Hindi Fiction Stories : समन का चक्कर – थानेदार की समझाइशों का जगन्नाथ पर कैसा हुआ असर

Hindi Fiction Stories :  अजीब मुसीबत है भई, जब मैं जगन्नाथ हूं तो विश्वनाथ नाम का चोला क्यों गले में डालूं. थानेदार की समझाइशों का असर मुझ पर होने ही वाला था कि दिमाग की बत्ती जल गई वरना हम तो गए थे काम से.

घर पहुंचा तो माताश्री ने एक कागज मेरी ओर बढ़ाया, ‘‘2 पुलिस वाले आए थे, उन्होंने कहा, जब तुम घर पहुंचो तो तुम्हें यह दिखला दूं.’’

पुलिस की बात सुनते ही मेरे हाथपांव फूल गए. कागज फौरन मैं ने लपक लिया. यह एसडीएम कोर्ट से जारी किसी विश्वनाथ नामक व्यक्ति के लिए समन था. इसे पुलिस वाले बिना पूछताछ किए मेरी माताजी को थमा कर चले गए थे. गांव की निपट मेरी अशिक्षित माताश्री ने बिना सोचेसमझे इसे ले कर ‘आ बैल मुझे मार’ जैसी स्थिति मेरे लिए कर दी थी.

मामला कोर्ट का था. इस आई बला को टालने मैं फौरन थाने जा पहुंचा. पुलिस वालों की गलती बताते हुए समन वापस करना चाहा तो थानेदार ने हवलदार को तलब किया.

‘‘महल्ले वालों ने ही इन के घर का पता बताया था,’’ मुझे टारगेट करते हुए हवलदार ने बयान दिया,  ‘‘घर के बाहर टंगी इन की नेमप्लेट और यहां तक कि घर का नंबर मिलान करने के बाद ही समन तामील किया था.’’

‘‘अब तुम इनकार कर ही नहीं सकते, तुम वे नहीं हो, जिसे समन तामील किया गया है. यह समन तुम्हारा ही है. संभाल कर इसे रखो. बड़े काम की चीज है यह तुम्हारे लिए. कोर्ट में हाजिरी के समय इसे दिखाना पड़ेगा,’’ थानेदार ने मुझे समन का हकदार बता दिया.

बहरहाल, समन तामीली के सिलसिले में हवलदार ने मेरे घर का नंबर और उस के बाहर टंगी नेमप्लेट का हवाला दिया तो आखिर माजरा क्या है, मेरी समझ में आ गया.

दरअसल, जिस घर में मैं रहने लगा हूं, 2 दिन ही हुए थे किराए पर लिए उसे. पहले के किराएदार को 2-3 दिन ही हुए थे इसे खाली किए. घर खाली उस ने कर तो दिया, अपनी नेमप्लेट ले जाना भूल गया. यह विश्वनाथ वही व्यक्ति था, समन जिसे जारी किया गया था. घर को ठीक करने की हड़बड़ी में उस की नेमप्लेट की ओर मैं ध्यान दे नहीं पाया. इसी को देख कर पुलिस वालों ने माना होगा कि विश्वनाथ रहता यहीं है. वे मेरी माताजी को विश्वनाथ की माता समझ कर समन सौंप कर चले गए होंगे.

इस पूरे घटनाक्रम का बयान कर थानेदार के सामने मैं ने अपनी बात रखी, ‘‘फिर भी समन देते समय पुलिस वालों को साफसाफ बतला देना था कि वह किस के नाम है?’’

‘‘कहना तो तुम्हें यह चाहिए कि तामील करते वक्त महल्ले वालों का पंचनामा बनवा क्यों नहीं लिया गया?’’ थानेदार पुलिस की गलती मानने को तैयार नहीं था, ‘‘चूक सरासर तुम्हारी है, घर किराए पर लेते समय देख तो लेना था. बिना देखे आपराधिक रिकौर्ड वाले किराएदार के बाद घर आंख मूंद कर ले लिया. ऊपर से घर के बाहर टंगी उस की नेमप्लेट का इस्तेमाल भी करते रहे. आप को इस का मोल कभी न कभी चुकाना ही था. जब चुकाने की बारी आई तो अपनी गलतियों का ठीकरा पुलिस के सिर फोड़ने लगे.’’

‘‘आप की बातें अपनी जगह ठीक हैं, पर इस समन का मैं करूंगा क्या?’’ थानेदार को मैं ने मनाने की कोशिश की कि समन वापस ले कर वे मुझे बख्श दें.

‘‘समन की तामीली रिपोर्ट कोर्ट में पेश की जा चुकी है. अब करना जो भी है, वह कोर्ट तय करेगा. तुम्हारे हक में करने को बस यह है कि समय पर कोर्ट में हाजिर हो जाओ,’’ थानेदार ने एक तरह से मेरी बेचारगी की बात कही.

‘‘क्या मैं आप को बलि का बकरा नजर आता हूं, विश्वनाथ के बदले जिस की बलि दी जा सके. अजीब मुसीबत है. मैं जब विश्वनाथ हूं ही नहीं, कोर्ट में फिर पेश क्यों होऊं? मुझे नहीं होना कोर्ट में पेश.’’

‘‘गिरफ्तारी वारंट जब जारी होगा, फिर तो होओगे न कोर्ट में पेश?’’ मेरी जिद का खमियाजा भुगतने की वह चेतावनी देने लगा.

‘‘यह तो नाइंसाफी है,’’ मैं ने विरोध किया.

‘‘समन जिस के करकमलों में दिया जाता है, बाद में जब उस की गिरफ्तारी की नौबत आती है, तुम्हीं बताओ, पुलिस किसे करेगी गिरफ्तार?’’ थानेदार ने कानून की दुहाई दी, ‘‘नाइंसाफी तब होगी जब समन की तामीली किसी और को और गिरफ्तारी किसी और की की जाएगी.’’

‘‘कोईर् तोड़ तो होगा इस चक्रव्यूह को भेदने का?’’ मैं ने उपाय पूछा.

‘‘इतनी देर से मैं तुम को समझा क्या रहा हूं? तुम्हारी मुक्ति के सभी रास्ते बंद हैं सिवा एक के, वह जाता सीधे कोर्ट को है.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर जैसे ही जाने को हुआ, थानेदार के मन में अचानक मेरे लिए सहानुभूति उमड़ पड़ी, ‘‘वैसे क्या नाम बताया था आप ने अपना?’’

‘‘यदि मैं अपने मौलिक नाम के साथ कोर्ट में हाजिर होऊं तो? जानबूझ कर दूसरे का अपराध अपने सिर लेने की इजाजत मेरा जमीर मुझे दे नहीं रहा है.’’

‘‘मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि इतना समझाने के बावजूद तुम्हारे अंदर की गलत सोच जा क्यों नहीं रही? ठीक है, अपनी असलियत साबित करने के लिए कोर्ट के जब चक्कर पे चक्कर लगाने पड़ेंगे, फिर यह भी याद नहीं रहेगा कि जमीर किस चिडि़या का नाम है? कान उलटा क्यों पकड़ना चाहते हो?’’ थानेदार ने कोर्ट की दुनियादारी से रूबरू करवाया.

‘‘आप के कहने का मतलब है कि मेरी भलाई इसी में है कि कोर्ट के लिए मैं विश्वनाथ बना रहूं.’’

‘‘लगता है, तुम्हारे भेजे में बात घुसती देर से है,’’ उस ने मुझे आश्वस्त करने का प्रयास किया, ‘‘अभी तक मैं तुम्हें समझा क्या रहा हूं?’’

‘‘इतना भर और समझा दीजिए कि कोर्ट के सामने मुझे कहना क्या होगा?’’

‘‘मेरी समझाइशों का असर तुम पर होने लगा है,’’ उत्साहित हो कर उस ने कार्यक्रम बताया, ‘‘एसडीएम साहब के सामने कान पकड़ कर तुम्हें कहना है कि भविष्य में तुम महल्ले वालों से लड़ाईझगड़ा करने से तोबा करते हो. एकदो पेशी के बाद व्यवहार ठीक रखने की शर्त पर कोर्ट मामला बंद कर देगा.’’

दूसरे दिन एसडीएम कोर्ट जा कर पेशकार से मिला. मामले की पूरी जानकारी उसे दी. साथ ही, इस के निबटारे की दिशा में थानेदार की सलाह पर उस की प्रतिक्रिया जाननी चाही. यह सोच कर कि कहीं पुलिस वालों की गलती पर परदा डालने के लिए दूसरे का अपराध अपने सिर लेने के लिए थानेदार मुझे प्रोत्साहित तो नहीं कर रहा?

‘‘ऐसी खास सलाह कोई सुलझा हुआ पुलिस वाला ही दे सकता है,’’ थानेदार की वह प्रशंसा करने लगा, ‘‘भावुकता में बह कर भूले से भी अपनी असलियत कोर्ट को जाहिर मत कर देना.’’

‘‘वरना?’’ नतीजा मैं ने जानना चाहा.

‘‘थानेदार ने बताया नहीं?’’

‘‘आप के श्रीमुख से भी सुनना चाहता हूं.’’

‘‘मालूम होता है कि कोर्ट से पाला कभी पड़ा नहीं आप का. आप के कहने भर से कोर्ट आप को जगन्नाथ नहीं मान लेगा, साबित करना पड़ेगा? खुद को खुद साबित करने आप को जाने कितने पापड़ बेलने पड़ेंगे. मामले में पेशीदरपेशी से परेशान हो कर हो सकता है कि इस के लिए आप को किसी वकील की सेवा में जाना पड़े. इस चक्कर में गांठ से पैसा जाएगा, सो अलग.’’ उस ने भी वही बात कही, जो थानेदार ने मुझ से कही थी.

‘‘कोर्टकचहरी के चक्कर में कभी पड़े?’’ कुछ देर बाद उस ने जानना चाहा.

‘‘नहीं.’’

‘‘तो विश्वनाथ बन कर अब पड़ जाओ. लेकिन इस मौके को हाथ से जाने मत दो. असल मामले में अदालत से सामना जब होगा, इस का तजरबा आप के काम आएगा,’’ प्रेरित करतेकरते वह उपदेश देने लगा, ‘‘आप को तो विश्वनाथजी का एहसानमंद होना चाहिए जिस की बदौलत अदालती कार्यवाहियों से रूबरू होने का मौका जो आप को मिलने जा रहा है.’’

सलाह के लिए उस का शुक्रिया अदा कर जैसे ही जाने लगा, उस ने मुझ से पूछ लेना जरूरी समझा, ‘‘यह तो बताते जाओ कि पेशी में पालनहार के किस रूप में अवतरित होगे?’’ उस ने आगे खुलासा किया, ‘‘कहने का मतलब है कि विश्वनाथ बन कर या जगन्नाथ के नाम से? पूछ इसलिए रहा हूं, यदि जगन्नाथ के रूप में प्रकट होना है तो आप की सुविधा के लिए कोई वकील तय कर के रखूंगा.’’

‘‘थानेदार और आप की लाख समझाइशों के बावजूद क्या मुझे किसी पागल कुत्ते ने काटा है जो जगन्नाथ का चोला पहन कर आऊं?’’ हालत के मद्देनजर आखिरकार मैं ने हथियार डाल दिया, ‘‘समझ लीजिए जगन्नाथ तब तक के लिए मर गया है जब तक कोर्ट के लिए विश्वनाथ जिंदा है,’’ मैं ने उसे यकीन दिलाया.

‘‘यह की न बुद्धिमानों वाली बात.’’ अपनी शहादत के लिए अनुकूल विकल्प चुनने पर मेरी तारीफ किए बिना वह रह नहीं सका.

घर पहुंचते ही फौरन उस को खाली करने में मैं ने अपनी खैरियत समझी. इस आशंका से कि मेरा पर्यायवाची ‘विश्वनाथ’ इस घर में रहते हुए जाने और क्याक्या गुल खिला कर गया हो? उस के दुष्कमों का अदृश्य साया इस घर पर मंडराते हुए मुझे महसूस होने लगा था.

लेखक- दौलतराम देवांगन

Hindi Moral Tales : मंदिर – क्या अपनी पत्नी और बच्चों का कष्ट दूर कर पाएगा परमहंस

Hindi Moral Tales : परमहंस गांव से उकता चुका था. गांव के मंदिर के मालिक से उसे महीने भर का राशन ही तो मिलता था, बाकी जरूरतों के लिए उसे और उस की पत्नी को भक्तों द्वारा दिए जाने वाले न के बराबर चढ़ावे पर निर्भर रहना पड़ता था. अब तो उस की बेटी भी 4 साल की हो गई है और उस का खर्च भी बढ़ गया है. तन पर न तो ठीक से कपड़ा, न पेट भर भोजन. एक रात परमहंस अपनी पत्नी को विश्वास में ले कर बोला, ‘‘क्यों न मैं काशी चला जाऊं.’’ ‘‘अकेले?’’ पत्नी सशंकित हो कर बोली.

‘‘अभी तो अकेले ही ठीक रहेगा लेकिन जब वहां काम जम जाएगा तो तुम्हें भी बुला लूंगा,’’ परमहंस खुश होते हुए बोला. ‘‘काशी तो धरमकरम का स्थान है. मुझे पूरा भरोसा है कि वहां तुम्हारा काम जम जाएगा.’’ पत्नी की विश्वास भरी बातें सुन कर परमहंस की बांछें खिल गईं. दूसरे दिन पत्नी से विदा ले कर परमहंस ट्रेन पर चढ़ गया. चलते समय रामनामी ओढ़ना वह नहीं भूला था, क्योंकि बिना टिकट चलने का यही तो लाइसेंस था. माथे पर तिलक लगाए वह बनारस के हसीन खयालों में कुछ ऐसे खोया कि तंद्रा ही तब टूटी जब बनारस आ गया. बनारस पहुंचने पर परमहंस ने चैन की सांस ली.

प्लेटफार्म से बाहर आते ही उस ने अपना दिमाग दौड़ाया. थोडे़ से सोचविचार के बाद गंगाघाट जाना उसे मुनासिब लगा. 2 दिन हो गए उसे घाट पर टहलते मगर कोई खास सफलता नहीं मिली. यहां पंडे़ पहले से ही जमे थे. कहने लगे, ‘‘एक इंच भी नहीं देंगे. पुश्तैनी जगह है. अगर धंधा जमाने की कोशिश की तो समझ लेना लतियाए जाओगे.’’ निराश परमहंस की इस दौरान एक व्यक्ति से जानपहचान हो गई. वह उसे घाट पर सुबहशाम बैठे देखता.

बातोंबातों में परमहंस ने उस के काम के बारे में पूछा तो वह हंस पड़ा और कहने लगा, ‘‘हम कोई काम नहीं करते. सिपाही थे, नौकरी से निकाल दिए गए तो दालरोटी के लिए यहीं जम गए.’’ ‘‘दालरोटी, वह भी यहां?’’ परमहंस आश्चर्य से बोला, ‘‘बिना काम के कैसी दालरोटी?’’ वह सोचने लगा कि वह भी तो ऐसे ही अवसर की तलाश में यहां आया है. फिर तो यह आदमी बड़े काम का है. उस की आंखें चमक उठीं, ‘‘भाई, मुझे भी बताओ, मैं बिहार के एक गांव से रोजीरोटी की तलाश में आया हूं.

क्या मेरा भी कोई जुगाड़ हो सकता है?’’ ‘‘क्यों नहीं,’’ बडे़ इत्मीनान से वह बोला, ‘‘तुम भी मेरे साथ रहो, पूरीकचौरी से आकंठ डूबे रहोगे. बाबा विश्वनाथ की नगरी है, यहां कोई भी भूखा नहीं सोता. कम से कम हम जैसे तो बिलकुल नहीं.’’ इस तरह परमहंस को एक हमकिरदार मिल गया. तभी पंडा सा दिखने वाला एक आदमी, सिपाही के पास आया, ‘‘चलो, जजमान आ गए हैं.’’ सिपाही उठ कर जाने लगा तो इशारे से परमहंस को भी चलने का संकेत दिया. दोनों एक पुराने से मंदिर के पास आए.

वहां एक व्यक्ति सिर मुंडाए श्वेत वस्त्र में खड़ा था. पंडे ने उसे बैठाया फिर खुद भी बैठ गया. कुछ पूजापाठ वगैरह किया. उस के बाद जजमान ने खानेपीने का सामान उस के सामने रख कर खाने का आग्रह किया. तीनों ने बडे़ चाव से देसी घी से छनी पूरी व मिठाइयों का भोजन किया. जजमान उठ कर जाने को हुआ तो पंडे ने उस से पूरे साल का राशनपानी मांगा. जजमान हिचकिचाते हुए बोला, ‘‘इतना कहां से लाएं. अभी मृतक की तेरहवीं का खर्चा पड़ा था.’’ वह चिरौरी करने लगा, ‘‘पीठ ठोक दीजिए महाराज, इस से ज्यादा मुझ से नहीं होगा.’’

बिना लिएदिए जजमान की पीठ ठोकने को पंडा तैयार नहीं था. परमहंस इन सब को बडे़ गौर से देख रहा था. कैसे शास्त्रों की आड़ में जजमान से सबकुछ लूट लेने की कोशिश पंडा कर रहा था. अंतत: 1,001 रुपए लेने के बाद ही पंडे ने सिर झुकवा कर जजमान की पीठ ठोकी. उस ने परम संतोष की सांस ली. अब मृतक की आत्मा को शांति मिल गई होगी, यह सोच कर उस ने आकाश की तरफ देखा. लौटते समय पंडे को छोड़ कर दोनों घाट पर आए. कई सालों के बाद परमहंस ने तबीयत से मनपसंद भोजन का स्वाद लिया था. सिपाही के साथ रहते उसे 15 दिन से ऊपर हो चुके थे. खानेपीने की कोई कमी नहीं थी मगर पत्नी को उस ने वचन दिया था कि सबकुछ ठीक कर के वह उसे बुला लेगा.

कम से कम न बुला पाने की स्थिति में रुपएपैसे तो भेजने ही चाहिए पर पैसे आएं कहां से? परमहंस चिंता में पड़ गया. मेहनत वह कर नहीं सकता था. फिर मेहनत वह करे तो क्यों? पंडे को ही देखा, कैसे छक कर खाया, ऊपर से 1,001 रुपए ले कर भी गया. उसे यह नेमत पैदाइशी मिली है. वह उसे भला क्यों छोडे़? इसी उधेड़बुन में कई दिन और निकल गए. एक दिन सिपाही नहीं आया. पंडा भी नहीं दिख रहा था. हो सकता हो दोनों कहीं गए हों. परमहंस का भूख के मारे बुरा हाल था. वह पत्थर के चबूतरे पर लेटा पेट भरने के बारे में सोच रहा था कि एक महिला अपने बेटे के साथ उस के करीब आ कर बैठ गई और सुस्ताने लगी. परमहंस ने देखा कि उस ने टोकरी में कुछ फल ले रखे थे. मांगने में परमहंस को पहले भी संकोच नहीं था फिर आज तो वह भूखा है, ऐसे में मुंह खोलने में क्या हर्ज?

‘‘माता, आप के पास कुछ खाने के लिए होगा. सुबह से कुछ नहीं खाया है.’’ साधु जान कर उस महिला ने परमहंस को निराश नहीं किया. फल खाते समय परमहंस ने महिला से उस के आने की वजह पूछी तो वह कहने लगी, ‘‘पिछले दिनों मेरे बेटे की तबीयत खराब हो गई थी. मैं ने शीतला मां से मन्नत मांगी थी.’’ परमहंस को अब ज्यादा पूछने की जरूरत नहीं थी. इतने दिन काशी में रह कर कुछकुछ यहां पैसा कमाने के तरीके सीख चुका था. अत: बोला, ‘‘माताजी, मैं आप की हथेली देख सकता हूं.’’ वह महिला पहले तो हिचकिचाई मगर भविष्य जानने का लोभ संवरण नहीं कर सकी. परमहंस कुछ जानता तो था नहीं. उसे तो बस, पैसे जोड़ कर घर भेजने थे. अत: महिला का हाथ देख कर बोला, ‘‘आप की तो भाग्य रेखा ही नहीं है.’’ उस का इतना कहना भर था कि महिला की आंखें नम हो गईं, ‘‘आप ठीक कहते हैं. शादी के 2 साल बाद ही पति का फौज में इंतकाल हो गया.

यही एक बच्चा है जिसे ले कर मैं हमेशा परेशान रहती हूं. एक प्राइवेट स्कूल में काम करती हूं. बच्चा दाई के भरोसे छोड़ कर जाती हूं. यह अकसर बीमार रहता है.’’ ‘‘घर आप का है?’’ परमहंस ने पूछा. ‘‘हां’’ बातों के सिलसिले में परमहंस को पता चला कि वह विधवा थी, और उस ने अपना नाम सावित्री बताया था. विधवा से परमहंस को खयाल आया कि जब वह छोटा था तो एक बार अपने पिता मनसाराम के साथ एक विधवा जजमान के घर अखंड रामायण पाठ करने गया था. रामायण पाठ खत्म होने के बाद पिताजी रात में उस विधवा के यहां ही रुक गए. अगली सुबह पिताजी कुछ परेशान थे. जजमान को बुला कर पूछा, ‘बेटी, यहां कोई बुजुर्ग महिला जल कर मरी थी?’ यह सुन कर वह विधवा जजमान सकते में आ गई. ‘जली तो थी और वह कोई नहीं मेरी मां थी. बाबूजी बहरे थे. दूसरे कमरे में कुछ कर रहे थे. उसी दौरान चूल्हा जलाते समय अचानक मां की साड़ी में आग लग गई.

वह लाख चिल्लाई मगर बहरे होने के कारण पास ही के कमरे में रहते हुए बाबूजी कुछ सुन न सके. इस प्रकार मां अकाल मृत्यु को प्राप्त हुई.’ मनसाराम के मुख से मां के जलने की बात जान कर विधवा की उत्सुकता बढ़ गई और वह बोली, ‘आप को कैसे पता चला?’ ‘बेटी, कल रात मैं ने स्वप्न में देखा कि एक बुजुर्ग महिला जल रही है. वह मुक्ति के लिए छटपटा रही है,’ मनसाराम रहस्यमय ढंग से बोले, ‘इस घटना को 20 साल गुजर चुके थे फिर भी मां को मुक्ति नहीं मिली. मिलेगी भी तो कैसे? अकाल मृत्यु वाले बिना पूजापाठ के नहीं छूटते. उन की आत्मा भटकती रहती है.’

यह सुन कर वह विधवा जजमान भावुक हो उठी. उस ने मुक्ति पाठ कराना मंजूर कर लिया. इस तरह मनसाराम को जो अतिरिक्त दक्षिणा मिली तो वह उस का जिक्र घर आने पर अपनी पत्नी से करना न भूले. परमहंस छोटा था पर इतना भी नहीं कि समझ न सके. उसे पिताजी की कही एकएक बात आज भी याद है जो वह मां को बता रहे थे. जजमान अधेड़ विधवा थी. पास के ही गांव में ग्रामसेविका थी. पैसे की कोई कमी नहीं थी. सो चलतेचलते सोचा, क्यों न कुछ और ऐंठ लिया जाए. शाम को रामायण पाठ खत्म होने के बाद मैं गांव में टहल रहा था कि एक जगह कुछ लोग बैठे आपस में कह रहे थे कि इस विधवा ने अखंड रामायण पाठ करवा कर गांव को पवित्र कर दिया और अपनी मां को भी. मां की बात पूछने पर गांव वालों ने उन्हें बताया कि 20 बरस पहले उन की मां जल कर मरी थी.

बस, मैं ने इसी को पकड़ लिया. स्वप्न की झूठी कहानी गढ़ कर अतिरिक्त दक्षिणा का भी जुगाड़ कर लिया. और इसी के साथ दोनों हंस पडे़. परमहंस के मन में भी ऐसा ही एक विचार जागा, ‘‘आप के पास कुंडली तो होगी?’’ ‘‘हां, घर पर है,’’ सावित्री ने जवाब दिया. ‘‘आप चाहें तो मुझे एक बार दिखा दें, मैं आप को कष्टनिवारण का उपाय बता दूंगा,’’ परमहंस ने इतने निश्छल भाव से कहा कि वह ना न कर सकी. सावित्री तो परमहंस से इतनी प्रभावित हो गई कि घर आने तक का न्योता दे दिया.

परमहंस यही तो चाहता था. सावित्री का अच्छाखासा मकान था. देख कर परमहंस के मन में लालच आ गया. वह इस फिराक में पड़ गया कि कैसे ऐसी कुछ व्यवस्था हो कि कहीं और जाने की जरूरत ही न हो और यह तभी संभव था जब कोई मंदिर वगैरह बने और वह उस का स्थायी पुजारी बन जाए. काशी में धर्म के नाम पर धंधा चमकाने में कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ती.

वह तो उस ने घाट पर ही देख लिया था. मानो दूध गंगा में या फिर बाबा विश्वनाथ को लोग चढ़ा देते हैं. भले ही आम आदमी को पीने के लिए न मिलता हो. सावित्री ने उस की अच्छी आवभगत की. परमहंस कुंडली के बारे में उतना ही जानता था जितना उस का पिता मनसाराम. इधरउधर का जोड़घटाना करने के बाद परमहंस तनिक चिंतित सा बोला, ‘‘ग्रह दोष तो बहुत बड़ा है. बेटे पर हमेशा बना रहेगा.’’ ‘‘कोई उपाय,’’ सावित्री अधीर हो उठी. उपाय है न, शास्त्रों में हर संकट का उपाय है, बशर्ते विश्वास के साथ उस का पालन किया जाए,’’ परमहंस बोला, ‘‘होता यह है कि लोग नास्तिकों के कहने पर बीच में ही पूजापाठ छोड़ देते हैं,’’ कुंडली पर दोबारा नजर डाल कर वह बोला, ‘‘रोजाना सुंदरकांड का पाठ करना होगा व शनिवार को हनुमान का दर्शन.’’

‘‘हनुमानजी का आसपास कोई मंदिर नहीं है. वैसे भी जिस मंदिर की महत्ता है वह काफी दूर है,’’ सावित्री बोली. परमहंस कुछ सोचने लगा. योजना के मुताबिक उस ने गोटी फेंकी, ‘‘क्यों न आप ही पहल करतीं, मंदिर यहीं बन जाएगा. पुण्य का काम है, हनुमानजी सब ठीक कर देंगे.’’ सावित्री ने सोचने का मौका मांगा. परमहंस उस रोज वापस घाट चला आया. सिपाही पहले से ही वहां बैठा था. ‘‘कहां चले गए थे?’’ सिपाही ने पूछा तो परमहंस ने सारी बातें विस्तार से उसे बता दीं. ‘‘ये तुम ने अच्छा किया. भाई मान गए तुम्हारे दिमाग को. महीना भी नहीं बीता और तुम पूरे पंडे हो गए,’’ सिपाही ने हंसी की.

उस के बाद परमहंस सावित्री का रोज घाट पर इंतजार करने लगा. करीब एक सप्ताह बाद वह आते दिखाई दी. परमहंस ने जल्दीजल्दी अपने को ठीक किया. रामनामी सिरहाने से उठा कर बदन पर डाली. ध्यान भाव में आ कर वह कुछ बुदबुदाने लगा. सावित्री ने आते ही परमहंस के पांव छुए. क्षणांश इंतजारी के बाद परमहंस ने आंखें खोलीं. आशीर्वाद दिया. ‘‘मैं ने आप का ध्यान तो नहीं तोड़ा?’’ ‘‘अरे नहीं, यह तो रोज का किस्सा है. वैसे भी शास्त्रों में ‘परोपकार: परमोधर्म’ को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है. आप का कष्ट दूर हो इस से बड़ा ध्यान और क्या हो सकता है मेरे लिए.’’ परमहंस का निस्वार्थ भाव उस के दिल को छू गया. ‘‘महाराज, कल रात मैं ने स्वप्न में हनुमानजी को देखा,’’ सावित्री बोली. ‘‘इस से बड़ा आदेश और क्या हो सकता है, रुद्रावतार हनुमानजी का आप के लिए.

अब इस में विलंब करना उचित नहीं. मंदिर का निर्माण अति शीघ्र होना चाहिए,’’ गरम लोहे पर चोट करने का अवसर न खोते हुए परमहंस ने अपनी शातिर बुद्धि का इस्तेमाल किया. ‘‘पर एक बाधा है,’’ सावित्री तनिक उदास हो बोली, ‘‘मैं ज्यादा खर्च नहीं कर सकती.’’ परमहंस सोच में पड़ गया. फिर बोला,‘‘कोई बात नहीं. आप के महल्ले से चंदा ले कर इस काम को पूरा किया जाएगा.’’ और इसी के साथ सावित्री के सिर से एक बड़ा बोझ हट चुका था. परमहंस कुछ पैसा घर भेजना चाह रहा था मगर जुगाड़ नहीं बैठ रहा था. उस के मन में एक विचार आया कि क्यों न ग्रहशांति के नाम से हवनपूजन कराया जाए. सावित्री मना न कर सकेगी. परमहंस के प्रस्ताव पर सावित्री सहर्ष तैयार हो गई.

2 दिन के पूजापाठ में उस ने कुल 2 हजार बनाए. कुछ सावित्री से तो कुछ महल्ले की महिलाओं के चढ़ावे से. मौका अच्छा था, सो परमहंस ने मंदिर की बात छेड़ी. अब तक महिलाएं परमहंस से परिचित हो चुकी थीं. उन सभी ने एक स्वर में सहयोग देने का वचन दिया. परमहंस ने इस आयोजन से 2 काम किए. एक अर्थोपार्जन, दूसरे मंदिर के लिए प्रचार. सावित्री का पति फौज में था. फौजी का गौरव देश के लिए हो जाने वाली कुरबानी में होता है. देश के लिए शहीद होना कोई ग्रहों के प्रतिकूल होने जैसा नहीं. जैसा की सावित्री सोचती थी. सावित्री का बेटा हमेशा बीमार रहता था.

यह भी पर्याप्त देखभाल न होने की वजह से था. सावित्री का मूल वजहों से हट जाना ही परमहंस जैसों के लिए अपनी जमीन तैयार करने में आसानी होती है. परमहंस सावित्री की इसी कमजोरी का फायदा उठा रहा था. दुर्गा पूजा नजदीक आ रही थी, सो महल्ला कमेटी के सदस्य सक्रिय हो गए. अच्छाखासा चंदा जुटा कर उन्होंने एक दुर्गा की प्रतिमा खरीदी. पूजा पाठ के लिए समय निर्धारित किया गया तो पता चला कि पुराने पुरोहितजी बीमार हैं. ऐसे में किसी ने परमहंस का जिक्र किया. आननफानन में सावित्री से परमहंस का पता ले कर कुछ उत्साही युवक उसे घाट से लिवा लाए. परमहंस ने दक्षिणा में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि उस ने दूर तक की सोच रखी थी.

पूजापाठ खत्म होने के बाद उस ने कमेटी वालों के सामने मंदिर की बात छेड़ी. युवाओं ने जहां तेजी दिखाई वहीं लंपट किस्म के लोग, जिन का मकसद चंदे के जरिए होंठ तर करना था, ने तनमन से इस पुण्य के काम में हाथ बंटाना स्वीकार किया. घर से दुत्कारे ऐसे लोगों को मंदिर बनने के साथ पीनेखाने का एक स्थायी आसरा मिल जाएगा. इसलिए वे जहां भी जाते मंदिर की चर्चा जरूर करते, ‘‘चचा, जरा सोचो, कितना लाभ होगा मंदिर बनने से. कितना दूर जाना पड़ता है हमें दर्शन करने के लिए. बच्चों को परीक्षा के समय हनुमानजी का ही आसरा होता है. ऐसे में उन्हें कितना आत्मबल मिलेगा. वैसे भी राम ने कलयुग में अपने से अधिक हनुमान की पूजा का जिक्र किया है.’’ धीरेधीरे लोगों की समझ में आने लगा कि मंदिर बनना पुण्य का काम है. आखिर उन का अन्नदाता ईश्वर ही है.

हम कितने स्वार्थी हैं कि भगवान के रहने के लिए थोड़ी सी जगह नहीं दे सकते, जबकि खुद आलिशान मकानों के लिए जीवन भर जोड़तोड़ करते रहते हैं. इस तरह आसपास मंदिर चर्चा का विषय बन गया. कुछ ने विरोध किया तो परमहंस के गुर्गों ने कहा, ‘‘दूसरे मजहब के लोगों को देखो, बड़ीबड़ी मीनार खड़ी करने में जरा भी कोताही नहीं बरतते. एक हम हिंदू ही हैं जो अव्वल दरजे के खुदगर्ज होते हैं. जिस का खाते हैं उसी को कोसते हैं. हम क्या इतने गएगुजरे हैं कि 2-4 सौ धर्मकर्म के नाम पर नहीं खर्च कर सकते?’’ चंदा उगाही शुरू हुई तो आगेआगे परमहंस पीछेपीछे उस के आदमी.

उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि दूसरे लोग भी अभियान में जुट गए. अच्छीखासी भीड़ जब न देने वालों के पास जाती तो दबाववश उन्हें भी देना पड़ता. परमहंस ने एक समझदारी दिखाई. फूटी कौड़ी भी घालमेल नहीं किया. वह जनता के बीच अपने को गिराना नहीं चाहता था क्योंकि उस ने तो कुछ और ही सोच रखा था. मंदिर के लिए जब कोई जगह देने को तैयार नहीं हुआ तो सड़क के किनारे खाली जमीन पर एक रात कुछ शोहदों ने हनुमान की मूर्ति रख कर श्रीगणेश कर दिया और अगले दिन से भजनकीर्तन शुरू हो गया. दान पेटिका रखी गई ताकि राहगीरों का भी सहयोग मिलता रहे.

फिरकापरस्त नेता को बुलवा कर बाकायदा निर्माण की नींव रखी गई ताकि अतिक्रमण के नाम पर कोई सरकारी अधिकारी व्यवधान न डाले. सावित्री खुश थी. चलो, परमहंसजी महाराज की बदौलत उस के कष्टों का निवारण हो रहा था. तमाम कामचोर महिलाओं को भजनपूजन के नाम पर समय काटने की स्थायी जगह मिल रही थी. सावित्री के रिश्तेदारों ने सुना कि उस ने मंदिर बनवाने में आर्थिक सहयोग दिया है तो प्रसन्न हो कर बोले, ‘‘चलो उस ने अपना विधवा जीवन सार्थक कर लिया.’’ मंदिर बन कर तैयार हो गया. प्राणप्रतिष्ठा के दिन अनेक साधुसंतों व संन्यासियों को बुलाया गया.

यह सब देख कर परमहंस की छाती फूल कर दोगुनी हो गई. परमहंस ने मंदिर निर्माण का सारा श्रेय खुद ले कर खूब वाहवाही लूटी. उस का सपना पूरा हो चुका था. आज उस की पत्नी भी मौजूद थी. काशी में उस के पति ने धर्म की स्थायी दुकान खोल ली थी इसलिए वह फूली न समा रही थी. इस में कोई शक भी नहीं था कि थोड़े समय में ही परमहंस ने जो कर दिखाया वह किसी के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता था. परमहंस के विशेष आग्रह पर सावित्री भी आई जबकि उस के बच्चे की तबीयत ठीक नहीं थी.

पूजापाठ के दौरान ही किसी ने सावित्री को खबर दी कि उस के बेटे की हालत ठीक नहीं है. वह भागते हुए घर आई. बच्चा एकदम सुस्त पड़ गया था. उसे सांस लेने में दिक्कत आ रही थी. वह किस से कहे जो उस की मदद के लिए आगे आए. सारा महल्ला तो मंदिर में जुटा था. अंतत वह खुद बच्चे को ले कर अस्पताल की ओर भागी परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी. निमोनिया के चलते बच्चा रास्ते में ही दम तोड़ चुका था.

Latest Hindi Stories : पीर साहब – मां बनने की क्या नफीसा की मुराद पुरी हुई

 Latest Hindi Stories : नफीसा को तो पता ही नहीं चला कि नदीम कब उस के पास आ कर खड़ा हो गया था. जब नदीम ने उस के कंधे पर हाथ रखा तो वह चौक पड़ी और पूछा, ‘‘आप यहां पर कब आए जनाब?’’

‘‘जब तुम ने देखा,’’ कहते हुए नदीम ने नफीसा को गौर से देखा.

‘‘ऐसे क्या देख रहे हैं?’’ नफीसा ने शरारत भरे लहजे में पूछा.

‘‘तुम वाकई बहुत खूबसूरत हो. ऐसा लगता है जैसे कमरे में चांद उतर आया है,’’ नदीम ने नफीसा की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘आप की दीवानगी भी निकाह के 7 साल बाद भी कम नहीं हुई है,’’ नफीसा हंसते हुए बोली.

‘‘क्या करूं, यह तुम्हारे हुस्न की ही करामात है,’’ नदीम उस की हंसी को गौर से देखे जा रहा था.

‘‘बस… बस, मेरी ज्यादा तारीफ मत कीजिए,’’ कह कर नफीसा उठ कर जाने लगी तो नदीम ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘क्या कर रहे हैं आप… कोई आ जाएगा,’’ नफीसा बोली तो नदीम ने उस का हाथ छोड़ दिया और वह मुसकराते हुए कमरे से चली गई.

रात घिर चुकी थी. न जाने क्यों रात होते ही नफीसा घबरा जाती. उसे डर सा लगने लगता. नदीम उस के बगल में सो रहा होता था, मगर उसे लगता जैसे वह उस के पास रह कर भी अकेली है.

नफीसा सोचने लगी, ‘कितने साल गुजर गए या गुजरते जा रहे हैं… बिन बादल और प्यास से भरी जिंदगी में पानी तलाशते हुए हवा के साथ मैं बहुत दूर निकल जाती हूं, मगर मुझे कोई सहारा नजर नहीं आता है. बारिश का एक कतरा सीप के अंदर मोती पैदा कर देता है… मगर मैं?’

रात का पहला पहर बीत चुका था, मगर नफीसा जाग रही थी. न जाने उस ने ऐसी ही कितनी रातें आंखों में काटी थीं और दिन की तपती धूप में समय गुजारा था.

नफीसा खुश रहने की भरसक कोशिश करती, लेकिन एक कसक थी जो उसे हमेशा तड़पाए रहती. शादी के 7 साल बीत चुके थे, पर वह अभी तक मां नहीं बन सकी थी.

नफीसा को दिल के पास एक चुभन और घुटन सी महसूस होती. उस की आंखें आसमान से हट कर जमीन पर टिक जाती थीं.

यह जमीन भी न जाने कितनी ही चीजें पैदा करती है. अनाज से ले कर कोयला, पत्थर, सोना और लोहा भी, मगर उस की अपनी जमीन जैसे बंजर हो गई थी.

कभीकभी नफीसा पलंग पर निढाल हो कर सिसकने लगती. मगर कुसूर उस का नहीं था और न ही कमी नदीम में थी. फिर इस बात का इलजाम किस पर लगाया जाए.

नदीम नफीसा को हर तरह से खुश रखने की कोशिश करता, मगर नफीसा जब नदीम की अम्मां का चेहरा देखती तो कांप सी जाती. जबान से न कहते हुए भी आंखों और चेहरे से मां बहुतकुछ कह जातीं, ‘मुझे तो खानदान की फिक्र है. ऐसा लगता है, अब खानदान का यहीं पर खात्मा हो जाएगा. घर में कोई चिराग जलाने वाला भी न होगा. कोई फातिहा भी न पढ़ेगा.’

न जाने कितनी बातें, शिकायतें और ताने अम्मां के चेहरे से जाहिर थे, मगर बेटे की वजह से मानो उन की जबान गूंगी हो गई थी.

नफीसा बखूबी समझती भी थी कि अम्मां अंदर ही अंदर दुख से भरी हैं और यह लावा किसी दिन भी ज्वालामुखी बन कर बाहर आ सकता है. फिर शायद नदीम भी उस से अपनेआप को महफूज न रख पाए और अम्मां के कहने पर कोई ऐसा कदम उठा ले, जो उस के वजूद को तारतार कर दे… नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. उस का नदीम ऐसा हरगिज नहीं कर सकता. वह उसे जुनून की हद तक मुहब्बत करता है.

नफीसा ने कई बार जानेमाने डाक्टरों को दिखाया. तावीज और मिन्नत का सहारा लिया लेकिन मायूसी के सिवा कुछ न मिला.

नदीम ने भी माहिर डाक्टर के पास जा कर अपना चैकअप कराने में कोई कसर न उठा रखी थी, फिर भी नफीसा का दामन खाली ही रहा.

नफीसा हर उस हसीन लमहे का इंतजार करती, जब उस की उम्मीद पूरी हो, उस की गोद भरे और वह खुशी से फूली न समाए, लेकिन जैसे खुशी उस से रूठ गई थी.

अम्मां चाहती थीं कि जल्द से जल्द उन का घर बच्चे की किलकारियों से गूंज उठे. 2 नन्हेनन्हे हाथ उन की तरफ बढ़ें. लड़खड़ाते कदमों से कोई उन की तरफ कदम बढ़ाए और वे दौड़ कर उसे गले लगा लें. उसे खूब चूमें और सारा प्यार उस पर न्योछावर कर दें.

इस के लिए नफीसा ने हर तरह की कोशिश की, दवा से ले कर दुआ तक. यहां तक कि अब उस ने मजारों की भी खाक छाननी शुरू कर दी थी कि शायद उस का घर रोशन हो जाए.

शहर में उन दिनों शाह सलमान शफीउद्दीन की काफी चर्चा थी. दूरदूर तक उन के मुरीद थे. एक जमाने में नदीम की अम्मां भी उन की मुरीद हो चुकी थीं. उस समय नदीम के पिता जिंदा थे. लेकिन फिर कभी उन के पास जाने का इत्तिफाक न हुआ था.

आज अचानक मां को उन की याद आ गई और वे पीर साहब के पास पहुंच गईं. उन्होंने अपना परिचय दिया तो पीर साहब फौरन पहचान गए और खैरियत पूछी, तो अम्मां रोंआसी हो कर बोलीं, ‘‘मेरे बेटे के निकाह को 7 साल हो गए हैं, लेकिन अब तक कोई औलाद नहीं हुई. हालांकि डाक्टर को भी दिखाया. दोनों में कोई कमी नहीं है, फिर भी न जाने क्या…’’

पीर साहब कुछ देर तक खामोश रहे, फिर बोले, ‘‘ऐसा करो, तुम सोमवार को अपनी बहू को दोपहर में मेरे पास ले कर आओ. मैं देखता हूं, शायद परेशानी का कोई हल निकल आए.’’

घर लौटते ही अम्मां ने बेटाबहू दोनों को सारी बातें बताईं. नदीम ने भी हामी भर दी, ताकि अम्मां को इतमीनान हो जाए.

नफीसा ने पीर साहब की  इतनी तारीफ सुनी कि वह भी उन की इज्जत करने लगी.

सोमवार को अम्मां जब नफीसा को ले कर घर से निकलीं तब तक नदीम दफ्तर जा चुका था.

जब अम्मां नफीसा को ले कर पीर साहब के पास पहुंचीं, उस समय वहां उन का कोई चेला मौजूद नहीं था.

दोनों ने जा कर पीर साहब को सलाम किया.

पीर साहब ने आंखें खोल कर दोनों को देखा. उन की निगाहें नफीसा पर टिक गईं.

कुछ देर तक पीर साहब नफीसा को गौर से देखते रहे, फिर दुआ की और एक कागज और कलम संभाली.

‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’ उन्होंने गंभीर हो कर पूछा.

‘‘नफीसा.’’

‘‘शौहर का नाम?’’

‘‘नदीम,’’ इस बार अम्मां बोलीं.

‘‘और अब्बा का नाम?’’

‘‘जी, अब्दुल,’’ नफीसा ने कहा.

‘‘अम्मां का?’’

‘‘हाजरा.’’

‘‘तुम्हारा निकाह कब हुआ था? निकाह की तारीख याद है क्या?’’

‘‘24 नवंबर को.’’

तमाम ब्योरा लिख कर पीर साहब काफी देर तक हिसाबकिताब मिलाते रहे और वे दोनों पीर साहब को देखती रहीं.

कुछ सोच कर पीर साहब ने अम्मां से पूछा, ‘‘अगर तुम्हें कोई एतराज न हो तो मैं अकेले में इस से कुछ और पूछना चाहता हूं.’’

‘‘पीर साहब, आप कैसी बातें करते हैं, मुझे कोई एतराज नहीं,’’ अम्मां ने कहा.

पीर साहब उठे और नफीसा को इशारे से अंदर चलने को कहा.

नफीसा पलभर के लिए झिझकी. उस ने सास की तरफ देखा और उन का इशारा पा कर उठ खड़ी हुई.

दूसरी तरफ पीर साहब का कमरा था. जब दोनों उस कमरे में दाखिल हुए तो पीर साहब ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

नफीसा का दिल धक से रह गया. अकेले कमरे में दूसरे मर्द के साथ खुद को देख कर वह पसीनापसीना हो गई. मगर उसे इतमीनान भी हो गया कि वह पीर साहब के साथ है और बाहर सास भी बैठी हैं. यह सब उन्हीं के कहने के मुताबिक हो रहा?है.

‘‘सामने पलंग पर बैठ जाओ,’’

कह कर उन्होंने शैल्फ से एक किताब निकाली. पन्ने उलटपलट किए, फिर नफीसा को देखा.

नफीसा पलंग पर बैठी इधरउधर नजरें घुमा रही थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि पीर साहब क्या करेंगे. पीर साहब जो कागज साथ लाए थे, उस पर निगाह डाली. कुछ बुदबुदाए.

उस के बाद पीर साहब ने किताब को शैल्फ में वापस रखा. कागज को देखते हुए वह नफीसा के बिलकुल पास आ कर बैठ गए.

नफीसा ने चाहा कि वह अलग हट जाए, मगर न जाने क्यों उस की हिम्मत जवाब दे चुकी थी. पता नहीं, पीर साहब बुरा मान जाएं और…

‘‘नफीसा, तुम्हें औलाद चाहिए?’’ कहते हुए पीर साहब ने नफीसा के सिर पर हाथ रख दिया. नफीसा का गला सूखने लगा था. कोई आवाज न निकली. उस ने आहिस्ता से ‘हां’ में सिर हिला दिया.

‘‘डाक्टर ने मुआयना करने के बाद बताया कि तुम दोनों में कोई खराबी नहीं है?’’ पीर साहब ने पूछा.

नफीसा इस बार भी मुश्किल से सिर हिला सकी.

‘‘फिर तो तुम्हें मेरी पनाह में आना होगा,’’ पीर साहब ने जोर दे कर कहा.

नफीसा ने सिर उठा कर पीर साहब को देखा. यह बात उस की समझ से बाहर थी.

‘‘मेरी आंखों में देखो,’’ कहते हुए पीर साहब और करीब आ गए.

नफीसा ने उन की आंखों में झांका. उन की आंखों में लाललाल डोरे तैर रहे थे. वह सहम सी गई.

तभी पीर साहब की आवाज ने उसे खौफ के अंधेरे कुएं की तरफ धकेल दिया, ‘‘अगर तुम ने औलाद पैदा न की, तो तुम्हारी जिंदगी दूभर हो जाएगी. तुम्हारी सास तुम्हें ताने देदे कर खुदकुशी करने पर मजबूर कर देगी और शौहर भी एक दिन मजबूर हो कर दूसरी शादी कर लेगा.’’

‘‘मगर… मगर, मैं कर भी क्या सकती हूं?’’

‘‘तुम बच्चा पैदा कर सकती हो.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘मेरे करीब आओ,’’ पीर साहब ने कहा, तो नफीसा थोड़ा झिझकते हुए जरा सरकी.

नफीसा पर किसी तरह का खुमार सा चढ़ रहा था या औलाद पाने की ख्वाहिश थी, जिस ने उस की शर्म की सारी जंजीरें एक झटके के साथ तोड़ दीं.

बाहर अम्मां उम्मीदों का गुलशन सजाए इंतजार कर रही थीं कि पीर साहब जरूर ऐसा काम करेंगे कि उस की बहू औलाद से महरूम नहीं रहेगी.

काफी देर बाद वे दोनों बाहर आए. नफीसा ने सिर पर आंचल डाल रखा था.

‘‘पीर साहब, मेरी बहू मां बनेगी न?’’ अम्मां ने बेकरारी से पूछा.

‘‘मैं ने इलाज कर दिया है. अगर ऊपर वाले ने चाहा तो यह जल्द ही मां बन जाएगी, लेकिन इस के लिए नफीसा को यहां 1-2 बार और आना पड़ेगा,’’ पीर साहब ने कहा.

‘‘क्यों नहीं, आप कहेंगे तो यह जरूर आएगी… अगर यह मां बन गई तो मैं हमेशा आप की शुक्रगुजार रहूंगी,’’ अम्मां ने खुश होते हुए कहा.

पीर साहब अम्मां की बात अनसुनी कर के नफीसा से बोले, ‘‘नफीसा, मैं ने जैसा तुम से कहा है, वैसा ही करना. अगर कोई परेशानी हो, तो फिर चली आना. मेरा दिल कहता है कि तुम जरूर मां बनोगी.’’

नफीसा ने सिर उठा कर कुछ देर तक पीर साहब को देखा और दोबारा सिर झुका लिया.

पीर साहब के आश्वासन के बाद अम्मां बेहद खुश थीं. वे नफीसा को ले कर घर की तरफ चल पड़ीं.

घर की दहलीज पर कदम रखते ही नफीसा की आंखों से आंसुओं की मोटीमोटी बूंदें छलक पड़ीं, जिन्हें जल्दी से उस ने अपने आंचल में छिपा लिया. पता नहीं, ये आंसू औलाद पाने की खुशी के थे या इज्जत लुटने के गम के…

लेखक- अहमद सगीर

Hindi Kahaniyan : काश – क्या मालती जीवन के आखिरी पड़ाव पर अपनी गलतियों का प्रायश्चित्त कर सकी?

Hindi Kahaniyan :  ‘‘यह लीजिए, ताई मम्मा, आज की आखिरी खुराक और ध्यान से सुनिए, नो अचार, नो चटनी और नो ठंडा पानी, तभी ठीक होगी आप की खांसी. अब आप सो जाइए,’’ बल्ब बंद कर श्रेया ने ‘गुड नाइट’ कहा और कमरे से बाहर निकल गई.

‘‘बहुत लंबी उम्र पाओ, सदा सुखी रहो बेटा,’’ ये ताई मम्मा के दिल से निकले शब्द थे. आंखें मूंद कर वह सोने की कोशिश करने लगीं लेकिन न जाने क्यों आज नींद आने का नाम ही नहीं ले रही थी. मन बेलगाम घोड़े सा सरपट अतीत की ओर भागा जा रहा था और ठहरा तो उस पड़ाव पर जहां से वर्षों पहले उन का सुखद गृहस्थ जीवन शुरू हुआ था.

मालती इस घर की बहू बन कर जब आई थी तो बस, 3 सदस्यों का परिवार था और चौथी वह आ गई थी, जिसे घरभर ने स्नेहसम्मान के साथ स्वीकारा था. सास यों लाड़ लड़ातीं जैसे वह बहू नहीं इकलौती दुलारी बेटी हो. छोटे भाई सा उस का देवर अक्षय भाभीभाभी कहता उस के आगेपीछे डोलता और पति अभय के दिल की तो मानो वह महारानी ही थी.

मालती की एक मांग उठती तो घर के तीनों सदस्य जीजान से उसे पूरा करने में जुट जाते और फिर स्वयं अपने ही पर वह इतरा उठती. सोने पर सुहागे की तरह 4 सालों में 2 प्यारे बेटों अनुज और अमन को जन्म दे कर तो मानो मालती ने किला ही फतह कर लिया.

दोनों बेटों के जन्म के उत्सव किसी शादीब्याह के जैसे ही मनाए गए थे. राज कर रही थी मालती, घर पर भी और घर वालों के दिलों में भी. ‘स्वर्ग किसे कहते हैं? यही तो है मेरी धरती का स्वर्ग’ मालती अकसर सोचती.

अक्षय ने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान ही लड़की पसंद कर ली थी और नौकरी लगते ही उसे ला कर मां और भाईभाभी के सामने खड़ा कर दिया. जब इन दोनों ने कोई एतराज नहीं किया तो भला वह कौन होती थी विरोध करने वाली. इस तरह शगुन देवरानी बन कर इस घर में आई तो मालती को पहली बार लगा कि उस का एकछत्र ऊंचा सिंहासन डोलने लगा है.

शगुन देखने में जितनी खूबसूरत थी उतना ही खूबसूरत उस का विनम्र स्वभाव भी था. ऊपर से वह कमाऊ भी थी. अक्षय के साथ ही काम करती थी और उस के बराबर ही कमाती थी. इतने गुणों के बावजूद अभिमान से वह एकदम अछूती थी. देवरानी के यह तमाम गुण मालती के सीने में कांटे बन कर चुभते थे और उस के मन में हीनगं्रथियां पनपाते थे.

मालती के निरंकुश शासन को चुनौती देने शगुन आ पहुंची थी जो उसे ‘खलनायिका’ की तरह लगती थी. ‘शगुन…’ मां की इस पुकार पर जब वह काम छोड़ कर भागी आती तो मालती जल कर खाक हो जाती. अक्षय जो बच्चों की तरह हरदम ‘भाभी ये दो, भाभी वो दो,’ के गीत गाता उस के आगेपीछे घूमता और अपनी हर छोटीबड़ी जरूरत के लिए उसे ही पुकारता था, अब शगुन पर निर्भर हो गया था. हां, पति अब भी उस के ‘अपने’ ही थे, लेकिन जब मालती शगुन के साथ मुकाबला करती या उसे नीचा दिखाने की कोशिश करती तो अभय समझाते, ‘मालू, शगुन के साथ छोटी बहन की तरह आचरण करो तभी इज्जत पाओगी.’ तब वह कितना भड़कती थी और शगुन का सारा गुस्सा अभय पर निकालती थी. शगुन के प्रति मालती का कटु व्यवहार मां को भी बेहद अखरता था, मगर वह खामोश रह कर अपनी  नाराजगी जताती थीं क्योंकि लड़ना- झगड़ना या तेज बोलना मांजी के स्वभाव में शामिल नहीं था.

शगुन, अनुज और अमन को भी बहुत प्यार करती थी. वे दोनों भी ‘चाचीचाची’ की रट लगाए उस के इर्दगिर्द मंडराते. लेकिन यह सबकुछ भी मालती को कब भाया था? कभी झिड़क कर तो कभी थप्पड़ मार कर वह बच्चों को जता ही देती कि उसे चाची से उन का मेलजोल बढ़ाना पसंद नहीं. बच्चे भी धीरेधीरे पीछे हट गए.

फिर साल भर बाद ही शगुन भी मां बन गई, एक प्यारी सी गोलमटोल बेटी को जन्म दे कर. पहली बार मालती ने चैन की सांस ली. उसे लगा कि बेटी को जन्म दे कर शगुन उस से एक कदम पीछे और एक पद नीचे हो गई है. लेकिन यह मालती का बड़ा भारी भ्रम था. 3 पीढि़यों के बाद इस घर में बेटी आई थी, जिसे मांजी ने पलकों पर सजाया और शगुन को दुलार कर ‘धन्यवाद’ भी दिया. मां और अक्षय ही नहीं अभय भी बहुत खुश थे. उतना ही भव्य नामकरण हुआ जितना अनुज और अमन का हुआ था और उसे नाम दिया गया ‘श्रुति’, फिर 2 साल के बाद दूसरी बेटी श्रेया आ गई.

अक्षय की गुडि़या सी बेटियों में मांजी के प्राण बसते थे. लगभग यही हाल अभय का भी था. मालती से यह बरदाश्त नहीं होता था. वह अकसर चिढ़ कर बड़बड़ाती, ‘वंश तो बेटों से ही चलता है न. बेटियां तो पराया धन हैं, इन्हें इस तरह सिर पर धरोगे तो बिगडे़ंगी कि नहीं?’

उधर मालती के कटु वचनों का सिलसिला बढ़ता जा रहा था, इधर बच्चों में भी अनबन रहती. अकसर अनुजअमन के हाथों पिट कर श्रुति और श्रेया रोती हुईं दादी के पास आतीं तो शगुन बिना किसी को कोई दोष दिए बच्चियों को बहला लेती कि कोई बात नहीं बेटा, बड़े भैया लोग हैं न? लेकिन दादीमां से सहन नहीं होता. आखिर एक दिन तंग आ कर उन्होंने स्पष्ट घोषणा कर दी, ‘बस, अब समय आ गया है कि तुम दोनों भाइयों को अपने जीतेजी अलग कर दूं, नहीं तो किसी दिन किसी एक बच्ची का सिर फूटा होगा यहां.’

मां का फैसला मानो पत्थर की लकीर था और घर 2 बराबर हिस्सों में बंट गया. मां ने साफ शब्दों में मालती से कह दिया, ‘बड़ी बहू, तुम अपनी गृहस्थी संभालो. मैं अक्षय के पास रहूंगी. शगुन नौकरी पर जाती है और उस की बच्चियां बहुत छोटी हैं. अभी, उन्हें मेरी सख्त जरूरत है. हां, तुम्हें भी अगर कभी मेरी कोई खास जरूरत पड़े तो पुकार लेना, शौक से आऊंगी.’

मालती स्वतंत्र गृहस्थी पा कर बहुत खुश थी. लेकिन हर समय बड़बड़ाना उस की आदत में शुमार हो चुका था. अत: जबतब उच्च स्वर में सुनाती, ‘अरे, कर लो अपनी बेटियों पर नाज. उन के ब्याह के समय तो भाइयों के नेग पूरे करवाने के लिए मेरे बेटों को ही बुलाने आओगी न?’ या ‘बेटे के बिना तो ‘गति’ भी नहीं होती. बेटा ही तो चिता को आग देता है. खुश हो लो अभी…’

मालती की इन हरकतों की वजह से मांजी ने तो उस के साथ बातचीत ही बंद कर दी. शगुन ने भी पलट कर न तो कभी जेठानी को जवाब दिया और न ही झगड़ा किया. अपनी इसी विनम्रता के कारण तो वह सास और पति के मन में बसी थी. अभय भी उस की सराहना करते न थकते थे.

जीवन के बहीखाते से एकएक साल घटता गया और एकएक जुड़ता गया. एक घर के 2 हिस्सों में बच्चे पलबढ़ रहे थे. अनुज पढ़ाई और खेल में अच्छाखासा था जबकि अमन का ध्यान पढ़नेलिखने में था ही नहीं. उस के लिए एक क्लास में 2 साल लगाना आम बात थी. इधर श्रुति और श्रेया दोनों ही बेहद जहीन थीं. पढ़ाई में और व्यवहार में अति शालीन और शिष्ट. अक्षय, शगुन और मां ने उन्हें बेटों की तरह पाला था. वैसे भी यह तो सर्वविदित है कि ‘यथा मां तथा संतान’ कुछ इसी तरह के थे दोनों घरों के बच्चे. कब उन का बचपन बीता और कब यौवन की दहलीज पर उन्होंने कदम रखा, पता ही न चला.

फिर आए अप्रिय घटनाओं के साल जिन्होंने नएनए इतिहास लिखे. एक साल वह आया जब अनुज अपनी योग्यता के बलबूते पर ऊंचे पद पर नियुक्त हुआ और दूसरे साल बिना किसी की राय लिए उस ने एक एन.आर.आई. लड़की से ‘कोर्ट मैरिज’ कर ली. जरूरी औपचारिकताएं पूरी होते ही उस ने चंद महीने बाद ही सब को ‘गुडबाय’ कह कर कनाडा की ओर उड़ान भर ली.

तीसरे साल अमन अपने दोस्तों के साथ घूमने के लिए गोआ गया तो वहां से वापस ही नहीं आया. बाद में एक दोस्त ने घर आ कर मालती को अमन द्वारा एक क्रिश्चियन लड़की से प्रेम विवाह किए जाने के बारे में बताया, ‘आंटी, उस का नाम डेजी है. उस की आंखें नीलम जैसी नीली हैं, बाल सुनहले हैं और रंग दूध सा गोरा…पूरी अंगरेज लगती है वह. उस के पिता का पणजी में एक शानदार बियर बार है.’

इन तमाम बातों को सच साबित करने के लिए अमन का खत चला आया, ‘मां, मुझे डेजी पसंद थी, वह भी मुझे पसंद करती थी. हम शादी करना चाहते थे, मगर उस के डैड की 2 शर्तें थीं. एक तो मैं धर्म बदल कर ईसाई बन जाऊं और दूसरी मुझे वहीं रह कर उन का काम संभालना होगा. मां, मेरे लिए यह सुनहरा मौका था. अत: मैं ने डेजी के डैड की दोनों शर्तें मान लीं और कल चर्च में उस के साथ शादी कर ली. आप लोगों से इजाजत लेना बेकार था क्योंकि आप कभी इस के लिए तैयार न होते. इसीलिए बस, सूचित कर रहा हूं और आप का आशीर्वाद मांग रहा हूं-अमन.’

मालती और अभय को लगा जैसे सारे कहर एकसाथ टूट कर उन पर आ गिरे. बस, एक धरती ही नहीं फटी जिस में दोनों समा जाते.

‘धर्म बदल लिया? अपने अस्तित्व को ही बेच डाला? ऐसा अधम और अवसरवादी इनसान मेरा बेटा कैसे हो सकता है? उस लड़की से बेशक ब्याह करता मगर धर्म तो न बदलता, तब शायद मैं उस को माफ भी कर देता और लड़की को बहू भी मान लेता, लेकिन अब कभी नाम भी न लेना उस का मालू मेरे सामने,’ अभय ने एक लंबी खामोशी के बाद ये शब्द कहे थे.

मालती भी जाने किस रौ में एक ठंडी सांस ले कर बोल गई, ‘काश, बेटों की जगह हमारी भी 2 बेटियां होतीं तो सिमट कर, इज्जत से घर तो बैठी होतीं.’

‘बेटियां हैं हमारी भी, आंखों पर अपनेपन का चश्मा चढ़ा कर देखो मालू, नजर आ जाएंगी,’ तल्ख स्वर में अभय ने कहा था.

इस घटना के एक माह बाद ही मांजी चल बसीं एकदम अचानक. शायद अमन और अभय की तरफ से मिला दुख ही इस मौत की वजह रहा हो.

मालती का अभिमान अब चूरचूर हो कर बिखर गया था. अब न तो वह चिड़चिड़ाती थी और न ही चिल्लाती थी. खुद अपने से ही वह बेहद शर्मिंदा थी. एकदम खामोश रहती और जब दर्द सहनशक्ति की सीमा को लांघ जाता तो रो लेती.

श्रेया और श्रुति को अब मालती अपने पास बुलाना चाहती, दुलराना चाहती मगर वह हिम्मत नहीं जुटा पाती. उन बच्चियों के साथ किया अपना कपटपूर्ण दुर्व्यवहार उसे याद आता तो शरम से सिर नीचा हो जाता.

एम.बी.ए. के बाद श्रुति को एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर की पोस्ट मिल गई तो मालती के दिल की गहराई से आवाज आई कि काश, 2 बेटों की जगह सिर्फ एक बेटी होती तो आज मैं गर्व से भर उठती.

श्रेया एम.बी.बी.एस. कर डाक्टर बन चुकी थी और अब एम.डी. की तैयारी कर रही थी. श्रुति का रिश्ता उस के ही स्तर के एक सुयोग्य युवक शिखर से हो गया था. श्रुति की शर्त थी कि वह बिना दानदहेज के ब्याह करेगी और शिखर को यह शर्त मंजूर थी. ब्याह हो गया और कन्यादान मालती और अभय के हाथों कराया गया. मालती कृतज्ञ थी शगुन की, कम से कम एक संतान को ब्याह का सुखसौभाग्य तो शगुन ने उस के सूने आंचल में डाल दिया.

श्रुति की बिदाई के बाद तो अभय बिलकुल ही खामोश हो गए. बोलते तो वह पहले भी ज्यादा नहीं थे लेकिन अब तो बस, जरूरत भर बात के लिए ही मुंह खोलते. उम्र के साथसाथ शायद उन का गम भी बढ़ता जा रहा था. गम बेटों के विछोह का नहीं उन की कपटपूर्ण चालाकियों का था. उन के दिल का सब से बड़ा दर्द था अमन का धर्म परिवर्तन. कई बार वह सपने में बड़बड़ाते, ‘कभी माफ नहीं करूंगा नीच को. मेरी चिता को भी हाथ न लगाने देना उस को मालू.’

कहते हैं न इनसान 2 तरह से मरता है. एक तो सांसें थम जाने पर और दूसरा जीते जी पलपल मर कर. यह दूसरी मौत पहली मौत से ज्यादा तकलीफदेह होती है क्योंकि जिंदगी की हसरतें और जीने की इच्छा मरती है लेकिन एहसास तो जीवित रहते हैं न. ऐसी ही मौत जी रहे थे अभय और एक रात वह सदा के लिए खामोश और मुक्त हो गए.

पति के मौत की वह भयानक रात याद आते ही मालती अतीत के घरौंदे से निकल कर वर्तमान के धरातल पर आ गई. उसे अच्छी तरह से वह रात याद है जब दोनों एकसाथ ही एक ही पलंग पर सोए थे लेकिन सुबह वह अकेली उठी और वह हमेशा के लिए सो गए. कैसी अजीब बात थी उस शांत निंद्रा में कि रात खुद चल कर गए बिस्तर तक और सुबह किसी और ने उतार कर नीचे धरती पर लिटाया. इस तरह काल का प्रवाह अपने साथ उस के जीवन के उस आखिरी तिनके को भी बहा ले गया जिस के सहारे उसे इस संसारसागर से पार उतरना था.

अक्षय ने बाद में बहुत जोर दिया कि अनुज तो विदेश में है, अमन को ही बुला लिया जाए लेकिन पति की इच्छाओं का मान रखते हुए मालती ने किसी भी बेटे को खबर तक नहीं करने दी. अक्षय ने ही भाई का दाह संस्कार किया.

‘कैसी सोने सी अयोध्या नगरी थी, जिस में वह ब्याह कर आई थी और अपने ईर्ष्या व द्वेष की आग में जल कर उसे लंका बना डाला.’

बेटे बाद में बारीबारी से आए पर उन का आना और जाना एकदम औपचारिक था. मालती भी बेटों के लिए वीतरागी ही बनी रहीं. फिर तो यह अध्याय भी सदा के लिए बंद हो गया.

श्रुति, शिखर, श्रेया, शगुन चारों एक दिन एकसाथ आए और जिद पकड़ कर बैठ गए, ‘ताई मम्मा, आप यह भूल जाएं कि हम आप को यहां अकेला छोड़ेंगे. आप को अब हमारे साथ रहना होगा. उठिए ताई मम्मा.’

बच्चों के प्यार के आगे मालती हार गई और वह एक आंगन से दूसरे आंगन में चली आई. उसे याद आया, श्रुति के ब्याह के लिए जब शगुन उस के लिए अपनी ही जैसी सुंदर और महंगी साड़ी लाई थी और श्रेया ने उसे खूबसूरती से तैयार किया था. तब वह हुलस कर उठी थी, ‘देखा, अभय, कितनी प्यारी बच्चियां हैं और एक हमारे पूत हैं… काश…और’ एक निश्वास ले कर मालती ने फिर यादों का सूत्र थाम लिया.

यह क्षतिपूर्ति थी अपने दुष्कर्मों की, बच्चियों के प्रति प्यार था या उन के मधुर व्यवहार का पुरस्कार कि एक दिन मालती ने अपने वकील को बुलवाया और अपने हिस्से की तमाम चलअचल संपत्ति श्रुतिश्रेया के नाम करने की इच्छा जाहिर की लेकिन अक्षय और शगुन ने वकील को यह कह कर लौटा दिया, ‘भाभी, आप मानें या न मानें यह अमनअनुज की धरोहर है और हम इस अमानत में आप को खयानत नहीं करने देंगे.’

श्रुतिशिखर छुट्टियों में आते तो शगुन की तरह ही मालती को भी स्नेहसम्मान देते. शिखर दामाद की तरह नहीं बेटे की तरह खुल कर मिलता और उन्हें ‘ताई मम्मा’ नहीं ‘बड़ी मम्मा’ कह कर बुलाता. कहता कि आप ने ही तो श्रुति का हाथ मेरे हाथ में दिया है, फिर आप मेरी बड़ी मम्मा हुईं कि नहीं?

घर की मीठी चहलपहल पहले मन में कसक जगाती थी अब उमंग भरती है कि काश, ये मेरे बेटीदामाद होते तो मैं दुनिया की सब से सुखी मां होती. तभी अचानक उसे अभय की तिरस्कारपूर्ण निगाहें याद आ गईं तो अपनी ओछी मानसिकता पर उसे अफसोस हुआ.

‘मेरे ही तो बच्चे हैं ये, और सुखी ही तो हूं मैं और कैसा होता है सुख? चौथेपन की लाठी बनाने के लिए ही तो मांबाप पुत्र की कामना करते हैं और वह पुत्र तो कब के मेरा साथ छोड़ गए, मेरे पति की मृत्यु का कारण भी बने और यह फूल सी बच्चियां कैसे मेरे आगेपीछे डोलती हैं. यह सुख नहीं तो और क्या है? यहीं सुख भी है और स्वर्ग भी.’

सहसा मालती के मन में यह खयाल खलबली मचा गया कि बेईमान सांसों का क्या भरोसा, न जाने कब थम जाए और हो सकता है उस की इसी रात का कोई सवेरा न हो. अभय के साथ भी तो ऐसा ही हुआ था. इसीलिए अपनी एक खास इच्छा को आकार देने के लिए कागजकलम ले कर मालती ने लिखना शुरू किया.

‘मेरी संतान, मेरी 2 बेटियां श्रुति और श्रेया ही हैं. और यह मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरी मृत्यु के बाद मेरे शरीर को आग मेरी बड़ी बेटी श्रुति और दामाद शिखर दें. यदि किसी वजह से वह मौजूद न हों तो यह हक मेरी छोटी बेटी श्रेया भारद्वाज को दिया जाए. मेरे घर, जेवर, बैंक के पैसे और शेष संपत्ति पर शगुन, श्रुति और श्रेया का बराबर अधिकार होगा. मैं मालती भारद्वाज पूरे होशोहवास में बिना किसी दबाव के यह घोषणा कर रही हूं ताकि सनद रहे.

अब ‘काश’ शब्द को वह अपनी बाकी की बची जिंदगी में कभी जबान पर नहीं लाएगी, यह निश्चय कर मालती ने चैन की सांस ली और पत्र को लिफाफे में यह सोच कर बंद करने लगी कि सुबह यह पत्र मैं अक्षय के हवाले कर दूंगी.

पत्र को तकिए के नीचे रख कर मालती सोने की कोशिश करने लगी. अब उस का मन शांत था और फूलों सा हलका भी.

Trendy Salwar : स्टाइलिश लुक के लिए ट्राई करें ट्रैंडी सलवार

Trendy Salwar : सूट ऐसा एथनिक पहनावा है जिसे महिलाएं न केवल रोजमर्रा की जिंदगी में पहनना पसंद करती हैं, बल्कि खास मौकों जैसे पार्टी, शादी या त्योहारों में भी इस की खूब शोभा होती है. सूट के साथ सलवार पहनने का रिवाज बहुत पुराना है, जो हमारी सांस्कृतिक विरासत का अहम हिस्सा रहा है.

हालांकि समय के साथ सलवार की जगह पैंट, प्लाजो, लैगिंग्स जैसे आधुनिक लोवर्स ने ले ली, लेकिन अब एक बार फिर सलवार का ट्रैंड फैशन में लौट आया है. फर्क सिर्फ इतना है कि अब इस का लुक थोड़ा मौडर्न हो गया है, लेकिन जो आरामदायक एहसास पहले के सूट सलवार में मिलता था, वह आज भी बरकरार है.

तो आइए, जानते हैं कुछ नए चलन की सलवारों के बारे में, जो पारंपरिकता और आधुनिकता का खूबसूरत संगम हैं :

धोती स्टाइल सलवार

यह दिखने में धोती की तरह होती हैं. यह नीचे से प्लेअर्ड होती है. शौर्ट कुरती या असिमैट्रिकल कुरती इस के साथ खूब जचती हैं। साथ ही फ्रंट कट या ऐंगल्ड हेमलाइन कुरती भी बहुत अच्छा लुक देती है.

प्लाजो सलवार

यह एथनिक के साथ फ्यूजन लुक भी देता है, जो चौड़ी मोहरी में तैयार की जाती है. प्लाजो सलवार चौड़े स्ट्रैट कट या ए लाइन कुरती, लंबी स्ट्रैट कुरती के साथ काफी ग्रैसफुल दिखता है.

ट्यूलिप सलवार

यह सलवार ट्यूलिप के आकार की तरह सामने से क्रौस हो कर बंद होती है. इस तरह की सलवार पेपलम कुरती या शौर्ट कुरती के साथ यूनिक लुक देती हैं.

सिगरेट पैंट सलवार

यह फौर्मल लुक के लिए बेहतरीन स्टाइल है. लौंग स्ट्रैट कुरती या हाई स्लिट कुरती के साथ पेयर किया जा सकता है.

शरारा सलवार

शादी या पार्टी लुक में चार चांद लगाने के लिए यह बैस्ट औप्शन है. यह कुरती विद शौर्ट हेमलाइन या कुरता विद फ्रंट स्लिट के साथ खूब फबते हैं.

पटियाला सलवार

परफैक्ट पंजाबी स्टाइल लुक के लिए पटियाला सलवार आज भी सब से बेहतरीन लुक है. इस के साथ फुल स्लीव्स और फुल फ्लैयर वाली कुरती खूब जचती हैं.

बेटियों की परवरिश एक शांत क्रांति क्यों ?

अकसर सोशल मीडिया पर कुछ ऐसी चीजें या पोस्ट वायरल हो जाती हैं, जो लोगों को काफी पसंद आती हैं, उन के दिलों को छू जाती हैं. साथ ही दुनिया को एक नई सीख भी देती हैं. हम आप को एक ऐसी ही पोस्ट के बारे में बताएंगे जो एक पिता ने शेयर की है.

दरअसल, बैंगलुरु के रहने वाले अजित शिवराम नामक शख्स की एक पोस्ट सोशल मीडिया पर जबरदस्त तरीके से वायरल हो रही है. उन्होंने अपनी 2 बेटियों की परवरिश से मिले अनुभवों को बेहद सच्चे और मार्मिक शब्दों में साझा किया है, जिसे पढ़ कर लोग भावुक हो उठे.

अजित, यू ऐंड आई नाम की एक संस्था के कोफाउंडर हैं, जो आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों की शिक्षा में मदद करती है.

उन का कहना है कि बेटियों की परवरिश ने उन्हें वह सब सिखाया जो किसी बिजनैस स्कूल का एमबीए भी नहीं सिखा सकता. उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा, “बेटियों की परवरिश एक शांत क्रांति है…”

अपने वायरल पोस्ट में अजित लिखते हैं, “हर सुबह मैं अपनी बेटियों को स्कूल यूनिफौर्म पहनते हुए देखता हूं. वे मुसकराते हुई उस दुनिया में जाती हैं जो असल में उन के लिए नहीं बनी. जहां उन की हंसी को दबाया जाएगा, उन के सपनों को छोटा बताया जाएगा और उन की चुप्पी को उन की सहनशीलता समझा जाएगा…”

उन का मानना है कि भारत में बेटियों को बड़ी करना किसी आंदोलन से कम नहीं, क्योंकि हर दिन उन्हें सामाजिक रूढ़ियों और पुराने विचारों से लड़ना पड़ता है. आएदिन उन्हें कहीं न कहीं अपने हक के लिए लड़ना पड़ता है. यह एक ऐसा संघर्ष है जिस में मांबाप, खासकर मां, हर रोज समाज की दकियानूसी सोच, भेदभाव और अनगिनत सवालों से जूझती है.

बेटियों को बड़ी करना क्यों आंदोलन जैसा

‘लड़की हुई है…’ यह वाक्य आज भी कई घरों में निराशा की तरह कहा जाता है। ‘पढ़ कर क्या करोगी, शादी तो करनी ही है,’ इस सोच से बाहर निकलना ही एक बड़ी जंग है।

‘घर के काम सीखो, बाहर जाने की क्या जरूरत है,’ आज भी बेटियों की आजादी को ले कर सवाल उठते हैं.

हर कदम पर रोकटोक : कपड़ों से ले कर कैरियर तक, हर चीज पर समाज की नजर और टिप्पणी बनी रहती है.

सुरक्षा का डर : बाहर भेजने से पहले मांबाप सौ बार सोचते हैं कि बेटी को कहीं कुछ हो न जाए।

लेकिन इस के बावजूद आज की बेटियां अपने हौसलों से इस सोच को बदल रही हैं। वे डाक्टर, इंजीनियर, साइंटिस्ट, खिलाड़ी, फाइटर पायलट और नेता बन रही हैं.

लीडरशिप बोर्डरूम में नहीं, घर की टेबल पर सिखाई जाती है

अजित कहते हैं, “जब आप की बेटी आप से पूछती है कि किसी अंकल ने यह क्यों कहा कि लड़कियां ऐसा नहीं करतीं, तो आप को सदियों पुरानी सोच से लड़ कर जवाब देना होता है. वही असली लीडरशिप की शुरुआत होती है. बेटियों के नजरिए से दुनिया को देखने पर अजित को औफिस की जैंडर इनइक्वैलिटी भी साफ दिखने लगी.”

वे कहते हैं, “कंपनियों को अब सिर्फ वूमन ऐंपावरमैंट पर पैनल डिस्कशन नहीं, बल्कि ऐसे पुरुषों की जरूरत है जो अपनी बेटियों की आंखों से दुनिया देखना सीखें।”

यूजर्स हुए भावुक

अजित की यह पोस्ट लिंक्डइन पर वायरल हो गई और हर कोने से सराहना मिल रही है. किसी ने लिखा, “इसे पढ़ते हुए मेरी आंखों में आंसू आ गए,” तो एक यूजर ने सवाल उठाया, “जिन की बेटियां नहीं हैं, वे यह नजरिया कैसे अपनाएं?”

अजित की बातों ने न केवल पेरैंटिंग को नए सिरे से परिभाषित किया, बल्कि यह भी दिखाया कि बेटियां समाज को बदलने की सब से शांत लेकिन सब से प्रभावी ताकत हैं. सच में, बेटियों को बड़ा करना अब एक क्रांति है, एक ऐसी क्रांति जो धीरेधीरे समाज को बदल रही है.

Katrina Kaif सलमान खान या पति विक्की की नहीं बल्कि अक्षय कुमार की हैं बड़ी प्रशंसक

Katrina Kaif  : बौलीवुड अभिनेत्री कैटरीना कैफ (Katrina Kaif)  सफल करियर के दौरान एक्टर विकी कौशल के साथ शादी के बंधन में बंध गई. शादी के बाद कैटरीना रिलैक्स मूड में है और विक्की कौशल की हिट फिल्म छावा की सफलता को एंजौय कर रहो है . बावजूद इसके हाल ही में अक्षय कुमार की फिल्म केसरी चैप्टर 2 रिलीज हुई जो छावा फिल्म के लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है क्योंकि केसरी भी उतना ही अच्छा बिजनेस कर रही है जितना कि फिल्म छावा ने शुरुआत में किया था.

बावजूद इसके कैटरीना कैफ ने अक्षय कुमार की फिल्म की ना सिर्फ तारीफ की बल्कि फिल्म में अक्षय कुमार के अभिनय की तारीफ भी की. गौरतलब है अक्षय ने कैटरीना को उनके संघर्ष भरे करियर के दौरान हमेशा सपोर्ट किया , कैटरीना को निर्माता को कहकर फिल्म के लिए रिकमेंड भी किया और अक्षय कटरीना के अच्छे दोस्तों में से एक है इस लिए कैटरीना सलमान खान तक के सामने अक्षय की तारीफ करते नहीं चूकती , एक बार एक फंक्शन में सलमान खान ने जब कैटरीना से पूछा कि वह सलमान के साथ फिल्म करना चाहेगी कि अक्षय कुमार के साथ ? तो उस वक्त भी केटरीना ने बेधड़क अक्षय कुमार का नाम लिया.

सलमान ने इस बात का बुरा नहीं माना क्योंकि अक्षय सलमान के भी अच्छे दोस्त हैं. पक्के दोस्त की अगर बात करें तो कैटरीना की नजर में दोस्तों की लिस्ट में अक्षय कुमार नंबर वन पर आते हैं. जो वह डंके की चोट पर अपने पति विक्की कौशल या सलमान खान पुराने दोस्त के सामने कहने में भी नही हिचकिचाती. यह अलग बात है की कैटरीना सलमान के लिए लकी चाम है. कैटरीना ने सलमान के साथ जितनी भी फिल्में की है अब तक सब हिट रही है.

Sattu Sharbat Recipe : घर पर ऐसे बनाएं सत्तू का शर्बत

पाठक द्वारा भेजी गई रेसिपी

नाम – हेमलता श्रीवास्तव
स्थान – नई दिल्ली

Sattu Sharbat Recipe : सत्तू का शरबत गर्मियों में बहुत ही फायदेमंद होता है.

सामग्री

सत्तू पाउडर 8 बड़ॆ चम्मच
शुगर सिरप 1 कप
ठंडा पानी 1 लीटर
गुलाब जल 1 बड़ा चम्मच
गुलाब की पत्ती सजाने के लिए
आइस

बनाने की विधि:-

सत्तू और चीनी के मिश्रण को एक बड़े बर्तन में अच्छी तरह से चलाकर मिला लें और इसमें गुलाब जल के साथ ठंडा पानी मिला लें.
अब ग्लास में पहले बर्फ डालें फिर समान मात्रा में शरबत के एक- एक ग्लास में डालें.
ऊपर से गुलाब पत्ती से सजाकर ठंडा परोसें.
परोसने से पहले एक बार फिर से अच्छी तरह से चला दें.

मिथिला आर्ट को दुनियाभर में चर्चित किया : डा. रानी झा

Dr. Ranji Jha : रानी  झा मिथिला फोक आर्टिस्ट व स्कौलर हैं. उन्होंने कई महिलाओं को आर्ट सिखाया और उन्हें सशक्त बनाया. उन्हें जानने वाली महिलाएं उन से प्रेरणा लेती हैं. 20 मार्च को गृहशोभा इंस्पायरिंग अवार्ड में उन के साथ बातचीत की गई.

कौटन साड़ी, माथे पर बिंदी, आम भारतीय वेशभूषा में 20 मार्च को गृहशोभा इंस्पाइरिंग अवार्ड में शामिल हुईं रानी  झा भारत की उन करोड़ों महिलाओं का प्रतिनिधित्व कर रही थीं जिन का जीवन कड़े संघर्षों से बीता है मगर उन्होंने हार नहीं मानीं. यही कारण भी था कि उन के उल्लेखनीय काम के लिए उन्हें गृहशोभा फोक हैरिटेज अवार्ड से सम्मानित किया गया.

रंग लाई मेहनत

उन्होंने कहा, ‘‘मैं लगभग 45 सालों से मधुबनी आर्ट कर रही हूं. मेरी दादी, दीदी भी यही करती थीं. मैं ने उन्हीं से सीखा है. गांव में कोई छोटाबड़ा फंक्शन होता है तो यह आर्ट किया जाता है. आज से 50 साल पहले तक लड़कियों की शादी की मैरिट उस के ‘लिखिया’ (मधुबनी आर्ट) आने को ले कर माना जाता था और भगवती का गीत आता है या नहीं यह पूछा जाता था. यह हर लड़की सीखती थी कम या ज्यादा. मु झे ज्यादा उत्सुकता थी. मैं ने अपनी चचेरी दादी (बिंदु देवी) से यह सीखा. मेरी अपनी दादी भी बहुत बड़ी मधुबनी कलाकार थीं. उन की बनाई पेंटिंग का फोटोग्राफ ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन में लगा है.’’

उन्होंने आगे कहा, ‘‘मेरा स्कूल ही मेरी दादी, नानी, मामी हुआ करती थीं. जैसे भूमिचित्र में चावल के घोल से उंगलियों को कैसे घुमाया जाता है, यह सीखने के लिए मैं अपनी चचेरी दादी के पास बैठती थी. यही मेरा ककहरा था. परिवार की सारी महिलाएं एकसाथ ये चित्र बनाया करती थीं.’’

रानी  झा ने 2010 में एलएमएनयू दरभंगा से मिथिला पेंटिंग और लिटरेचर में महिलाओं का योगदान में पीएचडी की. उन्होंने अपने आर्ट को और गहराई तक समझने और महिलाओं के प्रति ज्यादा जवाबदेह बनाने के चलते अपनी पीएचडी की. कोई भी आर्ट बिना सोशल मैसेज के खोखला लगता है. देशदुनिया में जितने भी कलाकार उभरे हैं उन्होंने सामाजिक संदेशों को अपने आर्ट के केंद्र में रखा और रानी  झा भी इन्हीं में से रहीं.

चित्र के माध्यम से अपनी बात

वे कहती हैं, ‘‘2004 तक मैं पारंपरिक चित्र बनाती थी लेकिन मेरे मन में महिलाओं को ले कर कई सवाल उठने लगे जैसे क्यों लड़कियों को कोख में मार दिया जाता है, क्यों हम धड़ल्ले से दरवाजे पर नहीं जा सकते, क्यों पढ़ाई से रोका जाता है, इन छटपटाहटों को मैं ने अपने चित्रों में दिखाने की कोशिश की.’’

उन्होंने आगे कहा, ‘‘मैं समाज के जो भी मुद्दे उठाती हूं पहले उसे लिखती हूं, फिर गाती हूं मंचों से, फिर चित्र बनाती हूं.’’

डिसीजन मेकिंग

रानी  झा का मानना है कि जो काम महिला उत्थान के लिए सरकार नहीं कर पाई वह मधुबनी आर्ट ने किया. उन्होंने कहा, ‘‘सरकार की कोई भी स्कीम इतनी सफल नहीं हुई जितनी मिथिला पेंटिंग महिलाओं के लिए सफल हुई. मिथिला पेंटिंग ने महिलाओं का सशक्तीकरण किया. ये पेंटिंग महिलाएं बनाती हैं, उन की पेंटिंग्स बाजारों में बिकती हैं और उन्हें अपने आर्ट की कीमत पता चली है, अपनी कीमत पता चली है.

‘‘आज हम घर की कमाऊ सदस्य बन गईं, घर में हमारा महत्त्व बढ़ गया, डिसीजन मेकिंग में हमारा रोल बढ़ गया. कभी हमें इग्नोर किया जाता था निर्णय लेने में, अब हम निर्णय लेने लगी हैं. मिथिला की बहुत सारी महिलाएं इस के दम पर अपना घर चला रही हैं, बच्चों को पढ़ा रही हैं, देशविदेश जा रही हैं और पद्मश्री ले रही हैं.’’

यह आर्ट और महिलाओं तक कैसे पहुंचे इस के लिए उन्होंने बताया कि सरकार को कलाकारों तक सीधे पहुंचना चाहिए, पूरी पारदर्शिता होनी चाहिए. सरकार कर रही है

मगर थ्योरी पर काम नहीं कर रही. चित्र तो बन रहे हैं मगर जरूरी है कि लिटरेचर को डैवलप किया जाए.

माइंड कोच के तौर पर अपनी अलग पहचान बनाई : श्रुति सेठ

Shruti Seth : सीरियल ‘शरारत’ की जिया और ‘कौमेडी सर्कस’ की ऐंकर श्रुति सेठ को कौन नहीं जानता. अवार्ड्स इवेंट में श्रुति ने भी एक अवार्ड अपने नाम किया. लेकिन यह अवार्ड उन्हें ऐक्टिंग के लिए नहीं बल्कि डिजिटल क्रिएटर की कैटेगरी के लिए दिया गया था.

जी हां, टीवी और सिनेमा में 25 साल काम करने के बाद श्रुति डिजिटल की दुनिया में आ चुकी हैं, जहां वे पेरैंटिंग, मदरहुड और फैमिली मैंटल वैल बीइंग से जुड़े कौंटैंट बनाती हैं. वे माइंड कोच के तौर पर भी अपने फौलोअर्स को पेरैंटिंग से जुड़े मिथ्स बताती हैं और उन का सौल्यूशन भी देती हैं.

बढ़ती गई खोज

श्रुति ‘क्यों होता है प्यार,’ ‘ब्लडी ब्रदर,’ ‘रिश्ता डौट कौम,’ ‘श्श्श् कोई है,’ ‘बालवीर’ जैसे कई सीरियलों में नजर आईं. श्रुति ने करिश्मा कपूर के साथ ‘मैंटरहुड’ जैसी सीरीज में भी काम किया है. आमिर खान और काजोल की सुपरहिट फिल्म ‘फना’ में श्रुति ने काजोल की दोस्त का रोल निभाया था. इस के अलावा श्रुति यशराज की फिल्म ‘तारा रम पम’ में और प्रकाश झा की फिल्म ‘राजनीति’ में भी नजर आईं.

अब इस अदाकारा ने माइंड कोच के तौर पर भी अपनी पहचान बनाई है. जब उन से पूछा कि उन्हें यह कोर्स कैसे मिला और उन्होंने इसे क्यों चुना, तो उन्होंने कहा, ‘‘मैं ने महामारी के दौरान जिज्ञासा और आत्मजांच की आवश्यकता के कारण अचानक अध्ययन करना शुरू कर दिया. मुझे एहसास नहीं था कि मैं एक कभी न खत्म होने वाली यात्रा पर निकलने वाली हूं. प्रत्येक अगले कोर्स के साथ गहराई से जानने की मेरी खोज बढ़ती ही गई. मानव मन और मानवीय स्थिति की प्रकृति ऐसी ही है.’’

ऐसे पहुंचाया लाभ

श्रुति कहती हैं, ‘‘जैसेजैसे मैं ने खुद को शिक्षित किया, मुझे एहसास हुआ कि मैं दूसरों को भी लाभ पहुंचा सकती हूं ताकि वे अधिक संतुष्टिदायक जीवन जी सकें, पुरानी आदतों को तोड़ सकें और अपने कार्यों के प्रति अधिक सजग हो सकें. कला आधारित थेरैपी में पीजी डिप्लोमा और माइंडफुलनैस मैडिटेशन में प्रमाणन प्राप्त करने के बाद से मैं ने जोखिम में पड़े बच्चों, शिक्षकों, छात्रों और कौरपोरेट सीईओ के लिए कई कार्यशालाएं आयोजित की हैं.’’

हार नहीं मानी

श्रुति ने टीवी से ले कर फिल्मों तक अपने काम को खूब मजे से निभाया और इसे ले कर वे खुश भी हैं. अवार्ड लेने समय उन्होंने हंसते हुए कहा कि फिल्मी दुनिया में उन्हें 25 सालों के काम के बाद भी कोई अवार्ड नहीं मिला. लेकिन आज मेरी नई भूमिका को गृहशोभा ने अवार्ड के रूप में नई पहचान दी है. आज के दौर में जहां कई कलाकार कम काम मिलने की वजह से अवसाद का शिकार बन जाते हैं वहीं श्रुति जैसे लोग अपने लिए नए रास्ते बनाते हैं. वह भी ऐसे रास्ते जो न सिर्फ खुद को मंजिल दिला सकें बल्कि दूसरों को भी सही दिशा दे सकें.

नई भूमिका में खुश

श्रुति को उन की बेहतरीन अदाकारी के लिए तो जाना ही जाता है लेकिन अब वे एक बेहतरीन पेरैंटिंग और माइंड कोच भी हैं. अपनी इस भूमिका में वे पहले से?भी ज्यादा व्यस्त हैं. अब वे अपनी लाइफ की स्क्रिप्ट राइटर होने के साथसाथ डाइरैक्टर भी हैं. अपनी नई भूमिका को वे अच्छी तरह से निभा भी रही हैं. श्रुति ने लोगों को यह भी बता दिया कि यदि सोशल मीडिया का इस्तेमाल सही तरह से किया जाए तो यह सभी के लिए लाइफ चैंजिग मीडियम साबित हो सकता है. श्रुति का मानना है कि हर महिला के अंदर एक टैलेंट होता है बस जरूरत होती है खुद में खुद को ढूंढ़ने की. जिस दिन आप ने ऐसा कर लिया उस दिन आप से बेहतर शायद कोई नहीं होगा.

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