भावनाओं के सहारे रणनीतिक साझेदारी नहीं घिसटती, छोटे नेपाल को क्या बड़ा दिल दिखाएगा भारत

बात चौंकाने वाली है और नहीं भी. भारत-नेपाल सीमा पर 12 जून, 2020 को हुई फ़ायरिंग की घटना में एक भारतीय युवक की मौत हो गई, जबकि 3 घायल हो गए.

चौंकाने वाली इसलिए है कि नेपाल और भारत का बौर्डर हमेशा से शांत रहा है. यह भारत-पाकिस्तान, भारत-चीन और यहां तक कि भारत-बंगलादेश जैसा बौर्डर नहीं रहा. इस सीमा से झड़प होने की ख़बर का आना नई बात है. मगर, चौंकाने वाली बात इसलिए नहीं है कि हालिया वर्षों में भारत के पड़ोसी देशों में हालात बहुत तेज़ी से बदलते गए हैं. भारत के क़रीबी घटक समझे जाने वाले देशों को चीन की ओर तेज़ी से झुकते देखा जा रहा है.

भारत व चीन के बीच विवाद अभी पूरी तरह थमा नहीं है कि इसी बीच नेपाल सीमा पर भी बवाल हो गया है. ‘रोटी-बेटी’ के साथ वाले नेपाल में भारतविरोध की आंच तेज हो गई है. लिंपियाधुरा, लिपुलेख और कालापानी को ले कर दोनों देशों के बीच विवाद गहराता जा रहा है.

गौरतलब है कि पिछले 200 वर्षों से लिपुलेख से ले कर लिंपियाधुरा को नेपाल अपना क्षेत्र मानता रहा है. नेपाल ने अपने देश के ताजा नकशे में लिंपियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख को नेपाल की महाकाली नदी की पश्चिमी सीमा में दिखाया है. जबकि, भारत सरकार ने नवंबर 2019 में अपना नया राजनीतिक नकशा जारी किया था. भारत यह दावा करता रहा है कि नेपाल से उस की सीमा लिपुलेख के बाद शुरू होती है.

बात नेपाल की :

नेपाल की अगर बात की जाए तो इस देश में चीन ने व्यापकरूप से विकास परियोजनाओं में हिस्सा लिया है और बड़े पैमाने पर निवेश किया है. चीन अपनी बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) में नेपाल को ख़ास महत्त्व देता है और इसीलिए वह नेपाल में भारत के मुक़ाबले अधिक आक्रामक रूप से निवेश कर रहा है. नतीजा यह हुआ कि चीन धीरेधीरे नेपाल की ज़रूरत बनता जा रहा है. वहीं, नेपाल इस दौरान भारत से दूर हुआ है. नेपाल के नए संविधान के ख़िलाफ़ मधेसियों के प्रदर्शनों के समय भारत और नेपाल के बीच खाई साफ़ नज़र आई भी थी.

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भारत की नीति :

दरअसल, भारत ने नेपाल को ले कर जो रणनीति बनाई थी वह कई दशकों से उपयोगी साबित होती रही, हालांकि, इस रणनीति में नेपाल के माओवादियों को हद से ज़्यादा हाशिए पर रखा गया था. मगर हालिया दशकों में चीन की आर्थिक और तकनीकी शक्ति में हैरतअंगेज़ विस्तार होने के बाद समीकरण बदल गए. इस बदलाव के नतीजे में नेपाल के माओवादियों का देश की राजनीतिक व्यवस्था में रसूख़ कई गुना बढ़ गया. सो, भारत की कई दशकों की कामयाब रणनीति लंगड़ाने लगी क्योंकि इस नई परिस्थिति के बारे में शायद भारतीय नीतिनिर्धारकों को पहले से अंदाज़ा नहीं हो सका और अगर हुआ भी, तो उन के सामने देश के भीतर चल रहे माओवादी आंदोलनों के कारण शायद बहुतकुछ करने की गुंजाइश नहीं थी.

चीन की रणनीति :

नेपाल की कहानी कुछ बुनियादी फ़र्क़ के साथ भारत के कुछ दूसरे पड़ोसी देशों में भी दोहराई गई है और कुछ दूसरे पड़ोसी देशों में भी वही कहानी दोहराए जाने की संभावना है क्योंकि चीन ने इन पड़ोसी देशों के लिए बिलकुल अलग रूपरेखा वाली रणनीति तैयार की है जिस में भारत की पकड़ को कमज़ोर करने पर ख़ास तवज्जुह है.

चीन की इस रणनीति के चलते श्रीलंका के राजनीतिक और कूटनीतिक समीकरणों में बदलाव दिखाई दे रहा है. म्यांमार में भारत को ले कर तो कोई बदलाव ज़ाहिर नहीं हो रहा है मगर इस देश में भी चीन की पैठ ज़्यादा है. बंगलादेश के गठन में भारत की केंद्रीय भूमिका रही है, मगर इस देश में भी चीन का रसूख़ तेज़ी से बढ़ा है. मालदीव से भारत के रिश्ते ठीक हैं लेकिन जब बात चीन की आएगी तो वह भी उधर ही झुकता नजर आएगा क्योंकि चीन से उस के रिश्ते भारत से बेहतर हैं, ऐसा माना जाता है.

लब्बोलुआब यह है कि केवल सांस्कृतिक व सामाजिक समानताओं और संयुक्त कल्चर के सहारे रणनीतिक साझेदारी को ज़्यादा समय तक आगे नहीं घसीटा जा सकता, बल्कि नए सिरे से रणनीति बनानी पड़ेगी और इस के लिए सोच व दृष्टिकोण बदलना पड़ेगा. मौजूदा हालात के मद्देनजर क्या भारत की मौजूदा सरकार का सीना वास्तव में 56 इंच का होगा ? उत्तर प्रदेश सरकार के मुखिया योगी आदित्यनाथ ने तिब्बत का हवाला दे कर नेपाली प्रधानमंत्री ओली को चिढ़ाने की जो कोशिश की है, वह तो ख़तरनाक कदम है.

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विश्व परिप्रेक्ष्य में भारतीय विश्वविद्यालय

उच्च शिक्षा प्राप्त करना हर किसी का सपना होता है. इसे प्राप्त करने के लिए युवा अच्छे से अच्छे विश्वविद्यालय में दाखिला लेने की ख्वाहिश रखते हैं. जो आर्थिक दृष्टि से सक्षम हैं, वे दुनिया के शीर्ष विश्वविद्यालयों में से चयन कर वहां शिक्षा प्राप्त करते हैं. शेष को अपने ही देश के विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने में संतुष्ट होना पड़ता है.

यदि शीर्ष 10 विश्वविद्यालयों की बात करें तो इन में पहले स्थान पर औक्सफोर्ड विश्वविद्यालय का नाम है. इस के बाद क्रमश: कैलिफोर्निया इंस्टिट्यूट औफ टैक्नोलौजी, कैंब्रिज विश्वविद्यालय, स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय, मैसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट औफ टैक्नोलौजी, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, येल यूनिवर्सिटी, शिकागो विश्वविद्यालय और इंपीरियल कालेज आते हैं.

यूनाइटेड किंगडम की राजधानी लंदन के विश्वविद्यालयों की चमक इस रैंकिंग में साफ दिखती है. शीर्ष 40 में इस के 4 विश्वविद्यालय शामिल हैं.

ग्लोबल रैंकिंग 2020 की टौप 300 की लिस्ट में भारत की एक भी यूनिवर्सिटी शामिल नहीं है. 2012 के बाद ऐसा पहली बार हुआ है जब भारत की कोईर् भी यूनिवर्सिटी इस लिस्ट में जगह नहीं बना पाई है. हालांकि ओवरऔल रैंकिंग में पिछले साल के मुकाबले भारतीय विश्वविद्यालयों की संख्या इस बार ज्यादा है. 2018 में जहां 49 संस्थानों को इस सूची में स्थान मिला था, वहीं इस बार 56 संस्थान इस सूची में स्थान बनाने में सफल रहे हैं.

भारत के इंडियन इंस्टिट्यूट औफ साइंस, बेंगलुरु ने टौप 350 में जगह बनाई है. दूसरी ओर, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रोपड़ भी इस बार टौप 350 रैंकिंग में पहुंच गया है.

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शीर्ष 500 में जरूर 6 भारतीय विश्वविद्यालय शामिल हैं. 92 देशों के 1,396 विश्वविद्यालय इस रैंकिंग में शामिल किए गए. देश के 7 विश्वविद्यालय सूची में नीचे शामिल हैं. ज्यादातर भारतीय विश्वविद्यालयों की रैंकिंग स्थिर है. हालांकि आईआईटी दिल्ली, आईआईटी खड़गपुर और जामिया मिलिया इस्लामिया दिल्ली की स्थिति सुधरी है. लेकिन जब अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इन की तुलना की जाती है, तो इन का प्रदर्शन फिसड्डी साबित होता है.

रैंकिंग देते समय शिक्षण, रिसर्च, नौलेज ट्रांसफर और इंटरनैशनल आउटपुट शामिल किए गए थे. प्रदर्शन के 13 मानकों पर इस का आकलन किया गया, जबकि शैक्षणिक स्तर के आधार पर उन की रैंक तय की जाती है.

भारतीय विश्वविद्यालयों का स्तर किसी से छिपा नहीं है. देश में कितने विश्वविद्यालय ऐसे हैं जिन पर गर्र्व किया जा सके? ज्यादातर सामान्य स्तर के ही हैं और कुछ का स्तर तो अत्यंत घटिया है. यही नहीं, देश में अनेक फर्जी विश्वविद्यालय और संस्थान भी चल रहे हैं, जो युवकों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं.

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी ने 23 फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची जारी कर छात्रों को इन में दाखिला नहीं लेने के लिए आगाह किया है.

यूजीसी के अनुसार, छात्रों तथा आम लोगों को सूचित किया जाता है कि देश के विभिन्न हिस्सों में यूजीसी एक्ट का उल्लंघन कर इस समय 23 स्वयंभू तथा गैरमान्यताप्राप्त संस्थान चल रहे हैं. उन में से उत्तर प्रदेश में 8, दिल्ली में 7 तथा केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र और पुद्दुचेरी में एकएक फर्जी विश्वविद्यालय हैं.

गैरमान्यताप्राप्त विश्वविद्यालयों के नाम हैं – वाराणस्य संस्कृत विश्वविद्यालय (वाराणसी), महिला ग्राम विद्यापीठ विश्वविद्यालय (प्रयागराज), गांधी हिंदी विद्यापीठ (वाराणसी), नैशनल यूनिवर्सिटी औफ इलैक्ट्रो कौम्प्लैक्स होमियोपैथी (कानपुर), नेताजी सुभाषचंद्र बोस ओपन यूनिवर्सिटी (अलीगढ़), उत्तर प्रदेश विश्वविद्यालय (मथुरा), महाराणा प्रताप शिक्षा निकेतन विश्वविद्यालय (प्रतापगढ़) तथा इंद्रप्रस्थ शिक्षा परिषद (नोएडा). दिल्ली के कौर्मिशियल यूनिवर्सिटी लि., यूनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी, वोकेशनल यूनिवर्सिटी, एडीआर सैंटिक जूरिडिकल यूनिवर्सिटी, इंडियन इंस्टिट्यूशन औफ साइंस ऐंड इंजीनियरिंग, आध्यात्मिक विश्वविद्यालय तथा विश्वकर्मा ओपन यूनिवर्सिटी फौर सेल्फएम्प्लायमैंट शामिल हैं.

यूजीसी की इस सूची में बडागान्वी सरकार वर्ल्ड ओपन यूनिवर्सिटी एजुकेशन सोसायटी (कर्नाटक), सेंट जौंस यूनिवर्सिटी (केरल), राजा अरैबिक यूनिवर्सिटी (महाराष्ट्र) तथा श्री बोधि एकेडमी औफ हायर एजुकेशन (पुद्दुचेरी) के भी नाम हैं.

इन के अलावा पश्चिम बंगाल तथा ओडिशा में भी 2-2 फर्जी विश्वविद्यालय- इंडियन इंस्टिट्यूट औफ आल्टरनेटिव मैडिसिन, इंस्टिट्यूट औफ आल्टरनेटिव मैडिसिन ऐंड रिसर्च, नवभारत शिक्षा परिषद तथा नौर्थ ओडिशा यूनिवर्सिटी औफ एग्रीकल्चर ऐंड टैक्नोलौजी को भी फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची में शामिल किया गया है. भारतीय शिक्षा परिषद, लखनऊ का मामला अभी न्यायाधीन है.

एक विश्वविद्यालय के अंतर्गत सैकड़ों कालेजों की मान्यता देने की मौजूदा व्यवस्था पर केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय को अनियमितताओं की रिपोर्ट मिली है.

लिहाजा, मंत्रालय इस व्यवस्था को बदलने पर विचार कर रहा है. मंत्रालय एक विश्वविद्यालय के तहत 100 कालेजों को मान्यता देने की संख्या तक सीमित करना चाहता है. इस के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम में बदलाव करने की बात चल रही है. मंत्रालय ने इस के लिए राज्यों और सभी विश्वविद्यालयों को चिट्ठी लिखी है.

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अधिकारियों का कहना है कि कालेजों की संख्या घटाने के पीछे का मकसद यही है कि हर कालेज पर निगरानी रखी जाए और उन की शिक्षा का गुणवत्ता स्तर सुधरे. दरअसल, एक अध्यापक का कई कालेजों में पढ़ाने या कुछ कालेजों में तो फर्जी तरीके से अध्यापकों की नियुक्ति दिखाने के मामले सामने आए हैं. मंत्रालय को मिली आंतरिक रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तर प्रदेश में आगरा और कानपुर के विश्वविद्यालयों में हजार से ऊपर कालेजों को मान्यता दी गई है, जिस से कालेजों के कामकाज पर निगरानी रखना कठिन हो रहा है और इस से छात्रों का काफी नुकसान हो रहा है.

केंद्र सरकार देश में नई शिक्षा नीति लाने जा रही है. इस का ड्राफ्ट नोटिफिकेशन जारी कर सुझाव व आपत्तियां मंगाई गई हैं. नई नीति के तहत कालेजों को डिग्री देने का अधिकार मिल जाएगा. हालांकि, इस के लिए उन्हें कई मानकों का कड़ाई से पालन करना होगा. वहीं, विश्वविद्यालय भी 2 प्रकार के हो जाएंगे. अनुसंधान (रिसर्च) के लिए अलग विश्वविद्यालय होंगे, जबकि शिक्षा के अलग विश्वविद्यालय होंगे. इन के पास स्नातकोत्तर कराने के अधिकार होंगे.

ड्राफ्ट नोटिफिकेशन के मुताबिक, वर्तमान व्यवस्था में कालेजों को विश्वविद्यालय से संबद्धता लेनी होती है. विश्वविद्यालय ही उन के यहां परीक्षा करवाता है और रिजल्ट व डिग्री जारी करता है. नई नीति के बाद कालेज स्वायत्त हो जाएंगे. उन्हें खुद ही परीक्षा करवाने, मार्कशीट और डिग्री जारी करने के अधिकार मिल जाएंगे. लेकिन कालेज केवल स्नातक कोर्स ही करवा सकेंगे.

सस्ते सरकारी मकान शहरी रिहाइश में क्रांति ला सकते हैं

भारत में तमाम किस्म के माफिया हैं,जिनका किसी न किसी रूप में जिक्र होता रहता है. लेकिन भारतीय शहरों में एक बहुत बड़ा किराया माफिया है,जिसका आमतौर पर जिक्र नहीं होता. हालांकि यह इतना लाउड तो नहीं है कि इसका जिक्र हिंदी फिल्मों के विलेन के रूप में हो पर आंकड़ों की जमीन पर उतरकर देखें तो यह बहुत निर्णायक है. इस किराया माफिया की वजह से शहरों में रह रहे 16 से 20 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से ऊपर नहीं उठ पाते. इस माफिया की बदौलत भारत में उच्च शिक्षा 10-15 प्रतिशत महंगी है. यह किराया माफिया हर महीने 16 से 20,000 करोड़ रूपये की उगाही करता है; क्योंकि भारत की 28 प्रतिशत शहरी आबादी किराए में रहती है, जिसमें 5 प्रतिशत शहरों में उच्च शिक्षा हासिल कर रहे छात्र भी हैं.

पिछले दिनों वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने शहरों में मजदूरों तथा दूसरे आम लोगों के लिए जिस सस्ते सरकारी मकानों (पीपीपी योजना के तहत) के बनाने की सरकार की मंशा जाहिर की है, वह योजना आधी भी जमीन में उतर जाए तो कई करोड़ लोग खुशहाल हो जाएं. कम से कम गरीबी रेखा से तो ऊपर आ ही सकते हैं. सस्ते सरकारी या अर्धसरकारी मकान शहरी जीवन में क्रांति ला सकते हैं. क्योंकि शहरों में विशेषकर भारत के महानगरों और मझोले शहरों में एक बड़ी आबादी है जो जितना कमाती है, उसमें से 50 फीसदी से ज्यादा मकान के किराये में खर्च कर देती है. हालांकि यह बात भी सही है कि हिंदुस्तान में आजादी के बाद साल दर साल शहरों में चाहे वे छोटे शहर हों या बड़े किराये में रहने वाले लोगों की संख्या में कमी आयी है. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि साल 1961 में जब भारत में पहली बार बड़े पैमाने पर यह सर्वेक्षण हुआ कि शहरों में रहने वाले कितने लोगों के अपने निजी मकान है, उस दौरान सिर्फ 46 फीसदी लोग ही शहरों में ऐसे थे, जिनके पास अपने मकान थे, वरना तो ज्यादातर लोग पीढ़ी दर पीढ़ी किराये के मकानों में रहा करते थे.

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हिंदुस्तान का एक भी ऐसा बड़ा शहर नहीं है, जहां किरायदारों की एक लंबी और पुरानी संस्कृति मौजूद न हो. खासकर जो शहर आज से 40-50 साल पहले हिंदुस्तान में बड़े औद्योगिक शहर थे, वहां तो किरायेदारी का चलन बहुत व्यवस्थित ढंग से शुरु हुआ था और फल-फूल रहा था. कानपुर और कलकत्ता ये दो ऐसे शहर हैं, जहां 50 साल पहले तक 60 फीसदी से ज्यादा लोग किराये के घरों में रहा करते थे. बड़े बड़े साहूकार और सेठ एक स्थायी आय के लिए जिस कारोबार पर सबसे ज्यादा भरोसा करते थे, वह कारोबार किराये के लिए मकान बनवाने का था. यूं तो पूरे देश में यह कारोबार खूब फलफूल रहा था, लेकिन उन दिनों इन दो शहरों में तो किरायेदारों को ध्यान में रखकर ही हजारों मकान निर्मित हुए थे, जिन्हें हाता या मैसन अथवा बाड़ा कहा जाता था.

किराये के लिए निर्मित होने वाले इन बड़े मकानों में चाहे उन्हें हाता कहें, मैसन कहें, हवेली कहें, बाडा कहें या छत्ता कहें. सबके नाम भले अलग अलग होते रहे हों, लेकिन उनकी डिजाइन, उनकी संरचना करीब करीब एक जैसी होती थी. एक बड़े से प्लाॅट में एक बड़ा सा आंगन निकाला जाता था और उस आंगन के चारों तरफ सैकड़ों छोटे छोटे माचिस के डिब्बों की तरह एक एक कमरे के सैट बनाये जाते थे. इन बहुमंजिला मकानों में कई लोग तो चार चार, पांच पांच, छह छह पीढ़ियों तक रहा करते थे. यहां लोगों का आपस में बिल्कुल गांवों जैसा भाईचारा होता था और हां, इस सबके बीच यह बात भी सही है कि उन दिनों इन मकानों का किराया भी काफी कम या कहें जैनुइन हुआ करता था, जिससे लोग पीढ़ी दर पीढ़ी किराये के मकान में गुजार देते थे.

लेकिन 80 के दशक के बाद जब भारत में आर्थिक सुधारों की धीरे धीरे शुरुआत हुई और 90 के दशक के बाद इन सुधारों को पंख लगाये गये, तब पारंपरिक किराये के मकान और पारंपरिक किरायेदारी में तो कमी आने लगी और एक स्तर पर आकर यह खत्म भी हो गई. लेकिन इसके बाद शहरों में किरायेदारी का एक नया युग शुरु हुआ. चूंकि अब पारंपरिक कामकाज बदल चुके थे. बड़ी बड़ी मिलें नहीं रह गयी थीं, जहां हजारों लोग एक साथ काम करते और करीब करीब एक साथ रहना पसंद करते थे. साथ ही उन दिनों चूंकि नौकरीपेशा लोगांे की तनख्वाहें भी काफी कम थीं, इसलिए किराये के लिए सस्ते मकान बनाये जाते थे, भले उनमें उसी स्तर की सुविधाएं रहती हों.

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मगर जब 90 के दशक के मध्य और उत्तरार्ध में लोगों की तनख्वाहें बढ़ीं, सरकारी कर्मचारियों को पांचवे वेतन कमीशन की सिफारिशों के चलते नये वेतनमान दिये गये और विदेशी निवेश के कारण भारत में बड़े पैमाने पर निजी क्षेत्रों का विकास हुआ तो लोगों की तनख्वाहें अच्छी खासी बढ़ गईं. नतीजतन किराये का मकान चाहने वालों की ख्वाहिशें और हैसियत भी बढ़ीं. यहां से किरायादारी का एक नया युग शुरु होता है, जब किराये के लिए सुविधा सम्पन्न फ्लैट बनाये जाने का चलन शुरु हुआ और इनका अच्छा खासा किराया वसूला जाने लगा. एक वर्ग ऐसा था जिसे अच्छे किराये के मकानों के लिए अच्छा किराया देने में कोई परेशानी नहीं थी.

लेकिन इस वर्ग के चलते एक बहुत बड़े वर्ग को इस चलन ने पीस दिया. शहरों में सस्ते मकान मिलना दुलर्भ हो गये और आम नौकरीपेशा लोगों की तनख्वाहें किरायेदारी में आधी से ज्यादा खर्च होने लगीं. आज की स्थिति यही है, लेकिन अगर सरकार कोरोना संक्रमण के बाद देश के बड़े महानगरों में किराये के लिए सस्ते मकानों को बनाने या पहले से बने मकानों को इस योजना में शामिल करने की शुरुआत करती है, तो यह एक अच्छी पहल होगी. सबसे बड़ी बात यह है कि शहरों में आम लोगों के लिए रहना मुश्किल नहीं रह जायेगा. एक और बात यह भी कि आज मुंबई जैसे शहर में जहां एक एक फ्लैट में 10-10 लोग रह रहे हैं, उस स्थिति से भी छुटकारा मिलेगा. कुल मिलाकर भले यह एक त्रासदी के दौरान राहत पैकेज के रूप में शुरु की जा रही योजना हो, लेकिन अगर इसे सफलतापूर्वक लागू किया गया तो इससे शहरी रहिवास की कायापलट हो जायेगी.

#lockdown: कोरोना ने बढ़ाया डिस्टेंस एजुकेशन का महत्व

 यूं तो दूरस्थ शिक्षा या डिस्टेंस एजुकेशन की महत्ता कई दशक पहले ही स्थापित हो गई थी. सच बात तो यह है कि भारत जैसे देश में जहां आज भी बमुश्किल 11-12 प्रतिशत लोगों को ही नियमित उच्च शिक्षा नसीब होती है, वहां दूरस्थ शिक्षा या डिस्टेंस एजुकेशन ही आम लोगों के लिए उच्च शिक्षा का एकमात्र माध्यम है. लेकिन जिस तरह से कोरोना का कहर लोगों की सदेह मौजूदगी पर टूटा है, उसके चलते, तो फिलहाल दूरस्थ शिक्षा या जिसे आजकल आनलाइन एजुकेशन कहना ज्यादा आसान हो गया है, लगभग अनिवार्य हो गई है. सिर्फ हिंदुस्तान में ही नहीं इस समय पूरी दुनिया में शिक्षा महज आनलाइन एजुकेशन के रूप में ही मौजूद है.

वैसे तो आनलाइन एजुकेशन धीरे-धीरे यूं भी विश्वसनीय हो चुकी है, बशर्ते आपके पास विश्वसनीय और सुरक्षित ब्राडबैंड यानी इंटरनेट कनेक्शन उपलब्ध हो. साथ ही  तमाम साफ्टवेयर और साफ्ट एजुकेशन प्रोडक्ट भी हों जिनके जरिये यह शिक्षा संभव होती है. इन संसाधनों के बाद आनलाइन या दूरस्थ शिक्षा इन दिनों सर्वाधिक विश्वसनीय हो चुकी है. भारत में आधुनिक शैक्षिक परिदृश्य में लगातार आनलाइन एजुकेशन का दायरा भी बढ़ रहा है और इसका टर्नओवर भी. केपीएमजी और गूगल द्वारा किये गये एक साझे अध्ययन के मुताबिक जिसका शीर्षक है, ‘आनलाइन एजुकेशन इन इंडिया: 2021’, भारत में आनलाइन शिक्षा का बाजार अगले साल यानी 2021 तक 1.6 अरब डालर का हो जायेगा. इस समय देशभर में 96 से ज्यादा पाठ्यक्रम मौजूद हैं और 9 लाख से ज्यादा छात्र इस माध्यम के जरिये पढ़ाई कर रहे हैं.

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गौरतलब है कि यह तमाम आंकड़े कोरोना वायरस के संक्रमण के पहले के हैं. जिस किस्म से कोरोना ने हिंदुस्तान सहित पूरी दुनिया के 70 फीसदी से ज्यादा लोगों को घरों के भीतर रहने के लिए बाध्य कर दिया है, उससे भले बाकी रोजगार मुश्किल में पड़े हों, लेकिन आनलाइन एजुकेशन हर गुजरते दिन के साथ बढ़ रही है और आगे भी बढ़ेगी. भारत की आबादी 1 अरब 30 करोड़ से ज्यादा है और हमारे यहां चीन के बाद सबसे ज्यादा एंड्रोएड फोन उपलब्ध हंै. कहने का मतलब हिंदुस्तान में आनलाइन एजुकेशन की भरपूर परिस्थितियां और इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद है. इस वजह से अगर उच्च शिक्षा के अगले सत्र तक भारत में डिस्टेंस एजुकेशन या आनलाइन एजुकेशन का टर्नओवर 100 प्रतिशत से भी ज्यादा बढ़ जाये, तो इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं होगा. यह कोविड-19 के प्रकोप का नतीजा ही है कि सिंगापुर की प्रौद्योगिकी कंपनी लार्क टेक्नोलाजीज पीटीई लिमिटेड ने हिंदुस्तान में अपना डिजिटल क्लोबरेशन सूट लार्क उपलब्ध करा दिया है.

यह आल इन वन प्लेटफाम है, जो कई टूल जैसे मैसेंजर, आनलाइन डाक्स और शीट्स क्लाउज स्टोरेज, कैलेंडर एवं वीडियो कान्फ्रेंसिंग एक साथ पेश करता है. यह सेवा भारत में शैक्षिक संस्थानों जैसे- स्कूल, कालेज एवं कोचिंग क्लासेस में शुरु की गई है जिससे शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच दूरस्थ लर्निंग या आनलाइन एजुकेशन संभव हो सके. लेकिन कोरोना के पहले भी दूरस्थ या आनलाइन शिक्षा महत्वपूर्ण हो चुकी थी. इसकी कई वजहें रही हैं. मसलन- इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी, गरीबी, महंगाई, एडमिशन में मुश्किल तथा कम नंबर आदि… इन तमाम वजहों के चलते हर साल बड़े पैमाने पर हिंदुस्तानी छात्र नियमित उच्च शिक्षा के लिए मन मसोसकर रह जाते हैं. इसी वजह से पिछले तीन दशकों में लगातार दूरस्थ शिक्षा, डिस्टेंस एजुकेशन या अब आनलाइन एजुकेशन का महत्व बढ़ा है.

हालांकि यह भी सही है कि लम्बे समय तक भारत में दूरस्थ शिक्षा को बहुत अच्छा नहीं समझा जाता था. लोगों के दिमाग में यह रहता था कि इसकी मान्यता नियमित माध्यम से कम है. लेकिन बदलते वक्त के साथ अब समाज में भी बदलाव आया है और समझ में भी. यही वजह है कि आज भारतीय समाज पत्राचार को पूरी तरह से स्वीकार कर चुका है. इस माध्यम के साथ एक और अच्छी बात हुई है कि एक जमाने में जहां पत्राचार माध्यम से पढ़ाई महज कॉरेसपॉन्डेंस मटीरियल तक ही सीमित थी वहीं आज यह तमाम सुविधाजनक तकनीकों से जुड़ चुकी है जो इसे पहले से कहीं ज्यादा ठोस, व्यवहारिक और जेनुइन बनाती हैं.  मसलन अब टेलीकांफ्रेंसिंग और टेलीक्लासेज के चलते दूरस्थ शिक्षा महज पत्राचार के जरिये पढ़ाई नहीं रह गयी बल्कि यह एक जीवंत अनुभव बन चुकी है. बावजूद इसके कि दूरस्थ शिक्षा में नियमित संस्थान न जाने और अपनी सुविधा के मुताबिक समय में पढ़ने की छूट पहले की तरह मौजूद है. इस माध्यम में विद्यार्थी को नियमित तौरपर संस्थान में जाकर पढ़ाई करने की जरूरत नहीं होती है. हर कोर्स के लिए क्लासेज की संख्या तय होती है और देश भर के कई सेंटरों पर उनकी पढ़ाई होती है. विजुअल क्लासरूम लर्निंग, इंटरैक्टिव ऑनसाइट लर्निंग और वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए विद्यार्थी देश के किसी भी कोने में रहकर घर बैठे पढ़ाई कर सकते हैं. वे अपनी जरूरत के अनुसार अपने पढ़ने की समय-तालिका भी बना सकते हैं.

डिस्टेंस एजुकेशन काउंसिल के मुताबिक आगामी पांच सालों में देश के उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिले के प्रतिशत को 10 से 15 प्रतिशत करने के राष्ट्रीय लक्ष्य को पूरा करने में दूरस्थ शिक्षा का योगदान उल्लेखनीय होगा. डिस्टेंस लर्निंग एजुकेशन की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उच्च शिक्षा हासिल कर रहा आज हर पांच विद्यार्थियों में से एक दूरस्थ शिक्षण प्रणाली का ही विद्यार्थी है. समाज के सभी तबकों को समान शिक्षा दिए जाने की जो बात हम करते हैं, वह वास्तव में आज दूरस्थ शिक्षा से ही संभव होता दिख रहा है. पत्राचार माध्यम या कहें दूरस्थ का वास्तविक प्रचार, प्रसार और विस्तार मुक्त विश्वविद्यालयों के चलते हुआ है. वास्तव में ओपन या मुक्त विश्वविद्यालय ऐसे होते हैं जो दूरस्थ शिक्षा के उद्देश्य से ही स्थापित किये जाते हैं. ऐसे विश्वविद्यालय भारत, ब्रिटेन, जापान तथा अन्य तमाम देशों में कार्य कर रहे हैं. इन विश्वविद्यालयों में प्रवेश/नामांकन की नीति खुली या शिथिल होती है अर्थात विद्यार्थियों को अधिकांश स्नातक स्तर के प्रोग्रामों में प्रवेश देने के लिये उनके पूर्व शैक्षिक योग्यताओं की जरूरत का बन्धन नहीं लगाया जाता.

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भारत में 14 मुक्त या खुले विश्वविद्यालय हैं. इसके अलावा 75 नियमित विश्वविद्यालय और कई अन्य संस्थाएं भी हैं जो दूरस्थ अध्ययन या आनलाइन एजुकेशन कार्यक्रम चलाते हैं. दूरस्थ शिक्षा पद्धत्ति कई श्रेणियों के शिक्षार्थियों, के लिए अनुकूल होती है. मसलन

(क) देरी से पढ़ाई शुरू करने वालों को

(ख) जिनके घर के पास उच्चतम शिक्षा साधन नहीं है,

(ग) नौकरी कर रहे लोगों को तथा

(घ) अपनी शैक्षिक योग्यताएं बढ़ाने के इच्छुक व्यक्तियों को लाभ प्रदान कर रही है.

दरअसल खुले विश्वविद्यालय ऐसे लचीले पाठ्यक्रम विकल्प देते हैं, जिन्हें वे प्रवेशार्थी भी ले सकते हैं जिनके पास कोई औपचारिक योग्यता नहीं है किंतु अपेक्षित आयु (प्रथम डिग्री पाठ्यक्रमों के लिए 18 वर्ष) के हो चुके हैं. साथ ही लिखित प्रवेश परीक्षा भी उत्तीर्ण कर चुके हैं. ये पाठ्यक्रम छात्र की सुविधानुसार भी लिए जा सकते हैं. अधिकांश अध्यापन-अध्ययन प्रक्रिया में मुद्रित अध्ययन सामग्री तथा नोडल केंद्रों पर मल्टीमीडिया सुविधा सेट-अप या दूरदर्शन अथवा रेडियो नेटवर्क के माध्यम से अध्यापन शामिल होता है. ये विश्वविद्यालय स्नातक पाठ्यक्रम, स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम, एम.फिल, पी.एच.डी. तथा डिप्लोमा एवं प्रमाण पत्र पाठ्यक्रम भी चलाते हैं, जिनमें से अधिकांश पाठ्यक्रम कॅरिअर उन्मुखी होते हैं. उच्च शिक्षा के पत्राचार माध्यम ने देश की शिक्षा-प्रणाली में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन ला दिया है.

देश के कुछ मशहूर दूरस्थ शिक्षा देने वाले संस्थान-

– अन्नामलाई यूनिवर्सिटी, तमिलनाडु

– अल्गपा यूनिवर्सिटी कराईकुडी, तमिलनाडु

– गोवाहटी यूनिवर्सिटी, असम

– डिब्रूगढ़ यूनिवर्सिटी, असम

– गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी, दिल्ली

– इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी, दिल्ली

– गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद, गुजरात

– हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी शिमला, हिमाचल प्रदेश

– ईएफएल यूनिवर्सिटी हैदराबाद, तेलंगाना

– इंडियन मैनेजमेंट स्कूल एंड रिसर्च सेंटर, मुंबई

– इंडियन इंस्टीट्यूट औफ टेक्नोलौजी इंदौर, मध्य प्रदेश

– अक्षय कालेज औफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलाजी, तमिलनाडु

– यूरोपियन इंस्टीट्यूट औफ मैनेजमेंट एंड टेक्नोलाजी त्रिवेंद्रम, केरल

– एकेएस यूनिवर्सिटी, मध्य प्रदेश

– चैधरी किरण सिंह इंस्टीट्यूट औफ टेक्नोलाजी, उत्तर प्रदेश

– ईस्टर्नगाइड औफ ट्रेनिंग एंड स्टडी, वेस्ट बंगाल

– इंडियन इंस्टीट्यूट औफ इगल, वेस्ट बंगाल

यह कुटिल चाल है

छोटे रेस्तराओं और छोटे हलवाइयों का बिजनैस चौपट कर के एकछत्र राज कायम करने की तरकीब में फूड डिलिवरी प्लैटफौर्म स्वीगी और जोमैटो कोई सेवा नहीं कर रहे. यह एक कुटिल चाल है. पहले लोगों को समय पर खाना पहुंचा कर कैशबैक का औफर दे कर घर बैठे गरमगरम खाना भिजवा कर वह भी सस्ते में इन छोटे रेस्तराओं और हलवाइयों का दिवाला निकलवाया जाएगा और फिर टैलीकौम सेवाओं की तरह दाम बढ़ा दिए जाएंगे.

स्वीगी को 2018-19 में ₹2,364 करोड़ का घाटा हुआ और जोमैटो को ₹2,026 करोड़ का. यह भुगतान वे विदेशी कंपनियां कर रही हैं जो घरों पर कब्जा करने के लिए, लोगों के खाने में बदलाव लाने के लिए नए सिरे से टेस्ट बड तैयार करने के लिए सस्ते में सुलभ खाना दे रही हैं.

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स्वीगी आज देश के 500 शहरों में खाना सप्लाई करती है. 1 साल में 50 करोड़ और्डर लेती है. कौन सा रेस्तरां और हलवाई इस तरह के टैंकों की फौज का मुकाबला कर सकता है? हर रेस्तरां, हर हलवाई, हर घरेलू खाना बनाने वाली को कब्जे में ले कर, उन पर अपनी शर्तें थोप कर एक तरफ वे उन्हें लूटेंगी और जब कंपीटिशन नहीं रहेगा तो ग्राहकों को लूटेंगी.

बैंकों ने कै्रडिट कार्डों में यही किया है. पहले बड़े लुभावने विज्ञापन दिए कि क्रैडिट कार्ड के फायदे ही फायदे हैं. करोड़ों ने क्रैडिट कार्ड ले लिए, अब उन्होंने सरकार को भी फांस लिया जिस ने भुगतान क्रैडिट कार्ड से ही जबरदस्ती कराना शुरू कर दिया. एक बार क्रैडिट कार्ड की आदत पड़ी नहीं कि उन्होंने शर्तें थोपनी शुरू कर देती हैं. ₹10 कम रह जाएं तो ₹50 रुपए का जुरमाना वसूल कर लेती हैं क्रैडिट कार्ड कंपनियां.

इसी तरह स्वीगी और जोमैटो कंपनियां अब ग्राहकों को मजबूर करेंगी कि उन का बेस्वाद, ठंडा, न जाने कहां का बना खाना खाओ जो सस्ता पड़े पर शानदार पैकिंग में हो. वे सप्लायर्स का पैसा दबा लेंगी. डिलिवरी बौयज को कहेंगी कुछ देंगी कुछ. धुआंधार प्रचार का मारा ग्राहक कल को यही कहेगा कि भई खाना तो स्वीगी और जोमैटो का ही अच्छा है जैसे वह कीचड़ भरे गंगा के पानी में डुबकी लगाने के बाद कहता है कि उस के 3 जन्मों के पाप तर गए. यह दिमागी दीवालिएपन का एक नमूना है. पहले धर्म के दुकानदार ही बेवकूफ बनाते थे अब और बहुत से आ गए हैं जो तर्क और आदमी के अपने जजमैंट को पूरी तरह किल कर देते हैं.

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शिक्षा पर सरकारी विद्वेष

पढ़ाई चाहे आईआईटी में हो, आईआईएम में, किसी कालेज में या जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में, सस्ती ही होनी चाहिए. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कट्टरपंथियों के प्रवेश को रोकने में असफल रहने पर केंद्र सकरार अब उस की फीस बढ़ा कर वहां से गरीब होनहार छात्रों को निकालना चाह रही है ताकि वहां केवल अमीर घरों के, जो आमतौर पर धर्मभीरु ही होते हैं, बचें और पुरातनपंथी गुणगान गाना शुरू कर दें.

शिक्षा का व्यापारीकरण कर के देशभर में धर्म को स्कूलों में पिछले दरवाजे से पहले ही दाखिला दिया जा चुका है. जातीय व्यवस्था, ऊंचनीच, धार्मिक भेदभाव, रीतिरिवाजों का अंधसमर्थन, पूजापाठ करने वाले सैकड़ों प्राइवेट स्कूलों के नाम ही देवीदेवताओं पर हैं.वहां से निकल रहे छात्र 12-13 साल पैसा तो जम कर खर्च करते हैं पर तार्किक व अलग सोच या ज्ञान से दूर रह कर रट्टूपीर बन कर रोबोटों की तरह डिगरियां लिए घूम रहे हैं.

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अमीरों के ये बच्चे बाद में अच्छे कालेजों में नहीं पहुंच पाते और जवाहरलाल नेहरू जैसे विश्वविद्यालयों में तो हरगिज नहीं. उन का काम सिर्फ मातापिता का मेहनत से कमाया पैसा बरबाद करना रह जाता है.

सरकारी स्कूलों से आने वाले बच्चे अभावों में पलते हैं पर उन्हें जीवन ठोकरों से बहुत कुछ सिखा रहा है. उन में कुछ करने की तमन्ना होती है, इसलिए वे प्रतियोगी परीक्षाओं पर कब्जा कर रहे हैं. जवाहरलाल नेहरू जैसे विश्वविद्यालयों में वे प्रवेश ले पाते हैं, क्योंकि सरकारी स्कूली शिक्षा की तरह ये सस्ते हैं. इन से एक पूरी व्यवस्था को चिढ़ होना स्वाभाविक ही है. भारत सरकार तो गुरुकुल चाहती है जहां छात्र नहीं शिष्य आएं जो भरपूर दक्षिणा दें, गुरुसेवा करें और धर्म की रक्षा करें.

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जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों का रोष बिलकुल सही है. भारत सरकार के पास चारधामों, आयोध्या में दीए जलाने, पटेल की मूर्ति बनवाने के लिए तो पैसा है पर स्वतंत्र विचारों को जन्म देने वाले शिक्षा संस्थानों के लिए नहीं. ऐसा कैसे हो सकता है? यह विद्वेष की भावना है.

सरकार अपनी धार्मिक नीति को आम जनता पर थोपने के लिए कुछ भी कर सकती है. फिर चाहे वह युवाओं को मानसिक गुलाम बनाना ही क्यों न हो.

घरेलू बाजार पर कब्जे की होड़ 

देशभर के व्यापारी ई कौमर्स के खिलाफ छोटेमोटे आंदोलन कर रहे हैं और सरकार पर दबाव डाल रहे हैं कि इन कंपनियों पर लगाम कसे. अमेजन और फ्लिपकार्ट जैसी कंपनियां धमाकेदार विज्ञापन कर के और अभी भी बहुत भारी नुकसान सह कर बाजार पर कब्जा करने की कोशिश में हैं कि खुदरा चीजें लोग स्मार्टफोन पर देख कर ही खरीद लें.

इन ई कौमर्स कंपनियों का दावा है कि ये सस्ती चीजें दिला रही हैं, क्योंकि उत्पादक और ग्राहकों के बीच की कई कडि़यां इन के खर्र्च घटाती हैं और साथ ही ग्राहक को घर बैठे सामान पाने की सुविधा दे रही हैं.आज की अकेली व्यस्त घरेलू या कामकाजी औरत के लिए खरीदारी आसान नहीं है, क्योंकि भागमभाग में उस के पास समय नहीं रहता कि वह दुकानों के धक्के खाए. उसे लगता है कि बड़ी ई कौमर्स कंपनियां ब्रैंडेड उत्पाद ही बेचती हैं और निकट के खुदरा व्यापारी की तरह लोकल बना सामान दे कर टरका नहीं देतीं. ई कौमर्स कंपनियां ग्राहक की शक्ल देख कर व्यापार नहीं करतीं. ग्राहक छोटा हो या बड़ा, उन के लिए सब बराबर हैं.

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ई कौमर्स कंपनियां ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह घरेलू बाजार पर कब्जा कर लेंगी उस में शक नहीं है पर सही बात यह है कि खुदरा किराने की व दूसरा सामान बेचने वाले दुकानदारों ने कभी ग्राहकों की चिंता नहीं की है. वे मोटा मुनाफा अपने पूंजी निवेश के बल पर कमाते रहे हैं. आम दुकानदार की सर्विस बहुत खराब है.

हमारे देश के 90% दुकानदार तो ग्राहक को दुकान में अंदर घुसने भी नहीं देते और सड़क के साथ लगे काउंटर से ही सामान बेचते हैं. हमारे दुकानदारों में जाति का भेदभाव भी बहुत है और वे नीची जातियों वालों के साथ बुरा व्यवहार करते हैं.हमारा खुदरा व्यापार संकरी व बदबूदार गलियों में चलता है, जहां सफाई तक के पैसे देने में दुकानदार हिचकता है.

हमारे खुदरा दुकानदार एक बार गल्ले में पैसे रख कर शेर हो जाते हैं और बेचे गए सामान के बारे में कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होते. ये दुकानदार बेहद अंधविश्वासी हैं और ग्राहक की जगह पूजापाठ को सफलता कामंत्र मानते हैं. ई कौमर्स कंपनियां अपनी वैबसाइटों पर जहां पूरी जानकारी देती हैं, वहीं खुदरा दुकानदार पसीने से तरबतर ग्राहक की जेब खाली कर उसे टरकानेकी कला जानता है.

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दक्षिण भारत में तो कुछ बड़ी कंपनियों ने बड़े स्टोर भी बनाए थे पर उत्तर भारत के शहरों में से नदारद हैं और ग्राहक को दरवाजेदरवाजे पर भटकना पड़ता है.ई कौमर्स कंपनियां एक बार बाजार पर कब्जा होने के बाद ग्राहकों और उत्पादकों दोनों को लूटेंगी इस में संदेह नहीं है पर वे जानती हैं कि एक बार ऊंचा मंदिर बन गया तो भक्त के पास दक्षिणा देने के अलावा कोई चारा न रहेगा. अभी तो वे विधर्मी छोटे दुकानदारों को बाजार के महाभारत में पिछाड़ने में लगी हैं और बेवकूफ दुकानदारों की कृपा से जंग जीतेंगी, इस में संदेह नहीं है.

ज़रा याद करो कुर्बानी

“भविष्य उन लोगों का है जो अपने सपनों की सुंदरता में विश्वास करते हैं”.

मुझे लगता है कि इस दुनिया में किसी व्यक्ति को छोटा सपना नहीं देखना चाहिए और अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पूरी शक्ति और साहस के साथ प्रयास करना चाहिए .

हमारे स्वतंत्रता सेनानी, वे स्वतंत्रता, शांति ’और खुशी’ का सपना देखते थे या मैं कहूंगी कि वे भारत का सपना देखते थे. 1857 के महान विद्रोह ने हमारे राष्ट्र के नेताओं और ऐसे हजारों लोगों को जन्म दिया, जो स्वतंत्रता की कामना करते थे.

भारत की स्वतंत्रता विभिन्न रूपों में देश के कई हिस्सों में लंबे और लगातार संघर्ष का परिणाम है.देश के लिए विदेशी शासकों से लड़ना और निष्कासित करना आसान नहीं था . संघर्ष दशकों तक चला, जिसके परिणामस्वरूप आखिरकार देश को आजादी मिली.भारत के स्वतंत्रता सेनानियों ने देश को स्वतंत्रता दिलाने में व्यापक भूमिका निभाई.

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जहां एक तरफ गांधी अहिंसा और शांति की विचारधाराओं का पालन कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर युवाओं का एक ऐसा समूह था जिसका विश्वास था  कि केवल अहिंसा  से स्वतंत्रता नहीं प्राप्त हो सकती. ये क्रांतिकारी राष्ट्र में काफी प्रभावशाली थे और इन्होने  कई लोगों को प्रेरित किया. चंद्र शेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्ला खान और जोगेश चंद्र चटर्जी कुछ ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने काकोरी षड्यंत्र को अंजाम दिया था.भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त, सुखदेव थापर और शिवराम राजगुरु ने असेंबली हाउस में बम फेंका.घटना के बाद, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को मौत की सजा दी गई थी और उन्हें आज भी शहीद माना जाता है.

हम में से अधिकांश 23 मार्च को याद करते हैं, जिस तारीख को 1931 में क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को  फांसी दी गई थी. लेकिन हम में से अधिकांश लोग ,स्वतंत्रता सेनानियों की तिकड़ी के बारे में नहीं जानते हैं, जिन्हें 19 दिसंबर 1927 को फांसी दी गई थी.

19-दिसंबर को काकोरी षड्यंत्र में शामिल तीन क्रांतिकारियों की पुण्यतिथि के रूप में चिह्नित किया गया है.

ठीक 92 साल पहले, आज ही के दिन, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्ला खान और रोशन सिंह को काकोरी षड्यंत्र (1925) में शामिल होने के लिए फांसी पर लटका दिया गया था. भगत, सुखदेव और राजगुरु की तरह , वे एक साथ फांसी दिए जाने के लिए भाग्यशाली नहीं थे; उन्हें उसी दिन अलग-अलग जेलों में फाँसी दे दी गई.

आजादी के इतिहास में असहयोग आंदोलन के बाद काकोरी कांड को एक बहुत महत्वपूर्ण घटना के तौर पर देखा जाता है. क्योंकि इसके बाद आम जनता के दिलों में अंग्रेजी राज से मुक्ति की उम्मीद जगी  थी.

क्या था काकोरी कांड-

9 अगस्त  1925 को क्रांतिकारियों ने काकोरी में एक ट्रेन में डकैती डाली थी. इसी घटना को ‘काकोरी कांड’ के नाम से जाना जाता है. क्रांतिकारियों का मकसद ट्रेन से सरकारी खजाना लूटकर उन पैसों से हथियार खरीदना था ताकि अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध को मजबूती मिल सके. काकोरी ट्रेन डकैती में खजाना लूटने वाले क्रांतिकारी देश के विख्यात क्रांतिकारी संगठन ‘हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ (HRA) के सदस्य थे.

HRA(‘हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ ) की स्थापना 1923 में शचीन्द्रनाथ सान्याल ने की थी.

बताते हैं कि काकोरी षडयंत्र के संबंध में जब एचआरए दल की बैठक हुई तो अशफाक उल्लाह खां ने ट्रेन डकैती का विरोध करते हुए कहा, ‘इस डकैती से हम सरकार को चुनौती तो अवश्य दे देंगे, परंतु यहीं से पार्टी का अंत प्रारंभ हो जाएगा. क्योंकि दल इतना सुसंगठित और दृढ़ नहीं है इसलिए अभी सरकार से सीधा मोर्चा लेना ठीक नहीं होगा.’ लेकिन अंततः काकोरी में ट्रेन में डकैती डालने की योजना बहुमत से पास हो गई.

इस ट्रेन डकैती में कुल 4601 रुपये लूटे गए थे. इस लूट का विवरण देते हुए लखनऊ के पुलिस कप्तान मि. इंग्लिश ने 11 अगस्त 1925 को कहा, ‘डकैत (क्रांतिकारी) खाकी कमीज और हाफ पैंट पहने हुए थे. उनकी संख्या 25 थी. यह सब पढ़े-लिखे लग रहे थे. पिस्तौल में जो कारतूस मिले थे, वे वैसे ही थे जैसे बंगाल की राजनीतिक क्रांतिकारी घटनाओं में प्रयुक्त किए गए थे.’

इस घटना के बाद देश के कई हिस्सों में बड़े स्तर पर गिरफ्तारियां हुई. हालांकि काकोरी ट्रेन डकैती में 10 आदमी ही शामिल थे, लेकिन 40 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया. अंग्रेजों की इस धरपकड़ से प्रांत में काफी हलचल मच गई.

काकोरी कांड का ऐतिहासिक मुकदमा लगभग 10 महीने तक लखनऊ की अदालत रिंग थियेटर में चला. यह मुकदमा कलकत्ता के बीके चौधरी ने लड़ा.

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6 अप्रैल 1927 को इस मुकदमे का फैसला हुआ जिसमें जज हेमिल्टन ने धारा 121अ, 120ब, और 396 के तहत क्रांतिकारियों को सजाएं सुनाईं. इस मुकदमे में रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफाक उल्ला खां को फांसी की सजा सुनाई गई. शचीन्द्रनाथ सान्याल को कालेपानी और मन्मथनाथ गुप्त को 14 साल की सजा हुई.

फांसी की सजा की खबर सुनते ही जनता आंदोलन पर उतारू हो गई. अदालत के फैसले के खिलाफ शचीन्द्रनाथ सान्याल और भूपेन्द्रनाथ सान्याल के अलावा सभी ने लखनऊ चीफ कोर्ट में अपील दायर की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.

17 दिसंबर 1927 को सबसे पहले गांडा जेल में राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को फांसी दी गई. फांसी के कुछ दिनों पहले एक पत्र में उन्होंने अपने मित्र को लिखा था, ‘मालूम होता है कि देश की बलिवेदी को हमारे रक्त की आवश्यता है. मृत्यु क्या है? जीवन की दूसरी दिशा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं. यदि यह सच है कि इतिहास पलटा खाया करता है तो मैं समझता हूं, हमारी मृत्यु व्यर्थ नहीं जाएगी, सबको अंतिम नमस्ते.’

19 दिसंबर, 1927 को पं. रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी दी गई. उन्होंने अपनी माता को एक पत्र लिखकर देशवासियों के नाम संदेश भेजा और फांसी के तख्ते की ओर जाते हुए जोर से ‘भारत माता’ और ‘वंदेमातम्’ की जयकार करते रहे.

बिस्मिल अज़ीमाबादी द्वारा लिखित ‘सरफरोशी की तमन्ना’ कविता का व्यापक रूप से ब्रिटिश राज के दौरान युद्ध के रूप में उपयोग करने के लिए पं. रामप्रसाद बिस्मिल को जिम्मेदार ठहराया जाता है।

किसी ने सच ही कहा है ;

“जब हौसला बना लिया ऊँची उड़ान का फिर देखना फिजूल है कद आसमान का”

आ गया जिलेटिन का शाकाहारी पर्याय

खाने की दुनिया में बहुत कुछ नया हो रहा है जो थोड़ा एक्साइटिंग है तो थोड़ा पृथ्वी को बचाने वाला भी. पशुओं को मारे बिना मीट बनाने की प्रक्रिया चालू हो रही है. लैबों में पैदा सैल्स को कई गुना कर के असली स्वाद वाला मीट बन सकता है. इससे लाखों पशुओं को सिर्फ मार कर मीट के लिए पैदा नहीं किया जाएगा और वे पृथ्वी पर बोझ नहीं बनेंगे. इसी तरह बिना पशुओं का दूध बनने जा रहा है, जिसका गुण और स्वाद असली दूध की तरह होगा. चिकन भी ऐसा ही होगा.

यही जिलेटिन के साथ होगा. जिलेटिन पशुओं की हड्डियों से बनता है और दवाओं के कैप्सूलों में इस्तेमाल होता है. पेट में जाने पर जिलेटिन पानी में घुल जाता है और दवा अपना काम शुरू कर देती है. जो वैजीटेरियन हैं वे कैप्सूल नहीं लेना चाहते और वैजिटेरियन कैप्सूलों की मांग बन रही है.

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दवा कंपनियों का कहना है कि वैजिटेरियन कैप्सूल महंगे होंगे. फिलहाल चुनावों के कारण यह काम टल गया है. जिलेटिन खाने में डलता है और मीठी गोलियों, केकों, मार्शमैलो आदि में भराव का भी काम करता है और वसा यानी फैट की कमी को भी पूरा करता है. रबड़ की तरह का जो स्वाद बहुत सी खाने की चीजों में आता है वह जिलेटिन के कारण ही है.

जिलेटिन का फूड में इस्तेमाल असल में जिलेटिन का इस्तेमाल फूड इंडस्ट्री में फार्मा इंडस्ट्री से ज्यादा होता है.

इसे वैजिटेरियन खाने में भी डाल दिया जाता है जबकि यह सूअर, गाय, मछली की खाल व हड्डियों को गला कर ही बनाया जाता है.

होने को तो जिलेटिन के वैजिटेरियन अपोजिट हैं पर इस्तेमाल करने वाले उत्पादकों के लिए महंगे और प्रोसैस करने में मुश्किल हैं. अब जैलजेन नाम की कंपनी पशु मुक्त जिलेटिन टाइप का कैमिकल बना रही है जो खाने, दवाओं, कौस्मैटिक्स में इस्तेमाल हो सकता है. डा. निक ओजुनोव और डा. एलैक्स लोरेस्टानी मौलिक्यूलर बायोलौजिस्ट हैं और सिंथैटिक बायोलौजी पर काम करते हुए उन्होंने सोचा कि जैसा इंसुलिन के लिए हुआ कि सुअर के भगनाशय से निकली इंसुलिन की जगह कृत्रिम इंसुलिन बना लिया गया, वही काम जिलेटिन के लिए क्यों नहीं हो सकता.

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पशु मुक्त जिलेटिन जैलजेन जिस का नाम लैलटोर है अब जिलेटिन के उत्पादन को पशु मुक्त बनाने में लग गई है. ये लोग बिना पशु मारे सैल्स से बैक्टीरिया को मल्टीप्लाई कर के जिलेटिन बना रहे हैं. वैजिटेरियन उत्पादों की दुनियाभर में मांग बढ़ रही है और उस के पीछे धार्मिक कारण तो हैं ही, पर्यावरण संतुलन भी है.

पशुओं से बनने वाला मीट, स्किन, दूसरे कैमिकल प्रकृति पर भारी पड़ते हैं. पशु बेहद पानी, जगह, कैमिकल, दवाएं इस्तेमाल करते हैं और अब ये मार दिए जाते हैं. मारने के बाद बचे कूड़े के निबटान में भी बड़ी समस्याएं हैं और गरीब देशों में इस कूड़े को ऐसे ही ढेरों में फेंक दिया जाता है जहां से बदबू और बीमारियां फैलती हैं. अमेरिका के कैलिफोर्निया में स्थित यह कंपनी पर्यावरण संरक्षण में बड़ा सहयोग दे रही है.

मुसीबत का दूसरा नाम सुलभ शौचालय

घटना दिल्ली के कौशांबी मैट्रो स्टेशन के नीचे बने सुलभ शौचालय की है. रविवार का दिन था. सुबह के 8 बजे का समय था. राजू को उत्तम नगर पूर्व से वैशाली तक जाना था. उस ने उत्तम नगर पूर्व से मैट्रो पकड़ी और कौशांबी तक पहुंचते-पहुंचते पेट में तेजी से प्रैशर बनने लगा. मैट्रो में ही किसी शख्स से पूछ कर राजू कौशांबी मैट्रो स्टेशन उतर गया.

मैट्रो से उतरने के बाद नीचे मौजूद तमाम लोगों से सुलभ शौचालय के बारे में पूछा, पर कोई बताने को तैयार नहीं था क्योंकि सभी को अपने गंतव्य की ओर जाने की जल्दी थी. तभी एक बुजुर्ग का दिल पसीजा और उस ने वहां जाने का रास्ता बता दिया.

सैक्स संबंधों में उदासीनता क्यों?

सुलभ शौचालय कौशांबी मैट्रो के नीचे ही बना था, पर जानकारी न होने के चलते राजू दूसरी ओर उतर गया. एक आटो वाले ने कहा कि उस तरफ जाओ जहां से तुम आ रहे हो. राजू फिर वहां पहुंचा तब जा कर शांति मिली कि चलो, सुलभ शौचालय जल्दी ही सुलभ हो गया.

अंदर जाते ही एक मुलाजिम वहां बैठा नजर आ गया. उस से इशारे में कहा कि जोरों की लगी है तो उस ने हाथ से इशारा कर के बता दिया कि उस टौयलेट में चले जाओ.

टौयलेट में गंद तो नहीं पसरी थी, पर बालटीमग्गे गंदे थे. पोंछा भी ज्यादा साफ नहीं था. जब वह फारिग हो कर बाहर निकला तो उस मुलाजिम को 10 रुपए का नोट थमाया. उस ने पैसे गल्ले में डाले और कहा कि जाओ, हो गया हिसाब.

राजू ने वहां उसी के ऊपर टंगी सूची की तरफ इशारा कर के कहा कि यहां पर तो 5 रुपए लिखा है तो उस ने जवाब दिया कि सफाई के भी 5 रुपए और जोड़ लिए गए हैं. इस हिसाब से 10 रुपए हो गए. राजू अपना सा मुंह ले कर बाहर आ गया. राजू के निकलने के बाद उसी टौयलेट में दूसरा शख्स भी गया और उस से भी 10 रुपए वसूले गए. वह भी अपना सा मुंह ले कर बाहर निकला. वहां न तो शिकायतपुस्तिका थी और न ही कोई पक्का बिल. शिकायत का निवारण करने के लिए न कोई सुनने वाला अफसर. जबकि सरकार पैसों के लेनदेन के डिजिटाइजेशन पर जोर दे रही है. सरकार मोबाइल ऐप के जरीए औनलाइन पेमैंट करने की बात कहती है, पर यहां ऐसी कोई सुविधा नहीं थी.

गरीब की ताकत है पढ़ाई

वैसे, टौयलेट के 5 रुपए और पेशाब करने के 2 रुपए निर्धारित किए गए हैं, पर किसी न किसी तरह से ज्यादा पैसे वसूले जाते हैं. भले ही 5-10 रुपए ज्यादा देना अखरता नहीं है पर जो तय कीमत रखी गई है, वही वसूली जाए तो न्यायपूर्ण होगा.

वैसे, शौचालय को ले कर तमाम खामियां हैं. कई जगह शौचालय ऐसी जगहों पर बना दिए गए हैं जहां हर कोई नहीं पहुंच सकता. ज्यादातर शौचालाय पानी की कमी से जूझ रहे हैं, इसलिए कहींकहीं ताला लटका मिलता है, तो कहीं कूड़ेकचरों के बीच शौचालय बना दिए गए हैं. गंदगी के ढेर पर बने शौचालयों में कोई नहीं जाता, ऐयाशी का अड्डा बने हुए हैं.

ये तो महज उदाहरण मात्र हैं. ऐसे न जाने कितने लोग शौचालय में कभी खुले पैसे को ले कर जूझते होंगे या फिर ज्यादा वसूली का रोना रोते होंगे. यही वजह है कि लोग शौचालय में जाने से कतराते हैं. इतना ही नहीं, कई सुनसान शौचालयों में तो देहधंधा होने तक की शिकायतें सुनी गई हैं.

एक ओर स्वच्छता अभियान जोरों से चल रहा है. ‘हर घर शौचालय’, ‘चलो स्वच्छता की ओर’, ‘शौचालय का करें प्रयोग गंदगी भागे मिटे रोग’, ‘बेटी ब्याहो उस घर में शौचालय हो उस घर में’ जैसी मुहिम चल रही है तो कहीं बड़ेबड़े इश्तिहार दे कर लोगों को जागरूक किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इस योजना पर काम करने वाले ही इसे पलीता लगा रहे हैं. कई निजी संस्थाएं भी आम आदमी को सहूलियतें देने के नाम पर सरकार को चूना लगा रही हैं. सरकार तो तमाम उपायों को अमल में लाने की कोशिश कर रही है, पर लोग हैं कि सुधरने को तैयार ही नहीं.

खतरे में है व्यक्तिगत स्वतंत्रता

सच तो यह है कि हम भले ही कितने पढ़लिख जाएं, पर सुधरने के नाम पर अगलबगल झांकने लगते हैं. ऐसे लोगों का मानना है कि हमारे बापदादा यही सब करते रहे हैं तो हम भी यही करेंगे. सुलभ शौचालय के मुलाजिमों पर किसी तरह का कोई शिकंजा नहीं है. सरकारी अमला खुले में शौच करने वालों को पकड़पकड़ कर जुर्माना लगा रहा है वहीं आम आदमी घर में बने टौयलेट में जाने से कतरा रहा है. वह कहता है कि खुले में शौच ठीक से आ जाती है, वहीं टौयलेट में बैठना नहीं सुहाता. वहीं दूसरी ओर घर की औरतेंबच्चे भी वहीं जाते हैं और मारे बदबू के चलते दिमाग ही हिल जाता है और पेट खराब रहता है, गैस बनती है, इसलिए मजबूरन खेत में ही जाना पड़ता है.

सुलभ शौचालय की शुरुआत करने वाले बिंदेश्वरी पाठक ने साल 1974 में जब इस की कल्पना की थी तब उन्हें भी तानेउलाहने सुनने को मिले होंगे, पर अब यही शौचालय नजीर बन कर उभरा है और देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी इस ने अपना परचम फहराया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वच्छता मुहिम को एक मिशन मानते हैं. वे स्वच्छ भारत का सपना साकार करने में लगे हैं. तमाम ग्रामीण,शहरी, अपढ़ व पढ़ेलिखों को इस मुहिम में शामिल कर जागरूक करने में लगे हैं और शौचालय बनाने को ले कर गांवों तक में अपनी मुहिम चला रहे हैं. शौचालय तो बन गए हैं, लेकिन तमाम तरह की दिक्कतें हैं.

गरीब व वंचित लोगों की सुविधाओं को ध्यान में रख कर सुलभ शौचालय बनाए गए थे. शौचालय की सुविधा तो मिली, पर दूसरी ओर इस पर किराया लगना आम लोगों को काफी अखर रहा है. भले ही शौच करने की कीमत काफी कम रखी गई है, फिर भी असलियत वहां जाने पर ही पता चलती है. कर्मचारियों का अपना दुखड़ा है, वहीं आम आदमी की अपनी परेशानी.

दलितों की बदहाली

यही वजह है कि जो भी शख्स वहां फारिग होने जाता है, उसे हलाल करने की कोशिश की जाती है. यानी तय कीमत से ज्यादा वसूली. न देने पर कहासुनी,  मारपीट. हैरानी तो तब होती है जब शौचालय कर्मियों पर किसी तरह की निगरानी नहीं होती.

सुबहसवेरे फारिग होने के लिए तमाम लोग लाइन में खड़े नजर आते हैं. चाहे वह जगह बसअड्डा हो या रेलवे स्टेशन या फिर भीड़ वाली जगह, वहां जाने पर ही पता चलता है कि बिना किसी सूचना के शौचालय में ताला लटका हुआ है तो कहीं पूछने पर दूसरे शौचालय का दूरदूर तक पता भी नसीब नहीं होता.

क्या है नियम

नियमानुसार शौचालयों में केवल शौच व नहाने के पैसे लिए जा सकते हैं, लेकिन ठेकेदार और शौचालय में तैनातकर्मी की मनमानी से नियमों की धज्जियां उड़ाई जा रही है. पैसे देने के बावजूद इन शौचालयों में सफाई नहीं रहती है.

दिल्ली शहर में जितने भी सुलभ शौचालय बने हैं उन में लघुशंका का शुल्क प्रति व्यक्ति महज 2 रुपए है जबकि टौयलेट का 5 रुपए, वहीं नहानेधोने के लिए 10 रुपए. हालांकि कहींकहीं ज्यादा पैसा वसूले जाते हैं.

सुलभ शौचालय द्वारा आम लोगों की सुविधा के लिए दिल्ली के विभिन्न चौकचौराहों पर शौचालय बनाए गए हैं. इन के बनाने के पीछे यह मकसद है कि आम आदमी मामूली शुल्क दे कर जरूरत पडऩे पर इन का इस्तेमाल कर सके. लेकिन अब ये शौचालय कमाई का जरीया बन गए हैं. बाहर से आने वालों से शौचालय कर्मी मनमाना पैसा वसूल रहे हैं, जो गलत है.

सुलभ शौचालय की शिकायत कहां करें, इस का कोई खुलासा नहीं है. आम आदमी को ये बातें पता ही नहीं हैं. जागरूकता का सिर्फ ङ्क्षढढोरा पीटने से काम नहीं चलने वाला. अनपढ़ को भी समझाना होगा और शौचालय की अहमियत बतानी होगी, तभी हम जागरूक हो पाएंगे. पढ़ेलिखे भी अपनी शिकायत दर्ज नहीं करा पाते तो वहीं आम आदमी के लिए ये शौचालय कितने सुलभ रह पाएंगे.

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