अब तुम्हारी बारी

दीप्ति जल्दीजल्दी तैयार हो रही थी. उस ने अपने बेटे अनुज को भी फटाफट तैयार कर दिया. आज शनिवार था और अनुज को प्रदीप के घर छोड़ कर उसे औफिस भी जाना था. शनिवार और रविवार वह अनुज को प्रदीप के घर छोड़ कर आती है क्योंकि उस की छुट्टी होती है. प्रदीप की लिव इन पार्टनर यानी प्रिया भी उस दिन अपनी मां के यहां मेरठ गई हुई होती है. अगर वह कभीकभार घर में होती भी है तो अनुज के साथ ऐंजौय ही करती है.

बता दें कि दीप्ति है कौन और अनुज का प्रदीप से रिश्ता क्या है. दरअसल, अनुज प्रदीप का बेटा है और दीप्ति प्रदीप की ऐक्स वाइफ. वैसे उसे ऐक्स भी नहीं कह सकते क्योंकि अभी दोनों में डिवोर्स नहीं हुआ है. फिर भी दोनों ने अपने रास्ते और अपनी दुनिया अलग कर ली है. प्रदीप मूव औन भी हो चुका है और प्रिया के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रह रहा है. दीप्ति अभी मूव औन नहीं हुई है मगर वापस प्रदीप की जिंदगी में जाने का कोई इरादा भी नहीं है.

दोनों ने आपसी सहमति से तय किया था कि सप्ताह के 2 दिन अनुज प्रदीप के साथ रहेगा और बाकी के 5 दिन दीप्ति के साथ. दरअसल दीप्ति अनुज को अपने पिता से मिलने का मौका देना चाहती है ताकि उस की बचपन की ग्रोथ पर बुरा असर न पड़े. मासूम को यह महसूस न हो कि उस के पिता नहीं हैं. एक तरह से वह बच्चे को मनोवैज्ञानिक रूप से स्ट्रौंग बनाए रखना चाहती है वरना उस ने देखा है कि कैसे टूटे हुए घरों के बच्चे भी अंदर से टूट जाते हैं.

प्रदीप की नई पार्टनर यानी प्रिया से दीप्ति को कोई शिकायत नहीं है. वह जब प्रदीप के घर अनुज को छोड़ने जाती है तो कई दफा दीप्ति घर में ही होती है. उस वक्त दोनों एकदूसरे को देख कर मुंह नहीं बनाते बल्कि मुसकराते हैं. दीप्ति अनुज को छोड़ कर शांति से अपने औफिस निकल जाती है. दीप्ति को प्रिया पर विश्वास है कि वह अनुज का खयाल रखेगी और फिर प्रदीप तो उस का पिता है ही.

एक दिन दीप्ति ने प्रदीप को सुबहसुबह फोन किया, ‘‘आज तुम किसी भी समय वी3एस मौल में मु?ा से मिलने आ जाओ.

यहां आना मेरे लिए आसान होगा क्योंकि मैट्रो से उतरते ही मौल है. कहीं अलग से जाना नहीं पड़ेगा.’’

‘‘ओके मगर कोई जरूरी काम था क्या?’’ प्रदीप ने पूछा.

‘‘दरअसल, मुझे तुम से अनुज की पढ़ाई से जुड़ी कुछ बातों की

चर्चा करनी थी. तुम उस के डैडी हो और मैं मानती कि ऐसे मामलों में जहां बच्चे का भविष्य जुड़ा हो वहां कोई भी फैसला बच्चे के पिता और मां दोनों का मिल कर लेना जरूरी है.’’

‘‘ओके फिर मैं हाफ डे ले कर तुम से मिलने करीब 4 बजे तक मौल पहुंचता हूं.’’

दीप्ति 3 बजे ही मौल पहुंच गई क्योंकि उसे कुछ शौपिंग भी करनी थी. वहां उसे प्रिया दिखाई दी. प्रिया भी प्रदीप का इंतजार कर रही थी. प्रदीप ने उसे 3 बजे शौपिंग के लिए बुलाया था मगर वह मीटिंग में फंस गया था. इसी वजह से उसे आने में समय लग रहा था.

दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार से गले मिलीं और अच्छी सहेलियों की तरह एकदूसरे का हालचाल पूछने लगीं. आज पहली दफा दोनों को एकदूसरे के साथ वक्त बिताने का मौका मिला.

दीप्ति ने प्रिया का हाथ थाम कर कहा, ‘‘चलो कहीं बैठते हैं और खाते पीते हैं.’’

दोनों तीसरे फ्लोर पर स्थित फूड कोर्ट की तरफ बढ़ गईं. काउंटर पर पहुंच कर और्डर करने लगीं.

प्रिया बोली, ‘‘मुझे तो बस गोलगप्पे खाने हैं.’’

दीप्ति भी उत्साह से बोली, ‘‘भई गोलगप्पे खाने में तो मजा ही आ जाता है. ये खा कर सोचेंगे कि और क्या और्डर करें. वैसे यार हमारे टेस्ट कितने मिलते हैं. मैं खुद जब आती हूं चाट या गोलगप्पे बस यही 2 चीजें खाती हूं.’’

तब प्रिया बोल पड़ी, ‘‘सिर्फ खाने के टेस्ट ही नहीं मिलते हैं. तुम्हारा छोड़ा हुआ पति भी तो मु?ो पसंद आ गया.’’

दीप्ति हंस पड़ी और फिर पूछा, ‘‘यह बताओ प्रदीप की कौन सी बात तुम्हें सब से ज्यादा पसंद आती है?’’

प्रिया बताने लगी,’’ प्रदीप शायरी बहुत अच्छा करता है. जानती हो अकसर मु?ो देख कर मेरी खूबसूरती पर, मेरी आंखों पर, मेरे होंठों पर. बालों पर खूबसूरत शायरी सुनाता है.’’

इस बात पर दीप्ति हंसने लगी तो प्रिया चौंक कर बोली, ‘‘ऐसे क्यों हंस रही हो?

क्या तुम्हें उस की शायरी पसंद नहीं आई थी? क्या तुम्हारे लिए शायरी नहीं करते थे या फिर तुम्हें उस का शायरी सुनाने का अंदाज पसंद नहीं?’’

‘‘मैं मानती हूं कि उस का लहजा अच्छा है. मुझे भी उस से शायरी सुनना बहुत भाता था,

मगर एक बात बता दूं, वह शायरी सुनाता तो अच्छा है मगर यह शायरी वह खुद लिखता नहीं है.’’

‘‘यह क्या कह रही हो?’’ प्रिया ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘सच कह रही हूं वह शायरी उस ने खुद नहीं लिखी है बल्कि चोरी की है और वह भी अपने दोस्त की डायरी से. क्या पता उस ने अपने दोस्त की डायरी भी चोरी की हो,’’ दीप्ति ने अपना शक जाहिर किया.

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा? तुम ऐसा कैसे कह सकती हो?’’

‘‘सही कह रही हूं. जब मैं नई थी तो मुझे भी उस ने अपनी शायरी से बहुत

प्रभावित किया था. मैं उस की शायरी की दीवानी हुआ करती थी. मगर एक दिन मैं ने उस की अलमारी में एक डायरी देखी. वह डायरी किसी अमन की थी और प्रौपर हैंडराइटिंग भी किसी और की थी यानी अमन की थी. लेकिन उस डायरी में शायरी वही थी जो प्रदीप मुझे अपनी कह कर सुनाया करता था.

‘‘फिर जब मैं ने उसे इस बात पर चार्ज किया और डायरी दिखा कर उस से पूछा कि यह सब क्या है, तब उस ने स्वीकार किया कि वह मुझे अपने दोस्त की शायरी सुनाता है,’’ दीप्ति ने बात साफ की.

‘‘यह तो बहुत गलत है. ऐसा तो मैं ने सोचा भी नहीं था. मैं तो बस आत्ममुग्ध हुआ करती थी कि मेरी खूबसूरती पर वह इतनी अच्छी शायरी कैसे कर लेता है.’’

‘‘कोई नहीं, बोलने का तरीका तो उसी

का है जो काफी अच्छा है,’’ दीप्ति ने बात संभालनी चाही.

‘‘हां यह तो सही कह रही हो,’’ प्रिया रोंआंसी हो कर बोली.

प्रिया के दिमाग में कुछ उधेड़बुन शुरू हो गई थी. फिर भी नौर्मल होने की कोशिश करती हुई बोली, ‘‘गोलगप्पे

तो बहुत अच्छे हैं. पता है प्रदीप को भी बाहर खाना बहुत पसंद है. सप्ताह में 2 दिन तो हम बाहर आ ही जाते हैं खाने को. वह कहता है कि बस रोज तुम क्यों मेहनत करो. कभीकभी बाहर का खाना अच्छा लगता है. स्वाद भी बदलता है और हमें साथ समय बिताने का मौका भी मिलता है.’’

‘‘मेरे खयाल से समय साथ बिताना है तो वह तो घर में बिताते ही हो. जहां तक बात स्वाद बदलने की है तो वह जरूर सच है. प्रदीप का मन स्वादिष्ठ खाने का मन करता रहता है.’’

‘‘तुम ऐसा क्यों कह रही हो? मतलब मैं कुछ समझ नहीं?’’

‘‘समझना क्या है. समझ तो मैं भी नहीं थी. करीब 1 साल तक मुझे वह बात समझ नहीं आई थी. प्रदीप मुझे हमेशा बाहर खिलाने की जिद करता और कहता कि चलो आज बाहर चलते हैं या चलो बाहर खा कर आते हैं. मैं भी ख़ुशीख़ुशी उस के साथ निकल जाती थी.

‘‘एक दिन मुझे उस के दोस्त ने बताया कि वह औफिस में अपने दोस्तों से टिफिन भी ऐक्सचेंज करता है. तब मैं ने बैठ कर उस से पूछा था कि ऐसी क्या बात है. उस ने बताया कि उसे मेरा बनाया खाना पसंद नहीं आता. मुझे खयाल आया कि यह बंदा पहले तो मेरी डिशेज की बहुत तारीफ कर के खाता था.

‘‘फिर चुप रह कर खाने लगा था और इधर कुछ दिनों से सच में वह मेरे खाने में कभी नमक तेज, कभी जला हुआ, कभी कच्चा इस तरह की शिकायत करता. फिर जब उस दिन उस ने मुझे हकीकत बताई कि इस वजह से वह मुझे बाहर खिलाने ले जाता तो सम?ा आया कि उसे अपनी पत्नी के हाथ का बनाया खाना पसंद नहीं.

‘‘वही खाना अगर मैं उस के दोस्त के टिफिन में रखती तो वह जरूर बहुत स्वाद ले कर खाता मगर जब मैं बना कर खुद उस के टिफिन में रखती थी तो उसे पसंद नहीं आता था. मुझे लगता है उस का एक तरह से माइंड सैटअप बना हुआ है,’’ दीप्ति ने विस्तार से बताया.

प्रिया सोच में पड़ गई और फिर बोली, ‘‘यह सच हो सकता है क्योंकि मेरे खाने को भी वह कुछ दिन पहले तक तो स्वाद ले कर खाता था. पर इधर कुछ दिनों से वह कुछ कहता नहीं बस चुपचाप खा लेता है.’’

‘‘छोड़ो ज्यादा मत सोचो. अच्छा यह बताओ कि उस ने तुम्हें प्रपोज किया था या तुम ने उसे,’’ दीप्ति ने पूछा.

औफकोर्स उस ने ही किया था,’’ प्रिया बोली.

‘‘अच्छा कैसे?’’

‘‘बहुत ही अच्छे तरीके से. पता है पहले दिन उस ने मुझे अपने घर इनवाइट किया और जब मैं घर के अंदर दाखिल हुई…’’

‘‘तो उस ने ऊपर ऐसी सैटिंग की हुई थी कि दरवाजा खोलते ही ढेर सारी गुलाब की पंखुडि़यां तुम्हारे ऊपर बिखर गईं है न?’’

‘‘हां मगर तुम्हें कैसे पता?’’  प्रिया ने चौंक कर पूछा.

‘‘क्योंकि मेरे साथ भी उस ने ऐसा ही

किया था. मुझे अपना घर दिखाने के लिए वह मुझे ले कर आया था. घर में मेरे कदम पड़ते ही गुलाब की पंखुडि़यां बिखरीं और उस ने मुझे प्रपोज किया. जमीन पर बैठ कर, घुटनों के बल, रिंगहाथ में ले कर, बिलकुल वैसे ही जैसे फिल्मों में होता है.’’

‘‘यह तो तुम ने बिलकुल सही कहा. सब कुछ वैसा ही था जैसा फिल्मों में होता है. पर ऐसा वह सब के साथ करता है यह मुझे नहीं पता था. क्या तुम से पहले कोई और भी थी उस की जिंदगी में,’’ प्रिया ने सवाल किया. उस का चेहरा बुझ चुका था.

‘‘मेरे से पहले उस की जिंदगी में कोई थी या नहीं वह तो नहीं पता पर मेरी जिंदगी में जो हुआ वह सब तुम्हारी जिंदगी में कर रहा है यह समझ आ रहा है. मैं तुम्हें उस के खिलाफ भड़का नहीं रही मगर सचेत कर रही हूं कि उस से इतना ही जुड़ो जितना टूटने पर दिल टूटे न,’’ दीप्ति ने बात साफ करते हुए कहा.

दोनों थोड़ी देर खामोश बैठी रहीं. दीप्ति ने 2 प्लेट इडली का और्डर दिया और प्लेट ले कर वापस आ गई. प्रिया का खाने का दिल नहीं था मगर दीप्ति के जोर देने पर खाने लगी.

फिर प्रिया ने ही पूछा, ‘‘और कुछ बताओ दीप्ति प्रदीप की कोई और आदत जिसे शेयर करना चाहोगी?’’

‘‘अच्छा यह बताओ कि उस ने तुम्हें अच्छीअच्छी जगह घुमाने का वादा भी किया

होगा न?’’

‘‘हां उस ने मुझे करीब 5 साल की प्लानिंग अभी से बता रखी है.’’

‘‘जब तुम लोग साथ हुए उस के 2-4 महीनों के अंदर वह तुम्हें अच्छी जगह ले कर जरूर गया होगा.’’

‘‘हम लोग मनाली गए थे,’’ प्रिया ने बताया.

‘‘बस मनाली के बाद वह आगे नहीं बढ़ेगा और जो वह 5 साल की प्लानिंग बता रहा हैं न वह अगले 5 साल बाद भी मैं तुम से बात करूंगी तो उस पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा होगा क्योंकि उस ने मेरे साथ भी ऐसा ही किया. हमारी 8 साल की शादी में वह बस एक बार मुझे घुमाने ले गया. उस के बाद से प्लानिंग ही होती रही,’’ दीप्ति ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘यह क्या कह रही हो?’’  प्रिया को विश्वास नहीं हुआ.

‘‘सच कह रही हूं. जो मेरे साथ हुआ वही बता रही हूं.’’

‘‘उफ, क्या प्रदीप ऐसा है,’’ प्रिया परेशान स्वर में बोली.

‘‘देखो प्रिया मैं फिर कह रही हूं कि तुम से उस की बुराइयां करना मेरा मकसद नहीं है और न ही मैं उस का बुरा चाहती हूं क्योंकि मन से वह अच्छा है. कई बार वह इतनी अच्छी तरह से केयर करता है, इतनी प्यारी बातें करता है कि उसे छोड़ने का दिल नहीं करता. यही नहीं मैं मानती हूं वह हैंडसम भी है. उस के पास दूसरों को प्रभावित करने का हुनर भी है. मगर सच कहूं मुझे जिंदगी में कुछ और चाहिए था.

‘‘उस ने मुझे धोखा नहीं दिया. हमेशा

मुझे खुश रखने की कोशिश भी की पर मुझे ऐसा बंदा चाहिए था जो मेरा विश्वास जीत सके. मगर प्रदीप मेरा विश्वास नहीं जीत पाया इसलिए मैं अलग हुई वरना उस में कोई ऐसी बहुत बड़ी बुराई नहीं है. तुम्हें डराना नहीं चाहती. कुछ अपनी प्राथमिकताएं होती हैं. तुम्हें उस से क्या चाहिए और क्या नहीं चाहिए वह तुम डिसाइड करो. तुम्हें जिंदगी से क्या चाहिए यह भी तुम ही डिसाइड करोगी. वैसे एक बात और पूछूं?’’

‘‘हां पूछो न.’’

‘‘उस ने तुम्हें जरूर बताया होगा कि वह घर जिस में तुम दोनों रहते हो, उस ने अपने पैसों से खरीदा है. इस के अलावा 2 घर और हैं अलगअलग शहरों में और उस के पास बहुत जमीन जायदाद भी है. है न,’’ दीप्ति ने पूछा.

‘‘हां यह सब तो उस ने बताया मुझे.’’

‘‘इस में सचाई सिर्फ इतनी है कि उस ने यह घर लोन पर लिया है. बाकी उस के पास ऐसी कोई भारी जायदाद नहीं है. मगर इस से मुझे कोई दिक्कत नहीं थी. मुझे तो इंसान अच्छा चाहिए था. वह इंसान भी अच्छा था पर मेरी कसौटियों पर खरा नहीं उतरा. कई बार वह बहुत जल्दी गुस्सा हो जाता है और यह गुस्सा मैं सह नहीं पाती थी. अभी तुम नई हो. तुम्हारे साथ अभी वैसा गुस्सा नहीं होता होगा या हो सकता है मेरी ही कोई बात उसे गुस्सैल का बना रही होगी. समय के साथ क्या हो कुछ कह नहीं सकते.’’

‘‘यार तुम ने इतना कुछ बता दिया कि अब समझ नहीं आ रहा मुझे क्या करना चाहिए?’’ प्रिया की उलझन बढ़ गई थी.

‘‘अपने दिल की सुनो बस सब समझ आ जाएगा. वैसे उस की एक और आदत बताती हूं. वह नहा कर अपना गीला हुआ तौलिया कहीं भी पटक देता है. यहां तक कि बिस्तर पर भी रख देता है,’’ कह कर दीप्ति हंस पड़ी.

‘‘हां, वह ऐसा ही करता है.’’

‘‘प्रिया मैं ने बहुत से रिऐलिटी चैक

मिलने के बाद यह फैसला किया था कि उस से अलग हो जाऊं. मैं नहीं कह रही कि तुम्हें भी ऐसा करना चाहिए पर तुम अपनेआप को इतना स्ट्रौंग बना कर रखो कि अगर कभी तुम्हें उस से अलग होना पड़े तो तुम अंदर से टूटो नहीं. इसलिए कहीं न कहीं उस से उतनी ज्यादा मत जुड़ो कि टूटने पर खुद को संभाल न सको. बस इतना ही कहना चाहती हूं.’’

अब तक दोनों ने इडली खा ली थी. तभी प्रदीप का फोन प्रिया के पास आया कि वह अपने औफिस से निकल चुका है और उस से मिलने और शौपिंग कराने आ रहा है.

दीप्ति ने भरपूर नजरों से प्रिया की तरफ देखा और उसे गले से लगा लिया, ‘‘तुम मेरी छोटी बहन की तरह हो. मैं तुम्हारे दिल को ठेस नहीं पहुंचने देना चाहती. बात याद रखना कि खुद को इतना मजबूत बनाओ कि कभी जरूरी लगे तो उस से अलग होना कठिन न हो. बस मैं ने तो सही फैसला ले लिया अब तुम्हारी बारी है. तुम अपना खयाल रखना.’’

प्रिया ने दीप्ति को प्यार से देखते हुए अलविदा कहा और दोनों अपनेअपने रास्ते चल दिए. मगर आज प्रिया के मन में बहुत सी बातें उठ रही थीं. बहुत से सवाल थे और बहुत सी उलझनें थीं. आज प्रदीप से मिलने जाने के लिए उस के कदम खुशी से नहीं उठ रहे थे बल्कि बहुत थकेथके से उठ रहे थे.

सच्चाई: क्या सपना सचिन की शादी के लिए घरवलों को राजी कर पाई- भाग 1

पड़ोस में आते ही अशोक दंपती ने 9 वर्षीय सपना को अपने 5 वर्षीय बेटे सचिन की दीदी बना दिया था.

‘‘तुम सचिन की बड़ी दीदी हो. इसलिए तुम्हीं इस की आसपास के बच्चों से दोस्ती कराना और स्कूल में भी इस का ध्यान रखा करना.’’

सपना को भी गोलमटोल सचिन अच्छा लगा था. उस की मम्मी तो यह कह कर कि गिरा देगी, छोटे भाई को गोद में भी नहीं उठाने देती थीं.

समय बीतता रहा. दोनों परिवारों में और बच्चे भी आ गए. मगर सपना और सचिन का स्नेह एकदूसरे के प्रति वैसा ही रहा. सचिन इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए मणिपाल चला गया. सपना को अपने ही शहर में मैडिकल कालेज में दाखिला मिल गया था. फिर एक सहपाठी से शादी के बाद वह स्थानीय अस्पताल में काम करने लगी थी. हालांकि सचिन के पापा का वहां से तबादला हो चुका था. फिर भी वह मौका मिलते ही सपना से मिलने आ जाता था. सऊदी अरब में नौकरी पर जाने के बाद भी उस ने फोन और ईमेल द्वारा संपर्क बनाए रखा. इसी बीच सपना और उस के पति सलिल को भी विदेश जाने का मौका मिल गया. जब वे लौट कर आए तो सचिन भी सऊदी अरब से लौट कर एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहा था.

‘‘बहुत दिन लगा दिए लौटने में दीदी? मैं तो यहां इस आस से आया था कि यहां आप अपनी मिल जाएंगी. मम्मीपापा तो जबलपुर में ही बस गए हैं और आप भी यहां से चली गईं. इतने साल सऊदी अरब में अकेला रहा और फिर यहां भी कोई अपना नहीं. बेजार हो गया हूं अकेलेपन से,’’ सचिन ने शिकायत की.

‘‘कुंआरों की तो साथिन ही बेजारी है साले साहब,’’ सलिल हंसा, ‘‘ढलती जवानी में अकेलेपन का स्थायी इलाज शादी है.’’

‘‘सलिल का कहना ठीक है सचिन. तूने अब तक शादी क्यों नहीं की?’’ सपना ने पूछा.

‘‘सऊदी अरब में और फिर यहां अकेले रहते हुए शादी कैसे करता दीदी? खैर, अब आप आ गई हैं तो लगता है शादी हो ही जाएगी.’’

‘‘लगने वाली क्या बात है, शादी तो अब होनी ही चाहिए… और यहां अकेले का क्या मतलब हुआ? शादी जबलपुर में करवा कर यहां आ कर रिसैप्शन दे देता किसी होटल में.’’

‘‘जबलपुर वाले मेरी उम्र की वजह से न अपनी पसंद का रिश्ता ढूंढ़ पा रहे हैं और न ही मेरी पसंद को पसंद कर रहे हैं,’’ सचिन ने हताश स्वर में कहा, ‘‘अब आप सम झा सको तो मम्मीपापा को सम झाओ या फिर स्वयं ही बड़ी बहन की तरह यह जिम्मेदारी निभा दो.’’

‘‘मगर चाचीचाचाजी को ऐतराज क्यों है? तेरी पसंद विजातीय या पहले से शादीशुदा बालबच्चों वाली है?’’ सपना ने पूछा.

‘‘नहीं दीदी, स्वजातीय और अविवाहित है और उसे भविष्य में भी संतान नहीं चाहिए. यही बात मम्मीपापा को मंजूर नहीं है.’’

‘‘मगर उसे संतान क्यों नहीं चाहिए और अभी तक वह अविवाहित क्यों है?’’ सपना ने शंकित स्वर में पूछा.

‘‘क्योंकि सिमरन इकलौती संतान है. उस ने पढ़ाई पूरी की ही थी कि पिता को कैंसर हो गया और फिर मां को लकवा. बहुत इलाज के बाद भी दोनों को ही बचा नहीं सकी. मेरे साथ ही पढ़ती थी मणिपाल में और अब काम भी करती है. मु झ से शादी तो करना चाहती है, लेकिन अपनी संतान न होने वाली शर्त के साथ.’’

‘‘मगर उस की यह शर्त या जिद क्यों है?’’

‘‘यह मैं ने नहीं पूछा न पूछूंगा. वह बताना तो चाहती थी, मगर मु झे उस के अतीत में कोई दिलचस्पी नहीं है. मैं तो उसे सुखद भविष्य देना चाहता हूं. उस ने मुझे बताया था कि मातापिता के इलाज के लिए पैसा कमाने के लिए उस ने बहुत मेहनत की, लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया, जिस के लिए कभी किसी से या स्वयं से लज्जित होना पड़े. शर्त की कोई अनैतिक वजह नहीं है और वैसे भी दीदी प्यार का यह मतलब यह तो नहीं है कि उस में आप की प्राइवेसी ही न रहे? मेरे बच्चे होने न होने से मम्मीपापा को क्या फर्क पड़ता है? जतिन और श्रेया ने बना तो दिया है उन्हें दादादादी और नानानानी. फूलफल तो रही है उन की वंशबेल,’’ फिर कुछ हिचकते हुए बोला, ‘‘और फिर गोद लेने या सैरोगेसी का विकल्प तो है ही.’’

‘‘इस विषय में बात की सिमरन से?’’ सलिल ने पूछा.

‘‘उसी ने यह सु झाव दिया था कि अगर घर वालों को तुम्हारा ही बच्चा चाहिए तो सैरोगेसी द्वारा दिलवा दो, मु झे ऐतराज नहीं होगा. इस के बावजूद मम्मीपापा नहीं मान रहे. आप कुछ करिए न,’’ सचिन ने कहा, ‘‘आप जानती हैं दीदी, प्यार अंधा होता है और खासकर बड़ी उम्र का प्यार पहला ही नहीं अंतिम भी होता है.’’

‘‘सिमरन का भी पहला प्यार ही है?’’ सपना ने पूछा.

सचिन ने सहमति में सिर हिलाया, ‘‘हां दीदी, पसंद तो हम एकदूसरे को पहली नजर से ही करने लगे थे पर संयम और शालीनता से. सोचा था पढ़ाई खत्म करने के बाद सब को बताएंगे, लेकिन उस से पहले ही उस के पापा बीमार हो गए और सिमरन ने मु झ से संपर्क तक रखने से इनकार कर दिया. मगर यहां रहते हुए तो यह मुमकिन नहीं था. अत: मैं सऊदी अरब चला गया. एक दोस्त से सिमरन के मातापिता के न रहने की खबर सुन कर उसी की कंपनी में नौकरी लगने के बाद ही वापस आया हूं.’’

‘‘ऐसी बात है तो फिर तो तुम्हारी मदद करनी ही होगी साले साहब. जब तक अपना नर्सिंगहोम नहीं खुलता तब तक तुम्हारे पास समय है सपना. उस समय का सदुपयोग तुम सचिन की शादी करवाने में करो,’’ सलिल ने कहा.

‘‘ठीक है, आज फोन पर बात करूंगी चाचीजी से और जरूरत पड़ी तो जबलपुर भी चली जाऊंगी, लेकिन उस से पहले सचिन मु झे सिमरन से तो मिलवा,’’ सपना ने कहा.

‘‘आज तो देर हो गई है, कल ले चलूंगा आप को उस के घर. मगर उस से पहले आप मम्मी से बात कर लेना,’’ कह कर सचिन चला गया. सपना ने अशोक दंपती को फोन किया.

‘‘कमाल है सपना, तु झे डाक्टर हो कर भी इस रिश्ते से ऐतराज नहीं है?  तु झे नहीं लगता ऐसी शर्त रखने वाली लड़की जरूर किसी मानसिक या शारीरिक रोग से ग्रस्त होगी?’’ चाची के इस प्रश्न से सपना सकते में आ गई.

‘‘हो सकता है चाची…कल मैं उस से मिल कर पता लगाने की कोशिश करती हूं,’’ उस ने खिसियाए स्वर में कह कर फोन रख दिया.

सही पकड़े हैं: भाग 1- कामवाली रत्ना पर क्यों सुशीला की आंखें लगी थीं

‘‘अदिति, हम कह रहे थे न, तेरी मेड ठीक नहीं लगती, थोड़ी नजर रखा कर उस पर, मगर तू है एकदम बेपरवाह. किसी दिन हाथ की बड़ी सफाई दिखा दी उस ने तो बड़ा पछताएगी तू. हम सही पकड़े हैं.’’ 4 दिनों से बेटी के घर आईं सुशीला उसे दस बार सचेत कर चुकी थीं. ‘‘अरे मां, रिलैक्स, आप फिर शुरू हो गईं, सही पकड़े हैं. कुछ नहीं कोई ले जाता, ले भी जाएगा तो ऐसा क्या है, खानेपीने का सामान ही तो है. हर वक्त उस पर नजर रखना अपना टाइम बरबाद करना है. आप भी न, अच्छा, मैं जाती हूं. 1 घंटा लग जाएगा मुझे. प्लीज, रत्ना (मेड) को अपना काम करने देना. वह चाय बना लाए तो मम्मीजीपापाजी के साथ बैठ कर आराम से पीना. आज छुट्टी है, बंटू, मिंकू और आप के दामाद तरुण की भी. वे देर तक सोते हैं, जगाना नहीं.’’

अदिति चली गई तो सुशीला ने गोलगोल आंखें नचाईं, ‘हमें क्या करना है जैसी भी आदत डालो, हम तो कुछ भी सब के भले के लिए ही कहते हैं.’ मेड थोड़ी देर बाद चाय टेबल पर रख गई. सुशीला भी अदिति के सासससुर तारा और तेजप्रकाश संग बैठ चाय की चुस्कियां लेने लगीं, पर शंकित आंखें मेड की गतिविधियों पर ही चिपकी थीं.

‘‘आजकल लड़कियां काम के लिए बाहर क्या जाने लगीं, घर के नौकरनौकरानी कब, क्या कर डालें, कुछ कहा नहीं जा सकता. हमें तो जरा भी विश्वास नहीं होता इन पर. निगाह न रखो तो चालू काम कर के चलते बनते हैं,’’ सुशीला बोल पड़ीं. ‘‘ठीक कह रही हैं समधनजी. लेकिन मैं पैरों से मजबूर हूं. क्या करूं, पीछेपीछे लग कर काम नहीं करा पाती और इन्हें तो अपने अखबार पढ़नेसुनने से ही फुरसत नहीं,’’ तारा ने पेपर में आंखें गड़ाए तेजप्रकाश की ओर मुसकराते हुए इशारा किया. तेजप्रकाश ने पेपर और चश्मा हटा कर एक ओर रख दिया और सुशीला की ओर रखे बिस्कुट अपनी चाय में डुबोडुबो कर खाने लगे.

‘‘आप तो बस भाईसाहब. भाभीजी तो पांव से परेशान हैं पर आप को तो देखना चाहिए. मगर आप तो बैठे रहते हो जैसे कोई घर का बंदा अंदर काम कर रहा हो. हम आप को एकदम सही पकड़े हैं,’’ सुशीला कुछ उलाहना के अंदाज में बोलीं. उन की आंखें चकरपकर चारों ओर रत्ना को आतेजाते देख रही थीं. रत्ना कपप्लेट ले जा चुकी थी. ‘काफी देर हो चुकी, पता नहीं क्या कर रही होगी,’ उन्हें और बैठना बरदाश्त नहीं हुआ. वे उठ खड़ी हुईं और उसे किचन में पोंछा लगाते देख यहांवहां दिखादिखा कर साफ करवाने लगीं. ‘‘ढंग से किया कर न, कोई देखता नहीं तो क्या मतलब है, पैसे तो पूरे ही लेती हो न?’’ उन का बारबार इस तरह से बोलना रत्ना को कुछ अच्छा नहीं लगता.

‘‘और कोई तो ऐसे नहीं बोलता इस घर में, अम्माजी आप तो…’’ रत्ना हाथ जोड़ कर माथे से लगा लिया करती. कभी अकेले में अन्य सदस्यों से शिकायत भी करती. 10 बज गए, मिंकी और बंटू का दूध और सब का नाश्ता बना मेज पर रख कर रत्ना चली गई तो सुशीला ढक्कन खोलखोल कर सब चैक करने लगीं.

‘‘अरे, दूध तो बिलकुल छान कर रख दिया पगलेट ने, जरा भी मलाई नहीं डाली बच्चों के लिए. ऐसे भला बढ़ेंगे बच्चे.’’ वे दोनों गिलास उठा कर किचन में चली आईं. दूध के भगौने में तो बिलकुल भी मलाई नहीं थी. ‘जरूर अपने बच्चों के लिए चुरा कर ले जाती होगी, कोई देखने वाला भी तो नहीं, बच्चों का क्या, वैसे ही पी जाते होंगे,’ सुशीला मन ही मन बोलीं. तभी प्लेटफौर्म पर वाटर डिस्पोजर की आड़ में से झांक रहे मलाई के कटोरे पर उन की नजर पड़ी. वे भुनभुनाईं, ‘सही पकड़े हैं, महारानीजी हड़बड़ी में ले जाना भूल गई.’ उन्होंने गोलगोल आंखें घुमाईं और एक चम्मच मलाई मुंह में डाल कर बाकी मलाई दूध के गिलासों में बांटने जा रही थीं कि तेजप्रकाश आ पहुंचे, कटोरा हाथ में लेते हुए बोले, ‘‘अरे, क्या करने जा रही थीं बहनजी. बच्चे तो मलाई डला दूध मुंह भी नहीं लगाएंगे, थूथू करते रहेंगे. मौडर्न बच्चे हैं.’’

‘‘तभी तो रत्ना की ऐश है. मलाई का कटोरा छिपा कर अपने घर ले जा रही थी, पर भूल गई. हम सही पकड़े हैं.’’ ‘‘अरे, नहीं बहनजी, मैं ने ही उस से कह रखा है, हफ्तेभर बाद तारा सारी इकट्ठी मलाई का घी बनाती है. घर के घी का स्वाद ही और है. आप तारा के पास बैठिए, मैं इसे डब्बे में डाल कर आता हूं.’’

‘‘यह भी ठीक है,’’ वे बालकनी में तारा के पास आ बैठीं. ‘‘हम से तो यह खटराग कभी न हुआ.’’

‘‘कैसा खटराग?’’ ‘‘यह देशी घी बनाने का खटराग, भाईसाहब बता रहे हैं, हफ्ते में एक बार आप बना लेती हैं.’’

‘‘हां, इस बार ज्यादा दिन हो गए. दूध वाला अब सही दूध नहीं ला रहा, इतनी मलाई ही नहीं आती.’’ ‘‘अरे नहीं, आज भी मलाई से तो पूरा कटोरा भरा हुआ था. हमें तो लगता है आप की रत्ना ही पार कर देती होगी, कल से चौकसी रखते हैं, रंगेहाथ पकड़ेंगे.’’

बंटू, मिंकी और तरुण भी ब्रश कर के आ गए थे. ‘गुडमौर्निंग दादू, दादी, नानी, सही पकड़े हैं,’ कहते हुए बंटू, मिंकी उन से लिपट कर खिलखिला उठे.

‘‘गुडमौर्निंग टू औल औफ यू. आइए, चलिए सभी नाश्ता करते हैं, अदिति पहुंच ही रही होगी. चलोचलो बच्चो…’’ तरुण ने मां को सहारा दिया और डायनिंग टेबल तक ले आया. ‘‘भाईसाहब तो फीकी चाय पीते होंगे?’’ सुशीला ने केतली से टिकोजी हटाते हुए पूछा.

‘‘बहनजी, बस 2 चम्मच चीनी,’’ स्फुट स्वरों में बोल कर कप में डालने का इशारा किया तेजप्रकाश ने. ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं मम्मीजी, पापा को शुगर बरसों से है, कंट्रोल कर के रखा है, तब भी बौर्डर पर ही है. एक बार इन्हें दिल में बहुत जोर का दर्द उठा, डाक्टर के पास गए नहीं, पर प्रौमिस किया कि अब से मक्खन, चीनी नहीं खाएंगे. बस, तब से मक्खन वगैरा भी बंद. मां को तो शुगर नहीं है पर वे एहतियात के तौर पर अपनेआप ही नहीं लेतीं. आप बैठिए मम्मीजी, मैं निकालता हूं,’’ तरुण ने कहा.

‘‘अरे गैस थी, खाली पेट में वही चढ़ गई थी. खामखां लोगों ने एनजाइना समझ लिया और जबरदस्ती प्रौमिस ले लिया,’’ तेजप्रकाश ने सफाई दी. ‘‘ऐसे कैसे? शुक्र मनाइए कि खयाल रखने वाला परिवार मिला है, भाईसाहब. इतना लालच ठीक नहीं. जबान पर तो कंट्रोल होना ही चाहिए एक उम्र के बाद. वैसे भी, हमें इस उम्र में खुद भी अपना ध्यान रखना चाहिए,’’ सुशीला ने शुगरपौट तरुण की ओर बढ़ा दिया. तेजप्रकाश ने चीनी की ओर बढ़ता

हुआ अपना हाथ मन मसोस कर पीछे खींच लिया. ‘‘तब तो चीनी का बहुत कम ही खर्चा आता होगा यहां. मिंकू, बंटू को देख रही हूं दूध में चीनी नहीं लेते पर सुबह से कई सारी चौकलेट खाने से उन का शुगर का कोटा पूरा हो जाता होगा, दामादजी भी बस आधा चम्मच, अदिति तो पहले ही वेट लौस की ऐक्सरसाइज व डाइट पर रहती है,’’ सुशीला सस्मित हो उठीं.

जिम से लौटी अदिति ने भी हाथ धो कर टेबल जौइन कर लिया, ‘‘अरे मम्मी, कहां हिसाबकिताब ले कर बैठ गईं. चीनी हो या चावल, अपनी रत्ना बड़ी परफैक्ट है, सब हिसाब से ही लाती, खर्च करती है. हम तो कभीकभी ही दुकान जा पाते हैं, उसी ने सब संभाला हुआ है.’’ वह चेयर खींच कर आराम से बैठ गई और कप में अपने लिए चाय डाल कर चीनी मिलाने लगी. तभी तेजप्रकाश ने उस से इशारे से रिक्वैस्ट की तो उस ने चुपके से आधा चम्मच चीनी तेजप्रकाश के कप में मिला दी.

‘‘हांहां, क्यों नहीं, सिर पर बिठा कर रखो महारानीजी को. एक दिन वही ऐसा गच्चा देगी तब समझ में आएगा. और भाईसाहब ने 2 शुगरफ्री डाले हैं. तू ने उन के कप में चीनी क्यों मिलाई अदिति?’’ सुशीला बोली थीं. ‘‘अरे मम्मी, अभी पापाजी का सबकुछ नियंत्रण में है, बिलकुल फिट हैं. काफी वक्त से कोई दर्द भी उन्हें दोबारा नहीं हुआ. बैलेंस के लिए सबकुछ थोड़ाथोड़ा खाना सही है. लाल और हरीमिर्च भी तो आप मानती नहीं, बहुत सारी खाती रही हैं खाने में ऐक्स्ट्रा नमक के साथ, वह क्या है? खाने के बाद एक चम्मच मलाईचीनी, रबड़ीचीनी या मक्खनचीनी के बिना आप का पेट साफ नहीं होता, वह क्या है? जबकि डाक्टर की रिपोर्ट है आप के पास. आप को सब मना है. बीपी भी है और आप को हार्ट प्रौब्लम भी. अच्छा है कि आप मेरे पास हैं, सब बंद है.’’

‘‘अरे तू हमारी कहां ले बैठी, वह तो 4-5 साल पहले की बात है. मुंह बंद कर, चुपचाप अपना नाश्ता कर,’’ सुशीला ने आंखें नचाते हुए अदिति को कुछ ऐसे डांटा कि सभी मुसकरा उठे. ब्रेकफास्ट के बाद, तरुण और अदिति स्टोर जा कर महीनेभर का कुछ राशन और हफ्तेभर की सब्जी व फल ले आए. सुशीला डायनिंग टेबल पर फैले विविध सामानों को किचन में ले जा कर सहेजती रत्ना को बड़े गौर से देख रही थीं. रत्ना दोबारा लंच बनाने आ चुकी थी.

नारियल – भाग 2: जूही और नरेंद्र की गृहस्थी में नंदा घोल रही थी स्वार्थ का जहर

धीरेधीरे नंदा की रुचि, जूही भाभी के बजाय नरेंद्र में बढ़ती गई और नरेंद्र की नंदा में. कई बार जब दोनों की आंखें बोलती होतीं तो जूही की दृष्टि भी उन पर पड़ जाती. परंतु वह उसे अपने मन का वहम समझ लेती या सोचती कि यदि उस की शंका निर्मूल हुई तो नंदा के दुखी हृदय को ठेस पहुंचेगी और नरेंद्र भी उस के बचपने वाले सवाल से उस की अक्ल के विषय में क्या सोचेगा?

पर एक दिन वह सन्न रह गई थी जब उस ने देखा था कि बत्ती चली जाने पर अंधेरे में नरेंद्र ने नंदा को अपनी बांहों के घेरे में ले लिया था और तभी बिजली आ गई थी.

जूही को लगा था जैसे उस के पैरों के नीचे काला सांप आ गया हो, जिसे उस ने दूध पिलाया, वही सर्पिणी बन कर  उस की सुखी गृहस्थी में दंश मार चुकी थी. जिस नरेंद्र को पूर्णरूप से पाने के लिए उस ने संयुक्त परिवार की जड़ों में मट्ठा डाला, वही पराया हो गया. वह जज्ब न कर सकी, ‘तुम लोग इतने नीचे गिर जाओगे, मैं सोच भी नहीं सकती थी.’

फिर उस ने नंदा की ओर देख कर कहा, ‘निकल जा मेरे घर से, और फिर कभी यहां कदम रखने की कोशिश मत करना.’’

नरेंद्र ने बजाय लज्जित होने के त्योरियां चढ़ा लीं और कड़े स्वर में कहा था, ‘घर आए मेहमान से तमीज से बात करना सीखो. रही बात इस के यहां आने की, तो तुम कौन होती हो इसे निकालने वाली? यह घर मेरा है और यहां किसी का आनाजाना मेरी इच्छा से होगा. जिसे यह मंजूर हो, वही यहां रह सकता है, नहीं तो अपना रास्ता देखे.’

जूही समझ गईर् कि रास्ता देखने का संकेत उसी की ओर है. वह सोचने लगी, ‘तो ये इतने आगे निकल चुके हैं. इस घर के स्वप्न को संजोने वाली जूही घर के लिए इतनी महत्त्वहीन हो चुकी है कि एक बेहया औरत के लिए उस की कुरबानी बेधड़क दी जा सकती है?’

फिर तो नरेंद्र के आने के बाद नंदा का उन के घर आना आम बात हो गई. नरेंद्र पर जूही के अनुनयविनय का प्रभाव न होना था, न हुआ. उस ने साफ कह दिया, ‘तुम्हें घर में रहना हो, तो रहो, नहीं तो मैं नंदा के साथ बाकायदा अदालती शादी कर के उसे घर ले आऊंगा और तुम्हें दूसरा रास्ता चुनना होगा.’

इस दूसरे रास्ते के खयाल से ही जूही विकल हो जाती थी. मायके वाले कितने दिन रखेंगे? भाभियों के ताने सुन कर बेशर्मी की रोटियां वह कितने दिन खा सकेगी? भाइयों के अपने परिवार हैं, भाभियों की अपनी इच्छाएं हैं. किसी के लिए कोई क्यों अपनी इच्छाओं का गला घोंटेगा?

जूही का मन डूब रहा था. उसे पार लगाने वाला कोई हाथ दिखाई नहीं पड़ता था. इस दुर्दिन में उस का ध्यान अपनी सास पर गया. एकदम कड़े मिजाज की सास के सामने नरेंद्र भी तो भीगी बिल्ली जैसा बना रहता था. यहां आने के समय भी तो वह उन से मुंह खोल कर कुछ कह नहीं पाया था. अगर वे यहां होतीं, तो क्या नरेंद्र की ऐसी हिम्मत पड़ती या नंदा दिन में 10 बार घर के चक्कर लगा पाती? वह अपराधभाव से ग्रस्त हो गई. यह स्थिति तो वास्तव में उस के न्यारे रहने के काल्पनिक सुख के लिए बोले गए झूठ से ही बनी है. अगर वे आ जाएं तो अब भी बात बन सकती है. मगर वे आएं तो कैसे? वह उन से कहे भी तो किस मुंह से?

अगर वह सास को यहां लाना भी चाहे, तो क्या वे मान जाएंगी? उस के हृदय के दूसरे पक्ष ने उसे आश्वस्त किया कि तू ने अपने स्वार्थ के आगे सास की ममता देखी ही कहां? जब एक बार उसे डायरिया हो गया था, तो हालत खराब हो जाने पर सास ही तो पूरी रात उस के सिरहाने बैठ कर जागती रही थीं.

बहुत सोचसमझ कर उस ने सारी स्थिति पत्र में लिख कर अंत में लिख दिया, ‘वैसे तो मैं स्वयं आप को लेने आती, मगर किस मुंह से आऊं? यह जान लीजिए कि मेरे वहां से हटते ही घर में मेरा रहना भी दूभर हो जाएगा. मैं छोटी हूं. मुझ से गलती हो सकती है, लेकिन उसे क्षमा तो बड़े ही करते हैं. यदि आप नहीं आईं तो मैं समझूंगी, मां की ममता अब दुनिया में नहीं रही, क्योंकि मेरी मां तो है नहीं, मैं आप को ही मां समझती हूं.’

5वें दिन ही हरीश और नवल के साथ मांजी का भारीभरकम स्वर दरवाजे पर सुनाई पड़ा, ‘‘अब दरवाजा खोलोगी भी या नहीं, बस में बैठेबैठे पांव ही टूट गए.’’

उस समय नरेंद्र और नंदा भी घर पर ही थे. मांजी की गंभीर वाणी सुन कर नरेंद्र के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगीं. उस ने नंदा को जल्दी से जाने का इशारा कर दिया. पर नंदा जाती तो तब, जब निकलने का दूसरा दरवाजा होता. वह हकबकाई सी खड़ी थी. जूही को तो जैसे मरुस्थल में प्यास से बिलखते व्यक्ति की तरह किसी जलधारा का कलकल स्वर सुनाई दे गया था. उस ने जल्दी से दरवाजा खोला और सास के पैरों पर मत्था रख दिया. वे जोर से बोलीं, ‘‘अरे, अब यह सब नौटंकी बाद में करना. पहले मेरा झोला थाम. मेरे हाथ दुखने लगे हैं,’’ फिर उन्होंने आवाज दी, ‘‘नरेंद्र, नवल के सिर से टोकरी उतार. और हरीश, तू भी अपना मरतबान रख. उजबक की तरह मुंह फाड़े क्या देख रहा है,’’ इस के साथ ही वे आंगन में पड़े पलंग पर बैठ गईं. उन की भीमकाय काया से पलंग चरमरा उठा. उन की तनी आंखों, कड़कदार आवाज और पलंग की चरमराहट ने मिल कर जैसे एक आतंक की सृष्टि कर दी.

नंदा को लगा, शेरनी के आने पर तो परिंदे चीख कर भाग जाते हैं, लेकिन इन के सामने तो चीखने की भी हिम्मत नहीं पड़ेगी. उसे लगा, मांजी की दृष्टि उस को तोल रही है, जैसे कोई बच्चा किसी ढेले को फेंकने से पहले उसे तोलता है. उस का यह असमंजस भांप कर नरेंद्र ने नंदा को जाने का हाथ से इशारा किया. नंदा को जैसे जान मिल गई. उस ने एक कदम ही उठाया होगा कि मांजी अपनी बुलंद आवाज में बोलीं, ‘‘ठहरो, अभी कहां जाओगी. जरा इस को भी मेरी लाई मिठाइयां और फल खाने को दो. यह किस की लड़की है? इतनी बड़ी हो गई, अभी इस की शादीवादी नहीं हुई क्या, देखने से तो ऐसा ही लगता है.’’

नारियल: भाग 1- जूही और नरेंद्र की गृहस्थी में नंदा घोल रही थी स्वार्थ का जहर

नरेंद्र के जाते ही जूही सोच में मग्न पलंग पर ढेर हो गई. उसे न आकर्षक ढंग से सजाए 2 कमरों के इस मकान में रखे फूलदार कवर वाले सोफों में आकर्षण महसूस हो रहा था, न जतन से संवारे परदों में. दीवारों पर लगे सुंदर फोटो और एक कोने में सजे खिलौने जैसे मुंह चिढ़ा रहे थे. उसे लग रहा था जैसे कि नंदा की शरीर की महक अभी कमरे की आबोहवा में फैली हुई है और कभी प्रिय लगने वाली यह महक अब उसे पागल बनाए बिना न रहेगी. दिमाग की नसें जैसे फटना चाहती थीं. हवादार कमरे की खिड़कियों से आती सर्दी की हवाएं जैसे जेठ की लू बन कर रह गई थीं. जो कुछ हुआ था, उस की उम्मीद कम से कम जूही के भोले मन को कतई न थी.

हुआ यह कि कठोर अनुशासन वाली सास के घर में बाहर की हवा को तरस गईर् जूही में, नरेंद्र की नौकरी लगते ही अपना अधिकारबोध जाग गया कि अब वह इस घर के एकमात्र कमाऊ बेटे की पत्नी है. सास, ससुर, देवर, ननदें सभी उस के पति की कमाई पर गुलछर्रें उड़ाने को तैयार हैं. लेकिन वह उन्हें गुलछर्रे नहीं उड़ाने देगी और उड़ाने भी क्यों दे, आखिर इन लोगों ने उस के साथ कौन सी नेकी कर दी है. ननदें एकएक चीज ठुनकठुनक कर ले लेंगी, देवर गले पड़ कर अपनी जरूरतें पूरी करा लेंगे, पर यह नहीं सोचेंगे कि भाभी भी जीतीजागती इंसान है, उस का भी अपना सुखदुख है, उस की भी बाहर घूमनेफिरने की इच्छा होती होगी.

सारा काम उस ने अपने जिम्मे ले लिया तो सब आजाद हो गए. मरो, खपो, किसी को हाथ बंटाने की जरूरत ही नहीं महसूस होती. लता ने एक बार कह दिया था, ‘हमारी भाभी बहुत काम करती हैं. घर में किसी दूसरे को कोई काम छूने ही नहीं देतीं.’

‘तो कौन सा एहसान कर रही है किसी पर, मैं ने इसे घर दे दिया, पालपोस कर जवान बेटा दे दिया,’ सास तुनक कर बोली थीं.

जूही के मन में आया था कि वह भी उन्हीं की तरह हाथ नचा कर कह दे, ‘क्यों दिया था जवान बेटा, बैठाए रहतीं उसे अपनी गोद में, आंचल में छिपाए.’ पर कुछ सोच कर वह मन मसोस कर रह गई. ऐसे मौके पर सास की आंखों में उभरे लाललाल डोरे और फिर एक ठंडेपन से मार्मिक बात कह देने से उन के आतंक से पूरा घर खौफ खाता था, तो जूही ही इस का अपवाद कैसे होती?

हां, उस ने काम करने की रफ्तार बढ़ा दी थी. औफिस से लौटे नरेंद्र की चाय के बाद उस से भेंट तभी हो पाती जब रात के 10 बजे वह  ऊंघने लगता. अपने पांवों पर जूही के शीतल हाथों का स्पर्श पा कर वह चौंक उठता. जाड़े में यह स्पर्श एकाएक अटपटा सा लगता और वह उस के देर से आने पर और घर के काम को उस की तुलना में वरीयता देने पर झुंझलाता.

एक दिन जूही ने नरेंद्र से कहा, ‘घर में कलह न हो, इसलिए इतना काम करती हूं, पर मांजी रातदिन भुनभुनाया करती हैं कि यह तो दिनभर नरेंद्र की कमर से कमर जोड़े रहती है, कामधाम में मन ही नहीं लगता.’

नरेंद्र को मां की यह बात, पत्नी पर अत्याचार लगी. उस ने आश्चर्य से कहा, ‘अच्छा ऐसा कहती हैं?’

जूही ने अपने चेहरे पर जो भाव बना रखे थे, उन में आंखों का छलक आना कुछ कठिन नहीं था. उस ने कहा, ‘कहा तो बहुतकुछ जाता है, लेकिन सारी बातें सुना कर तुम्हारा दिल दुखी कर के क्या फायदा?’

फिर तो नरेंद्र की बढ़ती उत्सुकता जूही से कुछ मनगढ़ंत बातें उगलवा लेने में सफल रही. इन बातों में सर्वप्रमुख यह थी कि मांजी कह रही थीं, ‘अच्छा रहेगा, नरेंद्र के 10 साल तक कोई बालबच्चा ही न हो, नहीं तो उस की तनख्वाह उन्हीं पर खर्च होने लगेगी. तब जूही भी दिनभर घर का काम नहीं कर पाएगी.’

इस बात ने ऐसा रंग दिखाया कि नरेंद्र जूही की हर बात मानने को तत्पर हो गया. जूही ने भी उसे अपनेपन के ऐसे लटकेझटके दिखाए कि नरेंद्र को लगा, जैसे जूही के साथ अलग मकान ले कर रहने और दूसरी जगह तबादला करवा लेने में ही उस का हर तरह से कल्याण है. घर के लोग उसे नोच कर खा जाने वाले भेडि़ए लगे, जिन का उस से लगावमात्र उतना ही है, जितना हिंसक पशु का शिकार से होता है. जो मां पुत्र की कमाई के लिए उस का वंश चलते नहीं देखना चाहती, उसे मां कैसे कहा जाए? ऐसे लोगों का साथ जितनी जल्दी हो सके, छोड़ देना चाहिए.

फिर वे तबादले के बाद इस घर में आ गए. नरेंद्र और जूही 2 ही तो प्राणी थे. जूही में काम करने और व्यवस्था की आदत तो शुरू से ही थी. उस ने घर को फुलवारी की तरह सजा दिया. सीमित साधनों में जैसा रखरखाव और व्यवस्था जूही ने बना रखी थी उस से नरेंद्र के साथियों को सोचना पड़ता था कि घर तो नारी से ही आबाद होता है, किंतु वैसी गुणी नारी होनी चाहिए. वह नरेंद्र का ऐसा खयाल रखती कि उसे लगता, जैसे सच्चे अर्थों में जिंदगी तो अब शुरू की है.

नरेंद्र भी हर तरह से जूही का खयाल रखता, उस के जन्मदिन पर बढि़या पार्टी और यादगार उपहार देता. औफिस के बाद यदि समय होता तो जूही के साथ घूमने भी निकल जाता. वास्तव में इसी आजादी के लिए तो जूही ने अपने घर में अपने झूठ से कलह का माहौल बना दिया था.

कुछ दिनों बाद ही महल्ले की महिलाओं के साथ उस का दोस्ताना बढ़ सा गया था. किसी को वह स्वेटर का नया डिजाइन बताती तो किसी की साड़ी की फौल ठीक कर देती. रमाबाबू की विधवा बहन नंदा को उस के पास बैठ कर बात करने में विशेष शांति मिलती थी, क्योंकि और जगहों पर उसे पसंद नहीं किया जाता.

जूही नंदा को समझाती, ‘जिंदगी रोने से नहीं कटती है. कुछ काम करो और अपनी जिंदगी की नई शुरुआत करने पर भी गंभीरता से सोचो.’

एक दिन उस ने यह बात नरेंद्र की उपस्थिति में भी कही थी, ‘देखो, अभी क्या उम्र है, मुश्किल से 25 वर्ष की होगी और क्या गत बना रखी है अपनी? कुदरत ने गोरा संगमरमरी बदन, अच्छी कदकाठी और बोलती आंखें क्या इसलिए दी हैं कि इन्हें रोरो कर गला दिया जाए? खबरदार, जो आइंदा चेहरे पर मनहूसी छाई.’

फिर जब उस ने अपनी गुलाबी रंग की एक सुंदर साड़ी उसे पहनाई तो नरेंद्र को भी लगा, जैसे नंदा वाकई सुंदर कही जा सकती है, उस की आंखें वास्तव में आकर्षक हैं.

शेष जीवन: विनोद के खत में क्या लिखा था

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छोटू की तलाश : क्या पूरी हो पाई छोटू की तलाश

सुबह का समय था. घड़ी में तकरीबन साढे़ 9 बजने जा रहे थे. रसोईघर में खटरपटर की आवाजें आ रही थीं. कुकर अपनी धुन में सीटी बजा रहा था. गैस चूल्हे के ऊपर लगी चिमनी चूल्हे पर टिके पतीलेकुकर वगैरह का धुआं समेटने में लगी थी. अफरातफरी का माहौल था.

शालिनी अपने घरेलू नौकर छोटू के साथ नाश्ता बनाने में लगी थीं. छोटू वैसे तो छोटा था, उम्र यही कोई 13-14 साल, लेकिन काम निबटाने में बड़ा उस्ताद था. न जाने कितने ब्यूरो, कितनी एजेंसियां और इस तरह का काम करने वाले लोगों के चक्कर काटने के बाद शालिनी ने छोटू को तलाशा था.

2 साल से छोटू टिका हुआ, ठीकठाक चल रहा था, वरना हर 6 महीने बाद नया छोटू तलाशना पड़ता था. न जाने कितने छोटू भागे होंगे. शालिनी को यह बात कभी समझ नहीं आती थी कि आखिर 6 महीने बाद ही ये छोटू घर से विदा क्यों हो जाते हैं?

शालिनी पूरी तरह से भारतीय नारी थी. उन्हें एक छोटू में बहुत सारे गुण चाहिए होते थे. मसलन, उम्र कम हो, खानापीना भी कम करे, जो कहे वह आधी रात को भी कर दे, वे मोबाइल फोन पर दोस्तों के साथ ऐसीवैसी बातें करें, तो उन की बातों पर कान न धरे, रात का बचाखुचा खाना सुबह और सुबह का शाम को खा ले.

कुछ खास बातें छोटू में वे जरूर देखतीं कि पति के साथ बैडरूम में रोमांटिक मूड में हों, तो डिस्टर्ब न करे. एक बात और कि हर महीने 15-20 किट्टी पार्टियों में जब वे जाएं और शाम को लौटें, तो डिनर की सारी तैयारी कर के रखे.

शालिनी के लिए एक अच्छी बात यह थी कि यह वाला छोटू बड़ा ही सुंदर था. गोराचिट्टा, अच्छे नैननक्श वाला. यह बात वे कभी जबान पर भले ही न ला पाई हों, लेकिन वे जानती थीं कि छोटू उन के खुद के बेटे अनमोल से भी ज्यादा सुंदर था. अनमोल भी इसी की उम्र का था, 14 साल का.

घर में एकलौता अनमोल, शालिनी और उन के पति, कुल जमा 3 सदस्य थे. ऐसे में अनमोल की शिकायतें रहती थीं कि उस का एक भाई या बहन क्यों नहीं है? वह किस के साथ खेले?

नया छोटू आने के बाद शालिनी की एक समस्या यह भी दूर हो गई कि अनमोल खुश रहने लग गया था. शालिनी ने छोटू को यह छूट दे दी कि वह जब काम से फ्री हो जाए, तो अनमोल से खेल लिया रे.

छोटू पर इतना विश्वास तो किया ही जा सकता था कि वह अनमोल को कुछ गलत नहीं सिखाएगा.

छोटू ने अपने अच्छे बरताव और कामकाज से शालिनी का दिल जीत लिया था, लेकिन वे यह कभी बरदाश्त नहीं कर पाती थीं कि छोटू कामकाज में थोड़ी सी भी लापरवाही बरते. वह बच्चा ही था, लेकिन यह बात अच्छी तरह समझता था कि भाभी यानी शालिनी अनमोल की आंखों में एक आंसू भी नहीं सहन कर पाती थीं.

अनमोल की इच्छानुसार सुबह नाश्ते में क्याक्या बनेगा, यह बात शालिनी रात को ही छोटू को बता देती थीं, ताकि कोई चूक न हो. छोटू सुबह उसी की तैयारी कर देता था.

छोटू की ड्यूटी थी कि भयंकर सर्दी हो या गरमी, वह सब से पहले उठेगा, तैयार होगा और रसोईघर में नाश्ते की तैयारी करेगा.

शालिनी भाभी जब तक नहाधो कर आएंगी, तब तक छोटू नाश्ते की तैयारी कर के रखेगा. छोटू के लिए यह दिनचर्या सी बन गई थी.

आज छोटू को सुबह उठने में देरी हो गई. वजह यह थी कि रात को शालिनी भाभी की 2 किट्टी फ्रैंड्स की फैमिली का घर में ही डिनर रखा गया था. गपशप, अंताक्षरी वगैरह के चलते डिनर और उन के रवाना होने तक रात के साढे़ 12 बज चुके थे. सभी खाना खा चुके थे. बस, एक छोटू ही रह गया था, जो अभी तक भूखा था.

शालिनी ने अपने बैडरूम में जाते हुए छोटू को आवाज दे कर कहा था, ‘छोटू, किचन में खाना रखा है, खा लेना और जल्दी सो जाना. सुबह नाश्ता भी तैयार करना है. अनमोल को स्कूल जाना है.’

‘जी भाभी,’ छोटू ने सहमति में सिर हिलाया. वह रसोईघर में गया. ठिठुरा देने वाली ठंड में बचीखुची सब्जियां, ठंडी पड़ चुकी चपातियां थीं. उस ने एक चपाती को छुआ, तो ऐसा लगा जैसे बर्फ जमी है. अनमने मन से सब्जियों को पतीले में देखा. 3 सब्जियों में सिर्फ दाल बची हुई थी. यह सब देख कर उस की बचीखुची भूख भी शांत हो गई थी. जब भूख होती है, तो खाने को मिलता नहीं. जब खाने को मिलता है, तब तक भूख रहती नहीं. यह भी कोई जिंदगी है.

छोटू ने मन ही मन मालकिन के बेटे और खुद में तुलना की, ‘क्या फर्क है उस में और मुझ में. एक ही उम्र, एकजैसे इनसान. उस के बोलने से पहले ही न जाने कितनी तरह का खाना मिलता है और इधर एक मैं. एक ही मांबाप के 5 बच्चे. सब काम करते हैं, लेकिन फिर भी खाना समय पर नहीं मिलता. जब जिस चीज की जरूरत हो तब न मिले तो कितना दर्द होता है,’ यह बात छोटू से ज्यादा अच्छी तरह कौन जानता होगा.

छोटू ने बड़ी मुश्किल से दाल के साथ एक चपाती खाई औैर अपने कमरे में सोने चला गया. लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी. आज उस का दुख और दर्र्द जाग उठा. आंसू बह निकले. रोतेरोते सुबकने लगा वह और सुबकते हुए न जाने कब नींद आ गई, उसे पता ही नहीं चला.

थकान, भूख और उदास मन से जब वह उठा, तो साढे़ 8 बज चुके थे. वह उठते ही बाथरूम की तरफ भागा. गरम पानी करने का समय नहीं था, तो ठंडा पानी ही उडे़ला. नहाना इसलिए जरूरी था कि भाभी को बिना नहाए किचन में आना पसंद नहीं था.

छोटू ने किचन में प्रवेश किया, तो देखा कि भाभी कमरे से निकल कर किचन की ओर आ रही थीं. शालिनी ने जैसे ही छोटू को पौने 9 बजे रसोईघर में घुसते देखा, तो उन की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘छोटू, इस समय रसोई में घुसा है? यह कोई टाइम है उठने का? रात को बोला था कि जल्दी उठ कर किचन में तैयारी कर लेना. जरा सी भी अक्ल है तुझ में,’’ शालिनी नाराजगी का भाव लिए बोलीं.

‘‘सौरी भाभी, रात को नींद नहीं आई. सोया तो लेट हो गया,’’ छोटू बोला.

‘‘तुम नौकर लोगों को तो बस छूट मिलनी चाहिए. एक मिनट में सिर पर चढ़ जाते हो. महीने के 5 हजार रुपए, खानापीना, कपड़े सब चाहिए तुम लोगों को. लेकिन काम के नाम पर तुम लोग ढीले पड़ जाते हो…’’ गुस्से में शालिनी बोलीं.

‘‘आगे से ऐसा नहीं होगा भाभी,’’ छोटू बोला.

‘‘अच्छाअच्छा, अब ज्यादा बातें मत बना. जल्दीजल्दी काम कर,’’ शालिनी ने कहा.

छोटू और शालिनी दोनों तेजी से रसोईघर में काम निबटा रहे थे, तभी बैडरूम से अनमोल की तेज आवाज आई, ‘‘मम्मी, आप कहां हो? मेरा नाश्ता तैयार हो गया क्या? मुझे स्कूल जाना है.’’

‘‘लो, वह उठ गया अनमोल. अब तूफान खड़ा कर देगा…’’ शालिनी किचन में काम करतेकरते बुदबुदाईं.

‘‘आई बेटा, तू फ्रैश हो ले. नाश्ता बन कर तैयार हो रहा है. अभी लाती हूं,’’ शालिनी ने किचन से ही अनमोल को कहा.

‘‘मम्मी, मैं फ्रैश हो लिया हूं. आप नाश्ता लाओ जल्दी से. जोरों की भूख लगी है. स्कूल को देर हो जाएगी,’’ अनमोल ने कहा.

‘‘अच्छी आफत है. छोटू, तू यह दूध का गिलास अनमोल को दे आ. ठंडा किया हुआ है. मैं नाश्ता ले कर आती हूं.’’

‘‘जी भाभी, अभी दे कर आता हूं,’’ छोटू बोला.

‘‘मम्मी…’’ अंदर से अनमोल के चीखने की आवाज आई, तो शालिनी भागीं. वे चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘क्या हुआ बेटा… क्या गड़बड़ हो गई…’’

‘‘मम्मी, दूध गिर गया,’’ अनमोल चिल्ला कर बोला.

‘‘ओह, कैसे हुआ यह सब?’’ शालिनी ने गुस्से में छोटू से पूछा.

‘‘भाभी…’’

छोटू कुछ बोल पाता, उस से पहले ही शालिनी का थप्पड़ छोटू के गाल पर पड़ा, ‘‘तू ने जरूर कुछ गड़बड़ की होगी.’’

‘‘नहीं भाभी, मैं ने कुछ नहीं किया… वह अनमोल भैया…’’

‘‘चुप कर बदतमीज, झूठ बोलता है,’’ शालिनी का गुस्सा फट पड़ा.

‘‘मम्मी, छोटू का कुसूर नहीं था. मुझ से ही गिलास छूट गया था,’’ अनमोल बोला.

‘‘चलो, कोई बात नहीं. तू ठीक तो है न. जलन तो नहीं हो रही न? ध्यान से काम किया कर बेटा.’’

छोटू सुबक पड़ा. बिना वजह उसे चांटा पड़ गया. उस के गोरे गालों पर शालिनी की उंगलियों के निशान छप चुके थे. जलन तो उस के गालोंपर हो रही थी, लेकिन कोई पूछने वाला नहीं था.

‘‘अब रो क्यों रहा है? चल रसोईघर में. बहुत से काम करने हैं,’’ शालिनी छोटू के रोने और थप्पड़ को नजरअंदाज करते हुए लापरवाही से बोलीं.

छोटू रसोईघर में गया. कुछ देर रोता रहा. उस ने तय कर लिया कि अब इस घर में और काम नहीं करेगा. किसी अच्छे घर की तलाश करेगा.

दोपहर को खेलते समय छोटू चुपचाप घर से निकल गया. महीने की 15 तारीख हो चुकी थी. उस को पता था कि 15 दिन की तनख्वाह उसे नहीं मिलेगी. वह सीधा ब्यूरो के पास गया, इस से अच्छे घर की तलाश में.

उधर शाम होने तक छोटू घर नहीं आया, तो शालिनी को एहसास हो गया कि छोटू भाग चुका है. उन्होंने ब्यूरो में फोन किया, ‘‘भैया, आप का भेजा हुआ छोटू तो भाग गया. इतना अच्छे से अपने बेटे की तरह रखती थी, फिर भी न जाने क्यों चला गया.’’ छोटू को नए घर और शालिनी को नए छोटू की तलाश आज भी है. दोनों की यह तलाश न जाने कब तक पूरी होगी.

ढाई आखर प्रेम का: भाग 2- क्या अनुज्ञा की सास की सोच बदल पाई

घर में बैडरूम से अटैच बाथरूम को धोने के लिए ड्राइंगरूम को पार करते हुए बैडरूम में घुस कर ही बाथरूम जाया जा सकता था. 3 बैडरूम का मकान होने के कारण अलग से पूजाघर नहीं बना पाए थे. स्टोर में ही मंदिर रख कर पूजाघर बना लिया था पर स्टोर भी इतना बड़ा तथा हवादार नहीं था कि उस में कोई इंसान घंटे 2 घंटे बैठ कर पूजा कर पाए. वैसे भी सुबह कई बार उसे स्वयं ही कोई न कोई सामान निकालने स्टोर में जाना ही पड़ता था जिस से मांजी की पूजा में विघ्न पड़ता था. मांजी ऐसी ढकोसलेबाजी में कुछ ज्यादा ही विश्वास करती थी. इसलिए आरती कर के वे बैडरूम में ही कुरसी डाल कर पूजा किया करती थीं.

जिस समय रामू सफाई करने आता, वही उन का पूजा का समय रहता था. कई बार उस से उस समय आने के लिए मना किया पर उस का कहना था, 9 से 5 बजे तक मेरी नगरनिगम के औफिस में ड्यूटी रहती है, यदि इस समय सफाई नहीं कर पाया तो शाम के 5 बजे के बाद ही आ पाऊंगा.

मजबूरी के चलते उस का आना उसी समय होता था. उस के आते ही मांजी उसे हिकारत की नजर से देखते हुए अपनी साड़ी के पल्लू से अपनी नाक ढक लेती थीं तथा उस के जाते ही जहांजहां से उस के गुजरने की संभावना होती, पोंछा लग जाने के बाद भी फिर पोंछा लगवातीं तथा गंगाजल छिड़क कर स्थान को पवित्र करने का प्रयास करते हुए यह कहने से बाज नहीं आती थीं कि इस ने तो मेरी पूजा ही भंग कर दी.

अनुज्ञा चाह कर भी नहीं कह पाती थी कि वह भी तो एक इंसान है. जैसे अन्य अपना काम करते हैं वैसे ही वह भी अपना काम कर रहा है. अब उस के आने से उन की पूजा कैसे भंग हो गई. उन्हें समझाना उस के क्या अमित के बस में भी नहीं था. वैसे भी 2 पुत्रियों के बाद फैमिली प्लानिंग का औपरेशन करवाने के कारण अनुज्ञा उन्हें फूटी आंख भी नहीं सुहाती थी. दरअसल, मांजी को लगता था कि इस निर्णय के पीछे अनुज्ञा का हाथ है. किसी भी मां को अपना पुत्र कभी गलत लगता ही नहीं है, अगर कहीं कुछ गलत हो रहा है तो वह पुत्र नहीं, बहू के कारण हो रहा है. शायद, इसी मनोस्थिति के कारण सासबहू में सदा छत्तीस का आंकड़ा रहता है.

अपने इस आक्रोश को जबतब छोटीछोटी बात पर उसे जलीकटी सुना कर निकालती रहती थीं. वह तो अभ्यस्त हो चली थी लेकिन जब वे शीतल और शैलजा को अपने आक्रोश का निशाना बनातीं तब उस से सहन नहीं होता था लेकिन फिर भी घर में अशांति न हो या जैसी भी हैं, अमित की मां हैं, सोच कर वह अपने क्रोध को शांत करने का प्रयास करती थी लेकिन शीतल और शैलजा चुप नहीं रहती थीं. यही कारण था कि उन की अपनी पोतियों से भी नहीं बना करती थी.

रामू तो रामू, काम वाली कमली की 5 वर्षीय बेटी काजल भी यदि गलती से उन से छू जाती तो उसे भी वे कोसने से नहीं चूकती थीं, तुरंत साड़ी बदलतीं, काम वाली के धोए बरतन वे फिर पानी से इसलिए धुलवातीं कि कहीं उस ने प्राकृतिक मासिक चक्र के दौरान बरतन न धो दिए हों.

अनुज्ञा सोचती जिस चीज के कारण प्रकृति ने औरत को नारीत्व होने का सब से बड़ा गौरव दिया, भला उस के कारण वह ‘अपवित्र’ कैसे हो सकती है? वैसे काम वाली को सख्त हिदायत थी कि इन दिनों वह काम नहीं करेगी पर फिर भी उन्हें विश्वास नहीं था, उन के इस विचार के कारण कामवाली को 4 दिन की अतिरिक्त छुट्टी देनी पड़ती थी.

व्यर्थ के बढ़े इन कामों के कारण कभीकभी मन आक्रोश से भर उठता था पर घर की सुखशांति के लिए संयम बरतना उस की मजबूरी थी. वह जानती थी कि अमित को भी यह सब पसंद नहीं है पर मां के उग्र स्वभाव के कारण वे भी चुप रहते थे. कभी वे कुछ कहने का प्रयास करते तो तुरंत कहतीं, ‘हम सरयूपारीय ब्राह्मण हैं, तुम भूल सकते हो पर मैं नहीं. आज अगर तुम्हारे पिताजी होते, तुम्हारे घर का दानापानी भी ग्रहण नहीं करते. प्रकृति मुझे न जाने किन पापों की सजा दे रही है.’ इस के साथ ही उन का रोना प्रारंभ हो जाता.

अमित के पिताजी गांव के मंदिर में पुजारी थे, 4 पीढि़यों से चला आ रहा यह व्यवसाय उन्हें विरासत में मिला था. प्रकांड विद्वान होने के कारण आसपास के अनेक गांवों में उन की बेहद प्रतिष्ठा थी. दानस्वरूप प्रचुर मात्रा में मिले धन के कारण धनदौलत की कोई कमी नहीं थी. पुरखों की जमीन अलग से धनवर्षा करती रहती थी. एक दिन वे ऐसे सोए कि उठ ही नहीं पाए. अमित परिवार में सब से बड़े थे. दोनों भाई बाहर होस्टल में रह कर पढ़ रहे थे. कोई भी भाई अपने परिवार का पुश्तैनी व्यवसाय यानी पंडिताई तथा खेतीबारी अपनाने को तैयार नहीं था. इसलिए सबकुछ बेच कर तथा खेती को बटाई में दे कर वे मां को ले कर चले आए.

उस समय शीतल 2 वर्ष की थी, उस के कारण सर्विस में भी समस्या आने लगी थी. मांजी के आने से उसे लगा कि अब शीतल को संभालने में आसानी होगी पर हुआ विपरीत. दंभी और उग्र स्वभाव की होने के साथ उन की टोकाटाकी तथा छुआछूत की आदत के कारण कभीकभी उसे लगता था कि उस का सांस लेना ही दूभर हो गया है. इस के साथ उन का एक ही जुमला दोहराना कि ‘हम सरयूपारीय ब्राह्मण हैं, तुम भूल सकते हो पर मैं नहीं,’ उसे अपराधबोध से जकड़ने लगा था. गलती शायद उन की भी नहीं थी, बचपन से जो जिस माहौल में पलाबढ़ा हो, उस के लिए इन सब को एकाएक छोड़ पाना संभव ही नहीं है. इन हालात में घर संभालना ही कठिन हो रहा था इसलिए नौकरी से त्यागपत्र दे दिया.

3 दिन तक मांजी को आईसीयू में रखा गया. दवाओं के बावजूद वे स्टेबल नहीं हो पा रही थीं. डाक्टर इस चिंता में थे कि कहीं इस का कारण, उन को दिया गया खून तो नहीं है, शायद उन का शरीर उसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है. रामू लगातार अनुज्ञा को देखने आता रहा था. जब वह घर जाती तब वह उस के पास बैठा रहता. शीतल और शैलजा की परीक्षाएं चल रही थीं. अंतिम 2 पेपर बाकी थे इसलिए वे भी उस के पास ज्यादा देर तक बैठ नहीं पा रही थीं. सच तो यह है कि रामू के कारण वह संकट की इस घड़ी को आसानी से पार कर गई थी.

अमित भी सूचना पा कर शीघ्र लौट आए थे. आखिर 5वें दिन उन की हालत में थोड़ा सुधार आना प्रारंभ हुआ, तब चैन आया. मांजी को आईसीयू से प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. उसी दिन शीतल और शैलजा के पेपर समाप्त हुए थे. वे भी मांजी से मिलने आई थीं. उसी समय रामू भी मांजी का हालचाल लेने पहुंच गया. उसे देखते ही शीतल ने मांजी की ओर देखते हुए कहा, ‘दादी, रामू की सहायता से ही ममा आप को अस्पताल ले कर आ पाईं.’

‘क्या इस ने मुझे छूआ…?’ मांजी ने हकबका कर कहा.

‘दादी, रामू ने छुआ ही नहीं आप को अपना खून भी दिया,’ शैलजा ने कहा.

‘क्या कहा तू ने, इस का खून मुझे चढ़ाया गया?’

‘हां दादी, अगर यह नहीं होता तो आप को खून नहीं मिल पाता.’

‘इस का खून मुझे क्यों चढ़ाने दिया, इस से तो मुझे मर ही जाने देते,’ मांजी ने लगभग रोंआसे स्वर में कहा.

यह सुन कर रामू ने सिर झुका दिया तथा बिना कुछ कहे चला गया.

‘मां, मेरी अनुपस्थिति में इस ने तुम्हारी सेवा की, जो काम मुझे करना चाहिए वह इस ने किया. इस का हम से कोई संबंध नहीं है, है तो सिर्फ इंसानियत का और तुम इसे गलत समझ रही हो. तुम्हें इस के खून से परहेज है क्योंकि तुम्हारी नजरों में वह नीच जाति का है. पर मां खून तो खून ही है, इस का धर्म और जाति से भला क्या वास्ता. अगर ऐसा होता तो तुम्हारा खून इस से कैसे मेल खाता. मां, हर इंसान का खून एक जैसा है, हम इंसानों ने ही कभी कार्य, कभी जाति तो कभी धर्म के आधार पर एकदूसरे को बांट दिया है.’

‘मां, यह रामू का नहीं, उस के जैसे अनेक लोगों का दोष है कि उन्होंने एक सवर्ण के घर नहीं बल्कि तथाकथित निम्नवर्ण में जन्म लिया. मां, वह छोटा नहीं, हम से बड़ा है. जहां हम अपनी गंदगी स्वयं साफ करने में झिझकते हैं, वहीं इन्हें उसे साफ करने में कोई संकोच नहीं होता. जरा सोचो, मां, अगर यह भी हमारी तरह गंदगी को साफ करने से मना कर दे तो? क्या यह दुनिया रहने लायक रह पाएगी? अमित उन की बात सुन कर चुप न रह पाए तथा उन्हें समझाते हुए कहा.

अमित की बात सुन कर आशा के विपरीत वे कुछ नहीं बोलीं पर उन की मुखमुद्रा से स्पष्ट लग रहा था कि वे कुछ सोच रही हैं. शायद, पुत्र की बात आज उन्हें सही लग रही थी पर वे चाह कर भी दिल की बात जबां पर नहीं ला पा रही थीं. नहीं कह पा रही थीं कि तू ठीक कह रहा है बेटा, आज तक व्यर्थ ही मैं इन ढकोसलों में पड़ी रही. मैं भूल गई थी, कार्य ही इंसान को महान बनाते हैं.

‘कैसी हैं मांजी आप?’ डाक्टर ने अंदर प्रवेश करते हुए पूछा. ‘अब ठीक हूं, तुम ने बचा लिया, वरना…’ मांजी ने चौंकते हुए कहा.

‘मांजी, मुझे नहीं, अपनी बहू और रामू को धन्यवाद दीजिए. यदि ये समय पर आप को यहां नहीं ला पाते या रामू अपना खून न देता तो मैं कुछ भी नहीं कर पाता,’ डाक्टर विनय ने उन से कहा.

ढाई आखर प्रेम का: भाग 1- क्या अनुज्ञा की सास की सोच बदल पाई

‘‘मांजी, देखिए तो कौन आया है,’’ अनुज्ञा ने अपनी सासूमां के कमरे में प्रवेश करते हुए कहा.

‘‘कौन आया है, बहू…’’ उन्होंने उठ कर चश्मा लगाते हुए प्रतिप्रश्न किया.

‘‘पहचानिए तो,’’ अनुज्ञा ने एक युवक को उन के सामने खड़े करते हुए कहा.

‘‘दादीजी, प्रणाम,’’ वे कुछ कह पातीं इस से पूर्व ही उस युवक ने उन के चरणों में झुकते हुए कहा.

‘‘तू चंदू है?’’

‘‘हां दादीजी, मैं चंद्रशेखर.’’

‘‘अरे, वही तो, बहुत दिन बाद आया है. कैसी चल रही है तेरी पढ़ाई?’’ उसे अपने पास बिठाते हुए मांजी ने कहा.

‘‘दादीमां, पढ़ाई अच्छी चल रही है, आप के आशीर्वाद से नौकरी भी मिल गई है, पढ़ाई समाप्त होते ही मैं नौकरी जौइन कर लूंगा. सैमेस्टर समाप्त होने पर हफ्तेभर की छुट्टी मिली थी, इसलिए आप सब से मिलने चला आया.’’

‘‘यह तो बहुत खुशी की बात है. सुना बहू, इसे नौकरी मिल गई है. इस का मुंह तो मीठा करा. और हां, चाय भी बना लाना.’’

मांजी के निर्देशानुसार अनुज्ञा रसोई में गई. चाय बनाने के लिए गैस पर पानी रखा पर मस्तिष्क में अनायास ही वर्षों पूर्व की वह घटना मंडराने लगी जिस के कारण उस की जिंदगी में एक सुखद परिवर्तन आ गया था.

दिसंबर की हाड़कंपाती ठंड वाला दिन था. अमित टूर पर गए थे, शीतल और शैलजा को स्कूल भेजने के बाद वह रसोई में सुबह का काम निबटा रही थी कि गिरने की आवाज के साथ ही कराहने की आवाज सुन कर वह गैस बंद कर अंदर भागी तो देखा उस की सासूमां नीचे गिरी पड़ी हैं. अलमारी से अपने कपड़े निकालने के क्रम में शायद उन का संतुलन बिगड़ गया था और उन का सिर लोहे की अलमारी में चूड़ी रखने के लिए बने भाग से टकरा गया था, उस का नुकीला सिरा माथे से कनपटी तक चीरता चला गया जिस के कारण खून की धार बह निकली थी. वे बुरी तरह तड़प रही थीं.

उस ने तुरंत एक कपड़ा उन के माथे से बांध दिया, हाथ से कस कर दबाने के बाद भी खून रुकने का नाम नहीं ले रहा था तथा मांजी धीरेधीरे अचेत होती जा रही थीं. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे.

आसपास ऐसा कोई नहीं था जिस से वह सहायता ले पाती, अमित के स्थानांतरण के कारण वे 2 महीने पूर्व ही इस कसबे में आए थे, घर को व्यवस्थित करने तथा बच्चों के ऐडमिशन के कारण वह इतनी व्यस्त रही कि किसी से जानपहचान ही नहीं हो पाई. घर भी बस्ती से दूर ही मिला था, घर अच्छा लगा, इसलिए ले लिया था.

15 वर्ष बड़े शहर में नौकरी के बाद इस छोटे से कसबे कासिमपुर में पोस्टिंग से अमित बच्चों की पढ़ाई को ले कर परेशान थे. उन का कहना था कि तुम बच्चों को ले कर यहीं रहो पर अनुज्ञा का मानना था कि वहां भी तो स्कूल होंगे ही. अभी बच्चे छोटे हैं, सब मैनेज हो जाएगा. दरअसल, वह मांजी के उग्र स्वभाव के कारण छोटे बच्चों को ले कर अलग नहीं रहना चाहती थी. उन की चिंता का शीघ्र ही निवारण हो गया जब उन्हें पता चला कि यहां डीएवी स्कूल की एक ब्रांच है तथा उस का रिजल्ट भी अच्छा रहता है.

मांजी के कराहने की आवाज उसे बेचैन कर रही थी, सारी बातों से ध्यान हटा कर उस ने सोचा, टैलीफोन कर के एंबुलेंस को बुलवाए. टैलीफोन उठाया तो वह डैड था. उस समय मोबाइल तो क्या हर घर में टैलीफोन भी नहीं हुआ करते थे. अगर थे भी तो वे लाइन में गड़बड़ी के कारण अकसर बंद ही रहते थे. अगर चलते भी थे तो आवाज ठीक से सुनाई नहीं देती थी. एसटीडी करने के लिए कौल बुक करनी पड़ती थी. अर्जेंट कौल भी कभीकभी 1 से 2 घंटे का समय ले लिया करती थी.

मांजी की हालत देख कर उस दिन जिस तरह से वह स्वयं को लाचार व बेबस महसूस कर रही थी, वैसा उस ने कभी महसूस नहीं किया था. आत्मनिर्भरता उस में कूटकूट कर भरी थी. वह एक कंपनी में सोशल वैलफेयर औफिसर थी. विवाह के पूर्व तथा पश्चात भी उस ने कार्य जारी रखा था.

अभी सोच ही रही थी कि क्या करे, तभी डोरबैल बजी, मांजी को वहीं लिटा कर उस ने जल्दी से दरवाजा खोला तो सामने रामू को देख कर संतोष की सांस लेते हुए, उस से कहा, ‘तू जरा मांजी के पास बैठ कर उन के माथे को दबा कर रख. मैं तब तक गाड़ी निकालती हूं.’

‘क्या हुआ मांजी को?’ चिंतित स्वर में रामू ने पूछा.

‘वे गिर गई हैं, उन के माथे से खून बह रहा है जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा. प्लीज, मेरी मदद कर.’

‘लेकिन मैं?’ वह उस का प्रस्ताव सुन कर हड़बड़ा गया था.

‘मैं तेरी हिचकिचाहट समझ सकती हूं पर इस समय इस के अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं है, प्लीज मदद कर,’ अनुज्ञा की आवाज में दयनीयता आ गई थी.

वह मांजी की छुआछूत के बारे में जानती थी पर इस समय रामू की सहायता लेने के अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं था, यह तो गनीमत थी कि उसे कार चलानी आती थी.

अब वह अकेली नहीं थी. रामू भी साथ में था. उस ने रामू की सहायता से मांजी को गाड़ी में लिटाया तथा ताला बंद कर बच्चों के नाम एक स्लिप छोड़ कर ड्राइव करने ही वाली थी कि रामू ने स्वयं ही कहा, ‘मेमसाहब, हम भी चलें क्या?’

‘तुझे तो चलना ही होगा. यहां जो भी अच्छा अस्पताल हो, वहां ले कर चल. और हां, मांजी को पकड़ कर बैठना.’

हड़बड़ी में वह उसे बैठने के लिए कहना भूल गई थी. वैसे भी एक से भले दो, न जाने कब क्या जरूरत आ जाए. नई जगह भागदौड़ के लिए एक आदमी साथ रहेगा तो अच्छा है.

अत्यधिक खून बहने के कारण मांजी अचेत हो गई थीं, घबराहट में वह भूल ही गई थी कि यदि कहीं से खून निकल रहा हो तो उस स्थान पर बर्फ रख देने से खून के बहाव को रोका जा सकता है. मांजी अचेत थीं, ब्लडप्रैशर के साथ डायबिटीज की भी उन्हें शिकायत थी. शायद इसीलिए उस के पट्टी बांधने के बावजूद खून का बहना नहीं रुक पा रहा था.

अस्पताल ज्यादा दूर नहीं था, पहुंचते ही उन्हें ऐडमिट कर लिया गया. घाव में टांके लगाने के लिए उन्हें औपरेशन थिएटर में ले जाया जाने लगा तब उस की घबराहट देख कर रामू उसे दिलासा देता हुआ बोला, ‘मेमसाहब, धीरज रखिए, सब ठीक हो जाएगा.’

उस की बात सुन कर भी वह सहज नहीं हो पा रही थी, उस के चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी. तभी सिस्टर ने आ कर कहा, ‘चोट लगने से मरीज के माथे के पास की एक नस कट गई है जिस के कारण ब्लीडिंग काफी हो गई है. ब्लड देने की आवश्यकता पड़ेगी, यहां तो कोई ब्लडबैंक नहीं है, इस के लिए शहर जाना पड़ेगा पर इस में शायद देर हो जाए.’

‘सिस्टर, आप कुछ भी कीजिए पर मांजी को बचा लीजिए,’ अनुज्ञा की स्वर में विवशता आ गई थी. अमित की बहुत याद आ रही थी. काश, उन की बात मान कर यहां न आती तो शायद यह सब न झेलना पड़ता

‘आप डाक्टर साहब से बात कर लीजिए.’

डाक्टर साहब से बात की तो उन्होंने कहा, ‘स्थिति गंभीर है. अगर आप की स्वीकृति हो तो हम फ्रैश खून चढ़ा

देंगे वरना…’

‘आप मेरा खून चैक कर लीजिए डाक्टर साहब पर मांजी को बचा लीजिए.’

‘मेरा भी, डाक्टर साहब,’ रामू ने कहा.

आखिर रामू का खून मांजी के खून से मैच हो गया. अनुज्ञा से स्वीकृतिपत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया. भरे मन से उस ने उस पर हस्ताक्षर कर दिए क्योंकि इस के अलावा कोई चारा न था.

मांजी को जब रामू का खून चढ़ाया जा रहा था तब वह सोच रही थी, जिस आदमी को मांजी सदा हीन और अछूत समझ कर उस का तिरस्कार करती रही थीं वही आज उन के प्राणों का रक्षक बन गया है.

वक्त के धमाके

एक तरफ प्रशांत महासागर की अथाह गहराइयां और दूसरी ओर माउंट फूजी की बर्फ से ढकी गगनचुंबी चोटियों के बीच दूर तक फैली हरियाली का सीना चीरती हुई ‘शिनकानसेन’ (बुलेट ट्रेन का जापानी नाम) तेज रफ्तार से भागती जा रही थी. आरक्षित कोच की शानदार सीट पर सिर रखे, आंखें बंद किए रवि का मन उस से भी तेज गति से अतीत की ओर भाग रहा था. तकरीबन 1 साल हुआ जब उस से रवि की मुलाकात हुई थी. बी.ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा परिणाम का अखबार हाथ में आते ही पिताजी ने आसमान सिर पर उठा लिया था. मां ने बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन उन का फैसला पत्थर की लकीर जो था. चंद जरूरी कपड़े साथ में ले जाने की उसे इजाजत मिली थी. घर से निकलते समय अपने ही जन से नजरें मिलाने की भी उस में हिम्मत न थी. आखिर उन की तकलीफों से वह वाकिफ था.

सरकारी महकमे का एक ईमानदार बाबू किस प्रकार परिवार की गाड़ी खींचता था, उस से छिपा तो न था. बड़ा बेटा होने के नाते उस से उम्मीदें भी बहुत थीं. ‘पढ़ नहीं सकते हो तो महकमे से लोन ले कर एक छोटीमोटी दुकान खुलवा सकता हूं’, कहा था पिताजी ने, लेकिन वह जिंदगी जीना उस का ख्वाब होता तब न. बचपन से एक ही सपना पाल रखा था कि विदेश जाऊंगा, कुछ बनूंगा. जून की तपती दोपहरी में कुछ सुकून के पल तलाश करने के लिए वह दिल्ली स्थित ‘जापान कल्चरल सेंटर’ के बाहर एक पेड़ की छांव में बैठा ही था कि तभी गेट से एक जापानी बाला बाहर आई और फुटपाथ के पास खड़ी हो गई. उसे शायद किसी टैक्सी का इंतजार था. भीषण गरमी से उस का सफेद दूध सा दमकता चेहरा लाल हो गया था. उस जापानी युवती को परेशान देख कर रवि के मन में परमार्थ की भावना जागी. कुछ ठिठकते कदमों के साथ उस के थोड़ा नजदीक गया और धड़कते दिल से अंगरेजी में पूछा कि क्या तुम अंगरेजी में बातचीत कर सकती हो. उस ने बेहद पतली आवाज में अंगरेजी में जवाब दिया, ‘यस अफकोर्स.’ और इसी के साथ ही उस में साहस का संचार हुआ, बोला, ‘डू यू नीड ऐनी हेल्प?’ ‘नो थैंक्स, एक्चुली आई अराइव्ड हियर लास्ट नाइट एंड बाई टुमारो मार्निंग आई हैव टु फ्लाई फौर जयपुर, सो ड्यूरिंग दीज फ्यू आवर्स आई विश टू सी सम गुड प्लेसिज हियर.’

उस की बातें खत्म होने से पहले वह बोल उठा, ‘इफ यू डोंट माइंड एंड फील कंफर्टेबल, इट वुड बी माई प्लेजर टु शो यू सम ब्यूटीफुल एंड हिस्टोरिकल प्लेसिज?’ एक पल के लिए गहरी खामोशी छा गई थी, उस युवती के मुंह से निकलने वाली हां या ना पर रवि के पूरे सपने पल भर टिके रहे. ‘ओह श्योर,’ ने रवि की तंद्रा भंग की और वह सातवें आसमान पर जा पहुंचा था.

शाम होतेहोते दिल्ली की वे तमाम ऐतिहासिक चीजें रवि ने जापानी युवती को दिखाईं जिन से एक पर्यटक वाकई अभिभूत हो उठता है. रवि के लिए सब से महत्त्वपूर्ण था उस का सुखद सामीप्य. एक वाक्य बोलने से पहले उस के खूबसूरत होंठों से जो खिलखिलाहट उभरती थी और बातोंबातों में रवि की नाक को पकड़ कर हिला देने का जो उस का अंदाज था, उस ने उसे रवि के दिल के बेहद करीब पहुंचा दिया. दिल्ली के कई पर्यटन स्थलों को देखतेदेखते उन्हें शाम हो गई. दोनों को भूख लगी थी. एक अच्छे रेस्तरां में खाना खाने के बाद वे टहलते हुए इंडिया गेट की ओर निकल गए थे. चांदनी चारों ओर बिखरी थी, बोट क्लब की ओर से आती ठंडी हवाएं, माहौल को और भी खुशनुमा बना रही थीं. चलतेचलते मिकी ने उस की उंगलियों को अपनी हथेली में भर कर बहुत ही गंभीर स्वर में कहा था, ‘रवि, मैं दुनिया के बहुत से देशों में गई हूं और अनेक दोस्त भी बनाए हैं लेकिन तुम वास्तव में उन दोस्तों में एक बेहतरीन दोस्त हो. मैं तुम्हारे देश से मधुर यादों को ले कर जापान जाऊंगी. मेरी इच्छा है कि तुम जापान आओ. भविष्य में यदि तुम कभी अपने देश को छोड़ कर जापान आने के लिए मानसिक रूप से तैयार होना तो मुझे लिखना, मैं तुम्हारे लिए टिकट और वीजा के लिए जरूरी पेपर भेज दूंगी. कल सुबह 8 बजे से पहले तुम मुझे पार्क होटल के रिसेप्शन पर आ कर मिलना. मैं तुम्हें अपना जापान का पता व टेलीफोन नंबर दे दूंगी.’

बहुत मुश्किल से रवि तब सिर्फ ‘यस’ बोल सका था. चेतना जा चुकी थी वह सिर्फ जड़वत सा खड़ा रह गया था. शायद इतनी बड़ी खुशी का बोझ उस से उठाया नहीं जा रहा था. बचपन का एक सपना शायद सच होने जा रहा था. तभी उस की नाक को पकड़ कर मिकी ने हिलाया तो मानो वह नींद से जाग गया. ‘रवि, अब तुम जाओ, उम्मीद करती हूं कि कल सुबह मुलाकात होगी.’ इतना कह कर मिकी चली गई थी और रवि उस के कदमों की आखिरी आवाज भी सुनने को बेचैन ठगा सा वहीं खड़ा रहा.

कुछ देर बाद रवि अपने ठिकाने पर जा कर सो गया. वह पास की एक बेंच पर लेट गया था. रात सरकती रही और वह मिकी और अपने भविष्य के बारे में सोचता ही जा रहा था. सोचतेसोचते कब आंख लग गई पता ही नहीं चला और सुबह आंख खुली रवि ने सब से पहले घड़ी को देखा तो 8 बज चुके थे. वह हांफते हुए होटल के रिसेप्शन पर पहुंचा तो पता चला कि मिकी की फ्लाइट 8.45 बजे की थी और वह 8 बजे से पहले ही होटल से जा चुकी थी. जिस बेल ब्वाय ने उस का कमरा साफ किया था उस ने बताया कि मिकी काफी देर तक लौबी में बैठी थी. उस की मायूस निगाहें मानो किसी को तलाश रही थीं.

रवि को लगा कि उस का सबकुछ लुट चुका है. वह भीतर से बिलकुल टूट गया, फिर भी उसे जीना है क्योंकि अब तो उसे जिंदगी का मकसद मिल गया था. मिकी को पाने की एक अटूट चाहत ने उस के भीतर जन्म ले लिया था. हलके झटके के साथ ट्रेन रुकी तो रवि ने आंखें खोलीं और उस का मन अतीत से वर्तमान में आ गया. एक सहयात्री ने रवि के पूछने पर बताया कि यह हमामातसुचो स्टेशन है. लगभग आधा सफर खत्म हो चुका है. भारत के स्टेशनों से कितना भिन्न, जगमगाता प्लेटफार्म, कोई शोरशराबा नहीं, इतना साफसुथरा फर्श कि पैर भी रखने को दिल न करे. उतरने और चढ़ने वालों का अनुशासन देख जापान की सभ्यता से रवि थोड़ाबहुत परिचित हो रहा था. ट्रेन सरकने लगी और कुछ ही क्षणों में फिर तूफानी रफ्तार पकड़ ली. रवि एक बार फिर आंखें बंद कर अतीत में खो गया.

तब दोचार दिन तलाश करने पर रवि को पास ही के एक छोटे से रेस्तरां में काम मिल गया था जिस से पेट की भूख और छत की समस्या का हल हो गया. लगभग रोजाना समय निकाल कर एक उम्मीद दिल में लिए रवि उसी पेड़ के नीचे आ बैठता था. इस दौरान उस ने बहुत जापानी चेहरे देखे लेकिन वह चेहरा दोबारा देखने की चाहत लिए एक साल गुजर गया. ऐसे ही एक दिन शाम को रवि पेड़ के नीचे उदास बैठा था कि तभी एक आटोरिकशा ब्रेक की तेज आवाज के साथ आ कर रुका तो उस की तंद्रा भंग हुई. रवि ने देखा कि एक जापानी नौजवान आटो से उतरा और आटो वाले को किराया देने के बाद अपने मोटे से पर्स को तंग जींस की पिछली जेब में खोंस कर लापरवाह ढंग से सीढि़यों की तरफ बढ़ा. महज 2 सीढि़यां चढ़ते ही उस युवक का पर्स जेब से निकल कर वहीं गिर गया, लेकिन उस से अनजान वह जापानी नौजवान आगे बढ़ता गया. रवि ने आसपास किसी को न देख कर धीरे से जा कर पर्स उठाया और पेड़ के नीचे आ कर उसे खोल कर देखा तो उस में हजार के नोट भरे थे. धड़कते दिल से रवि ने उसे तुरंत बंद किया. उस के अनुमान से लगभग 40-50 नोट रहे होंगे. इस का मतलब भारतीय करेंसी में तो ये लाखों में होंगे. एक पल को उस के दिमाग में आया कि ये रुपए अगर वह पिताजी को जा कर दे दे तो उन की तमाम परेशानियां दूर हो सकती हैं, लेकिन दूसरे ही पल उस की आत्मा धिक्कार उठी कि रवि, यदि यह धन तुम ने अपने पास रखा तो शायद जीवन भर अपने को माफ न कर सकोगे. इस को वापस करना होगा. तभी बेचैनी की हालत में वह जापानी नौजवान बाहर आता दिखाई पड़ा. उस की निगाहें जमीन के भीतर से भी कुछ निकाल लेने को आतुर थीं. रवि हौले से उस के करीब आ कर बोला, ‘एक्सक्यूज मी, आई हैव योर वालेट. यू ड्राप्ड इट हियर,’ कह कर पर्स उस के हाथों में थमा दिया.

उस जापानी नौजवान के चेहरे पर जो खुशी और कृतज्ञता के भाव आए और धन्यवाद से संबंधित जितने भी शब्द उसे आते थे, कहे. उन्हें सुन कर रवि गौरवान्वित हो उठा था. पर्स निकाल कर युवक ने चंद नोट उसे थमाने चाहे थे, लेकिन उस ने जो किया था उस के बदले में कुछ पैसे ले कर खुद से शर्मिंदा नहीं होना चाहता था. रवि की ऐसी अभि- व्यक्ति को सुन कर जापानी नौजवान ने आश्चर्यमिश्रित ढंग से उस की ओर देखा और बोला, ‘आई एम वेरी मच इंप्रेस्ड, मे आई डू समथिंग फौर यू?’

इसी सवाल का तो रवि को इंतजार था और एक झटके में उस के मुंह से निकला, ‘आई विश टु कम टु जापान?’ एक पल को उन दोनों के बीच गहरी खामोशी छा गई. फिर उस जापानी नौजवान ने धीरे से रवि के कंधे पर हाथ रख कर बोला, ‘डू यू नो एनी रेस्टोरेंट अराउंड दिस एरिया? आई एम हंग्री.’

करीब 5 मिनट पैदल चलते ही रवि का रेस्टोरेंट था, संयोग से कोने की एक मेज खाली थी. उस ने रवि को जबरदस्ती अपने पास बिठाया और भोजन के दौरान ही रवि ने अपनी जिंदगी के हर पहलू, हर सपने को खोल कर उस के सामने रख दिया. इस दौरान जापानी नौजवान कुछ भी नहीं बोला, सिर्फ खाता रहा और रवि की बातें सुनता रहा. भोजन समाप्त करने के बाद वह रवि को अपने बारे में बताने लगा. अभी हाल ही में उस की शादी हुई है और करीब एक बरस पहले उस के पिता प्लास्टिक के एक छोटेमोटे कारखाने को उस के कंधों पर छोड़ कर हार्टअटैक से चल बसे थे.

पिछले एक साल में उस के अथक परिश्रम से उस की ‘खायशा’ (कंपनी) की काफी तरक्की हुई. घूमनेफिरने का उसे बचपन से शौक है, इसलिए काम की जिम्मेदारी अपनी पत्नी को सौंप कर वह एक सप्ताह की भारत यात्रा पर निकल पड़ा था. एक पल रुक कर उस ने गिलास में रखा पानी पीया और आगे बताने लगा कि आने वाले दिनों में उस की कंपनी में काफी काम बढ़ने वाला है, लिहाजा उसे कुछ नए कर्मचारियों की जरूरत है. अगर तुम लंबे अरसे तक जापान में रहना चाहते हो और मेरे साथ काम करना पसंद करो तो मैं तुम्हें अपनी कंपनी में जगह दे सकता हूं, लेकिन जापान में बहुत मेहनत से काम करना होता है, जहां तक तुम्हारी ईमानदारी का सवाल है उस से तो मैं परिचित हो चुका हूं और तमाम नसीहतें देता चला गया.

रवि के कानों में सीटियां बज रही थीं. एक साल में दूसरी बार ऐसा अवसर आया था. वह अपनी सुध खो बैठा था ‘व्हाट डू यू डिसाइड?’ चौंक कर यथार्थ में आया रवि उस का हाथ थाम कर थरथराते होंठों से सिर्फ इतना बोल सका, ‘आई विल डू माई बेस्ट.’ मेरे ऐसे भाग्य होंगे, यह मैं ने सोचा न था. उस के रेस्तरां का पता नोट कर वह जापानी नौजवान बोला, ‘आई हैव टु फ्लाई फौर मुंबई टुनाइट एंड आफ्टर स्पेंडिंग 2 डेज ओवर दियर आई विल बी बैक टु जापान, सून आई विल सेंड औल द डाक्यूमेंट्स, सो जस्ट वेट फौर माई लेटर.’ उसे टैक्सी में बिठा कर एक उमंग मन में लिए रवि तब वापस रेस्तरां में आ गया था. भीड़ बढ़ने लगी थी.

उस जापानी नौजवान के जाने के बाद हरेक दिन रवि के लिए एक बरस की तरह गुजरा और ठीक 15वें दिन रेस्टोरेंट के काउंटर पर कैशियर ने उसे बड़ा सा लिफाफा पकड़ाया. एक कोने में जापान लिखा देख वह भागता हुआ अंदर गया और कांपती उंगलियों से लिफाफा खोला. वीजा से संबंधित सारे कागजात और एक ‘ओपन डेटेड’ एयर टिकट था. छोटे से पत्र में उस ने लिखा था कि शीघ्र आने की कोशिश करो. खुशी के मारे उस की आंखों में आंसू आ गए.

आगे के 10 दिन तूफान की सी तेजी से गुजरे. लगातार 5 दिन तक जापानी दूतावास के चक्कर काटने के बाद वीजा मिला और फिर जाने का समय आ गया था. पिताजी के स्नेहयुक्त नसीहत भरे अल्फाज ‘बेटा रवि, ईमानदारी का साथ मत छोड़ना तो खुशियां तुम से दूर नहीं रह पाएंगी,’ को रवि ने आत्मसात कर लिया था. छोटी बहन को सीने से लगा कर द्रवित हृदय से विदा ली थी.

ओसाका इंटरनेशनल एअरपोर्ट से क्लियरेंस की तमाम औपचारिकताएं पूरी होने के बाद उसे कार्यक्रम के अनुसार ओसाका स्टेशन से टोकियो के लिए बुलेट ट्रेन पर सफर करना था.

आंखें खुलीं तो रवि अतीत से बाहर आया. बाहर अंधेरा हो चला था. दूर टिमटिमाती रोशनियां दिखाई पड़ने लगी थीं. सहयात्री ने बताया कि टोकियो आने वाला है. फ्रेश होने की नीयत से रवि टायलेट गया. जब वह बाहर आया तो चारों तरफ जगमगाता शहर था. ट्रेन टोकियो में प्रवेश कर चुकी थी. आगामी कुछ ही मिनटों में ट्रेन रवि के अंतिम पड़ाव यानी वेनो स्टेशन पर पहुंचने वाली थी. पश्चिम के दरवाजे से बाहर निकलते ही आरक्षण काउंटर के पास वह जापानी नौजवान रवि का इंतजार कर रहा था. दोनों गले मिले. रवि को उस ने बताया कि महज 10 मिनट की दूरी पर उस का अपार्टमेंट है. जगमगाता शहर और उस पर से आतिशबाजियों का मंजर (कुछ ही दूर पर बहती सुमिदा नदी के तट पर हर साल इसी दिन आतिशबाजी का उत्सव होता है जिसे ‘हानाबी’ कहते हैं) किसी भी नए इनसान को भौंचक कर देने के लिए पर्याप्त था.

कार उस शानदार अपार्टमेंट के पोर्च में जा लगी थी. रवि अब कुछ थकान का अनुभव कर रहा था. ड्राइंगरूम से अटैच्ड बाथरूम में गरम पानी के बाथटब में नहा कर रवि ने थकान उतारी और जब फ्रेश हो कर बाहर निकला तो देखा वह जापानी नौजवान अपना पसंदीदा पेय ले कर बैठा था. रवि ने सिर्फ एक कप कौफी पीने की इच्छा जाहिर की. वह अंदर गया और रवि सोफे की पुश्त पर सिर टिका कर आंखें बंद कर दिल के उस हिस्से को छूने लगा जिस पर मिकी का नाम लिखा था. किसी भी सूरत में उसे ढूढ़ना होगा, रवि ने सोचा.

‘‘मि. रवि, प्लीज मीट टु माई वाइफ, मिकी,’’ और साथ में बेहद पतली आवाज में ‘हेलो’ के स्वर ने रवि की तंद्रा भंग की. झटके के साथ आंखें खोलीं और वह चेहरा जिसे रवि करोड़ों में भी पहचान सकता था, उस के सामने था. उस की मिकी उस के सामने खड़ी थी. नजरें मिलाते ही मिकी ने आंखें जमीन में गाड़ दी थीं. बहुत संयम के साथ वह सिर्फ ‘हेलो’ बोल सका था. दोस्त से मुखातिब हो कर बोला, ‘आई एम सौरी, ड्यू टु जेटलैक (टाइम जोन बदलने से होने वाली भारी थकान) आई एम फीलिंग अनवेल,’ इतना कह कर रवि सोफे में धंस सा गया. दूर सुमिदा नदी के तट पर हानाबी के धमाके कानों में गूंज रहे थे.

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