Short Funny Story : सरकारी इनाम

Short Funny Story : चौधरी हरचरन दास के बुलाने पर हरिया फौरन हाजिर हो गया. चौधरी साहब निवाड़ के पलंग पर बैठे हुक्का पी रहे थे. चौपाल पर दीनू, बीसे, बांके, बालकिसन और जगदंबा परसाद भी बैठे गप्पें हांक रहे थे. हरिया ने नीची निगाहों से चौधरी साहब को हाजिरी दी. चौधरी साहब ने हुक्के की नली दांतों से पकड़ी और दाईं आंख को कुछ ज्यादा खोल कर हरिया की ओर देखा. हरिया ने जुहार की तो चौधरी साहब के होंठ थोड़े फैल कर पुन: सिकुड़ गए.

‘‘हुकम करो मालिक,’’ हरिया ने बुलाने का कारण जानना चाहा.

‘‘हुकम तो तुम करोगे हरीप्रसादजी, हम तो तुम्हारे गुलाम हैं,’’ चौधरी साहब ने हुक्के को मुंह में ठूंसे हुए ही जवाब दिया.

‘‘आप माईबाप हैं…हम तो गुलाम हैं, हजूर. कोई कुसूर हो गया, मालिक?’’ हरिया ने पिचकते पेट को जरा और अंदर खींच कर पूछा.

‘‘नहीं रे, कुसूर तो हम से हुआ है. हम ने तुम्हें काम दिया था न, उसी का इनाम मिला है हमें. तुम्हें रोटीरोजी दे कर जो अधर्म किया है उस का प्रायश्चित्त करना है हम को. सरकार बड़ी दयालु है रे हरिया. वह तुम जैसे सीधेसच्चे गरीबों को ऊंचा उठाना चाहती है और हम जैसे पापी, नीच लोगों की अक्ल दुरुस्त करना चाहती है.’’

हरिया खड़ाखड़ा थूक निगल रहा था. उस की समझ में आ गया था कि  चौधरी साहब किसी बात पर गुस्सा हैं, लेकिन उस ने तो कुछ भी ऐसावैसा नहीं किया. कल दिन छिपने तक काम किया था. रामेसर के ससुरजी का सामान दिल्लीपुरा तक राजीखुशी पहुंचा दिया था. फिर क्या बात हो गई?

‘‘हरी प्रसादजी, तुम सोच रहे होगे कि चौधरी कैसी उलटीसीधी बक रहा है. अब असली बात सुनो. सरकारी आदेश आया है कि हरी प्रसाद वल्द गया प्रसाद, गांव छीछरपुर, तहसील न्यारा, जिला बदायूं, जो सरकारी योजना के अंतर्गत 320-ए 93 के अंतर्गत प्रार्थी है, के प्रार्थनापत्र को स्वीकार करते हुए उसे 7 बीघा जमीन दी जाती है. इस जमीन का पट्टा पटवारी, न्यारा तहसील के मारफत फाइल करने को भेजा गया है तथा गांव छीछरपुर के पश्चिम नाले के ऊपर 1981 बी के मद से बजरिये पटवारी 7 बीघा जमीन हरी प्रसाद को दी जाएगी,’’ चौधरी ने कागज पढ़ा और फिर संभाल कर जेब में रख लिया.

झुकी गरदन को थोड़ा उठा कर हरिया ने इस का मतलब जानना चाहा.

‘‘अरे बेवकूफ की दुम, सरकार ने 10 पुश्तों से चली आ रही हमारी जोत की धरती में से 7 बीघा जमीन तुम्हें दे दी है. पटवारी राम प्रकाश यह कागज पकड़ा गया है हमें. बोल, कब से संभाल रहा है अपनी जमीन?’’

‘‘मालिक, मैं कैसे संभालूंगा जमीन को? मुझ में ऐसी औकात कहां है?’’

‘‘क्यों? सरकारी दफ्तर में जा कर दरख्वास्त देने की औकात थी तेरी?’’

‘‘माईबाप, मैं ने नहीं दी थी दरख्वास्त. वह तो हरिद्वारीलाल ने अपने मन से लिखी थी.’’

‘‘तेरे दस्तख्त नहीं थे उस पर?’’

‘‘अंगूठा चिपकवाया था हरिद्वारी ने. कहा था कि सरकार सहायता करेगी.’’

‘‘अच्छा, तो सरकारी जमीन दिल्ली से बन के आती और तुम जहां कहते वहां बिछा दी जाती, क्यों?’’

हरिया किसी पेड़ की तरह जड़ हो रहा था. वह जानता था कि चौधरी को गुस्सा आ गया तो जमीन जिंदा गड़वा देंगे, ‘‘अब हम क्या करें मालिक?’’ उस ने झिझकते हुए कहा.

‘‘अरे करेगा क्या? पीली पगड़ी बांध, मिठाई खिला सब को. हम ने तो पटवारी से कह दिया कि तुम जानो तुम्हारा काम जाने. हम हटा लेते हैं अपने हलबैल वहां से. कोई और हमारी धरती की तरफ देखता भी तो आंखें निकाल लेते, लेकिन सरकारी मामला है.

‘‘क्या मैं समझ नहीं रहा हूं कि यह सब तमाशा घनश्याम चौधरी करवा रहा है? पिछले चुनाव की सारी कसर निकाल लेना चाहता है. खैर, अपनीअपनी तूबड़ी है, आज तू बजा ले, कल हम बजाएंगे. अच्छा तो भैया, हरीप्रसादजी, आज से तुम भी जमींदार हो गए. हमारी जमात में आ गए. अब हमारे यहां से तुम्हारी छुट्टी. अब नौकर बन कर नहीं, मालिक बन कर रहो. जाओ भैया, जा कर देख आओ अपनी जमीन. अगले महीने तहसील में मुख्यमंत्रीजी आएंगे. वहां बड़े समारोह में तिलक लगा कर तुम्हें धरती का राज सौंपेंगे. बड़े भाग्यवान हो, हरी प्रसाद. जाओ भैया, जाओ.’’

हरिया चौपाल से निकला. उस के जैसे पंख निकल आए थे. वह उड़ान भरता हुआ अपने नीड़ पर आ पहुंचा. झोंपड़ी में उस की पत्नी नत्थी 4 बच्चों को समेटे पड़ी थी. रात को चूल्हा जलने की उम्मीद में दिन कट ही जाता था. दिन भर मां बच्चों को लोरियां सुनाती और बच्चे कहानी सुनतेसुनते सो जाते.

झोंपड़ी में घुस कर उस ने बड़े प्यार से नत्थी की कमर पर एक लात जमाई. ‘‘अरे उठ री, देख नहीं रही कि हरी प्रसादजी आए हैं?’’

नत्थी ने अपना मैला घाघरा समेटा और बैठ गई. सामने हरिया तन कर खड़ा था. उस के पिचके गालों में हवा भरी थी और बुझीबुझी आंखों में फुलझड़ी सी जल रही थी. उस का होहल्ला सुन कर और तेवर देख कर नत्थी ने समझा कि आज जरूर इस पर बड़े पीपल वाला जिन्न सवार हो गया है. उस ने परीक्षा करनी चाही.

‘‘कौन है रे तू?’’

‘‘मैं जमींदार हरी प्रसाद हूं.’’

‘‘कहां से आया है?’’

‘‘हवेली से आया हूं.’’

नत्थी ने लपक कर कोने में पड़ा डंडा उठा लिया. फिर बिफर कर बोली, ‘‘तेरा सत्यानास हो जमींदार के बच्चे. इस दरिद्र की कोठरी में क्या झख मारने आया है? अरे नासपीटे, यहां तो चूहे भी व्रत रखते हैं. यहां क्या अपनी ऐसीतैसी कराएगा?’’

हरिया समझ गया कि ज्यादा नाटक दिखाया तो अभी पूजा हो जाएगी. वह धम से बैठ गया, फिर अपनी प्यारी हृदयेश्वरी नत्थी को सीने से लगाता हुआ बोला, ‘‘हमारे भाग खुल गए हैं रे नथनिया!’’

नत्थी ने आंखें खोल कर अपने मर्द को देखा, ‘‘लाटरी खुली है, नथनी. सरकार ने 7 बीघा जमीन का मालिक बनाया है तेरे हरी प्रसाद भुक्खड़ को.’’

नत्थी अभी भी उसे टुकुरटुकुर देख रही थी. धीरेधीरे हरिया ने सारी रामकहानी सुना दी. नत्थी का पोरपोर खुशी से भीग उठा था. अपना कालाकलूटा हरिया सचमुच किसी राजकुमार की तरह सुंदर लग रहा था उसे. सारी रात आगामी योजना पर विचार होता रहा.

सुबह उठ कर हरिया को चिंताओं ने आ घेरा. हलबैल कहां से आएगा? बीज के लिए पैसा, कटाई, खलियान, गोदाम…यह सब कहां से होगा?

वह चौधरी साहब के दरवाजे जा पहुंचा. चौधरी साहब के हाथ में पीतल की कटोरी थी. वह सवेरेसवेरे कच्चा दूध पीते थे.

‘‘पां लागन, मालिक.’’

‘‘जै राम जी की. हरिया, क्या हुआ रे? रात को नींद तो आई न?’’

‘‘हां मालिक, एक बात पूछनी थी. मुझे हलबैल और बीज, पानी की मदद तो करेंगे न?’’

‘‘अरे, क्यों नहीं, बस तुम्हें 2-4 कागजों पर अंगूठा मारना होगा. हम सबकुछ कर देंगे. चाहो तो कल से ही जोत लो जमीन. पट्टा तो मिल ही जाएगा. सरकार का कानून तो मानना ही होगा न.’’

हरिया ने अपनी धरती पर जीजान लगा दी. नाले से लगी वह धरती वर्षों से अछूती पड़ी थी. 2 महीने में ही धरती चमेली के फूल सी खिल उठी.

एक दिन चौधरी साहब ने उसे बुला कर बताया कि कल तहसील में मंत्रीजी पधार रहे हैं. सभी लोगों को उन के पट्टों के कागज दिए जाएंगे. उसे भी उन के साथ तहसील चलना होगा.

अगले दिन सुबह पगड़ी कस कर, मूंछों पर असली घी का हाथ फेर कर वह मेले के लिए तैयार हुआ. चौधरी साहब उसे अपने साथ बैलगाड़ी पर बैठा कर ही ले गए.

मेले में बड़ा मजा आया. मंत्रीजी ने ढेर सारे गरीब लोगों को जमीन के पट्टे बांटे. उस की बारी आई तो वह तन कर खड़ा हो गया. मंत्रीजी ने उस से पूछा कि जमीन का क्या करेगा, तो उस ने बताया कि जमीन तो उसे पहले ही सौंप दी गई है और चौधरी साहब ने हलबैल दे कर उस की पूरी मदद की है.

मंत्रीजी ने चौधरी हरचरनजी को मंच पर बुलवाया. सभा को संबोधित करते हुए कहा कि चौधरी साहब महान देशभक्त हैं. देश को उन जैसे महान व्यक्ति पर गर्व होना चाहिए जिन्होंने हरिया जैसे सर्वहारा और गरीब मजदूर को अपनी जमीन खुशीखुशी दी और जुताई- बोआई में भी उस की सहायता की.

मंत्रीजी ने अपने गले से उतार कर फूलों का हार चौधरी साहब के गले में डाल दिया. चारों ओर ‘चौधरी साहब जिंदाबाद’ के नारे लगने लगे.

दूसरे दिन हरिया जब चौधरी साहब के यहां बैल लेने गया तो परभू काका ने बैल देने से इनकार कर दिया. कहा कि चौधरी साहब का हुक्म नहीं है.

वह दौड़ादौड़ा हवेली में गया.  हरिया को देख कर उन्होंने भौंहें चढ़ा लीं. जब हरिया ने परभू काका की शिकायत की तो चौधरी साहब बही हाथ में ले कर पलंग पर बैठ गए. हरिया हाथ जोड़ कर जमीन पर उकडं़ ू बैठ गया.

‘‘देख बच्चू, तेरा खाता अब ज्यादा हो गया है. तुझे जमीन का पट्टा आज मिला है और तू 3 महीने से हमारी जमीन पर कब्जा किए है. 1 हजार रुपया माहवार किराए के हिसाब से 3 हजार तेरे खाते में जमा है. हलबैल का किराया 5 रुपया रोज के हिसाब से 450 रुपए और ट्यूबवैल के पानी के 300 रुपए. कुल मिला कर 4 हजार रुपए तुझ पर कर्ज हैं. इस के एवज में हम तेरी 7 बीघा जमीन रेहन रख लेते हैं.

‘‘2 रुपए की दर से 80 रुपए का ब्याज तुझे देना है. कल से हमारे खेत पर काम कर के अपना रुपया भर देना. हम तेरी तनख्वाह बढ़ा कर पूरे 100 रुपए कर देते हैं. अब 80 रुपए काट कर 20 रुपए तुझे नगद मिलेंगे. कुछ चनाचबैना भी दे देंगे. जब भी तेरे पास हो मूल रकम का हिसाब कर देना.

‘‘चल, आज से ही हमारे खेत पर काम करना चालू कर दे. और हां, देख, ज्यादा समझदार बनने की कोशिश मत करना. दिल्ली वाले सरकारी आफिसर खाली नहीं बैठे. मंत्रीजी के माथे सौ काम हैं. सरकार को रोजरोज छीछरपुर आने की फुरसत नहीं है. ज्यादा ऊंचा उछलेगा तो हलदीचूना भी उधार न मिलेगा.’’

‘‘लेकिन मालिक, वह पट्टा तो मेरे नाम है,’’ हरिया बड़ी मुश्किल से इतना ही बोल सका.

‘‘भूल जा बच्चू, भूल जा. सबकुछ भूल जा. तू ने ढेर सारे अंगूठे छापछाप कर सब काम सही कर दिए हैं. वे सब फिर हमारे नाम हो जाएंगे. फिर तू इस की परवाह क्यों करता है? तू फौरन अपने काम पर लग जा.’’

हरिया के पैरों तले जमीन खिसक गई. वह गरदन झुका कर चुपचाप खेत पर चला गया.

कुछ दिनों बाद हरिया एकाएक गायब हो गया. नीचे के तबके में कानाफूसी हुई कि शायद सरकार के पास गया है, न्याय ले कर आएगा.

4 दिन बाद 3 कोस दूर, हरी बाबा के अखाड़े के पीछे वाले नाले में उस की सड़ी हुई लाश दीनू चरवाहे ने देखी थी. सब ने जाना, लेकिन किसी ने कुछ भी नहीं कहा.

लेकिन कर्ज तो पूरा होना ही है. इसलिए अब नत्थी चौधरी साहब के घर की टहल करती है और उस के 2 बच्चे खेत में पसीना बहाते हैं. सुना है वह फिर एक बच्चे को जन्म देने वाली है.

व्यंग्य- डा. विष्णु विराट

Story Of The Day : करामात

Story Of The Day :  प्यारे मियां 13 वर्ष के थे. वह मेरे साथ ही नवीं कक्षा में पढ़ते थे. पढ़ते तो क्या थे, बस, हर समय खेलकूद में ही उन का मन लगा रहता. जब अध्यापक पढ़ाते तो वह खिड़की से बाहर मैदान में झांकते रहते, जहां लड़के फुटबाल, कबड्डी या गुल्लीडंडा खेलते होते.

अपनी इन हरकतों पर वह रोज ही पिटते थे, स्कूल में और घर पर भी. उन के पिता बड़े कठोर आदमी थे. खेलकूद के नाम से उन्हें नफरत थी. उन के सामने खेल का नाम लेना भी पाप था. वह चाहते थे कि प्यारे मियां बस दिनरात पढ़ते ही रहें. अगर वह कभी खेलने चले जाते तो बहुत मार पड़ती थी. यही कारण था कि प्यारे मियां स्कूल में जी भर कर खेलना चाहते थे. अंत में वही हुआ जो होना था. वह परीक्षा में उत्तीर्ण न हो पाए. पिता ने जी भर कर उन्हें मारा.

प्यारे मियां हर खेल में सब से आगे थे. स्वास्थ्य बड़ा अच्छा था. उन का शरीर भी बलिष्ठ था. एक दिन उन की मां उन्हें पीर साहब के पास ले गईं. पीर साहब नगर से बाहर एक खानकाह में रहते थे. नगर के लोग उन के चमत्कारों की कहानियां सुनसुन कर उन के पास जाया करते थे. कोई किसी रोग का इलाज कराने जाता, कोई संतान के लिए और कोई मुकदमा जीतने के लिए. पीर साहब किसी को तावीज देते, किसी को फूंक मार कर पानी पिलाते. पीर साहब का खलीफा हर आने वाले से 11 रुपए ले लेता था.

प्यारे मियां की मां को भी पीरों पर बड़ा विश्वास था. उन का कहना था कि पीरों में इतनी शक्ति होती है कि वह सबकुछ कर सकते हैं. जिसे जो चाहे दे दें और जिसे चाहें बरबाद कर दें.

मां ने पीर साहब से हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘इस का पढ़ाई में मन नहीं लगता. आप कुछ कीजिए.’’

पीर साहब ने आंखें बंद कीं. कुछ बुदबुदाए, फिर बोले, ‘‘मुर्गे के खून से एक तावीज लिखा जाएगा. काले रंग का एक मुर्गा लाओ. 40 दिन लड़के को हम अपना फूंका हुआ पानी पिलाएंगे.’’

अगले दिन प्यारे मियां के गले में तावीज पड़ गया.

प्यारे मियां रोज पीर साहब का दम किया हुआ पानी पी रहे थे.

मां खुश थीं कि अब वह खेलकूद में अधिक ध्यान नहीं देते थे. कक्षा में चुपचाप बैठे रहते. घर जाते तो कमरे में जा कर पड़ जाते. वह कुछ थकेथके से लगते थे. उन्हें हलकाहलका बुखार रहने लगा था और खांसी भी.

मैं ने उन की मां को समझाया, ‘‘पीर साहब और तावीज के चक्कर में न पड़ें. प्यारे मियां का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है. उन्हें डाक्टर को दिखाएं.’’

मां ने तुरंत कहा, ‘‘बेटा, हमारा पीर साहब पर विश्वास है. तुम ने देखी नहीं उन की करामात. प्यारे से खेलकूद सब छुड़वा दिया. वही प्यारे को ठीक भी कर देंगे.’’

मैं ने फिर कहा, ‘‘प्यारे मियां का खेलकूद में इतना ध्यान देना कोई गंभीर बात नहीं थी. अगर उन्हें खेलकूद से इतनी सख्ती से न रोका जाता तो वह भी केवल इतना ही खेलते जितना और सब लड़के. अधिक प्रतिबंध लगाने का प्रभाव उलटा ही हुआ. जितना उन्हें खेल से रोका गया वह उतना ही खेल के दिवाने होते गए. दोष आप का है. और फिर पीर साहब का चक्कर. आप देखतीं नहीं कि प्यारे मियां बीमार हैं? इसी कारण वह खेलकूद भी नहीं रहे हैं.’’

परंतु मां ने मेरी बात अनसुनी कर दी.

एक दिन प्यारे मियां को खांसी के साथ खून आया. उन्हें डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने तपेदिक का रोग बताया. उसी डाक्टर से पीर साहब भी अपना इलाज करा रहे थे. 40 दिन तक फूंका हुआ पानी पिला कर पीर साहब ने अपनी तपेदिक की बीमारी के कीड़े प्यारे मियां के शरीर में पहुंचा दिए थे. यह भी उन की करामात थी.

प्यारे मियां के मांबाप सिर पीट रहे थे. वे अपनेआप को और अपने अंध- विश्वास को बारबार कोस रहे थे.

लेखक- अबरार मोहसिन

Storytelling 2025 : सलवार सूट

Storytelling 2025 : सलवारसूट पहन कर जब चंद्रा अपने कमरे से बाहर आई तो गरमी की शाम में बाहर आंगन में बैठ कर ठंडी हवा का आनंद लेते परिवार के लोगों को आश्चर्य हुआ.

चमकी चमक कर बोली, ‘‘वाह बूआ, आज बहुत खिल रही हैं आप.’’

‘‘आज की ताजा खबर,’’ कह उस का भाई बप्पी ठठा कर हंस पड़ा.

अखबार परे सरका कर और चश्मे को उतार कर हाथ में ले बांके बिहारी ने अपनी 50 वर्षीया बाल विधवा बहन चंद्रा को ऊपर से नीचे तक घूरा, ‘‘कम से कम अपनी उम्र का तो लिहाज किया होता.’’

इतना सुनना था कि चंद्रा का मनोबल टूट गया, वहीं जमीन पर बैठ गई और ‘‘मैं नहीं रोऊंगी, मैं नहीं रोऊंगी,’’ की रट लगाने लगी.

अपना काम छोड़ कर राधिका उठ कर अपनी ननद के पास आ बैठी, ‘‘दीदी, जो जितना दबता है उसे उतना ही दबाया जाता है, जानती हो न? अपने भैया को न सही, कम से कम चमकी और बप्पी को तुम झिड़क ही सकती हो. जन्म से गोद में खिलाया है तुम ने उन्हें.’’

‘‘मम्मी, तुम भी,’’ बप्पी बोला, ‘‘बूआ बात ही ऐसी करती हैं. कैसी कार्टून सी लग रही हैं. पूरा महल्ला हंसेगा, अगर मैं हंस पड़ा तो क्या हुआ?’’

‘‘अगर मेरा शरीर तेरी बूआ जैसा छरहरा होता तो मैं भी ये सब पहनती. तब देखती कौन मेरे ऊपर हंसता,’’ राधिका बोली.

‘‘तुम्हारा तो दबदबा है, तुम्हारे ऊपर हंसने की किस की हिम्मत होगी,’’ बांके बिहारी बोले.

घुटनों में सिर छिपा कर उन की विधवा बहन सुबकसुबक कर रोने लगी.

‘‘अरे, ये सब जानवर हैं, चलो दीदी, भीतर चलते हैं,’’ राधिका ने कहा.

‘‘मम्मी, तुम हमेशा से बूआ की तरफदारी करती आई हो, पता नहीं क्यों.’’ बप्पी बोला.

‘‘तुम तो शायद मेरे सौतेले हो और तेरी बूआ तो मेरी पेटजाई हैं,’’ बप्पी को गुस्से से घूर कर राधिका बोली और चंद्रा को भीतर ले गई.

‘‘सच बताओ, दीदी, तुम्हें क्या सूझा कि सलवारसूट खरीद लिया? कब खरीदा? वैसे फबता है तुम पर.’’

‘‘सच कहती हो भाभी?’’ चंद्रा खिल उठी, ‘‘स्कूल में सभी टीचर्स पहनती हैं. सुमन मेरे लिए खरीद लाई थी. मैं ने बहुत मना किया था, पर मानी ही नहीं. वह कहने लगी, ‘आजकल सब चलता है, समय के साथ चलना चाहिए. शुरू में जरूर हिचक लगेगी, सो, घर से शुरुआत करनी चाहिए.’ मुझे पता था, भैया नाराज होंगे, पर वे तो हमेशा से ही मुझ पर नाराज रहते हैं. कुछ करो या न करो.’’

‘‘ऐसा न कहो दीदी,’’ राधिका पति का पक्ष ले कर बोली, ‘‘उन्हीं की जिद से तुम पढ़लिख सकीं. बीए, फिर बीएड कर सकीं, स्कूल में टीचर बन सकीं. नहीं तो ससुरजी तो बहुत खिलाफ थे इस सब के.’’

‘‘हां, भाभी, यह बात तो है. ‘चंद्रा को अपने पैरों पर खड़ा करना है’ यह भैया की जिद थी. पर कब खड़ा होने दिया उन्होंने मुझे? हर वक्त इतनी ज्यादा सख्ती, इतना नियंत्रण. उन्हें खुश रखने के लिए मैं ने हमेशा सफेद साड़ी पहनी, कभी क्रीमपाउडर को हाथ तक न लगाया. घर वापस आने में एक मिनट भी देर नहीं की. शायद मैं अपने पैरों पर खड़ा होना भूल गई हूं. शायद इस उम्र में मुझे अपनी काबिलीयत पर संदेह होने लगा है. मैं देखना चाहती हूं कि मैं अकेली अपने पैरों पर खड़ी हो भी सकती हूं कि नहीं. लेकिन, मेरे पास तो हिम्मत ही नहीं है.’’

राधिका ने अपनी हमउम्र ननद के सिर पर हाथ रखा, ‘‘जिंदगीभर गाय बनी रहीं. एकदम से आधुनिक थोड़े ही हो जाओगी. रही हिम्मत की बात, तो मेरे विचार से अपने भैया को छोड़ कर तुम और किसी से नहीं डरती हो.’’

‘‘क्या ये कम हैं? वे पूरे हौआ हैं. तुम जाने कैसे सहती हो उन्हें, भाभी.’’

‘‘सुना नहीं, वे मुझे क्याक्या कहते हैं. भाभी, सच, तुम नहीं होतीं तो मैं ने न जाने कब की आत्महत्या कर ली होती.’’

राधिका हंसी, ‘‘सुनो दीदी, औरतों को अपनीअपनी तरह से इन आत्महत्या वाले पलों से गुजरना पड़ता है. जो हार गईं,

वे गईं. बाकी जिंदगी की जंग को अपनेअपने ढंग से लड़ती ही रहती हैं.’’

राधिका का हाथ पकड़ कर चंद्रा बोली, ‘‘भाभी, आप मेरी जिंदगी का बहुत बड़ा सहारा हैं. इन बच्चों को अपना समझ कर कितने लाड़ से पाला था, पर अब शायद मेरे स्नेहप्यार की उन्हें जरूरत नहीं है. लगता है मैं इन के लिए पराई हो गई हूं. सिर्फ आप ही समझती हैं मुझे. नहीं तो मैं कितनी अकेली हो जाती.’’

राधिका चंद्रा का हाथ पकड़े थोड़ी देर चुप बैठी रही, फिर बोली, ‘‘तुम्हारे भैया को हमेशा तुम्हारा डर लगा रहता था कि कहीं तुम्हारी वजह से उन को शर्मिंदगी का सामना न करना पड़े. इसीलिए तुम पर सख्ती करते रहे. वैसे, तुम्हारी फ्रिक करते हैं, तुम्हें प्यार करते हैं.’’

‘‘शायद करते हों, पर मैं ने भी कभी संदेह का कोई अवसर आने नहीं दिया है.’’

‘‘जानती हूं,’’ राधिका बोली, ‘‘फिलहाल तुम रात को सलवारसूट पहन कर सो लिया करो. चमकी इतनी बड़ी हो कर भी जो स्कर्ट पहने घूमती रहती है, उस से तो ज्यादा शालीन लगोगी तुम. धीरेधीरे तुम्हारे भैया तुम्हारे सलवारसूट के अभ्यस्त हो जाएंगे. तुम्हारी हिचक भी खत्म हो जाएगी.’’

‘‘भाभी, यू अप्रूव?’’ खुशी से भर कर बच्चों की तरह चंद्रा बोली.

‘‘कोई हर्ज नहीं है. फिर बच्चे तो आधुनिक होते जा रहे हैं और सारी पाबंदी हमारे ऊपर ही क्यों है? जिंदगीभर पाबंदियों में रही हो, अब यदि सलवारसूट से तुम्हें थोड़ी खुशी मिलती है तो आई सर्टेनली अप्रूव.’’

लौट कर राधिका ने अपने पति को आड़ेहाथों लिया, ‘‘क्यों जी, क्यों आप दीदी को हरदम रुलाते रहते हो? सलवारसूट ही तो पहना, कोई बिकनीअंगिया पहन कर तो बाहर नहीं निकली थीं?’’

‘‘निकलती, तो भी तुम उसी का पक्ष लेतीं,’’ बांके बोले, ‘‘हमेशा से देखता आया हूं. मैं जो भी कहता हूं तुम उस के खिलाफ झंडा गाड़ कर खड़ी हो जाती हो. मैं परिवार के भले के लिए ही कहता हूं, यह तुम्हें क्यों नहीं यकीन होता?’’

‘‘जब आप के बच्चे…’’ राधिका रुकी, थोड़ा हंसी, फिर बोली, ‘‘जब हमारे 17-18 वर्ष के युवा बच्चे बरमूडा, टीशर्ट पहने शाम ढले तक लड़केलड़कियों का गु्रप बनाए टहलते रहते हैं, तो?’’

‘‘तब भी तुम्हीं ने उन का पक्ष ले कर हमारी बोलती बंद कर दी थी कि जमाने के साथ बच्चों को चलने देना चाहिए, नहीं तो उन्हें कौप्लैक्स हो जाएगा.’’

‘‘तब आप मान गए थे, तो अब भी मानिए. आजकल मेरी उम्र की औरतें सलवारसूट पहनें, तो कोई बुरा नहीं मानता. इस से आधुनिकता ही दिखती है.’’

‘‘तुम से किस ने कहा कि मैं आधुनिक हूं?’’

‘‘आप के बच्चों ने, जो टीवी में फिल्म नहीं देखते, पर दोस्तों के साथ हौल में फिल्म देखना पसंद करते हैं, जो अपनी बर्थडे पार्टी में केक काटने से कहीं ज्यादा फिल्म के गानों के साथ मस्तमस्त नाचना पसंद करते हैं.’’

तैश में आई अपनी पत्नी को बांके बिहारी ने देखा. वे जानते थे कि उन दोनों को ही यह आधुनिकता पसंद नहीं है. लेकिन इस युग की आधुनिकता के बहाव को रोकना भी उन के वश में नहीं है. बात वहीं खत्म करने के इरादे से वे बोले, ‘‘भई, मानना पड़ेगा, ये गाने, ये धुनें, ये विजुअल खून में गरमाहट भर ही देते हैं.’’

राधिका बोली, ‘‘एक हमीं गंवार रह गए. सोच रही हूं, आधुनिक डांस क्लास जौइन कर लूं और एक मिनी स्कर्ट खरीद लूं अपने लिए.’’

‘‘क्या?’’

‘‘तुम्हारे लिए बप्पी का बरमूडा चलेगा,’’ कह कर राधिका जोरजोर से हंसने लगी.

एक तरफ इतनी आधुनिकता दूसरी तरफ इतनी रूढि़वादिता? राधिका को अपने परिवार का यह खिचड़ीवाद कभी समझ नहीं आया. पर घरघर की यही कहानी है. पुराना युग नए युग को पकड़ कर रखना चाहता है और नया युग पुराने युग के सब बंधन काट फेंकना चाहता है. उस के ससुर ने अपने पढ़ेलिखे बेटे के लिए पढ़ीलिखी बहू चाही थी, पर उसे एक संकुचित दायरे में बंद रखा गया था.

उन की मृत्यु के बाद उसे थोड़ी राहत जरूर मिली थी, पर बेचारी विधवा चंद्रा कभी भी खुल कर  सांस न ले पाई. अब इस उम्र में यदि वह कुछ शौक पूरे करना चाहती है तो क्या बुरा है. हमेशा ही अपना वेतन उसी के हाथ में रखा है उस ने. कभी अपने अधिकार के लिए चंद्रा ने मुंह नहीं खोला. और एक चमकी है, अभी 18 वर्ष की भी नहीं हुई है, पर सब से हर वक्त जवाबतलब करती रहती है. दोनों बच्चों के स्वार्थ में, उन के आराम में, उन के रूटीन में जरा सा भी विघ्न नहीं आना चाहिए. शायद नए युग के लोग लड़ कर ही अपना अधिकार हासिल कर पाएंगे. चलो, युग के साथ चलना तो सीख रहे हैं वे लोग. पर चंद्रा जैसों का इस युग में कहां स्थान है? क्यों इतनी मौन रहती है वह कि उस के लिए हर बार राधिका को कमर कसनी पड़ती है?

तभी डा. कैप्टन शर्मा की पुकार सुनाई दी, ‘‘अरे, चंद्रा, कहां हो? चमकी, बप्पी, कहां हो तुम सब? कोई नजला, कोई जुकाम?’’

वर्षों पहले बांके बिहारी को किडनी स्टोन की तकलीफ हुई थी. उसी के सिलसिले में डा. कैप्टन शर्मा का इस घर में प्रवेश हुआ था. पास में ही रहते थे. कभी सैनिक अस्पताल में थे. घर में बड़ों या बच्चों की कोई बीमारी हो, तो हमेशा उन्हें ही बुला लिया जाता. धीरेधीरे वे इस घर के सदस्य जैसे बन गए.

दोनों परिवारों में भी सामाजिक संबंध हो गए थे. वे सरकारी अस्पताल के डाक्टर थे. वहां से छूटते ही अकसर वे यहां आ बैठते थे और ‘भाभी एक गरमगरम चाय हो जाए,’ कह सोफे पर पसर जाते थे. इस मरीज ने यह तमाशा किया, उस वार्ड बौय ने किसे कैसे तंग किया, किस नर्स का किस डाक्टर से क्या संबंध है, सबकुछ नाटकीय ढंग से बताते जाते. और बच्चों से ले कर बड़ों तक का हंसाहंसा कर दम भर देते. चमकी तो बचपन से ही मानो उन की दुम थी. जब वे आते, बस, उन्हीं से चिपकी रहती. अब बड़ी हो गई है, हजार काम हैं उस को, पर अब भी सबकुछ छोड़छाड़ कर कुछ देर के लिए तो जरूर ही आ बैठती है उन के पास.

‘कोई नजला नहीं, कोई जुकाम नहीं,’ वह हमेशा यही उत्तर देती रही है, लेकिन आज बोली, ‘‘बूआ से आप उन के कमरे में मिल ही लीजिए.’’

‘‘भई, ऐसी क्या बात हुई कि हमें वहां जाना पड़ेगा? तबीयत तो ठीक है न?’’ उन्होंने पूछा.

वर्षों से इस परिवार में आनाजाना है. अब रिटायर हो चुके हैं, पर कभी भी उन्होंने चंद्रा के कमरे में कदम नहीं रखा है. हां, जब भी आते हैं एक नजर उसे देखने की ख्वाहिश उन की अवश्य होती है. पहले जब वह जवान थी तो कभीकभी परदे की आड़ से, छिप कर उन के नाटकीय वर्णनों को सुना करती थी. एक अदृश्य शक्ति से उन्हें एकदम पता लग जाता था कि कब वह उन्हें सुन रही है. वे कुछ सजग हो जाते, वे कुछ और हंसीमजाक कर के उस वर्णन में जान डालने की कोशिश करते. मानो चंद्रा को खुश कर के उन्हें तृप्ति मिलेगी. जब चंद्रा चली जाती तो उन्हें पता चल जाता और उन की बातें भी खत्म हो जातीं और फिर वे चले जाते.

तब वे बालबच्चे वाले थे. घर में मां थीं, 2 बहनें थीं, पत्नी, बच्चे थे, बड़ी जिम्मेदारी थी. उन्होंने चंद्रा से चाहा भी कुछ नहीं था. उस की उदास जिंदगी में थोड़ी खुशी भरना चाहते थे, बस. अब मां, पत्नी परलोक सिधार चुकी हैं. बच्चे, बहनें अपनीअपनी गृहस्थी में सुखी हैं. कोई यहां, कोई वहां जा बसा है. बेटे विदेश में बस चुके हैं. अब वे नितांत अकेले हैं, रिटायर्ड हैं, पर स्वतंत्र ही रहना चाहते हैं. उन के परिवार के नाम पर बांके बिहारी के परिवारजन हैं. रोज ही आने लगे हैं यहां आजकल. लेकिन अभी भी चंद्रा सामने नहीं आती. यदि पड़ भी जाती है तो अभिवादन भर कर लेती है. मुसकरा कर, सिर हिला कर हां या न में उन के सवालों का जवाब दे देती है और वापस चली जाती है.

डा. कैप्टन शर्मा राधिका से अकसर पूछ लेते, ‘और चंद्रा कैसी है? कोईर् नजला, कोई जुकाम?’

राधिका हंसती, ‘नहीं, ठीक है वह. उसे नजलाजुकाम की फुरसत कहां है. आजकल उस के स्कूल में परीक्षाएं चल रही हैं. कुछ ट्यूशनें भी घर में लेनी शुरू कर दी हैं उस ने. आजकल बडि़यां बनाने में लगी है या आजकल स्वेटर बुनने में व्यस्त है,’ आदिआदि जैसी चंद्रा की सैकंडहैंड खबरें राधिका से उन्हें मिलती रहतीं. कभी वे कोई मैगजीन ले आते, उपन्यास ले आते उस के लिए.

बस, इतना ही. और कुछ नहीं. दुखिया को एकाकीपन से कुछ तो मुक्ति मिल जाए. अपने दायरे में ही रह कर जितना हो सके सुख बटोर ले. बस, यही इच्छा थी उन की.

‘‘कोई नजला नहीं, कोई जुकाम नहीं, पर बूआ से आप आज उन के कमरे में मिल ही लीजिए,’’ चमकी चमक कर कह रही थी.

‘‘भई, ऐसी क्या बात है कि हमें वहां जाना पड़ेगा? तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘आप वहां जाइए तो पहले, तभी तो पता लगेगा,’’ चमकी ने जोड़ा.

‘‘भाभी, राधिका भाभी, बात क्या है? क्या बहुत बीमार है वह?’’ उस तरफ जातेजाते डा. शर्मा बोले.

पीछे से राधिका आ गई. कुछ रास्ता रोकते हुए बोली, ‘‘नहीं, दीदी एकदम ठीक हैं. चमकी शरारत कर रही है.’’

‘‘अरे, एक लेडी के कमरे में बिना इजाजत जाने को कह रही है, आखिर माजरा क्या है?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘क्या, बिना इजाजत वहां नहीं जा सकते आप?’’ चमकी ने आश्चर्य प्रकट किया.

‘‘एकदम नहीं, आखिर जैंटलमैन हूं मैं.’’

‘‘कायर हैं कायर, डरते हैं बूआ से,’’ चमकी ने चैलेंज किया.

‘‘ओके, जाता हूं,’’ डा. बोले और चंद्रा के कमरे के द्वार पर खड़े हो कर दरवाजा पर खटखटा कर अंदर आने की आज्ञा मांगी. फिर थोड़ा रुक कर उन्होंने भीतर प्रवेश किया.

साथ ही राधिका और चमकी भी पीछेपीछे घुसीं. देखा, उन की तरफ पीठ कर के वे खिड़की के पास खड़ी हैं. शायद रो भी रही हैं.

‘‘क्या हुआ?’’ डाक्टर ने राधिका से फुसफुसा कर पूछा.

सलवारसूट की तरफ इशारा कर के राधिका बोली, ‘‘परिवार के सब लोगों ने बड़ा मजाक उड़ाया है इन का. मैं ने समझाबुझा दिया था. अब चमकी की नासमझी से फिर बिफर पड़ी हैं ये शायद.’’

उलटे पैर डा. कैप्टन शर्मा बाहर निकल गए. चमकी भी बाहर आ गई, बोली, ‘‘डर गए न डाक्टर चाचा?’’

गंभीर हो कर कैप्टन शर्मा बोले, ‘‘हरेक आदमी की अपनी प्राइवेसी होती है. उस को तोड़ना अनुचित ही नहीं, बल्कि शर्म की बात भी है. वह जब उचित समझेगी, और मुझे यदि उपयुक्त समझेगी तो खुद ही बातचीत करने के लिए बाहर आएगी.’’

‘‘आप का यह संदेश मैं उन्हें दे आऊं? वे तो बाहर आने से रहीं.’’

‘‘तुम जाओ, चमकी, अपना काम करो.’’

‘‘आज कोई गपशप?’’

‘‘आज मैं किसी का इंतजार कर रहा हूं. इसलिए आज गपशप नहीं.’’

अनजान सी कुछ देर खड़ी रह कर चमकी वापस लौट गई.

डा. कैप्टन शर्मा की आवाज सुनते ही जो रुलाई फूट पड़ी थी, उस से चंद्रा लाज से गड़ी जा रही थी. लेकिन जब वे दरवाजे से लौट गए तो अचानक उस ने उन के प्रति बड़ी कृतज्ञता का अनुभव किया. बाहर जा कर मानो उन्होंने उसे एक बड़ी शर्म से बचा लिया. अब बाहर वे उस की प्रतीक्षा कर रहे हैं, क्यों?

राधिका उसे कमरे में अकेला छोड़ कर जा चुकी थी. चंद्रा अनिश्चित दशा में कुछ देर चुप खड़ी रही, फिर पानी से मुंह धो कर रसोई में राधिका के पास आ बैठी. चाय का कप उसे पकड़ा कर राधिका ने कहा, ‘‘जाओ, डाक्टर साहब को दे आओ.’’

‘‘मैं?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘इन कपड़ों में?’’

‘‘यदि कपड़े बदलने जाओगी, तो न तो चाय पीने के काबिल बचेगी और न तुम चाय ले कर जाने के काबिल बचोगी.’’

‘‘भाभी, क्या कह रही हैं आप.’’

‘‘कुछ कदम आगे बढ़ते हैं तो कुछ को पीछे छोड़ कर ही बढ़ते हैं. इसी तरह कुछ धारणाएं टूटती हैं तो कुछ बनती भी हैं. अब सलवारसूट पहन कर आगे बढ़ी हो, तो बैठक में जा कर चाय पेश करना भी सीखो.’’

चाय की ट्रे ले कर धीरेधीरे कदम बढ़ाती, सिर झुकाए, चंद्रा ने जब बैठक में प्रवेश किया तो सोफा छोड़ कर कैप्टन शर्मा अदब से मिलिटरी कायदे के अनुसार खड़े हो गए. और तब तक खड़े रहे, जब तक चंद्रा सोफे पर नहीं बैठ गई.

‘‘मैं कैप्टन शर्मा हूं. बिहारी परिवार का फैमिली डाक्टर,’’ उन्होंने अपनेआप को परिचित कराया.

पीछेपीछे राधिका भी कमरे में आ गई थी. हंस कर उस ने अपनी ननद का परिचय डाक्टर से कराया.

‘‘बहुत दिनों से आशा लगा रखी थी कि तुम्हें कभी नजला या कभी जुकाम हो तो मुझे याद किया जाए, लेकिन हमेशा मुझे निराशा ही हाथ लगी.’’

चंद्रा सिर झुकाए मुसकराती रही.

‘‘मैं बातें किए जा रहा हूं. तुम कोई जवाब ही नहीं देतीं. यह तो बड़ा जुल्म है.’’

चंद्रा जानती थी कि डाक्टर साहब के व्यक्तित्व में एक चुंबकीय आकर्षण है. शायद इसीलिए वह सदैव अपने को उन से दूर रखती आई थी. आज भी वह ठीक उन के सामने बैठी चुंबक के सामने पड़े लोहे की तरह छटपटा रही थी कि बांके बिहारी ने कमरे में प्रवेश कर के खामोशी तोड़ दी.

‘‘क्या मौके पर आए हो,’’ डाक्टर साहब बोले, ‘‘मैं चंद्रा के साथ सामने पार्क में घूमने जा ही रहा था,’’ डा. साहब अब उठ कर खड़े हो चुके थे, ‘‘अब आ ही गए हो तो तुम से भी इजाजत ले लेता हूं.’’

‘‘पी कर आए हो?’’ आश्चर्य से बांके बोले, ‘‘भले घर की स्त्रियां क्या पराए मर्दों के साथ घूमने जाती हैं?’’

‘‘जानता था, तुम यही कहोगे,’’ डाक्टर साहब हंस पड़े, ‘‘आज इन्होंने पहली बार सलवारसूट पहना है. बाहर घूमने के लिए तो इन्हें निकलना ही है. तुम तो ले कर जाओगे नहीं. तुम्हें छोड़ कर भाभी जाएंगी नहीं. बच्चे दोनों पहले से ही अपनेअपने गु्रप के साथ वहां पहुंच चुके होंगे. अब कौन बचा, मैं ही?’’

चंद्रा शर्म से गड़ी जा रही थी. वह कमरे से बाहर जाने के लिए खड़ी हुई. डाक्टर बोले, ‘‘तुम बहुत सुंदर लग रही हो. बहुत जंच रहा है तुम पर यह सलवारसूट. घूमने तो हम लोग साथ चलेंगे ही, चाहे इस के लिए मुझे बांके बिहारी को साला ही क्यों न बनाना पड़े.’’

एक बार फिर सब सकते में आ गए.बाहर की ओर जातेजाते चंद्रा के कदम थम गए. सोचने लगी, ‘कहीं यह उस का कोई दूसरा मजाक तो नहीं है?’ पर नहीं, डा. कैप्टन शर्मा चंद्रा के एकदम नजदीक आ खड़े हुए, ‘‘चंद्रा, क्या मुझे अपना जीवनसाथी चुनना स्वीकार करोगी.’’

एक भयभीत सी नजर चंद्रा ने अपनी भाभी पर डाली.

राधिका बोली, ‘‘डाक्टर बाबू, उन के भैया से तो पहले इजाजत ले लीजिए.’’

‘‘अरे, वह साला क्या इजाजत देगा, साला है न. इजाजत तो मुझे चंद्रा की चाहिए. हम दोनों बालिग हैं. इजाजत न  देगा, तो भाग निकलेंगे. यह गली छोड़ कर दूसरी गली में बस जाएंगे.

कोई कुछ बोले, उस से पहले ही आगे बढ़ कर राधिका ने डाक्टर साहब के हाथ में चंद्रा का हाथ रख दिया.

इस घटना के अरसे बाद तक चमकी उस सलवारसूट के करामाती किस्से सुनाती रही. जब भी उस की किसी सहेली के लिए रिश्ता आता, चमकी उस को सलवारसूट ही पहनने की सलाह देती, ‘‘देखो, सलवारसूट की ही वजह से तो मेरी 50 वर्षीया बूआ के हाथ पीले हुए.

लेखिका: सुधा सिन्हा

Kahaniyan : हमारी अमृता

लेखक- ज्योति गजभिये

Kahaniyan :  हमेशा की तरह आज भी बंगले के लान में पार्टी का आयोजन किया गया था. वीना सुबह से व्यस्त थीं. उन के घर की हर पार्टी यादगार होती है. दोनों बेटियां, कविता और वनिता भी तैयार हो कर आ गई थीं. वीना के पति अमरनाथ विशिष्ट मेहमानों को लाने होटल गए थे. मद्धिम रोशनी, लान में लगाई गई खूबसूरत कुरसियां और गरमागरम पकवानों से आती खुशबू, कहीं कुछ भी कम न था.

अमर मेहमानों को ले कर लान में दाखिल हुए. उन के स्वागत के बाद वीना सूप सर्व कर रही थीं कि अंदर से जोरजोर से चीखने की आवाज आने लगी, ‘मम्मी…मम्मी, मुझे बाहर निकालो.’ वीना हाथ का सामान छोड़ कर अंदर भागीं. इधर पार्टी में कानाफूसी होने लगी. कविता और वनिता चकित रह गईं. अमरनाथ के चेहरे पर अजीब हावभाव आजा रहे थे. लोग भी कुतूहल से अंदर की ओर देखने लगे. वीना ने फुरती से अमृता को संभाल लिया और पार्टी फिर शुरू हो गई.

यह अमृता कौन है? अमृता, वीना की तीसरी बेटी है. वह मानसिक रूप से अपंग है, पर यह बात बहुत कम लोग ही जानते हैं. ज्यादातर लोग उन की दोनों बड़ी बेटियों के बारे में ही जानते हैं.

अमृता की अपंगता को ले कर इस परिवार में एक तरह की हीनभावना है. हर कोई अमृता के बारे में चर्चा करने से कतराता है. वीना तो मां है और मां का हृदय संतान के लिए, भले ही वह कैसी भी हो, तड़पता है. किंतु परिवार के अन्य सदस्यों के आगे वह भी मजबूर हो जाती है.

वीना ने तीसरा चांस बेटे के लिए लिया था. कविता और वनिता जैसी सुंदर बच्चियों से घर की बगिया खिली हुई थी. इस बगिया में यदि प्यार से एक बेटे का समावेश हो जाए तो कितना अच्छा रहे, यही पतिपत्नी दोनों की इच्छा थी, पर बेटा नहीं हुआ. उन की आशाओं पर तुषारापात करने के लिए फिर बेटी हुई, वह भी मानसिक रूप से अपंग. शुरू में वह जान ही न पाए कि उन की बेटी में कोई कमी है, पर ज्योंज्यों समय गुजरता गया, उस की एकएक कमी सामने आने लगी.

अमृता अभी 14 साल की है किंतु मस्तिष्क 5-6 साल के बच्चे के समान ही है. घर की व्यवस्था, पति और बच्चे, इन सब के साथ अमृता को संभालना, वीना के लिए अच्छी कसरत हो जाती है. कहने को तो घर में कई नौकरचाकर थे पर अमृता, उसे तो मां चाहिए, मां का पल्लू थामे वह स्वयं को सुरक्षित महसूस करती है.

पार्टी समाप्त होने पर अमर ने जूते उतारते हुए वीना से कहा, ‘‘तुम पार्टी के समय अमृता की ठीक से व्यवस्था क्यों नहीं करतीं, चाहो तो मैं आफिस से सर्वेंटस भेज देता हूं. मगर मैं कोई व्यवधान नहीं चाहता.’’

थकी हुई वीना की आंखों में आंसू आ गए. वह धीरे से बोलीं, ‘‘आप के आफिस की फौज अमृता के लिए कुछ नहीं कर सकती, अमृता मेरे बिना एक पल भी नहीं रह सकती.’’

‘‘अमृता…अमृता…’’ अमर ने चिल्ला कर कहा, ‘‘न जाने तुम ने इस विषवेल का नाम अमृता क्यों रखा है. कई बार कहा कि कई मिशनरियां ऐसे बच्चों की अच्छी तरह देखभाल करती हैं. इसे तुम वहां क्यों नहीं छोड़ देतीं.’’

‘‘अमृता इस घर से कहीं नहीं जाएगी,’’ वीना ने सख्ती से कहा, ‘‘यदि वह गई तो मैं भी चली जाऊंगी.’’

कविता और वनिता ने मम्मीपापा की बहस सुनी तो वे चुपचाप अपने कमरे में चली गईं. इस घर में ऐसी बहस अकसर होती है. कविता के हृदय में अमृता के प्रति असीम प्रेम है किंतु वनिता को वह फूटी आंख नहीं भाती क्योंकि मम्मी अमृता के साथ इतनी व्यस्त रहती हैं कि उस का जरा भी ध्यान नहीं रखतीं.

16 साल की वनिता 11वीं की छात्रा है. अमृता के जन्म के बाद उसे मां की ओर से कम ही समय मिलता था इसलिए अभी भी वह स्वयं को अतृप्त महसूस करती है.

18 वर्षीय कविता बी.ए. द्वितीय वर्ष की छात्रा है. वह बेहद खूबसूरत और भावुक स्वभाव की है. किसी का भी दुख देख कर उस की आंखों में आंसू आ जाते हैं. अमृता को संभालने में वह मां की पूरी मदद करती है.

पति की बहस के बाद वीना अमृता के कमरे में चली गईं. उसे संभालने वाली बाई वहां थी. अमृता खिलौनों से खेल रही थी. कभीकभी उन्हें उठा कर फेंक भी देती. वीना को देख कर वह उन से लिपट गई. आंखों से आंसू और मुंह से लार बहने लगी. वीना ने पहले तो रूमाल से उस का चेहरा पोंछा, फिर बाई को वहां से जाने को कहा. उन्होंने अपने हाथों से अमृता को खाना खिलाया और उसे साथ ले कर सुलाने लगीं.

अमृता के साथ वीना इतनी जुड़ी हुई हैं कि वह अकसर घर के कई जरूरी काम भूल जातीं. उन्हें अमृता जब भी नजर नहीं आती है तो वह घबरा जाती हैं.

अमृता ने किशोरावस्था में प्रवेश कर लिया था. शरीर की वृद्धि बराबर हो रही थी किंतु मस्तिष्क अभी भी छोटे बच्चे की तरह ही था. कई बार वह बिछौना भी गीला कर देती. आंखों में दवा डाल कर वीना को उस की देखभाल करनी पड़ती थी. ज्यादा काम से वह कई बार चिड़चिड़ी भी हो जाती थीं.

परसों ही जब वनिता की सहेलियां आई थीं और वीना किचन में व्यस्त थीं, बाई को चकमा दे कर अमृता वहां आ पहुंची और टेबल पर रखी पेस्ट्री इस तरह खाने लगी कि पूरा मुंह गंदा हो गया. वनिता को ज्यादा शर्मिंदगी महसूस हो रही थी. वह सहेलियों को ले कर अपने कमरे में चली गई. सहेलियों के बारबार पूछने पर भी वनिता ने नहीं बताया कि ऐसी हरकत करने वाली लड़की और कोई नहीं उस की बहन है.

सहेलियों के जाने के बाद उस ने अमृता को 2 थप्पड़ लगा दिए. अचानक पड़ी इस मार से अमृता का चेहरा लाल हो गया. वह सिर पटकपटक कर रोने लगी. वीना को सारा काम छोड़ कर आना पड़ा. जब उन्हें वनिता के दुर्व्यवहार के बारे में पता चला तब उन्होंने वनिता को खूब लताड़ा. वनिता गुस्से से बिफर पड़ी, ‘‘मम्मी, आप सुन लीजिए, इस घर में मैं रहूंगी या यह आप की लाड़ली रहेगी,’’ और पैर पटकते हुए अपने कमरे में चली गई. वीना के हृदय पर क्या वज्रघात हुआ, यह वनिता जान न सकी.

इतना बड़ा घर, नौकरचाकर, सुखसुविधाओं का हर सामान होने पर भी इस घर में मानसिक शांति नहीं है. अमर के अहंकार के आगे वीना को हर बार झुकना पड़ता है. एक अमृता की बात पर ही वह अड़ जाती हैं, बाकी हर बातें वह अमर की मानती हैं.

कभी वीना के मन में विचार आता है कि सभी के बच्चे पूर्णत्व ले कर आते हैं, एक मेरी अमृता ही क्यों अपूर्ण रह गई. पल भर के लिए ऐसे विचार आने पर वह तुरंत उन्हें झटक देतीं और फिर नए उत्साह से अमृता की सेवा में जुट जातीं, पर पति का असहयोग उन्हें पलपल खलता.

ऐसा नहीं था कि अमर के मन में अमृता के प्रति बिलकुल प्रेम न था किंतु जहां सोसायटी के सामने आने की बात आती वह अमृता का परिचय देने से कतराते थे. कल सुबह ही जब अमर चाय पी रहे थे, अमृता छोटी सी गुडि़या ले कर उन के पास आ गई. हर दम चीख कर बोलने वाली अमृता आज धीरे से अस्पष्ट शब्दों में बोली, ‘‘पापा, मेरी गुडि़या के लिए नई फ्राक लाइए न.’’ तब पापा को भी उस पर प्यार उमड़ आया था. उस के गाल थपथपा कर बोले, ‘‘जरूर ला देंगे.’’

वीना ने यह देखा तो खुशी से फूली न समाईं. अमर भी सोचने लगे कि यह विक्षिप्त लड़की कभीकभी इतनी समझ-दार कैसे लगने लगती है.

अमृता ने जब से किशोरावस्था में प्रवेश किया था वीना उसे ले कर बहुत चिंतित रहती थीं. अब उन का घर से बाहर  आनाजाना बहुत कम हो गया था. नौकरों के भरोसे उसे छोड़ कर कहीं जाने का दिल नहीं करता. न जाने क्यों, आजकल उन्हें ऐसा महसूस होने लगा था कि अमृता को भी कुछ सिखाना चाहिए. थोड़ा व्यस्त रहने से उस में कुछ सुधार आएगा.

एक दिन घर के लिए जरूरी सामान लाना था. उस दिन कविता कालिज नहीं गई थी. वीना ने कविता को अमृता का खयाल रखने के लिए कहा और खुद बाजार चली गईं.

परदे एवं कुशन खरीद कर जब वह बिल का भुगतान करने लगीं तो पीछे से किसी ने उन के कंधे पर हाथ रख कर आवाज दी, ‘‘वीना…’’ वीना ने पलट कर देखा, कालिज के समय की सहेली ऋतु खड़ी थी. उसे देख कर वह खुशी से पागल हो गईं. भुगतान करना भूल कर बोलीं, ‘‘अरे ऋतु, तू यहां कैसे?’’

‘‘अभी 2 महीने पहले मुझे यहां नौकरी मिली है इसलिए मैं इस शहर में आई हूं. तू भी यहीं है, मुझे मालूम ही न था.’’

‘‘चल ऋतु, किसी रेस्टोरेंट में बैठ कर चाय पीते हैं और पुराने दिनों की याद फिर से ताजा करते हैं.’’

‘‘वीना, क्या तू मुझे अपने घर बुलाना नहीं चाहती? चाय तो पिएंगे पर रेस्टोरेंट में नहीं तेरे घर में. अरे हां, पहले तू बिल का भुगतान तो कर दे,’’ ऋतु बोली.

वीना बिल का भुगतान करने के बाद ऋतु को ले कर घर आ गईं. कविता अमृता को ले कर ड्राइंगरूम में बैठी थी. वह उसे टीवी दिखा कर कुछ समझाने का प्रयास कर रही थी. अपनी बेटियों का परिचय उस ने ऋतु से कराया. कविता ने दोनों हाथ जोड़ कर ऋतु को नमस्ते की किंतु अमृता अजीब सा चेहरा बना कर अंदर भाग गई. ऋतु की अनुभवी आंखों से उस की मानसिक अपंगता छिपी नहीं रही. फिर भी हलकेफुलके अंदाज में बोली, ‘‘वीना, तेरी 2 बेटियां हैं.’’

वीना बोली, ‘‘2 नहीं 3 हैं. मझली बेटी वनिता कालिज गई है,’’ वीना ने बताया.

इस पर ऋतु तारीफ के अंदाज में बोली, ‘‘तेरी दोनों बेटियां तो बहुत सुंदर हैं, तीसरी कैसी है वह तो उस के आने पर ही पता चलेगा.’’

बच्चों की चर्चा छिड़ी तो मानो वीना की दुखती रग पर किसी ने हाथ रख दिया हो. वह बोलीं, ‘‘सिर्फ खूबसूरती से क्या होता है, कुदरत ने मेरी अमृता को अधूरा बना कर भेजा है.’’

‘‘तू दुखी मत हो, सिर्फ तेरे ही नहीं, ऐसे और भी कई बच्चे हैं. मैं मतिमंद बच्चों की ही टीचर हूं और यहां मतिमंद बच्चों के स्कूल में मुझे नौकरी मिली है. तू कल से ही अमृता को वहां भेज दे. उस का भी मन लग जाएगा और तेरी चिंता भी कम होगी.’’

वीना को तो मानो बिन मांगे मोती मिल गया. वह भी कई दिनों से अमृता के लिए ऐसे ही किसी अवसर की तलाश में थी. ऋतु के कहने पर दूसरे ही दिन अमृता का एडमिशन वहां करवा दिया. जब वह एडमिशन के लिए स्कूल पहुंची तो वीना ने कई बच्चों को अमृता से भी खराब स्थिति में देखा, तब उन्हें लगा कि मेरी बच्ची अमृता काफी अच्छी है.

अब वीना की रोज की दिनचर्या में परिवर्तन आ गया. अमृता को स्कूल छोड़ने और वहां से लाने का काम जो बढ़ गया था. थोड़े दिन तक अमृता स्कूल में रोती थी, सामान फेंकने लगती थी, पर धीरेधीरे वह वहां ठीक से बैठने लगी. ऋतु उस का पूरा ध्यान रखती थी.

इस विद्यालय में बच्चों की योग्यता- नुसार उन से काम करवाया जाता था. हर बच्चा मतिमंद होने पर भी कुछ न कुछ सीखने का प्रयास जरूर करता है और यदि उस में लगन हुई तो कुछ अच्छा कर के भी दिखाता है.

ऋतु ने देखा अमृता चित्र बनाने का प्रयास कर लेती है. उस ने वीना को चित्रकला का सामान लाने को कहा. ऋतु ने उसे समझाया कि अमृता को बंद कमरों में न रख कर कभीकभी खुली हवा में बगीचों में घुमाया जाए. झील के किनारे, पर्वतों के पास, रंगबिरंगे फूलों के करीब ले जाया जाए ताकि उस के अंदर की प्रतिभा सामने आए. प्रकृति से प्रेरणा ले कर वह कुछ बनाने का प्रयास करेगी.

वह समय ऐसा था कि वीना ने अमृता को अपनी दुनिया बना लिया. हर समय वह उस के साथ रहतीं, मानो वह अमृता को उस के जीवन के इतने निरर्थक वर्ष लौटाने का प्रयास कर रही थीं. उन की मेहनत रंग लाई. कागज पर अमृता द्वारा बनाए गए पर्वत, झील और फूल सजीव लगते थे. रंगों का संयोजन एवं आकृति की सुदृढ़ता न होने पर भी चित्रों में अद्भुत जीवंतता दिखाई पड़ती थी.

उसी समय स्कूल में मतिमंद बच्चों की बनाई गई वस्तुओं की एक प्रदर्शनी आयोजित की गई. बच्चों द्वारा बनाए गए ग्रीटिंग कार्ड, मिटटी के अनगढ़ खिलौने एवं चित्र रखे गए थे. अमृता के चित्र सभी को बहुत पसंद आए. उस की पीठ पर हाथ रख कर जब कोई उसे शाबाशी देता तो उस की आंखों में चमक आ जाती. चित्रकला प्रदर्शनी का उद्घाटन उसी विद्यालय के पिं्रसिपल ने ही किया. वह अमृता के बनाए चित्रों से बहुत प्रभावित हुए. उन्होंने चित्रों की बेहद तारीफ की.

वह अपने स्कूल के बच्चों के चित्रों की प्रदर्शनी विदेश में लगाना चाहते थे. उन्होंने अमृता के 2 चित्र विदेश भेजने के लिए पसंद कर लिए. वीना ने सुना तो उन्हें अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. विदेश में अमृता का नाम होगा यह सोच कर ही वह रोमांचित हो उठीं.

आज वीना को अपनी बेटी कहीं से भी अपूर्ण नहीं दिखाई दे रही थी, वह तो पूर्ण है. वह उन्हें कविता एवं वनिता से भी ज्यादा पूर्ण लग रही थी. खुशी के अतिरेक में उन की आंखों से आंसू निकल गए. तुरंत फोन कर के उन्होंने अमर को यह खुशखबरी दी. वह भी चौंक गए कि जिस बेटी को वह दुनिया की नजरों से छिपाते आए थे, आज वही उन का नाम रौशन कर रही है. खुशी से उन की आंखें भर आईं.

शाम को जब अमर घर आए तो प्यार से उन्होंने अमृता का माथा चूम लिया. वह उस की गुडि़या के लिए नया फ्राक एवं उस के लिए खिलौने एवं कपड़े लाए थे. घर के सभी सदस्य एक अरसे बाद साथ बैठे. उन की खिल-खिलाहट देख कर लग रहा था कि घर की असली सुखशांति इसी में ही है. कितने ही सुखसुविधा के सामान इस हंसी के आगे फीके पड़ जाते हैं.

अमर ने बातोंबातों में बताया कि कल अमृता की उपलब्धि के उपलक्ष्य में पार्टी आयोजित की जाएगी. वीना के हृदय में कांटा सा चुभा. वह पिछली पार्टी की बात भूली न थी, फिर भी वह बहस कर के रंग में भंग नहीं डालना चाहती थी, अत: चुपचाप रही.

दूसरे दिन सुबह से वीना पार्टी की तैयारी में लग गईं. अमर आफिस के काम के कारण ऐन वक्त पर आने वाले थे. हमेशा की तरह लान में पार्टी रखी गई थी. कविता, वनिता और वीना तैयार हो कर मेहमानों का स्वागत कर रही थीं.

अमर किसी जरूरी काम से

10-15 मिनट लेट आए. आते ही उन की नजरें किसी को खोजने लगीं. उन्होंने वीना को करीब बुलाया और धीरे से पूछा, ‘‘अमृता कहां है?’’

वीना चौंक कर अमर का मुंह देखती रह गईं फिर बोलीं, ‘‘वह अपने कमरे में बाई के साथ बंद है.’’

‘‘अरे, यह क्या वीना, यह पार्टी अमृता के लिए ही रखी गई है. कुछ देर को ही सही, उसे जरूर यहां लाओ. और हां, मैं जो कपड़े लाया था उसे पहना दो.’’

वीना के पैर खुशी से जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. वह झट अंदर गईं. अमृता को नए कपड़े पहनाए. उसे समझाया कि सब से नमस्ते कैसे करनी है. फिर उस का हाथ पकड़ कर पार्टी में ले आईं. लोग जब सवालिया नजरों से अमृता को देखने लगे तब अमर, अमृता और वीना के पास गए. उन्होंने अमृता के गले में हाथ डाल दिया और बोले, ‘‘लेडिज एंड जेंटिलमैन, यह हमारी तीसरी बेटी अमृता है. इसी के बनाए चित्र पुरस्कार हेतु विदेश में भेजे जा रहे हैं और इसी खुशी में आज यह पार्टी रखी गई है.’’

सभी अमृता को तारीफ की नजरों से देखने लगे. उसे बधाई देने वालों का तांता लग गया. तभी ऋतु ने आ कर अमृता को उस की उपलब्धि पर बधाई दी, साथ ही उस ने अमर को भी बधाई दी. अमर बोले, ‘‘ऋतुजी, यह तो आप की नजर है जो आप ने इसे परखा, नहीं तो हमें भी कहां मालूम था कि इतनी गुणी है हमारी अमृता.’’

अनजाने में अमर के मुंह से निकला ‘हमारी अमृता’ शब्द वीना के हृदय के सारे तार छेड़ गया और प्रतिध्वनि रूप में उस में से आवाजें आने लगीं, ‘हमारी अमृता… हमारी अमृता.’

Tales Of Life : दस्विदानिया

Tales Of Life : दीपक उत्तरी बिहार के छोटे से शहर वैशाली का रहने वाला था. वैशाली पटना से लगभग 30 किलोमीटर दूर है. 1982 में गंगा नदी पर गांधी सेतु बन जाने के बाद वैशाली से पटना आनाजाना आसान हो गया था. वैशाली की अपनी एक अलग ऐतिहासिक पहचान भी है.

दीपक इसी वैशाली के एनएनएस कालेज से बीएससी कर रहा था. उस की मां का देहांत बचपन में ही हो चुका था. उस के पिता रामलाल की कपड़े की दुकान थी. दुकान न छोटी थी न बड़ी. आमदनी बस इतनी थी कि बापबेटे का गुजारा हो जाता था. बचत तो न के बराबर थी. वैशाली में ही एक छोटा सा पुश्तैनी मकान था. और कोई संपत्ति नहीं थी. दीपक तो पटना जा कर पढ़ना चाहता था, पर पिता की कम आमदनी के चलते ऐसा नहीं हो सका.

दीपक अभी फाइनल ईयर में ही था कि अचानक दिल के दौरे से उस के पिता भी चल बसे. उस ने किसी तरह पढ़ाई पूरी की. वह दुकान पर नहीं बैठना चाहता था. अब उसे नौकरी की तलाश थी. उस ने तो इंडियन सिविल सर्विस के सपने देखे थे या फिर बिहार लोक सेवा आयोग के द्वारा राज्य सरकार के अधिकारी के. पर अब तो उसे नौकरी तुरंत चाहिए थी.

दीपक ने भारतीय वायुसेना में एअरमैन की नियुक्ति का विज्ञापन पढ़ा, तो आवेदन कर दिया. उसे लिखित, इंटरव्यू और मैडिकल टैस्ट सभी में सफलता मिली. उस ने वायुसेना के टैक्नीकल ट्रेड में एअरमैन का पद जौइन कर लिया. ट्रेनिंग के बाद उस की पोस्टिंग पठानकोट एअरबेस में हुई. ट्रेनिंग के दौरान ही वह सीनियर अधिकारियों की प्रशंसा का पात्र बन गया. पोस्टिंग के बाद एअरबेस पर उस की कार्यकुशलता से सीनियर अधिकारी बहुत खुश थे.

वायुसेना के रसियन प्लेन को बीचबीच में मैंटेनैंस के लिए रूस जाना पड़ता था. दीपक के अफसर ने उसे बताया कि उसे भी जल्दी रूस जाना होगा. वह यह सुन कर बहुत खुश हुआ. उस ने जल्दीजल्दी कुछ आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले रसियन शब्द और वाक्य सीख लिए. अपने एक दोस्त, जो 2 बार रूस जा चुका था से हैवी रसियन ओवरकोट भी उधार ले लिया. रूस की जबरदस्त ठंड के लिए यह जरूरी था.

1 महीने के अंदर ही दीपक को एक रसियन प्लेन के साथ बेलारूस की राजधानी मिंस्क जाना पड़ा. उस जहाज का कारखाना वहीं था. तब तक सोवियत संघ का बंटवारा हो चुका था और बेलारूस एक अलग राष्ट्र बन गया था.

अपने दोस्तों की सलाह पर उस ने भारत से कुछ चीजें जो रूसियों को बेहद पसंद थीं रख लीं. ये स्थानीय लोगों को मित्र बनाने में काम आती थीं. चूंकि जहाज अपना ही था, इसलिए वजन की सीमा नहीं थी. उस ने टूथपेस्ट, परफ्यूम, सुगंधित दार्जिलिंग चायपत्ती, ब्रैंडेड कौस्मैटिक आदि साथ रख लिए.

‘‘लेडीज कौस्मैटिक वहां की लड़कियों को इंप्रैस करने में बहुत काम आएंगे,’’ ऐसा चलते समय दोस्तों ने कहा था.

मिंस्क में लैंड करने के बाद दीपक का सामना जोरदार ठंड से हुआ. मार्च के मध्य में भी न्यूनतम तापमान शून्य से थोड़ा नीचे था. मिंस्क में उस के कम से कम

2 सप्ताह रुकने की संभावना थी. खैर, उस के मित्र का ओवरकोट प्लेन से निकलते ही काम आया.

दीपक के साथ पायलट, कोपायलट, इंजीनियर और क्रू  मैंबर्स भी थे. दीपक को एक होटल में एक सहकर्मी के साथ रूम शेयर करना था. वह दोस्त पहले भी मिंस्क आ चुका था. उस ने दीपक को रसियन से दोस्ती के टिप्स भी दिए.

अगले दिन से दीपक को कारखाना जाना था. उस की टीम को एक इंस्ट्रक्टर जहाज के कलपुरजों, रखरखाव के बारे में रूसी भाषा में समझाता था. साथ में एक लड़की इंटरप्रेटर उसे अंगरेजी में अनुवाद कर समझाती थी.

नताशा नाम था उस लड़की का. बला की खूबसूरत थी वह. उम्र 20 साल के आसपास होगी. गोरा रंग तो वहां सभी का होता है, पर नताशा में कुछ विशेष आकर्षण था जो जबरन किसी को उस की तारीफ करने को मजबूर कर देता. सुंदर चेहरा, बड़ीबड़ी नीली आंखें, सुनहरे बाल और छरहरे बदन को दीपक ने पहली बार इतने करीब से देखा था.

दीपक की नजरें बारबार नताशा पर जा टिकती थीं. जब कभी नताशा उस की ओर देखती दीपक अपनी निगाहें फेर लेता. वह धीमे से मुसकरा देती. जब वह सुबहसुबह मिलती तो दीपक हाथ मिला कर रूसी भाषा में गुड मौर्निंग यानी दोबरोय उत्रो बोलता और कुछ देर तक उस का हाथ पकड़े रहता.

नताशा मुसकरा कर गुड मौर्निंग कह आगे बोलती कि प्रस्तिते पजालास्ता ऐक्सक्यूज मी, प्लीज, हाथ तो छोड़ो. तब दीपक झेंप कर जल्दी से उस का हाथ छोड़ देता.

उस की हरकत पर उस के साथी और इंस्ट्रक्टर भी हंस पड़ते थे. लंच के समय कारखाने की कैंटीन में दीपक, नताशा और इंस्ट्रक्टर एक ही टेबल पर बैठते थे. 1 सप्ताह में वे कुछ फ्रैंक हो गए थे. इस में इंडिया से साथ लाए गिफ्ट आइटम्स की अहम भूमिका थी.

नताशा के साथ अब कुछ पर्सनल बातें भी होने लगी थीं. उस ने दीपक को बताया कि रूसी लोग इंडियंस को बहुत पसंद करते हैं. उस के मातापिता का डिवोर्स बहुत पहले हो चुका था और कुछ अरसा पहले मां का भी देहांत हो गया था. उस के पिता चेर्नोबिल न्यूक्लियर प्लांट में काम करते थे और वह उन से मिलती रहती थी.

लगभग 10 दिन बाद दीपक को पता चला कि प्लेन को क्लीयरैंस मिलने में अभी 10 दिन और लगेंगे. एक दिन दीपक ने इंस्ट्रक्टर से कहा कि उस की मास्को देखने की इच्छा है.

इंस्ट्रक्टर ने कहा, ‘‘ओचिन खराशो (बहुत अच्छा) शनिवार को नताशा भी किसी काम से मास्को जा रही है. तुम भी उसी की फ्लाइट से चले जाओ. मात्र 1 घंटे की फ्लाइट है.’’

‘‘स्पासिबा (थैंक्स) गुड आइडिया,’’ दीपक बोला और फिर उसी समय नताशा से फोन पर अपनी इच्छा बताई तो वह बोली नेत प्रौब्लेमा (नो प्रौब्लम).

दीपक बहुत खुश हुआ. उस ने अपने दोस्त से मास्को यात्रा की चर्चा करते हुए पूछा, ‘‘अगर मुझे किसी रूसी लड़की के कपड़ों की तारीफ करनी हो तो क्या कहना चाहिए?’’

जवाब में दोस्त ने उसे एक रूसी शब्द बताया. शनिवार को दीपक और नताशा मास्को पहुंचे. दोनों होटल में आसपास के कमरों में रुके. नताशा ने उसे क्रेमलिन, बोलशोई थिएटर, बैले डांस, रसियन सर्कस आदि दिखाए.

1 अप्रैल की सुबह दोनों मिले. उसी दिन शाम को उन्हें मिंस्क लौटना था. नताशा नीले रंग के लौंग फ्रौक में थी, कमर पर सुनहरे रंग की बैल्टनुमा डोरी बंधी थी, जिस के दोनों छोरों पर पीले गुलाब के फूलों की तरह झालर लटक रही थी. फ्रौक का कपड़ा पारदर्शी तो नहीं था, पर पतला था जिस के चलते उस के अंत:वस्त्र कुछ झलक रहे थे. वह दीपक के कमरे में सोफे पर बैठी थी.

दीपक बोला, ‘‘दोबरोय उत्रो. तिह क्रासावित्सा (यू आर लुकिंग ब्यूटीफुल).’’

‘‘स्पासिबा (धन्यवाद).’’

वह नताशा की ओर देख कर बोला ‘‘ओचिन खराशो तृसिकी.’’

‘‘व्हाट? तुम ने कैसे देखा?’’

‘‘अपनी दोनों आंखों से.’’

‘‘तुम्हारी आंखें मुझ में बस यही देख रही थीं?’’

फिर अचानक नताशा सोफे से उठ

खड़ी हुई और बोली, ‘‘मैं इंडियंस की इज्जत करती हूं.’’

‘‘दा (यस).’’

‘‘व्हाट दा. मैं तुम्हें अच्छा आदमी समझती थी. मुझे तुम से ऐसी उम्मीद नहीं थी,’’ और फिर बिना दीपक की ओर देखे कमरे से तेजी से निकल गई.

दीपक को मानो लकवा मार गया. वह नताशा के कमरे के दरवाजे की जितनी बार बैल बजाता एक ही बात सुनने को मिलती कि चले जाओ. मैं तुम से बात नहीं करना चाहती हूं.

उसी दिन शाम की फ्लाइट से दोनों मिंस्क लौट आए. पर नताशा ने अपनी सीट अलग ले ली थी. दोनों में कोई बात नहीं हुई.

अगले दिन लंच के समय कारखाने की कैंटीन में दीपक, उस का मित्र,

नताशा और इंस्ट्रक्टर एक टेबल पर बैठे थे. दीपक बारबार नताशा की ओर देख रहा था पर नताशा उसे नजरअंदाज कर देती. दीपक ने इंस्ट्रक्टर के कान में धीरे से कुछ कहा तो इंस्ट्रक्टर ने नताशा से धीरे से कुछ कहा.

नताशा से कुछ बात कर इंस्ट्रक्टर ने दीपक से पूछा, ‘‘तुम ने नताशा से कोई गंदी बात की थी? वह बहुत नाराज है तुम से.’’

‘‘मैं ने तो ऐसी कोई बात नहीं की थी,’’ बोल कर दीपक ने जो आखिरी बात नताशा को कही थी उसे दोहरा दिया.

इंस्ट्रक्टर ने भी सिर पीटते हुए कहा, ‘‘बेवकूफ यह तुम ने क्या कह दिया? इस का मतलब समझते हो?’’

‘‘हां, तुम्हारी ड्रैस बहुत अच्छी है?’’

‘‘नेत (नो), इस का अर्थ तुम्हारी पैंटी बहुत अच्छी है, होता है बेवकूफ.’’

तब दीपक अपने मित्र की ओर सवालिया आंखों से देखने लगा. फिर कहा, ‘‘तुम ने ही सिखाया था यह शब्द मुझे.’’

नताशा भी आश्चर्य से उस की तरफ देखने लगी थी. दोस्त भी अपनी सफाई में बोला, ‘‘अरे यार मैं ने तो यों ही बता दिया था. मुझे लेडीज ड्रैस का यही एक शब्द आता था. मुझे क्या पता था कि तू नताशा को बोलने जा रहा है. आई एम सौरी.’’

फिर नताशा की ओर देख कर बोला, ‘‘आई एम सौरी नताशा. मेरी वजह से यह गड़बड़ हुई है. दरअसल, दीपक ने तुम्हारी ड्रैस की तारीफ करनी चाही होगी… यह बेचारा बेकुसूर है.’’

यह सुन कर सभी एकसाथ हंस पड़े.

दीपक ने नताशा से कहा, ‘‘ईजवीनीते (सौरी) नताशा. मैं ने जानबूझ कर उस समय ऐसा नहीं कहा था.’’

‘‘ईजवीनीते. प्रस्तिते (सौरी, ऐक्सक्यूज मी). हम दोनों गलतफहमी के शिकार हुए.’’

इंस्ट्रक्टर बोला, ‘‘चलो इसे भी एक अप्रैल फूल जोक समझ कर भूल जाओ.’’

इस के बाद नताशा और दीपक में मित्रता और गहरी हो चली. दोनों शालीनतापूर्वक अपनी दोस्ती निभा रहे थे. दीपक तो इस रिश्ते को धीरेधीरे दोस्ती से आगे ले जाना चाहता था, पर कुछ संकोच से, कुछ दोस्ती टूटने के भय से और कुछ समय के अभाव से मन की बात जबान पर नहीं ला रहा था.

इसी बीच दीपक के इंडिया लौटने का दिन भी आ गया था. एअरपोर्ट पर नताशा दीपक को बिदा करने आई थी. उस ने आंखों में छलक आए आंसू छिपाने के लिए रंगीन चश्मा पहन लिया. दीपक को पहली बार महसूस हुआ जैसे वह भी मन की कुछ बात चाह कर भी नहीं कर पा रही है. दीपक के चेहरे की उदासी किसी से छिपी नहीं थी.

‘‘दस्विदानिया, (गुड बाई), होप टु सी यू अगेन,’’ बोल कर दोनों गले मिले.

दीपक भारत लौट आया. नताशा से उस का संपर्क फोन से लगातार बना हुआ था. इसी बीच डिपार्टमैंटल परीक्षा और इंटरव्यू द्वारा दीपक को वायुसेना में कमीशन मिल गया. वह अफसर बन गया. हालांकि उस के ऊपर कोई बंदिश नहीं थी, उस के मातापिता गुजर चुके थे, फिर भी अभी तक उस ने शादी नहीं की थी.

इस बीच नताशा ने उसे बताया कि उस के पापा भी चल बसे. उन्हें कैंसर था. संदेह था कि चेर्नोबिल न्यूक्लियर प्लांट में हुई भयानक दुर्घटना के बाद कुछ लोगों में रैडिएशन की मात्रा काफी बढ़ गई थी. शायद उन के कैंसर की यही वजह रही होगी.

पिता की बीमारी में नताशा महीनों उन के साथ रही थी. इसलिए उस ने नौकरी भी छोड़ दी थी. फिलहाल कोई नौकरी नहीं थी और पिता के घर का कर्ज भी चुकाना था. वह एक नाइट क्लब में डांस कर और मसाज पार्लर जौइन कर काम चला रही थी. उस ने दीपक से इस बारे में कुछ नहीं कहा था, पर बराबर संपर्क बना हुआ था.

लगभग 2 साल बाद दीपक दिल्ली एअरपोर्ट पर था. अचानक उस की नजर नताशा पर पड़ी. वह दौड़ कर उस के पास गया और बोला, ‘‘नताशा, अचानक तुम यहां? मुझे खबर क्यों नहीं की?’’

नताशा भी अकस्मात उसे देख कर घबरा उठी. फिर अपनेआप को कुछ सहज कर कहा, ‘‘मुझे भी अचानक यहां आना पड़ा. समय नहीं मिल सका बात करने के लिए…तुम यहां कैसे?’’

‘‘मैं अभी एक घरेलू उड़ान से यहां आया हूं. खैर, चलो कहीं बैठ कर कौफी पीते हैं. बाकी बातें वहीं होंगी.’’

दोनों एअरपोर्ट के रेस्तरां में बैठे कौफी पी रहे थे. दीपक ने फिर पूछा, ‘‘अब बताओ यहां किस लिए आई हो?’’

नताशा खामोश थी. फिर कौफी की चुसकी लेते हुए बोली, ‘‘एक जरूरी काम से किसी से मिलना है. 2 दिन बाद लौट जाऊंगी.’’

‘‘ठीक है पर क्या काम है, किस से मिलना है, मुझे नहीं बताओगी? क्या मैं भी तुम्हारे साथ चल सकता हूं?’’

‘‘नहीं, मुझे वहां अकेले ही जाना होगा.’’

‘‘चलो, मैं तुम्हें ड्रौप कर दूंगा.’’

‘‘नेत, स्पासिबा (नो, थैंक्स). मेरी कार बाहर खड़ी होगी.’’

‘‘कार को वापस भेज देंगे. कम से कम कुछ देर तक तो तुम्हारे साथ ऐंजौय कर लूंगा.’’

‘‘क्यों मेरे पीछे पड़े हो?’’ बोल कर नताशा उठ कर जाने लगी.

दीपक ने उस का हाथ पकड़ कर रोका और कहा, ‘‘ठीक है, तुम जाओ, मगर मुझ से नाराजगी का कारण बताती जाओ.’’

नताशा तो रुक गई, पर अपने आंसुओं को गालों पर गिरने से न रोक सकी.

दीपक के द्वारा बारबार पूछे जाने पर वह रो पड़ी और फिर उस ने अपनी पूरी कहानी बताई, ‘‘मैं तुम से क्या कहती? अभी तक तो मैं सिर्फ डांस या मसाज करती आई थी पर मैं पिता का घर किसी भी कीमत पर बचाना चाहती हूं. मैं ने एक ऐस्कौर्ट एजेंसी जौइन कर ली है. शायद आने वाले 2 दिन मुझे किसी बड़े बिजनैसमैन के साथ ही गुजारने पड़ेंगे. तुम समझ रहे हो न मैं क्या कहना

चाहती हूं? ’’

‘‘हां, मैं समझ सकता हूं. तुम्हें किस ने हायर किया है, मुझे बता सकती हो?’’

‘‘नो, सौरी. हो सकता है जो नाम मैं जानती हूं वह गलत हो. मैं ने भी उसे अपना सही नाम नहीं बताया है. वैसे भी इस प्रोफैशन की बात किसी तीसरे आदमी को हम नहीं बताते हैं. मैं बस इतना जानती हूं कि मुझे 3 दिनों के लिए 4000 डौलर मिले हैं.’’

‘‘तुम उसे फोन करो, उसे पैसे वापस कर देंगे.’’

‘‘नहीं, यह आसान नहीं है. वह मेरी एजेंसी का पुराना भरोसे वाला ग्राहक है.’’

कुछ देर सोचने के बाद दीपक ने कहा ‘‘एक आइडिया है, उम्मीद है काम कर जाएगा. उस का फोन नंबर तो होगा तुम्हारे पास?’’

‘‘नहीं, मुझे होटल का नंबर और रूम नंबर पता है.’’

‘‘गुड, तुम उसे फोन लगाओ और कहो कि तुम्हें कस्टम वालों ने पकड़ लिया है. तुम्हारे पर्स में कुछ ड्रग्स मिले. तुम्हें खुद पता नहीं कि कहां से ड्रग्स पर्स में आ गए और अब वही तुम्हारी सहायता कर सकता है.’’

नताशा ने फोन कर उस बिजनैसमैन से बात कर वैसा ही कहा.

उधर से वह फोन पर गुस्सा हो कर नताशा से बोला, ‘‘यू इडियट, तुम ने मेरे या

इस होटल के बारे में कस्टम औफिसर को क्या बताया है?’’

‘‘सर, मैं ने तो अभी तक कुछ नहीं बताया है… पर परदेश में बस आप का ही सहारा है. आप कुछ कोशिश करें तो मामला रफादफा हो जाएगा. मैं अपने डौलर तो साथ लाई नहीं हूं.’’

‘‘मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता हूं. खबरदार दोबारा फोन करने की कोशिश की.

अब तुम जानो और तुम्हारा काम… भाड़ में जाओ तुम और तुम्हारे 4000 डौलर,’’ और उस ने फोन काट दिया.

बिजनैसमैन की बातें सुन कर दोनों एकसाथ खुशी से उछल पड़े. नताशा बोली, ‘‘अब तो मेरे डौलर भी बच गए. पापा के घर का काफी कर्ज चुका सकती हूं. मेरा रिटर्न टिकट तो 2 दिन बाद का है. फिर भी मैं कोशिश करती हूं कि आज रात की फ्लाइट मिल जाए,’’ कह वह रसियन एअरलाइन एरोफ्लोट के काउंटर की तरफ बढ़ी.

दीपक ने उसे रोक कर कहा, ‘‘रुको, इस की कोई जरूरत नहीं है. तुम अभी मेरे साथ चलो. कम से कम 2 दिन तो मेरा साथ दो.’’

दीपक ने नताशा को एक होटल में ठहराया. काफी देर दोनों बातें करते रहे. दोनोें एकदूसरे का दुखसुख समझ रहे थे. रात में डिनर के बाद दीपक चलने लगा. उसे गले से लगाते हुए होंठों पर ऊंगली फेरते हुए बोला, ‘‘नताशा, या लुवलुवा (आई लव यू). कल सुबह फिर मिलते हैं. दोबरोय नोचि (गुड नाइट).’’

‘‘आई लव यू टू,’’ दीपक के बालों को सहलाते हुए नताशा ने कहा.

अगले दिन जब दीपक नताशा से मिलने आया तो वह स्कारलेट कलर के सुंदर लौंग फ्रौक में बैठी थी. बिलकुल उसी तरह जैसे मास्को के होटल में मिली थी.

दीपक बोला, ‘‘दोबरोय उत्रो. क्रासावित्सा (गुड मौर्निंग, ब्यूटीफुल).’’

‘‘कौन ब्यूटीफुल है मैं या तृसिकी?’’ वह हंसते हुए बोली

‘‘दोनों.’’

‘‘यू नौटी बौय,’’ बोल कर नताशा दीपक से सट कर खड़ी हो गई.

दीपक ने उसे अपनी बांहों में ले कर कहा, ‘‘अब तुम कहीं नहीं जाओगी. मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. मैं कल ही अपनी शादी के लिए औफिस में अर्जी दे दूंगा.’’

‘‘आई लव यू दीपक, पर मुझे कल जाने दो. मैं ने पिता की निशानी बचाने के लिए अपनी अस्मिता दांव पर लगा दी… मुझे अपने देश जा कर सबकुछ ठीक करने के लिए मुझे कुछ समय दो.’’

अगले दिन नताशा एरोफ्लोट की फ्लाइट से मास्को जा रही थी. दीपक उसे छोड़ने दिल्ली एअरपोर्ट आया था. उस के चेहरे पर उदासी देख कर वह बोली, ‘‘उम्मीद है फिर जल्दी मिलेंगे. डौंट गैट अपसैट. बाय, टेक केयर, दस्विदानिया,’’ और वह एरोफ्लोट की काउंटर पर चैक इन करने बढ़ गई. दोनों हाथ हिला कर एकदूसरे से बिदा ले रहे थे.

कुछ दिनों बाद दीपक ने अपने सीनियर से शादी की अर्जी दे कर इजाजत मांगने

की बात की तो सीनियर ने कहा, ‘‘सेना का कोई भी सिपाही किसी विदेशी से शादी नहीं कर सकता है, तुम्हें पता है कि नहीं?’’

‘‘सर, पता है, इसीलिए तो पहले मैं इस की इजाजत लेना चाहता हूं.’’

‘‘और तुम सोचते हो तुम्हें इजाजत मिल जाएगी? यह सेना के नियमों के विरुद्ध है, तुम्हें इस की इजाजत कोईर् भी नहीं दे सकता है.’’

‘‘सर, हम दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं. मैं शादी उसी से करूंगा.’’

‘‘बेवकूफी नहीं करो, अपने देश में क्या लड़कियों की कमी है?’’

‘‘बेशक नहीं है सर, पर प्यार तो एक से ही किया है मैं ने, सिर्फ नताशा से.’’

‘‘तुम अपना और मेरा समय बरबाद कर रहे हो. तुम्हारा कमीशन पूरा होने में कितना वक्त बाकी है अभी?’’

‘‘सर, अभी तो करीब 12 साल बाकी हैं.’’

‘‘तब 2 ही उपाय हैं या तो 12 साल इंतजार करो या फिर नताशा को अपनी नागरिकता छोड़ने को कहो. और कोई उपाय नहीं है.’’

‘‘अगर मैं त्यागपत्र देना चाहूं तो?’’

‘‘वह भी स्वीकार नहीं होगा. देश और सेना के प्रति तुम्हारा कुछ कर्तव्य बनता है जो प्यार से ज्यादा जरूरी है, याद रखना.’’

‘‘यस सर, मैं अपनी ड्यूटी भी निभाऊंगा… मैं कमीशन पूरा होने तक इंतजार करूंगा,’’ कह वह सोचने लगा कि पता नहीं नताशा इतने लंबे समय तक मेरी प्रतीक्षा करेगी या नहीं. फिर सोचा कि नताशा को सभी बातें बता दे.

दीपक ने जब नताशा से बात की तो उस ने कहा, ‘‘12 साल क्या मैं कयामत तक तुम्हारा इंतजार कर सकती हूं… तुम बेशक देश के प्रति अपना फर्ज निभाओ. मैं इंतजार कर लूंगी.’’

नताशा से बात कर दीपक को खुशी हुई. दोनों में प्यारभरी बातें होती रहती थीं. वे बराबर एकदूसरे के संपर्क में रहते. धीरेधीरे समय बीतता जा रहा था. करीब 2 साल बाद एक बार नताशा दीपक से मिलने इंडिया आई थी. दीपक ने महसूस किया उस के चेहरे पर पहले जैसी चमक नहीं थी. स्वास्थ्य भी कुछ गिरा सा लग रहा था.

दीपक के पूछने पर उस ने कहा, ‘‘कोई खास बात नहीं है, सफर की थकावट और थोड़ा सिरदर्द है.’’

दोनों में मर्यादित प्रेम संबंध बना हुआ था. एक दिन बाद नताशा ने लौटते समय कहा, ‘‘इंतजार का समय 2 साल कम हो गया.’’

‘‘हां, बाकी भी कट जाएगा.’’

बेलारूस लौटने के बाद से नताशा का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था. कभी जोर से सिरदर्द, कभी बुखार तो कभी नाक से खून बहता. सारे टैस्ट किए गए तो पता चला कि उसे ब्लड कैंसर है. डाक्टर ने बताया कि फिलहाल दवा लेती रहो, पर 2 साल के अंदर कुछ भी हो सकता है. नताशा अपनी जिंदगी से निराश हो चली थी. एक तरफ अकेलापन तो दूसरी ओर जानलेवा बीमारी. फिर भी उस ने दीपक को कुछ नहीं बताया.

इधर कुछ महीने बाद दीपक को 3-4 दिनों से तेज बुखार था.

वह अपने एअरफोर्स के अस्पताल में दिखाने गया. उस समय फ्लाइट लैफ्टिनैंट डाक्टर ईशा ड्यूटी पर थीं. चैकअप किया तो दीपक को 103 डिग्री से ज्यादा ही फीवर था.

डाक्टर बोली, ‘‘तुम्हें एडमिट होना होगा. आज फीवर का चौथा दिन है…कुछ ब्लड टैस्ट करूंगी.’’

दीपक अस्पताल में भरती था. टैस्ट से पता चला कि उसे टाईफाइड है.

डा. ईशा ने पूछा, ‘‘तुम्हारे घर में और कौनकौन हैं, आई मीन वाइफ, बच्चे?’’

‘‘मैं बैचलर हूं डाक्टर… वैसे भी और कोई नहीं है मेरा.’’

‘‘डौंट वरी, हम लोग हैं न,’’ डाक्टर उस की नब्ज देखते हुए बोलीं.

बीचबीच में कभीकभी दीपक का खुबार 103 से 104 डिग्री तक हो जाता तो वह नताशानताशा पुकारता. डा. ईशा के पूछने पर उस ने नताशा के बारे में बता दिया. डाक्टर ने नताशा का फोन नंबर ले कर उसे फोन कर दिया. 2 दिन बाद नताशा दीपक से मिलने पहुंच गई. उस दिन दीपक का फीवर कम था. नताशा उस के कैबिन में दीपक के बालों को सहला रही थी.

तभी डा. ईशा ने प्रवेश किया. बोलीं, ‘‘आई एम सौरी, मैं बाद में आ जाती हूं. बस रूटीन चैकअप करना है. आज इन्हें कुछ आराम है.’’

दीपक बोला, ‘‘नहीं डाक्टर, आप को जाने की जरूरत नहीं है. आप अपना काम कर लें… अब नताशा आ गई है, तो मैं ठीक हो जाऊंगा.’’

डा. ईशा ने नताशा से पूछा, ‘‘तुम इंडिया कितने दिनों के लिए आई हो?’’

‘‘ज्यादा से ज्यादा 2 दिन तक रुक सकती हूं.’’

‘‘ठीक है, इन का बुखार उतरना शुरू हो गया है. उम्मीद है कल तक कुछ और आराम मिलेगा.’’

डाक्टर के जाने के बाद दीपक ने नताशा से पूछा, ‘‘क्या बात है, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है? थकीथकी लग रही हो?’’

‘‘नहीं, मैं बिलकुल ठीक हूं. तुम आराम करो. मैं अभी चलती हूं. फिर आऊंगी शाम को विजिटिंग आवर्स में.’’

नताशा डा. ईशा से मिलने उन के कैबिन में गई तो डा. ईशा बोलीं, ‘‘आप लंच मेरे साथ लेंगी… मेरे क्वार्टर में आ जाना, मैं वेट करूंगी.’’

लंच के बाद नताशा डा. ईशा से बैठी बातें कर रही थी. डा. ईशा ने कहा, ‘‘क्या बात है, इंडियन खाना पसंद नहीं आया? तुम ने तो कुछ खाया ही नहीं. तुम्हें तो इंडियन खाने की आदत डालनी होगी.’’

‘‘नहीं, खाना बहुत अच्छा था. मैं ने भरपेट खा लिया है.’’

‘‘दीपक तुम्हें बहुत चाहते हैं… तुम्हारे लिए लंबा इंतजार करने को तैयार हैं.’’

उसी समय नताशा के सिर में जोर का दर्द हुआ और नाक से खून रिसने लगा. डा. ईशा उसे सहारा दे कर वाशबेसिन तक ले गई, फिर बैड पर आराम करने के लिए लिटा दिया और पूछा, ‘‘तुम्हें क्या तकलीफ है और ऐसा कितने दिनों से हो रहा है?’’

नताशा ने अपने बैग से दवा खाई और अपनी पूरी बीमारी विस्तार से बता दी. फिर अपनी फाइल और रिपोर्ट उन्हें दिखा कर कहा, ‘‘अब मेरी जिंदगी कुछ ही महीनों की बची है. डाक्टर ने कहा है कि ज्यादा से ज्यादा 1 साल. मैं चाहती हूं आप दीपक को धीरेधीरे समझाएं… हो सकता है मैं इस के बाद अब उस से मिल न सकूं, क्योंकि लंबी यात्रा के लायक नहीं रहूंगी.’’

अगले दिन दीपक को अस्पताल से छुट्टी मिल गई. वह अपने क्वार्टर में नताशा के साथ था. नताशा को अगले दिन जाना था. दीपक बोला, ‘‘मैं तो एअरफोर्स में हूं, मेरा विदेश जाना संभव नहीं है. तुम्हीं मिलने आ जाया करो. मुझे बहुत अच्छा लगता है तुम से मिल कर.’’

‘‘अच्छा तो मुझे भी लगता है, पर मुझे लगता है तुम्हारी देखभाल करने वाला कोई यहां होना चाहिए. मेरे इंतजार में कहीं तुम्हारे स्वास्थ्य पर बुरा असर न पड़े.’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा. मैं वेट कर लूंगा.’’

नताशा जा रही थी. दीपक से बिदा लेते समय उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. डाक्टर ने दीपक को एअरपोर्ट जाने से मना कर दिया था.

नताशा बोली, ‘‘दस्विदानिया, दोस्त.’’

डा. ईशा नताशा के साथ एअरपोर्ट आई थीं.

नताशा बोली, ‘‘डाक्टर, अब मैं दीपक से मिलने नहीं आ सकती हूं…आप समझ ही रही हैं न… मैं ने दीपक से कुछ नहीं कहा है. पर आप उसे सच बता दीजिएगा.’’

नताशा चली गई. डा. ईशा ने उस की बीमारी के बारे में दीपक को बता दिया. वह बहुत दुखी हुआ. डा. ईशा दीपक से अकसर मिलने आतीं और उसे समझातीं. लगभग 6 महीने बाद नताशा का आखिरी फोन उसे मिला. वह अस्पताल में अंतिम सांसें गिन रही थी.

नताशा ने कहा, ‘‘सौरी दोस्त, मैं अब और तुम्हारा इंतजार नहीं कर सकती हूं. किसी भी पल आखिरी सांस ले सकती हूं. टेक केयर औफ योरसैल्फ. दस्विदानिया, प्राश्चे नवसेदगा (गुड बाय सदा के लिए).’’

करीब आधे घंटे के बाद नताशा की मृत्यु की खबर दीपक को मिली. वह

बहुत दुखी हुआ. उस की आंखों से भी लगातार आंसू बह रहे थे. डा. ईशा दीपक को सांत्वना दे रही थी.

बीमारी के बाद दीपक और ईशा दोनों अकसर मिलने लगे थे. एक दिन दोनों साथ बैठे थे. दीपक थोड़ा सहज हो चला था. वह बोला, ‘‘अकेलापन काटने को दौड़ता है.’’

‘‘आप देश के बहादुर सैनिक हो. अपना मनोबल बनाए रखो. ड्यूटी के बाद कुछ अन्य कार्यों में अपनेआप को व्यस्त रखो.’’

‘‘मैं नताशा को भुला नहीं पा रहा हूं.’’

‘‘यादें इतनी आसानी से नहीं भूलतीं, पर कभीकभी यादों को हाशिए पर रख कर जिंदगी में आगे बढ़ना होता है. मैं भी उसे कहां भूल सकी हूं.’’

‘‘किसे?’’

‘‘फ्लाइंग अफसर राकेश से मेरी शादी तय हुई थी. हम दोनों एकदूसरे को चाहते भी थे, पर एक टैस्ट फ्लाइट के क्रैश होने से वह नहीं रहा.’’

‘‘उफ , सो सौरी.’’

कुछ दिन बाद क्लब में डा. ईशा और दीपक एक सीनियर अफसर स्क्वाड्रन लीडर उमेश के साथ बैठे थे. उमेश ने कहा, ‘‘तुम दोनों की कहानी मिलतीजुलती है. क्यों न तुम दोनों एक हो कर एकदूसरे के सुखदुख में साथ दो.’’

डा. ईशा और दीपक एकदूसरे को देखने लगे. उमेश ने महसूस किया कि दोनों की आंखों से स्वीकृति का भाव साफ छलक रहा है.

Famous Hindi Stories : छाया – वृंदा और विनय जब बन गए प्रेम दीवाने

Famous Hindi Stories :  ‘‘तुम में इतना धैर्य कहां से आ गया. 2 दिन हो गए एक फोन भी नहीं किया,’’ विनय झल्लाहट दबा कर बोला.

‘‘नारी का धैर्य तुम ने अभी देखा ही कहां है. वैसे भी मैं तुम्हारे साथ थी भी कहां. बस, एक भीड़ का हिस्सा थी,’’ वृंदा का स्वर शांत था.

‘‘क्या मतलब है. ऐसे कैसे कह सकती हो. परसों मिले थे तो कोई लड़ाईझगड़ा नहीं हुआ था. मैं ने तुम्हें कुछ कहा भी नहीं जिस से तुम्हें गुस्सा आए.’’

‘‘कहने की जरूरत नहीं होती. पिछले 6 महीने से तुम लगातार मुझे अनदेखा करते आ रहे हो और मैं हमेशा सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचती रहती हूं. परसों भी अपनी किसी न किसी महिला मित्र से तुम फोन पर बात करते रहे, मानो मैं तुम्हारे साथ थी ही नहीं.’’

‘‘वह तो मेरी लाइन ही ऐसी है.’’

‘‘पर मैं तो पूरी तरह तुम्हारे सुखदुख में भागीदार बन कर समर्पित रही. जब भी तुम्हें कोई काम पड़ा तुम मुझे कह देते और तुम्हारा वह काम करते हुए मुझे लगता कि मैं प्यार के लिए अपना फर्ज निभा रही हूं.’’

‘‘यार, ऐसा कुछ भी नहीं है. अच्छा तुम कल मिलो. ये बेकार की बातें हैं, इन्हें दिमाग से निकालो. कुछ भी नहीं बदला है.’’

‘‘अभी आफिस में काम है, फिर बात करेंगे,’’ कह कर वृंदा मोबाइल औफ करती हुई दफ्तर में लौट आई.

अपनी कुरसी पर बैठी वृंदा सोचने लगी कि इसी विनय ने 2 साल पहले शुरुआती दौर में कितनी कोशिश कर के उस से संपर्क बढ़ाया था. नौकरी लगने के बाद जब वृंदा ने अपनी कहानी छपवाई तो उस को लगा था कि वह हवा में उड़ रही है. पहली ही कहानी किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छप जाए और प्रशंसा के सैकड़ों पत्र मिलें तो मन तो उड़ेगा ही.

बाद में उस की कुछ और कहानियां छपीं तो कुछ पाठकों के फोन भी आने लगे. कुछ तो प्रशंसा के बहाने अपनी रचना पढ़ने का अनुरोध कर देते. कुछ छपी कहानी की समीक्षा विस्तार से करते.

उन्हीं प्रशंसकों में से एक विनय भी था. किसी भी अखबार में वृंदा का कुछ छप जाता तो सब से पहले उस का फोन आता.

एक दिन उस ने पूछ ही लिया, ‘आप क्या हर महिला लेखिका को फोन करते हैं? मेरे अलावा दूसरे लेखकों को भी पढ़ते हैं क्या?’

‘मैडम, मैं पत्रकार हूं. साहित्यिक पृष्ठ मैं ही तैयार करता हूं. बाकी पत्रपत्रिकाओं में क्या जा रहा है उस की पूरी जानकारी मुझे रहती है.’

‘क्या आप मेरी कहानियों को संभाल कर रखते हैं?’ वृंदा ने झिझकते हुए पूछा.

‘मैं आप का जबरदस्त प्रशंसक हूं. बताइए, क्या सेवा है.’

‘आप के यहां से प्रकाशित पत्रिका के पिछले अंक में मेरी एक कहानी छपी है. उस की एक भी प्रति मेरे पास नहीं है. क्या आप एक प्रति भिजवा देंगे. शायद पोस्टमैन ने रख ली होगी.’

और अगले दिन विनय मेरे आफिस के रिसेप्शन पर बैठा था. हम दोनों चाय पीने के लिए पास के रेस्तरां में बैठे तो विनय का फोन बारबार बज उठता.

‘किसी मित्र का फोन है क्या? सुन लो.’

‘नहीं, बड़ी मुश्किल से आप से मिलना हो पाया है. बाद में फोन सुन लूंगा. मुझे आप की कहानियां सच में बहुत अच्छी लगती हैं और प्रभावित भी करती हैं. बाकी लेखिकाएं नारी विमर्श के नाम पर मीडिया से जुड़ा जो कुछ लिख रही हैं वह पढ़ा नहीं जाता है.’

‘मुझे भी लगता है कि नारी आंदोलन को व्यवसाय बना लिया गया है. ऐसी औरतें नारी मुक्ति का झंडा उठाए हुए हैं जो खुद कब की आजाद हो चुकी हैं.’

‘आप समाज के सभी पात्रों को लेती हैं. हमारे परिवार के ढांचे को तोड़ने वाले साहित्य का क्या फायदा. कुछ लेखिकाएं ‘लिव इन रिलेशन’ को मुद्दा बना कर लिख रही हैं तो कुछ कई पुरुषों के साथ यौन संबंधों पर. हम कह सकते हैं कि आपस में वादा और विश्वास होने की बातें कहीं खोती जा रही हैं.’

‘ये तथाकथित लेखिकाएं महिलाओं के किस वर्ग को चित्रित कर रही हैं. इन की चकाचौंध में समस्याओं का सामना करने वाली निम्न और मध्यम वर्ग की महिलाओं पर ध्यान ही नहीं दिया जाता,’ वृंदा जोश में बहती जा रही थी.

‘मैडम, आज मेरा इंटरव्यू है. अब निकलता हूं. अब तो आप से मिलना- जुलना होता ही रहेगा,’ यह कह कर विनय फटाफट चला गया.

फिर तो वृंदा को मानो बात करने के लिए बेहद सुलझा हुआ अपनी तरह की सोच वाला साथी मिल गया. घर और आफिस के बंधेबंधाए ढांचे में सामाजिक चर्चाओं के लिए कोई भी नहीं था. पर विनय के साथ चर्चाओं का दायरा जल्दी ही टूट गया. बौद्धिक चर्चाएं स्त्रीपुरुष के परस्पर आकर्षण पर आ कर रुक गईं. साहित्य जीवन से ही तो बना है. मगर विनय फ्रीलांसर था. इसलिए उस ने साफ कह दिया कि कहीं पक्की नौकरी लगने तक उसे शादी के लिए रुकना होगा.

विनय ने भी हिंदी और अंगरेजी साहित्य पढ़ा था. पर उसे सरकारी नौकरी से चिढ़ थी. पत्रकार को जो आजादी है, वह और किस को है. फिर पावर भी तो है. सत्ता के साए में रहने वाले बड़ेबड़े लोगों से मिलने और बात करने का मौका जिस सहजता से एक पत्रकार को मिलता है वह दूसरों को कहां मिलता है. विनय को एक न्यूज चैनल में नौकरी मिली तो उस का व्यक्तित्व निखर गया और उसी के साथ उस के संपर्क बढ़ते जा रहे थे.

उस दिन लंच में वे दोनों पार्क में बैठे थे तो विनय फोन सुनने लगा. ग्रुप के मित्रों की आपसी खटपट को ले कर वह नीता से 20 मिनट तक बात करता रहा. धीरेधीरे अलगअलग नामों के फोन आने लगे. विनय फोन काटता तो तुरंत एसएमएस आ जाता. वृंदा के साथ होने पर भी विनय का ध्यान दूर जाने लगा था.

वृंदा को विनय अपने कामों में उलझाए रखता. कभी समीक्षा के लिए लाइब्रेरी से किताब मंगाता तो कभी कोलकाता में अपने घर जाने के लिए रेल का आरक्षण कराने के लिए वृंदा को कह देता. वह लंच में आधाआधा घंटा उस का इंतजार करती रहती और जब विनय आता तो फोन पर कोई न कोई डिस्टर्ब करता रहता.

धीरेधीरे वृंदा को लगने लगा कि वह प्यार किसे करती है विनय को या प्यार की धारणा को. जो आदमी अभी से कई लोगों में बंटा है, शादी के बाद उस से कैसे निष्ठा की उम्मीद की जा सकती है. फिर तो पूरा परिवार और समाज बीच में आ जाएगा. कभी वह विनय को टोकती तो कह देता, ‘तुम्हारा वहम है. वह मेरी महिला मित्र है. सब से काम पड़ता है. फिर हमारा दायरा ऐसा है जिस में पीनेपिलाने के लिए पार्टीज चलती ही रहती हैं.’

‘मुझे इन्हीं से चिढ़ है. जहां तक शराब की बात है तो हमारे यहां इसे कोई पसंद नहीं करता. फिर औरतों का शराब पीना तो हम सोच भी नहीं सकते.’

‘तुम अपनी मध्यवर्गीय सोच से बाहर निकलो. सब की अपनीअपनी जिंदगी है. मैं तो कम ही पीता हूं पर ग्रुप में कुछ लोग मुफ्त की देख कर इतनी पी लेते हैं कि उन के लिए घर लौटना मुश्किल हो जाता है.’

‘देखो विनय, अगर तुम शराब नहीं छोड़ोगे तो हम शादी भी नहीं कर सकते हैं.’

‘रहना तो मुझे पत्रकारिता की दुनिया में ही है. तुम अपने मातापिता को समझाओ न कि शायद पीने वाला हर आदमी बुरा नहीं होता है.’

‘मुझे मत समझाओ. मैं ने शादियों में शराब पी कर लोगों को हुड़दंग करते देखा है. बीवी को पीटते लोग भी देखे हैं. हमारे एक रिश्तेदार की मौत शराब पीने के बाद छत से गिर कर हो गई थी. जब मैं ही तुम से कनविंस नहीं हो पा रही हूं तो मम्मीपापा को कैसे करूं. हम दोनों की जिंदगी और हमारे मूल्यांकन का तौर- तरीका बिलकुल अलग है. जो चीज तुम्हें सामान्य लगती है वह मेरे लिए अजीब हो जाती है. फिर तुम सिर्फ मेरे नहीं हो बल्कि नीता, पिंकी, श्वेता यानी एकसाथ कितनी लड़कियों से दोस्ती की हुई है, जो तुम्हारे करीब आने के लिए एकदूसरे को पछाड़ने में लगी हुई हैं.’

‘उन के साथ काम के सिलसिले में बाहर जाना होता है. फिर मैं हूं ही इतना हैंडसम और वैलबिहेव्ड कि सभी मुझे पसंद करती हैं. पर मैं शादी तो तुम से ही करूंगा.’

वृंदा का फ्रस्ट्रैशन बढ़ने लगा था. विनय का फोन अकसर व्यस्त मिलने लगा. कहीं उस की सरकारी नौकरी के कारण ही तो उस से वह शादी करने के लिए जिद पर अड़ा हुआ है. फिर वृंदा की कहानियों और व्यक्तित्व की जो तारीफ शुरू में होती थी वह क्या था? शायद फ्लर्ट करने का तरीका. जिन सामाजिक महिला कार्यकर्ताओं, लेखिकाओं की शुरू में विनय आलोचना करता था, हमेशा उन्हीं के बीच तो रहता है. वह रिश्ता शायद दोनों के लिए अपरिचित संसार का आकर्षण था. वृंदा मुलाकातों में खुद के लिए विनय के मन में जगह ढूंढ़ती मगर वहां उसे भीड़ नजर आती.

शाम को विनय का फोन फिर आया, ‘‘कल लंच में मिलो न, नाराज क्यों हो?’’

‘‘नाराज नहीं हूं पर मुझे नहीं लगता कि हमें शादी करनी चाहिए. ऐसी जिंदगी का क्या फायदा जिस में मैं तुम्हारे लाइफस्टाइल की आलोचना करती रहूं और तुम मेरे. अपनी लाइफ स्टाइल की ही किसी लड़की से शादी कर लो. मैं भी अपने रिश्ते के बारे में सोचतेसोचते थक गई हूं. कोई रास्ता तो निकलेगा ही.’’

‘‘ध्यान से सोचो. जल्दबाजी में कोई फैसला मत लो.’’

‘‘नहीं, मैं तुम से जितना प्यार करती हूं उतना तुम मुझ से कभी भी नहीं कर पाओगे. हमेशा मैं ही समझौता करती हूं और तुम पूरा ध्यान न दो, ऐसा कब तक चलेगा,’’ कह कर वृंदा ने फोन काट दिया.

अचानक उस ने राहत की सांस ली. रुलाई फूट रही थी मगर प्यार या रिश्ते की छाया के पीछे कब तक भागा जा सकता है. एक कविता की पंक्ति मन में उभरी :

‘मेरा तेरा रिश्ता तू तू मैं मैं का रहा. मैं तू तू करती रही, तू मैं मैं करता रहा.’

Sad Story : क्या यह प्रेम था 

Sad Story : 3बार घंटी बजाने पर भी दरवाजा नहीं खुला तो मोनिका थोड़ा परेशान हुई  क्या बात है, जो कुहू दरवाजा नहीं खोल रही है. उसी ने तो फोन कर के बुलाया था कि मोनिका आ जा, आज मैं फ्री हूं. उमंग कंपनी टूर पर मुंबई गया है. बैठ कर कुछ देर गप्पें मारेंगे.

मैं यहां असम में पति के कार्यालय में काम करने वाले सहकर्मियों की पत्नियों के अलावा किसी और को नहीं जानती थी और कुहू को देखो, उस के जानने वालों की कमी नहीं थी. अपनी बातें कहने के लिए उस के पास दोस्त ही दोस्त थे.

मोनिका और कुहू ने बनारस यूनिवर्सिटी के होस्टल के एक कमरे में 3 साल एकसाथ बिताए थे, इसलिए एकदूसरे पर पूरा विश्वास था. जो

3 साल एक कमरे में एकसाथ रहेगा, वह पक्का मित्र होगा ही. मोनिका और कुहू भी पक्की मित्र थीं. शादी के बाद दोनों फोन और ईमेल से लगातार जुड़ी रहीं. बाद में जब मोनिका के पति की नियुक्ति भी असम में उसी शहर में हो गई, जहां कुहू भी उमंग के साथ रह रही थी, तो…

मोनिका इतना ही सोच पाई थी कि उस के विचारों में विराम लगाते हुए कुहू ने दरवाजा खोला तो उस के चेहरे पर मुसकान खिली थी. मोनिका का हाथ पकड़ कर अंदर खींचते हुए कुहू ने कहा, ‘‘अरे, कब आई तुम? लगता है कई बार बैल बजानी पड़ी होगी. मैं बैडरूम में थी, इसलिए सुनाई नहीं पड़ा.’’

कुहू के चेहरे पर भले मुसकान खिली थी, पर उस की आवाज से मोनिका को समझते देर नहीं लगी कि वह खूब रोई है. उस के चेहरे पर थोड़ी उदासी के साथ एक निश्चित भाव भी था.

मोनिका ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘कुहू, एक बात तो उमंग बिलकुल सच कहता है कि रोने के बाद तुम्हारी आंखें बहुत खूबसूरत हो जाती हैं.’’

कुहू के चेहरे पर हलकी मुसकान के साथ उस की आंखों के कोर हलके भीगते दिखाई दिए, पर उस ने बात को बदलते हुए कहा, ‘‘चलो मोनिका चाय पीते हैं.’’

मोनिका ने उस का हाथ पकड़ कर बैठाते हुए कहा, ‘‘क्या बात है कुहू?’’

‘‘अरे कुछ नहीं यार, आज मैं ने एक वायरस को निबटा दिया है, जो जिंदगी की विंडो को खा रहा था…’’

बात तो कुहू ने पूरे दिलासे के साथ शुरू की थी, पर पूरी करतेकरते उस का दिल भर आया था.

मोनिका ने पूछा, ‘‘कहीं तुम आरव की बात तो नहीं कर रही हो?’’

उस ने धीरे से स्वीकृति में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘हां.’’

आरव उस का कौन था अथवा वह आरव की कौन थी, दोनों में से यह कोई नहीं जानता था. फिर भी दोनों एकदूसरे से सालों से जुड़े थे और उस की तो बात ही निराली थी. वह बहुत ज्यादा सुंदर तो नहीं थी, पर उस की कालीकाली बड़ीबड़ी आंखों में अनोखा आकर्षण था. कोई भी उसे एक बार देख लेता, तो वह उसी में खो जाता. होंठों पर हमेशा मधुर मुसकान, कभी किसी से कोई लड़ाईझगड़ा नहीं, वह एक अच्छी मददगार थी. उस के मन में दूसरों के लिए दया का विशाल सागर था. वह कभी दूसरों के लिए गलत नहीं सोच सकती थी. वह चंचल और हमेशा खुश रहने वालों में थी.

अपने इसी हंसीमजाक वाले स्वभाव की वजह से एक दिन दोपहर को होस्टल का फोन खाली पड़ा था तो कुहू ने रौंग नंबर लगा दिया. इस के बाद तो उस की आदत सी पड़ गई. जब भी वह फोन खाली पाती, रौंग नंबर लगा कर हंसतीहंसाती रहती.

इसी तरह एक दिन जब उस ने रौंग नंबर लगाया तो दूसरी ओर से ऐसी आवाज आई, जो किसी के भी दिल को भा जाए. उस मनमोहक आवाज में मंत्रमुग्ध हो कर कुहू उस आवाज के स्वामी से इस तरह बातें करने लगी जैसे वह उसे अच्छी तरह जानती हो. थोड़ी देर बातें करने के बाद खुश होते हुए उस ने फोन रखने से पहले कहा, ‘‘तुम से बात कर के अच्छा लगा आरव, तुम से फिर बहुत सारी बातें करूंगी.’’

फोन रख कर कुहू पलटी और मोनिका के गले में बांहें डाल कर कहने लगी, ‘‘आज तो बातें करने में मजा आ गया. आज पहली बार किसी ऐसे लड़के से बात की है, जिस से फिर बात करने का मन हो रहा है.’’

‘‘बस, छोड़ो मुझे जाने दो. मुझे पढ़ना है. मैं तुम्हारी तरह होशियार तो हूं नहीं,’’ मोनिका ने कहा और कमरे में आ गई.

उस के पीछेपीछे कुहू भी आ गई. वह इस तरह खुश थी मानो उस ने आईएएस की परीक्षा पास कर ली हो. कुहू बहुत ज्यादा नहीं पढ़ती थी, फिर भी उस के नंबर बहुत अच्छे आते थे, जबकि मोनिका खूब मेहनत करती थी, तब जा कर उस के अच्छे नंबर आते थे.

उस दिन के बाद कुहू आरव से लगभग रोज बातें करने लगी थी. दिन में कभी 1 बार तो कभी 2 बार उस से बातें जरूर करती थी. उस दिन कुहू कुछ ज्यादा ही खुश थी, जिस दिन आरव उस से मिलने होस्टल आ रहा था, पर मन ही मन वह घबरा भी रही थी, क्योंकि इस से पहले वह किसी लड़के से इस तरह नहीं मिली थी और न आमनेसामने बात की थी. मगर अब तो आरव को आना ही था. उस दिन खुश होने के बावजूद वह काफी बेचैन दिखाई दे रही थी.

11 बजे के आसपास होस्टल के गेट पर बैठने वाली सरला ने आवाज लगाई, ‘‘कुहू, आप से कोई मिलने आया है.’’

मोनिका भी कुहू के पीछेपीछे भागी कि देखे तो कुहू का बौयफ्रैंड कैसा है, क्योंकि वह अकसर मुंह टेढ़ा कर के उस के बारे में बताया करती थी.

आरव काफी सुंदर नौजवान था. दोनों होस्टल के पार्क में एकदूसरे के सामने बैठे थे. मोनिका ने देखा तो शायद आरव सोच रहा था कि वह क्या बात करे. वैसे कुहू के बताए अनुसार वह बातूनी नहीं था. पर किसी लड़की से शायद यह उस की पहली मुलाकात थी, वह भी गर्ल्स हौस्टल में. शायद वह रिस्क ले कर वहां आया था बात करने के लिए.

कुहू भी उत्सुक थी. उस से रहा नहीं गया और उस ने आरव के हाथ के एक काले निशान के बारे में पूछ लिया, ‘‘यह क्या है? स्कूटर की ग्रीस लग गई है या जल गए हैं?’’

आरव मुसकराया. अब उसे बातचीत करने का बहाना मिल गया था. अत: उस ने कहा, ‘‘यह मेरा बर्थ मार्क है.’’

थोड़ी देर तक दोनों इधरउधर की बातें करते रहे. उस के बाद आरव चला गया.

वह गीतसंगीत का बहुत शौकीन था. यह कुहू को पसंद नहीं था. उसे सोना अच्छा लगता था.

एक दिन वह सो रही थी, तभी सरला ने आवाज दी, ‘‘कुहू तुम्हारा फोन आया है.’’

थोड़ी देर बाद कुहू बातचीत कर के लौटी तो जोरजोर से हंसने लगी. मोनिका उस का मुंह ताक रही थी. हंस लेने के बाद कुहू ने कहा, ‘‘यार मोनिका, आज तो आरव ने गाना गाया. उस की आवाज तो बहुत अच्छी है.’’

‘‘कौन सा गाना गाया?’’ मोनिका ने पूछा तो कुहू ने कहा, ‘‘बड़े अच्छे लगते हैं, ये धरती, ये नदियां, ये रैना और तुम. यही नहीं, वह सिनेमा देखने को भी कह रहा था. मैं मना नहीं कर पाई. यार वह कितना भोला है. थोड़ा बुद्धू भी है यार मोनिका. तुम भी साथ चलना. मैं उस के साथ अकेली नहीं जाऊंगी. ठीक नहीं लगता.’’

आरव कुहू को ओपी नैयर की फिल्म दिखाने ले गया, साथ में मोनिका भी थी. लौट कर मोनिका ने मजाक किया, ‘‘अंधेरे में उस ने तेरा हाथ तो नहीं कपड़ लिया था?’’

कुहू एकदम से चौंक कर बोली, ‘‘क्यों? वह कोई डरने वाली फिल्म तो नहीं थी, जो अंधेरे में डर के मारे मेरा हाथ पकड़ लेता.’’

मोनिका को खूब हंसी आई, पर कुहू समझ नहीं पाई. बोली, ‘‘यार मोनिका, आरव की वकालत नहीं चलेगी तो वह अच्छा गायक बन जाएगा. आज उस ने फिर मुझे एक गाना सुनाया था, ‘आप की आंखों में कुछ महके हुए राज हैं, आप से भी खूबसूरत आप के अंदाज हैं…’’

मोनिका ने हंसते हुए उसे झकझोर कर कहा, ‘‘कहीं उसे तुम से प्यार तो नहीं हो गया है?’’

कुहू थोड़ी ढीली पड़ गई. उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘देख मोनिका, यह प्यारव्यार कुछ नहीं होता बस एक कैमिकल असर होता है… यार तू छोड़ इस बात को, चल खाना खाने चलते हैं.’’

इस के बाद हम पढ़ाई और परीक्षा की तैयारी में लग गए.

कुहू के पेपर पहले खत्म हो गए तो वह घर जाने की तैयारी करने लगी. सुबह 7 बजे की उस की बस थी. उसे पहुंचाने के लिए मेरी सहेली बिंदु भी बस स्टाप पर आई थी. उसे बस पर बैठाने आरव भी आया था. जातेजाते उस ने अलग ही हाथ मारा. उस ने आरव से खुद तो हाथ मिलाया ही, पकड़ कर बिंदु का भी हाथ मिलवाया.

‘‘मोनिका, सही बात तो मैं वहां से जा नहीं सकी, अभी भी उस का हाथ पकड़े वहीं खड़ी हूं. जब मैं ने हाथ बढ़ाते हुए उस की आंखों में झांका तो उन में जो दिखाई दिया, उसे उस समय मैं समझ नहीं सकी. उस की बातें, उस के सुनाए गाने कानों में गूंज रहे थे. उस ने मेरी सगाई की बात सुनी थी तो उस का चेहरा उतर गया था. मेरा शरीर कहीं भी रहा हो, मन अभी भी वहीं है,’’ आंसू पोंछते हुए कुहू ने कहा और चाय बनाने किचन में चली गई.

उस के पीछेपीछे मोनिका भी गई. उस ने पूछा, ‘‘उस के बाद तुम फेसबुक पर आरव के संपर्क में आई थी क्या?’’

कुहू ने हां में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘होस्टल से घर आने के बाद कुछ ही दिनों में उमंग से मेरी शादी हो गई थी. उमंग बहुत ही अच्छे और नेक पति हैं. उन के जीवन का एक ही ध्येय है कि जीयो और जीने दो. पार्टी के शौकीन उमंग को घूमने और घुमाने का शौक था. वे जहां भी जाते, मुझे अपने साथ ले जाते. बेटे की पढ़ाई का नुकसान न हो, इस के लिए उसे होस्टल में डाल दिया, पर मेरा साथ नहीं छोड़ा.’’

बात सच भी थी. कुहू जब भी मोनिका को फोन करती थी, यही कहती थी कि शादी के 15 साल बाद भी उमंग का हनीमून खत्म नहीं हुआ है. कभीकभी हंसती, मस्ती में डूबी कुहू की आंखों के सामने एक जोड़ी थोड़ी भूरी, थोड़ी कोली आंखें आ जातीं तो वह खो जाती.

ऐसे ही एक रोज उमंग ने कहा, ‘‘चलो हम अपना फेसबुक पेज बनाते हैं और अपने पुराने मित्रों को खोजते हैं. अपने पुराने मित्रों से मिलने का यह बहुत बढि़या उपाय है.’’

इस के बाद दोनों ने अपनेअपने मोबाइल फोन में फेसबुक पेज बना लिया.

एक दिन कुहू अकेली थी और अपने मित्रों को खोज रही थी. अचानक उस के मन

में आया, हो सकता है आरव ने भी अपना फेसबुक पेज बनाया हो. वह आरव को खोजने लगी, पर वहां तो तमाम आरव थे. उस का आरव कौन है, कैसे पता चले. तभी उस की नजर एक चेहरे पर पड़ी तो वह चौंकी. शायद यही है उस का आरव. अब उस के पास उस का कोई फोटो तो था नहीं. बस यादें ही थीं. उस ने उस का प्रोफाइल खोल कर देखी. उस की जन्मतिथि और शहर तो वही था. उस ने तुरंत संदेश बौक्स में अपना परिचय दे कर संदेश भेज दिया. अंत में उस ने यह भी लिख दिया था, ‘‘क्या अभी भी मैं तुम्हें याद हूं.’’

बाद में उसे संकोच हुआ कि अगर कोई दूसरा हुआ तो वह उसे कितना गलत समझेगा. कुहू ने एक बार फिर उस का प्रोफाइल चैक किया और उस के फोटो को देखने लगी तो उस का फोटो देख कर उस की आंखें नम हो गईं. यह तो उसी का आरव है. फोटो में उसे उस के हाथ का वह काला निशान यानी ‘बर्थ मार्क’ दिख गया था.

अगले ही दिन आरव का संदेश आया, ‘‘हां.’ अब इस हां का अर्थ 2 तरह से निकाला जा सकता था- एक हां का मतलब मैं आरव ही हूं और दूसरा यह कि तुम मुझे भी याद हो. मगर कुहू को तो दोनों ही अर्थों में हां दिखाई दी.

कुहू ने इस संदेश के जवाब में अपना फोन नंबर दे दिया. थोड़ी देर में आरव औनलाइन दिखाई दिया तो दोनों ही यह भूल गए कि उनकी जिंदगी 15 साल आगे निकल चुकी है. कुहू 1 बच्चे की मां तो आरव 2 बच्चों का बाप बन चुका है. इस के बाद दोनों में बात हुई तो कुहू ने पूछा, ‘‘आरव, तुम ने अपने घर में मेरी बात की

थी क्या?’’

आरव की मां को कुहू के बारे में पता था कि दोनों में खूब बातें होती हैं. जब उस ने अपनी मां से कुहू की सगाई के बारे मं बताया उस ने राहत की सांस ली थी. यह बात आरव ने ही कुहू को बताई थी. इस पर आरव पर क्या असर पड़ा, यह जाने बगैर ही कुहू खूब हंसी थी. आरव सिर्फ उस का मुंह ताकता रह गया था.

हां, तो जब कुहू ने आरव से पूछा कि उस ने उस के बारे में अपने घर में बताया कि नहीं, तो इस पर आरव हंस पड़ा था. हंसी को काबू करते हुए उस ने कहा, ‘‘न बताया है, न बताऊंगा. मां तो अब हैं नहीं, मेरी पत्नी मुझ पर शक करती है. इसलिए उस से कुछ भी बताने की हिम्मत मैं नहीं कर सकता.’’

दोनों की चैटिंग और बातचीत का सिलसिला चलता रहा. आरव हमेशा शिकायत करता कि वह उसे छोड़ कर चली गई. इस पर कुहू को पछतावा होता.

बारबार आरव के शिकायत करने पर एक दिन उस ने नाराज हो कर कहा, ‘‘क्यों न चली जाती? क्या तुम ने मुझे रोका था? किस के भरोसे रुकती?’’

आरव ने कहा, ‘‘एक बात पूछूं, पर अब उस का कोई मतलब नहीं और तुम जो जवाब दोगी वह भी मुझे पता है. फिर भी तुम मुझे बताओ कि अगर मैं तुम्हारी तरफ हाथ बढ़ाता तो तुम मना तो न करतीं? पर आज बात कुछ अलग है.’’

सचमुच इस सवाल का कुहू के पास कोई जवाब नहीं था और कोई भी…

एक दिन आरव ने हंस कर कहा, ‘‘कुहू, कोई समय घटाने की मशीन होती तो हम 15 साल पीछे चले जाते.’’

‘‘अरे मैं तो कब से वहीं हूं, पर तुम कहां हो….’’

‘‘मैं तुम्हारे पीछे खड़ा हूं,’’  आरव ने जोर से हंस कर कहा, ‘‘पर तुम बहुत झूठी हो, मुझे दिखाई ही नहीं दे रही हो,’’ और उस ने एक गाना गाया, ‘बंदा परवर थाम लो जिगर…’’

कुहू भी जोर से हंस कर बोली, ‘‘तुम्हारी यह गाने की आदत अब तक नहीं गई. अब इस आदत का मतलब खूब समझ में आता है, पर अब इस का क्या फायदा.’’

दिल की सच्ची और ईमानदार कुहू को थोड़ी आत्मग्लानि हुई कि वह जो कर रही है वह गलत है. फिर उस ने सबकुछ उमंग से बताने का निर्णय कर लिया और रात में खाने के बाद उस ने सारी सचाई बता दी.

अंत में कहा, ‘‘इस में सारी गलती मेरी ही है. मैं ने ही आरव को ढूंढ़ा और अब मुझ से झूठ नहीं बोला जाता. अब आप को जो सोचना है, सोचिए.’’

पहले तो उमंग थोड़ा परेशान हुआ, पर फिर बोला, ‘‘कुहू, तुम झूठ बोल रही हो. तुम मजाक कर रही हो. सच बोलो… मेरे दिल की धड़कन थम रही है.’’

‘‘नहीं उमंग यह सच है.’’ कुहू ने कहा. उस ने सारी बातें तो उमंग को बता दी थी, पर गाने सुनाने और फिल्म देखने वाली बात नहीं बताई थी. शायद हिम्मत नहीं कर सकी.

उमंग ने इसे गंभीरता से नहीं लिया. कहा, ‘‘जाने दो, कोई प्रौब्लम नहीं है. इस तरह तो होता रहता है. जीवन में यह सब चलता रहता है.’’

अगले दिन कुहू ने सारी बात आरव को बताई तो वह हैरान होते हुए बोला, ‘‘कुहू, तुम बहुत खुशहाल हो, जो तुम्हें ऐसा जीवनसाथी मिला है, जबकि सुरभि ने तो मुझे कैद कर रखा है.’’

‘‘इस में गलती तुम्हारी है, जो तुम अपने जीवनसाथी को विश्वास में नहीं ले सके.’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. मैं ने बहुत कोशिश की. सुरभि भी मेरे साथ वकील है… वह पता नहीं ऐसा क्यों करती है.’’

इस के बाद एक दिन आरव ने कुहू की बात सुरभि से करा दी. उस ने कुहू से तो खूब मीठीमीठी बातें कीं, पर इस के बाद आरव का जीना मुहाल कर दिया.

उस ने आरव से स्पष्ट कहा, ‘‘तुम कुहू से संबंध तोड़ लो वरना मैं मौत को गले लगा लूंगी.’’

अगले दिन आरव का संदेश था, ‘कुहू मैं तुम से कोई बात नहीं कर सकता. सुरभि ने सख्ती से मना कर दिया है.’

उस समय कुहू और उमंग खाना खा रहे थे. संदेश पढ़ कर कुहू रो पड़ी. उमंग ने पूछा तो उस ने बेटे की याद आने का बहाना बना दिया. कितने दिनों तक वह संताप में रही. फोन भी किया, पर आरव ने बात नहीं की. हार कर कुहू ने संदेश भेजा कि एक बार तो बात करनी ही पड़ेगी, ताकि मुझे पता चल सके कि क्या हुआ है.

इस के बाद आरव का फोन आया. बोला, ‘‘मेरे यहां कुछ ठीक नहीं है. तीन दिन हो गए, हम सोए नहीं हैं. सुरभि को हमारी निस्स्वार्थ दोस्ती से सख्त ऐतराज है. अब मैं आप से प्रार्थना कर रहा हूं कि मुझे माफ कर दो. मुझे पता है, इन बातों से तुम्हें कितनी तकलीफ हो रही है और मुझे ये सब कहते हुए भी. विधि का विधान भी यही है… हम इस से बंधे हुए जो हैं.’’

कुहू बड़ी मुश्किल से सिर्फ इतना कह पाई, ‘‘कोई प्रौब्लम नहीं, अब मैं तुम से मिलने के लिए 15 साल और इंतजार करूंगी.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर आरव ने फोन काट दिया.

कूहू ने भी उस का नंबर डिलीट कर दिया और उसे अपनी फ्रैंडलिस्ट स निकाल दिया. कुहू ने मोनिका का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘यार मोनिका, मैं ने उस का नंबर    तो डिलीट कर दिय, पर जिस नंबर को मैं पिछले 15 सालों से नहीं भूल सकी उसे इस तरह कैसे भूल सकती हूं. वजह मुझे पता नहीं. मुझे उस से प्यार नहीं था, फिर भी मैं उसे नहीं भूल सकी. उस के लिए मेरा दिल दुखी हुआ है और अब मुझे यह पता नहीं कि इस दिल को समझाने के लिए क्या करूं. मेरी समझ में नहीं आता कि उस ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया, जबकि उसे पता था, फिर भी उस ने ऐसा क्यों किया. बस, जब तक उसे अच्छा लगा, मुझ से बातें करता रहा और जब जान पर आ गई तो तुम कौन और मैं कौन वाली बात कह कर किनारा कर लिया.’’

कुहू इसी तरह की बातें कह कर रोती रही और मोनिका ने भी उसे रोने दिया. उसे रोका नहीं. यह समझ कर कि उस के दिल पर जितना बोझ है, वह आंसुओं के रास्ते बह जाए.

अब मोनिका उस से कहती भी क्या, जबकि वह जानती थी कि वह प्यार ही था, जिसे कुहू भुला नहीं सकी थी. एक बार आरव से उस ने खुद कहा था, ‘‘हम औरतों के दिल में 3 कोने होते हैं- एक में उस का घर, दूसरे में उस का मायका और जो दिल का तीसरा कोना होता है उस में उस की अपनी कितनी यादें संजोई रहती हैं, जिन्हें वह फुरसत के क्षणों में निकाल कर धोपोंछ कर रख देती है.’’

मोनिका सोचने लगी, जो लड़की प्यार को कैमिकल रिएक्शन मानती थी और दिल को मात्र रक्त सप्लाई करने का साधन, उस ने दिल की व्याख्या कर दी थी और अब कह रही थी कि उसे आरव से प्यार नहीं है.

मोनिका ने उसे यही समझाया और वह खुद भी समझतीजानती थी कि उसे जो मिला है,

अच्छा ही मिला है, कोई भी विधि का विधान नहीं बदल सकता.    ‘‘दिल की सच्ची और ईमानदार कुहू को थोड़ी आत्मग्लानि हुई

कि वह जो कर रही है वह गलत है.

फिर उस ने सबकुछ उमंग से बताने का निर्णय कर लिया…’

लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह

True Story : वसूली

True Story : जाति के साथ अपने नाम की पुकार सुन कर निरपत चौंका. हड़बड़ा कर घर से बाहर निकला तो देखा, सामने एक व्यक्ति सफेद पायजामा और मोटे कपड़े का लंबा कुरता पहने खड़ा मुसकरा रहा था, जिस के माथे पर लंबा तिलक था. उड़ती धूल व लूलपट से बचाव के लिए उस ने सिर और कानों पर कपड़ा लपेट रखा था. निरपत उसे अचंभे से देख ही रहा था कि उस ने भौंहें उठाते हुए पूछ लिया, ‘‘आप ही निरपतलाल हैं न, दिवंगत सरजू के सुपुत्र?’’

‘‘हां, मगर मैं ने आप को पहचाना नहीं.’’

‘‘अरे, नहीं पहचाना,’’ उस का स्वर व्यंग्यात्मक था.

निरपत अनभिज्ञ सा उसे देखता रह गया. उलझन में पड़ गया कि कौन हो सकता है, जो घर के सामने खड़ा हो कर बड़े अधिकार से उस का और पिताजी का नाम ले रहा है.

‘‘आश्चर्य है निरपतलाल, कि आप इतनी जल्दी भूल गए, प्रयाग जा कर कुछ संकल्प किया था कभी आप ने?’’ तंज सा कसते हुए उस ने सिर पर बांधा कपड़ा खोल दिया.

उस का चेहरा देखते ही निरपत को याद आ गया. पंडे, झंडे, नाई, नावें, श्रद्धानत भीड़ और भी बहुतकुछ. पिछले शुरुआती जाड़े की ही तो बात है, 6 महीने भी नहीं हुए होंगे. वह पिता के फूल विसर्जित करने गया था. साथ में मां के अलावा 2 रिश्तेदार भी थे.

भोर में ट्रेन जैसे ही नैनी स्टेशन पर रुकी तो पुलिस वालों की तरह संदिग्ध की तलाश सी करते हुए कई लोग ट्रेन में चढ़ आए थे और उस का घुटा सिर देखते हुए बारीबारी से पूछ लेते थे कि कहां के रहने वाले हो, किस जाति के हो. यह व्यक्ति जवाब पाने के बाद ठहर गया और सफेद कपड़े में बंधी मटकी देखते हुए बोला, ‘आप हमारे ही यजमान हैं. अब आप को किसी की बातों में आने की जरूरत नहीं और न कहीं भटकने की जरूरत है. अपना सामान समेट लीजिए अगला स्टेशन आने में देर नहीं है.’

अपने पंडे का नाम सुन कर वे आश्वस्त हो गए कि अब कहीं भटकना नहीं पड़ेगा. वरना अनजानी जगह और कर्मकांडी स्थल पर होने वाली ठगी से भयभीत थे. यही व्यक्ति रेलवे स्टेशन से आटोरिकशा में साथ बैठ कर उन्हें रेलपुल के पास यमुना किनारे ले गया था. नाई और नाव वाले से मेहनताना तय करवा दिया, हालांकि इन सब में खासी रकम अदा करनी पड़ी थी. इस ने यह भी बताया कि पंडा महाराज का घर पास में ही है, वे यहीं से आप लोगों के साथ संगम तक नाव में जाएंगे और पूरे विधिविधान से पूजन करवा कर अस्थिविसर्जन करवा देंगे. तब तक जिन्हें बाल बनवाना हो, बनवा लें. शुद्धि के लिए यहां भी बाल बनवाने पड़ते हैं, अन्यथा शुद्धि नहीं होती.

पंडे के आते ही नाव संगम की ओर बढ़ी. नाव ने किनारा छोड़ा तो थोड़ी देर में रेल का पुल दूर होता लगा. पुल के ऊपर गुजरती रेलगाड़ी, बहती यमुना की नीली अथाह जलराशि, आसपास से गुजरती नावें और नावों के पीछे मंडराते सफेद पक्षियों के समूह, सब निरपत को चकित कर रहे थे.

वह नाव में पहली बार बैठा था. अन्य नावों में सवार यात्री नदी में कुछ फेंकते तो पक्षी झपटते हुए जल में क्रीड़ा करने लगते. उस ने भी साथ लाए चने फेंके तो पक्षियों का झुंड उस की नाव के पीछे लग लिया. चढ़ते सूरज की गुनगुनी धूप में छोटी सी जलयात्रा से वह रोमांचित था, यहां तक कि वह पिता के मृत्युशोक को थोड़ी देर के लिए भूल सा गया था.

तभी पंडे ने शुद्ध उच्चारण व मीठी वाणी में संगम की महिमा का गुणगान आरंभ कर दिया. मां ध्यानमग्न हो कर हाथ जोड़े सुनने लगीं. उन्होंने जब यह बताया कि संगम में अस्थि विसर्जित करने से मृतक की आत्मा को मोक्ष मिलता है, आत्मा कहीं भटकती नहीं है तो मां के चेहरे पर गहरा संतोष उभरा था. उन्होंने कुछ और भी बातें बताईं, ‘चूंकि यह धार्मिक स्थान है, फिर भी यहां चोरउचक्कों, लुच्चेलफंगों, ठगों की कमी नहीं है. इसलिए आप सभी को सतर्क रहना है. कोई कितना भी बातें बनाए, आप का हितैषी बने, किसी की बातों में नहीं आना है. कोई भी फूल, पत्ती, प्रसाद, दूध चढ़ाने को दे तो हाथ में नहीं लेना, वरना ठगी के शिकार हो सकते हैं.

‘एक बात बहुत गौर से सुनो, अस्थियां जल में प्रवात करते समय ध्यान रहे कि किसी के हाथ न आने पाएं वरना पानी में क्रीड़ा कर रहे केवट अस्थियों के जलमग्न होने के पहले कठौते में लोप लेते हैं और फिर धन की मांग करते हैं, अन्यथा अस्थियों को कहीं भी फेंक देने की धमकी देते हैं. इस से श्रद्धालुओं का मन खराब हो जाता है.’

साथ आए रिश्तेदार और मां सम्मोहित से हो कर उन की बातें सुन रहे थे. सुन तो निरपत भी रहा था, पर उस का ध्यान इधरउधर के दृश्यों की ओर अधिक था. जब नाव संगम के करीब पहुंचने लगी और पंडितजी आश्वस्त हो गए कि उन की बातों का प्रभाव पड़ रहा है तो अपने हित की बातों पर आए. उन्होंने निरपत की ओर लक्ष्य कर के कहा, ‘आप अपने मन में क्या संकल्प कर के आए हैं?’

निरपत चुप रहा. उसे कोई जवाब नहीं सूझा. पंडितजी ने कुरेदा, ‘अरे, भई, जब कोई किसी धार्मिक स्थान पर धर्मकर्म करने जाता है तो अपने मन में कुछ तो सोच कर जाता है कि कम से कम इतना दानपुण्य करेंगे. आप ने भी तो कुछ सोचा होगा?’

निरपत फिर भी चुप रहा. पंडितजी को उस की चुप्पी भा रही थी. मुसकरा कर बोले, ‘आप शायद संकोच कर रहे हैं. कई लोग यहां आ कर गुप्तदान करते हैं. अगर ऐसी कोई मंशा है तो बताएं.’

निरपत को चुप देख मां ने हस्तक्षेप किया, ‘महाराज, अभी यह बच्चा है. इसे उतनी समझ नहीं है. आप ही ज्ञान दो.’पंडितजी प्रसन्न हो उठे, बोले, ‘कितने भाईबहन हैं?’

‘अकेला लड़का है,’ जवाब मां ने दिया.

हूं…तो इन के पिताजी सब इन्हीं के लिए छोड़ गए हैं. कुछ ले कर तो नहीं गए न. सब को यहीं छोड़ कर जाना पड़ता है, कोई कुछ साथ नहीं ले जाता. न जमीन, न जायदाद और न धनदौलत. लेकिन धर्मकर्म, दानपुण्य साथ जाता है. धर्मकर्म की अधूरी इच्छा को उन की संतानें पूरी करती हैं. इसीलिए यहां बहुत दूरदूर से आ कर श्रद्धालु दानपुण्य करते हैं. आप लोग भी बहुत दूर से आए हैं, कितनी दूर है आप का घरगांव?’

‘कमसेकम 500 मिलोमीटर,’ एक रिश्तेदार ने बताया.

आप सभी के मन में आस्था होगी, तभी इतनी दूर से किरायाभाड़ा लगा कर आए हैं.’

‘हां, महाराज,’ दूसरे रिश्तेदार ने समर्थन किया.

‘तब आप सभी मेरी बातें ध्यान से सुनिए. नियम है कि मृतक को वैतरणी पार करवाने के लिए गौदान करना होता है. उन की आत्मा की शांति के लिए कमसेकम 5 भूखे ब्राह्मणों को भरपेट भोजन, वस्त्र और पूजन के लिए जो भी दक्षिणा आप देना चाहें, यह आप की श्रद्धा पर निर्भर है.’

निरपत उन की चतुराईभरी बातों को समझ रहा था. उस ने एतराज करना चाहा, ‘मगर पंडितजी, हमें यहां से वापस जा कर अपने गांव में गंगभोज करना ही होगा. वहां गौपूजन भी होगा. 5 से अधिक ब्रह्मणों को भरपेट भोजन भी कराया जाएगा और जो भी बन पड़ेगा, दानपुण्य भी किया ही जाएगा.’

‘यह तो अच्छी बात है, परंतु यहां की बात और है. यह तीर्थस्थल है. माघ के महीने में महात्माओं व भक्तों का बड़ा जमघट होता है. कितने धनिक सारी भौतिक सुखसुविधाएं त्याग कर कर महीनेभर यहां कल्पवास करते हैं. विश्वप्रसिद्ध कुंभ का आयोजन यहीं होता है. यहां देवों का निवास है. आप यहां के महत्त्व को जानिए.’

मां उन की बातें बड़े गौर से सुन रही थीं और प्रभावित भी हो रही थीं. उन्होंने हाथ जोड़ते हुए समर्थन ही कर दिया, ‘आप की सब बातें सच्ची हैं, महाराज.’

‘मैं सत्य ही बोलता हूं. ये सब ज्ञान की बातें हैं. बड़बड़े नेता, अभिनेता, पूंजीपति यहां आ कर अपने प्रियजनों के मोक्ष के लिए हम से कर्मकांड करवाते हैं?’

‘मगर पंडितजी हम लोग छोटे किसान हैं, जो विधि आप बता रहे हैं, हमारी सामर्थ्य के बाहर है,’ निरपत ने विनम्रता से कहा.

‘अगर सामर्थ्य नहीं तो कोई बात नहीं, हम तो मृतक की आत्मा के मोक्ष का उचित मार्ग बता रहे हैं. आगे आप की जैसी इच्छा,’ उन्होंने उपेक्षित भाव से मां की ओर देखा.

मां अनुरोध सा कर बैठीं, ‘आप की ऐसी कृपा हो जाए महाराज कि उन की आत्मा को शांति मिले.’

‘जब कोई कार्य नियमधर्म, विधिविधान से होता है, तब ही कृपा बरसती है.’

‘लेकिन, हमारे गांव के लोग बताते हैं कि इतना खर्च नहीं होता है,’ निरपत ने शंका व्यक्त की. ‘उन की बात छोड़ो. अपनी इच्छा बताओ. अगर धन की कमी है तो उस की चिंता छोड़ो. हम ऐसे लालची नहीं हैं कि कर्मकांड में कोई कसर छोड़ दें. आप की माताजी चाहती हैं कि कार्य उचित ढंग से पूर्ण हो.’

‘हां, महाराज,’ मां ने खुले मन से समर्थन किया.

‘तो ठीक है,’ कहते हुए पंडित जी तेजी से मंत्रोच्चारण करने लगे.

वापसी में मां संतुष्ट थीं कि पति की आत्मा की शांति के लिए कोई कोरकसर नहीं छोड़ी गई है. पंडे की मोटी पोथी में दर्ज वंश के अनेक लोगों के नामों को सुन कर उन का विश्वास और बढ़ा था. साथ आए दोनों रिश्तेदार खुश थे कि बिना किसी झंझट के सब निबट गया और सकुशल तीर्थलाभ भी हो गया. लेकिन निरपत ठगा सा महसूस कर रहा था. किराएभर का रुपया छोड़ कर सब तो दक्षिणा के नाम पर धरवा लिया गया था. परेशान था कि गौदान के नाम पर एक बछिया की पूंछ का स्पर्शभर कराया गया और बछिया वाला तुरंत बछिया सहित कहीं गायब हो गया. 5 ब्राह्मणों को तो भोजन करा दिया जाएगा. जबकि गंगा के घटनेघुटने पानी में खड़ा कर के सब स्वीकार करा लिया गया था, सब उधार पर. और कहते हैं कि फसल आने पर उन का आदमी गांव आएगा, तब चुकता कर देना. खीझ सी उस के मन में उठ रही थी, लेकिन मां के कारण चुप रह जाना पड़ा था.

आननफानन पेड़ के नीचे बिछाई गई नंगी चारपाई पर आगंतुक आसन से बैठा था. तगादे की चिट्ठी एक तुड़ेमुड़े कागज के रूप में नोटिस की तरह निरपत को पकड़ा दी थी जिसे पढ़ कर वह अचंभे में था. हिसाब भी समझा दिया था कि 1 गौ का दान, 5 भूखे ब्राह्मणों का उत्तम भोजन, उन के वस्त्र, उधार पर किए गए कर्मकांड पर ब्याज और गांव तक आनेजाने का उस पर हुआ व्यय. यह भी स्पष्ट कर दिया था कि उस ने जो परेशनी व कष्ट गांव तक पहुंचने में उठाए हैं, उन का मूल्य नहीं जोड़ा गया है. उस के लिए जो भी भेंट करेंगे, वह सहर्ष स्वीकार कर लेगा, नानुकुर नहीं करेगा.

आसपास गांव के कुछ फालतू लोग इकट्ठे हो गए थे और उत्सुकता से देख रहे थे. निरपत ने मां की ओर देखा, जो आगंतुक की ओर हाथ जोड़े दया की पात्र बनी खड़ी थी.

‘‘महाराज, हम इतना रुपया नहीं दे सकते और न हमारे पास है,’’ निरपत ने अडिगता से कहा.

‘‘हम जानते हैं, गांव वालों के पास नकद रुपया नहीं होता है, जब फसल बिकती है, तब ही रुपया आता है.’’

‘‘इस बार फसल भी कमजोर हुई है,’’ निरपत ने विनय सी की.

‘‘आप मंडी जा कर अनाज बेचने की तैयारी में हैं. चावल की फसल इस बार ठीक हुई थी. मैं ने सब पता कर लिया है.’’

‘‘अगर मैं आप की मांग पूरी करने से मना कर दूं तो…’’ निरपत ने पलटा खाया.

आगंतुक हंसा, उस ने भीड़ पर नजर घुमाई और मां की ओर देखते हुए बोला, ‘‘आप मना तो कर ही नहीं सकते. जो आदमी श्रद्धा से 500 किलोमीटर दूर जा कर अपनी मां के सामने गंगा में खड़े हो कर संकल्प करता है, वह कर्मकांड की उधारी से कैसे इनकार कर सकता है? कहीं आप यह तो नहीं सोच रहे थे कि वसूली करने आप के गांव कोई आ नहीं सकेगा?’’

निरपत को चुप रह जाना पड़ा. उस के मन में यह विचार आया भी था. उस ने मां की ओर देखा. उन की आंखें डबडबा गई थीं. भीड़ में खुसुरफुसुर होने लगी. वह धीमे से बोला, ‘‘अभी हमारे पास रुपए नहीं हैं.’’

‘‘रुपए की चिंता न करें. ईश्वर की कृपा से आप के पास इतना धनधान्य है कि आप अनाज दे कर पितृऋण से मुक्त हो सकते हैं.’’

‘‘आप अनाज ले कर कैसे जा सकेंगे?’’

‘उस की भी चिंता आप न करें.’’

दोनों का वार्त्तालाप एक बहस का रूप लेने लगा तो मां रोने लगी और करुण स्वर में बोली, ‘‘क्यों बहस करते हो निरपत, जब ये अनाज लेने को तैयार हैं तो दे दो और मुक्ति पाओ.’’

‘‘जितने में इन की उधारी चुकता हो जाए. पिता की आत्मा को क्यों कष्ट में डालते हो. सब उन का ही तो है. वे इतनी खेती छोड़ कर मरे हैं.’’

मां के हस्तक्षेप से निरपत को चुप रह जाना पड़ा. मां ने गांव वालों की मदद से 1 बोरा गेहूं निकलवा दिया. पर आगंतुक नहीं माना. उस ने 2 बोरे गेहूं और आधा बोरा चावल पर ही समझौता किया. भीड़ बढ़ गई थी. लोगों में कुतूहल था कि यह व्यक्ति इतना अनाज कैसे ले जाएगा. भीड़ में बच्चे भी थे. उस ने बच्चों से कहा, ‘‘जाओ, गुप्ताजी को बुला लाओ.’’

उन बच्चों में गुप्ताजी का बेटा भी खड़ा था. वह दौड़ कर पिताजी को बुला लाया. आगंतुक तो पहले ही उन से बात कर के आया था. दोनों के बीच कुछ देर मोलभाव का नाटक चलता रहा. गांव के बनिए ने मौके का फायदा उठाया. नोटों की गड्डी जब आगंतुक ने थामी तो निरपत निरीह भाव से देखता रह गया.

Kahaniyan 2025 : मन का घोड़ा

Kahaniyan 2025 :  ‘‘अंकुर की शादी के बाद कौन सा कमरा उन्हें दिया जाए, सभी कमरे मेहमानों से भरे हैं. बस एक कमरा ऊपर वाला खाली है,’’ अपने बड़े बेटे अरुण से चाय पीते हुए सविता बोलीं.

‘‘अरे मां, इस में इतना क्या सोचना? हमारे वाला कमरा न्यूलीवैड के लिए अच्छा रहेगा. हम ऊपर वाले कमरे में शिफ्ट हो जाएंगे,’’ अरुण तुरंत बोला.

यह सुन पास बैठी माला मन ही मन बुदबुदा उठी कि आज तक जो कमरा हमारा था, वह अब श्वेता और अंकुर का हो जाएगा. हद हो गई, अरुण ने मेरी इच्छा जानने की भी जरूरत नहीं समझी और कह दिया कि न्यूलीवैड के लिए यह अच्छा रहेगा. तो क्या 15 दिन पूर्व की हमारी शादी अब पुरानी हो गई?

तभी ताईजी ने अपनी सलाह देते हुए कहा, ‘‘अरुण, तुम अपना कमरा क्यों छोड़ते हो? ऊपर वाला कमरा अच्छाभला है. उसे लड़कियां सजासंवार देंगी. और हां, अपनी दुलहन से भी तो पूछ लो. क्या वह अपना सुहागकक्ष छोड़ने को तैयार है?’’ और फिर हलके से मुसकरा दीं. पर अरुण ने तो त्याग की मूर्ति बन झट से कह डाला, ‘‘अरे, इस में पूछने वाली क्या बात है? ये नए दूल्हादुलहन होंगे और हम 15 दिन पुराने हो गए हैं.’’

ये शब्द माला को उदास कर गए पर गहमागहमी में किसी का उस की ओर ध्यान न गया. ससुराल की रीति अनुसार घर की बड़ी महिलाएं और नई बहू माला बरात में नहीं गए थे. अत: बरात की वापसी पर दुलहन को देखने की बेसब्री हो रही थी. गहनों से लदी छमछम करती श्वेता ने अंकुर के संग जैसे ही घर में प्रवेश किया वैसे ही कई स्वर उभर उठे, वाह, कितनी सुंदर जोड़ी है.

‘‘कैसी दूध सी उजली बहू है, अंकुर की यही तो इच्छा थी कि लड़की चांद सी उजली हो,’’ बूआ सास दूल्हादुलहन पर रुपए वारते हुए बोलीं.

माला चुपचाप एक तरफ खड़ी देखसुन रही थी. तभी सविताजी ने माला को नेग वाली थाली लाने को कहा और इसी बीच कंगन खुलाई की रस्म की तैयारी होने लगी. महिलाओं की हंसीठिठोली और ठहाके गूंज रहे थे पर माला अपनी कंगन खुलाई की यादों में खो गई…

फूल और पानी भरी परात से जब माला ने 3 बार अंगूठी ढूंढ़ निकाली तब सभी ने एलान कर डाला, ‘‘भई, अब तो माला ही राज करेगी और अरुण इस का दीवाना बना घूमेगा.’’

पर माला तो अरुण का चेहरा देखने को भी तरसती रही. भाई की शादी की व्यस्तता व मेहमानों, दोस्तों की गहमागहमी में माला का ध्यान ही नहीं आया. माला के कुंआरे सपने साकार होने को तड़पते और मन में उदासी भर देते, फिर भी माला सब के सामने मुसकराती बैठी रहती.

शाम 4 बजे रीता ने आवाज लगाई, ‘‘जिसे भी चाय पीनी हो वह जल्दी से यहां आ जाए. मैं दोबारा चाय नहीं बनाऊंगी.’’ ‘‘ला, मुझे 1 कप चाय पकड़ा दे. फिर बाहर काम से जाना है,’’ अरुण ने भीतर आते हुए कहा.

‘‘ठहरो भाई, पहले एक बात बताओ. वह आप के हस्तविज्ञान व दावे का क्या रहा जब आप ने कहा था कि मेरी दुलहन एकदम गोरीचिट्टी होगी. यह बात तो अंकुर भाई पर फिट हो गई,’’ कह रीता जोरजोर से हंसने लगी.

‘‘अच्छा, एक बात बता, मन का लड्डू खाने में कोई बंदिश है क्या?’’ अरुण ने हंसते हुए कहा.

तभी ताई सास ने अपनी बेटी रीता को डपट दिया, ‘‘यह क्या बेहूदगी है? नईनवेली बहुएं हैं, सोचसमझ कर बोलना चाहिए… और अरुण तेरी भी मति मारी गई है क्या, जो बेकार की बातों में समय बरबाद कर रहा है?’’

शादी के बाद अंकुर और श्वेता हनीमून पर ऊटी चले गए ताकि अधिकतम समय एकदूसरे के साथ व्यतीत कर सकें, क्योंकि 20 दिनों के बाद ही अंकुर को लंदन लौटना था. श्वेता तो पासपोर्ट और वीजा लगने के बाद ही जा पाएगी. हनीमून पर जाने का प्रबंध अरुण ने ही किया था. ये सब बातें माला को पिछले दिन रीता ने बताई थीं. घर के सभी लोग अरुण की प्रशंसा के पुल बांध रहे थे पर माला के मन में कांटा सा गड़ गया. मन में अरुण के प्रति क्रोध की ज्वाला उठने लगी.

‘हमारा हनीमून कहां गया? अपने लिए इन्होंने क्यों कुछ नहीं सोचा? क्यों? रोऊं, लडं क्या करूं?’ ये सवाल, जिन्हें संकोचवश अरुण से स्पष्ट नहीं कर पा रही थी, उस के मन को लहूलुहान कर रहे थे.

समय का पहिया अंकुर को लंदन ले गया. ऐसे में श्वेता अकेलापन अनुभव न करे, इसलिए घर का हर सदस्य उस का ध्यान रखने लगा था. भानजी गीता तो उसे हर समय घेरे रहती. माला तो जैसे कहीं पीछे ही छूटती जा रही थी. तभी तो माला शाम के धुंधलके में अकेली छत पर खड़ी स्वयं से बतिया रही थी कि मानती हूं कि श्वेता को अंकुर की याद सताती होगी. पर सारा परिवार उसी से चिपका रहे, यह तो कोई बात न हुई. मैं भी तो 2 माह से यहीं रह रही हूं और अरुण भी तो दिल्ली से सप्ताह के अंत में 1 दिन के लिए आते हैं. मुझ से हमदर्दी क्यों नहीं?

तभी किसी के आने की आहट से उस की विचारधारा भंग हो गई.

‘‘माला, तुम यहां अकेली क्यों खड़ी हो? चलो, नीचे मां तुम्हें बुला रही हैं. और हां कल सुबह की ट्रेन से दिल्ली निकल जाऊंगा. तुम श्वेता का ध्यान रखना कि वह उदास न हो. वैसे तो सभी ध्यान रखते हैं पर तुम्हारा ध्यान रखना और अच्छा रहेगा…’’

अरुण आगे कुछ और कहता उस से पहले ही माला गुस्से से चिल्ला पड़ी, ‘‘उफ, सब के लिए आप के मन में कोमल भावनाएं हैं पर मेरे लिए नहीं. क्या मैं इतनी बड़ी हो गई हूं कि मैं सब का ध्यान रखूं और खुद को भूल जाऊं? मेरी इच्छाएं, मेरी कल्पनाएं, मेरा हनीमून उस का क्या?’’

अरुण हैरान सा माला को देखता रह गया, ‘‘आज तुम्हें यह क्या हो गया है माला? तुम श्वेता से अपनी तुलना कर रही हो क्या? उस के नाम से तुम इतना अपसैट क्यों हो गईं?’’

‘‘नहीं, मैं किसी से तुलना क्यों करूंगी? मुझे अपना स्थान चाहिए आप के दिल में… परसों कौशल्या बाई बता रही थी कि अरुण भैया तो ब्याह के लिए तैयार ही नहीं थे. वह तो मांजी 3 सालों से पीछे लगी थीं तब उन्होंने हामी भरी थी. तो क्या आप के साथ शादी की जबरदस्ती हुई है? और उस दिन रीता ने जो हस्तविज्ञान वाली बात कही थी, इस से लगता है कि आप की चाहत शायद कोई और थी पर…’’ माला ने बात अधूरी छोड़ दी.

‘‘उफ, तुम औरतों का दिमागी घोड़ा बिना लगाम के दौड़ता है. तुम इन छोटीछोटी व्यर्थ की बातों का बतंगड़ बनाना छोड़ो और मन शांत करो. अब नीचे चलो. सब खाने पर इंतजार कर रहे हैं.’’

वह दिन भी आ गया जब माला अरुण के साथ दिल्ली आ गई. यहां अपना घर सजातेसंवारते उस के सपने भी संवर रहे थे. अरुण के औफिस से लौटने से पहले वह स्वयं को आकर्षक बनाने के साथ ही कुछ न कुछ नया पकवान, चाय आदि बनाती. फिर दोनों की गप्पों व कुछ टीवी सीरियल देखतेदेखते रात गहरा जाती तो दोनों एकदूसरे के आगोश में समा जाते.

हां, एक बार छुट्टी के दिन माला ने दिल्ली दर्शन की इच्छा भी व्यक्त की थी तो, ‘‘ये रोमानी घडि़यां साथ बिताने के लिए हैं, हमारा हनीमून पीरियड है यह. फिर दिल्ली तो घूमना होता ही रहेगा जानेमन,’’ अरुण का यह जवाब गुदगुदा गया था.

शनिवार की छुट्टी में अरुण अलसाया सा लेटा था कि तभी मोबाइल बज उठा. अरुण फोन उठा कर बोला, ‘‘हैलो… अच्छा ठीक है, मैं कल स्टेशन पहुंच जाऊंगा. ओ.के. बाय.’’

‘‘किस का फोन था?’’ चाय की ट्रे ले कर आती माला ने पूछा.

‘‘श्वेता का. वह कल आ रही है. उसे मैं रिसीव करने जाऊंगा,’’ कह अरुण ने चाय का कप उठा लिया.

श्वेता के आने की खबर से माला का उदास चेहरा अरुण से छिपा न रह सका, ‘‘क्या हुआ? अचानक तुम गुमसुम सी क्यों हो गईं?’’ अरुण ने उस की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘अभी दिन ही कितने हुए हैं हमें साथ समय बिताते कि…’’

‘‘अरे यार, उस के आने से रौनक हो जाएगी, कितना हंसतीबोलती है. तुम्हारा भी पूरा दिन मन लगा रहेगा. सारा दिन अकेले बोर होती हो,’’ माला की बात बीच में ही काटते हुए अरुण ने कहा.

माला चुपचाप चाय की ट्रे उठा कर रसोई की ओर बढ़ गई.

‘फिर वही श्वेता. क्या वह अपने मायके या ससुराल में नहीं रह सकती थी कुछ महीने? फिर चली आ रही है दालभात में मूसलचंद. ‘खैर, मुसकराहट तो ओढ़नी ही होगी वरना अरुण न जाने क्या सोचने लगें.’ मन ही मन सोच माला नाश्ते की तैयारी करने लगी.

छुट्टी के दिन अरुण श्वेता और माला को एक मौल में ले गया. वहां की चहलपहल और भीड़ का कोई छोर ही न था. श्वेता की खुशी देखते ही बन रही थी, ‘‘भाभी, आप तो बस जब मन आए यहीं चली आया करो. यहां शौपिंग का मजा ही कुछ और है,’’ माला की ओर देख उस ने कहा.

‘‘मुझे तो अरुण, पहले कभी यहां लाए ही नहीं. यह सब तो तुम्हारे कारण हो रहा है,’’ माला उदासी भरे स्वर से बोली.

‘‘अच्छा,’’ श्वेता का स्वर उत्साहित हो उठा.

वहीं मौल में खाना खाते हुए श्वेता की आंखें चमक रही थीं. बोली, ‘‘वाह, खाना कितना स्वादिष्ठ है.’’

इस पर अरुण ने हंस कर कहा, ‘‘मुझे मालूम था कि श्वेता तुम ऐंजौय करोगी. तभी तो यहां लंच लेने की सोची.’’

‘‘और मैं?’’ माला ने अरुण से पूछ ही लिया.

‘‘अरे, तुम तो मेरी अर्द्धांगिनी हो, जो मुझे पसंद वही तुम्हें भी पसंद आता है, अब तक मैं यह तो जान ही गया हूं. इसलिए तुम्हें भी यहां आना तो अच्छा ही लगा होगा.’’

बुधवार की सुबह अखबार थामे श्वेता बोली, ‘‘बिग बाजार में 50% की बचत पर सेल लगी है. भैया, मुझे 5,000 दे देंगे? 2000 तो हैं मेरे पास. मैं और भाभी ड्रैसेज लाएंगी. ठीक है न भाभी? लंदन में यही ड्रैसेज काम आ जाएंगी.’’

‘‘हांहां, क्रैडिट कार्ड ले लेगी माला… दोनों शौपिंग कर लेना.’’

माला अरुण को मुंह बाए खड़ी देखती रह गई कि क्या ये वही अरुण हैं, जिन्होंने कहा था कि पहले शादी में मिली ड्रैसेज को यूज करो, फिर नई खरीदना. तो क्या श्वेता को ड्रैसेज का ढेर नहीं मिला है शादी में? ये छोटीबड़ी बातें माला का मन कड़वाहट से भरती जा रही थीं.

उस दिन तो माला का मन जोर से चिल्लाना चाहा था जब श्वेता बिस्तर में सुबह 9 बजे तक चैन की नींद ले रही थी और वह रसोई में लगी हुई थी. तभी अरुण ने श्वेता को चाय दे कर जगाने को कह दिया. वह जानती थी कि अरुण को देर तक बिस्तर में पड़े रहना पसंद नहीं. फिर श्वेता से कुछ भी क्यों नहीं कहा जाता? मन में उठता विचारों का ज्वार, सुहागरात की ओर बहा ले गया कि मुझे तो प्रथम मिलन की रात्रि में प्यार के पलों से पहले संस्कार, परिवार के नियमों आदि का पाठ पढ़ाया था अरुण ने… फिर तभी चाय उफनने की आवाज उसे वर्तमान में ले आई.

मैं आज और अभी अरुण से पूछ कर ही रहूंगी, सोच माला बाथरूम में शेव करते अरुण के पास जा खड़ी हुई.

‘‘क्या बात है? कोई काम है क्या?’’ शेविंग रोक अरुण ने पूछा.

‘‘क्या मैं जबरदस्ती आप के गले मढ़ी गई हूं? क्या मुझ में कोई अच्छाई नहीं है?’’

अरुण हाथ में शेविंगब्रश लिए हैरान सा खड़ा रहा. पर माला बोलती रही, ‘‘हर समय बस श्वेताश्वेता. मुझ से तो परंपरा निभाने की बात करते रहे और इस का बिंदासपन अच्छा लगता है. आखिर क्यों?’’ माला का चेहरा लाल होने के साथसाथ आंसुओं से भी भीग चला था.

‘‘तुम्हारा तो दिमाग खराब हो गया है. तुम्हारे मन में इतनी जलन, ईर्ष्या कहां से आ गई? श्वेता के नाम से चिढ़ क्यों हो रही है? देवरानी तो छोटी बहन जैसी होती है और तुम तो न जाने…’’

‘‘बस फिर शुरू हो गया मेरे लिए आप का प्रवचन. उस की हर बात गुणों से भरी होती है और मेरी बुराई से,’’ कह पांव पटकती माला अपने कमरे में चली गई.

अरुण बिना नाश्ता किए व लंच टिफिन लिए औफिस चला गया. उस दिन माला को माइग्रेन का अटैक पड़ गया. सिरदर्द धीरेधीरे बढ़ता उस की सहनशक्ति से बाहर हो गया. उलटियों के साथसाथ चक्कर भी आ रहा था. श्वेता ने मैडिकल किट छान मारी पर दर्द की कोई गोली नहीं मिली. उस ने अरुण को फोन किया तो सैक्रेटरी ने बताया कि वे मीटिंग में व्यस्त हैं.

इधर माला अपना सिर पकड़ रोए जा रही थी. तभी श्वेता 10 मिनट के अंदर औटो द्वारा मैडिकल स्टोर से दर्द की दवा ले आई और कुछ मानमनुहार तथा कुछ जबरदस्ती से माला को दवा खिलाई. माथे पर बाम मल कर धीरेधीरे सिरमाथे को तब तक दबाती रही जब तक माला को नींद नहीं आ गई.

करीब 2 घंटे बाद माला की आंखें खुलीं. तबीयत में काफी सुधार था. सिर हलका लग रहा था. उस ने उठ कर इधरउधर नजर दौड़ाई तो देखा श्वेता 2 कप चाय व स्नैक्स ले कर आ रही है.

‘‘अरे भाभी, आप उठो नहीं… यह लो चाय और कुछ खा लो. शाम के खाने की चिंता मत करना, मैं बना लूंगी. हां, आप जैसा तो नहीं बना पाऊंगी पर ठीकठाक बना लूंगी,’’ कह उस ने चाय का प्याला माला को थमा दिया.

माला श्वेता के इस व्यवहार को देख उसे ठगी सी देखती रह गई.

‘‘क्या हुआ भाभी?’’

‘‘मुझे माफ कर दो श्वेता, मैं ने तो न मालूम क्याक्या सोच लिया था… तुम्हें प्रतिद्वंद्वी के रूप में देख रही थी. और…’’

‘‘नहींनहीं भाभी, और कुछ मत कहिए आप, अब मैं आप से कुछ भी नहीं छिपाऊंगी. सच में ही मुझे अपने रंगरूप पर अभिमान रहा है. मुझ में उतना धैर्य नहीं जितना आप में है. इसीलिए मैं आप को चिढ़ाने के लिए अपने में व्यस्त रही… आप की कोई मदद नहीं करती थी. भाभी, आप मुझे माफ कर दीजिए. आज से हम रिश्ते में भले ही देवरानीजेठानी हैं पर रहेंगी छोटीबड़ी बहनों की तरह,’’ और फिर दोनों एकदूसरे के गले से लग गईं.

‘‘सच श्वेता. मैं आज से अपने मन को गलत दिशा की तरफ भटकने से रोकूंगी और तुम्हारे भैया से माफी भी मांगूंगी.’’

अब श्वेता व माला एकदूसरे को देख कर मुसकरा रही थीं.

Emotional Kahani : दिल की दहलीज पर

Emotional Kahani : ‘‘आहा,चूड़े माशाअल्लाह, क्या जंच रही हो,’’ नवविवाहिता मधुरा की कलाइयों पर सजे चूड़े देख दफ्तर के सहकर्मी, दोस्त आह्लादित थे. मधुरा का चेहरा शर्म से सुर्ख पड़ रहा था. शादी के 15 दिनों में ही उस का रूप सौंदर्य और निखर गया था. गुलाबी रंगत वाले चेहरे पर बड़ीबड़ी कजरारी आंखें और लाल रंगे होंठ… कुछ गहने अवश्य पहने थे मधुरा ने, लेकिन उस के सौंदर्य को किसी कृत्रिम आवरण की आवश्यकता न थी. नए प्यार का खुमार उस की खूबसूरती को चार चांद लगा चुका था.

‘‘और यार, कैसी चल रही है शादीशुदा जिंदगी कूल या हौट?’’ सहेलियां आंखें मटकामटका कर उसे छेड़ने लगीं. सच में मनचाहा जीवनसाथी पा मानों उसे दुनिया की सारी खुशियां मिल गई थीं. मातापिता के चयन और निर्णय से उस का जीवन खिल उठा था. ‘‘वैसे क्या बढि़या टाइम चुना तुम ने अपनी शादी का. क्रिसमस के समय वैसे भी काम कम रहता है… सभी जैसे त्योहार को पूरी तरह ऐंजौय करने के मूड में होते हैं,’’ सहेलियां बोलीं.

‘‘इसीलिए तो इतनी आसानी से छुट्टी मिल गई 15 दिनों की,’’ मधुरा की हंसी के साथसाथ सभी सहकर्मियों की हंसी के ठहाकों से सारा दफ्तर गुंजायमान हो उठा. तभी बौस आ गए. उन्हें देख सभी चुप हो अपनीअपनी सीट पर चले गए.

‘‘बधाई हो, मधुरा. वैलकम बैक,’’ कहते हुए उन्होंने मधुरा का दफ्तर में पुन: स्वागत किया. सभी अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए.

‘‘मधुरा, शादी की छुट्टी से पहले जो तुम ने टर्न की प्रोजैक्ट किया था कैरी ऐंड संस कंपनी के साथ, उस का क्लोजर करना शेष है. तुम्हें तो पता हैं हमारी कंपनी के नियम… जो रिसोर्स कार्य आरंभ करता है वही कार्य को पूरी तरह समाप्त कर वित्तीय विभाग से उस का पूर्ण भुगतान करवा कर, फाइल क्लोज करता है. लेकिन बीच में ही तुम्हारे छुट्टी पर जाने के कारण उन का भुगतान अटका हुआ है. उस काम को जल्दी पूरा कर देना,’’ कह कर बौस ने फोन काट दिया. मधुरा ने फाइल एक बार फिर से देखी. भुगतान के सिवा और कार्य शेष न था. फाइल पूरी करने हेतु उसे कैरी ऐंड संस कंपनी के प्रबंधक जितेन से एक बार फिर मिलना होगा और फिर वह जितेन के विचारों में खो गई.

शाम को घर लौट कर रात के भोजन की तैयारी कर मधुरा अपने कमरे में हृदय के दफ्तर से लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी. समय काटने के लिए उस ने अपनी डायरी उठा ली. पुराने पन्ने पलटने लगी. पुराने पन्ने उसे स्वत: ही पुरानी यादों में ले गए…

29 जुलाई

आज इंप्लोई मीटिंग में बौस ने मेरे काम की तारीफ की. कितनी खुशी हुई, मेरे परिश्रम का परिणाम दिखने लगा है. नए क्लाइंट कैरी ऐंड संस कंपनी का प्रोजैक्ट भी मुझे मिल गया. इस प्रोजैक्ट को मैं निर्धारित समयसीमा में पूरा कर अपने परफौर्मैंस अप्रेजल में पूरे अंक लाऊंगी.

30 जुलाई

क्या बढि़या दफ्तर है कैरी ऐंड संस कंपनी का. मुझे आज तक अपना दफ्तर कितना एवन लगता था, लेकिन आज उन का दफ्तर देख कर मेरे होश फाख्ता हो गए. इंटीरियर डिजाइनर का काम लाजवाब है. इतने बढि़या दफ्तर में अकसर आनाजाना लगा रहेगा. मजा आ जाएगा.

31 जुलाई

सारे विभाग बहुत अच्छी तरह नियंत्रित हैं और आपस में अच्छा समन्वय स्थापित है. कैरी ऐंड संस कंपनी का आईटी विभाग प्रशंसा के काबिल है. आज अपने काम की शुरुआत की मैं ने. लोगों से मिल ली. किंतु जिन के साथ मिल कर काम करना है यानी जितेन, उन से मिलना रह गया. कल उन से भी मिल लूंगी.

1 अगस्त

मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसे हीरो जैसा बंदा दफ्तर में टकराएगा मुझ से. उफ, कितना खूबसूरत नौजवान है जितेन. लंबाचौड़ा, सुंदर… लगता है सीधे ‘मिल्स ऐंड बून्स’ के उपन्यासों से बाहर आया है… मेरे सपनों का राजकुमार.

6 अगस्त

आज पूरे हफ्ते भर बाद फिर से जितेन से मुलाकात हुई. वे इतना व्यस्त रहते हैं कि मुलाकात ही नहीं हो पाती. इतने ऊंचे पद पर हैं… अभी तक ठीक से बात भी नहीं हो पाई है. पता नहीं कब हम दोनों को बातचीत करने का मौका मिलेगा. अभी तो मैं जितेन को अपने कार्य के बारे में भी ढंग से नहीं बता पाई हूं.

16 अगस्त

जितना देखती हूं उतना ही दीवानी होती जा रही हूं मैं जितेन की. एक बार मेरी ओर देख भर ले वह… मेरी सांस गले में ही अटक जाती है. लगता है जो बोल रही हूं, जो काम कर रही हूं, सब भूल जाऊंगी. इतना स्वप्निल मैं ने स्वयं को कभी नहीं पाया पहले. यह क्या हो जाता है मुझे जितेन के समक्ष. लेकिन वह है कि मुझे समय ही नहीं देता. बस 4-5 मिनट कुछ काम के बारे में पूछ कर चला जाता है. कब समझेगा वह मेरे दिल का हाल? क्या मेरी आंखों में कुछ नहीं दिखता उसे?

3 सितंबर

आज घर लौटते समय एफएम, पर ‘सत्ते पे सत्ता’ मूवी का गाना सुना, ‘प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया. कि दिल करे हाय, कोई तो बताए क्या होगा… गाड़ी चलाते समय पूरा गला खोल कर गाना गाने का मजा ही कुछ और है…’ फिर आज तो गाना भी मेरे दिल का हाल बयां कर रहा था. न जाने जितेन के साथ पल दो पल कब मिलेंगे और मैं अपने दिल का हाल कब कह पाऊंगी.

हृदय के कमरे में आने की आहट से मधुरा अतीत की स्मृतियों से वर्तमान में लौट आई. ‘‘कैसा रहा दफ्तर में शादी के बाद पहला दिन?’’ हृदय ने पूछा.

मधुरा को हृदय की यह बात भी बहुत भाती थी कि वह उस की हर गतिविधि, हर भावना, हर बात का खयाल रखता है. दोनों ने बातचीत की, खाना खाया और अगली सुबह के लिए अलार्म लगा कर सो गए. अगले दिन मधुरा अपने क्लाइंट कैरी ऐंड संस कंपनी पहुंची. आज उस ने फाइल क्लोजर की पूरी तैयारी कर ली थी. फाइनल पेमैंट का चैक देने वह जितेन के कक्ष में पहुंची. उस के हाथों में चूड़े देख जितेन ने उसे बधाई दी, ‘‘मुझे आप की कंपनी से पता चला था कि आप अपनी शादी हेतु छुट्टियों पर गई हैं.’’

कार्य पूरा करने के बाद मधुरा ने अपने दफ्तर लौटने के लिए कैब बुला ली. सारे रास्ते उस के मनमस्तिष्क में जितेन घूमता रहा. किस औपचारिकता से बात कर रहा था आज… उसे याद हो आया वह समय जब जितेन और मधुरा की मित्रता भी हो गई थी और वह ‘सिर्फ अच्छे दोस्त’ की श्रेणी से कुछ आगे भी बढ़ चुके थे. मधुरा तब कैरी ऐंड संस कंपनी जाने के बहाने खोजती रहती. जितेन भी हर शाम उसे उस के दफ्तर से पिक करता और दोनों कहीं कौफी पीते समय व्यतीत करते. दोनों को ही एकदूसरे का साथ बेहद भाता था. मधुरा के चेहरे की चमक बढ़ती रहती और जितेन कुछ गंभीर स्वभाव का होने के बावजूद उसे देख मुसकराता रहता. जितेन आए दिन मधुरा को तोहफे देता रहता. कभी ‘शैनेल’ का परफ्यूम तो कभी ‘हाई डिजाइन’ का हैंडबैग. ‘‘जितेन, क्यों इतने महंगे तोहफे लाते हो मेरे लिए? मैं हर बार घर और दफ्तर में झूठ बोल कर इन की कीमत नहीं छिपा सकती.’’

‘‘तो सच बता दिया करो न… मैं ने कब रोका है तुम्हें?’’ ‘‘तुम तो जानते हो कि हमारी कंपनी में भरती के समय हर मुलाजिम से कौंफिडैंशियलिटी ऐग्रीमैंट भरवाया जाता है. चूंकि तुम एक क्लाइंट हो, मैं तुम्हें न तो डेट कर सकती हूं और न ही तुम से शादी. इतना ही नहीं मैं तुम्हारी कंपनी अगले 2 वर्षों तक भी जौइन नहीं कर सकती हूं… तुम से शादी के बाद मैं नौकरी से त्यागपत्र दे कहीं और नौकरी ढूंढ़ूंगी…’’

‘‘शादी के बाद? हैंग औन,’’ मधुरा की बात को बीच में ही काटते हुए जितेन ने कहा, ‘‘शादी तक कहां पहुंच गईं तुम? हम एक कपल हैं, बस, मैं अभी शादीवादी के बारे में सोच भी नहीं सकता… वैसे भी शादी तो मां अपने सर्कल की किसी लड़की से करवाना चाहेंगी… तुम समझ रही हो न?’’ मधुरा के माथे पर चिंता की लकीरें और चेहरे पर असमंजस के भाव पढ़ कर जितेन ने आगे कहा, ‘‘तुम इस समय का लुत्फ उठाओ न… ये महंगे तोहफे, ये बढि़या रेस्तरां, अथाह शौंपिंग… ये सब तुम्हें खुश करने के लिए ही तो हैं… कूल?’’

उस शाम मधुरा को पता चला कि सामाजिक स्तर का भेदभाव केवल कहानियों में नहीं, अपितु वास्तविक जीवन में भी है. उस ने सोचा न था कि उसे भी इस भेदभाव का सामना करना पड़ेगा. उस के बाद जब कभी जितेन टकराया, बस एक फीकी सी मुसकान मधुरा के पाले में आई. खैर, उस का भी मन नहीं हुआ कि जितेन से बात करे. उस का मन खट्टा हो चुका था.

फिर उस की मम्मी ने उसे रमा आंटी के बेटे से मिलवाया. अच्छा लगा था मधुरा को वह. खास कर उस का नाम-हृदय. शांत, सुशील और विनम्र. घरपरिवार तो देखाभाला था ही, रहता भी इसी शहर में था. चलो, ‘मिल्स ऐंड बून्स’ के हीरो को भी देख लिया और अब वास्तविकता के नायक को भी. पर क्या करें. जीवन तो वास्तविक है. इस में सपनों से अधिक वास्तविकता का पलड़ा भारी रहना स्वाभाविक है.

जब से मधुरा की मुलाकात हृदय से हुई थी तभी से कितने अच्छे और मिठास भरे मैसेज भेजने लगा था वह. हृदय ने उस का मन पिघला दिया था. जल्दी ही हामी भर दी उस ने इस रिश्ते के लिए. उस की मम्मी और आंटी कितनी खुश हुईं. उस का मन भी खुश था. मन की तहों ने जहां एक तरफ जितेन को छाना था वहीं दूसरी तरफ हृदय को भी टटोल कर देखा था. मधुरा जैसी रुचिर, लुभावनी और मेधावी लड़की आगे बढ़ चुकी थी.

हर अनुभव जीवन में कुछ सबक लाता है और कुछ यादें छोड़ जाता है. चलते रहने का नाम ही जीवन है. मधुरा अपने दफ्तर पहुंच चुकी थी. आज वह अपने परफौर्मैंस अप्रेजल में अपने पूरे किए प्रोजैक्ट को भरने वाली थी.

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