मेरठ के कंकरखेड़ा क्षेत्र में इस 26 दिसम्बर को बीटेक की एक छात्रा को सहपाठी लड़के द्वारा थप्पड़ मारने का मामला सामने आया. दरअसल छात्रा ने साथ में पढ़ने वाले इस छात्र की दोस्ती का प्रस्ताव ठुकरा दिया था. जिस के बाद उस छात्र ने कक्षा में अन्य छात्रों के सामने ही बीटेक की सीनियर छात्रा को कई थप्पड़ जड़े. वह इतने पर ही शांत नहीं हुआ बल्कि गुस्से में कुर्सी उठाकर लड़की को मारने की कोशिश की. लड़की ने भाग कर अपनी जान बचाई. बाद में लड़की ने यह घटना घर पर परिजनों को बताई और थाने में रिपोर्ट लिखवाने पहुंची. छात्रा ने आरोप लगाया कि आरोपी कई दिन से उस पर दोस्ती करने का दबाव बना रहा था. दोस्ती स्वीकार न किए जाने पर वह हिंसा पर उतर आया.
इस बार के बिग बॉस में ईशा मालवीय और अभिषेक कुमार ऐसे कंटेस्टेंट हैं जो अपने पास्ट रिलेशन को ले कर चर्चा में रहते हैं. अभिषेक ईशा के एक्स बॉयफ्रेंड हैं. एक साल पहले उन का रिश्ता ख़त्म हो चुका है. उन का रिश्ता टूटने की वजह भी कहीं न कहीं अभिषेक का थप्पड़ और उस की तरफ अग्रेसिव व्यवहार ही था. ईशा ने अंकिता और खानजादी से बात करते वक्त बताया था कि उस ने एक बार अभिषेक को अपने दोस्तों से मिलवाया. ईशा के ज्यादा दोस्त होने की वजह से अभिषेक को गुस्सा आ गया था और उस ने ईशा को सबके सामने थप्पड़ मार दिया था. थप्पड़ की वजह से ईशा के आंख के नीचे निशान पड़ गए थे. इसी के बाद उन का रिश्ता टूटता चला गया.
कुछ समय पहले डायरेक्टर अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘थप्पड़’ कुछ ऐसे ही विषय को ले कर आई थी. इस में बात शुरू होती है सिर्फ एक थप्पड़ से लेकिन ये पूरी फिल्म महज थप्पड़ के बारे में नहीं थी बल्कि उस के इर्द-गिर्द तैयार हुए पूरे ताने बाने और हर उस सवाल को कुरेद के निकालने की कोशिश करती दिखी जिसने इस ‘सिर्फ एक थप्पड़’ को पुरुषों के हक का दर्जा दे दिया.
इस में अमृता की भूमिका में तापसी पन्नू अपने पति विक्रम के साथ एक परफेक्ट शादीशुदा जिंदगी बिताती दिखती है. अमृता सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक बस अपने पति और परिवार के इर्द गिर्द घिरी जिंदगी में बिजी है और इस ‘परफेक्ट’ सी जिंदगी में बहुत खुश है. लेकिन इसी बीच एक दिन उन के घर हुई पार्टी में विक्रम अमृता को एक जोरदार थप्पड़ मार देता है और सब कुछ बदल जाता है. किसी ने सोचा न था कि एक थप्पड़ रिश्ते की नींव हिला देगी. लेकिन अमृता ‘सिर्फ एक थप्पड़’ के लिए तैयार नहीं थी. एक औरत की जंग शुरू होती है एक ऐसे पति के साथ जिसका कहना है कि मियां बीवी में ये सब तो हो जाता है. उस के आसपास के लोगों के लिए ये बात पचा पाना बहुत मुश्किल था कि सिर्फ एक थप्पड़ की वजह से कोई स्त्री अपने ‘सुखी संसार’ को छोड़ने का फैसला कैसे ले सकती है जबकि पुरुष को तो समाज ने स्त्री को मारने पीटने का हक़ दिया ही हुआ है.
सवाल स्त्री के मान का
सच यही है कि एक थप्पड़ स्त्री के मान सम्मान और अस्तित्व पर सवाल खड़ा करता है. एक थप्पड़ यह दर्शाता है कि आज भी पुरुषों ने औरत को अपनी प्रॉपर्टी समझ रखी है. जबरन उस पर अपना हक़ जमाना चाहते हैं. अगर स्त्री ने हक़ नहीं दिया तो थप्पड़ की गूँज में उसे अहसास दिलाना चाहते हैं कि उस की औकात क्या है. समाज में उसका दर्जा क्या है.
महिलाओं के खिलाफ हिंसा
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक महिलाओं से हिंसा पूरी दुनिया का भयंकर मर्ज़ है. दुनिया की 70 फीसदी महिलाओं ने अपने करीबी साथियों के हाथों हिंसक बर्ताव झेला है. फिर चाहे वो शारीरिक हो या यौन हिंसा. दुनियाभर में हर रोज़ 137 महिलाएं अपने क़रीबी साथी या परिवार के सदस्य के हाथों मारी जाती हैं.
हमारे समाज में अक्सर लड़कियां और लड़के दोनों ही पुराने रिवाजों से बंधे हुए होते हैं. लड़कियों को ये सिखाया जाता है कि घर के काम करना, पति की सेवा करना और उस की हर बात मानना उन का कर्तव्य है. उन्हें सिखाया जाता है कि पुरुष महिलाओं का मौखिक , शारीरिक या यौन शोषण करने के लिए स्वतंत्र हैं. इस का उन्हें कोई नतीजा भी नहीं भुगतना होगा.
बचपन से लड़कियों का 40 फीसदी समय ऐसे कामों में जाता है जिसके पैसे भी नहीं मिलते. इस का ये नतीजा होता है कि उन्हें खेलने, आराम करने या पढ़ने का समय लड़कों के मुक़ाबले कम ही मिल पाता है.
प्यू रिसर्च सेंटर की स्टडी
हाल ही में अमेरिकी थिंक टैंक प्यू रिसर्च सेंटर ने एक दिलचस्प स्टडी की थी. इस में भारत में महिलाओं के बारे में पुरुषों की सोच का अध्ययन किया गया. स्टडी में पाया गया कि ज्यादातर भारतीय इस बात से काफी हद तक सहमत है कि पत्नी को हमेशा पति का कहना मानना चाहिए.
ज्यादातर भारतीय इस बात से पूरी तरह या काफी हद तक सहमत हैं कि पत्नी को हमेशा ही अपने पति का कहना मानना चाहिए. एक अमेरिकी थिंक टैंक के एक हालिया अध्ययन में यह कहा गया है. प्यू रिसर्च सेंटर की यह नई रिपोर्ट हाल ही में जारी की गई. रिपोर्ट 29,999 भारतीय वयस्कों के बीच 2019 के अंत से लेकर 2020 की शुरुआत तक किए गए अध्ययन पर आधारित है.
इस के अनुसार करीब 80 प्रतिशत इस विचार से सहमत हैं कि जब कुछ ही नौकरियां है तब पुरुषों को महिलाओं की तुलना में नौकरी करने का अधिक अधिकार है. रिपोर्ट में कहा गया है कि करीब 10 में नौ भारतीय (87 प्रतिशत) पूरी तरह या काफी हद तक इस बात से सहमत हैं कि पत्नी को हमेशा ही अपने पति का कहना मानना चाहिए. यही नहीं इस रिपोर्ट के अनुसार ज्यादातर भारतीय महिलाओं ने इस विचार से सहमति जताई कि हर परिस्थिति में पत्नी को पति का कहना मानना चाहिए.
महिलाओं पर केंद्रित होती हैं ज्यादातर गालियां
नारी शक्ति की बात तो होती है लेकिन अभी भी महिलाएं दोयम दर्जे पर हैं. पढ़ी लिखी महिलाएं भी प्रताड़ित हो रही हैं. अगर आपको किसी को अपमानित करना है तो आप उसके घर की महिला को गाली दे देते हैं. उसका चरम अपमान हो जाता है. और वो मर्दों के अहंकार को भी संतुष्ठ करता है. किसी पुरुष से बदला लेना होगा तो बोलेंगे स्त्री को उठा लेंगे, महिला अपमानित करने का माध्यम बन जाती है. गांव में तो बहुत होता था पहले अमूमन ये देखा गया था कि ये गालियां समाज के निचले पायदान पर रहने वाले लोग ही देते थे लेकिन अब आम पढ़े लिखे लोग भी देने लगे हैं.
जब भी कोई बहस झगड़े में तब्दील होने लगती है तो गालियों की बौछार भी शुरू हो जाती है. ये बहस या झगड़ा दो मर्दों के बीच भी हो रहा हो तब भी गालियां महिलाओं पर आधारित होती हैं. कुल मिला कर गालियों के केन्द्र में महिलाएं होती हैं. दरअसल समय के साथ स्त्री पुरुषों की संपत्ति होती चली गई और उस संपत्ति को गाली दी जाने लगी. ये गाली दे कर मर्द अपने अहंकार की तुष्टि करते हैं और दूसरे को नीचा दिखाते हैं. महिलाएं परिवार की इज़्ज़त के प्रतीक के तौर पर देखी जाती हैं. इज़्ज़त को बचाना है तो उसे देहड़ी के अंदर रखिए. महिलाएं समाज में कमज़ोर मानी जाती हैं. आप किसी को नीचा दिखाना चाहते हैं, तंग करना चाहते हैं तो उन के घर की महिलाओं- मां, बहन या बेटी को गालियां देना शुरू कर दीजिए.
गाली सिर्फ़ गाली देना ही नहीं है वो मानसिकता का प्रतीक भी है जो विभत्स गाली देते हैं और उसे व्यावहारिकता में लाते हैं इसलिए निर्भया जैसे मामले दिखाई देते हैं.
धर्म है इस सोच का जिम्मेदार
जितने भी धर्म हैं, हिंदू, इस्लाम, कैथोलिक ईसाई, जैन, बौद्ध, सूफी, यहूदी, सिक्ख आदि सभी के संस्थापक पुरुष हैं स्त्री नहीं. न ही स्त्री किसी धर्म की संचालिका है. न वह पूजा-पाठ, कथा, हवन करानेवाली पंडित है, न मौलवी है, न पादरी है. वह केवल पुरुष की आज्ञा का पालन करने के लिए इस संसार में जन्मी है. धर्म का मूल आधार ही पुरुष सत्ता है. स्त्री का दोयम दर्जा सिर्फ हिंदू धर्म में ही नहीं, हर धर्मग्रंथ में वह चाहे कुरान हो, बाइबल हो या कोई और धर्मग्रंथ हो स्त्रियों को हमेशा पुरुष से कमतर माना गया. सिमोन द बोउवार ने कहा था- ‘जिस धर्म का अन्वेषण पुरुष ने किया वह आधिपत्य की उसकी इच्छा का ही अनुचिंतन है.’
धर्म की आड़ में कहानियों के माध्यम से स्त्री जीवन को दासी और अनुगामिनी के रोल मॉडल दिखा कर उसी सांचे में ढालने का प्रयास किया जाता है. सीता, सावित्री, माधवी, शकुंतला, दमयंती, द्रौपदी, राधा, उर्मिला जैसी कई नायिकाओं के ‘रोल मॉडल’ को सामने रखकर सदियों से स्त्री का अनावश्यक शोषण चलता आ रहा है. पुरुष सत्ता स्वीकृत भूमिका से अलग किसी स्थिति में स्त्री को देखना पसंद नहीं करती. इसलिए धार्मिक आचार संहिता बनाकर वह स्त्री की स्वतंत्रता और यौन शुचिता पर नियंत्रण रखती है.
दुनिया का कोई देश या जाति हो उसका धर्म से संबंध रहा है. सभी धर्मों में स्त्री की छवि एक ऐसी कैदी की तरह रही है जिसे पुरुष के इशारे पर जीने के लिए बाध्य होना पड़ता है. वह पितृसत्तात्मक समाज की बेड़ियों से जकड़ी होती है.
धर्मों में स्त्री सामान्यतः उपयोग और उपभोग की वस्तु है. उसकी ऐसी छवि गढ़ी गई है जिससे स्त्री ने भी स्वयं को एक वस्तु मान लिया है. धर्म ने स्त्री को हमेशा पुरुष की दासी के रूप में चित्रित किया. रामचरितमानस में सीता को अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है और महाभारत में द्रौपदी को चीरहरण जैसे सामाजिक कलंक से गुजरना पड़ता है.
स्त्री अधिकार की बात हमारे धर्मग्रंथों में कभी की ही नहीं गई. वह पुरुष के शाप से शिला बन जाती है, पुरुष के ही स्पर्श से फिर से स्त्री बन जाती है. पुरुष गर्भवती पत्नी को वनवास दे देता है, पुरुष अपनी इच्छा से उसे वस्तु की तरह दांव पर लगा देता है. सभी धर्मग्रंथों में उसे नरक की खान, ताड़न की अधिकारी और क्या-क्या नहीं कहा गया.
हिंदू धर्म की कोई भी किताब आप उठा कर देख लें उस में स्त्रियों के लिए कर्तव्य की लंबी सूची होगी लेकिन अधिकारों की नहीं. गीता प्रेस की एक किताब ‘स्त्रियों के लिए कर्तव्य शिक्षा’ है. इसे पढ़ कर देखा जा सकता है कि स्त्रियों को हम किस काल में धकेले रखना चाहते हैं.
महिला को चोट पहुंचाने के पुरुष अनेक बहाने दे सकता है जैसे कि वह अपना आपा खो बैठा या फिर वह महिला इसी लायक है .परंतु वास्तविकता यह है कि वह हिंसा का रास्ता केवल इसलिए अपनाता है क्योंकि वह केवल इसी के माध्यम से वह सब प्राप्त कर सकता है जिन्हें वह एक मर्द होने के कारण अपना हक समझता है.
आज की बहुत सी महिलाएं शिक्षित होकर भी पुरानी धार्मिक रूढ़ियों की अनुगामिनी बनी रहती हैं. देश की स्त्रियां अंधविश्वासों की तरफ फिर लौट रही हैं, महंतों-बाबाओं की तरफ दौड़ रही हैं और प्रवचनों में भीड़ की शोभा बढ़ा रही हैं. उन्हें देखकर लगता है कि वे शायद इक्कीसवीं शताब्दी में नहीं बल्कि बारहवीं या तेरहवीं शताब्दी में हैं.
इन स्थितियों से महिलाएं तभी उबर सकती हैं जब वे पुरुष सत्ता और धर्मगुरुओं के षड्यंत्र को जान सकें और अपनी शक्ति की पहचान कर सकें. अपने मान की रक्षा के लिए खुद खड़ी हों न कि दूसरों की राह देखें.