जेनेटिक टेस्टिंग है मददगार 

मां बनने का सुख दुनिया में सबसे बड़ा सुख होता है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि महिलाओं में गर्भधारण के मामलों में करीब 20 फीसदी महिलाओं में गर्भपात की समस्या देखने को मिलती है. दुर्भाग्य से 5 फीसदी मैरिड कपल्स को दो या दो से अधिक बार गर्भपात की समस्या को फेस करना पड़ता है. जिसके कारण वे मायूस हो जाते हैं. और वे इसके कारणों को जानना चाहते हैं , ताकि अगली प्रेगनेंसी में इससे बचा जा सके और उन्हें पेरेंट्स बनने का सुख मिल सके. लेकिन देखने में आया है कि अकसर प्रेगनेंसी लोस के पीछे गर्भ में पल रहे बच्चे में जेनेटिक प्रोब्लम होती है. जिसे अगर समय रहते जान लिया जाता है तो गर्भपात की समस्या से काफी हद तक बचा जा सकता है.

जीन्स2मी में वैज्ञानिक मामलों की वरिष्ठ प्रबंधक डाक्टर साइमा नाज बताती हैं कि बारबार होने वाले गर्भपात के मामले अधिकतर  जेनेटिक प्रोब्लम की वजह से होते हैं. इन गड़बड़ियों को क्रोमोसोमल या मोनोजेनिक में बांटा जा सकता है. यह सुनने में थोड़ा भयभीत करने वाला जरूर है, लेकिन आप यकीन मानिए कि इस तरह की पीड़ा से गुजर चुकी कई महिलाओं ने दोबारा गर्भधारण किया और उन्होंने एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया है.

बारबार होने वाले गर्भपात को रोकने के लिए आनुवंशिक परीक्षण

बारबार होने वाले गर्भपात के मामलों को रोकने के लिए जेनेटिक टेस्टिंग एक बेहद उपयोगी माध्यम है. इस तरह के मामलों में मरीज के क्रोमोसोम्स का टेस्ट करवाने की जरूरत होती है. गर्भपात के इस तरह के मामलों को समझने के लिए भ्रूण के नमूने सीधे इकट्ठे किए जाते हैं और उनका डाईग्नोस्टिक लैब में परीक्षण किया जाता है.

क्रोमोसोम के परीक्षण से गुणसूत्रों की संख्या और बनावट पर निर्भर रहते हुए क्रोमोसोम टेस्ट से कई अनियमितताओ के होने या न होने की पुष्टि की जा सकती है. आमतौर पर गर्भपात का सबसे बड़ा क्रोमोसोम से जुड़ा हुआ कारण ट्राइसोमी हो सकता है. गर्भपात होने के अन्य कारणों में ट्रिपलोईडी , मोनोसोमी , ट्रेटाफ्लोइडी या ट्रांसलोकेशन जैसी संरचनात्मक गड़बड़ियां शामिल हैं. ये जेनेटिक गड़बड़ियां मातापिता से प्राप्त होने की जगह शुक्राणु या अंडे की अनियमितयो के कारण होती है.

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बारबार होने वाले गर्भपात के कारणों को समझने के लिए क्रोमोसोमल टेस्ट 

गड़बड़ी मुख्य रूप से अतिरिक्त क्रोमोसोम की मौजूदगी या किसी क्रोमोसोम या गुणसूत्रों के गायब होने से होती है. इसकी पहचान के लिए आनुवांशिक विश्लेषण किया जाता है. आनुवांशिक परीक्षण के क्षेत्र में मायकोएरे टेक्नोलोजी सबसे आधुनिक ताकतवर बायोटेक्नोलोजी की तकनीक बन गई है, जो एक साथ हजारों डीएनए नमूनों का विश्लेषण कर सकती है. इन तकनीकों में डीएनए को निकालने के लिए सीधे भ्रूण के नमूनों का उपयोग किया जा सकता है. इसमें जीवित कोशिकाओं की जरूरत नहीं  पड़ती. हाई रेजोल्यूशन क्रोमोसोम विश्लेषण से क्रोमोसोम की बारीक़ से बारीक गड़बड़ियां भी पकड़ में आ जाती है, जो पारम्परिक तरीके से गुणसूत्रों का विश्लेषण करने पर छूट सकती है. परंपरागत कार्योटाइपिंग की अपेक्षा क्रोमोसोम का विश्लेषण करने में  क्रोमोसोमल  माइक्रोएरे जबरदस्त माध्यम बन गया है.

आप गर्भपात के कारणों का पता लगाने के लिए जेनेटिक टेस्ट की मदद ले सकते हैं. कई डाईग्नोस्टिक लैब सहज या स्वाभाविक गर्भावस्था के लिए इस तरह के जेनेटिक टेस्ट की सुविधा प्रदान करता है. इसी तरह की एक कंपनी जीन्स2मी है, जो बच्चे के जन्म की प्लानिंग कर रहे पेरेंट्स को मदर एंड केयर प्रेगनेंसी टेस्ट की पूरी सीरीज उपलब्ध करवाती है. जीन्स2मी की सीइओ रितु गुप्ता कहती है, ‘ पहली तिमाही में गर्भपात के कई शुरुआती मामले भ्रूण में पाई जाने आनुवंशिक गड़बड़ियों के कारण होते हैं. मनुष्य में सामान्य रूप से 46 क्रोमोसोम होते हैं , जिसमें सामान्य विकास के जीन्स होते हैं , लेकिन गर्भावस्था के शुरुवाती चरण में इस तरह के गर्भपात भ्रूण में अतिरिक्त या कम गुणसूत्र होने के कारण होते हैं. क्रोमोसोम माइक्रोएरे टेस्ट बारबार होने वाले गर्भपात के कारणों को समझने में दंपतियों की मदद कर सकता है, जिससे वह अपने डॉक्टर से बातचीत करने के बाद एक स्वस्थ बच्चे को जन्म देने की प्लानिंग कर सकते हैं.

बच्चे को जन्म देने की भावी योजना बनाते समय 

अगर आपके जेनेटिक टेस्ट से ये पता चलता है कि गर्भपात की समस्या आनुवांशिक गड़बड़ियों की वजह से आ रही है तो आपके मन में इस बारे में कई सवाल हो सकते हैं. आप भविष्य में बच्चे के जन्म की योजना बनाते समय अपने जेनेटिक काउंसलर या फर्टिलिटी स्पेशलिस्ट से बात कर सकते हैं.

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आप क्रोमोसोमल माइक्रोएरे टेस्टिंग से पता चलता है कि उनके गर्भपात के कारणों के पीछे अनियमितता थी तो इसकी काफी ज्यादा संभावना है कि यह केवल एक बार की समस्या हो. इसका मतलब यह नहीं कि भविष्य में जन्म लेने वाले आपके बच्चे में आनुवांशिक  गड़बड़ियां होने की संभावना ज्यादा है. लेकिन गर्भपात से होने वाला दर्द न झेलना पड़े , इसके लिए दम्पतियों को हमेशा जेनेटिक टेस्ट करवाना चाहिए.

क्रोमोसोम की गड़बड़ियों के कारण बारबार का दर्द झेलने वाले दंपति अन्य प्रक्रियाओं से गर्भधारण करने का विकल्प आजमा सकते हैं. इसमें प्री इनप्लांटेशन जेनेटिक डायग्नोसिस के साथ इनविट्रो फर्टिलाइजेशन शामिल है. इसके द्वारा पेरेंट्स बच्चों को उनसे होने वाली अनुवांशिक बीमारियों से बचा सकते हैं और पेरेंट्स बनने का सुख भी ले सकते हैं .

न्यूली मैरिड कपल के लिए हेल्थ से जुड़ी परेशानियों के बारे में बताएं?

सवाल

मैं 24 वर्षीय नवविवाहित युवती हूं. जब भी पति सहवास करते हैं, मुझे भीतर बहुत जलन और खुजली महसूस होती है. क्या यह किसी गंभीर समस्या के लक्षण हैं? मुझे इस के लिए क्या करना चाहिए?

जवाब-

आप ने जिस प्रकार के लक्षण बताए हैं, उस से लगता है कि आप की योनि में संक्रमण हो सकता है. अच्छा होगा कि आप समय गंवाए बिना किसी अस्पताल में जा कर किसी योग्य गाइनोकोलौजिस्ट से मिलें. वे अंदरूनी जांच करने के साथसाथ योनि से आने वाले स्राव की भी जांच करवा कर यह बता सकेंगी कि यह संक्रमण किस किस्म का है. फिर उस के अनुसार ही दवा लेने से यह रोग जाता रहेगा. इस बात का ध्यान रखना होगा कि आप अपने साथसाथ अपने पति को भी जांच के लिए ले जाएं. किसी भी यौन रोग से छुटकारा पाने के लिए यह बेहद जरूरी है कि पतिपत्नी दोनों साथसाथ इलाज करवाएं वरना रोग दोबारा हो जाता है.

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ये बात तो आप जानती ही हैं कि अत्यधिक गर्मी की वजह से शरीर में पानी की कमी हो जाती है और इस वजह से लोगों को और खास तौर से स्त्रियों को यूटीआई यानि कि यूरिनरी ट्रैक्ट इंफेक्शन की समस्या हो जाती है.

कहीं आप भी तो अंजान नहीं है इस बीमारी से? आपको ऐसी कोई समस्या न हों इसलिए तेज गर्मी के मौसम में आपको सावधान रहना चाहिए. आइये हम आपको बताते हैं इसके लक्षणों के बारे में.

लक्षण :

  • यूरिन में जलन
  • प्राइवेट पा‌र्ट्स में खुजली या दर्द
  • थोड़ा-थोड़ा यूरिन डिस्चार्ज होना
  • ज्यादा दुर्गध के साथ, यूरिन का रंग अधिक पीला होना
  • कंपकपाहट के साथ बुखार आना
  • भूख न लगना
  • कमजोरी और थकान होना.

अगर आप भी ऊपर दी गईं किन्हीं भी समस्याओं से गुजर रहीं हैं तो आपको तुरंत इसका इलाज करना होगा.

हम यहां आपको इससे निपटने के लिए कुछ उपाय बताने जा रहे हैं…

बचाव :

1. बाहर खुले में बिकने वाली चीजें न खाएं. क्योंकि खून में होने वाला इन्फेक्शन यूरिन तक पहुंचकर ‘यूटीआई’ का कारण बन जाता है.

2. टॉयलेट और इनरवेयर की सफाई का पूरा ध्यान रखें. खास तौर से पब्लिक टॉयलेट के इस्तेमाल से पहले और बाद में फ्लश का इस्तेमाल जरूर करें.

3. ज्यादा से ज्यादा मात्रा में तरल पदार्थो का सेवन करें.

4. इस मौसम में पसीने की वजह से स्त्रियों में वजाइनल इन्फेक्शन की भी समस्या हो जाती है. आमतौर पर इस तरह के संक्रमण में वजाइना से सफेद रंग के तरल पदार्थ का डिस्चार्ज होता है.

5. इस मौसम में स्विमिंग पूल के क्लोरीन युक्त पानी की वजह से भी कभी-कभी यह संक्रमण हो जाता है. इस समस्या से बचने के लिए स्विमिंग के बाद व्यक्तिगत सफाई का विशेष रूप से ध्यान रखें और हमेशा कॉटन के इनरवेयर का इस्तेमाल करें.

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अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz   सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

जब खतरा हो डायबिटीज का

डाइबिटीज एक तरह का मेटाबौलिज्म  डिसआर्डर है. सामान्यता हमारे द्वारा खाए गए भोजन का अधिकांश हिस्सा ग्लूकोज में परिवर्तित हो जाता है. पाचन के बाद ग्लूकोज खून के जरिए कोशिकाओं तक पहुंचता है, जहां कोशिकाएं इस का उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने और उस की वृद्धि में करती हैं. इस कार्य में मददगार होता है पैंक्रियाज से निकलने वाला खास हारमोन इंसुलिन. डाइबिटीज से पीडि़त व्यक्तियों के शरीर से इंसुलिन निकलना बंद हो जाता है या कम होता है या फिर शरीर इस इंसुलिन का उपयोग ही नहीं कर पाता. ऐसे में शरीर में रक्त शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है, जो पेशाब के जरिए बाहर आने लगती है.

मुख्य रूप से डाइबिटीज 2 तरह की होती है :

टाइप 1 : इस में इम्यून सिस्टम इंसुलिन उत्पाद करने वाली बीटा कोशिकाओं पर आक्रमण कर उन्हें नष्ट करने लगता है, जिस से इंसुलिन की कमी हो जाती है और शरीर में रक्त शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है.

इस के मुख्य लक्ष्ण हैं- प्यास ज्यादा लगना, बारबार पेशाब आना, भूख बढ़ना, वजन कम होना, धुंधला नजर आना और बहुत ज्यादा थकावट महसूस करना.

टाइप 2 : 90 से 95% लोग टाइप 2 डाइबिटीज से पीडि़त होते हैं. इस स्थिति में पैंक्रियाज से इंसुलिन तो काफी मात्रा में निकलता है पर शरीर इस का सही उपयोग नहीं कर पाता है. इस अवस्था को इंसुलिन रिजिस्टेंस कहा जाता है. समय के साथ इंसुलिन उत्पादन भी घटने लगता है.

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टाइप 2 डाइबिटीज के लक्षण धीरेधीरे  विकसित होते हैं. इन में प्रमुख हैं- थकान होना, अधिक प्यास लगना, ज्यादा भूख लगना, वजन में परिवर्तन, नजर का धुंधला पड़ना, व्याकुलता होना, इन्फैक्शन होना (स्किन इन्फैक्शन, यूटीआई), घाव भरने में वक्त लगना आदि. इस समस्या के लिए मुख्य रूप से मोटापा और अधिक उम्र जिम्मेदार होती है. टाइप 2 से पीडि़त 80% लोग अधिक वजन के होते हैं. इस के अलावा डाइबिटिक फैमिली हिस्ट्री, शारीरिक असक्रियता, तनाव, इन्फैक्शन, हाइपरटेंशन आदि मुख्य कारण हैं. डाइबिटीज की वजह से किडनी, दिल, नर्वस सिस्टम और आंखोें पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ सकता है. इसलिए इस से बचाव बहुत जरूरी है. साधारणतया, डाइबिटीज की समस्या पूरी तरह ठीक नहीं हो पाती, मगर नियमित दवा लेने, व्यायाम करने, शारीरिक सक्रियता और खानपान का ध्यान रख कर हम इसे कंट्रोल में रख सकते हैं. मसलन :

अपने भोजन में पोषक तत्त्वों, जैसे विटामिन बी6, विटामिन सी,ई,डी, जिंक, मैग्नीशियम, बायोटिन, क्रोमियम, ओमेगा 3 आदि की संतुलित मात्रा लेने का प्रयास करें. हाई फाइबर वाली सब्जियां खाएं. जंक फूड, सैचुरेटेड फैट या कोलैस्ट्रौल बढ़ाने वाली चीजें कम लें.

शारीरिक सक्रियता बनाए रखें. रोज कम से कम 30 मिनट जरूर टहलें.

ब्लडप्रैशर व कोलैस्ट्रौल नियमित रखें और इन की नियमित जांच कराते रहें. ब्लड ग्लूकोज की जांच भी नियमित अंतराल पर कराएं.

ताजा रिसर्च में स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने पाया है कि बहुत से हर्बल सप्लीमैंट, जैसे बिल्बरी, गर्लिक, त्रिफला, ओनियन, नोपल कैक्टस, मेलन वगैरह भी ग्लूकोज लेवल घटाने में सहायक हैं. अत: इन का उपयोग भी किया जा सकता है.

वजन न बढ़ने दें और तनाव से भी बचें.

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हीमोक्रोमैटोसिस से बचाव का क्या तरीका है?

सवाल- 

मैं 25 वर्षीय महिला हूं. मेरे पिता 38 वर्ष की उम्र से हीमोक्रोमैटोसिस से पीडि़त हैं. यह आनुवंशिक बीमारी है. भले ही मेरा स्वास्थ्य अभी अच्छा है, फिर भी मुझे यह बीमारी होने का डर है. मैं व्यायाम करती हूं और संतुलित आहार लेती हूं. यह बीमारी मुझे न हो, इस के लिए मुझे क्या सावधानियां बरतनी चाहिए?

जवाब-

हीमोक्रोमैटोसिस को ले कर आप की चिंता स्वाभाविक है, क्योंकि यह आप के जींस में है. लेकिन इस बीमारी के कारण महिलाओं के अंगों को नुकसान जीवन के काफी बाद के चरणों में पहुंचता है, क्योंकि हर महीने माहवारी के जरीए उन के शरीर से खून निकल जाता है. अंग खराब होने के सभी संकेत एवं लक्षण पुरुषों की तुलना में महिलाओं में 10 वर्ष बाद देखे जाते हैं. यदि आप के पूरे शरीर में बिना किसी चोट के रक्त के थक्के दिखाई देते हैं, तो फौरन डाक्टर से जांच करवाएं. आप इस बीमारी से बचने के लिए आयरन चीलेशन थेरैपी, थेरैप्यूटिक फ्लीबोटोमी करा सकती हैं, साथ ही आहार में भी कुछ बदलाव कर सकती हैं.

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गर्भ से ही कुछ बच्चों में उन के शरीर के अंगों में विकृतियां आने से ले कर उन की ऐक्टिविटीज और ऊर्जा तक बदलने आदि की समस्याएं शुरू हो जाती हैं. वे बच्चे जब इन स्वास्थ्य समस्याओं के साथ जन्म लेते हैं तो उन्हें हम जन्मदोष कहते हैं. जन्मदोष के 4,000 से अधिक विभिन्न प्रकार हैं. इन में वे भी हैं जिन्हें ठीक करने के लिए किसी तरह के इलाज की जरूरत नहीं पड़ती और दूसरे वे गंभीर बीमारियां भी हैं, जिन के लिए शल्य चिकित्सा की जरूरत पड़ती है, जिस के न होने से बच्चे के अपंगता के शिकार होने की भी संभावना रहती है. एक सर्वे के अनुसार, हर 33 में से 1 बच्चा जन्मदोष के साथ पैदा होता है. उस में भी अगर कोई बच्चा कुरूप हो कर जन्म ले या उस बच्चे के शरीर का कोई अंग गायब हो, तो उसे भी संरचनात्मक जन्मदोष ही कहा जाता है. हार्ट डिफैक्ट भी संरचनात्मक जन्मदोष का एक प्रकार है, तो हड्डियों का विस्थापित होना भी.

जो लोग मातापिता बनना चाहते हैं उन्हें यह जानना जरूरी है कि कुछ जन्मदोषों को होने से रोका जा सकता है. इस के लिए गर्भावस्था के दौरान पर्याप्त मात्रा में आयोडीन तथा फौलिक ऐसिड का सेवन करना फायदेमंद रहता है. इस से बच्चे को काफी हद तक जन्मदोषों से बचाया जा सकता है.

कारण

जन्मदोष का एक कारण तो वातावरण से संबंधित होता है यानी गर्भ के दौरान बच्चा किन कैमिकल या वायरस के संपर्क में था, तो दूसरा कारण भू्रण के जीन में कोई समस्या होना हो सकता है या हो सकता है कि दोनों ही कारण हों. अगर गर्भावस्था के दौरान महिला को किसी प्रकार का संक्रमण है तो भी बच्चा जन्मदोष के साथ पैदा हो सकता है. अन्य कारण, जिन की वजह से जन्मदोष हो सकते हैं, वे हैं रुबेला और चिकन पौक्स. अच्छी बात यह है कि ज्यादातर लोगों को इन के संक्रमण से बचने के लिए टीके लगा दिए जाते हैं, इसीलिए इस प्रकार के संक्रमण होने के खतरे कम होते हैं. गर्भवती महिला के द्वारा शराब पीने से फीटल अल्कोहल सिंड्रोम की समस्या हो सकती है. इस के अलावा कुछ ऐसी दवाएं भी हैं जिन्हें लेने से बच्चे में जन्मदोष की संभावना बहुत ज्यादा बढ़ जाती है. डाक्टर ज्यादातर ऐसी दवाएं गर्भावस्था के दौरान देने से बचते हैं. शरीर की हर कोशिका में क्रोमोसोम्स होते हैं, जो जीन से बने होते हैं. ये किसी इंसान की अद्वितीय विशेषताओं का निर्धारण करते हैं. गर्भधारण के दौरान बच्चा मातापिता से 1-1 क्रोमोसोम जीन के साथ ग्रहण करता है. इस प्रक्रिया के दौरान किसी भी तरह की गलती बच्चे में क्रोमोसोम की मात्रा को बढ़ा या घटा सकती है या इस से क्रोमोसोम्स को क्षति भी पहुंच सकती है. डाउन सिंड्रोम एक ऐसा जन्मदोष है जो क्रोमोसोम की समस्या के कारण ही होता है. यह बच्चे में 1 क्रोमोसोम के ज्यादा आने की वजह से होता है. बाकी जैनेटिक डिफैक्ट भी मातापिता के गलत जीन के मौजूद होने के कारण ही होते हैं. इस प्रक्रिया को रिसेसिव इन्हैरिटैंस कहते हैं. जन्मदोष केवल एक व्यक्ति के जीन के कारण भी संभव है जिसे डौमिनैंट इन्हैरिटैंस कहते हैं.

इन 6 वार्निंग सिग्नल्स न करें अनदेखा

वार्निंग का अर्थ है किसी आने वाले खतरे की निशानी. हम अपने आसपास होने वाली हर हरकत का ध्यान रखते हैं और यदि हमें किसी चीज की हलकी सी भी वार्निंग मिलती है, तो हम उस से दूर हो जाते हैं ताकि हमें किसी तरह का नुकसान न पहुंचे. लेकिन जब यही बात जुड़ी होती है हमारी सेहत से तो हम कई वार्निंग सिग्नल्स यानी खतरे की निशानियों को अनदेखा कर देते हैं. अगर सीने में हलका सा दर्द हो तो हम यह सोच कर उसे अनदेखा कर देते हैं कि शायद गैस का दर्द हो. हम यह सोचना भी नहीं चाहते कि यह दिल से जुड़ी किसी बीमारी का लक्षण भी हो सकता है. हमारी यही असावधानियां हमें बीमारी की ओर धकेल देती हैं. प्राइमस सुपर स्पैश्यलिटी हौस्पिटल के डा. अनुराग सक्सेना के अनुसार हमारा शरीर हमारे स्वास्थ्य से जुड़ी हर बीमारी का हमें वार्निंग सिग्नल देता है और दिल से जुड़ी बीमारियों के कई वार्निंग सिग्नल्स होते हैं जैसे:

चिंता: अधिक चिंता दिल से जुड़ी बीमारी का एक मुख्य कारण है. ऐसी स्थिति में कभीकभी इंसान को इतनी तकलीफ होती है कि उस से उसे मृत्यु होने का आभास होने लगता है.

सीने में बेचैनी: सीने में बेचैनी और दर्द का आभास खतरे की घंटी है. यह दिल से जुड़ी बीमारी का एक लक्षण है. परंतु हर किसी के मामले में नहीं. जो दर्द हृदयरोग से संबंधित होता है वह अकसर छाती की बाईं ओर होता है. उस समय मनुष्य को ऐसा महसूस होता है मानों सीने पर भारी सामान रख दिया हो.

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खांसी: अधिक खांसी दिल के दौरे का एक मुख्य लक्षण है. इस का मुख्य कारण है फेफड़ों में तरल पदार्थ का जमा होना. कुछ मामलों में दिल की विफलता के साथ खून की उलटी भी होती है.

चक्कर आना: चक्कर आना भी दिल के दौरे के लक्षण है. इस से चेतना की हानि होती है.

थकान: विशेष रूप से महिलाओं के बीच असामान्य थकान दिल का दौरा पड़ने के दौरान होने वाला एक लक्षण है. ऐसे समय पर डाक्टर से जरूर मिलें, क्योंकि जरूरी नहीं है कि थकान का सिर्फ यही कारण हो. अपनी दिनचर्या का भी खास खयाल रखें.

शरीर के अन्य भागों में दर्द: कुछ दिल के दौरों में दर्द सीने में शुरू होता है और कंधे, हाथ, कुहनी, पीठ, गरदन, जबड़े या पेट तक फैल जाता है. मगर कई बार सीने में दर्द नहीं होता. 1 या दोनों हाथों या कंधों के बीच के हिस्सों में दर्द होता है. अनियमित दिल की धड़कन: दिल की धड़कन के अनियमित होने के कई कारण हैं जैसे रक्तचाप बढ़ना, तेज चलना आदि. परंतु दिल की धड़कन का अनियमित होने का एक कारण दिल का दौरा भी है. इस के कई और भी लक्षण हैं जैसे सांस फूलना, पसीना आना, सूजन, दुर्बलता का एहसास होना आदि. कई ऐसी और बीमारियां भी हैं जो हमें वार्निंग सिग्नल्स देती हैं. उन में पैरालाइसिस भी एक है.

पैरालाइसिस का अर्थ है शरीर में हिलनेडुलने की क्षमता का खत्म हो जाना. पैरालाइसिस की बीमारी कई प्रकार की होती है. यह शरीर के अलगअलग भाग को प्रभावित करती है जैसे किसी के हाथों को तो किसी के पैरों को. किसीकिसी केस में पैरालाइसिस चेहरे को भी प्रभावित करता है.

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प्राइमस हौस्पिटल के मस्तिष्क रोग विशेषज्ञ डा. के.के. चौधरी के अनुसार पैरालाइसिस का मुख्य कारण ऐक्सीडैंट, शौक या ट्रामा होता है. ब्लडप्रैशर बढ़ने से भी इस का खतरा होता है. मस्तिष्क से जुड़ी और भी कई बीमारियां होती हैं, जिन का खास खयाल रखना चाहिए. इस के मुख्य लक्षण हैं ध्यान न लगा पाना, सिरदर्द, याददाश्त में कमी, व्यवहार में बदलाव, मांसपेशियों पर नियंत्रण की कमी आदि.  

– डा. अनुराग सक्सेना  प्राइमस सुपर स्पैश्यलिटी हौस्पिटल

पीरियड्स में साफ रहें स्वस्थ रहें

माहवारी को यौवन की शुरुआत कहा जाता है. महिलाएं इस का अनुभव किशोरावस्था से ले कर मध्य आयु तक करती हैं. फिर भी अभी तक हमारे समाज में इस के बारे में खुल कर बात नहीं की जाती है. यहां तक कि कुछ लोगों की तो मान्यता है कि माहवारी के समय महिलाएं बीमार और अछूत हो जाती हैं.

इस तरह की बातें दकियानूसी होती हैं. माहवारी कोई बीमारी नहीं है. माहवारी महिलाओं को प्रकृति का एक अनमोल तोहफा है, जो महिलाओं को पूर्ण बनाता है. महिलाओं को माहवारी के दौरान शर्म की जगह गर्व महसूस करना चाहिए, क्योंकि वे पूर्ण हैं.

जानकारी जरूरी

हर लड़की को माहवारी की समस्या से जूझना पड़ता है. लेकिन यह समस्या तब और बड़ी लगने लगती है जब बिना किसी जानकारी के इस से निबटना पड़े. अकसर लड़कियां झिझक के कारण किसी से माहवारी के विषय में बात नहीं करतीं. नतीजा यह होता है कि अचानक पीरियड्स शुरू हो जाते हैं और वे घबरा जाती हैं. इस घबराहट में वे अपनी तबीयत खराब कर लेती हैं. जबकि उन्हें पहले से ही माहवारी की जानकारी हो तो इस स्थिति से निबटना उन के लिए आसान हो जाता है.

सभी मांओं को अपनी बेटियों को उन के शरीर में होने वाले प्राकृतिक बदलावों के बारे में पहले से बताना चाहिए. ऐसा करने से मांएं अपनी बेटियों को बेवजह तनाव का शिकार बनने से रोक पाएंगी.

उपेक्षित महसूस न करें

पुरानी रीतियों और रिवाजों के तहत माहवारी के दौरान लड़कियों पर कई तरह की पाबंदियां लगा दी जाती हैं. जैसे रसोई में न जाओ, बिस्तर में न बैठो, पेड़पौधों को न छुओ. इस तरह की टोकाटाकी से लड़कियां खुद को उपेक्षित महसूस करने लगती हैं. माहवारी के दिन आते ही वे खुद को अपराधी सा महसूस करने लगती हैं.

कई लड़कियां तो माहवारी  के दिनों में अवसादग्रस्त हो जाती हैं. इस तरह के मानसिक बदलाव के कारण रक्तस्राव में फर्क पड़ता है. किसी को रक्तस्राव अधिक होने लगता है तो किसी को बहुत कम. लेकिन इस स्थिति में बिलकुल भी तनाव नहीं लेना चाहिए, क्योंकि माहवारी होना एक प्राकृतिक क्रिया है.

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साफसफाई है जरूरी

कई महिलाओं को भ्रम होता है कि माहवारी के समय केशों को नहीं धोना चाहिए. इस से माहवारी ठीक से नहीं हो पाती और रक्तस्राव भी कम होता है. कुछ महिलाएं तो माहवारी के समय नहाने तक को सही नहीं समझतीं और जब तक रक्तस्राव होता है तब तक वे नहीं नहातीं. दरअसल, उन का मानना होता है कि नहाने से माहवारी के समय अधिक दर्द होता है. लेकिन यह सिर्फ भ्रम है. उलटे माहवारी के समय नहाना बेहद जरूरी है. इस समय तो शरीर की साफसफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए खासकर योनि व उस के आसपास की सफाई बेहद जरूरी है.

सैनिटरी नैपकिन का रखरखाव

कई महिलाएं सैनिटरी नैपकिन को कहीं भी रख देती हैं. जबकि ऐसा नहीं करना चाहिए. खासतौर पर खुले और इस्तेमाल किए जाने वाले सैनिटरी नैपकिन को हमेशा साफसुथरे स्थान पर रखना चाहिए. यदि इस्तेमाल किए जा रहे नैपकिन को गंदे स्थान पर रखा जाए तो उस में कीटाणु पनपने लगते हैं, जिस से संक्रमण फैलने का खतरा रहता है.

इतना ही नहीं इस्तेमाल किए जा चुके पैड को फेंकने में भी सावधानी बरतनी चाहिए. खुले स्थान पर पैड कभी नहीं फेंकना चाहिए. पैड को हमेशा कागज में लपेट कर कूड़े के ढेर में फेंकना चाहिए.

सैनिटरी नैपकिन का चुनाव

माहवारी की जानकारी तब तक अधूरी है जब तक आप सही सैनिटरी नैपकिन के चुनाव के बारे में नहीं जानतीं. आजकल मार्केट में कई साइजों और वैराइटी में सैनिटरी नैपकिन उपलब्ध हैं. लेकिन आप को अपनी बेटी को कौटन लेयर वाले स्लिम सैनिटरी नैपकिन इस्तेमाल करने की सलाह देनी चाहिए.

डाक्टरों और हाल ही में की गई स्टडीज के अनुसार माहवारी के दौरान हर 6 घंटे के अंतराल पर नैपकिन बदलते रहना चाहिए. फिर चाहे रक्तस्राव कम हो रहा हो या अधिक. इस के अतिरिक्त उसे यह भी बताएं कि वही सैनिटरी नैपकिन इस्तेमाल करे, जो गीलेपन को अच्छी तरह सोख कर जैल में परिवर्तित कर दे.

अपनी परेशानी बेझिझक बताएं

कई बार मांएं बेटियों की बातों को यह कह कर अनसुनी कर देती हैं कि पीरियड्स में ऐसा तो होता ही है. लेकिन ऐसा करना गलत है, क्योंकि माहवारी की शुरुआत में लड़कियों को कई प्रकार की तकलीफें होती हैं, जिन्हें बताने में वे हिचकिचाहट महसूस करती हैं. जबकि अपनी मां को अपनी तकलीफ बता कर बेटी निश्चिंत हो जाती है.

इसलिए समयसमय पर मांओं को खुद भी बेटियों से पूछते रहना चाहिए कि उन्हें किस तरह की समस्या आ रही है. साथ ही बेटियों को भी बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी मांओं को अपनी परेशानी बतानी चाहिए ताकि समय रहते उस का इलाज करवाया जा सके.

आज भी भारत में महिलाओं के बीच माहवारी के दौरान सैनिटरी नैपकिन की जगह कपड़ा इस्तेमाल करने से जुड़ी कई भ्रांतियां हैं. एक सर्वे के अनुसार भारत में केवल 12% महिलाएं ही माहवारी के दौरान साफसुथरे नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं. बाकी महिलाएं इन दिनों घर में पड़े पुराने कपड़ों का इस्तेमाल करती हैं. कुछ महिलाएं कपड़े के अंदर रुई भर कर उसे पैडनुमा आकार दे कर इस्तेमाल करती हैं. जरूरत पड़ने पर दिन में 2-3 बार वे इसी तरह पैड बना कर उस का इस्तेमाल कर लेती हैं.

कई महिलाएं तो इतना भी नहीं करतीं. वे सिर्फ गंदे कपड़े को हटा कर उस की जगह साफ कपड़ा लगा लेती हैं. लेकिन ऐसा करना अपने  स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करना है. महिलाएं ऐसा 2 वजहों से करती हैं. पहली वे महंगे सैनिटरी नैपकिन नहीं खरीदना चाहतीं, दूसरी उन में भ्रांति है कि नैपकिन का इस्तेमाल करने से रक्तस्राव ज्यादा होता है और संक्रमण फैलने का खतरा रहता है. जबकि ऐसा नहीं है.

सैनिटरी नैपकिन खरीदने में थोड़ा पैसा जरूर लगता है, लेकिन वे बेहद स्वच्छ होते हैं. उन के इस्तेमाल से किसी तरह का संक्रमण नहीं फैलता. वहीं कपड़े के इस्तेमाल से युरिन इन्फैक्शन, योनि के आसपास की त्वचा में खुजली आदि का खतरा हो जाता है. कपड़े औैर रुई के इस्तेमाल से त्वचा को औक्सीजन मिलने में दिक्कत होती है, जिस से संक्रमण फैलने का खतरा बढ़ जाता है. इस तरह के संक्रमण से बचने के लिए सैनिटरी नैपकिन से बेहतर कोई विकल्प नहीं है.

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महिलाओं में ऐनीमिया

ऐनीमिया भारतीय महिलाओं में एक आम बीमारी है. ऐनीमिया शरीर में 2 जरूरी पोषक तत्त्वों-विटामिन बी 12 और आयरन की कमी से होता है. महिलाओं की शारीरिक रचना इस तरह की होती है कि मासिकस्राव, गर्भावस्था एवं प्रसव में बहुत अधिक रक्त उन के शरीर से बाहर निकल जाता है. ये सारी स्थितियां उन्हें ऐनीमिया का शिकार बना देती हैं.

ऐनीमिया किसी भी आयुवर्ग एवं शारीरिक बनावट की महिला को हो सकता है. लेकिन इस का पता सिर्फ रक्त की जांच से ही चल सकता है.

क्या है ऐनीमिया

हमारे शरीर के सैल्स को जिंदा रहने के लिए औक्सीजन की जरूरत होती है. शरीर के अलगअलग हिस्सों में औक्सीजन रैड ब्लड सैल्स में मौजूद हीमोग्लोबिन पहुंचाता है. आयरन की कमी और दूसरी वजहों से रैड ब्लड सैल्स और हीमोग्लोबिन की मात्रा जब शरीर में कम हो जाती है, तो उस स्थिति को ऐनीमिया कहते हैं.

आरबीसी और हीमोग्लोबिन की कमी से सैल्स को औक्सीजन नहीं मिल पाती. कार्बोहाइड्रेट और फैट को जला कर ऐनर्जी पैदा करने के लिए औक्सीजन जरूरी है. औक्सीजन की कमी से हमारे शरीर और दिमाग की काम करने की क्षमता पर असर पड़ता है.

ऐनीमिया के प्रकार

माइल्ड: अगर बौडी में हीमोग्लोबिन 10 से 11 जी/डीएल के आसपास हो तो उसे माइल्ड ऐनीमिया कहते हैं. इस में हैल्दी और बैलेंस्ड डाइट खाने की सलाह के अलावा आयरन सप्लिमैंट्स दिए जाते हैं.

मौडरेट: अगर हीमोग्लोबिन 8 से 9 जी/डीएल से कम हो तो सीवियर ऐनीमिया कहलाता है, जो एक गंभीर स्थिति होती है. इस में मरीज की हालत को देखते हुए ब्लड भी चढ़ाना पड़ सकता है.

सीवियर: अगर हीमोग्लोबिन 8 जी/डीएल से कम हो तो सीवियर ऐनीमिया कहलाता है, जो एक गंभीर स्थिति होती है. इस में भी मरीज की हालत की गंभीरता को देखते हुए ब्लड भी चढ़ाना पड़ सकता है.

ऐनीमिया के लक्षण

ऐनीमिया से पीडि़त महिला को सुस्ती, सिर में दर्द, छाती में दर्द, त्वचा में पीलापन, शरीर का ठंडा रहना, मामूली कामकाज से थकान, शारीरिक शक्ति में कमी, हांफना, रुकरुक कर सांसें लेना, दिल की धड़कन का अनियमित होना आदि शारीरिक लक्षणों से गुजरना पड़ता है.

ऐनीमिया से खतरा

खून की कमी होने पर हृदय को अधिक काम करना पड़ता है. खून की कमी से हृदय की धड़कन बढ़ जाती है, जिस से हृदयाघात का खतरा रहता है. खून की कमी से ही शरीर के कई अंग अपनी पूर्ण क्षमता के साथ काम नहीं कर पाते. यह शरीर को अक्षम बना देता है. शारीरिक विकास की गति थम जाती है और जीवनकाल कम हो जाता है.

महिलाओं की सारी शारीरिक गतिविधियां खून की कमी के कारण प्रभावित हो जाती हैं. खासतौर पर गर्भस्थ शिशु का विकास पूर्णरूप से नहीं हो पाता. इस से किसी भी समय गर्भपात हो सकता है.

ऐनीमिया की जांच व निदान

ऐनीमिया का पता लगाने के लिए प्रयोगशाला में रक्त की जांच ही एकमात्र उपाय है. इस में महिला के कंप्लीट ब्लड काउंट की जांच होती है. महिलाओं में इस की संख्य 11 से 15 होती है. यदि ब्लड काउंट निर्धारित संख्या से कम होते हैं तो इस का मतलब महिला ऐनीमिया पीडि़त है. फिर इस का इलाज किया जाता है और संतुलित खानपान की सलाह दी जाती है. दरअसल, हमारे दैनिक खानपान में बहुत सी ऐसी वस्तुएं हैं जिन का सेवन रक्त बढ़ाने में सहायक होता है.

रक्त वृद्धि

हीमोग्लोबिन को बढ़ाने में आयरन, विटामिन सी एवं बी-12 प्रमुख व सहायक घटक हैं. हरी सब्जियां जैसे पालक, मेथी, चौलाई, मटर आदि रक्त बढ़ाने में सहायक होते हैं. साथ ही  मूंगफली, मसूर, बादाम, किशमिश, अंडा, मांस, मछली आदि में भी रक्त बढ़ाने की क्षमता होती है. लाल व बैगनी रंग के फल एवं सब्जियों में भी आयरन की मात्रा होती है.

रक्त नवनिर्र्माण में सहायक द्वितीय मुख्य घटक विटामिन सी है. यह शरीर को आयरन के अवशोषण में सहायता करता है. विटामिन सी सभी रसदार फलों जैसे नीबू, मौसमी, संतरा, आम, स्ट्राबैरी, तरबूज, खरबूजा, अमरूद, आंवला, कीवी आदि में पाया जाता है. यह टमाटर, गोभी और आलू में भी होता है. विटामिन बी-2 एवं मल्टी विटामिन अंकुरित अनाज, दलहन में पाया जाता है. ये सभी रक्त निर्माण में सहायक हैं.

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किन्हें खतरा ज्यादा

जिन महिलाओं को किडनी में समस्या, डायबिटीज, बवासीर, हर्निया और दिल की बीमारी है, उन्हें ऐनीमिया होने का ज्यादा खतरा होता है. शाकाहारी महिलाओं या स्मोकिंग करने वाली महिलाओं को भी ऐनीमिया का खतरा रहता है. यदि पीरियड्स के दौरान बहुत ज्यादा ब्लीडिंग हो तो फौरन डाक्टर को दिखाएं, क्योंकि इस से शरीर में आयरन तेजी से कम हो जाता है.

हाल ही में किए गए एक शोध में यह बात सामने आई है कि भारत में लगभग 50% महिलाएं ऐनीमिया की शिकार हैं. महिलाओं की शारीरिक संरचना के अनुसार माहवारी या अन्य कारणों से उन में रक्तस्राव होना स्वाभाविक है, पर जब यह ज्यादा मात्रा में होने लगे तो इस के रोकथाम के उपाय करना जरूरी है.

फैटी लीवर के कारण मैं परेशान हूं, कृपया इलाज बताएं?

सवाल-

सप्ताह भर पहले मेरे पेट के ऊपरी हिस्से में अचानक तेज दर्द हुआ. अल्ट्रासाउंड कराने के बाद डाक्टर ने बताया कि मेरा लिवर फैटी है. मेरा वजन अधिक नहीं है, लेकिन यह ओवरवेट की शुरुआती सीमा के पास ही है. मैं ऐसा क्या करूं, जिस से यह बीमारी न बन सके?

जवाब-

आप को वसा एवं चीनी के सेवन से बचना चाहिए यानी जंक फूड, तले भोजन, बेकरी के उत्पादों, कुकीज, शराब, तंबाकू के सेवन से परहेज करें ताकि आप के लिवर में और वसा न बने. फलों के सेवन की मात्रा भी कम करें, क्योंकि इन में भारी मात्रा में चीनी होती है. अपने आहार में ज्यादा सब्जियां शामिल करें. आप उन्हें कच्चा अथवा पका कर खा सकते हैं. वजन कम करने के लिए खूब व्यायाम करें.

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लीवर में छाले पड़ना यानि लीवर के कुछ भाग में पस जमा होने लगता है, जो काफी दर्दनाक होता है. अगर समय पर इसका इलाज नहीं करवाया जाता तो ये जख्म फूट सकते हैं और इससे निकलने वाली गंदगी रक्त प्रवाह के जरिए शरीर के अन्य हिस्सों में पहुंचकर उन्हें संक्रमित कर सकती है.  इस संबंध में बताते हैं मणिपाल होस्पिटल के लीवर ट्रांसप्लांटेशन सर्जन डाक्टर राजीव लोचन. साधारण तौर पर यह बीमारी दो प्रकार की होती है- एमिओबिक लीवर एब्सेस और पायोजेनिक लीवर एब्सेस .वैसे आपके लीवर में छाले पड़ने के कई कारण हो सकते हैं. बता दें कि एमिओबिक  लीवर एब्सेस का महत्वपूर्ण कारण यह है कि यह बीमारी एन्टामिबा हिस्टॉलिटिका  जैसे पेरेसाइट्स के चलते होती है. इसका मतलब यह है कि लीवर के मार्ग में इंफेक्शन के चलते  एमिबायासिस होता है. पायोजेनिक लीवर एब्सेस होने का प्रमुख कारण इंटेस्टाइन ट्रैक या मूत्र मार्ग का इंफेक्शन होना ही अकसर माना जाता है.

एब्सेस की बीमारी होने में उम्र भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.  एमिओबिक  लीवर एब्सेस की बीमारी अधिकतर अधिक उम्र के लोगों में ज्यादा होती है. वयस्क लोग विशेष रूप से जिन्हें मधुमेह या जिनकी कीमोथेरेपी हुई होती है , उन्हें लीवर एब्सेस होने का खतरा सबसे अधिक होता है. या फिर ऐसे व्यक्ति जिनकी प्रतिकार क्षमता कम हो या जो वजन घटाने का कोई उपचार कर रहे हैं , उन्हें भी लीवर की बीमारियां होने का खतरा सबसे अधिक हो सकता है.

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अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz   सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

माइग्रेन सताए तो करें ये उपाय

30 वर्षीय रेहाना पब्लिशिंग हाउस में ऐडिटर हैं. उन्हें भयंकर सिरदर्द रहता है, लेकिन उन्होंने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया. शुरुआती वर्षों में यह सिरदर्द भयंकर तो था, लेकिन कभीकभी ही उभरता था. मगर फिर सप्ताह में 3 बार उभरने लगा. कई बार तो दर्द बरदाश्त से बाहर हो जाता. फिर जब वे डाक्टर से मिलीं तो उन्होंने बताया कि आप क्रोनिक माइगे्रन से पीडि़त हैं. माइग्रेन के सिरदर्द की सही वजह तो नहीं बताई जा सकती, लेकिन माना जाता है कि मस्तिष्क की असामान्य गतिविधियां स्नायु के सिगनल्स को प्रभावित करती हैं. मस्तिष्क की रक्तनलिकाएं इसे और तीव्र कर सकती हैं. यह डिसऔर्डर लगातार स्थिति बिगाड़ने वाला होता है, जिस से प्रभावित व्यक्ति की जिंदगी अस्तव्यस्त हो जाती है. इस के बावजूद बहुत सारे लोग चिकित्सकीय सलाह नहीं लेते.

क्रोनिक माइग्रेन की स्थिति को गंभीरता से लेना चाहिए. चिकित्सकीय सहायता, पौष्टिक खानपान व लाइफस्टाइल में बदलाव लाने से माइग्रेन की स्थिति पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है.

माइग्रेन का दौरा

माइग्रेन का दर्द बढ़ाने में कई कारक जिम्मेदार होते हैं. मसलन, हारमोनल बदलाव, नींद की कमी, अनियमित खानपान, ऐसिडिटी, अवसाद और धूप में रहना. कुछ महिलाओं को हारमोनल कारणों से मासिकधर्म के समय माइग्रेन का दौरा पड़ता है, जबकि कुछ लोगों को तेज रोशनी, ट्रैफिक के शोरशराबे और तीखी गंध के कारण इस स्थिति से गुजरना पड़ता है. खानेपीने की कुछ चीजों से भी माइगे्रन की संभावना बढ़ती है.

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तनाव और माइग्रेन

माइग्रेन की समस्या मस्तिष्क के स्नायु से शुरू होती है. मस्तिष्क में किसी तरह का बड़ा दबाव मस्तिष्क की गतिविधियों को सक्रिय करते हुए सिरदर्द की स्थिति में ला सकता है. अत: तनाव से यथासंभव बचना चाहिए ताकि हमारे शरीर और मस्तिष्क पर उस का कोई नकारात्मक प्रभाव न पड़े. महिलाओं को अकसर कई तरह की जिम्मेदारियां एकसाथ पूरी करनी पड़ती हैं. अपने कैरियर से जुड़े कामकाज के अलावा उन्हें परिवार की जिम्मेदारी भी उठानी पड़ती है. ऐसी स्थिति में वे बहुत ज्यादा काम के दबाव की स्थिति से गुजरती हैं, इसलिए माइगे्रन उन में ज्यादा पाया जाता है.

नींद का अभाव, भोजन से वंचित रहना, चिंता आदि कारणों से भी तनाव बढ़ता है और यह माइग्रेन के सिरदर्द का कारण बनता है. कई बार दर्दनिवारक दवा के ज्यादा इस्तेमाल से भी बारबार सिरदर्द उभरता है. कुछ समय बाद ये दर्दनिवारक दवाएं दर्द मिटाने में बेअसर हो जाती हैं. इस के अलावा लंबे समय तक दर्दनिवारक दवाओं का इस्तेमाल सिरदर्द के साथसाथ किडनी, लिवर और पेट पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालने लगता है.

उपचार

शुरुआती स्तर के दर्द से नजात दिलाने के लिए डाक्टर अकसर माइगे्रन के बचावकारी इलाज पर ध्यान देते हैं और माइग्रेन के दौरे से उन्हें दूर रखते हैं. स्ट्रैस की स्थिति को बचावकारी उपायों से ही प्रबंधित किया जा सकता है. इस के समाधान में पौष्टिक भोजन सप्लिमैंट, व्यायाम, लाइफस्टाइल में बदलाव माइगे्रन के दौरे को टालने के उपाय हैं. यदि आप धूप के प्रति संवेदनशील हैं तो तेज धूप में न निकलें. कुछ लोगों पर ये उपचार पद्धतियां कारगर होती हैं और इन से उन के जीवन में व्यापक बदलाव आ जाता. हालांकि क्रोनिक माइग्रेन से पीडि़त कुछ लोगों पर ऐसी परंपरागत पद्धतियों का कोई असर नहीं होता. ऐसे लोगों के लिए ओनाबोटुलिनम टौक्सिन टाइप ए का इंजैक्शन ही राहत देता है. ऐसे वयस्क मरीजों को रोग से नजात दिलाने के लिए इस दवा को अमेरिकी फूड ऐंड ड्रग ऐडमिनिस्ट्रेशन से मंजूरी मिली है. जो महीने में 15 या इस से अधिक दिनों तक सिरदर्द की समस्या से पीडि़त रहते हैं, उन्हें यह दवा गंभीर दर्द से राहत दिलाने में कारगर है.

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यह दवा स्नायु के उन संकेतकों को अस्थायी रूप से अवरुद्ध करने का काम करती है, जिन से बेचैनी और दर्द बढ़ाने वाले रसायन प्रवाहित होते हैं. इस दवा का असर कई महीनों तक रहता है. 3 महीनों के अंतराल पर नियमित रूप से इस का इंजैक्शन लेने वाले मरीजों में आश्चर्यजनक सुधार आ सकता है. ओनाबोटुलिनम टौक्सिन टाइप ए इंजैक्शन सिर के पास के कुछ खास बिंदुओं पर लगाए जाते हैं और ये निपुण चिकित्सकों द्वारा ही लगाए जाते हैं. स्ट्रैस मैनेजमैंट भी एक महत्त्वपूर्ण उपाय है, जिसे बेहद तनावपूर्ण जीवनशैली जीने वालों को अपनाना चाहिए. सक्रिय रहें, पर्याप्त नींद लें, क्योंकि नींद की कमी से तनाव और बढ़ता है. तनाव से राहत दिलाने में व्यायाम की भी अहम भूमिका होती है. आराम दिलाने वाले व्यायाम करने की प्रक्रिया अपनाएं, जिन से आप को तनाव से मुकाबला करने में मदद करेगी.       

– डाक्टर राजशेखर रेड्डी 
मैक्स हौस्पिटल, नई दिल्ली

सेक्सुअल हेल्थ से जुड़ी प्रौब्लम का इलाज बताएं?

सवाल-

मैं 34 वर्षीय कामकाजी महिला हूं. मेरे 2 बच्चे हैं. छोटी बच्ची 4 साल की है. उस के जन्म के बाद से मेरी योनि काफी ढीली हो गई है. नतीजतन पति को सैक्स के समय संतुष्ट नहीं कर पाती. इस से मन हमेशा बेचैन रहता है. पिछले दिनों एक पत्रिका में मैं ने एक विज्ञापन देखा, जिस में योनि में दवा रखने से कसावट लौट आने का दावा किया गया था. क्या उस दवा का प्रयोग करना वाजिब होगा?

जवाब-

आप जिस समस्या से परेशान हैं, वह आप की उम्र की स्त्रियों में आम पाई जाती है. प्रसूति से गुजरने और उम्र बढ़ने के साथ बहुत सी स्त्रियों में योनि की चुस्ती स्वाभाविक रूप से घट जाती है और उस में शिथिलता आ जाती है. ऐसे में उसे फिर से कसा बनानेकी सब से आसान और सुगम युक्ति नियम से श्रोणि पेशियों का व्यायाम करना है. यह व्यायाम कोई भी स्त्री दिन में किसी भी समय कर सकती है. व्यायाम करने की विधि बिलकुल सीधीसरल है. सिर्फ कुछ मिनट निकालने की जरूरत है. आप चाहें तो इसे लेटे, बैठे या खड़ी किसी भी मुद्रा में कर सकती हैं. बस, श्रोणि पेशियों को इस प्रकार सिकोड़ें और भींच कर रखें मानों मूत्रत्याग की क्रिया पर रोक लगाने की जरूरत है. 10 की गिनती तक श्रोणि पेशियों को भींचे रखें और फिर ढीला छोड़ दें. अगले 10 सैकंड्स तक श्रोणि पेशियों को आराम दें. इस के लिए 10 तक गिनती गिनें. यही व्यायाम पहले दिन 12 बार दोहराएं. फिर धीरेधीरे बढ़ाते हुए सुबहशाम 24-24 बार करने का नियम बना लें. 2-3 महीनों के भीतर ही आप योनि की पेशियों को फिर से कसा पाएंगी. नतीजतन आप दोनों के बीच का यौनसुख भी दोगुना हो जाएगा. योनि में किसी भी प्रकार का रसायन रखना उचित नहीं होगा. चाहे विज्ञापनकर्ता कितना ही भरोसा क्यों न दिलाए. रसायन के प्रभाव से योनि की नाजुक भीतरी तह में विकृति उत्पन्न होने का अंदेशा रहेगा. इस से मामला सुधरने के बजाय बिगड़ भी सकता है.

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पीरियड्स अनियमित रहने की प्रौब्लम का इलाज बताएं?

सवाल-

मेरी उम्र 23 वर्ष है. शुरू के 5 सालों में मेरे पीरियड्स अनियमित थे. अब यह समस्या नहीं है. 3 महीने बाद मेरा विवाह है. मेरी चिंता इस बात को ले कर है कि पहले पीरियड्स अनियमित रहने की वजह से कहीं विवाह के बाद मुझे मां बनने में अड़चन तो नहीं आएगी? कृपया सलाह दें?

जवाब-

आप बिलकुल परेशान न हों. किशोर उम्र के शुरू के सालों में जब शरीर सयाना होने लगता है और पीरियड्स शुरू होते हैं, उस समय मासिकधर्म के दिनों में घटतबढ़त होना आम बात है. यह घटतबढ़त शरीर के अंदर टिकटिक कर रही जैविक घड़ी की लय से जुड़ी होती है. यों देखने पर मासिकधर्म की क्रिया चाहे मामूली नजर आती हो, लेकिन उस का 28-30 दिन का लयबद्ध चक्र स्त्री के शरीर के अंदर रचीबसी खासी जटिल कैमिस्ट्री की देन होता है. इस में मस्तिष्क में स्थित हाइपोथैलैमस और पिट्यूटरी ग्लैंड, साथ ही पेल्विस में काम कर रही ओवरीज का सीधा हाथ होता है. उन में बनने वाले कई तरह के हारमोन ही स्त्री के भीतरी संसार की रिद्म तय करते हैं. इसी चक्र के तहत प्रजनन योग्य उम्र में आने के बाद नारी हर माह संतानबीज बीजने की तैयारी करती है और गर्भधारण न होने पर गर्भाशय की मोटी परत मासिक रक्तस्राव के रूप में प्रवाहित कर देती है.

किशोर उम्र में जब मासिकधर्म शुरू होता है, तो पहले 2, 3 या 5 सालों तक मासिकचक्र अपनी लय स्थापित नहीं कर पाता. जैसे किसी भी नए काम में पारंगत होने में समय लगता है, उसी प्रकार शरीर को भी अपनी जैविक धुरी खोजने में थोड़ा समय लगता है. खास बात यह है कि इस मासिकचक्र की अनियमितता को सामान्य शारीरिक प्रक्रिया के रूप में ही लिया जाना चाहिए. इस से विचलित नहीं होना चाहिए. अगर आप तन और मन से स्वस्थ और सामान्य हैं और आप के पति भी तो कोई कारण नहीं कि आप को संतानसुख पाने में दिक्कत हो.

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पीसीओएस यानी पौलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम एक सामान्य हारमोन में अस्थिरता से जुड़ी समस्या है जो महिलाओं की प्रजनन आयु में उन के गर्भधारण में समस्या उत्पन्न करती है. यह देश में करीब 10% महिलाओं को प्रभावित करती है. पीसीओएस बीमारी में ओवरी में कई तरह के सिस्ट्स और थैलीनुमा कोष उभर जाते हैं जिन में तरल पदार्थ भरा होता है. ये शरीर के हारमोनल मार्ग को बाधित कर देते हैं जो अंडों को पैदा कर गर्भाशय को गर्भाधान के लिए तैयार करते हैं. पीसीओएस से ग्रस्त महिलाओं के शरीर में अत्यधिक मात्रा में इंसुलिन का उत्पादन होता है. इस की अधिक मात्रा के चलते उन के शरीर में पुरुष हारमोन और ऐंड्रोजेंस के उत्पादन की मात्रा बढ़ जाती है. अत्यधिक पुरुष हारमोन इन महिलाओं में अंडे पैदा करने की प्रक्रिया को शिथिल कर देते हैं. इस का परिणाम यह होता है कि महिलाएं जिन की ओवरी में पौलीसिस्टिक सिंड्रोम होता है उन के शरीर में अंडे पैदा करने की क्षमता कम हो जाती है और वे गर्भधारण नहीं कर पातीं.

यह एनोवुलेट्री बांझपन का सब से मुख्य कारण है और यदि इस का शुरू में ही इलाज न कराया जाए तो इस से महिलाओं की शारीरिक बनावट में भी खतरनाक बदलाव आ जाता है. आगे चल कर यह एक गंभीर बीमारी की शक्ल ले लेता है. इन में मधुमेह और हृदयरोग प्रमुख है.

पीसीओएस के लक्षण

मासिकधर्म संबंधी विकार. पीसीओएस ज्यादातर मासिकधर्म अवरुद्ध करता है, लेकिन मासिकधर्म संबंधी विकार भी कई प्रकार के हो सकते हैं. सब से सामान्य लक्षण मुंहासे और पुरुषों की तरह दाढ़ी उगना, वजन बढ़ना, बाल गिरना आदि हैं.

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