कैसे कहूं: अब मैं बड़ी हो चुकी हूं

मेरा नाम वारी है. मैं 14 साल की हूं. मैं उम्र के उस दौर से गुजर रही हूं जहां न तो मैं बड़ों में आती हूं और न ही मैं छोटी बच्ची मानी जाती हूं. मुझे आज भी याद है जब पिछले महीने मेरे चाचाजी आए थे और मैं उन के सामने ठुनक रही थी तो मम्मी ने झिड़कते हुए कहा था कि तुम क्या दूध पीती बच्ची हो? जब मैं मम्मी या चाची से पूछती हूं कि यह फ्रैंच किस क्या होता है, तो मम्मी गुस्से से मेरी तरफ ऐसे देखती हैं जैसे मैं ने कोई अपराध कर दिया हो. मुझे समझ नहीं आता है कि मैं अपने मन की बात किस से करूं?

क्लास में धीरेधीरे सब लड़कियों के पीरियड्स शुरू हो गए हैं. मेरे अब तक नही हुए हैं. मैं मम्मी से कहती हूं तो मम्मी गुस्से में बोलती हैं कि बड़ी जल्दी है तुझे जवान होने की…

मम्मी से कैसे कहूं कि मेरे और साक्षी के अलावा सब लड़कियां जवान हो चुकी हैं. क्लास के लड़के मुझे बेबी कह कर चिढ़ाते हैं. मुझे पता है कि पीरियड्स में दर्द होता है. मुझे यह भी पता है कि सिनेटरी पैड इत्यादि का झंझट भी होता है. पर ये सब लड़कियों का एक सीक्रेट होता है जिसे वे बड़े गर्व से छिपाती भी हैं और बताती भी हैं.

अभी परसों की बात है. वान्या के पेट मे बहुत दर्द हो रहा था. मैं ने ऐसे ही बोला,”क्या कल जंक फूड खाया था?”

वान्या गुस्से में बोली,”इडियट, यह प्रीमैंसुरल पैन है…”

मैं मूर्खो की तरह खड़ी रही तो आरवी हंसती हुई बोली,”अरे, अपनी मम्मी से पूछना.”

मम्मी से पूछा तो वे रसोई में रोटी बेलते हुए बोलीं,”जब तुम्हें होगा तो पता चल जाएगा.”

मैं क्लास में नौरमल फील करना चाहती हूं, इसलिए एक दिन मैं मम्मी का सिनेटरी पैड लगा कर स्कूल चली गई. मैं दरअसल वह अनुभव करना चाहती थी जिस से मैं अब तक अछूती थी. दोपहर होतेहोते मेरा खुजली के कारण बुरा हाल हो गया था. जब दोपहर को मैं सिनेटरी पैड डस्टबिन में डाल रही थी तो मेरी चाची ने मम्मी से चुगली कर दी थी. मम्मी ने बिना मेरी बात सुने, मेरे पीठ पर 2 थप्पड़ जमा दिए थे. वह तो शुक्र है कि कुछ दिनों बाद मेरे भी पीरियड शुरू हो गए थे.

पीरियड शुरू होने की जहां खुशी थी, वहीं मेरे चेहरे पर ऐक्ने भी दिखने लगे थे. होंठों के ऊपर मूंछें भी दिखने लगी हैं. अब क्लास के बच्चे मुझे बेबी अंकल के नाम से बुलाते हैं. मन करता है कि मम्मी से कहूं कि मुझे पार्लर ले जा कर मेरे कम से कम अपर लिप्स तो करवा दें. हाथपैरों के बाल तो फिर भी कपड़ों में छिपा सकती हूं मगर जब से सनी भैया जिंदगी में आए हैं लगता है शरीर के इन बालों का कुछ करना होगा.

अब सनी भैया नहीं, सनी हैं वे मेरे लिए. पूरी कालोनी चाहे उन्हें कुछ भी कहे मगर एक वे ही हैं जो मुझे इतनी प्यार भरी नजरों से देखते हैं, मेरी बातें सुनते हैं और मुझे महत्त्व देते हैं. मम्मी जहां मुझे रातदिन मोटीमोटी… बोलती हैं, वहीं सनी के हिसाब से मैं सैक्सी लगती हूं. बिना किसी को बताए मैं 2 बार उन के साथ डेट पर जा चुकी हूं.

एक बार तो सनी ने मुझे किस भी किया था और अगली बार फ्रैंच किस के लिए कहा था. इसलिए ही मैं यह मम्मी से पूछ रही थी और बेकार में मुझे मम्मी ने डांट लगा दी थी.

अगर सनी के बारे में घर पर पता चल गया तो मम्मी तो मुझे फांसी पर ही लटका देंगी. क्लास में सब लड़केलड़कियों का कोई न कोई पार्टनर अवश्य है. मैं दिखने में सांवली हूं, थोड़ी मोटी हूं और पढ़ाई में भी बस ऐवरेज ही हूं. मगर दिल का क्या करूं? अब कम से कम क्लास में मैं भी अपने बौयफ्रैंड के बारे में बातें कर सकती हूं.

आज सृष्टि बेहद इतरा रही थी. आज रात को उस के घर स्लीपओवर है. उस ने अपने पूरे ग्रुप को बुलाया था. उन में 3 लड़के भी हैं. पता नहीं सृष्टि के पेरैंट्स इतने लिबरल कैसे हैं. ये लोग अपने मम्मीपापा से बोलेंगे कि ग्रुप स्टडी चल रही है. मगर मुझे अच्छे से मालूम है कि ग्रुप स्टडी के बहाने ये प्रोन देखेंगे और फिर ऐक्सपैरिमैंट करेंगे. मगर बड़ों की नजरों में हम अभी बच्चे हैं.

एक दिन तो सनी ने भी तो मुझे ऐसी ही वीडियो भेजी थी मगर मैं ने तो डर के कारण पूरी देखी भी नहीं थी. पता नहीं सैक्स को ले कर सब लोग इतने ऐक्साइटेड क्यों रहते हैं? सनी भी ज्यादातर सैक्स की ही बातें करता है. मुझे बिलकुल मजा नहीं आता है, मगर इस डर से कि कहीं वह मुझे छोड़ न दे, मैं उस की हां में हां मिलाती रहती हूं. हां, मगर झूठ नहीं बोलूंगी जब सनी मेरे शरीर पर हाथ लगाता है तो अंदर से एक अलग सी फीलिंग आती है. एक अजीब सी सनसनाहट सी होती है पूरे शरीर में. बहुत बार मन करता है कि अपनी बातें किसी से शेयर करूं, मगर किस से? क्या ये सारे रहस्य हमेशा रहस्य ही बने रहेंगे या कोई ऐसा कभी मिलेगा जो इन रहस्यों पर से परदा उठा दे?

मैं बड़ा होना चाहती हूं मगर दूसरों के अनुभवों के सहारे नहीं. अपने अनुभवों से गुजरते हुए मुझे बड़े होना है. मुझे मालूम है कि कुछ अनुभव मुझे अंधेरे में धकेल देंगे तो कुछ अनुभव मुझे जिंदगी के नए आयाम से रूबरू करवाएंगे. मगर मुझे किसी ऐसे शख्स की तलाश है जो मेरे साथ खड़ा रहे, जब इन रहस्यों से मेरा सामना हो.

क्या मैं कुछ गलत सोच रही हूं या कर रही हूं? मगर मैं गलत हूं या सही इस बात के लिए भी तो कोई चाहिए न. एक ऐसा इंसान जो मेरी इच्छओं का सम्मान करे, मैं जैसी हूं मुझे वैसे ही स्वीकार करे. मुझे क्या करना है इस बात का ज्ञान न दे कर मैं जो कर रही हूं उस बारे में मुझ से खुल कर बातचीत करे. मुझे सही और गलत के बीच का फर्क समझा कर मुझे नैतिकता का पाठ न पढ़ाए क्योंकि हर इंसान का सही और गलत उस का नजरिया ही तय करता है और जो बात मेरे मम्मीपापा की जैनरेशन में गलत हो सकती है, जरूरी नहीं कि मेरे लिए भी गलत हो.

गलतियां सभी से होती हैं: क्या रोली ने कामयाबी पाई

दुलहन के जोड़े में सजी रोली बेहद ही खूबसूरत और आकर्षक लग रही थी. वैसे तो रोली प्राकृतिक रूप से खूबसूरत थी, परंतु आज ब्यूटीपार्लर के ब्राइडल मेकअप ने उस के चेहरे पर चार चांद लगा दिया था, किंतु उस के कमनीय चेहरे पर आकुलता थी. उस की नजरें रिसेप्शन में आ रहे मेहमानों पर ही टिकी हुई थीं. उस की निगाहें बेसब्री से किसी के आने का इंतजार कर रही थीं.

रोली को इस प्रकार परेशान देख वीर उस के हाथों को थामते हुए बोला, “क्या बात है? आर यू ओके?”

रोली होंठों पर फीकी सी मुसकान लिए बोली, “यस… आई एम ओके,  परंतु थोड़ी सी थकान लग रही है.”

ऐसा सुनते ही वीर ने कहा,  “पार्टी तो काफी देर तक चलेगी. तुम चाहो तो कुछ देर रूम में रिलैक्स हो कर आ जाओ.”
वीर के ऐसा कहने पर रोली रूम में चली आई और फौरन मोबाइल फोन निकाल नंबर डायल करने लगी. फोन बजता रहा, लेकिन किसी ने नहीं उठाया.रोली दुखी हो कर वहीं सोफे पर पसर गई.

उसे डौली आंटी याद आने लगी. आज वह जो भी है, उन्हीं की वजह से है वरना  वह तो इस महानगरी में गुमनामी की जिंदगी जीने की ओर अग्रसर थी. वो डौली आंटी ही थीं, जिन्होंने वक्त पर उस का हाथ थाम लिया और वह उस गर्त में जाने से बच ग‌ई.

आज उस का प्यार वीर उस के साथ है. यह भी डौली आंटी की ही देने है. पर, अब तक वे आई क्यों नहीं? उन्होंने तो वादा किया था कि वे अंकल के साथ उस की शादी में जरूर आएंगी.

यही सब सोचती हुई रोली वहां पहुंच गई. अपने परिवार वालों से जिद कर वह एक सफल इंटीरियर डिजाइनर बनने का इरादा मन में ठाने जब अपने छोटे से शहर जौनपुर से दिल्ली आई थी.

यहां दिल्ली यूनिवर्सिटी में आ कर उस ने जो देखा, उसे देख वह भौंचक्की सी रह गई. यहां सभी लड़केलड़कियां बिना किसी पाबंदी के उन्मुक्त बिंदास अंदाज में खुल कर जीता देख रोली खुशी से उछल पड़ी. ऐसा उस ने पहले कभी नहीं देखा था.यहां ना तो कोई किसी को रोकने वाला था और ना ही कोई टोकने वाला, जैसा चाहो वैसा जियो.

रोली भी अब आजाद पंछी की भांति आकाश में उड़ने को तैयार थी.

वहां जौनपुर में दादी, मम्मीपापा, चाचाचाची, ताऊ यहां तक कि उस का छोटा भाई भी उस पर बंदिशें लगाता. हर छोटीबड़ी बातों के लिए उसे अनुमति लेनी पड़ती, परंतु यहां ऐसा कुछ नहीं था.

यहां रोली स्वयं अपनी मरजी की मालकिन थी. वह वो सब कर सकती थी, जो उस का दिल चाहता.

दिल्ली में आने के पश्चात रोली अपना लक्ष्य भूल यहां के चकाचौंध में खो गई. वह तो अपनी रूम पार्टनर रागिनी के संग जिंदगी के मजे लूटने लगी.

रागिनी उस से एक साल ‌सीनियर थी और हर मामले में स्मार्ट, र‌ईस लड़कों को अपनी अदाओं से रिझाना, उन्हें फांसना और उन से पैसे खर्च कराना, ये सारे हुनर उसे बखूबी आते थे, लेकिन रोली इन सब बातों से बेखबर बस रागिनी के बोल्डनेस और उस के बिंदास जीने के अंदाज की कायल थी.

रोली बिना सोचेसमझे कालेज में दिखावा और खुद को मौडल बताने के चक्कर में पैसे खर्च करने लगी. उसे इस बात का भी खयाल ना रहा कि वह एक मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार से ताल्लुक रखती है, जहां पैसे हिसाब से खर्च किए जाते हैं.

अपने घर की सारी परिस्थितियों से भलीभांति अवगत होने के बावजूद रोली रागिनी के रंग में रंगने लगी. केवल अब तक वह सिगरेट और शराब से बची हुई थी, लेकिन रागिनी को बिंदास धुआं उड़ाते, कश लगाते और पी कर लहराते देख कभीकभी उस का भी मन करता, लेकिन ना जाने कौन सी बात उसे रोक लेती. इस बार पैसे खत्म होने पर जब उस ने घर पर मां को फोन किया, तो मां भरे कंठ से बोली, “रोली, देखो बेटा हम हर महीने तुम्हें जितने पैसे भेजते हैं, तुम उसी से खर्च चलाने की कोशिश करो अन्यथा तुम्हें यहां वापस आना पड़ेगा.”

मां और भी कुछ कहना चाहती थीं, लेकिन उन के कहने से पहले ही रोली ने फोन काट दिया. होस्टल के कमरे में आई, तो उस ने देखा कि रागिनी अपना सारा सामान समेट कर कहीं जाने की तैयारी में है. यह देख रोली बोली, “कहां जा रही हो?”

रागिनी हंसते हुए अपने दोनों हाथ रोली के कंधे पर टिकाती हुई बोली, “ऐश करने, मेरी जान.”

रोली आश्चर्य से रागिनी को देखने लगी, तभीरागनी धुआं उड़ाती हुई बोली, “नहीं समझी मेरी मोम की भोली गुड़िया, मैं सौरभ के पास जा रही हूं. अब हम दोनों साथ ही रहेंगे. उस के बाप के पास बहुत माल है. उसे उड़ाने के लिए कोई तो चाहिए ना, सो मैं जा रही हूं. वैसे भी सौरभ मुझ पर लट्टू है.”

यह सुनते ही रोली बोली, “लेकिन…”

रागिनी उसे बीच में ही टोकती हुई बोली, “लेकिन क्या…? माई स्विट हार्ट मुझे मालूम है कि मैं क्या कर रही हूं. मेरी मान तो तू भी होस्टल छोड़ करबकिसी पीजी में रहने चली जा, फिर बिंदास रहना अपने वीर के साथ, समय पर होस्टल लौटने का कोई लफड़ा  नहीं, अच्छा चलती हूं… फिर मिलते हैं,” कहती हुई रागिनी झूमते हुए चली गई.

रागिनी के होस्टल से चले जाने के पश्चात रोली भी कुछ दिनों में होस्टल छोड़ पीजी में डौली आंटी के यहां आ गई.

यहां आने के बाद उसे पता चला कि यहां रहना इतना आसान नहीं है. लोग डौली आंटी के बारे में तरहतरह की बातें किया करते थे. कोई उन्हें खड़ूस, कोई पागल, तो कोई उन्हें सीसीटीवी कहता, क्योंकि उन की नजरों से कुछ भी छुपना नामुमकिन था. आसपड़ोस की महिलाएं तो उन से बात करने से भी कतरातीं, सब कहतीं कि न जाने कब ये सनबकी बुढ़िया किस बात पर सनक जाए.

डौली आंटी की टोकाटाकी की वजह से कोई ज्यादा दिनों तक यहां टिकता भी नहीं था, लेकिन रोली का अब यहां रहना मजबूरी था, क्योंकि वह होस्टल छोड़ चुकी थी और सब से बड़ी बात डौली आंटी पैसे भी कम ले रही थी, यहां से कालेज की दूरी भी ज्यादा नहीं थी, जिस की वजह से बस और रिकशा के पैसे भी बच रहे थे और साथ ही साथ डौली आंटी के हाथों  में वो जादू था कि वह जो भी खाना बनाती स्वादिष्ठ और लजीज होता, उस में बिलकुल मां के हाथों का स्वाद होता.

सब ठीक था, लेकिन डौली आंटी की टोकाटाकी और जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप रोली को नागवार गुजरने लगा. वह वीर के साथ भी वैसे समय नहीं बिता पा रही थी, जैसा उस ने सोचा था.
जब उस ने वीर से इस बारे में बात की, तो वह कहने लगा, “आंटी स्ट्रिक्ट है तो क्या हुआ… वह तुम्हारा भला ही चाहती है. 1-2 साल में मेरा  प्रमोशन हो जाएगा. कंपनी की ओर से मुझे फ्लेट भी मिल जाएगा और तुम्हारा ग्रेजुएशन भी पूरा हो जाएगा, फिर हम शादी कर साथ रहेंगे.”

वीर से यह सब सुन रोली स्तब्ध रह ग‌ई. वह तो उस से शादी करना ही नहीं चाहती. वह तो बस वीर को अपनी खूबसूरती और मोहपाश के झूठे जाल में केवल पैसों के लिए बांध रखी थी और वह भी रागिनी के कहने पर, लेकिन अब वीर उस से शादी की सोच रहा है. यह जान कर रोली विचलित हो ग‌ई.

अपसेट रोली घर पहुंची, तो उस ने देखा कि डौली आंटी और अंकल कहीं जाने की तैयारी में हैं. उसे देखते ही आंटी बोली, “रोली बेटा मैं और अंकल एक शादी में  जा रहे हैं. कल रात तक लौटेंगे. तुम अपना और घर का खयाल रखना, रात को दरवाजा अच्छी तरह बंद कर लेना,” इतना कह कर वे दोनों चले गए.

परेशान रोली को कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे. तभी रागिनी का फोन आया.

रोली उसे फोन पर सारी बातें बता कर इस समस्या से बाहर निकलने का हल पूछने लगी, तो रागनी ने कहा, “डोंट वरी डियर, आज रात मैं तेरे रूम पर आती हूं. दोनों पार्टी करते हैं और सोचते हैं कि क्या करना है.”

रोली नहीं चाहती थी कि रागिनी आए, लेकिन वह उसे मना ना कर सकी. रागिनी शराब, सिगरेट और दो चीज पिज्जा ले कर पहुंची.

ये सब देख कर रोली चिढ़ती हुई बोली, “तू ये सब क्या ले कर आई है? आंटी को पता चल गया, तो वह मुझे निकाल देगी.”

“चिल यार… किसी को कुछ पता नहीं चलेगा. वैसे भी आंटी तो कल रात तक लौटेंगी?” कहती हुई रागिनी एक गिलास में शराब डालती हुई धुआं उड़ाने लगी.

रोली भी वीर की बातों से परेशान तो थी ही, वह भी सिगरेट सुलगा कर पीने लगी. तभी रागिनी अपने बैग से एक छोटी सी पुड़िया निकाल कर रोली को देती हुई बोली, “इसे ट्राई कर… ये जादू की पुड़िया है. इसे लेते ही तेरी सारी परेशानी उड़नछू हो जाएगी.”

यह सुन कर रोली पुड़िया खोल कर एक ही बार में ले ली. पुड़िया लेने के कुछ समय पश्चात वह बेहोश होने लगी. यह देख कर रागिनी उसे उसी हालत में छोड़ भाग गई.

जब रोली को होश आया, तो उस ने स्वयं को अस्पताल के बेड पर लेटा पाया, जहां एक ओर डौली आंटी डबडबाई आंखों से स्टूल पर बैठी थी और अंकल डाक्टर से कुछ बातें कर रहे थे.

रोली को होश में आया देख आंटी ने रोली का माथा चूम लिया. रोली घबराई हुई डौली आंटी की ओर देखने लगी, तभी आंटी रोली का हाथ अपने हाथों में लेती हुई बोली, “शादी में पहुंचने के बाद मैं ने रात को क‌ई दफे तुम्हें फोन किया, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला, किसी अनहोनी के भय से हम उसी वक्त घर लौट आए. यहां आ कर देखा, तो बाहर का दरवाजा खुला था और तुम बेहोश पड़ी थी. पूरे कमरे में शराब की बोतल, सिगरेट और ड्रग्स के पैकेट पड़े थे. हम समझ गए कि आखिर माजरा क्या है.”

फिर आंटी लंबी सांस लेते हुए बोली, “तुम सब यह सोचते हो ना कि मैं इतनी खड़ूस, इतनी स्ट्रिक्ट क्यों हूं. मैं ऐसी इसलिए हूं, क्योंकि इसी ड्रग्स की वजह से मैं ने अपने एकलौते बेटे को खोया है…

“और मैं यह नहीं चाहती कि कोई भी मांबाप अपने बच्चे को इस वजह से खोए. मेरा बेटा भी तुम्हारी तरह आंखों में क‌ई सुनहरे सपने लिए बीई की पढ़ाई करने जालंधर गया था, लेकिन वहां जा कर वह बुरी संगत में पड़ ड्रग्स लेने लगा, क्योंकि वहां कोई रोकटोक करने वाला नहीं था और हर कोई बस यही सोचता था कि हमें क्या करना…?

“एक बार सप्ताहभर उस ने कोई फोन नहीं किया, हमारे फोन लगाने पर वह फोन भी नहीं उठा रहा था, तब हम परेशान हो कर उस के पास पहुंचे, तो पता चला कि वह ड्रग्स की ओवरडोज के कारण हफ्तेभर से अपने कमरे में बेहोश पड़ा है. उसे देखने वाला कोई नहीं था. हम उसे उसी हालत में यहां ले आए, लेकिन बचा ना सके.”

यह सब कहती हुई डौली आंटी फूटफूट कर रो पड़ी. रोली की आंखों के कोर में भी पानी आ गया.

आंटी ने आगे बताया कि तुम भी ड्रग्स के ओवरडोज की वजह से बेहोश पड़ी थी. आज पूरे 2 दिन बाद तुम्हें होश आया है.

यह सुन कर रोली की आंखें शर्म से झुक गईं. तभी आंटी बोली, “बेटी, गलतियां तो सभी से होती हैं, लेकिन उन गलतियों से सबक ले कर आगे बढ़ना ही जीवन है. अक्लमंदी और समझदारी इसी में है कि वक्त रहते उन्हें सुधार लिया जाए .”

फिर आंटी मुसकराती हुई बोली, “वीर एक अच्छा लड़का है. तुम्हें बहुत प्यार भी करता है और शायद तुम भी, वरना पिछले डेढ़ साल में रागिनी की तरह तुम भी क‌ई बौयफ्रेंड बदल चुकी होती.

“वीर तुम्हें क‌ई बार फोन कर चुका है, मैं ने उस से कहा है कि तुम हमारे साथ शादी में आई हो और अभी काम में व्यस्त हो.”

खटखट की आवाज से रोली वर्तमान में लौट आई. दरवाजा खोलते ही डौली आंटी और अंकल सामने खड़े थे. उन्हें देखते ही रोली आंटी से लिपट रो पड़ी, उसे शांत कराती हुई आंटी बोली, “रोते नहीं बेटा, अब तुम एक सफल इंटीरियर डिजाइनर हो. तुम सफलता के उस शिखर पर हो, जहां पहुंचने का सपना लिए तुम इस महानगरी में आई थीं. आज खुशी का दिन है,अब आंसू पोंछो और चलो वीर तुम्हारा पार्टी में इंतजार कर रहा है.”

न्यूड मौडल: कृष्णा ने क्यों चुना वह रास्ता

मैं तकरीबन 20 साल की थी, जब पहली बार कालेज पहुंची. मुझे एक बहुत बड़े कमरे में ले जाया गया, जहां तेज रोशनी थी और बीच में था पलंगनुमा तख्त. वहीं मुझे बैठना था, एकदम न्यूड. नीचे की देह पर बित्तेभर कपड़े के साथ. कई जोड़ा आंखें मुझे देख रही थीं. देह के एकएक उभार, एकएक कटाव पर सब की नजरें थीं. ‘‘मैं बिना हिले घंटों बैठी रहती. सांस लेती, तब छाती ऊपरनीचे होती या पलकें झपकतीं. मुझ में और पत्थर की मूरत में इतना ही फर्क रहा,’’

एक कमरे के उदास और सीलन भरे मकान में कृष्णा किसी टेपरिकौर्डर की तरह बोल रही थीं. कृष्णा न्यूड मौडल रह चुकी हैं. मैं ने मिलने की बात की, तो कुछ उदास सी आवाज में बोलीं, ‘‘आ जाओ, लेकिन मेरा घर बहुत छोटा है. मैं अब पहले जैसी खूबसूरत भी नहीं रही.’’ दिल्ली के मदनपुर खादर के तंग रास्ते से होते हुए मैं कृष्णा की गली तक पहुंचा. वे मुझे लेने आई थीं. ऊंचा कद, दुबलापतला शरीर और लंबीलंबी उंगलियां. बीच की मांग के साथ कस कर बंधे हुए बाल और आंखों में हलका सा काजल. सिर पर दुपट्टा. यह देख कर कोई भी अंदाजा नहीं लगा सकता कि लोअर मिडिल क्लास घरेलू औरत जैसी लगती कृष्णा ने 25 साल दिल्ली व एनसीआर के आर्ट स्टूडैंट्स के लिए न्यूड मौडलिंग की होगी.

सालों तक कृष्णा का एक ही रूटीन रहा. सुबह अंधेरा टूटने से पहले जाग कर घर के काम निबटाना, फिर नहाधो कर कालेज के लिए निकल जाना. कृष्णा मौडलिंग के शुरुआती दिनों को याद करती हैं, जब शर्म उन से ऐसे चिपकी थी, जैसे गरीबी से बीमारियां. ‘‘उत्तर प्रदेश से कमानेखाने के लिए पति दिल्ली आए, तो संगसंग मैं भी चल पड़ी. सोचा था, दिल्ली चकमक होगी, पैसे होंगे और घी से चुपड़ी रोटी खाने को मिलेगी, लेकिन हुआ एकदम अलग. यहां सरिता विहार के एक तंग कमरे को पति ने घर बता दिया. सटी हुई रसोई, जहां खिड़की खोलो तो गली वाले गुस्सा करें. ‘‘धुआंती रसोई में पटिए पर बैठ कर खाना पकाती, अकसर एक वक्त का. घी चुपड़ी रोटी के नाम पर घी का खाली कनस्तर भी नहीं जुट सका. पति की तनख्वाह इतनी कम कि पैर सिकोड़ कर भी खाने को न मिले.

तभी किसी जानने वाली ने कालेज जाने को कहा. ‘‘मैं लंबी थी. खूबसूरत थी. गांव में पलाबढ़ा मजबूत शरीर और खिलता हुआ उजला रंग. बताने वाली ने कहा कि तुम्हारी तसवीर बनाने के पैसे मिलेंगे. ‘‘कालेज पहुंची तो उन्होंने कपड़े उतारने को कह दिया. मैं भड़क गई. कपड़ेलत्ते नहीं उतारूंगी, बनाना हो ऐसे ही बनाओ. ‘‘तसवीर बनी, लेकिन पैसे बहुत थोड़े मिले. फिर बताया गया कि कपड़े उतारोगी तो 5 घंटे के 220 रुपए मिलेंगे. ये बहुत बड़ी रकम थी, लेकिन शर्म से बड़ी नहीं. कपड़ों समेत भी मौडलिंग करती तो शर्म आती कि अनजान लड़के मेरा बदन देख रहे हैं. ‘‘पहले हफ्ते कपड़े उतारने की कोशिश की, लेकिन हाथ जम गए. समझ ही नहीं पा रही थी कि इतने मर्दों के सामने कपड़े खोलूंगी कैसे? खोल भी लिया तो बैठूंगी कैसे?’’ कृष्णा की आवाज ठोस है, मानो वह वक्त उन की आवाज में भी जम गया हो.

‘‘2 हफ्ते बाद कमीज उतरी. इस के बाद कपड़े खुलते ही चले गए. बस आंखें बंद रहती थीं. बच्चे डांटते कि आंखें खोलिए तो खोलती, फिर मींच लेती. ‘‘किस्मकिस्म के पोज करने होते. कभी हाथों को एक तरफ मोड़ कर, कभी एक घुटने को ऊपर को उठा कर, तो कभी सीने पर एक हाथ रख कर मैं बैठी रहती.’’ लंबी बातचीत के बाद कृष्णा कुछ थक जाती हैं. वे बताती हैं, ‘‘बीते 5 सालों से डायबिटीज ने जकड़ रखा है. वक्त पर रोटी खानी होगी,’’ वे रसोई में खाना पकाते हुए मुझ से बातें कर रही हैं. ‘‘शुरू में मैं बहुत दुबली थी. लड़के तसवीर बनाते तो मर्द जैसी दिखती. धीरेधीरे शरीर भरा. न्यूड बैठती तो सब देखते रह जाते. कहते कि मौडल बहुत खूबसूरत है. इस की तसवीर अच्छी बनती है.

सब की आंखों में तारीफ रहती, अच्छा लगता था,’’ कृष्णा बताते हुए हंस रही थीं, आंखों में पुराने दिनों की चमक के साथ. मैं ने पूछा, ‘‘फिगर बनाए रखने के लिए कुछ करती भी थीं क्या?’’ उन्होंने बताया, ‘‘नहीं. मेहनत वाला शरीर है, आप ही आप बना हुआ. हां, बीच में तनिक मोटी हो गई थी, तो रोज पार्क में जाती और दौड़ लगाती, फिर पहले जैसे ‘शेप’ में आ गई.’’ कृष्णा जब रोटी बना रही थीं, तब मैं उन का रसोईघर देख रहा था. मुश्किल से दसेक बरतन. टेढ़ीपिचकी थाली और कटोरियां. महंगी चीजों के नाम पर एक थर्मस, जो उन्होंने ‘अमीरी’ के दिनों में खरीदा था. दीवारें इतनी नीची कि सिर टकराए. वे खुद झुक कर अंदर आतीजाती हैं. रसोईघर से जुड़ा हुआ ही ड्राइंगरूम है, यही बैडरूम भी है. 2 तख्त पड़े हैं, जिन पर उन समेत घर आए मेहमान भी सोते हैं. रोटी पक चुकी थीं. अब वे बात करने के लिए तैयार थीं. धीरेधीरे कहने लगीं, ‘‘पहली बार 2,200 रुपए कमा कर घर लाई, तो पति भड़क गए.

वे 1,500 रुपए कमाते थे. शक करने लगे कि मैं कुछ गलत करती हूं. मेरा कालेज जाना बंद हो गया. ‘‘फिर पूछतेपुछाते कालेज से एक सर आए. तब मोबाइल का जमाना नहीं था. वे बड़ी सी कार ले कर आए थे, जो गली के बाहर खड़ी थी. ‘‘सर मेरे पति को कालेज ले गए और मेरी पोट्रेट दिखाई. कहा कि फोटो बनवाने के पैसे मिलते हैं तुम्हारी पत्नी को. वह इतनी खूबसूरत जो है. ‘‘पति खुश हो गए. लौटते हुए छतरी ले कर आए. तब बारिश का मौसम था. हाथ में दे कर कहा था, ‘अब से रोज कालेज जाया कर.’ ‘‘सर ने पति को न्यूड के बारे में नहीं बताया था. सारी कपड़ों वाली तसवीरें ही दिखाई थीं.’’ ‘‘काम पर लौट तो गई, लेकिन यह सब आसान नहीं था. नंगे बदन होना. उस पर बुत की तरह बैठना. नस खिंच जाती. कभी मच्छर काटते तो कभी खुजली मचती, लेकिन हिलना मना था. छींक आए,

चाहे खांसी, सांस रोक कर चुप रहो. ‘‘महीना आने पर परेशानी बढ़ जाती. पेट में ऐंठन होती. एक जगह बैठने से दाग लगने का डर रहता, लेकिन कोई रास्ता नहीं था. ‘‘ठंड के दिनों में और भी बुरा हाल होता. मैं बगैर कपड़ों के बैठी रहती और चारों ओर सिर से पैर तक मोटे कपड़े पहने बच्चे मेरी तसवीर बनाते होते. बीचबीच में चायकौफी सुड़कते. मेरी कंपकंपी भी छूट जाए तो गुस्सा करते. पसली दर्द करती थी. एक दिन मैं रो पड़ी, तब जा कर कमरे में हीटर लगा. ‘‘एक फोटो के लिए 10 दिनों तक एक ही पोज में बैठना होता. हाथपैर सख्त हो जाते,’’ कृष्णा हाथों को छूते हुए याद करने लगीं, ‘‘नीले निशान बन जाते. कहींकहीं गांठ हो जाती. ब्रेक में बाथरूम जा कर शरीर को जोरजोर से हिलाती, जैसे बुत बने रहने की सारी कसर यहीं पूरी हो जाएगी. ‘‘5 साल पहले डायबिटीज निकली, लेकिन काम करती रही.

*शरीर सुन्न हो जाता. घर लौटती तो बाम लगाती और पूरीपूरी रात रोती. सुबह नहाधो कर फिर निकल +जाती… गरीबी हम से क्याक्या करवा गई.’’ ‘‘इतने साल इस पेशे में रहीं, कभी कुछ गलत नहीं हुआ?’’ मैं ने तकरीबन सहमते हुए ही पूछा, लेकिन मजबूत कलेजे वाली कृष्णा के लिए यह सवाल बड़ा नहीं था. ‘‘हुआ न. एक बार मुझे किसी सर ने फोन किया कि क्लास में आना है. मैं ने हां कर दी. शक हुआ ही नहीं. तय की हुई जगह पहुंची तो सर का फोन आया. तहकीकात करने लगे और पूछा कि तुम मौडलिंग के अलावा कुछ और भी करती हो क्या? मैं ने कहा कि हां, घर पर सीतीपिरोती हूं. ‘‘सर ने दोबारा पूछा कि नहीं, और कुछ जैसे सैक्स करती हो?’’ मैं शांत ही रही और कहा कि सर, मैं यह सब नहीं जानती. ‘‘फोन पर सर की आवाज आई कि जैसे दोस्ती. तुम दोस्ती करती हो? मैं ने कहा कि मैं दोस्ती नहीं, मौडलिंग करने आई हूं सर. करवाना हो तो करवाओ, वरना मैं जा रही हूं. ‘‘फिर मैं लौट आई.

पति को इस बारे में नहीं बताया. वो शक करते, जबकि मेरा ईमान सच्चा है. ‘‘कहीं से फोन आता तो भरोसे पर ही चली जाती. खतरा तो था, लेकिन उस से ज्यादा इज्जत मिली,’’ लंबीलंबी उंगलियों से बनेबनाए बालों को दोबारा संवारते हुए कृष्णा याद करते हुए बोलीं, ‘‘पहलेपहल जब कपड़े उतारने के बाद रोती तो कालेज के बच्चे समझाते थे कि तुम रोओ मत. सोचो कि तुम हमारी किताब हो. तुम्हें देख कर हम सीख रहे हैं. ‘‘मेरी उम्र के या मुझ से भी बड़े बच्चे मेरे पांव छूते थे. अच्छा लगता था. फिर सोचने लगी कि बदन ही तो है. एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा. अभी बच्चों के काम तो आ रहा है. ‘‘भले ही कम पढ़ीलिखी हूं, लेकिन मैं खुद को विद्या समझने लगी. इसी बदन ने कालेज जाने का मौका दिया, जो मुझ जैसी के लिए आसान नहीं था.’’ पूरी बातचीत के दौरान कृष्णा स्टूडैंट्स को बच्चे कहती रहीं.

उन के ड्राइंगरूम में 2 पोट्रेट भी हैं, जो इन्हीं बच्चों ने गिफ्ट किए थे. वे हर आनेजाने वाले को गर्व से अपनी तसवीरें दिखातीं और बतातीं कि वे यही काम करती हैं. ‘‘क्या लोग जानते हैं कि आप न्यूड मौडलिंग करती रहीं?’’ ‘‘नहीं. वैसे घर पर तो अब सब जानते हैं कि कालेज में कपड़े खोल कर बैठना पड़ता था, लेकिन गांव में कोई नहीं जानता. अगर पता लग जाए तो सोचेंगे कि मैं ‘ब्लू फिल्म’ में काम करती हूं. थूथू करेंगे. बिरादरी से निकाल देंगे, सो अलग. हम ने उन्हें नहीं बताया.’’ बीते एकाध साल से कृष्णा कालेज नहीं जा रहीं. डायबिटीज के बाद पत्थर बन कर बैठना मुश्किल हो चुका है. मौडलिंग के दिनों का उन का काला पर्स धूल खा रहा है. सिंगार की एक छोटी सी पिटारी है, जिस में ऐक्सपायरी डेट पार कर चुकी रैड लिपस्टिक है, काजल है और बिंदी की पत्तियां हैं. बीते दिनों की हूक उठने पर कृष्णा प्लास्टिक की इस पिटारी को खोलती और आईने में देखते हुए सिंगार करती हैं.

संदूक पर रखा यह बौक्स वे मुझे भी दिखाती हैं. लौटते हुए वे कहती हैं, ‘‘फोन तो बहुतेरे आते हैं, लेकिन मैं जाऊं कैसे… डायबिटीज है तो बिना हिले बैठ नहीं सकती. तिस पर गले के आपरेशन ने चेहरा बिगाड़ दिया. बदन पर अब मांस भी नहीं. न्यूड बैठती तो बच्चे मुझे सब से खूबसूरत मौडल पुकारते. अब मैं वह कृष्णा नहीं रही. बस, तसवीरें ही बाकी हैं.’’

हमारी भागीदारी: क्या बेटी नेहा अपने अधिकारों को जान पाई?

सामान के बैगों से लदीफदी नेहा जब बाजार से घर लौटी तो पसीने से लथपथ हो रही थी. उसे पसीने से लथपथ देख कर उस की मां नीति दौड़ कर उस के पास गईं और उस के हाथ से बैग लेते हुए कहा,” एकसाथ इतना सारा सामान लाने की जरूरत क्या थी? देखो तो कैसी पसीनेपसीने हो रही हो.”

” अरे मां, बाजार में आज बहुत ही अच्छा सामान दिखाई दे रहा था और मेरे पास में पैसे भी थे, तो मैं ने सोचा कि क्यों ना एकसाथ पूरा सामान खरीद लिया जाए… बारबार बाजार जानाआना भी नहीं पड़ेगा.”

“बाजार में तो हमेशा ही अच्छाअच्छा सामान दिखता है. आज ऐसा नया क्या था?”

“आज कुछ नहीं था, पर 4 दिन बाद तो है ना,” नेहा ने मुसकराते हुए कहा.

“अच्छा, जरा बताओ तो 4 दिन बाद क्या है, जो मुझे नहीं पता. मुझे भी तो पता चले कि 4 दिन बाद है क्या?”

“4 दिन बाद दीवाली है मां, इसीलिए तो बाजार सामानों से भरा पड़ा है और दुकानों पर बहुत भीड़ लगी है.”

“तब तो तुम बिना देखेपरखे ही सामान उठा लाई होगी?” नीति ने नेहा से कहा.

“मां, आप भी ना कैसी बातें करती हैं? अब इतनी भीड़ में एकएक सामान देख कर लेना संभव है क्या? और फिर दुकानदार को भी अपनी साख की चिंता होती है. वह हमें खराब सामान क्यों देगा भला?”

“चलो ठीक है. बाथरूम में जा कर हाथपैर धो लो, फिर खाना लगाती हूं,” नीति ने बात खत्म करने के लिए विषय ही बदल दिया.

खाना खा कर नेहा तो अपने कमरे में जा कर गाना सुनने लगी और नीति सामान के पैकेट खोलखोल कर देखने लगी.

उन्होंने सब से पहले कपड़े के पैकेट खोलने शुरू किए. कपड़े के प्रिंट और रंग बड़े ही सुंदर लग रहे थे.

नीति ने सलवारसूट का कपड़ा खोल कर फर्श पर बिछा दिया और उसे किस डिजाइन का बनवाएगी, सोचने लगी. अचानक उस की निगाह एक जगह जा कर रुक गई. उसे लगा जैसे वहां का कपड़ा थोड़ा झीना सा है. कपड़ा हाथ में उठा कर देखा तो सही में कपड़ा झीना था और 1-2 धुलाई में ही फट जाता.

नीति नेहा के कमरे में जा कर बोली,” कैसा कपड़ा उठा कर ले आई हो? क्या वहां पूरा खोल कर नहीं देखा था?”

“मां, वहां इतनी भीड़ थी कि दुकानदार संभाल नहीं पा रहा था. सभी लोग अपनेअपने कपड़े खोलखोल कर देखने लगते, तो कितनी परेशानी होती. यही तो सोचना पड़ता है ना.”

“ठीक है. वहां नहीं देख पाई चलो कोई बात नहीं. अब जा कर उसे यह कपड़ा दिखा लाओ और बदल कर ले आओ. अगर यह कपड़ा ना हो, तो पैसे वापस ले आना.”

नीति की बात सुन कर नेहा झुंझला कर बोली, “आप भी न मां, पीछे ही पड़ जाती हैंं. अभी थोड़ी देर पहले ही तो लौटी हूं बाजार से, अब फिर से जाऊं? रख दीजिए कपड़ा, बाद में देख लेंगे.”

“तुम्हारा बाद में देख लेंगे कभी आता भी है? 3 महीने पहले तुम 12 कप खरीद कर लाई थींं, उन में से 2 कप टूटे हुए थे. अभी तक वैसे ही पड़े हैं. लाख बार कहा है तुम से कि या तो दुकान पर ही चीज को अच्छी तरह से देख लिया करो और या फिर जब घर में आ कर देखो और खराब चीज निकले तो दुकानदार से जा कर बोलना बहुत जरूरी होता है. जाओ और बोलो, उसे बताओ कि तुम ने अच्छी चीज नहीं दी है.”

“ठीक है मां, मैं बाद में जा कर बदल लाऊंगी,” कह कर नेहा मन ही मन बुदबुदाई,”अच्छी मुसीबत है. अब मैं कभी कुछ खरीदूंगी ही नहीं.”

नेहा के पीछेपीछे आ रही मां नीति ने जब उस की बात सुनी, तो उन्हें बहुत गुस्सा आया. उन्होंने गुस्से में नेहा से कहा, “एक तो ठीक से काम नहीं करना और समझाने पर भड़क कर कभी न काम करने की बात करना, यही सीखा है तुम ने.”

“मां, अब दो कपड़ों के लिए मैं बाजार जाऊंगी और फिर वहां से आऊंगी भी तो टैक्सी वाले को कपड़ों से ज्यादा पैसा देना पड़ेगा. यह भी समझ में आता है आप को?”

“नहीं आता समझ… और मुझे समझने की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि मैं तो दुकान पर ही सारी चीजें ठीक से देख कर रुपएपैसे का मोलभाव कर तब खरीदती हूं.

“तुम्हारी तरह बिना देखे नहीं उठा लाती और अगर कभी ना भी देख पाऊं तो वापस जा कर दुकानदार को दिखाती हूं और खराब चीज बदलती हूं या पैसे वापस लेती हूं.”

“मां, क्या फर्क पड़ता है एक या दो चीजें खराब निकलने से. अब दुकानदार भी कितना चैक करेगा?”

“कितना चैक करेगा का क्या मतलब है? अरे, उस का काम है ग्राहकों को अच्छा सामान देना. सब तुम्हारी तरह नहीं होते हैं, जो ऐसे ही छोड़ दें. इस तरह तो उस की इतनी बदनामी हो जाएगी कि कोई उस की दुकान पर पैर भी नहीं रखेगा.”

“नहीं मां, ऐसा कुछ नहीं होगा. उस की दुकानदारी ऐसे ही चलती रहेगी, आप देखना.”

“क्यों नहीं चलेगी? जब तेरे जैसे ग्राहक होंगे, लेकिन इस का असर क्या पड़ेगा, यह सोचा है. धीरेधीरे सारे दुकानदार चोरी करना सीखेंगे, खराब सामान बेचेंगे और अपनी गलती भी नहीं मानेंगे.

“आज जो बेईमानी है, भ्रष्टाचार का माहौल बना है ना, इस के जिम्मेदार हम ही तो हैं,” नीति ने गुस्से में कहा.

” कैसे? हम कैसे हैं उस के जिम्मेदार? बताइए ना…”

“तो सुनो, हम गलत काम को प्रोत्साहित करते हैं जैसे तुम बाजार गई हो और कोई सामान खरीद कर ले आए. घर आ कर जब सामान को खोल कर देखा तो सामान खराब निकला. तुम ने उस को उठा कर एक ओर पटका. दूसरा सामान खरीद लिया. अब दुकानदार को कैसे पता चलेगा कि सामान खराब है?

“मान लो, उसे पता भी है, पर फिर भी वह जानबूझ कर खराब सामान बेच रहा हो तो… जब जिस का पैसा बरबाद हो गया, उसे चिंता नहीं है तो दुकानदार को क्या और कैसे दोष दे सकते हैं?”

“मां, सभी दुकानदार तो ऐसा नहीं करते हैं न.”

“अभी नहीं करते तो करने लगेंगे. यही तो चिंता की बात है. इस तरह तो उन का चरित्र ही खराब हो जाएगा. हम हमेशा दूसरों को दोष देते हैं, पर अपनी गलती नहीं मानते.”

“अच्छा मां, अगर दुकानदार न माने तो…?”

“हां, कभीकभी दुकानदार अड़ जाता है. बहुत सालों पहले एक बार मैं परदे का कपड़ा खरीदने गई. कपड़ा पसंद आने पर मैं ने 20 मीटर कपड़ा खरीद लिया. घर आ कर कपड़ा अलमारी में रख दिया. 2 दिन बाद मैं ने जब परदे काटने शुरू किए, तो बीच के कपड़े में चूहे के काटने से छेद बने हुए थे. मैं उसी समय कपड़ा ले कर बाजार गई और दुकानदार को कपड़ा दिखाया. उस ने कपड़ा देखा और कहा, “हमारी दुकान में चूहे नहीं हैं. आप के घर पर चूहे होंगे और उन्होंने कपड़ा काटा होगा… मैं कुछ नहीं कर सकता.”

“मैं ने कहा, “चूहे मेरे घर में भी नहीं हैं. कोई बात नहीं, अभी पता चल जाएगा. आप पूरा थान मंगवा दीजिए. अगर वह ठीक होगा, तो मैं मान जाऊंगी.”

नौकर थान ले कर आया. जब थान खोला गया, तो उस में भी जगहजगह चूहे के काटने से छेद बने थे.

“अब तो दुकानदार क्या कहता, उस ने चुपचाप हमारे पूरे पैसे लौटा दिए.

“अगर मैं कपड़ा वापस करने नहीं जाती, तो दुकानदार अच्छा कपड़ा दिखा कर खराब कपड़ा लोगों को देता जाता. अगर सभी लोग यह ध्यान रखें, तो वे खराब सामान लेंगे ही नहीं, तो दुकानदार भी खराब सामान नहीं बेच पाएगा.

“हम अफसरों और नेताओं को गाली देते हैं, पर यह नहीं सोचते कि जब तक हम बरदाश्त करते रहेंगे, तब तक सामने वाला हमें धोखा देता रहेगा. जिस दिन हम धोखा खाना बंद कर देंगे, धोखा देने वाले का विरोध करेंगे, गलत को गलत और सही को सही सिद्ध करेंगे, उसी दिन से लोग गलत करने से पहले सौ बार सोचेंगे अपनी साख बचाने के लिए. बेईमानी करना छोड़ देंगे और तब ईमानदारी की प्रथा चल पड़ेगी,” इतना कहतेकहते नीति हांफने लगी.

मां को हांफता देख कर नेहा दौड़ कर पानी लाई और बोली, “मां, आप बिलकुल सही कह रही हैं. हमें मतलब उपभोक्ताओं को जागरूक बनना बेहद जरूरी है. जब तक हम अपने अधिकारों के प्रति ध्यान नहीं देंगे, तब तक हमें धोखा मिलता रहेगा.”

“ठीक है बेटी, अब इस बात का खुद भी ध्यान रखना और दूसरों को भी समझाना.”

“जी… मैं अभी वापस दुकान पर जा कर दुकानदार से कपड़ा बदल कर लाती हूं,” इतना कह कर नेहा बाजार चली गई, तो नीति ने चैन की सांस ली.

संबल: विनोद को सही राह पर कैसे लायी उसकी पत्नी

अपने मैरिजहोम के स्वागतकक्ष में बैठी नमिता मुख्य रसोइए से शाम को होने वाले एक विवाह की दावत के बारे में बातचीत कर रही थी, तभी राहुल उस के कमरे में आया. नमिता को स्वागतकक्ष में देख कर एक बार को वह ठिठक सा गया, ‘‘अरे, नमिता, तुम यहां?’’ निगाहों में ही नहीं, उस के स्वर में भी आश्चर्य था.

‘‘क्यों? क्या मैं यहां नहीं हो सकती?’’ हंसते हुए नमिता ने गरमजोशी से राहुल का स्वागत किया और बगल में पड़ी कुरसी की तरफ बैठने का संकेत कर रसोइए से अपनी बात जारी रखी, फिर उसे एक सूची पकड़ा कर बोली, ‘‘इस सूची के मुताबिक दावत की हर चीज तैयार रखें. खाना लगभग 9 बजे होना है. कोई शिकायत नहीं सुनूंगी मैं.’’

‘‘जी मैडम,’’ रसोइए ने सिर झुका कर कहा और सूची ले वहां से चला गया.

‘‘यह क्या लफड़ा है भई?’’ राहुल ने अचरज से पूछा.

‘‘कोई खास नहीं,’’ नमिता मुसकराई. वही पुरानी मारक मुसकान, जिस का राहुल कभी दीवाना था.

‘‘अपनी शादी तो सफल नहीं हो सकी राहुल, पर दूसरों की शादियों का सफल आयोजन करने लगी हूं,’’ कह कर खुल कर हंसी नमिता. हंसते समय उसी तरह उस के गालों में पड़ने वाले गड्ढे और वैसे ही खिलखिलाने के साथ उस की छलक उठने वाली चमकदार पनीली आंखें. कुछ भी तो नहीं बदला है नमिता में.

‘‘आजकल कहां हैं महाशय?’’ राहुल को पता था, नमिता का पति एक गैरजिम्मेदार व भगोड़ा किस्म का व्यक्ति निकला. जिस ने शादी के बाद जीवन की किसी भी जिम्मेदारी को ठीक से कभी निभाने की कोशिश नहीं की.

‘‘किसी तरह बिगड़ैल बैल को गाड़ी के जुए के नीचे रखने में सफल हो गई हूं राहुल,’’ वह सगर्व बोली, ‘‘आजकल हमारे इस मैरिजहोम का बाहरी काम वही देखते हैं. आदतों में भी कुछ बदलाव आए हैं. आशा है, अब सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘लेकिन इतना आलीशान मैरिजहोम तुम ने बना कैसे डाला?’’ राहुल चकित स्वर में बोला, ‘‘कोई बैंक लूटा क्या तुम लोगों ने?’’

‘‘दिल में अगर कुछ करने का हौसला हो तो पैसे लगाने वालों की कमी नहीं है राहुल,’’ नमिता बोली, ‘‘मैं जिस कंपनी में काम करती थी, उस के मालिक खन्ना साहब पैसे वाले आदमी हैं. शहर में एक अच्छे मैरिजहोम की जरूरत सब महसूस कर रहे थे, पर कोईर् आगे बढ़ने का साहस नहीं कर रहा था. मैं ने खन्ना साहब से इस संबंध में अपना प्रस्ताव रखते हुए बात की तो वे गंभीर हो गए. वे बोले, ‘अगर तुम उस का इंतजाम कर सकती हो और सारा कुछ अपनी देखरेख में चला सकती हो तो बताओ.’

‘‘मैं ने हिम्मत जुटाई और उन्होंने पैसा लगाया. साहस का संबल यह रहा कि मैरिजहोम शहर की नाक बन गया है. अब हर अच्छी शादी का इंतजाम हम करते हैं. हर अच्छी दावत हमारे यहां से होती है. और आप आश्चर्य करेंगे कि हमारे पति महाशय को अब सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती. रातदिन इस के प्रबंधन में जुटे रहते हैं. खुश भी हैं और संतुष्ट भी.’’

‘‘यानी आजाद पंछी को अपने पिंजड़े में कैद कर लिया तुम ने,’’ राहुल मुसकराया, ‘‘चलो, अच्छा हुआ, वरना मैं परेशान रहता था तुम्हें ले कर कि तुम शादी कर के खुश नहीं रह सकीं.’’

‘‘एक बार को तो सबकुछ उजड़ ही गया था राहुल. लगने लगा था कि सब बिखर गया. जीवन बेकार हो गया. शादी असफल हो जाएगी. विनोद सचमुच ऐसे इंसान नहीं हैं जो घर बसा कर रहने में विश्वास रखते हों. वे यायावर, घुमक्कड़ किस्म के व्यक्ति हैं, आज यहां तो कल वहां. आज यह नौकरी तो कल वह, आज इस शहर में तो कल उस शहर में. दरदर की ठोकरें खाना उन की प्रवृत्ति और आदत में शुमार था राहुल. यह मैं ही जानती हूं कि कैसे उन्हें सही रास्ते पर लाई और अब खुश हूं कि वे मुझे पूरा सहयोग कर रहे हैं और इस काम में रुचि ले रहे हैं. काम चल निकला है और हमें खासी आमदनी होने लगी है.’’

‘‘यह करिश्मा किस का मानूं? तुम्हारा या विनोद का?’’ राहुल ने नमिता की आंखों में अपने पुराने दिन खोजने चाहे, जिन की कोई छाया तक उसे नहीं मिली. कितनी बदल गई है नमिता, कितना आत्मविश्वास छलक रहा है अब उस में.

नमिता के मातापिता नमिता का रिश्ता राहुल से करना चाहते थे. राहुल नमिता को पसंद भी बहुत करता था. जाति की बाधा भी नहीं थी. विश्वविद्यालय में वह नमिता के लिए रोज चक्कर लगाता था. नमिता तब इंग्लिश में एमए कर रही थी और राहुल उसी शहर में आयुर्वेदिक कालेज में बीएएमएस कर रहा था. करना तो हर युवक की तरह वह एमबीबीएस ही चाहता था, पर कई बार परीक्षा में बैठने के बाद भी उस में सफल नहीं हुआ तो जिस में प्रवेश मिल गया, वही पढ़ने लगा था. ऐलोपैथिक डाक्टर न सही, आयुर्वेदिक ही सही. डाक्टर तो बन ही रहा था. नमिता के मातापिता चाहते थे, नमिता जैसी नकचढ़ी लड़की अगर राहुल को पसंद कर ले तो उन के सिर का भार कम हो. पर नमिता ने इनकार कर दिया. उस के इनकार से राहुल को चोट भी पहुंची, लेकिन वह जोरजबरदस्ती किसी लड़की से शादी कैसे कर सकता था?

एक दिन राहुल ने पूछा था, ‘मैं

जानना चाहता हूं कि तुम ने मुझे

क्यों अस्वीकार किया नमिता? मुझ में क्या कमी या खराबी देखी तुम ने.’

‘कोई खराबी या कमी नहीं है राहुल तुम में. सच पूछो तो तुम मेरे एक अच्छे दोस्त हो जिस से मिल कर मुझे वाकई हमेशा अच्छा लगता है, खुशी होती है. पर राहुल, बुरा मत मानना, मैं किसी और से प्यार करती हूं.’

सुन कर जैसे राहुल आसमान से गिरा हो, ‘कौन है वह खुशनसीब?’

‘विनोद,’ नमिता बोली, ‘तुम जानते हो उसे. कई बार मेरे साथ तुम्हारी उस से मुलाकात हुई है. वह मेरा सहपाठी है.’

देर तक गुमसुम बना रहा था राहुल, फिर किसी तरह बोला था, ‘तुम अपने फैसले पर फिर विचार करो नमिता. मैं विनोद की आलोचना किसी जलन से नहीं कर रहा. सच कहूं तो मुझे वह एक बेहद गैरजिम्मेदार किस्म का युवक लगता है. मैं नहीं समझ पा रहा कि तुम ने उसे कैसे और क्यों अपने लिए पसंद किया. हो सकता है, उस की कोई बात या गुण तुम्हें अच्छा लगा हो, पर…’

‘अपनाअपना दृष्टिकोण है राहुल’, नमिता बोली थी, ‘मुझे उस का यह बिखरा, बेढंगा व्यक्तित्व ही बेहद पसंद आया है. वह लकीर का फकीर नहीं है. बंध कर किसी एक विचार और बात पर टिकता नहीं है, यह उस का गुण भी है और अवगुण भी. वह जैसा भी है, वैसा ही मुझे पसंद है राहुल.’

‘तुम्हारे घर वाले राजी हैं, विनोद के लिए?’ राहुल ने दूसरा दांव फेंका.

नमिता बोली, ‘राजी नहीं हैं, पर मैं ने तय कर लिया है. शादी करूंगी तो विनोद से ही, वरना आजीवन कुंआरी रहूंगी,’ उस के दृढ़ निश्चय ने राहुल को एकदम निराश कर दिया था. उस के बाद वह नमिता से कभी नहीं मिला. सिर्फ इधरउधर से उस के बारे में सुनता रहा कि नमिता विनोद से शादी कर खुश नहीं रह सकी.

‘‘खैर, मेरी छोड़ो राहुल, अपनी बताओ कुछ,’’ नमिता ने पूछा, ‘‘आज अचानक यहां इस शहर में कैसे?’’

‘‘जिस बरात की दावत का यहां इंतजाम है, उस का मैं बराती हूं नमिता. कार्ड में यहां का पता था और संपर्क में तुम्हारा नाम. तो तुम से मिलने चला आया. और सचमुच तुम्हें यहां पा कर बहुत आश्चर्य हुआ मुझे.’’

‘‘चलो, ऊपर की मंजिल पर अपने कमरे में ले चलूं तुम्हें,’’ कह कर नमिता उठ खड़ी हुई. अपने सहायक से बोली, ‘‘विनोद साहब आएं तो कहना कि सूची में लिखे सलाद का इंतजाम वे अपनी देखरेख में खुद कराएं.’’

‘‘जी मैडम,’’ सहायक ने उठ कर कहा तो राहुल को लगा कि नमिता की अपने काम पर पूरी पकड़ है और वह सचमुच मैरिजहोम की एक कुशल संचालिका है.

नमिता का कमरा तरतीब से सजा था. राहुल दीवान पर आराम से बैठ गया. नमिता ने घंटी बजा कर ठंडा पेय मंगाया, ‘‘अब अपनी सुनाओ राहुल, शादी की? बच्चे हैं?’’ नमिता की टटोलती नजरों से बचने का प्रयास करता रहा राहुल. चेहरे पर कुछ देर पहले की हंसी अब गायब हो गई थी. वह अचकचा उठा था. कुछ सोच नहीं पा रहा था, कैसे कहे और क्या कहे.

संकोच देख कर नमिता ने उस की तरफ गौर से ताका, ‘‘क्या बात है राहुल? मुझे लग रहा है तुम किसी कशमकश से गुजर रहे हो.’’

‘‘ठीक पकड़ा तुम ने नमिता,’’ वह खिसिया सा गया, ‘‘एक कसबाईर् शहर में सरकारी अस्पताल में नौकरी कर रहा हूं. पत्नी मुझ से खुश नहीं है. उसे लगता है, उस के साथ धोखा हुआ है. जैसा डाक्टर वह समझ रही थी, मैं वैसा डाक्टर नहीं निकला. उस की कल्पना थी कि मेरे पास कार होगी, बंगला होगा, नौकरचाकर होंगे. शहर में नाम होगा, मरीजों की लाइन लगी होगी, हर कोई इज्जत देगा. पर उस की उम्मीदों पर उस वक्त पानी फिर गया, जब उस ने जाना कि मैं आयुर्वेदिक डाक्टर हूं और सरकारी अस्पताल में मुझे मरीज तभी दिखाता है, जब कोई और डाक्टर वहां उसे नहीं मिलता. मरीज को मुझ पर विश्वास भी नहीं होता.

‘‘तनख्वाह जरूर दूसरे डाक्टरों जितनी ही मिलती है, पर न वह भाव है, न वह सम्मान. अस्पताल की नर्सें और कर्मचारी तक मुझे डाक्टर नहीं गिनते, न मेरी कोई बात सुनते हैं. साथी डाक्टर मुझे अपने साथ नहीं बैठाते. अपनी पार्टियों में मुझे नहीं बुलाते. एक प्रकार से अछूत माना जाता हूं मैं उन के बीच. उन की बीवियां मेरी बीवी को इज्जत नहीं देतीं. उस के मुंह पर कह देती हैं, ‘वह भी कोई डाक्टर है? चूरनचटनी से इलाज करता है. क्या देख कर तुम्हारे मांबाप ने उस से शादी कर दी.’’’

‘‘अरे,’’ नमिता को दुख सा हुआ, ‘‘तब तो तुम्हारी पत्नी सचमुच अपमानित महसूस करती होगी.’’

‘‘हां,’’ राहुल बोला, ‘‘उस अपमान के एहसास ने ही उस के दिल में मेरे प्रति नफरत पैदा करा दी नमिता. उसे मेरी सूरत से नफरत हो गई. मैं उस की आंखों में एकदम नकारा और बेकार आदमी हो गया. बिना मुझ से पूछे उस ने गर्भपात करवा लिया. अपने मायके में कह दिया, ‘ऐसे वाहियात आदमी का बच्चा मैं अपने पेट में नहीं पाल सकती.’’’

‘‘अरे, बड़ी बददिमाग औरत है वह,’’ नमिता बोली, ‘‘कहीं ऐसे जिया जाता है अपने पति के साथ?’’

‘‘2 साल वह मायके में ही रही. बारबार बुलाने पर भी नहीं आई. आखिर मैं ही गया अपनी नाक नीची कर के उसे लेने, उस के मातापिता से बात की. पूछा, मेरा क्या कुसूर है? जैसा डाक्टर हूं, वह शादी से पहले उन्हें बता दिया था. उन लोगों ने अपनी लड़की को शादी से पहले ही क्यों नहीं बता दिया? उसे अंधेरे में क्यों रखा? उस की आंखों में इतने बड़े सपने क्यों दिए कि वह जीवन की इस कठोर सचाई से आंखें नहीं मिला सकी?’’

‘‘मांबाप ने तुम्हारा पक्ष नहीं लिया?’’ नमिता ने पूछा.

‘‘कोई मांबाप नहीं चाहता कि उन की लड़की का बसा हुआ घर उजड़े. उन लोगों ने भी लड़की को बहुत समझाया, ‘शादीब्याह हंसीखेल नहीं है. जीवन का प्रश्न है. निर्वाह करना चाहिए. जीवन में ऊंचनीच, अच्छाबुरा कहां नहीं होता? कोई ऐसे लड़झगड़ कर अपने घर से भाग आती है?’’’

‘‘फिर कुछ समझी वह?’’ नमिता ने पूछा.

‘‘हां,’’ राहुल बोला, ‘‘लेकिन उस ने साथ चलने के लिए एक शर्त रखी.’’

‘‘ओह, शादी न हुई एक शर्तनामा हो गया,’’ हंस दी नमिता.

‘‘लेकिन मैं ने उस की वह शर्त तुरंत मान ली,’’ राहुल बोला, ‘‘उस ने कहा, ‘मैं अपना तबादला किसी ऐसे छोटे कसबे में करवा लूं जहां मुख्य डाक्टर मैं ही होऊं और कसबे वाले मुझे सचमुच डाक्टर मानें.’’’ राहुल कुछ चुप रह कर संतुष्ट स्वर में बोला, ‘‘अब जिस कसबे में हूं, वहां वह मेरे साथ खुश है. हालांकि वहां हर वक्त बिजली नहीं मिलती. अस्पताल में साधनों की कमी है. दवाएं अकसर नहीं होतीं. पर कसबे के दुकानदार दवाएं रखते हैं और मैं जिन दवाओं को परचे पर लिख देता हूं, उन्हें मंगाने की कोशिश करते हैं, जिस से मरीज ठीक होते हैं और मेरे प्रति लोगों का विश्वास जमने लगा है.

‘‘मुझे भी अब लगता है कि पत्नी की शर्त मान कर मैं ने शायद ठीक ही किया. बड़े शहर में जहां एक से एक कुशल और विशेषज्ञ डाक्टर मौजूद हों, वहां मुझ जैसे आयुर्वेदिक डाक्टर को कौन पूछेगा भला? वहां कोई क्यों मुझे सम्मान देगा, महत्त्व देगा? पर गांवकसबों में जहां विशेषज्ञ क्या, किसी तरह का डाक्टर नहीं होता, वहां लोग मुझे सम्मान देते हैं. मुझ में भी आत्मविश्वास आया है नमिता.’’

कर्मचारी शीतल पेय रख गया और दोनों पीने लगे थे. इस बीच नमिता का पति विनोद भी वहां आया था. नमिता ने परिचय कराया तो विनोद हंस दिया, ‘‘तुम तो ऐसे परिचय करा रही हो जैसे हम पहली बार मिल रहे हों.’’

कुछ औपचारिक बातों के बाद वह काम से चला गया. राहुल को लगा कि विनोद अब पहले जैसा अस्तव्यस्त और बेढंगा व्यक्तित्व वाला व्यक्ति नहीं रहा. वह काफी चुस्तदुरुस्त और व्यस्त सा लगा. राहुल मुसकरा दिया, ‘‘तुम ने तो विनोद की काया पलट दी नमिता.’’

‘‘मैरिजहोम में हम हर नए जोड़े से खिलखिलाती जिंदगी की इच्छा रखते हैं. इसलिए क्या एक औरत समझदारी से काम ले कर अपनी खुद की जिंदगी को खुशियों से नहीं भर सकती राहुल?’’

‘‘जरूर भर सकती है, अगर वह पति की संबल बन जाए,’’ राहुल मुसकराया, ‘‘मुझे खुशी है कि तुम ने विनोद को संभाल लिया नमिता.’’

‘‘पहले बच्चे का गर्भपात करवाने के बाद तुम्हारी पत्नी ने दूसरे बच्चे का मन बनाया या नहीं?’’ नमिता ने पूछा.

‘‘सालभर की एक बच्ची है नमिता,’’ राहुल झेंपा, ‘‘पत्नी अब मेरे साथ खुश रहती है. कसबे की औरतों में उस का सम्मान है. हर जगह उस को बुलाया जाता है और वह आतीजाती है. शायद दूसरों से जब हम अपनी तुलना करने लगते हैं तो हमारे अभाव हमें टीसने लगते हैं नमिता.

‘‘हमारी कमियां हमें आत्महीनता के दलदल में धंसाने लगती हैं. ऊंट अगर पहाड़ की तलहटी में आ कर अपनी ऊंचाई नापना चाहेगा तो अपने पर पछताएगा ही. पर जब वही ऊंट रेगिस्तान के बियाबान में अकेला होगा तो सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण साधन होगा, और सब से ऊंचा भी. यह रहस्य हम लोग कसबे में पहुंच कर समझ पाए. मैं भी ऐसा कोई अवसर नहीं चूकता, जहां मैं अपनी पत्नी को खुश कर सकूं. वह सचमुच अब प्रसन्न रहने लगी है नमिता.’’

पता नहीं किन नजरों से ताकती रही नमिता राहुल को. राहुल भी उसे ताकता रहा. पता नहीं. किस का लिखा वाक्य राहुल को उस वक्त याद आता रहा. औरतें मर्दों से ज्यादा बुद्धिमान होती हैं. हालांकि वे जानती कम हैं, पर जीवन की समझ उन में ज्यादा होती है. यह समझ ही तो है जो आज भी भारतीय परिवारों को बल और संबल प्रदान किए हुए है, जिस से आदमी अपने कद से ज्यादा ऊंचा उठा रहता है और आत्महीनता के दलदल में धंसने से बचा रहता है. औरतें ही तो हैं जो विनोद जैसे बेढंगे व्यक्ति को भी ढंग के आदमी में बदल देती हैं.

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बंद गले का कोट: क्या हुआ था सुनील के साथ

मास्को में गरमी का मौसम था. इस का मतलब यह नहीं कि वहां सूरज अंगारे उगलने लगा था, बल्कि यह कहें कि सूरज अब उगने लगा था, वरना सर्दी में तो वह भी रजाई में दुबका बैठा रहता था. सूरज की गरमी से अब 6 महीने से जमी हुई बर्फ पिघलने लगी थी. कहींकहीं बर्फ के अवशेष अंतिम सांसें गिनते दिखाई देते थे. पेड़ भी अब हरेभरे हो कर झूमने लगे थे, वरना सर्दी में तो वे भी ज्यादातर बर्फ में डूबे रहते थे. कुल मिला कर एक भारतीय की नजर से मौसम सुहावना हो गया था. यानी ओवरकोट, मफलर, टोपी, दस्ताने वगैरा त्याग कर अब सर्दी के सामान्य कपड़ों में घूमाफिरा जा सकता था. रूसी लोग जरूर गरमी के कारण हायहाय करते नजर आते थे. उन के लिए तो 24 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पारा हुआ नहीं कि उन की हालत खराब होने लगती थी और वे पंखे के नीचे जगह ढूंढ़ने लगते थे. बड़े शोरूमों में एयर कंडीशनर भी चलने लगे थे.

सुनील दूतावास में तृतीय सचिव के पद पर आया था. तृतीय सचिव का अर्थ था कि चयन और प्रशिक्षण के बाद यह उस की पहली पोस्टिंग थी, जिस में उसे साल भर देश की भाषा और संस्कृति का औपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त करना था और साथ ही दूतावास के कामकाज से भी परिचित होना था. वह आतेजाते मुझे मिल जाता और कहता, ‘‘कहिए, प्रोफेसर साहब, क्या चल रहा है?’’

‘‘सब ठीक है, आप सुनाइए, राजदूत महोदय,’’ मैं जवाब देता.

हम दोनों मुसकानों का आदानप्रदान करते और अपनीअपनी राह लेते. रूस में रहते हुए अपनी भारतीय संस्कृति के प्रति प्रेमप्रदर्शन के लिए और भारतीयों की अलग पहचान दिखाने के लिए मैं बंद गले का सूट पहनता था. रूसी लोग मेरी पोशाक से बहुत आकर्षित होते थे. वे मुझे देख कर कुछ इशारे वगैरा करने लगते. कुछ लोग मुसकराते और ‘इंदीइंदी’ (भारतीयभारतीय) कहते. कुछ मुझे रोक कर मुझ से हाथ मिलाते. कुछ मेरे साथ खडे़ हो कर फोटो खिंचवाते. कुछ ‘हिंदीरूसी भाईभाई’ गाने लगते. सुनील को भी मेरा सूट पसंद था और वह अकसर उस की तारीफ करता था.

यों पोशाक के मामले में सुनील खुद स्वच्छंद किस्म का जीव था. वह अकसर जींस, स्वेटर वगैरा पहन कर चला आता था. कदकाठी भी उस की छोटी और इकहरी थी. बस, उस के व्यवहार में भारतीय विदेश सेवा का कर्मचारी होने का थोड़ा सा गरूर था.

मैं ने कभी उस की पोशाक वगैरा पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन एक दिन अचानक वह मुझे बंद गले का सूट पहने नजर आया. मुझे लगा कि मेरी पोशाक से प्रभावित हो कर उस ने भी सूट बनवाया है. मुझे खुशी हुई कि मैं ने उसे पोशाक के मामले में प्रेरित किया.

‘‘अरे, आज तो आप पूरे राजदूत नजर आ रहे हैं,’’ मैं ने कहा, ‘‘सूट आप पर बहुत फब रहा है.’’

उस ने पहले तो मुझे संदेह की नजरों से देखा, फिर हलके से ‘धन्यवाद’ कहा और ‘फिर मिलते हैं’ का जुमला हवा में उछाल कर चला गया. मुझे उस का यह व्यवहार बहुत अटपटा लगा. मैं सोचने लगा कि मैं ने ऐसा क्या कह दिया कि वह उखड़ गया. मुझे कुछ समझ नहीं आया. इस पर ज्यादा सोचविचार करना मैं ने व्यर्थ समझा और यह सोच कर संतोष कर लिया कि उसे कोई काम वगैरा होगा, इसलिए जल्दी चला गया.

तभी सामने से हीरा आता दिखाई दिया. वह कौंसुलेट में निजी सहायक के पद पर था.

‘‘क्या बात हो रही थी सुनील से?’’ उस ने शरारतपूर्ण ढंग से पूछा.

‘‘कुछ नहीं,’’ मैं ने बताया, ‘‘पहली बार सूट में दिखा, तो मैं ने तारीफ कर दी और वह मुझे देखता चला गया, मानो मैं ने गाली दे दी हो.’’

‘‘तुम्हें पता नहीं?’’ हीरा ने शंकापूर्वक कहा.

‘‘क्या?’’ मुझे जिज्ञासा होना स्वाभाविक था.

‘‘इस सूट का राज?’’ उस ने कहा.

‘‘सूट का राज? सूट का क्या राज, भई?’’ मैं ने भंवें सिकोड़ते हुए पूछा.

‘‘असल में इसे पिछले हफ्ते मिलित्सिया वाले (पुलिस वाले) ने पकड़ लिया था,’’ उस ने बताया, ‘‘वह बैंक गया था पैसा निकलवाने. बैंक जा रहा था तो उस के 2 साथियों ने भी उसे अपने चेक दे दिए. वह बैंक से निकला तो उस की जेब में 3 हजार डालर थे.

‘‘वह बाहर आ कर टैक्सी पकड़ने ही वाला था कि मिलित्सिया का सिपाही आया और इसे सलाम कर के कहा कि ‘दाक्यूमेत पजालस्ता (कृपया दस्तावेज दिखाइए).’ इस ने फट से अपना राजनयिक पहचानपत्र निकाल कर उसे दिखा दिया. वह बड़ी देर तक पहचानपत्र की जांच करता रहा फिर फोटो से उस का चेहरा मिलाता रहा. इस के बाद इस की जींस और स्वेटर पर गौर करता रहा, और अंत में उस ने अपना निष्कर्ष उसे बताया कि यह पहचानपत्र नकली है.’’

‘‘सुनील को जितनी भी रूसी आती थी, उस का प्रयोग कर के उस ने सिपाही को समझाने की कोशिश की कि पहचानपत्र असली है और वह सचमुच भारतीय दूतावास में तृतीय सचिव है. लेकिन सिपाही मानने के लिए तैयार नहीं था. फिर उस ने कहा कि ‘दिखाओ, जेब में क्या है?’ और जेबें खाली करवा कर 3 हजार डालर अपने कब्जे में ले लिए. अब सुनील घबराया, क्योंकि उसे मालूम था कि मिलित्सिया वाले इस तरह से एशियाई लोगों को लूट कर चल देते हैं और फिर उस की कोई सुनवाई नहीं होती. अगर कोई काररवाई होती भी है तो वह न के बराबर होती है. मिलित्सिया वाले तो 100-50 रूबल तक के लिए यह काम करते हैं, जबकि यहां तो मसला 3 हजार डालर यानी 75 हजार रूबल का था.’’

‘‘उस ने फिर से रूसी में कुछ कहने की कोशिश की लेकिन मिलित्सिया वाला भला अब क्यों सुनता. वह तो इस फिराक में था कि पैसा और पहचानपत्र दोनों ले कर चंपत हो जाए, लेकिन सुनील के भाग्य से तभी वहां मिलित्सिया की गाड़ी आ गई. उस में से 4 सिपाही निकले, जिन में से 2 के हाथों में स्वचालित गन थीं. उन्हें देख कर सुनील को लगा कि शायद अब वह और उस के पैसे बच जाएं.

‘‘वे सिपाही वरिष्ठ थे, इसलिए पहले सिपाही ने उन्हें सैल्यूट कर के उन्हें सारा माजरा बताया और फिर मन मार कर पहचानपत्र और राशि उन के हवाले कर दी और कहा कि उसे शक है कि यह कोई चोरउचक्का है. उन सिपाहियों ने सुनील को ऊपर से नीचे तक 2 बार देखा. मौका देख कर सुनील ने फिर से अपने रूसी ज्ञान का प्रयोग करना चाहा, लेकिन उन्होंने कुछ सुनने में रुचि नहीं ली और आपस में कुछ जोड़तोड़ जैसा करने लगे. इस पर सुनील की अक्ल ने काम किया और उस ने उन्हें अंगरेजी में जोरों से डांटा और कहा कि वह विदेश मंत्रालय में इस बात की सख्त शिकायत करेगा.

‘‘उन्हें अंगरेजी कितनी समझ में आई, यह तो पता नहीं, लेकिन वे कुछ प्रभावित से हुए और उन्होंने सुनील को कार में धकेला और कार चला दी. पहला सिपाही हाथ मलता और वरिष्ठों को गालियां देता वहीं रह गया. अब तो सुनील और भी घबरा गया, क्योंकि अब तक तो सिर्फ पैसा लुटने का डर था, लेकिन अब तो ये सिपाही न जाने कहां ले जाएं और गोली मार कर मास्कवा नदी में फेंक दें. उस का मुंह रोने जैसा हो गया और उस ने कहा कि वह दूतावास में फोन करना चाहता है. इस पर एक सिपाही ने उसे डांट दिया कि चुप बैठे रहो.

‘‘सिपाही उसे ले कर पुलिस स्टेशन आ गए और वहां उन्होंने थाना प्रभारी से कुछ बात की. उस ने भी सुनील का मुआयना किया और शंका से पूछा, ‘आप राजनयिक हैं?’

‘‘सुनील ने अपना परिचय दिया और यह भी बताया कि कैसे उसे परेशान किया गया है, उस के पैसे छीने गए हैं. बेमतलब उसे यहां लाया गया है और वह दूतावास में फोन करना चाहता है.

‘‘प्रभारी ने सामने पड़े फोन की ओर इशारा किया. सुनील ने झट से कौंसुलर को फोन मिलाया. कौंसुलर ने मुझे बुलाया और फिर मैं और कौंसुलर दोनों कार ले कर थाने पहुंचे. हमें देख कर सुनील लगभग रो ही दिया. कौंसुलर ने सिपाहियों को डांटा और कहा कि एक राजनयिक के साथ इस तरह का व्यवहार आप लोगों को शोभा नहीं देता.’’

‘‘इस पर वह अधिकारी काफी देर तक रूसी में बोलता रहा, जिस का मतलब यह था कि अगर यह राजनयिक है तो इसे राजनयिक के ढंग से रहना भी चाहिए और यह कि इस बार तो संयोग से हमारी पैट्रोल वहां पहुंच गई, लेकिन आगे से हम इस तरह के मामले में कोई जिम्मेदारी नहीं ले सकते?

‘‘अब कौंसुलर की नजर सुनील की पोशाक पर गई. उस ने वहीं सब के सामने उसे लताड़ लगाई कि खबरदार जो आगे से जींस में दिखाई दिए. क्या अब मेरे पास यही काम रह गया है कि थाने में आ कर इन लोगों की उलटीसीधी बातें सुनूं और तुम्हें छुड़वाऊं.’’

‘‘हम लोग सुनील को ले कर आ गए. अगले 2 दिन सुनील ने छुट्टी ली और बंद गले का सूट सिलवाया और उसे पहन कर ही दूतावास में आया. मैं ने तो खैर उस का स्टेटमेंट टाइप किया था, इसलिए इतने विस्तार से सब पता है, लेकिन यह बात तो दूतावास के सब लोग जानते हैं,’’ हीरा ने अपनी बात खत्म की.

‘‘तभी…’’ मेरे मुंह से निकला, ‘‘उसे लगा होगा कि मैं भी यह किस्सा जानता हूं और उस का मजाक उड़ा रहा हूं.’’

‘‘अब तो जान गए न,’’ हीरा हंसा और अपने विभाग की ओर बढ़ गया.

मुझे अफसोस हुआ कि सुनील को सूट सिलवाने की प्रेरणा मैं ने नहीं, बल्कि पुलिस वालों ने दी थी.

सुख की गारंटी

एकदिन काफी लंबे समय बाद अनु ने महक को फोन किया और बोली, ‘‘महक, जब तुम दिल्ली आना तो मुझ से मिलने जरूर आना.

‘‘हां, मिलते हैं, कितना लंबा समय गुजर गया है. मुलाकात ही नहीं हुई है हमारी.’’

कुछ ही दिनों बाद मैं अकेली ही दिल्ली जा रही थी. अनु से बात करने के बाद पुरानी यादें, पुराने दिन याद आने लगे. मैं ने तय किया कि कुछ समय पुराने मित्रों से मिल कर उन

पलों को फिर से जिया जाए. दोस्तों के साथ बिताए पल, यादें जीवन की नीरसता को कुछ कम करते हैं.

शादी के बाद जीवन बहुत बदल गया व बचपन के दिन, यादें व बहत कुछ पीछे छूट गया था. मन पर जमी हुई समय की धूल साफ होने लगी…

कितने सुहाने दिन थे. न किसी बात की चिंता न फिक्र. दोस्तों के साथ हंसीठिठोली और भविष्य के सतरंगी सपने लिए, बचपन की मासूम पलों को पीछे छोड़ कर हम भी समय की घुड़दौड़ में शामिल हो गए थे. अनु और मैं ने अपने जीवन के सुखदुख एकसाथ साझा किए थे. उस से मिलने के लिए दिल बेकरार था.

मैं दिल्ली पहुंचने का इंतजार कर रही थी. दिल्ली पहुंचते ही मैं ने सब से पहले अनु को फोन किया. वह स्कूल में पढ़ाती है. नौकरी में समय निकालना भी मुश्किल भरा काम है.

‘‘अनु मैं आ गई हूं… बताओ कब मिलोगी तुम? तुम घर ही आ जाओ, आराम से बैठेंगे. सब से मिलना भी हो जाएगा…’’

‘‘नहीं यार, घर पर नहीं मिलेंगे, न तुम्हारे घर न ही मेरे घर. शाम को 3 बजे मिलते हैं. मैं स्कूल समाप्त होने के बाद सीधे वहीं आती हूं, कौफी हाउस, अपने वही पुराने रैस्टोरैंट में…

‘‘ठीक है शाम को मिलते हैं.’’

आज दिल में न जाने क्यों अजीब सी

बैचेनी हो रही थी. इतने वर्षों में हम मशीनी जीवन जीते संवादहीन हो गए थे. अपने लिए जीना भूल गए थे. जीवन एक परिधि में सिमट गया था. एक भूलभुलैया जहां खुद को भूलने

की कवायत शुरू हो गई थी. जीवन सिर्फ ससुराल, पति व बच्चों में सिमट कर रह गया था. सब को खुश रखने की कवायत में मैं खुद को भूल बैठी थी. लेकिन यह परम सत्य है कि सब को खुश रखना नामुमकिन सा होता है.

दुनिया गोल है, कहते हैं न एक न एक दिन चक्र पूरा हो ही जाता है. इसी चक्र में आज बिछड़े साथी मिल रहे थे. घर से बाहर औपचारिकताओं से परे. अपने लिए हम अपनी आजादी को तलाशने का प्रयत्न करते हैं. अपने लिए पलों को एक सुख की अनुभूति होती है.

मैं समझ गई कि आज हमारे बीच कहनेसुनने के लिए बहुत कुछ होगा. सालों से मौन की यह दीवार अब ढलने वाली है.

नियत समय पर मैं वहां पहुंच गई. शीघ्र ही अनु भी आ गई. वही प्यारी सी मुसकान, चेहरे पर गंभीरता के भाव, पर हां शरीर थोड़ा सा भर गया था, लेकिन आवाज में वही खनक थी. आंखें पहले की तरह प्रश्नों को तलाशती हुई नजर आईं, जैसे पहले सपनों को तलाशती थीं.

समय ने अपने अनुभव की लकीरें चेहरे पर खींच दी थीं. वह देखते ही गले मिली तो मौन की जमी हुई बर्फ स्वत: ही पिघलने लगी…

‘‘कैसी हो अनु, कितने वर्षों बाद तुम्हें देखा है, यार तुम तो बिलकुल भी नहीं बदलीं…’’

‘‘कहां यार, मोटी हो गई हूं… तुम बताओ कैसी हो? तुम्हारी जिंदगी तो मजे में गुजर रही है, तुम जीवन में कितनी सफल हो गई हो… चलो आराम से बैठते हैं…’’

आज वर्षों बाद भी हमें संवादहीनता का एहसास नहीं हुआ… बात जैसे वहीं से शुरू हो गई, जहां खत्म हुई थी. अब हम रैस्टोरैंट में अपने लिए कोना तलाश रहे थे, जहां हमारे संवादों में किसी की दखलंदाजी न हो. इंसानी फितरत होती है कि वह भीड़ में भी अपना कोना तलाश लेता है. कोना जहां आप सब से दुबक कर बैठे हों, जैसे कि आसपास बैठी 4 निगाहें भी उस अदृश्य दीवार को भेद न सकें. वैसे यह सब मन का भ्रमजाल ही है.

आखिरकार हमें कोना मिल ही गया. रैस्टोरैंट के ऊपरी भाग में

कोने की खाली मेज जैसे हमारा ही इंतजार कर रही थी. यह कोना दिल को सुकून दे रहा था. चायनाश्ते का और्डर देने के बाद अनु सीधे मुद्दे पर आ गई. बोली, ‘‘और सुनाओ कैसी हो, जीवन में बहुत कुछ हासिल कर लिया है. आज इतना बड़ा मकाम, पति, बच्चे सब मनमाफिक मिल गए तुम्हें. मुझे बहुत खुशी है…’’

यह सुनते ही महक की आंखों में दर्द की लहर चुपके से आ कर गुजर गई व पलकों के कोर कुछ नम से हो गए. पर मुसकान का बनावटीपन कायम रखने की चेष्टा में चेहरे के मिश्रित हावभाव कुछ अनकही कहानी बयां कर रहे थे.

‘‘बस अनु सब ठीक है. अपने अकेलेपन से लड़ते हुए सफर को तय कर रही हूं, जीवन में बहुत उतारचढ़ाव देखें हैं. तुम तो खुश हो न? नौकरी करती हो, अच्छा काम कर रही हो, अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जी रही हो… सबकुछ अपनी पसंद का मिला है और क्या

सुख चाहिए? मैं तो बस यों ही समय काटने के लिए लिखनेपढ़ने लगी, ‘‘मैं ने बात को घुमा कर उस का हाल जानने की कोशिश करनी चाही.

‘‘मैं भी बढि़या हूं. जीवन कट रहा है. मैं पहले भी अकेली थी, आज भी अकेली हूं. हम साथ जरूर हैं पर कितनी अलग राहें हैं जैसे नदी के 2 किनारे…

‘‘यथार्थ की पथरीली जमीन बहुत कठोर है. पर जीना पड़ता है… इसलिए मैं ने खुद को काम में डुबो दिया है…’’

‘‘क्या हुआ, ऐसे क्यों बोल रही हो? तुम दोनों के बीच कुछ हुआ है क्या?’’

‘‘नहीं यार, पूरा जीवन बीत जाए तो भी हम एकदूसरे को समझ नहीं सकेंगे. कितने वैचारिक मतभेद हैं, शादी का चार्म, प्रेम पता नहीं कहां 1 साल में ही खत्म हो गया. अब पछतावा होता है. सच है, इंसान प्यार में अंधा हो जाता है.’’

‘‘हां, सही कहा, सब एक ही नाव पर सवार होते हैं पर परिवार के लिए जीना पड़ता है.’’

‘‘हां, तुम्हारी बात सही है, पर यह समझौते अंतहीन होते हैं, जिन्हें निभाने में जिंदगी का ही अंत हो जाता है. तुम्हें तो शायद कुदरत से यह सब मिला है पर मैं ने तो अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारी है. प्रेमविवाह जो किया है.

‘‘सब ने मना किया था कि यह शादी मत करो, पर आज समझ में आया कि मेरा फैसला गलत था. यार, विनय का व्यवहार समझ से परे है. रिश्ता टूटने की कगार पर है. उस के पास मेरे लिए समय ही नहीं है या फिर वह देना नहीं चाहता… याद नहीं कब दो पल सुकून से बैठे हों. हर बात में अलगाव वाली स्थिति होती है.’’

‘‘अनु, सब को मनचाहा जीवनसाथी नहीं मिलता. जिंदगी उतनी आसान नहीं होती, जितना हम सोचते हैं. सुख अपरिभाषित है. रिश्ते निभाना इतना भी आसान नहीं है. हर रिश्ता आप से समय व त्याग मांगता है. पति के लिए जैसे पत्नी उन की संपत्ति होती है जिस पर जितनी चाहे मरजी चला लो. हम पहले मातापिता की मरजी से जीते थे, अब पति की मरजी से जीते हैं. शादी समझौते का दूसरा नाम ही है, हां कभीकभी मुझे भी गुस्सा आता है तो मां से शिकायत करना सीख लिया है. अब दुख नहीं होता. तुम भी हौंसला रखो, सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘नहीं महक, अब उम्मीद बाकी नहीं है. शादी करो तो मुश्किल, न करो तो भी मुश्किल. सब को शादी ही अंतिम पड़ाव क्यों लगता है? मैं ने भी समझौता कर लिया है कि रोनेधोने से समस्या हल नहीं होती.

‘‘अनु, तुम्हारे पास तो पाक कला का हुनर है उसे और निखारो. अपने शौक पूरे करो. एक ही बिंदु पर खड़ी रहोगे तो घुटन होने लगेगी.

‘‘एक बात बताओ कि एक आदमी किसी के सुख का पैमाना कैसे हो सकता है? अरैंज्ड मैरिज में पगपग पर असहमति होती है, यहां पर हर रिश्ता आग की दहलीज पर खड़ा होता है, हर कोई आप से संतुष्ट नहीं होता.’’

‘‘महक बात जो तुम्हारी सही है पर विवाह में कोई एक व्यक्ति, किसी दूसरे के जीने का मापदंड कैसे तय कर सकता है? समय बदल गया है, कानून में भी दंड का प्रावधान है. हमें अपने अधिकारों के लिए सजग रहना चाहिए. कब तक अपनी इच्छाओं का गला घोटें… यहां तो भावनाओं का भी रेप हो जाता है, जहां बिना अपनी मरजी के आप वेदना से गुजरते रहो और कोई इस की परवाह भी न करे.’’

‘‘अनु, जब विवाह किया है तो निभाना भी पड़ेगा. क्या हमें मातापिता, बच्चे,

पड़ोसी हमेशा मनचाहे ही मिलते हैं? क्या सब जगह आप तालमेल नहीं बैठाते? तो फिर पतिपत्नी के रिश्ते में वैचारिक मतभेद होना लाजिमी है. हाथ की सारी उंगलियां भी एकसमान नहीं होतीं, तो

2 लोग कैसे समान हो सकते हैं?

‘‘इन मैरिज रेप इज इनविजिबल, सो रिलैक्स ऐंड ऐंजौय. मुंह फुला कर रहने में कोई मजा नहीं है. दोनों पक्षों को थोड़ाथोड़ा झुकना पड़ता है. किसी ने कहा है न कि यह आग का दरिया है और डूब कर जाना है, तो विवाह में धूप व छांव के मोड़ मिलते रहते हैं.’’

‘‘हां, महक तुम शायद सही हो. कितना सहज सोचती हो. अब मुझे भी लगता है कि हमें फिर से एकदूसरे को मौका देना चाहिए. धूपछांव तो आतीजाती रहती है…’’

‘‘अनु देख यार, जब हम किसी को उस की कमी के साथ स्वीकार करते हैं तो पीड़ा का एहसास नहीं होता. सकारात्मक सोच कर अब आगे बढ़, परिवार को पूर्ण करो, यही जीवन है…’’

विषय किसी उत्कर्षनिष्कर्ष तक पहुंचता कि तभी वेटर आ गया और दोनों चुप हो गईं.

‘‘मैडम, आप को कुछ चाहिए?’’ कहने के साथ ही मेज पर रखे खाली कपप्लेटें समेटने लगा. उस के हावभाव से लग रहा था कि खाली बैठे ग्राहक जल्दी से अपनी जगह छोड़ें.

‘‘हम ने बातोंबातों में पहले ही चाय के कप पी कर खाली कर दिए.’’

‘‘हां, 2 कप कौफी के साथ बिल ले कर आना,’’ अनु ने कहा.

‘‘अनु, समय का भान नहीं हुआ कि 2 घंटे कैसे बीत गए. सच में गरमगरम कौफी की जरूरत महसूस हो रही है.’’

मन में यही भाव था कि काश वक्त हमारे लिए ठहर जाए. पर ऐसा होता नहीं है.

वर्षों बाद मिलीं सहेलियों के लिए बातों का बाजार खत्म करना भी मुश्किल भरा काम है. गरमगरम कौफी हलक में उतरने के बाद मस्तिष्क को राहत महसूस हो रही थी. मन की भड़ास विषय की गरमी, कौफी की गरम चुसकियों के साथ विलिन होने लगी. बातों का रूख बदल गया.

आज दोनों शांत मन से अदृश्य उदासी व पीड़ा के बंधन को मुक्त कर के चुपचाप यहीं छोड़ रही थीं.

मन में कड़वाहट का बीज जैसे मरने लगा. महक घर जाते हुए सोच रही थी कि प्रेमविवाह में भी मतभेद हो सकते हैं तो अरैंज्ड मैरिज में पगपग पर इम्तिहान है. एकदूसरे को समझने में जीवन गुजर जाता है. हर दिन नया होता है. जब आशा नहीं रखेंगे तो वेदना नामक शराब से स्वत: मुक्ति मिल जाएगी.

अनु से बात कर के मैं यह सोचने पर मजबूर हो गई थी कि हर शादीशुदा कपल परेशानी से गुजरता है. शादी के कुछ दिनों बाद जब प्यार का खुमार उतर जाता है तो धरातल की उबड़खाबड़ जमीन उन्हें चैन की नींद सोने नहीं देती है. फिर वहीं से शुरू हो जाता है आरोपप्रत्यारोपों का दौर. क्यों हम अपने हर सुखदुख की गारंटी अपने साथी को समझते हैं? हर पल मजाक उड़ाना व उन में खोट निकालना प्यार की परिभाषा को बदल देता है. जरा सा नजरिया बदलने की देर है.

सामाजिक बधन को क्यों हंस कर जिया जाए. पलों को गुनगुनाया जाए? एक पुरुष या एक स्त्री किसी के सुख की गारंटी कैसे बन सकते हैं? हां, सुख तलाश सकते हैं और बंधन निभाने में ही समझदारी है.

आज मैं ने भी अपने मन में जीवनसाथी के प्रति पल रही कसक को वहीं छोड़

दिया, तो मन का मौसम सुहाना लगने लगा. घर वापसी सुखद थी. शादी का बंधन मजबूरी नहीं प्यार का बंधन बन सकता है, बस सोच बदलने की देर है.

कुछ दिनों बाद अनु का फोन आया, ‘‘शुक्रिया महक, तुम्हारे कारण मेरा जीवन अब महकने लगा है. हम दोनों ने नई शुरुआत कर दी है. अब मेरे आंगन में बेला के फूल महक रहे हैं. सुख की गारंटी एकदूसरे के पास है.’’ दोनों खिलखिला कर हंसने लगीं.

सुंदर माझे घर: दीपेश ने कैसे दी पत्नी को श्रद्धांजलि

नीरा को प्रकृति से अत्यंत प्रेम था. यही कारण था कि जब दीपेश ने मकान बनाने का निर्णय लिया तो उस ने साफ शब्दों में कह दिया कि वह फ्लैट नहीं, अपना स्वतंत्र घर चाहती है जिसे वह अपनी इच्छानुसार, वास्तुशास्त्र के नियमों के मुताबिक, बनवा सके. उस में छोटा सा बगीचा हो, तरहतरह के फूल हों. यदि संभव हो तो फल और सब्जियां भी लगाई जा सकें.

यद्यपि दीपेश को वास्तुशास्त्र में विश्वास नहीं था किंतु नीरा का वास्तुशास्त्र में घोर विश्वास था. उस का कहना था कि यदि इस में कोई सचाई न होती तो क्यों बड़ेबड़े लोग अपने घर और दफ्तर को बनवाने में वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करते या कमी होने पर अच्छेभले घर में तोड़फोड़ कराते.

अपने कथन की सत्यता सिद्ध करने के लिए नीरा ने विभिन्न अखबारों की कतरनें ला कर उस के सामने रख दी थीं तथा इसी के साथ वास्तुशास्त्र पर लिखी एक पुस्तक को पढ़ कर सुनाने लगी. उस में लिखा था कि भारत में स्थित तिरुपति बालाजी का मंदिर शतप्रतिशत वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करते हुए बनाया गया है. तभी उसे इतनी प्रसिद्धि मिली है तथा चढ़ावे के द्वारा वहां जितनी आय होती है उतनी शायद किसी अन्य मंदिर में नहीं होती.

हमारा संपूर्ण ब्रह्मांड पंचतत्त्वों से बना है. जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि तथा आकाश के द्वारा हमारा शरीर कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन तथा चरबी जैसे आंतरिक शक्तिवर्धक तत्त्व तथा गरमी, प्रकाश, वायु तथा ध्वनि द्वारा बाहरी शक्ति प्राप्त करता है परंतु जब इन तत्त्वों की समरसता बाधायुक्त हो जाए तो हमारी शक्तियां क्षीण हो जाती हैं. मन की शांति भंग होने के कारण खिंचाव, तनाव तथा अस्वस्थता बढ़ जाती है. तब हमें अपनी आंतरिक और बाहरी शक्तियों को एकाग्र हो कर निर्देशित करना पड़ता है ताकि इन में संतुलन स्थापित हो कर शरीर में स्वस्थता तथा प्रसन्नता और सफलता प्राप्त हो. इन 5 तत्त्वों का संतुलन ही वास्तुशास्त्र है.

दीपेश ने देखा कि नीरा एक पैराग्राफ कहीं से पढ़ रही थी तथा दूसरा कहीं से. जगहजगह उस ने निशान लगा रखे थे. वह आगे और पढ़ना चाह रही थी कि उन्होंने यह कह कर उसे रोक दिया कि घर तुम्हारा है, जैसे चाहे बनवाओ. लेकिन खुद घर बनवाने में काफी परिश्रम एवं धन की जरूरत होगी जबकि उतना ही बड़ा फ्लैट किसी अच्छी कालोनी में उतने ही पैसों में मिल जाएगा.

‘आप श्रम की चिंता मत करो. वह सब मैं कर लूंगी. हां, धन का प्रबंध अवश्य आप को करना है. वैसे, मैं बजट के अंदर ही काम पूरा कराने का प्रयत्न करूंगी, फिर यह भी कोई जरूरी नहीं है कि एकसाथ ही पूरा काम हो, बाद में भी सुविधानुसार दूसरे काम करवाए जा सकते हैं. अब आप ही बताओ, भला फ्लैट में इन सब नियमों का पालन कैसे हो सकता है. सो, मैं छोटा ही सही, लेकिन स्वतंत्र मकान चाहती हूं,’ दीपेश की सहमति पा कर वह गद्गद स्वर में कह उठी थी.

दीपेश ने नीरा की इच्छानुसार प्लौट खरीदा तथा मुहूर्त देख कर मकान बनाने का काम शुरू करवा दिया. मकान का डिजाइन नीरा ने वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करते हुए अपनी वास्तुकार मित्र से बनवाया था. प्लौट छोटा था, इसलिए सब की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए डुप्लैक्स मकान का निर्माण करवाने की योजना थी. निरीक्षण के लिए उस के साथ कभीकभी दीपेश भी आ जाते थे.

तभी एक दिन सूर्य को डूबते देख कर नीरा भावविभोर हो कर कह उठी थी, ‘लोग तो सूर्यास्त देखने पता नहीं कहांकहां जाते हैं. देखो, कितना मनोहारी दृश्य है. हम यहां एक बरामदा अवश्य निकलवाएंगे जिस से चाय की चुस्कियों के साथ प्रकृति के इस मनोहारी स्वरूप का भी आनंद ले सकें.’

उस समय दीपेश को भी नीरा का स्वतंत्र बंगले का सु झाव अच्छा लगा था.नीरा की सालभर की मेहनत के बाद जब मकान बन कर तैयार हुआ तब सब बेहद खुश थे, खासतौर से, नितिन और रीना. उन को अलगअलग कमरे मिल रहे थे. कहां पर अपना पलंग रखेंगे, कहां उन की पढ़ने की मेज रखी जाएगी, सामान शिफ्ट करने से पहले ही उन की योजना बन गई थी.

अलग से पूजाघर,  दक्षिणपूर्व की ओर रसोईघर तथा अपना बैडरूम दक्षिण दिशा में बनवाया था क्योंकि उस के अनुसार पूर्व दिशा की ओर मुंह कर के पूजा करने में मन को शांति मिलती है. वहीं, उस ओर मुंह कर के खाना बनाने से रसोई में स्वाद बढ़ता है तथा दक्षिण दिशा घर के मालिक के लिए उपयुक्त है क्योंकि इस में रहने वाले का पूरे घर में वर्चस्व रहता है. एक बार फिर मुहूर्त देख कर गृहप्रवेश कर लिया गया था.

सब अतिथियों के विदा होने के बाद रात्रि को सोने से पहले दीपेश ने नीरा का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा था, ‘आज मैं बहुत खुश हूं. तुम्हारी अथक मेहनत के कारण हमारा अपने घर का सपना साकार हो पाया है.’

‘अभी तो सिर्फ ईंटगारे से निर्मित घर ही बना है. अभी मु झे इसे वास्तव में घर बनाना है जिसे देख कर मैं गर्व से कह सकूं, ‘सुंदर मा झे घर,’ मेरा सुंदर घर. जहां प्यार, विश्वास और अपनत्व की सरिता बहती हो, जहां घर का प्रत्येक प्राणी सिर्फ रात बिताने या खाना खाने न आए बल्कि प्यार के अटूट बंधन में बंधा वह शीघ्र काम समाप्त कर के इस घर की छत की छाया के नीचे अपनों के बीच बैठ कर सुकून के पल ढूंढ़े,’ नीरा ने उस की ओर प्यारभरी नजरों से देखते हुए कहा था.

नीरा ने ईंटगारे की बनी उस इमारत को सचमुच घर में बदल दिया. उस के हाथ की बनाई पेंटिंग्स ने घर में उचित स्थानों पर जगह ले ली थी. दीवार के रंग से मेल खाते परदे, वौल हैंगिंग्स, लैंप आदि न केवल घर की मालकिन की रुचि का परिचय दे रहे थे, घर की शोभा को दोगुना भी कर रहे थे.

नीरा ने न केवल ड्राइंगरूम बल्कि बैडरूम और रसोईघर को भी सामान्य साजसामान की सहायता व अपनी कल्पनाशीलता से आधुनिक रूप दे दिया था, साथ ही, आगे बगीचे में उस ने गुलाब, गुलदाऊदी, गेंदा और रजनीगंधा आदि फूलों के पेड़ व घर के पीछे कुछ फलों के पेड़ और मौसमी सब्जियां भी लगाई थीं. अपने लगाए पेड़पौधों की देखभाल वह नवजात शिशु के समान करती थी. कब किसे कितनी खाद और पानी की जरूरत है, यह जानने के लिए उस ने बागबानी से संबंधित एक पुस्तक भी खरीद ली थी.

दीपेश कभीकभी घर सजानेसंवारने में पत्नी की मेहनत और लगन देख कर हैरान रह जाता था. एक बार वह साड़ी खरीदने के लिए मना कर देती थी लेकिन यदि उसे कोई सजावटी या घर के लिए उपयोगी सामान पसंद आ जाता तो वह उसे खरीदे बिना नहीं रह सकती थी.

नीरा की ‘मा झे सुंदर घर’ की कल्पना साकार हो उठी थी. धीरेधीरे एक वर्ष पूरा होने जा रहा था. वह इस अवसर को कुछ नए अंदाज से मनाना चाहती थी. इसीलिए घर में एक साधारण पार्टी का आयोजन किया गया था. घर को गुब्बारों और रंगबिरंगी पट्टियों से सजाया गया था. काम की हड़बड़ी में ऊपर के कमरे से नीचे उतरते समय नीरा का पैर साड़ी में उल झ गया और वह नीचे गिर गई. सिर में चोट आई थी लेकिन उस ने ध्यान नहीं दिया और पार्टी का मजा किरकिरा न हो जाए, यह सोच कर चुपचाप दर्द को  झेलती रही.

‘आज मैं बहुत थक गई हूं. अब सोना चाहती हूं,’ पार्टी समाप्त होने पर नीरा ने थके स्वर में दीपेश से कहा था.

‘अब आलतूफालतू काम करोगी तो थकोगी ही. भला इतना सब ताम झाम करने की क्या जरूरत थी?’ दीपेश ने सहज स्वर में कहा था. ऊपरी चोट के अभाव के कारण दीपेश ने नीरा के गिरने की घटना को गंभीरता से नहीं लिया था.

जब नीरा सुबह अपने समय पर नहीं उठी तब दीपेश को चिंता हुई. जा कर देखा तो पाया कि वह बेसुध पड़ी थी, चेहरे पर अजीब से भाव थे जैसे रातभर दर्द से तड़पती रही हो. दीपेश ने फौरन डाक्टर को बुला कर दिखाया. डाक्टर ने उसे शीघ्र ही अस्पताल में भरती कराने की सलाह देते हुए कहा कि गिरने के कारण सिर में अंदरूनी चोट आई है. ‘सिर की चोट को कभी भी हलके रूप में नहीं लेना चाहिए. कभीकभी साधारण चोट भी जानलेवा हो जाती है.’

डाक्टर की बात सच साबित हुई. लगभग 5 दिन जिंदगी और मौत के साए में  झूलने के बाद नीरा चिरनिद्रा में सो गई. सभी सगेसंबंधी, अड़ोसीपड़ोसी इस अप्रत्याशित मौत का समाचार सुन कर हक्कबक्के रह गए.

नीरा का अंतिम संस्कार करने के बाद दीपेश ने घर में प्रवेश किया तो उस के कुशल हाथों से सजासंवरा घर उसे मुंह चिढ़ाता प्रतीत हुआ. उस के लगाए पेड़पौधे कुछ ही दिनों में सूख गए थे. दीपेश सम झ नहीं पा रहा था कि वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करने के बाद भी घर वीरान क्यों हो गया? उन के जीवन में तूफान क्यों आया? उस समय वह नितिन और रीना को अपनी गोद में छिपा कर खूब रोया. तब नन्ही रीना उस के आंसू पोंछती हुई बोली थी, ‘डैडी, ममा नहीं हैं तो क्या हुआ, उन की यादें तो हैं.’’

दीपेश ने बच्चों का मन रखने के लिए आंसू पोंछ डाले थे. लेकिन नीरा का चेहरा उन के हृदय पर ऐसा जम गया था कि उस को निकाल पाना उस के लिए संभव ही नहीं था. वह घर कैसा जहां खुशियां न हों, प्यार न हो, स्वप्न न हों.

दीपेश के मांपिताजी नहीं थे, सो, नीरा की मां ने आ कर उन की बिखरती गृहस्थी को फिर से समेटने का प्रयत्न किया था.

एक दिन सवेरे दीपेश का मन टटोलने के लिए मांजी ने कहा, ‘बेटा, जाने वाले के साथ जाया तो नहीं जा सकता, फिर से घर बसा लो. बच्चों को मां व तुम्हें पत्नी मिल जाएगी. आखिर मैं कब तक साथ रहूंगी.’

‘पापा, आप नई मां ले आइए. हम उन के साथ रहेंगे,’ नन्हे नितिन, जो नानी की बात सुन रहा था, ने भोलेपन से कहा और उस की बात का समर्थन रीना ने भी कर दिया.

दीपेश सोच नहीं पा रहे थे कि बच्चे अपने मन से कह रहे हैं या मांजी ने उन के नन्हे मन में नई मां की चाह भर दी है. वह जानता था कि नीरा की यादों को वह अपने हृदय से कभी हटा नहीं सकता. फिर क्यों दूसरा विवाह कर वह उस लड़की के साथ अन्याय करे जो उस के साथ तरहतरह के स्वप्न संजोए इस घर में प्रवेश करेगी.

2 महीने बाद जाते हुए जब मांजी ने दोबारा दीपेश के सामने अपना सु झाव रखा तो वह एकाएक मना न कर सका. शायद इस की वजह यह थी कि रीना को अपनी नानी के साथ काम करते देख कर उस का मन बेहद आहत हो जाता था. कुछ ही दिनों में रीना बेहद बड़ी लगने लगी थी. उस की चंचलता कहीं खो गईर् थी. यही हाल नितिन का भी था. जो नितिन अपनी मां को इधरउधर दौड़ाए बिना खाना नहीं खाता था वही अब जो भी मिलता, बिना नानुकुर के खा लेता था.

बच्चों का परिवर्तित स्वभाव दीपेश को मन ही मन खाए जा रहा था. सो, मांजी के प्रस्ताव पर जब उन्होंने अपने मन की चिंता बताई तो वे बोली थीं, ‘बेटा, यह सच है कि तुम नीरा को भूल नहीं पाओगे. नीरा तुम्हारी पत्नी थी तो मेरी बेटी भी थी. जाने वाले के साथ जाया तो नहीं जा सकता और न किसी के जाने से जीवन ही समाप्त हो जाता.’

दीपेश को मौन पा कर मांजी फिर बोलीं, ‘तुम कहो तो नंदिता से तुम्हारी बात चलाऊं. तुम तो जानते ही हो, नंदिता नीरा की मौसेरी बहन है. उस के पति का देहांत एक कार दुर्घटना में हो गया था. वह भी तुम्हारे समान ही अकेली है तथा स्त्री होने के साथसाथ एक बेटी अर्चना की मां होने के नाते वह तुम से भी ज्यादा मजबूर और बेसहारा है.’

मांजी की इच्छानुसार दीपेश ने घर बसा लिया था लेकिन फिर भी न जाने क्यों जिस घर पर कभी नीरा का एकाधिकार था उसी घर पर नंदिता का अधिकार होना वह सह नहीं पा रहा था.

नंदिता ने दीपेश को तो स्वीकार कर लिया लेकिन बच्चों को स्वीकार नहीं कर पा रही थी. वैसे, दीपेश भी क्या उस समय अर्चना को पिता का प्यार दे पाए थे. घर में एक अजीब सा असमंजस, अविश्वास की स्थिति पैदा हो गई थी. वह अपनी बच्ची को ले कर ज्यादा ही भावुक हो उठती थी.

नंदिता को लगता था, उस की बेटी को कोई प्यार नहीं करता है. घर में अशांति, अविश्वास, तनाव और खिंचाव देख कर बस एक बात उन के दिमाग को मथती रहती थी कि वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन कर बनाया यह घर प्रेम, ममता और अपनत्व का स्रोत क्यों नहीं बन पाया? आंतरिक और बाहरी शक्तियों में समरसता स्थापित क्यों नहीं हो पा रही है? क्यों उन की शक्तियां क्षीण हो रही हैं? उन में क्या कमी है? अपनी आंतरिक और बाहरी शक्तियों को निर्देशित कर उन में संतुलन स्थापित कर क्यों वे न स्वयं खुद रह पा रहे हैं और न दूसरों को खुश रख पा रहे हैं?

नई मां की अपने प्रति बेरुखी देख कर रीना और नितिन अपने में सिमट गए थे. लेकिन बड़ी होती अर्चना ने दिलों की दूरी को पाट दिया था. वह मां के बजाय रीना के हाथ से खाना खाना चाहती, उसी के साथसाथ सोना चाहती, उसी के साथ खेलना चाहती. रीना और नितिन की आंखों में अपने लिए प्यार और सम्मान देख कर नंदिता में भी परिवर्तन आने लगा था. बच्चों के निर्मल स्वभाव ने उस का दिल जीत लिया था या अर्चना को रीना और नितिन के साथ सहज, स्वाभाविक रूप में खेलता देख उस के मन का डर समाप्त हो गया था.

एक बार दीपेश को लगा था कि उन  के घर पर छाई दुखों की छाया हटने लगी है. रीना कालेज में आ गई थी तथा नितिन और अर्चना भी अपनीअपनी कक्षा में प्रथम आ रहे थे. तभी एक दिन नंदिता ऐसी सोई कि फिर उठ ही न सकी. पहले 2 बच्चे थे, अब 3 बच्चों की जिम्मेदारी थी. लेकिन फर्क इतना था कि पहले बच्चे छोटे थे, अब बड़े हो गए थे और अपनी देखभाल स्वयं कर सकते थे व अपना बुराभला सोच और सम झ सकते थे.

रीना ने घर का बोझ उठा लिया. अब दीपेश भी रीना के साथ रसोई तथा अन्य कामों में हाथ बंटाते तथा नितिन और अर्चना को भी अपनाअपना काम करने के लिए प्रेरित करते. घर की गाड़ी एक बार चल निकली थी, लेकिन इस बार के आघात ने उन्हें इतना एहसास करा दिया था कि दुखसुख के बीच में हिम्मत न हारना ही व्यक्ति की सब से बड़ी जीत है. वक्त किसी के लिए नहीं रुकता. जो वक्त के साथ चलता है वही जीवन के संग्राम में विजयी होता है.

इस एहसास और भावना ने दीपेश के अंदर के अवसाद को समाप्त कर दिया था. अब वे औफिस के बाद का सारा समय बच्चों के साथ बिताते या नीरा द्वारा बनाए बगीचे की साजसंभाल करते तथा उस से बचे समय में अपनी भावनाओं को कोरे कागज पर उकेरते. कभी वे गीत बन कर प्रकट होतीं तो कभी कहानी बन कर.

शीघ्र ही उन की रचनाएं प्रतिष्ठित पत्रपत्रिकाओं में स्थान पाने लगी थीं. उन के जीवन को राह मिल गई थी. समय पर बच्चों के विवाह हो गए और वे अपनेअपने घरसंसार में रम गए. उन की लेखनी में अब परिपक्वता आ गई थी.

पेंट करवाने के लिए एक दिन दीपेश ने अपने कमरे की अलमारी खोली, तो कपड़े में लिपटी एक डायरी मिली. डायरी नीरा की थी. वे उसे खोल कर पढ़ने का लोभ छोड़ नहीं पाए. जैसेजैसे डायरी पढ़ते गए, नीरा का एक अलग ही स्वरूप उन के सामने आया था, एक कवयित्री का रूप. पूरी डायरी कविताओं से भरी पड़ी थी. एक कविता- ‘सुंदर मा झे घर’ की पंक्तियां थीं…

क्षितिज के उस पार की

सुखद सलोनी दुनिया को

लाना चाहती हूं…

एक सुंदर घर

बसाना चाहती हूं,

जहां तुम हो

जहां मैं हूं…

कविता लिखने की तिथि देखी तो विवाह की तिथि से एक माह बाद की थी. दीपेश ने पूरी डायरी पढ़ ली तथा उसी समय नीरा की कविताओं का संकलन करवाने का निश्चय कर लिया. एक महीने के अधिक परिश्रम के बाद दीपेश ने नीरा की चुनी हुई कविताओं को संकलित कर पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाने के लिए प्रकाशक को दे दी थीं.

अचानक बज उठी फोन की घंटी ने उन की विचार तंद्रा को भंग किया. नितिन का फोन था, ‘‘पापा, आप कैसे हैं? अपनी दवाइयां ठीक से लेते रहिएगा. आप हमारे पास आ जाइए. आप के अकेले रहने से हमें चिंता रहती है.’’

‘‘बेटा, मैं ठीक हूं. तुम चिंता मत किया करो. वैसे भी, मैं तुम से दूर कहां हूं जब भी इच्छा होगी, मैं आ जाऊंगा.’’

बच्चों की चिंता जायज थी. लेकिन वे इस घर को कैसे छोड़ कर जा सकते हैं जिस की एकएक वस्तु में खट्टीमीठी यादें दफन हैं, साथ गुजारे पलों का लेखाजोखा है. एकदो बार बच्चों के आग्रह पर दीपेश उन के साथ गए भी लेकिन कुछ दिनों बाद ही उन के बरामदे से दिखते अनोखे सूर्यास्त की सुखदसलोनी लालिमा का आकर्षण उन्हें इस घर में खींच लाता था. वह उन की प्रेरणास्रोत थी. उसी से उन्होंने जीवनदर्शन पाया था कि जीवन भले ही समाप्त हो रहा हो लेकिन आस कभी नहीं खोनी चाहिए क्योंकि प्रत्येक अवसान के बाद सुबह होती है और इसी सत्य पर इन की कितनी ही रचनाओं का जन्म यहीं इसी कुरसी पर बैठेबैठे हुआ था.

वह अंदर जाने के लिए मुड़े ही थे कि स्कूटर की आवाज ने उन्हें रोक लिया. प्रकाशक के आदमी ने उन के हाथ में पांडुलिपि देते हुए मुखपृष्ठ के लिए कुछ चित्र दिखाए. एक चित्र पर उन की आंखें ठहर गईं. घर के दरवाजे से निकलती औरत और नीचे कलात्मक अक्षरों में लिखा हुआ था… ‘सुंदर मा झे घर’.

चित्र को देख कर दीपेश को एकाएक लगा, मानो नीरा ही घर के दरवाजे पर उस के स्वागत के लिए खड़ी है. वह नीरा नहीं, बल्कि उस की कल्पना का ही मूर्तरूप था. दीपेश ने बिना किसी और चित्र को देखे उस चित्र के लिए अपनी स्वीकृति दे दी.

दीपेश जानते थे कि आने वाले कुछ दिन उस के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण होंगे. पांडुलिपि का अध्ययन कर प्रकाशक को देना था. किसी विशिष्ट व्यक्ति से मिल कर विमोचन के लिए तारीख को साकार करने का उन का यह छोटा सा प्रयास भर ही तो था. शायद अपनी अर्धांगिनी को श्रद्धांजलि देने का इस से अच्छा सार्थक रूप और भला क्या हो सकता था.

विरक्ति: बूढ़े दंपति को कैसे हुआ एच.आई.वी.

लेखक- गोपाल काबरा

मैं उन से मिलने गया था. पैथोलाजी विभाग के अध्यक्ष और ब्लड बैंक के इंचार्ज डा. कांत खराब मूड में थे, विचलित और विरक्त.

‘‘सब बेमानी है, बकवास है. महज दिखावा और लफ्फाजी है,’’ माइक्रो- स्कोप में स्लाइड देखते हुए वह कहे जा रहे थे, ‘‘सोचता हूं सब छोड़छाड़ कर बच्चों के पास चला जाऊं. बहुत हो गया.’’

‘‘क्या हुआ, सर? क्या हो गया?’’ मैं ने पूछा तो कुछ क्षण चुपचाप माइक्रोस्कोप में देखते रहे, फिर बोले, ‘‘एच.आई.वी., एड्स… ऐसा शोर मचा रखा है जैसे देश में यही एक महामारी है.’’

‘‘सर, खूब फैल रही है. कहते हैं अगर रोकथाम नहीं की गई तो स्थिति भयानक हो जाएगी. महामारी…’’

मेरी बात बीच में ही काटते हुए डा. कांत तल्ख लहजे में बोले, ‘‘महामारी, रोकथाम. क्या रोकथाम कर रहे

हो. पांचसितारा होटल

में कानफ्रेंस, कंडोम वितरण. महामारी तो तुम लोगों के आडंबर और हिपोक्रेसी की है. बड़ी चिंता है लोगों की. इतनी ही चिंता है तो हिपे- टाइटिस बी. के बारे में क्यों नहीं कुछ करते. देश में महामारी हिपे टाइ-टिस बी. की है.

‘‘हजारों लोग हर साल मर रहे हैं, लाखों में संक्रमण है. यह भी तो वैसा ही रक्त प्रसारित, विषाणुजनित रोग है. इस की चिंता क्यों नहीं. असल में चिंता तो विदेशी पैसे और बिलगेट्स की है. एड्स उन की चिंता है तो हमारी चिंता भी है.’’

‘‘क्या हुआ, सर? आज तो आप बहुत नाराज हैं,’’ मैं बोला.

‘‘होना क्या है, तुम लोगों की बकवास सुनतेदेखते तंग आ गया हूं. एच.आई.वी., एड्स, दोनों का एकसाथ ऐसे प्रयोग करते हो जैसे संक्रमण न हुआ दालचावल की खिचड़ी हो गई. क्या दोनों एक ही बात हैं. क्या रोकथाम कर रहे हो? तुम्हें याद है यूनिवर्सिटी वाली उस महिला का केस?’’

‘‘कौन सी, सर? उस अविवाहित महिला का केस जिस ने रक्तदान किया था और जिस का ब्लड एच.आई.वी. पाजिटिव निकला था?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, वही,’’ डा. कांत बोले.

‘‘उस को कैसे भूल सकते हैं, सर. गुस्से से आगबबूला हो रही थी. हम ने तो उसे गुडफेथ में बुला कर रिजल्ट बताया था वरना कानूनन एच.आई.वी. पोजि-टिव ब्लड को नष्ट करना भर लाजमी होता है. हमारा पेशेंट तो रक्त लेने वाला होता है, देने वाला तो स्वेच्छा से आता है. देने वाले में रोग निदान के लिए तो हम टेस्ट करते नहीं.’’

डा. कांत कुछ नहीं बोले, चुपचाप सुनते रहे.

‘‘वह महिला अविवाहित थी. उस के किसी से यौन संबंध नहीं थे. उस ने कभी रक्त नहीं लिया और न ही किसी प्रकार के इंजेक्शन आदि. इसीलिए तो हम ने उस की प्री टेस्ट काउंसिलिंग कर वेस्टर्न ब्लोट विधि से टेस्ट करवाने की सलाह दी थी. हम ने उसे बता दिया था कि जिस एलिसा विधि से हम टेस्ट करते हैं वह सेंसिटिव होती है, स्पेसिफिक नहीं. उस में फाल्स पाजिटिव होने के चांसेज होते हैं. सब तो समझा दिया था, सर. उस में हम ने क्या गलती की थी?’’

‘‘गलती की बात नहीं. इन टेस्टों के चलते उस महिला को जो मानसिक क्लेश हुआ उस के लिए कौन जिम्मेदार है?’’

‘‘सर, उस के लिए हम क्या कर सकते थे. जीव विज्ञान में कोई भी टेस्ट 100 प्रतिशत तो सही होता नहीं. हर टेस्ट की अपनी क्षमता होती है. हर टेस्ट में फाल्स पाजिटिव या फाल्स निगेटिव होने की संभावना

होती है. सेंसिटिव में फाल्स पाजिटिव और स्पेसिफिक में फाल्स निगेटिव.’’

‘‘बड़ी ज्ञान की बातें कर रहे हो,’’ डा. कांत बोले, ‘‘यह बात आम लोगों को समझाने की जिम्मेदारी किस की है? खुद को उस महिला की जगह, उस की समझ और सोच के हिसाब से रख कर देखो. उसे कितना संताप हुआ होगा. खैर, उसे छोड़ो. उस लड़के की बात करो जो अपनी लिम्फनोड की बायोप्सी ले कर आया था. उस का तो वेस्टर्न ब्लोट टेस्ट भी पाजिटिव आया था. वह तो कनफर्म्ड एच.आई.वी. पाजिटिव था. उस में क्या किया? क्या किया तुम ने रोकथाम के लिए?’’

‘‘वही जवान लड़का न सर, जिस की किसी बाहर के सर्जन ने गले की एक लिम्फनोड निकाल कर भिजवाई थी? जिस लड़के को कभीकभार बुखार, शरीर गिरागिरा रहना और वजन कम होने की शिकायत थी, पर सारे टेस्ट करवाने पर भी कोई रोग नहीं निकला था?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, वही,’’ डा. कांत बोले, ‘‘याद है तुम्हें, वह बायोप्सी रक्त कैंसर की आरंभिक अवस्था न हो, इस का परीक्षण करवाने आया था. टेस्ट में रक्त कैंसर के लक्षण तो नहीं पाए गए थे, पर उस की लिम्फनोड में ऐसे माइक्रोस्कोपिक चेंजेज थे जो एच.आई.वी. पाजिटिव मामलों में देखने को मिलते हैं.’’

‘‘जी, सर याद है. उस की स्वीकृति ले कर ही हम ने उस का एच.आई.वी. टेस्ट किया था और वह पाजिटिव निकला था. उसे हम ने पाजिटिव टेस्ट के बारे में बताया था. उस की भी हम ने काउंसिलिंग की थी. किसी प्रकार के यौन संबंधों से उस ने इनकार किया था. रक्त लेने, इंजेक्शन, आपरेशन आदि किसी की भी तो हिस्ट्री नहीं थी. हम ने सब समझा कर नियमानुसार ही उसे वैस्टर्न ब्लोट टेस्ट करवाने की सलाह दी थी.’’

‘‘नियमानुसार,’’ बड़े तल्ख लहजे में डा. कांत ने दोहराया, ‘‘जब उस ने आ कर बताया था कि उस का वैस्टर्न ब्लोट टेस्ट भी पाजिटिव है तब तुम ने नियमानुसार क्या किया था? याद है उस ने आ कर माफी मांगी थी. हम से झूठ बोलने के लिए माफी. उस ने बाद में बताया था कि उस की शादी हो चुकी है, गौना होना है. मंगेतर कालिज में पढ़ रही थी. उस ने यौन संबंध न होने का झूठ भी स्वीकारा था. उस ने कहा था वह और उस के कुछ दोस्त एक लड़की के यहां जाते थे, याद है?’’

‘‘जी, सर, अच्छी तरह याद है, भले घर का सीधासादा लड़का था. उस ने सब कुछ साफसाफ बता दिया था. बड़ा घबराया हुआ था. जानना चाहता था कि उस का क्या होगा. हम ने उस की पूरी पोस्ट टेस्ट काउंसिलिंग की थी. बता दिया था उसे, कैसे सुरक्षित जीवन जीना…’’

‘‘नियमानुसार जबानी जमाखर्च हुआ और एड्स की रोकथाम

की जिम्मेदारी

पूरी हो गई,’’

डा. कांत ने बीच में बात काटी.

‘‘और क्या कर सकते थे, सर?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जिस लड़की के साथ उस का विवाह हो चुका था और गौना होना था उसे ढूंढ़ कर बताना आवश्यक नहीं था? उस के प्र्रति क्या तुम्हारा दायित्व नहीं था? तुम कौन सा वह केस बता रहे थे जिस में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि अगर आप का कोई रोगी एच.आई.वी. या ऐसे ही किसी संक्रमण से ग्रसित है और वह किसी व्यक्ति को संक्रमण फैला सकता है तो ऐसे व्यक्ति को इस खतरे के बारे में न बताने पर डाक्टर को दोषी माना जाएगा. अगर उस चिह्नित रोगी व्यक्ति को संक्रमण हो जाए तो उस डाक्टर के खिलाफ फौजदारी की काररवाई भी हो सकती है.’’

‘‘जी सर, डा. एक्स बनाम अस्पताल एक्स नाम का मामला था,’’ मैं ने कहा.

‘‘हां, वही, अजीब नाम था केस का,’’ डा. कांत ने कहना जारी रखा, ‘‘लिम्फनोड वाले लड़के ने अपने दोस्तों के बारे में बताया था. क्या उन दोस्तों को पहचान कर उन का भी एच.आई.वी. टेस्ट करना आवश्यक नहीं था? क्या उस लड़की या वेश्या, जिस के यहां वे जाते थे उसे पहचानना, उस का टेस्ट करना आवश्यक नहीं था? एड्स की रोकथाम के लिए क्या उसे पेशे से हटाना जरूरी नहीं था?’’

‘‘जरूरी तो था, सर, पर नियमों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, और न ही ऐसी कोई व्यवस्था है जिस से हम यह सब कर सकें,’’ मैं ने अपनी मजबूरी बताई.

‘‘तो फिर एड्स की रोकथाम क्या खाक करोगे. बेकार के ढकोसले क्यों करते हो? जो एच.आई.वी. पाजिटिव है उसे बताने की क्या आवश्यकता है. उसे जीने दो अपनी जिंदगी. जब एच.आई.वी. पाजिटिव व्यक्ति एड्स का रोगी हो कर आए तब जो करना हो वह करना.’’

‘‘लेकिन सर,’’ मैं ने कहना शुरू किया तो डा. कांत ने फिर बीच में ही टोक दिया.

‘‘लेकिन दुर्भाग्य तो यह है कि एच.आई.वी. संक्रमण, वेश्या के पास जाने या यौन संबंधों से ही नहीं, किसी शरीफ आदमी और महिला को चिकित्सा प्रक्रिया से भी हो सकता है,’’ वह बोले.

‘‘हां, सर, एच.आई.वी. संक्रमण होने के तुरंत बाद जिसे हम विंडो पीरियड कहते हैं, ब्लड टेस्ट पाजिटिव नहीं आता. लेकिन ऐसा व्यक्ति अगर रक्तदान करे तो उस से रक्त पाने वाले को संक्रमण हो सकता है.’’

सुन कर डा. कांत बोले, ‘‘मैं इस चिकित्सा प्रक्रिया की बात नहीं कर रहा. ऐसा न हो उस के पूरे प्रयास किए जाते हैं, जिस केस को ले कर मुझे ग्लानि विरक्ति और अपनेआप को दोषी मान कर क्षोभ हो रहा है और जिसे ले कर मैं सबकुछ छोड़ने की बात कर रहा हूं, वह कुछ और ही है.’’

मैं कुछ बोला नहीं. चुपचाप उन के बताने का इंतजार करता रहा. अवश्य ही कोई खास बात होगी जिस ने डा. कांत जैसे वरिष्ठ चिकित्सक को इतना विचलित कर दिया कि वह सबकुछ छोड़ने की सोच रहे हैं.

काफी देर चुप रहने के बाद बड़ी संजीदगी से लरजती आवाज में वह बोले, ‘‘कल देर रात घर आए थे, मियांबीवी दोनों. काफी बुजुर्ग हैं. रिटायर हुए भी 15 साल हो चुके हैं. बेटेपोतों के भरे परिवार के साथ रहते हैं.

‘‘कहने लगे, दोनों सोच रहे हैं कहीं जा कर चुपके से आत्महत्या कर लें क्योंकि एच.आई.वी पाजिटिव होना बता कर मैं ने उन्हें किसी लायक नहीं रखा है. मैं ने उन्हें किसलिए बताया कि वे एच.आई.वी. पाजिटिव हैं. उन दोनों का किसी से यौन संबंध नहीं हो सकता और न ही रक्तदान करने की उन की उम्र है. फिर उन से संक्रमण होने का किसे खतरा था जो मैं ने उन्हें एच.आई.वी. पाजिटिव होने के बारे में बताया? जब एच.आई.वी. का निदान कर कुछ किया ही नहीं जा सकता तो फिर बताया किसलिए? वे कैसे सहन करेंगे, अपने बच्चों, पोतों का बदला हुआ रुख जब उन्हें मालूम होगा. उन को संक्रमण का कोई खतरा नहीं है पर अज्ञात का भय, जब बच्चे उन के पास आने से कतराएंगे. कहने लगे, उचित यही होगा कि नींद की गोलियां खा कर जीवन समाप्त कर लें.’’

कहतेकहते डा. कांत चुप हो गए तो मैं ने कहा, ‘‘सर, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा. एड्स संक्रमण ऐसे तो होता नहीं. जब संक्रमण हुआ है तो उसे भुगतना और फेस भी करना ही होगा.’’

जवाब में डा. कांत ने कहा, ‘‘मेरी भी समझ में नहीं आया था कि उन्हें संक्रमण हुआ कैसे. मैं उन्हें अरसे से बहुत नजदीक से जानता हूं. घनिष्ठ घरेलू संबंध हैं. बड़ा साफसुथरा जीवन रहा है उन का. किसी प्रकार के बाहरी यौन संबंधों का सवाल ही नहीं उठता और उन का विश्वास करने का भी कोई कारण नहीं.

‘‘जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं था कि जिस से चाहेअनचाहे एच.आई.वी. संक्रमण हो सकता. सब पूछा था, काफी चर्चा हुई. वे बारबार मुझ से ही पूछते थे कि फिर कैसे हो गया संक्रमण. अंत में उन्होंने मुझे बताया कि वे डायबिटीज के रोगी अवश्य हैं. उन्हें इंसुलिन या अन्य इंजेक्शन तो कभी लेने नहीं पड़े पर वे नियमित रूप से टेस्ट करवाने एक प्राइवेट लैब में जाते थे. उन्होंने बताया, उस लैब में उंगली से ब्लड एक प्लंजर से लेते थे. दूसरे रोगियों में भी वही प्लंजर काम में लिया जाता था.

‘‘क्या उस से उन को संक्रमण हुआ है, क्योंकि इस के अलावा तो उन्होंने कभी कोई इंजेक्शन नहीं लिए. जब मैं ने बताया कि यह संभव है तो उन्होंने कहा कि इस लैब के खिलाफ काररवाई क्यों नहीं करते? लैब को ऐसा करने से रोका क्यों नहीं गया? जो उन्हें हुआ है वह दूसरे मासूम लोगों को भी हो सकता है या हुआ होगा.’’

कुछ पल शांत रह कर वह फिर बोले, ‘‘और मैं सोच रहा था कि आत्महत्या उन्हें करनी चाहिए या मुझे? क्या लाभ है ऐसे रोगों का निदान करने में जिन का इलाज नहीं कर सकते और जिन की रोकथाम हम करते नहीं. महज ऐसे रोेगियों का जीना दुश्वार करने से लाभ? क्या सोचते होंगे वे लोग जिन का निदान कर मैं ने जीना दूभर कर दिया?’’

आखिरी बाजी: क्या दोबारा अपनी जिंदगी में जोहरा को ला पाया असद

लेखक- जुबैर फरीदी

सकीना बानो ने घबरा कर घर के बाहर देखा. दूरदूर तक कोई दिखाई नहीं पड़ रहा था. उस ने दरवाजा बंद कर दिया और लौट कर जोहरा के पास आ गई. जोहरा बिस्तर पर पड़ी प्रसवपीड़ा से तड़प रही थी. कभीकभी उस की कराहटें तीव्र हो जाती थीं. ऐसे में सकीना का कलेजा मुंह को आने लगता. उस से जोहरा की तकलीफ देखी नहीं जा रही थी.

उसे बारबार असद पर क्रोध आ रहा था. वह कह कर गया था कि शाम तक लौट आएगा, लेकिन रात हो आने पर भी उस का कहीं पता नहीं था. घर में असद ने इतने पैसे भी नहीं छोड़े थे कि वह स्वयं ही किसी डाक्टर को बुला लाती. अब तो यह सोचने के सिवा और कोई चारा नहीं था कि जो कुछ होगा उस से निबटना ही पडे़गा.

तभी अचानक लगा कि दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी है. वह तेजी से दरवाजे की ओर बढ़ी. दरवाजा खोला, पर बाहर  कोई नहीं था. उसे अपने ऊपर क्रोध आ गया.

जैसेजैसे अंधेरा बढ़ता जा रहा था, उस के हृदय की धड़कनें भी बढ़ती जा रही थीं. असद के न आने पर उस ने मजबूरन पड़ोस के लड़के शमीम को असद को बुलाने भेजा था.

अब तो शमीम को गए भी 1 घंटा बीत चुका था, लेकिन अभी तक न असद का पता था न शमीम का.

बेचैनी से टहलती वह जोहरा के पास पहुंची और बोली, ‘‘सब्र और हिम्मत से काम ले, बेटी, थोड़ी ही देर में असद आ जाएगा.’’

‘‘अम्मी,’’ जोहरा तड़प उठी, ‘‘मुझे यकीन है, वह आज भी नहीं आएंगे. कहीं जुआ खेलने बैठ गए होंगे.’’

‘‘बहू, ऐसी औलाद या ऐसा खाविंद मिलने पर इनसान अपनेआप को कोसने के अलावा और कर ही क्या सकता है?’’ सकीना की आवाज से दर्द भरी मायूसी साफ झलक रही थी.

कुछ ही देर में शमीम आ गया. आते ही बोला, ‘‘भाईजान का तो कहीं पता नहीं चला, वह जहांजहां बैठते थे, सब जगह देख आया.’’

शमीम के आते ही सकीना ने अपनी बेटी नजमा को बुला कर कहा, ‘‘तू अपनी भाभी के पास बैठ. मैं बन्नो दाई को बुला कर लाती हूं,’’ यह कह कर सकीना बुरका ओढ़ कर घर से बाहर निकल गई.

फजर (तड़के) की नमाज के वक्त जोहरा ने एक सुंदर लड़के को जन्म दिया. सकीना प्रसन्नता से खिल उठी, लेकिन जोहरा की आंखें आंसुओं से भरी थीं. वह सोच रही थी, कैसा दुख भरा जीवन है उस का कि उस के पहले बच्चे के जन्म के समय उस का शौहर सब कुछ जानते हुए भी उस के पास नहीं है.

सकीना उस दर्द को समझती थी. इसीलिए उस ने उसे समझाया, ‘‘बहू, रंज मत करो, बुरे वक्त को भी हंस कर गुजार देना चाहिए. तुम्हारे मियां की तो अक्ल ही मारी गई है, फिर कोई क्या कर सकता है. मैं तो उसे समझासमझा कर हार गई. घर में जवान बहन बैठी है, फिर भी उस पर कोई असर नहीं. कहां से करूं बेटी की शादी? मुझे तो रातदिन उस की ही फिक्र खाए जाती है.’’

दूसरे दिन शाम को कहीं जा कर असद ने घर में प्रवेश किया. बच्चा पैदा होने के बावजूद घर में बजाय खुशी के सन्नाटा छाया हुआ था. वैसे वह ऐसे माहौल का आदी हो चुका था. अकसर हर शनिवार को वह गायब हो जाता था और दूसरे दिन शाम को लौट कर आता था.

सकीना ने जब उसे बताया कि वह एक बेटे का बाप बन चुका है तो वह सिर्फ मुसकरा कर रह गया.

जब असद जोहरा के पास पहुंचा तो जोहरा ने उसे देख कर मुंह फेर लिया. असद हलके से मुसकरा दिया और बोला, ‘‘लगता है, मुझ से बहुत नाराज हो. भई, क्या बताऊं, रात एक दोस्त ने रोक लिया. उस के यहां दावत थी. सुबह सो कर उठा तो बोला, दोपहर का खाना खा कर जाना. इसलिए देर हो गई. लाओ, मुन्ने को मुझे दे दो, देखूं तो किस पर गया है.’’

जोहरा ने पटकने वाले अंदाज में बच्चे को असद की ओर बढ़ा दिया. असद ने बच्चे को गोद में लिया तो वह रोने लगा, ‘‘अरे…अरे, रोता है. बिलकुल अपनी अम्मी पर गया है,’’ असद ने हंस कर कहा और बच्चे को जोहरा की ओर बढ़ा दिया. जोहरा ने बच्चे को ले लिया.

असद ने हंस कर जोहरा की ओर देखा और बोला, ‘‘लगता है, आज बेगम साहिबा ने न बोलने की कसम खा रखी है.’’

‘‘पूरी रात तकलीफ से छटपटाती रही पर आप को तो अपने दोस्तों और जुए से ही फुरसत नहीं थी. हार कर अम्मी को ही जा कर दाई को बुला कर लाना पड़ा. आप की बला से, मैं मर भी जाती तो आप को क्या फर्क पड़ता?’’ कह कर जोहरा सिसक पड़ी.

‘‘लेकिन मैं ने जुआ कहां

खेला?’’ असद ने अपनी सफाई पेश करनी चाही, ‘‘मैं तो दोस्तों के साथ दावत में था.’’

‘‘दावत में थे तो वे 500 रुपए कहां हैं जो कल आप मुझ से झूठ बोल कर ले गए थे,’’ जोहरा ने पूछा.

‘‘वे…वे…मैं तो…’’ असद का रंग सफेद पड़ गया. फिर वह तुरंत ही संभल गया और कड़क कर बोला, ‘‘तुम कौन होती हो पूछने वाली?’’

‘‘मैं…’’ जोहरा कुछ कहना ही चाहती थी कि अचानक सकीना ने खांस कर कमरे में प्रवेश किया. सास को देख कर जोहरा चुप हो गई. सकीना जोहरा के निकट आ कर बोली, ‘‘बहू, मुन्ने का अच्छी तरह ध्यान रखना. बाहर बड़ी ठंडी हवा चल रही है. मैं अभी थोड़ी देर में तुम्हारे लिए खाना लाती हूं,’’ फिर एक नजर उस ने असद पर डाली और बोली, ‘‘जाओ, असद, तुम भी खाना खा लो.’’

असद चुपचाप कमरे से निकल गया. जोहरा उदास नजरों से अपने शौहर को जाते देखती रही.

सकीना ने अपने पोते का नाम जफर रखा था. जफर 2 माह का हो गया था. उस ने हाथपैर चलाने के साथसाथ मुंह टेढ़ा करना भी सीख लिया था. उस की इस हरकत से घर के सब लोग हंस पड़ते थे.

असद तो जैसे मुन्ने के लिए दीवाना सा रहता था. दफ्तर से आते ही वह मुन्ने से खेलने लगता. जुआ तो उस ने खेलना बंद नहीं किया था लेकिन उस का रातरात भर गायब रहना अब तकरीबन बंद सा हो गया था.

एक दिन जब असद मुन्ने से खेल रहा था तो जोहरा बोली, ‘‘सुनिए, मुन्ने के लिए बाजार से कुछ कपडे़ ला दीजिए. अभी तक आप ने मुन्ने के लिए कुछ भी नहीं खरीदा. आप को कल ही तनख्वाह मिली है, लेकिन अभी तक आप ने अपनी तनख्वाह अम्मी को भी नहीं दी. अम्मी पूछ रही थीं, कहीं आप तनख्वाह को भी जुए में तो नहीं हार आए?’’ बोलते हुए जोहरा का हृदय जोरों से धड़क रहा था.

‘‘मुझे क्या करना है, क्या नहीं, यह सोचना मेरा काम है. न ही मैं इस बात के लिए पाबंद हूं कि दूसरों के सवालों का जवाब देता फिरूं,’’ असद ने क्रोध भरे स्वर में कहा और मुन्ने को सोफे पर लिटा कर जोहरा को घूर कर देखा.

फिर कुछ क्षण चुप रहने के बाद बोला, ‘‘मैं देख रहा हूं, तुम्हारा दिमाग दिनबदिन खराब होता जा रहा है. तुम मेरे हर काम में दखल देने लगी हो. आखिर तुम्हें क्या हक है मुझ से हिसाबकिताब मांगने का?’’ असद क्रोध से कांपने लगा था.

‘‘मैं आप की बीवी हूं. मुझे यह जानने का पूरा हक है कि आखिर आप ने अम्मी को अपनी तनख्वाह क्यों नहीं दी,’’ जोहरा गुस्से से बिफर कर बोली, ‘‘मैं कोई भगा कर लाई गई औरत नहीं हूं जो आप के जुल्म बरदाश्त करती रहूंगी. मेरा आप के साथ निकाह हुआ है. जितनी जिम्मेदारी आप पर है उतनी ही मुझ पर भी है.’’

‘‘जोहरा, तुम अपनी हद से आगे बढ़ रही हो. तुम भूल रही हो कि मैं तुम्हारा शौहर हूं. शौहर के सामने बात करने की तमीज सीखो.’’

‘‘शौहर को भी तो यह तमीज होनी चाहिए कि वह अपनी बीवी से कैसे पेश आए.’’

‘‘तुम मेरी गैरत को ललकार रही हो, जोहरा,’’ असद आपे से बाहर हो गया था.

‘‘आप में गैरत है कहां?’’ जोहरा तेज स्वर में बोली.

‘‘मैं तुम्हें तलाक दे दूंगा,’’ असद चीखा.

‘‘फिर देते क्यों नहीं तलाक? अपनी इस नापाक जबान से 3 बार तलाक, तलाक, तलाक कहिए और निकाल दीजिए घर से धक्के दे कर. आप मर्दों ने औरत को समझ क्या रखा है, सिर्फ एक खिलौना? जब जी भर गया, उठा कर फेंक दिया. आप की नजरों में औरत का जन्म शायद मर्दों के जुल्म सहने के लिए ही हुआ है.’’

‘‘जोहरा,’’ असद इतनी जोर से चीखा कि उस के गले की नसें तक तन गईं, ‘‘मैं ने तुम्हें तलाक दिया, मैं ने तुम्हें तलाक दिया, मैं ने तुम्हें तलाक दिया.’’

जोहरा अवाक् फटीफटी आंखों से असद को देखती रही. फिर अचानक ही बेहोश हो कर नीचे गिर पड़ी. सकीना और नजमा उस समय घर में नहीं थीं. वे अभीअभी एक रिश्तेदार से मिल कर लौटी थीं. दोनों ने असद के अंतिम शब्द सुन लिए थे.

सकीना ने असद की ओर क्रोध से देखा और बोली, ‘‘असद, यह तू ने बहुत बुरा किया.’’

असद बुत की तरह स्थिर खड़ा था. सकीना ने असद को झंझोड़ा तो उस ने चौंक कर अपनी अम्मी को देखा और तेजी से घर से बाहर निकल गया. सकीना उसे आश्चर्य से जाते देखती रही.

फिर सकीना ने नजमा की मदद से जोहरा को चारपाई पर लिटाया और उसे होश में लाने की कोशिश करने लगी. उधर नजमा रोते हुए मुन्ने को गोद में ले कर उसे बहलाने की कोशिश करने लगी.

शाम को जब असद ने घर में प्रवेश किया तो घर में छाई खामोशी ने उसे अंदर तक कचोट दिया. एक आशंका ने उसे कंपा दिया. कमरे में घुसते ही उस की नजर सोफे पर बैठी अपनी अम्मी पर पड़ी, जो गुमसुम सी कहीं खोई हुई थीं.

असद ने धड़कते हृदय के साथ पूछा, ‘‘जोहरा कहां है, अम्मी?’’

‘‘जोहरा,’’ अचानक ही सकीना ने चौंक कर असद की ओर देखा और बोली, ‘‘अपने मायके चली गई है. मैं ने बहुत रोका, लेकिन वह बोली कि अब उस का इस घर से क्या रिश्ता है? उन्होंने मुझे तलाक दे दिया है. अब उन के पास मेरा रहना हराम होगा.’’

यह सुन कर असद अवाक् रह गया. उस का सिर घूमने लगा. उसे उम्मीद न थी कि वह क्रोध में यह सब कर बैठेगा. उस ने भर्राए स्वर में पूछा, ‘‘अब क्या होगा, अम्मी? मैं जोहरा के बिना नहीं रह सकता. मुझे नहीं मालूम था कि मैं इस जुए के चक्कर में अपने जीवन की सब से बड़ी बाजी हार जाऊंगा.’’

‘‘तुम ने बहुत देर कर दी, बेटे. ऐसी शरीफ और नेक बहू ढूंढे़ से भी नहीं मिलेगी. तुम उस पर जुल्म करते रहे लेकिन उस ने कभी उफ तक न की. मगर आज तो तुम ने वह काम किया जो कोई खूनी इनसान ही कर सकता है. तुम ने औरत की अहमियत को नहीं समझा. उसे पैर की जूती समझ कर निकाल फेंका,’’ सकीना ने गंभीर स्वर में कहा.

‘‘अम्मी, तुम कल ही जा कर जोहरा को बुला लाओ. मैं अपने किए की माफी मांग लूंगा,’’ असद ने उम्मीद के साथ अपनी अम्मी की तरफ देखा.

‘‘अब ऐसा नहीं हो सकता,’’ सकीना बोली, ‘‘हमारा मजहब इस बात की इजाजत नहीं देता. हमारे मजहब ने मर्द को इतनी आसानी से तलाक देने का हक दे कर औरत को इतना कमजोर बना दिया है कि निर्दोष होते हुए भी उस की जरा सी भूल उसे धूल में मिला देती है. हमारे मजहब के मुताबिक इन हालात में ‘हलाला’ होना जरूरी है. अब जोहरा का तुम से दोबारा निकाह तभी हो सकता है जब उस का किसी दूसरे मर्द के साथ निकाह हो और वह मर्द जोहरा को एक रात अपने साथ रख कर तलाक दे दे.’’

‘‘मैं इस के लिए भी तैयार हूं, अम्मी. तुम जोहरा से बात तो करो,’’ असद ने डूबे स्वर में कहा.

‘‘अभी 1-2 महीने रुक जाओ, मैं कोशिश करूंगी,’’ सकीना बोली.

इस के बाद असद कुछ नहीं बोला.  वह गुमसुम सा चारपाई पर जा कर

लेट गया. उस की आंखों के सामने जोहरा की सूरत घूम गई. उस के दफ्तर से आते ही वह उस का कोट उतार कर टांग देती थी. उस के जूतों के तसमे खोल कर जूते उतारती थी. उस के आते ही उसे चाय देती थी. उस के जरा से उदास हो जाने पर स्वयं भी उदास हो जाती थी.

उसे ध्यान आया, एक बार जब वह बीमार पड़ गया था तो जोहरा ने रातदिन जाग कर उस की खिदमत की थी.

जोहरा की खिदमत और मुहब्बत का उस ने कितना अच्छा सिला दिया, उस के जरा से क्रोध पर उसे घर से निकाल दिया. असद का मन आत्मग्लानि से भर उठा.

असद के दिन अब बड़ी खामोशी  से गुजरने लगे थे. दफ्तर से आते ही वह घर में गुमसुम सा पड़ा रहता. कहीं आताजाता भी नहीं था. जुआ तो दूर की बात थी, उस दिन से उस ने ताश के पत्तों को छुआ तक नहीं था.

एक दिन अख्तर ने असद से जुआ खेलने को कहा तो असद ने उस को पीट दिया. उस दिन से असद और अख्तर में अनबन हो गई थी.

जोहरा से उस ने कई बार मिल कर माफी मांगने की कोशिश भी की लेकिन सफल नहीं हो सका. आखिर मजबूर हो कर उस ने अम्मी को जोहरा के मांबाप के पास भेजने का निश्चय किया.

सकीना को जोहरा से मिलने के लिए गए हुए 2 दिन हो चुके थे लेकिन वह अभी तक नहीं लौटी थी, ये 2 दिन असद ने बड़ी मुश्किल से काटे थे.

तीसरे दिन शाम को जब सकीना लौटी तो असद दौड़ादौड़ा अम्मी के पास आया और बोला, ‘‘क्या कहा जोहरा ने, अम्मी?’’

सकीना खामोश रही तो असद का हृदय धड़क उठा. बेचैन हो कर उस ने दोबारा पूछा, ‘‘अम्मी, तुम बतातीं क्यों नहीं?’’

‘‘फिक्र क्यों करता है, बेटे, मैं तेरी दूसरी शादी कर दूंगी,’’ सकीना का स्वर बुझाबुझा सा था, ‘‘अभी कौन सी तेरी उम्र निकल गई? लोग तो बुढ़ापे में शादियां करते हैं.’’

‘‘अम्मी, मैं जो तुम से पूछ रहा हूं, उस का जवाब क्यों नहीं देतीं,’’ असद बोला.

‘‘जोहरा ने इनकार कर दिया, बेटे. वह किसी भी हालत में तुम्हारे साथ रहने को तैयार नहीं है.’’

‘‘अम्मी,’’ असद का स्वर कांप कर रह गया. उस की आंखें शून्य में टिक गईं. जुए की आखिरी बाजी ने उस की सारी प्रसन्नताएं हर ली थीं. असद थकेथके कदमों से चलता अपने कमरे में आ गया. सकीना और नजमा कुछ कहना चाह कर भी कुछ न कह सकीं.

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