प्रमाण दो: भाग 3- यामिनी और जीशान के रिश्ते की कहानी

लेखक- सत्यव्रत सत्यार्थी

पूर्व कथा

गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में दंगे होने के कारण नर्स यामिनी किसी तरह अस्पताल पहुंचती है. वहां पहुंचने पर सीनियर सिस्टर मिसेज डेविडसन यामिनी को बेड नं. 11 के मरीज जीशान को देखने को कहती है. यामिनी मिसेज डेविडसन को मां की तरह मानती है और मिसेज डेविडसन भी यामिनी को बेटी की तरह. शहर में होने वाले दंगों को देखते हुए मिसेज डेविडसन यामिनी को बारबार  समझाती है कि मरीजों के साथ ज्यादा घुलनेमिलने की जरूरत नहीं है.शहर में हुए दंगों से परेशान यामिनी के सामने अतीत की यादें ताजा होने लगती हैं कि किस तरह हिंदूमुसलिम दंगों के दौरान दंगाइयों ने उस का घर जला दिया था और वह अपनी सहेली के घर जाने के कारण बच गई थी. यही सोचतेसोचते उसे जीशान का ध्यान आता है.25 वर्षीय जीशान के घर में भी दंगाइयों ने आग लगा दी थी. बड़ी मुश्किल से जान बचा कर घायल अवस्था में वह अस्पताल पहुंचा था.

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आखिरी भाग

यामिनी जीशान की सेवा करती है ताकि वह जल्दी ठीक हो जाए. यामिनी और जीशान दोनों ही एकदूसरे के प्रति लगाव महसूस करते हैं. यामिनी से अलग होते समय जीशान उदास हो जाता है और कहता है कि मैं आप से कैसे मिलूंगा? मैं मुसलमान हूं और आप हिंदू, तो वह समझाती है कि हमारे बीच ऐसा कुछ नहीं है और वह अलविदा कह कर चला जाता है. यामिनी अपनी सहयोगी नर्स के साथ शहर में हुए दंगों पर चर्चा कर रही होती है कि तभी कालबेल बजती है. अब आगे…

हिंदूमुसलिम दंगों के दौरान मिले यामिनी और जीशान के बीच भाईबहन का रिश्ता कायम हो चुका था लेकिन दुनिया वाले इस रिश्ते को कहां पाक मानने वाले थे. क्या जीशान और यामिनी दुनिया के सामने अपने इस मुंहबोले रिश्ते को साबित कर पाए?गतांक से आगे…

ट्रेनी नर्स ने दरवाजा खोला. सामने खडे़ युवक ने उस को बताया, ‘‘सिस्टर, मैं जीशान का पड़ोसी हूं. क्या यामिनी मैडम यहीं रहती हैं?’’

‘‘हां, रहती तो यहीं हैं, मगर तुम्हें उन से क्या काम है?’’

‘‘उन्हें खबर कर दीजिए कि जीशान को पिछले 2 दिन से बहुत तेज बुखार है. उस ने मैडम को बुलाया है.’’

कमरे के अंदर बैठी यामिनी नर्स और आगंतुक की बातचीत ध्यान से सुन रही थी. जीशान के अतिशय बीमार होने की खबर सुन कर उस का दिल धक् से रह गया. यामिनी को लगा, मानो उस का कोई अपना कातर स्वर में उसे पुकार रहा हो. उस ने अपना मिनी फर्स्ट एड बौक्स उठाया और उस युवक के साथ निकल पड़ी.कमरे में बिस्तर पर बेसुध पड़ा जीशान कराह रहा था. यामिनी ने उस के माथे को छू कर देखा तो वह भट्ठी की तरह तप रहा था. यामिनी ने उसे जरूरी दवाएं दीं और एक इंजेक्शन भी लगा दिया. कुछ देर बाद जीशान की स्थिति कुछ संभली तो यामिनी ने पूछा, ‘‘जीशान, तुम अपने प्रति इतने लापरवाह क्यों हो? अपना ध्यान क्यों नहीं रखते?’’

‘‘ध्यान तो रखता हूं, पर बुखार का क्या करूं? खुद ब खुद आ गया.’’

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जीशान के इस भोलेपन पर यामिनी ने वात्सल्य भाव से कहा, ‘‘जब तक तुम स्वस्थ नहीं हो जाते, मैं रोजाना आया करूंगी और तुम्हारे लिए चाय, सूप जो भी होगा बनाऊंगी और अपने सामने दवाएं खिलाऊंगी.’’

‘‘ऐसा तो सिर्फ 2 ही लोग कर सकते हैं, मां अथवा बहन.’’

यामिनी कुछ बोलना चाहती थी कि जीशान कांपते स्वर में पूछ बैठा, ‘‘क्या मैं आप को दीदी कहूं? अस्पताल में जब पहली बार होश आया था और आप को तीमारदारी करते हुए पाया था तभी से मैं ने मन ही मन आप को बड़ी बहन मान लिया था. इस से ज्यादा खूबसूरत और पाक रिश्ता दूसरा नहीं हो सकता, क्योंकि यही रिश्ता इतनी खिदमत कर सकता है.’’

‘‘यह तो ठीक है, मगर….’’

‘‘दीदी, अब मुझे मत ठुकराओ, वरना मैं कभी दवा नहीं खाऊंगा. वैसे भी तो यह दोबारा की जिंदगी आप की ही बदौलत है. आप खूब जानती हैं कि मैं आप को देखे बगैर एक पल भी नहीं रह पाता.’’

यामिनी निरुत्तर थी. रिश्ता कायम हो चुका था. सारे देश में खूनखराबे का कारण बने 2 विरोधी धर्मों के युवकयुवती के बीच भाईबहन का अटूट रिश्ता पनप चुका था.

यामिनी जब जीशान के कमरे से निकली तो अगल- बगल और सामने के मकानों के दरवाजों से झांकती अनेक आंखों के पीछे के मनोभावों को ताड़ कर वह बेचैन हो उठी. दुकानों के बाहर झुंड बना कर खडे़ लोगों ने भी उसे विचित्र सी निगाहों से देखना शुरू कर दिया. लेकिन किसी की ओर देखे बिना वह सिर झुका कर चुपचाप चलती चली गई.

जीशान जब तक पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हो गया तब तक यह क्रम अनवरत चलता रहा. मिसेज डेविडसन को यामिनी का एक मरीज के प्रति इतना लगाव कतई पसंद नहीं था. एक दिन उन्होंने कह ही दिया, ‘‘जीशान के घर इस तरह हर रोज जाना ठीक नहीं है, यामिनी.’’

‘‘क्यों?’’ प्रश्नसूचक मुद्रा में यामिनी ने पूछा.

उन्होंने समझाते हुए कहा, ‘‘तुम कोई दूधपीती बच्ची नहीं हो, जिसे कुछ पता ही न हो. भले तुम उसे भाई समझती हो, किंतु कम से कम आज के माहौल में दुनिया वाले इस मुंहबोले रिश्ते को सहन करेेंगे क्या?’’

‘‘जब यह रिश्ता नहीं बना था तब दुनिया वालों ने मुझे या जीशान को बख्शा था क्या जो मैं इन की परवा करूं.’’

‘‘दुनिया में रह कर दुनिया वालों की परवा तो करनी ही पडे़गी.’’

‘‘मैं स्वयं भी इस बंजर जीवन से तंग आ गई हूं. नहीं रहना इस दुनिया में…तो किसी से डरना कैसा,’’ यामिनी ने कठोर मुद्रा में अपना पक्ष रखा.

मिसेज डेविडसन चुप हो गईं. उन्होंने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेर और यह कहते हुए उसे अपने साथ होस्टल लिवा ले गईं कि आज का खाना और सोना सब उन्हीं के साथ होना है.

यामिनी को बर्थ डे जैसे अनावश्यक चोंचले बिलकुल नहीं भाते थे. फिर भी मिसेज डेविडसन ने आज सुबह ही उस को याद दिलाया था कि आज रात का भोजन वह उसी के साथ उस के कमरे पर लेंगी और वह भी ‘स्पेशल.’ यामिनी ने हामी भर ली थी, क्योंकि प्रस्ताव केवल भोजन का था, बर्थ डे मनाने का नहीं.

घर आ कर फ्रेश होने के बाद वह और उस की साथी टे्रनी नर्स अच्छी मेहमाननवाजी की तैयारियों में जुट गईं कि अचानक यामिनी का मोबाइल बज उठा. दूसरी तरफ से जीशान बोल रहा था, ‘दीदी, आज 7 बजे तक आप जरूर आ जाइएगा. बहुत जरूरी काम है. 8 बजे तक हरहाल में मैं आप को आप के रूम पर वापस छोड़ दूंगा.’

‘किंतु मेरे भाई, यह अचानक ऐसी कौन सी आफत आ गई है?’

‘मेरे भाई’ शब्द सुनते ही जीशान का रोमरोम पुलकित हो उठा. कितनी मिठास, कितनी ऊर्जा थी इस पुकार में. वह समझ नहीं पा रहा था कि अपनी बात कैसे कहे. इन कुछ पलों की चुप्पी का अर्थ यामिनी समझ नहीं पा रही थी. उस ने कहा, ‘जीशान, आज मैं नहीं आ सकती. तुम हर बात पर जिद क्यों करते हो?’

‘दीदी, यह मेरी आखिरी जिद है. मान जाओ, फिर कभी भी ऐसी गुस्ताखी नहीं करूंगा,’ इतना कह कर जीशान ने फोन काट दिया था.

यामिनी अजीब संकट में पड़ गई. एक तरफ जीशान का ‘बुलावा’ था तो दूसरी तरफ मिसेज डेविडसन को दी गई उस की ‘सहमति’ थी. आखिर दिल ने जीशान के पक्ष में फैसला दे दिया.

यामिनी को कहीं जाने की तैयारी करते देख उस की साथी नर्स समझ गई कि मुंहबोले इस भाई के बुलावे ने यामिनी को विवश कर दिया है. फिर भी उस ने पूछा, ‘‘मैम, मिसेज डेविडसन का क्या होगा?’’

‘‘होगा क्या? थोड़ा सा गुस्सा, थोड़ा बड़बड़ाना और फिर मेरी सुरक्षित वापसी के लिए प्रार्थना, हर मां ऐसी ही होती है,’’ कहते हुए यामिनी निकल पड़ी.

जीशान के कमरे पर यामिनी पहुंची तो देखा दरवाजा खुला था. कमरे में जो दृश्य देखा तो वह अवाक् रह गई. मेज पर सजा ‘केक’ और उस पर जलती एक कैंडिल, एक खूबसूरत नया ‘चाकू’ और नया ‘ज्वेलरी केस’ सबकुछ बड़ा विचित्र लग रहा था. इन सब चीजों को विस्मय से देखती हुई यामिनी की आंखें जीशान को ढूंढ़ रही थीं. उस के मन में संशय उठा कि कहीं उस के साथ कोई अनहोनी तो नहीं हो गई. उस ने जैसे ही जीशान को आवाज लगाई, ठीक उसी समय दरवाजे पर आहट हुई और जीशान हंसते हुए कमरे में प्रवेश कर रहा था. उस के एक हाथ में रक्षासूत्र और एक हाथ में ताजे फूल थे.

जीशान को सामने पा कर यामिनी आश्वस्त हो गई. उस ने अपने को संयत करते हुए पूछा, ‘‘इस तरह कहां चले गए थे? और वह भी कमरा खुला छोड़ कर, तुम्हें अक्ल क्यों नहीं आती? और यह सब क्या है?’’

‘‘एक गरीब भाई की तरफ से अपनी दीदी के बर्थ डे पर एक छोटा सा जलसा.’’

अपनत्व की इतनी सच्ची, इतनी निश्छल प्रतिक्रिया यामिनी ने अपने अब तक के जीवन में नहीं देखी थी. भावातिरेक में उस के नेत्र सजल हो उठे. उस ने रुंधे गले से कहा, ‘‘मेरे भाई, अब तक तुम क्यों नहीं मिले? कहां छिपे थे तुम अब तक? मिले भी तो तब जब हम दोनों के रिश्ते दुनिया के लिए कांटे सरीखे हैं.’’

जीशान ने अपना हाथ यामिनी के मुंह पर रखते हुए कहा, ‘‘अब और नहीं, दीदी, आज आप का जन्मदिन है. अब चलिए, केक काटिए और यह जलती हुई मोमबत्ती बुझाइए.’’

यामिनी ने जीशान की खुशी के लिए सब किया. केक काटा और मोमबत्ती बुझाई. किसी बच्चे के समान ताली बजा कर जीशान जोर से बोल उठा, ‘‘हैप्पी बर्थडे-टू यू माई डियर सिस्टर,’’ फिर केक का एक टुकड़ा उठा कर यामिनी के मुंह में डाला और आधा तोड़ कर स्वयं खा लिया.

यामिनी ने घड़ी पर निगाह डाली. 8 बजने में कुछ ही मिनट बाकी थे. उस ने जीशान को याद दिलाते हुए जाने का उपक्रम किया. जीशान ने यामिनी से सिर्फ 2 मिनट का समय और मांगा. उस ने यामिनी से आंखें मूंद कर सामने घूम जाने का अनुरोध किया. यंत्रचालित सी यामिनी ने वैसा ही किया. जीशान ने एक फूल यामिनी के पैरों पर स्पर्श कर अपने माथे से लगाया.

तभी जीशान ने अपनी दाईं कलाई और बाएं हाथ का रक्षासूत्र यामिनी की ओर बढ़ा दिया. यामिनी उस का मकसद समझ गई. उस ने मेज पर पड़े फूल उस पर निछावर किए और राखी बांध दी.

वह आदर भाव से अपनी दीदी के पैर छूने को झुका ही था कि दरवाजा भड़ाक से खुला और 10-12 खूंखार चेहरे तलवार, डंडा, हाकी आदि ले कर दनदनाते हुए कमरे में घुस गए और उन्हें घेर लिया.

एक बोला, ‘‘क्या गुल खिलाए जा रहे हैं यहां?’’

दूसरा बोला, ‘‘यह शरीफों का महल्ला है. इस तरह की बेहयायी करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे पड़ी?’’

तीसरा बोला, ‘‘यह बदचलन औरत है. मैं ने अकसर इसे यहां आते देखा है.’’

भद्दी सी गाली देते हुए चौथा बोला, ‘‘रास रचाने को तुम्हें यह ंमुसलमान ही मिला था, सारे हिंदू मर गए थे क्या?’’

भीड़ में से कोई ललकराते हुए बोला, ‘‘देखते क्या हो? इस विधर्मी को काट डालो और उठा कर ले चलो इस मेनका को.’’

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यामिनी ने अपना कलेजा कड़ा किया और दृढ़ता से जीशान के आगे खड़ी हो कर बोली, ‘‘इसे नहीं, दोष मेरा है, मेरे टुकड़ेटुकड़े कर डालो क्योंकि मैं हिंदू हूं. आप लोगों की प्रतिष्ठा मेरे नाते धूमिल हुई है.’’

यह सब देख कर जीशान में भी साहस का संचार हुआ. वह यामिनी के आगे आ गया और अपनी दाहिनी कलाई उन के सामने उठाते हुए बोला, ‘‘आप लोग खुद देख लीजिए, हमारा रिश्ता क्या है? राखी तो सिर्फ बहन ही अपने भाई को बांधती है.’’

उस का हाथ झटकते हुए एक बोला, ‘‘अबे, तू क्या जाने बहनभाई के रिश्ते को. तुझ जैसों को तो सिर्फ मौका चाहिए किसी हिंदू लड़की को भ्रष्ट करने का. वैसे भी आज रक्षाबंधन है क्या?’’

तभी यामिनी को एक अवसर मिल गया. उस ने तर्क भरे लहजे में कहा, ‘‘रानी कर्णावती ने जब हुमायूं को राखी भेजी थी तब भी तो रक्षाबंधन नहीं था. किंतु आप लोग यह सारी लुभावनी मानवतापूर्ण बातें तो केवल मंच से ही बोलते हैं, व्यवहार में तो वही करते हैं जैसा अभी यहां कर रहे हैं.’’

यह तर्क सुन कर भीड़ के ज्यादातर युवक बगलें झांकने लगे. किंतु एक ने उस के तर्क को काटते हुए कहा, ‘‘हुमायूं ने तो राखी के धर्म का निर्वाह किया था. भाई के समान उस ने रानी कर्णावती के लिए खून बहाया था. तुम्हारा यह भाई क्या ऐसा प्रमाण दे सकता है?’’

यामिनी यह सुन कर अचकचा गई. उसे कोई तर्क नहीं सूझ रहा था. तभी अचानक जीशान ने मेज पर पड़ा चाकू उठाया और राखी वाली कलाई की नस काट डाली. खून की धार बह चली. खूंखार चेहरे एकएक कर अदृश्य होते गए. काफी देर तक यामिनी मूर्तिवत् खड़ी रह गई. उस की चेतनशून्यता तब टूटी जब गरम रक्त का आभास उस के पांवों को हुआ. उस का ध्यान जीशान की ओर गया, जो मूर्छित हो कर जमीन पर पड़ा था.

यामिनी को कुछ भी नहीं सूझ रहा था. उस ने अपने आंचल का किनारा फाड़ा और कस कर जीशान की कलाई पर बांध दिया. उसी समय दरवाजे पर मिसेज डेविडसन और यामिनी की रूमपार्टनर खड़ी दिखाई दीं. उन दोनों ने फोन कर के एंबुलेंस मंगा ली थी.

जीशान एक बार फिर उसी अस्पताल की ओर जा रहा था जहां से उसे जीवनदान और यह रिश्ता मिला था. उस का सिर यामिनी की गोद में था. यामिनी के हाथ प्यार से उस का माथा सहला रहे थे.

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आखिरी लोकल : शिवानी और शिवेश की कहानी

लेखक-  राजीव रोहित

शिवानी और शिवेश दोनों मुंबई के शिवाजी छत्रपति रेलवे स्टेशन पर लोकल से उतर कर रोज की तरह अपने औफिस की तरफ जाने के लिए मुड़ ही रहे थे कि शिवानी ने कहा, ‘‘सुनो, आज मुझे नाइट शो में ‘रईस’ देखनी ही देखनी है, चाहे कुछ भी हो जाए.’’ ‘‘अरे, यह कैसी जिद है?’’

शिवेश ने हैरान हो कर कहा. ‘‘जिदविद कुछ नहीं. मुझे बस आज फिल्म देखनी है तो देखनी है,’’ शिवानी ने जैसे फैसला सुना दिया हो.  ‘‘अच्छा पहले इस भीड़ से एक तरफ आ जाओ, फिर बात करते हैं,’’ शिवेश ने शिवानी का हाथ पकड़ कर एक तरफ ले जाते हुए कहा.

‘‘आज तो औफिस देर तक रहेगा. पता नहीं, कितनी देर हो जाएगी. तुम तो जानती हो,’’ शिवेश ने कहा.  ‘‘मुझे भी मालूम है. पर जनाब, इतनी भी देर नहीं लगने वाली है. ज्यादा बहाना बनाने की जरूरत नहीं है. यह कोई मार्च भी नहीं है कि रातभर रुकना पड़ेगा. सीधी तरह बताओ कि आज फिल्म दिखाओगे या नहीं?’’

‘‘अच्छा, कोशिश करूंगा,’’ शिवेश ने मरी हुई आवाज में कहा.

‘‘कोशिश नहीं जी, मुझे देखनी है तो देखनी है,’’ शिवानी ने इस बार थोड़ा मुसकरा कर कहा. शिवेश ने शिवानी की इस दिलकश मुसकान के आगे हथियार डाल दिए.

‘‘ठीक है बाबा, आज हम फिल्म जरूर देखेंगे, चाहे कुछ भी हो जाए.’’  शिवानी की इसी मुसकान पर तो शिवेश कालेज के जमाने से ही अपना दिल हार बैठा था. दोनों ही कालेज के जमाने से एकदूसरे को जानते थे, पसंद करते थे.  शिवानी ने उस के प्यार को स्वीकार तो किया था, लेकिन एक शर्त भी रख दी थी कि जब तक दोनों को कोई ढंग की नौकरी नहीं मिलेगी, तब तक कोई शादी की बात नहीं करेगा.

शिवेश ने यह शर्त खुशीखुशी मान ली थी. दोनों ही प्रतियोगिता परिक्षाओं की तैयारी में जीजान से लग गए थे. आखिरकार दोनों को कामयाबी मिली. पहले शिवेश को एक निजी पर सरकार द्वारा नियंत्रित बीमा कंपनी में क्लर्क के पद पर पक्की नौकरी मिल गई, फिर उस के 7-8 महीने बाद शिवानी को भी एक सरकारी बैंक में अफसर के पद पर नौकरी मिल गई थी.

मुंबई में उन का यह तीसरा साल था. तबादला तो सरकारी कर्मचारी की नियति है. हर 3-4 साल के अंतराल पर उन का तबादला होता रहा था. 15 साल की नौकरी में अब तक दोनों 3 राज्यों के  4 शहरों में नौकरी कर चुके थे.  शिवानी ने इस बार तबादले के लिए मुंबई आवेदन किया था. दोनों को मुंबई अपने नाम से हमेशा ही खींचती आई थी. वैसे भी इस देश में यह बात आम है कि किसी भी शहर के नागरिकों में कम से कम एक बार मुंबई घूमने की ख्वाहिश जरूर होती है. कुछ लोगों को यह इतनी पसंद आती है कि वे मुंबई के हो कर ही रह जाते हैं.

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इस शहर की आबादी दिनोंदिन बढ़ते रहने की एक वजह यह भी है. हालांकि शिवानी और शिवेश ने अभी तक मुंबई में बस जाने का फैसला नहीं लिया था, फिर भी फिलहाल मुंबई में कुछ दिन बिताने के बाद वे यहां के लाइफ स्टाइल से अच्छी तरह परिचित तो हो ही चुके थे.  वे तकरीबन पूरी मुंबई घूम चुके थे. जब कभी उन की मुंबई घूमने की इच्छा होती थी, तो वे मुंबई दर्शन की बस में बैठ जाते और पूरी मुंबई को देख लेते थे. अपने रिश्तेदारों के साथ भी वे यह तकनीक अपनाते थे.

कभीकभी जब शिवानी की इच्छा होती तो दोनों अकसर शनिवार की रात कोई फिल्म देख लेते थे. खासतौर पर जब शाहरुख खान की कोई नई फिल्म लगती तो शिवानी फिर जिद कर के रिलीज के दूसरे दिन यानी शनिवार को ही वह फिल्म देख लेती थी. आज भी उस के पसंदीदा हीरो की फिल्म की रिलीज का दूसरा ही दिन था. समीक्षकों ने फिल्म की धज्जियां उड़ा दी थीं, फिर भी शिवानी पर इस का कोई असर नहीं पड़ा था. बस देखनी है तो देखनी है.

‘‘ये फिल्मों की समीक्षा करने वाले फिल्म बनाने की औकात रखते हैं क्या?’’ वह चिढ़ कर कहती थी.  ‘‘ऐसा न कहो.

सब लोग अपने पेशे के मुताबिक ही काम करते हैं. समीक्षक  भी फिल्म कला से अच्छी तरह परिचित होते हैं. प्रजातांत्रिक देश है मैडमजी. कहने, सुनने और लिखने की पूरीपूरी आजादी है.  ‘‘यहां लोग पहले की समीक्षाएं पढ़ कर फिल्म समीक्षा करना सीखते हैं, जबकि विदेशों में फिल्म समीक्षा  भी पढ़ाई का एक जरूरी अंग है,’’ शिवेश अकसर समझाने की कोशिश करता था. ‘‘बसबस, ज्यादा ज्ञान देने की जरूरत नहीं. मैं समझ गई. लेकिन फिल्म मैं जरूर देखूंगी,’’ अकसर किसी भी बात का समापन शिवानी हाथ जोड़ते हुए मुसकरा कर अपनी बात कहती थी और शिवेश हथियार डाल देता था. आज भी वैसा ही हुआ. ‘‘अच्छा चलो महारानीजी, तुम जीती मैं हारा. रात का शो हम देख रहे हैं. अब खुश?’’ शिवेश ने भी हाथ जोड़ लिए.  ‘‘हां जी, जीत हमेशा पत्नी की होनी चाहिए.’’  ‘‘मान लिया जी,’’ शिवेश ने मुसकरा कर कहा.

‘‘मन तो कर रहा है कि तुम्हारा मुंह  चूम लूं, लेकिन जाने दो. बच गए. पब्लिक प्लेस है न,’’ शिवानी ने बड़ी अदा से कहा. इस मस्ती के बाद दोनों अपनेअपने औफिस की तरफ चल दिए. औफिस पहुंच कर दोनों अपने काम में बिजी हो गए. काम निबटातेनिबटाते कब साढ़े  5 बज जाते थे, किसी को पता ही नहीं चलता था. शिवेश ने आज के काम जल्दी निबटा लिए थे. ऐसे भी अगले दिन रविवार की छुट्टी थी.

लिहाजा, आराम से रात के शो में फिल्म देखी जा सकती थी. उस ने शिवानी से बात करने का मन बनाया. अपने मोबाइल से उस ने शिवानी को फोन लगाया. ‘हांजी पतिदेव महोदय, क्या इरादा है?’ शिवानी ने फोन उठाते हुए पूछा. ‘‘जी महोदया, मेरा काम तो पूरा हो चुका है. क्या हम साढ़े 6 बजे का शो भी देख सकते हैं?’’ ‘जी नहीं, माफ करें स्वामी. हमारा काम खत्म होने में कम से कम एक घंटा और लगेगा. आप एक घंटे तक मटरगश्ती भी कर सकते हैं,’ शिवानी ने मस्ती में कहा.

‘‘आवारागर्दी से क्या मतलब है तुम्हारा?’’ शिवेश जलभुन गया.

‘अरे बाबा, नाराज नहीं होते. मैं तो मजाक कर रही थी,’ कह कर शिवानी हंस पड़ी थी.  ‘‘मैं तुम्हारे औफिस आ जाऊं?’’ ‘नो बेबी, बिलकुल नहीं. तुम्हें यहां चुड़ैलों की नजर लग जाएगी. ऐसा करो, तुम सिनेमाघर के पास पहुंच जाओ. वहां किताबों की दुकान है. देख लो कुछ नई किताबें आई हैं क्या?’ ‘‘ठीक है,’’ शिवेश ने कहा, ‘‘और हां, टिकट खरीदने की बारी तुम्हारी है. याद है न?’’ ‘हां जी याद है. अब चलो फोन रखो,’ शिवानी ने हंस कर कहा.

शिवेश औफिस से निकल कर सिनेमाघर की तरफ चल पड़ा. मुंबई में ज्यादातर सिनेमाघर अब मल्टीप्लैक्स में शिफ्ट हो गए थे. यह हाल अभी तक सिंगल स्क्रीन वाला था. स्टेशन के नजदीक होने के चलते यहां किसी भी नई फिल्म का रिलीज होना तय था. मुंबई का छत्रपति शिवाजी रेलवे टर्मिनस, जो पहले विक्टोरिया टर्मिनस के नाम से मशहूर था, आज भी पुराने छोटे नाम ‘वीटी’ से ही मशहूर था.

स्टेशन से लगा हुआ बहुत बड़ा बाजार था, जहां एक से एक हर किस्म के सामानों की दुकानें थीं. हुतात्मा चौक के पास फुटपाथों पर बिकने वाली किताबों की खुली दुकानों के अलावा भी किताबों की दुकानों की भरमार थी.  रेलवे स्टेशन से गेटवे औफ इंडिया तक मुंबई 2 भागों डीएन रोड और फोर्ट क्षेत्र में बंटा हुआ था. दुकानें दोनों तरफ थीं. एक मल्टीस्टोर भी था. यहां सभी ब्रांडों के म्यूजिक सिस्टम मिलते थे. इस के अलावा नईपुरानी फिल्मों की सीडी या फिर डीवीडी भी मिलती थी.

शिवेश ने यहां अकसर कई पुरानी फिल्मों की डीवीडी और सीडी खरीदी  थी. आज  उस के पास किताबें और फिल्मों की डीवीडी और सीडी भरपूर मात्रा में थीं. हिंदी सिनेमा के सभी कलाकारों की पुरानी से पुरानी और नई फिल्मों की उस ने इकट्ठी कर के रखी थीं. ‘चलो आज नई किताबें ही देख लेते हैं,’ यह सोच कर के वह किताबों की दुकान में घुसने ही वाला था कि सामने एक पुराना औफिस साथी नरेश दिख दिख गया.

‘‘अरे शिवेश, आज इधर?’’  ‘‘हां, कुछ किताबें खरीदनी थीं,’’ शिवेश ने जवाब दिया.  ‘‘तुम तो दोनों कीड़े हो, किताबी भी और फिल्मी भी. फिल्में नहीं खरीदोगे?’’ ‘‘वे भी खरीदनी हैं, पर ब्रांडेड खरीदनी हैं.’’ ‘‘फिर तो इंतजार करना होगा. नई फिल्में इतनी जल्दी तो आएंगी नहीं.’’ ‘‘वह तो है, इसलिए आज सिर्फ किताबें खरीदनी हैं. आओ, साथ में अंदर चलो.’’

‘‘रहने दो यार. तुम तो जानते ही हो, किताबों से मेरा छत्तीस का आंकड़ा है,’’ यह कह कर हंसते हुए नरेश वहां से चला गया. शिवेश ने चैन की सांस ली कि चलो पीछा छूटा. इस बीच मोबाइल की घंटी बजी. ‘कहां हो बे?’ शिवानी ने पूछा.

‘‘अरे यार, कोई आसपास नहीं है क्या? कोई सुनेगा तो क्या कहेगा?’’ शिवेश ने झूठी नाराजगी जताई. शिवानी अकसर टपोरी भाषा में बात करती थी.  ‘अरे कोई नहीं है. सब लोग चले गए हैं. मैं भी शटडाउन कर रही हूं. बस निकल ही रही हूं.’ ‘‘इस का मतलब है, औफिस तुम्हें ही बंद करना होगा.’’ ‘बौस है न बैठा हुआ. वह करेगा औफिस बंद. पता नहीं, क्याक्या फर्जी आंकड़े तैयार कर रहा है?’ ‘‘मार्केटिंग का यही तो रोना है बेबी. खैर, छोड़ो. अपने को क्या करना है. तुम बस निकल लो यहां के लिए.’’

‘हां, पहुंच जाऊंगी.’ ‘‘साढ़े 9 बजे का शो है. अब भी सोच लो.’’ ‘अब सोचना क्या है जी. देखना है तो बस देखना है. भले ही रात स्टेशन पर गुजारनी पड़े.’ ‘‘पूछ कर गलती हो गई जानेमन. सहमत हुआ. देखना है तो देखना है.’’ शिवेश ने बात खत्म की और किताब  की दुकान के अंदर चला गया.

शिवेश ने कुछ किताबें खरीदीं और फिर बाहर आ कर शिवानी का इंतजार करने लगा. थोड़ी देर में ही शिवानी आ गई. दोनों सिनेमाघर पहुंच गए, जो वहां से कुछ ही दूरी पर था. भीड़ बहुत ज्यादा नजर नहीं आ रही थी.  ‘‘देख लो, तुम्हारे हीरो की फिल्म के लिए कितनी जबरदस्त भीड़ है,’’ शिवेश ने तंज कसते हुए कहा.  ‘‘रात का शो है न, इसलिए भी कम है.’’ शिवानी हार मानने वालों में कहां थी.  ‘‘बिलकुल सही. चलो टिकट लो,’’ शिवेश ने शिवानी से कहा.

‘‘लेती हूं बाबा. याद है मुझे कि  आज मेरी  बारी है,’’ शिवानी ने हंसते हुए कहा.  शिवानी ने टिकट ली और शिवेश के साथ एक कोने में खड़ी हो गई.  शो अब शुरू ही होने वाला था. दोनों सिनेमाघर के अंदर चले गए. परदे पर फिल्म रील की लंबाई देख कर दोनों चिंतित हो गए. ‘‘ठीक 12 बजे हम लोग बाहर निकल जाएंगे, वरना आखिरी लोकल मिलने से रही,’’ शिवेश ने धीमे से शिवानी के कान में कहा.  ‘‘जो हो जाए, पूरी फिल्म देख कर ही जाएंगे.’’ ‘‘ठीक है बेबी. आज पता चलेगा कि नाइट शो का क्या मजा होता है.’’  फिर दोनों फिल्म देखने में मशगूल हो गए.

शिवानी पूरी मगन हो कर फिल्म देख रही थी. शिवेश का ध्यान बारबार घड़ी की तरफ था. इंटरवल हुआ तो उस समय तकरीबन 11 बज रहे थे. शिवानी ने उस की तरफ देखा और उस से पूछ बैठी, ‘‘क्या बात है, बहुत चिंतित लग रहे हो?’’ ‘‘11 बज रहे हैं. फिल्म खत्म होतेहोते साढ़े 12 बज जाएंगे. स्टेशन पहुंचने तक तो एक जरूर बज जाएगा.’’ ‘‘बजने दो. कौन परवाह करता है?’’ शिवानी ने बेफिक्र हो कर जवाब दिया.  इस बीच इंटरवल खत्म हो चुका था. फिल्म फिर शुरू हो गई. पूरी फिल्म के दौरान शिवेश बारबार घड़ी देख रहा था, जबकि शिवानी फिल्म देख रही थी.

फिल्म साढ़े 12 बजे खत्म हुई. दोनों बाहर निकले. पौने 1 बजे की लास्ट लोकल उन की आखिरी उम्मीद थी. तेजी से वे दोनों स्टेशन की तरफ बढ़ चले.  ‘‘आखिरी लोकल तो एक चालीस की खुलती है न?’’ शिवानी ने चलतेचलते पूछा.  ‘‘वह फिल्मी लोकल थी. हकीकत में रात 12 बज कर 45 मिनट पर आखिरी लोकल खुलती है.’’ शिवानी के चेहरे पर पहली बार डर नजर आया. ‘‘डरो मत. देखा जाएगा,’’ शिवेश ने आत्मविश्वास से भरी आवाज में जवाब दिया. आखिर वही हुआ, जिस का डर था. लोकल ट्रेन परिसर के फाटक बंद हो रहे थे. अंदर जो लोग थे, सब को बाहर किया जा रहा था. ‘अब कहां जाएंगे?’ दोनों एकदूसरे से आंखों में सवाल कर रहे थे.

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‘‘अब क्या करेंगे हम? पहली लोकल ट्रेन सुबह साढ़े 3 बजे की है?’’ शिवेश ने कहा.  शिवानी एकदम चुपचाप थी, जैसे सारा कुसूर उसी का था.  ‘‘मुझे माफ कर दो. मेरी ही जिद से यह सब हो रहा है,’’ शिवानी बोली. ‘‘कोई बात नहीं. आज हमें एक मौका मिला है. मुंबई को रात में देखने का, तो क्यों न इस मौके का भरपूर फायदा उठाया जाए.  ‘‘बहुत सुन रखा था, मुंबई रात को सोती नहीं है. रात जवान हो जाती है वगैरह. क्या खयाल है आप का?’’ शिवेश ने मुसकरा कर शिवानी की तरफ देखते हुए पूछा.

‘‘यहां पर तो मेरी जान जा रही है और तुम्हें मस्ती सूझ रही है. पता नहीं, घर वाले क्याक्या सोच रहे होंगे?’’ ‘‘तुम तो ऐसे डर रही हो, जैसे मैं तुम्हें यहां पर भगा कर लाया हूं.’’  शिवेश ने जोरदार ठहाका लगाते हुए कहा. ‘‘चलो, घर वालों को बता दो.’’ ‘‘बता दिया जी.’’ ‘‘वैरी गुड.’’ ‘‘जी मैडम, अब चलो कुछ खायापीया जाए.’’ दोनों स्टेशन परिसर से बाहर आए. कई होटल खुले हुए थे.  ‘‘चलो फुटपाथ के स्टौल पर खाते हैं,’’ शिवेश ने कहा.

स्टेशन के बाहर सभी तरह के खाने के कई स्टौल थे. वे एक स्टौल के पास रुके.  एक प्लेट चिकन फ्राइड राइस और एक प्लेट चिकन लौलीपौप ले कर एक ही प्लेट में दोनों ने खाया.  ‘‘अब मैरीन ड्राइव चला जाए?’’ शिवेश ने प्रस्ताव रखा. ‘‘इस समय…? रात के 2 बजने वाले हैं. मेरा खयाल है, स्टेशन के आसपास ही घूमा जाए. एकडेढ़ घंटे की ही तो बात है,’’ शिवानी ने उस का प्रस्ताव खारिज करते हुए कहा. ‘‘यह भी सही है,’’ शिवेश ने भी हथियार डाल दिए. वे दोनों एक बस स्टौप के पास आ कर रुके. यहां मेकअप में लिपीपुती कुछ लड़कियां खड़ी थीं.

शिवेश और शिवानी ने एकदूसरे की तरफ गौर से देखा. उन्हें मालूम था कि रात के अंधेरे में खड़ी ये किस तरह की औरतें हैं.  वे दोनों जल्दी से वहां से निकलना  चाहते थे. इतने में जैसे भगदड़ मच गई. बस स्टौप के पास एक पुलिस वैन आ कर रुकी. सारी औरतें पलभर में गायब हो गईं. लेकिन मुसीबत तो शिवानी और शिवेश पर आने वाली थी. ‘‘रुको, तुम दोनों…’’ एक पुलिस वाला उन पर चिल्लाया. शिवानी और शिवेश दोनों ठिठक कर रुक गए.

‘‘इतनी रात में तुम दोनों इधर कहां घूम रहे हो?’’ एक पुलिस वाले ने पूछा. ‘‘अरे देख यार, यह औरत तो धंधे वाली लगती है,’’ दूसरे पुलिस वाले ने बेशर्मी से कहा.  ‘‘किसी शरीफ औरत से बात करने का यह कौन सा नया तरीका है?’’ शिवेश को गुस्सा आ रहा था.  ‘‘शरीफ…? इतनी रात में शराफत दिखाने निकले हो शरीफजादे,’’ एक सिपाही ने गौर से शिवानी को घूरते हुए कहा. ‘‘वाह, ये धंधे वाली शरीफ औरतें कब से बन गईं?’’ दूसरे सिपाही ने  एक भद्दी हंसी हंसते हुए कहा.

शिवेश का जी चाहा कि एक जोरदार तमाचा जड़ दे.  ‘‘देखिए, हम लोग सरकारी दफ्तर में काम करते हैं. आखिरी लोकल मिस हो गई, इसलिए हम लोग फंस गए,’’ शिवेश ने समाने की कोशिश की. ‘‘वाह, यह तो और भी अजीब बात है. कौन सा सरकारी विभाग है, जहां रात के 12 बजे छुट्टी होती है? बेवकूफ बनाने की कोशिश न करो.’’ ‘‘ये रहे हमारे परिचयपत्र,’’ कहते हुए शिवेश ने अपना और शिवानी का परिचयपत्र दिखाया.  ‘‘ठीक है. अपने किसी भी औफिस वाले से बात कराओ, ताकि पता चल सके कि तुम लोग रात को 12 बजे तक औफिस में काम कर रहे थे,’’ इस बार पुलिस इंस्पैक्टर ने पूछा, जो वैन से बाहर आ गया था. ‘‘इतनी रात में किसे जगाऊं? सर, बात यह है कि हम ने औफिस के बाद नाइट शो का प्लान किया था. ये रहे टिकट,’’ शिवेश ने टिकट दिखाए.

‘‘मैं कुछ नहीं सुनूंगा. अब तो थाने चल कर ही बात होगी. चलो, दोनों को वैन में डालो,’’ इंस्पैक्टर वरदी के रोब में कुछ सुनने को तैयार ही नहीं था.  शिवानी की आंखों में आंसू आ गए.  बुरी तरह घबराए हुए शिवेश की समा में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? किसे फोन करे? अचानक एक सिपाही शिवेश को पकड़ कर वैन की तरफ ले जाने लगा.  शिवानी चीख उठी, ‘‘हैल्प… हैल्प…’’ लोगों की भीड़ तो इकट्ठा हुई, पर पुलिस को देख कर कोई सामने आने की हिम्मत नहीं कर पाया.

थोड़ी देर में एक अधेड़ औरत भीड़ से निकल कर सामने आई. ‘‘साहब नमस्ते. क्यों इन लोगों को तंग कर रहे हो? ये शरीफ इज्जतदार लोग हैं,’’ वह औरत बोली. ‘‘अब धंधे वाली बताएगी कि कौन शरीफ है? चल निकल यहां से, वरना तुझे भी अंदर कर देंगे,’’ एक सिपाही गुर्राया. ‘‘साहब, आप को भी मालूम है कि इस एरिया में कितनी धंधे वाली हैं. मैं भी जानती हूं कि यह औरत हमारी तरह  नहीं है.’’ ‘‘इस बात का देगी बयान?’’ ‘‘हां साहब, जहां बयान देना होगा, दे दूंगी. बुला लेना मुझे. हफ्ता बाकी है, वह भी दे दूंगी. लेकिन अभी इन को छोड़ दो,’’ इस बार उस औरत की आवाज कठोर थी. ‘हफ्ता’ शब्द सुनते ही पुलिस वालों को मानो सांप सूंघ गया. इस बीच भीड़ के तेवर भी तीखे होने लगे.

पुलिस वालों को समा में आ गया कि उन्होंने गलत जगह हाथ डाला है. ‘‘ठीक है, अभी छोड़ देते हैं, फिर कभी रात में ऐसे मत भटकना.’’ ‘‘वह तो कल हमारे मैनेजर ही एसपी साहब से मिल कर बताएंगे कि रात में उन के मुलाजिम क्यों भटक रहे थे,’’ शिवेश बोला.   ‘‘जाने दे भाई, ये लोग मोटी चमड़ी के हैं. इन पर कोई असर नहीं  होगा,’’ उस अधेड़ औरत ने शिवेश को समाते हुए कहा. ‘‘अब निकलो साहब,’’ उस औरत ने पुलिस इंस्पैक्टर से कहा. सारे पुलिस वाले उसे, शिवानी, शिवेश और भीड़ को घूरते हुए वैन में सवार हो गए. वैन आगे बढ़ गई. शिवेश और शिवानी ने राहत की सांस ली.

‘‘आप का बहुतबहुत शुक्रिया. आप नहीं आतीं तो उन पुलिस वालों को समाना मुश्किल हो जाता,’’ शिवानी ने उस औरत का हाथ पकड़ कर कहा.  ‘‘पुलिस वालों को समाना शरीफों के बस की बात नहीं. अब जाओ और स्टेशन के आसपास ही रहो,’’ उस अधेड़ औरत ने शिवानी से कहा. ‘‘फिर भी, आप का एहसान हम जिंदगीभर नहीं भूल पाएंगे. कभी कोई काम पड़े तो हमें जरूर याद कीजिएगा,’’ शिवेश ने अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर उसे देते हुए कहा. ‘‘यह कार्डवार्ड ले कर हम क्या करेंगे? रहने दे भाई,’’ उस औरत ने कार्ड लेने से साफ इनकार कर दिया.

शिवानी ने शिवेश की तरफ देखा, फिर अपने पर्स से 500 रुपए का एक नोट निकाल कर उसे देने के लिए हाथ आगे बढ़ाया. ‘‘कर दी न छोटी बात. तुम शरीफों की यही तकलीफ है. हर बात के लिए पैसा तैयार रखते हो. हर काम पैसे के लिए नहीं करती मैं…’’ उस औरत ने हंस कर कहा. ‘‘अब जाओ यहां से. वे दोबारा भी आ सकते हैं.’’ शिवेश और शिवानी की भावनाओं पर मानो घड़ों पानी फिर गया. वे दोनों वहां से स्टेशन की तरफ चल पड़े, पहली लोकल पकड़ने के लिए.  पहली लोकल मिली. फर्स्ट क्लास का पास होते हुए भी वे दोनों सैकंड क्लास के डब्बे में बैठ गए. ‘‘क्यों जी, आज सैकंड क्लास की जिद क्यों?’’ शिवानी ने पूछा.  ‘‘ऐसे ही मन किया. पता है, एक जमाने में ट्रेन में थर्ड क्लास भी हुआ करती थी,’’ शिवेश ने गंभीरता से कहा.

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‘‘उसे हटाया क्यों?’’ शिवानी ने बड़ी मासूमियत से पूछा.  ‘‘सरकार को लगा होगा कि इस देश में 2 ही क्लास होनी चाहिए. फर्स्ट और सैकंड,’’ शिवेश ने कहा, ‘‘क्योंकि, सरकार को यह अंदाजा हो गया कि जिन का कोई क्लास नहीं होगा, वे लोग ही फर्स्ट और सैकंड क्लास वालों को बचाएंगे और वह थर्ड, फोर्थ वगैरहवगैरह कुछ भी हो सकता है,’’ शिवेश ने हंसते हुए कहा.  ‘‘बड़ी अजीब बात है. अच्छा, उस औरत को किस क्लास में रखोगे?’’ शिवानी ने मुसकरा कर पूछा. ‘‘हर क्लास से ऊपर,’’ शिवेश ने जवाब दिया.  ‘‘सच है, आज के जमाने में खुद आगे बढ़ कर कौन इतनी मदद करता है.

हम जिस्म बेचने वालियों के बारे में न जाने क्याक्या सोचते रहते हैं. कम से कम अच्छा तो नहीं सोचते. वह नहीं आती तो पुलिस वाले हमें परेशान करने की ठान चुके थे. हमेशा सुखी रहे वह. अरे, हम ने उन का नाम ही नहीं पूछा.’’ ‘‘क्या पता, वह अपना असली नाम बताती भी या नहीं. वैसे, एक बात तो तय है,’’ शिवेश ने कहा. ‘‘क्या…?’’ ‘‘अब हम कभी आखिरी लोकल पकड़ने का खतरा नहीं उठाएंगे. चाहे तुम्हारे हीरो की कितनी भी अच्छी फिल्म क्यों न हो?’’ शिवेश ने उसे चिढ़ाने की कोशिश की.

‘‘अब इस में उस बेचारे का क्या कुसूर है? चलो, अब ज्यादा खिंचाई  न करो. मो सोने दो,’’ शिवानी ने अपना सिर उस के कंधे पर टिकाते  हुए कहा. ‘‘अच्छा, ठीक है,’’ शिवेश ने बड़े प्यार से शिवानी की तरफ देखा. कई स्टेशनों पर रुकते हुए लोकल ट्रेन यानी मुंबई के ‘जीवन की धड़कन’ चल रही थी.

शिवेश सोच रहा था, ‘सचमुच जिंदगी के कई पहलू दिखाती है यह लोकल. आखिरी लोकल ट्रेन छूट जाए तब भी और पकड़ने के बाद तो खैर कहना ही क्या…’ शिवेश ने शिवानी की तरफ देखा, उस के चेहरे पर बेफिक्री के भाव थे. बहुत प्यारी लग रही थी वह.

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प्यार का विसर्जन : भाग 3- क्यों दीपक से रिश्ता तोड़ना चाहती थी स्वाति

मैं पागलों सी सड़क पर जा पहुंची. चारों तरफ जगमगाते ढेर सारे मौल्स और दुकानें थीं. आते समय ये सब कितने अच्छे लग रहे थे, लेकिन अब लग रहा था कि ये सब जहरीले सांपबिच्छू बन कर काटने को दौड़ रहे हों. पागलों की तरह भागती हुई घर वापस आ गई और दरवाजा बंद कर के बहुत देर तक रोती रही. तो यह था फोन न आने का कारण.

मेरे प्यार में ऐसी कौन सी कमी रह गई कि दीपक ने इतना बड़ा धोखा दिया. मैं भी एक होनहार स्टूडैंट थी. मगर दीपक के लिए अपना कैरियर अधूरा ही छोड़ दिया. मैं ने अपनेआप को संभाला. दूसरे दिन दीपक के जाने के बाद मैं ने उस बिल्ंिडग और कालेज में खोजबीन शुरू की. इतना तो मैं तुरंत समझ गई कि ये दोनों साथ में रहते हैं. इन की शादी हो गई या रिलेशनशिप में हैं, यह पता लगाना था. कालेज में जा कर पता चला कि यह लड़की दीपक की पेंटिंग्स में काफी हैल्प करती है और इसी की वजह से दीपक की पेंटिंग्स इंटरनैशनल लैवल में सलैक्ट हुई हैं. दीपक की प्रदर्शनी अगले महीने फ्रांस में है. उस के पहले ये दोनों शादी कर लेंगे क्योंकि बिना शादी के यह लड़की उस के साथ फ्रांस नहीं जा सकती.

तभी एक प्यारी सी आवाज आई, लगा जैसे हजारों सितार एकसाथ बज उठे हों. मेरी तंद्रा भंग हुई तो देखा, एक लड़की सामने खड़ी थी.

‘‘आप को कई दिनों से यहां भटकते हुए देख रही हूं. क्या मैं आप की कुछ मदद कर सकती हूं.’’  मैं ने सिर उठा कर देखा तो उस की मीठी आवाज के सामने मेरी सुंदरता फीकी थी. मैं ने देखा सांवली, मोटी और सामान्य सी दिखने वाली लड़की थी. पता नहीं दीपक को इस में क्या अच्छा लगा. जरूर दीपक इस से अपना काम ही निकलवा रहा होगा.

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‘‘नो थैंक्स,’’ मैं ने बड़ी शालीनता से कहा.

मगर वह तो पीछे ही पड़ गई, ‘‘चलो, चाय पीते हैं. सामने ही कैंटीन है.’’ उस ने प्यार से कहा तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं चुपचाप उस के पीछेपीछे चल दी. उस ने अपना नाम नीलम बताया. मु?ो बड़ी भली लगी. इस थोड़ी देर की मुलाकात में उस ने अपने बारे में सबकुछ बता दिया और अपने होने वाले पति का फोटो भी दिखाया. पर उस समय मेरे दिल का क्या हाल था, कोई नहीं समझ सकता था. मानो जिस्म में खून की एक बूंद भी न बची हो. पासपास घर होने की वजह से हम अकसर मिल जाते. वह पता नहीं क्यों मुझ से दोस्ती करने पर तुली हुई थी. शायद, यहां विदेश में मुझ जैसे इंडियंस में अपनापन पा कर वह सारी खुशियां समेटना चाहती थी.

एक दिन मैं दोपहर को अपने कमरे में आराम कर रही थी. तभी दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने ही दरवाजा खोला. सामने वह लड़की दीपक के साथ खड़ी थी. ‘‘स्वाति, मैं अपने होने वाले पति से आप को मिलाने लाई हूं. मैं ने आप की इतनी बातें और तारीफ की तो इन्होंने कहा कि अब तो मु?ो तुम्हारी इस फ्रैंड से मिलना ही पड़ेगा. हम दोनों वैलेंटाइन डे के दिन शादी करने जा रहे हैं. आप को इनवाइट करने भी आए हैं. आप को हमारी शादी में जरूर आना है.’’

दीपक ने जैसे ही मुझे देखा, छिटक कर पीछे हट गया. मानो पांव जल से गए हों. मगर मैं वैसे ही शांत और निश्च्छल खड़ी रही. फिर हाथ का इशारा कर बोली, ‘‘अच्छा, ये मिस्टर दीपक हैं.’’ जैसे वह मेरे लिए अपरिचित हो. मैं ने दीपक को इतनी इंटैलिजैंट और सुंदर बीवी पाने की बधाई दी.

दीपक के मुंह पर हवाइयां उड़ रही थीं. लज्जा और ग्लानि से उस के चेहरे पर कईर् रंग आजा रहे थे. यह बात वह जानता था कि एक दिन सारी बातें स्वाति को बतानी पड़ेंगी. मगर वह इस तरह अचानक मिल जाएगी, उस का उसे सपने में भी गुमान न था. उस ने सब सोच रखा था कि स्वाति से कैसेकैसे बात करनी है. आरोपों का उत्तर भी सोच रखा था. पर सारी तैयारी धरी की धरी रह गईर्.

नीलम ने बड़ी शालीनता से मेरा परिचय दीपक से कराया, बोली, ‘‘दीपक, ये हैं स्वाति. इन का पति इन्हें छोड़ कर कहीं चला गया है. बेचारी उसी को ढूंढ़ती हुई यहां आ पहुंची. दीपक, मैं तुम्हें इसलिए भी यहां लाई हूं ताकि तुम इन की कुछ मदद कर सको.’’ दीपक तो वहां ज्यादा देर रुक न पाया और वापस घर चला गया. मगर नींद तो उस से कोसों दूर थी. उधर, नीलम कपड़े चेंज कर के सोने चली गई. दीपक को बहुत बेचैनी हो रही थी. उसे लगा था कि स्वाति अपने प्यार की दुहाई देगी, उसे मनाएगी, अपने बिगड़ते हुए रिश्ते को बनाने की कोशिश करेगी. मगर उस ने ऐसा कुछ नहीं किया. मगर क्यों…?

स्वाति इतनी समझदार कब से हो गई. उसे बारबार उस का शांत चेहरा याद आ रहा था. जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. आज उसे स्वाति पर बहुत प्यार आ रहा था. और अपने किए पर पछता रहा था. उस ने पास सो रही नीलम को देखा, फिर सोचने लगा कि क्यों मैं बेकार प्यारमोहब्बत के जज्बातों में बह रहा हूं. जिस मुकाम पर मु?ो नीलम पहुंचा सकती है वहां स्वाति कहां. फिर तेजी से उठा और एक चादर ले कर ड्राइंगरूम में जा कर लेट गया.

दिन में 12 बजे के आसपास नीलम ने उसे जगाया. ‘‘क्या बात है दीपक, तबीयत तो ठीक है? तुम कभी इतनी देर तक सोते नहीं हो.’’ दीपक ने उठते ही घड़ी की तरफ देखा. घड़ी 12 बजा रही थी. वह तुरंत उठा और जूते पहन कर बाहर निकल पड़ा. नीलम बोली, ‘‘अरे, कहां जा रहे हो?’’

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‘‘प्रोफैसर साहब का रात में फोन आया था. उन्हीं से मिलने जा रहा हूं.’’

दीपक सारे दिन बेचैन रहा. स्वाति उस की आंखों के आगे घूमती रही. उस की बातें कानों में गूंजती रहीं. उसी के प्यार में वह यहां आई थी. स्वाति ने यहां पर कितनी तकलीफें ?ोली होंगी. मु?ो कोई परेशानी न हो, इसलिए उस ने अपने आने तक का मैसेज भी नहीं दिया. क्या वह मु?ो कभी माफ कर पाएगी.

मन में उठते सवालों के साथ दीपक स्वाति के घर पहुंचा. मगर दरवाजा आंटी ने खोला. दीपक ने डरते हुए पूछा, ‘‘स्वाति कहां है?’’

आंटी बोलीं, ‘‘वह तो कल रात 8 बजे की फ्लाइट से इंडिया वापस चली गई. तुम कौन हो?’’

‘‘मैं दीपक हूं, नीलम का होने वाला पति.’’

‘‘स्वाति नीलम के लिए एक पैकेट छोड़ गई है. कह रही थी कि जब भी नीलम आए, उसे दे देना.’’

दीपक ने कहा, ‘‘वह पैकेट मुझे दे दीजिए, मैं नीलम को जरूर दे दूंगा.’’

दीपक ने वह पैकेट लिया और सामने बने पार्क में बैठ कर कांपते हाथों से पैकेट खोला. उस में उस के और स्वाति के प्यार की निशानियां थीं. उन दोनों की शादी की तसवीरें. वह फोन जिस ने उन दोनों को मिलाया था. सिंदूर की डब्बी और एक पीली साड़ी थी. उस में एक छोटा सा पत्र भी था, जिस में लिखा था कि 2 दिनों बाद वैलेंटाइन डे है. ये मेरे प्यार की निशानियां हैं जिन के अब मेरे लिए कोई माने नहीं हैं. तुम दोनों वैलेंटाइन डे के दिन ही थेम्स नदी में जा कर मेरे प्यार का विसर्जन कर देना…स्वाति.

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दिल से दिल तक: भाग 3- शादीशुदा आभा के प्यार का क्या था अंजाम

राहुल ने हर्ष में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई. बोला, ‘‘टैक्सी से आने की क्या जरूरत थी? टे्रन से भी आ सकती थी,’’ टैक्सी वाले को किराया चुकाना राहुल को अच्छा नहीं लग रहा था.

‘‘आप रहने दीजिए… किराया मैं दे दूंगा…वापस भी जाना है न…’’ हर्ष ने उसे इस स्थिति से उबार लिया. आभा को जोधपुर छोड़ कर उसी टैक्सी से हर्ष लौट गया.

आभा 6 सप्ताह की बैड रैस्ट पर थी. दिन भर बिस्तर पर पड़ेपड़े उसे हर्ष से बातें करने के अलावा और कोई काम ही नहीं सू झता था. कभी जब हर्ष अपने प्रोजैक्ट में बिजी होता तो उस से बात नहीं कर पाता था. यह बात आभा को अखर जाती थी. वह फोन या व्हाट्सऐप पर मैसेज कर के अपनी नाराजगी जताती थी. फिर हर्ष उसे मनुहार कर के मनाता था.

आभा को उस का यों मनाना बहुत सुहाता था. वह मन ही मन प्रार्थना करती कि उन के रिश्ते को किसी की नजर न लग जाए.

ऐसे ही एक दिन वह अपने बैड पर लेटीलेटी हर्ष से बातें कर रही थी. उस ने अपनी  आंखें बंद कर रखी थीं. उसे पता ही नहीं चला कि राहुल कब से वहां खड़ा उस की बातें सुन रहा है.

‘‘बाय… लव यू…’’ कहते हुए फोन रखने के साथ ही जब राहुल पर उस की नजर पड़ी तो वह सकपका गई. राहुल की आंखों का गुस्सा उसे अंदर तक हिला गया. उसे लगा मानो आज उस की जिंदगी से खुशियों की विदाई हो गई.

‘‘किस से कहा जा रहा था ये सब?’’

‘‘जो उस दिन मु झे जयपुर से छोड़ने आया था यानी हर्ष,’’ आभा अब राहुल के सवालों के जवाब देने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो चुकी थी.

‘‘तो तुम इसलिए बारबार जयपुर जाया करती थी?’’ राहुल अपने काबू में नहीं था.

आभा ने कोई जवाब नहीं दिया.

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‘‘अपनी नहीं तो कम से कम मेरी इज्जत का ही खयाल कर लेती… समाज में बात खुलेगी तो क्या होगा? कभी सोचा है तुम ने?’’ राहुल ने उस के चरित्र को निशाना बनाते हुए चोट की.

‘‘तुम्हारी इज्जत का खयाल था, इसीलिए तो बाहर मिली उस से वरना यहां… इस शहर में भी मिल सकती थी और समाज, किस समाज की बात करते हो तुम? किसे इतनी फुरसत है कि इतनी आपाधापी में मेरे बारे में कोई सोचे… मैं कितना सोचती हूं किसी और के बारे में और यदि कोई सोचता भी है तो 2 दिन सोच कर भूल जाएगा… वैसे भी लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है,’’ आभा ने बहुत ही संयत स्वर में कहा.

‘‘बच्चे क्या सोचेंगे तुम्हारे बारे में? उन का तो कुछ खयाल करो…’’ राहुल ने इस बार इमोशनल वार किया.

‘‘2-4 सालों में बच्चे भी अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाएंगे, फिर शायद वे वापस मुड़ कर भी इधर न आएं. राहुल. मैं ने सारी उम्र अपनी जिम्मेदारियां निभाई हैं… बिना तुम से कोईर् सवाल किए अपना हर फर्ज निभाया है, फिर चाहे वह पत्नी का हो अथवा मां का… अब मैं कुछ समय अपने लिए जीना चाहती हूं… क्या मु झे इतना भी अधिकार नहीं? आभा की आवाज लगभग भर्रा गई थी.

‘‘तुम पत्नी हो मेरी… मैं कैसे तुम्हें किसी और की बांहों में देख सकता हूं?’’ राहुल ने उसे  झक झोरते हुए कहा.’’

‘‘हां, पत्नी हूं तुम्हारी… मेरे शरीर पर तुम्हारा अधिकार है… मगर कभी सोचा है तुम ने कि मेरा मन आज तक तुम्हारा क्यों नहीं हुआ? तुम्हारे प्यार के छींटों से मेरे मन का आंगन क्यों नहीं भीगा? तुम चाहो तो अपने अधिकार का प्रयोग कर के मेरे शरीर को बंदी बना सकते हो… एक जिंदा लाश पर अपने स्वामित्व का हक जता कर अपने अहम को संतुष्ट कर सकते हो, मगर मेरे मन को तुम सीमाओं में नहीं बांध सकते… हर्ष के बारे में सोचने से नहीं रोक सकते…’’ आभा ने शून्य में ताकते हुए कहा.

‘‘अच्छा? क्या वह हर्ष भी तुम्हारे लिए इतना ही दीवाना है? क्या वह भी तुम्हारे लिए अपना सब कुछ छोड़ने को तैयार है?’’ राहुल ने व्यंग्य से कहा.

‘‘दीवानगी का कोई पैमाना नहीं होता… वह मेरे लिए किस हद तक जा सकता है यह मैं नहीं जानती, मगर मैं उस के लिए किसी भी हक तक जा सकती हूं,’’ आशा ने दृढ़ता से कहा.

‘‘अगर तुम ने इस व्यक्ति से अपना रिश्ता खत्म नहीं किया तो मैं उस के घर जा कर उस की सारी हकीकत बता दूंगा,’’ कहते हुए राहुल ने गुस्से में आ कर आभा के हाथ से मोबाइल छीन कर उसे जमीन पर पटक दिया. मोबाइल बिखर कर आभा के दिल की तरह टुकड़ेटुकड़े हो गया.

राहुल की आखिरी धमकी ने आभा को सचमुच ही डरा दिया था. वह नहीं  चाहती थी कि उस के कारण हर्ष की जिंदगी में कोई तूफान आए. वह अपनी खुशियों की इतनी बड़ी कीमत नहीं चुका सकती थी. उस ने मोबाइल के सारे पार्ट्स फिर से जोड़े और देखा तो पाया कि वह अभी भी चालू स्थिति में है.

‘‘शायद मेरे हिस्से नियति ने खुशी लिखी ही नहीं… मगर मैं तुम्हारी खुशियां नहीं निगलने दूंगी… तुम ने जो खूबसूरत यादें मु झे दी हैं उन के लिए तुम्हारा शुक्रिया…’’ एक आखिरी मैसेज उस ने हर्ष को लिखा और मोबाइल से सिम निकाल कर टुकड़ेटुकड़े कर दी.

उधर हर्ष को कुछ भी सम झ नहीं आया कि यह अचानक क्या हो गया. उस ने आभा को फोन लगाया, मगर फोन ‘स्विच्डऔफ’ था. फिर उस ने व्हाट्सऐप पर मैसेज छोड़ा, मगर वह भी अनसीन ही रह गया. अगले कई दिन हर्ष उसे फोन ट्राई करता रहा, मगर हर बार ‘स्विच्डऔफ’ का मैसेज पा कर निराश हो उठता. उस ने आभा को फेस बुक पर भी कौंटैक्ट करने की कोशिश की, लेकिन शायद आभा ने फेस बुक का अपना अकाउंट ही डिलीट कर दिया था. उस के किसी भी मेल का जवाब भी आभा की तरफ से नहीं आया.

एक बार तो हर्र्ष ने जोधपुर जा कर उस से मिलने का मन भी बनाया, मगर फिर यह सोच कर कि कहीं उस की वजह से स्थिति ज्यादा खरब न हो जाए… उस ने सबकुछ वक्त पर छोड़ कर अपने दिल पर पत्थर रख लिया और आभा को तलाश करना बंद कर दिया.

इस वाकेआ के बाद आभा ने अब मोबाइल रखना ही बंद कर दिया. राहुल के बहुत जिद करने पर भी उस ने नई सिम नहीं ली. बस कालेज से घर और घर से कालेज तक ही उस ने खुद को सीमित कर लिया. कालेज से भी जब मन उचटने लगा तो उस ने छुट्टियां लेनी शुरू कर दीं, मगर छुट्टियों की भी एक सीमा होती है. साल भर होने को आया. अब आभा अकसर ही विदआउट पे रहने लगी. धीरेधीरे वह गहरे अवसाद में चली गई. राहुल ने बहुत इलाज करवाया, मगर कोई फायदा नहीं हुआ.

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अब राहुल भी चिड़चिड़ा सा होने लगा था. एक तो आभा की बीमारी ऊपर से उस की सैलरी भी नहीं आ रही थी. राहुल को अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ रही थी जिसे वह सहन नहीं कर पा रहा था. पतिपत्नी जैसा भी कोई रिश्ता अब उन के बीच नहीं रहा था. यहां तक कि आजकल तो खाना भी अक्सर या तो राहुल को खुद बनाना पड़ता था या फिर बाहर से आता.

‘‘मरीज ने शायद खुद को खत्म करने की ठान ली है… जब तक यह खुद जीना नहीं चाहेंगी, कोई भी दवा या इलाज का तरीका इन पर कारगर नहीं हो सकता,’’ सारे उपाय करने के बाद अंत में डाक्टर ने भी हाथ खड़े कर दिए.

‘‘देखो, अब बहुत हो चुका… मैं अब तुम्हारे नाटक और नहीं सहन कर सकता… आज तुम्हारी प्रिंसिपल का फोन आया था. कह रहे थे कि तुम्हारे कालेज की तरफ से जयपुर में 5 दिन का एक ट्रेनिंग कैंप लग रहा है. अगर तुम ने उस में भाग नहीं लिया तो तुम्हारा इन्क्रीमैंट रुक सकता है. हो सकता है कि यह नौकरी ही हाथ से चली जाए. मेरी सम झ में नहीं आता कि तुम क्यों अच्छीभली नौकरी को लात मारने पर तुली हो… मैं ने तुम्हारी प्रिंसिपल से कह कर कैंप के लिए तुम्हारा नाम जुड़वा दिया है. 2 दिन बाद तुम्हें जयपुर जाना है,’’ एक शाम राहुल ने आभा से तलखी से कहा.

आभा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

आभा के न चाहते हुए भी राहुल ने उसे ट्रेनिंग कैंप में भेज दिया.

‘‘यह लो अपना मोबाइल… इस में नई सिम डाल दी है. अपनी प्रिसिपल को फोन कर के कैंप जौइन करने की सूचना दे देना ताकि उसे तसल्ली हो जाए,’’ टे्रन में बैठाते समय राहुल ने कहा.

आभा ने एक नजर अपने पुराने टूटे मोबाइल पर डाली और फिर उसे पर्स में धकेलते हुए टे्रन की तरफ बढ़ गई. सुबह जैसे ही आभा की ट्रेन जयपुर स्टेशन पर पहुंची, वह यंत्रचलित सी नीचे उतरी और धीरेधीरे उस बैंच की तरफ बढ़ चली जहां हर्ष उसे बैठा मिला करता था. अचानक ही कुछ याद कर के आभा के आंसुओं का बांध टूट गया. वह उस बैंच पर बैठ कर फफक पड़ी. फिर अपनेआप को संभालते हुए उसी होटल की तरफ चल दी जहां वह हर्ष के साथ रुका करती थी. उसे दोपहर बाद 3 बजे कैंप में रिपोर्ट करनी थी.

संयोग से आभा आज भी उसी कमरे में ठहरी थी जहां उस ने पिछली दोनों बार हर्ष के साथ यादगार लमहे बिताए थे. वह कटे वृक्ष की तरह बिस्तर पर गिर पड़ी. उस ने रूम का दरवाजा तक बंद नहीं किया था.

तभी अचानक उस के पर्र्स में रखे मोबाइल में रिमाइंडर मैसेज बज उठा, ‘से हैप्पी ऐनिवर्सरी टू हर्ष’ देख कर आभा एक बार फिर सिसक उठी, ‘‘उफ्फ, आज 4 मार्च है.’’

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अचानक 2 मजबूत हाथ पीछे से आ कर उस के गले के इर्दगिर्द लिपट गए. आभा ने अपना भीगा चेहरा ऊपर उठाया तो सामने हर्ष को देख कर उसे यकीन ही नहीं हुआ. वह उस से कस कर लिपट गई. हर्ष ने उस के गालों को चूमते हुए कहा, ‘हैप्पी ऐनिवर्सरी.’

आभा का सारा अवसाद आंखों के रास्ते बहता हुआ हर्ष की शर्ट को भिगोने लगा. वह सबकुछ भूल कर उस के चौड़े सीने में सिमट गई.

येलो और्किड: भाग 4- मधु के जीवन में सुरेंदर ने कैसे भरी खुशियां

कुछ सोचविचार करने के बाद उस ने उन्हें फोन कर के अगली शाम को घर पर डिनर के लिए आमंत्रित कर लिया और साथ ही, बता दिया कि वह उन्हें अपने बच्चों से मिलाना चाहती है. उस का इरादा यही था कि बच्चे एक बार सुरेंदर से मिल लें, फिर मधु विकास और सुरभि को विवाह के प्रस्ताव के बारे में बताएगी. यह सोच कर ही उस के मन में लाजभरी हंसी फूट गई. उस के बच्चे जैसे उस के अभिभावक बन गए हों और वह कोई कमउम्र लड़की थी जैसे.

दूसरे दिन सुबह उस ने बच्चों की पसंद का नाश्ता बना कर खिलाया. विकास और सुरभि के बच्चे हमउम्र थे. एक नई फिल्म लगी थी, सब ने मिल कर देखने का मन बनाया. मधु ने सब को यह कह कर भेज दिया कि तुम लोग जाओ, मुझे शाम के खाने की तैयारी करनी है.

‘‘कौन आ रहा है मां, शाम को डिनर पर?’’ सुरभि ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘है कोई, एक बहुत अच्छे दोस्त समझ लो, शाम को खुद ही मिल लेना,’’ मधु ज्यादा नहीं बताना चाहती थी.

विकास, मोनिका और सुरभि ने एकदूसरे को देख कर कंधे उचकाए. आखिर यह नया दोस्त कौन बन गया था मां का.

शाम को डिनर टेबल पर ठहाकों पे ठहाके लग रहे थे. सुरेंदर के चटपटे किस्सों में सब को मजा आ रहा था, उस पर उन का शालीन स्वभाव. सब का मन मोह लिया था उन्होंने. मधु संतोषभाव से सब की प्लेटों में खाना परोसती जा रही थी.

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सुरेंदर के जाने के बाद सब लिविंगरूम में बैठ गए. मोनिका सब के लिए कौफी बना लाई. यही उचित मौका था बात करने का. सब सुरेंदर से भी मिल लिए थे, तो बात करना आसान हो गया था मधु के लिए.

उस ने धीरेधीरे सारी बात सब के सामने रखी, सुरेंदर के विवाह प्रस्ताव के बारे में भी बताया.

उस ने बेटे की तरफ देखा प्रतिक्रिया के लिए, कुछ देर पहले के खुशमिजाज चेहरे पर संजीदगी के भाव थे. उस के माथे पर पड़ी त्योरियां देख मधु का मन बुझ गया. उस ने सुरभि की तरफ देखा, वह भी भाई के पक्ष में लग रही थी.

‘‘मां, इस उम्र में आप को यह सब क्या सूझी, इस उम्र में कोई शादी करता है भला? हमें तो लगा था, आप दोनों अच्छे दोस्त हैं, बस,’’ तल्ख स्वर में सुरभि बोली.

‘‘हम अच्छे दोस्त हैं, यही सोच कर तो इस बारे में सोचा. हमारे विचार मिलते हैं, एकदूसरे के साथ समय बिताना अच्छा लगता है, और इसी उम्र में तो किसी के साथ और अपनेपन की जरूरत महसूस होती है.’’

‘‘आप, बस, अपने बारे में सोच रही हैं, मां, लोग क्या कहेंगे कभी सोचा है? इतना बड़ा फैसला लेने से हमारी जिंदगी में क्या असर पड़ेगा. निधि और विधि अब बड़ी हो रही हैं. उन्हें कितनी शर्मिंदगी होगी इस बात से कि उन की दादी इस उम्र में शादी कर रही हैं,’’ आवेश में विकास की आवाज ऊंची हो गई.

मोनिका ने उसे शांत कराया और मधु से बोली, ‘‘मां, आप अकेले बोर हो जाती हैं, तो कोई हौबी क्लास या क्लब जौइन कर लीजिए. हमारे पास आ कर रहिए या फिर दीदी के पास. और वैसे भी, इस उम्र में आप को पूजापाठ में मन लगाना चाहिए. इस तरह गैरमर्द के साथ घूमनाफिरना आप को शोभा नहीं देता.’’

कितना कुछ कह रहे थे सब मिल कर और मधु अवाक सुनती जा रही थी. उस का मन कसैला हो आया. ऐसा लगा मानो ये उस के अपने बच्चे नहीं, बल्कि समाज की सड़ीगली सोच बोल रही है. अपने ही घर में अपराधिन सा महसूस होने लगा उसे. खिसियाई सी टूटे हुए मन से वह उठी और सब को शुभरात्रि बोल कर अपने कमरे में चली आई.

जिस बेटे को पढ़ालिखा कर विदेश भेजा, वह विदेशी परिवेश में इतने वर्ष रहने के बाद भी दकियानूसी सोच से बाहर नहीं निकल पाया था. और सुरभि, कम से कम उस को तो मधु का साथ देना चाहिए था बेटी होने के नाते. जब सुरभि ने अपने लिए विजातीय लड़का पसंद किया तो सारे रिश्तेनाते वालों न जम कर विरोध किया था, विकास भी खिलाफ हो गया था. एक मधु ही थी जिस ने सुरभि के फैसले का न सिर्फ समर्थन किया, बल्कि अपने बलबूते पर धूमधाम से सुरभि की शादी भी कराई.

एक मां के सारे फर्ज मधु बखूबी निभाती आईर् थी. कोई कमी नहीं रखी परवरिश में कभी. लेकिन, मां होने के साथ वह एक औरत भी तो थी. क्या उस की अस्मिता, खुशी कोई माने नहीं रखती थी? क्या उसे अपने बारे में सोचने का कोई अधिकार नहीं था? अकेलेपन का दर्र्द उस से बेहतर कौन समझ सकता था. कितनी ही बार घबरा कर वह रातों को चौंक कर उठ जाती थी. कभी बीमार पड़ती, तो कोई पानी पिलाने वाला न होता.

एक दुख और आक्रोश उस के भीतर उबलने लगा. अपनों का स्वार्थ उस ने देख लिया था. बड़ी देर तक उसे नींद नहीं आई. बात जितनी सरल लग रही थी, उतनी थी नहीं. मधु अपनी जिम्मेदारियों से फारिग हो चुकी थी. अपने बच्चों को पढ़ालिखा कर उस ने पैरों पर खड़ा कर दिया था. दोनों बच्चों के सामने कभी उस ने हाथ नहीं फैलाया था. आखिर ऐसा क्या मांग लिया था उस ने जो अपने बच्चे ही खिलाफ हो गए. सोचतेसोचते कब सुबह हुई, पता नहीं चला उसे.

कुछ भी हो, उसे सब का सामना करना ही था. बच्चे कुछ दिनों के लिए आए थे, उन्हें वह नाराज नहीं देखना चाहती थी. आखिरकार, मां की ममता औरत पर भारी पड़ गई. नहाधो कर मधु रसोई में आई, तो देखा बहू मोनिका टोस्ट तैयार कर रही थी नाश्ते के लिए.

‘‘अरे, तुम रहने देतीं, मैं छोलेपूरी बना देती हूं जल्दी से, विकास को बहुत पसंद है न.’’

‘‘विकास नाश्ता हलका खाते हैं आजकल, सो, आप रहने दीजिए,’’ मोनिका रुखाई से बोली.

सब के तेवर बदले नजर आ रहे थे. मधु भरसक सामान्य बनने की चेष्टा करती रही. 2 दिनों बाद ही सुरभि वापस जाने लगी, तो विकास ने भी सामान बांध लिया.

‘‘तू तो महीनाभर रहने वाला था न?’’ मधु ने उस से पूछा.

‘‘सोचा तो यही था, मगर…’’

‘‘मगर क्या? साफ बोल न,’’ बोलते मधु का गला भर आया.

सुरभि ने मधु का तमतमाया चेहरा देखा, तो बचाव के लिए बीच में आ गई.

‘‘मां, निधि और विधि कुछ दिन मुंबई घूमना चाहते हैं, तो मैं ने सोचा, सब साथ ही चलें. कुछ दिन रह कर लौट आएंगे.’’

मधु की भी छुट्टियां अभी बची थीं. लेकिन किसी ने उसे साथ चलने को नहीं कहा. सब मुंबई चले गए. तो मधु ने काम पर जाना शुरू कर दिया. अकेली घर पर करती भी तो क्या.

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जो कुछ उस के दिल में था, उस ने उड़ेल कर सुरेंदर के सामने रख दिया. आंखों में आंसू लिए भर्राए स्वर में वह बोली, ‘‘कभी सोचा नहीं था बच्चों की नजरों में यों गिर जाऊंगी, नाराज हो कर सब चले गए. गलती उन की नहीं, मेरी है जो स्वार्थी हो गई थी मैं,’’ यह कह कर मधु सिसक पड़ी.

उसे ऐसी हालत में देख कर सुरेंदर को खुद पर ग्लानि हुई. मधु के परिवार में उन की वजह से ही यह तूफान आया था.

उन्होंने मधु को सब ठीक हो जाने का दिलासा दिया. पर दिल ही दिल में वे खुद को इस सारे फसाद की जड़ मान रहे थे.

2 दिन बीत चुके थे. सुरभि और विकास का कोईर् फोन नहीं आया था. मधु अंदर से बेचैन थी. रातभर उसे नींद नहीं आती थी. दोनों उस से इतने खफा थे कि एक फोन तक नहीं किया. वह बेमन से एक किताब के पन्ने पलट रही थी, तभी फोन की घंटी बजी.

सुरभि की आवाज कानों

में पड़ी, ‘‘मां, सौरी,

आप को अपने पहुंचने की सूचना भी नहीं दे पाए. यहां आते ही भैया बीमार हो गए थे. डाक्टर ने टाइफाइड बताया है. भैया अस्पताल में ऐडमिट हैं. वे आप को बहुत याद कर रहे हैं. मां, हो सके तो आप जल्द से जल्द मुंबई पहुंच जाएं.’’

मधु रिसीवर कान से लगाए गुमसुम सुनती जा रही थी. पहले भी 2 बार विकास को टाइफाइड हो चुका था. जब भी वह बीमार पड़ता था, मां को एक पल के लिए भी नहीं छोड़ता था. मां की ममता बेटे की बीमारी की खबर सुन बेचैन हो गई.

‘‘मां, आप सुन रही हो न. मां, कुछ तो बोलो,’’ दूसरी तरफ से सुरभि की परेशान आवाज सुनाई दी. मां का कोई जवाब न पा कर उसे फिक्र होने लगी.

‘‘मैं सुन रही हूं. मैं आज ही आ रही हूं. तू चिंता मत कर. बस, विकास का ध्यान रखना. मैं पहुंच रही हूं वहां,’’ मधु ने जल्दी से फोन रखा. अपने पहचान के ट्रैवल एजेंट को फोन कर के पहला उपलब्ध टिकट बुक करा लिया. फ्लाइट जाने में अभी वक्त था, उस ने कुछ जोड़ी कपड़े और जरूरी सामान एक बैग में डाला. दरवाजे की घंटी बजी तो मधु झल्ला गई. इस वक्त उसे किसी से नहीं मिलना था.

उस ने उठ कर दरवाजा खोला. एक आदमी गुलदस्ता थामे खड़ा था. मधु ने उसे पहचान लिया. वह सुरेंदर के यहां काम करता था.

‘‘साहब ने भेजा है,’’ उस ने गुलदस्ता मधु को पकड़ा दिया और चला गया.

येलो और्किड के ताजे फूल, साथ में एक लिफाफा भी था. मधु ने लिफाफा खोल कर चिट्ठी निकाली –

‘‘प्रिय मधु,

‘‘ये फूल हमारी उस दोस्ती के नाम जो किसी रिश्ते या बंधन की मुहताज नहीं है. मैं ने तुम्हें एक कशमकश में डाला था जिस ने तुम्हारी जिंदगी की शांति और खुशी छीन ली और आज मैं ही तुम्हें इस कशमकश से आजाद करना चाहता हूं. दोस्ती की जगह कोई दूसरा रिश्ता नहीं ले सकता क्योंकि यही एक रिश्ता है जहां कोई स्वार्थ नहीं होता.

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‘‘एक मां को उस के बच्चों का प्यार और सम्मान हमेशा मिलता रहे, यही कामना करता हूं.

‘‘सदा तुम्हारा शुभचिंतक.’’

उस ने खत को पहले वाले खत के साथ सहेज कर रख दिया. मन का भारीपन हट चुका था. दोस्ती की अनमोल सौगात की निशानी येलो और्किड उसे देख कर, जैसे मुसकरा रहे थे.  येलो और्किड : भाग 2

दिल से दिल तक: भाग 2- शादीशुदा आभा के प्यार का क्या था अंजाम

आभा की टे्रन रात 11 बजे की थी और हर्ष तब तक उस के साथ ही था. दोनों ने आगे भी टच में रहने का वादा करते हुए विदा ली.

अगले दिन कालेज पहुंचते ही आभा ने हर्ष को फोन किया. हर्ष ने जिस तत्परता से फोन उठाया उसे महसूस कर के आभा को हंसी आ गई.

‘‘फोन का इंतजार ही कर रहे थे क्या?’’ आभा हंसी तो हर्ष को भी अपने उतावलेपन पर आश्चर्य हुआ.

बातें करतेकरते कब 1 घंटा बीत गया, दोनों को पता ही नहीं चला. आभा की क्लास का टाइम हो गया, वह पीरियड लेने चली गई. वापस आते ही उस ने फिर हर्ष को फोन लगाया… और फिर वही लंबी बातें… दिन कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला… देर रात तक दोनों व्हाट्सऐप पर औनलाइन रहे और सुबह उठते ही फिर वही सिलसिला…

अब तो यह रोज का नियम ही बन गया. न जाने कितनी बातें थीं उन के पास जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं. कई बार तो ये होता था कि दोनों के पास ही कहने के लिए शब्द नहीं होते थे, मगर बस वे एकदूसरे से जड़े हुए हैं यही सोच कर फोन थामे रहते. इसी चक्कर में दोनों के कई जरूरी काम भी छूटने लगे. मगर न जाने कैसा नशा सवार था दोनों पर ही कि यदि 1 घंटा भी फोन पर बात न हो तो दोनों को ही बेचैनी होने लगती… ऐसी दीवानगी तो शायद उस कच्ची उम्र में भी नहीं थी जब उन के प्यार की शुरुआत हुई थी.

आभा को लग रहा था जैसे खोया हुआ प्यार फिर से उस के जीवन में दस्तक  दे रहा है, मगर हर्ष अब भी इस सचाई को जानते हुए भी यह स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था कि उसे आभा से प्यार है.

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‘‘हर्ष, तुम इस बात को स्वीकार क्यों नहीं कर लेते कि तुम्हें आज भी मु झ से प्यार है?’’ एक दिन आभा ने पूछा.

‘‘मैं अगर यह प्यार स्वीकार कर भी लूं तो क्या समाज इसे स्वीकार करने देगा? कौन इस बात का समर्थन करेगा कि मैं ने शादी किसी और से की है और प्यार तुम से करता हूं…’’ हर्ष ने कड़वा सच उस के सामने रखा.

‘‘शादी करना और प्यार करना दोनों अलगअलग बातें हैं हर्ष… जिसे चाहें शादी भी उसी से हो यह जरूरी नहीं… तो फिर यह जरूरी क्यों है कि जिस से शादी हो उसी को चाहा भी जाए?’’ आभा का तर्क भी अपनी जगह सही था.

‘‘चलो, माना कि यह जरूरी नहीं, मगर इस में हमारे जीवनसाथियों की क्या गलती है? उन्हें हमारी अधूरी चाहत की सजा क्यों मिले?’’ हर्ष अपनी बात पर अड़ा था.

‘‘हर्ष, मैं किसी को सजा देने की बात नहीं कर रही… हम ने अपनी सारी जिंदगी उन की खुशी के लिए जी है… क्या हमें अपनी खुशी के लिए जीने का अधिकार नहीं? वैसे भी अब हम उम्र की मध्यवय में आ चुके हैं, जीने लायक जिंदगी बची ही कितनी है हमारे पास… मैं कुछ लमहे अपने लिए जीना चाहती हूं… मैं तुम्हारे साथ जीना चाहती हूं… मैं महसूस करना चाहती हूं कि खुशी क्या होती है…’’ कहतेकहते आभा का स्वर भीग गया.

‘‘क्यों? क्या तुम अपनी लाइफ से अब तक खुश नहीं थी? क्या कमी है तुम्हें? सबकुछ तो है तुम्हारे पास…’’ हर्ष ने उसे टटोला.

‘‘खुश दिखना और खुश होना… दोनों में बहुत फर्क होता है हर्ष… तुम नहीं सम झोगे.’’ आभा ने जब कहा तो उस की आवाज की तरलता हर्ष ने भी महसूस की. शायद वह भी उस में भीग गया था. मगर सच का सामना करने की हिम्मत फिर भी नहीं जुटा पाया.

लगभग 10 महीने दोनों इसी  तरह सोशल मीडिया पर जुड़े रहे. रोज घंटों बात कर के भी उन की बातें खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं. आभा की तड़प इतनी ज्यादा बढ़ चुकी थी कि अब वह हर्ष से प्रत्यक्ष मिलने के लिए बेचैन होने लगी, लेकिन हर्ष का व्यवहार अभी भी उस के लिए एक पहले बना हुआ था. कभी तो उसे लगता था जैसे हर्ष सिर्फ उसी का है और कभी वह एकदम बेगानों सा लगने लगता.

हर्ष के अपनेआप से तर्क अब तक भी जारी थे. वह 2 कदम आगे बढ़ता और अगले ही पल 4 कदम पीछे हट जाता. वह आभा का साथ तो चाहता था, मगर समाज में दोनों की ही प्रतिष्ठा को भी दांव पर नहीं लगाना चाहता था. उसे डर था कि कहीं ऐसा न हो वह एक बार मिलने के बाद आभा से दूर ही न रह पाए. फिर क्या करेगा वह? मगर आभा अब मन ही मन एक ठोस निर्णय ले चुकी थी.

4 मार्च आने वाला था. आभा ने हर्ष को याद दिलाया कि पिछले साल इसी दिन वे दोनों जयपुर में मिले थे. उस ने आखिर हर्षको यह दिन एकसाथ बिताने के लिए मना ही लिया और बहुत सोचविचार कर के दोनों ने फिर से उसी दिन उसी जगह मिलना तय किया.

हर्ष दिल्ली से टूर पर और आभा जोधपुर से कालेज के काम का बहाना बना कर सुबह ही जयपुर आ गई. होटल में पतिपत्नी की तरह रुके… पूरा दिन साथ बिताया. जीभर के प्यार किया और दोपहर ठीक 12 बजे आभा ने हर्ष को ‘हैप्पी एनिवर्सरी’ विश किया. उसी समय आभा ने अपने मोबाइल में अगले साल के लिए यह रिमाइंडर डाल लिया.

‘‘हर्ष खुशी क्या होती है, यह आज तुम ने मु झे महसूस करवाया. थैंक्स… अब अगर मैं मर भी जाऊं तो कोई गम नहीं…’’ रात को जब विदा लेने लगे तो आभा ने हर्ष को एक बार फिर चूमते हुए कहा.

‘‘मरें तुम्हारे दुश्मन… अभी तो हमारी जिंदगी से फिर से मुलाकात हुई है… सच आभा, मैं तो मशीन ही बन चुका था. मेरे दिल को फिर से धड़काने के लिए शुक्रिया. और हां, खुशी और संतुष्टि में फर्क महसूस करवाने के लिए भी…’’ हर्ष ने उस के चेहरे पर से बाल हटाते हुए कहा और फिर से उस की कमर में हाथ डाल कर उसे अपनी ओर खींच लिया.

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‘‘अब आशिकी छोड़ो…मेरी ट्रेन का टाइम हो रहा है…’’ आभा ने मुसकराते हुए हर्ष को अपनेआप से अलग किया. उसी शाम दोनों ने वादा किया कि हर साल 4 मार्च को वे दोनों इसी तरह… इसी जगह मिला करेंगे… उसी वादे के तहत आज भी दोनों यहां जयपुर आए थे और यह हादसा हो गया.

‘‘आभा, डाक्टर ने तुम्हारे डिस्चार्ज पेपर बना दिए… मैं टैक्सी ले कर आता हूं…’’ हर्ष ने धीरे से उसे जगाते हुए कहा.

‘कैसे वापस जाएगी अब वह जोधपुर? कैसे राहुल का सामना कर पाएगी? आभा फिर से भयभीत हो गई, मगर जाना तो पड़ेगा ही. जो होगा, देखा जाएगा…’ सोचते हुए आभा ने अपनी सारी हिम्मत को एकसाथ समेटने की कोशिश की और जोधपुर जाने के लिए अपनेआप को मानसिक रूप से तैयार करने लगी.

आभा ने राहुल को फोन कर के अपने ऐक्सीडैंट के बारे में बता दिया.

‘‘ज्यादा चोट तो नहीं आई?’’ राहुन ने सिर्फ इतना ही पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘सरकारी हौस्पिटल में ही दिखाया था न… ये प्राइवेट वाले तो बस लूटने के मौके ही ढूंढ़ते हैं.’’

सुन कर आभा को कोई आश्चर्य नहीं हुआ. उसे राहुल से इसी तरह की उम्मीद थी.

आभा ने बहुत कहा कि वह अकेली ही जोधपुर चली जाएगी, मगर हर्ष ने उस की एक न सुनी और टैक्सी में उस के साथ जोधपुर चल पड़ा. आभा को हर्ष का सहारा ले कर उतरते देख राहुल का माथा ठनका.

‘‘ये मेरे पुराने दोस्त हैं… जयपुर में अचानक मिल गए,’’ आभा ने परिचय करवाते हुए कहा.

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येलो और्किड: भाग 2- मधु के जीवन में सुरेंदर ने कैसे भरी खुशियां

उन की बातें दुनिया के झमेले से शुरू हो कर अकसर कालेज की कभी न लौटने वाली सुनहरी यादों पर खत्म हो जाती थीं. मेहंदी के रंग की तरह वक्त के साथ और भी गहरी हो चली थी उन की दोस्ती. हर सुखदुख दोनों साझा करती थीं.

अपने रिटायर्ड कर्नल पति के साथ पम्मी जिंदगी को जिंदादिली से जीने में यकीन रखती थी. इस उम्र में भी जवान दिखने की हसरत बरकरार थी उस की. बच्चों की जिम्मेदारियों से फारिग हो चुके थे वे लोेग. कर्नल साहब और पम्मी मौके तलाशते थे लोगों से मिलनेमिलाने के.

अगले ही रविवार की शाम एक पार्टी रखी थी दोनों ने अपने घर पर अपनी शादी की एक और शानदार सालगिरह का जश्न मनाने के लिए. कर्नल साहब के फौजी मित्र और पम्मी की कुछ खास सहेलियां, सब वही लोग थे जो ढलती उम्र में हमजोलियों के साथ हंसीमजाक के पल बिता कर अकेलेपन का बोझ कुछ कम कर लेना चाहते थे.

कालेज की लाइब्रेरी से मोटीमोटी किताबें ला कर मधु सप्ताहांत की छुट्टियां बिता लेती थी. कोई खास जानपहचान वाला था नहीं जहां उठानाबैठना होता. पति के जाने के बाद मधु की दुनिया बहुत छोटी हो चली थी.

जिन बच्चों की परवरिश में जवानी गुजर गई, वे अब बुढ़ापे के अकेलेपन में साथ नहीं थे. इस में उन का ही क्या दोष था, यह तो जमाने का चलन है.

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विकास के विदेश में नौकरी का सपना अकेले विकास का ही नहीं, मधु का भी था. बेटे की कामयाबी मधु के माथे का गौरव बनी थी. अपने दोनों बच्चों का भविष्य संवारने में मधु ने क्याक्या त्याग नहीं किए थे. अकेली विधवा औरत समाज में दामन बचाती चली, कभी दोनों को पिता की कमी महसूस नहीं होने दी.

बावजूद इस सब के, उस के मन का एक कोना कहीं रीता ही रह गया था. वह एक मां थी, लेकिन एक औरत भी तो थी उस से पहले. विकास और सुरभि जब छोटे थे, उन की दुनिया, बस, मां के चारों ओर घूमती थी. घर में रहते तो मधु को एक पल की फुरसत नहीं मिलती थी उन की फरमाइशों से. कालेज से आते ही दोनों घेर लिया करते थे उसे.

उन पुराने दिनों को याद कर के एक गहरी टीस सी हुई सीने में. पम्मी ने फोन कर के उसे फिर से याद दिलाया कि पार्टी में वक्त से पहुंच जाए. न चाहते हुए भी पम्मी के बुलावे में जाना जरूरी था उस के लिए, खास दोस्त को नाराज नहीं कर सकती थी.

अपनी अलमारी में करीने से टंगी एक से एक खूबसूरत साडि़यों में से साड़ी छांटते हुए एक हलके फिरोजी रंग की शिफोन साड़ी पर उस की नजर पड़ी. साड़ी को बड़ी नफासत से पहन कर जब वह तैयार हो कर शीशे के सामने खड़ी हुई तो दिल में एक हूक सी उठी. गले में सफेद मोतियों की लड़ी और उस से मेलखाते बुंदों ने चेहरे के नूर में चारचांद लगा दिए थे. यह रंग उस पर कितना फबता था. सहसा उस की नजर उन सफेद तारों पर पड़ी जो काले बालों के बीच में से झांक रहे थे. उम्र भी तो हो चली थी. आखिर कब तक छिपा सकता है कोईर् वक्त के निशानों को. मधु अपवाद नहीं थी. शीशे में खुद को निहारते हुए उस ने एक बार फिर से अपना पल्लू ठीक किया.

हाथ में बुके लिए वह टैक्सी से उतर कर आलीशान बंगले के लौन की तरफ बढ़ चली जहां पार्टी का आयोजन किया गया था. जगमगाती रोशनी की लडि़यों से सजा लौन मेहमानों के स्वागत को तैयार था.

कर्नल साहब दोस्तों के साथ चुहलबाजी कर रहे थे. उन की जिंदादिल हंसी से महफिल गूंज रही थी. वहां आए हुए अधिकांश मेहमान दंपती थे. सब दावत की रौनक में डूबे हुए युवाजोश के साथ मिलमिला रहे थे. लौन के एक कोने में फूलों की सुंदर सजावट की गई थी. हरी घास पर येलो और्किड के फूल बरबस ही ध्यान खींच रहे थे. और्किड के फूल हमेशा से उसे खासतौर पर पसंद थे. जिस ने भी उन की सुंदर सजावट की थी, वह सराहना का पात्र था.

‘‘हैलो, आप से दोबारा मिल कर अच्छा लगा. कैसी हैं आप?’’ अपने पीछे एक आवाज सुन कर उस ने पलट कर देखा.

वही अजनबी जो उस दिन बिना नाम बता निस्वार्थ मदद कर के चला गया था.

‘‘अरे आप? इस तरह फिर से अचानक मुलाकात हो जाएगी, सोचा नहीं था,’’ मधु ने कहा.

‘‘आई एम सुरेंदर, कर्नल मेरा पुराना यार है.’’

‘‘और मैं मधु शर्मा, पम्मी की सहेली.’’

‘‘आइए, बैठते हैं’’, पास ही एक टेबल के पास उन्होंने मधु के लिए कुरसी खींच दी.

‘‘देखिए न, उस दिन आप ने इतनी मदद की और मैं आप को चायपानी तक नहीं पूछ पाई. इस बात का अफसोस है मुझे.’’

‘‘छोडि़ए अफसोस करना, अब दोबारा मुलाकात हुईर् है तो फिर किसी दिन आप बदला चुका देना,’’ जोर का ठहाका लगा कर सुरेंदर बोले.

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हवा के ठंडे झोंकों से मौसम खुशगवार हो चला था. एक खूबसूरत गजल पार्श्व में बज रही थी. मधु को सुरेंदर बहुत हंसमुख और सलीकेदार इंसान लगे. उस शाम बहुत देर तक दोनों बातें करते रहे और यह मुलाकात उन के बीच एक मधुर दोस्ती की नींव डाल गई.

उस दिन के एहसान की भरपाई मधु ने सुरेंद्र के साथ एक रैस्टोरैंट में कौफी पीते हुए की. मुलाकातों का सिलसिला चल निकला. कभी दोनों मिलते तो कभी पम्मी की चाय पार्टी में मुलाकात हो जाती. अविवाहित सुरेंदर सेवानिवृत्त होने के बाद कईर् एकड़ जमीन पर बनी नर्सरी और हौर्टिकल्चर बिजनैस चलाते थे. मधु जब भी उन की नर्सरी जाती, सुरेंदर फूलों से खिले गमले उसे सौगात में देते. अब तक वे जान चुके थे मधु को फूलों और बागबानी से बेहद प्यार था. उस के घर की बालकनी किस्मकिस्म के फूल वाले पौधों से सजी गुलिस्तान बन गई थी.

सुरेंदर अविवाहित थे जबकि मधु परिवार होते हुए भी अकेली. दोनों अपनी जिंदगियों का खालीपन भरने के लिए खाली वक्त साथ गुजारने लगे जिस के लिए कभी बाहर खाने का मंसूबा बनता तो कभी सुरेंदर की गाड़ी में दोनों लौंग ड्राइव के लिए निकल जाते. एक निर्दोष रिश्ते में बंधते वे सुखदुख बांटने लगे थे.

एक दिन रैस्टोरैंट में बैठ कर कौफी पीते हुए मधु ने पूछा, ‘‘आप ने शादी क्यों नहीं की?’’

आंखों पर धूप का चौड़ा चश्मा चढ़ाए, अपनी उम्र से कम नजर आते सुरेंदर आकर्षक व्यक्तित्व के इंसान थे. उस पर लंबे कद और मजबूत कदकाठी के चलते उन का समूचा व्यक्तित्व प्रभावशाली लगता था. ऐसे सुकुमार व्यक्ति को किसी सुंदरी से प्रेम न हुआ हो, कैसा आश्चर्य था.

‘‘कुछ जिम्मेदारियां ऐसी थीं जिन का निर्वाह बहुत जरूरी था मेरे लिए. पिताजी के न रहने पर भाईबहनों की पढ़ाई और शादी की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर थी. दोनों भाइयों का घर बस गया तो उन्होंने मां को वृद्धाश्रम में रखने की बात की क्योंकि कोई मां को रखना नहीं चाहता था.

‘‘मधुजी, मैं ने भारत मां की सेवा की कसम खाईर् थी मगर मेरी मां को भी मेरी जरूरत थी. बहुत साल नौकरी करने के बाद मैं ने स्वैच्छिक रिटायरमैंट ले लिया. जब तक मां थीं, उन की सेवा की. कुछेक रिश्ते तो आए पर कहीं संयोग नहीं बना. बिना किसी मलाल के जी रहा हूं, खुश रहता हूं. बस, दोस्तों का स्नेह चाहिए.’’ और हमेशा की तरह एक उन्मुक्त ठहाका लगा कर सुरेंदर हंस दिए.

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मधु के दिल में सुरेंदर के लिए सम्मान कुछ और बढ़ गया. जो खुद से ज्यादा अपनों की खुशी का खयाल रखे, ऐसे इंसान विरले ही होते हैं.

‘‘सुना है सुरेंदर के साथ आजकल खूब छन रही है,’’ पम्मी ने एक दिन मधु को छेड़ा.

यह सुन कर मधु के गाल सुर्ख हो गए. पम्मी फिर बोली, ‘‘मुझे अच्छा लग रहा है. आखिरकार, तू कुछ अपनी खुशी के लिए भी कर रही है.’’

आगे पढ़ें- कुछ मौसम का खुमार था, कुछ दिल में उमड़ते जज्बात.

येलो और्किड: भाग 3- मधु के जीवन में सुरेंदर ने कैसे भरी खुशियां

दोनों बालकनी में बैठ कर शाम की चाय पी रही थीं. पम्मी ऐसी दोस्त थी जो मधु को जिंदगी खुल कर जीने के लिए प्रेरित करती थी.

‘‘सच कहूं, मुझे यकीन नहीं होता कि किसी से खुल कर बातें करने से दिमागी तौर पर इतना सुकून मिलता है. एक तू है जो समझती थी और अब सुरेंदर भी मुझे समझने लगे हैं.’’

मधु खुश थी और पम्मी यह देख कर खुश थी.

उसी शाम बेटे विकास ने फोन कर के बताया कि वह कुछ दिनों के लिए सपरिवार इंडिया आ रहा है. पिछले 3 सालों से हर बार वह मधु को अपने आने की सूचना देता, मगर कभी अपने काम या किसी और वजह से आना नहीं हो पा रहा था. बेटेबहू और दोनों नातिनों को देखने के लिए मधु का दिल कब से तरस रहा था, वह बेसब्री से दिन गिनने लगी.

बेटे के परिवार के आने से 2 दिनों पहले मधु का जन्मदिन आया. वह अपना जन्मदिन कभी नहीं मनाती थी. मगर उस के लाख मना करने के बावजूद डिनर का प्रोग्राम बन गया और सुरेंदर ने 2 लोगों के लिए टेबल बुक करा दी रैस्तरां में. दोनों जब शाम को मिले तो सुरेंदर बत्रा मधु को देखते ही रह गए. गुलाबी लहरिया साड़ी में मेकअप के साथ मधु का रूप आज कुछ अलग था. उस ने जब उन्हें इस तरह निहारते देखा तो शर्म की लाली उस के गालों पर दौड़ गई.

उस के चहेते येलो और्किड का गुलदस्ता उसे थमाते सुरेंदर मधु पर दिल हार बैठे थे. मधु कोई दूध पीती बच्ची नहीं थी जो उन आंखों में अपने लिए आकर्षण को न समझ पाती.

‘‘बहुत सुंदर फूल हैं,’’ मधु ने कहा.

‘‘बिलकुल आप की आंखों की तरह,’’ सुरेंदर अनायास ही बोल उठे और फिर अपने कहे पर खुद ही झेंप गए. यह सच था कि मधु उन के जीवन में आई वह पहली औरत थी जिस के लिए उन के मन में प्रीत की कोमल भावनाएं जागी थीं. सेना की नीरस जिंदगी और परिवार के प्रति उत्तरदायित्व के चलते उन के मन का वह कोना रीता ही रह गया था जहां प्रेम का रस बहता है.

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दोनों ने प्रेमपूर्वक कैंडल लाइट डिनर का आनंद लिया. हलकी फुहार सी पड़ने लगी तो ठंडी बयार तन सिहराने लगी. कुछ मौसम का खुमार था, कुछ दिल में उमड़ते जज्बात. बहुत दिनों में सुरेंदर जिस बात को दिल में दबाए हुए थे वह आज इस एकांत में मधु के समक्ष रखना चाहते थे.

शाम बहुत यादगार गुजरी. मधु को याद नहीं आया पिछली बार उस ने अपना जन्मदिन इस तरह कब मनाया था. घर के पास पहुंच कर मधु जब गाड़ी से उतर रही थी, तो सुरेंदर ने गाड़ी की पिछली सीट पर रखा खूबसूरत गिफ्ट पैक में लिपटा हुआ एक चौकोर डब्बा उसे भेंट किया.

यह उन की तरफ से जन्मदिन का तोहफा था मधु के लिए. घर पहुंच कर मधु ने उपहार खोला. सफेद मोतियों की नाजुक सी माला डब्बे में थी और साथ ही, एक खत भी. सुरेंदर जैसे मुखर व्यक्ति को दिल का हाल बताने के लिए खत की जरूरत क्यों पड़ी, उत्सुकतावश उस ने खत पढ़ना शुरू किया.

खत में उसे संबोधित करते हुए सुरेंदर ने अपने दिल की वे सारी भावनाएं बयान की थीं जो वे मधु के लिए महसूस करते थे. मधु खत पढ़ कर दुविधा में पड़ गई. कम उम्र में ही विधवा हो गई थी वह. पर उस ने आज तक किसी भी परपुरुष के बारे में नहीं सोचा था.

इतने सालों बाद किसी ने उसे प्रेमपाती भेज कर विवाह का प्रस्ताव भेजा था. उसे समझ नहीं आया इस बात की प्रतिक्रिया वह कैसे दे. सुरेंदर जैसे सज्जन इंसान का साथ भी उसे पसंद था पर शादी जैसी बात उस के मन में नहीं थी. इस उम्र में तन से ज्यादा मन की कुछ जरूरतें होती हैं. रिश्ते स्वार्थ की बुनियाद पर चलते हैं, लेकिन दोस्ती में कोई स्वार्थ निहित नहीं होता.

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अकेलेपन में घुटघुट कर जीना भी तो जिंदगी नहीं है, उस ने खुद से ही तर्क किया. किस से पूछे वह कि क्या सही है क्या गलत. जीवन की ढलती शाम किसी साथी की तलबगार थी, मगर समाज क्या कहेगा, परिवार क्या सोचेगा जैसे तमाम प्रश्न मुंहबाए खड़े थे. उस ने खत सहेज कर अपनी अलमारी में रख दिया. कुछ वक्त चाहिए था उसे इस बारे में सोचने के लिए. उस ने चिट्ठी का न जवाब दिया, न ही सुरेंदर को फोन किया.

विकास और बहू मोनिका आ चुके थे. बेटी सुरभि भी कुछ दिनों के लिए मायके आईर् थी. घर पर चहलपहल का माहौल बन गया था. मधु ने बच्चों के साथ अधिक वक्त गुजारने के लिए कुछ दिनों के लिए अवकाश ले लिया. रोज ही सब मिल कर कोई प्रोग्राम बनाते, कहीं फिल्म देख आते या कहीं घूमने चले जाते.

एक दिन सुरेंदर का फोन आया. मधु की तरफ से कोई जवाब न पा कर उन्हें लगा शायद वह नाराज है. दोनों की इस बीच बात नहीं हो पाई थी. मधु को अपने व्यवहार और स्वार्थीपन पर शर्मिंदगी हुई. वह अपने परिवार के आते ही उस दोस्ती की अहमियत भूल गई थी जो तनहाई में उस का संबल बनी थी.

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प्यार का विसर्जन : भाग 2- क्यों दीपक से रिश्ता तोड़ना चाहती थी स्वाति

इस मौसम में प्रकृति भी सौंदर्य बिखेरने लगती है. आम की मजरिया, अशोक के फल, लाल कमल, नव मल्लिका और नीलकमल खिल उठते हैं. प्रेम का उत्सव चरम पर होता है. कुछ ही दिनों में वैलेंटाइन डे आने वाला था और मैं ने सोच लिया था कि दीपक को इस दिन सब से अच्छा तोहफा दूंगी. इस दोस्ती को प्यार में बदलने के लिए इस से अच्छा कोई और दिन नहीं हो सकता.

आखिर वह दिन भी आ गया जब प्रकृति की फिजाओं के रोमरोम से प्यार बरस रहा था और हम दोनों ने भी प्यार का इजहार कर दिया. उस दिन दीपक ने मुझसे कहा कि आज ही के दिन मैं तुम से सगाई भी करना चाहता था. मेरे प्यार को इतनी जल्दी यह मुकाम भी मिल जाएगा, सोचा न था.

दीपक ने मेरे मांबाप को भी राजी कर लिया. न जैसा कहने को कुछ भी न था. दीपक एक अमीर, सुंदर और नौजवान था जो दिनरात तरक्की कर रहा था. आखिर अगले ही महीने हम दोनों की शादी भी हो गई. अपनी शादीशुदा जिंदगी से मैं बहुत खुश थी.

तभी 4 वर्षों के लिए आर्ट में पीएचडी के लिए लंदन से दीपक को स्कौलरशिप मिल गई. परिवार में सभी इस का विरोध कर रहे थे, मगर मैं ने किसी तरह सब को राजी कर लिया. दिल में एक डर भी था कि कहीं दीपक अपनी शोहरत और पैसे में मुझे भूल न जाए. पर वहां जाने में दीपक का भला था.

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पूरे इंडिया में केवल 4 लड़के ही सलैक्ट हुए थे. सो, अपने दिल पर पत्थर रख कर दीपक  को भी राजी कर लिया. बेचारा बहुत दुखी था. मुझे छोड़ कर जाने का उस का बिलकुल ही मन नहीं था. पर ऐसा मौका भी तो बहुत कम लोगों को मिलता है. भीगी आंखों से उसे एयरपोर्ट तक छोड़ने गई. दीपक की आंखों में भी आंसू दिख रहे थे, वह बारबार कहता, ‘स्वाति, प्लीज एक बार मना कर दो, मैं खुशीखुशी मान जाऊंगा. पता नहीं तुम्हारे बिना कैसे कटेंगे ये 4 साल. मैं ने अगले वैलेंटाइन डे पर कितना कुछ सोच रखा था. अब तो फरवरी में आ भी नहीं सकूंगा.’मैं उसे बारबार समझती कि पता नहीं हम लोग कितने वैलेंटाइन डे साथसाथ मनाएंगे. अगर एक बार नहीं मिल सके तो क्या हुआ. खैर, जब तक दीपक आंखों से ओझल नहीं हो गया, मैं वहीं खड़ी रही.

अब असली परीक्षा की घड़ी थी. दीपक के बिना न रात कटती न दिन. दिन में उस से 4-5 बार फोन पर बात हो जाती. पर जैसे महीने बीतते गए, फोन में कमी आने लगी. जब भी फोन करो, हमेशा बिजी ही मिलता. अब तो बात करने तक की फुरसत नहीं थी उस के पास.

कभी भूलेभटके फोन आ भी जाता तो कहता कि तुम लोग क्यों परेशान करते हो. यहां बहुत काम है. सिर उठाने तक की फुरसत नहीं है. घर में सभी समझते कि उस के पास काम का बोझ ज्यादा है. पर मेरा दिल कहीं न कहीं आशंकाओं से घिर जाता.

बहरहाल, महीने बीतते गए. अगले महीने वैलेंटाइन डे था. मैं ने सोचा, लंदन पहुंच कर दीपक को सरप्राइज दूं. पापा ने मेरे जाने का इंतजाम भी कर दिया. मैं ने पापा से कहा कि कोईर् भी दीपक को कुछ न बताए. जब मैं लंदन पहुंची तो दीपक को इस बारे में कुछ भी पता नहीं था. मैं पापा (ससुर) के दोस्त के घर पर रुकी थी. वहां मु?ो कोई परेशानी न हो, इसलिए अंकलआंटी मेरा बहुत ही ध्यान रखते थे.

वैसे भी उन की कोई संतान नहीं थी. शायद इसलिए भी उन्हें मेरा रुकना अच्छा लगा. उन का मकान लंदन में एक सामान्य इलाके में था. ऊपर एक कमरे में बैठी मैं सोच रही थी कि अभी मैं दीपक को दूर से ही देख कर आ जाऊंगी और वैलेंटाइन डे पर सजधज कर उस के सामने अचानक खड़ी हो जाऊंगी. उस समय दीपक कैसे रिऐक्ट करेगा, यह सोच कर शर्म से गाल गुलाबी हो गए और सामने लगे शीशे में अपना चेहरा देख कर मैं मन ही मन मुसकरा दी.

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किसी तरह रात काटी और सुबहसुबह तैयार हो कर दीपक को देखने पहुंची. दीपक का घर यहां से पास में ही था. सो, मुझे ज्यादा परेशानी नहीं उठानी पड़ी.

सामने से दीपक को मैं ने देखा कि वह बड़ी सी बिल्ंडिंग से बाहर निकला और अपनी छोटी सी गाड़ी में बैठ कर चला गया. उस समय मेरा मन कितना व्याकुल था, एक बार तो जी में आया कि दौड़ कर गले लग जाऊं और पूछूं कि दीपक, तुम इतना क्यों बदल गए. आते समय किए बड़ेबड़े वादे चंद महीनों में भुला दिए. पर बड़ी मुश्किल से अपने को रोका.

तब से मुझ पर मानो नशा सा छा गया. पूरा दिन बेचैनी से कटा. शाम को मैं फिर दीपक के लौटने के समय, उसी जगह पहुंच गई. मेरी आंखें हर रुकने वाली गाड़ी में दीपक को ढूं़ढ़तीं. सहसा दीपक की कार पार्किंग में आ कर रुकी तो मैं भौचक्की सी दीपक को देखने लगी. तभी दूसरी तरफ से एक लड़की उतरी. वे दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़े मंदमंद मुसकराते, एकदूसरे से बातें करते चले जा रहे थे. मैं तेजी से दीपक की तरफ भागी कि आखिर यह लड़की कौन है. देखने में तो इंडियन ही है. पांव इतनी तेजी से उठ रहे थे कि लगा मैं दौड़ रही हूं. मगर जब तक वहां पहुंची, वे दोनों आंखों से ओल हो गए थे.

अगले भाग में पढ़ें- मगर उस ने ऐसा कुछ नहीं किया. मगर क्यों…?

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