Raksha Bandhan:अंतत- भाग 1- क्या भाई के सितमों का जवाब दे पाई माधवी

बैठक में तनावभरी खामोशी छा गई थी. हम सब की नजरें पिताजी के चेहरे पर कुछ टटोल रही थीं, लेकिन उन का चेहरा सपाट और भावहीन था. तपन उन के सामने चेहरा झुकाए बैठा था. शायद वह समझ नहीं पा रहा था कि अब क्या कहे. पिताजी के दृढ़ इनकार ने उस की हर अनुनयविनय को ठुकरा दिया था.

सहसा वह भर्राए स्वर में बोला, ‘‘मैं जानता हूं, मामाजी, आप हम से बहुत नाराज हैं. इस के लिए मुझे जो चाहे सजा दे लें, किंतु मेरे साथ चलने से इनकार न करें. आप नहीं चलेंगे तो दीदी का कन्यादान कौन करेगा?’’

पिताजी दूसरी तरफ देखते हुए बोले, ‘‘देखो, यहां यह सब नाटक करने की जरूरत नहीं है. मेरा फैसला तुम ने सुन लिया है, जा कर अपनी मां से कह देना कि मेरा उन से हर रिश्ता बहुत पहले ही खत्म हो गया था. टूटे हुए रिश्ते की डोर को जोड़ने का प्रयास व्यर्थ है. रही बात कन्यादान की, यह काम कोई पड़ोसी भी कर सकता है.’’

‘‘रघुवीर, तुझे क्या हो गया है,’’ दादी ने सहसा पिताजी को डपट दिया.

मां और भैया के साथ मैं भी वहां उपस्थित थी. लेकिन पिताजी का मिजाज देख कर उन्हें टोकने या कुछ कहने का साहस हम लोगों में नहीं था. उन के गुस्से से सभी डरते थे, यहां तक कि उन्हें जन्म देने वाली दादी भी.

मगर इस समय उन के लिए चुप रहना कठिन हो गया था. आखिर तपन भी तो उन का नाती था. उसे दुत्कारा जाना वे बरदाश्त न कर सकीं और बोलीं, ‘‘तपन जब इतना कह रहा है तो तू मान क्यों नहीं जाता. आखिर तान्या तेरी भांजी है.’’

‘‘मां, तुम चुप रहो,’’ दादी के हस्तक्षेप से पिताजी बौखला उठे, ‘‘तुम्हें जाना हो तो जाओ, मैं ने तुम्हें तो कभी वहां जाने से मना नहीं किया. लेकिन मैं नहीं जाऊंगा. मेरी कोई बहन नहीं, कोई भांजी नहीं.’’

‘‘अब चुप भी कर,’’ दादी ने झिड़क कर कहा, ‘‘खून के रिश्ते इस तरह तोड़ने से टूट नहीं जाते और फिर मैं अभी जिंदा हूं, तुझे और माधवी को मैं ने अपनी कोख से जना है. तुम दोनों मेरे लिए एकसमान हो. तुझे भांजी का कन्यादान करने जाना होगा.’’

‘‘मैं नहीं जाऊंगा,’’ पिताजी बोले, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता कि सबकुछ जानने के बाद भी तुम ऐसा क्यों कह रही हो.’’

‘‘मैं तो सिर्फ इतना जानती हूं कि माधवी मेरी बेटी है और तेरी बहन और तुझे उस ने अपनी बेटी का कन्यादान करने के लिए बुलाया है,’’ दादी के स्वर में आवेश और खिन्नता थी, ‘‘तू कैसा भाई है. क्या तेरे सीने में दिल नहीं. एक जरा सी बात को बरसों से सीने से लगाए बैठा है.’’

‘‘जरा सी बात?’’ पिताजी चिढ़ गए थे, ‘‘जाने दो, मां, क्यों मेरा मुंह खुलवाना चाहती हो. तुम्हें जो करना है करो, पर मुझे मजबूर मत करो,’’ कह कर वे झटके से बाहर चले गए.

दादी एक ठंडी सांस भर कर मौन हो गईं. तपन का चेहरा यों हो गया जैसे वह अभी रो देगा. दादी उसे दिलासा देने लगीं तो वह सचमुच ही उन के कंधे पर सिर रख कर फूट पड़ा, ‘‘नानीजी, ऐसा क्यों हो रहा है. क्या मामाजी हमें कभी माफ नहीं करेंगे. अब लौट कर मां को क्या मुंह दिखाऊंगा. उन्होंने तो पहले ही शंका व्यक्त की थी, पर मैं ने कहा कि मामाजी को ले कर ही लौटूंगा.’’

‘‘धैर्य रख, बेटा, मैं तेरे मन की व्यथा समझती हूं. क्या कहूं, इस रघुवीर को. इस की अक्ल पर तो पत्थर पड़ गए हैं. अपनी ही बहन को अपना दुश्मन समझ बैठा है,’’ दादी ने तपन के सिर पर हाथ फेरा, ‘‘खैर, तू चिंता मत कर, अपनी मां से कहना वह निश्चिंत हो कर विवाह की तैयारी करे, सब ठीक हो जाएगा.’’

मैं धीरे से तपन के पास जा बैठी और बोली, ‘‘बूआ से कहना, दीदी की शादी में मैं और समीर भैया भी दादी के साथ आएंगे.’’

तपन हौले से मुसकरा दिया. उसे इस बात से खुशी हुई थी. वह उसी समय वापस जाने की तैयारी करने लगा. हम सब ने उसे एक दिन रुक जाने के लिए कहा, आखिर वह हमारे यहां पहली बार आया था. पर तपन ने यह कह इनकार कर दिया कि वहां बहुत से काम पड़े हैं. आखिर उसे ही तो मां के साथ विवाह की सारी तैयारियां पूरी करनी हैं.

तपन का कहना सही था. फिर उस से रुकने का आग्रह किसी ने नहीं किया और वह चला गया.

तपन के अचानक आगमन से घर में एक अव्यक्त तनाव सा छा गया था. उस के जाने के बाद सबकुछ फिर सहज हो गया. पर मैं तपन के विषय में ही सोचती रही. वह मुझ से 2 वर्ष छोटा था, मगर परिस्थितियों ने उसे उम्र से बहुत बड़ा बना दिया था. कितनी उम्मीदें ले कर वह यहां आया था और किस तरह नाउम्मीद हो कर गया. दादी ने उसे एक आस तो बंधा दी पर क्या वे पिताजी के इनकार को इकरार में बदल पाएंगी?

मुझे यह सवाल भीतर तक मथ रहा था. पिताजी के हठी स्वभाव से सभी भलीभांति परिचित थे. मैं खुल कर उन से कुछ कहने का साहस तो नहीं जुटा सकी, लेकिन उन के फैसले के सख्त खिलाफ थी.

दादी ने ठीक ही तो कहा था कि खून के रिश्ते तोड़ने से टूट नहीं जाते. क्या पिताजी इस बात को नहीं समझते. वे खूब समझते हैं. तब क्या यह उन के भीतर का अहंकार है या अब तक वर्षों पूर्व हुए हादसे से उबर नहीं सके हैं? शायद दोनों ही बातें थीं. पिताजी के साथ जो कुछ भी हुआ, उसे भूल पाना इतना सहज भी तो नहीं था. हां, वे हृदय की विशालता का परिचय दे कर सबकुछ बिसरा तो सकते थे, किंतु यह न हो सका.

मैं नहीं जानती कि वास्तव में हुआ क्या था और दोष किस का था. यह घटना मेरे जन्म से भी पहले की है. मैं 20 की होने को आई हूं. मैं ने तो जो कुछ जानासुना, दादी के मुंह से ही सुना. एक बार नहीं, बल्कि कईकई बार दादी ने मुझे वह कहानी सुनाई. कहानी नहीं, बल्कि यथार्थ, दादी, पिताजी, बूआ और फूफा का भोगा हुआ यथार्थ.

दादी कहतीं कि फूफा बेकुसूर थे. लेकिन पिताजी कहते, सारा दोष उन्हीं का था. उन्होंने ही फर्म से गबन किया था. मैं अब तक समझ नहीं पाई, किसे सच मानूं? हां, इतना अवश्य जानती हूं, दोष चाहे किसी का भी रहा हो, सजा दोनों ने ही पाई. इधर पिताजी ने बहन और जीजा का साथ खोया तो उधर बूआ ने भाई का साथ छोड़ा और पति को हमेशा के लिए खो दिया. निर्दोष बूआ दोनों ही तरफ से छली गईं.

मेरा मन उस अतीत की ओर लौटने लगा, जो अपने भीतर दुख के अनेक प्रसंग समेटे हुए था. दादी के कुल 3 बच्चे थे, सब से बड़े ताऊजी, फिर बूआ और उस के बाद पिताजी. तीनों पढ़ेपलेबढ़े, शादियां हुईं.

उन दिनों ताऊजी और पिताजी ने मिल कर एक फर्म खोली थी. लेकिन अर्थाभाव के कारण अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था. उसी समय फूफाजी ने अपना कुछ पैसा फर्म में लगाने की इच्छा व्यक्त की. ताऊजी और पिताजी को और क्या चाहिए था, उन्होंने फूफाजी को हाथोंहाथ लिया. इस तरह साझे में शुरू हुआ व्यवसाय कुछ ही समय में चमक उठा और फलनेफूलने लगा. काम फैल जाने से तीनों साझेदारों की व्यस्तता काफी बढ़ गई थी.

औफिस का अधिकतर काम फूफाजी संभालते थे. पिताजी और ताऊजी बाहर का काम देखते थे. कुल मिला कर सबकुछ बहुत ठीकठाक चल रहा था. मगर अचानक ऐसा हुआ कि सब गड़बड़ा गया. ऐसी किसी घटना की, किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.

Raksha Bandhan: सोनाली की शादी- भाग 3- क्या बहन के लिए प्रणय ढूंढ पाया रिश्ता

कुछ सोच कर प्रणय ताड़देव जा पहुंचा. अचानक मनपसंद संस्था का द्वार खुला और बाबूभाई बाहर निकले, ‘‘सुनिए?’’

‘‘जी, आप ने मुझ से कुछ कहा?’’ प्रणय ने पूछा.

‘‘हां, मैं आप ही से बात करना चाहता हूं. मैं कई दिनों से नोट कर रहा हूं कि आप हमारे दफ्तर के आसपास मंडराते रहते हैं और जो भी ग्राहक आता है, उसे फुसला कर ले जाते हैं. क्या आप किसी प्रतिद्वंद्वी संस्था के लिए काम करते हैं?’’

‘‘जी नहीं, और न ही मुझे आप के ग्राहकों में कोई दिलचस्पी है.’’

‘‘मेरी आंखों में धूल झोंकने की कोशिश मत करो. मैं तुम्हारे हथकंडों से वाकिफ हूं. दरबान ने बताया है कि तुम कई बार हमारे ग्राहकों को बहका कर ले गए हो.’’

‘‘मैं आप के दफ्तर के बाहर किसी से भी मिलूं, बात करूं, इस से आप को क्या? यह इमारत तो आप की नहीं है. यह सड़क तो आप की नहीं है?’’ प्रणय ने बिगड़ कर कहा.

‘‘अरे, मुझे ऐसावैसा न समझना. मेरा नाम बाबूभाई है, क्या समझे? मैं इस इलाके का दादा हूं. बहुत होशियारी दिखाने की कोशिश की तो हाथपैर तोड़ कर रख दूंगा. अब यहां से चलते बनो, दोबारा मेरे दफ्तर के आसपास नजर आए तो तुम्हें बहुत महंगा पड़ेगा.’’

प्रणय ने वहां से खिसक जाने में ही भलाई समझी.

शाम को रणवीर सिंह के घर पहुंच कर उस ने घंटी बजाई तो एक स्थूलकाय, मूंछों वाले सज्जन ने द्वार खोला.

‘‘क्या रणवीर सिंह घर पर हैं?’’ प्रणय ने हौले से पूछा.

‘‘नहीं, वे व्यापार के सिलसिले में दिल्ली गए हुए हैं. आप कौन साहब हैं?’’

‘‘मैं उन का मित्र हूं.’’

‘‘उस के सारे मित्रों को तो मैं भलीभांति जानता हूं. आप को तो पहले कभी नहीं देखा.’’

‘‘मैं उन से कुछ रोज पहले मिला था…’’

‘‘आइए, अंदर आइए, कुछ ठंडावंडा पीजिए. मैं रणवीर का चाचा हूं, दिग्विजय सिंह.’’

वे उसे अंदर ले गए और खोदखोद कर प्रश्न करने लगे. जल्द ही उन्होंने प्रणय के मुंह से सब उगलवा लिया.

‘‘शादी?’’ वे भड़क गए. ‘‘अरे, जब घर में बड़ेबूढ़े मौजूद हैं तो इन छोकरों को अपने लिए लड़की तलाशने की क्या सूझी? हम लोग मर गए हैं क्या? और आप भी क्यों इस झमेले में अपना सिर खपा रहे हैं?’’

‘‘जी, मैं… नहीं तो, मेरी तो रणवीरजी से अचानक मुलाकात हो गई मनपसंद संस्था के बाहर.’’

‘‘मनपसंद संस्था किस चिडि़या का नाम है,’’ दिग्विजय सिंह के माथे पर बल पड़ गए.

‘‘यह एक वैवाहिक संस्था है. वहां पर जोडि़यां मिलाई जाती हैं, वहां के संचालक हैं, बाबूभाई.’’

‘‘बाबूभाई, कौन बाबूभाई?’’

‘‘बाबूभाई मनपसंद संस्था के संचालक हैं. वे अब तक पचासों शादियां करा चुके हैं.’’

‘‘अरे, बाबूभाई होता कौन है हमारे बेटे की शादी कराने वाला? उस की ऐसी जुर्रत कि हमारे घरेलू मामलों में दखल दे? उसे तो मैं देख लूंगा.’’

‘‘आप जरा उस से संभल कर रहें,’’ प्रणय ने डरतेडरते कहा, ‘‘वह बहुत खतरनाक आदमी है. ताड़देव इलाके का दादा है.’’

‘‘अरे, ऐसे बीसियों दादाओं को हम ने ठिकाने लगा दिया है. वह किस खेत की मूली है. अभी तुरंत जाते हैं, उस की सारी दादागीरी झाड़ देंगे. मेरा नाम भी दिग्विजय सिंह है. देखते हैं वह कितने पानी में है. अरे, कोई है?’’ वे दहाड़े, ‘‘हमारी कार निकालो.’’

प्रणय वहां से जान बचा कर भागा. नरीमन पौइंट पर वह हताश सा बैठा समुद्र की लहरों का उतारचढ़ाव देखता रहा.

‘‘हैलो, दोस्त,’’ सहसा उस के कानों में एक आवाज आई.

प्रणय ने चौंक कर देखा, सामने सतीश खड़ा था.

‘‘अरे यार, तुम?’’ प्रणय खुशी से चिल्लाया, ‘‘इतने दिन कहां गायब रहे? मैं ने तुम्हें कहांकहां नहीं तलाश किया. शहर के सारे गैस्टहाउस छान मारे. आखिर वादा कर के मुकरने की वजह?’’

‘‘अभी बताता हूं,’’ सतीश ने बताया कि उस रात जब वह प्रणय से मिल कर घर गया तो नर्गिस उस की राह में बैठी थी. बातोंबातों में जब सतीश ने कहा कि वह शादी करना चाहता है तो नर्गिस रोने लगी. उस ने रोतेरोते बताया कि वह उसे बेहद प्यार करती है. अगर उस ने उस के प्रेम को ठुकराया तो वह अपनी जान पर खेल जाएगी.

सतीश ने आगे कहा, ‘‘मेरा मन पसीज गया. मैं ने अपने मन को टटोला तो पाया कि मैं भी नर्गिस को बेहद पसंद करता हूं. सो, सोचा, शादी के लिए नर्गिस क्या बुरी है. अब मैं ने उस से शादी कर ली है और घरजमाई बन गया हूं.’’

‘ठीक है बेटा,’ प्रणय ने मन ही मन कहा, ‘छप्पनभोग से परसी थाली ठुकरा दी, अब खाते रहना जिंदगीभर आमलेट.’

प्रणय घर पहुंचा तो टैलीफोन की घंटी घनघना रही थी. उस ने रिसीवर उठाया तो उधर से दीपाली बोली, ‘‘प्रणय, आजकल कहां रहते हो? कई दिनों से तुम्हारी सूरत नहीं दिखी. खैर, एक खुशखबरी सुनो, दीदी की शादी तय हो गई है.’’

‘‘अरे, कब हुई? किस से हुई?’’ प्रणय ने प्रश्नों की बौछार लगा दी.

‘‘दीदी जिस कालेज में पढ़ाती हैं, वहीं के एक प्राध्यापक निरंजन से.’’

‘‘यह तो कमाल हो गया. क्या उन में वे सभी बातें हैं, जो सोनाली को चाहिए थीं?’’

‘‘क्या पता. अब तुम जल्दी से घर आ जाओ. निरंजनजी हमारे घर आ रहे हैं. जानते हो, दीदी का उन से कुछ चक्कर चल रहा था. शायद इसीलिए उन्होंने इतने लड़कों को नापसंद कर दिया. खैर, मैं ने सोचा कि यही मौका है कि हम भी अपने प्यार की बात जगजाहिर कर दें. तो आ रहे हो न?’’

‘‘आ रहा हूं जानेमन, तुरंत आ रहा हूं,’’ प्रणय ने चहकते हुए जवाब दिया.

सफर अनजाना मैंसिविल सर्विसेज की परीक्षा देने पटना गई थी. परीक्षा खत्म होने के बाद मेरे मातापिता हजारीबाग चले गए और मैं अपनी बहन के साथ वापस दिल्ली आ रही थी. हमारा टिकट तूफान मेल का था.

इस ट्रेन से दिल्ली तक का सफर 24 घंटे का है. दरअसल, हम ने जिसे टिकट लेने भेजा था, उस ने गलत टिकट ले लिया. स्लीपर क्लास की 2 टिकटें हमारे पास थीं. मैं अपनी बहन के साथ एसी कोच में बैठ गई और टीटीई का इंतजार करने लगी.

उस ट्रेन में मात्र एक ही एसी कोच था. ट्रेन चलने के डेढ़ घंटे बाद टीटीई के आने पर मैं ने उन्हें अपनी समस्या बता कर एसी कोच में 2 टिकट देने को कहा.

इत्तफाक से 4 सीटें खाली थीं, जिस के कारण हमें आसानी से टिकट मिल गए. टीटीई ने स्लीपर के टिकटों का पैसा काट कर मुझे 1,140 रुपए का टिकट दिया.

मैं ने पैसे देने के लिए जब पर्स ढूंढ़ा तो मुझे वह कहीं नहीं मिला. तभी मेरी मम्मी का फोन आ गया.

मम्मी ने कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारा पर्स मेरे पास ही रह गया.’’ हम दोनों बहनों के पास कुल मिला कर 1,400 रुपए ही थे, जिस में कि एक 500 रुपए का नोट फटा हुआ था, जिसे लेने से टीटीई ने मना कर दिया.

टीटीई ने कहा, ‘‘आप को स्लीपर कोच में जाना पड़ेगा.’’

तभी एक लड़का, जो हमारी बातें सुन रहा था, ने तुरंत आ कर टीटीई को 500 रुपए का नोट दे दिया और मुझ से वह फटा नोट ले लिया. मैं ने सोचा कि वह शायद कोई जानपहचान का है, जिसे मैं नहीं पहचान रही हूं, लेकिन बाद में बात करने पर पता चला कि हम दोनों एकदूसरे से अनजान थे. मैं ने उस लड़के का शुक्रिया अदा किया तब उस ने कहा, ‘‘इंसान ही इंसान के काम आता है. जरूरत पड़ने पर आप भी किसी की मदद कर दीजिएगा.’’

वह लड़का अगले स्टेशन पर ही उतर गया. आज भी मैं उस घटना को याद कर घबरा जाती हूं कि अगर उस दिन उस अनजान शख्स ने हमारी मदद नहीं की होती तो इतना लंबा सफर तय करना बहुत मुश्किल होता. अब मैं हर सफर पर जाने से पहले अपनी हर चीज संभाल कर रखती हूं ताकि उस दिन की तरह मुझे कोई परेशानी न उठानी पड़े.

Raksha Bandhan: कन्यादान- भाग 2- भाई और भाभी का क्या था फैसला

उन्मुक्त की शादी में श्रेयसी को बहुत दिनों बाद देखा था मंजुला ने. श्रेयसी के लिए फैशनेबल कपड़े पहनना मना था. उसे केवल सलवारकुरता पहनने की इजाजत थी. दुपट्टा हर समय पहनना जरूरी था. भाभी की हर समय की डांटफटकार से श्रेयसी को अकेले में आंसू बहाते हुए देख, वह भी रो पड़ी थी.

उस के आंसू देख भाभी गरम हो कर बोली थीं, ‘अपने टेसुए किसी और को दिखाना, अपनी चालचलन ठीक रखो. लड़कियों का जोरजोर से हंसना अच्छा नहीं होता. इतनी जोर के ठहाके क्यों लगाती हो? चल कर नाश्ता लगाओ.’

यदि वह उन्मुक्त से मजाक करती, तो भाभी जोर से डांट कर कहतीं, ‘लड़कों के बीच घुसी रहती हो, चलो, ढोलक बजाओ और औरतों के साथ बैठो.’

ऐसी बातें सुन कर सब का मन खराब हो गया था. भैयाभाभी के चले जाने के बाद सब ने चैन की सांस ली थी. सब अपनीअपनी दुनिया में व्यस्त हो गए थे. प्यारी सी बहू छवि के आने के बाद घर में रौनक आ गई थी.

8 महीने बीते थे कि एक दिन मंजुला के मोबाइल पर भाभी का फोन आया, ‘जीजी, श्रेयसी रिसर्च करना चाहती है. इसलिए हम लोग आप पर विश्वास कर के उसे लखनऊ भेज रहे हैं. वह लड़कियों वाले होस्टल में रहेगी. आप लोगों के विश्वास पर ही उसे आगे पढ़ने के लिए भेज रहे हैं. मेरा तो बहुत जी घबरा रहा है. समय बहुत खराब है. आजकल लड़कियों के कदम बहकते देर नहीं लगती है.’

‘भाभी, घबराने की कोई बात नहीं है. श्रेयसी बहुत समझदार है. आप ठीक समझो तो श्रेयसी को मेरे घर पर ही रहने दो. मुझे अच्छा ही लगेगा. छवि और आयुषी के साथ उस को खूब अच्छा लगेगा.’

भाईसाहब और भाभी श्रेयसी को ले कर आए. 3 दिन रह कर होस्टल में उस की सब व्यवस्था करवाई. चुपचुप, सहमी और गंभीर श्रेयसी को देख कर मन में प्रश्नचिह्न उठा, समझ में नहीं आया कि क्या बात है. एक रात अकेले में भाभी अपने मन का गुबार निकालते हुए बोली थीं, ‘जीजी, अब तुम से क्या छिपाएं. श्रेयसी के पीछे एक बदमाश लड़का पड़ा हुआ है, इसलिए इस को वहां से दूर भेजना आवश्यक हो गया था. हम लोगों ने बहुत हाथपैर मारे, लेकिन कहीं भी रिश्ता तय नहीं हो पाया. इसलिए मजबूरी में यहां ऐडमिशन करवाना पड़ रहा है. इस की सुंदरता इस की दुश्मन बन बैठी है.’

सच ही श्रेयसी को कुदरत ने बड़े मन से गढ़ा था. दूध सा गोरा, सफेद संगमरमर सा रंग, बड़ीबड़ी आंखें, लंबे व काले घुंघराले बाल. बिना मेकअप के भी वह परी सी दिखती थी.वे आगे बोली थीं, ‘जीजी, जीजाजी तो उसी कालेज में ही प्रोफैसर हैं. वे श्रेयसी पर निगाह रखेंगे. हम इस के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं. जैसे ही कहीं बात बनी, तुरंत शादी कर देंगे.’ भाभी अपने दिल का बोझ हलका कर के भाईसाहब के साथ अपने घर चली गई थीं.

श्रेयसी होस्टल में रह रही थी. उस की रूमपार्टनर जूली थी, जिस से उस की दोस्ती हो गई थी. उस का भाई रौबर्ट उसी कालेज में लैक्चरर था. जूली के साथ ही श्रेयसी उस के भाई से मिली. रौबर्ट पहली नजर में ही श्रेयसी की सुंदरता पर मर मिटा. शायद मन ही मन श्रेयसी को भी वह अच्छा लगा था.

रौबर्ट ईसाई था परंतु सुलझा और समझदार युवक था. वह अनिरुद्ध से कालेज में कई बार मिल चुका था. अनिरुद्ध उसे पसंद भी करते थे. भाईसाहब और भाभी के लिए उस का ईसाई होना सब से बड़ा दुर्गुण था. श्रेयसी छोटे शहर और भाभी के अनावश्यक प्रतिबंधों से आजाद होने के बाद होस्टल के रंगबिरंगे माहौल में जल्द ही रम गई. उस के तो पर ही निकल पड़े. पहले तो हर शनिवार की शाम को आती रही, फिर धीरेधीरे उस ने आना बंद कर दिया.

आयुषी और छवि जब भी उस से मिलने गए, वह उन्हें मिली नहीं. फोन पर कभीकभी बात हो जाती तो अब उस के सुर बदल चुके थे. अब वह हौलीवुड फिल्में, पिकनिक, पीजा, बर्गर और पार्टी की बातें करने लगी थी.

उस को घर आए बहुत दिन हो गए थे, इसलिए एक दिन मंजुला ने खुद फोन कर के उस से आने को कहा. वह आई, जींसटौप में बहुत स्मार्ट लग रही थी. अनिरुद्ध उसे देख कर बड़े खुश हुए, ‘श्रेयसी, तुम होस्टल में रह कर बिलकुल बदल गई हो.’

‘फूफाजी, मेरी रूममेट जूली कहती है, ‘जैसा देश वैसा भेस’ समय के साथ कदम मिला कर चलो, तभी आगे बढ़ पाओगी. मैं सलवारसूट पहनती थी तो पूरे डिपार्टमैंट में मेरा नाम बहनजी पड़ गया था. सैमिनार में जाती, तो क्लास के लड़केलड़कियां खीखी कर हंसते थे, और मुझे हूट करते थे. मैं ने अपने पुराने चोले को उतार फेंका. इस में जूली ने मेरी बहुत मदद की.’

फिर वह होस्टल चली गई. एक शाम कालेज से आने के बाद अनिरुद्ध बोले, ‘मंजुला, तुम श्रेयसी को बुला कर एक दिन बात करो. आज स्टाफरूम में रौबर्ट के साथ श्रेयसी का नाम जोड़ कर लोग खुसुरफुसुर कर रहे थे. ये दोनों यहांवहां अकसर साथ में दिखाई भी पड़ जाते हैं.’

मंजुला परेशान हो उठी थी. उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘भाईसाहब और भाभी तो ये सब बातें सुन कर आपे से बाहर हो जाएंगे. उन्होंने तो हमीं लोगों की जिम्मेदारी पर उसे यहां छोड़ा था.’

‘हां, मैं भी यह सब देखसुन कर परेशान हूं. श्रेयसी के तो रंगढंग ही बदल गए हैं.’

वह मन ही मन सोचती रह गई कि एक शाम श्रेयसी अपनी दोस्त जूली के साथ उस की स्कूटी पर आ गई. सब की प्रश्नवाचक निगाहों का जवाब दे कर बोली, ‘बूआ, यह जूली है. इसे हिंदी नहीं आती, इसलिए यह मुझ से हिंदी सीख रही है. और यह मुझे फ्रैंच सिखा रही है. हम लोग लाइब्रेरी में पढ़तेपढ़ते बोर हो गए थे, तो जूली बोली कि चलो, अपनी फैमिली से मिलवाओ. बस, मैं इसे ले कर यहां आ गई.’

‘अच्छा किया, जो तुम आ गईं. मुझे तुम से कुछ बात भी करनी है. तुम्हारी यह दोस्त हम लोगों का खाना पसंद करे तो खाना खा कर जाना.’

जूली खाने की बात सुन कर खिल उठी, ‘मुझे इंडियन खाना बहुत पसंद है. मेरी मां भी इंडियन खाना कभीकभी बनाती हैं. मेरे पापा तो इंडिया में रहते हुए पूरे शाकाहारी बन गए हैं.’

‘श्रेयसी, इधर मेरे साथ अंदर आना. तुम से कुछ बात करनी है,’ मंजुला ने कहा.

‘बूआ, क्या बात है? बड़ी गंभीर दिख रही हैं आप, कोई खास बात?’

‘साफसाफ शब्दों में कहूं तो तेरा और रौबर्ट का कोई चक्कर चल रहा है क्या?’

उस के चेहरे का उड़ा हुआ रंग देख समझ में आ गया था कि बात सच है. वह अपने को संभाल कर बोली, ‘बूआ, ऐसा कुछ नहीं है जैसा आप सोच रही हैं. उस से एकाध बार हायहैलो जूली की वजह से हुई है, बस.’ इतना कह

कर वह तेजी से जूली के पास जा कर बैठ गई.

खाने की मेज पर श्रेयसी का तमतमाया चेहरा देख पहले तो सब शांत रहे, फिर थोड़ी ही देर में शुरू हो गया बातों का सिलसिला. फिल्म, फैशन, एसएमएस, फेसबुक, यूट्यूब की गौसिप पर कहकहे. जूली हिंदी अच्छी तरह नहीं समझ पा रही थी, इसलिए वह खाने का स्वाद लेने में लगी हुई थी. मिर्च के कारण उस की आंख, नाक और कान सब लाल हो रहे थे. चेहरा सुर्ख हो रहा था. खाना खाने के बाद आंखों के आंसू पोंछते हुए वह बोली, ‘वैरी टैस्टी, यमी फूड.’ उस की बात सुनते ही सब जोर से हंस पड़े थे. श्रेयसी किचन से रसगुल्ला लाई और उस के मुंह में डाल कर बोली, ‘पहले इस को खाओ, फिर बोलना.’

श्रेयसी जूली की स्कूटी पर बैठी और बाय कहती हुई चली गई. अनिरुद्ध बोले, ‘जूली अच्छी लड़की है.’

Raksha Bandhan:सोनाली की शादी- भाग 2- क्या बहन के लिए प्रणय ढूंढ पाया रिश्ता

प्रणय ने होटल में बैठ कर सोनाली की तारीफ के पुल बांधे तो उस युवक ने पूछा, ‘‘क्या सचमुच ऐसी कन्या उपलब्ध है?’’

‘‘अजी, हाथ कंगन को आरसी क्या.  मैं कल ही आप को उस से मिला देता हूं, लेकिन कुछ अपने बारे में भी बताइए.’’

‘‘मेरा नाम सतीश है. मैं नागपुर से नौकरी की तलाश में यहां आया था. आप जानते ही हैं कि मुंबई महानगरी में नौकरी मिल जाती है, छोकरी भी मिल जाती है, पर रहने को मकान नहीं मिलता. लाचारी से पिछले 5 वर्षों से एक पारसी महिला के घर पर बतौर पेइंगगैस्ट रह रहा हूं. वह है तो भली, पर जरा खब्ती है. पैसेपैसे का हिसाब रखती है, रात को 10 बजे रसोई में ताला लगा देती है. देर से लौटो तो थाली से ढका ठंडा खाना मिलता है, जिसे खाने की तबीयत नहीं होती. वह तो भला हो मकान मालकिन की बेटी नर्गिस का, जो मेरे लिए चोरी से आमलेट

बना देती है. चाय के तो अनगिनत

प्याले पिलाती है, बड़ी भली है, बेचारी 30 साल पार कर चुकी है, पर उसे भी मनपसंद वर नहीं मिला.

‘‘मैं अपने एकाकीपन से आजिज आ गया हूं. सोचा, एक लड़की ढूंढ़ कर शादी कर ही डालूं. अच्छा, अब मुझे चलना चाहिए.’’

‘‘तो कल मिल रहे हो न? इसी जगह, इसी समय?’’

‘‘पक्का.’’

दूसरे दिन प्रणय बेसब्री से सतीश की राह देखता रहा, पर वह न आया. प्रणय ने अपनेआप को कोसा कि उस ने सतीश का पता, ठिकाना तक मालूम नहीं किया.

वह फिर मनपसंद कार्यालय जा पहुंचा और बाहर टहलता रहा. उसे निराश नहीं होना पड़ा. अचानक उस ने देखा कि एक सुंदर नौजवान लिफ्ट से निकल कर मनपसंद की ओर बढ़ रहा है.

प्रणय ने उसे बीच ही में घेर लिया, वे बातें करतेकरते वर्ली की तरफ निकल गए, समुद्र के किनारे घूमतेघूमते उन्होंने ढेरों बातें कर डालीं. प्रणय ने शीघ्र ही जान लिया कि युवक का नाम शांतनु है. वह अपने मातापिता के साथ मालाबार हिल पर रहता है, उस के पिता व्यापारी हैं यानी खातेपीते लोग हैं. घर में शांतनु के अलावा 2 छोटे भाईबहन हैं.

प्रणय को शांतनु बेहद जंचा. कोई भी लड़की उसे पतिरूप में पा कर धन्य हो जाएगी.

प्रणय खुशीखुशी घर पहुंचा. रात को देर तक अपने और दीपाली के बारे में सोचता रहा.

दूसरे दिन शांतनु आग्रह कर के उसे अपने घर ले गया. उस ने प्रणय को बढि़या खाना खिलाया और अपने परिवार के दूसरे सदस्यों से मिलाया. फिर वह उसे उस के घर छोड़ने गया.

रास्ते में वे हाजीअली पर रुके. एक पान की दुकान से पान ले कर खाया. बात लड़कियों की चल पड़ी तो प्रणय ने पूछ लिया, ‘‘तुम्हें कैसी लड़की पसंद है?’’

शांतनु ने उसे विस्तार से बताया.

‘‘मेरी नजर में एक बहुत सुंदर लड़की है,’’ प्रणय ने कहा, ‘‘ऐसी लड़की चिराग ले कर ढूंढ़ोगे, तो भी नहीं मिलेगी. लाखों में एक है.’’

‘‘सच?’’ शांतनु की आंखें चमकने लगीं.

‘‘एकदम सच, जब कहो दिखा दूं? तुम उसे कब देखना चाहोगे?’’

‘‘देखने की जरूरत ही क्या है. तुम जब इतनी तारीफ कर रहे हो तो जरूर अच्छी होगी.’’

‘‘फिर भी. शादीब्याह के मामले में अच्छी तरह देखभाल कर लेनी चाहिए.’’

‘‘भई, मैं तुम से साफसाफ बता दूं, मैं ने तय कर लिया है कि जो व्यक्ति मेरी बहन से शादी करेगा, मैं उस की बहन या उस के परिवार की लड़की से ब्याह कर लूंगा.’’

‘‘अरे,’’ प्रणय अचकचाया, ‘‘यह क्या कह रहे हो, यार?’’

‘‘ठीक कह रहा हूं, मेरी बहन की शादी नहीं हो रही है. जहां बात चलती है, टूट जाती है. मेरे मांबाप उस की शादी को ले कर बहुत परेशान हैं. इसीलिए मैं ने फैसला किया है कि जो मेरी बहन का हाथ थामेगा, मैं उस की बहन से शादी कर लूंगा. इस हाथ दे, उस हाथ ले. बोलो, क्या कहते हो?’’

‘‘अब मैं क्या बोलूं?’’

‘‘क्यों, क्या तुम्हें मेरी बहन पसंद नहीं आई?’’

‘‘यार, पसंदनापसंद का सवाल नहीं है. मैं किसी और लड़की को चाहता हूं. हमारी मंगनी हो चुकी है.’’

‘‘ओह, तुम यह मंगनी तोड़ नहीं सकते?’’

‘‘असंभव,’’ प्रणय ने दृढ़ता से कहा.

‘‘ओह,’’ शांतनु मायूस हो गया.

‘‘मेरे भाई,’’ प्रणय ने उसे समझाना चाहा, ‘‘क्यों तुम अपनी बहन की खातिर अपना जीवन बरबाद करना चाहते हो. तुम्हारी बहन को अच्छा लड़का मिल ही जाएगा. मैं खुद भी उस के लिए वर खोजूंगा, बल्कि एक लड़का तो मेरी नजर में है भी.’’

प्रणय घर लौट कर सोचने लगा कि कुछ भी हो, सोनाली की शादी तो वह करा कर ही रहेगा. इस काम का बीड़ा उठाया है तो पूरा कर के रहेगा.

अगले रोज जब प्रणय मनपसंद कार्यालय के करीब पहुंचा तो दरबान ने उसे घूर कर देखा.

करीब एक घंटे बाद उस ने देखा कि एक लंबाचौड़ा कद्दावर इंसान मनपसंद की ओर बढ़ रहा है. प्रणय सोचने लगा, ‘वाह, यदि यह शिकार फंस जाए तो क्या कहने, सोनाली के मांबाप मेरे चरणों में बिछ जाएंगे. खुद सोनाली भी उम्रभर मेरा आभार मानेगी.’

‘‘भाईसाहब,’’ वह फुसफुसाया.

युवक ठिठक गया, ‘‘कहिए?’’

प्रणय ने सोनालीपुराण शुरू किया तो युवक भड़क उठा, ‘‘क्या कह रहे हैं आप? मैं यहां लड़कियों की खोज में नहीं आया. मैं शादी कर के बाकायदा घर बसाना चाहता हूं.’’

प्रणय ने दांतों तले जीभ काटी, ‘‘आप मुझे गलत समझ रहे हैं. मैं भी शादी की ही बात कर रहा हूं.’’

उस ने अपनी बात का खुलासा किया तो युवक चुपचाप सुनता रहा. वे दोनों उस इमारत से बाहर निकले और चौपाटी की ओर चलते गए.

मेरीन ड्राइव पर पहुंच कर उस युवक ने कहा, ‘‘मैं यहीं रहता हूं,’’ उस ने एक भव्य इमारत की तरफ इशारा किया, ‘‘मैं आप को अपने घर ले चलता, पर क्या करूं, मजबूर हूं.’’

प्रणय ने उस की ओर सवालिया नजरों से देखा तो युवक ने अपनी गाथा सुनाई, ‘‘मेरा नाम रणवीर सिंह है. हम लोग ठाकुर हैं. बिहार में हमारी बहुत जमीनजायदाद है. लेकिन कईर् सालों से हम मुंबई में ही रह रहे हैं, क्योंकि यहां भी हमारा व्यापार फैला हुआ है. मेरे मांबाप बहुत पहले गुजर गए. मैं अपने चाचाचाची के साथ रहता हूं. जायदाद हाथ से निकल जाने के डर से वे मेरी शादी नहीं करना चाहते. जब भी कोई रिश्ता आता है, वे लड़की वालों को मेरे खिलाफ उलटासीधा बता कर भड़का देते हैं. इधर मेरी शादी की उम्र बीतती जा रही है. लाचार हो कर मैं ने सोचा, किसी वैवाहिक संस्था में अरजी दे दूं.’’

‘‘बस, आप अब सबकुछ मुझ पर छोड़ दीजिए,’’ प्रणय ने आश्वासन दिया.

‘‘तो आप लड़की वालों से मेरी बात चलाइए, यदि वे राजी हों, तो हम इसी जगह, इसी समय, ठीक 8 दिनों बाद मिलते हैं.’’

‘‘ठीक है,’’ प्रणय ने मुसकराते हुए कहा.

लेकिन यहां भी निराशा ही हाथ लगी, प्रणय घंटों रणवीर की प्रतीक्षा करता रहा, लेकिन वह न आया.

Raksha Bandhan: कन्यादान- भाग 1- भाई और भाभी का क्या था फैसला

अनिरुद्ध घर के अंदर घुसते हुए मंजुला से बोले, ‘‘मैडम, आप के भाईसाहब ने श्रेयसी के कन्यादान की तैयारी कर ली है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘उन्होंने उस की शादी का कार्ड भेजा है.’’

‘‘क्या कह रहे हैं, आप?’’ चौंकती हुई मंजुला बोली, ‘‘क्या श्रेयसी की शादी तय हो गई है?’’

‘‘जी मैडम, निमंत्रणकार्ड तो यही कह रहा है.’’

मंजुला ने तेजी से कार्ड खोल कर पढ़ा और उसे खिड़की पर एक किनारे रख दिया. फिर बुदबुदाई, ‘भाईसाहब कभी नहीं बदलेंगे.’ उस के चेहरे पर उदासी और खिन्नता का भाव था.

‘‘क्या हुआ? तुम श्रेयसी की प्रस्तावित शादी की खबर सुन कर खुश नहीं हुई?’’

‘‘आप तो बस.’’

तभी बहू छवि चाय ले कर ड्राइंगरूम में आई, ‘‘पापाजी, किस की शादी का कार्ड है?’’

‘‘अरे बेटा, खुशखबरी है. अपनी श्रेयसी की शादी का कार्ड है.’’

छवि खुश हो कर बोली, ‘‘वाउ, मजा आ गया.’’

छवि के जाने के बाद मंजुला बोली, ‘‘क्या भाईसाहब एक बार भी फोन नहीं कर सकते थे?’’

‘‘तो क्या हुआ? लो, मैं अपनी ओर से भाई साहब को फोन कर के बधाई दे देता हूं.’’

मन ही मन अपमानित महसूस करती हुई मंजुला वहां से उठ कर दूसरे कमरे में चली गई.

‘‘साले साहब, बहुतबहुत बधाई. आप का भेजा हुआ कार्ड मिल गया. श्रेयसी की तरह उस की शादी का कार्ड भी बहुत सुंदर है. मेरे लायक कोई सेवा हो तो निसंकोच कहिएगा. लड़के के बारे में आप ने अच्छी तरह से जानकारी तो कर ही ली होगी?’’

‘‘हां, हां, क्यों नहीं. महाराजजी ने सब पक्का कर दिया है.’’

‘‘एक बात बताइए, आप ने श्रेयसी से पूछा कि नहीं?’’

‘‘उस से क्या पूछना? ऐसा राजकुमार सा छोरा सब को नहीं मिलता. अपनी श्रेयसी तो सीधे अमेरिका जाएगी. इसी वजह से जल्दबाजी में 15 दिनों के अंदर शादी करनी पड़ रही है.’’

‘‘अच्छा, श्रेयसी कहां है, फोन दीजिए उसे, बधाई तो दे दें.’’

‘‘देखिए अनिरुद्धजी, बधाईवधाई रहने दीजिए. पहले मेरी बात सुनिए, हमारे हिंदू धर्म में कन्यादान को महादान कहा गया है, लेकिन भई, आप की और मेरी सोच में बहुत अंतर है. आप तो पहले आयुषी से नौकरी करवाएंगे, फिर उस के लिए लड़का खोजेंगे या फिर उस की पसंद के लड़के से उस की शादी कर देंगे. परंतु मैं तो जल्द से जल्द बेटी का कन्यादान कर के बोझ को सिर से उतारना चाहता हूं. मेरी तो रातों की नींद उड़ी हुई थी. अब तो उस की डोली विदा करने के बाद ही चैन कीनींद सोऊंगा. अच्छा, ठीक है, अब मैं फोन रखता हूं.’’

‘‘छवि, तुम्हारी आदरणीया मम्मीजी कहां गईं? अपने भाईसाहब या भाभी से उन्होंने बात भी नहीं की, क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है?’’ मंजुला को आता देख अनिरुद्ध बोले, ‘‘आइए श्रीमतीजी, चाय आप के इंतजार में उदास हो कर ठंडी हुई जा रही है.’’

मंजल का मुंह उतरा हुआ था पर शादी की खबर से उत्साहित छवि बोली, ‘‘मुझे तो बहुत सारी खरीदारी करनी है, आखिर मेरी प्यारी ननद की शादी जो है.’’

‘‘हांहां, कर लेना, जो चाहे वह खरीद लेना,’’ अनिरुद्ध बोले.

बेटा उन्मुक्त मौका देखते ही बोला, ‘‘पापा, आप का इस बार कोई भी बहाना नहीं चलेगा, आप को नया सूट बनवाना ही पड़ेगा.’’

‘‘न, यार, मुझे कौन देखेगा?’’ मंजुला की ओर निगाहें कर के अनिरुद्ध बोले, ‘‘भीड़ में सब की निगाहें लड़की की सुंदर सी बूआ और भाभी पर होंगी. और हां, आयुषी कहां है? वह तो शादी की खबर सुनते ही कितना हंगामा करेगी.’’

मंजुला चिंतामग्न हो कर बोली, ‘‘वह कालेज गई है, उस का आज कोई लैक्चर था.’’

मंजुला सोचने लगी कि बड़े भाईसाहब क्या कभी नहीं बदलेंगे. वे हमेशा अपनी तानाशाही ही चलाते रहेंगे. वे रूढि़वादिता और जातिवाद के चंगुल से अपने को कभी भी बाहर नहीं निकाल पाएंगे.

फिर वह मन ही मन शादी होने वाले खर्च का हिसाबकिताब लगाने लगी. तभी आयुषी कालेज से लौट कर आ गई. जैसे ही उस ने श्रेयसी की शादी का कार्ड देखा, उस का चेहरा एकदम बदरंग हो उठा. उस के मुंह से एकबारगी निकल पड़ा, ‘‘श्रेयसी की शादी’’ फिर वह एकदम से चुप रह गई.

मंजुला ने पूछा कि क्या कह रही हो? तो वह बात बदलते हुए बोली, ‘‘पापा, इस बार आप की कोई कंजूसी नहीं चलेगी. मेरा और भाभी का लहंगा बनेगा और सुन लीजिए, डियर मौम के लिए भी इस बार महंगी वाली खूबसूरत कांजीवरम साड़ी खरीदेंगे. हर बार जाने क्या ऊटपटांग पुरानी सी साड़ी पहन कर खड़ी हो जाती हैं.’’

‘‘आयुषी, तुम बहुत बकबक करती हो. पैसे पेड़ पर लगते हैं न, कि हिला दिया और बरस पड़े.’’ मंजुला अपनी खीझ निकालती हुई बोली, ‘‘श्रेयसी को कुछ उपहार देने के लिए भी तो सोचना है.’’

‘‘श्रीमतीजी आप इतनी चिंतित क्यों हैं?’’

‘‘मेरी सुनता कौन है? आप को तो अपनी आयुषी की कोई फिक्र ही नहीं है.’’

‘‘जब वह शादी के लिए तैयार होगी, तभी तो उस के लिए लड़का देखेंगे.’’

‘‘इस साल 24 की हो जाएगी. मेरी तो रातों की नींद उड़ जाती है.’’

‘‘तुम अपने भाईसाहब की असली शागिर्द हो. उन की भी नींद उड़ी रहती है.’’ यह कह कर अनिरुद्ध अपने लैपटौप में कुछ करने में व्यस्त हो गए.

मंजुला इस बीच श्रेयसी के बचपन में खो गई. उस ने श्रेयसी को पालपोस कर बड़ा किया है. भाभी के जुड़वां बच्चे हुए थे. वे 2 बच्चों को एकसाथ कैसे पालतीं, इसीलिए वह श्रेयसी को अपने साथ ले आई थी. उस ने रातदिन एक कर के उसे पालपोसकर बड़ा किया. जब वह 6 साल की हो गई तो भाभी बोलीं, ‘यह मेरी बेटी है, इसलिए यह मेरी जिम्मेदारी है.’ और वे उसे अपने साथ ले गई थीं.

श्रेयसी के जाने के बाद वह फूटफूट कर रो पड़ी थी. उस के मन में श्रेयसी के प्रति अतिरिक्त ममत्व था. श्रेयसी बहुत दिनों तक मंजुला को ही अपनी मां समझती रही थी. मंजुला छुट्टियों में श्रेयसी को बुला लेती थी.

श्रेयसी आती तो उन्मुक्त और आयुषी उस के हाथ से खिलौना झपट कर छीन लेते. उसे कोई चीज छूने नहीं देते. इस बात पर मंजुला जब उन्मुक्त को डांट रही थी तो वह धीरे से बोली थी, ‘मम्मी, मुझे तो आदत है. वहां प्रखर मेरे हाथ से सब खिलौने छीन लेता है. चाहे खाने की हों या खेलने की, सब चीजें झपट लेता है. अम्मा भी कहती हैं कि वह भाई है, उसे दे दो.’

यह सब कहते हुए श्रेयसी की आंखें नम हो उठी थीं. तभी वह मंजुला से लिपट कर बोली थी, ‘मम्मी, मेरा घर कहां है? आप अच्छी मम्मी हैं. वे गंदी अम्मा हैं, मुझे मारती हैं.’

‘‘मैडम, क्या बात है बड़ी अपसैट दिख रही हो?’’ अनिरुद्ध की आवाज से वह वर्तमान में लौट आई थी. ‘‘सुनिए जी, श्रेयसी अपनी ससुराल में खुश तो रहेगी न? मेरे मन में अपराधबोध है कि मैं ने उसे अपने से दूर कर के भाभी के पास क्यों भेजा?’’

‘‘तुम तो फुजूल की बात करती हो. वह उन की बेटी है, जैसा वे चाहें वैसा करें.’’

जैसेजैसे श्रेयसी बड़ी होती गई, गुमसुम और चुप होती गई. श्रेयसी की आंखों का सूनापन देख मंजुला अपराधबोध से भर जाती. वह सोचती कि यदि वह उसे अपने पास रख सकती तो शायद श्रेयसी खुश रहती. भाभी के कड़क और दकियानूसी स्वभाव के कारण श्रेयसी सब से दूर, अकेली खड़ी दिखाई पड़ती. हंसनेचहचहाने की उम्र में भी उस के चेहरे पर गंभीरता का आवरण होता था.

उन्मुक्त और आयुषी धीरेधीरे बड़े होते गए और भाईसाहब व भाभी ने अपने बच्चों को मंजुला के यहां भेजने पर प्रतिबंध लगा दिया था.

 

एक नारी ब्रह्मचारी: पति वरुण की हरकतों पर क्या था स्नेहा का फैसला

115089

Raksha Bandhan:सोनाली की शादी- भाग 1- क्या बहन के लिए प्रणय ढूंढ पाया रिश्ता

दीपाली सुंदर थी, युवा थी. प्रणय भी सजीला था, नौजवान था. दोनों पहलेपहल कालेज की कैंटीन में मिले, आंखें चार हुईं और फिर चोरीछिपे मुलाकातें होने लगीं. दोनों ने उम्रभर साथ निभाने के वादे किए.

प्रणय की पढ़ाई समाप्त हो चुकी थी. वह उच्चशिक्षा के लिए शीघ्र ही अमेरिका जाने वाला था. दीपाली से 2-3 साल दूर रहने की कल्पना से वह बेचैन हो गया. सो, उस ने प्रस्ताव रखा, ‘‘चलो, हम अभी शादी कर लेते हैं.’’

दोनों कालेज की कैंटीन में बैठे हुए थे.

‘‘शादी? उंह, अभी नहीं,’’ दीपाली बोली.

‘‘क्यों नहीं? हमारी शादी में क्या रुकावट है? तुम भी बालिग हो, मैं भी.’’

‘‘तुम समझते नहीं. मेरी बड़ी बहन सोनाली अभी तक कुंआरी बैठी हैं और वे मुझ से 5 साल बड़ी हैं. मेरे मातापिता कहते हैं कि जब तक उस की शादी न हो जाए, मेरी शादी का सवाल ही नहीं उठता.’’

प्रणय सोच में पड़ गया. कुछ क्षण रुक कर बोला, ‘‘अभी तक सोनाली की शादी क्यों नहीं हुई? क्या वे बदसूरत हैं या कोई नुक्स है उन में?’’

दीपाली खिलखिलाई, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है, दीदी बहुत सुंदर हैं.’’

‘‘तुम से भी ज्यादा?’’ प्रणय ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘अरे, मैं तो उन के सामने कुछ भी नहीं हूं. दीदी बहुत रूपवती हैं, पढ़ीलिखी हैं, स्मार्ट हैं, कालेज में पढ़ाती हैं. उन के जोड़ का लड़का मिलना मुश्किल हो रहा है. दीदी लड़कों में बहुत मीनमेख निकालती हैं. अब तक बीसियों को मना कर चुकी हैं. मेरी मां तो कभीकभी चिढ़ कर कहती हैं कि पता नहीं, कौन से देश का राजकुमार इसे ब्याहने आएगा.’’

‘‘तब हमारा क्या होगा, प्रिये?’’ प्रणय ने हताश हो कर कहा, ‘‘3 महीने बाद मैं अमेरिका चला जाऊंगा. फिर पता नहीं कब लौटना हो. क्या तुम मेरी जुदाई सह पाओगी? मैं तो तुम्हारे बगैर वहां रहने की सोच भी नहीं सकता.’’

समस्या गंभीर थी, सो, दोनों कुछ क्षण गुमसुम बैठे रहे.

‘‘अच्छा, यह तो बताओ कि तुम्हारी दीदी कैसा वर चाहती हैं? जरा उन की पसंद का तो पता चले.’’

‘‘ऊंचा, रोबीला, मेधावी, सुसंस्कृत, शिक्षित, सुदर्शन.’’

‘‘अरे बाप रे, इतनी सारी खूबियां एक आदमी में तो मिलने से रहीं. लगता है, तुम्हारी दीदी को द्रौपदी की तरह 5-5 शादियां करनी पड़ेंगी.’’

‘‘देखो जी,’’ दीपाली ने तनिक गुस्से से कहा, ‘‘मेरी बहन का मजाक मत उड़ाओ, नहीं तो…’’

‘‘खैर, छोड़ो. पर यह तो बताओ कि हमारी समस्या कैसे हल होगी?’’

‘‘वह तुम जानो,’’ दीपाली उठ खड़ी हुई, ‘‘मेरी क्लास है, मैं चलती हूं. वैसे मैं ने मां के कानों में अपनी, तुम्हारी बात डाल दी है. उन्हें तो शायद मना भी लूंगी, पर पिताजी टेढ़ी खीर हैं. वे इस बात पर कभी राजी नहीं होंगे कि सोनाली के पहले मेरी शादी हो जाए.’’

उस के जाने के बाद प्रणय बुझा हुआ सा बैठा रहा. तभी उस के कुछ दोस्त  कैंटीन में आए.

‘‘अरे, देखो, अपना यार तो यहां बैठा है,’’ रसिक लाल ने कहा, ‘‘क्यों मियां मजनूं, आज अकेले कैसे, लैला कहां है? और सूरत पर फटकार क्यों बरस रही है?’’

प्रणय ने उन्हें अपनी समस्या बताई, ‘‘यार, दीपाली की बहन सोनाली को एक वर की तलाश है…और वर भी ऐसावैसा नहीं, किसी राजकुमार से कम नहीं होना चाहिए.’’

‘‘राजकुमार?’’ श्यामल चमक कर बोला, ‘‘गुरु, यदि राजकुमार की दरकार है तो अपन अर्जी दिए देते हैं.’’

‘‘हा…हा…हा…’’ दामोदरन ने हंसते हुए कहा, ‘‘कभी आईने में अपनी शक्ल देखी है? ये रूखे बाल, ये सूखे गाल, फटेहाल…राजकुमार ऐसे हुआ करते हैं?’’

‘‘अरे, शक्ल का क्या है, अभी उस साबुन से नहा लूंगा. वही जिस का आएदिन टीवी पर विज्ञापन आता रहता है. तब तो एकदम तरोताजा लगने लगूंगा. शेष रहे कपड़े, तो एक भड़कीली पोशाक किराए पर ले लूंगा. अगर चाहो तो ताज और तलवार भी.’’

‘‘यार, बोर मत कर,’’ प्रणय ने कहा, ‘‘यहां मेरी जान पर बनी है और तुम लोगों को मजाक सूझ रहा है.’’

‘‘यार,’’ रसिक लाल ने कहा, ‘‘हमारे ताड़देव के इलाके में एक ‘मैरिज ब्यूरो’ खुला है, नाम है, ‘मनपसंद विवाह संस्था.’ ब्यूरो वालों ने अब तक सैकड़ों शादियां कराई हैं. वहां अर्जी दे दो, अपनी जरूरत बता दो, लड़का वे मुहैया करा देंगे.’’

‘‘यह हुई न बात,’’ प्रणय खुशी से उछल पड़ा, ‘‘झटपट वहां का पता बता. लेकिन क्या पता, सोनाली के मांबाप वहां पहले ही पहुंच कर नाउम्मीद हो चुके हों?’’

‘‘यह कोईर् जरूरी नहीं. कई लोग अखबार में शादी का विज्ञापन देने और ऐसी संस्थाओं में लड़का तलाशने से कतराते हैं.’’

ताड़देव में एक इमारत की तीसरी मंजिल पर मनपसंद विवाह संस्था का कार्यालय था. प्रणय ने जब अंदर प्रवेश किया तो एक छरहरे बदन के धोतीधारी सज्जन ने चश्मे से उसे घूरा, ‘‘कहिए?’’

‘‘मैं…मैं,’’ प्रणय हकलाने लगा.

‘‘हांहां, कहिए? क्या शादी के लिए वधू चाहिए?’’

‘‘जी नहीं, लड़का.’’

‘‘जी?’’

‘‘मेरा मतलब है, शादी मुझे नहीं करनी. अपनी पत्नी की भावी बहन… नहींनहीं, अपनी भावी पत्नी की बहन के लिए वर की जरूरत है.’’

‘‘ठीक है. यह फौर्म भर दीजिए. अपनी जरूरतें दर्ज कीजिए और लड़की का विवरण भी दीजिए. फोटो लाए हैं? अगर नहीं, तो बाद में दे जाइएगा. हां, फीस के एक हजार रुपए जमा कर दीजिए.’’

‘‘एक हजार?’’

‘‘यह लो, एक हजार तो कुछ भी नहीं हैं. लड़का मिलने पर आप शादी में लाखों खर्च कर डालेंगे कि नहीं? और फिर हम यहां खैरातखाना खोल कर तो नहीं बैठे हैं. हम भी चार पैसे कमाने की गरज से दफ्तर खोले बैठे हैं. यहां का भाड़ा, कर्मचारियों और दरबान का वेतन वगैरह कहां से निकलेगा, बताइए?’’

‘‘ठीक है. मैं कल फोटो और रुपए लेता आऊंगा.’’

‘‘अच्छी बात है. फौर्म भी कल ही भर देना, यह हमारा कार्ड रख लीजिए, मेरा नाम बाबूभाई है.’’

प्रणय जाने लगा तो बाबूभाई ने उसे हिकारत से देख कर मुंह फेर लिया. ‘हुंह,’ वह बुदबुदाया, ‘चले आते हैं खालीपीली टाइम खोटा करने के लिए.’

प्रणय दफ्तर से बाहर निकल कर सोचने लगा, ‘अगर एक हजार रुपए भरने पर भी काम न बना तो यह रकम पानी में गई, समझो. उंह, हटाओ, मुझे सोनाली की शादी से क्या लेनादेना है, भले शादी करे या जन्मभर कुंआरी रहे, मेरी बला से.’

अचानक लिफ्ट का द्वार खुला और उस में से एक नौजवान निकल कर सधे कदमों से चलता ‘मनपसंद’ के दफ्तर में दाखिल हुआ. प्रणय उसे घूरता रहा, अरे, यह कौन था, कोई हीरो या किसी रियासत का राजकुमार. वाह, क्या चेहरामोहरा था, क्या चालढाल थी, ऐसे ही वर की तो मुझे तलाश है.’

वह वहीं गलियारे में चहलकदमी करता रहा. कुछ देर बाद वह युवक दफ्तर से निकला तो प्रणय ने उसे टोका, ‘‘सुनिए.’’

युवक मुड़ा, ‘‘जी, कहिए?’’

प्रणय बोला, ‘‘बुरा न मानें, तो एक बात पूछूं? आप इस मनपसंद संस्था में वधू के लिए अरजी देने गए थे?’’

‘‘आप का अंदाजा सही है. मुझे शादी के लिए एक लड़की की खोज है.’’

‘‘यदि आप के पास थोड़ा समय हो तो चलिए, पास के होटल में चाय पी जाए. मेरी निगाह में एक अति उत्तम कन्या है.’’

सुदाम: आखिर क्यों हुआ अनुराधा को अपने फैसले पर पछतावा?

अनुराधा पूरे सप्ताह काफी व्यस्त रही और अब उसे कुछ राहत मिली थी. लेकिन अब उस के दिमाग में अजीबोगरीब खयालों की हलचल मची हुई थी. वह इस दिमागी हलचल से छुटकारा पाना चाहती थी. उस की इसी कोशिश के दौरान उस का बेटा सुदेश आ धमका और बोला, ‘‘मम्मी, कल मुझे स्कूल की ट्रिप में जाना है. जाऊं न?’’

‘‘उहूं ऽऽ,’’ उस ने जरा नाराजगी से जवाब दिया, लेकिन सुदेश चुप नहीं हुआ. वह मम्मी से बोला, ‘‘मम्मी, बोलो न, मैं जाऊं ट्रिप में? मेरी कक्षा के सारे सहपाठी जाने वाले हैं और मैं अब कोई दूध पीता बच्चा नहीं हूं. अब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ रहा हूं.’’

उस की बड़ीबड़ी आंखें उस के जवाब की प्रतीक्षा करने लगीं. वह बोली, ‘‘हां, अब मेरा बेटा बहुत बड़ा हो गया है और सातवीं कक्षा में पढ़ रहा है,’’ कह कर अनु ने उस के गाल पर हलकी सी चुटकी काटी.

सुदेश को अब अपेक्षित उत्तर मिल गया था और उसी खुशी मे वह बाहर की ओर भागा. ठीक उसी समय उस के दाएं गाल पर गड्ढा दे कर वह अपनी यादों में खोने लगी.

अनु को याद आई सुदेश के पिता संकेत से पहली मुलाकात. जब दोनों की जानपहचान हुई थी, तब संकेत के गाल पर गड्ढा देख कर वह रोमांचित हुई थी. एक बार संकेत ने उस से पूछा था, ‘‘तुम इतनी खूबसूरत हो, गुलाब की कली की तरह खिली हुई और गोरे रंग की हो, फिर मुझ जैसे सांवले को तुम ने कैसे पसंद किया?’’

इस पर अनु नटखट स्वर में हंसतेहंसते उस के दाएं गाल के गड्ढे को छूती हुई बोली थी, ‘‘इस गड्ढे ने मुझे पागल बना दिया है.’’

यह सुनते ही संकेत ने उसे बांहों में भर लिया था. यही थी उन के प्रेम की शुरूआत. दोनों के मातापिता इस शादी के लिए राजी हो गए थे. दोनों ग्रेजुएट थे. वह एक बड़ी फर्म में अकाउंटैंट के पद पर काम कर रहा था. उस फर्म की एक ब्रांच पुणे में भी थी.

दोपहर को अनु घर में अकेली थी. सुदेश 3 दिन के ट्रिप पर बाहर गया हुआ था और इधर क्रिसमस की छुट्टियां थीं. हमेशा घर के ज्यादा काम करने वाली अनु ने अब थोड़ा विश्राम करना चाहा था. अब वह 35 पार कर चुकी थी और पहले जैसी सुडौल नहीं रही थी. थोड़ी सी मोटी लगने लगी थी. लेकिन संकेत के लिए दिल बिलकुल जवान था. वह उस के प्यार में अब भी पागल थी. लेकिन अब उस के प्यार में वह सुगंध महसूस नहीं होती थी.

जब भी वह अकेली होती. उस के मन में तरहतरह के विचार आने लगते. उसे अकसर ऐसा महसूस होता था कि संकेत अब उस से कुछ छिपाने लगा है और वह नजरें मिला कर नहीं बल्कि नजरें चुरा कर बात करता है. पहले हम कितने खुले दिल से बातचीत करते थे, एकदूसरे के प्यार में खो जाते थे. मैं ने उस के पहले प्यार को अब भी अपने दिल के कोने में संभाल कर रखा है. क्या मैं उसे इतनी आसानी से भुला सकती हूं? मेरा दिल संकेत की याद में हमेशा पुणे तक दौड़ कर जाता है लेकिन वह…

उस का दिल बेचैन हो गया और उसे लगा कि अब संकेत को चीख कर बताना चाहिए कि मेरा मन तुम्हारी याद में बेचैन है. अब तुम जरा भी देर न करो और दौड़ कर मेरे पास आओ. मेरा बदन तुम्हारी बांहों में सिमट जाने के लिए तड़प रहा है. कम से कम हमारे लाड़ले के लिए तो आओ, जरा भी देर न करो.

बच्चा छोटा था तब सासूमां साथ में रहती थीं. अनजाने में ही सासूमां की याद में उस की आंखें डबडबा आईं. उसे याद आया जब सुरेश सिर्फ 2 साल का था. घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, इसलिए उसे नौकरी तो करनी ही थी. ऐसे में संकेत का पुणे तबादला हो गया था.

वे मुंबई जैसे शहर में नए फ्लैट की किस्तें चुकातेचुकाते परेशान थे, लेकिन क्या किया जा सकता था. बच्चे को घर में छोड़ कर औफि जाना उसे बहुत अखरता था, लेकिन सासूमां उसे समझाती थीं, ‘बेटी, परेशान मत हो. ये दिन भी निकल जाएंगे. और बच्चे की तुम जरा भी चिंता मत करो, मैं हूं न उस की देखभाल के लिए. और पुणे भी इतना दूर थोड़े ही है. कभी तुम बच्चे को ले कर वहां चली जाना, कभी वह आ जाएगा.’

सासूमां की यह योजना अनु को बहुत भा गई थी और यह बात उस ने तुरंत संकेत को बता दी थी. फिर कभी वह पुणे जाती तो कभी संकेत मुंबई चला आता. इस तरह यह आवाजाही का सिलसिला चलता रहा. इस दौड़धूप में भी उन्हें मजा आ रहा था.

कुछ दिनों बाद बच्चे का स्कूल जाना शुरू हो गया, तो उस की पढ़ाई में हरज न हो यह सोच कर दोनों की सहमति से उसे पुणे जाना बंद करना पड़ा. संकेत अपनी सुविधा से आता था. इसी बीच उस की सासूमां चल बसीं. उन की तेरही तक संकेत मुंबई  में रहा. तब उस ने अनु को समणया था, ‘अनु, मुझे लगता है तुम बच्चे को ले कर पुणे आ जाओ. वह वहां की स्कूल में पढ़ेगा और तुम भी वहां दूसरी नौकरी के लिए कोशिश कर सकोगी.’

इस प्रस्ताव पर अनु ने गंभीरता से नहीं सोचा था क्योंकि फ्लैट की कई किस्तें अभी चुकानी थीं. उस ने सिर्फ यह किया कि वह अपने बेटे सुरेश को ले कर अपनी सुविधानुसार पुणे चली जाती थी. संकेत दिल खोल कर उस का स्वागत करता था. बच्चे को तो हर पल दुलारता रहता था.

बच्चे की याद में तो उस ने कई रातें जाग कर काटी थीं. वह बेचैनी से करवट बदलबदल कर बच्चे से मिलने के लिए तड़पता था1 उस ने ये सब बातें साफसाफ बता दी थीं, लेकिन अनु ने उसे समणया था, ‘एक बार हमारी किस्तें अदा हो जाएं तो हम इस झंझट से छूट जाएंगे. तुम्हारे अकेलेपन को देख कर मेरा दिल भी रोता है. मेरे साथ तो सुरेश है, रिश्तेदार भी हैं. यहां तुम्हारा तो कोई नहीं. तुम्हें औफिस का काम भी घर ला कर करना पड़ता है, यह जान कर मुझे बहुत दुख होता है. मन तो यही करता है कि तुम जाग कर काम करते हो, तो तुम्हें गरमागरम चाय का कप ला कर दूं, तुम्हारे आसपास मंडराऊं, जिस से तुम्हारी थकावट दूर हो जाए.’

यह सुन कर संकेत का सीना गर्व से फूल जाता था और वह कहता था, ‘तुम मेरे पास नहीं हो फिर भी यादों में तो तुम हमेशा मेरे साथ ही रहती हो.’

अब फ्लैट की सारी किस्तों की अदायगी हो चुकी थी और फ्लैट का मालिकाना हक भी उन्हें मिल चुका था. सुदेश अब सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था. उस ने फैसला कर लिया कि अब वह कुछ दिनों के लिए ही सही पुणे में जा कर रहेगी. सरकारी नौकरी के कारण उसे छुट्टी की समस्या तो थी नहीं.

उस ने संकेत को फोन किया दफ्तर के फोन पर, ‘‘हां, मैं बोल रही हूं.’’

‘‘हां, कौन?’’ उधर से पूछा गया.

‘‘ऐसे अनजान बन कर क्यों पूछ रहे हो, क्या तुम ने मेरी आवाज नहीं पहचानी?’’ वह थोड़ा चिड़चिड़ा कर बोली.

‘‘हां तो तुम बोल रही हो, अच्दी हो न? और सुदेश की पढ़ाई कैसे चल रही है?’’ उस के स्वर में जरा शर्मिंदगी महसूस हो रही थी.

‘‘मैं ने फोन इसलिए किया कि सुदेश

3 दिनों के लिए बाहर गया हुआ है और मैं भी छुट्टी ले रही हूं. अकेलपन से अब बहुत ऊब गई हूं, इसलिए कल सुबह 10 बजे तक तुम्हारे पास पहुंच रही हूं. क्या तुम मुझे लेने आओगे स्टेशन पर?’’

‘‘तुम्हें इतनी जल्दी क्यों है? शाम तक आओगी तो ठीक रहेगा, क्योंकि फिर मुझे छुट्टी लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

संकेत का रूखापन अनु को समझने में देर नहीं लगी. एक समय उस से मिलने के लिए तड़पने वाला संकेत आज उसे टालने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उस के प्यार को दिल में संजोने का पूरा प्रयास भी कर रहा था. दरअसल, अब वह दोहरी मानसिकता से गुजर रहा था.

काफी साल अकेले रहने के कारण इस बीच एक 17-18 साल की लड़की से उसे प्यार हो गया था. वह एक बाल विधवा रिश्तेदार थी. वह उस के यहां काम करती थी. वह काफी समझदार, खूबसूरत और सातवीं कक्षा तक पढ़ीलिखी थी. संकेत के सारे काम वह दिल लगा कर किया करती थी और घर की देखभाल भलीभांति करती थी.

कुछ दिनों बाद संकेत के अनुरोध पर चपरासी चाचा की सहमति से वह उसी घर में रहने लगी थी. फिर जबजब अनु वहां जाती तो उसे अपना पूरा सामान समेट कर चाचा के यहां जा कर रहना पड़ता था. यह सिलसिला कई सालों तक चलता रहा.

अभी अनु के आने की खबर मिलते ही वह परेशान हो गया था और अनु से बात करते वक्त उस की जुबान सूखने लगी थी. अब उसे तुरंत घर जा कर पारू को वहां से हटाना जरूरी था. उसे पारू पर दया आती, क्योंकि जबजब ऐसा होता वह काफी समझदारी से काम लेती. उसे अपने मालिक और मालकिन की परवाह थी, क्योंकि उसे उन का ही आसरा था1 कम उम्र में ही उस ने पूरी गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया था.

शाम को अनु संकेत के साथ घर पहुंची तो रसोईघर से जायकेदार भोजन की खुशबू आ रही थी. इस खुशबू से उस की भूख बढ़ गई और उस ने हंसतेहंसते पूछा, ‘‘वाह, इतना अच्छा खाना बनाना तुम ने कब सीखा?’’

वह भी हंसतेहंसते बोला, ‘‘अपनी नौकरानी अभीअभी खाना बना कर गई है.’’

दूसरे दिन सुबहसुबह पारू आई और दोनों के सामने गरमागरम चाय के 2 कप रखे. चाय की खुशबू से वह तृप्त हो गई. थोड़ी देर बाद वह घर के चारों ओर फैले छोटे से बाग में टहलने लगी. घास का स्पर्श पा कर वह विभोर हो उठी. पेड़पौधों की सोंधी महक ने उस का मन मोह लिया.

अचानक उस का ध्यान एक 6-7 साल के बच्चे की ओर गया. वह वहां अकेला ही लट्टू घुमाने के खेल में खोया हुआ था. धीरेधीरे वह उस की ओर बढ़ी तो वह भागने की कोशिश करने लगा. अनु ने उस की छोटी सी कलाई पकड़ ली और बोली, ‘‘मैं कुछ नहीं करूंगी. ये बताओ तुम्हारा नाम क्या है?’’

वह घबरा गया तो कुछ नहीं बोला और सिर्फ देखता ही रह गया. उस के फूले हुए गाल और बड़ीबड़ी आंखें देख कर अनु को बहुत अच्छा लगा. वह हंस दी तो नादान बालक भी हंसा. उस की हंसी के साथ उस के दाएं गाल का गड्ढा भी मानो उस की ओर देख कर हंसने लगा.

यह देख कर उस का दिल दहल गया क्योंकि वह बच्चा बिलकुल संकेत की तरह दिख रहा था. ऐसा लगा कि संकेत का मिनी संस्करण उस के समाने खड़ा हो गया हो. वह दहलीज पर बैठ गई. उसे लगा कि अब आसमान टूट कर उसी पर गिरेगा और वह खत्म हो जाएगी. एक अनजाने डर से उस का दिल धड़कने लगा. उस का गला सूख गया और सुबह की ठंडीठंडी बयार में भी वह पसीने से तर हो गई. उस की इस स्थिति को वह नन्हा बच्चा समझ नहीं पाया.

‘‘क्या, अब मैं जाऊं?’’ उस ने पूछा.

इस पर अनु ने ठंडे दिल से पूछा, ‘‘तुम कहां रहते हो?’’

वह बोला, ‘‘मैं तो यहीं रहता हूं, लेकिन कल शाम को मैं और मेरी मां चाचा के घर चले गए. सुबह मैं मां के साथ आया तो मां बोलीं, बाहर बगीचे में ही खेलना, घर में मत आना.’’

बोझिल मन से उस ने उस मासूम बच्चे को पास ले कर उस के दाएं गाल के गड्ढे को हलके से चूमा. अब उसे मालूम हुआ कि पारू उस की खातिरदारी इतनी मगन हो कर क्यों करती है, उस की पसंद के व्यंजन क्यों बनाती है.

उसे संकेत के अनुरोध और विनती याद आने लगी, ‘‘हम सब एकसाथ रहेंगे. तुम्हारी और सुरेश की मुझे बहुत याद आती है.’’

लगता है मुझे उस समय उस की बात मान लेनी चाहिए थी. लेकिन मैं ने ऐसा क्या किया? मेरी गलती क्या है? मैं ने भी खुद के लिए नहीं बल्कि अपने परिवार के लिए नौकरी की. वह पुरुष है, इसलिए उस ने ऐसा बरताव किया. उस की जगह अगर मैं होती और ऐसा करती तो? क्या समाज व मेरा पति मुझे माफ कर देता? यहां कुदरत का कानून तो सब के लिए एक जैसा ही है. स्त्रीपुरुष दोनों में सैक्स की भावना एक जैसी होती है, तो उस पर काबू पाने की जिम्मेदारी सिर्फ स्त्री पर ही क्यों?

कहा जाता है कि आज की स्त्री बंधनों से मुक्त है, तो फिर वह बंधनों का पालन क्यों करती है? हम स्त्रियों को बचपन से ही माताएं सिखाती हैं इज्जत सब से बड़ी दौलत होती है, लेकिन उस दौलत को संभालने की जिम्मेदारी क्या सिर्फ स्त्रियों की है?

यह सब सोचते हुए उस के आंसू वह निकले तो उस ने अपने आंचल से पोंछ डाले. उसे रोता देख कर वह बच्चा फिर डर कर भागने की कोशिश करने लगा, तो अनु जरा संभल गई. उस ने उस मासूम बच्चे को अपने पास बिठा लिया और कांपते स्वर में बोली, ‘‘बेटा, तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो, लेकिन तुम ने अब तक अपना नाम नहीं बताया? अब बताओ क्या नाम है तुम्हारा?’’

अब वह बच्चा निडर बन गया था, क्योंकि उसे अब थोड़ा धीरज जो मिल गया था. वह मीठीमीठी मुसकान बिखेरते हुए बोला, ‘‘सुदाम.’’ और फिर बगीचे में लट्टू से खेलने लगा.

Raksha Bandhan: कच्ची धूप-कैसे हुआ सुधा को गलती का एहसास

family story in hindi

तीज स्पेशल: झूठा सच- पत्नी आशा से क्यों नफरत कर बैठा ओम

“ऐसे कैसे अकेले ही निर्णय ले बैठा है शरत… अब वह अविवाहित नहीं, शादीशुदा है. पत्नी का भी बराबर का अधिकार है उस के जीवन में. जाना ही था तो संग ले कर जाए कामिनी को,” आशा बोल रही थी.

यों शरत और कामिनी की शादी को पूरे 3 साल हो चुके थे. उस के पति शरत ने भारत में नौकरी छोड़ दी और आस्ट्रेलिया में आगे शिक्षा प्राप्त करने हेतु अरजी दी थी जो स्वीकार हो गई थी. उसे अच्छाखासा वजीफा भी मिल रहा था. ऐसे में शरत यह मौका हाथ से जाने देने को बिलकुल तैयार न था. कामिनी यहां अकेली नहीं रहना चाहती थी, मगर खर्चों के कारण शरत के साथ जाना भी संभव नहीं था और यही कारण था दोनों में क्लेश का. कुछ दिन सोचविचार करने हेतु कामिनी मायके आ गई थी.

‘थोड़े दिन अलग रह कर, बिना भावनाओं को बीच में लाए सोचेंगे तो शायद सही निर्णय पर पहुंच पाएं,’ यह दोनों का मत था.

कामिनी नहीं चाहती थी कि मातापिता दोनों में से कोई भी उस की गृहस्थी के निर्णयों में दखल दें. वैसे भी पिता ओम चुपचाप हमेशा अपनी ही चलाते थे और हर मामले में आशा तिरस्कार सहती आ रही थी. वह इस बात को देखती और समझती रही थी और इसलिए उस ने दोनों को कुछ नहीं बताया. पिता एकदम उग्र हो उठेंगे, उसे मालूम था.

आखिर कई दिनों बाद कामिनी और शरत ने एकसाथ ओम व आशा को अपने निर्णय से अवगत कराया, ‘‘शरत 2 वर्षों की प्रबंधक शिक्षा हेतु आस्ट्रेलिया जाएंगे और इस बीच मैं यहां रह कर अपनी नौकरी करती रहूंगी. फिर इन की शिक्षा पूरी होने पर देखते हैं कि कहां अच्छी नौकरी मिलती है, उसी हिसाब से आगे की योजना बनाएंगे,” कामिनी की इस बात से जहां मां आशा सहमत न होते हुए भी ब्याहता बेटी के निर्णय का सम्मान कर रही थी, वहीं ओम के चेहरे पर कुंठा साफ झलक रही थी, ‘‘मैं तुम दोनों के इस निर्णय से असंतुष्ट हूं. विवाहोपरांत अलग रहना और वह भी इतनी समायाविधि के लिए कहां उचित है?’’ ओम के ऐसा कहते ही मानों एक गहरी खाई खुल गई और एकायक वे उस में गिरते चले गए…

करीब 24 वर्ष पूर्व, जब कामिनी मात्र 3 साल की थी, उस के पिता ओम को एक अच्छी नौकरी की तलाश विदेश ले गई. कतर में कंपनी ने ही रहने को क्वार्टर किया था. पीछे आशा और कामिनी को एक किराए के घर में छोड़ ओम अच्छा पैसा कमाने निकल पड़े थे. आखिर यह पैसा ही उन की गृहस्थी की गाड़ी को फर्राटे से चला पाएगा न.

कतर में दिनरात कड़ी मेहनतमशक्कत मेंं कब व्यतीत हो जाता, पता ही नहीं चलता. रात को शहर से दूर, औफ साइट कंपनी के अहाते में ओम अपनी पत्नी आशा की स्नेहपूर्ण यादों के सहारे समय काटते.

भारत में थे तो घर चाहे कितना छोटा था, टीन की छत वाली रसोई हो, दोपहरी में कितनी भी गरमी बरस रही हो, आशा गरमगरम खाना ही परोसती. ओम के पेट भर लेने के बाद भी एक और फुलके की जिद करती. उन को खाने के बाद कुछ मीठा खाना पसंद था तो हर रोज कुछ न कुछ, चाहे कितना भी कम बन पड़े, मीठा बनाती और बड़े प्यार से खिलाती. जब ओम शाम को थक कर घर लौटते तो गली के मोड़ से ही आशा को द्वार पर खड़ा पाते और जब तक चल कर घर में दाखिल होते, आशा हाथ में पानी का गिलास और आखों में प्रेममनुहार लिए आ पहुंचती.

दूर परदेस में ओम यही सब छोटीछोटी बातें याद करते रहते और उदास हो उठते. साल में एक बार घर आने का अवसर मिलता. वह 1 माह फिर उसी स्नेह और आदरसत्कार के बीच बीत जाता. कामिनी भी इस बार उन्हें बड़ी सी लगने लगी थी.

साल बीतने लगे. करीब 3-4 सालों के बाद आशा शिकायत करने लगी कि अब उस से अकेलापन नहीं झेला जाता. साथ के अपने जैसे लोगों के साथ कुछ समय बीत जाता पर सब इसी दुख को झेल रहे थे.

‘‘तुम यहां अपने घर में, अपनी बच्ची के साथ हो, तुम्हें काहे का अकेलापन? मेरा सोचो, वहां सुदूर परदेस मैं अकेला तो मैं हूं,’’ ओम तर्क देते.

‘‘आप समझ नहीं रहे हैं, एक बच्ची को अकेले पालना…अब मैं कैसे कहूं…’’ आशा ज्यादा कुछ बोल नहीं पाई थी.

बस इस बार छुट्टियां पूरी होने पर कतर लौटने के 1 महीने बाद ही ओम को आशा की चिट्ठी मिली थी-

‘कामिनी के पापा, आप से साफ तरह से कह न सकी, इस बारबार या तो हमें अपने साथ ले चलिए या खुद लौट आइए. लगता है, आप को जैसा चल रहा है वही रास आने लगा है. लेकिन मुझ से अब यों नहीं रहा जाता. मेरी जिंदगी में कोई और आ गया है…वह मुझ से बहुत प्यार करता है, अपने साथ रखने को तैयार है. कामिनी को भी अपनाना चाहता है. आप मुझे तलाक दे दीजिए.

‘आप की आशा.’

आघात ने ओम के पांव तले जमीन हिला दी. आशा ने यह क्या सब लिख भेजा? और अंत में लिखती है ‘आप की आशा.’ कौन हो सकता है वह आदमी आशा के जीवन में? जब वे इस बार भारत गए थे, तब उन्हें कोई शक क्यों नहीं हुआ? कामिनी ने भी कभी कोई उत्तर नहीं दिया…पत्नी वियोग में पहले ही उन के लिए यहां स्वयं को स्थापित करना मुश्किल लगता था, साथ ही अकेलेपन की टीस और वीरान सी उन की जिंदगी बेचैन हुआ करती थी. आशा के इस पत्र से ओम को बहुत रोष हुआ था. उन का मन खिन्न हो उठा था. वह तन और मन से कितना भार ढो रहे हैं. इस से अनजान कैसे हो सकती थी उस की पत्नी. ओम आहत थे.

मगर उन्होंने इस रिश्ते को ऐसे ही खत्म करने का सोच लिया. आशा ऐसा चाहती है, तो ऐसा ही सही. जल्द से जल्द लौट कर उन्होंने अपने लिए एक अलग मकान का बंदोबस्त किया और अदालत के रास्ते अपना लिए.

नोटिस मिलने पर लुटीपिटी सी आशा अदालत में दुहाई देने लगी, ‘‘जज साहिबा, मैं ने झूठ लिखा था, ऐसावैसा कुछ नहीं है. वह तो मेरी एक सहेली ने मुझे यह तरकीब सुझाया कि शायद जलन और असुरक्षा की वजह से कामिनी के पापा वापस आ जाएं या फिर हमें अपने संग ले जाएं.’’

‘‘आप समझ रही हैं कि आप क्या कह रही हैं…’’ जज साहिबा ने झिडक़ी लगाई.

‘‘जज साहिबा, मुझे गलत न समझें. एक अकेली औरत के लिए समाज में जीना बहुत मुश्किल है. रास्ते से जाओ तो मनचलेमजनुओं के ताने सुनो, यहां तक कि त्योहारों पर भी लोग सुना देते हैं. ऐसे कमाने का क्या फायदा कि इंसान होलीदीवाली पर भी घर न आ पाएं. और तो और अपने खास दोस्त भी…’’ कहतेकहते आशा वियोग में बिताए पलों की खट्टी यादों में पहुंच गई…

एक बार कामिनी काफी बीमार हो गई थी. उस कष्ट की घड़ी में आशा की पड़ोस की सहेली अंबिका ने उस का बहुत साथ दिया. अंबिका के पति गगन ने उन के अपने छोटे से बेटे का ध्यान रखा और अंबिका कामिनी के माथे पर पट्टी रखती रही, जब तक आशा डाक्टर के पास जा कर दवा ले आई. उस रात आशा के घर गगन रुक गया ताकि जरूरत के समय काम आ सके. आशा, अंबिका को जातियों के भेदभाव के बावजूद अपनी बहन समान मानती थी और गगन उसे दीदी कह कर संबोधित करता था. इस वक्त उन्होंने यह रिश्ता निभा कर दिखाया था. आशा कामिनी के पास ही सो गई और गगन साथ वाले कमरे में.

अचानक रात के तीसरे पहर नींद की कच्ची आशा ने कमरे में कुछ आहट महसूस की. देखा तो गगन पास खड़ा था, ‘‘क्या हुआ गगन? कुछ चाहिए आप को?’’

‘‘नहीं आशा, मैं तो बस देखने आ गया कि तुम्हें नींद आ गई क्या?’’ गगन के मुंह से अपना नाम व ‘तुम’ सुन आशा का चौंकना स्वाभाविक था. उस के लाल डोरे और उन में एक अजीब सा नशा आशा को डरा रहा था. प्रकृति ने स्त्री को छठी इंद्री प्रदान की है जिस से वह परपुरुष की मन की इच्छा आसानी से भांप लेती है.

घर अकेला था और कामिनी बीमार अवस्था में सो रही थी. आशा ने फौरन बात टाली, ‘‘चाय लोगे गगन भाई?’’

‘‘आशा, यह समय चाय का नहीं बल्कि…’’

‘‘नहीं, मैं चाय बना ही लाती हूं. तब तक आप जरा कामिनी के पास बैठिए,’’ कह जबरदस्ती चाय बनाने लगी. उस ने 2 कप चाय बनाई, एक गगन को दी और एक खुद घूंटघूंट कर के पी. जैसेतैसे सुबह के 5 बजे. सूर्योदय से पहले की लालिमा के साथ चिडिय़ों की चहचहाहट पौ फटते ही सारे आकाश में फैल गई. आशा बोली, ‘‘गगन भाई, अब आप अपने घर जाइए, अंबिका आप का इंतजार कर रही होगी.’’

उस घटना के बाद आशा अंदर तक हिल गई. किस से कहे? अंबिका को कैसे बताए? कहीं उस ने आशा को ही गलत समझ लिया कि एक तो मेरे पति ने इतनी मदद की और ऊपर से उन पर इतना घिनौना इल्जाम. और फिर हुआ तो कुछ भी नहीं. यह तो सिर्फ उस का डर है, कोई सुबूत नहीं है उस के पास. काफी परेशान हो गई वह और उस ने ठान लिया कि अब वह अकेली नहीं रहेगी. इस संसार में उस का कोई है तो बस उस का अपना पति. वह फौरन उन्हें घर वापस बुलाना चाहती थी. बस, एक अन्य सहेली की सुझाई हुई तरकीब अपना कर आशा ने ओम को वह चिट्ठी लिख डाली.

कितनी मूर्ख थी आशा. क्या वह कभी समझ पाएगी कि उस की इस तरकीब से ओम को कितना गुस्सा होगा? उन में कितनी निराशा, कितना अंधकार घर कर चुका था. इस तरकीब के पीछे के सारे घटनाक्रम से अनभिज्ञ ओम इस फैसले पर पहुंच गए थे कि चुप्पी ही तूतूमैंमैं से बेहतर है. वे तो केवल अपनी पत्नी की ओर कमजोर आंखों से देख रहे थे. आशा ने बहुत माफी मांगी. कोर्ट ने भी उसे खरीखोटी सुनाई. मगर आशा के न मानने पर तलाक न हो पाया. उन्हें साथ ही रहना था लेकिन ओम के मन में गङी फांस ने उन्हें आशा की ओर से एक तरह अलग कर दिया. तो बस, यों ही बुझे मन से, निभाने के लिए ओम ने अपना जीवन काट दिया था.

कामिनी को इस बात की कुछ हलकीफुलकी जानकारी मौसी से मिली थी जो कभीकभार आती थीं. आज उस का पति वही करने जा रहा था जिस का परिणाम उस के पिता आज तक भुगत रहे थे तो भला कैसे मान जाते इस निर्णय को? नेपथ्य से वाकिफ कामिनी भी समझ रही थी कारण को. बेटियां मांओं की थोड़ी अधिक करीब होती हैं. यही कारण था कि बड़ी होती कामिनी ने मातापिता के बीच की दूरी भांप ली थी. पूछने पर मां ने अपनी गलती तथा अपने दिल का हाल दोनों ही उड़ेल दिए थे. संवेदनशील कामिनी सब समझ गई थी. लेकिन मर्यादा का पालन इसी में था कि वह छोटी थी और छोटों की भांति रहती सो इस विषय में उस का चुप रहना ही उचित था.

मगर आज एक झूठे सच को ले कर इतना परेशान भी तो नहीं देख पा रही थी. बहुत उधेड़बुन में उलझे थे दिल और दिमाग. आज वह स्वयं शादीशुदा है, पतिपत्नी के रिश्ते की नजाकत को पहचानती है. क्या आगे बढ़ कर एक प्रयास करना उचित न होगा?

कामिनी शरत के साथ अपने घर लौट गई. शरत जाने की तैयारी में था. कामिनी उस का पूरा साथ दे रही थी. वह चाहती थी कि शरत खुश मन से जाए, पूरी लगन से अपनी शिक्षा पूर्ण करे और फिर दोनों साथ में एक बेहतर जिंदगी जिएं.

नियत दिन शरत चला गया. आजकल के युग में जहां संपूर्ण दुनिया एक ग्लोबल विलेज बन गई है. जहां स्काइप, ट्विटर, व्हाट्सऐप आदि ने सात समुंदर पार की भी दूरियों को हमारी हथेलियों पर सिमटा दिया है, वहां लौंग डिस्टैंस रिलेशनशिप का निभना इतना कठिन नहीं, कामिनी यह बात अच्छी तरह समझती थी.

उस का पति उस से बहुत दूर, एक दूसरे महाद्वीप में होते हुए भी उस के इतने पास था कि आज उस ने क्या खाया, कितने बजे सोया, क्या कपड़े पहने, किसकिस से मिला, क्या सीखा आदि सब से वाकिफ थी कामिनी. इसी तरह वह भी जो कुछ अपने पति से बांटना चाहती, वह हर बात वह शरत से कर सकती थी. बिस्तर जरूर अकेला था, मगर इतना साथ भी बहुत था. और फिर वह जानती थी कि ये दूरियां केवल 2 साल के लिए हैं. जब समायाविधि नियत हो तो प्रतीक्षा इतनी कठिन नहीं लगती.

कुछ समय बाद कामिनी फिर अपने मायके चली जाती. एक ही शहर में मायका और ससुराल होने का एक फायदा यह भी है कि जल्दीजल्दी मिलना हो जाता है. मातापिता ने शरत के हालचाल पूछे और कामिनी को सारी जानकारी है इस बात से उन्हें तसल्ली मिली, ‘‘चल, अच्छा है बिटिया, तेरी शरतजी से रोज बातें हो जाती हैं. हमारे जमाने में तो बस चिट्ठियों का सहारा था…’’

आशा के कहते ही ओम बिफर पड़े, ‘‘हां, बहुत सहारा था चिट्ठियों का. जो बातें मुंह पर न कह सको, वे लिख कर भेज दो. एक बार फिर उपेक्षा से आशा की आंखें छलक आईं. पल्लू के कोर से धीरे से आंखें पोंछती आशा बहाने से उठ गई पर कामिनी से यह बात न छिप सकी, ‘‘पापा, आप कब तक यों…”

फिर कुछ सोच कर उस ने अपने पिता का हाथ थाम कमरे में ले गई और चिटकनी चढ़ा दी. उन की प्रश्नवाचक दृष्टि के उत्तर में वह बोली, ‘‘मैं नहीं चाहती कि मम्मी हमारी बातें सुन लें. पापा, शायद मैं पूरी तरह न समझ पाऊं कि आप पर मम्मी की वह चिट्ठी पढ़ कर क्या गुजरी होगी क्योंकि जिस पर बीतती है, वही जानता है. लेकिन फिर यही लौजिक मम्मी की भावनाओं पर भी तो लागू होगा न. जैसे आप को अपनी ठेस, अपना आघात ज्ञात है, वैसे ही क्या आप ने कभी मम्मी से यह जानना चाहा कि क्यों उन्होंने इतना बड़ा झूठ बोला? इतना बड़ा झूठ जिस की सजा वे आज तक भुगत रही हैं…”

कामिनी ने आगे कहा,”जैसे आज मेरे पति के मुझ से दूर जाने पर आप को एक पिता के रूप में परेशानी हुई क्योंकि आप मानते हो कि मैं अकेली कैसी जिंदगी जिऊंगी. लेकिन पापा, मेरे पास आप दोनों हो और बच्चे की जिम्मेदारी भी नहीं है. मम्मी के पास मैं थी और घरपरिवार वाले सब दूर. ऐसे में उन्हें कितनी ही परेशानियां आई होंगी. एक महानगर में अकेली औरत, एक छोटे बच्चे का साथ, उस की पढ़ाईलिखाई का इंतजाम. स्कूल में दाखिला कराना, स्कूल की मीटिंग में जाना, घरगृहस्थी की सारी संभाल, राशन, कपड़ों इत्यादि की खरीदारी, ऊपर से बढ़ते बच्चे का पालनपोषण… मैं सोच भी नहीं पाती हूं कि कैसे मां ने अकेले ही सब किया होगा.

“याद है आप को जब आप छुट्टियों में आया करते थे, तब सभी रिश्तेदार दूरदूर से आप सेे मिलने बारीबारी आते रहते थे. एक तो उस 1 माह में मम्मी आप के साथ ढंग से समय नहीं बिता पाती थीं ऊपर से बढ़ा हुआ काम और घर खर्च.

“आज सोचती हूं तो समझ पाती हूं कि उन्हें कितनी कोफ्त होती होगी कि 1 माह को पति आया है, फिर 1 साल नहीं मिल पाएंगी और इस 1 माह में भी रिश्तेदारों का तांता.

‘‘एक औरत की तरह सोचती हूं तो समझ पाती हूं कि कितना अकेलापन सालता होगा उन्हें. काम बांटने की इच्छा, बातें करने की इच्छा, मानसिक संबल की आवश्यकता, हंसनेबोलने और बदन को छूनेसहलाने का मन, मन बढ़त की जरूरतें, विरह भरे दिनमहीने…

‘‘उस समय उम्र ही क्या थी उन की? किसी भी औरत के लिए कितना नीरस हो जाएगा जीवन जब उस का पति दूर परदेस में हो और उस के लौटने का कोई सूत्र भी नहीं दिखे. जरा सोचिए पापा, किस हद तक अकेली हो गई होगी उन की जिंदगी जो उन्होंने यह कदम उठा लिया. किसी परपुरुष के अपने जीवन में न होते हुए भी उन्होंने इतना बड़ा रिस्क उठाया कि अपने पति को अपनी बेवफाई का लिखित सुबूत दे डाला. यह उन की चालाकी नहीं, सीधापन था.

“जो वे वाकई बेवफा होतीं तो कुछ भी कर सकती थीं. आप तो साल में 1 बार आते थे और सभी रिश्तेनातेदार भी उसी 1 माह में आते थे. यहां क्या हो रहा है किस को खबर?’’

कामिनी ने आज वह खिडक़ी खोली थी जिसे ओम कस कर बंद चुके थे. यह बात ठीक है कि ओम अपने परिवार से दूर, कठिन परिस्थितियों में परदेस में मेहनत कर अपनी गृहस्थी के लिए कमा रहे थे मगर यह भी उतना ही सच था कि उस गृहस्थी की गाड़ी को आशा अकेली ही खींच रही थी. उस ने कई बार ओम को घर लौट आने या उसे भी साथ ले चलने की मांग की थी. ओम की अनिच्छा देख हो सकता है उसे यही एक विकल्प सूझा हो. गलती दोनों में से किसी की भी नहीं थी. गलती केवल परिस्थिति की थी. ओम की परिस्थिति उन्हें बीवीबच्चे साथ रखने की इजाजत नहीं दे रही थी और आशा की परिस्थिति उसे अकेले आगे नहीं बढ़ने दे रही थी. वह जानती थी कि कतर में नौकरी मिलने की शर्त ही यह थी कि पत्नी को साथ न लाओ. वह यह भी जानती थी कि ओम न जाते, तो वे टूटेफूटे, टीनटप्पर के मकान में रहने को मजबूर रहते.

कामिनी को भी 2 वर्ष ही अकेले विरहगीत गाने थे लेकिन आज उस ने जो किया था उस से एक ही छत के नीचे रह रहे अपने मांबाप की कभी न खत्म होने वाली विरह की दीवार को तोङ जरूर दिया था. इस बार मायके से अपने घर वापस लौटने पर कामिनी अकेले होते हुए भी मुसकरा रही थी. उस का मन हलका हो गया था.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें