प्यूबर्टी के दौरान होने वाले भावनात्मक बदलाव

प्यूबर्टी (यौवनारम्‍भ) के दौरान आपके बच्चे की भावनाएं ज्यादा मजबूत और तीव्र हो सकती हैं. उनमें बार-बार, बिना वजह और अचानक ही मूड स्विंग्स हो सकते हैं. पहली बार में आपके बच्चे को बहुत ही मजबूत भावनाएं महसूस हो सकती हैं. यह सामान्य बात है कि उन्हें अनजान दुविधा, डर और गुस्सा महसूस हो. इसके साथ ही हो सकता है, वे सामान्य से ज्यादा संवेनदनशील और चिड़चिड़े हो जाएं. इस बारे में बता रही हैं- डॉ. मंजू गुप्ता, सीनियर कंसल्‍टेंट, प्रसूति एवं स्त्रीरोग विशेषज्ञ, मदरहुड हॉस्पिटल, नोएडा.

आपके बच्चे का दिमाग इन नए हॉर्मोन्‍स के साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रहा होता है, वहीं उनका शरीर भी यही काम कर रहा होता है. उनके दिमाग के हिस्से जो उन्हें मजबूत, जटिल भावनाओं का अनुभव करने में सक्षम बनाते हैं, प्यूबर्टी के दौरान मजबूत होने लगते हैं. हालांकि, मस्तिष्क का वह क्षेत्र जो भावनाओं, गहन विचार, तर्क और निर्णय लेने को नियंत्रित करता है, अक्सर अंत में विकसित होता है. आपका बच्चा ऐसा महसूस कर सकता है कि जैसे उनकी भावनाएं नियंत्रण से बाहर हो गई हैं.

यहां कुछ ऐसे भावनात्मक बदलावों के बारे में बताया गया है जोकि प्यूबर्टी के दौरान होते हैं

1. अत्यधिक संवेदनशीलता-

चूंकि, प्यूबर्टी के दौरान आपके शरीर में काफी सारे बदलाव होते हैं, इसलिए उन्हें खुद को लेकर असहजता महसूस हो सकती है और अपने लुक को लेकर ज्यादा सतर्क हो सकते हैं. इसकी वजह से आप जल्द चिड़चिड़े हो सकते हैं, लोगों पर भड़क सकते हैं या फिर डिप्रेशन महसूस हो सकता है. इसलिए यह जानना फायदेमंद होगा कि आप किन व्यावहारात्मक बदलावों से होकर गुजर रहे हैं और उनके बारे में आत्मविश्वास से बात कर पाएं.

2. अपनी पहचान ढूंढने की कोशिश कर रहे होते हैं-

चूंकि, आप वयस्क होने की तरफ बढ़ रहे होते हैं, हो सकता है आप यह जानने के लिये बाध्य हो जाएं कि आपको क्या चीज खास बनाती है. इसके साथ ही, आमतौर पर अपने परिवार से ज्यादा अपने दोस्तों से जुड़ने की प्रवृत्ति हो जाती है. यह बात शायद इस मनोविज्ञान से जुड़ी है कि आप और आपके दोस्त एक ही पड़ाव से होकर गुजर रहे हैं. आप शायद यह जानने की कोशिश कर सकते हैं कि आप औरों से किस तरह अलग हैं और दुनिया में आपकी क्या जगह है. इसकी वजह से हो सकता है कि आप खुद को अपने माता-पिता और परिवार के बाकी सदस्यों से दूर कर लें.

3. हिचकिचाहट आ सकती है-

प्यूबर्टी के परिणामस्वरूप समय अनिश्चित हो जाता है, क्योंकि आप ना तो पूरी तरह से वयस्क होते हैं और ना ही बच्चे. आप बदलाव के इस पड़ाव के दौरान जीवन के अनजाने पहलुओं जैसे कॅरियर, कमाई और शादी के बारे में जानकर और समझकर हैरान हो जाते हैं. जब आप इस तरह से सोचना शुरू करते हैं तो हर चीज नई और अनजानी लगती है, तो आपको भविष्य को लेकर अनिश्चितता महसूस हो सकती है.

जब आपसे जुड़े आपके करीबियों की अपेक्षाएं भी बदल जाती हैं तो यह दुविधा होना और भी लाजिमी है. एक बच्चे के रूप में आपसे जिन दायित्वों की अपेक्षा की जाती थी, अब वह अपेक्षाएं बदल गई हैं. इस स्थिति में आपकी प्रतिक्रिया यह निर्धारित करेगी कि आप अपनी नई भूमिकाओं के लिये कितनी जल्दी या धीरे-धीरे ढलते हैं और आपको खुद पर कितना यकीन है.

4. साथियों का प्रभाव-

जैसे ही प्यूबर्टी आती है आपका अपने दोस्तों के साथ संवाद बढ़ जाता है. लोकप्रिय माध्यमों में आप अपने आस-पास जो देखते हैं और उनके माध्यम से जिस संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसका आप पर और साथी समूह पर प्रभाव पड़ने की संभावना है. आप जो देखते हैं उसके आधार पर, आपके बोलने, आपके कपड़े पहनने का तौर-तरीका और आप कैसे व्यवहार करते हैं, उसका सामान्य तौर पर चुनाव करते हैं.

कई बार यह असहज हो सकता है और हो सकता है कई बार आपकी पसंद बदल जाए. साथ ही यह उन तरीकों में से एक है, जिससे आपको अपने साथियों से घुलने-मिलने में परेशानी हो सकती है.

5. विचारों में टकराव-

आपको ऐसा लग सकता है कि जब आप बच्चे थे और अब जब आप एक वयस्क बनना चाहते हैं, उन दोनों के बीच फंस गए हैं, क्योंकि जब आप एक टीनएजर के रूप में प्यूबर्टी के दौर से गुजर रहे हैं, आप बदलाव के पड़ाव पर हैं. जैसे, आप ज्यादा आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं, वहीं आप पेरेंट्स का साथ भी चाहते हैं. एक दूसरा उदाहरण यह हो सकता है कि आप अपने दोस्तों के बीच घुलने-मिलने के लिये बचपन की रूचियों को छोड़ देना चाहें. आपको दुविधा महसूस हो सकती है और आप इसका स्पष्टीकरण मांग सकते हैं.

6. मूड में बदलाव-

आपको अक्सर और कभी-कभी अचानक ही अपने मूड में बदलाव महसूस हो सकता है और इसके साथ ही आपको अनिश्चिता और परस्पर-विरोधी ख्याल भी आ सकते हैं. जैसे, कई बार आपका मूड एकदम से बदल जाएगा, आप आश्वस्त और आनंदित से चिड़चिड़े और उदास हो जाएं. आप कैसा महसूस करते हैं, ये मूड स्विंग उसके अनुसार बदलता रहता है. यह आपके शरीर में होने वाले हॉर्मोन के स्तर के बदलाव के कारण हो सकता है या फिर प्यूबर्टी से जुड़े बदलावों के कारण.

7. संकोची महसूस करना-

हर इंसान अलग-अलग समय में प्यूबर्टी का अनुभव करता है. इसकी वजह से आपके दोस्त से आपका विकास अलग हो सकता है. आप अपने शरीर के बारे में और इसके परिणामस्वरूप आप जिस तरह से विकसित हो रहे हैं, उसके बारे में अधिक जागरूक हो सकते हैं.

चूंकि, लड़कियां, लड़कों की तुलना में पहले और जल्दी परिपक्व हो जाती हैं तो ये अनुभव उनमें ज्यादा स्पष्ट होते हैं. इसके साथ ही, उनमें शारीरक बदलाव जैसे नितंबों का आकार बड़ा होना और उनके ब्रेस्ट का विकसित होना- बहुत ही स्वाभाविक है. उनके साथियों के बीच, जोकि एक ही आयु वर्ग के हैं, उन्हें अपने अपीयरेंस को लेकर संकोची बना सकते हैं.

8. यौन इच्छा महसूस होना-

साथ ही, यौन परिपक्वता, प्यूबर्टी के बाद विकसित होती है. जब आप यौन परिपक्वता तक पहुंचते हैं तो आप परिवार शुरू करने के बारे में सोचने लगते हैं. सेक्स को लेकर और जिनके प्रति आप आकर्षित हैं उनकी ओर शारीरिक आकर्षण होना, यौन परिपक्वता का एक लक्षण है. एक लड़के या लड़की के लिये उन लोगों के प्रति यौन आकर्षण का अनुभव करना आम है, जो प्यूबर्टी के आने से “सिर्फ दोस्त” से अधिक बनना चाहते हैं.

सुरक्षित सेक्स के बारे में जानकारी-

नियमित दैनिक गतिविधियां जैसे रोमांटिक उपन्यास पढ़ना या टेलीविजन पर रोमांटिक दृश्य देखना भी आपके बच्चे की कामोत्तेजना को जगा सकता है. इन भावनाओं के लिये दोषी महसूस करने का कोई कारण नहीं है क्योंकि वे सामान्य हैं. सेक्स को लेकर आपके मन में कई तरह के सवाल हो सकते हैं. एक परिपक्व वयस्क जिसके साथ आप सेक्स पर चर्चा करने में सहज महसूस करते हैं (जैसे, आपकी मां, डॉक्टर, या परामर्शदाता) उसके साथ बात करना एक अच्छा विकल्प है. आपको अपने सवालों के जवाब मिलने चाहिए और सुरक्षित सेक्स के बारे में जानकारी होनी चाहिए.

यदि आपका बच्चा लगातार उदास रहता है, तो कोई और समस्या हो सकती है. यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि अत्यधिक और लंबे समय तक मूड स्विंग, डिप्रेशन या अन्य मानसिक समस्या का संकेत हो सकता है.

आम और अधिक गंभीर मूड स्विंग के बीच अंतर करने में मदद के लिये, यहां तीन बातें बताई गई हैं:-

1-दो हफ्ते से ज्यादा वक्त तक मूड वैसा ही रहे.

2-व्यवहार, भावनाओं और विचारों में अत्यधिक बदलाव को गंभीर माना जाता है.

3-जीवन के कई पहलुओं पर प्रभाव पड़ रहा हो (घर, स्कूल और दोस्ती)

अपने बच्चे से बात करना और यदि इस तरह के लक्षण उनमें नजर आ रहे हैं तो डॉक्टर से मदद लेना जरूरी है.

मानसिक स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं बुरी आदतें

“जिस तरह बुरी आदतें हमारे शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकती हैं, उसी तरह कुछ बुरी आदतें हमारे मानसिक स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती हैं.  उदाहरण के लिए ये आदतें हमारे डिप्रेशन के खतरे को बढ़ा सकती हैं, या आपको ज्यादा चिंतित या तनावग्रस्त महसूस करा सकती हैं.  कहना है डॉ ज्योति कपूर, सीनियर साइकेट्रिस्ट एवं फाउंडर, मन:स्थली का.

यहां कुछ आदतें बताई गई हैं जिनसे हमें नए साल की शुरुआत करने से पहले छुटकारा पाने की जरूरत है.

1- खराब मुद्रा

जर्नल ऑफ बिहेवियर थेरेपी एंड एक्सपेरिमेंटल साइकियाट्री में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, सीधे बैठने से डिप्रेशन के लक्षणों को कम किया जा सकता है.

 2- दोषी मानना

किसी भी चीज़ के लिए ख़ुद को ज़िम्मेदार मानना, किसी भी समस्या के पैदा होने या हल करने के लिए खुद को जिम्मेदार मानना, जिनका आपसे बहुत कम या कोई लेना-देना नहीं था, खुद को छोटे-मोटे अपराध करने के लिए एक बुरा व्यक्ति मानना, और खुद को माफ न करना आदि ऐसी आदतें हैं जो आपको मानसिक रूप से नुक़सान पहुंचा जा सकती है.

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 3- एक्सरसाइज की कमी

नियमित एक्सरसाइज से एंडोर्फिन और अन्य “फील गुड” केमिकल को रिलीज करके डिप्रेशन को कम कर सकते है, डिप्रेशन को बदतर करने वाले इम्यूनिटी सिस्टम के के केमिकल्स को दबा सकते है, और शरीर के तापमान को बढ़ाकर एक शांत प्रभाव पैदा कर सकते है जिससे दिमागी सन्तुलन बना रह सकता है.

4- बिना सोचे-समझे खाना –

चटपटा खाना कोई बुराई नहीं है लेकिन चिप्स से लेकर कुकीज तक कुछ भी इस तरह की चीज़ें खाना कर स्वास्थ्य समस्याओं का प्रमुख कारण है. अक्सर तनावपूर्ण स्थितियों में देखा जाता है कि जब हम टीवी देखते हुए या मोबाइल चलाते हुए खाते हैं तो हमें भूख-प्यास है या नही, इसको जानें बिना ही हम खाते हैं.  इसलिए सोच-समझकर खाएं ताकि खाने का हर टुकड़ा जायकेदार हो और स्वस्थ हो.

 5- गुस्सा करना छोड़ दें:

जब हम कुछ तनावपूर्ण या अच्छा महसूस नही करते हैं तो हम गुस्सा करते हैं और धीरे-धीरे यह एक आदत बन जाती है.  हर सुबह अपने माथे पर हाथ रखें और मांसपेशियों को आराम प्रदान  करें,  मुस्कुराएं.  जल्द ही चेहरे की यह एक नई आदत बन जाएगी.

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कोरोना के समय में बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य का रखें ध्यान कुछ इस तरह

दुनियाभर में कोरोनावायरस महामारी के समय में सोशल डिस्टेंसिंग, क्वारंटाइन और देश भर में स्कूलों के बंद रहने से बच्चे प्रभावित हुए हैं. कुछ बच्चे और युवा बेहद अलग-थलग महसूस कर रहे हैं और उन्हें चिंता, उदासी और अनिश्चितता का सामना करना पड़ रहा है. वे अपने परिवारों पर इस वायरस के प्रभाव को लेकर भय और दुख महसूस कर सकते हैं. ऐसे भय, अनिश्चितत, और कोविड-19 के प्रसार को नियंत्रित करने के लिए घर पर ही रहने जैसी स्थिति उन्हें शांत बैठे रहना मुश्किल बना सकती है. लेकिन बच्चों को सुरक्षित महसूस कराना, उनके हेल्दी रुटीन को बरकरार रखना, उनकी भावनाओं को समझना बेहद महत्वपूर्ण है. इस बारे में बता रहे हैं Kunwar’s Educational Foundation के educationist(शिक्षाविद्) राजेश कुमार सिंह.

महामारी के बारे में समाचार देखने या इसे लेकर लोगों की बातें सुनने से बच्चे डर सकते हैं. कोविड-19 ने उनके स्कूल संबंधित, मित्रता, और सामान्य रुटीन को बदल दिया है, इसलिए आपके बच्चे के भय को दूर करना और उनके शारीरिक और भावनात्मक हितों का ध्यान रखा जाना मुख्य प्राथमिकता होनी चाहिए. यहां ऐसे कुछ टिप्स बताए जा रहे हैं जिनसे आपके बच्चे को महामारी के दबाव से छुटकारा पाने में मदद मिल सकती हैः

• उम्र के स्तर पर बातचीत करें:

यदि आपका बच्चा छोटा है तो बहुत ज्यादा जानकारी उसके साथ साझा न करें, क्योंकि इससे उनकी मानसिक स्थिति प्रभावित हो सकती है. इसके बजाय, उसके द्वारा पूछे जाने वाले हरेक सवाल का जवाब देने की कोशिश करें.

• सवाल का जवाब आसानी से और ईमानदारी से दें:

यदि आपका बच्चा महामारी के बारे में कोई सवाल पूछना चाहता है तो इसके लिए ईमानदारी से जवाब देना हमेशा एक अच्छी नीति है. हालांकि आप अपने बच्चों को ज्यादा डराना नहीं चाहते हैं, लेकिन उनके साथ सोशल डिस्टेंसिंग और हाथ धोने जैसी सुरक्षा संबंधित आदतों के बारे में बात करना गलत नहीं है.

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• समझदार बनें:

आपका बच्चा दोस्तों से मिलने या अन्य पारिवारिक सदस्यों के पास जाने में सफल नहीं होने पर निराश हो सकता है. इसका ध्यान रखें. उसे यह समझाएं कि आप उनकी निराशा को समझते हैं, और आप भी अपने दोस्त और विशेष अवसरों को याद कर रहे हैं.

• वर्चुअल प्लेडेट्स की व्यवस्था करें:

अपने बच्चे को वीडियो काॅन्फ्रेंसिंग सेवा से जोड़ें, जिससे कि वे नजदीकी मित्रों और दादा-दादी के साथ संपर्क में बने रह सकें. इससे उनका ध्यान बंटाने में मदद मिलेगी.

• बच्चों को अतिरिक्त प्यार एवं स्नेह दें:

यह हम सभी के लिए तनावपूर्ण समय है और हमें अतिरिक्त देखभाल से सभी लाभ मिल सकते हैं. आपका बच्चा अतिरिक्त हग और किसेस को पसंद करेगा.

• स्पेशल वन-आन-वन टाइम को निर्धारित करें:

यदि हर कोई हर समय एक-दूसरे के साथ घर पर हो, तो हरेक सदस्य को प्रत्येक बच्चे के साथ समय बिताना संबंध मजबूत बनाने का अच्छा तरीका है.

वयस्कों का खयाल कैसे रखें?

जहां छोटे बच्चे महामारी को लेकर भयभीत हो सकते हैं, वहीं बड़े बच्चे और वयस्क इससे संबंधित प्रतिबंधों से असंतुष्ट हो सकते हैं. अपने मित्रों के साथ समय बिताना वयस्कों के लिए वाकई बेहद जरूरी है, जिससे कि सोशल डिस्टेंसिंग के खिलाफ अपनी नाराजगी जाहिर कर सकें. यहां ऐसे कुछ तरीके बताए जा रहे हैं जिसके जरिये आप उन्हें अच्छी तरह से समझा-बुझा सकते हैंः

• यह समझाएं कि सोशल डिस्टेंसिंग और अन्य नियम क्यों जरूरी हैं: वे यह सोच सकते हैं कि यदि वे अच्छा महसूस कर रहे हैं तो वे दूसरों से मुलाकात कर सकते हैं. उन्हें यह समझाएं कि भले ही वे अच्छा महसूस करें, लेकिन वे वायरस फैला सकते हैं और इससे उनके दादा-दादी या अन्य पारिवारिक सदस्यों को भी खतरा हो सकता है.

• उनकी कुंठा या गुस्से को शांत रखने की कोशिश करें:

उन चीजों को लेकर सहानुभूति रखें जिनसे उन्हें महामारी की वजह से वंचित रहना पड़ रहा है. उनकी भावनाओं को समझें. यदि आपके एरिया में प्रतिबंधों की वजह से आपके बच्चे को अपने दोस्तों से मिलना मुश्किल हो रहा है तो उन्हें यह समझने के लिए प्रोत्साहित करें कि वे किस तरह से वर्चुअली तरीके से अपने दोस्तों से जुड़े रह सकते हैं.

हेल्दी रुटीन बनाए रखें

महामारी की वजह से आपको अपने सामान्य दैनिक रुटीन को अनदेखा करना पड़ सकता है. लेकिन निरंतरता बच्चों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. नियमित समय पर भोजन करने और सोने की आदत से आपके बच्चे को सुरक्षित महसूस करने में मदद मिल सकती है.

• नए हेल्दी रुटीन बनाएं:

जिस तरह से आप न्यू नाॅर्मल को समायोजित करते हैं, उसी तरह आपको अपने बच्चों के लिए नए दैनिक शेड्यूल (schedule) बनाने की जरूरत हो सकती है. भले ही बेडटाइम्स जैसी आदतें दैनिक स्कूल के बगैर बदल गई हों, लेकिन हर दिन समान शेड्यूल पर अमल करने की कोशिश करें. व्यायाम, परिवार के साथ डिनर, और घरेलू कार्य जैसी गतिविधियों के साथ साथ बच्चे को दोस्तों के साथ बातचीत करने के लिए भी समय निर्धारित करें, चाहे यह सुरक्षात्मक तरीके से व्यक्तिगत तौर पर हो या आनलाइन के माध्यम से हो.

• सुरक्षा सलाह पर अमल करें:

विभिन्न क्षेत्रों को कई तरह के प्रतिबंधों का सामना करना पड़ रहा है. इसलिए सीडीसी, डब्ल्यूएचओ, और अपने स्थानीय सार्वजनिक स्वास्थ्य प्राधिकरणों की सलाह पर अमल करना जरूरी है. प्लेग्राउंड, स्कूलयार्ड, और पार्क ऐसे ज्यादा संपर्क वाले एरिया हैं जहां आपके बच्चे को स्वयं और दूसरों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए आपके निर्देशों का पालन करना चाहिए. उन्हें मास्क पहनने, सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखने, और नियमित तौर पर अपने हाथ धोने जैसी आदतों पर ध्यान देना चाहिए.

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• स्वच्छता और हाथ धोने की महत्ता को समझें:

बार बार हाथ धोना भले ही उबाऊ लग सकता है, लेकिन अब यह जीवन-रक्षक उपाय बन सकता है. अपने बच्चे को बाहर से आने या अन्य लोगों के संपर्क में आने के बाद हर बार हाथ धोने का आदत बनाने को कहें. छोटे बच्चों में आदत को प्रोत्साहित करने के लिए अपने बच्चे के पसंदीदा गाने में से किसी एक की धुन पर एक गीत बनाएं और हाथ धोते समय इसे एक साथ गाएं.

• सुरक्षा प्रोटोकाल पर स्वयं अमल करें :

सोशल डिस्टेंसिंग और अन्य सुरक्षा प्रोटोकाल पर स्वयं अमल करें, दूसरों के साथ भी इसे अपनाने की कोशिश करें. छोटे बच्चे प्रभावशाली होते हैं और वे आपके व्यवहार की ही नकल करेंगे, इसलिए सुनिष्चित करें कि आप उनके लिए एक सकारात्मक मिसाल स्थापित करेंगे.

Health tips: तनाव दूर करने के 5 आसान टिप्स

आप वास्तव में स्वस्थ रहना चाहती हैं, तो शरीर के साथसाथ दिमाग को भी स्वस्थ रखें. कई दफा बीमारियां और शारीरिक पीड़ाएं मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक पहलू से भी जुड़ी होती हैं, जिन पर आमतौर पर हम ध्यान नहीं देते. उदाहरण के लिए फाइब्रोसाइटिस को ही ले लें. यह ऐसी स्थिति है जिस से मांसपेशियों में दर्द, नींद और मूड से संबंधित समस्याएं हो सकती है. यह समस्या पुरुषों से कहीं ज्यादा महिलाओं में दिखती है और यह ताउम्र भी रह सकती हैं. इस की कई वजहें हो सकती हैं जैसे आर्थ्राइटिस, संक्रमण या फिर व्यायाम की कमी. ऐसे में जरूरी है कि शरीर के साथसाथ मानसिक सेहत का भी खयाल रखा जाए.

स्वास्थ्य पर असर

मानसिक बीमारियों की शुरुआत डिप्रैशन से होती है. एक व्यक्ति जब किसी बात को ले कर थोड़े समय के लिए उदास होता है, तो उस के खतरनाक नतीजे नहीं होते. मगर जब उदासी लंबे समय तक बनी रहे तो यह डिप्रैशन में बदल जाती है और व्यक्ति हमेशा उदास, परेशान, तनहा रहने लगता है, नकारात्मक बातें करता है और दूसरों से मिलने से कतराता है. इस का असर उस के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है.

दिल्ली जैसे महानगरों में लोग डिप्रैशन के साथसाथ टैंशन के भी शिकार हो रहे हैं. एक तरफ अधिक से अधिक रुपए कमाने की जरूरत तो दूसरी ओर रिश्तों में बढ़ रहा तनाव और एकाकी जीवन लोगों में टैंशन यानी तनाव बढ़ा रहा है.

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वर्ल्ड हैल्थ और्गेनाइजेशन के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 35% से ज्यादा लोग ऐक्सरसाइज करने में आलस करते हैं. शारीरिक रूप से कम सक्रियता व्यक्ति के लिए दिल की बीमारियों, कैंसर, डायबिटीज और हड्डियों के रोगों के साथसाथ मानसिक रोगों का भी खतरा बढ़ाती है.

इन बातों का रखें खयाल

व्यायाम करें: व्यायाम करने से ऐंडोर्फिन हारमोन का संचार बढ़ता है. यह एक ऐसा हारमोन है जो दर्द और तनाव से लड़ता है और अच्छी नींद लाने में सहायक होता है. रोज स्ट्रैचिंग, वाकिंग, स्विमिंग, डांसिंग जैसे व्यायाम मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाते हैं.

सामाजिक बनें: अध्ययनों के मुताबिक जिन लोगों को सामाजिक सहयोग मिलता है वे तनाव, डिप्रैशन और दूसरे मानसिक रोगों से दूर रहते हैं. फिर अपनी समस्याओं को दूसरों से डिस्कस करने पर नए रास्ते भी मिलते हैं और तनाव भी घटता है.

पसंदीदा काम करें: अकसर लोग अपनी हौबी के लिए समय नहीं निकाल पाते, जो ठीक नहीं है. अपनी हौबी को अपनाएं. इस से जीवन के प्रति उत्साह बढ़ता है और सोच सकारात्मक होती है. अपने अंदर की रचनात्मकता को बाहर लाएं. यह कोई भी काम जैसे लेखन, बागबानी, कौमेडी, कुकिंग आदि कुछ भी हो सकता है.

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किसी के लिए कुछ कर के देखें: अपने लिए तो हम सभी जीते हैं, मगर कभीकभी दूसरों के लिए भी कुछ कर पाने की खुशी मन से मजबूत बनाती है. किसी की मदद करना, किसी अजनबी को कुछ देना या फिर अपनों के काम आना जैसे कार्य आप को आनंद से भर देंगे. यानी लोगों की तारीफ करें और उन्हें खुशी दें.

दूसरों की परवाह न करें: लोग क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे जैसी बातें अकसर हमारे दिमाग के संतुलन को बिगाड़ देती हैं. इसलिए दूसरों की परवाह किए बगैर वह करें जो आप को सही लगे.

कोरोना की वजह से कम मिलें लेकिन मानसिक स्वास्थ्य के लिए मिलें जरूर

कोरोना वायरस आया तो काफी हद तक जिंदगी की रफ्तार थम गई. भय, चिंता, भविष्य से ज्यादा वर्तमान की फिक्र इंसान पर हावी हो गई. नौकरी, पढ़ाई, काम, घूमना, मौजमस्ती, जब भी मन करे घर से निकल जाना और किसी मौल में शौपिंग करना, होटल में खाना खाना या कहीं यों ही बिना योजना बनाए कार उठा कर निकल जाना, पार्टी, धमाल, दोस्तों के साथ गपबाजी, नाइटआउट, रिश्तेदारोंपरिचितों के घर जमावड़ा और सड़कों पर बेवजह की चहलकदमी – अचानक सब पर विराम लग गया. किसी के मिलने का मन होता था, तो पहुंच जाते थे उस के घर, कि चलो, आज साथ मिल कर लंच या डिनर करते हैं.

लौकडाउन से अब अनलौक तो हो गया लेकिन संक्रमण अभी भी घूम रहा है. घर से बाहर निकलने से पहले हर किसी को कई बार सोचना पड़ता है. जरूरी होता है तभी लोग कदम दरवाजा पार करते हैं. घबराहट, डर और घर में बैठे रह कर केवल आभासी दुनिया से जुड़े रहने से सब से ज्यादा असर मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ा है.

मानसिक सेहत बिगड़ी :

फैलते कोरोना वायरस के इस दौर में लोग मानसिक रूप से भी बहुत ज्यादा परेशान हुए हैं. जितना जरूरी शारीरिक स्वास्थ्य का खयाल रखना है, उतना ही जरूरी है मानसिक सेहत को दुरुस्त रखना. इस से इंसान के सोचने, महसूस करने और काम करने की ताकत प्रभावित होती है.

तनाव और अवसाद जब घेर लें तो उस का सीधा असर रिश्ते और फैसले लेने की क्षमता पर पड़ता है. जो पहले से ही मानसिक रूप से बीमार थे, कोरोना वायरस के बढ़ते संकट के इस दौर में उन लोगों को अधिक परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. लेकिन जो मानसिक रूप से स्वस्थ थे, वे भी अपनी सेहत खोते जा रहे हैं.

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इस की सब से बड़ी वजह है घर की चारदीवारी में कैद हो जाना और बाहर से सारे संपर्क टूट जाना. बेशक, वीडियो कौल पर आप जिस से चाहे बात कर सकते हैं, पर जो मजा साथ बैठ कर बात कर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में आता है, वह मोबाइल या लैपटौप पर उंगली चला कर कैसे मिल सकता है.

मिलनाजुलना सपना हो गया :

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. मानसिक तौर पर स्वस्थ रहने के लिए लोगों से मिलनाजुलना जरूरी होता है. लेकिन कोरोना ने इस पर प्रतिबंध सा लगा दिया है. उस ने तो सारी मस्ती और रौनक छीन ली है.

पहले आयोजन व समारोहों में जा कर कितने सारे लोगों से मिलने का मौका मिल जाता था और एक पारिवारिक या दोस्ताना माहौल निर्मित हो जाने के कारण ढेर सारी खुशियों के पल समेटे जब लोग घर लौटा करते थे तो कितने दिनों तक उन बातों की पोटलियां खोल कर बैठ जाया करते थे जो वहां उन्होंने साझा की थीं या जी थीं. अब तो गिनती कर लोगों को बुलाने की बाध्यता है, फिर मास्क और सेनिटाइज करते रहने के बीच सारा बिंदासपन एक कोने में दुबक कर बैठ जाता है. दूरदूर बैठ कर और हाथ हिला कर ही कुछ कहा, कुछ सुना जाता है. अपनी सुरक्षा के कारण दूसरे लोगों से खुल कर न मिल पाने की पीड़ा हर किसी को त्रस्त कर रही है.

कैसे हो रहा है असर :

ब्रिटिश जर्नल लैंसेट साइकेट्री में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, कोरोना वायरस न सिर्फ मनुष्य को शारीरिक रूप से कमजोर कर रहा है बल्कि मानसिक तौर पर भी इस महामारी के कई सारे नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहे हैं. एक अन्य शोध में यह पाया गया है कि कुछ लोगों की तंत्रिकाओं पर प्रभाव पड़ा है. मानसिक सेहत में जब लंबे समय तक सुधार नहीं हो पाता है तो वह मस्तिष्क को प्रभावित करती है. न केवल बुजुर्ग, बल्कि अकेले रहने वाले लोग, वयस्क, युगल, पुरुष, महिलाओं, बच्चों यानी हर उम्र के लोगों को मानसिक सेहत से जूझना पड़ रहा है. दैनिक रूटीन से कट जाने और घर में बंद रहने की वजह से दिमाग को मिलने वाले संकेत बंद हो जाते हैं. ये संकेत घर के बाहर के वातावरण और बाहरी कारकों से मिलते हैं. लेकिन लगातार घर में रहने से यह बंद हो जाता है. इन सब कारणों से अवसाद और चिंता के बढ़े मामले देखने को मिल रहे हैं. इसे सामूहिक तनाव भी कह सकते हैं. लोग अपने बच्चे के भविष्य को ले कर असमंजस में हैं. किसी को नौकरी छूट जाने का तनाव है तो किसी को वित्तीय स्थिति ठीक करने का तनाव. वहीं, घर पर बहुत समय रहने पर उकताहट होने वालों को बाहर निकल कर आजादी से न घूम पाने का तनाव है. मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि इसे ‘जीनोफोबिया’ का शिकार होना कहा जा सकता है. इस में लोग किसी व्यक्ति के सामने आने पर घबराने लगते हैं, बात करने से डरते हैं, आंख में आंख डाल कर बात नहीं कर पाते. ऐसा कैमरे में देखने की आदत के कारण हो रहा है.

डिजिटल दुनिया पर निर्भरता के कारण उपजी इस परेशानी को मनोवैज्ञानिक भाषा में ‘जीनोफोबिया’ यानी फीयर औफ ह्यूमन अथवा इंसानों से डर कहा जाता है. दिमाग चीजों को स्वीकार नहीं कर पा रहा. उसे लगने लगा है कि वीडियो पर बात कर के वह सहज महसूस कर पाएगा. लेकिन, हो इस के विपरीत रहा है.

मिलें लोगों से :

सुरक्षा के सारे नियमों का ध्यान रखते हुए अपने मानसिक स्वास्थ्य को सही खुराक देने के लिए बेशक कम मिलें, पर लोगों से मिलें अवश्य. बेशक दूरी बना कर मिलना पड़े, बेशक मास्क पहनना पड़े, पर मिलें अवश्य. घर बैठेबैठे होने वाली ऊब कहीं मुसीबत न बन जाए. सोशल मीडिया या इंटरनैट आप को बोर नहीं करता लेकिन यह मन की पूरी खुराक नहीं देता.

यह तो इंसान में वास्तविक जिंदगी से पलायन का भाव होता है जो उसे इंटरनैट की ओर धकेल देता है. इस समय बोरियत की शिकायत आम हो गई है. यदि आप भी खुशी की तलाश या जीवन के बे-अर्थ हो जाने के एहसास के कारण डिजिटल साधनों पर अंधाधुंध समय बिता रहे हैं तो यह मुसीबत बन सकता है. जब महज मनोरंजन या बोरियत भगाने के लिए इंटरनैट का इस्तेमाल करते हैं तो एक और परेशानी उभरती है.

सो, इस समय जरूरत है उन लोगों से मिलें जिन्हें आप की परवा है, जो आप से प्यार करते हैं या जिन के साथ समय बिताने से आप को खुशी और राहत महसूस होती है.

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जरूरत है कि फिर से लोगों से जुड़ें, सामाजिक दायरा छोटा ही रखें, पर आभासी दुनिया से अलग स्वयं उन से जा कर मिलें जरूर. आप खुद में बदलाव महसूस करेंगे, मानो बरसों का कोई बोझ उतर गया हो. खिलखिलाहटें और हंसी आप में एक नई ऊर्जा भर जाएंगी और तनाव जाता महसूस होगा. मानसिक तनाव से निकलने के लिए शराब और नशीली दवाओं का उपयोग या नींद की दवा लेने से कहीं बेहतर है कि उन से मिलें जिन के साथ वक्त गुजारना आप में जीने की ललक पैदा करता है. मानसिक स्वास्थ्य पूरी तरह से भावनात्मक आयाम पर टिका होता है. यदि हमारा सामाजिक जीवन दुरुस्त है तो हम मानसिक रूप से स्वस्थ होंगे ही और अपने संबंधों को आनंद से जी पाएंगे. तब जटिल स्थितियों का मुकाबला करने की भी शक्ति खुदबखुद आ जाती है.

कोरोना है, रहेगा भी अभी लंबे समय तक, उसे ले कर अवसाद में जीने के बजाय खुद को फिर से तैयार करें ताकि सामाजिक जीवन जी सकें. अपने प्रियजनों, दोस्तों, रिश्तेदारों व परिचितों से मिलें और अपने मानसिक स्वास्थ्य को दवाइयों का मुहताज बनाने के बजाय मन की बातें शेयर कर, खुलकर हंस कर अपने दुखसुख बांटते हुए कोरोना को चुनौती देने के लिए तत्पर हो जाएं.

पोस्ट कोविड: डॉक्टर ने बताया कैसे रखें ख्याल

देश में ठण्ड और त्योहार का मौसम शुरू होते ही कोरोना के प्रति लोगों की लापरवाही देखने को मिली. जबकि ठण्ड, कोहरा और प्रदूषण ने कोरोना को और मजबूती देने का काम किया. दिल्ली में ठंड बढ़ने के साथ ही कोरोना केसेस बढ़ने लगे हैं. लोग अस्पतालों के लंबे-चौड़े खर्चों, डॉक्टर्स की लापरवाही के चलते बुखार, खांसी होने पर ना तो कोई कोरोना टेस्ट करवा रहे हैं और ना ही डॉक्टर के पास जा रहे हैं. वे घर में ही अलग कमरे में रहकर बुखार के लिए पैरासिटामॉल दवा का सेवन कर रहे हैं. साथ ही खांसी के लिए गर्म पानी का भांप ले रहे हैं. ऐसे में उनको कोरोना है या फ्लू इसका पता ही नहीं चल रहा है.

घर के अन्य लोग जो उनके कांटटैक्ट में हैं उनका बाहर के लोगों के बीच भी उठना बैठना है. जिसके चलते कोरोना को बढ़ने का अवसर मिल रहा है. कोरोना संक्रमित लोग हमारे आस-पास घूम रहे हैं और हमें पता ही नहीं है. वायरस हर इंसान की इम्यूनिटी पावर को देखकर हमला कर रहा है, किसी को कम तो किसी को बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है. इसलिए लॉकडाउन भले खत्म हो गया हो, ऑफिस जाना शुरू हो गया हो, मेट्रो, ट्रेन, बसों ने रफ्तार पकड़नी शुरू कर दी हो मगर ठण्ड के मौसम में कोरोना को लेकर हमें और ज्यादा सतर्कता और सावधानी बरतने की जरूरत है.

दिल्ली शहर में कोविड माहामारी की तीसरी लहर विकराल रूप ले चुकी है. इस आर्टिकल के माध्यम से डॉक्टर सुगंधा गुप्ता (संस्थापक व वरिष्ठ मनोचकित्सक दिल्ली माईंड क्लिनिक करोल बाग) हमें पोस्ट कोविड के बारे में पूरी जानकारी दे रहीं हैं.

क्या है कोविड की तीसरी लहर का कारण

– मौसम में बदलाव और प्रदूषकों में बढ़ोतरी – lockdown के बाद धीरे-धीरे खुलते व्यवसाय और बाजार
– त्योहारों का समय और शादियों के मुहूर्त
– pandemic fatigues यानी लंबे समय से नियमों में बंधे लोगों को छूट मिलने पर लापरवाही.

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इन बढ़ते आंकड़ों के साथ एक चीज समझनी बहुत जरूरी है और वह यह कि हम में से 60-70% लोग या तो कोविड से ग्रसित हो चुके हैं या फिर किसी कोविड पेसेंट के संबंध मे आ चुके हैं. जहां कई लोग हल्के फुल्के लक्षण आने पर भी बार-बार टेस्ट करा रहे हैं, वहीं कुछ मरीज ज्यादा बीमार होने के बावजूद भी सामाजिक बॉयोकट के डर से टेस्ट कराने से कतरा रहे हैं. तो कई लोग बिना डॉक्टर की सलाह के ही कोविड पॉजिटिव पेसेंट की पर्ची से दवाइयां खरीदकर खा रहे हैं. जिसका शरीर पर साइड इफेक्ट देखने को मिल रहा है. आपकी रिपोर्ट पॉजिटिव आई हो या नेगेटिव, चाहे आप हॉस्पीटल रहकर आए हो या हों home quarantine में रहे हो, कुछ चीजों का विशेष ध्यान रखना जरूरी है.

शारीरिक स्वास्थय के लिए पोस्ट कोविड केयर

1. पौष्टिक, घर का बना आहार. तेल, चिकना, मीठा कम. प्रोटीन, फल, सलाद, जूस ज्यादा.
ओमेगा फेट्टी एसिड आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में कामगार है.

2. पूरी तरह से रिकवरी के लिए 6-7 की नींद जरूरी है.

3. व्यायाम करना बेहद जरूरी है. चाहे 15 मिनट की सूरज की रोशनी में सैर हो या कमरे में ऐरोबिक्स. कसरत आपकी मांसपेशियों में रक्त संचार बढ़ाने के साथ ही हड्डियों में कैलशियम, विटामिन डी के absorption को भी बढ़ाती है. जिससे हमारे बॉडी की स्टेमिना बढ़ने में मदद मिलती है.

4-मार्जरी आसन, भुजंगासन, अर्धचन्द्रासन और सूर्य नमस्कार) फेफड़ों और पूरे शरीर के स्वास्थय के लिए लाभ दायक हैं. मानसिक स्वास्थ्य शारीरिक के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना बेहद जरूरी है.

पिछले 3 से 4 महीने में कई ऐसे मरीज हमारे पास आए जिनकी कोविड रिपोर्ट नेगेटिव हुयए एक महीने से ज्यादा हो गया है या फिर उनके परिवार में कोई पॉजिटिव था लेकिन वे निगेटिव थे लेकिन इसके बावजूद ये लोग काफी डर और भय के साथ जूझ रहे हैं. ऐसे कई लोग मानसिक रोग के साथ सामने आ रहे हैं.

इनमें से प्रमुख हैं-

1. पेनिक डिसऑर्डर – अचानक बहुत तेज घबराहट होना. जिसमें छाती में दर्द , सांस फूलना, धड़कन बढ़ना, चक्कर, उल्टी, बेहोशी जैसा मह्सूस करना, लेकिन सभी जांच नॉर्मल आती है.

2. इन्सोम्नीया – नींद न आना, सोने मे डर लगना कि कहीं नींद में कुछ हो ना जाये, सोते-सोते डर कर नींद का खुल जाना और धड़कन, पसीने आना जैसे लक्षण होते हैं.

3. Somatization डिसऑर्डर – मन में बार-बार बीमारी का वहम आना, छोटे-छोटे मामूली लक्षण पर भी डर जाना, ज्यादा चिंता करना, गूगल पर बीमारी के लक्षण ढूंढना और बार-बार डॉक्टर्स से परामर्श लेना और टेस्ट कराना. वहीं रिपोर्ट नॉर्मल आने पर भी तसल्ली ना मिल पाना.

4. Depression/अवसाद- तनाव की वजह से उदासी, मायूसी, नकारात्मक विचार आना, काम की इच्छा ना करना, जल्दी थक जाना, चिड़चिड़ा मन रहना आदि. इसके अलावा कोविड ने कई और तरह की भी भावनात्मक और मानसिक तकलीफों को भी जन्म दिया है.

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मानसिक स्वास्थ्य के लिए पोस्ट कोविड केयर

-Covid की शारीरिक दूरी को सामाजिक दूरी ना समझें.
-6 फीट की उचित दूरी से ही अपने पड़ोसी, सब्जी वाले से बात करें.
– सोशल मीडिया का सही उपयोग करते हुए अपने परिवार और रिश्तेदारों से जुड़े रहें.
– Isolated, अकेले ना रहे.
अपनी रुचि के अनुसार किसी काम मे मन लगाएं.
कोई नई हॉबी सीखें.
– व्यायाम, पौष्टिक आहार, अच्छी नींद, योग पर भी ध्यान दें.
-बार-बार अपने शरीर पर, हल्के लक्षण पर अनावश्यक ध्यान ना दें.

हर 15 मिनट में oximeter पर ऑक्सीजन नापना, हर आधे घंटे में बुखार चेक करना, गूगल पर कोविड के बारे में लगातार पढ़ते रहना, इससे संबंधी न्यूज देखना, ये सब करने से बचें. अपनी दिनचर्या व्यस्त रखें. धीरे-धीरे घर के काम काज शुरु करें, खाली सोच में समय ना बिताएं. याद रखें, कोविड महामारी अभी भी हमारे बीच मे हैं और आने वाले समय मे हमें पूरी सावधानी बरतनी है, लेकिन इस सब के साथ एक अच्छी खबर ये भी है कि फाइजर कंपनी की vaccine शोध में 90% कामगार पाई गई है और जल्दी ही हमारे बीच आने की उमीद है. इसलिए सकारात्मक रहें और अपना ख्याल रखें.

युवा आबादी में स्ट्रोक के खतरे को कम करेगा डिजिटल डिटॉक्स

डॉक्टर विपुल गुप्ता, निदेशक, न्युरोइंटरवेंशन, आर्टमिस अस्पताल, गुरूग्राम

जब से दुनिया कोविड महामारी के घेरे में फंसी है कोरोना के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. इसी के साथ लोगों के बीच स्क्रीन का इस्तेमाल बहुत ज्यादा बढ़ गया है जो खुद में एक नई महामारी की तरह है. वर्ल्ड स्ट्रोक ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार चार में से एक व्यक्ति जीवन में कभी न कभी स्ट्रोक अटैक का शिकार अवश्य बनता है. आज स्ट्रोक का खतरा जितना बुजुर्गों में है उतना ही युवा आबादी में भी है.

पहले स्ट्रोक अधिक उम्र (60 से अधिक उम्र) के लोगों की बीमारी हुआ करती थी लेकिन पिछले कुछ सालों में युवा आबादी में स्ट्रोक अटैक के कई मामले देखने को मिले हैं. एक हालिया अध्ध्यन के अनुसार हालांकि पिछले कुछ सालों में स्ट्रोक के मामले कम हुए हैं, लेकिन कम उम्र (25-45 साल) के लोगों में स्ट्रोक के मामले बढ़ते नज़र आए हैं. अमेरिका व अन्य विकसित देशों की तुलना में भारत में स्ट्रोक से ग्रस्त युवा आबादी की संख्या दुगनी है.

स्ट्रोक बीमारी और विकलांगता का सब से आम और प्रमुख कारण माना जाता है. अनुमान के अनुसार विश्व स्तर पर प्रति 40 सेकेंड में एक व्यक्ति स्ट्रोक से ग्रस्त पाया जाता है और प्रति 4 मिनट में एक व्यक्ति स्ट्रोक के कारण मर जाता है. दरअसल स्क्रीन का ज्यादा इस्तेमाल स्वास्थ्य के लिए खतरनाक माना जाता है. वहीं अब स्ट्रोक को भी इस के साथ जोड़ दिया गया है.

स्क्रीन का जितना ज्यादा इस्तेमाल, स्ट्रोक का उतना ज्यादा खतरा

अमेरिका के हालिया अध्ययन के अनुसार, डिजिटल स्क्रीन के इस्तेमाल का समय हमारे जीवनकाल पर सीधा असर डालता है. एक घंटा डिजिटल स्क्रीन का इस्तेमाल हमारी जिंदगी से 22 मिनट कम कर देता है. स्क्रीन का ज्यादा इस्तेमाल हार्ट अटैक, स्ट्रोक और कैंसर का कारण बन सकता है.

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यूनाइटेड किंगडम का एक बड़ा अध्ययन, जो लगभग 40,000 प्रतिभागियों के साथ किया गया था, यह बताता है कि जो लोग स्क्रीन का इस्तेमाल दिन में 2 घंटे से ज्यादा करते हैं उन में स्ट्रोक का खतरा ज्यादा होता है. शारीरिक सक्रियता (हफ्ते के सातों दिन 1 घंटे की वॉक) इस असर को कम करती है. यहां तक कि स्क्रीन के ज्यादा इस्तेमाल से कैंसर का खतरा भी बढ़ता है.

स्क्रीन की लत बहुत आसानी से लग जाती है जिस का कारण उस से जुड़ा मनोरंजन है. जब कोई गतिविधि आनंदमय अनुभव का काम करती है तो ऐसे में मस्तिष्क में डोपामाइन नाम के रसायन की मात्रा बढ़ती है. एक बार जब व्यक्ति स्क्रीन का आदी हो जाता है तो उसे पसंदीदा खाना, परिवार और छुट्टियों से पहले जैसी खुशी मिल ही नहीं पाती है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अब डोपामाइन का स्तर केवल तभी बढ़ेगा जब व्यक्ति का मस्तिष्क मिल रहे अनुभव से पूरी तरह संतुष्ट होगा, जो अब केवल स्क्रीन के साथ ही संभव होगा.

2 घंटों के बाद स्क्रीन पर बिताया गया हर घंटा स्ट्रोक के खतरे को 20% तक बढ़ाता है. शोधकर्ताओं ने पाया है कि स्क्रीन के इस्तेमाल के दौरान हर 20 मिनट में 2-5 मिनट की शारीरिक गतिविधि डायबिटीज़ और मोटापे के खतरे को कम करती है.

कैसे कम करें स्क्रीन का समय

सोने जा रहे हैं तो नीली लाइट छोड़ने वाले उपकरणों का इस्तेमाल करने से बचें. ये लाइट मेलाटोनिन नाम के रसायन को कम करती है. यह रसायन व्यक्ति को सोने में मदद करता है. रात में ऐसे उपकरण इस्तेमाल करने से समय पर नींद नहीं आती है परिणामस्वरूप स्ट्रोक का खतरा बढता है.

अध्ययन का निष्कर्ष यह निकलता है कि 2 साल के बच्चों को किसी भी प्रकार की स्क्रीन से पूरी तरह से दूर रखना चाहिए. वहीं 16 से अधिक उम्र के लोगों को दिन में केवल 2 घंटों के लिए ही स्क्रीन का इस्तेमाल करना चाहिए. ऐसा कर के ही स्ट्रोक के खतरे को कम करना संभव है.

युवा आबादी में स्ट्रोक का खतरा

स्ट्रोक के अन्य मुख्य कारणों के अलावा शारीरिक गतिहीनता भी कम उम्र में स्ट्रोक का कारण बनता है. नियमित रूप से किया गया व्यायाम न सिर्फ समग्र स्वास्थ्य को बनाए रखने में सहायक होता है बल्कि शरीर को कई बीमारियों से दूर रखता है. स्ट्रोक को बढ़ावा देने वाली अन्य बीमारियों में उच्च रक्तचाप, डायबिटीज़ और हाई कोलेस्ट्रॉल शामिल है.

उच्च-रक्तचाप स्ट्रोक के सब से बड़े कारणों में से एक है जो इस्केमिक स्ट्रोक (ब्लॉकेज के कारण) और हेमरेज स्ट्रोक (मस्तिष्क में ब्लीडिंग) के 50% मामलों के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है. नियमित एक्सरसाइज़ ब्लड प्रेशर को संतुलित करने में मदद करती है, जिस के साथ स्ट्रोक का खतरा 80% तक कम हो जाता है.

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यह तो स्पष्ट है कि डायबिटीज के मरीजों में स्ट्रोक का दोगुना खतरा होता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि शरीर में ज्यादा शुगर सभी बड़ी रक्त वाहिकाओं को नष्ट कर देता है, जो इस्केमिक स्ट्रोक का कारण बनता है. नियमित व्यायाम न सिर्फ शुगर के स्तर को कम करता है बल्कि उनमें स्ट्रोक के खतरे को भी कम करता है.

हाई कोलेस्ट्रॉल भी स्ट्रोक के मुख्य कारणों में गिना जाता है. खराब कोलेस्ट्रॉल की अधिक मात्रा धमनियों में परत के खतरे को बढ़ाती है जो आगे चल कर क्लॉट का कारण बनता है. यह क्लॉट रक्त प्रवाह को बाधित करता है जो स्ट्रोक का कारण बनता है. एक्सरसाइज़ में कमी शरीर के साथ मस्तिष्क पर भी बुरा असर डालता है. नियमित व्यायाम और संतुलित आहार के साथ शरीर में खराब कोलेस्ट्रॉल को कम कर के अच्छे कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाया जा सकता है.

स्ट्रोक का इलाज संभव है

समय पर इलाज के साथ स्ट्रोक के मरीज को ठीक करना संभव है. लगभग 70% मामलों में इसके लक्षणों को कम या पूरी तरह खत्म किया जा सकता है.

सही इलाज में एक मिनट की देरी भी मस्तिष्क की 20 लाख कोशिकाओं को नष्ट कर देती है, इसलिए समय पर इलाज कराना आवश्यक है. स्ट्रोक के उचित इलाज के लिए मरीज को अटैक के 6 घंटों के अंदर अस्पताल लाना जरूरी है. इस के बाद लगभग 80% मामलों में मरीज विकलांगता का शिकार बनता है. हालिया प्रगति और इमेजिंग तकनीकों के साथ अब स्ट्रोक के सफल इलाज के लिए अटैक के पहले 24 घंटे बेहद जरूरी माने जाते हैं.

स्ट्रोक का इलाज 

स्ट्रोक की शुरुआती पहचान इलाज को आसान और परिणामों को बेहतर कर देती है. इस के लक्षणों में उतरा हुआ चेहरा, हाथों में कमज़ोरी, बोलने में मुश्किल और एंबुलेंस को बुलाने का समय शामिल हैं. टेक्नोलॉजी में प्रगति के साथ मस्तिष्क की रक्त वाहिकाओं को मिनिमली इनवेसिव न्यूरो-इंटरवेंशन तकनीक की मदद से फिर से सही किया जा सकता है.

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माता पिता की असमय मृत्यु के बाद ऐसे रखें बच्चों का ख्याल

जब हम किसी से प्यार करते हैं तो हमारे लिए उस इंसान के बगैर जीना मुश्किल सा हो जाता है. क्योंकि वो नुकसान इतना बड़ा होता है की उसकी भरपाई दुनिया की कोई भी चीज़ नहीं कर सकती. पर इससे भी बड़ी मुश्किल तब जन्म लेती है जब किसी बच्चे के माता पिता की युवावस्था में ही मृत्यु हो जाए.
वयस्कों की तरह, बच्चे भी उसी भयावह दुख की प्रक्रिया से गुजरते हैं. और जैसे माता-पिता के होने के लिए कोई नियम पुस्तिका नहीं है, वैसे ही अपने माता पिता के बगैर बच्चे कैसे प्रतिक्रिया करेंगे,इसके लिए भी कोई नियम पुस्तिका नहीं है.

बच्चे कभी-कभी बहुत दुखी और परेशान हो सकते हैं, कभी-कभी वे शरारती या क्रोधित हो सकते हैं, और हो सकता है की आपको कभी-कभी यह प्रतीत हो की वो भूल गए हैं. लेकिन सच कहूँ तो वे भूलते नहीं है ,एक बच्चा शायद ही कभी मौखिक रूप से अपने दुख को व्यक्त कर सकता है. इसी कारण से कम उम्र के बच्चे अक्सर डिप्रेशन का शिकार हो रहे है.

अवसाद के संकेतों को कैसे पहचाने-

बच्चे और वयस्कों में अवसाद के समान लक्षण हो सकते हैं: हो सकता है वो दूसरों से बात करने से कतराएँ,हो सकता है वो अकेला रहना चाहे, या ये भी हो सकता है की वो कुछ भी नहीं करना चाहे .
वैसे तो यह दु: ख की प्रक्रिया का एक सामान्य हिस्सा हो सकता है. लेकिन अगर यह लंबे समय तक चलता है तो आप मनोचिक्त्सक से कन्सल्ट कर सकते है.

बच्चो को इस अवसाद से बचाने के लिए ये समझना जरूरी है की बच्चे और किशोर मृत्यु को कैसे देखते है?

क्योंकि उम्र के हर पड़ाव में बच्चे का सोचने और समझने का तरीका बहुत अलग होता है.

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1- जन्म से 2 वर्ष तक के बच्चे-

इस उम्र के बच्चो में मृत्यु की कोई समझ नहीं होती.वो सिर्फ अपने माता पिता की अनुपस्थिति का अनुभव कर सकते हैं.

माता-पिता की अनुपस्थिति में बच्चो में रोने, प्रतिक्रियाशीलता में कमी और खाने या सोने में बदलाव जैसी प्रतिक्रिया हो सकती है.

2- 3 वर्ष से 6 वर्ष तक के बच्चे-

इस उम्र के बच्चे मृत्यु के बारे में जानेने के लिए बहुत उत्सुक होते हैं. इस उम्र के बच्चो को मृत्यु की स्थायी स्थिति को समझने में परेशानी हो सकती है. “वे कहेंगे कि पापा चले गए हैं और एक घंटे बाद पापा के घर आने के लिए खिड़की पर प्रतीक्षा करेंगे ”

अक्सर कुछ बच्चे अपने आपको दोषी समझते हैं और मानते हैं कि वे अपने माता पिता की मृत्यु के लिए जिम्मेदार हैं, वे “बुरे” थे इसीलिए उनके माता-पिता चले गए.

“(शायद ऐसा इसलिए होता है की जब वो अपने माता पिता के साथ थे तब कभी कभार हंसी-मज़ाक या गुस्से में माता पिता अक्सर बोलते है की ,मै आपको छोड़ कर चला जाऊंगा या जब मेरे जाने के बाद आपको कोई भी प्यार नहीं करेगा. )

ऐसे बच्चे अकसर अपनी भावनाओं को शब्दों में बयां नहीं कर पाते. और इसी कारण उनके अंदर चिड़चिड़ापन, आक्रामकता, सोने में कठिनाई, या प्रतिगमन जैसे व्यवहार पाये जाते हैं.

3- 6 वर्ष से 12 वर्ष तक के बच्चे –

इस उम्र के बच्चे मृत्यु को व्यक्ति या आत्मा के रूप में, भूत, परी या कंकाल की तरह समझ सकते हैं.
वो अक्सर मौत के विशिष्ट विवरण में रुचि रखते हैं जैसे मृत्यु के बाद शरीर का क्या होता है??
इस उम्र के बच्चे अपराधबोध, क्रोध, शर्म, चिंता, उदासी सहित कई भावनाओं का अनुभव कर सकते हैं और अपनी मृत्यु के बारे में चिंता कर सकते हैं.

4- 13 वर्ष से 18 वर्ष तक के बच्चे –

इस उम्र के बच्चो को ये नहीं पता होता की उन्हे इन परिस्थितियों में कैसे संभलना है.वो अक्सर परिवार के सदस्यों पर गुस्सा कर सकते हैं या आवेगी या लापरवाह व्यवहार दिखा सकते हैं, जैसे कि मादक द्रव्यों का सेवन, स्कूल में लड़ाई और यौन संकीर्णता.

कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कितने साल के हैं, परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु कठिन और अक्सर भारी भावनाओं की एक श्रृंखला ला सकती है: सदमे, गहरी उदासी, भ्रम, चिंता और क्रोध, सब कुछ बस नाम लेने के लिए है.पर फिर भी हम खुद को और उन बच्चो को जिनहोने अपने माता पिता को खो दिया है इस कठिन समय से उबारने की कोशिश तो कर सकते हैं.

यहां मैंने बच्चे को मृत्यु और नुकसान को समझाने में मदद करने के लिए कुछ सुझाव दिए हैं-
1-उन्हें आश्वस्त करें की उनकी गलती नहीं है-

जब किसी बच्चे के माता-पिता की असमय मृत्यु हो जाती है, तो बच्चे खुद को दोषी ठहरा सकते हैं. यह विशेष रूप से तब हो सकता है जब मृत्यु काफी अचानक हो.या बच्चे के माता पिता ने हंसी मज़ाक या गुस्से में कोई ऐसा तर्क दिया हो.
उन्हें यह आश्वस्त करना महत्वपूर्ण है कि मृत्यु एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और उनका इसमे कोई दोष नहीं है.

2-उन्हें बताए की दुखी होना ठीक है-

बच्चे का व्यवहार इस बात पर बहुत निर्भर करता है कि उनके आसपास के लोग कैसे व्यवहार कर रहे हैं. अक्सर बच्चे एक प्रोटेक्टर की भूमिका निभाते हैं और वयस्कों से अपनी भावनाओं के बारे में बात नहीं करते क्योंकि उन्हें लगता है कि वयस्क परेशान हो जाएगा.
कभी कभी ऐसा भी होता है की आप उन्हें बता रहे हैं कि शोक करना ठीक है, लेकिन अपने दुःख को उनसे छिपाने की कोशिश कर रहे हैं, तो उन्हें लग सकता है कि उन्हें भी ‘मजबूत’ होने की आवश्यकता है.
इसलिए हर समय बच्चों को “मजबूत” होने के लिए दबाव महसूस न कराएं.
अगर बच्चे किसी से अपना दुख कह नहीं पाएंगे तो वो अंदर ही अंदर घुटते रहेंगे ,और यही घुटन एक दिन अवसाद का रूप ले लेगी.

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इसलिए सबसे अच्छा यही होगा कि आप जितना हो सके पूरी तरह से शोक करें, ताकि वे आपको दुखी देख सकें – और समझें कि दुखी होना या रोना ठीक है.

3-मृत्यु के बारे में बात करते समय, सरल, स्पष्ट शब्दों का उपयोग करें-

एक चीज़ हमेशा याद रखें की भाषा मायने रखती है, इसलिए अपने द्वारा चुने गए शब्दों से अवगत रहें.मृत्यु के बारे में बात करते समय ऐसे शब्दों का प्रयोग करें जो सरल और प्रत्यक्ष हों. उनके माता-पिता की मृत्यु कैसे हुई, इस बारे में जितना संभव हो उतना सरल होने की कोशिश करें. लेकिन केवल एक हद तक जो आपके बच्चे की आयु और विकास के लिए उपयुक्त हो.बहुत अधिक विस्तार में जाने से एक बच्चे के दिमागी विकास पर बुरा असर पड़ेगा. इसलिए अपने स्पष्टीकरण को सत्य लेकिन संक्षिप्त रखें.

उदाहरण के लिए , “मुझे पता है कि आप बहुत दुखी महसूस कर रहे हैं. मैं भी दुखी हूँ. हम दोनों ही उनसे बहुत प्यार करते थे, और वह भी हमसे प्यार करते थे.”
अपने बच्चे की उम्र को ध्यान में रखते हुए मृत्यु की प्रकृति के बारे में ईमानदार रहें.

4-बच्चो को भ्रमित न करें-

एक चीज़ हमेशा याद रखें ‘सच्चाई छुपाने से बाद में अविश्वास पैदा हो सकता है’ क्योंकि बच्चे मौत के बारे में जानने के लिए बहुत उत्सुक रहते हैं.

अभी कुछ ही समय पहले की बात है ,एक छोटी बच्ची के पिता का देहांत हो गया था,उसके पूछने पर की पापा कहाँ गए ? घरवालों ने उससे कहा की वो सोते-सोते भगवान जी के पास चले गए.आप यकीन नहीं करेंगे ‘उस छोटी बच्ची को सोने से डर लगने लगा ‘.
इसलिए “नींद में चले गए” जैसे वाक्यांशों को भ्रमित करने के बजाय वास्तविक शब्दों का उपयोग करके मौत की व्याख्या करें.
उदाहरण के लिए , आप कह सकते हैं कि मृत्यु का मतलब है कि व्यक्ति के शरीर ने काम करना बंद कर दिया है या वह व्यक्ति अब सांस नहीं ले सकता है.

एक चीज़ और मृत्यु के बारे में अपने परिवार की धार्मिक या आध्यात्मिक मान्यताओं को साझा करें.

4-उन्हें अपनी भावनाओं और आशंकाओं को साझा करने दें:

माता पिता की मृत्यु के बाद कई बच्चे अपनी कहानी साझा करना चाहते हैं. वे आपको बताना चाहते हैं कि क्या हुआ, वे कहाँ थे जब उन्हें उनके माता पिता की मृत्यु के बारे में बताया गया या उस वक़्त उन्हे कैसा महसूस हुआ………
कभी-कभी बच्चे एक भय का भी अनुभव कर सकते है. वे इस बात को लेकर परेशान हो सकते हैं की अन्य लोग जो उनके करीब हैं वे भी उन्हें छोड़ देंगे या उनकी भी मृत्यु हो जाएगी.

यह सुनिश्चित करने के लिए कि आपके बच्चे कैसा महसूस कर रहे हैं और क्या कर रहे हैं, बातचीत जारी रखें. हीलिंग का मतलब प्रियजन के बारे में भूलना नहीं है. इसका मतलब है कि व्यक्ति को प्यार के साथ याद करना.

5-परंपराएँ और याद करने के तरीके बनाएँ:

अक्सर ऐसा होता है की जब बच्चे माता पिता से दूर हो जाते है तो कुछ विशेष अवसर जिनमे उनकी अपने माता पिता से कुछ कीमती यादें जुड़ी होती है जैसे मदर्स डे, फादर डे,वर्षगाँठ आदि बच्चो के लिए विशेष रूप से कठिन हो सकते हैं.
कोशिश करें की जितना ज्यादा संभव हो सके बच्चों को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के अवसर दे. यह बातचीत के माध्यम से, नाटक के माध्यम से, या ड्राइंग और पेंटिंग के माध्यम से हो सकता है.

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कम उम्र में माता-पिता को खोने से दीर्घकालिक परिणाम हो सकते हैं जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता है. यही कारण है कि माता-पिता की मृत्यु के बाद पारिवारिक परामर्श इतना महत्वपूर्ण हो सकता है, खासकर अगर नुकसान अप्रत्याशित या दर्दनाक है, जैसे कि आत्महत्या या हिंसक मौत.

NOTE: प्रत्येक परिवार का द्रष्टिकोण अलग हो सकता है.

कोरोना की वजह से कम से मिलें पर मेंटल हेल्थ के लिए मिलें जरुर

कोरोना आया और एक बार तो बहुत हद तक जिंदगी की रफ्तार थम गई. भय, चिंता, भविष्य से ज्यादा वर्तमान की फिक्र इंसान पर हावी हो गई. नौकरी, पढ़ाई, काम, घूमना, मौज-मस्ती, जब भी मन करे घर से निकल जाना और किसी मॉल में शॉपिंग करना या होटल में खाना खाना या कहीं यूं ही बिना योजना बनाए कार उठाकर निकल जाना. पार्टी, धमाल, दोस्तों के साथ गप्पबाजी या नाइट आउट, रिश्तेदारों व परिचितों के घर जमावाड़ा और सड़कों पर बेवजह की चहलकदमी—अचानक सब पर विराम लग गया. किसी के मिलने का मन है तो पहुंच गए उसके घर, कि चलो आज साथ मिलकर लंच या डिनर करते हैं. लॉकडाउन खुल गया, पर संक्रमण घूमता रहा और अब घर से बाहर निकलने से पहले कई बार सोचना पड़ता है, जरूरी है तभी कदम दरवाजा पार करते हैं. घबराहट, डर और घर में बैठे रहकर केवल आभासी दुनिया से जुड़े रहने से सबसे ज्यादा असर मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ा है.

मानसिक सेहत बिगड़ी

कोरोना वायरस के इस दौर में लोग मानसिक रूप से ज्यादा परेशान हुए हैं. जितना जरूरी शारीरिक स्वास्थ्य का ख्याल रखना है, उतना ही जरूरी है मानसिक सेहत को दुरुस्त रखना. इससे इंसान के सोचने, महसूस करने और काम करने की ताकत प्रभावित होती है. तनाव और अवसाद जब घेर ले तो उसका सीधा असर रिश्ते और फैसले लेने की क्षमता पर पड़ता है. जो पहले से ही मानसिक रूप से बीमार थे, 

कोरोना वायरस के बढ़ते संकट के इस दौर में उन लोगों को अधिक परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. लेकिन जो मानसिक रूप से स्वस्थ थे, वे भी अपनी सेहत खोने लगे हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह है घर की चारदीवारी में कैद हो जाना और बाहर से सारे संपर्क टूट जाना, बेशक वीडियो कॉल पर आप जिससे चाहे बात कर सकते हैं, पर जो मजा साथ बैठकर बात कर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में आता है, वह मोबाइल या लैपटॉप पर अंगुली चलाकर कैसे मिल सकता है.

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मिलना-जुलना सपना हो गया

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. मानसिक तौर पर स्वस्थ रहने के लिए लोगों से मिलना-जुलना जरूरी होता है. लेकिन कोरोना ने जैसे इस पर प्रतिबंध लगा दिया है. सारी मस्ती और रौनक छीन ली है. आयोजन व समारोहों में, जहां जाकर कितने सारे लोगों से मिलने का मौका मिल जाता था और एक पारिवारिक या दोस्ताना माहौल निर्मित हो जाने के कारण ढेर सारी खुशियों के पल समेटे जब लोग घर लौटा करते थे तो कितने दिनों तक उन बातों की पोटलियां खेलकर बैठ जाया करते थे जो वहां उन्होंने साझा की थीं या जी थीं. अब तो गिनती कर लोगों को बुलाने की बाध्यता है, फिर मास्क और सेनेटाइज करते रहने के बीच सारा बिंदासपन एक कोने में दुबक कर बैठ जाता है. दूर-दूर बैठकर और हाथ हिलाकर ही कुछ कहा, कुछ सुना जाता है. अपनी सुरक्षा के कारण दूसरे लोगों से खुलकर न मिल पाने की पीड़ा हर किसी को त्रस्त कर रही है. 

कैसे हो रहा है असर

 ब्रिटिश जर्नल लैंसेट साइकेट्री में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, कोरोना वायरस न सिर्फ मनुष्य को शारीरिक रूप से कमजोर कर रहा है बल्कि मानसिक तौर पर भी इस महामारी के कई सारे नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहे हैं. एक अन्य शोध में यह पाया गया है कि कुछ लोगों की तंत्रिकाओं पर प्रभाव पड़ा है. मानसिक सेहत में जब लंबे समय तक सुधार नहीं हो पाता है तो वह मस्तिष्क को प्रभावित करती है. न केवल बुजुर्ग, बल्कि अकेले रहने वाले लोग, वयस्क, युगल, पुरुष, महिलाओं, बच्चों, यानी हर उम्र के लोगों को मानसिक सेहत से जूझना पड़ रहा है. 

दैनिक रूटीन से कट जाने और घर में बंद रहने की वजह से दिमाग को मिलने वाले संकेत बंद हो जाते हैं. यह संकेत घर के बाहर के वातावरण और बाहरी कारकों से मिलते हैं लेकिन लगातार घर में रहने से यह बंद हो जाता है. इन सब कारणों से अवसाद और चिंता के बढ़े मामले देखने को मिल रहे हैं. इसे सामूहिक तनाव भी कह सकते हैं. लोग अपने बच्चे के भविष्य को लेकर असमंजस में हैं,  किसी को नौकरी छूट जाने का तनाव है तो किसी को वित्तीय स्थिति ठीक करने का तनाव, घर पर बहुत समय रहने पर उकताहट होने वालों को बाहर निकलकर आजादी से न घूम पाने का तनाव है. 

 मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि इसे जीनोफोबिया‘ का शिकार होना कहा जा सकता है. इसमें लोग किसी व्यक्ति के सामने आने पर घबराने लगते हैं, बात करने से डरते हैं, आंख में आंख डालकर बात नहीं कर पाते. ऐसा कैमरे में देखने की आदत के कारण हो रहा है. डिजिटल दुनिया पर निर्भरता के कारण उपजी इस परेशानी को मनोवैज्ञानिक भाषा में जोनोफोबियायानी फीयर ऑफ ह्यूमन अथवा इंसानों से डर कहा जाता है. दिमाग चीजों को स्वीकार नहीं कर पा रहा और उसे लगने लगा है कि वीडियो पर बात करके वह सहज महसूस कर पाएगा, पर हो इसके विपरीत रहा है. 

मिलें लोगों से

सुरक्षा के सारे नियमों का ध्यान रखते हुए अपने मानसिक स्वास्थ्य को सही खुराक देने के लिए बेशक कम मिलें, पर लोगों से मिलें अवश्य. बेशक दूरी बनाकर मिलना पड़े, बेशक मास्क पहनना पड़े, पर मिलें अवश्य. घर बैठे-बैठे होने वाली ऊब कहीं मुसीबत न बन जाए. सोशल मीडिया या इंटरनेट आपको बोर नहीं करता बल्कि यह अकसर बोरियत या वास्तविक जिंदगी से पलायन का भाव होता है जो इंटरनेट की ओर धकेल देता है. इस समय बोरियत की शिकायत आम हो गई है. यदि आप भी खुशी की तलाश या जीवन के बे-अर्थ हो जाने के एहसास के कारण डिजिटल साधनों पर अंधाधुंध समय बिता रहे हैं तो यह मुसीबत बन सकता है. जब महज मनोरंजन या बोरियत भगाने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं तो एक और परेशानी है. इस समय जरूरत है उन लोगों से मिलें जिन्हें आपकी परवाह है, जो आपसे प्यार करते हैं या जिनके साथ समय बिताने से आपको खुशी और राहत महसूस होती है. 

जरूरत है कि फिर से लोगों से जुड़ें, सामाजिक दायरा छोटा ही रखें, पर आभासी दुनिया से अलग स्वयं उनसे जाकर मिलें जरूर. आप खुद में बदलाव महसूस करेंगे, मानो बरसों का कोई बोझ उतर गया हो. खिलखिलाहटें और हंसी आपमें एक नई ऊर्जा भर जाएगी और तनाव जाता महसूस होगा. मानसिक तनाव से निकलने के लिए शराब और नशीली दवाओं का उपयोग या नींद की दवा लेने से कहीं बेहतर है कि उनसे मिलें जिनके साथ वक्त गुजारना आप में जीने की ललक पैदा करता है. 

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मानसिक स्वास्थ्य पूरी तरह से भावनात्मक आयाम पर टिका होता है. यदि हमारा सामाजिक जीवन दुरुस्त है तो हम मानसिक रूप से स्वस्थ होंगे ही और अपने संबंधों को आनंद से जी पाएंगे. तब जटिल स्थितियों का मुकाबला करने की भी शक्ति स्वतः आ जाती है. कोरोना है, रहेगा भी अभी लंबे समय तक, उसे लेकर अवसाद में जीने के बजाय खुद को फिर से तैयार करें ताकि सामाजिक जीवन जी सकें. अपने प्रियजनों, दोस्तों, रिश्तेदारों व परिचितों से मिलें, और अपने मानसिक स्वास्थ्य को दवाइयों का मोहताज बनाने के बजाय, मन की बातें शेयर कर, खुल कर हंस कर, अपने दुख-सुख बांटते हुए, कोरोना को चुनौती देने के लिए तत्पर हो जाएं. 

लैंगिक भेदभाव: केजुअल सेक्सिज़्म

ये कभी आकस्मिक नहीं होता. केजुअल सेक्सिज़्म के बारे में ज्यादा गहराई से जानने से पहले हम यह जानेंगे की यह होता क्या है? जब हम किसी व्यक्ति के साथ उसके लिंग के आधार पर अलग किस्म से व्यवहार करतें हैं तो उसे ही अक्सर होने वाला  लैंगिक भेद भाव (केजुअल सेक्सिज़्म) कहा जाता है. इस पितृसत्तात्मक समाज में ज्यादातर महिलाओं को यह सहना पड़ता है. लगभग हर जगह ही जैसे काम पर या घर पर, समाज में हर जगह महिलाएं इसका शिकार बनती हैं. आइए जानते हैं यह महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को किस प्रकार प्रभावित करता है?

समाज द्वारा स्थापित रोल तय करना : अक्सर समाज महिलाओं से पहले से स्थापित तय किए गए नियमो को मानने की अपेक्षा करता है. यदि आप एक लड़की हैं तो आप ने अपने घर वालों को अक्सर यह कहते सुना होगा कि एक लड़की की तरह पेश आओ या आप के लिए सुंदर दिखना जरूरी होता है.

महिलाओं का उदाहरण देकर ताने मारना : आप ने अक्सर देखा होगा की कुछ पुरुषों को हम यह कह कर चिड़ाते हैं की यह महिलाओं की तरह चल रहा है या हम महिलाओं को भी कई बार ऐसे उदाहरण देते हैं कि उनका दिमाग घुटनों में होता है जोकि एक प्रकार से उन्हें नीचा दिखाना होता है.

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यौन वस्तुकर्ण : इसका उदाहरण है मां बहन की गंदी गालियां या आपके कार्यस्थल पर कसी गई फब्तियां, आप कैसी दिखती हैं इस पर टिप्पणी , आप को गलत तरह से छूना आदि.  यह भी महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को नकारत्मक रूप से प्रभावित करता है.

अब जानते हैं कि यह लैंगिक भेदभाव महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को किस प्रकार प्रभावित करता है?

सुरक्षा खतरे में होना : जब महिलाओं को रास्ते में कोई गलत तरीके से छेड़ेगा या उस पर किसी प्रकार की टिप्पणियां करेगा तो उनको अपनी सुरक्षा का खतरा तो महसूस होगा ही. उनके एक प्रकार का भय मन में बैठ जाएगा.

स्वयं को कम समझना : यदि पुरुषों महिलाओं को दूसरे का उदाहरण देकर नीचा दिखायेंगे  तो महिलाओं को अपने मन में यह लगेगा की उनमें कुछ कमी है. इसलिए वह अपने आप को कम समझेंगी.

आत्म विश्वास में कमी : यदि महिलाओं को अपनी बनावट व वह कैसी दिखती हैं इन बातों पर बुरी टिप्पणियां मिलेंगी तो उन्हें अपने आप में ही अच्छा महसूस नहीं होगा. कहीं न कहीं उनका आत्म विश्वास कमजोर हो जाएगा.

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स्वयं को दोषी मानना : महिलाएं अक्सर हर छोटी छोटी बात को दिल से लगा कर बैठ जाती हैं. ऐसे में यदि कोई भी उन्हें उनके बारे में कुछ भी गलत बोलेगा तो वह उस में अपना ही कोई दोष ढूंढेंगी.

असशक्त बनना : यदि महिलाएं स्वयं को कमजोर समझने लगेंगी तो उन्हें लगेगा की उनके पास कुछ भी करने के लिए हिम्मत नहीं है. ऐसे में वह सशक्त नहीं बनेंगी जिससे उनके कैरियर व उनकी मानसिक हालत पर भी गहरा व नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. अतः हम सब को यह ऊपर लिखित बातें ध्यान में रखनी चाहिए और किसी भी महिला को नीचा नहीं दिखना चाहिए.

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