सलाह लेना जरूरी: क्या पत्नी का मान रख पाया रोहित?

घंटी बजी तो मैं खीज उठी. आज सुबह से कई बार घंटी बज चुकी थी, कभी दरवाजे की तो कभी टेलीफोन की. इस चक्कर में काम निबटातेनिबटाते 12 बज गए. सोचा था टीवी के आगे बैठ कर इतमीनान से नाश्ता करूंगी. बाद में मूड हुआ तो जी भर कर सोऊंगी या फिर रोहिणी को बुला कर उस के साथ गप्पें मारूंगी, मगर लगता है आज आराम नहीं कर पाऊंगी.

दरवाजा खोला तो रोहिणी को देख मेरी बांछें खिल गईं. रोहिणी मेरी ओर ध्यान दिए बगैर अंदर सोफे पर जा पसरी.

‘‘कुछ परेशान लग रही हो, भाई साहब से झगड़ा हो गया है क्या?’’ उस का उतरा चेहरा देख मैं ने उसे छेड़ा.

‘‘देखा, मैं भी तो यही कहती हूं, मगर इन्हें मेरी परवाह ही कब रही है. मुफ्त की नौकरानी है घर चलाने को और क्या चाहिए? मैं जीऊं या मरूं, उन्हें क्या?’’ रोहिणी की बात का सिरपैर मुझे समझ नहीं आया. कुरेदने पर उसी ने खुलासा किया, ‘‘2 साल की पहचान है, मगर तुम ने देखते ही समझ लिया कि मैं परेशान हूं. एक हमारे पति महोदय हैं, 10 साल से रातदिन का साथ है, फिर भी मेरे मन की बात उन की समझ में नहीं आती.’’

‘‘तो तुम ही बता दो न,’’ मेरे इतना कहते ही रोहिणी ने तुनक कर कहा, ‘‘हर बार मैं ही क्यों बोलूं, उन्हें भी तो कुछ समझना चाहिए. आखिर मैं भी तो उन के मन की बात बिना कहे जान जाती हूं.’’

रोहिणी की फुफकार ने मुझे पैतरा बदलने पर मजबूर कर दिया, ‘‘बात तो सही है, लेकिन इन सब का इलाज क्या है? तुम कहोेगी नहीं, बिना कहे वे समझेंगे नहीं तो फिर समस्या कैसे सुलझेगी?’’

‘‘जब मैं ही नहीं रहूंगी तो समस्या अपनेआप सुलझ जाएगी,’’ वह अब रोने का मूड बनाती नजर आ रही थी.

‘‘तुम कहां जा रही हो?’’ मैं ने उसे टटोलने वाले अंदाज में पूछा.

‘‘डूब मरूंगी कहीं किसी नदीनाले में. मर जाऊंगी, तभी मेरी अहमियत समझेंगे,’’ उस की आंखों से मोटेमोटे आंसुओं की बरसात होने लगी.

‘‘यह तो कोई समाधान नहीं है और फिर लाश न मिली तो भाई साहब यह भी सोच सकते हैं कि तू किसी के साथ भाग गई. मैं बदनाम महिला की सहेली नहीं कहलाना चाहती.’’

‘‘सोचने दो, जो चाहें सोचें,’’ कहने को तो वह कह गई, मगर फिर संभल कर बोली, ‘‘बात तो सही है. ऐसे तो बड़ी बदनामी हो जाएगी. फांसी लगा लेती हूं. कितने ही लोग फांसी लगा कर मरते हैं.’’

‘‘पर एक मुश्किल है,’’ मैं ने उस का ध्यान खींचा, ‘‘फांसी लगाने पर जीभ और आंखें बाहर निकल आती हैं और चेहरा बड़ा भयानक हो जाता है, सोच लो.’’

बिना मेकअप किए तो रोहिणी काम वाली के सामने भी नहीं आती. ऐसे में चेहरा भयानक हो जाने की कल्पना ने उस के हाथपांव ढीले कर दिए. बोली, ‘‘फांसी के लिए गांठ बनानी तो मुझे आती ही नहीं, कुछ और सोचना पड़ेगा,’’ फिर अचानक चहक कर बोली, ‘‘तेरे पास चूहे मारने वाली दवा है न. सुना है आत्महत्या के लिए बड़ी कारगर दवा है. वही ठीक रहेगी.’’

‘‘वैसे तो तेरी मदद करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं, पर सोच ले. उसे खा कर चूहे कैसे पानी के लिए तड़पते हैं. तू पानी के बिना तो रह लेगी न?’’ उस की सेहत इस बात की गवाह थी कि भूखप्यास को झेल पाना उस के बूते की बात नहीं.

रोहिणी ने कातर दृष्टि से मुझे देखा, मानो पूछ रही हो, ‘‘तो अब क्या करूं?’’

‘‘छत से कूदना या फिर नींद की ढेर सारी गोलियां खा कर सोए रहना भी विकल्प हो सकते हैं,’’ मुश्किल वक्त में मैं रोहिणी की मदद करने से पीछे नहीं हट सकती थी.

‘‘ऊफ, छत से कूद कर हड्डियां तो तुड़वाई जा सकती हैं, पर मरने की कोई गारंटी नहीं और गोली खाते ही मुझे उलटी हो जाती है,’’ रोहिणी हताश हो गई.

हर तरकीब किसी न किसी मुद्दे पर आ कर फेल होती जा रही थी. आत्महत्या करना इतना मुश्किल होता है, यह तो कभी सोचा ही न था. दोपहर के भोजन पर हम ने नए सिरे से आत्महत्या की संभावनाओं पर विचार करना शुरू किया तो हताशा में रोहिणी की आंखें फिर बरस पड़ीं. मैं ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा, परेशान मत हो.’’

रोहिणी ने छक कर खाना खाया. बाद में 2 गुलाबजामुन और आइसक्रीम भी ली वरना उस बेचारी को तो भूख भी नहीं थी. मेरी जिद ने ही उसे खाने पर मेरा साथ देने को मजबूर किया था.

चाय के दूसरे दौर तक पहुंचतेपहुंचते मुझे विश्वास हो गया कि आत्महत्या के प्रचलित तरीकों से रोहिणी का भला नहीं होने वाला. समस्या से निबटने के लिए नवीन दृष्टिकोण की जरूरत थी. बातोंबातों में मैं ने रोहिणी के मन की बात जानने की कोशिश की, जिस को कहेसुने बिना ही उस के पति को समझना चाहिए था.

बहुत टालमटोल के बाद झिझकते हुए उस ने जो बताया उस का सार यह था कि 2 दिन बाद उसे भाई के साले की बेटी की शादी में जाना था और उस के पास लेटैस्ट डिजाइन की कोई साड़ी नहीं थी. इसलिए 4 माह बाद आने वाले अपने जन्मदिन का गिफ्ट उसे ऐडवांस में चाहिए था ताकि शादी में पति की हैसियत के अनुरूप बनसंवर कर जा सके और मायके में बड़े यत्न से बनाई गई पति की इज्जत की साख बचा सके.

मुझे उस के पति पर क्रोध आने लगा. वैसे तो बड़े पत्नीभक्त बने फिरते हैं, पर पत्नी के मन की बात भी नहीं समझ सकते. अरे, शादीब्याह पर तो सभी नए कपड़े पहनते हैं. रोहिणी तो फिर भी अनावश्यक खर्च बचाने के लिए अपने गिफ्ट से ही काम चलाने को तैयार है. लोग तनख्वाह का ऐडवांस मांगते झिझकते हैं, यहां तो गिफ्ट के ऐडवांस का सवाल है. भला एक सभ्य, सुसंस्कृत महिला मुंह खोल कर कैसे कहेगी? पति को ही समझना चाहिए न.

‘‘अगर मैं बातोंबातों में भाई साहब को तेरे मन की बात समझा दूं तो कैसा रहे?’’ अचानक आए इस खयाल से मैं उत्साहित हो उठी. असल में अपनी प्यारी सहेली को उस के पति की लापरवाही के कारण खो देने का डर मुझे भी सता रहा था.

एक पल के लिए खिल कर उस का चेहरा फिर मुरझा गया और बोली, ‘‘उन्हें फिर भी न समझ आई तो?’’

मैं अभी ‘तो’ का जवाब ढूंढ़ ही रही थी कि टेलीफोन घनघना उठा. फोन पर रोहिणी के पति की घबराई हुई आवाज ने मुझे चौंका दिया.

‘‘रोहिणी मेरे पास बैठी है. हां, हां, वह एकदम ठीक है,’’ मैं ने उन की घबराहट दूर करने की कोशिश की.

‘‘मैं तुरंत आ रहा हूं,’’ कह कर उन्होंने फोन काट दिया. कुछ पल भी न बीते थे कि दरवाजे की घंटी बज उठी.

दरवाजा खोला तो रोहिणी के पति सामने खड़े थे. रोहित भी आते दिखाई दे गए. इसलिए मैं चाय का पानी चढ़ाने रसोई में चली गई और रोहित हाथमुंह धो कर रोहिणी के पति से बतियाने लगे.

रोहिणी की समस्या के निदान हेतु मैं बातों का रुख सही दिशा में कैसे मोड़ूं, इसी पसोपेश में थी कि रोहिणी ने पति के ब्रीफकेस में से एक पैकेट निकाल कर खोला. कुंदन और जरी के खूबसूरत काम वाली शिफोन की साड़ी को उस ने बड़े प्यार से उठा कर अपने ऊपर लगाया और पूछा, ‘‘कैसी लग रही है? ठीक तो है न?’’

‘‘इस पर तो किसी का भी मन मचल जाए. बहुत ही खूबसूरत है,’’ मेरी निगाहें साड़ी पर ही चिपक गई थीं.

‘‘पूरे ढाई हजार की है. कल शोकेस में लगी देखी थी. इन्होंने मेरे मन की बात पढ़ ली, तभी मुझे बिना बताए खरीद लाए,’’ रोहिणी की चहचहाट में गर्व की झलक साफ थी.

एक यह है, पति को रातदिन उंगलियों पर नचाती है, फिर भी मुंह खोलने से पहले ही पति मनचाही वस्तु दिलवा देते हैं. एक मैं हूं, रातदिन खटती हूं, फिर भी कोई पूछने वाला नहीं. एक तनख्वाह क्या ला कर दे देते हैं, सोचते हैं सारी जिम्मेदारी पूरी हो गई. साड़ी तो क्या कभी एक रूमाल तक ला कर नहीं दिया. तंग आ गई हूं मैं इन की लापरवाहियों से. किसी दिन नदीनाले में कूद कर जान दे दूंगी, तभी अक्ल आएगी, मेरे मन का घड़ा फूट कर आंखों के रास्ते बाहर आने को बेताब हो उठा. लगता है अब अपनी आत्महत्या के लिए रोहिणी से दोबारा सलाहमशवरा करना होगा.

हैदराबाद डिलाइट: प्रज्ञा और मनीष के साथ कौनसी घटना घटी

‘‘मनीष ने आज औफिस में ठीक से लंच भी नहीं किया था. बस 2 कौफी और 1 सैंडविच पर पूरा दिन गुजर गया था. रास्ते में भयंकर ट्रैफिक जाम था. घर पहुंचतेपहुंचते 8 बज गए थे.

मनीष ने घर पहुंचते ही कपड़े बदले और अपनी पत्नी भावना से बोला, ‘‘जल्दी खाना लगायो यार, कस कर भूख लगी है.’’

भावना मुंह बनाते हुए बोली, ‘‘इतना क्यों चिल्ला रहे हो, गुगु अभी सोई है. रसोई में खाना लगा हुआ है, ले लो.’’

खाने को देखते ही मनीष की भूख गायब हो गई. पानीदार तरी में कुछ तोरी के टुकड़े तैर रहे थे और सूखे आलुओं में कहींकहीं काला जीरा दिख रहा था. मनीष का मन हुआ थाली फेंक दे. बिना स्वाद किसी तरह से मनीष ने निवाले गटके और बाहर जाने के लिए जैसे ही चप्पलें पहन रहा था कि भावना दनदनाते हुएआ गई और बोली, ‘‘अब फिर से कहां जा रहे हो?’’

मनीष खीजते हुए बोला, ‘‘इतने स्वादिष्ठ खाने के बाद पान खाने जा रहा हूं.’’

भावना ने भी मानो आज लड़ाई करने की ठान रखी थी. बोली, ‘‘हां मालूम है साहब कुछ और करने जा रहे हैं. बच्चे क्या अकेले मेरे हैं? सारा दिन बच्चे देखो, रसोई में पकवान बनाओ और फिर इन के नखरे.’’

मनीष की कार न चाहते हुए भी हैदराबाद डिलाइट के सामने खड़ी थी. वहां की चिकन बिरयानी उसे बेहद पसंद थी. अंदर बेहद भीड़ थी. बस एक टेबल खाली थी जहां पर पहले से एक लड़की बैठे हुए बिरयानी ही खा रही थी.

मनीष लड़की के सामने बैठते हुए बोला, ‘‘क्या मैं यहां बैठ सकता हूं?’’

लड़की बोली, ‘‘जरूर, आज यहां बेहद भीड़ है.’’

मनीष ने बिरयानी और कोल्ड ड्रिंक और्डर करी और मोबाइल में गेम खेलने लगा. तभी मनीष के फोन की घंटी बजी.

मनीष जल्दबाजी में यह बात भूल गया था कि फोन स्पीकर पर है. जैसे ही उस ने फोन लिया, उधर से भावना के चिल्लाने की आवाज आने लगी, ‘‘मैं क्या तुम्हारी नौकरानी हूं… कहां हो? अगर फौरन वापस न आए तो पूरी रात बाहर रहना.’’

मनीष एकाएक शर्म से पानीपानी हो गया. तभी सामने बैठी हुई लड़की खिलखिलाते हंसते हुए बोली, ‘‘अगर तुम्हारी मैडम ने वाकई दरवाजा नहीं खोला तो क्या करोगे?’’

मनीष झेंप गया और बोला, ‘‘लगता है तुम भी अपने पति के साथ ऐसा कुछ करती हो.’’

लड़की बोली, ‘‘हम तो भई इस पतिपत्नी के खेल से आजाद हैं.’’

इसी बीच मनीष की बिरयानी भी आ गई थी और उस लड़की की फिरनी. लड़की ने खुद ही पहल करते हुए अपना नाम बताया. लड़की का नाम प्रज्ञा था और वह एक स्थानीय कंपनी में इंजीनियर थी. दोनों कुछ देर तक हैदराबाद डिलाइट की बिरयानी की तारीफ करते रहे.

प्रज्ञा ने फिर मनीष को फिरनी भी ट्राई करने के लिए कहा. मनीष बिल चुकाते हुए बोला, ‘‘अब अगर कुछ देर और रुका तो वाकई बाहर ही रुकना पड़ेगा.’’

घर आ कर मनीष के ऊपर भावना की बातों का कोई असर नहीं हो रहा था.चिकन बिरयानी खा कर उस का मन तृप्त हो चुका था, मगर भावना के सामने उसे ?ाठ ही बोलना पड़ा कि वह बाहर टहलने निकला था. मनीष का कितना मन करता था कि वह भावना के साथ अपने मन का खाना खा सके. मगर भावना तो अंडे पर भी नाकभौं सिकोड़ती थी. हर समय कभी एकादशी, कभी पूर्णमासी तो कभी अमावस्या का व्रत चलता रहता था.

मनीष को शादी के बाद ऐसे लगने लगा था कि वह घर में नहीं किसी होस्टल में रह रहा है. भावना को मनीष की लहसुन खाने से ले कर  चिकन खाने तक से प्रौब्लम थी. उसे लगता था कि ब्राह्मण हो कर भी मनीष का ये सब खानापीना उसे शोभा नहीं देता. मगर मनीष को लगता, भावना जो मांसमछली से परहेज करती है पर क्या यह काफी है उस के करीब जाने के लिए.

भावना का हर छोटीबड़ी बात पर काम वाली पर जाहिलों की तरह चिल्लाना, हर महीने छोटीछोटी बातों पर उस की तनख्वाह काट लेना, मंदिर में कीर्तन के समय बुराई करना क्या ये सब करने से ब्राह्मण ब्राह्मण कहलाता है?

रविवार की सुबह मनीष उठने के बाद भी बिस्तर पर यों ही अलसाया से लेटे रहना चाहता था. तभी भावना जलती नजरों से उस के सामने आई और हैदराबाद डिलाइट का बिल फेंकते हुए बोली, ‘‘शर्म नहीं आती तुम्हें ?ाठ बोलते हुए? कैसे ब्राह्मण हो कर झूठ बोलते

हो? चिकन खाते हो? तुम ने कल मेरा व्रत भंग कर दिया.’’ मनीष को समझ नहीं आया उस के चिकन बिरयानी खाने से भावना का व्रत कैसे भंग हो गया.

पूरे 2 घंटे तक चाय की प्रतीक्षा करने के बाद मनीष ने खुद ही अपनी और भावना की चाय बनाई और भावना को चाय पकड़ाते हुए बोला, ‘‘भावना, मैं क्या करूं यार मुझ से यह घासफूस नहीं खाया जाता है.’’

भावना आंखों से अंगारे बरसाते हुए बोली, ‘‘हां ये सब तो मैं अपने लिए कर रही हूं. शादी से पहले मेरे घर वालों ने साफसाफ बता दिया था कि मैं विशुद्ध शाकाहारी हूं. मगर तुम्हारे घर वालों ने कहा था कि लड़का कभीकभी औफिस पार्टी में नौनवेज खा लेता है. रोज खाएगा यह भी नहीं बताया था.’’

घर के तनाव से मुक्त होने के लिए मनीष दोनों बच्चों को कार में बैठा कर पार्क ले गया. तभी पीछे से किसी महिला की आवाज सुनाई दी. पलट कर देखा तो प्रज्ञा खड़ी थी.

‘‘आप भी इस पार्क में आते हैं अपने बालगोपाल को ले कर?’’ मनीष मुसकराते हुए बोला, ‘‘ताकि इन की मम्मी नाश्ता बना सके.’’

रात के अंधेरे में जो प्रज्ञा मनीष को लड़की लग रही थी, मगर दिन के उजाले में प्रज्ञा मनीष को अपनी हमउम्र ही लग रही थी. प्रज्ञा कुछ देर तक गुगू और आर्य के साथ बात करती रही और फिर मनीष से बोली, ‘‘चलो आप

लोगों को आज रुस्तम के बड़े सांभर का स्वाद चखाया जाए.’’

जब तक मनीष और बच्चों ने बड़ा सांभर खाया तब तक भावना का फोन आ गया. भावना ने नाश्ते में दलिया परोस दिया. मनीष ने मन ही मन प्रज्ञा को धन्यवाद किया वरना यह बेस्वाद दलिया मनीष को चिढ़ाने के लिए काफी था.

आज संडे था. मनीष को लगा शायद भावना लंच में कुछ अच्छा सा बना दे, मगर भावना का आज घर की सुखशांति के लिए एकादशी का व्रत था.

मनीष की शादी की यह एक ऐसी समस्या थी जिसे शायद कोई समस्या भी नहीं मानता था. मनीष की मम्मी के अनुसार मनीष की जीभ बहुत चटोरी है. अगर भावना मनीष की सेहत को ध्यान में रख कर उसे हैल्दी खाना देती है तो इस में क्या गलत है?’’

मनीष कैसे बताए कि उस के मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है. अपने ही घर में वह अपनी पसंद का खाना नहीं खा सकता है.

मनीष को आज भी याद है, जब शादी के बाद पहली बार भावना और मनीष ने हैदराबाद में नई गृहस्थी शुरू करी थी. अगले दिन प्यार में मनीष ने नाश्ता बनाया था.उसे मालूम था कि भावना वैजिटेरियन है इसलिए उस ने भावना के लिए वेज सैंडविच और अपने लिए आमलेट बनाया था. मगर भावना ने इतना शोर मचाया कि ऐसा लगा कि मनीष ने कोई अपराध कर दिया हो.

‘‘तुम ने रसोई में अंडा कैसे पका लिया. पूरे घर का शुद्धिकरण करना होगा.’’ मनीष को समझ ही नहीं आता था कि पढ़लिख कर भी भावना की सोच ऐसी कैसे है.

मनीष ने कभी भावना को किसी भी बात के लिए फोर्स नहीं किया था. मगर भावना ने मनीष के खानपान पर पहरे लगा रखे थे. नतीजा यह हुआ कि मनीष अधिकतर खाना चिढ़ कर बाहर ही खाता. इस कारण उस का कोलैस्ट्रौल और तनाव दोनों ही बढ़ रहे थे.

भावना को जब भी पता चलता मनीष बाहर से नौनवेज खा कर आया, वह न तो उसे करीब आने देती और न ही उस से बोलती. नतीजा यह हुआ अब मनीष और भावना के रिश्ते में झूठ भी पांव पसारने लगा था.

कभीकभी मनीष को लगता कि उन के रिश्ते के कारण बच्चों के साथ अन्याय हो रहा है, मगर भावना जरा भी बदलना नहीं चाहती थी. उसे मनीष के बाहर भी नौनवेज खाने से समस्या थी.

करीब 10 दिन बाद ऐसे ही एक झगड़े के बाद मनीष ने हैदराबाद डिलाइट का रुख किया. वहां पर आज भी प्रज्ञा बैठी थी.

मनीष प्रज्ञा के सामने बैठते हुए बोला, ‘‘तुम क्या यहां पर ही डिनर करती हो?’’

प्रज्ञा बोली, ‘‘और अगर मैं तुम से पूछूं तो?’’

मनीष ने कहा, ‘‘चलो आज मैं तुम्हें ट्रीट देता हूं.’’

प्रज्ञा बोली, ‘‘आज यहां चिकन की कोई आइटम नहीं है. मैं तो बिरयानी का पार्सल लेने आई हूं, तुम घर चलो मैं ने मसाला अंडा बना रखा है.’’

मनीष बोला, ‘‘इस समय?’’

‘‘चिंता न करो, घर पर मैं ही अपना परिवार हूं.’’

न जाने क्यों मनीष बिना किसी जानपहचान के भी प्रज्ञा के साथ चला गया. प्रज्ञा का घर मनीष के घर से न ज्यादा दूर था और न ही एकदम करीब. प्रज्ञा का घर छोटा मगर खूबसूरत था. बड़े ही नफासत से प्रज्ञा ने बिरयानी, मसाला अंडा, पापड़, रायता सजा दिया था. खाना बेहद ही लजीज था और उस से भी अधिक लजीज थी प्रज्ञा की बातें और सब से बड़ी बात वो आजादी जो उसे आज पहली बार खाते हुए महसूस हुई थी.

न कभी मनीष ने प्रज्ञा की निजी जिंदगी के बारे में कुछ पूछा और न ही कभी प्रज्ञा ने मनीष की निजी जिंदगी में दखल दिया. एक मौन अनुबंध था दोनों के बीच और इस मौन अनुबंध के भावों का गवाह हैदराबाद डिलाइट था. कभी हर हफ्ते तो कभी महीने में 2 बार जिसे जैसे सुविधा होती दोनों हैदराबाद डिलाइट में मिल लेते थे. बहुत बार मनीष को लगता क्या अपनी पसंद का आजादी से खाना खाना इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसी कारण वह प्रज्ञा के करीब जा रहा है. उधर प्रज्ञा के लिए भी मनीष के साथ अपनी दोस्ती एक पहेली सी लगती जो खानपान पर आधारित है.

धीरेधीरे हैदराबाद डिलाइट प्रज्ञा और मनीष की जिंदगी का वह जायका बन गया जिस ने दोनों की फीकी जिंदगी में स्वाद भर दिया.

सांझ का भूला: आखिर हुआ क्या था सीता के साथ

सीता ने अपने नए फ्लैट का दरवाजा खोला. कुली ट्रक से सामान उतार कर सीता के निर्देश पर उन्हें यथास्थान रख गया. कुली के जाने के बाद सीता ने अपना रसोईघर काफी मेहनत से सजाया. सारा दिन घर में सामान को संवारने में ही निकल गया. शाम को सीता जब आराम से सोफे पर बैठी तो उसे अजीब सी खुशी महसूस हुई. बरसों की घुटन कम होती हुई सी लगी.

सीता को खुद के फैसले पर विश्वास नहीं हो रहा था. 50 वर्ष की उम्र में वह घर की देहरी पार कर अकेली निकल आई है. यह कैसे संभव हुआ? वैसे आचारशील परिवार की नवविवाहिता संयुक्त परिवार से अलग हो कर अपनी गृहस्थी अलग बसा ले तो कोई बात नहीं, क्योंकि ऐसा चलन तो आजकल आम है. लेकिन घर की बुजुर्ग महिला गृह त्याग दे और अलग जीने लगे तो यह सामान्य बात नहीं है. सीता के दिमाग में सारी अप्रिय घटनाएं एक बार फिर घूमने लगीं.

सीता कर्नाटक संगीत के शिक्षक शिवरामकृष्णन की तीसरी बेटी थी. पिताजी अच्छे गायक थे, पर दुनियादारी नहीं जानते थे. अपने छोटे से गांव अरिमलम को छोड़ कर वे कहीं जाना नहीं चाहते थे. उन का गांव तिरुच्ची के पास ही था. गांव के परंपरावादी आचारशील परिवार, जहां कर्नाटक संगीत को महत्त्व दिया जाता था, शहर की ओर चले गए. गांव में कुल 3 मंदिर थे.

आमंत्रण के उत्सवों और शादीब्याह में गाने का आमंत्रण शिवरामकृष्णन को मिलता था. उन के कुछ शिष्य घर आ कर संगीत सीखते थे. सीता की मां बीमार रहती थीं और सीता ही उन की देखभाल करती थी. पिताजी ने किसी तरह दोनों बहनों की शादी कर दी थी. एक छोटा भाई भी था, जो स्कूल में पढ़ रहा था. सीता अपनी मां का गौर वर्ण और सुंदर नयननक्श ले कर आई थी.

घने काले बाल, छरहरा बदन और शांत चेहरा बड़ा आकर्षक था. एक उत्सव में तिरुच्ची से आए रामकृष्णन के परिवार के लोगों ने सीता को देखा और उसी दिन शाम को रामकृष्णन ने अपने बेटे रविचंद्रन के साथ सीता की सगाई पक्की कर ली. सीता के पिता ने भी झटपट बेटी का ब्याह रचा दिया.

सीता का ससुराल जनधन से वैभवपूर्ण था. उस का पति कुशल बांसुरीवादक था. वह जब बांसुरीवादन का अभ्यास करता तो राह चलते लोग खड़े हो कर सुनने लगते थे, लेकिन सीता को कुछ ही समय में पता लगा कि उस का पति बुरी संगति के कारण शराबी बन गया है और अपनी इसी लत के कारण वह कहीं टिक कर काम नहीं कर पाता.

कुल 4 वर्षों की गृहस्थी ही सीता की तकदीर में लिखी थी. रविचंद्रन फेफड़े के रोग का शिकार बन कर खांसते हुए सीता को छोड़ कर चल बसा. सासससुर पुत्र शोक से बुझ कर गांव चले गए. जेठ ने सीता को मायके जाने को कह दिया.

सीता अपने दोनों नन्हे पुत्रों को ले कर अपनी दीदी के यहां चेन्नई में रहने लगी. उस ने अपनी छूटी हुई पढ़ाई फिर से शुरू कर दी. दीदी के घर का पूरा काम अपने कंधे पर उठाए सीता गुस्सैल जीजा के क्रोध का सामना करती. उस ने किसी तरह संगीत में एम.ए. तक की शिक्षा पूरी की और शहर के प्रसिद्ध महिला कालिज में प्रवक्ता के पद पर काम करने लगी.

सीता के दोनों बेटे 2 अलग दिशाओं में प्रगति करने लगे. बड़ा बेटा जगन्नाथ पिता की तरह संगीतकार बना. वह फिल्मों में सहायक संगीत निर्देशक के रूप में काम करने लगा. अपनी संगीत टीम की एक विजातीय गायिका मोनिका को जगन्नाथ घर ले कर आया तो सीता ने पूरी बिरादरी का विरोध सहन करते हुए जगन्नाथ और मोनिका का विवाह रचाया था. दूसरा बेटा बालकृष्णन ग्रेनेट व्यापार में लग गया. अपनी कंपनी के मालिक ईश्वरन की पुत्री के साथ उस का विवाह हो गया.

सीता ने दोनों बेटों का पालनपोषण काफी मेहनत से किया था. वह उन पर कड़ा अनुशासन रखती थी. मां का संघर्ष, परिवार में मिले कटु अनुभवों ने दोनों बेटों की हंसी छीन ली थी. विवाह के बाद ही दोनों बेटे हंसनेबोलने लगे थे. सैरसपाटे पर जाना, दोस्तों को घर बुलाना, होटल में खाना दोनों को ही अच्छा लगने लगा. कुछ समय तक सीता का घर खुशहाल रहा, लेकिन सीता के जीवन में फिर आंधी आई.

भाग्यलक्ष्मी के पिता काफी संपन्न थे. इसलिए उस के पास ढेर सारे गहने और कांचीपुरम की कीमती रेशमी साडि़यां थीं. उस पर हर 2-3 दिन के बाद वह मायके जाती और वापसी पर फलमिठाइयां भरभर कर लाती थी. मोनिका यह सब देख कर जलभुन जाती थी. सीता दोनों बहुओं को किसी तरह संभालती थी. दोनों के मनमुटाव के बीच फंस कर घर का सारा काम सीता को ही करना पड़ता था.

पोंगल के त्योहार के समय बहुओं को उन के मायके से एक सप्ताह पहले ही नेग आ जाता. भाग्यलक्ष्मी के मातापिता अपनी बेटी, दामाद और सास के कपड़े आदि ले कर आ गए. भाग्यलक्ष्मी काफी खुश थी. पोंगल के पर्व के दिन सीता ने बहुओं को मेहंदी रचाने के लिए बुलाया. भाग्यलक्ष्मी ने मेहंदी रचा ली तो मोनिका का क्रोध फूट पड़ा, ‘बड़ी बहू को पहले न बुला कर छोटी बहू को पहले मेहंदी लगा दी, मुझे नीचा दिखाना चाहती हैं न आप?’

मोनिका के कठोर व्यवहार के कारण घर में कलह शुरू हो गई. बालकृष्णन का व्यापार भाग्यलक्ष्मी के परिवार से जुड़ा था. वह पत्नी का रोनाधोना देख नहीं पा रहा था. वही हुआ जिस का सीता को डर था. बालकृष्णन अपने ससुर के यहां रहने चला गया. कुछ समय तक वह सीता से मिलने आताजाता रहा पर धीरेधीरे उस का आना कम हो गया. मोनिका अपने पति के साथ संगीत के कार्यक्रमों में जुड़ी रहती थी. घर के कामों में उस की कभी रुचि रही ही नहीं. यहां तक कि सवेरे स्नान कर रसोईघर में आने के रिवाज का भी वह पालन नहीं करती थी.

मोनिका को जाने क्यों कभी सीता के साथ लगाव रहा ही नहीं. सीता बहू को प्रसन्न रखने के लिए काफी प्रयास करती थी. इस के बाद भी मोनिका का कटु व्यवहार बढ़ता ही जाता था. यहां तक कि वह अपने बेटे मोहन को उस की दादी सीता से हमेशा दूर रखने का यत्न करती थी. सीता अंदर से टूटती रही, अकेले में रोती रही और अंत में अलग फ्लैट ले कर रहने का कष्टपूर्ण निर्णय उस ने लिया था.

आदतवश सीता सुबह 4 बजे ही जग गई. आंख खुलते ही घर की नीरवता का भान हुआ तो झट से अपना मन घर के कामकाज में लगा लिया. रसोईघर में खड़ी सीता फिर एक बार चौंकी. भरेपूरे मायके और ससुराल में हमेशा वह 5-7 लोगों के लिए रसोई बनाती थी. आज पहली बार उसे सिर्फ अपने लिए भोजन तैयार करना है. लंबी सांस लेती हुई वह काम में जुटी रही.

मन में खयाल आया कि बहू मोनिका नन्हे चंचल मोहन को संभालते हुए नाश्ता और भोजन अकेले कैसे तैयार कर पाएगी? जगन्नाथ को प्रतिदिन नाश्ता में इडलीडोसा ही चाहिए. इडली बिलकुल नरम हो, सांभर के साथ नारियल की चटनी भी हो, यह जरूरी है. दोपहर के भोजन में भी उसे सांभर, पोरियल (भुनी सब्जी), कूट्टू (तरी वाली सब्जी), दही, आचार के साथ चावल चाहिए. इतना कुछ मोनिका अकेले कैसे तैयार कर पाएगी? सीता ने अपना लंच बौक्स बैग में रख लिया. उसे अकेले बैठ कर नाश्ता करने की इच्छा नहीं हुई. केवल कौफी पी कर वह कालिज चल पड़ी. कालिज में उसे अपने इस नए घर का पता कार्यालय में नोट कराना था. मैनेजर रामलक्ष्मी ने तनिक आश्चर्य से पूछा, ‘‘आप का अपना मकान टी. नगर में है न? फिर आप उतने अच्छे इलाके को छोड़ कर यहां विरुगंबाकम में क्यों आ गईं?’’

सीता फीकी हंसी हंस कर बात टाल गई. कालिज में कुछ ही समय में बात फैल गई कि सीता बेटेबहू से लड़ कर अलग रहने लगी है. ‘जाने इस उम्र में भी लोग कैसे परिपक्व नहीं होते, छोटों से लड़तेझगड़ते हैं. जब बड़ेबूढ़े ही घर छोड़ कर भागने लगेंगे तो समाज का क्या हाल होगा?’ इस तरह के कई ताने सुन सीता खून का घूंट पी कर रह जाती थी. सीता को अकेला, स्वतंत्र जीवन अच्छा भी लग रहा था.

रोजरोज की खींचातानी, तूतू, मैंमैं से तो छुटकारा मिल गया. घर को सुचारु रूप से चलाने के लिए वह कितना काम करती थी फिर भी मोनिका ताने देती रहती थी. सीता ने अपने वैधव्य का सारा दुख अपने दोनों बेटों के चेहरों को निहारते हुए ही झेला था पर आज स्थिति बदल गई है. आज बेटे भी मां को भार समझने लगे हैं.

बहुओं की हर बात मानने वाले दोनों बेटे अपनी मां के दिल में झांक कर क्यों नहीं देखना चाहते हैं? बहुओं का अभद्र व्यवहार सहन करते हुए क्या सीता को ही घुटघुट कर जीना होगा. सीता ने जब परिवार से अलग रहने का निर्णय लिया तब दोनों बेटे चुप ही रहे थे. सीता की आंखों में आंसू भर आए. सीता के पति रविचंद्रन का श्राद्ध था.

सीता अपने बेटेबहुओं व पोतों के साथ गांव में ही जा कर श्राद्ध कार्य संपन्न कराती थी. गांव में ही सीता के सासससुर, बूआ और अन्य परिजन रहते हैं. जगन्नाथ ही सब के लिए टिकट लिया करता था. गांव में पत्र भेज कर पंडितजी और ब्राह्मणों से सारी तैयारी करवा कर रखता था. श्राद्ध में कुल 8 दिन बाकी हैं और अब तक सीता को किसी ने कोई खबर नहीं दी. क्या दोनों बेटे उसे बिना बुलाए ही गांव चले जाएंगे? सीता अकेले गांव पहुंचेगी तो बिरादरी में होहल्ला हो जाएगा.

अभी तक तो उस के अलग रहने की बात शहर तक ही है. सीता का मन घबराने लगा. अपने अलग फ्लैट में रहने की बात वह अपने सासससुर से क्या मुंह ले कर कह पाएगी. उस के वयोवृद्ध सासससुर आज भी संयुक्त परिवार में ही जी रहे हैं. ससुर की विधवा बहन, विधुर भाई, भाई के 2 लड़के, दूर रिश्ते की एक अनाथ पोती सब परिवार में साथ रहते हैं. उन्होंने सीता को भी गांव में आ कर रहने को कहा था, पर वह ही नहीं आई थी. क्या इतने लोगों के बीच मनमुटाव नहीं रहता होगा? क्या आर्थिक परेशानियां नहीं होंगी? पता नहीं ससुरजी कैसे इस उम्र में सबकुछ संभालते हैं?

सीता ने मन मार कर जगन्नाथ को फोन किया. मोनिका ने ही फोन उठाया. जगन्नाथ किसी फिल्म की रिकार्डिंग के सिलसिले में सिंगापुर गया हुआ था. सीता गांव जाने के बारे में मोनिका से कुछ भी पूछ नहीं पाई. बालकृष्णन भी बंगलुरु गया हुआ था. भाग्यलक्ष्मी ने भी गांव जाने के बारे में कुछ नहीं कहा.

सीता को पहली बार घर त्यागने का दर्द महसूस हुआ. क्या करे वह? टे्रन से अपने अकेले का आरक्षण करा ले? पर यह भी तो पता नहीं कि लड़कों ने गांव में श्राद्ध करने की व्यवस्था की है या नहीं? उसे अपने दोनों बेटों पर क्रोध आ रहा था. क्या मां से बातचीत नहीं कर सकते हैं? लेकिन सीता अपने बेटों से न्यायपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा कैसे कर सकती है? उस ने स्वयं परिवार त्याग कर बेटों से दूरी बना ली है. अब कौन किसे दोष दे? सीता ने अंत में गांव जाने के लिए अपना टिकट बनवा लिया और कालिज में भी छुट्टी की अर्जी दे दी.

सीता विचारों के झंझावात से घिरी गांव पहुंची थी. उस के पहुंचने के बाद ही जगन्नाथ, मोनिका, बालकृष्णन, भाग्यलक्ष्मी, मोहन और कुमार पहुंचे. सीता ने जैसेतैसे बात संभाल ली. श्राद्ध अच्छी तरह संपन्न हुआ. सीता की वृद्ध सास और बूआ उस के परिवार के बीच में अलगाव को देख रही थीं. मोहन अपनी दादी सीता के गले लग कर बारबार पूछ रहा था, ‘‘ ‘पाटी’ (दादी), आप घर कब आएंगी? आप हम से झगड़ कर चली गई हैं न? मैं भी अम्मां से झगड़ने पर घर छोड़ कर चला जाऊंगा.’’

‘‘अरे, नहीं, ऐसा नहीं बोलते, जाओ, कुमार के साथ खेलो,’’ सीता ने मुश्किल से उसे चुप कराया. शहर वापसी के लिए जब सब लोग तैयार हो गए तब सीता के ससुर ने अपने दोनों पोतों को बुला कर पूछा, ‘‘तुम दोनों अपनी मां का ध्यान रखते हो कि नहीं? तुम्हारी मां काफी दुबली और कमजोर लगती है. जीवन में बहुत दुख पाया है उस ने. अब कम से कम उसे सुखी रखो.’’

जगन्नाथ और बालकृष्णन चुपचाप दादा की बात सुनते रहे. उन्हें साष्टांग प्रणाम कर सब लोग चेन्नई लौट गए थे. गांव से वापस आने के बाद सीता और भी अधिक बुझ गई थी. कितने महीनों बाद उस ने अपने दोनों बेटों का मुंह देखा था. दोनों प्यारे पोतों का आलिंगन उसे गद्गद कर गया था. बहू मोनिका भी काम के बोझ से कुछ थकीथकी लग रही थी पर उस की तीखी जबान तो पहले जैसे ही चलती रही थी. जगन्नाथ काफी खांस रहा था. वह कुछ बीमार रहा होगा.

बालकृष्णन अपने चंचल बेटे कुमार के पीछे दौड़तेदौड़ते ऊब रहा था. भाग्यलक्ष्मी बालकृष्णन का ज्यादा ध्यान नहीं रख रही थी. खैर, मुझे क्या? चलाएं अपनीअपनी गृहस्थी. मेरी जरूरत तो किसी को भी नहीं है. सब अपना घर संभाल रहे हैं. मैं भी अपना जीवन किसी तरह जी लूंगी. सीता के कालिज में सांस्कृतिक कार्यक्रम था. अध्यापकगण अपने परिवार के साथ आए थे. अपने साथियों को परिवार के साथ हंसताबोलता देख कर सीता के मन में कसैलापन भर गया. उसे अपने परिवार की याद सताने लगी. हर वर्ष उस के दोनों बेटे इस कार्यक्रम में आते थे. सीता इस कार्यक्रम में गीत गाती थी. मां के सुरीले कंठ से गीत की स्वरलहरी सुन दोनों बेटे काफी खुश होते थे. आज सांस्कृतिक कार्यक्रम में अकेली बैठी सीता का मन व्यथित था.

सीता को इधर कुछ दिनों से अपनी एकांत जिंदगी नीरस लगने लगी थी. न कोई तीजत्योहार ढंग से मना पाती और न ही किसी सांस्कृतिक आयोजन में जा पाती. कहीं चली भी गई तो लोग उस से उस के परिवार के बारे में प्रश्न अवश्य पूछते थे. पड़ोसी भी उस से दूरी बनाए रखते थे.

एक दिन सीता ने अपने 2 पड़ोसियों की बातें सुन ली थीं : ‘‘मीना, तुम अपने यहां मत बुलाना. हमारे सुखी परिवार को उस की नजर लग जाएगी. पता नहीं, इतने बड़े फ्लैट में वह अकेली कैसे रहती है. जरूर इस में कोई खोट होगा, तभी तो इसे पूछने कोई नहीं आता है.’’

सीता यह संवाद सुन कर पसीना- पसीना हो गई थी. दरवाजे की घंटी लगातार बज रही थी. सीता हड़बड़ा कर उठी. रात भर नींद नहीं आने के कारण शायद भोर में आंख लग गई. सीता की नौकरानी सुब्बम्मा आ गई थी. सुब्बम्मा जल्दीजल्दी सफाई का काम करने लगी. सीता ने दोनों के लिए कौफी बनाई.

‘‘अम्मां, मुझे बेटे के लिए एक पुरानी साइकिल लेनी है. बेचारा हर दिन बस से आताजाता है. बस में बड़ी भीड़ रहती है. तुम मुझे 600 रुपए उधार दे दो. मैं हर महीने 100-100 रुपए कर के चुका दूंगी,’’ सुब्बम्मा बरतन मलतेमलते कह रही थी. ‘‘लेकिन सुब्बम्मा, तुम्हारा बेटा तो तुम्हारी बात नहीं सुनता है. तुम्हें रोज 10 गालियां देता है. कमाई का एक पैसा भी तुम्हें नहीं देता…रोज तुम उस की सैकड़ों शिकायतें करती हो और अब उस के लिए कर्ज लेना चाहती हो,’’ सीता कौफी पीते हुए आश्चर्य से पूछ रही थी.

‘‘अरे, अम्मां, अपनों से ही तो हम कहासुनी कर सकते हैं. बेचारा बदनसीब मेरी कोख में जन्मा इसीलिए तो गरीबी का सारा दुख झेल रहा है. अच्छा खानाकपड़ा कुछ भी तो मैं उसे नहीं दे पाती हूं. बेटे के आराम के लिए थोड़ा कर्ज ले कर उसे साइकिल दे सकूं तो मुझे संतोष होगा. फिर मांबेटे में क्या दुश्मनी टिकती है भला…अब आप खुद का ही हाल देखो न. इन 7-8 महीनों में ही आप कितनी कमजोर हो गई हैं. अकेले में आराम तो खूब मिलता है पर मन को शांति कहां मिलती है?’’ सुब्बम्मा कपड़ा निचोड़ती हुई बोले जा रही थी. ‘‘सुब्बम्मा, तुम आजकल बहुत बकबक करने लगी हो. चुपचाप अपना काम करो,’’ सीता को कड़वा सच शायद चुभ रहा था.

‘‘अम्मां, कुछ गलत बोल गई हूं तो माफ करना. मैं आप का दुख देख रही हूं. इसी कारण कुछ मुंह से निकल गया. अम्मां, मुझे रुपए कलपरसों देंगी तो अच्छा रहेगा. एक पुरानी साइकिल मैं ने देख रखी है. दुकानदार रुपए के लिए जल्दी कर रहा है,’’ सुब्बम्मा ने अनुनय भरे स्वर में कहा. ‘‘सुब्बम्मा, रुपए आज ही ले जाना. चलो, जल्दी काम पूरा करो. देर हो रही है,’’ सीता रसोईघर में चली गई.

सीता का मन विचलित होने लगा. ‘ठीक ही तो कहती है सुब्बम्मा. जगन्नाथ और बालकृष्णन को देखे बिना उसे कितना दुख होता है. पासपड़ोस में बेटेबहू की निंदा भी तो होती होगी. सास को घर से निकालने का दोष बहुओं पर ही तो लगाया जाता है. अपने पोतों से दूर रहना कितना दर्दनाक है. कुमार और मोहन दादी से बहुत प्यार करते हैं. आखिर परिवार से दूर रह कर अकेले जीवन बिताने में उसे क्या सुख मिल रहा है? ‘सुब्बम्मा जैसी साधारण महिला भी परिवार के बंधनों का मूल्य जानती है. परिवार से अलग होना क्या कर्तव्यच्युत होना नहीं है? परिवार में यदि हर सदस्य अपने अहं को ही महत्त्व देता रहे तो सहयोगपूर्ण वातावरण कैसे बनेगा?

‘बहू उस के वंश को आगे ले जाने वाली वाहिका है. बहू का व्यवहार चाहे जैसा हो, परिवार को विघटन से बचाने के लिए उसे सहन करना ही होगा. उस की भी मां, दादी, सास, सब ने परिवार के लिए जाने कितने समझौते किए हैं. मां को घर से निकलते देख कर जगन्नाथ को कितना दुख हुआ होगा?’ सीता रात भर करवट बदलती रही.

सुबह होते ही उस ने दृढ़ निश्चय के साथ जगन्नाथ को फोन लगाया और अपने वापस घर आने की सूचना दी. सीता को मालूम था कि उसे बहू मोनिका के सौ ताने सुनने होंगे. अपने पुत्र जगन्नाथ का मौन क्रोध सहन करना पड़ेगा. बालकृष्णन और भाग्यलक्ष्मी भी उसे ऊंचनीच कहेंगे. सीता ने मन ही मन कहा, ‘सांझ का भूला सुबह को घर लौट आए तो वह भूला नहीं कहलाता.’

Hindi Story : एहसासों के झुले पर रिश्ते की अर्थी

आज एक बार फिर चल पड़ी थी उसी रास्ते पर, जिसे 10 साल पहले पीछे छोड़ते हुए. हर सुखसुविधा पा लेने की इच्छा की कैदी बन कर संदीप संग फेरे लेने को तैयार हो गई थी.

रोहन आवाज देता ही रह गया, ‘‘श्वेता, मुझे कुछ वक्त और दो… मैं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होते ही तुम्हारे संग अपनी नई जिंदगी की शुरुआत करूंगा.’’

‘‘मगर मैं अब और प्रतीक्षा नहीं कर सकती रोहन. संदीप एक स्थापित डाक्टर है और मेरे पेरैंट्स की पसंद है. पापामम्मी से अब मैं इस शादी को कैंसिल करने को नहीं कह पाऊंगी. संदीप और उस के पेरैंट्स मु?ा से मिल चुके हैं और दोनों पक्षों की रजामंदी के बाद ही यह शादी तय हुई है. अब इसे रोका नहीं जा सकता.’’

‘‘रुक जाओ श्वेता, प्लीज… मेरी खातिर,’’ पहली बार उस ने रोहन की आंखों में आंसू देखे थे. उस के भीतर अब उन आंसुओं का सामना करने की ताकत नहीं थी और वह वहां से अपने अगले सफर की ओर बढ़ गई.

1 महीने बाद डाक्टर संदीप संग फेरे ले कर एक बैंक क्लर्क की बेटी कई नौकरोंचाकरों वाले बंगले में आ गई.

आर्थिक संपन्नता का खुला आकाश मन को एकसाथ ढेरों पंख लगा देता है और इंसान उन पंखों को फैला कर उड़ते वक्त यह भूल जाता है कि जिंदगी जीने के लिए ठोस धरातल का भी अपना महत्त्व है.

जब तक इस अनिवार्यता का उसे भान होता है, तब तक वह वक्त काफी पीछे खिसक चुका होता है और अगर कभी जिंदगी मेहरबान हो कर कोई चांस दे भी दे… तो हवा भरे अतीत पर टिका वर्तमान वाला रिश्ता, इस मानवीय जिंदगी को जी पाने के लिए एक बहाने के प्रयोग सा बन कर रह जाता है.

श्वेता ने भी शुरुआती दिनों में पंख फैला कर खूब उड़ान भरी, 20 दिनों का हनीमून और उस के बाद का कुछ महीनों का सफर ख्वाबों के पूरा होते यथार्थ के मखमली गद्दे पर बीता.

किसी राजमहल की रानी सी श्वेता कई नौकरोंचाकरों, सासससुर और हैंडसम डाक्टर पति के साथ जीवन के मजे ले रही थी.

समय के साथ खुशियों के खुमार को भी यथार्थ के धरातल का सामना करना ही पड़ता है. संदीप अपने क्लीनिक में व्यस्त रहने लगे, समयसमय पर असिस्टैंट के भरोसे क्लीनिक छोड़ कर कईकई दिनों के लिए उन्हें शहर से बाहर भी जाना पड़ता था. ऐसे वक्त में श्वेता बेहद अकेलापन महसूस करने लगी थी.

शहर में रहते हुए भी संदीप व्यस्त ही रहा करते थे. श्वेता का दिन कैसे बीता, इस से उन्हें कोई मतलब नहीं रहता, पर रातें. उन के बिस्तर पर पहुंचते ही श्वेता को अपनी दिनचर्या निबटा कर कमरे में मौजूद रहना होता था वरना अगले कुछ दिन भारी मानसिक तनाव में बीतने तय थे.

सोने के बंद पिंजरे में कैद पक्षी की भी खुले आकाश में उड़ने की इच्छा खत्म नहीं हो पाती, यह तो एक इंसान का मन था. एक औरत का मन जो अपनी जिंदगी के काफी पल अपने उस प्रेमी के भावों संग जी चुकी थी जो उस की एक चाहत पर मैचिंग दुपट्टा तक के लिए अपना सारा काम छोड़ कर खुशीखुशी कईकई दुकानों के चक्कर लगाया करता था.

दूसरी तरफ उसे हर ऐशोआराम देने वाला पति था, जिस की मरजी के बिना श्वेता की जिंदगी का एक पत्ता तक नहीं हिलता था. इसी यथार्थ वाली पटरी पर श्वेता की जिंदगी की गाड़ी खिसकती जा रही थी. आगे भी इसी तरह की सरकती हुई बढ़ती रहती अगर उस शाम सासूजी

ने घर आए मेहमान दंपती से मिलवाने के लिए उसे बुलाने हेतु नौकर को उस के कमरे में नहीं भेजा होता.

सीढि़यों से उतरते वक्त जैसे ही श्वेता की नजर मेहमान पर पड़ी, उसी पल चौंकने की स्थिति में वह सीढि़यों के आखिरी स्टैप पर पैर रखना चूक गई और गिरती हुई श्वेता को बेहद फुरती से उठ कर उस मेहमान ने संभाल लिया, ‘‘भाभीजी, जरा संभल कर आप को मोच आ गई तो मेरे भैया और मौसीमौसाजी को भी तकलीफ होगी… अपना खयाल रखिए,’’ मुसकराते हुए वह अपनी जगह जा कर बैठ गया.

‘‘बहू, यह रोहन है… मेरी बहन का बेटा, संदीप की शादी में नहीं आ पाया था. कुछ महीने पहले ही इस ने अपने साथ जौब कर रही इस प्यारी सी जूही से शादी की है. अब इस का यहीं फरीदाबाद में तबादला हुआ है. इसी बहाने अब रोहन कुछ वक्त हमारे लिए भी निकाला करेगा. क्यों जूही बहू, आने तो दोगी न हमारे रोहन को हम से मिलने?’’ जूही की तरफ मुसकरा कर देखते हुए दमयंतीजी ने कहा.

‘‘क्यों नहीं मौसीजी… बड़ों का सानिध्य तो छोटों के लिए आशीर्वाद होता है. आप कहें तो मैं रोज रोहन को ले कर आप लोगों से मिलने आ जाया करूंगी,’’ कहते हुए जूही दमयंती के गले लग गई.

जूही के इतनी जल्दी मिक्सअप होने के हुनर पर श्वेता को आश्चर्य हुआ क्योंकि वह आज तक अपनी सास से इस कदर बेतकल्लुफ नहीं हो पाई थी, जबकि दमयंतीजी बेशक एक अच्छी सास कही जा सकती थीं.

रात का खाना खा कर रोहन और जूही अपने घर चले गए परंतु जातेजाते श्वेता की ऊपर से शांत दिख रही जिंदगी में एक बड़ा सा पत्थर मार गए.

उस रात संदीप संग नितांत निजी पलों में श्वेता की सोच पर रोहन छा चुका था.

सीढि़यों से फिसलते वक्त रोहन का उसे थाम लेना, उन पुराने भावों को पुनर्जीवित करने के लिए काफी था. एक रात का यह सिलसिला कई रातों के साथ अपना याराना बढ़ाते हुए श्वेता की जिंदगी पर अपना वर्चस्व कायम करता जा रहा था.

यह समाज की सोच भी बड़ी अजीब है, जिस में शुचिता का मानक बस शरीर हुआ करता है और उन नितांत निजी पलों में मानसिक समर्पण का कोई मानदंड नहीं बन सका है आज तक. श्वेता भी बिना मानक वाले उसी सफर पर आगे बढ़ती जा रही थी और जीवन अपना रास्ता तय करता जा रहा था.

कुछ समय बाद पता चला कि जूही अपने भाई की शादी में 10 दिनों के लिए लुधियाना जा रही है और इतने दिनों की छुट्टी नहीं मिलने की वजह से रोहन शादी के दिन ही वहां पहुंचेगा.

‘‘रोहन इस बीच तुम खाना यहीं आ कर खा लिया करना,’’ यह दमयंतीजी का फरमान था.

‘‘नहीं मौसी, मेरा लंच औफिस कैंटीन में होगा और डिनर के लिए जूही मेड को बोल कर जा रही है. वह शाम को डिनर तैयार कर के चली जाएगी. वैसे भी दिनभर का थकाहारा आने पर यहां आने की हिम्मत नहीं होगी. एक संडे मिलेगा, उस दिन मेड को भी छुट्टी दे कर खुद अपनी पसंद का खाना बनाऊंगा,’’ रोहन ने मुसकरा कर कहा.

समय का अनवरत चलना उस की नियति है. वह संडे भी आया जब डोरबैल की आवाज पर रोहन ने दरवाजा खोला, ‘‘11 बज रहे हैं और तुम अभी तक सोए हो? चलो, जल्दी से फ्रैश हो कर आ जाओ.’’

‘‘तुम्हारे लिए आज का खाना मैं बनाऊंगी, तुम्हारी पसंद की हर चीज,’’ श्वेता ने रोहन के हाथों को ले कर चूमते हुए बड़े प्यार से कहा.

‘‘यह क्या कर रही हैं आप… भाभीजी,

आप मेरे बड़े भाई की ब्याहता हैं, एक संभ्रांत खानदान की प्रतिष्ठा का महत्त्वपूर्ण पिलर हैं आप… उसे मटियामेट करने की कोशिश मत कीजिए.’’

‘‘रोहन,’’ श्वेता की आवाज में एक टीसता सा दर्द था, ‘‘भले ही आज मैं तुम्हारी भाभी हूं पर इस से हमारी वह फीलिंग खत्म तो नहीं हो जाती जो हम ने साथ में जी थी.’’

‘‘उस वक्त आप की इस फीलिंग का क्या हुआ था जब आप मेरी गुहार को लात मारते हुए आगे बढ़ गई थी?’’

‘‘अब भूल जाओ न उन बातों को तुम… सदा जूही के ही बन कर रहना, परंतु

इस तरह अपमानित तो मत करो मुझे.’’

‘‘मैं आप को अपमानित नहीं कर रहा, आप की वास्तविकता से अवगत करा रहा हूं कि आप एक ब्याहता हैं और एक शादीशुदा मर्द के साथ अकेले उस के घर में मौजूद हैं, यह जानते हुए कि उस की पत्नी अभी घर में नहीं है. वैसे क्या मैं जान सकता हूं कि आप घर से क्या झूठ बोल कर आई हैं? क्या बहाने बना कर निकली हैं आप अपने घर से?’’

‘‘रोहन, एक अच्छे दोस्त बन कर तो रह ही सकते हैं न हम?’’

‘‘नहीं, अब मुझे आप पर भरोसा नहीं रहा. जो महिला एक कमाऊ पति के लालच में अपने प्रेमी को छोड़ सकती है, जो अपने ससुराल में बिना बताए अपने प्रेमी से मिलने जा सकती है, उस की पत्नी की गैरहाजिरी में मैं ऐसी औरत पर विश्वास नहीं कर सकता.’’

‘‘रोहन, प्लीज चुप हो जाओ… इस तरह से शब्दों के नश्तर मत चुभाओ और यह आप कहना बंद करो.’’

‘‘सच इतना ही कड़वा लग रहा है तो आप इसी वक्त यहां से चले जाइए, शायद आप को सम?ा नहीं आए, इस के बावजूद आप को बता दूं कि मेरे लिए शादी एक परंपरा से इतर और भी बहुत कुछ है जो 2 इंसान के साथसाथ 2 परिवारों को भी एक ऐसे प्रेमिल धागे में बांधती है, जिस के भाव से लबरेज हो कर हम इंसान अगले

7 जन्मों के लिए उसी जीवनसाथी को पाने की बातें करने लगते हैं.

‘‘विश्वास पर टिके इस रिश्ते को भावना और कर्तव्य नामक मोतियों से गूंथा जाता है. यह एक ऐसा रिश्ता है, जिस में दिल से ज्यादा दिमाग की सुननी चाहिए, कानूनी मान्यता मिले इस रिश्ते में दुख और सुख दोनों का सामना मिल कर करने से जिंदगी कैसे गुजर जाती है, पता ही नहीं चलता और इस सफर में अब जूही मेरी हमकदम है आप नहीं.’’

श्वेता रोहन की बातें सुनते हुए अपमानित सी हो कर पत्थर की बुत सी बन चुकी थी.

रोहन ने आगे कहना शुरू किया, ‘‘मैं ने शादी के पहले ही जूही को अपने और तुम्हारे रिश्ते के बारे में बता दिया था और सबकुछ जानने के बाद उस ने शादी के लिए हामी भरी थी. मुझे नहीं लगता कि तुम ने संदीप भैया को अपने पूर्व संबंध की बात बताई होगी.

‘‘अपने मन के चोर को पुरुष मानसिकता द्वारा नहीं स्वीकार किए जाने वाले खोखले तर्क से ढकने की कोशिश मत करना क्योंकि मुझे लगता है कि सच की बुनियाद पर खड़े रिश्ते तुलनात्मक रूप से बेहद मजबूत होते हैं. अगर कोई पुरुष अपनी होने वाली पत्नी के पूर्व संबंध को सहज स्वीकार नहीं कर पाए तो वह रिश्ता जोड़ने से पहले ही टूटना बेहतर पर तुम्हें तो डाक्टर संदीप से शादी करनी थी और तुम अपने पूर्व प्रेमी की बात बता कर इस रिश्ते को खोने का खतरा मोल लेने वालों में से नहीं हो, इतना तो मैं तुम्हें सम?ाता ही हूं.

‘‘और हां, अब एक आखिरी बात… मैं ने और जूही दोनों ने एकदूसरे के पूर्व प्यार को जानते हुए इस रिश्ते को स्वीकार किया है और इस में अब किसी तीसरे का प्रवेश वर्जित है. क्या अब भी तुम कुछ कहना चाहती हो?’’

‘‘नहीं रोहन, अब मुझे कुछ नहीं कहना… तुम दोनों एकदूसरे का साथ भरपूर जीयो, बस यही कहना है.’’

डबडबाई हुई आंखों से श्वेता अपने उस प्रेम को अंतिम विदाई देते हुए, अपमान के इस ताप को जज्ब किए. एक संबंध को खत्म करने की कोशिश में दरवाजे से बाहर तो निकल गई परंतु क्या सच में किसी संबंध को खत्म कर पाना इतना आसान हो पाता है?

श्वेता के दरवाजे से निकलते ही रोहन ने अपनी डबडबा चुकी आंखें पोंछीं और सोफे पर निढाल सा पसर कर बुदबुदाया, ‘‘श्वेता, काश तुम ने उस वक्त अपनी राहें नहीं बदली होतीं. मैं ने इस रिश्ते को तो मार दिया परंतु अपने उन एहसासों को कैसे मारूं जो बस तुम से जुड़े हुए हैं. एहसासों के झुले पर सवार इस रिश्ते की अर्थी को ताउम्र कैसे ढो पाऊंगा मैं?’’ कहते हुए रोहन दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक कर फूटफूट कर रो पड़ा.

खोया हुआ सुख : उस रात सुलेखा के साथ क्या हुआ?

अमित जब अपने कैबिन से निकला तब तक दफ्तर लगभग खाली हो चुका था. वह जानबूझ कर कुछ देर से उठता था. इधर कई दिनों से उस का मन बेहद उद्विग्न था. वह चाहता था कि कोईर् उस से बात न करे. कम से कम उस की गृहस्थी या निजी जिंदगी को ले कर तो हरगिज नहीं. जब से अमित ने ज्योति से पुनर्विवाह किया है, तब से वह अजीब सी कुंठाओं में जी रहा था. लोग उसे ले कर तरहतरह की बातें करते. इन सब के कारण वह बेहद चिड़चिड़ा हो गया था.

सुषमा की कैंसर से अकाल मृत्यु ने अमित की गृहस्थी डांवांडोल कर दी थी. बच्चे भी तब बेहद छोटे थे, मुन्नू 4 ही साल का था और सुलेखा 6 की. परिवार में सिर्फ बड़े भैया और भाभी थीं, पर  उन्हें भी इतनी फुरसत कहां थी कि वे अमित के साथ रह कर उस के बच्चों को संभालतीं.

1 महीने बाद उन्होंने अमित से कहा, ‘‘देखो भैया, मरने वाले के साथ तो मरा नहीं जाता. सुषमा तुम्हारे लिए ही क्या, हम सब के लिए एक खालीपन छोड़ गई है. बच्चों की तरफ देखो, ये कैसे रहेंगे? अब इन के लिए और दुनियादारी निभाने के लिए तुम्हें दूसरा विवाह तो करना ही पड़ेगा.’’

भाभी की बात सुन कर वह फूटफूट कर रो पड़ा. ऐसे दिनों की तो उस ने कल्पना तक नहीं की थी. उसे विमाता की उपेक्षा से भरी दास्तानें याद आने लगी थीं. अब इन बच्चों को भी क्या वही सब सहना होगा? वह दृढ़ शब्दों में भाभी से बोला, ‘‘अब मेरी शादी की इच्छा नहीं है. रही बात बच्चों की तो ये किसी तरह संभल ही जाएंगे.’’

चलते समय भाभी ने ठंडी सांस भर कर आंसू पोंछे. फिर बोलीं, ‘‘अमित, जहां हमारे 4 बच्चे रहते हैं, वहां ये 2 भी रह लेंगे, कुछ संभल जाएं तो ले आना. अभी अपना दफ्तर देखोगे या इन मासूमों को?’’

अमित चुप रह गया और दोनों बच्चे भाभी के साथ चले गए. उन सब को छोड़ कर एयरपोर्ट स्टेशन से घर आने के लिए उस के पांव उठ ही नहीं रहे थे. उत्तेजना के कारण निचला होंठ बारबार कांप रहा था. रुलाई फूट पड़ने को तैयार थी. वह अपने मन पर काबू पाने के लिए एक पार्क में चला गया.

किसी तरह अपने को संयत कर वह दफ्तर जाने लगा. कुछ दिनों तक तो सब सहयोगी उस के साथ सहानुभूतिपूर्ण तथा सहयोग भरा व्यवहार करते रहे. फिर सब पूर्ववत हो गया.

कुछ महीनों तक अमित को पता ही नहीं चला कि समय कैसे बीत गया. उस का कोई न कोई सहयोगी दफ्तर से निकलते समय उसे अधिकारपूर्वक अपने घर ले जाता. वह वहां से रात का भोजन कर केवल रात गुजारने के लिए ही घर आता.

मगर जल्द ही अमित ने यह महसूस किया कि  वह जिन घरों में भोजन करने या समय गुजारने के लिए जाता है, वहां सब ने अब उस के सामने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रिश्ते की बात रखनी शुरू कर दी थी. सब उस के ऊपर अपना पूरा अधिकार जताते और आत्मीयता का हवाला देते हुए उस से ‘हां’ कहलवाने की भरसक कोशिश कर रहे थे. अमित सम?ा नहीं पा रहा था कि वह इस विषम परिस्थिति का कैसे सामना करे? उसे यह भी दिखने लगा था कि दोस्तों की पत्नियां कुछ न कुछ बहाना बना कर ड्राइंगरूम से खिसक लेतीं. उसे एक अधूरी चीज समझ जाने लगा था.

नतीजा था, अब अमित अपने सहयोगी मित्रों से कतराने लगा था. जो लोग उस से रिश्ते की आशा लगाए बैठे थे, उन्हें देखते ही वह रास्ता बदल लेता था. तलाकशुदा या देर तक शादी न हो पाई लड़कियों को उस से मिलवाया जाता था जो खुद बुझीबुझी रहती थीं. अब अगर दफ्तर से चलते समय कोई उसे अपने घर ले जाना चाहता तो वह घर के किसी आवश्यक कार्य का बहाना बना कर जल्दी से खिसक जाता.

एक दिन तो अमरजी ने हद कर दी. वे उस की मेज पर बैठ कर मुंह में पान दबाए उस से बोले, ‘‘बरखुरदार, काम खत्म हो गया? रह गया हो तो कर लेना. आज हमारी मेम साहिबा सुनयना ने तुम्हें साधिकार घर बुलवाया है. कहा है कि ले कर ही आना.’’

अमित मुसकरा कर बोला, ‘‘कोई खास बात है क्या?’’

वे आंखें फैला कर बोले, ‘‘खास ही समझे, अंबाला वाले उन के भाई केदार अपनी बेटी को ले कर आ गए हैं. उस की तसवीर तो तुम ने देख कर पसंद कर ही ली थी. अब जरा पूरी बात कर लो.’’

अमर की बात सुन कर वह हैरान रह गया. बोला, ‘‘आप किस की बात कर रहे हैं? मैं ने भला कौन सी तसवीर पसंद की थी?’’

वे हंस कर बोले, ‘‘अरे, भूल भी गए. उस दिन सुनयना ने अपने मोबाइल से निकाल कर फोटो नहीं  दिखाया था?’’

अमित अचकचा कर बोला, ‘‘अरे, उस दिन सुनयना ने अपने मोबाइल से निकाल कर एक गु्रप फोटो दिखाते हुए सहमति मांगी थी कि अच्छी है न और मैं ने भी कह दिया था अच्छी है और कोई बात तो नहीं हुई थी?’’

वे चिढ़ कर बोले, ‘‘यह लो, अच्छा बेवकूफ बनाया तुम ने तो… खैर…’’ और वे जोर से कैबिन का दरवाजा बंद कर के चले गए.

अमित कितनी ही देर तक अकेला बैठा रहा. आंखों में उस गु्रप फोटो फैशनपरस्त सी युवती की तसवीर घूम रही थी. वह सुषमा की जगह हरगिज नहीं ले सकती, सोचता हुआ वह उठ खड़ा हुआ.

अगले दिन से ही अमर ने उसे कोसने और मुफ्तखोर पेटू की उपाधि दे कर बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

भाभी का उस के मोबाइल पर फोन आया कि सुलेखा बीमार चल रही है. जान कर अमित का कलेजा दो टूक हो गया. वह हर तरफ से परेशान था. सुषमा के होते वह कितना निश्चिंत था. सुषमा की याद आते ही उस का निचला होंठ उत्तेजना के कारण कांपने लगा. आखिर वह हफ्तेभर की छुट्टी ले कर आगरा एक टैक्सी कर के चला गया.

जब अमित वहां पहुंचा, सुलेखा अचेत सी पलंग पर पड़ी थी. मुन्नू गंदे कपड़ों में नंगे पांव, धूलधूसरित सा बच्चों के साथ कंचे खेल रहा था. सारे घर के कामकाज संभालती भाभी बेदम हुई जा रही थीं. उस के आने से राहत महसूस करती हुई बोलीं, ‘‘बड़ा अच्छा किया, भैया जो तुम आ गए. बच्चे भी बहुत याद कर रहे थे. सुलेखा के इलाज में भी सुविधा रहेगी. मुझे तो कई बार दवा देने की भी याद नहीं रहती.’’

बच्चों की यह हालत देख कर अमित सचमुच बौखला गया. उस ने पहले इस बात की कल्पना भी नहीं की थी. देर तक वह सुलेखा के सिरहाने बैठ उस के सिर पर हाथ फिराता रहा. बच्चों की दशा देख कर उसे महसूस हो रहा था कि उस ने कितनी मूल्यवान निधि गंवा दी है.

कई दिन आगरा में रहने पर सब बच्चे उस से फिर से घुलमिल गए. सुलेखा भी काफी स्वस्थ हो गई थी. एक दिन आंगन में कपड़े धो कर तार पर डालते हुए भाभी बोलीं, ‘‘अब इतना भी बच्चों के साथ मत घुलमिल जाओ. 2-4 दिन में तुम चले जाओगे तो फिर वे पापा के लिए रोएंगे.’’

अमित चुपचाप फूलों की क्यारियां देखता रहा.

‘‘देख, बच्चों को अपने साथ ले जाना हो तो पहले विवाह कर ले. फिर पूरी गृहस्थी के साथ हंसीखुशी यहां से जाना.’’

अमित कुछ नहीं बोला, उस की तरफ से कोई नकारात्मक जवाब न पा कर भाभी का हौसला कुछ और बढ़ा. वह उसे समझती हुई बोलीं, ‘‘देख अमित, चाहे तू मुंह से कुछ न बोल पर यह तो मानेगा कि दुनियादारी निभाना कितना मुश्किल काम है.’’

अमित ने सिर नीचे कर लिया. सच ही तो कह रही है भाभी. अपनेअपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए ही तो दफ्तर के सहयोगी और मित्र जो लड़की नहीं दिखाते थे वे उस पर एहसान करते दिखते और 2-4 दिन में मुआवजा पाने की आस में कोई ऐप्लिकेशन ले कर खड़े हो जाते थे. दोस्त उसे रोज अपने घर भोजन पर बुलाते रहे थे. बाद में अपनी इच्छा पूरी न होने पर वे उसे मुफ्तखोर या पेटू कहने से भी नहीं चूके.

बच्चे रात का भोजन कर चुके थे. बड़े भैया के साथ अमित चौके में पहुंचा तो घरेलू खाने की सुगंध उस के नथनों में भर गई. कितने दिन हो गए हैं ऐसा खाना खाए हुए.

भाभी भोजन परोसती हुई बोलीं, ‘‘अमित, तेरी शादी के लिए रिश्ते तो बहुत आ रहे हैं पर सोचती हूं कि तेरी शादी उसी लड़की से करूंगी जो तेरी तरह जीवन डगर पर बीच में ही जीवनसाथी को खो बैठी हो.’’

अमित प्रश्नसूचक दृष्टि से उन्हें देखने लगा.

अमित को अपनी तरफ देखते हुए पा कर वे हंस कर बोलीं, ‘‘अरे ऐसे क्या देख रहा है? कुंआरी लड़कियों को कुंआरों के लिए रहने दे. जरा सोच, कुंआरी लड़कियां तेरे साथ सच्चे दिल से निभा पाएंगी? टूटे दिल को टूटा दिल ही समझ सकता है.’’

अब तक अमित को ऐसी ही लड़कियां दिखाई गई थीं पर किसी ने इतने साफ शब्दों में समझाया नहीं था.

अमित रातभर करवटें बदलता रहा. भाभी की बात उस के मनमस्तिष्क में गूंजती रही. उसे भी नजर आ रहा था कि इस तरह उस की गाड़ी नहीं चलेगी. दफ्तर में हिकारत भरी नजरों का सामना, किसी महिला से बात करते सशंकित निगाहों का आगेपीछे घूमना, बच्चों की दुर्दशा इन सब का निस्तार तो करना ही पड़ेगा. उस ने भाभी के आगे हथियार डाल दिए.

और फिर 3 माह में ही बिना किसी आडंबर से मैट्रीमोनियल साइट से मिली ज्योति के साथ उस का विवाह हो गया. 2-4 रोज में ही उस ने अपनी गृहस्थी का बोझ अपने सिर पर ले लिया. बच्चे भी उस से घुलनेमिलने लगे. अमित सोचने लगा कि भाभी ने गलत नहीं कहा था. कुंआरी लड़की इतनी सहृदयता से सब को नहीं अपना सकती थी जितनी अच्छी तरह अपने घर का सपना संजोने वाली ज्योति ने कर दिखाया.

भोपाल आते ही ज्योति ने घरगृहस्थी अच्छी तरह संभाल ली. बच्चों का स्कूल में दाखला हो गया. हर सुबह वह बच्चों को प्रेम से नाश्ता करा कर अपनेअपने स्कूल भेजने लगी. अमित का खोया हुआ आत्मविश्वास दोबारा लौट आया. सच ही है कि पुरुष को जीवन में सफलता पाने के लिए नारी का प्रेम आवश्यक है. यह केवल नारी ही है जो पुरुष के व्यक्तित्व की अंतरिम गहराइयों का पोषण करती है, उसे समग्रता प्रदान करती है और भटकाव से रोकती है.

अमित की घरगृहस्थी सुचारू रूप से चलने लगी थी. वह ज्योति के साथ खुश था. ज्योति का व्यक्तित्व कहींकहीं सुषमा से उन्नीस था, तो कहीं इक्कीस. अमित जब कभी सुषमा को ले कर उदास होता तो न जाने कैसे ज्योति पलभर में सब जान कर उसे उदासी के जाल से मुक्त कर हंसा देती. पर जब कभी वह अनमनी हो जाती तब अमित न जाने क्यों उद्विग्न हो जाता. शायद इसलिए कि पुरुष में उतनी सहनशक्ति नहीं होती. वह पत्नी को पूरी तरह अपने में ही बांध कर रखना चाहता है.

अमित शाम को दफ्तर से सीधा घर आता. दोनों बच्चे साफसुथरे कपड़ों में लौन में खेलते हुए मिलते. स्वयं ज्योति भी व्यवस्थित ढंग से रहती और उसी तरह बच्चों को रखती. ज्योति का चेहरा भी इतना गंभीर और प्रभावशाली था कि देखने वाले को एक बार बरबस अपनी तरफ आकर्षित करता था. घर में वह सुखशांति थी जो किसी आदर्श परिवार में होनी चाहिए.

अमित की सुखी गृहस्थी देख कर उस के दफ्तर के सहयोगी न जाने क्यों एक अनजानी ईर्ष्या से जलने लगे. घरगृहस्थी उजड़ जाने के कारण अमित जहां पहले उन की कृपा और संवेदना का पात्र बन गया था, वहीं अब वह उन की ईर्ष्या का पात्र बन गया था. सहयोगी मित्रों की यह ईर्ष्या अमित को अप्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से देखनेसुनने को मिलती थी. अकसर उसे सुनाई पड़ता था कि जूठी पत्तल चाटने में भला क्या आनंद?

ज्योति को ले कर तो उसे अकसर अश्लील वाक्य सुनने पड़ते कि ज्यादा दिन नहीं रहेगी, तरहतरह का स्वाद चखने की आदत जो पड़ गई है या फिर भला एक बार मांग में सिंदूर पुंछ जाने पर दोबारा कहां सुहाता है?

अमित चुपचाप सब सुन लेता था. पलट कर कुछ कहना उस के स्वभाव में नहीं था. पर एक चिड़चिड़ाहट उस के स्वभाव में घुलती जा रही थी. घर मेें ज्योति के कुछ पूछने पर वह चिल्ला कर जवाब देता था. बच्चों में भी एक अजीब सी असुरक्षा घर करती जा रही थी. पढ़ाई में भी वे पिछड़ रहे थे.

कई बार ज्योति दबी जबान से उसे भोपाल से अपना तबादला कहीं और करवा लेने की बात कहती. वह सारी परिस्थितियों को देखते हुए अमित की मनोदशा जान गई थी. पर अमित भोपाल में जमीजमाई गृहस्थी नहीं उजाड़ना चाहता था.

दीपावली के त्योहार में अभी कई दिन बाकी थे. ज्योति के बड़े भैया अपने किसी काम से भोपाल आए थे. वह घर की असामान्य स्थिति को भांपते हुए अमित से बोले, ‘‘अगर आप को कोई असुविधा नहीं हो तो ज्योति और बच्चों को कुछ दिन के लिए आगरा ले जाऊं?’’

बहन को मायके ले जाने के पीछे भाई की कोई दुर्भावना नहीं थी. स्वयं ज्योति भी कई बार दबे शब्दों में घर जाने की इच्छा प्रकट कर चुकी थी. पर अमित का पारा न जाने क्यों चढ़ गया. वह रूखे स्वर में बोला, ‘‘बच्चे वहां जा कर क्या करेंगे? अभी स्कूल भी खुले हुए हैं, इसलिए आप केवल ज्योति को ले जाइए.’’

चलते समय ज्योति का मन बेहद उदास था. वह पूरे परिवार के साथ मायके जाना चाहती थी. अकेले जाना उसे कचोट रहा था. पर अमित सहज नहीं था. उस से कुछ भी कहना विस्फोटक स्थिति को बुलावा देना था.

अब अमित का घर के किसी काम में मन नहीं लगता था. बच्चे उस से डरे तथा सहमे रहते थे. वह रसोई में जैसेतैसे नाश्ता बना कर बच्चों को चिल्ला कर बुलाता तो वे दोनों एकदूसरे को देखते हुए, डरते हुए खाने की मेज पर बैठ जाते. खाना तो क्या, निगलना ही होता था.

दफ्तर में पहले की तरह असहयोग भरा वातावरण चल रहा था. घर में भी प्रेम के दो बोल बोलने वाला कोई नहीं था. ज्योति का कोई पत्र भी नहीं आया था.

उस दिन दफ्तर से निकलते ही उसे अपना पुराना मित्र अरविंद मिल गया. दीपावली नजदीक आ रही थी. वह अपनी पत्नी को अचानक भेंट देने के लिए ड्रैस खरीदने की जल्दी में था. उस ने हंस कर अमित से कहा, ‘‘क्यों यार, नई भाभी के लिए तो खूब ड्रैस खरीदता होगा. आज जरा एक ड्रैस रश्मि के लिए भी खरीदवा दे. तुझे तो खूब दुकानदारी आ गई होगी. ज्योति भाभी अपनेआप बहुत स्मार्ट है और समझदार भी. तुझ पर असर जरूर पड़ा होगा.’’

उस की बात सुन कर अमित को सहसा याद आया कि उस ने तो कभी ज्योति के लिए कुछ खरीदा ही नहीं है. अच्छा हुआ जो अरविंद उस दिन उस के साथ घर नहीं आया, वरना इस भुतहे घर को देख कर वह पता नहीं क्या सोचता?

पासपड़ोस में दीपावली की तैयारियां पूरे जोर पर थीं. मुन्नू और सुलेखा अपने घर बालकनी पर ही खड़े रहते थे. उन के साथ भी खेलने वाले बच्चे कभी अपनी मां और पिताजी के साथ कपड़े खरीदने जा रहे होते तो कभी खिलौने और मिठाइयां लेने. रोज शाम होते ही बच्चे अपने पिता के साथ फुलझाडि़यां व पटाखे छुड़ाने में व्यस्त हो जाते. मुन्नू और सुलेखा के साथ खेलने के लिए उन के पास फालतू समय ही नहीं था.

एक रोज एकाकीपन से ऊब कर मुन्नू ने उस से पूछा, ‘‘पिताजी, हमारी मां कब आएंगी?’’

अमित यह प्रश्न सुन कर चुप बना रहा. उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था. सुलेखा डबडबाई आंखों से भाई की तरफ देख रही थी. अमित घर की सफाई करने में लगा था. दोनों बच्चे भी उस के साथ यथासंभव हाथ बंटा रहे थे.

अचानक सुलेखा को कुछ याद आया. वह अमित की उंगली पकड़ कर दिखाते हुए बोली, ‘‘पिताजी, हमारी मां इस में हमारे लिए सुंदर कपड़े रख कर गई हैं.’’

मुन्नू नए कपड़ों का नाम सुन कर आंखों में चमक भर कर बोला, ‘‘अच्छा.’’ अमित ने बच्चों की जिज्ञासा दूर करने के लिए सब ट्रंक उतार कर नीचे रखे और वह ट्रंक खोला. वह यह देख कर हैरान रह गया कि सब के लिए अलगअलग डब्बे में नए कपड़े करीने से रखे हैं. मुन्नू की कमीज, सुलेखा का शराराकुरता तथा अमित के लिए पैंटकमीज रखी थी. और यह नीचे वाली डिबिया में क्या है? कुतूहलवश उस ने डिबिया उठा कर खोली. यह देख कर हैरान रह गया कि अरे, सुलेखा के लिए नन्ही सोने की बालियां और उस के लिए पुखराज की अंगूठी. अमित ने नीचे तक ट्रंक देख डाला, पर स्वयं ज्योति के लिए कुछ नहीं था.

अमित हतप्रभ रह गया. कैसी है यह ज्योति? सब के लिए इतना कुछ खरीदने के लिए उस ने इतनी बचत कैसे की होगी?

उसी रात मुन्नू और सुलेखा के साथ अमित ज्योति को लिवाने के लिए भोपाल से आगरा के लिए रवाना हो गया.

ज्योति के बड़े भैया बाहर ही मिल गए. वे अमित से खुशी से गले मिले. बाबूजी ने भी कुशलक्षेम पूछ कर आदर से दामाद को बैठाया.

ज्योति को कल ही लिवा ले जान की बात सुन कर वे बोले, ‘‘दीपावली में अब 3-4 दिन ही तो रह गए हैं. त्योहार मना कर ही जाना.’’

नाना की बात सुन कर बच्चे बोले, ‘‘पर हमारे सब दोस्त तो वहां पटाखे छुड़ाएंगे. हम भी वहीं दीपावली मनाएंगे.’’

बच्चों की बात का समर्थन करते हुए अमित बोला, ‘‘आप इजाजत दें तो यह पहली दीपावली हम भोपाल में ही मनाना चाहेंगे.’’

अगले दिन वे भोपाल जाने के लिए रेलगाड़ी में बैठ गए. आगरा पीछे छूट रहा था. ज्योति सिर झुकाए मोबाइल में आंखें गढ़ाए बैठी थी. अमित के पहले व्यवहार के बारे में सोच कर वह उस की तरफ देख भी नहीं पा रही थी. बच्चे ऊंघने लगे थे. मुन्नू उस की गोद में सिर रख कर सो गया था. अमित को आज ज्योति के माथे की बिंदिया ममता में डूबी हुई जान पड़ रही थी.

दीपावली की रात को दोनों बच्चे ज्योति के साथ दीए जलाने की तैयारी कर रहे थे. बच्चों ने नए कपड़े पहने थे. सुलेखा नन्ही बालियां हिलाती हुई बेहद सुंदर लग पड़ रही थी. अमित अभी बाजार से नहीं लौटा था. ज्योति थाल में दीए सजा कर तेल भर रही थी.

ज्योति की तरफ साड़ी का डब्बा बढ़ाते हुए अमित ने कहा, ‘‘अब जरा जल्दी से साड़ी पहन कर हमें भी एक प्रेम का उपहार दे दो,’’ शरारत से उस ने अपने होंठों पर उंगली रखी.

ज्योति लजा कर साड़ी का डब्बा लिए अंदर जाने लगी. उस का रास्ता रोक कर अमित ने कहा, ‘‘देखो, मना मत कर देना, आज दीपावली है.’’

Top 10 Best Family Story In Hindi : पढ़ें रिश्तों से जुड़ी दिल को छूने वाली बैस्ट स्टोरीज

Top 10 Best Family Story In Hindi : परिवार हमारी लाइफ का सबसे जरूरी हिस्सा है, जो हर सुखदुख में आपका सपोर्ट सिस्टम बनकर साथ खड़ा रहता है. इस आर्टिकल में हम आपके लिए लेकर आए हैं, रिश्तों से जुड़ी दिलचस्प कहानियां, जो आपके दिल को छू लेगी.  इन Family Story से आपको कई तरह की सीख मिलेगी. जो आपके रिश्ते को और भी मजबूत करेगी. तो अगर आप भी हैं कहानियां पढ़ने के शौकीन, तो गृहशोभा की Top 10 Best Family Story In Hindi जरूर पढ़ें…

 

1. सातवें आसमान की जमीन

ड्राइंगरूम में हो रहे शोर से परेशान हो कर किचन में काम कर रही बड़ी दी वहीं से चिल्लाईं, ‘‘अरे तुम लोगों को यह क्या हो गया है. थोड़ी देर शांति से नहीं रह सकते? और यह नंदा, यह तो पागल हो गई है.’’

‘‘अरे दीदी मौका ही ऐसा है. इस मौके पर हम भला कैसे शांत रह सकते हैं. सुप्रिया दीदी टीवी पर आने वाली हैं, वह भी अपने मनपसंद हीरो के साथ, मात्र उन्हीं की पसंद के क्यों. अरे सभी के मनपसंद हीरो के साथ. अब भी आप शांत रहने के लिए कहेंगी.’’ नंदा ने कहा.

सब के सब नंदा को ताकने लगे. किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था. सुप्रिया को ऐसा क्या मिल गया और कौन सा हीरो इस के लिए निमंत्रण कार्ड ले कर आया है, यह सब पता लगाना घर वालों के लिए आसान नहीं था. और नंदा तो इस तरह उत्साह में थी कि घर वालों को कुछ बताने के बजाए इस अजीबोगरीब खबर को फोन से दोस्तों को बताने में लगी थी.

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2. श्यामा आंटी: सुगंधा की चापलूसी क्यों काम नहीं आई?

फोनकी घंटी बजी. विदिशा ने फोन उठाया था. उधर वाचमैन था, ‘‘मैडम, आप को कामवाली की जरूरत है क्या? एक लेडी आई है. कह रही है कि आप ने उसे बुलाया है.’’

‘‘भेज दो.’’

विदिशा की कामवाली गांव गई हुई थी.

1 महीने से वे खाना बनाबना कर परेशान थीं. इसलिए वे अकसर सब से कहती रहती थीं कि कोई कामवाली बताओ. वे सोच रही थीं कि जो भी होगी, उसे वह रख लेंगी, बाद में देखा जाएगा. तभी दरवाजे की घंटी बजी, ‘‘दीदी, जय बंसी वाले की…’’

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3. रोशन गलियों का अंधेरा: नानी किस सोच में खो गई

“अरी ओ चंचल… सुन क्यों नहीं रही हो? कब से गला फाड़े जा रही हूं मैं और तुम हो कि चुप बैठी हो. आ कर खा लो न…” 60 साल की रमा अपनी 10 साल की नातिन चंचल को कब से खाने के लिए आवाज लगा रही थीं, लेकिन चंचल है कि जिद ठान कर बैठ गई है, नहीं खाना है तो बस नहीं खाना है.
“ऐ बिटिया, अब इस बुढ़ापे में मुझे क्यों सता रही हो? चल न… खा लें हम दोनों,” दरवाजे पर आम के पेड़ के नीचे मुंह फुला कर बैठी चंचल के पास आ कर नानी ने खुशामद की.
“नहीं, मुझे भूख नहीं है. तुम खा लो नानी,” कह कर चंचल ने मुंह फेर लिया.
“ऐसा भी हुआ है कभी? तुम भूखी रहो और मैं खा लूं?” कहते हुए नानी ने उसे पुचकारा.
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4.पश्चात्ताप की आग: निशा को कौनसा था पछतावा

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बरसों पहले वह अपने दोनों बेटों रौनक और रौशन व पति नरेश को ले कर भारत से अमेरिका चली गई थी. नरेश पास ही बैठे धीरेधीरे निशा के हाथों को सहला रहे थे. सीट से सिर टिका कर निशा ने आंखें बंद कर लीं. जेहन में बादलों की तरह यह सवाल उमड़घुमड़ रहा था कि आखिर क्यों पलट कर वह वापस भारत जा रही थी. जिस ममत्व, प्यार, अपनेपन को वह महज दिखावा व ढकोसला मानती थी, उन्हीं मानवीय भावनाओं की कद्र अब उसे क्यों महसूस हुई? वह भी तब, जब वह अमेरिका के एक प्रतिष्ठित फर्म में जनसंपर्क अधिकारी के पद पर थी. साल के लाखों डालर, आलीशान बंगला, चमचमाती कार, स्वतंत्र जिंदगी, यानी जो कुछ वह चाहती थी वह सबकुछ तो उसे मिला हुआ था, फिर यह विरक्ति क्यों? जिस के लिए निशा ससुराल को छोड़ कर आत्मविश्वास और उत्साह से भर कर सात समंदर पार गई थी, वही निशा लुटेपिटे कदमों से मन के किसी कोने में पछतावे का भाव लिए अपने देश लौट रही थी.

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5. ईगल के पंख : आखिर वह बच्ची अपनी मां से क्यों नफरत करती थी?

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नवंबर का महीना. हलकी ठंड और ऊपर से झामाझम बारिश. नवंबर के महीने में उस ने अपनी याद में कभी ऐसी बारिश नहीं देखी थी. खिड़की से बाहर दूर अक्षरधाम मंदिर रोशनी में नहाया हुआ शांत खड़ा था. रात के 11 बजने वाले थे और यह शायद आखिरी मैट्रो अक्षरधाम स्टेशन से अभीअभी गुजरी थी.

‘‘अंकल… अंकल… प्लीज आज आप यहीं रुक जाओ मेरे पास,’’ रूही की आवाज सुन कर उस का ध्यान भंग हुआ.

बर्थडे पार्टी खत्म हो चुकी थी. पड़ोस के बच्चे सब खापी कर, मस्ती कर अपनेअपने घर चले गए थे. अब कमरे में केवल वे 3 ही लोग थे. समीरा, 6 साल की बेटी रूही और प्रशांत.

‘‘मम्मा? आप अंकल को रुकने के लिए बोलो,’’ रूही ने प्रशांत का लाया गिफ्ट पैकेट खोलते हुए कहा.

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6.तीसरी कौन: क्या था दिशा का फैसला

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पलंग के सामने वाली खिड़की से बारिश में भीगी ठंडी हवाओं ने दिशा को पैर चादर में करने को मजबूर कर दिया. वह पत्रिका में एक कहानी पढ़ रही थी. इस सुहावने मौसम में बिस्तर में दुबक कर कहानी का आनंद उठाना चाह रही थी, पर खिड़की से आती ठंडी हवा के कारण चादर से मुंह ढक कर लेट गई. मन ही मन कहानी के रस में डूबनेउतराने लगी…

तभी कमरे में किसी की आहट ने उस का ध्यान भंग कर दिया. चूडि़यों की खनक से वह समझ गई कि ये अपरा दीदी हैं. वह मन ही मन मुसकराई कि वे मुझे गोलू समझेंगी. उसी के बिस्तर पर जो लेटी हूं. मगर अपरा अपने कमरे की साफसफाई में व्यस्त हो गईं. यह एक बड़ा हौल था, जिस के एक हिस्से में अपरा ने अपना बैड व दूसरे सिरे पर गोलू का बैड लगा रखा है. बीच में सोफे डाल कर टीवी देखने की व्यवस्था कर रखी है.

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7.  एक ही छत के नीचे : बहन की शादीशुदा जिंदगी बचाने के लिए क्या फैसला लिया उसने?

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परसों ही मेरी बड़ी बहन 10 दिन रहने को कह कर आई थीं और अभी कुछ ही देर पहले चली गई हैं. मुझ से नाराज हो कर अपना सामान बांधा और चल दीं. गुस्से में अपना सामान भी ठीक तरह से नहीं संभाल पाईं. इधरउधर पड़ी रह गई चीजें इस बात का प्रमाण हैं कि वे इस घर से जल्दी से जल्दी जाना चाहती थीं. कितनी दुखी हूं मैं उन के इस तरह अचानक चले जाने से. उन्हें समझा कर हार गई लेकिन दीदी ने कभी किसी को सोचनेसमझाने का प्रयत्न ही कहां किया है? उन का स्वभाव मैं अच्छी तरह जानती हूं. बचपन से ही झगड़ालू किस्म की रही हैं. क्या घर में, क्या स्कूलकालेज में, क्या पासपड़ोस में, मजाल है उन्हें जरा भी कोई कुछ कह जाए. हर बात का जवाब दे देना उन की आदत है.

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8. देर आए दुरुस्त आए

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‘‘अरे-रे, यह क्या हो गया मेरी बच्ची को. सुनिए, जल्दी यहां आइए.’’

बुरी तरह घबराई अनीता जोर से चिल्ला रही थी. उस की चीखें सुन कर कमरे में लेटा पलाश घबरा कर अपनी बेटी के कमरे की ओर भाग जहां से अनीता की आवाजें आ रही थीं.

कमरे का दृश्य देखते ही उस के होश उड़ गए. ईशा कमरे के फर्श पर बेहोश पड़ी थी और अनीता उस पर झुकी उसे हिलाहिला कर होश में लाने की कोशिश कर रही थी.

‘‘क्या हुआ, यह बेहोश कैसे हो गई?’’

‘‘पता नहीं, सुबह कई बार बुलाने पर भी जब ईशा बाहर नहीं आई तो मैं ने यहां आ कर देखा, यह फर्श पर पड़ी हुई थी. मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा. मैं ने इस के मुंह पर पानी भी छिड़का लेकिन इसे तो होश ही नहीं आ रहा.’’

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9. जब मैं छोटा था: क्या कहना चाहता था केशव

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अंगद मूर्खों की तरह मांबाप को देख रहा था. उस के मन में विद्रोह की आग सुलग रही थी. बड़ी बहन मानिनी जब भी कुछ मांगती थी तो उसे तुरंत मिल जाता था. एक वही है इस घर में दलित वर्ग का शोषित प्राणी. केशव ने घूर कर अपने बेटे अंगद को देखा. वह सहम गया और सोचने लगा कि उस ने ऐसा क्या कह दिया जो उस के पिता को खल गया. अगर उसे कुछ चाहिए तो वह अपने पिता से नहीं मांगेगा तो और किस से मांगेगा. रानी बेटे की बात समझती है पर वह केवल उस की सिफारिश ही तो कर सकती है. निर्णय तो इस परिवार में केशव ही लेता है.

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10. एहसान: क्या हुआ था रुक्मिणी और गोविंद के बीच

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अंधेरा हो चला था. रुक्मिणी ने सब से पहले तो बैलगाड़ी जोती और अनाज के 2 बोरे गाड़ी में रख अपने गांव की तरफ चल दी. अंधेरे को देखते हुए रुक्मिणी ने लालटेन जला कर लटका ली थी. इस बार फसल थोड़ी अच्छी हो गई थी, इसलिए वह खुश थी. खेत से निकल कर रुक्मिणी की गाड़ी रास्ते पर आ गई थी. अभी वह थोड़ा ही आगे बढ़ी थी कि उसे पेड़ से टकराई हुई मोटरसाइकिल दिखी. उस को चलाने वाला वहीं खून से लथपथ पड़ा था. रुक्मिणी ने गाड़ी रोकी और लालटेन निकाल कर उस के चेहरे के पास ले गई. उस आदमी की नब्ज टटोली, जो अभी चल रही थी. इस के बाद उस का चेहरा देख कर एक पल के लिए तो रुक्मिणी का भी सिर घूम गया. वह सरपंच का बेटा मंगल सिंह था.

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सहारा: सुलेखा के आजाद ख्याल ने कैसे बदली उसकी जिंदगी

‘‘शादी…यानी बरबादी…’’ जब उस की मां ने उस के सामने उस की शादी की चर्चा छेड़ी तो सुलेखा ने मुंह बिचकाते हुए कहा था, ‘‘मां मुझेशादी नहीं करनी है, मैं हमेशा तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारा देखभाल करना चाहती हूं.’’

‘‘नहीं बेटा ऐसा नहीं कहते,’’ मां ने स्नेहभरी नजरों से अपनी बेटी की ओर देखा.

‘‘मां मुझेशादी जैसी रस्मों पर बिलकुल भरोसा नहीं… विवाह संस्था एकदम खोखली हो चुकी है… आप जरा अपनी जिंदगी देखो, शादी के बाद पापा से तुम्हें कौन सा सुख मिला है? पापा ने तो तुम्हें किसी और के लिए तलाक…’’ कहती हुई वह अचानक रुक गई और फिर आंसू भरे नेत्रों से मां की ओर देखने लगी.

मां ने दूसरी तरफ मुंह घुमा अपने आंसुओं को छिपाने की कोशिश करते हुए बोलीं, ‘‘अरे छोड़ो इन बातों को… इस वक्त ऐसी बातें नहीं करते और फिर लड़कियां तो होती ही हैं पराया धन. देखना ससुराल जा कर तुम इतनी खो जाओगी कि अपनी मां की तुम्हें कभी याद भी नहीं आएगी,’’ और फिर बेटी को गले लगा कर उस के माथे को चूम लिया.

मालती अपनी बेटी को बेहद प्यार करती हैं. आज 20 वर्ष हो गए उन्हें अपने पति से अलग हुए, जब मालती का अपने पति से तलाक हुआ था तब सुलेखा सिर्फ 5 वर्ष की थी. तब से ले कर आज तक उन्होंने सुलेखा को पिता और मां दोनों का प्यार दिया. सुलेखा उन की बेटी ही नहीं उन की सुखदुख की साथी भी थी. अपने टीचर की नौकरी से जितना कुछ कमाया वह अपनी बेटी पर ही खर्च किया. अच्छी से अच्छी शिक्षादीक्षा के साथसाथ उस की हर जरूरत का खयाल रखा. मालती ने अपनी बेटी को कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी भले खुद कितना भी कष्ट झेलना पड़ा हो.

आज जब मालती अपनी बेटी से उस की शादी कर ससुराल विदा करने की बात कर रही थीं तो भी उन्होंने अपने दर्द को अपनी बेटी के आगे जाहिर नहीं होने दिया ताकि उसे कोई कष्ट न हो.

सुलेखा आजाद खयालोंकी लड़की है और उस की परवरिश भी बेहद आधुनिक परिवेश में हुई है. उस की मां ने कभी किसी बात के लिए उस पर बंदिशें नहीं लगाईं.

सुलेखा ने अपनी मां को हमेशा स्वतंत्र और संघर्षपूर्ण जीवन बिताते देखा है. ऐसा नहीं कि उसे अपनी मां की तकलीफों का अंदाजा नहीं है. वह बहुत अच्छी तरह जानती है कि चाहे कुछ भी हो, कितना भी कष्ट उन्हें ?ोलना पड़े, ?ोल लेंगी परंतु अपनी तकलीफ कभी उस के समक्ष व्यक्त नहीं करेंगी.

सुलेखा की शादी से इस तरह बारबार इनकार करने पर मालती भावुक हो कर कहतीं, ‘‘बेटा तू क्यों नहीं समझती… तुझेले कर कितने सपने संजो रखे हैं मैं ने और तुम कब तक मेरे साथ रहोगी… एक न एक दिन तुम्हें इस घर से विदा तो होना ही है,’’ और फिर हंसते हुए आगे बोलती हैं, ‘‘और तुम्हें एक अच्छा जीवन साथी मिले इस में मेरा भी तो स्वार्थ छिपा हुआ है… कब तक मैं तुम्हारे साथ रहूंगी. एक न एक दिन मैं इस दुनिया को अलविदा तो कहूंगी ही… फिर तुम अकेली अपनी जिंदगी कैसे काटोगी?’’ कहते हुए उन का गला भर्रा गया.

योगेंद्र एक पढ़ालिखा लड़का है और एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर है. उस के परिवार में उस के मांबाप, भैयाभाभी के अलावा उस की दादी है जो 80 या 85 साल की है. मालती को अपनी बेटी के लिए यह रिश्ता बहुत पसंद आया है. उन्हें लगा कि उन की बेटी इस भरेपूरे परिवार में खुशहाल जिंदगी जीएगी… यहां पर तो सिर्फ उन के सिवा उस के साथ सुखदुख को बांटने वाला कोई और नहीं… वहां इतने बड़े परिवार में उन की बेटी को किसी बात की कमी नहीं और फिर उन्होंने अपनी बेटी का रिश्ता तय कर दिया.

मालती अपनी जिंदगीभर की सारी जमापूंजी यहां तक की अपने सारे जेवर भी शादी का खर्चा जुटाने हेतु बेच दिए ताकि बड़ी धूमधाम से अपनी बेटी को ससुराल विदा कर सकें. बेटी के ससुराल वालों को किसी भी बात की कोई परेशानी न हो. इस बात का पूरापूरा खयाल रखा गया. आखिर एक ही तो बेटी थी उन की और उसी की खातिर तो उन्होंने वर्षों से पाईपाई जमा कर रखी थी.

विदाई के वक्त सुरेखा की आंखों से तो आंसू थम ही नहीं रहे थे. उस ने धुंधली आंखों से मां और उस घर की ओर देखा जिस में उस का बचपन बीता था.

‘‘अरे, पूरा पल्लू माथे पर रखो,’’ ससुराल में गृहप्रवेश के वक्त किसी ने जोर से ?िड़कते हुए कहा और फिर उस के माथे का पल्लू उस की नाक तक खींच दिया.’’

‘‘आंखें पल्लू में ढक गईं… मैं देख कैसे पाऊंगी…’’ उस ने हलके स्वर में कहा.

तभी अचानक अपने सामने उस ने नीली साड़ी में नाक तक घूंघट किए अपनी जेठानी को देखा जिस ने बड़ों के सामने शिष्टाचार की परंपरा की रक्षा करने हेतु घूंघट अपनी नाक तक खींच रखा था.

‘‘तुम्हें तुम्हारी मां ने कुछ सिखाया नहीं कि बड़ों के सामने घूंघट किया जाता है?’’ यह उस की सास की आवाज थी.

‘‘आप मेरी मां की परवरिश पर सवाल न उठाएं,’’ सुलेखा की आवाज में थोड़ी कठोरता आ गई.

‘‘तुम मेरी मां से तमीज से बात करो,’’ योगेंद्र गुस्से से सुलेखा की ओर देखते हुए चिल्लाया.

सुलेखा ने तिलमिला कर गुस्से से योगेंद्र की ओर देखा.

‘‘अरे, नई बहू दरवाजे पर कब तक खड़ी रहेगी… इसे कोई अंदर क्यों नहीं ले आता,’’ दादी सास ने सामने के कमरे पर लगे बिस्तर पर से बैठेबैठे ही आवाज लगाई. दरवाजे पर जो कुछ हो रहा था उसे सुन पाने में वे असमर्थ थीं वैसे भी उन के कानों ने भी उन के शरीर के बाकी अंगों के समान ही अब साथ देना छोड़ दिया था. मौत तो कई बार आ कर दरवाजे से लौट गई थी क्योंकि उन्हें अपने छोटे पोते की शादी जो देखती थी. अपनी लंबी उम्र तथा घर की उन्नति के लिए कई बार बड़ेबड़े पंडितों को बुला कर बड़े से बड़े कर्मकांड करवा चुकी हैं ताकि मौत को टाला जा सके.

उन्हीं पंडितों में से किसी ने कभी यह भविष्यवाणी की कि उन के छोटे पोते  की शादी के बाद उन की मृत्यु का होना लगभग तय है और उसे टालने का एकमात्र उपाय यह है कि जिस लड़की की नाक पर तिल हो उसी लड़की से इन के छोटे पोते की शादी कराई जाए. अत: सुलेखा की नाक पर तिल का होना ही उसे उस घर की पुत्रवधू बनने का सर्टिफिकेट दादीजी द्वारा प्रदान कर दिया गया था. अब उन्हें बेचैनी इस बात की हो रही थी कि पंडितजी द्वारा बताए गए मुहूर्त के भीतर ही नई बहू का गृहप्रवेश हो जाना चाहिए वरना कहीं कुछ अनिष्ट न हो जाए.

मगर घूंघट पर छिड़े उस विवाद ने अब तूल पकड़ना शुरू कर दिया था.

‘‘आप मुझ से ऐसे बात कैसे कर सकते हैं?’’ सुलेखा गुस्से से चिल्लाते हुए बोली.

‘‘तुम्हें अपने पति से कैसे बात करनी चाहिए क्या तुम्हारी मां ने तुम्हें यह भी नहीं सिखाया?’’ घूंघट के अंदर से ही सुलेखा की जेठानी ने आग में घी डालते हुए कहा.

‘‘अरे इसे तो अपने पति से भी बात करने की तमीज नहीं है,’’ सुलेखा की सास ने गुस्से में कहा.

‘‘आप मुझेतमीज मत सिखाइए,’’ सुलेख का स्वर भी ऊंचा हो गया.

‘‘पहले आप अपने बेटे को एक औरत से बात करने का सलीका सिखाइए…’’

‘‘सुलेखा…’’ योगेंद्र गुस्से में चीख पड़ा.

‘‘चिल्लाइए मत… चिल्लाना मुझेभी आता है,’’ सुलेखा ने भी उसी अंदाज में चिल्लाते हुए कहा.

‘‘इस में तो संस्कार नाम की कोई चीज ही नहीं है… पति से जबान लड़ाती है,’’ सास ने फटकार लगाते हुए कहा.

‘‘आप लोगों के संस्कार क्या हैं… नई बहू से कोई इस तरह से बात करता है?’’ सुलेखा ने भी चिल्लाते हुए कहा.

‘‘तुम सीमा लांघ रही हो…’’ योगेंद्र चिल्लाया.

‘‘और आप लोग भी मुझेमेरी हद न सिखाएं…

‘‘सुलेखा…’’ और योगेंद्र का सुलेखा पर हाथ उठ गया.

सुलेखा गुस्से से तिलमिला उठी. साथ में उस की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी और फिर आंसुओं के साथसाथ विद्रोह भी उठ खड़ा हुआ.

अचानक उस के पैर डोल गए और फिर नीचे रखे तांबे के कलश से  उस के पैर जा उछल कर और वह कलश उछल कर सीधा दादी सास के सिर से जा टकराया और दादी सास इस अप्रत्याशित चोट से चेतनाशून्य हो कर बिस्तर पर लुढ़क गईं. चारी तरफ कुहराम मच गया.

‘‘देखो तो जरा नई बहू के लक्षण… कैसे तेवर हैं इस के. गुस्से में दादी सास को ही कलश दे मारा,’’ लोग कानाफूसी करने लगे.

सुलेखा ने नजर उठा कर देखा तो सामने के कमरे में बिस्तर पर दादी सास लुढ़की हुई थीं. उन का सिर एक तरफ को झका हुआ था. यह दृश्य देख कर सुलेखा की सांसें जैसे क्षणभर के लिए रुक गईं.

‘‘अरे हाय यह क्या कर दिया तुम ने,’’ सुलेखा की जेठानी अपने सिर के पल्लू को पीछे की ओर फेंकती हुई दादी सास की ओर दौड़ पड़ीं.

सुलेखा को तभी अपनी जेठानी का चेहरा दिखा. उस के होंठों पर लाल गहरे रंग की लिपस्टिक लगी हुई थी तथा साड़ी की मैचिंग की ही उस ने बिंदी अपने बड़े से माथे पर लगा रखी थी. आंखों पर नीले रंग का आईशैडो भी लगा रखा था तथा गले में भारी सा लटकता हुआ हार पहना था. उन का यह बनावशृंगार उन के अति शृंगार प्रिय होने का प्रमाण पेश कर रहा था.

सुलेखा भी दादी सास की स्थिति देख कर घबरा गई और आगे बढ़ कर उन्हें संभालने की कोशिश में अपने पैर आगे बढ़ा पाती उस से पहले ही योगेंद्र उस का हाथ जोर से पकड़ कर खींचते हुए उसे पीछे की ओर धकेल देता है. वह पीछे की दीवार पर अपने हाथ से टेक बनाते हुए खुद को गिरने से बचा लेती है.

‘‘कोई जरूरत नहीं है तुम्हें उन के पास जाने की. जहां हो वहीं खड़ी रहो,’’ योगेंद्र ने यह बात बड़ी ही बेरुखी से कही.

अपने पति के इस व्यवहार से उस का मन दुखी हो गया. वह उसी तरह दीवार के सहारे खुद को टिकाए खड़ी रह गई. उस की आंखों से आंसू बहने लगे. वह मन ही मन सोचने लगी कि जिस रिश्ते की शुरुआत इतने अपमान और दुख के साथ हो रही है उस रिश्ते में अब आखिर बचा ही क्या है. जो आज नए जीवन की शुरुआत से पहले ही उस का इस कदर अपमान कर रहा है, जिस मानसिकता का प्रदर्शन उस के पति और उन के घर वालों ने किया जितना कुंठित विचारधारा इन सबों की है वैसी मानसिकता के साथ वह अपनी जिंदगी नहीं गुजार पाएगी.

उस के लिए वहां रुक पाना अब मुश्किल हुआ जा रहा था और इस सब से ज्यादा अगर कोई चीज उसे ज्यादा तकलीफ पहुंचा रही थी तो वह था योगेंद्र का उस के प्रति व्यवहार. कहां तो वह मन में सुंदर सपने संजोए अपनी मां के घर से विदा हुई थी. अपने जीवनसाथी के लिए जिस सुंदर छवि को उस ने संजोया था वह अब एक झटके में ही टूटतीबिखरती नजर आ रही थी.

सभी तरफ कुहराम मचा हुआ था. तभी कोई डाक्टर को बुला लाता है. आधे घंटे के  निरीक्षण के बाद डाक्टर बताते हैं, ‘‘चिंता की कोईर् बात नहीं सभी कुछ ठीकठाक है. मैं ने दवा दे दी है जल्द ही इन्हें होश आ जाएगा.’’

दादी सास मौत के मुंह से बच निकलती हैं.

‘‘अरे अब क्या वहीं खड़ी रहेगी महारानी… कोई उसे अंदर ले कर आओ,’’ सास ने बड़े ही क्रोध में आवाज लगाई.

‘‘नहीं, मैं अब इस घर में पैर नहीं रखूंगी,’’ सुलेखा ने दृढ़ता से कहा.

‘‘क्या कहा… कैसी कुलक्षणी है यह… अब और कोईर् कसर रह गईर् है क्या…’’ सास ने क्रोध से गरजते हुए कहा.

‘‘अब ज्यादा नाटक मत करो… चलो अंदर चलो…’’ योगेंद्र ने उस का हाथ जोर से खींच कर कहा.

‘‘नहीं मैं अब आप के घर में एक पल के लिए भी नहीं रूकूंगी,’’ कह सुलेखा ने एक झटके में योगेंद्र के हाथ से अपना हाथ छुड़ा लिया, ‘‘जिस व्यक्ति ने मेरे ऊपर हाथ उठाया, जिस के घर में मेरी इतनी बेइज्जती हुई अब मैं वहां एक पल भी नहीं रुक सकती,’’ कहते हुए सुलेखा दरवाजे से बाहर निकल अपनी मां के घर चल दी.

सुलेखा मन ही मन सोचती जा रही थी कि जिस रिश्ते में सम्मान नहीं उसे पूरी उम्र कैसे निभा पाऊंगी… जो परंपरा एक औरत के खुल कर जीने पर भी पाबंदी लगा दे, जिस रिश्ते में पति जैसा चाहे वैसा सुलूक करे और पत्नी के मुंह खोलने पर भी पाबंदी हो वैसे रिश्ते से तो अकेले ही जिंदगी जीना बेहतर है. मां ने तो सारी जिंदगी अकेले ही काटी है बिना पापा के सहारे के… उन्होंने तो मेरे लिए अपनी सारी खुशियों का बलिदान किया है सारी उम्र उन्होंने मुझे सहारा दिया है अब मैं उन का सहारा बनूंगी.’’

जैसा बोएंगे, वैसा ही काटेंगे

बड़े दिनों के बाद मेरा लुधियाना जाना हुआ था. कोई बीस बरस बाद. लुधियाना मेरा मायका है. माता-पिता तो कब के गुजर गये, बस छोटे भाई का परिवार ही रहता है हमारे पुश्तैनी घर में. सन् बहत्तर में जब मेरी शादी हुई थी, तब के लुधियाना और अब के लुधियाना में बहुत फर्क आ गया है. शहर से लगे जहां खेत-खलिहान और कच्चे मकान हुआ करते थे, वहां भी अब कंक्रीट के जंगल उग आये हैं. शहर पहले से ज्यादा चमक-दमक वाला मगर शोर-शराबे से भर गया है.

जब तक मेरे बच्चे छोेटे थे, कहीं आना-जाना ही मुश्किल था. शादी के कुछ सालों बाद तक तो काफी आती-जाती रही, फिर मां-पिता जी के गुजरने के बाद जाना करीब-करीब बंद ही हो गया. बच्चों की परवरिश और उनके स्कूल-कॉलेज के चक्कर में कभी फुर्सत ही नहीं मिली. फिर बच्चे जवान हुए तो उनके शादी-ब्याह और नौकरी की चिंता में लगी रही. अब बच्चे सेटेल हो गये हैं. पति भी रिटायर हो चुके हैं, तो अब फुर्सत ही फुर्सत है. भरा-पूरा घर है. काम-काज के लिए तीन-तीन नौकर हैं. बेटे की शादी हो गयी है. प्यारी सी बहू पूरे दिन घर में चहकती रहती है.

बहुत दिन से सोच रही थी कि जीवन ने अब जो थोड़ी फुर्सत दी है तो क्यों न भाई के घर कुछ रोज रह आऊं. कितना लंबा वक्त गुजर गया अपने मायके गये हुए. मैंने अपने मायके का जिक्र बहू से किया तो वह भी साथ चलने को मचल उठी. अपनी बहू के साथ मेरी बड़ी पटती है. हम सास-बहू कम, दोस्त ज्यादा हैं. हंसमुख, बातूनी और हर तरह से ख्याल रखने वाली लड़की है मेरी बहू निक्की. सच तो यह है कि जिस दिन से निक्की हमारी बहू बन कर इस घर में आयी है, मुझे लगता है मेरी बेटी लाडो ही वापस आ गयी है. लाडो की शादी कनाडा के एक व्यवसायी के साथ हुई है, इसलिए उसका आना भी बहुत कम हो गया है. लेकिन उसकी कमी निक्की ने पूरी कर दी है. बहुत भाग्यशाली हूं मैं कि मुझे ऐसी बहू मिली. सच तो यह है कि मैं उसे कभी बहू के रूप में देखती ही नहीं, वह तो मेरी बेटी है, बेटी.

मैंने अपने बेटे और पति से लुधियाना जाने की बात कही तो उन्होंने खुशी-खुशी रजामंदी दे दी. फोन करके भाई को बताया तो वह उछल ही पड़ा. बोला, ‘मैं लेने आ जाऊं?’ मैं हंसी, बोली, ‘अरे, अभी तेरी बहन इतनी बूढ़ी नहीं हुई कि दिल्ली से लुधियाना न आ पाए. तू चिन्ता न कर. निक्की साथ आ रही है. हम आराम से पहुंच जाएंगे.’

कितना अच्छा लग रहा था इतने सालों बाद अपने मायके आकर. यहां मेरा बचपन गुजरा. इस घर के आंगन में जवान हुई, ब्याही गयी. सबकुछ चलचित्र सा आंखों के सामने से गुजरने लगा. निक्की के ससुरजी इसी आंगन में आये थे मुझे ब्याहने के लिए. दरवाजे पर घोड़ी से उतरने को तैयार नहीं थे, तब छोटा ही अपने कंघे पर उठाकर भीतर लाया था. इसी घर के दरवाजे से मां ने रोते-कलपते भारी मन से मुझे उनके साथ विदा किया था.

शाम को मैंने सोचा कि चलो कुछ पड़ोसियों की खबर ले आऊं. पता नहीं अब कौन बचा है, कौन नहीं. चार गली छोड़ कर मेरी बचपन की सहेगी कुलवंत कौर का घर भी है. उसे भी देख आऊं. मैंने निक्की को ढूंढा तो देखा कि वह रसोई में अपनी ममिया सास के साथ कोई पंजाबी डिश बनाने में जुटी है. मैं अकेले ही निकल पड़ी.

कुलवंत कौर सुंदर और तेज-तर्रार पंजाबन थी. शादी के बाद वह कभी ससुराल नहीं गयी, उलटा उसका पति ही घर जमाई बन कर आ गया था. दो बेटे हुए. बड़ा तो जवान होते ही लंदन चला गया और फिर वहीं किसी अंग्रेजन से शादी करके बस गया था. छोटा बेटा कुलवंत के साथ रहता था, पर भाई से सुना कि वह भी पांच साल पहले गुजर गया. पति पहले ही गुज़र चुके थे. अब उसके घर में बस दो प्राणी ही बचे हैं एक कुलवंत और दूसरी उसकी जवान विधवा बहू.

कुलवंत शुरू से ही बड़े अक्खड़ और तेज स्वभाव की थी. सब पर हावी रहती थी. लड़ने में उस्ताद. पता नहीं बहू के साथ उसका कैसा व्यवहार होगा. उसकी पटरी बस मेरे साथ ही खाती थी, वह भी इसलिए कि मैं उससे थोड़ा दबती थी. वह बोलती थी और मैं सुनती थी. यह तमाम बातें सोचते-सोचते मैं उसके घर पहुंच गयी. उसकी बहू ने दरवाजा खोला. आंगन में पलंग पर बैठी कुलवंत पर नजर पड़ी तो मैं हैरान ही रह गयी. मेरी ही उम्र की कुलवंत कितनी ज्यादा बूढ़ी दिखने लगी है.

बातचीत शुरू हुई. पता चला कि ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, अर्थराइटिस, अपच और न जाने क्या क्या बीमारियां उसे घेरे हुए हैं. मोटा थुलथुल शरीर ऐसा कि खाट से उठना मुश्किल. उसके पति को गुजरे बीस साल हो गये, पांच साल पहले छोटा बेटा एक्सीडेंट में चल बसा. उसके बाद से कुलवंत अपनी बहू के साथ ही रह रही है. नाते-रिश्तेदार अब झाँकने भी नहीं आते. कुलवंत की तेज़-तर्रारी को देखते हुए पहले भी कौन आता था?

सफेद कुरते-शलवार में उसकी बहू का चेहरा देखकर मेरा दिल तड़प उठा. चाय की ट्रे हमारे सामने रखकर वह अंदर गयी तो फिर नहीं लौटी. मैं कुलवंत से काफी देर तक बातें करती रही. ज्यादातर तो वह अपनी बीमारियों का रोना ही रोती रही. फिर बोली, ‘तुम आयी तो अच्छा लगा. यहां तो अब कोई मुझसे बात करने वाला भी नहीं है. खामोश घर काटने को दौड़ता है. मौत भी नहीं आ रही.’

मैं हंस कर बोली, ‘क्यों, इतनी प्यारी बहू तो है, उससे बोला-बतियाया करो.’ कुलवंत एक फीकी सी मुस्कान देकर चुप्प लगा गयी. मैं इंतजार करती रही कि उसकी बहू बाहर आये तो उससे भी कुछ बातें कर लूं. बेचारी, जवानी में सुहाग उजड़ गया. कैसा दुख लिख दिया भगवान ने इसके भाग्य में. लेकिन काफी इंतजार के बाद भी जब वह न आयी तो मैं ही उठ कर अंदर रसोई में गयी. देखा पीढ़े पर बैठी चुपचाप सब्जी काट रही थी. मैं वहीं बैठ गयी दूसरे पीढ़े पर. वह मुस्कुरायी. मैंने हंस कर कहा, ‘सास के साथ बैठा करो, उनका अकेले दिल घबराता है.’

वह भी फीकी सी हंसी हंसी, फिर धीरे से बोली, ‘उन्होंने जब कभी अपने पास बिठाया ही नहीं, तो अब क्या बैठूं आंटीजी. मैं अपनी मां का घर छोड़ कर आयी थी, सोचा था यहां इनसे मां का प्यार मिलेगा, मगर इनसे तो बस दुत्कार ही मिली. हमेशा नफरत ही करती रहीं मुझसे. कभी प्यार के दो बोल नहीं बोले. मेरे हर काम में नुक्स निकालती रहीं.

जब तक ये जिन्दा रहे मेरी शिकायतें ही करती रहीं उनसे. न मेरे ससुर को चैन से जीने दिया और न मेरे पति को. मैं जब से इस घर में आयी इनके ताने ही सुने. उनके गुजरने के बाद उलाहना देती रहीं कि मैंने इनका बेटा छीन लिया. अरे, मेरा भी तो सुहाग उजड़ गया. आंटी जी, आपसे क्या छुपाना, ये मेरे पति का दिमाग खाती थीं हमेशा. तभी एक दिन गुस्से में घर से निकला और उसका एक्सीडेंट हो गया. यही जिम्मेदार हैं उसकी मौत की. इन्होंने कभी दूसरे की पीड़ा-परेशानी न समझी, दूसरे की खामोशी न समझी. अब अगर शिकायत करें कि आज कोई उनसे बोलता नहीं, तो उन्हें भी अच्छी तरह पता है कि इसमें गलती किसकी है.’

कुलवंत कौर की बहू की बातें सुनकर मेरे मुंह पर ताला पड़ गया. इसके बाद मैं उसे कोई नसीहत न दे सकी. सच ही तो कहा था उसने. कुलवंत कौर आज अगर यह शिकायत करे कि वह अकेली है और कोई उससे बोलता नहीं, तो इसकी जिम्मेदार वह खुद है. उसने जीवन भर जैसा बोया है, अब बुढ़ापे में वही तो काटेगी…

टीनऐजर्स लव: अस्मिता ने क्या लांघ दी रिश्ते की सीमारेखा

‘‘आसमानी ड्रैस में बड़ी सुंदर लग रही हो, अस्मिता. बस, एक काम करो जुल्फों को थोड़ा ढीला कर लो.’’ अस्मिता कोचिंग क्लास की अंतिम बैंच पर खाली बैठी नोट बुक में कुछ लिख रही थी कि समर ने यह कह कर उन की तंद्रा तोड़ी. यह कह कर वह जल्दी ही अपनी बैंच पर जा कर बैठ गया और पीछे मुड़ कर मुसकराने लगा. किशोर हृदय में प्रेम का पुष्पपल्लवित होने लगा और दिल बगिया की कलियां महकने लगीं. भीतर से प्रणयसोता बहता चलता गया. उस ने आंखों में वह सबकुछ कह दिया था जो अब तक पढ़ी किताबें ही कह पाईं.

अस्मिता इंतजार करने लगी कि ब्रैक हो, समर बाहर आए और मैं उस से कुछ कहूं. आधे घंटे का समय एक सदी के बराबर लग रहा था. ‘क्या कहूंगी? शुरुआत कैसे करूंगी? जवाब क्या आएगा,’ ये सब प्रश्न अस्मिता को बेचैन किए जा रहे थे. कुछ बनाती, फिर मिटाती. मन ही मन कितने ही सवाल तैयार करती, जो उसे पूछने थे और फिर कैंसिल कर देती कि नहीं, कुछ और पूछती हूं. घंटी की आवाज अस्मिता के कानों में पड़ी. जैसे मां की तुतलाती बोली सुन कर कोई बच्चा दौड़ आता है, वह तत्क्षण क्लासरूम से बाहर आ गई. सोच रही थी कि वह अकेला आएगा. मगर हुआ इच्छा और आशा के प्रतिकूल. वह अपने दोस्तों से बतियाते हुए क्लासरूम से बाहर निकला. समर दोस्तों की टोली में बैठा गपें मार रहा था और चोर नजरों से उसे अकेला देखने की कोशिश भी कर रहा था. घर जाने का समय हो रहा था और आशाइच्छा धूमिल हो रही थी.

कहते हैं न, जब सब रास्ते बंद हो जाते हैं, तब कोई न कोई रास्ता अवश्य निकलता है. अस्मिता किसी काम से अकेली क्लास में आई और समर इसी ताक में था. अस्मिता के पास मात्र 2 मिनट का समय था और कहने को ढेर सारी बातें. उस ने समर के पास आने पर कहा, ‘‘तुम भी न, बहुत स्मार्ट हो.’’ समर ने थैंक्स कहते हुए अस्मिता की हथेली के पृष्ठ भाग पर अपने हाथ से स्पर्श किया. फिर धीरेधीरे उस की पांचों उंगलियां अस्मिता की उंगलियों में समा चुकी थीं. यह थी अस्मिता के जीवन की प्रथम प्रणय गीतिका. जीवन का मृदुल वसंत प्रारंभ हो चुका था. उन दोनों ने एकदूसरे को जी भर कर देखा.

तभी अस्मिता की कुछ सहेलियां क्लासरूम में आ गईं. प्रेममयी क्षणों के चलते दोनों को न ध्यान रहा, न कोई भान. वे उन दोनों की यह हरकत देख कर मुसकराईं और बाहर चली गईं. स्कूल की छुट्टी हुई. अस्मिता घर आ गई. रातभर सो नहीं पाई, करवटें बदलती रही. कब सुबह हो गई, पता ही न चला. सुबह फिर तैयार हो, स्कूल चली गई. उस दिन समर भी जल्दी आ गया था. अस्मिता ने ध्यान से समर की तरफ देखा. समर ने स्कूलबैग क्रौस बैल्ट वाला डाला हुआ था, जोकि किसी बदमाश बच्चे की भांति इधरउधर हो रहा था. ‘‘हैलो,’’ समर ने अन्य लोगों की नजर से बचते हुए अस्मिता से कहा.

‘‘हाय समर, कैसे हो?’’ उस ने जवाब के साथ ही समर से प्रश्न किया. ‘‘मैं ठीक हूं और तुम से कुछ कहना चाहता हूं. क्या कह सकता हूं?’’

‘‘बिलकुल,’’ अस्मिता समर से मन ही मन प्यार करने लगी थी. कच्ची उम्र में ही उस ने समर को अपना सबकुछ मान लिया था. ‘‘क्या तुम्हारा मोबाइल नंबर मिल सकता है?’’ समर ने संकोच करते हुए कहा.

‘‘ओह हां, अच्छा, तो क्या करोगे नंबर का?’’ अस्मिता ने जानबूझ कर अनजान बनते हुए कहा. ‘‘मुझे तुम से कुछ कहना है,’’ समर ने कहा.

‘‘ओके, लिखो…97….’’ अस्मिता ने नंबर दे दिया. ‘‘थैंक्स.’’

एकदूसरे को देखते, हंसतेमुसकराते समय निकल रहा था जैसे मुट्ठी में से रेत देखते ही देखते उंगलियों के बीच की जगह से निकल जाती है. दोनों को ही छुट्टी होने की अधीर प्रतीक्षा थी. समर तो मन ही मन योजना बना रहा था…‘12 बजे छुट्टी होगी, 1 बजे यह घर पहुंचेगी, 2 बजे तक फ्री होगी और मुझे ठीक ढाई बजे कौल करना होगा.’ उस का दिमाग तेजगति से काम कर रहा था जैसे मार्च में अकाउंटैंट का दिमाग किया करता है. आखिर ढाई बज ही गए. समर ने बिना क्षण गंवाए, मोबाइल उठाया और अस्मिता का नंबर डायल किया.

पहली बार में तो अस्मिता ने कौल काट दी. फिर मिस्डकौल की. सामान्य औपचारिक बातचीत के बाद समर गंभीर मुद्दे पर आना चाहता था. शायद अस्मिता भी यही तो चाहती थी. ‘‘क्या तुम मुझ से इसी तरह रोज बात करोगी?’’ समर ने पूछा.

‘‘किसी लड़की के भोलेपन का फायदा उठा रहे हो?’’ अस्मिता ने जान कर प्रतिप्रश्न किया. ‘‘नहींनहीं, ऐसे ही, अगर तुम्हें उचित लगे तो,’’ समर ने शराफत दिखाते हुए कहा.

रुकरुक कर दिन में 5-6 बार बातें होने लगीं. समर कभी मिस्डकौल करता तो कभी जोखिम उठाते हुए सीधा कौल कर देता. दिन बीतते गए, बातें बढ़ती गईं और उन दोनों के संबंधों में प्रगाढ़ता आती गई. हंसीमजाक, स्कूल की बातें, दोस्तोंसहेलियों के किस्से उन के विषय रहते थे. वे स्कूल में बहाना खोजते ताकि एकांत में बैठ कर प्यारभरी बातें कर सकें. रास्ते सुहाने होते गए, हलके स्पर्श में मिठास का एहसास होता.

एक दिन आया जब उन के प्रेम का जिक्र क्लास के हर स्टूडैंट की जबां पर तो था ही, टीचर्स के बीच में भी बात फैल गई और प्रधानाचार्य ने दोनों को स्टाफरूम में बुला कर ऐसी हरकतों के दुष्परिणामों से अवगत करवाया. उन दोनों ने भविष्य में इस प्रकार की गलती दोहराने की प्रतिबद्घता व्यक्त कर पीछा छुड़ा लिया. अब लगभग सब लोग उन के बीच का सबकुछ जान चुके थे. यह वह वक्त था जब अर्धवार्षिक परीक्षाएं सिर पर थीं. दोनों को ही किताब खोले महीनों हो गए थे. अस्मिता अपनी बौद्धिकता के अहं में थी और समर अपने बौद्धिक होने के वहम में.

एक रोज फोन पर समर कुछ उदास आवाज में बोला, ‘‘क्या मैं पास हो सकूंगा? मैं ने पढ़ा तो कुछ नहीं. तुम तो फिर भी होशियार हो, मेरा क्या होगा?’’ ‘‘सब ठीक होगा, क्लास में तुम से कमजोर भी बहुत हैं,’’ अस्मिता ने उसे ढांढ़स बंधाते हुए कहा.

‘‘मैं क्या करूं बताओ? तुम से बात किए बिना एक पल भी नहीं रहा जाता. हर बार मोबाइल उठा कर देखता हूं कि कहीं तुम्हारा मैसेज या कौल तो नहीं आई, अस्मिता.’’ ‘‘मेरा भी यही हाल है. सभी सखीसहेलियों, परिजनों के इतर जीवन अब सिर्फ तुम पर केंद्रित हो गया है. मेरी हर कल्पना, हर सपने का प्रधान किरदार तुम ही हो, समर. मैं इन सभी चीजों को ले कर मजाक में थी. मगर अब यह बेचैनी बताती है, छटपटाहट बताती है कि दिल पर अब मेरा बस नहीं रहा. अब मैं तुम्हारी हो गई हूं. पर क्या वह सब संभव है? मैं भी न, क्याक्या बकती जा रही हूं.’’

दिन बीतते गए, फोन पर उन की बातें चलती गईं. ‘‘कहीं मिलते हैं, कुछ घंटे साथ बिताते हैं, अब सिर्फ बातों से मन नहीं भरता, अस्मिता.’’ अब समर कभीकभी अस्मिता पर, घर से बाहर मिलने पर भी जोर डालने लगा.

एक दिन निश्चय किया कि कहीं एकांत में मिलते हैं. लेकिन कहां? यह प्रश्न था कि कहां मिला जाए. परेशानी को दूर किया अस्मिता की सहेली दीपिका ने. उसी ने रास्ता सुझाया. दीपिका ने कहा, ‘‘मैं अपनी मम्मी को अपनी बहन के साथ मूवी देखने के लिए भेज दूंगी. उन लोगों के जाते ही तुम दोनों मेरे फ्लैट में आ जाना. मैं बाहर से ताला लगा कर चली जाऊंगी. और ठीक 2 घंटे बाद आ कर ताला खोल दूंगी. अगर कोई आएगा भी तो समझेगा कि घर में कोई नहीं है. देख अस्मिता, तुझे समर के साथ समय बिताने का इस से अच्छा कोई मौका नहीं मिल सकता. तू और समर वहां खूब मस्ती करना.’’ समर को भी इस में कोई आपत्ति न थी. 2 दिन बाद मिलने का कार्यक्रम तय कर लिया गया. मौसम साफ था, हवा में संगीत था, पंछियों की कोमल आवाज मनमस्तिष्क में नव स्फूर्ति भर रही थी. नीयत स्थान और निश्चित समय. समर का पहला और आखिरी काम जो पूर्व तैयारी के साथ संपन्न होने जा रहा था वरना अब तक तो उस ने परीक्षा तक के लिए कोई तैयारी नहीं की थी.

तय दिन तय समय पर, अस्मिता समर के साथ दीपिका के फ्लैट पर पहुंची. प्लान के मुताबिक दीपिका ने अपनी मम्मी और बहन को नई मूवी देखने के लिए भेज दिया. वे दोनों फ्लैट के अंदर और बाहर ताला. लेकिन उन की ये सब गतिविधियां फ्लैट के सामने दूसरे फ्लैट में रहने वाले एक अंकल खिड़की से देख रहे थे. उन्हें शायद कुछ गड़बड़ लगा. वे अपने फ्लैट से नीचे उतर कर आए और कालोनी के 2-3 लोगों को एकत्र कर धीरे से बोले, ‘‘यह जो फ्लैट है, अरे वही सामने, बख्शीजी का फ्लैट, उस में एक लड़का और एक लड़की बंद हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’ दूसरे फ्लैट वाले अंकल ने पूछा. ‘‘मतलब… बख्शीजी की लड़की तो बाहर से ताला लगा गई है पर अंदर लड़कालड़की बंद हैं.’’

‘‘अरे, छोड़ो यार, हमें क्या मतलब. इस में नया क्या है? आजकल तो यह आम बात है,’’ दूसरे फ्लैट वाले अंकल टालते हुए बोले. ‘‘अमा यार, कैसी बात कर रहे हो? अपनी आंखों के सामने, यह गलत काम कैसे होने दूं्?’’

‘‘गलत?’’ ‘‘हां जी, मैं ने खुद अपनी आंखों से देखा है दोनों को फ्लैट के अंदर जाते हुए.’’

तभी पड़ोस की एक आंटी भी आ गई, ‘‘क्या हुआ भाईसाहब?’’ ‘‘अरे, सामने बख्शीजी के फ्लैट में एक लड़कालड़की बंद हैं,’’ पहले वाले अंकल बोले.

‘‘तो ताला तोड़ दो,’’ महिला ने मशवरा दिया. ‘‘नहीं, यह सही नहीं है, जिस का मकान है, उसे बुलाओ,’’ दूसरे अंकल ने सलाह दी.

शोर बढ़ता गया. लोग इकट्ठे होते चले गए. तभी कहीं से पुलिस का एक हवलदार भी पहुंच गया. लोगबाग दरवाजा पीटने लगे. ‘‘बाहर निकलो, दरवाजा खोलो…’’ बिना यह सोचेसमझे कि ताला तो बाहर से बंद है, तो दरवाजा खुलेगा कैसे? प्लान के मुताबिक, दीपिका समय पूरा होने से 10 मिनट पहले वहां पहुंच गई, लेकिन भीड़ को देख कर एक बार वह भी घबरा गई. उस ने लोगों से वहां इकट्ठे होने का प्रयोजन पूछा और गुस्से में बोली, ‘‘मेरा फ्लैट है, मैं जानूं. आप लोगों को क्या मतलब?’’

हवलदार ने दीपिका की हां में हां मिलाई और भीड़ से जाने के लिए कहा. और फिर दीपिका के पीछेपीछे वह भी सीढि़यां चढ़ने लगा. थोड़ी देर बाद हवलदार फ्लैट से वापस आया और बोला, ‘‘फ्लैट में तो कोई नहीं था. किस ने कहा कि वहां लड़कालड़की बंद हैं. फालतू में इतना शोर मचा दिया.’’ सामने के फ्लैट वाले अंकल चुपचाप वहां से गायब हो गए, लेकिन उन का दिमाग अभी भी चल रहा था…जैसे ही भीड़ छटी, दीपिका ने अस्मिता और समर को चुपचाप बाहर निकाल दिया. दरअसल, सीढि़यां चढ़ते समय ही दीपिका ने हवलदार को कुछ रुपए दे कर उस का मुंह बंद कर दिया था. जैसेतैसे आई हुई बला टल गई, लेकिन अस्मिता और समर को मुंह देख कर साफ पता लग रहा था कि उन्होंने इन 2 घंटों के दौरान कितना अच्छा समय बिताया होगा.

जब दोनों फ्लैट के अंदर थे तब समर ने कहा, ‘‘सौरी, जल्दीजल्दी में तुम्हारे लिए कोई उपहार लाना तो भूल ही गया.’’ ‘‘तुम आ गए हो तो नूर आ गया है,’’ कहते हुए अस्मिता हंस पड़ी. तब दोनों ने हृदय के तार झंकृत हो उठे थे. दिल में एक रागिनी बज उठी थी. रहीसही कसर आंखों से छलकते प्रेम निमंत्रण ने पूरी कर दी थी. सहसा ही समर के हाथ उस के तन से लिपट गए और यह आलिंगन हजारोंलाखों उपहारों से कहीं ज्यादा था.

असल तूफान तो उस के बाद आया जब समर अचानक अस्मिता से दूर होने लगा. फिर 6 महीने में सबकुछ बदल गया था. अब सिर्फ अस्मिता उसे फोन करती थी. और…समर, अस्मिता का फोन भी नहीं उठाता था. वह अब उस से बात नहीं करना चाहता था. जब उस की मरजी होती, मिलने को बुलाता, पर उस दौरान भी बात नहीं करता. ऐसा लगता था जैसे वह जिस्म की भूख मिटा रहा है. अस्मिता उस से प्यार करती थी, लेकिन वह अस्मिता को सिर्फ इस्तेमाल कर रहा था.

अस्मिता की तो पूरी दुनिया ही बदल चुकी थी. वह खुद से नफरत करने लगी थी. उस का आत्मविश्वास हिल गया था. वह अकसर अपनेआप से कहती, ‘मैं इतनी बेवकूफ कैसे हो सकती हूं? मैं अंधों की तरह एक मृगतृष्णा की ओर भागती जा रही हूं.’ वह घंटों रोती. निराशा उस की जिंदगी का हिस्सा बन चुकी थी. इस हार को बरदाश्त न कर पाते हुए इसी बीच अस्मिता बारबार समर को वापस लाने की नाकाम कोशिश करने लगी. उसे मेल भेजना, प्रेम गीत भेजना, कभीकभी गाली लिख कर भेजना, अब यही उस का काम था.

इसी बीच, एक दिन- समर : तुम्हें समझ में नहीं आ रहा कि मैं तुम से अब कोई संबंध नहीं रखना चाहता? मुझे दोबारा फोन मत करना.

अस्मिता : देखो, तुम क्यों ऐसा कर रहे हो? मुझे पता है कि तुम भी मुझ से प्यार करते हो, लेकिन क्या है जिस से तुम परेशान हो? समर : ऐसा कुछ नहीं है. हमारा रिश्ता आगे नहीं बढ़ सकता. मुझे जिंदगी में बहुतकुछ करना है. मेरे पास इन चीजों के लिए वक्त नहीं है.

अस्मिता : नहीं, देखो समर, प्लीज मेरी बात सुनो. हम दोस्त बन कर भी तो रह सकते हैं? हम इस रिश्ते को वक्त देते हैं. अगर कई साल बाद भी तुम को ऐसा ही लगा. तब सोचेंगे. समर : तुम पागल हो, मेरे पास फालतू वक्त नहीं है. मेरी एक गर्लफ्रैंड है. और मैं तुम से आगे कभी बात नहीं करना चाहता.

टैलीफोन की यह बातचीत अस्मिता को आज भी याद है. यह उन दोनों के बीच आखिरी बातचीत थी. इसे सुन कर कोईर् भी कह सकता है कि अस्मिता बेवकूफ थी, भ्रम में जी रही थी. लेकिन वह भी क्या करती? कुल 16 की थी, और उसे लगता था, सब फिल्मों की तरह ही होता है. ‘जब वी मेट’ फिल्म से वह काफी प्रभावित थी. वैसे भी 16 का प्यार हो या 60 का, जब कोई प्यार में होता है, तो कुछ भी सहीगलत नहीं होता.

पर स्कूल में समर उस से बचता, नजरें छिपाता, अस्मिता उस से बात करने जाती तो वह झिड़क देता या दोस्तों के साथ मिल कर उस की खिल्ली उड़ाता, कहता, ‘‘कितनी बेवकूफ है जो उस की बातों में आ कर सबकुछ लुटा बैठी. उस ने तो यह सब एक शर्त के लिए किया था.’’ ‘ओह, तो यह सिर्फ उस की एक चाल थी. काश, मैं पहले ही समझ जाती,’ वह घंटों रोती रही.

आज प्यार के मामले में भी उस का भरोसा टूट गया था. प्यार पर से विश्वास तो पहले ही उठने लगा था. वार्षिक परीक्षाएं सिर पर मंडरा रही थीं. वह खुद से जूझ रही थी. पर अस्मिता ने पढ़ाई या स्कूल बंद नहीं किया. यह शायद उस की अंदरूनी शक्ति ही थी जिस से वह उबर रही थी या उबरने की कोशिश कर रही थी. हालांकि चिड़चिड़ाहट बढ़ रही थी और उस के बढ़ते चिड़चिड़ेपन से घर पर सब परेशान थे. अगर घर पर कोई कुछ जानना चाहता भी तो उस ने कभी नहीं बताया कि उस के साथ क्या हुआ है.

अस्मिता नई क्लास में आ गई थी. हर बार से नंबर काफी कम थे. समर ने नई कक्षा में पहुंच कर स्कूल ही बदल लिया था. यही नहीं, मोबाइल नंबर भी. अस्मिता के लिए यह सब किसी बहुत बड़े जलजले से कम न था. बात न करे पर रोज वह समर को देख कर ही अपना मन शांत कर लेती थी. पर अब तो… अस्मिता ने खाना बंद कर दिया था. इस कारण उस की तबीयत बिगड़ रही थी.

बहुत मेहनत से उस ने समर का नया नंबर पता किया. समर ने फोन उठाया मगर सिर्फ इतना कहा, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे फोन करने की? किस से नंबर मिला तुम्हें? आइंदा फोन किया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. मेरे पास तुम्हारे कुछ फोटोज हैं. मैं उन्हें सार्वजनिक कर दूंगा. फिर मत कहना, हा…हा…हा… और समर ने फोन काट दिया.’’ समर के लिए यह सब खेल था, लेकिन अस्मिता के लिए वह पहला प्यार था. ‘कितनी बेवकूफ थी न मैं, जो अपने आत्मसम्मान को पीछे रख कर भी उसे मनाना और पाना चाहती थी,’ अस्मिता ने सोचा. अब उसे अपनेआप से घिन और नफरत सी होने लगी थी. अस्मिता खुद को खत्म करना चाहती थी.

लेकिन, दीपिका जो उस के अच्छे और बुरे दोनों ही पलों की सहेली थी, ने अस्मिता के मनोबल और उसे, एक हद तक टूटने नहीं दिया. उसे समझाया, ‘‘ऐसे एकतरफा रिश्तों से जिंदगी नहीं चलती. अगर आप किसी से प्यार करते हो और वह नहीं करता. तो आप चाहे जितनी भी कोशिश कर लो, कुछ नहीं हो सकता. और ऐसे में आत्मसम्मान सब से अहम होता है.’’ कहीं न कहीं अस्मिता की इस हालत की जिम्मेदार वह खुद को भी ठहराती थी. उस ने कभी भी अस्मिता को अकेला नहीं छोड़ा. हर समय उसे टूटने से बचाया वरना इतना अपमान और असम्मान सहना किसी लड़की के लिए आसान नहीं था. दीपिका की कोशिश का ही नतीजा था कि इतने अपमान, असम्मान के बाद भी अस्मिता ने ठान लिया, ‘‘अब मैं नहीं रोऊंगी. मैं जिंदगी में आगे बढ़ूंगी, कुछ करूंगी. एक हादसे की वजह से मेरी पूरी जिंदगी खराब नहीं हो सकती.’’

अब वह समर को याद भी नहीं करना चाहती थी. समर उस की जिंदगी में अब कोई माने नहीं रखता. लेकिन उस के धोखे को वह माफ नहीं कर पाई. प्यार करना उस ने यदि समर से मिल कर सीखा तो प्यार का सही मतलब और वादे का सही मतलब, शायद समर को अस्मिता से समझना चाहिए था. समर ने सिर्फ प्यार ही नहीं, धोखा क्या होता है, यह भी समझा दिया था. समर से मिल कर उस के साथ रिश्ते में रह कर, अस्मिता का प्यार पर से यकीन उठ चुका अब. वाकई कितनी छोटी उम्र होती है ऐसे प्यार की. शायद सिर्फ शारीरिक आकर्षण आधार होता है. तभी तो इसे कच्ची उम्र का प्यार कहते हैं ‘टीनऐजर्स लव.’

नायिका : बंद कमरे में सीता को देख रेवा क्यों हैरान हो गई?

राइटर-  भावना केसवानी

‘‘सच ही तो है. हर इंसान अपने लिए खुद ही जिम्मेदार होता है. दुनिया कहां पहुंच गई और ये लोग अपनी पुरानी सोच के वजह से पिछड़े ही रह गए. अफसोस तो इस बात का है कि इन की ऐसी मानसिकता के कारण इन के बच्चों का जीवन भी बरबाद हो जाता है,’’ कमरे में घुसते ही रेवा बड़बड़ाने लगी.

औफिस के लिए तैयार हो रहे पराग ने मुड़ कर रेवा की ओर देखा, ‘‘क्या हुआ? मेरे अलावा अब और किस की शामत आई है?’’

‘‘पराग, तुम्हें तो हर वक्त मजाक ही सूझता है. मैं तो सीता के बारे में सोच रही थी. शोभा को कितना समझ रही हूं. मगर वह तो उस की शादी करने पर तुली हुई है. अरे, अभी सिर्फ 16 की ही तो है. इतनी कच्ची उम्र में शादी कर देंगे, फिर जल्दी 3-4 बच्चे हो जाएंगे और फिर झाड़ूपोंछा, चौकाबरतन करते ही उस की जिंदगी कब खत्म हो जाएगी, उसे खुद भी पता नहीं पड़ेगा. कितना कह रही हूं कि लड़की छोटी है, थोड़ा रुक जाओ पढ़ना चाहती है तो पढ़ने दो… जो मदद चाहिए होगी मैं कर दूंगी पर नहीं… लड़की ज्यादा बड़ी हो जाएगी तो शादी में मुश्किल होगी… हुंह, रेवा, मेरे पास एक आइडिया है. तुम मेड लिबरेशन ऐसोसिएशन बनाओ और उस की प्रैसिडैंट बन जाओ. तुम्हारे जैसी कुछ और औरतें मिल जाएंगी तो सीता ही क्यों, सारी मेड्स की समस्याओं का समाधान मिल जाएगा. रेवा प्लीज… यू मस्ट डू इट. तुम्हारी मैनेजरियल स्किल्स भी काम आएंगी और फिर इतनी कामवालियों का उद्धार कर के तुम्हें कितना पुण्य मिलेगा… सोचो जरा.’’

पराग की चुहल से रेवा और चिढ़ गई, ‘‘सब से पहले तो मुझे खुद को लिबरेट करना है तुम से. आज फिर तुम ने गीला तौलिया पलंग पर फेंक दिया है. मेरे घर का अनुशासन तोड़ा न तो अच्छा नहीं होगा.’’

पराग ने हाथ जोड़ लिए, ‘‘अभी उठाता हूं मेरी मां, माफ करो. वैसे तुम्हारा जोर सिर्फ मुझ पर चलता है. इतना प्यार करने वाला पति मिला है पर उस की कोई कद्र नहीं है.’’

‘‘अच्छा, अच्छा, अब ज्यादा नाटक मत करो. जल्दी औफिस जाओ वरना लेट हो जाओगे.’’

‘‘औफिस तो मैं चला जाऊंगा, बट औन ए सीरियस नोट, रेवा… प्लीज इतनी इमोशनल मत बनो. जिंदगी में प्रैक्टिकल होना ही पड़ता है. तुम सीता के बारे में सोच कर इतनी परेशान हो रही हो लेकिन तुम कुछ नहीं कर पाओगी. यह उन लोगों का निजी मामला है, हम इस में कुछ नहीं कर सकते. मुझे लगता है कि तुम घर पर बैठ कर स्ट्रैस्ड हो रही हो. पहले औफिस के कामों में इतनी व्यस्त रहती थीं कि किसी और बात में ध्यान ही नहीं होता था तुम्हारा और अब… अच्छा होगा कि तुम अपने लिए कोई नई नौकरी ढूंढ़ लो. घर पर रहोगी तो फालतू बातों में उलझ रहोगी.’’

थोड़ी देर में पराग तो चला गया लेकिन रेवा गहरी सोच में डूब गई. वह हमेशा से एक कैरियर वूमन रही थी और पराग इस बात को जानता था.

वह अपनी मेहनत से कामयाबी की सीढि़यां चढ़ भी रही थी पर रिसेशन के कारण उस की नौकरी चली गई. नौकरी छूट जाने का उसे बहुत मलाल हुआ था लेकिन उसे भरोसा था कि उसे दूसरी नौकरी जल्द ही मिल जाएगी… मगर आज पराग ने उस की हताशा को गलत अर्थ में लिया था. वह कुंठित जरूर थी लेकिन सिर्फ सीता की मदद न कर पाने के कारण. रेवा ने एक लंबी सांस ली और बाहर ड्राइंगरूम में आ गई.

सीता वहां नम्रा के साथ खेल रही थी. कितना हिल गई थी नम्रा सीता के साथ… अब जब कुछ दिनों में सीता चली जाएगी तो नम्रा बहुत मिस करेगी उसे. रेवा ने सीता की ओर देखा. दुबलीपतली, श्यामवर्णा सीता परिस्थितियों के कारण समझ से चाहे परिपक्व हो चुकी हो पर थी तो आखिर बच्ची ही. इतनी नाजुक उम्र में शादी का बोझ कैसे उठा पाएगी? रेवा की सोच फिर सीता पर ही आ कर अटक गई.

सीता रेवा की कामवाली शोभा की बेटी थी. नम्रा का जन्म सिजेरियन से हुआ था. सास तो रेवा की थी नहीं, मां भी कितने दिन रहती. तब शोभा सीता को ले आई थी, ‘‘दीदी, इसे रख लो. बच्ची को संभालने में भी मदद कर देगी और ऊपर का छोटामोटा काम भी करा लेना.’’

‘‘अरे, यह तो बहुत छोटी है… यह कैसे कर पाएगी और यह स्कूल नहीं जाती है क्या?’’

‘‘स्कूल तो सुबह जाती है… 11 बजे तक आ जाएगी. काम तो यह सब कर लेती है. दूसरे घर में करती थी पर अब उन लोगों की बदली दूसरे शहर में हो गई है. आप 2-4 रोज देख लो… दिनभर आप के पास रहेगी और शाम को मेरे साथ वापस लौट जाएगी.’’

सीता ने पहले दिन से ही रेवा को प्रभावित कर दिया. उस ने धीरेधीरे नम्रा का सारा काम संभाल लिया. वह बड़े प्यार से नम्रा की मालिश कर उसे नहला देती, बोतल से दूध पिला देती, नैपी बदल देती और अपनी गोद में ही थपका कर सुला भी देती. इस के साथ ही वह रेवा को सब्जी काट देती, आटा गूंध देती और नम्रा के कपड़े धोसुखा कर तह कर देती. वह स्वभाव की भी इतनी शांत थी कि उस ने जल्द ही रेवा का विश्वास जीत लिया.

सीता के होने से रेवा नम्रा और घर के प्रति निश्चिंत हो गई थी इसलिए जब उसे नई नौकरी का औफर मिला तो उस ने शोभा से कह कर सीता को सारे दिन के लिए अपने घर रख लिया. 3 बैडरूम का फ्लैट था, रेवा ने एक कमरा सीता को दे दिया. अच्छा खानेपहनने को मिलता था तो सीता भी खुश ही थी.

सीता ने एक बार रेवा से कहा था कि वह कुछ बनना चाहती है. तब रेवा ने उसे मन लगा कर पढ़ने की सलाह दी थी. रेवा के काम का समय दोपहर से शुरू हो कर रात तक चलता था. उसे तो वर्क फ्रौम होम की सुविधा भी थी. रेवा ने इस बात का पूरा खयाल रखा कि सीता की पढ़ाई न छूटे. सीता पहले की तरह ही स्कूल जाती रही.

धीरेधीरे रेवा को सीता के प्रति एक अपनापन महसूस होने लगा. रेवा ने उस की स्कूल की कापियां देखी थीं. उसे लगता था कि सीता यदि लगन से पढ़ाई करती रहे तो अपने लिए अपनी नियति से हट कर कोई मुकाम बनाने में सक्षम हो सकती है. रेवा ने तय कर लिया था कि वह सीता की शिक्षा में हर तरीके से सहयोग करेगी.

मगर जिंदगी हमेशा पक्की सड़क पर तो आराम से नहीं चलती न… कभी कच्चे रास्तों की असुविधाएं भी सहन करनी पड़ती हैं, कभी घुमावदार रास्तों के जाल में भी उलझना पड़ता है और कभी स्पीडब्रेकर्स के ?ाटके भी लग ही जाते हैं. शोभा ने आ कर रेवा को सीता की शादी तय होने की खबर सुना दी.

‘‘अरे, ऐसे कैसे? सीता तो बहुत छोटी है अभी.’’

‘‘कहां दीदी… 16 की हो गई है. हमारे ही गांव का लड़का है, अच्छा घरपरिवार है. यह भी सुखी हो जाएगी और हम भी निबट जाएंगे.’’

‘‘शोभा, तुम भी कैसी बातें कर रही हो? इतनी छोटी उम्र में तो शादी गैरकानूनी है न और सीता का भी तो सोचो. इस नाजुक उम्र में वह शादी की जिम्मेदारी कैसे निभा पाएगी?’’

‘‘अरे दीदी, हम लोगों में तो ऐसा ही होता है. मेरा ब्याह भी तो 15 साल की उम्र में हुआ था.’’

‘‘पर शोभा इस का दिमाग अच्छा है. पढ़ने दो अभी. इस की पढ़ाई के खर्चे में मैं मदद कर दूंगी. पढ़लिख जाएगी तो जिंदगी बन जाएगी.’’

‘‘देखो दीदी, आप को हम लोगों का नहीं पता. ज्यादा पढ़ गई और उम्र बढ़ गई तो कोई नहीं मिलेगा इस से शादी करने के लिए. आप चिंता न करो. 2 महीने बाद इस का ब्याह ठहरा है. उस के पहले मैं आप को दूसरी कामवाली लगा दूंगी,’’ कह कर शोभा ने बात खत्म कर दी.

शोभा की बातें सुनने के बाद रेवा क्या कहती? वह मन मसोस कर चुप रह गई.

‘‘दीदी, नम्रा सो गई है. कौन सी सब्जी काटनी है?’’

रेवा ने महसूस किया कि जब से सीता का विवाह तय हुआ था तब से उस के व्यवहार में परिवर्तन आना शुरू हुआ था. वह सारे काम जैसे यंत्रवत करती…ध्यान तो उस का किसी और ही दुनिया में होता. हमेशा खोईखोई रहती, अपने ही खयालों में. पढ़ाई में भी उस का मन नहीं लगता था पहले की तरह. रेवा ने सोचा आज उस के मन को टटोल ले.

‘‘क्यों सीता… तू तो कहती थी तुझे पढ़ना है, कुछ बनना है. तेरी मां तो तेरी शादी करा रही है. तू मना क्यों नहीं करती?’’

‘‘क्या बोलेंगे, दीदी? अब कामवाली के घर पैदा हुए हैं तो कामवाली ही बनेंगे. ऊंची पढ़ाई में खर्चा भी तो बहुत होता है. आप का भी कितना एहसान लेंगे और फिर शादी भी तो जरूरी है. सारी उम्र अकेले कैसे रहेंगे?’’

रेवा चुप रह गई. वह सोचती थी कि सीता अपनी नियति के चक्रव्यूह को तोड़ गिराएगी लेकिन अब जब उस ने स्वयं ही अपने लिए यह रास्ता चुन लिया था तो रेवा कर भी क्या सकती थी?

‘‘दीदी, आप मां से कुछ न कहा कीजिए. मेरी हिस्से में यही लिखा है और मैं बहुत खुश हूं. आप को पता है. घर में सब बहुत खुश हैं. मां ने तैयारी करनी भी शुरू कर दी है. इसी बहाने आज सब को मेरा खयाल है नहीं तो कब मैं सूखी रोटी के टुकड़ों और फटेपुराने कपड़ों में बड़ी हो गई, किसी को पता ही नहीं चला. अब 2-4 जोड़ी ही सही, मेरे लिए नए कपड़े बनेंगे. मां मेरे लिए सोने के  जेवर बनवाएगी. फिर चाहे मेरे ही कमाए पैसों को जोड़ कर. सब सीतासीता कर के पूछेंगे. दीदी, एक गरीब की लड़की को इस से ज्यादा और क्या खुशी मिल सकती है?’’

रेवा फिर चुप रह गई. एक स्त्री के मन की गहराइयों में क्या है, यह खुद उस के अलावा कोई नहीं जान सकता. परिस्थितियों से समझौता करना और चंद लमहों की खुशियों को अपने जेहन में कैद कर उन्हीं के सहारे जिंदगी को आगे बढ़ाना, यह सिर्फ एक स्त्री ही कर सकती है. सीता की सोच के सिरे को पकड़ कर उस के मन की तहों को खोल कर रेवा को लगा कि कम से कम इतनी खुशी पाने का अधिकार तो था ही उसे. अपनी ही जिंदगी की पटकथा में हमेशा छोटेमोटे किरदार ही निभाती आई थी सीता. अब चंद लमहों के लिए ही सही, नायिका बनने की उस की हसरत कहां गलत थी.

शाम को ही बाजार जा कर रेवा सीता के लिए शादी की साड़ी और सोने की अंगूठी ले आई. उपहार देख कर सीता के चेहरे पर जो खुशी आई, उस से रेवा को भी जैसे आत्मिक तृप्ति का एहसास हुआ. वह दिल से सीता की खुशी चाहती थी.

रेवा नम्रा को ले कर बहुत पशोपेश में थी. सीता के रहते उसे नम्रा की कोई फिक्र नहीं होती थी लेकिन सीता के जाने के बाद नम्रा को वैसी देखभाल कौन देता? वह सोच ही रही थी कि एक दिन अचानक शोभा मायूस सूरत ले कर दरवाजे पर खड़ी थी, ‘‘इस लड़की के हिस्से शादी नहीं है… लड़का शादी से पहले ही भाग गया. किसी और से चक्कर था उस का. अब पता नहीं इस से कौन शादी करेगा? दीदी, अब यह आप का काम छोड़ कर नहीं जाएगी.’’

जीवन फिर पुराने रूटीन पर चल पड़ा लेकिन सीता में अब थोड़ा बदलाव आ गया था. वह पहले से कम बोलती और अपनी पढ़ाई पर अत्यधिक केंद्रित हो चुकी थी. रेवा को लगा कि जो हुआ शायद अच्छा ही हुआ. अब वह सीता के भविष्य को संवारने में उस की मदद करेगी. यह सोच कर रेवा सीता को बहुत प्रोत्साहित करती.

एक रात रेवा देर तक अपने लैपटौप पर काम कर रही थी. प्यास लगने पर पानी लेने उठी तो देखा कि सीता के कमरे की लाइट जल रही है. इतनी रात को सीता जाग क्यों रही है… रेवा ने धीरे से दरवाजा खोल कर अंदर झांका तो हैरान रह गई.सीता शादी का जोड़ा और तमाम गहने पहने खुद को बड़ी हसरत से आईने में निहार रही थी.

रेवा ज्यादा देर वहां न खड़ी रह पाई. उस कमरे में कुछ दबी आकांक्षाएं थीं, कुछ अधूरे खवाब थे. समाज ने उस मासूम को यही यकीन दिलाया था कि चंद लमहों की नायिका बनना ही उस के जीवन की उपलब्धि थी.

अब रेवा की जिम्मेदारी बढ़ गई थी. उसे सीता को यह विश्वास दिलाना था कि वह सक्षम है अपने जीवन की पटकथा खुद लिखने के लिए और ताउम्र उस में नायिका का किरदार निभाने के लिए. रेवा ने अपने मन को इस संकल्प के लिए दृढ़ कर लिया.

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