मृगमरीचिका एक अंतहीन लालसा: भाग 1-मीनू ने कैसे चुकाई कीमत

‘‘मम्मा आज मैं अपनी नई वाली बोतल में पानी ले जाऊंगी,’’ नन्ही खुशी चहकते हुए मुझ से बोली. ‘‘ओके,’’ कहते हुए मैं ने उसे स्कूल के लिए तैयार किया.

‘‘मीनू पार्लर की लिस्ट मैं सतीश को दे आया था. 11-12 बजे तक सामान पहुंचा देगा. तुम चैक कर लेना,’’ ऋ षभ ने नाश्ता करते हुए कहा. ठीक है आप चिंता न करें, ‘‘मैं ने कहा, फिर खुशी और ऋ षभ के चले जाने के बाद मैं आरामकुरसी पर निढाल हो गई. यह तो अच्छा था कि ऋ षभ के औफिस के रास्ते में ही खुशी का स्कूल पड़ता था और वे उसे स्कूल ड्रौप करते हुए अपने औफिस निकल जाते थे वरना तो उसे स्कूल छोड़ने भी मुझे ही जाना पड़ता. दोपहर 1 बजे तक उस का स्कूल होता था. तब तक मैं अपने सभी काम निबटा कर उसे ले आती थी. तभी अचानक किसी ने जोर से दरवाजा खटखटाया. मैं ने दरवाजा खोला, तो सामने पड़ोसिन ममता हांफती हुई दिखाई दी.

‘‘क्या हुआ? कहां से भागतीदौड़ती चली आ रही है?’’ मैं ने पूछा, क्योंकि मैं उसे अच्छी तरह जानती थी कि उसे तिल का ताड़ बनाना बहुत अच्छी तरह आता है. ‘‘यार बुरी खबर है. मयंक की बीवी ने आत्महत्या कर ली.’’

‘‘क्या? क्या कह रही है तू?’’ ‘‘हां यार सभी सकते मैं हैं,’’ वह बोली और फिर पूरी बात बताने लगी.

उस के जाने के बाद मेरे दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया. उफ पूजा ने यह क्या कर लिया. अपने 2 साल के बच्चे को यों छोड़ कर… लेकिन वह तो प्रैगनैंट भी थी. मतलब उस ने नन्ही सी जान को भी अपनी कोख में ही दफन कर लिया. आखिर ऐसा उस ने क्यों किया… मैं जानती थी, फिर भी हैरान थी. दिमाग में बहुत से प्रश्न हथौड़े की तरह चलते जा रहे थे… मयंक को तो मैं अच्छी तरह जानती थी. उस की शादी में नहीं गई थी, लेकिन लोगों से सुना अवश्य था कि बहुत खूबसूरत व समझदार है उस की पत्नी. बाद में तो यह तक सुनने में आया था कि बातबात पर वह पत्नी को मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना देता है. उसे उस के मायके नहीं जाने देता. यहां तक कि उस के मातापिता के लिए अपशब्द भी कहता है.

एक बार एक आयोजन में उस की पत्नी से मुलाकात हुई थी, तो आंखों में आंसू भर कर उस ने मुझ से यही 2 शब्द कहे थे कि दीदी, काश हम भी आप की तरह खुशहाल होते. हां खुशहाल ही तो थी मैं कि मयंक के चंगुल से बच निकली थी. वाकई अगर ऋ षभ ने न संभाला होता, तो मैं कतराकतरा हो कर कब की टूट कर बिखर गई होती. सोचतेसोचते मेरा मन अतीत की गहराइयों में विचरने लगा…

‘‘भाभी यह रंग आप पर बहुत खिल रहा है,’’ कुछ गहरे गुलाबी रंग की साड़ी पहन कर घर के बाहर सब्जी खरीदते समय किसी ने मुझे पीछे से आवाज दी. हम नएनए ही शिफ्ट हुए थे. मयंक हमारे पड़ोसी का लड़का था. 23-24 की उम्र में उस का शारीरिक सौष्ठव कमाल का था.

जी थैंक्स, कह कर मैं अपनी ओर एकटक निहारते मयंक को देख थोड़ी असहज हो गई. मयंक ने कहना जारी रखा, ‘‘सच कुछ लोगों को कुदरत ने फुरसत में बनाया होता है और आप उन में से एक हो?’’

‘‘यह कुछ ज्यादा नहीं हो गया क्या?’’ मैं कहते हुए हंस दी. अंदर आ कर खुद को शीशे में निहारते हुए मैं खुद भी बुदबुदा उठी कि सच में कुदरत ने मुझे फुरसत में बनाया है. दूध सी मेरी काया और उस पर तीखे नैननक्श मेरी सुंदरता में चार चांद लगाते हैं. उस पर कपड़ों का मेरा चुनाव लोगों के बीच मुझे चर्चा का विषय बना देता था.

वैसे तो ऐसी तारीफें सुनने की मुझे आदत सी पड़ गई थी, लेकिन मयंक द्वारा की गई तारीफ से मुझ में एक अजीब सी सिहरन दौड़ गई. उस का मेरी आंखों में गहरे झांक कर देखना फिर अर्थपूर्ण तरीके से मुसकराना मुझे अच्छा लगा. सच कहूं तो उस के शब्दों से ज्यादा उस की मोहक मुसकान ने मुझे लुभाया. पड़ोसी होने के नाते गाहेबगाहे उस से मेरी मुलाकात होती रहती थी. उस वक्त खुशी बहुत छोटी थी और मेरे पार्लर के भी ढेर सारे काम होते थे. ऐसे में कभीकभी मैं झुंझला उठती थी. एक दिन मैं ऋषभ से अपनी परेशानी का रोना ले कर बैठी ही थी कि मयंक आ गया. बातों ही बातों में उस ने मुझे मदद की पेशकश की, जिसे मुझ से पहले ऋ षभ ने स्वीकार कर लिया.

अब मयंक तकरीबन रोज मेरे छोटेमोटे कामों में हाथ बंटाने के लिए आने लगा. उस की गाड़ी पर बैठतेउतरते समय जब कभी मेरा हाथ उस से टच होता तो वह बड़ी ही शरारत से मुसकरा उठता. मन ही मन उस की यह शरारत मुझे अच्छी लगती, पर ऊपर से मैं उसे बनावटी गुस्से से देखती तो झट से सौरी बोल कर अपना मुंह घुमा लेता. धीरेधीरे मुझे उस के साथ की आदत पड़ गई.

उधर ऋ षभ की प्राइवेट जौब थी. वे देर रात घर आते थे. कई बार तो उन्हें औफिस के काम से शहर के बाहर भी रहना होता था. वैसे भी ऋ षभ मेरे लिए एक बोरिंग इंसान थे, जिन्हें मेरी खूबसूरती से ज्यादा औफिस की फाइलों से प्यार था. हां, मेरी और खुशी की जरूरतों का वे पूरा ध्यान रखते थे.

पर उम्र का जोश कहें या वक्त की कमजोरी, मेरा चंचल मन इतने भर से संतुष्ट नहीं था या यों कह लें कि मयंक ने किसी शांत झील की तरह पड़ी मेरी सोई हुई कामनाओं को अपने आकर्षण के जादू का पत्थर फेंक जगा दिया था. मयंक की छेड़छाड़, जानेअनजाने उस का छू जाना, उस का जोशीला साथ अब मुझे रोमांचित करने लगा था. मयंक तो पहले से ही बेपरवाह और दुस्साहसी किस्म का इंसान था,

मेरे मौन में उस ने मेरी रंजामंदी शायद महसूस कर ली थी. अब अधिकतर वह मेरे साथ ही रहने लगा.

खुशी को स्कूल छोड़ना व लाना, जब मैं पार्लर में व्यस्त रहूं तो उसे पार्क घुमाना, मेरे पार्लर का सामान लाना, शौपिंग में मेरी मदद करना आदि काम वह खुशीखुशी करता था. ऋ षभ के शहर से बाहर रहने पर भी वह हमारा बहुत खयाल रखता था. मैं उस जगह नई थी और ऋषभ किसी से सीधे मुंह बात भी नहीं करते थे, इसलिए लोगों की निगाहें हमें देख कर भी अनदेखा करती थीं. हालांकि पार्लर में कई महिलाएं हमारे बीच क्या चल रहा है, इस खबर को जानने के लिए उत्सुक नजर आती थीं, लेकिन मैं मस्त हो कर अपना काम करती थी. लेकिन इतना तय था कि मैं और खुशी दोनों ही मयंक के मोहपाश में बंधी जा रही थीं. खुशी तो बच्ची थी पर मैं बड़ी हो कर भी बहुत नादान.

ऐसी ही एक शाम ऋ षभ चेन्नई में थे. मैं और मयंक पार्लर का कुछ सामान लेने गए थे. खुशी को मैं ने ऋ षभ की रिश्ते में लगने वाली एक मौसी (जो हमारे घर के पास ही रहती थीं) के यहां छोड़ दिया था. बाजार से लौटते हुए हमें देर हो चुकी थी. बारिश और हलकी फुहारों ने हमें कुछ भिगो भी दिया था. उस की गाड़ी से उतरते समय तेज ब्रेक लगने के कारण मैं उस से जा चिपकी और मेरे दोनों हाथ उस के कंधों पर जा टिके. वाकई यह बहुत खूबसूरत सुखानुभूति थी, जिस ने मुझे रोमांचित कर दिया. बहरहाल ताला खोल कर हम अंदर आ गए. ‘‘मयंक अब तुम जाओ. काफी देर हो चुकी है. मैं खुशी को ले कर आती हूं,’’ मेरे कहने पर भी वह सोफे पर बैठा रहा.

‘‘अगर रात यहीं रुक जाऊं तो?’’ उस की आंखों में फिर वही शरारत थी. चाह कर भी उसे इनकार न कर सकी. मौसम की खुमारी कहें या गीले तन की खुशबू, हम दोनों ही बहकने लगे. मयंक ने मेरा हाथ खींच कर मुझे सोफे पर बैठा लिया. पूरी रात न मुझे खुशी की याद रही न अपने पत्नीधर्म की.

रात के उस व्यभिचार के बाद भी मैं सुबह बड़े ही सहज भाव से उठी और खुद को तरोताजा महसूस किया. मयंक के साथ ने जैसे जीवन में एक उमंग भर दी थी. उस वक्त मेरे मन में कोई अपराधबोध या आत्मग्लानि नहीं थी. मैं बहुत खुश थी और खुशी को मौसी के घर से यह बहाना कर के ले आई कि रात बहुत हो चुकी थी तो मैं ने आप को डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा. मौसी ने फौरन मेरी बात पर विश्वास भी कर लिया. अपने सभी काम समय पर निबटा कर पार्लर खोलते वक्त मैं यही सोचने लगी कि ऋ षभ तो कल आने वाले हैं यानी आज रात भी… और मैं सुर्ख होने लगी. जल्दी से सारे काम निबटाने के बाद उम्मीद के मुताबिक अंधेरा होते ही मयंक आ गया. खुशी को सुला कर हम दोनों एक बार फिर प्यार में डूब गए. मुझे पता नहीं था कि मेरी यह खुमारी आगे क्या गुल खिलाने वाली है.

जिंदगी की उजली भोर: भाग 3- रूना को जब पता चला समीर का राज?

इस से आगे रूना से सुना नहीं गया. वह लौटी और बिस्तर पर औंधेमुंह जा पड़ी. तकिए में मुंह छिपा कर वह बेआवाज घंटों रोती रही. आखिरी वाक्य ने तो उस का विश्वास ही हिला दिया. समीर ने कहा था, ‘परसों मैं होटल पैरामाउंट में आप से मिलता हूं. वहीं हम आगे की सारी बातें तय कर लेंगे.’

यह जिंदगी का कैसा मोड़ था? हर तरफ अंधेरा और बरबादी. अब क्या होगा? वह लौट कर चाचा के पास भी नहीं जा सकती. न ही इतनी पढ़ीलिखी थी कि वह नौकरी कर लेती और न ही इतनी बहादुर कि अकेले जिंदगी गुजार लेती. उस का हर रास्ता एक अंधी गली की तरह बंद था.

एक दिन पापा की तबीयत खराब होने का फोन आया. दोनों आननफानन गांव पहुंचे. पापा बहुत कमजोर हो गए थे. गांव का डाक्टर उन का इलाज कर रहा था. उन्हें दिल की बीमारी थी. समीर ने तय किया कि दूसरे दिन उन्हें अहमदाबाद ले जाएंगे. अहमदाबाद के डाक्टर से टाइम भी ले लिया. दिनभर दोनों पापा के साथ रहे, हलकीफुलकी बातें करते रहे.

उन की तबीयत काफी अच्छी रही. रूना ने मजेदार परहेजी खाना बनाया. रात को समीर सोने चला गया. रूना पापा के पास बैठी उन से बातें कर रही थी कि एकाएक उन्हें घबराहट होने लगी. सीने में दर्द भी होने लगा. उस का हाथ थाम कर उन्होंने कातर स्वर में कहा, ‘बेटी, जो हमारे सामने होता है वही सच नहीं होता और जो छिपा है उस की भी वजह होती है. मैं तुम से…’ फिर उन की आवाज लड़खड़ाने लगी. उस ने जोर से समीर को आवाज दी, वह दौड़ा आया, दवा दी, उन का सीना सहलाने लगा. फिर उस ने डाक्टर को फोन कर दिया. पापा थोड़ा संभले, धीरेधीरे समीर से कहने लगे, ‘बेटा, सारी जिम्मेदारियां अच्छे से निभाना और तुम मुझे…मुझे…’

बस, उस के बाद वे हमेशा के लिए चुप हो गए. डाक्टर ने आ कर मौत की पुष्टि कर दी. समीर ने बड़े धैर्य से यह गम सहा और सुबह उन के आखिरी सफर की तैयारी शुरू कर दी. बूआ, बेटाबहू के साथ आ गईं. कुछ रिश्तेदार भी आ गए. गांव के लोग भी थे. शाम को पापा को दफना दिया गया. 2 दिन बाद बूआ और रिश्तेदार चले गए. गांव के लोग मौकेमौके से आ जाते. 10 दिन बाद वे दोनों लौट आए.

वक्त गुजरने लगा. अब समीर पहले से ज्यादा उस का खयाल रखता. कभी

चाचाचाची का जिक्र होता तो वह उदास हो जाती. ज्यादा न पढ़ सकने का दुख उसे हमेशा सताता रहता. लेकिन समीर उसे हमेशा समझाता व दिलासा देता. जब कभी वह उस के मांपापा के बारे में जानना चाहती, वह बात बदल देता. बस यह पता चला कि समीर अपने मांबाप की इकलौती औलाद है. 3 साल पहले मां बीमारी से चल बसीं. पढ़ाई अहमदाबाद में और उसे यहीं नौकरी मिल गई. शादी के बाद फ्लैट ले कर यहीं सैट हो गया.

रूना को ज्यादा कुरेदने की आदत न थी. जिंदगी खुशीखुशी बीत रही थी. कभीकभी उसे बच्चे की किलकारी की कमी खलती. वह अकसर सोचती, काश उस के जल्द बच्चा हो जाए तो उस का अकेलापन दूर हो जाएगा. उस की प्यार की तरसी हुई जिंदगी में बच्चा एक खुशी ले कर आएगा. उम्मीद की डोर थामे अपनेआप में मगन, वह इस खुशी का इंतजार कर रही थी.

सीमा ने जो कल बताया कि समीर किसी खूबसूरत औरत के साथ खुशीखुशी शौपिंग कर रहा था, मुंबई के बजाय बड़ौदा में था, उस का सारा सुखचैन एक डर में बदल गया कि कहीं समीर उस खूबसूरत औरत के चक्कर में तो नहीं पड़ गया है. उसे यकीन न था कि समीर जैसा चाहने वाला शौहर ऐसा कर सकता है. सीमा ने उसे समझाया था, अभी कुछ न कहे जब तक परदा रहता है, मर्द घबराता है. बात खुलते ही वह शेर बन जाता है.

समीर दूसरे दिन लौट आया. वही प्यार, वही अपनापन. रूना का उतरा हुआ

चेहरा देख कर वह परेशान हो गया. रूना ने सिरदर्द का बहाना बना कर टाला. रूना बारीकी से समीर की हरकतें देखती पर कहीं कोई बदलाव नहीं. उसे लगता कि समीर की चाहत उजली चांदनी की तरह पाक है, पर ये अंदेशे? बहरहाल, यों ही 1 माह गुजर गया.

एक दिन रात में पता नहीं किस वजह से रूना की आंख खुल गई. समीर बिस्तर पर न था. बालकनी में आहट महसूस हुई. वह चुपचाप परदे के पीछे खड़ी हो गई. वह मोबाइल पर बातें कर रहा था, इधर रूना के कानों में जैसे पिघला सीसा उतर रहा था, ‘आप परेशान न हों, मैं हर हाल में आप के साथ हूं. आप कतई परेशान न हों, यह मेरी जिम्मेदारी है. आप बेहिचक आगे बढ़ें, एक खूबसूरत भविष्य आप की राह देख रहा है. मैं हर अड़चन दूर करूंगा.’

अपनी अपनी खुशियां: शिखा का पति जब घर ले आया अपनी प्रेमिका

‘कौन कहता है कि एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं? आदमी में समझ होनी चाहिए,’ रूपेश ने दिल ही दिल में कहा. फिर उस ने अर्चना के सुंदर मुखड़े की ओर ताका व उस के बाद उस की नजरें अपनी पत्नी शिखा के चेहरे पर पड़ीं. शिखा अपनी प्लेट में धीरेधीरे उंगलियां चला रही थी. अर्चना से रूपेश की मुलाकात अपने एक मित्र के कार्यालय में हुई थी, जो उसे इंतजार करने को कह कर खुद कहीं चला गया था. एकडेढ़ घंटे की बातचीत के बाद अर्चना और रूपेश में इतनी घनिष्ठता हो गई थी कि रूपेश को अर्चना के बगैर रहना कठिन महसूस होने लगा था. कुछ दिनों तक सिनेमाघरों, पार्कों और होटलों में मुलाकातों के बाद रूपेश उसे अपने घर लाने की लालसा को न दबा पाया. शिखा को रूपेश ने जब यह कहा कि वह अर्चना को भी अपने घर में रहने दे तो शिखा पर मानो बिजली गिर पड़ी थी. वह काफी चीखीचिल्लाई थी किंतु रूपेश ने उस को समझाया था कि जब हम अपने हर रिश्तेदार, मित्रों और जानपहचान वालों की खुशियों के लिए सबकुछ करने को तैयार रहते हैं, तब यह कितनी अजीब बात है कि पतिपत्नी, जिन का रिश्ता संसार में सब से बड़ा और गहरा होता है, एकदूसरे की खुशियों का खयाल न रखें.

रूपेश ने शिखा से कहा कि अर्चना पर और घर पर उसे पूरा अधिकार होगा. उस को अपनी हर इच्छा को पूरा करने का अधिकार होगा. बस, वह अर्चना को उस के साथ इस घर में रहने पर आपत्ति न उठाए. पड़ोसियों को वह यही बताए कि अर्चना उस की मामी की या चाची की लड़की है और वह, यहां पर नौकरी करने आई है तथा अब उन लोगों के साथ ही रहेगी. आखिर जब शिखा ने देखा कि रूपेश को समझानेबुझाने का अब कोई फायदा नहीं है तो एक हफ्ते की खींचतान के बाद उस ने रूपेश की इच्छा के आगे सिर झुका दिया. रूपेश के पांव धरती पर न टिकते थे. वह उसी दिन जा कर अर्चना को अपने घर ले आया. पड़ोसियों से कहा गया कि वह शिखा की बहन है. रिश्तेदारों ने आपत्ति उठाई तो रूपेश ने यह कह कर मुंह बंद कर दिया कि जब मियांबीवी राजी तो क्या करेगा काजी. शिखा ने अर्चना का खुले दिल से स्वागत किया. उस के रहने की व्यवस्था रूपेश के कमरे में कर दी गई. अर्चना को नहानेधोने के लिए शिखा स्नानघर में खुद ले गई. अपने हाथों से तौलिया, साबुन, तेल वहां पहुंचाया. बाथरूम स्लीपर खुद अर्चना के पांव के पास रख दिए. रूपेश मानो खुशियों के हिंडोलों में झूल रहा था. नहाने के बाद नाश्ते की मेज पर बड़े आग्रह के साथ शिखा ने अर्चना को खिलायापिलाया. शिखा से ऐसे बरताव की आशा रूपेश को कभी न थी.

रूपेश मन ही मन मुसकरा रहा था और अपने सुंदर जीवन की कल्पना में डूबतैर रहा था. औटोरिकशा की भड़भड़ाहट से उस की कल्पना में सहसा विघ्न पड़ा. औटोरिकशा से एक लंबाचौड़ा खूबसूरत युवक उतरा और ‘हैलो शिखा’ बोलते हुए घर में घुस गया. शिखा एकाएक उस की तरफ बढ़ी. किंतु फिर थोड़ा रुक गई. उस नौजवान ने आगे बढ़ कर शिखा के कंधे पर अपनी बांह रख दी.

‘‘रूपेश भैया, जरा औटोरिकशा से सामान तो उतार लाना,’’ उस नवयुवक ने रूपेश की तरफ मुंह फेर कर कहा. कुछ न समझते हुए भी रूपेश ने औटोरिकशे वाले से उस नवयुवक का सामान अंदर रखवाया और उसे पैसे दे कर चलता किया. शिखा और वह युवक सोफे पर पासपास बैठे बातों में मग्न थे जैसे जिंदगीभर की सारी बातें आज ही खत्म कर के दम लेंगे.

‘‘आप की तारीफ,’’ रूपेश ने शिखा से पूछा. शिखा थोड़ा सा मुसकराई और शर्म से सिमटसिकुड़ गई. फिर उस ने एक बार उस नवयुवक के सुंदर मुखड़े की ओर ताका. ‘‘यह संजय है. तुम्हें शायद याद होगा कि एक बार तुम्हारे बहुत जोर देने पर मैं ने स्वीकार किया था कि शादी से पहले मैं भी किसी से प्यार करती थी. मेरी अधूरी प्रेमकहानी का हीरो यही है.’’ रूपेश को झटका सा लगा. उस की आंखें फैल गईं.

‘‘जब मैं ने अर्चना को साथ रखने की बात सुनी और तुम ने मेरा पूरा हक और मेरी खुशियां मुझे देने का वचन दे दिया, तब मैं ने संजय को अपने साथ रखने का फैसला कर लिया,’’ शिखा ने अपनी आंखों को नचाते हुए कहा, ‘‘अपने मिलनेजुलने वालों से हम यही कहेंगे कि संजय आप के मामाजी, फूफाजी या चाचाजी का बेटा है और यह नौकरी के सिलसिले में यहां आया हुआ है और अब हमारे साथ ही रहेगा.’’ ‘‘अरे, शिखा डार्लिंग, पहले तो मुझे यकीन ही नहीं आया. किंतु जब तुम ने बताया कि तुम लोग एकदूसरे की खुशियों के लिए झूठे रस्मोरिवाज तोड़ रहे हो तब मैं ने उस महान आदमी के दर्शन करने के लिए यहां आने का निश्चय कर ही लिया,’’ संजय बोला.

‘‘अब तुम इन से खुद पूछ लो,’’ शिखा ने संजय की तरफ देखा और फिर वह अपने पति की तरफ घूम गई, ‘‘क्यों जी, है न यही बात? आप मेरी खुशियों के आगे दीवार तो नहीं बनेंगे? प्यार की जिस प्यास से मैं आज तक तड़पती रही हूं, अब उसे बुझाने में आप मुझे पूरा सहयोग देंगे न?’’ ‘‘हांहां.’’ रूपेश आगे कुछ न कह सका.

‘‘डार्लिंग, तुम थकेहारे आए हो. आओ, नहाधो लो ताकि थकावट दूर हो जाए.’’

‘‘स्नानघर किधर है?’’ संजय ने पूछा. ‘‘जाइए जी, इन को स्नानघर बताइए,’’ शिखा ने कहा, ‘‘और हां, यह तौलिया और साबुन वहां रख दीजिएगा.’’ रूपेश ने तौलिया और साबुन हाथ में ले लिया और स्नानघर की ओर मुड़ा. संजय उस के पीछेपीछे चल पड़ा.

‘‘अरे हां, यह बाथरूम स्लीपर भी साथ ले जाइए.’’ शिखा ने संजय का ब्रीफकेस खोल कर उस में से बाथरूम स्लीपर निकाले. संजय बाथरूम से स्लीपर लेने के लिए पलटा.

‘‘अरे, नहीं. आप चलिए. ये ले कर आते हैं.’’ शिखा ने बाथरूम स्लीपर रूपेश की तरफ बढ़ा दिए. रूपेश ने कंधे उचकाए और फिर बाथरूम स्लीपर पकड़ कर आगे बढ़ गया.

स्नानघर से पानी गिरने की आवाज आ रही थी और संजय मग्न हो कर गुनगुना रहा था. ‘‘यह क्या मजाक है?’’ रूपेश ने शिखा से कमरे में लौटते ही कहा.

‘‘कैसा मजाक, क्या आप को संजय का यहां आना अच्छा नहीं लगा?’’ शिखा ने पूछा. ‘‘नहीं, यह बात नहीं, मैं पूछता हूं कि संजय के बाथरूम स्लीपर मुझ से उठवाना क्या तुम्हें शोभा देता है?’’

‘‘डार्लिंग, मैं आप की खुशी के लिए अर्चना बहन की दिल से सेवा कर रही हूं. आप मेरी खुशी के लिए माथे पर बल न डालिए. कहीं ऐसा न हो कि संजय के दिल को चोट पहुंचे. वह बहुत भावुक है,’’ शिखा ने कहा. रूपेश मन ही मन ताव खाए कंधे हिला कर रह गया.

‘‘अब ऐसा करिए, दो?पहर के खाने के लिए कुछ सब्जी वगैरह लेते आइए. आप डब्बों में बंद सब्जी ले आइए.’’ रूपेश ने अर्चना की तरफ देखा.

‘‘यदि अर्चना बहन आराम करना चाहती हैं तो आराम करें या आप के साथ जाना चाहती हैं तो बाजार घूम आएं. मैं रसोई की तैयारी करती हूं.’’ ‘‘नहीं, अर्चना यहीं रहेगी,’’ रूपेश ने जल्दी से कहा.

‘‘क्या आप मुझे संजय के साथ अकेले छोड़ते हुए डरते हैं?’’ शिखा ने तीखी नजरों से रूपेश की तरफ देखा. ‘‘नहीं, मैं ऐसा तंगदिल नहीं हूं. मैं तो इसलिए कह रहा हूं कि यह काम में तुम्हारी मदद करेगी,’’ रूपेश ने जल्दी से कहा और फिर थैला उठा कर बाहर निकल गया.

रूपेश ताव खाते हुए बाजार की ओर जा रहा था. उस के घर में उस की पत्नी उस से किसी के जूते उठवाए, यह कहां तक ठीक था. शिखा ने यदि अर्चना के लिए तौलिया, साबुन, स्लीपर स्नानघर में पहुंचा दिए तो अपनी खुशी से. उस ने उसे मजबूर तो नहीं किया था? संजय को बुलाने से पहले वह उस से पूछ तो लेती, सलाह तो कर लेनी चाहिए थी. और अब नौकर की तरह थैला थमा कर उसे बाजार की ओर ठेल दिया है. यह ठीक है कि शिखा को उस ने घर में पूरा हक देने का वादा जरूर किया था, मगर उसे एकदूसरे की बेइज्जती करने का तो अधिकार नहीं है.

इस की कुछ न कुछ सजा जरूर संजय और शिखा को मिलनी चाहिए. वे दोनों फूड पौयजन से बीमार हो जाएं तो कैसा रहे? रूपेश के दिमाग में एकदम विचार उभरा. हां, यह ठीक रहेगा. उस के कदम एक डिपार्टमैंटल स्टोर की ओर बढ़े.

‘‘आप के यहां कोई ऐसी डब्बाबंद सब्जी है जिस से फूड पौयजन होने का खतरा हो?’’ उस ने सेल्समैन से सीधा सवाल किया. ‘‘क्या मजाक करते हैं, साहब? हमारे यहां तो बिलकुल ताजा स्टौक है,’’ सेल्समैन ने दांत निकालते हुए कहा.

‘‘एकआध डब्बा भी नहीं?’’ ‘‘क्या आप स्वास्थ्य विभाग से आए हैं?’’ सेल्समैन ने सतर्क हो कर पूछा.

‘‘नहीं, डरो नहीं. हां, यह बताओ कि कोई ऐसा डब्बा…’’ ‘‘जी नहीं. हम इमरजैंसी से पहले और इमरजैंसी के बाद भी अच्छा ही माल बेचते रहे हैं,’’ सेल्समैन ने कहा.

‘‘अच्छा, कोई ऐसी दुकान का पता बता दो जहां ऐसी डब्बाबंद सब्जी मिल जाए.’’ अपनी बेइज्जती के बाद की भावना से पागल हो रहे रूपेश ने 500 रुपए का नोट सेल्समैन की तरफ सरकाया. ‘‘क्रांति बाबू, जरा पुलिस को फोन करना. यह पागल आदमी किसी की हत्या करना चाहता है,’’ सेल्समैन ने टैलीफोन के करीब बैठे एक नौजवान से कहा.

पुलिस का नाम सुन कर रूपेश उड़नछू हो गया. 500 रुपए का नोट काउंटर से उठाने की भी उसे सुध न रही, संजय व शिखा को बीमार कर देने का विचार भी उस के दिमाग से उड़ गया. अब तो वह उन दोनों की सेहत ठीक रहने की ख्वाहिश कर रहा था. उस के डरे हुए मस्तिष्क में यह विचार उभरा कि संजय व शिखा को कुछ हो गया तो सेल्समैन की गवाही पर वह पकड़ लिया जाएगा. रात को खाने के बाद कौफी का दौर चला. वे चारों बैठक में बैठे थे. संजय अपने चुटकुलों से सब को हंसाता रहा.

‘‘क्या बात है, डार्लिंग, तुम कुछ नहीं बोल रहे हो?’’ अर्चना ने रूपेश के करीब सरकते हुए कहा. ‘‘मैं तो कहता हूं, रूपेशजी, यदि सब लोग आप की तरह समझदार हो जाएं तो प्रेम के कारण होने वाली सारी समस्याएं समाप्त हो सकती हैं,’’ संजय ने कहा.

‘‘और प्रेम में निराश हो कर आत्महत्याएं भी कोई न करे,’’ अर्चना बोली. ‘‘मानव जाति को कितना अच्छा सुझाव दिया है रूपेशजी ने,’’ शिखा

ने कहा. ‘‘मगर पहले तो तुम अडि़यल घोड़े की तरह दुलत्तियां झाड़ रही थीं, मरनेमारने की धमकियां दे रही थीं,’’ रूपेश ने शिखा की तरफ देख कर कहा.

‘‘तब मैं तुम्हारे दिल की गहराई नाप नहीं पाई थी.’’ ‘‘अच्छा भई, तुम दिल की गहराइयां नापो. हम तो नींद की गहराइयों में उतरने चले,’’ संजय उठ खड़ा हुआ, ‘‘शिखा डार्लिंग, सोने का कमरा किधर है?’’

‘‘वह बाएं कोने वाला इन का है और दाएं वाला हमारा.’’ ‘‘अच्छा भई, गुडनाइट,’’ स्लीपिंग गाउन सरकाता हुआ संजय दाईं ओर के सोने के कमरे की ओर बढ़ गया.

संजय के चले जाने के बाद कुछ देर तक अर्चना अंगरेजी पत्रिका के पन्ने पलटती रही. फिर वह भी अंगड़ाई ले कर उठ खड़ी हुई.

‘‘सोना नहीं है, रूपेश डार्लिंग?’’ ‘‘तुम चलो, मैं थोड़ी देर और बैठूंगा.’’ रूपेश ने अनमने स्वर में कहा.

‘‘ओके, गुडनाइट.’’ ‘‘गुडनाइट,’’ रूपेश कुछ नहीं बोला लेकिन शिखा ने स्वेटर पर सलाई चलाते हुए कहा.

फिर बैठक में खामोशी छा गई. घड़ी की टिकटिक और शिखा की सलाइयों की टकराहट इस खामोशी को तोड़ देती. रूपेश अनमना सा कुरसी पर बैठा रहा.

‘‘अब सो जाइए, 1 बजने को है, मुझे तो नींद आ रही है,’’ शिखा ऊन के गोलों में सलाइयां खोंसती हुई बोली. शिखा ने स्वेटर और ऊन के गोलों को कारनेस पर टिका कर एक अंगड़ाई ली, रूपेश की तरफ देखा और और फिर पलट पड़ी दाएं कोने वाले सोने के कमरे की ओर.

‘‘रुक जाओ, शिखा,’’ रूपेश तड़प कर शिखा और कमरे के दरवाजे के बीच बांहें फैला कर खड़ा हो गया, ‘‘बेशर्मी की भी हद होती है.’’ ‘‘बेशर्मी, कैसी बेशर्मी? रूपेश डार्लिंग, तुम ने मुझे जो हक दिया है मैं उसी का इस्तेमाल कर रही हूं. हट जाओ, मेरी वर्षों से मुरझाई हुई खुशियों के बीच दीवार न बनो. मुझे खुशियों का रास्ता दिखा कर राह में कांटे न बिछाओ.’’

‘‘अपने पति के सामने ऐसा कदम उठाते हुए तुझे डर नहीं लगता? शर्म नहीं आती?’’ ‘‘डर, शर्म आप से? क्यों? यह तो बराबरी का सौदा है. रात काफी हो चुकी है, सो जाइए. आप का कमरा उधर है,’’ शिखा ने बाएं कोने में कमरे की ओर इशारा किया, ‘‘छोडि़ए, मेरा रास्ता.’’

‘‘बेशर्म, मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि तुम इतनी गिर सकती हो. तुम्हारी इस हरकत से एक पति के दिल पर क्या गुजर सकती है, यह तुम ने कभी सोचा है?’’ रूपेश की आंखें क्रोध से जल उठीं. ‘‘मर्द जब दूसरी पत्नी ब्याह कर लाता है तब क्या अपनी पहली पत्नी के दिल में उठने वाली चीखों की शहनाइयों के शोर को सुनता है? रातरातभर कोठों पर ऐश की शमाएं जलाने वाले पति कभी अपनी पत्नी के दिल के अंधेरों में झांक कर देखते हैं? हर जवान लड़की पर लार टपकाने वाला पति कभी यह भी सोचता है कि उस की पत्नी के गालों पर आंसू के निशान क्यों बने रहते हैं? आप ने जब अर्चना को लाने की तजवीज पेश की थी, तब मैं भी रोईचिल्लाई थी. अब मैं संजय के पास जा रही हूं तो आप क्यों चीख उठे?’’

‘‘मैं उस का सिर तोड़ दूंगा,’’ रूपेश कमरे की तरफ बढ़ा. ‘‘अरे, रुको तो,’’ शिखा ने उस की बांह पकड़ ली.

‘‘मैं कुछ सुनना नहीं चाहता. उसे इसी वक्त चलता कर दो.’’ ‘‘और अर्चना?’’

‘‘वह भी जाएगी. मेरा फैसला गलत था. मैं अंधे जज्बात की धारा में बह गया था,’’ रूपेश ने हथियार डाल दिए. ‘‘अंधे जज्बात नहीं, वासना ने तुम्हें अंधा कर दिया था. रूपेश भैया,’’ संजय पूरे कपड़े पहन अतिथिकक्ष के दरवाजे पर खड़ा था.

रूपेश कभी सोने के कमरे की तरफ और कभी अतिथिकक्ष के दरवाजे पर खड़े संजय की ओर देख रहा था. ‘‘जी हां, आप का खयाल ठीक है. मैं सोने के कमरे में स्लीपिंग सूट पहन कर गया जरूर था. किंतु दूसरे दरवाजे से बाहर निकल गया था,’’ संजय ने कहा, ‘‘आप को फिर कोई शो करना हो तो याद कीजिएगा. यह रहा मेरा कार्ड.’’

‘नितिन…निर्देशक तथा स्टेज आर्टिस्ट,’ रूपेश कार्ड की पहली पंक्ति पर अटक गया. ‘‘आगे हमारे ड्रामा क्लब का पता भी लिखा है. नोट कर लीजिए,’’ नितिन मुसकरा दिया.

रूपेश मुंह फाड़ कभी कार्ड को तो कभी उस युवक को देख रहा था, जो संजय से नितिन बन गया था.

‘‘यह नितिन है, हमारे शहर के माने हुए कलाकार और भैया के जिगरी दोस्त. जब मैं ने भैया को आप की अर्चना को साथ रखने की जिद के बारे में लिखा तब उन्होंने नितिन की सहायता से यह सारा नाटक रचवाया,’’ शिखा ने सारी बात समझाते हुए कहा. ‘‘ओह,’’ रूपेश ने एक लंबी सांस ली और धम से सोफे पर बैठ गया.

जिंदगी की उजली भोर: भाग 2- रूना को जब पता चला समीर का राज?

सुबह वह तेज बुखार से तय रही थी. समीर ने परेशान हो कर छुट्टी के लिए औफिस फोन किया.  उसे डाक्टर के पास ले गया. दिनभर उस की खिदमत करता रहा. बुखार कम होने पर समीर ने खिचड़ी बना कर उसे खिलाई. उस की चाहत व फिक्र देख कर रूना खुश हो गई पर रात की बात याद आते ही उस का दिल डूबने लगता.

दूसरे दिन तबीयत ठीक थी. समीर औफिस चला गया. शाम होने से पहले उस ने एक फैसला कर लिया, घुटघुट कर मरने से बेहतर है सच सामने आ जाए, इस पार या उस पार. अगर दुख  को उस की आखिरी हद तक जा कर झेला जाए तो तकलीफ का एहसास कम हो जाता है. डर के साए में जीने से मौत बेहतर है.

उस दिन समीर औफिस से जल्दी आ गया. चाय वगैरह पी कर, फ्रैश हुआ. वह बाहर जाने को निकलने लगा तो रूना तन कर उस के सामने खड़ी हो गई. उस की आंखों में निश्चय की ऐसी चमक थी कि समीर की निगाहें झुक गईं, ‘‘समीर, मैं आप के साथ चलूंगी उन से मिलने,’’ उस के शब्द चट्टान की मजबूती लिए हुए थे, ‘‘मैं कोई बहाना नहीं सुनूंगी,’’ उस ने आगे कहा.

समीर को अंदाजा हो गया, आंधी अब नहीं रोकी जा सकती. शायद, उस के बाद सुकून हो जाए. समीर ने निर्णयात्मक लहजे में कहा, ‘‘चलो.’’

रास्ता खामोशी से कटा. दोनों अपनीअपनी सोचों में गुम थे. होटल पहुंच कर कैबिन में दाखिल हुए. सामने एक खूबसूरत औरत, एक बच्ची को गोद में लिए बैठी थी. रूना के दिल की धड़कनें इतनी बढ़ गईं कि  उसे लगा, दिल सीना फाड़ कर बाहर आ जाएगा, गला बुरी तरह सूख रहा था. रूना को साथ देख कर उस के चेहरे पर घबराहट झलक उठी. समीर ने स्थिर स्वर में कहा, ‘‘रोशनी, इन से मिलो. ये हैं रूना, मेरी बीवी. और रूना, ये हैं रोशनी, मेरी मां.’’

रूना को सारी दुनिया घूमती हुई लगी. रोशनी ने आगे बढ़ कर उस के सिर पर हाथ रखा. रूना शर्म और पछतावे से गली जा रही थी. कौफी आतेआते उस ने अपनेआप को संभाल लिया. बच्ची बड़े मजे से समीर की गोद में बैठी थी. समीर ने अदब से पूछा, ‘‘आप कब जाना

चाहती हैं?’’

‘‘परसों सुबह.’’

‘‘कल शाम मैं और रूना आ कर बच्ची को अपने साथ ले जाएंगे,’’ समीर ने कहा.

वापसी का सफर दोनों ने खामोशी से तय किया. रूना संतुष्ट थी कि उस ने समीर पर कोई गलत इल्जाम नहीं लगाया था. अगर उस ने इस बात का बतंगड़ बनाया होता तो वह अपनी ही नजरों में गिर जाती.

घर पहुंच कर समीर ने उस का हाथ थामा और धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘रूना, मैं

बेहद खुश हूं कि तुम ने मुझे गलत नहीं समझा. मैं खुद बड़ी उलझन में था. अपने बड़ों के ऐब खोलना बड़ी हिम्मत का काम है. मैं चाह कर भी तुम्हें बता नहीं सका. करीब 4 साल पहले, पापा ने रोशनी को किसी प्रोग्राम में गाते सुना था. धीरेधीरे उन के रिश्ते गहराने लगे. उस वक्त मैं अहमदाबाद में एमबीए कर रहा था.

‘‘मेरी अम्मी हार्टपेशैंट थीं. अकसर ही बीमार रहतीं. पापा खुद को अकेला महसूस करते. घर का सारा काम हमारा पुराना नौकर बाबू ही करता. ऐसे में पापा की रोशनी से मुलाकात, फिर गहरे रिश्ते बने. रोशनी अकेली थी. रिश्तों और प्यार को तरसी हुई लड़की थी. बात शादी पर जा कर खत्म हुई. अम्मी एकदम से टूट गईं. वैसे पापा ने रोशनी को अलग घर में रखा था. लेकिन दुख को दूरी और दरवाजे कहां रोक पाते हैं.

‘‘जब मुझे पता लगा, मैं गांव गया. बूआ भी आईं, काफी बहस हुई. पापा ने अपना पक्ष रखा, बीवी की बीमारी, उन के कहीं न आनेजाने की वजह से वे भी बहुत अकेले हो गए थे. जिंदगी बेरंग और वीरान लगती थी. एक तरह से अम्मी का साथ न के बराबर था. ऐसे में रोशनी से हुई उन की मुलाकात.

‘‘जरूरत और हालात ने दोनों को करीब कर दिया. उस का भी कोई न था, परेशान थी. वह प्रोग्राम में गाने गा कर जिंदगी बसर कर रही थी. दोनों की उम्र में फर्क होने के बाद भी आपस में

अच्छा तालमेल हो गया तो शादी ही बेहतर थी.

‘‘पापा अपनी जगह सही थे. यह भी ठीक था कि बीमारी से अम्मी चिड़चिड़ी और रूखी हो गई थीं. वे किसी से मिलना नहीं चाहती थीं. पर अम्मी का गम भी ठीक था. जो हो गया उसे तो निभाना था. बूआ का बेटा बाहर पढ़ने गया था. बूआ अकसर अम्मी के पास रहतीं. पापा दोनों घरों का बराबरी से खयाल रखते. लेकिन अम्मी अंदर ही अंदर घुल रही थीं. जल्दी ही वे सारे दुखों से छुटकारा पा गईं. मैं एक हफ्ता रुक कर वापस आ गया.

‘‘पापा रोशनी को घर ले आए. बूआ और गांव के मिलने वाले पापा से नाराज से थे. मगर रोशनी ने पापा व घर को अच्छे से संभाल लिया. वह मेरा भी बहुत खयाल रखती. रोशनी बहुत कम बोलती. एक अनकही उदासी उस की आंखों में तैरती रहती. मुझ से उम्र में वह 5-6 साल ही बड़ी होगी पर उस में शोखी व चंचलता जरा भी न थी. इसी तरह 1 साल गुजर गया.

‘‘एमबीए के बाद मुझे अहमदाबाद में अच्छी नौकरी मिल गई. अकसर गांव चला जाता. एक बार मैं ने रोशनी में बड़ा फर्क देखा, वह खूब हंसती, मुसकराती, गुनगुनाती, जैसे घर में रौनक उतर आई. पापा भी खूब खुश दिखते. फिर मैं 3-4 माह गांव न जा सका. फिर तुम से शादी तय हो गई. मैं शादी के लिए गांव गया. पर बहुत सन्नाटा था. बस, पापा और बाबू ही घर पर थे. पापा बेहद मायूस टूटेबिखरे से थे. घर में रोशनी नहीं थी. दिनभर पापा चुपचुप रहे. रात जब मेरे पास बैठे तो उदासी से बोले, ‘रोशनी चली गई. मैं ने ही उसे जाने दिया. वह और उस का सहपाठी अजहर बहुत पहले से एकदूसरे को चाहते थे. पर अजहर के मांबाप उस से शादी करने के लिए नहीं माने. वह नाराज हो कर बाहर चला गया. आखिर मांबाप इकलौते बेटे की जुदाई सहतेसहते थक गए. उसे वापस बुलाया और रोशनी से शादी

पर राजी हो गए. अजहर आ कर मुझ से मिला, सारी बात बताई. मैं रोशनी की खुशी चाहता था. सारी जिंदगी उसे बांध कर रखने का कोई फायदा न था.

‘‘‘मुझे पता था कि उस ने अकेलेपन और एक सहारा  पाने की मजबूरी में मुझ से शादी की थी. मुझ से शादी के बाद भी वह बुझीबुझी ही रहती थी. बस, जब अजहर ने उसे आने के बारे में बताया तब ही उस के चेहरे पर हंसी खिल उठी. फिर मेरी व उस की उम्र में फर्क भी मुझे ये फैसला करने पर मजबूर कर रहा था. मैं ने उसे अजहर के साथ जाने दिया. बस, एक दुख है, उस की कोख में मेरा अंश पल रहा था. मैं ने उस से वादा किया, बच्चा होने के बाद मैं तलाक दे दूंगा. फिर वह अजहर से शादी कर ले. उसे यह यकीन दिलाया कि बच्चे की पूरी जिम्मेदारी मैं उठाऊंगा. अब बेटा, यह जिम्मेदारी मैं तुम्हें सौंपता हूं कि रोशनी की शादी के पहले तुम उस से बच्चा ले लेना और उस की परवरिश तुम ही करना.  यह मेरी ख्वाहिश और इल्तजा है.’

‘‘रूना, मैं ने उन्हें वचन दिया था कि यह जिम्मेदारी मैं जरूर पूरी

करूंगा. अभी तक अजहर ने रोशनी को अलग फ्लैट में बड़ौदा में रखा है. वहीं उस ने बच्ची को जन्म दिया. पापा ने तलाक दे दिया. बस, वह बच्ची के जरा बड़े होने का इंतजार कर रही है ताकि वह बच्ची को हमें सौंप कर अजहर से शादी कर के नई जिंदगी शुरू कर सके. मैं बच्ची के सिलसिले में ही रोशनी से मिलने जाता था. उस की जरूरत का सामान दिला देता था. अजहर ने अपने घर में रोशनी की शादी और बच्ची के बारे में नहीं बताया है. जब हम इस बच्ची को ले आएंगे तो वे दोनों नवसारी जा कर शादी के बंधन में बंध जाएंगे.’’

यह सब सुन कर वह खुशी से भर उठी और इतना समझदार और जिम्मेदार पति पा कर

उसे बहुत गर्व हुआ. उसे याद आया, सीमा ने उसे बताया था कि बड़ौदा मौल में समीर एक खूबसूरत औरत के साथ था. तो वह औरत रोशनी थी. अच्छा हुआ, उस ने इस बात को ले कर कोई बवाल नहीं मचाया.

समीर ने रूना का हाथ थाम कर प्यार से कहा, ‘‘रूना, मेरी इच्छा है कि हम रोशनी की बच्ची को अपने पास ला कर अपनी बेटी बना कर रखेंगे, इस में तुम्हारी इजाजत की जरूरत है.’’ समीर ने बड़ी उम्मीदभरी नजरों से रूना को देखा, रूना ने मुसकरा कर कहा, ‘‘मां खोने का दुख मैं उठा चुकी हूं. मैं बच्ची को ला कर बहुत प्यार दूंगी, अपनी बेटी बना कर रखूंगी. मैं बहुत खुशनसीब हूं कि मुझे आप जैसा शौहर मिला. आप एक बेमिसाल बेटे, एक चाहने वाले शौहर और एक जिम्मेदार भाई हैं. हम कल ही जा कर बच्ची को ले आएंगे. मैं उस का नाम ‘सवेरा’ रखूंगी क्योंकि वह हमारी जिंदगी में एक उजली भोर की तरह आई है.’’

समीर ने खुश हो कर रूना का माथा चूम लिया. उसे सुकून महसूस हुआ कि उस ने पापा से किया वादा पूरा किया. समीर और रूना के चेहरे आने वाली खुशी के खयाल से दमक रहे थे.

चालीसवां बर्थडे: जब शिल्पा की आंखों से हटा चकाचौंध का परदा

औफिस में रोजी पीछे की सीट से उठ कर आगे शिल्पा की बगल में आ कर बैठ गई. बोली, ‘‘शिल्पा सुनो तुम्हारा 40वां बर्थडे आ रहा. क्या प्लान किया है? हमें भी तो कुछ बताओ?’’

‘‘रोजी, तुम देखना पार्टी को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ूंगी. यह सबकुछ डिफरैंट लुक स्टाइल में होगा,’’ अल्पना धीरे से बोली, ‘‘हम सब ने 1-1 कर के 4 दशक पार कर ही लिए अब तुम ही बची हो, हा… हा… हा…’’

औफिस से निकल कर शिल्पा कार से घर चल दी. घर में घुसी तो किचन से चाय उबलने की सुगंध से उस के पैर किचन की तरफ बढ़ गए. वहां औफिस से आ कर श्रीमानजी किचन में चाय बना रहे थे.

शिल्पा को किचन में आया देख कर बोले, ‘‘शिल्पा चाय पीओगी.’’

‘‘श्योर हाफ कप मेरे लिए भी बना लेना, मैं चेंज कर के आती हूं.’’

स्वप्निल ने चाय बन जाने पर 2 कप में डाल बालकनी में ले आया. सोचने लगा आज तो शिल्पा कुछ ज्यादा ही खुश नजर आ रही है. शिल्पा कहीं कोई न कोई डिमांड न जरूर करती है. अकसर जब वह ज्यादा खुश दिखाई देती है तो… स्वप्निल ने बालों को पीछे की ओर झटक कर चाय का एक घूंट पीया. तब तक शिल्पा भी आ गई. स्वप्निल के हाथ से कप ले कर निगाहें सड़क पर जमा दीं. आतेजाते लोगों को देखने लगी.

‘‘शिल्पा क्या सोच रही हो?’’

‘‘स्वप्निल मेरा बर्थडे आने वाला है. इसे में औफिस की दोस्तों के साथ मिल कर यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती हूं.’’

‘‘मैं अब समझ, तुम इतनी खुश क्यों दिखाई दे रही हो. बेगम साहिबा आगे कहो मैं क्या खिदमत कर सकता हूं?’’

‘‘स्वप्निल मुझे 50 हजार रुपये चाहिए.’’

‘‘शिल्पा तुम सबकुछ तो जानती हो अभी फ्लैट की पहली किस्त जमा करनी है. अगर नहीं की तो फ्लैट नहीं मिलेगा.’’

‘‘स्वप्निल मैं अपनी दोस्तों को कह चुकी हूं सब मेरा मजाक बनाएंगी, सब से कह चुकी हूं कि बर्थडे पर ग्रैंड सैलिब्रेशन करूंगी उस का क्या?’’

‘‘शिल्पा अभी तक तो तुम ने कभी बाहर बर्थडे नहीं मनाया. घर में ही सादगी से हम मना लेते थे.’’

‘‘तब मैं हाउसवाइफ थी अब मैं भी वर्किंग वूमन हूं.’’

‘‘यह क्या नया शौक लगा लिया है?’’

‘‘इस में अनकौमन क्या है? सभी तो मना रहे हैं? इस औफिस में सभी लोग अपना बर्थडे बाहर ही सैलिब्रेट करते हैं. हमारे औफिस में काम करने वाली सभी लेडीज ने अपने 40वें बर्थडे की पार्टी को बहुत ही खूबसूरत तरीके से मनाया है. अब मेरी बारी है, अपने लिए ड्रैस, खानेपीने, डैकोरेशन और रिटर्न गिफ्ट भी देना होगा. इन के लिए पैसे तो चाहिए ही.’’

‘‘शिल्पा मैं तुम्हें इतने पैसे नहीं दे सकता. तुम अपने पैसे निकाल लो.’’

‘‘क्या कहा?’’

‘‘शिल्पा तुम तो खुद कमा रही हो.’’

‘‘अभीअभी तो नौकरी जौइन की है. मेरे पास पैसे नहीं हैं,’’ की शिल्पा पैर पटकती हुई बैडरूम में चली गई.

‘‘बैड पर लेट कर रोना शुरू कर दिया कि  बुद्धिजीवियों के अंदर बुद्धि का इतना अभाव… स्वप्निल को अपनी जेब कटने के पूरे आसार नजर आ रहे थे. जैसाकि हर बार होता आया है.

‘‘चलो बेटा उठो चल कर मनाने वरना रोटी नहीं मिलने की,’’ स्वप्निल बड़बड़ाया.

शिल्पा का रोना लाख समझने पर भी रुक ही नहीं रहा था. कह रही थी, ‘‘स्वप्निल, क्या मुझे जन्मदिन मनाने का भी अधिकार नहीं है?’’

‘‘अधिकार है, मैं भी मानता हूं, लेकिन फुजूलखर्ची से बचना चाहिए. अपनी जेब को भी टटोल कर देख लेना चाहिए. अमीरों के लिए जो एक मामूली खर्च है वहीं हमारे लिए खर्च करने पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा. इतनी नादान तो तुम हो नहीं कि बात को समझ न सको.’’

‘‘स्वप्निल मैं ने अपनी दोस्तों से वादा किया है कि बहुत अच्छी पार्टी का इंतजाम करूंगी. मैं उन्हें क्या जवाब दूंगी?’’

‘‘मेरी और तुम्हारी तनख्वाह मिला कर भी घर चलाना मुश्किल होता है. यह अमीरों के साथ दोस्ती कर के इधर घर के हालात पर तुम्हारा ध्यान ही नहीं है. फिर भी मैं दे दूंगा क्व50 हजार अब खुश हो जाओ,’’ स्वप्निल ने शिल्पा के आगे सेरैंडर करते हुए कहा.

‘‘अभी तो कह रहे थे आप के पास पैसे नहीं हैं. अब कहां से आए?’’

‘‘वाकई मेरे पास पैसे नहीं हैं. लेकिन तुम चिंता मत करो मैं इंतजाम करता हूं.’’

‘‘पहले मेरे अकाउंट में पैसे भेजो तब मैं मानूंगी.’’

‘‘कह तो दिया मेरा विश्वास करो. अब उठो और चल कर खाना बनाओ बहुत भूख लगी है.’’

शिल्पा बेमन से उठी और किचन में आई. रात काफी हो चुकी थी इसलिए उस ने खाने में पुलाव बना लिया. प्लेट परोस कर टेबल पर रख कर फिर से पलंग पर लेट गई. स्वप्निल डाइनिंगटेबल पर एक ही प्लेट में पुलाव देख कर समझ गया शिल्पा अभी भी खफा है. प्लेट उठा कर अंदर ही ले आया. सोचा इसी में से आधाआधा खा लेंगे पर यह क्या शिल्पा सो चुकी थी.

स्वप्निल का भी मन नहीं किया खाने का. प्लेट वापस डाइनिंगटेबल पर ढक कर रख कर वह खुद भी सो गया.

सुबह स्वप्निल जागा तो उस के मस्तिष्क में उथलपुथल मची हुई थी कि पैसे कहां से लाऊं वरना शिल्पा तो मुझे ताने देदे कर परेशान कर  देगी. कैसे भी कर के मुझे पैसों का इंतजाम करना होगा. रमेशजी ने प्लौट के लिए जो पैसे मुझे जमा करने के लिए दिए हैं मैं उन्हीं को शिल्पा के अकाउंट में ट्रांसफर कर देता हूं. पैसे अरेंज होने पर जमा करा दूंगा. सोचते हुए वह औफिस जाने के लिए तैयार हो गया.

देखा शिल्पा तो अभी तक उठी नहीं थी शायद आज औफिस नहीं जाएगी. हो सकता है ऐसा जानबू?ा कर रही हो. स्वप्निल ने शिल्पा को जगाना उचित नहीं समझ. बैग ले कर औफिस के लिए निकल पड़ा.

स्वप्निल ने औफिस पहुंच कर आज कैंटीन में ही नाश्ता किया और औफिस में अपनी टेबल पर आ कर काम निबटाने लगा. लेकिन मन आज किसी काम में नहीं लग रहा था. पता नहीं शिल्पा को क्यों लगता है जैसे उस के पास पैसों का पेड़ लगा है. स्वप्निल ने शिल्पा के खाते में क्व50 हजार ट्रांसफर कर दिए.

कुछ ही देर बाद शिल्पा का मैसेज आया, ‘‘थैंक्यू डार्लिंग, 2 ही दिन बचे हैं तैयारी के.

आज औफिस से लौटते हुए शाम को शौपिंग चलते हैं.’’

स्वप्निल ने जवाब में लिख दिया, ‘‘मुझे आने में देरी होगी तुम खुद ही चली जाना,’’ शिल्पा को इसी पल का इंतजार था.

पैसे मिलते ही जैसे पंख लग गए थे. उस ने सब से पहले रोजी को फोन पर साथ चलने के लिए तैयार होने के लिए कहा. फिर खुद भी झटपट तैयार हो कर निकल पड़ी. रास्ते में से रोजी को पिक किया और दोनों सहेलियां शहर के एक बड़े से मौल में पहुंच कर शौपिंग करने लगी और वहीं रैस्टोरैंट में खाया. शिल्पा स्वप्निल के लिए खाना पैक करवा ही रही थी, ‘‘रोजी ने कहा शिल्पा मेरे पति के लिए भी चाइनीज पैक करा देना. अब घर जा कर मेरी खाना बनाने की हिम्मत नहीं है.’’

‘‘ओके डियर अभी करवाती हूं.’’

कांउटर पर पेमैंट कर दोनों सहेलियां पैकेट ले कर कार पार्किंग की ओर चल पड़ीं.

गाड़ी में बैठ कर सीट बैल्ट बांधते हुए रोजी से रहा नहीं गया. बोली, ‘‘शिल्पा, यार

तुम ने तो पति पर जादू कर रखा है. आज तो जबरदस्त शौपिंग की है. खाना भी मजेदार था.’’

‘‘रोजी लेकिन अभी पार्टी को 2 दिन का समय है, तब तक सरप्राइज को ओपन मत करना वरना सारा मजा किरकिरा हो जाएगा.’’

‘‘इस की फिकर मत करो, बस तुम ऐंजौय करो.’’

स्वप्निल ने शिल्पा को रमेशजी के पैसे ट्रांसफर कर तो दिए लेकिन 3 दिन में क्व50 हजार का इंतजाम करना ही होगा वरना इतनी बड़ी रकम कहां से लाऊंगा, उसे अपने सिर पर तलवार लटकी दिखाई दे रही थी. उस का मन बारबार मनोतियां मान रहा था. पैसों का इंतजाम कैसे किया जाए इस के लिए पूरे हाथपैर मारे लेकिन उधार भी लोग कब तक देंगे. यह तो उस का आएदिन का काम हो गया था.

शिल्पा को समझने की कोशिश में हर बार नाकामयाबी ही मिलती थी. घर का माहौल बिगड़ा ही रहता. यह दर्द न सहने के कारण इधरउधर से ले कर हर महीने काम चला रहा था.

मगर इस बार रकम बड़ी थी और वह भी दूसरे की अमानत. अभी वह अपना काम कर के निकलने ही वाला था कि रमेशजी सामने खड़े थे. उन्हें इस तरह अचानक आया देख कर स्वप्निल  घबरा गया जैसे उस की चोरी पकड़ी गई हो. अपने को संभालते हुए उन्हें बैठने के लिए कह कर अपने माथे पर आए पसीने को पोंछने लगा. बोला, ‘‘रमेशजी, इस वक्त कैसे आना हुआ?’’

‘‘अरे भाई क्या बताऊं मेरी पत्नी की तबीयत अचानक खराब हो गई है. डाक्टर ने कहा है औपरेशन होगा. उस के डाक्टर ने कई टैस्ट लिखे हैं. इलाज के लिए पैसों की जरूरत है. मैं अपने पैसे जो प्लौट के लिए आप को जमा कराने के लिए दिए थे उन्हें वापस दे दो. मैं प्लौट?की किस्त अगले महीने जमा करा दूंगा.’’

स्वप्निल ने कभी सोचा भी नहीं था कि इस तरह से वह बेबस हो जाएगा, लेकिन वह पैसा तो रमेशजी का अपना है. उन का मांगना भी वाजिब है. स्वप्निल के आगे बस एक ही औप्शन था कि वह अपने फ्लैट के लिए रखे गए पैसों में से रमेशजी के पैसे दे दे. खुद अपने घर का सपना हमेशा के लिए अपने सीने में दफन कर दे. स्वप्निल ने कांपती हुई उंगलियों से

50 हजार रुपये रमेशजी के एकाउंट में ट्रांसफर कर दिए. रमेशजी धन्यवाद कह कर चले गए.

मगर स्वप्निल वहीं कुरसी पर निढाल हो कर बैठा गया. उस की घर जाने की इच्छा ही मर गई थी. आज मां बहुत याद आ रही थी. मां बाबा का कितना खयाल रखतीं. जरूरत पड़ने पर अपनी बचत के पैसों से कितनी ही बार बाबा को मेरी फीस भरने के लिए पैसे दिए. बहुत ही सुल?ा हुई सरल स्वभाव की महिला थीं. किसी भी प्रकार के आडंबर से दूर सरल जीवन बिताया. बाबा से कभी फरमाइश नहीं की उन्होंने.

चपरासी औफिस कैबिन में स्वप्निल को इस तरह सोच में डूबा हुआ देख कर ठिठक गया. पूछा, ‘‘साहब तबीयत खराब है क्या?’’

‘‘अरे नहीं,’’ स्वप्निल हड़बड़ा कर उठा और घर की तरफ लुटे हुए इंसान की तरह पैरों को घसीटता हुआ चल पड़ा.

स्वप्निल जब घर के अंदर दाखिल हुआ उस का शरीर निढाल हो चुका था. आराम करने के लिए बैडरूम में दाखिल हुआ तो देखा शिल्पा का शौपिंग का सामान बैड पर बेतरतीब बिखरा था. आज न जाने क्यों उसे शिल्पा पर क्रोध आ गया और वह चीख उठा, ‘‘शिल्पा ये सब क्या है? थका हुआ औफिस से आया हूं. तुम ने एक गिलास पानी तक नहीं पूछा. बैठ कर मोबाइल पर चैट कर रही हो.’’

स्वप्निल का यह रूप पहली बार देखा शिल्पा कुछ सहम सी गई.

‘‘शिल्पा खाने में क्या बनाया है?’’

‘‘मैं तो रैस्टोरैंट से ही खाना खा कर आई

हूं. आप के लिए रैस्टोरैंट से पैक करा कर लाई हूं.’’

‘‘हद हो गई है. यह लगभग हर दूसरे दिन की कहानी हो गई है. मैं रोजरोज यह रैस्टोरैंट का खाना खा कर तंग आ गया हूं. मेरी सेहत भी बिगड़ने लगी है परंतु तुम्हें क्या फर्क पड़ता है. यह खाना मुझे नहीं खाना है. कुछ और बना दो.’’

‘‘अब मुझ से नहीं बनेगा.’’

और कोई दिन होता तो स्वप्निल खुद ही बना लेता लेकिन आज मूड उखड़ा हुआ था. वह फिर से चीखा, ‘‘तुम्हें मेरे से ज्यादा अपनी सहेलियों की परवाह है,’’ तनाव बढ़ता ही जा रहा था, ‘‘शिल्पा मुझे गुस्सा मत दिलाओ वरना… वरना कहतेकहते स्वप्निल बेहोश हो गया.’’

शिल्पा घबरा गई. स्वप्निल को हिलाया पानी के छींटे मारे लेकिन स्वप्निल

होश में नहीं आया. शिल्पा ने सोसायटी में रहने वाले डाक्टर को फोन पर स्वप्निल के बेहोश होने की बात बताई. डाक्टर तुरंत शिल्पा के घर पहुंच कर स्वप्निल को चैक किया. बोला, ‘‘स्वप्निल का बीपी बहुत ज्यादा है. घर में कोई बात हुई है क्या? लगता है इन्होंने औफिस के काम का ज्यादा तनाव ले लिया है. ये दवाएं लिख दी हैं. आप मंगा लें. एक इंजैक्शन लगा देता हूं मैं कुछ देर इन के पास हूं. आप दवा मगां लें.’’

शिल्पा सोसायटी के मैडिकल स्टोर दवा लेने चली गई. लौटने पर देखा स्वप्निल को होश आ गया था. डाक्टर ने शिल्पा को दवा कबकब देनी है समझा दिया, साथ ही हिदायत दी कि स्वप्निल से कोई भी ऐसी बात न करें जिस से उसे टैंशन हो.

डाक्टर के चले जाने के बाद शिल्पा स्वप्निल के लिए गरमगरम

खिचड़ी बना लाई. स्वप्निल खिचड़ी खा कर सो गया.

सुबह शिल्पा चाय बना कर लाई, ‘‘स्वप्निल उठो चाय पी लो. स्वप्निल मुझे माफ कर दो. तनाव का कारण मुझे बताओ शायद मैं कुछ कर सकूं.’’

‘‘शिल्पा में तुम्हें खुश देखना चाहता था. इसी चाहत की वजह से मैं ने तुम्हें रमेशजी के

पैसे ट्रांसफर कर दिए थे. लेकिन मुझे क्या पता था रमेशजी को अपनी पत्नी के इलाज के लिए पैसों की जरूरत पड़ जाएगी. वे कल शाम को ही पैसे लेने आ पहुंचे मेरे पास. अपने प्लौट की किस्त के लिए रखे पैसे रमेशजी को दे दिए.

‘‘अब समझ में आया. स्वप्निल मुझे माफ कर दो. मेरे पास कुछ पैसे बचे हैं और कुछ मेरी सेविंग के पैसे हैं. आप कल ही प्लौट की किस्त जमा करा देना.’’

‘‘शिल्पा तुम ने आज मेरे सिर पर से बहुत बड़ा बोझ उतार दिया.’’

अगली सुबह स्वप्निल औफिस चला गया. आज उसे किस्त जमा करानी थी. शाम को जब घर लौटा तो घर का नक्शा ही बदला हुआ था. चारों तरफ घर फूलों से सजा था.

‘‘शिल्पा ये सब क्या है?’’

‘‘आज हम पहले की तरह मेरा बर्थडे सैलिब्रेट करेंगे. मैं दिखावे की जिंदगी में इतना आगे निकल गई थी कि सहीगलत कुछ भी

समझ नहीं आ रहा था. मेरी असली खुशी तुम ही तो हो. मेरी आंखों पर से चकाचौंध का परदा हट गया है.’’

स्वप्निल ने गिफ्ट देते हुए शिल्पा को गले लगा लिया और गुनगुनाने लगा, ‘‘बारबार दिन ये आए… हैप्पी बर्थडे टू यू…’’

पीछे देखा तो औफिस के सारे दोस्तों को देख कर शिल्पा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

यह घर मेरा भी है

मैं और मेरे पति समीर अपनी 8 वर्षीय बेटी के साथ एक रैस्टोरैंट में डिनर कर रहे थे, अचानक बेटी चीनू के हाथ के दबाव से चम्मच उस की प्लेट से छिटक कर उस के कपड़ों पर गिर गया और सब्जी छलक कर फैल गई.

यह देखते ही समीर ने आंखें तरेरते हुए उसे डांटते हुए कहा, ‘‘चीनू, तुम्हें कब अक्ल आएगी? कितनी बार समझाया है कि प्लेट को संभाल कर पकड़ा करो, लेकिन तुम्हें समझ ही नहीं आता… आखिर अपनी मां के गंवारपन के गुण तो तुम में आएंगे ही न.’’

यह सुनते ही मैं तमतमा कर बोली, ‘‘अभी बच्ची है… यदि प्लेट से सब्जी गिर भी गई तो कौन सी आफत आ गई है… तुम से क्या कभी कोई गलती नहीं होती और इस में गंवारपन वाली कौन सी बात है? बस तुम्हें मुझे नीचा दिखाने का कोई न कोई बहाना चाहिए.’’

‘‘सुमन, तुम्हें बीच में बोलने की जरूरत नहीं है… इसे टेबल मैनर्स आने चाहिए. मैं नहीं चाहता इस में तुम्हारे गुण आएं… मैं जो चाहूंगा, इसे सीखना पड़ेगा…’’

मैं ने रोष में आ कर उस की बात बीच में काटते हुए कहा, ‘‘यह तुम्हारे हाथ की कठपुतली नहीं है कि उसे जिस तरह चाहो नचा लो और फिर कभी तुम ने सोचा है कि इतनी सख्ती करने का इस नन्ही सी जान पर क्या असर होगा? वह तुम से दूर भागने लगेगी.’’

‘‘मुझे तुम्हारी बकवास नहीं सुननी,’’ कहते हुए समीर चम्मच प्लेट में पटक कर बड़बड़ाता हुआ रैस्टोरैंट के बाहर निकल गया और गाड़ी स्टार्ट कर घर लौट गया.

मेरी नजर चीनू पर पड़ी. वह चम्मच को हाथ में

पकड़े हमारी बातें मूक दर्शक बनी सुन रही थी. उस का चेहरा बुझ गया था, उस के हावभाव से लग रहा था, जैसे वह बहुत आहत है कि उस से ऐसी गलती हुई, जिस की वजह से हमारा झगड़ा हुआ. मैं ने उस का फ्रौक नैपकिन से साफ किया और फिर पुचकारते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं बेटा, गलती तो किसी से भी हो सकती है. तुम अपना खाना खाओ.’’

‘‘नहीं ममा मुझे भूख नहीं है… मैं ने खा लिया,’’ कहते हुए वह उठ गई.

मुझे पता था कि अब वह नहीं खाएगी. सुबह वह कितनी खुश थी, जब उसे पता चला था कि आज हम बाहर डिनर पर जाएंगे. यह सोच कर मेरा मन रोंआसा हो गया कि मैं समीर की बात पर प्रतिक्रिया नहीं देती तो बात इतनी नहीं बढ़ती. मगर मैं भी क्या करती. आखिर कब तक बरदाश्त करती? मुझे नीचा दिखाने के लिए बातबात में चीनू को मेरा उदाहरण दे कर कि आपनी मां जैसी मत बन जाना, उसे डांटता रहता है. मेरी चिढ़ को उस पर निकालने की उस की आदत बनती जा रही थी.

हम दोनों कैब ले कर घर आए तो देखा समीर दरवाजा बंद कर के अपने कमरे में था. हम भी आ कर सो गए, लेकिन मेरा मन इतना अशांत था कि उस के कारण मेरी आंखों में नींद आने का नाम ही नहीं ले रही थी. मैं ने बगल में लेटी चीनू को भरपूर दृष्टि से देखा, कितनी मासूम लग रही थी वह. आखिर उस की क्या गलती थी कि वह हम दोनों के झगड़े में पिसे?

विवाह होते ही समीर का पैशाचिक व्यवहार मुझे खलने लगा था. मुझे हैरानी होती थी यह देख कर कि विवाह के पहले प्रेमी समीर के व्यवहार में पति बनते ही कितना अंतर आ गया. वह मेरे हर काम में मीनमेख निकाल कर यह जताना कभी नहीं चूकता कि मैं छोटे शहर में पली हूं. यहां तक कि वह किसी और की उपस्थिति का भी ध्यान नहीं रखता था.

इस से पहले कि मैं समीर को अच्छी तरह समझूं, चीनू मेरे गर्भ में आ गई. उस के बाद तो मेरा पूरा ध्यान ही आने वाले बच्चे की अगवानी की तैयारी में लग गया था. मैं ने सोचा कि बच्चा होने के बाद शायद उस का व्यवहार बदल जाएगा. मैं उस के पालनपोषण में इतनी व्यस्त हो गई कि अपने मानअपमान पर ध्यान देने का मुझे वक्त ही नहीं मिला. वैसे चीनू की भौतिक सुखसुविधा में वह कभी कोई कमी नहीं छोड़ता था.

वक्त मुट्ठी में रेत की तरह फिसलता गया और चीनू 3 साल की हो गई. इन सालों में मेरे प्रति समीर के व्यवहार में रत्तीभर परिवर्तन नहीं आया. खुद तो चीनू के लिए सुविधाओं को उपलब्ध करा कर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझता था, लेकिन उस के पालनपोषण में मेरी कमी निकाल कर वह मुझे नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ता था.

धीरेधीरे वह इस के लिए चीनू को अपना हथियार बनाने लगा कि वह भी

मेरी आदतें सीख रही है, जोकि मेरे लिए असहनीय होने लगा था. इस प्रकार का वादविवाद रोज का ही हिस्सा बन गया था और बढ़ता ही जा रहा था. मैं नहीं चाहती थी कि वह हमारे झगड़े के दलदल में चीनू को भी घसीटे. चीनू तो सहमी हुई मूकदर्शक बनी रहती थी और आज तो हद हो गई थी. वास्तविकता तो यह है कि समीर को इस बात का बड़ा घमंड है कि वह इतना कमाता है और उस ने सारी सुखसुविधाएं हमें दे रखी हैं और वह पैसे से सारे रिश्ते खरीद सकता है.

मैं सोच में पड़ गई कि स्त्री को हर अवस्था में पुरुष का सुरक्षा कवच चाहिए होता है. फिर चाहे वह सुरक्षाकवच स्त्री के लिए सोने के पिंजरे में कैद होने के समान ही क्यों न हो? इस कैद में रह कर स्त्री बाहरी दुनिया से तो सुरक्षित हो जाती है, लेकिन इस के अंदर की यातनाएं भी कम नहीं होतीं. पिछली पीढ़ी में स्त्रियां आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होती थीं, इसलिए असहाय होने के कारण पति द्वारा दी गई यातनाओं को मनमार कर स्वीकार लेती थीं. उन्हें बचपन से ही घुट्टी पिला दी जाती थी कि उन के लिए विवाह करना आवश्यक है और पति के साथ रह कर ही वे सामाजिक मान्यता प्राप्त कर सकती हैं, इस के इतर उन का कोई वजूद ही नहीं है.

मगर अब स्त्रियां आत्मनिर्भर होने के साथसाथ अपने अधिकारों के लिए भी जागरूक हो गई हैं. फिर भी कितनी स्त्रियां हैं जो पुरुष के बिना रहने का निर्णय ले पा रही हैं? लेकिन मैं यह निर्णय ले कर समाज की सोच को झुठला कर रहूंगी. तलाक ले कर नहीं, बल्कि साथ रह कर. तलाक ही हर दुखद वैवाहिक रिश्ते का अंत नहीं होता. आखिर यह मेरा भी घर है, जिसे मैं ने तनमनधन से संवारा है. इसे छोड़ कर मैं क्यों जाऊं?

लड़कियों का विवाह हो जाता है तो उन का अपने मायके पर अधिकार नहीं रहता, विवाह के बाद पति से अलग रहने की सोचें तो वही उस घर को छोड़ कर जाती हैं, फिर उन का अपना घर कौन सा है, जिस पर वे अपना पूरा अधिकार जता सकें? अधिकार मांगने से नहीं मिलता, उसे छीनना पड़ता है. मैं ने मन ही मन एक निर्णय लिया और बेफिक्र हो कर सो गई.

सुबह उठी तो मन बड़ा भारी हो रहा था. समीर अभी भी सामान्य नहीं था. वह

औफिस के लिए तैयार हो रहा था तो मैं ने टेबल पर नाश्ता लगाया, लेकिन वह ‘मैं औफिस में नाश्ता कर लूंगा’ बड़बड़ाते हुए निकल गया. मैं ने भी उस की बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

चीनू आ कर मुझ से लिपट गई. बोली, ‘‘ममा, पापा को इतना गुस्सा क्यों आता है? मुझ से थोड़ी सब्जी ही तो गिरी थी…आप को याद है उन से भी चाय का कप लुढ़क गया था और आप ने उन से कहा था कि कोई बात नहीं, ऐसा हो जाता है. फिर तुरंत कपड़ा ला कर आप ने सफाई की थी. मेरी गलती पर पापा ऐसा क्यों नहीं कहते? मुझे पापा बिलकुल अच्छे नहीं लगते. जब वे औफिस चले जाते हैं, तब घर में कितना अच्छा लगता है.’’

‘‘सब ठीक हो जाएगा बेटा, तू परेशान मत हो… मैं हूं न,’’ कह कर मैं ने उसे अपनी छाती से लगा लिया और सोचने लगी कि इतनी प्यारी बच्ची पर कोई कैसे गुस्सा कर सकता है? यह समीर के व्यवहार का कितना अवलोकन करती है और इस के बालसुलभ मन पर उस का कितना नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.

समीर और मुझ में बोलचाल बंद रही. कभीकभी वह औपचारिकतावश चीनू से पूछता कहीं जाने के लिए तो वह यह देख कर कि वह मुझ से बात नहीं करता है, उसे साफ मना कर देती थी. वह सोचता था कि कोई प्रलोभन दे कर वह चीनू को अपने पक्ष में कर लेगा, लेकिन वह सफल नहीं हुआ. समीर की बेरुखी दिनबदिन बढ़ती जा रही थी, मनमानी भी धीरेधीरे बढ़ रही थी. जबतब घर का खाना छोड़ कर बाहर खाने चला जाता, मैं भी उस के व्यवहार को अनदेखा कर के चीनू के साथ खुश रहती. यह स्थिति 15 दिन रही.

एक दिन मैं चीनू के साथ कहीं से लौटी तो देखा समीर औफिस से अप्रत्याशित जल्दी लौट कर घर में बैठा था. मुझे देखते ही गुस्से में बोला, ‘‘क्या बात है, आजकल कहां जाती हो बताने की भीजरूरत नहीं समझी जाती…’’ उस की बात बीच में काट कर मैं बोली, ‘‘तुम बताते हो कि तुम कहां जाते हो?’’

‘‘मेरी बात और है.’’

‘‘क्यों? तुम्हें गुलछर्रे उड़ाने की इजाजत है, क्योंकि तुम पुरुष हो, मुझे नहीं. क्योंकि…’’

‘‘लेकिन तुम्हें तकलीफ क्या है? तुम्हें किस चीज की कमी है? हर सुख घर में मौजूद है. पैसे की कोई कमी नहीं. जो चाहे कर सकती हो,’’ गुलछर्रे उड़ाने वाली बात सुन कर वह थोड़ा संयत हो कर मेरी बात को बीच में ही रोक कर बोला, क्योंकि उस के और उस की कुलीग सुमन के विवाहेतर संबंध से मैं अनभिज्ञ नहीं थी.

‘‘तुम्हें क्या लगता है, इन भौतिक सुखों के लिए ही स्त्री अपने पूर्व रिश्तों को विवाह की सप्तपदी लेते समय ही हवनकुंड में झोंक देती है और बदले में पुरुष उस के शरीर पर अपना प्रभुत्व समझ कर जब चाहे नोचखसोट कर अपनी मर्दानगी दिखाता है… स्त्री भी हाड़मांस की बनी होती है, उस के पास भी दिल होता है, उस का भी स्वाभिमान होता है, वह अपने पति से आर्थिक सुरक्षा के साथसाथ मानसिक और सामाजिक सुरक्षा की भी अपेक्षा करती है. तुम्हारे घर वाले तुम्हारे सामने मुझे कितना भी नीचा दिखा लें, लेकिन तुम्हारी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती. तुम मूकदर्शक बने खड़े देखते रहते हो… स्वयं हर समय मुझे नीचा दिखा कर मेरे मन को कितना आहत करते हो, यह कभी सोचा है?’’

‘‘ठीक है यदि तुम यहां खुश नहीं हो तो अपने मायके जा कर रहो, लेकिन चीनू तुम्हारे साथ नहीं जाएगी, वह मेरी बेटी है, उस की परवरिश में मैं कोई कमी नहीं रहने देना चाहता. मैं उस का पालनपोषण अपने तरीके से करूंगा… मैं नहीं चाहता कि वह तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारे स्तर की बने,’’ समीर के पास जवाब देने को कुछ नहीं बचा था, इसलिए अधिकतर पुरुषों द्वारा प्रयोग किया जाने वाला अंतिम वार करते हुए चिल्ला कर बोला.

‘‘चिल्लाओ मत. सिर्फ पैदा करने से ही तुम चीनू के बाप बनने के अधिकारी नहीं हो सकते. वह तुम्हारे व्यवहार से आहत होती है. आजकल के बच्चे हमारे जमाने के बच्चे नहीं हैं कि उन पर अपने विचारों को थोपा जाए, हम उन को उस तरह नहीं पाल सकते जैसे हमें पाला गया है. इन के पैदा होने तक समय बहुत बदल गया है.

‘‘मैं उसे तुम्हारे शाश्नात्मक तरीके की परवरिश के दलदल में नहीं धंसने दूंगी…

मैं उस के लिए वह सब करूंगी जिस से कि वह अपने निर्णय स्वयं ले सके और मैं तुम्हारी पत्नी हूं, तुम्हारी संपत्ति नहीं. यह घर मेरा भी है. जाना है तो तुम जाओ. मैं क्यों जाऊं?

‘‘इस घर पर जितना तुम्हारा अधिकार है, उतना ही मेरा भी है. समाज के सामने मुझ से विवाह किया है. तुम्हारी रखैल नहीं हूं… जमाना बदल गया, लेकिन तुम पुरुषों की स्त्रियों के प्रति सोच नहीं बदली. सारी वर्जनाएं, सारे कर्तव्य स्त्रियों के लिए ही क्यों? उन की इच्छाओं, आकांक्षाओं का तुम पुरुषों की नजरों में कोई मूल्य नहीं है.

‘‘उन के वजूद का किसी को एहसास तक भी नहीं. लेकिन स्त्रियां भी क्यों उर्मिला की तरह अपने पति के निर्णय को ही अपनी नियत समझ कर स्वीकार लेती हैं? क्यों अपने सपनों का गला घोंट कर पुरुषों के दिखाए मार्ग पर आंख मूंद कर चल देती हैं? क्यों अपने जीवन के निर्णय स्वयं नहीं ले पातीं? क्यों औरों के सुख के लिए अपना बलिदान करती हैं? अभी तक मैं ने भी यही किया, लेकिन अब नहीं करूंगी. मैं इसी घर में स्वतंत्र हो कर अपनी इच्छानुसार रहूंगी,’’ समीर पहली बार मुझे भाषणात्मक तरीके से बोलते हुए देख कर अवाक रह गया.

‘‘पापा, मैं आप के पास नहीं रहूंगी, आप मुझे प्यार नहीं करते. हमेशा डांटते रहते हैं… मैं ममा के साथ रहूंगी और मैं उन की तरह ही बनना चाहती हूं… आई हेट यू पापा…’’ परदे के पीछे खड़ी चीनू, जोकि हमारी सारी बातें सुन रही थी, बाहर निकल कर रोष और खुशी के मिश्रित आंसू बहने लगी. मैं ने देखा कि समीर पहली बार चेहरे पर हारे हुए खिलाड़ी के से भाव लिए मूकदर्शक बना रह गया.

जिंदगी की उजली भोर: भाग 1- रूना को जब पता चला समीर का राज?

समीर को बाहर गए 4 दिन हो गए थे. वैसे यह कोई नई बात न थी. वह अकसर टूर पर बाहर जाता था. रूना तनहा रहने की आदी थी. फ्लैट्स के रिहायशी जीवन में सब से बड़ा फायदा यही है कि अकेले रहते हुए भी अकेलेपन का एहसास नहीं होता.

कल शाम रूना की प्यारी सहेली सीमा आई थी. वह एक कंपनी में जौब करती है. उस से देर तक बातें होती रहीं. समीर का जिक्र आने पर रूना ने कहा कि वह मुंबई गया है, कल आ जाएगा.

‘मुंबई’ शब्द सुनते ही सीमा कुछ उलझन में नजर आने लगी और एकदम चुप हो गई. रूना के बहुत पूछने पर वह बोली, ‘‘रूना, तुम मेरी छोटी बहन की तरह हो. मैं तुम से कुछ छिपाऊंगी नहीं. कल मैं बड़ौदा गई थी. मैं एक शौपिंग मौल में थी. ग्राउंडफ्लोर पर समीर के साथ एक खूबसूरत औरत को देख कर चौंक पड़ी. दोनों हंसतेमुसकराते शौपिंग कर रहे थे. क्योंकि तुम ने बताया कि वह मुंबई गया है, इसलिए हैरान रह गई.’’

यह सुन कर रूना एकदम परेशान हो गई क्योंकि समीर ने उस से मुंबई जाने की ही बात कही थी और रोज ही मोबाइल पर बात होती थी. अगर उस का प्रोग्राम बदला था तो वह उसे फोन पर बता सकता था.

सीमा ने उस का उदास चेहरा देख कर उसे तसल्ली दी, ‘‘रूना, परेशान न हो, शायद कोई वजह होगी. अभी समीर से कुछ न कहना. कहीं बात बिगड़ न जाए. रिश्ते शीशे की तरह नाजुक होते हैं, जरा सी चोट से दरक जाते हैं. कुछ इंतजार करो.’’

रूना का दिल जैसे डूब रहा था, समीर ने झूठ क्यों बोला? वह तो उस से बहुत प्यार करता था, उस का बहुत खयाल रखता था. आज सीमा की बात सुन के वह अतीत में खो गई…

मातापिता की मौत उस के बचपन में ही हो गई थी. चाचाचाची ने उसे पाला. उन के बच्चों के साथ वह बड़ी हुई. यों तो चाची का व्यवहार बुरा न था पर उन्हें एक अनचाहे बोझ का एहसास जरूर था. समीर ने उसे किसी शादी में देखा था. कुछ दिनों के बाद उस के चाचा के किसी दोस्त के जरिए उस के लिए रिश्ता आया. ज्यादा छानबीन करने की न किसी को फुरसत थी न जरूरत समझी. सब से बड़ी बात यह थी कि समीर सीधीसादी बिना किसी दहेज के शादी करना चाहता था.

चाची ने शादी 1 महीने के अंदर ही कर दी. चाचा ने अपनी बिसात के मुताबिक थोड़ा जेवर भी दिया. बरात में 10-15 लोग थे. समीर के पापा, एक रिश्ते की बूआ, उन का बेटाबहू और कुछ दोस्त.

वह ब्याह कर समीर के गांव गई. वहां एक छोटा सा कार्यक्रम हुआ. उस में रिश्तेदार व गांव के कुछ लोग शामिल हुए. बूआ वगैरह दूसरे दिन चली गईं. घर में पापा और एक पुराना नौकर बाबू था. घर में अजब सा सन्नाटा, जैसे सब लोग रुकेरुके हों, ऊपरी दिल से मिल रहे हों. वैसे, बूआ ने बहुत खयाल रखा, तोहफे में कंगन दिए पर अनकहा संकोच था. ऐसा लगता था जैसे कोई अनचाही घटना घट गई हो. पापा शानदार पर्सनैलिटी वाले, स्मार्ट मगर कम बोलने वाले थे.

उस से वे बहुत स्नेह से मिले. उसे लगा शायद गांव और घर का माहौल ही कुछ ऐसा है कि सभी अपनेअपने दायरों में बंद हैं, कोई किसी से खुलता नहीं. एक हफ्ता वहां रह कर वे दोनों अहमदाबाद आ गए. यहां आते ही उस की सारी शिकायतें दूर हो गईं. समीर खूब हंसताबोलता, छुट्टी के दिन घुमाने ले जाता. अकसर शाम का खाना वे बाहर ही खा लेते. वह उस की छोटीछोटी बातों का खयाल रखता. एक ही दुख था कि उस का मायका नाममात्र था, ससुराल भी ऐसी ही मिली जहां सिवा पापा के कोई न था. शादी को 1 साल से ज्यादा हो गया था पर वह  3 बार ही गांव जा सकी. 2 बार पापा अहमदाबाद आ कर रह कर गए.

कशमकश: महिमा के ससुराल वाले उससे खफा क्यों रहते थे?

‘‘वाह भई, मजा आ गया… भाभी के हाथों में तो जैसे जादू की छड़ी है… बस खाने पर घुमा देती हैं और खाने वाला समझ ही नहीं पाता कि खाना खाए या अपनी उंगलियां चाटे,’’ मयंक ने 2-4 कौर खाते ही हमेशा की तरह खाने की तारीफ शुरू कर दी तो रसोई में फुलके सेंकती सीमा भाभी के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई.

पास ही खड़ी महिमा के भीतर कुछ दरक सा गया, मगर उस ने हमेशा की तरह दर्द की उन किरचों को आंखों का रास्ता नहीं दिखाया, दिल में उतार लिया.

‘‘अरे भाभी, महिमा को भी कुछ बनाना सिखा दो न… रोजरोज की सादी रोटीसब्जी से हम ऊब गए… बच्चे तो हर तीसरे दिन होटल की तरफ भागते हैं,’’ मयंक ने अपनी बात आगे बढ़ाई तो लाख रोकने की कोशिशों के बावजूद महिमा की पलकें नम हो आईं.

इस के पास कहां इतना टाइम होता है जो रसोई में खपे… एक ही काम होगा… या तो कलम पकड़ लो या फिर चकलाबेलन… सीमा की चहक में छिपे व्यंग्यबाण महिमा को बेंध गए, मगर बात तो सच ही थी, भले कड़वी सही.

महिमा एक कामकाजी महिला है. सरकारी स्कूल में अध्यापिका महिमा को मलाल रहता है कि वह आम गृहिणियों की तरह अपने घर को वक्त नहीं दे पाती. ऐसा नहीं है कि उसे अच्छा खाना बनाना नहीं आता, मगर सुबह उस के पास टाइम नहीं होता और शाम को वह थक कर इतनी चूर हो चुकी होती है कि कुछ ऐक्स्ट्रा बनाने की सोच भी नहीं पाती.

महिमा सुबह 5 बजे उठती है. सब का नाश्ता, खाना बना कर 8 बजे तक स्कूल पहुंचती है. दोपहर 3 बजे तक स्कूल में व्यस्त रहती है. उस के बाद घर आतेआते इतनी थक जाती है कि यदि घंटाभर आराम न करे तो रात तक चिड़चिड़ाहट बनी रहती है. रात को रसोई समेटतेसमटते 11 बज जाते हैं. अगले दिन फिर वही दिनचर्या.

इतनी व्यस्तता के बाद महिमा चाह कर भी सप्ताह के 6 दिन पति या बच्चों की खाने, नाश्ते की फरमाइशें पूरी नहीं कर पाती. एक रविवार

का दिन उसे छुट्टी के रूप में मिलता है, मगर यह एक दिन बाकी 6 दिनों पर भारी पड़ता है. सब से पहले तो वह खुद ही इस दिन थोड़ा देर से उठती. फिर सप्ताह भर के कल पर टलने वालेकाम भी इसी दिन निबटाने होते हैं. मिलनेजुलने वाले दोस्तरिश्तेदार भी इसी रविवार की बाट जोहते हैं. इस तरह रविवार का दिन मुट्ठी में से पानी की तरह फिसल जाता है.

क्या करे महिमा… अपनी ग्लानि मिटाने के लिए वह बच्चों को हर रविवार होटल में खाने की छूट दे देती है. धीरेधीरे बच्चों को भी इस आजादी और रूटीन की आदत सी हो गई है. महिमा महसूस करती है कि उस का घर सीमा भाभी के घर की तरह हर वक्त सजासंवरा नहीं दिखता. घर के सामान पर धूलमिट्टी की परत भी दिख जाती है. कई बार छोटेछोटे मकड़ी के जाले भी नजर आ जाते हैं. इधरउधर बिखरे कपड़े और जूते तो रोज की बात है. लौबी में रखी डाइनिंगटेबल भी खाने के कम, बच्चों की किताबों, स्कूल बैग, हैलमेट आदि रखने के ज्यादा काम आती है.

कई बार जब महिमा झुंझला कर साफसफाई में जुट जाती है, तो बच्चे पूछ बैठते हैं, ‘‘आज अचानक यह सफाई का बुखार कैसे चढ़ गया? कोई आने वाला है क्या?’’ तब वह और भी खिसिया जाती.

हालांकि महिमा ने अपनी मदद के लिए कमला को रखा हुआ है, मगर वह उस के स्कूल जाने के बाद आती है, इसलिए जो जैसा कर जाती है उसी में संतुष्ट होना पड़ता है.

स्कूल में आत्मविश्वास से भरी दिखने वाली महिमा भीतर ही भीतर अपना आत्मविश्वास खोती जा रही थी. यदाकदा अपनी तुलना सीमा भाभी से करने लगती कि कितने आराम से रहती हैं सीमा भाभी. घर भी एकदम करीने से सजा हुआ… अच्छे खाने से पतिबच्चे भी खुश.

दिन में 2-3 घंटे एसी की ठंडी हवा में आराम… और एक मैं हूं…. चाहे हजारों रुपए महीना कमाती हूं… कभी अपने पैसे का रोब नहीं झाड़ती… जेठानी के सामने हमेशा देवरानी ही बनी रहती हूं… कभी भी रानी बनने का गरूर नहीं दिखाती… फिर भी मयंक ने कभी मेरी काबिलियत पर गर्व नहीं किया. बच्चे भी अपनी ताई के ही गुण गाते रहते हैं.

वैसे देखा जाए तो वे सब भी कहां गलत हैं. कहते हैं कि दिल तक पहुंचने का रास्ता पेट से हो कर गुजरता है. मगर मैं कहां इन दूरियों को तय कर पाई हूं… जल्दीजल्दी जो कुछ बना पाती हूं बस बना देती हूं. एक सा नाश्ता और खाना खाखा कर बेचारे ऊब जाते होंगे… कैसी मां और पत्नी हूं… अपने परिवार तक को खुश नहीं रख पाती… महिमा खुद को कोसने लगती और फिर अवसाद के दलदल में थोड़ा और गहरे धंस जाती.

क्या करूं? क्या इतनी मेहनत से लगी नौकरी छोड़ दूं? मगर अब यह सिर्फ नौकरी कहां रही… यह तो मेरी पहचान बन चुकी है. स्कूल के बच्चे जब मुझे सम्मान की दृष्टि से देखते हैं. उन के अभिभावक बच्चों के सामने मेरा उदाहरण देते हैं तो वे कितने गर्व के पल होते हैं… वह अनमोल खुशी को क्या सिर्फ इतनी सी बात के लिए गंवा दूं कि पति और बच्चों को उन का मनपसंद खाना खिला सकूं. महिमा अकसर खुद से ही सवालजवाब करने लगती, मगर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाती.

इसी बीच महिमा की स्कूल में गरमी की छुट्टियां हो गईं. उस ने तय कर लिया कि इन पूरी छुट्टियों में वह सब की शिकायतें दूर करने की कोशिश करेगी. सब का मनपसंद खाना बनाएगी. नईनई डिशेज बनाना सीखेगी… घर को एकदम साफसुथरा और सजा कर रखेगी…

छुट्टी का पहला दिन. नाश्ते में गरमगरम आलू के परांठे देखते ही सब के चेहरे खिल उठे. भूख से अधिक ही खा लिए सब ने. उन्हें संतुष्ट देख कर महिमा का दिल भी खुश हो गया. मयंक टिफिन ले कर औफिस निकल गया और बच्चे कोचिंग क्लास. महिमा घर को समेटने में जुट गई.

दोपहर ढलतेढलते पूरा घर चमक उठा. लगा मानो दीवाली आने वाली है. मयंक और बच्चे घर लौट आए. आते ही बच्चों ने अपनी किताबें और बैग व मयंक ने अपनी फाइलें और हैलमेट लापरवाही से डाइनिंगटेबल पर पटक दिया. महिमा का मूड उखड़ गया, मगर उस ने एक लंबी सास ली और सारा सामान यथास्थान पर रख कर डाइनिंगटेबल फिर से सैट कर दी.

महिमा ने रात के खाने में भी 2 मसालेदार सब्जियों के अलावा रायता और सूजी का हलवा भी बनाया. सजी डाइनिंगटेबल देख कर मयंक और बच्चे खुश हो गए. उन्हें खुश देख कर महिमा भी खुश हो उठी.

अब रोज यही होने लगा. नाश्ते में अकसर मैदा, बेसन, आलू और अधिक तेलमिर्च मसाले का इस्तेमाल होता था. रात में भी महिमा कई तरह के व्यंजन बनाती थी. अधिक वैरायटी बनाने के चक्कर में अकसर रात का खाना लेट हो जाता था और गरिष्ठ होने के कारण ठीक से हजम भी नहीं हो पाता था.

अभी 15 दिन भी नहीं बीते थे कि मयंक ने ऐसिडिटी की शिकायत की. रातभर खट्टी डकारों और सीने में जलन से परेशान रहा. सुबह डाक्टर को दिखाया तो उस ने सादे खाने और कई तरह के दूसरे परहेज बताने के साथसाथ क्व2 हजार का दवाओं का बिल थमा दिया.

दूसरी तरफ घर को साफसुथरा और व्यवस्थित रखने के प्रयास में बच्चों की आजादी छिनती जा रही थी. महिमा उन्हें हर वक्त टोकती रहती कि इस्तेमाल करने के बाद अपना सामान प्रौपर जगह पर रखें. मगर बरसों की आदत भला एक दिन में छूटती है और फिर वैसे भी अपना घर इसीलिए तो बनाया जाता है ताकि वहां अपनी मनमरजी से अपने तरीके से रहा जाए. मां की टोकाटाकी से बच्चे घर वाली फीलिंग के लिए तरसने लगे, क्योंकि घर अब होटल की तरह लगने लगा था.  घर को संवारने और सब को मनपसंद खाना खिलाने की कवायद में महिमा पूरा दिन उलझी रहने लगी. हर वक्त कोई न कोई नई डिश या नया आइडिया उस के दिमाग में पकता रहता. साफसफाई के लिए भी दिन भर परेशान होती, कभी कमला पर झल्लाती तो कभी बच्चों को टोकती. नतीजन, एक दिन रसोई में खड़ीखड़ी महिमा गश खा कर गिर पड़ी. मयंक ने उसे उठा कर बिस्तर में लिटाया. बेटे ने तुरंत डाक्टर को फोन किया.

चैकअप करने के बाद पता चला कि महिमा का बीपी बहुत ज्यादा बढ़ा हुआ है. डाक्टर ने आराम करने की सलाह के साथसाथ मसालेदार, ज्यादा घी व तेल वाले खाने से परहेज करने की सलाह दी. साथ ही लंबाचौड़ा बिल थमाया वह अलग.

‘‘सौरी मयंक मैं एक अच्छी पत्नी और मां की कसौटी पर खरी नहीं उतर सकी,’’ महिमा ने मायूसी से कहा.

‘‘पगली यह तुम से किस ने कहा? तुम ने तो हमेशा अपनी जिम्मेदारियां पूरी शिद्दत के साथ निभाई है. मुझे गर्व है तुम पर,’’ मयंक ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘‘तो फिर वे हमेशा सीमा भाभी की तारीफें… वह सब क्या है?’’ महिमा ने संशय से पूछा.

‘‘अरे बावली, तुम भी गजब करती हो… पता नहीं किस आसमान तक अपनी सोच के घोड़े दौड़ा लेती हो,’’ मयंक ने ठहाका लगाते हुए कहा.

महिमा अचरज के भाव लिए मुंह खोले उसे देख रही थी. जब हमारी सगाई हुई थी उस के बाद से ही सीमा भाभी के व्यवहार में परिवर्तन नजर आने लगा था. उन्हें लगने लगा था कि नौकरीपेशा बहू आने के बाद घर में उन की अहमियत कम हो जाएगी. यह भी हो सकता है कि तुम उन पर अपने पैसे का रोब दिखाओ. बस, तभी हम सब ने तय कर लिया था कि सीमा भाभी को इस कमतरी के एहसास से छुटकारा दिलाना है और इसीलिए हम सब बातबात में उन की तारीफ करते हैं ताकि वे किसी हीनभावना से ग्रस्त न हो जाएं. मगर इस सारे गणित में अनजाने में ही सही, हम से तुम्हारा पक्ष नजरअंदाज होता रहा. हम सब तुम्हारे गुनाहगार हैं,’’ मयंक ने शर्मिंदा होते हुए अपने कान पकड़ लिए.

यह देख महिमा खिलखिला पड़ी, ‘‘तो अब सजा तो आप को मिलेगी ही… आप सब को अगले 20 दिन और इसी तरह का चटपटा और मसालेदार खाना खाना पड़ेगा.’’

‘‘न बाबा न… इतनी बड़ी सजा नहीं… हमें तो वही सादी रोटीसब्जी चाहिए ताकि हमारा पेट भी हैप्पी रहे और जेब भी. क्यों बच्चो?’’ मयंक ने नाटकीयता से कहा. अब तक बच्चे भी वहां आ चुके थे.

‘‘ठीक है, मगर सप्ताह में एक दिन तो होटल जाने दोगे और हमें अपनी मनपसंद डिशेज खाने दोगे न?’’ दोनों बच्चे एकसाथ चिल्लाए तो महिमा के होंठों पर भी मुसकराहट तैर गई.

अनजाने पल: क्यों सावित्री से दूर होना चाहता था आनंद

दुनिया: असमा की जिंदगी में किसने मचाई खलबली

यह फ्लैट सिस्टम भी खूब होता है. कंपाउंड में सब्जी वाला आवाजें लगाता तो मैं पैसे डाल कर तीसरी मंजिल से टोकरी नीचे उतार देती, लेकिन मेरे लाख चीखनेचिल्लाने पर भी सब्जी वाला 2-4 टेढ़ीमेढ़ी दाग लगी सब्जियां व टमाटर चढ़ा ही देता. एक दिन मामूली सी गलती पर पोस्टमैन 1,800 रुपए का मनीऔर्डर ले कर मेरे सिर पर सवार हो गया और आज हौकर हमारा अखबार फ्लैट नंबर 111 में डाल गया.

मिसेज अनवर वही अखबार लौटाने आई थीं. मैं ने शुक्रिया कह कर उन से अखबार लिया और फौर्मैलिटी के तौर पर उन्हें अंदर आने के लिए कहा तो वे ?ाट से अंदर आ गईं और फैल कर बैठ गईं. कुछ देर इधरउधर की बातें कर के मैं उन के लिए कौफी लेने किचन की तरफ बढ़ी तो वे भी मेरे पीछे ही चली आईं और लाउंज में मौजूद चेयर संभाल ली. मैं ने वहीं उन्हें कौफी का कप थमाया और लंच की तैयारी में जुट गई.

वे बोलीं, ‘‘कुछ देर पहले मैं ने तुम्हारे फ्लैट से एक साहब को निकलते देखा था. उन्हें लाख आवाजें दी मगर उन्होंने सुनी नहीं, इसलिए मुझे खुद ही आना पड़ा.’’

‘‘चलिए अच्छी बात है, इसी बहाने आप से मुलाकात तो हो गई,’’ कह कर मैं मुसकरा दी. फिर गोश्त कुकर में चढ़ाया, फ्रिज से

सब्जी निकाली और उन के सामने बैठ कर छीलने लगी.

‘‘सच कहती हूं, जब से तुम आई हो तब से ही तुम से मिलने को दिल करता था, मगर इस जोड़ों के दर्द ने कहीं आनेजाने के काबिल कहां छोड़ा है.’’

मैं खामोशी से लौकी के बीज

निकालती रही.

तब उन्होंने पूछा, ‘‘तुम्हारे शौहर तो मुल्क से बाहर हैं न?’’

‘‘जी…?’’ मैं ने चौंक कर उन्हें देखा, ‘‘जिन साहब को आप ने सुबह देखा, वही तो…’’

‘‘हैं… वे तुम्हारे शौहर हैं?’’

मिसेज अनवर जैसे करंट खा कर उछलीं और मैं ने ऐसे सिर झुका लिया जैसे आफताब सय्यद मेरे शौहर नहीं, मेरा जुर्म हों. वैसे इस किस्म के जुमले मेरे लिए नए नहीं थे मगर

हर बार जैसे मुझे जमीन में धंसा देते थे. मैं ने लाख बार उन्हें टोका है कि कम से कम बाल ही डाई कर लिया करें, मगर बनावट उन्हें पसंद ही नहीं है.

मिसेज अनवर ने यों तकलीफ भरी सांस ली जैसे मेरी सगी हों. फिर बोलीं, ‘‘कितनी प्यारी दिखती हो तुम, तुम्हारे घर वालों को

तुम्हें जहन्नुम में धकेलते वक्त जरा भी खयाल नहीं आया?’’

फिर वे लगातार व्यंग्य भरे वाक्य मु?ा पर बरसाती रहीं और कौफी पीती रहीं.

मेरी अम्मी को सारी जिंदगी ऐसे ही लोगों की जलीकटी बातें सताती रहीं. अब्बा बैंकर थे और बहुत जल्दी दुनिया छोड़ गए थे. अम्मी पढ़ीलिखी थीं, इसलिए अब्बा की बैंकरी उन के हिस्से में आ गई. अम्मी की आधी जिंदगी

2-2 पैसे जमा करते गुजरी. उन्होंने अपने लहू से अपने पौधों की परवरिश की, मगर जब फल खाने का वक्त आया तो…

बड़ी आपा शक्ल की प्यारी मगर मिजाज की ऊंची निकलीं. उन के लिए रिश्ते तो आते रहे मगर उन की उड़ान बहुत ऊंची थी. मास्टर डिगरी लेने के बाद उन्हें लैक्चररशिप मिल गई तो उन की गरदन में कुछ ज्यादा ही अकड़ आ गई और अम्मी के खाते में बेटी की कमाई खाने का इलजाम आ पड़ा.

बेटी की शादी कब कर रही हैं आप? अब कर ही डालिए. इतनी देर भी सही नहीं. लोग ऐसे कहते जैसे अम्मी के कान और

आंखें तो बंद हैं. वे मशवरे के इंतजार में बैठी हैं. अम्मी बेटी की बात मुंह पर कैसे लातीं. किसकिस को बड़ी आपा के मिजाज के बारे में बतातीं. अम्मी पाईपाई पर जान देती थीं और सारा जमाजोड़ बेटियों के लिए बैंक में रखवा देती थीं. आपा हर रिश्ते पर नाक चढ़ा कर कह देतीं, ‘‘असमा या हुमा की कर दीजिए न, आखिर उन्हें भी तो आप को ब्याहना ही है.’’ और इस से पहले कि असमा या हुमा के लिए कुछ होता बड़े भैया उछलने लगे, ‘मेरी शादी होगी तो जारा सरदरी से ही.’ अम्मी भौचक्की रह गईं. अभी तो पेड़ का पहला फल भी न खाया था. अभी दिन ही कितने हुए थे बड़े भाई को नौकरी करते हुए. जारा सरदारी भैया की कुलीग थी. अम्मी ने ताड़ लिया कि बेटा बगावत के लिए आमादा है. ऐसे में हथियार डाल देने के अलावा कोई चारा न था. फिर वही हुआ जो भाई ने चाहा था.

जारा सरदरी को अपनी कमाई पर बड़ घमंड और शौहर पर पूरा कंट्रोल था. ससुराल वालों से उस का कोई मतलब न था. बहुत जल्दी उस ने अपने लिए अलग घर बनवा लिया.

अम्मी को बड़ी आपा की तरफ से बड़ी मायूसी हो रही थी लेकिन हुमा के लिए एक ऐसा रिश्ता आ गया, जो अम्मी को भला लगा. आखिरकार बड़ी आपा के नाम की सारी जमापूंजी खर्च कर उन्होंने उसे ब्याह दिया. हुमा का भरापूरा ससुराल था. ससुराल के लोगों के मिजाज अनूठे थे. इस पर शौहर निखट्टू.

उस की सारी उम्मीदें ससुराल वालों से थीं कि वे उसे घरजमाई रख लें, कारोबार करवा

दें या घर दिलवा दें. यह कलई बाद में खुली.  झूठ पर झूठ बोल कर अम्मी को दोनों हाथों से लूटा गया मगर ससुराल वालों की हवस पूरी न हुई.

हुमा बहुत जल्दी घर लौट आई. उस का सारा दहेज ननदों के काम आया. फिर बहुत मुश्किल से तलाक मिलने पर उसे छुटकारा मिला. लेकिन इस पर खानदान के कई लोगों ने अम्मी को यों लताड़ा जैसे अम्मी को पहले से सब कुछ पता था.

हुमा का उजड़ना उन्हें मरीज बना गया. वे आहिस्ताआहिस्ता घुल रही थीं. एक रोज वे बिस्तर से जा लगीं, मगर सांसें जैसे हम दोनों बहनों में अटकी थीं.

कभीकभी बड़े भैया बीवीबच्चे समेत घर आते तो अम्मी की परेशानियां जबान पर आ जातीं. लेकिन वे हर बात उड़ा जाते. अम्मी, हो जाएगा सब कुछ. आप फिक्र न किया करें.

परेशानियों के इसी दौर में छोटे भैया से मायूस हो कर अम्मी ने उन्हें ब्याहा. छोटे भैया अपने पैरों पर खड़े थे, लेकिन घर की जिम्मेदारियों से दूर भागते थे. घर की गाड़ी अम्मी के बचाए पैसों पर ही चल रही थी. लेकिन घर चलाने के लिए एक जिम्मेदार औरत का होना जरूरी होता है, यह सोच कर ही अम्मी ने छोटे भैया को ब्याह दिया था.

लेकिन अम्मी एक बार फिर मात खा गईं. छोटी भाभी बहुत होशियार और सम?ादार साबित हुईं, मगर मायके के लिए. उन के दिलोदिमाग पर मायके का कब्जा था. कोई न कोई बहाना बना कर मायके की तरफ दौड़ लगाना और कई दिन डेरा डाल कर वहां पड़ी रहना उन की फितरत थी. ससुराल में वे कभीकभी ही नजर आतीं. अचानक छोटे

भैया को दुबई में नौकरी का चांस मिल गया और भाभी का पड़ाव हमेशा के लिए मायके में बन गया.

इस दौरान एक खुशी की बात यह हुई कि बड़ी आपा के लिए एक भला रिश्ता मिल गया. संजीदा, सोबर और जिम्मेदार एहसान अलवी. खूब पढ़ेलिखे थे और एक अरसे से अमेरिका में रहते थे. आपा जितनी उम्र की थीं, उस से कम की ही नजर आती थीं और एहसान अलवी अपनी उम्र से 2-4 साल ज्यादा के दिखते थे.

अम्मी को फिर इनकार का अंदेशा था. उन्होंने आपा को सम?ाया, ‘‘ऐसा रिश्ता फिर मिलने वाला नहीं. समझे कि गोल्डन चांस है. पानी पल्लू के नीचे से गुजर जाए तो लौट कर नहीं आता.’’

पता नहीं क्या हुआ कि यह बात आपा की अक्ल में समा गई. फिर चट मंगनी, पट ब्याह. आपा अमेरिका चली गईं.

शादी के नाम पर हुमा रोने बैठ जाती और एक ही रट लगाती, ‘मुझे नहीं करनी शादीवादी.’

मैं आईने के सामने खड़ी होती तो आठआठ आंसू रोती. हमारे खानदान के हर घर में रिश्ता मौजूद था, मगर लड़के 4 अक्षर पढ़ कर किसी काबिल हो जाते हैं, तो खानदान की फीकी सीधी लड़कियों पर हाथ नहीं रखते हैं. ऐसे में सारी रिश्तेदारी धरी की धरी रह जाती है. फिर अब उन्हें बदला भी लेना था. अम्मी ने भी तो खानदान की किसी लड़की पर हाथ नहीं रखा था. उन के दोनों बेटों की बीवियां तो पराए खानदान की थीं. इस धक्कमपेल में मेरी उम्र 30 पार कर गई.

फिर अचानक बड़ी आपा की ससुराल के किसी फंक्शन में आफताब सय्यद के रिश्तेदारों ने मुझे पसंद किया. आफताब की सारी फैमिली कनाडा में रहती थी और उन के सभी भाईबहन शादीशुदा थे. आफताब की पहली शादी नाकाम हो चुकी थी. बीवी ने नया घर बसा लिया था. उन के 2 बच्चे थे, जो आफताब के पास ही थे. अम्मी को मेरी नेक सीरत पर भरोसा था और मुझे भी कहीं न कहीं तो समझौता करना ही था. पानी पल्लू के नीचे से गुजर जाए तो लौट कर नहीं आता, यह बात मैं ने गिरह में बांध ली थी.

आफताब बहुत खयाल रखने वाले शौहर साबित हुए. हमारी उम्र में फर्क बहुत ज्यादा न था मगर दुनिया तो यही समझती थी कि वे मुझ से बहुत बड़े हैं और बच्चों समेत सारी गृहस्थी मेरी मुट्ठी में है. इस एहसास की ?झोल में कोई न कोई कंकड़ डाल कर हलचल मचा ही देता था. तब मुझे लगता था कि इंसान अपनी जिंदगी से समझौता कर भी ले तो दुनिया उसे कहां छोड़ती है?

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें