जहर: बहुओं को समझाने के लिए सास ने कौनसा रास्ता अपनाया

कविता की जेठानी मीना 1 सप्ताह के लिए मायके रहने को गई तो उसे विदा करने के लिए सास कमरे से बाहर ही नहीं निकली.

‘‘मुझे तो बहुत डर लग रहा है, भाभीजी. आप का साथ और सहारा नहीं होगा, तो कैसे बचाऊंगी मैं इन से अपनी जान?’’ सिर्फ 4 महीने पहले इस घर में बहू बन कर आई कविता की आंखों में डर और चिंता के भाव साफ नजर आ रहे थे.

‘‘वे चुभने या बेइज्जत करने वाली कोई भी बात कहें, तुम उस पर ध्यान न दे कर चुप ही रहना, कविता, झगड़ा कर के तुम उन से कभी जीत नहीं सकोगी,’’ मीना ने उसे प्यार से समझया.

‘‘भाभी, अगर सामने वाला तुम्हारी बेइज्जती करता ही चला जाए, तो कोई कब तक चुप रहेगा?’’

‘‘उस स्थिति में तुम वह करना जो मैं करती हूं. जब तंग आ कर तुम जवाब देने को मजबूर हो जाओ, तो गुस्से से पागल हो इतनी जोर से चिल्लाने का अभिनय करना की सासूजी की सिट्टीपिट्टी गुम हो जाए. उन्हें चुप करने का यही तरीका है कि उन से ज्यादा जोर से गुर्राओ. अगर उन के सामने रोनेधोने की गलती करोगी तो वे तुम पर पूरी तरह हावी हो जाएंगी, कविता,’’ अपनी देवरानी को ऐसी कई सलाहें दे कर मीना अपने बेटे के साथ स्कूटर में बैठ कर बसअड्डा चली गई.

कविता अंदर आ कर दोपहर के भोजन की तैयारी करने रसोई में घुसी ही थी कि उस की सास आरती वहीं पहुंच गईं.

‘‘उफ, इस मीना जैसी बददिमाग और लड़ाकी बहू किसी दुश्मन को भी न मिले. अब सप्ताह भर तो चैन से कटेगा,’’ कह आरती ने अपनी छोटी बहू से बातें करनी शुरू कर दीं.

आरती लगातार मीना की बुराइयां करती रहीं. बहुत सी पुरानी घटनाओं की यादों को दोहराते हुए उन्होंने उस के खिलाफ  जहर उगलना जारी रखा.

कविता ने जब चुप रह कर वार्त्तालाप में कोई हिस्सा नहीं लिया तो आरती नाराज हो कर बोल पड़ीं, ‘‘अब तू क्यों गूंगी हो गई है, बहू? मुंह फुला कर घूमने वाले लोग मुझे जरा भी अच्छे नहीं लगते हैं.’’

‘‘आप बोल कर अपना मन हलका कर लो, मम्मी. मेरे मन में भाभी के लिए कोई शिकायत है ही नहीं, तो मैं क्या बोलूं?’’ कविता का यह जवाब सुन कर आरती चिढ़ उठी थीं.

आरती वैसे कविता के घर वालों को कुछ ज्यादा भाव देती थीं. उस के मातापिता की जाति उन से ऊंची भी थी और वे सब इंग्लिश मीडियम के पढ़े थे जबकि अरुण और उस का बड़ा भाई हिंदी मीडियम स्कूल से था. फिर भी कविता और उस के घर वाले आरती को पूरा सम्मान देते थे. आरती को एहसास था कि जरा सी जाति ऊंची हुई नहीं या बच्चे अंगरेजी मीडियम में गए नहीं उन की नाक ऊंची हो जाती है.

आटा गूंधने का काम बीच में रोक कर वे उसे तीखी आवाज में सुनाने लगीं, ‘‘अपनी जेठानी के नक्शे कदम पर चल कर इस घर की सुख शांति को और ज्यादा बिगाड़ने में सहयोग मत दो, बहू. अगर बड़ी की इज्जत नहीं करोगी तो तुम भी कभी सुखी नहीं रह पाओगी.’’

अपनी जेठानी की नसीहत को याद कर कविता ने कोई प्रतिक्रिया जाहिर

करना मुनासिब नहीं समझ और सब्जी काटने

के काम में लग गई. अकेली ही बोलते हुए

आरती आजकल की बहुओं को देर तक भलाबुरा कहती रहीं.

‘भाभी होती तो 1 मिनट में इन्हें दोगुना ज्यादा बातें सुना कर चुप कर देती. पूरे 7 दिन मैं अकेली कैसे झेलूंगी इन्हें?’ ऐसे विचारों में उलझ कविता चुप रह कर अपना खून फूंकती रही.

कविता ने जब तक आलूगोभी की सब्जी तैयार करी, तब तक आरती ने परांठे सेंक डाले. उस ने अपनी सास के साथ खाना न खाने के

लिए भूख न होने का बहाना बनाया, पर आरती

ने बड़े हक से दोनों का खाना इकट्ठा परोस

लिया था.

खाना खाते हुए आरती ने कविता के मायके वालों को वार्त्तालाप का विषय बनाया. वे उन के बारे में हलकीफुलकी बातें कर रही थीं. थोड़ी ही देर में कविता अपनी नाराजगी भुला उन के साथ खुल कर हंसनेबोलने लगी.

भोजन समाप्त कर वह आराम करने के लिए अपने कमरे में आ कर लेट गईं. आंख लगने से पहले एक बात सोच कर उस के होंठों पर व्यंग्य भरी मुसकान उभरी थी कि मुझे अपनी तरफ करने को वे आज कितना मीठा बोल रही थीं. लेकिन उन की सारी चालाकी बेकार जाएगी क्योंकि असल में तो उन के मन में अपनी दोनों बहुओं के लिए इज्जत और प्यार है ही नहीं.

शाम को आरती ने कविता के लिए स्वीगी से गरम समोसे और चाय मंगवाई. आरती ने अपने मोबाइल पर सब एप डाउनलोड कर रखे थे और बेटे के कार्ड से कनैक्ट थे. इसलिए पेमैंट की कोई दिक्कत तो थी नहीं. चाय पीते हुए जब उन्होंने अपनी बड़ी बहू के खिलाफ उस के कान भरने की कोशिश जारी रखी, तो कविता का मन अंदर से खिन्न सा बना रहा.

कुछ देर बाद आरती ने अपनी बेटी और दामाद के बारे में बोलना शुरू किया, ‘‘आजकल मनोज ज्यादा पीने लगा है और पी कर अंजु से झगड़ा भी बहुत करता है. मैं सोच रही हूं कि परसो उन्हें डिनर पर बुला लूं. अरुण और तुम से मनोज की अच्छी पटती है. तुम दोनों उसे समझना कि वह शराब कम पीया करे,’’ अपनी बेटी के बारे में बात करते हुए तेजतर्रार आरती असहाय और दुखी सी नजर आ रही थीं.

‘जितनी फिक्र इन्हें अपनी बेटी की है, उतनी अपनी बहुओं की क्यों नहीं करतीं? तेज मां की तेज बेटी दुख तो पाएगी ही,’ ऐसी बातें सोचते हुए कविता ने अपनेआप को जब ज्यादा खुश महसूस नहीं किया, तो मन ही मन उसे हैरानी हुई.

‘‘अंजु दीदी अगर अपना गुस्सा कुछ कम कर लें, तो जीजाजी के ऊपर बदलने के लिए दबाव बनाना आसान हो जाएगा, मम्मी,’’ कविता के मुंह से निकले इस वाक्य के साथ सासबहू के बीच अंजु के घरपरिवार की सुखशांति को ले कर लंबा वार्त्तालाप शुरू हो गया.

उस रात सोने से पहले कविता को शादी के बाद गुजरे 4 महीनों में पहली बार यह एहसास हुआ कि उस की कठोर और निर्दयी नजर आने वाली सास अपनी बेटी के दुख में दुखी हो कर आंसू भी बहा सकती हैं. उस शाम पहली बार उस ने खुद को अपनी सास के काफी नजदीक भी महसूस किया.

सासबहू के संबंधों में अगले दिन से लगातार सुधार होने लगा. अपने पति, जेठ और ससुर को औफिस भेजने के बाद कविता ने आराम से अपनी सास के साथ बैठ कर नाश्ता किया. एक के बजाय दोनों ने 2 बार चाय पीने का लुत्फ  उठाया. फिर कपड़े धोने की मशीन लगाने का काम दोनों ने इकट्ठे किया.

दोपहर के खाने में आरती ने अपनी बहू को गोभी के परांठे बनाने सिखाए. खाना दोनों ने सीरियल देखते हुए खाया.

खाना खाने के बाद कविता सोफे पर और आरती तख्त पर आराम करने को ड्राइंगरूम में ही लेट गईं. दोनों में से किसी का भी मन अपने कमरे में जा कर बंद होने को नहीं था.

शाम को दोनों सब्जी खरीदने साथसाथ रिलायंस फ्रैश गईं. आरती ने अच्छी और सस्ती सब्जियां खरीदने की कला सिखाते हुए लंबा सा लैक्चर उसे दिया, पर कविता को उन की बातें उस शाम बुरी नहीं लगीं.

उस रात सासबहू को घुलमिल कर बातें करते देख कविता के पति अरुण ने उसे छेड़ा भी, ‘‘मां ने तुम्हें ऐसा क्या लालच दिया है जो इतना मीठा बोलने लगी हो तुम उन से? यह चमत्कार कैसे संभव हो रहा है, मैडम?’’

‘‘इस में कोई चमत्कार वाली बात नहीं है, जनाब. मुझे अपनी तरफ करने को आप की माताजी मुंह में गुड़ रख कर मुझ से बोल रही हैं… मीना भाभी को अलगथलग कर देने के लिए उन की तरफ से यह सारा नाटक चल रहा है,’’ कविता ने शरारती अंदाज में मुसकराते हुए अरुण को जानकारी दी.

‘‘किसी भी बहाने सही, पर इस घर में सुखशांति का माहौल तो बना. तुम तीनों के रोज शाम को सूजे मुंह देख कर दिमाग भन्ना जाया करता था.’’

‘‘भाभी के लौटने पर स्थिति फिर बदल जाएगी, सरकार. सासबहू को प्यार से आपस में हंसतेबोलते देखने का मजा बस कुछ दिनों तक

ही और ले सकते हैं आप इस घर में,’’ अपने

इस मजाक पर कविता खुद ही ठहाका मार कर हंसी तो अरुण बुरा सा मुंह बना कर बस जरा

सा मुसकराया.

अगले दिन शाम को अंजु और मनोज के साथ सब का समय बड़ा अच्छा गुजरा. आरती अपनी छोटी बहू की तारीफ करने का कोई मौका नहीं चूकी थीं. ननदभाभी पहली बार खुल कर खूब हंसीबोलीं. मांबेटी दोनों ने कविता का काम में पूरा हाथ बंटाया.

अगले दिन आरती ने कविता के साथ एक सहेली की तरह गपशप करी. उन्होंने अपनी सास के बारे में बहुत सी कहानियां उसे सुनाईं.

‘‘अपनी सास के सामने मैं जोर से सांस भी नहीं ले सकती थी, बहू. सुबह 4 बजे उठ कर हाथ से नल से बीसियों बालटी पानी भरना पड़ता था. फिर नहाधो कर पूरे 8 आदमियों का नाश्ता और खाना बनाना होता है. घर का काम देर रात को खत्म होता. तारीफ के शब्द सुनने की बात तो दूर रही, घर के छोटेबड़े मुझ पर हाथ उठाने से भी परहेज नहीं करते थे,’’ वे लोग तब हाल ही में गांव से कसबे में आए थे और आरती की सास यानी अरुण के दादादादी रीतिरिवाज मानो संदूक में पैक कर ले आए हों. आरती को एडजस्ट करने में बहुत समय लगा था. आरती ये बाते इस अंदाज में सुना रही थीं मानो अपने ससुराल वालों की बढ़ाई कर रही हों.

कविता ने भी शादी से पहले अपनी जिंदगी में घटी कई दिलचस्प घटनाएं उन्हें सुनाईं. इस में कोई शक नहीं कि सास और बहू इस 1 सप्ताह में एकदूसरे के काफी करीब आ गई थीं.

मीना की वापसी होने से 1 दिन पहले आरती ने कविता को अकेले में अपने

पास बैठा कर बड़े प्यार से समझया, ‘‘तुम स्वभाव की अच्छी और समझदार औरत हो, बहू बस, तुम मीना के बहकावे में आना बंद कर दो. उस की शह पर जब तुम मुझ से बहस और झगड़ा करती हो, तो मेरा मन बड़ा दुखता है. उस की तरह अगर तुम ने भी मेरी बेइज्जती करने की आदत डाल ली, तब मेरी जिंदगी तो नर्क बन जाएगी.’’

‘‘मम्मी, आप प्लीज आंसू मत बहाओ. उन के लौटने पर हम सब मिल कर कोशिश करेंगे कि घर का माहौल हंसीखुशी से भरा रहे,’’ अपनी सास को ऐसा दिलासा देते हुए कविता की आंखों में भी आंसू भर आए.

उस रात कविता को जल्दी से नींद नहीं आई. कुछ सवाल लगातार उस के मन में चक्कर काटे जा रहे थे.

‘नजदीक से जानने का मौका मिला तो मेरी सास दिल की वैसी बुरी जरा भी नहीं निकलीं जैसी मैं उन्हें अब तक समझती आई थी. मीना भाभी तो पहले दिन से मेरे हित और खुशियों का ध्यान रख रही हैं. जब इन दोनों के दिल में कोमल भावनाएं मौजूद हैं, तो इन के आपसी संबंध इतने ज्यादा खराब क्यों हैं? मेरे दिल में सासुजी को ले कर जो गुस्सा, नफरत और डर बैठा था वह सप्ताह भर में किन कारणों से गायब हो गया है? घर में बना सुखशांति का माहौल क्या मीना भाभी के लौट आने पर बरकरार नहीं रखा जा सकता है?’ ऐसे सवालों के सही उत्तर पाने के लिए कविता ने देर रात तक माथापच्ची करी.

अगले दिन रविवार की सुबह मीना अपने बेटे के साथ

सुबह 10 बजे के करीब घर लौटी और घंटे भर बाद ही आरती और उन के बीच तेज लड़ाई हो गई.

मीना की कमर में सफर के दौरान झटका लग जाने से दर्द हो रहा था. वह काम में लगने के बजाय जब अपने कमरे में जा कर लेट गई, तो आरती ने उसे बहुत सारी जलीकटी बातें सुना दीं.

जब ससुर और जेठ ने अपनीअपनी पत्नी को ऊंची आवाज में बहुत जोर से डांटा, तब कहीं जा कर घर में शांति कायम हुई.

आरती ने रसोई में आ कर कविता से मीना की बुराई करनी शुरू कर दी, ‘‘बहू, देखा कितनी लंबी जबान है इस की. मैं ने इसे घर से अलग करने का फैसला कर लिया है.’’

कविता ने कोई प्रतिक्रिया दर्शाने के बजाय उन से सहज स्वर में पूछा, ‘‘मम्मी, आज अरहर की दाल बना लें?’’

‘‘देख लेना एक दिन टैंशन के कारण मेरे दिमाग की कोई नस जरूर फट जाएगी.’’

‘‘आप इस पतीले में दाल निकालो, तब तक मैं दही जमा देती हूं.’’

आरती ने एक बार को तो उसे गुस्से से घूरा, पर फिर कड़वे शब्द मुंह से निकाले बिना डब्बे से दाल निकालने के काम में लग गईं.

शायद नाराज हो जाने के कारण उन्होंने अपनी छोटी बहू से फिर कोई बात नहीं करी.

कविता जब कुछ देर बाद चाय का कप ले कर मीना के कमरे में गई, तो उस ने आरती के खिलाफ  जहर उगलना शुरू कर दिया, ‘‘पता

नहीं कब इस खूंखार औरत से हमारा पीछा छूटेगा. मुझे एक वक्त का खाना खाना मंजूर है, पर मैं अब इस घर में नहीं बल्कि किराए के मकान में रहूंगी.’’

‘‘अब गुस्सा थूक कर यह बताओ कि आप मेरे लिए क्या लाई हो?’’ कविता ने वार्त्तालाप का विषय बदल दिया.

‘‘इन्हें बहुत घमंड है अपनी धनदौलत का, पर मुझे इन से 1 फूटी कौड़ी भी नहीं चाहिए.’’

‘‘आप कहीं घूमने भी गईं या सारा समय घर पर ही रहीं?’’

‘‘अभी मुझ से कुछ मत पूछ, कविता. तुम्हारे पास दर्द की कोई गोली पड़ी हो तो देना. शाम को मेरे साथ डाक्टर के यहां चलोगी?’’

‘‘जरूर चलूंगी, भाभी. आप चाय पीना शुरू करो, मैं आप के लिए गोली ले कर आती हूं.’’

कविता को मीना ने अजीब सी नजरों से देखा. उन्हें अपनी देवरानी बदली सी लग रही थी. वह उस में आए बदलाव को समझ कर कुछ कह पाती, उस से पहले ही कविता कमरे से बाहर चली गई.

आरती और मीना ने बहुत कोशिश करी, पर कविता के मुंह से किसी की तरफदारी करते हुए 1 शब्द भी नहीं निकला. इस कारण वे दोनों ही शाम तक यह सोच कर उस से नाराज रहीं कि वह ‘हां में हां’ न मिला कर दूसरी पार्टी की तरफ हो गई है.

आरती और मीना के बीच उस दिन कई बार झड़प हुई, पर कविता का मन जरा से भी तनाव का शिकार नहीं बना. पहले की तरह न उसे सिरदर्द ने सताया, न भूख और नींद पर बुरा असर पड़ा.

शाम को मीना भी काम में हाथ बटाने के लिए रसोई में आ गई. वह और आरती दोनों ही उसे संबोधित करते हुए बातें कर रही थीं. एक ही अनुपस्थिति में जब दूसरी उस की बुराई करना शुरू करती, तो कविता फौरन ही बात को किसी और दिशा में मोड़ देती.

उस के इस बदले व्यवहार की बदौलत रसोई में आरती और मीना के बीच टकराव की

स्थिति विस्फोटक नहीं होने पाई. कुछ देर बाद तो वे दोनों आपस में सीधे बात भी करने लगीं, तो उन की नजरों से छिप कर कविता प्रसन्न भाव से मुसकरा उठी.

पिछली रात देर तक जाग कर वह जिस निष्कर्ष पर पहुंची थी, उस पर उस ने आज का नतीजा देख कर सही होने का ठप्पा लगा दिया.

‘आपसी झगड़े बहुत कम देर चलते हैं, पर उन की चर्चा कितनी भी लंबी खींची जा सकती है. हर वक्त ऐसी चर्चा करते रहने से मन में उन की यादों की जड़ें मजबूत होती जाती हैं. इस कारण मन में दूसरे व्यक्ति के लिए झगड़ा समाप्त होने के बाद भी बहुत देर तक वैरभाव बना रहता है और नया झगड़ा शुरू होने की संभावना भी बढ़ जाती है.

‘इस तरह की चर्चा करने में कहने और सुनने वाले को रस तो आता है, पर यह रस आपसी संबंधों के लिए जहरीला साबित होता है. जब भी मेरे सामने ऐसी चर्चा शुरू होगी, मैं फौरन कोई और बात आरंभ कर दिया करूंगी. मेरे ऐसे व्यवहार के लिए मुझे कोई भला कहे या बुरा, मुझे परवाह नहीं.’ ऐसा फैसला कर के कविता देर रात को सोई और आज अपने मन को प्रसन्न व हलकीफुलकी अवस्था में पा कर वह अपने फैसले पर उस के सही होने की मुहर पूरे विश्वास के साथ लगा सकती थी.

खाली हाथ : जातिवाद के चलते जब प्रेमी अनुरोध पहुंचा पागलखाने

आगरापूरी दुनिया में ‘ताजमहल के शहर’ के नाम से मशहूर है. इसी शहर में स्थित है मानसिक रोगियों के उपचार के लिए मानसिक स्वास्थ्य संस्थान एवं चिकित्सालय. इस संस्थान को कई भारतीय हिंदी फिल्मों में प्रमुखता से दिखाया गया है, हालांकि सच्चाई यह है कि न जाने कितनी भयानक और दुखद कहानियां दफन हैं इस की दीवारों में. आरोही को इस संस्थान में आए 2 महीने ही हुए थे. वह मनोचिकित्सक थी. इस के पहले वह कई निजी अस्पतालों में काम कर चुकी थी. अपनी काबिलीयत और मेहनत के बल पर उस का चयन सरकारी अस्पताल में हो गया था. उस से ज्यादा उस का परिवार इस बात से बहुत खुश था. वैसे भी भारत में आज भी खासकर मध्य वर्ग में सरकारी नौकरी को सफलता का सर्टिफिकेट माना जाता है. आरोही अपना खुद का नर्सिंगहोम खोलना चाहती थी. इस के लिए सरकारी संस्थान का अनुभव होना फायदेमंद रहता है. इसी वजह से वह अपनी मोटी सैलरी वाली नौकरी छोड़ कर यहां आ गई थी.

वैसे आरोही के घर से दूर आने की एक वजह और भी थी. वह विवाह नहीं करना चाहती थी और यह बात उस का परिवार समझने को तैयार नहीं था. यहां आने के बाद भी रोज उस की मां लड़कों की नई लिस्ट सुनाने के लिए फोन कर देती थीं. जब आरोही विवाह करना चाहती थी तब तो जातबिरादरी की दीवार खड़ी कर दी गई थी और अब जब उस ने जीवन के 35 वसंत देख लिए और उस के छोटे भाई ने विधर्मी लड़की से विवाह कर लिया तो वही लोग उसे किसी से भी विवाह कर लेने की आजादी दे रहे हैं. समय के साथ लोगों की प्राथमिकता भी बदल जाती है. आरोही उन्हें कैसे समझाती कि-

‘सूखे फूलों से खुशबू नहीं आती, किताबों में बंद याद बन रह जाते हैं’ या ‘नींद खुलने पर सपने भी भाप बन उड़ जाते हैं.’

‘‘मैडम,’’

‘‘अरे लता, आओ.’’

‘‘आप कुछ कर रही हैं तो मैं बाद में आ जाती हूं.’’

आरोही ने तुरंत अपनी डायरी बंद कर दी और बोली, ‘‘नहींनहीं कुछ नहीं. तुम बताओ क्या बात है?’’

‘‘216 नंबर बहुत देर से रो रहा है. किसी की भी बात नहीं सुन रहा. आज सिस्टर तबस्सुम भी छुट्टी पर हैं इसलिए…’’

‘‘216 नंबर… यह कैसा नाम है?’’

‘‘वह… मेरा मतलब है बैड नंबर 216.’’

‘‘अच्छा… चलो देखती हूं.’’

चलतेचलते ही आरोही ने जानकारी के लिए पूछ लिया, ‘‘कौन है?’’

‘‘एक प्रोफैसर हैं. बहुत ही प्यारी कविताएं सुनाते हैं. बातें भी कविताओं में ही करते हैं. वैसे तो बहुत शांत हैं, परेशान भी ज्यादा नहीं करते हैं, पर कभीकभी ऐसे ही रोने लगते हैं.’’

‘‘सुनने में तो बहुत इंटरैस्टिंग कैरेक्टर लग रहे हैं.’’

कमरे में दाखिल होते ही आरोही ने देखा कोई 35-40 वर्ष का पुरुष बिस्तर पर अधलेटा रोए जा रहा था.

‘‘सुनो तुम…’’

‘‘आप रुकिए मैडम, मैं बोलती हूं…’’

‘‘हां ठीक है… तुम बोलो.’’

‘‘अनुरोध… रोना बंद करो. देखो मैडम तुम से मिलने आई हैं.’’

इस नाम के उच्चारण मात्र से आरोही परेशान हो गई थी. मगर जब वह पलटा तो सफेद काली और घनी दाढ़ी के बीच भी आरोही ने अनुरोध को पहचान लिया. उस की आंखों के सामने अंधेरा छा गया और वह चेतनाशून्य हो कर वहीं गिर गई. होश आने पर वह अपने क्वार्टर में थी. उस के आसपास हौस्पिटल का स्टाफ खड़ा था. सीनियर डाक्टर भी थे.

‘‘तुम्हें क्या हो गया था आरोही?’’ डाक्टर रमा ने पूछा.

‘‘अब कैसा फील कर रही हो?’’ डाक्टर सुधीर के स्वर में भी चिंता झलक रही थी.

‘‘हां मैडम, मैं तो डर ही गई थी… आप को बेहोश होता देख वह पेशैंट भी अचानक चुप हो गया था.’’

‘‘मुझे माफ करना लता और आप सब भी, मेरी वजह से परेशान हो गए…’’

‘‘डोंट बी सिली आरोही. तुम अब

आराम करो हम सब बाद में आते हैं,’’ डाक्टर सुधीर बोले.

‘‘जी मैडम, और किसी चीज की जरूरत हो तो आप फोन कर देना.’’

उन के जाने बाद आरोही ने जितना सोने की कोशिश की उतना ही वह समय उस के सामने जीवंत हो गया, जब आरोही और अनुरोध साथ थे. आरोही और अनुरोध बचपन से साथ थे. स्कूल से कालेज का सफर दोनों ने साथ तय किया था. कालेज में भी उन का विषय एक था- मनोविज्ञान. इस दौरान उन्हें कब एकदूसरे से प्रेम हो गया, यह वे स्वयं नहीं समझ पाए थे. घंटों बैठ कर भविष्य के सपने देखा करते थे. देशविदेश पर चर्चा करते थे. समाज की कुरीतियों को जड़ से मिटाने की बात करते थे. मगर जब स्वयं के लिए लड़ने का समय आया, सामाजिक आडंबर के सामने उन का प्यार हार गया. एक दलित जाति का युवक ब्राह्मण की बेटी से विवाह का सपना भी कैसे देख सकता था. अपने प्रेम के लिए लड़ नहीं पाए थे दोनों और अलग हो गए थे.

आरोही ने तो विवाह नहीं किया, परंतु 4-5 साल के बाद अनुरोध के विवाह की खबर उस ने सुनी थी. उस विवाह की चर्चा भी खूब चली थी उस के घर में. सब ने चाहा था कि आरोही को भी शादी के लिए राजी कर लिया जाए, परंतु वे सफल नहीं हो पाए थे. आज इतने सालों बाद अनुरोध को इस रूप में देख कर स्तब्ध रह गई थी वह. अगले दिन सुबह ही वह दोबारा अनुरोध से मिलने उस के कमरे में गई.

आज अनुरोध शांत था और कुछ लिख भी रहा था. हौस्पिटल की तरफ से उस की इच्छा का सम्मान करते हुए उसे लिखने के लिए कागज और कलम दे दी गई थी. आज उस के चेहरे से दाढ़ी भी गायब थी और बाल भी छोटे हो गए थे.

‘‘अनु,’’ आरोही ने जानबूझ कर उसे उस नाम से पुकारा जिस नाम से उसे बुलाया करती थी. उसे लगा शायद अनुरोध उसे पहचान ले.

उस ने एक नजर उठा कर आरोही को देखा और फिर वापस अपने काम में लग गया. पलभर को उन की नजरें मिली अवश्य थीं पर उन नजरों में अपने लिए अपरिचित भाव देख कर तड़प गई थी आरोही, मगर उस ने दोबारा कोशिश की, ‘‘क्या लिख रहे हो तुम?’’

उस की तरफ बिना देखे ही वह बोला-

‘सपने टूट जाते हैं, तुम सपनों में आया न करो, मुझे भूल जाओ और मुझे भी याद आया न करो.’

अनुरोध की दयनीय दशा और उस की अपरिचित नजरों को और नहीं झेल पाई आरोही और थोड़ा चैक करने के बाद कमरे से बाहर निकल गई. मगर वह स्वयं को संभाल नहीं पाई और बाहर आते ही रो पड़ी. अचानक पीछे से किसी ने उस के कंधे पर हाथ रखा, ‘‘आप अनुरोध को जानती हैं मैडम?’’

पीछे पलटने पर आरोही ने पहली बार देखा सिस्टर तबस्सुम को, जिन के बारे में वह पहले सुन चुकी थी. वे इकलौती थीं जिन की बात अनुरोध मानता भी था और उन से ढेर सारी बातें भी करता था. कई सालों से वह सिस्टर तबस्सुम से काफी हिलमिल गया था.

‘‘मैं… मैं और अनुरोध…’’

‘‘शायद आप वही परी हैं जिस का इंतजार यह पगला पिछले कई सालों से कर रहा है. पिछले कई सालों में आज पहली बार मुसकराते हुए देखा मैं ने अनुरोध को. चलिए मैडम आप के कैबिन में चल कर बात करते हैं.’’

दोनों कैबिन में आ गईं. तबस्सुम का अनुरोध के प्रति अनुराग आरोही देख पा रही थी.

‘‘अनुरोध… ऐसा नहीं था. उस की ऐसी हालत कैसे हुई? क्या आप को कुछ पता है?’’ सिर हिला कर सिस्टर ने अनुरोध की दारुण कहानी शुरू की…

‘‘अनुरोध का चयन मेरठ के कालेज में मनोविज्ञान के व्याख्याता के पद पर हुआ था. इसी दौरान वह एक शादी में हिस्सा लेने मोदी नगर गया था, परंतु उसे यह नहीं पता था कि वह शादी स्वयं उसी की थी.

‘‘उस के मातापिता ने उस के लगातार मना करने से तंग आ कर उस का विवाह उस की जानकारी के बिना ही तय कर दिया था. शादी में बहुत कम लोगों को ही बुलाया गया था. मोदी नगर पहुंचने पर उस के पास विवाह करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था. अपने मातापिता के किए की सजा वह एक मासूम लड़की को नहीं दे सकता था और उस का विवाह विनोदिनी से हो गया.

‘‘विवाह के कुछ महीनों बाद ही विनोदिनी ने पढ़ाई के प्रति अपने लगाव को अनुरोध के सामने व्यक्त किया. अनुरोध सदा से स्त्री शिक्षा तथा स्त्री सशक्तीकरण का प्रबल समर्थक रहा था. खासकर उस के समुदाय में तो स्त्री शिक्षा की स्थिति काफी दयनीय थी. इसीलिए जब उस ने अपनी पत्नी के शिक्षा के प्रति लगाव को देखा तो अभिभूत हो गया.

‘‘विनोदिनी कुशाग्रबुद्धि तो नहीं थी, परंतु परिश्रमी अवश्य थी और उस की इच्छाशक्ति भी प्रबल थी. उस के मातापिता बहू की पढ़ाई के पक्षधर नहीं थे. विनोदिनी के मातापिता भी उसे आगे नहीं पढ़ाना चाहते थे, परंतु सब के खिलाफ जा कर अनुरोध ने उस का दाखिला अपने ही कालेज के इतिहास विभाग में करा दिया. विनोदिनी को हर तरह का सहयोग दे रहा था अनुरोध.

‘‘शादी के 1 साल बाद ही अनुरोध की मां ने विनोदिनी पर बच्चे के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया, परंतु यहां भी अनुरोध अपनी पत्नी के साथ खड़ा रहा. जब तक विनोदिनी की ग्रैजुएशन पूरी नहीं हुई, उन्होंने बच्चे के बारे में सोचा तक नहीं.

‘‘विनोदिनी प्रथम श्रेणी में पास हुई और उस के बाद उस ने पीसीएस में बैठने की अपनी इच्छा अनुरोध को बताई. उसे भला क्या ऐतराज हो सकता था. अनुरोध ने उस का दाखिला शहर के एक बड़े कोचिंग सैंटर में करा दिया. घर वालों का दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया था. पहले 2 प्रयास में सफल नहीं हो पाई थी विनोदिनी.

‘‘मगर अनुरोध उसे सदा प्रोत्साहित करता रहता. इसी दौरान विनोदिनी 1 बेटे की मां भी बन गई. परंतु बच्चे को दूध पिलाने के अलावा बच्चे के सारे काम अनुरोध स्वयं करता था. घर के काम और जब वह कालेज जाता था तब बच्चे को संभालने के लिए उस ने एक आया रख ली थी. कभीकभी उस की मां भी गांव से आ जाती थीं. बेटे के इस फैसले से सहमत तो वे भी नहीं थीं, परंतु पोते से उन्हें बहुत लगाव था.

‘‘चौथे प्रयास के दौरान तो विनोदिनी को जमीन पर पैर तक रखने नहीं दिया था अनुरोध ने. अनुरोध की तपस्या विफल नहीं हुई थी. विनोदिनी का चयन पीसीएस में डीएसपी के पद पर हो गया था. वह ट्रेनिंग के लिए मुरादाबाद चली गई. उस समय उन का बेटा अमन मात्र 4 साल का था.

‘‘अनरोध ने आर्थिक और मानसिक दोनों तरह से अपना सहयोग विनोदिनी को दिया. लोगों की बातों से न स्वयं आहत हुआ और न अपनी पत्नी को होने दिया. उस ने विनोदिनी के लिए वह किया जो उस के स्वयं के मातापिता नहीं कर पाए. सही मानों में फैमिनिस्ट था अनुरोध. स्त्रीपुरुष के समान अधिकारों का प्रबल समर्थक.

‘‘जब विनोदिनी की पहली पोस्टिंग अलीगढ़ हुई तो लगा कि उस की समस्याओं का अंत हुआ. अब दोनों साथ रह कर अपने जीवनपथ पर आगे बढ़ेंगे, परंतु वह अंत नहीं आरंभ था अनुरोध की अंतहीन पीड़ा का.

‘‘विनोदिनी के जाने के बाद अनुरोध अपना तबादला अलीगढ़ कराने में लग गया. अमन को भी वह अपने साथ ही ले गई थी. अनुरोध को भी यही सही लगा था कि बच्चा अब कुछ दिन मां के साथ रहे और फिर उस का तबादला भी 6 महीने में अलीगढ़ होने ही वाला था. सबकुछ तय कर रखा था उस ने परंतु नियति ने कुछ और ही तय कर रखा था उस के लिए.

‘‘विनोदिनी का व्यवहार समय के साथ बदलता चला गया. पद के घमंड में अब वह अनुरोध का अपमान भी करने लग गई थी. उस ने तो मेरठ आना बंद ही कर दिया था, इसलिए अनुरोध को अपने बेटे से मिलने अलीगढ़ जाना पड़ता था. विनोदिनी के कटु व्यवहार का तो वह सामना कर लेता था, परंतु इस बात ने उसे विचलित कर दिया था कि उन के बीच के झगड़े का विपरीत असर उन के बेटे पर हो रहा था.

अब वह शीघ्र ही मेरठ छोड़ना चाहता था. डेढ़ साल बीत गया था, पर उस का तबादला नहीं हो पा रहा था.

‘‘‘प्रिंसिपल साहब, आखिर यह हो क्या रहा है? 6 महीनों में आने वाली मेरी पोस्टिंग, डेढ़ साल में नहीं आई. आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?’

‘‘‘अनुरोध तुम्हें तो पता है सरकारी काम में देर हो ही जाती है.’

‘‘‘जी सर… पर इतनी देर नहीं. मुझे तो ऐसा लगता है जैसे आप जानबूझ कर ऐसा नहीं होने दे रहे?’

‘‘‘अनुरोध…’

‘‘‘आप मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकते हैं सर? क्या हमारा रिश्ता आज का है?’

‘‘‘अनुरोध… कोई है जो जानबूझ कर तुम्हारी पोस्टिंग रोक रहा है.’

‘‘‘कौन?’

‘‘‘तुम्हें तो मैं बहुत समझदार समझता था, जानबूझ कर कब तक आंखें बंद रखोगे?’

‘‘‘क्या मतलब?’

‘‘‘गिरिराज सिंह और विनोदिनी…’

‘‘‘प्रिंसिपल साहब…’ चीख पड़ा अनुरोध.

‘‘अनुरोध के कंधे पर हाथ रख कर प्रिंसिपल साहब बोले,…

‘बेटा, विश्वास करना अच्छी बात है, परंतु अंधविश्वास मूर्खता है. अपनी नींद से जागो.’

‘‘विनोदिनी के बारे में ऐसी बातें अनुरोध ने पहली बार नहीं सुनी थीं, परंतु वह ऐसी सुनीसुनाई बातों पर यकीन नहीं करता था. उसे लगता था कि विनोदिनी बददिमाग, बदतमीज और घमंडी हो सकती है परंतु चरित्रहीन नहीं.

‘‘2 महीने की छुट्टी ले कर जिस दिन वह अलीगढ़ पहुंचा, घर पर ताला लगा था. वहां पर तैनात सिपाही से पता चला कि मैडम नैनीताल घूमने गई हैं. मगर विनोदिनी ने अनुरोध को इस बारे में कुछ नहीं बताया था.

‘‘7 दिन बाद लौटी थी विनोदिनी परंतु अकेले नहीं, उस के साथ गिरिराज सिंह भी था.

‘‘‘कैसा रहा आप का टूर मैडम?’

‘‘‘उसे देख कर दोनों न चौंके न ही शर्मिंदा हुए. बड़ी बेशर्मी से वह आदमी सामने रखे सोफे पर ऐसे बैठ गया जैसे यह उस का ही घर हो.’

‘‘‘तुम कब आए?’

‘‘विनोदिनी की बात अनसुनी कर अनुरोध गिरिराज सिंह से बोला, ‘मुझे अपनी पत्नी से कुछ बात करनी है. आप इसी वक्त यहां से चले जाएं.’

‘‘‘यह कहीं नहीं जाएगा…’

‘‘‘विनोदिनी चुप रहो…’

‘‘मगर उस दिन गिरिराज सिंह नहीं अनुरोध निकाला गया था उस घर से. विनोदिनी ने हाथ तक उठाया था उस पर.

‘‘गिरिराज और विनोदिनी को लगा था कि इस के बाद अनुरोध दोबारा उन के रिश्ते पर आवाज उठाने की गलती नहीं करेगा, परंतु वे गलत थे.

‘‘टूटा जरूर था अनुरोध पर हारा नहीं था. वह जान गया था कि अब इस रिश्ते

में बचाने जैसा कुछ नहीं था. उसे अब केवल अपने अमन की चिंता थी. इसलिए वह कोर्ट में तलाक के साथ अमन की कस्टडी की अर्जी भी दायर करने वाला था. इस बात का पता लगते ही विनोदिनी ने पूरा प्रयास किया कि वह ऐसा न करे. उन के लाख डरानेधमकाने पर भी अनुरोध पीछे नहीं हटा था. एक नेता और अधिकारी का नाम होने के कारण मीडिया भी इस खबर को प्रमुखता से दिखाने वाली है. इस बात का ज्ञान उन दोनों को था.

‘‘गिरिराज सिंह को अपनी कुरसी और विनोदिनी को अपनी नौकरी की चिंता सताने लगी थी. इसीलिए कोर्ट के बाहर समझौता करने के लिए विनोदिनी ने उसे अपने घर बुलाया.

‘‘जब अनुरोध वहां पहुंचा घर का दरवाजा खुला था. घर के बाहर भी कोई नजर नहीं आ रहा था. जब बैल बजाने पर भी कोई नहीं आया तो उस ने विनोदिनी का नाम ले कर पुकारा. थोड़ी देर बाद अंदर से एक पुरुष की आवाज आई, ‘इधर चले आइए अनुरोध बाबू.’

‘‘अनुरोध ने अंदर का दरवाजा खोला तो वहां का नजारा देख कर वह हैरान रह गया. बिस्तर पर विनोदिनी और गिरिराज अर्धनग्न लेटे थे. उसे देख कर भी दोनों ने उठने की कोशिश तक नहीं की.

‘‘‘क्या मुझे अपनी रासलीला देखने बुलाया है आप लोगों ने?’

‘‘‘नहींजी… हा… हा… हा… आप को तो एक फिल्म में काम देने बुलाया है.’

‘‘‘क्या मतलब?’

‘‘‘हर बात जानने की जल्दी रहती है तुम्हें… आज भी नहीं बदले तुम,’ विनोदिनी ने कहा.

‘‘‘मतलब समझाओ भई प्रोफैसर साहब को.’’

‘‘इस से पहले कि अनुरोध कुछ समझ पाता उस के सिर पर किसी ने तेज हथियार से वार किया. जब उसे होश आया उस ने स्वयं को इसी बिस्तर पर निर्वस्त्र पाया. सामने पुलिस खड़ी थी और नीचे जमीन पर विनोदिनी बैठी रो रही थी.

‘‘कोर्ट में यह साबित करना मुश्किल नहीं हुआ कि विनोदिनी के साथ जबरदस्ती हुई है. इतना ही नहीं यह भी साबित किया गया कि अनुरोध एक सैक्सहोलिक है और उस का बेटा तक उस के साथ सुरक्षित नहीं है, क्योंकि अपनी इस भूख के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है. विनोदिनी के शरीर पर मारपीट के निशान भी पाए गए. अनुरोध के मोबाइल पर कई लड़कियों के साथ आपत्तिजनक फोटो भी पाए गए.

‘‘उस पर घरेलू हिंसा व महिलाओं के संरक्षण अधिनियम कानून के अनुसार केस दर्ज किया गया. उस पर बलात्कार का भी मुकदमा दर्ज किया गया. मीडिया ने भी अनुरोध को एक व्यभिचारी पुरुष की तरह दिखाया. सोशल नैटवर्किंग साइट पर तो बाकायदा एक अभियान चला कर उस के लिए फांसी की सजा की मांग की गई. कोर्ट परिसर में कई बार उस के मातापिता के साथ बदसुलूकी भी की गई.

‘‘अनुरोध के मातापिता का महल्ले वालों ने जीना मुश्किल कर दिया था. जिस दिन कोर्ट ने अनुरोध के खिलाफ फैसला सुनाया उस के काफी पहले से उस की मानसिक हालत खराब होनी शुरू हो चुकी थी. लगातार हो रहे मानसिक उत्पीड़न के साथ जेल में हो रहे शारीरिक उत्पीड़न ने उस की यह दशा कर दी थी. फैसला आने के 10 दिन बाद ही अनुरोध के मातापिता ने आत्महत्या कर ली और अनुरोध को यहां भेज दिया गया. एक आदर्शवादी होनहार लड़के और उस के खुशहाल परिवार का ऐसा अंत…’’

कुछ देर की खामोशी के बाद तबस्सुम फिर बोलीं, ‘‘मैडम, मैं मानती हूं कि घरेलू हिंसा का सामना कई महिलाओं को करना पड़ता है. इसीलिए स्त्रियों की रक्षा हेतु इस कानून का गठन किया गया था.

‘‘परंतु घरेलू हिंसा से पीडि़त पुरुषों का क्या? उन पर उन की स्त्रियों द्वारा की गई मानसिक और शारीरिक हिंसा का क्या?

‘‘अगर पुरुष हाथ उठाए तो वह गलत… नामर्द, परंतु जब स्त्री हाथ उठाए तो क्या? हिंसा कोई भी करे, पुरुष अथवा स्त्री, पति अथवा पत्नी, कानून की नजरों में दोनों समान होने चाहिए. जिस तरह पुरुष द्वारा स्त्री पर हाथ उठाना गलत है उसी प्रकार स्त्री द्वारा पुरुष पर हाथ उठाना भी गलत होना चाहिए. परंतु हमारा समाज तुरंत बिना पूरी बात जाने पुरुष को कठघरे में खड़ा कर देता है.

‘‘ताकतवार कानून स्त्री की सुरक्षा के लिए बनाए गए परंतु आजकल विनोदिनी जैसी कई स्त्रियां इस कानून का प्रयोग कर के अपना स्वार्थ सिद्ध करने लगी हैं.

‘‘वैसे तो कानून से निष्पक्ष रहने की उम्मीद की जाती है, परंतु इस तरह के केस में ऐसा हो नहीं पाता. वैसे भी कानून तथ्यों पर आधारित होता है और आजकल पैसा और रसूख के बल पर तथ्यों को तोड़ना और अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना आम बात हो गई है. जिस के पास पैसा और ताकत है कानून भी उस के साथ है.

‘‘हां, सही कह रही हैं आप तबस्सुम. अनुरोध जैसे मर्द फैमिनिज्म का सच्चा अर्थ जानते हैं. वे जानते हैं कि स्त्री और पुरुष दोनों एकसमान है. न कोई बड़ा, न कोई छोटा. इसलिए गलत करने पर सजा भी एकसमान होनी चाहिए.

‘‘मगर विनोदिनी जैसी कुछ स्त्रियां नारीवाद का गलत चेहरा प्रस्तुत कर रही हैं,’’ लता के अचानक आ जाने से दोनों की बातचीत पर विराम लग गया.

‘‘माफ कीजिएगा वह बैड नंबर 216 को खाना देना था.’’

‘‘अरे हां… तुम चलो मैं आती हूं. चलती हूं मैडम अनुरोध को खाना खिलाने का समय हो गया है.’’

‘‘मैं भी चलती हूं…’’

जब वे दोनों वहां पहुंचीं तो देखा अनुरोध अपने दोनों हाथों को बड़े ध्यान से निहार रहा  था. आरोही उस के पास जा कर बैठ गई. फिर पूछा, ‘‘क्या देख रहे हो? प्लीज कुछ तो बोलो.’’

कुछ नहीं बोला अनुरोध. उस की तरफ देखा तक नहीं.

सिस्टर तबस्सुम अनुरोध के सिर पर हाथ रख कर बोलीं, ‘‘बोलो बेटा, बताओ… तुम चिंता न करो कुदरत ने चाहा तो अब सब ठीक हो जाएगा.’’

इस बार वह उन की तरफ पलटा और फिर अपनी खाली हथेलियों को उन की तरफ फैलाते हुए बोला-

‘ऐ प्यार को मानने वालो, इजहार करना हमें भी सिखाओ. बंद करें हथेली या खोल लें इसे, खो गई हमारी छाया से हमें भी मिलवाओ…

अजी, काहे का कोमल मन: आरिव के साथ क्यों हुआ उसका झगड़ा

‘‘स्त्रीमन बहुत कोमल होता है. उसे किसी भी तरह की चोट नहीं पहुंचानी चाहिए, वह कभी मां बन कर तो कभी पत्नी बन कर, कभी बेटी बन कर सब के दुखसुख में शामिल रहती है. उस का हर रूप सम्मान के योग्य है,’’ ये महान वाक्य मेरे दिलदिमाग को हिला रहे थे. ये शब्द मुझे कांटे की तरह चुभ रहे थे. मैं बैडरूम में लेटा हुआ अपने फोन पर न्यूज पढ़ रहा था. थोड़ी देर पहले ही औफिस से आया था.

मेरी पत्नी रश्मि इस समय बच्चों आरिव और आन्या को होमवर्क करवा रही है और यही सब बड़ीबड़ी बातें समझ रही है. मैं ने अंदाजा लगाया शायद किसी कविता का भावार्थ समझ रही होगी.

तो बात यह है दोस्तो कि मैं यह अब तो नहीं मानता कि स्त्री मन कोमल होता है. जब मेरी नईनई शादी हुई थी, मैं कुछ दिन तो यह मानता रहा कि हाय, कैसी नाजुक सी होती हैं लड़कियां, कितना कोमल दिल होता है, जरा सा दिल दुखा नहीं कि आंसू बह जाते हैं, जब बच्चे हो गए तो धीरेधीरे लगा, अजी, काहे का कोमल मन. सब बकवास है. अपने काम से, अपनी मरजी से होता है इन का मन कोमल.

मुझे याद है जब एक बार अम्मांबाबूजी गांव से आए हुए थे. बच्चे उन के साथ हंसखेल कर बहुत खुश रहते थे. यहां लखनऊ में हम जिस फ्लैट में रहते हैं वह मैं ने तभी खरीदा था और मेरे पेरैंट्स हमारा घर देखने आए थे और बहुत खुश थे. आरिव पिताजी के साथ क्रिकेट खेलता और आन्या और अम्मां भी उन के साथ शामिल हो जातीं तो रश्मि के मन की कोमलता जाने कहां गायब हो जाती, मुझे घूरघूर कर कहती, ‘‘कितने दिन में जाएंगे तुम्हारे अम्मांबाबूजी?’’

मैं कहता, ‘‘यह तुम्हारे क्या होता है. तुम्हारे अम्मांबाबूजी नहीं हैं क्या?’’

‘‘जितना पूछा, उतना बताओ.’’

‘‘तुम्हें परेशानी क्या है?’’

‘‘बच्चों की पढ़ाई पर असर हो रहा है, सारा दिन उन दोनों के साथ खेलते रहते हैं.’’

‘‘सारा दिन कैसे खेलते हैं? आधे से ज्यादा दिन तो स्कूल में रहते हैं, फिर तुम उन्हें पढ़ाने बैठ जाती हो, अरे, इतना खेलना, खुश होना भी जरूरी है.’’

‘‘तुम्हें समझना बहुत मुश्किल है, कितना काम बढ़ जाता है मेरा, थक जाती हूं,’’ कहतेकहते आंखों से जब कुछ बूंदें छलक गईं तो मैं चौकन्ना हुआ खुद से कहा कि रजत भाई, संभल कर, हथियार उठा लिया गया है.

मैं ने जरा नम्र स्वर में कहा, ‘‘डार्लिंग, अम्मां तो तुम्हारा बहुत हाथ बटाती हैं. तुम जब बच्चों को पढ़ाती हो, अम्मां तो पूरा खाना खुशीखुशी बना देती हैं,’’ मेरा समय खराब था जो मैं ने आगे कह दिया, ‘‘उलटा जब तुम्हारे मम्मीपापा दिल्ली से आते हैं, इस से ज्यादा काम तो तुम तब करती हो, तुम्हारी मम्मी तो तुम्हारी इतनी हैल्प भी नहीं करतीं.’’

बस उस दिन मैं ने पहली बार कोमल मन को जैसे आग में धधकते देख लिया. फौरन आंखें पोंछ कर रश्मि गुर्राई, ‘‘आज तो कह दिया, आगे से कभी मेरे मम्मीपापा के बारे में इस तरह से बात मत करना वरना मुझ से बुरा कोई नहीं होगा.’’

मैं तो तभी समझ गया था कि हां रश्मि, शायद ही तुम से बुरा कोई और होगा. अपने पेरैंट्स का आना जैसे कोई त्योहार हो और मेरे पेरैंट्स के टाइम शक्ल पर बारह बजे रहते हैं. मैं ने फिर कहा, ‘‘क्यों परेशान हो रही हो डार्लिंग जैसे तुम्हारे पेरैंट्स, वैसे मेरे पेरैंट्स. मैं भी तो तुम्हारे पेरैंट्स के आने पर उन का ध्यान रखता हूं, दोनों ही सब को सम्मान दे सकते हैं न, परेशानी क्या है?’’

‘‘ये मेरे सास ससुर हैं, वे मेरे मम्मीपापा हैं. ये मुझे वैसा प्यार नहीं कर सकते जैसे मेरे पेरैंट्स मुझे करते हैं.’’

सब घर आ गए तो हमारी बात यहीं रुक गई. कुछ दिन रह कर मेरे अम्मांबाबूजी चले गए तो रश्मि का चेहरा फिर से तरोताजा रहने लगा. उस की सारी थकान दूर हो गई.

कुछ दिन ही बीते कि उस के पेरैंट्स 1 हफ्ते के लिए आ गए. वे हमेशा आ कर यही कहते हैं कि 1 हफ्ते से ज्यादा नहीं रहेंगें पर आज तक एक महीने से पहले कभी नहीं गए.

इन दिनों स्त्री के जिस कोमल मन की बात दुनिया करती है, वह मुझे इस समय देखने को मिलता है. रश्मि कहती है, ‘‘रजत, मम्मीपापा का ध्यान भैयाभाभी ठीक से नहीं रखते, मैं तो उन की बेटी हूं न, मेरा भी फर्ज है कि मैं कुछ दिन उन की सेवा करूं. बेटियों का मन बहुत कोमल होता है, रजत.’’

मैं अपने मन में ही कहता हूं, काहे का कोमल मन. बस अपने पेरैंट्स के लिए आती है कोमलता. घर की शांति के लिए समझदार पति अकसर कुछ बातें अपने मन में ही तो करते हैं.

भाई, इन के मन को कोमल तो तब कहा जाए न जब ये सब के साथ कोमल व्यवहार कर रही हों, सारी कोमलता अपने पेरैंट्स के लिए होती है, सारी मिठास उनके लिए. सासससुर कभी कुछ भी न कहें तो भी पता नहीं कैसे उन के साथ रहते हुए इस का चेहरा तना ही रहता है. न मन में कोमलता दिखती है, न तन पर. बच्चों को नानानानी से रोज वीडियो कौल करवाती है पर एक तो दादादादी से बच्चों को घुलनेमिलने नहीं देती कि कहीं बच्चों को उन से ज्यादा लगाव न हो जाए उस पर अगर कभी उन से बात करवाने के लिए कहता हूं तो दादा दादी से बात करवाते हुए बच्चों के सिर पर खड़ी रहती है.

ये स्त्री के कोमल मन की बातें मुझे झठी लगती हैं तो मैं क्या करूं. मैं तो खुली आंखों से उन का दूसरा रूप भी तो देखता हूं. अपनी सहेलियों के लिए कुछ खाना बनाना हो तो कभी फुरती देखी है इन की? कहीं दर्द नहीं होता इन्हें तब. अपने किसी रिश्तेदार या दोस्तों के लिए इन से खुशीखुशी कुछ बनवा कर देखिए, तबीयत कैसी नासाज हो जाती है. हाय, थक गई का गाना सुनिए फिर पूरा दिन.

एक दिन रश्मि मेड को डांट रही थी. वह महीने में 4 छुट्टियां कर चुकी थी. मैं

जानता हूं वह बेचारी दुखी है, पति है नहीं, बच्चे छोटे हैं. कोई बच्चा बीमार था तो वह काम पर नहीं आ पाई थी. मैं ने देखी उस समय रश्मि के मन की कोमलता. उसे बोल रही थी कि अब 5वीं छुट्टी ली तो वह पैसे काट लेगी. मैं ने अकेले में रश्मि को समझया कि ऐसी बात ठीक नहीं है, बच्चों की बीमारी में उसे डांटे न. फौरन मुझ पर चिल्लाई, ‘‘रजत, तुम्हें कुछ पता नहीं है. यह मेरे नर्म स्वभाव का फायदा उठा सकती है. झठ भी तो बोलती यह.’’

मुझे हंसी आ गई कि तुम्हारा नर्म स्वभाव?

रश्मि ने मुझे जैसे घूरा, मैं वहां से हट गया. इसी में मेरी भलाई थी. इसे क्या सचमुच यह लगता है कि इस का नर्म स्वभाव है? कहां हैं वे सब कवि, लेखक, जिन्होंने स्त्री मन की कोमलता पर पन्ने पर पन्ने काले कर दिए? क्या उन का रश्मि जैसियों से वास्ता नहीं पड़ा था क्या? फालतू में इतना चढ़ा गए इन्हें और रश्मि अकेली थोड़े ही है ऐसी. मेरी अम्मां को भी तो मेरे दादादादी पर अगर कभी गुस्सा आ जाता था तो मुझे बिना गलती के धुन कर रख देती थीं. बाद में भले ही लाड़ करतीं पर उस से क्या. पहले अम्मा, फिर रश्मि, अब आन्या भी जब बड़ी होगी तो यही सब तो करेगी.

अभी से आरिव के साथ झगड़ा होने पर उस के मन की कोमलता भी यदाकदा दिख ही जाती है, आरिव को पिटवाने के लिए अभी से वह सारे पैतरे आजमा लेती है. मैं किसी को कुछ नहीं कह रहा. बस, इन के मन की कोमलता इन के हाथ में होती है. ये जहां चाहें, वहां दिखाती हैं.

अजी छोडि़ए. काहे की कोमलता. सब एकजैसी हैं. समझ गया हूं इन्हें.

पंछी बन कर उड़ जाने दो: निशा को मौसी से क्या शिकायत थी

कालेज में वार्षिक उत्सव की तैयारियां जोरशोर से चल रही थीं. कार्यक्रम के आयोजन का जिम्मा मेरा था. मैं वहां व्याख्याता के तौर पर कार्यरत थी. कालेज में एक छात्र था राज, बड़ा ही मेधावी, हर क्षेत्र में अव्वल. पढ़ाईलिखाई के अलावा खेलकूद और संगीत में भी विशेष रुचि थी उस की. तबला, हारमोनियम, माउथ और्गन सभी तो कितना अच्छा बजाता था वह. सुर को बखूबी समझता था. सो, मैं ने अपना कार्यभार कम करने हेतु उस से मदद मांगते हुए कहा, ‘‘राज, यदि तुम जूनियर ग्रुप को थोड़ा गाना तैयार करवा दोगे तो मेरी बड़ी मदद होगी.’’

‘‘जी मैम, जरूर सिखाऊंगा और मुझे बहुत अच्छा लगेगा. बहुत अच्छे से सिखाऊंगा.’’

‘‘मुझे पूरी उम्मीद थी कि तुम से मुझे यही जवाब मिलेगा,’’ मैं ने कहा.

वह जीजान से जुट गया था अपने काम में. उस जूनियर गु्रप में मेरी अपनी भांजी निशा भी थी. मैं उस की मौसी होते हुए भी उस की सहेली से बढ़ कर थी. वह मुझ से अपनी सारी बातें साझा किया करती थी.

एक दिन निशा मेरे घर आईर् और बोली, ‘‘मौसी, यदि आप गलत न समझें तो एक बात कहूं?’’

मैं ने कहा ‘‘हां, कहो.’’

वह कहने लगी, ‘‘मौसी, मालूम है राज और पद्मजा के बीच प्रेमप्रसंग शुरू हो गया है.’’

मैं ने कहा, ‘‘कब से चल रहा है?’’

वह कहने लगी, ‘‘जब से राज ने जूनियर गु्रप को वह गाना सिखाया तब से.’’

मैं ने कहा, ‘‘तुम से किस ने कहा यह सब? क्या पद्मजा ने बताया?’’

निशा कहने लगी, ‘‘नहीं मौसी, उस ने तो नहीं बताया लेकिन अब तो उन दोनों की आंखों में ही नजर आता है, और सारे कालेज को पता है.’’

मैं ने कहा, ‘‘चल, अब बातें न बना.’’

उस के बाद से मैं देखती कि कई बार राज व पद्मजा साथसाथ होते और सच पूछो तो मुझे उन की जोड़ी बहुत अच्छी लगती. अच्छी बात यह थी कि राज और पद्मजा ने इस प्रेमप्रसंग के चलते कभी कोई अभद्रता नहीं दिखाई थी. मैं तो देख रही थी कि दोनों ही अपनीअपनी पढ़ाई में और ज्यादा जुट गए थे.

फिर एक दिन निशा आई और कहने लगी, ‘‘मौसी, वैलेंटाइन डे पर मालूम है क्या हुआ?’’

मैं ने कहा, ‘‘तू फिर से राज और पद्मजा के बारे में तो कुछ नहीं बताने वाली?’’

निशा बोली, ‘‘वही तो, मौसी, हम ने वैलेंटाइन डे पार्टी रखी थी. उस में राज और पद्मजा भी थे. सब लोग डांस कर रहे थे और सभी दोस्तों ने उन से बालरूम डांस करने के लिए कहा. राज शरमा गया था जबकि पद्मजा कहने लगी, ‘मैं क्यों करूं इस के साथ डांस. इस ने तो अभी तक मुझ से प्यार का इजहार भी नहीं किया.’

‘‘फिर क्या था मौसी, सब कहने लगे, राज, कह डाल, राज, कह डाल. और राज पद्मजा की आंखों में आंखें डाल कर कहने लगा, ‘आई लव यू, पद्मजा.’ उस के बाद उस ने एक ही नहीं, 7 अलगअलग भाषाओं में अपने प्यार का इजहार किया.’’

जब निशा मुझे उन की बातें बताती तो उस के चेहरे पर अलग ही चमक होती थी. खैर, वह चमक वाजिब भी थी, उस की उम्र ही ऐसी थी.

और एक बार निशा बताने लगी, ‘‘मौसी, मालूम है, पद्मजा राज को बहुत प्रेरित करती रहती है पढ़ाई के लिए और प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए. आप को बताऊं, पद्मजा क्या कहती है उस से?’’

मैं ने कहा, ‘‘जब इतना बता दिया तो यह भी बता दे, वरना तेरा तो पेट दुख जाएगा न.’’ सच पूछो तो मैं स्वयं भी जानना चाहती थी कि दोनों के बीच चल क्या रहा है.

वह कहने लगी, ‘‘मौसी, पद्मजा ने कहा, ‘राज, तुम इस बार वादविवाद प्रतियोगिता में जरूर भाग लोगे. जीतोगे भी मेरे लिए.’ फिर मौसी, राज ने प्रतियोगिता में भाग लिया और जीत भी गया और उस के बाद दोनों साथ में घूमने गए और पता है मौसी, राज अवार्ड के पैसों से उसे शौपिंग भी करवा के लाया.

‘‘पता है क्या लिया पद्मजा ने? चूडि़यां. मौसी, वह दक्षिण भारत से है न, वहां लड़कियां चूडि़यां जरूर पहनती हैं. तो राज ने उसे चूडि़यां दिलवाई हैं.’’

और राज की यह बात मेरे दिल को बहुत छू गई थी. मैं सोच रही थी कितना निर्मल और सच्चा प्यार है दोनों का. दोनों शायद एकदूसरे को आगे बढ़ाने में बड़े प्रेरक थे. ऐसा चलते 2 साल बीत गए और फेयरवैल का दिन आ गया. सभी छात्रछात्राएं एकदूसरे से विदा ले रहे थे.

राज मेरे पास आया, कहने लगा, ‘‘मैम, आप से विदा चाहते हैं, आप ने इन वर्षों में इतना लिखाया, पढ़ाया, आप को बहुतबहुत धन्यवाद.’’ वैसे तो मैं राज की अध्यापिका थी किंतु उस से पहले एक इंसान भी तो थी, सो, मैं ने कहा, ‘‘राज, तुम जैसे छात्र बहुत कम होते हैं. तुम अब सौफ्टवेयर इंजीनियर बन गए हो. सदा आगे बढ़ो. एक दिल की बात कहूं?’’

राज बोला, ‘‘जी, कहिए, मैम.’’ मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी और पद्मजा की जोड़ी बहुत ही अच्छी है. मुझे शादी में बुलाना न भूलना.’’ राज मुंह नीचे किए मुसकरा कर बोला, ‘‘जी मैम, जरूर.’’ और फिर वह चला गया.

यह सब हुए पूरे 8 वर्ष बीत गए और मैं अपने पति के साथ मसूरी घूमने आई हुई थी. वहां मैं ने होर्डिंग्स पर राज की तसवीरें देखीं, पता लगा कि उस का एक स्टेजशो है. मैं ने अपने पति से कह कर शो के टिकट मंगवा लिए और पहुंच गई हौल में शो देखने.

जैसे ही राज स्टेज पर आया, हौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. वह देखने में बहुत ही अच्छा लग रहा था. कुदरत ने उसे रंगरूप, कदकाठी तो दी ही थी, उस पर उस का आकर्षक व्यक्तित्व जैसे सोने पे सुहागा. उस के पहले गीत, ‘‘फिर वही शाम, वही गम, वही तनहाई है…’’ के साथ हौल में समां बंध गया था और जैसे ही शो खत्म हुआ, सभी लड़कियां उस का औटोग्राफ लेने पहुंच गईं. उन के साथ मैं भी स्टेज के पास जा पहुंची.

जैसे ही उस की नजर मुझ पर पड़ी, वह झट से पहचान गया और उसी अदब के साथ उस ने मुझे अभिवादन किया. अपने छात्र राज को इस मुकाम पर देख मेरी आंखों में खुशी के आंसू आ गए थे.

फिर राज और मैं कौफी पीने होटल के लाउंज में चले गए और सब से पहले मैं ने शिकायतभरे लहजे में कहा, ‘‘राज, बहुत नाराज हूं तुम से, तुम ने मुझे शादी में क्यों नहीं बुलाया? कहां है पद्मजा, कैसी है वह?’’

इतना सुनते ही राज की मुसकराती आंखों के किनारे नम हो गए थे. अपने आंसुओं को अपनी मुसकराहट के पीछे छिपाते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरी शादी नहीं हुई, मैम, पद्मजा मेरी नहीं हो सकी. उस की शादी कहीं और हो गई है.’’

मुझ से रहा न गया तो पूछ बैठी, ‘‘क्यों नहीं हुई तुम्हारी दोनों की शादी.’’ वह कहने लगा, ‘‘मैम, मैं उत्तर भारत से हूं और वह दक्षिण भारतीय. हमारी जाति भी एक नहीं, इसीलिए.’’

‘‘लेकिन कौन आजकल जातपांत मानता है, राज?’’ मैं ने कहा, ‘‘और फिर तुम दोनों तो इतने पढ़ेलिखे हो.’’

राज ने कहा, ‘‘मैम, मेरे मातापिता इस रिश्ते को ले कर बहुत खुश थे. मेरी मां ने तो बहू लाने की पूरी तैयारी भी कर ली थी. लेकिन पद्मजा के मातापिता इस रिश्ते को ले कर खुश नहीं थे और उन्होंने इनकार कर दिया था. मैं पद्मजा के मातापिता से बात करने भी गया था. उन से बात करने पर वे कहने लगे, ‘देखो राज, तुम एक समझदार और नेक इंसान लगते हो. हमें तुम्हारे में कोई कमी नजर नहीं आती. लेकिन हम अगर अपनी बेटी पद्मजा की शादी तुम से कर दें तो हमारी बिरादरी में हमारी नाक कट जाएगी. और वैसे भी हम ने अपनी ही बिरादरी का दक्षिण भारतीय लड़का ढूंढ़ रखा है. इसीलिए अच्छा होगा कि अब तुम पद्मजा को भूल ही जाओ.’ मैं ने उन से इतना भी कहा कि ‘क्या पद्मजा मुझे भुला पाएगी?’ तो वे कहने लगे, ‘वह हमारी बेटी है, हम उसे समझा लेंगे.’

‘‘मैं ने पद्मजा की तरफ देखा, वह बहुत रो रही थी. उस ने मुझ से हाथ जोड़ कर माफी मांगते हुए कहा, ‘जाओ राज, मैं अपने मातापिता की मरजी के खिलाफ तुम से शादी नहीं कर सकती.’ मैं क्या करता, मैम. बस, तब से ही इस दुनिया से जैसे दिल भर गया. किंतु क्या करूं मेरे भी तो अपने मातापिता के प्रति कुछ फर्ज हैं, बस, इसीलिए जिंदा हूं. बहुत मुश्किल से संभाला है मैं ने अपनेआप को.’’

वह कहता जा रहा था और उस के आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. उस का हाल सुन मेरी आंखों से भी आंसुओं की धारा बह चली थी.

राज का यह हाल देख मुझे बड़ा ही दुख हुआ. मैं मन ही मन सोच रही थी कि राज और पद्मजा का प्यार कोई कच्ची उम्र का प्यार नहीं था, न ही मात्र आकर्षण. दोनों ही परिपक्व थे. राज उस से शादी को ले कर सीरियस भी था. तभी तो वह पद्मजा के मातापिता से मिलने गया था. पद्मजा न जाने किस हाल में होगी.

खैर, मैं उस के लिए तो कुछ नहीं कह सकती. किंतु उस के मातापिता, क्यों उन्होंने अपनी बेटी से बढ़ कर जात, समाज, धर्म, प्रांत की चिंता की. यदि राज और पद्मजा 7 वर्ष एकसाथ एक ख्वाब को बुनते रहे तो क्या अपना परिवार नहीं बसा सकते थे. हम अपने बच्चों के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं, उन्हीं बच्चों की खुशियों को क्यों जात, बिरादरी, समाज की भेंट चढ़ा देते हैं? क्यों हम यह नहीं समझते कि प्यार और आकर्षण में बहुत फर्क होता है? यह 16 वर्ष की उम्र वाला मात्र आकर्षण नहीं था, यह सच्चा प्यार था जो आज राज की आंखों से आंसू बन कर बह निकला था. हम क्यों नहीं समझते कि समाज के नियम इंसान ने ही बनाए हैं और वे उस के हित में होने चाहिए न कि जाति, धर्म, भाषा की आड़ में इंसानों के बीच दीवार खड़ी करने के लिए.

बहरहाल, अब हो भी क्या सकता था. लेकिन, मैं इतना तो जरूर कहना चाहूंगी कि जिस तरह राज और पद्मजा का प्यार अधूरा रह गया सिर्फ इंसानों के बनाए झूठे नियम, समाज के कारण, उस तरह किन्हीं 2 प्यार करने वालों को अब कभी जुदा न कीजिए.

मैं यह भी कहना चाहूंगी कि कभी देखा है पंछियोें को? वे किस तरह अपने बच्चों को उड़ना सिखा कर स्वतंत्र छोड़ देते हैं. ताकि वे खुले आसमान में अपने पंख पसार सकें. और कितना सुंदर होता है वह दृश्य जब खुले आसमान में बादलों के संग पंछी उन्मुक्त उड़ान भरते हैं. तो हम इंसान क्यों प्रकृति के नियमों को ठुकरा अपने नियम बना अपने ही बच्चों को मजबूर कर देते हैं राज व पद्मजा की तरह आंसुओं संग जीने को क्यों न हम तोड़ दें वे नियम जो आज के युग में सिर्फ ढकोसले मात्र हैं? क्यों न हम उड़ जाने दें अपने बच्चों को उन्मुक्त आकाश में पंछियों की तरह?

एहसास: क्यों सास से नाराज थी निधि

मालती ने अलमारी खोली. कपड़े ड्राईक्लीनर को देने के लिए, सुबह ही अजय बोल कर गया था, ‘मां ठंड शुरू हो गई है. मेरे कुछ स्वेटर और जैकेट निकाल देना,’ कपड़े समेटते हुए उस की नजर कुचड़मुचड़ कर रखे शौल पर पड़ी. उस ने खींच कर उसे शैल्फ से निकाला. हलके क्रीम कलर के पश्मीना के चारों ओर सुंदर कढ़ाई का बौर्डर बना था. गहरे नारंगी और मैजेंटा रंग के धागों से चिनार के पत्तों का पैटर्न. शौल के ठीक बीचोंबीच गहरा दाग लगा था. शायद, चटनी या सब्जी के रस का था जो बहुत भद्दा लग रहा था.

यह वही शौल था जो उस ने कुछ साल पहले कश्मीर एंपोरियम से बड़े शौक से खरीदा था. प्योर पश्मीना था. अजय की बहू को मुंहदिखाई पर दूंगी, तब उस ने सोचा था. पर इतने महंगे शौल का ऐसा हाल देख कर उस ने माथा पीट लिया. हद होती है, किसी भी चीज की. निधि की इस लापरवाही पर बहुत गुस्सा आया. पिछले संडे एक रिश्तेदार की शादी थी, वहीं कुछ गिरगिरा दिया गया होगा खाना खाते वक्त, दाग लगा, सो लगा, पर महारानी से इतना भी न हुआ की ड्राईक्लीन को दे देती या घर आ कर साफ ही कर लेती.

तमीज नाम की चीज नहीं इस लड़की को. कुछ तो कद्र करे किसी सामान की. ऐसा अल्हड़पन कब तब चलेगा. मालती बड़बड़ाती हुई किचन में आई. किचन में काम कर रही राधा को उन्होंने शाम के खाने के लिए क्या बनाना है, यह बताया और कपड़ों को ड्राइंगरूम में रखे दीवान के ऊपर रख दिया. और फिर हमेशा की तरह शाम के अपने नित्य काम में लग गई.

देर शाम अजय और निधि हमेशा की तरह हंसतेबतियाते, चुहल करते घर में दाखिल हुए. ‘‘राधा, कौफी,’’ निधि ने आते ही आवाज दी और अपना महंगा पर्स सोफे पर उछाल कर सीधे बाथरूम की ओर बढ़ गई. अजय वहीं लगे दीवान पर पसर गया था. मालती टीवी पर कोई मनपसंद सीरियल देख रही थी, पर उस की नजरें निधि पर ही थीं. वह उस के बाथरूम से आने का इंतजार करने लगी. शौल का दाग दिमाग में घूम रहा था.

‘‘और मां, क्या किया आज?’’ जुराबें उतारते हुए अजय ने रोज की तरह मां के दिनभर का हाल पूछा. बेचारा कितना थक जाता है, बेटे की तरफ प्यार से देखते हुए उन्होंने सोचा और किचन में अपने हाथों से उस के लिए चाय बनाने चली गई. इस घर में, बस, वे दोनों ही चाय के शौकीन थे. निधि को कौफी पसंद थी.

निधि फ्रैश हो कर एक टीशर्ट और लोअर में अजय की बगल में बैठ कर कौफी के सिप लेने लगी. मालती उस की तरफ देख कर थोड़े नाराजगीभरे स्वर में बोली, ‘‘निधि, ड्राईक्लीन के लिए कपड़े निकाल दिए हैं. सुबह औफिस जाते हुए दे देना. तुम्हारे औफिस के रास्ते में ही पड़ता है तो मैं ने निकाल कर रख दिए,’’ मालती ने जानबू झ कर शौल सब से ऊपर दाग वाली तरफ से रखा था कि उस पर निधि की नजर पड़े.

‘‘ठीक है मां,’’ कह कर निधि अपने मोबाइल में मैसेज पढ़ने में बिजी हो गई. उस ने नजर उठा कर भी उन कपड़ों की तरफ नहीं देखा.

मालती कुनमुना कर रह गई. उस ने उम्मीद की थी की निधि कुछ नानुकुर करेगी कि नहीं, मैं नहीं दे पाऊंगी, टाइम नहीं है, औफिस के लिए लेट हो जाएगा वगैरहवगैरह. पर यहां तो उस के हाथ से एक और वाकयुद्ध का मौका निकल गया. हमेशा यही होता है, उस के लाख चाहने के बावजूद निधि का ठंडापन और चीजों को हलके में लेना मालती की शिकायतों की पोटली खुलने ही नहीं देता था.

मालती उन औरतों में खुद को शुमार नहीं करना चाहती थी जो बहू से बहाने लेले कर लड़ाई करे और बेटे की नजरों में खुद मासूम बनी रहे. वह खुद को आधुनिक सम झती थी और यही वजह थी कि अपनी तरफ से वह कोई राई का पहाड़ वाली बात नहीं उठाती थी. वैसे भी, घर में कुल जमा 3 प्राणी थे और चिकचिक उसे पसंद नहीं थी. पर कभीकभी वह निधि की आदतों से चिढ़ जाती थी. मालती को घर में बहू चाहिए थी जो सलीके से घरबाहर की जिम्मेदारी संभाले. पर यहां तो मामला उलटा था. ठीक है, उस ने सोचा, अगर किसी को कोई परवा नहीं तो मैं भी क्यों अपना खून जलाऊं, मैं भी दिखा दूंगी कि मु झे फालतू का शौक नहीं कि हर बात में इन के पीछे पड़ूं. इन की तरह मैं भी, वह क्या कहते हैं, कूल हूं.

अपनी इकलौती संतान को ले कर हर मां की तरह मालती के भी बड़े सपने थे. अजय को जौब मिली भी नहीं थी कि रिश्तेदारी में उस की शादी की बातें उठने लगीं. मालती खुद से कोई जल्दी में नहीं थी. पर कोई भाभी, चाची या पड़ोसिन अजय के लिए किसी न किसी लड़की का रिश्ता खुद से पेश कर देती. ‘अभी अजय की कौन सी उम्र निकली जा रही है. जरा सैटल हो जाने दो.’ यह कह कर वह लोगों को टरकाया करती.

पर दिल ही दिल में अपनी होने वाली बहू की एक तसवीर उस के मन में बन चुकी थी. चांद सी खूबसूरत, गोरी, पतली, नाजुक सी, सलीकेदार जो घर में खाना पकाने से ले कर हर काम में हुनरमंद हो. अब यह सब थोड़ा मुश्किल तो हो सकता है पर नामुमकिन नहीं. वह तो ऐसी लड़की ढूंढ़ कर रहेगी अपने लाड़ले के लिए. लेकिन उस की उम्मीदों के गुब्बारे को उस के लाड़ले ने ही फोड़ा था. एक दिन, निधि को घर ला कर.

उसे निधि का इस तरह घर पर आना बहुत अटपटा लगा था. क्योंकि अजय किसी लड़की को इस तरह से कभी घर ले कर नहीं आया था. वह बात अलग थी कि स्कूलकालेज के दोस्त  झुंड बना कर कभीकभार आ धमकते थे. जिस में बहुत सी लड़कियां भी होती थीं.

मालती को कभी अखरता नहीं था अजय के यारदोस्तों का आना. पर उस ने अपने लिए कोई लड़की पसंद कर ली थी, यह बात मालती को सपने में भी नहीं आई थी. उस का बेटा अपनी मां की पसंद से शादी करेगा, यही मालती को गुमान था. जिस दिन अजय ने बताया कि वह अपनी किसी खास दोस्त को उस से मिलाने ला रहा है, वह सम झ कर भी अनजान बनने का नाटक करती रही. एक बार भी नहीं पूछा अजय से कि आखिर इस बात का मतलब क्या है?

उस दिन शाम को अजय निधि को अपनी बाइक पर बिठा कर घर ले आया. मालती ने कनखियों से निधि को देखा. नहीं, नहीं, उस के सपनों में बसी बहूरानी के किसी भी सांचे में वह फिट नहीं बैठती थी. आते ही ‘नमस्ते आंटी’ बोल कर धम्म से सोफे पर पसर गई. निधि लगातार च्युइंगम चबा रही थी. बौयकट हेयर, टाइट जींस और टीशर्ट में उस की हलकी सी तोंद भी  झलक रही थी. अजय ने मालती को ऐसे देखा जैसे कोई बच्चा अपना इनाम का मैडल दिखा कर घरवालों के रिऐक्शन का इंतजार करता है.

मालती चायनाश्ता लेने किचन में चली गई. अजय उस के पीछेपीछे चला आया. मां के मन की टोह लेने कुछ मदद करने के बहाने. मालती बड़ी रुखाई से बिना कुछ कहे नमकीन बिस्कुट ट्रे में रखती गई और चाय ले कर बाहर आ गई. निधि बहुतकुछ बातें कर रही थी जिन्हें मालती अनमने मन से सुन रही थी. अजय को मालती के चेहरे से पता चल गया कि उस की मां को निधि जरा भी पसंद नहीं आई.

क्या लड़की है, बाप रे. आते ही ऐसे मस्त हो गई जैसे इस का अपना घर हो. न शरमाना, न कोई  िझ झक, बातबात पर अजय को एकआध धौल जमा रही निधि उन्हें कहीं से भी लड़कियों जैसी नहीं लगी. चलो, ठीक है, आजकल का जमाना है लड़कियां लड़कों से कम नहीं. पर इस तरह किसी लड़की का बिंदासपन उसे अजीब लगा. वह भी तब जब वह पहली बार होने वाली सास से मिल रही हो. मालती पुराने खयालों को ज्यादा नहीं मानती थी पर जब बात बहू चुनने की आई तो एक छवि उस के मन में थी, किसी खूबसूरत सी दिखने वाली लड़की को देखते ही मालती उस के साथ अजय की जोड़ी मिलाने लगती दिल ही दिल में, पर अजय और यह लड़की? मालती की नजरों में यह बेमेल था.

यह सही है कि हर मां को अपना बच्चा सब से सुंदर लगता है. लेकिन अजय तो सच में लायक था. देखने में जितना सजीला, मन का उतना ही उजला.

मालती ने सोचा, आखिर अजय को सारी दुनिया की लड़कियां छोड़ कर एक निधि ही पसंद आनी थी? उस ने लाख चाहा कि अजय अपना इरादा बदल दे निधि से शादी करने का, उस के लिए बहुत से रिश्ते आए और कुछेक सुंदर लड़कियों के. मालती ने फोटो भी छांट कर रख ली थी उसे दिखाने के लिए.

पर, आखिर वही हुआ जो अजय और निधि ने चाहा. बड़ी ही धूमधाम से निधि उस के बेटे की दुलहन बन कर आ गई. अपनी इकलौती बेटी निधि को बहुतकुछ दिया उस के मांबाप ने. लेकिन रिश्तेदारों और जानपहचान वालों की दबीदबी बातें भी मालती तक पहुंच ही गईं. खूब दहेज मिला होगा, एकलौती बेटी जो है अपने मांबाप की, लालच में हुई है यह शादी वगैरहवगैरह.

बेटे की खुशी में ही मालती ने अपनी खुशी ढूंढ़ ली थी. उस के बेटे का घर बस गया. यह एक मां के लिए खुशी की बात थी. वह निधि को घर के कामकाज सिखा देगी, यह मालती ने सोचा. पर मालती को क्या पता था, निधि बिलकुल कोरा घड़ा निकलेगी. घरगृहस्थी के मामलों में, अव्वल तो उसे कुछ आता नहीं था और अगर कुछ करना भी पड़े तो बेमन से करती थी. मालती खुद बहुत सलीकेदार थी. हर काम में कुशल, उसे हर चीज में सफाई और तरीका पसंद था.

शादी के शुरुआती दिनों में मालती ने उसे बहुत प्यार से घर के काम सिखाने की कोशिश की. जिस निधि ने कभी अपने घर में पानी का गिलास तक नहीं उठाया था, उस के साथ मालती को ऐसे लगना पड़ा जैसे कोई नर्सरी के बच्चे को  हाथ पकड़ कर लिखना सिखाता है. एक दिन मालती ने उसे चावल पकाने का काम सौंपा और खुद बालकनी में रखे गमलों में खाद डालने में लग गई. थोड़ी देर बाद रसोई से आते धुएं को देख कर वह  झटपट किचन की ओर भागी. चावल लगभग आधे जल चुके थे. मालती ने लपक कर गैस बंद की.

बासमती चावल पतीले में खिलेखिले बनते हैं, यह सोच कर उस के घर में चावल कुकर में नहीं, पतीले में पकाए जाते थे. वह निधि को तरीका सम झा कर गई थी. उस ने निधि को आवाज दी. कोई जवाब न पा कर वह बैडरूम में आई तो देखा, निधि अपने कानों पर हैडफोन लगा कर मोबाइल में कोई वीडियो देखने में मस्त थी. मालती को उस दिन बहुत गुस्सा आया. इतनी बेपरवाही. अगर वह न होती तो घर में आग भी लग सकती थी. उस ने निधि को उस दिन दोचार बातें सुना भी दीं.

‘सौरी मां’ बोल कर निधि खिसियाई सी चुपचाप रसोई में जा कर पतीले को साफ करने के लिए सिंक में रख आई. उस दिन के बाद मालती ने उसे फिर कुछ पकाने को नहीं कहा कभी. कुछ पता नहीं, कब क्या जला बैठे. और वैसे भी, अजय मां के हाथ का ही खाना पसंद करता था. उस ने भी निधि को टिपिकल वाइफ बनाने की कोई पहल नहीं की. निधि और अजय की कोम्पैटिबिलिटी मिलती थी और दोनों साथ में खुश थे. यही बहुत था मालती के लिए.

पर उस को एक कमी हमेशा खलती रही. वह चाहती थी कि औरों की तरह उस के घर में भी पायल की रुन झुन, चूडि़यों की खनक गूंजे, सरसराता साड़ी का आंचल लहराती घर की बहू रसोई संभाले या छत पर अचारपापड़ सुखाए. कुछ तो हो जो लगे कि नई बहू आई है घर में. शादी के एक हफ्ते बाद ही निधि ने पायल, बिछुए और कांच की चूडि़यां उतार कर रख दी थीं. हाथों में, बस, एक गोल्ड ब्रैसलेट और छोटे से इयर रिंग्स पहन कर टीशर्ट व पाजामे में घूमने लगी थी. मालती ने उसे टोका भी पर उस के यह बोलने पर कि, मां ये सब चुभते हैं, मालती चुप हो गई थी.

छुट्टी वाले दिन दोनों अपने लैपटौप पर या तो कोई मूवी देखते या वीडियो गेम खेलते रहते. मालती अपने सीरियल देखती रहती और कसमसाती रहती कि कोई होता जो उस के साथ बैठ कर यह सासबहू वाले प्रोग्राम देखता. कभी पासपड़ोस में कोई कार्यक्रम होता, तो मालती अकेली ही जाती. लोगबाग पूछते, ‘अरे बहू को क्यों नहीं लाए साथ?’ तो वह मुसकरा कर कोई बहाना बना देती. अब कैसे बोले कि बहू तो वीडियो गेम खेल रही है अपने कमरे में.

कुल मिला कर उस के सपने मिट्टी में मिल गए थे. घर में बहू कम दूसरा बेटा आया हो जैसे. किसी शादीब्याह में भी निधि को खींच कर ले जाना पड़ता था. उसे कोई शौक ही नहीं था सजनेसंवरने का. शादी की इतनी सारी एक से एक कीमती साडि़यां पड़ी थीं, पर मजाल है जो निधि ने कभी पहनने की जहमत उठाई हो.

अपने एक रिश्तेदार की शादी में जयपुर जाना पड़ा मालती को, तो निधि और अजय को खूब सारी हिदायतें दे कर गई. खाना बहुत थोड़ा जल्दी उठ कर बना के फ्रिज में रख जाना. अजय को बाहर का खाना पचता नहीं. पेट अपसैट हो जाता है. फिर राधा को भी 10 दिन के लिए अपने गांव जाना था. ऐसे में घर की जिम्मेदारी उन दोनों पर ही है, मालती उन को बारबार यह बता रही थी. उसे पता था, दोनों लापरवाह हैं, पर जाना जरूरी था.

एक हफ्ते बाद मालती जब वापस घर लौटी तो सुबह की ट्रेन लेट हो कर दिन में पहुंची. स्टेशन से औटो कर के घर पहुंची. एक चाबी उस के पास थी पर्स में. अंदर आ कर सामान वहीं नीचे रख कर वह सोफे पर थोड़ा सुस्ताने बैठी. उस ने सोचा, चाय बनाएगी पहले अपने लिए, फिर फ्रैश होगी. सिर दर्द कर रहा था सफर की थकावट से. एक सरसरी नजर घर पर डाली उस ने पर सफाई का नामोनिशान नजर नहीं आ रहा था. उस के पैरों के पास कालीन पर दालभुजिया बिखरी पड़ी थी.  झाड़ू तक नहीं लगी  थी घर में लगता है उस के जाने के बाद.

वह बुदबुदाती हुई रसोई की तरफ बढ़ी ही थी कि तभी उस के मोबाइल की घंटी बज उठी. अजय के दोस्त का फोन था, ‘‘हैलो बेटा,’’ मालती ने फोन रिसीव किया. दूसरी तरफ से जो उसे सुनाई दिया उसे सुन कर वह धम्म से सोफे पर गिर पड़ी. अजय के दोस्त ने उसे हौस्पिटल का नाम बता कर जल्द आने को कहा. अजय की बाइक को किसी गाड़ी ने पीछे से टक्कर मार दी थी.

आननफानन मालती ज्यों की त्यों हालत में हौस्पिटल के लिए निकल पड़ी. गेट पर ही उसे अजय का दोस्त यश मिल गया था. दोनों कालेज के गहरे दोस्त थे. अजय को आईसीयू में रखा गया था. उस के हाथपैरों में गहरी चोटें आई थीं. पर उस की हालत खतरे से बाहर थी. मालती ने अपनी रुलाई दबा कर बेटे की तरफ देखा. खून से अजय के कपड़े सने थे और न जाने कितनी पट्टियां उस के शरीर पर बंधी थीं.

‘‘आंटी आप बाहर बैठ जाइए,’’ मालती की हालत देख कर यश ने कहा और सहारा दे कर उस ने मालती को आईसीयू के बाहर बैंच पर बिठा दिया. यश ने उसे बताया कि कैसे ऐक्सिडैंट की जानकारी पुलिस से पहले उसे ही मिली थी. निधि अपनी एक सहेली के साथ मूवी देखने गई हुई थी. उस का फोन शायद इसीलिए नहीं मिल पाया. पास के वाटरकूलर से एक गिलास पानी ला कर उस ने मालती को दिया.

मालती ने होशोहवास दुरुस्त करने की कोशिश की. तभी उसे निधि बदहवास भागती आती दिखाई दी. मालती के पास पहुंच कर वह उस से लिपट कर रो पड़ी. मालती, जो बड़ी देर से अपने आंसू रोके बैठी थी, अब अपनी रुलाई नहीं रोक पाई. कुछ संयत हो कर निधि ने अजय को आईसीयू में देखा, बैड पर बेहोश ग्लूकोस और खून की पाइप्स से घिरा हुआ. निधि ने डाक्टर से अजय की हालत के बारे में पूछा और डाक्टर की पर्ची ले कर दवाइयां लेने चली गई. रात को मालती के लाख मना करने के बावजूद निधि ने उसे यश के साथ घर भेज दिया.

सुबह जल्दी उठ कर मालती कुछ जरूरी चीजें एक बैग में और एक थरमस में कौफी भर कर हौस्पिटल पहुंची. निधि की आंखें बता रही थीं कि सारी रात वह सोई नहीं. सो तो मालती भी नहीं पाई थी पूरी रात. निधि ने बैंच पर बैठे एक लंबी अंगड़ाई ली और थरमस से कौफी ले कर पीने लगी. मालती अजय के पास गई. वह होश में था. पर डाक्टर ने बातें करने से मना किया था. मालती को देख कर अजय ने धीरे से मुसकराने की कोशिश की. मालती ने उस का हाथ कोमलता से अपने हाथों में ले लिया और जवाब में मुसकरा दी.

करीब एक हफ्ते बाद अजय डिस्चार्ज हो कर घर आ गया. उस के पैर में अभी भी प्लास्टर लगा था. हड्डी की चोट थी, डाक्टर ने फुल रैस्ट के लिए बोला था. एक महीने के लिए उस ने औफिस से छुट्टी ले ली थी. निधि और मालती दिनरात उस की तीमारदारी में जुट गए. एक महीने के बाद जब अजय के पैर का प्लास्टर उतरा तो उस ने हलकी चहलकदमी शुरू कर दी. मगर समय शायद ठीक नहीं चल रहा था. बाथरूम में फिसलने की वजह से उसे फिर से एक और प्लास्टर लगवाना पड़ा. प्राइवेट जौब में कितने दिन छुट्टी मिलती, तंग आ कर अजय ने रिजाइन दे दिया. निधि और मालती उसे इस हालत में अब बिस्तर से उठने तक नहीं देती थीं.

कहने को तो घर में कोई कमी नहीं थी पर अजय की नौकरी न रहने से मालती को तमाम बातों की चिंता सताने लगी. अजय ने शादी के वक्त नया घर बुक कराया था, जिस की हर महीने किस्त जाती थी. उस के अलावा, घर के खर्चे, अजय की गाड़ी की किस्तें, खुद मालती की दवाइयों का खर्च. हालांकि उसे अपने पति की पैंशन मिलती थी, पर उस के भरोसे सबकुछ नहीं चल सकता था.

निधि ने अपने काम पर जाना शुरू कर दिया था. वह एक लैंग्वेज टीचर थी और पास के एक इंस्टिट्यूट में जौब करती थी. एक दिन उसे घर लौटने में बहुत देर हो गई, तो मालती की त्योरियां चढ़ गईं.

अजय की इस हालत में इतनी देर निधि का यों बाहर रहना मालती को अच्छा नहीं लगा. उस ने सोचा कि अजय भी इस बात पर नाराज होगा. लेकिन उन दोनों को आराम से बातें करते देख उसे लगा नहीं कि अजय को कुछ फर्क पड़ा. हुहूं, बीवी का गुलाम है, बहुत छूट दे रखी है निधि को इस ने, एक बार पूछा तक नहीं, यह सब सोच कर मालती कुढ़ गई थी.

किचन में अजय के लिए थाली लगाती मालती के कंधे पर हाथ रखते हुए निधि बोली, ‘‘मां, आप बैठो अजय के पास, आप दोनों की थाली मैं लगा देती हूं.’’

‘‘रहने दो, तुम दोनों खाओ साथ में, वैसे भी दिनभर अजय अकेला बोर हो जाता है तुम्हारे बिना,’’ मालती कुछ रुखाई से बोली.

‘‘सौरी मां, अब से मु झे आते देर हो जाया करेगी, मैं ने एक और जगह जौइन कर लिया है. तो कुछ घंटे वहां भी लग जाएंगे,’’ निधि ने उस के हाथ से प्लेट लेते हुए बताया.

‘‘तुम ने अजय को बताया क्या?’’

‘‘मां, मैं ने अजय से पहले ही पूछ लिया था और वैसे भी, कुछ ही घंटों की बात है, तो मैं मैनेज कर लूंगी.’’

‘‘ठीक है, अगर तुम दोनों को सही लगता है तो, लेकिन देख लो, थक तो नहीं जाओगी? तुम्हें आदत नहीं इतनी मेहनत करने की,’’ मालती ने अपनी तरफ से जिम्मेदारी निभाई.

‘‘आप चिंता मत करो मां. बस, कुछ दिनों की तो बात है.’’

मालती ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की घर के फालतू खर्चे कम करने की. वह अब थोड़ी कंजूसी से भी चलने लगी थी. सब्जी और फल लेते समय भरसक मोलभाव करती थी. उसे लगा निधि अपने खर्चों पर लगाम नहीं लगा पाएगी. पर जब से अजय का ऐक्सिडैंट हुआ था, निधि की आदतों में फर्क साफ नजर आता था. जो लड़की फर्स्ट डे फर्स्ट शो मूवी देखती थी, तकरीबन रोज ही शौपिंग, आएदिन अजय के साथ बाहर डिनर करना जिस के शौक थे, वह अब बड़े हिसाबकिताब से चलने लगी थी. और तो और, घर के कामों को भी वह मालती के तरीके से ही करने की कोशिश करती थी.

मालती उस में आए इस बदलाव से हैरान थी. एक तरह से निधि ने घर की सारी जिम्मेदारी उठा ली थी. अजय भी थोड़ा बेफिक्र हो गया था. उसे निधि पर पूरा भरोसा था. पर मालती को एक तरह से यह बात चुभती थी कि बहू हो कर  वह बेटे की तरह घर चला रही है. आखिर, बहू तो बहू होती है, मालती सोचती थी.

एक दिन सुबह पार्क जाने से पहले मालती अजय के कमरे में आई. उस की बीपी की दवाई खत्म हो गई थी.

‘‘अजय, मु झे कुछ पैसे दे दे, दवाई लेनी है. पार्क के रास्ते में कैमिस्ट से  ले लूंगी.’’

‘‘लेकिन मां, मेरे पास कैश नहीं है, तुम निधि से ले लो,’’ अजय टीवी पर नजरें गड़ाए हुए बोला.

रहने दे, बाद में ले लूंगी जब एटीएम से पैसे निकालूंगी, ‘‘मालती ने जवाब दिया. निधि के सामने वह हाथ नहीं  फैलाना चाहती थी. बाहर आ कर उस ने पार्क ले जाने वाला बैग उठाया, तो उस के नीचे नोट रखे थे. मालती सम झ गई कि निधि ने चुपचाप से पैसे रखे होंगे ताकि मालती को उस से मांगना न पड़े. जब वह अजय से बात कर रही थी तो निधि बाथरूम में थी. शायद, उस ने उन दोनों की बातचीत सुन ली थी.

मालती को फिजियोथेरैपिस्ट के पास जाना पड़ता था. अकसर उसे पीठ और कमरदर्द की तकलीफ रहती थी. उस ने सोचा, यह खर्च कम करना चाहिए, तो जाना बंद कर दिया. लेकिन तबीयत खराब रहने लगी. अजय को पता चला तो बहुत नाराज हो गया. निधि पास में बैठी लैपटौप पर कुछ काम कर रही थी.

‘‘बेकार में पैसे खर्च होते हैं,’’ मालती ने सफाई दी, ‘‘पार्क में सब कसरत करते हैं, मैं भी वही किया करूंगी.’’

‘‘मां, अब से आप को क्लिनिक जाने की जरूरत नहीं, फिजियोथेरैपिस्ट यहीं घर पर आ कर आप को ट्रीटमैंट देगा,’’ निधि ने मालती से कहा.

‘‘नहीं, नहीं, इस में तो ज्यादा फीस लगेगी, रहने दो ये सब,’’ मालती को बात जंची नहीं.

‘‘मां, आप की तबीयत ठीक होना ज्यादा जरूरी है और आप के साथसाथ डाक्टर अजय को भी देख लेगा,’’ निधि ने तर्क दिया.

‘‘ठीक तो है मां, तुम घर पर ही आराम से ट्रीटमैंट करवाओ, क्लिनिक के चक्कर लगाने की जरूरत क्या है,’’ अजय ने उसे आश्वस्त किया.

अजय की तबीयत धीरेधीरे सुधरने लगी थी. निधि ने अपनी मेहनत से घर में कोई कमी नहीं आने दी. सबकुछ उस ने संभाल लिया था. घर और गाड़ी की किस्तें, महीने का घरखर्च, डाक्टर की फीस सब उस के पैसों से चल रहा था.

निधि के मांबाप 2 दिन पहले ही अमेरिका में रह रहे अपने बेटे के पास से लौटे थे. आते ही वे अजय को देखने आ गए थे. निधि उस वक्त औफिस  में थी.

आइए, चाय पी लीजिए, मालती अजय के पास बैठी निधि की मां से बोली. अजय अपने ससुरजी से बातें कर रहा था. ट्रे में 2 कप चाय उस ने अजय और निधि के पापा के लिए वहीं एक टेबल पर रख दी.

‘‘अरे, आप ने ये सब तकलीफ क्यों की, हम तो बेटी के घर कुछ खातेपीते नहीं,’’ निधि की मां कुछ सकुचा कर बोली.

‘‘छोडि़ए न बहनजी, पुराने रिवाज, आज की बहुएं क्या बेटों से कम हैं,’’ अकस्मात मालती के मुंह से निकल पड़ा.

दोनों चाय पीने लगीं. ‘‘निधि और अजय की शादी के बाद से आप से ठीक से मिलना नहीं हो पाया. आप तो जानती हैं, शादी के तुरंत बाद हमें बेटे के पास जाना पड़ा, इसलिए कभी आप से एकांत में बातें करने का मौका ही नहीं मिला,’’ निधि की मां कुछ गमगीन हो कर बोली.

‘‘हांजी, मु झे पता है, आप का जाना जरूरी था. यह तो समय का खेल है. जान बच गई अजय की, यह गनीमत है.’’

‘‘निधि को अब तक आप जान गई होंगी. अपने पापा की लाड़ली रही है शुरू से. मैं ने भी ज्यादा कुछ सिखाया नहीं उस को, मां हूं उस की, कितनी लापरवाह है, यह मैं जानती हूं. आप को बहुतकुछ सम झाना पड़ता होगा उसे. एक बेटी से बहू बनने में उसे थोड़ा वक्त लगेगा. उस की नादानियों का बुरा मत मानिएगा. बस, यही कहना चाहती थी आप से.’’

जिस दिन से अजय की शादी निधि से हुई थी मालती को हमेशा निधि में कोई न कोई गलती नजर आती थी, उस ने सोचा था कि कभी मौका मिलेगा तो निधि की मां से खूब शिकायतें करेगी कि बेटी को कुछ नहीं सिखाया. लेकिन आज न जाने क्यों मालती के पास कुछ नहीं था निधि की शिकायत करने को, उल्टा उसे बुरा लगा, ऐसा लगा निधि उस की अपनी बेटी है और कोई दूसरा उस की बुराई कर रहा है.

‘‘आप से किस ने कहा कि मु झे निधि से कोई परेशानी है. हर लड़की बेटी ही जन्म लेती है. बहू तो उसे बनना पड़ता है. लेकिन यह मत सम िझए कि निधि एक कुशल बहू नहीं है. आप कभी यह मत सोचिए कि हम खुश नहीं हैं. निधि अब मेरी बेटी है,’’ मालती कुछ रुंधे गले से बोली, उसे खुद यकीन नहीं हो रहा था कि वह यह सब बोल रही थी. पर ये शब्द दिल की गहराई से निकले थे, बिना किसी बनावट के.

एक बेटी की मां के चेहरे पर जो खुशी होती है, वह खुशी दोनों मांओं के चेहरे पर थी.

रात में खाना खाने के बाद मालती बालकनी में रखी कुरसी पर बैठी दूर

से जगमग करती शहर की रोशनी देख रही थी.

हाथ में कौफी का मग लिए निधि उस के पास आ कर धीरे से एक स्टूल ले कर बैठ गई.

‘‘मां, यह आप का टिकट है इलाहबाद का,’’ निधि ने ट्रेन का टिकट उस की तरफ बढ़ा दिया.

‘‘अरे, लेकिन मैं ने तो बोला ही नहीं जाने के लिए, हर शादी में जाना जरूरी नहीं है मेरा,’’ मालती बोली.

‘‘अरे वाह, क्यों नहीं जाएंगी आप? मामाजी को बुरा लगेगा अगर हमारे घर से कोईर् भी इस शादी में नहीं गया. सौरी मां, मैं ने आप से बिना पूछे टिकट ले लिया है. अजय और मु झे लगता है आप को जाना चाहिए.’’

‘‘वह तो ठीक है. पर अभी अजय को मेरी जरूरत है. तुम तो औफिस चली जाओगी. वापस आ कर घर का काम, कितना थक जाओगी. मैं तुम दोनों को छोड़ कर नहीं जा पाऊंगी. मन ही नहीं लगेगा मेरा वहां,’’ मालती ने इसरार किया.

‘‘अजय की तबीयत अब काफी ठीक है. अब तो वे जौब के लिए एकदो इंटरव्यू देने की भी सोच रहे हैं, आप बेफिक्र हो कर जाइए मां.’’

मालती ने निधि के चेहरे की तरफ देखा. वह बहुत सादगी से बोल रही थी, न कोई बनावट न कोई  झूठ. मेरी सगी बेटी भी होती तो इस से बढ़ कर और क्या करती इस घर के लिए. निधि ने बहू का ही नहीं, बेटे का फर्ज भी निभा कर दिखा दिया था. बस, वह खुद ही अपनी सोच का दायरा बढ़ा नहीं पाई. हमेशा उसे अपने हिसाब से ढालना चाहती रही. निधि की सचाई, उस के अपनेपन और इस घर के लिए उस के समर्पण को अब जा कर देख पाई मालती. क्या हुआ अगर उस के तरीके थोड़े अलग थे. लेकिन वह गलत तो नहीं. आज मालती ने अपना नजरिया बदला तो आंखों में जमी गलतफहमी की धूल भी साफ हो गई थी.

मालती ने निधि का हाथ अपने हाथों में लिया और शहद घुले स्वर में बोली, ‘‘थैंक्यू बेटा, हमारे घर में आने के लिए,’’ कुछ आश्चर्य और खुशी से निधि ने उसे देखा और बड़े प्यार से उस के गले लग गई.   द्य

मालती कुनमुना कर रह गई. उस ने उम्मीद की थी कि निधि कुछ नानुकुर करेगी कि नहीं, मैं नहीं दे पाऊंगी, टाइम नहीं है, औफिस के लिए लेट हो जाएगा वगैरहवगैरह. पर यहां तो उस के हाथ से एक और वाकयुद्ध का मौका निकल गया.

मालती उस में आए इस बदलाव से हैरान थी. एक तरह से निधि ने घर की सारी जिम्मेदारी उठा ली थी. अजय भी थोड़ा बेफिक्र हो गया था. उसे निधि पर पूरा भरोसा था. पर मालती को एक तरह से यह बात चुभती थी कि बहू हो कर वह बेटे की तरह घर चला रही है.

किसना : बेटी के लिए क्या था पिता का फैसला

झारखंड का एक बड़ा आदिवासी इलाका है अमानीपुर. जिले के नए कलक्टर ने ऐसे सभी मुलाजिमों की लिस्ट बनाई, जो आदिवासी लड़कियां रखे हुए थे. उन सब को मजबूर कर दिया गया कि वे उन से शादी करें और फिर एक बड़े शादी समारोह में उन सब का सामूहिक विवाह करा दिया गया. दरअसल, आदिवासी बहुल इलाकों के इन छोटेछोटे गांवों में यह रिवाज था कि वहां पर कोई भी सरकारी मुलाजिम जाता, तो किसी भी आदिवासी घर से एक लड़की उस की सेवा में लगा दी जाती. वह उस के घर के सारे काम करती और बदले में उसे खानाकपड़ा मिल जाता. बहुत से लोग तो उन में अपनी बेटी या बहन देखते, मगर उन्हीं में से कुछ अपने परिवार से दूर होने के चलते उन लड़कियों का हर तरह से शोषण भी करते थे.

वे आदिवासी लड़कियां मन और तन से उन की सेवा के लिए तैयार रहती थीं, क्योंकि वहां पर ज्यादातर कुंआरे ही रहते थे, जो इन्हें मौजमस्ती का सामान समझते और वापस आ कर शादी कर नई जिंदगी शुरू कर लेते. मगर शायद आधुनिक सोच को उन पर रहम आ गया था, तभी कलक्टर को वहां भेज दिया था. उन सब की जिंदगी मानो संवर गई थी. मगर यह सब इतना आसान नहीं था. मुखिया और कलक्टर का दबदबा होने के चलते कुछ लोग मान गए, पर कुछ लोग इस के विरोध में भी थे. आखिरकार कुछ लोग शादी के बंधन में बंध गए और लड़कियां दासी जीवन से मुक्त हो कर पत्नी का जीवन जीने लगीं. मगर 3 साल बाद जब कलक्टर का ट्रांसफर हो गया, तब शुरू हुआ उन लड़कियों की बदहाली का सिलसिला. उन सारे मुलाजिमों ने उन्हें फिर से छोड़ दिया और  शहर जा कर अपनी जाति की लड़कियों से शादी कर ली और वापस उसी गांव में आ कर शान से रहने लगे.

तथाकथित रूप से छोड़ी गई लड़कियों को उन के समाज में भी जगह नहीं मिली और लोगों ने उन्हें अपनाने से मना कर दिया. ऐसी छोड़ी गई लड़कियों से एक महल्ला ही बस गया, जिस का नाम था ‘किस बिन पारा’ यानी आवारा औरतों का महल्ला. उसी महल्ले में एक ऐसी भी लड़की थी, जिस का नाम था किसना और उस से शादी करने वाला शहरी बाबू कोई मजबूर मुलाजिम न था. उस ने किसना से प्रेम विवाह किया था और उस की 3 साल की एक बेटी भी थी. पर समय के साथ वह भी उस से ऊब गया, तो वहां से ट्रांसफर करा कर चला गया. किसना को हमेशा लगता था कि उस की बेटी को आगे चल कर ऐसा काम न करना पड़े. वह कोशिश करती कि उसे इस माहौल से दूर रखा जाए.

लिहाजा, उस को किसना ने दूसरी जगह भेज दिया और खुद वहीं रुक गई, क्योंकि वहां रुकना उस की मजबूरी थी. आखिर बेटी को पढ़ाने के लिए पैसा जो चाहिए था. बदलाव बस इतना ही था कि पहले वह इन लोगों से कपड़ा और खाना लेती थी, पर अब पैसा लेने लगी थी. उस में से भी आधा पैसा उस गांव की मुखियाइन ले लेती थी. उस दिन मुखियाइन किसना को नई जगह ले जा रही थी, खूब सजा कर. वह मुखियाइन को काकी बोलती थी. वे दोनों बड़े से बंगले में दाखिल हुईं. ऐशोआराम से भरे उस घर को किसना आंखें फाड़ कर देखे जा रही थी.

तभी किसना ने देखा कि एक तगड़ा 50 साला आदमी वहां बैठा था, जिसे सब सरकार कहते थे. उस आदमी के सामने सभी सिर झुका कर नमस्ते कर रहे थे. उस आदमी ने किसना को ऊपर से नीचे तक घूरा और फिर रूमाल से मोंगरे का गजरा निकाल कर उस के गले में डाल दिया. वह चुपचाप खड़ी थी. सरकार ने उस की आंखों में एक अजीब सा भाव देखा, फिर मुखियाइन को देख कर ‘हां’ में गरदन हिला दी. तभी एक बूढ़ा आदमी अंदर से आया और किसना से बोला, ‘‘चलो, हम तुम्हारा कमरा दिखा दें.’’

किसना चुपचाप उस के पीछे चल दी. बाहर बड़ा सा बगीचा था, जिस के बीचोंबीच हवेली थी और किनारे पर छोटे, पर नए कमरे बने थे. वह बूढ़ा नौकर किसना को उन्हीं बने कमरों में से एक में ले गया और बोला, ‘‘यहां तुम आराम से रहो. सरकार बहुत ही भले आदमी हैं. तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है…’’ किसना ने अपनी पोटली वहीं बिछे पलंग पर रख दी और कमरे का मुआयना करने लगी. दूसरे दिन सरकार खुद ही उसे बुलाने कमरे तक आए और सारा काम समझाने लगे. रात के 10 बजे से सुबह के 6 बजे तक उन की सेवा में रहना था. किसना ने भी जमाने भर की ठोकरें खाई थीं. वह तुरंत समझ गई कि यह बूढ़ा क्या चाहता है. उसे भी ऐसी सारी बातों की आदत हो गई थी.

वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘हम अपना काम बहुत अच्छी तरह से जानते हैं सरकार, आप को शिकायत का मौका नहीं देंगे.’’

कुछ ही दिनों में किसना सरकार के रंग में रंग गई. उन के लिए खाना बनाती, कपड़े धोती, घर की साफसफाई करती और उन्हें कभी देर हो जाती, तो उन का इंतजार भी करती. सरकार भी उस पर बुरी तरह फिदा थे. वे दोनों हाथों से उस पर पैसा लुटाते. एक रात सरकार उसे प्यार कर रहे थे, पर किसना उदास थी. उन्होंने उदासी की वजह पूछी और मदद करने की बात कही.

‘‘नहीं सरकार, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ किसना बोली.

‘‘देख, अगर तू बताएगी नहीं, तो मैं मदद कैसे करूंगा,’’ सरकार उसे प्यार से गले लगा कर बोले.

किसना को उन की बांहें किसी फांसी के फंदे से कम न लगीं. एक बार तो जी में आया कि धक्का दे कर बाहर चली जाए, पर वह वहां से हमेशा के लिए जाना  चाहती थी. उसे अच्छी तरह मालूम था कि यह बूढ़ा उस पर जान छिड़कता है. सो, उस ने अपना आखिरी दांव खेला, ‘‘सरकार, मेरी बेटी बहुत बीमार है. इलाज के लिए काफी पैसों की जरूरत है. मैं पैसा कहां से लाऊं? आज फिर मेरी मां का फोन आया है.’’

‘‘कितने पैसे चाहिए?’’

‘‘नहीं सरकार, मुझे आप से पैसे नहीं चाहिए… मुखियाइन मुझे मार देगी. मैं पैसे नहीं ले सकती.’’

सरकार ने उस का चेहरा अपने हाथों में ले कर कहा, ‘‘मुखियाइन को कौन बताएगा? मैं तो नहीं बताऊंगा.’’

‘‘एक लाख रुपए चाहिए.’’

‘‘एक… लाख…’’ बड़ी तेज आवाज में सरकार बोले और उसे दूर झटक दिया. किसना घबरा कर रोने लगी. ‘‘अरे… तुम चुप हो जाओ,’’ और सरकार ने अलमारी से एक लाख रुपए निकाल कर उस के हाथ पर रख दिए, फिर उस की कीमत वसूलने में लग गए. बेचारी किसना उस सारी रात क्याक्या सोचती रही और पूरी रात खुली आंखों में काट दी. शाम को जब सरकार ने किसना को बुलाने भेजा था, तो वह कमरे पर नहीं मिली. चिडि़या पिंजरे से उड़ चुकी थी. आखिरी बार उसे माली काका ने देखा था. सरकार ने भी अपने तरीके से ढूंढ़ने की कोशिश की, पर वह नहीं मिली. उधर किसना पैसा ले कर कुछ दिनों तक अपनी सहेली पारो के घर रही और कुछ समय बाद अपने गांव चली गई.

किसना की सहेली पारो बोली, ‘‘किसना, अब तू वापस मत आना. काश, मैं भी इसी तरह हिम्मत दिखा पाती. खैर छोड़ो…’’ किसना ने अपना चेहरा घूंघट से ढका और बस में बैठते ही भविष्य के उजियारे सपनों में खो गई. इन सपनों में खोए 12 घंटों का सफर उसे पता ही नहीं चला. बस कंडक्टर ने उसे हिला कर जगाया, ‘‘ऐ… नीचे उतर, तेरा गांव आ गया है.’’ किसना आंखें मलते हुए नीचे उतरी. उस ने अलसाई आंखों से इधरउधर देखा. आसमान में सूरज उग रहा था. ऐसा लगा कि जिंदगी में पहली बार सूरज देखा हो. आज 30 बसंत पार कर चुकी किसना को ऐसा लगा कि जैसे जिंदगी में ऐसी सुबह पहली बार देखी हो, जहां न मुखियाइन, न दलाल, न सरकार… वह उगते हुए सूरज की तरफ दोनों हाथ फैलाए एकटक आसमान की तरफ निहारे जा रही थी. आतेजाते लोग उसे हैरत से देख रहे थे, तभी अचानक वह सकुचा गई और अपना सामान समेट कर मुसकराते हुए आगे बढ़ गई. किसना को घर के लिए आटोरिकशा पकड़ना था. तभी सोचा कि मां और बेटी रोशनी के लिए कुछ ले ले, दोनों खुश हो जाएंगी. उस ने वहां पर ही एक मिठाई की दुकान में गरमागरम कचौड़ी खाई और मिठाई भी ली.

किसना पल्लू से 5 सौ का नोट निकाल कर बोली, ‘‘भैया, अपने पैसे काट लो.’’ दुकानदार भड़क गया, ‘‘बहनजी, मजाक मत करिए. इस नोट का मैं क्या करूंगा. मुझे 2 सौ रुपए दो.’’

‘‘क्यों भैया, इस में क्या बुराई है.’’

‘‘तुम को पता नहीं है कि 2 दिन पहले ही 5 सौ और एक हजार के नोट चलना बंद हो गए हैं.’’

किसना ने दुकानदार को बहुत समझाया, पर जब वह न माना तो आखिर में अपने पल्लू से सारे पैसे निकाल कर उसे फुटकर पैसे दिए और आगे बढ़ गई. अभी किसना ढंग से खुशियां भी न मना पाई थी कि जिंदगी में फिर स्याह अंधेरा फैलने लगा. अब क्या करेगी? उस के पास तो 5 सौ और एक हजार के ही नोट थे, क्योंकि इन्हें मुखियाइन से छिपा कर रखना जो आसान था. रास्ते में बैंक के आगे लगी भीड़ में जा कर पूछा तो पता लगा कि लोग नोट बदल रहे हैं. किसना को तो यह डूबते को तिनके का सहारा की तरह लगा. किसी तरह पैदल चल कर ही वह अपने घर पहुंची. बेटी रोशनी किसना को देखते ही लिपट गई और बोली, ‘‘मां, अब तुम यहां से कभी वापस मत जाना.’’

किसना उसे प्यार करते हुए बोली, ‘‘अब तेरी मां कहीं नहीं जाएगी.’’बेटी के सो जाने के बाद किसना ने अपनी मां को सारा हाल बताया. उस की मां ने पूछा, ‘‘अब आगे क्या करोगी?’’

किसना ने कहा, ‘‘यहीं सिलाईकढ़ाई की दुकान खोल लूंगी.’’

दूसरे दिन ही किसना अपने पैसे ले कर बैंक पहुंची, मगर मंजिल इतनी आसान न थी. सुबह से शाम हो गई, पर उस का नंबर नहीं आया और बैंक बंद हो गया. ऐसा 3-4 दिनों तक होता रहा और काफी जद्दोजेहद के बाद उस का नंबर आया, तो बैंक वालों ने उस से पहचानपत्र मांगा. वह चुपचाप खड़ी हो गई. बैंक के अफसर ने पूछा कि पैसा कहां से कमाया? वह समझाती रही कि यह उस की बचत का पैसा है. ‘‘तुम्हारे पास एक लाख रुपए हैं. तुम्हें अपनी आमदनी का जरीया बताना होगा.’’

बेचारी किसना रोते हुए बैंक से बाहर आ गई. किसना हर रोज बैंक के बाहर बैठ जाती कि शायद कोई मदद मिल जाए, मगर सब उसे देखते हुए निकल जाते. तभी एक दिन उसे एक नौजवान आता दिखाई पड़ा. जैसेजैसे वह किसना के नजदीक आया, किसना के चेहरे पर चमक बढ़ती चली गई. उस के जेहन में वे यादें गुलाब के फूल पर पड़ी ओस की बूंदों की तरह ताजा हो गईं. कैसे यह बाबू उस का प्यार पाने के लिए क्याक्या जतन करता था? जब वह सुबहसुबह उस के गैस्ट हाउस की सफाई करने जाती थी, तो बाबू अकसर नजरें बचा कर उसे देखता था.

वह बाबू किसना को अकसर घुमाने ले जाता और घंटों बाग में बैठ कर वादेकसमें निभाता. वह चाहता कि अब हम दोनों तन से भी एक हो जाएं. किसना अब उसे एक सच्चा प्रेमी समझने लगी और उस की कही हर बात पर भरोसा भी करती थी, मगर किसना बिना शादी के कोई बंधन तोड़ने को तैयार न थी, तो उस ने उस से शादी कर ली, मगर यह शादी उस ने उस का तन पाने के लिए की थी. किसना का नशा उस की रगरग में समाया था. उस ने सोचा कि अगर यह ऐसे मानती है तो यही सही, आखिर शादी करने में बुराई क्या है, बस माला ही तो पहनानी है. उस ने आदिवासी रीतिरिवाज से कलक्टर और मुखिया के सामने किसना से शादी कर ली, लेकिन उधर लड़के की मां ने उस का रिश्ता कहीं और तय कर दिया था. एक दिन बिना बताए किसना का बाबू कहीं चला गया. इस तरह वे दोनों यहां मिलेंगे, किसना ने सोचा न था.

जब वह किसना के बिलकुल नजदीक आया, तो किसना चिल्ला कर बोली, ‘‘अरे बाबू… आप यहां?’’

वह नौजवान छिटक कर दूर चला गया और बोला, ‘‘क्या बोल रही हो? कौन हो तुम?’’

‘‘मैं तुम्हारी किसना हूं? क्या तुम अब मुझे पहचानते भी नहीं हो? मुझे तुम्हारा घर नहीं चाहिए. बस, एक छोटी सी मदद…’’

‘‘अरे, तुम मेरे गले क्यों पड़ रही हो?’’ वह नौजवान यह कहते हुए आगे बढ़ गया और बैंक के अंदर चला गया. अब तो किसना रोज ही उस से दया की भीख मांगती और कहती कि बाबू, पैसे बदलवा दो, पर वह उसे पहचानने से मना करता रहा. ऐसा कहतेकहते कई दिन बीत गए, मगर बाबू टस से मस न हुआ. आखिरकार किसना ने ठान लिया कि अब जैसे भी हो, उसे पहचानना ही होगा. उस ने वापस आ कर सारा घर उलटपलट कर रख दिया और उसे अपनी पहचान का सुबूत मिल गया. सुबह उठ कर किसना तैयार हुई और मन ही मन सोचा कि रो कर नहीं अधिकार से मांगूंगी और बेटी को भी साथ ले कर बैंक गई. उस के तेवर देख कर बाबू थोड़ा सहम गया. उसे किनारे बुला कर किसना बोली, ‘‘यह रहा कलक्टर साहब द्वारा कराई गई हमारी शादी का फोटो. अब तो याद आ ही गया होगा?’’

‘‘हां… किसना… आखिर तुम चाहती क्या हो और क्यों मेरा बसाबसाया घर उजाड़ना चाहती हो?’’

किसना आंखों में आंसू लिए बोली, ‘‘जिस का घर तुम खुद उजाड़ कर चले आए थे, वह क्या किसी का घर उजाड़ेगी, रमेश बाबू… वह लड़की जो खेल रही है, उसे देखो.’’ रमेश पास खेल रही लड़की को देखने लगा. उस में उसे अपना ही चेहरा नजर आ रहा था. उसे लगा कि उसे गले लगा ले, मगर अपने जज्बातों को काबू कर के बोला, ‘‘हां…’’

किसना तकरीबन घूरते हुए बोली, ‘‘यह तुम्हारी ही बेटी है, जिसे तुम छोड़ आए थे.’’

रमेश के चेहरे के भाव को देखे बिना ही बोली, ‘‘देखो रमेश बाबू, मुझे तुममें कोई दिलचस्पी नहीं है. मैं एक नई जिंदगी जीना चाहती हूं. अगर इन पैसों का कुछ न हुआ, तो लौट कर फिर वहीं नरक में जाना पड़ेगा. ‘‘मैं अपनी बेटी को उस नरक से दूर रखना चाहती हूं, नहीं तो उसे भी कुछ सालों में वही कुछ करना पड़ेगा, जो उस की मां करती रही है. अपनी बेटी की खातिर ही रुपया बदलवा दो, नहीं तो लोग इसे वेश्या की बेटी कहेंगे. ‘‘अगर तुम्हारे अंदर जरा सी भी गैरत है, तो तुम बिना सवाल किए पैसा बदलवा लाओ, मैं यहीं तुम्हारा इंतजार कर रही हूं.’’ रमेश ने उस से पैसों का बैग ले लिया और खेलती हुई बेटी को देखते हुए बैंक के अंदर चला गया और कुछ घंटे बाद वापस आ कर रमेश ने नोट बदल कर किसना को दे दिए और कुछ खिलौने अपने बेटी को देते हुए गले लगा लिया. तभी किसना ने आ कर उसे रमेश के हाथों से छीन लिया और बेटी का हाथ अपने हाथ में पकड़ कर बोली, ‘‘रमेश बाबू… चाहत की अलगनी पर धोखे के कपड़े नहीं सुखाए जाते…’’ और बेटी के साथ सड़क की भीड़ में अपने सपनों को संजोते हुए खो गई.

फेस्टाग्राम : भावी सासूमां और बहू हो गई रील्स लवर्स

आजकल छोटे कसबों में रहने वाली औरतों को कोई पिछड़ा हुआ न सम झे. इन छोटे कसबों की औरतें पहननेओढ़ने और पार्टी करने के मामले में शहर वालियों को भी पीछे करने लगी हैं.

अभी परसों कविता के यहां पर किट्टी पार्टी थी जिस में मेरी मुलाकात सनोबर से हुई. अरे वही सनोबर जो एक छोटे से गांव से आई थी. भाई वाह, क्या कमाल का कायाकल्प हो गया है उस का जब वह अपने गांव से इस कसबे में रहने आई थी तो उस के चेहरे पर छोटी जगह से होने के कारण एक डर और दबेपन का भाव  झलकता रहता था और बातचीत करने में भी हिचकती थी पर अब तो उस के चेहरे की चमक कुछ और ही बयां करती है.

सनोबर के लंबे बालों की जगह अब छोटे बालों ने ले ली है, कपड़ों में भी आधुनिकता की  झलक है जो थोड़े से छोटे हो गए हैं और उस

का शरीर भी किसी सांचे में ढला हुआ सा लगता है. अब तो ऐरोबिक कसरतें करती है वह और उस का सावलां रंग भी अब तो गोरागुलाबी हो चला है.

‘‘इतना फिट और खूबसूरत कैसे रह लेती हो सनोबर?’’ मैं ने हलकी सी  िझ झक के साथ कहा तो सनोबर ने दंभ भरे अंदाज में मु झे बताया कि यह सब सफलता की चमक है, सफलता? कैसी सफलता? मेरी आंखों में छिपे सवाल को भांप कर सनोबर ने समाधान करते हुए बताया कि दरअसल वह डांस के रील्स बनाती है और फिर उन्हें इंस्टाग्राम और अन्य तमाम तरह के सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर अपलोड करती है और फिर लोग लाइक और कमैंट करते हैं और उस की रील्स पसंद आने पर उसे फौलो भी करते हैं. सनोबर के 5 हजार से भी ज्यादा फौलोअर्स हैं और इतने फौलोअर्स होने से उसे एक तरह से सैलिब्रिटी स्टेटस तो हासिल है ही, साथ ही साथ वह इन रील्स को बना कर पैसे भी कमाती है.

कहीं न कहीं सनोबर की सफलता ने मु झे भी इंस्पायर किया कि मैं भी कुछ करूं और आजकल भला रील्स बनाने से ज्यादा सरल क्या होगा? किसी अधिक ताम झाम की जरूरत नहीं, थोड़ाबहुत शक्लसूरत ठीक हो तो अच्छी बात है और अगर नहीं भी हो तो फिल्टर लगा कर काम चल जाता है, बस शुरुआती दौर में लोग आप को लाइक करने लगें तो आगे का काम और आसान हो जाता है. हां तो लोगों के लाइक आने में कौन सी कठिनाई है. अरे भले मैं एक ट्रैंड डांसर न सही पर बचपन में पड़ोस वाली आंटी को भरतनाट्यम करते देखते थे तभी से क्लासिकल डांस के प्रति रुचि जागी थी और

मैं शौकिया क्लासिकल डांस करने लगी थी और अब तो मेरे पास सीखने के लिए इंटरनैट उपलब्ध है तो ऐसे में जब मैं अपनी क्लासिकल डांसिंग मूव्स दिखाऊंगी तो लोग मुझे जरूर पसंद करेंगे और मेरी रील को वायरल होने से कौन रोकेगा भला?

मगर मेरे साथ एक कड़क सासससुर की निगरानी की समस्या भी थी. शायद ही मेरी सासूमां को मेरा डांस करना भाता. पर कला तो कला है और उसे दबा कर रखने में उस का नष्ट हो जाना तय है, यही सोच कर मैं ने अपनी डांस की एक पोशाक निकाली जिसे मैं ने अपने रिश्तेदार की शादी में जाने के लिए खरीदा था. अब इस में ढेरों सिकुड़नें पड़ चुकी थीं क्योंकि जब मेरी बेटी गर्भ में थी तभी इसे अलमारी में रख दिया गया था और अलमारी की सफाई के दौरान ही इसे निकालते और धूप में सुखाकर वापस रख दिया जाता और आज पूरे 5 साल बाद इसे पहनने के मकसद से बाहर निकाला गया है. पोशाक की हालत देख कर इसे ड्राई क्लीन की जरूरत महसूस हुई तो फट से इसे कसबे की सब से अच्छी लौंड्री से ड्राईक्लीन कराया.

लांड्री वाले भी बड़े पारखी होते हैं, कपड़े के वजन और डिजाइन देखकर पोशाक की अहमियत जान लेते है और उसी के अनुसार बिल को ज्यादा या कम बनाते हैं.

खैर, कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता ही है. मन में ललक थी एक सैलिब्रिटी स्टेटस पाने की सो मैं ने बिल चुकाया और चौराहे वाले पार्लर में चेहरे का रंगरोगन कराया. किसी भी नृत्य की विधा में चेहरे और आंखों के उपयोग की अहमियत को तो आप जानते ही हैं इसलिए आंखों पर मेकअप वाली लड़की को विशेष ध्यान देने को कहा. चेहरा ठीक हुआ तो घर आ कर डांस के लिए जगह तलाशनी थी मैं ने क्योंकि डांस ऐसी जगह करना था जो मेरी सास को बिलकुल डिस्टर्ब न करे.

वैसे तो मेरी सास हर घरेलू काम में परफैक्ट हैं और ऐसा ही परफैक्शन वे मु झ से चाहती हैं पर शायद ही वे कभी मेरे काम से संतुष्ट रही हों पर फिर भी हम सासबहू का रिश्ता ठीकठाक ही चल रहा था. इसलिए नीचे के कमरों को छोड़ कर मैं ने अपनी छत को चुना क्योंकि वहां पर कोई डिस्टरबैंस भी नहीं होगी और ठीक रोशनी मिलेगी जिस से वीडियो की क्वालिटी अच्छी आएगी.

वीडियो शूट करने के लिए पड़ोस की 20 साल की लड़की गरिमा को मैं ने अपना मोबाइल थमाया और बड़े ही मनोयोग से भरतनाट्यम की मुद्राएं बना कर नृत्य करने लगे. अभी थोड़ा ही वीडियो बना था कि मेरी 5 साल की बिटिया छुटकी रोने लगी. उस के रोने से

मेरी सास का ध्यान उस तरफ गया और वे तो मेरी रील्स बनाने और नाचने की तैयारियों को देख कर पहले से मुंह बनाए बैठी थीं सो अब

उन्हें मुझ पर चिल्लाने का पूरा अधिकार मिल चुका था. ‘‘अरे आजकल तो औरतों को अपने नाचगाने से फुरसत ही नहीं, जब बच्चे नहीं संभाले जाते तो उन्हें पैदा ही मत करो, हमारे जमाने में तो…’’ और इस के आगे सास ने क्याक्या कहा मैं ने सुनने की कोशिश भी नहीं करी और चुपचाप अपने कमरे में आ कर बेटी को चुप कराने लगी.

कुछ सासूमां की बातें और कुछ डांस ठीक से न कर पाने के कारण मन खिन्न हो चुका था और वैसे भी इतने दिनों से डांस करना छूट चुका था सो शरीर का लचीलापन भी कम हो गया था और मैं हांफने लगी थी. अगले कई दिनों तक मैं ने डांस नहीं किया पर फिर एक दिन जब सासूमां मार्केट गई थीं तब गरिमा की जिद पर मैं ने फिर से डांस किया और एक छोटा सा वीडियो बना कर रील के रूप में इंस्टाग्राम पर पोस्ट कर दिया और तमाम हैशटैग बना कर अपने दोस्तों को टैग भी करना नहीं भूली.

रील के पोस्ट होने के ठीक बाद ही मैं लाइक्स और कमैंट का इंतजार करने लगी और इसी उम्मीद में घर का सब काम छोड़ कर आती और मोबाइल में नोटिफिकेशन चैक करती पर रात तक सिर्फ 10-12 लाइक्स ही आए थे. थोड़ी निराशा जरूर हुई पर वैसे मैं ने रील बनाने से पहले गूगल पर पढ़ा था कि रील बनाते ही आप फेमस नहीं हो जाओगे बल्कि इस के लिए बहुत धैर्य रखना होगा.

मुझे निराश देख कर गरिमा ने मुझे इशारों

में बताया कि लोग मसालेदार वीडियो ज्यादा देखना चाहते हैं. ऐसे में भला मेरे शुद्ध भरतनाट्यम के मूव्स को भला कौन देखना चाहेगा? और हो सकता है कि मेरे वीडियो

ठीक औडियंस तक पहुंच ही न पा रहे हों. अभी मैं दुविधा में ही थी कि मेरे पति कुमार आ गए. वे थोड़े परेशान लग रहे थे. कारण

पूछने पर पता चला कि कंपनी ने कुमार का प्रमोशन कर के उन का ट्रांसफर भी कर दिया है और अब उन्हें इस पैतृक कसबे को छोड़कर कानपुर जाना होगा,

ट्रांसफर का नाम सुनते ही मां और पापा का मन भारी हो गया. होता भी क्यों नहीं? कुमार को लखनऊ से अपनी ग्रैजुएशन खत्म करते ही जौब मिल गई थी और उन की कंपनी ने उन के पैतृक कसबे में ही अपने काम के विस्तार के लिए भेज दिया था. बड़े कम लोग होते हैं जिन्हें उन के मांबाप के पास रह कर ही नौकरी मिल जाती है और मांबाप की सेवा का अवसर भी पर अब तो इन्हें कानपुर जाना था.

रात का खाना किसी से नहीं खाया गया, मु झ से भी नहीं. सुबह सासूमां ने बनावटी हिम्मत दिखाते हुए कहा, ‘‘कानपुर कौन सा दूर है, हम दोनों हर महीने आते रहेंगे अपनी छुटकी के पास.’’

‘‘तो क्या आप लोग हमारे साथ नहीं चलोगे?’’ कुमार के इस सवाल के जवाब में बाबूजी ने कहा कि उम्र के इस पड़ाव में अपना घर छोड़ कर कहीं और नहीं जाना.

कुमार ने बहुत रिक्वैस्ट करी पर मांपापा नहीं माने, कुमार के साथ मु झे भी कानपुर जाना पड़ा. जब से ब्याह कर आई थी तब से इसी घर में सासससुर के साथ रही पर अब उन से दूर जाना थोड़ा बुरा तो लग ही रहा था पर अपने पति के साथ किसी बड़े शहर में जाना, बड़ी बिल्डिंगों के फ्लैट में रहना, मौल में ऐस्कलेटर पर चढ़तेउतरते हुए सैल्फी लेना यह सब मन को सुहा तो रहा ही था और फिर कुमार के साथ जब अकेली रहूंगी तो जी भर कर मनचाही रील्स भी तो बना सकूंगी, ये सब सोचते हुए उत्साह बढ़ रहा था, जरूरी पैकिंग कर ली गई थी और अगले दिन हम कानपुर के लिए रवाना हो गए.

कानपुर में फ्लैटरूपी आवास, कुमार की कंपनी ने दिलाया था इसलिए हमें कोई परेशानी नहीं हुई. हम ने अपना सामान भी सैट कर लिया और डिनर बाहर जा कर किया. नई जगह में आ कर मन प्रफुल्ल था और अपने कानपुर प्रवास के दूसरे ही दिन मैं ने धड़ल्ले से रील्स बनानी शुरू कर दीं. यहां तो सास की कोई पाबंदी भी नहीं थी. मैं ने कुछ नई साडि़यां खरीदीं और नाभिप्रदर्शना ढंग से बांध कर हिंदी फिल्मों के गानों पर रील्स बना इंस्टाग्राम पर पोस्ट कीं जिन पर अपेक्षाकृत कुछ अधिक लाइक्स भी आए थे. मु झे लगा कि इंस्टाग्राम पर स्टार बनने से मु झे कोई नहीं रोक सकता पर ऐसा नहीं था क्योंकि महीनों बीत जाने पर और सैकड़ों रील्स डालने के बाद भी मेरी कोई रील ऐसी नहीं थी जिस के हजारों लाइक्स आए हों और यह काम काफी कठिन है यह हमारी सम झ में आ चुका था.

इंस्टाग्राम से मन हटा तो पड़ोसी रीना ने फेसबुक का नाम कुछ लिखने और फोटोज पोस्ट करने के लिए सु झाया, मु झे ठीक लगा कि फेसबुक पर कोई किस्साकहानी लिखा जाए. मसलन, पहलेपहल मैं ने लिखा, ‘‘सिर में तेज दर्द है, कुछ अच्छा नहीं लग रहा.’’

इस छोटी सी बात के बदले कई राय और घरेलू नुसखे बताने वाले कमैंट आ गए. जुड़े लोगों की संख्या देख कर भी उत्साह जगा और फिर कुछ और लिखने को प्रेरित हुई. कभी कविता तो कभी बचपन की यादें तो कभी अपनी नन्ही बेटी की शैतानियों के बारे में लिखती रही तो मेरी पोस्ट अच्छे ढंग से वायरल होने लगीं, कभी लिखने को कुछ न होता तो मनगढ़ंत कहानी बना कर पोस्ट कर देती. अब तो मेरे कई रिश्तेदार भी मुझ से सोशल मीडिया पर जुड़ने लगे और मेरी तारीफ करने लगे थे.

कहते हैं कि अच्छा समय बहुत जल्दी गुजर जाता है. मुझे कानपुर आए कब 1 साल हो गया पता ही नहीं चला और आज ही सासूमां का फोन आया था कि वे कल शाम को कानपुर हमारे पास आ रही हैं.

अब जब से मैं ने अपनी सास के आने की खबर सुनी थी तब से तो मेरे होश ही उड़ गए. यहां पर 2 कमरों के फ्लैट में काम ही कितना था? कुमार लंच ले नहीं जाते थे सो अपने लिए 4 परांठे बना कर ही काम चला लेती थी. कभी जोमैटो का सहारा ले लेती. इधर जब से लिखना शुरू किया तब से तो और भी काहिल हो गई थी और मन को यह कह कर सम झा लेती कि अरे अब तू बड़ी फेसबुकिया लेखक हो गई है. इतना आराम तो कर ही सकती है पर अब सासूमां आ रही हैं तो सब से पहले तो वे मेरी किचन में  झांकेंगी और किचन के सारे कनस्तरों में उन्हें घुन और कीड़े ही नजर आएंगे. किचन से ही लगा हुआ एक छोटा सा स्टोर था. मैं ने सोचा लगे हाथों इस का भी मुआयना कर लूं सो देखा कि 2 किलोग्राम चने की दाल में घुन लग चुका था और चावलों में भी कीड़े पड़ गए थे.

1 लिटर पुराना शहद भी मिला, सोचा  झाड़ू करने वाली रजनी को यह सामान दे दूंगी पर उस ने भी मुंह बना कर कह दिया, ‘‘इस में तो अनाज से ज्यादा घुन है मैडम हम ऐसा सामान नहीं खाते.’’

मन मसोस कर मैं फिर से स्टोर में रखे सामान को तलाशने की नीयत से गई तो देखा कि अचार में फफूंद लगी हुई है और नीबू का अचार भी खराब हो रहा है. वैसे इतना सब सामान लाने में कुमार की गलती है. अरे, जब कम खर्चा है तो छोटी पैकिंग वाला सामान लाओ भला किलोकिलो क्यों लाते हो? मैं बहुत  झुं झुलाई और वहां अचार के डब्बे को हाथ में ले कर एक सैल्फी खींची और फेसबुक पर अपलोड कर दी. उस के साथ में कैप्शन लिख दिया कि कड़क और सख्त सासूमां के आने के साइड इफैक्ट. आगे लिखा कि जब सासूमां के साथ रहती थी तब उन्होंने रील्स बनाने को मना कर दिया था अब वे फिर से मेरे पास आ रही हैं,पता नहीं फेसबुक पर आप लोगों से कब मुलाकात होगी और इतना लिख कर बड़ी जल्दी से पोस्ट का बटन दबा दिया और मुक्त भाव से बिखरे सामान को ठीक करने में लग गई.

शाम तक काफी हद तक घर ठीक भी हो गया, अचानक मन में खयाल आया कि भले ही यह फ्लैट छोटा है, थोड़ाबहुत पैदल चल कर ही काम हो जाता है पर कितना अच्छा होता कि वेनिस की तरह यहां भी चारों तरफ पानी होता और एक से दूसरी जगह जाने के लिए हमें सुंदरसुंदर नावों का सहारा लेना पड़ता. खयाल अच्छा था पर अभी मैं इन खयालों में और डूबती कुमार के फोन ने मेरे विचारों पर रोक लगा दी.

‘‘अरे वह तुम्हारी चचेरी ननद बेबी का फोन आया था, बड़ी तारीफ कर रही थी तुम्हारे फेसबुकिया लेखन की और वह जो तुम ने मेरी मां पर कोई पोस्ट डाली है उस के बारे में भी जिक्र कर रही थी.’’

पोस्ट और अपनी चचेरी ननद का नाम सुनते ही मेरे मन में कुछ खटका. मैं सम झ गई थी कि अब तक मेरी सासूमां तक वह अचार वाली पोस्ट तो पहुंच ही गई होगी और सासूमां के बारे में लिखे शब्द उन्हें बता भी दिए गए होंगे.

मैं ने तुरंत मोबाइल खोला और पोस्ट हटानी चाहीें पर अब तक तो उस पोस्ट पर सैकड़ों लाइक्स आ चुके थे और इतनी देर में तो मेरी ननद ने अपना काम कर ही दिया होगा पर अब मैं सिर्फ इस पोस्ट को डिलीट करने के अलावा कर ही क्या सकती थी.

शाम को सासससुर आ गए ढेरों सामान लाए थे जिस में देशी घी और अचार मुख्य रूप से था, मेरी बेटी तो अपने दादादादी से अलग ही नही हो रही थी.

सच कहूं तो सासूमां के सामने काफी असहज महसूस कर रही थी मैं और उस का कारण मेरी सासूमां के हैशटैग वाली पोस्ट थी, पर तीर तो कमान से निकल ही चुका था इसलिए मैं पूरे मनोयोग से सासूमां की सेवा करने में लग गई. उन की पसंद का पूरा ध्यान रखा और देर रात तक उन के पास बैठ कर पुरानी यादों को ताजा करती रही.

‘‘तुम्हारी ननद बेबी कह रही थी कि अब तुम बड़ी अच्छी कविताकहानी लिखने लगी हो.’’

मैं यह बात सुन कर सन्न रह गई कि निश्चित ही बेबी ने सासूमां को उस पोस्ट के बारे में सबकुछ बता दिया होगा तभी तो वे पूछताछ कर रही हैं. मैं हकला गई.

सासूमां ने आगे कहना शुरू किया, ‘‘अरे तू चाहे नाचे या गीत लिखे या गाए पर जो भी कर एक स्त्री की मर्यादा में रह कर कर. उस कसबे में थे तो हमें भी आसपास की लोकलाज का ध्यान रखना था, परिवार की इज्जत का खयाल रखने के लिए हम ने भी घूंघट में जीवन काट दिया पर अब जीवन की सां झ आ गई है, अब तक तो हम ने सब का ध्यान रखा और अब भी हम लोगों के लिए जीते रहेंगे तो भला हम कब जीवन जी पाएंगे इसलिए अब जो हमें अच्छा लगेगा हम वही करेंगे.’’

सासूमां थोड़ा रुकीं और फिर बोलीं, ‘‘वह जो तुम लोगों का नाच का अड्डा है न वह जो ग्राम है न, क्या कहते हैं उसे? हां इंस्टाग्राम, उस जगह पर आजकल तो बहुएं अपनी सास के साथ मिल कर खूब रील्स बनाती है. अरे, अब हम से नाचवाच तो होगा नहीं पर कुरसी पर बैठेबैठे आंखों के इशारे तो हम भी कर सकते हैं.’’

सासूमां शरमाते हुए कह रही थीं. मैं अब तक उन की सारी मजबूरी और छोटी जगह में रहने के कारण एक दायरे में बंधे रहने की विवशता सम झ चुकी थी.

इतनी देर में दूसरे कमरे से कुमार और ससुर साहब उठ कर हमारा डांस देखने के लिए आ गए थे और सब सासूमां का यह रूप देख कर मारे खुशी से फूले नहीं समा रहे थे.

फट से मैं ने मोबाइल उठाया और अपनी सासूमां के साथ एक छोटा सा शूट किया. पाशर्व में गाना बज रहा था, ‘‘सास गाली देवे, ननद चुटकी लेवे ससुराल गेंदा फूल…’’

गाना भले ही बहुत  झुमाने वाला नहीं था मगर सोलफूल था जिस में सासूमां पहले तो बैठेबैठे अपने ऐक्सप्रैशन देती रहीं पर फिर वे जल्दी से बैड से उतर कर मेरे साथ नाचने लगीं और तब तक नाचती रही जब तक वे थक नहीं गईं. यह देख कर ससुर और कुमार भी हमारे साथ नाच में शामिल हो गए थे.

इसी बीच मैं सब की नजर बचा कर इस मजेदार मौके को फेसबुक और इंस्टाग्राम दोनों जगह लाइव और पोस्ट करने में लग गई थी. इंस्टाग्राम पर रील्स के रूप में तो फेसबुक पर एक कहानी के रूप में.

मैं और मेरी सास के भले ही फौलोअर्स नहीं थे पर हम दोनों अपनेआप में ही एक सैलिब्रिटी स्टेटस हासिल कर चुकी थीं और मेरी ससुराल सच में एक गेंदाफूल ही तो थी जिस मे रिश्तों के रंग थे, आपसी प्रेम की सुगंध थी. यहां इंस्टाग्राम की रील्स थी तो फेसबुक की कहानियां भी और मैं और मेरी सास अब मिल कर चला रहे थे जीवन का फेस्टाग्राम.

डैडलाइन : आखिर विदित के चौंकने की क्या थी वजह ?

गाड़ी ने स्पीड पकड़ी तो पूजा और नेहा की बातों ने भी स्पीड पकड़ ली. दोनों पिछले 4 दिनों में स्वाति की शादी में की मस्ती के 1-1 पल को फिर से जीने लगीं. तभी नेहा के मोबाइल पर आए मैसेज ने उस के मस्ती भरे मूड पर विराम लगा दिया.

‘‘क्या हुआ? सब ठीक तो है?’’ पूजा ने पूछा.

‘‘हांहां बिलकुल. बौस ने कुछ काम भेजा है, देखती हूं,’’ और नेहा लैपटौप खोल कर बैठ गई.

पूजा भी आसपास के यात्रियों को देखने लगी. सामने वाली सीट पर कोने में बैठी एक महिला को लगातार अपनी ओर ताकते देख पूजा थोड़ा असहज हो उठी. मगर पूजा से नजरें मिलते ही वह महिला मुसकराते हुए उठी और पूजा की बगल में आ कर बैठ गई. नेहा सहित अन्य सहयात्रियों को मजबूरन उस के लिए जगह बनानी पड़ी.

‘‘आप तारिणी की क्लासटीचर हैं न?’’ बैठते ही उस ने सवाल दाग दिया.

‘‘तारिणी? ओह हां. मेरी ही क्लास में है. आप उस की… मदर?’’

‘‘हां ठीक पहचाना आपने,’’ वह उत्साहित हो कर पूजा के और पास खिसक ली, ‘‘पेरैंट्स मीटिंग में मिले थे हम आप से.’’

उस का देशी लहजा सुन कुछ सहयात्री मंदमंद मुसकराने लगे. पर पूजा अप्रभावित बनी रही. स्कूल पेरैंट्स मीटिंग में सभी तरह के अभिभावकों से मिलतेमिलते वह इन सब की अभ्यस्त हो चुकी थी.

‘‘हम जानते हैं वह पढ़ाई में ज्यादा अच्छी नहीं है पर फिर भी हम चाहते हैं कि वह जिंदगी में कुछ बन जाए… डाक्टर, टीचर, वकील, कुछ भी… बस कैसे भी हो, अपने पैरों पर खड़ी हो जाए. हम ने भी शादी के बाद ही बीए, एमए सब किया और अब बीएड कर रहे हैं.’’

‘‘वाह, बहुत अच्छा,’’ पूजा ने प्रोत्साहित किया.

‘‘पर उस का ध्यान दूसरी चीजों में ज्यादा है. उसे अच्छा खानेपहनने का शौक है, सिनेमा देखने का शौक है. अपनी ओर से मैं उस पर पूरी नजर रखे हूं पर आप से भी थोड़ी उम्मीद रखती हूं… वह क्या है कि…’’ वह महिला पूजा को अपनी दर्दभरी दास्तां सुनाने लग गई.

नेहा ने अपना पूरा ध्यान लैपटौप पर केंद्रित कर लिया था. कुछ अन्य सहयात्री भी उकता कर आपस में बतियाने लगे. मगर पूजा सहित 1-2 और सहयात्री उस महिला की आपबीती ध्यान से सुनने लगे.

नेहा का काम समाप्त हुआ तब तक दोनों सहेलियों का स्टेशन आने में थोड़ा ही वक्त बचा था. वह महिला शायद अपनी आपबीती सुना चुकी थी क्योंकि पूजा उसे धैर्य बंधा रही थी कि उस की बेटी अपनी मां से सीख ले कर अवश्य कुछ बन कर दिखाएगी.

वह महिला अपनी सीट पर लौट गई तो नेहा अपनी उत्सुकता नहीं रोक सकी. पूछा, ‘‘कैसी है इस की बेटी?’’

‘‘क्लास की सब से डफर स्टूडैंट है. पास होने के भी लाले पड़ रहे हैं,’’ पूजा धीरे से उस के कान में फुसफुसाई.

‘‘तो फिर तुम ने उस से खरीखरी बात बोली क्यों नहीं कि वह अपनी बेटी से बेकार ही उम्मीद न लगाए?’’

‘‘तुम ने शायद गौर नहीं किया कि उस की जिंदगी कितनी संघर्षपूर्ण रही है. कितनी उम्मीदों से वह अपनी उस इकलौती संतान को पाल रही है और कितनी उम्मीद से वह मेरे पास आई थी. क्या वह अपनी बेटी और उस के कैलिबर को नहीं जानती? मु झ से बेहतर जानती है पर फिर भी उस ने उम्मीद नहीं छोड़ी है. निरंतर प्रयत्नरत है. तो मैं उस की उम्मीदें तोड़ने वाली कौन होती हूं? और हो सकता है कल को ये मांबेटी मु झे ही गलत सिद्ध कर दें बल्कि इस महिला का जीवट देख कर तो मैं चाहती हूं कि वह मु झे गलत सिद्ध करे… नेहा, सामने वाला जब दिल से सवाल कर रहा हो तो उसे दिमाग से जवाब देना मेरी नजर में तो अक्लमंदी नहीं है.’’

पूजा की बातों ने नेहा को गहराई तक प्रभावित किया. विशेषकर उस के कहे अंतिम वाक्य ने तो नेहा को आत्मविश्लेषण के लिए मजबूर कर दिया. अभी 4 दिन पहले की ही तो बात है. शादी में जाने की तैयारी निबटा कर वह लैपटौप पर प्रोजैक्ट का काम समाप्त कर लेने के इरादे से बैठी ही थी कि नहा कर बेहद रोमांटिक मूड में कमरे में घुसे विदित ने उसे बांहों में भर लिया.

‘‘इतने दिनों के लिए दूर जा रही हो. एडवांस में भरपाई करना तो बनता है जान.’’

नेहा  झटके से दूर खिसक गई, ‘‘नो विदित प्लीज. 4 दिन शादी में कुछ काम नहीं हो पाएगा. इसलिए मैं ने पहले से ही इस प्रोजैक्ट के लिए आज की डैडलाइन फिक्स कर दी थी. चाहे रातभर बैठना पड़े पर मु झे इसे आज पूरा करना ही होगा.’’

नेहा को याद आ रहा था सिर्फ यही नहीं प्यार में डूब कर विदित कई बार उस से अब 2 से 3 हो जाने का आग्रह भी कर चुका था पर नेहा को हर बार ही ऐसे अवसरों पर कभी अपनी प्रमोशन याद आ जाती तो कभी नए फ्लैट या कार की ईएमआई की डैडलाइन.

‘‘सालभर बाद मैं ऐसोसिएट होने वाली हूं. फिर प्लान करें तो बेहतर नहीं होगा? आखिर पेट में 9 महीने रख कर तो मु झे ही घूमना है न?’’

हर काम में सहयोग करने वाला विदित भला इस में क्या सहयोग कर सकता था?

इसलिए मन मार कर उसे अपनी उत्तेजना के आवेग को शांत करना पड़ा. इधर ऐसोसिएट हो जाने के बाद अब नेहा पर जल्द से जल्द वीपी बन जाने का भूत सवार हो गया था.

‘‘मैं ने वीपी बनने की डैडलाइन तय कर ली है… 2 साल के अंदरअंदर,’’ वह अकसर गर्व से कहती.

ऐसा नहीं कि प्रमोशन की चाह केवल नेहा को ही थी और विदित अपने कैरियर के प्रति सर्वथा उदासीन था. फर्क था तो बस इतना कि दोनों की प्राथमिकताएं अलग थीं. तभी तो विदित उस के सम्मुख छोटे से ले कर बड़ा प्रस्ताव तक दिल से रखता था. चाहे वह होटल में डिनर का प्रस्ताव हो या 2 से 3 हो जाने का प्रस्ताव. लेकिन उस ने आज तक रखे ऐसे हर प्रस्ताव का जवाब दिमाग से दे कर विदित को कितना हर्ट किया है इस का एहसास नेहा को आज हो रहा था.

मोबाइल बजा तो नेहा की चेतना लौटी. बौस का फोन था. स्टेशन से सीधे औफिस आने का निर्देश था. जरूरी मीटिंग रखी गई थी.

‘‘पर सर एक बार फ्रैश…’’ नेहा ने कहना चाहा.

‘‘हमारा औफिस घर जैसी सुविधाएं इसीलिए उपलब्ध करवाता है ताकि कर्मचारी का बेकार समय नष्ट न हो. नेहा, तुम औफिस आ कर भी फ्रैश हो सकती हो,’’ और उधर से फोन काट दिया गया.

बहस की कोई गुंजाइश न देख नेहा खुद को सीधे औफिस जाने के लिए तैयार

करने लगी. तभी विदित की कौल आ गई, ‘‘हाय डार्लिंग, कैसी रही विजिट? मैं तुम्हें लेने स्टेशन निकल रहा हूं.’’

‘‘नहींनहीं, तुम मत आना. मैं तुम्हें फोन करने ही वाली थी. बौस ने गाड़ी भेज दी है. मु झे सीधे औफिस पहुंचना होगा. जरूरी मीटिंग है.’’

‘‘क्या जानू, इतने दिनों बाद आई हो और… अच्छा, शाम को घर जल्दी पहुंचने की कोशिश करना. मेरा यार बलजीत डिनर पर आ रहा है अपनी नईनवेली दुलहन के साथ. हम लोग तो उस की शादी में भी नहीं जा पाए थे.’’

‘‘पर मैं डिनर कैसे मैनेज करूंगी? आई मीन इतने दिनों बाद लौटी हूं. घर में क्या है, क्या नहीं पहले देखना पड़ेगा तभी तो कुक को बता बताऊंगी कि क्या बनाना है?’’ हमेशा की तरह वर्कप्रैशर बढ़ते ही नेहा  झल्ला उठी थी.

‘‘ओके रिलैक्स डार्लिंग, तुम चिंता मत करो. खाना मैं बाहर से पैक करवा कर ले आऊंगा. तुम बस डिनर टाइम तक घर जरूर पहुंच जाना.’’

‘‘ठीक है, मैं कोशिश करूंगी,’’ एक ठंडी सांस छोड़ते हुए नेहा ने फोन बंद कर दिया.

‘‘4 दिन वहां शादी में नैटवर्क नहीं मिल रहा था तो कितने आराम से दिन गुजरे. घर पहुंचने से पहले ही फिर वही आपाधापी वाली जिंदगी शुरू हो गई.

न जाने वैसे चिंतामुक्त दिन फिर कब मिलेंगे?’’ नेहा ने गौर किया उस की मनोस्थिति से सर्वथा अनजान पूजा अपने फोन पर लगी हुई थी.

‘‘चुनचुन ने ज्यादा परेशान तो नहीं किया न तुम्हें? क्या? अच्छा जनाब. मेरे बिना बापबेटी ज्यादा आराम से रहे. ठीक है तो फिर मैं घर ही क्यों लौटूं? मैं अपनी फ्रैंड के यहां जा रही हूं… क्या? घंटे भर से स्टेशन पर सूख रहे हो? हाय, उफ, तो इतनी जल्दी लेने क्यों आए? अच्छा अब कुछ नारियल पानी या जूस वगैरह पी लो और चुनचुन को भी पिला दो. उस से कहना ममा उस के लिए बहुत सुंदर फ्रौक ले कर आई है… तुम्हारे लिए? कुछ नहीं… अरे बाबा, ऐसा हो सकता है कि बाहर जाऊं और तुम्हारे लिए कुछ न लाऊं? सरप्राइज है, घर पहुंच कर बताऊंगी… क्या मेरे लिए भी घर पर सरप्राइज है? क्या? बताओ न?’’ पूजा आस पास का सबकुछ भूल फोन पर ही बच्चों की तरह ठुनकने लगी थी. उसे देख कर कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता था कि वह एक बेहद जिम्मेदार और अनुभवी शिक्षिका है. नेहा को अपनी ओर टकटकी बांधे देख पूजा लजा गई और सामान समेटने का उपक्रम करने लगी.

खाली होती रेल नेहा को अपने अंदर भी एक रीतेपन का एहसास करा रही थी. पूजा को गरमजोशी और आत्मीयता से पति और बच्ची से मिलते देख रीतेपन की यह कसक और भी गहरा उठी. ड्राइवर ने आगे बढ़ कर उस के हाथ से सूटकेस थाम लिया तो नेहा जल्दीजल्दी कदम बढ़ा कर गाड़ी में जा कर बैठ गई.

पूरा दिन एक के बाद एक मीटिंग और प्रेजैंटेशन ने उसे बुरी तरह थका दिया, ‘आज तो घर लौट कर भी आराम नहीं है,’ सोचते हुए नेहा घर में घुसी तो मनपसंद गरमगरम सूप की सुगंध ने उस के मुंह में पानी भर दिया.

‘‘आओ नेहा, बिलकुल सही वक्त पर आई हो. पहले अपना फैवरिट सूप पी कर थकान मिटा लो. फिर चेंज वगैरह कर लेना. बलजीत से तो तुम पहले मिल ही चुकी हो. ये जस्सीजी हैं. इन्होंने तो आते ही साधिकार रसोई संभाल ली है. मेरे मना करतेकरते भी देखो सूप गरम कर के ले ही आईं.’’

नेहा ने थैंक्यू कहते हुए सूप उठा लिया. बोली, ‘‘इस वक्त मु झे वाकई इस की बहुत जरूरत थी. सौरी जस्सीजी, जो काम मु झे करना चाहिए था आप को करना पड़ रहा है.’’

‘‘अरे कोई गल नहीं भरजाईजी. जस्सी तो जहां जाती है उस घर और घर वालों को अपना बना कर छोड़ती है. मेरे तो सारे घर वालों को इस ने अपने वश में कर लिया है. घर में कोई मेरी तो सुनता ही नहीं, सब इसी की बात मानते हैं. आज तो इस ने खाना लगाया ही है, कभी बनवा कर देखो. उंगुलियां चाटते रह जाओगे,’’ बलजीत ने गर्व से कहा तो जस्सी लजा गई.

नेहा को पूरी उम्मीद थी विदित यह मौका हाथ से नहीं जाने देंगे. अब वे अवश्य दोस्त के सामने अपने दिल की भड़ास निकालेंगे. अत: चेंज करने के बहाने वह उठ कर अंदर चली गई. चेंज कर के रसोई में पहुंची तो पाया जस्सी वहां पहले से मौजूद थी. विदित द्वारा पैक करवा कर लाया खाना वह डोगों में सजा रही थी.

‘‘बलजीत भैया आप की तारीफ ठीक ही कर रहे थे. आप वाकई गृहलक्ष्मी हैं,’’ नेहा कहे बिना नहीं रह सकी.

‘‘अरे, असली तारीफ तो अब हो रही है. ध्यान से सुनिए,’’ जस्सी ने कहा तो नेहा कान लगा कर सुनने लगी. विदित यह सब क्या कह रहा है? नेहा को अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था.

‘‘बलजीत, नेहा मेरे लिए बहुत खास है. वह आम महिलाओं की तरह चूल्हाचैका संभालने या बच्चे पैदा करने के लिए नहीं बनी है. कुदरत ने उसे किसी खास प्रयोजन हेतु इस दुनिया में भेजा है. अपने काम के प्रति उस का समर्पण ऐसा है कि बड़ेबड़े प्रोजैक्ट वह डैडलाइन तय कर चुटकियों में तैयार कर लेती है. मगर बेचारी को इस की कीमत भी चुकानी पड़ रही है. अब आज का ही उदाहरण ले लो. बेचारी सहेली की शादी से लौटी नहीं कि इधर मैं ने उम्मीदें लगानी शुरू कर दीं. उधर उस के बौस ने तो गाड़ी भेज कर स्टेशन से ही औफिस बुलवा लिया. इसलिए मेरा प्रयास रहता है उस पर घर परिवार की कम से कम जिम्मेदारियां लादूं ताकि वह अपना प्रबुद्ध दिमाग और बेशकीमती समय बड़ेबड़े कामों में लगा सके.’’

‘‘आप तो बहुत लकी हैं भाभी,’’ कहते हुए जस्सी ने आत्मीयता से नेहा के गालों पर लुढ़क आए आंसू पोंछ दिए तो नेहा की तंद्रा लौटी. कुछ पलों के लिए शायद वह किसी और ही दुनिया में चली गई थी.

रात में विदित चेंज कर बैडरूम में घुसे तो चौंक उठे. नेहा बत्ती बु झाए आकर्षक नाइटी में बिस्तर पर उन का इंतजार कर रही थी.

‘‘आज तो जनाब के तेवर कुछ बदलेबदले लग रहे हैं,’’ फिर लैपटौप की ओर इंगित करते हुए कहा, ‘‘गोद का बच्चा भी इधर छिटका पड़ा है. आज की कोई डैडलाइन तय नहीं कर रखी है क्या?’’

‘‘कर रखी है न, 2 से 3 होने की,’’ कह नेहा ने शरारत से विदित को रजाई में खींच लिया.

अलग धरातल : घर छोड़ने के बाद वह मां को क्यों इतना याद कर रही थी

Writer- Vimla Rastogi

सुबह  व दोपहर के बाद शाम भी होने जा रही थी. समय के हर पल के साथ मेरी बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी. हर आहट पर मैं चौंक उठती. दुविधा, आशंकाएं मेरे सब्र पर हावी होती जा रही थीं. खिड़की पर जा कर देखती, कुसुम का कहीं पता न था. क्यों नहीं आई अब तक? शायद बस न मिली हो. देरी का कोई भी कारण हो सकता है. मैं अपने मन को सम झाने का असफल प्रयास करती रही. तभी मैं ने संतोष की सांस ली. सामने बैग लिए कुसुम खड़ी थी. इस से पहले कि मैं अपनी बेचैनी जाहिर करती, उस के पैरों की शिथिलता ने मु झे भी शिथिल बना दिया. वह रेंगते कदमों से सोफे पर धंस गई.

‘‘बात नहीं बनी?’’ मैं ने स्वयं को संयत कर पूछा.

‘‘हां, तरू. अशोक किसी भी कीमत पर सम झौता करने को तैयार नहीं है.’’

‘‘तू ने मेरी तरफ से…’’

‘‘हां, मैं ने हर तरीके से सम झा दिया. वह यही कहता रहा कि अब हम दोनों के धरातल अलगअलग हैं. एक ही मकान अलगअलग नींवों पर खड़ा नहीं हो सकता.’’

‘‘सच है उस का कहना. अपनी बरबादी का कारण मैं स्वयं हूं. मु झे अपने किए का फल मिलना ही चाहिए ताकि दूसरी लड़कियां मु झ से कुछ सीख सकें. मेरे जैसी गलतियां दोहराई न जाएं.’’

‘‘सच तरू तू ने अकारण ही अपना बसाबसाया घर उजाड़ डाला.’’

‘‘हां कुसुम मेरे  झूठे अहं ने मु झे कहीं का न छोड़ा. तू तो मेरे बारे में बहुत कुछ जानती है. पर जिंदगी के कुछ खास अध्याय मैं तु झे विस्तार से बताना चाहती हूं. पश्चात्ताप की जलन ने मु झे मेरी भूलों का एहसास करा दिया है. उस दिन भी मंगलवार ही था. मैं दफ्तर से आई थी तो उठी तो 7 बज चुके थे. खुद को ठीक किया. कमरा सुबह से अस्तव्यस्त पड़ा था. तभी अशोक आ गए.

‘‘बुक करा लिया टिकट?’’ प्रश्न बंदूक की गोली सा उन पर दाग दिया गया.

‘‘बताता हूं. पहले एक कप चाय हो जाए.’’

‘‘चाय पीने में देर हो जाएगी, वहीं कैफे में पी लेंगे,’’ मैं ने कहा.

‘‘हम तो तुम्हारे हाथ की बनी चाय ही पीएंगे,’’ अशोक बोले.

‘‘देखो, बातों में मत फुसलाओ. साफसाफ बताओ कि टिकट बुक किया या नहीं?’’

‘‘दरअसल…’’

‘‘हांहां, सोच लो कोई बहाना,’’ मैं ने कहा.

‘‘बहाना नहीं, सच कह रहा हूं. आज

दफ्तर में बहुत काम था. बीच में 1-2 बार ट्राई किया पर साइट विजी थी इसलिए हो न सका.’’

‘‘यह काठ का रैक बुक करने की फुरसत तुम्हें मिल गई, म्यूजिक कंसर्ट के टिकट के

लिए नहीं.’’

‘‘अरे बाबा, यह तो सुबह और्डर कर दिया था. सख्त जरूरत थी इस की. डब्बे इस रैक में लग जाने से कमरा खाली दिखाई देगा.’’

‘‘जब देखो कमरे की सफाई, सामान को ठीक ढंग से लगाने पर जोर, इस तरह के कभीकभार होने वाले लाइव व म्यूजिक को

जाने को मन ही कब करता है तुम्हारा? तुम तो खुश होगे कि 3-4 हजार रुपए भी बच गए.’’

‘‘तरू, तुम हर बात कितनी आसानी से कह जाती हो.’’

‘‘क्या गलत कहा है? तुम हर समय पैसे का खयाल करते हो.’’

‘‘कहीं भी कुछ भी शुरू करने से पहले अपनी जेब तो देखनी ही पड़ती है.’’

‘‘जेब को इतना ही देखना था तो फिर शादी क्यों की?’’ मेरा क्रोध अग्नि बनता जा रहा था और उन का धैर्य पानी.

‘‘‘तरू, नाहक परेशान न हो. यह स्टार तो आतेजाते रहते हैं. अगली बार चल चलेंगे.’’

इस सिंगर को लाइव देखने का कितना मन था. स्टेडियम का मैदान पूरा भरा होगा. जो थ्रिल होगी उस की कल्पना नहीं कर सकते. फिर कब होगा किसे पता? हो सकता है तुम्हारा कोई दोस्त, पुरानी गर्लफ्रैंड, रिश्तेदार ही आ धमके.

‘‘तरू, बात कहने से पहले सोच तो लिया करो.’’

‘‘तुम ने शादी से पहले कुछ सोचा था? लोगबाग अपनी बीवियों के लिए क्या कुछ नहीं करते? एक तुम हो कि एक कमरे के मकान में ला कर डाल दिया कि लो बना लो अपने रहनसहन का स्तर. एक दिन भी खुशी प्राप्त नहीं हुई. मेरी नौकरी न होती तो इस का किराया भी न दे पाते.’’

‘‘खुशी मन की होती है. तुम कभी किसी बात से संतुष्ट ही नहीं होतीं. मेरी तो बराबर तुम्हें खुश रखने की कोशिश रहती है.’’

‘‘बातें खूब कर लेते हो.’’

‘‘क्यों? तुम्हारे कहने पर ही तो मैं ने

यहां शहर में बदली कराई है वरना मौमडैड

के साथ रहते. खर्चा भी कम होता, तुम्हें आराम भी मिलता.’’

‘‘मेरे बस का नहीं था उस छोटी सी

जगह घर में घुसते ही सिर ढकेढके काम करना, दब कर रहना. मौम की किट्टी सहेलियों की

सेवा करना.’’

‘‘पर अफसोस तो यह है कि तुम यहां आ कर भी खुश नहीं हो.’’

‘‘यहां कितना घुमाफिरा रहे हो तुम मु झे?’’

‘‘केवल घूमना ही सुख नहीं है. शादी से पहले क्या घूमती ही रहती थी? हम लोग डेटिंग करते समय 5 सालों में कब कहां जा पाए थे?’’

‘‘तब सोचते थे शादी के बाद घूमेंगे, हम ने शादी से पहले भी मनचाहा खाया, पहना, क्या पता था कि…’’ मेरी हिचकियां तेज हो गई थीं.

वे फिर भी मेरे आंसुओं की लडि़यां संजोते हुए बोले, ‘‘बचपना छोड़ दो, तरू. अब तुम अकेली नहीं हो, कोई और भी है जो तुम्हारे प्यार पर बिछबिछ जाता है. तुम्हारा अपना घर है, अपनी जिम्मेदारियां हैं और जहां जिम्मेदारियां होती हैं, वहां कुछ परेशानियां भी होती हैं. कुछ पाने के लिए खोना भी पड़ता है.’’

‘‘साफसाफ सुन लो अशोक, मैं परेशानियां ढोने वाला कोई वाहन नहीं हूं. मेरी सब सहेलियां कितने ठाट से रहती हैं, एक मैं ही…’’

‘‘तो किसी करोड़पति वाले से शादी की होती. सुबह देर से उठती हो, सारा दिन दफ्तर पर रहती हो, संडे को इधरउधर चल देती हो. घर कभी व्यवस्थित नहीं रहता. मैं कुछ नहीं कहता, जो मु झ से बन पड़ता है करता हूं. फिर भी…’’

‘‘अशोक, मैं तुम्हारी नौकरानी बनने नहीं आई हूं.’’

‘‘तरू, बहुत हो चुका. अब चुप हो जाओ वरना…’’

‘‘वरना क्या कर लोगे मेरा? मारोगे? घर से निकालोगे? ब्रेकअप करोगे जो कसर बाकी हो, वह भी पूरी कर लो,’’ दोनों तरफ से तड़ातड़ वाक्यबाण चलते रहे.

‘‘तरू, मेहरबानी कर के चुप हो जाओ. क्यों घर बरबाद करने पर तुली हो?’’

‘‘यह घर आबाद ही कब हुआ था?’’

‘‘बात में बात निकाल कर बढ़ाती जा रही हो. चुप नहीं रह सकतीं क्या?’’

‘‘मैं ने कभी अपने मांबाप की नहीं सुनी… तभी तो तुम जैसे अपनी से नीची जाति वाले से शादी कर ली.’’

‘‘तो वहीं जा कर रहो.’’

‘‘हांहां, वहीं चली जाऊंगी. खुली हवा में सांस तो ले सकूंगी. एक कमरे का कोई घर होता है? न बैठक, न खाने का कमरा. न फर्नीचर, न क्रौकरी. क्या सजाऊं, क्या संवारूं?’’

‘‘एक कमरे को सजानेसंवारने की ज्यादा आवश्यकता होती है, एक बार याद रखो, आलीशान इमारतें और फर्नीचर से होटल बनते हैं, घर नहीं. घर बनता है प्यार से, अपनेपन से.’’

‘‘रहने दो अपने उपदेश. अब मुझे यहां नहीं रहना.’’

‘‘तरू, जल्दबाजी में उठे कदम हमेशा पतन और पश्चात्ताप की ओर जाते हैं.’’

‘‘तुम्हारी बला से मैं मरूं या जीऊं. तुम खर्च से बचोगे.’’

‘‘तरू, क्या हम दोनों अलग रहने के लिए एक हुए थे?’’

‘‘अब मु झे कुछ नहीं सुनना, मैं जा रही हूं,’’ गुस्सा मेरे विवेक पर हावी हो चुका था. मैं ने बैग में कपड़े डालने शुरू कर दिए.

‘‘पागल हुई हो? मैं रात में तुम्हें अकेले नहीं जाने दूंगा,’’ कह कर अशोक ने मेरे हाथ से बैग छीन लिया.

‘‘जीभर कर परेशान कर लो पर मैं ने भी सोच लिया है मु झे यहां नहीं रहना… नहीं रहना…’’ और मैं औंधे मुंह पलंग पर गिर कर सिसकती रही.

बिन बुलाए मेहमान सी साधिकार रात आ चुकी थी. हम दोनों की आंखें नींद से कोरी थीं. कुलबुलाते पेट, बेचैन दिल और करवटें बदलते हम. रात पंख लगा कर उड़ती रही, पर मेरा क्रोध कम न हुआ. अशोक का आत्मसम्मान भी जाग चुका था. वे भी कुछ नहीं बोले. भोर होते ही मैं ने 2 कप चाय बनाई, जो प्यालों की खनखनाहटट के बीच पी ली गई. मैं ने बैग उठाया, 2 मिनट रुकी. मैं जानती थी अशोक कुछ न कुछ जरूर कहेंगे. ऐसा ही हुआ. वे बोले, ‘‘तरू, गुस्सा कम होते ही मैसेज कर देना, मैं आ जाऊंगा. चाहो तो स्वयं चली आना.’’

मैं बिना जवाब दिए ही आगे बढ़ गई. रास्तेभर मेरे दिमाग में अनेकानेक विचार आतेजाते रहे.

मु झे अचानक और अकारण आया देख कर घर में सब लोग आश्चर्यचकित रह गए. सब की हमदर्दी से मु झे रुलाई आ गई.

‘‘और तू ने खूब बढ़ाचढ़ा कर अपने घरवालों से कह दिया कि अशोक ने तु झे मारा, घर से निकाला और घर के लिए रुपए लाने को कहा है?

‘‘हां कुसुम, मैं पूरी तरह अपना विवेक खो चुकी थी. मु झ पर अशोक को नीचा दिखाने का जनून सवार था. मेरी बातें सुन कर मेरा भाई राकेश भड़क उठा. बोला, ‘‘उस नीच जाति के अशोक की इतनी हिम्मत कि मेरी बहन पर हाथ उठाए? लालची कहीं का… रुपए मांगता है. ऐसा सबक  सिखाऊंगा कि जिंदगीभर याद रखेगा. देख लेना यहीं आ कर तु झ से माफी मांगेगा. मैं कल ही अपने दोस्त विनोद के साथ उस के पास जाऊंगा,’’ कह कर राकेश चला गया.

और अगले दिन अशोक के घर पहुंच कर विनोद और राकेश ने उसे खूब खरीखोटी सुनाई.

 

वे दोनों जाते ही अशोक पर बस पड़े. विनोद ने कहा,

‘‘बनो मत, अशोक. हम आप जैसे लालची युवकों की नसनस से वाकिफ हैं. शर्म नहीं आती आप को. आप जैसों के अच्छी तरह सम झते हैं हम और इसीलिए 2 साल शादी नहीं होने दी. खुद तो कभी सलीके से नहीं रहे, हमारी बहन को भी उसी तरह रखना चाहते हो.’’

‘‘विनोद, आप को गलतफहमी हुई है. तरूणा को मारना तो दूर, मैं ने उस से कटु शब्द भी नहीं कहे. आप का धन, आप की जाति आप को मुबारक हो.’’

‘‘भोले मत बनो अशोक, हम से टकराना महंगा पड़ेगा. हम दब्बू लड़की वाले नहीं हैं.’’

‘‘मेरे घर में मेरा अपमान करने का आप को कोई हक नहीं है.’’

‘‘खैरियत इसी में है अशोक आप 2 दिन के अंदर ही हमारे घर आ कर तरूणा से माफी मांगें अन्यथा अंजाम अच्छा न होगा, पछताओगे.’’

‘‘कुसुम, ये लोग आंधी की तरह गए और तूफान की तरह आ गए. इन लोगों ने लौट कर मु झे केवल इतना ही बताया कि 1-2 दिन में अशोक यहां आएंगे,’’ मैं ने कुसुम से कहा.

‘‘तरू, अशाक ने तुम से शदी की थी, अपना स्वाभिमान नहीं बेचा था. तुम्हारे घर आ कर तुम से माफी मांग कर वह अपने अपमान पर मुहर नहीं लगाना चाहता था.’’

‘‘हां, इसीलिए वह नहीं आया और 4 दिन बाद ही तुम्हारे भाई ने किराए के आदमियों से उसे पिटवा दिया. कितना नीच काम किया.’’

‘‘मैं ने ऐसा नहीं कहा था. मु झे यह बात काफी दिन बाद पता चली.’’

‘‘अपने भाई को तुम पहले ही काफी भड़का चुकी थीं. बस जवानी के जोश में राकेश ने भलाबुरा कुछ भी न सोचा. उस ने बारबार पढ़ रख था कि वे लोग ताड़न के अधिकारी हैं. उस का जाति अहम जाग चुका था. तुम्हें मालूम है न आज का माहौल कैसा है?’’

‘‘कुसुम, अपने घर को मैं ने खुद ही आग लगाई है. फिर किस से दोष दूं?’’

‘‘जिंदगी की हकीकतों से घबरा कर तुम जैसी पलायनवादी लड़कियां अपने साथ अपनी जिंदगी को भी ले डूबती हैं. सभी लड़कियों को दहेज के कारण नहीं मारा जाता. उन में से आधी धैर्य व साहस के अभाव में या बदले की भावना से आत्महत्या कर बैठती हैं या तलाक ले कर जीवनभर नए की तलाश करती रहती हैं.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो. मैं भी अशोक को नीचा दिखा कर ऊंची बनना चाहती थी. शायद मेरा पुश्तैनी  झूठा अहं भी इस से संतुष्ट होता.’’

‘‘तरू, तू ने अपने साथ अशोक को भी कहीं का न छोड़ा. बेचारे ने मारे शर्म के उस शहर में नौकरी छोड़ दी. अपने मांबाप के पास भी उस का मन नहीं लगा क्योंकि घर वालों की सहानुभूति और बाहर वालों के व्यंग्य दोनों ही उस से बरदाश्त नहीं हुए. वह फिर नौकरी की तलाश में भटकता रहा. जैसेतैसे उसे एक नौकरी मिल गई. उस की जिंदगी में न कोई चाह है, न कोई उमंग, बढ़ी दाढ़ी, आंखों के नीचे काले गड्ढे, दुबला शरीर, असमय ही बूढ़ा हो गया है वह.’’

‘‘मेरी जिंदगी भी कम वीरान नहीं. अब न सुबह होने की खुशी होती है, न रात होने का अवसाद. न सुबह को किसी की विदाई, न शाम को किसी का इंतजार. नौकरी पर जाती हूं पर कोई उत्साह नहीं. मशीन की तरह काम करती हूं. सबकुछ गड्डमड्ड हो गया. मैं ने जीती हुई बाजी हार दी है. क्या मु झे हारी हुई बाजी ले कर ही बैठे रहना होगा? कुसुम मु झे कोई तो रास्ता बता?’’ मैं ने कहा.

मैं ने अशोक को बहुत सम झाया. यह भी कहा कि तरूणा अपने किए पर बेहद शर्मिंदा है उसे माफ कर दो पर वह यही कहता रहा कि  झूठे लांछनों से प्रताडि़त मैं तरूणा को कभी माफ नहीं कर सकता. हम दोनों कभी एक नहीं हो सकते. तरूणा ने मु झ से किस जन्म का बदला लिया है, मैं आज तक सम झ नहीं पाया. तुम्हारे भाई ने न जाने उस की जाति को ले कर क्याक्या कह दिया कि अब वह बदलने को तैयार की.’’

‘‘हां, कुसुम, वे मु झे बहुत चाहते थे. मैं ही सपनों के रंगमहल में खोई रहती. सचाई के धरातल पर पैर ही न रखना चाहती थी. मैं मांबाप की बहुत मुंहचढ़ी थी. मैं ने कभी किसी की एक भी बात बरदातश्त नहीं की थी. जब मैं गुस्से में घर छोड़ कर चली आई, उस दिन काश, मेरी मां मु झे बजाय आंचल में छिपाने के फटकार कर अशोक के पास भेज देतीं तो कुछ और होता. मौमडैड ने तो यही कहा कि इन छोटी जातियों वालों में तो यही होता है. अब तलाक दिला कर तेरी शादी कुलीन घर में कराएंगे.’’

‘‘पीहर वालों की शह भी लड़की की जिंदगी में सुलगती लकडि़यों सा काम करती है, तरू.’’

‘‘अब सब अपनीअपनी दुनिया में मगन हैं. राकेश से कुछ कहो तो वह भी मेरी गलती बताता है. मां भी मेरे  झूठे बोलने को दोष देती हैं. मैं अकेली वीरान जिंदगी लिए समाज की व्यंग्योेक्तियां, दोषारोपण कैसे सह पाऊंगी? वकील ने कह दिया कि अगर सहमति से तलाक न हुआ तो केस 4-5 साल चलेगा और 5 लाख रुपए तो लग जाएंगे. अब इतने पैसे न भाई खर्च करने को तैयार न मौमडैड. मेरी सैलरी भी उन्हें मिल रही है तो वे क्यों चिंता करें.

‘‘हर इंसान अपने किए को भोगता है, तरू. रो कर सहो या चुप रह कर, तुम्हें सहना ही होगा. अशोक तुम से इतनी दूर जा चुका है कि तुम्हारा रुदन, तड़प कुछ भी उस तक नहीं पहुंच सकता.’’

‘‘एक भूल की इतनी बड़ी सजा?’’

‘‘दियासलाई की एक तीली ही सारा घर फूंकने की सामर्थ्य रखती है.’’

‘‘कुसुम, तुम भी मु झे ही…’’

‘‘मैं क्या करूं, तरू? अलगअलग धरातलों पर खड़े तुम दोनों किसकिस को दोष दोगे? अब मैं चलूंगी, तरू, देर हो रही है.’’

‘‘जाओ कुसुम, कहीं लौटने में बहुत देर न हो जाए. घर पर कोई तुम्हारा इंतजार कर रहा होगा,’’ मैं ने हार कर कहा.

कुसुम चली गई. मैं निर्विकार भाव से उसे जाती हुई देखती रही. रह गया केवल सन्नाटा, जिस के साए में ही मुझे दिन गुजारने हैं.

प्यार है: लड़ाई को प्यार से जीत पाए दो प्यार करने वाले

हाइड पार्क सोसाइटी वैसे तो ठाणे के काफी पौश इलाके में स्थित है, यहां के लोग भी अपनेआप को सभ्य, शिष्ट, आधुनिक और समृद्ध मानते हैं, पर जैसाकि अपवाद तो हर जगह होते हैं, और यहां भी है. कई बार ऊपरी चमकदमक से तो देखने में तो लगता है कि परिवार बहुत अच्छा है, सभ्य है पर जब असलियत सामने आती है तो हैरान हुए बिना नहीं रह सकते. ऐसे ही 2 परिवारों के जब अजीब से रंगढंग सामने आए तो यहां के निवासियों को समझ ही नहीं आया कि इन का क्या किया जाए, हंसें या इन्हे टोकें.

बिल्डिंग नंबर 9 के फ्लैट 804 में रहते हैं रोहित, उन की पत्नी सुधा और बेटियां सोनिका और मोनिका. इन के सामने वाले फ्लैट 805 में रहते हैं आलोक, उन की पत्नी मीरा और बेटा शिविन. कभी दोनों परिवारों में अच्छी दोस्ती थी, दोनों के बच्चे एक ही स्कूलकलेज में पढ़ते रहे.

दोनों दंपत्ति बहुत ही जिद्दी, घमंडी और गुस्सैल हैं. जो भी इन परिवारों के बीच दोस्ती रही, वह सिर्फ इन के प्यारे, समझदार बच्चों के कारण ही. अब 1 साल के आगेपीछे शिविन और सोनिका दोनों आगे की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए हैं. मोनिका मुंबई में ही फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही है. सब ठीक चल ही रहा था कि सोसाइटी में कुछ लोगों ने आमनेसामने के खाली फ्लैट खरीद लिए और अब उन का बड़ा सा घर हो गया, तो इन दोनों दंपत्तियों के मन में आया कि उन्हें भी सामने वाला फ्लैट मिल जाए तो उन का भी घर बहुत बड़ा हो जाएगा.

एक दिन सोसाइटी की मीटिंग चल रही थी कि वहां रोहित ने आलोक से कहा, ”आप का अपना फ्लैट बेचने का कोई मूड है क्या?”

”नहीं भाई, मैं क्यों बेचूंगा…”

”अगर बेचें तो हमें ही बताना, हम खरीद लेंगे.”

”आप भी कभी बेचें तो हमें ही बताना, हमें भी चाहिए आप का फ्लैट.”

”हम तो कहीं नहीं जा रहे, यही रहेंगे.”

“फिर भी जाओ तो हमें बता देना. आजकल तो आसपास बढ़िया सोसाइटी हैं, आप वहां भी देख सकते हैं बड़ा फ्लैट.”

”आप अपने लिए क्यों नहीं देख लेते वहां बड़ा फ्लैट?”

‘’हमें यही सोसाइटी अच्छी लगती है.’’

बात यहीं खत्म नहीं हुई. यह बात जो लोग भी सुन रहे थे, उन्होंने दोनों की आवाजों में बढ़ रही कड़वाहट महसूस की. घर जा कर रोहित ने सुधा से कहा,”इस आलोक को तो मैं यहां से भगा कर दम लूंगा. अपनेआप को समझता क्या है.”

उधर आलोक भी शुरू थे,”मीरा, यह मुझे जानता नहीं है. देखना, मैं इसे यहां से कैसे भगाता हूं.’’

अगले दिन जब दोनों लिफ्ट में मिले, दोनों ने बस एकदूसरे पर नजर ही डाली, हमेशा की तरह हायहैलो भी नहीं हुआ. अगले दिन जब मोनिका सुबह साइक्लिंग के लिए जाने लगी, देखा, साइकिल के ट्यूब कटे हुए हैं, वह वौचमैन को डांटने लगी,”यह किस ने किया है?”

”मैडम, बाहर से तो कोई नहीं आया,’’ वौचमैन बोला

”तो फिर मेरी साइकिल की यह हालत किस ने की?”

वौचमैन डांट खाता रहा, वह तो लगातार यहीं था, पर साइकिल को तो जानबूझ कर खराब किया गया था, यह साफसाफ समझ आ रहा था.मोनिका घर जा कर चिङचिङ करती रही, किसी को कुछ समझ नहीं आया कि किस ने किया. उधर आलोक घर में अपनेआप को शाबाशी दे रहे थे कि रोहित बाबू, अब आगे देखना क्याक्या करता हूं तुम सब के साथ.

जब 2 चालाक लोग आमनेसामने होते हैं तो किसी की कोई हरकत एकदूसरे से छिपी नहीं रह पाती, दोनों एकदूसरे की चालाकी तुरंत पकड़ लेते हैं. यहां भी रोहित समझ गए कि किसी बाहर वाले ने आ कर मोनिका की साइकिल खराब नहीं की है, यह कोई बिल्डिंग का ही रहने वाला है. पूरा शक आलोक पर था जो सच ही था. सोचने लगे कि यह हमें ऐसे परेशान करेगा. मैं करता हूं इसे ठीक.

उन्होंने सुबह बहुत जल्दी उठ कर अपना डस्टबिन आलोक के फ्लैट के बाहर ऐसे रखा कि जो भी दरवाजा खोले, डस्टबिन गिर जाए और सारा कचरा बिखर जाए. आलोक और मीरा सुबह सैर पर जाते थे, एक ही बेटा था जो बाहर है. सुबहसुबह आलोक ने दरवाजा खोला तो कचरा फैल गया. वह भी समझ गए कि किस का काम है. फौरन रोहित की डोरबेल बजा दी, एक बार नहीं, कई बार बजा दी. रोहित ने तो रात में ही डोरबेल बंद कर दी थी, रोहित कीहोल से आलोक को गुस्से में चिल्लाते देख रहे थे. फ्लोर पर जो 2 फ्लैट्स और थे, उन में बैचलर्स रहते थे. इस चिल्लीचिल्लम पर उन्होंने दरवाजा खोला और आलोक से पूछा,”क्या हुआ अंकल?”

”यह देखो, कैसे गंवार हैं. कैसे रखा डस्टबिन.”

बैचलर्स को इन बातों में जरा इंटरैस्ट नहीं था, उन्होंने सर को यों ही हिलाते हुए अपने फ्लैट का दरवाजा बंद कर लिया जैसे कह रहे हों, ”भाई, खुद ही देख लो, हम तो किराएदार हैं.’’

लंदन में साउथ हौल में शिविन और सोनिका एकदूसरे के हाथों में हाथ डाले बेफिक्र घूम रहे हैं. सोनिका के कालेज में ट्रैडिशनल डे है और उसे सूटसलवार पहनना है. यहां ट्रेन से उतरते ही इस एरिया में आते ही ऐसा लगता है जैसे पंजाब आ गए हों. पूरा एरिया पंजाबी है. इंडियन सामानों की दुकानें आदि सबकुछ मिलता है यहां.

सोनिका ने कहा,”शिवू, पहले रोड कैफे में बैठ कर छोलेभटूरे खा लें, फिर कपङे ले लेंगे.’’

”हां, बिलकुल, यह रोड कैफे तो हमारे प्यार से जुड़ा है, यहीं हम मिले थे न सब से पहले?”

सोनिका खिलखिलाई, ”हां, मैं तो गा ही उठी थी, ‘कब के बिछड़े हुए हम कहां आ के मिले…'”

दोनों ने और्डर दिया और एक कोना खोज कर बैठ गए. शिविन ने कहा, ”बस अब अच्छी जगह प्लैसमेंट हो जाए, जौब शुरू हो तो शादी करें.’’

”हां, सही कह रहे हो. यह बताओ, घर वालों का क्या करना है, मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे पेरैंट्स नौन सिंधी लड़की को ऐक्सैप्ट करेंगे.”

”न करें, हमारी शादी तो हो कर रहेगी. तुम मेरे बचपन का प्यार हो, उन्हें यह पता नहीं है कि हम यहां लिवइन में ही रह रहे हैं, वक्त आने पर बात कर लूंगा उन से.‘’

शिविन और सोनिका एकदूसरे के प्यार में पोरपोर डूबे हैं और उधर इंडिया में किसी को भनक भी नहीं कि लंदन में क्या चल रहा है. शुरूशुरू में कुछ दिन दोनों किसी और फ्रैंड्स के साथ रूम शेयर कर रहे थे, फिर एक दिन यहीं रोड कैफे में दोनों टकरा गए तो तब से ही साथ हैं.

जो बात इंडिया में दोनों एकदूसरे से नहीं कह पाए थे, यहां आ कर कही कि दोनों एकदूसरे को हमेशा से पसंद करते रहे हैं. अब तो दोनों बहुत आगे निकल चुके हैं. दोनों के पेरैंट्स आजकल चल रहे आपस की लङाईयां और शीतयुद्ध को विदेश में पढ़ रहे अपने बच्चों को नहीं बताते कि बेकार में क्यों उन्हें पढाई में डिस्टर्ब करना. और बच्चे तो होशियार हैं ही, हवा भी नहीं लगने दे रहे कि इंडिया में तो आमनेसामने के पड़ोसी थे, अब तो एकसाथ ही रह रहे.

अब तो रोजरोज का किस्सा हो गया. रोहित और आलोक दोनों इसी कोशिश में थे कि परेशान हो कर सामने वाला फ्लैट बदल ले पर दोनों गजब का इंतजार कर रहे थे. नित नए प्लान बन रहे थे. दरवाजों पर जो मिल्क बैग टांगा जाता है, उस में से दूध 2 की जगह एक पैकेट ही निकलता. कभी उस दूध के पैकेट में 1 छेद कर दिया जाता जिस से सारा दूध रिस कर जमीन पर फैल जाए. सीढ़ियों से उतर कर आने वाले लोग दोनों परिवारों को कोसकोस कर चले जाते. सब को पता चल गया था कि क्या क्या हो रहा है, ऐसे में मैनेजिंग कमिटी की मुश्किल बहुत बढ़ गई थी.

दोनों लोग रोज औफिस जाते और एकदूसरे की शिकायत करते. हरकतें इतनी सफाई से की जा रही थीं कि कोई सुबूत किसी को न मिलता कि किस ने क्या किया है. रोज एक से एक हरकत की जाती, गिरी से गिरी प्लानिंग होती, यहां तक कि सुधा यह जानती थी कि मीरा कौकरोच से बहुत ज्यादा डरती है, इसलिए पैसेज में घूमने वाले कौकरोच को सुधा ने एक पेपर से पकड़ कर मीरा के डोर के अंदर छोड़ दिया. मीरा का गेट खुला हुआ था, मेड काम कर रही थी, उस ने देख लिया. बस, अब तो सुबूत सामने था.

आलोक तो सीधे पुलिस स्टैशन पहुंच गए और सुधा की शिकायत कर दी, साथ में मेड को भी ले गए थे. मेड डर रही थी फिर बाद में मीरा की रिक्वैस्ट पर उन के साथ चली ही गई. थोड़ीबहुत कानूनी काररवाई हुई और रोहित और सुधा को चेतावनी देते हुए छोड़ दिया गया.

सोसाइटी में रहने वाले लोग हैरान थे. अपने फ्लैट को बड़ा करने के लिए दूसरे फ्लैट वालों को कैसे परेशान किया जा रहा था, कैसी जिद और सनक थी अब दोनों परिवारों में जो इतनी बढ़ गई कि इस की खबर लंदन तक पहुंच ही गई. सोनिका और शिविन ने अपने सिर पकड़ लिए. दोनों अपने पेरैंट्स को अलगअलग कोने में बैठ कर समझा रहे थे, मगर कोई असर नहीं हो रहा था.

सोनिका ने कहा, ”यार, अब हमारा क्या होगा?”

”डोंट वरी, हमारे पेरैंट्स बहुत गलत कर रहे हैं, इस जिद में हम तो नहीं पड़ेंगे. पता नहीं क्या फालतू हरकतें कर रहे हैं. वैसे तो अपनी तबीयत और अकेलेपन का रोना रोते रहते हैं और अब देखो, इन सब बातों की कितनी ऐनर्जी है सब में.”

मुंबई में दोनों घरों का माहौल बहुत खराब होता जा रहा था. दोनों परिवार अपनेअपने तरीके से एकदूसरे को नुकसान पहुंचा रहे थे. रात में वीडियो कौल पर सोनिका और शिविन से अब हर बात बताते. शिविन तो इकलौती संतान था, आलोक और मीरा उसी से कह कर अपना दिल हलका करते. सोनिका और शिविन का दिल उदास हो रहा था कि यह तो बड़ा बुरा हो रहा है. कहां तो दोनों सपना देख रहे थे कि दोनों परिवारों का साथ भविष्य में एकदूसरे के लिए अब और कितना बड़ा सहारा होगा, सब एकदूसरे के सुखदुख में साथ रह लेंगे.

शिविन ने बहुत गंभीर मुद्रा में कहा, ”सोनू, कोई वहां एकदूसरे को कोई बड़ा नुकसान पहुंचा दे, इस से पहले उन्हें रोकना होगा. सोच रहा हूं कि हम उन्हें अपना संबंध बता देते हैं, शायद कोई असर हो.”

”ठीक है, कोशिश कर सकते हैं, अब अपने बारे में बता ही देते हैं.’’

उसी दिन जब दोनों अपने परिवार से वीडियो कौल कर रहे थे, दोनों ने बात करतेकरते साफसाफ कहा, ”आप लोग यह झगड़ा यहीं रोक दें क्योंकि जौब मिलते ही हम दोनों शादी कर लेंगे और हम अभी भी साथ ही रह रहे हैं. बहुत सोचसमझ कर हम ने एकदूसरे को अपना जीवनसाथी चुन लिया है और हमारा फैसला बदलेगा नहीं. अब आप लोग देख लीजिए क्या करना है. हमें तो प्यार है, तो है.’’

दोनों परिवारों में जैसे सन्नाटा फैल गया, सब एकदम चुप. कोई किसी से नहीं बोला. कई दिन दोनों तरफ बहुत शांति रही. किसी ने किसी को परेशान नहीं किया. सोनिका और शिविन ने घर कोई बात नहीं की. पूरा समय दिया अपने पेरैंट्स को. मोनिका लगातार सोनिका के टच में थी, वह पूरी कोशिश कर रही थी कि दोनों परिवार झगडे खत्म कर दें.

3 दिन बाद सोनिका से बात कर रहा था परिवार. रोहित बोले, ”इंसान अपनी संतान से ही हारता है, क्या कर सकते हैं, जैसी तुम्हारी मरजी.’’

मोनिका हंस पड़ी, ”पापा, यह हारजीत नहीं है, यह प्यार है.”

उधर मीरा मुसकराती हुई शिविन से कह रही थी, ”ठीक है फिर, प्यार है तो फिर हम क्या कर सकते हैं. बात ही खत्म.

फोन रखने के बाद शिविन और सोनिका चहकते हुए एकदूसरे की बांहों में खो गए थे.

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