सहारा: कौन बना अर्चना के बुढ़ापे का सहारा

लेखक- रमणी मोटाना

‘‘अर्चना,’’ उस ने पीछे से पुकारा.

‘‘अरे, रजनीश…तुम?’’ उस ने मुड़ कर देखा और मुसकरा कर बोली.

‘‘हां, मैं ही हूं, कैसा अजब इत्तिफाक है कि तुम दिल्ली की और मैं मुंबई का रहने वाला और हम मिल रहे हैं बंगलौर की सड़क पर. वैसे, तुम यहां कैसे?’’

‘‘मैं आजकल यहीं रहती हूं. यहां घडि़यों की एक फैक्टरी में जनसंपर्क अधिकारी हूं. और तुम?’’

‘‘मैं यहां अपने व्यापार के सिलसिले में आया हुआ हूं. मेरी पत्नी भी साथ है. हम पास ही एक होटल में ठहरे हैं.’’

2-4 बातें कर के अर्चना बोली, ‘‘अच्छा…मैं चलती हूं.’’

‘‘अरे रुको,’’ वह हड़बड़ाया, ‘‘इतने  सालों बाद हम मिले हैं, मुझे तुम से ढेरों बातें करनी हैं. क्या हम दोबारा नहीं मिल सकते?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ कहते हुए अर्चना ने विजिटिंग कार्ड पर्स में से निकाला और उसे देती हुई बोली, ‘‘यह रहा मेरा पता व फोन नंबर. हो सके तो कल शाम की चाय मेरे साथ पीना और अपनी पत्नी को भी लाना.’’

अर्चना एक आटो-रिकशा में बैठ कर चली गई. रजनीश एक दुकान में घुसा जहां उस की पत्नी मोहिनी शापिंग कर तैयार बैठी थी.

‘‘मेरीखरीदारी हो गई. जरा देखो तो ये साडि़यां ज्यादा चटकीली तो नहीं हैं. पता नहीं ये रंग

मुझ पर खिलेंगे

या नहीं,’’ मोहिनी बोली.

रजनीश ने एक उचटती नजर मोहिनी पर डाली. उस का मन हुआ कि कह दे, अब उस के थुलथुल शरीर पर कोई कपड़ा फबने वाला नहीं है, पर वह चुप रह गया.

मोहिनी की जान गहने व कपड़ों में बसती है. वह सैकड़ों रुपए सौंदर्य प्रसाधनों पर खर्चती है. घंटों बनती-संवरती है. केश काले करती है, मसाज कराती है. नाना तरह के उपायों व साधनों से समय को बांधे रखना चाहती है. इस के विपरीत रजनीश आगे बढ़ कर बुढ़ापे को गले लगाना चाहता है. बाल खिचड़ी, तोंद बढ़ी हुई, एक बेहद नीरस, उबाऊ जिंदगी जी रहा है वह. मन में कोई उत्साह नहीं. किसी चीज की चाह नहीं. बस, अनवरत पैसा कमाने में लगा रहता है.

कभीकभी वह सोचता है कि वह क्यों इतनी जीतोड़ मेहनत करता है. उस के बाद उस के ऐश्वर्य को भोगने वाला कौन है. न कोई आसऔलाद न कोई नामलेवा… और तो और इसी गम में घुलघुल कर उस की मां चल बसीं.

संतान की बेहद इच्छा ने उसे अर्चना को तलाक दे कर मोहिनी से ब्याह करने को प्रेरित किया था. पर उस की इच्छा कहां पूरी हो पाई थी.

होटल पहुंच कर रजनीश बालकनी में जा बैठा. सामने मेज पर डिं्रक का सामान सजा हुआ था. रजनीश ने एक पैग बनाया और घूंटघूंट कर के पीने लगा.

उस का मन बरबस अतीत में जा पहुंचा.

कालिज की पढ़ाई, मस्तमौला जीवन. अर्चना से एक दिन भेंट हुई. पहले हलकी नोकझोंक से शुरुआत हुई, फिर छेड़छाड़, दोस्ती और धीरेधीरे वे प्रेम की डोर में बंध गए थे.

एक रोज अर्चना उस के पास घबराई हुई आई और बोली, ‘रजनीश, ऐसे कब तक चलेगा?’

‘क्या मतलब?’

‘हम यों चोरी- छिपे कब तक मिलते रहेंगे?’

‘क्यों भई, इस में क्या अड़चन है? तुम लड़कियों के होस्टल में रहती हो, मैं अपने परिवार के साथ. हमें कोई बंदिश नहीं है.’

‘ओहो…तुम समझते नहीं, हम शादी कब कर रहे हैं?’

‘अभी से शादी की क्या जल्दी पड़ी है, पहले हमारी पढ़ाई तो पूरी हो जाए…उस के बाद मैं अपने पिता के व्यापार में हाथ बंटाऊंगा फिर जा कर शादी…’

‘इस में तो सालों लग जाएंगे,’ अर्चना बीच में ही बोल पड़ी.

‘तो लगने दो न…हम कौन से बूढ़े हुए जा रहे हैं.’

‘हमारे प्यार को शादी की मुहर लगनी जरूरी है.’

‘बोर मत करो यार,’ रजनीश ने उसे बांहों में समेटते हुए कहा, ‘तनमनधन से तो तुम्हारा हो ही चुका हूं, अब अग्नि के सामने सिर्फ चंद फेरे लेने में ही क्या रखा है.’

‘रजनीश,’ अर्चना उस की गिरफ्त से छूट कर घुटे हुए स्वर में बोली, ‘मैं…मैं प्रेग्नैंट हूं.’

‘क्या…’ रजनीश चौंका, ‘मगर हम ने तो पूरी सावधानी बरती थी…खैर, कोई बात नहीं. इस का इलाज है मेरे पास, अबार्शन.’

‘अबार्शन…’ अर्चना चौंक कर बोली, ‘नहीं, रजनीश, मुझे अबार्शन से बहुत डर लगता है.’

‘पागल न बनो. इस में डरने की क्या बात है? मेरा एक दोस्त मेडिकल कालिज में पढ़ता है. वह आएदिन ऐसे केस करता रहता है. कल उस के पास चले चलेंगे, शाम तक मामला निबट जाएगा. किसी को कानोंकान खबर भी न होगी.’

‘लेकिन जब हमें शादी करनी ही है तो यह सब करने की जरूरत?’

‘शादी करनी है सो तो ठीक है, लेकिन अभी से शादी के बंधन में बंधना सरासर बेवकूफी होगी. और जरा सोचो, अभी तक मेरे मांबाप को हमारे संबंधों के बारे में कुछ भी नहीं मालूम. अचानक उन के सामने फूला पेट ले कर जाओगी तो उन्हें बुरी तरह सदमा पहुंचेगा.

‘नहीं, अर्चना, मुझे उन्हें धीरेधीरे पटाना होगा. उन्हें राजी करना होगा. आखिर मैं उन की इकलौती संतान हूं. मैं उन की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता.’

‘प्यार का खेल खेलने से पहले ही यह सब सोचना था न?’ अर्चना कुढ़ कर बोली.

‘डार्ल्ंिग, नाराज न हो, मैं वादा करता हूं कि पढ़़ाई पूरी होते ही मैं धूमधड़ाके से तुम्हारे द्वार पर बरात ले कर आऊंगा और फिर अपने यहां बच्चों की लाइन लगा दूंगा…’

लेकिन शादी के 10-12 साल बाद भी बच्चे न हुए तो रजनीश व अर्चना ने डाक्टरों का दरवाजा खटखटाया था और हरेक डाक्टर का एक ही निदान था कि अर्चना के अबार्शन के समय नौसिखिए डाक्टर की असावधानी से उस के गर्भ में ऐसी खराबी हो गई है जिस से वह भविष्य में गर्भ धारण करने में असमर्थ है.

यह सुन कर अर्चना बहुत दुखी हुई थी. कई दिन रोतेकलपते बीते. जब जरा सामान्य हुई तो उस ने रजनीश को एक बच्चा गोद लेने को मना लिया.

अनाथाश्रम में नन्हे दीपू को देखते ही वह मुग्ध हो गई थी, ‘देखो तो रजनीश, कितना प्यारा बच्चा है. कैसा टुकुरटुकुर हमें ताक रहा है. मुझे लगता है यह हमारे लिए ही जन्मा है. बस, मैं ने तो तय कर लिया, मुझे यही बच्चा चाहिए.’

‘जरा धीरज धरो, अर्चना. इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं. एक बार अम्मां व पिताजी से भी पूछ लेना ठीक रहेगा.’

‘क्योें? उन से क्यों पूछें? यह हमारा व्यक्तिगत मामला है, इस बच्चे को हम ही तो पालेंगेपोसेंगे.’

‘फिर भी, यह बच्चा उन के ही परिवार का अंग होगा न, उन्हीं का वंशज कहलाएगा न?’

यह सुन कर अर्चना बुरा सा मुंह बना कर बोली, ‘वह सब मैं नहीं जानती. तुम्हारे मातापिता से तुम्हीं निबटो. यह अच्छी रही, हर बात में अपने मांबाप की आड़ लेते हो. क्या तुम अपनी मरजी से एक भी कदम उठा नहीं सकते?’

रजनीश के मांबाप ने अनाथाश्रम से बच्चा गोद लेने के प्रस्ताव का जम कर विरोध किया इधर अर्चना भी अड़

गई कि वह दीपू को गोद ले कर ही रहेगी.

‘‘रजनीश…’’ मोहिनी ने आवाज दी, ‘‘खाना खाने नीचे, डाइनिंग रूम में चलोगे या यहीं पर कुछ मंगवा लें?’’

यह सुन कर रजनीश की तंद्रा टूटी. एक ही झटके में वह वर्तमान में लौट आया. बोला, ‘‘यहीं पर मंगवा लो.’’

खाना खाते वक्त रजनीश ने पूछा, ‘‘कल शाम को तुम्हारा क्या प्रोग्राम है?’’

‘‘सोच रही थी यहां की जौहरी की दुकानें देखूं. मेरी एक सहेली मुझे ले जाने वाली है.’’

‘‘ठीक है, मैं भी शायद व्यस्त रहूंगा.’’

रजनीश ने अर्चना को फोन किया, ‘‘अर्चना, हमारा कल का प्रोग्राम तय है न?’’

‘‘हां, अवश्य.’’

फोन का चोंगा रख कर अर्चना उत्तेजित सी टहलने लगी कि रजनीश अब क्यों उस से मिलने आ रहा है. उसे अब मुझ से क्या लेनादेना है?

तलाकनामे पर हुए हस्ताक्षर ने उन के बीच कड़ी को तोड़ दिया था. अब वे एकदूसरे के लिए अजनबी थे.

‘अर्चना, तू किसे छल रही है?’ उस के मन ने सवाल किया.

रजनीश से तलाक ले कर वह एक पल भी चैन से न रह पाई. पुरानी यादें मन को झकझोर देतीं. भूलेबिसरे दृश्य मन को टीस पहुंचाते. बहुत ही कठिनाई से उस ने अपनी बिखरी जिंदगी को समेटा था, अपने मन की किरिचों को सहेजा था.

उस का मन अनायास ही अतीत की गलियों में विचरने लगा.

उसे वह दिन याद आया जब नन्हे दीपू को ले कर घर में घमासान शुरू हो गया था.

उस ने रजनीश से कहा था कि वह दफ्तर से जरा जल्दी आ जाए ताकि वे दोनों अनाथाश्रम जा कर बच्चों में मिठाई बांट सकें. आश्रम वालों ने बताया है कि आज दीपू का जन्मदिन है.

यह सुन कर रजनीश के माथे पर बल पड़ गए थे. वह बोला, ‘यह सब न ही करो तो अच्छा है. पराए बालक से हमें क्या लेना.’

‘अरे वाह…पराया क्यों? हम जल्दी ही दीपू को गोद लेने वाले जो हैं न?’

‘इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं.’

‘तुम जल्दीबाजी की कहते हो, मेरा वश चले तो उसे आज ही घर ले आऊं. पता नहीं इस बच्चे से मुझे इतना मोह क्यों हो गया है. जरूर हमारा पिछले जन्म का रिश्ता रहा होगा,’ कहती हुई अर्चना की आंखें भर आई थीं.

यह देख कर रजनीश द्रवित हो कर बोला था, ‘ठीक है, मैं शाम को जरा जल्दी लौटूंगा. फिर चले चलेंगे.’

रजनीश को दरवाजे तक विदा कर के अर्चना अंदर आई तो सास ने पूछा, ‘कहां जाने की बात हो रही थी, बहू?’

‘अनाथाश्रम.’

यह सुन कर तो सास की भृकुटियां तन गईं. वह बोली, ‘तुम्हें भी बैठेबैठे पता नहीं क्या खुराफात सूझती रहती है. कितनी बार समझाया कि पराई ज्योति से घर में उजाला नहीं होता, पर तुम हो कि मानती ही नहीं. अरे, गोद लिए बच्चे भी कभी अपने हुए हैं, खून के रिश्ते की बात ही और होती है,’ फिर वह भुनभुनाती हुई पति के पास जा कर बोली, ‘अजी सुनते हो?’

‘क्या है?’

‘आज बहूबेटा अनाथाश्रम जा रहे हैं.’

‘सो क्यों?’

‘अरे, उसी मुए बच्चे को गोद लेने की जुगत कर रहे हैं और क्या. मियांबीवी की मिलीभगत है. वैद्य, डाक्टरों को पैसा फूंक चुके, पीरफकीरों को माथा टेक चुके, जगहजगह मन्नत मान चुके, अब चले हैं अनाथाश्रम की खाक छानने.

‘न जाने किस की नाजायज संतान, जिस के कुलगोत्र का ठिकाना नहीं, जातिपांति का पता नहीं, ला कर हमारे सिर मढ़ने वाले हैं. मैं कहती हूं, यदि गोद लेना ही पड़ रहा है तो हमारे परिवार में बच्चों की कमी है क्या? हम से तो भई जानबूझ कर मक्खी निगली नहीं जाती. तुम जरा रजनीश से बात क्यों नहीं करते.’

‘ठीक है, मैं रजनीश से बात करूंगा.’

‘पता नहीं कब बात करोगे, जब पानी सिर से ऊपर हो जाएगा तब? जाने यह निगोड़ी बहू हम से किस जन्म का बदला ले रही है. पहले मेरे भोलेभाले बेटे पर डोरे डाले, अब बच्चा गोद लेने का तिकड़म कर रही है.’

रजनीश अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर निढाल पड़ गया. अर्चना उस के पास खिसक आई और उस के बालों में उंगलियां चलाती हुई बोली, ‘क्या बात है, बहुत थकेथके लग रहे हो.’

‘आज अम्मां व पिताजी के साथ जम कर बहस हुई. वे दीपू को गोद लेने के कतई पक्ष में नहीं हैं.’

‘तो फिर?’

‘तुम्हीं बताओ.’

‘मैं क्या बताऊं, एक जरा सी बात को इतना तूल दिया जा रहा है. क्या और निसंतान दंपती बच्चा गोद नहीं लेते? हम कौन सी अनहोनी बात करने जा रहे हैं.’

‘मैं उन से कह कर हार गया. वे टस से मस नहीं हुए. मैं तो चक्की के दो पाटों के बीच पिस रहा हूं. इधर तुम्हारी जिद उधर उन की…’

‘तो अब?’

‘उन्होंने एक और प्रस्ताव रखा है…’

‘वह क्या?’ अर्चना बीच में ही बोल पड़ी.

‘वे कहते हैं कि चूंकि तुम मां नहीं बन सकती हो. मैं तुम्हें तलाक दे कर दूसरी शादी कर लूं.’

‘क्या…’ अर्चना बुरी तरह चौंकी, ‘तुम मेरा त्याग करोगे?’

‘ओहो, पूरी बात तो सुन लो. दूसरी शादी महज एक बच्चे की खातिर की जाएगी. जैसे ही बच्चा हुआ, उसे तलाक दे कर मैं दोबारा तुम से ब्याह कर लूंगा.’

‘वाह…वाह,’ अर्चना ने तल्खी से कहा, ‘क्या कहने हैं तुम लोगों की सूझबूझ के. मेरे साथ तो नाइंसाफी कर ही रहे हो, उस दूसरी, निरपराध स्त्री को भी छलोगे. बिना प्यार के उस से शारीरिक संबंध स्थापित करोगे और अपना मतलब साध कर उसे चलता करोगे?’

‘और कोई चारा भी तो नहीं है.’

‘है क्यों नहीं. कह दो अपने मातापिता से कि यह सब संभव नहीं. तुम पुरुष हम स्त्रियों को अपने हाथ की कठपुतली नहीं बना सकते. क्या तुम से यह कहते नहीं बना कि मैं ने शादी से पहले गर्भ धारण किया था? यदि तुम ने अबार्शन न करा दिया होता तो…’ कहतेकहते अर्चना का गला भर आया था.

‘अर्चना डियर, तुम बेकार में भावुक हो रही हो. बीती बातों पर खाक डालो. मुझे तुम्हारी पीड़ा का एहसास है. दूसरी तरफ मेरे बूढ़े मांबाप के प्रति भी मेरा कुछ कर्तव्य है. वे मुझ से एक ही चीज मांग रहे थे, इस घर को एक वारिस, इस वंश को एक कुलदीपक.’

‘तो कर लो दूसरी शादी, ले आओ दूसरी पत्नी, पर इतना बताए देती हूं कि मैं इस घर में एक भी पल नहीं रुकूंगी,’ अर्चना भभक कर बोली.

‘अर्चना…’

‘मैं इतनी महान नहीं हूं कि तुम्हारी बांहों में दूसरी स्त्री को देख कर चुप रह जाऊं. मैं सौतिया डाह से जल मरूंगी. नहीं रजनीश, मैं तुम्हें किसी के साथ बांटने के लिए हरगिज तैयार नहीं.’

‘अर्चना, इतना तैश में न आओ. जरा ठंडे दिमाग से सोचो. यह दूसरा ब्याह महज एक समझौता होगा. यह सब बिना विवाह किए भी हो सकता है पर…’

‘नहीं, मैं तुम्हारी एक नहीं सुनूंगी. हर बात में तुम्हारी नहीं चलेगी. आज तक मैं तुम्हारे इशारों पर नाचती रही. तुम ने अबार्शन को कहा, सो मैं ने करा दिया. तुम ने यह बात अपने मातापिता से गुप्त रखी, मैं राजी हुई. तुम क्या जानो कि तुम्हारी वजह से मुझे कितने ताने सहने पड़ रहे हैं. बांझ…आदि विशेषणों से मुझे नवाजा जाता है. तुम्हारी मां ने तो एक दिन यह भी कह दिया कि सवेरेसवेरे बांझ का मुंह देखो तो पूरा दिन बुरा गुजरता है. नहीं रजनीश, मैं ने बहुत सहा, अब नहीं सहूंगी.’

‘अर्चना, मुझे समझने की कोशिश करो.’

‘समझ लिया, जितना समझना था. तुम लोगों की कूटनीति में मुझे बलि का बकरा बनाया जा रहा है. जैसे गायगोरू के सूखने पर उस की उपयोगिता नहीं रहती उसी तरह मुझे बांझ करार दे कर दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका जा रहा है. लेकिन मुझे भी तुम से एक सवाल करना है…’

‘क्या?’ रजनीश बीच में ही बोल पड़ा.

‘समझ लो तुम मेें कोई कमी होती और मैं भी यही कदम उठाती तो?’

‘अर्चना, यह कैसा बेहूदा सवाल है?’

‘देखा…कैसे तिलमिला गए. मेरी बात कैसी कड़वी लगी.’

रजनीश मुंह फेर कर सोने का उपक्रम करने लगा. उस रात दोनों के दिल में जो दरार पड़ी वह दिनोंदिन चौड़ी होती गई.

रजनीश ने दरवाजे की घंटी बजाई तो एक सजीले युवक ने द्वार खोला.

‘‘अर्चनाजी हैं?’’ रजनीश ने पूछा.

‘‘जी हां, हैं, आप…आइए, बैठिए, मैं उन्हें बुलाता हूं.’’

अर्चना ने कमरे में प्रवेश किया. उस के हाथ में ट्रे थी.

‘‘आओ रजनीश. मैं तुम्हारे लिए काफी बना रही थी. तुम्हें काफी बहुत प्रिय है न,’’ कह कर वह उसे प्याला थमा कर बोली, ‘‘और सुनाओ, क्या हाल हैं तुम्हारे? अम्मां व पिताजी कैसे हैं?’’

‘‘उन्हें गुजरे तो एक अरसा हो गया.’’

‘‘अरे,’’ अर्चना ने खेदपूर्वक कहा, ‘‘मुझे पता ही न चला.’’

‘‘हां, तलाक के बाद तुम ने बिलकुल नाता तोड़ लिया. खैर, तुम तो जानती ही हो कि मैं ने मोहिनी से शादी कर ली. और यह नियति की विडंबना देखो, हम आज भी निसंतान हैं.’’

‘‘ओह,’’ अर्चना के मुंह से निकला.

‘‘हां, अम्मां को तो इस बात से इतना सदमा पहुंचा कि उन्होंने खाट पकड़ ली. उन के निधन के बाद पिताजी भी चल बसे. लगता है हमें तुम्हारी हाय लग गई.’’

‘‘छि:, ऐसा न कहो रजनीश, जो होना होता है वह हो कर ही रहता है. और शादी आजकल जन्म भर का बंधन कहां होती है? जब तक निभती है निभाते हैं, बाद में अलग हो जाते हैं.’’

‘‘लेकिन हम दोनों एकदूसरे के कितने करीब थे. एक मन दो प्राण थे. कितना साहचर्य, सामंजस्य था हम में. कभी सपने में भी न सोचा था कि हम एकदूसरे के लिए अजनबी हो जाएंगे. और आज मैं मोहिनी से बंध कर एक नीरस, बेमानी ज्ंिदगी बिता रहा हूं. हम दोनों में कोई तालमेल नहीं. अगर जीवनसाथी मनमुताबिक न हो तो जिंदगी जहर हो जाती है.

‘‘खैर छोड़ो, मैं भी कहां का रोना ले बैठा. तुम अपनी सुनाओ. यह बताओ, वह युवक कौन था जिस ने दरवाजा खोला?’’

यह सुन कर अर्चना मुसकरा कर बोली, ‘‘वह मेरा बेटा है.’’

‘‘ओह, तो तुम ने भी दूसरी शादी कर ली.’’

‘‘नहीं, मैं ने शादी नहीं की, मैं ने तो केवल उसे गोद लिया है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘हां, रजनीश, यह वही बच्चा दीपू है, अनाथाश्रम वाला. तुम से तलाक ले कर मैं दिल्ली गई जहां मेरा परिवार रहता था. एक नौकरी कर ली ताकि उन पर बोझ न बनूं, पर तुम तो जानते हो कि एक अकेली औरत को यह समाज किस निगाह से देखता है.

‘‘पुरुषों की भूखी नजरें मुझ पर गड़ी रहतीं. स्त्रियों की शंकित नजरें मेरा पीछा करतीं. कई मर्दों ने करीब आने की कोशिश की. कई ने मुझे अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा, पर मैं उन सब से बचती रही. 1-2 ने विवाह का प्रलोभन भी दिया, पर जहां मन न मिले वहां केवल सहारे की खातिर पुरुष की अंकशायिनी बनना मुझे मंजूर न था.

‘‘इस शहर में आ कर अपना अकेलापन मुझे सालने लगा. नियति की बात देखो, अनाथाश्रम में दीपू मानो मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा था. इस ने मेरे हृदय के रिक्त स्थान को भर दिया. इस के लालनपालन में लग कर जीवन को एक गति मिली, एक ध्येय मिला. 15 साल हम ने एकदूसरे के सहारे काट दिए. इस आशा में हूं कि यह मेरे बुढ़ापे का सहारा बनेगा, यदि नहीं भी बना तो कोई गम नहीं, कोई गिला नहीं,’’ कहती हुई अर्चना हलके से मुसकरा दी.

बेटी का सुख: बेटा-बेटी में क्या फर्क समझ पाए माता पिता

मैं नहीं जानती बेटे क्या सुख देते हैं, किंतु बेटी क्या सुख देती है यह मैं जरूर जानती हूं. मैं नहीं कहती बेटी, बेटों से अच्छी है या कि बेटे के मातापिता खुशहाल रहेंगे. किंतु यह निश्चित तौर पर आज 70 वर्ष की उम्र में बेटी की मां व उस के 75 वर्षीय पिता कितने खुशहाल हैं, यह मैं जानती हूं. जब वह मेरे घर आती है तो पहनने, ओढ़ने, सोने, बिछाने के कपड़ों का ब्योरा लेती है. बिना इजाजत, बिना मुंह खोले फटापुराना निकाल कर, नई चादर, तकिए के गिलाफ, बैडकवर आदि अलमारी में लगा जाती है. रसोईघर में कड़ाही, भगौने, तवा, चिमटे, टूटे हैंडल वाले बरतन नौकरों में बांट, नए उपकरण, नए बरतन संजो जाती है.

हमारे जूतेचप्पलों की खबर भी खूब रखती है. चलने में मां को तकलीफ होगी, सो डाक्टर सोल की चप्पल ले आती है. पापा के जौगिंग शूज घिस गए हैं, चलो, नए ले आते हैं. वे सफाई देते हैं, ‘अभी तो लाया था.’ ‘कहां पापा, 2 साल पुराना है, फिर आप रोज घूमने जाते हैं, आप को अच्छे ब्रैंड के जौगिंग शूज पहनने चाहिए.’ बाप के पैरों के प्रति बेटी की चिंता देख कर सोचती हूं, ‘बेटे इस से अधिक और क्या करते होंगे.’ जब हम बेटी के घर जाते हैं तब जिस क्षण हवाईजहाज के पहिए धरती को छूते हैं, उस का फोन आ जाता है, ‘जल्दी मत करना, आराम से उतरना, मैं बाहर ही खड़ी हूं.’ एअरपोर्ट के बाहर एक ड्राइवर की तरह गाड़ी बिलकुल पास लगा कर सूटकेस उठाने और कार की डिक्की में रखने में दोनों के बीच प्यारी, मीठी तकरार कानों में पड़ती रहती है, ‘पापा, आप नहीं उठाओ, मम्मी तुम बैठ जाओ, हटो पापा, आप की कमर में दर्द होगा…’

‘तेरे से तो मैं ज्यादा मजबूत हूं, अभी भी.’ उन दोनों की बातें कानों में चाशनी घोल देती हैं. घर के दरवाजे पर स्वागत करती वैलकम नानानानी की पेंटिंग हमारी तसवीरों के साथ चिपकाई होती है. घर का कोनाकोना चहक रहा होता है, शीशे सा साफसुथरा घर हमारे रहने की व्यवस्था, छोटीछोटी चीजों को हमारे लिए पहले से ला कर कमरे में, बाथरूम में रख दिया गया होता है. पापा के लिए उन की पसंद का नाश्ता, चायबिस्कुट मेज पर रखा होता है. उन की पसंद की सब्जियां जैसे करेले, लौकी, तुरई, विशेषरूप से इंडियन शौप से ला कर रखे गए होते हैं.

हमारी पसंद के पकवान ऐसे परोसे जाते मानो हम शाही मेहमान हों. कितने बजे पापा चाय पिएंगे, अपनी कामवाली को सौसौ हिदायतें, ट्रे में गिलास, जग और पानी का खयाल, बिजली का स्विच कहां है, लिफ्ट कौन से फ्लोर पर रुकती है, सुबह पापा घूमने निकलें, उस से पहले उन का फोन वहां के सिमकार्ड के साथ उन के साथ दे देना. दोपहर हो या रात या दिन, हमारे रुटीन का इतना ध्यान रखती है. तकिया ठीक है कि नहीं, एसी अधिक ठंडा तो नहीं है, रात में कमरे का चक्कर मार जाती है मानो हम कोई छोटे बच्चे हों.

‘बेटा, तू सो जा, इतनी चिंता क्यों करती है, तेरा इतना व्यस्त दिन जाता है, पूरा दिन चक्करघिन्नी सी घूमती है, दसदस बार गाड़ी चलाती है, सड़कें नापती है…’ पर वह सुनीअनसुनी कर देती है. बेटियां, बस, ऐसी ही होती हैं. नहीं जानती कि बेटे क्या करते हैं पर बेटी तो चेहरे के भाव पढ़ कर अंतर्मन तक उतर जाती है.

मुझे अपनी 65 वर्षीय मां की बरबस याद चली आई. उस दिन भी 11 बजे थे. लगभग 20-25 साल पहले हम दिल्ली में पोस्टेड थे. मायका पास था, करीब 2 घंटे दूर. सो महीनेपंद्रह दिनों में वृद्ध मातापिता से मिलने चली जाया करती थी. सुबह की बस पकड़ कर घर पहुंची. रिकशा से उतर कर अम्मा को ढूंढ़ा, देखा, घर के एक किनारे खामोश बैठी थीं. बहुत क्षीण लग रही थीं. चेहरा उतरा हुआ. आंखें विस्फारित, फटीफटी सी. पैनी कंटीली झाड़ी सी सूखी झुरियों को, देखते ही समझ गई कि उन्हें प्यास लगी है. भाग कर रसोई में गई. एक लोटा ठंडा नीबू पानी बनाया.

जब उन्होंने 2 गिलास पानी एक के बाद एक गले से नीचे उतार लिए तब अपनी धोती से गिलास पकड़ेपकड़े रुंधे गले से बोलीं, ‘आज मेरा व्रत है, सुबह से किसी ने नहीं पूछा कि तुम ने कुछ लिया कि नहीं.’ वे अपने पति, मेरे पिता के बड़े से घर में रहती थीं, जहां उन का बेटाबहू व 2 पोतियां, आधा दर्जन नौकरचाकर दिनरात काम करते थे. पुत्रवती खुशहाल अवश्य होती है, किंतु उस दिन पुत्रवती मां की गीली आंखें मेरे मानस पर शिलालेख की भांति अमिट छाप छोड़ गईं. ‘आज बड़ी ढीली लग रही हो?’ बेटी ने एक दिन मुझे देर तक सोते देखा तब पास आ कर माथे पर हाथ रखा और थर्मामीटर लगाया. लगभग 100 डिगरी बुखार था. उसी क्षण ब्लडप्रैशर, शुगर आदि सब चैक होने शुरू हो गए. सारे काम एक तरफ, मां की तबीयत पर सब का ध्यान केंद्रित हो गया, बारीबारी, सब हाल पूछने आते.

‘नानी, यू औलराइट?’ धेवता गले लगा कर के स्कूल जाता, धेवती ‘टेक केयर, नानी’ कह कर जाती. बेटी मेरी पसंद की किताबें लाइब्रेरी से ले आई थी. दामाद से ले कर कामवाली तक मात्र थोड़े से बुखार में ऐसी सेवा कर रहे थे मानो मैं अंतिम सांसें ले रही हूं. यह बात जब मैं ने कह दी तो बिटिया के झरझर आंसू टपकने लगे, ‘अच्छा बाबा, मैं अभी नहीं मर रही, पर तू ही बता, 70वें साल में चल रही हूं…’ उस का उदास चेहरा देख कर चुप हो गई. किंतु बोझिल यादों का पुलिंदा अपने बूढ़े मांबाप के बुढ़ापे की ओर एक बार फिर खुल गया. अपने बूढ़े मातापिता को उन के बेटे यानी मेरे भाई के घर में नितांत अकेले समय काटते देखा था. मैं यह नहीं कहती कि उन्होंने क्या किया, किंतु उन्होंने क्या नहीं किया, उस का दर्द टीस बन कर शिरायों में उमड़ताघुमड़ता अवश्य है.

एक प्रोफैसर पिता ने कभी अच्छे दिनों में जमीन खरीद कर एक साधारण सा घर बनाया था. बिना मार्बल, बिना ग्रेनाइट लगाए. उन के जाने के बाद घर, बंगला बन गया. उसे करोड़ों की संपत्ति का दरजा मिल गया. मातापिता की जबानी ख्वाहिश तथा लिखित वसीयत, पांचों बेटों को बराबर दी गई संपत्ति की धज्जियां उड़ा दी गईं. उन का आदेश, उन की इच्छा को झूठ, उन की लिखी वसीयत को बकवास कह कर पुत्र ने रद्दी में फेंक दिया. बेटियां पराई हो जाती हैं, फिर भी आप से जुड़ी रहती हैं. वे एक नहीं, 3 घरों में बंटी रहती हैं. बेटियां पलपल की खबर रखने वाली, मन की धड़कन सुनने वाली बेटियां होती हैं. बेटे क्या करते हैं मुझे नहीं मालूम, किंतु बेटियां क्या करती हैं, अनुभव कर रही हूं. अपने रिटायर्ड पैंशनयाफ्ता पिता के बैंक बैलेंस की धड़कन पर पूरी नजर रखती हैं, उन के आत्मसम्मान को ठेस न पहुंचे, चुपचाप उन के पर्स में डौलर सरका जाती हैं.

देखो, बावली कितने डौलर रख गई है मेरे पर्स में… जानती है उस के पापा को सब्जीफल खरीदने का शौक है, किंतु अपने रुपए से कितना सामान ला सकेंगे.

मेरे ही एक भाई ने मुझे प्रैक्टिकल होने का पाठ पढ़ाया था, जब मां बीमार थीं और मृत्यु से पहले कोमा में चली गई थीं. चेन्नई से आए भाई वापस जाना चाहते थे, उन्होंने अपनी पत्नी से फोन पर मेरे सामने ही बात की थी, ‘क्या करूं? वापस आ जाऊं, कुछ औफिस का काम है.’

उधर से, ‘नहीं, वहीं रुको, एक ही बार आना.’ (निधन के बाद, 2 बार का हवाई खर्च क्यों करना, मां आज नहीं तो 2-4 दिनों में निबट जाएंगी) अनकही हिदायत का अर्थ. और एक तरफ यूरोप से मात्र 15 दिनों के लिए बेटी अपनी बीमार मां से मिलने चली आई थी, जरा भी प्रैक्टिकल नहीं थी. बेटे क्या करते हैं, क्या नहीं, निष्कर्ष निकालना, निर्णय लेना उचित नहीं. बहुत से बेटों वाले उपरोक्त तर्क का जोरदार खंडन करेंगे. मैं तो सिर्फ आपबीती बता रही हूं क्योंकि मेरा कोई बेटा नहीं है. आपबीती ही नहीं, जगबीती का उदाहरण समक्ष आया जब डाक्टर रवि वर्मा ने अपना अनुभव शेयर किया.

उन के पिता ने वृद्धाश्रम बनाया था जिस में 30 कमरे थे और वे बिना शुल्क उन बुजुर्गों की सेवा कर रहे थे जिन को देखने वाला कोई नहीं था. वे बता रहे थे, ‘बुजुर्गों के रिश्तेदार आदि, अलबत्ता तो कोई नहीं आता है, आता है तो भी हम उन्हें उन के कमरे में नहीं जाने देते.’ वे आगे बताते हैं, ‘अकसर बेटे आते थे और अपने पिता को मारपीट कर उन की 8-10 हजार रुपए की पैंशन की रकम छीन कर ले जाते थे. अब हम ने नियम बना दिया है कि मिलने वाले हमारे सामने सिर्फ औफिस में मिल सकते हैं.’ और फिर उन्होंने जोड़ा, ‘बेटियां आती हैं तो अपने वृद्ध मातापिता के लिए कुछ फल, मिठाई, कपड़ालत्ता ले कर आती हैं, बेटे तो सिर्फ छीनने आते हैं.’ यह उन का अनुभव है, मेरा नहीं.

हमारे यहां 13 से ले कर 25 वर्ष की लड़कियां घरों में काम करने आती हैं. उन के भाई महंगे मोबाइल फोन, मोटरसाइकिल, नए फैशन की जींस, और सारा दिन चौराहे पर जमघट लगाए धींगामस्ती करते हैं. 16 वर्षीय मेरी कामवाली रोज अपना मोबाइल याद करती है, ‘तीन बहनों में एक ही तो है, उस ने मांग लिया मैं कैसे न करती. हम अपने भाई को कभी न नहीं करते.’ जन्म से एक मानसिकता, बेटे को घीचुपड़ी, बेटी को बचीखुची. निश्चित रूप से बेटे भी बहुतकुछ करते होंगे, किंतु बेटियां क्या करती हैं, यह मैं दावे से कह सकती हूं. बेटियां मन से जुड़ी रहती हैं, वे कदम से कदम मिला कर अपना समय आप को देती हैं और यकीन मानिए, बुढ़ापे में समय बेशकीमती है, 5 बेटों के मेरे बाऊजी कितने अकेले थे, देखा है उन के चेहरे पर व्यथा के बादलों को.

5 में से 4 तो बाहर रहते थे. साल में एकाध बार मिलने आते थे. किंतु जो उन के साथ उन के घर में रहता था उस के बारे में बाऊजी एक दिन मुझ से बोले, ‘देख, तेरा छोटा भाई सामने के दरवाजे से अंदर आएगा और, परेड करता बाएं मुड़, सीधा अपने कमरे में चला जाएगा. मैं सामने बैठा उसे दिखाई नहीं देता.’ और ऐसा ही हुआ. 6 महीने बाद जब मिलने गई तो पता चला भाई ने अब सामने का दरवाजा छोड़, बरामदे से ही अलग प्रवेशद्वार प्रयोग करना शुरू कर दिया था. बूढ़ा व्यक्ति अपनी स्मृति के गलियारों में भटकता है. वह अपने गांव, अपने पुराने दिनों को किसी के साथ बांटना चाहता है. बस, यही बेटियां घंटों अपने बाप के साथ उन के देहात के मास्टरजी के रोचक किस्से सुनती हैं.

इसलिए, मैं शायद नहीं जानती, पूरी तरह वाकिफ नहीं हूं कि बेटे भी ये सब करत हैं, किंतु अपनी बेटी अपने पापा के साथ समय जैसे धन को खूब लुटाती है. समय बदल रहा है, आज का वृद्ध कह रहा है, हमें अपना स्पेस चाहिए, आधुनिक युग में फाइवस्टार ओल्डएज होम बन रहे हैं. वे ओल्डएज होम नहीं, कब्र कहलाते हैं. न बेटे की न बेटी की किसी की जरूरत नहीं. सभी सुविधाओं से लैस इस प्रकार की व्यवस्था की जा रही है जहां, खाना, रहना, अस्पताल, जिम, मनोरंजन के साधन, हरेभरे लौन, पार्क आदि घरजैसी बल्कि घर से बढ़ कर तमाम जरूरतों का ध्यान रखते हुए, प्रौपर्टी बन और बिक रही हैं.

दृष्टिकोण बदल रहा है. मांबाप कह रहे हैं, यदि बच्चों को पालापोसा तो क्या उन से हम बदला लें? हम ने उन्हें जन्म दे कर उन पर कोई एहसान नहीं किया. सो, उन्हें बुढ़ापे की लाठी की तरह इस्तेमाल करना बंद करो. इस प्रकार की अवधारणा तूल पकड़ रही है. तब तो बेटेबेटी का किस्सा ही खत्म. बेटे कैसे होते हैं? बेटियों से बेहतर, कि बदतर, टौपिक निरर्थक, चर्चा बेमानी और तर्क अर्थहीन. किंतु ऐसे पांचसितारा कब्र में रहने वाले कितने और कौन हैं, अपने देश की कितनी फीसदी जनता उस का उपभोग कर सकती है? मेरे देश का अधिकांश वयोवृद्ध आज भी बेटीबेटे की ओर आशातीत नजरों से निहारता है.

पतिव्रता : धीरज क्यों मांग रहा था दया की भीख

पूरे समर्पण के साथ पतिव्रता का धर्म निभाने वाली वैदेही के प्रति उस के पति की मानवीय संवेदनाएं दम तोड़ चुकी थीं. रात की खामोशी को तोड़ते हुए दरवाजा पीटने की बढ़ती आवाज से चौंक कर भास्कर बाबू जाग गए थे. घड़ी पर नजर डाली तो रात के 2 बजे थे. इस समय कौन हो सकता है? यह सोच कर दिल किसी आशंका से धड़क उठा.

उन्होंने एक नजर गहरी नींद में सोती अपनी पत्नी सौंदर्या पर डाली और दूसरे ही क्षण उसे झकझोर कर जगा दिया. ‘‘क्या हुआ? कौन है?’’ वह हड़बड़ा कर उठ बैठी. ‘‘क्या हुआ, यह तो मुझे भी नहीं पता पर काफी देर से कोई हमारा दरवाजा पीट रहा है,’’ भास्कर ने स्पष्ट किया. ‘‘अच्छा, पर आधी रात को कौन हो सकता है?’’ सौंदर्या ने कहा और दरवाजे के पास जा कर खड़ी हो गई. ‘‘कौन है? कौन दरवाजा पीट रहा है?’’ उस ने प्रश्न किया. ‘‘आंटी, मैं हूं प्रिंसी.’’ ‘‘यह तो धीरज बाबू की बेटी प्रिंसी का स्वर है,’’ सौंदर्या बोली और उस ने दरवाजा खोल दिया. देखा तो प्रिंसी और उस की छोटी बहन शुचि खड़ी हैं. ‘‘क्या हुआ, बेटी?’’ सौंदर्या ने चिंतित स्वर में पूछा. ‘‘मेरी मम्मी के सिर में चोट लगी है, आंटी. बहुत खून बह रहा है,’’ प्रिंसी बदहवास स्वर में बोली. ‘‘तुम्हारे पापा कहां हैं?’’ ‘‘पता नहीं आंटी, मम्मी को मारनेपीटने के बाद कहीं चले गए,’’ प्रिंसी सुबक उठी. सौंदर्या दोनों बच्चियों का हाथ थामे सामने के फ्लैट में चली गई. वहां का दृश्य देख कर तो उस के होश उड़ गए. उस की पड़ोसिन वैदेही खून में लथपथ बेसुध पड़ी थी.

वह उलटे पांव लगभग दौड़ते हुए अपने घर पहुंची और पति से बोली, ‘‘भास्कर, वैदेही बेहोश पड़ी है. सिर से खून बह रहा है. लगता है उस के पति भास्कर ने सिर फाड़ दिया है. बच्चियां रोरो कर बेहाल हुई जा रही हैं.’’ ‘‘तो कहो न उस के पति से कि वह अस्पताल ले जाए, हम कब तक पड़ोसियों के झमेले में पड़ते रहेंगे.’’ ‘‘वह घर में नहीं है.’’ ‘‘क्या? घर में नहीं है….पत्नी को मरने के लिए छोड़ कर आधी रात को कहां भाग गया डरपोक?’’ ‘‘मुझे क्या पता, पर जल्दी कुछ करो नहीं तो वैदेही मर जाएगी.’’ ‘‘तुम्हीं बताओ, आधी रात को बच्चों को अकेले छोड़ कर कहां जाएं?’’ भास्कर खीज उठा. ‘‘तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं, बस, जल्दी से फोन कर के एंबुलेंस बुला लो. तब तक मैं श्यामा बहन को जगा कर बच्चों के पास रहने की उन से विनती करती हूं,’’ इतना कह कर सौंदर्या पड़ोसिन श्यामा के दरवाजे पर दस्तक देने चली गई थी और भास्कर बेमन से फोन कर एंबुलेंस बुलाने की कोशिश करने लगा. श्यामा सुनते ही दौड़ी आई और दोनों पड़ोसिनें मिल कर वैदेही के बहते खून को रोकने की कोशिश करने लगीं. एंबुलेंस आते ही बच्चों को श्यामा की देखरेख में छोड़ कर भास्कर और सौंदर्या वैदेही को ले कर अस्पताल चले गए.

‘‘इस बेचारी की ऐसी दशा किस ने की है? कैसे इस का सिर फटा है?’’ आपातकालीन कक्ष की नर्स ने वैदेही को देखते ही प्रश्नों की झड़ी लगा दी. ‘‘देखिए, सिस्टर, यह समय इन सब बातों को जानने का नहीं है. आप तुरंत इन की चिकित्सा शुरू कीजिए.’’ ‘‘यह तो पुलिस केस है. आप इन्हें सरकारी अस्पताल ले जाइए,’’ नर्स पर वैदेही की गंभीर दशा का कोई प्रभाव नहीं पड़ा. भास्कर नर्स के साथ बहस करने के बजाय मरीज को सरकारी अस्पताल ले कर चल पडे़. वैदेही को अस्पताल में दाखिल करते ही गहन चिकित्सा कक्ष में ले जाया गया. कक्ष के बाहर बैठे भास्कर और सौंदर्या वैदेही के होश में आने की प्रतीक्षा करने लगे. बहुत देर से खुद पर नियंत्रण रखती सौंदर्या अचानक फूटफूट कर रो पड़ी. झिलमिलाते आंसुओं के बीच पिछले कुछ समय की घटनाएं उस के दिलोदिमाग पर हथौडे़ जैसी चोट कर रही थीं. कुछ बातें तो उस के स्मृति पटल पर आज भी ज्यों की त्यों अंकित थीं. उस रात कुछ चीखनेचिल्लाने के स्वर सुन कर सौंदर्या चौंक कर उठ बैठी थी. कुछ देर ध्यान से सुनने के बाद उस की समझ में आया था कि जो कुछ उस ने सुना वह कोई स्वप्न नहीं बल्कि हकीकत थी. चीखनेचिल्लाने के स्वर लगातार पड़ोस से आ रहे थे. अवश्य ही कहीं कोई मारपीट पर उतर आया था. सौंदर्या ने पास सोते भास्कर पर एक नजर डाली थी. क्या गहरी नींद है.

एक बार सोचा कि भास्कर को जगा दे पर उस की गहरी नींद देख कर साहस नहीं हुआ था. वह करवट बदल कर खुद भी सोने का उपक्रम करने लगी पर चीखनेचिल्लाने के पूर्ववत आते स्वर उसे परेशान करते रहे थे. सौंदर्या सुबह उठी तो सिर बहुत भारी था. ‘क्या हो गया? सुबह के 7 बजे हैं. अब सो कर उठी हो? आज बच्चों की छुट्टी है क्या?’ भास्कर ने चाय की प्याली थामे कमरे में प्रवेश किया था. ‘पता नहीं क्या हुआ है जो सुबह ही सुबह सिरदर्द से फटा जा रहा है.’ ‘चाय पी कर कुछ देर सो जाओ. जगह बदल गई है इसीलिए शायद रात में ठीक से नींद न आई हो,’ भास्कर ने आश्वासन दिया तो सौंदर्या रोंआसी हो उठी थी. ‘सोचा था अपने नए फ्लैट में आराम से चैन की बंसी बजाएंगे. पर यहां तो पहली ही रात को सारा रोमांच जाता रहा.’ ‘ऐसा क्या हो गया? उस दिन तो तुम बेहद उत्साहित थीं कि पुरानी गलियों से पीछा छूटा. नई पौश कालोनी मेें सभ्य और सलीकेदार लोगों के बीच रहने का अवसर मिलेगा,’ भास्कर ने प्रश्न किया था. ‘यहां तो पहली रात को ही भ्रम टूट गया.’ ‘ऐसा क्या हो गया जो सारी रात नींद नहीं आई,’ भास्कर ने कुछ रोमांटिक अंदाज में कहा, ‘प्रिय, देखो तो कितना सुंदर परिदृश्य है. उगता हुआ सूरज और दूर तक फैला हुआ सजासंवरा हराभरा बगीचा. एक अपना वह पुराना बारादरी महल्ला था जहां सूर्य निकलने से पहले ही लोग कुत्तेबिल्लियों की तरह झगड़ते थे. वह भी छोटीछोटी बातों को ले कर. ‘इतना प्रसन्न होने की जरूरत नहीं है. वह घर हम अवश्य छोड़ आए हैं पर वहां का वातावरण हमारे साथ ही आया है.’ ‘क्या तात्पर्य है तुम्हारा?’ ‘यही कि जगह बदलने से मानव स्वभाव नहीं बदल जाता. रात को पड़ोस के फ्लैट से रोनेबिलखने के ऐसे दयनीय स्वर उभर रहे थे कि मेरी तो आंखों की नींद ही उड़ गई. बच्चे भी जोर से चीख कर कह रहे थे कि पापा मत मारो, मत मारो मम्मी को.’ ‘अच्छा, मैं ने तो समझा था कि यह सभ्य लोगों की बस्ती है, पुरानी बारादरी थोडे़ ही है. यहां के लोग तो मानवीय संबंधों का महत्त्व समझते होंगे पर लगता है कि…

सौंदर्या ने पति की बात बीच में काट कर वाक्य पूरा किया, ‘कि मानव स्वभाव कभी नहीं बदलता, फिर चाहे वह पुरानी बारादरी महल्ला हो या फिर शहर का सभ्य सुसंस्कृत आधुनिक महल्ला.’ ‘तुम ने मुझे जगाया क्यों नहीं, मैं तभी जा कर उस वीर पति को सबक सिखा देता. अपने से कमजोर पर रौब दिखाना, हाथ उठाना बड़ा सरल है. ऐसे लोगों के तो हाथ तोड़ कर हाथ में दे देना चाहिए.’ ‘देखो, बारादरी की बात अलग थी. यहां हम नए आए हैं. हम क्यों व्यर्थ ही दूसरों के फटे में पांव डालें,’ सौंदर्या ने सलाह दी. ‘यही तो बुराई है हम भारतीयों में, पड़ोस में खून तक हो जाए पर कोई खिड़की तक नहीं खुलती,’ भास्कर खीज गया था. दिनचर्या शुरू हुई तो रात की बात सौंदर्या भूल ही गई थी पर नीलम और नीलेश को स्कूल बस मेें बिठा कर लौटी तो सामने के फ्लैट से 3 प्यारी सी बच्चियों को निकलते देख कर ठिठक गई थी. सब से बड़ी 10 वर्षीय और दूसरी दोनों उस से छोटी थीं. तीनों लड़कियां मानों सौंदर्य की प्रतिमूर्ति थीं. सीढि़यां चढ़ते ही सामने के फ्लैट का दरवाजा पकडे़ एक महिला खड़ी थी.

दूधिया रंगत, तीखे नाकनक्श. सौंदर्या ने महिला का अभिवादन किया तो वह मुसकरा दी थी. बेहद उदास फीकी सी मुसकान. ‘मैं आप की नई पड़ोसिन सौंदर्या हूं,’ उस ने अपना परिचय दिया था. ‘जी, मैं वैदेही’ इतना कहतेकहते उस ने अपने फ्लैट में घुस कर अंदर से दरवाजा बंद कर लिया था, मानो कोई उस का पीछा कर रहा हो. भारी कदमों से सौंदर्या अपने फ्लैट में आई थी. अजीब बस्ती है. यहां कोई किसी से बात तक नहीं करता. इस से तो अपनी पुरानी बारादरी अच्छी थी कि लोग आतेजाते हालचाल तो पूछ लेते थे. दालचावल बीनते, सब्जी काटते पड़ोसिनें बालकनी में भी छत पर खड़ी हो सुखदुख की बातें तो कर लेती थीं और मन हलका हो जाता था. पर इस नए परिवेश में तो दो मीठे बोल सुनने को मन तरस जाता था. यही क्रम जब हर 2-3 दिन पर दोहराया जाने लगा तो सौंदर्या का जीना दूभर हो गया. बारादरी में तो ऐसा कुछ होने पर पड़ोसी मिल कर बात को सुलझाने का प्रयत्न करते थे, पर यहां तो भास्कर ने साफ कह दिया था कि वह इस झमेले में नहीं पड़ने वाला. और वह कानों में रूई के फाहे लगा कर चैन की नींद सोता था. पड़ोसियों के पचडे़ में न पड़ने के अपने फैसले पर भास्कर भी अधिक दिनों तक टिक नहीं पाया. हुआ यों कि कार्यालय से लौटते समय अपने फ्लैट के ठीक सामने वाले फ्लैट के पड़ोसी धीरज द्वारा अपनी पत्नी पर लातघूंसों की बरसात को भास्कर सह नहीं सका था.

उस ने लपक कर उस का गिरेबान पकड़ा था और दोचार हाथ जमा दिए. ‘मैं तो आप को सज्जन इनसान समझता था पर आप का व्यवहार तो जानवरों से भी गयागुजरा निकला,’ भास्कर ने पड़ोसी की बांह इस प्रकार मरोड़ी कि वह दर्द से कराह उठा था. भास्कर ने जैसे ही धीरज का हाथ छोड़ा वह शेर हो गया. ‘आप होते कौन हैं हमारे व्यक्तिगत मामलों में दखल देने वाले. मेरी पत्नी है वह. मेरी इच्छा, मैं उस से कैसा भी व्यवहार करूं.’ ‘लानत है तुम्हारे पति होने पर जो मारपीट को ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हो,’ दांत पीसते हुए भास्कर पड़ोसी की ओर बढ़ा पर दूसरे ही क्षण वैदेही हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगी थी. ‘भाई साहब, मैं आप के हाथ जोड़ती हूं, आप हमारे बीच पड़ कर नई मुसीबत न खड़ी करें.’ भास्कर को झटका सा लगा था. दूसरी ओर अपने फ्लैट का द्वार खोले सौंदर्या खड़ी थी. वैदेही पर एक पैनी नजर डाल कर भास्कर अपने फ्लैट की ओर मुड़ गया था. सौंदर्या उस के पीछे आई थी. वह सौंदर्या पर ही बरस पड़ा था. ‘कोई जरूरत नहीं है ऐसे पड़ोसियों से सहानुभूति रखने की. अपने काम से काम रखो, पड़ोस में कोई मरे या जिए. नहीं सहन होता तो दरवाजेखिड़कियां बंद कर लो, कानों में रूई डाल लो और चैन की नींद सो जाओ.’ सौंदर्या भास्कर की बात भली प्रकार समझती थी. उस का क्रोध सही था पर चुप रहने के अलावा किया भी क्या जा सकता था. धीरेधीरे सौंदर्या और वैदेही के बीच मित्रता पनपने लगी थी. ‘क्या है वैदेही, ऐसे भी कोई अत्याचार सहता है क्या? सिर पर गुलम्मा पड़ा है, आंखों के नीचे नील पडे़ हैं जगहजगह चोट के निशान हैं… तुम कुछ करती क्यों नहीं,’ एक दिन सौंदर्या ने पूछ ही लिया था. ‘क्या करूं दीदी, तुम्हीं बताओ. मेरे पिता और भाइयों ने साम, दाम, दंड, भेद सभी का प्रयोग किया पर कुछ नहीं हुआ. आखिर उन्होंने मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया. मुझे तो लगता है एक दिन ऐसे ही मेरा अंत आ जाएगा.’ ‘क्या कह रही हो. इस आधुनिक युग में भी औरतों की ऐसी दुर्दशा? मुझे तो तुम्हारी बातें आदिम युग की जान पड़ती हैं.’ ‘समय भले ही बदला हो दीदी पर समाज नहीं बदला. जिस समाज में सीताद्रौपदी जैसी महारानियों की भी घोर अवमानना हुई हो वहां मेरी जैसी साधारण औरत किस खेत की मूली है.’ ‘मैं नहीं मानती, पतिपत्नी यदि एकदूसरे का सम्मान न करें तो दांपत्य का अर्थ ही क्या है.’ ‘हमारे समाज में यह संबंध स्वामी और सेवक का है,’ वैदेही बोली थी.

‘बहस में तो तुम से कोई जीत नहीं सकता. इतनी अच्छी बातें करती हो तुम पर धीरज को समझाती क्यों नहीं,’ सौंदर्या मुसकरा दी थी. ‘समझाया इनसान को जाता है हैवान को नहीं,’ वैदेही की आंखें डबडबा आईं और गला भर आया था. सौंदर्या गहन चिकित्सा कक्ष के बाहर बेंच पर बैठी थी कि चौंक कर उठ खड़ी हुई. अचानक ही वर्तमान में लौट आई वह. ‘‘मरीज को होश आ गया है,’’ सामने खड़ी नर्स कह रही थी, ‘‘आप चाहें तो मरीज से मिल सकती हैं.’’ सौंदर्या को देखते ही वैदेही की आंखों से आंसुओं की धारा बह चली. ‘‘मैं घर चलता हूं. कल काम पर भी जाना है,’’ भास्कर ने कहा. ‘‘भाई साहब, अब भी नाराज हैं क्या? कोई भूल हो गई हो तो क्षमा कर दीजिए इस अभागिन को,’’ वैदेही का स्वर बेहद धीमा था, मानो कहीं दूर से आ रहा हो. ‘‘गांधी नगर में मेरी बहन रहती है. उसे आप फोन कर दीजिएगा,’’ इतना कह कर वैदेही ने फोन नंबर दिया पर वह चिंतित थी कि न जाने कब तक अस्पताल में रहना पड़ेगा. भास्कर घर पहुंचा तो धीरज वापस आ चुका था. उसे देख कर बाहर निकल आया. ‘‘वैदेही कहां है?’’ उस ने प्रश्न किया. ‘‘कौन वैदेही? मैं किसी वैदेही को नहीं जानता,’’ भास्कर तीखे स्वर में बोला. ‘‘देखो, सीधे से बता दो नहीं तो मैं पुलिस को सूचित करूंगा,’’ धीरज ने धमकी दी. ‘‘उस की चिंता मत करो, पुलिस खुद तुम्हें ढूंढ़ती आ रही होगी.

वैसे तुम्हारी पतिव्रता पत्नी तो तुम्हारे विरोध में कुछ कहेगी नहीं, पर हम तुम्हें छोड़ेंगे नहीं,’’ भास्कर का क्रोध हर पल बढ़ता जा रहा था. तभी भास्कर ने देखा कि उस माउंट अपार्टमेंट के फ्लैटों के दरवाजे एकएक कर खुल गए थे और उन में रहने वाले लोग मुट्ठियां ताने धीरज की ओर बढ़ने लगे थे. ‘‘इस राक्षस को सबक हम सिखाएंगे,’’ वे चीख रहे थे. भास्कर के होंठों पर मुसकान खेल गई. इस सभ्यसुसंस्कृत लोगों की बस्ती में भी मानवीय संवेदना अभी पूरी तरह मरी नहीं है. उसे वैदेही और उस की बच्चियों के भविष्य के लिए आशा की नई किरण नजर आई. उधर धीरज वहां से भागने की राह न पा कर हाथ जोडे़ सब से दया की भीख मांग रहा था.

कौन अपना कौन पराया: अमर ने क्या किया था

कहानी- करुणा कोछर

घुटनों के असहनीय दर्द के चलते मेरे लिए खड़ा होना मुश्किल हो रहा था किंतु मजबूरी थी. इस अनजान जगह पर मुझे दूरदूर तक कोई सहारा नजर नहीं आ रहा था.

विराट को परसों जबरदस्त हार्ट अटैक पड़ा था और देहरादून में उचित व्यवस्था न होने के कारण वहां के डाक्टरों की सलाह से विराट को दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में लाना पड़ा. हालांकि विराट की तबीयत खराब होने की खबर बच्चों को कर दी थी लेकिन उन की सुध लेने कोई नहीं आया. यह सोच कर मेरी आंखें भर आईं कि क्या इसी दिन के लिए लोग औलाद चाहते हैं? दर्द असहनीय होता जा रहा था. चक्कर सा आने लगा कि अचानक किसी ने आ कर थाम लिया और अधिकार के साथ बोला, ‘‘आप हटिए यहां से, मैं पैसे जमा करवा दूंगा,’’ आवाज सुन कर मैं ने चौंक कर ऊपर देखा तो मेरी निगाहें जम सी गईं.

‘‘तुम…तुम यहां कैसे पहुंचे?’’ मैं ने कांपते स्वर में पूछा.

‘‘कैसे भी? पर आप ने तो नहीं बताया न. हमेशा की तरह मुझे गैर ही समझा न,’’ उस के स्वर में शिकायत थी, ‘‘खैर छोडि़ए, आप बाबा के पास जाइए, मैं पैसे जमा करवा कर और डाक्टर से बात कर के अभी आता हूं,’’ वह बोला.

मैं धीरेधीरे चलती हुई विराट के कमरे तक पहुंची. वह आंखें मूंदे लेटे थे. मैं धीरे से पास रखे स्टूल पर बैठ गई. बुद्धि शून्य हुई जा रही थी. थोड़ी देर में वह भी कमरे में आया और विराट के पैर छूने लगा. विराट ने जैसे ही आंखें खोलीं और उसे सामने देखा तो खिल उठे, और अपनी दोनों बांहें फैला दीं तो वह छोटे बच्चे की तरह सुबकता हुआ उन बांहों में सिमट गया. थोड़ी देर बाद सिर उठा कर बोला, ‘‘मैं आप से बहुत नाराज हूं बाबा, आप ने भी मुझे पराया कर दिया. 2 दिन से घर पर घंटी बज रही थी, कोई फोन नहीं उठा रहा था सो मुझ से रहा नहीं गया और मैं घर पहुंचा तो पड़ोसियों से पता चला कि आप बीमार हैं और मैं यहां चला आया.

‘‘बाबा, आप इतने बीमार रहे लेकिन मुझे कभी बताया तक नहीं. क्या मेरा इतना हक भी आप पर नहीं है. बोलो न, बाबा?’’

वह लगातार प्रश्न करता रहा और विराट मुसकराते रहे. उस ने कहा, ‘‘अब आप बिलकुल चिंता न करना बाबा, अब मैं सब संभाल लूंगा.’’

विराट काफी निश्चिंत लग रहे थे. मन ही मन मुझे भी उस के आने से काफी खुशी हो रही थी. फिर वह मेरी तरफ मुड़ा और बोला, ‘‘बाहर मेरा अर्दली खड़ा है. आप उस के साथ मेरे गेस्ट हाउस पर चली जाइए. आप भी थक गई होंगी. थोड़ा आराम कर लीजिए. बाबा की आप बिलकुल चिंता न करें. मैं इन का पूरा खयाल रखूंगा,’’ उस ने कहा और मैं ने शायद जीवन में पहली बार उस की किसी बात की अवहेलना नहीं की. सिर झुका कर अपनी मौन स्वीकृति दे दी.

बाहर आ कर उस ने अपने अर्दली को कुछ निर्देश दिए और मैं उस की जीप में चुपचाप बैठ कर उस के गेस्ट हाउस पहुंच गई. नहाधो कर जब मैं लौन में आ कर बैठी तो अर्दली चाय और बिस्कुट ले आया. चाय पी कर थोड़ी राहत महसूस हुई. अंदर आ कर मैं ने कमरा बंद किया और सोने का उपक्रम करने लगी किंतु नींद मेरी आंखों से कोसों दूर थी. बीता समय मानस पटल पर उजागर होने लगा.

जब मेरी शादी विराट से हुई थी तो वह वकालत में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे थे. वैसे मेरे ससुरजी एक कामयाब वकील थे. धीरेधीरे विराट भी वकालत के पेशे में पैर जमाने लगे और इन की भी गिनती नामी वकीलों में की जाने लगी. हमारे 2 बेटे हुए जिन्हें हम ने लाड़प्यार से पाला. कुछ समय बाद ससुरजी की मृत्यु हो गई तो उन के एक बहुत पुराने मुंशीजी को विराट ने अपने साथ रख लिया.

मुंशीजी की विश्वसनीयता और कर्मठता के कारण विराट उन पर बहुत निर्भर हो गए. एक दिन अचानक मुंशीजी घबराए हुए आए और एक हफ्ते की छुट्टी मांगने लगे. विराट के पूछने पर उन्होंने बताया कि उन का गांव भूकंप की चपेट में आ गया है और वह अपने परिवार के लिए चिंतित हैं. तब पहली बार मैं ने जाना कि मुंशीजी का अपना परिवार भी है.

करीब 10 दिन बाद मुंशीजी लौटे तो उन के साथ एक 12 साल का लड़का था. विराट को देखते ही मुंशीजी बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगे. रोतेरोते उन्होंने बताया कि भूकंप की चपेट में उन के दोनों बेटेबहुएं और पोतेपोतियों की मृत्यु हो गई है. केवल यही एक बच्चा बच पाया है. चूंकि गांव में अपना कोई बचा नहीं है इसलिए अपने इस छोटे पोते को साथ लेता आया हूं.

विराट एक नरमदिल इनसान हैं सो मुंशीजी को सांत्वना देते हुए बोले, ‘घबराइए मत मुंशीजी, होनी को तो कोई टाल नहीं सकता. हम सब आप के दुख में आप के साथ हैं,’ फिर बच्चे की ओर देख कर विराट बोले, ‘क्या नाम है बेटा?’

‘जी अमर… अमरदीप,’ वह बच्चा हकलाते हुए बोला.

‘अरे वाह, बड़ा अच्छा नाम है. पढ़ते हो?’

उस ने सिर हिला कर ‘हां’ कहा.

‘कौन सी क्लास में?’ विराट ने पूछा.

‘जी, 5वीं में,’ अमर बोला.

‘साहब, आप इस का दाखिला सेंट्रल स्कूल में करवा दीजिए. थोड़ा पढ़लिख जाएगा तो कमा खा लेगा. मेरा क्या भरोसा?’ मुंशीजी लाचारी से बोले.

‘क्यों नहीं, मुंशीजी, पर सेंट्रल स्कूल में क्यों, मैं इस का दाखिला वरुण के स्कूल में करवा दूंगा,’ विराट ने दरियादिली दिखाई, ‘और आप अमर की चिंता न करें, इस की पढ़ाई का सारा खर्चा मेरे जिम्मे होगा.’

हालांकि मुझे यह बात नागवार लगी किंतु मैं चुप रही. बाद में विरोध जताने पर विराट मुझे समझाते हुए बोले, ‘क्या फर्क पड़ता है सुमि, अनाथ बच्चा है, पढ़लिख जाएगा तो तुम्हें दुआ देगा.’

‘नहीं चाहिए मुझे दुआ,’ मैं खीज कर बोली, ‘आप इसे सरकारी स्कूल में ही भरती करवा दें. वहां किताबें और यूनीफार्म भी मुफ्त में मिल जाएगी.’

‘इस की फीस भर कर और साल में एक बार किताबकापियों और यूनीफार्म पर खर्च कर के तुम्हारा खजाना खाली हो जाएगा. है न,’ विराट व्यंग्यात्मक मुसकराहट से बोले तो मैं कुढ़ गई. मुझे यह कतई गवारा न था कि मेरे नौकर का बच्चा मेरे बच्चों की बराबरी में पढ़े.

विराट ने अपने मन की मानी और अमर का दाखिला मेरे बच्चों के स्कूल में ही हो गया और वह भी मेरे बच्चों के साथ गाड़ी में स्कूल आताजाता था.

मुंशीजी अपने परिवार के सदमे से टूट गए थे अत: 6 महीने के भीतर ही उन की भी मृत्यु हो गई. विराट अमर को घर ले आए. उस दिन मैं ने विराट से खूब लड़ाई की. किंतु वह यही तर्क देते रहे कि मुंशीजी उन के पुराने वफादार मुलाजिम थे अत: उन के पोते के प्रति उन का नैतिक कर्तव्य बनता था.

मेरे तर्कवितर्कों का विराट पर कोई असर नहीं पड़ा बल्कि अब वह अमर पर ज्यादा ध्यान देने लगे. उस की पढ़ाई, उस का खानापीना, उस के कपड़े आदि का खास ध्यान रखते.

हालांकि अमर अपनी पढ़ाई के साथसाथ मेरे कामों में भी मेरी मदद कराता. बाजार के भी काम कर देता. जिस समय मेरे बच्चे कंप्यूटर गेम खेल रहे होते वह उन का होमवर्क भी कर देता. फिर भी मेरी नाराजगी कम न होती. मेरे बच्चे भी जबतब उसे जलील करते रहते किंतु वह उफ तक नहीं करता.

मेरे बच्चों की देखादेखी एक बार मेरे लिए अमर के मुंह से ‘मम्मी’ निकला तो मैं ने उसे झिड़क दिया. फिर एक बार बाजार से आ कर सौदा सौंपते हुए उस ने मुझे ‘मांजी’ कहा तो मैं चिल्ला उठी, ‘खबरदार, मुझे मम्मी या मांजी कहा तो. कहना है तो मालकिन कहो.’

वह सहम गया. उस दिन के बाद से उस ने मुझे कोई भी संबोधन नहीं दिया.

अमर पढ़ाई में बहुत होशियार था. अपनी कक्षा में वह हमेशा प्रथम आता था. इस से विराट बहुत खुश होते थे. 12वीं की परीक्षा समाप्त होने पर एक दिन विराट बोले, ‘मैं सोचता हूं अमर को पी.एम.टी. की परीक्षा में बिठाऊं और…’

विराट अभी बात पूरी भी न कह पाए थे कि मेरे सब्र का बांध टूट गया और उस दिन मेरे क्रोध की भी सीमा न रही.

‘बस कीजिए, अब क्या इस ढोल को सारी जिंदगी मुझे बजाते रहना पड़ेगा. डाक्टरी की पढ़ाई 5-6 साल से कम नहीं और खर्चा बेतहाशा. मैं ने क्या इस का ठेका उठाया है जो अपने बच्चों के हिस्से का पैसा भी इस पर खर्च करूंगी. 12वीं तक पढ़ा दिया अब यह कोई छोटामोटा काम करे और हमारा पीछा छोड़े. मैं अब इसे और बरदाश्त नहीं करूंगी.’

मैं ने गुस्से में यह भी न सोचा कि कहीं अमर ने यह सब सुन लिया तो? और शायद उस ने मेरी बातें सुन ली थीं.

2 दिन बाद विराट के पास जा कर अमर धीरे से बोला, ‘बाबूजी, मैं डाक्टर या इंजीनियर नहीं बनना चाहता बल्कि मैं सैनिक बनना चाहता हूं. मैं एन.डी.ए. का फार्म लाया हूं. आप इस पर हस्ताक्षर कर दें.’

विराट ने न चाहते हुए भी उस पर दस्तखत कर दिए. और फिर एक दिन अमर को एन.डी.ए. की परीक्षा में शामिल होने का पत्र भी आ गया. 5 दिन की कड़ी परीक्षा दे कर जब वह देहरादून से लौटा तो उस का चेहरा खुशी से दमक रहा था. उस का चयन हो गया था. जिस दिन वह अपना सामान ले कर टे्रनिंग पर जा रहा था विराट की आंखों में आंसू थे.

‘बेटा, मैं तुम्हारे लिए ज्यादा कर नहीं पाया,’ अमर को गले लगाते हुए विराट बोले.

‘ऐसा न कहें बाबूजी, मैं आज जो भी हूं और भविष्य में जो भी बन पाऊंगा सिर्फ आप की वजह से. मेरा रोमरोम आप का सदा आभारी रहेगा,’ अमर रोते हुए बोला. जब वह मेरे चरणस्पर्श करने आया तो मैं ने बेरुखी से कहा, ‘ठीक है…ठीक है’ और वह चला गया. मैं ने भी चैन की सांस ली.

मेरे दोनों बच्चे इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे. वरुण ने आई.आई.टी. मुंबई से एम.टेक. किया. उसे विदेश में नौकरी मिल गई. वहीं उस ने एक लड़की से शादी कर ली. उस दिन मैं बहुत रोई थी. छोटे बेटे शशांक को बोकारो, जमशेदपुर में नौकरी मिल गई. उस ने भी एक विजातीय लड़की से प्रेम विवाह किया जिस ने कभी हमें अपना नहीं माना.

अमर के पत्र लगातार विराट के पास आते रहते. टे्रनिंग पूरी कर के उस की लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति हुई. एक बार हम से मिलने के लिए अमर 2 दिन के लिए आया था. किंतु मेरा व्यवहार उस के प्रति रूखा ही रहा. हां, उन 2 दिनों में मैं ने विराट को कहकहे लगाते देखा था.

फिर विराट को पक्षाघात हुआ तो मैं ने दोनों बच्चों को खबर दी. वे आए भी लेकिन किसी ने भी हमें अपने साथ रखने की बात नहीं की और न ही कोई पैसे से मदद की. उलटे दोनों बेटे नसीहत देने लगे कि हम अपना बंगला बेच दें और एक छोटा सा फ्लैट ले लें. पहली बार मुझे अपनी कोख पर अफसोस हुआ और एक पल को अमर की याद भी आई किंतु मेरा अहम आड़े आ गया.

कभीकभी अमर का फोन आता तो मैं टाल देती. विराट की बीमारी पर काफी पैसा लगा. आमदनी रही नहीं, सिर्फ खर्चे ही खर्चे. रोजरोज पानी उलीचने से तो कुआं भी खाली हो जाता है तो हमारे बैंक में जमा पैसे का क्या. हार कर अपना बंगला मुझे बेचना पड़ा.

देहरादून में पुश्तैनी टूटाफूटा घर था. उसी की मरम्मत करवा कर हम वहां रहने के लिए आ गए. मैं ने गुस्से के मारे अपने बेटों को खबर भी नहीं दी. हां, विराट के बहुत आग्रह पर 2 लाइनें अमर को लिख दीं जिस में अपना नया पता व टेलीफोन नंबर था.

पत्र मिलते ही अमर देहरादून आया. अब वह कैप्टन बन चुका था. सारी बात पता चलने पर उस ने अपने साथ चलने के लिए बहुत जिद की लेकिन विराट ने उसे समझाबुझा कर वापस भेज दिया.

अमर नियमित रूप से पत्र भेजता रहता. हालांकि वह पैसे से भी मदद करना चाहता था लेकिन मेरे अहम को यह गवारा न था.

अमर की शादी का निमंत्रण आया तो मैं ने कार्ड छिपा दिया. किसी कर्नल की बेटी से उस की शादी हो रही थी. उस का फोन भी आया तो मैं ने विराट को नहीं बताया. फिर एक दिन वह अपनी पत्नी को ले कर ही देहरादून आ गया. हालांकि बड़ी प्यारी और संस्कारी लड़की थी लेकिन मैं उन लोगों से खिंचीखिंची ही रही. उन के जाने पर विराट ने मुझ से झगड़ा किया कि मैं ने शादी के बारे में क्यों नहीं बताया.

अब विराट कुछ चुपचुप से रहने लगे थे. एक तो अपनी अपंगता के कारण, दूसरे, बच्चों की बेरुखी से वह आशाहीन से हो गए थे. शायद इसी कारण उन्हें यह अटैक पड़ा था. मैं ने घबराहट में दोनों बच्चों को फोन पर सूचना दी तो दोनों ने ही आने में अपनी असमर्थता जाहिर की. इस बार चाहते हुए भी मैं अमर को मदद के लिए नहीं बुला पाई. हां, दिल्ली आते समय पड़ोसियों को अस्पताल का पता दे कर आई थी एक उम्मीद में और वही हुआ. आखिर अमर पहुंच ही गया.

अचानक दरवाजे पर हुई दस्तक से मेरी तंद्रा भंग हो गई. दरवाजा खोल कर देखा तो सामने नौकर खड़ा था.

‘‘मांजी, खाना तैयार है. आप खा लीजिए. अस्पताल का खाना भी मैं ने पैक कर लिया है. फिर हम अस्पताल चलेंगे.’’

मैं ने जल्दीजल्दी कुछ कौर निगले और उस अर्दली के साथ अस्पताल पहुंच गई. देखा तो विराट काफी खुश लग रहे थे. मुझे यह देख कर बहुत अच्छा लगा. अमर ने बताया 2 दिन बाद आपरेशन है.

आपरेशन कामयाब रहा. सारी भागदौड़ और खर्च अमर ने ही किया. इस बार मैं ने उसे नहीं रोका. जब विराट को अस्पताल से छुट्टी मिली तो अमर ने एक बार फिर अपने साथ उस के घर डलहौजी चलने का आग्रह किया. जब विराट ने प्रश्नसूचक नजरों से मेरी ओर देखा तो मैं ने मुसकराते हुए मौन स्वीकृति दे दी. अमर को तो जैसे कुबेर का खजाना मिल गया. उस ने फौरन फोन कर के अपनी पत्नी भावना को बता दिया.

हम जब डलहौजी में अमर के बंगले पर पहुंचे तो भावना बाहर खड़ी मिली. जीप से उतरते ही उस ने सिर पर आंचल डाल कर मेरे पैर छुए. अमर सहारा दे कर विराट को अंदर ले गया.

विराट काफी खुश नजर आ रहे थे. मुझे भी काफी सुकून सा महसूस हुआ. अपनी बहुओं का तो मैं ने सुख देखा नहीं. पहली बार सास बनने का एहसास हो रहा था.

रात का खाना अमर ने अपने हाथों से अपने बाबूजी को खिलाया. काफी देर तक दोनों गप्पें मारते रहे. भावना बारबार आ कर मेरी जरूरतों के बारे में पूछ जाती.

खाने के बाद जब मैं बिस्तर पर लेटी थी तो अचानक मुझे दरवाजे के बाहर अमर की आवाज सुनाई पड़ी. मैं ने ध्यान से सुना तो वह भावना को मेरे लिए कौफी बनाने को कह रहा था.

मेरा मन भीग गया. उसे अभी भी याद है कि मैं खाने के बाद कौफी पीती हूं. थोड़ी देर में भावना टे्र में कौफी का मग ले कर आई, ‘‘मांजी, आप की कौफी लाई हूं साथ में आप का मीठा पान भी है.’’

अमर को याद रहा कि मीठा पान मेरी कमजोरी है. विराट को मेरा पान खाना पसंद नहीं था सो मैं कभीकभी अमर से ही पान मंगवाया करती थी. मैं द्रवित हो उठी.

2-3 सप्ताह बाद जब विराट की तबीयत में काफी सुधार आ गया तो मैं ने अमर से अपने घर जाने की बात की. अमर उदास हो गया और कहने लगा, ‘‘क्या आप यहां खुश नहीं हैं? क्या आप को कोई तकलीफ है?’’

‘‘ऐसी बात नहीं है बेटा,’’ मेरे मुंह से अचानक निकल गया.

‘‘बेटा भी कह रही हैं और बेटे का हक भी नहीं दे रही हैं,’’ अमर भावुक हो कर बोला.

‘‘एक शर्त पर बेटे का हक दे सकती हूं, यदि तुम मुझे ‘मां’ कहो तो,’’ अपनी भावनाओं को मैं रोक नहीं पाई और अपनी दोनों बांहें पसार दीं. वह एक मासूम बच्चे की तरह मेरी गोद में समा गया और रोतेरोते बोला, ‘‘मां, अब मैं आप को और बाबूजी को कहीं नहीं जाने दूंगा. अब आप दोनों मेरे पास ही रहेंगे. बोलो मां, रहोगी न?’’ वह लगातार यह पूछता जा रहा था और मैं उस के बालों को सहलाते हुए बोली, ‘‘अपने बच्चों को छोड़ कर कौन मांबाप अकेले रहना चाहते हैं. हम यहीं रहेंगे, अपने बेटे के पास.’’

मैं भावुकता में बोले जा रही थी और मेरी आंखों से गंगायमुना बह रही थी. थोड़ी देर में तालियां बजने लगीं. मैं ने नजर उठा कर देखा तो विराट और भावना तालियां बजा रहे थे और हंस रहे थे.

उस रात मैं ने विराट से कहा, ‘‘अमर मेरी कोख से क्यों न हुआ?’’ तो वह बोले, ‘‘इस से क्या फर्क पड़ता है. है तो वह मेरा ही बेटा.’’

‘‘मेरा नहीं हमारा बेटा,’’ मैं तुरंत बोली और हम दोनों ठठा कर हंस पड़े.

बहार: क्या पति की शराब की लत छुड़ाने में कामयाब हो पाई संगीता

अपने सास ससुर के रहने आने की खबर सुन कर संगीता का मूड खराब हो गया. यह बात उस के पति रवि की नजरों में भी आ गई.

सप्ताहभर पहले संगीता की बड़ी ननद मीनाक्षी अपने दोनों बच्चों के साथ पूरे 10 दिन उस के घर रह कर गई थी. अब इतनी जल्दी सासससुर का रहने आना उसे बहुत खल रहा था.

‘‘इतना सड़ा सा मुंह मत बनाओ संगीता क्योंकि 10-15 दिनों की ही बात है. पहली बार दोनों अपने छोटे से कसबे में रहने आ रहे हैं, इसलिए मैं टालमटोल नहीं कर सकता था.’’

रवि के इन शब्दों को सुन कर संगीता का मूड और ज्यादा उखड़ गया. बोली, ‘‘मेरी खुद की तबीयत ठीक नहीं रहती है. उन की देखभाल के लिए नौकरानी ला दो, तो मुझे कोई शिकायत नहीं. फिर कितने भी दिन रुकें, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा,’’ तीखे स्वर में जवाब दे कर संगीता ने चादर से मुंह ढका और लंबी चुप्पी साध ली.

अपने मातापिता के आने से परेशान रवि भी था. मीनाक्षी के सामने संगीता के साथ उस का कई बार झगड़ा हुआ था. उन सब झगड़ों की खबर उस के मातापिता तक निश्चित रूप से मीनाक्षी ने पहुंचा दी होगी. वह जानता था कि मातापिता अपना पुरातनपंथी रवैया नहीं छोड़ेंगे और पूरी सोयायटी में उस की जगहंसाई हो सकती है.

शादी होने के सिर्फ 5 महीने बाद बेटाबहू खूब लड़तेझगड़ने लगे थे. इस तथ्य ने उस के मातापिता का दिल दुखा कर उन्हें चिंता से भर दिया होगा. अब रवि उन का सामना करने का हौसला अपने भीतर जुटा नहीं पा रहा था. वह कोविड-19 का बहाना बना कर उन्हें टालता रहा था पर अब वह बहाना चल नहीं रहा था.

लगभग ऐसी ही मनोस्थिति संगीता की भी थी. काम के बोझ का तो उस ने बहाना बनाया था. वह भी अपने सासससुर की नजरों के सामने खराब छवि के साथ आना नहीं चाहती थी. उन का चिंता करना या समझना उसे अपमानजनक महसूस होगा और वह उस स्थिति का सामना करने से बचना चाहती थी. रवि के मातापिता कोविड-19 के दिनों में अकेले ही रहे थे और अकेलेपन को सहज लेते रहे थे.

अगले दिन शाम को उस के सासससुर उन के घर पहुंच गए. दोनों में से किसी

ने भी रवि और उस के बीच 2 साल से चलने वाले झगड़ों की चर्चा नहीं छेड़ी. उसे 2 सुंदर साडि़यों का उपहार भी मिला. सोने जाने तक का समय इधरउधर की बातें करते हुए बड़ी अच्छी तरह से गुजरा और संगीता ने मन ही मन बड़ी राहत महसूस करी.

‘‘अपने सासससुर के सामने न मैं आप से उलझंगी, न आप मुझ से झगड़ना,’’ संगीता के इस प्रस्ताव पर रवि ने फौरन अपनी सहमति की मुहर सोने से पहले लगा दी थी.

अगले दिन शाम को जो घटा उस की कल्पना भी उन दोनों ने कभी नहीं करी थी.

रवि अपने दोस्तों के साथ शराब पीने के बाद घर लौटा. वह ऐसा अकसर सप्ताह में

3-4 बार करता था. इसी क ारण उस का संगीता से खूब झगड़ा भी होता.

उस शाम संगीता की नाक से शराब का भभका टकराया, तो उस की आंखों में गुस्से की लपटें फौरन उठीं, पर वह मुंह से एक शब्द नहीं बोली.

रवि के दोस्तों में से ज्यादातर पियक्कड़ किस्म के थे. रवि की जमात के लोगों को ऊंची जाति के लोग दोस्त नहीं बनाते थे और उसे सड़क छाप आधे पढ़े लोगों को अपना दोस्त बनाना पड़ता था जो सस्ती शराब भरभर कर

पीते थे.

उस की मां आरती मुसकराती हुई अपने

बेटे के करीब आईं, तो शराब की गंध उन्होंने

भी पकड़ी.

‘‘रवि, तूने शराब पी रखी है?’’ आरती ने चौंक कर पूछा.

‘‘एक दोस्त के यहां पार्टी थी. थोड़ी सी जबरदस्ती पिला दी उन लोगों ने,’’ उन से बच कर रवि अपने शयनकक्ष की तरफ बढ़ा.

आरती ने अपने पति रमाकांत की तरफ घूम कर उन से शिकायती लहजे में

कहा, ‘‘मेरे बेटे को यह गंदी लत आप की बदौलत मिली है.’’

‘‘बेकार की बकवास मत करो,’’ रमाकांत ने उन्हें फौरन डपट दिया.

‘‘मैं ठीक कह रही हूं,’’ आरती निडर बनी रहीं, ‘‘जब यह बच्चा था तब इस ने आप को शराब पीते देखा और आज खुद पीने लगा है.’’

‘‘मुझे शराब छोड़े 10 साल हो गए हैं.’’

‘‘जब ब्लडप्रैशर बढ़ गया और लिवर खराब होने लगा, तब छोड़ा आप ने पीना. मैं लगातार शोर मचाती थी कि बच्चे पर बुरा असर पड़ेगा, पर मेरी कभी नहीं सुनी आप ने. मेरा बेटा अपना स्वास्थ्य अब बरबाद करेगा और उस के जिम्मेदार आप होंगे.’’

‘‘अपनी बेकार की बकबक बंद कर, बेवकूफ औरत.’’

उन की गुस्से से भरी चेतावनी के बावजूद आरती ने चुप्पी नहीं साधी, तो उन के बीच झगड़ा बढ़ता गया. संगीता अपनी सास को दूसरे कमरे में ले जाना चाहती थी, पर असफल रही. रवि ने बारबार रमाकांत से चुप हो जाने की प्रार्थना करी, पर उन्होंने बोलना बंद नहीं किया.

रमाकांत को अचानक इतना गुस्सा आया कि नौबत आरती पर हाथ उठाने की आ गई. तब संगीता अपनी सास को जबरदस्ती खींच कर दूसरे कमरे में ले गई.

रवि देर तक अपने पिता को गुस्सा न करने के लिए समझता रहा. रमाकांत खामोशी से उस की बातें सिर झकाए सुनते रहे

उन के पास से उठने के समय तक रवि का नशा यों गायब हो चुका था जैसे उस ने शराब पी ही नहीं थी. सारा झगड़ा उस के पिता की शराब पीने की पुरानी आदत को ले कर हुआ था. कमाल की बात यह थी कि उसे दिमाग पर बहुत जोर डालने पर भी याद नहीं आया कि उस ने कभी अपने पिता को शराब पीते देखा हो.

शादी के बाद संगीता ज्यादा दिन अपने सासससुर के साथ नहीं रही थी. उन की आपस में लड़नेझगड़ने की क्षमता देख कर उसे अपने रवि के साथ हुए झगड़े बौने लगने लगे थे.

रविवार के दिन आरती और रमाकांत का एक

और नया रूप उन दोनों को देखने के लिए मिला.

संगीता ने आरती द्वारा पूछे

गए एक सवाल के जवाब में

कहा, ‘‘इन्हें घूमने जाने या फिल्म देखने को बिलकुल शौक नहीं है. मुझे फिल्म देखे हुए महीनों बीत गए हैं.’’

‘‘बकवास हिंदी फिल्में सिनेमाहौल पर देखने में 3 घंटे बरबाद करने की क्या तुक है?’’ रवि ने सफाई दी, ‘‘फिर केबल

पर दिनरात फिल्में आती रहती हैं. टीवी पर फिल्में देख कर यह अपना शौक पूरा कर लेती है, मां. नैट विलक्स भी है. बहुत सीरीज हैं, उन्हें देखे न.’’

‘‘असल में तुम बापबेटे दोनों को ही अपनीअपनी पत्नी के शौक पर खर्चा करना अच्छा नहीं लगता है,’’ आरती ने अपनी बहू का हाथ प्यार से अपने हाथ में ले कर शरारती स्वर में टिप्पणी करी.

‘‘तुम हर बात में मुझे क्यों बीच में घसीट लेती हो? अरे, मैं ने तो शादी के बाद तुम्हें पहले साल में कम से कम 50 फिल्में दिखाई होंगी,’’ रमाकांत ने तुनक कर सफाई दी.

‘‘फिल्में देखने का शौक आप को था, मुझे नहीं.’’

‘‘तू तो हौल में आंखें बंद कर के बैठी रहती होगी.’’

अपने पति के कटाक्ष को नजरअंदाज कर आरती ने मुसकराते हुए संगीता से कहा, ‘‘मुझे चाट खाने का शौक था और इन्हें एसिडिटी हो जाती थी बाहर का कुछ खा कर… तुम्हें एक घटना सुनाऊं?’’

‘‘सुनाइए, मम्मी,’’ संगीता ने फौरन उत्सुकता दिखाई.

‘‘तेरे ससुर शादी की पहली सालगिरह पर मुझे आलू की टिक्की खिलाने ले गए. टिक्की की प्लेट मुझे पकड़ाते हुए बड़ी शान से बोले कि जानेमन, आज फिर से करारी टिकियों का आनंद लो. तब मैं ने चौंक कर पूछा कि मुझे आप ने पहले टिक्की कब खिलाई? इस पर जनाब बड़ी अकड़ के साथ बोले कि इतनी जल्दी भूल गई. अरे, शादी के बाद हनीमून मनाने जब मसूरी गए थे, क्या तब नहीं खिलाई थी एक प्लेट टिक्की?’’

आरती की बात पर संगीता और रवि खिलखिला कर हंसे. रमाकांत झेंपेझेंपे अंदाज में मुसकराते रहे. शरारत भरी चमक आंखें में ला कर आरती उन्हें बड़े प्यार से निहारती रहीं.

अचानक रमाकांत खड़े हुए और नाटकीय अंदाज में छाती फुलाते हुए रवि से बोले, ‘‘झठीसच्ची कहानियां सुना कर मेरी मां मेरा मजाक उड़ा रही है यह मैं बरदाश्त नहीं कर सकता.’’

‘‘आप को इस बारे में कुछ करना चाहिए, पापा,’’ रवि बड़ी कठिनाई से अपनी आवाज में गंभीरता पैदा कर पाया.

‘‘तू अभी जा और पूरे सौ रुपए की टिक्कीचाट ला कर इस के सामने रखे दे. इसे अपना पेट खराब करना है, तो मुझे क्या?’’

‘‘बात मेरी चाट की नहीं बल्कि संगीता के फिल्म न देख

पाने की चल रही थी, साहब,’’ आरती ने आंखें मटका कर उन्हें याद दिलाया.

‘‘रवि,’’ रमाकांत ने सामने बैठे बेटे को उत्तेजित लहजे में फिर से आवाज दी.

‘‘जी, पिताजी,’’ रवि ने फौरन मदारी के जमूरे वाले अंदाज में जवाब दिया.

‘‘क्या तू जिंदगीभर अपनी बहू से फिल्म न दिखाने के ताने सुन कर अपमानित होना चाहेगा?’’

‘‘बिलकुल नहीं.’’

‘‘तब 4 टिकट फिल्म के भी ले आ, मेरे लाल.’’

‘‘ले आता हूं, पर 4 टिकट क्यों?’’

‘‘हम दोनों भी इन की खुशी की खातिर 3 घंटे की यातना सह लेंगे.’’

‘‘जी,’’ रवि की आवाज कुछ कमजोर पड़ गई.

‘‘अपने घटिया मुकद्दर पर आंसू वहां लेंगे.’’

‘‘जी.’’

‘‘कभीकभी आंसू बहाना आंखों के लिए अच्छा होता है, बेटे.’’

‘‘जी.’’

‘‘जा फिर चाट और टिकट

ले आ.’’

‘‘लाइए, पैसे दीजिए.’’

‘‘अरे, अभी तू खर्च कर दे. मैं बाद में दे दूंगा.’’

‘‘उधार नहीं चलेगा.’’

‘‘मेरे पास सिर्फ 2-2 हजार के नोट हैं.’’

‘‘मैं तुड़ा देता हूं.’’

‘‘मुझ पर विश्वास नहीं तुझे?’’

रवि मुसकराता हुआ खामोश खड़ा रहा. तभी संगीता और आरती ने ‘‘कंजूस… कंजूस,’’ का नारा बारबार लगाना शुरू कर दिया.

रमाकांत ने उन्हें नकली गुस्से से घूरा, पर उन पर कोई असर नहीं हुआ. तब वे अचानक मुसकराए और फिर अपने पर्स से निकाल कर उन्होंने 5 सौ के 2 नोट रवि को पकड़ा दिए.

संगीता और आरती अपनी जीत पर खुश हो कर खूब जोर से हंसीं. उन की हंसी में रवि और रमाकांत भी शामिल हुए.

उस रात संगीता और रवि एकदूसरे की बांहों में कैद हो कर गहरी नींद सोए. उन का वाह रविवार बड़ा अच्छा गुजरा था. एक लंबे समय के बाद रवि ने दिल की गहराइयों से संगीता को प्रेम किया था. प्रेम से मिली तृप्ति के बाद उन्हें गहरी नींद तो आनी ही थी.

अगले दिन सुबह 6 बजे

के करीब रसोई से आ रही खटपट की आवाजें सुन कर संगीता की नींद टूटी. वह देर तक सोने की आदी थी. नींद जल्दी खुल जाए

तो उसे सिरदर्द पूरा दिन परेशान करता था.

सुबह बैड टी उसे रवि ही

7 बजे के बाद पिलाता था. उसे अपनी बगल में लेटा देख संगीता ने अंदाजा लगाया कि उस के सासससुर रसोई में कुछ कर रहे हैं.

संगीता उठे या लेटी रहे की उलझन को सुलझ नहीं पाई थी कि तभी आरती ने शयनकक्ष का दरवाजा खटखटाया.

दरवाजा खोलने पर उस ने अपनी सास को

चाय की ट्रे हाथ में लिए खड़ा पाया.

‘‘रवि को उठा दो बहू और दोनों चाय पी लो. आज की चाय तुम्हारे ससुर ने बनाई है. वे नाश्ता बनाने के मूड में भी हैं,’’ ट्रे संगीता के हाथों में पकड़ा कर आरती उलटे पैर वापस चली गईं.

संगीता मन ही मन कुढ़ गई. रवि को जागा हुआ देख उस ने मुंह फुला कर कहा, ‘‘नींद टूट जाने से सारा दिन मेरा सिरदर्द से फटता रहेगा. अपने मातापिता से कहो मुझे जल्दी न उठाया करें.’’

रवि ने हाथ बढ़ा कर चाय का गिलास उठाया और सोचपूर्ण लहजे में बोला, ‘‘पापा को तो चाय तब बनानी नहीं आती थी. फिर वे आज नाश्ता बनाएंगे? यह चक्कर कुछ समझ में नहीं आया.’’

संगीता और सोना चाहती थी, पर वैसा कर नहीं सकी. रमाकांत और आरती ने रसोई में खटरपटर मचा कर उसे दबाव में डाल दिया था. बहू होने के नाते रसोई में जाना अब उस की मजबूरी थी.

चाय पीने के बाद जब संगीता रसोई में पहुंची, तब रवि उस के पीछपीछे था.

रसोई में रमाकांत पोहा बनाने की तैयारी में लगे थे. आरती एक तरफ स्टूल पर बैठी अखबार पढ़ रही थीं.

उन दोनों के पैर छूने के बाद संगीता ने जबरन मुसकराते हुए कहा, ‘‘पापा, आप यह क्या कर रहे हैं? पोहा मैं तैयार करती हूं… आप कुछ देर बाहर घूम आइए.’’

रमाकांत ने हंस कर कहा, ‘‘तेरी सास

से मैं ने 2-4 चीजें बनानी

सीखी हैं. ये सब करना मुझे अब बड़ा अच्छा लगता है. बाहर घूमने का काम आज तुम और रवि कर आओ.’’

‘‘मां, पापा ने रसोई के काम कब सीख लिए और उन्हें ऐसा करने की जरूरत क्या आ पड़ी थी?’’ रवि ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘तेरे पिता की जिद के आगे किसी की चलती है क्या? पतिपत्नी को घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां आपस में मिलजुल कर निभानी चाहिए, यह भूत इन के सिर पर अचानक कोविड-19 के लौकडाउन के दौरान चढ़ा और सिर्फ सप्ताहभर में पोहा, आमलेट, उपमा, सूजी की खीर, सादे परांठे और आलू की सूखी सब्जी बनाना सीख कर ही माने,’’ आरती ने रमाकांत को प्यार से निहारते हुए जवाब दिया.

‘‘यह तो कमाल हो गया,’’ रवि की आंखों में प्रशंसा के भाव उभरे.

‘‘जब तक मैं यहां हूं, तुम सब को नाश्ता कराना अब मेरा काम है,’’ रमाकांत ने जोशीले अंदाज में कहा.

‘‘आज पोहा खा कर ही हमें मालूम पड़ेगा कि रोजरोज आप का बनाया नाश्ता हम झेल पाएंगे या नहीं,’’ अपने इस मजाक पर सिर्फ रवि ही खुद हंसा.

‘‘आप रसोई में काम करें, यह ठीक नहीं है,’’ संगीता ने हरीमिर्च काट रहे रमाकांत के हाथ से चाकू लेने की कोशिश करी.

‘‘छोड़ न, बहू,’’ आरती ने उठ कर उस का हाथ पकड़ा और कहा, ‘‘ये रवि करेगा अपने पिता की सहायता. चल तू और मैं कुछ देर सामने वाले पार्क में घूम आएं. बड़ा सुंदर बना हुआ है पार्क.’’

संगीता ‘न… न,’ करती रही, पर आरती उसे घुमाने के लिए घर से बाहर ले ही गईं. इधर रमाकांत ने रवि को जबरदस्ती अपनी बगल में खड़ा कर पोहा बनाने की विधि सिखाई.

दीक्षा: क्या हुआ था प्राची के साथ

प्राची अपने कमरे में बैठी मैथ्यू आरनल्ड की कविता ‘फोरसेकन मरमैन’ पढ़ रही थी. कविता को पढ़ कर प्राची का मन बच्चों के प्रति घोर अशांति से भर उठा. उस के मन में सवाल उठा कि क्या कोई मां इतनी पत्थर दिल भी हो सकती है. वह सोचने लगी कि यदि धर्म का नशा वास्तव में इतना शक्तिशाली है तो उस का तो हंसताखेलता परिवार ही उजड़ जाएगा.

‘नहीं, वह अपने जीतेजी ऐसा कदापि नहीं होने देगी,’ प्राची ने मन ही मन यह फैसला किया कि धर्म के दलदल में फंसे पति को जैसे भी होगा वह वापस निकाल कर लाएगी.

पिछले कुछ महीनों से प्राची को अपने पति साहिल के व्यवहार में बदलाव नजर आने लगा था. कल तक उसे अपनी बांहों में भर कर जो साहिल जीवन के सच को उस की घनी जुल्फों के साए में ढूंढ़ता था आज वह उस से भागाभागा फिरता है.

साहिल अपने दोस्त सुधीर के गुरुजी के प्रवचनों से बेहद प्रभावित था. रहीसही कसर टेलीविजन चैनलों पर दिखाए जाने वाले उपदेशकों के प्रवचनों से पूरी हो गई थी. अब तो साहिल को एक ही धुन सवार थी कि किसी तरह स्वामीजी से दीक्षा ली जाए और इस के लिए साहिल आफिस से निकलते ही सीधा स्वामीजी के पास चला जाता. वहां से आने के बाद वह प्राची सेयह तक नहीं पूछता कि तुम कैसी हो या बेटा अक्षय कैसा है.

रोज की तरह साहिल उस दिन भी रात को 9 बजे घर आया. खाना खाने के बाद सीधे सोने की तैयारी करने लगा. एक सुंदर सी बीवी भी घर में है, इस का उसे कोई एहसास ही नहीं था.

आज प्राची इस स्थिति का सामना करने के लिए तैयार थी. वह एक झटके से उठी और अपना हाथ साहिल के माथे पर रख दिया. इस पर साहिल हड़बड़ा कर उठा और पूछ बैठा, ‘‘क्या कोई काम है?’’

‘‘क्या सिर्फ काम के लिए ही पति और पत्नी का रिश्ता बना है?’’ प्राची ने दुखी स्वर में पूछा और फिर सुबकते हुए बोली, ‘‘तुम ने तो इस सहज स्वाभाविक व रसीले रिश्ते को नीरस बना डाला है. पिछले 2 महीने से तुम ने मेरी इस कदर उपेक्षा की है जैसे कि तुम्हारे जीवन में मेरा कोई स्थान ही नहीं है.

‘‘देखो प्राची, मैं स्वामीजी से

दीक्षा लेना चाहता हूं और इस के लिए उन्होंने मुझे हर प्रकार से शुद्ध रहने

को कहा है….’’

साहिल की बात को बीच में काटते हुए प्राची बोली, ‘‘इसीलिए तुम अपनी पत्नी की अवहेलना कर रहे हो. तुम ने सोचा भी कैसे कि पत्नी की उपेक्षा कर के तुम्हें मुक्ति मिल जाएगी? मुक्ति की ही चाह थी तो शादी के बंधन में ही क्यों पड़े?’’

प्राची की तल्ख बातें सुन कर साहिल हतप्रभ रह गया. उस ने पत्नी के इस रौद्र रूप की कल्पना भी नहीं की थी. फिर किसी तरह अपने को संभाल कर बोला, ‘‘प्राची, मैं तो बस आत्म अन्वेषण का प्रयास कर रहा था. मैं तुम्हें छोड़ने की बात सोच भी नहीं सकता.’’

‘‘ठीक है, तो तुम्हें बीवी या स्वामीजी में से किसी एक को चुनना होगा.’’ यह कह कर प्राची ने मुंह घुमा लिया.

अगले दिन साहिल दफ्तर न जा कर सीधा अपने दोस्त सुधीर के घर गया जहां स्वामीजी आसन जमा कर बैठे थे और उन के पास भक्तों की भीड़ लगी थी. साहिल को परेशान हाल देख कर स्वामीजी ने पूछा, ‘‘क्या बात है? बड़े परेशान दिख रहे हो, वत्स.’’

‘‘मुझे आप से एकांत में कुछ बात करनी है,’’ साहिल बोला.

स्वामीजी का इशारा होते ही कमरा खाली हो गया तो साहिल ने पिछली रात की सारी घटना ज्यों की त्यों स्वामीजी को सुना दी. इस पर स्वामीजी शांत भाव से बोले, ‘‘वत्स, घबराने की कोई बात नहीं है. साधना के मार्ग में तो इस तरह की विघ्न- बाधाएं आती ही हैं. शास्त्र कहता है कि यदि साधना के मार्ग में पत्नी, मां या सगेसंबंधी बाधक बनें तो उन्हें त्याग देना चाहिए.’’

स्वामीजी की यह बात सुन कर साहिल सोच में पड़ गया कि बिना किसी कुसूर के अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़ देना क्या उचित होगा?

साहिल को च्ंितित देख कर स्वामीजी बोले, ‘‘वत्स, एक उपाय है. अपनी पत्नी को भी यहां ले आओ. यहां आ कर उस का हृदय परिवर्तन भी हो सकता है और तब वह तुम्हें दीक्षा लेने से नहीं रोक सकती.’’

यह उपाय कारगर हो सकता है. ऐसा सोच कर साहिल स्वामीजी के चरणों में 501 रुपए रख कर चला गया.

साहिल के जाने के बाद सुधीर ने कमरे में आ कर स्वामीजी को देखते हुए जोर का ठहाका लगा कर कहा, ‘‘मान गए, स्वामीजी. अब तो यह आप की आंखों से देखता और आप के कानों से सुनता है.’’

साहिल घर जा कर प्राची को मनाने की कोशिश करने लगा. पहले तो प्राची साहिल को मना करती रही. फिर उस ने सोचा कि चल कर देखा जाए कि आखिर वहां का माजरा क्या है? उस ने साहिल से कहा कि हम रविवार की सुबह स्वामीजी के पास चलेंगे. साहिल ने फौरन इस बात की सूचना फोन पर सुधीर को दे दी.

अगले दिन साहिल के दफ्तर जाने के बाद प्राची ने फोन कर के सुधा को बुलाया. सुधा उस की बचपन की सहेली थी और उस के पति अरुण वर्मा शहर के एस.पी. थे. घर आने पर प्राची ने गर्मजोशी से अपनी सहेली सुधा का स्वागत किया.

बातोंबातों में जब सुधा ने कहा कि प्राची, जैसा मैं ने तुम्हें शादी में देखा था वैसी ही तुम आज भी दिखती हो तो प्राची फफकफफक कर रो पड़ी.

‘‘अरे, क्या हुआ, मैं ने कुछ गलत कह दिया क्या?’’ सुधा घबरा कर बोली.

प्राची शुरू  से ले कर अब तक की साहिल की कहानी सुधा के आगे बयान करने के बाद बोली, ‘‘अब तू ही बता सुधा, मैं अपने वैवाहिक जीवन को बचाने के लिए क्या करूं?’’

‘‘तू च्ंिता मत कर. मैं हूं न,’’ सुधा बोली, ‘‘ऐसा करते हैं, पहले चल कर अरुण से बात करते हैं. फिर जैसी वह सलाह देंगे वैसा ही करेंगे.’’

इस के बाद सुधा प्राची को ले कर अपने घर गई और फोन कर अरुण को भी बुला लिया.

प्राची की सारी बात सुन कर अरुण बोले, ‘‘आप च्ंिता न करें. मैं अब उस स्वामी का खेल ज्यादा दिनों तक नहीं चलने दूंगा. इस के बारे में अभी तक जितनी जानकारी मेरे हाथ लगी है, उस से यही लगता है कि ऐसा कोई अपराध नहीं जो उस ने न किया या करवाया हो. पहले वह तुम्हारे पति जैसे अंधविश्वासी लोगों को हाथ की सफाई से दोचार चमत्कार दिखा कर प्रभावित करता है. इस के बाद दान के नाम पर पैसे ऐंठता है, फिर युवा महिलाओं को दीक्षित करने के बहाने उन की इज्जत लूटता है. अभी कुछ दिन पहले इसी स्वामी की काली करतूतों के बारे में एक गुमनाम पत्र मेरे पास भी आया था जिस में इज्जत लूटने के बाद ब्लैकमेल करने की बात लिखी गई थी. प्राची, अगर तुम मेरी मदद करो तो मैं एक बहुत बड़े ढोंगी का परदाफाश कर सकता हूं.’’

‘‘मैं इस अभियान में आप के साथ हूं. बताइए, मुझे क्या करना होगा?’’ प्राची आत्मविश्वास के साथ बोली.

अरुण ने प्राची को अपनी योजना बता दी और उसे च्ंितामुक्त हो कर घर जाने के लिए कहा.

शाम को साहिल ने प्राची को बताया कि स्वामीजी अपने आश्रम में चले गए हैं. अब उन के आश्रम में जा कर आशीर्वाद लेना होगा.

रविवार को जाने से पहले प्राची ने अरुण को फोन किया और बेटे को पड़ोसिन के पास छोड़ कर वह पति के साथ आश्रम के लिए रवाना हो गई.

ठीक 10 बजे दोनों आश्रम पहुंच गए. आश्रम बहुत भव्य था. अंदर जाते ही उन्हें सुधीर मिल गया. वह उन्हें एक वातानुकूलित कमरे में बैठाते हुए बोला, ‘‘स्वामीजी ने कहा है कि 1 घंटे के बाद वह तुम लोगों से मिलेंगे.’’

सुधीर उन्हें स्वागत कक्ष में बैठा कर चला गया. फिर कुछ देर बाद आ कर उन दोनों को स्वामीजी के निजी कमरे में ले गया. साहिल और प्राची ने हाथ जोड़ कर स्वामीजी का अभिवादन किया और उन के आसन के सामने बिछी दरी पर बैठ गए.

प्राची को संबोधित करते हुए स्वामीजी बोले, ‘‘मैं ने सुना है कि तुम साहिल के दीक्षा लेने के खिलाफ हो.’’

प्राची ने विनम्र स्वर में उत्तर दिया, ‘‘महाराज, आजकल के माहौल को देखते हुए ही मैं साहिल की दीक्षा के खिलाफ थी, लेकिन यहां आ कर मेरा हृदय परिवर्तन हो गया है. अब मेरे पति की दीक्षा में मेरी ओर से कोई बाधा नहीं होगी.’’

‘‘क्यों नहीं तुम भी अपने पति के साथ दीक्षा ले लेतीं,’’ स्वामीजी बोले, ‘‘इस से तुम दोनों का जल्दी ही उद्धार होगा.’’

प्राची ने कहा, ‘‘मेरा अहोभाग्य, जो आप ने मुझे इस लायक समझा.’’

अगले रविवार को दीक्षा का दिन निर्धारित कर दिया गया. स्वामीजी ने सुधीर से कहा कि उन्हें ले जा कर दीक्षा की औपचारिकताओं के बारे में बता दो. प्राची को पता चला कि दीक्षा लेने से पहले भक्त को 10 हजार रुपए जमा करवाने पड़ते हैं.

प्राची ने घर आ कर सुधा को फोन पर सारी बात बताई और फिर देखते ही देखते उन के दीक्षा लेने का दिन भी आ गया.

दीक्षा वाले दिन स्वामीजी के निजी कमरे में प्राची और साहिल जब पहुंचे तो 3 पुरुष और 2 महिलाएं वहां पहले ही मौजूद थे.

साहिल भावविभोर हो कर प्रणाम करने के लिए आगे बढ़ा तो स्वामीजी बोले, ‘‘वत्स, जाओ, तुम दोनों पहले स्नान कर के शुद्ध हो जाओ. उस के बाद श्वेत वस्त्र धारण कर के यहां मेरे पास आओ.’’

इस के बाद प्राची को किरण नाम की एक महिला स्नान कराने के लिए ले गई.

उस ने स्नानघर का दरवाजा खोला और किरण को श्वेत वस्त्र देने के लिए कहा. किरण ने बताया कि स्नानघर के कोने में बनी अलमारी में श्वेत वस्त्र रखे हैं.

प्राची बाथरूम का दरवाजा अंदर से बंद कर सतर्कता के साथ वहां का जायजा लेने लगी. अचानक उस की नजर शावर के ऊपर लगी एक छोटी सी वस्तु पर पड़ी. उस के दिमाग में बिजली सी कौंध गई कि कहीं यह कैमरा तो नहीं. फिर हिम्मत से काम लेते हुए प्राची ने अपना दुपट्टा निकाल कर कैमरे को ढंक दिया और कमीज की जेब से मोबाइल निकाल कर अरुण को फोन मिला कर बोली, ‘‘हैलो, जीजाजी, यहां बहुत गड़बड़ लग रही है. आप फौरन आ जाइए.’’

अरुण ने जवाब में कहा, ‘‘घबराओ नहीं, प्राची, मैं आश्रम के पास ही हूं.’’

उसी समय फटाक की आवाज के साथ अलमारी का दरवाजा खुला और सुधीर ने प्राची का हाथ पकड़ कर उसे अलमारी के अंदर खींच लिया.

प्राची ने प्रतिरोध करने की बहुत कोशिश की, पर सब व्यर्थ. सुधीर उसे जबरन खींचता हुआ स्वामी के निजी कमरे में ले गया जहां उस को देखते ही स्वामीजी फट पड़े, ‘‘लड़की, तू ने मुझ से झगड़ा मोल ले कर अच्छा नहीं किया. तेरी इज्जत की अभी मैं च्ंिदीच्ंिदी किए देता हूं.’’

‘‘बदमाश, धोखेबाज, तेरी इज्जत की धज्जियां तो अब उडे़ंगी,’’ प्राची बेखौफ हो कर बोली, ‘‘जरा बाहर निकल कर तो देख. पुलिस तेरे स्वागत में खड़ी है.’’

तभी फायर होने की आवाज के साथ ही स्वामी के कमरे के दरवाजे पर जोर से थपथपाहट होने लगी. इस से पहले कि स्वामी और सुधीर कुछ कर पाते प्राची ने भाग कर दरवाजा खोल दिया.

सामने अरुण पुलिस बल के साथ खड़े थे. स्वामीजी लड़खड़ाते हुए बोले, ‘‘अच्छा हुआ, एस.पी. साहब, आप यहां आ गए अन्यथा यह कुलटा मुझे पथभ्रष्ट करने ही यहां आई थी.’’

अरुण ने खींच कर एक तमाचा स्वामी के मुंह पर मारा और पुलिस वाले लहजे में गाली देते हुए बोला, ‘‘तू क्या चीज है मैं अच्छी तरह जानता हूं. तेरे तमाम अपराधों की सूची मेरे पास है. बता, साहिल कहां है?’’

स्वामी ने एक कमरे की ओर इशारा किया तो पुलिस वाले साहिल को ले आए. वह अर्धबेहोशी की हालत में था.

अरुण ने स्वामी और सुधीर को पुलिस स्टेशन भेजने के बाद साहिल को अस्पताल भिजवाने का इंतजाम किया.

रात को अरुण प्राची और साहिल का हाल जानने आए तो साथ में सुधा भी थी. उन के जाने के बाद साहिल प्यार से प्राची की ओर देख कर बोला, ‘‘भई, दीक्षा तो मुझे अब भी चाहिए, तुम्हारे प्रेम की दीक्षा.’’

‘‘उस के लिए तो मैं सदैव तैयार हूं,’’ कहते हुए प्राची ने साहिल के सीने में अपना सिर छिपा लिया.

बहू-बेटी का फर्क: क्या सपना के बेटे का फैसला सही था

जब से वे सपना की शादी कर के मुक्त हुईं तब से हर समय प्रसन्नचित्त दिखाई देती थीं. उन के चेहरे से हमेशा उल्लास टपकता रहता था. महरी से कोई गलती हो जाए, दूध वाला दूध में पानी अधिक मिला कर लाए अथवा झाड़ ूपोंछे वाली देर से आए, सब माफ था. अब वे पहले की तरह उन पर बरसती नहीं थीं. जो भी घर में आता, उत्साह से उसे सुनाने बैठ जातीं कि उन्होंने कैसे सपना की शादी की, कितने अच्छे लोग मिल गए, लड़का बड़ा अफसर है, देखने में राजकुमार जैसा. फिर भी एक पैसा दहेज का नहीं लिया. ससुर तो कहते थे कि आप की बेटी ही लक्ष्मी है और क्या चाहिए हमें. आप की दया से घर में सब कुछ तो है, किसी बात की कमी नहीं. बस, सुंदर, सुसंस्कृत व सुशील बहू मिल गई, हमारे सारे अरमान पूरे हो गए.

शादी के बाद पहली बार जब बेटी ससुराल से आई तो कैसे हवा में उड़ी जा रही थी. वहां के सब हालचाल अपने घर वालों को सुनाती, कैसे उस की सास ने इतने दिनों पलंग से नीचे पांव ही नहीं धरने दिया. वह तो रानियों सी रही वहां. घर के कामों में हाथ लगाना तो दूर, वहां तो कभी मेहमान अधिक आ जाते तो सास दुलार से उसे भीतर भेजती हुई कहती, ‘‘बेचारी सुबह से पांव लगतेलगते थक गई, नातेरिश्तेदार क्या भागे जा रहे हैं कहीं. जा, बैठ कर आराम कर ले थोड़ी देर.’’

और उस की ननद अपनी भाभी को सहारा दे कर पलंग पर बैठा आती.

यह सब जब उन्होंने सुना तो फूली नहीं समाईं. कलेजा गज भर का हो गया. दिन भर चाव से रस लेले कर वे बेटी की ससुराल की बातें पड़ोसिनों को सुनाने से भी नहीं चूकतीं. उन की बातें सुन कर पड़ोसिन को ईर्ष्या होती. वे सपना की ससुराल वालों को लक्ष्य कर कहतीं, ‘‘कैसे लोग फंस गए इन के चक्कर में. एक पैसा भी दहेज नहीं देना पड़ा बेटी के विवाह में और ऐसा शानदार रोबीला वर मिल गया. ऊपर से ससुराल में इतना लाड़प्यार.’’

उस दिन अरुणा मिलने आईं तो वे उसी उत्साह से सब सुना रही थीं, ‘‘लो, जी, सपना को तो एम.ए. बीच में छोड़ने तक का अफसोस नहीं रहा. बहुत पढ़ालिखा खानदान है. कहते हैं, एम.ए. क्या, बाद में यहीं की यूनिवर्सिटी में पीएच.डी. भी करवा देंगे. पढ़नेलिखने में तो सपना हमेशा ही आगे रही है. अब ससुराल भी कद्र करने वाला मिल गया.’’

‘‘फिर क्या, सपना नौकरी करेगी, जो इतना पढ़ा रहे हैं?’’ अरुणा ने उन के उत्साह को थोड़ा कसने की कोशिश की.

‘‘नहीं जी, भला उन्हें क्या कमी है जो नौकरी करवाएंगे. घर की कोठी है.  हजारों रुपए कमाते हैं हमारे दामादजी,’’ उन्होंने सफाई दी.

‘‘तो सपना इतना पढ़लिख कर क्या करेगी?’’

‘‘बस, शौक. वे लोग आधुनिक विचारों के हैं न, इसलिए पता है आप को, सपना बताती है कि सासससुर और बहू एक टेबल पर बैठ कर खाना खाते हैं. रसोई में खटने के लिए तो नौकरचाकर हैं. और खानेपहनाने के ऐसे शौकीन हैं कि परदा तो दूर की बात है, मेरी सपना तो सिर भी नहीं ढकती ससुराल में.’’

‘‘अच्छा,’’ अरुणा ने आश्चर्य से कहा.

मगर शादी के महीने भर बाद लड़की ससुराल में सिर तक न ढके, यह बात उन के गले नहीं उतरी.

‘‘शादी के समय सपना तो कहती थी कि मेरे पास इतने ढेर सारे कपड़े हैं, तरहतरह के सलवार सूट, मैक्सी और गाउन, सब धरे रह जाएंगे. शादी के बाद तो साड़ी में गठरी बन कर रहना होगा. पर संयोग से ऐसे घर में गई है कि शादी से पहले बने सारे कपड़े काम में आ रहे हैं. उस के सासससुर को तो यह भी एतराज नहीं कि बाहर घूमने जाते समय भी चाहे…’’

‘‘लेकिन बहनजी, ये बातें क्या सासससुर कहेंगे. यह तो पढ़ीलिखी लड़की खुद सोचे कि आखिर कुंआरी और विवाहिता में कुछ तो फर्क है ही,’’ श्रीमती अरुणा से नहीं रहा गया.

उन्होंने सोचा कि शायद श्रीमती अरुणा को उन की पुत्री के सुख से जलन हो रही है, इसीलिए उन्होंने और रस ले कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं तो डरती थी. मेरी सपना को शुरू से ही सुबह देर से उठने की आदत है, पराए घर में कैसे निभेगी. पर वहां तो वह सुबह बिस्तर पर ही चाय ले कर आराम से उठती है. फिर उठे भी किस लिए. स्वयं को कुछ काम तो करना नहीं पड़ता.’’

‘‘अब चलूंगी, बहनजी,’’ श्रीमती अरुणा उठतेउठते बोलीं, ‘‘अब तो आप अनुराग की भी शादी कर डालिए. डाक्टर हो ही गया है. फिर आप ने बेटी विदा कर दी. अब आप की सेवाटहल के लिए बहू आनी चाहिए. इस घर में भी तो कुछ रौनक होनी ही चाहिए,’’ कहतेकहते श्रीमती अरुणा के होंठों की मुसकान कुछ ज्यादा ही तीखी हो गई.

कुछ दिनों बाद सपना के पिता ने अपनी पत्नी को एक फोटो दिखाते हुए कहा, ‘‘देखोजी, कैसी है यह लड़की अपने अनुराग के लिए? एम.ए. पास है, रंग भी साफ है.’’

‘‘घरबार कैसा है?’’ उन्होंने लपक कर फोटो हाथ में लेते हुए पूछा.

‘‘घरबार से क्या करना है? खानदानी लोग हैं. और दहेज वगैरा हमें एक पैसे का नहीं चाहिए, यह मैं ने लिख दिया है उन्हें.’’

‘‘यह क्या बात हुई जी. आप ने अपनी तरफ से क्यों लिख दिया? हम ने क्या उसे डाक्टर बनाने में कुछ खर्च नहीं किया? और फिर वे जो देंगे, उन्हीं की बेटी की गृहस्थी के काम आएगा.’’

अनुराग भी आ कर बैठ गया था और अपने विवाह की बातों को मजे ले कर सुन रहा था. बोला, ‘‘मां, मुझे तो लड़की ऐसी चाहिए जो सोसाइटी में मेरे साथ इधरउधर जा सके. ससुराल की दौलत का क्या करना है?’’

‘‘बेशर्म, मांबाप के सामने ऐसी बातें करते तुझे शर्म नहीं आती. तुझे अपनी ही पड़ी है, हमारा क्या कुछ रिश्ता नहीं होगा उस से? हमें भी तो बहू चाहिए.’’

‘‘ठीक है, तो मैं लिख दूं उन्हें कि सगाई के लिए कोई दिन तय कर लें. लड़की दिल्ली में भैयाभाभी ने देख ही ली है और सब को बहुत पसंद आई है. फिर शक्लसूरत से ज्यादा तो पढ़ाई- लिखाई माने रखती है. वह अर्थशास्त्र में एम.ए. है.’’

उधर लड़की वालों को स्वीकृति भेजी गई. इधर वे शादी की तैयारी में जुट गईं. सामान की लिस्टें बनने लगीं.

अनुराग जो सपना के ससुराल की तारीफ के पुल बांधती अपनी मां की बातों से खीज जाता था, आज उन्हें सुनाने के लिए कहता, ‘‘देखो, मां, बेकार में इतनी सारी साडि़यां लाने की कोई जरूरत नहीं है, आखिर लड़की के पास शादी के पहले के कपड़े होंगे ही, वे बेकार में पड़े बक्सों में सड़ते रहें तो इस से क्या फायदा.’’

‘‘तो तू क्या अपनी बहू को कुंआरी छोकरियों के से कपड़े यहां पहनाएगा?’’ वह चिल्ला सी पड़ीं.

‘‘क्यों, जब जीजाजी सपना को पहना सकते हैं तो मैं नहीं पहना सकता?’’

वे मन मसोस कर रह गईं. इतने चाव से साडि़यां खरीद कर लाई थीं. सोचा था, सगाई पर ही लड़की वालों पर अच्छा प्रभाव पड़ गया तो वे बाद में अपनेआप थोड़ा ध्यान रखेंगे और हमारी हैसियत व मानसम्मान ऊंचा समझ कर ही सबकुछ करेंगे. मगर यहां तो बेटे ने सारी उम्मीदों पर ही पानी फेर दिया.

रात को सोने के लिए बिस्तर पर लेटीं तो कुछ उदास थीं. उन्हें करवटें बदलते देख कर पति बोले, ‘‘सुनोजी, अब घर के काम के लिए एक नौकर रख लो.’’

‘‘क्यों?’’ वह एकाएक चौंकीं.

‘‘हां, क्या पता, तुम्हारी बहू को भी सुबह 8 बजे बिस्तर पर चाय पी कर उठने की आदत हो तो घर का काम कौन करेगा?’’

वे सकपका गईं.

सुबह उठीं तो बेहद शांत और संतुष्ट थीं. पति से बोलीं, ‘‘तुम ने अच्छी तरह लिख दिया है न, जी, जैसी उन की बेटी वैसी ही हमारी. दानदहेज में एक पैसा भी देने की जरूरत नहीं है, यहां किस बात की कमी है, मैं तो आते ही घर की चाबियां उसे सौंप कर अब आराम करूंगी.’’

‘‘पर मां, जरा यह तो सोचो, वह अच्छी श्रेणी में एम.ए. पास है, क्या पता आगे शोधकार्य आदि करना चाहे. फिर ऐसे में तुम घर की जिम्मेदारी उस पर छोड़ दोगी तो वह आगे पढ़ कैसे सकेगी?’’ यह अनुराग का स्वर था.

उन की समझ में नहीं आया कि एकाएक क्या जवाब दें.

कुछ दिन बाद जब सपना ससुराल से आई तो वे उसे बातबात पर टोक देतीं, ‘‘क्यों री, तू ससुराल में भी ऐसे ही सिर उघाड़े डोलती रहती है क्या? वहां तो ठीक से रहा कर बहुओं की तरह और अपने पुराने कपड़ों का बक्सा यहीं छोड़ कर जाना. शादीशुदा लड़कियों को ऐसे ढंग नहीं सुहाते.’’

सपना ने जब बताया कि वह यूनिवर्सिटी में दाखिला ले रही है तो वे बरस ही पड़ीं, ‘‘अब क्या उम्र भर पढ़ती ही रहेगी? थोड़े दिन सासससुर की सेवा कर. कौन बेचारे सारी उम्र बैठे रहेंगे तेरे पास.’’

आश्चर्यचकित सपना देख रही थी कि मां को हो क्या गया है?

उन्मुक्त : कैसा था प्रौफेसर सोहनलाल का बुढ़ापे का जीवन

लेखक- श्रीप्रकाश

फिर प्रोफैसर ने नाश्ता और चाय लिया. रीमा बगल में ही बैठी थी पहले की तरह और आदतन टेबल पर पोर्टेबल टूइनवन में गाना भी बज रहा था. रीमा बोली, ‘‘आजकल आप कुछ ज्यादा ही रोमांटिक गाने सुनने लगे हैं. कमला मैडम के समय ऐसे नहीं थे.’’

उन्होंने उस के गालों को चूमते हुए कहा, ‘‘अभी तुम ने मेरा रोमांस देखा कहां है?’’

रीमा बोली, ‘‘वह भी देख लूंगी, समय आने पर. फिलहाल कुछ पैसे दीजिए राशन पानी वगैरह के लिए.’’

प्रोफैसर ने 500 के 2 नोट उसे देते हुए कहा, ‘‘इसे रखो. खत्म होने के पहले ही और मांग लेना. हां, कोई और भी जरूरत हो, तो निसंकोच बताना.’’

रीमा बोली, ‘‘जानकी बेटी के लिए कुछ किताबें और कपड़े चाहिए थे.’’ उन्होंने 2 हजार रुपए का नोट उस को देते हुए कहा, ‘‘जानकी की पढ़ाई का खर्चा मैं दूंगा. आगे उस की चिंता मत करना.’’

कुछ देर बाद रीमा बोली, ‘‘मैं आप का खानापीना दोनों टाइम का रख कर जरा जल्दी जा रही हूं. बेटी के लिए खरीदारी करनी है.’’

प्रोफैसर ने कहा, ‘‘जाओ, पर एक बार गले तो मिल लो, और हां, मैडम की अलमारी से एकदो अपनी पसंद की साडि़यां ले लो. अब तो यहां इस को पहनने वाला कोई नहीं है.’’

रीमा ने अलमारी से 2 अच्छी साडि़यां और मैचिंग पेटीकोट निकाले. फिर उन से गले मिल कर चली गई.

अगले दिन रीमा कमला के कपड़े पहन कर आई थी. सुबह का नाश्तापानी हुआ. पहले की तरह फिर उस ने लंच भी बना कर रख दिया और अब फ्री थी. प्रोफैसर बैडरूम में लेटेलेटे अपने पसंदीदा गाने सुन रहे थे. उन्होंने रीमा से 2 कौफी ले कर बैडरूम में आने को कहा. दोनों ने साथ ही बैड पर बैठेबैठे कौफी पी थी. इस के बाद प्रोफैसर ने उसे बांहों में जकड़ कर पहली बार किस किया और कुछ देर दोनों आलिंगनबद्ध थे. उन के रेगिस्तान जैसे तपते होंठ एकदूसरे की प्यास बु झा रहे थे. दोनों के उन्माद चरमसीमा लांघने को तत्पर थे. रीमा ने भी कोई विरोध नहीं किया, उसे भी वर्षों बाद मर्द का इतना सामीप्य मिला था.

अब रीमा घर में गृहिणी की तरह रहने लगी थी. कमला के जो भी कपड़े चाहिए थे, उसे इस्तेमाल करने की छूट थी. डै्रसिंग टेबल से पाउडर क्रीम जो भी चाहिए वह लेने के लिए स्वतंत्र थी.

कुछ दिनों बाद नवल बेटे का स्काइप पर वीडियो कौल आया. रीमा घर में कमला की साड़ी पहने थी. प्रोफैसर की बहू रेखा ने भी एक ही  झलक में सास की साड़ी पहचान ली थी. औरतों की नजर इन सब चीजों में पैनी होती है. रीमा ने उसे नमस्ते भी किया था. रेखा ने देखा कि रीमा और उस के ससुर दोनों पहले की अपेक्षा ज्यादा खुश और तरोताजा लग रहे थे.

बात खत्म होने के बाद रेखा ने अपने पति नवल से कहा, ‘‘तुम ने गौर किया, रीमा ने मम्मी की साड़ी पहनी थी और पहले की तुलना में ज्यादा खुशमिजाज व सजीसंवरी लग रही थी. मु झे तो कुछ ठीक नहीं लग रहा है.’’

नवल बोला, ‘‘तुम औरतों का स्वभाव ही शक करने का होता है. पापा ने मम्मी की पुरानी साड़ी उसे दे दी तो इस में क्या गलत है? और पापा खुश हैं तो हमारे लिए अच्छी बात है न?’’

‘‘इतना ही नहीं, शायद तुम ने ध्यान नहीं दिया. घर में पापा लैपटौप ले कर जहांजहां जा रहे थे, रीमा उन के साथ थी. मैं ने मम्मी की ड्रैसिंग टेबल भी सजी हुई देखी है,’’ रेखा बोली.

नवल बोला, ‘‘पिछले 2-3 सालों से पापामम्मी की बीमारी से और फिर उन की मौत से परेशान थे, अब थोड़ा सुकून मिला है, तो उन्हें भी जिंदगी जीने दो.’’

प्रोफैसर और रीमा का रोमांस अब बेरोकटोक की दिनचर्या हो गई थी. अब बेटेबहू का फोन या स्काइप कौल

आता तो वे उन से बातचीत में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते थे और जल्दी ही कौल समाप्त कर देना चाहते थे. इस बात को नवल और रेखा दोनों ने महसूस किया था.

कुछ दिनों बाद बेटे ने पापा को फोन कर स्काइप पर वीडियो पर आने को कहा, और फिर बोला, ‘‘पापा, थोड़ा पूरा घर दिखाइए. देखें तो मम्मी के जाने के बाद अब घर ठीकठाक है कि नहीं?’’

प्रोफैसर ने पूरा घर घूम कर दिखाया और कहा, ‘‘देखो, घर बिलकुल ठीकठाक है. रीमा सब चीजों का खयाल ठीक से रखती है.’’

नवल बोला, ‘‘हां पापा, वह तो देख रहे हैं. अच्छी बात है. मम्मी के जाने के बाद अब आप का दिल लग गया घर में.’’

जब प्रोफैसर कैमरे से पूरा घर दिखा रहे थे तब बहू, बेटे दोनों ने रीमा को मम्मी की दूसरी साड़ी में देखा था. इतना ही नहीं, बैड पर भी मम्मी की एक साड़ी बिखरी पड़ी थी. तब रेखा ने नवल से पूछा, ‘‘तुम्हें सबकुछ ठीक लग रहा है, मु झे तो दाल में काला नजर आ रहा है.’’

नवल बोला, ‘‘हां, अब तो मु झे भी कुछ शक होने लगा है. खुद जा कर देखना होगा, तभी तसल्ली मिलेगी.’’

इधर कुछ दिनों के लिए रीमा की बेटी किसी रिश्तेदार के साथ अपने ननिहाल गई हुई थी. तब दोनों ने इस का भरपूर लाभ उठाया था. पहले तो रीमा डिनर टेबल पर सजा कर शाम के पहले ही घर चली जाती थी. प्रोफैसर ने कहा, ‘‘जानकी जब तक ननिहाल से लौट कर नहीं आती है, तुम रात को भी यहीं साथ में खाना खा कर चली जाना.’’

आज रात 8 बजे की गाड़ी से जानकी लौटने वाली थी. रीमा ने उसे प्रोफैसर साहब के घर ही आने को कहा था क्योंकि चाबी उसी के पास थी. इधर नवल ने भी अचानक घर आ कर सरप्राइज चैकिंग करने का प्रोग्राम बनाया था. उस की गाड़ी भी आज शाम को पहुंच रही थी.

अभी 8 बजने में कुछ देर थी. प्रोफैसर और रीमा दोनों घर में अपना रोमांस कर रहे थे. तभी दरवाजे की घंटी बजी तो उन्होंने कहा, ‘‘रुको, मैं देखता हूं. शायद जानकी होगी.’’ और उन्होंने लुंगी की गांठ बांधते हुए दरवाजा खोला तो सामने बेटे को खड़ा देखा. कुछ पलों के लिए दोनों आश्चर्य से एकदूसरे को देखते रहे थे, फिर उन्होंने नवल को अंदर आने को कहा. तब तक रीमा भी साड़ी ठीक करते हुए बैडरूम से निकली जिसे नवल ने देख लिया था.

रीमा बोली, ‘‘आज दिन में नहीं आ सकी थी तो शाम को खाना बनाने आई हूं. थोड़ी देर हो गई है, आप दोनों चल कर खाना खा लें.’’

खैर, बापबेटे दोनों ने खाना खाया. तब तक जानकी भी आ गई थी. रीमा अपनी बेटी के साथ लौट गई थी. रातभर नवल को चिंता के कारण नींद नहीं आ रही थी. अब उस को भी पत्नी की बातों पर विश्वास हो गया था. अगले दिन सुबह जब प्रोफैसर साहब मौर्निंग वौक पर गए थे, नवल ने उन के बैडरूम का मुआयना किया. उन के बाथरूम में गया तो देखा कि बाथटब में एक ब्रा पड़ी थी और मम्मी की एक साड़ी भी वहां हैंगर पर लटक रही थी. उस का खून गुस्से से खौलने लगा था. उस ने सोचा, यह तो घोर अनैतिकता हुई और मम्मी की आत्मा से छल हुआ. उस ने निश्चय किया कि वह अब चुप नहीं रहेगा, पापा से खरीखरी बात करेगा.

रीमा तो सुबह बेटी को स्कूल भेज कर 8 बजे के बाद ही आती थी. उस के पहले जब प्रोफैसर साहब वौक से लौट कर आए तो नवल ने कहा, ‘‘पापा, आप मेरे साथ इधर बैठिए. आप से जरूरी बात करनी है.’’

वे बैठ गए और बोले, ‘‘हां, बोलो बेटा.’’

नवल बोला, ‘‘रीमा इस घर में किस हैसियत से रह रही है? आप के बाथरूम में ब्रा कहां से आई और मम्मी की साड़ी वहां क्यों है? मम्मी की साडि़यों में मैं ने और रेखा दोनों ने रीमा को बारबार स्काइप पर देखा है. मम्मी की डै्रसिंग टेबल पर मेकअप के सामान क्यों पड़े हैं? इन सब का क्या मतलब है?’’

प्रोफैसर साहब को बेटे से इतने सारे सवालों की उम्मीद न थी. वे कुछ बोल नहीं पा रहे थे. तब नवल ने गरजते हुए कहा, ‘‘पापा बोलिए, मैं आप से ही पूछ रहा हूं. मु झे तो लग रहा है कि रीमा सिर्फ कामवाली ही नहीं है, वह मेरी मम्मी की जगह लेने जा रही है.’’

प्रोफैसर साहब तैश में आ चुके थे. उन्होंने जोरदार शब्दों में कहा, ‘‘तुम्हारी मम्मी की जगह कोई नहीं ले सकता है. पर क्या मु झे खुश रहने का अधिकार नहीं है?’’

नवल बोला, ‘‘यह तो हम भी चाहते हैं कि आप खुश रहें. आप हमारे यहां आ कर मन लगाएं. पोतापोती और बहू हम सब आप को खुश रखने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे.’’

‘‘भूखा रह कर कोईर् खुश नहीं रह सकता है,’’ वे बोले.

नवल बोला, ‘‘आप को भूखा रहने का सवाल कहां है?’’

प्रोफैसर साहब बोले, ‘‘खुश रहने के लिए पेट की भूख मिटाना ही काफी नहीं है. मैं कोई संन्यासी नहीं हूं. मैं भी मर्द हूं. तुम्हारी मां लगभग पिछले 3 सालों से बीमार चल रही थीं. मैं अपनी इच्छाओं का दमन करता रहा हूं. अब उन्हें मुक्त करना चाहता हूं. मु झे व्यक्तिगत मामलों में दखलअंदाजी नहीं चाहिए. और मैं ने किसी से जोरजबरदस्ती नहीं की है. जो हुआ, दोनों की सहमति से हुआ.’’ एक ही सांस में इतना कुछ बोल गए वे.

नवल बोला, ‘‘इस का मतलब मैं जो सम झ रहा था वह सही है. पर 70 साल की उम्र में यह सब शोभा नहीं देता.’’

प्रोफैसर साहब बोले, ‘‘तुम्हें जो भी लगे. जहां तक बुढ़ापे का सवाल है, मैं अभी अपने को बूढ़ा नहीं महसूस करता हूं. मैं अभी भी बाकी जीवन उन्मुक्त हो कर जीना चाहता हूं.’’

नवल बोला, ‘‘ठीक है, आप हम लोगों की तरफ से मुक्त हैं. आज के बाद हम से आप का कोई रिश्ता नहीं रहेगा.’’ और नवल ने अपना बैग उठाया, वापस चल पड़ा. तभी दरवाजे की घंटी बजी थी. नवल दरवाजा खोल कर घर से बाहर निकल पड़ा था. रीमा आई थी. वह कुछ पलों तक बाहर खड़ेखड़े नवल को जाते देखते रही थी.

तब प्रोफैसर साहब ने हाथ पकड़ कर उसे घर के अंदर खींच लिया और दरवाजा बंद कर दिया था. फिर उसे बांहों में कस कर जकड़ लिया और कहा, ‘‘आज मैं आजाद हूं.”

कंजूस: आखिर क्या था विमल का दर्दभरा सच

विमल जब अपनी दुकान बंद कर घर लौटे तो रात के 10 बजने वाले थे. वे रोज की तरह सीधे बाथरूम में गए जहां उन की पत्नी श्रद्धा ने उन के कपड़े, तौलिया वगैरा पहले से रख दिए थे. नवंबर का महीना आधे से अधिक बीत जाने से ठंड का मौसम शुरू हो गया था. विशेषकर, रात में ठंड का एहसास होने लगा था. इसलिए विमल ने दुकान से आने पर रात में नहाना बंद कर दिया था. बस, अच्छे से हाथमुंह धो कर कपड़े बदलते और सीधे खाना खाने पहुंचते. उन की इच्छा या बल्कि हुक्म के अनुसार, खाने की मेज पर उन की पत्नी, दोनों बेटे और बेटी उन का साथ देते. विमल का यही विचार था कि कम से कम रात का खाना पूरे परिवार को एकसाथ खाना चाहिए. इस से जहां सब को एकदूसरे का पूरे दिन का हालचाल मिल जाता है, आपस में बातचीत का एक अनिवार्य ठिकाना व बहाना मिलता है, वहीं पारिवारिक रिश्ते भी मधुर व सुदृढ़ होते हैं.

विमल ने खाने को देखा तो चौंक गए. एक कटोरी में उन की मनपसंद पनीर की सब्जी, ठीक उसी तरह से ही बनी थी जैसे उन को बचपन से अच्छी लगती थी. श्रद्धा तो किचन में थी पर सामने बैठे तीनों बच्चों को अपनी हंसी रोकने की कोशिश करते देख वे बोल ही उठे, ‘‘क्या रज्जो आई है?’’ उन का इतना कहना था कि सामने बैठे बच्चों के साथसाथ किचन से उन की पत्नी श्रद्धा, बहन रजनी और उस की बेटी की हंसी से सारा घर गूंज उठा. ‘‘अरे रज्जो कब आई? कम से कम मुझ को दुकान में फोन कर के बता देतीं तो रज्जो के लिए कुछ लेता आता,’’ विमल ने शिकायती लहजे में पत्नी से कहा ही था कि रजनी किचन से बाहर आ कर कहने लगी, ‘‘भैया, उस बेचारी को क्यों कह रहे हो. भाभी तो तुम को फोन कर के बताने ही वाली थीं पर मैं ने ही मना कर दिया कि तुम्हारे लिए सरप्राइज होगा. आजकल के बच्चों को देख कर मैं ने भी सरप्राइज देना सीख लिया.’’

‘‘अरे मामा, आप लोग तो फन, थ्रिल या प्रैंक कुछ भी नहीं जानते. मैं ने ही मां से कहा था कि इस बार आप को सरप्राइज दें. इसलिए हम लोगों ने दिन में आप को नहीं बताया. क्या आप को अच्छा नहीं लगा?’’ रजनी की नटखट बेटी बोल उठी. ‘‘अरे नहीं बेटा, सच कहूं तो तुम लोगों का यह सरप्राइज मुझे बहुत अच्छा लगा. बस, अफसोस इस बात का है कि अगर तुम लोगों के आने के बारे में दिन में ही पता चल जाता तो रज्जो की मनपसंद देशी घी की बालूशाही लेता आता,’’ विमल ने कहा. ‘‘वो तो मैं ने 2 किलो बालूशाही शाम को मंगवा ली थीं और वह भी आप की मनपसंद दुकान से. मुझे पता नहीं है कि बहन का तो नाम होगा लेकिन सब से पहले आप ही बालूशाही खाएंगे,’’ श्रद्धा ने कहा ही था कि सब के कहकहों से घर फिर गूंज उठा.खाना निबटने के बाद श्रद्धा ने  उन सब की रुचि के अनुसार जमीन पर कई गद्दे बिछवा कर उन पर मसनद, कुशन, तकिये व कंबल रखवा दिए. और ढेर सारी मूंगफली मंगा ली थीं. उसे पता था कि भाईबहन का रिश्ता तो स्नेहपूर्ण है ही, बूआ का व्यवहार भी सारे बच्चों को बेहद अच्छा लगता है. जब भी सब लोग इकट्ठे होते हैं तो फिर देर रात तक बातें होती रहती हैं. विशेषकर जाड़े के इस मौसम में देर रात तक मूंगफली खाने के साथसाथ बातें करने का आनंद की कुछ अलग होता है.

रजनी अपने समय की बातें इस रोचक अंदाज में बता रही थी कि बच्चे हंसहंस कर लोटपोट हुए जा रहे थे. विमल और श्रद्धा भी इन सब का आनंद ले रहे थे. बातों का सिलसिला रोकते हुए रजनी ने विमल से कहा, ‘‘अच्छा भैया, एक बात कहूं, ये बच्चे मेरे साथ पिकनिक मनाना चाह रहे हैं. कल रविवार की छुट्टी भी है. अब इतने दिनों बाद अपने शहर आई हूं तो मैं भी भाभी के साथ शौपिंग कर लूंगी. इसी बहाने हम सब मौल घूमेंगे, मल्टीप्लैक्स में सिनेमा देखेंगे और समय मिला तो टूरिस्ट प्लेस भी जाएंगे. अब पूरे दिन बाहर रहेंगे तो हम सब खाना भी बाहर ही खाएंगे. बस, तुम्हारी इजाजत चाहिए.’’ विमल ने देखा कि उस के बच्चों ने अपनी निगाहें झुकाई हुई थीं. यह उन की ही योजना थी लेकिन शायद वे सोच रहे थे कहीं विमल मना न कर दें. ‘‘ठीक है, तुम लोगों के घूमनेफिरने में मुझे क्यों एतराज होगा. मैं सुबह ही ट्रैवल एजेंसी को फोन कर पूरे दिन के लिए एक बड़ी गाड़ी मंगा दूंगा. तुम लोग अपना प्रोग्राम बना कर कल खूब मजे से पिकनिक मना लो. हां, मैं नहीं जा पाऊंगा क्योंकि कल दुकान खुली है,’’ विमल ने सहजता से कहा.

तीनों बच्चों ने विमल की ओर आश्चर्य से देखा. शायद उन को इस बात की तनिक भी आशा नहीं थी कि विमल इतनी आसानी से हामी भर देंगे क्योंकि जाने क्यों उन लोगों के मन में यह धारणा बनी हुई थी कि उन के पिता कंजूस हैं. इस का कारण यह था कि उन के साथी जितना अधिक शौपिंग करते थे, अकसर ही मोबाइल फोन के मौडल बदलते थे या आएदिन बाहर खाना खाते थे, वे सब उस तरीके से नहीं कर पाते थे. हालांकि विमल को भी अपने बच्चों की सोच का एहसास तो हो गया था पर उन्होंने बच्चों से कभी कुछ कहा नहीं था. लेकिन विमल को यह जरूर लगता था कि बच्चों को भी अपने घर के हालात तो पता होने ही चाहिए, साथ ही अपनी जिम्मेदारियां भी जाननी चाहिए, क्योंकि अब वे बड़े हो रहे हैं. आज कुछ सोच कर विमल पूछने लगे, ‘‘रज्जो, यह प्रोग्राम तुम ने बच्चों के साथ बनाया है न?’’

रज्जो ने हामी भरते हुए कहा, ‘‘बच्चों को लग रहा था कि तुम मना न कर दो, इसलिए मैं भी जिद करने को तैयार थी पर तुम ने तो एक बार में ही हामी भर दी.’’ इस पर विमल मुसकराए और एकएक कर सब के चेहरे देखने के बाद सहज हो कर कहने लगे, ‘‘रज्जो, तुम शायद इस का कारण नहीं जानती हो कि बच्चों ने ऐसा क्यों कहा होगा. जानना चाहोगी? इस का कारण यह है कि मेरे बच्चे समझते हैं कि मैं, उन का पिता, कंजूस हूं.’’ विमल का इतना कहना था कि तीनों बच्चे शर्मिंदा हो गए और अपने पिता से निगाहें चुराने लगे. एक तो उन को यह पता नहीं था कि उन के पिता उन की इस सोच को जान गए हैं, दूसरे, विमल द्वारा इतनी स्पष्टवादिता के साथ उसे सब के सामने कह देने से वे और भी शर्मिंदगी महसूस करने लगे थे. विमल किन्हीं कारणों से ये सारी बातें करना चाह रहे थे और संयोगवश, आज उन को मौका भी मिल गया.

‘‘वैसे रज्जो, अगर देखा जाए तो इस में बच्चों का उतना दोष भी नहीं है. दरअसल, मैं ही आजकल की जिंदगी नहीं जी पाता हूं. न तो आएदिन बाहर खाना, घूमनाफिरना, न ही रोजरोज शौपिंग करना, नएनए मौडल के टीवी, मोबाइल बदलना, अकसर नए कपड़े खरीदते रहना. ऐसा नहीं है कि मैं इन बातों के एकदम खिलाफ हूं या यह बात एकदम गलत है पर क्या करूं, मेरी ऐसी आदत बन गई है. मगर इस का भी एक कारण है और आज मैं तुम सब को अपने स्वभाव का कारण भी बताता हूं,’’ इतना कह कर विमल गंभीर हो गए तो सब ध्यान से सुनने लगे.

विमल बोले, ‘‘रज्जो, तुझे अपना बचपन तो याद होगा?’’

‘‘हांहां, अच्छी तरह से याद है, भैया.’’

‘‘लेकिन रज्जो, तुझे अपने घर के अंदरूनी हालात उतने अधिक पता नहीं होंगे क्योंकि तू उस समय छोटी ही थी,’’ इतना कह कर विमल अपने बचपन की कहानी सुनाने लगे : उन के पिता लाला दीनदयाल की गिनती खातेपीते व्यापारियों में होती थी. उन के पास पुरखों का दोमंजिला मकान था और बड़े बाजार में गेहूंचावल का थोक का व्यापार था. विमल ने अपने बचपन में संपन्नता का ही समय देखा था. घर में अनाज के भंडार भरे रहते थे, सारे त्योहार कई दिनों तक पूरी धूमधाम से परंपरा के अनुसार मनाए जाते थे. होली हो या दशहरा, दिल खोल कर चंदा देने की परंपरा उस के पूर्वजों के समय से चली आ रही थी. विमल जब कभी अपने दोस्तों के साथ रामलीला देखने जाता तो उन लोगों को सब से आगे की कुरसियों पर बैठाया जाता. इन सब बातों से विमल की खुशी देखने लायक होती थी. विमल उस समय 7वीं कक्षा में था पर उसे अच्छी तरह से याद है कि पूरी कक्षा में वे 2-3 ही छात्र थे जो धनी परिवारों के थे क्योंकि उन के बस्ते, पैन आदि एकदम अलग से होते थे. उन के घर में उस समय के हिसाब से ऐशोआराम की सारी वस्तुएं उपलब्ध रहती थीं. उस महल्ले में सब से पहले टैलीविजन विमल के ही घर में आया था और जब रविवार को फिल्म या बुधवार को चित्रहार देखने आने वालों से बाहर का बड़ा कमरा भर जाता था तो विमल को बहुत अच्छा लगता था. उस समय टैलीफोन दुर्लभ होते थे पर उस के घर में टैलीफोन भी था. आकस्मिकता होने पर आसपड़ोस के लोगों के फोन आ जाते थे. इन सारी बातों से विमल को कहीं न कहीं विशिष्टता का एहसास तो होेता ही था. उसे यह भी लगता था कि उस का परिवार समाज का एक प्रतिष्ठित परिवार है.

पिछले कुछ समय से जाने कैसे दीनदयाल को सट्टे, फिर लौटरी व जुए की लत पड़ गई थी. उन का अच्छाखासा समय इन सब गतिविधियों में जाने लगा. जुए या ऐसी लत की यह खासीयत होती है कि जीतने वाला और अधिक जीतने के लालच में खेलता है तो हारने वाला अपने गंवाए हुए धन को वापस पा लेने की आशा में खेलता है. दलदल की भांति जो इस में एक बार फंस जाता है, उस के पैर अंदर ही धंसते जाते हैं और निकलना एकदम कठिन हो जाता है. पहले तो कुछ समय तक दीनदयाल जीतते रहे मगर होनी को कौन टाल सकता है. एक बार जो हारने का सिलसिला शुरू हुआ तो धीरेधीरे वे अपनी धनदौलत हारते गए और इन्हीं सब  चिंता व समस्याओं से व्यवसाय पर पूरा ध्यान भी नहीं दे पाते थे. उन की सेहत भी गिर रही थी, साथ ही व्यापार में और भी नुकसान होने लगा. विमल को वे दिन अच्छी तरह से याद हैं जब वह कारण तो नहीं समझ पाया था पर उस के माता और पिता इस तरह पहली बार झगड़े थे. उस ने मां को जहां अपने स्वभाव के विपरीत पिता से ऊंची आवाज में बात करते सुना था वहीं पिता को पहली बार मां पर हाथ उठाते देखा था. उस दिन जाने क्यों पहली बार विमल को अपने पिता से नफरत का एहसास हुआ था. फिर एक दिन ऐसा आया कि उधार चुकता न कर पाने के कारण उन का पुश्तैनी मकान, जो पहले से ही गिरवी रखा जा चुका था, के नीलाम होने की नौबत आ गई. इस के बाद दीनदयाल अपने परिवार को ले कर वहां से दूर एक दूसरे महल्ले में किराए के एक छोटे से मकान में रहने को विवश हो गए. हाथ आई थोड़ीबहुत पूंजी से वे कुछ धंधा करने की सेचते पर उस के पहले ही उन का दिल इस आघात को सहन नहीं कर सका और वे परिवार को बेसहारा छोड़ कर चल बसे.

यह घटना सुनते हुए रजनी की आंखें नम हो आईं और उस का गला रुंध गया. कटु स्मृतियों के दंश बेसाख्ता याद आने से पुराने दर्द फिर उभर आए. कुछ पल ठहर कर उस ने अपनेआप को संयत किया फिर कहने लगी, ‘‘मुझे आज भी याद है कि भैया के ऊपर बचपन से ही कितनी जिम्मेदारियां आ गई थीं. हम लोगों के लिए फिर से अपना काम शुरू करना कितना कठिन था. वह तो जाने कैसे भैया ने कुछ सामान उधार ले कर बेचना शुरू किया था और अपनी मेहनत से ही सारी जिम्मेदारियां पूरी की थीं.’’ ‘‘रज्जो सच कह रही है. इसी शहर में मेरे एक मित्र के पिता का थोक का कारोबार था. हालांकि वह मित्र मेरी आर्थिक रूप से मदद तो नहीं कर सका मगर उस ने मुझे जो हौसला दिया, वह कम नहीं था. मैं ने कैसेकैसे मिन्नतें कर के सामान उधार लेना शुरू किया था और उसे किसी तरह बेच कर उधार चुकाता था. वह सब याद आता है तो हैरान रह जाता हूं कि कैसे मैं यह सब कर पाया था. जैसेतैसे जब कुछ पैसे आने शुरू हुए तो मैं ने अम्मा, दीदी और रज्जो के साथ दूसरे मकान में रहना शुरू किया. हमारे साथ जो कुछ घटित हुआ, इस तरह की खबरें बहुत तेजी से फैलती हैं और जानते हो इस का सब से बड़ा नुकसान क्या होता है? आर्थिक नुकसान तो कुछ भी नहीं है क्योंकि पैसों का क्या है, आज नहीं तो कल आ सकते हैं पर पारिवारिक प्रतिष्ठा को जो चोट पहुंचती है और पुरखों की इज्जत जिस तरह मिटती है उस की भरपाई कभी नहीं हो सकती. मैं अपना बचपन अपने बाकी साथियों की तरह सही तरीके से नहीं जी पाया और उस की भरपाई आज क्या, कभी नहीं हो सकती.

‘‘लेकिन यह मत समझो कि इस की वजह केवल पैसों का अभाव रहा है. अपना सम्मान खोने के बाद भी सिर उठा कर जीना आसान नहीं होता. मुझे अच्छी तरह से याद है कि इन सब घटनाओं से मैं कितनी शर्मिंदगी महसूस करता था और अपने दोस्तों का सामना करने से बचता था. तू तो छोटी थी पर मां तो जैसे काफी दिन गुमसुम सी रही थीं और मेरी खुशमिजाज व टौपर दीदी भी इन सब घटनाओं से जाने कितने दिन डिप्रैशन में रही थीं. इन सारी घटनाओं की चोट मेरे अंतर्मन में आज भी ताजा है और मैं अकेले में उस पीड़ा को आज भी ऐसे महसूस करता हूं जैसे कल की घटना हो. अब मुझे पता चला कि एक आदमी की लापरवाही और गैरजिम्मेदारी का खमियाजा उस के परिवार के जाने कितने लोगों को और कितने समय तक भुगतना पड़ सकता है. आज भी अगर कोई पुराना परिचित मिल जाता है तो भले ही वह हमारा अतीत भूल चुका हो परंतु मैं उस को देख कर भीतर ही भीतर शर्मिंदा सा महसूस करता हूं. मुझे ऐसा लगता है कि मेरे सामने वह व्यक्ति नहीं कोई आईना आ गया है, जिस में मेरा अतीत मुझे दिख रहा है.

‘‘जीतोड़ मेहनत से काम करने से धीरेधीरे पैसे इकट्ठे होते गए और मेरा काम बढ़ता गया. फिर मैं ने अपनी एक दुकान खोली, जिस में डेयरी का दूध, ब्रैड और इस तरह के बस एकदो ही सामान रखना शुरू किया. जब कोई पूरी ईमानदारी और मेहनत से अपना काम करता है तो वक्त भी उस की सहायता करता है. मेरा उसूल रहा है कि न तो किसी की बेईमानी करो, न किसी का बुरा करो और मेहनत से कभी पीछे मत हटो. मेरी लगन और मेहनत का परिणाम यह है कि आज वही दुकान एक जनरल स्टोर बन चुकी है और उसी की बदौलत यह मकान खरीद सका हूं. श्रद्धा तो थोड़ाबहुत जानती है पर बच्चे कुछ नहीं जानते क्योंकि वे तो शुरू से ही यह मकान और मेरा जनरल स्टोर देख रहे हैं. वे शायद समझते हैं कि उन के पिता पैदायशी अमीर रहे हैं, जिन को पारिवारिक व्यवसाय विरासत में मिला है. उन को क्या पता कि मैं कितना संघर्ष कर इस मुकाम पर पहुंचा हूं.’’

विमल की बातें सुन कर बच्चे तो जैसे हैरान रह गए. वास्तव में वे यही सोचते थे कि  उन के पिता का जनरल स्टोर उन को विरासत में मिला होगा. उन को न तो यह पता था न ही वे कल्पना कर सकते थे कि उन के पिता ने अपने बचपन में कितने उतारचढ़ाव देखे हैं, कैसे गरीबी का जीवन भी जिया है और कैसी विषम परिस्थितियों में किस तरह संघर्ष करते हुए यहां तक पहुंचे हैं. पुरानी स्मृतियों का झंझावात गुजर गया था पर जैसे तूफान गुजर जाने के बाद धूलमिट्टी, टूटी डालियां व पत्ते बिखरे होने से स्थितियां सामान्य नहीं लगतीं, कुछ इसी तरह अब माहौल एकदम गंभीर व करुण सा हो गया था. बात बदलते हुए श्रद्धा बोली, ‘‘अच्छा चलिए, वे दुखभरे दिन बीत गए हैं और आप की मेहनत की बदौलत अब तो हमारे अच्छे दिन हैं. आज हमें किसी बात की कमी नहीं है. आप सही माने में सैल्फमेडमैन हैं.’’ ‘‘श्रद्धा, इसीलिए मेरी यही कोशिश रहती है कि न तो हमारे बच्चों को किसी बात की कमी रहे, न ही वे किसी बात में हीनता का अनुभव करें. यही सोच कर तो मैं मेहनत, लगन और ईमानदारी से अपना कारोबार करता हूं. बच्चो, तुम लोग कभी किसी बात की चिंता न करना. तुम्हारी पढ़ाई में कोई कमी नहीं रहेगी. जिस का जो सपना है वह उसे पूरा करे. मैं उस के लिए कुछ भी करने से पीछे नहीं रहूंगा.’’

‘‘यह बात हुई न. अब तो कल का प्रोग्राम पक्का रहा. चलो बच्चो, अब कल की तैयारी करो,’’ बूआ के इतना कहते ही सारे बच्चे चहकने लगे मगर जाने क्यों विमल का 15 वर्षीय बड़ा बेटा रजत अभी भी गंभीर ही था.‘‘क्या हुआ रजत, अब क्यों चिंतित हो?’’ बूआ ने पूछा ही था कि रजत उसी गंभीर मुद्रा में कहने लगा, ‘‘बूआ, अब पुराना समय बीत गया जब पापा को पैसों की तंगी रहती थी. अब हमारे पास पैसे या किसी चीज की कमी नहीं है बल्कि हम अमीर ही हो गए हैं. तो फिर पापा क्यों ऐसे रहते हैं. अब तो वे अपनी वे इच्छाएं भी पूरी कर सकते हैं जो वे गरीबी के कारण पूरी नहीं कर सके होंगे.’’रजत के प्रश्न से विमल चौंक गया, फिर कुछ सोच कर कहने लगा, ‘‘बेटा, मुझे खुशी है कि तुम ने यह प्रश्न पूछा. वास्तव में हमारी आज की जीवनशैली, आदतें या खर्च करने का तरीका इस बात पर निर्भर नहीं होता कि हमारी आज की आर्थिक स्थिति कैसी है बल्कि हमारे जीने के तरीके तय करने में हमारा बचपन भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. अपने बचपन में मैं ने जैसा जीवन जिया है, उस प्रकार का जीवन जीने वालों के मन में कटु माहौल सा बन जाता है, जिस से वे चाह कर भी बाहर नहीं आ सकते. जो आर्थिक संकट वे भुगत चुके होते हैं, पैसे के अभावों की जो पीड़ा उन का मासूम बचपन झेल चुका होता है, उस के कारण वे अमीर हो जाने पर भी फुजूलखर्ची नहीं कर सकते.

‘‘आर्थिक असुरक्षा के भय, अपमानजनक परिस्थितियों की यादों के कष्टप्रद दंश, एकएक पैसे का महत्त्व या पैसों की तंगी की वजह से अभावों में गुजरे समय की जो पीड़ा  अंतर्मन में कहीं गहरे बैठ जाती है उस से चाह कर भी उबरना बहुत कठिन होता है. हकीकत तो यह है कि हमारा आज कितना भी बेहतर हो जाए या मैं कितना भी अमीर क्यों न हो जाऊं लेकिन मैं जिस तरह का बचपन और संघर्षमय अतीत जी चुका हूं वह मुझे इस तरह से खर्च नहीं करने देगा. लेकिन क्या तुम जानते हो कि वास्तव में कंजूस तो वह होता है जो जरूरी आवश्यकताओं पर खर्च नहीं करता है. ‘‘तुम लोगों को पता होगा कि घर में दूध, मौसम के फलसब्जियों या मेवों की कमी नहीं रहती. हां, मैं तुम लोगों को फास्ट फूड या कोल्ड डिं्रक्स के लिए जरूर मना करता हूं क्योंकि आज भले ही ये सब फैशन बन गया है पर ऐसी चीजें सेहत के लिए अच्छी नहीं होतीं. इस के अलावा तुम लोगों की वे सारी जरूरतें, जो आवश्यक हैं, उन को पूरा करने से न तो कभी हिचकता हूं न ही कभी पीछे हटूंगा. तुम्हारे लिए लैपटौप भी मैं ने सब से अच्छा खरीदा है. तुम लोगों के कपड़े हमेशा अच्छे से अच्छे ही खरीदता हूं. इसी तरह तुम लोगों की जरूरी चीजें हमेशा अच्छी क्वालिटी की ही लाता हूं. मैं अपने अनुभव के आधार पर एक बात कहता हूं जिसे हमेशा याद रखो कि जो इंसान अपनी आमदनी के अनुसार खर्च करता और बचत करता है, अपने आने वाले कल के लिए सोच कर चलता है, वह कभी परेशान नहीं होता. अच्छा, अब रात बहुत हो गई है और सब को कल घूमना भी है, इसलिए चलो, अब सोने की तैयारी की जाए.’’

मोहभंग : आंचल को पति के बारे में क्या पता चला

5 साल पहले अंसल दंपती ने उस पौश कालोनी में यह विशाल बंगला खरीदा था. उन के आते ही कालोनी की महिलाएं उन को अपनी किट्टी पार्टी में शामिल करने पहुंच गई थीं. उस पहली मुलाकात में भी रागिनी ने बिदा करते समय सब को एकएक आयातित सेंट की बोतल दी थी और साथ में यह भी कहा था, ‘‘आप सब ने मुझे अपनी किट्टी पार्टी में शामिल कर जो एहसान किया है उस के बदले यह उपहार कुछ भी नहीं है.’’

आयातित उपहार पा कर महिलाएं खुश होती थीं, पर प्रेमा भगत कुछ ज्यादा ही खुश होती थी जो रागिनी अंसल की अनुभवी आंखों से छिपा नहीं था. वह ताड़ गई थीं कि इस औरत में विदेशी सामान के प्रति मोह कुछ ज्यादा ही है. इस तरह रागिनी अंसल ने 5 साल की किट्टी पार्टी की हर सदस्य को 6 उपहार दे डाले थे, सेंट, म्यूजिकल गुडि़या, नेल पालिश, नाइटक्रीम, लिपस्टिक तथा एक शो पीस, जिस का अजीब सा जिगजैग आकार था. इस शो पीस को सब ने बड़े गर्व से अपने ड्राइंगरूम में सजा लिया था.

उपहार देते हुए अकसर रागिनी अंसल कहतीं, ‘‘क्या करूं, इतना सबकुछ है पर भोगने वाला कोई नहीं. बस, एक भतीजा है, वह भी विवाह नहीं करता. कोई लड़की उसे पसंद ही नहीं आती. परिवार बढ़े तो कैसे बढ़े?’’

जब से रागिनी ने अपने कुंआरे भतीजे के बारे में महिलाओं को बताया है तब से प्रेमा भगत अपनी बेटी आंचल का उस के साथ विवाह करने का सपना देखने लगी. पर मन की बात नहीं कह पाती क्योंकि करोड़ों में खेलने वाली रागिनी अंसल के सामने वह अपनेआप को बौना समझती थी. यद्यपि रागिनी अंसल आंचल के रूपलावण्य पर मुग्ध थीं पर वह खुद आगे बढ़ कर लड़की वालों से बात चलाना हेय समझती थीं.

इन सब से बेखबर आंचल अपनी दुनिया में व्यस्त थी. वह अपनी मां के एकदम विपरीत थी. इंजीनियरिंग कर के वह बंगलौर की एक प्रतिष्ठित कंपनी में कार्यरत थी. उसे विदेश व विदेशी वस्तुएं तनिक भी नहीं लुभाती थीं.

सादा जीवन उच्च विचार की सोच वाली आंचल के साथ की लड़कियों ने जहां बाल कटवाए हुए थे वहीं वह अपने लंबे काले घने केशों को एक चोटी में बांधे रखती थी.

प्रेमा भगत बेटी के इस तरह से रहने पर अकसर खीज उठती, ‘‘पता नहीं यह लड़की किस पर गई है. तनिक भी कपड़े पहनने का ढंग नहीं है. इस के साथ की सब लड़कियां इंजीनियर बन कर अपने सहयोगियों के साथ प्रेम विवाह कर विदेश चली गईं पर यह अभी तक यहीं बैठी हुई है.’’

आंचल मां की बातें सुन कर हंस देती. उस पर मां की बड़बड़ का तनिक भी असर नहीं होता.

इस बार की किट्टी पार्टी से लौट कर प्रेमा भगत ने ठान ली थी कि वह आज आंचल से बात कर के ही रहेगी. जैसे ही बेटी घर आई उस ने रागिनी अंसल से मिली लिपस्टिक को दिखाते हुए पूछा, ‘‘आंचल, इस का शेड कैसा है? आयातित है, रागिनी अंसल ने दी है.’’

आंचल ने लिपस्टिक बिना हाथ में लिए दूर से देख कर कहा, ‘‘अच्छा शेड है मां, आप पर खूब फबेगा.’’

‘‘मैं अपनी नहीं तेरी बात कर रही हूं.’’

‘‘मैं तो लिपस्टिक नहीं लगाती.’’

‘‘क्यों नहीं लगाती? कब तक ऐसे चलेगा? दूसरी लड़कियों की तरह तू क्यों नहीं ओढ़तीपहनती और अपनी मार्केट वेल्यू बढ़ाती.’’

‘‘मार्केट वेल्यू? मां, मैं क्या कोई बेचने की वस्तु हूं?’’ नाराज हो गई आंचल.

मांबेटी की बातचीत को ध्यान से सुन रहे पिता स्थिति बिगड़ती देख पत्नी को झिड़कने वाले अंदाज में बोले, ‘‘पढ़ीलिखी बेटी से कैसे बात करनी है इस की तुम्हें जरा भी तमीज नहीं,’’ और फिर बेटी को दुलार कर दूसरे कमरे में ले गए. पिता ने रात के एकांत में प्रेमा से पूछा, ‘‘क्यों, आंचल के लिए कोई लड़का ढूंढ़ रखा है क्या?’’

‘‘ढूंढ़ना क्या है, समझ लीजिए कि अपनी पकड़ के अंदर है. केवल आंचल को उस के अनुसार ढालना बाकी है.’’

फिर अपने पति को रागिनी अंसल के अमेरिका प्रवासी भतीजे तथा उन के विशालकाय बंगले के बारे में बता कर बोली, ‘‘रागिनी के न कोई आगे है न कोई पीछे. सबकुछ अपनी आंचल का होगा. ऐश करेगी वह अमेरिका में जा कर.’’

भारतीय संस्कृति के परिवेश में डूबे बापबेटी को विदेश में बसने के नाम से बड़ी कोफ्त होती थी. वैसे भी वह अपनी इकलौती बेटी को इतनी दूर भेजने के पक्ष में नहीं थे. बोले, ‘‘कोई यहीं का लड़का ढूंढ़ना चाहिए ताकि आंचल हमारी आंखों से ओझल न हो.’’

2 माह बाद रागिनी अंसल के यहां तीसरा चेहरा देख कर कालोनी के लोग चौंक उठे. एक नौजवान चोटियां बांधे अंसल दंपती के साथ कार में अकसर दिखाई देता. पता लगा कि वही उन का भतीजा देव अंसल है.

प्रेमा भगत उसे देख कर कुछ निराश हुई. बेटी आंचल को दिखाया तो वह बोली, ‘‘इस अजीबोगरीब चुटियाधारी जानवर को मुझ से दूर ही रखो मां, अन्यथा मैं इसे स्वयं खदेड़ दूंगी.’’

मां ने समझाया, ‘‘बेटी, आदमी का रूप नहीं, धन देखा जाता है.’’

आंचल ने मुंह बिचकाया, ‘‘ऊंह, पैसा तो मेरे पास भी बहुत है पर आकर्षक व्यक्तित्व पसंद है.’’

मां बेटी को समझाने में लगी ही थी कि रागिनी अंसल का निमंत्रण आ गया. अपने भतीजे से परिचय कराने के लिए सभी सपरिवार अगले दिन शाम पार्टी में आमंत्रित थे.

आंचल जाने को तैयार नहीं थी, पर मां के रोनेधोने के कारण तैयार हुई. पार्टी क्या थी, एक अच्छाखासा बड़ा आयोजन था जिस में शहर के तमाम बड़ेबड़े उद्योगपति, बड़ेबड़े नेता, सरकारी अफसर सपरिवार आए थे. उन के साथ उन के परिवार की बेटियां भी आई थीं जो एक से बढ़ कर एक डिजाइन की पोशाक पहने अपने शरीर की नुमाइश लगाने में लगी हुई थीं. आंचल सब से अलग कुरसी पर बैठी हाथ में ठंडा पेय ले कर उन्हें देखने में लगी हुई थी.

अचानक देव अंसल ने आंचलके पास आ कर हाथ बढ़ाते हुए विनम्रता के साथ डांस के लिए आग्रह किया तो आंचल ने बेहद शालीनता से मना कर दिया. तभी प्रेमा भगत दनदनाती हुई आई और बोली, ‘‘यह आंचल है, मेरी बेटी. पसंद आई तुम्हें?’’

उस के इस बेतुके सवाल पर देव चौंक पड़ा और आंचल नाराज हो कर पिता के साथ घर चली आई.

अगले दिन अंसल दंपती के घर लड़कियों के मातापिता की ओर से देव के लिए विवाह प्रस्तावों की झड़ी

लग गई. रागिनी अंसल के जोर दे कर पूछने पर देव बोला, ‘‘मुझे आंचल पसंद है.’’

चौंक गईं रागिनी. क्योंकि भगत दंपती की ओर से कोई प्रस्ताव नहीं आया था. एक सप्ताह के बाद रागिनी अंसल को भतीजे के लिए झुकना पड़ा. उन्होंने प्रेमा भगत को फोन लगाया और बोलीं, ‘‘आप ने मेरे भतीजे को देख कर अभी तक अपनी कोई राय नहीं दी.’’

‘‘क्यों नहीं, क्यों नहीं रागिनीजी, मैं ने आप के भतीजे को देखा और पसंद भी किया पर आप को क्या बताऊं…’’ कहतेकहते प्रेमा रुक गई.

‘‘नहीं, आप को बात तो बतानी ही पड़ेगी,’’ श्रीमती अंसल की रौबीली आवाज सुन कर प्रेमा भगत का मुख अपनेआप खुल गया और वह बोल पड़ी, ‘‘आंचल को देव की चुटिया पसंद नहीं है.’’

आंचल की नापसंदगी सुन कर रागिनी को धक्का सा लगा और उन्होंने आहत हो कर फोन रख दिया.

यह पता चलते ही देव अंसल ने आम भारतीय युवाओं की तरह तुरंत बाल कटवा लिए और पहुंच गया आंचल के आफिस. देव को इस नए रूप में सामने खड़ा देख कर आंचल चौंक उठी.

देव बड़ी विनम्रता के साथ आंचल से बोला, ‘‘मिस, क्या आज शाम आफिस के बाद आप मेरे साथ एक कप चाय पीना पसंद करेंगी?’’

उस के निमंत्रण में एक अनोखी आतुरता का भाव देख कर आंचल मना नहीं कर सकी.

इस पहली मुलाकात के बाद तो दोनों की शामें एकसाथ गुजरने लगीं.

दोनों के ही घर वाले देव व आंचल की मुलाकातों से अनजान थे पर बाहर वालों की नजरों से कब तक बचे रहते, खासकर तब जब मामला अंसल परिवार से जुड़ा हो. दोनों के घर वालों को जब उन के आपस में मिलने की जानकारी हुई तो भगत परिवार बेहद खुश हुआ पर रागिनी अंसल के पैरों तले धरती खिसक गई.

इस बीच देव ने आंचल के सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया. आंचल ने भी हां कर दी. बेटी के हां करने की बात सुन कर प्रेमा भगत ने उसे खुशी से चूमते हुए कहा, ‘‘आखिर बेटी किस की है.’’

एक भव्य समारोह में देव व आंचल का विवाह हो गया. चूंकि अंसल परिवार के साथ रिश्ता हुआ था और आंचल के मांबाप ने यह पता लगाने की कोशिश नहीं की कि देव अमेरिका के किस शहर में रहता है तथा वहां काम क्या कर रहा है. फिर भी आंचल के बौस केशवन ने उस का त्यागपत्र अस्वीकार करते हुए उसे समझाया, ‘‘आंचल, मैं तुम्हारे पिता समान हूं. बहुत अनुभवी हूं. अनजान देश में अनजान पुरुष के साथ जा रही हो. बेशक देव तुम्हारा पति है पर तुम उस के बारे में अधिक तो नहीं जानतीं इसलिए नौकरी मत छोड़ो. वहां न्यूयार्क में भी हमारी कंपनी की एक शाखा है, मैं तुम्हारी पोस्टिंग वहीं कर दे रहा हूं. अवश्य ज्वाइन कर लेना.’’

देव को बिना बताए आंचल ने वहां का नियुक्तिपत्र संभाल कर रख लिया था.

एअरपोर्ट पर विदा करने आए लोगों की भीड़ देख कर आंचल को अपने भाग्य पर रश्क होने लगा. लगभग 16 घंटे का हवाई सफर था पर देव अपने ही खयालों में खोया था. बड़ा विचित्र लगा आंचल को.

पहली बार आंचल को ध्यान आया कि देव ने अपने बिजनेस के बारे में उसे कुछ भी नहीं बताया था. पूछने पर बोला, ‘‘दूर जा रही हो तो खुद ही सब देख लेना. न्यूयार्क शहर की सीमा से लगा मेरा कारखाना है, कारों के कलपुर्जे बनते हैं.’’

आश्वस्त हुई आंचल जान कर.

न्यूयार्क पहुंच कर अगले ही दिन सुबह देव कारखाने चला गया तो उस विशालकाय बंगले में आंचल अकेली ही रह गई. देव जब तीसरे दिन भी नहीं लौटा तो चौथे दिन बोर हो कर आंचल ने नौकरी ज्वाइन करने का मन बनाया.

कंपनी की न्यूयार्क शाखा के बौस रेमंड ने उस का बेहद गर्मजोशी से स्वागत किया. पूरे स्टाफ से परिचय करवाया. पति के रूप में देव अंसल का नाम सुनते ही वहां अचानक चुप्पी छा गई. आंचल ने चौंक कर रेमंड की ओर देखा तो उन्होंने इशारे से आंचल को अपने केबिन में बुलाया और पूछा, ‘‘क्या वास्तव में तुम्हारे पति देव अंसल ही हैं?’’

रेमंड के प्रश्न और स्टाफ के लोगों की चुप्पी को देख कर उसे किसी अनहोनी का पूर्वाभास हो रहा था.

कुछ रुक कर रेमंड ने फिर पूछा, ‘‘मैडम, देव अंसल से आप का विधिवत विवाह हुआ है? या आप दोनों की ‘लिव इन’ व्यवस्था है?’’

‘‘यह ‘लिव इन’ व्यवस्था क्या होती है, मैं समझी नहीं, सर. स्पष्ट बताइए,’’ आंचल कांपते हुए बोली.

‘‘जब बिना विवाह के लड़का और लड़की पतिपत्नी की तरह साथ रहने लगते हैं तो उसे ‘लिव इन’ व्यवस्था कहते हैं,’’  रेमंड बोले, ‘‘विश्वास नहीं होता कि देव अंसल जैसे व्यक्ति ने विवाह कैसे कर लिया. वह तो ‘लिव इन’ व्यवस्था का पक्षधर है. तकरीबन 2 साल पहले अरुणा नाम की एक लड़की देव के साथ ‘लिव इन’ थी. गर्भवती हो गई तो देव पर विवाह के लिए जोर डालने लगी तब देव ने उसे अपने घर से निकाल बाहर किया. सुनते हैं उस ने…’’

‘‘आत्महत्या कर ली,’’ आंचल ने उन का वाक्य पूरा किया.

चौंक कर रेमंड ने आंचल की ओर देखा और बोले, ‘‘नहीं, उस ने आत्महत्या नहीं की थी, उस की हत्या हुई थी. पुलिस को देव पर शक था. वह इस मामले में जेल भी गया था पर सुबूत के अभाव में छूट गया.’’

आंचल याद करने लगी अरुणा को, जो उस के साथ कालिज में पढ़ती थी और अचानक पता चला कि उस को किसी एन.आर.आई. से प्रेम हो गया था और वह हमेशा के लिए अमेरिका चली गई थी.

रेमंड ने बताया कि देव ने अपने कारखाने में ही एक छोटा सा बंगला बनवा रखा है. वहां आजकल मिली नाम की एक अमेरिकन लड़की ‘लिव इन’ व्यवस्था में देव के साथ रह रही है,’’ फिर कुछ रुक कर बोले, ‘‘यहां आने वाले कुछ भारतीय पुरुष दोहरा मानदंड अपनाते हैं, अकेले में यहां कुछ और भारत में मातापिता तथा रिश्तेदारों के सामने कुछ अलग मुखौटा ओढ़े रहते हैं.’’

आंचल सोच रही थी कि देव का असली चेहरा सब के सामने लाना होगा ताकि वह आगे किसी लड़की की भावनाओं से खिलवाड़ न कर सके.

अपने दफ्तर के एक अमेरिकन सहयोगी के साथ वह अंसल के कारखाने की ओर चल पड़ी.

ठिकाने पर पहुंच कर आंचल ने देखा कि कारखाने के पश्चिमी छोर पर स्थित बंगला दूर से ही लुभा रहा था. वह कारखाने के सामने वाले दरवाजे से न जा कर बंगले की दूसरी तरफ वाले दरवाजे से अंदर घुसी. कुत्तों के भौंकने की आवाज सुन कर अंदर से एक बेहद खूबसूरत युवती बाहर निकली. बड़े ही सहज भाव से आंचल ने आगे बढ़ कर उस का अभिवादन किया और बोली, ‘‘मैं आंचल हूं. देव से मिलने के लिए भारत से यहां आई हूं.’’

उस लड़की ने अंगरेजी में कहा, ‘‘देव बाहर गया है. एक घंटे के बाद लौटेगा. आप यहां बैठ कर इंतजार कर सकती हैं.’’

आंचल यही तो चाहती थी. उसे अंदर ले जाते हुए मिली ने अपना परिचय दिया, ‘‘मैं देव की पत्नी मिली हूं.’’

तपाक से आंचल बोली, ‘‘मैं भी देव की कानूनन ब्याहता पत्नी हूं. उस ने 15 दिन पहले भारत में मुझ से विवाह किया था.’’

एक घंटे बाद जब देव लौटा तो मिली और आंचल को एकसाथ एक सोफे पर बैठा देख कर बौखला गया. वह घबरा कर उलटे पांव वापस लौटने ही वाला था कि दोनों ने उसे लपक कर पकड़ लिया और अंदर ले जा कर एक कमरे में बंद कर दिया.

इस के बाद आंचल और मिली ने फोन कर पुलिस को बुलाया और देव को धोखा दे कर विवाह करने के अपराध में पुलिस के हवाले कर दिया. यही नहीं दोनों ने मिल कर अरुणा की संदेहास्पद मौत की फाइल को दोबारा खुलवा दिया.

बेटी आंचल को सहीसलामत वापस पा कर प्रेमा भगत एक अलग ही सुकून महसूस कर रही थी. रागिनी अंसल ने किट्टी ग्रुप से हमेशा के लिए अपना नाता तोड़ लिया तथा उन की भव्य पार्टी में अपनीअपनी बेटियों को सजा कर लाए मातापिता एकदूसरे से यही कह रहे थे, अच्छा हुआ जो हम बालबाल बच गए.

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