Serial Story: मुक्ति – भाग 1

लेखक- आर केशवन

अचानक जया की नींद टूटी और वह हड़बड़ा कर उठी. घड़ी का अलार्म शायद बजबज कर थक चुका था. आज तो सोती रह गई वह. साढ़े 6 बज रहे थे. सुबह का आधा समय तो यों ही हाथ से निकल गया था.

वह उठी और तेजी से गेट की ओर चल पड़ी. दूध का पैकेट जाने कितनी देर से वैसे ही पड़ा था. अखबार भी अनाथों की तरह उसे अपने समीप बुला रहा था.

उस का दिल धक से रह गया. यानी आज भी गंगा नहीं आएगी. आ जाती तो अब तक एक प्याली गरम चाय की उसे नसीब हो गई होती और वह अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाती. उसे अपनी काम वाली बाई गंगा पर बहुत जोर से खीज हो आई. अब तक वह कई बार गंगा को हिदायत दे चुकी थी कि छुट्टी करनी हो तो पहले बता दे. कम से कम इस तरह की हबड़तबड़ तो नहीं रहेगी.

वह झट से किचन में गई और चाय का पानी रख कर बच्चों को उठाने लगी. दिमाग में खयाल आया कि हर कोई थोड़ाथोड़ा अपना काम निबटाएगा तब जा कर सब को समय पर स्कूल व दफ्तर जाने को मिलेगा.

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नल खोला तो पाया कि पानी लो प्रेशर में दम तोड़ रहा?था. उस ने मन ही मन हिसाब लगाया तो टंकी को पूरा भरे 7 दिन हो गए थे. अब इस जल्दी के समय में टैंकर को भी बुलाना होगा.  उस ने झंझोड़ते हुए पति गणेश को जगाया, ‘‘अब उठो भी, यह चाय पकड़ो और जरा मेरी मदद कर दो. आज गंगा नहीं आएगी. बच्चों को तैयार कर दो जल्दी से. उन की बस आती ही होगी.’’

पति गणेश उठे और उठते ही नित्य कर्मों से निबटने चले गए तो पीछे से जया ने आवाज दी, ‘‘और हां, टैंकर के लिए भी जरा फोन कर दो. इधर पानी खत्म हुआ जा रहा है.’’

‘‘तुम्हीं कर दो न. कितनी देर लगती है. आज मुझे आफिस जल्दी जाना है,’’ वह झुंझलाए.

‘‘जैसे मुझे तो कहीं जाना ही नहीं है,’’ उस का रोमरोम गुस्से से भर गया. पति के साथ पत्नी भले ही दफ्तर जाए तब भी सब घरेलू काम उसी की झोली में आ गिरेंगे. पुरुष तो बेचारा थकहार कर दफ्तर से लौटता है. औरतें तो आफिस में काम ही नहीं करतीं सिवा स्वेटर बुनने के. यही तो जब  तब उलाहना देते हैं गणेश.

कितनी बार जया मिन्नतें कर चुकी थी कि बच्चों के गृहकार्य में मदद कर दीजिए पर पति टस से मस नहीं होते थे, ऊपर से कहते, ‘‘जया यार, हम से यह सब नहीं होता. तुम मल्टी टास्किंग कर लेती हो, मैं नहीं,’’ और वह फिर बासी खबरों को पढ़ने में मशगूल हो जाते.

मनमसोस कर रह जाती जया. गणेश ने उस की शिकायतों को कुछ इस तरह लेना शुरू कर दिया?था जैसे कोई धार्मिक प्रवचन हों. ऊपर से उलटी पट्टी पढ़ाता था उन का पड़ोसी नाथन जो गणेश से भी दो कदम आगे था. दोनों की बातचीत सुन कर तो जया का खून ही खौल उठता था.

‘‘अरे, यार, जैसे दफ्तर में बौस की डांट नहीं सुनते हो, वैसे ही बीवी की भी सुन लिया करो. यह भी तो यार एक व्यावसायिक संकट ही है,’’ और दोनों के ठहाके से पूरा गलियारा गूंज उठा?था.

जया के तनबदन में आग लग आई थी. क्या बीवीबच्चों के साथ रहना भी महज कामकाज लगता?था इन मर्दों को. तब औरतों को तो न जाने दिन में कितनी बार ऐसा ही प्रतीत होना चाहिए. घर संभालो, बच्चों को देखो, पति की फरमाइशों को पूरा करो, खटो दिनरात अरे, आक्यूपेशन तो महिलाओं के लिए है. बेचारी शिकायत भी नहीं करतीं.

जैसेतैसे 4 दिन इसी तरह गुजर गए. गंगा अब तक नहीं लौटी थी. वह पूछताछ करने ही वाली थी कि रानी ने कालबेल बजाते हुए घर में प्रवेश किया.

‘‘बीबीजी, गंगा ने आप को खबर करने के लिए मुझ से कहा था,’’ रानी बोली, ‘‘वह कुछ दिन अभी और नहीं आ पाएगी. उस की तबीयत बहुत खराब है.’’

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रानी से गंगा का हाल सुना तो जया उद्वेलित हो उठी.  यह कैसी जिंदगी थी बेचारी गंगा की. शराबी पति घर की जिम्मेदारियां संभालना तो दूर, निरंतर खटती गंगा को जानवरों की तरह पीटता रहता और मार खाखा कर वह अधमरी सी हो गई थी.

‘‘छोड़ क्यों नहीं देती गंगा उसे. यह भी कोई जिंदगी है?’’ जया बोली.

माथे पर ढेर सारी सलवटें ले कर हाथ का काम छोड़ कर रानी ने एकबारगी जया को देखा और कहने लगी, ‘‘छोड़ कर जाएगी कहां वह बीबीजी? कम से कम कहने के लिए तो एक पति है न उस के पास. उसे भी अलग कर दे तो कौन करेगा रखवाली उस की? आप नहीं जानतीं मेमसाहब, हम लोग टिन की चादरों से बनी छतों के नीचे झुग्गियों में रहते हैं. हमारे पति हैं तो हम बुरी नजर से बचे हुए हैं. गले में मंगलसूत्र पड़ा हो तो पराए मर्द ज्यादा ताकझांक नहीं करते.’’

अजीब विडंबना थी. क्या सचमुच गरीब औरतों के पति सिर्फ एक सुरक्षा कवच भर ?हैं. विवाह के क्या अब यही माने रह गए? शायद हां, अब तो औरतें भी इस बंधन को महज एक व्यवसाय जैसा ही महसूस करने लगी हैं.

गंगा की हालत ने जया को विचलित कर दिया था. कितनी समझदार व सीधी है गंगा. उसे चुपचाप काम करते हुए, कुशलतापूर्वक कार्यों को अंजाम देते हुए जया ने पाया था. यही वजह थी कि उस की लगातार छुट्टियों के बाद भी उसे छोड़ने का खयाल वह नहीं कर पाई.

रानी लगातार बोले जा रही थी. उस की बातों से साफ झलक रहा?था कि गंगा की यह गाथा उस के पासपड़ोस वालों के लिए चिरपरिचित थी. इसीलिए तो उन्हें बिलकुल अचरज नहीं हो रहा था गंगा की हालत पर.

जया के मन में अचानक यह विचार कौंध आया कि क्या वह स्वयं अपने पति को गंगा की परिस्थितियों में छोड़ पाती? कोई जवाब न सूझा.

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‘‘यार, एक कप चाय तो दे दो,’’ पति ने आवाज दी तो उस का खून खौल उठा.

जनाब देख रहे हैं कि अकेली घर के कामों से जूझ रही हूं फिर भी फरमाइश पर फरमाइश करे जा रहे हैं. यह समझ में नहीं आता कि अपनी फरमाइश थोड़ी कम कर लें.

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Serial Story: मुक्ति – भाग 2

लेखक- आर केशवन

जया का मन रहरह कर विद्रोह कर रहा था. उसे लगा कि अब तक जिम्मेदारियों के निर्वाह में शायद वही सब से अधिक योगदान दिए जा रही थी. गणेश तो मासिक आय ला कर बस उस के हाथ में धर देता और निजात पा जाता. दफ्तर जाते हुए वह रास्ते भर इन्हीं घटनाक्रमों पर विचार करती रही. उसे लग रहा था कि स्त्री जाति के साथ इतना अन्याय शायद ही किसी और देश में होता हो.

दोपहर को जब वह लंच के लिए उठने लगी तो फोन की घंटी बज उठी. दूसरी ओर सहेली पद्मा थी. वह भी गंगा के काम पर न आने से परेशान थी. जैसेतैसे संक्षेप में जया ने उसे गंगा की समस्या बयान की तो पद्मा तैश में आ गई, ‘‘उस राक्षस को तो जिंदा गाड़ देना चाहिए. मैं तो कहती हूं कि हम उसे पुलिस में पकड़वा देते हैं. बेचारी गंगा को कुछ दिन तो राहत मिलेगी. उस से भी अच्छा होगा यदि हम उसे तलाक दिलवा कर छुड़वा लें. गंगा के लिए हम सबकुछ सोच लेंगे. एक टेलरिंग यूनिट खोल देंगे,’’ पद्मा फोन पर लगातार बोले जा रही थी.

पद्मा के पति ने नौकरी से स्वैच्छिक अवकाश प्राप्त कर लिया था और घर से ही ‘कंसलटेंसी’ का काम कर रहे थे. न तो पद्मा को काम वाली का अभाव इतनी बुरी तरह खलता था, न ही उसे इस बात की चिंता?थी कि सिंक में पड़े बर्तनों को कौन साफ करेगा. पति घर के काम में पद्मा का पूरापूरा हाथ बंटाते थे. वह भी निश्चिंत हो अपने दफ्तर के काम में लगी रहती. वह आला दर्जे की पत्रकार थी. बढि़या बंगला, ऐशोआराम और फिर बैठेबिठाए घर में एक अदद पति मैनसर्वेंट हो तो भला पद्मा को कौन सी दिक्कत होगी.

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वह कहते हैं न कि जब आदमी का पेट भरा हो तो वह दूसरे की भूख के बारे में भी सोच सकता?है. तभी तो वह इतने चाव से गंगा को अलग करवाने की योजना बना रही थी.

पद्मा अपनी ही रौ में सुझाव पर सुझाव दिए जा रही थी. महिला क्लब की एक खास सदस्य होने के नाते वह ऐसे तमाम रास्ते जया को बताए जा रही थी जिस से गंगा का उद्धार हो सके.

जया अचंभित थी. मात्र 4 घंटों के अंतराल में उसे इस विषय पर दो अलगअलग प्रतिक्रियाएं मिली थीं. कहां तो पद्मा तलाक की बात कर रही?थी और उधर सुबह ही रानी के मुंह से उस ने सुना था कि गंगा अपने ‘सुरक्षाकवच’ की तिलांजलि देने को कतई तैयार नहीं होगी. स्वयं गंगा का इस बारे में क्या कहना होगा, इस के बारे में वह कोई फैसला नहीं कर पाई.

जब जया ने अपना शक जाहिर किया तो पद्मा बिफर उठी, ‘‘क्या तुम ऐसे दमघोंटू बंधन में रह पाओगी? छोड़ नहीं दोगी अपने पति को?’’

जया बस, सोचती रह गई. हां, इतना जरूर तय था कि पद्मा को एक ताजातरीन स्टोरी अवश्य मिल गई थी.

महिला क्लब के सभी सदस्यों को पद्मा का सुझाव कुछ ज्यादा ही भा गया सिवा एकदो को छोड़ कर, जिन्हें इस योजना में खामियां नजर आ रही थीं. जया ने ज्यादातर के चेहरों पर एक अजब उत्सुकता देखी. आखिर कोई भी क्यों ऐसा मौका गंवाएगा, जिस में जनता की वाहवाही लूटने का भरपूर मसाला हो.

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प्रस्ताव शतप्रतिशत मतों से पारित हो गया. तय हुआ कि महिला क्लब की ओर से पद्मा व जया गंगा के घर जाएंगी व उसे समझाबुझा कर राजी करेंगी.

गंगा अब तक काम पर नहीं लौटी थी. रानी आ तो रही?थी, पर उस का आना महज भरपाई भर था. जया को घर का सारा काम स्वयं ही करना पड़ रहा था. आज तो उस की तबीयत ही नहीं कर रही थी कि वह घर का काम करे. उस ने निश्चय किया कि वह दफ्तर से छुट्टी लेगी. थोड़ा आराम करेगी व पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार पद्मा को साथ ले कर गंगा के घर जाएगी, उस का हालचाल पूछने. यह बात उस ने पति को नहीं बताई. इस डर से कि कहीं गणेश उसे 2-3 बाहर के काम भी न बता दें.

रानी से बातों ही बातों में उस ने गंगा के घर का पता पूछ लिया. जब से महिला मंडली की बैठक हुई थी, रानी तो मानो सभी मैडमों से नाराज थी, ‘‘आप पढ़ीलिखी औरतों का तो दिमाग चल गया है. अरे, क्या एक औरत अपने बसेबसाए घर व पति को छोड़ सकती है? और वैसे भी क्या आप लोग उस के आदमी को कोई सजा दे रहे हो? अरे, वह तो मजे से दूसरी ले आएगा और गंगा रह जाएगी बेघर और बेआसरा.’’

40 साल की रानी को हाईसोसाइटी की इन औरतों पर निहायत ही क्रोध आ रहा था.

क्रमश:

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Serial Story: मुक्ति – भाग 3

लेखक- आर केशवन

गतांक से आगे…

अंतिम भाग

पूर्व कथा

जया की नौकरानी गंगा कई दिनों से काम पर नहीं आ रही थी जिस की वजह से जया पर घर का सारा काम आ पड़ा था और वह परेशान रहने लगी थी. एक दिन रानी ने बताया कि गंगा 3-4 दिन और नहीं आएगी क्योंकि वह बीमार है तो जया की परेशानी और बढ़ गई. गंगा का पति अकसर उसे बुरी तरह पीटता था जिस की वजह से वह बीमार रहने लगी थी. जया ने रानी से कहा कि गंगा पति को छोड़ क्यों नहीं देती तो उस ने कहा कि पति चाहे कैसा हो वह पत्नी का सुरक्षा कवच होता है इसलिए वह उसे छोड़ नहीं सकती. दूसरी ओर जया की सहेली पद्मा जो एक पत्रकार थी और महिला क्लब की सदस्य भी, उस ने सुझाव रखा कि गंगा को उस के पति से तलाक दिलवाना ही ठीक रहेगा. जया ने बातोंबातों में रानी से गंगा के घर का पता पूछ लिया. जब रानी को गंगा को ले कर महिला मंडल की बैठक होने का पता चला तो वह बोली, ‘‘आप पढ़ीलिखी मैडमों का दिमाग चल गया है. क्या एक औरत अपना बसाबसाया घर और पति को छोड़ सकती है. आप क्यों उसे बेसहारा करना चाहती हैं.’’ रानी को हाई सोसाइटी की इन औरतों पर बहुत क्रोध आ रहा था.

अब आगे…

टिन के उस जंगल में गंगा का घर खोजना तो सचमुच कुछ ऐसा ही था जैसे भूसे के ढेर में सूई ढूंढ़ना. बेतरतीब झोंपड़े, इधरउधर भागते बच्चों की टोलियां, उन्हें झिड़कती हुई माताओं को पार कर के उस के छोटे से एक कमरे वाले घर को तलाशने में ही पद्मा व जया की हालत खराब हो गई.

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गंगा को उस ने अपनी खोली के एक अंधेरे कोने में दुबका हुआ पाया. चेहरे पर खरोंच यह बता रहे थे कि इस बार मरम्मत कुछ ज्यादा ही अच्छी तरह से हुई थी. जया उस की खस्ता हालत को देख कर अचंभित तो थी ही, उस के जर्जर शरीर को देख कर उसे गहरा दुख भी हुआ.

उन्हें देख कर गंगा जल्दी से उठने लगी तो जया ने उसे हाथ बढ़ा कर रोक दिया.

‘‘बैठी रहो, गंगा,’’ उस ने आत्मीयता से कहा, ‘‘वैसे ही तुम्हारी हालत काफी नाजुक लग रही है.’’

1 मिनट का असाधारण मौन छा गया और फिर गंगा उन के लिए चाय बनाने उठी. लाख मना करने पर भी मानी नहीं.

चाय की चुसकियां लेते हुए जया व पद्मा ने बाहर कुछ आहट सुनी. पदचाप बाहर की ओर से आ रही थी. गंगा फुरती से उठी और 1 मिनट बाद लौटी, ‘‘मेरे पति हैं,’’ उस ने धीमी आवाज में कहा.

पद्मा तो मानो इसी घड़ी की प्रतीक्षा में थी. वह तुरंत उठी व पल्लू खोंसते हुए तेजी से बाहर की ओर रुख करने लगी. गंगा ने हाथ बढ़ा कर उसे रोक लिया और दयनीय स्वर में बोली, ‘‘उसे कुछ मत कहना, बीबीजी.’’

जया ने महसूस किया कि गंगा का पति नशे की हालत में ऊलजुलूल बड़बड़ा रहा?था. 1 मिनट बाद चारपाई पर उस के ढेर होने की आवाज आई.

‘‘लगता है सो गया,’’ गंगा मुसकरा कर बोली, ‘‘अब 3-4 घंटे बेसुध पड़ा रहे तो मैं अपना बचाखुचा काम भी समेट लूं.’’

जया को उस बेचारी पर तरस आया कि इस हालत में भी वह घर संभालने में लगी हुई थी और उस का पति आराम से चारपाई तोड़ रहा था. जया को लगा कि वह और पद्मा गंगा के दैनिक कार्यों में बाधा उत्पन्न कर रही हैं. लौटने के उद्देश्य से उस ने गंगा की ओर देखा, ‘‘गंगा, अपना खयाल रखना, बता देना कब लौटोगी.’’

जया ने पद्मा की ओर कनखियों से इशारा किया.

पद्मा तो जैसे भरी बैठी थी, ‘‘रुक भी जाओ, भूल गईं, किसलिए आए?थे यहां,’’ दांत भींचते हुए उस ने जया के हाथ से अपना हाथ छुड़ाया व गंगा की ओर मुखातिब हुई.

गंगा के चेहरे पर उस समय भाव कुछ ऐसे थे जैसे उसे अंदेशा हो गया था कि आगे क्या होगा. रानी ने शायद उसे पहले ही आगाह कर दिया था.

जया कहने लगी, ‘‘फिर कभी, आज नहीं.’’

दरअसल, वह यह नहीं समझ पा रही थी कि क्या यह सही वक्त था गंगा से तलाक के विषय में बात करने का. उस की कमजोर हालत जया को सोचने पर मजबूर कर रही थी.

‘‘नहीं, आज ही. मुझे क्यों रोक रही हो तुम,’’ पद्मा क्रोधित स्वर में जया से बोली, फिर वह गंगा से मुखातिब हुई, ‘‘देखो गंगा, अब और इस हालत से जूझते रहने का फायदा नहीं. क्या तुम्हें नहीं लग रहा कि तुम एक फटेहाल जिंदगी जी रही हो? क्या मिल रहा?है तुम्हें अपने पति से सिवा मारपीट व गालीगलौज के? तुम ने कभी सोचा नहीं कि उस आदमी को छोड़ कर तुम ज्यादा सुखी रहोगी? अपनी जिंदगी के बारे में भी सोचो कुछ.’’

पद्मा की उद्वेग के मारे सांस फूल रही थी और वह लगातार गंगा को प्रेरित करती रही कि ऐसा निरीह जीवन जीने की उसे कोई आवश्यकता नहीं थी.

गंगा शांति से उन की बात सुन रही थी. पद्मा का रोष थोड़ा ठंडा हुआ, ‘‘देखो गंगा, अगर तुम चाहो तो हम तुम्हारे जीवनयापन के लिए कुछ न कुछ इंतजाम कर ही लेंगे. तुम्हारे लिए एक छोटी सी टेलरिंग यूनिट खोल देंगे. तुम निश्चय तो करो.’’

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‘‘मैं ने सब सुना?है बीबीजी. रानी तो रोज आ कर आप लोगों की बातें बताती ही रहती है. पर नहीं. मुझे इन चीजों की जरूरत नहीं.

‘‘बिलकुल भी नहीं,’’ पद्मा ने आपत्ति उठाने के लिए मुंह बस खोला ही था कि बाहर से तेज अस्पष्ट आवाजें सुनाई देने लगीं.

इस से पहले कि जया और पद्मा कुछ समझतीं कि माजरा क्या है, गंगा बाहर भाग चुकी थी. उस के हाथ में 2 बड़ी बालटियां थीं. बाहर से लोगों की आवाजें दस्तक दे रही थीं, ‘‘टैंकर आ गया, टैंकर आ गया.’’

महानगर निगम के पानी का टैंकर पहुंच गया था. लोगों की अपार भीड़ एकत्र हो रही थी. जया व पद्मा बाहर आ कर नजारा देखने लगीं. यह समस्या तो इस शहर में कमज्यादा सभी तबकों की थी. आदमी सांस लेना भूल जाए पर टैंकर की आहट को नजरअंदाज कभी न कर पाए.

महिलाओं व पुरुषों की भीड़ गुत्थमगुत्था हो रही थी. टैंकर के सामने घड़ों, बरतनों, बालटियों की बेतरतीब कतारें लग गई थीं. जया की आंखें उस भीड़ में गंगा को ढूंढ़ने लगीं. उस ने पाया कि गंगा अपनी बीमारी को लगभग भूल कर लोगों से उलझ कर 2 बालटी पानी भर लाई?थी. घर के अहाते तक आतेआते उस का शरीर पसीने से भीग चुका था. माथे पर कुमकुम का निशान भीग कर अर्धकार हो गया था. जयाचंद्रा ने सहारा देने के उद्देश्य से उस से एक बालटी लेने की कोशिश की.

‘‘नहीं, नहीं, बीबीजी. मैं संभाल लूंगी,’’ उस ने जया का हाथ छुड़ाया और पति की ओर इंगित करने लगी, ‘‘यह निखट्टू भी तो है. अभी जगाती हूं इसे,’’ यह कहते हुए गंगा ने अपने दांत भींचे व अंदर की ओर भागी. लौटी तो उस के हाथों में 2 बालटियां और थीं. दोनों बालटियां उस ने आंगन के कोने में रखीं, कमर कस कर पति की चारपाई के करीब जा खड़ी हुई. जया डर रही थी कि जगाने पर वह निर्दयी गंगा के साथ न जाने कैसा सलूक करेगा. अलसाया सा, आधी नींद में वह बड़बड़ा रहा था.

और फिर वह अचंभा हुआ जिस की जया को कतई उम्मीद नहीं थी. गंगा ने चारपाई पर बेहोश पड़े पति को एक जोरदार लात मारी. मार के सदमे से वह हड़बड़ा कर उठ बैठा. आंखें मींचता हुआ वह जायजा लेने लगा कि गाज कहां से गिरी.

‘‘उठ रे, शराबी,’’ गंगा ने दहाड़ मारी, ‘‘अभी नींद पूरी नहीं हुई या दूं मैं एक और लात.’’

वह आदमी धोती संभालता हुआ उठ खड़ा हुआ. 2 आगंतुक महिलाओं के सामने पिटने का एहसास जब हुआ तो बहुत देर हो चुकी थी. गंगा एक और लात जमाने के लिए तैयार खड़ी थी. लड़खड़ाए हुए पति के हाथ में उस ने बालटियां थमाईं और फरमान जारी किया, ‘‘जा, भर ला पानी, कमबख्त.’’

वह डगमगाता हुआ जब डोलने लगा तो गंगा ने 2 तमाचे और जड़ दिए, ‘‘अब जाता है कि…’’ और इसी के साथ दोचार मोटीमोटी गालियां भी पति के हिस्से में आ गईं.

जया व पद्मा अवाक् खड़ी थीं. उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि अभी जिस महिषासुरमर्दिनी को उन्होंने देखा था यह वही छुईमुई सी गंगा थी, जिसे वे चुपचाप घर का काम निबटाते हुए देखा करती थीं. यह कैसा अनोखा रूप था उस का. मुंह खुला का खुला रह गया. होश आया तो पाया कि गंगा आसपास कहीं नहीं थी. वह फिर उसी रेले में शामिल हो गई थी. जीजान से अन्य महिलाओं से लड़ती हुई अपने हिस्से के जल को बालटियों में भरते हुए. महिलाएं एकदूसरे पर हावी हो रही थीं और उन की कर्कश आवाजों से वातावरण गूंज रहा था.

वे दोनों तब तक सन्न खड़ी रहीं जब तक गंगा घर में दोबारा आ नहीं गई. उन की फटी नजरों को भांपते हुए गंगा ने एक शर्मीली मुसकान बिखेरी.

‘‘गंगा, यह तुम थीं?’’ आवाज पद्मा के हलक से पहले निकली.

जया भी मुग्ध भाव से उसे देखे जा रही थी.

‘‘हां, बीबीजी, यह सब तो चलता रहता है. इसे मैं दोचार जमाऊंगी नहीं तो कैसे चलेगा. वह मुझ पर हाथ उठाता?है तो मैं भी उसे पीटने में कोई कसर नहीं छोड़ती,’’ वह कुछ ऐसे बोल रही थी जैसे किसी शैतान बच्चे को राह पर लाने का नुस्खा समझा रही हो, ‘‘जब मैं चाहती हूं तब कमान अपने हाथ में ले लेती हूं,’’ झांसी की रानी जैसे भाव थे उस के चेहरे पर, ‘‘मैं जानती हूं बीबीजी, आप सब लोग हमारा?भला चाहती हैं. पर मुझे नहीं चाहिए यह तलाकवलाक. जरूरत नहीं है मुझे. मैं अपने तरीकों से इसे ‘लाइन’ पर ले आती हूं,’’ वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘कभीकभी कड़वी दवा पिला ही देती हूं मैं इसे. मिमियाता हुआ वापस आ जाता है बकरी की तरह. और किस के पास जाएगा. आना तो शाम को इसी घर में है न? जब होश आता है तो गलती का एहसास भी हो जाता है इसे. पता है इसे कि मेरे बगैर इस का गुजारा नहीं.’’

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गंगा ने शायद अपने पति पर पूरा अनुसंधान कर रखा था. अब मानो वह उन्हें उस की रिपोर्ट पढ़ा रही हो. जया को लगा वाकई जीवन की बागडोर गंगा ने कुछ अपने तरीके से संभाली हुई थी. शायद उन से बेहतर प्रचारक थी वह नारी मुक्ति की. शायद प्रचार करने की आवश्यकता भी नहीं थी गंगा को. उस के तरीके बेहद सरल व प्रायोगिक थे. उस ने देखा गंगा एकदम सहज भाव से बतियाए जा रही थी. उसे इस बात की कोई चिंता नहीं थी कि उस के इस रवैये पर अन्य लोगों की क्या प्रतिक्रिया रहेगी. इस बीच कब गंगा का पति शरमाता हुआ लौटा व एक सेट बरतन और ले गया पानी भर लाने के लिए, इस की उन्हें सुध न रही.

जया व पद्मा अचंभित हालत में अपने वाहन की ओर बढ़ रही थीं. एक अजब खामोशी छाई हुई थी दोनों के बीच में. जाहिर था, दोनों ही गंगा व उस के पति के बारे में सोच रही थीं. जया को लगा कि शायद उन का क्लब वाला प्रस्ताव बेहद बेतुका था. कनखियों से उस ने पद्मा की ओर देखा जो कुछ ऐसी ही उधेड़बुन में लिप्त थी.

भारतीय परिवारों में एक अनोखा ही समीकरण था पतिपत्नी के बीच में. कभी किसी का पलड़ा भारी रहा तो कभी किसी का. क्या यही वजह नहीं थी पद्मा व उस के पति ने आपसी सामंजस्य से अपनी जिम्मेदारियों को आपस में बदल लिया था. सब लोग अपनी आपसी उलझनों का कुछ अपने तरीके से ही हल ढूंढ़ लेते हैं. गंगा ने भी शायद कुछ ऐसा ही कर लिया था.

गाड़ी में जब पद्मा निश्चल सी बैठी रह गई तो जया से रहा न गया. उस ने एकाएक पद्मा के हाथ से ‘डिक्टाफोन’ छीना, ‘‘देवियो और सज्जनो, क्या आप जानते हैं कि गंगा और हम में क्या अंतर है? वह अपने पति को लात मार सकती है पर हम नहीं.’’

और फिर दोनों महिलाओं के ठहाके गूंजने लगे.

ड्राइवर उन्हें कुछ ऐसे देखने लगा जैसे वे दोनों पागल हो गई हों.

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Serial Story: अनमोल पल– भाग 4

विदित को सम झ नहीं आ रहा था कि जो औरत कल तक उस के लिए बिछने के लिए तैयार थी, जिस के हितअहित के बारे में इतना सोचा कि सुख की चरम अवस्था से लौट कर वापस आ गया. आज वही औरत इस तरह की बात कर रही है. इन औरतों को सम झना बहुत मुश्किल है. एक बार संबंध बनने के बाद अपनेआप काबू में आ जाएगी . स्त्रीपुरुष के बीच जिस्मानी संबंध बनने जरूरी हैं. तभी स्त्री पूर्णरूप से समर्पित हो कर रहेगी. एक बार संबंध बन गए तो फिर वह उसी की राह ताकती रहेगी. खाली प्रेम तो दिल की बातें हैं. आज है कल नहीं है. विदित यों निकला जैसे शिकार पर निकल रहा हो. विदित ने विभागीय औडिट टीम के लिए 3 कमरे होटल रीगल में बुक करवाए. रात 12 बजे की ट्रेन से औडिट टीम जाने वाली थी. उस ने होटल के मैनेजर को फोन कर के कहा, ‘‘एक कमरा कल सुबह तक बुक रहेगा. 2 कमरे खाली कर रहा हूं.’’

‘‘यस सर.’’

विदित के बताए पते पर रात 10 बजे सुहानी पहुंची. घर से वह यह कह कर निकली कि साहब जरूरी काम से बाहर गए हैं. घर पर उन की पत्नी अकेली हैं इसलिए मु झे साथ रहने के लिए उन की पत्नी ने बुलाया है. साहब का निवेदन था, इनकार नहीं कर सकती. विदित होटल के बाहर सुहानी की प्रतीक्षा कर रहा था. सुहानी को देख कर उस के चेहरे पर चमक आ गई.  कमरे के अंदर पहुंचते ही विदित ने दरवाजा बंद किया और सुहानी को जोर से भींच कर कहा, ‘‘आई लव यू.’’ इस के बाद बिना सुहानी से पूछे वह सुहानी के जिस्म को चूमने लगा. सुहानी कहती रही कि इतनी रात को न आने के लिए मैं ने तुम्हें पहले ही मना किया था और तुम ने भी वादा किया था. मु झे  झूठ बोल कर आना पड़ा, लेकिन विदित का ध्यान सुहानी की बातों पर बिलकुल नहीं था. वह तो सुहानी के शरीर के लिए बेकरार था. वह सुहानी के नाजुक अंगों को चूमता रहा, सहलाता रहा. उस के बदन को  झिंझोड़ता रहा. सुहानी कहती रही, ‘‘तुम ने फोन पर मु झ से इस तरह बात की जैसे मैं कोई वेश्या हूं. तुम्हें मेरा शरीर चाहिए था तो लो यह रहा शरीर. बु झा लो अपनी वासना की आग. मेरे मन में तुम्हारे प्रति जो था वह खत्म हो चुका है. मैं सिर्फ उन पलों की कीमत चुकाने आई हूं, जो मेरे लिए तुम्हारे साथ अनमोल थे. मेरे जीवन के वे सब से अद्भुत क्षण. मेरे स्त्रीत्व होने के वजूद भरे पल.’’ विदित सुहानी की कोई बात नहीं सुन रहा था, न सम झ रहा था. वह सुहानी के जिस्म से खेल रहा था. सुहानी शव के समान पड़ी रही. उस के अंदर कोई भाव नहीं था, शरीर में कोई हरकत नहीं थी, लेकिन इस ओर विदित का ध्यान नहीं गया. वह तो शिकारी बना हुआ था. सुहानी के शरीर को चीरफाड़ रहा था, सुहानी के अंदर न रस था न आनंद. वह निर्जीव सी पड़ी हुई थी और विदित उस के अंदर प्रवेश कर खुद को जीता हुआ महसूस कर रहा था. उस का खुमार उतर चुका था. अब आग जल कर राख हो चुकी थी.

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विदित की नींद खुली तो सुबह हो चुकी थी. उसे सुहानी कहीं नहीं दिखाई दी. न कमरे में न वाशरूम में. उस ने सुहानी को फोन लगाया. सुहानी का मोबाइल बंद था. उस ने मैनेजर से फोन पर पूछा, ‘‘मैडम कहां गईं?’’

‘‘सर, वे तो रात को ही चली गई थीं.’’ मैनेजर बोला.

‘‘कितने बजे?’’ विदित भौचक रह गया.

‘‘तकरीबन 12 बजे,’’ मैनेजर ने कहा.

‘‘कोई मैसेज दिया, कुछ कह कर गई वह?’’ विदित ने पूछा.

‘‘सर, आप के लिए एक पत्र छोड़ कर गई हैं,’’ मैनेजर ने विदित को बताया.

‘‘मेरे कमरे में पहुंचा देना,’’ विदित ने आदेश दिया.

‘‘जी सर,’’ मैनेजर बोला.

थोड़ी देर बाद दरवाजे की घंटी बजी, ‘‘अंदर आ जाओ,’’ विदित ने कहा, तो वेटर ने अंदर आ कर एक लिफाफा दिया. लिफाफा ले कर विदित ने कहा, ‘‘ठीक है, जाओ.’’

विदित ने लिफाफा खोल कर पत्र पढ़ा, ‘तुम्हारे दिए अनमोल पलों की कीमत चुका दी है मैं ने और तुम ने भी अच्छी तरह वसूल ली है. तुम कुछ भी हो सकते हो, लेकिन प्रेमी नहीं हो सकते. मैं ने तुम्हें तन दे दिया है जिस की तुम्हें जरूरत थी. मन अपने साथ ले कर जा रही हूं. औरत के शरीर को पा कर तुम यह सम झो कि तुम ने औरत पर नियंत्रण पा लिया है तो तुम्हारी और बलात्कारी की सोच में कोई फर्क नहीं रहा. प्रेम में देह कोई माने नहीं रखती, लेकिन जिसे देह से ही प्रेम हो वह तो महज व्यभिचारी हुआ. मैं ने प्रेम किया था तुम से. देह तो स्वयं ही समर्पित हो जाती, क्योंकि प्रेम प्रकट करने का माध्यम है देह, लेकिन तुम ने स्त्री के मन और तन को अपनी इच्छा और सुविधानुसार अलगअलग कर के देखा. तुम्हारी खोज एक शरीर की खोज थी. इस के लिए इतना परेशान होने की जरूरत नहीं थी. चले जाते किसी वेश्या के पास. मेरी खोज प्रेम की खोज थी. जो मु झे तुम से नहीं मिला. दोबारा मिलने व संपर्क करने की कोशिश मत करना.

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‘पुन: प्रेम की खोज में,

सुहानी.’

विदित पत्र पढ़ कर सिर पकड़ कर बैठ गया और सोचने लगा, ‘उफ्फ, यह मैं ने क्या कर दिया? तन पा लिया और मन खो दिया. कुछ पल पाए और पूरा जीवन खो दिया. जीत कर भी हार गया मैं. ‘प्रेम में जीतहार जैसी बातें सोच कर प्रेम को अपमानित कर दिया मैं ने. सामने अमृतकुंड था और प्यास बु झाने के लिए खारा पानी पी लिया मैं ने. सुहानी का सबकुछ मेरा था, मन भी और तन भी, लेकिन क्षण भर की वासना में प्रेम की कीमत लगा ली मैं ने. जो सहज और स्वाभाविक रूप से मेरा था उसी को नीलाम कर दिया मैं ने. अपने ही प्रेम की बोली लगा कर हमेशा के लिए खो दिया सुहानी को. अपने प्रेम को अपमानित और प्रताडि़त कर दिया मैं ने. कितना बेवकूफ था मैं, जो सोचने लगा कि औरत को जीता जा सकता है. संपत्ति सम झ लिया था मैं ने औरत को. ‘सुहानी के लिए शरीर प्रेम करने का माध्यम था और मैं शरीर की तृप्ति के लिए कितनी ओछी हरकत कर बैठा सुहानी के साथ. सुहानी ने प्रेम में बिताए अनमोल पलों के लिए शरीर सौंप दिया मु झे. जैसे शव को सौंपते हैं अग्नि में.’ बहुत देर तक उदास और गमगीन बैठा रहा विदित. दोबारा सुहानी से मिलने की हिम्मत नहीं थी उस में और सुहानी प्रेम के अनमोल क्षणों की तलाश में निकल पड़ी. उसे किसी बात का दुख नहीं था. वह ऐसे पुरुष के साथ आगे नहीं बढ़ना चाहती थी जो प्रेम में आगे बढ़ते हुए पीछे हट जाए. जो स्त्रीपुरुष के अंतरंग क्षणों में भलाबुरा सोचते हुए पीछे हट जाए और यह भूल जाए कि इन अनमोल पलों में आगे बढ़ते हुए पीछे हटने से स्त्री अपमानित होती है. सुहानी को प्रेम के वे पल इतने भा गए थे कि उन पलों को वह फिर से जीने के लिए प्रेम की तलाश में निकल पड़ी. उम्र के इस दौर में प्यार मिलता है या नहीं यह अलग बात है, लेकिन सुहानी की तलाश जारी थी. उसे विश्वास था कि वह प्रेम के अनमोल पलों को खोज लेगी.

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अनमोल पल: शादीशुदा विदित और सुहानी के रिश्ते का क्या था अंजाम

Serial Story: अनमोल पल– भाग 1

‘‘मैं तुम्हें संपूर्ण रूप से पाना चाहता हूं. इस तरह कि मुझे लगे कि मैं ने तुम्हें पा लिया है. अब चाहे तुम इसे कुछ भी समझो. पुरुषों का प्रेम ऐसा ही होता है, जिसे वे प्यार करते हैं उस के मन के साथसाथ तन को भी पाना चाहते हैं. तुम इसे वासना समझती हो तो यह तुम्हारी सोच है. पाना तो स्त्री भी चाहती है, लेकिन कह नहीं पाती. पुरुष कह देता है. तुम इसे पुरुषों की बेशर्मी समझो तो यह तुम्हारी अपनी समझ है, लेकिन जिस्मानी प्रेम प्राकृतिक है. इसे नकारा नहीं जा सकता. यदि तुम मुझ से प्रेम करती हो और तुम ने अपना मन मुझे दिया है तो तन के समर्पण में हिचक कैसी?

‘‘मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं नहीं चाहता कि हम एकांत में मिलें, जैसे कि मिलते आए हैं और एकदूसरे को चूमतेसहलाते हद से गुजर जाएं फिर बाद में एहसास हो कि हम ने यह ठीक नहीं किया. हमें मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए. अच्छा है कि इस बार हम मानसिक रूप से तैयार हो कर मिलें. वैसे भी कितनी बार हम एकांत के क्षणों में हद से गुजर जाने को बेचैन से रहे हैं, लेकिन मिलने के वे स्थान सार्वजनिक थे, व्यक्तिगत नहीं.

‘‘भले ही उन सार्वजनिक स्थानों पर दुरम्य पहाडि़यों पर उस समय कोई न रहा हो. क्या तुम मुझ से प्यार नहीं करतीं? क्या मुझे पाने की तुम्हारी इच्छा नहीं होती, जैसे मेरी होती है. शायद होती हो, लेकिन तुम कह नहीं पा रही हो, तो चलो, मैं ने कह दिया.

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‘‘इस बार हम मिलने से पहले मानसिक रूप से तैयार हो कर मिलें. दो जवां जिस्म बने ही एकदूसरे में समा जाने के लिए होते हैं. मैं ने अपने मन की बात तुम से कह दी. तुम्हारे जवाब की प्रतीक्षा है.’’

टुकड़ोंटुकड़ों में विदित ने अपनी बात एसएमएस के जरिए सुहानी तक पहुंचा दी. अब उसे सुहानी के उत्तर की प्रतीक्षा थी. विदित ने सुहानी को एसएमएस करने से पहले कई बार सोचा कि ऐसा कहना ठीक होगा या नहीं. कहीं सुहानी इस का गलत अर्थ तो नहीं निकालेगी. लेकिन वह क्या करता? कब तक इच्छाओं को मन में दबा कर रखता. कितनी बार दोनों एकांत में मिले. कितनी बार दोनों तरफ से प्रगाढ़ आलिंगन हुए. कितनी बार दोनों बहुत दूर तक निकले और वापस आ गए. वापस आने की पहल भी विदित ने की. सुहानी तो तैयार थी उस रोमांचक यात्रा के लिए. खैर, जो भी हो, अब लिख दिया तो लिख दिया. वही लिखा जो उस के मन में था, दिमाग में था. दोनों की मुलाकात फेसबुक के माध्यम से हुई. विदित ने उस की पोस्ट को हर बार लाइक किया. कमैंट्स बौक्स में जा कर जम कर तारीफ की.

सुहानी भी चौंकी. इतनी रुचि मुझ में कौन ले रहा है, जबकि मैं दिखने में भी साधारण हूं. फेसबुक पर मेरा ओरिजनल फोटो है. मेरा पूरा विवरण भी दर्ज है. कमैंट्स और लाइक तो उसे और भी मिले थे, लेकिन ये कौन जनाब हैं, जो इतना इंट्रस्ट ले रहे हैं. जवाब में उस ने मैसेज भेजा, ‘‘मेरे बारे में सबकुछ जान लीजिए. यदि आप कुछ उम्मीद कर रहे हैं तो.’’ दूसरी तरफ से भी उत्तर आया, ‘‘मैं सबकुछ जान चुका हूं. यदि आप का स्टेटस सही है तो. हां, आप मेरे बारे में जरूर जान लें. मैं ने कुछ छिपाया नहीं. पारिवारिक विवरण, फोटो सभी के बारे में जानकारी है.’’

‘‘मैं ने भी कुछ नहीं छिपाया,’’ मैं ने भी जवाब दिया.

दोनों ने एकदूसरे के बारे में जाना और यह भी जाना कि विदित शादीशुदा था. उस की उम्र 40 साल थी. वह स्वास्थ्य विभाग में अकाउंटैंट था. उस के 2 बच्चे थे, जो प्राइमरी स्कूल में पढ़ रहे थे. विदित की पत्नी कुशल गृहिणी थी. फिर भी विदित जीवन में कुछ खालीपन महसूस कर रहा था. सुहानी 35 वर्ष की अविवाहित महिला थी, जो एक बड़ी कंपनी में अकाउंटैंट थी. उस के घर पर बुजुर्ग मातापिता थे. 2 बहनों की शादी उस ने अपनी नौकरी के बल पर की थी. पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभातेनिभाते न उस ने किसी की तरफ ध्यान दिया, न उस की तरफ किसी ने. उसे लगा मुझ साधारण दिखने वाली युवती पर कौन ध्यान देगा. फिर अब तो विवाह की उम्र भी निकल चुकी है. मातापिता भी नहीं चाहते थे कि कमाऊ लड़की उन्हें छोड़ कर जाए. यह किसी ने नहीं सोचा कि उस की भी कुछ इच्छाएं हो सकती हैं.

‘‘क्या हम कहीं मिल सकते हैं?’’ विदित ने फेसबुक मैसेंजर पर मैसेज भेजा.

‘‘क्यों मिलना चाहते हैं आप मुझ से?’’ सुहानी ने रिप्लाई किया.

‘‘आप मुझे अच्छी लगती हैं.’’

‘‘आप परिवार वाले हैं.’’

‘‘परिवार वाले का दिल नहीं होता क्या?’’

‘‘वह दिल तो आप की पत्नी का है.’’

विदित ने मैसेज नहीं किया. सुहानी को लगा, ‘शायद यह नहीं लिखना चाहिए था, हो सकता है मात्र मिलने की चाह हो. शादी का मतलब यह तो नहीं कि वह किसी से बात ही न करे. मिल न सके. किसी ने तो उसे पसंद किया. उस के सोशल साइड के स्टेटस को, जिस में निराशा भरे चित्रों की भरमार थी. उदास गजलें और गीत थे. किसी ने भी आज तक उसे व्यक्तिगत जीवन और न ही सोशल साइट्स पर इतना पसंद किया था. फिर मिलने में, बात करने में क्या हर्ज है? वह भी तो पहली बार किसी ऐसे व्यक्ति से मिल रही है जो उस से मिलना चाह रहा था.’ सुहानी ने मैसेज किया, ‘‘व्यक्तिगत बात के लिए व्हाट्सऐप ठीक है,’’ अपने व्हाट्सऐप से सुहानी ने विदित के व्हाट्सऐप पर मैसेज किया. अब बातचीत व्हाट्सऐप पर होने लगी.

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‘‘मैं आप को क्यों अच्छी लगी?’’ सुहानी ने पूछा.

‘‘पता नहीं, लेकिन आप को देख कर लगा कि मैं आप को तलाश रहा था,’’ विदित ने जवाब दिया.

‘‘माफ कीजिए और आप का परिवार?’’

‘‘परिवार अपनी जगह है. उस का स्थान कोई नहीं ले सकता. वैसे ही जैसे आप की जगह कोई नहीं ले सकता.’’

‘‘मैं कल दोपहर औफिस लंच के समय आप को रीगल चौराहे के पास वाले कौफी हाउस में मिल सकती हूं,’’ सुहानी ने बताया.

‘‘मैं वहां पहुंच जाऊंगा.’’

सुहानी सोचती रही, ‘मिलना चाहिए या नहीं. एक शादीशुदा, बालबच्चेदार व्यक्ति से मिल कर भविष्य के कौन से सपने साकार हो सकते हैं? वैसे भी क्या हो रहा है अभी? फिर मिलना ही तो है. कितनी अकेली रह गई हूं मैं. साथ की सहेलियां शादी कर के अपने ससुराल व परिवार में मस्त हैं. मैं ही रह गई हूं अकेली. घर पर कब किस ने मेरे बारे में, मेरी इच्छाओं के बारे में सोचा है. क्या मैं अपनी मरजी से किसी से मिल भी नहीं सकती? चलो, आगे कुछ न सही लेकिन किसी को कुछ तो पसंद आया मुझ में.’

दोनों तरफ एक उमंग थी. वह नियत समय पर कौफी हाउस में मिले. दोनों को एकदूसरे की यह बात पसंद आई कि जैसा सोशल मीडिया पर अपना स्टेटस व फोटो डाला है, वैसे ही थे दोनों, अन्यथा लोग होते कुछ और हैं और दिखाते कुछ और हैं. कौफी की चुसकियां लेते दोनों एकदूसरे को देखते रहे. आंखों से तोलते रहे. सुहानी सोच रही थी कि क्या बात करूं? कैसे बात करूं? तभी विदित ने कहा, ‘‘आप ने अभी तक शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘इस उम्र में शादी,’’ सुहानी ने निराशा भरे स्वर में उत्तर दिया.

‘‘अभी कौन सी आप की उम्र निकल गई. ऐसे भी बहुत से लोग हैं जो 40 के आसपास विवाह करते हैं.’’

‘‘मैं ने सब की तरफ ध्यान दिया लेकिन मेरी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया.’’

‘‘तो अब ध्यान दिए देता हूं,’’ विदित ने हंसते हुए कहा, ‘‘आप दिखने में अच्छी हैं. अपने पैरों पर खड़ी हैं. कौन आप से शादी करने से इनकार कर सकता है. अच्छा बताइए, आप को कैसा लड़का पसंद है?’’

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Serial Story: अनमोल पल– भाग 2

सुहानी ने हंसते हुए कहा, ‘‘इस उम्र में शादी के लिए लड़का नहीं पुरुष ढूंढ़ना पड़ेगा, वह भी अधेड़.’’

‘‘मेरी तरह,’’ विदित बोला.

‘‘हां, खैर ये सब छोडि़ए. आप अपनी सुनाइए. मिल कर कैसा लगा? क्या चाहते हैं आप मुझ से,’’ एक ही सांस में सुहानी कह गई.

‘‘देखिए, मैं ने अपने बारे में कुछ नहीं छिपाया आप से. सुनते हुए अजीब तो लगेगा आप को लेकिन क्या करूं, दिल के हाथों मजबूर हूं. आप मुझे अच्छी लगीं.’’

‘‘आमनेसामने भी,’’ सुहानी ने कहा.

‘‘जी, आमनेसामने भी?’’ विदित बोला.

‘‘मुझे भी आप की ईमानदारी अच्छी लगी. आप ने भी कुछ नहीं छिपाया.’’

‘‘मेरे मन में कोई चोर नहीं है, तो छिपाऊं क्यों? हां, मैं शादीशुदा हूं, 2 बच्चे हैं मेरे, लेकिन यह कोई गुनाह तो नहीं. फिर यह किस किताब में लिखा है कि शादीशुदा व्यक्ति को कोई अच्छा लगे तो वह उसे अच्छा भी न कह सके. कोई उसे पसंद आए तो वह उस पर जाहिर भी न कर सके,’’ विदित ने अपनी बात रखते हुए कहा.

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‘‘हां, हम अच्छे दोस्त भी तो हो सकते हैं,’’ सुहानी ने कहा तो विदित चुप रहा. इस बीच दोनों ने एकदूसरे के मोबाइल नंबर ले लिए, जो पहले से ही सोशल साइट्स से उन को मालूम थे.

‘‘हमें मोबाइल पर ही बात करनी चाहिए. चाहे तो एसएमएस के जरिए भी बात कर सकते हैं, लेकिन व्यक्तिगत बातें सोशल साइट्स पर बिलकुल नहीं,’’ सुहानी ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘आप ठीक कह रही हैं. इस का मतलब यह हुआ कि आप मुझ से आगे बात करेंगी.’’

‘‘हां, बात करने में क्या बुराई है?’’

‘‘और मिलने में?’’

‘‘मिल भी सकते हैं, लेकिन मैं देर रात तक घर से बाहर नहीं रह सकती. कमाती हूं तो क्या? हूं तो महिला ही न. घर पर जवाब देना पड़ता है. शादी नहीं हुई तो क्या? पूछने को मातापिता, नजर रखने को अड़ोसपड़ोस तो है ही,’’ सुहानी बोली.

‘‘हां, मैं भी आप से ऐसे समय मिलने को नहीं कहूंगा जिस में आप को समस्या हो,’’ विदित ने कहा.

सुहानी का लंच टाइम खत्म हो चुका था. वह दफ्तर जाने के लिए खड़ी हो गई.

‘‘अच्छा लगा आप से मिल कर,’’ सुहानी ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘मुझे भी,’’ विदित खुशी जाहिर करते हुए बोला, ‘‘आज मेरी एक इच्छा पूरी हो गई. आगे न जाने कब दोबारा मिलना होगा.’’

‘‘कल ही,’’ सुहानी मुसकराते हुए बोली.

‘‘क्या, सच में?’’ विदित ने खुशी से कहा.

‘‘हां, यहीं मिलते हैं,’’ सुहानी ने वादा किया.

‘‘थैंक्स,’’ विदित ने धन्यवाद भरे भाव से कहा.

‘‘और बात करनी हो तो मोबाइल पर?’’ सुहानी ने पूछा.

‘‘कभी भी.’’

‘‘मैं रात 10 बजे के बाद अपने कमरे में आ जाती हूं. आप के साथ तो पत्नी व बच्चे होते होंगे,’’ सुहानी ने पूछा.

‘‘नहीं, बच्चे तो अपनी मां के साथ अलग कमरे में सोते हैं. मांबेटों के बीच मुझे कौन पूछता है?’’ निराशा भरे स्वर में विदित बोला.

‘‘मैं अकेला सोता हूं कमरे में. आप बात कर सकती हैं,’’ और वे विदा हो गए. दूसरे दिन वे फिर मिले. दोनों मिलने के लिए इतने बेकरार थे कि बड़ी मुश्किल से दिन व रात कटी. ऐसा लगा जैसे दूसरा दिन आने में वर्षों लग गए हों. बात कैसे शुरू करें? क्या कहें एकदूसरे से. सो राजनीति, साहित्य, सिनेमा, संगीत की बातें होती रहीं.

‘‘तुम्हारे फेसबुक अकाउंट पर मुकेश के दर्द भरे गीतों का बड़ा संकलन है,’’ विदित ने सुहानी से कहा.

‘‘हां, मुझे दर्द भरे गीत बहुत पसंद हैं,  खासकर मुकेश के और तुम्हें?’’

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‘‘मेरी तो समझ में आता है मेरा एकांत, मेरा अकेलापन, इसलिए ये गीत मुझे खुद से जुड़े हुए प्रतीत होते हैं. लेकिन आप को क्यों पसंद हैं?’’ सुहानी ने पूछा.

‘‘शायद दर्द मेरा पसंदीदा विषय है,’’ विदित ने कहा.

‘‘लेकिन तुम से मिलने के बाद मुझे प्रेम भरे गीत भी अच्छे लगने लगे हैं,’’ सुहानी ने कहा, ‘‘एक बात पूछूं. आप घर पर दर्द भरे गीत सुनते हैं?’’

‘‘नहीं, अब नहीं सुनता. पत्नी को लगता है कि मुझे अपना कोई पुराना प्रेमप्रसंग याद आता है. तभी मैं ऐसे गाने सुनता हूं और फिर घरपरिवार की जिम्मेदारियों में कुछ सुननेपढ़ने का समय ही कहां मिलता है?’’ विदित ने उदासी भरे स्वर में कहा.

‘‘आप की पत्नी से बनती नहीं है क्या?’’ सुहानी ने पूछा.

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. पहले सब ठीक था, लेकिन अब वह मां पहले है, पत्नी बाद में. मैं ने पिछली बार जिक्र किया था अकेले सोने के विषय में. बच्चे मां के बिना नहीं सोते. दोनों बच्चे मां के अगलबगल लिपट कर सोते हैं. पत्नी दिन भर घर के कामकाज और दोनों बच्चों की जिम्मेदारियां संभालते हुए इतनी थक जाती है कि सोते ही गहरी निद्रा में चली जाती है.

‘‘एकदो बार मैं ने उस से प्रणय निवेदन भी किया, तो पत्नी का जवाब था कि अब मैं 2 बच्चों की मां हूं, बच्चों को छोड़ कर आप के पास आना ठीक नहीं लगता. बच्चे जाग गए तो क्या असर पड़ेगा उन पर? आप दूसरे कमरे में सोइए. आप कहेंगे तो मैं बच्चों को सुला कर थोड़ी देर के लिए आ जाऊंगी. वह आई भी थकीहारी तो बस मुरदे की तरह पड़ी रही. उस ने कहा जो करना है, जल्दीजल्दी करो. शारीरिक संबंध पूर्ण होते ही वह तुरंत बच्चों के पास चली गई. कभीकभी ऐसा भी हुआ कि हम संभोग की मुद्रा में थे, तभी बच्चे जाग गए और वह मुझे धकियाती हुई कपड़े संभालती बच्चों के पास तेजी से चली गई. बस, फिर धीरेधीरे इच्छाएं मरती रहीं. तुम्हें देखा तो इच्छाएं फिर जाग उठीं. एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगी?’’

‘‘नहीं, कहो,’’ सुहानी बोली.

‘‘फेसबुक पर जब तुम से बात होने लगी तो मेरे दिलोदिमाग में तुम समा चुकी थीं. एक बार पत्नी को कुछ जबरन सा कमरे में ले कर आया. संबंध बनाए, लेकिन दिलदिमाग में तुम्हारी ही तसवीर थी. अचानक मुंह से तुम्हारा नाम निकल गया.

‘‘पत्नी ने दूसरे दिन समझाते हुए कहा, ‘यह सुहानी कौन है? रात को उसी को याद कर के मेरे साथ संभोग कर रहे थे आप. जमाना अब पहले जैसा नहीं रहा. किसी ऐसीवैसी लड़की के चक्कर में मत फंस जाना, जो संबंध बना कर ब्लेकमैल करे. न मानो तो जेल भिजवा दे. फिर इस परिवार का, इस घर का, बच्चों का क्या होगा? समाज में बदनामी होगी सो अलग. सोचसमझ कर कदम उठाना. मैं पत्नी हूं आप की, मेरा अधिकार तो कोई नहीं छीन सकता, लेकिन अपनी हवस के कारण किसी जंजाल में मत उलझ जाना.’’

‘‘मैं ऐसी नहीं हूं,’’ सुहानी ने कहा. उसे लगा कि विदित उसे सुना कर ये सब कह रहा है.

‘‘अरे… मैं तो तुम्हें सिर्फ पत्नी की बात बता रहा हूं. मुझे तुम पर भरोसा है. हम ने ईमानदारी से अपना सच एकदूसरे को बताया है. मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. क्या तुम्हें मुझ पर भरोसा है.’’

‘‘आजमा कर देख लो,’’ सुहानी ने दृढ़ स्वर में कहा. लंच टाइम खत्म हो चुका था. उन्हें मजबूरन अपनी बात समाप्त कर के उठना पड़ा. इस वादे के साथ कि वे फिर मिलेंगे. वे फिर मिले. उन की मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता गया. मुलाकातों के स्थान भी बदलने लगे. कभी वे पार्क में टहलते तो कभी किसी रेस्तरां में साथ बैठ कर भोजन करते. कभी साथ मूवी देखते.

‘‘मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं. अकेले में जहां हम दोनों के अलावा कोई तीसरा न हो,’’ विदित ने कहा.

‘‘मेरी एक सहेली कंपनी के काम से बाहर गई है. उस के फ्लैट की चाबी मेरे पास है. हम थोड़े समय के लिए वहां जा सकते हैं,’’ सुहानी ने कहा.

‘‘किसी ने हमें देख लिया तो,’’ विदित ने शंका व्यक्त की.

‘‘मैं किसी की परवा नहीं करती,’’ सुहानी ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘कब चलना है?’’ विदित ने पूछा.

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‘‘आज, अभी. 1 घंटे का लंच है. बात करेंगे, चाय पीएंगे और जो कहना है कह लेना.’’ कौफी हाउस से टैक्सी ले कर वे सीधे फ्लैट पर पहुंचे.  सुहानी ने चाय बनाई और विदित को दी. विदित ने सुहानी का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘मैं तुम से प्यार करता हूं.’’

‘‘मैं भी.’’ विदित ने सुहानी को अपने शरीर से सटा लिया. दोनों एकदूसरे से लिपटे हुए थे. सांसों में तेजी आ गई थी, विदित ने सुहानी के माथे पर अपने होंठ रख दिए. सुहानी ने स्वयं को विदित को सौंप दिया. दोनों एकदूसरे में समाने का प्रयास करने लगे.

 – क्रमश:

Serial Story: अनमोल पल– भाग 3

अभी तक आप ने पढ़ा…

फेसबुक के माध्यम से मिले विदित और सुहानी को एकदूसरे की सचाई जान अच्छा लगा. विदित शादीशुदा, 2 बच्चों का पिता था जबकि सुहानी 35 वर्षीय अविवाहिता. शादी न कर पाने के कारण मन में इच्छाएं दबी थीं, जिस कारण वह विदित की ओर आकर्षित हुई. दोनों एकदूसरे से इतना बंध गए कि कई बार एकांत मिलने पर हद से गुजर जाने को बेचैन हो उठते, लेकिन विदित खुद को रोक लेता. एक मुलाकात के दौरान वे सुहानी की सहेली के फ्लैट पर मिले तो विदित ने सुहानी को अपने आगोश में ले लिया और दोनों एकदूसरे में समाने का प्रयास करने लगे.

अब आगे…

अचानक पता नहीं क्यों, विदित ने खुद को रोक लिया. सुहानी ने बड़ी मुश्किल से स्वयं को नियंत्रित किया. वह जाना चाहती थी सारे तटबंधों को तोड़ कर, लेकिन विदित ने हांफते हुए कहा, ‘‘नहीं, इस तरह नहीं. तुम्हें यह न लगे कि मैं ने तुम्हारा गलत फायदा उठाया.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है विदित,’’ सुहानी निश्चिंत हो कर बोली.

‘‘सुहानी,’’ विदित ने सुहानी के हाथों को चूमते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हें प्यार दे सकता हूं, अधिकार नहीं.’’

सुहानी ने विदित से लिपटते हुए कहा, ‘‘मुझे प्यार के अलावा कुछ और चाहिए भी नहीं.’’ विदित ने सुहानी के होंठों पर अपने होंठ रखे. सुहानी ने फिर खुद को समर्पित किया, लेकिन विदित ने फिर स्वयं को रोक लिया.

‘‘एक बात पूछूं विदित? ’’सुहानी ने पूछा.

‘‘पूछो.’’

‘‘अपनी पत्नी से अंतरंग क्षणों में तुम मेरी कल्पना करते हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘तुम मेरा शरीर चाहते हो?’’

‘‘हां, लेकिन मन के साथ. केवल तन नहीं.’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ गहराई तक उतरने को तैयार हूं. फिर तुम पीछे क्यों हट रहे हो?’’

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‘‘यही सोच कर कि मैं तुम्हें क्या दे पाऊंगा. न कोई सुनहरा भविष्य, न कोई अधिकार. अपनों के सामने तुम्हारा क्या परिचय दूंगा. इन तथाकथित अपनों के सामने शायद तुम्हें पहचानने से भी इनकार कर दूं. कहीं यह तुम्हारा शोषण तो नहीं होगा,’’ सकुचाते हुए विदित बोला. ‘‘मेरे पास भविष्य के लिए नौकरी है. रही अधिकार की बात, तो मैं जानती हूं कि तुम विवाहित हो. मैं तुम से ऐसी कोई मांग नहीं करूंगी, जिस से तुम स्वयं को धर्मसंकट में फंसा महसूस करो. मैं तो तुम्हारे साथ खुशी के कुछ पल बिताना चाहती हूं. ऐसे पल जिन पर हर स्त्री का अधिकार होता है, लेकिन मेरी नौकरी के कारण मेरे परिवार के लोग ही मुझे अपने स्त्रीत्व से वंचित रखना चाहते हैं और मैं ये पल अब चुराना चाहती हूं, छीनना चाहती हूं.’’

विदित खामोश रहा. विदित को सोच में डूबा देख कर सुहानी ने पूछा, ‘‘क्या बात है?’’ ‘‘कुछ नहीं,’’ विदित ने कहा, ‘‘मैं यह सोच रहा था और इसलिए सोच कर तुम से कह रहा हूं कि अपने सुख की तलाश में कहीं हम वासना के दलदल में तो नहीं भटकना चाह रहे. तुम्हारी खुशियां मेरे साथ हमेशा नहीं रहेंगी. मैं तुम्हें पाना तो चाहता हूं, लेकिन मैं तुम से प्यार भी करता हूं. स्त्रीपुरुष जब तनमन के साथ एक होते हैं तो बंध जाते हैं एकदूसरे से. मैं तो फिर भी पुरुष हूं. शादीशुदा हूं. तुम मुझ से बंध कर कहीं अकेली न रह जाओ,’’ विदित कहते हुए चुप हो गया. सुहानी चुपचाप सुनती रही, कुछ नहीं बोली.

‘‘मैं चाहता हूं कि तुम्हारे योग्य कहीं एक अच्छा लड़का, चाहे वह अधेड़ हो या फिर विदुर, तलाशा जाए, जिस के साथ तुम जीवन भर खुश रह सको. तुम्हारा अधूरापन हमेशा के लिए दूर हो जाए.’’ ‘‘तुम्हें क्या लगता है, विदित? मैं ने ये सब सोचा नहीं होगा. इस काम में मेरी एक प्रिय सहेली ने मेरी मदद भी की. मैरिज ब्यूरो से संपर्क भी किया, कुछ रिश्ते आए भी, लेकिन वे सब रिश्ते ऐसे आए जो मु झे पसंद नहीं थे. वही कुंडली मिलान, दहेज, घरपरिवार, जातिधर्म, गोत्र. मेरा मन नहीं मिला किसी से. एकदो मेरे मातापिता से मिले भी तो मातापिता ने उन्हें टाल दिया और मु झे सम झाया कि इस उम्र में क्यों शादीब्याह के चक्कर में पड़ रही हो. अपने मातापिता का ध्यान रखो. 70-75 की उम्र में मातापिता से घर नहीं छोड़ा जा रहा और बेटी को तपस्या करने की सलाह दे रहे हैं…’’ कहते हुए सुहानी की आंखों में आंसू आ गए.

विदित ने आंसू पोंछते हुए सुहानी से कहा, ‘‘मेरा इरादा तुम्हारा दिल दुखाना नहीं था. मैं तो तुम्हारे भले के लिए यह कह रहा था.’’

‘‘तुम डर रहे हो मु झ से,’’ सुहानी बोली.

‘‘नहीं, तुम्हें सम झा रहा हूं,’’ विदित  आश्वस्त करते हुए बोला.

‘‘इतना आगे आने के बाद,’’ सुहानी ने कहा.

‘‘अभी इतने भी आगे नहीं आए कि वापस न लौट सकें.’’

‘‘तुम लौटना चाहते हो तो लौट जाओ.’’

‘‘मैं नहीं लौटना चाहता.’’

‘‘मैं भी नहीं लौटना चाहती,’’ फिर दोनों गले मिले और मुसकराते हुए अपनेअपने गंतव्य की तरफ चले गए. रात को विदित को सुहानी का खयाल आया. उसे वे पल याद आए जब एकांत पहाड़ी पर उस ने सुहानी को सिर से ले कर पैर तक चूमा था. उस के शरीर के ऊपरी वस्त्र हटा कर उस के गोपनीय अंगों से छेड़छाड़ करने लगा था और सुहानी मादक सिसकारियां लेते हुए उस का साथ दे रही थी. ‘उफ्फ, मैं क्यों पीछे हट गया. मिलन पूर्ण हो जाता तो यह तड़प, यह बेकरारी तो न सताती. शरीर इस तरह भारी तो न महसूस होता.’ स्वयं को इस भारीपन से मुक्त करने के लिए विदित अपनी पत्नी के पास पहुंचा. पत्नी ने  झिड़कते हुए कहा, ‘‘सो जाइए. आज मेरा मूड नहीं है.’’ विदित अपमानित सा अपने कमरे में आ गया. उस ने मोबाइल उठा कर सुहानी को कई टुकड़ों में एसएमएस किया. अब उसे सुहानी के उत्तर की प्रतीक्षा थी. सुहानी का उत्तर आ गया. विदित ने मोबाइल के एसएमएस बौक्स पर उंगली रखी.

‘‘जब मैं तुम्हारे साथ बहने को तैयार थी तो तुम पीछे हट गए और मु झे दुनियादारी समझाते रहे. क्या तुम मुझ से इसलिए शारीरिक सुख चाहते हो, क्योंकि यह सुख तुम्हें अपनी पत्नी से नहीं मिल रहा है. मैं कोई बाजारू औरत नहीं हूं. यह सुख तो चंद रुपए दे कर कोई वेश्या भी तुम्हें दे सकती है. तुम्हारा बारबार पीछे हटना यह साबित करता है कि तुम डरते हो मु झ से, अपनी पत्नी से, अपने परिवार से, जबकि मैं ने पहले ही तुम से कह दिया था कि मु झे सिर्फ प्यार चाहिए, अधिकार नहीं.

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‘‘तुम ने उन अनमोल पलों को न जाने किस डर से गंवा दिया. वह भी ऐसे समय में जब मैं तुम्हारे साथ आगे बढ़ रही थी. उन क्षणों में मैं ने खुद को कितना अपमानित महसूस किया था और अब तुम मुझ से शरीर के ताप से पीडि़त हो कर मिलन की मांग कर रहे हो. क्या इसे तुम प्यार कहते हो या सिर्फ जरूरत? मैं तुम्हारी ही भाषा में बात कर रही हूं. औरत जब किसी के प्रेम में डूबती है तो फिर आगेपीछे नहीं सोचती. जिसे प्रेम करती है उस पर भरोसा करते हुए आगे बढ़ती है. तुम इतना सोचते हो मेरे साथ होते हुए भी, सब के बारे में, मेरे बारे में भी सब सोचने को रहता है बस, मैं ही नहीं रहती.’’

विदित ने एसएमएस को 4-5 टुकड़ों में पढ़ा. उसे उस पर गुस्सा आ गया. उस ने सीधा नंबर लगाया और कहा, ‘‘तुम्हारी हां है या ना.’’ उधर से सुहानी ने उत्तर दिया, ‘‘इतनी मानसिक तैयारी से शादी की जाती है, सुहागरात मनाई जाती है, प्यार नहीं किया जाता.’’ विदित को गुस्सा आ गया. उस के मुंह से निकल गया, ‘‘शराफत के कारण पीछे रह गया. नहीं तो बहुत पहले ही सबकुछ कर चुका होता. अब पूछ रहा हूं तो भाव खा रही हो.’’

दूसरी तरफ से मोबाइल बंद हो गया. विदित को खुद पर गुस्सा आया. ‘उफ्फ, यह क्या कह दिया मैं ने. किस बदतमीजी से बात की मैं ने. मेरे बारे में क्या सोच रही होगी सुहानी,’ विदित ने सोचा और फिर नंबर घुमाने लगा, लेकिन सुहानी ने फोन काट दिया. फिर विदित ने एसएमएस किया.

‘‘क्यों तड़पा रही हो? गुस्से में निकल गया मुंह से. इस के लिए मैं माफी मांगता हूं,’’ सुहानी ने एसएमएस पढ़ कर रिप्लाई किया.

‘‘क्या चाहते हो?’’ सुहानी  झुं झला कर बोली.

‘‘तुम्हें चाहता हूं,’’ विदित बोला.

‘‘क्यों चाहते हो?’’

‘‘प्यार करता हूं तुम से.’’

‘‘मु झ से या मेरे शरीर से?’’

‘‘तुम्हारा शरीर भी तो तुम ही हो.’’

‘‘तो ऐसा कहो, शरीर चाहिए मेरा.’’

‘‘तुम गलत सम झ रही हो.’’

‘‘मैं ठीक सम झ रही हूं.’’

‘‘तुम्हारी हां है या ना?’’

‘‘जिद क्यों कर रहे हो?’’

‘‘मैं तुम्हें पाना चाहता हूं.’’

‘‘तुम्हारे साथ बिताए पलों के लिए मैं कोई भी कीमत देने को तैयार हूं.’’

‘‘चलो, कीमत ही सम झ कर दे दो.’’

‘‘ठीक है, बताओ कब, कहां आना है?’’ सुहानी ने कहा.

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Serial Story: तू तू मैं मैं– भाग 1

“जाओ फ्लेट नंबर सी 212 से कार की चाबी मांग कर लाओ. जल्दी आना. रोज इस के चक्कर में लेट हो जाती हूं,”अनुभा अपनी कार के पीछे लगी दूसरी कार को देख कर भुनभुनाई.

गार्ड अपनी हंसी रोकता हुआ चला गया. पिछले 6 महीने से वह इन दोनों का तमाशा देखता चला आ रहा है. एक महीने आगेपीछे ही दोनों ने इस सोसायटी में फ्लैट किराए पर लिया है, तभी से दोनों का हर बात पर झगड़ा मचा रहता है. फ्लैट नंबर 312 में ऊपरी मंजिल पर अनुभा रहती है. सोसायटी मीटिंग में भी दोनों एकदूसरे पर आरोपप्रत्यारोप करते दिखाई देते हैं.

सौरभ ने शिकायत की थी कि उस के बाथरूम में लीकेज हो रहा है. इस के लिए उस ने प्लम्बर बुलवाया, छुट्टी भी ली और अनुभा को भी बता दिया था कि प्लम्बर आ कर ऊपरी मंजिल से उस का बाथरूम से लीकेज चेक करेगा, खर्चा भी वह खुद उठाने को तैयार है. पहले तो कुछ नहीं बोली, मगर जब प्लम्बर आ गया तो अपना फ्लैट बंद कर औफिस चली गई. आधा घंटा भी वह रुकने को तैयार नहीं हुई.

सौरभ ने सोसायटी की मीटिंग में इस मुद्दे को उठाया तो अनुभा ने उस पर अकेली महिला के घर अनजान आदमी को भेजने का आरोप लगा दिया.

बात बाथरूम के लीकेज से भटक कर नारीवाद, अस्मिता, बढ़ते बलात्कार पर पहुंच गई. यह देख सौरभ दांत किटकिटा कर रह गया. उस का बाथरूम आज तक ठीक न हो सका.

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अब तो दोनों के बीच इतना झगड़ा बढ़ चुका है कि अब सामंजस्य से काम होना नामुमकिन हो चुका है.

इस वसुधा सोसायटी में शुरू में पार्किंग की समस्या नहीं थी. पूरब और पश्चिम दिशा में बने दोनों गेट से गाड़ियां आजा सकती थीं और दोनों तरफ पार्किंग की सुविधा भी थी, मगर पांच वर्ष पूर्व से पश्चिम दिशा में बनी नई सोसायटी वसुंधरा के लोगों ने पिछले गेट की सड़क पर अपना दावा ठोंक कर पश्चिम गेट को बंद कर ताला लगा दिया.

वैसे तो वह सड़क वसुंधरा सोसायटी ने ही अपनी बिल्डिंग तैयार करते समय बनवाई थी. जैसेजैसे वसुंधरा में परिवार बसने लगे, पार्किंग की जगह कम पड़ने लगी, तो उन्होंने वसुधा के पश्चिम गेट को बंद कर उस सड़क का इस्तेमाल पार्किंग के रूप में करना शुरू कर दिया.

वसुधा सोसायटी के नए नियम बन गए, जो ‘पहले आओ पहले पाओ’ पर आधारित थे. किसी की भी पार्किंग की जगह निश्चित न होने पर भी लोगों ने आपसी समझबूझ से एकदूसरे के आगेपीछे गाड़ी खड़ी करना शुरू कर दिया. जो सुबह देर से जाते थे, वे गाड़ी दीवार से लगा कर खड़ी कर देते. जिन्हें जल्दी जाना होता, वे उस के पीछे खड़ी करते. सभी परिवार 15 साल पहले, सालभर के अंतराल में यहां आ कर बसे थे. सभी के परिवार एकदूसरे को अच्छे से पहचानते हैं. अगर किसी की गाड़ी आगेपीछे करनी होती तो गार्ड चाबी मांग कर ले आता. अभी भी कुछ फ्लैट्स खाली पड़े हैं, जिन के मालिक कभी दिखाई नहीं देते. कुछ में किराएदार बदलते रहते हैं. ऐसे किराएदारों के विषय में, पड़ोसियों के अतिरिक्त अन्य किसी का ध्यान नहीं जाता था, मगर सौरभ और अनुभा तो इतने फेमस हो गए हैं कि उन की जोड़ी का नाम “तूतू, मैंमैं ”रख दिया गया.

आंखें मलता हुआ सौरभ जब पार्किंग में आया, तो अनुभा को देखते ही उस का पारा आसमान में चढ़ गया. वह बोला, “जब तुम्हें जल्दी जाना था तो अपनी गाड़ी आगे क्यों खड़ी की? कुछ देर बाहर खड़ी कर, बाद में पीछे खड़ी करती.”

“मुझे औफिस से फोन आया है, इसलिए आज जल्दी निकलना है,” अनुभा ने कहा.

“झूठ बोलना तो कोई तुम से सीखे,” सौरभ ने कहा.

“तुम तो जैसे राजा हरिश्चन्द्र की औलाद हो?” अनुभा की भी त्योरी चढ़ गई.

“आज सुबहसुबह तुम्हारा मुंह देख लिया है. अब तो पूरा दिन बरबाद होने वाला है,” कह कर सौरभ ने गाड़ी निकाल कर बाउंड्रीवाल के बाहर खड़ा कर दी और अनुभा को कोसते हुए अपने फ्लैट की तरफ बढ़ गया.

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मोहिनी अपने फ्लैट से नित्य ही यह तमाशा देखती रहती है. उस के बच्चे विदेश में बस गए हैं, अपने पति संग दिनभर कितनी बातें करे? उसे तो फोन पर अपनी सहेलियों के संग नमकमिर्च लगा कर, सोसायटी की खबरें फैलाने में जो मजा आता है, किसी अन्य पदार्थ में नहीं मिल सकता. उस के पति धीरेंद्र को उस की इन हरकतों पर बड़ा गुस्सा आता है. वे मन मसोस कर रह जाते हैं कि अभी मोहिनी से कुछ कहा, तो वह फोन रख कर मेरे संग ही बहसबाजी में जुट जाएगी.

“सुन कविता, आज फिर सुबहसुबह “तूतू, मैंमैं” शुरू हो गए. बस हाथापाई रह गई है, गालीगलौज पर तो उतर ही आए हैं.“

“अरे कुछ दिन रुक, फिर वे तुझे एकदूसरे के बाल नोचते भी नजर आएंगे,” कह कर कविता हंसी.

“मैं तो उसी दिन का इंतजार कर रही हूं,” मोहिनी खिलखिला उठी.

धीरेंद्र चिढ़ कर उस कमरे से उठ कर बाहर चला गया.

महीनेभर के अंदर ही सौरभ ने गार्ड से अनुभा की कार की चाबी मांग कर लाने को कहा, मगर अनुभा खुद आ गई.

“मेरी गाड़ी को गार्ड के हाथों सौंप कर ठुकवाना चाहते हो क्या?” आते ही अनुभा उलझ गई.

“ नहीं, गाड़ी को मैं ही बेक कर लगा देता, तुम ने आने का कष्ट क्यों किया?” सौरभ ने चिढ़ कर कहा.

“मैं अपनी गाड़ी किसी को छूने भी न दूं,” अनुभा इठलाई.

“मुझे भी लोगों की गाड़ियां बैक करने का शौक नहीं है, बस सुबहसुबह तुम्हारा मुंह देख कर अपना दिन खराब नहीं करना चाह रहा था, इसीलिए चाबी मंगाई थी,” सौरभ ने भी अपनी भड़ास निकाली.

“अपनी शक्ल देखी है कभी आईने में?” कह कर अनुभा कार में सवार हो गई और गाड़ी को बैक करने लगी.

“खुद जैसे हूर की परी होगी,” सौरभ गुस्से से बोला और अपने औफिस को निकल गया.

औफिस में सौरभ का मन न लगा. बहुत सोचविचार कर उस ने प्रिंटर का बटन दबा दिया. अगले दिन पार्किंग में पोस्टर चिपका हुआ था, जिस में सौरभ ने अपने पूरे महीने औफिस से आनेजाने की समयतालिका चिपका दी और फोन नंबर लिख कर अपनी गाड़ी दीवार से लगा दी.

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दूसरे दिन अनुभा ने भी एक पोस्टर चिपका दिया, जिस में सौरभ को नसीहत देते हुए लिखा था कि किस दिन वह गाड़ी दीवार से लगा कर खड़ी करे और किस दिन उस की गाड़ी के पीछे.

लोग दोनों की पोस्टरबाजी पर खूब हंसते.

आगे पढ़ें- सोसायटी की मीटिंग में सौरभ ने…

Serial Story: तू तू मैं मैं– भाग 3

सुबह सौरभ ने दलिया बनाया, तो उसे अनुभा की याद आ गई. उस ने वीडियो काल किया.

अनुभा ने कहा, “मेरा बुखार रातभर लगातार चढ़ताउतरता रहा. मैं दूधब्रेड खा कर दवा खा लूंगी. तुम्हारे क्या हाल हैं?“

“मेरी खांसी तो अभी ठीक नहीं हुई, छींकें भी आ रही हैं, गले में खराश भी बनी हुई है. दवा तो मैं भी लगातार खा रहा हूं,” सौरभ ने बताया.

“पता नहीं, क्या हुआ है?रिपोर्ट कब आएगी?” अनुभा ने पूछा.

“ कल शाम तक तो आ ही जाएगी. मैं ने दलिया बनाया है. तुम्हें दे भी नहीं सकता. हो सकता है, मैं पोजीटिव हूं और तुम निगेटिव हो.”

“इस का उलटा भी तो हो सकता है. रातभर इतने घटिया, डरावने सपने आते रहे कि बारबार नींद खुलती रही. एसी नहीं चलाया, तो कभी गरमी, कभी ठंड, तो कभी पसीना आता रहा,” बोलतेबोलते अनुभा की सांस फूल गई.

“अच्छा हुआ, उस दिन दीदी की जिद से औक्सीमीटर और थर्मल स्कैनर भी खरीद लिए थे. मैं तो लगातार चेक कर रहा हूं. तुम औक्सीमीटर में औक्सीजन लेवल चेक करो, नाइंटी थ्री से नीचे का मतलब, कोविड सैंटर में भरती हो जाओ.”

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“क्यों डरा रहे हो? हो सकता है, मुझे वायरल फीवर ही हो.”

“ठीक है. रिपोर्ट जल्द आने वाली है, तब तक अपना ध्यान रखो.”

अनुभा सोच में पड़ गई. अगर रिपोर्ट पोजीटिव आ गई तो क्या होगा? सोसायटी से मदद की उम्मीद बेकार है. किसी कोविड सैंटर में ही चली जाएगी. उस की आंखों में आंसू आ गए. किसी तरह उस ने एक दिन और गुजारा.

अगले दिन उस के पास अनुभा का फोन आ गया, “हैलो सौरभ कैसे हो? तुम्हें फोन आया क्या?”

“हां, मेरा तो ‘इक्विवोकल…’ आया है.”

“इस का क्या मतलब है?” अनुभा ने पूछा.

“मतलब, वायरस तो हैं, पर उस की चेन नहीं मिली कि मुझे पोजीटिव कहा जाए यानी न तो नेगेटिव और न ही पोजीटिव ‘संदिग्ध’,” सौरभ ने बताया.

“मेरा तो पोजीटिव आ गया है. अभी मैं ने किसी को नहीं बताया,” अनुभा ने कहा.

“तुम्हारे नाम का पोस्टर चिपका जाएंगे तो सभी को खुद ही पता चल जाएगा, वैसे, अब तबियत कैसी है तुम्हारी?” सौरभ ने पूछा.

“बुखार नहीं जा रहा,” अनुभा रोआंसी हो उठी.

“रुको, मैं तुम्हारी काल दीदी के साथ लेता हूं, उन से अपनी परेशानी कह सकती हो.”

दीदी से बात कर अनुभा को बड़ी राहत मिली. उन्होंने उस की कुछ दवा भी बदली, जिन्हें सौरभ ला कर दे गया और उसे दिन में 3-4 बार औक्सीलेवल चेक करने और पेट के बल लेटने को भी कहा.

2-3 दिन बाद बुखार तो उतर गया, मगर डायरिया, पेट में दर्द शुरू हो गया. दवा खाते ही पूरा खाना उलटी में निकल जाता.

समीक्षा ने फिर से उसे कुछ दवा बताई. सौरभ उस के दरवाजे पर फल, दवा के साथ कभी खिचड़ी, तो कभी दलिया रख देता.

पहले तो अनुभा को ऐसा लगा मानो वह कभी ठीक न हो पाएगी. वह दिन में कई बार अपना औक्सिजन लेवल चेक करती, मगर सौरभ और समीक्षा के साथ ने उस के अंदर ऊर्जा का संचार किया. उसे अवसाद में जाने से बचा लिया.

2 हफ्ते के अंदर उस की तबियत में सुधार आ गया, वरना बीमारी की दहशत, मरने वालों के आंकड़े, औक्सिजन की कमी के समाचार उस के दिमाग में घूमते रहते थे.

अनुभा को आज कुछ अच्छा महसूस हो रहा है. एक तो उस के दरवाजे पर चिपका पोस्टर हट गया है. दूसरा, आज बड़े दिनों बाद उसे कुछ चटपटा खाने का मन कर रहा है वरना इतने दिनों से जो भी जबरदस्ती खा रही थी, वह उसे भूसा ही लग रहा था.

“सौरभ आलू के परांठे खाने हैं तो आ जाओ, गरमागरम खाने में ही मजा आता है,” अनुभा ने सौरभ को फोन किया.

”अरे वाह, मेरे तो फेवरेट हैं. तुम इतना लोड मत लो. मैं आ कर तुम्हारी मदद करता हूं.“

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सौरभ फटाफट तैयार हो कर ऊपर पहुंचा, तो अनुभा परांठा सेंक रही थी. अनुभा के हाथ में वाकई स्वाद है. नाश्ता करने के बाद सौरभ ने कुछ सोचा, फिर बोल ही पड़ा, “अनुभा, तुम कोरोना काल की वजह से इतनी सौफ्ट हो गई हो या कोई और कारण है?”

“सच कहूं तो मैं ने नारियल के खोल का आवरण अपना लिया है. मैं बाहरी दुनिया के लिए झगड़ालू मुंहफट बन कर रह गई हूं. अब तुम ही बताओ कि मैं क्या करूं? अकेले रह कर जौब करना आसान है क्या? इस से पहले जिस सोसायटी में रहती थी, वहां मेरे शांत स्वभाव की वजह से अनेक मित्र बन गए थे, लेकिन सभी अपने काम के वक्त मुझ से मीठामीठा बोल कर काम करवा लेते, मेरे फ्लैट को छुट्टी के दिन अपनी किट्टी पार्टी के लिए भी मांग लेते. मैं संकोचवश मना नहीं कर पाती थी. मेरी सहेली तृष्णा ने जब यह देखा, तो उस ने मुझे समझाया कि ये लोग मदद देना भी जानते हैं या सिर्फ लेना ही जानते हैं? एक बार आजमा भी लेना. और हुआ भी यही, जब मैं वायरल से पीड़ित हुई, तो मैं ने कई लोगों को फोन किया. सभी अपनी हिदायत फोन पर ही दे कर बैठ गए.
मेरे फ्लैट में झांकने भी न आए, तभी मैं ने भी तृष्णा की बात गांठ बांध ली और इस सोसायटी में आ कर एक नया रूप धारण कर लिया. मेरे स्वभाव की वजह से लोग दूरी बना कर ही रखते हैं. वहां तो जवान लड़कों की बात छोड़ो, अधेड़ भी जबरदस्ती चिपकने लगते थे. यहां सब जानते हैं कि इतनी लड़ाका है. इस से दूर ही रहो,” कह कर अनुभा हंसने लगी.

“ओह… तो तुम मुझे भी, उन्हीं छिछोरों में शामिल समझ कर झगड़ा करती थी,” सौरभ ने पूछा.

“नहीं, ऐसी बात नहीं है,” अनुभा मुसकराई.

तभी सौरभ और अनुभा का फोन एकसाथ बज उठा. समीक्षा की काल थी.

“अरे सौरभ, आज तुम कहां हो? अच्छा, अनुभा के फ्लैट में…” समीक्षा चहकी.

“अनुभा ने पोस्ट कोविड पार्टी दी है, आलू के परांठे… खा कर मजा आ गया दीदी.”

“अरे अनुभा, अभी 15 दिन ज्यादा मेहनत न करना, धीरेधीरे कर के, अपनी ब्रीदिंग ऐक्सरसाइज बढ़ाती जाना. और सौरभ, तुम भी अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देना.”

“थैंक्स दीदी, आप के कंसल्टेंट्स और सौरभ की हैल्प ने मुझे बचा लिया, वरना मुझे कोविड सैंटर में भरती होना पड़ता. अपनी बचत पर भी कैंची चलानी पड़ती. लाखों के बिल बने हैं लोगों के, हफ्तादस दिन ही भरती होने के,” अनुभा बोली.

“अरे छोड़ो कोरोना का रोना, तुम दोनों साथ में कितने अच्छे लग रहे हो,” समीक्षा बोली.

“अरे दीदी, वह बात नहीं है, जो आप समझ कर बैठी हैं,” सौरभ ने कहा.

“क्यों…? मैं ने कुछ गलत कहा क्या अनुभा?” समीक्षा पूछ बैठी.

“ नहीं दीदी, आप ने बिलकुल सही कहा है. मैं तो अब नीचे के फ्लोर में सौरभ के पास का, फ्लैट लेने की सोच रही हूं. ऐसा हीरा फिर मुझे कहां मिलेगा?”

“ये हुई न बात, बल्कि अगलबगल के फ्लैट ले लो,” समीक्षा ने सलाह दी.

“ये आइडिया अच्छा है,” दोनों ही एकसाथ बोल पड़े.

अगले दिन पार्किंग में नया पोस्टर चिपका था, जिस में सौरभ और अनुभा ने एक साथ 2 फ्लैट्स लेने की डिमांड रखी थी.

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“अरे कविता, कुछ पता चला तुझे? सारा मजा खत्म हो गया,” कामिनी ने फोन किया.

“क्या हुआ कामिनी?” कविता पूछ बैठी.

“अरे, “तूतू, मैंमैं” तो अब “तोतामैना“ बन गए रे…”

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