालों के बाद तुम पाओगी कि न तुम्हारे पास बेटा है और न अपना अस्तित्व, और फिर तुम अस्तित्वविहीन हो कर शून्य में भटकती फिरोगी, खुद को और अपने बेटे को कोसती जिस के लिए तुम ने स्वयं को नष्ट कर दिया.’

‘नहीं, मैं बेटे की ख्याति, सुख और समृद्धि के सागर में तैरूंगी. जब मेरा बेटा गर्व से यह कहेगा कि आज मैं जो कुछ भी हूं अपनी मम्मी की वजह से हूं तो उस समय मेरे गौरव की सीमा की कल्पना भी नहीं की जा सकती.’

‘यह सब तुम्हारी खुशफहमी है, मनीषा. जब तक तुम्हारा बेटा बड़ा होगा उस समय तक अपनी सफलता का श्रेय दूसरों को देने का चलन ही नहीं रहेगा. तुम्हारा बेटा कहेगा कि मैं जो कुछ भी हूं अपनी मेहनत और अपनी बुद्धि के बल पर हूं. यदि मांबाप ने बुद्धि के विकास के लिए कुछ सुविधाएं जुटा दी थीं तो यह उन की जिम्मेदारी थी. उन्होंने अपनी मरजी से हमें पैदा किया है, हमारे कहने से नहीं.’

‘चलिए, आप की यह बात भी मान ली. लेकिन दूर से चुप रह कर भी तो अपने बेटे की सुखसमृद्धि का आनंद उठाया जा सकता है.’

‘हां, अगर दूर और तटस्थ रह कर उस की खुशी में खुश रह सकती हो, तो बात अलग है. लेकिन अगर तुम चाहो कि तुम ने उस के लिए जो त्याग किया है उस के प्रतिदानस्वरूप वह भी तुम्हारे लिए कुछ त्याग कर के दे, तो नामुमकिन है. जहां तक मेरा खयाल है, वह अधिक समय तक तुम्हारे पास भी नहीं रहेगा. आजकल पढ़ाई काफी विस्तृत हो रही है.’

‘चलिए, बेटा रहे न रहे, बेटे के पापा तो मेरे पास ही रहेंगे न?’ मनीषा ने कहा था और सफाई से बात बदल दी थी. ‘वैसे मूर्खताओं में साथ देने के पक्ष में मैं नहीं हूं लेकिन तुम्हारा साथ तो देना ही पड़ेगा,’ राजन हंस कर बोले थे.

लेकिन, कहां दे पाए थे राजन साथ. जितेन अभी कालेज के प्रथम वर्ष में ही था कि एक दिन सड़क दुर्घटना में बुरी तरह घायल हो कर वे उस का साथ छोड़ गए थे.

‘‘मम्मी, कहां हो तुम?’’ जितेन के उत्तेजित स्वर से मनीषा चौंक पड़ी. कर दिया न उदयशंकर ने सर्वनाश. जितेन को बता दिया और अब वह कहने आ रहा है कि यूनेस्को की नौकरी से इनकार कर देगा. मनीषा ने मन ही मन फैसला किया कि वह उसे क्या कह कर और क्याक्या कसमें दे कर जाने को मजबूर करेगी.

‘‘हां, बेटे, क्या बात है?’’

‘‘उदय चाचा कह रहे थे कि तुम ने मेरे लिए जीवन में आया एक सुनहरा मौका खो दिया?’’

‘‘हां, मगर वह मैं ने तुम्हारे लिए नहीं, अपनी ममता के लिए किया था. उस का तुम पर कोई एहसान नहीं है.’’

‘‘तुम एहसान की बात कर रही हो, मम्मी, और मैं समझता हूं कि इस से बड़ा मेरा कोई और उपकार नहीं कर सकती थीं,’’ जितेन तड़प कर बोला, ‘‘मैं आप को काफी समझदार औरत समझता था, लेकिन आप भी बस प्यार में ही बच्चे का भला समझने वाली औरत निकलीं. उस समय आप ने शायद यह नहीं सोचा कि आप की ज्यादा लियाकत का असर आप के बेटे के भविष्य पर क्या पड़ेगा?’’

जितेन की बात सुन कर मनीषा चुप रही, तो वह फिर बोला, ‘‘आज अगर आप के पास डौक्टरेट की डिगरी होती तो शायद पापा के गुजरने के बाद आप की पुरानी यूनिवर्सिटी आप को बुला लेती. हम लोग वहीं जा कर रहने लगते और मैं बजाय अफ्रीकीएशियाई देशों में जा कर, एक पश्चिमी औद्योगिक देश में काम करने का मौका पाता. यही नहीं, मेरी पढ़ाई पर इस का काफी असर पड़ता. निश्चित ही आप की आय तब ज्यादा होती. घर में ही एक प्रयोगशाला बनाने की जो मेरी तमन्ना थी, वह अगर हमारे पास ज्यादा पैसा होता तो पूरी हो जाती और उस का असर मेरे रिजल्ट पर भी पड़ता.’’ जितेन के स्वर में भर्त्सना थी.

‘‘हमेशा ही विश्वविद्यालय में फर्स्ट आता है. अरे छोड़ भी. उस से ज्यादा अच्छा रिजल्ट और क्या लाता?’’ मनीषा ने हंस कर बात टालनी चाही.

‘‘वही तो आप समझने की कोशिश नहीं करतीं. 85 प्रतिशत अंकों की जगह 95 प्रतिशत अंक पाना क्या बेहतर नहीं है? खैर, आप जो भी कहिए, आप ने वह फैलोशिप अस्वीकार कर के मेरा जो अहित किया है उस के लिए मैं आप को कभी माफ नहीं कर सकता,’’ कह कर जितेन तेजी से बाहर चला गया.

मनीषा जैसे टूट कर कुरसी पर गिर पड़ी. जितेन की कृतघ्नता या उदासीनता के लिए वह अपने को बरसों से तैयार करती आ रही थी, पर उस के इस आरोप के धक्के को सह सकना जरा मुश्किल था.

दो कदम तन्हा: भाग-3

डा. घोषाल ने रवींद्र भवन में प्रोग्राम करवाया था. उस समय रवींद्र भवन पूरा नहीं बना था. उसी को पूरा करने के लिए फंड एकत्र करने के लिए चैरिटी शो करवाया गया था. बड़ी भीड़ थी. ज्यादातर लोग खड़े हो कर सुन रहे थे. तलत ने गजलों का ऐसा समा बांधा था कि समय का पता ही नहीं चला.

डा. दास और अंजलि को भी वक्त का पता नहीं चला. रात काफी बीत गई. दोनों रिकशा पकड़ कर घबराए हुए वापस लौटे थे. डा. दास अंजलि को उस के आवास तक छोड़ने गए थे. अंजलि के मातापिता बाहर गेट के पास चिंतित हो कर इंतजार कर रहे थे. डा. दास ने देर होने के कारण माफी मांगी थी. लेकिन उस रात को पहली बार अंजलि को देर से आने के लिए डांट सुननी पड़ी थी और उस के मांबाप को यह भी पता लग गया कि वह डा. दास के साथ अकेली गई थी. मृणालिनी या उस की सहेलियां साथ में नहीं थीं.

हालांकि दूसरे दिन मृणालिनी ने उन्हें समझाया था और डा. दास के चरित्र की गवाही दी थी तब जा कर अंजलि के मांबाप का गुस्सा थोड़ा कम हुआ था किंतु अनुशासन का बंधन थोड़ा कड़ा हो गया था. मृणालिनी ने यह भी कहा था कि

डा. दास से अच्छा लड़का आप लोगों को कहीं नहीं मिलेगा. जाति एक नहीं है तो क्या हुआ, अंजलि के लिए उपयुक्त मैच है. लेकिन आजाद खयाल वाले अभिभावकों ने सख्ती कम नहीं की.

बालक ने अंजलि का हाथ पकड़ कर जल्दी चलने का आग्रह किया तो उस ने डा. दास से कहा, ‘‘ठीक है, चलती हूं, फिर आऊंगी. कल तो नहीं आ सकती, शादी है, परसों आऊंगी.’’

‘‘परसों रविवार है.’’

‘‘ठीक तो है, घर पर आ जाऊंगी. दोपहर का खाना तुम्हारे साथ खाऊंगी. बहुत बातें करनी हैं. अकेली आऊंगी,’’ उस ने बेटे की ओर इशारा किया, ‘‘यह तो बोर हो जाएगा. वैसे भी वहां बच्चों में इस का खूब मन लगता है. पूरी छुट्टी है, डांटने के लिए कोई नहीं है.’’

डा. दास ने केवल सिर हिलाया. अंजलि कुछ आगे बढ़ कर रुक गई और तेजी से वापस आई. डा. दास वहीं खड़े थे. अंजलि ने कहा, ‘‘कहां रहते हो? तुम्हारे घर का पता पूछना तो भूल ही गई?’’

‘‘ओ, हां, राजेंद्र नगर में.’’

‘‘राजेंद्र नगर में कहां?’’

‘‘रोड नंबर 3, हाउस नंबर 7.’’

‘‘ओके, बाय.’’

अंजलि चली गई. डा. दास बुत बने बहुत देर तक उसे जाते देखते रहे. ऐसे ही एक दिन वह चली गई थी…बिना किसी आहट, बिना दस्तक दिए.

डा. दास गरीब परिवार से थे. इसलिए एम.बी.बी.एस. पास कर के हाउसजाब खत्म होते ही उन्हें तुरंत नौकरी की जरूरत थी. वह डा. दामोदर के अधीन काम कर रहे थे और टर्म समाप्त होने को था कि उसी समय उन के सीनियर की कोशिश से उन्हें इंगलैंड जाने का मौका मिला.

पटना कालिज के टेनिस लान की बगल में दोनों घास पर बैठे थे. डा. दास ने अंजलि को बताया कि अगले हफ्ते इंगलैंड जा रहा हूं. सभी कागजी काररवाई पूरी हो चुकी है. एम.आर.सी.पी. करते ही तुरंत वापस लौटेंगे. उम्मीद है वापस लौटने पर मेडिकल कालिज में नौकरी मिल जाएगी और नौकरी मिलते ही…’’

अंजलि ने केवल इतना ही कहा था कि जल्दी लौटना. डा. दास ने वादा किया था कि जिस दिन एम.आर.सी.पी. की डिगरी मिलेगी उस के दूसरे ही दिन जहाज पकड़ कर वापस लौटेंगे.

लेकिन इंगलैंड से लौटने में डा. दास को 1 साल लग गया. वहां उन्हें नौकरी करनी पड़ी. रहने, खाने और पढ़ने के लिए पैसे की जरूरत थी. फीस के लिए भी धन जमा करना था. नौकरी करते हुए उन्होंने परीक्षा दी और 1 वर्ष बाद एम.आर.सी.पी. कर के पटना लौटे.

होस्टल में दोस्त के यहां सामान रख कर वह सीधे अंजलि के घर पहुंचे. लेकिन घर में नए लोग थे. डा. दास दुविधा में गेट के बाहर खड़े रहे. उन्हें वहां का पुराना चौकीदार दिखाई दिया तो उन्होंने उसे बुला कर पूछा, ‘‘प्रोफेसर साहब कहां हैं?’’

चौकीदार डा. दास को पहचानता था, प्रोफेसर साहब का मतलब समझ गया और बोला, ‘‘अंजलि दीदी के पिताजी? वह तो चले गए?’’

‘‘कहां?’’

‘‘दिल्ली.’’

‘‘और अंजलि?’’

‘‘वह भी साथ चली गईं. वहीं पीएच.डी. करेंगी.’’

‘‘ओह,’’ डा. दास पत्थर की मूर्ति की भांति खड़े रहे. सबकुछ धुंधला सा नजर आ रहा था. कुछ देर बाद दृष्टि कुछ स्पष्ट हुई तो उन्होंने चौकीदार को अपनी ओर गौर से देखते पाया. वह झट से मुड़ कर वहां से जाने लगे.

चौकीदार ने पुकारा, ‘‘सुनिए.’’

डा. दास ठिठक कर खड़े हो गए तो उस ने पीछे से कहा, ‘‘अंजलि दीदी की शादी हो गई.’’

‘‘शादी?’’ कोई आवाज नहीं निकल पाई.

‘‘हां, 6 महीने हुए. अच्छा लड़का मिल गया. बहुत बड़ा अधिकारी है. यहां सब के नाम कार्ड आया था. शादी में बहुत लोग गए भी थे.’’

रविवार को 12 बजे अंजलि

डा. दास के घर पहुंची. सामने छोटे से लान में हरी दूब पर 2 लड़कियां खेल रही थीं. बरामदे में एक बूढ़ी दाई बैठी थी. अंजलि ने दाई को पुकारा, ‘‘सुनो.’’

दाई गेट के पास आई तो अंजलि ने पूछा, ‘‘डाक्टर साहब से कहो अंजलि आई है.’’

दाई ने दिलचस्पी से अंजलि को देखा फिर गेट खोलते हुए बोली, ‘‘डाक्टर साहब घर पर नहीं हैं. कल रात को ही कोलकाता चले गए.’’

‘‘कल रात को?’’

‘‘हां, परीक्षा लेने. अचानक बुलावा आ गया. फिर वहां से पुरी जाएंगे…एक हफ्ते बाद लौटेंगे.’’

दाई बातूनी थी, शायद अकेले बोर हो जाती होगी. आग्रह से अंजलि को अंदर ले जा कर बरामदे में कुरसी पर बैठाया. जानना चाहती थी उस के बारे में कि यह कौन है?

अंजलि ने अपने हाथों में पकड़े गिफ्ट की ओर देखा फिर अंदर की ओर देखते हुए पूछा, ‘‘मेम साहब तो घर में हैं न?’’

‘‘मेम साहब, कौन मेम साहब?’’

‘‘डा. दास की पत्नी.’’

‘‘उन की शादी कहां हुई?’’

‘‘क्या?’’

‘‘हां, मेम साहब, साहब ने आज तक शादी नहीं की.’’

‘‘शादी नहीं की?’’

‘‘नहीं, मेम साहब, हम पुरानी दाई हैं. शुरू से बहुत समझाया लेकिन कुछ नहीं बोलते हैं…कितने रिश्ते आए, एक से एक…’’

अंजलि ने कुछ नहीं कहा. आई तो सोच कर थी कि बहुत कुछ कहेगी, लेकिन केवल मूक बन दाई की बात सुन रही थी.

दाई ने उत्साहित हो कर कहा, ‘‘अब क्या कहें, मेम साहब, सब तो हम को संभालना पड़ता है. बूढे़ हो गए हम लोग, कब तक जिंदा रहेंगे. इन दोनों बच्चियों की भी परवरिश. अब क्या बोलें, दिन भर तो ठीक रहता है. सांझ को क्लिनिक में बैठते हैं,’’ उस ने परिसर में ही एक ओर इशारा किया फिर आवाज को धीमा कर के गोपनीयता के स्तर पर ले आई, ‘‘बाकी साढ़े 8 बजे क्लब जाते हैं तो 12 के पहले नहीं आते हैं…बहुत तेज गाड़ी चला कर…पूरे नशे में. हम रोज चिंता में डूबे 12 बजे रात तक रास्ता देखते रहते हैं. कहीं कुछ हो गया तो? बड़े डाक्टर हैं, अब हम गंवार क्या समझाएं.’’

अंजलि ने गहरी धुंध से निकल कर पूछा, ‘‘शराब पीते हैं?’’

‘‘दिन में नहीं, रात को क्लब में बहुत पीते हैं.’’

‘‘कब से शराब पीने लगे हैं?’’

‘‘वही इंगलैंड से वापस आने के कुछ दिन बाद से. हम तब से इन के यहां हैं.’’

इंगलैंड से लौटने के बाद. अंजलि ने हाथ में पकड़े गिफ्ट को दाई की ओर बढ़ाते हुए पूछा, ‘‘शादी नहीं हुई तो ये दोनों लड़कियां?’’

दाई ने दोनों लड़कियों की ओर देखा, फिर हंसी, ‘‘ये दोनों बच्चे तो अनाथ हैं, मेम साहब. डाक्टर साहब दोनों को बच्चा वार्ड से लाए हैं. वहां कभीकभार कोई औरत बच्चा पैदा कर के उस को छोड़ कर भाग जाती है. लावारिस बच्चा वहीं अस्पताल में ही पलता है. बहुत से लोग ऐसे बच्चों को गोद ले लेते हैं. अच्छे-अच्छे परिवार के लोग. डाक्टर साहब ने भी.

जिंदगी की जंग: क्या सही था नीना का घर छोड़ने का फैसला?

‘‘अरे रामू घर की सफाई हुई या नहीं? जल्दी से चाय का पानी आंच पर चढ़ाओ.’’

सवेरे सवेरे अम्मां की आवाज से अचानक मेरी नींद खुली तो देखा वे नौकरों को अलगअलग निर्देश दे रही थीं. पूरे घर में हलचल मची थी. आज गरीबरथ से जया दीदी आने वाली हैं. जया दीदी हम बहनों से सब से बड़ी हैं. उन की शादी बहुत ही ऊंचे खानदान में हुई है. साथ में दोनों बच्चे व जीजाजी भी आ रहे हैं. अम्मां चाहती हैं कि इंतजाम में कोई कमी न हो.

तभी बाबूजी की आवाज आई, ‘‘अरे बैठक की चादर बदली कि नहीं? मेहमान आने ही वाले होंगे. सब कुछ साफसुथरा होना चाहिए. कभीकभी तो आ पाते हैं बेचारे. उन को छुट्टी ही कहां मिलती है.’’

तभी अम्मां की नजर मुझ पर पड़ी, ‘‘अरे नीना, तू तो ऐसे ही बैठी है और यह क्या, मुन्नू तो एकदम गंदा है. चल उठ, नहाधो कर नए कपड़े पहन और हां, मुन्नू को भी ढंग से तैयार कर देना वरना मेहमान कहेंगे कि हम ने तुम्हें ठीक से नहीं रखा.’’

अम्मां की बातें सुन कर मन कसैला हो गया. मैं भी शादी के बाद जब 1-2 बार आई थी, तब घर का माहौल ऐसा ही रहता था. पहली बार जब मैं शादी के बाद मायके आई थी, तब सब कैसे खुश हुए थे. क्या खिलाएं, कहां बैठाएं. लग रहा था जैसे मैं कभी आऊंगी ही नहीं.

लेकिन कितने दिन ऐसा आदर सत्कार मुझे मिला. ससुराल जाते ही सब को मेरी बीमारी के बारे में पता चल गया. कुछ दिनों तक तो उन लोगों ने मुझे बरदाश्त किया, फिर बहाने से यहां ला कर बैठा गए. दरअसल, मुझे सफेद दाग की बीमारी थी, जिसे छिपा कर मेरी शादी की गई थी.

फिर घर की प्यारी बेटी, जो पिता की आंखों का तारा व मां के लिए नाज थी, के साथ शुरू हुआ एक नया अध्याय. जो पिता मेरा खुले दिल से इलाज करवाते थे, उन्हें अब मेरी जरूरी दवाएं भी बोझ लगने लगीं. मां को शर्म आने लगी कि पासपड़ोस वाले कहेंगे कि बेटी मायके में आ कर ही बस गई. भाईबहन भी कटाक्ष करने से बाज नहीं आते थे.

अभी यह लड़ाई चल ही रही थी कि पति का बोया हुआ बीज आकार लेने लगा. खैर, जैसेतैसे मुन्नू का जन्म हुआ.

नाती के जन्म की जैसी खुशी होनी चाहिए, वैसी किसी में नहीं दिखी. बस एक कोरम पूरा किया गया.

धीरेधीरे मुन्नू 3 साल का हो गया. तब मैं ने भी ठान ली कि ऐसे बैठे रह कर ताने सुनने से अच्छा है कुछ काम किया जाए.

सिलाईकढ़ाई और पेंटिंग का शौक मुझे शुरू से ही था. शादी के पहले मैं ने सिलाई का कोर्स भी किया था. मैं अगलबगल की कुछ लड़कियों को सिलाई सिखाने लगी. उन को मेरा सिखाने का तरीका अच्छा लगा, तो वे और लड़कियां भी ले आईं. इस तरह मेरा सिलाई सैंटर चल निकला. ढेर सारी लड़कियां मुझ से सिलाई सीखने आने लगीं और इस से मेरी अच्छी कमाई होने लगी.

मुन्नू के 4 साल का होने पर मैं ने उसे पास के प्ले स्कूल में भरती करा दिया. अब मेरे पास समय भी काफी बचने लगा, जिस का सदुपयोग मैं अपने सिलाई सैंटर में किया करती थी. धीरेधीरे मेरा सैंटर एक मान्यता प्राप्त सैंटर हो गया. काम काफी बढ़ जाने के कारण मुझे 2 सहायक भी रखने पड़े. इस से मुझे अच्छी मदद मिलती थी.

अभी जिंदगी ने रफ्तार पकड़ी ही थी कि भैया की शादी हो गई. नई भाभी घर में आईं तो कुछ दिन तो सब कुछ ठीक रहा. मगर धीरेधीरे उन को मेरा वहां रहना नागवार गुजरने लगा.

मां अगर मुन्नू के लिए कुछ भी करतीं तो उन का पारा 7वें आसमान पर चढ़ जाता. शुरूशुरू में तो वे कुछ नहीं कहती थीं, लेकिन बाद में खुलेआम विरोध करने लगीं.

एक दिन तो हद ही हो गई. बाबूजी बाजार से मुन्नू के लिए खिलौने ले आए. उन्हें देखते ही भाभी एकदम फट पड़ीं. चिल्ला कर बोलीं, ‘‘बाबूजी, घर में अब यह सब फुजूलखर्ची बिलकुल भी नहीं चलेगी. इस महंगाई में घर चलाना ऐसे ही मुश्किल हो गया है, ऊपर से आप आए दिन मुन्नू पर फुजूलखर्ची करते रहते हैं.’’

हालांकि ऐसा नहीं था कि घर की माली हालत खराब थी. भैया कालेज में हिंदी के प्रोफैसर थे और बाबूजी को भी अच्छीखासी पैंशन मिलती थी. मुझे भाभी की बातें उतनी बुरी नहीं लगीं, जितना बुरा बाबूजी का चुप रहना लगा. बाबूजी का न बोलना मुझे भीतर तक भेद गया. मैं सोचने लगी क्या बाबूजी पुत्रप्रेम में इतने अंधे हो गए हैं कि बहू की बातों का विरोध तक नहीं कर सकते?

उन्हीं बाबूजी की तो मैं भी संतान थी. मेरा मन कचोट कर रह गया. क्या शादी के बाद लड़कियां इतनी पराई हो जाती हैं कि मांबाप पर भी उन का हक नहीं रहता? खैर जैसेतैसे मन को मना कर मैं फिर सामान्य हो गई. मुन्नू को स्कूल भेजना और मेरा सैंटर चलाना जारी रहा.

मेरा सिलाई सैंटर दिनबदिन मशहूर होता जा रहा था. अब आसपास के गांवों की लड़कियां और महिलाएं भी आने लगी थीं. मेरी कमाई अब अच्छी होने लगी थी, इसलिए मैं हर महीने कुछ रुपए मां के हाथ पर रख देती थी. शुरू में तो मां ने मना किया, परंतु मेरे यह कहने पर कि अगर मैं लड़का होती और कमाती रहती तो तुम पैसे लेतीं न, वे मान गई थीं. कुछ पैसे मैं भविष्य के लिए बैंक में भी जमा करा देती थी.

किसी तरह जिंदगी की गाड़ी चल रही थी. घर में भाभी की चिकचिक बदस्तूर जारी थी. मांपिताजी के पुत्रप्रेम से भाभी का दिमाग एकदम चढ़ गया था. अब तो वे अपनेआप को उस घर की मालकिन समझने लगी थीं. हालांकि मां का स्वास्थ्य बिलकुल ठीक था और वे घर का कामकाज भी करना चाहती थीं, लेकिन धीरेधीरे मां को उन्होंने एकदम बैठा दिया था.

उन्हें खाना बनाने का बहुत शौक था, खासकर बाबूजी को कुछ नया बना कर खिलाने का, जिसे वे बड़े चाव से खाते थे. लेकिन भाभी को यह सब फुजूलखर्ची लगती थी, इसलिए उन्होंने मां को धीरेधीरे रसोई से दूर कर दिया था.

मैं तो उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाती थी. मुझे देखते ही वे बेवजह अपने बच्चों को मारनेपीटने लगती थीं. एक दिन मैं दोपहर को सिलाई सैंटर से खाना खाने घर पहुंची तो बाहर बहुत धूप थी. सोचा था घर पहुंच कर आराम से खाना खाऊंगी.

हाथमुंह धो कर खाना ले कर बैठी ही थी कि भाभी ने भुनभुनाना शुरू कर दिया कि कितना आराम है. बैठेबैठाए आराम से खाना जो मिल जाता है. मुफ्त के खाने की लोगों को आदत लग गई है. अरे जितना खर्च इस में लगता है, उतने में तो हम 2 नौकर रख लें.

सुन कर हाथ का कौर हाथ में ही रह गया. लगा, जैसे खाना नहीं जहर खा रही हूं. फिर खाना बिलकुल नहीं खाया गया. हालांकि जितना बन पाता था, मैं सुबह किचन का काम कर के ही सिलाई सैंटर जाती थी. लेकिन भाभी को तो मुझ से बैर था, इसलिए हमेशा मुझ से ऐसी ही बातें बोलती रहती थीं. लेकिन उस दिन उन की बात मेरे दिल को चीर गई और मैं ने सोच लिया कि बस अब बहुत हो गया. अब और बरदाश्त नहीं करूंगी.

उसी क्षण मैं ने फैसला कर लिया कि अब इस घर में नहीं रहूंगी. कुछ दिन बाद

छोटे से 2 कमरों का घर तलाश कर मैं ने अम्मांबाबूजी के घर को छोड़ दिया. हालांकि घर छोड़ते समय मां ने हलका विरोध किया था, लेकिन कब तक मन को मार कर मैं जबरदस्ती इस घर में रहती.

नए घर में आने के बाद मैं नए उत्साह से अपने काम में जुट गई. अपने घर की याद तो बहुत आती थी. मगर फिर सोचती कैसा घर, जब वहां मेरी कोई कीमत ही नहीं. खैर मैं ने अपनेआप को पूरी तरह से अपने काम में रमा लिया.

सिलाई सैंटर में लड़कियों की भीड़ ज्यादा बढ़ गई तो सैंटर की एक शाखा और खोल ली. मुन्नू भी दिनोंदिन बड़ा हो रहा था और पढ़ाई में जुटा था. पढ़ने में वह काफी होशियार था. हमेशा अच्छे नंबरों से पास होता था.

दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे. अम्मांबाबूजी का हालचाल फोन से पता चल जाता था. कभीकभार मुन्नू से मिलने के लिए वे आ भी जाते थे. अब मेरा काम बहुत बढ़ गया था.

मैं ने एक बुटीक भी खोल लिया था, जिसे हमारे सैंटर की लड़कियां और महिलाएं मिल कर चला रही थीं. मेरा बुटीक ऐसा चल निकला कि मुझे कपड़ों के निर्यात का भी और्डर मिलने लगा. मैं बहुत खुश थी कि मेरी वजह से कई महिलाओं को रोजगार मिला था.

अब मुन्नू भी एम.बी.ए. कर के मेरे आयातनिर्यात का काम देखने लगा था. उस के बारे में मुझे एक ही चिंता थी कि उस की शादी कर दूं.

एक दिन मेरे मायके की पड़ोसिन गीता आंटी मिलीं. कहने लगीं कि तुम को पता है, तुम्हारे मायके में क्या चल रहा है? मेरे इनकार करने पर उन्होंने बताया कि तुम्हारी भाभी तुम्हारे मांबाबूजी पर बहुत अत्याचार करती हैं. तुम्हारा भाई तो कुछ बोलता ही नहीं. अभी कल तुम्हारे बाबूजी मुझ से मिले थे. वे किसी वृद्धाश्रम का पता पूछ रहे थे. जब मैं ने पूछा कि वे वृद्धाश्रम क्यों जाना चाहते हैं, तो उन्होंने कहा कि मैं अब इस घर में एकदम नहीं रहना चाहता हूं. बहू का अत्याचार दिनबदिन बढ़ता ही जा रहा है.

सुन कर मैं रो पड़ी. ओह, मेरे अम्मांबाबूजी की यह हालत हो गई और मुझे पता भी नहीं चला. मेरा मन धिक्कार उठा.

यहां मेरी वजह से कई परिवार चल रहे थे और वहां मेरे अम्मांबाबूजी की यह हालत हो गई है. रात को ही मैं ने फैसला कर लिया, बहुत हुआ अब और नहीं. अम्मांबाबूजी को यहीं ले आऊंगी. अगले ही दिन गाड़ी ले कर मैं और मुन्नू उन को लाने के लिए घर गए. हमें देखते ही वे रोने लगे. हम ने उन्हें चुप कराया फिर साथ चलने को कहा.

अभी वे कुछ बोलते, उस से पहले ही वहां भाभी आ गईं और अपना वही अनर्गल प्रलाप करने लगीं. बाबूजी ने उन की तरफ देखा और शांति से बस इतना कहा, ‘‘हमें जाने दो बहू.’’

अम्मांबाबूजी गाड़ी में बैठ गए. मुझे लगा आज मैं हवा में उड़ रही हूं. आज मैं ने जिंदगी की जंग को जीत लिया था.

आशंका: क्यों बेटी और दामाद को अपने साथ रखना चाहती थी मृणालिनी?

वैसे तो रणबीर ग्रुप ने शहर में कई दर्शनीय इमारतें बनाई थीं, लेकिन उन के द्वारा नवनिर्मित ‘स्वप्नलोक’ वास्तुशिल्प में उन का अद्वितीय योगदान था. उद्घाटन समारोह में मुख्यमंत्री एवं अन्य विशिष्ट व्यक्तियों की प्रशंसा के उत्तर में ग्रुप के चेयरमैन रणबीर ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘‘किसी भी प्रोजैक्ट की कामयाबी का श्रेय उस से जुड़े प्रत्येक छोटेबड़े व्यक्ति को मिलना चाहिए, इसीलिए मैं अपने सभी सहकर्मियों का बहुत आभारी हूं, खासतौर से अपने आर्किटैक्ट विभोर का जिन के बगैर मैं आज जहां खड़ा हूं वहां तक कभी नहीं पहुंचता.’’

समारोह के बाद जब विभोर ने रणबीर को धन्यवाद दिया तो उस ने सरलता से कहा, ‘‘किसी को भी उस के योगदान का समुचित श्रेय न देने को मैं गलत समझता हूं विभोर.’’

‘‘ऐसा है तो फिर मेरी सफलता का श्रेय तो मेरी सासससुर खासकर मेरी सास को मिलना चाहिए सर,’’ विभोर बोला, ‘‘यदि आप का इस सप्ताहांत कोई और कार्यक्रम न हो तो आप सपरिवार हमारे साथ डिनर लीजिए, मैं आप को अपने सासससुर से मिलवाना चाहता हूं.’’

‘‘मैं गरिमा और बच्चों के साथ जरूर आऊंगा विभोर. तुम्हारे सासससुर इसी शहर में रहते हैं?’’

‘‘जी हां, मैं उन के साथ यानी उन के ही घर में रहता हूं सर वरना मेरी इतनी बड़ी कोठी लेने की हैसियत कहां है…’’

‘‘कमाल है, अभी कुछ रोज पहले तो हम तुम्हारी प्रमोशन की पार्टी में तुम्हारे घर आए थे और उस से पहले भी आ चुके हैं, लेकिन उन से मुलाकात नहीं हुई कभी.’’

‘‘वे लोग मेरी पार्टियों में शरीक नहीं होते सर, न ही मेरी निजी जिंदगी में दखलंदाजी करते हैं. लेकिन मेरे बीवीबच्चों का पूरा खयाल रखते हैं. इसीलिए तो मैं इतनी एकाग्रता से अपना काम कर रहा हूं, क्योंकि न तो मुझे बीमार बच्चे को डाक्टर के पास ले जाना पड़ता है और न ही बीवी के अकेलेपन को दूर करने या गृहस्थी के दूसरे झमेलों के लिए समय निकालने की मजबूरी है. जब भी फुरसत मिलती है बेफिक्री से बीवीबच्चों के साथ मौजमस्ती कर के तरोताजा हो जाता हूं,’’ विभोर बोला.

‘‘ऋतिका इकलौती बेटी है?’’

‘‘नहीं सर, उस के 2 भाई अमेरिका में रहते हैं. पहले तो उन का वापस आने का इरादा था, मगर मेरे यहां आने के बाद दोनों लौटना जरूरी नहीं समझते. मिलने के लिए आते रहते हैं. कोठी इतनी बड़ी है कि किसी के आनेजाने से किसी को कोई दिक्कत नहीं होती.’’

रणबीर को ऋतिका के मातापिता बहुत ही सुलझे हुए, संभ्रांत और सौम्य

लगे. खासकर ऋतिका की मां मृणालिनी. न जाने क्यों उन्हें देख कर रणबीर को ऐसा लगा कि उस ने उन्हें पहले भी कहीं देखा है.

उस के यह कहने पर मृणालिनी ने बड़ी सादगी से कहा, ‘‘जरूर देखा होगा ‘दीपशिखा’ महिला क्लब के किसी समारोह या फिर अपनी शादी में,’’ मां की मृत्यु में कहना मृणालिनी ने मुनासिब नहीं समझा.

‘‘ठीक कहा आप ने,’’ रणबीर चहका, ‘‘किसी समारोह की तो याद नहीं, लेकिन बहुत सी तसवीरों में आप हैं मां के साथ.’’

‘‘मां की शादी से पहले की तसवीरों में भी देखा होगा, क्योंकि मैं और रुक्की शादी के पहले एक बार एनसीसी कैंप में मिली थीं और वहीं हमारी दोस्ती हुई थी.’’

रणबीर भावुक हो उठा. उस की मां रुक्मिणी को रुक्की उन के बहुत ही करीबी लोग कह सकते थे. रूप और धन के दंभ में अपने को विशिष्ट समझने वाली मां यह हक किसीकिसी को ही देती थीं यानी मृणालिनी उस की मां की अभिन्न सखी थीं.

‘‘विभोर को मालूम है कि मां आप की सहेली थीं?’’ रणबीर ने पूछा.

‘‘नहीं, क्योंकि उस का हमारे परिवार से जुड़ने से पहले ही रुक्की का देहांत हो गया था. विभोर बहुत मेहनती और लायक लड़का है,’’ मृणालिनी ने दर्प से कहा.

‘‘सही कह रही हैं आप. विभोर के बगैर तो मैं 1 कदम भी नहीं चल सकता. और अब तो मुझे आप का सहारा भी चाहिए मांजी. मां के देहांत के बाद आज आप से मिल कर पहली बार लगा जैसे मैं फिर से सिर्फ रणबीर बन कर जी सकता हूं.’’

‘‘गाहेबगाहे ही क्यों जब जी करे,’’ मृणालिनी ने स्नेह से उस का सिर सहलाते

हुए कहा.

‘‘रणबीर सर से क्या बातें हुईं मां?’’ अगली सुबह विभोर ने पूछा.

‘‘कुछ खास नहीं, बस उस की मां के बारे में,’’ मृणालिनी ने अनमने भाव से कहा.

‘‘पूरी शाम?’’ विभोर ने हैरानी से पूछा.

‘‘रुक्की थी ही ऐसी विभोर, उस के बारे में जितनी भी बातें की जाएं कम हैं, अमीर बाप की बेटी होने के बावजूद उस में रत्ती भर घमंड नहीं था. वह एनसीसी की अच्छी कैडेट थी. उस के बाप ने उसे रिवौल्वर इनाम में दिया था. मेरी निशानेबाजी से प्रभावित हो कर रुक्की ने अपने रिवौल्वर से मुझे प्रैक्टिस करवाई थी. तभी तो मुझे निशानेबाजी की प्रतियोगिता में इनाम मिला था.’’

‘‘लगता है मां अपनी सहेली की याद आने की वजह से विचलित हैं,’’ ऋतिका बोली.

‘‘और अब विचलित होने की बारी मेरी है, क्योंकि हम व्हिस्पर वैली में जो अरेबियन विलाज बना रहे हैं न उस बारे में मुझे आज रणबीर सर से विस्तृत विचारविमर्श करना है और अगर मां की याद में व्यथित होने के कारण उन्होंने मीटिंग टाल दी या दिलचस्पी नहीं ली तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी,’’ विभोर ने कहा.

लेकिन उस का खयाल गलत था. रणबीर ने बड़े उत्साह और दिलचस्पी से विभोर की प्रस्तावना पर विचार किया और सुझाव दिया, ‘‘अपने पास जमीन की कमी नहीं है विभोर. क्यों न तुम 2 को जोड़ कर पहले 1 बड़ा भव्य विला बनाओ. अगर लोगों को पसंद आया तो और वैसे बना देंगे.’’

‘‘लेकिन कीमत बहुत ज्यादा हो जाएगी सर और फिर कोई ग्राहक न मिला तो?’’

‘‘परवाह नहीं,’’ रणबीर ने उत्साह से कहा, ‘‘खुद के काम आ जाएगा. यही सोच कर बनाओ कि यह बेचने के लिए नहीं अपने लिए है. विभोर, तुम दूसरे काम उमेश और दिनेश को देखने दो. तुम इसी प्रोजैक्ट के निर्माण पर ध्यान दो और जल्दी यह काम पूरा करो. मैं सतबीर से कह दूंगा कि तुम्हें पैसे की दिक्कत न हो.’’

‘‘फिर तो देर होने का सवाल ही नहीं उठता सर,’’ विभोर ने आश्वासन दिया. उस के बाद वह काम में जुट गया.

रणबीर इस प्रोजैक्ट में कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी ले रहा था, अकसर साइट पर भी आता रहता था. एक सुबह जब विभोर साइट पर जा रहा था तो उस ने देखा कि ढलान शुरू होने से कुछ पहले उस के कई सहकर्मियों की गाडि़यां और मोटरसाइकिलें, स्कूटर सड़क के किनारे खड़े हैं और कुछ लोग उस की गाड़ी को रोकने को हाथ हिला रहे हैं.

‘‘रणबीर साहब की गाड़ी भी खड़ी है साहब,’’ ड्राइवर ने गाड़ी रोकते हुए कहा.

विभोर चौंक पड़ा कि क्या वे इतनी सुबह यहां मीटिंग कर रहे हैं?

‘‘सर, बड़े साहब की गाड़ी में उन की लाश पड़ी है,’’ उसे गाड़ी से उतरते देख कर एक आदमी लपक कर आया और बोला.

विभोर भागता हुआ गाड़ी के पास पहुंचा. रणबीर ड्राइवर की सीट पर बैठा

था, उस की दाहिनी कनपटी पर गोली लगी थी और दाहिने हाथ में रिवौल्वर था. सीटबैल्ट बंधी होने के कारण लाश गिरी नहीं थी. रणबीर जौगर्स सूट और शूज में थे यानी वे सुबह को सैर के लिए तैयार हुए थे. ‘वे तो घर के पास के पार्क में ही सैर करते थे. फिर गाड़ी में यहां कैसे आ गए?’ विभोर सोच ही रहा था कि तभी पुलिस की गाड़ी आ गई.

इंस्पैक्टर देव को देख कर विभोर को तसल्ली हुई. उस के बारे में मशहूर था कि कितना भी पेचीदा केस क्यों न हो वह सप्ताह भर में सुलझा लेता है.

‘‘लाश पहले किस ने देखी?’’ देव ने पूछा.

‘‘मैं ने इंस्पैक्टर,’’ एक व्यक्ति सामने आया, ‘‘मैं प्रोजैक्ट मैनेजर विभास हूं. मैं जब साइट पर जाने के लिए यहां से गुजर रहा था तो साहब की गाड़ी खड़ी देख कर रुक गया. गाड़ी के पास जा कर मैं ने अधखुले शीशे से झांका तो साहब को खून में लथपथ पाया. मैं ने तुरंत साहब के घर और पुलिस को फोन कर दिया.’’

कुछ देर बाद रणबीर की पत्नी गरिमा, बेटी मालविका, बेटा कबीर, छोटा भाई सतबीर और उस की पत्नी चेतना आ गए. देव ने शोकविह्वल परिवार को संयत होने के लिए थोड़ा समय देना बेहतर समझा. कुछ देर के बाद गरिमा ने विभोर से पूछा कि क्या साइट पर कुछ गड़बड़ है, क्योंकि आज रणबीर रोज की तरह सुबह सैर पर निकले थे, पर चंद मिनट बाद ही लौट आए और चौकीदार से गाड़ी की चाबी मंगवा कर गाड़ी ले कर चले गए.

‘‘हमें तो किसी ने फोन नहीं किया,’’ विभास और विभोर ने एकसाथ कहा, ‘‘और साइट के चौकीदार को तो हम ने साहब का नंबर दिया भी नहीं है.’’

‘‘क्या मालूम भैया ने खुद दे दिया हो,’’ सतबीर बोला, ‘‘वह इस प्रोजैक्ट में कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी ले रहे थे.’’

‘‘अगर किसी ने फोन किया था तो इस का पता मोबाइल से चल जाएगा,’’ देव ने कहा, ‘‘यह बताइए यह रिवौल्वर क्या रणबीर साहब का अपना है?’’

गरिमा और बच्चों ने इनकार में सिर हिलाया.

‘‘मैं इस रिवौल्वर को पहचानता हूं इंस्पैक्टर,’’ सतबीर बोला, ‘‘यह हमारा पुश्तैनी रिवौल्वर है.’’

‘‘लेकिन यह रिवौल्वर था कहां सतबीर?’’ गरिमा ने पूछा.

सतबीर ने कंधे उचकाए, ‘‘मालूम नहीं भाभी. दादाजी के निधन के कुछ समय बाद मैं पढ़ने के लिए बाहर चला गया था. जब लौट कर आया तो पापा पुरानी हवेली बेच कर हम दोनों भाइयों के लिए नई कोठियां बनवा चुके थे. पुराने सामान का खासकर इस रिवौल्वर का क्या हुआ, मुझे खयाल ही नहीं आया.’’

‘‘चाचा जब बड़े दादाजी गुजरे तब दयानंद काका थे क्या?’’ कबीर ने पूछा.

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘क्योंकि दयानंद काका को जरूर मालूम होगा कि यह रिवौल्वर किस के पास था,’’ कबीर बोला.

‘‘यह दयानंद काका कौन हैं और कहां मिलेंगे?’’ देव ने उतावली से पूछा.

‘‘घर के पुराने नौकर हैं और हमारे साथ ही रहते हैं,’’ गरिमा बोली.

‘‘उन से रिवौल्वर के बारे में पूछना बहुत जरूरी है, क्योंकि आत्महत्या दिखाने की कोशिश में हत्यारे ने गोली चला कर रिवौल्वर मृतक के हाथ में पकड़ाया है,’’ देव बोला.

‘‘दयानंद काका आ गए,’’ तभी औटो से एक वृद्ध को उतरते देख कर मालविका ने कहा.

‘‘साहब, काकाजी की जिद्द पर हमें इन्हें यहां लाना पड़ा,’’ दयानंद के साथ आए एक युवक ने कहा.

‘‘अच्छा किया,’’ सतबीर ने कहा और सहारा दे कर बिलखते दयानंद को गाड़ी के पास ले गया.

‘‘इस रिवौल्वर को पहचानते हो काका?’’ देव ने कुछ देर के बाद पूछा.

दयानंद ने आंसू पोंछ कर गौर से रिवौल्वर को देखा. फिर बोला, ‘‘हां, यह तो साहब का पुश्तैनी रिवौल्वर है. यह यहां कैसे आया?’’

‘‘यह रिवौल्वर किस के पास था?’’ सतबीर ने पूछा.

‘‘किसी के भी नहीं. बड़े बाबूजी के कमरे की अलमारी में जहां उन का और मांजी का सामान रखा है, उसी में रखा रहता था.’’

‘‘आप को कैसे मालूम?’’ कबीर ने पूछा.

‘‘हमीं से तो रणबीर भैया उस कमरे की साफसफाई करवाते थे. इस इतवार को भी करवाई थी.’’

‘‘तब मैं कहां थी?’’ गरिमा ने पछा.

‘‘होंगी यहीं कहीं,’’ दयानंद ने अवहेलना से कहा.

‘‘भैया कब क्या करते थे, इस की कभी खबर रखी आप ने?’’

‘‘पहले मेरे सवाल का जवाब दो काका,’’ देव ने बात संभाली, ‘‘उस रोज क्या उन्होंने यह रिवौल्वर अलमारी से निकाला था?’’

‘‘जी हां, हमेशा ही सब चीजें निकालते थे, फिर उन्हें बड़े प्यार से पोंछ कर वापस रख देते थे.’’

‘‘इतवार को भी रिवौल्वर वापस रखा था?’’

‘‘मालूम नहीं, हम तो अपना काम खत्म कर के भैया को वहीं छोड़ कर आ गए थे.’’

‘‘भैया को मांबाप से बहुत लगाव था. उन्होंने उन का कमरा जैसा था वैसा ही रहने दिया था. वे हमेशा उस कमरे में अकेले बैठना पसंद करते थे,’’ सतबीर ने जैसे सफाई दी.

इंस्पैक्टर देव फोटोग्राफर और फोरेंसिक वालों के साथ व्यस्त हो गया.

फिर शोकसंतप्त परिवार से बोला, ‘‘मैं आप की व्यथा समझता हूं, लेकिन हत्यारे को पकड़ने के लिए मुझे आप सब से कई अप्रिय सवाल करने पड़ेंगे. अभी आप लोग घर जाइए. लेकिन कोई भी घर से बाहर नहीं जाएगा खासकर दयानंद काका.’’

‘‘जो हमें मालूम होगा, हम जरूर बताएंगे इंस्पैक्टर. लेकिन हम सब से ज्यादा विभोर बता सकते हैं, क्योंकि भाभी से भी ज्यादा समय भैया इन के साथ गुजारते थे,’’ सतबीर ने विभोर का परिचय करवाया.

रणबीर के शरीर को पोस्टमाटर्म के लिए ले जाने को जैसे ही ऐंबुलैंस में रखा, पूरा परिवार बुरी तरह बिलखने लगा.

‘‘आप ही को इन सब को संभालना होगा विभोर साहब,’’ विभास ने कहा.

‘‘घर पर और भी कई इंतजाम करने पड़ेंगे विभास. आप साइट का काम बंद करवा कर बंगले पर आ जाइए और कुछ जिम्मेदार लोगों को अभी बंगले पर भिजवा दीजिए,’’ विभोर ने कहा.

विभोर जितना सोचा था उस से कहीं ज्यादा काम करने को थे. बीचबीच में मशवरे के लिए उसे परिवार के पास अंदर भी जाना पड़ रहा था. एक बार जाने पर उस ने देखा कि ऋतिका और मृणालिनी भी आ गई हैं. मृणालिनी गरिमा को गले लगाए जोरजोर से रो रही थी. चेतना और सतबीर उन्हें हैरानी से देख रहे थे.

‘‘ये मेरी सास हैं और आप की मां की घनिष्ठ सहेली. यह बात कुछ महीने पहले ही उन्होंने सर को बताई थी, तब से सर अकसर उन से मिलते रहते थे,’’ विभोर ने धीरे से कहा.

‘‘हां, भैया ने बताया तो था कि मां की एक सहेली से मिल कर उन्हें लगता है कि जैसे मां से मिले हों. मगर उन्होंने यह नहीं बताया कि वे आप की सास हैं,’’ सतबीर बोला.

‘‘विभोर साहब, बेहतर रहेगा अगर आप अपनी सासूमां को संभाल लें, क्योंकि उन के इस तरह रोने से भाभी और बच्चे और व्यथित हो जाएंगे और फिर हमें उन्हें संभालना पड़ेगा,’’ चेतना ने कहा.

‘‘आप ठीक कहती हैं,’’ कह कर विभोर ने ऋतिका को बुलाया, ‘‘मां को घर ले जाओ ऋतु. अगर इन की तबीयत खराब हो गई तो मेरी परेशानी और बढ़ जाएगी.’’

कुछ देर बाद ऋतिका का घर से फोन आया कि मां का रोनाबिलखना बंद ही नहीं हो रहा, ऐसी हालत में उन्हें छोड़ कर वापस आना वह ठीक नहीं समझती. तब विभोर ने कहा कि उसे आने की आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि वहां कौन आया या नहीं आया देखने की किसी को होश नहीं है.

एक व्यक्ति के जाने से जीवन कैसे अस्तव्यस्त हो जाता है, यह विभोर को पहली बार पता चला. सतबीर और गरिमा ने तो यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि रणबीर ने जो प्रोजैक्ट शुरू कराए थे, उन्हें उस की इच्छानुसार पूरा करना अब विभोर की जिम्मेदारी है. उन दोनों को भरोसा था कि विभोर कभी कंपनी या उन के परिवार का अहित नहीं करेगा. विभोर की जिम्मेदारियां ही नहीं, उलझनें भी बढ़ गई थीं.

रणबीर की मृत्यु का रहस्य उस के मोबाइल पर मिले अंतिम नंबर से और भी उलझ गया था. वह संदेश एक अस्पताल के सिक्का डालने वाले फोन से भेजा गया था और वहां से यह पता लगाना कि फोन किस ने किया था, वास्तव में टेढ़ी खीर था. पहले दयानंद के कटाक्ष से लगा था कि वह गरिमा के खिलाफ है और शायद गरिमा रणबीर की अवहेलना करती थी, लेकिन बाद में दयानंद

ने बताया कि वैसे तो गरिमा रणबीर के प्रति संर्पित थी बस उस की नियमित सुबह की सैर या दिवंगत मातापिता के कमरे में बैठने की आदत में गरिमा, बच्चों व सतबीर की कोई दिलचस्पी नहीं थी. दयानंद के अनुसार यह सोचना भी कि सतबीर या गरिमा रणबीर की हत्या करा सकते हैं, हत्या जितना ही जघन्य अपराध होगा.

मामला दिनबदिन सुलझने के बजाय उलझता ही जा रहा था. इंस्पैक्टर

देव का कहना था कि विभोर ही रणबीर के सब से करीब था. अत: उसे ही सोच कर बताना है कि रणबीर के किस के साथ कैसे संबंध थे. रणबीर की किसी से दुश्मनी थी, यह विभोर को बहुत सोचने के बाद भी याद नहीं आ रहा था और अगर किसी से थी भी तो उस की पहुंच रणबीर के रिवौल्वर तक कैसे हुई? इंस्पैक्टर देव का तकाजा बढ़ता जा रहा था कि सोचो और कोई सुराग दो.

ब्लाउज: इंद्र ने अपनी पत्नी के कपड़ों के साथ क्या किया?

इंद्रपत्नी की मृत्यु के बाद बेटी के साथ अमेरिका चले गए थे. 65 साल की आयु में जब पत्नी विमला कैंसर के कारण उन का साथ छोड़ गई तो उन की जीवननैया डगमगा उठी. इसी उम्र में तो एकदूसरे के साथ की जरूरत अधिक होती है और इसी अवस्था में वह हाथ छुड़ा कर किनारे हो गई थी.

पिता की मानसिक अवस्था को देख कर अमेरिकावासी दोनों बेटों ने उन्हें अकेला छोड़ना उचित नहीं समझा और जबरदस्ती साथ ले गए. अमेरिका में दोनों बेटे अलगअलग शहर में बसे थे. बड़े बेटे मनुज की पत्नी भारतीय थी और फिर उन के घर में 1 छोटा बच्चा भी था, इसलिए कुछ दिन उस के घर में तो उन का मन लग गया. पर छोटे बेटे रघु के घर वे 1 सप्ताह से अधिक समय नहीं रह पाए. उस की अमेरिकन पत्नी के साथ तो वे ठीक से बातचीत भी नहीं कर पाते थे. उन्हें सारा दिन घर का अकेलापन काटने को दौड़ता था. अत: 2 ही महीनों में वे अपने सूने घर लौट आए थे.

अब घर की 1-1 चीज उन्हें विमला की याद दिलाती और वे सूने घर से भाग कर क्लब में जा बैठते. दोस्तों से गपशप में दिन बिता कर रात को जब घर लौटते तो अपना घर ही उन्हें बेगाना लगता. अब अकेले आदमी को इतने बड़े घर की जरूरत भी नहीं थी. अत: 4 कमरों वाले इस घर को उन्होंने बेचने का मन बना लिया. इंद्र ने सोचा कि वे 2 कमरों वाले किसी फ्लैट में चले जाएंगे. इस बड़े घर में तो पड़ोसी की आवाज भी सुनाई नहीं पड़ती, क्योंकि घर के चारों ओर की दीवारें एक दूरी पैदा करती थीं. फ्लैट सिस्टम में तो सब घरों की दीवारें और दरवाजे इतने जुड़े हुए होते हैं कि न चाहने पर भी पड़ोसी के घर होते शोरगुल को आप सुन सकते हैं.

सभी मित्रों ने भी राय दी कि इतने बड़े घर में रहना अब खतरे से भी खाली नहीं है. आए दिन समाचारपत्रों में खबरें छपती रहती हैं कि बूढ़े या बूढ़ी को मार कर चोर सब लूट ले गए. अत: घर को बेच कर छोटा फ्लैट खरीदने का मन बना कर उन्होंने धीरेधीरे घर का अनावश्यक सामान बेचना शुरू कर दिया. पुराना भारी फर्नीचर नीलामघर भेज दिया. पुराने तांबे और पीतल के बड़ेबड़े बरतनों को अनाथाश्रम में भेज दिया. धोबी, चौकीदार, नौकरानी और ड्राइवर आदि को जो सामान चाहिए था, दे दिया. अंत में बारी आई विमला की अलमारी की. जब उन्होंने उन की अलमारी खोली तो कपड़ों की भरमार देख कर एक बार तो हताश हो कर बैठ गए. उन्हें हैरानी हुई कि विमला के पास इतने अधिक कपड़े थे, फिर भी वह नईनई साडि़यां खरीदती रहती थी.

पहले दिन तो उन्होंने अलमारी को बंद कर दिया. उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि इतने कपड़ों का वे क्या करेंगे. इसी बीच उन्हें किसी काम से मदुरै जाना पड़ा. वे अपनी कार से निकले थे. वापसी पर एक जगह उन की कार का टायर पंक्चर हो गया और उन्हें वहां कुछ घंटे रुकना पड़ा. जब तक कोई सहायता आती और कार चलने लायक होती, वे वहां टहलने लगे. पास ही रेलवे लाइन पर काम चल रहा था और सैकड़ों मजदूर वहां काम पर लगे हुए थे. काम बड़े स्तर पर चल रहा था, इसलिए पास ही मजदूरों की बस्ती बस गई थी.

इंद्र ने ध्यान से देखा कि इन मजदूरों का जीवन कितना कठिन है. हर तरफ अभाव ही अभाव था. कुछ औरतों के शरीर के कपड़े इतने घिस चुके थे कि उन के बीच से उन का शरीर नजर आने लगा था. एक युवा महिला के फटे ब्लाउज को देख कर उन्हें एकदम से अपनी पत्नी के कपड़ों की याद हो आई. वे मन ही मन कुदरत पर मुसकरा उठे कि एक ओर तो जरूरत से ज्यादा दे देती है और दूसरी ओर जरूरत भर का भी नहीं. इसी बीच उन की गाड़ी ठीक हो गई और वे लौट आए.

दूसरे दिन तरोताजा हो कर इंद्र ने फिर से पत्नी की अलमारी खोली तो बहुत ही करीने से रखे ब्लाउज के बंडलों को देखा. जो बंडल सब से पहले उन के हाथ लगा उसे देख कर वे हंस पड़े. वे ब्लाउज 30 साल पुराने थे. कढ़ाई वाले उस लाखे रंग के ब्लाउज को वे कैसे भूल सकते थे. शादी के बाद जब वे हनीमून पर गए तो एक दिन विमला ने यही ब्लाउज पहना था.

उस ब्लाउज के हुक पीछे थे. विमला को साड़ी पहनने का उतना अभ्यास नहीं था. कालेज में तो वह सलवारकमीज ही पहनती थी तो अब साड़ी पहनने में उसे बहुत समय लगता था. उस दिन जब वे घूमने के लिए निकलने वाले थे तो विमला को तैयार हो कर बाहर आने के लिए कह कर वे होटल के लौन में आ कर बैठ गए. कुछ समय तो वे पेपर पढ़ते रहे और कुछ समय इधरउधर के प्राकृतिक दृश्यों का आनंद लेते रहे. आधे घंटे से ऊपर समय हो गया, मगर विमला बाहर नहीं आई. वे वापस कमरे में गए तो कमरे का दृश्य देख कर जोर से हंस पड़े. कमरे का दरवाजा खोल कर विमला दरवाजे की ओट में हो गई. और वह चादर ओढ़े थी.

वे बोले, ‘‘अरे, अभी तक तैयार नहीं हुईं?’’

‘‘नहीं. मैं तुम्हारा इंतजार कर रही थी. तुम्हें कैसे बुलाऊं, समझ में नहीं आ रहा था.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘ब्लाउज बंद नहीं हो रहा.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘हुक पीछे हैं और मुझ से बंद नहीं हो रहे.’’

‘‘तो कोई दूसरी ड्रैस पहन लेतीं.’’

‘‘पहले यह उतरे तो… मैं तो इस में फंसी बैठी हूं.’’

विमला की स्थिति देख कर वे बहुत हंसे थे. फिर उन्होंने उस के ब्लाउज के पीछे के हुक बंद कर दिए थे. तब कहीं जा कर उस ने साड़ी पहनी थी. ब्लाउज के हुक बंद करने का उन का यह पहला अनुभव था और वे इतना रोमांचित हो गए कि विमला के ब्लाउज के हुक उन्होंने फिर से खोल दिए. वह कहती ही रह गई कि इतनी मुश्किल से साड़ी बांधी है और तुम ने सारी मेहनत बेकार कर दी. उस के बाद जब भी वह इस ब्लाउज को पहनती थी तो दोनों खूब हंसते थे.

मगर आज हंसने वाली बहुत दूर जा चुकी थी. हनीमून के दौरान पहना गया हर ब्लाउज उन्हें याद आने लगा. सफेद मोतियों से सजा काला ब्लाउज तो विमला के गोरे रंग पर बेहद खिलता था. जिस दिन विमला ने यह ब्लाउज पहना था उस की उंगलियां उस की गोरी पीठ पर ही फिसलती रहीं.

तब वह खीज उठी और बोली, ‘‘बस करो सहलाना गुदगुदी होती है.’’

‘‘अरे, अपनी बीवी की ही तो पीठ सहला रहा हूं.’’

‘‘मैं ने कहा न गुदगुदी होती है.’’

‘‘अरे, तुम्हारी तो पीठ में गुदगुदी हो रही है यहां तो सारे शरीर में गुदगुदी हो रही है.’’

‘‘बस करो अपनी बदमाशी.’’

विमला की खीज को देख कर उन्होंने चलतेचलते ही उसे अपनी बांहों के घेरे में कस कर कैद कर लिया था और वह नीला ब्लाउज तो विमला पर सब से ज्यादा सुंदर लगता था. नीली साड़ी के साथ वह नीला हार और नीली चूडि़यां भी पहन लेती थी. उस की चूडि़यों की खनक इंद्र को परेशान कर जाती थी. विमला जितनी बार भी हाथ उठाती चूडि़यां खनक उठती थीं और सड़क चलता आदमी मुड़ कर देखता कि यह आवाज कहां से आ रही है.

इंद्र चिढ़ाने के लिए विमला से बोले, ‘‘ये चूडि़यां क्या तुम ने राह चलतों को आकर्षित करने के लिए पहनी हैं? जिसे देखो वही मुड़ कर देखता है. यह मुझ से देखा नहीं जाता.’’

तब विमला खूब हंसी और फिर उस ने मजाकमजाक में सारी चूडि़यां उतार कर इंद्र के हवाले करते हुए कहा, ‘‘अब तुम ही

इन्हें संभालो.’’ तब एक पेड़ की छाया में बैठ कर इंद्र ने विमला की गोरी कलाइयों को फिर से चूडि़यों से भर दिया था.

इतनी प्यारी यादों के जाल में इंद्र इतना उलझ गए और 1-1 ब्लाउज को ऐसे सहलाने लगे मानो विमला ही लिपटी हो उन ब्लाउजों में.

इंद्र बड़ी मुश्किल से यादों के जाल से बाहर आए. फिर उन्होंने दूसरा बंडल उठाया. इस बंडल के अधिकतर ब्लाउज प्रिंटेड थे. उन्हें याद हो आया कि एक जमाने में सभी महिलाएं ऐसे ही प्रिंटेड ब्लाउज पहनती थीं. प्लेन साड़ी और प्रिंटेड ब्लाउज का फैशन कई वर्षों तक रहा था. उन्हें उस बंडल में वह काला प्रिंटेड ब्लाउज भी नजर आ गया जिसे खरीदने के चक्कर में उन में आपस में खूब वाक् युद्ध हुआ था.

विमला को एक शादी में जाना था और उस की तैयारी जोरशोर से चल रही थी.

एक दिन सुबह ही चेतावनी मिल गई थी, ‘‘देखो आज शाम को जल्दी वापस आना. मुझे बाजार जाना है. शीला की शादी में मुझे काली साड़ी पहननी है और उस के साथ का प्रिंटेड ब्लाउज खरीदना है.’’

‘‘तुम खुद जा कर ले आना.’’

‘‘नहीं तुम्हारे साथ ही जाना है. उस के साथ की मैचिंग ज्वैलरी भी खरीदनी है.’’

‘‘अच्छा कोशिश करूंगा.’’

‘‘कोशिश नहीं, तुम्हें जरूर आना होगा.’’

‘‘ओ.के. मैडम. आप का हुक्म सिरआंखों पर.’’ पर शाम होतेहोते इंद्र यह बात भूल गए और रात को जब घर लौटे तो चंडीरूपा विमला से उन का सामना हुआ. उन्हें अपनी कही बात याद आई तो तुरंत अपनी गलती को सुधार लेना चाहा. बोले, ‘‘अभी आधा घंटा है बाजार बंद होने में. जल्दी से चलो.’’

‘‘नहीं, मुझे नहीं जाना. आधे घंटे में भी कोई खरीदारी होती है?’’

‘‘अरे, तुम चलो तो.

तुम्हारे लिए मैं बाजार फिर से खुलवा लूंगा.’’

‘‘बस करो अपनी बातें. मुझे पता है आजकल तुम मुझे बिलकुल प्यार नहीं करते. सारा दिन काम और फिर दोस्त ही तुम्हारे लिए सब कुछ हैं आजकल.’’

‘‘यही बात मैं तुम्हारे लिए कहूं तो कैसा लगेगा? अब तो तुम्हारे बच्चे ही तुम्हारे लिए सब कुछ हैं. तुम मेरा ध्यान नहीं रखती हो.’’

‘‘शर्म नहीं आती है तुम्हें

ऐसा कहते हुए? बच्चे क्या सिर्फ मेरे हैं?’’

विमला की आंखों में आंसू देख कर वे संभल गए और बोले, ‘‘अब जल्दी चलो. झगड़ा बाद में कर लेंगे,’’ और फिर उन्होंने जबरदस्ती विमला को घसीट कर कार में बैठाया और कार स्टार्ट कर दी थी.

पहली ही दुकान में उन्हें इस काले प्रिंटेड ब्लाउज का कपड़ा मिल गया. फिर ज्वैलरी शौप में काले और सफेद मोतियों की मैचिंग ज्वैलरी भी मिल गई. फिर वे बाहर ही खाना खा कर घर लौटे.

इसी बंडल में उन्हें बिना बांहों का पीली बुंदकी वाला ब्लाउज भी नजर आया. जब विमला ने पहली बार बिना बांहों का ब्लाउज पहना था तो वे अचरज से उसे देखते रह गए थे. फिर दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं उन्होंने महसूस की थीं. एक ओर तो वे विमला की गोल मांसल और गोरी बांहों को देखते रह गए, तो दूसरी ओर उन में ईर्ष्या की भावना भी पैदा हो गई. वे विमला को ले कर बहुत ही पजैसिव हो उठे थे इसलिए उन्होंने विमला से कहा, ‘‘मेरी एक बात मानोगी?’’

‘‘बोलो.’’

‘‘यह ब्लाउज पहन कर तुम बाहर मत जाना. लोगों की नजर लग जाएगी.’’

‘‘बेकार की बातें मत करो. मेरी सारी सहेलियां पहनती हैं. किसी को नजर नहीं लगती है. तुम अपनी सोच को जरा विशाल बनाओ. इतने संकुचित विचारों वाले मत बनो.’’

‘‘मुझे जो कहना था, कह दिया. आगे तुम्हारी मरजी,’’ कह कर वे बिलकुल खामोश हो गए.

विमला ने उन की बात रख ली और फिर कभी बिना बांहों वाला ब्लाउज नहीं पहना. उसी बंडल में 20 ब्लाउज ऐसे निकले जो बिना बांहों के थे. लगता था विमला ने एकसाथ ही इतने सारे ब्लाउज सिलवा लिए थे. पर अब देखने से पता चलता कि उन्हें कभी इस्तेमाल ही नहीं किया गया.

अब उन्होंने अगला बंडल उठाया. इस में तरहतरह के ब्लाउज थे. कुछ रेडीमेड ब्लाउज थे, कुछ डिजाइनर ब्लाउज थे, 1-2 ऊनी ब्लाउज और कुछ मखमल के ब्लाउज भी थे.

जब काले मखमल के ब्लाउज पर इंद्र ने हाथ फेरा तो वे बहुत भावुक हो उठे. जब विमला ने यह काला ब्लाउज पहना तो उन की नजर उस की गोरी पीठ और बांहों पर जम कर रह गई.

40 साल पार कर चुकी विमला भी उस नजर से असहज हो उठी और बोली, ‘‘कैसे देख रहे हो? क्या मुझे पहले कभी नहीं देखा?’’

‘‘देखा तो बहुत बार है पर इस मखमली ब्लाउज में तुम्हारी गोरी रंगत बहुत खिल रही है. मन कर रहा है कि देखता ही रहूं.’’

‘‘तो मना किस ने किया है,’’ वह इतरा कर बोली.

कुछ साडि़यां ब्लाउजों सहित हैंगरों पर लटकी थीं. एक पेंटिंग साड़ी इंद्र ने हैंगर सहित उतार ली. हलकी पीली साड़ी पर गहरे पीले रंग के बड़ेबड़े गुलाब बने थे. इस साड़ी को पहन कर 50 की उम्र में भी विमला उन्हें कमसिन नजर आ रही थी. उस की देहयष्टि इस उम्र में भी सुडौल थी. अपने शरीर का रखरखाव वह खूब करती थी. जरा सा मेकअप कर लेती तो अपनी असली उम्र से 10 साल छोटी लगती.

उधर इंद्र ने कभी अपने शरीर की ओर ध्यान नहीं दिया. उन की तोंद निकल आई थी. बाल तो 40 के बाद ही सफेद होने शुरू हो गए थे. बाल काले करने के लिए वे कभी राजी नहीं हुए. सफेद बाल और तोंद के कारण वे अपनी उम्र से 10 साल बड़े लगते थे.

तभी तो एक दिन जब उन के एक मित्र घर आए तो गजब हो गया. मित्र का स्वागत करने के लिए विमला ड्राइंगरूम में आई और हैलो कह कर चाय लाने अंदर चली गई. उस दिन विमला ने यही पीली साड़ी पहनी हुई थी. वह चाय की ट्रे रख कर फिर अंदर चली गई.

आधे घंटे बाद जब मित्र चलने लगे तो बोले, ‘‘यार तू ने भाभीजी से मिलवाया ही नहीं.’’

‘‘अरे अभी तो तुम्हें हैलो कह कर चाय रख कर गई थी.’’

‘‘वे भाभी थीं क्या? मैं ने समझा तुम्हारी बेटी है.’’

‘‘अब तुम चुप हो जाओ, नहीं तो मेरे से पिटोगे.’’

‘‘जो मैं ने देखा और महसूस किया, वही तो बोला. अब इस में बुरा मानने की क्या बात है? छोटी उम्र की लड़की से शादी करोगे तो बापबेटी ही तो नजर आओगे.’’

‘‘तुम मेरे मेहमान हो अन्यथा उठा कर बाहर फेंक देता.’’

दोनों की बातें सुन कर विमला भी ड्राइंगरूम में चली आई. फिर अपने पति के बचाव में बोली, ‘‘लगता है भाईसाहब का चश्मा बदलने वाला है. जा कर टैस्ट करवाइए. अब सफेद बालों और काले बालों से तो उम्र नहीं जानी जाती. आप मेरे पति का मजाक नहीं उड़ा सकते.’’

बात हंसी में उड़ा दी गई. पर हकीकत यही थी कि विमला अपनी उम्र से 10 साल छोटी और इंद्र अपनी उम्र से 10 साल बड़े लगते थे.

छोटे बेटे की शादी में सिलवाए ब्लाउज ने तो उन्हें हैरानी में ही डाल दिया. अधिकतर विमला अपनी खरीदारी स्वयं ही करती थी और स्वयं ही भुगतान भी करती थी. पर उस दिन दर्जी की दुकान से एक नौकर ब्लाउज ले कर आया और क्व800 की रसीद दे कर पैसे मांगने लगा. क्व800 एक ब्लाउज की सिलवाई देख कर वे चकित रह गए. उन्होंने रुपए तो नौकर को दे दिए पर विमला से सवाल किए बिना नहीं रह पाए.

‘‘तुम्हारे एक ब्लाउज की सिलवाई रू 800 है?’’

‘‘हां, है. पर तुम्हें इस से क्या मतलब? मेरे बेटे की शादी है, मेरा भी सजनेसंवरने का मन है.’’

‘‘इतना महंगा ब्लाउज पहन कर ही तुम लड़के की मां लगोगी?’’

‘‘आज तक तो कभी मेरे खर्च का हिसाब नहीं मांगा. आज भी चुप रहो भावी ससुरजी,’’ कह कर विमला जोर से हंस दी.

उन्हें तो उस ब्लाउज में कुछ विशेष नजर नहीं आया था पर विमला की सहेलियों के बीच वह ब्लाउज चर्चा का विषय रहा. उस ब्लाउज को देखते ही उन्हें विमला का वह सुंदर चेहरा याद हो आया, जो बेटे की शादी की खुशी में दमक रहा था.

फिर उन की नजर कुछ ऐसे ब्लाउजों पर भी पड़ी, जिन्हें देख कर लगता था कि उन्हें कभी पहना ही नहीं गया है. पता नहीं विमला को ब्लाउज सिलवाने का कितना शौक था. उन्हें लगा इतने ब्लाउज देख कर वे पागल हो जाएंगे. औरत का मनोविज्ञान समझना उन की समझ से परे था. पर अफसोस जिस विमला को ब्लाउज सिलवाने का इतना शौक था, वही विमला जीवन के आखिरी दिनों में ब्लाउज नहीं पहन सकती थी.

2 साल पहले उसे स्तन कैंसर हुआ और जब तक उस का इलाज शुरू होता वह पूरी बांह में फैल चुका था. उस से अपनी बांह भी ऊपर नहीं उठती थी. बीमारी और कीमोथेरैपी ने उस के गोरे रंग को भी झुलसा दिया था. 3 महीनों में ही वह अलविदा कह गई थी.

आज इंद्र उन्हीं ब्लाउजों के अंबार में बैठे यादों के सहारे कुछ जीवंत क्षणों को फिर से जीने का प्रयास कर रहे थे. पर कुछ समय बाद वे उठे और उन्होंने अपने नौकर को आवाज लगाई. कहा, ‘‘इस अलमारी के सारे कपड़ों को संदूकों में बंद कर के कार में रख दो.’’

सुबह होते ही इंद्र कार ले कर उस रेलवेलाइन जा पहुंचे और फिर दोनों संदूकों को मजदूरों के हवाले कर बहुत ही हलके मन से घर लौट आए कि विमला के कपड़ों से किसी की नग्नता ढक जाएगी.

नीली आंखों के गहरे रहस्य: भाग-4

बहुत शातिर दिमाग लड़की है, फोन पर कोई ऐसी बात नहीं की जिस से उस का कोई क्लू पकड़ा जाए. जानती है आजकल फोन पर कुछ ऐसावैसा बोल दिया तो रिकौर्डिंग के जरिए खेल खत्म हो सकता है. यह बात साधना सच कह रही थी.

‘‘तीसरे दिन सुबह ही उस का फोन आ गया,’’ सर, 2 दिन हो गए लेकिन आप ने मेरा काम नहीं किया.

‘‘मैं तुम से मिलना चाहता हूं.’’

‘‘किसलिए?’’

‘‘वह तो मैं तुम्हें मिलने पर ही बताऊंगा.’’

‘‘ठीक है. लेकिन मिलने की जगह मैं बताऊंगी. बस, एक गुजारिश है कि आप कुछ ऐसावैसा मत करना. नुकसान आप का ही होगा क्योंकि आप की अमानत…’’

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं करूंगा. और अकेला ही आऊंगा.’’

‘‘तो ठीक है, आज शाम 8 बजे रेलवेस्टेशन के पूछताछ काउंटर के पास हमारी मुलाकात होगी.’’

यह सुन कर मुझे और साधना को आश्चर्य हुआ कि भीड़भाड़ वाले रेलवेस्टेशन पर बुला रही है. हम तो सोच रहे थे फिल्मों की तरह किसी सुनसान जगह पर बुलाएगी. इतने चिंतित महौल में भी हम पतिपत्नी मुसकरा पड़े.

‘‘साधना, हम ने उसे बोल तो दिया है लेकिन उस से बात क्या करनी है?’’

‘‘कुछ नहीं, बिलकुल चुप रहना. सिर्फ उस की नीली आंखों को ताकना.’’

‘‘यहां जान पर बनी है और तुम्हें मजाक सूझ रहा है.’’

‘‘जैसा मैं कह रही हूं वैसा ही करना. वह बोले तो कहना, मीठी, मैं आखिरी बार तुम से आलिंगन करना चाहता हूं और उस वक्त धीरे से कहना, तुम मेरे साथ ऐसा क्यों कर रही हो. मैं ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है.’’

‘‘अगर वह आलिंगन के लिए राजी न हुई तो?’’

‘‘मैनेजर साहब, यह सब वह पैसे के लिए कर रही है तो उसे आलिंगन से परहेज क्यों होगा? और वैसे भी, वह आप के साथ…’’

‘‘प्लीज साधना, वह भयानक हादसा मुझे याद मत दिलाओ. मैं कांप जाता हूं.’’

‘‘आप अपनेआप को दोषी महसूस मत करो. वह सब क्षणिक आवेश में हुआ था,’’ उस ने मुझे सांत्वना दी.

‘‘सच साधना, तुम बहुत अच्छी हो. तुम्हारी जगह कोई और होती तो शायद मुझे कभी माफ नहीं करती,’’ उसे बांहों में भर कर मैं ने भीगे स्वर में कहा.

‘‘पतिपत्नी का रिश्ता इतना कमजोर नहीं होता कि एक झटके में टूट जाए. पूरे 28 साल गुजारे हैं आप के साथ. कौफीहाउस वाली घटना को देख कर लगा कि शायद आप भटक गए हो लेकिन जब आप की आंखों में देखा तो उस में सचाई नजर आई.’’

शाम के 6 बजे से ही घबराहट शुरू हो गई. रेलवेस्टेशन घर से आधे घंटे की दूरी पर था. ठीक 7 बजे मैं घर से रेलवेस्टेशन के लिए रवाना हो गया. स्कूटी पार्क कर के प्लेटफौर्म का टिकट ले कर यों ही स्टेशन पर टहलने लगा. चाय की स्टौल और बुक स्टौल दोनों ही मेरी पसंदीदा जगहें थीं. इंतजार के क्षणों में चाय के साथ पत्रिका पढ़ने का आनंद लेता था. लेकिन आज चाय और पत्रिका में भी मन नहीं लगा.

8 बजने में जैसे ही 10 मिनट शेष रह गए, मैं पूछताछ खिड़की के पास आ गया. वह ठीक 8 बजे पूछताछ खिड़की पर कुछ पूछताछ करती नजर आ गई. मेरी धड़कनें तेज हो गईं. माथे से पसीने की बूंदें टपकने लगीं.

जैसे ही उस ने अपनी नीली आंखों के इशारे से मुझे अपने पास आने को कहा तो मैं चाबी जैसे खिलौने की तरह उस की तरफ चल पड़ा और एकटक उस की नीली आंखों को ताकने लगा.

‘‘कुछ बोल क्यों नहीं रहे हो? जो कहना है जल्दी कहो,’’ यह बात वह मोबाइल पर बोल रही थी लेकिन मुझे पता था मुझ से कह रही है.

उस की तरह मैं ने भी मोबाइल पर कहा, ‘‘मैं तुम से आलिंगन करना चाहता हूं.’’

‘‘ठीक है, ठीक है, जल्दी करो,’’ कहती हुई वह एक कोने में आ गई.

‘‘तुम मेरे साथ ऐसा क्यों कर रही हो? मैं ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?’’

‘‘मैं ने कुछ नहीं किया है. मैं बेकुसूर हूं,’’ कहते हुए सैकंड्स में अलग हो गई और तुरंत वहां से चली गई.

हम पतिपत्नी की नींद और भूख दोनों ही उड़ चुकी थी. मामला और पेचीदा होता जा रहा था.

‘‘साधना, अब क्या करें?’’ मैं ने बेचैन स्वर में पूछा.

‘‘आप कुछ मत करो. वह ही संपर्क करेगी क्योंकि जरूरत उस की है. रकम उसे चाहिए.’’

‘‘कहीं ऐसा न हो वह चिढ़ जाए और वीडियो व फोटो जोनल औफिस ले जाए.’’

‘‘वह ऐसा भूल कर भी नहीं करेगी. वह शतरंज की माहिर खिलाड़ी है और जानती है अगली चाल कब और कैसे चलनी है,’’ साधना ने यह कहा तो इतने तनाव में होने के बावजूद मैं हंस पड़ा और बोला, ‘‘लगता है अब तुम ने भी अपनी कमर कस ली है उस से पंगा लेने के लिए.’’

‘‘आप निर्दोष हो. वह जरूर पकड़ी जाएगी और उस का खेल खत्म हो जाएगा. चलो, अब चैन की नींद सोते हैं. 4-5 दिनों से तो ढंग से सो भी नहीं पाए हैं. घर भी अस्तव्यस्त पड़ा है. गंदे कपड़े का ढेर हो गया है.’’

सुबह साधना ने चाय का कप पकड़ाते हुए कहा, ‘‘आप चिंतामुक्त हो कर बैंक जाओ. मैं बाई के साथ मिल कर पूरा घर व्यवस्थित कर लूंगी क्योंकि इन दिनों मौके का फायदा उठा कर उस ने भी खूब लापरवाही बरती थी.’’ यह कह कर उस ने वाश्ंिग मशीन में पानी का पाइप लगा दिया और कपड़े इकट्ठा करने लगी.

मेरी पैंट और शर्ट धोने से पहले उन की जेबें वह जरूर चैक करती थी. जैसे ही उस ने पैंट की जेब टटोली तो उस में एक मुड़ातुड़ा विजिटिंग कार्ड निकला जिस पर लिखा था- नैना ब्यूटीपार्लर. साथ ही पता और मोबाइल नंबर भी था. दूसरी तरफ जल्दबाजी में पैंसिल से लिखा था- ‘सर, मैं बेकुसूर हूं. भरोसा कीजिए मुझ पर.’

यह विजिटिंग कार्ड मेरी जेब में कैसे आया? तभी ध्यान आया कल शाम को रेलवेस्टेशन पर आलिंगन करते वक्त मीठी ने रख दिया होगा यानी मीठी निर्दोष है. उस से यह सब कोई करा रहा है. विजिटिंग कार्ड पर लिखा मोबाइल नंबर मिलाया तो वह स्विचऔफ था.

‘‘साधना, हमें तुरंत ब्यूटीपार्लर चलना चाहिए. शायद, वहां कुछ पता चले.’’

‘‘ठीक है, मैं अभी तैयार होती हूं.’’

लेकिन तभी मेरा मोबाइल नंबर बज उठा, ‘‘सर, क्यों लेट कर रहे हैं आप? नुकसान आप का ही होगा. प्लीज, आप हमारा काम कर दीजिए. हम सबकुछ मिटा देंगे. आप भरोसा करें मुझ पर.’’

‘‘मीठी, मैं कैसे यकीन करूं कि तुम सबकुछ डिलीट कर दोगी. हो सकता है रकम मिलने के बाद भी भविष्य में तुम मुझे ब्लैकमेल कर के पैसे ऐंठती रहो?’’

‘‘मैं अपनी मां की कसम खा कर कहती हूं, काम हो जाने के बाद सबकुछ खत्म कर दूंगी.’’

‘‘मुझे तुम्हारी झूठी कसम पर भरोसा नहीं है. अगर तुम इतनी बड़ी रकम मांग रही हो तो मेरी भी एक शर्त है. अगर तुम उसे मानोगी, तब ही मैं तुम्हारे अकाउंट में पैसा डालूंगा.’’

‘‘क्या शर्त है?’’

‘‘फोन पर नहीं बता सकता, इसलिए तुम्हें मुझ से मिलना होगा.’’

‘‘लेकिन आप मेरी बताई हुई जगह पर ही मुझ से मिलने आएंगे. कब, कहां और कितने बजे आना है, यह मैं आप को मैसेज कर दूंगी. लेकिन अकेले आना और मोबाइल मत लाना और न ही कोई होशियारी दिखाना. अगर आप ने जरा भी स्मार्टगीरी दिखाई तो…आगे आप खुद ही समझदार हैं,’’ इस बार उस का स्वर चेतावनी से भरा था.

‘‘मीठी, जैसा तुम कहती हो वैसा ही होगा. मैं 2 लाख रुपए कैश ले कर भी आऊंगा. अगर तुम्हें मेरी शर्त मंजूर होगी तो वह 2 लाख रुपए तुम्हें एडवांस दे दूंगा और बाकी दूसरे दिन बैंक खुलते ही…’’

2 लाख रुपए का दाना उस के सामने डालने का आइडिया साधना ने इसलिए दिया था जिस से वह लालच के जाल में फंस जाए.

‘‘कहीं वह नकली हुए तो?’’

‘‘इस की जांच के लिए तुम अपने किसी भरोसेमंद इंसान को ला सकती हो लेकिन मैं अकेला ही आऊंगा. और हां, बैंक के समय पर नहीं आ सकता क्योंकि क्लोजिंग का महीना है, काम ज्यादा है. इसलिए सुबह 9 बजे के पहले या शाम 5 बजे के बाद.’’

‘‘ठीक है, मैं आप को बता दूंगी.’’

‘‘साधना, कहीं यह सीआईडीगीरी करतेकरते हम लोग ही न फंस जाएं?’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा.’’

‘‘कहीं, वह 2 लाख रुपए ले कर ही रफूचक्कर हो गई तो?’’

‘‘इस समय उस के दिमाग में 2 लाख रुपए नहीं, 25 लाख रुपए फीड हैं, इसलिए वह कोई गलत कदम नहीं उठाएगी.’’

शाम को उस का मैसेज आ गया. इस बार उस ने एक मंदिर में रात 9 बजे बुलाया था.

उस का बुलाना, मेरा जाना यह सब चूहेबिल्ली का खेल सा लगने लगा था. मैं मानसिक रूप से परेशान हो उठा था लेकिन साधना ने मुझे हौसला देते हुए कहा, ‘‘उस के सामने शर्त रखते वक्त यह बिलकुल भी मत दर्शाना कि आप अपनी बदनामी से डर रहे हो.’’

एक छोटे से कैरीबैग में रुपए रख  कर मैं मंदिर चला गया. मंदिर में  भीड़ ठीकठाक थी. मंदिर के बाहर चारों तरफ नजर दौड़ाई लेकिन वह कहीं नजर नहीं आई. मैं मंदिर के अंदर गया तो वहां एक कोने में आंखें मूंद कर प्रार्थना सी करती बैठी थी वह. वहां एक पुजारी भी बैठा था. इक्कादुक्का लोग वहां थे.

‘‘अकेले आए हो? आंखें बंद किए ही उस ने पूछा.’’

‘‘हां.’’

‘‘मोबाइल लाए हो?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘सामान लाए हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो फिर उस की झलक दिखाओ.’’

‘‘पहले मेरी शर्त सुनो, अगर मानोगी तभी सामान मिलेगा,’’ मैं ने साहसपूर्वक कहा.

‘‘क्या शर्त है?’’

‘‘तुम ने धोखे से मेरा वीडियो बनाया है, फोटो खींचे हैं. अब मैं एक छोटा सा वीडियो बनाना चाहता हूं, जिस में हम दोनों होंगे. उस में कुछ करना नहीं है, सिर्फ बोलना है.’’

‘‘यह कैसी बेहूदा शर्त है?’’ वह उत्तेजित स्वर में बोली.

‘‘अगर नहीं मंजूर है तो कोई बात नहीं, मैं अपना सामान वापस ले जाता हूं और तुम जो करना चाहो, करती रहना,’’ यह कहते वक्त मेरे पसीना आ गया. तीर निशाने पर लगा. वह नरम हो गई, ‘‘क्या बोलना है?’’

उस में तुम मुझ से कहोगी, ‘‘सर, मेरे ब्यूटीपार्लर के लिए 5 लाख रुपए का लोन पास करा दीजिए. और मैं कहूंगा, आप का लोन पास नहीं हो सकता क्योंकि आप की कोई प्रौपर्टी नहीं है जिस के आधार पर हम आप को लोन दें.’’

‘‘लेकिन सर, मेरे पास आप को रिश्वत देते हुए फोटो हैं जो मैं ने धोखे से खिंचवाए. साथ ही, एक वीडियो भी है. इन्हें आप के जोनल औफिस में ले जा कर आप के खिलाफ शिकायत कर दूंगी कि आप ने मेरा लोन पास करवाने के एवज में मुझ से रिश्वत की मांग की थी. आप की नौकरी तो जाएगी ही, साथ ही, कहीं मुंह दिखाने के काबिल भी न रहेंगे.

‘‘बस मीठी, तुम्हें इतना ही बोलना है.’’

‘‘ऐसा करने के पीछे आप का मकसद क्या है?’’

‘‘अगर शर्त मानने के बाद भी मैं तुरा सामान न दूं यानी तुम्हारे साथ धोखा करूं तो तुम तुरंत मेरी शिकायत कर देना और अगर तुम ने मेरे साथ धोखा किया यानी पूरा माल डकारने के बाद भी मुझे ब्लैकमेल किया तो मैं उस वीडियो के सहारे कानून का दरवाजा खटखटाऊंगा. फंसोगी तुम भी.’’

‘‘मुझे अपनी नौकरी और बदनामी का डर है और तुम्हें पैसे प्यारे हैं, इसलिए अगर हम दोनों ही पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता से काम करें तो फायदा हम दोनों का ही है. काम हो जाने के बाद हम दोनों सबकुछ डिलीट कर देंगे और फिर से अजनबी हो जाएंगे.’’

‘‘मुझे सोचने का समय दो.’’

‘‘नहीं, अब समय नहीं है. जल्दी जवाब दो हां या न में. अगर हां है तो यह सामान रखो पेशगी के तौर पर.’’

‘‘यहीं बैठो, मैं अभी आती हूं,’’ कह कर वह बाहर चली गई और वहां बैठा पुजारी मुझे घूरने लगा.

‘‘क्या बात है पंडितजी?’’

‘‘कुछ नहीं बच्चा. देख रहा हूं तुम इतनी देर से मंदिर में कर क्या रहे हो? अगर पूजा हो गई हो तो घर जाओ.’’

‘‘जब मन करेगा तब चला जाऊंगा,’’ मैं ने रूखा सा जवाब दिया. मन में आया कह दूं तू क्यों यहां चढ़े हुए फल, मिठाई, मेवा और रुपए पर अपनी गिद्ध दृष्टि लगाए बैठा है.

10 मिनट बाद मीठी आ गई और उसी स्थान पर पूर्व की तरह ध्यानमग्न हो कर बैठ गई. ‘‘मुझे आप की शर्त मंजूर है.’’

‘‘तो फिर कल सुबह किसी जगह पर वीडियो बना लेते हैं और फिर बैंक जाते ही तुम्हारा सामान ठिकाने पर पहुंचा दूंगा.’’

‘‘काम की जगह मैं ही तय करूंगी और आप को मैसेज कर दूंगी जो अभी सामान लाए हो वह सामने बैठे पुजारीजी को बैग सहित सौंप दो.’’

मैं ने आश्चर्य से उस पुजारी को देखा तो वह कुटिलता से मुसकरा पड़ा. उसे बैग सौंप कर जैसे ही मुड़ा, वह बोला, ‘‘शुद्धता की जांच होने के बाद जाइए.’’ मैं ठिठक कर रुक गया.

कुछ मिनटों में ही पुजारी का स्वर गूंजा, ‘‘भक्तगणों, सब शुद्ध मन से प्रार्थना करो. सब शुद्ध है.’’

यह सुन कर मैं चल पड़ा. घर पहुंच कर साधना से बोला, ‘‘उस ने मेरी शर्त मान ली है लेकिन मुझे लगता है कहीं वह घर जा कर अपना इरादा न बदल दे और 2 लाख रुपए हड़प कर जाए.’’

‘‘आप निश्ंिचत रहो. वह शर्त जरूर पूरी करेगी क्योंकि उसे 2 लाख रुपए का दाना मिल चुका है और बाकी 23 लाख रुपए उस की आंखों के सामने नाच रहे हैं. बस, उस के एसएमएस का इंतजार करो.’’

उस का एसएमएस आ गया. सुबह उस की तय की गई जगह पर वीडियो बना ली और उस को बाकी 23 लाख रुपए की रकम बैंक पहुंचते ही उस के आकउंट में डालने को कह कर मैं तुरंत अपनी पूर्व योजनानुसार टैक्सी से अपने जोनल औफिस, दिल्ली के लिए निकल पड़ा और अपना मोबाइल स्विच औफ कर लिया. औफिस पहुंचते ही जेडएम साहब से मिलने की स्लिप लगा दी. शीघ्र ही उन से मुलाकात हो गई.

‘‘सर, एक लड़की मुझे ब्लैकमेल कर रही है क्योंकि मैं ने उस का अयोग्य लोन पास नहीं किया है,’’ कहते हुए मैं ने वह वीडियो और फोटो दिखा दीं.

‘‘इन फोटो में तो आप क्लीयर नोट लेते हुए दिख रहे हो.’’

‘‘सर, यह लड़की बेहद शातिर दिमाग है, यह नोटों की गड्डियां मुझे देती हुई बोली थी, आप चैक कर के बता दीजिए, ये असली हैं या नकली? क्योंकि आप बैंक में हैं.’’

वीडियो देखते ही जेडएम साहब भड़क गए, ‘‘मिस्टर आनंद, आप बैंक में गरिमामय पद पर आसीन हैं और ऐसी आशोभनीय हरकत करते हुए आप को शर्म नहीं आई?’’

‘‘सर, जब विजिट के लिए मैं उस के घर गया तब उस ने कोल्डड्रिंक में कुछ ऐसा नशीला पदार्थ मिला दिया कि मुझे खुद ही होश नहीं रहा,’’ मैं ने सफाई देते हुए कहा.

‘‘फिर भी गलती आप की है. आप विजिट करने गए थे या कोल्डडिं्रक पीने?’’

‘‘सर, मानता हूं गलती मेरी है लेकिन जब हम कहीं जाते हैं तो सामने वाला चायकौफी या कोल्डडिं्रक तो हमारे लाख मना करने के बावजूद पिलाता है.

‘‘सर, इस प्रकरण में अगर मैं दोषी पाया जाऊं तो मैं सजा और बदनामी के लिए तैयार हूं लेकिन एक जिम्मेदार बैंक मैनेजर होने के नाते मैं ने उस का काम नहीं किया जो हमारी बैंक नीति के खिलाफ था. मैं ने भी पूरी सतर्कता बरतते हुए एक ऐसा वीडियो बना लिया है जिस से शायद मैं बेगुनाह साबित हो जाऊं.’’

वीडियो देख कर वे बोले, ‘‘अगर वह लड़की आप के खिलाफ शिकायत करती है तो शायद यह वीडियो आप के फेवर में काम करे,’’ फिर वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘इस मामले में आप ने भी बड़ी होशियारी दिखाई है.’’

‘‘क्या करें सर, जब से इंटरनैट युग की शुरुआत हुई है तब से हर इंसान सजग और स्मार्ट हो गया है. बैंक मैनेजर की व्यथा कोई नहीं समझता. बैंक मैनेजर बैंक में तलवार की धार के नीचे काम करता है क्योंकि कोई भी जालसाजी, धोखाधड़ी, फ्रौड और डकैती जैसे संगीन अपराध होते हैं तो सब से पहले शक की सूई बैंक मैनेजर पर ही ठहरती है.’’

‘‘शायद आप ठीक कह रहे हैं क्योंकि मैं बैंक मैनेजर के पद पर भी रह चुका हूं. अगर वह लड़की आप के खिलाफ शिकायत करती है तो जांच कमेटी बैठेगी और वह ही फैसला करेगी कि दोषी कौन है आप या वह लड़की?’’

‘‘सर, वह लड़की शिकायत जरूर करेगी क्योंकि उस के अकाउंट में जब पैसा नहीं आएगा तब वह मुझे फोन करेगी और मैं पैसा देने से साफ इनकार कर दूंगा. ऐसे में वह तिलमिला कर मेरे खिलाफ शिकायत करेगी.’’

मैं शाम तक वापस घर आ गया. मोबाइल औन किया तो देखा उस की पचासों मिस्डकौल थीं. उस का फोन आ गया.

‘‘सर, क्या बात है? सुबह से आप का मोबाइल स्विचऔफ जा रहा है और सामान अभी तक ठिकाने पर भी नहीं पहुंचा है.’’

‘‘और न अब कभी पहुंचेगा. तुम्हें जो करना है, करो’’ मैं ने कड़क स्वर में कहा.

‘‘आप को अपनी शर्त याद है न. मैं आप को रातभर का समय दे रही हूं सोचने के लिए. सुबह बैंक खुलते ही मेरा काम कर देना, नहीं तो…’’

‘‘नहीं तो, क्या करोगी?’’

‘‘वह तो आप को भी पता है कि मैं क्या करूंगी. आप ने मेरे साथ धोखा किया है. अब आप अंजाम भुगतने के लिए तैयार हो जाइए,’’ वह जख्मी शेरनी की तरह दहाड़ी.

थोड़े दिनों बाद, जोनल औफिस से फोन आया, जांच कमेटी में मैं निर्दोष साबित हुआ था. मुझे गहरी साजिश के तहत फंसाया गया था. सब पूर्व नियोजित योजना के अनुसार रचा हुआ षडयंत्र था. वह वीडियो और फोटो भी उसी साजिश के हिस्सा थे. यह सब स्वयं मुख्य आरोपी ने स्वीकार किया था. मुख्य आरोपी के साथसाथ इस में संलग्न सभी सहयोगी अपराधियों को भी सजा हुई. वह वीडियो और फोटो सब डिलीट कर दिए गए.

मेरे द्वारा साहसिक कदम उठाने की भी सराहना हुई कि मैं ने अपनी नौकरी और बदनामी की परवा न करते हुए एक जिम्मेदार बैंक मैनेजर का फर्ज अदा किया और जोनल औफिस में जा कर सबकुछ साफसाफ बता दिया.

इन सब का मुख्य आरोपी कौन था मीठी, उस की मां या कोई अन्य? यह एक रहस्य था और मेरे लिए जिज्ञासा.

अचानक मीठी का फोन आ गया, ‘‘सर, मैं बेकुसूर हूं. प्लीज, आप मुझ से मिलिए. पूरी सचाई बता कर अपने दिल का बोझ हलका करना चाहती हूं.’’

मैं खुद को रोक न सका और उस से मिलने जेल गया. वह मुझे देख कर फूटफूट कर रो पड़ी.

‘‘सर, मुझे यकीन था कि आप मुझ से मिलने जरूर आएंगे. अब मैं आप को सचाई बताती हूं. पहले सचाई क्यों नहीं बताई, यह सब आप को सुनने के बाद पता चल जाएगा. हम आगरा के नहीं, बल्कि अलीगढ़ के पास एक गांव के हैं. हम 2 बहनें हैं. 2 साल पहले हमारे मातापिता का देहांत एक बस दुर्घटना में हो गया था. हमारे सौतेले चाचा पिता की जायदाद चाहते थे, इसलिए वे हम दोनों बहनों को मजबूर कर रहे थे कि हम अपना हिस्सा उन के नाम कर दें. लेकिन हम ने ऐसा नहीं किया और चुपचाप गांव छोड़ कर अलीगढ़ आ गए.

‘‘हम ने एक छोटा सा कमरा किराए पर ले लिया. बहन ने कालेज में दाखिला ले लिया और मैं एक ब्यूटीपार्लर में काम करने लगी.

‘‘चाचा को हमारे रहने का ठिकाना पता चल गया और वे हमें परेशान करने लगे. चाचा से हमें नजात दिलाई हमारे मकानमालिक के बेटे मोहित ने. वह हमारी बहुत मदद करता था और मुझे बहन मानता था.

‘‘हमारा गुजारा मुश्किल से होता था. ब्यूटीपार्लर वाली आंटी ने मुझे पैसा कमाने का शौर्टकट रास्ता बताया और मुझे 50 प्रतिशत का साझीदार बनाया. मुझे आप से बैंक में मिल कर ब्यूटीपार्लर खोलने के लिए लोन, मां की बीमारी, गहने गिरवी रखवाना, धोखे से वीडियो और फोटो की कहानी उन्हीं ने रची. एक बार को तो मेरे मन में भी लालच आ गया लेकिन मेरी अंतरात्मा इस के लिए राजी नहीं हुई. मैं ने साफ इनकार कर दिया तो उन्होंने मेरी बहन को गायब करवा दिया और कहा, ‘अगर तुम यह काम नहीं करोगी तो तुम्हारी बहन को बेच दूंगी.’

‘‘अपनी बहन की खातिर मैं ने यह सब किया.’’

‘‘मतलब ब्यूटीपार्लर वाली ने तुम से यह सब करवाया और तुम्हारी मां का रोल भी अदा किया.’’

‘‘नहीं सर, वे आंटी भी बेकुसूर थीं. उन से भी कोई यह सब करवा रहा था. आंटी को फोन पर ही सब दिशानिर्देश दिया जाता था क्योंकि ऐसा न करने पर उन की बेटी के ऊपर तेजाब डालने की धमकी दी गई थी. उन के नानुकुर करने पर एक बार तो तेजाब डालने की कोशिश भी की गई थी. आंटी की इकलौती बेटी थी. आंटी मजबूर थीं.’’

‘‘तो फिर कौन करवा रहा था? तुम्हारा सौतेला चाचा?’’

‘‘नहीं, चाचा भी नहीं.’’

‘‘तो फिर तुम खुद ही होगी. तुम्हारी नीली आंखों की गहराई में न जाने कितने रहस्य छिपे हैं?’’

‘‘सर, यह सारी साजिश मेरी छोटी बहन और उस के बेरोजगार बौयफ्रैंड की रची हुई थी. दोनों 25 लाख रुपए मिलने के बाद भाग कर शादी करना चाहते थे.’’

‘‘वह लड़का कौन था?’’

‘‘वह मोहित है, वह और मेरी छोटी बहन दोनों ही जेल में हैं.’’

‘‘तुम जेल से छूट कर कहां जाओगी? और क्या करोगी?’’

‘‘अब मैं यहां से छूट कर सीधे अपने गांव जाऊंगी और अपने हक के लिए लड़ूंगी. पिता की जायदाद बेच कर आधा हिस्सा बहन को दे दूंगी और अपने हिस्से की रकम से एक प्रशिक्षण केंद्र खोलूंगी जिस में जरूरतमंद गरीब औरतों और लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सिलाई, कढ़ाई, बुनाई आदि कार्यों का निशुल्क प्रशिक्षण दिया जाएगा,’’ यह कहते वक्त उस की नीली आंखों में एक चमक सी आ गई थी.

कोई उचित रास्ता: स्वार्थी रज्जी क्या अपनी गृहस्थी संभाल पाई?

‘‘मैं बहुत परेशान हूं, सोम. कोई मुझ से प्यार नहीं करता. मैं कभी किसी का बुरा नहीं करती, फिर भी मेरे साथ सदा बुरा ही होता है. मैं किसी का कभी अनिष्ट नहीं चाहती, सदा अपने काम से काम रखती हूं, फिर भी समय आने पर कोई मेरा साथ नहीं देता. कोई मुझ से यह नहीं पूछता कि मुझे क्या चाहिए, मुझे कोई तकलीफ तो नहीं. मैं पूरा दिन उदास रहूं, तब चुप रहूं, तब भी मुझ से कोई नहीं पूछता कि मैं चुप क्यों हूं.’’

आज रज्जी अपनी हालत पर रो रही है तो जरा सा अच्छा भी लग रहा है मुझे. कुछ महसूस होगा तभी तो बदल पाएगी स्वयं को. अपने पांव में कांटा चुभेगा तभी तो किसी दूसरे का दर्द समझ में आएगा.

मेरी छोटी बहन रज्जी. बड़ी प्यारी, बड़ी लाड़ली. बचपन से आज तक लाड़प्यार में पलीबढ़ी. कभी किसी ने कुछ नहीं कहा, स्याह करे या सफेद करे. अकसर बेटी की गलती किसी और के सिर पर डाल कर मांबाप उसे बचा लिया करते थे. कभी शीशे का कीमती गिलास टूट जाता या अचार का मर्तबान, मां मुझे जिम्मेदार ठहरा कर सारा गुस्सा निकाल लिया करतीं. एक बार तो मैं 4 दिन से घर पर भी नहीं था, टूर पर गया था. पीछे रज्जी ने टेपरिकौर्डर तोड़ दिया. जैसे ही मैं वापस आया, रज्जी ने चीखनाचिल्लाना शुरू कर दिया. तब पहली बार मेरे पिता भी हैरान रह गए थे.

‘‘यह लड़का तो 4 दिन से घर पर भी नहीं था. अभी 2 घंटे पहले आया और मैं इसे अपने साथ ले गया. बेचारे का बैग भी बरामदे में पड़ा है. यह कब आया और कब इस ने टेपरिकौर्डर तोड़ा. 4 दिन से मैं ने तो तेरे टेपरिकौर्डर की आवाज तक नहीं सुनी. तू क्या इंतजार कर रही थी कि कब सोम आए और कब तू इस पर इलजाम लगाए.’’

बीए फाइनल में थी तब रज्जी. इतनी भी बच्ची नहीं थी कि सहीगलत का ज्ञान तक न हो. कोई नई बात नहीं थी यह मेरे लिए, फिर भी पहली बार पिता का सहारा सुखद लगा था. मुझे कोई सजा-ए-मौत नहीं मिल जाती, फिर भी सवाल सत्यअसत्य का था. बिना कुछ किए इतने साल मैं ने रज्जी की करनी की सजा भोगी थी. उस दफा जब पिताजी ने मेरी वकालत की तब आंखें भर आई थीं मेरी. हैरानपरेशान रह गए थे पिताजी.

‘‘यह बेटी को कैसे पाल रही हो, कृष्णा. कल क्या होगा इस का जब यह पराए घर जाएगी?’’

स्तब्ध रह गया था मैं. अकसर मां को बेटा अधिक प्रिय होता है लेकिन मेरी मां ने हाथ ही झाड़ दिए थे.

‘‘चले ही तो जाना है इसे पराए घर. क्यों कोस रहे हो?’’

‘‘सवाल कोसने का नहीं है. सवाल इस बात का है कि जराजरा सी बात का दोष किसी दूसरे पर डाल देना कहां तक उचित है. अगर कुछ टूटफूट गया भी है तो उस की जिम्मेदारी लेने में कैसा डर? यहां क्या फांसी का फंदा लटका है जिस में रज्जी को कोई लटका डालेगा. कोई गलती हो जाए तो उसे मानने की आदत होनी चाहिए इंसान में. किसी और में भी आक्रोश पनपता है जब उसे बिना बात अपमान सहना पड़ता है.’’

‘‘कोई बात नहीं. भाई है सोम रज्जी का. गाली सुन कर कमजोर नहीं हो जाएगा.’’

‘‘खबरदार, आइंदा ऐसा नहीं होगा. मेरा बच्चा तुम्हारी बेटी की वजह से बेइज्जती नहीं कराएगा.’’

पुरानी बात है यह. तब इसी बात पर हमारा परिवार बंट सा गया था. तेरी बच्ची, मेरा बच्चा. पिताजी देर तक आहत रहे थे. नाराज रहे थे मां पर. क्योंकि मां का लाड़प्यार रज्जी को पहले दरजे की स्वार्थी और ढीठ बना रहा था.

‘‘समझ में नहीं आता सुकेश भी क्यों मेरी जराजरा सी बात पर तुनके से रहते हैं.’’

रज्जी अपने पति की बेरुखी का गिला मुझ से कर रही है. वह इंसान जो बेहद ईमानदार और सच्चा है. मैं अकसर मां से कहता भी रहता हूं. रज्जी को 24 कैरेट सोना मिला है. शुद्ध पासा सोना. और यह भी सच है कि मेरी बहन उस इंसान के लायक ही नहीं है जो निरंतर उस पासे सोने में खोट मिलाने का असफल प्रयास करती रहती है. लगता है उस इंसान की हिम्मत अब जवाब दे गई होगी जो उस ने रज्जी को वापस हमारे घर भेज दिया है.

‘‘इतना झूठ और इतनी दोगली बातें मेरी समझ से भी परे हैं. हैरान हूं मैं कि यह लड़की इतना झूठ बोल कैसे लेती है. दम नहीं घुटता इस का.’’

शर्म आ रही थी मुझे. कैसे उस सज्जन पुरुष से यह कहूं कि मुझ से क्या आशा करते हो. मैं तो खुद अपनी मां और बहन की दोगली नीतियों का भुक्तभोगी हूं.

‘‘आप ने इसे कैसे पाला है? क्या जरा भी ईमानदारी नहीं रोपी इस में?’’

लगभग रोने जैसी हालत थी सुकेश की उस पल. मैं उसे समझाबुझा कर घर से बाहर ले गया था. उस का मन पढ़ना चाहता था, विचित्र मनोस्थिति हो गई थी.

‘‘मैं तो डिप्रैशन का शिकार होता जा रहा हूं, सोम. मैं समझ नहीं पा रहा हूं इस लड़की को. हंसताखेलता हमारा परिवार इस के आने से छिन्नभिन्न हो गया है. कैसी बातें सिखाई हैं आप ने इसे. आप इसे समझाबुझा कर जरा सी तो इंसानियत सिखाइए. आप इसे सुधारने की कोशिश कीजिए वरना ऐसा न हो कि एक दिन मैं इस की जान ले लूं या अपनी…’’

सांस मेरी भी तो घुटती रही है आज तक. मेरी बहन है रज्जी. जब अपने खून की वजह से मैं सदा हैरानपरेशान रहा हूं तो सुकेश तो अलग खून है. अलग परवरिश. उस के लिए तो रज्जी एक सजा के सिवा और क्या होगी. हर साल राखी बांध कर रज्जी बहन होने की रस्म अदा करती रही है मगर मैं आज तक समझ नहीं पाया कि जरूरत पड़ने पर मैं इस लड़की की कैसे रक्षा कर पाऊंगा और इस ने मेरे सुख की कितनी कामना की होगी.

मेरी मां का वह मोह है जिस के चलते उन्हें रज्जी की बड़ी से बड़ी गलती भी कभी नजर नहीं आती. मेरे पिता मेरी मां को सही दिशा में लातेलाते हार गए और जिस पल उन्होंने अंतिम सांस ली थी उस पल मेरे कंधों पर इन दोनों की जिम्मेदारी डालतेडालते नजरों में एक असहाय भाव था, वही भाव जो सदा उन के होंठों पर भी रहा था कि पता नहीं कैसे तुम इन दोनों को सह पाओगे.

‘‘तू फिकर मत कर रज्जी, मैं मरी नहीं हूं अभी. सुकेश और उस के घर वालों को छठी का दूध न याद करा दिया तो मेरा नाम नहीं. रो मत बेटी.’’

स्तब्ध रह गया मैं. यह क्या कह रही हैं मां. रज्जी की भूलों पर परदा डाल कर सारा दोष सुकेश और उस के परिवार पर.

‘‘मेरी फूल जैसी बच्ची को रुला रहे हैं न वे लोग. उन की सात पुश्तों को न रुला दिया तो…’’

‘‘क्या करोगी तुम?’’ सहसा मैं ने सवाल किया.

चुप रह गई थीं मां. शायद इस धमकी के बाद उन्हें उम्मीद होगी कि मैं साथ चलने का आश्वासन दूंगा. मेरे सवाल की उन्हें आशा भी नहीं होगी.

‘‘और किस के पास जाओगी? क्या पुलिस में जा कर रिपोर्ट करोगी? क्या इलजाम लगाओगी सुकेश पर? यही कि वह अपनी पत्नी से ईमानदारी की आस रखता है. सच बोलने को कहता है और कहता है घर में राजनीति का खेल न खेले. रज्जी के सात खून भी माफ और सामने वाला सिर्फ इसलिए दोषी कि उस ने सांस जरा खुल कर ले ली थी या बात करते हुए उसे छींक आ गई थी.’’

मुंह खुला का खुला रह गया रज्जी और मां का.

‘‘जिस भंवर में आज रज्जी है उस की तैयारी तो तुम बचपन से कर रही हो. पिताजी इसी दिन से डर कर सदा तुम्हें समझाते रहे कि इसे इस तरह न पालो कि इस का भविष्य ही अंधकारमय हो जाए. मां, यह घर तुम्हारा है, यहां तुम्हारा राजपाट चल सकता है. तुम रज्जी को गलतसही जो चाहे सिखाओ मगर वह घर तुम्हारा नहीं है जहां रज्जी को सारी उम्र रहना है. इंसान भूखा रह कर जी सकता है, आधी रोटी से भी पेट भर सकता है मगर हर पल झूठ नहीं पचा सकता.

‘‘राजनीति एक गंदा खेल है जिस में कोई भी शरीफ आदमी जाना नहीं चाहता क्योंकि वह चैन से जीना चाहता है. इसी तरह सुकेश और उस का परिवार सीधासादा, साफसुथरा जीवन जीना चाहता है जिसे रज्जी ने राजनीति का अखाड़ा बना दिया है. जबजब गृहस्थी में दांवपेंच और झूठ का समावेश हुआ है तबतब घर उजड़ा है. रज्जी का घर बचाना चाहती हो तो इसे जलेबियां पकाना मत सिखाओ. गोलमोल बातें रिश्तों को सिर्फ उलझाती हैं.’’

मैं नहीं जानता कि मेरी बातों का असर था या अपना घर टूट जाने का डर, रज्जी स्वयं ही अपने घर वापस चली गई. रज्जी जैसा इंसान अपने अधिकार के प्रति बड़ा जागरूक होता है. पहले दरजे का स्वार्थी चरित्र जिस की नजर अपने अधिकार के साथसाथ दूसरे की चीज पर भी रहती है. सुकेश का फोन आया मेरे पास. पता चला रज्जी ने सब से माफी मांग ली है और भविष्य में कभी झूठ बोल कर घर में अशांति नहीं फैलाएगी, ऐसा वादा भी किया है. पता नहीं क्यों मुझे विश्वास नहीं हो रहा रज्जी पर. मेरी चाहत तो यही है कि मेरी बहन सदा सुखी रहे लेकिन भरोसा रत्ती भर भी नहीं है उस पर.

कुछ दिन आराम से बीत गए. सब शांत था, सब सुखी थे लेकिन दबी आग एक दिन विकराल रूप में सामने चली आएगी, यह किसी ने नहीं सोचा होगा, परंतु मुझे कुछकुछ अंदेशा अवश्य हो रहा था. पता चला सुकेश ने डिप्रैशन में कुछ खा लिया है. पतिपत्नी में फिर से कोई तनाव था. जब तक हम अस्पताल पहुंचते बहुत देर हो चुकी थी. सुकेश बेजान कफन में लिपटा सामने था.

आत्महत्या का केस था जिस वजह से पोस्टमार्टम जरूरी था. रज्जी ने विलाप करते हुए जो कहानी सब को सुनाई उस से तो सुकेश के मातापिता और ननद हक्केबक्के रह गए. रज्जी ने बताया कि उस की ननद चरित्रहीन है जिस की शरम में उस का पति जहर खा कर मर गया. बेटा तो गया ही गया बच्ची का मानसम्मान भी रज्जी ने धूल में मिला दिया. जीतेजी मर गया वह परिवार. मेरी मां ने भी दिल खोल कर रज्जी की ननद को कोसा.

शोक के साथसाथ बदहवास था सुकेश का परिवार. सत्य क्या होगा मैं समझ सकता हूं. बुरा हो मेरी मां का, मेरी बहन का जिन्हें झूठ बोलने से जरा भी डर नहीं लगता. मरने वाले की मिट्टी का इस से बड़ा अपमान, इस से बड़ा मजाक क्या होगा जिस की आत्महत्या का रंग उस की निर्दोष बहन के चेहरे पर कालिख बन कर पुत गया.

ऐसा क्या किया सुकेश ने? आत्महत्या क्यों की? मारना ही था तो रज्जी को मार डालता. सुकेश का दाहसंस्कार हुआ और उसी चिता में मेरा, मेरी मां और बहन के साथ जन्मजात रिश्ता भी जल कर राख हो गया. अच्छा नहीं किया रज्जी ने. अपना घर तो जलाया, अपनी ननद का भविष्य भी पाताल में धकेल दिया. श्मशान भूमि में खड़ा मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि कहां जाऊं? मेरा घर कहां है? क्या वह मेरा घर है जहां मेरी विधवा मां, विधवा बहन रहती है जिन के साथ हर किसी की सहानुभूति है या कहीं और जहां मैं अकेला रह कर चैन से जीना चाहता हूं?

सच्चा भय था मेरे पिता की आंख में जब उन की मृत्यु हुई थी. सच है, मैं इन दोनों के साथ नहीं जी सकता. नहीं रह पाऊंगा अब मैं इन दोनों के साथ. किसी के हंसतेखेलते परिवार से उन का जवान बेटा छीन कर उस के परिवार का तमाशा बना दिया, कौन सजा देगा इन दोनों को? किसी भी परिवार के अंदर की कहानी भला कानून कैसे जान सकता है जो इन्हें कोई सजा मिले. सजा तो मिलनी चाहिए इन्हें, किसी का सहारा छीना है न इन्होंने, अब इन का भी सहारा छिन जाए तो पता चले आग का लगना, घर का जलना किसे कहते हैं.

सुकेश की पीड़ा मेरी पीड़ा बन कर मेरा भीतरबाहर सब जला रही है. मैं उस से आंखें कैसे मिलाऊं? क्या होगा उस की बहन का, क्या होगा उस के मांबाप का?

औफिस के काम के बहाने मैं कितने ही दिन अपने घर नहीं गया. अपने अभिन्न मित्र के घर पर रहने लगा जो मेरी सारी की सारी समस्या समझता था. कुछ दिन बीत गए. मेरे घर हो कर आया था वह.

‘‘सुकेश के मातापिता का गुजारा तो उन की पैंशन से हो जाएगा लेकिन तुम्हारी मां का क्या होगा? अब तो रज्जी भी वापस आ गई है. सुकेश के घर वालों ने उसे वापस नहीं लिया. शहरभर में उन की बेटी की बदनामी हो रही है और तुम सचाई से मुंह छिपाए मेरे घर पर रह रहे हो?’’

‘‘सचाई क्या है, यह सारा शहर जानता है. सचाई तो वही है जो रज्जी ने सब को दिखाई है. मेरी मां जो कह रही हैं, दुनिया तो उसी को सच कह रही है. मैं किस सचाई से मुंह छिपाए बैठा हूं, क्या तुम नहीं जानते हो? सुकेश की बहन बदनाम हो गई मेरे परिवार की वजह से. मैं तो इस सचाई से नजरें नहीं मिला रहा. वह सीधीसादी सी मासूम लड़की सिर्फ इस दोष की सजा भोग रही है कि रज्जी उस की भाभी है. क्या कुसूर है उस का? सिर्फ यही कि वह सुकेश की बहन है.’’

‘‘एक बार दोनों परिवारों से मिलो तो, सोम. दोनों की सुनो तो सही.’’

‘‘अपने परिवार की तो कब से सुन रहा हूं. बचपन से मैं ने भी वही भोगा है जो सुकेश और उस का परिवार भोग रहा है. अपनी मां और अपनी बहन की नसनस जानता हूं मैं. सुकेश ने इतना बड़ा कदम क्यों उठा लिया, वह उस के परिवार से ज्यादा कौन जानता है? मेरी तो वे सूरत भी देखना नहीं चाहेंगे. तुम सुकेश के मित्र बन कर वहां जाओ, पता तो चले क्या हुआ. मेरा एक और काम कर दो, मेरे भाई.’’

मान गया वह. औफिस के बाद वह सुकेश के घर से होता आया. मेरी तरह वह भी बेहद बेचैन था. बोला, ‘‘रज्जी को तो राजनीति में होना चाहिए था, कहां आप लोगों ने उस की शादी कर दी.’’

सांस रोक कर मैं ने उस की बात सुनी. वह आगे बोला, ‘‘कुछ दिन से सब ठीक चल रहा था. बड़े प्यार से रज्जी ने सब के मन में जगह बना ली थी. सीधासादा परिवार उस की सारी आदतें भुला कर उस पर पूर्ण विश्वास करने लगा था. सुकेश की बहन का सारा गहना उस ने अपने लौकर में रखवा लिया था. सुकेश की मां ने भी अपनी सारी जमापूंजी बहू को यानी रज्जी को दे दी ताकि वह ठीक से संभाल सके.

‘‘कुछ दिन पहले उन्हें किसी शादी में जाना था. ननद, भाभी लौकर से गहने निकालने गईं. वापसी पर ननद किसी काम से अपने कालेज चली गई. कुछ विद्यार्थी एक्स्ट्रा क्लास के लिए आने वाले थे. लगभग 3 घंटे बाद जब वह घर आई तो हैरान रह गई, क्योंकि रज्जी ने घर वालों को बताया कि गहने उस के पास हैं ही नहीं. घर में बवाल उठा. सारा का सारा इलजाम उस की ननद पर कि वही सारे के सारे गहने समेट कर किसी के साथ भाग जाने वाली है. तनाव इतना बढ़ गया कि सुकेश ने कुछ खा लिया.’’

‘‘कालेज में प्राध्यापिका है वह. पढ़ीलिखी सुलझी हुई लड़की. उसे भला भागने की क्या जरूरत थी. भागना तो रज्जी को था सब समेट कर. कुछ ऐसा होगा, इस का अंदेशा था मुझे लेकिन सुकेश आत्महत्या कर लेगा, यह नहीं सोचा था. सुकेश रज्जी की वजह से डिप्रैशन में रहने लगा था कुछ समय से. सच पूछो तो इंसान डिप्रैशन में जाता ही तब है जब उस के अपने उस के साथ धोखा करते हैं या उसे समझने की कोशिश नहीं करते. बाहर वालों की गालियां भी खा कर इंसान इतना विचलित नहीं होता जितना अपनों की बोलियां उसे परेशान करती हैं. परिवार में एक स्वस्थ माहौल की जगह लागलपेट और हेराफेरी चले तो इंसान डिप्रैशन में ही तो जाएगा. ऐसा इंसान आखिर करेगा भी तो क्या?’’

‘‘अब क्या करेगा तू, सोम?’’

समझ नहीं पा रहा हूं, क्या करूं? पर इतना सच है कि मैं रज्जी और मां के साथ नहीं रह पाऊंगा. मेरा जीवन एक दोराहे पर आ कर रुक गया है. दोराहा भी नहीं कह सकता. एक चौराहा समझो. मां और रज्जी के साथ रहना भी नहीं चाहता, सुकेश का परिवार मेरी सूरत से भी नफरत करेगा, आत्महत्या को कायरता समझता हूं और चौथा रास्ता है घर से दूर का तबादला ले कर इन दोनों को ही पीठ दिखा दूं. क्या करूं? पीठ ही दिखाना ठीक रहेगा. लड़ नहीं सकता.

कुछ रिश्ते इस तरह के होते हैं जिन से लड़ा नहीं जा सकता, जिन से न हारा जाता है न ही जीतने में खुशी या संताप होता है. इन से दूर चला जाऊं तो क्या पता इन्हें सुकेश के मांबाप की पीड़ा का जरा सा एहसास हो. क्या करूं, मैं समझ नहीं पा रहा, कोई भी रास्ता साफसाफ नजर नहीं आता. क्या आप बताएंगे मुझे कोई उचित रास्ता?

सर्वस्व : क्या मां के जीवन में खुशियां ला पाई शिखा

बैठक में बैठी शिखा राहुल के खयालों में खोई थी. वह नहा कर तैयार हो कर सीधे यहीं आ कर बैठ गई थी. उस का रूप उगते सूर्य की तरह था. सुनहरे गोटे की किनारी वाली लाल साड़ी, हाथों में ढेर सारी लाल चूडि़यां, माथे पर बड़ी बिंदी, मांग में चमकता सिंदूर मानो सीधेसीधे सूर्य की लाली को चुनौती दे रहे थे. घर के सब लोग सो रहे थे, मगर शिखा को रात भर नींद नहीं आई. शादी के बाद वह पहली बार मायके आई थी पैर फेरने और आज राहुल यानी उस का पति उसे वापस ले जाने आने वाला था. वह बहुत खुश थी.

उस ने एक भरपूर नजर बैठक में घुमाई. उसे याद आने लगा वह दिन जब वह बहुत छोटी थी और अपनी मां के पल्लू को पकड़े सहमी सी दीवार के कोने में घुसी जा रही थी. नानाजी यहीं दीवान पर बैठे अपने बेटों और बहुओं की तरफ देखते हुए अपनी रोबदार आवाज में फैसला सुना रहे थे, ‘‘माला, अब अपनी बच्ची के साथ यहीं रहेगी, हम सब के साथ.

यह घर उस का भी उतना ही है, जितना तुम सब का. यह सही है कि मैं ने माला का विवाह उस की मरजी के खिलाफ किया था, क्योंकि जिस लड़के को वह पसंद करती थी, वह हमारे जैसे उच्च कुल का नहीं था, परंतु जयराज (शिखा के पिता) के असमय गुजर जाने के बाद इस की ससुराल वालों ने इस के साथ बहुत अन्याय किया.

उन्होंने जयराज के इंश्योरैंस का सारा पैसा हड़प लिया. और तो और मेरी बेटी को नौकरानी बना कर दिनरात काम करवा कर इस बेचारी का जीना हराम कर दिया. मुझे पता नहीं था कि दुनिया में कोई इतना स्वार्थी भी हो सकता है कि अपने बेटे की आखिरी निशानी से भी इस कदर मुंह फेर ले. मैं अब और नहीं देख सकता. इस विषय में मैं ने गुरुजी से भी बात कर ली है और उन की भी यही राय है कि माला बिटिया को उन लालचियों के चंगुल से छुड़ा कर यहीं ले आया जाए.’’

फिर कुछ देर रुक कर वे आगे बोले, ‘‘अभी मैं जिंदा हूं और मुझ में इतना सामर्थ्य है कि मैं अपनी बेटी और उस की इस फूल सी बच्ची की देखभाल कर सकूं… मैं तुम सब से भी यही उम्मीद करता हूं कि तुम दोनों भी अपने भाई होने का फर्ज बखूबी अदा करोगे,’’ और फिर नानाजी ने बड़े प्यार से उसे अपनी गोद में बैठा लिया था. उस वक्त वह अपनेआप को किसी राजकुमारी से कम नहीं समझ रही थी.

घर के सभी सदस्यों ने इस फैसले को मान लिया था और उस की मां भी घर में पहले की तरह घुलनेमिलने का प्रयत्न करने लगी थी. मां ने एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली थी. इस तरह से उन्होंने किसी को यह महसूस नहीं होने दिया कि वे किसी पर बोझ हैं.

नानाजी एवं नानी के परिवार की अपने कुलगुरु में असीम आस्था थी. सब के गले में एक लौकेट में उन की ही तसवीर रहती थी. कोई भी बड़ा निर्णय लेने के पहले गुरुजी की आज्ञा लेनी जरूरी होती थी. शिखा ने बचपन से ही ऐसा माहौल देखा था.

अत: वह भी बिना कुछ सोचेसमझे उन्हें मानने लगी थी. अत्यधिक व्यस्तता के बावजूद समय निकाल कर उस की मां कुछ वक्त गुरुजी की तसवीर के सामने बैठ कर पूजाध्यान करती थीं. कभीकभी वह भी मां के साथ बैठती और गुरुजी से सिर्फ और सिर्फ एक ही दुआ मांगती कि गुरुजी, मुझे इतना बड़ा अफसर बना दो कि मैं अपनी मां को वे सारे सुख और आराम दे सकूं जिन से वे वंचित रह गई हैं.

तभी खट की आवाज से शिखा की तंद्रा भंग हो गई. उस ने मुड़ कर देखा. तेज हवा के कारण खिड़की चौखट से टकरा रही थी. उठ कर शिखा ने खिड़की का कुंडा लगा दिया. आंगन में झांका तो शांति ही थी. घड़ी की तरफ देखा तो सुबह के 6 बज रहे थे. सब अभी सो ही रहे हैं, यह सोचते हुए वह भी वहीं सोफे पर अधलेटी हो गई. उस का मन फिर अतीत में चला गया…

जब तक नानाजी जिंदा रहे उस घर में वह राजकुमारी और मां रानी की तरह रहीं. मगर यह सुख उन दोनों के हिस्से बहुत दिनों के लिए नहीं लिखा था. 1 वर्ष बीततेबीतते अचानक एक दिन हृदयगति रुक जाने के कारण नानाजी का देहांत हो गया. सब कुछ इतनी जल्दी घटा कि नानी को बहुत गहरा सदमा लगा.

अपनी बेटी व नातिन के बारे में सोचना तो दूर, उन्हें अपनी ही सुधबुध न रही. वे पूरी तरह से अपने बेटों पर आश्रित हो गईं और हालात के इस नए समीकरण ने शिखा और उस की मां माला की जिंदगी को फिर से कभी न खत्म होने वाले दुखों के द्वार पर ला खड़ा कर दिया.

नानाजी के असमय देहांत और नानीजी के डगमगाते मानसिक संतुलन ने जमीनजायदाद, रुपएपैसे, यहां तक कि घर के बड़े की पदवी भी मामा के हाथों में थमा दी.

अब घर में जो भी निर्णय होता वह मामामामी की मरजी के अनुसार होता. कुछ वक्त तक तो उन निर्णयों पर नानी से हां की मुहर लगवाई जाती रही, पर उस के बाद वह रस्म भी बंद हो गई. छोटे मामामामी बेहतर नौकरी का बहाना बना कर अपना हिस्सा ले कर विदेश में जा कर बस गए. अब बस बड़े मामामामी ही घर के सर्वेसर्वा थे.

मां का अपनी नौकरी से बचाखुचा वक्त रसोई में बीतने लगा था. मां ही सुबह उठ कर चायनाश्ता बनातीं. उस का और अपना टिफिन बनाते वक्त कोई न कोई नाश्ते की भी फरमाइश कर देता, जिसे मां मना नहीं कर पाती थीं. सब काम निबटातेनिबटाते, भागतेदौड़ते वे स्कूल पहुंचतीं.

कई बार तो शिखा को देर से स्कूल पहुंचने पर डांट भी पड़ती. इसी प्रकार शाम को घर लौटने पर जब मां अपनी चाय बनातीं, तो बारीबारी पूरे घर के लोग चाय के लिए आ धमकते और फिर वे रसोई से बाहर ही न आ पातीं. रात में शिखा अपनी पढ़ाई करतेकरते मां का इंतजार करती कि कब वे आएं तो वह उन से किसी सवाल अथवा समस्या का हल पूछे.

मगर मां को काम से ही फुरसत नहीं होती और वह कापीकिताब लिएलिए ही सो जाती. जब मां आतीं तो बड़े प्यार से उसे उठा कर खाना खिलातीं और सुला देतीं. फिर अगले दिन सुबह जल्दी उठ कर उसे पढ़ातीं.

यदि वह कभी मामा या मामी के पास किसी प्रश्न का हल पूछने जाती तो वे हंस कर उस की खिल्ली उड़ाते हुए कहते, ‘‘अरे बिटिया, क्या करना है इतना पढ़लिख कर? अफसरी तो करनी नहीं तुझे. चल, मां के साथ थोड़ा हाथ बंटा ले. काम तो यही आएगा.’’

वह खीज कर वापस आ जाती. परंतु उन की ऐसी उपहास भरी बातों से उस ने हिम्मत न हारी, न ही निराशा को अपने मन में घर करने दिया, बल्कि वह और भी दृढ़ इरादों के साथ पढ़ाई में जुट जाती.

मामामामी अपने बच्चों के साथ अकसर बाहर घूमने जाते और बाहर से ही खापी कर आते. मगर भूल कर भी कभी न उस से न ही मां से पूछते कि उन का भी कहीं आनेजाने का या बाहर का कुछ खाने का मन तो नहीं? और तो और जब भी घर में कोई बहुत स्वादिष्ठ चीज बनती तो मामी अपने बच्चों को पहले परोसतीं और उन को ज्यादा देतीं. वह एक किनारे चुपचाप अपनी प्लेट लिए, अपना नंबर आने की प्रतीक्षा में खड़ी रहती.

सब से बाद में मामी अपनी आवाज में बनावटी मिठास भर के उस से बोलतीं, ‘‘अरे बिटिया तू भी आ गई. आओआओ,’’ कह कर बचाखुचा कंजूसी से उस की प्लेट में डाल देतीं. तब उस का मन बहुत कचोटता और कह उठता कि काश, आज उस के भी पापा होते, तो वे उसे कितना प्यार करते, कितने प्यार से उसे खिलाते. तब किसी की भी हिम्मत न होती, जो उस का इस तरह मजाक उड़ाता या खानेपीने को तरसता. तब वह तकिए में मुंह छिपा कर बहुत रोती.

मगर फिर मां के आने से पहले ही मुंह धो कर मुसकराने का नाटक करने लगती कि कहीं मां ने उस के आंसू देख लिए तो वे बहुत दुखी हो जाएंगी और वे भी उस के साथ रोने लगेंगी, जो वह हरगिज नहीं चाहती थी.

एकाध बार उस ने गुरुजी से परिवार से मिलने वाले इन कष्टों का जिक्र करना चाहा, परंतु गुरुजी ने हर बार किसी न किसी बहाने से उसे चुप करा दिया. वह समझ गई कि सारी दुनिया की तरह गुरुजी भी बलवान के साथी हैं.

जब वह छोटी थी, तब इन सब बातों से अनजान थी, मगर जैसेजैसे बड़ी होती गई, उसे सारी बातें समझ में आने लगीं और इस सब का कुछ ऐसा असर हुआ कि वह अपनी उम्र के हिसाब से जल्दी एवं ज्यादा ही समझदार हो गई.

उस की मेहनत व लगन रंग लाई और एक दिन वह बहुत बड़ी अफसर बन गई. गाड़ीबंगला, नौकरचाकर, ऐशोआराम अब सब कुछ उस के पास था.

उस दिन मांबेटी एकदूसरे के गले लग कर इतना रोईं, इतना रोईं कि पत्थरदिल हो चुके मामामामी की भी आंखें भर आईं. नानी भी बहुत खुश थीं और अपने पूरे कुनबे को फोन कर के उन्होंने बड़े गर्व से यह खबर सुनाई. वे सभी लोग, जो वर्षों से उसे और उस की मां को इस परिवार पर एक बोझ समझते थे, ‘ससुराल से निकाली गई’, ‘मायके में आ कर पड़ी रहने वाली’ समझ कर शक भरी निगाहों से देखते थे और उन्हें देखते ही मुंह फेर लेते थे, आज वही सब लोग उन दोनों की प्रशंसा करते नहीं थक रहे थे. मामामामी ने तो उस के अफसर बनने का पूरा क्रैडिट ही स्वयं को दे दिया था और गर्व से इतराते फिर रहे थे.

समय का चक्र मानो फिर से घूम गया था. अब मां व शिखा के प्रति मामामामी का रवैया बदलने लगा था. हर बात में मामी कहतीं, ‘‘अरे जीजी, बैठो न. आप बस हुकुम करो. बहुत काम कर लिया आप ने.’’

मामी के इस रूप का शिखा खूब आनंद लेती. इस दिन के लिए तो वह कितना तरसी थी.

जब सरकारी बंगले में जाने की बात आई, तो सब से पहले मामामामी ने अपना सामान बांधना शुरू कर दिया. मगर नानी ने जाने से मना कर दिया, यह कह कर कि इस घर में नानाजी की यादें बसी हैं. वे इसे छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगी. जो जाना चाहे, वह जा सकता है. मां नानी के दिल की हालत समझती थीं. अत: उन्होंने भी जाने से मना कर दिया. तब शिखा ने भी शिफ्ट होने का प्रोग्राम फिलहाल टाल दिया.

इसी बीच एक बहुत ही सुशील और हैंडसम अफसर, जिस का नाम राहुल था की तरफ से शिखा को शादी का प्रस्ताव आया. राहुल ने खुद आगे बढ़ कर शिखा को बताया कि वह उसे बहुत पसंद करता है और उस से शादी करना चाहता है. शिखा को भी राहुल पसंद था.

राहुल शिखा को अपने घर, अपनी मां से भी मिलाने ले गया था. राहुल ने उसे बताया कि किस प्रकार पिताजी के देहांत के बाद मां ने अपने संपूर्ण जीवन की आहुति सिर्फ और सिर्फ उस के पालनपोषण के लिए दे दी. घरघर काम कर के, रातरात भर सिलाईकढ़ाईबुनाई कर के उसे इस लायक बनाया कि आज वह इतना बड़ा अफसर बन पाया है. उस की मां के लिए वह और उस के लिए उस की मां दोनों की बस यही दुनिया थी. राहुल का कहना था कि अब उन की इस 2 छोरों वाली दुनिया का तीसरा छोर शिखा है, जिसे बाकी दोनों छोरों का सहारा भी बनना है एवं उन्हें मजबूती से बांधे भी रखना है.

यह सब सुन कर शिखा को महसूस हुआ था कि यह दुनिया कितनी छोटी है. वह समझती थी कि केवल एक वही दुखों की मारी है, मगर यहां तो राहुल भी कांटों पर चलतेचलते ही उस तक पहुंचा है. अब जब वे दोनों हमसफर बन गए हैं, तो उन की राहें भी एक हैं और मंजिल भी.

राहुल की मां शिखा से मिल कर बहुत खुश हुईं. उन की होने वाली बहू इतनी सुंदर, पढ़ीलिखी तथा सुशील है, यह देख कर वे खुशी से फूली नहीं समा रही थीं. झट से उन्होंने अपने गले की सोने की चेन उतार कर शिखा के गले में पहना दी और फिर बड़े स्नेह से शिखा से बोलीं, ‘‘बस बेटी, अब तुम जल्दी से यहां मेरे पास आ जाओ और इस घर को घर बना दो.’’

मगर एक बार फिर शिखा के परिवार वाले उस की खुशियों के आड़े आ गए. राहुल दूसरी जाति का था और उस के यहां मीटमछली बड़े शौक से खाया जाता था जबकि शिखा का परिवार पूरी तरह से पंडित बिरादरी का था, जिन्हें मीटमछली तो दूर प्याजलहसुन से भी परहेज था.

घर पर सब राहुल के साथ उस की शादी के खिलाफ थे. जब शिखा की मां माला ने शिखा को इस शादी के लिए रोकना चाहा तो शिखा तड़प कर बोली, ‘‘मां, तुम भी चाहती हो कि इतिहास फिर से अपनेआप को दोहराए? फिर एक जिंदगी तिलतिल कर के इन धार्मिक आडंबरों और दुनियादारी के ढकोसलों की अग्नि में अपना जीवन स्वाहा कर दे? तुम भी मां…’’ कहतेकहते शिखा रो पड़ी.

शिखा के इस तर्क के आगे माला निरुत्तर हो गईं. वे धीरे से शिखा के पास आईं और उस का सिर सहलाते हुए रुंधी आवाज में बोलीं, ‘‘मुझे माफ कर देना मेरी प्यारी बेटी. बढ़ती उम्र ने नजर ही नहीं, मेरी सोचनेसमझने की शक्ति को भी धुंधला दिया था. मेरे लिए तुम्हारी खुशी से बढ़ कर और कुछ भी नहीं… हम आज ही यह घर छोड़ देंगी.’’

जब मामामामी को पता लगा कि शिखा का इरादा पक्का है और माला भी उस के साथ है, तो सब का आक्रोश ठंडा पड़ गया. अचानक उन्हें गुरुजी का ध्यान आया कि शायद उन के कहने से शिखा अपना निर्णय बदल दे.

बात गुरुजी तक पहुंची तो वे बिफर उठे. जैसे ही उन्होंने शिखा को कुछ समझाना चाहा, शिखा ने अपने मुंह पर उंगली रख कर उन्हें चुप रहने का इशारा किया और फिर अपने गले में पड़ा उन की तसवीर वाला लौकेट उतार कर उन के सामने फेंक दिया.

सब लोग गुस्से में कह उठे, ‘‘यह क्या पागलपन है शिखा?’’

गुरुजी भी आश्चर्यमिश्रित रोष से उसे देखने लगे.

इस पर शिखा दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘बहुत कर ली आप की पूजा और देख ली आप की शक्ति भी, जो सिर्फ और सिर्फ अपना स्वार्थ देखती है. मेरा सर्वस्व अब मेरा होने वाला पति राहुल है, उस का घर ही मेरा मंदिर है, उस की सेवा आप के ढोंगी धर्म और भगवान से बढ़ कर है,’’ कहते हुए शिखा तेजी से उठ कर वहां से निकल गई.

शिखा के इस आत्मविश्वास के आगे सब ने समर्पण कर दिया और फिर खूब धूमधाम से राहुल के साथ उस का विवाह हो गया.

अचानक बादलों की गड़गड़ाहट से शिखा की आंख खुल गई. आंगन में लोगों की चहलकदमी शुरू हो गई थी. आंखें मलती हुई वह उठी और सोचने लगी, यहां दीवान पर लेटेलेटे उस की आंख क्या लगी वह तो अपना अतीत एक बार फिर से जी आई.

‘राहुल अब किसी भी वक्त उसे लेने पहुंचने ही वाला होगा,’ इस खयाल से शिखा के चेहरे पर एक लजीली मुसकान फैल गई.

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