Serial Story: तू तू मैं मैं– भाग 1

“जाओ फ्लेट नंबर सी 212 से कार की चाबी मांग कर लाओ. जल्दी आना. रोज इस के चक्कर में लेट हो जाती हूं,”अनुभा अपनी कार के पीछे लगी दूसरी कार को देख कर भुनभुनाई.

गार्ड अपनी हंसी रोकता हुआ चला गया. पिछले 6 महीने से वह इन दोनों का तमाशा देखता चला आ रहा है. एक महीने आगेपीछे ही दोनों ने इस सोसायटी में फ्लैट किराए पर लिया है, तभी से दोनों का हर बात पर झगड़ा मचा रहता है. फ्लैट नंबर 312 में ऊपरी मंजिल पर अनुभा रहती है. सोसायटी मीटिंग में भी दोनों एकदूसरे पर आरोपप्रत्यारोप करते दिखाई देते हैं.

सौरभ ने शिकायत की थी कि उस के बाथरूम में लीकेज हो रहा है. इस के लिए उस ने प्लम्बर बुलवाया, छुट्टी भी ली और अनुभा को भी बता दिया था कि प्लम्बर आ कर ऊपरी मंजिल से उस का बाथरूम से लीकेज चेक करेगा, खर्चा भी वह खुद उठाने को तैयार है. पहले तो कुछ नहीं बोली, मगर जब प्लम्बर आ गया तो अपना फ्लैट बंद कर औफिस चली गई. आधा घंटा भी वह रुकने को तैयार नहीं हुई.

सौरभ ने सोसायटी की मीटिंग में इस मुद्दे को उठाया तो अनुभा ने उस पर अकेली महिला के घर अनजान आदमी को भेजने का आरोप लगा दिया.

बात बाथरूम के लीकेज से भटक कर नारीवाद, अस्मिता, बढ़ते बलात्कार पर पहुंच गई. यह देख सौरभ दांत किटकिटा कर रह गया. उस का बाथरूम आज तक ठीक न हो सका.

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अब तो दोनों के बीच इतना झगड़ा बढ़ चुका है कि अब सामंजस्य से काम होना नामुमकिन हो चुका है.

इस वसुधा सोसायटी में शुरू में पार्किंग की समस्या नहीं थी. पूरब और पश्चिम दिशा में बने दोनों गेट से गाड़ियां आजा सकती थीं और दोनों तरफ पार्किंग की सुविधा भी थी, मगर पांच वर्ष पूर्व से पश्चिम दिशा में बनी नई सोसायटी वसुंधरा के लोगों ने पिछले गेट की सड़क पर अपना दावा ठोंक कर पश्चिम गेट को बंद कर ताला लगा दिया.

वैसे तो वह सड़क वसुंधरा सोसायटी ने ही अपनी बिल्डिंग तैयार करते समय बनवाई थी. जैसेजैसे वसुंधरा में परिवार बसने लगे, पार्किंग की जगह कम पड़ने लगी, तो उन्होंने वसुधा के पश्चिम गेट को बंद कर उस सड़क का इस्तेमाल पार्किंग के रूप में करना शुरू कर दिया.

वसुधा सोसायटी के नए नियम बन गए, जो ‘पहले आओ पहले पाओ’ पर आधारित थे. किसी की भी पार्किंग की जगह निश्चित न होने पर भी लोगों ने आपसी समझबूझ से एकदूसरे के आगेपीछे गाड़ी खड़ी करना शुरू कर दिया. जो सुबह देर से जाते थे, वे गाड़ी दीवार से लगा कर खड़ी कर देते. जिन्हें जल्दी जाना होता, वे उस के पीछे खड़ी करते. सभी परिवार 15 साल पहले, सालभर के अंतराल में यहां आ कर बसे थे. सभी के परिवार एकदूसरे को अच्छे से पहचानते हैं. अगर किसी की गाड़ी आगेपीछे करनी होती तो गार्ड चाबी मांग कर ले आता. अभी भी कुछ फ्लैट्स खाली पड़े हैं, जिन के मालिक कभी दिखाई नहीं देते. कुछ में किराएदार बदलते रहते हैं. ऐसे किराएदारों के विषय में, पड़ोसियों के अतिरिक्त अन्य किसी का ध्यान नहीं जाता था, मगर सौरभ और अनुभा तो इतने फेमस हो गए हैं कि उन की जोड़ी का नाम “तूतू, मैंमैं ”रख दिया गया.

आंखें मलता हुआ सौरभ जब पार्किंग में आया, तो अनुभा को देखते ही उस का पारा आसमान में चढ़ गया. वह बोला, “जब तुम्हें जल्दी जाना था तो अपनी गाड़ी आगे क्यों खड़ी की? कुछ देर बाहर खड़ी कर, बाद में पीछे खड़ी करती.”

“मुझे औफिस से फोन आया है, इसलिए आज जल्दी निकलना है,” अनुभा ने कहा.

“झूठ बोलना तो कोई तुम से सीखे,” सौरभ ने कहा.

“तुम तो जैसे राजा हरिश्चन्द्र की औलाद हो?” अनुभा की भी त्योरी चढ़ गई.

“आज सुबहसुबह तुम्हारा मुंह देख लिया है. अब तो पूरा दिन बरबाद होने वाला है,” कह कर सौरभ ने गाड़ी निकाल कर बाउंड्रीवाल के बाहर खड़ा कर दी और अनुभा को कोसते हुए अपने फ्लैट की तरफ बढ़ गया.

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मोहिनी अपने फ्लैट से नित्य ही यह तमाशा देखती रहती है. उस के बच्चे विदेश में बस गए हैं, अपने पति संग दिनभर कितनी बातें करे? उसे तो फोन पर अपनी सहेलियों के संग नमकमिर्च लगा कर, सोसायटी की खबरें फैलाने में जो मजा आता है, किसी अन्य पदार्थ में नहीं मिल सकता. उस के पति धीरेंद्र को उस की इन हरकतों पर बड़ा गुस्सा आता है. वे मन मसोस कर रह जाते हैं कि अभी मोहिनी से कुछ कहा, तो वह फोन रख कर मेरे संग ही बहसबाजी में जुट जाएगी.

“सुन कविता, आज फिर सुबहसुबह “तूतू, मैंमैं” शुरू हो गए. बस हाथापाई रह गई है, गालीगलौज पर तो उतर ही आए हैं.“

“अरे कुछ दिन रुक, फिर वे तुझे एकदूसरे के बाल नोचते भी नजर आएंगे,” कह कर कविता हंसी.

“मैं तो उसी दिन का इंतजार कर रही हूं,” मोहिनी खिलखिला उठी.

धीरेंद्र चिढ़ कर उस कमरे से उठ कर बाहर चला गया.

महीनेभर के अंदर ही सौरभ ने गार्ड से अनुभा की कार की चाबी मांग कर लाने को कहा, मगर अनुभा खुद आ गई.

“मेरी गाड़ी को गार्ड के हाथों सौंप कर ठुकवाना चाहते हो क्या?” आते ही अनुभा उलझ गई.

“ नहीं, गाड़ी को मैं ही बेक कर लगा देता, तुम ने आने का कष्ट क्यों किया?” सौरभ ने चिढ़ कर कहा.

“मैं अपनी गाड़ी किसी को छूने भी न दूं,” अनुभा इठलाई.

“मुझे भी लोगों की गाड़ियां बैक करने का शौक नहीं है, बस सुबहसुबह तुम्हारा मुंह देख कर अपना दिन खराब नहीं करना चाह रहा था, इसीलिए चाबी मंगाई थी,” सौरभ ने भी अपनी भड़ास निकाली.

“अपनी शक्ल देखी है कभी आईने में?” कह कर अनुभा कार में सवार हो गई और गाड़ी को बैक करने लगी.

“खुद जैसे हूर की परी होगी,” सौरभ गुस्से से बोला और अपने औफिस को निकल गया.

औफिस में सौरभ का मन न लगा. बहुत सोचविचार कर उस ने प्रिंटर का बटन दबा दिया. अगले दिन पार्किंग में पोस्टर चिपका हुआ था, जिस में सौरभ ने अपने पूरे महीने औफिस से आनेजाने की समयतालिका चिपका दी और फोन नंबर लिख कर अपनी गाड़ी दीवार से लगा दी.

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दूसरे दिन अनुभा ने भी एक पोस्टर चिपका दिया, जिस में सौरभ को नसीहत देते हुए लिखा था कि किस दिन वह गाड़ी दीवार से लगा कर खड़ी करे और किस दिन उस की गाड़ी के पीछे.

लोग दोनों की पोस्टरबाजी पर खूब हंसते.

आगे पढ़ें- सोसायटी की मीटिंग में सौरभ ने…

Serial Story: तू तू मैं मैं– भाग 3

सुबह सौरभ ने दलिया बनाया, तो उसे अनुभा की याद आ गई. उस ने वीडियो काल किया.

अनुभा ने कहा, “मेरा बुखार रातभर लगातार चढ़ताउतरता रहा. मैं दूधब्रेड खा कर दवा खा लूंगी. तुम्हारे क्या हाल हैं?“

“मेरी खांसी तो अभी ठीक नहीं हुई, छींकें भी आ रही हैं, गले में खराश भी बनी हुई है. दवा तो मैं भी लगातार खा रहा हूं,” सौरभ ने बताया.

“पता नहीं, क्या हुआ है?रिपोर्ट कब आएगी?” अनुभा ने पूछा.

“ कल शाम तक तो आ ही जाएगी. मैं ने दलिया बनाया है. तुम्हें दे भी नहीं सकता. हो सकता है, मैं पोजीटिव हूं और तुम निगेटिव हो.”

“इस का उलटा भी तो हो सकता है. रातभर इतने घटिया, डरावने सपने आते रहे कि बारबार नींद खुलती रही. एसी नहीं चलाया, तो कभी गरमी, कभी ठंड, तो कभी पसीना आता रहा,” बोलतेबोलते अनुभा की सांस फूल गई.

“अच्छा हुआ, उस दिन दीदी की जिद से औक्सीमीटर और थर्मल स्कैनर भी खरीद लिए थे. मैं तो लगातार चेक कर रहा हूं. तुम औक्सीमीटर में औक्सीजन लेवल चेक करो, नाइंटी थ्री से नीचे का मतलब, कोविड सैंटर में भरती हो जाओ.”

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“क्यों डरा रहे हो? हो सकता है, मुझे वायरल फीवर ही हो.”

“ठीक है. रिपोर्ट जल्द आने वाली है, तब तक अपना ध्यान रखो.”

अनुभा सोच में पड़ गई. अगर रिपोर्ट पोजीटिव आ गई तो क्या होगा? सोसायटी से मदद की उम्मीद बेकार है. किसी कोविड सैंटर में ही चली जाएगी. उस की आंखों में आंसू आ गए. किसी तरह उस ने एक दिन और गुजारा.

अगले दिन उस के पास अनुभा का फोन आ गया, “हैलो सौरभ कैसे हो? तुम्हें फोन आया क्या?”

“हां, मेरा तो ‘इक्विवोकल…’ आया है.”

“इस का क्या मतलब है?” अनुभा ने पूछा.

“मतलब, वायरस तो हैं, पर उस की चेन नहीं मिली कि मुझे पोजीटिव कहा जाए यानी न तो नेगेटिव और न ही पोजीटिव ‘संदिग्ध’,” सौरभ ने बताया.

“मेरा तो पोजीटिव आ गया है. अभी मैं ने किसी को नहीं बताया,” अनुभा ने कहा.

“तुम्हारे नाम का पोस्टर चिपका जाएंगे तो सभी को खुद ही पता चल जाएगा, वैसे, अब तबियत कैसी है तुम्हारी?” सौरभ ने पूछा.

“बुखार नहीं जा रहा,” अनुभा रोआंसी हो उठी.

“रुको, मैं तुम्हारी काल दीदी के साथ लेता हूं, उन से अपनी परेशानी कह सकती हो.”

दीदी से बात कर अनुभा को बड़ी राहत मिली. उन्होंने उस की कुछ दवा भी बदली, जिन्हें सौरभ ला कर दे गया और उसे दिन में 3-4 बार औक्सीलेवल चेक करने और पेट के बल लेटने को भी कहा.

2-3 दिन बाद बुखार तो उतर गया, मगर डायरिया, पेट में दर्द शुरू हो गया. दवा खाते ही पूरा खाना उलटी में निकल जाता.

समीक्षा ने फिर से उसे कुछ दवा बताई. सौरभ उस के दरवाजे पर फल, दवा के साथ कभी खिचड़ी, तो कभी दलिया रख देता.

पहले तो अनुभा को ऐसा लगा मानो वह कभी ठीक न हो पाएगी. वह दिन में कई बार अपना औक्सिजन लेवल चेक करती, मगर सौरभ और समीक्षा के साथ ने उस के अंदर ऊर्जा का संचार किया. उसे अवसाद में जाने से बचा लिया.

2 हफ्ते के अंदर उस की तबियत में सुधार आ गया, वरना बीमारी की दहशत, मरने वालों के आंकड़े, औक्सिजन की कमी के समाचार उस के दिमाग में घूमते रहते थे.

अनुभा को आज कुछ अच्छा महसूस हो रहा है. एक तो उस के दरवाजे पर चिपका पोस्टर हट गया है. दूसरा, आज बड़े दिनों बाद उसे कुछ चटपटा खाने का मन कर रहा है वरना इतने दिनों से जो भी जबरदस्ती खा रही थी, वह उसे भूसा ही लग रहा था.

“सौरभ आलू के परांठे खाने हैं तो आ जाओ, गरमागरम खाने में ही मजा आता है,” अनुभा ने सौरभ को फोन किया.

”अरे वाह, मेरे तो फेवरेट हैं. तुम इतना लोड मत लो. मैं आ कर तुम्हारी मदद करता हूं.“

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सौरभ फटाफट तैयार हो कर ऊपर पहुंचा, तो अनुभा परांठा सेंक रही थी. अनुभा के हाथ में वाकई स्वाद है. नाश्ता करने के बाद सौरभ ने कुछ सोचा, फिर बोल ही पड़ा, “अनुभा, तुम कोरोना काल की वजह से इतनी सौफ्ट हो गई हो या कोई और कारण है?”

“सच कहूं तो मैं ने नारियल के खोल का आवरण अपना लिया है. मैं बाहरी दुनिया के लिए झगड़ालू मुंहफट बन कर रह गई हूं. अब तुम ही बताओ कि मैं क्या करूं? अकेले रह कर जौब करना आसान है क्या? इस से पहले जिस सोसायटी में रहती थी, वहां मेरे शांत स्वभाव की वजह से अनेक मित्र बन गए थे, लेकिन सभी अपने काम के वक्त मुझ से मीठामीठा बोल कर काम करवा लेते, मेरे फ्लैट को छुट्टी के दिन अपनी किट्टी पार्टी के लिए भी मांग लेते. मैं संकोचवश मना नहीं कर पाती थी. मेरी सहेली तृष्णा ने जब यह देखा, तो उस ने मुझे समझाया कि ये लोग मदद देना भी जानते हैं या सिर्फ लेना ही जानते हैं? एक बार आजमा भी लेना. और हुआ भी यही, जब मैं वायरल से पीड़ित हुई, तो मैं ने कई लोगों को फोन किया. सभी अपनी हिदायत फोन पर ही दे कर बैठ गए.
मेरे फ्लैट में झांकने भी न आए, तभी मैं ने भी तृष्णा की बात गांठ बांध ली और इस सोसायटी में आ कर एक नया रूप धारण कर लिया. मेरे स्वभाव की वजह से लोग दूरी बना कर ही रखते हैं. वहां तो जवान लड़कों की बात छोड़ो, अधेड़ भी जबरदस्ती चिपकने लगते थे. यहां सब जानते हैं कि इतनी लड़ाका है. इस से दूर ही रहो,” कह कर अनुभा हंसने लगी.

“ओह… तो तुम मुझे भी, उन्हीं छिछोरों में शामिल समझ कर झगड़ा करती थी,” सौरभ ने पूछा.

“नहीं, ऐसी बात नहीं है,” अनुभा मुसकराई.

तभी सौरभ और अनुभा का फोन एकसाथ बज उठा. समीक्षा की काल थी.

“अरे सौरभ, आज तुम कहां हो? अच्छा, अनुभा के फ्लैट में…” समीक्षा चहकी.

“अनुभा ने पोस्ट कोविड पार्टी दी है, आलू के परांठे… खा कर मजा आ गया दीदी.”

“अरे अनुभा, अभी 15 दिन ज्यादा मेहनत न करना, धीरेधीरे कर के, अपनी ब्रीदिंग ऐक्सरसाइज बढ़ाती जाना. और सौरभ, तुम भी अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देना.”

“थैंक्स दीदी, आप के कंसल्टेंट्स और सौरभ की हैल्प ने मुझे बचा लिया, वरना मुझे कोविड सैंटर में भरती होना पड़ता. अपनी बचत पर भी कैंची चलानी पड़ती. लाखों के बिल बने हैं लोगों के, हफ्तादस दिन ही भरती होने के,” अनुभा बोली.

“अरे छोड़ो कोरोना का रोना, तुम दोनों साथ में कितने अच्छे लग रहे हो,” समीक्षा बोली.

“अरे दीदी, वह बात नहीं है, जो आप समझ कर बैठी हैं,” सौरभ ने कहा.

“क्यों…? मैं ने कुछ गलत कहा क्या अनुभा?” समीक्षा पूछ बैठी.

“ नहीं दीदी, आप ने बिलकुल सही कहा है. मैं तो अब नीचे के फ्लोर में सौरभ के पास का, फ्लैट लेने की सोच रही हूं. ऐसा हीरा फिर मुझे कहां मिलेगा?”

“ये हुई न बात, बल्कि अगलबगल के फ्लैट ले लो,” समीक्षा ने सलाह दी.

“ये आइडिया अच्छा है,” दोनों ही एकसाथ बोल पड़े.

अगले दिन पार्किंग में नया पोस्टर चिपका था, जिस में सौरभ और अनुभा ने एक साथ 2 फ्लैट्स लेने की डिमांड रखी थी.

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“अरे कविता, कुछ पता चला तुझे? सारा मजा खत्म हो गया,” कामिनी ने फोन किया.

“क्या हुआ कामिनी?” कविता पूछ बैठी.

“अरे, “तूतू, मैंमैं” तो अब “तोतामैना“ बन गए रे…”

Serial Story: तू तू मैं मैं– भाग 2

सोसायटी की मीटिंग में सौरभ ने पार्किंग का मुद्दा उठाया, तो सभी ने इसे आपसी सहमति से सुलझाने को कहा.

सौरभ ने अपने बाथरूम के लीकेज की बात जैसे ही उठाई, अनुभा गुस्से से बोल पड़ी, “इतनी ही परेशानी है, तो अपना फ्लैट क्यों नहीं बदल लेते? किराए का घर है… कौन सा तुम ने खरीद लिया है?”

“लगता है, यही करना पड़ेगा, जिस से मेरी बहुत सी परेशानी दूर हो जाएगी.”

फिर से झगड़ा बढ़ता देख लोगों ने बीचबचाव कर उन्हें शांत बैठने को कहा.

अगले दिन एक नया पोस्टर चिपका था, जिस में सौरभ ने फ्लैट बदलने के लिए लोगों से इसी सोसायटी के अन्य खाली फ्लैट की जानकारी देने का अनुरोध किया था.

अनुभा क्यों पीछे रहती, उस ने भी अपना फ्लैट बदलने के लिए पोस्टर चिपका दिया.

मार्च का महीना अपने साथ लौकडाउन भी ले आया. लोग घरों में दुबक गए. वर्क फ्रॉम होम होने से अनुभा और सौरभ का झगड़ा भी बंद हो गया. वे भी अपने फ्लैट्स में सीमित हो गए. अप्रैल, मई, जून तो यही सोच कर कट गए कि शायद अब कोरोना का प्रकोप कम होगा, मगर जुलाई आतेआते तो शहर में पांव पसारने लगा और अगस्त के महीने से सोसायटी के अंदर भी पहुंच गया. सोसायटी की ए विंग सील हो गई, तो कभी बी विंग सील हुई. सी विंग के रहने वाले दहशत में थे कि उन के विंग का नंबर जल्द लगने वाला है.

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अनुभा और सौरभ सब से ज्यादा तनाव में आ गए. इस सोसायटी में सभी संयुक्त या एकल परिवार के साथ मिलजुल कर रह रहे हैं. घर के बुजुर्ग बच्चों के संग नया तालमेल बैठा रहे हैं. मगर, अनुभा और सौरभ नितांत अकेले पड़ गए.

अनुभा तो फिर भी आसपड़ोस के दोचार परिवारों का नंबर अपने पास रखे हुए थी, मगर सौरभ ने कभी इस की जरूरत न समझी, केवल सोसायटी के अध्यक्ष का नंबर ही उस के पास था. घर वालों के फोन दिनरात आते रहते थे. उस की बड़ी बहन समीक्षा दिल्ली के सरकारी अस्पताल में डाक्टर थी. वह लगातार सौरभ को रोज नई दवाओं के प्रयोग और सावधानियों के विषय में चर्चा करती. गुड़गांव में पोस्टेड सौरभ उस की नसीहत एक कान से सुनता और दूसरे से निकाल देता. उधर मोहिनी और कविता की गौसिप का मसाला खत्म हो गया था. दोनों को किट्टी पार्टी के बंद होने से ज्यादा सौरभ और अनुभा की “तूतू, मैंमैं” का नजारा बंद हो जाने का अफसोस होता. पार्किंग एरिया शांत पड़ा था.

सौरभ को हलकी खांसी और गले में खराश सी महसूस हुई. उस ने अपनी दीदी समीक्षा को यह बात बताई, तो उस ने उसे तुरंत पेरासिटामोल से ले कर विटामिन सी तक की कई दवाओं को तुरंत ला कर सेवन करने, कुनकुने पानी से गरारा करने जैसी कई हिदायतों के साथ तुरंत कोविड टेस्ट कराने को कहा.

पहले तो सौरभ टालमटोल करता रहा, किंतु वीडियो काल के दौरान उस की बारबार होने वाली खांसी ने समीक्षा को परेशान कर दिया. वह हर एक घंटे बाद उसे फोन कर यही कहे “तुम अभी तक टेस्ट कराने नहीं गए?”

सौरभ को थकान सी महसूस हो रही थी, मगर अपनी दीदी की जिद के आगे उस ने हथियार डाल दिए.

पार्किंग एरिया में अपनी कार के पीछे अनुभा की गाड़ी देख कर सौरभ का मूड उखड़ गया. उस के अंदर अनुभा से बहस करने की बिलकुल भी एनर्जी नहीं बची थी. उस ने गार्ड से चाबी मांग कर लाने को कहा. अंदर ही अंदर वह बहुत डरा हुआ था कि अनुभा झगड़ा शुरू न कर दे, किंतु उस की सोच के विपरीत उस का फोन बजा.

“सौरभ, मेरी गाड़ी दीवार से लगा कर खड़ी कर देना, अपनी गाड़ी पीछे लगा लो. मैं गार्ड के हाथ चाबी भेज रही हूं.”

उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि लौकडाउन ने इस के दिमाग के ताले खोल दिए क्या, वरना तो यही कहती थी कि “मैं तो अपनी गाड़ी किसी को हाथ तक लगाने न दूं.“

गार्ड चाबी ले कर आया और उस ने बताया, “लगता है, मैडम की तबियत ज्यादा ही खराब है. कह रही थीं कि चाबी सौरभ को दे देना.”

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सौरभ ने अपनी गाड़ी बाहर निकाली. जैसे ही वह सोसायटी के गेट तक पहुंचा, अचानक उसे खयाल आया कि अनुभा
से उस की बीमारी के विषय में पूछा ही नहीं. वह तुरंत लौट कर आया और अनुभा के फ्लैट में पहुंच गया.

“तुम चाबी गार्ड के हाथ भेज देते,“ अनुभा उसे देख कर चौंक गई.

“फीवर आ रहा है क्या?” सौरभ ने पूछा.

“हां, कल रात तेज सिरदर्द हुआ और सुबह होतेहोते इतना तेज फीवर आ गया कि पूरा शरीर दुखने लगा है. इतना तेज दर्द है मानो शरीर के ऊपर से ट्रक गुजर गया हो,” उस की आंखों में कृतज्ञता के आंसू भर आए. ऐसी दयनीय दशा में, कोरोना काल में, उस का हालचाल वही इनसान ले रहा था, जिस से उस ने सीधे मुंह कभी बात न की, उलटा लड़ाई ही लड़ी थी.

“चलो मेरे साथ, मैं कोविड टेस्ट कराने जा रहा हूं, तुम भी अपना टेस्ट और चेकअप करा लेना.”

“मुझे कोरोना कैसे हो सकता है? मैं तो कहीं आतीजाती भी नहीं हूं?” अनुभा ने कहा.

“मेरी दीदी डाक्टर हैं. उस ने तो मुझे खांसी होने पर ही टेस्ट कराने को कह दिया है. तुम्हें तो फीवर भी है. चलो मेरे साथ,” सौरभ के जोर देने पर अनुभा मना न कर सकी.

अनुभा कार की पिछली सीट पर जा कर बैठ गई. सौरभ ने कार का एसी बंद ही रखा और उस की विंडो खोल दी. अस्पताल से भी वही दवाओं का परचा मिला, जो समीक्षा ने बताया था. दवा, फल, पनीर खरीद कर वे वापस आ गए.

अनुभा तो ब्रेड के सहारे दवा निगल गई. उस के शरीर में देर तक खड़े हो कर खाना बनाने की ताकत नहीं बची थी.

सौरभ ने खिचड़ी बनाई. तभी समीक्षा ने वीडियो काल कर उसे अपने सामने सारी दवाएं खाने को कहा. उस ने अनुभा के विषय में बताया तो दीदी नाराज हो गईं कि उसे अपने साथ क्यों ले गए, टैक्सी करा देते. फिर शांत हो गईं और बोलीं, “चलो जो हो गया, सो हो गया. अब वीडियो काल कर के पूछ लेना, उस के फ्लैट में न जाना.”

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दीदी से बात खत्म कर सौरभ सोचने लगा कि दीदी उसे मेरी गर्लफ्रेंड समझ रही हैं शायद, उन्हें नहीं पता कि हम दोनों एकदूसरे के दोस्त नहीं बल्कि दुश्मन हैं.

आगे पढ़ें- अनुभा सोच में पड़ गई. अगर रिपोर्ट पोजीटिव आ गई तो क्या होगा?…

उस रात अचानक: क्या गुंजन साबित कर पाई?

Serial Story: उस रात अचानक– भाग 1

रोज की तरह आज भी दोनों पतिपत्नी प्रशांत और गुंजन रात का खाना खाने के बाद टहलने के लिए घर से निकल पड़े थे.

प्रशांत एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में इंजीनियर के पद पर कार्यरत है और गुंजन एक ट्रैवल एंड टूर कंपनी में काम करती है. दोनों अच्छाखासा वेतन पाते हैं. सुखसुविधा के हर साजोसामान से घर भरा पड़ा है. दफ्तर दोनों ही अपनीअपनी कार से आतेजाते हैं.

शरीर का थोड़ाबहुत व्यायाम हो जाए और पतिपत्नी को परस्पर एकदूसरे से बातचीत का अवसर मिल जाए, इस उद्देश्य से दोनों रोज ही घर से लंबी सैर के लिए निकलते हैं.

प्रशांत को पान खाने का भी शौक था. शहर की चर्चित पान की दुकान, आपस में बातचीत करते कब करीब आ जाती, उन्हें पता ही नहीं चलता था. पति के साथ गुंजन भी गुलकंद वाला मीठा पान खाने की आदी हो गई थी.

दोनों के विवाह को साढ़े 3 साल हो चुके हैं. प्रशांत के मातापिता घर में नन्हे बच्चे की किलकारियां सुनने को बेचैन हैं किंतु वे दोनों अपने ही कैरियर में व्यस्त, ऊंचाइयों को छूने की महत्त्वाकांक्षा मन में पाले हुए हैं.

प्रशांत पिछले कुछ अरसे से गुंजन को अपनी नौकरी बदलने के लिए जबतब कह देता, ‘‘अब हमें अपने परिवार की योजना बनानी चाहिए…तुम यह भागदौड़ वाली नौकरी छोड़ दो. इस में काफी समय खर्च करना पड़ता है. कहीं किसी अच्छे स्कूल में पढ़ाने की नौकरी का प्रयास करो. यू नो, टीचिंग लाइन में माहौल भी अच्छा…सभ्य मिलता है और छुट्टियां भी काफी मिल जाती हैं.’’

प्रशांत की इस सलाह का आशय गुंजन भलीभांति जानती है.

‘‘यह भी अच्छी नौकरी है…और फिर मेरी रुचि का काम भी है. दूसरी नौकरी क्या आसानी से मिल जाएगी? लगीलगाई बढि़या नौकरी छोड़ कर दूसरी नौकरी की तलाश के लिए भागदौड़ करना क्या सही होगा?’’ गुंजन के सवाल पर पुन: प्रशांत ने आपत्ति जाहिर करते हुए कहा, ‘‘लेकिन गुंजन, सारा दिन पुरुष ग्राहकों के साथ डील करना…’’

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प्रशांत के मन की बात भांप कर गुंजन बीच में ही बात काटती हुई बोली, ‘‘अच्छा ठीक है. इस बारे में सोचूंगी.’’

इनसान की प्रकृति भी विचित्र होती है. जीवनसाथी के रूप में उसे एक पढ़ीलिखी आधुनिका पत्नी की भी कामना होती है और साथ ही वह नौकरीपेशा, अच्छा वेतन पाने वाली पत्नी की भी उम्मीद करता है और वह यह भी चाहता है कि उस की पत्नी घरपरिवार का पूरा खयाल रखे, घर के हर सदस्य की जरूरत पर तुरंत हाजिर हो.

किंतु इनसान के भीतर की परंपरा- वादी सोच औरत को अपने कार्यक्षेत्र में पुरुष सहकर्मियों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करने को भी सहजता से पचा नहीं पाती.

प्रशांत की ठेठ पुरुषवादी मान- सिकता गुंजन के व्यावसायिक संबंधों को ले कर जबतब सचेत हो जाती.

जब कभी गुंजन कार्य की अधिकता के चलते घर देर से वापस आती तो प्रशांत के दिल व दिमाग पर संदेह का कीड़ा कुलबुलाने लगता.

गुंजन के समक्ष उस की वाणी तो मौन रहती किंतु आंखों और चेहरे के अप्रिय भाव कई सवाल पूछते प्रतीत होते थे.

गुंजन के नाम कोई भी पत्र आता तो प्रशांत पहले पढ़ता. उस के फोन काल्स के बारे में जानने को उत्सुक रहता. आफिस के मामलों में गुंजन से कैफियत मांगता रहता.

ऐसे मौकों पर गुंजन तिलमिला कर रह जाया करती थी. वह सोचती थी कि आज के दौर में व्यक्ति को खुले दिमाग का अवश्य होना चाहिए. पर प्रत्यक्ष वह प्रशांत के हर प्रश्न का सटीक उत्तर दे कर उन की जिज्ञासाएं शांत कर देती थी और अपनी मधुर खिलखिलाहट से वातावरण को हलकाफुलका बना देती थी.

‘‘प्रशांत, तुम इतने पजेसिव हो… शक्की हो…’’ उस के घुंघराले बालों में प्यार से उंगलियां फेरती वह कह उठती थी.

‘‘डियर, सभी मर्द ऐसे ही होते हैं,’’ प्रशांत उसे बांहों में भींच कह उठता था. तब गुंजन का तनमन खिल उठता था.

दोनों टहलते बातें करते जा रहे थे. तभी प्रशांत का मोबाइल बज उठा और वह फोन पर बात करता चला जा रहा था.

पति के पीछेपीछे चलती गुंजन पति के साथ कदम मिला कर चल नहीं पा रही थी क्योंकि जल्दबाजी में आज वह पुरानी चप्पल पहन आई थी. दौड़ कर पति के साथ कदम मिलाने के प्रयास में ठोकर खा कर गिरने को ही थी कि उस की चप्पल टूट गई थी.

प्रशांत अभी भी कान पर मोबाइल लगाए अपनी ही धुन में आगे निकल चुका था.

गुंजन ने पति को पुकारना चाहा किंतु पलक झपकते ही उस की आंखों के सामने काला अंधकार छा गया था. गुंजन के चेहरे को किसी ने कपड़े से कस कर ढांप दिया था और जबरदस्ती खींच कर कार में बिठा कार दौड़ा दी थी.

गुंजन ने हाथपैर मारने का बहुतेरा प्रयास किया किंतु सब व्यर्थ, उस के हाथपैरों को भी बांध दिया गया था.

लाचार और भयभीत गुंजन का दम घुटने लगा था. बेबस छटपटाहट से वह कुछ ही देर में सुधबुध खो बैठी थी.

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उधर प्रशांत स्तब्ध खड़ा गुंजन को यहांवहां देख रहा था. परेशान हो कर दौड़ता हुआ घर वापस आया पर वहां भी गुंजन को न पा कर उस के हाथों के तोते उड़ गए थे. वह अनजानी आशंका से भयभीत हो पुन: उसी रास्ते पर दौड़ कर आया और राह चलते लोगों, आसपास की दुकानों पर पूछताछ करने लगा. किंतु कोई लाभ न हुआ.

घर वापस आ कर परिचितों, रिश्तेदारों तथा मित्रों से फोन पर पूछताछ करने के बाद भी उसे निराशा ही हाथ लगी.

सारी रात आंखों ही आंखों में कट गई. पौ फटते ही अचानक फोन की घंटी बज उठी. प्रशांत ने लपक कर फोन का रिसीवर कान से लगाया और परेशान हो उठा.

गुंजन के अपहरण की जानकारी देते हुए अपहरणकर्ताओं ने फिरौती के रूप में एक बड़ी रकम की मांग की थी. साथ ही सख्त शब्दों में धमकी दी गई थी कि अपहरण की भनक या जानकारी पुलिस को नहीं लगनी चाहिए वरना पत्नी से हाथ धोना पड़ेगा.

पूरा घर सहम गया था. चुपचाप पुलिस को सूचना देते ही पुलिस तुरंत सक्रियता से छानबीन में जुट गई थी.

अपहरणकर्ता गुंजन को ले तुरंत शहर से सटे एक गांव में आए थे जहां एक छुटभैये गुंडा नेता की आलीशान कोठी निर्माणाधीन थी. उस कोठी के ही एक खास कोने में गुंजन को ला कर रख दिया गया था.

आगे पढ़ें- गुंजन को वहीं छिपा कर अपहरणकर्ता…

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Serial Story: उस रात अचानक– भाग 2

उस निर्माणाधीन कोठी की हिफाजत और देखभाल के लिए नेता का एक खास कृपापात्र, जो दूर के रिश्ते में नेता का साला लगता था, रात में सोने के लिए आता था. कभीकभार उस के साथ पत्नी और बच्चे भी आ जाते थे.

गुंजन को वहीं छिपा कर अपहरणकर्ता खुद निडरता से फिरौती की रकम के लिए फोन करने के बाद उस के मिलने की प्रतीक्षा में थे. कोठी के मालिक का उन लोगों पर वरदहस्त था. अपहरणकर्ता इसलिए भी निश्ंिचत थे कि बंधी हुई बेबस चिडि़या आखिर यहां से कैसे कहीं भाग जाएगी? इसी सोच के चलते वे गुंजन की तरफ से लापरवाह थे.

प्रशांत दुखी- परेशान मन से पत्नी की सकुशल वापसी की प्रतीक्षा कर रहा था.

रात बीतने का एक प्रहर अभी शेष था, तभी गुंजन ने घर के मुख्यद्वार की घंटी बजा दी. प्रशांत ने दरवाजा खोला, बदहवास गुंजन को एकाएक सामने खड़ा देख वह दंग रह गया था. आश्चर्य मिश्रित हर्ष से उस का चेहरा खिल गया था.

गुंजन की रुलाई फूट पड़ी थी. डरीसहमी गुंजन पति के चौड़े सीने से लग रोतीबिसूरती बोली, ‘‘प्रशांत, उन अपहरणकर्ताओं ने मेरे खूबसूरत कंगन और कानों के कीमती ‘टौप्स’ निकाल लिए.’’

प्रशांत ने पत्नी की आंखों में झांका, ‘‘सिर्फ कंगन और कानों के झुमके ही गए?’’

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‘‘वह तो अच्छा हुआ उस दिन मैं ने अपना मंगलसूत्र गले से उतार कर सोनार को बनने के लिए दे दिया था क्योंकि उस की लडि़यों के मोती निकल गए थे,’’ गुंजन अपनी ही रौ में बोल रही थी, ‘‘गले में पहना होता तो वे निर्दयी उसे भी उतार लेते,’’ गुंजन ने सरलता से पति को देखते व्यथित मन से कहा.

किंतु प्रशांत की आंखों में उभरे विचित्र भावों को देख वह चौंक गई थी. सासससुर की आंखों में भी प्रश्नों की जिज्ञासाएं थीं.

केस खुदबखुद सुलझ गया था. पुलिस ने भी राहत की सांस ली.

गुंजन ने अपनी स्वयं घर वापसी की घटना घर के सदस्यों को कह सुनाई थी.

‘‘रात को उस खंडहरनुमा कोठी में एक महिला ने मुझे वहां बंधा हुआ देखा. पहले तो वह हैरान हुई फिर उस ने शायद किसी से फोन पर बात की और कुछ ही देर बाद मुझे बंधन से मुक्त कर तुरंत वहां से भगा दिया. उस ने ही मुझे पैसे भी दिए ताकि मैं घर वापस जा सकूं…मेरी आपबीती सुन कर उस महिला ने मुझे बताया था कि कोठी के मालिक उस के रिश्तेदार हैं…उस ने मुझे हिदायत दी कि मैं इस घटना का जिक्र किसी से न करूं…उस महिला ने वहां से भागने में मेरी मदद करते हुए कहा था, ‘तुम यहां बंधी रही हो, इस बात का जिक्र कहीं न करना…चुनावों का वक्त है…कोठी के मालिक की साख पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए… चुनावों का माहौल न होता तो तुम यहां से जा नहीं सकती थीं. इस वक्त चुनाव की चिंता है, उन्हें बस…’’’

गुंजन की सकुशल वापसी से सासससुर खुश थे…

‘‘बेटा, पुलिस की मदद से बहू के गहने तो उन लुटेरों से वापस ले लो…’’

गुंजन की सास को बहू के गहनों की चिंता सता रही थी किंतु गुंजन को गहनों से अधिक अपनी घरवापसी प्रिय लग रही थी.

गुंजन तो उम्मीद ही छोड़ चुकी थी उस अंधेरे नरक से वापसी की. उन बदमाशों की कैद में क्याक्या अनर्गल विचार…कैसीकैसी आशंकाएं उठती थीं उस के मन में. याद कर वह सिहर उठी थी.

भयंकर अट्टहास के साथ गुंजन ने उन बदमाशों के गंदे इरादे भी सुने थे, ‘‘यार, अब की बड़ा हाथ मारा है. कमाई तो अच्छी होगी ही…फिर इतनी खूबसूरत, जवान, ऐसा गदराया जिस्म है कि बस… खूब मजा आएगा,’’ यह कह कर उन्होंने गुंजन के जिस्म पर हाथ फेरा तो वह कसमसा उठी थी. हाथपैर बंधे थे, आंखें भी ढंकी थीं.

अपने समीप उन बदमाशों की पगध्वनि सुन कर गुंजन सहम गई थी और अपने सर्वनाश की कल्पना कर उस ने आंखें जोर से भींच लीं.

‘‘अरे, मजे फिर ले लेना. इस काम के लिए तुम्हें रोकूंगा भी नहीं, लेकिन इस के घर वाले ने पुलिस को इत्तला कर दी है इसलिए आज की रात तो पहले हमें अपनी जान बचानी है. कल जैसा जी में आए करना,’’ तीनों की सम्मिलित हंसी गूंज गई थी.

और उसी रात गुंजन उस अजनबी औरत के कारण घर वापस आ सकी थी.

गुंजन सहीसलामत अपने घर वापस आने पर खुश थी लेकिन घर का माहौल जैसे उसे कुछ बदलाबदला लग रहा था.

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प्रशांत का बदला व्यवहार उसे बेचैन कर रहा था. वह गुंजन से कुछ खिंचाखिंचा रहने लगा. गुंजन का बिना फिरौती दिए खुद ही घर वापस आ जाना उसे अस्वाभाविक लग रहा था. ‘सिर्फ जेवर ले कर ही अपहरणकर्ता खुश हो गए…क्या गुंजन उन के पास सहीसलामत रही होगी?’

प्रशांत के प्यार की गरमाहट समाप्त होती जा रही थी. दिनप्रतिदिन प्रशांत की उदासीनता और उपेक्षा से गुंजन दुखी और निराश रहने लगी थी.

इसी बीच दफ्तर के काम के दौरान उसे जबरदस्त चक्कर आ गया था. सिर घूम गया था. ‘शायद खानेपीने की लापरवाही से ऐसा हो,’ यह सोच कर वह कैंटीन की ओर बढ़ गई. किंतु जैसे ही कौर उठा कर मुंह में डाला तो उबकाई का उसे एहसास हुआ और वह उलटी के लिए टायलेट की ओर भागी. इस के बाद तो गुंजन निढाल सी हो गई और आफिस से छुट्टी ले डाक्टर के पास चली गई.

गुंजन का शक सही निकला. लेडी डाक्टर ने उसे गर्भवती होने की खुशखबरी सुनाई. गुंजन का तनमन खिल उठा. वह प्रशांत को यह खुशखबरी सुनाने को आतुर थी.

‘अब प्रशांत का व्यवहार भी उस के साथ अच्छा हो जाएगा, यह जान कर कि वह पिता बनने वाला है, खुश होगा,’ गुंजन मन ही मन विचार करती घर पहुंच गई थी.           –क्रमश:        

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Serial Story: उस रात अचानक– भाग 3

पूर्व कथा

सुखसुविधा के हर साजोसामान के साथ प्रशांत और गुंजन खुशहाल जिंदगी जी रहे थे. इच्छा थी तो उन्हें एक संतान की. अचानक एक रात घर से बाहर टहलने के दौरान गुंजन का अपहरण हो जाता है. अपहरणकर्ता फिरौती में भारी रकम की मांग करते हैं. उधर, एक दिन अनजान महिला बंधी गुंजन की रस्सी खोल उसे अपहरणकर्ताओं के चंगुल से छुटकारा दिला देती है. रात बीतने का एक प्रहर अभी शेष है कि घंटी टनटनाती है. परेशान प्रशांत डरडर कर दरवाजा खोलता है, गुंजन को देख आश्चर्यमिश्रित हर्ष से उस का चेहरा खिल जाता है और डरीसहमी गुंजन पति के चौड़े सीने से लग रोतीबिसूरती बोलती है, ‘‘प्रशांत, अपहरणकर्ताओं ने मेरे खूबसूरत कंगन और कानों के कीमती टौप्स निकाल लिए…’’  गुंजन की सकुशल वापसी से सासससुर खुश थे. सास को बहू के गहनों की चिंता सता रही थी जबकि गुंजन को गहनों से अधिक अपनी घरवापसी प्रिय लग रही थी. वहीं, प्रशांत का बदलाबदला व्यवहार उसे बेचैन कर रहा था. वह गुंजन से कुछ खिंचाखिंचा रह रहा था. अपहरणकर्ताओं को फिरौती पहुंचाए बिना ही गुंजन का घर वापस आ जाना उसे अस्वाभाविक लग रहा था. ‘सिर्फ जेवर ले कर ही अपहरणकर्ता खुश हो गए…क्या गुंजन उन के पास सहीसलामत रही होगी?’ गुंजन के प्रति प्रशांत के प्यार की गरमाहट समाप्त होती जा रही थी. प्रशांत द्वारा उपेक्षित गुंजन दुखी और निराश रहने लगती है. इसी बीच, एक दिन आफिस में काम के दौरान गुंजन को उबकाई का एहसास हुआ और वह उलटी के लिए टायलेट की ओर भागी. अस्वस्थ महसूस करने पर वह आफिस से छुट्टी ले कर सीधे डाक्टर के पास गई. लेडी डाक्टर ने उसे गर्भवती होने की खुशखबरी दी. खुशी से दीवानी गुंजन यह खुशखबरी प्रशांत को सुनाने को आतुर हो जाती है. ‘अब प्रशांत का व्यवहार अच्छा हो जाएगा. यह जान कर कि वह पिता बनने वाला है, खुश होगा,’ मन ही मन ऐसा सोचती गुंजन घर पहुंचती है…

अब आगे…

गुंजन की आशा के विपरीत प्रशांत पिता बनने की बात जान कर स्तब्ध रह गया. उस के विचित्र हावभाव उस के भीतर छिपी बेचैनी को बयान कर रहे थे.

‘‘तुम तो कहती थीं कि उन बदमाशों ने तुम्हारे साथ कोई बदतमीजी नहीं की… तो फिर…’’ कह कर उस ने गुंजन का हाथ जोर से झटक दिया था और फिर अंटशंट बकना शुरू कर दिया था.

प्रशांत ने गुंजन से और अधिक दूरी बना ली थी. वह पति के समीप जाने को होती तो प्रशांत गुंजन पर कठोर नजर फेंक कर उस के समीप से हट जाता. और एक दिन प्रशांत के मन में छिपी बेचैनी उस के अधरों तक आ ही गई जब उस ने कड़े लहजे में कहा,  ‘उन डकैतों का बच्चा यहां इस घर में नहीं पलेगा.’

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गुंजन यह सुन कर अवाक् रह गई थी. पत्नी से दूरी बनाता प्रशांत इन दिनों किसी अन्य स्त्री के समीप जा रहा था. गुंजन दिल पर पत्थर रख चुपचाप बरदाश्त कर रही थी.

प्रशांत के मन में चल रही उथलपुथल का वाणी से खुलासा आज हो गया था. वह गुंजन के साथ संबंध तोड़ देना चाहता था. प्रशांत की इच्छा को अपनी नियति मान गुंजन छटपटा कर रह गई थी और आखिर में उसे मायके लौट आना पड़ा था.

समय गुजरता गया और वह एक स्वस्थ व सुंदर शिशु की मां बन गई. पुत्र को आंचल में समेट फूली नहीं समाई थी. किंतु प्रशांत की अनुपस्थिति एक टीस बन कर उसे तड़पा गई थी.

इस के कुछ माह बाद ही प्रशांत ने गुंजन को तलाक दे दिया और फिर दोनों नदी की 2 धाराओं की तरह अपनीअपनी राह बह चले.

रात्रि को प्राय: गुंजन को प्रशांत की यादें सतातीं और वह उस के साथ के लिए तड़प उठती तो कभी मन में प्रतिहिंसा की ज्वाला भड़क उठती.

समय सरकता जा रहा था. गुंजन अपनी नौकरी और पुत्र की परवरिश में व्यस्त थी. नौकरी में उस की लगन और काम के प्रति निष्ठा से उसे तरक्की मिलती जा रही थी.

पुत्र अभिराम भी दिन पर दिन बड़ा हो रहा था और उस के नैननक्श और चेहरा हूबहू अपने पिता प्रशांत पर जा रहे थे.

बेटे का चेहरा देख गुंजन के मन में उम्मीद का दीया जल उठता कि काश, प्रशांत एक बार अपने बेटे को देख लेता तो उस का संदेह पल भर में ही दूर हो जाता.

किंतु प्रशांत से संपर्क टूटे तो अरसा बीत चुका था. मेधावी अभिराम स्कूलकालेज और विश्वविद्यालय की हर परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करता इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में आ गया था. उच्च श्रेणी के इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ाई करता अभिराम स्कालर था.

उस के कालेज में छात्रों की प्लेसमेंट के लिए विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियां आनी शुरू हो गई थीं. कंपनियों के रिकू्रट आफिसर, मानव संसाधन अधिकारी और प्रबंध निदेशक की टीम सभी छात्रों की लिखित परीक्षा और साक्षात्कार लेने के लिए छात्रों के चयन में जुटने शुरू हो गए थे.

अभिराम भी किसी उच्च स्तरीय कंपनी में नौकरी पाने के लिए परीक्षा की तैयारी में व्यस्त था. रात में सोने से पहले उस ने अपनी मां गुंजन से कहा था, ‘‘मम्मी, कल सुबह मुझे कालेज 7 बजे से पहले पहुंचना है और रात को भी देर हो जाएगी घर वापस आने में…पता नहीं कब तक इंटरव्यू चलते रहें.’’

अगले दिन अभिराम लिखित परीक्षा देने में व्यस्त हो गया और एक के बाद एक चरण पार करता हुआ वह अब साक्षात्कार के लिए अपना नाम पुकारे जाने की प्रतीक्षा में था.

अपना नंबर आया जान कर अभिराम ने आत्मविश्वास के साथ कमरे में प्रवेश किया. इंटरव्यू लेने के लिए 6 सदस्यों की टीम भीतर मौजूद थी. सभी की दृष्टि अभिराम के चेहरे पर जमी थी. अभिराम को अपलक निहारते और ‘प्रबंध निदेशक’ के चेहरे की समानता को देख टीम के दूसरे सदस्य चकित थे.

अभिराम कुछ असहज हो उठा. उस के माथे पर पसीने की बूंदें चमक उठी थीं. ‘‘तुम्हारा नाम अभिराम प्रशांत दीक्षित है…क्या तुम्हारे 2 नाम हैं?’’ एच.आर. अधिकारी उस के बायोडाटा को देख बोला.

‘‘सर, मेरा नाम अभिराम और पिता का नाम प्रशांत दीक्षित है.’’

रिकू्रट अफसर एकदूसरे को हैरानी से देख रहे थे. मानो कह रहे हों कि चेहरे के साथसाथ नाम में भी समानता है. हमारे एम.डी. का नाम भी प्रशांत दीक्षित है.

‘‘क्या करते हैं तुम्हारे पिता?’’ प्रबंध निदेशक ने अभिराम की फाइल को सरसरी नजर से देखते हुए पूछा.

‘‘सर, अपने पिता के बारे में मैं अधिक नहीं जानता,’’ इतना कह कर अभिराम सकपका गया फिर संभल कर बोला, ‘‘सर, मेरे मातापिता वर्षों पहले एकदूसरे से अलग हो गए थे. मैं अपने पिता के बारे में कुछ नहीं जानता क्योंकि होश संभालने के बाद उन्हें कभी देखा ही नहीं.’’

‘‘तुम्हारी मां?’’ एम.डी. दीक्षित के सवाल में जिज्ञासा थी. किंतु व्यक्तिगत प्रश्न पूछने पर एच.आर. अधिकारी और रिकू्रट अफसर ने शिष्टतापूर्ण आपत्ति जताई, ‘‘सर, व्यक्तिगत प्रश्न का नौकरी से क्या लेनादेना. छात्र की योग्यता से संबंधित प्रश्न पूछने ही बेहतर होंगे,’’ एम.डी. के कान में फुसफुसाते एच.आर. ने कहा.

‘‘मुझे कुछ नहीं पूछना. आप लोग जो चाहें पूछ लें.’’ प्रबंध निदेशक ने टीम से आग्रह किया और स्वयं उठ कर रेस्ट रूम में चले गए.

अभिराम ने सभी प्रश्नों का शालीनता से जवाब दिया और धन्यवाद तथा अभिवादन करता बाहर आ गया था. टीम के सभी सदस्य प्रबंध निदेशक से सवाल कर रहे थे, ‘‘सर, यह लड़का क्या आप की रिश्तेदारी में है? इस की शक्लसूरत और उपनाम आप से मेल खाते हैं.’’

‘‘हमें तो यों आभास हो रहा था कि आप का युवा संस्करण ही हमारे समक्ष बैठा था,’’ मानव संसाधन अधिकारी ने मुसकराते हुए कहा.

सहायक टीम की बातें सुन प्रबंध निदेशक दीक्षित के तेजस्वी चेहरे का ओज बुझ गया था, लेकिन अभिराम का चयन एक प्रथम श्रेणी की बहुराष्ट्रीय कंपनी में हो गया था और अपने मित्रों के साथ वह खुशी के उन पलों का आनंद ले रहा था.

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मम्मी को पहले खबर दे दूं. यह सोच कर अभिराम ने तुरंत फोन कर मां को अपने चयन की सूचना दी. ‘‘मम्मी, हम सब दोस्त सेलीबे्रट कर रहे हैं. आप खाना खा लेना,’’ उस का स्वर अचानक थम गया क्योंकि सामने एम.डी. दीक्षित खड़े थे.

वह अपलक अपनी प्रतिमूर्ति को देख रहे थे. मन में कई सारे सवाल उठ रहे थे पर उन में इतनी शक्ति नहीं थी कि वे अभिराम से कुछ पूछते, अत: बिना कुछ कहे वे अपने रूम की ओर बढ़ गए. पूरे दिन की थकावट के बाद भी नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी. रात भर करवटें बदलते रहे.

अगले दिन सुबह अभिराम के घर जाने के लिए निकल पड़े थे. घर का पता अभिराम की बायोडाटा फाइल से नोट कर लिया था.

रास्ते भर विचारों में लीन रहे. उन की 2 बेटियां हैं लेकिन पुत्र की इच्छा उन्हें बेचैन किए रखती है. अभिराम को देख कर उन की इच्छा और अधिक बलवती हो उठी है.

अभिराम के घर पहुंच कर प्रशांत दीक्षित ने दरवाजे पर लगी घंटी को कांपते हाथों से बजा दिया था पर यह करते समय उन के कदम लड़खड़ा गए थे. दरवाजा गुंजन ने खोला था. दोनों एकदूसरे को अपलक देखते रह गए थे. प्रशांत के अधर कांपे किंतु बोल नहीं फूट सके.

गुंजन की आंखों में आश्चर्यमिश्रित हर्ष के भाव थे. शायद अपनी वर्षों की अभिलाषा के पूरे होने के मौके की यह खुशी थी.

कब से गुंजन को प्रशांत के पदचापों की प्रतीक्षा थी. कब से उस की राह देखती यही सोचती आई थी कि एक बार प्रशांत से अवश्य उस का सामना हो जाए.

बिना किसी भूमिका के उस के अधरों पर प्रश्न आ गया, ‘‘आज यहां की याद कैसे आ गई?’’

गुंजन के स्वर में छिपे व्यंग्य को समझ प्रशांत सकपका गया था.

‘‘कल मैं अपने बेटे से मिला. अभिराम को देख कर मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया. कितना होनहार है मेरा बेटा,’’ प्रशांत भावावेश में बोल रहा था.

‘‘आप का पुत्र? आज वह आप का पुत्र कैसे हो गया?’’ गुंजन का स्वर ऊंचा हो गया था.

अतीत में जिस पुरुष को कसमें खाखा कर मैं विश्वास दिलाती रह गई थी अपने गर्भ में पल रहे शिशु के पिता होने का और वह निर्दयी विश्वास नहीं कर सका था. संदेह के कीड़े ने उस का विवेक हर लिया था. वह आज कैसे उसे अपना बेटा कह सकता है.

गुंजन के मन में तभी से पति के प्रति कहीं न कहीं प्रतिहिंसा की ज्वाला धधक रही थी और आज प्रशांत के मुख से पुत्रमोह की बातें सुन, गुंजन के तनबदन में आग लग गई थी.

‘‘अभिराम, सिर्फ और सिर्फ मेरा पुत्र है, मैं ही उस की मां हूं और मैं ही पिता भी हूं.’’

आज वह प्रशांत के सामने भावनाओं में बह कर दुर्बल हरगिज नहीं बनना चाहती थी. आज वह अपने मन की भड़ास निकाल लेना चाहती थी.

‘‘आप बहुत पहले ही अपने संदेह और बेबुनियाद शक के कारण अपनी पत्नी और अजन्मे शिशु को त्याग चुके हैं. अब वह सिर्फ मेरा पुत्र है.

‘‘बेहतर होगा अब आप यहां से चले जाएं और हमें हमारे हाल पर छोड़ दें. अब अभिराम बड़ा हो गया है. आप की सचाई जान कर उसे बहुत दुख होगा. आप का अपना एक परिवार है, उसे संभालिए.’’

‘‘मुझे माफ कर दो, गुंजन,’’ प्रशांत के स्वर में पश्चात्ताप और निराशा स्पष्ट थी.

‘‘मैं कौन होती हूं क्षमा करने वाली,’’ धीमे स्वर में बोली गुंजन अचानक उग्र हो उठी, ‘‘अगर आप के बेटे की शक्लसूरत आप पर न होती तो क्या वह आप का बेटा न होता. जरूरी नहीं कि बच्चों की शक्लसूरत हूबहू मातापिता से मिलने लगे. तो क्या ऐसी स्थिति में उन के जन्म पर संदेह करना होगा?

‘‘कुदरत ने मेरी सचाई को सही साबित करने के लिए ही शायद मेरे बेटे के चेहरे को हूबहू उस के पिता से मिला दिया है. किंतु प्रशांत दीक्षित, तलाक के बाद अब हमारे रास्ते अलग हैं. आप जा सकते हैं.’’

प्रशांत निढाल सा लड़खड़ाते कदमों को जबरदस्ती खींचता घर से बाहर आ गया था. प्रशांत के विदा होते ही गुंजन की आंखों से आंसू बह निकले थे. जिस पति को देखने, मिलने के लिए वह वर्षों से बेचैन थी वही आज उस के सामने खड़ा गिड़गिड़ा रहा था. किंतु आज उस के प्रति गुंजन की भावनाएं वर्षों पहले वाली नहीं थीं.

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गुंजन के भीतर धधकती वर्षों की प्रतिहिंसा की ज्वाला धीरेधीरे शांत हो चली थी. शायद उसे अपनी बेगुनाही का सुबूत मिल गया था.

खामोश दोस्त: क्या उस लड़के को जान पाई माही?

Serial Story: खामोश दोस्त– भाग 3

मेरे भाई की शादी थी. शादी की व्यस्तताओं के चलते मैं कालेज नहीं जा पा रही थी. पढ़ाई में बहुत कुछ छूट रहा था. इस समस्या का समाधान किया मेरे खामोश दोस्त ने. प्रशांत ने मुझ से कहा, ‘चिंता मत करो, मैं नोट्स बना कर दे दूंगा.’ मैं निश्ंिचत हो गई. शादी में मैं ने अपने कालेज के दोस्तों और कुछ प्रोफैसरों को भी निमंत्रण भेजा. प्रशांत से भी कहा, ‘तुम मेरे खास दोस्त हो, तुम्हें तो आना ही है.’ सब आए लेकिन प्रशांत नहीं आया. मैं प्रशांत के दोस्तों से पूछ भी नहीं सकी. सोचा, मिलने पर लड़ूंगी, पूछूंगी, गुस्सा करूंगी. क्यों नहीं आया?

वैसे उस का स्वभाव ही एकांतप्रिय है, कालेज में जब कोई सामूहिक कार्यक्रम होता तो वह कन्नी काट लेता था. लेकिन मैं ने इतने अपनेपन से बुलाया, फिर भी नहीं आया. शादी के कार्यक्रम निबटने के बाद जब मैं कालेज पहुंची तो पता चला कि वह अपने घर गया है. मुझे और भी ज्यादा गुस्सा आया. कम से कम मुझे बता कर तो जा सकता था. एक फोन तो कर सकता था. कभीकभी तो मुझे लगता कि मैं ही उसे अपना दोस्त मानती हूं, वह नहीं. मैं उस से जितना जुड़ने की कोशिश करती, वह उतना ही बचने की कोशिश करता है.

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दोस्ती एकतरफा नहीं निभाई जाती. छोटे शहर की मानसिकता का अभी तक त्याग नहीं किया उस ने. कालेज की कैंटीन में मिलो या कौफी शौप में, हर जगह पर देखता रहता है कि हमें कौन देख रहा है, हमारे बारे में क्या सोच रहा है. सोच रहा है तो सोचता रहे, फिर मैं दिल्ली की हूं, मुझे इस की चिंता होनी चाहिए, मेरे घर वाले रिश्तेदार दिल्ली में रहते हैं. मैं लड़की हूं. कोई कुछ कहेगा तो मुझे. लेकिन नहीं, जनाब को ज्यादा चिंता रहती है. यह भी नहीं समझता कि यह दिल्ली है, यहां सब व्यस्त हैं अपनेअपने में. किसी को इतनी फुरसत नहीं. मैं ने उस को फोन लगाया, एक बार नहीं, कई बार. लेकिन हर बार स्विच औफ. हो सकता है यह सोच कर किया हो कि स्मौल टाउन के परिवार वाले यह न सोचें कि लड़की क्यों फोन कर रही है. खैर, जब आएगा तब बात करूंगी.

तभी कालेज में उस के खास दोस्त रहमान ने आ कर मुझ से कहा, ‘आप के लिए नोट्स छोड़ कर गया है प्रशांत.’ कालेज के बाहर खड़ी हुई अपनी गाड़ी की प्रतीक्षा कर रही थी. मैं ने रहमान को थैंक्स कह कर पूछा, ‘कुछ बता कर गया है प्रशांत, कब तक आएगा?’ ‘कह तो रहा था कि हफ्ते के लिए जा रहा हूं,’ रहमान ने कहा. इस से ज्यादा पूछना मैं ने उचित नहीं समझा. घर पहुंच कर मैं ने नोट्स अपने कमरे में रख दिए और नई भाभी के साथ गपें मारने लगी. रात में खाना खाने के पश्चात मैं अपने कमरे में पहुंच कर पढ़ाई करने बैठी. मैं ने नोट्स निकाले. नोट्स मिलने के बाद मुझे वह खामोश दोस्त बहुत याद आया. क्या बात थी जो अचानक उसे जाना पड़ा. वह तो जाना ही नहीं चाहता था. इसी सोच और उधेड़बुन में मस्तिष्क उलझा रहा.

रहीम ने मुझे करीब 15 दिनों बाद एक पत्र देते हुए कहा, ‘प्रशांत ने आप के लिए भेजा है’ और मैं पत्र को पढ़ने की लालसा में कालेज के पार्क में पहुंची. पार्क में बने संगमरमरी चबूतरे पर बैठ कर मैं पत्र पढ़ने लगी. मैं ने पत्र पढ़ना आरंभ किया. प्यारी दोस्त माही, ढेर सारा स्नेह. तुम ने मुझे जो अपनापन दिया वह मेरे लिए संसार की सब से बड़ी उपलब्धि है. तुम अकसर मेरे परिवार के बारे में जानना चाहती थीं और मैं बताने से कतराता था. क्या बताऊं? कैसे बताऊं? लेकिन अब बताना जरूरी है. अन्यथा मुझे लगेगा कि मैं ने अपने दोस्त से कुछ छिपाया है.

‘हम 3 भाई हैं. तीसरे भाई के पैदा होते समय मां चल बसी. उस समय मेरी उम्र 19 वर्ष थी. मैं 12वीं पास कर चुका था. पता नहीं पिताजी स्वयं को अकेला महसूस कर रहे थे या उन्होंने हमारी देखभाल के लिए शादी की थी. लेकिन हम दोनों भाई इतने भी छोटे नहीं थे कि पिता को हमारी देखभाल के लिए शादी करनी पड़े. तीसरे को वैसे भी हम स्वयं संभाल रहे थे. बहरहाल, बाद के कुछ दिनों में साफ हो गया कि उन्होंने अपने सुख के लिए शादी की थी. उन की नई पत्नी एक गरीब घर की अति सुंदर लड़की थी. जिस के पिता नहीं थे और उन की 2 बहनें और थीं. ऐसे में उन की मां ने हमारे 50 वर्षीय पिता को अपनी बेटी कुछ इस तरह सौंप दी मानो एक बड़ा कर्ज चुका दिया हो.

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शादी के बाद पिता मात्र पति बन कर रह गए और विवाहित दंपती की हम तीनों भाइयों पर नजर भी नहीं जाती थी. हम जैसे अनाथ हो चुके थे. दोनों छोटे भाई तो स्कूल चले जाते, मुझे घर के सारे काम करने पड़ते. मैं ने कालेज जाने का प्रयास किया, लेकिन मुफ्त का नौकर कहां मिलता? पिता ने यह कह कर पढ़ाई छुड़वा दी कि मैं काम पर चला जाता हूं. दोनों भाई स्कूल, ऐसे में तुम्हारी मां यानी उन की पत्नी घर में अकेली रह जाती है. मेरा घर में रहना जरूरी है. पढ़ाई तो प्राइवेट भी कर सकता हूं, पढ़ कर करना भी क्या है? खेतीबाड़ी देखो.

पिता सुबह छतरपुर चले जाते और बहुत जल्दी लौटने के प्रयास में भी रात के 8 बज ही जाते. विमाता को मैं अकसर उदास ही देखता. कहने को तो वे पति के सामने खुश नजर आतीं लेकिन वे खुश नहीं थीं अंदर से. साथ रहतेरहते दुश्मनों में भी लगाव हो जाता है. हम दोनों में भी हो गया. लगाव स्वाभाविक भी था. हमउम्र थे. सुंदर तो वे थीं ही. वे मुझे अपने मन की बातें बता देती थीं. अपने सुखदुख मुझ से कह कर अपना दबा हुआ गुबार निकाल लेती थीं. उन्होंने कहा, ‘इस घर में आप नहीं होते तो मेरा तो दम घुट जाता. मैं आगे पढ़ना चाहती थी लेकिन मेरे पिता की मृत्यु और गरीबी ने मेरे सारे सपने धूल में मिला दिए. आज मेरे पिता होते तो तुम्हारे पिता की उम्र के होते. मैं उन से घुलमिल नहीं पाती. मुझे उन के सामने जाने में वैसा ही संकोच होता है जैसे एक जवान बेटी को पिता के सम्मुख. वे मुझे हर संभव खुश रखने का प्रयास करते हैं लेकिन मेरे लिए संभव नहीं हो पाता.’

सभी कामों में मैं उन का हाथ बंटाता, बाहर के सारे काम मैं करता. अकसर वे मेरे साथ बाहर घूमने जाने लगी. गांव में लगने वाले साप्ताहिक बाजार से ले कर खेतीबाड़ी देखने के लिए. पता नहीं किस ने क्या कहा पिताजी से. मैं तो उन्हें विमाता का पति ही कहूंगा. उन्होंने बाद में पूरी तरह सिद्ध भी कर दिया. एक दिन गुस्से में घर आए और अपनी पत्नी पर बरस पड़े. ‘कुछ तो मानपर्यादा का खयाल रखो. जवान लड़के के साथ घूमती हो, शर्म नहीं आती?’ ‘घर का ही तो लड़का है. किसी बाहर वाले के साथ तो नहीं घूमती,’ विमाता ने उन्हें पलट कर जवाब दिया. अपनी पत्नी से तो वे कुछ न कह सके लेकिन अपना गुस्सा उन्होंने मेरे ऊपर उतारा.

‘देखता हूं घर के कामकाज में तुम्हारा मन नहीं लगता. दिनभर आवारा बने घूमतेफिरते हो. इस घर की मानमर्यादा मिट्टी में मिलाने पर तुले हो. अभी घर से बाहर निकाल दूं तो रोटीदाल का भाव पता चल जाएगा.’ फिर वे भांतिभांति से मुझे अपनी पत्नी के खिलाफ भड़काने लगे. ‘औरत की जात से सावधान रहना चाहिए. तुम्हारी पूरी उम्र पड़ी है. तुम्हें अपने भविष्य के बारे में सोचना चाहिए. मैं चाहता हूं तुम मजिस्ट्रेट बनो. बीए करो, फिर एलएलबी करो. हमारे खानदान का नाम रोशन करो. फिर तुम्हारे लिए एक पढ़ीलिखी खूबसूरत लड़की तलाश करूंगा ताकि तुम भी सुखमय जीवन व्यतीत करो.’

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Serial Story: खामोश दोस्त– भाग 4

कहां तो स्वयं उन्होंने मेरी पढ़ाई छुड़ा दी थी और आज मुझे अपनी गृहस्थी उजाड़ने का कारण समझते हुए मुझे घर से दूर पढ़ने के लिए कह रहे हैं. ये कैसे पिता हैं जिन्हें अपनी औलाद पर भरोसा नहीं? ये कैसे पति हैं जिन्हें अपनी पत्नी पर भरोसा नहीं? मुझे नफरत सी होने लगी उन से. विमाता को जब पता चला कि उन के पति मुझे बाहर पढ़ने भेजना चाहते हैं तो उन्होंने विरोध करते हुए कहा, ‘एक ही तो व्यक्ति है जिस से हंसबोल कर समय कट जाता है, आप से मेरी उतनी खुशी भी नहीं देखी जाती. अगर आप को अपने ऊपर विश्वास ही नहीं था तो क्यों मुझ से शादी की? मैं सब समझ रही हूं कि आप के मन में क्या चल रहा है.’ ‘मेरे मन में कुछ चले न चले, समाज के लोगों के मन में चल रहा है.’ ‘आप को लोगों की बात पर भरोसा है, अपनी पत्नी, अपने बेटे पर भरोसा नहीं है?’

‘मैं लोकलाज के डर से कह रहा हूं,’ बात में नरमी लाते हुए पिता ने कहा. ‘तो फिर वे कहीं नहीं जाएंगे.’ ‘बालक है, उस का भी भविष्य है. हम अपनी सुखसुविधा के लिए उस के भविष्य से खिलवाड़ नहीं कर सकते.’ विमाता ने चुप रहना उचित समझा. अपने पति के मन को वे ताड़ गई थी. बारबार रोकने की बात कहने से उन के चरित्र पर उंगली भी उठ सकती थी. फिर बेटे के भविष्य के बारे में सोचना भी जरूरी था. वे चुप रहीं. और पिता ने मुझ से कहा, ‘तुम इस घर के बड़े लड़के हो. तुम्हारा कर्तव्य बनता है घर की जिम्मेदारियां संभालना. उस के लिए तुम्हें पढ़लिख कर अच्छी नौकरी करना जरूरी है. तुम ऐसा करो, छतरपुर कालेज में ऐडमिशन ले लो. वहीं किराए का कमरा या होस्टल में रहने का इंतजाम कर लो. जो खर्चा आएगा मैं भेज दिया करूंगा.’

पिता के अंदर चल रहे संदेह को मैं समझ रहा था. मेरा मन उदासी से भर गया. मुझे लगा कि इतनी दूर चला जाऊं कि दोबारा पिता से मुलाकात न हो. मैं ने पिता से कहा, ‘छतरपुर में तो बस पढ़ाई हो सकेगी, उस के बाद क्या? मैं चाहता हूं कि किसी बड़े शहर में जा कर पढ़ाई करूं ताकि…’ पिता ने मेरी बात काटते हुए कहा, ‘तुम दिल्ली क्यों नहीं चले जाते. मेरे दोस्त का लड़का दिल्ली में पढ़ रहा है. मैं बात करता हूं उस से.’ पिता ने सारी जानकारी जुटाई और मुझ से कहा, ‘असगर अली का बेटा रहमान दिल्ली कालेज में पढ़ रहा है. तुम चले जाओ. सारे काम वह करवा देगा. अभी प्रवेशपरीक्षा चल रही है.’ मैं जाने के लिए एक पैर से तैयार था. जब तक मैं दिल्ली नहीं चला गया, पिता ने कोर्ट जाना बंद कर दिया और बारीक निगाह से अपनी पत्नी और मुझ पर नजर रखने लगे.

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मैं दिल्ली आ गया. इस बीच विमाता ने मुझ से कम ही बातचीत की. दिल्ली में तुम्हारा साथ मिला. खामोशियां टूटने लगीं. संदेह के पतझड़ से मुक्ति मिल गई. एक दिन तुम्हारे साथ पिक्चर देख कर होस्टल वापस लौटा तो विमाता का फोन आया. उन्होंने रोते हुए कहा, ‘एक तुम्हीं सहारा थे, तुम से बात कर के मन हलका हो जाता था, किंतु मेरी इतनी खुशी भी किसी से देखी नहीं गई. मैं तो घुटघुट कर जी रही हूं. काश कि आप ने अपने पिता का विरोध करने की हिम्मत की होती. काश कि तुम लौट आते. काश कि तुम मुझे अपने पास बुला सकते. जी करता है कि भाग जाऊं कहीं.’

‘भाग जाऊं’ शब्द पिता के कानों में पड़े जोकि शायद अचानक घर आ गए थे. उन्होंने मोबाइल छीन कर मुझ से बहुत गुस्से में कहा, ‘इतनी दूर जा कर भी ये तमाशा बंद नहीं हो रहा है. लानत है तुम्हारे जैसी नालायक, नीच औलाद पर.’ ‘मैं ने क्या किया? आप मुझ पर क्यों चिल्ला रहे हैं, जो कहना है आप अपनी पत्नी से कहिए,’ गुस्से में उत्तर दिया मैं ने. ‘यदि तुम सच्चे हो तो इस का प्रमाण दो.’ ‘प्रमाण किस बात का, मैं ने किया क्या है?’ ‘तुम्हारे साथ भागने की बात सुन चुका हूं मैं.’ ‘मैं ने ऐसा कुछ नहीं किया कि मुझे शर्मिंदा होना पड़े. और क्या प्रमाण चाहिए आप को मेरे निर्दोष होने का?’ ‘तुम शादी कर लो. मैं ने एक अच्छे घर की लड़की देखी है. जब तुम विवाहित हो जाओगे तो सारी बात खत्म हो जाएगी, अन्यथा यह सब चलता रहेगा.’ ‘अभी मेरी पढ़ाई चल रही है.’

‘तुम्हें तभी निर्दोष मानूंगा, जब तुम तुरंत दिल्ली छोड़ कर मेरे कहने पर विवाह कर लोगे. यही तुम्हारे शुद्ध चरित्र का और मेरे मन की शांति का इलाज होगा.’ ‘जैसा आप समझ रहे हैं वैसा कुछ नहीं है.’ मेरी बात सुन कर पिता ने कहा, ‘तुम इतने गिरे हुए निकलोगे मैं सोच भी नहीं सकता था. अपने पिता की स्त्री पर ही…’ ‘बस करिए. आप के दिमाग में संदेह बैठ गया है और शक का कोई इलाज नहीं.’ ‘इलाज है. यदि तुम अपने पिता को जीवित देखना चाहते हो तो तुरंत वापस आ कर शादी कर लो. यहां सब तैयार है.’ ‘क्या मेरे शादी करने से आप को मुझ पर विश्वास हो जाएगा?’

‘हां, यह शादी तुम्हारे लिए अग्निपरीक्षा है मेरी दृष्टि में.’ पिता की दृष्टि में स्वयं को निष्कलंक सिद्ध करने के लिए मुझे यह कदम उठाना पड़ा. मैं तुरंत गांव पहुंचा. पिता के चेहरे पर संतुष्टि और निश्ंिचतता के भाव थे. मुझे उन की खुशी देख कर सुकून मिला. उन्होंने मुझ से कहा, ‘तुम सीता की तरह पवित्र हो. मुझे क्षमा करना. मैं ने तुम पर शक किया.’ ग्लानि से उन का चेहरा झुका हुआ था. मेरे विवाह का विमाता ने विरोध किया. उन्होंने अपने पति से कहा, ‘आप अपने शक के हवनकुंड में अपने बेटे की आहुति नहीं चढ़ा सकते. आप को शक मुझ पर या अपने बेटे पर नहीं, अपने बुढ़ापे पर है. क्यों किया आप ने मुझ से विवाह? इस विवाह के कारण आप अपने बेटे के शत्रु बन गए. आप घर के मुखिया हैं, इस का अर्थ यह नहीं कि आप सब पर अन्याय करें.’

पिता ने कहा, ‘तुम्हें इस शादी से एतराज है. इस का क्या मतलब समझूं?’ ‘आप को जो मतलब निकालना हो निकालें. आप ने मेरे चरित्र पर भी कीचड़ उछाला है. मैं आप को माफ नहीं करूंगी. आप यह शादी अपने बेटे के चरित्र की जांच के लिए कर रहे हैं तो मैं इस शादी के खिलाफ हूं.’ ‘यह शादी हो कर रहेगी.’ ‘तो मैं चली मायके.’ ‘शौक से जाओ. मायके में तुम्हें पालने की क्षमता होती तो मेरे मत्थे क्यों मढ़ते.’ विमाता ने गुस्से में मायके का रुख किया.

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पिता को लगा, चलो, अच्छा है मुसीबत टली. शादी अच्छे से हो जाएगी. फिर रहेगी कितने दिन मायके में, आज नहीं तो कल आना ही पड़ेगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. वे नहीं आईं. बाद में पता चला कि वे अपने हमउम्र के किसी गैरजातीय युवक के साथ मुंबई चली गई हैं. गांव में तो अब उन का आना मुमकिन नहीं था. पंचायत ने बैठ कर निर्णय लिया था कि गांव में उन्हें प्रवेश न करने दिया जाए. विमाता ने मेरे प्रति अपनत्व दिखाया. मेरी अग्निपरीक्षा के विरुद्ध आवाज उठाई या उन्हें अपने हमउम्र जीवनसाथी की तलाश थी, कह नहीं सकता.

विमाता के जाने का पिता को कोई खास दुख नहीं हुआ. ऐसा प्रतीत हुआ कि उन के सिर से कोई बोझ उतर गया हो. क्योंकि शायद वे जान चुके थे कि उम्र का इतना अंतराल उन के लिए कभी भी घातक सिद्ध हो सकता था. यह बात वे समझ चुके थे. अब मैं छतरपुर में रह कर पढ़ाई करूंगा अगले वर्ष से. अपना शादीशुदा जीवन चलाने के लिए पिता ने मेरे हिस्से की जमीन बेच कर शहर में एक जनरल स्टोर की दुकान खुलवाने की तैयारी की हुई है.

तुम हमेशा मेरी स्मृति में रहोगी. पुनश्च: मैं कह नहीं सकता कि अपनी हमउम्र विमाता से मुझे प्रेम था, आकर्षण था, सहानुभूति थी, या कुछ और, तुम से यह सब कह कर मेरे मन का बोझ हलका हो गया. तुम्हारा खास दोस्त प्रशांत सिंह.

पत्र बंद किया मैं ने क्योंकि मेरा दिल और दिमाग दोनों भारी हो चुके थे. मेरा खास दोस्त जिस से मैं ने बहुत सी उम्मीदें पाल रखी थीं, पत्र पढ़ कर मेरी सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया.

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