कुमुद कुछ नहीं बोली. बोलने को अब बचा ही क्या था. विवाह के बाद वर्षों तक प्रत्येक नारी के अचेतन मन में जिस स्थिति के आ धमकने का सतत भय समाया रहता है, वही शायद आ पहुंची है.
अपनी समस्त कुंठाओं और प्लावन के साथ, जिस में सबकुछ बह जाता है. उसे अपनी शक्तियां बटोरनी चाहिए. पर किस के विरुद्ध. रघु के? सोमेन के या स्वयं अपने? इस मूर्ख, बेहूदे छोकरे सोमेन को यह क्या सूझ. क्यों निरर्थक बकवास करने आ धमका? रत्तीभर अक्ल नहीं है उसे. पर उस का भी क्या दोष.
पासपड़ोस का कोई बचपन की मुंहबोला दोस्त अपनी बचपन के दोस्त की ससुराल जा कर मिले ही नहीं. खुल कर बचपन की बातें न करे. यह कैसी विकृति है कि इस संबंध को सदैव गलत ही समझ जाए. दोषी रघु है. वही अपने मन में विकृतियां पाले हुए है. उसे अपने पुरुष भाव का बड़ा अहंकार है. वह इतने संकीर्ण मन का है, यह कुमुद को पहले क्या पता था.
और तुम? महामूर्ख हो, कुमुद. जब कोई बात ही नहीं तो यह अपराधियों सा सहमना, बिना पूछे रघु को सफाई देने की चेष्टा, यह सब क्या है? क्या सचमुच तुम्हारे मन में भी चोर है? रघु ने चोर की दाढ़ी में तिनका देखा तो वह क्या करे? वह भी तो आदमी है, पति है.
हम लाख आधुनिक बनें, दोनों कमाऊ हों नरनारी का रिश्ता वही आदिम बना रहेगा. पुरुष अपनी जागीर में किसी का रत्तीभर हस्तक्षेप सहन नहीं कर सकता, उसे भड़का देने में कैसीकैसी अजीब सी स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं, चाहे बात कुछ भी न हो, पर…
उसे विवशताजन्य क्रोध चढ़ आया. सब पर, अपने पर, रघु, सोमेन, नीता, सब पर. ग्लानि हुई अपनी कमजोरी पर, असुरक्षा पर. दैन्य दिखाने की जरूरत थी ही कहां.
रात की धुंधली ओस लान पर उतरने लगी. मलगजा सा प्रकाश फाटक के आसपास सड़क पर फैल गया.
तभी सामने गेट पर कोई भीतर आता देखा. रघु नहीं हो सकता. वह तो कार में आता है. कुमुद को बरामदे में बैठना ठीक नहीं लगा. वह ड्राइंगरूम में टीवी के पास आ बैठी जहां कोई बेकार सा सासबहू वाला सीरियल चल रहा था.
नीता के कमरे से हलकी, मीठी आवाज में टेपरिकौर्डर का संगीत आ रहा था, ‘‘नाहि आए घनश्याम घिर आई बदरी… हां… आ… आ. फिर आई बदरी…’’
कुमुद के होंठ विद्रूप से मुड़ गए. बड़ी व्याकुलता हो रही है, घनश्याम नहीं आए तो. आएंगे तो क्या यह पूछताछ नहीं करेंगे कि बोल, मेरे पीछे यहां कौन आया था? वह तेरा कौन लगता है? क्याक्या बातें हुईं? उस ने तुझे छुआ भी? यदि हां, तो कहां? कैसे?
एक हलकी हंसी की आवाज से वह चौंक पड़ी. देखा सामने सोमेन खड़ा था. उसे आघात सा लगा कि यह यहां कैसे आ टपका.
सोमेन सदा की तरह हंसता हुआ बोला, ‘‘किस के ध्यान में हैं, देवीजी?’’
कुमुद ने नीता के कमरे की ओर दृष्टिपात किया. गला दबा कर कटु स्वर में बोली, ‘‘सोमेन, तुम्हें मु?ा से क्या दुश्मनी है?’’
सोमेन की हंसी में एकाएक जैसे ब्रेक लग गया. सालभर पहले का दब्बू सोमेन जैसे फिर से सामने आ खड़ा हुआ. कुछ हकलाता सा बोला, ‘‘कैसी दुश्मनी? क्या कह रही हो?’’
‘‘तुम्हें जिंदगी में कभी भी अक्ल नहीं आएगी क्या?’’ कुमुद का सारा दबा क्षोभ अवसर पा कर उमड़ने लगा, ‘‘यहां क्यों आते हो. बाजार में एक बार भेंट होना काफी नहीं था क्या?’’
सोमेन अवाक खड़ा रहा.
कुमुद का दबा क्षोभ उफन कर निकलता रहा, ‘‘तुम्हें, मुझे यहां वाले नहीं जानतेसमझाते.
मैं ने तो तुम्हें सदैव अपना भाई सा समझ है. पर संसार ऐसी भावना को मान कर नहीं चलता. वह इसे भी अपने अनोखे चश्मे से देखता है.
क्या इतनी सी बात नहीं समझते तुम? यहां से चले जाओ और फिर कभी मत आना. अपनी बेकार की बातों से शंका के जो बीच बो गए हो देखूं रघु के मन से उन्हें दूर कर पाती हूं या नहीं.’’
सोमेन चुपचाप लौटने लगा. बोला, ‘‘ठीक कहती हो, मेरी गलती से तुम्हें कष्ट हुआ, माफ करना. मैं जाता हूं.’’
कुमुद ने जरा विगलित कंठ से कहा, ‘‘सुनो, सोमेन. इस में मेरा दोष न समझना. मेरे लिए तो तुम वही भाई के बराबर हो.’’
सोमेन बाहर निकल गया. थोड़ी देर बाद कुमुद बाहर आई. बरामदे में अंधेरा था. बल्ब कैसे बुझ गया. उस
ने स्विच दबाया. बत्ती जलते ही वह चौंक पड़ी. यह कौन है. देखा रेघु बरामदे की आरामकुरसी पर बैठा मोबाइल से खेल रहा था. कुमुद काठ हो गई.
रघु ने बिना आंखें उठाए जैसे मोबाइल से कहा, ‘‘हो गया डायलौग खत्म. संवाद तो बड़े शानदार, चुटीले और विश्वासजनक रहे. किस मुंबइया सीरियल से चुने? पर आश्चर्य है, तुम लोगों को कैसे पता लगा कि मैं यहां आ कर बाहर बैठ गया हूं?’’
स्कूल वैन का ड्राइवर कनुभाई शायद अपनी नींद पूरी न हो पाने की खी?ा गाड़ी का हौर्न बजाबजा कर उतार रहा था. सुबह के 6 बज कर 10 मिनट हो चुके थे, दांत किटकिटा देने वाली ठंड थी और अंधेरा छंटा नहीं था. किंतु पूर्व में क्षीण लालिमा सूर्य के आने पूर्व सूचना दे रही थी. आकाश गहरा नीला था जिस में चंद्रमा और हलके होते तारे अब भी देखे जा सकते थे.
इतना सुंदर दृश्य और ये हौर्न की कर्कश आवाज, सोचते हुए तनूजा गेट की ओर जाने लगी, तो फिर हौर्न की तेज आवाज कानों में पड़ी. वह वैन के पास पहुंचते ही बोली, ‘‘अरे कनुभाई, क्यों सुबहसुबह इतनी जोरजोर से हौर्न बजा रहे हो? आ रहे हैं बच्चे.’’ ‘‘क्या करूं मैडम. अभी 5 अलगअलग जगहों से बच्चों को लेना है और 7 बजे से पहले उन्हें स्कूल पहुंचना है. नहीं तो मेन गेट बंद हो जाएगा.’’
उस का कहना भी सही था. देर से आने वाले बच्चों को पूरा 1 पीरियड, सजा के तौर पर बाहर ही खड़े रहना पड़ता है. इस से तो बेहतर है कि हौर्न से कर्णभेदी ध्वनि पैदा की जाए जिस से चौंक कर उनींदे बच्चे भी दौड़ें. तनूजा के बच्चे तन्मयी व तनिष्क फुरती से दौड़ कर वैन में बैठ
गए.
‘‘बाय मम्मी.’
‘‘बाय बच्चो, हैव ए नाइस डे.’’
फिर हाथ हिलाते हुए तनूजा वैन के ओ?ाल हो जाने तक वहीं खड़ी रही.
तन्मयी और तनिष्क ने जब से स्कूल जाना शुरू किया है तभी से तनूजा के हरेक दिन का शुभारंभ यहीं से होता है. इस के बाद 45-50 मिनट की मौर्निंग वाक और फिर वापस घर. 6.20 हो गए थे, डीपीएस की स्कूल बस के आने का समय हो गया था.
सामने से शांतिजी आ रहीं थीं, अपने पुत्र का लाल, भारीभरकम बैग दाएं कंधे पर लादे. कमर आगे को इतनी ?ाकी हुई मानो मन भर वजन रखा हो पीठ पर. गले में सामने की ओर टंगी वाटर बौटल और दूसरे हाथ में बेटे बिल्लू का हाथ कस कर पकड़े हुए.
बिल्लू को आप 3-4 साल का मुन्ना राजा सम?ाने की भूल कतई न कीजिएगा. वह 9वीं कक्षा में है और बस 3 माह बाद ही 10वीं में होगा. हलकीहलकी मूंछें आ रही हैं और डीलडौल ऐसा कि बैग सहित अपनी मम्मी को भी उठा ले. किंतु क्या करें, शांतिजी का मातृप्रेम बिल्लू की साइज से कहीं अधिक विशाल है.
वैसे शांतिजी सिर्फ नाम की ही शांति हैं. बोलती तो वे इतना हैं कि पूछिए मत.
बस 2 मिनट के अंतराल पर ही आएंगी उन की परम सखी नमिता अपनी दोनों पुत्रियों को छोड़ने के लिए जो डीपीएस में ही पढ़ती हैं. बड़े प्यारे नाम हैं दोनों के, चंद्रकला और चंद्रलक्ष्मी. नमिताजी पहले ही आ जाती हैं और बस को आता देख पूरी ताकत से अपनी बेटियों का नाम ले कर चिल्लाती हैं कि बस आ गई. मानना पड़ेगा कि दम है उन की आवाज में. नीचे से चौथी मंजिल तक आवाज पहुंच जाती है और छोटे कद की, छोटीछोटी आंखों और बड़े से चेहरे वाली, गोरीगोरी उन की बेटियां नीचे आ जाती हैं.
लेकिन नमिता शांति की तरह अपने बच्चों के बैग लादे नहीं आतीं. सिर्फ वाटर बौटल पकड़े आती हैं. उन की छोटीछोटी आंखों में काजल की गहरी रेखाएं खिंची होती हैं. साथ ही पाउडर की एक पतली परत और विचित्र सी गंध वाला डिओ जिस से पास से गुजरती तनूजा को छींक आने लगती है, तो वह तेज गति से चलने लगती है.
नमिता और शांति की गहरी मित्रता है. बच्चों को बस में बैठा कर वे निकल पड़ती हैं अपनी गप यात्रा पर, जिस के लिए उन्हें मंथर गति से मौर्निंग वाक करनी होती है. समयसमय पर उन की गति मंद से मंदतर होती रहती है.
अब तेज गति से चलेंगी तो बातें पूरी कैसे होंगी 2 राउंड लगाने में? उन्हें ऐडजस्ट भी तो करना है.
कभीकभी उन के वार्तालाप से कुछ शब्द अपने क्षेत्र से बाहर निकल तनूजा के कानों में चले आते. अभी परसों ही शांति नमिता से कह रही थीं, ‘‘हम ने तो बिल्लू के लिए ट्यूशन टीचर के यहां बुकिंग करा दी है, तुम ने करा ली?’’
‘‘बुकिंग उन के पास बुकिंग करानी पड़ती है क्या?’’ नमिता ने अचरज से पूछा. ‘‘और नहीं तो क्या, अब तो भइया बुकिंग सिस्टम है, जब बच्चा 9वीं में हो तभी से 10वीं के ट्यूशन के लिए टीचर के पास बुकिंग करानी
पड़ती है. मैं ने मैथ्स के लिए थौमस सर, साइंस के लिए हांडा मैडम और इंगलिश के लिए गौड़ मैडम के पास बिल्लू के लिए बुकिंग करा ली है,’’ शांतिजी धाराप्रवाह बोल रही थीं.
नमिता थोड़ी हताश लग रही थीं. आखिर कैसे पीछे रह गईं वे शांति से? चंद्रकला बिल्लू की ही कक्षा में थी. इतने में ही नहीं रुकी शांतिजी, ‘‘अब खाली हिंदी और सोशल साइंस का रह गया है, वह भी करा दूंगी. तुम भी चंद्रकला के लिए जल्दी से बुकिंग करा लो वरना सीट नहीं मिलेगी किसी भी ट्यूटर के पास.’’
‘‘हां शांति, आज ही जाऊंगी मैं.’’
ट्यूशन में भी सीट का रोना है सोचते हुए हंसी आ गई थी तनूजा को. यों तो ट्यूशनों से उसे कोई शिकायत नहीं थी, किंतु जिस तीव्र गति से ये ट्यूशनें बच्चों का खेलनेकूदने का समय खाए जा रहीं थीं, उन की कल्पनाशक्ति का विकास कुंद बनाए दे रहीं थीं, इस की वह घोर विरोधी थी. बच्चा 6-7 घंटे पढ़ कर स्कूल से थकामांदा लौटे, जल्दीजल्दी किसी तरह भोजन के निवाले मुंह में ठूंसे, तभी मम्मियों की चीखपुकार शुरू
हो जाती है कि जल्दी करो… ट्यूशन का टाइम हो गया. औटो वाला आता ही होगा.
बेचारे बच्चे सांस भी नहीं ले पाते. ट्यूशन पढ़ कर जब वे लौटते हैं तो शाम के 7-8 बज जाते हैं. फिर होमवर्क, ट्यूशन का होमवर्क कभीकभी कोई प्रोजेक्ट. और भी बहुत कुछ. इस सब के बाद मातापिता की ऊंची अपेक्षाओं का दबाव.
आज की जेनरेशन तो बहुत मैटीरियलिस्टिक है. बस इन्हें मोबाइल, आईपौड या लैपटौप दे दो फिर इन्हें किसी की जरूरत नहीं. ओहो, ये सब क्या सोचने लगी मैं फिर से, सिर ?ाटकते हुए कहा तनूजा ने फिर तेजी से चलने लगी.
6.45 हुआ ही चाहते थे. अब आएगी डिवाइन बड्स की पीली मिनी बस. सामने से आ रहा था प्यारा सा अक्षय अपनी मम्मी की उंगली थामे व टैडीबियर के आकार का बैग अपनी पीठ पर टांगे. गोरा, गोलमटोल, घुंघराले बालों वाला अक्षय बहुत आकर्षक था. अपनी चमचमाती सफेद यूनिफौर्म और पौलिश से दमकते काले जूतों में और भी प्यारा लगता.
अक्षय की मम्मी अर्चना ऊपर बताई गई दोनों मम्मियों से भिन्न थी. वेशभूषा से आधुनिक, गंभीर संभ्रांत महिला. तनूजा और उस के बीच एक मुसकराहट के आदानप्रदान का रिश्ता है. कभीकभी प्यार से अक्षय का कंधा थपथपा कर तनूजा कहती, ‘‘गुड मौर्निंग अक्षय,’’ तो वह शरमा कर मम्मी से लिपट जाता.
बस में बैठ अक्षय स्कूल चला गया और अर्चना घर. शांति और नमिता की मंदगति की सैर अभी चल रही थी, जिसे देख कर तनूजा को हंसी आ गई. लेकिन हंसी को बीच में ही रोकना पड़ा, क्योंकि दोनों पास आ गई थीं.
बस अब 10 मिनट ही बचे हैं तनूजा की सैर के. इस में वह ब्रिस्क वाक करती है.
6.55 हो चुके हैं, अब चिल्ड्रेंस ऐकेडमी की बस आने का समय हो गया है. सामने से आ रहे थे जुड़वां भाईबहन सुरभि व समरेश अपनी मम्मी हेमा के साथ. दोनों छठी में पढ़ते हैं. हेमा व्यस्त कामकाजी महिला है और बमुश्किल 33 साल उम्र की होगी. बच्चों को बस में बैठा उसे भी औफिस जाने की तैयारी करनी होती होगी. शायद इसीलिए कभी गाउन, कभी मिडी तो कभीकभी नाइटसूट में ही नीचे आ जाती. कभीकभी नाइटसूट पर ऐप्रन बांधे ही आ जाती. सांस लेने की भी फुरसत नहीं है, उसे देख कर यही लगता था.
सुरभि, समरेश दोनों हाथों में कभी टोस्ट, कभी सैंडविच, कभी परांठा पकड़े आते और चलतेचलते खातेखाते बस में बैठ जाते. अभी परसों ही सुरभि की बहती नाक हेमा ने बड़े ही प्रेम से अपनी स्वैटर की बांह से साफ कर दी थी. लंबे, रेशमी बालों की चोटी, तीखे नाकनक्श और सुनहरे फ्रेम का चश्मा लगाने वाली हेमा तनूजा को बहुत भाती थी. कोई दिखावा नहीं, कोई कृत्रिमता नहीं, सहज, सरल. साइड से कटे गाउन में से टांग दिख रही है तो दिखती रहे, कोई देख रहा है तो देखता रहे. रुमाल नहीं मिल रहा तो स्वैटर या दुपट्टे से भी नाक साफ हो सकती है.
शाम को औफिस से आ कर बच्चों का होमवर्क, डिनर निबटातेनिबटाते रात के 12 बज जाते हैं. नींद देर से खुलती है तो बच्चों को तैयार करने में देर हो जाती है. अब नाश्ता टेबल पर करें या चलतेचलते क्या फर्क पड़ता है, अकसर उस के ये अनकहे शब्द तनूजा को सुनाई दे जाते. और चिल्ड्रेंस ऐकेडमी अन्य स्कूलों से विपरीत दिशा में था, अत: सड़क पार जाना होता था उन्हें. अपनेअपने बैग अपनी पीठ पर लादे उन दोनों का हाथ पकड़ कर सड़क पार कराती हेमा बीच में रहती थी और गले में भोलेनाथ के सर्प सी लिपटी पानी की 2 बोतलें डाले रहती थी.
7 बज चुके हैं. अब अंतिम राउंड तनूजा की वाक का. और अब सिर्फ भूमिका का आना शेष था. 12वीं की छात्रा भूमिका हीरामणि विद्यालय की छात्रा. जितनी खूबसूरत उतनी ही मोटी भी. बड़ी नाइंसाफी थी ये. धीरे से तनूजा के पास से गुजरती और मुसकराते हुए ‘नमस्ते आंटीजी’ कह कर निकल जाती. उस के नमस्ते के बाद तनूजा की वाक को पूर्णविराम और वह अपने घर.
पिछले कई हफ्तों से तनूजा के इस दैनिक अध्याय में एक अधूरापन सा आ गया था. नन्हा अक्षय कई दिनों तक स्कूल जाने के लिए नहीं आया. डिवाइन बड्स की पीली मिनी बस रोज आती हौर्न बजाती 5 मिनट उस की प्रतीक्षा करती फिर उस के न आने पर चली जाती. एक दिन अक्षय आता दिखा कमजोर, पीला सा. अर्चना साथ नहीं थी. एक धीरेधीरे चल रही बुजुर्ग महिला थी साथ में. शायद उस की दादी थीं. कुछ
गुमसुम सा अक्षय उन से भी धीमी चाल से चल रहा था. उस की चमचमाती यूनिफौर्म और दमकते जूते, जिस में वह और भी प्यारा लगता था कुछ अलग ही स्थिति में थे. यूनिफौर्म मुड़ीतुड़ी बिना इस्तिरी की और धूलधूसरित जूते. शायद अर्चना बीमार है, तनूजा ने सोचा.
फिर अक्षय की पीठ थपथपा कर पूछा, ‘‘मम्मी ठीक हैं आप की?’’ प्रत्युत्तर में वह चुपचाप देखता रहा. न पहले की तरह शरमाया, न कुछ बोला. उस की दादी ने हाथ पकड़ कर खींच लिया, ‘‘छेत्ती चल पुत्तर, नई ते बस छुट जानी है,’’ कुछ अजीब व्यवहार लगा तनूजा को उन का.
फिर कई सुबहें बीत गईं. सभी बच्चे क्रमानुसार आते, अपनी मम्मियों की उंगली थामे किंतु अर्चना दिखाई नहीं दी. अक्षय कभी दादी, कभी दादाजी, तो कभी अपने पापा के साथ नीचे आता. कभीकभी 2-3 दिन स्कूल आता ही नहीं. जब भी आता अकेले ही चलता. बिना किसी की उंगली थामे. चेहरे पर खुशी नहीं, चाल में कोई उत्साह नहीं. एकदम मुर?ाया सा. उस का टैडीबियर वाला बैग मानो बहुत भारी हो गया था,
जिस का बो?ा वह उठा नहीं पा रहा था. उस की आंखों में कई प्रश्नों के साथ बहुत पीड़ा भी नजर आती. किसी के पास इतना समय नहीं था कि उस बच्चे में हो रहे परिवर्तनों पर ध्यान देता. सभी अपने में व्यस्त थे, दूसरे के विषय में कौन सोचे.
तनूजा एक संवेदनशील महिला है इसलिए अकसर सोच कर दुखी होती कि क्या हो गया है अक्षय को. अर्चना के विषय में भी कुछ पता नहीं चल रहा. धीरेधीरे 2 महीने हो गए थे. तनूजा की अब न तो शांति और नमिता की बातचीत में कोई दिलचस्पी थी न ही गांगुलीजी के विचित्र ड्रैसिंग सैंस में. तनूजा का सारा ध्यान अब अक्षय पर ही केंद्रित था. शाम को सभी छोटेबड़े बच्चे पार्क में खेलते थे. उन का खेलना, ?ागड़ना, फिर मनाना तनूजा अकसर देखा करती थी अपनी बालकनी से.
पिछले दिनों मैं दीदी के बेटे नीरज के मुंडन पर मुंबई गई थी. एक दोपहर दीदी मुझे बाजार ले गईं. वे मेरे लिए मेरी पसंद का तोहफा खरीदना चाहती थीं. कपड़ों के एक बड़े शोरूम से जैसे ही हम दोनों बाहर निकलीं, एक गाड़ी हमारे सामने आ कर रुकी. उस से उतरने वाला युवक कोई और नहीं, विजय ही था. मैं उसे देख कर पल भर को ठिठक गई. वह भी मुझे देख कर एकाएक चौंक गया. इस से पहले कि मैं उस के पास जाती या कुछ पूछती वह तुरंत गाड़ी में बैठा और मेरी आंखों से ओझल हो गया. वह पक्का विजय ही था, लेकिन मेरी जानकारी के हिसाब से तो वह इन दिनों अमेरिका में है. मुंबई आने से 2 दिन पहले ही तो मैं मीनाक्षी से मिली थी.
उस दिन मीनाक्षी का जन्मदिन था. हम दोनों दिन भर साथ रही थीं. उस ने हमेशा की तरह अपने पति विजय के बारे में ढेर सारी बातें भी की थीं. उस ने ही तो बताया था कि उसी सुबह विजय का अमेरिका से जन्मदिन की मुबारकबाद का फोन आया था. विजय के वापस आने या अचानक मुंबई जाने के बारे में तो कोई बात ही नहीं हुई थी.
लेकिन विजय जिस तरह से मुझे देख कर चौंका था उस के चेहरे के भाव बता रहे थे कि उस ने भी मुझे पहचान लिया था. आज भी उस की गाड़ी का नंबर मुझे याद है. मैं उस के बारे में और जानकारी प्राप्त करना चाहती थी. लेकिन उसी शाम मुझे वापस दिल्ली आना था, टिकट जो बुक था. दीदी से इस बारे में कहती तो वे इन झमेलों में पड़ने वाले स्वभाव की नहीं हैं. तुरंत कह देतीं कि तुम अखबार वालों की यही तो खराबी है कि हर जगह खबर की तलाश में रहते हो.
दिल्ली आ कर मैं अगले ही दिन मीनाक्षी के घर गई. मन में उस घटना को ले कर जो संशय था मैं उसे दूर करना चाहती थी. मीनाक्षी से मिल कर ढेरों बातें हुईं. बातों ही बातों में प्राप्त जानकारी ने मेरे मन में छाए संशय को और गहरा दिया. मीनाक्षी ने बताया कि लगभग 6 महीनों से जब से विजय काम के सिलसिले में अमेरिका गया है उस ने कभी कोई पत्र तो नहीं लिखा हां दूसरे, चौथे दिन फोन पर बातें जरूर होती रहती हैं. विजय का कोई फोन नंबर मीनाक्षी के पास नहीं है, फोन हमेशा विजय ही करता है. विजय वहां रह कर ग्रीन कार्ड प्राप्त करने के जुगाड़ में है, जिस के मिलते ही वह मीनाक्षी और अपने बेटे विशु को भी वहीं बुला लेगा. अब पता नहीं इस के लिए कितने वर्ष लग जाएंगे.
मैं ने बातों ही बातों में मीनाक्षी को बहुत कुरेदा, लेकिन उसे अपने पति पर, उस के प्यार पर, उस की वफा पर पूरा भरोसा है. उस का मानना है कि वह वहां से दिनरात मेहनत कर के इतना पैसा भेज रहा है कि यदि ग्रीन कार्ड न भी मिले तो यहां वापस आने पर वे अच्छा जीवन बिता सकते हैं. कितन भोली है मीनाक्षी जो कहती है कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करना ही पड़ता है.
मीनाक्षी की बातें सुन कर, उस का विश्वास देख कर मैं उसे अभी कुछ बताना नहीं चाह रही थी, लेकिन मेरी रातों की नींद उड़ गई थी. मैं ने दोबारा मुंबई जाने का विचार बनाया, लेकिन दीदी को क्या कहूंगी? नीरज के मुंडन पर दीदी के कितने आग्रह पर तो मैं वहां गई थी और अब 1 सप्ताह बाद यों ही पहुंच गई. मेरी चाह को राह मिल ही गई. अगले ही सप्ताह मुंबई में होने वाले फिल्मी सितारों के एक बड़े कार्यक्रम को कवर करने का काम अखबार ने मुझे सौंप दिया और मैं मुंबई पहुंच गई.
वहां पहुंचते ही सब से पहले अथौरिटी से कार का नंबर बता कर गाड़ी वाले का नामपता मालूम किया. वह गाड़ी किसी अमृतलाल के नाम पर थी, जो बहुत बड़ी कपड़ा मिल का मालिक है. इस जानकारी से मेरी जांच को झटका अवश्य लगा, लेकिन मैं ने चैन की सांस ली. मुझे यकीन होने लगा कि मैं ने जो आंखों से देखा था वह गलत था. चलो, मीनाक्षी का जीवन बरबाद होने से बच गया. मैं फिल्मी सितारों के कार्यक्रम की रिपोर्टिंग में व्यस्त हो गई.
एक सुबह जैसे ही मेरा औटो लालबत्ती पर रुका, बगल में वही गाड़ी आ कर खड़ी हो गई. गाड़ी के अंदर नजर पड़ी तो देखा गाड़ी विजय ही चला रहा था. लेकिन जब तक मैं कुछ करती हरीबत्ती हो गई और वाहन अपने गंतव्य की ओर दौड़ने लगे. मैं ने तुरंत औटो वाले को उस सफेद गाड़ी का पीछा करने के लिए कहा. लेकिन जब तक आटो वाला कुछ समझता वह गाड़ी काफी आगे निकल गई थी. फिर भी उस अनजान शहर के उन अनजान रास्तों पर मैं उस कार का पीछा कर रही थी. तभी मैं ने देखा वह गाड़ी आगे जा कर एक बिल्डिंग में दाखिल हो गई. कुछ पलों के बाद मैं भी उस बिल्डिंग के गेट पर थी. गार्ड जो अभी उस गाड़ी के अंदर जाने के बाद गेट बंद ही कर रहा था मुझे देख कर पूछने लगा, ‘‘मेमसाहब, किस से मिलना है? क्या काम है?’’
‘‘यह अभी जो गाड़ी अंदर गई है वह?’’
‘‘वे बड़े साहब के दामाद हैं, मेमसाहब.’’
‘‘वे विजय साहब थे न?’’
‘‘हां, मेमसाहब. आप क्या उन्हें जानती हैं?’’
गार्ड के मुंह से हां सुनते ही मुझे लगा भूचाल आ गया है. मैं अंदर तक हिल गई. विजय, मिल मालिक अमृत लाल का दामाद? लेकिन यह कैसे हो सकता है? बड़ी मुश्किल से हिम्मत बटोर कर मैं ने कहा, ‘‘देखो, मैं जर्नलिस्ट हूं, अखबार के दफ्तर से आई हूं, तुम्हारे विजय साहब का इंटरव्यू लेना चाहती हूं. क्या मैं अंदर जा सकती हूं?’’
‘‘मेमसाहब, इस वक्त तो अंदर एक जरूरी मीटिंग हो रही है, उसी के लिए विजय साहब भी आए हैं. अंदर और भी बहुत बड़ेबड़े साहब लोग जमा हैं. आप शाम को उन के घर में उन से मिल लेना.’’
‘‘घर में?’’ मैं सोच में पड़ गई. अब भला घर का पता कहां से मिलेगा?
लगता था गार्ड मेरी दुविधा समझ गया. अत: तुरंत बोला, ‘‘अब तो घर भी पास ही है. इस हाईवे के उस तरफ नई बसी कालोनी में सब से बड़ी और आलीशान कोठी साहब की ही है.’’
मेरे लिए इतनी जानकारी काफी थी. मैं ने तुरंत औटो वाले को हाईवे के उस पार चलने के लिए कहा. विजय और उस का सेठ इस समय मीटिंग में हैं. यह अच्छा अवसर था विजय के बारे में जानकारी हासिल करने का. विजय से बात करने पर हो सकता है वह पहचानने से ही इनकार कर दे.
गार्ड का कहना ठीक था. उस नई बसी कालोनी में जहां इक्कादुक्का कोठियां ही खड़ी थीं, हलके गुलाबी रंग की टाइलों वाली एक ही कोठी ऐसी थी जिस पर नजर नहीं टिकती थी. कोठी के गेट पर पहुंचते ही नजर नेम प्लेट पर पड़ी. सुनहरे अक्षरों में लिखा था ‘विजय’ हालांकि अब विजय का व्यक्तित्व मेरी नजर में इतना सुनहरा नहीं रह गया था.
औटो वाले को रुकने के लिए कह कर जैसे ही मैं आगे बढ़ी, गेट पर खड़े गार्ड ने पहले तो मुझे सलाम किया, फिर पूछा कि किस से मिलना है और मेरा नामपता क्या है?
‘‘मैं एक अखबार के दफ्तर से आई हूं.
मुझे तुम्हारे विजय साहब का इंटरव्यू लेना है,’’ कहते हुए मैं ने अपना पहचानपत्र उस के सामने रख दिया.
‘‘साहब तो इस समय औफिस में हैं.’’
‘‘घर में कोई तो होगा जिस से मैं बात कर सकूं?’’
‘‘मैडम हैं. पर आप रुकिए मैं उन से पूछता हूं,’’ कह उस ने इंटरकौम द्वारा विजय की पत्नी से बात की. फिर उस से मेरी भी बात करवाई. मेरे बताने पर मुझे अंदर जाने की इजाजत मिल गई.
अंदर पहुंचते ही मेरा स्वागत एक 25-26 वर्ष की बहुत ही सुंदर युवती ने किया. दूध जैसा सफेद रंग, लाललाल गाल, ऊंचा कद, तन पर कीमती गहने, कीमती साड़ी. गुलाबी होंठों पर मधुर मुसकान बिखेरते हुए वह बोली, ‘‘नमस्ते, मैं स्मृति हूं. विजय की पत्नी.’’
‘‘आप से मिल कर बहुत खुशी हुई. विजय साहब तो हैं नहीं. मैं आप से ही बातचीत कर के उन के बारे में कुछ जानकारी हासिल कर लेती हूं,’’ मैं ने कहा.
‘‘जी जरूर,’’ कहते हुए उस ने मुझे सोफे पर बैठने का इशारा किया. मेरे बैठते ही वह भी मेरे पास ही सोफे पर बैठ गई.
इतने में नौकर टे्र में कोल्डड्रिंक ले आया. मुझे वास्तव में इस की जरूरत थी. बिना कुछ कहे मैं ने हाथ बढ़ा कर एक गिलास उठा लिया. फिर जैसेजैसे स्मृति से बातों का सिलसिला आगे बढ़ता गया, वैसेवैसे विजय की कहानी पर पड़ी धूल की परतें साफ होती गईं.
स्मृति विजय को कालेज के समय से जानती है. कालेज में ही दोनों ने शादी करना तय कर लिया था. विजय का तो अपना कोई है नहीं, लेकिन स्मृति के पिता, सेठ अमृतलाल को यह रिश्ता स्वीकार नहीं था. उन का कहना था कि विजय मात्र उन के पैसों की लालच में स्मृति से प्रेम का नाटक करता है. कितनी पारखी है सेठ की नजर, काश स्मृति ने उन की बात मान ली होती. वे स्मृति की शादी अपने दोस्त के बेटे से करना चाहते थे, जो अमेरिका में रहता था. लेकिन स्मृति तो विजय की दीवानी थी.
वाह विजय वाह, इधर स्मृति, उधर मीनाक्षी. 2-2 आदर्श, पतिव्रता पत्नियों का एकमात्र पति विजय, जिस के अभिनयकौशल की जितनी भी तारीफ की जाए कम है. स्मृति से थोड़ी देर की बातचीत में ही मेरे समक्ष पूरा घटनाक्रम स्पष्ट हो गया. हुआ यों कि जिन दिनों स्मृति को उस के पिता जबरदस्ती अमेरिका ले गए थे, विजय घबरा कर मुंबई की नौकरी छोड़ दिल्ली आ गया था और दिल्ली में उस ने मीनाक्षी से शादी कर ली. उधर अमेरिका पहुंचते ही सेठ ने स्मृति की सगाई कर दी, लेकिन स्मृति विजय को भुला नहीं पा रही थी. उस ने अपने मंगेतर को सब कुछ साफसाफ बता दिया. पता नहीं उस के मंगेतर की अपने जीवन की कहानी इस से मिलतीजुलती थी या उसे स्मृति की स्पष्टवादिता भा गई थी, उस ने स्मृति से शादी करने से इनकार कर दिया.
स्मृति की शादी की बात तो बनी नहीं थी. अत: वे दोनों यूरोप घूमने निकल गए. उस दौरान स्मृति ने विजय से कई बार संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी, क्योंकि विजय मुंबई छोड़ चुका था. 6 महीनों बाद जब वे मुंबई लौटे तो विजय को बहुत ढूंढ़ा गया, लेकिन सब बेकार रहा. स्मृति विजय के लिए परेशान रहती थी और उस के पिता उस की शादी को ले कर परेशान रहते थे.
एक दिन अचानक विजय से उस की मुलाकात हो गई. स्मृति बिना शादी किए लौट आई है, यह जान कर विजय हैरानपरेशान हो गया. उस की आंखों में स्मृति से शादी कर के करोड़पति बनने का सपना फिर से तैरने लगा.
मेरे पूछने पर स्मृति ने शरमाते हुए बताया कि उन की शादी को मात्र 5 महीने हुए हैं. मन में आया कि इसी पल उसे सब कुछ बता दूं. धोखेबाज विजय की कलई खोल कर रख दूं. स्मृति को बता दूं कि उस के साथ कितना बड़ा धोखा हुआ है. लेकिन मैं ऐसा न कर सकी. उस के मधुर व्यवहार, उस के चेहरे की मुसकान, उस की मांग में भरे सिंदूर ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया.
मेरे एक वाक्य से यह बहार, पतझड़ में बदल जाती. अत: मैं अपने को इस के लिए तैयार नहीं कर पाई. यह जानते हुए भी कि यह सब गलत है, धोखा है मेरी जबान मेरा साथ नहीं दे रही थी. एक तरफ पलदोपल की पहचान वाली स्मृति थी तो दूसरी तरफ मेरे बचपन की सहेली मीनाक्षी. मेरे लिए किसी एक का साथ देना कठिन हो गया. मैं तुरंत वहां से चल दी. स्मृति पूछती ही रह गई कि विजय के बारे में यह सब किस अखबार में, किस दिन छपेगा? खबर तो छपने लायक ही हाथ लगी थी, लेकिन इतनी गरम थी कि इस से स्मृति का घरसंसार जल जाता. उस की आंच से मीनाक्षी भी कहां बच पाती. ‘बाद में बताऊंगी’ कह कर मैं तेज कदमों से बाहर आ गई.
मैं दिल्ली लौट आई. मन में तूफान समाया था. बेचैनी जब असहनीय हो गई तो मुझे लगा कि मीनाक्षी को सब कुछ बता देना चाहिए. वह मेरे बचपन की सहेली है, उसे अंधेरे में रखना ठीक नहीं. उस के साथ हो रहे धोखे से उसे बचाना मेरा फर्ज है.
मैं अनमनी सी मीनाक्षी के घर जा पहुंची. मुझे देखते ही वह हमेशा की भांति खिल उठी. उस की वही बातें फिर शुरू हो गईं. कल ही विजय का फोन आया था. उस के भेजे क्व50 हजार अभी थोड़ी देर पहले ही मिले हैं. विजय अपने अकेलेपन से बहुत परेशान है. हम दोनों को बहुत याद करता है. दोनों की पलपल चिंता करता है वगैरहवगैरह. एक पतिव्रता पत्नी की भांति उस की दुनिया विजय से शुरू हो कर विजय पर ही खत्म हो जाती है.
मेरे दिमाग पर जैसे कोई हथौड़े चला रहा था. विजय की सफल अदाकारी से मन परेशान हो रहा था. लेकिन जबान तालू से चिपक गई. मुझे लगा मेरे मुंह खोलते ही सामने का दृश्य बदल जाएगा. क्या मीनाक्षी, विजय के बिना जी पाएगी? क्या होगा उस के बेटे विशु का?
मैं चुपचाप यहां से भी चली आई ताकि मीनाक्षी का भ्रम बना रहे. उस की मांग में सिंदूर सजा रहे. उस का घरसंसार बसा रहे. लेकिन कब तक?
‘सदा सच का साथ दो’, ‘सदा सच बोलो’, और न जाने कितने ही ऐसे आदर्श वाक्य दिनरात मेरे कानों में गूंजने लगे हैं, लेकिन मैं उन्हें अनसुना कर रही हूं. मैं उन के अर्थ समझना ही नहीं चाहती, क्योंकि कभी मीनाक्षी और कभी स्मृति का चेहरा मेरी आंखों के आगे घूमता रहता है. मैं उन के खिले चेहरों पर मातम की काली छाया नहीं देख पाऊंगी.
पता नहीं मैं सही हूं या गलत? हो सकता है कल दोनों ही मुझे गलत समझें. लेकिन मुझ से नहीं हो पाएगा. मैं तब तक चुप रहूंगी जब तक विजय का नाटक सफलतापूर्वक चलता रहेगा. परदा उठने के बाद तो आंसू ही आंसू रह जाने हैं, मीनाक्षी की आंखों में, स्मृति की आंखों में, सेठ अमृतलाल की आंखों में और स्वयं मेरी भी आंखों में. फिर भला विजय भी कहां बच पाएगा? डूब जाएगा आंसुओं के उस सागर में.
सोमेन अगले ही दिन आया. शाम को 6 बजे कुमुद, रघु, नीता सभी पिक्चर के लिए तैयार हो रहे थे कि वह आ पहुंचा. उस के आने पर नक्शा पलट गया. कुमुद को अपना पड़ोस का पुराना दोस्त बता कर रघु से उस का परिचय कराना पड़ा. फिल्म के टिकट खरीदे नहीं थे इसलिए पिक्चर जाना छोड़ सभी बैठ गए.
नाश्ते पर सोमेन कहने लगा, ‘‘कुम्मू बहुत जंचने लगी है अब तो.’’
कुमुद सिर झुकाए प्लेट में चम्मच इधरउधर करती रही. वह अपने में मस्त कहता रहा, ‘‘सच रघु, यह पहले बड़ी दुबलीपतली सी थी. अब तो काफी भर गया है बदन. लड़कियां कहती हैं न ब्याह का पानी…’’ वह कुमुद को देख कर हंसा, ‘‘यह नटखट भी कम नहीं रही है. बचपन में, खेल ही खेल में इस ने एक बार मेरी कलाई पर इतने जोर से काट लिया कि कप भर खून तो
बहा ही होगा. अभी तक दाग बना है,’’ उस ने कलाई का दाग दिखाया रघु को. फिर मजे से किलकारी सी मार कर हंसा, ‘‘घर आ कर मैं ने मां से कहा कि पड़ोस के एक साथी ने खेल में काट लिया है… ये देवीजी उस दिन पिटने से बच गईं.’’
कुमुद ने कनखियों से देखा, रघु का चेहरा भावहीन, जड़ जैसा बना था. नीता सोमेन की
बातें उत्सुकता से सुन रही थी. कुमुद की इच्छा हुई एक प्लेट नीचे गिरा दे ताकि बातों का विषय बदले.
उधर सोमेन अपनी ही रौ में कहता जा रहा था, ‘‘अब तो यह बड़ी गंभीर बन गई है. कोई शैतानी तो नहीं करती?’’
रघु के होंठ फड़फड़ाए. जैसी किसी गहरे कुएं से आवाज आई हो, ऐसे स्वर में बोला, ‘‘नहीं, बड़ी सीधी है.’’
‘‘हो सकता है, जनाब.’’ सोमेन ने बड़े दार्शनिक भाव से कहा, ‘‘विवाह चीज ही ऐसी है, बड़ेबड़े सीधे हो जाते हैं. तभी तो अभी तक शादी नहीं की, न कोई इरादा ही है.’’
फिर सोमेन एकाएक मुसकरा कर बोला, ‘‘कुमु, याद है वह बार्बी, जिसे तुम्हारे मामाजी लाए थे,’’ वह रघु और नीता से कहने लगा, ‘‘इन देवीजी को अपनी बार्बी का घर पूरा करना था. मेरे पास लीगों का सैट था. मैं ने ही बार्बी का घर बसाया, मेरा मतलब बनाया. याद है, कुमु,’’ सोमेन ने हंसते हुए पूछा.
कुमुद देख रही थी. दोनों भाईबहन खामोश हैं. उस बेवकूफ सोमेन को क्या जरा भी अक्ल नहीं? उस ने जबरन होंठों पर मुसकान लाते हुए कहा, ‘‘सोमेन, तुम वैसे ही रहे नटखट. बकबक किए जा रहे हो, नाश्ता वैसे ही रखा है. इन बातों को छोड़ो, बहुत बचपन की बातें हैं.’’
‘‘हांहां,’’ कह सोमेन ने नाश्ते पर ध्यान दिया.
उस दिन किसी तरह जब सोमेन वहां से टला तो कुमुद ने चैन की सांस ली. जाते हुए वह वादा भी करता गया कि बीचबीच में मिलता रहेगा.
नीता के उठ जाने पर कुमुद ने हलके ढंग से रघु को बताया, ‘‘यह सोमेन भी बड़ा अजीब है. बचपन में उसे गरदन तोड़ बुखार हो गया था, तभी से इस के पेंच कुछ ढीले रहे हैं. मांबाप डरते रहते थे, पता नही कब क्या कर बैठे.
दिमाग की कमजोरी कभी दूर नहीं हुई. हैरानी है कि इसे बैंक में नौकरी मिल गई और यहीं की ब्रांच में.’’
रघु ने बड़े शांत भाव से कहा, ‘‘तुम्हारे तो बचपन के साथी ठहरे. यहीं नौकरी मिली तो क्या बुरा है. साथ रहेगा. तुम दोनों को खुशी होगी. कभीकभार औफिस से आतेजाते लिफ्ट भी दे दिया करेगा.’’
कुमुद ने उपेक्षा के भाव से कहा, ‘‘मुझे क्या खुशी होगी. बिना बात मिल कर बोर किया करेगा और मुझे लिफ्ट भी दे दिया करेगा पर उस की लिफ्ट की जरूरत ही क्या है जब तुम हो औफिस से पिकअप करने के लिए.’’
रघु उठ खड़ा हुआ. मोबाइल में मेल चैक करता हुआ बोला, ‘‘तो क्या हुआ, अब तो वह यहीं है, खूब देखना पिक्चर. बड़ा खुश था, तुम्हारे भरे बदन को देख कर. बेचारे ने तुम्हें हमेशा दुबलीपतली ही देखा. अब यह सुंदर दृश्य देखने बारबार न आएगा यहां तो गरीब का मन कैसे मानेगा?’’
कुमुद ने आंखें उठा कर रघू को देखा. ठहरे हुए स्वरों में पूछा, ‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’
‘‘मतलब?’’ रघु ने शांति से कहा, ‘‘मेरा क्या मतलब होगा. बचपन के 2 घनिष्ठ दोस्तों के बीच कुछ कहने, टांग अड़ाने वाला मैं कौन हूं?’’
‘‘रघू,’’ कुमुद ने आहत स्वरों में कहा, ‘‘तुम्हें तो ऐसा नहीं कहना चाहिए. तुम्हीं ऐसा कहोगे तो…’’
किसी को फोन करने की ऐक्टिंग करते हुए रघु बाहर निकल गया.
रात को भोजन की मेज पर दोनों परस्पर बड़े शिष्टाचार और ठंडेपन से पेश आते रहे. नीता को वातावरण कुछ ऐसा भारी और दमघोटू लगा कि वह जल्दी से अपना खाना खत्म कर पहले ही मेज से उठ खड़ी हुई.
रात को सोते समय चौड़े पलंग के किनारे पर लेटी कुमुद को लगा जैसे वह सागर के किनारे ठंडे बालू पर लेटी है. लहरें बारबार आ कर उसे भिगो देती हैं और रघु समुद्र के दूसरे किनारे पर सो रहा है. वह रघु को पुकारती पर
रघु उस की आवाज नहीं सुन पाता. लहरों की गर्जन के बीच वह जाग रही है या सोई, उसे यह भान न रहा.
आज सुबह से ही वही वातावरण बना है. नीता मन ही मन कुढ़ती रही और कुमुद…
5 बज गए थे. कुमुद अपने दफ्तर से चल दी. घर पहुंच कर कपड़े बदले, हलका सा मेकअप किया, चाय की मेज बरामदे में सजा दी और नित्य के नियमानुसार बरामदे में आ बैठी. रघु समय का पक्का है. ठीक 7 बजे घर आ पहुंचता है.
नीता आ कर बगल की कुरसी पर बैठी. कुमुद से पूछा, ‘‘रघु आए नहीं अभी?’’
कुमुद ने कलाई घड़ी देखी, 8 बजे थे. समय का पाबंद रघु अभी तक नहीं आया था. नीता ने टीकोजी उठाई और बोली, ‘‘भाभी, चाय ठंडी हो रही है.’’
कुमुद बेचैनी के साथ फाटक पर दृष्टि गड़ाए रही. धीरेधीरे 8:30 बज गए पर रघु अभी तक नहीं आया.
‘‘पता नहीं, कहां चले गए,’’ नीता ने खिन्न हो कर कहा, ‘‘दोस्तों के साथ मटरगश्ती करने चल दिए होंगे. मैं तो जाती हूं पढ़ने, भाभी. परीक्षा सिर पर है,’’ और वह भीतर चल दी.
लौट कर आए तो तबीयत ठीक नहीं लग रही थी. दूसरे दिन कचहरी नहीं जाना चाहते थे, मगर गए. न जाने का मतलब अपना नुकसान. एक दिन सुमन से कहने लगे, ‘मेरा मन कचहरी जाने का नहीं करता. लोग कहते हैं कि वकील कभी रिटायर नहीं होता, क्यों नहीं होता. वह क्या हाड़मांस का नहीं बना होता? शरीर उस का भी कमजोर होता है. यह क्यों नहीं कहते कि वकील रोज कचहरी नहीं जाएगा तो खाएगा क्या?’ सुमन को विनोद व खुद पर तरस आया. सरकारी नौकरी में लोग बड़े आराम से अच्छी तनख्वाह लेते हैं. उस के बाद आजन्म पैंशन का लुत्फ उठा कर जिंदगी का सुख भोगते हैं. यहां तो न जवानी का सुख लिया, न ही बुढ़ापे का. मरते दम तक कोल्हू के बैल की तरह जुतो. काले कोट की लाज ढांपने में ही जीवन अभाव में गुजर जाता है. एक रात विनोद के सीने में दर्द उभरा. सुमन घबरा गई. पासपड़ोस के लोगों को बुलाया, मगर कोई नहीं आया. भाई को फोन लगाया. वह भागाभागा आया. उन्हें पास के निजी अस्पताल में ले जाया गया. वहां डाक्टरों ने कुछ दवाएं दीं. विनोद की हालत सुधर गई. अगले दिन डाक्टर ने सुमन से कहा कि वे इन्हें तत्काल दिल्ली ले जाएं. सुमन के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं. डाक्टर बोले, ‘‘इन के तीनों वौल्व जाम हो चुके हैं. अतिशीघ्र बाईपास सर्जरी न की गई तो जान जा सकती है.’’
सुमन की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. बाईपास सर्जरी का मतलब 3-4 लाख रुपए का खर्चा. एकाएक इतना रुपया आएगा कहां से. लेदे कर एकडेढ़ लाख रुपया होगा. इतने गहने भी नहीं बचे थे कि उन्हें बेच कर विनोद की जान बचाई जा सके. मकान बेचने का खयाल आया जो तत्काल संभव नहीं था. ऐसे समय सुमन अपनेआप को नितांत अकेला महसूस करने लगी. उस के मन में बुरेबुरे खयाल आने लगे. अगर विनोद को कुछ हो गया तब? वह भय से सिहर गई. अकेली जिंदगी किस के भरोसे काटेगी? क्या बेटी के पास जा कर रहेगी? लोग क्या कहेंगे? सुमन जितना सोचती, दिल उतना ही बैठता. उस की आंखों में आंसू आ गए. भाई राकेश की नजर पड़ी तो वह उस के करीब आया, ‘‘घबराओ मत, सब ठीक हो जाएगा. 1 लाख रुपए की मदद मैं कर दूंगा.’’ सुमन को थोड़ी राहत मिली. तभी रेखा का फोन आया, ‘‘मम्मी, रुपयों की चिंता मत करना. मैं तुरंत बनारस पहुंच रही हूं.’’
सुमन की जान में जान आई. अपने आंसू पोंछे. वह सोचने लगी कि अभी किसी तरह विनोद की जान बचनी चाहिए, बाद में जब वे ठीक हो जाएंगे तब मकान बेच कर सब का कर्ज चुका देंगे. विनोद को प्लेन से दिल्ली ले जाया गया. मगर इलाज से पूर्व ही विनोद की सांसें थम गईं. सुमन दहाड़ मारमार कर रोने लगी. वह बारबार यही रट लगाए हुए थी कि अब मैं किस के सहारे जिऊंगी. रेखा ने किसी तरह उन्हें संभाला. तेरहवीं खत्म होने के एक महीने तक रेखा सुमन के पास ही रही. राकेश उसे अपने पास ले जाना चाहता था जबकि रेखा चाहती थी कि मां उस के पास शेष जीवन गुजारे. सब से बड़ी समस्या थी जीविकोपार्जन की. विनोद के जाने के बाद आमदनी का स्रोत खत्म हो गया था. कचहरी से 50 हजार रुपए मिले थे. 50 हजार के आसपास बीमा के. कुछ वकीलों ने सहयोग किया. सुमन ने काफी सोचविचार कर दोनों से कहा, ‘‘मैं यहीं रह कर कोई छोटीमोटी दुकान कर लूंगी. अकेली जान, दालरोटी चल जाएगी. मैं तुम लोगों पर बोझ नहीं बनना चाहती.’’ ‘‘कैसी बात कर रही हो मम्मी,’’ रेखा नाराज हो गई, ‘‘तुम्हारे बेटा नहीं है तो क्या, बेटी तो है. मैं तुम्हारा खयाल रखूंगी. यहां रातबिरात आप की तबीयत बिगड़ेगी तो कौन संभालेगा?’’ ‘‘मैं मर भी गई तो क्या फर्क पड़ेगा. मेरी जिम्मेदारी तुम थीं जिसे मैं ने निभा दिया. जब तक अकेले रह पाना संभव होगा, रहूंगी. उस के बाद तुम लोग तो हो ही,’’ सुमन के इनकार से दोनों को निराशा हुई.
‘‘जैसी तुम्हारी मरजी. मैं तुम्हारी रोजाना खबर लेता रहूंगा. तुम भी निसंकोच फोन करती रहना. मोबाइल के रिचार्ज की चिंता मत करना, मैं समयसमय पर पैसे डलवाता रहूंगा,’’ राकेश बोला. सब चले गए. घर अकेला हो गया. विनोद थे तो इंतजार था. अब तो जैसी सुबह वैसी रात. 3 कमरों में सुमन टहलती रहती. एक रोज अलमारी की सफाई करते हुए उसे एक खत मिला. खत को गौर से देखा तो लिखावट विनोद की थी. वह पढ़ने लगी :
‘‘प्रिय सुमन,
अब मुझ से काम नहीं होता. 70 साल की अवस्था हो गई है. रोजाना 10-12 किलोमीटर साइकिल चला कर कचहरी जाना संभव नहीं. सोचता हूं कि घर बैठ जाऊं पर घरखर्च कैसे चलेगा. इस सवाल से मेरी रूह कांप जाती. ब्लडप्रैशर और शुगर ने जीना मुहाल कर दिया है, सो अलग. कभीकभी सोचता हूं खुदकुशी कर लूं. फिर तुम्हारा खयाल आता है कि तुम अकेली कैसे रहोगी? क्यों न हम दोनों एकसाथ खुदकुशी कर लें. हो सकता है कि यह सब तुम्हें बचकाना लगे. जरा सोचो, कौन है जो हमारी देखभाल करेगा? एक बेटा भी तो नहीं है. क्या बेटीदामाद से सेवा करवाना उचित होगा? बेटी का तो चल जाएगा मगर दामादजी, वे भला हमें क्यों रखना चाहेंगे? मैं तुम्हें कोई राय नहीं देना चाहूंगा क्योंकि हर आदमी को अपनी जिंदगी पर अधिकार है. हां, अगर मेरे करीब मौत आएगी तो मैं बचाव का प्रयास नहीं करूंगा. इस के लिए मुझे क्षमा करना. मैं ने मकान तुम्हारे नाम कर दिया है. मकान बेच कर तुम इतनी रकम पा सकती हो कि शेष जिंदगी तुम बेटीदामाद के यहां आसानी से काट सको.
तुम्हारा विनोद.’’
खत पढ़ कर सुमन की आंखें भीग गईं. तो क्या उन्हें अपनी मौत का भान था? यह सवाल सुमन के मस्तिष्क में कौंधा. सुमन ने अलमारी ठीक से खंगाली. उस में उसे एक जांच रिपोर्ट मिली. निश्चय ही रिपोर्ट में उन के हार्ट के संबंध में जानकारी होगी? रिपोर्ट 6 माह पुरानी थी. इस का मतलब विनोद को अपनी बीमारी की गंभीरता का पहले से ही पता था? उन्होंने जानबूझ कर इलाज नहीं करवाया. इलाज का मतलब लंबा खर्चा. कहां से इतना रुपया आएगा? यही सब सोच कर विनोद ने रिपोर्ट को छिपा दिया था. सुमन गहरी वेदना में डूब गई.
‘‘अरे तनु, तुम कालेज छोड़ कर यहां कौफी पी रही हो? आज फिर बंक मार लिया क्या? इट्स नौट फेयर बेबी,’’ मौल के रेस्तरां में अपने दोस्तों के साथ बैठी तनु को देखते ही सृष्टि चौंक कर बोली. फिर तनु से कोई जवाब न पा कर खिसियाई सी सृष्टि उस के दोस्तों की तरफ मुड़ गई. पैरों में हाईहील, स्टाइल से बंधे बाल और लेटैस्ट वैस्टर्न ड्रैस में सजी सृष्टि को तनु के दोस्त अपलक निहार रहे थे.
‘‘चलो, अब आ ही गई हो तो ऐंजौय करो,’’ कहते हुए सृष्टि ने कुछ नोट तनु के पर्स में ठूंस सब को बाय किया और फिर रेस्तरां से बाहर निकल गई. ‘‘तनु, कितनी हौट हैं तुम्हारी मौम… तुम तो उन के सामने कुछ भी नहीं हो…’’
यह सुनते ही रेस्तरां के दरवाजे तक पहुंची सृष्टि मुसकरा दी. वैसे उस के लिए यह कोई नई बात नहीं थी, क्योंकि उसे अकसर ऐसे कौंप्लिमैंट सुनने को मिलते रहते थे. मगर तनु के चेहरे पर अपनी मां के लिए खीज के भाव साफ देखे जा सकते हैं. सृष्टि बला की खूबसूरत है. इतनी आकर्षक कि किसी को भी मुड़ कर देखने पर मजबूर कर देती है. उसे देख कर कोई भी कह सकता है कि हां, कुछ लोग वाकई सांचे में ढाल कर बनाए जाते हैं.
16 साल की तनु उस की बेटी नहीं, बल्कि छोटी बहन लगती है. जिस खूबसूरती को लोग वरदान समझते हैं वही सुंदरता सृष्टि के लिए अभिशाप बन गई थी. 5 साल पहले जब तनु के पिता की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई तब इसी खूबसूरती ने 1-1 कर सब नातेरिश्तेदारों, दोस्तों और जानपहचान वालों के चेहरों से नकाब उठाने शुरू कर दिए थे.
नकाबों के पीछे छिपे कुछ चेहरे तो इतने घिनौने थे कि उन से घबरा कर सृष्टि ने यह दुनिया ही छोड़ने का फैसला कर लिया. मगर तभी तनु का खयाल आ गया. उसे लगा कि जब वही इस दुनिया का सामना नहीं कर पा रही है तो फिर यह नादान तनु कैसे कर पाएगी. फिर उन्हीं दिनों उस की जिंदगी में आए थे अभिषेक… अभिषेक सृष्टि के पति के सहकर्मी थे और उन की मृत्यु के बाद अब सृष्टि के, क्योंकि सृष्टि को उसी औफिस में अपने पति के स्थान पर अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिल गई थी. अभिषेक अब तक कुंआरे क्यों थे, यह सभी के लिए कुतूहल का विषय था.
यह राज पहली बार खुद अभिषेक ने ही सृष्टि के सामने खोला था कि पिताविहीन घर में सब से बड़े होने के नाते छोटे भाईबहनों की जिम्मेदारियां निभातेनिभाते कब खुद उन की शादी की उम्र निकल गई, उन्हें पता ही नहीं चला और इन सब के बीच उन का दिल भी तो कभी किसी के लिए ऐसे नहीं धड़का था जैसे अब सृष्टि को देख कर धड़कता है. यह सुन कर एकबार को तो सृष्टि सकपका गई, मगर फिर सोचा कि क्यों कटी पतंग की तरह खुद को लुटने के लिए छोड़ा जाए… क्यों न अपनी डोर किसी विश्वासपात्र के हाथों सौंप कर निश्चिंत हुआ जाए. मगर अपने इस निर्णय से पहले उसे तनु की राय जानना बहुत जरूरी था और तनु की राय जानने के लिए जरूरी था उस का अभिषेक से मिलना और फिर उन्हें अपने पिता के रूप में स्वीकार करने को सहमत होना, क्योंकि तनु अभी तक अपने पिता को भूल नहीं पाई थी. भूली तो वह भी कहां थी, मगर हकीकत यही है कि जीवन की सचाइयों को कड़वी गोलियों की तरह निगलना ही पड़ता है और यह बात उस की तरह तनु भी जितनी जल्दी समझ ले उतना ही अच्छा है.
अभिषेक का सौम्य और स्नेहिल व्यवहार… नानी का तनु को दुनियादारी समझाना और थोड़ीबहुत सामाजिक सुरक्षा की जरूरत भी, जोकि शायद खुद तनु ने महसूस की थी…सभी को देखते हुए तनु ने बेमन से ही सही मगर सृष्टि के साथ अभिषेक के रिश्ते को सहमति दे दी. अभिषेक को उन के साथ रहते हुए लगभग साल भर होने को आया था, लेकिन तनु अभी भी उन्हें अपने दिल में बसी पिता की तसवीर के फ्रेम में फिट नहीं कर पाई थी. वह उन्हें अपनी मां के पति के रूप में ही स्वीकार कर पाई थी, अपने पिता के रूप में नहीं. तनु ने एक बार भी अभिषेक को पापा कह कर नहीं पुकारा था.
पिता का असमय चले जाना और मां की नई पुरुष के साथ नजदीकियां तनु को भावनात्मक रूप से बेहद कमजोर कर रही थीं. बातबात में चीखनाचिल्लाना, अपनी हर जिद मनवाना, हर वक्त अपने मोबाइल से चिपके रहना, अभिषेक के औफिस से घर आते ही अपने कमरे में घुस जाना तनु की आदत बनती जा रही थी. उस की मानसिक दशा देख कर कई बार सृष्टि को अपने फैसले पर अफसोस होने लगता. मगर तभी अभिषेक तनु के इस व्यवहार को किशोरावस्था के सामान्य लक्षण बता कर सृष्टि को इस गिल्ट से बाहर निकाल देते थे.
अभिषेक का साथ पा कर सृष्टि की मुरझाती खूबसूरती फिर से खिलने लगी थी. अभिषेक भी उसे हर समय सजीसंवरी देखना चाहते थे. इसीलिए उस के कपड़ों, गहनों और अन्य ऐक्सैसरीज पर दिल खोल कर खर्च करते थे. शायद लेट शादी होने के कारण पत्नी को ले कर अपनी सारी दबी इच्छाएं पूरी करना चाहते थे. मगर इस के ठीक विपरीत तनु अपनेआप को बेहद अकेला और असुरक्षित महसूस करने लगी थी. अपनेआप से बेहद लापरवाह हो चुकी थी.
धीरेधीरे तनु के कोमल मन में यह भावना घर करने लगी थी कि मां की सुंदरता ही उस के जीवन का सब से बड़ा अभिशाप है. जब कभी कोई उस की तुलना सृष्टि से करता तो तनु के सीने पर सांप लोट जाता था. उसे सृष्टि से घृणा सी होने लगी थी. अब तो उस ने सृष्टि के साथ बाहर आनाजाना भी लगभग बंद कर दिया था. उस के दिमाग में यही उथलपुथल रहती कि अगर मां इतनी सुंदर न होती तो अभिषेक का दिल भी उन पर नहीं आता और तब वे सिर्फ तनु की मां होतीं, अभिषेक या किसी और की पत्नी नहीं.
मां को भी तो देखो. कितनी इतराने लगी हैं आजकल… पांव हैं कि जमीन पर टिकते ही नहीं… हर समय अभिषेक आगेपीछे जो घूमते रहते हैं. तो क्या यह सब अभिषेक के प्यार की वजह से है? अगर अभिषेक इन की बजाय मुझे प्यार करने लगें तो? फिर मां क्या करेंगी? कैसे एकदम जमीन पर आ जाएंगी… कल्पना मात्र से ही तनु खिल उठी. तनु के मन में ईर्ष्या के नाग ने फन उठाना शुरू कर दिया. उस के दिमाग ने तेजी से सोचना शुरू कर दिया. कई तरह की योजनाएं बननेबिगड़ने लगीं. अचानक तनु के होंठों पर एक कुटिल मुसकान तैर गई. आखिर उसे रास्ता सूझने लगा था.
हां, मैं अब अभिषेक को अपना बनाऊंगी… उन्हें मां से दूर कर के मां का घमंड तोड़ दूंगी… तनु ने यह फैसला लेने में जरा भी देर नहीं लगाई. मगर यह इतना आसान नहीं है, यह बात भी वह अच्छी तरह से जानती थी. अपनी योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए उस ने अभिषेक पर पैनी नजर रखनी शुरू कर दी. उस की पसंदनापसंद को समझने की कोशिश करने लगी. उस के औफिस से आते ही वह उस के लिए पानी का गिलास भी लाने लगी थी. हां, अभिषेक को देख कर प्यार से मुसकराने में उसे जरूर थोड़ा वक्त लगा था. ‘‘मां, सिर में बहुत तेज दर्द है… थोड़ा बाम लगा दो न…’’ तनु जोर से चिल्लाई तो अभिषेक भाग कर उस के कमरे में गए. देखा तो तनु बिस्तर पर औंधे मुंह पड़ी थी. शौर्ट पहने सोई तनु ने अपने शरीर पर चादर कुछ इस तरह से डाल रखी थी कि उस की खुली जांघों ने अभिषेक का ध्यान एक पल के लिए ही सही, अपनी तरफ खींच लिया. उन्हें अटपटा सा लगा तो चादर ठीक से ओढ़ा कर उस के सिर पर हाथ रखा. बुखार नहीं था. सृष्टि सब्जी लेने गई थी, अभी तक लौटी नहीं थी. इसीलिए वे तनु के सिरहाने बैठ कर उस का माथा सहलाने लगे. तनु ने खिसक कर अभिषेक की गोद में सिर रख लिया तो अभिषेक को अच्छा लगा. उन्हें विश्वास होने लगा कि शायद अब उन के रिश्ते में जमी बर्फ पिघल जाएगी.
धीरेधीरे तनु अभिषेक से खुलने लगी. कभीकभी सृष्टि की अनुपस्थिति में वह अभिषेक को जिद कर के बाहर ले जाने लगी. चलतेचलते कभी उस का हाथ पकड़ लेती तो कभी उस के कंधे पर सिर टिका लेती. अभिषेक भी पूरी कोशिश करते थे उसे खुश करने की. वे उस की जिंदगी में पिता की हर कमी को पूरा करना चाहते थे. मगर कभीकभी वे सोच में पड़ जाते थे कि आखिर तनु उन से क्या चाहती है, क्योंकि तनु ने अब तक उन्हें पापा कह कर संबोधित नहीं किया था. वह हमेशा उन से बिना किसी संबोधन के ही बात करती थी.
बाहर जाते समय कपड़ों के मामले में तनु अभिषेक के पसंदीदा रंग के कपड़े ही पहनती थी. एक दिन पार्क में बेंच पर अभिषेक के कंधे से लग कर बैठी तनु ने अचानक अभिषेक से पूछ लिया, ‘‘मैं आप को कैसी लगती हूं?’’ ‘‘जैसी हर पिता को अपनी बेटी लगती है… एकदम परी जैसी…’’ अभिषेक ने बहुत ही सहजता से जवाब दिया. मगर इसे सुन कर तनु के चेहरे की मुसकान गायब हो गई. फिर मन ही मन बड़बड़ाई कि किस मिट्टी का बना है यह आदमी… मैं तो इसे अपने मोहजाल में फंसाना चाह रही हूं और यह है कि मुझ में अपनी बेटी ढूंढ़ रहा है… या तो यह इंसान बहुत नादान है या फिर बहुत ही चालाक… कहीं ऐसा तो नहीं कि यह मेरी पहल का इंतजार कर रहा है? लगता है अब मुझे अपना मास्टर स्ट्रोक खेलना ही पड़ेगा और फिर मन ही मन कुछ तय कर लिया. ‘‘अभिषेक, मां की तबीयत बहुत खराब है. उन्हें मेरी जरूरत है. मुझे 2-4 दिनों के लिए वहां जाना होगा. तुम तनु का खयाल रखना प्लीज…’’ सृष्टि ने अभिषेक के औफिस लौटते ही कहा तो तनु की जैसे मन मांगी मुराद पूरी हो गई हो. वह ऐसे ही किसी मौके का तो इंतजार कर रही थी. वह कान लगा कर उन दोनों की बातें सुनने लगी. थोड़ी ही देर में सृष्टि ने कैब बुलाई और 4 दिनों के लिए अपनी मां के घर चली गई. जातेजाते उस ने तनु को गले लगा कर समझाया कि वह अपना और अभिषेक का खयाल रखे.
अभिषेक को रात में सोने से पहले शावर बाथ लेने की आदत थी. जब वह नहा कर बाथरूम से बाहर आया तो तनु को अपने बैड पर सोते देख चौंक गया. कमरे की डिम लाइट में पारदर्शी नाइटी से तनु के किशोर अंग झांक रहे थे. तनु दम साधे पड़ी अभिषेक की प्रतिक्रिया का इंतजार कर रही थी. अभिषेक कुछ देर तो वहां खड़े रहे, फिर धीरे से तनु को चादर ओढ़ाई और लाइट बंद कर के लौबी में आ कर बैठ गए. सुबह दूधवाले ने जब घंटी बजाई तो उसे भान हुआ कि वह रात भर यह सोफे पर ही सो रहा था. तनु हताश हो गई. अभिषेक को अपनी ओर खींचने के लिए किस डोरी से बांधे उसे… उस के सारे हथियार 1-1 कर निष्फल हो रहे थे. कल तो मां भी वापस आ जाएंगी… फिर उसे यह सुनहरा मौका नहीं मिलेगा… उसे जो कुछ करना है आज ही करना होगा. तनु ने आज आरपार का खेल खेलने की ठान ली.
रात लगभग आधी बीत चुकी थ्ीि. अभिषेक नींद में बेसुध थे. तभी अचानक किसी के स्पर्श से उन की आंख खुल गई. देखा तो तनु थी. उस से लिपटी हुई. अभिषेक कुछ देर तो यों ही लेटे रहे, फिर धीरे से करवट बदली. अभिषेक तनु के मुंह पर झुकने लगे. तनु अपनी योजना की कामयाबी पर खुश हो रही थी. अभिषेक ने धीरे से उस के माथे को चूमा और फिर अपने ऊपर आए उस के हाथ को छुड़ा तनु को वहीं सोता छोड़ लौबी में आ कर सो गए. उस दिन संडे था. सृष्टि कुछ ही देर पहले मां के घर से लौटी थी. नहानेधोने और नाश्ता करने के बाद सृष्टि अभिषेक को मां की तबीयत के बारे में बताने लगी. तनु के कान उन दोनों की बातों की ही तरफ लगे थे. वह डर रही थी कि कहीं अभिषेक उस की हरकतों की शिकायत सृष्टि से न कर दे. अचानक सृष्टि ने जरा शरमाते हुए कहा, ‘‘अभि, मां चाहती हैं किअब हम दोनों का भी एक बेबी आना चाहिए.’’
यह सुनते ही तनु को झटका सा लगा. ‘लो, अब यही दिन देखना बाकी रह गया था. अब इस उम्र में मां फिर से मां बनेंगी… हुंह,’ तनु ने सोच कर मुंह बिचका दिया.
‘‘सृष्टि मुझे तनु के प्यार में कोई हिस्सेदारी नहीं चाहिए… मैं तुम से यह बात छिपाने के लिए माफी चाहता हूं, मगर तुम से शादी करने से पहले ही मैं ने फैसला कर लिया था कि मुझे तनु अपनी एकमात्र संतान के रूप में स्वीकार है, इसलिए मैं ने बिना किसी को बताए हमारी शादी से पहले ही अपना नसबंदी का औपरेशन करवा लिया था,’’ अभिषेक ने कहा. यह सुन कर सृष्टि और तनु दोनों ही
चौंक उठीं. ‘‘हमें तनु का खास खयाल रखना होगा सृष्टि… 16 साल की तनु मन से अभी भी 6 साल की अबोध बच्ची है… यह अपनेआप को बहुत अकेला महसूस करती है… कोई भी बाहरी व्यक्ति इस के भोलेपन का गलत फायदा उठा सकता है. बिना बाप की यह मासूम बच्ची कितनी डरी हुई है. यह मुझे पिछले 3 दिनों में एहसास हो गया. तुम्हें पता है, इसे रात में कितना डर लगता है? इसे जब डर लगता था तो यह कितनी मासूमियत से मुझ से लिपट जाती थी… नहीं सृष्टि मैं तनु का प्यार किसी और के साथ नहीं बांट सकता… मैं बहुत खुशनसीब हूं कि कुदरत ने मुझे इतनी प्यारी बेटी दी है,’’ अभिषेक अपनी ही रौ में बहे जा रहे थे.
सृष्टि अपलक उन्हें निहार रही थी. और तनु? वह तो शर्म से पानीपानी हुई जैसे जमीन में गड़ जाना चाहती थी. फिर जैसे ही अभिषेक ने आ कर उसे गले से लगाया तो वह सिसक उठी. आंखों से बहते आंसुओं के साथ मन का सारा मैल धुलने लगा. सृष्टि ने पीछे से आ कर दोनों को अपनी बांहों में समेट लिया. अभिषेक ने तनु के गाल थपथपाते हुए कहा, ‘‘अब बना है यह सही माने में स्वीट होम…’’
तनु ने मुसकराते हुए धीरे से कहा, ‘‘लव यू पापा,’’ और फिर उन से लिपट गई.
कुमुद को पछतावा हो रहा था कि उस ने समय रहते सुमित्रा की बात पर ध्यान क्यों नहीं दिया. शादी से पहले उस प्राइवेट कालेज में सुमित्रा उस की घनिष्ठ सहेली थी. कुमुद के विवाह की बात चल रही थी. सुमित्रा विवाहित थी और शादी के बाद अब फिर बीए पूरा करने कालेज जा रही थी. एक दिन खाली घंटी में लाइब्रेरी के एक कोने में बैठ कर उस ने जोजो बातें कुमुद को सम?ाई थीं, वे याद आने लगीं.
कुमुद ने करवट बदली. घड़ी में 3 बज गए पर उस का पलंग से उठने का मन नहीं हो रहा था. चाय में अभी देरी थी. वह सुमित्रा की बातें सोचने लगी…
सुमित्रा ने बड़ी गंभीरता से कहा था, ‘‘कुम, मेरी बात पर ध्यान दे. पत्रपत्रिकाओं या किताबों में पढ़ी बातें कह रही हूं, व्हाट्सऐप वाली नहीं. जो कुछ जिंदगी में थोड़ा सा देखा हुआ है, जो गंभीर पढ़ा था, जो भोगा है वही बता रही हूं कि किसी भी हालत में किसी लड़के को पत्र मत लिखना, डायरी न रखना कंप्यूटर पर चाहे पासवर्ड से सेफ क्यों न हों. डायरी रखनी हो तो बस रोजमर्रा की मामूली बातें लिखना, शरत की नायिका की तरह उस में अपनी भावुकता किसी के बारे में बघारने मत बैठ जाना, सम?ा? सब से बड़ी बात सैल्फी लेने में हिचकना. कम से कम सैल्फी या फोटो ही अच्छे रहते हैं.’’
कुमुद ने हंस कर पूछा, ‘‘तू ये बातें कैसे जानती है? क्या कोई…’’
‘‘चुप रह, बेवकूफ लड़की,’’ सुमित्रा ने गुस्से से उसे डांटा, ‘‘तुझे क्या पता. हंस रही है. उस सोमेन को ज्यादा मुंह न लगा. कोई खास
बात हो तुम लोगों के बीच, इस से बहस नहीं, पर वह नौजवान लड़का है. उस के प्रति या तो पूरी तरह समर्पित हो कर उस पर मर मिट और उस से अभी शादी कर ले या फिर उस से दूर रह.’’
कुमुद ने गंभीरता से कहा, ‘‘सुमि, सोमेन या किसी लड़के से मैं मित्र या भाई का संबंध रखूं तो क्या हो गया, लोगों की तो आदत है कि जहां किसी लड़की को किसी लड़के से मिलते देखा नहीं कि झट उन्हें प्रेमीप्रेमिका मान बैठते हैं. अपना दिल साफ रहना चाहिए, बस. प्रेम विवाह तो आज की जरूरत है.’’
‘‘भई, अब तू जाने, तेरा काम जाने,’’ सुमित्रा ने ऊब कर कहा, ‘‘मेरा काम तुझे समझना था सो समझ दिया. ये सारे किताबी सिद्धांत हैं. मेरा मतलब है जरा होशियार रह.
प्रेम विवाह पर पात्र भी तो देखा जाता है. देखसुन कर काम कर. अब मैं कुछ नहीं कहूंगी, तू बच्ची नहीं.’’
सुमित्रा की ये बातें कुमुद के कानों में लगातार गूंज रही थीं. खट की आवाज पर वह चौंकी. बाई ने पलंग की बगल के स्टूल पर चाय की ट्रे ला कर रख दी थी.
कुमुद ने पूछा, ‘‘नीता कहां हैं, देखो.’’
तभी परदा हटा कर चमकतीदमकती नीता भीतर आई. बोली, ‘‘लो भाभी, मैं आ गई. जरा हाथमुंह धोने बाथरूम तक गई थी.’’
कुमुद ने देखा, नीता के सुंदर चेहरे पर से पानी की बूंदें टपक रही थीं. कई बड़ीबड़ी बूंदें कनपटियों के बालों में उलझ हुई थीं. उस ने प्यार से कहा, ‘‘चेहरे से पानी तो पोंछ लो.’’
कुमुद चाय बनाने लगी.
नीता ने आंचल से मुंह थपक कर पानी सुखाते हुए कहा, ‘‘भैया के आने का समय तो 5 बजे का है. तब तुम्हें चाय फिर पीनी पड़ेगी, भाभी.’’
‘‘और?’’ कुमुद मुसकराई, ‘‘बरामदे पर चाय की मेज सजाए. खुद भी सजधज कर मधुर मुसकान बिखेरते तुम्हारे भैया का स्वागत भी तो करना पड़ेगा. आखिर आजकल मैं औफिस से 10 दिन की पेड लीव पर हूं.’’
नीता हंसी, ‘‘सच भाभी, क्या वाहियात औपचारिकता है.’’
‘‘जरूरी है,’’ कुमुद ने हलके व्यंग्यात्मक भाव से कहा, ‘‘कोई बेचारा दिनभर चक्की में जुत कर घर लौटे तो दूसरा दरवाजे पर खड़ा उस का स्वागत करे, यही नया नियम बनाया है आज के मनी वैज्ञानिकों ने.’’
नीता ने बगल की बुक शैल्फ से हैराल्ड राबिंस की किताब ‘द पाइरेट’ उठाई. 1-2 पृष्ठ उलटेपलटे, फिर बोली, ‘‘फिर भी भाभी जरा उन विकसित उन्नत देशों की स्त्रियों को देखो, जो अपने को बड़ी स्वतंत्र, पुरुष की बराबरी का समझती हैं. उन्हें किस प्रकार पुरुषों की गुलामी में सामूहिक रूप से जीना पड़ रहा है, कैसे वे आर्थिक, सामाजिक चक्रव्यूह में फंसी नाचती रहती हैं. पुरुषों की नजर में उन की कीमत सिर्फ उन के शरीर की है. वहां तो सामाजिक निर्माण में स्त्रियों की अभी भी मर्दों के बराबर की भूमिका नहीं. वहां के समाज ने उन्हें फुसलाने को ऊंची पोस्टों पर रख तो लिया है, पर असल में सारे फैसले पुरुष मैजोरिटी से ही होते हैं. ऊंचे पद पर बैठी औरत पर अभी भी हर जगह पुरुष का अहं चलता है. उस का निजी सम्मान उस की गर्लफ्रैंड या पत्नी में बसता है.’’
‘‘दूसरी तरफ,’’ कुमुद बोली, ‘‘हम लोगों में भी गांव की और मजदूरपेशा स्त्रियां पुरुष के साथ ज्यादा बराबरी का दर्जा रखती हैं. हम तो कभी गृहिणी बन जाती हैं तो कभी ड्राइंग रूमी शो पीस.’’
नीता ने जरा गंभीर हो कर पूछा, ‘‘तुम्हारे वे ओल्ड फ्रैंड तो बहुत मानते हैं तुम्हें, भाभी?’’
कुमुद के हाथ का कप हौले से कांप गया. नीता का ध्यान उधर नहीं था. वह अपनी ही रौ में कहती रही, ‘‘बड़े सीधे लगते हैं.’’
‘‘हां, सीधासादा है,’’ कुमुद की आवाज जैसे कहीं दूर से आ रही हो, ‘‘छोड़ो उसे. उस से मेरा कोई विशेष संबंध नहीं है. यों ही पड़ोस के नाते दोस्ती है.’’
नीता चाय की चुसकी लेती रही. कुमुद को पहले क्या पता कि उस कमबख्त सुमित्रा की बातें कैसे आड़े आएंगी. किसे पता था उस के पड़ोस का वही सोमेन यहीं की ब्रांच में बदल कर आ पहुंचेगा और बीच बाजार में उस से भेंट भी होगी.
उस ने कभी सोमेन को एक नटखट, गैरजिम्मेदार और खिलाड़ी टाइप के नौजवान से अधिक कुछ नहीं समझ था. पड़ोस का मुंहबोला भाई होने के नाते वह प्राय: घर में आता रहता. कुमुद की मां को वह आंटी कहता. कुमुद को जरा चोर निगाहों से देखता था, जो इस अवस्था में सहज स्वाभाविक ही था. कुमुद को याद है, हर साल रक्षाबंधन पर जब वह उन के घर जाती तो प्राय: किसी जरूरी काम से वह दिनभर बाहर रहता. उसे राखीटीका सब ढोंग प्रतीत होते.
कुमुद इन बातों का अर्थ समझती थी पर उस की नई उम्र में एक कुतूहल, एक सुखद सी उत्तेजना के सिवा इन का महत्त्व कुछ और नहीं था. कभीकभार जब कई लोग कहीं जा रहे होते तो वह भी साथ रहता था. रात वाली पार्टियों के बाद उसे घर छोड़ने भी वही आता. समवयस्क किशोरियों की भांति वह भी लड़कों को अपने प्रति आकर्षित देख प्रसन्न होती. उम्र की मांग के अनुरूप इस का भी विभिन्न तरीकों से अंदाजा लगाती रहती कि उस में लड़कों को खींचने योग्य कितना आकर्षण है. वह गु्रप फोटो में अकसर साथ होता.
यही छोटा सा, नगण्य खेल उस की विवाहिता सहेली सुमित्रा की नजरों से बच न पाया. कुमुद को उस ने तभी वे बातें समझाई थीं. उस ने उसे देर रात घर छोड़ते भी देखा था और साथ में कई दोस्तों के साथ रेस्तरांओं में खातेपीते भी.
कुमुद सोचने लगी, ‘क्या किया उस ने आखिर? सोमेन को कभी कोई साहस भी न हो पाया कि उसे उस से कुछ है या उस से कोई अपेक्षा है. वही बिंदास सा सामान्य खेल था, जो घर वालों की उपस्थिति में टीनऐजर्स खेल लेते हैं. कभी भी कोई प्यारव्यार या क्रश की बात नहीं, कोई फिल्मी डायलाग नहीं? कोई व्हाट्सऐप चैंट नहीं. न ही किसी तरह की कोई रंचमात्र की हरकत, न उस की रसीद. सोमेन उन दिनों बड़े दब्बू किस्म का लड़का था.’
फिर वह क्यों डरती है सोमेन से. नहीं, वह सोमेन से नहीं डरती. वह तो डरती है खुद से, रघु की संभावित प्रतिक्रियाओं से, उस के पति के अधिकारबोध से, उस की पतिसुलभ मानसिकता से, नीता से और सब से, एक सोमेन को छोड़ वह सब से डर रही है.
नीता चाय का खाली कप रख कर जा चुकी थी. कुमुद ने विचारमग्न सा दूसरा कप तैयार किया.
आज से एक सप्ताह पहले सोमेन बाजार में अकस्मात मिल गया. कुमुद नीता के साथ एक दुकान पर खड़ी साडि़यां और रघु के लिए शर्ट देख रही थी.
बगल के काउंटर पर कपड़े पसंद करता सोमेन उसे देख लपक आया. खुशीखुशी बोला, ‘‘हैलो, कुमुद तुम हो? भई वाह, खूब मिली. मेरी बदली यहीं की ब्रांच में हुई है. परसों ही तो आया हूं. तुम से मिलने की सोच रहा था.’’
कुमुद ने नमस्कार करते हुए कहा, ‘‘सोमेन भैया, यह मेरी ननद है नीता… तुम कभी घर पर आना न, पता तो जानते ही होंगे.’’
सोमेन बुजुर्गों की तरह हंसा, ‘‘पता नहीं जानूंगा. तिलक ले कर मैं भी तो आया था.’’
पता नहीं, सोमेन से यों भेंट होना कुमुद को पसंद नहीं आ रहा था. वह यह भी देख रही थी कि सालभर पहले का दब्बू सा सोमेन अब काफी तेज लग रहा है. तेजी से बोलने लगा है. पहले सा मन में बात दबाता नहीं लगा.
‘‘तुम्हें तो बहाना चाहिए मुझे ताना मारने का.’’
‘‘क्यों न मारूं ताना? एक बाली तक खरीद कर ला न सके. जो हैं वही बेटी के काम आ रहे हैं. मुझे पहनने का मौका कब मिला?’’ ‘‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम,’’ विनोद ने हंसी की, ‘‘अब कौन सा सजसंवर कर बरात की शोभा बढ़ानी है तुम्हें.’’
‘‘जब थी तब ही कौन सा गहनों से लाद दिया था.’’
‘‘स्त्री का सब से बड़ा गहना उस का पति होता है.’’
‘‘रहने दीजिए, रहने दीजिए. खाली बातों से हम औरतों का दिल नहीं भरता. मैं मर्दों के चोंचले अच्छी तरह से जानती हूं. हजारों सालों से यही जुमले कह कर आप लोगों ने हम औरतों को बहलाया है.’’
‘‘तुम्हें कौन बहला सकता है.’’
‘‘बहकी हूं तभी तो 30 साल तुम्हारे साथ गुजार दिए.’’
‘‘नहीं तो क्या किसी के साथ भाग जातीं?’’
‘‘भाग ही जाती अगर कोई मालदार मिलता,’’ सुमन ने भी हंसी की. ‘‘भागना क्या आसान है? मुझ जैसा वफादार पति चिराग ले कर भी ढूंढ़तीं तो भी नहीं मिलता.’’ ‘‘वफादारी की चाशनी से पेट नहीं भरता. अंटी में रुपया भी चाहिए. वह तो आप से ताउम्र नहीं हुआ. थोड़े से गहने बचे हैं, उन्हें बेटी को दे कर खाली हो जाऊंगी,’’ सुमन जज्बाती हो गई, ‘‘औरतों की सब से बड़ी पूंजी यही होती है. बुरे वक्त में उन्हें इसी का सहारा होता है.’’ ‘‘कल कुछ बुरा हो गया तो दवादारू के लिए कुछ भी नहीं बचेगा.’’ सुमन के साथ विनोद भी गहरी चिंता में डूब गए, जब उबरे तो उसांस ले कर बोले, ‘‘यह मकान बेच देंगे.’’
‘‘बेच देंगे तो रहेंगे कहां?’’
‘‘किराए पर रह लेंगे.’’ ‘‘कितने दिन? वह भी पूंजी खत्म हो जाएगी तब क्या भीख मांगेंगे?’’ ‘‘तब की तब देखी जाएगी. अभी रेखा की शादी निबटाओ,’’ विनोद यथार्थ की तरफ लौटा. गहने लगभग 3 लाख रुपए के थे. एकाध सुमन अपने पास रखना चाहती थी. एकदम से खाली गले व कान से रहेगी तो समाज क्या कहेगा? खुद को भी अच्छा नहीं लगेगा. यही सोच कर सुमन ने तगड़ी और कान के टौप्स अपने पास रख लिए. वैसे भी 2 लाख रुपए के गहने ही देने का तय था. जैसेजैसे शादी के दिन नजदीक आ रहे थे वैसेवैसे चिंता के कारण सुमन का ब्लडप्रैशर बढ़ता जा रहा था. एकाध बार वह चक्कर खा कर गिर भी चुकी थी. विनोद ने जबरदस्ती ला कर दवा दी. खाने से आराम मिला मगर बीमारी तो बीमारी थी. अगर जरा सी लापरवाही करेगी तो कुछ भी हो सकता है. विनोद को शुगर और ब्लडप्रैशर दोनों था. तमाम परेशानियों के बाद भी वे आराम महसूस नहीं कर पाते. वकालत का पेशा ऐसा था कि कोई मुवक्किल बाजार का बना समोसा या मिठाई ला कर देता तो ना नहीं कर पाते. सुमन का हाल था कि वह अपने को देखे कि विनोद को. आखिर शादी का दिन आ ही गया, जिस को ले कर दोनों परेशान थे. रेखा सजने के लिए ब्यूटीपार्लर गई. विनोद की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘अब यह खर्चा कहां से दें? 5 हजार रुपए कम होते हैं. एकएक पैसा बचा रहा हूं जबकि मांबेटी बरबाद करने पर तुली हुई हैं.’’ ‘‘बेटी पैदा की है तो सहन करना भी सीखिए. इस का पेमैंट रेखा खुद करेगी. अब खुश.’’
यह सुन कर विनोद ने राहत की सास ली और चैन से बैठ गया. फुटकर सौ तरह के खर्च थे. शादी के चंद दिनों पहले वर के पिता बोले कि सिर्फ डीजे लाएंगे. अगर बैंड पार्टी करनी हो तो अपने खर्च पर करें. विनोद को तो कोई फर्क नहीं पड़ा, सुमन ने मुंह बना लिया, ‘‘कैसा लगेगा बिना बैंड पार्टी के?’’ ‘‘जैसा भी लगे, हमें क्या. हमें शादी से मतलब है. रेखा सात फेरे ले ले तो मैं गंगा नहाऊं.’’ विनोद के कथन पर सुमन चिढ़ गई, ‘‘चाहे तो अभी नहा लीजिए. लोकलाज भी कुछ चीज है. सादीसादी बरात आएगी तो कैसा लगेगा?’’ ‘‘जैसा भी लगे. मैं फूटी कौड़ी भी खर्च करने वाला नहीं,’’ थोड़ा रुक कर, ‘‘जब उन्हें कोई एतराज नहीं तो हम क्यों बिलावजह टांग अड़ाएं?’’
‘‘मुझे एतराज है,’’ सुमन बोली.
‘‘तो लगाओ अपनी जेब से रुपए,’’ विनोद खीझे.
‘‘मेरे पास रुपए होते तो मैं क्या आप का मुंह जोहती,’’ सुमन रोंआसी हो गई. तभी राकेश आया. दोनों का वार्त्तालाप उस के कानों में पड़ा. ‘‘दीदी, तुम बिलावजह परेशान होती हो. बाजे का मैं इंतजाम कर देता हूं.’’ सुमन ने जहां आंसू पोंछे वहीं विनोद के रुख पर वह लज्जित हुई. विनोद को अब भी आशंका थी कि लड़के वाले ऐन मौके पर कुछ और डिमांड न कर बैठें. सजधज कर रेखा बहुत ही सुंदर दिख रही थी. विनोद और सुमन की आंखें भर आईं. भला किस पिता को अपनी बेटी से लगाव नहीं रहेगा. विनोद को आज इस बात की कसक थी कि काश, उस की अच्छी कमाई होती तो निश्चय ही रेखा की बेहतर परवरिश करता. रातभर शादी का कार्यक्रम चलता रहा. भोर होते ही रेखा की विदाई होने लगी तो सभी की आंखें नम थीं. रेखा का रोरो कर बुरा हाल था. सिसकियों के बीच बोली, ‘‘मम्मी, पापा, मैं चली जाऊंगी तो आप लोगों का खयाल कौन करेगा?’’
‘‘उस की चिंता मत करो, बेटी,’’ सुमन नाक पोंछते हुए बोली. अपनी बड़ी मौसी की तरफ मुखातिब हो कर रेखा भर्राए कंठ से बोली, ‘‘मौसी, इन का खयाल रखना. इन का मेरे सिवा है ही कौन?’’
‘‘ऐसा नहीं कहते, हम लोग भरसक इन की देखभाल करेंगे,’’ मौसी रेखा के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं. ‘‘मम्मी को अकसर गरमी में डिहाइड्रेशन हो जाता है. आप खयाल कर के दवा का इंतजाम कर दीजिएगा ताकि रातबिरात मां की हालत बिगड़े तो संभाला जा सके.’’
‘‘तू उस की फिक्र मत कर. मैं अकसर आतीजाती रहूंगी.’’ सुमन इस कदर रोई कि उस की हालत बिगड़ गई. एक हफ्ता बिस्तर पर थी. विनोद का भी मन नहीं लग रहा था. ऐसा लग रहा था मानो उन के शरीर का कोई हिस्सा उन से अलग हो गया हो. हालांकि रेखा 2 साल से बाहर नौकरी कर रही थी लेकिन तब तक एहसास था कि वह विनोद के परिवार का हिस्सा थी. अब तो हमेशा के लिए दूसरे परिवार का हिस्सा बन गई. उन्हीं के तौरतरीके से जीना होगा उसे. सुमन की तबीयत संभली तो रेखा को फोन किया.
‘‘हैलो, बेटा…’’
‘‘कैसी हो, मम्मी,’’ रेखा का गला भर आया.
‘‘ठीक हूं.’’
‘‘अपना खयाल रखना.’’
‘‘अब रखने का क्या औचित्य? बेटाबहू होते तो जीने का बहाना होता,’’ सुमन का कंठ भीग गया.
‘‘मम्मी,’’ रेखा ने डांटा, ‘‘आइंदा इस तरह की बातें कीं तो मैं आप से बात नहीं करूंगी,’’ उस ने बातचीत का विषय बदला, ‘‘जयपुर जा रही हूं,’’ रेखा के स्वर से खुशी स्पष्ट थी. ‘‘यह तुम लोगों ने अच्छा सोचा. यही उम्र है घूमनेफिरने की. बाद में कहां मौका मिलता है, घरगृहस्थी में रम जाओगी.’’ रेखा ने फोन रख दिया. विनोद ने सुना तो खुश हो गए. यहां भी सुमन ताना मारने से बाज न आई, ‘‘एक हमारी शादी हुई. बहुत हुआ तो आप ने रिकशे पर बिठा कर किसी हाटबाजार के दर्शन करा दिए. हो गया हनीमून…’’
‘‘बुढ़ापे में तुम्हें हनीमून सूझ रहा है.’’
‘‘मैं जवानी की बात कर रही हूं. शादी के पहले दिन आप रुपयों का रोना ले कर बैठ गए. आज 30 साल बाद भी रोना गया नहीं. कम से कम रेखा का पति इतना तो समझदार है कि अपनी बीवी को जयपुर घुमाने ले जा रहा है.’’ ‘‘सारी दुनिया बनारस घूमने आती है और तुम्हें जयपुर की पड़ी है,’’ विनोद ने अपनी खीझ मिटाई. ‘‘आप से तो बहस करना ही बेकार है. नईनई शादी की कुछ ख्वाहिशें होती हैं. उन्हें क्या बुढ़ापे में पूरी करेंगे?’’ ‘‘अब ऊपर जा कर पूरी करना,’’ कह कर विनोद अपने काम में लग गए. 3 साल गुजर गए. इस बीच रेखा 1 बेटे की मां बनी. ससुराल वाले ननिहाल का मुख देखने लगे. सुमन ने अपने हाथों की एक जोड़ी चूड़ी बेच कर अपने नाती के लिए सोने की पतली सी चेन, कपड़े और फल व मिठाइयों का प्रबंध किया. विनोद की हालत ऐसी नहीं थी कि वे इस सामान को ले जा सकें. वजह, उन्हें माइनर हार्ट का दौरा पड़ा था. चूंकि घर में और कोई नहीं था सो वे ही किसी तरह इलाहाबाद गए.