Mother’s Day Special: रिश्तों की कसौटी- भाग 3

 तब तक वेटर चाय रख गया. ‘‘मेरी मम्मी आप की ही जबान से कुछ जानना चाहती हैं,’’ गंभीरता से सुरभी ने कहा.

सुन कर अमित साहनी की नजरें झुक गईं. ‘‘आप मेरे साथ कब चल रहे हैं मां से मिलने?’’ बिना कुछ सोचे सुरभी ने अगला प्रश्न किया.

‘‘अगर मैं तुम्हारे साथ चलने से मना कर दूं तो?’’ अमित साहनी ने सख्ती से पूछा. ‘‘मैं इस से ज्यादा आप से उम्मीद भी नहीं करती, मगर इनसानियत के नाते ही सही, अगर आप उन का जरा सा भी सम्मान करते हैं तो उन से जरूर मिलिएगा. वे अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं,’’ कहतेकहते नफरत और दुख से सुरभी की आंखें भर आईं.

‘‘क्या हुआ मालती को?’’ चाय का कप मेज पर रख कर चौंकते हुए अमित ने पूछा. ‘‘उन्हें कैंसर है और पता नहीं अब कितने दिन की हैं…’’ सुरभी भरे गले से बोल गई.

‘‘ओह, सौरी बेटा, तुम जाओ, मैं जल्दी ही मुंबई आऊंगा,’’ अमित साहनी धीरे से बोले और सुरभी से उस के घर का पता ले कर चले गए. दोपहर को सुरभी मां के पास पहुंच गई.

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‘‘कैसी रही तेरी फिल्म?’’ मां ने पूछा. ‘‘अभी पूरी नहीं हुई मम्मी, पर वहां अच्छा लगा,’’ कह कर सुरभी मां के गले लग गई.

‘‘दीदी, कल रात मांजी खुद उठ कर अपने स्टोर रूम में गई थीं. लग रहा था जैसे कुछ ढूंढ़ रही हों. काफी परेशान लग रही थीं,’’ कम्मो ने सीढि़यां उतरते हुए कहा. थोड़ी देर बाद मां से आंख बचा कर उस ने उन की डायरी स्टोर रूम में ही रख दी.

उसी रात सुरभी को अमित साहनी का फोन आया कि वह कल साढ़े 11 बजे की फ्लाइट से मुंबई आ रहे हैं. सुरभी को मां की डायरी का हर वह पन्ना याद आ रहा था जिस में लिखा था कि काश, मृत्यु से पहले एक बार अमित उस के सवालों के जवाब दे जाता. कल का दिन मां की जिंदगी का अहम दिन बनने जा रहा था. यही सोचते हुए सुरभी की आंख लग गई. अगले दिन उस ने नर्स से दवा आदि के बारे में समझ कर उसे भी रात को आने को बोल दिया.

करीब 1 बजे अमित साहनी उन के घर पहुंचे. सुरभी ने हाथ जोड़ कर उन का अभिवादन किया तो उन्होंने ढेरोें आशीर्वाद दे डाले. ‘‘आप यहीं बैठिए, मैं मां को बता कर आती हूं. एक विनती है, हमारी मुलाकात का मां को पता न चले. शायद बेटी के आगे वे कमजोर पड़ जाएं,’’ सुरभी ने कहा और ऊपर चली गई.

‘‘मम्मी, आप से कोई मिलने आया है,’’ उस ने अनजान बनते हुए कहा. ‘‘कौन है?’’ मां ने सूप का बाउल कम्मो को पकड़ाते हुए पूछा.

‘‘कोई मिस्टर अमित साहनी नाम के सज्जन हैं. कह रहे हैं, दिल्ली से आए हैं,’’ सुरभी वैसे ही अनजान बनी रही. ‘‘क…क…कौन आया है?’’ मां के शब्दों में एक शक्ति सी आ गई थी.

‘‘ऐसा करती हूं आप यहीं रहिए. उन्हें ही ऊपर बुला लेते हैं,’’ मां के चेहरे पर आए भाव सुरभी से देखे नहीं जा रहे थे. वह जल्दी से कह कर बाहर आ गई.

मालती कुछ भी सोचने की हालत में नहीं थीं. यह वह मुलाकात थी जिस के बारे में उन्होंने हर दिन सोचा था. थोड़ी देर में सुरभी के पीछेपीछे अमित साहनी कमरे में दाखिल हुए, मालती के पसंदीदा पीले गुलाबों के बुके के साथ. मालती का पूरा अस्तित्व कांप रहा था. फिर भी उन्होंने अमित का अभिवादन किया.

सुरभी इस समय की मां की मानसिक अवस्था को अच्छी तरह समझ रही थी. वह आज मां को खुल कर बात करने का मौका देना चाहती थी, इसलिए डा. आशुतोष के पास उन की कुछ रिपोर्ट्स लेने के बहाने वह घर से बाहर चली गई. ‘‘कितने बेशर्म हो तुम जो इस तरह से मेरे सामने आ गए?’’ न चाहते हुए भी मालती क्रोध से चीख उठीं.

‘‘कैसी हो, मालती?’’ उस की बातों पर ध्यान न देते हुए अमित ने पूछा और पास के सोफे पर बैठ गए. ‘‘अभी तक जिंदा हूं,’’ मालती का क्रोध उफान पर था. उन का मन तो कर रहा था कि जा कर अमित का मुंह नोच लें.

इस के विपरीत अमित शांत बैठे थे. शायद वे भी चाहते थे कि मालती के अंदर का भरा क्रोध आज पूरी तरह से निकल जाए. ‘‘होटल ताज में ईश्वरनाथजी से मुलाकात हुई थी. उन्हीं से तुम्हारे बारे में पता चला. तभी से मन बारबार तुम से मिलने को कर रहा था,’’ अमित ने सुरभी के सिखाए शब्द दोहरा दिए. परंतु यह स्वयं उस के दिल की बात भी थी.

‘‘मेरे साथ इतना बड़ा धोखा क्यों किया, अमित?’’ अपलक अमित को देख रही मालती ने उन की बातों को अनसुना कर अपनी बात रखी. इतने में कम्मो चाय और नाश्ता रख गई.

‘‘तुम्हें याद है वह दोपहरी जब मैं ने एक तसवीर के विषय में तुम से पूछा था और तुम ने उन्हें अपनी मां बताया था?’’ अमित ने मालती को पुरानी बातें याद दिलाईं.

मालती यों ही खामोश बैठी रहीं तो अमित ने आगे कहना शुरू किया, ‘‘उस तसवीर को मैं तुम सब से छिपा कर एक शक दूर करने के लिए अपने साथ दिल्ली ले गया था. मेरा शक सही निकला था. यह वृंदा यानी तुम्हारी मां वही औरत थी जो दिल्ली में अपने पार्टनर के साथ एक मशहूर ब्यूटीपार्लर और मसाज सेंटर चलाती थी. इस से पहले वह यहीं मुंबई में मौडलिंग करती थी. उस का नया नाम वैंडी था.’’ इस के बाद अमित ने अपनी चाय बनाई और मालती की भी.

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उस ने आगे बोलना शुरू किया, ‘‘उस मसाज सेंटर की आड़ में ड्रग्स की बिक्री, वेश्यावृत्ति जैसे धंधे होते थे और समाज के उच्च तबके के लोग वहां के ग्राहक थे.’’ ‘‘ओह, तो यह बात थी. पर इस में मेरी क्या गलती थी?’’ रोते हुए मालती ने पूछा.

‘‘जब मैं ने एम.बी.ए. में नयानया दाखिला लिया था तब मेरे दोस्तों में से कुछ लड़के भी वहां के ग्राहक थे. एक बार हम दोस्तों ने दक्षिण भारत घूमने का 7 दिन का कार्यक्रम बनाया और हम सभी इस बात से बहुत रोमांचित थे कि उस मसाज सेंटर से हम लोगों ने जो 2 टौप की काल गर्ल्स बुक कराई थीं उन में से एक वैंडी भी थी जिसे हाई प्रोफाइल ग्राहकों के बीच ‘पुरानी शराब’ कह कर बुलाया जाता था. उस की उम्र उस के व्यापार के आड़े नहीं आई थी,’’ अमित ने अपनी बात जारी रखी. उसे अब मालती के सवाल भी सुनाई नहीं दे रहे थे. चाय का कप मेज पर रखते हुए अमित ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘मेरी परवरिश ने मेरे कदम जरूर बहका दिए थे मालती, पर मैं इतना भी नीचे नहीं गिरा था कि जिस स्त्री के साथ 7 दिन बिताए थे, उसी की मासूम और अनजान बेटी को पत्नी बना कर उस के साथ जिंदगी बिताता? मेरा विश्वास करो मालती, यह घटना तुम्हारे मिलने से पहले की है. मैं तुम से बहुत प्यार करता था. मुझे अपने परिवार की बदनामी का भी डर था, इसलिए तुम से बिना कुछ कहेसुने दूर हो गया,’’ कह कर अमित ने अपना सिर सोफे पर टिका दिया.

आज बरसों का बोझ उन के मन से हट गया था. मालती भी अब लेट गई थीं. वे अभी भी खामोश थीं. थोड़ी देर बाद अमित चले गए. उन के जाने के बाद मालती बहुत देर तक रोती रहीं.

रात के खाने पर जब सुरभी ने अमित के बारे में पूछा तो उन्होंने उसे पुराना पारिवारिक मित्र बताया. लगभग 3 महीने बाद मालती चल बसीं. परंतु इतने समय उन के अंदर की खुशी को सभी ने महसूस किया था. उन के मृत चेहरे पर भी सुरभी ने गहरी संतुष्टि भरी मुसकान देखी थी. मां की तेरहवीं वाले दिन अचानक सुरभी को उस डायरी की याद आई. उस में लिखा था : मुझे क्षमा कर देना अमित, तुम ने अपने साथसाथ मेरे परिवार की इज्जत भी रख ली थी. मैं पूर्ण रूप से तृप्त हूं. मेरी सारी प्यास बुझ गई.

पढ़ते ही सुरभी ने डायरी सीने से लगा ली. उस में उसे मां की गरमाहट महसूस हुई थी. आज उसे स्वयं पर गर्व था क्योंकि उस ने सही माने में मां के प्रति अपनी दोस्ती का फर्ज जो अदा किया था.

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Mother’s Day Special: रिश्तों की कसौटी- भाग 1

‘‘अंकल, मम्मी की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई क्या?’’ मां के कमरे से डाक्टर को निकलते देख सुरभी ने पूछा. ‘‘पापा से जल्दी ही लौट आने को कहो. मालतीजी को इस समय तुम सभी का साथ चाहिए,’’ डा. आशुतोष ने सुरभी की बातों को अनसुना करते हुए कहा.

डा. आशुतोष के जाने के बाद सुरभी थकीहारी सी लौन में पड़ी कुरसी पर बैठ गई. 2 साल पहले ही पता चला था कि मां को कैंसर है. डाक्टर ने एक तरह से उन के जीने की अवधि तय कर दी थी. पापा ने भी उन की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. मां को ले कर 3-4 बार अमेरिका भी हो आए थे और अब वहीं के डाक्टर के निर्देशानुसार मुंबई के जानेमाने कैंसर विशेषज्ञ डा. आशुतोष की देखरेख में उन का इलाज चल रहा था. अब तो मां ने कालेज जाना भी बंद कर दिया था.

‘‘दीदी, चाय,’’ कम्मो की आवाज से सुरभी अपने खयालों से वापस लौटी. ‘‘मम्मी के कमरे में चाय ले चलो. मैं वहीं आ रही हूं,’’ उस ने जवाब दिया और फिर आंखें मूंद लीं.

सुरभी इस समय एक अजीब सी परेशानी में फंस कर गहरे दुख में घिरी हुई थी. वह अपने पति शिवम को जरमनी के लिए विदा कर अपने सासससुर की आज्ञा ले कर मां के पास कुछ दिनों के लिए रहने आई थी. 2 दिन पहले स्टोर रूम की सफाई करवाते समय मां की एक पुरानी डायरी सुरभी के हाथ लगी थी, जिस के पन्नों ने उसे मां के दर्द से परिचित कराया.

‘‘ऊपर आ जाओ, दीदी,’’ कम्मो की आवाज ने उसे ज्यादा सोचने का मौका नहीं दिया. सुरभी ने मां के साथ चाय पी और हर बार की तरह उन के साथ ढेरों बातें कीं. इस बार सुरभी के अंदर की उथलपुथल को मालती नहीं जान पाई थीं.

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सुरभी चाय पीतेपीते मां के चेहरे को ध्यान से देख रही थी. उस निश्छल हंसी के पीछे वह दुख, जिसे सुरभी ने हमेशा ही मां की बीमारी का हिस्सा समझा था, उस का राज तो उसे 2 दिन पहले ही पता चला था. थोड़ी देर बाद नर्स ने आ कर मां को इंजेक्शन लगाया और आराम करने को कहा तो सुरभी भी नीचे अपने कमरे में आ गई.

रहरह कर सुरभी का मन उसे कोस रहा था. कितना गर्व था उसे अपने व मातापिता के रिश्तों पर, जहां कुछ भी गोपनीय न था. सुरभी के बचपन से ले कर आज तक उस की सभी परेशानियों का हल उस की मां ने ही किया था. चाहे वह परीक्षाओं में पेपर की तैयारी करने की हो या किसी लड़के की दोस्ती की, सभी विषयों पर मालती ने एक अच्छे मित्र की तरह उस का मार्गदर्शन किया और जीवन को अपनी तरह से जीने की पूरी आजादी दी. उस की मित्रमंडली को उन मांबेटी के इस मैत्रिक रिश्ते से ईर्ष्या होती थी.

अपनी बीमारी का पता चलते ही मालती को सुरभी की शादी की जल्दी पड़ गई. परंतु उन्हें इस बात के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी. परेश के व्यापारिक मित्र व जानेमाने उद्योगपति ईश्वरनाथ के बेटे शिवम का रिश्ता जब सुरभी के लिए आया तो मालती ने चट मंगनी पट ब्याह कर दिया. सुरभी ने शादी के बाद अपना जर्नलिज्म का कोर्स पूरा किया. ‘‘दीदी, मांजी खाने पर आप का इंतजार कर रही हैं,’’ कम्मो ने कमरे के अंदर झांकते हुए कहा.

खाना खाते समय भी सुरभी का मन मां से बारबार खुल कर बातें करने को कर रहा था, मगर वह चुप ही रही. मां को दवा दे कर सुरभी अपने कमरे में चली आई. ‘कितनी गलत थी मैं. कितना नाज था मुझे अपनी और मां की दोस्ती पर मगर दोस्ती तो हमेशा मां ने ही निभाई, मैं ने आज तक उन के लिए क्या किया? लेकिन इस में शायद थोड़ाबहुत कुसूर हमारी संस्कृति का भी है, जिस ने नवीनता की चादर ओढ़ते हुए समाज को इतनी आजादी तो दे दी थी कि मां चाहे तो अपने बच्चों की राजदार बन सकती है. मगर संतान हमेशा संतान ही रहेगी. उन्हें मातापिता के अतीत में झांकने का कोई हक नहीं है,’ आज सुरभी अपनेआप से ही सबकुछ कहसुन रही थी.

हमारी संस्कृति क्या किसी विवाहिता को यह इजाजत देती है कि वह अपनी पुरानी गोपनीय बातें या प्रेमप्रसंग की चर्चा अपने पति या बच्चों से करे. यदि ऐसा हुआ तो तुरंत ही उसे चरित्रहीन करार दे दिया जाएगा. हां, यह बात अलग है कि वह अपने पति के अतीत को जान कर भी चुप रह सकती है और बच्चों के बिगड़ते चालचलन को भी सब से छिपा कर रख सकती है. सुरभी का हृदय आज तर्क पर तर्क दे रहा था और उस का दिमाग खामोशी से सुन रहा था. सुरभी सोचसोच कर जब बहुत परेशान हो गई तो उस ने कमरे की लाइट बंद कर दी.

मां की वह डायरी पढ़ कर सुरभी तड़प कर रह गई थी. यह सोच कर कि जिन्होंने अपनी सारी उम्र इस घर को, उस के जीवन को सजानेसंवारने में लगा दी, जो हमेशा एक अच्छी पत्नी, मां और उस से भी ऊपर एक मित्र बन कर उस के साथ रहीं, उस स्त्री के मन का एक कोना आज भी गहरे दुख और अपमान की आग में झुलस रहा था. उस डायरी से ही सुरभी को पता चला कि उस की मां यानी मालती की एम.एससी. करते ही सगाई हो गई थी. मालती के पिता ने एक उद्योगपति घराने में बेटी का रिश्ता पक्का किया था. लड़के का नाम अमित साहनी था. ऊंची कद- काठी, गोरा रंग, रोबदार व्यक्तित्व का मालिक था अमित. मालती पहली ही नजर में अमित को दिल दे बैठी थीं. शादी अगले साल होनी थी. इसलिए मालती ने पीएच.डी. करने की सोची तो अमित ने भी हामी भर दी.

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अमित का परिवार दिल्ली में था. फिर भी वह हर सप्ताह मालती से मिलने आगरा चला आता. मगर ठहरता गेस्ट हाउस में ही था. उन की इन मुलाकातों में परिवार की रजामंदी भी शामिल थी, इसलिए उन का प्यार परवान चढ़ने लगा. पर मालती ने इस प्यार को एक सीमा रेखा में बांधे रखा, जिसे अमित ने भी कभी तोड़ने की कोशिश नहीं की. मालती की परवरिश उन के पिता, बूआ व दादाजी ने की थी. उन की मां तो 2 साल की उम्र में ही उन्हें छोड़ कर मुंबई चली गई थीं. उस के बाद किसी ने मां की खोजखबर नहीं ली. मालती को भी मां के बारे में कुछ भी पूछने की इजाजत नहीं थी. बूआजी के प्यार ने उन्हें कभी मां की याद नहीं आने दी.

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संपूर्णा: भाग 2- पत्नी को पैर की जूती समझने वाले मिथिलेश का क्या हुआ अंजाम

मिथिलेश के एक झन्नाटेदार थप्पड़ ने उस के होश उड़ा दिए. त्योरियां चढ़ गईं मिथिलेश की. बोला, ‘‘सीधी बात समझ नहीं आती. बिस्तर पर आते ही तुरंत मेरी सेवा में लग जाया करो,’’ अब तक मिथिलेश ने उस की साड़ी निकाल किनारे फेंक दी थी और उस की संगमरमरी देह पर निर्ममता के हजारों घोड़े दौड़ा दिए थे.

अपनी जानकारी में या अपनी बिरादरी में अब तक ऐसी ही स्त्रियों को वह देखता आया था जो पति के दुर्व्यवहार को हंस कर टाल जाया करती थीं.

मिट्टी कितनी ही एक सी हो, मूर्तियां तो अलग होती ही हैं. सिद्धी भी मिथिलेश की उम्मीद से परे थी. वह न तो उठी और न ही चाय बनाई. मिथिलेश भी मिथिलेश था. वह रसोई से चाय के खाली कप उठा लाया और बैडरूम की जमीन पर पटक दिए. उसे बालों से पकड़ कर खींचा और चीखा, ‘‘बाप का राज समझती है? औरत हो कर मर्द पर गुस्सा दिखाती है? मांबाप ने पति की इज्जत करना नहीं सिखाया? मुंह उठा कर चली आई,’’ और बस तब से हर दिन रोबदार, इज्जतदार पति के प्रति समर्पण का कुहरा छटता गया. उस की लगभग प्रतिदिन ऐसे इज्जतदार पति से मुलाकात होती जो उस का गर्व नहीं बल्कि खुद में अहंकार का विस्फोट था. उसे पास बैठा कर कभी उस की मनुहार नहीं करता, बल्कि अपराधी की तरह सिद्धी को सामने खड़ा कर उसे फटकरता था.

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ऐसे कठिन दिन बिताए. फिर भी 5 साल गुजर गए. सिद्धी को अपने जीवन में कुछ अच्छा होने की उम्मीद अब भी बाकी लगती थी, यद्यपि अब तक न तो बच्चे हो पाए थे और न ही कैरियर बन पाया था.

इतना जरूर था कि उस की निराशा बगावत पर आ गई थी और डर की दीवार टूटने पर आमादा थी.

एक दिन अचानक उस के पिता की मृत्यु की सूचना आई. सिद्धी खबर मिलते ही मां के पास चली गई. लेकिन मिथिलेश तो श्राद्ध के दिन अपना चेहरा दिखाने पहुंचा.

चिन्मय अब बैंक में मैनेजर था. सूटबूट में उस की रौनक देखते ही बनती थी. सिद्धी के पिता की मृत्यु के बाद मां के घर में पसरे सूनेपन को चिन्मय भरसक भरने की कोशिश करता. सिद्धी के साथ ठिठोली करता, उसे चिढ़ाता, उस से मानमनौबल करता. सिद्धी की जो बातें कभी उस का बचपना लगती थीं आज मिथिलेश के व्यक्तित्व से दोचार होने के बाद एक पुरुष साथी में जरूरी गुण लगने लगी थी. इज्जत देने के लिए प्रेम होना जरूरी है और पतिपत्नी के बीच प्रेम समानता के बिना कहां संभव है?

चिन्मय की मदद से उस ने एक प्राइवेट नर्सिंगहोम में साइकोलौजिस्ट की नौकरी ढूंढ़ ली थी. तनख्वाह अच्छी थी. सुबह 9 बजे से दोपहर 1 बजे तक वहां बैठने की बात थी जो सिद्धी को सहज स्वीकार्य था.

खोए हुए आत्मविश्वास का मंत्रपाठ जो चिन्मय ने दिया उस के भरोसे अब मिथिलेश की नाजायज चीखों के आगे डटे रहने की उस में फिर से शक्ति आने लगी. अलबत्ता, मिथिलेश धीरेधीरे उस की तरफ से लापरवाह होता गया. कुछ हद तक अनसुने, अनदेखे का भाव. हां बिस्तर की चाकरी सिद्धी को हर हाल में करनी पड़ती.

चिन्मय की जिंदगी निराली थी. बड़े भाईभाभी उस के साथ रहते तो थे, लेकिन आंगन के बीच एक दीवार खड़ी थी जो भाभी कोशिशों का नतीजा थी. सिद्धी के प्रति लगाव और भाभी का व्यवहार कुल मिला कर उस ने शादी के खयाल को परे ही कर रखा था.

एक तरफ के दोमंजिले मकान में चिन्मय ऊपर और नीचे  उस के मम्मीपापा रहते थे. मातापिता की उम्र अधिक थी और ज्यादातर वे कामवाली के भरोसे रहते. चिन्मय उन का बराबर खयाल रखता. छुट्टी के दिन उन्हें घुमाने भी ले जाता.

वापस आ कर सिद्धी मिथिलेश के गुस्से को और झेल पाने में खुद को लाचार पा रही थी. कुछ मन लगे, कुछ ध्यान बंटे इसलिए रिद्धी को वह अपने पास बुलाने लगी थी. यों साल गुजरा. आज सिद्धी की तबीयत ठीक नहीं थी. सोचा कि नर्सिंगहोम न जाए, फिर कुछ मरीजों का सोच कर वह चली गई. वापस जब आई तब दिन के 11 बज रहे थे. सोचा था जल्दी आ कर थोड़ा आराम कर लेगी.

सीढि़यों से दूसरी मंजिल पर आतेआते उस ने कई ऐसी आवाजें सूनीं जिन से विश्वास की चूलें हिल गईं. आंखें पथरा गईं. बैडरूम से आती आवाजें साफ होती गईं जो सीने में सौसौ हथौड़ों के बराबर थीं.

रिद्धी की आवाज आ रही थी, ‘‘जीजू बस अब और नहीं,’’ खिलखिलाहट के साथ कहती हुई वह शायद जीजू पर लोट गई थी.

सिद्धी की अनुभवी आंखें अंदर का सारा दृश्य देख रही थीं.

‘‘जीजू… दीदी आ जाएगी,’’ छोड़ो अब और नहीं.

‘‘अभी देर है, वैसे आ भी जाएगी तो क्या, मैं परवाह नहीं करता.’’

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सिद्धी दूसरे कमरे तक किसी तरह खुद को ढकलते हुए ले गई और बिस्तर पर फेंक दिया अपनेआप को. घृणा से भर गई वह अपने जीवन के प्रति. एक पत्नी होने का उसे इतना दुखद सिला क्यों मिल रहा है?

मिथिलेश बदमिजाज था, पत्नी को पैरों की जूती समझता था. परंपरावादी सोच को शास्त्रवाक्य मान कर पत्नी को अपने से नीच जीव समझता था. सहने की हद होती है और इस हद की रेखा सिद्धी को ही खींचनी थी.

रात को सोते वक्त सिद्धी की सपनों से लवरेज आंखें अफसोस के आंसुओं से दोहरी हो गईं.

मिथिलेश उसे देखते ही मशीन की तरह अपने शिकंजे में कसने लगा. वह परे हट कर चीखी, ‘‘आप ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा

क्यों किया?’’

ढीठ की तरह मिथिलेश ने जवाब दिया, ‘‘मुझ पर उंगली उठाने का तुम्हें कोई हक नहीं. पहले मेरा वंश बढ़ाओ, फिर सवाल करना, समझ.’’

यही एक नश्तर था जो सिद्धी को हर आड़े वक्त पर चुभता था. क्या वह वाकई मां  बनने लायक नहीं थी? क्या वह इतने सालों से बिना चैकअप कराए बैठी है? वह नहीं, मिथिलेश पिता बनने के काबिल नहीं. लेकिन वह चुप है ताकि मिथिलेश को बुरा न लगे.

इधर मिथिलेश इस खुशी में उसे धोखे और मक्कारी से नवाज रहा है कि वह औरत है. उस के पैरों की जूती है. क्यों शरीर की किसी कमी के जाहिर होने पर मर्द की इज्जत चली जाएगी? क्यों मर्द की इज्जत अहंकार की प्रत्यंचा पर चढ़ा तीर होती है? क्या मिथिलेश जैसा पति दोस्त नहीं. पत्नी का मालिक होता है? सैकड़ों अनसुलझे सवाल सिद्धी को परेशान करने लगे थे.

मिथिलेश के दिल में क्यों इतनी खुन्नस है? क्या सिद्धी का पढ़ालिखा समझदार होना मिथिलेश के अंह को चोट पहुंचाता है? क्या यही इज्जतदार होने की निशानी है?

अगले दिन दोपहर तक सिद्धी का कोई अतापता नहीं था. खानेपीने का इंतजाम कर वह निकल गई थी. शाम को मिथिलेश के हाथों में उस का डाक्टरी परीक्षण था. यह उस के स्त्रीत्व का प्रमाणपत्र था जैसे.

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रिपोर्ट को नौर्मल देख मिथिलेश की त्योरियां चढ़ गईं. रिपोर्ट को टेबल पर फेंक उस ने कहा, ‘‘यह अपनी किसी पहचानवाली से करवा लाई हो, आपस की मिलीभगत होगी.’’

‘‘आप ने खुद की जांच कर ली है या नहीं… कुछ नहीं तो कम से कम मेरी बहन के साथ मेरे पीछे गलत रिश्ता तो न बनाते,’’ सिद्धी ने तीखे शब्दों में कहा.

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भूल: भाग 3- शिखा के ससुराल से मायके आने की क्या थी वजह

पिछला भाग- भूल: भाग-2

‘‘तब मुझे सहयोग करो. शिखा नौकरी भी छोड़ देगी और लौटने के लिए भी राजी हो जाएगी. मेरी समझ से उसे सारा ध्यान रोहित के उचित पालनपोषण पर लगाना चाहिए.’’

‘‘जी बिलकुल.’’

‘‘मैं जो कहूंगी, वह करोगे?’’

‘‘मुझे क्या करना है?’’

‘‘तुम रोहित को आज चिडि़याघर दिखा लाओ. शाम को लौटना और यहां आने से पहले मुझे फोन कर लेना. ध्यान बस इसी बात का रखना कि तुम्हें शिखा से कोई संपर्क नहीं रखना है. तुम्हारे सारे सवालों के जवाब मैं शाम को दूंगी.’’

कुछ देर खामोश रह कर उस ने सोचविचार किया और फिर मेरी बात मान ली.

कुछ देर बाद बापबेटा चिडि़याघर घूमने निकल गए. उन के जाने के बाद मैं ने शिखा को औफिस में फोन किया और भय से कांपती आवाज से बोली, ‘‘बेटी, तू इसी वक्त घर आ जा. हम सब बड़ी मुसीबत में हैं.’’

‘‘रोहित को कुछ हुआ है क्या?’’ वह फौरन घबरा उठी.

‘‘रोहित को भी… और राजीव को भी… तू फौरन यहां पहुंच और देख, उस तरुण से न इस बात की चर्चा करना, न उस के साथ आना वरना सब बहुत गड़बड़ हो जाएगा. बस, फौरन आ जा,’’ और मैं ने फोन काट दिया. करीब 15 मिनट के अंदर शिखा घर आ गई.

वह मेरे सामने पहुंची, तो मैं ने गुस्से से घूरना शुरू कर दिया.‘‘क्या हुआ है? मुझे ऐसे क्यों देख रही हैं?’’ उस की घबराहट और बढ़ गई.

‘‘अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार कर तुझे क्या मिला है, बेवकूफ? मैं ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि मेरी बेटी चरित्रहीन निकलेगी,’’ क्रोधावेश के कारण मेरी आवाज कांप उठी.

‘‘यह क्या कह रही हैं आप?’’ मन में चोर होने के कारण उस का चेहरा फौरन पीला पड़ गया.

‘‘राजीव को सब पता लग गया है, बेहया…’’

‘‘क्या पता लग गया है उन्हें?’’ पूरा वाक्य मुंह से निकले में वह कई बार अटकी.

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‘‘तरुण और तुम्हारे गलत संबंध के बारे में.’’

‘‘हमारे बीच कोई गलत संबंध नहीं है,’’ उस ने आवाज ऊंची कर के अपने इनकार में वजन पैदा करना चाहा.

‘‘तू क्या सोमवार और बुधवार को उस के साथ रेस्तरां में नहीं गई थी?’’

‘‘नहीं… और अगर गई भी थी तो इस से यह साबित नहीं होता कि तरुण और मेरे…’’

‘‘पिछले शुक्रवार को तुम दोनों ने क्या फिल्म नहीं देखी थी?’’

‘‘नहीं,’’ उस ने झूठ बोला.

मैं ने आगे बढ़ कर एक जोर का तमाचा उस के गाल पर जड़ा और चिल्लाई, ‘‘यों झूठ बोल कर तू अब अपने माथे पर लगा कलंक का टीका साफ नहीं कर पाएगी, मूर्ख लड़की. राजीव रोहित को तुझ से दूर ले गया है. उस ने तुम्हें अपनी व अपने बेटेकी जिंदगी से बाहर निकाल फेंकने का निर्णय ले लिया है… हमारी नाक कटा दी तू ने और अपनी तो जिंदगी ही बरबाद कर ली.’’

मेरे चांटे का फौरन असर हुआ. वह झूठ बोल कर अपना बचाव करना भूल गई. अपने हाथों में उस ने अपना मुंह छिपाया और रो पड़ी.

‘‘अब क्यों रो रही है?’’ मैं ने उस पर चोट करना जारी रखा, ‘‘राजीव से तलाक मिल जाएगा तुझे. जा कर उस तरुण से बात कर कि वह भी अब अपनी पत्नी से तलाक ले कर तुझे अपनाए.’’

‘‘मैं रोहित से दूर नहीं रह सकती हूं,’’ अपनी इच्छा बता कर वह और जोर से रो पड़ी.

‘‘रोहित के पिता को धोखा दे कर… उस के प्रेम को अपमानित कर के तू किस मुंह से रोहित को मांग रही है? अब तू उन्हें भूल जा और उस तरुण के साथ…’’

‘‘उस का नाम मत लो, मां,’’ वह तड़प उठी, ‘‘मैं उस से आगे कोई संबंध नहीं रखूंगी. मैं भटक गई थी… मुझे उन दोनों के साथ ही रहना है, मां.’’

‘‘अब यह नहीं हो सकता, बेटी.’’

‘‘मां, कुछ करो, प्लीज,’’ वह मेरे गले लग कर बिलखने लगी.

मैं ने मन ही मन राहत की सांस ली. शिखा की प्रतिक्रिया से साफ जाहिर था कि तरुण और उस के बीच अवैध संबंध नहीं था.

मेरी मूर्ख बेटी ने ससुराल में मिली आजादी का गलत फायदा उठाया था. अपने पति के प्रेम का नाजायज फायदा उठाते हुए वह नासमझी में भटक गई थी.

मैं बंदर के हाथ उस्तरा देने की कुसूरवार थी. मुझे पता था कि मेरी बेटी सुंदर ज्यादा है और गुणवान कम. ऐसी लड़कियां संयुक्त परिवार की सुरक्षा में ज्यादा सुखी रहती हैं. उसे परिवार से अलग कर मैं ने भारी भूल की थी.

जिस भय, चिंता व तनाव भरी मनोदशा का शिखा शिकार थी, उस के चलते उस से अपनी हर बात मनवाना मेरे लिए कठिन नहीं था. राजीव और रोहित को पाने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार थी.

मैं ने आसानी से उसे फौरन नौकरी छोड़ने व ससुराल लौटने को तैयार कर लिया.

‘‘बेटी, जगह की कमी, ससुराल वालों के दुर्व्यवहार या किसी अन्य मजबूरी के कारण बहुएं संयुक्त परिवार को छोड़ देती हैं, पर तू सिर्फ जिम्मेदारियों से बचने के लिए अलग हुई. तुझे गलत शह देने की कुसूरवार मैं भी हूं. तू ससुराल लौट कर ही सुखी रहेगी, इस में कोई शक नहीं. तू मुझ से एक वादा कर,’’ मैं बहुत गंभीर हो गई.

‘‘कैसा वादा?’’ उस ने आंसू पोंछते हुए पूछा.

‘‘यही कि इस बार लौट कर तुम अपने उत्तरदायित्वों को सही तरह से निभाओगी… अपने संयुक्त परिवार की मजबूत कड़ी बनोगी.’’

‘‘बनूंगी, मां,’’ उस ने जोर से कहा.

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मैं ने आगे झुक कर उस का माथा चूमा और भावुक लहजे में बोली, ‘‘अब सच बात सुन. जिस व्यक्ति ने मुझे तरुण और तुम्हारे बारे में बताया है, वह राजीव नहीं है और उस ने भूल सुधार फौरन न होने की स्थिति में सब कुछ राजीव को बताने की धमकी भी दी है.’’

‘‘क…कौन है वह व्यक्ति?’’ उस ने परेशान लहजे में पूछा.

‘‘उस का नाम मत पूछ. बस, अपनेआप को बदल डाल, बेटी और अपने विवाहित जीवन की सुरक्षा व खुशियों को फिर कभी अपनी मूर्खता व नासमझी द्वारा दांव पर मत लगाना. इस बार तुम बच जाओगी, पर भविष्य में…’’

उस ने मेरे मुंह पर हाथ रख कर मजबूत स्वर में जवाब दिया, ‘‘भविष्य में ऐसी भूल कभी नहीं दोहराऊंगी, मां. पर तुम्हें विश्वास है कि सब जानने वाला वह इंसान अपना मुंह बंद रखेगा?’’

‘‘हां, बेटी,’’ मैं ने उसे अपनी छाती से लगाया और मौन आंसू बहाने लगी, क्योंकि अपने द्वारा की गई भूलों का कड़वा पल सामने आया देख मैं खुद को काफी शर्मिंदा महसूस कर रही थी.

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पदचिह्न: भाग 2- क्या किया था पूजा ने?

लेखिका- रेनू मंडल

जिंदगी भर मैं ने अपने सासससुर की उपेक्षा की. उन की ममता को उन की विवशता समझ कर जीवनभर अनदेखा करती रही. मैं ने कभी नहीं चाहा, मेरे सासससुर मेरे साथ रहें. उन का दायित्व उठाना मेरे बस की बात नहीं थी. अपनी स्वतंत्रता, अपनी निजता मुझे अत्यधिक प्रिय थी. समीर पर मैं ने सदैव अपना आधिपत्य चाहा. कभी नहीं सोचा, बूढ़े मांबाप के प्रति भी उन के कुछ कर्तव्य हैं. इस पीड़ा और उपेक्षा को झेलतेझेलते मेरे सासससुर कुछ साल पहले इस दुनिया से चले गए.

वास्तव में इनसान बहुत ही स्वार्थी जीव है. दोहरे मापदंड होते हैं उस के जीवन में, अपने लिए कुछ और, दूसरे के लिए कुछ और. अब जबकि मेरी उम्र बढ़ रही है, शरीर साथ छोड़ रहा है, मेरे विचार, मेरी प्राथमिकताएं बदल गई हैं. अब मैं हैरान होती हूं आज की युवा पीढ़ी पर. उस की छोटी सोच पर. वह क्यों नहीं समझती कि बुजुर्गों का साथ रहना उन के हित में है.

आज के बच्चे अपने मांबाप को अपने बुजुर्गों के साथ जैसा व्यवहार करते देखेंगे वैसा ही व्यवहार वे भी बड़े हो कर उन के साथ करेंगे. एक दिन मैं ने नेहा से कहा था, ‘‘घर के बड़ेबुजुर्ग आंगन में लगे वट वृक्ष के समान होते हैं, जो भले ही फल न दें, अपनी छाया अवश्य देते हैं.’’

मेरी बात सुन कर नेहा के चेहरे पर व्यंग्यात्मक हंसी तैर गई थी. उस की बड़ीबड़ी आंखों में अनेक प्रश्न दिखाई दे रहे थे. उस की खामोशी मुझ से पूछ रही थी कि क्यों मम्मीजी, क्या आप के बुजुर्ग आंगन में लगे वट वृक्ष के समान नहीं थे, क्या वे आप को अपनी छाया, अपना संबल प्रदान नहीं करते थे? जब आप ने उन के संरक्षण में रहना नहीं चाहा तो फिर मुझ से ऐसी अपेक्षा क्यों?

आहत हो उठी थी मैं उस के चेहरे के भावों को पढ़ कर और साथ ही साथ शर्मिंदा भी. उस समय अपने ही शब्द मुझे खोखले जान पड़े थे. इस समय मन की अदालत में न जाने कितने प्रसंग घूम रहे थे, जिन में मैं स्वयं को अपराधी के कटघरे में खड़ा पा रही थी. कहते हैं न, इनसान सब से दूर भाग सकता है किंतु अपने मन से दूर कभी नहीं भाग सकता. उस की एकएक करनी का बहीखाता मन के कंप्यूटर में फीड रहता है.

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मैं ने चेहरा घुमा कर खिड़की के बाहर देखा. शाम ढल चुकी थी. रात्रि की परछाइयों का विस्तार बढ़ता जा रहा था और इसी के साथ नर्सिंग होम की चहल पहल भी थक कर शांत हो चुकी थी. अधिकांश मरीज गहरी निद्रा में लीन थे किंतु मेरी आंखों की नींद को विचारों की आंधियां न जाने कहां उड़ा ले गई थीं. सोना चाह कर भी सो नहीं पा रही थी, मन बेचैन था. एक असुरक्षा की भावना मन को घेरे हुए थी. तभी मुझे अपने नजदीक आहट महसूस हुई, चेहरा घुमा कर देखा, समीर मेरे निकट खड़े थे.

मेरे माथे पर हाथ रख स्नेह से बोले, ‘‘क्या बात है पूजा, इतनी परेशान क्यों हो?’’

‘‘मैं घर जाना नहीं चाहती हूं,’’ डूबते स्वर में मैं बोली.

‘‘मैं जानता हूं, तुम ऐसा क्यों कह रही हो? घबराओ मत, कल का सूरज तुम्हारे लिए आशा और खुशियों का संदेश ले कर आ रहा है. तुम्हारे बेटाबहू तुम्हारे पास आ रहे हैं.’’

समीर के कहे इन शब्दों ने मुझ में एक नई चेतना, नई स्फूर्ति भर दी. सचमुच रजत और नेहा का आना मुझे उजली धूप सा खिला गया. आते ही रजत ने अपनी बांहें मेरे गले में डालते हुए कहा, ‘‘यह क्या हाल बना लिया मम्मी, कितनी कमजोर हो गई हो? खैर कोई बात नहीं. अब मैं आ गया हूं, सब ठीक हो जाएगा.’’

एक बार फिर से इन शब्दों की भूलभुलैया में मैं विचरने लगी. एक नई आशा, नए विश्वास की नन्हीनन्ही कोंपलें मन में अंकुरित होने लगीं. व्यर्थ ही मैं चिंता कर रही थी, कल से न जाने क्याक्या सोचे जा रही थी, हंसी आ रही थी अब मुझे अपनी सोच पर. जिस बेटे को 9 महीने अपनी कोख में रखा, ममता की छांव में पालपोस कर बड़ा किया, वह भला अपने मांबाप की ओर से आंखें कैसे मूंद सकता है? मेरा रजत ऐसा कभी नहीं कर सकता.

नर्सिंग होम से मैं घर वापस आई तो समीर और बेटेबहू क्या घर की दीवारें तक जैसे मेरे स्वागत में पलकें बिछा रही थीं. घर में चहलपहल हो गई थी. धु्रव की प्यारीप्यारी बातों ने मेरी आधी बीमारी को दूर कर दिया था. रजत अपने हाथों से दवा पिलाता, नेहा गरम खाना बना कर आग्रहपूर्वक खिलाती. 6-7 दिन में ही मैं स्वस्थ नजर आने लगी थी.

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एक दिन शाम की चाय पीते समय रजत ने कहा, ‘‘पापा, मुझे आए 10 दिन हो चुके हैं. आप तो जानते हैं, प्राइवेट नौकरी है. अधिक छुट्टी लेना ठीक नहीं है.’’

‘‘तुम ठीक कह रहे हो. कब जाना चाहते हो?’’ समीर ने पूछा.

‘‘कल ही हमें निकल जाना चाहिए, किंतु आप दोनों चिंता मत करना, जल्दी ही मैं फिर आऊंगा.’’

अपनी ओर से आश्वासन दे कर रजत और नेहा अपने कमरे में चले गए. एक बार फिर से निराशा के बादल मेरे मन के आकाश पर छाने लगे. हताश स्वर में मैं समीर से बोली, ‘‘जीवन की इस सांध्य बेला में अकेलेपन की त्रासदी झेलना ही क्या हमारी नियति है? इन हाथ की लकीरों में क्या बच्चों का साथ नहीं लिखा है?’’

‘‘पूजा, इतनी भावुकता दिखाना ठीक नहीं. जिंदगी की हकीकत को समझो. रजत की प्राइवेट नौकरी है. वह अधिक दिन यहां कैसे रुक सकता है?’’ समीर ने मुझे समझाना चाहा.

मेरी आंखों में आंसू आ गए. रुंधे कंठ से मैं बोली, ‘‘यहां नहीं रुक सकता किंतु हमें अपने साथ दिल्ली चलने को तो कह सकता है या इस में भी उस की कोई विवशता है. अपनी नौकरी, अपनी पत्नी, अपना बच्चा बस, यही उस की दुनिया है. बूढ़े होते मांबाप के प्रति उस का कोई कर्तव्य नहीं. पालपोस कर क्या इसीलिए बड़ा किया था कि एक दिन वह हमें यों बेसहारा छोड़ कर चला जाएगा.’’

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‘‘शांत हो जाओ, पूजा,’’ समीर बोले, ‘‘तुम्हारी सेहत के लिए क्रोध करना ठीक नहीं. ब्लडप्रेशर बढ़ जाएगा, रजत अभी उतना बड़ा नहीं है जितना तुम उसे समझ रही हो. हम ने आज तक उसे कोई दायित्व सौंपा ही कहां है? पूजा, अकसर हम अपनों से अपेक्षा रखते हैं कि हमारे बिना कुछ कहे ही वे हमारे मन की बात समझ जाएं, वही बोलें जो हम उन से सुनना चाहते हैं और ऐसा न होने पर दुखी होते हैं. रजत पर क्रोध करने से बेहतर है, तुम उस से अपने मन की बात कहो. देखना, यह सुन कर कि हम उस के साथ दिल्ली जाना चाहते हैं, वह बहुत प्रसन्न होगा.’’

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पदचिह्न: भाग 3- क्या किया था पूजा ने?

लेखिका- रेनू मंडल

कुछ देर खामोश बैठी मैं समीर की बातों पर विचार करती रही और आखिर रजत से बात करने का मन बना बैठी. मैं उस की मां हूं, मेरा उस पर अधिकार है. इस भावना ने मेरे फैसले को बल दिया और कुछ समय के लिए नेहा की उपस्थिति से उपजा एक अदृश्य भय और संकोच मन से जाता रहा.

मैं कुरसी से उठी. तभी दूसरे कमरे में परदे के पीछे से नेहा के पांव नजर आए. मैं समझ गई परदे के पीछे खड़ी वह हम दोनों की बातें सुन रही थी. मेरा निश्चय कुछ डगमगाया किंतु अधिकार की बात याद आते ही पुन: कदमों में दृढ़ता आ गई. रजत के कमरे के बाहर नेहा के शब्द मेरे कानों में पड़े, ‘मम्मी ने स्वयं तो जीवनभर आजाद पंछी बन कर ऐश की और मुझे अभी से दायित्वों के बंधन में बांधना चाहती हैं. नहीं रजत, मैं साथ नहीं रहूंगी.’

नेहा से मुझे कुछ ऐसी ही नासमझी की उम्मीद थी. अत: मैं ने ऐसा दिखाया मानो कुछ सुना ही न हो. तभी मेरे कदमों की आहट सुन कर रजत ने मुड़ कर देखा, बोला, ‘‘अरे, मम्मी, तुम ने आने की तकलीफ क्यों की? मुझे बुला लिया होता.’’

‘‘रजत बेटा, मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं,’’ कहतेकहते मैं हांफने लगी.

रजत ने मुझे पलंग पर बैठाया फिर स्वयं मेरे नजदीक बैठ मेरा हाथ सहलाते हुए बोला, ‘‘हां, अब बताओ मम्मी, क्या कह रही हो?’’

‘‘बेटा, अब मेरा और तुम्हारे पापा का अकेले यहां रहना बहुत कठिन है. हम दोनों तुम्हारे पास दिल्ली रहना चाहते हैं. अकेले मन भी नहीं लगता.’’

इस से पहले कि रजत कुछ कहता, समीर भी धु्रव को गोद में उठाए कमरे में चले आए. बात का सूत्र हाथ में लेते हुए बोले, ‘‘रजत, तुम तो देख ही रहे हो अपनी मम्मी की हालत. इन्हें अकेले संभालना अब मेरे बस की बात नहीं है. इस उम्र में हमें तुम्हारे सहारे की आवश्यकता है.’’

‘‘पापा, आप दोनों का कहना अपनी जगह ठीक है किंतु यह भी तो सोचिए, लखनऊ का इतना बड़ा घर छोड़ कर आप दोनों दिल्ली के हमारे 2 कमरों के फ्लैट में कैसे एडजस्ट हो पाएंगे? जहां तक मन लगने की बात है, आप दोनों अपना रुटीन चेंज कीजिए. सुबहशाम घूमने जाइए. कोई क्लब अथवा संस्था ज्वाइन कीजिए. जब आप का यहां मन नहीं लगता है तो दिल्ली में कैसे लग सकता है? वहां तो अगलबगल रहने वाले आपस में बात तक नहीं करते हैं.’’

‘‘मन लगाने के लिए हमें पड़ोसियों का नहीं, अपने बच्चों का साथ चाहिए. तुम और नेहा जौब पर जाते हो, इस कारण धु्रव को कै्रच में छोड़ना पड़ता है. हम दोनों वहां रहेंगे तो धु्रव को क्रैच में नहीं भेजना पड़ेगा. हमारा भी मन लगा रहेगा और धु्रव की परवरिश भी ठीक से हो सकेगी.’’

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‘‘क्रैच में बच्चों को छोड़ना आजकल कोई समस्या नहीं है पापा. बल्कि क्रैच में दूसरे बच्चों का साथ पा कर बच्चा हर बात जल्दी सीख जाता है, जो घर में रह कर नहीं सीख पाता.’’

‘‘इस का मतलब तुम नहीं चाहते कि हम दोनों तुम्हारे साथ दिल्ली में रहें,’’ समीर कुछ उत्तेजित हो उठे थे.

‘‘कैसी बातें करते हैं पापा? चाहता मैं भी हूं कि हम लोग एकसाथ रहें किंतु प्रैक्टिकली यह संभव नहीं है.’’

तभी नेहा बोल उठी, ‘‘इस से बेहतर विकल्प यह होगा पापा कि हम लोग यहां आते रहें बल्कि आप दोनों भी कुछ दिनों के लिए आइए. हमें अच्छा लगेगा.’’

‘कुछ’ शब्द पर उस ने विशेष जोर दिया था. उन की बात का उत्तर दिए बिना मैं और समीर अपने कमरे में चले आए थे.

शाम का अंधेरा गहराता जा रहा था. मेरे भीतर भी कुछ गहरा होता जा रहा था. कुछ टूट रहा था, बिखर रहा था. हताश सी मैं पलंग पर लेट कर छत को निहारने लगी. वर्तमान से छिटक कर मन अतीत के गलियारे में विचरने लगा था.

आगरा में मेरे सासससुर उन दिनों बीमार रहने लगे थे. समीर अकसर बूढ़े मांबाप को ले कर चिंतित हो उठते थे. रात के अंधेरे में अकसर उन्हें फर्ज और कर्तव्य जैसे शब्द याद आते, खून जोश मारता, बूढ़े मांबाप को साथ रखने को जी चाहता किंतु सुबह होतेहोते भावुकता व्याव- हारिकता में बदल जाती. काम की व्यस्तता और मेरी इच्छा को सर्वोपरि मानते हुए वह जल्दी ही मांबाप को साथ रखने की बात भूल जाते.

एक बार मैं और समीर दीवाली पर आगरा गए थे. उस समय मेरी सास ने कहा था, ‘समीर बेटे, मेरी और तुम्हारे बाबूजी की तबीयत अब ठीक नहीं रहती. अकेले पड़ेपड़े दिल घबराता है. काम भी नहीं होता. यह मकान बेच कर तुम्हारे साथ लखनऊ रहना चाहते हैं.’

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इस से पहले कि समीर कुछ कहें मैं उपेक्षापूर्ण स्वर में बोल उठी थी, ‘अम्मां मकान बेचने की भला क्या जरूरत है? आप की लखनऊ आने की इच्छा है तो कुछ दिनों के लिए आ जाइए.’ ‘कुछ’ शब्द पर मैं ने भी विशेष जोर दिया था. इस बात से अम्मां और बाबूजी बेहद आहत हो उठे थे. उन के चेहरे पर न जाने कहां की वेदना और लाचारी सिमट आई थी. फिर कभी उन्होंने लखनऊ रहने की बात नहीं उठाई थी. काश, वक्त रहते अम्मां की आंखों के सूनेपन में मुझे अपना भविष्य दिखाई दे जाता.

तो क्या इतिहास स्वयं को दोहरा रहा है? जैसा मैं ने किया वही मेरे साथ भी.. मन में एक हूक सी उठी. तभी एक दीर्घ नि:श्वास ले कर समीर बोले, ‘‘मैं सोच भी नहीं सकता था पूजा कि हमारा रजत इतना व्यावहारिक हो सकता है. किस खूबसूरती से उस ने अपने फर्ज, अपने दायित्व यहां तक कि अपने मांबाप से भी किनारा कर लिया.’’

‘‘इस में उस का कोई दोष नहीं, समीर. सच पूछो तो मैं ने उसे ऐसे संस्कार ही कहां दिए जो वह अपने मांबाप के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करे. उन की सेवा करे. मैं ने हमेशा रजत से यही कहा कि मांबाप की सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है. इस बात को मैं भूल ही गई कि बच्चों के ऊपर मांबाप के उपदेशों का नहीं बल्कि उन के कार्यों का प्रभाव पड़ता है.’’

‘‘चुप हो जाओ पूजा, तुम्हारी तबीयत खराब हो जाएगी.’’

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‘‘नहीं, आज मुझे कह लेने दो, समीर. रजत और नेहा तो फिर भी अच्छे हैं. बीमारी में ही सही कम से कम इन दिनों मेरा खयाल तो रखा. मैं ने तो कभी अम्मां और बाबूजी से अपनत्व के दो शब्द नहीं बोले. कभी नहीं चाहा कि वे दोनों हमारे साथ रहें, यही नहीं तुम्हें भी सदैव तुम्हारा फर्ज पूरा करने से रोका. जब पेड़ ही बबूल का बोया हो तो आम के फल की आशा रखना व्यर्थ है.’’

समीर ने मेरे दुर्बल हाथ को अपनी हथेलियों के बीच ले कर कहा, ‘‘इस में दोष अकेले तुम्हारा नहीं, मेरा भी है लेकिन अब अफसोस करने से क्या फायदा? दिल छोटा मत करो पूजा. बस, यही कामना करो, हम दोनों का साथ हमेशा बना रहे.’’

मैं ने भावविह्वल हो कर समीर का हाथ कस कर थाम लिया, हृदय की संपूर्ण वेदना चेहरे पर सिमट आई, आंखों की कोरों से आंसू बह निकले, जो चेहरे की लकीरों में ही विलीन हो गए. आज मुझे समझ में आ रहा था कि समय की रेत पर हम जो पदचिह्न छोड़ जाते हैं, आने वाली पीढ़ी उन्हीं पदचिह्नों का अनुसरण कर के आगे बढ़ती है.

पदचिह्न: भाग 1- क्या किया था पूजा ने?

लेखिका- रेनू मंडल

बात बहुत छोटी सी थी किंतु अपने आप में गूढ़ अर्थ लिए हुए थी. मेरा बेटा रजत उस समय 2 साल का था जब मैं और मेरे पति समीर मुंबई घूमने गए थे. समुद्र के किनारे जुहू बीच पर हमें रेत पर नंगे पांव चलने में बहुत आनंद आता था और नन्हा रजत रेत पर बने हमारे पैरों के निशानों पर अपने छोटेछोटे पांव रख कर चलने का प्रयास करता था. उस समय तो मुझे उस की यह बालसुलभ क्रीड़ा लगी थी किंतु आज 25 वर्ष बाद नर्सिंग होम के कमरे में लेटी हुई मैं उस बात में छिपे अर्थ को समझ पाई थी.

हफ्ते भर पहले पड़े सीवियर हार्टअटैक की वजह से मैं जीवन और मौत के बीच संघर्ष करती रही थी, मैं समझ सकती हूं वे पल समीर के लिए कितने कष्टकर रहे होंगे, किसी अनिष्ट की आशंका से उन का उजला गौर वर्ण स्याह पड़ गया था. माथे पर पड़ी चिंता की लकीरें और भी गहरा गई थीं, जीवन की इस सांध्य बेला में पतिपत्नी का साथ क्या माने रखता है, इसे शब्दों में जाहिर कर पाना नामुमकिन है.

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नर्सिंग होम में आए मुझे 6 दिन बीत गए थे. यद्यपि मुझे अधिक बोलने की मनाही थी फिर भी नर्सों की आवाजाही और परिचितों के आनेजाने से समय कब बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था. अगली सुबह डाक्टर ने मेरा चेकअप किया और समीर से बोले, ‘‘कल सुबह आप इन्हें घर ले जा सकते हैं किंतु अभी इन्हें बहुत एहतियात की जरूरत है.’’

घर जाने की बात सुनते ही हर्षित होने के बजाय मैं उदास हो गई थी. मन में बेचैनी और घुटन का एहसास होने लगा था. फिर वही दीवारें, खिड़कियां और उन के बीच पसरा हुआ भयावह सन्नाटा. उस सन्नाटे को भंग करता मेरा और समीर का संक्षिप्त सा वार्तालाप और फिर वही सन्नाटा. बेटी पायल का जब से विवाह हुआ और बेटा रजत नौकरी की वजह से दिल्ली गया, वक्त की रफ्तार मानो थम सी गई है. शुरू में एक आशा थी कि रजत का विवाह हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा. किंतु सब ठीक हो जाएगा जैसे शब्द इनसान को झूठी तसल्ली देने के लिए ही बने हैं. सबकुछ ठीक होता कभी नहीं है. बस, एक झूठी आशा, झूठी उम्मीद में इनसान जीता रहता है.

मैं भी, इस झूठी आशा में कितने ही वर्ष जीती रही. सोचती थी, जब तक समीर की नौकरी है, कभी बेटाबहू हमारे पास आ जाया करेंगे, कभी हम दोनों उन के पास चले जाया करेंगे और समीर के रिटायरमेंट के बाद तो रजत अपने साथ हमें दिल्ली ले ही जाएगा किंतु सोचा हुआ क्या कभी पूरा होता है? रजत के विवाह के बाद कुछ समय तक आनेजाने का सिलसिला चला भी. पोते धु्रव के जन्म के समय मैं 2 महीने तक दिल्ली में रही थी. समीर रिटायर हुए तो दिल्ली के चक्कर अधिक लगने लगे. बेटेबहू से अधिक पोते का मोह अपनी ओर खींचता था. वैसे भी मूलधन से ब्याज अधिक प्यारा होता है.

धु्रव की प्यारी मीठीमीठी बातों ने हमें फिर से हमारा बचपन लौटा दिया था. धु्रव के साथ खेलना, उस के लिए खिलौने लाना, छोटेछोटे स्वेटर बनाना, कितना आनंददायक था सबकुछ. लगता था धु्रव के चारों तरफ ही हमारी दुनिया सिमट कर रह गई थी. किंतु जल्दी ही मुट्ठी में बंद रेत की तरह खुशियां हाथ से फिसल गईं. जैसेजैसे मेरा और समीर का दिल्ली जाना बढ़ता गया, नेहा का हमारे ऊपर लुटता स्नेह कम होने लगा और उस की जगह ले ली उपेक्षा ने. मुंह से उस ने कभी कुछ नहीं कहा. ऐसी बातें शायद शब्दों की मोहताज होती भी नहीं किंतु मुझे पता था कि उस के मन में क्या चल रहा था. भयभीत थी वह इस खयाल से कि कहीं मैं और समीर उस के पास दिल्ली शिफ्ट न हो जाएं.

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ऐसा नहीं था कि रजत नेहा के इस बदलाव से पूरी तरह अनजान था, किंतु वह भी नेहा के व्यवहार की शुष्कता को नजरअंदाज कर रहा था. मन ही मन शायद वह भी समझता था कि मांबाप के उस के पास आ कर रहने से उन की स्वतंत्रता में बाधा पड़ेगी. उस की जिम्मेदारियां बढ़ जाएंगी जिस से उस का दांपत्य जीवन प्रभावित होगा. उस के और नेहा के बीच व्यर्थ ही कलह शुरू हो जाएगी और ऐसा वह कदापि नहीं चाहता था. मैं ने अपने बेटे रजत का विवाह कितने चाव से किया था. नेहा के ऊपर अपनी भरपूर ममता लुटाई थी किंतु…

मैं ने एक गहरी सांस ली. मन में तरहतरह के खयाल आ रहे थे. शरीर में और भी शिथिलता महसूस हो रही थी. मन न जाने कैसाकैसा हो रहा था. मांबाप इतने जतन से बच्चों को पालते हैं और बच्चे क्या करते हैं मांबाप के लिए? बुढ़ापे में उन का सहारा तक बनना नहीं चाहते. बोझ समझते हैं उन्हें. आक्रोश से मेरा मन भर उठा था. क्या यही संस्कार दिए थे मैं ने रजत को?

इस विचार ने जैसे ही मेरे मन को मथा, तभी मन के भीतर कहीं छनाक की आवाज हुई और अतीत के आईने में मुझे अपना बदरंग चेहरा नजर आने लगा. अतीत की न जाने कितनी कटु स्मृतियां मेरे मन की कैद से छुटकारा पा कर जेहन में उभरने लगीं.

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मेरा समीर से जिस समय विवाह हुआ, वह आगरा में एक सरकारी दफ्तर में एकाउंट्स अफसर थे. वह अपने मांबाप के इकलौते लड़के थे. मेरी सास धार्मिक विचारों वाली सीधीसादी महिला थीं. विवाह के बाद पहले दिन से ही उन्होंने मां के समान मुझ पर अपना स्नेह लुटाया. मेरे नाजनखरे उठाने में भी उन्होंने कमी नहीं रखी. सारा दिन अपने कमरे में बैठ कर मैं या तो साजशृंगार करती या फिर पत्रिकाएं पढ़ती रहती थी और वह अकेली घर का कामकाज निबटातीं.

उन में जाने कितना सब्र था कि उन्होंने मुझ से कभी कोई गिलाशिकवा नहीं किया. समीर को कभीकभी मेरा काम न करना खटकता था, दबे शब्दों में वह अम्मां की मदद करने को कहते, किंतु मेरे माथे पर पड़ी त्योरियां देख खामोश रह जाते. धीरेधीरे सास की झूठीझूठी बातें कह कर मैं ने समीर को उन के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया, जिस से समीर और उन के मांबाप के बीच संवादहीनता की स्थिति आ गई. आखिर एक दिन अवसर देख कर मैं ने समीर से अपना ट्रांसफर करा लेने को कहा. थोड़ी नानुकूर के बाद वह सहमत हो गए. अभी विवाह को एक साल ही बीता था कि मांबाप को बेसहारा छोड़ कर मैं और समीर लखनऊ आ गए.

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भूल: भाग 2- शिखा के ससुराल से मायके आने की क्या थी वजह

पिछला भाग- भूल: भाग-1

पार्टी का सारा मजा रोहित के लगातार रोतेकिलसते रहने से किरकिरा हो गया. वह अपनी मां से चिपटा रहना चाहता था, पर शिखा को और भी कई काम थे.

शिखा की ससुराल से सब लोग आए जरूर, पर किसी ने पार्टी के आयोजन में सक्रिय हिस्सा नहीं लिया. सारी देखभाल सविता और मुझे करनी पड़ी. शिखा अपने औफिस के सहयोगियों की देखभाल में बेहद व्यस्त रही.

शिखा की कंपनी के मालिक के बड़े बेटे तरुण विशेष मेहमान के रूप में आए. रोहित के लिए वह छोटी साइकिल का सब से महंगा उपहार दे कर गए. अपने हंसमुख, सहज व्यवहार से उन्होंने सभी का दिल जीत लिया. शिखा और राजीव दोनों ही उन के सामने बिछबिछ जा रहे थे.

तरुण के आने से पहले राजीव और शिखा के बीच में मैं ने अजीब सा तनाव महसूस किया था. मेरे दामाद की आंखों में अपनी पत्नी के लिए भरपूर प्यार के भाव कोई भी पढ़ सकता था, पर शिखा जानबूझ कर उन भावों की उपेक्षा कर रही थी.

अपने पति को देख कर वह बारबार मुसकराती, पर उस की मुसकराहट आंखों तक नहीं पहुंचती. कोई ऐसी बात जरूर थी, जो शिखा को बेचैन किए हुए थी. उस बात की मुझे कोई जानकारी न होना मेरे लिए चिंता का कारण बन रहा था.

तरुण को विदा करने के लिए राजीव और शिखा दोनों बाहर गए. मैं पहली मंजिल की खिड़की से नीचे का सारा दृश्य देख रही थी.

तरुण की कार के पास पहुंचने के बाद शिखा ने राजीव से कहा, तो वह लौट पड़ा.

शिखा कार से सट कर खड़ी हो गई. तरुण उस के नजदीक खड़े थे. दोनो हंसहंस कर बातें कर रहे थे.

उन्हें कोई भी देखता तो किसी तरह के शक का कोई कारण उस के मन में शायद पैदा न होता, लेकिन मेरे मन में कोई शक नहीं रहा कि मेरी बेटी का तरुण के साथ अवैध प्रेम संबंध कायम हो चुका है.

मैं ने साफ देखा कि तरुण का एक हाथ कार से सट कर खड़ी शिखा की कमर व कूल्हों को बड़े मालिकाना अंदाज में सहला रहा था.

तरुण की इस हरकत को सामने से आता इंसान नहीं देख सकता था, पर पहली मंजिल की खिड़की से मुझे सब साफ नजर आया.

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कुछ देर बाद राजीव मिठाई का छोटा डब्बा ले कर उन के पास पहुंचा. तरुण ने अपनी गलत हकरत रोक कर अपने हाथ छाती पर बांध लिए. राजीव को उन के गलत रिश्ते का अंदाजा होना असंभव था.

उस रात मैं बिलकुल नहीं सो पाई. राजीव शिखा को बहुत प्यार करता था. शिखा के तरुण के साथ बने अवैध प्रेम संबंध को वह कभी स्वीकार नहीं कर पाएगा, मुझे मालूम था.

अवैध प्रेम संबंध को छिपाए रखना असंभव है. देरसवेर राजीव को भी इस के गलत संबंध की जानकारी होनी ही थी.

‘तब क्या होगा?’ इस सवाल का जवाब सोच कर मेरा कलेजा कांप उठा.

राजीव अपनी जान दे सकता था, तो शिखा की जान ले भी सकता था. कम से कम तलाक तो दोनों के बीच जरूर होगा, अपनी बेटी के घर के बिखरने की यों कल्पना करते हुए मैं रो पड़ी.

शिखा ससुराल से अलग न हुई होती, तो यह मुसीबत कभी न आती. अलग होने के इस बीज के अंकुरित होने में मेरा अहम योगदान था. उस रात करवटें बदलते हुए मैं ने खुद को अपनी उस गलत भूमिका के लिए खूब कोसा. मैं ने कभी नहीं चाहा था कि मेरी बेटी का तलाक हो और वह 40 साल के अमीर विवाहित पुरुष की रखैल के रूप में बदनाम हो.

मेरी मूर्ख बेटी अपनी विवाहित जिंदगी की सुरक्षा पर मंडरा रहे खतरे को समझ नहीं रही थी. उसे सही राह पर लाने की जिम्मेदारी मेरी ही थी और इस कार्य को पूरा करने का संकल्प पलपल मेरे मन में मजबूती पकड़ता गया.

मैं ने राजीव की मां से फोन पर बातें कीं, ‘‘बहनजी, मैं ने कल की पार्टी में रोहित को पूरा समय रोते ही देखा. उस का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता. वह दुबला भी होता जा रहा है,’’ ऐसी इधरउधर की कुछ बातें करने के बाद मैं ने वार्त्तालाप इच्छित दिशा में मोड़ा.

‘‘यह सब तो होना ही था, क्योंकि आप की बेटी के पास उस का उचित पालनपोषण करने के लिए समय ही नहीं है,’’ सुचित्रा की आवाज में फौरन शिकायत के भाव पैदा हो गए.

‘‘उस के पास न समय है और न ही बच्चे को सही ढंग से पालने की कुशलता.’’

‘‘यह बात आप को बड़ी देर से समझ आई,’’ सुचित्रा की आवाज में रोष के साथसाथ हैरानी के भाव भी मौजूद थे.

‘‘ठीक कह रही हैं आप. हम सब की गलती का एहसास मुझे अब है, बहनजी. मेरी एक प्रार्थना आप स्वीकार करेंगी?’’

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‘‘कहिए,’’ उन का स्वर कोमल हो उठा.

‘‘मेरी मूर्ख बेटी को वापस अपने पास आने की इजाजत दे दीजिए,’’ अपना गला रुंध जाने पर मुझे खुद को भी काफी हैरानी हुई.

‘‘यह घर उसी का है, पर उस ने लौटने की इच्छा मुझ से जाहिर नहीं की.’’

‘‘वह ऐसा जल्दी करेगी… मैं उसे समझाऊंगी.’’

‘‘उस का यहां हमेशा स्वागत होगा, बहनजी. हम सब को बहुत खुशी होगी,’’ इस बार भावावेश के कारण सुचित्रा का गला रुंध गया.

उस पूरे हफ्ते मैं ने अपनी बेटी की जासूसी की. उस ने 2 बार रेस्तरां में तरुण के साथ कौफी पी. 1 बार लंच के बाद छुट्टी कर के शहर के बाहरी हिस्से में बने सिनेमाहौल में फिल्म देखी. इन अवसरों पर तरुणउसे घर से दूर मुख्य सड़क पर कार से छोड़ गया.

इन 5 दिनों तक रोहित के नाना ने उसे संभाला. मेरे घर से गायब रहने की चर्चा शिखा या राजीव से हम दोनों ने बिलकुल नहीं की.

आगामी सोमवार की सुबह शिखा के औफिस जाने के बाद राजीव जब रोहित को मेरे घर छोड़ने आया, तो मैं ने उसे रोक कर अपने पास बैठा लिया.

‘‘मैं तुम से कुछ जरूरी बात करना चाहती हूं, बेटा,’’ मैं ने गंभीर लहजे में उस से वार्त्तालाप शुरू किया.

राजीव का सारा ध्यान फौरन मुझ पर केंद्रित हो गया.

‘‘मेरी दिली इच्छा है कि तुम दोनों अपने घर लौट जाओ.’’

‘‘शिखा तैयार नहीं होगी लौटने को,’’ अपनी हैरानी को छिपाते हुए राजीव ने जवाब दिया.

‘‘तुम तो लौटना चाहते हो न?’’

‘‘बिलकुल.’’

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लाली: नेत्रहीन लाली और रोशन की बचपन की दोस्ती में क्यों आ गई दरार

लाली: भाग 4- नेत्रहीन लाली और रोशन की बचपन की दोस्ती में क्यों आ गई दरार

लेखक- वेद प्रकाश गुंजन

लेकिन रोशन समझने को तैयार कहां था, ‘सचाई यह नहीं है लाली. सच तो यह है कि पंडितजी की तरह तू भी नहीं चाहती कि गंदी बस्ती का कोई आदमी आ कर तुझ से मिले. तू बदल गई है लाली, तू अब लालिमा शास्त्री जो बन गई है,’ रोशन ने कटाक्ष किया.

‘सच तो यह है रोशन कि तू मेरी सफलता से जलने लगा है. तू पहले भी मुझ से जलता था जब मैं टे्रन में तुझ से ज्यादा पैसे लाती थी. सच तो यह है, तू नहीं चाहता कि मैं तुझ से आगे रहूं. मैं नहीं जा रही गांव, तुझे जाना है तो जा,’ लाली के होंठों से लड़खड़ाती आवाज निकली.

रोशन आगे कुछ नहीं बोल पाया. बस, उस की आंखें भर आईं. जिस की सफलता के लिए उस ने अपने शरीर को जला दिया आज उसी ने अपनी सफलता से जलने का आरोप उस पर लगाया था. ‘खुश रहना, मैं जा रहा हूं,’ यह कह कर रोशन कमरे से बाहर निकल आया.

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रोशन गांव तो चला गया पर गांव में पुलिस 1 साल से उस की तलाश कर रही थी. आश्रम वालों ने उस के खिलाफ नाबालिग लड़की को भगाने की रिपोर्ट लिखा दी थी. गांव पहुंचते ही पुलिस ने उसे पकड़ लिया और कोर्ट ने उसे 1 साल की सजा सुनाई.

इधर 1 साल में लालिमा शास्त्री ने लोकप्रियता की नई ऊंचाइयों को छुआ. उस के चाहने वालों की संख्या रोज बढ़ती जा रही थी और साथ ही बढ़ रहा था अकेलापन. रोशन के लौट आने की कामना वह रोज करती थी.

जेल से छूटने के बाद रोशन खुद को लाली से और भी दूर पाने लगा. उस की हालत उस बच्चे की तरह थी जो ऊंचाई में रखे खिलौने को देख तो सकता है मगर उस तक पहुंच नहीं सकता.

उस ने बारूद के कारखाने में फिर से काम करना शुरू कर दिया. वह सारा दिन काम करता और शाम को चौराहे पर पीपल के पेड़ के नीचे निर्जीव सा बैठा रहता. जब भी अखबार में लाली के बारे में छपता वह हर आनेजाने वाले को पढ़ कर सुनाता और फिर अपने और लाली के किस्से सुनाना शुरू कर देता. सभी उसे पागल समझने लगे थे.

रोशन ने कई बार मुंबई जाने के बारे में सोचा लेकिन बस, एक जिद ने उसे रोक रखा था कि जब लाली को उस की जरूरत नहीं है तो उसे भी नहीं है. कारखाने में काम करने के कारण उस की तबीयत और भी खराब होने लगी थी. खांसतेखांसते मुंह से खून आ जाता. उस ने अपनी इस जर्जर काया के साथ 4 साल और गुजार दिए थे.

एक दिन वह चौराहे पर बैठा था, कुछ नौजवान उस के पास आए, एक ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘अब तेरा क्या होगा पगले, लालिमा शास्त्री की तो शादी हो रही है. हमें यह समझ नहीं आ रहा कि आखिर तेरे रहते वह किसी और से शादी कैसे कर सकती है,’ यह कह कर उस ने अखबार उस की ओर बढ़ा दिया और सभी हंसने लगे.

अखबार देखते ही उस के होश उड़ गए. उस में लाली की शादी की खबर छपी थी. 2 दिन बाद ही उस की शादी थी. अंत में उस ने फैसला किया कि वह मुंबई जाएगा.

वह फिर मुंबई आ गया. वहां 12 साल में कुछ भी तो नहीं बदला था सिवा कुछ बहुमंजिली इमारतों के. आज ही लाली की शादी थी. वह सीधे पंडितजी के बंगले में गया. पूरे बंगले को दुलहन की तरह सजाया गया था. सभी को अंदर जाने की इजाजत नहीं थी. सामने जा कर देखा तो पंडितजी को प्रवेशद्वार पर अतिथियों का स्वागत करते पाया.

‘पंडितजी,’ आवाज सुन कर पंडितजी आवाज की दिशा में मुड़े तो पागल की वेशभूषा में एक व्यक्ति को खड़ा पाया.

‘पंडितजी, पहचाना मुझे, मैं रोशन… लाली का दोस्त.’

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पंडितजी उसे अवाक् देखते रहे, उन्हें समझ में नहीं आ रहा था वह क्या करें. पिछले 5-6 साल के अथक प्रयास के बाद वह लाली को शादी के लिए मना पाए थे. लाली ने रोशन के लौटने की उम्मीद में इतने साल गुजारे थे लेकिन जब पंडितजी को शादी के लिए न कहना मुश्किल होने लगा तो अंत में उस ने हां कर दी थी.

‘पंडितजी, मैं लाली से मिलना चाहता हूं,’ इस आवाज ने पंडितजी को झकझोरा. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करें, अगर रोशन से मिल कर लालिमा ने शादी से मना कर दिया तो? और पिता होने के नाते वह अपनी बेटी का हाथ किसी पागल जैसे दिखने वाले आदमी को कैसे दे सकते हैं. इसी कशमकश में उन्होंने कहा.

‘लालिमा तुम से मिलना नहीं चाहती, तुम्हारे ही कारण वह पिछले 5-6 साल से दुख में रही है, अब और दुख मत दो उसे, चले जाओ.’

‘बस, एक बार पंडितजी, बस एक बार…मैं फिर चला जाऊंगा,’ रोशन ने गिड़गिड़ाते हुए पंडितजी के पैर पकड़ लिए.

पंडितजी ने हृदय को कठोर करते हुए कहा, ‘नहीं, रोशन. तुम जाते हो या दरबान को बुलाऊं,’ यह सुन कर रोशन बोझिल मन से उठा और थोड़ी दूर जा कर बंगले की चारदीवारी के सहारे बैठ गया. पंडितजी उसे वहां से हटने के लिए नहीं कह पाए. वह रोशन की हालत को समझ रहे थे लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी.

रोशन की जब आंख खुली तो उस ने लाली को दुलहन के लिबास में सामने पाया. उसे लगा जैसे वह सपना देख रहा हो. आसपास देखा तो खुद को अस्पताल के बिस्तर में पाया. उस ने पिछली रात की बात को याद करने की कोशिश की तो उसे याद आया उस की छाती में काफी तेज दर्द था, 1-2 बार खून की उलटी भी हुई थी…उस के बाद उसे कुछ भी याद नहीं था. शायद उस के बाद उस ने होश खो दिया था. पंडितजी को जब पता चला तो उन्होंने उसे अस्पताल में भरती करा दिया था.

लाली ने रोशन के शरीर में हलचल महसूस की तो खुश हो कर रोशन के चेहरे को छू कर कहा, ‘‘रोशन…’’ और फिर वह रोने लगी.

‘‘अरे, पगली रोती क्यों है, मैं बिलकुल ठीक हूं. अभी देख मेरा पूरा चेहरा लाल है,’’ खून से सने अपने चेहरे को सामने दीवार पर लगे आईने में देखते हुए उस ने कहा, ‘‘अच्छा है, तू देख नहीं सकती नहीं तो आज मेरे लाल रंग को देख कर तू मुझ से ही शादी करती.’’

यह सुन कर लाली और जोर से रोने लगी.

‘‘मेरी बहुत इच्छा थी कि मैं तुझे दुलहन के रूप में देखूं, आज मेरी यह इच्छा भी पूरी हो गई,’’ अब रोशन की आंखों में भी आंसू थे.

‘‘रोशन, तू ने बहुत देर कर दी…’’ बस, इतना ही बोल पाई लाली.

इस के बाद रोशन भी कुछ नहीं बोल पाया. बस, आंसू भरी निगाहों से दुलहन के लिबास में बैठी, रोती लाली को देखता रहा.

आंखों में सफेद पट्टी बांधे लाली अस्पताल के एक अंधेरे कक्ष में बैठी थी. रोशन को गुजरे 12 दिन हो गए थे. जातेजाते रोशन लाली को अपनी आंखें दान में दे गया था. आज लाली की आंखों की पट्टी खुलने वाली थी, लेकिन वह खुश नहीं थी, क्योंकि उस के जीवन में रोशनी भरने वाला रोशन अब नहीं था. डाक्टर साहब ने धीरेधीरे पट्टी खोलना शुरू कर दिया था.

‘‘अब आप धीरेधीरे आंखें खोलें,’’ डाक्टर ने कहा.

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लाली ने जब आंखें खोलीं तो सामने पंडितजी को देखा. पंडितजी काफी खुश थे. वह लाली को खिड़की के पास ले गए और बोले, ‘‘लालिमा, यह देखो इंद्रधनुष, प्रकृति की सब से सुंदर रचना.’’

लाली को इंद्रधनुष शब्द सुनते ही रोशन की इंद्रधनुष के बारे में कही बातें याद आ गईं. उस ने ऊपर आसमान की तरफ देखा तो रंगबिरंगी आकृति आसमान में लटकी देखी, और सब से सुंदर रंग ‘लाल’ को पहचानते देर नहीं लगी उसे. आखिर वह इंद्रधनुष रोशन की आंखों से ही तो देख रही थी.

उस की आंखों से 2 बूंद आंसू की निकल पड़ीं.

‘‘पिताजी, उस ने बहुत देर कर दी आने में,’’ यह कह कर लालिमा ने पंडितजी के कंधे पर सिर रख दिया और आंखों का बांध टूट गया.

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