Women’s Day Special: जरूरी हैं दूरियां, पास आने के लिए

लेखिका- डा. मंजरी चतुर्वेदी

फ्लाइट बैंगलुरु पहुंचने ही वाली थी, विहान पूरे रास्ते किसी कठिन फैसले को लेने में उलझा हुआ था, इसी बीच मोबाइल पर आते उस नंबर को भी वह लगातार इग्नोर करता रहा.

अब नहीं सींच सकता था वो प्यार के उस पौधे को, उस का मुरझा जाना ही बेहतर है. इसलिए जितना मुमकिन हो सका, उस ने मिशिका को अपनी फोन मैमोरी से रिमूव कर दिया. मुमकिन नहीं था यादों को मिटाना, नहीं तो आज वो उसे दिल की मैमोरी से भी डिलीट कर देता सदा के लिए.

‘‘सदा के लिए… नहींनहीं… हमेशा के लिए नहीं, मैं मिशी को एक मौका और दूंगा,‘‘ विहान मिशी के दूर होने के खयाल से ही डर गया.

‘‘शायद, ये दूरियां ही हमें पास ले आएं,‘‘ बस यही सोच कर उस ने मिशी की लास्ट फोटो भी डिलीट कर दी.

इधर मिशिका परेशान हो गई थी, 5 दिन से विहान से कोई कौंटेक्ट नहीं हुआ था.

‘‘हैलो दी, विहान से बात हुई क्या? उस का ना मोबाइल फोन लग रहा है और ना ही कोई मैसेज पहुंच रहा है. औफिस में एक दिक्कत आ गई है. जरूरी बात करनी है,‘‘ मिशी बिना रुके बोलती गई.

‘‘नहीं, मेरी कोई बात नहीं हुई, और दिक्कत को खुद ही सुलटाना सीखो,‘‘ पूजा ने इतना कह कर फोन काट दिया.

मिशी को दी का ये रवैया अच्छा नहीं लगा, पर वह बेपरवाह सी तो हमेशा से ही थीं तो उस ने दी की बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया.

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मिशिका (मिशी) मुंबई में एक कंपनी में जौब करती है. उस की बड़ी बहन है पूजा, जो अपने मौमडैड के साथ रहते हुए कालेज में पढ़ाती है. विहान ने अभी बैंगलुरु में नई मल्टीनेशनल कंपनी ज्वाइन की है, उस की बहन संजना अभी स्टडी कर रही है. मिशी और विहान के परिवारों में बड़ा प्रेम है. वे पड़ोसी थे. विहान का घर मिशी के घर से कुछ ही दूरी पर था. दो परिवार होते हुए भी वे एक परिवार जैसे ही थे. चारों बच्चे साथसाथ बड़े हुए.

गुजरते दिनों के साथ मिशी की बेपरवाही कम होने लगी थी. विहान से बात न हुए आज पूरे 3 महीने बीत गए थे. मिशी को खालीपन लगने लगा था. बचपन से अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ था. जब पास थे तो वे दिन में कितनी ही बार मिलते थे, और जब जौब के कारण दूर हुए तो फोन और चैट का हिसाब लगाना भी आसान काम न था.

2-3 महीने गुजरने के बाद मिशी को विहान की बहुत याद सताने लगी थी. वह जब भी घर पर फोन करती, तो मम्मीपापा, दीदी सभी से विहान के बारे में पूछती, आंटीअंकल से बात होती, तब भी… जवाब एक ही मिलता…वह तो ठीक है, पर तुम दोनों की बात नहीं हुई, ये कैसे मुमकिन है. अकसर जब मिशी कहती कि महीनों से बात नहीं हुई, तो सब झूठ ही समझते थे.

दशहरा आ रहा था, मिशी जितनी खुश घर जाने को थी, उस से कहीं ज्यादा खुश यह सोच कर थी कि अब विहान से मुलाकात होगी. इन छुट्टियों में वह भी तो आएगा.

‘‘बहुत झगड़ा करूंगी, पूछूंगी उस से, ये क्या बचपना है, अच्छी खबर लूंगी, क्या समझता है अपनेआप को… ऐसे कोई करता है क्या?‘‘ ऐसे ही अनगिनत बातों को दिल में समेटे वह घर पहुंची. त्योहार की रौनक मिशी की उदासी कम ना कर सकी. छुट्टियां खत्म हो गईं. वापसी का समय आ गया, पर नहीं आया तो वह, जिस का मिशी बेसब्री से इंतजार कर रही थी. दोनों घरों की दूरियां नापते मिशी को दिल की दूरियों का अहसास होने लगा था. अब इंतजार के अलावा उस के पास कोई रास्ता नहीं था.

मिशी दीवाली की शाम ही घर पहुंच पाई थी. लक्ष्मी पूजन के बाद डिनर की तैयारियां चल रही थीं. त्योहारों पर दोनों फैमिली साथ ही समय बिताती गपशप, मस्ती, खाना, सब खूब ऐंजौय करते थे.

आज विहान की फैमिली आने वाली थी. मिशी खुशी से झूम उठी थी. आज तो विहान से बात हो ही जाएगी. पर उस रात जो हुआ उस का मिशी को अंदाजा भी नहीं था. दोनों परिवारों ने सहमति से पूजा और विहान का रिश्ता तय कर दिया. मिशी को छोड़ सभी बहुत खुश थे.

‘‘पर, मैं खुश क्यों नहीं हूं, क्या मैं विहान से प्यार… नहींनहीं, हम तो बस बचपन के साथी हैं. इस से ज््यादा तो कुछ नहीं है, फिर मैं आजकल विहान को ले कर इतना क्यों परेशान रहती हूं. उस से बात न होने से मुझे ये क्या हो रहा है? क्या मैं अपनी ही फीलिंग्स समझ नहीं पा रही हूं…?‘‘

इसी उधेड़बुन में रात आंखों में ही बीत गई थी. किसी से कुछ शेयर किए बिना ही वह वापस मुंबई लौट गई.

दिन यों ही बीत रहे थे, पूजा की शादी के बारे में न घर वालों ने आगे कुछ बताया और न ही मिशी ने पूछा.
एक दिन दोपहर को मिशी को काल आया, ‘‘घर की लोकेशन भेजो, डिनर साथ ही करेंगे.‘‘

मिशी ‘करती हूं’ के अलावा कुछ ना बोल सकी. उस के चेहरे पर मुसकान बिखर गई थी, उस रोज वह औफिस से जल्दी घर पहुंची, खाना बना कर, घर संवारा और खुद को संवारने में जुट गई, ‘‘मैं विहान के लिए ऐसे क्यों संवर रही हूं, इस से पहले तो कभी मैं ने इस तरह नहीं सोचा… ‘‘ उस को खुद पर हंसी आ गई, अपने ही सिर पर धीरे से चपत लगा कर वह विहान के इंतजार में भीतरबाहर होने लगी. उसे लग रहा था, जैसे वक्त थम गया हो, वक्त काटना मुश्किल हो रहा था.

शाम के लगभग 8 बजे बेल बजी. मिशी की सांसें ऊपरनीचे हो गईं. शरीर ठंडा सा लगने लगा. होंठों पर मुसकराहट तैर गई. दरवाजा खोला, पूरे 10 महीने बाद विहान उस के सामने था. एक पल को वह उसे देखती ही रही, दिल की बेचैनी आंखों से निकलने को उतावली हो उठी.

विहान भी लंबे समय बाद अपनी मिशी से मिल उसे देखता ही रह गया.फिर मिशी ने ही किसी तरह संभलते हुए विहान को अंदर आने के लिए कहा. मिशी की आवाज सुन विहान अपनी सुध में वापस आया. दोनों देर तक चुप बैठे, छुपछुप कर एकदूसरे को देख लेते, नजरें मिल जाने पर यहांवहां देखने लगते. दोनों ही कोशिश में थे कि उन की चोरी पकड़ी न जाए.

डिनर करने के बाद जल्दी ही फिर मिलने की कह कर विहान वापस चला गया.

उस रात वह विहान से कोई सवाल नहीं कर सकी थी, जितना विहान पूछता रहा, वह उतना ही जवाब देती गई. वह खोई रही, विहान को इतने दिनों बाद अपने करीब पा कर, जैसे जी उठी थी वह उस रात…

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विहान एक प्रोजैक्ट के सिलसिले में मुंबई आया था… 15 दिन बीत चुके थे, इन 15 दिनों में विहान और मिशी दो ही बार मिले.

विहान का काम पूरा हो चुका था, 1 दिन बाद उस को निकलना था. मिशी विहान को ले कर बहुत परेशान थी. आखिर उस ने निर्णय लिया कि विहान के जाने के पहले वह उस से बात करेंगी… पूछेगी उस की बेरुखी की वजह… मिशी अभी उधेड़बुन में थी, तभी मोबाइल बज उठा… विहान का था…
‘‘हेलो, मिशी औफिस के बाद तैयार रहना… बाहर चलना है, तुम्हें किसी से मिलवाना है.‘‘

‘‘किस से मिलवाना है, विहान.‘‘

‘‘शाम होने तो दो, पता चल जाएगा.‘‘

‘‘बताओ तो…‘‘

‘‘समझ लो, मेरी गर्लफ्रैंड है.‘‘

इतना सुनते ही मिशी चुप हो गई. 6 बजे विहान ने उसे पिक किया. मिशी बहुत उदास थी. दिल में हजारों सवाल उमड़घुमड़ रहे थे. वह कहना चाहती थी, विहान तुम्हारी शादी पूजा दी से होने वाली है, ये क्या तमाशा है. पर नहीं कह सकी, चुपचाप बैठी रही.

‘‘पूछोगी नहीं, कौन है?’’ विहान ने कहा.

‘‘पूछ कर क्या करना है? मिल ही लूंगी कुछ देर में,‘‘ मिशी ने धीरे से कहा.
थोड़ी देर बाद वे समुद्र किनारे पहंुचे. विहान ने मिशी को एक जगह इंतजार करने को कहा, ‘‘ तुम यहां रुको, मैं उस को ले कर आता हूं.‘‘

आसमान झिलमिलाते तारों की सुंदर बूटियों से सजा था. समुद्र की लहरें प्रकृति का मनभावन संगीत फिजाओं में घोल रही थीं. हवा मंथर गति से बह रही थी, फिर भी मिशिका का मन उदासी के भंवर में फंसा जा रहा था.

‘‘विहान मुझ से दूर हो जाएगा, मेरा विहान,‘‘ सोचतेसोचते उस की उंगलियां खुद बा खुद रेत पर विहान का नाम उकेरने लगीं.

‘‘विहान… मेरा नाम इस से पहले इतना अच्छा कभी नहीं लगा,‘‘ विहान पीछे से खड़ेखड़े ही बोला.

मिशी ने हड़बड़ाहट में नाम पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कहां…. है, कब आए तुम… कहां है वह?‘‘

मिशी की आंखें उस लड़की को ढूंढ़ रही थीं, जिसे मिलवाने के लिए विहान उसे यहां ले कर आया था.

‘‘नाराज हो कर चली गई वह,‘‘ मिशी के पास बैठते हुए विहान ने कहा.

‘‘नाराज हो गई, पर क्यों?‘‘ मिशी ने पूछा.

‘‘अरे वाह, मैं जिसे प्रपोज करने वाला हूं, वह लड़की अगर देखे कि मेरे बचपन की दोस्त रेत पर इस कदर प्यार से उस के बौयफ्रैंड का नाम लिख रही है, तो गुस्सा नहीं आएगा उसे,‘‘ विहान ने पूरे नाटकीय अंदाज में कहा.

‘‘मैं ने… मैं ने कब लिखा तुम्हारा नाम,‘‘ मिशी सकपका कर बोली.

‘‘जो अभी अपनेआप रेत पर उभर आया था, उस नाम की बात कर रहा हूं.‘‘

यह सुन कर उस ने अपनी नजरें झुका लीं, उस की चोरी जो पकड़ी गई थी, फिर भी मिशी बोली, ‘‘मैं ने… मैं ने तो कोई नाम नहीं लिखा.‘‘

‘‘अच्छा बाबा… नहीं लिखा,‘‘ विहान ने मुसकरा कर कहा.

मिशी समझ ही नहीं पा रही थी कि ये हो क्या रहा है…

‘‘और… और वह लड़की, जिस से मिलवाने के लिए तुम मुझे यहां ले कर आए थे. सच बताओ ना विहान…‘‘

‘‘कोई लड़कीवड़की नहीं है, मैं अभी जिस के करीब बैठा हूं, बस वही है,’’ उस ने मिशी की आंखों में देखते हुए कहा. नजरें मिलते ही मिशी भी नजरें चुराने लगी.

‘‘मिशी, मत छुपाओ, आज कह दो जो भी दिल में हो.’’

मिशी की जबान खामोश थी, पर आंखों में विहान के लिए प्यार साफ नजर आ रहा था, जिसे विहान ने पहले ही महसूस कर लिया था, पर वह ये सब मिशी से जानना चाहता था.

मिशी कुछ देर चुप रही. दूर समंदर में उठती लहरों के ज्वार को देखती रही, ऐसा ही भावनाओं का ज्वार अभी उस के दिल में मचल रहा था. फिर उस ने हिम्मत बटोर कर बोलने की कोशिश की, पर उस की आंखों में जज्बातों का समंदर तैर गया. कुछ रुक कर वह बोली, ‘‘कहां चले गए थे विहान, मैं… मैं… तुम को कितना मिस कर रही थी.’’
इतना कह कर वह फिर शून्य में देखने लगी…
‘‘मिशी… आज भी चुप रहोगी… बह जाने दो अपने जज्बातों को… जो भी दिल में है कहो… तुम नहीं जानती कि मैं ने इस दिन का कितना इंतजार किया है…

‘‘मिशी बताओ… प्यार करती हो मुझ से…’’

मिशी विहान की तरफ मुड़ी. उस के इमोशंस उस की आंखों में साफ नजर आ रहे थे… होंठ कंपकंपा रहे थे…
‘‘विहान, तुम जब नहीं थे, तब जाना कि मेरे जीवन में तुम क्या हो, तुम्हारे बिना जीना, सिर्फ सांस लेना भर है. तुम्हें अंदाजा भी नहीं है कि मैं किस दौर से गुजरी हूं. मेरी उदासी का थोड़ा भी खयाल नहीं आया तुम को,‘‘ कहतेकहते मिशी रो पड़ी.

विहान ने उस के आंसू पोंछे और मुसकराने का इशारा करते हुए कहा, ‘‘मिशी, तुम ने तो सिर्फ 10 महीने इंतजार किया… मैं ने वर्षों किया है… जिस तड़प से तुम कुछ दिन गुजरी हो… वह मैं ने आज तक सही है…

‘‘मिशी, तुम मेरे लिए तब से खास हो, जब मैं प्यार का मतलब भी नहीं समझता था. बचपन में खेलने के बाद जब तुम्हारे घर जाने का समय आता था, तब अकसर तुम्हारी चप्पल कहीं खो जाती थी, तुम देर तक ढूंढ़ने के बाद मुझ से ही शिकायत करतीं और हम दोनों मिल कर अपने साथियों पर ही बरस पड़ते.
‘‘पर मिशी, वह मैं ही होता था… हर बार जो तुम्हें रोकने के लिए ये सब करता था… तुम कभी जान ही नहीं पाई,‘‘ कहतेकहते विहान यादों में खो गया.

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‘‘जानती हो… जब हम साथ पढ़ाई करते थे, तब भी मैं टौपिक समझ ना आने के बहाने से देर तक बैठा रहता, तुम मुझे बारबार समझाती, पर मैं नादान बना बैठा रहता सिर्फ तुम्हारा साथ पाने की चाह में…

‘‘जब छुट्टियों में बच्चे बाहर अलगअलग ऐक्टिविटी करते, तब भी मैं तुम्हारी पसंद के हिसाब से काम करता था, ताकि तुम्हारा साथ रहे.’’

‘‘विहान… तुम,’’ मिशी ने अचरज से कहा.

‘‘अभी तुम बस सुनो… मुझे और मेरे दिल की आवाज को… याद है मिशी, जब हम 12जी में थे, तुम मुझे कहती.. क्यों विहान गर्लफ्रैंड नहीं बनाई.. मेरी तो सब सहेलियों के बौयफ्रैंड हैं.. मंर पूछता तो तुम्हारा भी है… तुम हंस देती… हट पागल, मुझे तो पढ़ाई करनी है… फिर मस्त जौब… पर, विहान तुम्हारी गर्लफ्रैंड होनी चाहिए…’’ इतना कह कर तुम मुझे अपनी कुछ सहेलियों की खूबियां गिनवाने लगतीं. मेरा मन करता कि तुम्हें झकझोर कर कहूं कि तुम हो तो… पर नहीं कह सका.

‘‘और तुम्हें जो अपने हर बर्थडे पर जिस सरप्राइज का सब से ज्यादा इंतजार होता है … वो देने वाला मैं ही था… बचपन में जब तुम्हारी फेवरेट टौफी तुम्हारे पंेसिल बौक्स में मिलती, तो तुम बेहद खुश हुई थीं…

‘‘अगली बार भी जब मैं ने तुम को सरप्राइज किया, तब तुम ने कहा था, ‘‘विहान, पता नहीं कौन है… मौमडैड, दी या मेरी कोई फ्रैंड, पर मेरी इच्छा है कि मुझे हमेशा ये सरप्राइज गिफ्ट मिले. तुम ने सब के नाम लिए, पर मेरा नहीं,‘‘ कहतेकहते विहान की आवाज लड़खड़ा सी गई, फिर भर आए गले को साफ कर वह आगे बोला, ‘‘तब से हर बार मैं ये करता गया… पहले पेंसिल बौक्स था, फिर बैग… फिर तुम्हारा पर्स… और अब कुरियर.‘‘

सच जान कर मिशी जैसे सुन्न हो गई… वह हर बात विहान से शेयर करती थी. पर, कभी ये नहीं सोचा था कि विहान भी तो वह शख्स हो सकता है. उसे खुद पर बहुत गुस्सा आ रहा था.

रात गहरा चुकी थी, चांद… स्याह रात के माथे पर बिंदी बन कर चमक रहा था. तेज हवा और लहरों के शोर में मिशी के जोर से धड़कते दिल की आवाज भी मिल रही थी. विहान आज वर्षों से छुपे प्रेम की परतें खोल रहा था.

वह आगे बोला, ‘‘मिशी, उस दिन तो जैसे मैं हार गया था, जब मैं ने तुम से कहा कि मुझे एक लड़की पसंद है… मैं ने बहुत हिम्मत कर के अपने प्यार का इजहार करने के लिए यह प्लान बनाया था… मैं ने धड़कते दिल से कहा… दिखाऊं फोटो… तो तुम ने झट से मेरा मोबाइल छीना… और जैसे ही फोटो देखा, तुम्हार रिएक्शन देख कर मैं ठगा सा रह गया… लगा, यहां मेरा कुछ नहीं होने वाला… पगली से प्यार कर बैठा.’’

इतना कह कर उस ने मिशी से पूछा, ‘‘क्या तुम्हें याद है, उस दिन तुम ने क्या किया था?‘‘

‘‘हां… हां, तुम्हारे मोबाइल में मुझे अपना फोटो दिखा, तो मैं ने कहा… कब लिया ये फोटो… बहुत प्यारा है…‘‘ और मैं उस पिक में खो गई, सोशल मीडिया पर शेयर करने लगी. तुम्हारी गर्लफ्रैंड वाली बात तो मेरे दिमाग से गायब ही हो गई थी.
‘‘जी मैडम… जी… मैं तुम्हारी लाइफ में इस हद तक जुड़ा रहा कि तुम मुझे कभी अलग से फील कर ही नहीं पाई.’’
‘‘ऐसा कितनी बार हुआ, पर तुम अपनेआप में थी, अपने सपनों में, किसी और बात के लिए शायद तुम्हारे पास टाइम ही नहीं था, यहां तक कि अपने जज्बातों को समझने के लिए भी नही…‘‘ विहान कहता जा रहा था.
मिशी जोर से अपनी मुट्ठियाँ भींचती हुई अपनी बेवकूफियों का हिसाब लगा रही थी.

इस तरह विहान ना जाने कितनी छोटीबड़ी बातें बताता रहा और मिशी सिर झुकाए सुनती रही..

मिशी का गला रुंध गया… विहान इतना प्यार कोई किसी से कैसे कर सकता है…. और तब तो बिलकुल नहीं… जब उसे कोई समझने वाला ही ना हो… कितना कुछ दबा रखा है तुम ने…. मेरे साथ की छोटी से छोटी बातें कितनी सिद्दत से सहेज कर रखी हैं तुम ने ‘‘

‘‘अरे… पागल.. रोते नहीं… और ये किस ने कहा कि तुम मुझे समझती नहीं थी… मैं तो हमेशा तुम्हारा सब से करीबी रहा… इसलिए प्यार का अहसास कहीं गुम हो गया था.‘‘

‘‘और इस हकीकत को सामने लाने के लिए…. मैं ने खुद को तुम से दूर करने का फैसला किया… कई बार दूरियां नजदीकियों के लिए बहुत जरूरी हो जाती हैं. मुझे लगा कि मेरा प्यार सच्चा होगा, तो तुम तक मेरी ‘सदा‘ जरूर पहुंचेगी, नहीं तो मुझे आगे बढ़ना होगा… तुम को छोड़ कर.‘‘
‘‘मैं कितनी मतलबी थी…’’
‘‘ना बाबा… ना, तुम बहुत प्यारी हो, तब भी थीं और अब भी हो.’’

मिशी के रोते चेहरे पर हलकी सी मुसकान आ गई… वह धीरे से विहान के कंधे पर अपना सिर टिकाने को बढ़ ही रही थी कि अचानक उसे कुछ याद आया… वह एकदम उठ खड़ी हुई…

‘‘क्या हुआ… मिशी?’’

‘‘ये सब गलत है…’’

‘‘क्यों गलत है?’’

‘‘तुम और पूजा दी…?’’

‘‘मैं और पूजा…’’ कह कर विहान हंस पड़ा.

‘‘तुम हंस क्यों रहे हो?’’

‘‘मिशी, मेरी प्यारी मिशी….. मुझे जैसे ही पूजा और मेरी शादी की बात पता चली, तो मैं पूजा से मिला और तुम्हारे बारे में बताया…’’ सुन कर पूजा भी खुश हुई. उस का कहना था कि विहान हो या कोई और उसे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता…. मम्मीपापा जहां चाहेंगे, वह खुशीखुशी वहां शादी कर लेगी… फिर हम दोनों ने सारी बात घर पर बता दी… किसी को कोई दिक्कत नहीं है… अब इंतजार है तो तुम्हारे जवाब का…

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इतना सुनते ही मिशी को तो जैसे अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ. उस के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई… अब ना कोई शिकायत बची थी… ना सवाल…

‘‘बोलो मिशी… मैं तुम्हारे जवाब का इंतजार कर रहा हूं,‘‘ विहान ने बेचैनी से कहा.

‘‘मेरे चेहरे पर बिखरी खुशी देखने के बाद भी तुम को जवाब चाहिए,‘‘ मिशी ने नजरें झुका कर बड़े ही भोलेपन से कहा.

‘‘नहीं मिशी, जवाब तो मुझे उसी दिन मिल गया था.. जब मैं तुम्हारे घर आया था. पहले वाली मिशी होती तो बोलबोल कर, सवाल पूछपूछ कर… झगड़ा कर के मुझे भूखा ही भगा देती…’’ कह कर विहान जोर से हंस पड़ा.

‘‘अच्छा… मैं इतनी बकबक करती हूं,‘‘मिशी ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘हां… पर, न तुम झगड़ीं और न ही कुछ बोलीं… बस, देखती रही मुझे… ख्वाब बुनती रहीं… मेरे वजूद को महसूस करती रही… उसी दिन मैं समझ गया था कि जिस मिशी को पाने के लिए मैं ने उसे खोने का गम सहा, ये वही है… मेरी मिशी… सिर्फ मेरी मिशी,‘‘ विहान ने मिशी का हाथ पकड़ते हुए कहा.

मिशी ने भी विहान का हाथ जोर से थाम लिया, हमेशा के लिए. वे हाथों में हाथ लिए चल दिए… जिंदगी के नए सफर पर साथसाथ… कभी जुदा ना होने के लिए… आसमां, चांदतारे और चांदनी के प्रेम में सराबोर लहलहाता समुद्र उन के प्रेम के साक्षी बन गए थे…

कहीं दूर से हवा में संगीत की धुन उन के प्रेम की दास्तां बयां कर रही थी,
‘‘हमसफर… मेरे हमसफर,
हमें साथ चलना है उम्रभर…’’

Women’s Day Special: सहयात्री

शाम को 1 नंबर प्लेटफार्म की बैंच पर बैठी कनिका गाड़ी आने का इंतजार कर रही थी. तभी कंधे पर बैग टांगे एक हमउम्र लड़का बैंच पर आ कर बैठते हुए बोला, ‘‘क्षमा करें. लगता है आज गाड़ी लेट हो गई है.’’

न बोलना चाहते हुए भी कनिका ने हां में सिर हिला उस की तरफ देखा. लड़का देखने में सुंदर था. उसे भी अपनी ओर देखते हुए कनिका ने अपना ध्यान दूसरी ओर से आ रही गाड़ी को देखने में लगा दिया. उन के बीच फिर खामोशी पसर गई. इस बीच कई ट्रेनें गुजर गई. जैसे ही उन की टे्रन की घोषणा हुई कनिका उठ खड़ी हुई. गाड़ी प्लेटफार्ट पर आ कर लगी तो वह चढ़ने को हुई कि अचानक उस की चप्पल टूट गई और पैर पायदान से फिसल प्लेटफार्म के नीचे चला गया.

कनिका के पीछे खड़े उसी अनजान लड़के ने बिना देर किए झटके से उस का पैर निकाला और फिर सहारा दे कर उठाया. वह चल नहीं पा रही थी. उस ने कहा, ‘‘यदि आप को बुरा न लगे तो मेरे कंधे का सहारा ले सकती हैं… ट्रेन छूटने ही वाली है.’’

कनिका ने हां में सिर हिलाया तो अजनबी ने उसे ट्रेन में सहारा दे चढ़ा कर सीट पर बैठा दिया और खुद भी सामने की सीट पर बैठ गया. तभी ट्रेन चल दी.

उस ने अपना नाम पूरब बता कनिका से पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

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‘‘कनिका.’’

‘‘आप को कहां जाना है?’’

‘‘अहमदाबाद.’’

‘‘क्या करती हैं?’’

‘‘मैं मैनेजमैंट की पढ़ाई कर रही हूं. वहां पीजी में रहती हूं. आप को कहां जाना है?’’

‘‘मैं भी अहमदाबाद ही जा रहा हूं.’’

‘‘क्या करते हैं वहां?’’

‘‘भाई से मिलने जा रहा हूं.’’

तभी अचानक कंपार्टमैंट में 5 लोग घुसे और फिर आपस में एकदूसरे की तरफ देख कर मुसकराते हुए 3 लोग कनिका की बगल में बैठ गए. उन के मुंह से आती शराब की दुर्गंध से कनिका का सांस लेना मुश्किल होने लगा. 2 लोग सामने पूरब की साइड में बैठ गए. उन की भाषा अश्लील थी.

पूरब ने स्थिति को भांप कनिका से कहा, ‘‘डार्लिंग, तुम्हारे पैर में चोट है. तुम इधर आ जाओ… ऊपर वाली बर्थ पर लेट जाओ… बारबार आनेजाने वालों से तुम्हें परेशानी होगी.’’

कनिका स्थिति समझ पूरब की हर बात किसी आज्ञाकारी शिष्य की तरह माने जा रही थी. पूरब ने सहारा दिया तो वह ऊपर की बर्थ पर लेट गई. इधर पैर में चोट से दर्द भी हो रहा था.

हलकी सी कराहट सुन पूरब ने मूव की ट्यूब कनिका की तरफ बढ़ाई तो उस के मुंह से बरबस निकल गया, ‘‘ओह आप कितने अच्छे हैं.’’

उन लोगों ने पूरब को कनिका की इस तरह सेवा करते देख फिर कोई कमैंट नहीं कसा और अगले स्टेशन पर सभी उतर गए.

कनिका ने चैन की सांस ली. पूरब तो जैसे उस की ढाल ही बन गया था.

कनिका ने कहा, ‘‘पूरब, आज तुम न होते तो मेरा क्या होता?’’ मैं किन शब्दों में तुम्हारा धन्यवाद करूं… आज जो भी तुम ने मेरे लिए किया शुक्रिया शब्द उस के सामने छोटा पड़ रहा है.

‘‘ओह कनिका मेरी जगह कोई भी होता तो यही करता.’’

बातें करतेकरते अहमदाबाद आ गया. कनिका ने अपने बैग में रखीं स्लीपर निकाल कर पहननी चाहीं, मगर सूजन की वजह से पहन नहीं पा रही थी. पूरब ने देखा तो झट से अपनी स्लीपर निकाल कर दे दीं. कनिका ने पहन लीं.

पूरब ने कनिका का बैग अपने कंधे पर टांग लिया. सहारा दे कर ट्रेन से उतारा और फिर बोला, ‘‘मैं तुम्हें पीजी तक छोड़ देता हूं.’’

‘‘नहीं, मैं चली जाऊंगी.’’

‘‘कैसे जाओगी? अपने पैर की हालत देखी है? किसी नर्सिंग होम में दिखा लेते हैं. फिर तुम्हें छोड़ कर मैं भैया के पास चला जाऊंगा. आओ टैक्सी में बैठो.’’

कनिका के टैक्सी में बैठने पर पूरब ने टैक्सी वाले से कहा, ‘‘भैया, यहां जो भी पास में नर्सिंगहोम हो वहां ले चलो.’’

टैक्सी वाले ने कुछ ही देर में एक नर्सिंगहोम के सामने गाड़ी रोक दी.

डाक्टर को दिखाया तो उन्होंने कहा, ‘‘ज्यादा नहीं लगी है. हलकी मोच है. आराम करने से ठीक हो जाएगी. दवा लिख दी है लेने से आराम आ जाएगा.’’

नर्सिंगहोम से निकल कर दोनों टैक्सी में बैठ गए. कनिका ने अपने पीजी का पता बता दिया. टैक्सी सीधा पीजी के पास रुकी. पूरब ने कनिका को उस के कमरे तक पहुंचाया. फिर

जाने लगा तो कनिका ने कहा, ‘‘बैठिए, कौफी पी कर जाइएगा.’’

‘‘अरे नहीं… मुझे देर हो जाएगी तो भैया ंिंचतित होंगे. कौफी फिर कभी पी लूंगा.’’

जाते हुए पूरब ने हाथ हिलाया तो कनिका ने भी जवाब में हाथ हिलाया और फिर दरवाजे के पास आ कर उसे जाते हुए देखती रही.

थोड़ी देर बाद बिस्तर पर लेटी तो पूरब का चेहरा आंखों के आगे घूम गया… पलभर को पूरे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई, धड़कनें तेज हो गईं.

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तभी कौल बैल बजी.

इस समय कौन हो सकता है? सोच कनिका फिर उठी और दरवाजा खोला तो सामने पूरब खड़ा था.

‘‘क्या कुछ रह गया था?’’ कनिका ने

पूछा, ‘‘हां… जल्दबाजी में मोबाइल यहीं भूल गया था.’’

‘‘अरे, मैं तो भूल ही गई कि मेरे पैरों में तुम्हारी स्लीपर हैं. इन्हें भी लेते जाना,’’ कह कौफी बनाने चली गई. अंदर जा कर कौफी मेकर से झट से 2 कप कौफी बना लाई, कनिका पूरब को कनखियों से देख रही थी.

पूरब फोन पर भाई से बातें करने में व्यस्त था. 1 कप पूरब की तरफ बढ़ाया तो पूरब की उंगलियां उस की उंगलियों से छू गईं. लगाजैसे एक तरंग सी दौड़ गई शरीर में. कनिका पूरब के सामने बैठ गई, दोनों खामोशी से कौफी पीने लगे.

कौफी खत्म होते ही पूरब जाने के लिए उठा और बोला, ‘‘कनिका, मुझे तुम्हारा मोबाइल नंबर मिल सकता है?’’

अब तक विश्वास अपनी जड़े जमाने लगा था. अत: कनिका ने अपना मोबाइल नंबर दे दिया.

पूरब फिर मिलेंगे कह कर चला गया. कनिका वापस बिस्तर पर आ कर कटे वृक्ष की तरह ढह गई.

खाना खाने का मन नहीं था. पीजी चलाने वाली आंटी को भी फोन पर ही अपने आने की खबर दी, साथ ही खाना खाने के लिए भी मना कर दिया.

लेटेलेटे कनिका को कब नींद आ गई,

पता ही नहीं चला. सुबह जब सूर्य की किरणें आंखों पर पड़ीं तो आंखें खोल घड़ी की तरफ देखा, 8 बज रहे थे. फिर बड़बड़ाते हुए तुरंत उठ खड़ी हुई कि आज तो क्लास मिस हो गई. जल्दी से तैयार हो नाश्ता कर कालेज के लिए निकल गई.

एक सप्ताह कब बीत गया पता ही नहीं चला. आज कालेज की छुट्टी थी. कनिका को बैठेबैठे पूरब का खयाल आया कि कह रहा था फोन करेगा, लेकिन उस का कोई फोन नहीं आया. एक बार मन किया खुद ही कर ले. फिर खयाल को झटक दिया, लेकिन मन आज किसी काम में नहीं लग रहा था. किताब ले कर कुछ देर यों ही पन्ने पलटती रही, रहरह कर न जाने क्यों उसे पूरब का खयाल आ रहा था. अनमनी हो खिड़की से बाहर देखने लगी.

तभी अचानक फोन बजा. देखा तो पूरब का था. कनिका ने कांपती आवाज में हैलो कहा.

‘‘कैसी हो कनिका?’’ पूरब ने पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं, तुम कैसे हो? तुम ने कोई फोन नहीं किया?’’

पूरब ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं भाई के साथ व्यवसाय में व्यस्त था, हमारा हीरों का व्यापार है.’’

तुम तैयार हो जाओ मैं लेने आ रहा हूं.

कनिका के तो जैसे पंख लग गए. पहनने के लिए एक प्यारी पिंक कलर की ड्रैस निकाली. उसे पहन कानों में मैचिंग इयरिंग्स पहन आईने में निहारा तो आज एक अलग ही कनिका नजर आई. बाहर बाइक के हौर्न की आवाज सुन कर कनिका जल्दी से बाहर भागी. पूरब हलके नीले रंग की शर्ट बहुत फब रहा था. कनिका सम्मोहित सी बाइक पर बैठ गई.

पूरब ने कहा, ‘‘बहुत सुंदर लग रही हो.’’

सुन कर कनिका का दिल रोमांचित हो उठा. फिर पूछा, ‘‘कहां ले चल रहे हो?’’

‘‘कौफी हाउस चलते हैं… वहीं बैठ कर बातें करेंगे,’’ और फिर बाइक हवा से बातें करने लगी.

कनिका का दुपट्टा हवा से पूरब के चेहरे पर गिरा तो भीनी सी खुशबू से पूरब का दिल जोरजोर से धड़कने लगा.

कनिका ने अपना आंचल समेट लिया.

‘‘पूरब, एक बात कहूं… कुछ देर से एक गाड़ी हमारे पीछे आ रही है. ऐसा लग रहा है जैसे कोई हमें फौलो कर रहा है.’’

‘‘तुम्हारा वहम है… उन्हें भी इधर ही जाना होगा.’’

‘‘अगर इधर ही जाना है तो हमारे पीछे ही क्यों चल रहे हैं… आगे भी निकल कर जा सकते हैं.’’

‘‘ओह, शंका मत करो… देखो वह काफी हाउस आ गया. तुम टेबल नंबर 4 पर बैठो. मैं बाइक पार्क कर के आता हूं.’’

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कनिका अंदर जा कर बैठ गई.

पूरब जल्दी लौट आया. बोला, ‘‘कनिका क्या लोगी? संकोच मत करो… अब तो हम मिलते ही रहेंगे.’’

‘‘पूरब ऐसी बात नहीं है. मैं फिर कभी… आज और्डर तुम ही कर दो.’’

वेटर को बुला पूरब ने 2 कौफी का और्डर दे दिया. कुछ ही पलों में कौफी आ गई.

कौफी पीने के बाद कनिका ने घड़ी की तरफ देख पूरब से कहा, ‘‘अब हमें चलना चाहिए.’’

‘‘ठीक है मैं तुम्हें छोड़ कर औफिस चला जाऊंगा. मेरी एक मीटिंग है.’’

पूरब कनिका को छोड़ कर अपने औफिस पहुंचा. भाई सौरभ के

कैबिन में पहुंचा तो उन की त्योरियां चढ़ी हुई थीं. पूछा, ‘‘पूरब कहां थे? क्लाइंट तुम्हारा इंतजार कर चला गया. तुम कहां किस के साथ घूम रहे थे… मुझे सब साफसाफ बताओ.’’

अपनी एक दोस्त कनिका के साथ था… आप को बताया तो था.’’

‘‘मुझे तुम्हारा इन साधारण परिवार के लोगों से मिलनाजुलना पसंद नहीं है… और फिर बिजनैस में ऐसे काम नहीं होता है… अब तुम घर जाओ और फोन पर क्लाइंट से अगली मीटिंग फिक्स करो.’’

‘‘जी भैया.’’

कनिका और पूरब की दोस्ती को 6 महीने बीत गए. मुलाकातें बढ़ती गईं. अब दोनों एकदूसरे के काफी नजदीक आ गए थे. एक दिन दोनों घूमने के  लिए निकले. तभी पास से एक बाइक पर सवार 3 युवक बगल से गुजरे कि अचानक सनसनाती हुई गोली चली जो कनिका की बांह को छूती हुई पूरब की बांह में जा धंसी.

कनिका चीखी, ‘‘गाड़ी रोको.’’

पूरब ने गाड़ी रोक दी. बांह से रक्त की धारा बहने लगी. कनिका घबरा गई. पूरब को सहारा दे कर वहीं सड़क के किनारे बांह पर दुपट्टा बांध दिया और फिर मदद के लिए सड़क पर हाथ दिखा गाड़ी रोकने का प्रयास करने लगी. कोई रुकने को तैयार नहीं. तभी कनिका को खयाल आया. उस ने 100 नंबर पर फोन किया. जल्दी पुलिस की गाड़ी पहुंच गई. सब की मदद से पूरब को अस्पताल में भरती करा पूरब के फोन से उस के भाई को फोन पर सूचना दे दी.

डाक्टर ने कहा कि काफी खून बह चुका है. खून की जरूरत है. कनिका अपना खून देने के लिए तैयार हो गई. ब्लड ग्रुप चैक कराया तो उस का ब्लड गु्रप मैच कर गया. अत: उस का खून ले लिया गया.

तभी बदहवास से पूरब के भाई ने वहां पहुंच डाक्टर से कहा, ‘‘किसी भी हालत में मेरे भाई को बचा लीजिए.’’

‘‘आप को इस लड़की का धन्यवाद करना चाहिए जो सही समय पर अस्पताल ले आई… अब ये खतरे से बाहर हैं.’’

सौरभ की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे. जैसे ही पूरब को होश आया सौरभ फफकफफक कर रो पड़ा, ‘‘भाई, मुझे माफ कर दे… मैं पैसे के मद में एक साधारण परिवार की लड़की को तुम्हारे साथ नहीं देख सका और उसे तुम्हारे रास्ते से हमेशा के लिए हटाना चाहा पर मैं भूल गया था कि पैसे से ऊपर इंसानियत भी कोई चीज है. कनिका मुझे माफ कर दो… पूरब ने तुम्हारे बारे में बताया था कि वह तुम्हें पसंद करता है. लेकिन मैं नहीं चाहता था कि साधारण परिवार की लड़की हमारे घर की बहू बने… आज तुम ने मेरे भाई की जान बचा कर मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया,’’ और फिर कनिका का हाथ पूरब के हाथों में दे कर बोला, ‘‘मैं जल्द ही तुम्हारे मातापिता से बात कर के दोनों की शादी की बात करता हूं.’’ कह बाहर निकल गया.

पूरब कनिका की ओर देख मुसकराते हुए बोला, ‘‘कनिका, अब हम सहयात्री से जीवनसाथी बनने जा रहे हैं.’’

यह सुन कनिका का चेहरा शर्म से लाल हो गया.

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Women’s Day पर क्या कहना चाह रही हैं शेफ मधुरा मंगेश बाचल

आज की महिलाएं खाना बनाने से कतराती है, जबकि खाना बनाने के कई फायदे है. इस बात को कोरोना संक्रमण के दौरान कई फिल्म और टीवी सेलेब्रिटी ने स्वीकार किया है, क्योंकि उन्हें कभी खाना बनाना नहीं आता था, लेकिन अब उन्हें खाना बनाना पसंद है, क्योंकि उन्होंने लॉकडाउन के दौरान विभिन्न प्रकार के डिशेज बनाकर परिवार के साथ एन्जॉय किया है.

खाना बनाने की शौक़ीन पुणे की मधुरा मंगेश बाचल आज डिजिटल दुनिया की पायोनियर है. उनके पति मंगेश जो सॉफ्टवेर इंजिनियर है, उन्होंने उसे महाराष्ट्रियन रेसिपी सोशल मीडिया पर डालने की सलाह दी. आज मधुरा के करोड़ों में सबस्क्राइबर है और वह भारत की पहली महाराष्ट्रियन फ़ूड रेसिपी ऑनलाइन देने वाली महिला उद्यमी है. उनकी ब्रांड मधुरा रेसिपी को उन्होंने पूरे विश्व में स्थापित किया है.

खाना बनाने की प्रेरणा के बारें में पूछे जाने पर मधुरा बताती है कि मेरी क्रिएटिविटी खाने को लेकर अमेरिका में रहने के दौरान शुरू हुआ. वहां मैं बैंक में काम करती थी, लेकिन प्रेग्नेट होने के बाद मैं मैटरनिटी लीव पर थी, मेरे पास बहुत समय था और कुकिंग की शौक होने की वजह से मैं हमेशा ऑनलाइन रेसिपी खोजती थी. रीजनल रेसिपी आसानी से मिल जाती थी, लेकिन ट्रेडिशनल मराठी डिश जैसे पूरणपोली, मिसळ पाव आदि की रेसिपी ब्लाक या वीडियो फॉर्म में नहीं मिलती थी. तब मैंने सोचा कि मुझे खाना बनाना पसंद है और डिजिटल प्लेटफॉर्म ग्लोबली काम करती है. यही से मेरे अंदर प्रेरणा जगी और मैने मराठी रेसिपी को ग्लोबली पहुँचाने के लिए लिखना और वीडियो बनाना साल 2009 से शुरू कर दिया.

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शुरु-शुरु में मधुरा ने ब्लॉग का सहारा लिया, जिसमें वह मराठी रेसिपी के साथ उसकी पिक्चर भी लगाती रही, इससे उन्होंने देखा कि उनके ब्लॉग को लोग बहुत पसंद कर रहे है और लोग कुछ नयी रेसिपी के बारें में मधुरा से जानना भी चाहते थे. ये मधुरा के लिए उत्साहवर्धक था. वह कहती है कि रेसिपी ब्लॉग में लोगों की रूचि देखकर मैंने अपने डोमेन मधुरा रेसिपी में लिखने लगी और सोशल मीडिया का सहारा लिया, ताकि अधिक से अधिक लोग मराठी रेसिपी का प्रयोग कर सकें, ऐसे धीरे-धीरे मैं आगे बढती गयी. ट्रेडिशनल रेसिपी सबसे अधिक पोपुलर है, जिसमें भरवा बैगन, पूरनपोली, मिसळ पाव, बड़ा पाव आदि की रेसिपी को लोग पसंद करते है. रेसिपी केवल इंडिया में ही नहीं, दुबई, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे कई जगहों से रेस्पोंस मिलता है. डिजिटल एक ऐसा प्लेटफॉर्म है, जिसमें किसी प्रकार की बंदिश नहीं होती. गांव, छोटे कस्बे, शहर, विकसित देश जैसे हर जगह इन्टरनेट होने पर इसकी सहायता ली जा सकती है. पहले विदेशों में महाराष्ट्रियन रेसिपी की लोकप्रियता अधिक थी, लेकिन अब यहाँ भी इसकी संख्या में वृद्धि हुई है.

इसके आगे मधुरा कहती है कि शुरू में मैंने जब अंग्रेजी में ब्लॉग बनाया, तो विदेशी लोग इसे अधिक देखते थे, क्योंकि कई महाराष्ट्रियन लड़के या लडकियां जो विदेश में रहते है और इंटरकास्ट शादी की है, वे मराठी व्यंजन के बारें में सुना है, लेकिन उसके प्रोसेस को नहीं जानते. वहां मेरी रेसिपी काम आती है.

मधुरा के परिवार का सहयोग शुरू से उनके साथ रहा है. उसका कहना है कि परिवार के सहयोग के बिना महिलाओं को काम करना संभव नहीं और मेरे दो बच्चे है. मेरे पति बहुत सहयोग देते है, क्योंकि वे सॉफ्टवेयर इंजीनियर है और किसी भी तकनीक से जुड़े अपग्रेड के बारें में जानकारी देते है. जब मैंने काम शुरू किया था, उस समय मेरी बेटी एक साल की थी. उसका नाम मनस्वी (14 वर्ष ) है. अभी बेटा मंथन भी 8 साल का हो चुका है. जब मेरी बेटी सोती थी, उस समय मैं वीडियो शूट पति के साथ मिलकर कर लेती थी. इसके अलावा मेरे पेरेंट्स का भी बहुत सहयोग रहा है. मैं प्रसाद के लिए शिरा बहुत अच्छा बनाती हूं. बच्चे भी खाना अच्छा बना लेते है.

इस काम में समस्या क्या होती है पूछे जाने पर मधुरा का कहना है कि शुरू में कुछ पता नहीं था कि इसे कैसे लोगों तक पहुंचाऊं, तब सोशल मीडिया का सहारा लिया. पहले खुद के नाम से पेज बनायीं फिर धीरे-धीरे उस पेज पर मैं रेसिपी डालने लगी. इससे मुझे मार्केटिंग के बारें में भी जानकारी मिलने लगी.

कोविड पीरियड में मधुरा को काम करना मुश्किल रहा, क्योंकि बच्चे और पति दोनों ही घर पर रहते है, इससे काम करने का समय कम होने लगा. लॉकडाउन की वजह से फ़ूड क्रिएटर का काम बहुत अधिक बढ़ गया था, क्योंकि लोग घर पर खाना बना रहे थे. ऐसे में उन्हें सुबह उठकर रेसिपी का शूट करना पड़ता था, जिसमें 3 सप्ताह शूट करना और एक सप्ताह खाली रखती थी. 6 महीने उन्होंने इसी तरह चलाया है. उस समय रेसिपी की सारे सामग्री का मिलना भी मुश्किल था.

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इसके अलावा मधुरा ने 365 ब्रेकफ़ास्ट रेसिपी के साथ एक किताब लिखी है, जिसमें हर मौसम में पाई जाने वाली फल और सब्जियों को लेकर ट्रेडिशनल रेसिपी दी गई है, क्योंकि आज वेस्टर्न रेसिपी को फोलो करते हुए लोग ट्रेडिशनल खाने को भूल चुके है. मधुरा ट्रेडिशनल महाराष्ट्रियन मसाला भी बनाती है. आगे दूसरे रीजन के रेसिपी भी मधुरा ऑनलाइन डालना चाहती है.

इसके आगे मधुरा कहती है कि घर पर बना खाना हेल्दी, हायजिन और सेटिसफेक्शन इन 3 चीजों पर आधारित होती है. स्मार्ट कुकिंग के लिए हमेशा पहले से प्लानिंग कर उसकी तैयारी कर लेनी चाहिए.

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर मधुरा कहती है कि महिलाओं को वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर होना और इमोशनली मजबूत होना बहुत जरुरी है. परिवार के लिए कैरियर का त्याग कभी न करें. कामकाजी महिलाओं के बच्चे भी जल्दी-जल्दी आत्मनिर्भर हो जाते है. आज के परिवेश में बच्चे होने के बाद भी कैरियर को बनाये रखें. आत्मनिर्भर होने से ही महिला इमोशनली भी मजबूत होती है.

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Women’s Day Special: ममता के रंग- प्राची ने कुणाल की अम्मा की कैसी छवि बनाई थी

‘‘दीदी, वे लोग आ गए,’’ कहते हुए पोंछे को वहीं फर्श पर फेंकते हुए कजरी जैसे ही बाहर की तरफ दौड़ी, प्राची का दिल जोर से धड़क उठा. सिर पर पल्ला रखते हुए उस ने एक बार अपनेआप को आईने में देख लिया. सच, एकदम आदर्श बहू लग रही थी.

मन में उठ रही ढेरों शंकाओं ने प्राची को परेशान कर दिया. जब नईनवेली दुलहन ससुराल आती है, तब सास उस की आरती उतारती है. लेकिन यहां पर किस्सा उलटा था, बहू के घर सास पहली बार आ रही थी.

अम्मा प्राची और कुणाल के विवाह के खिलाफ थीं, इसलिए दोनों ने कोर्टमैरिज कर ली थी. शादी को साल भर होने जा रहा था कि अम्मा ने सूचित किया कि  वे आ रही हैं.

कई बार प्राची ने सोचा था कि स्टेशन जाने से पहले वह कुणाल से विस्तार से बात करेगी कि अम्मा के आते ही उसे उन का सामना कैसे करना है? लेकिन अम्मा के आने की सूचना मिलते ही घर सजानेसंवारने की व्यस्तता और खुशी से रोमांचित प्राची तो जैसे सबकुछ भूल गई थी.

‘‘प्राची,’’ बाहर से कुणाल की पुकार सुनते ही उस का चेहरा लाल हो गया. अम्मा का स्वागत उन के चरणों को छू कर ही करेगी, यह सोचते हुए वह बाहर निकल आई.

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पर अम्मा को देखते ही जैसे पैरों में ब्रेक लग गए. उन का रूपरंग तो उस की कल्पना के उलट था. बौयकट बाल, होंठों पर गुलाबी लिपस्टिक और साड़ी के स्थान पर बगैर दुपट्टे का सूट देख कर वह स्तब्ध रह गई.

अम्मा की आधुनिक छवि को देख कर वह जैसे अपने ही स्थान पर जड़ हो गई थी. न आगे बढ़ कर चरणों को छू पाई, न ही हाथ जोड़ कर नमस्ते तक करने की औपचारिकता निभा पाई.

‘‘कुणाल, तुम्हारा चुनाव अच्छा है,’’ अम्मा ने अंगरेजी में कहा और प्राची के गालों को चूम लिया. पर प्राची का चेहरा शर्म से गुलनार न हो पाया.

कुणाल प्राची की उधेड़बुन से अनजान मां के कंधों को थामे लगातार बड़बड़ाता जा रहा था.

प्राची की आंखें यह सोच कर भर आईं कि मां की जो कमी उसे प्रकृति ने दी थी, वह कभी पूरी नहीं हो पाएगी. रसोई में अपने काम को अंतिम रूप देते हुए वह सोच रही थी, कितनी तारीफ करता था कुणाल अपनी अम्मा की, उन के ममत्व की. जो तसवीर कुणाल ने अपने कमरे में लगा रखी थी, उस में तो वास्तव में अम्मा आदर्श मां ही लग रही थीं. नाक में नथ, बड़ी सी बिंदी, कानों में झुमके, सीधे पल्ले की जरी वाली साड़ी, घने काले बाल…

प्राची के मन में अपनी मां की जो छवि रहरह कर उभरती, उस से कितनी मिलतीजुलती थी, कुणाल की अम्मा की तसवीर. इसीलिए तो अम्मा के प्रति प्राची बेहद भावुक थी.

जब भी कुणाल अम्मा की ममता का जिक्र करता, प्राची का ममता के लिए ललकता मन तड़प उठता. वह अम्मा को देखने और उन के प्यार को पाने की उम्मीद लगा बैठती.

अम्मा के ममत्व का जिक्र करते हुए कुणाल कहा करता था, ‘जब अम्मा थकीहारी रसोई का काम निबटा कर बैठती थीं, तब बजाय उन को आराम देने के, मैं उन की गोद में सिर रख कर लेट जाया करता था. जानती हो, तब वे अपने माथे का पसीना पोंछना भूल कर अपने हाथों को मेरे बालों पर फेरती रहतीं…सच…कितना सुख मिलता था तब. जब मुझे मैडिकल कालेज जाना पड़ा, तब उन की याद में नींद नहीं आती थी…’

‘अम्मा बहुत ममतामयी हैं न? उन्हें गुस्सा तो कभी नहीं आता होगा?’ प्राची पूछती.

‘नहीं, तुम गलत कह रही हो. अम्मा जितनी ममतामयी हैं, उतनी ही सख्त भी हैं. झूठ से तो उन्हें सख्त नफरत है. मुझे याद है, एक बार मैं स्कूल से एक बच्चे की पैंसिल उठा लाया था और अम्मा से झूठ कह दिया कि मेरे दोस्त ने मुझे पैंसिल तोहफे में दी है. जाने कैसे, अम्मा मेरा झूठ भांप गई थीं. अगले रोज वे मेरे साथ स्कूल आईं और मेरे दोस्त से पैंसिल के बारे में पूछा. उस के इनकार करने पर मुझे जो डांट पिलाई थी, वह मैं आज तक नहीं भूला,’ कुणाल ने कहा, ‘तब से ले कर आज तक मैं ने कभी अम्मा से झूठ नहीं बोला.

‘पिताजी के निधन के बाद अम्मा हमेशा इस बात से आशंकित रहती थीं कि मैं और मेरे भैया कहीं गलत राह पर न चले जाएं.’

प्राची हमेशा अपनी सास की तसवीर में उन के चेहरे को देखते हुए उन के व्यक्तित्व को आंकने का प्रयास करती रहती. अम्मा की तसवीर की तरफ देखते हुए कुणाल उस से कहता, ‘जानती हो, यह अम्मा की शादी की तसवीर है. इस के अलावा उन की और कोई तसवीर मेरे पास नहीं है.’

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‘कुणाल, मैं कई बार यह सोच कर खुद को अपराधी महसूस करती हूं कि मेरी वजह से तुम अम्मा से दूर हो गए, न तुम मुझ से विवाह करते, न अम्मा से जुदा होना पड़ता.’

‘प्राची, क्या पागलों जैसी बात कर रही हो. अम्मा को मैं अच्छी तरह से जानता हूं. वे हम से ज्यादा दिनों तक अलग नहीं रह सकतीं. वे हमें जल्दी ही अपने पास बुलाएंगी.’

‘काश, वह दिन जल्दी आता,’ प्राची धीमे स्वर में कहती, ‘मैं ने अपनी मां को नहीं देखा है. मैं 6 माह की थी जब उन की मृत्यु हो गई. पिताजी ने मेरी देखरेख में कोई कमी नहीं की थी, लेकिन मां की ममता के लिए हमेशा मेरा मन ललकता रहता है. कल रागिनी आई थी. जब उसे पता चला कि मैं गर्भवती हूं तो मुझ से पूछने आ गई कि मेरी क्या खाने की इच्छा है? मेरा मन भर आया. रागिनी मेरी सहेली है, उस के पूछने में एक दर्द था. मेरी मां नहीं हैं न, इसीलिए शायद वह अपने स्नेह से उस कमी को थोड़ा कम करने का प्रयास कर रही थी,’ आंखों को पोंछते हुए प्राची बोली.

कुणाल ने उसे सीने से लगाते हुए कहा, ‘यह कभी मत कहना कि तुम्हारी मां नहीं, अम्मा तुम्हारी भी तो मां हैं?’

‘जरूर हैं, इसीलिए तो उन से मिलने को ललचाती रहती हूं. पर न जाने उन से कब मिलना हो पाएगा. और फिर यह भी तो नहीं पता कि मुझे माफ करना उन के लिए संभव होगा या नहीं.’

‘सबकुछ ठीक हो जाएगा,’ कहते हुए कुणाल ने प्राची के माथे पर हाथ फेरते हुए उसे यकीन दिलाने की कोशिश की.

प्राची की अम्मा के प्रति छटपटाहट और उन के स्नेह को पाने की ललक देख कर कुणाल का मन पीडि़त हुआ करता था. अम्मा चाहे कुणाल को पत्र लिखें या न लिखें. लेकिन कुणाल हर हफ्ते उन्हें पत्र जरूर लिखता.

प्राची कई बार कुणाल से जिद करती कि वह अम्मा से टैलीफोन कर बात करे, ताकि प्राची भी कम से कम उन की आवाज तो सुन सके. लेकिन जब भी कुणाल फोन करता, अम्मा रिसीवर रख देतीं.

कुणाल द्वारा पिछले हफ्ते लिखे गए खत में प्राची के गर्भवती होने की सूचना के साथसाथ उस की मां का प्यार पाने की इच्छा का कुछ ज्यादा ही बखान हो गया था, तभी तो अम्मा पसीज गई थीं और फोन पर सूचित किया था कि वे आ रही हैं.

प्राची अम्मा के आने की खबर सुन कर पूरी रात सो न पाई थी. उस ने कल्पना की थी कि अम्मा आते ही उसे सीने से लगा लेंगी, हालचाल पूछेंगी, लेकिन यहां तो सबकुछ उलटा नजर आ रहा था.

कुणाल और अम्मा की बातों का स्वर काफी तेज था. अम्मा शायद भैया के व्यापार के बारे में कुछ बता रही थीं और कुणाल अपने को अधिक बुद्धिजीवी साबित करने का प्रयास करते हुए उन की छोटीमोटी गलतियों का आभास कराता जा रहा था.

गर्भावस्था में भी अब तक प्राची को काम करने में कोई असुविधा नहीं हुई थी, लेकिन पूरी रात न सो पाने से वह असहज हो उठी थी. साथ ही, अम्मा को अपने खयालों के मुताबिक न पा कर उस में एक अजीब सा तनाव आ गया था. अचानक उसे कुणाल भी पराया सा लगने लगा था.

किसी तरह नाश्ता बना कर प्राची ने डाइनिंग टेबल पर लगा दिया और अम्मा व कुणाल को बुलाने कमरे में आ गई.

अम्मा पलंग पर बैठी थीं और कुणाल उन की गोद में सिर रख कर लेटा था. अम्मा की उंगलियां कुणाल के बालों में उलझी हुई थीं. प्राची ने देखा, अम्मा का एक भी बाल सफेद नहीं है. ‘शायद बालों को रंगती हों,’ प्राची ने सोचा और मन ही मन हंस दी, ‘युवा दिखने का शौक भी कितना अजीब होता है. बच्चे बड़े हो गए और मां का जवान दिखने का पागलपन.’

प्राची के मनोभावों से परे अम्मा और कुणाल अपनी ही बातचीत में खोए हुए थे. अम्मा कह रही थीं, ‘‘बेटा, तू अब वहीं आ जा, अपना अस्पताल खोल ले. अब दूरदूर नहीं रहा जाता.’’

‘‘अभी नहीं, अम्मा, मैं करीब 5 साल मैडिकल अस्पताल में ही प्रैक्टिस करना चाहता हूं. यहां रह कर तरहतरह के मरीजों से निबटना तो सीख लूं. जब भी अस्पताल खोलूंगा, वहीं खोलूंगा, तुम्हारे पास, यह तो तय है.’’

‘‘अम्मा, नाश्ता तैयार है,’’ दोनों के प्रेमालाप में विघ्न डालते हुए प्राची को बोलना पड़ा.

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‘‘अच्छा बेटी, चलो कुणाल, तुम दोनों से मिल कर मेरी तो भूख ही मर गई,’’ अम्मा ने उठते हुए कहा.

‘‘पर अम्मां, मेरी भूख तो दोगुनी हो गई,’’ कुणाल ने उन के हाथों को अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘‘पागल कहीं का, तू तो बिलकुल नहीं बदला,’’ अम्मा ने लाड़ जताते हुए कहा.

नाश्ते की मेज पर न तो अम्मा और न कुणाल को इतनी फुरसत थी कि नाश्ते की तारीफ में कुछ कहें, न ही यह याद रहा कि प्राची भी भूखी है. रात अम्मा से मिलने की उत्सुकता में उस की नींद और भूख, दोनों मर गई थीं.

पर अब प्राची भूख सहन नहीं कर पा रही थी. उसे लग रहा था, अम्मा उस से भी साथ खाने को कहेंगी या कम से कम कुणाल तो उस का खयाल रखेगा. पर सबकुछ आशा के उलट हो रहा था. अब तक प्राची के बगैर चाय तक न पीने वाला कुणाल बड़े मजे से कटलेट सौस में डुबो कर खाए जा रहा था. प्राची के मन में अकेलेपन का एहसास बढ़ता ही जा रहा था.

मां व बेटे के इस रूप को देख कर प्राची को भी संकोच को दरकिनार करना पड़ा और वह अपने लिए प्लेट ले कर नाश्ता करने के लिए बैठ गई. नाश्ता स्वादहीन लग रहा था, पर भूख को शांत करने के लिए वह बड़ी तेजी से 2-3 कटलेट निगल गई. फलस्वरूप, उसे उबकाई आने लगी. रातभर के जागरण और सुबह से हो रहे मानसिक तनाव से पीडि़त प्राची को कटलेट हजम नहीं हुए.

प्राची तेजी से उठ कर बाथरूम की ओर दौड़ पड़ी. भीतर जा कर जो कुछ खाया था, सब उगल दिया. माथे पर छलक आई पसीने की बूंदों को पोंछते हुए बाथरूम में खड़ी रही. ऐसा लग रहा था जैसे अभी गिर पड़ेगी. सिर भी चकराने लगा था. तभी 2 कोमल भुजाओं ने प्राची को संभाल लिया. ‘‘चल बेटी, तू आराम कर.’’ लेकिन प्राची वहां से हट न पाई. थोड़ी सी गंदगी बाथरूम के बाहर भी फैल गई थी. सो, यह बोली, ‘‘अम्मा, वह वहां भी थोड़ी सी गंदगी…’’

‘‘मैं साफ कर लूंगी, तू चल कर आराम कर,’’ अम्मा प्राची को सहारा दे कर उसे उस के कमरे तक ले आईं. फिर बिस्तर पर लिटा कर उस के चेहरे को तौलिए से पोंछ कर साफ किया.

कुणाल ने एक गिलास पानी से प्राची को एक गोली खिला दी. अब कुणाल के चेहरे पर परेशानी के भाव साफ नजर आ रहे थे. ‘‘ज्यादा भागदौड़ हो गई होगी न. अब तुम आराम करो.’’

‘कुणाल, मुझे उबकाई आ गई थी. बाथरूम के बाहर भी जरा सी गंदगी हो गई है. अम्मा साफ करेंगी तो अच्छा नहीं लगेगा. सास से कोई ऐसे काम नहीं करवाता.’’

‘‘पागल,’’ प्राची के गालों पर प्यार से चपत मारता हुआ कुणाल बोला, ‘‘वे तुम्हारी मां हैं मां. और उन्हें जो करना है, वह करेंगी ही. मेरे कहने से मानेंगी थोड़े ही.’’

‘‘फिर भी,’’ प्राची ने उठने का प्रयास करते हुए कहा.

‘‘तुम चुपचाप लेटी रहो और सोने का प्रयास करो,’’ कुणाल धीरेधीरे उस के माथे पर हाथ फेरता रहा. कब नींद आ गई, प्राची को पता ही न चला.

जब उस की आंख खुली तो अम्मा को अपने सिरहाने बैठा पाया. वे नेलपौलिश रिमूवर से अपने नाखून साफ कर रही थीं, प्राची ने उठने का प्रयास किया तो अम्मा ने रोक दिया, ‘‘न बेटी, तुम आराम करो. तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं. मैं आ गईर् हूं और सिर्फ तुम्हें आराम देने के लिए ही आई हूं.’’

‘‘अम्मा, मुझे अच्छा नहीं लग रहा, मैं आप की सेवा भी नहीं कर पा रही हूं.’’

‘‘नहीं बेटी, मैं अपने हिस्से का आराम करती रहूंगी, तुम चिंता मत करो. जब से योगाभ्यास करने लगी हूं, खुद को काफी स्वस्थ महसूस कर रही हूं. अपने योग शिक्षक से तुम्हारे करने योग्य योग भी सीख कर आई हूं, तुम्हें जरूर सिखाऊंगी, लेकिन पहले तुम्हारे डाक्टर से मिलना होगा. तुम मेरी और कुणाल की चिंता छोड़ दो. तुम्हारे प्रसव तक घर की देखभाल मैं करूंगी.’’

‘‘अम्मां, तब तक आप यहीं रहेंगी?’’

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‘‘हां,’’ उन्होंने मुसकराते हुए कहा.

प्राची एकटक अम्मा को ताकती रही, वे ममता की प्रतिमूर्ति लग रही थीं. वह सोचने लगी कि केवल वेशभूषा से किसी के दिल को भला कैसे आंका जा सकता है. अम्मा ने लिपस्टिक भी लगाई थी, चेहरे पर पाउडर और कटे बालों में हेयरबैंड भी. पर अब प्राची को सबकुछ अच्छा लग रहा था क्योंकि अम्मा के मेकअप वाले आवरण की ओट से झांकती उन की अंदरूनी खूबसूरती और ममत्व का रंग उसे अब स्पष्ट दिखाई देने लगा था.

आई सपोर्ट की शुरूआत करना मेरे लिए चैलेंजिंग था: बौबी रमानी

बौबी रमानी

फाउंडर, आई सपोर्ट फाउंडेशन

अपने भाई को औटिज्म (मानसिक रूप से कमजोर) से पीडि़त देख आज बौबी रमानी औटिज्म के शिकार बच्चों के जीवन को खुशहाल बनाने के लिए कार्य कर रही हैं. उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में जन्मीं बौबी ने अपनी बहन के साथ मिल कर औटिज्म बीमारी से जूझते बच्चों को मदद देने के लिए ‘आई सपोर्ट फाउंडेशन’ नाम की स्वयंसेवी संस्था की शुरुआत की. यह संस्था औटिज्म के शिकार बच्चों को शिक्षा प्रदान करना, उन की प्रतिभा को निखारना और उन्हें उन की उच्चतम क्षमता तक पहुंचाने में मदद करती है. बौबी बैंगलुरु में अपनी संस्था के माध्यम से अब तक 8,000 वंचित और विशेष बीमारी से ग्रस्त बच्चों के जीवन में मुसकान बिखेर चुकी हैं. आइए, जानते हैं बौबी रमानी से उन के इस सफर के बारे में:

सवाल- आप ने ‘आई सपोर्ट फाउंडेशन’ की शुरुआत की. कैसा रहा यह सफर?

‘आई सपोर्ट फाउंडेशन’ की शुरुआत करना मेरे लिए काफी चुनौतीपूर्ण रहा, क्योंकि फाउंडेशन की शुरुआत से पहले मैं कौरपोरेट में काम करती थी. अपनी सेविंग्स से इस संस्थान की शुरुआत करना, औटिज्म से ग्रस्त बच्चों से जुड़ना, उन की काउंसलिंग करना, साथ ही उन के पेरैंट्स की भी काउंसलिंग करना, संस्थान का सैटअप करना सभी कुछ काफी चैलेंजिंग था. मैं ने अपनी बाकी की पढ़ाई भी संस्थान खोलने के बाद पूरी की. इस संस्थान को खोलने के लिए मुझे एक विशेष डिगरी की जरूरत थी. अत: मैं ने लखनऊ यूनिवर्सिटी से ‘मास कम्यूनिकेशन’ की डिगरी ली.

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 सवाल- इस में परिवार का कितना सहयोग रहा?

उस समय रायबरेली में कोई स्पैशल स्कूल नहीं था. मेरे पापा नहीं हैं, इसलिए रिश्तेदार और पासपड़ोस के लोग मेरा बहुत खयाल रखते थे. जब इन्हें पता चला कि मैं कुछ ऐसा कर रही हूं तो वे मेरी मां से मेरी सराहना करने लगे. इस वजह से मेरी मां ने मुझे पूरा सपोर्ट किया. हालांकि शुरुआत में दिक्कत आई थी, क्योंकि नौकरी छोड़ कर एनजीओ की तरफ बढ़ना काफी चैलेंजिंग हो गया था. एनजीओ का नाम सुनते ही लोग सोचने लग जाते हैं कि यह एक चैरिटेबल यूनिट है. ऐसे में नौकरी छोड़ना और परिवार को समझाना थोड़ा मुश्किल था. लेकिन वक्त के साथ मेरे परिवार ने मुझे समझा और मेरा पूरा साथ दिया. संस्थान खोलने के 1 साल बाद ही मेरी बहन ने भी बैंगलुरु में इस संस्थान की शुरुआत की. मेरे परिवार में हम 3 महिलाएं हैं और 1 भाई है, जिसे औटिज्म है. मेरे परिवार में फीमेल स्ट्रैंथ ज्यादा है.

 सवाल- ऐसी बीमारियों और स्थितियों के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए क्या करना चाहिए?

आज औटिज्म को ले कर जागरूकता तो बढ़ी है, लोग इस के बारे में अच्छी तरह से समझते हैं, लेकिन इस का समाधान अभी भी किसी को नहीं पता. इस में 2 लोगों का बहुत अहम रोल है. पहला डाक्टर का है. जब डाक्टर बच्चे का चैकअप करते हैं और उन्हें पता चलता है कि बच्चे को औटिज्म हो गया है यानी वह मैंटली फिट नहीं है तो साथ में उन को आगे का सुझाव भी देना चाहिए ताकि मातापिता को आगे की प्रक्रिया के बारे में पता चल सके और वे अपने बच्चे का खास ध्यान रख सकें.

दूसरा अहम रोल है टैलीविजन और रेडियो का. टीवी और रेडियो पर औटिज्म को ले कर खुल कर बात करनी चाहिए. औडियोविजुअल ज्यादा से से ज्यादा दिखाने चाहिए ताकि लोग इस के प्रति जागरूक हों.

 सवाल- उन लड़कियों और महिलाओं को जो आप की तरह कुछ विशेष करना चाहती हैं उन्हें आप क्या संदेश देना चाहेंगी?

मेरे खयाल से जब हम कुछ करने की सोचते हैं तो हमें कनफ्यूज बिलकुल नहीं रहना चाहिए. अपने लक्ष्य को हमेशा क्लियर रखना चाहिए तभी हम मंजिल तक पहुंच पाएंगे. यह बात बिलकुल सही है कि लड़कियों के बीच में से यदि कोई एक लड़की भी अपना मुकाम हासिल कर लेती है तो वह बाकी लड़कियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन जाती है. इसलिए जरूरी है कि किसी पर निर्भर हो कर आगे न बढ़ें. भरोसा खुद पर करें.

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 सवाल- मानसिक रूप से कमजोर बच्चों के लिए फ्रैंडली माहौल देने का आइडिया कैसे आया?

जो बच्चे औटिज्म का शिकार होते हैं वे थोड़ा हाइपर होते हैं. जब हम अपने भाई को ले कर किसी रैस्टोरैंट में जाते थे तो मेरी मां पहले ही खाने का और्डर देने चली जाती थीं. तब तक मैं भाई के साथ गाड़ी में बैठ कर म्यूजिक सुना करती थी. जब और्डर आ जाता था तब हम अंदर जाते थे, क्योंकि ऐसे बच्चे ज्यादा देर तक इंतजार नहीं कर पाते और कुछ देर बाद अजीब व्यवहार करने लगते हैं.

 सवाल- औटिज्म के अलावा और किनकिन बीमारियों से ग्रस्त बच्चों के लिए भी आप काम कर रही हैं?

औटिज्म के अलावा हमारी संस्था हर बौद्धिक अक्षमता जैसे डाउन सिंड्रोम, मानसिक अशांति आदि से परेशान बच्चों के लिए भी काम करती है.

इंडस्ट्री में मेल/फीमेल को अलग-अलग तरह से ट्रीट किया जाता है- अनुष्का अरोड़ा

अनुष्का अरोड़ा, रेडियो जौकी

2016 में अनुष्का को यशराज की फिल्म ‘फैन’ में शाहरुख खान के अपोजिट जर्नलिस्ट की भूमिका में देखा गया. उन्हें एशियन मीडिया अवार्ड्स के लिए ‘बैस्ट रेडियो पे्रजैंटर औफ द ईयर’ के तौर पर चौथे साल के लिए चुना गया और तब ‘सनराइज रेडियो’ ने ‘बैस्ट रेडियो स्टेशन औफ द ईयर’ अवार्ड हासिल किया था. अनुष्का को लंदन के ‘हाउस औफ लौर्ड्स’ में एनआरआई इंस्टिट्यूट से एनआरआई मोस्ट प्रिस्टीजियस जर्नलिस्ट के तौर पर ‘प्राइड औफ इंडिया’ अवार्ड दिया गया. इस के अलावा उन्हें इलैक्ट्रौनिक और नए मीडिया में अपने शानदार कार्य के लिए ‘बैस्ट इन मीडिया अवार्ड-2008’ भी मिला. पेश हैं, अनुष्का अरोड़ा से हुए सवालजवाब:

इस मुकाम पर किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?

मेरे लिए हर दिन एक चुनौती है. मुझे अपने रेडियो शो के लिए काफी रिसर्च और तैयारी की जरूरत होती है. कभीकभी जब 4 घंटे के शो के लिए पर्याप्त कंटैंट उपलब्ध नहीं होता तो मुश्किल पैदा हो जाती है. लेकिन अपने श्रोताओं का मनोरंजन करने के लिए कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेती हूं.

ऐंटरटेनमैंट फील्ड में क्या महिलाओं को अभी भी ग्लास सीलिंग का सामना करना पड़ रहा है?

यकीनन ऐंटरटेनमैंट इंडस्ट्री में ग्लास सीलिंग अभी भी कायम है. मेल और फीमेल को अलगअलग तरह से ट्रीट किया जाता है. ‘मी टू कैंपेन’ उसी का नतीजा है. मैं निश्चित तौर पर उस प्रत्येक महिला के साथ खड़ी हूं जिस का गलत इस्तेमाल हुआ है. ‘मी टू कैंपेन’ ने महिलाओं में जागरूकता पैदा की है. तनुश्री दत्ता ने इस संदर्भ में आवाज उठाने वाली कई महिलाओं को हिम्मत दी और एक नया प्लेटफार्म मुहैया कराया. इसे काफी अच्छा रिस्पौंस भी मिला.

क्या जर्नलिस्ट आर्थिक फायदे और प्रतियोगिता में आगे रहने के चक्कर में अपने बेसिक प्रिंसिपल्स के साथ समझौता करने लगे हैं?

जी हां, ऐसा होने लगा है. लोग समझौते करते हैं, पर मैं ऐसा नहीं करती. ये सब आप की परवरिश, कल्चर और ट्रैडिशन पर निर्भर करता है.

आप को ऐक्ट्रैस, रेडियो जौकी, वीडियो जौकी, ऐंकर और जर्नलिस्ट में से क्या बन कर सब से ज्यादा संतुष्टि मिलती है और क्यों?

मुझे ऐंकर के रूप में सब से ज्यादा मजा आता है, क्योंकि हम लाइव औडियंस के सामने होते हैं. लाइव औडियंस को ऐंटरटेन करना खुद में एक बड़ा चैलेंज होता है जो मुझे बहुत पसंद है.

रेडियो जौकी बनने का खयाल कैसे आया?

ये सब यूनिवर्सिटी में शुरू हुआ. मुझे यह बताया गया था कि यदि मैं रेडियो में जाना चाहती हूं तो मुझे किसी स्थानीय हौस्पिटल में अनुभव हासिल करना होगा. अस्पताल के वार्ड में उन के इनहाउस रेडियो स्टेशन हैं और यह रेडियो कैरियर के लिए एक विशेष आधार माना गया. मैं ने ‘इलिंग हौस्पिटल’ में 2 घंटे का बौलीवुड शो करना शुरू किया. मुझे हौस्पिटल रेडियो अवार्ड्स में बैस्ट रेडियो प्रेजैंटर के लिए नामित किया गया जिस से मेरा भरोसा बढ़ा और फिर धीरेधीरे मैं ने यहां के लोकल रेडियो चैनल्स पर बौलीवुड शो करना शुरू किया.

भारत में महिलाओं की स्थिति पर क्या कहेंगी?

पिछले समय की तुलना में आधुनिक समय में महिलाओं ने काफी कुछ हासिल किया है. लेकिन वास्तविकता यह है कि उन्हें अभी भी लंबा रास्ता तय करना है. महिलाओं को उन के सामने अपनी प्रतिभा साबित करने की जरूरत है जो उन्हें बच्चे पैदा करने की मशीन समझते हैं. भारतीय महिलाओं को सभी सामाजिक पूर्वाग्रहों को ध्यान में रख कर अपने लिए रास्ता तैयार करने की जरूरत है, साथ ही पुरुषों को भी देश की प्रगति में महिलाओं की भागीदारी को अनुमति देने और स्वीकारने की जरूरत है.

हार के बाद मिली जीत का मजा ही कुछ और होता है- निहारिका यादव

लेखक -पारुल 

डा. निहारिका यादव

सुपर बाइकर

अगर मन में कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं. इस का उदाहरण हैं डा. निहारिका यादव, जो न सिर्फ डैंटिस्ट हैं, बल्कि पुरुषों के वर्चस्व वाले खेल बाइक रेसिंग में भी पुरुषों को टक्कर देती हैं. ऐक्सीडैंट में दायां हाथ लगभग खराब होने के बावजूद उन का रेसिंग के प्रति जनून कम नहीं हुआ, क्योंकि वे मानती हैं कि जो चुनौतियों के साथ जीना सीख लेते हैं उन्हें जिंदगी मुश्किल नहीं, बल्कि खूबसूरत नजर आती है. निहारिका उन महिलाओं के लिए किसी मिसाल से कम नहीं हैं, जो छोटीछोटी चुनौतियों के सामने घुटने टेक कर हार मान लेती हैं. उन्होंने महिलाओं को यह प्रेरणा दी कि यदि कभी शरीर का कोई अंग आप का साथ न दे तो उसे अपनी नियति मान कर न बैठें, बल्कि उस स्थिति से उबर कर अपनी नई पहचान बनाने के रास्ते पर विचार करें. पेश हैं, डा. निहारिका से हुई बातचीत के कुछ खास अंश:

सवाल- मेल डौमिनेटिंग सोसाइटी होने के बावजूद आप बाइक रेसिंग में पुरुषों को ही चुनौती देती हैं. यह जज्बा आप में कहां से आया?

मैं 6 साल से रेसिंग में हूं और मेरी प्रेरणा बुद्ध इंटरनैशनल सर्किट के राइडर्स हैं. जब मैं पहली बार वहां गई और मैं ने उन्हें राइड करते देखा तो मुझे उन से प्रेरणा मिली. मेरे अंदर जो जनून है वह उन के साथ काम व प्रैक्टिस कर के आया. मैं ने कभी इस स्पोर्ट को मेल डौमिनेटिंग स्पोर्ट की तरह नहीं देखा. मैं पुरुषों को टक्कर देते हुए रेस करती हूं. भारत में 1000 सीसी बाइक को रेस करने वाली महिलाएं नहीं हैं. जब मैं पुरुषों के साथ रेस करती हूं तो मुझे काफी कौन्फिडैंस मिलता है और सक्सैस के लिए और मेहनत करती हूं. ऐक्सीडैंट में दायां हाथ 50% खराब होने के बावजूद आप बाइक स्पोर्ट्स को कैसे जारी रख पा रही हैं

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सवाल- आप के कैरियर पर इस का इफैक्ट पड़ा क्या?

2005 में मेरा कार ऐक्सीडैंट हुआ था, जिस में मेरे दाएं हाथ का 50% मूवमैंट चला गया था. उस के बाद मुझे लगा कि लाइफ में जीने का जो असल में ऐेक्साइटमैंट होता है वह किसी बड़े हादसे के बाद ही आता है. अत: इस हादसे ने मेरे हौसले को और बढ़ा कर लाइफ की और रिस्पैक्ट करना सिखाया.

हां, सुपर बाइकर बनने में मुझे कुछ चुनौतियां आईं, क्योंकि आप जानते हैं कि थ्रोटल राइट साइड पर होता है और स्पीड कंट्रोल भी राइट साइड से होता है. ऐसे में मुझे जब बाइक को लीन करना होता है, कौर्नर करना होता है तब थोड़ी दिक्कत आती है, क्योंकि मैं अपना पूरा हाथ मोड़ नहीं पाती. लेकिन मेरा मानना है कि जब आप की लाइफ में चुनौतियां आती हैं तो आप उन के समाधान भी ढूंढ़ लेते हैं. मैं ने भी तरीके ढूंढ़ लिए हैं.

 सवाल- डैंटिस्ट और बाइकर होते हुए खुद को कैसे फिट रखती हैं?

रेसर और डाक्टर होना दोनों मेरे लिए काफी महत्त्व रखते हैं. जब मैं बतौर डाक्टर मरीजों से मिलती हूं, तो उन की तकलीफों को अपना मान कर उन के दर्द दूर करती हूं. मैं खुद को उन से इमोशनली जुड़ा महसूस करती हूं, जो मुझे सुकून पहुंचाता है. वहीं एक रेसर के तौर पर मैं खुद को फिट रखने के लिए ऐक्सरसाइज व जिम करती हूं, हर महीने ट्रैक पर जा कर प्रैक्टिस करती हूं ताकि अपना स्टैमिना बढ़ा सकूं.

 सवाल- अपनी जर्नी के बारे में बताएं?

मैं डैंटल सर्जन हूं. गुड़गांव में प्राइवेट क्लीनिक चलाती हूं, साथ ही बाइक रेसर भी हूं. मैं ने हाल ही में जेके टायर द्वारा आयोजित 1000 सीसी राष्ट्रीय सुपर बाइक महिला रेसिंग में भी हिस्सा लिया था, जो मेरे लिए किसी चुनौती से कम न था. इस में मेरे लिए माइंड मेकअप करना सब से बड़ा चैलेंज था, लेकिन मेरे कौन्फिडैंस ने मेरी जर्नी को शानदार बना दिया.

 सवाल- बाइक रेस में आप की अधिकतम स्पीड क्या रहती है और किन चीजों पर फोकस रहता है?

डुकाटी पाणिगले 899 सीसी की मेरी रेसिंग बाइक है, जिसे मैं ने 265 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ाया है. रेसिंग के दौरान मेरा फोकस कम समय में ट्रैक को कवर करना होता है. इस के लिए मैं निरंतर प्रैक्टिस जारी रखती हूं ताकि अपना बैस्ट दे पाऊं.

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 सवाल- महिलाओं के लिए क्या संदेश देना चाहेंगी?

मैं महिलाओं से कहना चाहूंगी कि लाइफ  में जो भी करें डरें नहीं. आप के सामने जो भी चुनौतियां आएं उन से सीखें और दूसरों को भी प्रेरणा देती रहें. यकीन मानिए हार के बाद मिली जीत का मजा ही कुछ और होता है.

लोग कहते थे मैं बड़ा काम नहीं कर सकती- अनीता डोंगरे

अनीता डोंगरे, फैशन डिजाइनर

फैशन की दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बनाने वाली 50 वर्षीय अनीता डोंगरे की शख्सीयत अनूठी है. नम्र स्वभाव की अनीता ऐसे माहौल में पैदा हुई थीं जहां महिला उद्यमी बनने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था. ऐसे में अपने सपने को साकार करना आसान नहीं था. सफलता के इस मुकाम पर पहुंच कर भी वे खुद को लर्नर ही समझती हैं. उन से हुई बातचीत के अंश इस प्रकार हैं:

अपने बारे में विस्तार से बताएं?

मैं पारंपरिक सिंधी परिवार से हूं. मेरे दादादादी जयपुर से थे. मैं मुंबई में पलीबढ़ी, क्योंकि मेरे पिता मेरे जन्म से कुछ ही महीने पहले मुंबई आ गए थे. मैं गरमी की छुट्टियों में जयपुर जाती थी. वहां मैं ने देखा कि मेरे परिवार के अन्य भाईबहनों के लिए बहुत सख्त माहौल था.

50 चचेरे भाईबहनों के बड़े परिवार में किसी ने भी महिला उद्यमी बनने के बारे में नहीं सोचा था. लेकिन मैं मुंबई में थी. यहां मुझे मेरे मातापिता ने पूरी आजादी दी. एसएनडीटी कालेज से फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करने के बाद मैं ने भारतीय परिधानों की डिजाइनिंग शुरू की. उस समय के सभी बड़े बुटीक्स में मेरा काम पसंद किया जाने लगा.

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किस क्षेत्र में कैरियर बनाना चाहती थीं?

जब मैं 15 वर्ष की थी तब से मुझे डिजाइनिंग और फैशन पसंद था. मेरे बहुत से दोस्त कौमर्स की पढ़ाई कर चार्टर्ड अकाउंटैंट बन गए, लेकिन मुझे यह बोरिंग लगता था. केवल फैशन ही ऐसा क्षेत्र था जो मुझे पसंद था.

प्रेरणा कहां से मिली?

मेरी मां घर पर मेरे और मेरे भाईबहनों के लिए कपड़े सिलती थीं. यह मुझे अच्छा लगता था. लेकिन तब मुझे यह पता नहीं था कि मैं यहां तक पहुंच जाऊंगी. लेकिन काम करने की उत्सुकता हमेशा बनी रही. आज भी जब कोई नया काम शुरू करती हूं तो उसे अच्छा करने की कोशिश करती हूं. मेरी प्रेरणास्रोत मेरी मां हैं.

संघर्ष तो काफी रहा होगा?

मैं ने 300 वर्गफुट क्षेत्र में अपनी बहन के साथ कारोबार शुरू किया. कुछ वर्षों बाद मेरा छोटा भाई भी इस में शामिल हो गया. शुरूशुरू में कई मुश्किलें आईं. कई बार लगा कि व्यवसाय बंद करना पड़ेगा, पर वह थोड़े समय के लिए था. मैं सुबह उठ कर सोचती थी कि मैं क्या करूं? कई बार हमारे पास किराया देने के लिए भी रुपए नहीं होते थे. बाद में सब सही हो गया. मुझे लगता है कि एक उद्यमी के लिए हर रोज चुनौती होती है. उस से निबटने की कला सीखना भी जरूरी है.

जब मैं ने इंटर्नशिप, व्यवसाय या जौब जो भी किया परिवार वालों का सहयोग नहीं था. सब सलाह देते थे कि मैं इतना बड़ा काम कर के परिवार नहीं संभाल सकती पर धीरेधीरे वह भी आसान हो गया.

करीब 20 साल पहले मैं ने कामकाजी महिलाओं को ध्यान में रख कर वैस्टर्न कपड़ों को बदलाव के साथ पेश किया. लेकिन किसी ने मेरी डिजाइनों को पसंद नहीं किया. तब मैं ने तय किया कि अपनी कंपनी खोलूंगी. इस तरह अनीता डोंगरे की डिजाइनों का जन्म हुआ.

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आप को जीवन में आगे बढ़ने में कोई कठिनाई आई?

पारंपरिक परिवार की होने की वजह से उद्यमी बनना आसान नहीं था. वहां महिलाएं स्टीरियोटाइप काम करती थीं. लेकिन मैं ने अपनी जिंदगी अलग तरीके से जी है और इस में मेरे मातापिता ने मेरी मदद की. पिता ने व्यवसाय शुरू करने के लिए पैसे दिए, जिन का उन्होंने ब्याज भी लिया. उन्होंने हमें पैसे का महत्त्व समझाया.

युवा महिलाओं के लिए कोई संदेश?

महिलाएं आज हर क्षेत्र में प्रोफैशनल पुरुषों की तरह ही कामयाब हैं. ऐसे में तुलनात्मक बातें नहीं आनी चाहिए. पहले महिलाओं को मौके कम मिलते थे पर अब ऐसा नहीं है. आज उन के लिए भी हर तरह की सुविधाएं हैं. वे आगे आ कर उन्हें अपनाएं और अपनेआप को सिद्ध करें कि वे किसी से कम नहीं हैं.

परिवर्तन की अलख जगाती रूमा देवी

(राजस्थान, बाड़मेर में 22,000 से ज्यादा गरीब, ग्रामीण महिलाओं को रोजगार से जोड़ा)

राजस्थान के बाड़मेर के अति पिछड़े गांव की रूमा देवी भले ही सिर्फ आठवीं पास हों, लेकिन उनके जुझारूपन ने इस क्षेत्र की बाइस हजार से ज्यादा गरीब, ग्रामीण महिलाओं को रोजगार से जोड़कर उनको आर्थिक सशक्ता देकर उनके जीवन में खुशहाली बिखेर दी है. बचपन से ही अत्यधिक आर्थिक तंगी से जूझने वाली रूमा देवी ने अपनी दादी से सीखी राजस्थानी हस्तशिल्प कसीदाकारी को अपनी जीविका का आधार बनाया. उन्होंने एक स्वयं सेवक समूह बना कर न सिर्फ अपने परिवार को गरीबी के चंगुल से मुक्ति दिलायी, बल्कि आसपास के पचहत्तर गांवों की बाइस हजार से ज्यादा महिलाओं को इस कला का प्रशिक्षण दिया और राजस्थानी हस्तशिल्प को गांव से निकाल कर अन्तरराष्ट्रीय मंच तक पहुंचा दिया. उनके उत्कृष्ठ कार्यों के लिए वर्ष 2019 में उन्हें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के हाथों देश का सबसे सम्मानित ‘नारीशक्ति अवॉर्ड’ प्राप्त हुआ.

रूमा देवी राजस्थान में बाड़मेर क्षेत्र के उस दूरदराज के गांव से आती हैं जहां औरत के लिए चेहरे से घूंघट हटाना और घर की दहलीज लांघना नामुमकिन सी बात थी, लेकिन रूमा देवी ने इन बंधनों को तोड़ा और अपने लिए ही नहीं बल्कि अपने समाज की अन्य महिलाओं के लिए भी सबल और सक्षम होने की राह प्रशस्त की. गरीबी और पुरुष प्रधान समाज की रूढ़ीवादी परम्पराओं से संघर्ष की उनकी कहानी को उन्होंने ‘गृहशोभा’ के साथ साझा किया. प्रस्तुत है उनसे बातचीत के संपादित अंश –

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–  वह क्या वजहें थीं जिन्होंने आपको घर की दहलीज लांघ कर काम करने के लिए मजबूर किया?

मैं पांच साल की थी जब मेरी मां गुजर गयी. पिता ने दूसरी शादी कर ली और मुझे मेरे मामा के पास भेज दिया. मेरे मामा ने ही मुझे पाला-पोसा. उनकी आर्थिक स्थिति भी दयनीय थी. वहां मैंने आठवीं तक पढ़ाई की, लेकिन गरीबी के कारण मुझे स्कूल छोड़ कर घर के कामकाज में लगना पड़ा. रसोई बनाना, पशुओं की देखभाल के अलावा पूरे घर के लिए पीने के पानी का इंतजाम करना सब मैंने छोटी सी उम्र से किया. हमारे गांव में पानी की बहुत किल्लत थी. मैं परिवार की पानी की जरूरत पूरी करने के लिए आठ से दस किलोमीटर दूर से बैलगाड़ी पर पानी भरकर लाती थी. यह मेरा रोज का काम था. 17 साल की हुई तो मेरी शादी हो गयी. मेरी जिन्दगी शादी के बाद भी आसान नहीं थी. मेरे ससुरालवाले भी बहुत गरीब थे. घर की दहलीज लांघ कर बाहर काम करने के लिए मैं तब मजबूर हुई जब मेरे डेढ़ महीने के बीमार बेटे को पैसे की तंगी के कारण इलाज नहीं मिल पाया और उसने तड़प-तड़प कर मेरे सामने दम तोड़ दिया. उस घटना ने मुझे हिला दिया और मैंने तय कर लिया कि कुछ ऐसा करना है जिससे घर में पैसा आयें और हमारी मजबूरी खत्म हो. बचपन में मां के मरने के बाद मैंने कढ़ाई का कौशल अपनी दादी से सीखा था. मुझे वह हुनर आता था तो मैंने वह काम करने की इच्छा अपने ससुरालवालों के आगे रखी. मैंने उनसे कहा कि घर की हालत सुधारने के लिए मैं काम करना चाहती हूं. वे समाज के रीति-रिवाज से डरे. लोग क्या कहेंगे, बदनामी होगी, ऐसी बातें सोचीं. हमारे गांव में औरतें आज भी लम्बे घूंघट में रहती हैं. उन्होंने मुझसे कहा कि तू बिना घूंघट के काम करेगी? मैंने कहा – नहीं, सिर पर पल्लू नहीं हटेगा. तब परिवारवाले मान गये. मैंने घूंघट में रहते हुए घर से बाहर कदम निकाला और यह काम शुरू किया.

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–  यात्रा कैसे शुरू हुई? क्या दिक्कतें आयीं और क्या उपलब्धियों हासिल हुर्इं?

2006 में मैंने कढ़ाई का काम शुरू किया. शुरुआत में मैंने लेडीज बैग और कुशन कवर आदि बनाने की सोची, मगर उस वक्त कपड़े-धागे तक के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे. फिर मैंने अपने आसपास के परिवार की औरतों से बात की. मेरे गांव की दस औरतें मेरे साथ काम करने को तैयार हो गयीं. फिर मैंने एक स्वयं सहायता समूह बनाया और सबसे सौ-सौ रुपये इकट्ठा करके कढ़ाई के लिए जरूरी सारी चीजें जैसे कपड़े, रंगीन धागे, सुईयां, कैंचियां, सामान पैक करने के लिए प्लास्टिक के थैले इत्यादि खरीदे. मैंने उन औरतों को वह कढ़ाई सिखायी जो मैंने अपनी दादी से सीखी थी. हम सबने साथ मिल कर सुन्दर-सुन्दर बैग और कुशन कवर बनाये. भाग्य से हमें खरीदार भी अपने ही गांव में मिल गये, जो हमारा सामान शहरों में ले जाकर बेचने लगे. इस तरह हमें कुछ पैसे मिलने लगे. उसके बाद तो हमारे इस ग्रुप से लगातार महिलाएं जुड़ने लगीं.

–  दस औरतों का छोटा सा समूह बाईस हजार से ज्यादा औरतों का समूह कैसे बना?

मैंने कभी यह बात स्वीकार नहीं की कि हमारे सामने सीमित संसाधन हैं या सीमित अवसर हैं. काम करने की इच्छा और हुनर होना चाहिए, रास्ते अपने आप खुल जाते हैं. जिन्दगी कभी भी आसान नहीं होती, लेकिन जूझते हैं तो जीतते हैं. मैं सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि अपने जैसी बहुत सारी गरीब औरतों के लिए काम करना चाहती थी. उन्हें आत्मनिर्भर बनाना चाहती थी ताकि जो मेरी ममता के साथ हुआ, वह किसी और औरत के साथ न हो. मैंने अपने गांव की औरतों को ही यह कला नहीं सिखायी, बल्कि आसपास के गांव की औरतों को भी सिखाने लगी. क्षेत्र के काफी गांव हमारे काम से जुड़ गये. हमारे उत्पाद जब मार्केट में आये तो बाड़मेर के ‘ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान’ ने उन्हें काफी सराहा और मुझे अपना सदस्य बनने का प्रस्ताव दिया. 2008 में मैं इस संस्था की सदस्य बन गयी. फिर दो साल में ही मैं संस्था की अध्यक्ष भी चुन ली गयी. यह संस्था महिलाओं को ट्रेनिंग के साथ-साथ मार्केटिंग के गुण भी सिखाती है. इस संस्था से जुड़ने के बाद मुझे बहुत हिम्मत मिली, रास्ते खुले. मैंने कई शहरों में जाकर अपने उत्पाद मंचों पर प्रदर्शित किये और हम अन्तरराष्ट्रीय मंच तक भी पहुंचे. आज हमारे गु्रप की हर सदस्य अपने कौशल से तीन से दस हजार रुपये महीना कमा लेती है. हमारे साथ बाड़मेर की ही नहीं, बीकानेर और जैसलमेर तक की महिलाएं जुड़ी हैं. यह संख्या बढ़ती ही जा रही है.

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– आप आज अंतरराष्ट्रीय मंच पर देश का नाम रौशन कर रही हैं. फैशन वर्ल्ड में आपके नाम और काम का डंका बज रहा है. यह उपलब्धि कैसे हासिल की?

भारत के नीति आयोग द्वारा हमारा बाड़मेर जिला सबसे पिछड़ा क्षेत्र घोषित है. यह एक पुरुष प्रधान समाज है जहां पर्दा प्रथा का पालन करने और अपने घर की दहलीज के भीतर रहने के लिए स्त्रियां मजबूर हैं. लेकिन इतनी ज्यादा गरीबी देखने के बाद और पैसे की तंगी के कारण अपने बच्चे को खोने के बाद काम करने का मेरा संकल्प इतना मजबूत था कि मैं घर-समाज के बंधन तोड़ कर बाहर आयी ताकि अपने परिवार के कल को अच्छा बना सकूं. ‘ग्रामीण विकास चेतना संस्थान’ से जुड़ने के बाद मुझे मार्केटिंग की बातें समझ में आयीं. यहां मैंने ‘फेयर ट्रेड फोरम’ के लिए उत्पाद तैयार किये. धीरे-धीरे हमें हस्तशिल्प समूह के रूप में पहचान मिलने लगी. यहीं मुझे डिजाइनर कपड़ों और फैशन वर्ल्ड के बारे में भी जानकारी मिली, लेकिन मेरे पास डिजाइनिंग की कोई ट्रेनिंग नहीं थी. मैं जिस क्षेत्र में रहती हूं, वहां कोई फैशन इंस्टीट्यूट या कॉलेज भी नहीं है. बड़े शहर हमारे गांव से दूर हैं. लेकिन आगे बढ़ने का मेरा निश्चय दृढ़ था. मैंने साहस करके खुद ही कुछ प्रसिद्ध डिजाइनरों से सम्पर्क किया और उनको अपने उत्पाद दिखाये. उनमें से कुछ डिजाइनर हमारी संस्था के साथ काम करने के लिए तैयार हो गये. वर्ष 2016 में यानी अपना काम शुरू करने के दस साल बाद मैंने पहली बार ‘राजस्थान हेरिटेज वीक कार्यक्रम’ में रैम्प पर मॉडल्स के साथ अपने संग्रह को पेश किया और उनके साथ रैम्प पर भी चली. उस वक्त मैं सचमुच अपने सपने को जी रही थी. उस कार्यक्रम में मेरे द्वारा बनाये कपड़ों को बहुत सराहना मिली. धीरे-धीरे कुछ प्रसिद्ध डिजाइनरों और संस्थाओं ने हस्तनिर्मित कपड़ों और राजस्थानी कढ़ाई के लिए हमसे सम्पर्क करना शुरू कर दिया. हमने जल्दी ही विभिन्न श्रेणियों के अपने उत्पादों की बड़ी श्रृंखला बाजार में उतारी और बहुत बड़े पैमाने पर काम किया. हमारे काम ने इंटरनेशनल फैशन डिजाइनर्स को हमारे गांव तक ला दिया. आज हमें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर सराहा जा रहा है. हमारे राजस्थानी हस्तशिल्प को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली है. लंदन, जर्मनी, सिंगापुर और कोलंबो के फैशन वीक्स में मैं शामिल हो चुकी हूं जहां हमारे उत्पादों का बहुत सुन्दर प्रदर्शन हुआ.

–  इस क्षेत्र में अवार्ड्स की लम्बी सूची आपके नाम है. कुछ विशेष का जिक्र करें.

हां, इस काम के लिए मुझे बहुत सारे अवार्ड्स और सम्मान मिले हैं. सबसे विशेष मार्च 2019 को राष्ट्रपति कोविंद के हाथों नारीशक्ति के लिए सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘नारीशक्ति अवार्ड’ था. दूसरा मैं 6 सितम्बर 2019 का दिन नहीं भूल सकती जब मुझे टीवी शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के कर्मवीर एपिसोड में अमिताभ बच्चन जी के सामने हॉट सीट पर बैठने का अवसर मिला था. इस कार्यक्रम को पूरे देश ने देखा और मेरी कहानी जानी. इंडिया टुडे पत्रिका ने 2018 में अपने एनिवर्सरी एडिशन में मुझे कवर पर स्थान दिया. फिर मुझे ट्राइब इंडिया का ‘गुड विल एम्बेसडर एंड चीफ डिजाइनर’ का अवॉर्ड मिला. 15  फरवरी 2020 को मुझे अमेरिका में कैम्ब्रिज की हावर्ड यूनिवर्सिटी की ओर से 17वें एनुअल इंडिया कॉन्फ्रेंस के लिए पैनल मेम्बर के तौर पर आमंत्रित किया गया है. अभी 7 जनवरी को मुझे ‘जानकी देवी बजाज अवॉर्ड’ दिया गया है, जो महिला उद्यमियों को महिला सशक्तिकरण की दिशा में अच्छा काम करने के लिए दिया जाता है. इनके अलावा भी दस-बारह अवॉर्ड हैं जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर मुझे प्राप्त हुए हैं.

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–  आगे की क्या योजनाएं हैं?

गरीबी ने मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया, पुरुष प्रधान समाज से सवाल करने की हिम्मत दी कि हम औरतें क्यों नही अपने घर-परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए बाहर निकल कर काम कर सकती हैं? आज मैं औरतों को ही नहीं, पुरुषों को भी हस्तशिल्प का प्रशिक्षण दे रही हूं. हम अलग-अलग कौशल उन्नयन कार्यशालाओं का आयोजन करते हैं. आत्महत्या और कन्या भ्रूण को मां के पेट में ही मारने जैसे समाज के बुरे कार्यों के खिलाफ हम सेमिनार आयोजित करते हैं ताकि अपने क्षेत्र की महिलाओं को जागृत कर सकें, उनमें उत्साह पैदा कर सकें और उन्हें आत्मनिर्भर बना सकें. छोटे पैमाने पर अपने उद्यम कैसे स्थापित करने हैं, स्व सहायता समूहों के माध्यम से पैसा कैसे पैदा करना है, सरकार की किन योजनाओं के तहत उन्हें वित्तीय सहायता मिल सकती है, यह सारी जानकारियां हम इन कार्यक्रमों के जरिए राजस्थान के दूर-दराज के गांवों तक पहुंचाते हैं और महिलाओं को रोजगार से जुड़ने के लिए प्रेरित करते हैं. मैं ग्रामीण महिलाओं के बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं के लिए भी कुछ करना चाहती हूं. उनके बच्चों के बेहतर कल का सपना जो उनकी आंखों में है, उसे मैं पूरा करना चाहती हूं.

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