राजनीति में महिलाएं आज भी हाशिए पर

औरतों को राजनीति में हिस्सेदारी देने की बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं. ममता बनर्जी ने 2019 के चुनावों में 40% सीटें औरतों को दी हैं. राहुल गांधी ने वादा किया है कि अगर जीते तो लोकसभा में विधानसभाओं में एक तिहाई सीटों पर औरतों का आरक्षण होगा. 2014 के चुनावों में बड़ी पार्टियों के 1,591 उम्मीदवारों में सिर्फ 146 औरतें थीं. लोकसभा हो या विधानसभाएं औरतें इक्कादुक्का ही दिखती हैं. वैसे यह कोई चिंता की बात नहीं है.

राजनीति कोई ऐसा सोने का पिटारा नहीं कि औरतें उसे घर ले जा कर कुछ नया कर सकती हैं. राजनीति, राजनीति है और आदमी हो या औरत, फैसले तो उसी तरह के होते हैं. इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री रहीं और सोनिया गांधी प्रधानमंत्री सरीखी रहीं पर देश में कोई क्रांति उन की वजह से आई हो यह दावा करना गलत होगा.

मायावती से दलितों व औरतों का उद्धार नहीं हुआ और ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल को औरत की स्वर्णपुरी नहीं बना डाला. जैसे बच्चों या बूढ़ों की गिनती राजनीति में नहीं होती वैसे ही अगर औरतों की भी न हो तो कोई आसमान नहीं टूटेगा. जरूरत इस बात की है कि सरकारी फैसले औरतों के हित में हों जो पुरुष भी उसी तरह कर सकते हैं जैसे औरतें कर सकती हैं.

औरतों के राजनीति में प्रवेश पर कोई बंदिश नहीं होनी चाहिए और वह है भी नहीं. औरतों को वोट देने का हक भी है. वे अगर हल्ला मचाती हैं तो सरकारी निर्णयों में उस की छाप देखी जा सकती है. कमी तो इस बात की है कि औरतों को समाज में वह बराबर का स्थान नहीं मिल रहा है जिस की वे हकदार हैं और जिसे वे पा सकती हैं. इस में रोड़ा धर्म है. धर्म ने औरतों को चतुराई से पटा रखा है. उन्हें तरह-तरह के धार्मिक कार्यों में उलझाया रखा जाता है.

राजनीति तो क्या घरेलू नीति में भी उन का स्थान धर्म ने दीगर कर दिया है. धर्म उपदेशों में औरतों को नीचा दिखाया गया है. चाहे कोई भी धर्म हो धार्मिक व्याख्यान आदमी ही करते फिरते हैं. हर धर्म की किताबें औरतों की निंदाओं से भरी हैं और उस की पोल खोलने की हिम्मत राजनीति में कूदी औरतों तक में नहीं है.

अगर औरतों को काम की जगह, घरों में, बाजारों में, अदालतों में सही स्थान मिलना शुरू हो जाए तो राजनीति में वे हों या न हों कोई फर्क नहीं पड़ता. उन की सांसदों में चाहे जितनी गिनती हो पर अगर उन्हें फैसले आदमियों के बीच रह कर उन के हितों को देखते हुए लेने हैं तो उन की 40 या 50% मौजूदगी भी कोई असर नहीं डालेगी. औरतों की राजनीति में भागीदारी असल में एक शिगूफा या जुमला है जिसे बोल कर वोटरों को भरमाने की कोशिश की जाती है.

अगर राजनीति में औरतों की भरमार हो भी गई तो भी भारत जैसे देश में तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, जहां धर्म व सामाजिक रीतिरिवाजों के सहारे उन्हें आज भी पुराने तरीकों से घेर रखा है. बाल कटी, पैंट पहने, स्कूटी पर फर्राटे से जाती लड़की को भी आज चुन्नी से अपना चेहरा बांध कर चलना पड़ रहा है ताकि कोई छेड़े नहीं. आज भी लड़की अपनी पसंद के लड़के के साथ घूमफिर नहीं सकती, शादी तो बहुत दूर की बात है.

औरतों की राजनीति में मौजूदगी के बावजूद अरसे से इस सामाजिक, धार्मिक व्यवस्था को तोड़ने का कोई नियम नहीं बना है. औरतें तो केवल खिलवाड़ की चीज बन कर रह गई हैं. संसद व विधानसभाओं में पहुंच कर वे औरतों की तरह का नहीं सासों और पंडितानियों का सा व्यवहार नहीं करेंगी, इस की कोई गारंटी दे सकता है क्या? कानून से नहीं समझदारी से काम लें.

सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में तय किया है कि रिवाजों के अनुसार हुए तलाक के बाद भी कोई दूसरी शादी नहीं कर सकता. एक तरह से अदालत ने यह तो मान लिया कि जिन समुदायों के अपने रिवाजों में तलाक को मान्यता है, वह ठीक है पर फिर भी दूसरी शादी करने का हक किसी को नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यह तय नहीं किया है कि जब मियां-बीवी में नाराजी तो क्या करेगा काजी?

विवाह एक आदमी और एक औरत का निजी मामला है और समाज या सरकार का इस से कोई लेनादेना नहीं होना चाहिए. दुनियाभर में विवाह तो आप अपनी मरजी से जब चाहो कर लो पर तलाक लेते समय आफत खड़ी हो जाती है. तलाक की वजह चाहे जो भी हो, अदालत का दखल असल में बेबुनियाद है. यह ठीक है कि हर शादी का असर कइयों पर पड़ता है पर ये कई पति और पत्नी के अपने निजी लोग होते हैं. बच्चों के अलावा विवाह से किसी का मतलब नहीं होता. जहां बच्चों के बावजूद पति और पत्नी में मनमुटाव हो जाए वहां अदालतों का दखल एकदम जबरन थोपा कानून है. यह दुनियाभर में चल रहा है और हर जगह गलत है.

कानून असल में बच्चों को भी न सुरक्षा देता है, न प्यार. यह संभव है कि पतिपत्नी में से कोई एक या दोनों बच्चों को बेसहारा छोड़ दें. अदालतों का काम उस समय केवल इतना होना चाहिए कि छोड़े गए बच्चों के बड़े होने तक उन्हें पति व पत्नी की कमाई में से पर्याप्त हिस्सा मिले. पति या पत्नी अलग हो कर दूसरा विवाह करे या न करे यह उस पर निर्भर है. वे अपनीअपनी संपत्ति का क्या करते हैं, यह भी उन की इच्छा है. पति अगर पत्नी को फटेहाल छोड़ जाए तो यह भी काम अदालतों का नहीं कि वे पति की संपत्ति में से हिस्सा दिलवाएं. यह हिस्सा पत्नी को पहले ही अपने नाम करा लेना चाहिए. पतिपत्नी का संबंध पूरी तरह स्वैच्छिक ही होना चाहिए.

हां, समाज का काम है कि वह पत्नी को समझाए कि विवाह का अर्थ है पति के साथ बराबर की साझेदारी. कानून से नहीं समझदारी से पत्नी को पति से पहले दिन से साझेदारी शुरू कर देनी चाहिए. अपना बचत खाता हो, मकान हो तो अपने, उस के नाम हो. 2 मकान हों तो दोनों अपना-अपना रखें. पति के वेतन में से पत्नी अपना हिस्सा पहले ही दिन से लेना शुरू कर दे. जैसे विवाह के समय दहेज की परंपरा है, उपहार देने की परंपरा है, मुंह-दिखाई जैसी परंपराएं हैं वैसी ही संपत्ति के बंटवारे की परंपराएं हों ताकि वकीलों और अदालतों के चक्कर ही न लगें.

जब तक दोनों में प्यार है, तेरा-मेरा नहीं हमारा है, जब तकरार हो गई तो तेरा तेरा है और मेरा मेरा. बस बच्चों के बारे में फैसला न हो तो उन के नाना, दादा, मामा को हक हो कि वे अदालत का दरवाजा खटखटा कर पतिपत्नी में से जिस के पास ज्यादा पैसा हो उसे पैसे देने और बच्चों को पालने को बाध्य किया जा सके.

आज विवाह करना भी धंधा बन गया है और विवाह तोड़ना भी. इसे समाप्त करें. उस का लालच उसे ले डूबा देशभर में मकानों की कीमतें बढ़ने और उन के मालिकों की उम्र बढ़ने के कारण मालिकों के बच्चों में एक फ्रस्ट्रेशन पैदा होने लगी है. पहले जब मातापिता की मृत्यु 45 से 60 के बीच हो जाती थी, 30-35 तक बच्चों को मिल्कियत मिल जाती थी पर अब यह ट्रांसफर अब मातापिता जब 70-80 के हो जाते हैं तब हो रहा है और तब तक बच्चे 50-55 के हो चुके होते हैं. इसीलिए शायद दिल्ली में एक 25 वर्षीय तलाकशुदा महिला ने अपने प्रेमियों की सहायता से माता-पिता दोनों को मार डाला ताकि 50 लाख का मकान हाथ में आ जाए.

अब चूंकि वह पकड़ ली गई है उसे पूरी जिंदगी जेल में बितानी होगी और 50 लाख का मकान खंडहर हो जाएगा जिस पर लाखों का म्यूनिसिपल टैक्स चढ़ जाएगा. जब तक वह महिला बाहर निकलेगी तब तक वह टूट चुकी होगी और मकान भी टूट चुका होगा. असल में जरा से निकम्मे बच्चे अब अपना धैर्य खो रहे हैं. अगर मातापिता अपने कमाए पैसे पर बैठते हैं तो सही करते हैं. उन्होंने जो भी कमाया होता है अपनी मेहनत से, अपना पेट काट कर या विरासत में माता-पिता के मरने के बाद पाया होता है.

अगर वे बच्चों को अपने मरने से पहले पैसा खत्म करने देंगे तो खुद तिल-तिल कर मरेंगे. बुढ़ापे में कई बीमारियां होती हैं, वकीलों के खर्च होते हैं, लोग छोटी-मोटी लूट मचाते रहते हैं. बच्चों की नाराजगी सहना ज्यादा अच्छा बजाय उन के आज के सुखों के लिए अपना भविष्य गिरवी रखने के. जो बच्चे कमाने लगते हैं वे तो माता-पिता की संपत्ति पर नजर नहीं रखते पर जिन्हें एक के बाद एक असफलता हाथ लगती है वे अगर नाराज भी हो जाएं तो भी चिंता नहीं करनी चाहिए.

पिछले दशकों में संपत्ति के जो अंधाधुंध दाम बढ़े हैं उन से बच्चों को लगने लगा है कि बूढ़ों के पास बहुत पैसा आ गया है पर वे यह भूल जाते हैं कि यही पैसा जीवन में सुरक्षा देता है, ठहराव पहुंचाता है. दिल्ली के पश्चिम विहार की देवेंद्र कौर की जल्दबाजी उसे ले डूबेगी.

 

औरतों के हाथ कुछ नहीं

अप्रैल मई में होने वाले चुनावों में औरतों की भूमिका मुख्य रहेगी, क्योंकि अब की बार बहुत से ऐसे मुद्दे हैं, जिन का औरतों पर सीधा असर होगा. 2014 के चुनाव से पहले मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार था जो अखबारों की सुर्खियां तो बनता था पर आम जनजीवन पर उस का असर न था. अब नरेंद्र मोदी इस चुनाव को भारत पाकिस्तान मुद्दे का बनाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि हरेक को डराया जा सके कि पाकिस्तान को खत्म करना भारत के लिए आवश्यक है. जो इसे मुद्दा नहीं मानेगा, वह देशद्रोही होगा.

इस झूठी देशभक्ति और देश प्रेम के पीछे असल में औरतों को मानसिक व सामाजिक गुलाम रखने वाली धार्मिक परंपराओं को न केवल बनाए रखना है, बल्कि उन्हें मजबूत भी करना है. पिछले 5 सालों में देश में आर्थिक मामलों से ज्यादा धार्मिक या धर्म या फिर धर्म की दी गई जाति से जुड़े मामले छाए रहे हैं.

गौरक्षा सीधा धार्मिक मामला है. पौराणिक ग्रंथों में गायों की महिमा गाई गई है. असल में यह एक ऐसा धन था जिसे किसी भी गृहस्थ से पंडे बड़ी आसानी से बिना सिर पर उठाए दान में ले जा सकते थे.आज गायों के नाम पर जम कर राजनीति की जा रही है, चाहे इस की वजह से शहर गंदे हो रहे हों, घर सुरक्षित न रहें, किसानों की फसलें नष्ट हो रही हों.

इस की कीमत औरतों को ही देनी होती है. एक तरफ वे इस वजह से महंगी होती चीजों को झेलती हैं तो दूसरी ओर उन्हें पट्टी पढ़ा कर गौसेवा या संतसेवा में लगा दिया जाता है. इन 5 सालों में कुंभों, नर्मदा यात्राओं, तीर्थों, मूर्तियों, मंदिरों की बातें ज्यादा हुईं. वास्तविक उद्धार के नाम पर कुछ सड़कों, पुलों का उद्घाटन हुआ जिन पर काम वर्षों पहले शुरू हो चुका था.

भारत तरक्की कर रहा है, इस में संदेह नहीं है पर यह आम आदमी की मेहनत का नतीजा है, इस मेहनत का बड़ा हिस्सा सरकार संतसेवा, गौसेवा, तीर्थसेवा या सेनासेवा में लगा देगी तो घरवाली के हाथ क्या आएगा?

आज रिहायशी मकानों की भारी कमी है, जबकि उन के दाम नहीं बढ़ रहे हैं. ऐसा इसलिए है कि लोगों के पास पैसा बच ही नहीं रहा. बदलते लाइफस्टाइल के बाद घरवाली इतना पैसा नहीं बचा पाती कि युवा होने के 10-15 साल में अपना खुद का घर खरीद सके. उसे किराए के दड़बों में अपनी स्टाइलिश जिंदगी जीनी पड़ रही है. औरतों को चुनावों में जीत के लिए लड़ाई में झोंक दिया गया तो यह एक और मार होगी.

पुराने राजा अपनी जनता से टैक्स वसूलने के लिए अकसर उन्हें साम्राज्य बनाने के लिए बलिदान के लिए उकसाते थे, लोगों को सेना में भरती कराते थे, ज्यादा काम करा कर टैक्स वसूलते थे और ज्यादा बंधनों में बांधते थे. आज भी कितने ही देशों में इस इतिहास को दोहराया जा रहा है.

औरतों को जो आजादी चाहिए वह शांति लाने वाली और कम जबरदस्ती करने वाली सरकार से मिल सकती है धर्मयुद्ध की ललकार लगाने वालों से नहीं. धर्म है तभी तो धंधा है औरतों की गुरुओं पर अपार श्रद्धा होती है और वे खुद को, पतियों को, बच्चों को ही नहीं सहेलियों को भी गुरुओं के चरणों के लिए उकसाती रहती हैं.

रजनीश, आसाराम, रामरहीम, रामपाल, निर्मल बाबा जैसों की पोल खुलने के बाद भी वे इन गुरुओं और स्वामियों की अंधभक्ति में लगी रहती हैं. अब औरतों की क्या कहें जब अरबों खरबों का व्यवसाय सफलतापूर्वक चलाने वाला रैनबैक्सी कंपनी का शिवेंद्र सिंह भी इसी तरह के गुरुकुल का सहसंचालक बन बैठा है और उसे धंधे की तरह चला रहा है, जहां सफेद कपड़े पहने हजारों भक्तिनें दिखती हैं.

शिवेंद्र की शिकायत और किसी ने नहीं उस के भाई और पार्टनर मानवेंद्र सिंह ने ही की है. पुलिस से अपनी शिकायत में मानवेंद्र सिंह ने कहा है कि राधा स्वामी सत्संग के मुख्य गुरु गुरिंद्र सिंह ढिल्लों और उस की वकील फरीदा चोपड़ा ने उसे जान से मारने की धमकी दी है. भाइयों की कंपनियों में बेईमानी के आरोप मानवेंद्र सिंह ने खुल कर लगाए हैं. पैसों को इधर से उधर करने का आरोप भी लगाया गया है.

राधा स्वामी सत्संग के संपर्क में आने के बावजूद शिवेंद्र सिंह शराफत का पुतला नहीं बना है. उस की कंपनियों को एक जापानी कंपनी को धोखे से बेचने पर 3,500 करोड़ का हरजाना देना भी अदालत ने मंजूर किया हुआ है. नकली दस्तखत तक करने के आरोप लगाए गए हैं.

सारे स्वामियों के आश्रम, डेरे, केंद्र इस तरह के आरोपों से घिरे हैं. इन स्वामियों का रोजाना औरतों को बलात्कार करना तो आम होता ही है, ये भक्तों का पैसा भी खा जाते हैं, सरकारी जमीन पर कब्जा कर लेते हैं, विरोधी को मार डालते हैं, विद्रोही कर्मचारियों को लापता तक कर देते हैं. फिर भी इन्हें भक्तिनों की कभी कमी नहीं होती.

आमतौर पर इन आश्रमों में भीड़ औरतों की ही होती है जो घरों की घुटन से निकलने के लिए गुरुओं की शरणों में आती हैं पर दूसरे चक्रव्यूहों में फंस जाती हैं. इन आश्रमों में नाचगाना, बढि़या खाना, पड़ोसिनों की बुराइयों के अवसर भी मिलते हैं. बहुतों को गुरुओं से या उन के चेलों से यौन सुख भी जम कर मिलता है. आश्रम में जा रही हैं, इसलिए घरों में आपत्तियां भी नहीं उठाई जातीं. भक्तिनें अपने घर का कीमती सामान तो आश्रमों में चढ़ा ही आती हैं, अपनी अबोध बेटियों को भी सेवा में दे आती हैं.

केरल का एक मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा था जहां एक 16 साल की लड़की को उस की मां खुद स्वामी को परोस आई थी कि इस से उस को पुण्य मिलेगा. शिवेंद्र सिंह और मानवेंद्र सिंह का विवाद जिस में राधा स्वामी सत्संग पूरी तरह फंसा है साफ करता है कि इस तरह के गुरुओं के गोरखधंधों को पनपने देना समाज के लिए सब से ज्यादा हानिकारक है.

अफसोस यह है कि इक्कादुक्का नेताओं को छोड़ कर ज्यादातर नेता भी इन गुरुओं के चरणों में नाक रगड़ते हैं, शिवेंद्र, मानवेंद्र सिंह और लाखों भक्तिनों की तरह. आप भी क्या ऐसी ही भक्तिन तो नहीं

भरोसा करें तो किस पर

वृद्धों की देखभाल करने में अब ब्लैकमेल और सैक्स हैरसमैंट से भी बेटों को जूझना पड़ सकता है. हालांकि, मुंबई का एक मामला जिस में 68 वर्षीय पिता के लिए रखी नर्स ने पिता की मालिश करते हुए वीडियो बनवा लिया और फिर उस वीडियो के सहारे 25 करोड़ रुपए की मांग कर डाली. भले अकेला ऐसा मामला सामने आया हो पर ऐसे और मामले नहीं होते होंगे, ऐसा नहीं हो सकता.

वृद्धों के लिए रखे गए नौकर अकसर शिकायत करते हैं कि वृद्ध उन से मारपीट करते हैं. यह कह कर वे नौकरी छोड़ने की धमकी दे कर बेटेबेटियों से पैसा भी वसूलते हैं. कुछ नौकरनौकरानियां धीरेधीरे शातिर बन कर पैसा वसूलने के बीसियों तरीके सीख लेते हैं. कामकाजी बेटेबेटियां वृद्ध मातापिता की जिद को पहचानते हैं, क्योंकि इस उम्र तक आते आते वृद्धों के मन में शंका भरने लगती है कि कहीं कोई उन्हें छोड़ न दे, किसी कागज पर दस्तखत न करा ले, कुछ लूट न ले. वे कभी उस नौकर या नौकरानी पर भरोसा करते हैं जो 24 घंटे उन के साथ होता है तो कभी 24 घंटे उस पर शक करते रहते हैं.

वीडियो बना कर ब्लैकमेल करना बहुत आसान है और अच्छे घरों के बेटेबेटियों के पास न तो माता पिता से पूछताछ करने की हिम्मत होती है और न ही वे बदनामी सहना चाहते हैं. वे पुलिस में चले जाएं तो भी खतरा बना रहता है कि घर के हर राज को जानने वाला नौकर या नौकरानी न जाने क्या क्या गुल खिलाए.

इस समस्या का आसान हल नहीं है. दुनियाभर में युवा बेटे बेटियों की गिनती घट रही है और वृद्धों की बढ़ रही है. अब तो यह बोझ पोतेपोतियों पर पड़ने लगा है. जब तक वृद्ध वास्तव में असहाय होते हैं तब तक पोते पोतियां युवा हो चुके होते हैं और उन्हें भी इन नौकर नौकरानियों से जूझना पड़ता है.

हमारे समाज ने पहले तो व्यवस्था कर रखी थी कि वानप्रस्थ आश्रम ले लो यानी किसी जंगल में जा कर मर जाओ पर आज का सभ्य, तार्किक, संवेदनशील व उत्तरदायी समाज उसे पूरी तरह नकारता है. वृद्धों को झेलना पड़ेगा, यह ट्रेनिंग तो अब बाकायदा दी जानी चाहिए. इस के कोर्स बनने चाहिए. यह समस्या विकराल बन रही है, यह न भूलें.

भारतीय महिलाओं में तेजी से बढ़ रहा है सर्वाइकल कैंसर का खतरा

दुनियाभर में कैंसर के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. कैंसर आज लोगों के मौत के सबसे बड़े कारणों में से एक है. कैंसर 100 से भी अधिक प्रकार के होते हैं. इनमें सबसे आम फेफड़े, ब्रेस्ट, प्रोस्टेट, मुंह और सर्वाइकल कैंसर है. कुछ रिपोर्टों की माने तो मध्य वर्ग की 50 फीसदी महिलाओं में ह्यूमन पेपिलोमावायरस (HPV) होने का खतरा सबसे अधिक होता है. सर्वाइकल कैंसर से पीड़ित अधिकतर महिलाओं में इस वायरस का इन्फेक्शन पाया गया है.

आपको बता दें कि HPV कई तरह के वायरसों का समूह होता है, जो गर्भाशय ग्रीवा को संक्रिमित करता है. ये वायरस सेक्शुअल रिलेशन बनाने से एक से अगले व्यक्ति में फैलता है.

दो प्रकार के ह्यूमन पेपिलोमावायरस से सर्वाइकल कैंसर होने का खतरा 70 फीसदी अधिक हो जाता है. इस वायरस के टेस्ट रिपोर्ट में ये सामने आया है कि साल 2014 और 2018 में 31 से 45 वर्ष की लगभग 4,500 महिलाओं में 47 फीसदी महिलाओं में ह्यूमन पेपिलोमावायरस से पीड़ित थीं. जबकि16 से 30 वर्ष की आयु वाली 30 फीसदी  महिलाओं में इस कैंसर का प्रभाव देखा गया है.

लोगों की जान के लिए खतरनाक कैंसरों के प्रकार में सर्वाइकल कैंसर प्रमुख है. भारत में महिलाओं की मौत का दूसरा बड़ा कारण है सर्वाइकल कैंसर. जानकारों की माने तो अगर शुरुआती चरणों में इसका इलाज किया जाए तो इसके बहुत से लोगों की जान बचाई जा सकती है.

फोर्ब्स के इस दिग्गजों की लिस्ट में शामिल भारतीय मूल की 4 महिलाएं

हाल ही में प्रसिद्ध मैगजीन फोर्ब्स ने अमेरिका में तकनीक के क्षेत्र में 50 दिग्गज महिलाओं की सूची जारी की है. इस लिस्ट में खास ये है कि इसमें शुमार महिलाओं में 4 महिलाएं भारतीय मूल की हैं. इसमें सूची में विश्व की दिग्गज कंपनियों की शीर्ष पदों पर बैठी महिलाओं के नाम शामिल हैं, जो अपने क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रही हैं.

फोर्ब्स की इस लिस्ट में आईबीएम की मुख्य कार्यकारी अधिकारी जिनी रोमेटी और नेटफ्लिक्स की कार्यकारी एनी एरोन शामिल हैं. इसके अलावा इसमें सिस्को की पूर्व चीफ टेक्नौलजी औफिसर पद्मश्री वारियर, ऊबर की सीनियर डायरेक्टर कोमल मंगतानी, कोंफ्लूएंट की को-फाउंडर और चीफ टेक्नौलजी औफिसर नेहा नारखेड़े, प्रबंधन कंपनी ड्राब्रिज की फाउंडर और सीईओ कामाक्षी शिवराम कृष्णन का नाम शामिल है. ये चारो महिलाएं भारतीय मूल की हैं.

‘अमेरिका की 2018 में प्रौद्योगिकी क्षेत्र की शीर्ष 50 महिलाओं’ के इस अंक में फोर्ब्स ने इन महिलाओं पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि महिलाएं भविष्य का इंतजार नहीं करती हैं. ये सूची महिलाओं की तीन पीढ़ियों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं जो करीब एक दशक से अधिक समय तक दुनिया भर के तकनीक के क्षेत्र में शीर्ष पर हैं.

आपको बता दें कि पद्मश्री वारियर ने मोटोरोला और सिस्को दोनों ही कंपनियों में अहम भूमिका निभा चुकी हैं. वहीं मंगतानी, गुजरात की धर्मसिंह देसाई अभी ऊबर के बिजनेस इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट की प्रमुख हैं.

नेहा नारखेडें लिंक्डइन में सौफ्टवेयर इंजीनियर थी. अपाचे काफका को विकसित करने में इनका अहम योगदान था. उन्होंने अपने एक सहयोगी के साथ मिल कर एक कंपनी की स्थापना की जो डाटा आकलन क्षेत्र की प्रमुख कंपनी है. इसके ग्राहकों में नेटफ्लिक्स और उबर जैसी कंपनियां शामिल हैं.

वहीं, शिवरामकृष्णन की कंपनी ड्राब्रिज बड़े स्तर पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग का उपयोग करती है. इस कंपनी में शिवरामकृष्णन का योगदान अथक है. उन्होंने इसके लिए कई बड़े कारनामें किएं.

औरतों का दुरुपयोग धर्म की देन

जिस तरह से सैक्सुअल हैरेसमैंट के आरोप देशभर में लगाए जाने लगे हैं, उस से साफ है कि यहां सारी शिक्षा, सादगी, सतकर्मों के व्याख्यानों, पूजापाठ के ढकोसलों के बावजूद मर्द आज भी मर्द हैं और उन की निगाहों में लड़कियां और औरतें सिर्फ और सिर्फ उन के इशारों पर चलने वाली सैक्सी गुडि़याएं हैं, और कुछ नहीं.

हर सुंदर, आकर्षक, बोल्ड, सफल युवती के साथ यह चैलेंज रहता है कि वह अपनी सफलता पर गर्व करे या नहीं, क्योंकि चाहेअनचाहे उसे तरहतरह के कंप्रोमाइज करने होते हैं. आज स्थिति यह है कि वह समझ नहीं पाती कि उस का सैक्स पार्टनर उस से वास्तव में प्रेम करता है या सिर्फ अपनी मर्दानगी और ओहदे का उपयोग कर रहा है. जिसे वह प्यार व समर्पण समझती है हो सकता है केवल नकली हो और पुरुष नाना पाटेकर या आलोक नाथ की तरह हो सकता है जो ऐक्टिंग में सहायता देने के बहाने सैक्सुअल टैस्टिंग कर रहा हो.

औरतों ने शरीर की कीमत सदियों से दी है. धर्म का पूरा ढांचा ही औरतों की टांगों के बीच पर टिका है और यह केवल हिंदू धर्म में ही नहीं है, लगभग हर धर्म में है कि औरतों को सैक्स गुलाम बनाने के कुछ स्पष्ट तो कुछ अस्पष्ट नियमकानून व रिवाज बनाए गए हैं.

हर धर्म कौमार्य के गुणगान गाता है पर पुरुष के नहीं केवल स्त्री के. विधवा विवाह ज्यादातर धर्मों में हिकारत से देखा जाता है. हिंदू धर्म तो इजाजत ही नहीं देता, इसलाम और क्रिश्चियनिटी में भी आसान नहीं रहा है. पुरुष को कभी भी अनब्याहियों की कमी नहीं रही है.

जो औरतें घर से बाहर निकल कर पिता, पति या खुद के कारणों से किसी तरह सफल हो पाई हैं उन्हें भी हर तरह की आफत सहनी पड़ी है और कई बार तो खुद उन के बेटों ने ही उन का दुरुपयोग किया है. पुरुष अपनी मरजी से किसी को भी जब चाहे छू ले, उठा ले, बिस्तर पर ले जाए पर बदनाम औरत होगी, पुरुष नहीं. औरतों के लिए तनुश्री दत्ता और कंगना राणावत की तरह शिकायत करना भी कठिन रहा है.

यह सामाजिक ढांचा कानून की देन नहीं है, धर्म की देन है. कठिनाई यह है कि जो ‘मीटू’ आंदोलन दुनियाभर में चल रहा है इस में भी धर्म को छूने की हिम्मत नहीं हो रही. मीडिया ट्रायल ही औरतों का अकेला अधिकार बना हुआ है और उसी के बल पर अदालतों का कुछ साथ मिल रहा है.

वास्तव में इन नियमों को लागू करने में धर्म का ही हाथ है और उसे औरतें छूने तक की हिम्मत नहीं कर पा रहीं. यह ‘मीटू’ आंदोलन फुस्स पटाखा साबित होगा पक्का है.

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