तालिबानी ऐसा क्यों कर रहे हैं?

जैसा की डर था, अफगानिस्तान में तालिबानियों के लौटते ही औरतों की आजादी छिनने लगी है. अफगान औरतों का दफ्तरों में प्रवेश बंद किया जा रहा है और जिन औरतों ने 20 सालों की ‘आजादी’ में पढ़लिख कर सरकारी व निजी सेक्टर में जगह बनाई थीं, उन्हें अब घरों में बैठने को कहा जा रहा है. महिलाओं का मंत्रालय अब इबादल और सही रास्ता दिखाने वाला दफ्तर बन गया है जहां सिर्फ मर्द है.

तालिबानी ऐसा क्यों कर रहे हैं? इसलिए कि उन का धर्म यह कहता है. पर दुनिया का कौन सा धर्म है जो औरतों को आजादी देता है? ईसाई धर्म मानने वाले आज अफगान औरतों के लिए आंसू बहा रहे हैं पर अभी 200 साल पहले तक वे बाइबल से औरतों को पाठ पढ़ाकर कमरों और घरों में बंद ही कर रहे थे.

हिंदू धर्म की हालत कौन सी अच्छी रही है. राजाराम मोहन राय जैसों के आंदोलन आखिर क्यों हुए थीं. शिव पुराण के पूर्वाद्र्ध में प्रथम खंड का पहला ही अध्याय लें. उस में कुछ मुनियों की सूतजी से भेंट का जिक्र है. ये मुनि शिकायत करते हैं. पुराने धर्म का नाश होने वाला है, उन के भविष्य के वर्णन के अनुसार क्षत्रिय सत्यधर्म से विमुख हो कर स्त्रियों के आधीन हो जाएंगे. स्त्रियां पति से सेवा विमुख हो जाएंगी, अन्य पुरुषों से हंसने बोलने लगेंगी. यह भाव क्या आज छिपे तौर पर मौजूद नहीं है.’

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इस्लामी सिरफरे अगर कट्टर शरिया कानून को थोप पा रहे हैं तो इसलिए कि इन कट्टरों को अपने घरों में अपनी मांओं, पत्नियों या बेटियों से विरोध नहीं सहना पड़ता. धर्म का डर सभी औरतों में गहरे बैठा है. काबुल व कुछ शहरों की औरतों को छोड़ दें तो आम अफगान औरतें दुनिया के अन्य हिस्सों की औरतों की तरह धर्म भीरू हैं. अमेरिका में डोनेल्ड ट्रंप की पार्टी अगर औरतों को गर्भपात का अधिकार नहीं देना चाहती तो इसीलिए कि बाइबल में इस का निषेध है. वहां के रिपब्लिक पार्टी के बहुमत वाले कैलिफोॢनया राज्य ने कानून बनाया है कि गर्भपात पहले 6 सप्ताह में ही कराया जा सकता है और इस कानून पर देश की सुप्रीम कोर्ट ने भी मोहर लगा दी है. यह कौन से तालिबानी फैसले से कम है?

दुनियाभर में धर्मों के नाम पर औरतों पर अत्याचार आज भी हो रहे हैं और जिस पर अत्याचार होता है उस से हमदर्दी तो दूसरी औरतें जताती हैं पर उस के साथ बचाव में साथ खड़ी नहीं होतीं, वे धर्म के ईशारे पर मूक समर्थन करती हैं.

जब तक धर्म को छूट मिलती रहेगी, औरतों को धर्म 100 नहीं 1000 साल पहले के माहौल में ले जाने की कोशिश करता रहेगा. यह डर सब देशों में है. सभी देशों में तालिबानी सोच वालों की कमी नहीं है. अफगानिस्तान में शासक धर्म की नाव पर चढक़र आए है पर कहां धर्म का बोलबाला नहीं है, कहां चर्च, मंदिर, मसजिद, मठ चमचमा नहीं रहे. जहां धर्म की चमक होगी वहां औरतों की आजादी की राख पड़ी होगी.

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खेद है लोकतंत्र नहीं रहा

धर्म व राजसत्ता का गठजोड़ फासीवाद व अंधवाद पैदा करता है. धर्म को सत्ता से दूर करने के लिए ही लोकतंत्र का उद्भव हुआ था. रोम को धराशायी करने में सब से बड़ा योगदान समानता, संप्रभुता व बंधुत्व का नारा ले कर निकले लोगों का था. ये लोग धर्म के दुरूपयोग से सत्ता पर कब्ज़ा कर के बैठे लोगों को उखाड़ कर फेंकने को मैदान में उतरे थे व राजशाही को एक महल तक समेट कर ब्रिटेन में लोकतंत्र की और आगे बढे.

बहुत सारे यूरोपीय देश इस से भी आगे निकल कर राजतन्त्र को दफन करते हुए लोकतंत्र की और बढे और धर्म को सत्ता के गलियारों से हटा कर एक चारदीवारी तक समेट दिया, जिसे नाम दिया गया वेटिकन सिटी.

आज किसी भी यूरोपीय देश में धर्मगुरु सत्ता के गलियारों में घुसते नजर नहीं आएंगे. ये तमाम बदलाव 16वीं शताब्दी के बाद नजर आने लगे, जिसे पुनर्जागरण काल कहा जाने लगा अर्थात पहले लोग सही राह पर थे फिर धार्मिक उन्माद फैला कर लोगों का शोषण किया गया और अब लोग धर्म के पाखंड को छोड़ कर उच्चता की और दुबारा अग्रसर हो चुके है.

आज यूरोपीय समाज वैज्ञानिक शिक्षा व तर्कशीलता के बूते दुनियां का अग्रणी समाज है. मानव सभ्यता की दौड़ में कहीं ठहराव आता है तो कहीं विरोधाभास पनपता है, लेकिन उस का तोड़ व नई ऊर्जा वैज्ञानिकता के बूते हासिल तकनीक से हासिल कर ली जाती है.

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आज हमारे देश में सत्ता पर कब्ज़ा किये बैठे लोगों की सोच 14वीं शताब्दी में व्याप्त यूरोपीय सत्ताधारी लोगों से ज्यादा जुदा नहीं है. मेहनतकश लोगों व वैज्ञानिकों के एकाकी जीवन व उच्च सोच के कारण कुछ बदलाव नजर तो आ रहे है, लेकिन धर्मवाद व पाखंडवाद में लिप्त नेताओं ने उन को इस बात का कभी क्रेडिट नहीं दिया.

जब किसी मंच पर आधुनिकता की बात करने की मज़बूरी होती है तो इन लोगों की मेहनत व सोच को अपनी उपलब्धि बताने की कोशिश करने लगते है. ये ही लोग दूसरे मंच पर जाते है तो रूढ़िवाद व पाखंडवाद में डूबे इतिहास का रंगरोगन करने लग जाते है.

धर्मगुरुओं का चोला पहन कर इन बौद्धिक व नैतिक भ्रष्ट नेताओं के सहयोगी पहले तो लोगों के बीच भय व उन्माद का माहौल पैदा करते है और फिर सत्ता मिलते ही अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता के केंद्र बन बैठते है.

सरकारे किसी भी दल की हो, यह कारनामा करने से कोई नहीं हिचकता. पंडित नेहरू से ले कर नरेंद्र मोदी तक हर प्रधानमंत्री की तस्वीरें धर्मगुरुओं के चरणों में नतमस्तक होते हुए नजर आ जायेगी.

गौरतलब है कि जब धर्मगुरु जनता द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री से ऊपर होते है तो लोकतंत्र सिर्फ दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं होता और बेईमान लोग इसी लोकतंत्र नाम की दुहाई दे कर मख़ौल उड़ाते नजर आते है.

इसी रोगग्रस्त लोकतंत्र की चौपाई का जाप करतेकरते अपराधी संसद में बैठने लगते है तो धर्मगुरु लोकतंत्र के संस्थानों को मंदिर बता कर पाखंड के प्रवचन पेलने लग जाते है और नागरिकों का दिमाग चक्करगिन्नी की तरह घूमने लग जाता है. नागरिक भ्रमित होकर संविधान भूल जाते है और टुकड़ों में बंटी सत्ता के टीलों के इर्दगिर्द भटकने लग जाते है.जहाँ जाने के दरवाजे तो बड़े चमकीले होते है लेकिन लौटने के मार्ग मरणासन्न तक पहुंचा देते है.

इस प्रकार लोकतंत्र समर्थक होने का दावा करने वाले लोग प्राचीनकालीन कबायली जीवन जीने लग जाते है, जहांं हर 5-7 परिवारों का मुखिया महाराज अधिराज कहलाता था. आजकल लोकतंत्र में यह उपाधि वार्डपंच, निगमपार्षद व लगभग हर सरकारी कर्मचारी ने हासिल कर ली है.जिनको नहीं मिली वो कोई निजी संगठन का मनगढ़त निर्माण कर के हासिल कर लेता है. इस प्रकार मानव सभ्यता वापिस पुरातनकाल की ओर चलने लग गई व लोकतंत्र अपने पतन की ओर.

जहां सत्ता धर्म से सहारे की उम्मीद करने लगे व धर्म सत्ता के सहारे की तो लोकतंत्र का पतन नजदीक होता है, क्योंकि लोकतंत्र का निर्माण ही इन उम्मीदों पर पानी फेरने के लिए ही हुआ है.

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आज ये दोनों ताकत के केंद्र आपस में मिल गए है तो लोकतंत्र असल में अपना वजूद खो चुका है. अब हर अपराधी, भ्रष्ट, बेईमान, धर्मगुरु, लुटेरे आदि हर कोई अपनेअपने हिसाब से लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करने लग गया है.

जब सत्ता में इन लोगों का बोलबाला होने लग गया तो लोकतंत्र आम नागरिकों से दूर हो चूका है. संवैधानिक प्रावधान चमत्कार का रूप ले चुके है, जिस को सुना जाए तो बहुत ही सुहावने लगते है लेकिन कभी हकीकत में नहीं बदल सकते.

किसान आंदोलन के प्रति राजनैतिक व धार्मिक दोनों सत्ता के केंद्रों का रवैया दुश्मनों जैसा है. अपने ही देश के नागरिकों व अपने ही धर्म के अनुयायियों के प्रति यह निर्लज्ज क्रूरता देख कर प्रतीत होता है कि अब लोकतंत्र नहीं रहा.

और बाइज्जत बरी…

17जनवरी, 2014 को सुनंदा पुष्कर नई दिल्ली के 7 स्टार होटल लीला पैलेस के सुइट नंबर 345 में मृत पाई गईं. प्रथम दृष्टया यह सभी को आत्महत्या का मामला लगा.

19 जनवरी, 2014 को सुनंदा पुष्कर का पोस्ट मार्टम हुआ. डाक्टरों ने कहा कि यह अचानक अप्राकृतिक मौत का मामला लगता है. उन के शरीर में ऐंटी ऐंग्जाइटी दवा अल्प्राजोलम के नाममात्र के संकेत मिले हैं. सुनंदा के हाथों पर एक दर्जन से ज्यादा चोट के निशान थे. उन के गाल पर घर्षण का एक निशान था और उन की बाईं हथेली के किनारे पर दांत से काटे का निशान था.

सुनंदा पुष्कर की मौत की जांच दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच को सौंपी गई. लेकिन मामला 2 दिन बाद वापस दिल्ली पुलिस को ट्रांसफर कर दिया गया.

जुलाई, 2014 में सुनंदा पुष्कर का पोस्ट मार्टम करने वाले पैनल के लीडर एम्स के डाक्टर सुधीर गुप्ता ने दावा किया कि उन पर औटोप्सी  रिपोर्ट में हेरफेर करने के लिए दबाव बनाया गया था. सुधीर गुप्ता ने केट यानी केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण में एक हलफनामा दायर कर आरोप लगाया कि उन पर मामले को छिपाने और क्वाटर मैडिकल रिपोर्ट देने के लिए दबाव बनाया गया. सुधीर ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सुनंदा के शरीर पर चोट के 15 निशान थे जिन में से अधिकांश ने मौत में योगदान नहीं दिया. बकौल डाक्टर सुधीर गुप्ता सुनंदा के पेट में अल्प्राजोलम दवा की अधिक मात्रा मौजूद थी.

जनवरी, 2015 में दिल्ली के तत्कालीन पुलिस आयुक्त बीएस बस्सी ने कहा कि सुनंदा पुष्कर ने आत्महत्या नहीं की बल्कि उन की हत्या की गई है. इस के बाद दिल्ली पुलिस ने अज्ञात लोगों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कर लिया.

फरवरी, 2016 में दिल्ली पुलिस के विशेष जांच दल ने शशि थरूर से पूछताछ की जिस में उन्होंने कहा कि सुनंदा की मौत दवा की ओवर डोज के कारण हुई.

जुलाई, 2017 में भाजपा के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने दिल्ली हाई कोर्ट से मांग की कि इस मामले की जांच सीबीआई के नेतृत्व वाले विशेष जांच दल से अदालत की निगरानी में करवाई जाए.

2018 में दिल्ली पुलिस ने शशि थरूर पर अपनी पत्नी सुनंदा पुष्कर को आत्महत्या के लिए उकसाने (आईपीसी की धारा 306) और क्रूरता (धारा 498ए) का आरोप लगाया. दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट ने उन्हें इस मामले में मुजरिम माना.

15 मई, 2018 को पुलिस ने शशि थरूर के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया.

जुलाई, 2018 में एक सैसन कोर्ट ने शशि थरूर को इस मामले में अग्रिम जमानत दी, जिसे बाद में नियमित जमानत में बदल दिया गया.

12 अप्रैल, 2021 को अदालत ने फैसला सुरक्षित रखा.

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18 अगस्त, 2021 को एक वर्चुवल सुनवाई में अदालत ने शशि थरूर को बरी कर दिया. अपना फैसले में अदालत ने कहा कि शशि थरूर के खिलाफ उन्हें ऐसा कोई साक्ष्य नजर नहीं आया जिस के आधार पर उन के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी दी जा सके. कोई भी जांच या रिपोर्ट सीधे तौर पर उन्हें कठघरे में खड़ा नहीं कर रही है इसलिए शशि थरूर को आरोपमुक्त किया जाता है.

यह हाई प्रोफाइल मामला जो बाद में टांयटांय फिस्स साबित हुआ पूरे साढ़े 7 साल चला लेकिन इस का जिम्मेदार शनि नाम का वह काल्पनिक क्रूर ग्रह नहीं है जो ज्योतिषियों की आमदनी का बड़ा जरीया है, जिस का खौफ भारतीयों के दिलोदिमाग में इस तरह बैठा दिया गया है कि वे इस से छुटकारा पाने के लिए मुहमांगी दानदक्षिणा देने को तैयार रहते हैं.

शशि थरूर पर कानूनी प्रक्रिया का शनि था जिस ने उन्हें साढ़े 7 साल चैन से न तो खानेपीने और न ही सोने दिया, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और सामान्य जिंदगी जीते हुए पूरे आत्मविश्वास से लड़े और जीते भी.

ऐसी थी इन की लव स्टोरी

सुनंदा पुष्कर उतनी ही सुंदर थीं जितना कि कश्मीर के बोमाई इलाके में जन्मी एक कश्मीरी पंडित परिवार की लड़की को होना चाहिए. सुनंदा के पिता पुष्कर नाथ दास सेना में लैफ्टिनैंट कर्नल थे. सुनंदा जितनी खुबसूरत थीं उतनी ही मेहनती, हिम्मती और महत्त्वाकांक्षी भी थीं. स्कूली और कालेज की पढ़ाई सुनंदा ने श्रीनगर के गवर्नमैंट ‘कालेज फौर वूमन’ से की और बतौर कैरियर बजाय नौकरी के बिजनैस को चुना. सुनंदा की पहली शादी कश्मीर के ही संजय रैना से हुई थी लेकिन दोनों में 3 साल में ही खटपट होने लगी जिस के चलते तलाक हो गया.

3 साल बाद ही 1991 में सुनंदा ने सुजीत मेनन नाम के व्यापारी से दूसरी शादी कर ली और दोनों व्यापार के लिए दुबई चले गए. व्यापार शुरू में तो ठीक चला पर बाद में जब घाटा होने लगा तो सुजीत भारत आ गए. इन दोनों को तब तक एक बेटा हो चुका था जिस का नाम इन्होंने शिव मेनन रखा.

सुजीत की 1997 में एक ऐक्सीडैंट में मौत हो गई तो सुनंदा टूट गईं. लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपने दम पर बेटे की परवरिश करती रहीं. दुबई में उन्होंने ‘ऐक्सप्रैस’ नाम की इवेंट कंपनी शुरू की थी जो तरहतरह के इवेंट आयोजित करती थी. जिंदगी चलाने और पैसा कमाने के लिए सुनंदा ने कई नौकरियां भी कीं और आर्टिफिशियल ज्वैलरी का काम भी किया.

पैसा कमाने पर ज्यादा फोकस

बेटे शिव की एक बीमारी के इलाज के लिए सुनंदा लंबे वक्त तक कनाडा में रहीं और वहां की नागरिकता भी उन्होंने ले ली. दुबई वापस आने के बाद उन्होंने कई कंपनियों के साथ काम किया और खासा पैसा बनाया इतना कि दुबई के पौश इलाकों में उन्होंने 3 मकान ले लिए. पहले पति से तलाक और दूसरे की मौत का दुख सुनंदा भूलने लगीं क्योंकि उन्होंने लगातार खुद को व्यस्त रखा और ज्यादा से ज्यादा फोकस पैसा कमाने पर किया जो उन के लिए बहुत जरूरी थी.

सदमों से उबर चुकी सुनंदा को फिर सहारे की जरूरत महसूस हुई जो पूरी शशि थरूर जैसी नामी हस्ती से हुई. इन दोनों की पहली मुलाकात 2008 में दिल्ली में इंपीरियल अवार्ड समारोह में हुई थी. यहीं दोनों में दोस्ती हो गई. 1 साल दोनों एकदूसरे को डेट करते रहे. तब सुनंदा 46 साल की थीं और शशि थरूर 52 साल के थे. फिर दोनों दुबई में मिले तब सुनंदा वहीं रहती थीं.

दोनों परिपक्व थे, लिहाजा उन्होंने रोमांस के साथसाथ दुनियाजहान की भी बातें कीं और आने वाली जिंदगी की भी प्लानिंग की. शशि थरूर तब केंद्रीय मंत्रिमंडल में थे इसलिए उन्हें काफी संभल कर रहना पड़ता था.

छिपा नहीं प्यार

मगर यह प्यार छिपा नहीं रह सका लिहाजा सस्पेंस खत्म करते हुए दोनों ने न केवल शादी की घोषणा कर दी बल्कि 22 अगस्त, 2010 को शादी कर भी ली.

यह शादी शशि थरूर के पैतृक गांव पल्लल्कड में समारोहपूर्वक हुई जिस की चर्चा सिर्फ केरल में ही नहीं बल्कि पूरे देश और विदेशों में भी हुई थी. तिरुअनंतपुरम में भी प्रीतिभोज हुआ था और उस के बाद शशिसुनंदा हनीमून मनाने स्पेन के लिए उड़ लिए थे. दिलचस्प बात यह थी कि दुलहन की तरह दूल्हे की भी तीसरी शादी थी.

सब से आकर्षक और सोशल मीडिया पर सैक्सी व रोमांटिक सांसद के खिताब से नवाज दिए गए शशि थरूर की पहली शादी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और नेहरु मंत्रिमंडल में शामिल रहे कैलाश नाथ काटजू की पोती तिलोत्तमा मुखर्जी से 1981 में हुई थी.

तिलोत्तमा भी कालेज में बेहद लोकप्रिय थीं उस पर बेमिसाल खूबसूरत भी तो शशि उम्र में अपने से बड़ी इस लड़की पर मर मिटे. दोनों आधुनिक और अमीर परिवारों से थे, इसलिए कोई अड़चन उन की लव मैरिज में नहीं आई. शादी के बाद तिलोत्तमा नागपुर के एक कालेज में पढ़ाने लगीं और शशि संयुक्त राष्ट्र से जुड़ गए. शादी के बाद दूसरे साल ही इस कपल को जुड़वां बेटे हुए. नामालूम वजहों के चलते दोनों 2007 में अलग हो गए. तिलोत्तमा न्यूयौर्क यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर हो गईं.

जाग उठी महत्त्वाकांक्षाएं

इस शादी के टूटने के बाद अफवाह यह उड़ी थी कि शशि का अफेयर संयुक्त राष्ट्र के एक विभाग की डिप्टी सैक्रेटी चेरिस्टा गिल से चल रहा था जो तिलोत्तमा को नागवार गुजरा था. इन दोनों के रोमांस के चर्चे भी संयुक्त राष्ट्र के गलियारे में होने लगे थे. सच क्या है यह तो शशि थरूर ही बेहतर बता सकते हैं, लेकिन अफवाहें निराधार नहीं थीं. उन्होंने 2007 में चेरिस्टा से शादी कर ली. अब तक वे संयुक्त राष्ट्र में डिप्टी सैक्रेटरी बन चुके थे जो पूरे देश के लिए गर्व की बात थी.

2008 में शशि थरूर देश वापस आ गए और कांग्रेस जौइन कर ली और 2009 का चुनाव जीत कर लोक सभा भी पहुंचे. इस खूबसूरत नेता को लोगों ने हाथोंहाथ लिया तो उन की महत्त्वाकांक्षाएं और भी सिर उठाने लगीं. लेकिन चेरिस्टा को भारतीय आवोहवा रास नहीं आई और एक तलाक और हो गया. हालांकि इस तलाक की वजह सुनंदा पुष्कर से उन की बढ़ती नजदीकियां भी आंकी गई थीं.

फिर आई मेहर

लगता ऐसा है कि शशि थरूर को पहले शादी फिर किसी और से रोमांस और फिर पत्नी को तलाक देने की लत सी पड़ती जा रही थी. सुनंदा ने उन के इस स्वभाव के बारे में शायद ज्यादा नहीं सोचा था या फिर ज्यादा ही सोच लिया होगा इसलिए वे डिप्रैशन की शिकार रहने लगीं. अब चर्चा उड़ी शशि थरूर और पाकिस्तानी पत्रकार मेहर तरार के अफेयर की जो शशि की जिंदगी में घोषित तौर पर आई तीनों महिलाओं से कम सुंदर और कम प्रतिभाशाली नहीं थीं.

जैसे ही एक दिन अपनेआप में घुट रहीं सुनंदा ने ट्विटर पर अपने पति के नए प्यार का अनावरण कर डाला तो फिर हल्ला मचा जो विवाद में उस वक्त बदला जब मेहर ने सोशल मीडिया पर इस पर प्रतिक्रिया दी. लगा ऐसा था मानों झग्गीझेंपड़ी की 2 औरतें साड़ी कमर में खोंसे एकदूसरे से कह रही हों कि संभाल कर क्यों नहीं रखती अपने खसम को और जबाव में दूसरी उसी टोन में कह रही है कि संभाल कर तो तू अपनेआप को रख… यहांवहां कमर मटकाती घूमती रहती है.

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मीडिया ने इस बार भी खूब चटखारे लिए तो शशिसुनंदा को संयुक्त बयान जारी कर अपनी निजी जिंदगी और गृहस्थी की दुहाई देनी पड़ी. लेकिन सुनंदा की मौत के कुछ दिन बाद ही ये अटकलें लगाई जाने लगी थीं कि शशि अब मेहर से निकाह कर लेंगे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता पर मुकदमा चला तो शशि थरूर को पहली दफा कानून के माने समझ आए और अपना दर्द उन्होंने जताया भी जो आमतौर पर हर उस पति का है जिस पर घरेलू हिंसा का केस दर्ज है या फिर तलाक का मुकदमा चल रहा है.

बेनाम भी हैं परेशान

यह दर्द वही महसूस और बयान कर सकता है जिस ने झठे आरोपों से छुटकारा पाने के लिए सालोंसाल अदालत की चौखट पर एडि़यां रगड़ी हों. इस यंत्रणा को भोपाल के एक पत्रकार योगेश तिवारी के मामले से सहज समझ जा सकता है जिन के तलाक के मुकदमे का निबटारा 14 साल बाद भी नहीं हो पा रहा.

निचली अदालत ने तलाक की डिक्री दी तो पत्नी हाई कोर्ट पहुंच गई जो 11 साल में तय नहीं कर पा रहा कि तलाक का निचली अदालत का फैसला सही था या नहीं. हां उस ने पत्नी को स्थगन आदेश जरूर दे दिया.

अब मैं यह तय नहीं कर पा रहा कि मैं शादीशुदा हूं, अविवाहित हूं या फिर तलाकशुदा हूं. योगेश कहते हैं कि मेरी वैवाहिक स्थिति कानूनन क्या है यह बताने को कोई तैयार नहीं. मैं अब अधेड़ हो चला हूं, लेकिन जब तक हाई कोर्ट अपना फैसला नहीं देता तब तक मैं दूसरी शादी भी नहीं कर सकता. 14 साल से मैं कानूनी ज्यादतियों का शिकार हो रहा हूं. मैं किस से अपना दुखड़ा रोऊं. समाज और रिश्तेदारी में खूब बदनामी हो चुकी है.

क्या शादी करना और पटरी न बैठने पर तलाक के लिए अदालत जाना अपराध है? अदालतें और कानून क्यों पतिपत्नी की परेशानियां नहीं समझते?

कोर्ट की चिंता

ये परेशानियां हर वे पति और पत्नी भुगत  रहे हैं जिन्होंने अदालत का रुख किया. लेकिन चूंकि अदालत के बाहर शादी तो की जा सकती

है पर तलाक नहीं दिया जा सकता इसलिए  लोग इस और इस से जुड़े कानूनों को कोसते नजर आते हैं तो वे गलत कहीं से नहीं हैं.

अकेले जबलपुर हाई कोर्ट में तलाक के करीब  10 हजार योगेश जैसे मामले निबटारे की बाट  देख रहे हैं.

फिर देशभर के दूसरे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के अलावा निचली अदालतों का क्या हाल होगा सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. बुढ़ाते कई पतिपत्नी अब नई जिंदगी की आस छोड़ने लगे हैं तो दोषी कानून नहीं तो और कौन है?

घरेलू हिंसा के कानून पर अब अदालतें खुद चिंता जताने लगी हैं कि इस का दुरुपयोग ज्यादा होने लगा है तो इस मासूमियत और अदा पर हंसी भी आती है और रोना भी कि कानून इस तरह बनाए ही क्यों जाते हैं जिन का दुरुपयोग होना संभव हो. योगेश जैसे पीडि़तों और भुक्तभोगियों से कोई सबक क्यों नहीं लिया जाता. कोई तलाक चाहता है चाहे वह पति हो या फिर  पत्नी उसे शादी के बंधन से जल्दी छुटकारा क्यों नहीं मिलता?

क्रूरता नहीं है तलाक

तलाक कोई क्रूरता नहीं है बल्कि क्रूरता से बचने का सब से आसान रास्ता है. जब पतिपत्नी का एक छत के नीचे रहना वजहें कुछ भी हों दूभर हो जाए तो उन्हें साथ रहने की नसीहत क्यों दी जाती है इस सवाल का जबाव ही फसाद और परेशानियों की असल जड़ है. कोई पत्नी या पति अदालत तलाक के लिए जाता है तो परिवार और समाज की निगाह में तो गुनहगार हो ही जाता है लेकिन कानून भी उसे बख्शता नहीं.

अदालत परिवार परामर्श केंद्र और दूसरी सरकारी एजेंसियां सुलह के लिए दबाव क्यों बनाती हैं? यहां से शुरू होती है परिक्रमा जिस से पीडि़तों को मिलता तो कुछ नहीं उलटे काफी कुछ छिन जाता है. मसलन, मानसिक शांति, प्रतिष्ठा, पैसा और सामाजिक स्थिरता जो सामान्य जिंदगी जीने के लिए हवा, पानी और भोजन की तरह जरूरी हैं.

फसाद की एक बड़ी जड़ तलाक से जड़े दूसरे कानून भी हैं. विदिशा की एक वकील उषा विक्रोल बताती हैं कि जल्दी तलाक के लिए अकसर महिलाएं पति और ससुराल बालों के खिलाफ दहेज मांगने और प्रताड़ना की झठी शिकायत दर्ज करा देती हैं और तुरंत ही भरणपोषण का भी दावा कर देती हैं जिस से एकसाथ 3 मुकदमे एक ही मंशा और मामले के चलने लगते हैं.

इन में अलगअलग तारीखें पड़ती रहती हैं और धीरेधीरे सुलह की गुंजाइश भी खत्म होती जाती है. पत्नी सोचती है कि पति तलाक देने में आनाकानी कर रहा है और पति सोचता है कि जिस औरत ने झठे आरोप लगा दिए अब तो उस के साथ सुलह व गुजर और भी मुश्किल है.

पतिपत्नी में से किस की कितनी गलती इस बात के कोई माने नहीं. उषा कहती हैं कि तलाक कानून और प्रक्रिया को नल या बिजली के कनैक्शन की तरह होना चाहिए कि एक आवेदन से वे कट जाएं. इस से मुमकिन है तलाक की दर बढ़ जाए पर उस में हरज क्या है. कानूनी अड़चनों और देरी के डर से हैरानपरेशान लोग अदालत ही न आएं यह कौन सा न्याय होगा और आने के बाद लोगों की हालत देख तरस आए यह भी न्याय नहीं कहा जा सकता. कुछ नहीं बल्कि कई मुवक्किलों की हालत देख कर तो लगता है कि पंचायत का जमाना ही ठीक था जब एक चबूतरे पर बैठे 4-5 लोग तलाक का फैसला सुना देते थे. अब तो फैसला ही मुश्किल हो चला है.

यह दर्द वही महसूस और बयान कर सकता है जिस ने झूठे आरोपों से छुटकारा पाने के लिए सालोंसाल अदालत की चौखट पर एडि़यां रगड़ी हों.

कानून के फ्रेम में थरूर

कानून की वेवजह की देर जो अंधेर से कम नहीं के फ्रेम में शशि थरूर भी फिट होते हैं जो मुमकिन है राजनीतिक प्रतिशोध का शिकार हुए हों. लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि सुनवाई और फैसलों में गैरजरूरी देरी क्यों? अदालत से बरी होने के बाद उन की प्रतिक्रिया से पता चलता है कि यह अकेले उन की नहीं बल्कि लाखोंकरोड़ों लोगों की व्यथा है.

उन का 2 बार आसानी से तलाक हुआ क्योंकि दोनों ही पक्ष पर्याप्त शिक्षित, आधुनिक और परिपक्व होने के अलावा समझदार भी थे. लेकिन सुनंदा की मौत के बाद उन्हें कानूनी कू्ररता का एहसास हुआ तो उन्होंने फैसला देने वाली न्यायाधीश गीतांजलि गोयल का आभार व्यक्त करने के बाद कहा-

यह साढ़े 7 साल की पूर्ण यातना थी. यह उस डरावने सपने का अंत है जिस ने मेरी दिवंगत पत्नी सुनंदा के दुखद निधन के बाद मुझे घेर लिया था.

? मैं ने भारतीय न्यायपालिका में अपने विश्वास की वजह से दर्जनों निराधार आरोपों और मीडिया में की गई बदनामी को

धैर्यपूर्वक झेला है और न्यायपालिका में आज मेरा विश्वास सही साबित हुआ है.

? हमारी न्यायप्रणाली में अकसर सजा ही  होती है.

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न्याय मिलने के बाद मैं और मेरा परिवार सुनंदा का शोक शांति से मना पाएंगे. लेकिन सब से ज्यादा अहम शशि थरूर के वकील विकास पाहवा का यह कहना उल्लेखनीय रहा कि पुलिस ने जो आत्महत्या के लिए उकसाने और क्रूरता के आरोप थरूर पर लगाए थे वे बेतुके थे. यह बात अदालत में साबित भी हो चुकी है जिस के चलते जो यंत्रणाएं शशि थरूर ने भुगतीं और जो दूसरे लोग भुगत रहे हैं उन्हें राहत देने के लिए कोई राह क्यों नहीं तलाशी जा रही? पुलिस और सीबीआई जैसी संस्थाओं को सरकार का तोता कहा जाने लगा है तो इसमें गलत क्या है? किसी आत्महत्या के 4 साल बाद किसी को अभियुक्त बनाया जाना और आत्महत्या को हत्या का मामला बनाए जाने की कोशिश करना कानून की हत्या नहीं तो क्या है जिसे करता कोई और है और सजा बेगुनाहों को भुगतना पड़ती है?

यहां सारे पाप धुल जाते हैं

पत्नी हो तो उत्तर प्रदेश के पूर्व विधायक कुलदीप सेंगर जैसे  की, जो पति के रेप कांड में पकड़े और जेल जाने के बावजूद न केवल पति के प्रति समर्पित है, उस की पार्टी के प्रति भी.

भारतीय जनता पार्टी ने उस व्यक्ति की पत्नी को पंचायत चुनावों के लिए टिकट दिया था, जिस पर एक से बढ़ कर एक गंभीर आरोप लगे थे और जिन में रेप का आरोप भी था और अदालतों ने सजा सुना दी.

यह भी मानना पड़ेगा कि भारतीय जनता पार्टी अपने को वास्तव में वैसा अमृत मानती है, जो हर पाप से मुक्ति दिला दे. कुलदीप सेंगर को कुकर्मों के लिए सजा देने की जगह पार्टी उस की पत्नी को टिकट दे कर यह साबित कर रही है कि रेप, हत्या जैसी चीजें बड़ी बात नहीं हैं अगर व्यक्ति भाजपा में है.

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पार्टी यह भी कहती है कि एक पत्नी को अपने कुख्यात पति के प्रति निष्ठावान भी रहना चाहिए और जन्मों के बंधन रेप, हत्या जैसी छोटी चीजों के कारण तोड़ा नहीं जा सकता.

दरअसल, पार्टी मानती है कि जो धर्म की शरण में आ जाता है चाहे वह विभीषण हो या सुग्रीव अपना हो जाता है, उस के सारे पाप धुल जाते हैं. कुंती और द्रौपदी के पाप कृष्ण के निकट आने से धुल गए थे न. कुलदीप सेंगर को देश की अदालतों ने गुनहगार माना है, न पार्टी ने, न पत्नी ने.

कुलदीप सेंगर से उन्नाव के सांसद साक्षी महाराज भी जेल में मिलने गए थे और यह बता आए थे कि सुखी रहें, शीघ्र मुक्ति मिल जाएगी. वे कोई दलित या कांग्रेसी या वामपंथी या फिर लालू यादव थोड़े ही हैं कि सालों जेल में रहेंगे.

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भारतीय जनता पार्टी को अगर बुरा लगा तो यह कि खुराफाती तत्त्वों ने पत्नी की निष्ठा और समर्पण का आदर नहीं किया और पंचायत चुनाव में उसे टिकट देने पर हल्ला मचा डाला. ईश्वर जैसे संरक्षक होने के बावजूद संगीता सेंगर को हालांकि टिकट नहीं दिया गया था, पर यह पक्का है कि दोषी दोषमुक्त हो चुका है. हत्या, बलात्कार जैसी चीजें तो होती ही रहती हैं.

महिला नेताएं महिलाओं के मुद्दे क्यों नहीं उठातीं

राजस्थान की सत्ता वसुंधरा राजे के हाथों से फिसल चुकी है और इसलिए फिलहाल सिर्फ़ पश्चिम बंगाल ऐसा राज्य है जहां एक महिला मुख्यमंत्री है और वह हैं ममता बनर्जी. जब कि कुछ साल पहले तक भारत के चारों कोनों में एकएक महिला मुख्यमंत्री थी. साल 2011 और साल 2014 में भारत के चार राज्यों की ज़िम्मेदारी महिला मुख्यमंत्रियों के हाथों में थी.

जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ़्ती, गुजरात में आनंदीबेन पटेल, राजस्थान में वसुंधरा राजे और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी. इस से पहले तमिलनाडु में जयललिता भी थीं. आजादी के बाद से अब तक भारत में कुल 16 महिला मुख्यमंत्री हुई हैं जिन में उमा भारती, राबड़ी देवी और शीला दीक्षित जैसे नाम शामिल हैं.

भले ही भारत में महिला मुख्यमंत्रियों की संख्या उंगलियों पर गिने जाने भर की रही हो मगर हम इस से इनकार नहीं कर सकते कि ममता बनर्जी , जयललिता और मायावती जैसी महिलाएं सबसे ताकतवर मुख्यमंत्रियों में से एक रही हैं. इन का कार्यकाल काफी प्रभावी रहा है. फिर चाहे वह तमिलनाडु में जयललिता की जनवादी योजनाएं हों या उत्तर प्रदेश में मायावती का कानून-व्यवस्था को काबू में करना और ममता का हर दिल पर राज करना.

मगर जब बात उन के द्वारा महिलाओं के हित में किये जाने वाले कामों की होती है तो हमें काफी सोचना पड़ता है. दरअसल इस क्षेत्र में उन्होंने कुछ याद रखने लायक किया ही नहीं. यह बात सिर्फ मुख्यमंत्रियों या प्रधानमंत्री के ओहदे पर पहुंची महिला शख्सियतों की ही नहीं है बल्कि हर उस महिला नेता की है जो सत्ता पर आसीन होने के बावजूद महिला हित की बातें नहीं उठातीं.

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एक सामान्य सोच यह है कि यदि महिलाएं शीर्ष पदों पर होंगी तो महिलाओं के हित में फैसले लेंगी. लेकिन ऐसा हो नहीं पाता. इंदिरा गांधी जब देश की प्रधानमंत्री थीं तब कोई क्रांति नहीं आ गई या जिन राज्यों में महिलाएं मुख्यमंत्री थीं वहां महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी हो गई ऐसा भी नहीं है. हम यह भी नहीं कह सकते कि पुरुष राजनेता महिलाओं के हक़ में फ़ैसले ले ही नहीं सकते. मगर इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि महिलाओं से जुड़े संवेदनशील मुद्दों को महिला नेताओं द्वारा उठाया जाना ज्यादा प्रभावी और बराबरी का हक़ देने वाला हो सकता है.

महिला और पुरुष जिन समस्याओं का सामना करते हैं, जिन्हें वे जीते हैं वो बिल्कुल अलग होती हैं. हाल ही में लोकसभा में सेरोगेसी बिल पास किया गया. संसद में 90 प्रतिशत सांसद पुरुष थे जो चाहकर भी गर्भधारण नहीं कर सकते. फिर भी, इन पुरुषों ने महिलाओं के शरीर को नियमित करने वाला बिल पास किया. हमारी नीतियां देश की 50 प्रतिशत आबादी यानी महिलाओं की जरूरतों से मेल नहीं खातीं. इसलिए हमें ऐसी महिला नेताओं की ज्यादा जरूरत है जो महिलाओं के मुद्दों को उठा सकें.

उदहारण के लिए राजस्थान में गांवों की महिलाएं पीढ़ियों से पानी की कमी का सामना कर रही हैं. लेकिन इन महिलाओं को राहत देने के लिए वहां की सरकार द्वारा कभी कोई महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाया गया क्योंकि सरकार में कोई महिला मंत्री नहीं है. सच यह है कि महिला मंत्री ही महिलाओं की स्थिति में कुछ बदलाव ला सकती हैं क्योंकि वे औरतों की समस्या समझ पाती हैं.

महिलाओं को लगता कि महिला प्रतिनिधि को इसलिए चुनना चाहिए क्योंकि वो महिला मुद्दों को प्रमुखता देंगी या वो कम भ्रष्ट होंगी या ज़्यादा नैतिक होंगी मगर ऐसा होता नहीं.

हाल ही में जब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने महिलाओं की रिप्पड जींस (Ripped Jeans) को ले कर एक विवादित बयान दिया तो राजनीतिक दलों की महिला नेताओं ने उन की जम कर क्लास लगाई. सपा सांसद जया बच्चन से ले कर तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा, शिवसेना सांसद प्रियंका चतुर्वेदी, कांग्रेस प्रवक्ता गरिमा दसौनी ने तीरथ सिंह रावत पर निशाना साधा. किसी ने सोच बदलने की नसीहत दी तो किसी ने उन के बयान को अमर्यादित बताया. सवाल उठता है कि क्या केवल इस तरह के छोटेमोटे मुद्दों पर बयानबाजी कर के ही महिला नेताओं के कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है? क्या महिलाओं से जुड़े गंभीर मुद्दों पर उन्हें ध्यान नहीं देना चाहिए?

महिलाओं में विश्वास पैदा करना जरूरी

महिला नेताओं द्वारा महिला सुरक्षा या सम्मान पर तो काफी बात की जाती है और यह जरूरी भी है लेकिन इस के साथ ही महिलाओं के कई अहम मुद्दे होते हैं जिसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है. जरूरी है कि उन के अधिकारों की बात को शामिल किया जाए ताकि महिलाओं को लगे कि अब कोई आ गई है जो उन के लिए सोचेगी, उन की तकलीफ महसूस कर सकेगी. इस से वोट देने में भी उन की दिलचस्पी बढ़ेगी. उन्हें इस बात का एहसास होगा कि सरकार बनाने में उन का योगदान भी ज़रूरी है और वे अपनी पसंद की प्रतियोगी को आगे ला सकती हैं.

महिला नेताएं क्यों नहीं लेतीं महिलाओं के हित में फैसले?

दरअसल जब कोई महिला नेता बनने के मार्ग में आने वाली तमाम अड़चनें पार कर के राजनीति में ऊंचे पद पर पहुंचती है तो उस की प्रतियोगिता उन तमाम पुरुषों से होती है जो पहले से सत्ता में काबिज हैं और हर तरह के हथकंडे अपना कर अपना नाम बनाए रखने में सक्षम हैं. ऐसे में महिला नेताएं भी चुनाव जीतने के लिए वही हथकंडे अपनाने लगती हैं जो पुरुष अपनाते हैं. ऐसे में इस पूरी प्रक्रिया में महिलाओं के मुद्दे कहीं पीछे चले जाते हैं.

असली फ़र्क़ तब आएगा जब महिलाओं की संख्या में बड़ा अंतर आए. पुरुष अपनी बात मनवाने में इसलिए कामयाब होते हैं क्योंकि वो राजनीति में बहुसंख्यक हैं और महिलाएं अल्पसंख्यक हैं. जब अधिक महिलाएं सत्ता पर आसीन होंगी तो वे अपने मकसद को सही दिशा दे पाएंगी. उन्हें सत्ता खोने का उतना डर नहीं रह जाएगा.

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राजनीति में महिलाएं कम क्यों हैं?

स्वतंत्रता आंदोलनों के समय से ले कर आजाद भारत में सरकार चलाने तक में महिलाओं की राजनीतिक भूमिका अहम रही है. इस के बावजूद जब राजनीति में महिला भागीदारी की बात आती है तो आंकड़े बेहद निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं. बात एक्टिव पॉलिटिक्स की हो या वोटर्स के रूप में भागीदारी की, दोनों ही स्तर पर महिलाओं की हिस्सेदारी बहुत कम है. वैसे महिला वोटरों की स्थिति पहले से थोड़ी बेहतर हुई है. मगर विश्व स्तर पर भारत की पॉलिटिक्स में सक्रिय महिलाओं की दृष्टि से भारत 193 देशों में 141 वें स्थान पर ही है.

भारत में आजादी के बाद पहली केंद्र सरकार के 20 कैबिनेट मिनिस्ट्री में सिर्फ एक महिला, राजकुमारी अमृत कौर थीं जिन्हें स्वास्थ्य मंत्री का कार्यभार सौंपा गया था. लाल बहादुर शास्त्री की सरकार में एक भी महिला को जगह नहीं दी गई. यहां तक कि इंदिरा गांधी के कैबिनेट में भी एक भी महिला यूनियन मिनिस्टर नहीं थीं. राजीव गांधी की कैबिनेट में सिर्फ एक महिला (मोहसिना किदवई) को शामिल किया गया. मोदी सरकार में महिलाओं की स्थिति पहले से बेहतर हुई है. लेकिन अभी भी स्थिति को पूरी तरह से बेहतर नहीं माना जा सकता है. महिला वोटरों की बात करें या महिला नेताओं की, कहीं न कहीं अभी भी घर के पुरुष उन के फैसलों को प्रभावित करते हैं.

अगर भारतीय राजनीति में सक्रिय महिलाओं को देखें तो उन में से ज्यादातर सशक्त राजनीतिक परिवारों से आती हैं. फिर चाहे वह इंदिरा गांधी हों या वसुंधरा राजे. ऐसी कई वजहें हैं जो महिलाओं को राजनीति में आने से रोकती हैं, मसलन इस क्षेत्र में सफल होने के लिए जेब में पैसे काफी होने चाहिए और जरुरत पड़ने पर हिंसा का रास्ता भी अख्तियार करने की हिम्मत होनी चाहिए. .

वैसे भी राजनीति एक मुश्किल पेशा है. इस में काफ़ी अनिश्चितताएं होती हैं. जब तक आप के पास कमाई का कोई ठोस और अतिरिक्त विकल्प न हो आप सक्रिय राजनीति में ज़्यादा समय तक नहीं टिक सकते. अगर हम मायावती और जयललिता का उदाहरण लें तो उनके पास कांशीराम और एमजीआर जैसे राजनीतिक गुरु थे जिन्होंने उन की आगे बढ़ने में मदद की थी.

यही नहीं महिलाओं को राजनीति में ही नहीं बल्कि हर क्षेत्र में दोहरा काम करना पड़ता है. महिलाओं को पुरुषों के साथ कम्पटीशन देने के लिए ख़ुद को उन से बेहतर साबित करना पड़ता है.

एक्टिव पॉलिटिक्स में महिलाओं की स्थिति

वैसे एक्टिव पॉलिटिक्स में महिलाओं का टिकना भी आसान नहीं होता. उन की बुरी स्थिति के लिए ज़िम्मेदार सिर्फ राजनीतिक पार्टियों ही नहीं बल्कि हमारा समाज भी है जो महिलाओं को राजनीति में स्वीकारने को तैयार नहीं होता है. महिला नेताओं के प्रति लोगों की सोच आज भी संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त है. हमारे देश में महिलाएं अपने काम से ज्यादा वेशभूषा और लुक के लिए जानी जाती हैं. पुरुष सहयोगी समयसमय पर टीकाटिप्पणियां करने से बाज नहीं आते. प्रियंका गांधी अगर राजनीति में आती हैं तो उन के कपड़े से ले कर उन के नैन नक्श पर टिप्पणी की जाती है. प्रियंका को ले कर यह बातें भी खूब कहीं गईं कि खूबसूरत महिला राजनीति में क्या ही कर पाएगी.

वहीं शरद यादव का वसुंधरा राजे के मोटापे पर कमेंट करते हुए कहा था कि वसुंधरा राजे मोटी हो गई हैं, उन्हें आराम की ज़रूरत है. इस तरह की टिप्पणियों का क्या औचित्य? इसी तरह ममता बनर्जी, मायावती, सुषमा स्वराज से ले कर तमाम उन महिला राजनीतिज्ञ को इस तरह के कमेंट्स झेलने पड़ते हैं. उन की किसी भी विफलता पर उन के महिला होने के एंगल को सामने ला दिया जाता है जबकि विफलता एक पुरुष राजनीतिज्ञ को भी झेलनी पड़ती है.

लोगों को लगता है कि महिला कैंडिडेट के जीतने की उम्मीद बहुत कम होती है. उन के मुताबिक़ महिलाएं अपने घरेलू काम के बीच राजनीति में एक पुरुष के मुकाबले समय नहीं दे पाती हैं. लोगों को ऐसा भी लगता है कि महिलाओं को राजनीतिक समझ कम होती है इसलिए अगर वे जीत कर भी आती हैं तो महिला विभाग, शिशु विभाग जैसे क्षेत्र तक सीमित रखा जाता है. मगर हम निर्मला सीतारमण, शीला दीक्षित, ममता बनर्जी जैसी महिला नेताओं की तरफ देखें तो ये बातें निराधार महसूस होंगी.

देखा जाए तो एक महिला कैंडिडेट को अपने क्षेत्र में एक पुरुष कैंडिडेट के मुकाबले ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती है. शायद यही सारी वजहें हैं कि वे अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए महिला मुद्दों के बजाए दूसरे अधिक प्रचारित मुद्दों पर नजर बनाए रख कर खुद को सुरक्षित रखने का प्रयास करती हैं.
महिला नेताओं को वैसे भी अपनी सुरक्षा के मामले में खासकर सतर्क रहना पड़ता है.

महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी

प्यू रिसर्च सेंटर के एक विश्लेषण के अनुसार ऐसी 15 महिलाएं हैं जो अपने देश की सत्ता की ताकत हैं और उन में से 8 देश की पहली महिला नेता हैं. लेकिन इस का मतलब यह भी है कि संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में महिला नेताओं की भागीदारी 10 फीसदी से भी कम है.

सवाल यह भी उठता है कि क्या ये महिला नेताएं बाधाओं को तोड़ रही हैं और क्या ये दूसरी महिलाओं को साथ ले कर आ रही हैं? उन के हित की बातों को लोगों के सामने ला रही हैं? अधिक कुछ नहीं मगर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि ये प्रेरणा स्रोत जरूर बन रही हैं.

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दरअसल महिला नेताओं के पास नीतियों के ज़रिए महिलाओं और लड़कियों की परिस्थितियां बदलने का मौका अधिक नहीं होता है लेकिन उन की मौजूदगी युवा महिलाओं में प्रेरणास्रोत का काम करती हैं. 2012 का एक स्विस अध्ययन भी यह बताता है कि ये आम महिलाओं को प्रेरणास्रोत के रूप में प्रभावित और प्रेरित करती हैं.

चार समूहों में वर्चुअल रियलिटी वातावरण में छात्र और छात्राओं को भाषण के लिए बुलाया गया था. इन में से एक समूह को जर्मन चांसलर एंगेला मर्केल की तस्वीर, दूसरे को हिलेरी क्लिंटन, तीसरे को बिल क्लिंटन और एक अन्य को कोई तस्वीर नहीं दिखाई गई थी. जिन महिलाओं ने सफल महिला नेताओं की तस्वीर देखी वे उन के मुकाबले अधिक बोलीं साथ ही उन का प्रदर्शन अच्छा रहा. जिन को पुरुष नेता या कोई तस्वीर नहीं दिखाई गई थी उन का प्रदर्शन उतना अच्छा नहीं रहा.

किस काम की ऐसी राजनीति

भारत में नेता पति के मरने के बाद उस की जगह पत्नी लेती है तो मोदीशाह की पार्टी डायनैस्टी डायनैस्टी चीखने लगती है कि गांधी परिवार की तरह उन्होंने राजनीति को विरासत का खेल बना डाला है. पर यह तो दुनियाभर में हो रहा है.

अमेरिका में गत नवंबर में हुए चुनाव में रिपब्लिक पार्टी के जीते ल्यूक लैटलो की जीतने के बाद कोविड-19 के कारण मृत्यु हो गई. डोनाल्ड ट्रंप की मेहरबानी से उस की पूर्व पत्नी जूलिया लैटलो को टिकट मिल गया और वह लुईसियाना की एक सीट से लड़ी. उसे 65% वोट मिले और विरोधी डैमोक्रेटिक पार्टी की सांड्रा क्रिसटोफे को सिर्फ 27%.

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राजनीति असल में पतिपत्नी दोनों मिल कर करते हैं. जहां औरतें ज्यादा मुखर होती हैं वहां पति बैकग्रांउड में रहते हुए भी बहुत कुछ करते हैं. घर का माहौल ही राजनीतिमय हो जाता है और नेता पति की पत्नी न चाहे तो भी राजनीतिक भंवर में फंस ही जाती है.

भारत में जो हल्ला मोदीशाह की पार्टी मचाती है वह असल में डर के कारण मचाती है. उन की पार्टी को मालूम है कि उन के यहां मोतीलाल के पुत्र जवाहर, जवाहरलाल की पुत्री इंदिरा, इंदिरा के पुत्र राजीव, राजीव की पत्नी सोनिया, सोनिया के पुत्र राहुल हैं ही नहीं.

मोदी ने शादी करी पर पत्नी छोड़ दी और बच्चे नहीं हुए. शाह

ने बेटे का कामधाम तो करा दिया पर वारिस नहीं बनाया क्योंकि असल में दोनों आरएसएस की देन हैं और उस के लीडर बहुत से गैरशादीशुदा ही रहे हैं. वे परिवारवाद को सहते हैं पर बढ़ावा नहीं देते.

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दुनिया के बहुत से देशों में जहां राजवंश नहीं है लोकतंत्र के बावजूद राजनीति धरोहर घरों में बंटती रहती है. वैसे भी बचपन से सीखे हुए जने पर भरोसा करने में नुकसान क्या है? क्यों इस पर आपत्ति की जाए?

जूलिया ल्यूक की जगह जीती है तो राबड़ी लालू की जगह बनी थी. यह न गलत है और न चूंचूं करने की बात.

राजवंश और राजनीति

भारत में नेता पति के मरने के बाद उस की पत्नी जगह लेती है तो मोदी की पार्टी डायनैस्टी डायनैस्टी चीखने लगती है कि गांधी परिवार की तरह उन्होंने विरासत का खेल बना डाला है राजनीति को. पर यह तो दुनिया भर में हो रहा है.

अभी अमेरिका में नवंबर में हुए चुनाव में रिपब्लिक पार्टी के जीते ……() लैटलो की जीतने के बाद कोविड-19 के कारण मृत्यु हो गई. डोनैल्ड ट्रंप की मेहरबानी से उस की पूर्व पत्नी जूलिया लैटलो के टिकट मिल गया और वह लुई सियाना की एक सीट से लड़ी उसे 65′ वोट मिलीं और विरोधी डैमोक्रेटिक पार्टी की सांड्रा क्रिसटोफे को सिर्फ 27′.

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राजनीति असल में पतिपत्नी दोनों मिल कर करते हैं. जहां औरतें ज्यादा मुखर होती हैं वहां पति बैक ग्रांउड में रहते हुए भी बहुत कुछ करते हैं. घर का माहौल ही राजनीतिमय हो जाता है और नेता पति की पत्नी न चाहे तो भी राजनीति भंवर में फंस ही जाती है.

भारत में जो हल्ला मोदी शाह की पार्टी मचाती है वह असल में डर के कारण मचाती है. उन की पार्टी को मालूम है कि उन के यहां मोतीलाल के पुत्र जवाहर, जवाहरलाल की पुत्री इंदिरा, इंदिरा के पुत्र राजीव, राजीव की पत्नी सोनिया, सोनिया का पुत्र राहुल हैं ही नहीं. मोदी ने शादी करी पर पत्नी छोड़ दी और बच्चे नहीं हुए. शाह ने बेटे का कामधाम तो करा दिया पर वारिस नहीं बनाया क्योंकि असल में दोनों आरएसएस की देन हैं और उस के लीडर बहुत से गैर शादीशुदा ही रहे हैं. वे परिवारवाद को सहते हैं पर बढ़ावा नहीं देते.

दुनिया के बहुत से देशों में जहां राजवंश नहीं है लोकतंत्र के बावजूद राजनीति धरोहर घरों में बंटती रहती है. वैसे भी बचपन से सीखे हुए तने पर भरोसा करने में नुकसान क्या है? क्यों इस पर आपत्ति की जाए. जूलिया ल्यूक की जगह जीती है तो राबड़ी लालू की जगह बनी थी. यह न गलत है और न चूंचूं करने की बात.

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रिश्ते पर भारी न पड़ जाएं राजनीतिक मतभेद

हम अक्सर राजनीतिक मुद्दे पर लोगों को वादविवाद करते देखते हैं. लेकिन कई बार ये विवाद झगड़े का रूप भी ले लेते हैं. रिश्ते कितने भी अच्छे क्यों न हों जब सोच अलग होती है तो उन में दरार आ ही जाती है.

ऐसा ही कुछ हुआ सपना और नीलम के बीच. नीलम पढ़ने में तेज है, सामाजिक भी है, पारिवारिक भी है, लेकिन अकसर जब वह अपने दोस्तों के साथ होती है और वादविवाद के दौरान राजनीतिक मुद्दे आ जाते हैं तो वह बहुत अग्रैसिव हो जाती है. चेहरा लाल हो जाता है. कभीकभी तो गुस्से में कांपने भी लगती है.

कुछ दिनों पहले की बात है. नीलम और सपना अपने बाकी दोस्तों के साथ कालेज की कैंटीन में बैठे थे. चाय पीतेपीते सब की नजर कैंटीन में लगे टीवी पर थी. तभी किसी एक राजनीतिक दल का प्रचार आने लगा. नीलम ने प्रचार देखते ही कहा, ‘‘देखना, इस बार इसी की सरकार बनेगी. सही माने में ऐसा नेता ही देश का सिपाही है.’’

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नीलम की इस बात से सपना सहमत नहीं थी. वह अपनी राय देते हुए बोली, ‘‘किसी खास नेता का पक्ष करना एक व्यक्तिगत मामला है. तुम्हें यह पसंद होगा मुझे नहीं.’’

इस पर नीलम का मुंह बन गया. उस ने चाय के कप को सपना की तरफ गुस्से में पटकते हुए कहा, ‘‘क्यों इस में क्या खराबी है?’’

तभी वहां बाकी दोस्तों ने भी इस राजनीतिक दल और इस के विचारों का विरोध किया. नीलम अकेले उस के पक्ष में थी. सपना और बाकी दोस्त उस दल की खामियां निकालने में लगे हुए थे. ऐसे में नीलम खुद को बहुत अकेला महसूस करने लगी. फिर वह गुस्से में पैर पटकती हुई वहां से चली गई.

नीलम और सपना आसपास ही रहती थीं. इसलिए दोनों कालेज भी एकसाथ आयाजाया करती थीं. लेकिन उस दिन नीलम बिना बताए ही कालेज से निकल गई. सपना ने जब उसे फोन कर के पूछा कि कहां है तो नीलम ने अनमने ढंग से कहा, ‘‘मेरी तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए मैं जल्दी घर आ गई.’’

सपना यह सुन कर उस का हाल जानने के लिए कालेज से सीधे नीलम के घर चली गई. वहां उस ने नीलम को अपने भाई के साथ छत पर बैडमिंटन खेलते पाया. उसे देख कर ऐसा लगा ही नहीं कि उस की तबीयत खराब है. सपना ने नीलम से बात करने की कोशिश की तो नीलम उसे नजरअंदाज करते हुए चली गई.

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कुछ दिनों तक सपना ने भी नीलम से बात नहीं की. एक दिन कालेज में डिबेट प्रतियोगिता आयोजित की गई. इस में छात्रों को किसी एक राजनीतिक दल के पक्ष या विपक्ष में बोलना था. इस प्रतियोगिता में सपना और नीलम ने भी भाग लिया. नीलम को ऐसे दल का नाम दिया गया जिस के पक्ष में सपना थी.

पहले बारी सपना ने किसी राजनीतिक दल की तारीफों के पुल बांध दिए. लेकिन जब नीलम की बारी आई तो उस ने शुरुआत ही ऐसे की जैसे मानो किसी ने उस के घर वालों को कुछ उलटा बोल दिया हो. दरअसल, नीलम कैंटीन की बात को भूली नहीं थी, इसलिए इस डिबेट के सहारे वह अपने दोस्तों को जवाब दे रही थी. प्रतियोगिता तो वह जीत गई, लेकिन इस राजनीतिक मतभेद के बाद अपने दोस्तों से दूर हो गई.

आमतौर पर बसों में, ट्रेनों में अथवा किसी सार्वजनिक जगह पर हम अकसर लोगों को राजनीतिक मुद्दे पर बात करते हुए देखते हैं. सार्वजनिक जगहों पर जब ऐसे मुद्दे उठाए जाते हैं तो यह लड़ाई की खास वजह बनती है. कोई जरूरी नहीं है कि वहां एकमत राय रखने वाले लोग हों.

चुनावी शोर

चुनावी समय शुरू होने से पहले ही लोग अलगअलग समूहों में दिखने लग जाते हैं. कल तक जो एकसाथ बैठ कर चाय पीते थे वे अलगअलग राजनीति दलों के सहायक बन कर एकदूसरे से लड़ने पर उतारू हो जाते हैं जैसे कोई इन की संपत्ति हड़पने की कोशिश कर रहा हो.

राजनीतिक मुद्दे पर अपनी बात रखना, अपनी राय देना हर किसी का अधिकार है, लेकिन इन मुद्दों की आड़ में लोग एकदूसरे से झगड़ने लग जाते हैं. एक  तरफ यह देख कर अच्छा लगता है कि देश की जनता इन मुद्दों पर आपस में वादविवाद करती है, लेकिन सोचिए अगर यही मुद्दे दुश्मनी की वजह बन जाएं तो?

दिल्ली मैट्रो में या तो लोग मौन व्रत रखे नजर आते हैं या फिर मोबाइल में खोए नजर आते हैं. लेकिन बात जब राजनीतिक मुद्दों पर बहस करने की आती है तो 2 अनजान व्यक्ति कब दोस्त बन जाते हैं और 2 दोस्त कब अनजान बन जाते हैं, इस का पता ही नहीं चलता.

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सौरभ और उस का दोस्त अमित मंडीहाउस से नोएडा जाने के लिए मैट्रो में चढ़े. दोनों की पहले से ही किसी विषय पर बात हो रही थी, लेकिन धीरेधीरे दोनों की आवाज पूरी मैट्रो में गूंजने लगी. दरअसल, दोनों राजनीतिक मुद्दे पर बात कर रहे थे. दोनों एकदूसरे से तेज आवाज में बात कर रहे थे. साइड में बैठा एक युवक सौरभ का साथ देते हुए दूसरे राजनीतिक दल की बुराई करने लगा. धीरेधीरे 2-4 लोग और बोल उठे. ऐसे में दोनों दोस्तों के बीच तूतू, मैंमैं शुरू हो गई. यह देखते ही बाकी लोग शांत हो गए. कुछ लोगों ने दोनों को शांत करवाया. दोनों शांत तो हो गए, लेकिन जैसे ही मैट्रो से बाहर निकले दोनों का गुस्सा साफ नजर आ रहा था.

राजनीतिक मुद्दों पर वादविवाद हर कोई करता है. इन मुद्दों के कारण रिश्तों में खटास आ जाए तो यह सरासर मूर्खता है.

इस में कोई संदेह नहीं है कि वादविवाद से हमारी समझ बढ़ती है, बहुत कुछ नया मालूम होता है, सामान्य ज्ञान में सुधार होता है, आत्मविश्वास भी बढ़ता है, मगर जब आप ऐसे मुद्दों को उठाते हैं, उन पर विचारविमर्श करते हैं तो नकारात्मक रूप से नहीं, बल्कि एक समूह में रह कर भी इन मुद्दों पर बात की जा सकती है. लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं करते. कई बार ऐसे मामले हिंसक भी हो जाते हैं, जो बड़े हादसे का रूप ले लेते हैं.

बुरे वक्त में मदद के लिए आप के पास कोई नेता नहीं आएगा. आप का दोस्त ही आएगा. इसलिए रिश्ते सब से पहले हैं, राजनीतिक मुद्दों के कारण संबंध खराब न करें.

शराफत की भाषा है कहां

हमारे घरों में जब भी सासबहू में झगड़ा या तूतू, मैंमैं हो तो तुरंत शादी के समय की बातें ही नहीं, बहू के मायके के किस्से भी सास की जबान से ऐसे फिसलते हैं मानो शब्दों के नीचे ग्रीस लगी हो.

‘‘मांजी, यह भगोना तो खराब हो गया है,’’ बहू के यह कहते ही सास अगर कह दे, ‘‘शादी के समय देखा था कैसे जगों में पानी पिलाया था… और अपने चाचा के घर में देखा है, एक भी बरतन ढंग का नहीं है और यहां नए भगोने की मांग कर रही है महारानीजी.’’

यह भाषा भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की जवान पर चढ़ी रहती है और वे रोज सारी सासों को बताते हैं कि यही भाषा इस महान देश की संस्कृति का हिस्सा है. आप पूछें कि समाचारपत्रों की स्वतंत्रता का बुरा हाल है तो तुरंत कहा जाएगा याद है न आपातकाल, जब सारे अखबारों पर सैंसरशिप लगा रखी थी.

आप कहें कि पैट्रोलडीजल के दाम बढ़ गए तो उस पर कहेंगे 1973 को याद करो जब इंदिरा गांधी ने 4 गुना दाम बढ़ाए थे. आप कहेंगे कि श्रमिकों की ट्रेनों में पैसा वसूला गया तो तुरंत कहेंगे कि ये सब नेहरुइंदिरा की वजह से है कि ये श्रमिक अपने गांव छोड़ कर बाहर गए थे और कांग्रेस ने तो 70 साल देश को लूटा था और अब किस मुंह से श्रमिकों के हिमायती बन रही है?

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भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा बड़ी डींगें हांक रहे थे कि देश 5 ट्रिलियन डौलर की अर्थव्यवस्था बनेगी. कांग्रेसी नुमाइंदे ने भरी सभा में पूछ डाला कि संबितजी, बताइए कि ट्रिलियन में कितने शून्य होते हैं? पता है क्या जवाब मिला? ‘‘आप पहले राहुल गांधी से पूछें, फिर मैं बताऊंगा. मुझे मालूम है पर राहुल गांधी जवाब दें तो मैं बता सकूंगा.’’

वाह क्या कला है. भगोना खराब हुआ पति के घर पर आसमान पर उठा लिया गया पत्नी का मायका. यह संस्कृति हमारी मुंह बंद करने के लिए बड़ी कारगर है. आप कहें कि हिंदू औरतों को विधवा बना कर आज भी सामाजिक अलगाव सहना क्यों पड़ता है? तो जवाब मिलेगा कि लो मुसलमानों से पूछो न जहां जब चाहे मरजी तलाक दे दो. अब आप हिंदू रोना छोड़ कर मुसलिमों को भी गाली देना शुरू कर दें और असली मुद्दा भूल जाएं.

रेलमंत्री पीयूष गोयल अकेले नहीं हैं. संबित पात्रा अकेले नहीं हैं. अमित शाह, नरेंद्र मोदी, शिवराज सिंह चौहान, राजनाथ सिंह वगैरह सब यही भाषा बोलते हैं. और भाषा उन्हें समझ ही नहीं आती. वे तर्क और तथ्य की भाषा नहीं समझते. यही गुण आम जनता में आ जाता है. वह भी तर्क और तथ्य की बातें नहीं समझती. हमारे बहुत से विवाद होते ही इसलिए हैं कि हम तर्कों को अधार्मिक मानते हैं.

यह दोष औरतों को ज्यादा परेशान करता है. उन की आधी जिंदगी अपने मायके वालों के पुराण सुन कर चली जाती है और बाकी आधी में वे अपने घर आई बेटे की पत्नी के मायके के गुणगान करती रहती हैं. सुख और शांति कहां है मालूम ही नहीं.

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नेताओं का राज खत्म

कोरोना ने सरकारों की ताकत को बढ़ा दिया है या यों कहें कि कोरोना के नाम पर नौकरशाही ने नेताओं को मूर्ख मान कर सत्ता फिर हाथ में ले ली है. पहले सारे फैसले मंत्री किया करते थे, जिन्हें अपने फैसलों का जनता पर क्या असर पड़ेगा, का पूरा एहसास होता था. अब सारे फैसले अफसर कर रहे हैं. प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल सब उसी तरह अपने अफसरों का मुंह ताक रहे हैं जैसे औरतें घरों में फैसले लेने पर पति, पिता या पुत्र का मुंह देखती हैं.

अब ज्यादातर फैसलों पर हस्ताक्षर सचिवों और जिलाधीशों के नजर आएंगे. टैलीविजन ने मंत्रियों को छोड़ सीधे पुलिस अधीक्षकों और जिलाधीशों से बात करनी शुरू कर दी है. चूंकि सचिव व अफसर दफ्तरों में बैठे हैं, वे पत्र डिक्टेट करा सकते हैं, कानून ने उन्हें हक भी दे रखा है कि वे मंत्रियों को इग्नोर कर सकते हैं.

अब देश में न सत्तारूढ़ दल हैं न विपक्षी दल. अब तो शासक हैं जो नौकरशाही का नाम है. ये आईएएस, आईपीएस अफसर हैं. इन्हीं की चल रही है. मंत्रियों को तो दर्शन देने के लिए बुलाया जाता है. आदेश तो नौकरशाही के हैं. कौन सी सीमा खुलेगी, कौन सी रेल चलेगी, कौन सा हवाईजहाज उड़ेगा, कहां लाठी चलेगी, कहां पैसा खर्च होगा, ये सब नौकरशाह तय कर  रहे हैं.

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12 मई को प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने 33 मिनट के भाषण में 3 मिनट भी काम की बात नहीं की, क्योंकि उन्हें शायद अब मालूम ही नहीं था कि क्या कहना है. 800 रूपए की बरसाती को पीपीई कह कर उसे बनाने में महारत मानने वाले नेता की कमजोरी अफसर भांप चुके हैं. सभी नेता टैलीविजन पर डरेसहमे नजर आते हैं.

इस का नुकसान क्या होगा पता नहीं. पर जैसे औरतों के हाथों में असली सत्ता न होने से घर नहीं चल सकते वैसे ही चुने नेताओं के हाथों में सत्ता न हो तो देश नहीं चल सकता. आज नहीं तो कल अनार्की- अराजकता- होगी ही. रेलवे स्टेशनों, राज्यों की सीमाओं, एअरपोर्टों, अस्पतालों में सब दिख रहा है. यह सुधरेगा नहीं, बिगड़ेगा.

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