थप्पड़ है स्त्री के वजूद का अपमान

मेरठ के कंकरखेड़ा क्षेत्र में इस 26 दिसम्बर को बीटेक की एक छात्रा को सहपाठी लड़के द्वारा थप्पड़ मारने का मामला सामने आया. दरअसल छात्रा ने साथ में पढ़ने वाले इस छात्र की दोस्ती का प्रस्ताव ठुकरा दिया था. जिस के बाद उस छात्र ने कक्षा में अन्य छात्रों के सामने ही बीटेक की सीनियर छात्रा को कई थप्पड़ जड़े. वह इतने पर ही शांत नहीं हुआ बल्कि गुस्से में कुर्सी उठाकर लड़की को मारने की कोशिश की. लड़की ने भाग कर अपनी जान बचाई. बाद में लड़की ने यह घटना घर पर परिजनों को बताई और थाने में रिपोर्ट लिखवाने पहुंची. छात्रा ने आरोप लगाया कि आरोपी कई दिन से उस पर दोस्ती करने का दबाव बना रहा था. दोस्ती स्वीकार न किए जाने पर वह हिंसा पर उतर आया.

इस बार के बिग बॉस में  ईशा मालवीय और अभिषेक कुमार ऐसे कंटेस्टेंट हैं जो अपने पास्ट रिलेशन को ले कर चर्चा में रहते हैं. अभिषेक ईशा के एक्स बॉयफ्रेंड हैं. एक साल पहले उन का रिश्ता ख़त्म हो चुका है. उन का रिश्ता टूटने की वजह भी कहीं न कहीं अभिषेक का थप्पड़ और उस की तरफ अग्रेसिव व्यवहार ही था. ईशा ने अंकिता और खानजादी से बात करते वक्त बताया था कि उस ने एक बार अभिषेक को अपने दोस्तों से मिलवाया. ईशा के ज्यादा दोस्त होने की वजह से अभिषेक को गुस्सा आ गया था और उस ने ईशा को सबके सामने थप्पड़ मार दिया था. थप्पड़ की वजह से ईशा के आंख के नीचे  निशान पड़ गए थे. इसी के बाद उन का रिश्ता टूटता चला गया.

कुछ समय पहले डायरेक्टर अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘थप्पड़’ कुछ ऐसे ही विषय को ले कर आई थी. इस में बात शुरू होती है सिर्फ एक थप्पड़ से लेकिन ये पूरी फिल्म महज थप्पड़ के बारे में नहीं थी बल्कि उस के इर्द-गिर्द तैयार हुए पूरे ताने बाने और हर उस सवाल को कुरेद के निकालने की कोशिश करती दिखी जिसने इस ‘सिर्फ एक थप्पड़’ को पुरुषों के हक का दर्जा दे दिया.

इस में अमृता की भूमिका में तापसी पन्नू अपने पति विक्रम के साथ एक परफेक्ट शादीशुदा जिंदगी बिताती दिखती है. अमृता सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक बस अपने पति और परिवार के इर्द गिर्द घिरी जिंदगी में बिजी है और इस ‘परफेक्ट’ सी जिंदगी में बहुत खुश है. लेकिन इसी बीच एक दिन उन के घर हुई पार्टी में विक्रम अमृता को एक जोरदार थप्पड़ मार देता है और सब कुछ बदल जाता है. किसी ने सोचा न था कि एक थप्पड़ रिश्ते की नींव हिला देगी. लेकिन अमृता ‘सिर्फ एक थप्पड़’ के लिए तैयार नहीं थी. एक औरत की जंग शुरू होती है एक ऐसे पति के साथ जिसका कहना है कि मियां बीवी में ये सब तो हो जाता है. उस के आसपास के लोगों के लिए ये बात पचा पाना बहुत मुश्किल था कि सिर्फ एक थप्पड़ की वजह से कोई स्त्री अपने ‘सुखी संसार’ को छोड़ने का फैसला कैसे ले सकती है जबकि पुरुष को तो समाज ने स्त्री को मारने पीटने का हक़ दिया ही हुआ है.

सवाल स्त्री के मान का

सच यही है कि एक थप्पड़ स्त्री के मान सम्मान और अस्तित्व पर सवाल खड़ा करता है. एक थप्पड़ यह दर्शाता है कि आज भी पुरुषों ने औरत को अपनी प्रॉपर्टी समझ रखी है. जबरन उस पर अपना हक़ जमाना चाहते हैं. अगर स्त्री ने हक़ नहीं दिया तो थप्पड़ की गूँज में उसे अहसास दिलाना चाहते हैं कि उस की औकात क्या है. समाज में उसका दर्जा क्या है.

 महिलाओं के खिलाफ हिंसा

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक महिलाओं से हिंसा पूरी दुनिया का भयंकर मर्ज़ है.  दुनिया की 70 फीसदी महिलाओं ने अपने करीबी साथियों के हाथों हिंसक बर्ताव झेला है. फिर चाहे वो शारीरिक हो या यौन हिंसा. दुनियाभर में हर रोज़ 137 महिलाएं अपने क़रीबी साथी या परिवार के सदस्य के हाथों मारी जाती हैं.

हमारे समाज में अक्सर लड़कियां और लड़के दोनों ही पुराने रिवाजों से बंधे हुए होते हैं. लड़कियों को ये सिखाया जाता है कि घर के काम करना, पति की सेवा करना और उस की हर बात मानना उन का कर्तव्य है. उन्हें सिखाया जाता है कि पुरुष महिलाओं का मौखिक , शारीरिक या यौन शोषण करने के लिए स्वतंत्र हैं. इस का उन्हें कोई नतीजा भी नहीं भुगतना होगा.

बचपन से लड़कियों का 40 फीसदी समय ऐसे कामों में जाता है जिसके पैसे भी नहीं मिलते. इस का ये नतीजा होता है कि उन्हें खेलने, आराम करने या पढ़ने का समय लड़कों के मुक़ाबले कम ही मिल पाता है.

 प्यू रिसर्च सेंटर की स्टडी

हाल ही में अमेरिकी थिंक टैंक प्यू रिसर्च सेंटर ने एक दिलचस्प स्टडी की थी. इस में भारत में महिलाओं के बारे में पुरुषों की सोच का अध्ययन किया गया. स्टडी में पाया गया कि ज्यादातर भारतीय इस बात से काफी हद तक सहमत है कि पत्नी को हमेशा पति का कहना मानना चाहिए.

ज्यादातर भारतीय इस बात से पूरी तरह या काफी हद तक सहमत हैं कि पत्नी को हमेशा ही अपने पति का कहना मानना चाहिए. एक अमेरिकी थिंक टैंक के एक हालिया अध्ययन में यह कहा गया है. प्यू रिसर्च सेंटर की यह नई रिपोर्ट हाल ही में जारी की गई. रिपोर्ट 29,999 भारतीय वयस्कों के बीच 2019 के अंत से लेकर 2020 की शुरुआत तक किए गए अध्ययन पर आधारित है.

इस के अनुसार करीब 80 प्रतिशत इस विचार से सहमत हैं कि जब कुछ ही नौकरियां है तब पुरुषों को महिलाओं की तुलना में नौकरी करने का अधिक अधिकार है. रिपोर्ट में कहा गया है कि करीब 10 में नौ भारतीय (87 प्रतिशत) पूरी तरह या काफी हद तक इस बात से सहमत हैं कि पत्नी को हमेशा ही अपने पति का कहना मानना चाहिए. यही नहीं  इस रिपोर्ट के अनुसार ज्यादातर भारतीय महिलाओं ने इस विचार से सहमति जताई कि हर परिस्थिति में पत्नी को पति का कहना मानना चाहिए.

 महिलाओं पर केंद्रित होती हैं ज्यादातर गालियां

नारी शक्ति की बात तो होती है लेकिन अभी भी महिलाएं दोयम दर्जे पर हैं. पढ़ी लिखी महिलाएं भी प्रताड़ित हो रही हैं. अगर आपको किसी को अपमानित करना है तो आप उसके घर की महिला को गाली दे देते हैं. उसका चरम अपमान हो जाता है. और वो मर्दों के अहंकार को भी संतुष्ठ करता है. किसी पुरुष से बदला लेना होगा तो बोलेंगे स्त्री को उठा लेंगे, महिला अपमानित करने का माध्यम बन जाती है. गांव में तो बहुत होता था पहले अमूमन ये देखा गया था कि ये गालियां समाज के निचले पायदान पर रहने वाले लोग ही देते थे लेकिन अब आम पढ़े लिखे लोग भी देने लगे हैं.

जब भी कोई बहस झगड़े में तब्दील होने लगती है तो गालियों की बौछार भी शुरू हो जाती है. ये बहस या झगड़ा दो मर्दों के बीच भी हो रहा हो तब भी गालियां महिलाओं पर आधारित होती हैं. कुल मिला कर गालियों के केन्द्र में महिलाएं होती हैं. दरअसल समय के साथ स्त्री पुरुषों की संपत्ति होती चली गई और उस संपत्ति को गाली दी जाने लगी. ये गाली दे कर मर्द अपने अहंकार की तुष्टि करते हैं और दूसरे को नीचा दिखाते हैं. महिलाएं परिवार की इज़्ज़त के प्रतीक के तौर पर देखी जाती हैं. इज़्ज़त को बचाना है तो उसे देहड़ी के अंदर रखिए. महिलाएं समाज में कमज़ोर मानी जाती हैं. आप किसी को नीचा दिखाना चाहते हैं, तंग करना चाहते हैं तो उन के घर की महिलाओं- मां, बहन या बेटी को गालियां देना शुरू कर दीजिए.

गाली सिर्फ़ गाली देना ही नहीं है वो मानसिकता का प्रतीक भी है जो विभत्स गाली देते हैं और उसे व्यावहारिकता में लाते हैं इसलिए निर्भया जैसे मामले दिखाई देते हैं.

 धर्म है इस सोच का जिम्मेदार

जितने भी धर्म हैं, हिंदू, इस्लाम, कैथोलिक ईसाई, जैन, बौद्ध, सूफी, यहूदी, सिक्ख आदि सभी के संस्थापक पुरुष हैं स्त्री नहीं. न ही स्त्री किसी धर्म की संचालिका है. न वह पूजा-पाठ, कथा, हवन करानेवाली पंडित है, न मौलवी है, न पादरी है. वह केवल पुरुष की आज्ञा का पालन करने के लिए इस संसार में जन्मी है. धर्म का मूल आधार ही पुरुष सत्ता है. स्त्री का दोयम दर्जा सिर्फ हिंदू धर्म में ही नहीं, हर धर्मग्रंथ में वह चाहे कुरान हो, बाइबल हो या कोई और धर्मग्रंथ हो स्त्रियों को हमेशा पुरुष से कमतर माना गया. सिमोन द बोउवार ने कहा था- ‘जिस धर्म का अन्वेषण पुरुष ने किया वह आधिपत्य की उसकी इच्छा का ही अनुचिंतन है.’

धर्म की आड़ में कहानियों के माध्यम से स्त्री जीवन को दासी और अनुगामिनी के रोल मॉडल दिखा कर उसी सांचे में ढालने का प्रयास किया जाता है. सीता, सावित्री, माधवी, शकुंतला, दमयंती, द्रौपदी, राधा, उर्मिला जैसी कई नायिकाओं के ‘रोल मॉडल’ को सामने रखकर सदियों से स्त्री का अनावश्यक शोषण चलता आ रहा है. पुरुष सत्ता स्वीकृत भूमिका से अलग किसी स्थिति में स्त्री को देखना पसंद नहीं करती. इसलिए धार्मिक आचार संहिता बनाकर वह स्त्री की स्वतंत्रता और यौन शुचिता पर नियंत्रण रखती है.

दुनिया का कोई देश या जाति हो उसका धर्म से संबंध रहा है. सभी धर्मों में स्त्री की छवि एक ऐसी कैदी की तरह रही है जिसे पुरुष के इशारे पर जीने के लिए बाध्य होना पड़ता है. वह पितृसत्तात्मक समाज की बेड़ियों से जकड़ी होती है.

धर्मों में स्त्री सामान्यतः उपयोग और उपभोग की वस्तु है. उसकी ऐसी छवि गढ़ी गई है जिससे स्त्री ने भी स्वयं को एक वस्तु मान लिया है. धर्म ने स्त्री को हमेशा पुरुष की दासी के रूप में चित्रित किया. रामचरितमानस में सीता को अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है और महाभारत में द्रौपदी को चीरहरण जैसे सामाजिक कलंक से गुजरना पड़ता है.

स्त्री अधिकार की बात हमारे धर्मग्रंथों में कभी की ही नहीं गई. वह पुरुष के शाप से शिला बन जाती है, पुरुष के ही स्पर्श से फिर से स्त्री बन जाती है. पुरुष गर्भवती पत्नी को वनवास दे देता है, पुरुष अपनी इच्छा से उसे वस्तु की तरह दांव पर लगा देता है. सभी धर्मग्रंथों में उसे नरक की खान, ताड़न की अधिकारी और क्या-क्या नहीं कहा गया.

हिंदू धर्म की कोई भी किताब आप उठा कर देख लें उस में स्त्रियों के लिए कर्तव्य की लंबी सूची होगी लेकिन अधिकारों की नहीं. गीता प्रेस की एक किताब ‘स्त्रियों के लिए कर्तव्य शिक्षा’ है. इसे पढ़ कर देखा जा सकता है कि स्त्रियों को हम किस काल में धकेले रखना चाहते हैं.

महिला को चोट पहुंचाने के पुरुष अनेक बहाने दे सकता है जैसे कि वह अपना आपा खो बैठा या फिर वह महिला इसी लायक है .परंतु वास्तविकता यह है कि वह हिंसा का रास्ता केवल इसलिए अपनाता है क्योंकि वह केवल इसी के माध्यम से वह सब प्राप्त कर सकता है जिन्हें वह एक मर्द होने के कारण अपना हक समझता है.

आज की बहुत सी महिलाएं शिक्षित होकर भी पुरानी धार्मिक रूढ़ियों की अनुगामिनी बनी रहती हैं. देश की स्त्रियां अंधविश्वासों की तरफ फिर लौट रही हैं, महंतों-बाबाओं की तरफ दौड़ रही हैं और प्रवचनों में भीड़ की शोभा बढ़ा रही हैं. उन्हें देखकर लगता है कि वे शायद इक्कीसवीं शताब्दी में नहीं बल्कि बारहवीं या तेरहवीं शताब्दी में हैं.

इन स्थितियों से महिलाएं तभी उबर सकती हैं जब वे पुरुष सत्ता और धर्मगुरुओं के षड्यंत्र को जान सकें और अपनी शक्ति की पहचान कर सकें. अपने मान की रक्षा के लिए खुद खड़ी हों न कि दूसरों की राह देखें.

 

पति अब परमेश्वर नहीं

अब यह समझ नहीं आ रहा है कि पूना की रेखा खन्ना की बुराई जीभर के की जाए, अब उसे टै्रंड सैंटर कहा जाए. दरअसल, उस ने नवंबर, 2023 के अंतिम सप्ताह में पुणे में अपने एक बिल्डर पति निखिल खन्ना से बहस के दौरान नाक पर मुक्का मारा जिस से उस के नाक की हड्डियां चटक गईं और वह गिर गया तथा बहुत खून बहने से उस की मौत हो गई.

बुराई इसलिए कि वह पति की हत्यारिन है, ट्रैंड सैंटर इसलिए कि उस ने सभी पतियों को चेतावनी दी है कि हिंसा दोनों तरफ से हो सकती है और पिटने वाली औरतें अब रिश्वत न लेने वाले गुप्त सरकारी कर्मचारी जीवों की तरह कम होने लगी हैं. अभी यह पता नहीं कि नाक पर मुक्का मारा गया था या कोई और चीज मारी गई थी.

अगर मुक्का मारा गया तो यह पतियों को ही नहीं सभी पुरुषों, लड़कों के लिए संदेश है कि औरतों को कमजोर कतई न समझें. औरतों को ताड़न का अधिकारी कहने वाले तुलसीदास के दिन लदने लगे हैं. अब न शूद्र को पीटा जा सकता है, न पशु को. ढोल ही बचा जिसे तुलसीदास प्रेमी बजाबजा कर दानदक्षिणा की महिमा गा सकते हैं जिस से रामचरितमानस भरी है.

रामचरितमानस वाली नारी अब अपनेआप में वैसे ही कम हो गई है. वह न दान की वस्तु है, न भोग की, न हिंसा की शिकार. अकेले में तो हर आदमी भी पिट लेता है पर उसे कमजोर नहीं सम?ा जाता. अब औरतों के समूह आसानी से जमा करे जा सकते हैं जो लड़कियों में हिंसा करने वाले लड़कों की छुट््टी कर सकते हैं.

राजस्थान का गुलाबी गैंग इस बारे में प्रसिद्ध हो चुका है और रेणुका खन्ना ने एक नया ट्रैंड स्थापित कर दिया है. 2017 में निखिल खन्ना से विवाहित रेणुका की नाराजगी यह बताई जाती है कि वह उसे उस के बर्थडे पर दुबई नहीं ले गया, फिर उस ने विवाह वर्षगांठ पर सही उपहार नहीं दिया और ऊपर से मर्दानगी दिखाते हुए उस की भतीजी की शादी के लिए दिल्ली जाने का टिकट नहीं बनवाया.

अब पतियों को उसी तरह होशियार रहना होगा जैसे सदियों से पत्नियां रहती आई हैं. धर्म का दिखावा औरतों पर से उतर रहा है और वे पति को परमेश्वर नहीं, साथी, बराबर का साथी मानती हैं. रेणुका के साथ कानून कुछ भी करे पर यह पक्का है कि बहुत से पति अब पत्नी पर हाथ उठाने से पहले 2 बार सोचेंगे.

इस ज्ञान का क्या फायदा

आप को कुछ भी जानकारी चाहिए गूगल करें और सारी जानकारी आप की स्क्रीन पर होगी, बिना कुछ अतिरिक्त खर्च किए. अतिरिक्त का मतलब है कि आप फोन, चार्जिंग और डेटा कनैक्शन पर अच्छाखासा पैसा खर्च कर चुके हैं पर जो जानकारी ढूंढ़ रहे हैं वह बिना अतिरिक्त खर्च के मिल जाएगी.

गूगल आप को यों ही मुफ्त में जानकारी नहीं देता. आप के खर्च के बदले वह धड़ाधड़ आप को उस से संबंधित विज्ञापन दिखाना शुरू कर देता है. आप ने ‘धौलावीरा’, गुजरात में मोहनजोदाड़ो, हड़प्पा संबंधित एक जगह के बारे में खर्च किया नहीं कि आप को गुजरात के होटलों, गुजरात के कपड़ों, गुजरात सरकार के महान कामों, गुजरात के रेस्तरांओं या अस्पतालों के विज्ञापन दिखने शुरू हो जाएंगे.

गूगल ने जो जानकारी दी वह उपलब्ध समाचारपत्रों, बैवसाइटों, किताबों से जुटाई होगी. अब तक गूगल इन से कोई पैसा शेयर नहीं करता था. अब गूगल पर दबाव पड़ रहा है कि वह जहां की जानकारी दे रहा है वहां के स्रोत को पैसे दे.

सरकार के दबाव में गूगल कनाडा में क्व612 करोड़ मीडिया फर्मों को उन की जानकारी के बदले देगा. यह पैसा कैसे बंटेगा, यह अभी स्पष्ट नहीं है पर यह अच्छी शुरुआत है.

ज्ञान की खोज में जो नुकसान गूगल ने दुनिया का किया है वह अभूतपूर्व है. उस ने ज्ञानियों और ज्ञान जुटाने वालों को भिखारी बना डाला और उन के नौलेज, विज्ञान और ऐनालिसिस की जानकारी का इस्तेमाल कर खुद अरबोंखरबों की कंपनी बन गई. उस ने जानकारी और ज्ञान जमा करने वाले के नामों को गूगल के हाथी पांवों के नीचे कुचल दिया.

दुनियाभर की सरकारों ने इसे होने दिया क्योंकि आज अधिकांश देशों की जनता की चुनी हुई सरकारें भी ?ाठ, छल, फरेब और बहकावे पर टिकी हैं. गूगल ने सत्ता में बैठी सरकारों के पक्ष में खूब जानकारी उस क्षेत्र में प्रचारित की जहां से सर्च की जा रही है. यदि आप भारत से सर्च कर रहे हैं तो आप को खालिस्तानियों या दलितों की विश्वभर में उठ रही मांगों पर बहुत कम मिलेगा. गूगल आप को ऐसी साइटों पर ही ले जाएगा जहां सरकार की अनुमति मिली है, उस ज्ञान की तरफ जिस में क्या फायदा सरकार, धर्म या किसी तरह के उद्योगों का हो.

गूगल आज भ्रमित जानकारी देने वाला स्रोत बन गया है. भारत की न्यूज मीडिया गोदी मीडिया इसीलिए गोदी मीडिया कहा जाता है क्योंकि यह जो सही बताता है, खास मकसद से बताता है: सरकार की प्रशंसा करने के लिए. जब गूगल को पैसे देने होंगे तो वह उस जानकारी को देगा जिसे लोग वास्तव में चाहते हैं. वह विज्ञापन की आय शेयर करेगा. लोगों को सही व पूरी जानकारी मिल सकती है, स्पौंसर्ड ही नहीं. जानकारी जमा करने वालों को अपनी मेहनत का सही पैसा मिलना शुरू हो जाएगा.

शहीद सैनिकों पर राजनीति

नरेंद्र मोदी के हजार भाषणों में दावों के बावजूद जम्मू कश्मीर में आतंकवादी समाप्त नहीं हुए हैं और धारा-370 चाहे ढीली हो चुकी हो जम्मू कश्मीर में आतंकवादी ढीले नहीं पड़े हैं. नवंबर के अंतिम सप्ताह में आतंकवादियों के हमले जारी हैं और उन्होंने पैराट्रूपर सचिन लौर और कैप्टन एम वी प्रांजल, कैप्टन शुभम गुप्ता, हवलदार अब्दुल मजीद और लांस नायक संजय बिष्ट को अपना निशाना बना डाला.

सरकार की संविधान की धारा-370 से छेड़छाड़ तो तब सफल मानी जाती जब देश का कोई सैनिक आतंकवादियों के हाथों नहीं मर रहा होता. ये मौतें तो सैनिकों की हुई हैं कुछ दिनों में पर आतंकवादी अकसर आम लोगों को निशाना बना रहे हैं. बस फर्क है कि मोदीमय मीडिया इस तरह की खबरों को दिखाने की जगह सिर्फ इसराईल और गाजा युद्ध दिखाता रहता है या चुनावी सभाओं में भीड़ के अंश दिखाता रहता है.

ज्यादा अफसोस यह है कि हर सैनिक की दुखद मृत्यु पर भाजपा नेता उसे भुनाने के लिए फोटोग्राफरों का जत्था ले कर शहीद के घर चैक ले कर पहुंच जाते हैं और मरने वालों का दुख और गहरा अपनी पब्लिसिटी के नाम पर कर आते हैं. वे जबरन मरने वाले की पत्नी या मां या बहन को चैक दिखाते हुए फोटो खिंचाने में लग जाते हैं ताकि जनता को यह संदेश दे सकें कि उन्होंने किस तरह मृत सैनिकों को इस्तेमाल किया है.

2-4 महीनों के बाद मृत सैनिकों के परिवारों के साथ क्याक्या होता है, यह तो पता ही नहीं चलता क्योंकि सैनिक दफ्तरों में कानूनशाही तो अपने ढर्रे पर चलती है.

बड़ी बात तो यह है कि धारा-370 के हटने के बाद भी आखिर आतंकवादी हैं क्यों? भारतीय जनता पार्टी ने हमेशा प्रचार किया है कि आतंकवाद की जड़ में तो यह धारा-370 है पर इसे हटाने के बाद भी अगर मांओं के बेटे जा रहे हैं, पत्नियों के पति जा रहे हैं, बहनों के भाई जा रहे हैं तो दोष उस सारे प्रचारतंत्र का भी है जिसे बड़े साजियाना ढंग से बनाया गया था.

सेना में नौकरी पर जाने वाला हर जना जान हथेली पर ले कर चलता है पर वह यह भी चाहता है कि उस की सरकार उसे सही समर्थन दे और उस की मौत पर लोग आंसू बहाएं पर उसे प्रचार का साधन न बनाएं. जब जोरशोर से हल्ला मचाया जाता है कि आतंकवादी समाप्त कर दिए गए हैं क्योंकि राज्य में नई तरह की सरकार आ गई है, तो सैनिकों के घर वाले संतुष्ट हो जाते हैं. मगर उन्हें झटका तब लगता है जब सच कुछ और ही निकलता है.

कैप्टन शुभम गुप्ता की मां को भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेता किस तरह चैक पकड़ाने की कोशिश कर रहे थे और कैमरों को देख कर कोशिश कर रहे थे कि उन का चेहरा पूरा दिखे, वायरल हो रहा था क्योंकि यह एक शहीद के जाने का गम नहीं दर्शाता, अपनी राजनीति चमकाने का खुला व भद्दा प्रयास दिखता है.

हमेशा राजा सैनिकों को अपने हितों के लिए मरवाते रहे हैं. धर्म उस से भी आगे है. धर्म तो आम आदमी को उकसा देता है कि चलो धर्म की रक्षा के लिए मारने पर लग जाओ. न राजा न धर्म असल में जनता को सुरक्षा देते हैं. वह तो उसे डंडा संभाले कांस्टेबल से मिलती है.

युवाओं का अड्डा इंस्टाग्राम बना मुसीबतों का गड्ढा

सोशल मीडिया का नाम सुनते ही आजकल सब के दिमाग में बस एक ही नाम आता है इंस्टाग्राम. इंस्टाग्राम युवाओं के बीच सब से ज्यादा यूज किया जाने वाला सोशल प्लेटफौर्म बन गया है. इसे अब तक प्लेस्टोर पर एक बिलियन से ज्यादा लोग इंस्टौल कर चुके हैं. इंस्टाग्राम को 6 अक्तूबर, 2010 में लौंच किया गया था. इसे शुरू करने वाले केविन सिस्ट्रौम और माइक क्रेगर थे. इंस्टाग्राम एक अमेरिकन कंपनी है.

इंस्टाग्राम में युवा अपनी छोटी वीडियोज, जिन्हें रील्स कहा जाता है और अपनी पिक्चर शेयर करते हैं. एक तरह से यह युवाओं का ऐसा अड्डा बन चुका है जहां युवा अपनी रिप्रेजैंटेशनल एक्सप्रैशन को जाहिर करता है. बस, सवाल बनता है कि क्या वह इस तरह के प्लेटफौर्म्स को सही से यूज कर पा रहा है?

बात करें अगर इंस्टाग्राम के फौलोअर्स की तो इंस्टाग्राम पर सब से ज्यादा फौलोअर्स खुद इंस्टाग्राम के ही हैं. इस के बाद फुटबौल प्लेयर क्रिस्टियानो रोनाल्डो जिन के 603 मिलियन से भी ज्यादा फौलोअर्स हैं. वहीं भारत में इंस्टाग्राम पर सब से ज्यादा फौलोअर्स क्रिकेटर विराट कोहली के हैं. विराट कोहली के बारे में हाल ही में खबर आई थी कि वे एक स्पौंसर्ड इंस्टाग्राम पोस्ट के लगभग 11 करोड़ रुपए चार्ज करते हैं, जिसे बाद में उन्होंने खुद नकार दिया था. कोहली के इंस्टाग्राम पर 257 मिलियन से भी ज्यादा फौलोअर्स हैं. वहीं, कोहली के बाद भारत में दूसरे नंबर पर बौलीवुड से हौलीवुड तक लंबी छलांग लगाने वाली प्रियंका चोपड़ा हैं. वे ग्लोबल आइकन हैं. उन के लगभग 89 मिलियन फौलोअर्स हैं.

अब फेसबुक को पीछे छोड़ कर इंस्टाग्राम नंबर वन पर आ गया है. इस की बढ़ती पौपुलैरिटी को देखते हुए फेसबुक ने साल 2012 में इसे खरीद लिया. अब फेसबुक और इंस्टाग्राम दोनों आपस में लिंक्ड हैं. ये मेटा के पार्ट हैं, जिसे मार्क जुकरबर्ग चलाते हैं. अब इंस्टाग्राम पर जो फोटो या रील पोस्ट की जाती है सिर्फ एक सैंटिग से वह फेसबुक पर भी अपलोड हो जाती है. है न कमाल की बात. ऐसे ही यह युवाओं की पहली पसंद नहीं बना है.

इंस्टाग्राम एक ऐसा प्लेटफौर्म है जहां पर यूजर्स न सिर्फ अपनी फोटो, वीडियो अपलोड करते हैं बल्कि नए दोस्त भी बनाते हैं और अपने टैलेंट को दिखाने के लिए उन्हें किसी रिऐलिटी शो के आगे हाथ नहीं गिड़गिड़ाने होते. यही वजह है कि युवाओं ने इसे अपना अड्डा बना लिया है. इस में बहुत से युवा अपनी टैलेंट वीडियो अपलोड कर के दुनिया में नाम कमा रहे हैं.

कई लोग गाना, डांस, मेकअप, स्टाइलिंग, कुकिंग, ट्रैवलिंग, स्टडी टिप्स और न्यूज जैसी रील्स बना कर इंस्टाग्राम पर अपलोड कर रहे हैं. इन्हें देखने और फौलो करने वालों की संख्या भी हजारोंलाखों में है. यही फौलोअर्स उन की कमाई का जरिया भी हैं.

समय बरबाद करते युवा

वहीं, कुछ लोग इस पर दिनरात अपना समय भी बरबाद कर रहे हैं, जिन का काम सिर्फ इंस्टाग्राम पर रील्स देखना है. इस तरह से वे सिर्फ समय की बरबादी कर रहे हैं. इन्हें यह सम?ाना चाहिए कि इंस्ट्राग्राम पर रील्स देखने से कैरियर नहीं बनेगा. कैरियर बनाने के लिए इन्हें पढ़ाई करनी होगी. इस के अलावा अपने टैलेंट पर काम करना होगा. ऐसे खलिहर लोग सिवा वक्त की बरबादी के, सोसाइटी में अपना कोई योगदान नहीं दे रहे.

कहते हैं, ‘अगर किसी चीज के फायदे हैं तो नुकसान भी हैं.’ ऐसे ही इंस्टाग्राम के फायदे के साथसाथ कुछ नुकसान भी हैं. असल में इंस्टाग्राम के यूजर्स आपस में अपनी लाइफ कंपेयर करने लगते हैं, जो कि गलत है. सब का घर, फैमिली और फाइनैंशियल स्टेटस अलगअलग होता है. लेकिन यूजर्स यह भूल जाते हैं.

अगर कोई अमीर यूजर यूएस, यूके की ट्रिप एंजौय कर रहा है और उस की वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड कर रहा है तो दूसरा यूजर जो फाइनैंशियली इतना स्ट्रौंग नहीं है, वह अपनेआप को उस से कंपेयर करने लगता है. जबकि दोनों का फाइनैंशियल स्टेटस बहुत अलग है. ऐसे में जब वह ट्रिप पर जा नहीं पाता तो वह डिप्रैस्ड हो जाता है.

इंस्टाग्राम हमारी मैंटल हैल्थ के लिए सही नहीं है. इस विषय में एक रिसर्च की गई. यूनाइटेड किंगडम की रौयल सोसाइटी फौर पब्लिक हैल्थ द्वारा प्रकाशित स्टेटस औफ मांइड रिसर्च में इंग्लैंड, स्कौटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड के 1,479 युवाओं के इनपुट लिए गए. इन की उम्र 14 से 24 साल थी. इस रिसर्च का मुद्दा यह जानना था कि अलगअलग सोशल मीडिया प्लेटफौर्मों ने उन की मैंटल और फिजिकल हैल्थ को कैसे इफैक्ट किया है.

रिसर्च में इंस्टाग्राम को मैंटल हैल्थ के लिए सब से खराब सोशल मीडिया नैटवर्क कहा गया. यह हाईलैवल की टैंशन, डिप्रैशन, बदमाशी, फोमो की भावना जागने वाला प्लेटफौर्म माना गया.

इंस्टाग्राम कितना घातक साबित हो सकता है, यह तो आप जान ही गए हैं, इसलिए आप में कोई टैलेंट है तो वह आप जरूर इंस्टाग्राम पर खुद को दिखाएं, लेकिन इस के भीतर इतना न घुस जाएं कि आप को समस्या होने लगे.

सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर के चंगुल में इंडियन पौलिटिक्स

सबकुछ सोशल मीडिया हो चला है, राजनीति के धुरंधर नेता भी रील और शौर्ट वीडियोज बना रहे हैं. नेताओं की चलते हुए स्लो मोशन क्लिप वायरल हो रही हैं. हों भी क्यों न, रील वीडियोज में स्लो मोशन का गजब का खेल जो है. नेतामहानेता होने जैसा फील ले पा रहा है, जैसे ‘जवान’ फिल्म का शाहरुख खान 7 बार जनता का मसीहा बनने के लिए परदे पर स्लो मोशन एंट्री लेता है.

नेता समझ गए हैं, उन के लंबे उबाऊ भाषण युवा नहीं सुनना चाहते. अब तो महामानवों के भाषण भी झूठे, नीरस और बोझिल लग रहे हैं. सोसाइटी, इकौनोमी के लिए क्या अच्छा है, किस पार्टी के क्या मुद्दे हैं, युवा इस में इंट्रैस्टेड नहीं हैं. उन्हें20-25 सैकेंड का मजा चाहिए. वह तो नेताओं की वीडियो भी शोर्ट क्लिप में देख रहे हैं, उसी से अपनी समझ बना रहे हैं. वे 20-25 सैकंड लायक ही बच गए हैं, अपनी पर्सनल लाइफ में इस से आगे का वे न तो सोच पा रहे हैं न किसी चीज का मजा ले पा रहे हैं.

राजनीति में चुनाव के समय जनता ही सर्वोपरि है, लेकिन जनता तो रील्स में डूबी है. सुबह उठने के साथ रील, संडास जाते रील, दातून करते रील, खाना बनाते रील्स, खाना खाते रील, रील बनाते रील्स, काम करते रील, यहां तक कि सोने से पहले रील ही रील. अगर तर्जनी उंगली और अंगूठे की जांच की जाए तो हाथों की आधी रेखाएं मिटी दिखेंगी. अब जाहिर है युवा रील पर हैं तो नेता क्यों न हों? जहां जनता वहां नेता.

अब यही देख लो, राहुल गांधी शौर्ट वीडियो और स्लो मोशन क्लिप्स से सोशल मीडिया पर वायरल होने लगे तो जमीनी नेता कहे जाने वाले यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी यूट्यूब चैनल सब्सक्राइब करने की अपील करने लगे और फिर हरियाणा के इंफ्लुएंसर अंकित बेथनपुरिया के साथ स्वच्छता दिवस के मौके पर कौलेब करते दिखाई दिए.

तालमेल वाले इंफ्लुएंसर

राजनीति में सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर की मांग बढ़ने लगी है. कुछ दिन पहले गुरुग्राम में बिग बौस विनर रहे और खुद को कट्टर हिंदू बताने वाले एलविश यादव को मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने खुद आ कर स्टेज पर बधाई दी, स्पैशल प्रोग्राम रखा गया और उन्हें युवाओं का आइकन बताया गया.

इस से किसी और को रश्क हुआ हो या न हुआ हो, हरियाणा के उन मैडलधारी रेसलर्स को जरूर हुआ होगा जो महीनों जंतरमंतर पर धरना देते बैठे रहे. वे यही सोच रहे होंगे कि देश के लिए मैडल जीतने से अच्छा शौर्ट रील बना ली होती, लटके?ाटके दिखा दिए होते तो कोई उन की सुनने वाला भी होता.

जिस एल्विश यादव, फायर ब्रैंड हिंदू इंफ्लूएंसर को भाजपा व उस के नेता सरआंखों पर बैठा कर रखते हैं, उस पर रेव पार्टी करने व उन पार्टियों में विदेशी लड़कियों के साथ सांपों की तस्करी करने का आरोप लगा है. यूपी पुलिस ने उस के 6 साथियों को गिरफ्तार किया है.

सोचने वाली बात है कि यह ऐसा अपराध है, जिस में यदि कोई अपराधी साबित होता है तो 7 साल की सजा व भारी जुर्माना तय है.

ऐसे सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर का नाम कभी भोगी तो कभी खट्टर जपते रहते हैं और राजनीतिक राह देते हैं.

आजकल राजनीतिक पार्टियां पेड प्रमोशनल वीडियो बनवा रही हैं. उन के पीआर यूट्यूब इन्फ्लुएंसर को पकड़ रहे हैं. दोनों कोलेबोरेशन कर रहे हैं, पोडकास्ट हो रहे हैं, घंटेडेढ़घंटे इंटरव्यू हो रहे हैं. लंबी इंटरव्यू वीडियोज में आधे से ज्यादा इज्जत खातिरदारी वाले सवाल किए जा रहे हैं, इमेज बिल्ंिडग की जा रही है, हां,20-30 सैकंड का तड़कताभड़कता सवाल बीच में किया जा रहा है, जिसे शौर्ट बना कर सोशल मीडिया पर ठेला जा रहा है.

बीर बायसैप्स के नाम से मशहूर इंफ्लुएंसर रनवीर अलाहबादिया और राज शमामी ऐसे पौलिटिकल इंटरव्यू करते नजर आ रहे हैं, जहां वाहवाही के अलावा और कुछ नहीं है.

युवाओं को साधने की कोशिश

चीजें बदल गई हैं. बौलीवुड सितारों से ले कर राजनीतिक सितारों तक, सभी सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर के दरबार में हाजिरी लगा रहे हैं. किसी को अपनी पिक्चर हिट करानी है तो किसी को अपना शो. किसी को अपना राजनीतिक कैरियर बनाना है तो किसी को बचाना है.

एक समय पार्टी और नेता यही काम बौलीवुड के सितारों से लेते रहे. अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, गोविंदा, हेमा मालिनी, राज बब्बर, सनी देओल, परेश रावल ये सब राजनीति में हैं या आए गए. फेहरिस्त लंबी है. रीजनल कलाकारों को भी इस्तेमाल किया जाता रहा, रवि किशन, मनोज तिवारी, निरहुआ, संजय यादव जैसे तमाम नाम सामने हैं.

भले ये सितारे कभी अपने लोकसभाई क्षेत्र नहीं गए, अधिकतर समय अपने एक्ंिटग प्रोफैशन से जुड़े रहे, जिन मुद्दों से सरोकार नहीं रहा, पब्लिक ने भले ही इन के पोस्टर ‘फलां नेता गायब है’ इलाके में चिपका दिए हों, लेकिन चुनाव के समय बस मंच पर डांस कर कमर मटका दी तो जनता ने भी इन की गलतियों को दूधभात समझ माफ करने में भी देर नहीं लगाई.

लेकिन वह दिन अब दूर नहीं जब इन्फ्लुएंसर को लोकसभा और विधानसभा की सीटें पकड़ाई जाएंगी. विधायिका में वैसे भी 33 प्रतिशत वीमेन रिजर्वेशन पास करवा दिया गया है. बेशक कुछ ममता, मायावती जयललिता, शीला जैसी निकलेंगी पर अधिकतर मर्द नेताओं की बहु, पत्नियों, बेटियों, देवरानियां ही होंगी. इस के बाद बची सीटें इन्फ्लुएंसर उड़ा ले जाएं तो हैरानी नहीं होनी चाहिए. सोशल मीडिया पर वैसे भी रील बालाओं का जलवा है.

पार्टियों के लिए अच्छी बात कि यहां अलगअलग जातियों और धर्मों की रील बालाएं हैं. यहां मैडम भी हैं तो नौकरानी भी. दोनों ही अपनेअपने जोन में फेमस हैं. यानी सारा मसला सोर्टआउट है. राजनीतिक पार्टियों के लिए ज्यादा मुश्किल नहीं होने वाली. करना क्या है, बस फौलोअर्स ही तो देखने हैं, अपनी पार्टी हित देखते कैंडिडेट चुनने हैं. जो जितना पौपुलर, जिस के लचक में जितना दम, उस के उतने चांस.

कारण भी है इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर बिग बौस विजेता के लिए वोट मांगे जा रहे हैं और इन वीडियोज को देख कर खलिहर लाखों युवा में वोट डाल रहे हैं, अपने कैंडिडेट को जिताने के लिए सड़कों के ट्रैफिक जाम कर रहे हैं, जैसे किसी बाहुबली नेता के लिए गुर्गे निकल पड़ते हैं, घर से पिता की जेब से चुराए पैसों से गाडि़यों में पैट्रोल भर कर सड़कों पर हुडदंग कर रहे हैं और टीवी पर आ कर पागलों की तरह चिल्ला रहे हैं तो ऐसे ही इंस्टाग्राम पर रील्स देख कर ये अपने कैंडिडेट भी चुन ही लेंगे. लगता है भारत का भविष्य इन्हीं के भरोसे हो चला है.

धर्म नहीं चाहता औरते शिक्षित बने

सनातन धर्म के नाम पर जो अन्याय औरतों के साथ पौराणिक कथाओं में दिखता है उसे छोड़ भी दें तो भी आधुनिककाल में जब प्रिंटिंग प्रैस के कारण शिक्षा हरेक को सुलभ होने लगी और जहाजों पर चढ़ कर बराबरी, नैतिकता, तर्क और कानून की बातें पूरे विश्व में फैलने लगीं तो भारत में ऐसे लोगों की कमी न आई है जो सवर्ण औरतों को भी पिछली सदियों में घसीट ले जाना चाहते हैं, 100-125 साल पहले की.

अंगरेजों के आने के बाद भी महाराष्ट्र में पेशवाओं का राज काफी हद तक कायम था क्योंकि 1857 से पहले मराठा साम्राज्य छत्रपति शिवाजी या उन के वशंजों के हाथों में नहीं, उन के नियुक्त सलाहकार ब्राह्मणों जिन्हें पेशवा कहा जाता था, के हाथों में चला गया था. पेशवाओं के जमाने में गांवगांव तक सरकार का कंट्रोल था जिसे आज फिर लाने की कोशिश की जा रही है.

उस युग में जो महज 100-200 साल पहले की बात है, पिताजी और भाइयों को सरकार से सजा मिलती थी अगर वे नाबालिग लड़कियों का विवाह नहीं कर पाते थे. पेशवाओं के नियुक्त मामलतदार हर घर पर नजर रखते थे और हर

9 साल की आयु तक की नाबालिग लड़की का विवाह करा देना सनातनी कर्तव्य था. पेशवाओं ने अपने संगीसाथी सारस्वत ब्राह्मणों को राज्य से बाहर कर दिया था क्योंकि वे पेशवाओं के कुछ नियमों को मानने को तैयार नहीं थे.

पेशवाओं के आदेशानुसार ब्राह्मणों की विधवाओं की शादी वर्जित थी जबकि शूद्र अपनी विधवाओं को आसानी से ब्याह सकते थे. 1818 में पेशवाओं का राज फिरकी की लड़ाई के बाद समाप्त हो गया पर पेशवाओं के बनाए नियम घरघर मौजूद रहे और आज भी हैं.

1830 के आसपास महाराष्ट्र में भास्कर पांडुरंग और भाऊ महाजन ने कास्ट के फंदों में फंसी हिंदू उच्च जातियों को निकालने की कोशिश भी की थी. उन्होंने संक्रांति और गणेश पूजा का विरोध किया था कि इन पर होने वाला खर्च शिक्षा और चिकित्सा सुविधा देने पर किया जाना चाहिए.

इन सुधारों का विरोध करने वालों के गुट भी खड़े होने लगे और इन में बाल गंगाधर तिलक का नाम मुख्य इसलिए है कि उन के नाम को आज भी महान स्वतंत्रता सेनानी के रूप में लिया जाता है जबकि वे सामाजिक सुधारों के घोर विरोधी थे. उन के सहयोगी राष्ट्रवादी संगठनों ने कहना शुरू कर दिया कि जाति व औरतों की शिक्षा देशद्रोह के समान है. तिलक का दावा था कि वे ही हिंदू समाज के असली प्रतिनिधि हैं न कि ज्योतिराव फुले जैसे लोग जिन्होंने स्त्री शिक्षा के लिए काम किया.

बाल गंगाधर तिलक के सहयोगी वी एन मांडलिक जो वायसराय की ऐग्जीक्यूटिव काउंसिल के सदस्य थे, ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली का लगातार विरोध करते रहे क्योंकि वह शिक्षा सवर्ण औरतों और शूद्रों दोनों को दी जा रही थी.

बाल गंगाधर तिलक ने सब के लिए प्राइमरी शिक्षा का घोर विरोध किया. तिलक का कहना था कि इतिहास, जियोग्राफी, गणित, फिलौसफी सवर्ण लड़कियों या बढ़ई, मोची, लुहार के बच्चों का पढ़ाना मूर्खता है क्योंकि यह शिक्षा उन के किसी काम की नहीं है. तिलक का कहना था कि प्राइमरी शिक्षा टैक्सपेयर द्वारा दिए धन से दी जा रही है और टैक्सपेयर यह फैसला कर सकते हैं कि कौन क्या पढ़ेगा.

तिलक की यह भावना आज भी सुनाई दी जाती है. आरक्षण के खिलाफ आवाज उठाने वाले कहते हैं कि  शिक्षा उन 3% लोगों के हाथों में हो जो ईश्वर के द्वारा विशेष स्थान पाए हुए हैं. मैरिट का नाम जो लिया जाता है वह गलत है क्योंकि यही 3% शिक्षा पौलिसी बनाते हैं, यही ऐग्जाम पेपर सैट करते हैं, यही 3% जांचते हैं, यही इंटरव्यू बोर्ड में बैठते हैं. ये न तो औरतों को उन का सही स्थान देना चाहते न अन्य जातियों को.

1884 में जब सुधारक महादेव गोविंद रानाडे ने लड़कियों का स्कूल खोला और सरकारी सहायता मांगी तो तिलक ने इस का घोर विरोध किया और कहा कि ‘शिक्षा औरतों को अनैतिक’ बना देगी. तिलक औरतों को किसी भी हालत में इंग्लिश, साइंस और गणित की शिक्षा देने के खिलाफ थे क्योंकि इस से औरतें स्वतंत्र सोच वाली हो जाएंगी.

आज भी यह सोच जारी है. आज भी औरतों को अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. औरतों की क्रिकेट या हाकी टीम को वह स्थान नहीं मिलता जो पुरुषों की टीमों को मिलता है. सुप्रीम कोर्ट में 34 न्यायाधीशों में से केवल 3 महिला न्यायाधीश हैं. यह स्थिति हर जगह है.

भारतीय जनता पार्टी में कोई औरत मुख्य स्थान नहीं रखती. सुषमा स्वराज और उमा भारती के दिन लद गए हैं जब भाजपा की सोच में सुधार होने लगा था. आज राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु तक केवल दिखावटी हैं और उन्हें संविधान की मुख्य संस्था को नईर् पार्लियामैंट बिल्डिंग के उद्घाटन पर फटकने तक नहीं दिया गया और भगवा वस्त्रधारी पुरुष बिना कोई चुनाव लड़े आ बैठे और संसद भवन का उद्घाटन कर गए.

बाल गंगाधर तिलक का नाम बारबार लेना एक तरह से यह दोहराना है कि औरतों को शिक्षा देना शास्त्रों के खिलाफ है. खेद यह है कि बचपन से ही तिलक की जीवनी बच्चों को पढ़ा दी जाती है जिस का अर्थ है कि बचपन से ही जैंडर भेद उन के मन में बैठा दिया जाता है.

Wedding Special: शादी बोझ नहीं

विवाह अब युवकों के लिए भी गले की फांस बनता जा रहा है. अब तक समझ जाता था कि विवाह से लड़की किसी दूसरे घर की सेवा करने वाली नौकरानी बन कर रह जाती है पर अब विवाह कानूनों में औरतों के पक्ष में कानून बनने की वजह से विवाह युवकों के लिए खौफ बन रहे हैं.

अब लड़कियों को यह मालूम है कि उन की नए या थोड़े पुराने हो चुके पति से नहीं बनी तो उन के पास पति का घर छोड़ने का ही औप्शन नहीं है, उस की जिंदगी दूभर करने का भी है. डोमैस्टिक वायलैंस का केस कर के उसे जेल भिजवाना भी उस के हाथ में है और मैंटेनैंस में मोटी रकम मांग कर उसे वर्षों परेशान करने का भी है.

धनबाद की एक लड़की का विवाह 2018 में हुआ. पति से नहीं बनी तो वह फिर मांबाप के पास आ कर रहने लगी. वह कमाऊ थी, अपने पैरों पर खड़ी थी पर उस ने फैमिली कोर्ट में पति पर मैंटेनैंस का मुकदमा कर दिया और कहा कि पति की आय सवा लाख रुपए है.

पति को फैमिली कोर्ट ने हर माह क्व40 हजार देने को कहा. पति हाई कोर्ट गया. हाई कोर्ट के जज ने कहा कि पतियों के साथ अब कुछ गलत हो रहा है और शादी उन के लिए बोझ नहीं बननी चाहिए. जहां पति चाहता था कि उसे कोई मैंटेनैंस न देनी पड़े, हाई कोर्ट ने पति के प्रति सिंपैथी जताते हुए बस उसे 15 हजार रुपये की राहत दी और मैंटेनैंस 40 हजार रुपये से घटा कर 25 हजार रुपये कर दी.

पतिपत्नी का जब तलाक होने लगे या दोनों इस तरह अलग रह रहे हों कि उन्हें तलाकशुदा मान लिया जाए तो लड़कियों को पूर्व पति से नाता तोड़ लेना चाहिए. केवल उन मामलों में मैंटेनैंस मांगी जानी चाहिए जहां बच्चे हों या पत्नी बेरोजगार हो अथवा पत्नी के मांबाप गरीब हों.

जो कहते हैं कि शादी को संस्कार मानो वे भूल जाते हैं कि इस संस्कार में तो पति को कई पत्नियां लाने का हक भी था और पत्नी को घर से निकालने का हक भी. राजा राम तक ने बिना अपने मुंह से बोले गर्भवती सीता को घर से निकाल दिया था. भीम अपनी पत्नी हिडिंबा को जंगल में ही छोड़ आया था.

विवाह संस्कार है तो औरतों की बेडि़यों के रूप में. आज जो औरतें पतियों को छोड़ना नहीं चाहतीं उस के पीछे भी भावना यही रहती है कि किसी तरह पति से संबंध न टूटे और मैंटेनैंस के मुकदमे इसीलिए किए जाते हैं कि पति का बिल्ला पत्नी के माथे पर लगा रहे. समाज तलाकशुदा और विधवा को आज भी छुट्टी गाय की तरह देखता है और वह पगपग पर बुरी नजर महसूस करती है. इसीलिए खुद कमाने वाली पत्नी पति का घर छोड़ने के बाद भी अदालतों के चक्कर लगाती रहती है ताकि समाज को कह सके कि वह है तो विवाहित पर पति से बस विवाद है.

जीडीपी में वृद्धि या आर्थिकअसमानता में

भारत सरकार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ही नहीं, हमारे अर्थशास्त्री भी यह कहते नहीं अघाते कि भारत दुनिया की सब से तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है. इस में शायद संदेह न हो कि परसैंट यानी फीसदी में भारत तेजी से बढ़ रहा है पर यह आंकड़ा इस से समझ आ सकता है मान लीजिए एक कंपनी में एक मजदूर, जिसे 20 हजार रुपए महीना मिलता है, की वेतनवृद्धि 7 फीसदी होती है पर उस के मैनेजिंग डायरैक्टर, जिसे 14 लाख रुपए का मासिक वेतन मिलता है, की वेतनवृद्धि महज 2.5 फीसदी होती है, मजदूर से वही काम रुपयों में गिनेंगे तो मजदूर को हर माह में सिर्फ 1,400 रुपए मासिक ज्यादा मिलेंगे जबकि मैनेजिंग डायरैक्टर की आय 35 हजार रुपए बढ़ जाएगी. जो अंतर पहले 13 लाख 80 हजार रुपए का था वह बढ़ कर अब 14,13,600 रुपए का हो जाएगा.

भारत व चीन का उदाहरण सब से मौजूं है. कुल सकल उत्पादन को इंग्लिश में जीडीपी कहते हैं, वर्ष 2014 से 2015 के बीच चीन की जीडीपी भारत से 8,476 अरब डौलर से बढ़ कर 8,950 हो गई. वर्ष 1960 में दोनों देशों की जीडीपी का अंतर 22 अरब डौलर था. यह अंतर 1970 में बढ़ कर 30 अरब डौलर हो गया. वर्ष 1980 में यह अंतर किन्हीं कारणों से 5 अरब डौलर का रह गया पर वर्ष 1990 में यह अंतर 113 अरब डौलर का हो गया. वर्ष 2000 में यह अंतर 743 डौलर हो गया. और वर्ष 2010 में यह अंतर 4,412 अरब डौलर पहुंच गया. वहीं, वर्ष 2020 में भारत में ‘महान नेता’ के आगमन के बावजूद यह अंतर 12 हजार अरब डौलर का हो गया. और 2025, जबकि 5 ट्रिलियन डौलर की अर्थव्यवस्था का राग भारत में आलापा जा रहा है, में अनुमान है कि यह अंतर 18,282 अरब डौलर यानी 18 ट्रिलियन डौलर से ज्यादा का हो जाएगा.

यह है असल में ढोल की पोल. भारत तेजी से बढ़ रहा है पर यह गरीब की झोली में चंद रुपए ज्यादा आने से हो रहा है, जबकि, अमीरों को हजारों सिक्के एक्स्ट्रा मिल रहे हैं. क्या हम फालतू की बातें करना बंद करेंगे और फैक्ट्रियों के निर्माण की बात करेंगे, शायद नहीं.

शिक्षा में भेदभाव खत्म

इंगलैंड की लेबर पार्टी ने चुनावी वादा किया है कि वह बच्चों में भेदभाव खत्म करने के लिए और एक इलीट, पैंपर्ड, शानशौकत में पलने वाली पीढ़ी पर जुरमाना करने के लिए प्राइवेट फीस देने वाले स्कूलों को सेल्स टैक्स के दायरे में ला कर 20% का टैक्स लगाएगी. इंगलैंड में 2,600 प्राइवेट स्कूलों में 6 लाख 15 हजार स्टूडैंट्स हैं जो कुल ब्रिटेन के स्टूडैंट्स का 7त्न हैं. आमतौर पर जहां सरकारी स्कूल मुफ्त हैं वहां इन प्राइवेट स्कूलों में 16 हजार पौंड यानी क्व16 लाख की वार्षिक फीस होती है.

अमीर होते हुए भी ब्रिटेन में इन प्राइवेट स्कूलों के खिलाफ काफी माहौल है और इसीलिए लेबर पार्टी अगले चुनावों में उसे एक खास मुद्दा बना रही है क्योंकि इन स्कूलों से निकले बच्चे इंगलैंड की असली समस्याओं से अलग रहते हैं, ऐयाशी में रहते हैं, गरीबों को कीड़ेमकोड़े सम?ाते हैं और सब से खतरनाक बात यह है कि ये लोग अपने जैसों की सहायता से पूरे शासन पर कब्जा किए रखते हैं.

यह भारत में कई गुना पैमाने पर हो रहा है. जहां ब्रिटेन में यह केवल मांबाप के पैसे को जताता है, वहीं हमारे यहां लगभग हर जाति ने अपना प्राइवेट स्कूल खोल लिया है और ऊंची जातियों की सरकार इन स्कूलों को हर सुविधा दे रही है. उन्हें सस्ते में जमीनें दी जा रही हैं, उन के हिसाब से सिलेबस बन रहा है, उन के हिसाब से पढ़ाई का स्टैंडर्ड तैयार हो रहा है और सब का मकसद है कि गरीब जातियों के लोग सरकारी स्कूलों में धकेले जाएं जहां टीचर्स को तो मोटा वेतन मिलता है पर वे पढ़ाई जानबू?ा कर नहीं कराते ताकि जन्म से वर्गव्यवस्था की सोच के अनुसार पिछले जन्मों के पापों का फल इस जन्म में बच्चे भोगते रहें और ऊंची जातियों के बच्चों के लिए लेबर सप्लाई होती रहे.

गरीब लेकिन होशियार स्टूडैंट्स अच्छे नंबर ला कर जब कालेजों में जाते हैं तो वहां सरकारी स्कूल वाले बच्चों को अलगथलग कर दिया जाता है और वे हीनभावना में ही मारे जाते हैं. अब तो सैल्फ पेइंग कालेजों की भी भरमार हो गई है और संस्कारी, सनातनी विचारों वाली सरकार उन्हें बड़े जोरशोर से पूरी तरह सपोर्ट दे रही है ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी ऊंची जातियां पिछली पीढि़यों के पुण्यों का लाभ उठाती रहें और दानपुण्य, तीर्थ, मंदिरों को बनवा कर प्राइमरी स्कूल से मरने तक भेदभाव को कायम रख सकें. होशियार स्टूडैंट्स कालेजों में ही नहीं, जब नौकरियों में भी आ जाते हैं तो फ्रस्टेड रहते हैं और अपने पर लगे जाति के रंग, जिसे शिक्षा ने और गहरा कर दिया को धो नहीं पाते.

लेबर पार्टी इंगलैंड में सही कर रही है. प्राइवेट स्कूल प्रकृति के खिलाफ हैं. मांबाप की कमाई का फायदा छोटे बच्चों को घर में तो मिलता है पर पब्लिक स्पेस में भी मिले, यह गलत है. ऐजुकेशन बराबरी का पाठ पढ़ाए. यह वह खेल का मैदान हो जहां सब को बराबर का टेलैंट दिखाने का मौका मिलता है.

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